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सूरह-।. अल-फातिहह 


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सूरह-. अल-फातिहह I6 पारा । 


आयतें-7 सूरह-. अल-फतिह्ह रुकूअना 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहमवाला है। 
सब तारीफ अल्लाह के लिए है जो सारे जहान का मालिक है। बहुत महरबान निहायत रहम 
वाला है। इंसाफ के दिन का मालिक है। हम तेरी ही इबादत करते हैं और तुझी से मदद चाहते 
हैं। हमें सीधा रास्ता दिखा । उन लोगों का रास्ता जिन पर तूने फज्ल किया । उनका रास्ता नहीं 
जिन पर तेरा ग़ज़ब हुआ और न उन लोगों का रास्ता जो रास्ते से भटक गए। 


बंदे के लिए किसी काम की सबसे बेहतर शुरूआत यह है कि वह अपने काम को अपने 
रब के नाम से शुरू करे | वह हस्ती जो तमाम रहमतों का खज़ाना है और जिसको रहमतें हर 
वकत उबलती रहती हैं। उसके नाम से किसी काम को प्रारम्भ करना गोया उससे यह दुआ करना 
है कि तू अपनी अपार रहमतों के साथ मेरी मदद पर आ जा और मेरे काम को खैर व खूबी 
के साथ मुकम्मल कर दे । यह बंदे की तरफ से अपनी बंदगी (दासता) का एतराफ है और इसी 
के साथ उसकी कामयाबी की इलाही (ईश्वरीय) ज़मानत भी 
कुरआन की यह विशेषता है कि वह मोमिन के दिली एहसासात के लिए सबसे सही 
अल्फाज़ प्रयुक्त करता है। 'बिस्मिल्लाह' और सूरह फातिहा इस प्रकार के दुआ के कलाम हैं। 
सच्चाई को पा लेने के बाद फितरी तौर पर आदमी के अंदर जो जज्बा उभरता है उसी जज्बे 
को इन लफ्ज़ों में मुजस्सम (साक्षात) कर दिया गया है 
आदमी का वजूद उसके लिए अल्लाह की एक बहुत बड़ी देन है। इसकी अज्मत (महानता 
का अंदाज़ा इससे किया जा सकता है कि अगर किसी आदमी से कहा जाए कि तुम अपनी 


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| आँखों को निकलवा दो या दोनों पैरों को कटवा दो, इसके बाद तुम्हें मुल्क की बादशाही 




























































































दे दी जाएगी । तो कोई भी व्यक्ति इसके लिए तैयार न होगा। गोया कि ये प्रारंभिक कुदरती 
देनें भी बादशाह की बादशाही से ज्यादा कीमती हैं। इसी तरह जब आदमी अपने आसपास की 
दुनिया को देखता है तो यहाँ हर तरफ खुदा की मालकियत (स्वामित्व) और रहीमियत (दयालुता) 
उबलती हुई दिखाई देती है। उसे हर तरफ असाधारण व्यवस्था और एहतमाम नज़र आता है 
दिखाई देता है कि दुनिया की तमाम चीज़ें हैरतअंगेज़ तौर पर इंसानी ज़िंदगी के अनुकूल 
गई हैं। यह अवलोकन उसे बताता है कि कायनात की यह विशाल कारखाना बेमक्सद 
नहीं हो सकती । लाज़िमी तौर पर ऐसा दिन आना चाहिए जब नाशुक्रों से उनकी नाशुक्रगुज़ार 
जिंदगी की बाज़पुर्स (पूछगछ) की जाए और शुक्रगुज़ारों को उनकी शुक्रगुज़ार जिंदगी का इनाम 


दिया जाए । वह बेइख्तियार कह उठता है कि खुदाया तू फैसले के दिन का मालिक है। मैं अपने 
आपको तेरे आगे डालता हूँ और तुझसे मदद चाहता हूँ। तू मुझे अपने साए में ले ले। खुदाया 
हमें वह रास्ता दिखा जो तेरे नज़दीक सच्चा रास्ता है। हमें उस रास्ते पर चलने की तौफीक 
दे, जो तेरे मकबूल (प्रिय) बंदों का रास्ता है। हमें उस रास्ते से बचा जो भटके हुए लोगों का 
रास्ता है या उन लोगों का जौ अपने ठिठाई की वजह से तेरे ग़ज़ब (प्रकोप) का शिकार हो 
जाते हैं। 



























































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अल्लाह का मल्लूब (अपेक्षित) बंदा वह है जो इन 








एहसासात और कैफियतों के साथ दु 





में जी रहा हो। सूरह फातिहा इस मोमिन बंदे की छोटी तस्वीर 
बंदे की बड़ी तस्वीर । 


र है और बाकी कुरआन इस मोमिन 


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पारा 7 





पारा ! I8 सूरह2. अल-बकह 
आयतें-286 सूरह-2. अल-बकरह रुकूअ-40 
(मदीना में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान निहायत रहम वाला है। 
अलिफ० लाम० मीम०। यह अल्लाह की किताब है। इसमें कोई शक नहीं। राह 
दिखाती है डर रखने वालों को। जो यकीन करते हैं बिन देखे और नमाज़ कायम करते 
हैं। और जो कुछ हमने उन्हें दिया है उसमें से ख़र्च करते हैं। और जो ईमान लाते हैं 
उस पर जो तुम्हारे ऊपर उतरा और जो तुमसे पहले उतारा गया। और वे आख़िरत 
(परलोक) पर यकीन रखते हैं। इन्हीं लोगों ने अपने रब की राह पाई है और वही 
कामयाबी को पहुँचने वाले हैं। (-5) 


इसमें शक नहीं कि कुरआन हिदायत (मार्गदर्शन) की किताब है। मगर वह हिदायत की 

किताब उसके लिए है जो वाकई हिदायत को जानने के मामले में संजीदा हो, जो इसकी परवाह 
और खटक रखता हो। सच्ची तलब (चाहत) जो फितरत (सहज प्रकृति) की ज़मीन पर उगती 
वह खुद पाने ही की एक शुरूआत होती है। सच्ची चाहत और सच्ची प्राप्ति दोनों एक ही 
सफर के पिछले और अगले मरहले हैं। यह गोया खुद अपनी फितरत के बंद पन्नों को खोलना 
जब आदमी इसका सच्चा इरादा करता है तो फौरन फितरत की अनुकूलता और अल्लाह 
मदद उसका साथ देने लगती है। उसे अपनी फितरत की अस्पष्ट पुकार का स्पष्ट जवाब 
मिलना शुरू हो जाता है। 

एक आदमी के अंदर सच्ची तलब का जागना आलमे ज़ाहिर के पीछे आलमे बातिन (छुपे) 
देखने की कोशिश करना है। यह तलाश जब प्राप्ति के मरहले में पहुँचती है तो वह ईमान 
जाती है। वही चीज़ जो इब्तिदाई मरहले में एक बरतर 
का नाम होता है वह बाद के मरहले में अल्लाह 




















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बिलगैब (अप्रकट, अदृश्य पर ईमान) बन जा 
हकीकत के आगे अपने को डाल देने की बेकरारी व 
नमाज़ी बनने के रूप में ढल जाता है। वही जज्बा जो शुरू में अपने को खैरे आला (परम 
कल्याण) के लिए वक्फ कर देने के समानार्थी होता है वह बाद के मरहले में अल्लाह की राह 
में अपनी सम्पत्ति ख़र्च करने का रूप धार लेता है। वही खोज जो जिंदगी के हंगामों के आगे 
उसका आखिरी अंजाम मालूम करने की सूरत में किसी के अंदर उभरती है, वह आख़िरत पर 
यकीन की सूरत में अपने सवाल का जवाब पा लेती है। 
सच्चाई को पाना गोया अपने शुऊर (चेतना) को हकीकते आला (परम सत्य) के समस्तर 
कर लेना है। जो लोग इस तरह हक (सत्य) को पा लें वे हर प्रकार की मनोवैज्ञानिक गुत्थियों 
आज़ाद हो जाते हैं। वे सच्चाई को उसके विशुद्ध रूप में देखने लगते हैं। इसलिए सच्चाई 
जहाँ भी हो और जिस ख़ुदा के बंदे की ज़बान से भी उसका एलान किया जा रहा हो, वे फौरन 
उसे पहचान लेते हैं और उस पर लब्बैक (स्वीकारोक्ति) कहते हैं। कोई जुमूद (जड़ता) कोई 
तकलीद (अनुसरण), कोई तअस्सुबाती (विद्वेषवादी) दीवार उनके लिए हक के एतराफ (स्वीकार) 
रुकावट नहीं बनती । जिन लोगों के अंदर यह विशेषताएँ हों, वे अल्लाह के साए में आ जाते 
। अल्लाह का बनाया हुआ निज़ाम (विधान) उन्हें कुबूल कर लेता है। उन्हें दुनिया में उस 
सच्चे रास्ते पर चलने की तौफीक मिल जाती है जिसकी आखिरी मंज़िल यह है कि आदमी 
आखिरत की अबदी (चिरस्थाई) नेमतों में दाखिल हो जाए। 
हक को वही पा सकता है जो इसे ढूंढने वाला है। और जो ढूंढने वाला है वह ज़रूर इसे 
पाता है। यहाँ ढूंढने और पाने के दर्मियान कोई फासला नहीं। 





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सूरह-2. अल-वकरह I9 पारा 7 
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जिन लोगों ने इंकार किया, उनके लिए समान है डराओ, या न डराओ, वे मानने वाले 
नहीं हैं। अल्लाह ने उनके दिलों पर और उनके कानों पर मुहर लगा दी है। और उनकी 
आँखों पर पर्दा है। और उनके लिए बड़ा अज़ाब है। (6-7) 





एक व्यक्ति अपनी आँख को बंद कर ले तो आँख रखते हुए भी वह सूरज को नहीं देखेगा । 
कोई व्यक्ति अपने कान में रूई डाल ले तो कान रखते हुए भी वह बाहर की आवाज़ को नहीं 
सुनेगा। ऐसा ही कुछ मामला हक (सत्य) का भी है। हक का एलान चाहे कितनी ही वाज़ेह सूरत 
में हो रहा हो मगर किसी के लिए वह काबिले फहम या काबिले कुबूल उस ववत बनता है 
जबकि वह इसके लिए अपने दिल के दरवाज़े खुले रखे। जो शख्स अपने दिल के दरवाज़े बंद 
कर ले उसके लिए कायनात में खुदा की ख़ामोश पुकार और दाऔ (आह्वानकर्ता) की ज़बान 
से उसका लफ्ज़ी एलान दोनों निरर्थक साबित होंगे। 

हक की दावत (आह्वान) जब अपने विशुद्ध रूप में उठती है तो वह इतनी ज्यादा हकीकत 
पर आधारित और इतनी स्वाभाविक होती है कि कोई व्यक्ति उसकी नौइयत को समझने में 
असमर्थ नही रह सकता। जो शख्स भी खुले जेहन से उसे देखेगा उसका दिल गवाही देगा कि 
यह ऐन हक है। मगर उस ववत अमली सूरतेहाल यह होती है कि एक तरफ वक्त का ढाँचा 
होता है जो सदियों के अमल से एक ख़ास शक्ल में कायम हो जाता है। इस ढाँचे के तहत 
कुछ मज़हबी या गैर मज़हबी आसन बन जाते हैं जिन पर कुछ लोग बैठे हुए होते हैं। कुछ 
इज्ज़त और शोहरत की सूरतें राइज हो जाती हैं जिनके झंडे उठा कर कुछ लोग वक्‍त के बड़े 
लोगों का मकाम हासिल किए हुए होते हैं। कुछ कारोबार और मफादात (हित) कायम हो जाते 
हैं, जिनके साथ अपने को जोड़ कर बहुत-से लोग इत्मीनान की जिंदगी गुज़ार रहे होते हैं। 

इन हालात में जब एक अपरिचित कोने से अल्लाह अपने एक बंदे को खड़ा करता है और 
उसकी ज़बान से अपनी मर्ज़ी का एलान कराता है तो अक्सर ऐसा होता है कि इस किस्म के 
लोगों को अपनी बनी बनाई दुनिया भंग होती नज़र आती है। हक के पैगाम की तमामतर 
सदाकत (सच्चाई) के बावजूद दो चीज़ें उनके लिए इसे सही तौर पर समझने के लिए रुकावट 
बन जाती हैं। एक किब्र (अहं, बड़ाई) दूसरे दुनियापरस्ती । जो लोग प्रचलित ढाँचे में उच्च स्थान 
पर बैठे हुए हों उन्हें एक 'छोटे आदमी” की बात मानने में अपनी इज्ज़त ख़तरे में पड़ती हुई 
नज़र आती है। यह एहसास उनके अंदर घमंड की नफ्सियात जगा देता है। दाऔ (आह्वानकर्ता) 
को वह अपने मुकाबले में हकीर (तुच्छ) समझ कर उसके आह्वान को नज़रअंदाज़ कर देते 
हैं। इसी तरह दुनियावी हितों का सवाल भी हक को कुबूल करने में रुकावट बन जाता है। 
क्योंकि हक का दाऔ राइज ढाँचे का नुमाइंदा नहीं होता । वह एक नई और अपरिचित आवाज़ 
को लेकर उठता है। इसलिए उसे मानने की स्थिति में लोगों को अपने हितों का ढाँचा टूटता 
हुआ नज़र आता है। 








पारा । 20 सूरह-2. अल-बकाह 


यही वह बाधक कैफियत है जिसे कुरआन में मुहर लगाने से परिभाषित किया गया है। 
जो लोग दावते हक के मामले को संजीदा मामला न समझें जो घमंड और दुनियापरस्ती की 
नफ्सियात में मुब्तला हों उनके ज़ेहन के ऊपर ऐसे गैर महसूस पर्दे पड़ जाते हैं जो हक बात 
को उनके ज़ेहन में दाखिल नहीं होने देते किसी चीज़ के बारे में आदमी के अंदर मुखालिफाना 
(विरोधपरक) नफ्सियात जाग उठे तो इसके बाद वह इसकी माकूलियत को समझ नहीं पाता। 
चाहे इसके पक्ष में कितनी ही स्पष्ट दलीलें पेश की जा रही हों। 


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और लोगों में कुछ ऐसे भी हैं जो कहते हैं कि हम ईमान लाए अल्लाह पर और आखिरत 
के दिन पर, हालाँकि वे ईमान वाले नहीं हैं। वे अल्लाह को और मोमिनों को धोखा 
देना चाहते हैं। मगर वे सिर्फ अपने आपको धोखा दे रहे हैं और वे इसका शुऊर नहीं 
रखते। उनके दिलों में रोग है तो अल्लाह ने उनके रोग को बढ़ा दिया और उनके लिए 
दर्दनाक अज़ाब है। इस वजह से कि वे झूठ कहते थे। और जब उनसे कहा जाता है 
कि धरती पर फसाद (उपद्रव, बिगाड़) न करो तो वे जवाब देते हैं हम तो सुधार करने 
वाले है। जान लो, यही लोग फसाद करने वाले हैं, मगर वे नहीं समझते। और जब 
उनसे कहा जाता है तुम भी उसी तरह ईमान ले आओ जिस तरह अन्य लोग ईमान 
लाए हैं तो कहते हैं कि क्या हम उस तरह ईमान लाएँ जिस तरह मूर्ख लोग ईमान लाए 
हैं। जान लो, कि मूर्ख यही लोग हैं, मगर वे नहीं जानते। और जब वे ईमान वालों 
से मिलते हैं तो कहते हैं कि हम ईमान लाए हैं, और जब अपने शैतानों की बैठक में 
पहुँचते हैं तो कहते हैं कि हम तुम्हारे साथ हैं, हम तो उनसे महज हंसी करते हैं। अल्लाह 
उनसे हंसी कर रहा है और उन्हें उनकी सरकशी में ढील दे रहा है। वे भटकते फिर 
रहे हैं। ये वे लोग हैं जिन्होंने हिदायत (मार्गदर्शन) के बदले गुमराही खरीदी तो उनकी 


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सूरह-2. अल-बकरह श्र पारा 7 
तिजारत फायदेमंद नहीं हुई, और वे न हुए राह (सन्मार्ग) पाने वाले। (8-6) 





जो लोग फायदों और मस्लेहतों को अव्वलीन अहमियत दिए हुए होते हैं उनके नज़दीक 
यह नादानी की बात होती है कि कोई शख्स निःसंकोच अपने आपको पूरे तौर पर हक के हवाले 
कर दे। ऐसे लोगों की हकीकी वफादारियाँ अपने दुनियावी मफादात (हितों) के साथ होती हैं। 
अलबत्ता इसी के साथ वे हक से भी अपना एक ज़ाहिरी रिश्ता कायम कर लेते हैं। इसे वे 
अक्लमंदी समझते हैं। वे समझते हैं कि इस तरह उनकी दुनिया भी महफूज़ है और इसी के 
साथ उन्हें हकपरस्ती का तमग़ा भी हासिल है। मगर यह एक ऐसी खुशफहमी है जो सिर्फ आदमी 
के अपने दिमाग़ में होती है। उसके दिमाग़ के बाहर कहीं इसका वजूद नहीं होता। आज़माइश 
का प्रत्येक अवसर उन्हें सच्चे दीन (धर्म) से कुछ और दूर और अपने स्वार्थपरक दीन से कुछ 
और करीब कर देता है। इस तरह गोया उनके निफाक (पाखंड) का रोग बढ़ता रहता है। ऐसे 
लोग जब सच्चे मुसलमानों को देखते हैं तो उन्हें एहसास यह होता है कि वे व्यर्थ में सच्चाई 
की ख़ातिर अपने को बर्बाद कर रहे हैं। इसके मुकाबले अपने तरीके को वह इस्लाह (सुधार) 
का तरीका कहते हैं। क्योंकि उन्हें नज़र आता है कि इस तरह किसी से झगड़ा मोल लिए बगैर 
अपने सफर को कामयाबी के साथ तै किया जा सकता है। मगर यह सिर्फ बेशुऊरी की बात 
है। यदि वे गहराई के साथ सोचें तो उन पर यह प्रकट होगा कि इस्लाह (सुधार) यह है कि 
बंदे सिर्फ अपने रब के हो जाएँ | इसके विपरीत फसाद (उपद्रव, बिगाड़) यह है कि खुदा और 
बंदे के संबंध को दुरुस्त करने के लिए जो तहरीक चले उसमें रोड़े अटकाए जाएँ। उनका यह 
बज़ाहिर फायदे का सौदा हकीकत में घाटे का सौदा है। क्योंकि वे विशुद्ध सत्य को छोड़ कर 
मिलावटी सत्य को अपने लिए पसंद कर रहे हैं जो किसी के कुछ काम आने वाला नहीं है। 
अपने दुनियावी मामलों में होशियार होना और आखिरत के मामले में सरसरी उम्मीदों को काफी 
समझना गोया खुदा के सामने झूठ बोलना है। जो लोग ऐसा करें उन्हें बहुत जल्द मालूम हो जाएगा 
कि इस किस्म की झूठी ज़िंदगी आदमी को अल्लाह के यहाँ अज़ाब के सिवा किसी और चीज़ 
का हकदार ज़हीं बनाती । 


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उनकी मिसाल ऐसी है जैसे एक शख्स ने आग जलाई। जब आग ने उसके इर्द-गिर्द 











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पारा 7 22 सूरह-2. अल-बकह 


को रोशन कर दिया तो अल्लाह ने उनकी आँख की रोशनी छीन ली और उन्हें अंधेरे 
में छोड़ दिया कि उन्हें कुछ दिखाई नहीं पड़ता। वे बहरे हैं, गूँगे हैं, अंधे हैं। अब ये लौटने 
वाले नहीं हैं। या उनकी मिसाल ऐसी है जैसे आसमान से बारिश हो रही हो, उसमें 
अंधकार भी हो और गरज-चमक भी। वे कड़क से डर कर मौत से बचने के लिए अपनी 
उंगलियाँ अपने कानों में टूंस रहे हों। हालाँकि अल्लाह इंकार करने वालों को अपने घेरे 
में लिए हुए है। करीब है कि बिजली उनकी निगाहाँ को उचक ले। जब भी उन पर 
बिजली चमकती है उसमें वे चल पड़ते हैं और जब उन पर अंधेरा छा जाता है तो वे रुक 
जाते हैं। और अगर अल्लाह चाहे तो उनके कान और उनकी आंखों को छीन ले। 
अल्लाह यकीनन हर चीज़ पर कादिर है। (।7-20) 





किसी कमरे में काली और सफेद चीज़ें हों तो जब तक अंधेरा है वे अंधेरे में गुम रहेंगी। 
मगर रोशनी जलाते ही काली चीज़ काली और सफेद चीज़ सफेद दिखाई देने लगेगी । यही हाल 
अल्लाह की तरफ से उठने वाली नुबुव्वत की दावत (आह्वान) का है। यह खुदाई रोशनी जब 
ज़ाहिर होती है तो उसके उजाले में हिदायत और ज़लालत (पथभ्रष्टता) साफ-साफ दिखाई देने 
लगती हैं। नेक अमल क्या है और उसके समरात (प्रतिफल) क्या हैं, बुरा अमल क्या है और 
उसके समरात क्या हैं, सब खुल कर ठीक-ठीक सामने आ जाता है। मगर जो लोग अपने आपको 
हक (सत्य) के ताबेअ (अधीन) करने के बजाए हक को अपना ताबेअ बनाए हुए थे वे इस 
सूरतेहाल को देखकर घबरा उठते हैं। उनका छुपा हुआ हसद (ईर्ष्या) और घमंड जीवंत होकर 
उन्हें अपनी लपेट में ले लेता है। खुदाई आइने में अपना चेहरा देखते ही उनकी नकारात्मक 
मानसिकता उभर आती है। उनके भीतरी तअस्सुबात (विद्वेष) उनके हवास पर इस तरह छा 
जाते हैं कि आंख, कान, ज़बान रखते हुए भी वे ऐसे हो जाते हैं गोया कि वे अंधे, बहरे और 
गूंगे हैं। अब वे न तो किसी पुकारने वाले की पुकार को सुन सकते हैं, न उसकी पुकार का 
जवाब दे सकते हैं। न किसी किस्म की निशानी से रहनुमाई हासिल कर सकते हैं। उनके लिए 
सही रवैया यह था कि वे पुकारने वाले की पुकार पर गौर करते। मगर इसके बजाए उन्होंने 
इससे बचने का सादा इलाज यह खोजा है कि उसकी बात को सिरे से सुना ही न जाए, उसे 
कोई अहमियत ही नहीं दी जाए। 

इसी तरह एक और नफ्सियात (मानसिकता) है जो हक को कुबूल करने में रुकावट बनती 
है। यह डर की नफ्सियात है। बारिश अल्लाह तआला की एक बहुत बड़ी नेमत है। मगर बारिश 
जब आती है तो अपने साथ कड़क और गरज भी ले आती है जिससे कमज़ोर लोग भयभीत 
हो जाते हैं। इसी तरह जब अल्लाह की तरफ से हक की दावत उठती है तो एक तरफ अगर 
वह इंसानों के लिए अज़ीम कामरानियों (कामयाबियों) के इमकानात खोलती है तो दूसरी तरफ 
इसमें कुछ वक्ती अंदेशे भी दिखाई देते हैं। इसे मान लेने की स्थिति में अपनी बड़ाई का ख़ात्मा, 
जिंदगी के बने बनाए नक्शे को बदलने की ज़रूरत, परम्परागत ढांचे से टकराव की समस्याएं, 
आखिरत (परलोक) के बारे में खुशख्यालियों के बजाए हकीकतों पर भरोसा करना । इस किस्म 
के अंदेशों को देख कर वे भी रुक जाते हैं और कभी दुविधा के साथ कुछ कदम आगे बढ़ते 





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सूरह-2. अल-बकरह 23 पारा । 


हैं मगर ये एहतियातें उनके कुछ काम आने वाली नहीं हैं क्योंकि खुदाई पुकार के लिए अपने 
को खुले दिल से पेश न करके वे ज्यादा शदीद तौर पर अपने को खुदा की नज़र में काबिले 


सज़ा बना रहे हैं। 
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ऐ लोगो! अपने रब की इबादत करो जिसने तुम्हें पैदा किया और उन लोगों को भी 
जो तुम से पहले गुज़र चुके हैं ताकि तुम दोज़ख़ (नक) से बच जाओ। वह जात जिसने 
ज़मीन को तुम्हारे लिए बिछौना बनाया और आसमान को छत बनाया, और उतारा 
आसमान से पानी और उससे पैदा किए फल तुम्हारी गिजा के लिए। पस तुम किसी 
को अल्लाह के बराबर न ठहराओ, हालांकि तुम जानते हो। अगर तुम इस कलाम के 
संबंध में शक में हो जो हमने अपने बंदे के ऊपर उतारा है तो लाओ इस जैसी एक 
सूरह और बुला लो अपने हिमायतियों को भी अल्लाह के सिवा, अगर तुम सच्चे हो। 
पस अगर तुम यह न कर सको और हरगिज़ न कर सकोगे तो डरो उस आग से जिसका 
ईधन बनेंगे आदमी और पत्थर। वह तैयार की गई है हक (सत्य) का इंकार करने वालों 
के लिए। और खुशखबरी दे दो उन लोगों को जो ईमान लाए और जिन्होंने नेक काम 
किए, इस बात की कि उनके लिए ऐसे बागा होंगे जिनके नीचे नहरें जारी होंगी। जब 
भी उन्हें इन बागों में से कोई फल खाने को मिलेगा, तो वे कहेंगे : यह वही है जो इससे 


पहले हमें दिया गया था। और मिलेगा उन्हें एक-दूसरे से मिलता-जुलता। और उनके 
लिए वहां साफ-सुथरी औरतें होंगी। और वे इसमें हमेशा रहेंगे। (2।-25) 


























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पारा 7 24 सूरह-2. अल-बकह 


इंसान और उसके अलावा जो कुछ ज़मीन व आसमान में है सबका पैदा करने वाला सिर्फ 
अल्लाह है। उसने पूरी कायनात को निहायत हिक्मत (तत्त्वदर्शिता, सूझबूझ) के साथ कायम 
किया है। वह हर क्षण उनकी परवरिश कर रहा है। इसलिए इंसान के लिए सही रवैया सिफ 
यह है कि वह अल्लाह को बगैर किसी शिर्कत (साझेदारी) के ख़ालिक (रचयिता), मालिक और 
राज़िक (अन्नदाता) तस्लीम करे। वह उसे अपना सब कुछ बना ले। मगर चूँकि खुदा नज़र नहीं 
आता, इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि आदमी किसी नज़र आने वाली चीज़ को अहम समझ 
कर उसे खुदाई के मकाम पर बिठा लेता है। वह एक मख्लूक (ईश्वरीय रचना) को आंशिक 
या पूर्ण रूप से ख़ालिक (रचयिता) के बराबर ठहरा लेता है। कभी उसे खुदा का नाम देकर और 
कभी ख़ुदा का नाम दिए बगैर। 

यही इंसान की असल गुमराही है। पैग़म्बर की दावत (आह्वान) यह होती है कि आदमी 
सिर्फ एक खुदा को बड़ाई का मकाम दे। इसके अलावा जिस-जिस को उसने खुदाई अज्मत 
(महानता) के मकाम पर बैठा रखा है उसे अज्मत के मकाम से उतार दे। जब ख़ालिस खुदापरस्ती 
की दावत उठती है तो वे तमाम लोग अपने ऊपर इसकी ज़द (प्रहार) पड़ती हुई महसूस करने 
लगते हैं जिनका दिल खुदा के सिवा कहीं और अटका हुआ हो। जिन्होंने खुदा के सिवा किसी 
और के लिए भी अज्मत को ख़ास कर रखा हो। ऐसे लोगों को अपने फर्जी माबूदों (पूज्यों 
से जो शदीद ताल्लुक हो चुका होता है इसकी वजह से उनके लिए यह यकीन करना मुश्किल 
होता है कि वे केहकीकत हैं और हकीकत सिर्फउस पेगाम की है जो आदमियोंमेंसे एक आदमी 
की ज़बान से सुनाया जा रहा है। 

जो दावत (आह्वान) खुदा की तरफ से उठे उसके अंदर लाज़िमी तौर पर खुदाई शान 
शामिल हो जाती है। इसकी अद्वितीय शैली और इसकी विलक्षण तार्किकता इस बात की खुली 
अलामत होती है कि वह खुदा की तरफ से है। इसके बावजूद जो लोग इंकार करें उन्हें खुदा 
के विधान में जहन्नम के सिवा कहीं और पनाह नहीं मिल सकती । अलबत्ता जो लोग खुदा के 
कलाम में खुदा को पा लें उन्होंने गोया आज को दुनिया में कल की दुनिया को देख लिया । यही 
लोग हैं जो आखिरत (परलोक) के बागों में दाखिल किए जाएंगे । 

















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सूरह-2. अल-बकरह पारा 7 


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अल्लाह इससे नहीं शर्माता कि बयान करे मिसाल मच्छर की या इससे भी किसी छोटी 
चीज़ की। फिर जो ईमान वाले हैं वे जानते हैं कि वह हक (सत्य) है उनके रब की जानिब 
से। और जो इंकार करने वाले हैं वे कहते हैं कि इस मिसाल को बयान करके अल्लाह 
ने कया चाहा है। अल्लाह इसके ज़रिए बहुतों को गुमराह करता है और बहुतों को इससे 
राह (सम्मार्ग) दिखाता है। और वह गुमराह करता है उन लोगों को जो नाफरमानी 
(अवज्ञा) करने वाले हैं। जो अल्लाह के अहद (वचन) को उसके बांधने के बाद तोड़ते 
हैं और उस चीज़ को तोड़ते हैं जिसे अल्लाह ने जोड़ने का हुक्म दिया है और ज़मीन में 
बिगाड़ पैदा करते हैं। यही लोग हैं नुक्सान उठाने वाले। तुम किस तरह अल्लाह का 
इंकार करते हो, हालांकि तुम बेजान थे तो उसने तुम्हें जिंदगी अता की। फिर वह तुम्हे 
मौत देगा। फिर जिंदा करेगा। फिर उसी की तरफ लौटाए जाओगे। वही है जिसने 
तुम्हारे लिए वह सब कुछ पैदा किया जो ज़मीन में है। फिर आसमान की तरफ तवज्जोह 
की और सात आसमान दुरुस्त किए। और वह हर चीज को जानने वाला है। (26-29) 





किसी बंदे के ऊपर अल्लाह का सबसे पहला हक यह है कि वह अब्दियत (दासता, बंदा 
होने) के उस अहद (वचन) को निभाए जो पैदा करने वाले और पैदा किए जाने वाले के दर्मियान 
अव्वल रोज़ से कायम हो चुका है। फिर इंसानों के दर्मियान वह इस तरह रहे कि उन तमाम 
रिश्तों और ताल्लुकात को पूरी तरह निभाए हुए हो जिन्हें निभाने का अल्लाह ने हुक्म दिया है। 
तीसरी चीज़ यह कि जब खुदा अपने एक बंदे की ज़बान से अपने पैगाम का एलान कराए तो 
उसके खिलाफ बेबुनियाद बातें निकाल कर खुदा के बंदों को उससे बिदकाया न जाए। हक की 
दावत देना दरअस्ल लोगों को हालते फितरी (सहज स्वाभाविक स्थिति) पर लाने की कोशिश 
करना है। इसलिए जो व्यक्ति लोगों को इससे रोकता है, वह ज़मीन पर फसाद (उपद्रव, बिगाड़) 
फैलाने का मुजरिम बनता है। 

अल्लाह का यह एहसान कि वह आदमी को अदम से वजूद में ले आया। यह अल्लाह 

का इतना बड़ा एहसान है कि आदमी को पूर्णरूपेण उसके सामने समर्पण कर देना चाहिए । फिर 
अल्लाह ने इंसान को पैदा करके यू हीं नहीं छोड़ दिया, बल्कि उसे रहने के लिए ऐसी ज़मीन 
दी जो उसके लिए अत्यंत अनुकूल बनाई गई थी। फिर बात सिर्फ इतनी ही नहीं है बल्कि इससे 
बहुत आगे की है। इंसान हर वक्त इस नाज़ुक संभावना के किनारे खड़ा हुआ है कि उसकी 
मौत आ जाए और अचानक वह कायनात के मालिक के सामने हिसाब-किताब के लिए पेश 
कर दिया जाए। इन बातों का तकाज़ा है कि आदमी पूर्ण रूप से अल्लाह का हो जाए। उसकी 








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पारा । 26 सूरह-१. अल-बकाह 


याद और उसकी इताअत (आज्ञापालन) में जिंदगी गुज़ारे। सारी उम्र वह उसका बंदा बना रहे। 
पै़म्बराना दावत (आह्वान) के सुस्पष्ट और तारकिक होने के बावजूद क्यों बहुत-से लोग 

इसे कुबूल नहीं कर पाते। इसकी सबसे बड़ी वजह शोशे निकालने (आलोचना) का फितना है। 

आदमी के भीतर नसीहत स्वीकारने का ज़ेहन न हो तो वह किसी बात को गंभीरता से नहीं 

लेता। ऐसे आदमी के सामने जब भी कोई दलील आती है तो उसे सतही तौर देखकर एक शोशा 

निकाल लेता है। इस तरह वह यह ज़ाहिर करता है कि यह दावत कोई माकूल दावत नहीं है। 

अगर वह कोई माकूल दावत होती तो कैसे मुमकिन था कि उसमें इस किस्म की बेवज़न बातें 

शामिल हों। मगर जो नसीहत पकड़ने वाले जेहन हैं, जो बातों पर गंभीरता से गौर करते हैं उन्हें 

हक को पहचानने में देर नहीं लगती, चाहे हक को 'मच्छर' जैसे मिसालों में ही बयान किया 

गया हो। 


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और जब तेरे रब ने फरिश्ता से कहा कि में ज़मीन में एक ख़लीफा बनाने वाला हूं। 

फरिश्तों ने कहा : क्या तू ज़मीन में ऐसे लोगों को बसाएगा जो इसमें फसाद करें और 

ख़ून बहाएँ। और हम तेरी हम्द (स्तुति, गुणगान) करते हैं और तेरी पाकी बयान करते 

हैं। अल्लाह ने कहा में जानता हूं जो तुम नहीं जानते, और अल्लाह ने सिखा दिए आदम 

को सारे नाम, फिर उन्हें फरिश्तों के सामने पेश किया और कहा कि अगर तुम सच्चे 

हो तो मुझे इन लोगों के नाम बताओ। फरिश्तों ने कहा कि तू पाक है। हम तो वही 

जानते हैं जो तूने हमें बताया। बेशक तू ही इलम वाला और हिकमत (तत्वदर्शिता) वाला 

है। अल्लाह ने कहा ऐ आदम उन्हें बताओ उन लोगों के नाम। तो जब आदम ने बताए 

उन्हें उन लोगों के नाम तो अल्लाह ने कहा : क्या मैंने तुम से नहीं कहा था कि 

आसमानों और ज़मीन के भेद को में ही जानता हूं। और मुझे मालूम है जो तुम ज़ाहिर 

करते हो और जो तुम छुपाते हो। (30-33) 


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सूरह-2. अल-बकरह 27 पारा 7 


खीला . मअना हैं किसी के बाद उसकी जगह लेने वाला जानशीन (उत्तराधिकारी)। 
विरासती इक्तेदार (सत्ता) के ज़माने में यह लफ्ज़ बहुलता से शासकों के लिए इस्तेमाल हुआ 
जो एक के बाद दूसरे की जगह सत्तासीन होते थे। इस तरह इस्तेमाली मफहूम में 'ख़लीफा” 
लफ्ज़ “सत्ताधारी” के समानार्थी हो गया। 

अल्लाह तआला ने जब इंसान को पैदा किया तो यह भी फैसला फरमाया कि वह एक 
बाइख्तियार (साधिकार) मख्नूक की हैसियत से ज़मीन पर आबाद होगा। फरिश्तों को अंदेशा 
हुआ कि इख्तियार और इक्तेदार पाकर इंसान बिगड़ न जाए और ज़मीन में खूंरेज़ी करने लगे। 
फरिश्तों का यह अंदेशा ग़लत नहीं था। अल्लाह को भी इस संभावना का पूरा इलम था। मगर 
अल्लाह की नज़र इस बात पर थी कि इंसानों में अगर बहुत-से लोग आज़ादी पाकर बिगड़ेंगे तो 
एक काबिले लिहाज़ तादाद उन लोगों की भी होगी जो आज़ादी और इख्तियार के बावजूद अपनी 
हैसियत को और अपने रब के मकाम को पहचानेंगे और किसी दबाव के बगैर खुद अपने इरादे 
से तस्लीम व इताअत का तरीका अपनाएँंगे। ये दूसरी किस्म के लोग अगरचे अपेक्षाकृत कम 
तादाद में होंगे मगर वे फसल के दानों की तरह कीमती होंगे । फसल में लकड़ी और भुस की मात्रा 
हमेशा बहुत .ज्यादा होती है। मगर दाने कम होने के बावजूद इतने कीमती होते हैं कि उनकी 
खातिर लकड़ी और भुस के ढेर को भी उगने और फैलने का मौका दे दिया जाता है। 

अल्लाह ने अपनी कुदरत से आदम की सारी संतति को एक ही वक्‍त में उनके सामने 
कर दिया। फिर फरिश्तों से कहा कि देखो यह है औलादे आदम। अब बताओ कि इनमें 
कौन-कौन और कैसे-कैसे लोग हैं। फरिश्ते अज्ञानतावश बता न सके । अल्लाह तआला ने आदम 
को उनके नामों, दूसरे शब्दों में शख्सियतों से आगाह किया और फिर कहा कि फरिश्तों के सामने 
उनका परिचय कराओ। जब आदम ने परिचय कराया तो फरिश्तों को मालूम हुआ कि आदम 
की औलाद में फसादियों और बुरे लोगों के अलावा कैसे-कैसे सुल्हा (सज्जन) और मुत्तकीन (ईश 
परायण) होंगे। इंसान का सबसे बड़ा जुर्म, रब के इंकार के बाद, ज़मीन में फसाद (उपद्रव, 
बिगाड़) करना और रक्तपात है। किसी व्यक्ति या समूह के लिए जाइज़ नहीं कि वह ऐसी 
कार्वाइयां करे जिसके नतीजे में ज़मीन पर खुदा का कायम किया हुआ फितरी निज़ाम बिगड़ 
जाए। इंसान, इंसान की जान मारने लगे। ऐसा हर कार्य आदमी को ख़ुदा की रहमतों से महरूम 
कर देता है। ज़मीन पर खुदा के बनाए हुए फितरी निज़ाम का कायम रहना उसका सुधार है, 
और ज़मीन के फितरी निज़ाम को बिगाइना इसका फसाद । 


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पारा 7 8 सूरह2. अल-बकरह 

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और जब हमने फरिश्ता से कहा कि आदम को सज्दा करो तो उन्होंने सज्दा किया, 
मगर इब्लीस ने नहीं किया। उसने इंकार किया और घमंड किया और मुंकिरों में से 
हो गया। और हमने कहा ऐ आदम! तुम और तुम्हारी बीवी दोनों जन्नत में रहो 
और उसमें से खाओ खुले रूप में जहां से चाहो। और उस दरख़्त (वृक्ष) के नज़दीक 
मत जाना वर्ना तुम ज़ालिमों में से हो जाओगे। फिर शैतान ने उस दरख्त के ज़रिए 
दोनों को लग़ज़िश (गलती) में मुब्तला कर दिया और उन्हें उस ऐश से निकलवा दिया 
जिसमें वे थे। और हमने कहा तुम सब उतरो यहां से। तुम एक दूसरे के दुश्मन होगे। 
और तुम्हारे लिए ज़मीन में ठहरना और काम चलाना है एक मुदूदत तक। फिर आदम 
ने सीख लिए अपने रब से कुछ बोल तो अल्लाह उस पर मुतवज्जह हुआ। बेशक 
वह तोबा कुबूल करने वाला रहम करने वाला है। हमने कहा तुम सब यहां से उतरो। 
फिर जब आए तुम्हारे पास मेरी तरफ से कोई हिदायत तो जो मेरी हिदायत की पेरवी 
करेंगे उनके लिए न कोई डर होगा और न वे ग़मगीन होंगे। और जो लोग इंकार 
करेंगे और हमारी निशानियों को झुठलाएंगे तो वही लोग दोज़ख (नक) वाले हैं। वे 
उसमें हमेशा रहेंगे। (34-39) 


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आदम को अल्लाह तआला ने फरिश्तों और इब्लीस के दर्मियान खड़ा किया और सज्दे 
को परीक्षा के ज़रिए आदम को व्यावहारिक रूप से बताया कि उनके लिए ज़मीन पर दो मुमकिन 
राहें होंगी । एक, फरिश्तों की तरह हुक्मे इलाही के सामने झुक जाना, चाहे इसका मतलब अपने 
से कमतर एक बंदे के आगे झुकना क्यों न हो। दूसरा, इब्लीस को तरह अपने को बड़ा समझना 
और दूसरे के आगे झुकने से इंकार कर देना। इंसान की पूरी ज़िंदगी इसी परीक्षा का स्थल है। 
यहां हर वक्त आदमी को दो रवैयों में से किसी एक रवैये का चुनाव करना होता है। एक मलकूती 
रवैया यानी दुनिया की जिंदगी में जो मामला भी पेश आए, अल्लाह के हुक्म की तामील में आदमी 
हक और इंसाफ के आगे झुक जाए। दूसरा शैतानी रवैया, यानी जब कोई मामला पेश आए 
तो आदमी के अंदर हसद और घमंड की नफ्सियात जाग उठे और वह उसके प्रभाव में आकर 
साहिबे मामला के आगे झुकने से इंकार कर दे। 

निषिद्ध वृक्ष का मामला भी इसी किस्म का व्यावहारिक सबक है। इससे मालूम होता है 
कि इंसान के भटकने का प्रारंभ यहां से होता है कि वह शैतान के वरालाने में आ जाए। और 
उस हद में कदम रख दे जिसमें जाने से अल्लाह ने मना किया है। 'मना किए हुए फल' को 
खाते ही आदमी अल्लाह की मदद, दूसरे शब्दों में जन्नत के अधिकार से महरूम हो जाता है। 


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सूरह-2. अल-ब्करह 29 पारा 7 


ताहम यह महरूमी ऐसी नहीं है जिसकी तलाफी (क्षतिपूर्ति) न हो सकती हो। यह संभावना आदमी 
के लिए फिर भी खुली रहती है कि वह दुबारा अपने रब की ओर लौटे और अपने रवैये को 
दुरुस्त करते हुए अल्लाह से माफी का तलबगार हो। जब बंदा इस तरह पलटता है तो अल्लाह 
भी उसकी तरफ पलट आता है और उसे इस तरह पाक कर देता है गोया उसने गुनाह ही नहीं 
किया था। 

किसी इंसानी आबादी में अल्लाह की दावत का उठना भी इसी किस्म की एक सख्त परीक्षा 
है। हक का दाऔ (आह्वानकर्ता) भी गोया एक “आदम” होता है जिसके सामने लोगों को झुक 
जाना है। अगर वह अपने घमंड और अपने तअस्सुब (विद्वेष) की वजह से उसका एतराफ न 
करें तो गोया कि उन्होंने शैतान की पैरवी की । खुदा इस दुनिया में खुले रूप में सामने नहीं आता 
वह अपने निशानियों के ज़रिए लोगों को जांचता है। जिसने ख़ुदा की निशानी में खुदा को पाया, 
उसी ने ख़ुदा को पाया और जिसने ख़ुदा की निशानी में ख़ुदा को नहीं पाया वह खुदा से महरूम 
रहा। 


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ऐ बनी इस्राईल! याद करो मेरे उस एहसान को जो मैंने तुम्हारे ऊपर किया। और मेरे 
अहद (वचन) को पूरा करो, मैं तुम्हारे अहद को पूरा करूंगा। और मेरा ही डर रखो। 
और ईमान लाओ उस चीज़ पर जो मैंने उतारी है। तस्दीक (पुष्टि) करती हुई उस चीज़ 
की जो तुम्हारे पास है। और तुम सबसे पहले इसका इंकार करने वाले न बनो। और 
न लो मेरी आयतों पर मोल थोड़ा। और मुझ से डरो। और सही में गलत को न मिलाओ 
और सच को न छुपाओ हालांकि तुम जानते हो। और नमाज़ कायम करो और ज़कात 
अदा करो और झुकने वालों के साथ झुक जाओ। तुम लोगों से नेक काम करने को 
कहते हो और अपने आपको भूल जाते हो। हालांकि तुम किताब की तिलावत करते 
हो, क्या तुम समझते नहीं। और मदद चाहो सब्र और नमाज़ से, और बेशक वह भारी 
है मगर उन लोगों पर नहीं जो डरने वाले हैं। जो गुमान रखते हैं कि उन्हें अपने रब से 
मिलना है और वे उसी की तरफ लौटने वाले हैं। (40-46) 





पारा ] 30 सूरह-2. अल-बकह 


किसी समुदाय पर अल्लाह का सबसे बड़ा इनाम यह है कि वह उसके पास अपना पैग़म्बर 
भेजे और उसके ज़रिए उस समुदाय के लिए अबदी फलाह (चिरस्थाई सफलता एवं उद्धार) का 
रास्ता खोल दे। मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की बेअसत (अल्लाह के दूत के रूप 
में प्रकटन) से पहले यह नेमत बनी इस्राईल (यहूदी समुदाय) को दी गई थी । मगर मुदूदत गुज़रने 
के बाद उनका दीन (धर्म) उनके लिए एक किस्म की तकलीदी रस्म (परम्परागत अनुकरण) 
बन गया था न कि शुऊरी फैसले के तहत अपनाई गई एक चीज़ । मुहम्मद (सल्ल०) की बेअसत 
ने हकीकत खोल दी। इनमें से जिन लोगों का शुऊर ज़िंदा था वे फौरन आपकी सदाकत 
(सत्यवादिता) को पहचान गए और आपके साथी बन गए। और जिन लोगों के लिए उनका 
धर्म परम्परागत रीति-रिवाज बन चुका था उन्हें आपकी आवाज़ अपरिचित आवाज़ महसूस हुई । 
वे बिदक गए और आपके विरोधी बन कर खड़े हो गए। 

अगरचे मुहम्मद (सल्ल०) की नुबुव्वत (ईशदूतत्व) के बारे में तौरात में इतनी वाज़ेह 
अलामतें थीं कि यहूद के लिए आपकी सदाकत को समझना मुश्किल न था। मगर दुनियावी 
मफाद और मस्लेहतों की ख़ातिर उन्होंने आपको मानने से इंकार कर दिया । सदियों के अमल 
से उनके यहां जो मज़हबी ढांचा बन गया था उसमें उन्हें सरदारी हासिल हो गई थी। वे अपने 
पूर्वजों के आसनों पर बैठ कर जनसाधारण के नायक बने हुए थे। मज़हब के नाम पर तरह-तरह 
के नज़राने (चढ़ावे आदि) साल भर उन्हें मिलते रहते थे। उन्हें नज़र आया कि अगर उन्होंने 
मुहम्मद (सल्ल०) को सच्चा मान लिया तो उनकी मज़हबी बड़ाई ख़त्म हो जाएगी। मफादात 
(स्वार्था) का सारा ढांचा टूट जाएगा। यहूद को चूंकि उस वक्‍त अरब में मज़हब की नुमाइंदगी 
का मकाम हासिल था, लोग उनसे मुहम्मद (सल्ल०) के बारे में पूछते । वे मासूमाना अंदाज़ में 
कोई ऐसी शोशे की बात (आलोचनात्मक बात) कह देते जिससे पैगम्बर का व्यक्तित्व और मिशन 
लोगों की निगाह में मुशतबह (संदिग्ध) हो जाएं । अपने वअज़ों (प्रवचनों) में वे लोगों से कहते 
कि हकपरस्त बनो और हक (सत्य) का साथ दो। मगर अमलन जब खुद उनके लिए हक का 
साथ देने का वक्‍त आया तो वे हक का साथ न दे सके। 

खुदा की पुकार पर लब्बैक (स्वीकारोक्ति) कहना जब इस कीमत पर हो कि आदमी को 
अपनी जिंदगी का ढांचा बदलना पड़े, मान-सम्मान के आसनों से अपने को उतारना हो तो यह 
वक्त उन लोगों के लिए बड़ा सख्त होता है जो इन्हीं सांसारिक वैभवों में अपना धार्मिक स्थान 
बनाए हुए हों। मगर वे लोग जो खुशूअ (निष्ठा) की सतह पर जी रहे हों उनके लिए ये चीज़ें 
रुकावट नहीं बनतीं । वे अल्लाह की याद में, अल्लाह के लिए ख़र्च करने में, अल्लाह के हुक्म 
के आगे झुक जाने में और अल्लाह के लिए सब्र करने में वे चीज़ें पा लेते हैं जो दूसरे लोग 
दुनिया के तमाशों में पाते हैं। वे खूब जानते हैं कि डरने की चीज़ अल्लाह का ग़ज़ब (प्रकोप) 
है न कि दुनियावी अंदेशे। 


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सूरह-2. अल-बकरह 3] पारा 7 


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ऐ बनी इस्राईल मेरे उस एहसान को याद करो जो मैंने तुम्हारे ऊपर किया और इस 
बात को कि मैंने तुम्हें दुनिया वालों पर फज़ीलत दी। और डरो उस दिन से कि कोई 
जान किसी दूसरी जान के कुछ काम न आएगी। न उसकी तरफ से कोई सिफारिश 
कुबूल होगी। और न उससे बदले में कुछ लिया जाएगा और न उनकी कोई मदद की 
जाएगी। और जब हमने तुम्हें फिरऔन के लोगों से छुड़ाया। वे तुम्हें बड़ी तकलीफ देते 
थे। तुम्हारे बेटों को मार डालते और तुम्हारी औरतों को जीवित रखते। और इसमें 
तुम्हारे रब की तरफ से भारी आज़माइश थी। और जब हमने दरिया को फाइकर तुम्हें 
पार कराया। फिर बचाया तुम्हें और डुबा दिया फिरऔन के लोगों को और तुम देखते 
रहे। और जब हमने मूसा से वादा किया चालीस रात का। फिर तुमने इसके बाद बछड़े 
को माबूद (पूज्य) बना लिया और तुम ज़ालिम थे। फिर हमने इसके बाद तुम्हें माफ 
कर दिया ताकि तुम शुक्रगुज़ार बनो। और जब हमने मूसा को किताब दी और फैसला 
करने वाली चीज़ ताकि तुम राह पाओ। और जब मूसा ने अपनी कौम से कहा कि ऐ 
मेरी कौम! तुमने बछड़े को माबूद बनाकर अपनी जानों पर जुल्म किया है। अब अपने 
पैदा करने वाले की तरफ मुतवज्जह हो और अपने मुजरिमों को अपने हाथों से कत्ल 
करो। यह तुम्हारे लिए तुम्हारे पैदा करने वाले के नज़दीक बेहतर है। तो अल्लाह ने 
तुम्हारी तोबा कुबूल फरमाई। बेशक वही तोबा कुबूल करने वाला, रहम करने वाला 


पारा 7 32 सूरह-2. अल-बकाह 


है। और जब तुमने कहा कि ऐ मूसा हम तुम्हारा यकीन नहीं करेंगे जब तक हम अल्लाह 
को सामने न देख लें तो तुम्हें बिजली ने पकड़ लिया और तुम देख रहे थे। फिर हमने 
तुम्हारी मौत के बाद तुम्हें उठाया ताकि तुम शुक्रगुज़ार बनो। और हमने तुम्हारे ऊपर 
बदलियों का साया किया और तुम पर मन्न व सलवा उतारा। खाओ सुथरी चीज़ों में 
से जो हमने तुम्हे दी हैं और उन्होंने हमारा कुछ नुक्सान नहीं किया, वे अपना ही नुक्सान 

करते रहे। (47-57) 


यहूद को अल्लाह तआला ने तमाम दुनिया पर फज़ीलत (श्रेष्ठता) दी थी । यानी उन्हें अपने 
उस ख़ास काम के लिए चुना था कि उनके पास अपनी “वही” (ईश्वरीय वाणी) भेजे, और उनके 
ज़रिए दूसरी कीमों को अपनी मर्ज़ से बाख़बर करे । फिर इस मंसब (पद) के अनुरूप उन्हें बहुत-सी 
नेमतें और सहूलतें दी गई अपने दुश्मनों पर गलबा, वक्ती लग़ज़िशों (गलतियों) से दरगुज़र, 
असाधारण हालात में असाधारण मदद और 'खुदावंद की तरफ से उनके लिए जीविका का इंतज़ाम” 
आदि । इससे यहूद की अगली नस्लें इस गलतफहमी में पड़ गई कि हम अल्लाह की ख़ास उम्मत 
(समुदाय) हैं। हम हर हाल में आखिरत (परलोक) की कामयाबी हासिल करेंगे । मगर खुदा के इस 
तरह के मामलात किसी के लिए पुश्तैनी (पैतृक) नहीं होते किसी समुदाय के अगले लोगों का 
फैसला उनके पिछले लोगों की बुनियाद पर नहीं किया जाता, बल्कि हर फर्द का अलग-अलग फैसला 
होता है। खुदा के इंसाफ का दिन इतना सख्त होगा कि वहां अपने अमल के सिवा कोई भी दूसरी 
चीज़ किसी के काम आने वाली नहीं । 

सच्ची दीनदारी यह है कि आदमी अल्लाह के सिवा किसी को माबूद (पूज्य) न बनाए। 
अल्लाह को देखे बगैर अल्लाह पर यकीन करे। आखिरत के हिसाब से डर कर ज़िंदगी गुज़ारे। 
पाक रोज़ी से अपनी ज़रूरतें पूरी करे। जिन लोगों पर उसे अधिक इख्तियार हासिल है उन्हें 
जुर्म करने से रोक दे। 


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सूरह 2. अल्बकह 33 पारा । 
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और जब हमने कहा कि दाखिल हो जाओ इस शहर में और खाओ उसमें से जहां से 
चाहो खुले रूप में और दाख़िल हो दरवाज़े में सिर झुकाए हुए और कहो कि ऐ रब! 
हमारी ख़ताओं को बख्श दे। हम तुम्हारी ख़ताओं को बख्श देंगे और नेकी करने वालों 
को ज्यादा भी देंगे। तो उन्होंने बदल दिया उस बात को जो उनसे कही गई थी दूसरी 
बात से। इस पर हमने उन लोगों के ऊपर जिन्होंने ज़ुल्म किया है उनकी नाफरमानी 
के सबब से आसमान से अज़ाब (प्रकोप) उतारा। और जब मूसा ने अपनी कौम के लिए 
पानी मांगा तो हमने कहा अपना असा (डंडा) पत्थर पर मारो तो उससे फूट निकले बारह 
चश्मे (जलस्रोत) । हर गिरोह ने अपना-अपना घाट पहचान लिया। खाओ और पियो 
अल्लाह के रिज्क से और न फिरो ज़मीन में फसाद मचाने वाले बन कर। और जब तुमने 
कहा ऐ मूसा हम एक ही किस्म के खाने पर हरगिज़ सब्र नहीं कर सकते। अपने रब 
को हमारे लिए पुकारो कि वह निकाले हमारे लिए जो उगता है ज़मीन से साग, ककड़ी, 
गेहूं, मसूर, प्याज़। मूसा ने कहा कि क्या तुम एक बेहतर चीज़ के बदले एक अदना 
(तुच्छ) चीज़ लेना चाहते हो। किसी शहर में उतरो तो तुम्हें मिलेगी वह चीज़ जो तुम 
मांगते हो। और डाल दी गई उन पर ज़िल्लत और मोहताजी और वे अल्लाह के ग़ज़ब 
के मुस्तहिक हो गए। यह इस वजह से हुआ कि वे अल्लाह की निशानियों का इंकार 
करते थे और नबियों को नाहक कत्ल करते थे। यह इस वजह से कि उन्होंने नाफरमानी 
की और वे हद पर न रहते थे। (58-67) 


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यहूद पर अल्लाह तआला ने खुसूसी इनामात किए। इसका नतीजा यह होना चाहिए था 
कि वे खुदा के शुक्रगुज़ार बंदे बनते। मगर उन्होंने इसके विपरीत अमल किया । एक बड़ा शहर 
उन्हें दे दिया गया और कहा गया कि इसमें दाखिल हो तो फातेहाना तमकनत (विजयी अहंकार) 
से नहीं बल्कि इज्ज़ (विनम्रता) के साथ और अल्लाह से माफी मांगते हुए । मगर वे इसके बजाए 
तफरीही बातें कहने लगे। उन्हें मन” और 'सलवा" की कुदरती गिज़ाएं दी गई ताकि वे जीविका 
की जदूदोजेहद से मुक्त होकर अल्लाह के हुक्मों के पालन में ज्यादा से ज्यादा मशगूल हों। मगर 
उन्होंने चटपटे और मसालेदार खानों की मांग शुरू कर दी। उन्होंने दुनिया में जरूरत पर 
कनाअत (संतोष) न करके लज्ज़त (भोग-विलास) की तलाश की। उनकी बेहिसी इतनी बढ़ी 





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पारा । 34 सूरह. अल-बकाह 


कि अल्लाह की खुली-खुली निशानियां भी उनके दिलों को पिघलाने के लिए काफी साबित न 
हुई। उनकी तंबीह (सचेत करने) के लिए जो अल्लाह के बंदे उठे उनको उन्होंने ठुकराया यहां 
तक कि मार डाला। यहूद में यह ढिठाई इसलिए पैदा हुई कि उन्होंने समझ लिया कि वे 
नजातयाफ्ता (मोक्ष-प्राप्त) समुदाय हैं। मगर खुदा के यहां नस्ल और वर्ण के आधार पर कोई 
फैसला होने वाला नहीं है। एक यहूदी को भी उसी खुदाई कानून से जांचा जाएगा, जिससे एक 
गैर-यहूदी को जांचा जाएगा । जन्नत उसी के लिए है जो जन्नत वाले अमल करे, न कि किसी 
विशेष नस्ल या समुदाय के लिए। 

ज़मीन के ऊपर शुक्र, सब्र, तवाज़ोअ (विनम्रता) और कनाअत (संतोष) के साथ रहना 
ज़मीन की इस्लाह (सुधार) है। इसके विपरीत नाशुक्री, बेसब्री, घमंड और हिर्स के साथ रहना 
ज़मीन में फसाद बरपा करना है। क्योकि इससे खुदा का कायम किया हुआ फितरी निज़ाम 
(सहज-स्वाभाविक व्यवस्था) टूटता है। यह हद से निकल जाना है, जबकि ख़ुदा यह चाहता है 
कि हर एक अपनी हद के अंदर अमल करे। 


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यूं है कि जो लोग मुसलमान हुए और जो लोग यहूदी हुए और नसारा (ईसाई) और 
साबी, इनमें से जो शख्स ईमान लाया अल्लाह पर और आखिरत के दिन पर और उसने 
नेक काम किया तो उसके लिए उसके रब के पास अज्र (प्रतिफल) है। और उनके लिए 
न कोई डर है और न वे ग़मगीन होंगे। (62) 

















आयत में चार समूहों का ज़िक्र है। एक मुसलमान जो मुहम्मद (सल्ल०) की उम्मत 
(अनुयायी समुदाय) हैं। दूसरे, यहूद जो अपने को मूसा (अलैहिस्सलाम) की उम्मत कहते हैं। 
तीसरे, नसारा (ईसाई) जो मसीह (अलैहिस्सलाम) की उम्मत होने के दावेदार हैं। चौथे, साबी 
जो अपने को याहिया (अलैहिस्सलाम) की उम्मत बताते थे और कदीम ज़माने में इराक के इलाके 
में आबाद थे। वे अहले किताब थे (यानी जिनके पास पहले खुदाई कलाम आ चुका था) और 
काबे की तरफ रुख़ करके नमाज़ पढ़ते थे। मगर अब साबी समुदाय ख़त्म हो चुका है। दुनिया 
में अब इसका कहीं वजूद नहीं । 

यहां मुसलमानों को अलग नहीं किया है। बल्कि उनका और दूसरे पैग़म्बरों से निस्बत रखने 
वाली उम्मतों का ज़िक्र एक साथ किया गया है। इसका मतलब यह है कि समूह होने के एतबार 
से अल्लाह के नज़दीक सब समान दर्जा रखते हैं। समूह के एतबार से एक समूह और दूसरे 
समूह में कोई फर्क नहीं। सबकी नजात (मुक्ति, मोक्ष) का एक ही अटल उसूल है और वह 
है ईमान और अमले सालेह (सत्कर्म)। कोई समूह अपने को चाहे मुसलमान कहता हो या वह 





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सूएह-2. अल-बकरह 35 पारा । 


अपने को यहूदी या मसीही या साबी कहे, इनमें से कोई भी महज़ एक विशेष समूह होने के 
आधार पर खुदा के यहां कोई विशेष दर्जा नहीं रखता। दर्जे का एतबार इस पर है कि किसने 
खुदा की मंशा के मुताबिक अपनी अमली (व्यावहारिक) ज़िंदगी को ढाला। 

नबी (ईशदूत) के ज़माने में जब उसके मानने वालों का समूह बनता है तो उसकी बुनियाद 
हमेशा ईमान और अमले सालेह (सत्कर्म) पर होती है। उस वक्त ऐसा होता है कि नबी की 
पुकार को सुनकर कुछ लोगों के अंदर ज़ेहनी और फिक्री (वैचारिक) इंकिलाब आता है। उनके 
भीतर एक नया अज्म (संकल्प) जागता है। उनकी जिंदगी का नक्शा जो अब तक ज़ाती ख़ाहिशों 
की बुनियाद पर चल रहा था, वह खुदाई तालीमात की बुनियाद पर कायम होता है। यही लोग 
हकीकी मअनों में नबी की उम्मत होते हैं। उनके लिए नबी की ज़बान से आख़िरत की नेमतों 
की बशारत (शुभ सूचना) दी जाती है। 

मगर बाद की नस्लों में सूरतेहाल बदल जाती है। अब ख़ुदा का दीन (धर्म) उनके लिए 
एक किस्म की कौमी रिवायत (जातीय परम्परा) बन जाता है। जो बशारतें ईमान और अमल 
की बुनियाद पर दी गई थीं उन्हें महज़ गिरोही (समूहगत) ताल्लुक का नतीजा समझ लिया जाता 
है। वे गुमान कर लेते हैं कि उनके गिरोह का अल्लाह से कोई ख़ास रिश्ता है जो दूसरे गिरोहों 
से नहीं है। जो व्यक्ति इस विशेष गिरोह से संबंध रखे चाहे अकीदा (आस्था, विश्वास) और 
अमल के एतबार से वह कैसा ही हो बहरहाल उसकी नजात (मुक्ति) होकर रहेगी । जन्नत उसके 
अपने गिरोह के लिए और जहन्नम दूसरे गिरोहों के लिए है। 

मगर अल्लाह का किसी गिरोह से विशेष रिश्ता नहीं। अल्लाह के यहां जो कुछ एतबार 
है वह सिफ इस बात का है कि आदमी अपनी सोच और अमल में कैसा है। आखिरत में आदमी 
के अंजाम का फैसला उसके हकीकी किरदार (चरित्र-आचरण) की बुनियाद पर होगा। न कि 
गिरोही संबंधों के आधार पर। 


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और जब हमने तुमसे तुम्हारा अहद (वचन) लिया और तूर पहाड़ को तुम्हारे ऊपर 


उठाया। पकड़ो उस चीज़ को जो हमने तुम्हें दी है मज़बूती के साथ, और जो कुछ इसमें 
है उसे याद रखो ताकि तुम बचो। इसके बाद तुम इससे फिर गए। अगर अल्लाह का 








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पारा 7 36 सूरह-2. अल-बकह 


फज्ल और उसकी रहमत न होती तो ज़रूर तुम हलाक हो जाते। और उन लोगों का 

हाल तुम जानते हो जो सब्त (सनीचर) के मामले में अल्लाह के हुक्म से निकल गए 
तो हमने उनको कहा कि तुम लोग ज़लील बंदर बन जाओ। फिर हमने इसे इबरत बना 
दिया उन लोगों के लिए जो उसके रूबरू थे और उन लोगों के लिए जो इसके बाद आए। 
और इसमें हमने नसीहत रख दी डर वालों के लिए। (63-66) 


बाइबल की रिवायतें बताती हैं कि मूसा (अलैहिस्सलाम) के ज़माने में जब यहूद से यह 
अहद (वचन) लिया गया कि वे खुदाई तालीमात (शिक्षाओं) पर ठीक-ठीक अमल करेंगे तो खुदा 
ने पहाड़ को उनके ऊपर उलट कर औंधा कर दिया और उनसे कहा कि तौरात को या तो 
कुबूल करो वर्ना यहीं तुम सब को हलाक कर दिया जाएगा। (तालमूद) यही मामला हर उस 
शख्स का है जो अल्लाह पर ईमान लाता है। ईमान लाना गोया अल्लाह से यह अहद करना 
है कि आदमी का जीना और मरना खुदा की मर्ज़ी के मुताबिक होगा । यह एक बेहद गंभीर इकरार 
है। इसमें एक तरफ आजिज़ बंदा होता है और दूसरी तरफ वह खुदा होता है जिसके हाथ में 
ज़मीन व आसमान की ताकतें हैं। अगर बंदा अपने अहद पर पूरा उतरे तो उसके लिए खुदा 
की लाज़वाल नेमतें हैं। और अगर वह अहद करके उससे फिर जाए तो उसके लिए यह शदीद 
खतरा है कि उसका खुदा उसे जहन्नम में डाल दे जहां वह इस तरह जलता रहे कि इससे निकलने 
का कोई रास्ता उसके लिए बाकी न हो। 

ईमानी अहद (वचन) के वकत मूसा (अलैहि०) की कौम पर जो कैफियत गुज़री थी वही 
हर मोमिन बंदे से मत्लूब (अपेक्षित) है। हर शख्स जो अपने आप को अल्लाह के साथ ईमान 
की रस्सी में बांधता है, उसे इसकी संगीनी से इस तरह कांपना चाहिए गोया कि उसने अगर 
इस अहद के खिलाफ किया तो ज़मीन और आसमान उसके ऊपर गिर पड़ेंगे। 

एक गिरोह जिसे अल्लाह की तरफ से शरीअत दी जाए उसको गुमराही को एक सूरत यह 
होती है कि वह अमलन उसके ख़िलाफ चले और तावीलों (हीलों-बहानों) के ज़रिए यह ज़ाहिर 
करे कि वह ऐन ख़ुदा के हुक्म पर कायम है। यहूद को यह हुक्म था कि वे सनीचर के दिन 
को रोज़ा और इबादत के लिए मख़सूस रखें। इस दिन किसी किस्म का कोई दुनियावी काम 
न करें। मगर उन्होंने इस हुरमत (मनाही) को बाकी नहीं रखा। वे दूसरे दिनों की तरह सनीचर 
के दिन भी अपने दुनियावी कारोबार करने लगे। अलबत्ता वे तरह-तरह की लफ्ज़ी तावीलों से 
ज़ाहिर करते कि वे जो कुछ कर रहे हैं वह ऐन खुदा के हुक्म के मुताबिक है। उनकी यह ढिठाई 
अल्लाह को इतनी नापसंद हुई कि वे बंदर बना दिए गए। जब भी आदमी शरीअत से हटता 
है तो वह अपने आपको जानवरों की सतह पर ले जाता है जो किसी अख्लाकी ज़ाब्ते (नैतिक 
विधान) के पाबंद नहीं हैं। इसलिए जो लोग शरीअत के साथ इस किस्म का खेल करें उन्हें 
डरना चाहिए कि खुदा का कानून उन्हें उसी हैवानी ज़िल्लत में मुब्तला न कर दे जिसमें यहूद 
अपने इसी किस्म के फेअल (कृत्य) की वजह से मुब्तला हुए। 








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सूरह-2. अल-ब्करह 7 पारा 7 
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और जब मूसा ने अपनी कौम से कहा कि अल्लाह तुम्हें हुक्म देता है कि तुम एक 
गाय ज़बह करो। उन्होंने कहा : क्या तुम हमसे हंसी कर रहे हो। मूसा ने कहा कि 
मैं अल्लाह की पनाह मांगता हूं कि में ऐसा नादान बनूं। उन्होंने कहा, अपने रब 
से दरख्वास्त करो कि वह हमसे बयान करे कि वह गाय कैसी हो। मूसा ने कहा, 
अल्लाह फरमाता है कि वह गाय न बूढ़ी हो न बच्चा, उनके बीच की हो। अब कर 
डालो जो हुक्म तुमको मिला है। उन्होंने कहा, अपने रब से दरख़्वास्त करो, वह 
बयान करे कि उसका रंग केसा हो। मूसा ने कहा, अल्लाह फरमाता है वह सुनहरे 
रंग की हो, देखने वालों को अच्छी मालूम होती हो। उन्होंने कहा, अपने रब से 
दरख्वास्त करो कि वह हमसे बयान कर दे कि वह कैसी हो। क्‍योंकि गाय में हमें 
शुबह पड़ गया है और अल्लाह ने चाहा तो हम राह पा लेंगे। मूसा ने कहा अल्लाह 
फरमाता है कि वह ऐसी गाय हो कि महनत करने वाली न हो, ज़मीन को जोतने 
वाली और खेतों को पानी देने वाली न हो। वह सालिम हो, उसमें कोई दाग़ न हो। 
उन्होंने कहा : अब तुम स्पष्ट बात लाए। फिर उन्होंने उसे ज़बह किया। और वे ज़बह 


करते नज़र न आते थे। और जब तुमने एक शख्स को मार डाला फिर एक-दूसरे पर 
इसका इत्ज़ाम डालने लगे। हालांकि अल्लाह को ज़ाहिर करना मंजूर था जो कुछ तुम 


८ 


पारा । 38 सूरह-2. अल-बकाह 


छुपाना चाहते थे। पस हमने हुक्म दिया कि मारो उस मुर्दे को इस गाय का एक 
टुकड़ा। इस तरह जिंदा करता है अल्लाह मुर्दों को। और वह तुम्हें अपनी निशानियां 
दिखाता है ताकि तुम समझो। (67-73) 


मूसा (अलैहि०) के ज़माने में बनी इस्राईल में कल्ल की एक घटना घटी। कातिल का पता 
लगाने के लिए अल्लाह तआला ने नबी के वास्ते से उन्हें यह हुक्म दिया कि एक गाय ज़बह 
करो। और उसका गोश्त मृतक पर मारो | मृतक अल्लाह के हुक्म से कातिल का नाम बता देगा। 
यह एक मौजज़ाती (चमत्कारपूर्ण) तदबीर थी जो निम्न उद्देश्यों के लिए अपनाई गई 

।. मिम्न में लंबी मुदूदत तक कयाम करने की वजह से बनी इस्राईल मिस्नी तहज़ीब (सभ्यता) 
और रीति-रिवाजों से प्रभावित हो गए। मिस्री कौम गाय को पूजती थी। अतः मिस्नियों के असर 
से बनी इस्राईल में भी गाय के मुकदूदस (पवित्र) होने का ज़ेहन पैदा हो गया। जब उक्त घटना 
घटी तो अल्लाह ने चाहा कि इस घटना के माध्यम से उनके ज़ेहन से गाय की पवित्रता की 
धारणा को तोड़ा जाए। अतः कातिल का पता लगाने के लिए गाय के ज़िब्ह की तदबीर अपनाई 
गई। 

2. इसी तरह बनी इस्नाईल ने यह गलती की थी कि फिक्ह (आचार-शास्त्र) की बारीकियों 
और बहस के नतीजों में खुदा के सादा दीन को एक बोझल दीन बना डाला था। अतः उक्त 
घटना के माध्यम से उन्हें यह सबक दिया गया कि अल्लाह की तरफ से जो हुक्म आए उसे 
सादा अर्थो में लेकर फौरन उसकी तामील में लग जाओ। खोद-कुरेद का तरीका न अपनाओ। 
अगर तुमने ऐसा किया कि हुक्म की तफ्सील जानने और उसकी हदों को सुनिश्चित करने के 
लिए मुशिगाफियां (कुतक) करने लगे तो सख्त आज़माइश में पड़ जाओगे। इस तरह एक सादा 
हुक्म शर्तों का इज़ाफा होते-होते एक सख्त हुक्म बन जाएगा जिसकी तामील (पालन) तुम्हारे 
लिए बेहद मुश्किल हो। 

3. इस वाकये के ज़रिए बनी इस्राईल को बताया गया है कि दूसरी ज़िंदगी उसी तरह एक 
मुमकिन जिंदगी है जैसे पहली जिंदगी । अल्लाह हर आदमी को मरने के बाद ज़िंदा कर देगा और 
उसे दुबारा एक नई दुनिया में उठाएगा । 


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फिर इसके बाद तुम्हारे दिल सख्त हो गए। पस वे पत्थर की तरह हो गए या इससे 
भी ज्यादा सख़्त। पत्थरों में कुछ ऐसे भी होते हैं जिनसे नहरें फूट निकलती हैं। कुछ 





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सूएह-2. अल-बकरह 39 पारा । 


पत्थर फट जाते हैं और उनसे पानी निकल आता है। और कुछ पत्थर ऐसे भी होते हैं 
जो अल्लाह के डर से गिर पड़ते हैं। और अल्लाह इससे बेखबर नहीं जो तुम करते हो। 
(74) 





ख़ुदा के हुक्म के बारे में जो लोग बहसें और तावीलें करें उनके अंदर धीरे-धीरे बेहिसी 
(संवेदनहीनता) का मर्ज़ पैदा हो जाता है। उनके दिल सख्त हो जाते हैं। खुदा का नाम सबसे 
बड़ी हस्ती का नाम है। आदमी के अंदर ईमान जिंदा हो तो ख़ुदा का नाम उसे हिला देता है। 
बोलने से ज्यादा उसे चुप लग जाती है। मगर जब दिलों में जुमूद (जड़ता) और बेहिसी आती 
है तो खुदा की बातों में भी उसी किस्म की बहसें और तावीलें शुरू कर दी जाती हैं जो आम 
इंसानी कलाम में की जाती हैं। इस किस्म का अमल उनकी बेहिसी में और इज़ाफा करता चला 
जाता है। यहां तक कि उनके दिल पत्थर की तरह सख्त हो जाते हैं। अब खुदा का तसव्वुर 
(अवधारण) उनके दिलों को नहीं पिघलाता, वह उनके अंदर तड़प नहीं पैदा करता । वह उनकी 
रूह के भीतर कंपन पैदा करने का सबब नहीं बनता। 

पत्थरों का ज़िक्र यहां तमसील (उदाहरण) के रूप में किया गया है। खुदा ने अपनी कायनात 
को इस तरह बनाया है कि वह आदमी के लिए इबरत और नसीहत का सामान बन गई है। 
यहां की हर चीज़ ख़ामोश मिसाल की ज़बान में उसी रब की मरज़ी का अमली निशान है जो रब 
की मर्ज़ी कुरआन में अल्फाज़ (शब्दों) के ज़रिए बयान की गई है। 

पत्थरों के ज़रिए खुदा ने अपनी दुनिया में जो तमसीलात कायम को हैं उनमें से तीन चीज़ों 
की तरफ इस आयत में इशारा किया गया है। 

पहाड़ों पर एक चीज़ यह देखने को मिलती है कि पत्थरों के अंदर से पानी के स्रोत बहते 
रहते हैं जो अंततः मिलकर नदी का रूप अपना लेते हैं। यह उस इंसान की तमसील है जिसके 
दिल में अल्लाह का डर बसा हुआ हो और वह आंसुओं के रूप में उसकी आंखों से बह पड़ता 
हो। 





दूसरी मिसाल उस पत्थर की है जो बज़ाहिर सूखी चट्टान मालूम होता है। मगर जब तोड़ने 
वाले उसे तोड़ते हैं तो मालूम होता है कि उसके नीचे पानी का बड़ा ज़ख़ीरा (भंडार) मौजूद था। 
ऐसी चट्टानों को तोड़कर कुवें बनाए जाते हैं। यह उस इंसान की तमसील है जो बज़ाहिर खुदा 
से दूर मालूम होता था। इसके बाद उस पर एक हादसा गुज़रा। इस हादसे ने उसकी रूह को 
हिला दिया। वह आंसुओं के सैलाब के साथ खुदा की तरफ दौड़ पड़ा। 

पत्थरों की दुनिया में तीसरी मिसाल भू-स्खलन ([,०१०३।।०९) की है। यानी पहाड़ों के ऊपर 
से पत्थर के टुकड़ों का लुठ़क कर नीचे आ जाना। यह उस इंसान की तमसील है जिसने किसी 
इंसान के मुकाबले में गलत रवैया अपनाया । इसके बाद उसके सामने खुदा का हुक्म पेश किया 
गया । खुदा का हुक्म सामने आते ही वह ढह पड़ा। इंसान के सामने वह झुकने के लिए तैयार 
न था। मगर जब इंसान का मामला खुदा का मामला बन गया तो वह आजिज़ाना तौर पर 
(समर्पण भाव से) उसके आगे गिर पड़ा। 


पारा ! 40 सूरह-2. अल-बकह 

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क्या तुम यह उम्मीद रखते हो कि ये यहूद तुम्हारे कहने से ईमान ले आएऐंगे। हालांकि 
इनमें से कुछ लोग ऐसे हैं कि वे अल्लाह का कलाम सुनते थे और फिर उसे बदल डालते 
थे समझने के बाद, और वे जानते हैं। जब वे ईमानवालों से मिलते हैं तो कहते हैं कि 
हम ईमान लाए हुए हैं। और जब आपस में एक-दूसरे से मिलते हैं तो कहते हैं: क्या 
तुम उन्हें वे बातें बताते हो जो अल्लाह ने तुम पर खोली हैं कि वे तुम्हारे रब के पास 


तुमसे हुज्जत करें। क्या तुम समझते नहीं। क्या वे नहीं जानते कि अल्लाह को मालूम 
है जो वे छुपाते हैं और जो वे ज़ाहिर करते हैं। (75-77) 


मदीने के लोग जो मुहम्मद (सल्ल०) पर ईमान लाए थे, उनके इतने जल्दी आप को पहचान 
लेने और आपको मान लेने का एक सबब यह था कि वह अपने यहूदी पड़ोसियों से अक्सर 
सुनते रहते थे कि एक आखिरी नबी आने वाले हैं। इस कारण मुहम्मद (सल्ल०) के आने की 
ख़बर उनके लिए एक मानूस (परिचित) ख़बर थी। ये मुसलमान स्वाभाविक रूप से इस उम्मीद 
में थे कि जिन यहूदियों की बातें सुनकर उनके दिल के अंदर इस्लाम कुबूल करने का इब्तिदाई 
जज्बा उभरा था, वे यकीनन खुद भी आगे बढ़कर इस पैगम्बर का साथ देंगे। अतः वे पुरजोश 
तौर पर इन यहूदियों के पास इस्लाम का पैग़ाम लेकर जाते और उनका आह्वान करते कि वे 
हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) पर ईमान लाकर आप (सल्ल०) का साथ देने वाले बनें। 

मगर मुसलमानों को उस वक्त सख्त धक्का लगता जब वे देखते कि उनकी उम्मीदों के 
विपरीत यहूद उनके आह्वान को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। इसके नतीजे में एक और 
नज़ाकत पैदा हो रही थी। जो लोग मुहम्मद (सल्ल०) से दुश्मनी और देष रखते थे वे मुसलमानों 
से कहते कि पैग़म्बरे इस्लाम का मामला इतना यकीनी नहीं जितना तुम लोगों ने समझ लिया 
है। यदि वह इतना यकीनी होता तो ये यहूदी उलेमा (विद्वान) ज़रूर उनकी ओर दौड़ पड़ते। 
क्योंकि वे आसमान की किताबों (दिव्य ग्रंथों) के बारे में तुमसे ज्यादा जानते हैं। 

मगर किसी बात को कुबूल करने के लिए उस बात का जानना काफी नहीं है। बल्कि 
उस बात के बारे में गंभीर होना ज़रूरी है। यहूद का हाल यह था कि उन्होंने खुद अपने 
पास की उन किताबों में तब्दीलियां कर डालीं जिन्हें वे आसमानी किताबें मानते थे। अपनी 








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सूरह-2. अलबकह | पारा 7 


मुकद्दस किताबों (धर्म ग्रंथों) में वे जिस बात को अपनी ख्वाहिश के ख़िलाफ देखते उसमें 
संशोधन या परिवर्तन करके उसे अपनी ख्वाहिश के मुताबिक बना लेते। वे अपने दीन 
(धर्म) को अपने सांसारिक हितों के अधीन बनाए हुए थे। जो लोग अपने अमल से इस 
किस्म की गैर-संजीदगी का सुबूत दे रहे हों, वे अपने से बाहर किसी हक को मानने पर 
कैसे राज़ी हो जाएंगे । 

कोई बात चाहे कितनी ही बरहक (सत्यवादी) हो अगर आदमी उसका इंकार करना चाहे 
तो वह इसके लिए कोई न कोई तावील (हीला-बहाना) ढूंढ लेगा। इस तावील के आखिरी रूप 
का नाम तहरीफ (संशोधन परिवर्तन) है। इस तर्ज़ेअमल का नतीजा यह होता है कि अल्लाह 
के मामले की संगीनी आदमी के दिल से निकल जाती है। वह खुदा के हुक्म को सुनता है मगर 
लफ्ज़ी तावील करके मुतमइन (संतुष्ट) हो जाता है कि उसका अपना मामला इस हुक्म की ज़द 
में नहीं आता। वह खुदा को मानता है मगर उसकी बेहिसी (संवेदनहीनता) उसे ऐसे कामों के 
लिए ढीठ बना देती है जो कोई ऐसा आदमी ही कर सकता है जो न खुदा को मानता हो और 
न यह जानता हो कि उसका खुदा उसे देख रहा है और उसकी बातों को सुन रहा है। 





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और उनमें अनपढ़ हैं जो नहीं जानते किताब को मगर आरज्ञुएं। इनके पास गुमान 
के सिवा और कुछ नहीं। पस ख़राबी है उन लोगों के लिए जो अपने हाथ से किताब 
लिखते हैं, फिर कहते हैं कि यह अल्लाह की जानिब से है। ताकि इसके ज़रिए 
थोड़ी-सी पूंजी हासिल कर लें। पस ख़राबी है उस चीज़ की बदौलत जो उनके हाथों 
ने लिखी। और उनके लिए ख़राबी है अपनी इस कमाई से। और वे कहते हैं हमें 
दोज़ख़ की आग नहीं छुऐगी मगर गिनती के कुछ दिन। कहो क्या तुमने अल्लाह के 


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पारा । 42 सूरह-2. अल-बकाह 


पास से कोई अहद (वचन) ले लिया है कि अल्लाह अपने अहद के ख़िलाफ नहीं 
करेगा। या अल्लाह के ऊपर ऐसी बात कहते हो जो तुम नहीं जानते। हां जिसने 
कोई बुराई की और उसके गुनाह ने उसे अपने घेरे में ले लिया। तो वही लोग दोज़ख़ 
बाले हैं वे इसमें हमेशा रहेंगे। और जो ईमान लाए और जिन्होंने नेक अमल किए, 
वे जन्नत वाले लोग हैं, वे इसमें हमेशा रहेंगे। (78-82) 


आरज़ुओं (अमानी) से आशय वे झूठे किस्से-कहानियां हैं जो यहूद ने अपने धर्म के बारे 
में गढ़ रखी थीं और जो अपनी ज़ाहिर फरेबी की वजह से अवाम में खूब फैल गई थीं। इन 
किस्से कहानियों का खुलासा यह था कि जहन्नम की आग यहूद के लिए नहीं है। उनमें अपने 
पूर्वजों से जोड़कर ऐसी बातें मिलाई गई थीं जिससे यह साबित हो कि बनी इस्राईल अल्लाह 
के ख़ास बंदे हैं। वे जिस धर्म को मानते हैं उसमें ऐसे जादुई गुण छुपे हुए हैं कि उसकी 
मामूली-मामूली चीज़ें भी आदमी को जहन्नम की आग से बचाने और जन्नत के बागों में पहुंचा 
देने के लिए काफी हैं। 

सस्ती नजात (मुक्ति) के ये पवित्र नुस्खे अवाम के लिए बहुत कशिश रखते थे। क्योंकि 
इसमें उन्हें अपनी इस खुशख्याली की तस्दीक मिल रही थी कि उन्हें अपनी गैर-ज़िम्मेदाराना 
ज़िंदगी पर रोक लगाने की ज़रूरत नहीं। वे किसी जदूदोजेहद के बगैर मात्र टोने-टोटके की 
बरकत से जन्नत में पहुंच जाऐंगे। अतः जो यहूदी विद्वान पूर्वजों के हवाले से यह खुशकुन 
कहानियां सुनाते थे उन्हें लोगों के बीच ज़बरदस्त मकबूलियत हासिल हुई । आख़िरत (परलोक) 
के मामले को आसान बनाना उनके लिए शानदार दुनियावी तिजारत का ज़रिया बन गया । उनके 
पास अवाम की भीड़ जमा हो गई। उनके ऊपर नज़रानों (चढ़ावों) की बारिश होने लगी। वे 
लोगों को मुफ्त जन्नत हासिल करने का रास्ता बताते थे। लोगों ने इसके बदले में उनके लिए 
अपनी तरफ से मुफ्त दुनिया फाहम कर दी। 

यही हर दौर में धर्म-ग्रंथाँ की धारक कौमों का रोग रहा है। जो लोग इस किस्म के लज़ीज़ 
ख्वाबों में जी रहे हों, जो यह समझ बैठे हों कि कुछ रस्मी आमाल (कर्मकांडों) के सिवा उन 
पर किसी ज़िम्मेदारी का बोझ नहीं है, जो इस खुशगुमानी में मुब्तला हों कि उनके सारे हुकूक 
खुदा के यहां हमेशा के लिए महफूज़ हो चुके हैं, ऐसे लोग सच्चे दीन के आस्वान को कभी 
गवारा नही करते। क्योंकि ऐसी बातें उन्हें अपनी मीठी नींद को ख़राब करती हुई नज़र आती 
हैं। वे उन्हें ज़िंदगी की खुली हकीकतों के सामने खड़ा कर देती हैं। 


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और जब हमने बनी इस्राईल से अहद (वचन) लिया कि तुम अल्लाह के सिवा किसी 
की इबादत नहीं करोगे और नेक सुलूक करोगे मां-बाप के साथ, रिश्तेदारों के साथ, 








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सूरह-2. अल्बकह 43 पारा 7 


यतीमों और मिस्कीनों के साथ। और यह कि लोगों से अच्छी बात कहो। और नमाज़ 
कायम करो और ज़कात अदा करो। फिर तुम इससे फिर गए सिवा थोड़े लोगों के। 
और तुम इकरार करके इससे हट जाने वाले लोग हो। (83) 








इंसान के ऊपर अल्लाह का पहला हक यह है कि वह अल्लाह का इबादतगुज़ार बने और 
उसके साथ किसी को शरीक न करे। दूसरा हक बंदों के साथ हुस्ने सुलूक (सद्व्यवहार) है। 
इस हुस्ने सुलूक का आग़ाज़ अपने मां-बाप से होता है और फिर रिश्तेदारों और पड़ोसियों से 
गुज़रकर उन तमाम इंसानों तक पहुंच जाता है जिनसे अमली ज़िंदगी में संबंध बनते हैं। एक 
इंसान और दूसरे इंसान के दर्मियान जब भी कोई मामला पड़े तो वहां एक ही बर्ताव अपने 
भाई के साथ दुरुस्त है। और वह वही है जो इंसाफ और ख़ैरख़्वाही (परहित) के मुताबिक हो। 

इस मामले मे आदमी का असल इम्तहान 'यतीमों और मिस्कीनों' या दूसरे शब्दों में कमज़ोर 
लोगों के साथ होता है। क्योंकि जो ताकतवर है उसका ताकतवर होना खुद इस बात की ज़मानत 
है कि लोग उसके साथ हुस्ने सुलूक करें। मगर कमज़ोर आदमी के साथ हुस्ने सुलूक के लिए 
इस किस्म का कोई अतिरिक्त प्रेरक नहीं है। इसलिए सबसे ज्यादा हुस्ने सुलूक जहां अपेक्षित 
है वे कमज़ोर लोग हैं। हकीकत यह है कि जहां हर चीज़ की नफी (अभाव) हो जाती है वहां 
खुदा होता है। ऐसे आदमी के साथ वही शख्स हुस्ने सुलूक करेगा जो वाकई अल्लाह की खुशनूदी 
के लिए ऐसा कर रहा हो। क्योंकि वहां कोई दूसरा मुहर्रिक (प्रेरक) मौजूद ही नहीं। 

जब मामला कमज़ोर आदमी से हो तो विभिन्न कारणों से हुस्ने सुलूक का शुऊर दब जाता 
है। कमज़ोर आदमी को मदद दी जाती है। इसका नतीजा यह होता है कि पाने वाले के मुकाबले 
में देने वाला अपने को कुछ ऊंचा समझने लगता है। यह नफ्सियात कमज़ोर आदमी की इज्ज़ते 
नफ्स (स्वाभिमान) को मलहूज़ रखने में रुकावट बन जाती है। कमज़ोर की तरफ से अपेक्षित 
विनम्रता प्रकट न हो तो फौरन उसे अयोग्य समझ लिया जाता है और इसका प्रदर्शन विभिन्न 
तकलीफदेह सूरतों में होता रहता है। एक-दो बार मदद करने के बाद यह ख्याल होता है कि 
यह शख्स मुस्तकिल तौर पर मेरे सर न हो जाए। इसलिए उससे छुट्टी पाने के लिए उसके 
साथ गैर-शरीफाना अंदाज़ अपनाया जाता है। वगैरह 

भली बात बोलना तमाम आमाल का खुलासा (सार) है। एक हकीकी खैरख्ाही का कलिमा 
(बोल) कहना आदमी के लिए हमेशा सबसे ज्यादा दुश्वार होता है। आदमी अच्छी-अच्छी तकरीरें 
करता है। मगर जब एक अच्छी बात किसी दूसरे के एतराफ (स्वीकार) के समानार्थी हो तो 
आदमी ऐसी अच्छी बात मुंह से निकालने के लिए सबसे ज्यादा कंजूस होता है। सामने का 
आदमी यदि कमज़ोर है तो उसके लिए शराफत के अल्फाज़ बोलना भी वह ज़रूरी नहीं समझता । 
अगर किसी से शिकायत या नाराज़गी पैदा हो जाए तो आदमी समझ लेता है कि वह इंसाफ 
के हर खुदाई हुक्म से उसे मुस्तसना (अपवाद) करने में हक बजानिब है। 














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पारा । 44 20 

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" और जब हमने तुमसे यह अहद (वचन) लिया कि तुम अपनों का ख़ून न बहाओगे। 
और अपने लोगों को अपनी बस्तियां से नहीं निकालोगे। फिर तुमने इकरार किया और 
तुम इसके गवाह हो। फिर तुम ही वे हो कि अपनों को कत्ल करते हो और अपने ही 
एक गिरोह को उनकी बस्तियों से निकालते हो। इनके मुकाबले में इनके दुश्मनों की 
मदद करते हो गुनाह और ज्ञुल्म के साथ। फिर आगर वे तुम्हारे पास केद होकर आते 
हैं तो तुम फिदया (अर्थदण्ड) देकर उन्हें छुड़ते हो। हालांकि खुद इनका निकालना 
तुम्हारे ऊपर हराम था। क्या तुम किताबे इलाही के एक हिस्से को मानते हो और एक 
हिस्से का इंकार करते हो। पस तुममें से जो लोग ऐसा करें उनकी सज़ा इसके सिवा 
क्या है कि उन्हें दुनिया की जिंदगी में रुस्वाई हो और कियामत के दिन इन्हें सख्त अज़ाब 
में डाल दिया जाए। और अल्लाह उस चीज़ से बेख्बर नहीं जो तुम कर रहे हो। यही 
लोग हैं जिन्होंने आखिरत के बदले दुनिया की जिंदगी ख़रीदी। पस न इनका अज़ाब 
हल्का किया जाएगा और न इन्हें मदद पहुंचेगी। (84-86) 





प्राचीन मदीने के चारों तरफ यहूद के तीन कबीले आबाद थे बनूनज़ीर, बनूकुज़ा और 
बनूकैनुकाअ। ये सब मूसवी शरीअत को मानते थे। मगर उनके जाहिली तअस्सुबात (विद्वेष) 
ने उन्हें अलग-अलग गिरोह में बांट रखा था। अपनी दुनियावी सियासत के तहत वे मदीने के 
मुशरिक (बहुदेववादी) कबीलों औस और ख़ज़रज के साथ मिल गए थे। बनूनज़ीर और 
बनूकुज़ा नेकबीला औस का साथ पकड़ लिया था । बनूमैनु्राअ कवीला खरज का सहयोगी 
बना हुआ था। इस तरह दो गिरोह बन कर वे आपस में लड़ते रहते थे। जंग बिआस इसी किस्म 
को एक जंग थी जो हिजरते नबवी (हज़रत मुहम्मद सल्ल० के मदीना प्रस्थान) से पांच साल 
पहले हुई थी । इन लड़ाइयों में यहूद मुशरिक कबीलों के साथ मिल कर दो मोर्चे बना लेते। एक 


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सूरह-2. अल-बकरह 45 पारा 7 


मोर्चे में शामिल होने वाले यहूदी दूसरे मोर्चे में शामिल होने वाले यहूदियों को कत्ल करते और 
उन्हें उनके घरों से बेघर कर देते। फिर जब जंग ख़त्म हो जाती तो वे तौरात का हवाला देकर 
अपने सहधर्मियों से चंदे की अपीलें करते ताकि अपने गिरफ्तार भाइयों को, फिदया (हर्जाना) 
देकर मुशरिक कबीलों के हाथ से छुड़ाया जा सके | इंसान के जान व माल के एहतराम के बारे 
में वे खुदा के हुक्म को तोड़ते और फिर अपनी ज़ालिमाना सियासत का शिकार होने वालों के 
साथ दिखावटी हमदर्दी करके ज़ाहिर करते कि वे बहुत धार्मिक हैं। 

यह ऐसा ही है जैसे एक शख्स को नाहक कत्ल कर दिया जाए और उसके बाद शरऔ 
तरीके पर उसकी नमाज जनाजा पढ़ी जाए। शरीअत के असली और असासी (आधारभूत) 
अहकाम आदमी से जाहिली जिंदगी छोड़ने के लिए कहते हैं। वह उसकी ख़्वाहिशे नफ्स 
(मनोइच्छाओं) से टकराते हैं। वह उसकी दुनियादाराना सियासत पर रोक लगाते हैं। इसलिए 
आदमी इन अहकाम को नजरअंदाज करता है। वह हकीकी दीनदारी के जुऐ में अपने को डालने 
को तैयार नहीं होता। अलबत्ता कुछ मामूली और नुमाइशी चीजों की धूम मचाकर यह जाहिर 
करता है कि वह ख़ुदा के दीन पर पूरी तरह कायम है। मगर वह ख़ुदा के दीन का ख़ुदसाख़्ता 
(स्वनिर्मित) एडीशन तैयार करना है। यह दीन के उख़रवी (परलोकवादी) पहलू को नजरअंदाज 
करना है और दीन के कुछ वे पहलू जो अपने अंदर दुनियावी रौनक और शोहरत रखते हैं उनमें 
दीनदारी का कमाल दिखाना है। दीन में इस किस्म की जसारत (दुस्साहस) आदमी को अल्लाह 
के गजब का मुस्तहिक बनाती है न कि अल्लाह के इनाम का। 


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और हमने मूसा को किताब दी और इसके बाद पे दरपे रसूल भेजे। और ईसा बिन 
मरयम को खुली-खुली निशानियां दीं और रूहे पाक से उसकी ताईद की। तो जब भी 
कोई रसूल तुम्हारे पास वह चीज लेकर आया जिसे तुम्हारा दिल नहीं चाहता था तो 

तुमने घमंड किया। फिर एक जमाअत को झुठलाया और एक जमाअत को मार डाला। 





पारा ] 46 सूरह-2. अल-बकह 


और यहूद कहते हैं कि हमारे दिल महफूज (सुरक्षित) हैं। नहीं, बल्कि अल्लाह ने उनके 

इंकार की वजह से उन पर लानत कर दी है। इसलिए वे बहुत कम ईमान लाते हैं। 
और जब आई अल्लाह की तरफ से उनके पास एक किताब जो सच्चा करने वाली है 
उसे जो उनके पास है और वे पहले से मुंकिरों पर फतह मांगा करते थे। फिर जब आई 
उनके पास वह चीज जिसे उन्होंने पहचान रखा था तो उन्होंने इसका इंकार कर दिया। 
पस अल्लाह की लानत है इंकार करने वालों पर। केसी बुरी है वह चीज जिसमें उन्होंने 
अपनी जानों का मोल किया कि वे इंकार कर रहे हैं अल्लाह के उतारे हुए कलाम का 
इस जिद की बुनियाद पर कि अल्लाह अपने फज्ल से अपने बदों में से जिस पर चाहे 

उतारे। पस वे गुस्से पर गुस्सा कमा कर लाए और इंकार करने वालों के लिए जिल्लत 
का अजाब है। (87-90) 


तौरात अल्लाह की किताब थी जो यहूद (यहूदी जाति) पर उतरी थी। मगर धीरे-धीरे तौरात 
की हैसियत उनके यहाँ कमी तबरुक (जातीय शुभ वस्तु) की हो गई। कौमी अज्मत और नजात 
की अलामत के तौर पर यहूद अब भी उसे सीने से लगाए हुए थे। मगर रहनुमा किताब के मकाम 
से उसे उन्होंने हटा दिया था। मूसा (अलैहि०) के बाद बार-बार इनके दर्मियान अंबिया (ईशदूत) 
उठते, मसूलन यूशअ नबी, दाऊद नबी, जकरिया नबी, याहिया नबी वगैरह । उनके आखिरी नबी 
ईसा (अलैहि०) थे। ये तमाम अंबिया यहूद को यह नसीहत देने के लिए आए कि तौरात को 
अपनी अमली जिंदगियों में शामिल करो। मगर तौरात की पवित्रता पर ईमान रखने के बावजूद 
यह आवाज उनके लिए तमाम आवाजों से ज्यादा असहनीय साबित हुई। वे खुदा के नबियों को 
नबी मानने से इंकार करते, यहां तक कि उन्हें कत्ल कर डालते इसकी वजह यह थी कि तौरात 
के नाम पर वे जिस जिंदगी को अपनाए हुए थे वह हकीकत में नफ्सानियत (मनोइच्छाओं) और 
दुनियापरस्ती की एक जिंदगी थी जिसके ऊपर उन्होंने खुदा की किताब का लेबल लगा लिया था। 
ख़ुदा के नबी जब बेआमेज हक (विशुद्ध सत्य) की दावत पेश करते तो उन्हें नजर आता कि यह 
दावत उनकी मजहबी हैसियत को नकार रही है। अब उनके अंदर घमंड की नफ्सियात जाग 
उठतीं। वे नबियों के एतराफ के बजाए उन्हें ख़त्म करने के दरपे हो जाते। 

यही मामला अरब के यहूद ने मुहम्मद (सल्ल०) के साथ किया । वे अपनी धार्मिक पुस्तकों में 
आखिरी रसूल को भविष्यवाणी को देखकर कहते कि जब वह नबी आएगा तो हम उसके साथ 
मिलकर मुंकिरों और मुशरिकों को परास्त करेंगे मगर उनकी यह बात महज एक झूठी तकरीर थी जो 
अपने को धर्म का संरक्षक जाहिर करने के लिए वे करते थे। अतः “वह नबी? आया तो उनकी 
हकीकत खुल गई। उनके जाहिली तअस्सुबात (विद्वेष) अपने गिरोह से बाहर के एक नबी का 
एतराफ करने में रुकावट बन गए । कुरआन में आपकी सदाकत (सच्चाई) के बारे में जो वाजेह 
दलीलें दी जा रही थीं उनके जवाब से वे आजिज थे इसलिए वे कहने लगे कि तुम्हारी जाहिर-फरेब 
बातों से प्रभावित होकर हम अपने पूर्वजों का दीन नहीं छोड़ सकते। 





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सूरह-2. अल-क्रह 47 पारा । 
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और जब उनसे कहा जाता है उस कलाम पर ईमान लाओ जो अल्लाह ने उतारा है तो 
वे कहते हैं कि हम उस पर ईमान रखते हैं जो हमारे ऊपर उतरा है। और वे इसका 
इंकार करते हैं जो इसके पीछे आया है। हालांकि वह हक है और सच्चा करने वाला 
है उसे जो इनके पास है। कहो, अगर तुम ईमान वाले हो तो तुम अल्लाह के पैग़म्बरों 
को इससे पहले क्यों कत्ल करते रहे हो। और मूसा तुम्हारे पास खुली निशानियां लेकर 
आया। फिर तुमने उसके पीछे बछड़े को माबूद (पूज्य) बना लिया और तुम जुल्म करने 
वाले हो। और जब हमने तुमसे अहद (वचन) लिया और तूर पहाड़ को तुम्हारे ऊपर 
खड़ा किया जो हुक्म हमने तुम्हे दिया है उसे मजबूती के साथ पकड़ो और सुनो। 
उन्होंने कहा : हमने सुना और हमने नहीं माना। और उनके कुफ्र के सबब से बछड़ा 
उनके दिलों में रच-बस गया। कहो, अगर तुम ईमान वाले हो तो कैसी बुरी है वह चीज 
जो तुम्हारा ईमान तुम्हें सिखाता है। कहो, अगर अल्लाह के यहां आखिरत का घर ख़ास 
तुम्हारे लिए है, तो दूसरों को छोड़कर तुम मरने की आरजू करो अगर तुम सच्चे हो। 
मगर वे कभी इसकी आरजू नहीं करेंगे, इस सबब से वे जो अपने आगे भेज चुके हैं। 
और अल्लाह खूब जानता है जालिमों को। और तुम उन्हं जिंदगी का सबसे ज्यादा हीस 
(लालसा रखने वाला) पाओगे, उन लोगों से भी ज्यादा जो मुशरिक हैं। इनमें से हर 
एक यह चाहता है कि हजार वर्ष की उम्र पाए। हालांकि इतना जीना भी उसे अजाब 
से बचा नहीं सकता। और अल्लाह देखता है जो कुछ वे कर रहे हैं। (92-96) 


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पारा ] 48 सूरह-2. अल-बकह 





यहूद जो कुरआन की दावत (आह्वान) को मानने के लिए तैयार न हुए, इसकी वजह 
उनका यह एहसास था कि वे पहले से हक पर हैं और हकपरस्तों की सबसे बड़ी जमाअत (बनी 
इस्राईल) से संबंध रखते हैं। मगर यह दरअस्ल गिरोहपरस्ती थी जिसे उन्होंने हकपरस्ती के 
हम-मअना समझ रखा था। वे गिरोही हक को ख़ालिस हक का मकाम दिए हुए थे। यही वजह 
है कि हक (सत्य) जब अपने विशुद्ध रूप में जाहिर हुआ तो वे उसे लेने के लिए आगे न बढ़ 
सके। अगर ख़ालिस हक उनका मकसूद होता तो उनके लिए यह जानना मुश्किल न होता कि 
कुरआन का आना खुद उनकी मुकदूदस किताब तौरात की भविष्यवाणियों के मुताबिक है। और 
यह कि कुरआन के नजूल (अवतरण) के बाद अब कुरआन ही किताबे हक (दिव्य ग्रंध) है 
न कि उनका अपना गिरोही धर्म। 

उनका मामला दरहकीकत हकपरस्ती का मामला नहीं । इसका सुबूत उनके अपने इतिहास में 
यह है कि उन्हेंनि खुद अपने गिरोह के नबियों (मसलन हजरत जकरिया, हजरत याहिया) को कत्ल 
किया जिन्होंने उनकी जिंदगियों पर तंकीद (आलोचना) की, जो उनके खिलाफ गवाही देते थे ताकि 
उन्हें खुदा की तरफ बुलाएं । (तहमियाह 26 : 9) । हजरत मूसा ने जो मोजजे (चमत्कार) पेश किए 
इसके बाद उनकी नुबुव्वत में कोई शुबह नहीं रह गया था । मगर कोहेतूर के चालीस दिनों के कयाम 
(वास) के जमाने में जब हजरत मूसा का शख््सी दबाव उनके सामने न रहा तो उन्होंने बछड़े को माबूद 
(पूज्य) बना लिया । उनके सर पर पहाड़ खड़ा कर दिया गया, तब भी सिफ वक्ती तौर पर जान 
बचाने के लिए उन्होंने कह दिया कि हां हमने सुना । मगर इसके बाद उनकी अक्सरियत (बहुलसंख्या) 
बदस्तूर नाफरमानी की जिंदगी पर कायम रही । अगर वे सचमुच ख़ुदापरस्त होते तो उनकी सारी 
तवज्जोह खुदा की उस दुनिया की तरफ लग जाती जो मौत के बाद आने वाली है। मगर उनका हाल यह 
है कि वे सबसे ज्यादा मौजूदा दुनिया की मुहब्बत में डूबे हुए हैं। 


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सूरह-2. अल-क्करह 49 पारा 7 


कहो कि जो कोई जिब्रील का मुखालिफ है तो उसने इस कलाम को तुम्हारे दिल पर अल्लाह 

के हुक्म से उतारा है, वह सच्चा करने वाला है उसे जो उसके आगे है और वह हिदायत 
और खुशखबरी है ईमान वालों के लिए। जो कोई दुश्मन हो अल्लाह का और उसके 
फरिश्ता का और उसके रसूलों का और जिब्रील व मीकाईल का तो अल्लाह ऐसे मुंकिरों 
का दुश्मन है। और हमने तुम्हारे ऊपर वाजेह निशानियां उतारी और कोई इनका इंकार 
नहीं करता मगर वही लोग जो फासिक (अवज्ञाकारी) हैं। क्या जब भी वे कोई अहद 
(वचन) बाधेंगे तो उनका एक गिरोह उसे तोड़ फेंकेगा । बल्कि उनमें से अक्सर ईमान नहीं 
रखते। और जब उनके पास अल्लाह की तरफ से एक रसूल आया जो सच्चा करने वाला 

था उस चीज का जो उनके पास है तो उन लोगों ने जिन्हें किताब दी गई थी, अल्लाह की 
किताब को इस तरह पीठ पीछे फेंक दिया गोया वे इसे जानते ही नहीं। (97-02) 





प्राचीन काल में यहूद की सरकशी के नतीजे में बार-बार उन्हें सख़्त सजाएं दी गई। अल्लाह 
के तरीके के मुताबिक हर सजा से पहले पैगम्बरों की जबान से उसकी पेशगी ख़बर दी जाती। 
यह ख़बर अल्लाह की तरफ से जिब्रील फरिशते के जरिए पेगम्बर के पास आती और वह इससे 
अपनी कौम को आगाह करते। इस किस्म के वाकियात में असली सबक यह था कि आदमी 
को चाहिए कि वह अल्लाह की नाफरमानी से बचे ताकि वह अजाबे इलाही की जद में न आ 
जाए। मगर यहूद इन वाकियात से इस किस्म का सबक न ले सके। इसके बजाए वे कहने 
लगे, जिब्रील फरिश्ता हमारा दुश्मन है वह हमेशा आसमान से हमारे खिलाफ अहकाम लेकर आता 
है। जब मुहम्मद (सल्ल०) ने एलान किया कि अल्लाह ने जिब्रील के जरिए मुझ पर “वही? 
(ईश्वरीय वाणी का उतरना) की है तो यहूद ने कहना शुरू किया जिब्रील तो हमारा पुराना दुश्मन 
है। यही वजह है कि नुबुव्वत जो सिर्फ इस्नाईली गिरोह का हक था, इसे उसने एक अन्य कबीले 
के व्यक्ति तक पहुंचा दिया। 

इस किस्म की निरर्थक बातें सिर्फ वही लोग करते हैं जो फिस्क (उद्दंडता) और केरी 
(उन्मुक्ता) की जिंदगी गुजार रहे हों। यहूद का हाल यह था कि वे नफ्सपरस्ती, आबाई तकलीद 
(पूर्वजों का अंधानुकरण), नस्ली और कौमी विद्वेष की सतह पर जी रहे थे और कुछ नुमाइशी 
किस्म के मजहबी काम करके जाहिर करते थे कि वे ऐन दीने खुदावंदी पर कायम हैं। जो लोग 
इस किस्म की झूठी दीनदारी में मुब्तला हों, वे सच्चे और विशुद्ध धर्म का आह्वान सुन कर 
हमेशा बिगड़ जाते हैं । क्योंकि ऐसा आह्वान उन्हें उनके गर्व और अहंकार के स्थान से उतारने 
के समानार्थी नजर आता है। वे उत्तेजनापूर्ण मानसिकता के तहत ऐसी बातें बोलने लगते हैं जो 
अभिव्यक्ति के एतबार से दुरुस्त होने के बावजूद हकीकत के एतबार से बिल्कुल अर्थहीन होती 
हैं। जाहिर है कि फरिश्तों का आना और रसूलों का मबऊस होना सब मुकम्मल तौर पर खुदाई 
मंसूबे के तहत होता है। ऐसी हालत में जब दलीलें यह जाहिर कर रही हों कि पैगम्बरे अरबी 
(सल्ल०) के पास वही चीज आई है जो इब्राहीम, मूसा और ईसा पर आई थी और वह पिछले 
आसमानी सहीफों (दिव्य ग्रंथों) की भविष्यवाणियों के ऐन मुताबिक है तो यह स्पष्ट रूप से इस 


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पारा ] 50 सूरह-2. अल-बकह 


बात का सुबूत है कि वह अल्लाह की तरफ से है। आदमी बहुत-सी बातें यह जाहिर करने के 
लिए बोलता है कि वह ईमान पर कायम है। हालांकि वे बातें सिफ इस बात का सुबूत होती 
हैं कि आदमी का ईमान और ख़ुदापरस्ती से कोई ताल्लुक नहीं है। 


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और वे उस चीज के पीछे पड़ गए जिसे शैतान सुलेमान की सल्तनत पर लगा कर पढ़ते 
थे। हालांकि सुलैमान ने कुफ्र नहीं किया बल्कि ये शैतान थे जिन्होंने कुफ्र किया वे 
लोगों को जादू सिखाते थे। और वे उस चीज में पड़ गए जो बाबिल में दो फरिश्ता हारूत 
और मारूत पर उतारी गई, जबकि उनका हाल यह था कि जब भी किसी को अपना यह 
फन (कला) सिखाते तो उससे कह देते कि हम तो आजमाइश के लिए हैं। पस तुम 
मुंकिर न बनो। मगर वे उनसे वह चीज सीखते जिससे मर्द और उसकी औरत के 
दर्मियान जुदाई डाल दें। हालांकि वे अल्लाह के इज़्न (आज्ञा) के बगैर इससे किसी का 
कुछ बिगाड़ नहीं सकते थे। और वे ऐसी चीज सीखते जो उन्हें नुक्सान पहुंचाए और नफा 
न दे। और वे जानते थे कि जो कोई इस चीज का ख़रीदार हो, आख़िरत में उसका कोई 
हिस्सा नहीं। कैसी बुरी चीज है जिसके बदले उन्होंने अपनी जानों को बेच डाला। काश 
वे इसे समझते। और अगर वे मोमिन बनते और तकवा (ईशभय) इख्तियार करते तो 
अल्लाह का बदला उनके लिए बेहतर था, काश वे इसे समझते। (02-03) 





आसमानी किताब के धारक किसी गिरोह का बिगाड़ हमेशा सिर्फ एक होता है। आखिरत 
की नजात जो कि पूरी तरह नेक आमाल पर निर्भर है उसका राज बेअमली में तलाश कर लेना। 
अल्लाह का कलाम हकीकत में अमल की पुकार है। मगर जब कौम पर जवाल आता है तो 
उसके लोग मुकददस (पवित्र) कलाम को लिख लेने या जबान से बोल देने को हर किस्म की 


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सूरह-2. अल-क्रह हा पारा 7 





बरकतों का रहस्यमयी नुस्खा समझ लेते हैं। यही वह मनोवैज्ञानिक धरातल है जिसके ऊपर जादू, 
तंत्र-मंत्र और अमलियात वजूद में आते हैं। फिर तंत्र-मंत्र जैसी चीजों से जन्नत हासिल करने 
वाले दुनिया को भी छू-मंतर के जरिए हासिल करने की कोशिश में लग जाते हैं। बुजुर्गों से 
अकीदत (श्रद्धा) को नजात का जरिया समझने वाले रूहाँ से तअल्लुक कायम करके अपने 
दुनियावी मसाइल हल करने लगते हैं। विर्द और वजाइफ (तप-जप आदि) के तिलिस्माती 
असरात पर यकीन करने वाले सियासी चमत्कार दिखा कर मिल्लत की तामीर और दीन के अद्या 
(पुनरुत्थान) का मंसूबा बनाते हैं। 

यहूद अपने जवाल (पतन) के बाद जब बेअमली और तोहमपरस्ती (अंधविश्वास) की इस 
कैफियत में मुब्तला हुए तो उनके दर्मियान ऐसे लोग पैदा हुए जो सहर और कहानत (जादू और 
तंत्र-मंत्र) की दुकान लगा कर बैठ गए। इन जालिमों ने अपने कारोबार को चमकाने के लिए 
अपने इस फन (कला) को सुलैमान (अलैहि०) की तरफ मंसूब कर दिया । उन्होंने कहना शुरू 
किया कि सुलैमान को जिन्नों और हवाओं पर जो असाधारण वर्चस्व प्राप्त था वह सब इल्मे 
सहर की बुनियाद पर था और यह सुलैमानी इल्म कुछ जिन्नों के जरिए हमें हासिल हो गया 
है। इस तरह सुलैमान की तरफ मंसूब होकर अमलियात का फन यहूद के अंदर बड़े पैमाने पर 
फैल गया। 

लूत (अलैहि०) की कौम समलैंगिकता की बुराई में मुब्तला थी। इसलिए उनके यहां 
खूबसूरत लड़कों के रूप में फरिश्ते आए। इसी तरह यहूद की आजमाइश के लिए बाबिल में 
दो फरिश्ते भेजे गए जो दुरवेशों के भेष में अमलियात सिखाते थे। ताहम वे कहते रहते थे कि 
यह तुम्हारा इम्तहान है। मगर इस तंबीह के बावजूद वे इस फन पर टूट पड़े। यहां तक कि 
उन्होंने इसे नाजाइज उद्देश्यों में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। 


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पारा । 52 सूरह. अल-बकाह 


ऐ ईमान वालो तुम “राइना” न कहो, बल्कि “उंजुरना” कहो और सुनो। और कुफ्र करने 

वालों के लिए दर्दनाक सजा है। जिन लोगों ने इंकार किया, चाहे अहले किताब हों 
या मुशरिकीन, वे नहीं चाहते कि तुम्हारे ऊपर तुम्हारे रब की तरफ से कोई भलाई 
उतरे। और अल्लाह जिसे चाहता है अपनी रहमत के लिए चुन लेता है। अल्लाह बड़े 
फज्ल वाला है। हम जिस आयत को मोकू (निरस्त) करते हैं या भुला देते हैं तो इससे 

बेहतर या इस जैसी दूसरी लाते हैं। क्या तुम नहीं जानते कि अल्लाह हर चीज पर कुदरत 

रखता है। क्या तुम नहीं जानते कि अल्लाह ही के लिए आसमानां और जमीन की 
बादशाही है और तुम्हारे लिए अल्लाह के सिवा न कोई दोस्त है और न कोई मददगार । 
कया तुम चाहते हो कि अपने रसूल से सवालात करो जिस तरह इससे पहले मूसा से 
सवालात किए गए। और जिस शख्स ने ईमान को कुफ्र से बदल दिया वह यकीनन 
सीधी राह से भटक गया। (04-08) 





किसी को खुदा की तरफ से सच्चाई मिले और वह उसका दाओ (आह्वानकर्ता) बन कर 
खड़ा हो जाए तो लोग उसके मुखालिफ बन जाते हैं। क्योंकि उसके आह्वान में लोगों को अपनी 
हैसियत का नकार दिखाई देने लगता है। यहूद के लिए विरोध का यह सबब और भी शिद्दत 
के साथ मौजूद था। क्योंकि वे पैग़म्बरी को अपना कौमी हक समझते थे। उनके लिए यह बात 
असहनीय थी कि उनके गिरोह के सिवा किसी और गिरोह में ख़ुदा का पैगम्बर आए। यहूद 
मुहम्मद (सल्ल०) की दावत (आह्वान) के बारे में तरह-तरह की मजहबी बहसें छेड़ते ताकि लोगों 
को इस शुबह में डाल दें कि आप जो कुछ पेश कर रहे हैं वह महज एक शख्स की अपनी 
उपज है। वह खुदा की तरफ से आई हुई चीज नहीं है। इनमें से एक यह था कि कुरआन में 
कुछ कानूनी अहकाम तौरात से भिन्न थे। इन्हें देखकर वे कहते कि क्या ख़ुदा भी हुक्म देने 
में गलती करता है कि एक बार एक हुक्म दे और इसके बाद उसी मामले में दूसरा हुक्म भेजे। 
इसी तरह के शुब्हात यहूद ने इतनी अधिकता से फैलाए कि ख़ुद मुसलमानों में कुछ सादा-मिजाज 
लोग उनके बारे में अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्ल०) से सवालात करने लगे। इसके अलावा 
यह कि, जब यहूद आपकी मज्लिस में बैठते तो ऐसे अल्फाज बोलते जिससे आपका बेहकीकत 
होना जाहिर होता मसलन 'हमारी तरफ तवज्जोह कीजिए” के लिए अरबी भाषा में एक ख़ास 
शब्द 'उंजुरना' था, मगर वे इसे छोड़कर “राइना' कहते। क्योंकि थोड़ा-सा ख़ीचकर इसे 'राईना' 
कह दिया जाए तो इसका अर्थ 'हमारे चरवाहे' हो जाता है। इसी तरह कभी अलिफ को दबाकर 
वे इसे 'राइन' कहते जिसका अर्थ 'अहमक' (मूर्ख) होता है। 

हिदायत की गई कि (॥) गुप्तुगू में साफ अल्फाज इस्तेमाल करो। मुशतबह (संदिग्ध) 
अल्फाज मत बोलो जिसमें कोई बुरा पहलू निकल सकता हो। (2) जो बात कही जाए उसे गर 
से सुनो और उसे समझने की कोशिश करो । (3) सवाल की कसरत (बहुलता) आदमी को सीधे 
रास्ते से भटका देती है। इसलिए सवाल-जवाब के बजाए इबरत और नसीहत का जेहन पैदा 
करो। (4) अपने ईमान की हिफाजत करो, ऐसा न हो कि किसी गलती की बुनियाद पर तुम 
अपने ईमान ही से महरूम (वंचित) हो जाओ। (5) दुनिया में किसी के पास कोई खैर देखो 








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सूरह-2. अल-बकरह 53 पारा । 


तो हसद (ईषया) में मुब्तला न हो। क्योंकि यह अल्लाह की एक देन है, जो उसके फैसले के 
तहत उसके एक बंदे को पहुंचा है। 


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बहुत से अहले किताब दिल से चाहते हैं कि तुम्हारे मोमिन हो जाने के बाद वे किसी 
तरह फिर तुम्हें मुंकिर बना दें, अपने हसद (ईर्ष्या) की वजह से, बावजूद यह कि हक 
उनके सामने वाजेह हो चुका है। पस माफ करो और दरगुजर करो यहां तक कि अल्लाह 
का फैसला आ जाए। बेशक अल्लाह हर चीज पर वुदस्त रखता है। और नमाज कयम 
करो और जकात अदा करो। और जो भलाई तुम अपने लिए आगे भेजोगे उसे तुम 
अल्लाह के पास पाओगे। जो कुछ तुम करते हो अल्लाह यकीनन उसे देख रहा है। और 
वे कहते हैं कि जन्नत में सिर्फ वही लोग जाएँगे जो यहूदी हों या ईसाई हों, यह महज 
उनकी आरजुए हैं। कहो कि लाओ अपनी दलील अगर तुम सच्चे हो। बल्कि जिसने 


अपने आपको अल्लाह के हवाले कर दिया और वह मुख्लिस भी है तो ऐसे शख्स के लिए 
अज्र है उसके रब के पास, इनके लिए न कोई डर है और न कोई ग़म। (09-22) 





कुरआन की आवाज़ बहुत-से लोगों के लिए नामानूस (अपरिचित) आवाज थी ताहम इन्हीं 

में ऐसे लोग भी थे जो इसे अपने दिल की आवाज पाकर इसके दायरे में दाखिल होते जा रहे 
थे। यह सूरतेहाल यहूद के लिए असहनीय बन गई, क्योंकि यह एक ऐसी चीज की तरक्की 

के समान थी जिसे वे बेहकीकत समझ कर नजरअंदाज किए हुए थे। उन्होंने यह किया कि एक 

तरफ मुशरिकों को उभार कर उन्हें इस्लाम के खिलाफ जंग पर आमादा कर दिया, दूसरी तरफ 

वे नए इस्लाम कुबूल करने वालों को तरह-तरह के शुब्हात और मुग़ालतों (भ्रमों) में डालते, ताकि 
वे कुरआन और कुरआन पेश करने वाले से बदजन हो जाएं और दुबारा अपने आबाई (पितृक) 

मजहब की तरफ वापस चले जाएं। इसके नतीजे में मुसलमानों के अंदर यहूद के खिलाफ 


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पारा 7 54 सूरह2. अल-बकाह 
इश्तेआल (आक्रोश) पैदा होना फितरी था। मगर अल्लाह ने इससे उन्हें मना फरमा दिया । हुक्म 
हुआ कि यहूद से बहस या उनके ख़िलाफ कोई आक्रामक कार्रवाई मौजूदा मरहले में हरगिज 
न की जाए। इस मामले में तमामतर अल्लाह पर भरोसा किया जाए और उस वक्त का इंतजार 
किया जाए जब अल्लाह तआला हालात में ऐसी तब्दीली कर दे कि उनके खिलाफ कोई 
फैसलाकुन कार्रवाई करना मुमकिन हो जाए। बरवक्त मुसलमानों को चाहिए कि वे सब्र करें 
और नमाज और जकात पर मजबूती से कायम हो जाएं। सब्र आदमी को इससे बचाता है कि 
वह रद्देअमल (प्रतिक्रिया) की नपिसयात के तहत मनफी (नकारात्मक) कार्वाइयां करने लगे। 
नमाज आदमी को अल्लाह से जोड़ती है और अपने माल में से दूसरे भाइयों को हकदार बनाना 
वह चीज है जिससे आपसी खैरख्ाही और इत्तेहाद की फजा पैदा होती है। 
नऐ इस्लाम लाने वालों से वे कहते कि तुम्हें अपना पैतृक धर्म छोड़ना है तो यहूदियत 
अपना लो या फिर ईसाई बन जाओ। क्योंकि जन्नत तो यहूदियों और ईसाइयों के लिए है जो 
हमेशा से नबियों और बुजुर्गों की जमाअत रही है। फरमाया कि किसी गिरोह से वाबस्तगी किसी 
को जन्नत का हकदार नहीं बनाती । जन्नत का फैसला आदमी के अपने अमल की बुनियाद 
पर किया जाता है न कि गिरोही फजीलत की बुनियाद पर | एहसान के मअना हैं किसी काम 
को अच्छी तरह करना । इस्लाम में अच्छा होना यह है कि अल्लाह के लिए आदमी की हवालगी 
इतनी कामिल हो कि हर दूसरी चीज की अहमियत उसके जेहन से मिट जाए । गिरोही तअस्सुबात 
शख्सी वफादारियां और दुनियावी हित-स्वार्थ कोई भी चीज उसके लिए अल्लाह की आवाज की 


तरफ दौड़ पड़ने में रुकावट न बने। 
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सूरह-2. अल-ककरह 55 पारा 7 


और यहूद ने कहा कि नसारा (ईसाई) किसी चीज पर नहीं और नसारा ने कहा कि 
यहूद किसी चीज पर नहीं। और वे सब आसमानी किताब पढ़ते हैं। इसी तरह उन 
लोगों ने कहा जिनके पास इलम नहीं, उन्हीं का सा कौल। पस अल्लाह कियामत के 

दिन इस बात का फेसला करेगा जिसमें ये झगड़ रहे थे। और उससे बढ़कर जालिम और 

कौन होगा जो अल्लाह की मस्जिदों को इससे रोके कि वहां अल्लाह के नाम की याद 
की जाए और उन्हें उजाइने की कोशिश करे। उनका हाल तो यह होना चाहिए था कि 
मस्जिदों में अल्लाह से डरते हुए दाखिल हों। उनके लिए दुनिया में रुस्वाई है और 
आख़िरत में उनके लिए भारी सजा है। और पूरब और पश्चिम अल्लाह ही के लिए है। 
तुम जिधर रुख़ करो उसी तरफ अल्लाह है। यकीनन अल्लाह वुस्अत (व्यापकता) वाला 

है, इलम वाला है। और कहते हैं कि अल्लाह ने बेटा बनाया है। वह इससे पाक है। 
बल्कि आसमानों और जमीन में जो कुछ है सब उसी का है। उसी का हुक्म मानने वाले 

हैं सारे। वह आसमानों और जमीन को वुजूद में लाने वाला है। वह जब किसी काम 
को करना तै कर लेता है तो बस उसके लिए फरमा देता है कि हो जा तो वह हो जाता 
है। (।3-I7) 





यहूद ने नबियों और बुजुगों से वाबस्तगी (संबंध स्थापना) को हक का मेयार (मापदंड) बनाया। 
इस वजह से उन्हें अपनी कैम हक (सत्य) पर और दूसरी कैम बातिल (असत्य) पर नजर आई। 
ईसाइयों ने अपने अंदर यह विशिष्टता देखी कि अल्लाह ने अपना 'इकलौता बेटा” उनके पास 
भेजा । मक्का के मुशरिकीन अपनी यह विशिष्टता समझते थे कि वे अल्लाह के मुकद्दस (पवित्र) 
घर के पासबान हैं। इस तरह हर गिरोह ने अपने हस्वेहाल हक व सदाकत का एक स्वनिर्मित मेयार 
बना रखा था और जब इस मेयार की रोशनी में देखता तो लामुहाला उसे अपनी जात बरसरेहक 
और दूसरों की बरसरे बातिल नजर आती । मगर उनकी अमली हालत जिस चीज का सुबूत दे रही 
थी वह इसके बिल्कुल बरअक्स (विपरीत) थी। वे गिरोह-गिरोह बने हुए थे। उनमें से किसी को 
जब भी मौका मिलता, वह इबादत के लिए बने हुए खुदा के घर को अपने गिरोह के अलावा दूसरे 
गिरोह के लिए बंद कर देता। और इस तरह ख़ुदा के घर की वीरानी का सबब बनता । इबादतख़ाना 
तो वह मकाम है जहां इंसान अल्लाह से डरते हुए और कांपते हुए दाखिल हो। अगर ये लोग वाकई 
ख़ुदा वाले होते तो कैसे मुमकिन था कि वे इबादत के लिए आने वाले किसी बंदे को रोकें या उसे 
सताएं। वे तो अल्लाह की अज्मत के एहसास से दबे हुए होते। फिर उनमें इस किस्म की सरकशी 
कैसे हो सकती थी। 

उन्होंने अल्लाह को इंसान के ऊपर कयास किया । एक इंसान अगर मशरिक में हो तो उसी 
वक्त वह मगरिब में नहीं होगा वे समझते हैं कि खुदा भी इसी तरह किसी ख़ास दिशा में मौजूद 
है। यकीनन अल्लाह ने अपनी इबादत के लिए रुख़ का निर्धारण किया है मगर वह इबादत की 
तंजीमी जरूरत की बुनियाद पर है, न इसलिए कि खुदा इसी ख़ास रुख़ में मिलता है। इसी तरह 
इंसानों पर कयास करते हुए उन्होंने खुदा का बेटा मान्य कर लिया । हालांकि ख़ुदा इस किस्म की 
चीजों से बुलंद और बरतर है। जो लोग इस तरह खुदसाख्ता (स्वनिर्मित) दीन को ख़ुदा का दीन 
बताएं, उनके लिए ख़ुदा के यहां रुस्वाई और अजाब के सिवा और कुछ नहीं। 





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पारा ] ड सूरह-2. अल-बकाह 


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और जो लोग इलम नहीं रखते, उन्होंने कहा : अल्लाह क्यों नहीं कलाम करता हमसे 
या हमारे पास कोई निशानी क्यों नहीं आती। इसी तरह उनके अगले भी उन्हीं की-सी 
बात कह चुके हैं, इन सबके दिल एक जैसे हैं, हमने पेश कर दी हैं निशानियां उन लोगों 
के लिए जो यकीन करने वाले हैं। हमने तुम्हें ठीक बात लेकर भेजा है, खुशखबरी सुनाने 
वाला और डराने वाला बना कर। और तुम से दोजख़ में जाने वालों की बाबत कोई 
पूछ नहीं होगी। और यहूद और नसारा हरगिज तुमसे राजी नहीं होंगे जब तक कि तुम 

उनके पंथ पर न चलने लगो। तुम कहो कि जो राह अल्लाह दिखाता है वही अस्ल राह 
है। और अगर बाद उस इलम के जो तुम तक पहुंच चुका है तुमने उनकी ख़्वाहिशों की 
पैरवी की तो अल्लाह के मुकाबले में न तुम्हारा कोई दोस्त होगा और न कोई मददगार । 
जिन लोगों को हमने किताब दी है वे इसे पढ़ते हैं जैसा कि हक है पढ़ने का। यही 
लोग ईमान लाते हैं इस पर। और जो इसका इंकार करते हैं वही घाटे में रहने वाले 
हैं। (8-2]) 


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अल्लाह के वे बंदे जो अल्लाह की तरफ से उसके दीन (धर्म) का एलान करने के लिए आए, 
उन्हें हर जमाने में एक ही किस्म की प्रतिक्रिया का सामना हुआ। “अगर तुम खुदा के नुमाइदे हो 
तो तुम्हारे साथ दुनिया के ख़जाने क्‍यों नहीं। यह शुबह उन लोगों को होता है जो अपने 
दुनियापरस्ताना मिजाज की वजह से मादूदी (भौतिक) बड़ाई को बड़ाई समझते थे। इसलिए वे खुदा 
की नुमाइंदगी करने वाले में भी यही बड़ाई देखना चाहते थे। जब हक के दाजी (आवाहक) की 
जिंदगी में उन्हें इस किस्म की बड़ाई दिखाई न देती तो वे इसका इंकार कर देते। उनकी समझ 
में न आता कि एक “मामूली आदमी” क्‍यों कर वह शख्स हो सकता है जिसे जमीन व आसमान 
के मालिक ने अपने पैगाम की पैगामरसानी के लिए चुना हो। अल्लाह के इन बंदों की जिंदगी 


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सूएह-2. अल-बकरह 57 पारा । 


और उनके कलाम में अल्लाह अपनी निशानियों की सूरत में शामिल होता। दूसरे शब्दों में सार्थक 
बड़ाइयां पूरी तरह उनके साथ होतीं। मगर इस किस्म की चीजें लोगों को नजर न आतीं। इसलिए 
वे उन्हें 'बड़ा' मानने के लिए भी तैयार न होते। दलील अपनी कामिल सूरत में मौजूद होकर भी 
उनके जेहन का जुज न बनती, क्योंकि वह उनके मिजाजी ढांचे के मुताबिक न होती। 

यहूद और नसारा (ईसाई) कदीम जमाने में आसमानी मजहब के नुमाईदे थे। मगर जवाल का 
शिकार होने के बाद दीन उनके लिए एक गिरोही तरीका होकर रह गया था। वे अपने गिरोह से 
जुड़े रहने को दीन समझते और गिरोह से अलग हो जाने को बेदीनी । उनके गिरोह में शामिल होना 
या न होना ही उनके नजदीक हक और नाहक का मेयार बन गया था। जब दीन अपनी बेआमेज 
सूरत (विशुद्ध रूप) में उनके सामने आया तो उनका गिरोही दीनदारी का मिजाज इसे कुबूल न 
कर सका । हकीकत यह है कि बेआमेज दीन को वही अपनाऐगा जिसने अपनी फितरत कोजि 
रखा है। जिनकी फितरत की रोशनी बुझ चुकी है उनसे किसी किस्म की कोई उम्मीद नहीं। दीन 
को ऐसे लोगों के लिए काबिले कुबूल बनाने के लिए दीन को बदला नहीं जा सकता। 


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ऐ बनी इस्राईल मेरे उस एहसान को याद करो जो मैंने तुम्हारे ऊपर किया और उस 
बात को कि मैंने तुम्हं दुनिया की तमाम कौमा पर फजीलत दी। और उस दिन से डरो 

जिसमें कोई शख्स किसी शख्स के कुछ काम न आयेगा और न किसी की तरफ से कोई 
मुआवजा कबूल किया जायेगा और न किसी को कोई सिफारिश फायदा देगी और न 

कहीं से उन्हें कोई मदद पहुंचेगी। और जब इब्राहीम को उसके रब ने कई बातों में 
आजमाया तो उसने पूरा कर दिखाया। अल्लाह ने कहा मैं तुम्हें सब लोगों का इमाम 
बनाऊंगा। इब्राहीम ने कहा : और मेरी औलाद में से भी। अल्लाह ने कहा : मेरा अहद 
(वचन) जालिमों तक नहीं प्हुंचता। (।22-।24) 





बनी इस्राईल को इस ख़ास काम के लिए चुना गया था कि वह दुनिया की तमाम कौमों को 
अल्लाह की तरफ बुलायें और उन्हें इस हकीकत से आगाह करें कि उनके आमाल के बारे में उनका 
मालिक उनसे सवाल करने वाला है। इस काम की रहनुमाई के लिए उनके दर्मियान मुसलसल 
पैगम्बर आते रहे। इब्राहीम, याकूब, यूसुफ, मूसा, दाऊद, सुलेमान, जकरिया, याहिया, ईसा, 





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पारा 7 58 सूरह-2. अल-बकरह 


अलैहिमुस्सलाम वगैरह । मगर बाद के जमाने में जब बनी इस्राईल पर जवाल आया तो उन्होंने इस 
मंसबी फजीलत को नस्ली और गिरोही फनीलत के मअना मेले लिया और इस तरह इस की बाबत 
अपने इस्तहकाक (पात्रता) को खो दिया । इस्माईली ख़ानदान में नबीए अरबी का आना दरअस्ल 
बनी इस्राईल की फजीलत के मकम से माजूली और इसकी जगह बनी इस्माईल की नियुक्ति का 
एलान था। बनी इस्राईल में जो लोग वाकई खुदापरस्त थे उन्हें यह समझने में देर नहीं लगी कि 
हजरत मुहम्मद (सल्ल०) जो कलाम पेश कर रहे हैं वह खुदा की तरफ से आया हुआ कलाम है। 
मगर जो लोग गिरोही तअस्सुबात (विद्वेष) को दीन बनाए हुए थे उनके लिए अपने से बाहर किसी 
फमैलत का एतराफ करना मुमकिन न होसका। 

हजरत मुहम्मद (सल्ल०) के जरिए उन्हें सचेत किया गया कि याद रखो आरिरित में हकीकी 
ईमान और सच्चे अमल के सिवा किसी भी चीज की कोई कीमत न होगी। दुनिया में एक शख्स 
दूसरे शख्स का भार अपने सिर ले लेता है। किसी मामले में किसी की सिफारिश काम आ जाती 
है। कभी मुआवजा देकर आदमी छूट जाता है। कभी कोई मददगार मिल जाता है जो पुश्तपनाही 
करके बचा लेता है। मगर आख़िरत में इस किस्म की कोई चीज किसी के काम आने वाली नहीं। 
आखिरत किसी गिरोह की नस्ली विरासत नहीं, वह अल्लाह के बेलाग इंसाफ का दिन है। इब्राहीम 
(अलैहि०) को जो फजीलत का दर्जा मिला इसका फैसला उस वकत किया गया जब वह कै जांच 
में खुदा के सच्चे फरमांबरदार साबित हुए। अल्लाह की यही सुन्नत उनकी नस्ल के बारे में भी 
है कि जो अमल मे पूरा उतरेगा वह इस इलाही वादे में शरीक होगा। और जो अमल की तराजू 
पर अपने को सच्चा साबित न कर सके उसका वही अंजाम होगा जो इस किस्म के दूसरे मुजरिमों 
के लिए अल्लाह के यहां मुरकर है। हजरत इब्राहीम (अलैहि०) को निहायत कड़ी आजमाइशों के 
बाद पेशवाई का मकाम दिया गया। इससे मालूम हुआ कि इमामत और कयादत के मंसब का 
इस्तहकक (पत्रता) कनियेंके जरिए हासिल हेता है। कनी की वीमत पर किसी मक्सद को 
अपनाने वाला उस मकसद की राह में सबसे आगे होता है। इसलिए कुदरती तौर पर वही उसका 
कायद (प्रमुख, नायक) बनता है। 


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और जब हमने काबे को लोगों के इज्तिमाअ की जगह और अम्न का मकाम ठहराया 
और हुक्म दिया कि मकामे इब्राहीम को नमाज पढ़ने की जगह बना लो। और इब्राहीम 











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सूएह-2. अल-बकरह 59 पारा । 


और इस्माईल को ताकीद की कि मेरे घर को तवाफ (परिक्रमा) करने वालों, एतकाफ 

करने वालों और रुकूअ व सज्दे करने वालों के लिए पाक रखो। और जब इब्राहीम ने 
कहा के ऐ मेरे रब इस शहर को अम्न का शहर बना दे। और इसके बाशिंदों को, जो 
इनमें से अल्लाह और आखिरत के दिन पर ईमान रखें, फलों की रोजी अता फरमा। 
अल्लाह ने कहा जो इंकार करेगा में उसे भी थोड़े दिनों फायदा दूंगा। फिर उसे आग 

के अजाब की तरफ धकेल दूंगा, और वह बहुत बुरा ठिकाना है। (25-26) 


सारी दुनिया के अहले ईमान हर साल अपने वतन को छोड़कर बैतुल्लाह (काबा) आते 
हैं। यहां किसी के लिए किसी जीहयात (जीव) पर ज्यादती करना जाइज नहीं। हरमे काबा को 
दाइमी (स्थाई) तौर पर इबादत की जगह बना दिया गया है। इस मकाम को हर किस्म की 
आलूदगियों (गंदगियों) से पाक रखा जाता है। काबे का तवाफ (परिक्रमा) किया जाता है। दुनिया 
से अलग होकर अल्लाह की याद की जाती है। और अल्लाह के लिए रुकूअ और सिज्दे किए 
जाते हैं। कदीम जमाने में यह दुनिया का सबसे ज्यादा खुश्क इलाका था, जहां रेतीली जमीनों 
और पथरीली चट्टानों की वजह से कोई फसल पैदा नहीं होती थी इसके अलावा यह कि वह 
इंतिहाई तौर पर असुरक्षित था। चार हजार वर्ष पहले हजरत इब्राहीम (अलैहि०) को हुक्म हुआ 
कि अपने ख़ानदान को इस इलाके में ले जाओ और उसे वहां बसा दो। हजरत इब्राहीम 
(अलैहि०) ने बिना किसी संकोच के इस हुक्म का पालन किया। और जब खानदान को इस 
निर्जन स्थान पर पहुंचा चुके तो दुआ की कि ख़ुदाया मैंने तेरे हुक्म की तामील कर दी। अब 
तू अपने बंदे की पुकार सुन ले और इस बस्ती को अम्न व अमान की बस्ती बना दे। और 
इस रुक जमीन पर इनके लिए ुसूसी रि्कि का इंतजाम फरमा । दुआ कुबूल हुई और इसी 
का यह नतीजा है कि यह इलाका आज तक अम्न और रिज्क की कसरत (बहुलता) का नमूना 
बना हुआ है। 

मोमिन को दुनिया में इस तरह रहना है कि वह बार-बार याद करता रहे कि वह चाहे दुनिया 
के किसी गोशे में हो उसे बहरहाल लौट कर एक दिन ख़ुदा के पास जाना है। वह जिन इंसानों 
के दर्मियान रहे बेजरर (अहानिकारक) बन कर रहे | वह जमीन को खुदा की इबादत की जगह 
समझे और इसे अपनी गन्दगियों से पाक रखे | उसकी पूरी जिंदगी ख़ुदा के गिर्द घूमती हो। वह 
बजाहिर दुनिया में रहे मगर उसका दिल अपने रब में अटका हुआ हो। वह हमहतन (पूर्णरूपेण) 
अल्लाह के आगे झुक जाये। फिर यह कि दीन जिस चीज का तकाजा करे चाहे वो एक चटयल 
मैदान में बीवी बच्चों को ले जाकर डाल देना हो, बंदा पूरी वफादारी के साथ इसके लिए राजी 
हो जाये। और जब हुक्म को तामील कर चुके तो ख़ुदा से मदद की दरख्वास्त करे। अजब नहीं 
कि ख़ुदा अपने बंदे की ख़ातिर चटयल बयाबान में रिज्क के चश्मे जारी कर दे। 

दुनिया की रौनक चाहे किसी को दीन के नाम पर मिले, इस बात का सुबूत नहीं है कि 
अल्लाह ने उसको इमामत और पेशवाई के मंसब के लिए कुबूल कर लिया है। दुनिया की चीजें 
सिर्फ आजमाइश के लिए हैं जो सबको मिलती हैं। जबकि इमामत यह है कि किसी बंदे को 
कौमों के दर्मियान खुदा की नुमाइंदगी के लिए चुन लिया जाये। 


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पारा 7 60 सूरह-2. अल-बकरह 
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और जब इब्राहीम और इस्माईल बैतुल्लाह की दीवारें उठा रहे थे और यह कहते जाते थे : ऐ 
हमारे रब, कुबूल कर हमसे, यकीनन तू ही सुनने वाला जानने वाला है। ऐ हमारे रब हमें 

अपना फरमांबरदार बना और हमारी नस्ल में से अपनी एक फरमांबरदार उम्मत उठा और 

हमे हमारे इबादत के तरीके बता और हमको माफ फरमा, तू माफ करने वाला रहम करने 

वाला है। ऐ हमारे रब और इनमें इन्हीं में का एक रसूल उठा जो इन्हें तेरी आयतें सुनाये और 
इन्हें किताब और हिकमत की तालीम दे और इनका तज्किया (पवित्रीकरण, शुद्धीकरण) 
करे। बेशक तू जबरदस्त है हिक्मत वाला है। (27-29) 





अल्लाह का यह फैसला था कि वह हिजाज (अरब) को इस्लाम की दावत का आलमी मर्कज 
बनाये। इस मर्कज के कयाम और इतेजाम के लिए हजरत इब्राहीम और उनकी औलाद को 
चुना गया । बैतुल्लाह की तामीर के वक्‍त इब्राहीम (अलैहि०) और इस्माईल (अलैहि०) की जबान 
से जो कलिमात निकल रहे थे वह एक एतबार से दुआ थे और दूसरे एतबार से वह दो रूहों 
का अपने आप को अल्लाह के मंसूबे में दे देने का एलान था। ऐसी दुआ ख़ुद मतलूबे इलाही 
होती है। चुनांचे वह पूरी तरह कुबूल हुई। अरब के ख़ुश्क बियाबान से इस्लाम का अबदी चश्मा 
फूट निकला । बनी इस्माईल के दिल अल्लाह तआला ने खास तौर पर अपने दीन की ख़िदमत 
के लिए नर्म कर दिये। उनके अंदर से एक ताकतवर इस्लामी दावत बरपा हुई। इनके जरिये 
से अल्लाह ने अपने बंदों को वह तरीके बताये जिनसे वह खुश होता है और अपनी रहमत के 
साथ उनकी तरफ मुतवज्जह होता है। फिर उन्हीं के अंदर से उस आखिरी रसूल की बैअसत 
हुई जिसने तारीख़ में पहली बार यह किया कि कारे नुबुव्वत को एक मुकम्मल तारीख़ी नमूने 
की सूरत में कायम कर दिया। 

नबी का पहला काम आयतों की तिलावत है। आयत के मअना निशानी के हैं। यानी वह 
चीज जो किसी चीज के ऊपर दलील बने । इंसान की फितरत में और बाहर की दुनिया में अल्लाह 
तआला ने अपनी मअरफत (अन्तज्ञन) की बेशुमार निशानियां रख दी हैं। ये इशारों की सूरत में 
हैं। पैग़म्बर इन इशारों को खोलता है। वह आदमी को वह निगाह देता है जिससे वह हर चीज में 
अपने रब का जलवा देखने लगे । किताब से मुराद कुरआन है। नबी का दूसरा काम यह है कि वह 
अल्लाह की “वही” (ईशवरीयवाणी) का वाहक बनता है और उसे ख़ुदा से लेकर इंसानों तक 








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सूरह-2. अल-बकरह 6] पारा । 


पहुंचाता है। हिक्मत” का मतलब है तत्वदर्शिता, सूझबूझ । जब आदमी खुदा की निशानियों को 
देखने की नजर पैदा कर लेता है, जब वह अपने जेहन को कुरआन की तालीमात (शिक्षाओं) में 

ढाल लेता है तो उसके अंदर एक फिक्री (वैचारिक) रोशनी जल उठती है। वह अपने आपको 
हकीकते आला (परम सत्य) के हमशुऊर (समचेतन) बना लेता है। वह हर मामले में उस सही 

फैसले तक पहुंच जाता है जो अल्लाह तआला को मत्लूब (अपेक्षित) है। 'तज्किया' का मतलब 

है किसी चीज को प्रतिकूल तत्वों से शुद्ध कर देना ताकि वह अनुकूल वातावरण में अपनी 
स्वाभाविक उत्कृष्टता तक पहुंच सके नबी की आखिरी कोशिश यह होती है कि ऐसे इंसान 
तैयार हों जिनके सीने अल्लाह की अकीदत (श्रद्धा) के सिवा हर अकीदत से ख़ाली हों । ऐसी रूहें 

वजूद में आएं जो नफ्सियाती पेचीदगियों से आजाद हों। ऐसे अफराद पैदा हों जो कायनात से वह 

रब्बानी रिज्क पा सकें जो अल्लाह ने अपने मोमिन बंदों के लिए रख दिया है। 


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और कौन है जो इब्राहीम के दीन को पसंद न करे मगर वह जिसने अपने आपको 
अहमक (मूर्ख बना लिया हो। हालांकि हमने उसे दुनिया में चुन लिया था और 
आख़िरत में वह स्वालेहीन (सत्यवादी लोगों) में से होगा। जब उसके रब ने कहा कि 
अपने आपको हवाले कर दो तो उसने कहा : मैंने अपने आपको सारे जहान के रब के 
हवाले किया। और इसी की नसीहत की इब्राहीम ने अपनी औलाद को और इसी की 
नसीहम की याकूब ने अपनी औलाद को। ऐ मेरे बेटो! अल्लाह ने तुम्हारे लिए इसी 
दीन को चुन लिया है। पस इस्लाम के सिवा किसी और हालत पर तुम्हें मौत न आए। 
क्या तुम मौजूद थे जब याकूब की मोत का वक्‍त आया। जब उसने अपने बेटों से कहा 

कि मेरे बाद तुम किसकी इबादत करोगे। उन्होंने कहा : हम उसी खुदा की इबादत 
करेंगे जिसकी इबादत आप और आपके बुजुर्ग इब्राहीम, इस्माईल, इस्हाक करते आए 





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पारा ] 62 सूरह-2. अल-बकह 


हैं। वही एक माबूद है और हम उसके फरमांबरदार हैं। यह एक जमाअत थी जो गुजर 
गई। उसे मिलेगा जो उसने कमाया और तुम्हें मिलेगा जो तुमने कमाया। और तुमसे 
उनके किए हुए की पूछ न होगी। (30-734) 


अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्ल०) की दावत ऐन वही थी जो हजरत इब्राहीम (अलैहि०) 
की दावत थी। मगर यहूद जो इब्राहीम (अलैहि०) का पैरो होने पर फख़ करते थे, आपकी दावत 
के सबसे बड़े मुखालिफ बन गए। इसकी वजह यह थी कि पेगम्बरे अरबी (सल्ल०) जिस 
इब्राहीमी दीन को तरफ लोगों को बुलाते थे वह “इस्लाम” था। यानी अल्लाह के लिए कामिल 
हवालगी और सुपुर्दगी (पूर्ण समर्पण) । कुरआन के मुताबिक यही इब्राहीम (अलैहि०) का दीन 
था और अपनी औलाद को उन्होंने इसी की वसीयत की। इसके विपरीत यहूद ने इब्राहीम 
(अलैहि०) की तरफ जो दीन मंसूब कर रखा था उसमें हवालगी और सुपुर्दगी (पूर्ण समर्पण) 
का कोई सवाल नहीं था। इसमें आजादाना जिंदगी गुजारते हुए महज घटिया परिकल्पनाओं के 
तहत जन्नत की जमानत हासिल हो जाती थी। मुहम्मद (सल्ल०) के लाए हुए दीन में निजात 
का दारोमदार तमामतर अमल पर था। जबकि यहूद ने “अल्लाह के प्रिय बंदों' की जमाअत से 
वाबस्तगी और अकीदत को नजात के लिए काफी समझ लिया था। मुहम्मद (सल्ल०) के 
नजदीक दीन आसमानी हिदायत का नाम था और यहूद के नजदीक महज एक गिरोही मज्मूजे 
का नाम था जो नस्ली रिवायतों और कौमी परिकल्पनाओं के तहत एक ख़ास सूरत में बन गया 
था। 

माजी (अतीत) या हाल के बुजुर्गों से अपने को मंसूब करके यह इत्मीनान हासिल होता है 
कि हमारा अंजाम भी इन्हीं के साथ होगा । हमारे अमल की कमी इनके अमल की ज्यादती से पूरी 
हो जाएगी । यहूद इस ख़ुशफहमी को यहां तक ले गए कि उन्होंने 'नजाते मुतावारिस' (पैतृक 
मुक्ति) का अकीदा गढ़ लिया । इन्होंने अपनी तमाम उम्मीदें बुजुर्गों की पवित्रता पर कायम कर 
लीं। मगर यह नफ्सियाती फरेब के सिवा कुछ नहीं। हर एक के आगे वही आएगा जो उसने 
किया | एक से न दूसरे के जुर्मो की पूछ होगी और न एक को दूसरे की नेकियों में से कुछ हिस्सा 
मिलेगा । हर एक अपने किए के मुताबिक अल्लाह के यहां बदला पाएगा। “तुम न मरना मगर 
इस्लाम पर” यानी अपने आपको अल्लाह के हवाले करने में रुकावटें आएंगी । तुम्हारी तमन्नाओं 
की इमारत गिरेगी, फिर भी तुम आखिरी वक्‍त तक इस पर कायम रहना । 


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सूरह-2. अल-बकरह 63 पारा 7 
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और कहते हैं कि यहूदी या ईसाई बन जाओ तो हिदायत पाओगे। कहो कि नहीं, बल्कि 
हम तो पैरवी करते हैं इब्राहीम के दीन की जो अल्लाह की तरफ यकसू (एकाग्रचित्त) 

था और वह शरीक करने वालों में न था। कहो हम अल्लाह पर ईमान लाए और उस 
चीज पर ईमान लाए जो हमारी तरफ उतारी गई है। और उस पर भी जो इब्राहीम, 
इस्माईल, इस्हाक, याकूब और उसकी औलाद पर उतारी गई और जो मिला मूसा और 

ईसा को और जो मिला सब नबियों को उनके रब की तरफ से। हम इनमें से किसी 

के दर्मियान फर्क नहीं करते और हम अल्लाह ही के फरमांबरदार हैं। फिर अगर वे ईमान 

लाएं जिस तरह तुम ईमान लाए हो तो बेशक वे राह पा गए और अगर वे फिर जाएं 
तो अब वे जिद पर हैं। पस तुम्हारी तरफ से अल्लाह इनके लिए काफी है और वह सुनने 

वाला जानने वाला है। कहो हमने लिया अल्लाह का रंग और अल्लाह के रंग से किसका 
रंग अच्छा है और हम उसी की इबादत करने वाले हैं। कहो क्या तुम अल्लाह के बारे 
में हमसे झगड़ते हो। हालांकि वह हमारा रब भी है और तुम्हारा रब भी। हमारे लिए 
हमारे आमाल हैं और तुम्हारे लिए तुम्हारे आमाल हैं। और हम ख़ालिस उसके लिए हैं। 
क्या तुम कहते हो कि इब्राहीम और इस्माईल और इस्हाक और याकूब और उसकी 
औलाद सब यहूदी या ईसाई थे। कहो कि तुम ज्यादा जानते हो या अल्लाह। और 
उससे बड़ा जालिम और कौन होगा जो उस गवाही को छुपाए जो अल्लाह की तरफ से 

उसके पास आई हुई है। और जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उससे बेखबर नहीं। यह 
एक जमाअत थी जो गुजर गई। उसे मिलेगा जो उसने कमाया और तुम्हें मिलेगा जो 
तुमने कमाया। और तुमसे उनके किए हुए की पूछ न होगी। (85-4॥) 


पारा । 64 सूरह-2. अल-बकरह 
मुहम्मद (सल्ल०) जिस दीन की तरफ बुलाते थे वह वही इब्राहीमी दीन था जिससे यहूद 

और ईसाई अपने को मंसूब किए हुए थे। फिर वे आपके विरोधी क्यों हो गए। वजह यह थी 

कि मुहम्मद (सल्ल०) की दावत के मुताबिक दीन यह था कि आदमी अपनी जिंदगी को अल्लाह 

के रंग में रंग ले, वह हर तरफ से यकसू होकर अल्लाह वाला बन जाए। इसके विपरीत यहूद 

के यहां दीन बस एक कौमी फख़ के निशान के तौर पर बाकी रह गया था। मुहम्मद (सल्ल०) 

की दावत उनकी फख़ की नपिसयात पर जद पड़ती थी, इसलिए वे आपके दुश्मन बन गए। 

जो लोग गिरोही फजीलत की नपिसियात में मुब्तला हाँ वे अपने से बाहर किसी सदाकत 
(सच्चाई) को मानने को तैयार नहीं होते। वे अपने गिरोह के ख़ुदा के पैग़म्बरों को तो मानेंगे 
मगर उसी ख़ुदा का एक पैगम्बर उनके गिरोह से बाहर आए तो वे इसका इंकार कर देंगे। दीन 
के नाम पर वे जिस चीज से वाकिफ हैं वह सिर्फ गिरोहपरस्ती है। इसलिए वही शख्मियतें उन्हें 
शख्मियतें नजर आती हैं जो उनके अपने गिरोह से तअल्लुक रखती हों। मगर जिस शख्स के 
लिए दीन ख़ुदापरस्ती का नाम हो वह खुदा की तरफ से आने वाली हर आवाज को पहचान 
लेगा और उस पर लब्बैक कहेगा । यहूद के उलमा (विद्वानों) के लिए यह समझना मुश्किल न 
था कि मुहम्मद (सल्ल०) अल्लाह के आखिरी रसूल हैं। और उनकी दावत (आह्वान) सच्ची 
ख़ुदापरस्ती की दावत है। मगर अपनी बड़ाई को कायम रखने की ख़ातिर इन्होंने लोगों के सामने 
एक ऐसी हकीकत का एलान नहीं किया जिसका एलान करना उनके ऊपर खुदा की तरफ से 
फरकिया गया थ। 

“पिछले लोगों को उनकी कमाई का बदला मिलेगा और अगले लोगों को उनकी कमाई का ।' 
इसका मतलब यह है कि हक (सत्य) के मामले में विरासत नहीं। यहूद इस गलतफहमी में मुब्तला 
थे कि उनके पिछले बुजुर्गों की नेकियों का सवाब उनके बाद के लोगों को भी पहुंचता है। इसी 
तरह ईसाइयों ने यह समझ लिया कि गुनाह पिछली नस्ल से अगली नस्ल को विरासतन मुंतकिल 
होता है। मगर इस तरह के अकीदे बिल्कुल निराधार हैं। खुदा के यहां हर आदमी को जो कुछ 
मिलेगा, अपने जाती अमल की बुनियाद पर मिलेगा न कि किसी दूसरे के अमल की बुनियाद 
पर। 

“अगर वे इस तरह ईमान लाएं जिस तरह तुम ईमान लाए हो तो वे राहयाब हो गए ।' गोया 
सहाबा किराम (मुहम्मद सल्ल० के साथी) अपने जमाने में जिस ढंग पर ईमान लाए थे वही 
वह ईमान है जो अल्लाह के यहां असलन मोतबर है। सहाबा किराम के जमाने में सूरतेहाल यह 
थी कि एक तरफ पहले के नबी थे जिनकी हैसियत ऐतिहासिक तौर पर प्रमाणित हो चुकी थी, 
दूसरी तरफ मुहम्मद (सल्ल०) थे जो अभी अपने इतिहास के प्रारंभ में थे। आपकी जात के 
गिर्द अभी तक तारीख़ी अज्मतें जमा नहीं हुई थीं । इसके बावजूद उन्होंने आपको पहचाना और 
आप पर ईमान लाए । गोया अल्लाह के नजदीक हक का वह एतराफ (स्वीकार) मोतबर है जबकि 
आदमी ने हक को मुजर्रद (प्रत्यक्षशः) सतह पर देख कर उसे माना हो। हक जब कौमी विरासत 
बन जाए या तारीख़ी अमल के नतीजे में इसके गिर्द अज्मत के मीनार खड़े हो चुके हाँ तो हक 
को मानना, हक को मानना नहीं होता बल्कि ऐसी चीज को मानना होता है जो कौमी फ़ और 
तारीखे तकज बन चुकी हो। 








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सूर-2. अल-बवरह 65 पारा 2 


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अब बेवकूफ लोग कही कि मुसलमानों को किस चीज ने उनके किबले से फेर दिया। 

कहो कि पूरब और पश्चिम अल्लाह ही के हैं। वह जिसे चाहता है सीधा रास्ता 
दिखाता है। और इस तरह हमने तुम्हें बीच की उम्मत बना दिया ताकि तुम हो 
बताने वाले लोगों पर और रसूल हो तुम पर बताने वाला। और जिस किबले पर तुम 

थे, हमने उसे सिर्फ इसलिए ठहराया था कि हम जान लें कि कौन रसूल की पैरवी 
करता है और कौन उससे उल्टे पांव फिर जाता है। और बेशक यह बात भारी है 
मगर उन लोगों पर जिन्हें अल्लाह ने हिदायत दी है। और अल्लाह ऐसा नहीं कि 
तुम्हारे ईमान को जाये (विनष्ट) कर दे। बेशक अल्लाह लोगों के साथ शफकत 

(स्नेह) करने वाला महरबान है। (42-43) 


किबले का तअल्लुक मजहिरे इवादत (इबादत के प्रतीके से है न कि हवीकते इबादत 
से। किबले का असल मकसद इबादत की तंजीम के लिए एक सामान्य रुख़ का निर्धारण करना 
है। हर सम्त (दिशा) अल्लाह की सम्त है। वह अपने बंदों के लिए जो सम्त भी मुकर्रर कर 
दे वही उसकी पसंदीदा इबादती सम्त होगी, चाहे वह मशरिक की तरफ हो या मग़रिब की 
तरफ। मगर लंबी मुदुदत तक बैतुल मविदस की तरफ रुख़ करके इबादत करने की वजह से 
किबल-ए-अव्वल को तकदूदुस (पवित्रता) हासिल हो गया था। अतः सनू 2 हिजरी में जब 
किबले की तब्दीली का एलान हुआ तो बहुत से लोगों के लिए अपने जेहन को उसके मुताबिक 
बनाना मुश्किल हो गया। यहूद ने इसे बहाना बनाकर आपके (सल्ल०) खिलाफ तरह-तरह की 
बातें फैलाना शुरू कर दीं। बैतुल मक्दिस हमेशा से नबियों का किबला रहा है। फिर इसका 
विरोध क्यों, इससे जाहिर होता है कि यह सारी तहरीक यहूद की जिद में चलाई जा रही है। 
कोई कहता कि यह रिसालत के दावेदार ख़ुद अपने मिशन के बारे में संशय और असमंजस 
में हैं। कभी काबे की तरफ रुख़ करके इबादत करने को कहते हैं और कभी बैतुल मविदस 
की तरफ। किसी ने कहा : अगर काबा ही असल किबला है तो इसका मतलब यह है कि इससे 
पहले जो मुसलमान बैतुल मविदस की तरफ रुख़ करके नमाज पढ़ते रहे उनकी नमाज बेकार 


पारा 2 66 सूरा-2. अल-बकरह 


गई, वगैरह । मगर जो सच्चे ख़ुदापरस्त थे जो मजाहिर (प्रतीकों) में अटके हुए नहीं थे, उन्हें 
यह समझने में देर नहीं लगी कि अस्ल चीज किबले की सम्त नहीं अस्ल चीज खुदा का हुक्म 
है। अल्लाह की तरफ से जिस वक्‍त जो हुम आ जाए वही उस वक्‍त का किबला होगा। 
रिवायतों में आता है कि हिजरत के तकरीबन 7 महीने बाद जब किबले की तब्दीली का हुक्म 
आया तो अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद (सल्ल०) अपने साथियों की एक जमाअत के साथ 
मदीना में नमाज अदा कर रहे थे। हुक्म मालूम होते ही आपने और मुसलमानों ने ऐन हालते 
नमाज में अपना रुख़ बैतुल मविदस से काबा की तरफ कर लिया। यानी शुमाल (उत्तर) से 
जुनूब (दक्षिण) की तरफ। 

किबले की तब्दीली एक अलामत थी जिसका मतलब यह था कि अल्लाह तआला ने बनी 
इस्राईल को इमामत (नेतृत्व) से माजूल करके उम्मते मुहम्मदी को उसकी जगह मुक्रर कर 
दिया है। अब कियामत तक बैतुल मक्दिस के बजाए काबा खुदा के दीन की दावत और 
ख़ुदापरस्तों की आपसी एकता का मर्कज होगा। 'वस्त” का अर्थ 'मध्य' (बीच) है। इसका 
मतलब यह है कि मुसलमान अल्लाह के पैग़ाम को उसके बंदों तक पहुंचाने के लिए दर्मियानी 
वसीला हैं। अल्लाह का पैग़ाम रसूल के जरिए उन्हें पहुंचा है। अब इस पैग़ाम को इन्हें 
कियामत तक तमाम कीमों तक पहुंचाते रहना है। इसी पर दुनिया में भी उनका मुस्तकबिल 
(भविष्य) निर्भर है और इसी पर आख़िरत भी निर्भर है। 


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हम तुम्हारे मुंह का बार-बार आसमान की तरफ उठना देख रहे हैं। पस हम तुम्हें उसी 

किबले की तरफ फेर देंगे जिसे तुम पसंद करते हो। अब अपना रुख़ मरिजदे हराम 


(काबा) की तरफ फेर दो। और तुम जहां कहीं भी हो अपने रुख़ को उसी की तरफ 
करो। और अहले किताब ख़ूब जानते हैं कि यह हक है और उनके रब की जानिब से 









































4१ ~ 


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सूर-2. अल-बकह 67 पारा 2 


है। और अल्लाह बेखबर नहीं उससे जो वे कर रहे हैं। और अगर तुम इन अहले किताब 
के सामने तमाम दलीलें पेश कर दो तब भी वे तुम्हारे किबले को नहीं मानेंगे। और 

न तुम उनके किबले की पेरवी कर सकते हो। और न वे खुद एक-दूसरे के किबले को 

मानते हैं। और इस इलम के बाद जो तुम्हारे पास आ चुका है, अगर तुम उनकी ख्वाहिशों 
की पैरवी करोगे तो यकीनन तुम जालिमों में हो जाओगे। जिन्हें हमने किताब दी है 

वे उसे इस तरह पहचानते हैं जिस तरह अपने बेटों को पहचानते हैं। और उनमें से एक 
गिरोह हक को छुपा रहा है हालांकि वह उसे जानता है। हक वह है जो तेरा रब कहे। 

पस तुम हरगिज शक करने वालों में से न बनो। (44-47) 





अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्ल०) की सुन्नत यह थी कि जिन मामलों में अभी “वही! 
(इशवाणी) न आई हो उनमें आप पिछले नबियों के तरीके की पैरवी करते थे। इसी बुनियाद 
पर आपने शुरू में बैतुल मविदस को किबला बना लिया था जो सुलेमान (अलैहि०) के जमाने 
से बनी इस्राईल के पैग़म्बरों का किबला रहा है। यहूद को जब अल्लाह ने दीन को इमामत 
और पेशवाई से माजूल किया तो इसके बाद यह भी जरूरी हो गया कि दीन को यहूद की 
रिवायतों से जुदा कर दिया जाए। ताकि ख़ुदा का दीन हर एतबार से अपनी ख़ालिस शक्ल 
में नुमायां हो सके इसी मस्लेहत की बुनियाद पर मुहम्मद (सल्ल०) को किबले की तब्दीली 
के हुक्म का इंतजार रहता था। अतः हिजरत के दूसरे साल यह हुक्म आ गया। यहूद के 
अंबिया जो यहूद को ख़बरदार करने आए, वे पहले ही इस इलाही फैसले के बारे में यहूद को 
बता चुके थे और उनके उलमा इस मामले को अच्छी तरह जानते थे। ताहम इनमें सिर्फ कुछ 
लोग (जैसे अब्ुुल्लाह बिन सलाम और मिद़ीरीक रजि०) ऐसे निकले जिन्होंने आपकी तस्दीक 
की। और इस बात का इकरार किया कि आपके जरिए अल्लाह ने अपने सच्चे दीन को जाहिर 
किया है। यहूद के न मानने की वजह महज उनकी ख्याहिशपरस्ती थी। वे जिन गिरोही 
ख़ुशख्यालियों में जी रहे थे, उनसे वे निकलना नहीं चाहते थे। जो इंकार महज ख़्वाहिशपरस्ती 
की बुनियाद पर पैदा हो उसे तोड़ने में कभी कोई दलील कामयाब नहीं होती। ऐसा आदमी 
दलीलों के इंकार से अपने लिए वह रिज्क हासिल करने की कोशिश करता है जो उसके 
ख़लिक ने सिर्फ दलीलों के एतराफ (स्वीकार) में रखा है। 

अल्लाह की तरफ से जब किसी हक के हुक्म का एलान होता है तो वह ऐसी कतई 
दलीलों के साथ होता है कि कोई अल्लाह का बंदा इसकी सदाकत (सच्चाई) को पहचानने से 
आजिज न रहे। ऐसी हालत में जो लोग शुबह में पड़े वे सिर्फ यह साबित कर रहे हैं कि वे 
ख़ुदा से आशना न थे। इसलिए वे ख़ुदा की बोली को पहचान न सके। इसी तरह वे लोग जो 
हक के छिलाफ कुछ अल्फज बोल कर समझते हैं कि उन्ही हक का एतराफ न करने के 
लिए मजबूत तार्किक सहारे खोज लिए हैं बहुत जल्द उन्हें मालूम हो जाएगा कि वे महज फर्जी 
सहारे थे जो उनके नफ्स ने अपनी झूठी तस्कीन के लिए गढ़ लिए थे। 














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पारा 2 68 सूरा-2. अल-बकरह 


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हर एक के लिए एक रुख़ है जिधर वह मुंह करता है। पस तुम भलाइयों की तरफ दौड़ो। 
तुम जहां कहीं होगे अल्लाह तुम सबको ले आएगा। बेशक अल्लाह सब कुछ कर सकता 
है। और तुम जहां से भी निकलो अपना रुख़ मस्जिदे हराम की तरफ करो। बेशक यह 
हक है, तुम्हारे रब की तरफ से है। और जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उससे बेख़बर 

नहीं। और तुम जहां से भी निकलो अपना रुख़ मस्जिदे हराम की तरफ करो और तुम 
जहां भी हो अपना रुख़ को उसी की तरफ रखो ताकि लोगों को तुम्हारे ऊपर कोई 
हुज्जत बाकी न रहे, सिवाए उन लोगों के जो इनमें बेइंसाफ हैं। पस तुम उनसे न डरो 

और मुझसे डरो। और ताकि में अपनी नेमत तुम्हारे ऊपर पूरी कर दूं। और ताकि तुम 
राह पा जाओ। जिस तरह हमने तुम्हारे दर्मियान एक रसूल तुम्हीं में से भेजा जो तुम्हें 
हमारी आयतें पढ़कर सुनाता है और तुम्हें पाक करता है और तुम्हें किताब की और 
हिकमत (तत्वदर्शिता, सूझबूझ) की तालीम देता है और तुम्हें वे चीजें सिखा रहा है जिन्हें 
तुम नहीं जानते थे। पस तुम मुझे याद रखो मैं तुम्हें याद रखूंगा। और मेरा एहसान 
मानो, मेरी नाशुक्री मत करो। (48-52) 


काबे को किबला मुरकर किया गया तो यहूदियों और ईसाइयों ने इस किस्म की बहसें 
छेड़ दीं कि मगरिब (पश्चिम) की दिशा खुदा की दिशा है या मशरिक (पूर्व) की दिशा। वे इस 
मसले को बस रुख़बंदी के मसले की हैसियत से देख रहे थे। मगर यह उनकी नासमझी थी। 
काबे को किबला मुकर करने का मामला सादा तौर पर एक इबादती रुख़ मुकर्रर करने का 
मामला नहीं था, बल्कि यह एक अलामत थी कि अल्लाह के बंदों के लिए उस सबसे बड़े खैर 


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सूरा-2. अल-बकरह 69 पारा 2 


(कल्याण) के उतरने का वक्त आ गया है जिसका फैसला बहुत पहले किया जा चुका था। यह 
इब्राहीम व इस्माईल (अलैहि०) की दुआ के मुताबिक मुहम्मद (सल्ल०) का जुहूर (प्रकटन) है। 
अब वह आने वाला आ गया है जो इंसान के ऊपर अल्लाह की अबदी (चिरस्थाई, जीवंत) 
हिदायत का रास्ता खोले और उसकी हिदायत की नेमत को आखिरी हद तक कामिल (पूर्ण) कर 
दे। जो दीन अल्लाह की तरफ से बार-बार भेजा जाता रहा मगर इंसानों की गफलत और सरकशी 
से जाये (विनष्ट) होता रहा, उसे उसकी पूरी सूरत में हमेशा के लिए महफूज (सुरक्षित) कर 
दे। खुदा का दीन जो अब तक महज रिवायती अफसाना बना हुआ था, उसे एक हकीकी वाका 
की हैसियत से इंसानी इतिहास में शामिल कर दे। वह दीन जिसका कोई मुस्तकिल नमूना कायम 
नहीं हो सका था, उसे एक जिंदा अमली नमूने की हैसियत से लोगों के सामने रख दे। यह इलाही 
हिदायत की तकमील (पूर्णता) का मामला है न कि विभिन्न दिशाओं में से कोई “पवित्र दिशा” 
निर्धारित करने का। 

काबे की तामीर के वक्‍त ही यह सुनिश्चित हो चुका था कि आखिरी रसूल के जरिए 
जिस दीन का जुहूर (प्रकटन) होगा उसका मकज काबा होगा। पिछले अंबिया मुसलसल लोगों 
को इसकी ख़बर देते रहे। इस तरह अल्लाह की तरफ से काबे को तमाम कौमों के लिए 
किबला मुक्रर करना गोया मुहम्मद (सल्ल०) की हैसियत को साबितशुदा बनाना था। अब 
जो संजीदा लोग हैं उनके लिए अल्लाह का यह एलान आखिरी हुज्जत है। और जो आखिरत 
से बेख़ोफ हैं उनकी जबान को कोई भी चीज रोकने वाली साबित नहीं हो सकती । जो लोग 
अल्लाह से डरने वाले हैं वही हिदायत का रास्ता पाते हैं। अल्लाह को याद रखना ही किसी 
को इसका हकदार बनाता है कि अल्लाह उसे याद रखे। अल्लाह से ख़ोफ रखना ही इस बात 
की जमानत है कि अल्लाह उसे दूसरी तमाम चीजें से बेख़फ कर दे। 


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ऐ ईमान वालो, सब्र और नमाज से मदद हासिल करो। यकीनन अल्लाह सब्र करने 

वालों के साथ है। और जो लोग अल्लाह की राह में मारे जाएं उन्हें मुर्दा मत कहो 
बल्कि वे जिंदा हैं मगर तुम्हें ख़बर नहीं। और हम जरूर तुम्हें आजमाएंगे कुछ डर और 

भूख से और मालों और जानां और फलों की कमी से। और साबित कदम रहने वालों 








पारा 2 70 सूर-2. अल-बकरह 


को खुशखबरी दे दो जिनका हाल यह है कि जब उन्हें कोई मुसीबत पहुंचती है तो 
वे कहते हैं हम अल्लाह के हैं और हम उसी की तरफ लौटने वाले हैं। यही लोग 

हैं जिनके ऊपर उनके रब की शाबाशियां हैं और रहमत है। और यही लोग हैं जो 
राह पर हैं। (53-57) 


दीन यह है कि आदमी अपने ख़ालिक (रचयिता) को इस तरह पा ले कि उसकी याद 
में और उसकी शुक्रगुजारी में उसके सुबह व शाम बसर होने लगें। इस किस्म की जिंदगी ही 
तमाम खुशियां और लज्जतेंका छुजना है। मगर ये खुशियां और लज्जत अपनी हवीकी 
सूरत में सिर्फ आख़िरत में मिलेंगी । मौजूदा दुनिया को अल्लाह तआला ने इनाम के लिए नहीं 
बनाया बल्कि इम्तेहान के लिए बनाया है, यहां ऐसे हालात रखे गए हैं कि ख़ुदापरस्ती की राह 
में आदमी के लिए रुकावटें पड़ें ताकि मालूम हो कि कौन अपने ईमान के इज्हार में संजीदा 
है और कौन संजीदा नहीं। नफ्स के प्रेरक तत्व, बीवी-बच्चों के तकाजे, दुनिया की मस्लेहतें 
शैतान के वसवसे, समाजी हालात का दबाव, ये चीजें फितने की सूरत में आदमी को घेरे रहती 
हैं। आदमी के लिए जरूरी हो जाता है कि वह इन फितनों को पहचाने और इनसे अपने 
आपको बचाते हुए जिक्र व शुक्र के तकजे पूरा करे। 

इन इम्तेहानी मुश्किलों के मुकाबले मे कामयाबी का वाहिद (एक मात्र) जरिया नमाज 
और सब्र है। यानी अल्लाह से लिपटना और हर किस्म की नाखुशगवारियों को बर्दाश्त करते 
हुए पक्के इरादे से हक के रास्ते पर जमे रहना। जो लोग प्रतिकूल हालात सामने आने के 
बावजूद न बिदकें और बजाहिर गैर-अल्लाह में नफा देखते हुए अल्लाह के साथ अपने को 
बांधे रहें वही वे लोग हैं जो सुन्नते इलाही के मुताबिक कामयाबी की मंजिल तक पहुंचेगे। 

हक की राह में मुश्किलों और मुसीबतों का दूसरा सबब मोमिन का दावती किरदार 
(आह्वानपरक भूमिका) है। तब्लीग व दावत (आह्वान) का काम नसीहत और तंकीद 
(आलोचना) का काम है। और नसीहत व तंकीद हमेशा आदमी के लिए भड़काऊ चीज रही 
है, इनमें भी नसीहत सुनने के लिए सबसे ज्यादा हस्सास (संवेदनशील) वे लोग होते हैं जो 
अपने दुनिया के कारोबार को दीन के नाम पर कर रहे हैं। दाऔ (आह्वानकर्ता) की जात और 
उसके पैगाम में ऐसे तमाम लोगों को अपनी हैसियत की नफी (नकार) नजर आने लगती है। 
दाऔ का वजूद एक ऐसी तराजू बन जाता है जिस पर हर आदमी तुल रहा हो। इसका नतीजा 
यह होता है कि दाऔ बनना भिड़ के छठत्ते में हाथ डालने के समान बन जाता है। ऐसा आदमी 
अपने माहौल के अंदर बेजगह कर दिया जाता है। उसकी आर्थिक हैसियत तबाह हो जाती 
है, उसकी तरविकयों के दरवाजे बंद हो जाते हैं। यहां तक कि उसकी जान तक ख़तरे में पड़ 
जाती है। मगर वही आदमी राह पर है जिसे बेराह बता कर सताया जाए। वही पाता है जो 
अल्लाह की राह में खोए। वही जी रहा है जो अल्लाह की राह में अपनी जान दे दे। आख़िरत 
की जन्नत उसी के लिए है जो अल्लाह की खातिर दुनिया की जन्नत से महरूम (वंचित) हो 
गया हो। 




















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सूर-2. अल-बकरह प्रा पारा 2 


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सफा और मरवह बेशक अल्लाह की यादगारों में से हैं। पस जो शख्स बैतुल्लाह का 
हज करे या उमरा करे तो उस पर कोई हरज नहीं कि वह इनका तवाफ (परिक्रमा) करे 
ओर जो कोई शौक से कुछ नेकी करे तो अल्लाह कद्र करने वाला है, जानने वाला है। 
जो लोग छुपाते हैं हमारी उतारी हुई खुली निशानियों को और हमारी हिदायत को, बाद 
इसके कि हम इसे लोगों के लिए किताब में खोल चुके हैं तो वही लोग हैं जिन पर 
अल्लाह लानत करता है और उन पर लानत करने वाले लानत करते हैं। अलवत्ता 
जिन्होंने तोबा की और इस्लाह कर ली और बयान किया तो उन्हें मैं माफ कर दूंगा 
और मैं हूं माफ करने वाला, महरबान। बेशक जिन लोगों ने इंकार किया और उसी 
हाल में मर गए तो वही लोग हैं कि उन पर अल्लाह की, फरिश्ता की और आदमियाँ 
की सबकी लानत है। उसी हाल में वे हमेशा रहेंगे। उन पर से अजाब हल्का नहीं किया 
जाएगा और न उन्हें टील दी जाएगी। (58-62) 


हजरत इब्राहीम (अलै०) का वतन इराक था। अल्लाह के हुक्म से वह अपनी बीवी 
हाजरा और छोटे बच्चे इस्माईल को लाकर उस मकाम पर छोड़ गए जहां आज मक्का है। उस 
वक्‍त यहां न कोई आबादी थी और न पानी। प्यास का तकाजा हुआ तो हाजरा पानी की 
तलाश में निकलीं । परेशानी के आलम में वह सफा और मरवह नाम की पहाड़ियों के दर्मियान 
दौड़ती रहीं। सात चक्कर लगाने के बाद नाकाम लौटीं तो देखा कि उनके निवास-स्थल के 
पास एक चश्मा फूट निकला है। यह चश्मा बाद को जमजम के नाम से मशहूर हुआ। यह 
एक अलामती वाकया है जो बताता है कि अल्लाह का मामला अपने बंदों से क्या है। अल्लाह 
का कोई बंदा अगर अल्लाह की राह में बढ़ते हुए उस हद तक चला जाए कि उसके कदमों 
के नीचे रेगिस्तान और बियाबान के सिवा कुछ न रहे तो अल्लाह अपनी कुदरत से रेगिस्तान 


पारा 2 72 सूरा-2. अल-बकरह 


में उसके लिए रिजक के चश्मे जारी कर देगा। हज और उमरा में सफा और मरवाह के 
दर्मियान 'सओ' का मकसद उसी तारीख़ की याद को ताजा करना है। 

हजरत मुहम्मद (सल्ल०) की जिंदगी और तालीमात में अल्लाह की निशानियां इतनी 
स्पष्ट थीं कि यह समझना मुश्किल न था कि आपकी जबान पर अल्लाह का कलाम जारी 
हुआ है। मगर यहूदी उलमा (विद्वानों) ने आपका इकरार नहीं किया। उन्हें अंदेशा था कि 
अगर वे मुहम्मद (सल्ल०) को मान लें तो उनकी मजहबी बड़ाई ख़त्म हो जाएगी । उनकी जमी 
हुई तिजारतें उजड़ जाऐंगी। अपनी कामयाबी का राज उन्होंने हक को छुपाने में समझा। 
हालांकि उनकी कामयाबी का राज हक के एलान में था। हक की तरफ बढ़ने में वे अपने 
आपको बेजमीन होता हुआ देख रहे थे। मगर वे भूल गए कि यही वह चीज है जो अल्लाह 
तआला को सबसे ज्यादा मत्लूब है। जो बंदा हक की ख़ातिर बेजमीन हो जाए वह सबसे बड़ी 
जमीन को पा लेता है। यानी अल्लाह रब्बुल आलमीन की नुसरत (मदद) को। 

ताहम अल्लाह की रहमत का दरवाजा आदमी के लिए हर वक्त खुला रहता है। इन्तिदाई 
तौर पर गलती करने के बाद अगर आदमी को होश आ जाए और वह पलट कर सही रवैया 
अपना ले, वह उस हक का एलान करे जिसे अल्लाह चाहता है कि उसका एलान किया जाए 
तो अल्लाह उसे माफ कर देगा। मगर जो लोग एतराफ न करने पर अड़े रहें और इसी हाल 
में मर जाएँ तो वे अल्लाह की रहमतों से दूर कर दिए जाएंगे। 


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और तुम्हारा माबूद एक ही माबूद है। उसके सिवा कोई माबूद नहीं। वह बड़ा महरबान 
है, निहायत रहम वाला है। बेशक आसमानों और जमीन की बनावट में और रात और 
दिन के आने जाने में और उन कश्तियों में जो इंसानों के काम आने वाली चीजें लेकर 
समुद्र में चलती हैं और उस पानी में जिसको अल्लाह ने आसमान से उतारा, फिर उससे 
मुर्दा जमीन को जिगी बखरी, और उसने जमीन में सब किस्म के जानवर फेला दिए। 

और हवाओं की गर्दिश में और बादलों में जो आसमान और जमीन के दर्मियान हुक्म 
के ताबेअ हैं, उन लोगों के लिए निशानियां हैं जो अक्ल से काम लेते हैं। (63-64) 





इंसान का ख़ुदा एक ही खुदा है और वही इस काबिल है कि वह इंसान की तवज्जोहात 
का मर्कज बने। हमारा वजूद और वह सब कुछ जो हमें जमीन पर हासिल है वह इसीलिए है 
कि हमारा यह खुदा रहमतों और महरबानियों का ख़जाना है। आदमी को चाहिए कि उसे कक 


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सूण-2. अल-बकाह 73 पारा 2 


मञनों में अपना माबूद बनाये वह उसी के लिए जिये और उसी के लिए मरे और अपनी तमाम 
उम्मीदों और तमन्नाओं को हमेशा के लिए उसी के साथ वाबस्ता कर दे । जिस तरह एक छोटा 
बच्चा अपना सब कुछ सिर्फ अपनी मां को समझता है, इसी तरह ख़ुदा इंसान के लिए उसका 
सब कुछ बन जाये। 

हमारे सामने फैली हुई कायनात अल्लाह का एक अजीमुश्शान तआरुफ है। जमीन और 
आसमान की सूरत में एक अथाह कारखाने का मौजूद होना जाहिर करता है कि जरूर इसका 
कोई बनाने वाला है। तरह-तरह की जाहिरी भिन्नताओं और अन्तर्विरोधों के बावजूद तमाम 
चीजों का हर दर्जा सामंजस्य के साथ काम करना साबित करता है कि इसका ख़ालिक और 
मालिक सिर्फ एक है। कायनात की चीजों में नफाबख्शी की सलाहियत (क्षमता) होना गोया 
इस बात का एलान है कि उसकी मंसूबाबंदी कामिल शुऊर के तहत बिलइरादा की गई है। 
बजाहिर बेजान चीजों में कुदरती अमल से जान और ताजगी का आ जाना बताता है कि 
कायनात में मौत महज आरजी है, यहां हर मौत के बाद लाजिमन दूसरी जिंदगी आती है। एक 
ही पानी और एक ही खुराक से किस्म-किस्म के जीवों का अनगिनत तादाद में पाया जाना 
अल्लाह की बेहिसाब कुदरत का पता देता है। हवा का मुकम्मल तौर पर इंसान को अपने घेरे 
में लिए रहना बताता है कि इंसान पूरी तरह अपने ख़ालिक (रचयिता) के कब्जे में है। 
कायनात की तमाम चीजों का इंसानी जरूरत के मुताबिक सधा हुआ होना साबित करता है 
कि इंसान का ख़ालिक एक बेहद महरबान हस्ती है। वह उसकी जरूरतों का एहतेमाम उस 
वक्त से कर रहा होता है जबकि उसका वजूद भी नहीं होता। 

कायनात में इस किस्म की निशानियां गोया मख्लूकात (सृष्टि) के अंदर ख़ालिक की 
झलकियां हैं। वह अल्लाह की हस्ती का, उसके एक होने का, उसके तमाम सिफाते कमाल 
का जामेअ (परिपूर्ण) होने का इतने बड़े पैमाने पर इज्हार कर रही हैं कि कोई आंख वाला इसे 
देखने से महरूम न रहे और कोई अक्ल वाला इसे पाने से आजिज न हो। दलीलों को वही 
शख्स पाता है जो दलीलों पर गौर करता हो। वह सच्चाई को जानने के मामले में संजीदा हो। 
वह मस्लेहतों से ऊपर उठ कर राय कायम करता हो। वह जाहिरी चीजों में उलझ कर न रह 
गया हो बल्कि जाहिरी चीजों के पीछे छुपी हुई भीतरी हकीकत को जानने का इच्छुक हो। 
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पारा 2 74 सूश-2. अल-बकरह 


और कुछ लोग ऐसे हैं जो अल्लाह के सिवा दूसरों को उसके बराबर ठहराते हैं। उनसे 
ऐसी मुहब्बत रखते हैं जैसी मुहब्बत अल्लाह से रखना चाहिए। और जो ईमान वाले हैं 
वे सबसे ज्यादा अल्लाह से मुहब्बत रखने वाले हैं। और अगर ये जालिम उस वक्‍त को 

देख लें जबकि वे अजाब को देखेंगे कि जोर सारा का सारा अल्लाह का है और अल्लाह 

बड़ा सख्त अजाब देने वाला है। जबकि वे लोग जिनके कहने पर दूसरे चलते थे उन लोगों 

से अलग हो जाएंगे जो इनके कहने पर चलते थे। अजाब उनके सामने होगा और उनके 
सब तरफ के रिश्ते टूट चुके होंगे। वे लोग जो पीछे चले थे कहेंगे काश हमें दुनिया की 
तरफ लौटना मिल जाता तो हम भी उनसे अलग हो जाते जैसे ये हमसे अलग हो गए। 
इस तरह अल्लाह इनके आमाल को उन्हें हसरत बना कर दिखाएगा और वे आग से 
निकल नहीं सकेंगे। (65-67) 


आदमी अपनी फितरत और अपने हालात के लिहाज से एक ऐसी मख्लूक है जो हमेशा 
एक वास्य सहारा चाहता है, एक ऐसी हस्ती जो उसकी कमियों की तलाफी (क्षतिपूर्ति) करे 
और उसके लिए एतमाद और यकीन की बुनियाद हो। किसी को इस हैसियत से अपनी 
जिंदगी में शामिल करना उसे अपना माबूद बनाना है। जब आदमी किसी हस्ती को अपना 
माबूद बनाता है उसके बाद लाजिमी तौर पर ऐसा होता है कि आदमी के मुहब्बत और 
अकीदत (श्रद्धा) के जज्बात उसके लिए ख़ास हो जाते हैं। आदमी ऐन अपनी फितरत के 
लिहाज से मजबूर है कि किसी से हुब्बे शदीद (अति प्रेम) करे और जिससे कोई हुब्बे शदीद 
करे वही उसका माबूद (पूज्य) है। मौजूदा दुनिया में चूंकि ख़ुदा नजर नहीं आता इसलिए 
जाहिरपरस्त इंसान आमतौर पर नजर आने वाली हस्तियों में से किसी हस्ती को वह मकाम 
दे देता है जो दरअस्ल ख़ुदा को देना चाहिए। ये हस्तियां अक्सर वे सरदार और पेशवा होते 
हैं जो किसी जाहिरी विशेषता के आधार पर लोगों के आकर्षण का केन्द्र बन जाते हैं। आदमी 
की फितरत की रिक्तता जो हकीकत में इसलिए थी कि उसे रब्बुल आलमीन से भरा जाए वहां 
वह किसी सरदार या पेशवा को बिठा लेता है। 

ऐसा इसलिए होता है कि किसी इंसान के गिर्द कुछ जाहिरी रौनक देख कर लोग उसे 
“बड़ा” समझ लेते हैं। कोई अपने गैर मामूली शख़्सी औसाफ (गुणों) से लोगों को मुतास्सिर 
कर लेता है। कोई किसी गदूदी पर बैठ कर सैकड़ों साल की रिवायतों (परम्पराओं) का वारिस 
बन जाता है। किसी के यहां इंसानों की भीड़ देख कर लोगों को गलतफहमी हो जाती है कि 
वह आम इंसानों से बुलंदतर कोई इंसान है। किसी के गिर्द रहस्यमयी कहानियों का हाला 
तैयार हो जाता है और समझ लिया जाता है कि वह गैर-मामूली कुव्वतों का हामिल (धारक) 
है। मगर हकीकत यह है कि खुदा की इस कायनात में खुदा के सिवा किसी को कोई जेर 
या बड़ाई हासिल नहीं । इंसान को ख़ुदा का दर्जा देने का कारोबार उसी वक़्त तक है, जब तक 
ख़ुदा जाहिर नहीं होता । खुदा के जाहिर होते ही सूरतेहाल इतनी बदल जाएगी कि बड़े अपने 
छोटों से भागना चाहेंगे और छोटे अपने बड़ों से। वह वाबस्तगी (संबंध) जिस पर आदमी 
दुनिया में फ़न करता था, जिससे वफादारी और शेफ्तगी (स्नेह) दिखा कर आदमी समझता था 





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सूर-१. अल-बकाह 75 पारा 2 


कि उसने सबसे बड़ी चट्टान को पकड़ रखा है वह आखिरत के दिन इस तरह बेमअना साबित 
होगी जैसे उसकी कोई हकीकत ही न हो। आदमी अपनी गुजरी हुई जिंदगी को हसरत के साथ 
देखेगा और कुछ न कर सकेगा। 


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लोगो! जमीन की चीजों में से हलाल और सुधरी चीजे खाओ और शैतान के कदमों पर 

मत चलो, बेशक वह तुम्हारा खुला हुआ दुश्मन है। वह तुमको सिर्फ बुरे काम और 
बेहयाई की तलकीन करता है और इस बात की कि तुम अल्लाह की तरफ वे बाते 

मंसूब करो जिनके बारे में तुम्हें कोई इल्म नहीं। और जब उनसे कहा जाता है कि उस 
पर चलो जो अल्लाह ने उतारा है तो वे कहते हैं कि हम उस पर चलेंगे जिस पर हमने 
अपने बाप दादा को पाया है। क्या उस सूरत में भी कि उनके बाप दादा न अक्ल रखते 

हों और न सीधी राह जानते हों। और इन मुंकिरों की मिसाल ऐसी है जैसे कोई शख्स 
ऐसे जानवर के पीछे चिल्ला रहा हो जो बुलाने और पुकारने के सिवा और कुछ नहीं 
सुनता। ये बहरे हैं, गूंगे हैं, अंधे हैं। वे कुछ नहीं समझते। (68-77) 


शिक क्या है, उबूदियत (दासता, भक्ति) के जज्बात की तस्कीन के लिए ख़ुदा के सिवा 
कोई दूसरा मर्कज बना लेना। खुदा इंसान की सबसे बड़ी और लाजिमी जरूरत है। खुदा की 
तलब इंसानी फितरत में इस तरह बसी हुई है कि कोई शख्स ख़ुदा के बगैर रह नहीं सकता । 
इंसान की गुमराही खुदा को छोड़ना नहीं है बल्कि असली खुदा की जगह किसी फर्जी खुदा 
को अपना खुदा बना लेना है। इसलिए शरीअत में हर उस चीज को हराम करार दिया गया 
है जो किसी भी दर्जे में आदमी की फितरी तलब को अल्लाह के सिवा किसी और तरफ मोड़ 
देने वाली हो। 

बुतपरस्त कौमें बुतों के नाम पर जानवर छोड़ती हैं और इन जानवरों को खाना या इनसे 
नफा उठाना हराम समझती हैं। जदीद तहजीब (आधुनिक सभ्यता) में भी यह रस्म राष्ट्रीय 
पक्षी” और राष्ट्रीय पशु' जैसी सूरतों में राइज है। इस तरह किसी चीज को अपने लिए हराम 
कर लेना महज एक सादा कानूनी मामला नहीं है बल्कि यह अल्लाह के साथ शिर्क करना है। 


पारा 2 76 सूर-2. अल-बकरह 


क्योंकि जब एक चीज को इस तरह हराम ठहराया जाता है तो इसकी वजह यह होती है कि 
किसी स्वनिर्मित आस्था की वजह से इसे पवित्र समझ लिया जाता है। यह ख़ुदा के अधिकारों 
में गैर खुदा को साझी बनाना है, यह सम्मान और पवित्रता के उन फितरी जज्बात को बांटना 
है जो सिर्फ खुदा के लिए हैं और जिन्हें सिर्फ खुदा ही के लिए होना चाहिए। शैतान इस 
किस्म के रीति-रिवाज इसलिए डालता है ताकि आदमी के अंदर छुपे हुए सम्मान और पवित्रता 
के जज्बात को विभिन्न दिशाओं में बांट कर अल्लाह के साथ उसके तअल्लुक को कमजोर 
कर दे। 

एक बार जब किसी गैर अल्लाह को मुकद्दस (पवित्र) मान लिया जाए तो इंसान की 
तवहमपरस्ती (अंधविश्वास) उसमें नयी-नयी बुराइयां पैदा करती रहती है। एक “जानवर” को 
उन रहस्यमयी गुणों का धारक मान लिया जाता है जो सिर्फ खुदा के लिए ख़ास हैं। इसे ख़ुदा 
की कुरबत (समीपता) हासिल करने का जरिया समझ लिया जाता है। उससे बरकत और काम 
बनने की उम्मीद की जाती है। यह चीज जब अगली नस्लों तक पहुंचती है तो वह इसे पूर्वजों 
की मुकदूदस सुन्नत (पवित्र तरीका) समझ कर इस तरह पकड़ लेती हैं कि अब इस पर किसी 
किस्म का गौर व फिक्र मुमकिन नहीं होता। यहां तक कि वह ववत आता है जबकि लोग 
दलील की जबान समझने में इतने असमर्थ हो जाते हैं गोया कि उनके पास न आंख और न 
कान हैं जिनसे वे देखें और सुनें और न उनके पास दिमाग़ है जिससे वे किसी बात को समझें । 


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ऐ ईमान वालो हमारी दी हुई पाक चीजों को खाओ और अल्लाह का शुक्र अदा करो 
अगर तुम उसकी इबादत करने वाले हो। अल्लाह ने तुम पर हराम किया है सिर्फ मुर्दार 


को और खून को और सुअर के गोश्त को। और जिस पर अल्लाह के सिवा किसी और 
का नाम लिया गया हो। फिर जो शख्स मजबूर हो जाए, वह न ख्वाहिशमंद हो और 


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सूण-2. अल-बकाह 77 पारा 2 


न हद से आगे बढ़ने वाला हो तो उस पर कोई गुनाह नहीं। बेशक अल्लाह बस्शने 
वाला, महरबान है। जो लोग उस चीज को छुपाते हैं जो अल्लाह ने अपनी किताब में 
उतारी है और इसके बदले में थोड़ा मोल लेते हैं, वे अपने पेट में सिर्फ आग भर रहे 
हैं। कियामत के दिन अल्लाह न उनसे बात करेगा और न उन्हें पाक करेगा और उनके 
लिए दर्दनाक अजाब है। ये वे लोग हैं जिन्होंने हिदायत के बदले गुमराही का सौदा 
किया और बश्‍्शिश के बदले अजाब का, तो कैसी सहार है उन्हें आग की। यह इसलिए 
कि अल्लाह ने अपनी किताब को टीक-ठीक उतारा मगर जिन लोगों ने किताब में कई 
राहे निकाल लीं वे जिद में दूर जा पड़े।(72-76) 


खाने-पीने की चीजों को इस्तेमाल करते हुए जो एहसासात आदमी के अंदर उभरने 
चाहिएं वे शुक्र और इताअते इलाही (ईश आज्ञापालन) के एहसासात हैं। यानी यह कि 'हम 
अल्लाह की दी हुई चीज को अल्लाह के हुक्म के मुताबिक खा रहे हैं। यह एहसास आदमी 
के अंदर ख़ुदापरस्ती का जज्बा उभारता है। मगर ख़ुदसाख्ता (स्वनिर्मित) तौर पर जो अकीदे 
(आस्था, विश्वास) बनाए जाते हैं उसमें यह नफ्सियात बदल जाती है। अब इंसान की 
तवज्जोह चीजों की काल्पनिक विशेषताओं की तरफ लग जाती है। जिन चीजों को पाकर 
अल्लाह के शुक्र का जज्बा उभरता उनसे खुद इन चीजों के एहतराम और तकदूदुस (पवित्रता) 
का जज्बा उभरता है। आदमी मख्नूक को ख़ालिक (रचयिता) का दर्जा दे देता है। किसी चीज 
के हराम होने की बुनियाद उसकी काल्पनिक पवित्रता या उसके बारे में तोहमाती अकाइद 
(अंधविश्वास) नहीं हैं। बल्कि इसके कारण बिल्कुल दूसरे हैं। यह कि वे चीजें नापाक हों और 
शरीअत ने उनकी नापाकी की तस्दीक (पुष्टि) की हो। जैसे मुर्दार, खून, सुअर । या ख़ुदा के 
पैदा किए हुए जानवर को ख़ुदा के सिवा किसी और नाम पर जबह करना आदि। मजबूरी की 
हालत में आदमी हराम को खा सकता है, जबकि भूख या बीमारी या हालात का कोई दबाव 
आदमी को इसके इस्तेमाल पर मजबूर कर दे। ताहम यह जरूरी है कि आदमी हराम चीज 
को राबत (पसंदीदगी) से न खाए और न उसे वाकई जरूरत से ज्यादा ले। 

इस किस्म के अंधविश्वास जब अवामी मजहब बन जाएं तो उलमा (विद्वानों) का हाल 
यह हो जाता है कि इसके बारे में अल्लाह का हुक्म जानते हुए भी वे इसके एलान से डरने 
लगते हैं। क्योंकि उन्हें अंदेशा होता है कि इस तरह वे अवाम से कट जाएंगे जिनके दर्मियान 
मकबूलियत हासिल करके वे “बड़े” बने हुए हैं। गुमराह अवाम से मुसालेहत (समझौता) 
अगरचे दुनिया में उन्हें इज्ज़त और दौलत देती है मगर अल्लाह की नजर में ऐसे लोग बदतरीन 
मुजरिम हैं। हक को मस्लेहत (स्वार्थ) की खातिर छुपाना उन गलतियों में से नहीं है जिनसे 
आखिरत में अल्लाह दरगुजर फरमाए। ये वे जराइम हैं जो आदमी को अल्लाह की इनायत 
की नजर से महरूम कर देते हैं। इनमें भी ज्यादा बुरे वे लोग हैं जिनके सामने हक पेश किया 
जाए और वे एतराफ करने के बजाए उसमें बेमअना बहसें निकालने लगें। ऐसे लोगों के अंदर 
जिद की नफ्सियात पैदा हो जाती है और अंततः वे हक से इतना दूर हो जाते हैं कि कभी 
उसकी तरफ नहीं लौटते। 





पारा 2 8 सूर-2. अल-बकरह 


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नेकी यह नहीं कि तुम अपने मुंह पूर्व और पश्चिम की तरफ कर लो। बल्कि नेकी यह 

है कि आदमी ईमान लाए अल्लाह पर और आख़िरत के दिन पर और फरिश्ता पर और 
किताब पर और पेग़म्बरों पर। और माल दे अल्लाह की मुहब्बत में रिश्तेदारों को और 
यतीमों को और मोहताजों को और मुसाफिरों को और मांगने वालों को और गर्दनें छुड़ाने 
में। और नमाज कायम करे और जकात अदा करे और जब अहद कर लें तो उसे पूरा 

करें। और सब्र करने वाले सख्ती और तकलीफ में और लड़ाई के वक्‍त। यही लोग हैं 

जो सच्चे निकले और यही हैं डर रखने वाले। (77) 


यहूद ने पश्चिम को अपना इबादत का किबला बनाया था और ईसाइयों ने पूर्व को। 
दोनों अपनी-अपनी दिशाओं को पवित्र समझते थे। दोनों को भरोसा था कि उन्होंने खुदा की 
पवित्र दिशा को अपना किबला बनाकर खुदा के यहां अपना दर्जा महफूज कर लिया है। मगर 
ख़ुदापरस्ती यह नहीं है कि आदमी किसी 'मुकद्दस सुतून' (पवित्र स्तंभ) को थाम ले। 
ख़ुदापरस्ती यह है कि आदमी ख़ुद अल्लाह के दामन को पकड़ ले। दीनी अमल की अगरचे 
एक जाहिरी सूरत होती है। मगर हकीकत के एतबार से वह उस अल्लाह को पा लेता है जो 
जमीन और आसमान का नूर है, जो आदमी की शहरग से ज्यादा करीब है। अल्लाह के यहां 
जो चीज किसी को मकबून बनाती है वह किसी किस्म की जहिरो चीजंनहीं बल्कि वह अमल 
है जो आदमी अपने पूरे वुजूद के साथ ख़ालिस अल्लाह के लिए करता है। अल्लाह का 
मकबूल बंदा वह है जो अल्लाह को इस तरह पा ले कि अल्लाह उसकी पूरी हस्ती में उतर 
जाए। वह आदमी के शुऊर में शामिल हो जाए। वह उसकी कमाइयों का मालिक बन जाए। 
वह उसकी यादों में समा जाए। वह उसके किरदार पर छा जाए। आदमी अपने रब को इस 
तरह पकड़ ले कि सख्ततरीन वक्‍्तों में भी उसकी रस्सी उसके हाथ से छूटने न पाए। अल्लाह 
का हक उसकी सच्ची वफादारी से अदा होता है न कि महज इधर या उधर रुख़ कर लेने से। 

अल्लाह पर ईमान लाना यह है कि आदमी अल्लाह को अपना सब कुछ बना ले। 
आखिरत के दिन पर ईमान यह है कि आदमी दुनिया के बजाए आखिरत को जिंदगी का 
अस्ल मसला समझने लगे। फरिश्तों पर ईमान यह है कि वह ख़ुदा के उन कारिंदों को माने जो 


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सूरा-2. अल-बकरह 79 पारा 2 


ख़ुदा के हुक्म के तहत दुनिया का इंतिजाम चला रहे हैं। किताब पर ईमान यह है कि आदमी 
यह यकीन करे कि अल्लाह ने इंसान के लिए अपना हिदायतनामा भेजा है जिसकी उसे लाजिमन 

पाबंदी करनी है। पैग़म्बरों पर ईमान यह है कि अल्लाह के उन बंदों को अल्लाह का नुमाइंदा 
तस्लीम किया जाए जिन्हें अल्लाह ने अपना पैग़ाम पहुंचाने के लिए चुना। फिर ये ईमानियात 
आदमी के अंदर इतनी गहरी उतर जाएं कि वह अल्लाह की मुहब्बत और शौक में अपना माल 
जरूरतमंदों को दे और इंसानों को मुसीबत से छुड़ाए। नमाज कायम करना अल्लाह के आगे 

हमहतन (पूर्णरूपेण) झुक जाना है। जकात अदा करना अपने माल में खुदा के मुस्तकिल (स्थाई) 

हिस्से का इकरार करना है। ऐसा बंदा जब कोई अहद करता है तो इसके बाद वह इससे फिरना 
नहीं जानता । क्योंकि वह हर अहद को ख़ुदा से किया हुआ अहद समझता है। उसे अल्लाह के 
ऊपर इतना भरोसा हो जाता है कि तंगी और मुसीबत हो या जंग की नौबत आ जाए, हर हाल 
में वह ख़ुदापरस्ती के रास्ते पर जमा रहता है। ये औसाफ (गुण) जिसके अंदर पैदा हो जाएं 
वही सच्चा मोमिन है। और सच्चा मोमिन अल्लाह से अंदेशा रखने वाला होता है, न कि किसी 
झूठे सहारे पर एतमाद करके उससे निडर हो जाने वाला। 


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किया जाता है। आजाद के बदले आजाद, गुलाम के बदले गुलाम, औरत के बदले 
औरत। फिर जिसे उसके भाई की तरफ से कुछ माफी हो जाए तो उसे चाहिए कि मारूफ 


(सामान्य तरीका) की पैरवी करे और खूबी के साथ उसे अदा करे। यह तुम्हारे रब की 
तरफ से एक आसानी और महरबानी है। अब इसके बाद भी जो शख्स ज्यादती करे 





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पारा 2 80 सूर-2. अल-बकरह 


उसके लिए दर्दनाक अजाब है। और ऐ अकल वालो, किसास में तुम्हारे लिए जिगी 

है ताकि तुम बचो। तुम पर फर्ज किया जाता है कि जब तुम में से किसी की मौत का 

वकत आ जाए और वह अपने पीछे, माल छोड़ रहा हो तो वह मारूफ के मुताबिक 

वसीअत कर दे अपने मां-बाप के लिए और अपने रिश्तेदारों के लिए। यह जरूरी है ख़ुदा 

से डरने वालों के लिए। फिर जो कोई वसीयत को सुनने के बाद उसे बदल डाले तो 
इसका गुनाह उसी पर होगा जिसने इसे बदला, यकीनन अल्लाह सुनने वाला, जानने 
वाला है। अलबत्ता जिसे वसीयत करने वाले के बारे में यह अंदेशा हो कि उसने 
जानिबदारी या हकतलफी की है और वह आपस में सुलह करा दे तो उस पर कोई गुनाह 

नहीं। अल्लाह माफ करने वाला, रहम करने वाला है। (78-82) 


कल्ल के मामले में इस्लाम में 'किसास' का उसूल मुरकर किया गया है। यानी कातिल 
के साथ वही किया जाए जो उसने मक़्तूल (कत्ल होने वाले) के साथ किया है। इस तरह एक 
तरफ आइंदा के लिए कत्ल की हैसलाशिकनी (हतोत्साहन) होती है। क्योंकि अपनी जान का 
ख़ौफ आदमी को दूसरे की जान लेने से रोकता है और इसके नतीजे में सबकी जानें महफूज 
हो जाती हैं। कातिल के कल्ल से पूरे समाज के लिए जिंदगी की जमानत पैदा हो जाती है। 
दूसरी तरफ मवतूल के वारिसों का इंतकामी जज्बा ठंडा हो कर समाज में किसी नई तख़रीबी 
(हिंसक) कार्रवाई के इम्कान को ख़त्म कर देता है। ताहम किसास का मामला इस्लाम में 
काबिले राजीनामा है। मक्तूल के वारिस चाहे तो कतिल को कल कर सकते हैं चाहे तो 
दियत (माली मुआवजा) ले सकते हैं और चाहें तो माफ कर सकते हैं। इस गुंजाइश का ख़ास 
मकसद यह है कि इस्लामी समाज में एक-दूसरे को भाई समझने की फजा बाकी रहे, एक-दूसरे 
को हरीफ (प्रतिरोधी) समझने की फजा किसी हाल में पैदा न हो। साथ ही खूनबहा (आर्थिक 
हर्जाना) के उसूल का एक ख़ास फायदा यह है कि इसके जरिये से मक्तूल के वारिसों को 
अपने चले जाने वाले ख़ानदान के फर्द का एक माली बदल मिल जाता है। 

जब कोई मर जाता है तो यह मसला भी पैदा होता है कि उसकी विरासत का क्या किया 
जाए। इस सिलसिले में इस्लाम का उसूल यह है कि उसकी विरासत को उसके रिश्तेदारों में 
मारूफ तरीके से तवसीम कर दिया जाए। यह गोया माल का तकवा है। जब मरने वालों के 
रिश्तेदारों तक हिस्सा ब हिस्सा उसका छोड़ा हुआ माल पहुंच जाए तो इससे समाज में यह 
फजा बनती है कि हक के मुताबिक जिसको जो दिया जाना चाहिए वह दिया जा चुका है। 
इस तरह ख़ानदान के अंदर छोड़े गये माल और जायदाद को हासिल करने के लिए आपसी 
विवाद पैदा नहीं होता। ख़ानदान का जो शख्स कानूनी एतबार से वारिस न करार पाता हो, 
मगर अख्लाकी एतबार से वह मुस्तहिक हो तो मरने वालो को चाहिए कि वसीयत के जरिए 
इस ख़ला (रिक्तता) को पुर कर दे। (यहां विरासत के बारे में मारूफ के मुताबिक [समुचित 
रूप से] वसीयत करने का हुक्म है। आगे सूरह निसा में हर एक के हिस्से को कानूनी तौर 
पर सुनिश्चित कर दिया गया है।) 





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सूण-2. अल-वकरह पारा 2 
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ऐ ईमान वालो तुम पर रोज फर्म किया गया जिस तरह तुम से अगला पर फर्म किया 

गया था ताकि तुम परहेजगार बनो। गिनती के कुछ दिन। फिर जो कोई तुममें बीमार 

हो या सफर में हो तो दूसरे दिनों में तादाद पूरी कर ले। और जिनको ताकत है तो 

एक रोजे का बदला एक मिस्कीन का खाना है। जो कोई मजीद (अतिरिक्त) नेकी करे 
तो वह उसके लिए बेहतर है। और तुम रोजा रखो तो यह तुम्हारे लिए ज्यादा बेहतर 

है, अगर तुम जानो। रमजान का महीना जिसमें कुरआन उतारा गया, हिदायत है लोगों 

के लिए और खुली निशानियां रास्ते की और हक व बातिल के दर्मियान फैसला करने 
वाला। पस तुस में से जो कोई इस महीने को पाए वह इसके रोजे रखे। और जो बीमार 

हो या सफर पर हो तो दूसरे दिनों में गिनती पूरी कर ले। अल्लाह तुम्हारे लिए आसानी 
चाहता है, वह तुम्हारे साथ सख्ती करना नहीं चाहता। और इसलिए कि तुम गिनती 
पूरी कर लो और अल्लाह की बड़ाई करो इस पर कि उसने तुम्हें राह बताई और ताकि 
तुम उसके शुक्रगुजार बनो। (83-85) 


रोजा एक ही वकत में दो चीजों की तर्बियत है। एक शुक्र, दूसरे तकवा। खाना और 
पीना अल्लाह की बहुत बड़ी नेमतें हैं। मगर आम हालात में आदमी को इसका अंदाजा नहीं 
होता । रोजे में जब वह दिन भर इन चीजों से रुका रहता है और सूरज डूबने के बाद शदीद 
भूख प्यास की हालत में खाना खाता है और पानी पीता है तो उस वक्‍त उसे मालूम होता 
है कि यह खाना और पानी अल्लाह की कितनी बड़ी नेमतें हैं। इस तजर्बे से उसके अंदर 
अपने रब के शुक्र का बेपनाह जज्बा पैदा होता है। दूसरी तरफ यही रोजा आदमी के लिए 
तकवा की तर्बियत भी है। तकवा यह है कि आदमी दुनिया की जिंदगी में खुदा की मना 
की हुई चीजों से बचे। वह उन चीजों से रुका रहे जिनसे ख़ुदा ने रोका है। और वही करे 


पारा 2 82 सूर-2. अल-बकरह 


जिसके करने की खुदा ने इजाजत दी है। रोजे में सिर्फ रात को खाना और दिन में खाना-पीना 
छोड़ देना गोया खुदा को अपने ऊपर निगरां बनाने की मश्क है। मोमिन की पूरी जिंदगी 
एक किस्म की रोजेदार जिंदगी है। रमजान के महीने में वक्‍ती तैर पर कुछ चीजेंको छूकर 
आदमी को तर्बियत दी जाती है कि वह सारी उम्र उन चीजों को छोड़ दे जो उसके रब को 
नापसंद हैं। कुरआन बंदे के ऊपर अल्लाह का इनाम है और रोजा बदे की तरफ से इस 
इनाम का अमली एतराफ। रोजे के जरिए बंदा अपने आपको अल्लाह की शुक्रगुजारी के 
काबिल बनाता है। और यह सलाहियत पैदा करता है कि वह कुरआन के बताए हुए तरीके 
के मुताबिक दुनिया में तकवे की जिगी गुजर सके। 

रोजे से दिलों के अंदर नर्मी और शिकस्तगी (कोमलता) आती है। इस तरह रोजा आदमी के 
अंदर यह सलाहियत पैदा करता है कि वह उन कैफियतों को महसूस कर सके जो अल्लाह को 
अपने बंदा से मत्लूब हैं। रोजेकी मशक्कत (श्रम) वाली तर्बियत आदमी को इस काबिल बनाती है 
कि अल्लाह की शुक्रगुजारी में उसका सीना तड़पे और अल्लाह के ख़ौफ से उसके अंदर कपकपी 
पैदा हो। जब आदमी इस नपिसयाती हालत को पहुंचता है, उसी वक्‍त वह इस काबिल बनता है 
कि वह अल्लाह की नेमतों पर ऐसा शुक्र अदा करे जिसमें उसके दिल की धड़कनें शामिल हों | वह 
ऐसे तकवे का तजुर्बा करे जो उसके बदन के रोंगटे खड़े कर दे। वह अल्लाह को ऐसे बड़े की 
हैसियत से पाए जिसमें उसका अपना वुजूद बिल्कुल छोटा हो गया हो। 


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सूरा-2. अल-बकाह 83 पारा 2 


और जब मेरे बे तुम से मेरे बारे में पूछें तो मैं नजदीक हूं, पुकारने वाले की पुकार का जवाब 
देता हूं जबकि वह मुझे पुकारता है। तो चाहिए कि वे मेरा हुक्म मानें और मुझ पर यकीन 
रखें ताकि वे हिदायत पाएं। तुम्हारे लिए रोजे की रात में अपनी बीवियों के पास जाना 
जाइज किया गया। वे तुम्हारे लिए लिबास हैं और तुम उनके लिए लिबास हो। अल्लाह 

ने जाना कि तुम अपने आप से ख़रियानत कर रहे थे तो उसने तुम पर इनायत की और 
तुम्हें माफ कर दिया। तो अब तुम उनसे मिलो और चाहो जो अल्लाह ने तुम्हारे लिए लिख 
दिया है। और खाओ और पियो यहां तक कि सुबह की सफेद थारी काली धारी से अलग 
जाहिर हो जाए। फिर पूरा करो रोजा रात तक। और जब तुम मस्जिद में एतकाफ में हो 

तो बीवियों से ख़लवत (संभोग) न करो। ये अल्लाह की हदें हैं तो इनके नजदीक न जाओ। 
इस तरह अल्लाह अपनी आयतें लोगों के लिए बयान करता है ताकि वे बचें। और तुम 
आपस में एक-दूसरे के माल को नाहक तौर पर न खाओ और उन्हें हाकिमों तक न पहुंचाओ 
ताकि दूसरों के माल का कोई हिस्सा गुनाह के तौर पर खा जाओ। हालांकि तुम इसे जानते 
हो। (86-88) 


रोजा अपनी नौइयत के एतबार से सब्र का अमल है। और सब्र, यानी हुक्मे इलाही की 
तामील में मुश्किलों को बर्दाश्त करना ही वह चीज है जिससे आदमी उस कल्बी (हार्दिक) 
हालत को पहुंचता है जो उसे खुदा के करीब करे और उसकी जबान से ऐसे कलिमात 
निकलवाए जो कुबूलियत को पहुंचने वाले हों। अल्लाह को वही पाता है जो अपने आपको 
अल्लाह के हवाले करे, अल्लाह तक उसी शख्स के अल्फाज पहुंचते हैं जिसने अपनी रूह के 
तारों को अल्लाह से मिला रखा हो। 

शरीअत आदमी के ऊपर कोई गैर फितरी पाबंदी आयद नहीं करती। रोजे में दिन के 
वक्त में इज्दवाजी (वैवाहिक) तअल्लुक मम्नूअ (निषिद्ध) होने के बावजूद रात के वक्‍त में 
इसकी इजाजत, इफ्तार और सहर के वक्‍त जानने के लिए जंतरी का पाबंद करने के बजाए 
आम मुशाहिदा (अवलोकन) को बुनियाद करार देना इसी किस्म की चीजें हैं। अंशों की 
तफ्सीलात में बंदों को गुंजाइश देते हुए अल्लाह ने सामान्य हदें स्पष्ट कर दी हैं। आदमी को 
चाहिए कि वह निर्धारित हदों का पूरी तरह पाबंद रहे और तफ्सीली अंशों में उस रविश को 
अपनाए जो तकवा की रूह के मुताबिक है। 

रोजे के हुक्म के फौरन बाद यह हुक्म कि 'नाजाइज माल न खाओ' यह बताता है कि 
रोजा की हकीकत क्या है। रोजा का असली मकसद आदमी के अंदर यह सलाहियत (क्षमता) 
पैदा करना है कि जहां ख़ुदा की तरफ से रुकने का हुक्म हो वहां आदमी रुक जाए, यहां तक 
कि हुक्म हो तो जाइज चीज से भी, जैसा कि रोजा में होता है। अब जो शख्स ख़ुदा के हुक्म 
की बुनियाद पर हलाल कमाई तक से रुक जाए वह उसी ख़ुदा के हुक्म की बुनियाद पर हराम 
कमाई से क्यों न अपने आपको रोके रखेगा। 

मोमिन की जिगी एक किस्म की रोजादार जिगी है। उसे सारी उम्र कुछ चीजें से 
'इप्तार' करना है और कुछ चीजों से मुस्तकिल (स्थाई) तौर पर 'रोज' रख लेना है। रमजान 








पारा 2 84 सूर-2. अल-बकरह 


का महीना इसी की तर्बियत है। फिर रोजा की मोहतात (एहतियात भरी) जिंदगी और उसका 
पुरमशक्कत अमल यह सबक देता है कि अल्लाह का इबादतगुजार बंदा वह है जो तकवा की 

सतह पर अल्लाह की इबादत कर रहा हो। अल्लाह को पुकारने वाला सिफ वह है जो 
कुर्बनियों की सतह पर अल्लाह की नजदीकी हासिल करे। 


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वे तुम से चांदों के बारे में पूछते हैं। कह दो कि वे औकात (समय) हैं लोगों के लिए 
और हज के लिए। और नेकी यह नहीं कि तुम घरों में आओ छत पर से। बल्कि नेकी 
यह है कि आदमी परहेजगारी करे। और घरों में उनके दरवाजों से आओ और अल्लाह 
से डरो ताकि तुम कामयाब हो। और अल्लाह की राह में उन लोगों से लड़ो जो लड़ते 
हैं तुमसे। और ज्यादती न करो। अल्लाह ज्यादती करने वालों को पसंद नहीं करता। 
और कत्ल करो उन्हें जिस जगह पाओ, और निकाल दो उन्हें जहां से उन्होंने तुम्हें 
निकाला है। और फितना सख्ततर है कत्ल से। और उनसे मस्जिदे हराम के पास न 
लड़ो जब तक कि वे तुमसे इसमें जंग न छेड़ं। पस अगर वे तुमसे जंग छेड़ें तो उन्हें कत्ल 
करो। यही सजा है इंकार करने वालों की। फिर अगर वे बाज आ जाएं तो अल्लाह 
बख्शने वाला, महरबान है। और उनसे जंग करो यहां तक कि फितना बाकी न रहे और 
दीन अल्लाह का हो जाए। फिर अगर वे बाज आ जाएं तो इसके बाद सख्ती नहीं है 
मगर जालिमां पर। (89-93) 


चांद का घटना बढ़ना तारीख़ जानने के लिए है न कि तवहमपरस्तों के ख्याल के 
मुताबिक इसलिए कि बढ़ते चांद के दिन मुबारक (शुभ) हैं और घटते चांद के दिन मंहूस। यह 


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सूरा-2. अल-बकरह 85 पारा 2 


आसमान पर जाहिर होने वाली कुदरती जंतरी है ताकि इसे देखकर लोग अपने मामलात और 
अपनी इबादतों का निज़ाम मुरकर करें। इसी तरह बहुत से लोग जाहिरी रस्मों को दीनदारी समझ 
लेते हैं। प्राचीनकालीन अरबों ने यह मान लिया था कि हज का एहराम बांधने के बाद अपने 
और आसमान के दर्मियान किसी चीज का हायल (बाधा) होना एहराम के आदाब के ख़िलाफ 
है। इस मान्यता के सबब वे ऐसा करते कि जब एहराम बांधकर घर से बाहर आ जाते तो दुबारा 
दरवाजे के रास्ते से घर में न जाते बल्कि दीवार के ऊपर से चढ़कर सेहन में दाखिल होते। 
मगर इस किस्म के जाहिरी आदाब का नाम दीनदारी नहीं। दीनदारी यह है कि आदमी अल्लाह 
से डरे और जिंदगी में उसकी मुक्रर की हुई हदों की पाबंदी करे। 

मोमिन को दीन का आमिल (अमल करने वाला) बनने के साथ दीन का मुजाहिद भी 
बनना है। यहां जिस जिहाद का जिक्र है यह वह जिहाद है जो मुहम्मद (सल्ल०) के जमाने 
में पेश आया । अरब के मुशरिकीन हुज्जत पूरी होने के बावजूद रिसालत की दावत (आह्वान) 
से इंकार करके अपने लिए जिंदगी का हक खो चुके थे। साथ ही उन्होंने जारिहियत 
(आक्रमकता) का आगाज करके अपने खिलाफ फौजी कार्खाई को दुरुस्त साबित कर दिया 
था। इस वजह से उसके ख़िलाफ तलवार उठाने का हुक्म हुआ। 'और उनसे लड़ो यहां तक 
कि फितना बाकी न रहे और दीन अल्लाह का हो जाए” का मतलब यह है कि अरब की 
सरजमीन से शिक (बहुदेववाद) का खात्मा हो जाए और तौहीद के दीन (एकेश्वरवादी धर्म) 
के सिवा कोई दीन वहां बाकी न रहे। इस हुक्म के जरिए अल्लाह तआला ने अरब को तौहीद 
का दाइमी (स्थाई) मर्कज बना दिया। 

अहले ईमान को जंग की इजाजत सिर्फ उस वकत है जबकि प्रतिपक्ष की तरफ से हमला 
शुरू हो चुका हो। दूसरे यह कि जब अहले ईमान ग़लबा (वर्चस्व) पा लें तो इसके बाद माजी 
(अतीत) पर किसी के लिए कोई सजा नहीं। हथियार डालते ही माजी के जराइम माफ कर 
दिए जाएंगे। इसके बाद सजा का पात्र सिर्फ वह व्यक्ति होगा जो आइंदा कोई काबिले सजा 
जुर्म करे। आम हालत में कत्ल का हुक्म और है और जंगी हालात में कत्ल का हुक्म और। 


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हुरमत (प्रतिष्ठा) वाला महीना हुरमत वाले महीने का बदला है और हुरमतों का 
भी किसास (समान बदला) है। पस जिसने तुम पर ज्यादती की तुम भी उस पर 
ज्यादती करो जैसी उसने तुम पर ज्यादती की है। और अल्लाह से डरो और जान 

लो कि अल्लाह परहेजगारों के साथ है। और अल्लाह की राह में ख़र्च करो और 








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पारा 2 86 सूर-2. अल-बकरह 


अपने आपको हलाकत में न डालो। और काम अच्छी तरह करो। बेशक अल्लाह 
पसंद करता है अच्छी तरह काम करने वालों को। (94-95) 


हराम महीनों (मुहर्रम, रजब, जोकअदह, जिलहिज्जह) में या हरमे मक्का की हदों में लड़ाई 
गुनाह है। मगर जब इस्लाम विरोधी तुम्हारे खिलाफ कार्रवाई करने के लिए उसकी हुरमत को 
तोड़ दें तो तुम को भी हक है कि किसास (समान बदला) के तौर पर उनकी हुरमत का लिहाज 
न करो। मगर दुश्मन के साथ दुश्मनी में तुम्हें अल्लाह से बेख़ौफ न हो जाना चाहिए । किसी हद 
को तोड़ने में तुम अपनी तरफ से इब्तदा न करो और न कोई ऐसा इकदाम करो जो जरूरी हद 
से ज्यादा हो। अल्लाह की मदद किसी को उसी वकत मिलती है जबकि वह इश्तेआल (उत्तेजना) 
के वक्‍त में भी अल्लाह की निर्धारित की हुई हदों का पाबंद बना रहे। 

किसास और ज़म मेयह फर्कि कि किमास कूपेे पक्ष की तरफ से की ह प्यादती 
के बराबर होता है। जबकि जुल्म इन हदबंदियों से बाहर निकल जाने का नाम है। एक शख्स 
को किसी से तकलीफ पहुंचे तो वह दूसरे शख्स को उतनी ही तकलीफ पहुंचा सकता है 
जितनी उसे पहुंची है। इससे ज्यादा की इजाजत नहीं। नसीहत बुरी लगे तो गाली और मजाक 
से उसका जवाब देना या जबान व कलम की शिकायत के बदले में आक्रमकता दिखाना 
तकवा के सरासर खिलाफ है। इसी तरह माली नुक्सान के बदले जानी नुक्सान, मामूली चोट 
के बदले ज्यादा बच्चे चोट, एक कत्ल के बदले बहुत से आदमियों का कत्ल, इस किस्म की 
तमाम चीजें जुल्म की परिभाषा में आती हैं। मुसलमान के लिए बराबर का बदला (किसास) 
जाइज है। मगर जुम किसी हाल में जाइज नहीं। 

अल्लाह की राह में जद्दोजेहद सबसे ज्यादा जिस चीज का तकाजा करती है वह माल 
है। और माल की कुर्बानी बिला शुबह आदमी के लिए सबसे ज्यादा मुश्किल चीज है। इसलिए 
हुक्म दिया कि अल्लाह के काम को अपना काम समझ कर उसको राह में ख़ूब माल ख़र्च करो 
और इस काम को उसको बेहतर से बेहतर सूरत में पूरा करो। “अपने आपको हलाकत में न 
डालो” से मुराद बुख्ल (कंजूसी) है यानी ऐसा न हो कि तुम अल्लाह की राह में ख़र्च न करो, 
क्योंकि ख़र्च में दिल तंग होना दुनिया व आख़िरत की बर्बादी है। आदमी माल ख़र्च कर देने 
को हलाकत समझता है मगर हकीकत यह है कि माल को अल्लाह की राह में ख़र्च न करना 
हलाकत है। आदमी के पास जो कुछ है अगर वह उसे अल्लाह के हवाले न करे तो अल्लाह 
के पास जो कुछ है वह क्यों उसे आदमी के हवाले करेगा। 

आदमी अपनी दौलत का इस्तेमाल सिफ यह समझता है कि इसको अपने आप पर या 
अपने बीवी बच्चों पर खर्च करे। मगर इस जेहन को कुरआन हलाकत बताता है। इसके 
बजाए दौलत का सही इस्तेमाल यह है कि इसको ज्यादा से ज्यादा दीन की जरूरतों में ख़र्च 
किया जाए। माल को सिर्फ अपने जाती हौसलों की पूर्ति में खर्च करना फर्द और मुआशिरा 
(व्याक्ति और समाज) को खुदा के गजब का मुस्तहिक बनाता है इसके बरअक्स जब माल 
को दीन की राह में ख़र्च किया जाए तो फर्द और जमाअत दोनों अल्लाह की रहमतों और 
नुसरतों के मुस्तहिक बनते हैं। ख़र्च करने वाले को इसका फायदा बेशुमार सूरतों में दुनिया 
में भी हासिल होता है और आख़िरत में भी। 








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सूर-2. अल-बकरह 87 पारा 2 
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और पूरा करो हज और उमरा अल्लाह के लिए। फिर अगर तुम घिर जाओ तो जो कुर्बानी 
का जानवर मयस्सर हो वह पेश कर दो और अपने सरों को न मुंडबाओ जब तक कि कुर्बानी 
अपने ठिकाने पर न पहुंच जाए। तुममें से जो बीमार हो या उसके सर में कोई तकलीफ हो 

तो वह अर्थदण्ड फिदया दे रोजा या सदका या कुर्बानी का। जब अम्न की हालत हो और 

कोई हज तक उमरा का फायदा हासिल करना चाहे तो वह कुर्बानी पेश करे जो उसे मयस्सर 

आए। फिर जिसे मयस्सर न आए तो वह हज के दिनों में तीन दिन के रोजे रखे और सात 
दिन के रोजे जबकि तुम घरों को लौटो। ये पूरे दस हुए। यह उस शख्स के लिए है जिसका 
खानदान मरिजदे हराम के पास आबाद न हो। अल्लाह से डरो और जान लो कि अल्लाह 
सख्त अजाब देने वाला है। हज के निर्धारित महीने हैं। पस जिसने हज का अज्म कर लिया 

तो फिर उसे हज के दौरान न कोई फहेश (अश्लील) बात करनी चाहिए और न गुनाह की 
और न लड़ाई झगड़े की। और जो नेक काम तुम करोगे अल्लाह उसे जान लेगा। और तुम 
जदेशह (यात्रा-साम्गरी) लो। बेहतरीन जदेशह तक्वा का जादेशह है। और ऐ अवल वालो 

मुझ से डरो। (96-97) 





जाहिलियत के जमाने के अरबों में भी हज का रिवाज था। मगर वह उनके लिए गोया 
एक कौमी रस्म या तिजारती मेला था न कि एक अल्लाह की इबादत। मगर हज व उमरा हो 
या कोई और इबादत, उनकी असल कीमत उसी वक्त है जबकि वह ख़ालिसतन अल्लाह के 
लिए अदा की जाएं। जो शख्स अपनी रोजाना जिंदगी में अल्लाह का परस्तार बना हुआ हो जब 
वह अल्लाह की इबादत के लिए उठता है तो उसकी सारी नफ्सियात सिमट कर उसी के ऊपर 





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पारा 2 88 सूरा-2. अल-बकरह 


लग जाती है। वह एक ऐसी इबादत का तजर्बा करता है जो जाहिरी तौर पर देखने में तो आदाब 
व मनासिक (रस्मों) का एक मज्मूआ होती है, मगर अपनी अंदरूनी रूह के एतबार से वह एक 
ऐसी हस्ती का अपने आपको अल्लाह के आगे डाल देना होता है जो अल्लाह से डरता हो और 
आखिरत की पकड़ का अंदेशा जिसकी जिंदगी का सबसे बड़ा मसला बना हुआ हो। 

मोमिन वह है जो शहवत (वासना) के लिए जीने के बजाए मकसद के लिए जीने लगे। वह 
अपने मामलात में खुदा की नाफरमानी से बचने वाला हो और इज्तिमाई (सामूहिक) जिंदगी में 
आपस के लड़ाई झगड़े से बचा रहे। हज का सफर इन अख़्ताकी औसाफ की तर्बियत के लिए 
बहुत मौजूं (उपयुक्त) है इसलिए इसमें खासतौर पर इनकी ताकीद की गई है। इसी तरह हज में 
सफर का पहलू लोगों को सफर के सामान के एहतेमाम में लगा देता है। मगर अल्लाह के 
मुसाफिर की सबसे बग जादेराह (यात्रा सामग्री) तकवा है। एक शख्स सफर के सामान के पूरे 
एहतेमाम के साथ निकले, दूसरा शख्स अल्लाह पर एतमाद (भरोसा) का सरमाया (पूंजी) लेकर 
निकले तो सफर के दौरान दोनों की नपिसयात एक जैसी नहीं हो सकतीं । 

'ऐ अक्ल वालो मेरा तकवा इह्न्ियार करो! से मालूम हुआ कि तकवा एक ऐसी चीज 





हैजिसका तअल्लुक अक्ल से है। तकवा किसी जाहिरी स्वरूप का नाम नहीं ठै यह अक्ल या 





शुऊर की एक हालत है। इंसान जब शुऊर की सतह पर अपने रब को पा लेता है तो उसका 
जेहन इसके बाद खुदा के जलाल व जमाल (प्रताप एवं सौंदर्य) से भर जाता है। उस वक्त रूह 
की लतीफ सतह पर जो कैफियतें पैदा होती हैं इन्हीं का नाम तकवा है। 


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सूर-2. अल-बवरह 89 पारा 2 


इसमें कोई गुनाह नहीं कि तुम अपने रब का फज्ल भी तलाश करो। फिर जब तुम लोग 
अरफात से वापस हो तो अल्लाह को याद करो मशअरे हराम के नजदीक। और उसे याद 

करो जिस तरह अल्लाह ने बताया है। इससे पहले यकीनन तुम राह भटके हुए लोगों में 
थे। फिर तवाफ को चलो जहां से सब लोग चलें और अल्लाह से माफी मांगां। यकीनन 

अल्लाह बख्शने वाला, रहम करने वाला है। फिर जब तुम अपने हज के आमाल पूरे कर 
लो तो अल्लाह को याद करो जिस तरह तुम पहले अपने पूर्वजों को याद करते थे, बल्कि 
इससे भी ज्यादा। पस कोई आदमी कहता है : ऐ हमारे रब हमें इसी दुनिया में दे दे और 
आख़िरत में उसका कोई हिस्सा नहीं। और कोई आदमी है जो कहता है कि हमारे रब 
हमें दुनिया में भलाई दे और आख़िरत में भी भलाई दे और हमें आग के अजाब से बचा। 
इन्हीं लोगों के लिए हिस्सा है उनके किए का और अल्लाह जल्द हिसाब लेने वाला है। 
और अल्लाह को याद करो मुक्रर दिनों में। फिर जो शख्स जल्दी करके दो दिन में मक्का 
वापस आ जाए उस पर कोई गुनाह नहीं और जो शख्स ठहर जाए उस पर भी कोई गुनाह 
नहीं। यह उसके लिए है जो अल्लाह से डरे। और तुम अल्लाह से डरते रहो और खूब जान 
लो कि तुम उसी के पास इकट्ठा किए जाओगे। (98-203) 





असल चीज अल्लाह का तकवा है। किसी के अंदर यह मत्लूब (अपेक्षित) हालत मौजूद 
हो तो इसके बाद हज के दौरान आर्थिक जरूरत के तहत उसका कुछ कारोबार कर लेना या 
कुछ हज की रस्मों को अदायगी में किसी का आगे या किसी का पीछे हो जाना कोई हर्ज नहीं 
पैदा करता । हज के दौरान जो फिजा जारी रहनी चाहिए वह है अल्लाह का ख़ौफ, अल्लाह 
की याद, अल्लाह की नेमतों का शुक्र, अल्लाह के लिए हवालगी (समर्पण) का जज्बा। हज के 
दौरान कोई ऐसा फेअल (कृत्य) नहीं होना चाहिए जो इन कैफियतों के खिलाफ हो। मसलन 
किसी शख्स या गिरोह के लिए इबादत को अदायगी में इम्तियाज (विशिष्टता), पूर्वजों के 
कारनामे बयान करना जो गोया परोक्ष रूप से अपने को नुमायां करने की एक सूरत है। ये 
चीजें एक ऐसी इबादत के साथ बेजोड़ हैं जो यह बताती हो कि तमाम इंसान समान हैं, जिसमें 
इस बात का एलान किया जाता हो कि तमाम बड़ाई सिर्फ अल्लाह के लिए है। हज के जमाने 
में भी अगर आदमी इन चीजों की तर्बियत हासिल न करे तो जिंदगी के बाकी लम्हात में वह 
किस तरह इन पर कायम हो सकेगा। 

दुआएं, ख़ास तौर पर हज की दुआएं, आदमी की अंदरूनी हालत का इज्हार हैं। कोई शख्स 
आखिरत की अज्मतों को अपने दिल में लिए हुए जी रहा हो तो हज के मकामात पर उसके 
दिल से आख़िरत वाली दुआएं उबलेंगी। इसके बरअक्स जो शख्स दुनिया की चीजों में अपना 
दिल लगाए हुए हो, वह हज के मौके पर अपने खुदा से सबसे ज्यादा जो चीज मांगेगा वह वही 
होगी जिसकी तड़प लिए हुए वह वहां पहुंचा था। और सबसे बेहतर दुआ तो यह है कि आदमी 
अपने रब से कहे कि ख़ुदाया दुनिया में तेरे नजदीक जो चीज बेहतर हो वह मुझे दुनिया में दे 
दे और आख़िरत में तेरे नजदीक जो चीज बेहतर हो वह मुझे आखिरत में दे दे और अपने एताब 
(प्रकोप) से मुझको बचा ले। 


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पारा 2 90 सूश-2. अल-बकरह 


“तुम उसी के पास इकट्ठा किए जाओगे' यह हज का सबसे बड़ा सबक है जो अरफात 
के मैदान में दुनिया भर के लाखो इंसानों को एक ही वक्त जमा करके दिया जाता है। अरफात 
का इज्तिमा कयामत के इज्तिमा की एक तम्सील है। 


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और लोगों में से कोई है कि उसकी बात दुनिया की जिंदगी में तुम्हें खुश लगती है और 
वह अपने दिल की बात पर अल्लाह को गवाह बनाता है। हालांकि वह सख्त झगड़ालू 
है। और जब वह पीठ फेरता है तो वह इस कोशिश में रहता है कि जमीन में फसाद 

फैलाए और खेतियों और जानवरों को हलाक करे। हालांकि अल्लाह फसाद को पसंद 
नहीं करता। और जब उससे कहा जाता है कि अल्लाह से डर तो वकार (प्रतिष्ठा) उसे 
गुनाह पर जमा देता है। पस ऐसे शख्स के लिए जहन्नम काफी है और वह बहुत बुरा 
ठिकाना है। और लोगों में कोई है कि अल्लाह की खुशी की तलाश में अपनी जान को 
बेच देता है और अल्लाह अपने बंदों पर निहायत महरबान है। (204-207) 





जो शख्स मस्लेहत को अपना दीन बनाए उसकी बातें हमेशा लोगों को बहुत भली मालूम 
होती हैं। क्योंकि वह लोगों की पसंद को देखकर उसके मुताबिक बोलता है न कि यह देखकर 
कि हक क्या है और नाहक क्या । उसके सामने कोई मुस्तकिल मेयार नहीं होता । इसलिए वह 
मुखातब (संबोधित वर्ग) की रिआयत से हर वह अंदाज अपना लेता है जो मुखातब पर असर 
डालने वाला हो। हक का वफादार न होने की वजह से उसके लिए यह मुश्किल नहीं रहता 
कि दिल में कोई हकीकी जज्बा न होते हुए भी वह जबान से खूबसूरत बातें करे। 

ऐसा क्यों होता है कि बात के स्टेज पर वह मुस्लेह (सुधारक) के रूप में नजर आता है 
और अमल के मैदान में उसकी सरगर्मियां फसाद का सबब बन जाती हैं। इसकी वजह उसका 
तजाद (अन्तर्विरोध) है। अमली नताइज हमेशा अमल से पैदा होते हैं न कि अल्फाज से। वह 
अगरचे जबान से हकपरस्ती के अत्फाज बोलता है, मगर अमल के एतबार से वह जिस सतह 
पर हेता है वह सिर्फजती मफद है। यह चीज उसके वैल व अमल मेफ्क्रफा कर की 
है। बात के मकाम से हटकर जब वह अमल के मकाम पर आता है तो उसके मफाद (हित) 
का तकाजा खींचकर उसे ऐसी सरगर्मियों की तरफ ले जाता है जो सिर्फ तख़रीब (विध्वंस) पैदा 


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सूरा-2. अल-बकरह 9l पारा 2 


करने वाली हैं। यहां वह अपने जाती फायदे की ख़ातिर दूसरों का इस्तहसाल (शोषण) करता 
है। वह अवामी मकबूलियत हासिल करने के लिए लोगों को जज्बाती बातों की शराब पिलाता 
है। वह अपनी कयादत कायम करने की ख़ातिर पूरी कौम को दांव पर लगा देता है। वह तामीर 
(रचनात्मक कार्यो) की सियासत करने के बजाए तख़रीब (विध्वंस) की सियासत चलाता है। 
क्योंकि इस तरह ज्यादा आसानी से अवाम की भीड़ अपने गिर्द इकट्ठा की जा सकती है। ये 
वे लोग हैं जिन्होंने दुनिया के मफाद और मस्लेहत के साथ अपनी जिंदगी का सौदा किया। हक 
वाजेह हो जाने के बाद भी वे इसे कुबूल करने के लिए तैयार नहीं होते क्योंकि इसमें उन्हें वकार 
(प्रतिष्ठा) का बुत टूटता हुआ नजर आता है। जाहिरी तौर पर नर्म बातों के पीछे उनकी घमंड 
भरी नफ्सियात उन्हें एक ऐसे हक के दाओ के सामने झुकने से रोक देती है जिसे वे अपने 
से छोटा समझते हैं। 

दूसरे लोग वे हैं जो अल्लाह की रिजा (खुशी) के साथ अपनी जिंदगी का सौदा करते हैं। 
ऐसा शख्स अपनी आदतों (व्यवहार) और ख्यालात को छोड़कर ख़ुदा की बातों को कुबूल 
करता है। वह अपने माल को ख़ुदा के हवाले करके इसके बदल बे-माल बन जाने को गवारा 
कर लेता है। वह रिवाजी दीन को रद्द करके ख़ुदा के बेआमेज (विशुद्ध) दीन को लेता है चाहे 
इसकी वजह से उसे गैर-मकबूलियत पर राजी होना पड़े। वह मस्लेहतपरस्ती के बजाए हक 
के एलान को अपना शेवा (कार्य नियम) बनाता है। अगरचे इसके नतीजे में वह लोगों के 


एताब (प्रकोप) का शिकार होता रहे। ट 
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ऐ ईमान वालो इस्लाम में पूरे-पूरे दाखिल हो जाओ और शैतान के कदमों पर मत चलो, 
वह तुम्हारा खुला हुआ दुश्मन है। अगर तुम फिसल जाओ बाद इसके कि तुम्हारे पास 
वाजेह दलीलें आ चुकी हैं तो जान लो कि अल्लाह जबरदस्त है और हिक्मत 
(तत्वदर्शिता) वाला है। क्या लोग इस इंतजार में हैं कि अल्लाह बादल के सायबानों 





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पारा 2 92 सूर-2. अल-बकरह 


में आए और फरिश्ते भी आ जाएं और मामले का फैसला कर दिया जाए और सारे 
मामलात अल्लाह ही की तरफ फेरे जाते हैं। बनी इस्राईल से पूछो, हमने उन्हें कितनी 
खुली-खुली निशानियां दीं। और जो शख्स अल्लाह की नेमत को बदल डाले जबकि वह 
उसके पास आ चुकी हो तो अल्लाह यकीनन सख्त सजा देने वाला है। खुशनुमा कर 

दी गई है दुनिया की जिंदगी उन लोगों की नजर में जो मुंकिर हैं और वे ईमान वालों 

पर हंसते हैं, हालांकि जो परहेजगार हैं वे कियामत के दिन उनके मुकाबले में ऊंचे होंगे। 

और अल्लाह जिसे चाहता है बेहिसाब रोजी देता है। (208-2।2) 


इस्लाम को अपनाने की एक सूरत यह है कि तहपफुजात और मस्लेहतों का लिहाज किए 
बगैर इसे अपनाया जाए। इस्लाम जिस चीज को करने को कहे उसे किया जाए। और जिस 
चीज को छोड़ने को कहे उसे छोड़ दिया जाए। यह किसी आदमी का पूरे का पूरा इस्लाम में 
दाखिल होना है। दूसरी सूरत यह है कि आदमी इस्लाम को उसी हद तक अपनाए जिस हद 
तक इस्लाम उसकी जिंदगी से टकराता न हो। वह उस इस्लाम को ले ले जो उसके लिए 
मुफीद और या कम से कम नुक्सानदेह न हो। और उस इस्लाम को छोड़े रहे जो उसके महबूब 
अकाइद, उसकी पसंदीदी आदतों, उसके दुनियावी फायदे, उसके शख़्सी वकार, उसकी 
कायदाना मस्लेहतों को मजरूह करता हो। आदमी शुरू में पूरी तरह इरादा करके इस्लाम को 
अपनाता है। मगर जब वह वक्त आता है कि वह अपने फिक्री (वैचारिक) ढांचे को तोड़े या 
अपने मफाद को नजरअंदाज करके इस्लाम का साथ दे तो वह फिसल जाता है। वह ऐसे 
इस्लाम पर ठहर जाता है जिसमें उसके मफादात (हित) भी मजरूह न हों और इस्लाम का 
तमग्रा भी हाथ से जाने न पाए। 

इस्लाम के पैगाम की सदाकत पर यकीन करने के लिए अगर वे दलीलें चाहते हैं तो 
दलीलें पूरी तरह दी जा चुकी हैं। अगर वे चाहते कि उन्हें मोजिजात (चमत्कार) दिखाए जाएं 
तो जो शख्स खुली-खुली दलीलों को न माने उसे चुप करने के लिए मोजिजात भी नाकाफी 
साबित होंगे। इसके बाद आखिरी चीज जो बाकी रहती है वह यह कि खुदा अपने फरिश्तों 
के साथ सामने आ जाए। मगर जब ऐसा होगा तो वह किसी के कुछ काम न आएगा। क्योंकि 
वह फैसले का वक्त होगा न कि अमल करने का। इंसान का इम्तेहान यही है कि वह देखे 
बगैर महज दलीलों की बुनियाद पर मान ले। अगर उसने देखकर माना तो इस मानने की कोई 
कीमत नही। 

वे लोग जो मस्लेहतों को नजरअंदाज करके इस्लाम को अपनाएं और वे लोग जो 
मस्लेहतों की रिआयत करते हुए मुसलमान बनें, दोनों के हालात यकसां (समान) नहीं होते। 
पहला गिरोह अक्सर दुनियावी अहमियत की चीजों से ख़ाली हो जाता है जबकि दूसरे गिरोह 
के पास हर किस्म की दुनियावी रौनकें जमा हो जाती हैं। यह चीज दूसरे गिरोह को 
गलतफहमी में डाल देती है। वह अपने को बरतर ख्याल करता है और पहले गिरोह को हकीर 
(तुच्छ) समझने लगता है। मगर यह सूरतेहाल इंतिहाई आरजी है। मौजूदा दुनिया को तोड़कर 
जब नया बेहतर निजाम बनेगा तो वहां आज के बड़े पस्त कर दिए जाएंगे और वही लोग बड़ाई 
के मकाम पर नजर आएंगे जिन्हें आज छोटा समझ लिया गया था। 


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सूर-2. अल-बवरह 93 पारा 2 


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लोग एक उम्मत थे। उन्होंने इख्तेलाफ (मतभेद) किया तो अल्लाह ने पेग़म्बरों को भेजा 
खुशखबरी देने वाले और डराने वाले। और उनके साथ उतारी किताब हक के साथ ताकि 
वह फैसला कर दे उन बातों का जिनमें लोग इस़्तेलाफ कर रहे हैं। और ये इस़्तेलाफ 
उन्हीं लोगों ने किए जिन्हें हक दिया गया था, बाद इसके कि उनके पास खुली-खुली 
हिदायत आ चुकी थी, आपस की जिद की वजह से। पस अल्लाह ने अपनी तोफीक 
से हक के मामले में ईमान वालों को राह दिखाई जिसमें वे झगड़ रहे थे और अल्लाह 
जिसे चाहता है सीधी राह दिखा देता है। क्या तुमने यह समझ रखा है कि तुम जन्नत 
में दाखिल हो जाओगे हालांकि अभी तुम पर वे हालात गुजरे ही नहीं जो तुम्हारे अगलों 
पर गुजरे थे। उन्हें सख्ती और तकलीफ पहुंची और वे हिला मारे गए। यहां तक कि 
रसूल और उनके साथ ईमान लाने वाले पुकार उठे कि अल्लाह की मदद कब आएगी। 
याद रखो, अल्लाह की मदद करीब है। (2।3-2।4) 


दीन में इख़्तेलाफ (मतभेद) ताबीर और तशरीह (भाष्य एवं व्याख्या) के इख़्तेलाफ से 
शुरू होता है। हर एक अपने जेहनी सांचे के मुताबिक ख़ुदा के दीन का एक तसबुर 
(अवधारणा) कायम कर लेता है। एक ही हिदायत की किताब को मानते हुए भी लोगों की 
राए अलग-अलग हो जाती हैं। उस वक्‍त अल्लाह अपने चुने हुए बदि के जरिए हक का एलान 
कराता है। यह आवाज अगरचे इंसान की जबान में होती है और बजाहिर आम आदमियों जैसे 
एक आदमी के जरिए बुलंद की जाती है। ताहम जो सच्चे हक को तलाश करने वाले हैं, वे 
उसके अंदर शामिल खुदाई गूंज को पहचान लेते हैं और अपने इख़्तेलाफ को भूल कर फौरन 
उसकी आवाज पर लब्बैक कहते हैं। दूसरी तरफ वह तबका है जो अपने ख़ुदसाख्ता 
(स्वनिर्मित) दीन के साथ अपने को इतना ज्यादा वाबस्ता कर चुका होता है कि उसके अंदर 
यह जज्बा उभर आता है कि मैं दूसरे की बात क्यों मानूं। उसके अंदर जिद की नपिसियात 
पैदा हो जाती है। यहां तक कि वह उसी चीज का इंकार कर देता है जिसका वह अपने ख्याल 
के मुताबिक अलमबरदार बना हुआ था। 


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पारा 2 94 सूर-2. अल-बकरह 


हक जब रोशन दलीलों के साथ आ जाए और इसके बावजूद आदमी इसका साथ न दे तो 
इसकी वजह हमेशा यह होती है कि आदमी को नजर आता है कि इसका साथ देने में उसकी 
खुशगुमानियाँ का महल ढह जाएगा । उसके मफादात का निजाम टूट जाएगा। उसकी आसूदा 
(तृप्त, संतुष्ट) जिंदगी ख़तरे में पड़ जाएगी। उसका वकार बाकी नहीं रहेगा। मगर यही वह 
चीज है जो अल्लाह को अपने वफादार बंदों से मत्लूब है। जिस रास्ते की दुश्वारियों से घबरा कर 
आदमी उस पर आना नहीं चाहता यही वह रास्ता है जो जन्नत की तरफ ले जाने वाला है। 
जन्नत की वाहिद (एकमात्र) कीमत आदमी का अपना वजूद है। आदमी अपने वजूद को फिक्र 
व अमल के जिन नक्शों के हवाले किए हुए है वहां से उखाड़कर जब वह उसे ख़ुदा के नक्शे में 
लाना चाहता है तो उसकी पूरी शख्सियत हिल जाती है। इसमें उस वक्त और ज्यादा इजाफा हो 
जाता है जबकि इसके साथ वह ख़ुदा के दीन का दाऔ बनकर खड़ा हो जाए। दाऔ (आस्वानकर्ता) 
बनना दूसरे शब्दों में दूसरों के ऊपर नासेह (नसीहत करने वाला) और नाकिद (आलोचक) 
बनना है और अपने खिलाफ नसीहत और तंकीद (आलोचना) को सुनना हर जमाने में इंसान 
के लिए सबसे असहनीय बात रही है। इसके नतीजे में संबोधित वर्ग की तरफ से इतनी शदीद 
प्रतिक्रिया सामने आती है जो दाऔ के लिए एक भूचाल से कम नहीं होती। 


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लोग तुमसे पूछते हैं कि क्‍या ख़र्च करें। कह दो कि जो माल तुम ख़र्च करो तो उसमें 
हक है तुम्हारे मां-बाप का और रिश्तेदारों का और यतीमों का और मोहताजों का और 
मुसाफिरों का। और जो भलाई तुम करोगे वह अल्लाह को मालूम है। तुम पर लड़ाई 
का हुक्म हुआ है और वह तुम्हें भार महसूस होती है। हो सकता है कि तुम एक चीज 
को नागवार समझो और वह तुम्हारे लिए भली हो। और हो सकता है कि तुम एक 


चीज को पसंद करो और वह तुम्हारे लिए बुरी हो। और अल्लाह जानता है तुम नहीं 
जानते। (2।5-26) 





इंसान यह समझता है कि उसके जान और माल के इस्तेमाल का बेहतरीन मसरफ उसके 
बीवी-बच्चे हैं। वह अपनी पूंजी को अपने जाती हौसलों और तमन्नाओं में लुटाकर खुश होता 
है। इसके विपरीत शरीअत यह कहती है कि अपने जान और माल को अल्लाह की राह में ख़र्च 
करो। ये दोनों मदें एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं। एक ख़ुद अपने ऊपर ख़र्च करना है और 
दूसरा गैरों के ऊपर। एक अपनी ताकत को दुनिया की जाहिरी चीजों की प्राप्ति पर लगाना है 
और दूसरा आखिरत की नजर न आने वाली चीजों पर । मगर इंसान को जो चीज नापसंद है वही 





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सूरा-2. अल-बकरह 95 पारा 2 


अल्लाह की नजर में भलाई है। क्योंकि वह उसकी अगली व्यापक जिंदगी में उसे नफा देने वाली 
है। और इंसान को जो चीज पसंद है वह अल्लाह की नजर में बुराई है। क्योंकि इसका जो कुछ 
फायदा है इसी आरजी दुनिया में है, आख़िरत में इससे किसी को कुछ मिलने वाला नहीं। 

यही उसूल जिंदगी के तमाम मामलों के लिए सही है। आदमी आजाद और बेकैद (उन्मुक्त) 
जिंदगी को पसंद करता है, हालांकि उसकी भलाई इस में है कि वह अपने आपको अल्लाह की 
रस्सी में बांध कर रखे। आदमी अपनी तारीफ करने वालों को दोस्त बनाता है, हालांकि उसके 
लिए ज्यादा बेहतर यह है कि वह उस शख्स को अपना दोस्त बनाए, जो उसकी गलतियों को 
उसे बताता हो। आदमी एक हक को मानने से इंकार करता है और ख़ुश होता है कि इस तरह 
उसने लोगों की नजर में अपने वकार (प्रतिष्ठा) को बचा लिया। हालांकि उसके लिए ज्यादा 
बेहतर यह था कि वह अपनी इज्ज़त को ख़तरे में डालकर खुले दिल से हक का एतराफ कर 
ले। आदमी महनत और कुर्बानी वाले दीन से बेरगाबत (उदासीन) रहता है और उस दीन को 
ले लेता है जिसमें मामूली बातों पर जन्नत की खुशख़बरी मिल रही हो। हालांकि उसके लिए 
ज्यादा बेहतर था कि वह महनत और कुर्बानी वाले दीन को अपनाता। आदमी “जिंदगी” के 
मसाइल को अहमियत देता है, हालांकि ज्यादा बड़ी अक्लमंदी यह है कि आदमी 'मौत' के 
मसाइल को अहमियत दे। 

“अल्लाह जानता है, तुम नहीं जानते।' का मतलब यह है कि अल्लाह उन सतही जज्बात 
और प्रेरकों से बुलंद है जिनसे बुलंद न होने की वजह से इंसान की राय प्रभावित राय बन 
जाती है और वह सही रुख़ को छोड़कर गलत रुख़ की तरफ मुड़ जाता है। अल्लाह का 
फैसला हर किस्म की असंबंधित चीजें की मिलावट से पाक है। वह विशुद्ध फैसला है। 
इसलिए इसके बरहक होने में शुबह नहीं। इंसान के फैसले तरह-तरह की नपिसियाति 
पेचीदगियों से प्रभावित रहते हैं। वह घटिया प्रेरकों के जेरे असर राय कायम करता है। 
इसलिए इंसान की राय प्रायः हक पर आधारित नहीं होती है और न हालात के अनुकूल होती 
है। खुदा जो कहे उसी को तुम हक समझो और उसके मुकाबले में अपने ख्याल को छोड़ दो। 


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पारा 2 96 सूर-2. अल-बकरह 


लोग तुमसे हुरमत (प्रतिष्ठा) वाले महीने की बाबत पूछते हैं कि इसमें लड़ना कैसा है। 
कह दो कि इसमें लड़ना बहुत बुरा है। मगर अल्लाह के रास्ते से रोकना और इसका 
इंकार करना और मस्जिदे हराम से रोकना और उसके लोगों को इससे निकालना, 
अल्लाह के नजदीक इससे भी ज्यादा बूरा है। और फितना कत्ल से भी ज्यादा बच्चे बुराई 

है। और ये लोग तुमसे निरंतर लड़ते रहेंगे यहां तक कि तुम्हें तुम्हारे दीन से फेर दें अगर 
काबू पाएं। और तुममें से जो कोई अपने दीन से फिरेगा और कुफ्र की हालत में मर 

जाए तो ऐसे लोगों के अमल जाए (विनष्ट) हो गए दुनिया में और आखिरत में। और 

वे आग में पड़ने वाले हैं, वे इसमें हमेशा रहेंगे। वे लोग जो ईमान लाए और जिन्होंने 
हिजरत की और अल्लाह की राह में जिहाद किया, वे अल्लाह की रहमत के उम्मीदवार 
हैं। और अल्लाह बख्शने वाला महरबान है। (27-2.8) 


रजब 2 हिजरी में यह वाकया पेश आया कि मुसलमानों के एक दस्ता और करेश के 
मुशरिकीन की एक जमाअत के दर्मियान टकराव हो गया। यह वाकया मक्का और तायफ के 
दर्मियान नख़ला में पेश आया। कुरैश का एक आदमी मुसलमानों के हाथ से मारा गया। 
मुसलमानों का ख्याल था कि यह जमादि उस सानी की 30 तारीख़ है। मगर चांद 29 का हो 
गया था और वह रजब की पहली तारीख़ थी। रजब का महीना माह हराम में शुमार होता है 
और सदियों के रवाज से इस मामले में अरबों के जज्बात बहुत शदीद थे। इस तरह विरोधियों 
को मौका मिल गया कि वे मुसलमानों को और मुहम्मद (सल्ल०) को बदनाम करें कि ये लोग 
हकपरस्ती से इतना दूर हैं कि हराम महीनों की हुरमत का भी ख्याल नहीं करते। जवाब में 
कहा गया कि माह हराम में लड़ना यकीनन गुनाह है। मगर मुसलमानों से यह कृत्य तो भूल 
से और संयोगवश हो गया और तुम लोगों का हाल यह है कि जानबूझ कर और मुस्तकिल 
तौर पर तुम इससे कहीं ज्यादा बड़े जुर्म कर रहे हो। तुम्हारे दर्मियान अल्लाह की पुकार बुलंद 
हुई है मगर तुम इसे मानने से इंकार कर रहे हो और दूसरों को भी इसे अपनाने से रोकते हो। 
तुम्हारी जिद और एनाद ((ईर्ष्या) का यह हाल है कि अल्लाह के बंदों के ऊपर अल्लाह के घर 
का दरवाजा बंद करते हो, उन्हें उनके अपने घरों से निकलने पर मजबूर करते हो। यहां तक 
कि जो लोग अल्लाह के दीन की तरफ बढ़ते हैं उन्हें तरह-तरह से सताते हो ताकि वे इसे छोड़ 
दें। हालांकि किसी को अल्लाह के रास्ते से हटाना उसे कत्ल कर देने से भी ज्यादा बुरा है। 
अल्लाह के नजदीक यह बहुत बड़ा जुर्म है कि आदमी ख़ुद बड़ी-बड़ी बुराइयों में मुब्तला हो 
और दूसरे की एक मामूली ख़ता को पा जाए तो इसे प्रचारित करके उसे बदनाम करे। 
विरोधों का यह नतीजा होता है कि अहले ईमान को अपने घरों को छोड़ना पड़ता है। 
दीन पर कायम रहने के लिए उन्हें जिहाद की हद तक जाना पड़ता है। मगर मौजूदा दुनिया 
में ऐसा होना जरूरी है। यह एक दोतरफा अमल है जो ख़ुदापरस्तों और ख़ुदा दुश्मनों को 
एक-दूसरे से अलग करता है। इस तरह एक तरफ यह साबित होता है कि वे कौन लोग हैं 
जो अल्लाह के नहीं बल्कि अपनी जात के पुजारी हैं। जो अपने जाती मफाद के लिए अल्लाह 
से बेख़फ होकर अल्लाह के बंदों को सताते हैं। दूसरी तरफ इसी वाकया के दर्मियान ईमान 
और हिजरत और जिहाद को नेकियां प्रकट होती हैं। इससे मालूम होता है कि वे कौन लोग 





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सूर-2. अल-बकरह 97 पारा 2 पारा 2 98 सूरा-2. अल-क्यरह 
हैं जिन्होंने हालात की शिदूदत के बावजूद अल्लाह पर अपने भरोसे को बाकी रखा और किसने मुसलमान वह है जो आख़िरत को अपनी मंजिल बनाए, जो इस तड़प के साथ अपनी 
इसे खो दिया। सुबह व शाम कर रहा हो कि उसका खुदा उससे राजी हा ` जाए। ऐसे शख्स के लिए दुनिया का 
3 400 Ch ह 64 / 32८) ८ हा ४05४ ८२ साज व सामान जिंदगी की जरूरत है न कि जिगी का मकसद । वह माल हासिल करता है वह 
४58) AND ४६३ है हज on UF दुनिया के कामों में मशगूल रहता है। मगर यह सब कुछ उसके लिए हाजत और जरूरत के 
i) ३/१ 2 ed 27s LORS 9 gl CS 93% दर्जे मे होता है न कि मकसद के दर्जे में। उसके असासे (सम्पत्ति) की जो चीज उसकी हकीकी 
७) ४४5 पे | G EF > Ce जरूरत से ज्यादा हो, उसका बेहतरीन मसरफ उसके नजदीक यह होता है कि वह उसे अपने 
A PR ys i PRE le 4st 9475 रब की राह में दे दे, ताकि वह उससे राजी हो और उसे अपनी रहमतों के साए में जगह दे। 
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| 5) ls i or | उसकी हर चीज हाजत के बराबर अपने लिए होती है और हाजत से जो ज्यादा हो वह दीन 
TOSSES EEN के लिए । 
$ 5 हि हि १-४ है का bs आपसी मामलात और कारोबार के अक्सर मसाइल इतने पेचीदा होते हैं कि इनके बारे 
AG ~ Ke 7 pi (22 / A As A K ke a | में सिर्फ बुनियादी हिदायतें दी जा सकती हैं, इनकी तमाम अमली तफ्सीलात को कानून के 
>#ी > ४ A ठ 7 अल्फाज में निर्धारित नहीं किया जा सकता। इस सिलसिले में यह उसूल निर्धारित कर दिया 
लोग तुमसे शराब और जुवे के बारे में पूछते हैं। कह दो कि इन दोनों चीजों में बड़ा गया कि अपनी नियत को दुरुस्त रखो और जो कार्रवाई करो यह सोच कर करो कि वह किसी 
गुनाह है और लोगों के लिए कुछ फायदे भी हैं। और इनका गुनाह बहुत ज्यादा है इनके बिगाड़ का सबब न बने। बल्कि साहिबे मामला के हक में बेहतरी पैदा करने वाली हो। अगर 
फायदे से। और वे तुमसे पूछते हैं कि क्या खर्च करें। कह दो कि जो हाजत (जरूरत) तुम दूसरे को अपना भाई समझते हुए उसके हित की पूरी रिआयत रखोगे और तुम्हारा मकसद 
से ज्यादा हो। इस तरह अल्लाह तुम्हारे लिए अहकाम को बयान करता है ताकि तुम सिफ सुधार और दुरुस्तगी होगा तो अल्लाह के यहां तुम्हारी पकड़ नहीं। 
ध्यान करो दुनिया और आख़िरत के मामलों में। और वे तुमसे यतीमों के बारे में पूछते 24.5 464787 222८६४/०८ 29 ४ ड 2) 5 hs ४८.८ 
हैं। कह दो कि जिसमें उनकी बहबूद (बेहतरी) हो वह बेहतर है। और अगर तुम उन्हें > ट ROLL) ४ ०० is 
अपने साथ शामिल कर लो तो वे तुम्हारे भाई हैं। और अल्लाह को मालूम है कि कौन १ 289६4 ४ 7 १ 9 OI Fe 2 ६१०० र eT yA | I | AR OR 
ख़राबी पैदा करने वाला है और कौन दुरुस्तगी पैदा करने वाला। और अगर अल्लाह 7S 2 द 5 Ee कक > | 
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( मुश्किल में डाल देता। अल्लाह जबरदस्त है तदबीर वाला है। Ft ६. । | CFS Of 7 Ei; FEY 


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कुछ सवालों का जवाब देते हुए यहां कुछ बुनियादी उसूल बता दिए गए हैं। () किसी ह ~} ०258 श्र oS 


चीज का नुक्सान अगर उसके फायदे से ज्यादा हो तो छोड़ देने योग्य है। (2) अपनी वाकई ५४१ 55०३ A) 7) sR 4 (७ + UR । 
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जरूरत से ज्यादा जो माल हो उसे अल्लाह की राह में दे देना चाहिए। (3) आपसी मामलों 


में उन तरीकों से बचना जो किसी बिगाड़ का सबब बन सकते हों और उन तरीकों को 3 3d C2 ed (९) i i hs 2! AS NE 
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सरगर्मियों, वे तमाम समारोह और जलसे त्याग देने योग्य हैं जिनके बारे में दीनी और आर्थिक और मुशरिक औरतों से निकाह न करो जब तक वे ईमान न लाएं और मोमिन कनीज 


जायज बताए कि इनमेंफयदा कम है और नुक्सान ज्यादा है। (दासी) बेहतर है एक मुशरिक औरत से, अगरचे वह तुम्हें अच्छी मालूम हो। और अपनी 


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सूश-2. अल-बकरह 99 पारा 2 


औरतों को मुशरिक मर्दों के निकाह में न दो जब तक वे ईमान न लाएं, मोमिन गुलाम 
बेहतर है एक आजाद मुशरिक से, अगरचे वह तुम्हें अच्छा मालूम हो। ये लोग आग 
की तरफ बुलाते हैं और अल्लाह जन्नत की तरफ और अपनी बख्शिश की तरफ बुलाता 

है। वह अपने अहकाम लोगों के लिए खोलकर बयान करता है ताकि वे नसीहत पकड़ें। 
और वे तुमसे हैज (मासिक धर्म) का हुक्म पूछते हैं। कह दो कि वह एक गंदगी है, इसमें 
औरतों से अलग रहो। और जब तक वे पाक न हो जाएं उनके करीब न जाओ। फिर 
जब वे अच्छी तरह पाक हो जाएं तो उस तरीके से उनके पास जाओ जिसका अल्लाह 

ने तुम्हें हुक्म दिया है। अल्लाह दोस्त रखता है तौबा करने वालों को और वह दोस्त 
रखता है पाक रहने वालों को। तुम्हारी औरतें तुम्हारी खेतियां हैं। पस अपनी खेती में 
जिस तरह चाहो जाओ और अपने लिए आगे भेजो और अल्लाह से डरो और जान लो 
कि तुम्हें जरूर उससे मिलना है। और ईमान वालो को ख़ुशख़बरी दे दो। (22।-223) 


मर्द और औरत जब निकाह के जरिए एक-दूसरे के साथी बनते हैं तो इसका अस्ल मकसद 
शहवतरानी (यौन तृप्ति) नहीं होता बल्कि यह उसी किस्म का एक बामक्सद तअल्लुक है जो 
किसान और खेत के दर्मियान होता है। इसमें आदमी को इतना ही संजीदा होना चाहिए जितना 
खेती का मंसूबा बनाने वाला संजीदा होता है इस सिलसिले में कुछ बातों का लिहाज जरूरी है। 

एक यह कि जोड़े के चुनाव में सबसे ज्यादा जिस चीज को देखा जाए वह ईमान है। 
मियांबीवी का तअल्लुक बेहद नाजुक तअल्लुक है। इसके बहुत से नप्सियाती, खानदानी 
और समाजी पहलू हैं। इस किस्म का तअल्लुक दो शख्मों के दर्मियान अगर एतकादी 
(आस्थागत) समानता के बगैर हो तो अंततः वह दो में से किसी एक की बर्बादी का सबब 
होगा। एक मोमिन अपने गैर-मोमिन जोड़े से एतकादी समझौता कर ले तो इसका मतलब यह 
है कि उसने अपने दीन को बर्बाद कर लिया। और अगर वह समझौता न करे तो इसके बाद 
दोनों में जो कशमकश होगी इसके नतीजे में उसका घर बर्बाद हो जाएगा। दूसरी चीज यह 
कि दो सिनफें का यह तअल्लुक खुदा की बनावट के मुताबिक अपने फितरी ढंग पर कायम 
हो। फितरत भी खुदा का हुक्म है। कुरआन के शाब्दिक आदेशों की पाबंदी जिस तरह जरूरी 
है उसी तरह उस फितरी निजाम की पाबंदी भी जरूरी है जो खुदा ने तर्लीकी (रचनात्मक) 
तौर पर हमारे लिए बना दिया है। तीसरी चीज यह कि हर मरहले में आदमी के ऊपर अल्लाह 
का ख़ौफ ग़ालिब रहे। वह जो भी रवैया अपनाए यह सोच कर अपनाए कि अंततः उसे रब्बुल 
आलमीन के पास जाना है जो खुले और छुपे हर चीज से बाख़बर है। 'और अपने लिए आगे 
भेजो ।' का मतलब यह है कि अपनी आख़िरत के लिए नेक आमाल भेजो। यानी जो कुछ करो 
यह समझ कर करो कि तुम्हारा कोई काम सिर्फ दुनियावी काम नहीं है बल्कि हर काम का एक 
उख़रवी (आखिरत संबंधी) पहलू है। मरने के बाद तुम अपने इस उख़रवी पहलू से दो-चार होने 
वाले हो। तुम्हें इस मामले में हद दर्जा होशियार रहना चाहिए कि तुम्हारा अमल आखिरत के 
पेमाने में सालेह (नेक) अमल करार पाए न कि गैर-सालेह। 





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और अल्लाह को अपनी कसमों का निशाना न बनाओ कि तुम भलाई न करो और 
परहेजगारी न करो और लोगों के दर्मियान सुलह न करो। अल्लाह सुनने वाला, जानने 
वाला है। अल्लाह तुम्हारी बेइरादा कसमों पर तुम को नहीं पकड़ता, मगर वह उस काम 
पर पकड़ता है जो तुम्हारे दिल करते हैं। और अल्लाह बख्शने वाला, तहम्मुल (धिर्य) 
वाला है। जो लोग अपनी बीवियाँ से न मिलने की कसम खा लें उनके लिए चार महीने 
तक की मोहलत है। फिर अगर वे रुजूअ कर लें तो अल्लाह माफ करने वाला, महरबान 
है। और अगर वे तलाक का फैसला करें तो यकीनन अल्लाह सुनने वाला, जानने वाला 
है। और तलाक दी हुई औरतें अपने आपको तीन हैज तक रोके रखें। और अगर वे 
अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखती हैं तो उनके लिए जाइज नहीं कि वे 
उस चीज को छुपाएं जो अल्लाह ने पैदा किया है उनके पेट में। और इस दौरान में उनके 
शौहर उन्हें फिर लौटा लेने का हक रखते हैं अगर वे सुलह करना चाहें। और इन औरतों 
के लिए दस्तूर के मुताबिक उसी तरह हुकूक हैं जिस तरह दस्तूर के मुताबिक उन पर 
जिम्मेदारियां हैं। और मर्दों का उनके मुकाबले में कुछ दर्जा बढ़ा हुआ है। और अल्लाह 
जबरदस्त है, तदबीर वाला है। (2१५-१28) 


जिद और गुस्से में कभी एक आदमी कसम खा लेता है कि मैं फलाँ आदमी के साथ कोई 
नेक सलूक नहीं करूंगा । कदीम जमाने में अरबों में इस तरह की कसमों का बहुत रवाज था। 
वे एक भलाई का काम या एक इस्लाह (सुधार) का काम न करने की कसम खा लेते और 
जब उन्हें इस नौइयत के काम के लिए पुकारा जाता तो कह देते कि हम तो इसे न करने की 


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सू-१. अल-बकाह I0I पारा 2 


कसम खा चुके हैं। यह कहना कि मैं भलाई का काम न करूंगा, यूं भी एक ग़लत बात है और 
इसे खुदा के नाम की कसम खाकर कहना और भी ज्यादा बुरा है। क्योंकि खुदा तो वह हस्ती 
है जो सरापा रहमत और खैर है। फिर ऐसे ख़ुदा का नाम लेकर अपने को रहमत और खैर 
के कामों से अलग करना क्यूं कर दुरुस्त हो सकता है। बिगाड़ हर हाल में बुरा है। लेकिन 
अगर बिगाड़ को ख़ुदा या उसके दीन का नाम लेकर किया जाए तो इसकी बुराई बहुत ज्यादा 
बढ़ जाती है। 

कुछ लोग कसम को तकिया कलाम बना लेते हैं और गैर इरादी तौर पर कसम के 
अल्फाज बोलते रहते हैं। यह घटिया बात है और हर आदमी को इससे बचना चाहिए, ताहम 
मियांबीवी के तअल्लुक की नजाकत की वजह से इस तरह के मामलात में ऐसी कसम को 
कानूनी तौर पर अप्रभावी करार दिया गया। अलबत्ता वह कलाम जो आदमी सोच समझ कर 
मुंह से निकाले और जिसके साथ कलबी इरादा शामिल हो जाए उसकी नौइयत बिल्कुल दूसरी 
होती है। इसलिए अगर कोई शख्स इरादतन यह कसम खाले कि में अपनी औरत के पास 
न जाऊंगा तो इसे काबिले लिहाज करार देकर इसे एक कानूनी मसला बना दिया गया और 
इसके अहकाम मुक्रर किए गए। 

ख़ानदानी निजाम में, चाहे मर्द हो या औरत, हर एक के हुकूक भी हैं और हर एक की 
जिम्मेदारियां भी। हर फर्द को चाहिए कि दूसरे से अपना हक लेने के साथ दूसरे को उसका 
हक भी पूरी तरह अदा करे। कोई शख्स इत्तेफाकी हालात या अपनी फितरी बालादस्ती 
(प्राकृतिक शक्ति) से फायदा उठा कर अगर दूसरे के साथ नाइंसाफी करेगा तो वह खुदा की 
पकड़ से अपने आपको बचा नहीं सकता। 


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तलाक दो बार है। फिर या तो कायदे के मुताबिक रख लेना है या खुशउस्लूबी के साथ 
रुख्सत कर देना। और तुम्हारे लिए यह बात जाइज नहीं कि तुमने जो कुछ इन औरतों 
को दिया है उसमें से कुछ ले लो मगर यह कि दोनों को डर हो कि वे अल्लाह की हदों 
पर कायम न रह सकेंगे। फिर अगर तुम्हें यह डर हो कि दोनों अल्लाह की हदों पर 
कायम न रह सकेंगे तो दोनों पर गुनाह नहीं उस माल में जिसे औरत फिदये में दे। 
ये अल्लाह की हदें हैं तो इनसे बाहर न निकलो। और जो शरस अल्लाह की हदों से 
निकल जाए तो वही लोग जालिम हैं। फिर अगर वह उसे तलाक दे दे तो इसके बाद 
वह औरत उसके लिए हलाल नहीं जब तक कि वह किसी दूसरे मर्द से निकाह न करे। 
फिर अगर वह मर्द उसे तलाक दे दे तब गुनाह नहीं उन दोनों पर कि फिर मिल जाएं 
बशर्ते कि उन्हें अल्लाह की हदों पर कायम रहने की उम्मीद हो। ये ख़ुदावंदी हदें 
(सीमाएं) हैं जिन्हें वह बयान कर रहा है उन लोगों के लिए जो दानिशमंद हैं। और 
जब तुम औरतों को तलाक दे दो और वे अपनी इदूदत तक पहुंच जाएं तो उन्हें या तो 
कायदे के मुताबिक रख लो या कायदे के मुताबिक रुसत कर दो। और तकलीफ 
पहुंचाने की गर्ज से न रोको ताकि उन पर ज्यादती करो। और जो ऐसा करेगा उसने 
अपना ही बुरा किया। और अल्लाह की आयतों को खेल न बनाओ। और याद करो 
अपने ऊपर अल्लाह की नेमत को और उस किताब व हिक्मत (तत्वदर्शिता) को जो 
उसने तुम्हारी नसीहत के लिए उतारी है। और अल्लाह से डरो और जान लो कि अल्लाह 
हर चीज को जानने वाला है। (२११-237) 


तलाक एक गैर-मामूली वाकया है जो गैर-मामूली हालात में पेश आता है मगर इस 
इंतिहाई जज्बाती मामले में भी तकवा और एहसान (शालीनता, सद्व्यवहार) पर कायम रहने 
का हुक्म दिया गया है। इससे अंदाजा किया जा सकता है कि दुनिया की जिंदगी में मोमिन 
से किस किस्म का सुलूक अल्लाह तआला को मत्लूब है। 

निकाह के रिश्ते को एक ही वक्त में तोड़ने के बजाए इसे तीन मरहलों में अंजाम देने 
का हुक्म हुआ है जो कुछ महीनों में पूरा होता है। एक इंतिहाई हैजानी मामले में इस किस्म 
का संजीदा तरीका मुरकर करके बताया गया कि इख़्तेलाफ (मतभेद) के वक्त मोमिन का 
रवैया कैसा होना चाहिए । अपने मुखालिफ फरीक (पक्ष) के साथ उसका सुलूक गैर-जज्बाती 
अंदाज में सोचा हुआ साबिराना फैसला हो न कि इश्तेआल (उत्तेजना) के तहत जाहिर होने 
वाला अचानक फैसला । इसी तरह तलाक के जितने आदाब मुरकर किए गए हैं सबमें जिंदगी 
का बहुत गहरा सबक मौजूद है। अलाहिदगी (अलग होने) का इरादा करने के बाद भी आदमी 





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सूर-2. अल-बकह I03 पारा 2 


एक मुदूदत तक दुबारा इत्तेहाद के इम्कान पर गौर करता है। तअल्लुकात के ख़ात्मे की नौबत 
आ जाए तब भी वह उसे इंसानियत के हुकूक के ख़ात्मे के हममअना न बनाए । आपसी सुलूक 

के लिए अल्लाह का जो कानून है उसकी मुकम्मल पाबंदी की जाए। शरीअत के किसी हुक्म 
कोकनूती बहानेंके जरए रदूद न किया जाए । कनून की तामील मेसिर्फकनून के अल्फज 

को न देखा जाए बल्कि उसकी हिक्मत (कानून की मूल भावना) को भी सामने रखा जाए। 
अलाहिदगी से पहले अपने साबका (पूर्व) साथी को जो कुछ दिया था उसे अलाहिदगी के बाद 
वापस लेने की कोशिश न की जाए। जिस तरह तअल्लुक के जमाने को खुशउस्लूबी के साथ 
गुजारा था उसी तरह अलाहिदगी के जमाने को भी खुशउस्लूबी के साथ गुजारा जाए 


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और जब तुम अपनी औरतों को तलाक दे दो और वे अपनी इद्दत पूरी कर लें तो उन्हें 

न रोको कि वे अपने शोहरों से निकाह कर लें। जबकि वे दस्तूर (सामान्य नियम) के 
अनुसार आपस में राजी हो जाएं। यह नसीहत की जाती है उस शख्स को जो तुममें 

से अल्लाह और आखिरत के दिन पर यकीन रखता हो। यह तुम्हारे लिए ज्यादा पाकीजा 

और सुथरा तरीका है। और अल्लाह जानता है तुम नहीं जानते। और माएं अपने बच्चों 
को पूरे दो साल तक दूध पिलाएं उन लोगों के लिए जो पूरी मुदूदत तक दूध पिलाना 
चाहते हों। और जिसका बच्चा है उसके जिम्मे है इन मांओं का खाना और कपड़ा दस्तूर 

के मुताविक। किसी को हुक्म नहीं दिया जाता मगर उसकी बर्दाश्त के मुवाफिक। न 

किसी मां को उसके बच्चे के सबब से तकलीफ दी जाए। और न किसी बाप को उसके 
बच्चे के सबब से। और यही जिम्मेदारी वारिस पर भी है। फिर अगर दोनों आपसी 





पारा 2 I04 सूरा-2. अल-बकरह 


रजामंदी और मशवरे से दूध छुड़ाना चाहें तो दोनों पर कोई गुनाह नहीं। और अगर तुम 
चाहो कि अपने बच्चे को किसी और से दूध पिलवाओ तब भी तुम पर कोई गुनाह नहीं। 
बशर्ते कि तुम कायदे के मुताबिक वह अदा कर दो जो तुमने उन्हें देना ठहराया था। 

और अल्लाह से डरो और जान लो कि जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उसे देख रहा है। 
(232-233) 


एक औरत को उसके ख़ाविंद ने तलाक दे दी और इद्दत के जमाने में रजअत (मिलन) 
न कीो। जब इदूदत ख़त्म हो चुकी तो दूसरे लोगों के साथ पहले शौहर ने भी निकाह का पैग़ाम 
दिया। औरत ने अपने पहले शौहर से दुबारा निकाह करना मंजूर कर लिया मगर औरत का 
भाई गुस्से में आ गया और निकाह को रोक दिया। इस पर यह हुक्म उतरा की जब दोनों 
दुबारा वैवाहिक संबंध कायम करने पर राजी हैं तो रुकावट न डालो। 

तलाक के बाद भी अक्सर बहुत से मसाइल बाकी रहते हैं। कभी पहले शौहर से दुबारा 
निकाह का मामला होता है। कभी तलाकशुदा औरत किसी दूसरे मर्द से शादी करना चाहती 
है। ऐसे मौकों पर मुश्किलें पैदा करना दुरुस्त नहीं। कभी तलाकशुदा औरत बच्चे वाली होती 
है और साबका (पूर्व) शौहर के बच्चे के दूध पिलाने का मसला होता है। ऐसी हालत में 
एक-दूसरे को तकलीफ देने से मना किया गया और हुक्म दिया गया कि इस मामले को 
जज्बात का सवाल न बनाओ। इसे आपसी मशवरे और रजामंदी से तै कर लो। इससे अंदाजा 
होता है कि इख़्तेलाफ और अलाहिदगी के वक्‍त मामले को निपटाने का मोमिनाना तरीका 
क्या है। वह यह कि दोनों पक्षों की जानिब जो मसाइल बाकी रह गए हों उन्हें एक-दूसरे को 
परेशान करने का जरिया न बनाया जाए बल्कि उन्हें ऐसे ढंग से तै किया जाए जो दोनों 
जानिब के लिए बेहतर और काबिले कबूल हो। इमान रूह की पाकीजगी है फिर जिसकी रूह 
पाक हो चुकी हो वह अपने मामलात में नापाकी का तरीका कैसे अपना सकता है। 

नसीहत किसी के लिए सिर्फ इस बुनियाद पर काबिले कुबूल नहीं हो जाती कि वह 
बरहक है। जरूरी है कि सुनने वाला अल्लाह पर यकीन रखता हो और उसकी पकड़ से डरने 
वाला हो। वह समझे कि नसीहत करने वाले की नसीहत को रदूद करने के लिए आज अगर 
मैंने कुछ अल्फाज पा लिए तो इससे असल मसला ख़त्म नहीं हो जाता। क्योंकि मामला 
बिलआखिर अल्लाह की अदालत में पेश होना है। और वहां किसी किस्म का जोर और कोई 
लफ्नी हुत काम आने वाली नहीं। 

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और तुममें से जो लोग मर जाएं और बीवियां छोड़ जाएं वे बीवियां अपने आप को चार 
महीने दस दिन तक इंतजार में रखें। फिर जब वे अपनी मुद्दत को पहुंचे तो जो कुछ वे 
अपने बारे में कायदे के मुवाफिक करें उसका तुम पर कोई गुनाह नहीं। और अल्लाह 
तुम्हारे कामों से पूरी तरह बाख़बर है। और तुम्हारे लिए इस बात में कोई गुनाह नहीं कि 
इन औरतों को पैग़ाम देने में कोई बात इशारे में कहो या अपने दिल में छुपाए रखो। 
अल्लाह को मालूम है कि तुम जरूर इनका ध्यान करोगे। मगर छुपकर इनसे वादा न 
करो, तुम इनसे सिर्फ दस्तूर के मुताबिक कोई बात कह सकते हो। और निकाह का 
इरादा उस वक्‍त तक न करो जब तक निर्धारित मुदूदत पूरी न हो जाए। और जान लो 
कि अल्लाह जानता है जो कुछ तुम्हारे दिलों में है। पस उससे डरो और जान लो कि 
अल्लाह बख्शने वाला, तहम्मुल (संयम) वाला है। अगर तुम औरतों को ऐसी हालत में 
तलाक दो कि न इन्हें तुमने हाथ लगाया है और इनके लिए कुछ महर मुरकर किया है तो 
इनके महर का तुम पर कुछ मुवाखिजा (दिय) नहीं। अलबत्ता उन्हें दस्तूर के मुताबिक कुछ 
सामान दे दो, वुस्अत वाले पर अपनी हैसियत के मुताबिक है और तंगी वाले पर अपनी 
हैसियत के मुताबिक, यह नेकी करने वालों पर लाजिम है। और अगर तुम उन्हं तलाक 
दो इससे पहले कि उन्हें हाथ लगाओ और तुम उनके लिए कुछ महर भी मुकर्रर कर चुके 
थे तो जितना महर तुमने मुक्रर किया हो उसका आधा अदा करो। यह और बात है कि 
वे माफ कर दें या वह मर्द माफ कर दे जिसके हाथ में निकाह की गिरह है। और तुम्हारा 
माफ कर देना ज्यादा करीब है तक्वा से। और आपस में एहसान करने से गफलत मत 
करो। जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उसे देख रहा है। (१३4-237) 


पारा 2 I06 सूर-2. अल-बकरह 


निकाह और तलाक के कानून बयान करते हुए बार-बार तकवा और एहसान की नसीहत 
की जा रही है। इससे मालूम हुआ कि किसी हुक्म को उसकी अस्ल रूह के साथ जेरेअमल 
लाने के लिए जरूरी है कि मआशरे (समाज) के अफराद ख़ालिस कानूनी मामला करने वाले 
न हों बल्कि एक-दूसरे के साथ हुस्ने सुलूक का जज्बा रखते हों। इसी के साथ उन्हें यह 
खटका लगा हुआ हो कि दूसरे के साथ बेहतर सुलूक न करना ख़ुद अपने बारे में बेहतर सुलूक 
न किए जाने का ख़तरा मोल लेना है क्योंकि बिलआखिर सारा मामला ख़ुदा के यहां पेश होना 
है और वहां न लफ्जी तावीलें किसी के काम आएंगी और न किसी के लिए यह मुमकिन होगा 
कि वह मामले से मुतअल्लिक किसी बात को छुपा सके। 

अगर निकाह के वक्‍त औरत का महर मुकर हुआ और तअन्लुक कायम होने से पहले 
तलाक हो गई तो कानून के एतबार से आधा महर देना लाजिम किया गया है। मगर 
खैर्ब्राही का तकाजा है कि दोनों इस मामले में कानूनी बर्ताव के बजाए फध्याजाना 
(उदारता, सहृदयतापूर्ण) बर्ताव करना चाहें। औरत के अंदर यह मिजाज हो कि जब तअल्लुक 
कायम नहीं हुआ तो मैं आधा महर छोड़ दूं। मर्द के अंदर यह जज्बा उभरे कि अगरचे कानूनन 
मेर ऊपर सिर्फआघे की जिम्मेदारी है मगर फ्याजे का तकज है कि मेंपूरा का फरा अदा 
कर दूं। फव्याजी और वूएऊते जर्फ (सहूदयता) का यही मिजाज तमाम मामलों में मत्लूब है। 
वही मआशरा मुस्लिम मआशरा है जिसके अफराद का यह हाल हो कि हर एक-दूसरे को देना 
चाहे न यह कि हर एक-दूसरे से लेने का हरीस बना हुआ हो। साथ ही यह भी कि वुस्अते 
जर्फका यह मामला दुश्मनी के वक्त भी हो न कि सिर्फ देस्ती के वक्‍्त। 


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पाबंदी करो नमाजों की और पाबंदी करो बीच की नमाज की। और खड़े हो अल्लाह 
के सामने आजिज बने हुए। अगर तुम्हें अंदेशा हो तो पैदल या सवारी पर पढ़ लो। 
फिर जब अमन की हालत आ जाए तो अल्लाह को उस तरीके से याद करो जो उसने 


तुम्हें सिखाया है, जिसे तुम नहीं जानते थे। और तुममें से जो लोग वफात पा जाएं और 
बीवियां छोड़ रहे हों वे अपनी बीवियों के बारे में वसीयत कर दें कि एक साल तक उन्हें 





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सूरा-2. अल-बकरह I07 पारा 2 


घर में रखकर ख़र्च दिया जाए। फिर अगर वे ख़ुद से घर छोड़ दें तो जो कुछ वे अपने 
मामले में दस्तूर के मुताबिक करें उसका तुम पर कोई इल्जाम नहीं। अल्लाह जबरदस्त 

है, हिक्मत वाला है। और तलाक दी हुई औरतों को भी दस्तूर के मुताबिक खर्च देना 

है, यह लाजिम है परहेजगारों के लिए। इस तरह अल्लाह तुम्हारे लिए अपने अहकाम 
खोलकर बयान करता है ताकि तुम समझो। (2३8-१42) 





नमाज गोया दीन का खुलासा है। नमाज मोमिनाना जिंदगी की वह मुख़्तसर तस्वीर है 
जो फैलती है तो मुकम्मल इस्लामी जिन्दगी बन जाती है। यहां एक छोटे से जुमले में नमाज 
के तीन अहमतरीन अजजा (टुकड़े) को बयान कर दिया गया है (!) नमाज का पांच वक्‍त 
के लिए फर्म होना। (१) नमाज का एक काबिले एहतेमाम चीज होना। (3) यह बात कि 
नमाजकी अस्त हवीक्त इज्ज (विनय भवो है। 

'पाबंदी करो नमाजों की और पाबंदी करो बीच की नमाज की / इससे मालूम हुआ कि 
नमाजों में एक बीच की नमाज है और फिर इसके दोनों तरफ नमाजे हैं। इस जुमले में 
अतराफ की 'नमाजाँ से कम से कम चार की तादाद मान लेना जरूरी है। क्योकि अरबी 
ज़बान में 'सलवात' (नमाजों) का इतलाक तीन या इससे ज्यादा के अदद के लिए होता है। 
पहला मुमकिन अदद जिसमें 'नमाजाँ' के दर्मियान एक “बीच की' नमाज बन सके, चार ही 
है। इस तरह एक नमाज बीच की नमाज होकर इसके दोनों तरफ दो-दो नमाज हो जाती हैं। 

“बीच की नमाज' से मुराद अग्न की नमाज है। जैसा कि रिवायत से साबित है। नमाज के दूसरे 
पहलू को बताने के लिए 'मुहाफिजत' (संरक्षा) का लफ्ज इस्तेमाल हुआ है। गोया नमाज उसी 

तरह हिफाजत की एक चीज हैजिस तरह माल आदमी के लिए हिफजत की चीज हेता है। 

नमाज के ववतों का पूरा लिहाज, उसके बताए हुए तरीके पर अदा करने का एहतेमाम, ऐसी 

चीजों से पक्के इरादे से बचना जो आदमी की नमाज में कोई ख़राबी पैदा करने वाली हों, 
वैगह, मुझफिजो नमाज में शामिल है। नमाज का तीसरा पहलू इज्ज है। यह नमाज की 

अस्ल रूह है, नमाज बदे का अल्लाह के सामने खड़ा होना है। इसलिए जरूरी है कि नमाज 

के वक्‍त आदमी के ऊपर वह कैफियत तारी हो जो सबसे बड़े के आगे खड़े होने की सूरत 
में सबसे छोटे के ऊपर तारी होती है। 

मआशरत (सामाजिकता) के अहकाम बताते हुए यह कहना कि “यह हक है मुत्तकियों 
के ऊपर' शरीअत के एक अहम पहलू को जाहिर करता है। आपसी मामलों में कुछ हुकूक़ 
वे हैं जिन्हें कानून ने सुनिश्चित कर दिया है। मगर एक आदमी पर दूसरे के हुकूक की हदें 
यहीं ख़त्म नहीं हो जातीं। सुनिश्चित हुकूक़ के अलावा भी कुछ हक़ हैं। ये हुक वे हैं जिन्हें 
आदमी का तकवा उसे महसूस कराता है। और आदमी का मुत्तकयाना एहसास जितना शदीद 
हो उतना ही ज्यादा वह इसे अपने ऊपर लाजिम समझता है। अंदर का यह जोर अगर मौजूद 
न हो तो आदमी कभी सही तौर पर दूसरों के हुकूक अदा नहीं कर सकता। 


पारा 2 I08 सूरा-2. अल-बकरह 


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क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जो अपने घरों से भाग खड़े हुए मौत के डर से, और 
वे हजारों की तादाद में थे। तो अल्लाह ने उनसे कहा कि मर जाओ। फिर अल्लाह ने 
इन्हें जिंदा किया। बेशक अल्लाह लोगों पर फज्ल करने वाला है। मगर अक्सर लोग 
शुक्र नहीं करते। और अल्लाह की राह में लड़ो और जान लो कि अल्लाह सुनने वाला, 
जानने वाला है। कौन है जो अल्लाह को कर्जे हसन दे कि अल्लाह इसे बढ़ाकर उसके 
लिए कई गुना कर दे। और अल्लाह ही तंगी भी पैदा करता है और कुशादगी भी। 
और तुम सब उसी की तरफ लौटाए जाओगे। (24३-245) 


मक्का से तंग आकर मुसलमान मदीना चले आए। मदीना में अपने दीन के मुताबिक 
रहने के लिए निस्बतन (अपेक्षाकृत) आजादाना माहौल था। मगर इस्लाम के विरोधियों ने अब 
भी उन्हें न छोड़ा। उन्होंने फौजी हमले शुरू कर दिए ताकि मदीना से मुसलमानों का ख़ात्मा 
कर दें। उस वक्‍त हुक्म हुआ कि उनसे मुकाबला करो। विरोधियों की अपेक्षा इस वक्‍त 
मुसलमानों की ताकत बहुत कम थी। इसलिए कुछ लोगों के अंदर बेहिम्मती पैदा हुई। यहां 
बनी इस्राईल के इतिहास का एक वाकया याद दिला कर बताया गया कि जिंदगी के मोर्चे में 
शिकस्त से डरने ही का नाम शिकस्त है। 

बनी इस्राईल की एक पड़ोसी कौम फिलिस्ती ने उन पर हमला कर दिया। बनी इस्राईल 
हार गए। फिलिस्तियों ने दो हमलों में इनके चौतीस हजार आदमी मार डाले। बनी इस्राईल 
इतना डरे कि अपने घरों को छोड़कर भाग गए । बाइबल के अल्फाज में 'हशमत (प्रताप) बनी 
इस्राईल के हाथों से जाती रही।' बनी इस्राईल का सारा घराना ख़ौफ में मुब्तला होकर विलाप 
करने लगा। इसी हाल में इन्हें बीस साल गुजर गए। फिर इन्होंने सोचा कि फिलिस्तियों के 
सामने उन्हें शिकस्त क्यों हुई। उनके नबी समूईल ने कहा कि शिकस्त की वजह ख़ुदा में 
तुम्हारे यकीन का कमजोर हो जाना है। उन्होंने इस्राईल के सारे घराने से कहा कि अगर तुम 
अपने सारे दिल से ख़ुदावंद की तरफ रुजूअ लाते हो तो अजनबी देवताओं को अपने बीच 
से दूर कर दो। और ख़ुदावंद के लिए अपने दिलों को मुस्तइद (एकाग्र) करके सिर्फ उसी की 
इबादत करो। ख़ुदा फिलिस्तियों के हाथ से तुम्हें रिहाई देगा । तब इस्राईल ने अजनबी देवताओं 
को अपने से दूर किया और फक्त ख़ुदावंद की इबादत करने लगे। अब जब दुबारा फिलिस्तियों 











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सूरा-2. अल-बकह I09 पारा 2 


और इस्राईलियों मे जंग हुई तो बाइबल के अल्फाज में 'खुदावंद फिलिस्तियों के ऊपर उस दिन 
बड़ी कड़क के साथ गरजा और उन्हें घबरा दिया और उन्होंने इ्राईलियों के आगे शिकस्त 
खाई।' (। समूईल, आ० 7)। अल्लाह पर एतमाद के रास्ते को छोड़कर उन पर मिल्ली 
(समुदायगत) मौत हुई थी । अल्लाह पर एतमाद के रास्ते को अपनाने के बाद उन्हें मिल्ली जिंदगी 
हासिल हो गई। 

कगहसन के मअना हैं अच्छा कर्ज। यहां इससे मुराद वह इंफक (र्व करना) है जो 
खुदा के दीन की राह में किया जाए। यह इंफाक ख़ालिस अल्लाह के लिए होता है जिसमें 
कोई दूसरा मफाद शामिल नहीं होता। इसलिए खुदा ने इसे अपने जिम्मे कर्ज करार दिया। 
और चुके वह बहुत ज्यादा इजफ के साथ इसे लौ्एगा इसलिए इसे कमहसन फरमाया। 

मोमिन की राह में मुश्किलात का पेश आना कोई महरूमी की बात नहीं। यह अल्लाह 
के फज्ल का नया दरवाजा खुलना है। इसके बाद वह अपने जान व माल को अल्लाह के लिए 
खर्च करके अल्लाह की उन इनायतों का मुस्तहिक बनता है जो आम हालात में किसी को नहीं 


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क्या तुमने बनी इस्राईल के सरदारों को नहीं देखा मूसा के बाद, जबकि उन्होंने अपने नबी 
से कहा कि हमारे लिए एक बादशाह मुकर्रर कर दीजिए ताकि हम अल्लाह की राह में 
लड़ें। नबी ने जवाब दिया : ऐसा न हो कि तुम्हें लड़ाई का हुक्म दिया जाए तब तुम न 
लड़ो। उन्होंने कहा यह कैसे हो सकता है कि हम न लड़ें अल्लाह की राह में। हालांकि 


९ 


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पारा 2 II0 सूरा-2. अल-बकरह 


हमें अपने घरों से निकाला गया है और अपने बच्चों से जुदा किया गया है। फिर जब उन्हें 
लड़ाई का हुक्म हुआ तो थोड़े लोगों के सिवा सब फिर गए। और अल्लाह जालिमों को 
खूब जानता है। और उनके नबी ने उनसे कहा : अल्लाह ने तालूत को तुम्हारे लिए 
बादशाह मुकर्रर किया है। उन्होंने कहा कि उसे हमारे ऊपर बादशाही कैसे मिल सकती 
है। हालांकि उसके मुकाबले में हम बादशाही के ज्यादा हकदार हैं। और उसे ज्यादा दौलत 

भी हासिल नहीं। नबी ने कहा अल्लाह ने तुम्हारे मुकाबले में उसे चुना है और इल्म और 
जिस्म में उसे ज्यादती दी है। और अल्लाह अपनी सल्तनत जिसे चाहता है देता है। अल्लाह 
बड़ी वुस्अत (व्यापकता) वाला, जानने वाला है। और उनके नबी ने उनसे कहा कि तालूत 
के बादशाह होने की निशानी यह है कि तुम्हारे पास वह संदूक आ जाएगा जिसमें तुम्हारे 
रब की तरफ से तुम्हारे लिए तस्कीन है। और मूसा के समुदाय और हारून के समुदाय 
की छोड़ी हुई यादगारें हैं। इस संदूक को फरिश्ते ले आएंगे इसमें तुम्हारे लिए बड़ी निशानी 

है, अगर तुम यकीन रखने वाले हो। (246-248) 


मूसा (अलै०) के तकरीबन तीन सौ साल बाद बनी इस्राईल अपने पड़ोस की मुश्रिक 
कीमां से मगलूब (परास्त) हो गए। इसी हालत में तकरीबन चौथाई सदी गुजारने के बाद उन्हे 
एहसास हुआ कि वे अपने पिछले दौर को वापस लाएं। अब अपने दुश्मनों से लड़ने के लिए 
उन्हें एक अमीरे लश्कर (सेनापति) की जरूरत थी। उनके नबी समूईल (00-020 ई० 
पू०) ने इनके लिए एक शख्स की नियुक्ति की जिसका नाम कुरआन में तालूत और बाइबल 
में साऊल आया है। जाती औसाफ (निजी गुणों) के एतबार से वह एक उपयुक्त शख्स था। 
मगर बनी इस्राईल उसकी सरदारी कुबूल करने के बजाए इस किस्म के एतराज निकालने लगे 
कि वह तो छोटे ख़ानदान का आदमी है। उसके पास माल व दौलत नहीं। मगर इस तरह की 
मतभेदपूर्ण बहसें किसी कौम के जवालयाफ्ता (पतित) होने की अलामतें हैं। अल्लाह के फैसले 
व्यापकता और इल्म की बुनियाद पर होते हैं। इसलिए वही बंदा अल्लाह का महबूब बंदा है 
जो ख़ुद भी व्यापक दृष्टिकोण का तरीका अपनाए और जो भी फैसला करे तथ्यों के आधार 
पर करे न कि तअस्सुबात और मस्लेहतों की बुनियाद पर। ताहम संदूक को वापस लाकर 
अल्लाह ने तालूत को नियुक्ति को एक असाधारण पुष्टि भी कर दी। 

बनी इस्राईल के यहां एक मुकद्दस (पवित्र) संदूक था जो मिस्र से विस्थापन के जमाने 
से इनके यहां चला आ रहा था। इसमें तौरात की तख्तियां और दूसरी शुभ वस्तुएं थीं। बनी 
इस्राईल इसे अपने लिए फतह और कामयाबी का निशान समझते थे। फिलिस्ती इस संदूक 
को उनसे छीन कर उठा ले गए थे। मगर इसे उन्होंने जिस-जिस बस्ती में रखा वहां-वहां वबाएं 
(महामारी) फूट पड़ीं। इससे उन्होंने बुरा शगुन लिया और संदूक को एक बैलगाड़ी में रख कर 
हांक दिया। वे इसे लेकर चलते रहे यहां तक कि यहूदियों की आबादी में पहुंच गए । अल्लाह 
अपने किसी बदि की सदाकत (सच्चाई) को जाहिर करने के लिए कभी उसके गिर्द ऐसी 
असाधारण चीजें जमा कर देता है जो आम इंसानों के साथ जमा नहीं होतीं । 














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सूरा-2. अल्बकह ॥ पारा 2 
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फिर जब तालूत फौजों को लेकर चला तो उसने कहा : अल्लाह तुम्हें एक नदी के जरिए 
आजमाने वाला है। पस जिसने उसका पानी पिया वह मेरा साथी नहीं और जिसने उसे 

न चखा वह मेरा साथी है। मगर यह कि कोई अपने हाथ से एक चुल्लू भर ले। तो 
उन्होंने इसमें से ख़ूब पिया सिवाए थोड़े आदमियों के। फिर जब तालूत और जो उसके 
साथ ईमान पर कायम रहे थे दरिया पार कर चुके तो वे लोग बोले कि आज हमें जालूत 
और उसकी फौजों से लड़ने की ताकत नहीं। जो लोग यह जानते थे कि वे अल्लाह से 

मिलने वाले हैं उन्होंने कहा कि कितनी ही छोटी जमाअतें अल्लाह के हुक्म से बड़ी 
जमाअतों पर ग़ालिब आई हैं। और अल्लाह सब्र करने वालों के साथ है। और जब 
जालूत और उसकी फौजों से उनका सामना हुआ तो उन्होंने कहा : कि ऐ हमारे रब 
हमारे ऊपर सब्र डाल दे और हमारे कदमों को जमा दे और इन मुंकिरों के मुकाबले में 

हमारी मदद कर। फिर उन्होंने अल्लाह के हुक्म से उन्हें शिकस्त दी। और दाऊद ने 
जालूत को कत्ल कर दिया। और अल्लाह ने दाऊद को बादशाहत और दानाई 
(सूझबूझ) अता की और जिन चीजों का चाहा इलम बख़्शा। और अगर अल्लाह कुछ 
लोगों को कुछ लोगों के जरिए हटाता न रहे तो जमीन फसाद से भर जाए। मगर अल्लाह 

दुनिया वालो पर बड़ फल फरमाने वाला है। (249-25) 





मूसा के तकरीबन तीन सौ साल बाद और हजरत मसीह से तकरीबन एक हजार साल पहले 


पारा 2 II2 सूण-2. अल-बकरह 


ऐसा हुआ कि फिलिस्तियों ने बनी इस्राईल पर हमला किया और फिलिस्तीन के अक्सर इलाके 
उनसे छीन लिए। एक अर्स के बाद बनी इस्राईल ने चाहा कि वे फिलिस्तियों के खिलाफ इकदाम 
करें और अपने इलाके उनसे वापिस लें, उस वक्‍त उनके दर्मियान एक नबी थे जिनका नाम 
समूईल था वह शाम के एक कदीम शहर रामह में रहते थे और बनी इस्राईल के सामूहिक मामलों 
के जिम्मेदार थे। बनी इस्राईल का एक वपद (प्रतिनिधिमण्डल) उनसे मिला । और कहा कि आप 
अब बूढ़े हो चुके हैं, इसलिए आप हममें से किसी को हमारे ऊपर बादशाह मुकर्रर कर दें, ताकि 
हम उसकी रहनुमाई में जंग कर सकें। तौरात के अल्फाज में (और हमारा बादशाह हमारी अदालत 
करे और हमारे आगे-आगे चले और हमारी लड़ाई करे । 

हजरत समूईल अगरचे यहूद के किरदार के बारे में अच्छी राय न रखते थे ताहम उनकी 
मांग की बुनियाद पर उन्होंने कहा कि अच्छा मैं तुम्हारे लिए एक बादशाह मुकर्रर कर दूंगा । 
अतः उन्होंने कबीला बिन यमीन के एक बहादुर नौजवान साऊल (तालूत) को उनका बादशाह 
(सरदार) मुर्करर कर दिया। 

साऊल (तालूत) बनी इस्राईल का लश्कर लेकर दुश्मन की तरफ बढ़े, रास्ते में यरदन नदी 
पड़ती थी इसे पार करके दुश्मन के इलाके में पहुंचना था। क्योंकि तालूत को बनी इस्राईल 
की कमजोरियों का इलम था उन्होंने उनकी जांच के लिए एक सादा तरीका इस्तेमाल किया। 
नदी को पार करते हुए उन्होंने एलान किया कि कोई शख्स पानी न पिए। अलबत्ता एक आध 
चुल्लू ले ले तो कोई हर्ज नहीं। बनी इस्राईल की बड़ी तादाद इस इम्तेहान में पूरी न उतरी। 
ताहम इस मुकबले में अल्लाह तआला ने उन्हें कामयाबी दी। हजरत दाऊद उस वक्‍त सिर्फ 
एक नौजवान थे, उन्होंने इस जंग में फैसलाकुन किरदार अदा किया। फिलिस्तियोँ की फौज 
का जबरदस्त पहलवान जालूत उनके हाथ से कत्ल हुआ। इसके बाद फिलिस्तियों ने इस्राईल 
के मुकाबले में हथियार डाल दिए। 

मुकाबले में कामयाबी हासिल करने के लिए जरूरी है कि अफराद के अंदर मुश्किलात 
पर जमने और सरदार की इताअत (आज्ञापालन) करने का मादूदा हो। तालूत का अपने 
साथियों को पानी पीने से मना करना इसी क्षमता की जांच को एक सादा सी तदबीर थी। 
बाइबल के बयान के मुताबिक इनमें से सिर्फ छः सौ आदमी ऐसे निकले जिन्होंने रास्ते में आने 
वाली नदी का पानी नहीं पिया। जिन लोगों ने पानी पिया उन्होंने गोया अपनी अख्लाकी 
कमजोरियाँ को और पुख्ता कर लिया। इसलिए दुश्मन का बजाहिर ताकतवर होना अब उन्हे 
और ज्यादा महसूस होने लगा। दूसरी तरफ जिन लोगों ने पानी नहीं पिया था उनके इस 
क (कार्य) से उनका सब्र और इताअत का मिजाज और ज्यादा मजबूत हो गया । उन्हें वह 
हकीकत और ज्यादा वाजेह सूरत में दिखाई देने लगी जिसे बाइबल के बयान के मुताबिक 
तालूत के एक साथी ने इन लफ्जों में बयान किया था : 'और यह सारी जमाअत जान ले कि 
खुदावंद तलवार और भाले के जरिए से नहीं बचाता। इस लिए कि जंग तो खुदावंद की है 
और वही तुम्हें हमारे हाथ में कर देगा।' (-समूईल, 48 : ]7) 





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सूरह-2. अल-बकरह II3 पारा 3 


सत्ता जिसके पास हो वह कुछ दिनों बाद घमंड में पड़ कर जुल्म करने लगता है। इसलिए 
सत्ता किसी के पास स्थाई रूप से जमा हो जाए तो उसके जुल्म व फसाद से जमीन भर जाए। 
इसकी तलाफी का इन्तेजाम अल्लाह ने इस तरह किया है कि वह सत्ताधारियों को बदलता 
रहता हैं। वह सत्ताहीन लोगों में से एक गिरोह को उठाता है और उसके जरिए से सत्ताधारी 
को हटा कर उसके मंसब पर दूसरे को बैठा देता है। इसका मतलब यह है कि जब किसी 
सत्ताधारी वर्ग का जुल्म बढ़ जाए तो यह उसके ख़िलाफ उठने वाले गिरोह के लिए खुदाई 
मदद का वक्‍त होता है। अगर वह सब्र और इताअत की शर्त को पूरा करते हुए अपने आप 
को खुदाई मंसूबे में शामिल कर दे तो बजाहिर कम होने के बावजूद वह खुदा की मदद से 
ज्यादा के ऊपर गालिब आ जाएगा । खुदा का खैफ महज एक मंफी (नकारात्मक) चीज नहीँ 
वह एक इलम है जो आदमी के जेहन को इस तरह रोशन कर देता है कि वह हर चीज को 
उसके असली और हकीकी रूप में देख सके। 


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ये अल्लाह की आयते हैं जो हम तुम्हें सुनाते हैं ठीक-ठीक। और बेशक तू पैग़म्बरों में 
से है इन पेग़म्बरों में से कुछ को हमने कुछ पर फजीलत दी। इनमें से कुछ से अल्लाह 

ने कलाम किया। और कुछ के दर्जे बुलंद किए। और हमने ईसा बिन मरयम को खुली 
निशानियां दीं और हमने उसकी मदद की रूहुल कुद्स से। अल्लाह अगर चाहता तो 
इनके बाद वाले साफ हुक्म आ जाने के बाद न लड़ते मगर उन्होंने मतभेद किया। फिर 
इनमें से कोई ईमान लाया और किसी ने इंकार किया। और अगर अल्लाह चाहता तो 
वे न लइ़ते। मगर अल्लाह करता है जो वह चाहता है। (252-253) 


अल्लाह की तरफ से कोई पुकारने वाला जब लोगों को पुकारता है तो उसकी पुकार में 
ऐसी निशानियां शामिल होती हैं कि लोगों को यह समझने में देर न लगे कि वह ख़ुदा की 
तरफ से है। इसके बावजूद लोग इसका इंकार कर देते हैं और ये इंकार करने वाले सबसे पहले 
वे लोग होते हैं जो रिसालत को मानते चले आ रहे थे। इसकी वजह यह होती है कि वे जिस 
रसूल को मान रहे होते हैं उसकी कुछ खुसूसियात की बुनियाद पर वह उसकी अफजलियत 
का तसबुर कायम कर लेते हैं। वे समझते हैं कि जब हमारा रसूल इतना अफजल है और उसे 





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पारा 3 4 


हम मान रहे हैं तो अब किसी और को मानने की क्या जरूरत। 

हर पैगम्बर मुख़्लिफ हालात में आता है और अपने मिशन की तक्मील के लिए हर एक 
को अलग-अलग चीजों की जरूरत होती है। इस एतबार से किसी पेगम्बर को एक फजीलत 
(ख़ास चीज) दी जाती है और किसी को दूसरी फजीलत। बाद के दौर में पैगम्बर की यही 
फजीलत उसके उम्मतियों के लिए फितना बन जाती है। वे अपने नबी को दी जाने वाली 
फलत को ताईी फलत के बजाए मुलक फनैलत के मअना मेले लेते है। वे समझते 
हैं कि हम सबसे अफजल पैगम्बर को मानते हैं। इसलिए अब हमें किसी और को मानने की 
जरूरत नहीं। मूसा (अलै०) को मानने वालों ने मसीह (अलै०) का इंकार किया क्योंकि वे 
समझते थे उनका नबी इतना अफजल है कि खुदा बराहेरास्त उससे हमकलाम हुआ। हजरत 
मसीह के मानने वालों ने मुहम्मद (सल्ल०) का इंकार किया। क्योंकि उन्होंने समझा कि वह 
ऐसी हस्ती को मान रहे हैं जिसकी फजीलत इतनी ज्यादा है कि ख़ुदा ने उसे बाप के बगैर 
पैदा किया। इसी तरह अल्लाह के वे बंदे जो उम्मते मुहम्मदी की इस्लाह व तजदीद के लिए 
उठे उनका भी लोगों ने इंकार किया। क्योंकि उनके मुखातिबीन की नफ्सियात यह थी कि 
हम बुजुर्गो के वारिस हैं, हम बड़ों का दामन थामे हुए हैं फिर हमें किसी और की क्या जरूरत। 
उम्मतों के जवाल (पतन) के जमाने में ऐसा होता है कि लोग दुनिया के रास्ते पर चल पड़ते 
हैं। इसी के साथ वे चाहते हैं कि उनकी जन्नत भी महफूज रहे। उस वकत यह अकीदा उनके 
लिए एक नपिसियाती सहारा बन जाता है। वे अपनी मुकद्दस शख्मियतों की अफजलियत के 
तसव्वुर में यह तस्कीन पा लेते हैं कि दुनिया में चाहे वे कुछ भी करें उनकी आख़िरत कभी 
खतरे में नहीं पड़ेगी। 

यही गलत एतमाद है जो लोगों को अल्लाह की तरफ बुलाने वाले की मुखालिफत पर अड़ा 
देता है। अल्लाह के लिए यह मुमकिन था कि वह लोगों की हिदायत और रहनुमाई के लिए कोई 
दूसरा निजाम कायम करता जिसमें किसी के लिए इख़्तेलाफ (मतभेद) की गुंजाइश न हो। मगर 
यह दुनिया इम्तेहान की जगह है। यहां तो इसी बात की आजमाइश हो रही है कि आदमी गैब 
(अदृश्य) की हालत में खुदा को पाए । इंसान की जबान से बुलंद होने वाली खुदाई आवाज को 
पहचाने। जाहिरी पर्दो से गुजर कर सच्चाई को उसके बातिनी (भीतरी) रूप में देख ले। 


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सूरह-2. अल-बकरह ]5 पारा $ 

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ऐ ईमान वालो खर्च करो उन चीजों से जो हमने तुम्हें दिया है उस दिन के आने से पहले 

जिसमें न ख़रीद-फरोख् है और न दोस्ती है और न सिफारिश। और जो इंकार करने 

वाले हैं वही हैं जुल्म करने वाले। अल्लाह, इसके सिवा कोई माबूद (पूज्य) नहीं। वह 

जिंदा है, सबको थामने वाला। उसे न ऊंघ आती है और न नींद। उसी का है जो कुछ 

आसमानों और जमीन में है। कौन है जो उसके पास उसकी इजाजत के बोर सिफारिश 

करे। वह जानता है जो कुछ उनके आगे है और जो कुछ उनके पीछे है। और वे उसके 

इल्म में से किसी चीज का इहाता (ग्रहण) नहीं कर सकते, मगर जो वह चाहे। उसकी 

हुकूमत आसमानों और जमीन में छाई हुई है। वह थकता नहीं इनके थामने से। और 

वही है बुलंद मर्तबा, बड़ा। दीन के मामले में कोई जबरदस्ती नहीं। हिदायत गुमराही 

से अलग हो चुकी है। पस जो शख्स शैतान का इंकार करे और अल्लाह पर ईमान लाए 

उसने मजबूत हल्का पकड़ लिया जो टूटने वाला नहीं। और अल्लाह सुनने वाला, जानने 

वाला है। अल्लाह काम बनाने वाला है ईमान वालों का, वह उन्हें अंधेरों से निकाल 

कर उजाले की तरफ लाता है, और जिन लोगों ने इंकार किया उनके दोस्त शैतान हैं, 


वे उन्हें उजाले से निकाल कर अंधेरा की तरफ ले जाते हैं। ये आग में जाने वाले लोग 
हैं, वे उसमें हमेशा रहेंगे। (२५4-257) 


खुदा को वही पाता है जो इंफाक (खुदा की राह में खर्च करना) की कीमत देकर खुदा 
को इख्तियार करे। और कोई आदमी जब ख़ुदा को पा लेता है तो वह एक ऐसी रोशनी को 
पा लेता है जिसमें वह भटके बगैर चलता रहे। यहां तक कि जन्नत में पहुंच जाए। इसके 
बरअक्स जो शख्स इंफाक की कीमत दिए बगैर खुदा को इख्तियार करे वह हमेशा अंधेरे में 
रहता है, जहां शैतान उसे बहका कर ऐसे रास्तों पर चलाता है जिसकी आखिरी मंजिल 
जहन्नम के सिवा और कुछ नहीं। 

इंफाक से मुराद अपने आपको और अपने असासे (धन-सम्पत्ति) को दीन की राह में 
खर्च करना है। अपनी मस्लेहतों को कुर्बान करके दीन की तरफ आगे बढ़ना है। आदमी जब 
किसी अकीदे (आस्था, विश्वास) को इंफ्रक की कीमत पर अपनाए तो इसका मतलब यह 
होता है कि वह इसे अपनाने में संजीदा (9४८९४९) है। यह संजीदा होना बेहद अहम है। किसी 
मामले में संजीदा होना ही वह चीज है जो आदमी पर इस मामले के भेदों को खोलता है। 
संजीदा होने के बाद ही यह इम्कान पैदा होता है कि आदमी और उसके मकसद के दर्मियान 
हकीकी ताल्लुक्र कयम हे और मकसद के तमाम पहलू उस पर वाज्ह हें। इसके बरअक्स 





पारा 3 II6 सूएह-2. अल-बकाह 


मामला उस शख्स का है जो अपनी हस्ती की हवालगी की कीमत पर दीन को न अपनाए। 
ऐसा शख्स कभी दीन के मामले में संजीदा नहीं होगा और इस बिना पर वह आखिरत के 
मामले को एक आसान मामला मान लेगा। वह समझेगा कि बुजुर्गों की सिफारिश या दीन के 

नाम पर कुछ रस्मी और जाहिरी कार्रवाइयां आख़िरत की नजात के लिए काफी हैं। आख़िरत 

के मामले में संजीदा न होने की वजह से वह इस राज को न समझेगा कि आखिरत तो मालिके 
कायनात की अज्मत व जलाल (प्रताप) के जुहूर का दिन है। एक ऐसे दिन के बारे में महज 

सरसरी चीजों पर कामयाबी की उम्मीद कर लेना ख़ुदा की खुदाई का कमतर अंदाजा करना 

है जो ख़ुदा के यहां आदमी के जुर्म को बढ़ाने वाला है न कि वह उसकी मकबूलियत का सबब 
बने। खुदा की बात आदमी के सामने दलील की जबान में आती है और वह कुछ अल्फाज 

बोलकर उसे रदूद कर देता है। यही शैतानी वसवसा है। हिदायत उसे मिलती है जो शैतान 
के वसवसे से अपने को बचाए और ख़ुदाई दलील को पहचान कर उसके आगे झुक जाए। 


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क्या तुमने उसे नहीं देखा जिसने इब्राहीम से उसके रब के बारे में हुज्जत की। क्योंकि 
अल्लाह ने उसे सल्तनत दी थी। जब इब्राहीम ने कहा कि मेरा रब वह है जो जिलाता 
और मारता है। वह बोला कि में भी जिलाता हूं और मारता हूं। इब्राहीम ने कहा कि 
अल्लाह सूरज को पूर्व से निकालता है तुम उसे पश्चिम से निकाल दो। तब वह मुंकिर 
हैरान रह गया। और अल्लाह जालिमों को राह नहीं दिखाता। (258) 


मौजूदा जमाने में अवामी ताईद से हुकूमत की पात्रता हासिल होती है। मगर जम्हूरियत के 
दौर से पहले अक्सर बादशाह लोगों को यह यकीन दिलाकर उनके ऊपर हुकूमत करते थे कि वे 
ख़ुदा के इंसानी पेकर हैं। प्राचीन इराक के बादशाह नमरूद का मामला यही था जो हजरत 
इब्राहीम का समकालीन था। उसकी कौम सूरज को देवताओं का सरदार मानती थी। और 
उसकी पूजा करती थी। नमरूद ने कहा कि वह सूर्य-देवता का प्रकट रूप है, इसलिए वह लोगों 
के ऊपर हुकूमत करने का खुदाई हक रखता है। हजरत इब्राहीम ने उस वक्‍त के इराक में जब 
तौहीद (एकेश्वरवाद) की आवाज बुलंद की तो इसका सियासत और हुकूमत से बराहेरास्त कोई 
ताल्लुक न था। आप लोगों से सिर्फ यह कह रहे थे कि तुम्हारा खलिक और मालिक सिर्फ एक 
अल्लाह है। कोई नहीं जो खुदाई में उसका शरीक हो इसलिए तुम उसी की इबादत करो । उसी 
से डरो और उसी से उम्मीदें कायम करो। ताहम इस गैर-सियासी दावत में नमरूद को अपनी 
सियासत पर जद पड़ती हुई नजर आई। ऐसा अकीदा जिसमें सूरज को एक शक्तिहीन रचना 
बताया गया हो वह गोया उस आस्थागत आधार ही को ढा रहा था जिसके ऊपर नमरूद ने 


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सूएह-2. अल-बकरह lI7 पारा 3 


अपना सियासी तख्त बिछा रखा था। इस वजह से आपका दुश्मन हो गया। 

इब्राहीम (अलै०) ने नमरूद से जो गुफ्तुगू की उससे नबियों की दावत (आह्वान) का 
तरीका मालूम होता है। नमरूद के सवाल के जवाब में आपने फरमाया कि मेरा रब वह है 
जिसके इख्ियार में ज़िन्दगी और मौत है। नमरूद ने मुनाजिराना (शास्त्रार्थ अंदाज अपनाते 
हुए कहा कि मौत और जिंदगी पर तो मैं भी इख्तियार रखता हूं। जिसे चाहूं मरवा डालूं और 
जिसे चाहूं जिंदा रहने दूं। आप नमरूद का जवाब दे सकते थे। मगर आपने गुफ्तुगू को 
मुनाजिराना बनाना पसंद नहीं किया । इसलिए आपने फौरन दूसरी मिसाल पेश कर दी जिसके 
जवाब में नमरूद उस किस्म की बात न कह सकता था जो उसने पहली मिसाल के जवाब 
में कही। हजरत इब्राहीम के लिए नमरूद हरीफ (प्रतिपक्षी) न था बल्कि मदअ (संबोधित 
व्यक्ति) की हैसियत रखता था। इसलिए उन्हें यह समझने में देर न लगी कि इस्तदलाल (तक) 
का कौन-सा हकीमाना अंदाज उन्हें अपनाना चाहिए। 

मौजूदा दुनिया इम्तेहान की दुनिया है। इसलिए इसे इस तरह बनाया गया है कि एक ही 
चीज को आदमी दो भिन्न अर्थों में ले सके। मसलन एक शख्स के पास दौलत और सत्ता आ 
जाए तो वह इसे ऐसे रुख़ से देख सकता है कि उसकी कामयाबी उसे अपनी क्षमताओं का 
नतीजा नजर आए। इसी तरह यह भी मुमकिन है कि वह इसे ऐसे रुख़ से देखे कि उसे 
महसूस हो कि जो कुछ उसे मिला है वह सरासर खुदा का इनाम है। पहली सूरत जुल्म की 
सूरत है और दूसरी शुक्र की सूरत। जिस शख्स के अंदर जालिमाना मिजाज हो उसके लिए 
मौजूदा दुनिया सिर्फ गुमराही की खुराक होगी। उसे हर वाकये में घमंड और खुदपसंदी की 
गिजा मिलेगी। इसके विपरीत जिसके अंदर शुक्र का मिजाज होगा उसके लिए हर वाकये में 
हिदायत का सामान होगा। ख़ुदा की दुनिया अपनी तमाम वुस्अतों (व्यापकताओं) के साथ 
उसके लिए ईमानी रिज्क का दस्तरख्रान बन जाएगी। 


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पारा 3 II8 सूरह-2. अल-बकह 


या जैसे वह शख्स जिसका गुजर एक बस्ती पर से हुआ। और वह अपनी छतों पर गिरी 
हुई थी। उसने कहा : हलाक हो जाने के बाद अल्लाह इस बस्ती को दुबारा केसे जिंदा 
करेगा। फिर अल्लाह ने उस पर सौ वर्षों तक के लिए मौत तारी कर दी। फिर उसे 
उठाया। अल्लाह ने पूछा तुम कितनी देर इस हालत में रहे। उसने कहा एक दिन या 
एक दिन से कुछ कम। अल्लाह ने कहा नहीं बल्कि तुम सौ वर्ष रहे हो। अब तुम अपने 
खाने पीने की चीजों को देखो कि वे सड़ी नहीं हैं और अपने गधे को देखो। और ताकि 
हम तुम्हें लोगों के लिए एक निशानी बना दें। और हड्ड्डियों की तरफ देखो, किस तरह 
हम उनका ढांचा खड़ा करते हैं। फिर उन पर गोश्त चढ़ाते हैं। पस जब उस पर वाजेह 

हो गया तो कहा मैं जानता हूं कि बेशक अल्लाह हर चीज पर क्रुदरत रखता है। और 
जब इब्राहीम ने कहा कि ऐ मेरे रब, मुझे दिखा दे कि तू मुर्दो को किस तरह जिंदा 
करेगा। अल्लाह ने कहा, क्या तुमने यकीन नहीं किया। इब्राहीम ने कहा क्यों नहीं, 
मगर इसलिए कि मेरे दिल को तस्कीन हो जाए। फरमाया तुम चार परिंदे लो और उन्हे 
अपने से हिला लो। फिर उनमें से हर एक को अलग-अलग पहाड़ी पर रख दो, फिर 
उन्हें बुलाओ। वे तुम्हारे पास दौड़ते हुए चले आऐंगे। और जान लो कि अल्लाह 
जबरदस्त है, हिक्मत वाला है। (2५9-260) 


यहां मौत के बाद दुबारा जिंदा किए जाने के जिन दो तजुर्बो का जिक्र है इनका 
तअल्लुक नबियों से है। पहला तजुर्बा संभवतः उजेर (अले०) के साथ गुजरा जिनका जमाना 
पांचवीं सदी ईसा पूर्व का है। और दूसरा तजुर्बा इब्राहीम (अलै०) से तअल्लुक रखता है। 
जिनका जमाना 2।60-985 ई० पू० के दर्मियान है। अंबिया खुदा की तरफ से इसलिए 
मुकर होते हैं कि लोगों को गेबी हकीकतों से बाख़बर करें। इसलिए उन्हें वे गैबी चीजें 
खोल करके दिखा दी जाती हैं जिन पर दूसरों के लिए असबाब का पर्दा डाल दिया गया 
है। नबियों के साथ यह ख़ास मामला इसलिए होता है ताकि वे इन चीजों के जाती मुशाहिद 
(प्रत्यक्षदर्शी) बनकर इनके बारे में लोगों को बाखबर कर सकें। वे लोगों को जिन गैबी 
हकीकतों की ख़बर दें उनके बारे में कह सकें कि हम एक देखी हुई चीज से तुम्हें बाखबर 
कर रहे हैं न कि महज सुनी हुई चीज से। 

नबियों को चालीस साल की उम्र में नुबुव्वत दी जाती है। नुबुव्वत से पहले उनकी पूरी 
जिंदगी लोगों के सामने इस तरह गुजरती है कि इनमें से किसी शख्स को झूठ का तजुर्बा नहीं 
होता । तकरीबन आधी सदी तक माहौल के अंदर अपने सच्चे होने का सुबूत देने के बाद वह 
वक्‍त आता है कि अल्लाह तआला उन्हें लोगों के सामने उन गेबी हकीकतों के एलान के लिए 
खड़ा करें जिन्हें आजमाइश की मस्लेहत के सबब लोगों से छुपा दिया गया है। माहौल के ये 
सबसे ज्यादा सच्चे लोग एक तरफ अपने मुशाहिदे (प्रत्यक्ष अवलोकन) से लोगों को बाख़बर 
करते हैं। और दूसरी तरफ अक्ल और फितरत के शवाहिद (प्रमाणों) से इसे मुदल्लल (तक 
पूर्ण) करते हैं। साथ ही यह कि नबियों को हमेशा शदीदतरीन हालात से साबका पेश आता 
है। इसके बावजूद वे अपने कौल से फिरते नहीं, वे इंतिहाई साबितकदमी के साथ अपनी बात 
पर जमे रहते हैं। इस तरह यह साबित हो जाता है कि वे जो कुछ कहते हैं उसमें वे पूरी तरह 





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सूरह-2. अल-बकरह Il9 पारा 3 


संजीदा हैं। फर्जी तौर पर उन्होंने कोई बात नहीं गढ़ ली है। क्योंकि गढ़ी हुई बात को पेश करने 
वाला कभी इतने सख्त हालात में अपनी बात पर कायम नहीं रह सकता। और न उसकी बात 
खारजी (वाह्य) कायनात से इतनी ज्यादा मुताबिक हो सकती है कि वह सरापा उसकी तस्दीक 

(पुष्टि) बन जाए 


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जो लोग अपने माल अल्लाह की राह में ख़र्च करते हैं उनकी मिसाल ऐसी है जैसे एक 
दाना हो जिससे सात बालें पैदा हों, हर बाली में सौ दानें हों। और अल्लाह बढ़ाता 
है जिसके लिए चाहता है। और अल्लाह वुस्अत (व्यापकता) वाला, जानने वाला है। जो 
लोग अपने माल को अल्लाह की राह में ख़र्च करते हैं फिर ख़र्च करने के बाद न एहसान 
रखते हैं और न तकलीफ पहुंचाते हैं उनके लिए उनके रब के पास उनका अज्र (प्रतिफल) 

है। और उनके लिए न कोई डर है और न वे ग़मग़ीन होंगे। मुनासिब बात कह देना 
और दरगुजर (क्षमा) करना उस सदके से बेहतर है जिसके पीछे सताना हो। और अल्लाह 
बेनियाज (निस्पृह) है, तहम्मुल (संयम) वाला है। ऐ ईमान वालो एहसान रख कर और 
सता कर अपने सदके को जाया न करो, जिस तरह वह शख्स जो अपना माल दिखावे 

के लिए खर्च करता है और वह अल्लाह पर और आखिरत के दिन पर ईमान नहीं रखता । 
पस उसकी मिसाल ऐसी है जैसे एक चट्टान हो जिस पर कुछ मिट्टी हो, फिर उस पर 
जोर की बारिश हो जो उसे बिल्कुल साफ कर दे। ऐसे लोगों को अपनी कमाई कुछ 

भी हाथ नहीं लगेगी। और अल्लाह इंकार करने वालों को राह नहीं दिखाता। 
(26-264) 


हर अमल जो आदमी करता है वह गोया एक बीज है जो आदमी “जमीन” में डालता है। 
अगर उसका अमल इसलिए था कि लोग उसे देखें तो उसने अपना बीज दुनिया की जमीन 


पारा 3 I20 सूरह-2. अल-बकह 


में डाला ताकि यहां की जिंदगी में अपने किए का फल पा सके। और अगर उसका अमल 
इसलिए था कि अल्लाह उसे देखे' तो उसने आखिरत की जमीन में अपना बीज डाला जो 
अगली दुनिया में अपने फूल और फल की बहारें दिखाए। दुनिया में एक दाने से हजार दाने 
पैदा होते हैं। यही हाल आख़िरत के खेत में दाना डालने का भी है। दुनिया के फायदे या 
दुनिया की शोहरत व इज्जत के लिए खर्च करने वाला इसी दुनिया में अपना मुआवजा लेना 
चाहता है ऐसे आदमी के लिए आख़िरत में कोई हिस्सा नहीं। मगर जो शख्स अल्लाह के लिए 
खर्च करे उसका हाल यह होता है कि वह किसी पर एहसान नहीं जताता, उसने जब अल्लाह 
के लिए खर्च किया है तो इंसान पर उसका क्या एहसान। उसकी रकम खर्च होकर जिन लोगों 
तक पहुंचती है उनकी तरफ से उसे अच्छा जवाब न मिले तो वह नराजगी का इज्हार नहीं 
करता । उसे तो अच्छा जवाब अल्लाह से लेना है, फिर इंसानों से मिलने या न मिलने का उसे 
क्या ग़म । अगर किसी साइल (सवाल करने वाला) को वह नहीं दे सकता तो वह उससे बुरी 
बात नहीं कहता बल्कि नर्मी के साथ माअजरत कर देता है। क्योंकि वह जानता है कि वह 
जो कुछ बोल रहा है खुदा के सामने बोल रहा है। खुदा का ख़ौफ उसे इंसान के सामने जबान 
रोकने पर मजबूर कर देता है। 

पत्थर की चट्टान के ऊपर कुछ मिट्टी जम जाए तो बजाहिर वह मिट्टी दिखाई देगी। 
मगर बारिश का झोंका आते ही मिट्टी की ऊपरी तह बह जाएगी और अंदर से ख़ाली पत्थर 
निकल आएगा । ऐसा ही हाल उस इंसान का होता है जो बस ऊपरी दीनदारी लिए हुए हो। दीन 
उसके अंदर तक दाखिल न हुआ हो। ऐसे आदमी से अगर कोई साइल बेढंगे अंदाज से सवाल 
कर दे या किसी की तरफ से कोई बात सामने आ जाए जो उसकी अना (अहंकार) पर चोट 
लगाने वाली हो तो वह बिफर कर इंसाफ की हदों को तोड़ देता है। ऐसा एक वाकया एक ऐसा 
तूफान बन जाता है जो उसकी ऊपरी मिट्टी को बहा ले जाता है और फिर उसका अंदर का 
इंसान सामने आ जाता है जिसे वह दीन के जाहिरी लबादे के पीछे छुपाए हुए था। अल्लाह के 
लिए अमल करना गोया देखे पर अनदेखे को तरजीह देना । जो इस बुलंद नजरी का सुबूत दे वही 
वह शख्स है जिस पर ख़ुदा की छुपी हुई मअरफत के दरवाजे खुलते हैं। 


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सूरह-2. अल-क्रह I2I पारा 3 


और उन लोगों की मिसाल जो अपने माल को अल्लाह की रिज़ा चाहने के लिए और 
अपने नफ्स में पुर्तगी के लिए ख़र्च करते हैं एक बाग़ की तरह है जो बुलंदी पर हो। उस 
पर ज़ोर की बारिश पड़ी तो वह दुगना फल लाया। और अगर ज़ोर की बारिश न पड़े तो 
हल्की फुवार भी काफी है। और जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उसे देख रहा है। क्या 
तुममें से कोई यह पसंद करता है कि उसके पास खजूरों और अंगूरों का एक बाग़ हो, 
उसके नीचे नहरें बह रही हों। उसमें उसके लिए हर किस्म के फल हों। और वह बूढ़ा हो 
जाए और उसके बच्चे अभी कमजोर हों। तब उस बाग़ पर एक बगूला आए जिसमें आग 
हो। फिर वह बाग़ जल जाए। अल्लाह इस तरह तुम्हारे लिए खोल कर निशानियां 
बयान करता है ताकि तुम गोर करो। (265-266) 


आदमी जब किसी चीज के लिए अमल करता है तो इसी के साथ वह उसके हक में अपनी 
कुव्वते इरादी (इच्छाशक्ति) को मजबूत करता है। अगर वह अपनी ख़्वाहिश के तहत अमल करे 
तो उसने अपने दिल को अपनी ख्वाहिश पर जमाया। इसके बरअक्स आदमी अगर वहां अमल 
करे जहां ख़ुदा चाहता है कि अमल किया जाए तो उसने अपने दिल को ख़ुदा पर जमाया । दोनों 
राह में ऐसा होता है कि कभी आसान हालात में अमल करना होता है और कभी मुश्किल हालात 
में। ताहम हालात जितने शदीद हों, आदमी को जितना ज्यादा मुश्किलों का मुकाबला करते हुए 
अपना अमल करना पड़े उतना ही ज्यादा वह अपने पेशेनजर मकसद के हक में अपने इरादे को 
मुस्तहकम (दृढ़) करेगा । आम हालात में अल्लाह की राह में अपने असासे को ख़र्च करना भी 
बाइसे सवाब है। मगर जब मुख़ालिफ असबाब की वजह से ख़ुसूसी कुवते इरादी को इस्तेमाल 
करके आदमी अल्लाह की राह में अपना असासा दे तो इसका सवाब अल्लाह के यहां बहुत 
ज्यादा है। जिस मद में खर्च करना दुनियावी एतबार से बेफायदा हो उसमें अल्लाह की रिजा के 
लिए ख़र्च करना, जिसको देने का दिल न चाहे उसे अल्लाह के लिए देना, जिससे अच्छे व्यवहार 
पर तबीयत अमादा न हो उससे अल्लाह की खातिर अच्छा व्यवहार करना, वे चीजें हैं जो आदमी 
को सबसे ज्यादा खुदापरस्ती पर जमाती हैं और उसे ख़ुदा की ख़ुसूसी रहमत व नुसरत का 
मुस्तहिक बनाती हैं। 

आदमी जवानी की उम्र में बाग़ लगाता है ताकि बुढ़ापे की उम्र में उसका फल खाए। फिर 
वह शख्स कैसा बदनसीब है जिसका हरा भरा बाग उसकी आख़िर उम्र में ऐन उस वक्त बर्बाद 
हो जाए जबकि वह सबसे ज्यादा उसका मोहताज हो और उसके लिए वह वक्त भी ख़त्म हो 
चुका हो जबकि वह दोबारा नया बाग़ लगाए और उसे नए सिरे से तैयार करे। ऐसा ही हाल उन 
लोगों का है जिन्हेनि दीन का काम दुनियावी इज्जत और फायदे के लिए किया, वे बजाहिर नेकी 
और भलाई का काम करते रहे। मगर उनका काम सिर्फ देखने में ही दुनियादार से अगल था 
हकीकत के एतबार से देनेंमेकोई फर्कन था। आम दुनियादार जिस ुनियावी तरक्की और 
नामवरी के लिए दुनियावी नक्शों में दौड़ धूप कर रहे थे उसी दुनियावी तरक्की और नामवरी के 
लिए उन्होंने दीनी नक्शों में दौड़ धूप जारी कर दी। जो शोहरत व इज्जत दूसरे लोग दुनिया की 
इमारत में अपना असासा खर्च करके हासिल कर रहे थे, उसी शैहरत व इज्जत को उन्होंने दीन 
की इमारत में अपना असासा खर्च करके हासिल करना चाहा। ऐसे लोग जब मरने के बाद 
आखिरत के आलम में पहुंचेंगे तो वहां उनके लिए कुछ न होगा। उन्होंने जो कुछ किया इसी 








पारा 3 22 सूरह-2. अल-बकह 


दुनिया के लिए किया। फिर वे अपने किए का फल अगली दुनिया में किस तरह पा सकते हैं। 
खुदा की निशानियां हमेशा जाहिर होती हैं मगर वे खामोश जबान में होती हैं। इनसे वही सबक 
ले सकता है जो अपने अंदर सोचने की सलाहियत पैदा कर चुका हो। 


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ऐ ईमान वालो ख़र्च करो उम्दा चीज को अपनी कमाई में से और उसमें से जो हमने 
तुम्हारे लिए जमीन में से पेदा किया है। और घटिया चीज का इरादा न करो कि उसमें 

से ख़र्च करो। हालांकि तुम कभी इसे लेने वाले नहीं, यह और बात है कि चश्मपोशी 
कर जाओ। और जान लो कि अल्लाह बेनियाज (निस्प॒ह) है, खूबियां वाला है। शैतान 
तुम्हें मोहताजी से डराता है और बुरी बात पर उभारता है और अल्लाह वादा देता है 
अपनी बख्शिश का और फज्ल का और अल्लाह वुस्अत (व्यापकता) वाला है, जानने 

वाला है। वह जिसे चाहता है हिक्मत दे देता है और जिसे हिक्मत मिली उसे बड़ी दौलत 
मिल गई। और नसीहत वही हासिल करते हैं जो अक्ल वाले हैं। (267-269) 


आदमी दुनिया में जो कुछ कमाता है उसे ख़र्च करने की दो सूरतें हैं। एक यह कि उसे 
शैतान के बताए हुए रास्ते में ख़र्च किया जाए। दूसरे यह कि उसे अल्लाह के बताए हुए रास्ते में 
खर्च किया जाए । शैतान यह करता है कि आदमी के जाती तकाजों की अहमियत उसके दिल में 
बिठाता है। वह उसे सिखाता है कि तुमने जो कुछ कमाया है उसका बेहतरीन मसरफ यह है कि 
इसे अपनी जाती जरूरतों को पूरा करने में लगाओ। फिर जब शैतान देखता है कि आदमी के 
पास उसकी हकीकी जरूरत से.्यादा है तो वह उसके अंदर एक और जज्बा भडका देता है। यह 
नुमूद व नुमाइश (दिखावे) का जज्बा है। अब वह अपनी दौलत को नुमाइशी कामों में खूब बहाने 
लगता है और खुश होता है कि उसने अपनी दौलत को बेहतरीन मसरफ में लगाया। 

आदमी को चाहिए कि अपने माल को अपनी जाती चीज न समझे बल्कि अल्लाह की चीज 
समझे । वह अपनी कमाई में से अपनी हकीकी जरूरत के बराबर ले ले और उसके बाद जो कुछ 
है उसे बुलंदतर मकासिद में लगाए। वह ख़ुदा के कमजोर बंदों को दे और ख़ुदा के दीन की 
जरूरतों में खर्च करे। आदमी जब अल्लाह के कमजोर बंदों पर अपना माल खर्च करता है तो 
गोया वह अपने रब से इस बात का उम्मीदवार बन रहा होता है कि आख़िरत में जब वह ख़ाली 
हाथ ख़ुदा के सामने हाजिर हो तो उसका खुदा उसे अपनी रहमतों से महरूम न करे। इसी तरह 


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सूरह-2. अल-ब्करह 23 पारा 3 


जब वह दीन की जरूरतों में अपना माल देता है तो वह अपने आपको ख़ुदा के मिशन में शरीक 
करता है। वह अपने माल को ख़ुदा के माल में शामिल करता है। ताकि उसकी हकीर (तुच्छ) 
पूंजी खुदा के बड़े जाने में मिलकर ज्यादा हो जाए। 
जो शख्स अपने माल को अल्लाह के बताए हुए तरीके के मुताबिक खर्च करता है वह 
इस बात का सुबूत देता है कि उसे हिक्मत (तत्वदर्शिता, सूझबूझ, विवेकशीलता) और दानाई 
(प्रबुद्धता) में से हिस्सा मिला है। सबसे बड़ी नादानी यह है कि आदमी माल की मुहब्बत में 
मुब्तला हो और उसे अल्लाह के रास्ते में ख़र्च करने से रुक जाए और सबसे बड़ी दानाई यह 
है कि आर्थिक मफादात आदमी के लिए अल्लाह की राह में बढ़ने में रुकावट न बनें। वह 
अपने आपको ख़ुदा में इतना मिला दे कि ख़ुदा को अपना और अपने को ख़ुदा का समझने 
लगे। जो शख्स जाती मस्लेहतों के ख़ोल में जीता है उसके अंदर वह निगाह पैदा नहीं हो 
सकती जो बुलंदतर हकीकतों को देखे और आला कैफियतों का तजुर्बा करे। इसके विपरीत 
जो शसम जाती मस्लेहतों को नजरअंदाज करके खुदा की तरफ बढ़ता है वह अपने आपको 
सीमित दायरे से ऊपर उठाता है। वह अपने शुऊर को उस ख़ुदा के सम-स्तर कर लेता है जो 
गनी (सर्वसम्पन्न), हमीद (प्रशंसित), वसीअ (सर्वागीण) और अलीम (सर्वज्ञ) है। वह चीजों 
को उनके असली रूप में देखने लगता है। क्योंकि वह उन हदबंदियों के पार हो जाता है जो 
आदमी के लिए किसी चीज को उसके असली रूप में देखने में रुकावट बनती हैं। कोई बात 
चाहे कितनी ही सच्ची हो मगर उसकी सच्चाई किसी आदमी पर उसी वक्त खुलती है जबकि 
वह उसे खुले जेहन से देख सके। र 
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पारा 3 I24 सूरह2. अल-बकह 


और तुम जो ख़र्च करते हो या जो नञ्ज (मन्नत) मानते हो उसे अल्लाह जानता है। और 
जालिमों का कोई मददगार नहीं। अगर तुम अपने सदकात जाहिर करके दो तब भी 

अच्छा है और अगर तुम उन्हें छुपाकर मोहताजों को दो तो यह तुम्हारे लिए ज्यादा बेहतर 
है। और अल्लाह तुम्हारे गुनाहोँ को दूर कर देगा और अल्लाह तुम्हारे कामों से वाकिफ 

है। उन्हें हिदायत पर लाना तुम्हारा जिम्मा नहीं। बल्कि अल्लाह जिसे चाहता है हिदायत 
देता है। और जो माल तुम ख़र्च करोगे अपने ही लिए करोगे। और तुम न ख़र्च करो 
मगर अल्लाह की रिजा चाहने के लिए। और तुम जो माल खर्च करोगे वह तुम्हें पूरा 
कर दिया जाएगा और तुम्हारे लिए इसमें कमी नहीं की जाएगी। ये उन हाजतमंदों के 
लिए हैं जो अल्लाह की राह में घिर गए हों, जमीन में दौड़ धूप नहीं कर सकते। 
नावाकिफ आदमी उन्हें गनी ख्याल करता है उनके न मांगने की वजह से। तुम उन्हे 
उनकी सूरत में पहचान सकते हो। वे लोगों से लिपट कर नहीं मांगते। और जो माल 
तुम ख़र्च करोगे वह अल्लाह को मालूम है। जो लोग अपने मालों को रात और दिन, 
छुपे और खुले खर्च करते हैं, उनके लिए उनके रब के पास अज्र है। और उनके लिए 
न ख़ोफ है और न वे ग़मगीन होंगे। (१70-274) 


अल्लाह की राह में खर्च करने की सबसे बड़ी मद यह है कि उन दीनी ख़ादिमों की माली 
मदद की जाए जो दीन की जद्दोजहद में अपने को पूरी तरह लगा देने की वजह से बेरोजगार 
हो गए हों। एक कामयाब व्यापारी के पास किसी दूसरे काम के लिए वक्‍त नहीं रहता। ठीक 
यही मामला ख़िदमते दीन का है। जो शख्स यकसूई के साथ अपने आपको दीन की खिदमत में 
लगाए उसके पास मआशी (आर्थिक) जद्दोजहद के लिए वक्त नहीं रहेगा। साथ ही यह कि हर 
काम की अपनी एक फितरत है और अपनी फितरत के लिहाज से वह आदमी का जेहन एक 
ख़ास ढंग पर बनाता है। जो शख्स तिजारत में लगता है उसके अंदर धीरे-धीरे तिजारती मिजाज 
पैदा हो जाता है। तिजारत की राह की बारीकियां फौरन उसकी समझ में आ जाती हैं। जबकि 
वही आदमी दीन के रास्ते की बातों को गहराई के साथ पकड़ नहीं पाता। यही मामला इसके 
विपरीत ख़ादिमे दीन का होता है। अब इसका हल क्या हो। क्योंकि किसी समाज में दोनों किस्म 
के कामों का होना जरूरी है। इस मसले का हल यह है कि जिन लोगों के पास आर्थिक साधन 
जमा हो गए हैं उसमें वे उन लोगों का हिस्सा लगाएं जो दीनी मसरूफियत (व्यस्तता) की वजह 
से अपना रोजगार हासिल न कर सके। यह गोया एक तरह का ख़ामोश विभाजन है जो पक्षों के 
दर्मियान ख़ालिस अल्लाह की रिजा के लिए होता है। ख़ादिमे दीन ने अपने आपको अल्लाह के 
लिए यकसू किया था, इसलिए वह इंसान से नहीं मांगता और न पाने का उम्मीदवार रहता है। 
दूसरी तरफ साहिबे मआश यह सोचता है कि मेरे पास मआशी वसाइल (आर्थिक साधन) इस 
कीमत पर आए हैं कि मैं ख़िदमते दीन की राह में वह न कर सका जो मुझे करना चाहिए। 
इसलिए इसकी तलाफी (क्षतिपूर्ति) यह है कि मैं अपने माल में अपने उन भाइयों का हिस्सा 
लगाऊं जो गोया मेरी कमी की तलाफी ख़ुदा के यहां कर रहे हैं। 

जब दीन की जद्दोजहद उस मरहले में हो कि दीन के नाम पर रोजगार के अवसर न मिलते 
हों, जब दीन की राह में लगने वाला आदमी बेरोजगार हो जाए, उस वक्त दीन के ख़ादिमों को 
अपना माल देना बजाहिर माहौल के एक गेर-अहम तबके से अपना रिश्ता जोड़ना है। ऐसे लोगों 
पर खुर्च करना मज्लिसों में काबिले जिक्र नहीं होता। वह आदमी की हैसियत और नामवरी में 
इजाफा नहीं करता । मगर यही वह खर्च है जो आदमी को सबसे ज्यादा अल्लाह की रहमतों का 
मुस्तहिक बनाता है। 








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सूरह-2. अल-ककरह I25 पारा 3 


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जो लोग सूद खाते हैं वे कियामत में न उठेंगे मगर उस शख्स की तरह जिसे शैतान ने 
छूकर ख़बती बना दिया हो। यह इसलिए कि उन्होंने कहा कि तिजारत करना भी वैसा 
ही है जैसा सूद लेना। हालांकि अल्लाह ने तिजारत को हलाल ठहराया है और सूद को 
हराम किया है। फिर जिस शख्स के पास उसके रब की तरफ से नसीहत पहुंची और वह 
इससे रुक गया तो जो कुछ वह ले चुका वह उसके लिए है। और उसका मामला अल्लाह 
के हवाले है। और जो शख्स फिर वही करे तो वही लोग दोजख़ी हैं, वे उसमें हमेशा 
रहेगे। अल्लाह सूद को घटाता है और सदकात को बढ़ाता है। और अल्लाह पसंद नहीं 
करता नाशुक्रों को, गुनाहगारों को। बेशक जो लोग ईमान लाए और लेक अमल किए 


और नमाज की पाबंदी की और जकात अदा की, उनके लिए उनका अज्र है उनके रब के 
पास। उनके लिए न कोई अंदेशा है और न वे ग़मगीन होंगे। (275-277) 


बंदों के दर्मियान आपस में जो मआशी (आर्थिक) तअल्लुकात मत्लूब हैं उनकी अलामत 
जकात है। जकात में एक मुसलमान दूसरे मुसलमान के हक्क का एतराफ यहां तक करता 
है कि वह ख़ुद अपनी कमाई का एक हिस्सा निकाल कर अपने भाई को देता है। जो दीन 
हुकूक शनासी का ऐसा माहौल बनाना चाहता हो वह सूद के जरपरस्ताना (धन लोलुपतापूर्ण) 
तरीके को किसी तरह कुबूल नहीं कर सकता। ऐसे समाज में आपसी लेन देन तिजारत के 
उसूल पर होता है न कि सूद के उसूल पर। तिजारत में भी आदमी नफा लेता है। मगर 
तिजारत का जो नफा है वह आदमी की महनत और उसके जोखिम उठाने की कीमत होता 
है। जबकि सूद का नफ महज खुरगजी और जरदण का नतीजा है। 

सूद का कारोबार करने वाला अपनी दौलत दूसरे को इसलिए देता है कि वह इसके जरिए 
अपनी दौलत को और बढ़ाए। वह यह देखकर ख़ुश होता है कि उसका सरमाया यकीनी शरह 
(दर) से बढ़ रहा है। मगर इस अमल के दौरान वह ख़ुद अपने अंदर जो इंसान तैयार करता 
है वह एक ख़ुदगर्जी और दुनियापरस्त इंसान है। इसके बरअक्स जो आदमी अपनी कमाई में 
से सदका करता है, जो दूसरों की जरूरतमंदी को अपने लिए तिजारत का सौदा नहीं बनाता 





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पारा 3 I26 सूरह-2. अल-बकाह 


बल्कि उसके साथ अपने को शरीक करता है, ऐसा शख्स अपने अमल के दौरान अपने अंदर 
जो इंसान तैयार कर रहा है वह पहले से बिल्कुल मुख़्तलिफ (भिन्न) इंसान है। यह वह इंसान 
है जिसके दिल में दूसरों की खैरख्याही है। जो जाती दायरे से ऊपर उठकर सोचता है। 

दुनिया में आदमी इसलिए नहीं भेजा गया है कि वह यहां अपनी कमाई के ढेर लगाए। 
आदमी के लिए ढेर लगाने की जगह आखिरत है। दुनिया में आदमी को इसलिए भेजा गया है कि 
यह देखा जाए कि इनमें कौन है जो अपनी ख़ुसूसियतों के एतबार से इस काबिल है कि उसे 
आख़िरत की जन्नती दुनिया में बसाया जाए। जो लोग इस सलाहियत का सुबूत देंगे उन्हें ख़ुदा 
जन्नत का बाशिंदा बनने के लिए चुन लेगा। और बाकी तमाम लोग कूड़ा करकट की तरह 
जहन्नम में फेंक दिए जाएंगे । सदका की रूह (मूल भावना) हाजतमंद को अपना माल ख़ुदा के 
लिए देना है और सूद की रूह इस्तहसाल (शोषण) के लिए देना है। सदका इस बात की अलामत 
है कि आदमी आख़िरत में अपने लिए नेमतों का ढेर देखना चाहता है | इसके मुकाबले में सूद इस 
बात की अलामत है कि वह इसी दुनिया के लिए ढेर लगाने का ख्वाहिशमंद है। ये दो 
अलग-अलग इंसान हैं और यह मुमकिन नहीं कि खुदा के यहां दोनों का अंजाम एक जैसा करार 
पाए । दुनिया उसी को मिलती है जिसने दुनिया के लिए महनत की हो | इसी तरह आख़िरत उसी 
को मिलेगी जिसने आखिरत के लिए अपना असासा (धन-सम्पत्ति) कुर्वन किया । 


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ऐ ईमान वालो, अल्लाह से डरो और जो सूद बाकी रह गया है उसे छोड़ दो, अगर तुम 
मोमिन हो। अगर तुम ऐसा नहीं करते तो अल्लाह और उसके रसूल की तरफ से लड़ाई 

के लिए ख़बरदार हो जाओ। और अगर तुम तोबा कर लो तो असल रकम के तुम हकदार 

हो, न तुम किसी पर जुल्म करो और न तुम पर जुल्म किया जाए। और अगर एक शख्स 

तंगी वाला है तो उसकी फराख़ी तक मोहलत दो। और अगर माफ कर दो तो यह 
तुम्हारे लिए ज्यादा बेहतर है, अगर तुम समझो। और उस दिन से डरो जिस दिन तुम 
अल्लाह की तरफ लौटाए जाओगे। फिर हर शख्स को उसका किया हुआ पूरा-पूरा मिल 
जाएगा। और उन पर जुल्म न होगा। (278-28) 

















मुआशिरे की इस्लाह का बुनियादी उसूल यह है कि मुआशिरे का कोई फर्द न किसी दूसरे 
के ऊपर ज्यादती करे और न दूसरा कोई उसके ऊपर ज्यादती करे। न कोई किसी के ऊपर 
जालिम बने और न कोई किसी को मज्लूम बनाए। सूदखोरी एक खुला हुआ मआशी 


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सूरह-2. अल-बकरह I27 पारा 3 





(आर्थिक) जुल्म है, इसलिए इस्लाम ने इसे हराम ठहराया। यहां तक कि इस्लामी शासन के 
तहत सूदी कारोबार को फौजदारी जुर्म करार दिया। ताहम एक सूदख़ोर को जिस तरह दूसरे 
के साथ जालिमाना कारोबार करने की इजाजत नहीं है उसी तरह किसी दूसरे को भी यह हक 
नहीं है कि वह सूदख़ोर को अपने जुल्म का निशाना बनाए। किसी का मुजरिम होना उसे 
उसके दीगर हुकूक से महरूम नहीं करता। सूदख़ोर के खिलाफ जब कार्रवाई की जाएगी तो 
सिर्फ उसके सूदी इजफे को साकित किया जाएगा। अपनी अस्ल रकम को वापस लेने का 
वह फिर भी हकदार होगा। ताहम सामान्य कानून के साथ इस्लाम इंसानी कमजोरियों की भी 
आखिरी हद तक रिआयत करता है। इसलिए हुक्म दिया गया कि कोई कर्जदार अगर ववत 
पर तंगदस्त है तो उसे उस वक्‍त तक मोहलत दी जाए जब तक वह अपने जिम्मे की रकम 
अदा करने के काबिल हो जाए। इसी के साथ यह तलकीन भी की गई कि कोई शख्स कर्ज 
की रकम अदा करने के काबिल न रहे तो उसके जिम्मे की रकम को सिरे से माफ कर देने 
का हौसला पैदा करो। माफ करने वाला ख़ुदा के यहां अज्र का मुस्तहिक बनता है और दुनिया 
में इसका यह फायदा है कि मुआशिरे के अंदर आपसी रिआयत और हमदर्दी की फिजा पैदा 
हो जाती है जो बिलआख़िर सबके लिए मुफीद है। 

ताहम सिर्फ कानून का निफज (लागू करना) मुआशिरे की इस्लाह और फलाह का 
जमिन नहीं। हवीकी इस्लाह के लिए जशी है कि मुआशिरे मतका की फिज मैजूद हे। 
इसलिए कानूनी हुक्म बताते हुए ईमान, तकवा और आख़िरत का एहतेमाम के साथ जिक्र 
किया गया है। जिस तरह एक सेक्युलर निजाम उसी वक्त कामयाबी के साथ चलता है जबकि 
नागरिकों के अंदर उसके मुताबिक कौमी किरदार (राष्ट्रीय चरित्र) मौजूद हो। इसी तरह 
इस्लामी निजाम उसी वक्त सही तौर पर वजूद में आता है जबकि अफराद के काबिले लिहाज 
हिस्से में तकवा की रूह पाई जाती हो। कैमी किरदार या तकवा दरअस्ल मत्लूब निजाम के 
हक में अफराद की आमादगी का नाम है। और अफराद के अंदर जब तक एक दर्जे की 
आमादगी न हो, महज कानून के जोर पर उसे लागू नहीं किया जा सकता। 

साथ ही यह कि इस्लाम के अनुसार मुआशिरे की इस्लाह (समाज-सुधार) ख़ुद में मत्लूब 
चीज नहीं है। इस्लाम में असल मल्लूब फर्द की इस्लाह है। मुआशिरे की इस्लाह सिर्फ उसका 
एक सानवी (अतिरिक्त) नतीजा है। कुरआन जिस ईमान, तकवा और फिक्रे आखिरत की 
तरफ बुलाता है उसका केन्द्र व्यक्ति है न कि कोई सामूहिक ढांचा। इसलिए कुर॒आनी दावत 
का अस्ल मुख़ातब फर्द है और मुआशिरे की इस्लाह अफराद की इस्लाह का इज्तिमाई जुहूर 
(सामूहिक प्रदर्शन) है। 


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पारा 3 I28 सूरह2. अल-बकह 


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ऐ ईमान वालो, जब तुम किसी निर्धारित मुदूदत के लिए उधार का लेनेदेन करो तो 
उसे लिख लिया करो। और इसे लिखे तुम्हारे दर्मियान कोई लिखने वाला इंसाफ के 
साथ। और लिखने वाला लिखने से इंकान न करे, जैसा अल्लाह ने उसे सिखाया 
उसी तरह उसे चाहिए कि लिख दे। और वह शख्स शिऊराए जिस पर अदायगी का 
हक आता है। और वह डरे अल्लाह से जो उसका रब है और इसमें कोई कमी न 
करे। और अगर वह शख्स जिस पर अदायगी का हक आता है बेसमझ हो, या 
कमजोर हो या ख़ुद लिखवाने की कुदरत न रखता हो तो चाहिए कि उसका वली 
(संरक्षक) इंसाफ के साथ लिखवा दे। और अपने मर्दों में सेमअना आदमियों को 
गवाह कर लो। और आगर दो मर्द न हों तो फिर एक मर्द और दो औरतें, उन लोगों 
में से जिन्शुऊरतुम पसंद करते हो। ताकि अगर एक औरत भूल जाए तो दूसरी औरत 
उसे याद दिला दे। और गवाह इंकार न करें जब वे बुलाए जाएं। और मामला छोटा 
हो या बड़ा, मीआद (अवधि) के निर्धारण के साथ इसे लिखने में काहिली न करो। 
यह लिख लेना अल्लाह के नजदीक ज्यादा इंसाफ का तरीका है और गवाही को 
ज्यादा दुरुस्त रखने वाला है और ज्यादा संभावना है कि तुम शुबह में न पड़ो। लेकिन 
अगर कोई सौदा नकद हो जिसका तुम आपस में लेनदेन किया करते हो तुम पर 
कोई इल्जाम नहीं कि तुम उसे न लिखो। मगर जब यह सौदा करो तो गवाह बना 


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सूरह-2. अल-ककरह I29 पारा 3 


लिया करो। और किसी लिखने वाले को या गवाह को तकलीफ न पहुंचाई जाए। 
और अगर ऐसा करोगे तो यह तुम्हारे लिए गुनाह की बात होगी। और अल्लाह से 
डरो अल्लाह तुम्हें सिखाता है और अल्लाह हर चीज का जानने वाला है। और अगर 
तुम सफर में हो और कोई लिखने वाला न पाओ तो रहन (गिरवी) रखने की चीजें 

कब्जे में दे दी जाएं। और अगर एक दूसरे का एतबार करता हो तो चाहिए कि जिस 

पर एतबार किया गया वह एतबार को पूरा करे। और अल्लाह से डरे जो उसका रब 
है। और गवाही को न छुपाओ और जो शख्स छुपाएगा उसका दिल गुनाहगार होगा। 
और जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह उसे जानने वाला है। (282-283) 


दो आदमियों के दर्मियान नकद मामला हो तो लेनदेन होकर उसी वक्त मामला ख़त्म हो 
जाता है। मगर उधार मामले की नौइयत अलग है। उधार मामले में अगर सारी बात जबानी 
हो तो लिखित सुबूत न होने की वजह से बाद में विवाद पैदा होने की संभावना रहती है। दोनों 
पक्ष अपने-अपने मुताबिक मामले की तस्वीर पेश करते हैं और कोई ऐसी यकीनी बुनियाद 
नहीं होती जिसकी रोशनी में सही फैसला किया जा सके। नतीजा यह होता है कि अदायगी 
के वक्‍त अक्सर दोनों को एक-दूसरे से शिकायतें पैदा हो जाती हैं। इसका हल तहरीर है। 
नकद मामले को लिख लिया जाए तो वह भी बेहतर है। मगर उधार मामलात के लिए तो 
जरूरी है कि उन्हें बाकायदा तहरीर (लिखित) में लाया जाए और इस पर गवाह बना लिए 
जाएं। विवाद के वक्‍त यही तहरीर फैसले की बुनियाद होगी। यह मुसलमान के लिए तकवा 
और इंसाफ की एक हिफजती तदबीर है। लिखित शर्ते के मुताबिक वह अपने झ्यूक़ को 
अदा करके खुदा और ख़ल्क के सामने जिम्मेदारी से बरी हो जाता है। 
मुसलमान ख़ुदा के दीन के गवाह हैं। जिस तरह अल्लाह की बात को जानते हुए छुपाना 
जाइज नहीं, उसी तरह इंसानी मामलात में किसी के पास कोई गवाही हो तो उसे चाहिए कि 
उसे जाहिर कर दे। गवाही को छुपाना अपने अंदर मुजरिमाना जेहन की परवरिश करना है 
और मामले के मुंसिफाना फैसले में वह हिस्सा अदा न करना है जो वह कर सकता है। इंसान 
का जमीर चाहता है कि जब एक चीज हक नजर आये तो उसके हक हेने का एतराफ किया 
जाए। और जब एक चीज नाहक दिखाई दे तो उसके नाहक होने का एलान किया जाए । ऐसी 
हालत में जो शख्स अपने वकार और मस्लेहत की ख़ातिर अपनी जबान को बंद रखता है वह 
गोया ऐसा मुजरिम है जो अपने जुर्म पर ख़ुद ही गवाह बन गया हो। 


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पारा 3 I30 सूरह-2. अल-बकरह 
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अल्लाह का है जो कुछ आसमानों में है और जो जमीन में है। तुम अपने दिल की बातों 

को जाहिर करो या छुपाओ, अल्लाह तुमसे इसका हिसाब लेगा। फिर जिसे चाहेगा 

बख्शेगा और जिसे चाहेगा सजा देगा। और अल्लाह हर चीज पर कुदरत रखने वाला है। 

रसूल ईमान लाया है उस पर जो उसके रब की तरफ से उस पर उतरा है। और मुसलमान 

भी उस पर ईमान लाए हैं। सब ईमान लाए हैं अल्लाह पर और उसके फरिश्ता पर और 

उसकी किताबों पर और उसके रसूलों पर। हम उसके रसूलों में से किसी के दर्मियान 

फर्क नहीं करते। और वे कहते हैं कि हमने सुना और माना। हम तेरी बर्शिश चाहते 

हैं ऐ हमारे रब। और तेरी ही तरफ लौटना है। अल्लाह किसी पर जिम्मेदारी नहीं डालता 

मगर उसकी ताकत के मुताबिक । उसे मिलेगा वही जो उसने कमाया और उस पर पड़ेगा 

वही जो उसने किया। ऐ हमारे रब हमें न पकड़ अगर हम भूलें या हम ग़लती कर जाएं। 

ऐ हमारे रब हम पर बोझ न डाल जैसा तूने डाला था हम से अगलों पर। ऐ हमारे रब 

हमसे वह न उठवा जिसकी ताकत हम में नहीं। और दरगुजर कर हम से। और हमें बख्श 

दे और हम पर रहम कर। तू हमारा कारसाज है। पस इंकार करने वालों के मुकाबले 

में हमारी मदद कर। (284-286) 





कायनात की हर चीज अल्लाह के जेरेहुक्म है। जरोँ से लेकर सितारों तक सब खुदा के 
निर्धारित नक्शे में बंधे हुए हैं। वे उसी रास्ते पर चल रहे हैं जिस पर चलने के लिए ख़ुदा ने 
इन्हें पाबंद कर दिया है। मगर इंसान एक ऐसी मख्लूक है जो अपने को ख़ुदमुख्तार हालत में 
पाता है। बजाहिर वह आजाद है कि अपनी मजी से जो रास्ता चाहे अपनाए । मगर इंसान की 
आजादी मुतलक नहीं है बल्कि इम्तेहान के लिए है। इंसान को भी कायनात की बाकी चीजों 
की तरह ख़ुदा की पाबंदी करनी है। जिस पाबंद जिंदगी को बाकी कायनात ने बजोर अपनाया 
है वही पाबंद जिंदगी इंसान को अपने इरादे से अपनानी है। इंसान को जाहिरी सूरतेहाल से 
धोखा खाकर यह न समझना चाहिए कि उसके आगे पीछे कोई नहीं। हकीकत यह है कि 
आदमी हर वक्त मालिके कायनात की नजर में है, वह उसकी हर छोटी-बड़ी बात की निगरानी 
कर रहा है। चाहे वह उसके अंदर हो या उसके बाहर। 

वह कौन सा इंसान है जो अल्लाह को मत्लूब है। वह ईमान और इताअत (आज्ञापालन) 
वाला इंसान है। ईमान से मुराद आदमी की शुऊरी हवालगी है और इताअत से मुराद उसकी 
अमली हवालगी। शुऊर के एतबार से यह मत्लूब है कि आदमी अल्लाह को अपने ख़ालिक 
और मालिक की हैसियत से अपने अंदर उतार ले। वह इस हकीकत को पा गया हो कि कायनात 





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सूरह-3. आले इमरान I3] पारा 3 


का निजाम कोई बेरूह मशीनी निजाम नहीं है बल्कि एक जिंदा निजाम है जिसे खुदा अपने 
फरमांबरदार कारिंदों के जरिए चला रहा है। उसने खुदा के बंदों में से उन बंदों को पहचान लिया 
हो जिन्हें खुदा ने अपना पैग़ाम पहुंचाने के लिए चुना। ख़ुदा ने इंसानों की हिदायत के लिए 
जो किताब उतारी है उसे वह हकीकी मअनों में अपनी सोच-विचार का हिस्सा बना चुका हो। 
रिसालत और पेगम्बरी उसे पूरी इंसानी तारीख़ में एक मुसलसल वाकया की सूरत में नजर आने 
लगे। ईमानियात को इस तरह अपने दिल व दिमाग़ में बिठा लेने के बाद वह अपनी जिंदगी 
पूरी तरह उसके नक्शे पर ढाल दे। 

फिर यह ईमान और इताअत उसके लिए कोई रस्मी और जाहिरी मामला न हो बल्कि 
वह उसकी रूह को इस तरह घुला दे कि वह अल्लाह को पुकारने लगे। उसका वजूद ख़ुदा 
की याद में ढल जाए। उसकी जिंदगी तमामतर खुदा के ऊपर निर्भर हो जाए 


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आयतें-200 सूरह-3. आले-इमरान रुकूअ-20 
(मदीना में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान निहायत रहम वाला है। 
अलिफ० लाम० मीम०। अल्लाह उसके सिवा कोई माबूद नहीं, जिंदा और सबका 
थामने वाला। उसने तुम पर किताब उतारी हक के साथ, सच्चा करने वाली उस चीज 
को जो उसके आगे है और उसने तोरात और इंजील उतारी इससे पहले लोगों की 
हिदायत के लिए और अल्लाह ने फुरकान उतारा। बेशक जिन लोगों ने अल्लाह की 
निशानियों का इंकार किया उनके लिए सख्त अजाब है और अल्लाह जबरदस्त है, बदला 
लेने वाला है। बेशक अल्लाह से कोई चीज छुपी हुई नहीं न जमीन में और न आसमान 
में। वही तुम्हारी सूरत बनाता है मां के पेट में जिस तरह चाहता है। उसके सिवा कोई 
माबूद नहीं वह जबरदस्त है, हिक्मत वाला है। (-6) 


कायनात का ख़ालिक व मालिक कोई मशीनी खुदा नहीं बल्कि एक जिंदा और बाशुऊर 
ख़ुदा है। उसने हर जमाने में इंसान के लिए रहनुमाई भेजी। इन्हीं में से वे किताबें थीं जो 
तौरात व इंजील की सूरत में पिछले नबियों पर उतारी गई। मगर इंसान हमेशा यह करता रहा 





पारा 3 32 सूरह-3. आले इमरान 


कि उसने अपनी तावील व तशरीह से ख़ुदा की तालीमात को तरह-तरह के मअना पहनाए और 
ख़ुदा के एक दीन को कई दीन बना डाला । आख़िर अल्लाह ने अपने तैशुदा मंसूबे के मुताबिक 
आखिरी किताब (कुरआन) उतारी जो इंसानों के लिए सही हिदायतनामा भी है और इसी के 
साथ वह कसौटी भी जिससे हक और बातिल के दर्मियान फैसला किया जा सके। कुरआन 
बताता है कि अल्लाह का सच्चा दीन क्या है। और वह दीन कौन-सा है जो लोगों ने अपनी 
ख़ुद की गढ़ी हुई तशरीहात (व्याख्याओं) के जरिए बना रखा है। अब जो लोग खुदा की किताब 
को न मानें या अपनी राए और ताबीरों के तहत गढ़े हुए दीन को न छोड़ें वे सख्त सजा के 
मुस्तहिक हैं। ये वे लोग हैं जिन्हें खुदा ने आंख दी मगर रोशनी आ जाने के बावजूद उन्होंने 
नहीं देखा । जिन्हें खुदा ने अक्ल दी मगर दलील आ जाने के बाद भी उन्होंने न समझा । अपनी 
झूठी बड़ाई की ख़ातिर वे हक के आगे झुकने पर तैयार न हुए। 

अल्लाह अपनी जत व सिफत के एतबार से कैसा है इसका हकीकी तआरुफ खुर वही 
करा सकता है। उसकी हस्ती का दूसरी मौजूदात से क्या तअल्लुक है, इसे भी वह खुद ही सही 
तौर पर बता सकता है। खुदा ने अपनी किताब में इसे इतनी वाजेह सूरत में बता दिया है कि 
जो शख्स जानना चाहे वह जरूर जान लेगा। यही मामला इंसान के लिए हिदायतनामा मुकर्रर 
करने का है। इंसान की हकीकत क्या है और वह कौन-सा रवैया है जो इंसान की कामयाबी का 
जामिन है, इसे बताने के लिए पूरी कायनात का इल्म दरकार है। इंसान के लिए सही रवैया वही 
हो सकता है जो बाकी कायनात से हमआहंग (अंतरंग) हो और दुनिया के वसीअतर (व्यापक) 
निजाम से पूरी तरह मुताबिकत रखता हो। इंसान के लिए सही राहेअमल का निर्धारण वही कर 
सकता है जो न सिर्फ इंसान को जन्म से मौत तक जानता हो बल्कि उसे यह भी मालूम हो कि 
जन्म से पहले क्या है और मौत के बाद क्या। ऐसी हस्ती ख़ुदा के सिवा कोई दूसरी नहीं हो 
सकती। इंसान के लिए हकीकतपसंदी यह है कि इस मामले में वह खुदा पर भरोसा करे और 
उसकी तरफ से आई हुई हिदायत को पूरे यकीन के साथ पकड़ ले। 


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वही है जिसने तुम्हारे ऊपर किताब उतारी। इसमें कुछ आयतें मोहकम (सुटूठ़, सुस्पष्ट) 


हैं, वे किताब की असल हैं। और दूसरी आयतें मुताशाबह (संदेहास्पद, अस्पष्ट) हैं। पस 
जिनके दिलों में टेढ़ है वे मुताशाबह आयतों के पीछे पड़ जाते हैं फितने की तलाश में 


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सूरह-3. आले इमरान 33 पारा 3 


और इनके अर्थो की तलाश में। हालांकि इनका अर्थ अल्लाह के सिवा कोई नहीं 
जानता। और जो लोग पुख्ता इलम वाले हैं वे कहते हैं कि हम उन पर ईमान लाए। 
सब हमारे रब की तरफ से है। और नसीहत वही लोग कुबूल करते हैं जो अक्ल वाले 

हैं। ऐ हमारे रब, हमारे दिलों को न फेर जबकि तू हमें हिदायत दे चुका। और हमें अपने 
पास से रहमत दे। बेशक तू ही सब कुछ देने वाला है। ऐ हमारे रब, तू जमा करने 
वाला है लोगों को एक दिन जिसमें कोई शुबह नहीं। बेशक अल्लाह वादे के खिलाफ 
नहीं करता। (7-9) 


कुरआन में दो तरह के मजामीन हैं। एक वे जो इंसान की मालूम दुनिया से संबंधित हैं। 
जैसे ऐतिहासिक घटनाएं, कायनाती निशानियां, दुनियावी जिंदगी के अहकाम आदि। दूसरे वे 
जिनका तअल्लुक उन गैबी (अदृश्य) मामलों से है जो आज के इंसान के लिए समझ से बाहर 
हैं। मसलन खुदा की सिफात, जन्नत व दोजख़ के अहवाल वरह । पहली किस्म की बातों को 
कुरआन में मोहकम अंदाज, दूसरे शब्दों में प्रत्यक्ष शैली में बयान किया गया है। दूसरी किस्म की 
बातें इंसान की नामालूम दुनिया से संबंधित हैं, वे इंसानी भाषा की गिरफ्त में नहीं आतीं। 
इसलिए उन्हें मुताशाबह अंदाज यानी रूपकों और उपमा की शैली में बयान किया गया है। 
मसलन इंसान का हाथ कहा जाए तो यह प्रत्यक्षतः भाषा की मिसाल है और अल्लाह का हाथ 
रूपकों की भाषा की मिसाल। जो लोग इस फर्क को नहीं समझते वे मुताशाबह आयतों का 
भावार्थ भी उसी तरह सुनिश्चित करने लगते हैं जिस तरह मोहकम आयतों का भावार्थ सुनिश्चित 
किया जाता है। यह अपने फितरी दायरे से बाहर निकलने की कोशिश है। इस किस्म की 
कोशिश का अंजाम इसके सिवा और कुछ नहीं कि आदमी हमेशा भटकता रहे और कभी मंजिल 
पर न पहुंचे। क्योंकि इंसान के हाथ” को सुनिश्चित तौर पर समझा जा सकता है, मगर “खुदा 
के हाथ” को मौजूदा अक्ल के साथ सुनिश्चित तौर पर समझना सभंव नहीं। 

मुताशाबिहात के सिलसिले में सही इल्मी और अक्ली मौकिफ यह है कि आदमी अपनी 
असमर्थता को स्वीकारे । जिन बातों को वह सुनिश्चित रूप से अपने हवास की गिरफ्त में नहीं 
ला सकता उनको संक्षिप्त अवधारणा पर संतोष करे। जब हवास की असमर्थता की वजह से 
इंसान के लिए इन वास्तविकताओं का पूरी तरह ज्ञान मुमकिन नहीं है तो हकीकतपसंदी यह 
है कि इन मामलों में सुनिश्चितता की बहस न छेड़ी जाए। इसके बजाए अल्लाह से दुआ 
करना चाहिए कि वह आदमी को इस किस्म की बेनतीजा बहसों में उलझने से बचाए। वह 
आदमी को ऐसी अक्ले सलीम दे जो अपने मकाम को पहचाने और इन हकीकतों के मुजमल 
(संक्षिप्त) यकीन पर राजी हो जाए। एक दिन ऐसा आने वाला है जबकि ये हकीकते अपनी 
तफ्सीली सूरत में खुलकर सामने आ जाएं। मगर आदमी जब तक इम्तेहान की दुनिया में है 
ऐसा होना मुमकिन नहीं। 

जिस तरह रास्ते की फिसलन होती है, उसी तरह अक्ल के सफर की भी फिसलन होती है। 
और अक्ल की फिसलन यह है कि किसी मामले को आदमी उसके सही रुख़ से न देखे। किसी 
चीज की हकीकत आदमी उसी वक्‍त समझता है जबकि वह उसे उस रुछ से देखे जिस रुख़ से 
उसे देखना चाहिए । अगर वह किसी और रुख़ से देखने लगे तो ऐन मुमकिन है कि वह सही राय 


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पारा 3 I34 सूरह-3. आले इमरान 


कायम न कर सके और ग़लतफहमियों में पड़ कर रह जाए। सबसे बड़ी समझदारी यह है कि 
आदमी इस राज को जान ले कि किसी चीज को देखने का सहीतरीन रुख़ क्या है। 
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बेशक जिन लोगों ने इंकार किया, उनके माल और उनकी औलाद अल्लाह के मुकाबले 
में उनके कुछ काम न आएँगे और यही लोग आग के ईधन बनेंगे। इनका अंजाम वैसा 
ही होगा जैसा फिरऔन वालों का और इनसे पहले वालों का हुआ। उन्होंने हमारी 
निशानियों को झुठलाया। इस पर अल्लाह ने उनके गुनाहों के सबब उन्हें पकड़ लिया। 
और अल्लाह सख्त सजा देने वाला है। इंकार करने वालों से कह दो कि अब तुम मग़लूब 
किए जाओगे और जहन्नम की तरफ जमा करके ले जाए जाओगे और जहन्नम बहुत 
बुरा ठिकाना है। बेशक तुम्हारे लिए निशानी है उन दो गिरोहों में जिनमें (बद्र में) मुठभेड़ 
हुई। एक गिरोह अल्लाह की राह में लड़ रहा था और दूसरा मुंकिर था। ये मुंकिर खुली 
आंखों से उन्हें दुगना देखते थे। और अल्लाह जिसे चाहता है अपनी मदद का जोर दे 
देता है। इसमें आंख वालों के लिए बड़ा सबक है। (0-3) 


हक की दावत (आह्वान) जब भी उठती है तो वह लोगों को एक गैर-अहम आवाज 
मालूम होती है। एक तरफ ववत का माहौल होता है जिसके कने में हर किस्म के मादूदी 
वसाइल (भौतिक संसाधन) होते हैं। दूसरी तरफ हक का काफिला होता है जिसे अभी माहौल 
में कोई जमाव हासिल नहीं होता। इसके साथ मादूदी मफादात (हित) जुड़े नहीं होते। इन 
हालात में हक की तरफ बढ़ना माहौल से कटने और मफादात से महरूम होने के हममअना 
बन जाता है। नतीजा यह होता है कि आदमी अपने मफादात को बचाने की खातिर हक को 
नहीं मानता। अपने साथियों और रिश्तेदारों को छोड़कर एक तंहा दाऔ (आह्वानकर्ता) की 
सफ में आने के लिए तैयार नहीं होता। मगर ये चीजें जो इंसान को आज अहम नजर आती 
है वे फैसले के दिन किसी के कुछ काम न आएंगी। इन चीजों की जो कुछ अहमियत है सिर्फ 
उस वक्त तक है जबकि मामला इंसान और इंसान के दर्मियान है। जब कियामत का पर्दा 
उठेगा और मामला इंसान और खुदा के दर्मियान हो जाएगा तो ये चीजें इतनी बेकीमत हा ` जाएंगी 


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सूरह-3. आले इमरान I35 पारा 3 


जैसे कि इनका कोई वजूद ही नहीं था । दाऔ इस दुनिया में बजाहिर बेजोर दिखाई देता है मगर 
हकीकत में वही जोर वाला है। क्योंकि उसके पीछे खुदा है। मुंकेर बजाहिर इस दुनिया में 
ताकतवर दिखाईदेता है। मगर वह बिल्ुल बेताकत है। क्येकि उसकी ताकत एक वकी फे 
के सिवा और कुछ नहीं है। 

नुबु्वत के चौदहवें साल बद्र का मअरका (मोर्चा) आखिरत में होने वाले वाकये का एक 
दुनियावी नमूना था। हक का इंकार करने वाले तादाद और ताकत में बहूत ज्यादा थे और हक 
को मानने वाले तादाद और ताकत में बहुत कम थे। इसके बावजूद मुंकिरों को गैर मामूली 
शिकस्त हुई और हक की पैरवी करने वालों को फैसलाकुन फतह हासिल हुई। यह एक वाजेह 
सुबूत है कि अल्लाह हमेशा हक के पेरोकारों की तरफ होता है। इतने गैर-मामूली फर्क के 
बावजूद इतनी गैर-मामूली फतह अल्लाह की मदद के बगैर नहीं हो सकती। यह ख़ुदा की 
तरफ से इस बात का एक मुजाहिरा है कि हक इस आलम में तंहा नहीं है। इसी के साथ 
इंकार करने वालों के लिए वह एक जाहिरी दलील भी है जिसमें वे देख सकते हैं कि ख़ुदा की 
इस दुनिया में वे कितने बेजगह हैं। हक के दा के कलाम और उसकी जिंदगी में खुली हुई 
अलामतें होती हैं कि यह ख़ुदा की तरफ से है। मगर जो सरकश लोग हैं वे इसे रदूद करने 
के लिए अल्फाज की एक पनाहगाह बना लेते हैं। वे झूठी तौजीहात (कुतरको) में जीते रहते 
हैं, यहां तक कि वे आख़िरत की दुनिया में पहुंच जाते हैं, सिर्फ यह जानने के लिए कि वे जिन 
अल्फाज का सहारा लिए हुए थे वे हकीकत के एतबार से कितने बेमअना थे। 

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लोगों के लिए खुशनुमा कर दी गई है मुहब्बत ख्याहिशों की औरतें, बेटे, सोने-चांदी 
के ढेर, निशान लगे हुए घोड़े, मवेशी और खेती। ये दुनियावी जिंदगी के सामान हैं। 
और अल्लाह के पास अच्छा ठिकाना है। कहो, क्या मैं तुम्हें बताऊ इससे बेहतर चीज। 
उन लोगों के लिए जो डरते हैं, उनके रब के पास बागा हैं जिनके नीचे नहरें जारी होंगी । 


वे इनमें हमेशा रहेंगे। और सुथरी बीवियां होंगी और अल्लाह की रिजामंदी होगी। और 
अल्लाह की निगाह में हैं उसके बंदे, जो कहते हैं ऐ हमारे रब, हम ईमान ले आए। 


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पारा 3 36 सूरह-3. आले इमरान 


पस तू हमारे गुनाहों को माफ कर दे और हमें आग के अजाब से बचा। वे सब्र करने 
वाले हैं और सच्चे हैं, फरमांबरदार हैं और ख़र्च करने वाले हैं और पिछली रात को 
मग्फिरत (क्षमा) मांगने वाले हैं। (4-7) 


दुनिया इम्तेहान की जगह है। इसलिए यहां की चीजों में आदमी के लिए जाहिरी कशिश 
रखी गई है। अब खुदा यह देखना चाहता है कि कौन है जो जाहिरी कशिश से मुतअस्सिर 
होकर दुनिया की चीजों में खो जाता है। और कौन है जो इससे ऊपर उठकर आख़िरत की 
अनदेखी चीजों को अपनी तवज्जोह का मर्कज बनाता है। आदमी को दुनिया की चीजों में 
तस्कीन मिलती है। वह देखता है कि माहौल के अंदर इनके जरिए से वकार कायम होता है। 
ये चीजें हों तो उसके सब काम बनते चले जाते हैं। वह समझने लगता है कि यही चीजें असल 
अहमियत की चीजें हैं। उसकी दिलचस्पियां और सरगर्मियां सिमट कर बीवी, बच्चों और माल 
व जायदाद के गिर्द जमा हो जाती हैं। यही चीज आहिरत के तकाजों की तरफ बढ़ने में सबसे 
बड़ी रुकावट है। दुनिया की चीजों की अहमियत का एहसास आदमी को आख़िरत की चीजों 
की तरफ से गाफिल कर देता है। दुनिया में अपने बच्चों के मुस्तकबिल (भविष्य) की तामीर 
में वह इतना मशगूल होता है कि उसे याद नहीं रहता कि दुनिया से आगे भी कोई 
'मुस्तकबिल' है जिसकी तामीर की उसे फिक्र करनी चाहिए । दुनिया में अपने घर को आबाद 
करना उसके लिए इतना महबूब बन जाता है कि उसे कभी ख्याल नहीं आता कि इसके सिवा 
भी कोई “घर” है जिसे आबाद करने में उसे लगना चाहिए। दुनिया में दौलत समेटना और 
जायदाद बनाना उसे इतने ज्यादा कीमती मालूम होते हैं कि वह सोच नहीं पाता कि इसके 
सिवा भी कोई 'दौलत' है जिसे हासिल करने के लिए वह अपने को वक्फ करे। मगर इस 
किस्म की तमाम चीजैसिर्फ मोजूदा आरजी जिगी की रौनक हैं। अगली तवीलतर (दीप) 
जिंदगी में वे किसी के कुछ काम आने वाली नहीं। 

जो शख्स आख़िरत की मुस्तकिल जिंदगी को अपनी तवज्जोहात का मर्कज बनाए उसकी 
जिंदगी कैसी जिंदगी होगी । दुनिया की रोनकेंउसकी नजर मेंहकीर (तुच्छ) बन जाएँगी । वह इस 
यकीन से भर जाएगा कि आख़िरत का मामला तमामतर अल्लाह के इख़्तियार में है। इसका 
नतीजा यह होगा कि वह सबसे ज्यादा अल्लाह से डरेगा और सबसे ज्यादा आख़िरत का 
ख़्वाहिशमंद बन जाएगा। मामलात में वह अपनी ख्याहिशों के पीछे नहीं चलेगा बल्कि अल्लाह 
की अदालत को सामने रख कर अपना रवैया तै करेगा । उसके कौल व अमल में फर्क नहीं होगा । 
उसका माल अपना माल नहीं रहेगा बल्कि खुदा के लिए वक्फ हो जाएगा । अल्लाह की राह में 
चलने में चाहे कितनी ही मुश्किलें पेश आएं वह पूरी इस्तेकामत (टूढ़ता) के साथ उस पर कायम 
रहेगा। क्योंकि उसे यकीन होगा कि अल्लाह को छोड़ने के बाद कोई नहीं है जो उसका सहारा 
बने। उसका दिल अल्लाह की याद से इस तरह पिघल उठेगा कि वह बेताब होकर उसे पुकारने 
लगेगा। उसकी तंहाइयां अपने रब की सोहबत (सान्निध्य) में बसर होने लगेंगी। अल्लाह की 
अज्मत और कमाल के आगे उसे अपना वुजूद सिर से पैर तक गलती नजर आएगा । उसके पास 
कहने के लिए इसके सिवा और कुछ न होगा कि ऐ मेरे रब, मुझे माफ कर दे। 














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सूरह-3. आले इमरान I37 पारा 3 


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अल्लाह की गवाही है और फरिश्ता की और अहलेइल्म की कि अल्लाह के सिवा कोई 
माबूद नहीं। वह कायम रखने वाला है इंसाफ का। उसके सिवा कोई माबूद नहीं। वह 
जबरदस्त है, हिक्मत वाला है। दीन अल्लाह के नजदीक सिर्फ इस्लाम है। और अहले 

किताब ने इसमें जो इख़्तेलाफ (मतभेद) किया वह आपस की जिद की वजह से किया, 

बाद इसके कि उन्हें सही इलम पहुंच चुका था। और जो अल्लाह की आयतों का इंकार 
करे तो अल्लाह यकीनन जल्द हिसाब लेने वाला है। फिर अगर वे तुम से इस बारे में 
झगड़ें तो उनसे कह दो कि मैं अपना रुख़ अल्लाह की तरफ कर चुका। और जो मेरे 
पैरोकार हैं वे भी। और अहले किताब से और अनपढ़ों से पूछो, क्या तुम भी इसी तरह 
इस्लाम लाते हो। अगर वे इस्लाम लाएं तो उन्होंने राह पा ली। और अगर वे फिर जाएं 
तो तुम्हारे ऊपर सिर्फ पहुंचा देना है। और अल्लाह की निगाह में हैं उसके बंदे। जो 
लोग अल्लाह की निशानियों का इंकार करते हैं और पेग़म्बरों को नाहक कत्ल करते 

हैं और उन लोगों को मार डालते हैं जो लोगों में से इंसाफ की दावत लेकर उठते हैं, 
इन्हें एक दर्दनाक सजा की खुशखबरी दे दो। यही वे लोग हैं जिनके आमाल दुनिया 
और आख़िरत में जाये (विनष्ट) हो गए और उनका मददगार कोई नहीं। (8-22) 























कायनात का ख़ुदा एक ही ख़ुदा है और वह अदूल व किस्त%(न्याय) को पसंद करता 
है। तमाम आसमानी किताबें अपनी सही सूरत में इसी का एलान कर रही हैं। फैली हुई 
कायनात, जो इसका मालिक अपने गैर-मरई (अनदेखी) कारिंदों (फरिश्तों) के जरिए चला रहा 
है वह कामिल तौर पर वैसी ही है जैसा कि उसे होना चाहिए। साबितशुदा इंसानी इलम के 
मुताबिक कायनात एक हददर्जा वहदानी निजाम (एकीय व्यवस्था) है। इससे स्पष्ट होता है कि 


पारा 3 38 सूरह-3. आले इमरान 


कायनात का व्यवस्थापक सिर्फ एक है। इसी तरह कायनात की हर चीज का अपने उपयुक्त 
स्थल पर होना इस बात का सुबूत है कि उसका ख़ुदा अदूल (न्याय, सुव्यवस्था) को पसंद करने 
वाला है न कि बेइंसाफी को पसंद करने वाला । फिर जो ख़ुदा वसीअतर कायनात में मुसलसल 
अदल को कायम किए हए हो वह इंसान के मामले में अदूल के खिलाफ बातों पर कैसे राजी 
हो जाएगा । 

कायनात का हर जुज (अवयय) कामिल तौर पर 'मुस्लिम' है। यानी अपनी सरगर्मियों को 
अल्लाह के मुरकर किए हुए नके के मुताबिक अंजाम देता है। ठीक यही रवैया इंसान से भी 
मत्लूब है। इंसान को चाहिए कि वह अपने रब को पहचाने और उसके मत्लूब नक्शे के मुताबिक 
अपनी जिंदगी को ढाल ले। अल्लाह के सिवा किसी और को अपनी तवज्जोह का मकज बनाना 
या यह ख्याल करना कि अल्लाह का फैसला अदूल के सिवा किसी और बुनियाद पर हो सकता 
है, ऐसी बेअस्ल बात है जिसके लिए मौजूदा कायनात में कोई गुंजाइश नहीं । 

कुरआन की दावत (आह्वान) इसी सच्चे इस्लाम की दावत है। जो लोग इसमें इख़्तेलाफ 
कर रहे हैं इसकी वजह यह नहीं है कि इसका हक होना उन पर वाजेह नहीं है। इसकी वजह 
जिद है। इसे मानना उन्हें कुरआन के दाऔ (आह्वानकर्ता) की फिक्री बरतरी (वैचारिक 
श्रेष्ठता) तस्लीम करना महसूस होता है, और उनकी हसद और कि्र (घमंड) की नफ्सियात इस 
किस्म का एतराफ करने पर राजी नहीं। सीधी तरह हक को मान लेने के बजाए वे चाहते हैंकि 
उस जबान ही को बंद कर दें जो हक का एलान कर रही है। ताहम ख़ुदा की दुनिया में ऐसा होना 
मुमकिन नहीं। हक के दाऔ की जबान को बंद करने के लिए उनका हर मंसूबा नाकाम होगा 
और जब खुदा के अदूल का तराजू खड़ा होगा तो वे देख लेंगे कि उनके वे आमाल कितने 
बेकीमत थे जिनके बल पर वे अपनी नजात और कामयाबी का यकीन किए हुए थे। सच्ची 
दलील ख़ुदा की निशानी है। जो शख्स दलील के सामने नहीं झुकता वह गोया ख़ुदा के सामने 
नहीं झुकता। ऐसे लोग कियामत में इस तरह उठेंगे कि वे सबसे ज्यादा बेसहारा होंगे । 


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सूरह-3. आले इमरान I39 पारा 3 


क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जिन्हें अल्लाह की किताब का एक हिस्सा दिया 
गया था। उन्हें अल्लाह की किताब की तरफ बुलाया जा रहा है कि वह उनके दर्मियान 
फैसला करे। फिर उनका एक गिरोह मुंह फेर लेता है बेरुख़ी करते हुए। यह इस सबब 

से कि वे लोग कहते हैं कि हमें हरगिज आग न छुऐगी सिवाए गिने हुए कुछ दिनों के। 
और उनकी बनाई हुई बातों ने उन्हें उनके दीन के बारे में धोखे में डाल दिया है। फिर 
उस वक्त क्या होगा जब हम उन्हें जमा करेंगे एक दिन जिसके आने में कोई शक नहीं। 
और हर शख्स को जो कुछ उसने किया है, इसका पूरा-पूरा बदला दिया जाएगा और 
उन पर जुल्म न किया जाएगा। तुम कहो, ऐ अल्लाह, सल्तनत के मालिक तू जिसे चाहे 
सल्तनत दे और जिससे चाहे सल्तनत छीन ले। और तू जिसे चाहे इज्जत दे और जिसे 

चाहे जलील करे। तेरे हाथ में है सब .खूबी। बेशक तू हर चीज पर कादिर है। तू रात 

को दिन में दाखिल करता है और दिन को रात में दाखिल करता है। और तू बेजान 
से जानदार को निकालता है और तू जानदार से बेजान को निकालता है। और तू जिसे 
चाहता है बेहिसाब स्कि का है। (2४27) 


अल्लाह की हिदायत एक ही हिदायत है जो विभिन्न कीमों की भाषा में उनके पैग़म्बरों 
पर उतारी जाती रही है। वही कुरआन के रूप में मुहम्मद (सल्ल०) पर उतारी गई है। इस 
एकरूपता की वजह से आसमानी किताबों को जानने और मानने वालों के लिए कुरआन की 
दावत को पहचानना मुश्किल नहीं। कुरआन की दावत और पिछली आसमानी तालीमात में 
अगर कुछ फर्क है तो सिर्फ यह कि कुरआन की दावत उनकी अपनी मिलावट से खुदा के 
दीन को पाक कर रही है। इसके बावजूद क्यों ऐसा है कि बहुत से लोग कुरआन की दावत 
का इंकार कर रहे हैं। इसकी वजह यह है कि कुरआन की दावत को वे अपने लिए कोई 
संजीदा मामला नहीं समझते। अपने स्वनिर्मित अकीदों (आस्था, विशवास) की बुनियाद पर 
उन्हेंनि अपने को जहन्नम की आग से महफूज मान लिया है। अपनी इस नपिसियात के तहत 
वे समझते हैं कि अगर वे इस हक को न स्वीकारें तो इससे उनकी नजात (मुक्ति) खतरे में 
पड़ने वाली नहीं। मगर जब खुदा के इंसाफ का तराजू खड़ा होगा उस वक्त उन्हें मालूम होगा 
कि वे महज खुशख्यालियों के अंधेरे में पड़े हुए थे। 

हर किम की इज व ताकत अल्लाह के इख़ियार मेंहे। वक्त के बड़जिसे केवीक्त 
समझ लें खुदा चाहे तो उसी के हक में इज्जत व सरबुलंदी का फैसला कर दे। इलम की 
गद्दयाँ पर बैठने वाले जिसके बारे में जहल (अज्ञान) का फतवा दें, खुदा चाहे तो उसी के 
जरिए इलम का चश्मा (स्रेत) जारी कर दे। खुदा की नजर में अगर कोई इज्जत व ताकत का 
मुस्तहिक हो सकता है तो वह जो इसे ख़ालिस ख़ुदा की चीज समझे और खुदा की नजर में 
इसका सबसे ज्यादा गैर-मुस्तहिक अगर कोई है तो वह जो इसे अपनी जाती मिल्कियत 
समझता हो। खुदा वसीअतर कायनात में रोजाना बहुत बड़े पैमाने पर यह करिश्मा दिखा रहा 
है कि वह तारीकी (अंधकार) को रोशनी के ऊपर ओढ़ा देता है और रोशनी को तारीकी के 


पारा 3 I40 सूरह-3. आले इमरान 


ऊपर डाल देता है। वह मुर्दा अनासिर (तत्वों) से जिंदगी वजूद में लाता है और जिंदा चीजों को 

मुर्दा अनासिर में तब्दील करता है। ख़ुदा की यही कुदरत अगर इतिहास में जाहिर हो तो इसमें 
ताज्जुब की क्या बात है। जो लोग हक के नाम पर नाहक का कारोबार कर रहे हों वे हमेशा 

सच्ची हक की दावत के मुखालिफ हो जाते हैं। ऐसे दाऔ को बेघर किया जाता है। उसके 
आर्थिक साधन बर्बाद किए जाते हैं। मगर ऐसा शख्स प्रत्यक्ष रूप से अल्लाह की सरपरस्ती में 
होता है। वह उसके लिए खुसूसी रिज्क का इंतजाम करता है। दूसरों को उनकी मआशी 

(आर्थिक) मेहनत के हिसाब से रिज्क दिया जाता है और ऐसे शख्स को बेहिसाब। 


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मुसलमानों को चाहिए कि मुसलमानां को छोड़ कर हक का इंकार करने वालों को 
दोस्त न बनाएं। और जो शख्स ऐसा करेगा तो अल्लाह से उसका कोई ताल्लुक 
नहीं। मगर ऐसी हालत में कि तुम उनसे बचाव करना चाहो। और अल्लाह तुम्हे 
डराता है अपनी जात से। और अल्लाह ही की तरफ लौटना है। कह दो कि जो कुछ 
तुम्हारे सीनों में है उसे छुपाओ या जाहिर करो, अल्लाह उसे जानता है। और वह 
जानता है जो कुछ आसमानों में है और जो जमीन में है। और अल्लाह हर चीज पर 
कादिर है। जिस दिन हर शख्स अपनी की हुई नेकी को अपने सामने मौजूद पाएगा, 
और जो बुराई की होगी उसे भी। उस दिन हर आदमी यह चाहेगा कि काश अभी 
यह दिन उससे बहुत दूर होता। और अल्लाह तुम्हें राता है अपनी जात से। और 
अल्लाह अपने बंदों पर बहुत महरबान है। कहो, अगर तुम अल्लाह से मुहब्बत करते 
हो तो मेरी पैरवी करो, अल्लाह तुमसे मुहब्बत करेगा। और तुम्हारे गुनाहों को माफ 
कर देगा। अल्लाह बड़ा माफ करने वाला, बड़ा महरबान है। कहो, अल्लाह की 
इताअत करो और रसूल की। फिर अगर वे मुंह मोड़ें तो अल्लाह हक का इंकार करने 
वालों को दोस्त नहीं रखता। (28-32) 





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सूरह-3. आले इमरान I4I पारा 3 


मोमिन तमाम इंसानों के साथ नेकी और इंसाफ का सुलूक करने वाला होता है। इसमें 
मुस्लिम और गैर-मुस्लिम का कोई विभेद नहीं । मगर जब गैर-मुस्लिमों के साथ दोस्ती मुसलमानों 
के मफाद (हित) की कीमत पर हो तो ऐसी दोस्ती मुसलमानों के लिए जाइज नहीं। ताहम बचाव 
की तदबीर के तौर पर अगर किसी वक्‍त एक मुसलमान या किसी मुस्लिम गिरोह को गैर-मुस्लिमों 
से वक्ती तअल्लुक कायम करना पड़े तो इसमें कोई हर्ज नहीं। अल्लाह नीयत को देखता है 
और जब नीयत दुरुस्त हो तो वह किसी को उसके अमल पर नहीं पकड़ता। तमाम मामलात 
में असल काबिले लिहाज चीज अल्लाह का ख़ैफ है। आदमी किसी मामले में जो रवैया अपनाए, 
उसे अच्छी तरह सोच लेना चाहिए कि अल्लाह उसका हिसाब लेगा। और उसके इंसाफ के तराजू 
में जो गलत ठहरेगा वह उसकी सजा पाकर रहेगा । अल्लाह से किसी इंसान की कोई बात ओझल 
नहीं चाहे वह उसने छुपकर की हो या एलानिया की हो। जब इम्तेहान का पर्दा हटेगा और 
आखिरत का आलम सामने आएगा तो आदमी के आमाल की पूरी खेती उसके सामने होगी। 
यह मंजर इतना हौलनाक होगा कि वे चीजें जो दुनिया में उसके नफ्स की लज्जत बनी हुई थीं, 
वह चाहेगा कि वे उससे बहुत दूर चली जाऐं। 

अल्लाह किसी के इस्लाम को जहां देखता है वह उसका कल्ब (हृदय) है। मोमिन वही है 
जिसका अल्लाह से तअल्लुक कल्बी मुहब्बत की हद तक कायम हो जाए। ऐसे ही लोग हैं जो 
अल्लाह की मुहब्बत व तवज्जोह के मुस्तहिक बनते हैं। और जो शख्स अल्लाह से इस तरह 
तअल्लुक कायम कर ले उससे अगर कोताहियां भी होती हैं तो अल्लाह इससे दरगुजर फरमाता 
है। अल्लाह सरकशों के लिए बहुत सख्त है। मगर जो लोग आजिजी का रवैया इख्तियार करें 
वह उनके लिए नर्म पड़ जाता है। 

यह एक नपिसियाती हकीकत है कि जिस सीने में किसी की मुहब्बत मौजूद हो उसी सीने 
में महबूब के दुश्मन की मुहब्बत जमा नहीं हो सकती । इसी के साथ यह भी एक हकीकत है 
कि महबूब अगर ऐसी हस्ती हो जो आदमी के लिए आका और मालिक का दर्जा रखती हो तो 
उसके साथ मुहब्बत सिर्फ मुहब्बत की हद तक न रहेगी बल्कि लाजिमन इताअत (आज्ञापालन) 
और फरमांबरदारी का जज्बा पैदा करेगी । खुदा की जिस मुहब्बत के बाद ख़ुदा के दुश्मनों से 
कत्बी तअल्लुक ख़म न हो या उसकी इताअत व फरमांबरदारी का जज्बा पैदा न हो वह झूठी 
मुहब्बत है। ऐसे शख्स का शुमार अल्लाह के यहां इंकार करने वालों में होगा न कि मानने वालों 
में। रसूल वह शख्स है जिसके कामिल ख़ुदापरस्त होने की गवाही ख़ुद ख़ुदा ने दी है, इसलिए 
ख़ुदापरस्ताना जिंदगी के लिए रसूल का नमूना ही मौजूदा दुनिया में वाहिद मुस्तनद (एकमात्र 
प्रमाणित) नमूना है। 

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पारा 3 I42 सूरह-3. आले इमरान 


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बेशक अल्लाह ने आदम को और नूह को और आले इब्राहीम को और आले इमरान 
को सारे आलम के ऊपर मुंतख़ब किया है। ये एक-दूसरे की औलाद हैं। और अल्लाह 
सुनने वाला जानने वाला है। जब इमरान की बीवी ने कहा ऐ मेरे रब मैंने नजर (अर्पित) 
कियमअनारे लिए जो मेरे पेट में है वह आजाद रखा जाएगा। पस तू मुझसे कुबूल कर 
बेशक तू सुनने वाला, जानने वाला है। फिर जब उसने बच्चा जन्मा तो उसने कहा ऐ 
मेरे रब मैंने तो लड़की को जन्मा है और अल्लाह ख़ूब जानता है कि उसने क्या जन्मा 
है और लड़का नहीं होता लड़की की मानिंद। और मैंने उसका नाम मरयम रखा है और 
मैं उसे और उसकी औलाद को शैतान मरदूद से तेरी पनाह में देती हूं। पस उसके रब 
ने उसे अच्छी तरह कुबूल किया और उसे उम्दा तरीके से परवान चटया और जकरिया 
को उसका सरपरस्त बनाया। जब कभी जकरिया उनके पास हुजरे में आता तो वहां 
स्ज्कि पाता। उसने पूछा ऐ मरयम ये चीज तुम्हें कहां से मिलती है मरयम ने कहा यह 
अल्लाह के पास से है बेशक अल्लाह जिसको चाहता है बेहिसाब रिज्क दे देता है। उस 
वक्त जकरिया ने अपने रब को पुकारा। उसने कहा ऐ मेरे रब मुझे अपना पास से 
पाकीजा औलाद अता कर बेशक तू दुआ का सुनने वाला है। फिर फरिश्तों ने उसे 





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सूरह-3. आले इमरान I43 पारा 3 


आवाज दी जबकि वह हुजरे में खड़ा हुआ नमाज पढ़ रहा था कि अल्लाह तुझे याहिया 

की खुशखबरी देता है जो अल्लाह के कलिमे की तस्दीक करने वाला होगा और सरदार 
होगा और अपने नफ्स को रोकने वाला होगा और नबी होगा नेकों में से। जकरिया 

ने कहा ऐ मेरे रब मेरे लड़का किस तरह होगा हालांकि मैं बूढ़ा हो चुका और मेरी औरत 
बांझ है। फरमाया उसी तरह अल्लाह कर देता है जो वह चाहता है। जकरिया ने कहा 

कि ऐ मेरे रब मेरे लिए कोई निशानी मुकर्रर कर दे। कहा तुम्हारे लिए निशानी यह 

है कि तुम तीन दिन तक लोगों से बात न कर सकोगे मगर इशारे से और अपने रब 
को कसरत से याद करते रहो और शाम व सुबह उसकी तस्बीह करो। और जब फरिश्तों 

ने कहा ऐ मरयम अल्लाह ने तुम्हें मुंतख्ब किया और तुम्हें पाक किया और तुम्हें दुनिया 
भर की औरतों के मुकाबले में मुंत़ब किया है (चुना है)। ऐ मरयम अपने रब की 
फरमांबरदारी करो और सज्दा करो और रुकूअ करने वालों के साथ रुकूअ करो। यह 
ग़ैब की ख़बरे हैं जो हम तुम्हें 'बही” (अवतरित) कर रहे हैं और तुम उनके पास मौजूद 
न थे जब वे अपने कुरओ डाल रहे थे कि कौन मरयम की सरपरस्ती करे और न तुम 
उस वक्‍त उनके पास मौजूद थे जब वे आपस में झगड़ रहे थे। (33-44) 


अल्लाह ने हजरत जकरिया को बुद्यपे में औलाद दी, हजर्म मरयम को हुजरे में रकि 
पहुंचाया, हजरत मसीह को बगैर बाप के पैदा किया, आले इब्राहीम ने ऐसे सुलहा (महापुरुष) 
पैदा किए जिन्हें खुदा की पैग़म्बरी के लिए चुना जाए। अल्लाह ने अपने इन बंदों को ये 
इनामात यूं ही नही दिए बल्कि उन्हें इसका मुस्तहिक पाकर ऐसा किया । ये वे लोग थे जिन्होंने 
अपनी औलाद से आर्थिक उम्मीदें कायम नहीं कीं इनकी ख़ुशी इसमें थी कि इनकी औलाद 
अल्लाह की राह में सरगर्म हो। ये वे लोग थे जिन्होंने अपने अंदर इस तमन्ना की परवरिश 
की कि उनकी औलाद शैतान से बची रहे, वह नेक बंदों की जमाअत में शामिल हो जाए। 
किसी के अंदर भलाई देख कर वे हसद और जलन में मुब्तला नहीं हुए | उनके नेक जज्बात 
के असर से उनकी औलाद भी ऐसी हुई जो दुनिया की जिंदगी में अपने नफ्स पर काबू रखने 
वाली हो, वह अल्लाह को याद करे। बदी और नेकी के दर्मियान वह नेकी के रास्ते को 
अपनाए । यही वे लोग हैं जिनको अल्लाह अपने ख़ास रिज्क से खिलाता पिलाता है और उन्हें 
अपनी खुसूसी रहमत के लिए कुबूल कर लेता है। 


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पारा 3 I44 सूरह-3. आले इमरान 


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जब फरिश्तों ने कहा ऐ मरयम, अल्लाह तुम्हें खुशखबरी देता है अपनी तरफ से एक 
कलिमे की। उसका नाम मसीह ईसा बिन मरयम होगा। वह दुनिया और आख़िरत में 
मर्तवे वाला होगा और अल्लाह के मुकर्रब बंदों में होगा। वह लोगों से बातें करेगा जब 
मां की गोद में होगा और जब पूरी उम्र का होगा। और वह सालेहीन (सज्जनों) में से 
होगा। मरयम ने कहा ऐ मेरे रब, मेरे किस तरह लड़का होगा जबकि किसी मर्द ने मुझे 
हाथ नहीं लगाया। फरमाया उसी तरह अल्लाह पैदा करता है जो चाहता है। जब वह 
किसी काम का फैसला करता है तो उसे कहता है कि हो जा और वह हो जाता है। 
और अल्लाह उसे किताब और हिक्मत और तौरात और इंजील सिखाएगा और वह रसूल 
होगा बनी इस्राईल की तरफ कि में तुम्हारे पास तुम्हारे रब की निशानी लेकर आया 
हूं। में तुम्हारे लिए मिट्टी से परिंदे की आकृति बनाता हूं, फिर उसमें फूंक मारता हूं 
तो वह अल्लाह के हुक्म से वाकई परिंदा बन जाती है। और में अल्लाह के हुक्म से 
जन्मजात अंधे और कोढ़ी को अच्छा करता हूं। और मैं अल्लाह के हुक्म से मुर्दे को जिंदा 
करता हूं। और में तुम्हें बताता हूं कि तुम क्या खाते हो और अपने घरों में क्या जखीरा 
करते हो। बेशक इसमें तुम्हारे लिए निशानी है अगर तुम ईमान रखते हो। और मैं 
तस्दीक करने वाला हूं तौरात की जो मुझ से पहले की है और मैं इसलिए आया हूं कि 
कुछ उन चीजों को तुम्हारे लिए हलाल ठहराऊं जो तुम पर हराम कर दी गई हैं। और 

में तुम्हारे पास तुम्हारे रब की तरफ से निशानी लेकर आया हूं। पस तुम अल्लाह से 
डरो और मेरी इताअत करो। बेशक अल्लाह मेरा रब है और तुम्हारा भी। पस उसकी 
इबादत करो, यही सीधी राह है। (45-5) 





यहूद की नस्ल को अल्लाह ने इस ख़ास मंसब के लिए चुन लिया था कि उन पर अपनी 
हिदायत उतारे ताकि वे ख़ुद अल्लाह के रास्ते पर चलें और दूसरों को उससे आगाह करें । मगर 
बाद के जमाने में यहूद के अंदर बिगाड़ आ गया। यहां तक कि अल्लाह की नजर में वे इस 





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सूरह-3. आले इमरान I45 पारा 3 


काबिल न रहे कि आसमानी हिदायत के अमीन (धारक) बन सकें। अब अल्लाह का फैसला 

यह हुआ कि यह अमानत उनसे छीन कर आले इब्राहीम की दूसरी शाख (बनी इस्माईल) को 
दे दी जाए। इस फैसले को लागू करने से पहले यहूद पर इत्मामे हुज्जत (हुज्जत पूरी करना) 
जरूरी था। हजरत मसीह इसी इत्मामे हुज्जत के लिए भेजे गए। आपका असामान्य जन्म और 
आपको गैर-मामूली मोजिजात (पैग़म्बरों के चमत्कार) का दिया जाना इसीलिए था कि यहूद 
को इस बारे में कोई शुबह न रहे कि आप ख़ुदा के भेजे हुए हैं और ख़ुदा की तरफ से बोल 

रहे हैं। हजरत मसीह अपने साथ न सिर्फ फैक्रल फितरी (दिव्य असामान्य) निशानियां रखते 

थे बल्कि वह इतने मुअस्सर और मुदल्लल अंदाज में बोलते थे कि उनके जमाने में कोई इस 

तरह बोलने पर कादिर न था। पहली बार जब आपने यरोशलम के हैकल में तकरीर की तो 

यहूदी विद्वान आपकी बातों को सुनकर दंग रह गए। (लूका 47 : 2)। यह उनकी मोजिजनुमा 
शख्सियत और उनके मव्हूत कर देने वाले कलाम ही का असर था कि अगरचे आप बगैर बाप 
के पैदा हुए थे मगर आपके सामने किसी को जुर्रत न हो सकी कि इस पहलू से आपको 
मतऊन (लांछित) करे। ताहम यहूद इतने बेहिस और इतने सरकश हो चुके थे कि इंतिहाई 
खुली-खुली दलीलें सामने आ जाने के बावजूद उन्होंने आपको मानने से इंकार कर दिया। 
“इसमें निशानी है ईमान वालों के लिए' यानी जो दलील पेश की जा रही है वह ख़ुद में 
मुकम्मल है। मगर वह उसी शख्स के लिए दलील बनेगी जो मानने का मिजाज रखता हो। 
जिसके अंदर यह सलाहियत हो कि अपने ख्यालात के कोहरे से बाहर आकर दलील पर गौर 
करे। जिसकी फितरत इस हद तक जिंदा हो कि जाती वकार का सवाल उसके लिए हक को 

कुबूल करने में रुकावट न बने। 


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पारा 3 I46 सूरह-3. आले इमरान 


फिर जब ईसा ने उनका इंकार देखा तो कहा कि कौन मेरा मददगार बनता है अल्लाह 
की राह में। हवारियों ने कहा कि हम हैं अल्लाह के मददगार। हम ईमान लाए हैं 
अल्लाह पर और आप गवाह रहिए कि हम फरमांबरदार हैं। ऐ हमारे रब हम ईमान लाए 
उस पर जो तूने उतारा, और हमने रसूल की पैरवी की। पस तू लिख ले हमें गवाही 
देने वालों में। और उन्होंने खुफिया तदबीर की और अल्लाह ने भी खुफिया तदबीर की। 

और अल्लाह सबसे बेहतर तदबीर करने वाला है। जब अल्लाह ने कहा ऐ ईसा मैं तुम्हें 
वापस लेने वाला हूं और तुम्हें अपनी तरफ उठा लेने वाला हूं और जिन लोगों ने इंकार 
किया है उनसे तुम्हें पाक करने वाला हूं। और जो तुम्हारे पैरोकार हैं उन्हें कियामत तक 
उन लोगों पर ग़ालिब करने वाला हूं जिन्होंने तुम्हारा इंकार किया है। फिर मेरी तरफ 
होगी सबकी वापसी। पस मैं तुम्हारे दर्मियान उन चीजों के बारे में फैसला करूंगा जिनमें 

तुम झगड़ते थे। फिर जो लोग मुंकिर हुए उन्हें सख्त अजाब दूंगा दुनिया में और आख़िरत 

में और उनका कोई मददगार न होगा। और जो लोग ईमान लाए और नेक काम किए 
उन्हें अल्लाह उनका पूरा अज्र देगा और अल्लाह जालिमों को दोस्त नहीं रखता। यह 
हम तुम्हें सुनाते हैं अपनी आयतें और हिकमत भरी बातें। (52-58) 


बनी इस्राईल के बड़ों ने हजरत मसीह को मानने से इंकार कर दिया। बड़ों के हाथ में 
हर किस्म के वसाइल (संसाधन) होते हैं। साथ ही यह कि मजहब की गदया पर काबिज 
होने की वजह से अवाम की नजर में वही मजहब के नुमाइदे होते हैं। इसलिए वे जिसे रदद 
कर दें वह न सिर्फ जिंदगी के वसाइल से महरूम हो जाता है बल्कि हक की ख़ातिर सब कुछ 
खोने के बाद भी लोगों की नजर में बददीन ही बना रहता है। ऐसे वक्त में हक के दाऔ का 
साथ देना इंतिहाई मुश्किल काम है। यह शुबहात और मुखालिफतों की आम फिजा में उसकी 
सदाकत पर गवाह बनना है। यह हक की जानिब उस वक्त खड़ा होना है जबकि हक तंहा 
रह गया हो। 

हक जब अपनी बेआमेज (विशुद्ध) सूरत में उठता है तो वे तमाम लोग अपने ऊपर इसकी 
जद पड़ती हुई महसूस करते हैं जो अपनी हक के खिलाफ जिगी पर हक का लेबल लगाकर 
लोगों के दर्मियान इज्जत का मकाम हासिल किए हुए थे। वे दाजी को जेर (परास्त) करने के 
लिए उठ खड़े होते हैं। वे तरह-तरह के शोशे निकाल कर अवाम को इसके खिलाफ भड़काते हैं। 
और बिलआखिर ताकत के जरिए उसे मिटा देने का मंसूबा बनाते हैं। मगर अल्लाह की नुसरत 
(मदद) हमेशा दाऔ के साथ होती है, इसलिए कोई मूखालिफत (विरोध) उसकी आवाज को 
दबाने में कामयाब नहीं होती । मुखालिफतों के बावुजूद वह अपने मिशन को मुकम्मल करता है। 
जो लोग हक की दावत के मुखालिफ बने वे अल्लाह की नजर में मुफसिद (उपद्रवी) हैं। क्योकि 
वे लोगों को जन्नत की तरफ जाने से रोकते हैं। इससे बड़ा कोई फसाद नहीं हो सकता कि खुदा 
के बंदों को खुदा की जन्नत की तरफ जाने से रोका जाए। 

हजरत मसीह यहूद कौम में पैदा हुए मगर यहूद ने आपकी नुबुव्वत नहीं मानी । उन्होंने 
आपको ख़त्म करने के लिए आपके ख़िलाफ झूठा मुकदमा बनाया और आपको फिलिस्तीन की 


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सूरह-3. आले इमरान I47 पारा 3 


रूमी अदालत में ले गए। अदालत से आपको सूली पर चढ़ाने का फैसला हो गया । मगर अल्लाह 
तआला ने आपको उठा लिया और रूमी सिपाहियों ने एक अन्य आदमी को आपके हमशक्ल 
पाकर उसे सूली दे दी। यहूद के इस जुर्म पर खुदा ने यह फैसला कर दिया कि हजरत मसीह 

को मानने वाली कौम कियामत तक यहूदी कौम पर गालिब रहेगी । यह यहूद और मसीही दोनों 

के साथ ख़ुदा का दुनिवायी मामला है। आख़िरत का मामला इसके अलावा है जो ख़ुदा की आम 
सुन्नत के तहत होगा। 


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बेशक ईसा की मिसाल अल्लाह के आदम की-सी है। अल्लाह ने उसे मिट्टी 

से बनाया। फिर उसको कहा कि हो जा तो वह हो गया। हक बात है तेरे रब की तरफ 

से। पस तुम न हो शक करने वालों में। फिर जो तुमसे इस बारे में हुज्जत करे बाद 
इसके कि तुम्हारे पास इलम आ चुका है तो उनसे कहो कि आओ, हम बुलाएं अपने 
बेटों को और तुम्हारे बेटों को, अपनी औरतों को और तुम्हारी औरतों को। और हम 
और तुम ख़ुद भी जमा हों। फिर हम मिलकर दुआ करें कि जो झूठा हो उस पर अल्लाह 
की लानत हो। बेशक यह सच्चा बयान है। और अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं 
और अल्लाह ही जबरदस्त है, हिक्मत वाला है। फिर अगर वे कुबूल न करें तो अल्लाह 
फसाद करने वालो को जानता है। (59-63) 


मसीही लोगों का अकीदा है कि हजरत मसीह (अलै०) खुदा के बेटे हैं। इनका कहना 
है कि हजरत मसीह आम इंसानों से बिल्कुल भिन्न हैं। उनका जन्म प्रजनन के आम नियम 
के विपरीत बाप के बगैर हुआ, फिर आपको आम इंसानों की तरह एक इंसान कैसे कहा जा 
सकता है। आपके जन्म की प्रक्रिया खुद बताती है कि वह बशर (आम इंसान) से मावरा थे। 
वह इंसान के बेटे नहीं बल्कि खुदा के बेटे थे। कहा गया कि तुम्हारे सवाल का जवाब अव्वल 
इंसान (आदम) को तख्नीक में मौजूद है। तुम ख़ुद यह मानते हो कि आदम सबसे पहले बशर 
हैं। वह मारूफ तरीके के मुताबिक मर्द और औरत के तअल्लुक से वजूद में नहीं आए । बल्कि 
बराहेरास्त खुदा के हुक्म के तहत वजूद मे आए। फिर बाप के बगैर पैदा होने की बुनियाद 
पर जब आदम ख़ुदा के बेटे नहीं हैं तो इसी तरह बाप के बगैर पैदा होने की बुनियाद पर 
मसीह कैसे ख़ुदा के बेटे हो जाएंगे। 

नजरान (यमन) कुरआन के नाजिल होने के जमाने मे मसीही मजहब का बहुत बझ 





सूरह-3. आले इमरान 


मकज था। उनके उलमा और पेशवाओं का एक वफ्द सन्‌ 9 हिजरी में मदीना आया और 
अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्ल०) से मसीही अकाइद के बारे में बहस की | आपने मुख़्तलिफ 
दलीलें उनके सामने पेश कीं। मसलन आपने फरमाया कि मसीह खुदा के बेटे कैसे हो सकते 
हैं जबकि ख़ुदा एक जिंदा हस्ती है, उस पर कभी मौत आने वाली नहीं। मगर ईसा पर मौत 
और फना आने वाली है। आपकी दलीलों का उन के पास कोई जवाब नहीं था मगर वे बराबर 
कजबहसी करते रहे। जब आपने देखा कि वे दलील से मानने वाले नहीं हैं तो आपने उन्हें 
एक आखिरी चैलेंज दिया। आपने फरमाया कि अगर तुम अपने को बरहक समझते हो तो 
मुबाहिला (एक-दूसरे पर लानत की बददुआ) के लिए तैयार हो जाओ। 

अगले दिन सुबह को आप बाहर निकले। आपके साथ आपके दोनों नवासे हसन और 
हुसैन थे। इनके पीछे हजरत फातिमा और इनके पीछे हजरत अली। नजरानी ईसाई यह 
देखकर मरऊब हो गए और आपस में मश्विरे की मोहलत मांगी। अकेले मश्विरे में उनके एक 
आलिम ने कहा : तुम जानते हो कि अल्लाह ने बनी इस्माईल में पैगम्बर भेजने का वादा किया 
है। हो सकता है कि यह वही पैगम्बर हों। फिर एक पैगम्बर से मुबाहिला और मुलाइना 
(मलऊन करना) करने का नतीजा यही निकल सकता है कि तुम्हारे छोटे और बड़े सब हलाक 
हो जाएं और नस्लों तक इसका असर बाकी रहे। खुदा की कसम मैं ऐसे चेहरे देख रहा हूं 
कि अगर ये दुआ करें तो पहाड़ भी अपनी जगह से टल जाएंगे। इसलिए बेहतर यह है कि 
हम उनसे सुलह करके अपनी बस्तियां की तरफ रवाना हो जाएं। 


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पारा 3 48 





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सूरह-3. आले इमरान I49 पारा 3 


कहो ऐ अहले किताब, आओ एक ऐसी बात की तरफ जो हमारे और तुम्हारे दर्मियान 
मुसल्लम (साझी) है कि हम अल्लाह के सिवा किसी की इबादत न करें और अल्लाह 
के साथ किसी को शरीक न ठहराएं। और हममें से कोई किसी दूसरे को अल्लाह के 
सिवा रब न बनाए। फिर अगर वे इससे मुंह मोड़ें तो कह दो कि तुम गवाह रहो, हम 
फरमांबरदार हैं। ऐ अहले किताब, तुम इब्राहीम के बारे में क्यों झगड़ते हो। हालांकि 
तौरात और इंजील तो उसके बाद उतरी हैं। क्या तुम इसे नहीं समझते। तुम वे लोग 
हो कि तुम उस बात के बारे में झगड़े जिसका तुम्हें कुछ इलम था। अब तुम ऐसी बात 
में क्यों झगड़ते हो जिसका तुम्हें कोई इलम नहीं। और अल्लाह जानता है, तुम नहीं 
जानते। इब्राहीम न यहूदी था और न नसरानी। बल्कि सिर्फ अल्लाह का ही रहने वाला 
मुस्लिम था और वह शिक करने वालों में से न था। लोगों में ज्यादा मुनासिबत इब्राहीम 

से उन्हें है जिन्होंने उसकी पैरवी की और यह पेग़म्बर और जो उस पर ईमान लाए। और 
अल्लाह ईमान वालों का साथी है। अहले किताब में से एक गिरोह चाहता है कि किसी 
तरह तुम्हें गुमराह कर दे। हालांकि वे नहीं गुमराह करते मगर खुद अपने आपको। मगर 
वे इसका एहसास नहीं करते। ऐ अहले किताब, अल्लाह की निशानियों का क्यों इंकार 
करते हो हालांकि तुम गवाह हो। ऐ अहले किताब, तुम क्यों सही में ग़लत को मिलाते 
हो और हक को छुपाते हो, हालांकि तुम जानते हो। (64-77) 


तौहीद न सिफ पैग़म्बरों की असल तालीम है बल्कि तौरात और इंजील के मौजूदा 
गैर-मुस्तनद (अप्रमाणिक) नुरखों में भी वह एक मुसल्लम हकीकत के तौर पर मौजूद है। इस 
मुसल्लमा मेयार (मापदंड) पर जांचा जाए तो इस्लाम ही कामिल तौर पर सही दीन साबित 
होता है न कि यहूदियत और नसरानियत। तौहीद का मतलब यह है कि अल्लाह को एक 
माना जाए। सिर्फ उसी की इबादत को जाए। उसके साथ किसी को शरीक न ठहराया जाए। 
किसी इंसान को वह मकाम न दिया जाए जो कायनात के मालिक के लिए ख़ास है। यह 
तौहीद अपनी ख़लिस सूरत में सिर्फ कुरआन और इस्लाम में महफूज है। दूसरे मजहबों ने 
नजरी तौर पर तौहीद का इकरार करते हुए अमली तौर पर वह सब कुछ इख़्तियार कर लिया 
जो तौहीद के सरासर खिलाफ था। जबान से ख़ुदा को रब कहते हुए उन्होंने अपने नबियों 
और बुजुर्गों को अमलन रब का दर्जा दे दिया। 

मक्का के मुशरिकीन अपने मजहब को इब्राहीमी मजहब कहते थे। यहूद व नसारा भी 
अपने मजहबी इतिहास को हजरत इब्राहीम के साथ जोड़ते थे। हर जमाने के लोग इसी तरह 
अपने नबियों और बुजुर्गों के नाम को अपनी बिदआत (कुरीतियोँ) और तहरीफात (संशोधनां, 
परिवर्तनों) के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं। जमाना गुजरने के बाद इनका बनाया हुआ मजहब 
अवाम के जेहनों में इस तरह छा जाता है कि वे उसी को असल मजहब समझने लगते हैं। इन 
हालात में जब सच्चे और बेआमेज (विशुद्ध) दीन की दावत उठती है तो उसके विरोधी इसे 
बेएतबार साबित करने के लिए सबसे आसान तरीका यह समझते हैं कि अवाम में यह मशहूर 
कर दें कि यह अस्लाफ (पूर्वजों) के दीन के खिलाफ है। वह शख्स जो अस्लाफ के दीन का 
हकीकी नुमाइंदा होता है उसे खुद अस्लाफ ही के नाम पर रद्द कर दिया जाता है। यह गोया 








पारा 3 I50 सूरह-3. आले इमरान 


हक के ऊपर बातिल (असत्य) का पर्दा डालना है। यानी ऐसी बातें कहना जो अपनी मूल प्रकृति 
में बेहकीकत हों मगर अवाम तज्जिया (विश्लेषण) न कर सकने की वजह से इसे दुरुस्त समझ 

लें और हक से दूर हो जाएं। “मुस्लिम हनीफ' वह है जो तौहीद के रास्ते पर यकसू होकर चले 
और गैर-हनीफ वह है जो दाएं या बाएं की पगडंडियों पर मुड़ जाए। कोई एक जेली पहलू (उप 
पहलू) को लेकर इतना बढ़ाए कि उसी को सब कुछ बना दे। कोई दूसरे जेली पहलू को लेकर 
उस पर इतने तशरीही (व्याख्यागत) इजाफे करे कि वही सारी हकीकत नजर आने लगे। लोग 

दीन के जेली पहलुओं को कुल दीन समझ लें और तौहीद की सीधी शाहराह को छोड़कर 
इधर-उधर के रास्तों में दौड़ने लगें। 


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और अहले किताब के एक गिरोह ने कहा कि मुसलमानों पर जो चीज उतारी गई है उस 
पर सुबह को ईमान लाओ और शाम को उसका इंकार कर दो, शायद कि मुसलमान भी 
इससे फिर जाएं। और यकीन न करो मगर सिर्फ उसका जो चले तुम्हारे दीन पर। कहो 
हिदायत वही है जो अल्लाह हिदायत करे। और यह उसी की देन है कि किसी को वही 
कुछ दे दिया जाए जो तुम्हें दिया गया था। या वे तुमसे तुम्हारे रब के यहां हुज्जत करें। 
कहो बड़ाई अल्लाह के हाथ में है। वह जिसे चाहता है देता है और अल्लाह बड़ा वुस्अत 
वाला है, इलम वाला है। वह जिसे चाहता है अपनी रहमत के लिए ख़ास कर लेता है। 
और अल्लाह बड़ा फज्ल वाला है। और अहले किताब में कोई ऐसा भी है कि अगर तुम 

उसके पास अमानत का ढेर रखो तो वह उसे तुम्हें अदा कर दे। और इनमें कोई ऐसा है 
कि अगर तुम उसके पास एक दीनार अमानत रख दो तो वह तुम्हें अदा न करे इल्ला यह 
कि तुम उसके सिर पर खड़े हो जाओ, यह इस सबब से कि वे कहते हैं कि गैर-अहले 
किताब के बारे में हम पर कोई इल्जाम नहीं। और वे अल्लाह के ऊपर झूठ लगाते हैं 


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सूरह-3. आले इमरान I5I पारा 3 


हालांकि वे जानते हैं। बल्कि जो शख्स अपने अहद को पूरा करे और अल्लाह से डरे तो 
बेशक अल्लाह ऐसे मुत्तकियां को दोस्त रखता है। (72-76) 





एक गिरोह जिसमें अंबिया और सुलहा (महापुरुष) पैदा हुए हों, जिसके दर्मियान अर्से तक 
दीन का चर्चा रहे, अक्सर वह इस ग़लतफहमी में पड़ जाता है कि वह और हक दोनों एक हैं। 
वह हिदायत को एक गिरोही चीज समझ लेता है न कि एक उसूली चीज। यहूद का मामला यही 
था। उनका जेहन, तारीखी रिवायतों के असर से यह बन गया था कि जो हमारे गिरोह में है वह 
हिदायत पर है और जो हमारे गिरोह से बाहर है वह हिदायत से ख़ाली है। जो लोग हक को इस 
तरह गिरोही चीज समझ लें वे ऐसी सदाकत (सच्चाई) को मानने के लिए तैयार नहीं होते जो 
उनके गिरोह के बाहर जाहिर हुई हो। वे भूल जाते हैं कि हक वह है जो अल्लाह की तरफ से 
आए न कि वह जो किसी शख्स या गिरोह की तरफ से मिले। वे अगरचे खुदा के दीन का नाम 
लेते हैं मगर उनका दीन हकीकत में गिरोहपरस्ती होता है न कि खुदापरस्ती । उनका यह मिजाज 
उनकी आंख पर ऐसा पर्दा डाल देता है कि अपने गिरोह से बाहर किसी का फज्ल व कमाल 
उन्हें दिखाई नहीं देता। खुली-खुली दलीलें सामने आने के बाद भी वे इसे शुबह की नजर से 
देखते हैं। वे अपने हलके से बाहर उठने वाली हक की दावत के शदीद मुखालिफ बन जाते हैं। 
दोअमली का तरीका अपना कर वे इसे ख़त्म करने की कोशिश करते हैं। बेबुनियाद बातें मशहूर 
करके वे लोगों को इसकी सदाकत के बारे में मुशतबह (भ्रमित) करते हैं। शरीअते ख़ुदावंदी के 
सरासर खिलाफ वे इसे अपने लिए जाइज कर लेते हैं कि वे अख्लाक के दो मेयार बनाएं, एक 
गैरों के लिए और दूसरा अपने गिरोह के लिए। 

किसी को अपने दीन की नुमाइंदगी के लिए कुबूल करना अल्लाह की खुसूसी रहमत 
है। इसका फैसला गिरोही बुनियाद पर नहीं होता। यह सआदत उसे मिलती है जिसे अल्लाह 
अपने इल्म के मुताबिक पसंद करे। और अल्लाह उस शख्स को पसंद करता है जो अल्लाह 
के साथ अपने को इस तरह वाबस्ता कर ले कि वह उसका निगरां (संरक्षक) बन जाए, जिससे 
वह डरे, वह उसका आका बन जाए जिसके साथ किए हुए इताअत के अहद को वह कभी 
नजरअंदाज न कर सके। अल्लाह के मकबूल बे वे हैं जो अमानत को पूरा करने वाले हों 
और अहद (वचन) के पाबंद हों। ऐसे ही लोगों पर अल्लाह की रहमतें उतरती हैं। इसके 
बरअक्स जो लोग अमानत की अदायगी के मामले में बेपरवाह हों और अहद को पूरा करने 
में हस्सास न रहें वे अल्लाह के यहां बेकीमत हैं। ऐसे लोग अल्लाह की रहमतों और नुसरतों 
(मदद) से दूर कर दिए जाते हैं। 


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पारा 3 I52 सूरह-3. आले इमरान 


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जो लोग अल्लाह के अहद और अपनी कसमाँ को थोडी कीमत पर बेचते हैं उनके लिए 
आखिरत में कोई हिस्सा नहीं। अल्लाह न उनसे बात करेगा न उनकी तरफ देखेगा 
कियामत के दिन, और न उन्हें पाक करेगा। और उनके लिए दर्दनाक अजाब है। और 
इनमें कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपनी जबानों को किताब में मोडते हैं ताकि तुम उसे 
किताब में से समझो हालांकि वह किताब में से नहीं। और वे कहते हैं कि यह अल्लाह 
की जानिब से है हालांकि वह अल्लाह की जानिब से नहीं। और वे जान कर अल्लाह 
पर झूठ बोलते हैं। किसी इंसान का यह काम नहीं कि अल्लाह उसे किताब और हिक्मत 
और नुबुब्वत दे और वह लोगों से यह कहे कि तुम अल्लाह को छोड़कर मेरे बंदे बन 
जाओ। बल्कि वह तो कहेगा कि तुम अल्लाह वाले बनो, इस वास्ते कि तुम दूसरों को 
किताब की तालीम देते हो और ख़ुद भी उसे पढ़ते हो। और न वह तुम्हें यह हुक्म देगा 


कि तुम फरिश्ता और पेग़म्बरों को रब बनाओ। क्या वह तुम्हें कुफ्र का हुक्म देगा, बाद 
इसके कि तुम इस्लाम ला चुके हो। (77-80) 





डर 


एक शख्स जब ईमान लाता है तो वह अल्लाह से इस बात का अहद करता है कि वह 
उसकी फरमांबरदारी करेगा और बंदों के दर्मियान जिंदगी गुजारते हुए उन तमाम जिम्मेदारियोँ 
को पूरा करेगा जो ख़ुदा की शरीअत की तरफ से उस पर आयद होती हैं। यह एक पाबंद 
जिंदगी है जिसे अहद (वचन, प्रतिज्ञा, प्रतिबद्धता) की जिंदगी से ताबीर किया जा सकता है। 
इस जिंदगी पर कायम होने के लिए नपस की आजादियो को ख़म करना पड़ता है, बार-बार 
अपने फायदों और मस्लेहतों की कुर्बानी देनी पड़ती है। इसलिए इस अहद की जिंदगी को वही 
शख्स निभा सकता है जो नफा नुक्सान से बेनियाज होकर इसे अपनाए । जिस शख्स का हाल 
यह हो कि नफ्स पर चोट पड़े या दुनिया का मफाद ख़तरे में नजर आए तो वह खुदा के अहद 
को नजरअंदाज कर दे और अपने फायदों और मस्लेहताँ की तरफ झुक जाए, उसने गोया 
आखिरत को देकर दुनिया ख़रीदी। जब आख़िरत के पहलू और दुनिया के पहलू में से किसी 
एक को लेने का सवाल आया तो उसने दुनिया के पहलू को तरजीह दी। जो शख्स आख़िरत 
को इतनी बेकीमत चीज समझ ले वह आख़िरत में अल्लाह की इनायतों का हकदार किस तरह 
हो सकता है। 

जो लोग आख़िरत को अपनी दुनिया का सौदा बनाएं वे दीन या आखिरत के मुंकिर नहीं 
हो जाते बल्कि दीन और आखिरत के पूरे इकरार के साथ ऐसा करते हैं। फिर इन दो मुतजाद 
(परस्पर विरोधी) रवैयों को वे किस तरह एक-दूसरे के मुताबिक बनाते हैं। इसका जरिया 


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सूरह-3. आले इमरान I53 पारा 3 


तहरीफ (संशोधन, परिवर्तन) है। यानी आसमानी तालीमात को ख़ुदसाख़्ता मअना पहनाना । ऐसे 
लोग अपनी दुनियापरस्ताना रविश को आखिरतपसंदी और ख़ुदापरस्ती साबित करने के लिए 
दीनी तालीमात को अपने मुताबिक ढाल लेते हैं। कभी खुदा के अल्फाज को बदल कर और 
कभी खुदा के अल्फाज की अपने मुफीदे मतलब तशरीह करके । वे अपने आप को बदलने की 
बजाए किताबे इलाही को बदल देते हैं ताकि जो चीज किताबे इलाही में नहीं है उसे ऐन किताबे 
इलाही की चीज बना दें, अपनी बेखुदा जिंदगी को बाखुदा जिंदगी साबित कर दिखाएं। अल्लाह 
के नजदीक यह बदतरीन जुर्म है कि आदमी अल्लाह की तरफ ऐसी बात मंसूब करे जो अल्लाह 
ने न कही हो। 

किसी तालीम की सदाकत की सादा और यकीनी पहचान यह है कि वह अल्लाह के बंदों 
को अल्लाह से मिलाए, लोगों के ख़फ व मुहब्बत के जज्बात को बेदार करके उन्हें अल्लाह 
की तरफ मोड़ दे। इसके बरअक्स जो तालीम शख्सियतपरस्ती या और कोई परस्ती पैदा करे, 
जो इंसान के नाजुक जज्बात की तवज्जोह का मर्कज किसी गैर-खुदा को बनाती हो, उसके 
बारे में समझना चाहिए की वह सरासर बातिल (असत्य) है चाहे बजाहिर अपने ऊपर उसने 
हक का लेबल क्यों न लगा रखा हो। 


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पारा 3 I54 सूरह-3. आले इमरान 


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और जब अल्लाह ने पेग़म्बरों का अहद लिया कि जो कुछ मैने तुम्हें किताब और हिक्मत 
दी, फिर तुम्हारे पास पेग़म्बर आए जो सच्चा साबित करे उन पेशेनगोइयों (भविष्यवाणियों) 
को जो तुम्हारे पास हैं तो तुम उस पर ईमान लाओगे और उसकी मदद करोगे। अल्लाह 
ने कहा क्या तुमने इकरार किया और उस पर मेरा अहद कुबूल किया। उन्होंने कहा 

हम इकरार करते हैं। फरमाया अब गवाह रहो और में भी तुम्हारे साथ गवाह हूं। पस 

जो शख्स फिर जाए तो ऐसे ही लोग नाफरमान हैं। क्या ये लोग अल्लाह के दीन के 
सिवा कोई और दीन चाहते हैं। हालांकि उसी के हुक्म में है जो कोई आसमान और 
जमीन में है, खुशी से या नाखुशी से और सब उसी की तरफ लोटाए जाएँगे। कहो 

हम अल्लाह पर ईमान लाए और उस पर जो हमारे ऊपर उतारा गया है और जो उतारा 
गया इब्राहीम पर इस्माईल पर इसहाक पर और याकूब पर और याकूब की ओलाद पर। 

और जो दिया गया मूसा और ईसा और दूसरे नबियों को उनके रब की तरफ से। हम 
इनके दर्मियान फर्क नहीं करते। और हम उसी के फरमांबरदार हैं। और जो शरस 

इस्लाम के सिवा किसी दूसरे दीन को चाहेगा तो वह उससे हरगिज कुबूल नहीं किया 
जाएगा और वह आख़िरत में नामुरादों में से होगा। अल्लाह क्योंकर ऐसे लोगों को 
हिदायत देगा जो ईमान लोने के बाद मुंकिर हो गए। हालांकि वे गवाही दे चुके कि 
यह रसूल बरहक है और उनके पास रोशन निशानियां आ चुकी हैं। और अल्लाह 
जालिमों को हिदायत नहीं देता। ऐसे लोगों की सजा यह है कि उन पर अल्लाह की, 

उसके फरिश्तों की और सारे इंसानों की लानत होगी। वे इसमें हमेशा रहेंगे, न उनका 
अजाब हल्का किया जाएगा और न उन्हें मोहलत दी जाएगी। अलबत्ता जो लोग इसके 
बाद तौबा कर लें और अपनी इस्लाह कर लें तो बेशक अल्लाह बख्शने वाला, महरबान 
है। बेशक जो लोग ईमान लाने के बाद मुंकिर हो गए फिर कुफ्र में बढ़ते रहे, उनकी 
तौबा हरगिज कुबूल न की जाएगी और यही लोग गुमराह हैं। बेशक जिन लोगों ने 

इंकार किया और इंकार की हालत में मर गए, अगर वे जमीन भर सोना भी फिदये 

में दें तो कुबूल नहीं किया जाएगा। उनके लिए दर्दनाक अजाब है और उनका कोई 
मददगार न होगा। (8.-9]) 


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सूरह-3. आले इमरान I55 पारा 4 


अल्लाह को पाना एक अबदी (शाश्वत) हकीकत को पाना है, यह पूरी कायनात का 
हमसफर बनना है। जो लोग इस तरह अल्लाह को पा लें वे हर किस्म के तअस्सुबात (विद्वेषं 
से ऊपर उठ जाते हैं। वे हक को हर हाल में पहचान लेते हैं चाहे उसका पेगाम 'इस्राईली पैग़म्बर' 
की जबान से बुलंद हो या इस्माईली पैगम्बर? की जबान से। मगर जो लोग गिरोहपरस्ती की 
सतह पर जी रहे हें हक उन्हें हक की सूरत मेसिर्फउस वकत नजर आता है जबकि वह उनके 
अपने गिरोह के किसी फर्द की तरफ से आए। अल्लाह अगर इनके गिरोह से बाहर किसी शख्स 
को अपने पैगाम की पेगामरसानी के लिए उठाए तो ऐसा पैगाम उनके जेहन का जुज नहीं 
बनता। यहां तक कि उस वक्‍त भी नहीं जबकि उनका दिल उसके हक व सदाकत होने की 
गवाही दे रहा हो। ऐसे लोग चाहे अपने को मानने वालों में शुमार करें मगर अल्लाह के यहां 
इनका नाम न मानने वालों में लिखा जाता है। क्योंकि उन्होंने हक को अपने गिरोह की निस्बत 
से जाना न कि अल्लाह की निस्वत से। ऐसे हक का इकरार न करना जिसके हक होने पर 
आदमी के दिल ने गवाही दी हो अल्लाह के नजदीक बदतरीन जुर्म है। ऐसे लोग आखिरत में 
इतने जलील होंगे कि अल्लाह और उसकी तमाम मख्लूकात उन पर लानत करेगी । अपने से 
बाहर जाहिर हेने वाले हक का एतराफ न करना बजाहिर अपने ईमान को बचाना है। मगर 
हकीकत में यह अपने ईमान को बर्बाद करना है। अल्लाह का मोमिन बंदा अल्लाह के मुसलसल 
फैजान में जीता है। फिर जो शख्स अपने को खुदपरस्ती और गिरोहपरस्ती के खोल में बंद कर 
ले उसके अंदर अल्लाह का फैजान किस रास्ते से दाखिल होगा। और अल्लाह के फैजान से 
महरूमी के बाद वह क्या चीज होगी जो उसके ईमान की परवरिश करे। 
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पारा 4 I56 सूरह-3. आले इमरान 


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तुम हरगिज नेकी के मर्तबे को नहीं पहुंच सकते जब तक तुम उन चीजों में से ख़र्च न 
करो जिन्हें तुम महबूब रखते हो। और जो चीज भी तुम खर्च करोगे उससे अल्लाह 
बाखबर है। सब खाने की चीजें बनी इस्राईल के लिए हलाल थीं सिवाए उसके जो 
इस्राईल ने अपने ऊपर हराम कर लिया था इससे पहले कि तौरात उतरे। कहो कि 
तौरात लाओ और उसे पढ़ो, अगर तुम सच्चे हो। इसके बाद भी जो लोग अल्लाह पर 
झूठ बांधे वही जालिम हैं। कहो अल्लाह ने सच कहा। अब इब्राहीम के दीन की पैरवी 
करो जो हनीफ था और वह शिक करने वाला न था। बेशक पहला घर जो लोगों के 
लिए बनाया गया वह वही है जो मक्का में है, बरकत वाला और सारे जहान के लिए 
हिदायत का मर्कज। इसमें खुली हुई निशानियां हैं, मकामे इब्राहीम है, जो इसमें 
दाखिल हो जाए वह मामून (सुरक्षित) है। और लोगों पर अल्लाह का यह हक है कि 
जो इस घर तक पहुंचने की ताकत रखता हो वह इसका हज करे और जो कोई मुंकिर 
हुआ तो अल्लाह तमाम दुनिया वालों से बेनियाज है। कहो ऐ अहले किताब तुम क्यों 
अल्लाह की निशानियों का इंकार करते हो। हालांकि अल्लाह देख रहा है जो कुछ तुम 
करते हो। कहो ऐ अहले किताब तुम ईमान लाने वालों को अल्लाह की राह से क्यों 
रोकते हो। तुम उसमें ऐब टूंठते हो। हालांकि तुम गवाह बनाए गए हो। और अल्लाह 
तुम्हारे कामों से बेखबर नहीं। (92-99) 


यहूद के उलमा ने ख़ुद से जो फिवह बना रखी थी उसमें ऊंट और खरगोश का गोश्त खाना 
हराम था जबकि इस्लाम में वह जाइज था। अब यहूद यह कहते कि इस्लाम अगर खुदा का 
उतारा हुआ दीन है तो इसमें भी हराम व हलाल के मसाइल वही क्यों नहीं जो पिछले जमाने में 
उतारे हुए खुदा के दीन में थे। इसी तरह वे कहते कि बैतुल मक्दिस अब तक तमाम नबियों की 
इबादत का किबला रहा है। फिर यह कैसे हो सकता है कि ख़ुदा ऐसा दीन उतारे जिसमें इसे 
छोड़कर काबा को किबला करार दिया गया हो। 

हक की दावत जब अपनी ख़ालिस शक्ल में उठती है तो उन लोगों पर इसकी जद पड़ने 
लगती है जो ख़ुदा के दीन के नाम पर अपना एक दीन अवाम में राइज किए हुए हों। ऐसे लोग 
इसके मुखालिफ हो जाते हैं और लोगों को हक की दावत से फेरने के लिए तरह-तरह के एतराज 
निकालते हैं। उनके ख़ुदासाख््ता (स्वनिर्मित) दीन में दीन के असासयात (मूल आधारो) पर जोर 
बाकी नहीं रहता। इसके बजाए दीन के जुजयात (अमैलिक चीजे में मूशिगाफियों से दीनदारी 
का एक जहिरी ढांचा बन जाता है। आदमी की हकीकी जिगी कैसी ही हो नेकी और तकवा 
का कमाल यह समझा जाने लगता है कि वह इस जाहिरी ढांचे का खूब एहतेमाम करे। वह 
'ख़रगोश' को यह कहकर न खाए कि हमारे अकाबिर (पूर्ववर्ती पूर्वज) इससे बचते थे। दूसरी 
तरफ वह कितनी ही हराम चीजें को अपने लिए जाइज किए हुए हो। वह बेतुल मविदस की 
तरफ रुख़ करने में कुतुबनुमा की सूई की तरह सीधा हो जाना जरूरी समझता हो। 


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सूरह-3. आले इमरान I57 पारा 4 


मगर सुबह व शाम की सरगर्मियों को खुदा रुख़ी बनाने में उसे दिलचस्पी न हो। मगर 
नेकी का दर्जा किसी को कुर्बानी से मिलता है न कि सस्ती जाहिरदारियों से। खुदा का नेक 
बंदा वह है जो अपनी मुहब्बत का हदिया अपने रब को पेश करे, जिसके लिए अल्लाह के 
मुकबले में नेया की कोई चीज अजीजतर न रहे। हक को मानने के लिए जब वकार 
(प्रतिष्ठा) की कीमत देनी हो, अल्लाह के रास्ते में बढ़ने के लिए जब माल ख़र्च करना हो और 
बच्चों के मुस्तकबिल को ख़तरे में डालना पड़े, उस वक्‍त वह अल्लाह की ख़ातिर सब कुछ 
गवारा कर ले। ऐसे नाजुक मौकों पर जो शख़्स अपनी महबूब चीजों को देकर अल्लाह को 
ले ले वही नेक और ख़ुदापरस्त बना। 


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ऐ ईमान वालो अगर तुम अहले किताब में से एक गिरोह की बात मान लोगे तो वे 
तुम्हें ईमान के बाद फिर मुंकिर बना देंगे। और तुम किस तरह इंकार करोगे हालांकि 
तुम्हें अल्लाह की आयतें सुनाई जा रही हैं और तुम्हारे दर्मियान उसका रसूल मौजूद है। 
और जो शख्स अल्लाह को मजबूती से पकड़ेगा तो वह पहुंच गया सीधी राह पर। ऐ 
ईमान वालो, अल्लाह से डरो जैसा कि उससे डरना चाहिए। और तुम्हें मौत न आए 
मगर इस हाल में कि तुम मुस्लिम हो। और सब मिलकर अल्लाह की रस्सी को मजबूत 
पकड़ लो और फूट न डालो। और अल्लाह का यह इनाम अपने ऊपर याद रखो कि 
तुम एक-दूसरे के दुश्मन थे। फिर उसने तुम्हारे दिलों में उल्फत डाल दी। पस तुम उसके 
फज्ल से भाई-भाई बन गए। और तुम आग के गढ़े के किनारे खड़े थे तो अल्लाह ने 

तुम्हें उससे बचा लिया। इस तरह अल्लाह तुम्हारे लिए अपनी निशानियां बयान करता 
है ताकि तुम राह पाओ। (00-03) 





दुनिया आजमाइश की जगह है। यहां हर वक्‍त यह ख़तरा है कि शैतान आदमी के ईमान 
को उचक ले जाए और फरिशते उसकी रूह इस हाल में कब्ज करें कि वह ईमान से ख़ाली हो। 


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पारा 4 I58 सूरह-3. आले इमरान 


इसलिए जरूरी है कि आदमी हर वक्त बाहोश रहे, वह अपने आप पर निगरां बन जाए। ईमान 
से दूर होने की एक सूरत वह है जबकि दीन के अजजा (अंगों) में तब्दीली करके अहम को 
गैर-अहम और गैर-अहम को अहम बना दिया जाए। दीन की असल रस्सी तकवा है। यानी 
अल्लाह से डरना और मरते दम तक अपने हर मामले में वही रवैया अपनाना जो अल्लाह के 
सामने जवाबदही के तसवुर (धारणा) से बनता हो, यही सिराते मुस्तकीम (सीधा-सच्चा रास्ता, 
सन्मार्ग) है। इससे हटना यह है कि 'तकवा' के बजाए, किसी और चीज को दीन का मदार समझ 
लिया जाए और उस पर इस तरह जोर दिया जाए जिस तरह ख़ुदा के ख़फ और आख़िरत की 
फिक्र पर दिया जाता है। जब भी दीन में इस किस्म की तबीली की जाती है तो इसका लाजिमी 
नतीजा यह होता है कि मिल्लत के दर्मियान इख़्तेलाफ (मतभेद) पड़ जाता है। कोई एक जिमनी 
(उप, पूरक) चीज पर जेर देता है कोई दूसरी जिमनी चीज पर, और इस तरह मिल्लत 
फिरकेफिरके मे बंट कर रह जाती है। ऊपर वर्णित पहले से एक अल्लाह तवज्जोह का मर्क 
बनता है और दूसरे से विविध मसाइल तवज्जोह के मकज बन जाते हैं। जब दीन में सारा जोर 
और ताकीद तकवा (अल्लाह से डरना) पर दिया जाए तो इससे आपस में इत्तेहाद वजूद में आता 
है और जब इसके सिवा दूसरी चीजें पर जोर दिया जाने लगे तो इससे आपसी इलेलाफ 
(मतभेद) की वह बुराई पैदा होती है जो लोगों को जहन्नम के किनारे पहुंचा देती है। किसी गिरोह 
के अंदर इन्ेलाफ दुनिया में भी अजाब है और आहरत में भी अजाब। 

इस्लाम से पहले मदीने में दो कबीले थे। औस और ख़जरज । ये दोनों अरब कबीले थे 
मगर वे आपस में लड़ते रहते थे। इन आपसी लड़ाइयों ने उन्हें कमजोर कर दिया था। जब 
वे इस्लाम के दायरे में दाखिल हुए तो उनकी लड़ाइयां ख़त्म हो गई, वे भाई-भाई की तरह 
मिलकर रहने लगे। 

इसकी वजह यह है कि गैर-इस्लाम में हर आदमी अपना वफादार रहता है और इस्लाम 
में सिर्फ एक अल्लाह का। जिस समाज में लोग अपने या अपने गिरोह के वफादार हों वहां 
कुदरती तौर पर कई वफादारियां वजूद में आती हैं। और कई वफादारियों के अमली नतीजे 
ही का नाम इख़्तेलाफ और टकराव है। इसके बरअक्स जिस समाज में तमाम लोग एक ख़ुदा 
के वफादार बन जाएं वहां सबका रुख़ एक मर्कज की तरफ हो जाता है, सब एक रस्सी से 
बंध जाते हैं। इस तरह आपसी इख़्तेलाफ और टकराव के असबाब अपने आप ही ख़त्म हो 
जाते हैं। 


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सूरह-3. आले इमरान I59 पारा 4 


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और जरूर है कि तुममें एक गिरोह हो जो नेकी की तरफ बुलाए, भलाई का हुक्म दे 

और बुराई से रोके और ऐसे ही लोग कामयाब होंगे। और उन लोगों की तरह न हो 
जाना जो फिरकों में बट गए और आपस में इख़्तेलाफ (मतभेद) कर लिया बाद इसके 

कि उनके पास वाजेह हुक्म आ चुके थे। और उनके लिए बड़ा अजाब है। जिस दिन 

कुछ चेहरे रोशन होंगे और कुछ चेहरे काले होंगे, तो जिनके चेहरे काले होंगे उनसे कहा 
जाएगा क्या तुम अपने ईमान के बाद मुंकिर हो गए, तो अब चखो अजाब अपने कुफ्र 

के सबब से। और जिनके चेहरे रोशन होंगे वे अल्लाह की रहमत में होंगे, वे उसमें हमेशा 
रहेंगे। ये अल्लाह की आयते हैं जो हम तुम्हें हक के साथ सुना रहे हैं और अल्लाह जहान 
वालों पर जुल्म नहीं चाहता। और जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ जमीन में है 

सब अल्लाह के लिए है और सारे मामलात अल्लाह ही की तरफ लौटाए जाएऐंगे। 
(04-09) 





'तुममें एक गिरोह हो जो नेकी की तरफ बुलाए, भलाई का हुक्म दे और बुराई से रोके' 
यह इर्शाद एक साथ दो बातों को बता रहा है। एक का तअल्लुक ख़वास (विशिष्टजनों) से 
है और दूसरी का तअल्लुक अवाम (जनसाधारण) से। उम्मत के ख़वास के अंदर यह रूह होनी 
चाहिए कि वे उम्मत के अंदर बुराई को बर्दाशत न करें, वे नेकी और भलाई के लिए तड़पने 
वाले हों उनका यह इस्लाह का जज्बा उन्हें मजबूर करेगा कि वे लोगों के अहवाल से 
औैर-मुतअल्लिक न रहें वे अपने भाइयों को नेकी की राह पर चलने के लिए उकसाऐं और उन्हें 
बुराई से बचने की तलकीन करें। 

ताहम इस अमल की कामयाबी के लिए उम्मत के अवाम के अंदर इताअत (आज्ञापालन) 
का जज्बा होना भी लाजिमन जरूरी है। अवाम को चाहिए कि वे अपने ख़वास का एहतेराम 
करें। वे उनके कहने से चलें और जहां वे रोकें वहां वे रुक जाएऐं। वे अपने आपको अपनी 
दीनी जिम्मेदारियों के हवाले कर दें। जिस मुस्लिम गिरोह में ख़ास और अवाम का यह हाल 
हो वही फलाह पाने वाला गिरोह है। समअ और ताअत (आज्ञापालन और अनुशासन) की इस 
फिजा ही में किसी समाज के अंदर वे औसाफ (गुण) जन्म लेते हैं जो उसे दुनिया में ताकतवर 
और आख़िरत में नजातयाफता बनाते हैं। 

खवास के अंदर इस रूह के जिंदा होने का यह फायदा है कि उनकी सारी तवज्जोह खैर, 
दूसरे अल्फाज में दीन की बुनियादों पर केंद्रित रहती है। अमौलिक मसाइल में मूशिगाफियां 
करने का उनके पास वक्‍त ही नहीं होता। जो लोग खुदा की अज्मतों के नकीब बनें और 
आखिरत को कामयाबी को बशारत (शुभ सूचना) देने वाले बन कर उठें उनके पास इतना 
ववत ही नहीं होता कि जाहिरी मसाइल के जुज्यात (अमोलिक अंशो) में अपनी महारत 
दिखाएं । इसके साथ 'अम्र बिल मारूफ व नही अनिल मुंकर' (नेकियों का हुक्म देना, बुराइयों 





पारा 4 I60 सूरह-3. आले इमरान 


से रोकना) का काम उन्हें हकीकी मसाइल के हल में लगा देता है। फी और कयासी 
(काल्पनिक) मसाइल में जेहनी वरजिश करना उन्हें उसी तरह बेमअना और बेफायदा मालूम 
होने लगता है जिस तरह एक किसान को शतरंज का खेल। 
अवाम को इस निजामे इताअत पर अपने को राजी करने का यह फायदा मिलता है कि 
वे टुकड़ों में बंटने से बच जाते हैं। एक हुक्म के तहत चलने के नतीजे में सब मिलकर एक 
हो जाते हैं। इत्तेहाद व इत्तेफाक (एकता-एकजुटता) उनकी आम सिफत बन जाती है और 
बिला शुबह इत्तेहाद व इत्तेफाक से ज्यादा बै ताकत इस दुनिया में कोई नहीं। 


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अब तुम बेहतरीन गिरोह हो जिसे लोगों के लिए निकाला गया है। तुम भलाई का हुक्म 
देते हो और बुराई से रोकते हो और अल्लाह पर ईमान रखते हो और अगर अहले 
किताब भी ईमान लाते तो उनके लिए बेहतर होता। इनमें से कुछ ईमान वाले हैं और 
इनमें अक्सर नाफरमान हैं। वे तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं सकते मगर कुछ सताना। और 
अगर वे तुमसे मुकाबला करेंगे तो तुम्हें पीठ दिखाएंगे। फिर उन्हें मदद भी न पहुंचेगी 
और उन पर मुसल्लत कर दी गई जिल्लत चाहे वे कहीं भी पाए जाएं, सिवा इसके कि 
अल्लाह की तरफ से कोई अहद (वचन) हो या लोगों की तरफ से कोई अहद हो और 
वे अल्लाह के गजब के मुस्तहिक हो गए और उन पर मुसल्लत कर दी गई पस्ती, यह 
इसलिए कि वे अल्लाह की निशानियों का इंकार करते रहे और उन्होंने पैग़म्बरों को 
नाहक कत्ल किया। यह इस सबब से हुआ कि उन्होंने नाफरमानी की और वे हद से 
निकल जाते थे। (20-22) 


यहूद खुदाई दीन के हामिल (धारक) बनाए गए थे। मगर वे इसे लेकर खड़े न हो सके 
और इसे महफूज रखने में भी नाकाम रहे। इसके बाद अल्लाह ने मुहम्मद (सल्ल०) के जरिए 
अपना दीन उसकी सही सूरत में भेजा। अब मुस्लिम उम्मत लोगों के दर्मियान खुदाई रहनुमाई 
के लिए खड़ी हुई है। इस मंसब का तकाजा है कि यह उम्मत अल्लाह की सच्ची मोमिन बने। 
वह दुनिया को भलाई की तल्कीन करे और उन चीजों से बाख़बर करे जो अल्लाह केनजीक 





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सूरह-3. आले इमरान I6l पारा 4 





बुराई की हैसियत रखती हैं। यह काम चूंकि खुदाई काम है इसलिए ख़ुदा ने इसके साथ अपना 
तहपफुजाती निजाम (सुरक्षा तंत्र) भी शामिल कर दिया है। जो लोग इस कारेखुदावंदी के लिए 

उठेंगे उनके लिए ख़ुदा की जमानत है कि उनके विरोधी उन्हें मामूली अजियतों (यातनाओं) 

के सिवा कोई हकीकी नुक्सान न पहुंचा सकेंगे। ताहम यहूद के अंजाम की सूरत में इसकी 

भी दाइमी (चिरस्थाई) मिसाल कायम कर दी गई कि इस हक के मंसब पर सरफराज किए 

जाने के बाद जो लोग बदअहदी (वचन भंग) करें उनकी सजा इसी दुनिया में इस तरह शुरू 

हो जाती है कि उन्हें जाती इज्जत और सरफराजी से महरूम कर दिया जाता है। खुदा की 

रहमतों से महरूमी की वजह से उनकी बेहिसी (संवेदनहीनता) इतनी बढ़ जाती है कि वे उन 
लोगों की जान के दरपे हो जाते हैं जो उनकी कोताहियों की तरफ तवज्जोह दिलाने के लिए 
उठें। 

'यहूद पर जिल्लत मुसल्लत कर दी गयी इल्ला यह कि उन्हें अल्लाह की या बंदों की 
अमान हासिल हो।' यह अल्लाह की एक ख़ास सुन्नत है जिसका तअल्लुक उस कौम से है 
जिसको खुदा ने अपने दीन का नुमाइंदा बनाया हो। दीन की सच्ची नुमाइंदगी ऐसी कौम के 
लिए ग़लबे (वर्चस्व) की जमानत होती है। और दीन की सच्ची नुमाइंदगी से हटना उसे मौजूदा 
दुनिया में मग़लूब (परास्त) करने का सबब बन जाता है। ऐसी कौम अगर ख़ुदा के दीन की 
नुमाइंदगी से हट जाए तो मौजूदा दुनिया में कभी वह जाती ग़लबा हासिल नहीं कर सकती, 
किसी दर्जे में अगर कभी उसे इख्तियार मिल जाए तो वह अपने अलावा किसी दूसरे के बल 
पर होगा या तो इसलिए कि उसे किसी खुदाई हुकूमत की तरफ से अमान दिया गया है या 
इसलिए कि किसी गैर कौम की हुकूमत ने उसे अपनी हिमायत व सरपरस्ती में ले लिया है। 

कोई कैम जिललत की इस सज की मुस्तहिक उस वक्‍त बनती है जबकि उसका यह 
हाल हो जाए कि वह ख़ुदाई निशानियों का इंकार करने लगे। निशानियों का इंकार सच्ची 
दलीलों का इंकार है। हक हमेशा दलीलों के रूप में जाहिर होता है। इसलिए जो शख्स सच्ची 
दलील का इंकार करता है वह ख़ुद ख़ुदा का इंकार कर रहा है। 


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पारा 4 62 सूरह-3. आले इमरान 


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सब अहले किताब एक जैसे नहीं। इनमें एक गिरोह अहद पर कायम है। वे रातों को 
अल्लाह की आयते पढ़ते हैं और वे सज्दा करते हैं। वे अल्लाह पर और आख़िरत के दिन 
पर ईमान रखते हैं, और भलाई का हुक्म देते हैं और बुराई से रोकते हैं और नेक कामों 
में दौड़ते हैं। ये सालेह (नेक) लोग हैं जो नेकी भी वे करेंगे उसकी नाकद्री न की जाएगी 
और अल्लाह परहेजगारों को खूब जानता है। बेशक जिन लोगों ने इंकार किया तो 
अल्लाह के मुकाबले में उनके माल और औलाद उनके कुछ काम न आएँगे। और वे 
लोग दोजख़ वाले हैं वे इसमें हमेशा रहेंगे। वे इस दुनिया की जिंदगी में जो कुछ खर्च 

करते हैं उसकी मिसाल उस हवा की सी है जिसमें पाला हो और वह उन लोगों की खेती 
पर चले जिन्होंने अपने ऊपर जुल्म किया है फिर वह उसको बर्बाद कर दे। अल्लाह ने उन 

पर जुल्म नहीं किया बल्कि वे खुद अपनी जानां पर जुल्म करते हैं। (3-77) 


नेकियों में सबकत (कल्याण कार्यों में स्पर्धा) से मुराद इस आयत में अहले किताब 
मोमिनों का यह अमल है कि मुहम्मद (सल्ल०) की जबान से जब खुदाई सच्चाई का एलान 
हुआ तो उन्हेंनि फौरन उसे पहचान लिया और उसकी तरफ आजिजाना दौड़ पड़े। उस वक्‍त 
एक तरफ हजरत मूसा का दीन था जो तारीख़ अज्मत और रिवायती तकदूदुस (पावनता) के 
जोर पर कायम था। दूसरी तरफ मुहम्मद (सल्ल०) का दीन था जिसकी पुश्त पर अभी तक 
सिर्फ दलील की ताकत थी, तारी अप्मत और रिवायती तकु्ुस का वजन अभी तक 
उसके साथ शामिल नहीं हुआ था। अपने दीन और वक्त के नबी के दीन में यह फर्क ववत 
के नबी के दीन को मानने में जबरदस्त रुकावट था। मगर वे इस रुकावट को पार करने में 
कामयाब हो गए और बढ़कर वक्त के नबी के दीन को मान लिया। 

माल व औलाद की मुहब्बत आदमी को कुर्बानी वाले दीन पर आने नहीं देती। अलबत्ता 
नुमाइशी किस्म के आमाल का मुजाहिरा करके वह समझता है कि वह खुदा के दीन पर कायम 
है। मगर जिस तरह सख्त ठंडी हवा अचानक पूरी खेती को बर्बाद कर देती है इसी तरह 
कियामत का तूफान उनके नुमाइशी आमाल को बेकीमत करके रख देगा । यहूद में सिर्फ कुछ 
लोग थे जो मुहम्मद (सल्ल०) पर ईमान लाए थे। 'उम्मते कायमा' की हैसियत से इनका 
मुस्तकिल जिक्र करना जाहिर करता है कि चंद आदमी अगर अल्लाह से डरने वाले हों तो वे 
भीड़ के मुकबले में अल्लाह की नजर में ज्यादा कीमती हेते हैं 

नजात के लिए सिर्फ यह काफी नहीं कि किसी पैगम्बर के नाम पर जो नस्ली उम्मत बन 
गयी है आदमी उस उम्मत में शामिल रहे। बल्कि असल जरूरत यह है कि वह अहद का पाबंद 
बने। अहद से मुराद ईमान है। ईमान बंदे और ख़ुदा के दर्मियान एक अहद है। ईमान लाकर 
बंदा अपने आपको इसका पाबंद करता है कि वह अपने आपको पूरी तरह अल्लाह का 
वफादार और इताअतगुजार बनाएगा । दूसरे लफ्जें में गिरोही निस्बत नहीं बल्कि जाती अमल 
वह चीज है जो किसी आदमी को खुदा की रहमत और बख्श का मुस्तहिक बनाती है। 

इस अहद में तमाम इमानी जिम्मेदारियां शामिल है। तंहाइयों में अल्लाह की याद, 
अल्लाह की इबादतगुजारी, आख़िरत को सामने रख कर जिंदगी गुजारना, अपने आसपास जो 





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सूरह-3. आले इमरान I63 पारा 4 


अफराद हों उन्हें भलाई पर लाने की कोशिश करना, जो अफराद बुराई करें उन्हें बुराई से हटाने 

में पूरा जोर लगा देना, खुदा की पसंद के कामों में दौड़ कर हिस्सा लेना। जो लोग ऐसा करें 
वही रब्बानी अहद पर पूरे उतरे। वे खुदा के मकबूल बंदे हैं। उनका अमल ख़ुदा के इल्म में 
है, वह उन्हें उनके अमल का बदला देगा और फैसले के दिन उनकी पूरी क्द्रदानी फरमाएगा । 


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ऐ ईमान वालो, अपने शेर को अपना राजदार न बनाओ, वे तुम्हें नुक्सान पहुंचाने में 

कोई कमी नहीं करते। उन्हें खुशी होती है तुम जितनी तकलीफ पाओ। उनकी अदावत 
उनकी जबान से निकल पड़ती है जो उनके दिलों में है वह इससे भी सख्त है, हमने 
तुम्हारे लिए निशानियां खोल कर जाहिर कर दीं हैं अगर तुम अक्ल रखते हो। तुम 

उनसे मुहब्बत रखते हो मगर वे तुमसे मुहब्बत नहीं रखते। हालांकि तुम सब आसमानी 
किताबों को मानते हो। और वे जब तुमसे मिलते हैं तो कहते हैं कि हम ईमान लाए 
और जब आपस में मिलते हैं तो तुम पर गुस्से से उंगलियां काटते हैं। कहो कि तुम 
अपने गुस्से में मर जाओ। बेशक अल्लाह दिलों की बात को जानता है। अगर तुम्हे 
कोई अच्छी हालत पेश आती है तो उन्हें रंज होता है और अगर तुम पर कोई मुसीबत 
आती है तो वे इससे खुश होते हैं। अगर तुम सब्र करो और अल्लाह से डरो तो उनकी 
कोई तदबीर तुम्हें कोई नुक्सान न पहुंचा सकेगी। जो कुछ वे कर रहे हैं सब अल्लाह 

के बस में है। (8-20) 


मुसलमान उसी खुदाई दीन पर ईमान लाए थे जो पहले के अहले किताब (यहूद) को अपने 
नबियों के जरिए मिला था। दोनों का दीन अपनी असल हकीकत के एतबार से एक था। मगर 
यहूद मुसलमानों के इस कद्र दुश्मन हो गए कि मुसलमान अपनी सारी खुसूसियात के बावजूद 
उनके नजदीक एक अच्छे बोल के भी हकदार न थे। यहां तक कि मुसलमानों को अगर कोई 
तकलीफ पहुंच जाती तो वे दिल ही दिल में खुश होते गोया वे उन्हें इंसानी हमदर्दी का मुस्तहिक 


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पारा 4 I64 सूरह-3. आले इमरान 


भी नहीं समझते थे। इसकी वजह यह थी कि यहूद ने बनी इस्राईल के नबियों की तरफ मंसूब 
करके एक ख़ुदसाख्ता (स्वनिर्मित) दीन बना रखा था और इसके बल पर अवाम में कयादत 
(नेतृत्व) का मकाम हासिल किए हुए थे। खुदा के दीन में सारी तवज्जोह खुदा की तरफ रहती है। 
जबकि ख़ुदसाख्ता दीन में लोगों की तवज्जोह उन अफराद की तरफ लग जाती है जो इस 
ख़ुदसाख्ता दीन के ख़ालिक और शारेह (व्याख्याकार) हों। ऐसे लोग सच्चे दीन की दावत को 
कभी गवारा नहीं करते। क्योंकि उन्हें नजर आता है कि वह उन्हें उनके अज्मत के मकाम से हटा 
रही है। जब ऐसी सूरत पेश आए तो अल्लाह के सच्चे बंदों का काम यह है कि वे मनफी 
रद्देअमल (नकारात्मक प्रतिक्रिया) से बचें और मुकम्मल तौर पर सब्र व तकवा पर कायम रहें। 
सब्र का मतलब है हर हाल में अपने को हक का पाबंद रखना, और तकवा यह है कि फैसलाकुन 
ताकत सिर्फ अल्लाह को समझा जाए न कि किसी और को। मुसलमान अगर इस किस्म के 
मुस्बत (सकारात्मक) रवैये का सुबूत दें तो किसी की दुश्मनी उन्हें जरा भी नुक्सान न पहुंचाएगी 
चाहे वह मिक्दार में कितनी ही ज्यादा हो। ताहम इसके साथ मुसलमानों को हकीकतपसंद भी 
बनना चाहिए । उन्हें अपने दोस्त और दुश्मन के दर्मियान तमीज करना चाहिए ताकि कोई उनकी 
साफदिली का नाजाइजफयदा न उठा सके। 

मुसलमानों के दिल में यहूद के लिए मुहब्बत होना और यहूद के दिल में मुसलमानों के 
लिए मुहब्बत न होना जाहिर करता है कि दोनों में से कौन हक पर है और कौन नाहक पर। 
अल्लाह सरापा रहम और अदूल है। वह तमाम इंसानों का खालिक और मालिक है इसलिए 
जो शख्स हकीकी तौर पर अल्लाह को पा लेता है उसका सीना तमाम खुदा के बंदों के लिए 
खुल जाता है। उसके लिए तमाम इंसान समान रूप से अल्लाह की संतान बन जाते हैं। वह 
हर एक के लिए वही चाहने लगता है जो वह ख़ुद अपने लिए चाहता है। मगर जो लोग 
अल्लाह को हकीकी तौर पर पाए हुए न हों; जिन्होंने अपनी मर्जी को अल्लाह की मर्जी में न 
मिलाया हो वे सिर्फ अपनी जात की सतह पर जीते हैं। उनकी जिंदगी का सरमाया (पूंजी) 
अपने फायदे और गिरोही तअस्सुबात होते हैं। उनका यह मिजाज उन्हें ऐसे लोगों का दुश्मन 
बना देता है जो उन्हें अपने मफाद (हित) के खिलाफ नजर आएं, जो उनके अपने गिरोह में 
शामिल न हों। ख़ुदा को मानते हुए वे भूल जाते हैं कि यह दुनिया ख़ुदा की दुनिया है। यहां 
किसी की कोई तदबीर अल्लाह की मर्जी के बगैर मुअस्सर (प्रभावी) नहीं हो सकती। 


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सूरह-3. आले इमरान I65 पारा 4 
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जब तुम सुबह को अपने घर से निकले और मुसलमानों को जंग के मकामात पर तैनात 
किया और अल्लाह सुनने वाला, जानने वाला है। जब तुममें से दो जमाअतों ने इरादा 
किया कि हिम्मत हार दें और अल्लाह इन दोनों जमाअतों पर मददगार था। और 
मुसलमानों को चाहिए कि अल्लाह पर ही भरोसा करें। और अल्लाह तुम्हारी मदद कर 
चुका है बद्र में जबकि तुम कमजोर थे। पस अल्लाह से डरो ताकि तुम शुक्रगुजार रहो। 
जब तुम मुसलमानों से कह रहे थे कि क्या तुम्हारे लिए काफी नहीं कि तुम्हारा रब तीन 
हजार फरिश्ते उतार कर तुम्हारी मदद करे। अगर तुम सब्र करो और अल्लाह से डरो और 
दुश्मन तुम्हारे ऊपर अचानक आ पहुंचे तो तुम्हारा रब पांच हजार निशान किए हुए 
फरिश्तों से तुम्हारी मदद करेगा। और यह अल्लाह ने इसलिए किया ताकि तुम्हारे लिए 
खुशखबरी हो और तुम्हारे दिल इससे मुतमइन हो जाएं और मदद सिर्फ अल्लाह ही की 
तरफ से है जो जबरदस्त है, हिक्मत वाला है, ताकि अल्लाह मुंकिरों के एक हिस्से को 
काट दे या उन्हें जलील कर दे कि वे नाकाम लौट जाएं। तुम्हें इस मामले में कोई दख़ल 
नहीं। अल्लाह इनकी तौबा कुबूल करे या उन्हं अजाब दे, क्योंकि वे जालिम हैं। और 
अल्लाह ही के इख्तियार में है जो कुछ आसमान में है और जो कुछ जमीन में है। वह जिसे 
चाहे बख्श दे और जिसे चाहे अजाब दे और अल्लाह गफूर व रहीम है। (2-29) 








ये आयतें उहुद की जंग (3 हिजरी) के बाद नाजिल हुई। उहुद की जंग में दुश्मनों की 
तादात तीन हजार थी । मुसलमानां की तरफ सेएकहज र आदमी मुकाबले के लिए निकले थे। 
मगर रास्ते में अब्दुल्लाह बिन उबइ अपने तीन सौ साथियों को लेकर अलग हो गया। इस वाकये 
से कुछ अंसारी (मूल मदीना वासी) मुसलमानों में पस्त हिम्मती पैदा हो गयी मगर अल्लाह के 
रसूल मुहम्मद (सल्ल०) ने याद दिलाया कि हम अपने भरोसे पर नहीं बल्कि अल्लाह के भरोसे 
पर निकले हैं। तो अल्लाह ने इस हकीकत को समझने के लिए इन मुसलमानों के सीने खोल 
दिये। मोमिन के अंदर अगर हालात की शिदूदत से वकती कमजोरी पैदा हो जाए तो ऐसे वक्‍त 
में अल्लाह उसे तंहा छोड़ नहीं देता बल्कि उसका मददगार बनकर दुबारा उसे ईमान को हालत पर 
जमा देता है। अल्लाह की यही मदद इज्तिमाई (सामूहिक) सतह पर इस तरह हुई कि उहुद की 








पारा 4 I66 सूरह-3. आले इमरान 


लड़ाई में मुसलमानों की एक कमजोरी से फायदा उठा कर दुश्मन उनके ऊपर ग़ालिब आ गये। 
अब दुश्मन फौज के लिए पूरा मौका था कि वह शिकस्त के बाद मुसलमानों की ताकत को पूरी 
तरह कुचल डाले। मगर फैजी तारी का यह हैरतअगज वाकया है कि दुश्मन फैज फतह के 
बावजूद जंग का मैदान छोड़कर वापस चली गई। यह अल्लाह की ख़ुसूसी मदद थी कि उसने 
दुश्मन के रुख़ को 'मदीना' के बजाए 'मक्का' की तरफ मोड़ दिया। यहां तक कि जो मगलूब 
(परास्त) थे उन्हीं ने गालिब आने वालों का पीछा किया। 

मोमिन का मिजाज यह होना चाहिए कि वह तादाद या असबाब (संसाधनों) की कमी 
से न घबराए। तादाद कम हो तो यकीन करे कि अल्लाह अपने फरिश्तों को भेजकर तादाद 
की कमी पूरी कर देगा। सामान कम हो तो वह भरोसा रखे कि अल्लाह अपनी तरफ से ऐसी 
सूरतें पैदा करेगा जो उसके लिए सामान की कमी की तलाफी बन जाए। कामयाबी का 
दारोमदार मादूदी असबाब पर नहीं बल्कि सब्र और तकवा पर है। जो लोग अल्लाह से डरें 
और अल्लाह पर भरोसा रखें उनके हक में अल्लाह की मदद की दो सूरतें हैं। एक, उनके 
विरोधियों के एक हिस्से को काट लेना। दूसरे, विरोधियों को शिकस्त दे कर उन्हें परास्त 
करना । पहली कामयाबी दावत की राह से आती है। प्रतिपक्ष के जिन लोगों में अल्लाह कुछ 
जिंदगी पाता है उनके ऊपर दीन की सच्चाई को रोशन कर देता है, वे बातिल (असत्य) की 
सफ को छोड़कर हक की सफ में शामिल हो जाते हैं और इस तरह प्रतिपक्ष की कमजोरी और 
अहले ईमान की कुव्वत का सबब बनते हैं। दूसरी सूरत में अल्लाह अहले ईमान को कुव्वत 
और हौसला देता है और उनकी ख़ुसूसी मदद करके उन्हें प्रतिपक्ष पर ग़ालिब कर देता है। 


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सूरह-3. आले इमरान I67 पारा 4 


ऐ ईमान वालो, सूद कई-कई हिस्सा बढ़ाकर न खाओ और अल्लाह से डरो ताकि तुम 
कामयाब हो। और डरो उस आग से जो मुंकिरों के लिए तैयार की गई है। और अल्लाह 
और रसूल की इताअत करो ताकि तुम पर रहम किया जाए। और दौड़ो अपने रब की 
बख्शिश की तरफ और उस जन्नत की तरफ जिसकी वुस्अत (व्यापकता) आसमान और 

जमीन जैसी है। वह तैयार की गई है अल्लाह से डरने वालों के लिए। जो लोग कि 
खर्च करते हैं फरागत और तंगी में। वे गुस्से को पी जाने वाले हैं और लोगों से दरगुजर 

करने वाले हैं। और अल्लाह नेकी करने वालों को दोस्त रखता है। और ऐसे लोग कि 
जब वे कोई खुली बुराई कर बैठे या अपनी जान पर कोई जुल्म कर डालें तो वे अल्लाह 
को याद करके अपने गुनाहों की माफी मांगें। अल्लाह के सिवा कौन है जो गुनाहों को 
माफ करे और वे जानते बूझते अपने किए पर इसरार नहीं करते। ये लोग हैं कि इनका 
बदला उनके रब की तरफ से मग्फिरत (क्षमा, मुक्ति) है और ऐसे बाग़ हैं जिनके नीचे 

नहरें बहती होंगी। इनमें वे हमेशा रहेंगे। कैसा अच्छा बदला है काम करने वालों का। 
तुमसे पहले बहुत-सी मिसालें गुजर चुकी हैं तो जमीन में चल-फिर कर देखो कि क्या 
अंजाम हुआ झुठलाने वालों का। यह बयान है लोगों के लिए और हिदायत व नसीहत 
है डरने वालों के लिए। (30-38) 


सूदी कारोबार दौलतपरस्ती की आखिरी बदतरीन शक्ल है। जो शख्स दौलतपरस्ती में 
मुब्तला हो वह रात-दिन इसी फिक्र में रहता है कि किस तरह उसकी दौलत दोगुना और 
चौगुना हो। वह दुनिया का माल हासिल करने की तरफ दौड़ने लगता है। हालांकि सही बात 
यह है कि आदमी आख़िरत की जन्नत की तरफ दौड़े और अल्लाह की रहमत और नुसरत 
(मदद) का ज्यादा से ज्यादा ख़राहिशमंद हो। आदमी अपना माल इसलिए बढ़ाना चाहता है 
कि दुनिया में इज्जत हासिल हो, दुनिया में उसके लिए शानदार जिंदगी की जमानत हो जाए। 
मगर मौजूदा दुनिया की इज्जत व कामयाबी की कोई हकीकत नहीं। असल अहमियत की 
चीज जन्नत है जिसकी खुशियां और लज्जतें बेहिसाब हैं। अक्लमंद वह है जो इस जन्नत की 
तरफ दौड़े। जन्नत की तरफ दौड़ना यह है कि आदमी अपने माल को ज्यादा से ज्यादा 
अल्लाह की राह में दे दुनियावी कामयाबी का जरिया 'माल' को बढ़ाना है और आखिरत की 
कामयाबी को हासिल करने का जरिया माल को 'घटाना' है। पहली किस्म के लोगों का 
सरमाया (पूंजी) अगर माल की मुहब्बत है तो दूसरे लोगों का सरमाया अल्लाह और रसूल की 
मुहब्बत | पहली किस्म के लोगों को अगर दुनिया के नफे का शीक होता है तो दूसरी किस्म 
के लोगों को आख़िरत के नफे का। पहली किस्म के लोगों को दुनिया के नुक्सान का डर लगा 
रहता है और दूसरी किस्म के लोगों को आख़िरत के नुक्सान का। 

जो लोग अल्लाह से डरते हैं उनके अंदर 'एहसान' का मिजाज पैदा हो जाता है। यानी 
जो काम करें इस तरह करें कि वह अल्लाह की नजर में ज्यादा से ज्यादा पसंदीदा करार पाए। 
वे आजाद जिंदगी के बजाए पाबंद जिंदगी गुजारते हैं। खुदा के दीन की जरूरत को वे अपनी 
जरूरत बना लेते हैं और इसके लिए हर हाल में खर्च करते हैं चाहे उनके पास कम हो या ज्यादा । 








पारा 4 I68 सूरह-3. आले इमरान 


उन्हें जब किसी पर गुस्सा आ जाए तो वे उसे अंदर ही अंदर बर्दाश्त कर लेते हैं। किसी से 
शिकायत हो तो उससे बदला लेने के बजाए उसे माफ कर देते हैं। गलतियां इनसे भी होती हैं 
मगर वे ववती होती हैं। गलती के बाद वे फौरन चौंक पड़ते हैं और दुबारा अल्लाह की तरफ 

मुतवज्जह हो जाते हैं। वे बेताब होकर अल्लाह को पुकारने लगते हैं कि वह उन्हें माफ कर दे 
और उन पर अपनी रहमतों का पर्दा डाल दे। कुरआन में जो बात लफ्जी तौर पर बताई गई 

है वह तारीख़ में अमल की जबान में मौजूद है। मगर नसीहत वही पकड़ते हैं जो नसीहत की 
तलब रखते हों । 


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और हिम्मत न हारो और ग़म न करो, तुम ही ग़ालिब रहोगे अगर तुम मोमिन हो। 
अगर तुम्हें कोई जख्म पहुंचे तो दुश्मन को भी वैसा ही जख्म पहुंचा है। और हम इन 

दिनों को लोगों के दर्मियान बदलते रहते हैं। ताकि अल्लाह ईमान वालों को जान ले 
और तुममें से कुछ लोगों को गवाह बनाए और अल्लाह जालिमों को दोस्त नहीं रखता। 

और ताकि अल्लाह ईमान वालों को छांट ले और इंकार करने वालों को मिटा दे। क्या 
तुम ख्याल करते हो कि तुम जन्नत में दाखिल हो जाओगे, हालांकि अभी अल्लाह ने 
तुममें से उन लोगों को जाना नहीं जिन्होंने जिहाद किया और न उन्हें जो साबितकदम 

रहने वाले हैं। और तुम मौत की तमन्ना कर रहे थे इससे मिलने से पहले, सो अब तुमने 
इसे खुली आंखों से देख लिया। (39-743) 


ईमान लाना गोया अल्लाह के लिए जीने और अल्लाह के लिए मरने का इकरार करना 
है। जो लोग इस तरह मोमिन बनें उनके लिए अल्लाह का वादा है कि वे उन्हें दुनिया में गलबा 
और आखिरत में जन्नत देगा। और उन्हें यह अहमतरीन एजाज अता करेगा कि जिन लोगों 
ने दुनिया में उन्हें रदद कर दिया था उनके ऊपर उन्हें अपनी अदालत में गवाह बनाए और 
उनकी गवाही की बुनियाद पर उनके मुस्तकिल अंजाम का फैसला करे। मगर यह मकाम 
महज लफी इकार से नहीं मिल जाता। इसके लिए जरूरी है कि आदमी सब्र और जिहाद 
की सतह पर अपने सच्चे मोमिन होने का सुबूत दे। मोमिन चाहे अपनी जाती जिंदगी को ईमान 
व इस्लाम पर कायम करे या वह दूसरों के सामने खुदा के दीन का गवाह बन कर खड़ा हो, 





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सूरह-3. आले इमरान I69 पारा 4 


हर हाल में उसे दूसरे की तरफ से मुश्किलात और रुकावटें पेश आती हैं। इन मुश्किलात और 
रुकावटों का मुकाबला करना जिहाद है और हर हाल में अपने इकरार पर जमे रहने का नाम 
सब्र। जो लोग इस जिहाद और सब्र का सुबूत दें वही वे लोग हैं जो जन्नत की आबादकारी 
के काबिल ठहरे। साथ ही, इसी से दुनिया की सरबुलंदी का रास्ता खुलता है। जिहाद” उनके 
मुसलसल और मुकम्मल अमल की जमानत और 'सब्र' इस बात की जमानत है कि वे कभी 
कोई जज्बाती इकदाम नहीं करेंगे। और ये दो बातें जिस गिरोह में पैदा हो जाएं उसके लिए ख़ुदा 
की इस दुनिया में कामयाबी इतनी ही यकीनी हो जाती है जितनी मुवाफिक जमीन में एक बीज 
का बारआवर होना। 

एक शख्स अल्लाह के रास्ते पर चलने का इरादा करता है तो दूसरों की तरफ से 
तरह-तरह के मसाइल पेश आते हैं। ये मसाइल कभी उसे बेयकीनी की कैफियत में मुब्तला 
करते हैं कभी मस्लेहतपरस्ती का सबक देते हैं। कभी उसके अंदर नकारात्मक मानसिकता 
उभारते हैं कभी ख़ुदा के ख़ालिस दीन के मुकाबले में ऐसे अवामी दीन का नुस्खा बताते हैं 
जो लोगों के लिए काबिले कुबूल हो। यही मौजूदा दुनिया में आदमी का इम्तेहान है। इन 
अवसरों पर आदमी जो प्रतिक्रिया जाहिर करे उससे मालूम होता है कि वह अपने ईमान के 
इकरार में सच्चा था या झूठा। अगर उसका अमल उसके ईमान के दावे के मुताबिक हो तो 
वह सच्चा है और अगर इसके खिलाफ हो तो झूठा। शहीद (अल्लाह का गवाह) बनना इस 
सफर की आखिरी इंतहा है। अल्लाह का एक बंदा लोगों के दर्मियान हक का दाऔ 
(आहवानकर्ता) बन कर खड़ा हुआ। उसका हाल यह था कि वह जिस चीज की तरफ बुला 
रहा था, ख़ुद उस पर पूरी तरह कायम था। लोगों ने उसे हकीर (तुच्छ) समझा मगर उसने 
किसी की परवाह नहीं की। उस पर मुश्किलात आई मगर वह उसे अपने मकाम से हटाने में 
कामयाब न हो सकीं। वह न कमजोर पड़ा और न मनफी नपिसयात (नकारात्मक मानसिकता) 
का शिकार हुआ। यहां तक कि उसके जान व माल की बाजी लग गई फिर भी वह अपने 
दावती मौकिफ से न हटा । यह इम्तेहान हद दर्जा तूफानी इम्तेहान है। मगर इससे गुजरने के 
बाद ही वह इंसान बनता है जिसे अल्लाह अपने बंदों के ऊपर अपना गवाह करार दे। आदमी 
जब हर किस्म के हालात के बावजूद अपने दावती अमल पर कायम रहता है तो वह अपने 
पैगाम के हक में अपने यकीन का सुबूत देता है। साथ ही यह कि वह जिस बात की ख़बर 
दे रहा है वह एक हद दर्जा संजीदा मामला है न कि कोई सरसरी मामला। 


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पारा 4 I70 सूरह-3. आले इमरान 


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मुहम्मद बस एक रसूल हैं। इनसे पहले भी रसूल गुजर चुके हैं। फिर क्या अगर वह मर 

जाएं या कत्ल कर दिए जाएं तो तुम उल्टे पेर फिर जाओगे। और जो शख्स फिर जाए वह 
अल्लाह का कुछ नहीं बिगाड़ेगा और अल्लाह शुक्रगुजारों को बदला देगा। और कोई 
जान मर नहीं सकती बगैर अल्लाह के हुक्म के। अल्लाह का लिखा हुआ वादा है। और 
जो शख्स दुनिया का फायदा चाहता है उसे हम दुनिया में से दे देते हैं और जो आख़िरत 

का फायदा चाहता है उसे हम आख़िरत में से दे देते हैं। और शुक्र करने वालों को हम 
उनका बदला जरूर अता करेंगे। और कितने नबी हैं जिनके साथ होकर बहुत से अल्लाह 
वालों ने जंग की। अल्लाह की राह में जो मुसीबतें उन पर पड़ीं उनसे न वे पस्तहिम्मत 
हुए न उन्होंने कमजोरी दिखाई। और न वे दबे। और अल्लाह सब्र करने वालों को दोस्त 
रखता है। उनकी जबान से इसके सिवा कुछ और न निकला कि ऐ हमारे रब हमारे 
गुनाहों को बख्श दे और हमारे काम में हमसे जो ज्यादती हुई उसे माफ फरमा और हमें 

साबितकदम रख और मुंकिर केम के मुकाबले मे हमारी मदद फरमा। पस अल्लाह ने 

उन्हें दुनिया का बदला भी दिया और आख़िरत का अच्छा बदला भी। और अल्लाह 
नेकी करने वालों को दोस्त रखता है। (44-48) 


उहुद की जंग में यह ख़बर मशहूर हो गई कि मुहम्मद (सल्ल०) शहीद हो गए। उस वक्त 
कुछ मुसलमानों में पस्तहिम्मती पैदा हो गई। मगर अल्लाह के हकीकी बंदे वे हैं जिनकी 
दीनदारी किसी शख्स के ऊपर कायम न हो। अल्लाह को वह दीनदारी मत्लूब है जबकि बंदा 
अपनी सारी रूह और सारी जान के साथ सिर्फ एक अल्लाह के साथ जुड़ जाए। मोमिन वह 
है जो इस्लाम को उसकी उसूली सदाकत की बुनियाद पर पकड़े न कि किसी शख्सियत के 
सहारे की बिना पर। जो शख्स इस तरह इस्लाम को पाता है उसके लिए इस्लाम एक ऐसी 
नेमत बन जाता है जिसके लिए उसकी रूह के अंदर शुक्र का दरिया बहने लगे। वह दुनिया 
के बजाए आख़िरत को सब कुछ समझने लगता है। जिंदगी उसके लिए एक ऐसी नापायदार 
चीज बन जाती है जो किसी भी लम्हे मौत से दोचार होने वाली हो। वह कायनात को एक 
ऐसे खुदाई कारखाने की हैसियत से देख लेता है जहां हर वाकया ख़ुदा के इज्न के तहत हो 
रहा है। जहां देने वाला भी वही है और छीनने वाला भी वही है। ऐसे ही लोग अल्लाह की 
राह के सच्चे मुसाफिर हैं। अल्लाह अगर चाहता है तो दुनिया की इज्जत व इक्तेदार (सत्ता) 
भी उन्हें दे देता है और आख़िरत के अजीम और अबदी (चिरस्थाई) इनामात तो सिर्फ इन्हीं 
के लिए हैं। ताहम यह दर्जा किसी को सिर्फ उस वक्‍त मिलता है जबकि वह हर किस्म के 
इम्तेहान में पूरा उतरे। उसके जाहिरी सहारे खो जाएं तब भी वह अल्लाह पर अपनी नजरें 





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सूरह-3. आले इमरान I7l पारा 4 





जमाए रहे। जान का ख़तरा भी उसे पस्तहिम्मत न कर सके। दुनिया बर्बाद हो रही हो तब भी 
वह पीछे न हटे। उसके सामने कोई नुक्सान आए तो उसे वह अपनी कोताही का नतीजा समझ 
कर अल्लाह से माफी मांगे। कोई फायदा मिले तो उसे खुदा का इनाम समझ कर शुक्र अदा 

करे। मोमिन का यह इम्तेहान जो हर रोज लिया जा रहा है कभी उन हिला देने वाले मकामात 

तक भी पहुंच जाता है जहां जिंदगी की बाजी लगी हुई हो। ऐसे मोको पर भी जब आदमी बुजदिली 

न दिखाए, न वह बेयकीनी में मुन्तिला हो और न किसी हाल में दीन के दुश्मनों के सामने हार 
मानने के लिए तैयार हो तो गोया वह इम्तेहान की आखिरी जांच में भी पूरा उतरा। ऐसे ही 
लोगेंके लिए हर किस्म की सरफराजियां हैं। तारीख़ में वही लोग सबसे ज्यादा कीमती हैंजिन्हेनि 

इस तरह अल्लाह को पाया हो और अपने आपको इस तरह अल्लाह के मंसूबे में शामिल कर 
दिया हो। नाजुक मीकों पर अहले ईमान का आपस में मुत्तहिद रहना और सब्र के साथ हक 

पर जमे रहना वे चीजें हैं जो अहले ईमान को अल्लाह की नुसरत का मुस्तहिक बनाती हैं। 


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ऐ ईमान वालो अगर तुम मुंकिरों की बात मानोगे तो वे तुम्हें उल्टे पैरों फेर देंगे फिर तुम 
नाकाम होकर रह जाओगे। बल्कि अल्लाह तुम्हारा मददगार है और वह सबसे बेहतर 
मदद करने वाला है। हम मुंकिरों के दिलों में तुम्हारा रौब डाल देंगे क्योंकि उन्होंने ऐसी 
चीज को अल्लाह का शरीक ठहराया जिसके हक में अल्लाह ने कोई दलील नहीं उतारी। 
उनका ठिकाना जहन्नम है और वह बुरी जगह है जालिमों के लिए। और अल्लाह ने 


तुमसे अपने वादे को सच्चा कर दिखाया जबकि तुम उन्हें अल्लाह के हुक्म से कत्ल कर 
रहे थे। यहां तक कि जब तुम ख़ुद कमजोर पड़ गए और तुमने काम में झगड़ा किया और 





पारा 4 I72 सूरह-3. आले इमरान 


तुम कहने पर न चले जबकि अल्लाह ने तुम्हें वह चीज दिखा दी थी जो कि तुम चाहते 
थे। तुममें से कुछ दुनिया चाहते थे और तुममें से कुछ आख़िरत चाहते थे। फिर अल्लाह 
ने तुम्हारा रुख़ उनसे फेर दिया ताकि तुम्हारी आजमाइश करे और अल्लाह ने तुम्हें माफ 

कर दिया और अल्लाह ईमान वालो के हक में बड़ फज्ल वाला है। जब तुम चढ़े जा रहे 

थे और मुड़कर भी किसी को न देखते थे और रसूल तुम्हें तुम्हारे पीछे से पुकार रहा था। 
फिर अल्लाह ने तुम्हें गम पर ग़म दिया ताकि तुम रंजीदा न हो उस चीज पर जो तुम्हारे 
हाथ से चूक गई और न उस मुसीबत पर जो तुम पर पड़े। और अल्लाह ख़बरदार है जो 
कुछ तुम करते हो। (49-53) 


उहुद की जंग में वक्ती शिकस्त से विरोधियों को मौका मिला । उन्होंने कहना शुरू किया 
कि पैगम्बर और उनके साथियों का मामला कोई खुदाई मामला नहीं है। कुछ लोग महज 
बचकाने जोश के तहत उठ खड़े हुए हैं और अपने जोश की सजा भुगत रहे हैं। अगर यह 
खुदाई मामला होता तो उन्हें अपने दुश्मनों के मुकाबले में शिकस्त क्यों होती । मगर इस तरह 
के वाकेयात चाहे बजाहिर मुसलमानों की गलती से पेश आएं, वे हर हाल में खुदा का इम्तेहान 
होते हैं। दुनिया की जिंदगी में 'उहुद' का हादसा पेश आना जरूरी है ताकि यह खुल जाए कि 
कौन अल्लाह पर एतमाद करने वाला था और कौन फिसल जाने वाला। इस किस्म के 
वाकेयात मोमिन के लिए दोतरफा आजमाइश होते हैं एक यह कि वह लोगों की 
मुखालिफाना बातों से मुतअस्सिर न हो। दूसरे यह कि वह वक्ती तकलीफ से घबरा न जाए। 
और हर हाल में साबितकदम रहे। 

मुश्किल अवसरों पर अहले ईमान अगर जमे रह जाएं तो बहुत जल्द ऐसा होता है कि ख़ुदा 
की रोब की मदद नाजिल होती है। जो शख्स या गिरोह अल्लाह के सच्चे दीन के सिवा किसी 
और चीज के ऊपर खड़ा हुआ है वह हकीकत में बेबुनियाद जमीन पर खड़ा हुआ है। क्योंकि 
अल्लाह की उतारी हुई सच्चाई के सिवा इस दुनिया में कोई और हकीकी बुनियाद नहीं | इसलिए 
जब कोई अल्लाह के दीन के ऊपर खड़ा हो और दृढ़ता का सुबूत दे तो जल्द ही ऐसा होता है 
कि अहले बातिल (असत्यवादियों) में बिखराव शुरू हो जाता है। दलीलों के एतबार से उनका 
बेबुनियाद होना उनके लोगों में बेयकीनी की कैफियत पैदा कर देता है। वे अपने को कम और 
अहले ईमान को ज्यादा देखने लगते हैं। उनकी जेहनी शिकस्त अंततः अमली शिकस्त तक 
पहुंचती है। वे अहले हक के मुकाबले में नाकाम व नामुराद होकर रह जाते हैं। 

मुसलमानों के लिए शिकस्त और कमजोरी का सबब हमेशा एक होता है। और वह है 
तनाजो फिल अम्र। यानी राय के इख़्तेलाफ के सबब अलग-अलग हो जाना। इंसानों के 
दर्मियान इत्तेफाक कभी इस मअना में नहीं हो सकता कि सबकी राय बिल्कुल एक हो जाएं। 
इसलिए किसी गिरोह में इत्तेहाद की सूरत सिर्फ यह है कि राय में भिन्नता के बावजूद अमल 
में एकरूपता हो। जब तक किसी गिरोह में यह बुलंदनजरी पाई जाएगी तो वह मुत्तहिद और 
इसके नतीजे में ताकतवर रहेगा। और जब राय में विभेद करके लोग अलग-अलग होने लगें 
तो इसके बाद लाजिमन कमजोरी और इसके नतीजे में शिकस्त होगी। 


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सूरह-3. आले इमरान I73 पारा 4 
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फिर अल्लाह ने तुम्हारे ऊपर ग़म के बाद इत्मीनान उतारा यानी ऊंघ कि इसका तुममें 
से एक जमाअत पर ग़लबा हो रहा था और एक जमाअत वह थी कि उसे अपनी जानों 
कि फिक्र पश्च दुई थी। वे अल्लाह के बारे में हकीकत के खिलाफ ख्य़ालात, जाहिलियत 

के ख्यालात कायम कर रहे थे। वे कहते थे कि क्या हमारा भी कुछ इख्तियार है। कहो 
सारा मामला अल्लाह के इख्तियार में है। वे अपने दिलों में ऐसी बात छुपाए हुए हैं 
जो तुम पर जाहिर नहीं करते। वे कहते हैं कि अगर इस मामले में कुछ हमारा भी दख़ल 
होता तो हम यहां न मारे जाते। कहो अगर तुम अपने घरों में होते तब भी जिनका 
कत्ल होना लिख गया था वे अपनी कत्लगाहो की तरफ निकल पड्ते। यह इसलिए 

हुआ कि अल्लाह को आजमाना था जो कुछ तुम्हारे सीनों में है और निखारना था जो 
कुछ तुम्हारे दिलों में है। और अल्लाह जानता है सीनों वाली बात को। तुममें से जो 
लोग फिर गए थे उस दिन कि दोनों गिरोहों में मुठभेड़ हुई इन्हें शैतान ने इनके कुछ 
आमाल के सबब से फिसला दिया था। अल्लाह ने इन्हें माफ कर दिया। बेशक अल्लाह 
बझुशने वाला महरबान है। (54-55) 


जिंदगी के मोर्चे में सबसे ज्यादा अहमियत इस बात की होती है कि आदमी का चैन 
उससे रुख्सत न हो। वह पूरी यकसूई के साथ अपना मंसूबा बनाने के काबिल रहे। अल्लाह 
पर भरोसे की वजह से अहले ईमान को यह चीज कमाल दर्जे में हासिल होती है। यहां तक 
कि हिला देने वाले मोकों पर जबकि लोगों की नदिं उड़ जाती हैं, उस वक्‍त भी वे इस काबिल 
रहते हैं कि एक नींद लेकर दुबारा ताजा दम हो सकें। उहुद के मौके पर इसका एक प्रदर्शन 
इस तरह हुआ कि शिकस्त के बाद सख़्ततरीन हालात के बावजूद वे सो सके और अगले दिन 


पारा 4 I74 सूरह-3. आले इमरान 





हमरा-उल-असद तक दुश्मन का पीछा किया जो मदीना से आठ मील की दूरी पर है। इसके 
नतीजे में फातेह (विजयी) दुश्मन मरऊब होकर मक्का वापस चला गया । यह सच्चे अहले ईमान 
का हाल है। मगर जो लोग पूरे मअनों में अल्लाह को अपना वली (सहायक) और सरपरस्त 
बनाए हुए न हों, उन्हें हर तरफ बस अपनी जान का ख़तरा नजर आता है। दीन की फिक्र 
से ख़ाली लोग अपनी जात की फिक्र के पड़े रहते हैं वे अल्लाह की तरफ से इत्मीनान की मदद 
में से अपना हिस्सा नहीं पाते। 

उहुद के मौके पर अब्ुल्लाह बिन उबी की राय थी कि मदीना में रहकर जंग की जाए। 
मगर अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्ल०) मुख्लिस (निष्ठावान) मुसलमानों के मश्विरे पर बाहर 
निकले और उहुद पहाड़ के दामन में मुकाबला किया। दर्रे पर तैनात दस्ते की गलती से जब 
शिकस्त हुई तो उन लोगों को मौका मिला। उन्होंने कहना शुरू किया कि अगर हमारी बात 
मानी गई होती और मदीना में रहकर लड़ते तो इस बर्बादी की नौबत नहीं आती । मगर मौत 
ख़ुदा की तरफ से है और वहीं आकर रहती है जहां वह किसी के लिए लिखी हुई है। 
एहतियाती तदबीरें किसी को मौत से बचा नहीं सकतीं । इस तरह के वाकेआत, चाहे बजाहिर 
इनका जो सबब भी नजर आए, वे अल्लाह की तरफ से होते हैं। ताकि अल्लाह के सच्चे बंदे 
अल्लाह की तरफ रुजूअ करके और भी ज्यादा रहमतों के मुस्तहिक बनें। और जो सच्चे नहीं 
हैं उनकी हकीकत भी खुलकर सामने आ जाए। 

उहुद के द्र पर जो पचास तीरअंदाज तैनात थे जब उन्होंने देखा कि मुसलमानों को 
फतह हो गई है तो इनमें से कुछ लोगों ने इसरार किया कि चलकर माले ग़नीमत लूटें। मगर 
अब्दुल्लाह बिन जुबैर और उनके कुछ साथियों ने कहा नहीं। हमें हर हाल में यहीं रहना है 
क्योंकि यही अल्लाह के रसूल का हुक्म है। अंततः ग्यारह को छोड़कर बाकी लोग चले गए। 
आपसी मतभेद की इस कमजोरी से शैतान ने अंदर दाखिल होने का रास्ता पा लिया। ताहम 
जब उन्होंने अपनी गलती का एतराफ किया तो अल्लाह ने उन्हें माफ कर दिया और इक्तिदाई 
नुक्सान के बाद उनकी मदद इस तरह की कि दुश्मनों के दिल में रौब डालकर इन्हें वापस कर 
दिया। हालांकि उस वक्त वे मदीना से सिर्फ कुछ मील की दूरी पर रह गए थे। 

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सूरह-3. आले इमरान I75 पारा 4 


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ऐ ईमान वालो तुम उन लोगों की तरह न हो जाना जिन्होंने इंकार किया। वे अपने 
भाइयों के बारे में कहते हैं, जबकि वे सफर या जिहाद में निकलते हैं और उन्हें मौत 

आ जाती है, कि अगर वे हमारे पास रहते तो न मरते और न मारे जाते। ताकि अल्लाह 
इसे उनके दिलों में हसरत का सबब बना दे। और अल्लाह ही जिलाता है और मारता 
है, और जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उसे देख रहा है। और अगर तुम अल्लाह की 
राह में मारे जाओ या मर जाओ तो अल्लाह की मग्फिरत और रहमत उससे बेहतर है 
जिसे वे जमा कर रहे हैं। और तुम मर गए या मारे गए बहरहाल तुम अल्लाह ही के 
पास जमा किए जाओगे। यह अल्लाह की बड़ी रहमत है कि तुम उनके लिए नर्म हो। 
अगर तुम तुंदखू (कठोर) और सख्त दिल होते तो ये लोग तुम्हारे पास से भाग जाते। 
पस इन्हें माफ कर दो और इनके लिए मग्फिरत मांगो और मामलात में इनसे मश्विरा 

लो। फिर जब फैसला कर लो तो अल्लाह पर भरोसा करो। बेशक अल्लाह उनसे 
मुहब्बत करता है जो उस पर भरोसा रखते हैं। अगर अल्लाह तुम्हारा साथ दे तो कोई 
तुम पर ग़ालिब नहीं आ सकता और अगर वह तुम्हारा साथ छोड़ दे तो उसके बाद कौन 
है जो तुम्हारी मदद करे। और अल्लाह ही के ऊपर भरोसा करना चाहिए ईमान वालों 
को। (56-60) 


इस दुनिया में जो कुछ होता है अल्लाह के हुक्म से होता है। ताहम यहां हर चीज पर असबाब 
कापर्दाडाल दिया गया है। वाकेआत बजहिर असबाब केतहत हेतेहुए नजर अतिहमगर हकीकत 
में वे अल्लाह के हुक्म के तहत हो रहे हैं। आदमी का इम्तेहान यह है कि वह जाहिरी असबाब में 
न अटके बल्कि इनके पीछे काम करने वाली खुदाई कुदरत को देख ले। गैर-मोमिन वह है जो 
असबाब में खो जाए और मोमिन वह है जो असबाब से गुजर कर अस्ल हकीकत को पा ले। एक 
शख्स मोमिन होने का दावेदार हो मगर इसी के साथ उसका हाल यह हो कि जिंदगी व मौत और 
कामयाबी व नाकामी को वह तदबीरों का नतीजा समझता हो तो उसका ईमान का दावा मोअतबर 
नहीं । गैर-मोमिन के साथ कोई हादसा पेश आए तो वह इस गम में मुब्तला हो जाता है कि मैंने 
फलाँ तदबीर की होती तो मैं इस हादसे से बच जाता । मगर मोमिन के साथ जब कोई हादसा गुजरता 
है तो वह यह सोचकर मुतमइन रहता है कि अल्लाह की मर्जी यही थी । जो लोग दुनियावी असबाब 
को अहमियत दें वे अपनी पूरी जिंदगी दुनिया की चीजों को फराहम करने में लगा देते हैं। 'मरने' 
से ज्यादा 'जीना' उन्हें अजीज हो जाता है। मगर पाने की असल चीज वह है जो आह्िरत में है। 
यानी अल्लाह की जन्नत व मग्फिरत (क्षमा, मोक्ष, मुक्ति) । और जन्नत वह चीज है जिसे सिर्फ 
जिंदगी ही की कीमत पर हासिल किया जा सकता है। आदमी का वजूद ही जन्नत की वाहिद 





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पारा 4 I76 सूरह-3. आले इमरान 


(एकमात्र) कीमत है। आदमी अगर अपने वजूद को न दे तो वह किसी और चीज के जरिए जन्नत 
हासिल नहीं कर सकता । 

अहले ईमान से साथ जिस इज्तिमाई सुलूक का हुक्म पैगम्बर को दिया गया है वही आम 
मुस्लिम सरबराह (प्रमुख, शासक) के लिए भी है। मुस्लिम सरबराह के लिए जरूरी है कि वह नर्म 
दिल, नर्म गुफ्तार (शालीन) हो। यह नमी सिर्फ रोजमर्रह की आम जिंदगी ही में मत्लूब नहीं है 
बल्कि ऐसे गैर-मामूली मौकों पर भी मत्लूब है जबकि इस्लाम और गैर-इस्लाम के टकराव के 
वक्त लोगों से एक हुक्म की नाफरमानी हो और नतीजे में जीती हुई जंग हार में बदल जाए। 
सरबराह के अंदर जब तक यह वुस्अत और बुलंदी न हो ताकत और इज्तिमाइयत कायम नहीं 
हो सकती । गलती चाहे कितनी ही बड़ी हो, अगर वह सिफ एक गलती है, शरपसंदी नहीं है तो 
वह काबिले माफी है। सरबराह को चाहिए कि ऐसी हर गलती को भुलाकर वह लोगों से मामला 
करे। यहां तक कि वह लोगों का इतना खैरख्याह (हितैषी) हो कि उनके हक में उसके दिल से 
दुआएं निकलने लगें। उसकी नजर में लोगों की इतनी कद्र हो कि मामलात में वह उनसे मश्विरा 
ले। जब आदमी को यह यकीन हो कि जो कुछ होता है खुदा के किए से होता है तो इसके बाद 
इंसानी असबाब उसकी नजर में नाकाबिले लिहाज हो जाऐग। 


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और नबी का यह काम नहीं कि वह कुछ छुपाए रखे और जो कोई छुपाएगा वह अपनी 
छुपाई हुई चीज को कियामत के दिन हाजिर करेगा। फिर हर जान को उसके किए हुए 

का पूरा बदला मिलेगा और उन पर कुछ जुल्म न होगा। क्या वह शख्स जो अल्लाह की 
मर्जी का ताबेअ (अधीन) है वह उस शख्स की तरह हो जाएगा जो अल्लाह का गजब 

लेकर लौटा और उसका ठिकाना जहन्नम है और वह कैसा बुरा ठिकाना है। अल्लाह के 
यहां उनके दर्जे अलग-अलग होंगे। और अल्लाह देख रहा है जो वे करते हैं। अल्लाह ने 
ईमान वालों पर एहसान किया कि उनमें उन्हीं में से एक रसूल भेजा जो उन्हें अल्लाह की 
आयते सुनाता है और उन्हें पाक करता है और उन्हें किताब व हिक्मत (तत्वदर्शिता) की 
तालीम देता है। बेशक ये इससे पहले खुली हुई गुमराही में थे। (6-64) 








उहुद की दर्रे पर तैनात जिन चालीस लोगों ने नाफरमानी की थी, अल्लाह के रसूल मुहम्मद 


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सूरह-3. आले इमरान I77 पारा 4 


(सल्ल०) ने उन्हें माफ कर दिया था। ताहम इन लोगों को यह शुबह था कि आपने १ पाथदसिर्फ 
ऊपरी तौर पर हमें माफ किया है। दिल में आप अब भी ख़फा हैं और किसी वकत हमारे ऊपर 
ख़फगी निकालेंगे। फरमाया कि यह पेगम्बर का तरीका नहीं। पेगम्बर अंदर और बाहर एक होता 
है, इससे यह अंदाजा होता है कि मुसलमानों के सरबराह को कैसा होना चाहिए । मुस्लिम सरबराह 
का दिल ऐसा होना चाहिए कि उसके अंदर बुग्ज, नफरत, कीना और हसद बिल्कुल जगह न 
पा सके। यहां तक कि उस वक्त भी नहीं जबकि उसके साथियों से एक भयानक गलती हो 
गई हो। मुस्लिम सरबराह को चाहिए कि बड़ी से बड़ी गलती करने वालों के खिलाफ भी वह 
दिल में कोई दुभावना छुपाकर न रखे। आज के दिन उनके साथ इस तरह रहे जैसे पिछले दिन 
उनसे कुछ नहीं हुआ था। इसी तरह यह भी जरूरी है कि मुसलमानों का कोई गिरोह जब एक 
सरबराह पर एतमाद करके अपने मामलात को उसके सुपुर्द कर दे तो सरबराह को ऐसा भी 
नहीं करना चाहिए कि उनके जान व माल को वह अपने जाती हौसलों और तमन्नाओं की 
तकमील पर कुर्बान कर दे। यह अल्लाह के गजब से बेख़फ होना है। जो शख्स लोगों को यह 
बताने के लिए उठा हो कि लोग अल्लाह की मर्जी पर चलें वह ख़ुद क्योंकर इस हाल में अल्लाह 
से मिलना पसंद करेगा कि वह अल्लाह की मर्जी के खिलाफ चला हो। 

पैगम्बर ने अपनी जिंदगी से जो मिसाली नमूना कायम किया है, कियामत तक तमाम 
मुस्लिहीन (सुधारकों) को उसी के मुताबिक बनना है। इस्लाह के काम के लिए जरूरी है कि 
आदमी जिन लोगों के दर्मियान काम करने उठे उन्हें हर एतबार से वह ‘अपना? नजर आए। 
उसकी जबान, तर्ज कलाम, रहन-सहन हर चीज अजनबियत से पाक हो। वह अपने और 
मुखातिबीन (संबोधित वर्ग) के दर्मियान ऐसी फजा न बनाए जो किसी पहलू से एक-दूसरे को 
दूर करने वाली हो या एक को दूसरे के मुकाबले में फरीक (पक्ष) बनाकर खड़ा कर दे। लोगों 
के दर्मियान जो काम करना है वह सबसे पहले यह है कि लोगों के अंदर यह सलाहियत पैदा 
की जाए कि वे उन निशानियों को पढ़ने लगें जो उनकी जात (निजी जीवन) में और बाहर 
की दुनिया में फैली हुई हैं। वे अल्लाह की दलीलों को जानकर उन्हें अपने जेहन का जुज 
बनाएं। दूसरा काम 'तञ्किया' (आन्तरिक शुद्धिकरण) है। यह मकसद जबानी गुफ्तगू और 
सोहबत (सान्निध्य) के जरिए हासिल होता है। आम तहरीर और तकरीर में बात ज्यादातर 
उसूली अंदाज में होती है जबकि इंफिरादी (व्यक्तिशः) गुपतगुओं में बात ज्यादा सुनिश्चित 
और विस्तृत होती है। साथ ही दाऔ (आह्वानकर्ता) का अपना वजूद भी पूरी तरह उसके 
प्रोत्साहन पर मौजूद रहता है आम कलाम अगर दावत (आह्वान) होता है तो इंफरादी 
मुलाकातें संबोधित व्यक्ति के लिए तज्किया का जरिया बन जाती हैं। तीसरी चीज किताब है। 
यानी जिंदगी गुजारने की बाबत आसमानी हिदायतों को बताना जिसका दूसरा नाम शरीअत 
है। और चौथी चीज हिक्मत है। यानी दीन के गहरे भेदों से पर्दा उठाना, पंक्तियों के मध्य 
छुपी हुई हकीकतों को स्पष्ट करना। 





सूरह-3. आले इमरान 


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और जब तुम्हें ऐसी मुसीबत पहुंची जिसकी दुगनी मुसीबत तुम पहुंचा चुके थे तो तुमने 
कहा कि यह कहां से आ गई। कहो यह तुम्हारे अपने पास से है। बेशक अल्लाह हर 
चीज पर कादिर है। और दोनों जमाअतों के मुठभेड़ के दिन तुम्हें जो मुसीबत पहुंची वह 
अल्लाह के हुक्म से पहुंची और इस वास्ते कि अल्लाह मोमिनों को जान ले और उन्हें 
भी जान ले जो मुनाफिक (पाखंडी) थे जिनसे कहा गया कि आओ अल्लाह की राह में 

लड़ो या दुश्मन को हटाओ। उन्होंने कहा अगर हम जानते कि जंग होना है तो हम जरूर 
तुम्हारे साथ चलते। ये लोग उस दिन ईमान से ज्यादा कुफ्र के करीब थे। वे अपने मुंह 

से वह बात कहते हैं जो उनके दिलों में नहीं है और अल्लाह उस चीज को ख़ूब जानता 

है जिसे वे छुपाते हैं। ये लोग जो ख़ुद बैठे रहे, अपने भाइयों के बारे में कहते हैं कि 
अगर वे हमारी बात मानते तो वे मारे न जाते। कहो तुम अपने ऊपर से मौत को हटा 
दो अगर तुम सच्चे हो। (65-68) 


हक और बातिल के मुकाबले में आखिरी फतह हक की होती है। क्योंकि अल्लाह हमेशा 
हक के साथ होता है। ताहम यह दुनिया इम्तेहान की दुनिया है। यहां शरपसंदों को भी अमल 
की पूरी आजादी है। इसलिए कभी ऐसा होता है कि अहले हक की किसी कमजोरी (मसलन 
आपसी मतभेदों) से फायदा उठा कर शरपसंद उन्हें वक्ती नुक्सान पहुंचाने में कामयाब हो 
जाते हैं। ताहम इस तरह के वाकेआत का एक मुफीद पहलू भी है। इसके जरिए खुद 
मुसलमानों की जमाअत की जांच हो जाती है। प्रतिकूल हालत को देखकर गैर-मुख्लिस लोग 
छंट जाते हैं और जो सच्चे मुसलमान हैं वे अल्लाह पर भरोसा करते हुए जमे रहते हैं। इस 
तरह मालूम हो जाता है कि कौन काबिले एतमाद है और कौन नाकाबिले एतमाद | मजीद यह 
कि इत्तेफाकी गलती से नुक्सान उठाने के बाद जब अहले इमान दुबारा सब्र, इनाबत 
(कर्तव्यनिष्ठा) और अल्लाह पर भरोसे का सुबूत देते हैं तो अल्लाह की रहमत उनकी तरफ 
पहले से भी ज्यादा मुतवज्जह हो जाती है। 


पारा 4 I78 


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सूरह-3. आले इमरान I79 पारा 4 


हक और बातिल के मोर्चे में जो लोग इस तरह शिकत करें कि उसी की राह में अपने 
को मिटा दें, उनके बारे में दुनिया वाले अक्सर अफसोस के साथ कहते हैं कि उन्होंने व्यर्थ 
में अपने को बर्बाद कर लिया। मगर यह सिर्फ नादानी की बात है। अल्लाह की राह में खोना 
ही तो सबसे बड़ा पाना है। क्योंकि जो लोग अल्लाह की राह में अपना सब कुछ कुर्बान कर 
दें वही वे लोग हैं जो सबसे ज्यादा अल्लाह के इनामात के मुस्तहिक करार दिए जाएँगे। 

अल्लाह की राह में जान देने वालों का जिक्र नादान लोग इस तरह करते हैं जैसे दूसरी 
राहों में अपनी जिंदगियां लगाने वालों पर मोत नहीं आती, जैसे कि सिर्फ अल्लाह की राह के 
मुजाहिदीन मरते हैं दूसरे लोग मरते ही नहीं। जाहिर है कि यह बात सरासर बेमअनी है। मौत 
खुदा का एक आम कानून है। वह बहरहाल हर एक के लिए अपने वक्त पर आने वाली है। 
आदमी चाहे एक रास्ते में चल रहा हो या दूसरे रास्ते में, वह किसी हाल में मौत के अंजाम 
से बच नहीं सकता। 

जो लोग इस किस्म की बातें करते हैं वे कभी अपनी बात में संजीदा नहीं होते। उनका 
दिल तो एतराफ कर रहा होता है कि हक के लिए कुर्बानी न देकर उन्होंने सख्त कोताही की 
है। मगर जबान से कुर्बानी करने वालों को मतऊन (लाछित) करके अपना जाहिरी भरम 
कायम रखना चाहते हैं। वे अपनी जबान से ऐसे अल्फाज बोलते हैं जिनके बारे में खुद उनका 
दिल गवाही दे रहा होता है कि ये झूठे अल्फाज हैं इनकी कोई वाकई हकीकत नहीं। 


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और जो लोग अल्लाह की राह में मारे गए उन्हें मुर्दा न समझो। बल्कि वे ज़िंदा हैं अपने 
रब के पास, उन्हें रोज़ी मिल रही है। वे खुश हैं उस पर जो अल्लाह ने अपने फज्ल में 








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पारा 4 I80 सूरह-3. आले इमरान 


से उन्हें दिया है और खुशखबरी ले रहे हैं कि जो लोग उनके पीछे हैं और अभी वहां 
नहीं पहुंचे हैं उनके लिए भी न कोई ख़ौफ है और न वे ग़मगीन होंगे। वे खुश हो रहे 

हैं अल्लाह के इनाम और फज्ल पर और इस पर कि अल्लाह ईमान वालों का अज्र जाये 

नहीं करता। जिन लोगों ने अल्लाह और रसूल के हुक्म को माना बाद इसके कि उन्हें 
जख्म लग चुका था, इनमें से जो नेक और मुत्तकी हैं उनके लिए बड़ा अज्र है जिनसे 

लोगों ने कहा कि दुश्मन ने तुम्हारे खिलाफ बड़ी ताकत जमा कर ली है उससे डरो। 

लेकिन इस चीज ने उनके ईमान में और इजाफा कर दिया और वे बोले कि अल्लाह 

हमारे लिए काफी है और वह बेहतरीन कारसाज है। पस वे अल्लाह की नेमत और 

उसके फज्ल के साथ वापस आए। इन लोगों को कोई बुराई पेश न आयी। और वे 
अल्लाह की रिजामंदी पर चले और अल्लाह बड़ा फज्ल वाला है। यह शैतान है जो तुम्हे 

अपने दोस्तों के जरिए डराता है। तुम उनसे न डरो बल्कि मुझसे डरो अगर तुम मोमिन 
हो। (69-75) 


जो लोग इस्लाम के दुश्मनों से लड़े और शहीद हुए उन्हें मुनाफिकीन मौते जियाअ (व्यर्थ 
की मौत) कहते थे। उनका ख्याल था कि ये मुसलमान एक शख्स (मुहम्मद सल्ल०) के 
बहकावे में आकर अपनी जानें जाया कर रहे हैं। फरमाया कि जिसे तुम मौत समझते हो वही 
हकीकत में जिगी है। तुम सिर्फ नेया का नफ नुक्सान जानते हो। यही वजह है कि 
आखिरत की राह में जान देना तुम्हें अपने आपको बर्बाद करना मालूम होता है। मगर अल्लाह 
की राह में मरने वाले तुमसे ज्यादा बेहतर जिंदगी पाए हुए हैं। वे आख़िरत में तुमसे ज्यादा 
ऐश की हालत में हैं। 

शैतान का यह तरीका है कि वह जिन इंसानों को अपने करीब पाता है उन्हें उकसा कर 
खड़ा कर देता है कि वे दीन की तरफ बढ़ने के ख़फनाक नतीजों को दिखा कर लोगों को 
दीन के महाज से हटा दें। ये लोग विरोधियों की ताकत बढ़ा-चढ़ाकर बयान करते हैं ताकि 
अहले ईमान मरऊब हो जाएं। मगर इस किस्म की बातें अहले ईमान के हक मे मुफीद साबित 
होती हैं। क्योंकि उनका यह यकीन नए सिरे से जिंदा हो जाता है के मुश्किल हालात में उनका 
ख़ुदा उन्हें तंहा नहीं छोड़ेगा। 

उहुद की जंग मदीना से तकरीबन दो मील की दूरी पर हुई। जंग के बाद मुंकिरों का 
लश्कर अबू सुफयान की कयादत में वापस रवाना हुआ। मदीना से आठ मील पर हमरा उल 
असद पहुंच कर उन्होंने पड़ाव डाला । यहां उनकी समझ में यह बात आयी कि उहुद से वापस 
होकर उन्होंने गलती की है। यह बेहतरीन मौका था कि मदीना तक मुसलमानों का पीछा 
किया जाता और उनकी ताकत का आखिरी तौर पर ख़ात्मा कर दिया जाता। इस दर्मियान 
मेंउन्हें कबीला अब्दुल वैस का एक तिजारती काफिला मिल गया जो मदीना जा रहा था। मुकिरों 
ने इस काफिले को कुछ रकम देकर आमादा किया कि वह मदीना पहुंचकर ऐसी ख़बरें फैलाए 
जिससे मुसलमान डर जाएं। अतः काफिले वालों ने मदीना पहुंच कर कहना शुरू किया कि हम 
देख आए हैं कि मक्का वाले भारी लश्कर जमा कर रहे हैं और दुबारा मदीना पर हमला करने 





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सूरह-3. आले इमरान I8I पारा 4 


वाले हैं। मगर मुसलमानों का अल्लाह पर भरोसा इस बात की जमानत बन गया कि मुंकिरों 
की तदबीर उल्टी पड़ जाए। इसका फायदा यह हुआ कि मुसलमान अपने दुश्मनों के इरादे से 
बाख़बर हो गए। इससे पहले कि मक्का वालों की फौज मदीना की तरफ चले वे ख़ुद पैगम्बर 

की रहनुमाई में अपनी टुकड़ी बना कर तेजी से हमरा अल असद की तरफ रवाना हो गए। 
मक्का वालों को जब यह ख़बर मिली कि मुसलमानों की फौज पहल करके उनकी तरफ आ 
रही है तो वे समझे कि मुसलमानों को नई कुमक मिल गई है। वे घबरा कर मक्का की तरफ 
वापस चले गए। 


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और वे लोग तुम्हारे लिए ग़म का सबब न बनें जो इंकार में सबकत (तत्परता, जल्दी) 
कर रहे हैं। वे अल्लाह को हरगिज कोई नुक्सान नहीं पहुंचा सकेगे। अल्लाह चाहता 

है कि उनके लिए आखिरत में कोई हिस्सा न रखे। उनके लिए बड़ा अजाब है। जिन 
लोगों ने ईमान के बदले कुफ्र को ख़रीदा है वे अल्लाह का कुछ बिगाड़ नहीं सकते और 
उनके लिए दर्दनाक अजाब है। और जो लोग कुफ्र कर रहे हैं यह ख्याल न करें कि हम 

जो उन्हें मोहलत दे रहे हैं यह उनके हक में बेहतर है। हम तो बस इसलिए मोहलत 

दे रहे हैं कि वे जुर्म में और बढ़ जाएं और उनके लिए जलील करने वाला अजाब है। 
अल्लाह वह नहीं कि मुसलमानों को उस हालत पर छोड़ दे जिस तरह कि तुम अब हो 
जब तक कि वह नापाक को पाक से जुदा न कर ले। और अल्लाह यूं नहीं कि तुम्हें 
ग़ैब से ख़बरदार कर दे। बल्कि अल्लाह छांट लेता है अपने रसूलों में जिसे चाहता है। 
पस तुम ईमान लाओ अल्लाह पर और उसके रसूलों पर। और अगर तुम ईमान लाओ 
और परहेजगारी अपनाओ तो तुम्हारे लिए बड़ा अज्र है। (76-79) 








जिंदगी का असल मसला वह नहीं जो दिखाई दे रहा है, असल मसला वह है जो आंखों से 
ओझल है। लोग दुनिया की जहन्नम से बचने की फिक्र करते हैं और अपनी सारी तवज्जोह दुनिया 


पारा 4 82 सूरह-3. आले इमरान 


की जन्नत को हासिल करने में लगा देते हैं। मगर ज्यादा अक्लमंदी की बात यह है कि आदमी 
आखिरत की जहन्नम से अपने को बचाए और वहां की जन्नत की तरफ दैड़े। दुनिया में पैसे वाला 
होना और बे पेसे वाला होना, जायदाद वाला होना और बेजायदाद वाला होना, इज्जत वाला होना 
और बेइज्जत वाला होना, ये सब वे चीजँहैंजो हर आदमी को आंखों से नजर आती हैं। इसलिए 
वह इन पर टूट पड़ता है, वह अपनी सारी कोशिश इस मकसद के लिए लगा देता है कि वह यहां 
महरूम न रहे। मगर इंसान का अस्ल मसला आखिरत का मसला है जिसे अल्लाह ने इम्तेहान की 
मस्लेहत से छुपा दिया है और इससे लोगों को ख़बरदार करने के लिए यह तरीका मुरकर फरमाया 
है कि वह अपने कुछ बंदों को गैब की पैगामबरी के लिए चुने। उन्हें मौत के उस पार की हकीकतों 
से ख़बरदार करे और फिर उन्हें मुकर्रर करे कि वे दूसरों को इससे बाख़बर करें। इंसान की असल 
जांच यह है कि वह खुदा के दाऔ की आवाज में सच्चाई की झलकियों को पाले, वह एक लफ्जी 
पुकार में हकीकत की अमली तस्वीर देख ले। वह अपने जैसे एक इंसान की बातों में खुदाई बात 
की गूंज सुन ले। 

ईमान यह है कि आदमी ख़ुदपसंदी न करे। क्योंकि ख़ुदपसंदी ख़ुदा के बजाए अपने 
आपको बड़ाई का मकाम देना है। वह दुनिया में गर्क न हो। क्योंकि दुनिया में गर्क होना 
जाहिर करता है कि आदमी आखिरत को असल अहमियत नहीं देता। वह किब्र (बड़ापन, 
घमंड), बुख्ल (कंजूसी), नाइंसाफी और गैर अल्लाह की अकीदत व मुहब्बत से अपने को 
बजाए और इसकी बजाए खुदापरस्ती, तवाजोअ (विनम्रता, सदाशयता), फय्याजी (सहृदयता) 
और इंसाफपसंदी को अपना शेवा बनाए। ऐसा करना साबित करता है कि आदमी अपने 
ईमान में संजीदा है। उसने वाकई अपने आपको खुदा और आख़िरत की तरफ लगा दिया है। 
और ऐसा न करना जाहिर करता है कि वह अपने ईमान में संजीदा नहीं। ईमान के इकरार 
के बावजूद अमलन वह उसी दुनिया में जी रहा है जहां दूसरे लोग जी रहे हैं। आख़िरत में 
ख़बीस रूहों और तय्यब (पाक) रूहों की जो तकसीम होगी वह हकीकत के एतबार से होगी 
न कि महज जाहिरी नुमाइश के एतबार से। दुनिया में बुरे लोगों को जो ढील दी गयी है वह 
सिफ इसलिए है कि वे अपने अंदर की बुराई को पूरी तरह जाहिर कर दें। मगर वे चाहे 
कितनी ही कोशिश करें वे अहले हक को जेर करने में कामयाब नहीं हो सकते। वे अपनी 
आजादी को सिर्फ अपने खिलाफ इस्तेमाल कर सकते हैं न कि दूसरों के छिलाफ। 

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सूरह-3. आले इमरान I83 पारा 4 
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और जो लोग बुख्ल (कजूसी) करते हैं उस चीज में जो अल्लाह ने उन्हें अपने फज्ल में 
से दिया है वे हरगिज यह न समझें कि यह उनके हक में अच्छा है। बल्कि यह उनके 
हक में बहुत बुरा है जिस चीज में वे बुल कर रहे हैं उसका कियामत के दिन उन्हे तोक 
पहनाया जाएगा। और अल्लाह ही वारिस है जमीन और आसमान का और जो कुछ 
तुम करते हो अल्लाह उससे बाख़बर है। अल्लाह ने उन लोगों का कील सुना जिन्होंने 
कहा कि अल्लाह गनी है और हम मोहताज हैं। हम लिख लेंगे उनके इस कौल को और 
उनके पैग़म्बरों को नाहक मार डालने को भी। और हम कहेंगे कि अब आग का अजाब 
चखो। यह तुम्हारे अपने हाथों की कमाई है और अल्लाह अपने बंदों के साथ नाइंसाफी 
करने वाला नहीं। जो लोग कहते हैं कि अल्लाह ने हमें हुक्म दिया है कि हम किसी 
रसूल को तस्लीम न करें जब तक कि वह हमारे सामने ऐसी कुर्बानी पेश न करे जिसे 
आग खाले, उनसे कहो कि मुझसे पहले तुम्हारे पास रसूल आए खुली निशानियां लेकर 
और वह चीज लेकर जिसे तुम कह रहे हो फिर तुमने क्यों उन्हें मार डाला, अगर तुम 
सच्चे हो। पस अगर ये तुम्हें झुठलाते हैं तो तुमसे पहले भी बहुत से रसूल झुठलाए जा 
चुके हैं जो खुली निशानियां और सहीफे और रोशन किताब लेकर आए थे। हर शख्स 
को मोत का मजा चखना है और तुम्हें पूरा अज्र तो बस कियामत के दिन मिलेगा। 


पस जो शख्स आग से बच जाए और जन्नत में दाखिल किया जाए वही कामयाब रहा 
और दुनिया की जिंदगी तो बस धोखे का सौदा है। (80-85) 


जाहिरी तौर पर आदमी एक कील देकर मोमिन बन जाता है मगर अल्लाह की नजर में 
वह उस वक्त मोमिन बनता है जबकि वह अपनी जान और माल को अल्लाह की राह में दे 
दे। जान व माल की कुर्बानी के बगैर किसी का ईमान अल्लाह के यहां मोतबर नहीं। आदमी 
अपने माल को इसलिए बचाता है कि वह समझता है कि इस तरह वह अपने दुनियावी 
मुस्तकबिल (भविष्य) की सुरक्षा का रहा है। मगर आदमी का हकीकी मुस्तकबिल वह है जो 
आखिरत में सामने आने वाला है और आखिरत की दुनिया में ऐसा बचाया हुआ माल आदमी 
के हक मेंसिर्फवबाल साबित हेगा । जो माल दुनिया में जैनत और फख़् का जरिया दिखाई 
दे रहा है वह आख़िरत में ख़ुदा के हुक्म से सांप का रूप धार लेगा और सदैव उसे डसता रहेगा। 





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पारा 4 I84 सूरह-3. आले इमरान 


जो लोग कुर्बानी वाले दीन को नहीं अपनाते वे अपने को सही साबित करने के लिए 
विभिन्न बातें करते हैं। मसलन यह कि यह माल खुदा ने हमारी जरूरत के लिए पैदा किया 
है फिर क्यों न हम इसे अपनी जरूरतों पर ख़र्च करें और इससे अपने दुनियावी आराम का 
सामान करें। कभी उनकी बेहिसी उन्हें यहां तक ले जाती है कि वे ख़ुद हक के दाऔ 
(आह्वानकर्ता) को संदिग्ध करने के लिए तरह-तरह के शोशे निकालते हैं ताकि यह साबित 
कर सकें कि वह शख्स सच्चा दाऔ ही नहीं जिसका जुहूर (प्रकट होना) यह तकाजा कर 
रहा है कि अपनी जिंदगी और अपने माल को कुर्बान करके उसका साथ दिया जाए। इस 
किस्म के लोग जो बातें कहते हैं वे बजाहिर दलील के रूप में होती हैं मगर हकीकत में वे 
ईमानी तकाजों से फरार के लिए हैं। इसलिए चाहे कैसी ही दलील पेश की जाए वे इसे रदद 
करने के लिए कुछ न कुछ अल्फाज तलाश कर लेंगे। ये वे लोग हैं जो इस बात को भूल 
गए हैं कि उनका आखिरी अंजाम मौत है, और मौत का मरहला सामने आते ही सूरतेहाल 
बिल्कुल बदल जाएगी। मौत तमाम झूठे सहारों को बातिल कर देगी। इसके बाद आदमी अपने 
आपको ठीक उस मकाम पर खड़ हुआ पाएगा जहां वह हकीकत में था न कि उस मकाम 
पर जहां वह अपने आपको जाहिर कर रहा था। मौजूदा दुनिया में किसी का तरक्की करना 
या मौजूदा दुनिया में किसी का नाकाम हो जाना, दोनों हकीकत के एतबार से एक ही सतह 
की चीजें हैं। न यहां की नेमतें किसी के बरहक होने का सुबूत हैं और न किसी का यहां 
मुश्किलों और मुसीबतों में मुब्तला होना उसके बरसरे बातिल (असत्यवादी) होने का सुबूत। 
क्योंकि दोनों ही इम्तेहान के नक्शे हैं न कि अंजाम की अलामतें। 


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यकीनन तुम अपने जान व माल में आजमाए जाओगे। और तुम बहुत सी तकलीफदेह 
बातें सुनोगे उनसे जिन्हें तुमसे पहले किताब मिली और उनसे भी जिन्होंने शिक किया। 
और अगर तुम सब्र करो और तकवा इख्तियार करो तो यह बड़े हौसले का काम है। 
और जब अल्लाह ने अहले किताब से अहद लिया कि तुम ख़ुदा की किताब को पूरी 
तरह लोगों के लिए जाहिर करोगे और उसे नहीं छुपाओगे। मगर उन्होंने इसे पीठ पीछे 


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सूरह-3. आले इमरान I85 पारा 4 


डाल दिया और इसे थोड़ी कीमत पर बेच डाला। केसी बुरी चीज है जिसे वे ख़रीद रहे 

हैं। जो लोग अपने इन करतूतों पर खुश हैं और चाहते हैं कि जो काम उन्होंने नहीं किए 
उस पर उनकी तारीफ हो, उन्हं अजाब से बरी न समझो। उनके लिए दर्दनाक अजाब 

है। और अल्लाह ही के लिए है जमीन और आसमान की बादशाही, और अल्लाह हर 
चीज पर कादिर है। (86-89) 


ईमान का सफर आदमी को ऐसी दुनिया में तै करना होता है जहां अपनों और गैरों की 
तरफ से तरह-तरह के जखम लगते हैं। मगर मोमिन के लिए जरूरी होता है कि वह रद्देअमल 
को नफ्सियात में मुब्तला न हो, वह सूरतेहाल का मुस्बत (सकारात्मक) जवाब देते हुए आगे 
बढ़ता रहे। लोगों की तरफ से उत्तेजना दिलाने वाले अवसर आते हैं मगर वह पाबंद होता है कि 
हर किस्म के झटकों को अपने ऊपर सहे और जवाबी जेहन के तहत कोई कार्रवाई न करे। 
बार-बार ऐसे मामलात सामने आते हैं जबकि दिल कहता है ख़ुदा की हदों को तोड़ कर अपना 
उद्देश्य हासिल किया जाए, मगर अल्लाह का डर उसके कदमों को रोक देता है। इसी तरह दीन 
की विभिन्न जरूरते सामने आती हैं और जान व माल की कुर्बानी का तकाजा करती हैं ऐसे 
मौकों पर आसान दीन को छोड़कर मुश्किल दीन अपनाना पड़ता है। यह वाकया ईमान के सफर 
को हिम्मत और आली हौसलगी का जबरदस्त इम्तेहान बना देता है। हकीकत यह है कि मोमिन 
बनना अपने आपको सब्र और तकवा के इम्तेहान में खड़ा करना है। जो इस इम्तेहान में पूरा 
उतरा वह मोमिन बना जिसके लिए आख़िरत में जन्नत के दरवाजे खोले जाएंगे। 

आसमानी किताब के हामिल (धारक) जब किसी गिरोह पर जवाल (पतन) आता है तो 
ऐसा नहीं होता कि वह ख़ुदा और रसूल का नाम लेना छोड़ दे या ख़ुदा की किताब से अपनी 
बेतअल्लुकी का एलान कर दे। दीन ऐसे गिरोह की नस्ली रिवायत में शामिल हो जाता है। 
वह उसका पुरफख़ कौमी असासा (धरोहर) बन जाता है। और जिस चीज से इस तरह का 
नस्ली और कौमी तअल्लुक कायम हो जाए उससे अलग होना किसी गिरोह के लिए मुमकिन 
नहीं होता। ताहम इसका यह तअल्लुक महज रस्मी तअल्लुक होता है न कि वास्तव में कोई 
हकीकी तअल्लुक। वे अपनी दुनियावी सरगर्मियां भी दीन के नाम पर जारी करते हैं। वे बेदीन 
होकर भी अपने को दीनदार कहलाना चाहते हैं। वे चाहने लगते हैं कि उन्हें उस काम का 
क्रेडिट दिया जाए जिसे उन्होंने किया नहीं। वे आखिरत की नजात से बेफिक्र होकर जिंदगी 
गुजारते हैं और इसी के साथ ऐसे अकीदे बना लेते हैं जिनके मुताबिक उन्हें अपनी नजात 
बिल्कुल महफूज नजर आती है। वे अपने गढ़े हुए दीन पर चलते हैं मगर अपने को खुदाई 
दीन का अलमबरदार बताते हैं। वे दुनियावी मक्सदों के लिए सरगर्म होते हैं और अपनी 
सरगर्मियोँ को आखिरत का उन्वान देते हैं। वे खुदसाख्ता सियासत चलाते हैं और उसे खुदाई 
सियासत साबित करते हैं। वे कौमी मफादात (हितों) के लिए उठते हैं और एलान करते हैं कि 
वे ख़ैरुल उमम का किरदार अदा करने के लिए खड़े हुए हैं। मगर कोई शख्स बेदीनी को दीन 
कहने लगे तो इस बुनियाद पर वह अल्लाह की पकड़ से बच नहीं सकता । आदमी दुनिया की 
तरफ दौड़े और आखिरत से बेपरवाह हो जाए तो यह सिफ गुमराही है और अगर वह अपने 
दुनियावी कारोबार को ख़ुदा और रसूल के नाम पर करने लगे तो यह गुमराही पर ढ़िठाई का 
इजाफा है। क्योंकि यह ऐसे काम पर इनाम चाहना है जिसे आदमी ने किया ही नहीं। 

















पारा 4 I86 


सूरह-3. आले इमरान 
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आसमानाँ और जमीन की पेदाइश और रात दिन के बारी-बारी आने में अक्ल वालों 
के लिए बहुत निशानियां हैं। जो खड़े और बैठे और अपनी करवटों पर अल्लाह को याद 
करते हैं और आसमानां और जमीन की पेदाइश पर शौर करते रहते हैं। वे कह उठते 
हैं ऐ हमारे रब तूने यह सब बेमक्सद नहीं बनाया है। तू पाक है, पस हमें आग के 
अजाब से बचा। ऐ हमारे रब तूने जिसे आग में डाला उसे तूने वाकई रुसवा कर दिया। 
और जालिमाँ का कोई मददगार नहीं। ऐ हमारे रब हमने एक पुकारने वाले को सुना 
जो ईमान की तरफ पुकार रहा था कि अपने रब पर ईमान लाओ। पस हम ईमान लाए। 
ऐ हमारे रब हमारे गुनाहों को बख्श दे और हमारी बुराइयों को हमसे दूर कर दे और 
हमारा खात्मा नेक लोगों के साथ कर। ऐ हमारे रब तूने जो वादे अपने रसूलों के जरिए 


हमसे किए हैं उन्हें हमारे साथ पूरा कर और कियामत के दिन हमें रुसवाई में न डाल। 
बेशक तू अपने वादे के खिलाफ करने वाला नहीं है। (90-94) 











कायनात अपने पूरे वजूद के साथ एक ख़ामोश एलान है। आदमी जब अपने कान और 
आंख से मसनूई (कृत्रिम) पर्दो को हटाता है तो वह इस ख़ामोश एलान को हर तरफ से सुनने 
और देखने लगता है। उसे नामुमकिन नजर आता है कि एक ऐसी कायनात जिसके सितारे 
और सय्यारे (ग्रह) खरबों साल तक भी ख़त्म नहीं होते वहां इंसान अपनी तमाम तमन्नाओं 
और ख़ाहिशों को लिए हुए सिर्फ पचास-सौ वर्षो में ख़त्म हो जाए। एक ऐसी दुनिया जहां 
दरख्तों का हुस्न और फूलों की लताफत है। जहां हवा और पानी और सूरज जैसी बेशुमार 
बामअना चीजों का एहतेमाम किया गया है वहां इंसान के लिए हुज्न (अति दुख) और गम के 
सिवा कोई अंजाम न हो। फिर यह भी उसे नामुमकिन नजर आता है कि एक ऐसी दुनिया जहां 
यह अथाह इम्कान रखा गया है कि यहां एक छोटा सा बीज जमीन में डाला जाए तो उसके 
अंदर से हरे-भरे दरख्त की एक पूरी कायनात निकल आए, वहां आदमी नेकी की जिंदगी 


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सूरह-3. आले इमरान I87 पारा 4 


इख्तियार करके भी उसका कोई फल न पाता हो। एक ऐसी दुनिया जहां हर रोज तारीक रात 
के बाद रोशन दिन आता है वहां सदियां गुजर जाएं और अदूल व इंसाफ का उजाला अपनी 
चमक न दिखाए। एक ऐसी दुनिया जिसकी गोद में जलजले और तूफान सो रहे हैं वहां इंसान 
जुम पर जुल्म करता रहे मगर कोई उसका हाथ पकड़ने वाला सामने न आए । जो लोग हकीकतों 
में जीते हैं और गहराइयों में उतरकर सोचते हैं उनके लिए नाकाबिले यकीन हो जाता है कि 
एक बामअना (सार्थक) कायनात बेमअना (निरर्थक) अंजाम पर ख़त्म हो जाए। वे जान लेते 
हैं कि हक का दाओ जो पैग़ाम दे रहा है वह शब्दों की जबान में उसी बात का एलान है जो 
खामोश जबान में सारी कायनात में नशर हो रहा है। उनके लिए सबसे बड़ा मसला यह बन जाता 
है कि जब सच्चाई खुले और जब इंसाफ का सूरज निकले तो उस दिन वे नाकाम व नामुराद 
न हो जाएं। वे अपने रब को पुकारते हुए उसकी तरफ दौड़ पड़ते हैं, वे मफाद और मस्लेहतों 
की तमाम हदों को तोड़कर हक के दाओ के साथ हो जाते हैं ताकि कायनात का 'उजाला' और 
कायनात का “अंधेरा” एक दूसरे से अलग हो जाएं तो कायनात का मालिक उन्हें उजाले में जगह 
दे। वह उन्हें अंधेरे में ठोकरें खाने के लिए न छोड़े। 
अवल और बेअव्ली का हकीकी पैमाना उससे बिल्कुल भिन्न है जो इंसानों ने खुद बना 
रखा है। यहां अक्ल वाला वह है जो अल्लाह की याद में जिए, जो कायनात के तख्लीकी 
(रचनात्मक) मंसूबे में काम आने वाली खुदाई सार्थकता को पा ले। इसके विपरीत बेअक्ल वह 
है जो अपने दिल व दिमाग़ को अन्य चीजों में अटकाए, जो दुनिया में इस तरह जिंदगी गुजारे 
जैसे कि उसे कायनात के मालिक के तख्नीकी मंसूबे (C९ati०n 7५7) की ख़बर ही नहीं। 
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पारा 4 सूरह-3. आले इमरान 
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उनके रब ने उनकी दुआ कुबूल फरमाई कि मैं तुममें से किसी का अमल जाये करने 

वाला नहीं, चाहे वह मर्द हो या औरत, तुम सब एक-दूसरे से हो। पस जिन लोगों ने 
हिजरत की और जो अपने घरों से निकाले गए और मेरी राह में सताए गए और वे लड़े 
और मारे गए उनकी ख़ताएं जरूर उनसे दूर कर दूंगा और उन्हें ऐसे बाग़ों में दाखिल 
करूंगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी। यह उनका बदला है अल्लाह के यहां और 
बेहतरीन बदला अल्लाह ही के पास है। और मुल्क के अंदर मुंकिरों की सरगर्मियां तुम्हें 
धोखे में न डालें यह थोड़ा सा फायदा है। फिर उनका ठिकाना जहन्नम है और वह कैसा 
बुरा ठिकाना है। अलबत्ता जो लोग अपने रब से डरते हैं उनके लिए बाग़ होंगे जिनके 
नीचे नहरें बहती होंगी वे उसमें हमेशा रहेगे। यह अल्लाह की तरफ से उनकी मेजबानी 

होगी और जो कुछ अल्लाह के पास है नेक लोगों के लिए है वही सबसे बेहतर है। और 
बेशक अहले किताब में कुछ ऐसे भी हैं जो अल्लाह पर ईमान रखते हैं और उस किताब 
को भी मानते हैं जो तुम्हारी तरफ भेजी गई है और उस किताब को भी मानते हैं जो 
इससे पहले खुद उनकी तरफ भेजी गई थी, वे अल्लाह के आगे झुके हुए हैं और अल्लाह 
की आयतों को थोड़ी कीमत पर बेच नहीं देते। उनका अज्र उनके रब के पास है और 
अल्लाह जल्द हिसाब लेने वाला है। ऐ ईमान वालो, सब्र करो और मुकाबले में मजबूत 

रहो और लगे रहो और अल्लाह से डरो, उम्मीद है कि तुम कामयाब होगे। (95-200) 


अहले ईमान की जिम्मेदाराना जिंदगी उन्हें नफ्स की आजादियों से महरूम कर देती है। 
उनके हक के एलान में बहुत से लोगों को अपने वजूद को तरदीद (निरस्तीकरण) दिखाई देने 
लगती है और वे उनके दुश्मन बन जाते हैं। यह सूरतेहाल कभी इतनी शदीद हो जाती है कि 
वे अपने वतन में बेवतन कर दिए जाते हैं उन्हें विरोधियों की जालिमाना कार्रवाइयों के 
मुकाबले में खड़ा होना पड़ता है। अल्लाह के दीन को उन्हें जान व माल की कुर्बानी की कीमत 
पर अपनाना होता है। इन इम्तेहानों में पूरा उतरने के लिए अहले ईमान को जो कुछ करना 
है वह यह कि वे दुनिया की मस्लेहतों की खातिर आख़िरत की मस्लेहतों को भूल न जाएं। 
वे मुश्किलों और नाखुशगवारियों पर सब्र करें, वे अपने अंदर उभरने वाले मंफी (नकारात्मक) 
जज्बात को दवाएं और मुतअस्सिर (प्रभावित) जेहन के तहत कार्रवाई न करें। फिर उन्हें बाहर 
के हरीफें (प्रतिपक्षिये के मुकाबले में साबितकदम रहना है। यह साबितकदमी ही वह चीज 
है जो अल्लाह की नुसरत को अपनी तरफ खींचती है। इसी के साथ जरूरी है कि तमाम अहले 
ईमान आपस में एक दूसरे के साथ बंधे रहें, वे दीनी जदूदोजेहद के लिए आपस में जुड़ जाएं 
और एक जान होकर सामूहिक ताकत से मुखालिफ ताकतों का मुकाबला करें। ईमान दरअसल 
सब्र का इम्तेहान है और इस इम्तेहान में वही शख्स पूरा उतरता है जो अल्लाह से डरने वाला 
हो। 


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सूरह-4. अन-निसा I89 पारा 4 


दुनिया में अक्सर ऐसा होता है कि ख़ुदा से बेखोफ और आखिरत से बेपरवाह लोगों को 
जोर और गलबा हासिल हो जाता है। हर किस्म की इज्जत और रोनकें उनके गिर्द जमा हो 
जाती हैं। दूसरी तरफ अहलेईमान अक्सर हालात में बेजोर बने रहते हैं। शान व शौकत का 
कोई हिस्सा उन्हें नहीं मिलता। मगर यह सूरतेहाल इंतिहाई आरजी (अस्थाई) है। कियामत 
आते ही हालात बिल्कुल बदल जाएंगे। बेख़ीफी के रास्ते से दुनिया की इज्जतें समेटने वाले 
रुस्वाई के गढ़े में पड़े होंगे। और ख़ुदा के खौफ की वजह से बेहैसियत हो जाने वाले हर किस्म 
की अबदी (चिरस्थाई) इज्जतों और कामयाबियों के मालिक होंगे। वे अल्लाह के मेहमान होंगे 
और अल्लाह की मेहमानी से ज्यादा बड़ी चीज इस जमीन और आसमान के अंदर नहीं। 


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आयतें-77 सूरह-4. अन-निसा रुकूअ-24 
(मदीना में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान निहायत रहम वाला है। 
ऐ लोगो अपने रब से डरो जिसने तुम्हें एक जान से पेदा किया और उसी से उसका 
जोड़ा पेदा किया और इन दोनों से बहुत से मर्द और औरतें फैला दीं। और अल्लाह 
से डरो जिसके वास्ते से तुम एक दूसरे से सवाल करते हो और ख़बरदार रहो संबंधियों 
से। बेशक अल्लाह तुम्हारी निगरानी कर रहा है। और यतीमों का माल उनके हवाले 
करो। और बुरे माल को अच्छे माल से न बदलो और उनके माल अपने माल के साथ 
मिलाकर न खाओ। यह बहुत बड़ा गुनाह है। और आगर तुम्हें अंदेशा हो कि तुम यतीमों 


पारा 4 I90 सूरह-4. अन-निसा 


के मामले में इंसाफ न कर सकोगे तो औरतों में से जो तुम्हें पसंद हों उन से दो-दो, 
तीन-तीन, चार-चार तक निकाह कर लो। और अगर तुम्हें अंदेशा हो कि तुम अदूल 
(न्याय) न कर सकोगे तो एक ही निकाह करो या जो कनीज (दासी) तुम्हारे अधीन 
हो। इसमें उम्मीद है कि तुम इंसाफ से न हटोगे। और औरतों को उनके महर ख़ुशदिली 

के साथ अदा करो। फिर अगर वे इसमें से कुछ तुम्हारे लिए छोड़ दें अपनी खुशी से 
तो तुम उसे हंसी-खुशी से खाओ। (।-4) 


तमाम इंसान पैदाइश के एतबार से एक हैं। एक ही औरत और एक ही मर्द सबके मां 
और बाप हैं। इस लिहाज से जरूरी है कि हर आदमी दूसरे आदमी को अपना समझे । सबके 
सब एक मुश्तरक (साझे) घराने के अफराद की तरह मिलजुल कर इंसाफ और खैरख़याही के 
साथ रहें। फिर इनमें से जो रहमी (खून के) रिश्ते हैं उनमें यह नस्ली इत्तेहाद और ज्यादा 
करीबी हो जाता है। इसलिए रहमी रिश्तों में हुस्ने सुलूक की अहमियत और ज्यादा बढ़ जाती 
है। इंसानों के दर्मियान इस आपसी हुस्ने सुलूक की अहमियत सिर्फ अख़्ताकी एतबार से नहीं 
है बल्कि यह ख़ुद आदमी का अपना जाती मसला है। क्योंकि तमाम इंसानों के ऊपर अजीम 
व बरतर ख़ुदा है। वह आख़िर में सबसे हिसाब लेने वाला है और दुनिया में उनके अमल के 
मुताबिक आहिरत में उनके अबदी मुस्तकबिल का फैसला करने वाला है। इसलिए आदमी 
को चाहिए कि इंसान के मामले को सिर्फ इंसान का मामला न समझे बल्कि इसे अल्लाह का 
मामला समझे । वह अल्लाह की पकड़ से डरे और अपने आपको उस अमल का पाबंद बनाए 
जो उसे अल्लाह के गजब से बचाने वाला हो। 

हदीसे कुदसी में है कि अल्लाह तआला ने फरमाया कि जो शख्स रहम को जोड़ेगा मैं 
उससे जुडूंगा और जो शख्स रहम को काटेगा मैं उससे कटूंगा । इससे मालूम हुआ कि अल्लाह 
से तअल्लुक का इम्तेहान बंदों से तअल्लुक के मामले में लिया जाता है। वही शख्स अल्लाह 
से डरने वाला है जो बंदों के हुकूक के मामले में अल्लाह से डरे, वही शख्स अल्लाह से मुहब्बत 
करने वाला है जो बंदों के साथ मुहब्बत में इसका सुबूत दे। यह बात आम इंसानी तअल्लुकात 
में भी मत्लूब है। मगर रहमी रिश्तों से हुस्ने सुलूक के मामले में इसको अहमियत इतनी बढ़ 
जाती है कि वह सिर्फ खुदा के बाद दूसरे नम्बर पर है। 

यतीम लड़के और लड़कियां किसी खानदान या समाज का सबसे ज्यादा कमजोर हिस्सा 
होते हैं। इसलिए ख़ुदा से डर का सबसे ज्यादा सख्त इम्तेहान यतीम लड़कों और लड़कियों के 
बारे में होता है। आदमी को चाहिए कि यतीमों के बारे में वही करे जो इंसाफ और ख़ैरख़्वाही 
का तकज होऔ जिसमेयतीमेकेह्क़ यादा से ्यादा महपूजरहनेकी जमानत हे। 
यह बहुत गुनाह की बात है कि मुश्तरका असासा (साझी सम्पत्ति) की ऐसी तकसीम की जाए 
जिसमें अच्छी चीजें अपने हिस्से में रख ली जाएं और दूसरे के हिस्से में ख़राब चीजें डाल कर 
गिनती पूरी कर दी जाए। 








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सूरा-4. अन-निसा I9l पारा 4 


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और नादानाँ को अपना वह माल न दो जिसे अल्लाह ने तुम्हारे लिए कियाम का जरिया 
बनाया है और इस माल में से उन्हें खिलाओ और पहनाओ और उनसे भलाई की बात 
कहो। और यतीमों को जांचते रहो, यहां तक कि जब वे निकाह की उम्र को पहुंच जाएं 
तो अगर उनमें होशियारी देखो तो उनका माल उनके हवाले कर दो। और उनका माल 
अनुचित तरीके से और इस ख्याल से कि वे बड़े हो जाएंगे न खा जाओ। और जिसे 
हाजत न हो वह यतीम के माल से परहेज करे और जो शख्स मोहताज हो वह दस्तूर 
के मुवाफिक खाए। फिर जब तुम उनका माल उनके हवाले करो तो उन पर गवाह ठहरा 
लो और अल्लाह हिसाब लेने के लिए काफी है। मां-बाप और रिश्तेदारों के तरके (छोड़ी 
हुई सम्पत्ति) में से मर्दों का भी हिस्सा है। और मां-बाप और रिश्तेदारों के तरके में 
से औरतों का भी हिस्सा है, थोड़ा हो या ज्यादा हो, एक मुकर्रर किया हुआ हिस्‍्सा। 
और अगर तक़्सीम के वक्‍त रिश्तेदार और यतीम और मोहताज मौजूद हों तो इसमें से 
उन्हें भी कुछ दो और उनसे हमदर्दी की बात कहो। और ऐसे लोगों को डरना चाहिए 
कि अगर वे अपने पीछे कमजोर बच्चे छोड़ जाते तो उन्हें उनकी बहुत फिक्र रहती। पस 
उन्हें चाहिए कि अल्लाह से डरें और बात पक्की कहें। जो लोग यतीमों का माल नाहक 
खाते हैं वे लोग अपने पेटों में आग भर रहे हैं और वे जल्द ही भइ़कती हुई आग में 
डाले जाएंगे। (5-0) 


पारा 4 I92 सूरा-4. अन-निसा 





माल न ऐश के लिए है और न फख़ जाहिर करने के लिए। वह आदमी के लिए जिंदगी 
का जरिया है। वह दुनिया में उसके कयाम और बका (अस्तित्व) का सामान है। माल का 
जीवन-साधन होना एक तरफ यह जाहिर करता है कि इसे ही स्वयं उद्देश्य बना लेना दुरुस्त 
नहीं। दूसरे यह कि यह इंतिहाई जरूरी है कि माल को जाए होने से बचाया जाए और उसे 
उसके हकदार तक पहुंचाने का पूरा एहतमाम किया जाए। किसी के माल को ठीक-ठीक अदा 
न करना गोया खुदा के उस इंतजाम में फसाद डालना है जो खुदा ने अपने बंदों को रिज्क 
पहुंचाने के लिए किया है। यतीम किसी सामाज का सबसे कमजोर हिस्सा होता है इसलिए 
उसके माल की हिफाजत और उसके मामले में हर किस्म के जुल्म से अपने को बचाना और 
भी ज्यादा जरूरी है। यहां तक कि यह भी जरूरी है कि आदमी इंसाफ के मुताबिक उनके 
साथ जो मामला करे उसे लिख कर उस पर गवाही लेले ताकि सामाज के अंदर शिकायत और 
विवाद की फजा पैदा न हो और वह लोगों के सामने जिम्मेदारी से बरी हो सके। जब भी 
आदमी के हाथ में किसी का मामला हो तो उसे यह समझ कर मामला करना चाहिए कि 
उसकी हर कोताही अल्लाह के इल्म में है। साहिबे मामला अपनी कमजोरी की वजह से चाहे 
उसके खिलाफ कुछ न कर सके मगर खुदा उसे जरूर कियामत के दिन पकड़ेगा और अगर 
उसने हक के खिलाफ मामला किया है तो वह उसे सख्त सजा देगा और उसके लिए किसी 
तरह भी खुदा की सजा से बचना मुमकिन न होगा। 

दुनिया में कमजोर का हक दबा कर आदमी खुश होता है। मगर हर नाजाइज माल जो 
आदमी अपने पेट में डालता है वह गोया अपने पेट में आग डाल रहा है। दुनिया में ऐसे माल 
का आग होना बजाहिर महसूस नहीं होता मगर आखिरत में यह हकीकत खुल जाएगी । यहां 
आदमी को अमल की आजादी जरूर दी गयी है मगर नतीजा आदमी के अपने इख़्तियार में 
नहीं। जो शख्स अपने को बुरे अंजाम से बचाना चाहता है उसे दूसरों के साथ भी बुरा नहीं 
करना चाहिए। आदमी को चाहिए कि वह दूसरों के लिए नफाबख्श बने, वह अपनी क्षमता 
के मुताबिक दूसरों को दे। अगर कोई शख्स देने की हैसियत में नहीं है तो आखिरी इस्लामी 
दर्जा यह है कि वह दूसरों का दिल न दुखाए, वह अपनी जबान खोले तो सीधी और सच्ची 
बात कहने के लिए खोले वर्ना ख़ामोश रहे। 


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सूरा-4. अन-निसा I93 पारा 4 
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अल्लाह तुम्हें तुम्हारी औलाद के बारे में हुक्म देता है कि मर्द का हिस्सा दो औरतों 
के बराबर है। अगर औरतें दो से ज्यादा हैं तो उनके लिए दो तिहाई है उस माल से 
जो मूरिस (विरासत छोड़ने वाला) छोड़ गया है और अगर वह अकेली है तो उसके लिए 
आधा है। और म्यत के मां-बाप को दोनों में से हर एक के लिए छठा हिस्सा है उस 
माल का जो वह छोड़ गया है बशर्ते कि मूरिस के औलाद हो। और अगर मूरिस की 
औलाद न हो और उसके मां-बाप उसके वारिस हों तो उसकी मां का तिहाई है और 
अगर उसके भाई बहिन हों तो उसकी मां के लिए छठा हिस्सा है। ये हिस्से वसीयत 
निकालने के बाद या कर्ज की अदायगी के बाद हैं जो वह कर जाता है। तुम्हारे बाप 
हों या तुम्हारे बेटे हों, तुम नहीं जानते कि उनमें तुम्हारे लिए सबसे ज्यादा नफा देने 
वाला कौन है। यह अल्लाह का ठहराया हुआ फरीजा है। बेशक अल्लाह इल्म वाला, 
हिक्मत वाला है। और तुम्हारे लिए उस माल का आधा हिस्सा है जो तुम्हारी बीवियां 
छोड़ें, बशर्ते कि उनके औलाद न हो। और अगर उनके औलाद हो तो तुम्हारे लिए 
बीवियों के तरके का चोथाई है वसीयत निकालने के बाद जिसकी वे वसीयत कर जाएं 
या कर्ज की अदायगी के बाद। और उन बीवियों के लिए चौथाई है तुम्हारे तरके का 
अगर तुम्हारे औलाद नहीं है, और अगर तुम्हारे औलाद है तो उनके लिए आठवां हिस्सा 
है तुम्हारे तरके का वसीयत निकालने के बाद जिसकी तुम वसीयत कर जाओ या कर्ज 
की अदायगी के बाद। और अगर कोई मूरिस मर्द या औरत ऐसा हो जिसके न औलाद 
हो और न मां-बाप जिंदा हों, और उसके एक भाई या एक बहिन हो तो दोनों में से 
हर एक के लिए छठा हिस्सा है। और अगर वे इससे ज्यादा हों तो वे एक तिहाई में 


पारा 4 I94 सूरा-4. अन-निसा 


शरीक होंगे वसीयत निकालने के बाद जिसकी वसीयत की गयी हो या कर्ज की 
अदायगी के बाद, कौर किसी को नुक्सान पहुंचाए। यह हुक्म अल्लाह की तरफ से 

है और अल्लाह अलीम व हलीम है। ये अल्लाह की ठहराई हुई हदें हैं। और जो शख्स 
अल्लाह और उसके रसूल की इताअत करेगा अल्लाह उसे ऐसे बाग़ों में दाखिल करेगा 
जिनके नीचे नहरें बहती होंगी, उनमें वे हमेशा रहेंगे और यही बड़ी कामयाबी है। और 
जो शख्स अल्लाह और उसके रसूल की नाफरमानी करेगा और उसके मुरकर किए हुए 

जाब्तों (नियमों) से बाहर निकल जाएगा उसे वह आग में दाखिल करेगा जिसमें वह 
हमेशा रहेगा और उसके लिए जिल्लत वाला अजाब है। (॥-4) 





आदमी जो कानून बनाता है उसमें किसी न किसी पहलू की तरफ झुकाव हो जाता है। 
पुराने कबाइली दौर में लड़का बहुत अहमियत रखता था। क्योंकि वह कबीले के लिए ताकत 
का जरिया था, इसलिए विरासत में लड़की को महरूम करके सारा हक लड़के को दे दिया 
गया। मौजूदा जमाने मे इसका रद्देअमल हुआ तो लड़का और लड़की दोनों बराबर कर दिए 
गए । लेकिन पिछला उसूल अगर गैर-मुंसिफाना था तो मौजूदा उसूल गैर हकीकतपसंदाना है। 
यह सिर्फ अल्लाह है जिसका इल्म व हिक्मत इस बात की जमानत है कि वह जो कानून दे 
वह हर किस्म की बेएतिदाली से पाक हो। अल्लाह ने इस सिलसिले में जो जाव्ते मुक्रर किए 


हैंवेन सिर्फयह कि समाजी इंसाफ का हकीकी जरिया हैंबल्कि आख़िस्त की जिगी से भी 


इनका गहरा तअल्लुक है। यतीमों के हुकूक अदा करना, वसीयत की तामील करना, विरासत 

को उसके वारिसों तक पहुंचाना उन मामलों में से हैं जिन पर आदमी की दोजख़ व जन्नत 
निर्भर है। एक तिहाई हिस्से में वसीयत करना शरीअत की रु से जाइज है। लेकिन कोई शख्स 
ऐसी वसीयत करे जिसका मकसद हकदार को विरासत से महरूम करना हो तो यह ऐसा गुनाह 

है जो उसे जहन्नम का मुस्तहिक बना सकता है। इस मामले में आदमी को ख़ुदा के मुक्रर 
किए हुए जाब्ते पर चलना है न कि जाती ख़्वाहिशों और ख़ानदानी मस्लेहतों के ऊपर। 


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सूरा-4. अन-निसा I95 पारा 4 


और तुम्हारी औरतों में से जो कोई बदकारी करे तो उन पर अपनों में से चार मर्द गवाह 
करो। फिर अगर वे गवाही दे दें तो इन औरतों को घरों के अंदर बंद रखो, यहां तक 
कि उन्हें मोत उठा ले या अल्लाह उनके लिए कोई राह निकाल दे। और तुममें से दो 
मर्द जो वही बदकारी करें तो उन्हें अज़ियत (यातना) पहुंचाओ। फिर अगर वे दोनों तौबा 
करें और अपनी इस्लाह कर लें तो उनका ख्याल छोड़ दो। बेशक अल्लाह तौबा कुबूल 
करने वाला महरबान है। तोबा जिसे कुबूल करना अल्लाह के जिम्मे है वह उन लोगों 

की है जो बुरी हरकत नादानी से कर बैठते हैं, फिर जल्द ही तोबा कर लेते हैं। वही 
हैं जिनकी तौबा अल्लाह कुबूल करता है और अल्लाह जानने वाला हिक्मत वाला है। 
और ऐसे लोगों की तोबा नहीं है जो बराबर गुनाह करते रहें, यहां तक कि जब मौत 
उनमें से किसी के सामने आ जाए तब वह कहे कि अब में तौबा करता हूं, और न 
उन लोगों की तौबा है जो इस हाल में मरते हैं कि वे मुंकिर हैं, उनके लिए तो हमने 
दर्दनाक अजाब तैयार कर रखा है। (5-8) 





कोई मर्द या औरत अगर ऐसा फेअल (कृत्य) कर बैठे जो शरीअत के नजदीक गुनाह 
हो तब भी उसके साथ जो मामला किया जाएगा वह कानून के मुताबिक किया जाएगा न कि 
कनून से आजद हेक्कर। कनून के तकजे पूरे किए बँग किसी को मुजरिम करार देना 
दुरुस्त नहीं, किसी का मुजरिम होना दूसरे को यह हक नहीं देता कि वह उसके ख़िलाफ 
जालिमाना कारवाई करने लगे। सजा का मकसद अदूल (न्याय) का कयाम है और अदूल का 
कयाम जुल्म और नाइंसाफी के साथ नहीं हो सकता । और अगर गुनाह करने वाला तौबा करे 
और अपनी इस्लाह कर ले तो इसके बाद तो लाजिम हो जाता है कि उसके साथ शफकत 
(स्नेह) और दरगुजर (क्षमा) का मामला किया जाए। किसी के माजी (अतीत) की बुनियाद पर 
उसे मतऊन (लांछित) करना दुरुस्त नहीं। जब अल्लाह तौबा करने वालों की तौबा कुबूल 
करता है और अपनी इस्लाह कर लेने वालों की तरफ दुबारा महरबानी के साथ पलट आता 
है तो इंसानों को क्या हक है कि ऐसे किसी शख्स को तंज और मलामत का निशाना बनाएं। 
ऐसे किसी शख्स को तंज और मलामत का निशाना बनाकर आदमी ख़ुद अपने आपको 
मुजरिम साबित कर रहा है, न कि किसी दूसरे आदमी को। 

तौबा जबान से 'तोबा' का लफ्ज बोलने का नाम नहीं। यह अपनी गुनाहगारी के शदीद 
एहसास का नाम है। और आदमी अगर अपनी तौबा में संजीदा हो और वाकई शिदूदत के 
साथ उसने अपनी गुनाहगारी को महसूस किया हो तो वह आदमी के लिए इतना सख्त मामला 
होता है कि तौबा आदमी के लिए अपनी सजा आप देने के हममअना बन जाती है। यह 
कैफियत आदमी के अंदर अगर अल्लाह के डर से पैदा हुई हो तो अल्लाह जरूर उसे माफ 
कर देता है। मगर उन लोगों की तबा की अल्लाह के नजदीक कोई कीमत नहीं जो इतने जरी 
(हेकड़) हों कि जानबूझ कर अल्लाह की नाफरमानी करते रहें। और तंबीह (चेतावनी) के 
बावजूद उस पर कायम रहें, अलबत्ता जब दुनिया से जाने का वक्‍त आ जाए तो कहें कि “मैंने 
तोबा की इसी तरह उन लोगों की तोबा भी बेफायदा है जो आख़िरत में अजाब को समाने 
देखकर अपने जुर्म का इकरार करेंगे। 


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पारा 5 I96 सूरा-4. अन-निसा 


तौबा की हकीकत बंदे का अपने रब की तरफ पलटना है ताकि उसका रब भी उसकी 
तरफ पलटे। तौबा उस शख्स के लिए है जो वक्ती जज्बे से मगलूब होकर बुरी हरकत कर बैंै, 
फिर उसके नफ्स का एहतेसाब (परख) जल्द ही उसे अपनी गलती का एहसास करा दे वह बुराई 
को छोड़कर दुबारा नेकी की रविश अपनाए और शरीअत के मुताबिक अपनी जिंदगी की इस्लाह 
कर ले। ऐसा ही आदमी तौबा करने वाला है और जो शख्स इस तरह तौबा करे उसकी मिसाल 
ऐसी ही है जैसा भटका हुआ आदमी दुबारा अपने घर वापस आ जाए 


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ऐ ईमान वालो तुम्हारे लिए जाइज नहीं कि तुम औरतों को जबरदस्ती अपनी मीरास में 

ले लो और न उन्हें इस गरज से रोके रखो कि तुमने जो कुछ उन्हें दिया है उसका कुछ 
हिस्सा उनसे ले लो मगर इस सूरत में कि वे खुली हुई बेहयाई करें। और उनके साथ 
अच्छी तरह गुजर-बसर करो। अगर वे तुम्हें नापसंद हों तो हो सकता है कि एक चीज 

तुम्हें पसंद न हो मगर अल्लाह ने इसमें तुम्हारे लिए बहुत बड़ी भलाई रख दी हो। और 
अगर तुम एक बीवी की जगह दूसरी बीवी बदलना चाहो और तुम उसे बहुत सा माल दे 
चुके हो तो तुम उसमें से कुछ वापस न लो। क्या तुम इसे बोहतान (आक्षेप) लगाकर 
और सरीह जुल्म करके वापस लोगे। और तुम किस तरह उसे लोगे जबकि एक दूसरे से 
खलवत कर चुका है और वे तुमसे पुख्ता अहद ले चुकी हैं। और उन औरतों से निकाह 
मत करो जिनसे तुम्हारे बाप निकाह कर चुके हैं, मगर जो पहले हो चुका। बेशक यह 
बेहयाई है और नफरत की बात है और बहुत बुरा तरीका है। (9-22) 





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मरने वाले के माल में यकीनन बाद वालों को विरासत का हक है। मगर इसका मतलब 
यह नहीं कि मरने वाले की बीवी को भी बाद के लोग अपनी मीरास समझ लें और जिस तरह 
चाहें उसको इस्तेमाल करें। माल एक संवेदनहीन और अधीन चीज है और इसमें विरासत 
चलती है। मगर इंसान एक जिंदा और आजाद हस्ती है। उसे इख्ियार है कि वह अपनी मर्जी 
से अपने मुस्तकबिल (भविष्य) का फैसला करे। औरत में अगर कोई जिस्मानी या मिजाजी 
कमी हो तो उसे बर्दाश्त करते हुए औरत को मौका देना चाहिए कि वह अल्लाह की दी हुई 


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सूरा-4. अन-निसा I97 पारा 4 


दूसरी खूबियों के जरिए घर की तामीर में अपना हिस्सा अदा करे। आदमी को चाहिए कि जाहिरी 
नापसंदीदगी को भूल कर आपसी तअल्लुकात को निभाए । किसी खानदान और इसी तरह किसी 
समाज की तरक्की और इस्तहकाम का राज यह है कि उसके अफराद एक-दूसरे की कमियों 
को नजरअंदाज करते हुए उनकी खूबियों को बरुएकार आने का मौका दें। जो लोग अल्लाह 
की ख़ातिर मौजूदा दुनिया में सब्र और बर्दाश्त का तरीका अपनाएं वही वे लोग हैं जो आखिरत 
की जन्नतों में दाखिल किए जाएंगे । 

जब आदमी को अपना जीवन साथी नापसंद हो और वह सब्र का तरीका न अपनाकर 
अलग होने का फैसला करे तो अक्सर ऐसा होता है कि इस अलेहिदगी को हक बजानिब 
साबित करने के लिए वह दूसरे फरीक की ख़ामियों को बढ़ा-चढ़ा कर बयान करता है। वह 
उस पर झूठे इल्जाम लगाता है। वह उसके ख़िलाफ जालिमाना कार्रवाई करता है ताकि वह 
घबरा कर खुद ही भाग जाए। इसी तरह जब आदमी किसी से तअल्लुक तोड़ता है तो जिद 
में आकर दूसरे फरीक को दी हुई चीजें उससे वापस छीनने की कोशिश करता है। मगर यह 
सब अहद की खिलाफवजी है और अहद (वचनबद्धता) अल्लाह की नजर में ऐसी मुकदूदस 
चीज है कि अगर वह अलिखित रूप में हो तब भी उसकी पाबंदी उतनी ही जरूरी है जितना 
कि लिखित अहद को। 

'जो हो चुका सो हो चुका” का उसूल सिर्फ निकाह से संबंधित नहीं है। बल्कि यह एक 
आम उसूल है। जिंदगी के निजाम में जब भी कोई तब्दीली आती है, चाहे वह घरेलू जिंदगी 
में हो या कौमी जिंदगी में, तो माजी (अतीत) के बहुत से मामले ऐसे होते हैं जो नए इंकलाब 
के मेयार पर गलत नजर आते हैं। ऐसे मीकों पर माजी को कुरेदना और गुजरी हुई गलतियों 
पर अहकाम जारी करना बेशुमार नए मसाइल पैदा करने का सबब बन जाता है। इसलिए 
सही तरीका यही है कि माजी को भुला दिया जाए और सिर्फ हाल और मुस्तकबिल की इस्लाह 
पर अपनी कोशिशें लगा दी जाएं। और उनके साथ अच्छे तरीके से गुजर-बसर करो । अगर 
वे तुम्हें नापसंद हों तो हो सकता है कि तुम्हें एक चीज पसंद न हो मगर अल्लाह ने उसके 
अंदर तुम्हारे लिए कोई बड़ी भलाई रख दी हो।' यह जुमला यहां अगरचे मियां-बीवी के 
तअल्लुक के बारे में आया है, मगर इसके अंदर एक उमूमी तालीम भी है। कुरआन का यह 
आम उस्लूब (शैली) है कि एक सुनिश्चित मामले का हुक्म बताते हुए उसके दर्मियान एक 
ऐसी सामान्य हिदायत दे देता है जिसका तअल्लुक आदमी की पूरी जिंदगी से हो। 

दुनिया की जिंदगी में इंसान के लिए मिलजुल कर रहना नागुजीर है। कोई शख्स बिल्कुल 
अलग-थलग जिंदगी गुजार नहीं सकता। अब चूंकि स्वभाव अलग-अलग हैं, इसलिए जब भी 
कुछ लोग मिलजुल कर रहेंगे उनके दर्मियान लाजिमन शिकायतें पैदा होंगी। ऐसी हालत में 
काबिले अमल सूरत सिर्फ यह है कि शिकायतों को नजरअंदाज किया जाए और खुशउस्लूबी 
के साथ तअल्लुक को निभाने का उसूल अपनाया जाए। 

अक्सर ऐसा होता है कि अपने साथी की एक ख़राबी आदमी के सामने आती है और 
वह बस उसी को लेकर अपने साथी से रूठ जाता है। हालांकि अगर वह सोचे तो वह पाएगा 
कि हर नामुवाफिक (प्रतिकूल) सूरतेहाल में कोई खैर का पहलू मौजूद है। कभी किसी वाकये 
में आदमी के लिए सब्र की तर्बियत का इम्तेहान होता है। कभी इसके अंदर अल्लाह की तरफ 











पारा 5 I98 सूरा-4. अन-निसा 


रुजूअ और इनाबत की गिजा होती है। कभी एक छोटी-सी तकलीफ में कोई बड़ा सबक छुपा 
हुआ होता है, आदि। 


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तुम्हारे ऊपर हराम की गई तुम्हारी माएं, तुम्हारी बेटियां, तुम्हारी बहिनें, तुम्हारी 
फूफियां, तुम्हारी ख़ालाएं, तुम्हारी भतीजियां और भांजियां और तुम्हारी वे माएं जिन्होंने 
तुम्हें दूध पिलाया, तुम्हारी दूध शरीक बहिनें, तुम्हारी औरतों की माएं और उनकी 
बेटियां जो तुम्हारी परवरिश में हैं जो तुम्हारी उन बीवियों से हों जिनसे तुमने सोहबत 
की है, लेकिन अगर अभी तुमने उनसे सोहबत न की हो तो तुम पर कोई गुनाह नहीं। 
और तुम्हारे सुलबी (तुमसे पैदा) बेटों की बीवियां और यह कि तुम इकट्ठा करो दो 
बहिनों को मगर जो पहले हो चुका। बेशक अल्लाह बस्शने वाला महरबान है। और 
वे औरतें भी हराम हैं जो किसी दूसरे के निकाह में हों मगर यह कि वे जंग में तुम्हारे 


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सूरा-4. अन-निसा I99 पारा 5 


हाथ आएं। यह अल्लाह का हुक्म है तुम्हारे ऊपर। इनके अलावा जो औरतें हैं वे सब 
तुम्हारे लिए हलाल हैं बशर्ते कि तुम अपने माल के जरिए से उनके तालिब बनो, उनसे 
निकाह करके न कि बदकारी के तौर पर। फिर उन औरतों में से जिन्हें तुम काम में 
लाए उन्हें उनको तैशुदा महर दे दो। और महर के ठहराने के बाद जो तुमने आपस में 
राजीनामा किया हो तो इसमें कोई गुनाह नहीं। बेशक अल्लाह जानने वाला हिक्मत 
वाला है। और तुममें से जो शरस सामर्थ्य न रखता हो कि आजाद मुसलमान औरतों 

से निकाह कर सके तो उसे चाहिए कि वह तुम्हारी उन कनीजों (दासियों) में से किसी 

के साथ निकाह कर ले जो तुम्हारे कब्जे में हां और मोमिना हों। अल्लाह तुम्हारे ईमान 

को ख़ूब जानता है, तुम आपस में एक हो। पस उनके मालिकों की इजाजत से उनसे 
निकाह कर लो और मारूफ तरीके से उनके महर अदा कर दो, इस तरह कि उनसे 
निकाह किया जाए न कि आजाद शहवतरानी करें और चोरी छुपे आशनाइयां करें। फिर 
जब वे निकाह के बंधन में आ जाएं और इसके बाद वे बदकारी करें तो आजाद औरतों 

के लिए जो सजा है उसकी आधी सजा इन पर है। यह उसके लिए है जो तुममें से 
बदकारी का अंदेशा रखता हो। और अगर तुम जब्त (संयम) से काम लो तो यह तुम्हारे 
लिए ज्यादा बेहतर है, और अल्लाह बर्शने वाला रहम करने वाला है। (23-25) 





इंसान के अंदर बहुत सी फितरी ख़्वाहिशें हैं। इन्हीं में से एक शहवानी ख्वाहिश 
(यौन-इच्छा) है जो औरत और मर्द के दर्मियान पाई जाती है। शरीअत तमाम इंसानी जज्बात 
की हदबंदी करती है। इसी तरह उसने शहवानी जज्बात के लिए भी हदें और जाब्ते (नियम) 
मुकर किए हैं। शरीअते इलाही के मुताबिक औरत और मर्द के दर्मियान सिर्फ वही तअल्लुक 
सही है जो निकाह की सूरत में एक संजीदा समाजी समझौते की हैसियत से कायम हो। फिर 
यह कि जिस तरह फितरी जज्बात की तस्कीन जरूरी है उसी तरह यह भी जरूरी है कि 
ख़नदानी जिंदगी में तकद्धुस (पवित्रता) की फिजा मौजूद रहे। इस मकसद के लिए नसब 
(वंश) या रजाअत (दूध का रिश्ता) या मुसाहिरत (पारिवारिक संबंध) के तहत कायम होने 
वाले कुछ रिश्तों को हराम करार दे दिया गया ताकि बिल्कुल करीबी रिश्तों के दर्मियान का 
तअल्लुक शहवानी जज्बात से मुक्त रहे। 

इंसान की इज्जत और बड़ाई का मेयार वह दिखाई देने वाली चीजें नहीं हैं जिन पर लोग 
एक-दूसरे की इज्जत व बड़ाई को नापते हैं। बल्कि बड़ाई का मेयार वह न दिखाई देने वाला 
ईमान है जो सिर्फ अल्लाह के इल्म मेंहोता है। गोया किसी का इज्जत वाला होना या बेइज्जत 
वाला होना ऐसी चीज नहीं जो आदमी को मालूम हो। यह तमामतर नामालूम चीज है और 
इसका फैसला आखिरत में अल्लाह की अदालत में होने वाला है। यह एक ऐसा तस्र है 
जो आदमी से बरतरी (उच्चता) का अहसास छीन लेता है। और बरतरी का एहसास ही वह 
चीज है जो अधिकतर समाजी ख़राबियाँ की असल जड़ है। 


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पारा 5 200 सूरा-4. अन-निसा 


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अल्लाह चाहता है कि तुम्हारे वास्ते बयान करे और तुम्हें उन लोगों के तरीकों की 
हिदायत दे जो तुमसे पहले गुजर चुके हैं और तुम पर तवज्जोह करे, अल्लाह जानने वाला 
हिक्मत वाला है। और अल्लाह चाहता है कि तुम्हारे ऊपर तवज्जोह करे और जो लोग 
अपनी ख़्वाहिशों की पैरवी कर रहे हैं वे चाहते हैं कि तुम राहेरास्त से बहुत दूर निकल 
जाओ। अल्लाह चाहता है कि तुम से बोझ को हल्का करे और इंसान कमजोर बनाया 
गया है। (26-28) 


जिंदगी के तरीके जो कुरआन में बताए गए हैं वे कोई नए नहीं हैं। हर दौर में अल्लाह 
अपने पैगम्बरों के जरिए इनका एलान कराता रहा है। हर जमाने के खुदापरस्त लोगों का इसी 
पर अमल था। मगर कदीम आसमानी किताबों के महफूज न रहने की वजह से ये तरीके गुम 
हो गए। अब अल्लाह ने अपने आखिरी रसूल के जरिए इन्हें अरबी भाषा में उतारा और इन्हें 
हमेशा के लिए महफूज कर दिया। आज जब कोई गिरोह इन तरीकों पर अपनी जिंदगी को 
ढालता है तो गोया वह सालेहीन (सच्चे लोगों) के उस अबदी काफिले में शामिल हो जाता है 
जिन्हें अल्लाह की रहमतों में हिस्सा मिला, जो हर जमाने में अल्लाह के उस रास्ते पर चले 
जिसे अल्लाह ने अपने वफादार बंदों के लिए खोला था। 

हर इंसानी गिरोह में ऐसा होता है कि कुछ चीजें सदियों के रवाज से जड़ जमा लेती हैं। 
वे लोगों के जेहनों पर इस तरह छा जाती हैं कि उनके ख़िलाफ सोचना मुश्किल हो जाता है। 
जब अल्लाह का कोई बंदा समाज सुधार का काम शुरू करता है तो इस किस्म के लोग चीख़ 
उठते हैं। अपने मानूस (प्रचलित) तरीकों को छोड़कर नामानूस तरीकों को अपनाना उनके लिए 
सख्त दुश्वार हो जाता है। वे ऐसी इस्लाही तहरीक के दुश्मन बन जाते हैं जो उन्हें उनके 
बाप-दादा के तरीकों से हटाना चाहती हो। इस सिलसिले में मजहबी तबके का रद्देअमल और 
भी ज्यादा शदीद होता है। जब दीन का अंदरूनी पहलू कमजोर होता है तो ख़ारजी (वाह्य) 
मूशिगाफियां (कुतक) जन्म लेती हैं। अब आदाब और कायदों का एक जाहिरी ढांचा बना 
लिया जाता है। लोग दीन की अस्ली कैफियतों से ख़ाली होते हैं ओर जाहिरी आदाब और 
कायदों की पाबंदी करके समझते हैं कि वे ख़ुदा के दीन पर कायम हैं। यह स्वनिर्मित दीन 
पूर्वजों से मंसूब होकर धीरे-धीरे पवित्र बन जाता है और नौबत यहां तक पहुंचती है कि ख़ुदा 
का सादा और फितरी दीन इन्हें अजनबी मालूम होता है। और अपना जकड़बंदियों वाला दीन 
ऐन बरहक नजर आता है। ऐसी हालत में जो तहरीक असली और इब्तिदाई दीन को जिंदा 
करने के लिए उठे वे इसके शदीद विरोधी हो जाते हैं क्योंकि इसमें उन्हें अपनी दीनदारी की 
नफी (नकार) होती हुई नजर आती है। मसलन ख़ुदा की शरीअत में हैज़ के दौरान औरत के 
साथ मुबाशिरत नाजाइज है, इसके अलावा दूसरे तअल्लुकात उसी तरह रखे जा सकते हैं जिस 
तरह आम दिनों के होते हैं। यहूदियों ने इस सादा हुक्म पर इजाफा करके यह मसला बनाया 





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सूरा-4. अन-निसा 20I पारा 5 


कि माहवारी के दिनों में औरत की पकाई हुई चीज को खाना, उसके हाथ का पानी पीना, उसके 
साथ एक जगह बैठना, उसे अपने हाथ से छूना सब नाजाइज या कम से कम तकवा के खिलाफ 

है। इस तरह हैज वाली औरत से मुकम्मल दूरी गोया पारसाई की अलामत बन गई। अल्लाह 

के रसूल मुहम्मद (सल्ल०) ने मदीने में जब ख़ुदा की असली शरीअत को जिंदा किया तो यहूदी 
बिगड़ गए। वह चीज जिस पर उन्होंने अपनी पारसाई की इमारत खड़ी की थी अचानक गिरती 
हुई नजर आई। खुदा के सादा दीन को जब भी जिंदा किया जाए तो वे लोग इसके सख्त मूखालिफ 

हो जाते हैं जो बनावटी दीन के ऊपर अपनी दीनदारी की इमारत खड़ी किए हुए हों। यह उनसे 
सरदारी छीनने के समान होता है और सरदारी का छिनना कोई बर्दाश्त नहीं करता। 


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ऐ ईमान वालो, आपस में एक-दूसरे का माल नाहक तौर पर न खाओ। मगर यह 
कि तिजारत हो आपस की खुशी से। और खून न करो आपस में। बेशक अल्लाह 
तुम्हारे ऊपर बड़ा महरबान है। और जो शख्स सरकशी और जुल्म से ऐसा करेगा उसे 
हम जरूर आग में डालेंगे और यह अल्लाह के लिए आसान है। अगर तुम उन बड़े 
गुनाहों से बचते रहे जिनसे तुम्हें मना किया गया है तो हम तुम्हारी छोटी बुराइयों 
को माफ कर दी और तुम्हें इजत की जगह दाखिल कशे। और तुम ऐसी चीज 

की तमन्ना न करो जिसमें अल्लाह ने तुममें से एक को दूसरे पर बड़ाई दी है। मर्दों 
के लिए हिस्सा है अपनी कमाई का और औरतों के लिए हिस्सा है अपनी कमाई 
का। और अल्लाह से उसका फज्ल मांगो। बेशक अल्लाह हर चीज का इत्म रखता 

है। और हमने वालिदेन और रिश्तेदारों के छोड़े हुए में से हर एक के लिए वारिस 
ठहरा दिए हैं और जिनसे तुमने अहद बांध रखा हो तो उन्हें उनका हिस्सा दे दो, 
बेशक अल्लाह के रूबरू है हर चीज। (29-33) 


पारा 5 202 सूरा-4. अन-निसा 





एक का माल दूसरे तक पहुंचने की एक सूरत यह है कि एक आदमी दूसरे की जरूरत 
फराहम करे और उससे अपनी महनत का मुआवजा ले। यह तिजारत है और शरीअत के 
मुताबिक यही कस्बेमआश (जीविका) का सही तरीका है। इसके बजाए चोरी, धोखा, झूठ, रिश्वत, 
सूद, जुवा वगैरह से जो माल कमाया जाता है वह ख़ुदा की नजर में नजाइज तरीके से कमाया 
हुआ माल है। यह लूट की विभिन्न किसमें हैं और जो लोग तिजारत के बजाए लूट को अपना 
मआश का जरिया बनाएं वे दुनिया में चाहे कामयाब रहें मगर आख़िरत में उनके लिए आग का 
अजाब है। आदमी की जान का मामला भी यही है। आदमी को मारने का हक सिर्फ एक 
कायमशुदा हुकूमत को है जो खुदा के कानून के तहत बाकायदा इल्जाम साबित होने के बाद 
उसके खिलाफ कार्रवाई करे। इसके सिवा जो शख्स किसी को उसकी जिंदगी से महरूम करने 
की कोशिश करता है वह हराम काम करता है जिसके लिए अल्लाह के यहां सख्त सजा है। 
अल्लाह के नजदीक सबसे बड़ा जुर्म उदवान और सरकशी है। यानी हद से निकलना और नाहक 
किसी को सताना । जो लोग उदवान (दुश्मनी) और जुल्म से अपने को बचाएं उनके साथ अल्लाह 
यह ख़ुसूसी मामला फरमाएगा कि वे आख़िरत को दुनिया में इस तरह दाखिल होंगे कि उनकी 
मामूली कोताहियां और लग़जिशें उनसे दूर की जा चुकी होंगी । 

दुनिया में एक आदमी और दूसरे आदमी के दर्मियान फर्क रखा गया है। किसी को 
जिस्मानी और जेहनी कुब्वतों में कम हिस्सा मिला है और किसी को ज्यादा। कोई अच्छे 
हालात में पैदा होता है और कोई बुरे हालात में। किसी के पास बड़े-बड़े जराए (संसाधन) हैं 
और किसी के पास मामूली जराए। आदमी जब किसी दूसरे को अपने से बढ़ा हुआ देखता 
है तो उसके अंदर फौरन उसके खिलाफ जलन पैदा हो जाती है। इससे इज्तिमाई जिंदगी में 
हसद, अदावत और आपसी कशमकश पैदा होती है। मगर इन चीजों के एतबार से अपने या 
दूसरे को तौलना नादानी है। ये सब दुनियावी अहमियत की चीजें हैं। ये दुनिया में मिली हैं 
और दुनिया ही में रह जाने वाली हैं। असल अहमियत आखिरत की कामयाबी की है और 
आखिरत की कामयाबी में इन चीजों का कुछ भी दख़ल नहीं। आखिरत की कामयाबी उस 
अमल पर निर्भर है जो आदमी इरादे और इख्तियार से अल्लाह के लिए करता है। इसलिए 
बेहतरीन अवलमंदी यह है कि आदमी हसद से अपने आपको बचाए और अल्लाह से तौफीक 
को दुआ करते हुए अपने आपको आखिरत के लिए अमल करने में लगा दे। 


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सूरा-4. अन-निसा 203 पारा 5 


मर्द औरतों के ऊपर कव्वाम (प्रमुख) हैं। इस कारण कि अल्लाह ने एक को दूसरे पर 
बड़ाई दी है और इस कारण कि मर्द ने अपने माल ख़र्च किए। पस जो नेक औरतें हैं 
वे फरमांबरदारी करने वाली, पीठ पीछे निगहबानी करती हैं अल्लाह की हिफाजत से। 

और जिन औरतों से तुम्हें सरकशी का अदेशा हो उन्हें समझाओ और उन्हें उनके विस्तरो 
में तंहा छोड़ दो और उन्हें सजा दो। पस अगर वे तुम्हारी इताअत करें तो उनके खिलाफ 
इल्जाम की राह न तलाश करो। बेशक अल्लाह सबसे ऊपर है, बहुत बड़ा है। और 
अगर तुम्हें मियां-बीवी के दर्मियान तअल्लुकात बिगड़ने का अंदेशा हो तो एक मुंसिफ 

मर्द के रिश्तेदारों में से खड़ा करो और एक मुंसिफ औरत के रिश्तेदारों में से खड़ा करो। 
अगर दोनों इस्लाह चाहेंगे तो अल्लाह उनके दर्मियान मुवाफिकत कर देगा। बेशक 
अल्लाह सब कुछ जानने वाला ख़बरदार है। (34-35) 


जहां भी आदमियों का कोई मज्मूआ हो, चाहे वह खानदान की सूरत में हो या राज्य की 
सूरत में, जरूरी है कि उसके ऊपर सरदार और सरबराह (प्रमुख) हो, और यह सरबराह 
लाजिमन एक ही हो सकता है। दुनिया के बारे में अल्लाह का बनाया हुआ जो मंसूबा है उसमें 
खानदान की सरबराही के लिए मर्द को मुतअय्यन किया गया है और इसी के लिहाज से 
उसकी तख़्लीक (रचना) हुई है। मर्द की बनावट और औरत की बनावट में जो जैविक और 
मनोवैज्ञानिक फर्क है वह अल्लाह के इसी तख़्नीकी मंसूबे के अनुरूप है। अब अगर कुछ लोग 
अल्लाह के मंसूबे के खिलाफ चलें तो वे सिर्फ बिगाड़ पैदा करने का सबब बनेगे। क्योंकि ख़ुदा 
का कारखाना तो मर्द और औरत को बदस्तूर अपने मंसूबे के मुताबिक बनाता रहेगा जिसमें 
'कव्वामियत' की क्षमताएं मर्द को दी गई होंगी और 'इताअत” की क्षमताएं औरत को । जबकि 
इनके सामाजिक इस्तेमाल में खुदाई रचना-योजना का पालन नहीं किया जा रहा होगा। ऐसे 
हर अन्तर्विरोध का नतीजा इस दुनिया में सिर्फ बिगाड़ है। 

बेहतरीन औरत वह है जो अल्लाह के तख्नीकी मंसूबे (रचना-योजना) में अपने को 
शामिल करते हुए मर्द की बरतरी तस्लीम कर ले। इसी तरह बेहतरीन मर्द वह है जो अपनी 
बरतर हैसियत के सबब इस हकीकत को भूल न जाए कि खुदा उससे भी ज्यादा बरतर है। 
खुदा की अदालत में औरत मर्द का कोई फर्क नहीं, यह फर्क तमामतर सिर्फ दुनिया के 
इंतजाम के एतबार से है न कि आखिरत में इनामात की तक़्सीम के एतबार से। मर्द को 
चाहिए कि वह औरत के हक में अपनी जिम्मेदारियोँ को अदा करने का पूरा एहतेमाम करे। 
कोई औरत अगर ऐसी हो जो मर्द की इंतजामी बड़ाई को न माने तो ऐसा हरगिज न होना 
चाहिए कि मर्द के अंदर इंतिकाम का जज्वा उभर आए या वह इल्जामात लगा कर औरत को 
बदनाम करे। कोई भी बरतरी किसी को इंसाफ की पाबंदी से मुक्त नहीं करती। अलबत्ता 
ख़ुसूसी हालात में मर्द को यह हक है कि किसी औरत के अंदर अगर वह सरताबी देखे तो 
वह उसकी इस्लाह की कोशिश करे। यह इस्लाह अव्वलन समझाने बुझाने से शुरू होगी। फिर 
दबाव डालने के लिए बातचीत न करना और तअल्लुक न रखना अपनाया जा सकता है। 
आखिरी दर्जे में मर्द उसे हल्की सजा दे सकता है, जैसे मिस्वाक से मारना। 

दो आदमियों में जब आपसी मनमुटाव हो तो दोनों का जेहन एक-दूसरे के बारे में 
मुतअस्सिर जेहन बन जाता है। दोनों एक-दूसरे के बारे में खालिस वाकेआती अंदाज से सोच 





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पारा 5 204 सूरा-4. अन-निसा 


नहीं पाते। ऐसी हालत में मामले को तै करने की बेहतरीन सूरत यह है कि दोनों अपने सिवा 
किसी दूसरे को हकम (बिचौलिया, मुंसिफ) बनाने पर राजी हो जाएं। दूसरा शख्स मामले से जाती 

तौर पर जुड़ा न होने की वजह से गैर-मुतअस्सिर जेहन के साथ सोचेगा और ऐसे फैसले तक 

पहुंचने में कामयाब हो जाएगा जो वाक्ये की हकीकत के मुताबिक हो। 


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और अल्लाह की इबादत करो और किसी चीज को उसका शरीक न बनाओ। और अच्छा 
सुलूक करो मां-बाप के साथ और रिश्तेदारों के साथ और यतीमों और मिस्कीनों और 
रिश्तेदार पड़ीसी और अजनबी पड़ैसी और पास बैठने वाले और मुसाफिर के साथ और 
ममलूक (अधीन) के साथ। बेशक अल्लाह पसंद नहीं करता इतराने वाले बड़ाई करने वाले 
को जोकि कंजूसी करते हैं और दूसरों को भी कंजूसी सिखाते हैं और जो कुछ उन्हें अल्लाह 
ने अपने फज्ल से दे रखा है उसे छुपाते हैं। और हमने मुंकिरों के लिए जिल्लत का अजाब 
तैयार कर रखा है। और जो लोग अपना माल लोगों को दिखाने के लिए ख़र्च करते हैं और 
अल्लाह पर और आख़िरत के दिन पर ईमान नहीं रखते, और जिसका साथी शैतान बन 
जाए तो वह बहुत बुरा साथी है। उनका क्या नुक्सान था अगर वे अल्लाह पर और आखिरत 
के दिन पर ईमान लाते और अल्लाह ने जो कुछ उन्हें दे रखा है उसमें से ख़र्च करते। और 
अल्लाह उनसे अच्छी तरह बाख़बर है। बेशक अल्लाह जरा भी किसी की हकतलफी नहीं 
करेगा। अगर नेकी हो तो वह उसे दुगना बढ़ा देता है और अपने पास से बहुत बड़ा सवाब 
देता है। (36-40) 





इंसान के पास जो कुछ है सब अल्लाह का दिया हुआ है। इसका तकाजा है कि इंसान 
अपने आपको अल्लाह के हवाले कर दे, वह उसका इबादतगुजार बन जाए। जब आदमी इस 
तरह अल्लाह वाला बनता है तो उसके अंदर फितरी तौर पर तवाजोअ (विनम्रता, सद्व्यवहार) 


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सूरा-4. अन-निसा 205 पारा 5 


का मिजाज पैदा हो जाता है। उसका यह मिजाज उन इंसानों से तअल्लुकात में जाहिर होता है 
जिनके दर्मियान वह जिंदगी गुजार रहा हो। उसका यह मिजाज मां-बाप के मामले में हुस्ने सुलूक 
की सूरत अपना लेता है। हर शख्स जिससे उसका वास्ता पड़ता है वह उसे ऐसा इंसान पाता 
है जैसे वह अल्लाह को अपने ऊपर खड़ा हुआ देख रहा हो। वह हर एक का हक उसके 
तअल्लुक के मुवाफिक और उसकी जरूरत के मुनासिब अदा करने वाला बन जाता है। जो 
शख्स भी किसी हैसियत से उसके संपक में आता है उसे नजरअंदाज करना उसे ऐसा लगता 
है जैसे वह ख़ुद अपने को अल्लाह के यहां नजरअंदाज किए जाने का ख़तरा मोल ले रहा है। 

जो शख्स अपने आपको अल्लाह के हवाले न करे उसके अंदर फख़ की नफ्सियात 
उभरती है। उसके पास जो कुछ है उसे वह अपनी महनत और काबलियत का करिश्मा 
समझता है। इसका नतीजा यह होता है कि वह अपनी कमाई को सिर्फ अपना हक समझता 
है। कमजोर रिश्तेदारों या मोहताजों से तअल्लुक जोड़ना उसे अपने मकाम से नीचे दर्जे की 
चीज मालूम होती है। वह अपनी मस्लेहतों या ख़्वाहिशों की तस्कीन में खूब माल ख़र्च करता 
है मगर वे मदें जिनमें ख़र्च करना उसकी अना (अहंकार) को गिजा देने वाला न हो वहां ख़र्च 
करने में दिल तंग होता है। दिखावे के कामों में ख़र्च करने में वह फय्याज होता है और 
खामोश दीनी कामों में ख़र्च करने में वह बख़ील (कंजूस) होता है। जो लोग ख़ुदा की नेमत 
से तवाजोअ (विनम्रता) के बजाए फख़ की गिजा लें, जो खुदा के दिए हुए माल को ख़ुदा की 
बताई हुई मदों में न खर्च करें, अलबत्ता अपने नफ्स के तकाजों पर ख़र्च करने के लिए 
फव्याज हों, ऐसे लोग शैतान के साथी हैं। शैतान ने उन्हें कुछ सामने का नफा दिखाया तो 
वे उसकी तरफ दौड़ पड़े और ख़ुदा जिस अबदी नफे का वादा कर रहा था उससे उन्हें 
दिलचस्पी न हो सकी। उनके लिए ख़ुदा के यहां सख़्त अजाब के सिवा और कुछ नहीं। 
आदमी ख़ुद जो काम न करे उसे वह गैर-अहम बताता है। यह अपने मामले को नजरियाती 
मामला बनाना है, यह अपने को हक बजानिब साबित करने की कोशिश है। मगर इस किस्म 
की कोई भी कोशिश अल्लाह के यहां किसी के काम आने वाली नहीं। 


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फिर उस वक्त क्या हाल होगा जब हम हर उम्मत में से एक गवाह लाएंगे और तुम्हें 
उन लोगों के ऊपर गवाह बनाकर खड़ा करेंगे। वे लोग जिन्होंने इंकार किया और पैग़म्बर 


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पारा 5 206 सूरा-4. अन-निसा 


की नाफरमानी की उस दिन तमन्ना करेंगे कि काश जमीन उन पर बराबर कर दी जाए, 

और वे अल्लाह से कोई बात न छुपा सकेंगे। ऐ ईमान वालो, नजदीक न जाओ नमाज 

के जिस वक्‍त कि तुम नशे में हो यहां तक कि समझने लगो जो तुम कहते हो, और 

न उस वक्‍त कि गुस्ल की हाजत हो मगर राह चलते हुए, यहां तक कि गुस्ल कर लो। 
और अगर तुम मरीज हो या सफर में हो या तुममें से कोई शोच से आए या तुम औरतों 

के पास गए हो फिर तुम्हें पानी न मिले तो तुम पाक मिट्टी से तयम्मुम कर लो और 
अपने चेहरे और हाथों का मसह कर लो, बेशक अल्लाह माफ करने वाला बस्शने वाला 
है। (4-43) 





हक का दाऔ (आस्वानकर्ता) जब आता है तो वह एक मामूली इंसान की सूरत में होता 
है। उसके गिर्द जाहिरी बड़ाइयां और रौनकें जमा नहीं होतीं । इसलिए वक्त के बड़े उसे हकीर 
(तुच्छ) समझ कर नजरअंदाज कर देते हैं। उन्हें यकीन नहीं आता कि एक ऐसा शख्स भी 
उनसे ज्यादा हक व सदाकत वाला हो सकता है जो दुनियावी शान व शौकत में उनसे कम 
हो। मगर जब कियामत आएगी और खुदा की अदालत कायम होगी तो वे हैरत के साथ देखेंगे 
कि वही शख्स जिसे उन्होंने बेकीमत समझ कर ठुकरा दिया था वह आख़िरत की अदालत में 
खुदाई गवाह बना दिया गया है। वही वह शख्स है जिसके बयान पर लोगों के लिए जन्नत 
और जहन्नम के फैसले हों। ये वहां मुजरिम के मकाम पर खड़े होंगे और वह ख़ुदा की तरफ 
से बोलने वाले के मकाम पर। यह ऐसा सख्त और हौलनाक लम्हा होगा कि लोग चाहेंगे कि 
जमीन फट जाए और वे उनके अंदर समा जाएं। मगर उनकी यह शर्मिदगी उनके काम न 
आएगी। खुदा के यहां उनके कौल व अमल से लेकर उनकी सोच तक का रिकार्ड मौजूद 
होगा। और ख़ुदा उन्हें दिखा देगा कि हक के दाऔ का इंकार जो उन्होंने किया वह 
नावाकफियत के सबब से न था बल्कि घमंड की वजह से था। उन्होंने अपने को बड़ा समझा 
और हक के दाऔ को छोटा जाना | हकीकत को सुस्पष्ट रूप में देखने और जानने के बावजूद 
वे महज इसलिए इसके मुंकिर हो गए कि इसे मानने में उन्हें अपनी बड़ाई ख़त्म होती हुई नजर 
आती थी। 

शरीअत में गैर-मामूली हालात में गैर-मामूली रुसत दी गई है। मर्ज या सफर या पानी 
का न होना ये तीनों आदमी के लिए गैर-मामूली हालतें हैं। इसलिए इन मौकों पर यह रुख्सत 
दी गई कि अगर नुक्सान का अदेशा हो तो वुज़ू या गुस्ल के बजाए तयम्मुम का तरीका 
अपनाया जाए। आम वुजू पानी से होता है। तयम्मुम गोया मिट्टी से वुज़ू करना है। वुजू का 
मकसद आदमी के अंदर पाकी की नफ्सियात पैदा करना है और तयम्मुम, वुजू न करने की 
सूरत में इस पाकी की नपिसयात को बाकी रखने की एक मादूदी तदबीर है। “नमाज उस 
वक्त पढ़ो जबकि तुम जानो कि तुम क्या कह रहे हो।' यहां यह आयत शराब का इब्तिदाई 
हुक्म बताने के लिए आई है। मगर इसी के साथ वह नमाज के बारे में एक अहम हकीकत 
को भी बता रही है। इससे मालूम होता है कि नमाज एक ऐसी इबादत है जो फहम व शुऊर 
के तहत अदा की जाती है। नमाज महज इसका नाम नहीं है कि कुछ अल्फाज और कुछ 
हरकतों को अच्छे ढंग से अदा कर दिया जाए। इसी के साथ नमाज में आदमी के जेहन का 
हाजिर रहना भी जरूरी है। वह नमाज को जानकर नमाज पढ़े अपनी जबान और अपने जिस्म 





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सूरा-4. अन-निसा 207 पारा 5 


से वह जिस ख़ुदा के सामने झुकने का इज्हार कर रहा है, उसी ख़ुदा के सामने उसकी सोच और 
उसका इरादा भी झुक गया हो। उसका जिस्म जिस ख़ुदा की इबादत कर रहा है, उसका शुऊर 
भी उसी ख़ुदा का इबादतगुजार बन जाए 


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क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जिन्हें किताब से हिस्सा मिला था। वे गुमराही 
को मोल ले रहे हैं और चाहते हैं कि तुम भी राह से भटक जाओ। अल्लाह तुम्हारे 
दुश्मनों को खूब जानता है। और अल्लाह काफी है हिमायत के लिए और अल्लाह 
काफी है मदद के लिए। यहूद में से एक गिरोह बात को उसके ठिकाने से हटा 
देता है और कहता है कि हमने सुना और न माना। और कहते हैं कि सुनो और 
तुम्हें सुनवाया न जाए। वे अपनी जबान को मोड़ कर कहते हैं राइना, दीन में 
ऐब लगाने के लिए। और अगर वे कहते कि हमने सुना और माना, और सुनो 
और हम पर नजर करो तो यह उनके हक में ज्यादा बेहतर और दुरुस्त होता। 
मगर अल्लाह ने उनके इंकार के सबब से उन पर लानत कर दी है। पस वे ईमान 
न लाएंगे मगर बहुत कम। (44-46) 


अल्लाह की किताब किसी गिरोह को इसलिए दी जाती है कि वह उससे अपनी सोच 
और अपने अमल को दुरुस्त करे। मगर जब आसमानी किताब की हामिल कोई कौम जवाल 
का शिकार होती है, जैसा कि यहूद हुए, तो खुदा की किताब से वह हिदायत की बजाए 
गुमराही की गिजा लेने लगती है। खुदा के अहकाम उसके लिए ख़ुश्क निरर्थक बहसों का 
विषय बन जाते हैं। अब उसके यहां आस्थाओं के नाम पर दार्शनिक किस्म की मोशगाफियां 
जन्म लेती हैं। वह उसके लिए ऐसी सरगर्मियों की तालीम देने वाली किताब बन जाती है 
जिसका आखिरत के मसले से कोई तअल्लुक न हो। ऐसे लोग अपनी रिवायती नफ्सियात की 
वजह से जरूरी समझते हैं कि वे अपनी हर बात को ख़ुदा की बात साबित करें। वे अपने 
अमल को दीनी जवाज फराहम करने के लिए ख़ुदा की किताब को बदल देते हैं। खुदा के 
कलिमात को उसके प्रसंग से हटा कर उसकी अपनी गढ़ी हुई तशरीह करते हैं। वे अल्फाज 





पारा 5 208 सूरा-4. अन-निसा 





में उलट फेर करके उससे ऐसा मफहूम निकालते हैं जिसका अस्ल खुदाई तालीमात से कोई 
तअल्लुक नहीं होता । 

'यहूद को किताब का कुछ हिस्सा मिला था।' का मतलब यह है कि उन्हें ख़ुदा की 
किताब के अल्फाज तो पढ़ने को मिले मगर ख़ुदा की किताब पर अमल करना जो असल 
मक्सूद था उससे वे दूर रहे। लफ्ज के मामले में वे हामिले किताब बने रहे मगर अमल के 
मामले में उन्होंने आम दुनियादार कौमों का रास्ता अपना लिया। साथ ही यह कि आम लोग 
दुनियादारी को दुनियादारी के नाम पर करते हैं और उन्होंने यह ढिठाई की कि अपनी 
दुनियादारी के लिए ख़ुदा की किताब से सनद पेश करने लगे। 

फिर उनकी गुमराही अपनी जात तक नहीं रुकी। वे अपने को ख़ुदा के दीन का नुमाइंदा 
समझते थे। इसलिए जब गैर यहूदी अरबों ने पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल०) का साथ देना शुरू 
किया तो यहूद अपनी दीनदारी का भरम कायम रखने के लिए ख़ुद पैगम्बर के विरोधी हो 
गए। उन्होंने आपकी जिंदगी और आपकी तालीमात में तरह-तरह के शोशे निकाल कर लोगों 
को इस शुबह में मुब्तला करना शुरू किया कि यह खुदा के भेजे हुए नहीं हैं बल्कि महज जाती 
हौसले के तहत ख़ुदा के दीन के अमलबरदार बन कर खड़े हो गए हैं। मगर इस मअरके में 
अल्लाह गैर जानिबदार नहीं है। वह अपने दुश्मनों के मुकाबले में अपने वफादारों का साथ 
देगा और उन्हें कामयाब करके रहेगा। 

“लानत” दरअस्ल बेहिसी की आखिरी सूरत है। आदमी की बेहिसी जब इस नौबत को 
पहुंच जाए कि उसे हक और नाहक की कोई तमीज न रहे तो इसी को लानत कहते हैं। 


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ऐ वे लोगो जिन्हें किताब दी गई उस पर ईमान लाओ जो हमने उतारा है, तस्दीक करने 
वाली उस किताब की जो तुम्हारे पास है, इससे पहले कि हम चेहरों को मिटा दें और 
फिर उन्हें उलट दें पीठ की तरफ या उन पर लानत करें जैसे हमने लानत की सब्त वालों 
पर। और अल्लाह का हुक्म पूरा होकर रहता है। बेशक अल्लाह इसे नहीं बख्शेगा कि 
उसके साथ शिर्क किया जाए। लेकिन इसके अलावा जो कुछ है उसे जिसके लिए चाहेगा 
बख्श देगा। और जिसने अल्लाह का शरीक ठहराया उसने बड़ा तूफान बांधा। क्या 
तुमने देखा उन्हें जो अपने आपको पाकीजा कहते हैं। बल्कि अल्लाह ही पाक करता 

है जिसे चाहता है, और उन पर जरा भी जुल्म न होगा। देखो, ये अल्लाह पर केसा झूठ 





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सूरा-4. अन-निसा 209 पारा 5 
बांध रहे हैं और सरीह गुनाह होने के लिए यही काफी है। (47-50) 


कभी ऐसा होता है कि आदमी एक बात को सुनता है मगर वह हकीकत में नहीं सुनता। 
यह उस वक्त होता है जबकि आदमी उस बात को समझने के मामले में संजीदा न हो और 
उस पर अमल करने में उसे कोई दिलचस्पी न हो। यह मिजाज जब अपने आखिरी दर्ज में 
पहुंचता है तो आदमी की नासमझी का हाल ऐसा हो जाता है जैसे उसके चेहरे के निशानात 
मिटा दिए गए हों और अब वह चीजों को इस तरह देख और सुन रहा हो जैसे कोई शख्स 
सर के पिछले हिस्से की तरफ से चीजों को देखे और सुने, जहां न देखने के लिए आंख है 
और न सुनने के लिए कान। हक बात को समझने के लिए आदमी का इस तरह अंधा बहरा 
हो जाना इस बात की अलामत है कि हक से साथ मुसलसल बेपरवाही के सबब ख़ुदा ने उसे 
अपनी तौफीक से महरूम कर दिया है। खुदा ने उसे कान दिया मगर उसने नहीं सुना, ख़ुदा 
ने उसे आंख दी मगर उसने नहीं देखा तो अब ख़ुदा ने भी उसे वैसा ही बना दिया जैसा उसने 
ख़ुद से अपने को बना रखा था। बेहिसी जब अपने आखिरी दर्जे में पहुंचती है तो वह मस्ख़ 
(विनष्ट) की सूरत अपना लेती है। 

यहूद का यह ख्याल था कि हम पेग़म्बरों की नस्ल से हैं, इस सबब हमारा गिरोह 
मुकद्दस गिरोह है। उन्होंने बेशुमार रिवायतें और कहानियां गढ़ रखी थीं जो उनके नस्ली 
शरफ और गिरोही फजीलत की तस्दीक करती थीं। वे इन्हीं खुशख्यालियों में जी रहे थे। 
उन्होंने बतौर खुद यह अकीदा कायम कर लिया था कि हर वह शख्स जो यहूदी है उसकी 
नजात यकीनी है। कोई यहूदी कभी जहन्नम की आग में नहीं डाला जाएगा। 

वे अपने को पाकीजा ठहराते हैं हालांकि अल्लाह जिसे चाहे पाकीजा ठहराए ।' ये जुमला 
इस ख्याल की तरदीद (खंडन) है। मतलब यह है कि किसी नस्ल या गिरोह से वाबस्तगी के 
सबब किसी को फजीलत या शरफ नहीं मिल जाता। बल्कि इसका तअनल्लुक खुदा के इंसाफ 
के कानून से है। जो शर्म खुदाई कानून के मुताबिक अपने को शरफ का मुस्तहिक साबित 
करे वह शरफ वाला है और जो शख्स अपने अमल से अपने को मुस्तहिक साबित न कर सके 
वह महज किसी गिरोह से वाबस्तगी की बुनियाद पर शरफ का मालिक नहीं बन जाएगा। 

गिरोही नजात का अकीदा चाहे यहूदी कायम करें या कोई और ऐसा अकीदा बना ले 
वह सरासर बातिल है। जो लोग ऐसा अकीदा बनाते हैं वे उसे खुदा की तरफ मंसूब करते हैं। 
मगर यह ख़ुदा पर झूठ लगाना है। क्योंकि ख़ुदा ने कभी ऐसी तालीम नहीं दी। ख़ुदा अगर 
एक इंसान और दूसरे इंसान में गिरोही तअल्लुक की बुनियाद पर फर्क करने लगे तो यह जुल्म 
होगा और ख़ुदा सरासर अदूल (इंसाफ) है, वह कभी किसी के साथ जुल्म करने वाला नहीं। 


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क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जिन्हें किताब से हिस्सा मिला था, वे जिब्त (झूठी 
चीजों) और तागूत को मानते हैं और मुंकिरों के बारे में कहते हैं कि वे ईमानवालों से 
ज्यादा सही रास्ते पर हैं। यही लोग हैं जिन पर अल्लाह ने लानत की है और जिस पर 
अल्लाह लानत करे तुम उसका कोई मददगार न पाओगे। क्या ख़ुदा के इक्तेदार (संप्रभुत्व) 

में कुछ इनका भी दख़ल है। फिर तो ये लोगों को एक तिल बराबर भी न दें। क्या ये 
लोगों पर हसद कर रहे हैं इस सबब कि अल्लाह ने उन्हें अपने फज्ल से दिया है। पस 

हमने आले इब्राहीम को किताब और हिक्मत दी है और हमने उन्हें एक बड़ी सल्तनत 
भी दे दी। उनमें से किसी ने इसे माना और कोई इससे रुका रहा और ऐसों के लिए 
जहन्नम की भड़कती हुई आग काफी है। बेशक जिन लोगों ने हमारी निशानियाँ का 
इंकार किया उन्हें हम सख्त आग में डालेंगे। जब उनके जिस्म की खाल जल जाएगी तो 
हम उनकी खाल को बदल कर दूसरी कर देंगे ताकि वे अजाब चखते रहें। बेशक अल्लाह 
जबरदस्त है हिक्मत वाला है। और जो लोग ईमान लाए और नेक काम किए उन्हें हम 
बागों में दाखिल करेंगे जिनके नीचे नहरें बहती होंगी, उसमें वे हमेशा रहेंगे, वहां उनके 
लिए सुथरी बीवियां होंगी और उन्हें हम घनी छांव में रखेंगे। (5.-57) 






































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आसमानी किताब की हामिल किसी कौम पर जब जवाल आता है तो वह अमल के 
बजाए खुशअकीदगी (सुआस्था) की सतह पर जीने लगती है। इसका नतीजा यह होता है कि 
उसके दर्मियान तवह्हुमात (अंधविश्वास) खूब फैलते हैं। जो चीज हकीकी अमल के जरिए 
मिलती है उसे वह अमलियात और फर्जी अकीदों और सिफली आमाल के रास्ते से पाने की 
कोशिश शुरू कर देती है। ऐसे लोग दीन के मामले को 'पाक कलिमात' और 'बाबरकत 
निस्बताँ का मामला समझ लेते हैं जिसके महज जबानी अदायगी या रस्मी तअल्लुक से 
चमत्कार प्रकट होते हों। इसी के साथ उनका यह हाल होता है कि वे जबान से दीन का नाम 
लेते हुए अपनी अमली जिंदगी को शैतान के हवाले कर देते हैं। वे हकीकी जिंदगी में नपस 
की ख़्वाहिशों और शैतान की तरगीबात पर चल पड़ते हैं। मगर इसी के साथ अपने ऊपर दीन 
का लेबल लगा कर समझते हैं कि जो कुछ वे करने लगें वही ख़ुदा का दीन है। ऐसी हालत 


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सूरा-4. अन-निसा 2]] पारा 5 
में जब उनके दर्मियान बेआमेज (विशुद्ध) हक की दावत उठती है तो वे सबसे ज्यादा इसके 
मुखालिफ हो जाते हैं। क्योंकि उन्हें महसूस होता है कि वह उनकी दीनी हैसियत को नकार रही 
है। मुंकिरों का वुजूद उनके लिए इस किस्म का चैलेंज नहीं होता इसलिए मुंकिरों के मामले में 
वे नर्म होते हैं, मगर हक के दाऔ के लिए उनके दिल में कोई नर्म गोशा नहीं होता। उनके 
अंदर यह हासिदाना ((ईईर्ष्यपूर्ण] आग भड़क उठती है कि जब दीन के इजारादार हम थे तो दूसरे 
किसी शख्स को दीन की नुमाइंदगी का दर्जा कैसे मिल गया। वे भूल जाते हैं कि ख़ुदा आदमी 
की कल्बी इस्तेदाद (आन्तरिक क्षमता) की बुनियाद पर किसी को अपने दीन का नुमाइंदा चुनता 
है न कि नुमाइशी चीजों की बुनियाद पर। 

लानत यह है कि आदमी अल्लाह की रहमतों और नुसरतों से बिल्कुल दूर कर दिया 
जाए। खाना और पानी बंद होने से जिस तरह आदमी की मादूदी जिंदगी ख़त्म हो जाती है 
उसी तरह ख़ुदा की नुसरत से महरूमी के बाद आदमी की ईमानी जिंदगी का ख़ात्मा हो जाता 
है। लानतजदा आदमी लतीफ एहसासात के एतबार से इस तरह एक ख़त्मशुदा इंसान बन 
जाता है कि उसके अंदर हक और नाहक की तमीज बाकी नहीं रहती। खुली-खुली निशानियां 
सामने आने के बाद भी उसे एतराफ की तौफीक नहीं होती । वह निरर्थक शोशों और सुस्पष्ट 
दलीलों के दर्मियान फर्क नहीं करता। 


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पारा 5 22 सूरा-4. अन-निसा 


अल्लाह तुम्हें हुक्म देता है कि अमानतें उनके हकदारों को पहुंचा दो। और जब लोगों के 
दर्मियान फैसला करो तो इंसाफ के साथ फैसला करो। अल्लाह अच्छी नसीहत करता है 

तुम्हें, बेशक अल्लाह सुनने वाला, देखने वाला है। ऐ ईमान वालो, अल्लाह की इताअत 
(आज्ञापालन) करो और रसूल की इताअत करो और अपने में अहले इसख्तियार की 
इताअत करो। फिर अगर तुम्हारे दर्मियान किसी चीज में इख़्तेलाफ (मतभेद) हो जाए 

तो उसे अल्लाह और रसूल की तरफ लौटाओ, अगर तुम अल्लाह पर और आखिरत के 
दिन पर ईमान रखते हो। यह बात अच्छी है और इसका अंजाम बेहतर है। क्या तुमने 
उन लोगों को नहीं देखा जो दावा करते हैं कि वे ईमान लाए हैं उस पर जो उतारा गया 
है तुम्हारी तरफ और जो उतारा गया है तुमसे पहले, वे चाहते हैं कि विवाद ले जाएं 
शैतान की तरफ, हालांकि उन्हें हुक्म हो चुका है कि उसे न मानें और शैतान चाहता है 
कि उन्हें बहका कर बहुत दूर डाल दे। और जब उनसे कहा जाता है कि आओ अल्लाह 
की उतारी हुई किताब की तरफ और रसूल की तरफ तो तुम देखोगे कि मुनाफिक्रीन 

(पाखंडी) तुमसे कतरा जाते हैं। फिर उस वक्‍त क्या होगा जब उनके अपने हाथों की 
लाई हुई मुसीबत उन पर पहुंचेगी, उस वक्‍त ये तुम्हारे पास कसमें खाते हुए आएँगे कि 

खुदा की कसम हमें तो सिर्फ भलाई और मिलाप से गरज थी। उनके दिलों में जो कुछ 

है अल्लाह उससे ख़ूब वाकिफ है। पस तुम उनसे एराज (उपेक्षा) करो और उन्हें नसीहत 

करो और उनसे ऐसी बात कहो जो उनके दिलों में उतर जाए। (58-63) 


हर जिम्मेदारी एक अमानत है और उसे ठीक-ठीक अदा करना जरूरी है। इसी तरह जब 
किसी से मामला पड़े तो आदमी को चाहिए कि वह करे जो इंसाफ का तकाजा हो, चाहे 
मामला दोस्त का हो या दुश्मन का। अगर अमानतदारी और इंसाफ का तरीका बजाहिर 
अपने फायदों और मस्लेहतों के खिलाफ नजर आए तब भी उसे इंसाफ और सच्चाई ही के 
तरीके पर कायम रहना है। क्योंकि बेहतरी उसमें है जो अल्लाह बताए न कि उसमें जो हमारे 
नफ्स को पसंद हो। अगर हुकूमती निजाम के मौके हों तो मुसलमानों को चाहिए कि बाकायदा 
इस्लामी हुकूमत का कयाम अमल में लाएं। और अगर हुकूमत के अवसर न हों तो अपने 
अंदर के काबिले एतमाद अफराद को अपना सरबराह (प्रमुख) बना लें और उनकी हिदायतों 
को लेते हुए दीनी जिंदगी गुजारें। जब किसी मामले में इख़्तेलाफ (मतभेद, विवाद) हो तो हर 
फरीक (पक्ष) पर लाजिम है कि वह उस बात को मान ले जो अल्लाह और रसूल की तरफ 
से आ रही हो। हर आदमी को अपनी राय और मत रखने की आजादी है मगर इज्तिमाई 
(सामूहिक) फैसले को न मानने की आजादी किसी को भी हासिल नहीं। इज्तिमाई निजाम 
मुस्लिम समाज की इज्तिमाई जरूरत है। 

मदीना के इक्तिदाई जमाने में इ्तिलाफी मामलों में फैसला लेने के लिए एक ही समय 
में दो अदालतें पाई जाती थीं। एक यहूदी सरदारों की जो पहले से चली आ रही थी। दूसरी 
अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्ल०) को जो हिजरत के बाद कायम हुई। मुसलमानों में जो लोग 
अपने मफाद (हित) की कुर्बानी की कीमत पर दीनदार बनने के लिए तैयार न थे वे ऐसा करते 





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सूरा-4. अन-निसा 2]3 पारा 5 


कि जब उन्हें अंदेशा होता कि उनका मुकदमा कमजोर है और वे अल्लाह के रसूल की अदालत 

से अपने मुवाफिक फैसला न ले सकेंगे तो वे कअब बिन अशरफ यहूदी की अदालत में चले 

जाते। यह बात सरासर ईमान के खिलाफ है। आदमी अगर अल्लाह के फैसले पर राजी न हो 

बल्कि अपनी पसंद का फैसला लेना चाहे तो उसका ईमान का दावा झूठा है, चाहे वह अपने 
रवैये को हक बजानिब साबित करने के लिए कितने ही खूबसूरत अल्फाज अपने पास रखता 

हो। ताहम ऐसे लोगों से न उलझते हुए उन्हें मुअस्सिर अंदाज में नसीहत करने का काम फिर 
भी जारी रहना चाहिए । 


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और हमने जो रसूल भेजा इसीलिए भेजा कि अल्लाह के हुक्म से उसकी इताअत 
(आज्ञापालन) की जाए। और अगर वे जबकि उन्होंने अपना बुरा किया था, तुम्हारे पास 
आते और अल्लाह से माफी चाहते और रसूल भी उनके लिए माफी चाहता तो यकीनन 
वे अल्लाह को बख़्शने वाला रहम करने वाला पाते। पस तेरे रब की कसम वे कभी 
ईमान वाले नहीं हो सकते जब तक वे अपने आपसी झगड़े में तुम्हें फैसला करने वाला 
न मान लें। फिर जो फैसला तुम करो उस पर अपने दिलों में कोई तंगी न पाएं और 
उसे खुशी से कुबूल कर लें। और अगर हम उन्हें हुक्म देते कि अपने आपको हलाक 
करो या अपने घरों से निकलो तो उनमें से थोड़े ही इस पर अमल करते। और अगर 
ये लोग वह करते जिसकी उन्हें नसीहत की जाती है तो उनके लिए यह बात बेहतर 
और ईमान पर साबित रखने वाली होती। और उस वक्‍त हम उन्हें अपने पास से बड़ा 


अज्र देते और उन्हें सीधा रास्ता दिखाते। और जो अल्लाह और रसूल की इताअत करेगा 
वह उन लोगों के साथ होगा जिन पर अल्लाह ने इनाम किया, यानी पेग़ाम्बर और 


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पारा 5 24 सूरा-4. अन-निसा 


सिद्दीक और शहीद और सातेह। वैसी अच्छी है उनकी स्फिक्त। यह फल है 
अल्लाह की तरफ से और अल्लाह का इल्म काफी है। (64-70) 


रसूल इसलिए नहीं आता कि लोग बस उसके अकीदतमंद हो जाएं और उसकी बारगाह 
में अल्फाज के गुलदस्ते पेश करते रहें। रसूल इसलिए आता है कि आदमी उससे अपनी 
जिंदगी का तरीका मालूम करे और उस पर अमलन कारबंद हो। इस मामले में आदमी को 
इतना ज्यादा शदीद होना चाहिए कि नाजुक मौकों पर भी वह रसूल की इताअत से न हटे। 
जब दो आदमियों का मफाद एक-दूसरे से टकरा जाए और दो आदमियों के दर्मियान 
एक-दूसरे के खिलाफ तल्खी उभर आए उस वक्‍त भी आदमी को अपने नफ्स को दबाना है 
और अपने इरादे से अपने को रसूल वाले तरीके का पाबंद बनाना है। विवाद के अवसर पर 
जो शख्स रसूल की रहनुमाई को कुबूल करे वही रसूल को मानने वाला है। यहां तक कि रसूल 
का तरीका अपने जैक और अपनी मस्लेहत के खिलाफ हो तब भी वह दिल की रिजामंदी 
के साथ उसे कुबूल कर ले। वह अपने एहसास को इतना जिंदा रखे कि अगर वक्ती तौर पर 
कभी उससे गलती हो जाए तो वह जल्द ही चौंक उठे | वह जान ले कि रसूल को छोड़कर वह 
शैतान के पीछे चल पड़ा था। वह फौरन पलटे और माफी का तालिब हो। जो शख्स 
नपिसियाती झटकों के मौकों पर दीन पर कायम न रह सके उससे क्या उम्मीद की जा सकती 
है कि वह उन शदीदतर मौकों पर साबितकदम रहेगा जबकि वतन को छोड़कर और जान व 
माल की कुर्बानी देकर आदमी को अपने ईमान का सुबूत देना पड़ता है। 

नफ्सपरस्ती और मस्लेहतपसंदी की जिंदगी इख्तियार करने के नतीजे में आदमी जो 
सबसे बड़ी चीज खो देता है वह सिराते मुस्तकीम (सीधी-सच्ची राह, सन्मार्ग) है। यानी वह 
रास्ता जिसे पकड़ कर आदमी चलता रहे यहां तक कि अपने रब तक पहुंच जाए। यह रास्ता 
खुदा की किताब और रसूल की सुन्नत में वाजेह तौर पर मौजूद है। मगर आदमी जब अपनी 
सोच को तहपफुजात (संरक्षण) का पाबंद कर लेता है तो वजाहत के बावजूद वह सिराते 
मुस्तकीम को देख नहीं पाता। वह दीन का मुतालआ (मनन, अध्ययन) अपनी ख्याहिशों और 
मस्लेहताँ के जेरेअसर करता है न कि उसकी बेआमेज (विशुद्ध) सूरत में। उसके जेहन में 
अपने अनुकूल दीन की एक स्वनिर्मित परिकल्पना कायम हो जाती है। वह ईमान का दावेदार 
होकर भी ईमान से महरूम रहता है। ऐसे लोग उस जन्नत के मुस्तहिक कैसे हो सकते हैं जहां 
वे लोग बसाए जाएंगे जिन्होंने हर किस्म की मस्लेहतों से ऊपर उठ कर दीन को अपनाया था। 
वे लोग जो ख़ुदा के अहद को पूरा करने वाले हैं, जो हक की गवाही आखिरी हद तक देने 
वाले हैं और जिनकी जिंदगियां हद दर्जा पाकीजा हैं। 

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ऐ ईमान वालो अपनी एहतियात कर लो फिर निकलो जुदा-जुदा या इकट्ठे होकर। और 
तुममें कोई ऐसा भी है जो देर लगा देता है। फिर अगर तुम्हें कोई मुसीबत पहुंचे तो 
वह कहता है कि अल्लाह ने मुझ पर इनाम किया कि में उनके साथ न था। और अगर 
तुम्हें अल्लाह का कोई फज्ल हासिल हो तो कहता है, गोया तुम्हारे और उसके दर्मियान 
कोई मुहब्बत का रिश्ता ही नहींकि काश में भी उनके साथ होता तो बड़ी कामयाबी 
हासिल करता। पस चाहिए कि लड़ें अल्लाह की राह में वे लोग जो आख़िरत के बदले 
दुनिया की जिंदगी को बेच देते हैं। और जो शख्स अल्लाह की राह में लड़े, फिर मारा 
जाए या ग़ालिब हो तो हम उसे बड़ा अज्र देंगे। और तुम्हें क्या हुआ कि तुम नहीं लड़ते 
अल्लाह की राह में और उन कमजोर मर्दों और औरतों और बच्चों के लिए जो कहते 
हैं कि ख़ुदाया हमें इस बस्ती से निकाल जिसके बाशिंदे जालिम हैं और हमारे लिए अपने 
पास से कोई हिमायती पेदा कर दे और हमारे लिए अपने पास से कोई मददगार खड़ा 
कर दे। जो लोग ईमान वाले हैं वे अल्लाह की राह में लड़ते हैं और जो मुंकिर हैं वे शैतान 
की राह में लड़ते हैं। पस तुम शैतान के साथियों से लड़ो। बेशक शैतान की चाल बहुत 
कमजेर है। (7-76) 





मौजूदा दुनिया इम्तेहान की दुनिया है, इसलिए यहां हर एक को अमल की आजादी है। 
यहां शरीर लोगों को भी मौका है कि वे खुदा के बंदों को अपने जुल्म का निशाना बनाएं और 
इसी के साथ खुदा के नेक बंदों को अपने ईमान के इकरार का सुबूत इस तरह देना है कि 
वे शरीर लोगों की तरफ से डाली जाने वाली मुसीबतां के बावजूद साबितकदम रहें। अहले 
ईमान को खुदा के दुश्मनों के मुकाबलें में हर वक्‍त चौकन्ना रहना है। पुरअम्न तदबीरों और 
जंगी तैयारियों से उन्हें पूरी तरह अपने बचाव का इंतजाम करना है। उन्हें अलग-अलग तौर 
पर भी अपने दुश्मनों का मुकाबला करना है और मिल कर भी। इसी के साथ ख़ुद मुसलमानों 
की सफ में भी ऐसे लोग होते हैं जैसा कि उहुद की जंग में जाहिर हुआ, जो दुनिया के नुक्सान 
का ख़तरा मोल लिए बगैर आखिरत का सौदा करना चाहते हों। ऐसे लोगों का हाल यह होता 


पारा 5 26 सूरा-4. अन-निसा 


है कि वे उन कामों में तो ख़ूब हिस्सा लेते हैं जिनमें दुनियावी फायदे का कोई पहलू हो। मगर 
ऐसा दीनी काम जिसमें दुनियावी एतबार से नुक्सान का अंदेशा हो उससे अलग होने के लिए 
ख़ुबसूरत उज़ तलाश कर लेते हैं। उनकी यह जेहनियत इसलिए है कि इस्लाम कुबूल करने के 
बावजूद अमलन वे इसी मौजूदा दुनिया की सतह पर जी रहे हैं। अगर उन्हें यकीन हो कि अस्ल 
अहमियत की चीज आख़िरत है तो दुनिया की कामयाबी व नाकामी उनके लिए नाकाबिले 
लिहाज बन जाए । अल्लाह की राह का मुजाहिद हकीकत में वह है जो सिर्फ आझिरत का तालिब 
हो, जो दुनिया के फायदों और मस्लेहतों को कुर्बान करके अल्लाह की राह में बढ़े। न कि वह 
जो ऐसे जिहाद का गाजी बनना पसंद करे जिसमें कोई जख्म लगे बगैर बड़े-बड़े क्रेडिट मिलते हों, 
जिसमेंअत्फज बेलकर शेहरत व इजत का मकम हसिल हेता हे। 

ख़ुदा की राह की लड़ाई वह है जो उस ख़ुदा के बंदे को पेश आए जो सिफ ख़ुदा के लिए 
उठा हो। वह लोगों को जहन्नम से डराए और लोगों को जन्नत की तरफ बुलाए। किसी से 
वह मादूदी (भौतिक, सांसारिक) या सियासी झगड़ा न छेड़े। फिर भी शरीर लोग उससे लड़ने 
के लिए खड़े हो जाएं। और शैतान की राह में लड़ने वाले वे लोग हैं जो किसी ख़ुदा के बंदे 
से इस सबब लड़ें कि उसकी बातों से उनके अहंकार पर चोट पड़ती है। उसके पैग़ाम के 
फैलाव में उन्हें अपना आर्थिक या सियासी खतरा दिखाई देता है। उसकी दलीलों को तोड़ने 
के लिए वे आक्रामकता के सिवा और कोई दलील अपने पास नहीं पाते। 


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क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जिनसे कहा गया था कि अपने हाथ रोके रखो और 
नमाज कायम करो और जकात दो। फिर जब उन्हें लड़ाई का हुक्म दिया गया तो उनमें 


से एक गिरोह इंसानों से ऐसा डरने लगा जैसे अल्लाह से डरना चाहिए या इससे भी 
ज्यादा। वे कहते हैं ऐ हमारे रब, तूने हम पर लड़ाई क्यों फर्ज कर दी। क्यों न छोड़े 


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सूरा-4. अन-निसा श्वप पारा 5 


रखा हमें थोड़ी मुदूदत तक। कह दो कि दुनिया का फायदा थोड़ा है और आख़िरत 
बेहतर है उसके लिए जो परहेजगारी करे, और तुम्हारे साथ जरा भी जुल्म न होगा। और 

तुम जहां भी होगे मौत तुम्हें पा लेगी अगरचे तुम मजबूत किलों में हो। अगर उन्हें कोई 

भलाई पहुंचती है तो कहते हैं कि यह ख़ुदा की तरफ से है और अगर उन्हें कोई बुराई 
पहुंचती है तो कहते हैं कि यह तुम्हारे सबब से है। कह दो कि सब कुछ अल्लाह की 
तरफ से है। इन लोगों का कया हाल है कि लगता है कि कोई बात ही नहीं समझते। 
तुम्हें जो भलाई भी पहुंचती है खुदा की तरफ से पहुंचती है और तुम्हें जो बुराई पहुंचती 

है वह तुम्हारे अपने ही सबब से है। और हमने तुम्हें इंसानों की तरफ पेग़म्बर बना 
कर भेजा है और अल्लाह की गवाही काफी है। (77-79) 





हिजरत से पहले मक्का में इस्लाम के विरोधी मुसलमानों को बहुत सताते थे। मारना-पीटना, 
उनके आर्थिक साधन-स्रोतों को तबाह करना, उन्हें मस्जिदे हराम में इबादत से रोकना, उन्हें 
तब्लीग की इजाजत न देना, उन्हें घर बार छोड़ने पर मजबूर करना, सब कुछ उन्होंने 
मुसलमानों के लिए जाइज कर लिया था। जो शख्स इस्लाम कुबूल करता उस पर वे हर किस्म 
का दबाव डालते ताकि वह इस्लाम को छोड़कर अपने आबाई मजहब की तरफ लौट जाए। 
इस्लाम विरोधियों को इस जारिहियत (आक्रमकता) ने मुसलमानों के लिए उसूलन जाइज कर 
दिया था कि वे उनके ख़िलाफ तलवार उठाएं । अतः वे मुहम्मद (सल्ल०) से बार-बार जंग की 
इजाजत मांगते। मगर आप हमेशा यह कहते कि मुझे जंग का हुक्म नहीं दिया गया है। तुम 
सब्र करो और नमाज और जकात की अदायगी करते रहो। इसकी वजह यह थी कि वकत से 
पहले कोई इकदाम करना इस्लाम का तरीका नहीं। मक्का में मुसलमानों की इतनी ताकत 
नहीं थी कि वे अपने दुश्मनों के खिलाफ फैसलाकुन इकदाम कर सकते। उस वकत मक्का 
वालों के मुकाबले में तलवार उठाना अपनी मुसीबतों को और बढ़ाने के समान था। इसका 
मतलब यह था कि वह ताकतवर दुश्मन जो अभी तक सिर्फ इंफिरादी जुल्म कर रहा है उसे 
अपनी तरफ से मुकम्मल जंगी कार्रवाई करने का जवाज (औचित्य) फराहम कर दिया जाए। 
अमली इकदाम हमेशा उस वक्‍त किया जाता है जबकि उसके लिए जरूरी तैयारी कर ली गई 
हो। इससे पहले अहले ईमान से सिर्फ ईफेरादी अहकाम का तकाजा किया जाता है जो हर 
हाल में आदमी के लिए जरूरी हैं। यानी अल्लाह से तअल्लुक जोड़ना, बंदों के हुकूक अदा 
करना और दीन की राह में जो मुश्किलें पेश आएं उन्हें बर्दाश्त करना। 

कुरआन में कुर्बानी के अहकाम आए तो मस्लेहतपरस्त लोगों को अपनी जिंदगी का 
नक्शा बिखरता हुआ नजर आया। वे अपनी कमजोरी को छुपाने के लिए तरह-तरह की बातें 
करने लगे। उहुद की जंग में शिकस्त हुई तो इसे वह रसूल की बेतदबीरी का नतीजा बता कर 
रसूल की रहनुमाई के बारे में लोगों को बदजन करने लगे। फायदे वाली बातों को अल्लाह का 
फज्ल बता कर वे अपनी इस्लामियत का प्रदर्शन करते और अमली इस्लाम से बचने के लिए 
रसूल को ग़लत साबित करते। ख़ुदा को मान कर आदमी के लिए मुमकिन रहता है कि वह 
अपने नफ्स पर चलता रहे। मगर ख़ुदा के दाजी (आस्वानकर्ता) को मानने के बाद उसका 
साथ देना भी जरूरी हो जाता है जो आदमी के लिए मुश्किलतरीन काम है। 


पारा 5 28 सूरा-4. अन-निसा 


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जिसने रसूल की इताअत की उसने अल्लाह की इताअत की और जो उल्टा फिरा तो 
हमने उन पर तुम्हें निगरां बना कर नहीं भेजा है ओर ये लोग कहते हैं कि हमें कुबूल 
है। फिर जब तुम्हारे पास से निकलते हैं तो उनमें से एक गिरोह उसके खिलाफ मश्विरा 
करता है जो वह कह चुका था। और अल्लाह उनकी सरगोशियों (कुकृत्यों) को लिख 
रहा है। पस तुम उनसे एराज (उपेक्षा) करो और अल्लाह पर भरोसा रखो, और अल्लाह 
भरोसे के लिए काफी है। क्या ये लोग कुरआन पर गौर नहीं करते, अगर यह अल्लाह 
के सिवा किसी और की तरफ से होता तो वे इसके अंदर बड़ा इस्तेलाफ (अन्तर्विरोध 
7) पाते। और जब उन्हें कोई बात अम्न या ख़ौफ की पहुंचती है तो वह उसे फैला देते 
हैं। और अगर वे उसे रसूल तक या अपने जिम्मेदार लोगों तक पहुंचाते तो उनमें से 
जो लोग तहकीक करने वाले हैं वे उसकी हकीकत जान लेते। और अगर तुम पर अल्लाह 
का फज्ल और उसकी रहमत न होती तो थोड़े लोगों के सिवा तुम सब शैतान के पीछे 
लग जाते। (80-83) 





ख़ुदा के दाऔ को मानना 'अपने जैसे इंसान' को मानना है। यही वजह है कि आदमी 
खुदा को मान लेता है, मगर वह खुदा के दाऔ (आह्वानकर्ता) को मानने पर राजी नहीं 
होता । मगर आदमी का अस्ल इम्तेहान यही है कि वह ख़ुदा के दाऔ को पहचाने और उसकी 
जानिब अपने को खड़ा करे। दाऔ के मामले को जब आदमी ख़ुदा का मामला न समझे तो 
वह इसके बारे में संजीदा भी नहीं होता। सामने वह रस्मी तौर पर हां कर देता है मगर जब 
अलग होता है तो अपनी पहले की रविश पर चलने लगता है। वह इसके ख़िलाफ ऐसी बातें 
फैलाता है जिनका फैलाना सरासर गैर-जिम्मेदाराना फेअल हो । जो लोग ख़ुदा के दाऔ के साथ 
इस किस्म की बेपरवाई का सुलूक करें वे ख़ुदा के यहां यह कह कर नहीं छूट सकते कि हम 
नहीं जानते थे। आदमी अगर ठहर कर सोचे तो दाऔ की सदाकत को जानने के लिए वह कलाम 
ही काफी है जो खुदा ने उसकी जबान पर जारी किया है। 

कुरआन के कलामे इलाही होने का एक वाजेह सुबूत यह है कि इसका कोई बयान किसी 


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सूरा-4. अन-निसा 2]9 पारा 5 


भी मुसल्लमा सदाकत के खिलाफ नहीं । इसमें कोई ऐसी चीज नहीं जो इंसानी फितरत के छिलाफ 
हो। इसमें कोई ऐसा बयान नहीं जो पहले की आसमानी किताबों के जरिए जानी हुई किसी 
हकीकत से टकराता हो। इसमें कोई ऐसा इशारा नहीं जो प्रयोगात्मक ज्ञानों से प्राप्त किसी घटना 
के विपरीत हो। यथार्थ से यह पूरी तरह अनुकूलता इस बात का यकीनी सुबूत है कि यह अल्लाह 
की तरफ से आया हुआ कलाम है। ताहम किसी भी सच्चाई का सच्चाई नजर आना इस पर 
निर्भर है कि आदमी गंभीरता के साथ उसे समझने की कोशिश करे। कुरआन का इख्तेलाफे 
कसीर (अन्तर्विरोधों) से मुक्त होना उस शख्स को दिखाई देगा जो कुरआन पर 'तदब्बुर” 
(चिंतन-मनन) करे। जो शख्स तदब्बुर करना न चाहे उसके लिए बेमअनी एतराजात निकालने 
का दरवाजा उस ववत तक खुला हुआ है जब तक कियामत आकर मौजूदा इम्तेहानी हालत का 
खात्मा न कर दे। 

इस्लामी समाज वह है जिसके अफराद इतने खुदशनास (आत्मविश्लेषक) हों कि वे दूसरों 
के मुकाबले में अपनी नाअहली (अयोग्यता) को जान लें। वे किसी मामले को अहलतर शख्स 
के हवाले करके उसकी रहनुमाई पर राजी हो जाएं। यह खुदशनासी ही एक मात्र चीज है जो 
सामूहिक जीवन में किसी को शैतान के पीछे चल पड़ने से बचाती है। आदमी अगर अपने 
आपको न जाने तो वह योग्यता न रखते हुए भी नाजुक मामलों में कूद पड़ता है और फिर 
ख़ुद भी हलाक होता है और दूसरों को भी हलाक कर देता है। इज्तिमाई (सामूहिक) मामलों 
में बोलने से ज्यादा चुप रहना जरूरी होता है। यह शैतान की मदद करना है कि आदमी जो 
बात सुने उसे दूसरों के सामने दोहराने लगे। 


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पस लड़ो अल्लाह की राह में। तुम पर अपनी जान के सिवा किसी की जिम्मेदारी नहीं और 
मुसलमानों को उभारो। उम्मीद है कि अल्लाह मुंकिरों का जोर तोड़ दे और अल्लाह बड़ा 
जोर वाला और बहुत सख्त सजा देने वाला है। जो शख्स किसी अच्छी बात के हक में कहेगा 
उसके लिए उसमें से हिस्सा है और जो इसके विरोध में कहेगा उसके लिए उसमें से हिस्सा 
है और अल्लाह हर चीज पर कुदरत रखने वाला है। और जब कोई तुम्हें दुआ दे तो तुम 
भी दुआ दो उससे बेहतर या उलट कर वही कह दो, बेशक अल्लाह हर चीज का हिसाब 


लेने वाला है। अल्लाह ही माबूद है, उसके सिवा कोई माबूद (पूज्य) नहीं। वह तुम सब 
को कियामत के दिन जमा करेगा जिसके आने में कोई शुबह नहीं। और अल्लाह की बात 


पारा 5 220 सूरा-4. अन-निसा 
से बढ़कर सच्ची बात और किसकी हो सकती है। (84-87) 


दीनदारी की एक सूरत यह है कि आदमी अमली तौर पर जहां है वहीं रहे, वह अपनी 
हकीकी जिंदगी में कोई तब्दीली न करे। अलबत्ता कुछ ऊपरी मजाहिर का एहतेमाम करके 
समझे कि मैं दीनदार बन गया हूं। ऐसे दीन से किसी को जिद नहीं होती। लोग उसके विरोध 
की जरूरत नहीं समझते। मगर जब दीन के ऐसे तकाजे पेश किए जाएं जो कुर्बानी का 
मुतालबा करते हों, जिसमें आदमी को अपनी बनी बनाई जिंदगी उजाड़ना पड़े तो इसके सामने 
आने के बाद लोगों में दो पक्ष हो जाते हैं। एक तबका दावत (इस्लामी आह्वान) के विरोधियों 
का। ये वे लोग हैं जो सस्ते मजाहिर (दिखावटी कर्मकांड) के जरिए अपनी दीनदारी का 
सिक्का कायम किए हुए होते हैं। वे कुर्बानी वाले दीन के मुखालिफ बन जाते हैं। क्योंकि ऐसे 
दीन को अपनाना उन्हें बरतरी के मकाम से उतरने के समान नजर आता है। दूसरा तबका 
वह होता है जिसकी फितरत जिंदा होती है। वह चीजों को मफाद और मस्लेहत से ऊपर उठ 
कर देखता है। एक बात का हक साबित हो जाना ही उसके लिए काफी हो जाता है कि वह 
उसे कुबूल कर ले। यह सूरतेहाल कभी इतनी संगीन हो जाती है कि हक की ताईद और 
हिमायत में जबान खोलना जिहाद के समान बन जाता है। इसके विपरीत हक के बारे में 
खामोशी या विरोध का रवैया अपनाना आदमी को इनाम का हकदार बना देता है। ताहम 
जहां तक सच्चे अहले ईमान का तअल्लुक है उन्हें हर हाल में यह हुक्म है कि आम समाजी 
तअल्लुकात को इस मतभेद से प्रभावित न होने दें। और उनके साथ गैर-अख़्ताकी रवैया न 
अपनाएं। मुसलमान का रवैया दूसरों की प्रतिक्रिया में नहीं बनना चाहिए बल्कि इस किस्म की 
चीजों को नजरअंदाज करके बनना चाहिए। यह मामला अल्लाह से संबंधित है कि वह किसे 
क्या बदला दे और किसी के लिए क्या फैसला करे। 
नाजुफ्र हालत मंहक की दावत को जिंद् रखने की जमानत सिर्फयह हेती है कि कम से 
कम दाओ (आस्वानकर्ता) अपनी जात की सतह पर यह अज्म रखे कि वह हर हाल में अपने 
मोकिफ पर कायम रहेगा चाहे कोई ताईद करने वाला हो या न हो। ऐसे हालात में दाऔ का 
अज्म उसे अल्लाह की ख़ास मदद का हकदार बना देता है। इसकी एक मिसाल बद्रे सुगरा की 
लड़ाई है जो उहुद के सिर्फ एक माह बाद पेश आई। उस वक्त मदीना में ऐसी कैफियत छाई 
हुई थी कि सिर्फ सत्तर आदमी अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्ल०) के साथ निकले। मगर इस 
छोटे से काफिले को अल्लाह की यह खुसूसी मदद मिली कि मक्का वालों पर ऐसा रीब तारी हुआ 
कि वे मुकाबले में न आ सके। ख़ुदा की सुन्नत है कि वह मुंकिरों का जोर तोड़े। मगर ख़ुदा की 
यह सुन्नत उस वक्त जाहिर होती है जबकि दीन के अलमबरदार अपनी बेसरोसामानी के बावजूद 
ख़ुदा के दुश्मनों का जोर तोड़ने के लिए निकल पड़े हों। 
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सूरा-4. अन-निसा 22] पारा 5 


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फिर तुम्हें क्या हुआ है कि तुम मुनाफिकों (पाखंडियां) के मामले में दो गिरोह हो रहे 

हो। हालांकि अल्लाह ने उनके आमाल के सबब से उन्हें उल्टा फेर दिया है। क्या तुम 
चाहते हो कि उन्हें राह पर लाओ जिन्हें अल्लाह ने गुमराह कर दिया है। और जिसे 
अल्लाह गुमराह कर दे तुम हरगिज उसके लिए कोई राह नहीं पा सकते। वे चाहते हैं 
कि जिस तरह उन्होंने इंकार किया है तुम भी इंकार करो ताकि तुम सब बराबर हो 
जाओ। पस तुम उनमें से किसी को दोस्त न बनाओ जब तक वे अल्लाह की राह में 
हिजरत न करें। फिर अगर वे इसे कुबूल न करें तो उन्हें पकड़ो और जहां कहीं उन्हें पाओ 
उनको कत्ल करो और उनमें से किसी को साथी और मददगार न बनाओ। मगर वे लोग 
जिनका तअल्लुक किसी ऐसी कौम से हो जिनके साथ तुम्हारा समझौता है। या वे लोग 

जो तुम्हारे पास इस हाल में आएं कि उनके सीने तंग हो रहे हैं तुम्हारी लड़ाई से और 
अपनी कौम की लड़ाई से। और अगर अल्लाह चाहता तो उन्हें तुम पर जोर दे देता तो 

वे जरूर तुमसे लड़ते। पस अगर वे तुम्हें छोड़े रहें और तुमसे जंग न करें और तुम्हारे साथ 
सुलह का खैया रखें तो अल्लाह तुम्हें भी उनके खिलाफ किसी इकदाम की इजाजत नहीं 

देता। दूसरे कुछ ऐसे लोगों को भी तुम पाओगे जो चाहते हैं कि तुमसे भी अम्न में रहें 
और अपनी कीम से भी अम्न में रहे। जब कभी वे फितने का मौका पाएं वे उसमें कूद 

पड़ते हैं। ऐसे लोग अगर तुमसे यकसू न रहें और तुम्हारे साथ सुलह का रवैया न रखें 
और अपने हाथ न रोके तो तुम उन्हें पकड़ो और उन्हें कत्ल करो जहां कहीं पाओ। ये 
लोग हैं जिनके ख़िलाफ हमने तुम्हें खुली हुज्जत दी है। (88-97) 


पारा 5 222 सूरा-4. अन-निसा 





आदमी जब अल्लाह के दीन को अपनाता है तो इसके बाद उसकी जिंदगी में बार-बार ऐसे 
मरहले आते हैं जहां यह जांच होती है कि वह अपने फैसले में संजीदा है या नहीं। इसी सिलसिले 
का एक इम्तेहान 'हिजरत' है। यानी दीन की राह में जब दुनिया के फायदे और मस्लेहतें (हित) 
रुकावट बनें तो फायदों और मस्लेहतों को छोड़कर अल्लाह की तरफ बढ़ जाना। यहां तक कि 
अगर रिश्तेदार और घर-बार छोड़ने की जरूरत पेश आए तो उसे भी छोड़ देना। ऐसा नाजुक 
मौका पेश आने की सूरत में अगर ऐसा हो कि आदमी अपने फायदों और मस्लेहतों को 
नजरअंदाज करके हक की तरफ बढ़ते उसने हक के साथ अपने कल्बी तअल्लुक़ को फुल्न 
किया। इसके विपरीत अगर ऐसा हो कि ऐसे मौके पर आदमी अपने फायदों और मस्लेहतों 
से लिपटा रहे तो उसने हक के साथ अपने कल्बी तअल्लुक को कमजोर किया । जो शख्स पहली 
राह पर चले उसके अंदर हक की और भी कुबूलियत का मादूदा पैदा होता है, वह बराबर हक 
की तरफ बढ़ता रहता है। और जो शख्स दूसरी राह पर चले उसके अंदर हक की कुबूलियत 
का मादूदा घटता रहता है यहां तक कि वह इतना बेहिस हो जाता है कि उसके अंदर हक को 
कुबूल करने की सलाहियत बाकी नहीं रहती । 

जब दीन के सख्त तकाजे सामने आते हैं तो लोगों में विभिन्न गिरोह बन जाते हैं। कोई 
मुख्लिस लोगों का होता है कोई विरोधियों का। और कुछ ऐसे लोगों का जो बजाहिर हक से 
करीब मगर अंदर से उससे दूर होते हैं। ऐसी हालत में जरूरी है कि अहलेईमान हर एक से 
उसके हस्बेहाल मामला करें। वे फितना को मिटाने में सख्त और अख्लाकी जिम्मेदारियों को 
निभाने में नर्म हों। वे कमजोरों के साथ रिआयत का सुलूक करें। दूसरों से मुतअस्सिर होने 
के बजाए ख़ुद उन्हें मुतअस्सिर करने की कोशिश करें। किसी को अगर अल्लाह ख़ामोश 
कुरके बिठा दे तो उससे बिना जरूरत लड़ाई न छेड़ें। 


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और मुसलमान का काम नहीं कि वह मुसलमान को कत्ल करे मगर यह कि गलती 
से ऐसा हो जाए। और जो शख्स किसी मुसलमान को गलती से कत्ल कर दे तो वह 








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सूरा-4. अन-निसा 223 पारा 5 


एक मुसलमान गुलाम को आजाद करे और मक्तूल (मृतक) के वारिसों को खूंबहा (कत्ल 

का आर्थिक हर्जाना) दे, मगर यह कि वे माफ कर दें। फिर मक्तूल अगर ऐसी कौम 

में से था जो तुम्हारी दुश्मन है और वह ख़ुद मुसलमान था तो वह एक मुसलमान गुलाम 
को आजाद करे। और अगर वह ऐसी कौम से था कि तुम्हारे और उसके दर्मियान 
समझौता है तो वह उसके वारिसों को खूंबहा (कत्ल का आर्थिक हर्जाना) दे और एक 
मुसलमान को आजाद करे। फिर जिसे मयस्सर न हो तो वह लगातार दो महीने के रोजे 

रखे। यह तौबा है अल्लाह की तरफ से। और अल्लाह जानने वाला हिक्मत वाला है। 
और जो शख्स किसी मुसलमान को जान कर कत्ल करे तो इसकी सजा जहन्नम है 
जिसमें वह हमेशा रहेगा और उस पर अल्लाह का गजब और उसकी लानत है और 
अल्लाह ने उसके लिए बड़ा अजाब तैयार कर रखा है। (92-93) 





एक मुसलमान पर दूसरे मुसलमान के जो हुकूक हैं उनमें सबसे बड़ा हक यह है कि वह 
उसकी जान का एहतराम करे। अगर एक मुसलमान किसी दूसरे मुसलमान को कत्ल कर दे 
तो उसने सबसे बड़ा समाजी जुर्म किया। एक शख्स जब दूसरे शख्स को कत्ल करता है तो 
वह उसके ऊपर आखिरी मुमकिन वार करता है। और यह वह जुर्म है जिसके बाद मुजरिम 
के लिए अपने जुर्म की तलाफी की कोई सूरत बाकी नहीं रहती । यही वजह है कि जानबूझकर 
कत्ल करने की सजा सदा जहन्नम में रहना है। जो शख्स किसी मुसलमान को जानबूझ कर 
मार डाले उससे अल्लाह इतना ग़जबनाक होता है कि उसे मलऊन करार देकर उसे हमेशा के 
लिए जहन्नम में डाल देता है। अलबत्ता कल्ले ख़ता का जुर्म हल्का है। कोई शख्स किसी 
मुसलमान को गलती से मार डाले, इसके बाद उसे गलती का एहसास हो वह अल्लाह के 
सामने रोये गिड़गिड़ाए और निर्धारित कायदे के मुताबिक उसकी तलाफी करे तो उम्मीद है कि 
अल्लाह तआला उसे माफ कर देगा। गलती के बाद माल खर्च करना या मुसलसल रोजे रखना 
गोया ख़ुद अपने हाथों अपने आपको सजा देना है। जब आदमी के ऊपर शिदूदत से यह 
एहसास तारी होता है कि उससे गलती हो गई तो वह चाहता है कि अपने ऊपर इस्लाही 
अमल करे। अल्लाह ने बताया कि ऐसी हालत में आदमी को अपनी इस्लाह के लिए क्या 
करना चाहिए। 

यहां अस्लन कत्ल का हुक्म बताया गया है । ताहम इसी नौइयत को दूसरे समाजी जुर्म 
भी हैं और मज्कूरा हुम से अंदाजा होता है कि उन दूसरी चीजें के बारे में शरीअत का तकजा 
क्या है। 

एक मुसलमान का फर्ज जिस तरह यह है कि वह अपने भाई को जिंदगी से महरूम करने 
की कोशिश न करे, इसी तरह एक मुसलमान का दूसरे मुसलमान पर यह हक भी है कि वह 
उसे बेइज्जत न करे। उसका माल न छीने। उसे बेघर न करे। उसके रोजगार में खलल न 
डाले। उसके सुकून को गारत करने का मंसूबा न बनाए। वे चीजें जो उसके लिए जिंदगी के 


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पारा 5 224 सूरा-4. अन-निसा 


असासे की हैसियत रखती हैं, उनमें से किसी चीज को उससे छीनने की कोशिश न करे। एक 
आदमी अगर ग़लती से ऐसा कोई फेअल कर बैठे जिससे उसके मुसलमान भाई को इस किस्म 

का कोई नुक्सान पहुंच जाए तो उसे फौरन अपनी गलती का एहसास होना चाहिए और 
गलती के एहसास का सुबूत यह है कि वह अल्लाह से माफी मांगे और अपने भाई के नुक्सान 
की तलाफी करे। इसके बरअक्स अगर ऐसा हो कि आदमी जानबूझ कर ऐसी कार्रवाई करे 
जिसका सोचा समझा मकसद अपने भाई को नुक्सान पहुंचाना और उसे परेशान करना हो तो 
दर्ज के फर्क के साथ यह उसी नौइयत का जुर्म है जैसा जानबूझकर किया गया कल्ल। 


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ऐ ईमान वालो जब तुम सफर करो अल्लाह की राह में तो खूब तहकीक कर लिया करो 
और जो शख्स तुम्हें सलाम करे उसे यह न कहो कि तू मुसलमान नहीं। तुम दुनियावी 
जिंदगी का सामान चाहते हो तो अल्लाह के पास ग़नीमत के बहुत सामान हैं। तुम भी 
पहले ऐसे ही थे। फिर अल्लाह ने तुम पर फज्ल किया तो तहकीक कर लिया करो। जो 
कुछ तुम करते हो अल्लाह उससे ख़बरदार है। बराबर नहीं हो सकते बैठे रहने वाले 
मुसलमान जिनको कोई उद्र (विवशता) नहीं और वे मुसलमान जो अल्लाह की राह में लड़ने 
वाले हैं अपने माल और अपनी जान से। माल व जान से जिहाद करने वालों का दर्जा 
अल्लाह ने बैठे रहने वालों की निस्बत बड़ा रखा है और हर एक से अल्लाह ने भलाई का 
वादा किया है। और अल्लाह ने जिहाद करने वालों को बैठे रहने वालों पर अज्रे अजीम 
में बरतरी दी है। उनके लिए अल्लाह की तरफ से बड़े दर्जे हैं और मग्फिरत (क्षमा) और 
रहमत है। और अल्लाह बख्शने वाला महरबान है। (94-96) 





रप 


अरब के मुखालिफ कबीलों में कुछ ऐसे अफराद थे जो अंदर से मुसलमान थे मगर हिजरत 
करके अभी अपने कबीले से कटे नहीं थे। एक लड़ाई में ऐसा एक शख्स मुसलमान की तलवार 


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सूरा-4. अन-निसा 225 पारा 5 


की जद में आ गया । उसने 'अस्सलामु अलैकुम' कह कर जाहिर किया कि मैं तुम्हारा दीनी भाई 
हूं। कुछ पुरजोश मुसलमानों ने फिर भी उसको कत्ल कर दिया । उन्होंने समझा कि यह मुसलमान 
नहीं है और महज अपने को बचाने के ख़ातिर अस्सलामु अलैकुम कह रहा है। मगर अस्सलामु 
अलैकुम कहने की हद तक भी कोई शख्स मुसलमान हो तो उस पर हाथ उठाना जाइज नहीं। 
यहां तक कि जंग के मौके पर भी नहीं जबकि यह अदिशा हो कि दुश्मन इससे फायदा उठाएगा। 
किसी मुसलमान का मारा जाना अल्लाह के नजदीक इतना बड़ा हादसा है कि सारी दुनिया का 
फना हो जाना भी उसके मुकाबले में कम है। 

जब भी कोई शख्स इस किस्म का इस्लामी जोश दिखाता है कि वह दूसरे आदमी की 
इस्लामियत को नाकाबिले तस्लीम करार देकर उसे सजा देने पर इसरार करता है तो इसके 
पीछे हमेशा दुनियावी प्रेरक होते हैं। कभी कोई मादूदी लालच, कभी इंतिकाम (बदले) की 
आग, कभी अपने किसी हरीफ को मैदान से हटाने का शोक, बस इस किस्म के जज्बात हैं 
जो इसका सबब बनते हैं। अगर आदमी के सीने में अल्लाह से डरने वाला दिल हो तो वह 
इस्लाम का इज्हार करने वाले के अल्फाज को कुबूल कर लेगा और उसके मामले को अल्लाह 
के हवाले करके ख़ामोश हो जाएगा। 

अमल के लिहाज से मुसलमानों के दो दर्जे हैं। एक वे लोग जो फराइज के दायरे में 
इस्लामी जिंदगी को इख्तियार करें। वे अल्लाह की इबादत करें और हराम व हलाल के हुदूद 
का लिहाज करते हुए जिंदगी गुजारें। दूसरे लोग वे हैं जो कुर्बानी की सतह पर इस्लाम को 
इख्तियार करें। वे ख़ुद इस्लाम को अपनाते हुए दूसरों को भी इस्लाम पर लाने की कोशिश 
करें और इस राह की मुसीबतों को बदश्‍्ति करें। वे इस्लाम के महाज पर अपनी जान व माल 
को लेकर हाजिर हो जाएं। वे फराइज की हूद में न ठहर बल्कि फराइज से आगे बढ़कर 
अपने आपको इस्लाम के लिए पेश कर दें। ये दोनों ही गिरोह मुख्लिस हैं और दोनों अल्लाह 
की रहमतों में अपना हिस्सा पाएंगे। मगर दूसरे गिरोह का मामला बुनियादी तौर पर अलग 
है। उन्होंने नाप कर ख़ुदा की राह में नहीं दिया इसलिए ख़ुदा भी उनको नाप कर नहीं देगा। 
उन्होंने अपनी जाती मस्लेहतों को नजरअंदाज करके ख़ुदा के मिशन में अपने आपको शरीक 
किया इसलिए खुदा भी उनकी कमियों को नजरअंदाज करके उन्हें अपनी रहमतों में ले लेगा। 


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जो लोग अपना बुरा कर रहे हैं जब उनकी जान फरिश्ते निकालेंगे तो वे उनसे पूछेंगे 
कि तुम किस हाल में थे। वे कहेंगे कि हम जमीन में बेबस थे। फरिश्ते कहेंगे क्या खुदा 
की जमीन कुशादा न थी कि तुम वतन छोड़कर वहां चले जाते। ये वे लोग हैं जिनका 
ठिकाना जहन्नम है और वह बहुत बुरा ठिकाना है। मगर वे बेबस मर्द और औरतें और 
बच्चे जो कोई तदबीर नहीं कर सकते और न कोई राह पा रहे हैं, ये लोग उम्मीद है 
कि अल्लाह उन्हें माफ कर देगा और अल्लाह माफ करने वाला बख्शने वाला है। और 
जो कोई अल्लाह की राह में वतन छोड़ेगा वह जमीन में बड़े ठिकाने और बड़ी वुस्अत 
पाएगा और जो शख्स अपने घर से अल्लाह और उसके रसूल की तरफ हिजरत करके 
निकले, फिर उसे मौत आ जाए तो उसका अज्र अल्लाह के यहां मुक्रर हो चुका और 
अल्लाह बर्शने वाला रहम करने वाला है। (97-00) 


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मोमिन की फितरत चाहती है कि उसे आजादाना माहौल मिले जहां उसकी ईमानी हस्ती 
के इज्हार के लिए खुले मौके हों। जब भी ऐसा न हो तो आदमी को चाहिए कि अपना माहौल 
बदल दे। इसी का नाम हिजरत है। हिजरत अपनी असल हकीकत के एतबार से यह है कि 
आदमी अपने को गे मुप्राफिक (्रतिकूल) फजा से निकाले और अपने को मुाफिक 
(अनुकूल) फजा में ले जाए। एक इदारा (संस्था) है जिसमें कुछ शख्मियतों का जोर है। वहां 
रहने वाला एक आदमी महसूस करता है कि मैं यहां शख्सियतपरस्त बनकर तो रह सकता हूं 
मगर ख़ुदापरस्त बनकर नहीं रह सकता । अब अगर वह आदमी अपने मफाद की खातिर ऐसे 
माहौल से समझौता करके उसमें पड़ रहे और जो चीज उसे हक नजर आए उसके हक होने 
का एलान न करे, यहां तक कि इसी हाल में मर जाए तो उसने अपनी जान पर जुल्म किया। 
इसी तरह कोई कैम है जिसका एक कैमी मजहब है। वह उसी शरम को एजज अता करती 
है जो उसके कौमपरस्ताना मजहब को अपनाए। जो शख्स ऐसा न करे वह उसे कुबूल करने 
से इंकार कर देती है। ऐसी हालत में अगर एक शख्स उस कौम का साथी बनता है और इसी 
हाल में उसको मौत आ जाती है तो उसने अपनी जान पर जुल्म किया। इसी तरह एक माहौल 
में हक की दावत उठती है। उस वक्‍त जरूरत होती है कि बिखरे हुए अहले ईमान उसकी पुश्त 
पर जमा हों। वे अपनी सलाहियतों को उसकी खिदमत में लगाएं । वे अपने माल से उसकी मदद 
करें। मगर ईमान वाले अपने फायदों और मस्लेहतों के खोल में पड़े रहते हैं। वे ऐसा नहीं करते 
कि अपने ख़ेल से बाहर आएं और हक के काफिले में शरीक होकर उसकी कुब्बत का बाइस 
बनें। अगर वे इसी हाल में अपनी जिंदगी के दिन पूरे कर देते हैं तो वे खुदा के यहां इस हाल 
में पहुंचेंगे कि उन्होंने अपनी जानों पर जुल्म किया था। ताहम वे लोग इससे अपवाद हैं जो 
इतने मजबूर हों कि उनसे कोई तदबीर न बन रही हो और न बाहर से उनके लिए कोई राह 
खुल रही हो। 


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सूरा-4. अन-निसा 227 पारा 5 
आदमी अपने माहौल में नामुवाफिक (प्रतिकूल) हालात को देखकर समझ लेता है कि सारी 

दुनिया उसके लिए ऐसी ही नामुवाफिक होगी। मगर खुदा की वसीअ दुनिया में तरह-तरह के 

लोग बसते हैं। यहां अगर “मक्का” है जहां दाऔ को पत्थर मारे जाते हैं तो यहां 'यसरिब' 

(मदीना) भी है जहां दाऔ का इस्तकबाल किया जाता है। इसलिए आदमी को माहौल से 

मुसालिहत के बजाए माहौल की तब्दीली के उसूल को अपनाना चाहिए। ऐन मुमकिन है कि 

नये मकाम को अपना मेदाने अमल बनाना, उसके लिए नये इम्कानात का दरवाजा खोलने का 

सबब बन जाए 


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और जब तुम जमीन में सफर करो तो तुम पर कोई गुनाह नहीं कि तुम नमाज में 
कमी करो, अगर तुम्हें डर हो कि मुंकिर तुम्हें सताएंगे। बेशक मुंकिर लोग तुम्हारे 
खुले हुए दुश्मन हैं। और जब तुम मुसलमानों के दर्मियान हो और उनके लिए नमाज 
कायम करो तो चाहिए कि उनकी एक जमाअत तुम्हारे साथ खड़ी हो और वह अपने 
हथियार लिए हुए हो। पस जब वे सज्दा कर चुके तो वे तुम्हारे पास से हट जाएं 
और दूसरी जमाअत आए जिसने अभी नमाज नहीं पढ़ी है और वे तुम्हारे साथ नमाज़ 


पट़ें। और वे भी अपने बचाव का सामान और अपने हथियार लिए रहें। मुंकिर लोग 
चाहते हैं कि तुम अपने हथियारों और सामान से किसी तरह गाफिल हो जाओ तो 


पारा 5 228 सूरा-4. अन-निसा 


वे तुम पर एकबारगी टूट पड़ें। और तुम्हारे ऊपर कोई गुनाह नहीं अगर तुम्हें बारिश 
के सबब से तकलीफ हो या तुम बीमार हो तो अपने हथियार उतार दो और अपने 
बचाव का सामान लिए रहो। बेशक अल्लाह ने मुंकिरों के लिए रुसवा करने वाला 
अजाब तैयार कर रखा है। पस जब तुम नमाज अदा कर लो तो अल्लाह को याद 

करो खड़े और बैठे और लेटे। फिर जब इत्मीनान हो जाए तो नमाज की इकामत 

करो। बेशक नमाज अहले अमान पर मुक्रर कलो के साथ फर्म है। और केल का 

पीछा करने से हिम्मत न हारो। अगर तुम दुख उठाते हो तो वे भी तुम्हारी तरह 
दुख उठाते हैं और तुम अल्लाह से वह उम्मीद रखते हो जो उम्मीद वे नहीं रखते। 
और अल्लाह जानने वाला हिक्मत वाला है। (02-704) 





दीन में जितने आमाल बताए गए हैं चाहे वे नमाज और जकात की किस्म से हों या 
तब्लीग और जिहाद की किस्म से, सबका आखिरी मक्र्सूद अल्लाह की याद है। तमाम आमाल 
का असल उद्देश्य यह है कि ऐसा इंसान तैयार हो जो इस तरह जिए कि ख़ुदा उसकी यादों 
में बसा हुआ हो। जिंदगी का हर मोड़ उसको ख़ुदा की याद दिलाने वाला बन जाए। अंदेशे 
का मौका उसे अल्लाह से डराए, उम्मीद का मौका उसके अंदर अल्लाह का शौक पैदा करे। 
उसका भरोसा अल्लाह पर हो। उसकी तवज्जोहात अल्लाह की तरफ लगी हुई हों। जो चीज 
मिले उसे वह अल्लाह की तरफ से आई हुई जाने और जो चीज न मिले उसे वह अल्लाह के 
हुक्म का नतीजा समझे | उसकी पूरी अंदरूनी हस्ती अल्लाह के जलाल व जमाल में खोई हुई 
हो। यह मामला इतना अहम है कि जंग के नाजुकतरीन मौके पर भी किसी न किसी शक्ल 
में नमाज अदा करने का हुक्म हुआ ताकि मौत के किनारे खड़े होकर इंसान को याद दिलाया 
जाए कि वह असल चीज क्या है जो बंदे को इस दुनिया से लेकर अपने रब के पास जाना 
चाहिए । 

अहले ईमान का भरोसा अगरचे तमामतर अल्लाह पर होता है। मगर इसी के साथ हुक्म 
है कि दुश्मनों से अपने बचाव का जाहिरी सामान मुहय्या रखो। इसकी वजह यह है कि 
अल्लाह की मदद जाहिरी सामान के अंदर से होकर ही आती है। अहले ईमान ने अगर अपने 
बचाव का मुमकिन इंतिजाम न किया हो तो गोया उन्होंने वह शक्ल ही खड़ी नहीं की जिसके 
ढांचे में अल्लाह की मदद उतर कर उनकी तरफ आए। मोमिन को दुनिया में जो मुसीबतें पेश 
आती हैं वे अल्लाह के उस मंसूबे की कीमत हैं कि वह आजमाइशी हालात पैदा करके देखे कि 
कौन सच्चाई पर कायम रहने वाला है और कौन दूसरों को नाहक सताने वाला है। 

इस्लाम और गैर इस्लाम की कशमकश में कभी अहले इस्लाम को शिकस्त और नुक्सान 
पहुंच जाता है। उस वक्त कुछ लोग पस्तहिम्मत होने लगते हैं। मगर ऐसे हादसात में भी 
अल्लाह की मस्लेहत शामिल रहती है। वे इसलिए पेश आते हैं कि बंदे के अंदर मजीद इनाबत 
और तवज्जोह उभरे और इसके नतीजे में वह अल्लाह की मजीद इनायतों का मुस्तहिक बने। 














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सूरा-4. अन-निसा 229 पारा 5 
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बेशक हमने यह किताब तुम्हारी तरफ हक के साथ उतारी है ताकि तुम लोगों के 
दर्मियान उसके मुताबिक फैसला करो जो अल्लाह ने तुम्हें दिखाया है। और बददयानत 
लोगों की तरफ से झगड़ने वाले न बनो। और अल्लाह से बर्शिश मांगो। बेशक 
अल्लाह बरुशने वाला महरबान है। और तुम उन लोगों की तरफ से न झगड़ो जो अपने 
आप से ख़ियानत कर रहे हैं। अल्लाह ऐसे शख्स को पसंद नहीं करता जो ख़ियानत 
वाला और गुनाहगार हो। वे आदमियों से शमति हैं और अल्लाह से नहीं शमति। 
हालांकि वह उनके साथ होता है जबकि वे सरगोशियां (गुप्त वार्ता) करते हैं उस बात 
की जिससे अल्लाह राजी नहीं। और जो कुछ वे करते हैं अल्लाह उसका इहाता 
(आच्छादन) किए हुए है। (05-08) 


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इंसान की यह जरूरत है कि वह मिल जुलकर रहे। यही जरूरत कौम या गिरोह को वजूद 
में लाती है। इज्तिमाइयत से वाबस्ता होकर एक आदमी अपनी ताकत को हजारों लाखों गुना 
बड़ा कर लेता है। मगर धीरे-धीरे ऐसा होता है कि जो चीज इज्तिमाइयत के तौर पर बनी 
थी वह इज्तिमाई मजहब का दर्जा हासिल कर लेती है। वह बजातेखुद लोगों का मक्सूद बन 
जाती है। अब यह जेहन बन जाता है कि 'मेरा गिरोह चाहे वह सही हो या ग़लत । मेरी कौम 
चाहे वह हक पर हो या बातिल पर' इसका नतीजा यह होता है कि लोगों को अपना हलका 
अहम दिखाई देता है और दूसरा हलका गैर अहम। अपने हलके का आदमी अगर बातिल 
(असत्य) पर है तब भी उसकी हिमायत जरूरी समझी जाती है और दूसरे हलके का आदमी अगर 
हक पर है तब भी उसका साथ नहीं दिया जाता। 

किसी गिरोह में यह जेहन बन जाए तो इसका मतलब यह है कि उसने अपनी गिरोही 
मस्लेहतों (हितों) और जमाअती तअस्सुबात (विद्वेषो) को मेयार का दर्जा दे दिया। हालांकि 
सही बात यह है कि आदमी अल्लाह की हिदायत को मेयार का दर्जा दे और उसकी रोशनी 
में अपना रवैया तै करे न कि दुनियावी मस्लेहतों और जमाअती तअस्सुबात के तहत। एक 
आदमी गलती करे तो उसका हाथ पकड़ा जाए चाहे वह अपना हो। एक आदमी सही बात कहे 
तो उसका साथ दिया जाए चाहे वह कोई गैर हो। यहां तक कि ऐसा मामला जिसमें एक फरीक 
अपना हो और एक फरीक बाहर का, तब भी मामले को अपने और गैर की नजर से न देखा 
जाए बल्कि हक और नाहक की नजर से देखा जाए और हर दूसरी चीज की परवाह किए कौर 





पारा 5 230 सूरा-4. अन-निसा 


अपने को हक की जानिब खड़ा किया जाए। 

सच्चाई को छोड़ना, ख़ुद अपने आपको छोड़ने के हममअना है। जब आदमी दूसरे के साथ 
खियानत करता है तो सबसे पहले वह अपने साथ ख़ियानत कर चुका होता है। क्योंकि हर सीने 
के अंदर अल्लाह ने अपना एक नुमाइंदा बिठा दिया है। यह इंसान का जमीर है। जब भी आदमी 
हक के खिलाफ जाने का इरादा करता है तो यह अंदर का छुपा हुआ हक का नुमाइंदा उसे टोकता 
है। इस अंदरूनी आवाज को आदमी दबाता है और उसे नजरअंदाज करता है। इसके बाद ही 
यह मुमकिन होता है कि वह इंसाफ के रास्ते को छोड़े और बेइंसाफी के रास्ते पर चल पड़े। 
मजीद यह कि जब आदमी नाहक में किसी का साथ देता है तो वह इंसान का लिहाज करने 
की वजह से होता है। दुनियावी तअल्लुकात और मस्लेहतों की वजह से वह एक शख्स को 
नजरअंदाज नहीं कर पाता इसलिए वह उसे गलत जानते हुए उसका साथी बन जाता है। मगर 
नाहक (असत्य) के बावजूद एक शख्स को न छोड़ना हमेशा इस कीमत पर होता है कि आदमी 
खुदा को छोड़ दे। ऐन उस वक्त जब कि वह दुनिया में एक शख्स का साथ देता है, आख़िरत 
में वह ख़ुदा के साथ से महरूम हो जाता है। 


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तुम लोगों ने दुनिया की जिंदगी में तो उनकी तरफ से झगड़ा कर लिया। मगर 
कियामत के दिन कौन उनके बदले अल्लाह से झगड़ा करेगा या कौन होगा उनका 
काम बनाने वाला। और जो शख्स बुराई करे या अपने आप पर जुल्म करे फिर 
अल्लाह से बड्शिश मांगे तो वह अल्लाह को बर्शने वाला रहम करने वाला पाएगा। 
और जो शख्स कोई गुनाह करता है तो वह अपने ही हक में करता है और अल्लाह 
जानने वाला हिक्मत (तत्व ज्ञान) वाला है। और जो शख्स कोई गलती या गुनाह 


करे फिर उसकी तोहमत किसी बेगुनाह पर लगा दे तो उसने एक बड़ा बोहतान और 
खुला हुआ गुनाह अपने सर ले लिया। और अगर तुम पर अल्लाह का फज्ल और 








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सूरा-4. अन-निसा 23] पारा 5 


उसकी रहमत न होती तो उनमें से एक गिरोह ने तो यह ठान ही लिया था कि तुम्हें 
बहका कर रहेगा। हालांकि वे अपने आप को बहका रहे हैं। वे तुम्हारा कुछ बिगाड़ 
नहीं सकते। और अल्लाह ने तुम पर किताब और हिक्मत (तत्व ज्ञान) उतारी है और 
तुम्हें वह चीज सिखाई है जिसे तुम नहीं जानते थे और अल्लाह का फज्ल है तुम पर 

बहुत बड़ा। (09-3) 





दुनिया आजमाइश की जगह है। यहां हर आदमी से गलती हो सकती है। ख़ुदा के मामले 
में भी और बंदों के मामले में भी। जब किसी से कोई गलती हो जाए तो सही तरीका यह है 
कि आदमी अपनी गलती पर शर्मिन्दा हो। वह अल्लाह की तरफ और ज्यादा तवज्जोह के 
साथ दौड़े। वह अल्लाह से दरखास्त करे कि वह उसकी गलती को माफ कर दे और आइंदा 
के लिए उसे नेकी की तौफीक दे। जो शख्स इस तरह अल्लाह की पनाह चाहे तो अल्लाह भी 
उसे अपनी पनाह में ले लेता है। अल्लाह उसके दीनी एहसास को बेदार करके उसे इस 
काबिल बना देता है कि वह पहले से ज्यादा मोहतात होकर दुनिया में रहने लगे। 

दूसरी सूरत यह है कि आदमी जब गलती करे तो वह गलती को मानने के लिए तैयार 
न हो। बल्कि अपनी गलती को सही साबित करने की कोशिश में लग जाए। वह अपने 
साथियों की हिमायत से ख़ुद उन लोगों से लड़ने लगे जो उसकी गलती से उसे आगाह कर 
रहे हैं। जो लोग अपनी गलती पर इस तरह अकड़ते हैं और जो लोग उनका साथ देते हैं वे 
खुदा के नजदीक बदतरीन मुजरिम हैं। वे अपनी गलती पर पर्दा डालने के लिए जिन अल्फाज 
का सहारा लेते हैं वे आखिरत में बिल्कुल बेमअना साबित होंगे और जिन हिमायतियों के 
भरोसे पर वे घमंड कर रहे हैं वे बिलआख़िर जान लेंगे कि वे कुछ भी उनके काम आने वाले 
न थे। 

एक शख्स किसी का माल चुराए और जब पकड़े जाने का अंदेशा हो तो उसे दूसरे के 
घर में रख कर कहे कि फलाँ ने उसे चुराया था। एक शख्स किसी औरत को अपनी हवस 
का निशाना बनाना चाहे और जब वह पाक दामन औरत उसका साथ न दे तो वह झूठे 
अफसाने गठ़कर उस औरत को बदनाम करे। दो आदमी मिल कर एक काम शुरू करें। इसके 
बाद एक शख्स को महसूस हो कि उसकी जाती मस्लेहतें मजरूह हो रही हैं, वह तदबीर करके 
उस काम को बंद करा दे और उसके बाद मशहूर करे कि इसके बंद होने की जिम्मेदारी दूसरे 
पक्ष के ऊपर है। ये सब अपना जुर्म दूसरे के सर डालने की कोशिशें हैं। मगर ऐसी कोशिशें 
सिर्फ आदमी के जुर्म को बढ़ाती हैं, वे उसे जुर्म से मुक्त साबित नहीं करतीं। अल्लाह का 
सबसे बड़ा फज्ल यह है कि वह हिदायत के दरवाजे खोले। वह आदमी को समझाए कि गलती 
करने के बाद अपनी गलती को मान लो न कि बहस करके अपने को सही साबित करो। 
किसी से मामला पड़े तो साथियों के बल पर घमंड न करो बल्कि अल्लाह से डर कर तवाजोअ 
(विनम्रता) का अंदाज इस़्तियार करो। किसी के खिलाफ कार्रवाई करने का मौका मिल जाए तो 
अपने को कामयाब समझ कर खुश न हो बल्कि अल्लाह से दुआ करो कि वह तुम्हें जालिम 
बनने से बचाए। 








पारा 5 232 सूरा-4. अन-निसा 


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उनकी अक्सर सरगोशियों (कानाफूसियों) में कोई भलाई नहीं। भलाई वाली सरगोशी 
सिर्फ उसकी है जो सदका करने को कहे या किसी नेक काम के लिए या लोगों में सुलह 
कराने के लिए कहे। जो शख्स अल्लाह की खुशी के लिए ऐसा करे तो हम उसे बड़ा 
अज्र अता करेंगे। मगर जो शख्स रसूल की मुखालिफत करेगा और मोमिनों के रास्ते 
के सिवा किसी और रास्ते पर चलेगा, हालांकि उस पर राह वाजेह हो चुकी, तो उसे 
हम उसी तरफ चलाएंगे जिधर वह ख़ुद फिर गया और उसे जहन्नम में दाखिल करेंगे 
और वह बुरा ठिकाना है। (24-25) 


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हक की बेआमेज (विशुद्ध) दावत जब उठती है तो वह जमीन पर खुदा का तराजू ख़ 
करना होता है। उसकी मीजान में हर आदमी अपने को तुलता हुआ महसूस करता है। हक 
की दावत हर एक के ऊपर से उसका जाहिरी पर्दा उतार देती है और हर शख्स को उसके 
उस मकाम पर खड़ा कर देती है जहां वह हकीकत के एतबार से था। यह सूरतेहाल इतनी 
सख्त होती है कि लोग चीख़ उठते हैं। सारा माहौल दाऔ के लिए ऐसा बन जाता है जैसा 
वह अंगारों के दर्मियान खड़ा हुआ हो। 

जो लोग दावते हक की तराजू में अपने आप को बेवजन होता हुआ महसूस करते हैं 
उनके अंदर जिद और घमंड के जज्बात जाग उठते हैं। वे तेजी से मुछालिफाना रुख़ पर चल 
पड़ते हैं। वे चाहने लगते हैं कि ऐसी दावत (आह्वान) को मिटा दें जो उनकी हकपरस्ताना 
हैसियत को संदिग्ध साबित करती हो। उनके लिए अपनी जबान का इस्तेमाल यह हो जाता है 
कि वह दावत और दाऔ के खिलाफ झूठी बातें फैलाएं। उन्हें परास्त करने के मंसूबे बनाएं । 
वह लोगों को मना करें कि उसकी माली मदद न करो। जो अल्लाह के बंदे अल्लाह की रस्सी 
के गिर्द मुत्तहिद हो रहे हों उन्हें बदगुमानियों में मुब्तला करके मुंतशिर करें। 

इसके बरअक्स जो लोग अपनी फितरत को जिंदा रखे हुए थे उन्हें अल्लाह की मदद से 
यह तौफीक मिलती है कि वे उसके आगे झुक जाएं, वे उसका साथ दें, वे अपनी जिंदगी को 
उसके मुताबिक ढालना शुरू कर दें। ऐसे लोगों के लिए उनकी जबान का इस्तेमाल यह होता 
है कि वे खुले तौर पर सच्चाई का एतराफ कर लें। वे लोगों से कहें कि यह अल्लाह का काम 
है इसमें अपना माल और अपना वक्‍त खर्च करो । वे लोगों को प्रेरित करें कि वे अपनी कुव्वतों 
को नेकी और भलाई के कामों में लगाएं। वे आपस में रंजिशों और शिकायतों को दूर करने 
की कोशिश करें। हक का एतराफ उनके अंदर जो नपिसयात जगाता है उसका कुदरती 
नतीजा है कि वे इस किस्म के कामों में लग जाएं। 











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सूरा-4. अन-निसा 233 पारा 5 


अल्लाह के नजदीक यह एक नाकबिल माफी जुर्म है कि हक की दावत की मूख़लिफत 
की जाए और जो लोग हक की दावत के गिर्द जमा हुए हैं उन्हें अपनी दुश्मनी की आग में जलाने 
की कोशिश की जाए। दूसरे अक्सर गुनाहों में यह इम्कान रहता है कि वे इंसान की गफलत 
या कमजोरी की वजह से हुए हों। मगर दावते हक की मुखालिफत तमामतर सरकशी की वजह 
से होती है। और सरकशी किसी आदमी का वह जुर्म है जिसे अल्लाह कभी माफ नहीं करता, 
इल्ला यह कि वह अपनी गलती का इकरार करे और सरकशी से बाज आ जाए। दीन की दावत 
जब भी अपनी बेआमेज शक्ल में उठती है तो वह एक खुदाई काम होता है जो खुदा की ख़ुसूसी 
मदद पर शुरू होता है। ऐसे काम की मुखालिफत करना गोया खुदा के मुकाबले में खड़ा होना 
है और कौन है जो ख़ुदा के मुकाबले में खड़ा होकर कामयाब हो। 


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बेशक अल्लाह इसे नहीं बर्शेगा कि उसका शरीक ठहराया जाए और इसके सिवा 
गुनाहों को बख्श देगा जिसके लिए चाहेगा। और जिसने अल्लाह का शरीक ठहराया 
वह बहक कर बहुत दूर जा पड़ा। वे अल्लाह को छोड़कर पुकारते हैं देवियों को और 
वे पुकारते हैं सरकश शैतान को। उस पर अल्लाह ने लानत की है। और शैतान ने 
कहा था कि मैं तेरे बंदों से एक मुकर्रर हिस्सा लेकर रहूंगा। मैं उन्हें बहकाऊंगा और 

उन्हें उम्मीदें दिलाऊंगा और उन्हें समझाऊंगा तो वे चोपायों के कान काटेंगे और उन्हें 
समझाऊगा तो वे अल्लाह की बनावट को बदलेंगे और जो शख्स अल्लाह के सिवा 
शैतान को अपना दोस्त बनाए तो वह खुले हुए नुक्सान में पड़ गया। वह उन्हें वादा 

देता है और उन्हें उम्मीदें दिलाता है और शैतान के तमाम वादे फरेब के सिवा और कुछ 

नहीं। ऐसे लोगों का ठिकाना जहन्नम है और वे उससे बचने की कोई राह न पाएंगे। 


पारा 5 234 सूरा-4. अन-निसा 


और जो लोग ईमान लाए और उन्होंने नेक काम किए उन्हें हम ऐसे बागों में दाखिल 
करेंगे जिनके नीचे नहरें जारी होंगी और वे हमेशा उसमें रहेंगे। अल्लाह का वादा सच्चा 
है और अल्लाह से बढ़कर कौन अपनी बात में सच्चा होगा। (6-22) 





जो शख्स एक अल्लाह को पकड़ ले उसके अमल की जड़ें ख़ुदा में कायम हो जाती हैं। 
उससे वक्ती लग्जिश (कोताही) भी होती है। मगर इसके बाद जब वह पलटता है तो दुबारा 
वह हकीकी सिरे को पा लेता है। और जो शख्स अल्लाह के सिवा कहीं और अटका हुआ हो 
वह गोया उस जमीन से महरूम है जो इस कायनात में वाहिद (एक मात्र) हकीकी जमीन है। 
बजाहिर अगर वह कोई अच्छा अमल करे तब भी वह ख़ुदा के स्रोत से निकला हुआ अमल 
नहीं होता । बल्कि वह एक ऊपरी अमल होता है जो मामूली झटका लगते ही बातिल (असत्य) 
साबित हो जाता है। यही वजह है कि तौहीद (एकेश्वरवाद) के साथ किया हुआ अमल 
आखिरत में अपना नतीजा दिखाता है और शिर्क (बहुदेववाद) के साथ किया हुआ अमल इसी 
दुनिया में बर्बाद होकर रह जाता है, वह आखिरत तक नहीं पहुंचता। 

इस दुनिया में आदमी का असली मुकाबला शैतान से है। ताहम शैतान के पास कोई 
ताकत नहीं। वह इतना ही कर सकता है कि आदमी को लफी वादेंका फे दे और फी 
तमन्नाओं में उलझाए। और इस तरह लोगों को हक से दूर कर दे। शैतान की गुमराही की 
दो ख़ास सूरतें हैं। एक तवहहुमपरस्ती (अंधविश्वास) और दूसरे खुदा की तख़्तीक (रचनाओं) 
में फर्क करना । तवहूहुमपरस्ती यह है कि किसी चीज से ऐसे नतीजे की उम्मीद कर ली जाए 
जिस नतीजे का कोई तअल्लुक उससे न हो। मसलन स्वनिर्मित मान्यताओं की बुनियाद पर 
अल्लाह के सिवा किसी चीज को मामलात में प्रभावकारी मान लेना, हालांकि इस दुनिया में 
अल्लाह के सिवा किसी के पास कोई ताकत नहीं। या जिंदगी को अमलन दुनिया को हासिल 
करने में लगा देना और आख़िरत के बारे में फर्जी खुशख्यालियों की बुनियाद पर यह उम्मीद 
कायम कर लेना कि वह अपने आप हासिल हो जाएगी। शैतान के बहकावे का दूसरा तरीका 
अल्लाह के बताए हुए नक्शे को बदलना है। खुदा ने इंसान को इस फितरत पर पैदा किया है 
कि वह अपनी तमाम तवज्जोह अल्लाह की तरफ लगाए, इस फितरत को बदलना यह है कि 
इंसान की तवज्जोहात को दूसरी-दूसरी चीजों की तरफ मायल कर दिया जाए। या किसी मकसद 
को हासिल करने का जो तरीका फितरी तौर पर मुक्रर किया गया है उसे बदल कर किसी 
ख़ुदसाख्ता (स्वनिर्मित) तरीके से उसे हासिल करने की कोशिश की जाए। कायनात के खुदाई 
नक्शे की मुताबिकत में इंसान को जिस तरह रहना चाहिए उस नक्शे को तलपट कर दिया जाए। 


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सूरा-4. अन-निसा 235 पारा 5 





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न तुम्हारी आजुओं (कामनाओं) पर है और न अहले किताब की आरजुओं पर। जो 
कोई भी बुरा करेगा उसका बदला पाएगा। और वह न पाएगा अल्लाह के सिवा अपना 
कोई हिमायती और न मददगार। और जो शख्स कोई नेक काम करेगा, चाहे वह मर्द 
हो या औरत बशर्ते कि वह मोमिन हो, तो ऐसे लोग जन्नत में दाखिल होंगे। और उन 
पर जरा भी जुल्म न होगा। और उससे बेहतर किस का दीन है जो अपना चेहरा अल्लाह 
की तरफ झुका दे और वह नेकी करने वाला हो। और वह चले इब्राहीम के दीन पर 
जो एक तरफ का था और अल्लाह ने इब्राहीम को अपना दोस्त बना लिया था। और 
अल्लाह का है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ जमीन में है और अल्लाह हर चीज 
का इहाता (आच्छादन) किए हुए है। (23-26) 


230 3 


ख़ुदा और आख़िरत को मानने वाले लोग जब दुनियापरस्ती में गर्क होते हैं तो वे ख़ुदा 
और आख़िरत का इंकार करके ऐसा नहीं करते। वे सिर्फ यह करते हैं कि आख़िरत के मामले 
को रस्मी अकीदे के ख़ाने में डाल देते हैं और अमलन अपनी तमाम महनतें और सरगर्मियां 
दुनिया को हासिल करने में लगा देते हैं। दुनिया की इज्जत और दुनिया के फायदे को समेटने 
के मामले में वे पूरी तरह संजीदा होते हैं। इन्हें पाने के लिए उनके नजदीक मुकम्मल 
जद्दोजहद जरूरी होती है। मगर आख़िर्त की कामयाबी को पाने के लिए सिर्फ ख़ुशफहमियां 
उन्हें काफी नजर आने लगती हैं। किसी बुजुर्ग की सिफारिश, किसी बड़े गिरोह से वाबस्तगी, 
कुछ पाक कलिमात का विर्द (जाप), बस इस किस्म के सस्ते आमाल से यह उम्मीद कायम 
कर ली जाती है कि वह आदमी को जहन्नम की भड़कती हुई आग से बचाएंगे और उसे जन्नत 
के पुरबहार बाग़ों में दाखिल करेंगे। मगर इस किस्म की ख़ुशख्यालियां चाहे उन्हें कितने ही 
खूबसूरत अल्फाज में बयान किया गया हो, वे किसी के कुछ काम आने वाली नहीं। अल्लाह 
का निजाम हद दर्जा मोहकम निजम है। उसके यहां तमाम फैसले हकीकतेंकी बुनियाद पर हेते 
हैंन कि महज आरजुओं की बुनियाद पर। अल्लाह की अदालत में हर आदमी का अपना अमल 
देखा जाएगा और जैसा जिसका अमल होगा ठीक उसी के मुताबिक उसका फैसला होगा । अल्लाह 
के इंसाफ के कानून के सिवा कोई भी दूसरी चीज नहीं जो अल्लाह के यहां फैसले की बुनियाद 
बनने वाली हो। 

अल्लाह का वह बंदा कौन है जिस पर अल्लाह अपनी रहमतों की बारिश करेगा । इसकी 
एक तारीख़ी मिसाल इब्राहीम अलैहिस्सलाम हैं। ये वे बंदे हैं जो दुनिया में अल्लाह के मोमिन 
बनकर रहें। जो अपने आप को हमहतन अपने रब की तरफ यकसू कर लें। जो अपनी 
वफादारियां पूरी तरह अल्लाह के लिए ख़ास कर दें। उन्होंने दुनिया में अपने मामलात को इस 





पारा 5 236 सूरा-4. अन-निसा 


तरह कायम किया हो कि वे जुल्म और सरकशी से दूर रहने वाले और इंसाफ और तवाज़ोअ 
(विनम्रता) के साथ जिंदगी बसर करने वाले हों। चेहरा आदमी के पूरे वजूद का नुमाइंदा होता 
है। चेहरा खुदा की तरफ फेरने का मतलब यह है कि आदमी अपने पूरे वजूद को खुदा की 
तरफ फे दे। 

अल्लाह तमाम कायनात का मालिक है। उसके पास हर किस्म की ताकतें हैं। मगर 
मौजूदा दुनिया में अल्लाह ने अपने को गैब (अदृश्य) के पर्द में छुपा दिया है। दुनिया में 
जितनी भी ख़राबियां पैदा होती हैं इसीलिए पैदा होती हैं कि आदमी ख़ुदा को नहीं देखता, 
वह समझ लेता है कि मैं आजाद हूं कि जो चाहूं करूं। अगर आदमी यह जान ले कि इंसान 
के इख़्तियार में कुछ नहीं तो आदमी पर जो कुछ कियामत के दिन बीतने वाला है वह उस 
पर आज ही बीत जाए 


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और लोग तुमसे औरतों के बारे में हुक्म पूछते हैं। कह दो अल्लाह तुम्हें उनके बारे में 
हुक्म देता है और वे आयतें भी जो तुम्हें किताब में उन यतीम औरतों के बारे में पढ़कर 
सुनाई जाती हैं जिन्हें तुम वह नहीं देते जो उनके लिए लिखा गया है और चाहते हो 
कि उन्हें निकाह में ले आओ। और जो आयतें कमजोर बच्चों के बारे में हैं और यतीमों 
के साथ इंसाफ करो और जो भलाई तुम करोगे वह अल्लाह को खूब मालूम है। और 
अगर किसी औरत को अपने शोहर की तरफ से बदसुलूकी या बेरुख़ी का अंदेशा हो 
तो इसमें कोई हर्ज नहीं कि दोनों आपस में कोई सुलह कर लें और सुलह बेहतर है। 
और हिर्स (लोभ) इंसान की तबीअत में बसी हुई है। और अगर तुम अच्छा सुलूक करो 
और ख़ुदातरसी (ईश परायणता) से काम लो तो जो कुछ तुम करोगे अल्लाह उससे 
बाखबर है। और तुम हरगिज औरतों को बराबर नहीं रख सकते अगरचे तुम ऐसा करना 





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सूरा-4. अन-निसा 237 पारा 5 


चाहो। पस बिल्कुल एक ही तरफ न झुक पड़ो कि दूसरी को लटकी हुई की तरह छोड़ 
दो। और अगर तुम इस्लाह (सुधार) कर लो और डरो तो अल्लाह बस्शने वाल महरबान 
है। और अगर दोनों जुदा हो जाएं तो अल्लाह हर एक को अपनी वुस्अत (सामर्थ्य) से 
बेएहतियाज (निराश्रित) कर देगा और अल्लाह बड़ी वुस्अत वाला हिक्मत (तत्वदर्शिता) 
वाला है। (27-30) 





पूछने वालों ने कुछ समाजी मामलों के बारे में शरीअत का आदेश पूछा था। इस 
सिलसिले में हुक्म बताते हुए खैर (कल्याण) व इंसाफ और परोपकार व तकवा पर जोर दिया 
गया। इसकी वजह यह है कि कोई भी कानून उसी वक़्त अपने मकसद को पूरा करता है जब 
कि उसे अमल में लाने वाला आदमी अल्लाह से डरता हो और फिलवाकेअ इंसाफ का तालिब 
हो। अगर ऐसा न हो तो कानून की जाहिरी तामील के बावजूद हकीकी बेहतरी पैदा नहीं हो 
सकती। समाज की वाकई इस्लाह सिर्फ उस वकत होती है जब कि बुराई करने वाला बुराई 
से इसलिए डरे कि असल मामला ख़ुदा से है और बुराई करने के बाद मैं किसी तरह उसकी 
पकड़ से बच नहीं सकता । इसी तरह भलाई करने वाला यह सोचे कि लोगों की तरफ से चाहे 
मुझे इसका सिला (प्रतिफल) न मिले मगर अल्लाह सब कुछ देख रहा है और वह जरूर मुझे 
इसका इनाम देगा । जहन्नम का अंदेशा आदमी को जुल्म से रोकता है और जन्नत की उम्मीद 
उस नुक्सान को बर्दाश्त करने का हौसला पैदा कर देती है जो हकपरस्ताना जिंदगी के नतीजे 
में लाजिमन सामने आता है। 

मियांबीवी या दो आदमियों के इख़्तेलाफ की वजह हमेशा हिर्स होती है। एक फरीक 
(पक्ष) दूसरे फीक का लिहाज किए बगैर सिर्फ अपने मुतालबात को पूरा करना चाहता है। 
यह जेहनियत हर एक को दूसरे की तरफ से गैर मुतमइन बना देती है। सही मिजाज यह है 
कि दोनों फरीक एक दूसरे की माजूरी को समझें और एक-दूसरे की रिआयत करते हुए किसी 
आपसी समाधान पर पहुंचने की कोशिश करें। अल्लाह का मुतालबा जिस तरह यह है कि एक 
इंसान दूसरे इंसान की रिआयत करे, इसी तरह अल्लाह भी अपने बंदों के साथ आखिरी हद 
तक रिआयत फरमाता है। अल्लाह के यहां आदमी की पकड़ उसकी फितरी कमजोरियों पर नहीं 
है बल्कि उसकी उस सरकशी पर है जो वह जान बूझकर करता है। अगर आदमी अल्लाह से 
डरे और दिल में इस्लाह (सुधार) का जज्बा रखे तो वह नीयत की दुरुस्तगी के साथ जो कुछ 
करेगा उसके लिए वह अल्लाह के यहां काबिले माफी करार पाएगा । इसी के साथ आदमी को 
कभी इस गलतफहमी में न पड़ना चाहिए कि वह दूसरे का काम बनाने वाला है। हर एक का 
काम बनाने वाला सिर्फ अल्लाह है, चाहे वह बजाहिर एक तरह के हालात में हो या दूसरी तरह 
के हालात में। 


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पारा 5 238 सूरा-4. अन-निसा 
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और अल्लाह का है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ जमीन में है। और हमने हुक्म 
दिया है उन लोगों को जिन्हें तुमसे पहले किताब दी गई और तुम्हें भी कि अल्लाह से 
डरो। और अगर तुमने न माना तो अल्लाह ही का है जो कुछ आसमानों में है और जो 
कुछ जमीन में है और अल्लाह बेनियाज (निस्पृह) है सब खूबियों वाला है। और अल्लाह 
ही का है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ जमीन में है और भरोसे के लिए अल्लाह 
काफी है। अगर वह चाहे तो तुम सबको ले जाए ऐ लोगो, और दूसरों को ले आए। 
और अल्लाह इस पर कादिर है। जो शख्स दुनिया का सवाब चाहता हो तो अल्लाह 
के पास दुनिया का सवाब भी है और आख़िरत का सवाब भी। और अल्लाह सुनने 
वाला और देखने वाला है। (3-34) 





दुनिया में आदमी को जो नेक जिंदगी इख्तियार करना है वह उसे उसी वक्‍त इख़्तियार कर 
सकता है जब कि वह अंदर से अल्लाह वाला बन गया हो। अल्लाह को मालिके कायनात की 
हैसियत से पा लेना, सिर्फ अल्लाह से डरना और सिर्फ अल्लाह पर भरोसा करना, आखिरत 
को अस्ल समझकर उसकी तरफ मुतवज्जह हो जाना, यही वे चीजें हैं जो किसी आदमी को इस 
काबिल बनाती हैं कि वह दुनिया में वह सालेह (नेक) जिंदगी गुजारे जो अल्लाह को मत्लूब है 
और जो उसे आख़िरत की दुनिया में कामयाब करने वाली है। इसीलिए नबियों की तालीमात 
में हमेशा इसी पर सबसे ज्यादा जोर दिया जाता रहा है। 

मौजूदा दुनिया आजमाइश के लिए है। यहां हर आदमी को जांच कर देखा जा रहा है कि कौन 
अच्छा है और कौन बुरा। इस मकसद के लिए मौजूदा दुनिया को इस ढंग पर बनाया गया है कि 
यहां आदमी को हर किस्म के अमल की आजादी हो। यहां तक कि उसे यह मौका भी हासिल हो 
कि वह अपने स्याह को सफेद कह सके और अपनी बेअमली को अमल का नाम दे। यहां एक 
आदमी के लिए मुमकिन है कि वह बुराइयों में मुब्तला हो मगर उसे बयान करने के लिए वह बेहतरीन 
अल्फाज पा ले। यहां यह मुमकिन है कि आदमी एक खुली हुई सच्चाई का इंकार कर दे और अपने 
इंकार की एक ख़ूबसूरत तौजीह तलाश कर ले। यहां यह मुमकिन है कि आदमी ओहदों की चाहत, 
शोहरतपसंदी, नफाअंदोजी और मस्लेहत पर अपनी जिंदगी की तामीर करे और इसके बावजूद वह 
लोगों को यह यकीन दिलाने में कामयाब हो जाए कि वह ख़ालिस हक के लिए काम कर रहा है। 





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सूरा-4. अन-निसा 239 पारा 5 


यहां यह मुमकिन है कि एक शख्स खुदा के दीन को अपने दुनियावी और मादूदी मकासिद के हुसूल 
का जरिया बनाए और फिर भी वह दुनिया में फलता और फूलता रहे। यहां यह मुमकिन है कि 
आदमी हलाल को छोड़कर हराम जरियों को इर्न्ियार करे, इंसाफ के बजाए वह जुल्म के रास्ते 

पर चले और इसके बावजूद उसका हाथ पकड़ने वाला कोई न हो। इन मुर्ललिफ मौकों पर आदमी 
चाहे तो अपने को हक व सदाकत का पाबंद बना ले और चाहे तो सरकशी और बेइंसाफी की 

तरफ चल पड़। हकीकत यह है कि दीन के तमाम अहकाम मंअहमियत की चीज यह है कि आदमी 

अल्लाह से डरता है या नहीं। यह सिर्फ अल्लाह का डर है जो उसे जिम्मेदाराना जिंदगी गुजारने 

के काबिल बनाता है। अगर अल्लाह का डर न हो तो एक ऐसी दुनिया में किसी को बातिल (असत्य) 
से रोकने वाली क्या चीज हो सकती है जहां बातिल को भी हक के पेराऐ में बयान किया जा सकता 

हो और जहां बेइंसाफी की बुनियाद पर भी बड़ी-बझ़े तरविकयां हासिल की जा सकती हों। जहां 

हर जलिम को अपने जुम को छुपाने के लिए खु़सूरत अल्फज मिल जाते हों। 


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ऐ ईमान वालो, इंसाफ पर ख़ूब कायम रहने वाले और अल्लाह के लिए गवाही देने वाले 
बनो, चाहे वह तुम्हारे या तुम्हारे मां-बाप या अजीर्जों के खिलाफ हो। अगर कोई 
मालदार है या मोहताज तो अल्लाह तुमसे ज्यादा दोनों का ख्ैरख़ाह है। पस तुम 
ख्वाहिश की पेरवी न करो कि हक से हट जाओ। और अगर तुम कजी (हेर-फेर) करोगे 
या पहलूतही (अवहेलना) करोगे तो जो कुछ तुम कर रहे हो अल्लाह उससे बाख़बर है। 
(I35) 





इज्तिमाई जिंदगी में बार-बार ऐसा होता है कि आदमी के सामने ऐसा मामला आता है 
जिसमें एक रास्ता अपने मफाद और ख्ाहिश का होता है और दूसरा हक और इंसाफ का। 
जो लोग अल्लाह की तरफ से गाफिल होते हैं जिन्हें यकीन नहीं होता कि अल्लाह हर वक्‍त 
उन्हें देख रहा है वे ऐसे मौकों पर अपनी ख्वाहिश के रुख़ पर चल पड़ते हैं। वे इसे कामयाबी 
समझते हैं कि हक की परवाह न करें और मामले को अपने मफाद और अपनी मस्लेहत के 
मुताबिक तै करें। मगर जो लोग अल्लाह से डरते हैं, जो अल्लाह को अपना निगरां बनाए हुए 
हैंवे तमामतर इंसाफ के पहलू को देखते हैं और वही करते हैं जो हक व इंसाफ का तकाजा 
हो। उनकी कोशिश हमेशा यह होती है कि उन्हें मौत आए तो इस हाल में आए कि उन्होंने 
किसी के साथ बेइंसाफी न की हो, वे अपने आपको मुकम्मल तौर पर न्याय पर कायम किए 





पारा 5 240 सूरा-4. अन-निसा 


हुए हों । 

उनकी इंसाफपसंदी का यह जज्वा इतना बढ़ा हुआ होता है कि उनके लिए नामुमकिन हो 
जाता है कि वे इंसाफ से हटा हुआ कोई रवैया देखें और उसे बर्दाश्त कर लें। जब भी ऐसा 
कोई मामला सामने आता है कि एक शख्स दूसरे के साथ नाइंसाफी कर रहा हो तो वे ऐसे 
मीके पर हक का एलान करने से बाज नहीं रहते। अगर इंसाफ का एलान करने में उनके 
करीबी तअल्लुक वालों पर जद पड़ती हो या उनकी अपनी मस्लेहतें प्रभावित होती हों तब भी 
वे वही कहते हैं जो इंसाफ की रू से उन्हें कहना चाहिए । उनकी जबान खुलती है तो अल्लाह 
के लिए खुलती है न कि किसी और चीज के लिए। इसी तरह यह बात भी ग़लत है कि साहिबे 
मामला ताकतवर हो तो उसे उसका हक दिया जाए और अगर साहिबे मामला कमजोर हो तो 
उसका हक उसे न दिया जाए। मोमिन वह है जो हर आदमी के साथ इंसाफ करे चाहे वह 
जेश्आवर हे या कमजेर। 

जब कोई आदमी नाइंसाफी का साथ दे तो वह यह कहकर ऐसा नहीं करता कि मैं 
नाइंसाफी करने वाले का साथी हूं। बल्कि वह अपनी नाइंसाफी को इंसाफ का रंग देने की 
कोशिश करता है। ऐसे मौके पर हर आदमी दो में से कोई एक रवैया इख्तियार करता है। 
या तो वह यह करता है कि बात को बदल देता है। वह मामले की नौइयत को ऐसे अल्फाज 
में बयान करता है जिससे जाहिर हो कि यह नाइंसाफी का मामला नहीं बल्कि ऐन इंसाफ का 
मामला है, जिसके साथ ज्यादती की जा रही है वह इसी का मुस्तहिक है कि उसके साथ ऐसा 
किया जाए। दूसरी सूरत यह है कि आदमी खामोशी इख्तियार कर ले। यह जानते हुए कि 
यहां नाइंसाफी की जा रही है वह कतरा कर निकल जाए और जो कहने की बात है उसे 
जबान पर न लाए। इस किस्म का तर्ज अमल साबित करता है कि आदमी अपने ऊपर 
अल्लाह को निगरां नहीं समझता। 


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सूरा-4. अन-निसा 24] पारा 5 


ऐ ईमान वालो, ईमान लाओ अल्लाह पर और उसके रसूल पर और उस किताब पर 
जो उसने अपने रसूल पर उतारी और उस किताब पर जो उसने पहले नाजिल की। और 
जो शख्स इंकार करे अल्लाह का और उसके फरिश्ता का और उसकी किताबों का और 
उसके रसूलों का और आखिरत के दिन का तो वह बहक कर दूर जा पड़ा। बेशक जो 
लोग ईमान लाए फिर इंकार किया, फिर ईमान लाए फिर इंकार किया, फिर इंकार 
में बढ़ते गए तो अल्लाह उन्हें हरगिज नहीं बख्रेगा और न उन्हें राह दिखाएगा। 
मुनाफिकों (पाखंडियो) को खुशख़बरी दे दो कि उनके लिए एक दर्दनाक अजाब है। 

वे लोग जो मोमिनों को छोड़कर मुंकिरों को दोस्त बनाते हैं, क्या वे उनके पास इज्जत 

की तलाश कर रहे हैं, तो इज्जत सारी अल्लाह के लिए है। (।36-39) 


“ईमान वालो ईमान लाओ' ऐसा ही है जैसे कहा जाए कि मुसलमानो मुसलमान बनो। 
अपने को मुसलमान कहना या मुसलमान समझना इस बात के लिए काफी नहीं कि आदमी 
अल्लाह के यहां भी मुसलमान करार पाए। अल्लाह के यहां सिर्फ वह शख्स मुसलमान करार 
पाएगा जो अल्लाह को इस तरह पाए कि वही उसके यकीन व एतमाद का मर्कज बन जाए। 
जो रसूल को इस तरह माने कि हर दूसरी रहनुमाई उसके लिए बेहकीकत हो जाए। जो 
आसमानी किताब को इस तरह अपनाए कि उसकी सोच और जज्बात बिल्कुल उसके ताबेअ 
हो जाएं। जो फरिश्तों के अकीदे को इस तरह अपने दिल में बिठाए कि उसे महसूस होने लगे 
कि उसके दाएं-बाएं हर वक्त खुदा के चौकीदार खड़े हुए हैं। जो आख़िरत का इस तरह 
इकरार करे कि वह अपने हर कैल व फेअल (कथनी-करनी) को आहरत की मीजान पर 
जांचने लगे। जो शख्स इस तरह मोमिन बने वही अल्लाह के नजदीक उस रास्ते पर है जो 
हिदायत और कामयाबी का रास्ता है। और जो शख्स इस तरह मोमिन न बने वह एक भटका 
हुआ इंसान है, चाहे वह अपने नजदीक ख़ुद को कितना ही मोमिन और मुस्लिम समझता हो। 

मानने और न मानने का यह मअरका आदमी की जिंदगी में हर वकत जारी रहता है। 
जब भी कोई मामला पड़ता है तो आदमी का जेहन दो में से किसी एक रुख पर चल पड़ता 
है। या ख्राहिशात की तरफ या हक के तकाजे पूरे करने की तरफ। अगर ऐसा हो कि मामले 
के वक्‍त आदमी की सोच और जज्बात ख़्वाहिश की दिशा में चल पड़ें तो गोया ईमान लाने वाले 
ने ईमान से इंकार किया । इसके बरअक्स अगर वह अपनी सोच और जज्बात को हक का पाबंद 
बना ले तो गोया ईमान लाने वाला ईमान ले आया। आदमी मुसलमान बन कर दुनिया की जिंदगी 
में दाखिल होता है। इसके बाद एक हक बात उसके सामने आती है। अब एक शख्स वह है 
जो ऐसे मौके पर तवाजोअ का रवैया इ्ियार करे और हक का एतराफ कर ले। दूसरा शख्स 
वह है जिसके अंदर घमंड की नफ्सियात जाग उठें और वह उसे ठुकरा दे। पहली सूरत ईमान 
की सूरत है और दूसरी सूरत ईमान का इंकार करने की। जो शख्स सच्चा मोमिन न हो वह 
दुनिया की इज्जत व शोहरत को पसंद करता है इसलिए वह उन लोगों की तरफ झुक पड़ता 
है जिनसे जुड़कर उसकी इज्जत व शोहरत में इजाफा हो, चाहे वे अहले बातिल हों। उसे उन 





पारा 5 242 सूरा-4. अन-निसा 


लोगों से दिलचस्पी नहीं होतौ जिनसे जुड़ना उसकी इज्जत व शोहरत में इजाफा न करे, चाहे 
वे अहले हक हों। 


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और अल्लाह किताब में तुम पर यह हुक्म उतार चुका है कि जब तुम सुनो कि अल्लाह 
की निशानियों का इंकार किया जा रहा है और उनका मजाक किया जा रहा है तो तुम 

उनके साथ न बैठो यहां तक कि वे दूसरी बात में मशगूल हो जाएं। वर्ना तुम भी उन्हीं 
जैसे हो गए। अल्लाह मुनाफिकों को और मुंकिरों को जहन्नम में एक जगह इकट्ठा 

करने वाला है। वे मुनाफिक तुम्हारे लिए इंतिजार में रहते हैं। अगर तुम्हें अल्लाह की 

तरफ से कोई फतह हासिल होती है तो कहते हैं कि क्या हम तुम्हारे साथ न थे। और 

अगर मुंकिरों को कोई हिस्सा मिल जाए तो उनसे कहेंगे कि क्या हम तुम्हारे खिलाफ 
लड़ने पर कादिर (समर्थ न थे और फिर भी हमने तुम्हें मुसलमानों से बचाया। तो 
अल्लाह ही तुम लोगों के दर्मियान कियामत के दिन फैसला करेगा और अल्लाह हरगिज 

मुंकिरों को मोमिनों पर कोई राह नहीं देगा। (40-747) 

















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अल्लाह की पुकार जब भी किसी इंसानी गिरोह में उठती है तो इतनी मजबूत बुनियादों 
पर उठती है कि दलील के जरिए उसकी काट करना किसी के लिए मुमकिन नहीं रहता। 
इसलिए जो लोग उसे मानना नहीं चाहते वे उसका मजाक उड़ाकर उसे बेवजन करने की 
कोशिश करते हैं। जो लोग ऐसा करें वह अपने इस रवैये से यह बता रहे हैं कि वे हक 
के मामले को कोई संजीदा मामला नहीं समझते और जब आदमी किसी मामले में संजीदा 
न हो तो उस वकत उससे बहस करना बिल्कुल बेकार होता है। ऐसे मौके पर सही तरीका 
यह है कि आदमी चुप हो जाए और उस वक्‍त का इंतजार करे जब कि गुप्तुगू का विषय 
बदल जाए और मुखातब इस काबिल हो जाए कि वह बात को सुन सके। जिस मज्लिस में 
ख़ुदा की दावत का मजाक उड़ाया जाए वहां बैठना यह साबित करता है कि आदमी हक 
के मामले में गैरतमंद नहीं। 





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सूरा-4. अन-निसा 243 पारा 5 


मुनाफिक इसकी परवाह नहीं करता कि उसूलपसंदी का तकज क्या है बल्कि जिस चीज 
में फायदा नजर आए उस तरफ झुक जाता है। वह अपने आपको उस हलके के साथ जोड़ता 
है जिसका साथ देने में उसके दुनियावी हौसले पूरे होते हों, चाहे वह अहले ईमान का हलका 
हो या गैर अहले ईमान का। वह जिस मज्लिस में जाता है उसे खुश करने वाली बातें करता 
है। मस्लेहतों की बिना पर कभी उसे सच्चे अहले ईमान के साथ जुड़ना पड़े तब भी वह दिल 
से उनका ख़ैरख़्वाह नहीं होता | क्योंकि सच्चे अहले ईमान का वजूद किसी मुआशिरे में हक का 
पैमाना बन जाता है। इसलिए जो लोग झूठी दीनदारी पर खड़े हुए हों वे चाहते हैं कि ऐसे पैमाने 
टूट जाएं जो उनकी दीनदारी को संदिग्ध साबित करने वाले हैं। मगर अहले ईमान के बदख्वाह 
जो कुछ जोर दिखा सकते हैं इसी दुनिया में दिखा सकते हैं। आख़िरत में वे इनके खिलाफ कुछ 
भी न कर सकेगे। 
मुनाफिक वह है जो बजाहिर दीनदार मगर अंदर से बेदीन हो। ऐसे शख्स का अंजाम 
मुंकिर के साथ होना बताता है कि अल्लाह के नजदीक जाहिरी दीनदारी और खुली हुई बेदीनी 
में कोई फर्क नहीं। क्योंकि जाहिर की सतह पर चाहे दोनो मुर्न्नलिफ नजर आएं मगर बातिन 
(भीतर) की सतह पर दोनों एक होते हैं। और अल्लाह के यहां एतबार बातिन का है न कि 
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मुनाफिकीन (पाखंडी) अल्लाह के साथ धोखेबाजी कर रहे हैं। हालांकि अल्लाह ही ने 
उन्हें धोखे में डाल रखा है। और जब वे नमाज के लिए खड़े होते हैं तो काहिली के साथ 
खड़े होते हैं महज लोगों को दिखाने के लिए। और वे अल्लाह को कम ही याद करते 








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सूरा-4. अन-निसा 


हैं। वे दोनों के बीच लटक रहे हैं, न इधर हैं और न उधर। और जिसे अल्लाह भटका 
दे तुम उसके लिए कोई राह नहीं पा सकते। ऐ ईमान वालो, मोमिनों को छोड़कर 
मुंकिरों को अपना दोस्त न बनाओ। क्या तुम चाहते हो कि अपने ऊपर अल्लाह की 
खुली हुजत कायम कर लो। बेशक मुनाफिक्ीन दोज़ के सबसे नीचे के तबके में हेग 

और तुम उनका कोई मददगार न पाओगे। अलबत्ता जो लोग तोबा करें और अपनी 
इस्लाह कर लें और अल्लाह को मजबूती से पकड़ लें और अपने दीन को अल्लाह के 
लिए ख़ालिस कर लें तो ये लोग ईमान वालों के साथ होंगे और अल्लाह ईमान वालों 
को बड़ा सवाब देगा। अल्लाह तुम्हें अजाब देकर क्या करेगा अगर तुम शुक्रगुजारी करो 

और ईमान लाओ। अल्लाह बड़ा कद्र करने वाला है सब कुछ जानने वाला है। 
(42-47) 


पारा 5 244 





जो लोग अपने को अल्लाह के हवाले किए हुए न हों वे अपने को अपने दुनियावी मफाद 
(हित) के हवाले किए हुए होते हैं। दुनियावी मफाद जिससे वाबस्ता हो वे उसी के साथ हो जाते 
हैं चाहे वह दीनदार हो या बेदीन। ऐसे लोग जबान से इस्लाम के अल्फाज बोलते हैं और कुछ 
इस्लामी आमाल भी जाहिरी हद तक अदा करते रहते हैं। मगर उनका अमल अल्लाह के लिए 
नहीं होता। बल्कि लोगों की नजर में मुसलमान बने रहने के लिए होता है। उनका असली दीन 
मौकापरस्ती होता है मगर लोगों के सामने वे अपने को खुदापरस्त जाहिर करने की कोशिश करते 
हैं। ऐसे लोग गोया ख़ुदा को धोखा दे रहे हैं। वे ख़ुदा वाले न होकर अपने को ख़ुदा वाला साबित 
करना चाहते हैं। वे इस्लाम को सच्चा दीन जानते हैं, इसके बावजूद अपने मफादात (हितों) को 
छोड़ना नहीं चाहते। इसकी वजह से वे दोनों के दर्मियान लटके रहते हैं, न पूरी तरह अपने अकीदे 
के लिए यकसू होते और न पूरी तरह अपने मफादात के ऐसे लोग अल्लाह की मदद से महरूम 
रहते हैं। क्योंकि अल्लाह की मदद का मुस्तहिक (पात्र) बनने के लिए अल्लाह के रास्ते पर जमना 
जरूरी है। और यही चीज उनके यहां मौजूद नहीं होती । हक को मानने वाले और हक का इंकार 
करने वाले जब अलग-अलग हो चुके हों तो ऐसी हालत में हक का इंकार करने वालों का साथ 
देना अपने खिलाफ खुदा की खुली हुज्जत कायम करना है। यह किसी के कबिले सजा होने का 
ऐसा सुबूत है जिसके बाद किसी और सुबूत की जरूरत नहीं। 

इस किस्म के लोग अपने दिखावे के आमाल की बिना पर ख़ुदा की पकड़ से बच नहीं सकते। 
इस्लाम की जाहिरी नुमाइश के बावजूद हकीकत के एतबार से वे इस्लाम से दूर थे इसलिए उनका 
अंजाम भी उनकी हकीकत के एतबार से होगा न कि उनके जाहिर के एतबार से। ताहम किसी 
की गुमराही की वजह से खुदा उसका दुश्मन नहीं हो जाता । इस किस्म के लोग अगर अपनी गलती 
पर शर्मिन्दा हाँ, वे अपनी जिंदगी को बदलें, अपनी तवज्जोहात को हर तरफ से मोड़कर अल्लाह 
की तरफ लगाएं और यकसू होकर दीन के रास्ते पर चलने लगें तो यकीनन अल्लाह उन्हें माफ 
कर देगा। 





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सूरा-4. अन-निसा 245 पारा 6 


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अल्लाह बदगोई (कुवार्ता) को पसंद नहीं करता मगर यह कि किसी पर जुल्म हुआ हो 
और अल्लाह सुनने वाला जानने वाला है। अगर तुम भलाई को जाहिर करो या उसे 
छुपाओ या किसी बुराई से दरगुजर करो तो अल्लाह माफ करने वाला कुदरत रखने वाला 

है। जो लोग अल्लाह और उसके रसूलों का इंकार कर रहे हैं और चाहते हैं कि अल्लाह 
और उसके रसूलों के दर्मियान तफरीक (विभेद) करें और कहते हैं कि हम किसी को 

मानेंगे और किसी को न मानेंगे। और वे चाहते हैं कि इसके बीच में एक राह निकालें। 
ऐसे लोग पक्के मुंकिर हैं और हमने मुंकिरों के लिए जिल्लत का अजाब तैयार कर रखा 

है। और जो लोग अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान लाए और उनमें से किसी को 
जुदा न किया उन्हें अल्लाह उनका अज्र देगा और अल्लाह गाफूर (क्षमाशील) व रहीम 
(दयावान) है। (48-52) 





किसी शख्स के अंदर कोई दीनी या दुनियावी ऐब मालूम हो तो उसे प्रसारित करना 
अल्लाह को सख्स नापसंद है। नसीहत का हक हर एक को है। मगर नसीहत या तो किसी 
का नाम लिए बगैर सामान्य रूप में की जानी चाहिए, या संबंधित शख्स से मिलकर तंहाई में । 
अल्लाह सुबह व शाम लोगों के जुर्मो को नजरअंदाज करता रहता है। बंदों को भी अपने अंदर 
यही अख़्ताक पैदा करना है अलबत्ता अगर एक शख्स मज्लूम हो तो उसके लिए रुख्सत है 
कि वह जालिम के जुल्म को लोगों से बयान करे। ताहम अगर मज्लूम सब्र कर ले और जुल्म 
करने वाले को माफ कर दे तो यह उसके हक में ज्यादा बेहतर है। क्योंकि इस तरह वह 
साबित करता है कि उसे दुनिया के नुक्सान से ज्यादा आख़िरत के नुक्सान की फिक्र है। जो 
शख्स किसी बड़े गम में मुब्तिला हो उसके लिए छोटे गम बेहकीकत हो जाते हैं। यही हाल 
उस शख्स का होता है जिसके दिल में आने वाले हौलनाक दिन का गम समाया हुआ हो। 
मक्का के लोग इब्राहीम अलैहिस्सलाम की नुबुव्वत को मानते थे। इसी तरह यहूदी 


पारा 6 246 सूरा-4. अन-निसा 


हजरत मूसा की नुबुव्यत को तस्लीम करते थे और मसीही हजरत ईसा की नुबुव्वत को। मगर 
इन सबने पैगम्बर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की नुबुव्वत को मानने से इंकार कर 
दिया। उनमें से हर एक माजी (अतीत) के पेग़म्बर को मानने के लिए तैयार था मगर उनमें 
से कोई वक्‍त के पैगम्बर को मानने के लिए तैयार न हुआ। हालांकि जिन नबियों को वे मान 
रहे थे वे भी अपने जमाने में उसी किस्म के मुखालिफाना रद्देअमल से दो-चार हुए थे जिससे 
पैगम्बर अरबी सल्ल० को दो-चार होना पड़ा। इस किस्म की हर कोशिश हकपरस्ती और 
नफ्सपरस्ती के दर्मियान रास्ता निकालने के लिए होती है ताकि ख़्वाहिशात का ढांचा भी टूटने 
न पाए और आदमी ख़ुदा की जन्नत तक पहुंच जाए। 

अस्ल यह है कि माजी (अतीत) की नुबुव्वत एक मानी हुई नुबुव्वत होती है जबकि वक्‍त 
के पेगम्बर को मानने के लिए आदमी को नया जेहनी सफर ते करना पड़ता है। माजी 
(अतीत) की नुबुव्वत जमाना गुजरने के बाद एक तस्लीमशुदा नुबु्यत बन जाती है। वह 
पेदाइशी तौर पर आदमी के जेहन का जुज बन चुकी होती है। मगर जमाने का पेगम्बर एक 
विवादित शख्सियत होता है, वह देखने वालों को महज “एक इंसान” दिखाई देता है। इसलिए 
उसे मानने के लिए जरूरी होता है कि आदमी एक नया जेहनी सफर करे। वह खुदा को दुबारा 
शुऊर की सतह पर पाए। माजी के पैग़म्बर को मानना तकलीदी (अनुकरणीय) ईमान के तहत 
होता है और वक्‍त के पैगम्बर को मानना इरादी ईमान के तहत । मगर अल्लाह के यहां कीमत 


इरादी ईमान की है न कि तकलीदी ईमान की। 
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अहले किताब तुमसे यह मुतालबा (मांग) करते हैं कि तुम उन पर आसमान से एक 
किताब उतार लाओ। पस मूसा से वे इससे भी बड़ी चीज का मुतालबा कर चुके हैं। 
उन्होंने कहा कि हमें अल्लाह को बिल्कुल सामने दिखा दो। पस उनकी इस ज्यादती 
के सबब उन पर बिजली आ पड़ी। फिर खुली निशानी आ चुकने के बाद उन्होंने बछड़े 
को माबूद (पूज्य) बना लिया। फिर हमने उससे दरगुजर किया। और मूसा को हमने 
खुली हुज्जत अता की। और हमने उनके ऊपर तूर पहाड़ को उठाया उनसे अहद (वचन) 
लेने के वास्ते। और हमने उनसे कहा कि दरवाजे में दाखिल हो सर झुकाए हुए और 
उनसे कहा कि सब्त (सनीचर) के मामले में ज्यादती न करना। और हमने उनसे मजबूत 
अहद लिया। (53-54) 





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सूरा-4. अन-निसा 247 पारा 6 


ख़ुदा का पैगम्बर इंसानों में से एक इंसान होता है। वह आम आदमी की सूरत में लोगों के 
सामने आता है। इसलिए लोगों की समझ में नहीं आता कि वे एक आम आदमी को किस तरह 
ख़ुदा का नुमाइंदा मान लें। वे कैसे यकीन कर लें कि सामने का आदमी एक ऐसा शख्स है जो 
खुदा की तरफ से बोलने के लिए मुक्रर हुआ है। चुनांचे वे कहते हैं कि जो कलाम तुम पेश कर 
रहे हो उसे आसमान से आता हुआ दिखाओ या ख़ुदा ख़ुद तुम्हारी तस्दीक (पुष्टि) के लिए 
आसमान से उतर पड़े तब हम तुम्हारी बात मानेंगे। मगर इस किस्म का मुतालबा हद दर्जे गैर 
संजीदा मुतालबा है। क्योंकि इंसान का इम्तेहान तो यह है कि वह देखे बगैर माने, वह हकीकतों 
को उनके अर्थपूर्ण रूप में पा ले। ऐसी हालत में दिखा कर मनवाने का क्या फायदा । साथ ही 
यह कि अगर कुछ देर के लिए आलम के निजाम को बदल दिया जाए और आदमी को उसके 
मुतालबे के मुताबिक चीजों को दिखा दिया जाए तब भी वह बेफायदा होगा। क्योंकि यह 
दिखाना बहरहाल वक्ती होगा न कि मुस्तकिल। और इंसान की आजादी जो उसे सरकशी की 
तरफ ले जाती है इसके बाद भी बाकी रहेगी। नतीजा यह होगा कि देखने के वक्‍त तक वह 
सहम कर मान लेगा और इसके बाद दुबारा अपनी आजादी का ग़लत इस्तेमाल शुरू कर देगा 
जैसा कि देखने से पहले कर रहा था। यहूद की मिसाल इसकी ऐतिहासिक पुष्टि करती है। 

तूर पहाड़ के दामन में गैर मामूली हालात पैदा करके यहूद से यह अहद लिया गया था 
कि वे अपने इबादतख़ाने (खुरूज 9 : ।6-8) में तवाजोअ (विनम्रता, शालीनता) के साथ 
दाखिल हों और ख़ुशूअ के साथ अल्लाह की इबादत करें। और यह कि जीविका के लिए जो 
जदूदोजहद करें वह अल्लाह के हुदूद में रह कर करें न कि उससे आजाद होकर। मगर यहूद 
ने इस किस्म के तमाम अहदों को तोड़ दिया। 

'मूसा को हमने सुल्ताने मुबीन (खुली हुज्जत) दी” अल्लाह का यह मामला हर पैगम्बर 
के साथ होता है। पैगम्बर अगरचे एक आम इंसान की तरह होता है मगर उसके कलाम और 
उसके अहवाल में ऐसी खुली हुई दलीलें मौजूद होती हैं जो उसकी ख़ुदाई हैसियत को पूरी तरह 
साबित कर रही होती हैं। मगर जालिम इंसान हर खुदाई निशानी की एक ऐसी तौजीह ढूंढ 
लेता है जिसके बाद वह उसे रदूद करके अपनी सरकशी की जिंदगी को बदस्तूर जारी रखे। 


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पारा 6 248 सूरा-4. अन-निसा 


उन्हें जो सजा मिली वह इस पर कि उन्होंने अपने अहद (वचन) को तोड़ा और इस पर 
कि उन्होंने अल्लाह की निशानियों का इंकार किया और इस पर कि उन्होंने पैग़म्बरों 
को नाहक कत्ल किया और इस कहने पर कि हमारे दिल तो बंद हैं बल्कि अल्लाह 

ने उनके इंकार के सबब से उनके दिलों पर मुहर कर दी है तो वे कम ही ईमान लाते 
हैं। और उनके इंकार पर और मरयम पर बड़ा तूफान बांधने पर और उनके इस कहने 
पर कि हमने मसीह बिन मरयम, अल्लाह के रसूल को कत्ल कर दिया हालांकि उन्होंने 

न उसे कत्ल किया और न सूली दी बल्कि मामला उनके लिए संदिग्ध कर दिया गया। 
और जो लोग इसमें मतभेद कर रहे हैं वे इसके बारे में शक में पड़े हुए हैं। उन्हें इसका 
कोई इल्म नहीं, वह सिर्फ अटकल पर चल रहे हैं। और बेशक उन्होंने उसे कत्ल नहीं 
किया। बल्कि अल्लाह ने उसे अपनी तरफ उठा लिया और अल्लाह जबरदस्त है हिक्मत 
(तत्वदर्शिता) वाला है। (55-58) 


यहूद पर आसमानी हिदायत उतारी गई थी जिसमें यह बताया गया था कि वे दुनिया में 
अल्लाह की मर्जी पर चलें तो आख़िरत में अल्लाह उन्हें जन्नत देगा। उन्होंने पहले हिस्से को 
भुला दिया अलबत्ता दूसरे हिस्से को अपना पेदाइशी हक समझ लिया। यहूद हर किस्म के 
बिगाड़ में मुब्तिला (लिप्त) हुए। इसके बावुजूद अपने नजातयाफ्ता होने के बारे में उनका 
यकीन इतना बढ़ा हुआ था कि उन्होंने समझ लिया कि अब उन्हें नये नबी को मानने की 
जरूरत नहीं। वे बतौर तंज (कटाक्ष) कहते 'हमारे दिल तो बंद हैं” उनका यह जुमला रसूल को 
मानने के बारे में अपनी अक्षमता का इज्हार न था बल्कि इस इत्मीनान का इज्हार था कि वे 
रसूल के साथ चाहे जो भी सुलूक करें उनकी नजात किसी हाल में संदिग्ध होने वाली नहीं। 
जो लोग इस किस्म के झूठे यकीन में मुन्तिला (लिप्त) हों वे हर किस्म के जुर्म पर जरी 
हो जाते हैं। खुदा पर ईमान उन्हें जिस अहदे खुदावंदी में बांधता है उसे तोड़ना उनके लिए 
कुछ मुश्किल नहीं होता। अल्लाह की तरफ से जाहिर होने वाली खुली दलीलों के बावुजूद वे 
उसे मानने के लिए तैयार नहीं होते। हक की तरफ बुलाने वाले जो उनकी गैर ख़ुदापरस्ताना 
रविश को बेनकाब करते हैं उनके खिलाफ आक्रामक कार्रवाई करने से वे नहीं झिझकते | यहां 
तक कि झूठे आरोप लगाकर दाऔ (आहवानकर्ता) को बेइज्जत करने से भी उन्हें कोई चीज 
नहींरोक्रती । यहूद ने हजरत मसीह के छिलाफ कल का इकदाम किया और इसके बाद फख्र 
से कहा कि 'मरयम का बेटा मसीह जो अपने को रसूल कहता था उसे हमने मार डाला।' मगर 
इस किस्म के लोग अल्लाह के दाजियों के खिलाफ जो भी साजिश करें वे कभी कामयाब नहीं 
हो सकते। अल्लाह की ताकत और उसका हकीमाना निजाम हमेशा हक के दाजियों की पुश्त 
पर होता है। हर साजिश और हर मुखालिफत (विरोध) के बावुजूद वे उस वक्‍त तक अपना 
काम जारी रखने की तौफीक पाते हैं जब कि वे अपने हिस्से का काम मुकम्मल कर लें। 
जो लोग हक के मुकाबले में सरकशी का रवैया इस््तियार करें अल्लाह उनसे हक को 
कुबूल करने की सलाहियत छीन लेता है। वे अपनी मुखालिफाना सरगर्मियों को जारी रखते 
हैं यहां तक कि ख़ुदा के फरिश्ते उन्हें मुजरिम की हैसियत से पकड़ कर ख़ुदा की अदालत में 
हाजिर हर देते हैं। 





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सूरा-4. अन-निसा 249 पारा 6 


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और अहले किताब में से कोई ऐसा नहीं जो उसकी मौत से पहले उस पर ईमान न 
ले आए और कियामत के दिन वह उन पर गवाह होगा। पस यहूद के जुल्म की वजह 

से हमने वे पाक चीजें उन पर हराम कर दीं जो उनके लिए हलाल थीं। और इस वजह 

से कि वे अल्लाह की राह से बहुत रोकते थे। और इस वजह से कि वे सूद लेते थे 
हालांकि इससे उन्हें मना किया गया था और इस वजह से कि वे लोगों का माल बातिल 
तरीके से खाते थे। और हमने उनमें से मुंकिरों के लिए दर्दनाक अजाब तैयार कर रखा 

है। मगर उनमें जो लोग इल्म में पुख्ता और ईमान वाले हैं वे ईमान लाए हैं उस पर 
जो तुम्हारे ऊपर उतारी गई और जो तुमसे पहले उतारी गई और वे नमाज के पाबंद हैं 
और जकात अदा करने वाले हैं और अल्लाह पर और कियामत के दिन पर ईमान रखने 

वाले हैं। ऐसे लोगों को हम जरूर बड़ा अज्र (प्रतिफल) देंगे। (59-62) 





इकरिमा कहते हैं कि कोई यहूदी या ईसाई नहीं मरेगा यहां तक कि वह मुहम्मद 
सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर ईमान लाए। यहूद व नसारा के पास आसमानी इल्म था ऐसे 
लोग यह समझने में गलती नहीं कर सकते थे कि पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल०) की दावत ख़ालिस 
ख़ुदाई दावत है। मगर पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल०) को मानना और उनके मिशन में अपना माल 
और अपनी जिंदगी लगाना उन्हें दुनियावी मस्लेहतों के ख़िलाफ नजर आता था। इस वजह 
से उन्होंने आपका साथ देने से इंकार कर दिया। मगर जब मौत आदमी के सामने आती है 
तो इस किस्म की तमाम मस्लेहतें बातिल होती हुई नजर आने लगती हैं। उस वक़्त आदमी 
के जेहन से तमाम मस्नूई (कृत्रिम) पर्दे हट जाते हैं और हक अपनी खुली सूरत में सामने आ 
जाता है। मौत के दरवाजे पर पहुंच कर आदमी उस चीज का इकरार कर लेता है जिसे वह 
मौत से पहले मानने के लिए तैयार न था। मगर उस वक्‍त के इकरार की अल्लाह की नजर 
में कोई कीमत नहीं। 

जब कोई गिरोह खुदाई दीन के बजाए ख़ुदसाख्ता (स्वनिर्मित) दीन को इख्तियार करता है 


पारा 6 250 सूरा-4. अन-निसा 


तो वह अपनी दीनी हैसियत को जाहिर करने के लिए कुछ ख़ुदसाख़्ता निशानात भी कायम करता 
है। वह अपने मिजाज और अपने हालात के लिहाज से हराम व हलाल के नये कायदे बनाता 
है और उनका खुसूसी एहतमाम करके साबित करना चाहता है कि वह दूसरों से ज्यादा दीन 
पर कायम है। ऐसे लोगों का दीन कुछ जाहिरी चीजों के एहतमाम पर आधारित होता है न कि 
अल्लाह वाला बनने पर। चुनांचे वह इससे नहीं डरते कि अल्लाह के मना किए हुए तरीकों से 
दुनियावी फायदे हासिल करें और अल्लाह के लिए होने वाले काम का रास्ता रोकें। ऐसे लोगों 
का अंजाम अल्लाह के यहां बेदीनों के साथ होगा न कि दीनदारों के साथ। 

यहूदियों में कुछ लोग, अब्दुल्लाह बिन सलाम वगैरह, रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व 
सल्लम पर ईमान लाए और आपका साथ दिया। जो लोग इंसानी इजाफों से गुजर कर अस्ल 
आसमानी दीन से आशना होते हैं, जो विद्वेष, अंधानुकरण और मफादपरस्ती की जेहनियत 
से आजाद होते हैं उन्हें सच्चाई को समझने और अपने आप को उसके हवाले करने में कोई 
चीज रुकावट नहीं बनती। वे हर किस्म के जेहनी ख़ोल से बाहर आकर सच्चाई को देख लेते 
हैं। यही वे लोग हैं जो अल्लाह की जन्नतों में दाखिल किए जाएंगे। 


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हमने तुम्हारी तरफ “वही” (ईश्वरीय वाणी) भेजी है जिस तरह हमने नूह और उसके बाद के 
नबियों की तरफ “वही” भेजी थी। और हमने इब्राहीम और इस्माईल और इस्हाक और 
याकूब और औलादे याकूब और ईसा और अय्यूब और यूनुस और हारून और सुलैमान की 
तरफ “वही” भेजी थी। और हमने दाऊद को जबूर दी। और हमने ऐसे रसूल भेजे जिनका 
हाल हम तुम्हें पहले सुना चुके हैं और ऐसे रसूल भी जिनका हाल हमने तुम्हें नहीं सुनाया। 
और मूसा से अल्लाह ने कलाम किया। अल्लाह ने रसूलों को ख़ुशख़बरी देने वाले और 


डराने वाले बनाकर भेजा ताकि रसूलों के बाद लोगों के पास अल्लाह के मुकाबले में कोई 
हुज्जत बाकी न रहे और अल्लाह जबरदस्त है हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। (63-65) 























अल्लाह ने इंसान को पैदा किया और फिर जन्नत और जहन्नम बनाई। इसके बाद 
इंसान को जमीन पर बसाया। यहां इंसान को आजादी है कि वह जो चाहे करे। मगर यह 
आजादी मुस्तकिल नहीं है बल्कि वक्ती है और इम्तेहान के लिए है। वह इसलिए है ताकि अच्छे 
और बुरे को छांटा जाए। खुदा यह देख रहा है कि लोगों में कौन वह शख्स है जो अपनी आजादी 





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सूरा-4. अन-निसा श्ठव पारा 6 


के बावुजूद हकीकतपसंदी का रवैया इख्तियार करता है और अपने को अल्लाह का बंदा बनाकर 
रखता है। और कौन वह है जो अपनी आजादी का ग़लत इस्तेमाल करके बताता है कि वह 
एक सरकश इंसान है। दुनिया में दोनों किस्म के लोग मिले हुए हैं। दोनों को यहां समान रूप 
से खुदा की नेमतों से फायदा उठाने का मौका हासिल है। मगर इम्तेहान की मुकर्ररह मुद्दत पूरी 
होने के बाद दोनों गिरोह एक दूसरे से अलग कर दिए जाएंगे। पहले गिरोह को अबदी तौर पर 
जन्नत के बागों में बसाया जाएगा और दूसरे गिरोह को अबदी तौर पर जहन्नम में डाल दिया 
जाएगा। 
जिंदगी के बारे में अल्लाह का यह मंसूबा इंसान को बड़ी नजाकत में डाल रहा है। 
क्योंकि इसका मतलब यह है कि दुनिया की छोटी-सी जिंदगी का अंजाम दो इंतहाई सूरतों में 
सामने आने वाला है, या अबदी (अनंत) राहत या अबदी अजाब। इसलिए अल्लाह ने 
रहनुमाई के दूसरे फितरी इंतजामात के अलावा पेगम्बरों और किताबों के भेजने का इंतजाम 
किया ताकि कोई शख्स जिंदगी की हकीकत से बेखबर न रहे और फैसले के दिन यह न कह 
सके कि हमें इलाही मंसूबे का पता न था कि हम अपनी जिंदगी को उसके मुताबिक बनाते। 
अल्लाह के इस मंसूबे के लाजिम मअना यह हैं कि शुरू से आख़िर तक आने वाले तमाम 
नबियों का पैगाम और मंसबी फरीजा एक हो। जब तमाम इंसान एक ही इम्तेहान की तराजू 
में खड़े हुए हैं तो उनके इम्तेहान का पर्चा एक दूसरे से मुख्तलिफ कैसे हो सकता है। हकीकत 
यह है कि तमाम नबियों का पैग़ाम एक था और इसी एक पैग़ाम से उन्होंने तमाम इंसानों को 
बाख़बर किया। और वह यह कि हर आदमी एक ऐसे नाजुक मकाम पर खड़ा हुआ है जिसके 
एक तरफ जन्नत है और दूसरी तरफ जहन्नम । वह एक तरफ चले तो जन्नत में पहुंचेगा और 
दूसरी तरफ चले तो जहन्नम में जा गिरेगा। तमाम नबियों की दावत एक थी। अलबत्ता 
देश-काल की जरूरत के एतबार से उन्हें खुदा की ताईद मुख़्तलिफ सूरतों में मिली। अल्लाह 
की यह सुन्नत आज भी बाकी है। डराने और खुशख़बरी सुनाने का पैगम्बराना काम करने 
के लिए आज जो लोग उठेंगे वे अपने हालात के लिहाज से यकीनन अल्लाह की खुसूसी ताईद 
के मुस्तहिक होंगे। ताकि वे अपनी दावती जिम्मेदारी को प्रभावी रूप से जारी रख सकें। 


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पारा 6 252 सूरा-4. अन-निसा 


मगर अल्लाह गवाह है उस पर जो उसने तुम्हारे ऊपर उतारा है कि उसने इसे अपने 
इल्म के साथ उतारा है और फरिश्ते भी गवाही देते हैं और अल्लाह गवाही के लिए काफी 

है। जिन लोगों ने इंकार किया और अल्लाह के रास्ते से रोका वे बहक कर बहुत दूर 
निकल गए। जिन लोगों ने इंकार किया और जुल्म किया उन्हें अल्लाह हरगिज नहीं 
बख्शेगा न ही उन्हें जहन्नुम के सिवा कोई रास्ता दिखाएगा जिसमें वे हमेशा रहेंगे। और 
अल्लाह के लिए यह आसान है। ऐ लोगो, तुम्हारे पास रसूल आ चुका तुम्हारे रब की 
ठीक बात लेकर। पस मान लो ताकि तुम्हारा भला हो। और अगर न मानोगे तो 
अल्लाह का है जो कुछ आसमानों में और जमीन में है। और अल्लाह जानने वाला 
हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। (66-70) 





रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की बेअसत के वक्त यहूद को आसमानी मजहब 
के नुमाइंदे की हैसियत हासिल थी। वह मजहब के बड़े-बड़े मनासिब (पदों) पर बैठे हुए थे। 
उन्हें मंजूर न हुआ कि वे अपने सिवा किसी की बड़ाई तस्लीम करें। उन्होंने यह मानने से 
इंकार कर दिया कि आप अल्लाह की तरफ से उसके बंदों तक उसका पैगाम पहुंचाने के लिए 
भेजे गए हैं। वे समझते थे कि हम दीन के इजारादार हैं। हम जिस शख्स की दीनी सदाकत 
को तस्लीम न करें वह बतौर वाकया भी गैर तस्लीमशुदा बन जाता है। मगर वे भूल गए कि 
यह कायनात खुदा की कायनात है और इसका निजाम खुदा के फरमांबरदार फरिश्ते चला रहे 
हैं। इसलिए यहां किसी की अस्ल तस्दीक वह है जो खुदा की तरफ से हो और कायनात का 
पूरा निजाम जिसकी ताईद करे। और यकीनन खुदा और उसकी पूरी कायनात अपने पैगम्बर 
के साथ है न कि किसी के स्वनिर्मित आडंबर के साथ। 

ख़ुदा की पुकार के मुकाबले में जो लोग यह रद्देअमल दिखाएं कि वे उसकी उपेक्षा व 
इंकार करें, वे लोगों को उसका साथ देने से रोके वे सिर्फ यह साबित कर रहे हैं कि वे बंदगी 
के सही मकाम से भटक कर बहुत दूर निकल गए हैं। वे ऐसी बात कहते हैं जिसकी तरदीद 
(खंडन) सारी कायनात कर रही है। वे एक ऐसे मंसूबे के खिलाफ महाज बना रहे हैं जिसकी 
पुश्त पर जमीन व आसमान का मालिक खड़ा हुआ है। जाहिर है कि इससे बड़ी नादानी इस 
दुनिया में और कोई नहीं, ऐसे लोग दीन के नाम पर सबसे बड़ी बेदीनी कर रहे हैं। जो लोग 
अपने लिए इस किस्म का जालिमाना रवैया पसंद करें उनका जेहन एतराफ के बजाए इंकार 
के रुख़ पर चलने लगता है। वे दिन-ब-दिन हक से दूर होते चले जाते हैं। यहां तक कि अबदी 
बर्बादी के गढ़े में जा गिरते हैं। खुदा की दावत का इंकार ख़ुद ख़ुदा का इंकार है। ख़ुदा की 
दावत इतने खुले हुए दलाइल (तर्को) के साथ होती है कि उसे समझना किसी के लिए मुश्किल 
न रहे। इसके वाबजूद जो लोग ख़ुदा की दावत का इंकार करें वे गोया ख़ुदा के सामने ढिठाई 
कर रहे हैं। और ढिठाई अल्लाह के नजदीक सबसे बड़ा जुर्म है। 

अगर आदमी ने अपने दिल की खिड़कियां खुली रखी हों तो अल्लाह को पुकार उसे ऐन 
अपनी तलाश का जवाब मालूम होगी । उसे महसूस होगा कि वह हक जो इंसानी बातों में ढक 
कर रह गया था, अल्लाह ने उसकी बेआमेज (विशुद्ध) शक्ल में उसके एलान का इंतजाम 











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सूरा-4. अन-निसा 253 पारा 6 


किया है, यह अल्लाह के इल्म और हिक्मत का जुहूर है न कि किसी शख्स के जाती जोश का 
कोई मामला । 


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ऐ अहले किताब अपने दीन में गुलू (अति) न करो और अल्लाह के बारे में कोई बात 
हक के सिवा न कहो। मसीह ईसा इब्ने मरयम तो बस अल्लाह के एक रसूल और 
उसका एक कलिमा हैं जिसे उसने मरयम की तरफ भेजा और उसकी जानिब से एक 
रूह हैं। पस अल्लाह और उसके रसूलों पर ईमान लाओ और यह न कहो कि ख़ुदा तीन 
हैं। बाज़ आ जाओ, यही तुम्हारे हक में बेहतर है। माबूद तो बस एक अल्लाह ही है। 
वह पाक है कि उसके औलाद हो। उसी का है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ 
जमीन में है और अल्लाह ही का कारसाज होना काफी है। मसीह को हरगिज अल्लाह 

का बंदा बनने से संकोच न होगा और न मुकर्रब (प्रतिष्ठित) फरिश्ता को होगा। और 

जो अल्लाह की बंदगी से संकोच करेगा और घमंड करेगा तो अल्लाह जरूर सबको अपने 
पास जमा करेगा। फिर जो लोग ईमान लाए और जिन्होंने नेक काम किए तो उन्हें वह 
पूरा-पूरा अज्र देगा और अपने फज्ल से उन्हें और भी देगा। और जिन लोगों ने संकोच 

और घमंड किया होगा उन्हे दर्दनाक अजाब देगा और वे अल्लाह के मुकाबले में न किसी 

को अपना दोस्त पाएंगे और न मददगार। (7-74) 


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आदमी की यह कमजोरी है कि किसी चीज में कोई विशिष्ट पहलू देखता है तो उसके 
बारे में अतिरंजनापूर्ण परिकल्पना कायम कर लेता है। वह उसका मकाम सुनिश्चित करने में 
हद से आगे निकल जाता है। इसी का नाम 'गुलू' है। शिर्क और शख्सियतपरस्ती की तमाम 
किस्में अस्लन इसी गुलू की पैदावार हैं। 


पारा 6 254 सूरा-4. अन-निसा 


दीन में गुलू यह है कि दीन में किसी चीज का जो दर्जा हो उसे उसके वाकई दर्जे पर न रखा 
जाए बल्कि उसे बढ़ाकर ज्यादा बड़ा दर्जा देने की कोशिश की जाए। अल्लाह अपने एक बंदे को 
बाप के बगैर पैदा करे तो कह दिया जाए कि यह ख़ुदा का बेटा है। अल्लाह किसी को कोई बड़ा 
मर्तबा दे दे तो समझ लिया जाए कि वह कोई माफौक (अलौकिक) शख्सियत है और इंसानी गलतियों 
से पाक है। दुनिया की चमक दमक से बचने की ताकीद की जाए तो उसे बढ़ा चढ़ाकर सन्यास 
तक पहुंचा दिया जाए । जिंदगी के किसी पहलू के बारे में कुछ अहकाम दिए जाएं तो उसमें मुबालगा 
(अतिरंजना) करके उसी की बुनियाद पर एक पूरा दीनी फलसफा बना दिया जाए । इस किस्म की 
तमाम सूरतेजिनमेकिसी दीनी चीज को उसके वाकई मकाम से बढ़कर मुबालगा आमेज दर्जा दिया 
जाए वह गुलू की फेहरिस्त में शामिल होगा । 

हर किस्म की ताकतें सिर्फ अल्लाह को हासिल हैं। उसके सिवा जितनी चीजे हैं सब 
आजिज और महकूम हैं। इंसान अपने शुऊर के कमाल दर्जे पर पहुंच कर जो चीज दरयाफ्त 
करता है वह यह कि खुदा कादिरे मुतलक (सर्वशक्तिमान) है और वह उसके मुकाबले में 
आजिजे मुतलक। पैगम्बर और फरिश्ते इस शुऊर में सबसे आगे होते हैं इसलिए वे खुदा की 
कुदरत और अपने इज्ज के एतराफ में भी सबसे आगे हेते हैं। यह एतराफ (स्वीकार) ही 
इंसान का अस्ल इम्तेहान है। जिसे अपने इज्ज का शुऊर हो जाए उसने खुदा के मुकाबले में 
अपनी निस्बत को पा लिया। और जिसे अपने इज्ज का शुऊर न हो वह खुदा के मुकाबले 
में अपनी निस्बत को पाने से महरूम रहा। पहला शख्स आंख वाला है जो कामयाबी के साथ 
अपनी मंजिल को पहुंचेगा। दूसरा शख्स अंधा है जिसके लिए इसके सिवा कोई अंजाम नहीं 
कि वह भटकता रहे यहां तक कि जिल्लत के गढ़े में जा गिरे। 


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ऐ लोगो, तुम्हारे पास तुम्हारे रब की तरफ से एक दलील आ चुकी है और हमने तुम्हारे 
ऊपर एक वाजेह (सुस्पष्ट) रोशनी उतार दी। पस जो लोग अल्लाह पर ईमान लाए और 














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सूरा-4. अन-निसा 255 पारा 6 


उसे उन्होंने मजबूत पकड़ लिया उन्हं जरूर अल्लाह अपनी रहमत और फज्ल में दाखिल 

करेगा और उन्हें अपनी तरफ सीधा रास्ता दिखाएगा। लोग तुमसे हुक्म पूछते हैं। कह 
दो अल्लाह तुम्हें कलाला (जिसका कोई वारिस न हो न ही मां बाप) के बारे में हुक्म 
बताता है। अगर कोई शख्स मर जाए और उसके कोई औलाद न हो और उसके एक 
बहिन हो तो उसके लिए उसके तरके का आधा है। और वह मर्द उस बहिन का वारिस 
होगा अगर उस बहिन के कोई औलाद न हो। और अगर दो बहिनें हों तो उनके लिए 
उसके तरके का दो तिहाई होगा। और अगर कई भाई-बहिन, मर्द-औरतें हों तो एक मर्द 
के लिए दो औरतों के बराबर हिस्सा है। अल्लाह तुम्हारे लिए बयान करता है ताकि तुम 
गुमराह न हो और अल्लाह हर चीज का जानने वाला है। (75-77) 


अल्लाह की तरफ से जब उसकी पुकार इंसानों के सामने बुलन्द होती है तो वह ऐसी 
खुली हुई सूरत में बुलन्द होती है जो तारीकियों को ख़त्म करके हकीकतों को आखिरी हद तक 
रोशन कर दे। इसी के साथ वह ऐसी ताकिक होती है जिसका रदूद करना किसी के लिए 
मुमकिन न हो। वे उसका मजाक तो उड़ा सकते हैं मगर दलील की जबान में उसे काट नहीं 
सकते। खुदा वह है जो सूरज को निकालता है तो रोशनी और तारीकी एक दूसरे से जुदा हो 
जातीं हैं। खुदा की यही कुदरत उसकी पुकार में भी जाहिर होती है। इसके बाद हक और 
बातिल एक दूसरे से इस तरह अलग हो जाते हैं कि किसी आंख वाले के लिए इसका जानना 
नामुमकिन न रहे। ताहम सूरज को देखने के लिए जरूरी है कि आदमी अपनी आंख खोले। 
इसी तरह खुदा की पुकार से हिदायत लेने के लिए जरूरी है कि आदमी उस पर ध्यान दे। 
जो शख्स ध्यान न दे वह ख़ुदा की पुकार के दर्मियान रहकर भी उससे महरूम रहेगा। 

इसी के साथ यह भी जरूरी है कि हक को मजबूती के साथ पकड़ा जाए । क्योंकि मौजूदा 
दुनिया इम्तेहान की दुनिया है। यहां शैतान हर आदमी के पीछे लगा हुआ है जो तरह-तरह 
के धोखे में डाल कर आदमी को हक से बिदकाता रहता है। अगर आदमी शैतान के वसवसों 
से लड़ कर हक का साथ देने का फैसला न करे तो यकीनन शैतान उसे दर्मियान में उचक 
लेगा। ताहम आजमाइश की इस दुनिया में इंसान अकेला नहीं है। जो लोग खुदा की तरफ 
चलना चाहेंगे उन्हें हर मोड़ पर खुदा की रहनुमाई हासिल होगी। वे ख़ुदा की मदद से मंजिल 
पर पहुंचने में कामयाब होंगे। जब आदमी का यह हाल हो जाए कि वह सिर्फ हक को 
अहमियत दे तो अल्लाह की तौफीक से उसके अंदर यह सलाहियत (क्षमता) उभर आती है 
कि वह ख़ालिस हक पर मजबूती के साथ जमे और दूसरी राहों में भटकने से बचा रहे। 

मीरास और तरके का हुक्म बताते हुए यह कहना कि “अल्लाह अपना हुक्म बयान करता 
है ताकि तुम गुमराही में न पड़ो' जाहिर करता है कि मीरास और तरके का मसला कोई 
मामूली मसला नहीं है। यह उन मामलों में से है जिसमें अल्लाह के बताए हुए कायदे की 
पाबंदी न करना आदमी को गुमराही की ख़न्दक में डाल देता है। 








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(मदीना में नाजिल हुई) 

शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान निहायत रहम वाला है 
ऐ ईमान वालो, अहद व पेमान को पूरा करो। तुम्हारे लिए मवेशी की किस्म के सब 
जानवर हलाल किए गए सिवा उनके जिनका जिक्र आगे किया जा रहा है। मगर एहराम 
की हालत में शिकार को हलाल न जानो। अल्लाह हुक्म देता है जो चाहता है। ऐ ईमान 
वालो, बेहुरमती न करो अल्लाह की निशानियों की और न हुरमत वाले महीनों की और 
न हरम में कुर्बानी वाले जानवरों की और न पट्टे बंधे हुए नियाज के जानवरों की और 
न हुर्मत वाले घर की तरफ आने वालों की जो अपने रब का फज्ल और उसकी खुशी 
ढूंढने निकले हैं। और जब तुम एहराम की हालत से बाहर आ जाओ तो शिकार करो। 
और किसी कौम की दुश्मनी कि उसने तुम्हें मस्जिदे हराम से रोका है तुम्हें इस पर न 
उभारे कि तुम ज्यादती करने लगो। तुम नेकी और तकवा में एक दूसरे की मदद करो 
और गुनाह और ज्यादती में एक दूसरे की मदद न करो। अल्लाह से डरो। बेशक 
अल्लाह सख्त अजाब देने वाला है। (-2) 





मोमिन की जिदगी एक पाबंद जिंदगी है। वह दुनिया में आजाद है कि जो चाहे करे इसके 
बावुजूद वह अल्लाह की आकाई का एतराफ करते हुए अपने आपको पाबंद बना लेता है, वह 
अपने आपको ख़ुद अहद की रस्सी में बांध लेता है। अल्लाह का मामला हो या बंदों का मामला, 
दोनों किस्म के मामलात में उसने अपने को पाबंद कर लिया है कि वह आजादाना अमल न करे 
बल्कि खुदा के हुक्म में मुताबिक अमल करे। वह उन्हीं चीजों को अपनी खुराक बनाए जो ख़ुदा 
ने उसके लिए हलाल की हैं और जो चीजें खुदा ने हराम की हैं उन्हें खाना छोड़ दे किसी मौके 


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सूरा-5. अल-माइदह 257 पारा 6 


पर अगर किसी जाइज चीज से भी रोक दिया जाए जैसा कि एहराम की हालत में या हराम महीनों 
के बारे में हुम से वाजेह होता है तो उसे भी निसंकोच मान ले। कोई चीज किसी दीनी हकीकत 
की अलामत बन जाए तो उसका एहतराम करे, क्योंकि ऐसी चीज का एहतराम खुद दीन का 
एहतराम है। और यह सब कुछ अल्लाह के ख़ौफ से करे न कि किसी और जज्वे से। 

आदमी आम हालात में अल्लाह के हुक्मों पर अमल करता है। मगर जब कोई गैर 
मामूली हालत पैदा होती है तो वह बदल कर दूसरा इंसान बन जाता है। अल्लाह से डरने वाला 
यकायक अल्लाह से बेख़ीफ इंसान बनकर खड़ा हो जाता है। यह मौका वह है जबकि किसी 
की कोई मुखालिफाना हरकत उसे उत्तेजित कर देती है। ऐसे मौके पर आदमी इंसाफ की हदों 
को भूल जाता है और यह चाहने लगता है कि जिस तरह भी हो अपने हरीफ (प्रतिपक्ष) को 
जलील और नाकाम करे। मगर इस किस्म की दुश्मनी भरी कार्राई खुदा के नजदीक जाइज 
नहीं, यहां तक कि उस वक्त भी नहीं जबकि मस्जिदे हराम की जियारत जैसे पाक काम से 
किसी ने दूसरे को रोका हो। कोई शख्स इस किस्म की जालिमाना कार्रवाई करने के लिए उठे 
और कुछ लोग उसका साथ देने लगें तो यह गुनाह की राह में किसी की मदद करना होगा। 
जबकि अल्लाह से डरने वालों का शेवह यह होना चाहिए कि वे सिफ नेको के कामों में दूसरे 
की मदद करें। जो शख़्स हक पर हो उसका साथ देना और जो नाहक पर हो उसका साथ 
न देना मौजूदा दुनिया का सबसे मुश्किल काम है। मगर इसी मुश्किल काम पर आदमी के 
उख़रवी अंजाम का फैसला होने वाला है। 


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तुम पर हराम किया गया मुर्दर और ख़ून और सुअर का गोश्त और वह जानवर जो ख़ुदा 
के सिवा किसी और नाम पर जबह किया गया हो और वह जो मर गया हो गला घोंटने 
से या चोट से या ऊचे से गिर कर या सींग मारने से और वह जिसे दरिंदे ने खाया हो 
मगर जिसे तुमने जबह कर लिया और वह जो किसी थान पर जबह किया गया हो और 
यह कि तक्र्सीम करो जुए के तीरों से। यह गुनाह का काम है। आज मुंकिर तुम्हारे दीन 
की तरफ से मायूस हो गए। पस तुम उनसे न डरो, सिर्फ मुझसे डरो। आज मैंने तुम्हारे 
लिए तुम्हारे दीन को पूरा कर दिया और तुम पर अपनी नेमत पूरी कर दी और तुम्हारे 


लिए इस्लाम को दीन की हैसियत से पसंद कर लिया। पस जो भूख से मजबूर हो जाए 
लेकिन गुनाह पर मायल न हो तो अल्लाह बस्शने वाला महरबान है। (3) 





पारा 6 258 सूरा-5. अल-माइदह 





कुछ जानवर अपने मेडिकल और अख़्लाकी नुक्सानात की वजह से इस काबिल नहीं कि 
इंसान उन्हें अपनी खुराक बनाए। ख़िंजीर को अल्लाह तआला ने इसी सबब से हराम करार 
दिया। इसी तरह जानवर के जिस्म में गोश्त के अलावा कई दूसरी चीजें होती हैं जो इंसानी 
खुराक बनने के काबिल नहीं। इन्हीं में से ख़ून भी है। चुनांचे इस्लाम में जानवर को जबह 
करने की एक ख़ास सूरत मुकर्रर की गई है ताकि जानवर के जिस्म का ख़ून पूरी तरह बहकर 
निकल जाए। जबह के सिवा जानवर को मारने के जो तरीके हैं उनमें खून जानवर के गोश्त 
में जज्ब होकर रह जाता है, वह पूरी तरह उससे अलग नहीं होता। इसी सबब से शरीअत में 
मुर्दार की तमाम किस्मों को भी हराम कर दिया गया । क्योंकि मुर्दर जानवर का ख़ून फौरन 
ही उसके गोश्त में जज्ब हो जाता है। इसी तरह ऐसा गोश्त भी हराम कर दिया गया जिसमें 
किसी तरह मुश्रिकाना अकीदे की आमेजिश हो जाए। मसलन गैर अल्लाह का नाम लेकर 
जिव्ह करना या गैर अल्लाह के तकर्रुब (आस्था) की ख़ातिर जानवर को कुर्बान करना । ताहम 
अल्लाह ने अपनी ख़ास रहमत से यह गुंजाइश दे दी कि किसी को भूख की ऐसी मजबूरी पेश 
आ जाए कि उसे मौत या हराम खुराक में से एक को लेना हो तो वह मौत के मुकाबले में 
हराम खुराक को इख्तियार करे। 

“आज मैंने तुम्हारे दीन को तुम्हारे लिए कामिल कर दिया।' यानी तुम्हें जो अहकाम दिए 
जाने थे वे सब दे दिए गए । तुम्हारे लिए जो कुछ भेजना मुकद्दर किया गया वह सब भेजा 
जा चुका। यहां अललइतलाक (लागू किए जाने के तौर पर) दीन के कामिल किए जाने का 
जिक्र नहीं है बल्कि उम्मते मुहम्मदी पर जो कुरआन नाजिल होना शुरू हुआ था उसके पूरे होने 
का एलान है। यह नुजूल की तकमील का जिक्र है न कि दीन की तकमील का। इसलिए 
अल्फाज ये नहीं हैं कि “आज मैंने दीन को कामिल कर दिया।' बल्कि यह फरमाया कि आज 
मंन तुम्हारे दीन को तुम्हारे लिए कामिल कर दिया / हकीकत यह है कि ख़ुदा का दीन हर 
जमाने में अपनी कामिल सूरत में इंसान को दिया गया है। खुदा ने कभी नाकिस दीन इंसान 
के पास नहीं भेजा। 

कुरआन को मानने वाली उम्मत को खुदा ने इतनी मजबूत बुनियादों पर कायम कर दिया 
है कि वह अपनी इम्कानी कुव्वत के एतबार से हर बेरूनी (वाहय) ख़तरे की जद से बाहर जा 
चुकी है। अब अगर उसे कोई नुक्सान पहुंचेगा तो अंदरूनी कमजोरियों की वजह से न कि 
ख़ारजी हमलों की वजह से। और अंदरूनी कमजोरियों से पाक रहने की सबसे बड़ी जमानत 
यह है कि उसके अफराद अल्लाह से डरने वाले हों। 


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सूरा-5. अल-माइदह 259 पारा 6 
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वे पूछते हैं कि उनके लिए क्या चीज हलाल की गई है। कहो कि तुम्हारे लिए सुथरी 
चीजें हलाल हैं। और शिकारी जानवरों में से जिन्हें तुमने सधाया है, तुम उन्हें सिखाते 

हो उसमें से जो अल्लाह ने तुम्हें सिखाया। पस तुम उनके शिकार में से खाओ जो वे 
तुम्हारे लिए पकड़ रखें। और उन पर अल्लाह का नाम लो और अल्लाह से डरो, अल्लाह 
बेशक जल्द हिसाब लेने वाला है। आज तुम्हारे लिए सब सुथरी चीजें हलाल कर दी 
गई। और अहले किताब का खाना तुम्हारे लिए हलाल है और तुम्हारा खाना उनके लिए 
हलाल है। और हलाल हैं तुम्हारे लिए पाक दामन औरतें मुसलमान औरतों में से और 
पाक दामन औरतें उनमें से जिन्हें तुमसे पहले किताब दी गई जब तुम उन्हें उनके महर 
दे दो इस तरह कि तुम निकाह में लाने वाले हो, न एलानिया बदकारी करो और न 
खुफिया आशनाई करो। और जो शख्स ईमान के साथ कुफ्र करेगा तो उसका अमल 

जाया हो जाएगा और वह आख़िरत में नुक्सान उठाने वालों में से होगा। (4-5) 


वे तमाम चीजें जिन्हें फितरत की निगाह पाक और सुथरा महसूस करती है। और वे 
तमाम जानवर जो अपनी सरिश्त (प्रकृति) के लिहाज से इंसान की सरिश्त से मुनासिबत रखते 
हैं इंसान के लिए हलाल हैं। अलबत्ता यह शर्त है कि वाहय सबब से उनके अंदर कोई फसाद 
शरई या तिब्बी (मेडिकल) न पैदा हुआ हो। ताहम इस उसूल को इंसान महज अपनी अक्ल 
से पूरी तरह सुनिश्चित नहीं कर सकता इसलिए उसे सुनिश्चितता के साथ भी बयान कर 
दिया गया। सधाए हुए जानवर का शिकार भी इसीलिए हलाल है कि वह शिकार को अपने 
मालिक के लिए पकड़ कर रखता है। गोया उसने आदमी की प्रवृत्ति सीख ली। ऐसा जानवर 
गोया शिकार के मामले में खुद आदमी का कायम मकाम बन गया। 

हलाल व हराम का कानून चाहे कितनी ही तफ्सील से बता दिया जाए बिलआख़िर 
आदमी का अपना इरादा ही है जो उसे किसी चीज से रोकता है और किसी चीज की तरफ 
ले जाता है। आदमी के ऊपर अस्ल निगरां कानून की दफआत नहीं बल्कि वह ख़ुद है। अगर 
आदमी ख़ुद न चाहे तो कानून को मानते हुए वह उससे फरार की राहे तलाश कर लेगा। यह 
सिर्फ अल्लाह का ख़ैफ है जो आदमी को पाबंद करता है कि वह कानून को उसकी हकीकी 
रूह के साथ मल्हूज रखे। इसलिए हराम व हलाल का कानून बनाते हुए कहा गया : अल्लाह 
से डरो, अल्लाह जल्द हिसाब लेने वाला है। 

मुसलमान औरत के लिए किसी हाल में जाइज नहीं कि वह गैर मुस्लिम मर्द से निकाह 
करे। मगर मुसलमान मर्दों को मख्सूस शराइत के तहत इजाजत दी गई है कि वह अहले 
किताब औरतों के साथ निकाह कर सकते हैं। इस गुंजाइश की हिक्मत यह है कि औरत 
फितरतन तअस्सुरपजीर (प्रभाव स्वीकार करने वाला) मिजाज रखती है। उससे यह उम्मीद की 
जा सकती है कि वह अमली जिंदगी में आने के बाद अपने मुस्लिम शौहर और मुस्लिम मुआशिरे 








पारा 6 260 सूरा-5. अल-माइदह 


का असर कुबूल कर ले और इस तरह निकाह उसके लिए इस्लाम में दाखिले का जरिया बन 
जाए। 

'जो शख्स ईमान से इंकार करे तो उसका अमल जाया हो गया” यानी ईमान के बगैर 
अमल की कोई हकीकत नहीं। अमल वही है जो ख़ालिस अल्लाह के लिए किया जाए। जो 
अमल अल्लाह के लिए न हो वह ख़ुद अपने लिए होता है। फिर अपनी खातिर किए हुए 
अमल की कीमत अल्लाह क्यों देगा । 


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ऐ ईमान वालो, जब तुम नमाज के लिए उठो तो अपने चेहरों और अपने हाथों को 
कोहनियों तक धोओ और अपने सरों का मसह करो और अपने पैरों को टख़नों तक 
धोओ और अगर तुम हालते जनाबत में हो तो गुस्ल कर लो। और अगर तुम मरीज 
हो या सफर में हो या तुममें से कोई इस्तंजा से आए या तुमने औरत से सोहबत की 
हो फिर तुम्हें पानी न मिले तो पाक मिट्टी से तयम्मुम कर लो और अपने चेहरों और 
हाथों पर इससे मसह कर लो। अल्लाह नहीं चाहता कि तुम पर कोई तंगी डाले। बल्कि 


वह चाहता है कि तुम्हें पाक करे और तुम पर अपनी नेमत तमाम करे ताकि तुम 
शुक्रगूजार बनो। (6) 








नमाज का मकसद आदमी को बुराइयों से पाक करना है। वुजू इसी की एक ख़ारजी 
(वाहय) तैयारी है। आदमी जब नमाज का इरादा करता है तो पहले वह पानी के पास जाता 
है। पानी बहुत बड़ी नेमत है जो आदमी के लिए हर किस्म की गंदगी को धोने का बेहतरीन 
जरिया है। इसी तरह नमाज भी एक रब्बानी चशमा (स्रोत) है जिसमें नहाकर आदमी अपने 
आपको बुरे जज्बात और गदे ख्यालात से पाक करता है। 

आदमी वुजू को शुरू करते हुए अपने हाथों पर पानी डालता है तो गोया अमल की जबान 
में यह दुआ करता है कि ख़ुदाया मेरे इन हाथों को बुराई से बचा और इनके जरिये जो बुराइयां 
मुझसे हुई हैं उन्हें धोकर साफ कर दे। फिर वह अपने मुंह में पानी डालता है और अपने चेहरे 
को धोता है तो उसकी रूह जबाने हाल से कह उठती है कि ख़ुदाया मैंने अपने मुंह में जो गलत 
खुराक डाली हो, मैंने अपनी जबान से जो ग़लत कलिमा निकाला हो, मेरी आंखों ने जो बुरी चीज 


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सूरा-5. अल-माइदह 26] पारा 6 


देखी हो उन सबको तू मुझसे दूर कर दे । फिर वह पानी लेकर अपने हाथों को सर के ऊपर फेरता 
है तो उसका वुजूद सरापा इस दुआ में ढल जाता है कि ख़ुदाया मेरे जेहन ने जो बुरी बातें सोची 
हों और जो ग़लत मंसूबे बनाए हों उनके असरात को मुझसे धो दे और मेरे जेहन को पाक साफ 
जेहन बना दे। फिर जब वह अपने पैरों को धोता है तो उसका अमल उसके लिए अपने रब के 
सामने यह दरख़्वास्त बन जाता है कि वह उसके पैरों से बुराई की गर्द को धो दे और उसे ऐसा 
बना दे कि सच्चाई और इंसाफ के रास्ते के सिवा किसी और रास्ते पर वह कभी न चले। इस 
तरह पूरा वुजू आदमी के लिए गोया इस दुआ की अमली सूरत बन जाता है कि : खुदाया मुझे गलती 
से पलटने वाला बना और मुझे बुराइयों से पाक रहने वाला बना। 

आम हालात में पाकी का एहसास पैदा करने के लिए वुजू काफी है। मगर जनाबत की 
हालत एक गैर मामूली हालत है इसलिए इसमें पूरे जिस्म का धोना (गुस्ल) जरूरी करार दिया 
गया । वुजू अगर छोटा गुस्ल है तो गुस्ल बड़ा वुजू है। ताहम अल्लाह तआला को यह पसंद नहीं 
कि वह बंदों को गैर जरूरी मशक्कत में डाले। इसलिए माजूरी की हालत में पाकी के एहसास 
को ताजा करने के लिए तयम्मुम को काफी करार दिया गया । वुज़ू और गूल के सादा तरीके 
अल्लाह की बहुत बड़ी नेमत हैं। इस तरह तहारते शरई को तहारते तबई (भौतिक शुद्धता) के 
साथ जोड़ दिया गया है। माजूरी (विवशता) की हालत में तयम्मुम की इजाजत मजीद नेमत है 
क्योंकि यह गुलू (अतिवाद) से बचाने वाली है जिसमें अधिकतर धर्म मुब्तिला हुए । 


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और अपने ऊपर अल्लाह की नेमत को याद करो और उसके उस अहद को याद करो 
जो उसने तुमसे लिया है। जब तुमने कहा कि हमने सुना और हमने माना। और अल्लाह 
से डरो। बेशक अल्लाह दिलों की बात तक जानता है। ऐ ईमान वालो, अल्लाह के 
लिए कायम रहने वाले और इंसाफ के साथ गवाही देने वाले बनो। और किसी गिरोह 

की दुश्मनी तुम्हें इस पर न उभारे कि तुम इंसाफ न करो, इंसाफ करो। यही तकवा 



































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पारा 6 262 सूरा-5. अल-माइदह 


से ज्यादा करीब है और अल्लाह से डरो बेशक अल्लाह को ख़बर है जो तुम करते हो। 

जो लोग ईमान लाए और उन्होंने नेक अमल किया उनसे अल्लाह का वादा है कि उनके 
लिए बख्शिश है और बड़ा अज्र है। और जिन्होंने इंकार किया और हमारी निशानियों 
को झुठलाया ऐसे लोग दोजख़ वाले हैं। ऐ ईमान वालो, अपने ऊपर अल्लाह के एहसान 
को याद करो जब एक कौम ने इरादा किया कि तुम पर दस्तदराजी करे तो अल्लाह 

ने तुमसे उनके हाथ को रोक दिया। और अल्लाह से डरो और ईमान वालों को अल्लाह 
ही पर भरोसा करना चाहिए। (7-॥) 


ईमान एक अहद है जो बंदे और ख़ुदा के दर्मियान करार पाता है। बंदा यह वादा करता 
है कि वह दुनिया में अल्लाह से डरकर रहेगा और अल्लाह इसका जामिन होता है कि वह 
दुनिया व आखिरत में बंदे का कफील हो जाएगा । बंदे को अपने अहद में पूरा उतरने के लिए 
दो बातों का सुबूत देना है। एक यह कि वह कव्वामुल्लाह बन जाए । यानी वह ख़ुदा की बातों 
पर खूब कायम रहने वाला हो। उसका वुजूद हर मौके पर सहीतरीन जवाब पेश करे जो बंदे 
को अपने रब के लिए पेश करना चाहिए। वह जब कायनात को देखे तो उसका जेहन खुदा 
की कुदरतों और अज्मतों के तसबुर से सरशार हो जाए। वह जब अपने आपको देखे तो उसे 
अपनी जिगी सरापा फल और एहसान नजर आए। उसके जज्बात उमड़ेतो खुदा के लिए 
उमड़ें। उसकी तवज्जोहात किसी चीज को अपना मर्कज बनाएं तो खुदा को बनाएं। उसकी 
मुहब्बत ख़ुदा के लिए हो। उसके अंदेशे ख़ुदा से वाबस्ता हों। उसकी यादों में ख़ुदा समाया 
हुआ हो। वह ख़ुदा की इबादत व इताअत करे। वह खुदा के रास्ते में अपने असासे (पूंजी) 
को ख़र्च करे। वह अपने आपको ख़ुदा के दीन के रास्ते में लगाकर खुश होता हो। 

अहद पर कायम रहने की दूसरी शर्त बंदों के साथ इंसाफ है। इंसाफ का मतलब यह 
है कि किसी शख्स के साथ कमी बेशी किए बगैर वह सुलूक करना जिसका वह ब-एतबारे 
वाकया मुस्तहिक है। मामलात में हक को अपनाना न कि अपनी ख्राहिशात को। इस मामले 
में बदे को इतना ज्यादा पाबंद बनना है कि वह ऐसे मौकों पर भी अपने को इंसाफ से बांधे 
रहे जबकि वह दुश्मनों और बातिलपरस्तों से मामला कर रहा हो, जबकि शिकायतें और तल्ख़ 
यादें उसे इंसाफ के रास्ते से फेरने लगें। 

दुनिया में खुदा निशानियों की सूरत में जाहिर होता है। यानी ऐसे दलाइल (तर्को) की 
सूरत में जिसकी काट आदमी के पास मौजूद न हो। जब आदमी के सामने ख़ुदा की दलील 
आए और वह उसे मानने के बजाए लपजी तकरार करने लगे तो उसने खुदा की निशानी को 
झुठलाया। ऐसे लोग ख़ुदा के यहां सख्त सजा पाएंगे। और जिन लोगों ने उसे मान लिया वे 
ख़ुदा के इनाम के मुस्तहिक होंगे। 


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सूरा-5. अल-माइदह 263 पारा 6 
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और अल्लाह ने बनी इस्राईल से अहद (वचन) लिया और हमने उनमें बारह सरदार 
मुकरर किए। और अल्लाह ने कहा कि में तुम्हारे साथ हूं। अगर तुम नमाज कायम 
करोगे और जकात अदा करोगे और मेरे पेग़म्बरों पर ईमान लाओगे और उनकी मदद 
करोगे और अल्लाह को कर्जे हसन दोगे तो में तुमसे तुम्हारे गुनाह जरूर दूर करूंगा और 
तुम्हें जरूर ऐसे बागों में दाखिल करूंगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी। पस तुममें से 
जो शख्स इसके बाद इंकार करेगा तो वह सीधे रास्ते से भटक गया। पस उनकी 
अहदशिकनी की बिना पर हमने उन पर लानत कर दी और हमने उनके दिलों को सख्त 
कर दिया। वे कलाम को उसकी जगह से बदल देते हैं। और जो कुछ उन्हें नसीहत की 
गई थी उसका बड़ा हिस्सा वे भुला बैठै। और तुम बराबर उनकी किसी न किसी 
खियानत से आगाह होते रहते हो सिवाए थोड़े लोगों के। उन्हें माफ करो और उनसे 
दरगुजर करो, अल्लाह नेकी करने वालों को पसंद करता है। (2-3) 





बनी इस्राईल से उनके पैगम्बर के माध्यम से खुदापरस्ताना जिंदगी गुजारने का अहद 
लिया गया और उनके बारह कबाइल से बारह सरदार उनकी निगरानी के लिए मुक्रर किए 
गए। बनी इस्राईल से जो अहद लिया गया वह यह था कि वे नमाज के जरिये अपने को 
अल्लाह वाला बनाएं। वे जकात की सूरत में बंदों के हुकूक अदा करें। पैगम्बरों का साथ देकर 
वे अपने को अल्लाह की पुकार की जानिब खड़ा करें और अल्लाह के दीन की जदूदोजहद में 
अपना असासा (पूंजी) ख़र्च करें। इन कामों की अदायगी और अपने दर्मियान इनकी निगरानी 
का इज्तिमाई निजाम कायम करने के बाद ही वे खुदा की नजर में इसके मुस्तहिक थे कि खुदा 
उनका साथी हो। वह उन्हें पाक साफ करके इस काबिल बनाए कि वे जन्नत की लतीफ 
फजाओं में दाखिल हो सकें। जन्नत किसी को अमल से मिलती है न कि किसी किस्म के 
नस्ली तअल्लुक से। 

इस अहद में जिन आमाल का जिक्र है यही दीन के असासी (मूलभूत) आमाल हैं। यह वह 
शाहराह है जो तमाम इंसानों को खुदा और उसकी जन्नत की तरफ ले जाने वाली है। मगर जब 
आसमानी किताब की हामिल कौमों में बिगाड़ आता है तो वे इस शाहराह के दाएं बाएं मुड़ 
जाती हैं। अब यह होता है कि ख़ुदसाख़्ता तशरीहात (व्याख्याओं) के जरिये दीन का तसव्वुर 





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पारा 6 264 सूरा-5. अल-माइदह 


बदल दिया जाता है। इबादत के नाम पर गैर मुतअल्लिक बहसें शुरू हो जाती हैं । नजात के ऐसे 
रास्ते तलाश कर लिए जाते हैं जो बंदों के हुकूक अदा किए बगैर आदमी को मंजिल तक पहुंचा 

दें। दावते हक के नाम पर उनके यहां बेमअना किस्म के दुनियावी हंगामें जारी हो जाते हैं। वे 
दुनियावी इख़राजात की बहुत सी मदें बनाते हैं और उन्हीं को दीन के लिए ख़र्च का नाम दे देते 
हैं। दूसरे शब्दों में वे अपने दुनियावी हितों के मुताबिक एक दीन गढ़ते हैं और उसी को ख़ुदा का 
दीन कहने लगते हैं। जब कोई गिरोह बिगाड़ की इस नौबत तक पहुंचता है तो ख़ुदा अपनी 
तवज्जोह उससे हटा लेता है। खुदा की तौफीक से महरूम होकर ऐसे लोगों का हाल यह होता 

है कि वे सिर्फ अपनी ख़्वाहिशों की जबान समझते हैं और इसी में मसरूफ रहते हैं। यहां तक 

कि मौत का फरिश्ता आ जाता है ताकि उन्हें पकड़ कर खुदा की अदालत में पहुंचा दे। 


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और जो लोग कहते हैं कि हम नसरानी (ईसाई) हैं, उनसे हमने अहद लिया था। पस 
जो कुछ उन्हें नसीहत की गई थी उसका बड़ा हिस्सा वे भुला बैठे। फिर हमने कियामत 


तक के लिए उनके दर्मियान दुश्मनी और बुग्ज डाल दिया। और आख़िर अल्लाह उन्हें 
आगाह कर देगा उससे जो कुछ वे कर रहे थे। (4) 

















आसमानी किताब की हामिल कौमों पर जब बिगाड़ आता है तो वे दीन के मोहकम 
हिस्से को छोड़ कर उसके गैर मोहकम हिस्से पर दौड़ पड़ती हैं। इसका नतीजा दुनिया में 
इख्तिलाफ की सूरत में जाहिर होता है और आखिरत में रुस्वाई की सूरत में। 

मसीह अलैहिस्सलाम बाप के बगैर एक पाकबाज ख़ातून के बल से पैदा हुए। पैदाइश 
के बाद उन्होंने अपनी जबान से अपना जो तआरुफ कराया वह यह था “में अल्लाह का बंदा 
और उसका रसूल हूँ अब हजरत मसीह के बारे में राय कायम करने की एक सूरत यह है कि 
आपने अपने बारे में जो वाजेह अल्फाज फरमाए हैं उन्हीं की पाबंदी की जाए और आपको 
वही समझा जाए जो इन अल्फाज से बराहेरास्त तौर पर मालूम होता है। दूसरी सूरत यह है 
कि इस मामले में अपने कयास को दखल दिया जाए और कहा जाए कि इंसान वह है जो 
किसी बाप का बेटा हो। मसीह किसी बाप के बेटे न थे। इसलिए वह ख़ुदा के बेटे थे” पहली 
राय की बुनियाद ख़ुद मसीह का मोहकम और मुस्तनद कौल है इसलिए अगर उसे इख्तियार 
किया जाए तो उसमें इख़्तिलाफ पैदा न होगा। जबकि दूसरी राय की बुनियाद महज इंसानी 
कयास पर है। इसलिए जब दूसरी राय को इख्ियार किया जाएगा तो राय का इख़्तिलाफ शुरू 
हो जाएगा, जैसा कि मसीह के मानने वालों के साथ बाद के जमाने में हुआ। 

आसमानी किताब की हामिल किसी कौम में जब बिगाड़ आता है तो उसके अंदर इसी 
किस्म की ख़राबियां शुरू हो जाती हैं। वे मोहकम दीन को छोड़कर कयासी दीन पर चल 


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सूरा-5. अल-माइदह 265 पारा 6 


पड़ती हैं। यहीं से इख्लिलाफ और फिरकाबंदियोका दरवाज खुल जाता है। फिक्ह और कलाम, 

रूहानियत और सियासत में ख़ुदा व रसूल ने जो खुले हुए अहकाम दिए हैं लोग उनके सादा 
मफहूम पर कानेअ नहीं रहते बल्कि बतौर खुद नई-नई बहसें निकालते हैं। कभी जमाने के 

ख्यालात से मुतअस्सिर होकर, कभी अपनी दुनियावी ख़्वाहिशों को दीनी जवाज अता करने के 
लिए। कभी खुद से खुदा के नाकिस दीन को कामिल बनाने के लिए, अपनी तरफ से ऐसी बातें 

दीन में दाखिल कर दी जाती हैं जो हकीकतन दीन का हिस्सा नहीं होतीं । इस तरह नए-नए दीनी 
एडीशन तैयार हो जाते हैं। कोई रूहानी एडीशन, कोई सियासी एडीशन, कोई और एडीशन। 
हर एक के गिर्द उसके मुवाफिक जोक रखने वाले लोग जमा होते रहते हैं। बिलआहिर उनका 

एक फिरका बन जाता है। उनकी बाद की नस्लें इसे असलाफ (पूर्वजों) का वरसा समझकर 

उसकी हिफाजत शुरू कर देती हैं। यहां तक कि वह वक्‍त आ जाता है कि वह कियामत तक 

कभी ख़त्म न हो। क्योंकि इंसान माजी (अतीत) को हमेशा मुकदूदस (पवित्र) समझ लेता है और 

जो चीज मुकदूदस बन जाए वह कभी खुम नहीं होती। मजहब के नाम पर फिरकबंदी एक 

तरफ मुकदूदस होकर अबदी बन जाती है। दूसरी तरफ खुदा का हुम बनकर दूसरों के खिलाफ 

नफरत और जारिहियत (आक्रामकता) का इजाजतनामा भी। 


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ऐ अहले किताब, तुम्हारे पास हमारा रसूल आया है। वह किताबे इलाही की बहुत 
सी उन बातों को तुम्हारे सामने खोल रहा है जिन्हें तुम छुपाते थे। और वह दरगुजर 
करता है बहुत सी चीजों से। बेशक तुम्हारे पास अल्लाह की तरफ से एक रोशनी 
और एक जाहिर करने वाली किताब आ चुकी है। इसके जरिए से अल्लाह उन लोगों 
को सलामती की राहे दिखाता है जो उसकी रिजा के तालिब हैं और अपनी तौफीक 
से उन्हें अंधेरों से निकाल कर रोशनी में ला रहा है और सीधी राह की तरफ उनकी 
रहनुमाई करता है। बेशक उन लोगों ने कुफ्र किया जिन्होंने कहा कि ख़ुदा ही तो 


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पारा 6 266 सूरा-5. अल-माइदह 


मसीह इब्ने मरयम है। कहो फिर कौन इख्तियार रखता है अल्लाह के आगे अगर 
वह चाहे कि हलाक कर दे मसीह इब्ने मरयम को और उसकी मां को और जितने 
लोग जमीन में हैं सब को। और अल्लाह ही के लिए है बादशाही आसमानों और 
जमीन की और जो कुछ इनके दर्मियान है। वह पेदा करता है जो कुछ चाहता है और 
अल्लाह हर चीज पर कादिर है। (॥5-7) 





अहले किताब ने अपने दीन में दो किस्म की गलतियां कीं। एक यह कि कुछ तालीमात 
को तावील या तहरीफ (परिवर्तन) के जरिए दीन से खारिज कर दिया। मसलन उन्होंने अपनी 
किताब में ऐसी तब्दीलियां कीं कि अब उन्हें अपनी नजात के लिए किसी और पैगम्बर को 
मानने की जरूरत न थी। अपने आबाई (पैतृक) मजहब से वाबस्तगी उनकी नजात के लिए 
बिल्कुल काफी थी। दूसरे यह कि उन्होंने दीन के नाम पर ऐसी पाबंदियां अपने ऊपर डाल 
लीं जो खुदा ने उनके ऊपर न डाली थीं। मिसाल के तौर पर कुर्बानी की अदायगी के वे जुजई 
(अमौलिक) मसाइल जिनका हुक्म उनके नबियों ने उन्हें नहीं दिया था बल्कि उनके उलमा ने 
अपनी फिद्च मृतिगफ्सि (कुतर्को) से बतौर ख़ुद उन्हें गढ़ लिया। 

कुरआन उनके लिए एक नेमत बनकर आया। इसने उनके लिए दीने खुदावंदी की 
'तजदीद' (नवीनीकरण) की। कुरआन ने उन्हें उस अंधेरे से निकाला कि वे ऐसे रास्ते पर 
चलते रहे जिसके मुतअल्लिक वह इस खुशफहमी में हों कि वह जन्नत की तरफ जा रहा है, 
हालांकि वह उन्हें खुदा के गजब की तरफ ले जा रहा हो। कुरआन ने एक तरफ उनकी खोई 
हुई तालीमात को उनकी असली सूरत में पेश किया। दूसरी तरफ कुरआन ने यह किया कि 
उन्होंने अपने आपको जिन गैर जरूरी दीनी पाबंदियों में मुब्तला कर लिया था उससे उन्हें 
आजाद किया। अब जो लोग अपनी ख़्वाहिशों की पैरवी करें वे बदस्तूर अंधेरों में भटकते 
रहेंगे। और जिन्हें अल्लाह की रिजा की तलाश हो वे हक की सीधी राह को पा लेंगे। वे 
अल्लाह की तौफीक से अपने आपको तारीकी से निकाल कर रोशनी में लाने में कामयाब हो 
जाएंगे। हक का हक होना और बातिल का बातिल होना अपनी कामिल सूरत में जाहिर किया 
जाता है। मगर वह हमेशा दलील की जबान में होता है। और दलील उन्हीं लोगों के जेहन का 
जुज बनती है जो उसके लिए अपने जेहन को खुला रखें। 

ख़ुदा को छोड़कर इंसानों ने जो ख़ुदा बनाए हैं उनमें से हर एक का यह हाल है कि वे 
न कोई चीज बतौर ख़ुद पैदा कर सकते हैं और न किसी चीज को बतौर ख़ुद मिटा सकते हैं। 
यही वाकया यह साबित करने के लिए काफी है कि एक ख़ुदा के सिवा कोई ख़ुदा नहीं। जो 
हस्तियां पैदाइश और मौत पर कादिर न हों वे खुदा किस तरह हो सकती हैं। 


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सूरा-5. अल-माइदह 267 पारा 6 


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और यहूद व नसारा कहते हैं कि हम ख़ुदा के बेटे और उसके महबूब हैं। तुम कहो कि 
फिर वह तुम्हारे गुनाहों पर तुम्हें सजा क्यों देता है। नहीं बल्कि तुम भी उसकी पेदा 
की हुई मख्लूक में से एक आदमी हो। वह जिसे चाहेगा बख्शेगा और जिसे चाहेगा 
अजाब देगा। और अल्लाह ही के लिए है बादशाही आसमानों और जमीन की और जो 
कुछ इनके दर्मियान है और उसी की तरफ लौट कर जाना है। ऐ अहले किताब, तुम्हारे 
पास हमारा रसूल आया है, वह तुम्हें साफसाफ बता रहा है रसूलो के एक ववफा के 
बाद। ताकि तुम यह न कहो कि हमारे पास कोई खुशखबरी देने वाला और डर सुनाने 


वाला नहीं आया। पस अब तुम्हारे पास खुशखबरी देने वाला और डराने वाला आ गया 
है और अल्लाह हर चीज पर कादिर है। (8-9) 





जो कौम किताब और पैगम्बर की हामिल (धारक) बनाई जाए और वह उसे मानने का सुबूत 
दे दे तो उस पर ख़ुदा की बहुत सी नेमतें नाजिल होती हैं। मुखालिफीन के मुकाबले में खुसूसी 
नुसरत, जमीन पर इक्तेदार, मग्फिरत और जन्नत का वादा, वगैरह । कौम के इब्तिदाई लोगों के 
लिए यह उनके अमल का बदला होता है। उन्होंने अपने आपको ख़ुदा के हवाले किया इसलिए 
ख़ुदा ने उन पर अपनी नेमतें बरसाई । मगर बाद की नस्लों में सूरतेहाल बदल जाती है अब उनके 
लिए सारा मामला कौमी मामला बन जाता है। अव्वलीन लोगों को जो चीज अमल के सबब से 
मिली थी, बाद के लोग कौमी और नस्ली तअल्लुक की बिना पर अपने को उसका मुस्तहिक समझ 
लेते हैं। वे यकीन कर लेते हैं कि वे खुदा के ख़ास लोग हैं और वे चाहे कुछ भी करें खुदा की नेमतें 
उन्हें मिलकर रहेंगी हामिले किताब कीमों को इस गलतफहमी से निकालने की खातिर खुदा ने 
उनके लिए यह खुसूसी कायदा मुरकर किया है कि उनकी जजा का आगाज इसी दुनिया से शुरू 
हो जाता है। ऐसे लोग इसी मौजूदा दुनिया में देख सकते हैं कि आने वाली दुनिया में उनका ख़ुदा 
उनके साथ क्या मामला करने वाला है। अगर वे दुनिया में अपने दुश्मनों पर ग़ालिब आ रहे हों 
तो वे खुदा के मकबूल गिरोह हैं और अगर उनके दुश्मन उन पर ग़लबा पा लें तो वे ख़ुदा के 
नामकबूल गिरोह हैं। कोई हामिले किताब गिरोह तादाद की अधिकता के बावुजूद अगर दुनिया 
में मग्लूब और जलील हो रहा हो तो उसे हरगिज यह उम्मीद न रखना चाहिए कि आखिरत में 
वह सखुलन्द और बाइज्जत रहेगा। 

किसी कौम को बहैसियत कौम के खुदा का महबूब समझना सरासर बातिल ख्याल है। ख़ुदा 
के यहां फर्दफर्द का हिसाब होना है न कि कौम-कौम का। हर आदमी जो कुछ करेगा उसी 
के मुताबिक वह ख़ुदा के यहां बदला पाएगा। हर आदमी अल्लाह की नजर में बस एक इंसान 





पारा 6 268 सूरा-5. अल-माइदह 


है, चाहे वह इस कैम से तअल्लुक रखता हो या उस कौम से। हर आदमी के मुस्तकबिल का 

फैसला इस बुनियाद पर किया जाएगा कि इम्तेहान की दुनिया में उसने किस किस्म की कारकर्दगी 

का सुबूत दिया है। जन्नत किसी का कौमी वतन नहीं और जहन्नम किसी का कौमी जेलख़ाना 

नहीं। अल्लाह के फैसले का तरीका यह है कि वह अपनी तरफ से ऐसे अफराद उठाता है जो 

लोगों को जिंदगी की हकीकत से आगाह करते हैं। उन्हें जहन्नम से डराते हैं और जन्नत की 

खुशख़बरी देते हैं। ख़ुदा के इसी बशीर व नजीर (ख़ुशख़बरी देने और डराने वाला) का साथ 
देकर आदमी ख़ुदा को पाता है न कि किसी और तरीके से। 


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और जब मूसा ने अपनी कीम से कहा कि ऐ मेरी कौम, अपने ऊपर अल्लाह के एहसान 

को याद करो कि उसने तुम्हारे अंदर नबी पेदा किए। और तुम्हें बादशाह बनाया और 
तुम्हें वह दिया जो दुनिया में किसी को नहीं दिया था। ऐ मेरी कौम, इस पाक जमीन 

में दाखिल हो जाओ जो अल्लाह ने तुम्हारे लिए लिख दी है। और अपनी पीठ की तरफ 

न लौटो वर्ना नुक्सान में पड़ जाओगे। उन्होंने कहा कि वहां एक जबरदस्त कौम है। 

हम हरगिज वहां न जाएंगे जब तक वे वहां से निकल न जाएं। अगर वे वहां से निकल 
जाएं तो हम दाखिल होंगे। दो आदमी जो अल्लाह से डरने वालों में से थे और उन दोनों 
पर अल्लाह ने इनाम किया था, उन्होंने कहा कि तुम उन पर हमला करके शहर के 
फाटक में दाखिल हो जाओ। जब तुम उसमें दाखिल हो जाओगे तो तुम ही गालिब 
होगे और अल्लाह पर भरोसा करो अगर तुम मोमिन हो। उन्होंने कहा कि ऐ मूसा हम 
कभी वहां दाख़िल न होंगे जब तक वे लोग वहां हैं। पस तुम और तुम्हारा खुदावंद दोनों 
जाकर लड़ो, हम यहां बैठे हैं। (20-24) 





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सूरा-5. अल-माइदह 269 पारा 6 





अल्लाह का यह तरीका है कि वह अपने पैगाम को लोगों तक पहुंचाने के लिए किसी गिरोह 
को चुन लेता है। इस गिरोह के अंदर वह अपने पैग़म्बर और अपनी किताब भेजता है और 
उसे नियुक्त करता है कि वह इस पैग़ाम को दूसरों तक पहुंचाए। जिस तरह “वही” (ईश्वरीय 
वाणी) एक ख़ास शख्स पर उतरती है उसी तरह “वही” का हामिल भी एक ख़ास गिरोह को बनाया 
जाता है। कदीम (प्राचीन) जमाने में यह ख़ास हैसियत बनी इस्राईल को हासिल थी और आखिरी 
नबी मुहम्मद (सल्ल०) के बाद उम्मते मुहम्मदी इस ख़ुसूसी मंसब पर मामूर (नियुक्त) है। 
अल्लाह को जिस तरह यह मत्लूब है कि कोई कौम उसके दीन की नुमाइंदगी करे । इसी तरह 

उसे यह भी मत्लूब है कि जो कौम उसके दीन की नुमाइंदा हो वह दुनिया में बाइज्जत और सरबुलन्द 
हो ताकि लोगों पर यह बात स्पष्ट हो सके कि कियामत के बाद जो नया और अबदी आलम बनेगा 
उसमेंहर किस्म की सरफाजियांसिर्फअहलेहक कोहासिल हँग । बाकी लोग म॒लूब करकेखुा 
की रहमतों से दूर फेंक दिए जाएंगे । ताहम इस गिरोह को यह दुनियावी इनाम एकतरफा तौर पर 
नहीं दिया जाता इसके लिए उसे इस्तहकाक (पात्रता) के इम्तेहान में खड़ा होना पड़ता है। उसे 
अमली तौर पर यह साबित करना पड़ता है कि वह हर हाल में अल्लाह पर एतमाद करने वाला 
और सब्र की हद तक उसकी मर्जी पर कायम रहने वाला है। 

बनी इस्राईल जब तक इस मेयार पर कायम रहे उन्हें खुदा ने उनकी हरीफ कौमों पर 
ग़ालिब किया। यहां तक कि एक जमाने तक वे अपने वक्त की मुहज्जब दुनिया में सबसे 
ज्यादा सखबुलन्द हैसियत रखते थे। मगर हजरत मूसा तशरीफ लाए तो बनी इस्राईल पर 
जवाल आ चुका था। इम्तेहान के वक्त उनकी अक्सरियत अल्लाह पर एतमाद और सब्र का 
सुबूत देने के लिए तैयार न हुई। यहां तक कि उनका एक तबका अल्लाह और उसके रसूल 
के सामने गुस्ताख़ी करने लगा। उनके दिल में अल्लाह से भी ज्यादा दुनिया की ताकतवर 
कौमों का डर समाया हुआ था। जब ख़ुदा का कोई नुमाइंदा गिरोह खुदा के काम के लिए 
कुर्बानी न दे तो गोया वह चाहता है कि खुदा ख़ुद जमीन पर उतरे और अपने दीन का काम 
ख़ुद अंजाम दे, चाहे वह बनी इस्राईल के कुछ लोगों की तरह इस बात को जबान से कह दे 
या दूसरे लोगों की तरह जबान से न कहे बल्कि सिर्फ अपने अमल से उसे जाहिर करे। 


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मूसा ने कहा कि ऐ मेरे रब, अपने और अपने भाई के सिवा किसी पर मेरा इख्तियार 
नहीं। पस तू हमारे और इस नाफरमान कौम के दर्मियान जुदाई कर दे। अल्लाह ने 

कहा : वह मुल्क उन पर चालीस साल के लिए हराम कर दिया गया। ये लोग जमीन 

में भटकते फिरी। पस तुम इस नाफरमान कोम पर अफसोस न करो। (25-26) 


पारा 6 270 सूरा-5. अल-माइदह 





बनी इस्राईल जब हजरत मूसा की कयादत में मिस्र से निकल कर सीना रेगिस्तान में 
पह तो उस जमाने में शाम व फिलिस्तीन के इलाके में एक जलिम कैम (अमालिक) की 
हुकूमत थी। अल्लाह ने बनी इस्राईल से कहा कि ये जालिम लोग अपनी उम्र पूरी कर चुके 
हैं। तुम इनके मुल्क में दाखिल हो जाओ, तुम्हें खुदा की मदद हासिल होगी और तुम मामूली 
मुकाबले के बाद उनके ऊपर कब्जा पा लोगे। मगर बनी इम्नाईल पर उस कौम की ऐसी हैबत 
तारी थी कि वे उनके मुल्क में दाखिल होने के लिए तैयार न हुए। इसका मतलब यह था कि 
वे अल्लाह से ज्यादा इंसानों से डरते थे। इसके बाद अल्लाह की नजर में उनकी कोई कीमत 
न रही। अल्लाह ने उनके बारे में फैसला कर दिया कि वे चालीस साल (440-400 ई०पू०) 
तक फारान और शर्के उरदेन के दर्मियान सहरा में भटकते रहेंगे। यहां तक कि 20 साल से 
लेकर ऊपर की उम्र तक के सारे लोग ख़त्म हो जाएंगे। इस दौरान उनकी नई नस्ल नए 
हालात में परवरिश पाकर उठेगी। चुनांचे ऐसा ही हुआ। 40 साल की सहराई जिंदगी में इनके 
तमाम बड़ी उम्र वाले मर कर ख़त्म हो गए। इसके बाद उनकी नई नस्ल ने योशअ बिन नून 
की कयादत में शाम व फिलिस्तीन को फतह किया। यह योशअ बिन नून उन दो सालेह 
इस्राईलियों में से एक हैं जिन्होंने अपनी कौम से कहा था कि तुम अल्लाह पर भरोसा करते 
हुए अमालिका के मुल्क में दाखिल हो जाओ। 

बनी इस्राईल ने हजरत मूसा से कहा था कि अगर हम इस मुल्म पर हमला करें तो हमें 
शिकस्त होगी और इसके बाद 'हमारे बच्चे लूट का माल ठहरेंगे' मगर यही बच्चे बड़े होकर 
अमालिका के मुल्क में दाल हुए और उस पर कब्जा किया । बच्चों में यह ताकत इसलिए पैदा 
हुई कि उन्हेंनि लम्बी मुददत तक सहराई (रेगिस्तानी) जिंदगी की मशवकतों को बर्दाश्त किया 
था। बच्चों के बाप जिन पुरख़तर हालात को अपने बच्चों के हक में मौत समझते थे उन्हीं 
पुरखतर हालात के अंदर दाखिल होने में उनके बच्चों को जिंदगी का राज छुपा हुआ था। 

मुवाफिक हालात में जीना बजाहिर बहुत अच्छा मालूम होता है। मगर हकीकत यह है 
कि आदमी के अंदर तमाम बेहतरीन औसाफ उस वक्त पैदा होते हैं जबकि उसे हालात का 
मुकाबला करके जिंदा रहना पड़े। मिम्न में बनी इस्राईल सदियों तक सुरक्षित जिंदगी गुजारते 
रहे। इसका नतीजा यह हुआ कि वे एक मुर्दा कौम बन गए। मगर विस्थापन के बाद उन्हें 
जो सहराई जिंदगी हासिल हुई उसमें जिंदगी उनके लिए सरापा चेलेन्ज थी। इन हालात में जो 
लोग बचपन से जवानी की उम्र को पहुंचे वे कुदरती तौर पर बिल्कुल दूसरी किस्म के लोग 
थे। सहराई हालात ने उनके अंदर सादगी, हिम्मत, जफाकशी और हकीकतपसंदी पैदा कर दी 
थी। और यही वे औसाफ हैं जो किसी कैम को जिंदा कौम बनाते हैं। कोई कैम अगर हालात 
के नतीजे में मुर्दा कीम बन जाए तो उसे दुबारा जिंदा कौम बनाने के लिए गैर मामूली हालात 
में डाल दिया जाता है। 














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सूरा-5. अल-माइदह 27I पारा 6 


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और उन्हें आदम के दो बेटों का किस्सा हक के साथ सुनाओ। जबकि उन दोनों ने 
वुर्बानी पेश की तो उनमे से एक की कुर्बानी वुछूल हुई और दूसरे की वुर्बानी वुब्बूल 
न हुई। उसने कहा मैं तुझे मार डालूंगा। उसने जवाब दिया कि अल्लाह तो सिर्फ 
मुत्तकियाँ से कुबूल करता है। अगर तुम मुझे कत्त करने के लिए हाथ उठाओगे तो में 
तुम्हें कत्ल करने के लिए तुम पर हाथ नहीं उठाऊगा। में डरता हूं अल्लाह से जो सारे 
जहान का रब है। में चाहता हूं की मेरा और अपना गुनाह तू ही ले ले फिर तू आग 
वालों में शामिल हो जाए। और यही सजा है जुल्म करने वालों की। (27-29) 








अल्लाह के लिए जो अमल किया जाए उसका असल बदला तो आखिरत में मिलता है, 
ताहम कभी-कभी दुनिया में भी ऐसे वाकेआत जाहिर होते हैं जो बताते हैं कि आदमी का 
अमल ख़ुदा के यहां मकबूल हुआ या नहीं। आदम के बेटों में से काबील और हाबील के साथ 
भी ऐसी ही सूरत पेश आई। काबील किसान था और हाबील भेड़-बकरियों का काम करता 
था, हाबील ने अपनी महनत की कमाई अल्लाह के लिए दी। वह अल्लाह के यहां मकबूल 
हुई और इसकी बरकत उसकी जिंदगी और उसके काम में जाहिर हुई। काबील ने भी अपनी 
जराअत (कृषि) में से कुछ अल्लाह के लिए पेश किया मगर वह कुबूल न हुआ और वह ख़ुदा 
की बरकत पाने से महरूम रहा। यह देखकर काबील के दिल में अपने छोटे भाई हाबील के 
लिए हसद पैदा हो गया। यह हसद इतना बढ़ा कि उसने हाबील से कहा कि मैं तुम्हें जान 
से मार डालूंगा। हाबील ने कहा कि तुम्हारी कुर्बानी कुबूल न होने का सबब यह है कि तुम्हारे 
दिल में ख़ुदा का ख़ौफ नहीं। तुम्हें मेरे पीछे पड़ने के बजाए अपनी इस्लाह की फिक्र करनी 
चाहिए । मगर हसद और बुग्ज की आग जब किसी के अंदर भड़कती है तो वह उसे इस 
काबिल नहीं रखती कि वह अपनी गलतियों का जायजा ले। वह बस एक ही बात जानता है 
: यह कि जिस तरह भी हो अपने काल्पनिक प्रतिपक्षी का ख़ात्मा कर दे। 

हाबील ने काबील से कहा कि तुम चाहे मेरे कत्ल के लिए हाथ बढ़ाओ, मैं तुम्हारे कत्ल के 
लिए हाथ नहीं बढ़ाऊंगा । इसकी वजह यह है कि मुसलमान और मुसलमान की बाहमी लड़ाई को 
अल्लाह ने सरासर हराम करार दिया है। यहां तक कि अगर एक मुसलमान अपने दूसरे भाई के 
कत्ल के दरे होजाए तो उस वकत भी अजीमत (उच्चआचरण) यह है कि दूसरा भाई अपने 





पारा 6 272 सूरा-5. अल-माइदह 


भाई के खून को अपने लिए हलाल न करे। वह अपनी तरफ से आक्रामक पहल न करके बाहमी 
टकराव को पहले ही मरहले में ख़त्म कर देगा इसके बरअक्स अगर वह भी जवाब में जारिहियत 
करने लगे तो मुस्लिम मुआशिरे के अंदर अमल और रद्देअमल का अंतहीन सिलसिला शुरू हो 
जाएगा । लेकिन हमलाआवर अगर गैर मुस्लिम हो तो उस वक्त ऐसा करना दुरुस्त नहीं। इसी 
तरह जब दीनी दुश्मनों की तरफ से जारिहियत (आक्रामकता) की जाए तो मुस्लिम और गैर 
मुस्लिम का फर्क किए बगैर ऐसे लोगों से भरपूर मुकाबला किया जाएगा। 

दो मुसलमान जब एक दूसरे की बर्बादी के दरपे हों तो गुनाह दोनों के दर्मियान तक़्सीम 
हो जाता है। लेकिन अगर ऐसा हो कि एक मुसलमान दूसरे मुसलमान की बर्बादी की 
कार्रवाईयां करे और दूसरा मुसलमान सब्र और दुआ में मशगूल हो तो पहला शख्स न सिफ 
अपने गुनाह का बोझ उठाता है बल्कि दूसरे शख्स के उस मुमकिन गुनाह का बोझ भी उसके 
ऊपर डाल दिया जाता है जो सब्र और दुआ के तरीके पर न चलने की सूरत में वह करता। 








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फिर उसके नफ्स ने उसे अपने भाई के कत्ल पर राजी कर लिया और उसने उसे कत्ल कर 
डाला । फिर वह नुक्सान उठाने वालों में शामिल हो गया। फिर ख़ुदा ने एक कौवे को भेजा 
जो जमीन में कुरेदता था ताकि वह उसे दिखाए कि वह अपने भाई की लाश को किस 
तरह छुपाए। उसने कहा कि अफसोस मेरी हालत पर कि मैं इस कोवे जैसा भी न हो सका 
कि अपने भाई की लाश को छुपा देता। पस वह बहुत शर्मिन्दा हुआ। (30-3) 


दुनिया में जो कुछ किसी को मिलता है ख़ुदा की तरफ से मिलता है। इसलिए किसी को 
अच्छे हाल में देख कर जलना और उसके नुक्सान के दरपे होना गोया ख़ुदा के मंसूबे को बातिल 
करने की कोशिश करना है। ऐसा आदमी अगरचे मौजूदा इम्तेहान की दुनिया में एक हद तक 
अमल करने का मौका पाता है। मगर ख़ुदा की नजर में वह बदतरीन मुजरिम है। हाबील ने अपने 
बड़े भाई को इस हकीकत की तरफ तवज्जोह दिलाई। इसके बाद उसके दिल में झिझक पैदा हुई। 
उसे महसूस हुआ कि वह वाकई बिना सबब अपने भाई को मार डालना चाहता है। मगर उसके 
हसद का जज्बा ठंडा न हो सका। उसने अपने जेहन में ऐसे उजरात (तर्क) गढ़ लिए जो उसके 
लिए अपने भाई के कत्ल को जाइज साबित कर सकें। उसकी अंदरूनी कशमकश ने अंततः 
स्वनिर्मित तौजीहात में अपने लिए तस्कीन तलाश कर ली और उसने अपने भाई को मार डाला। 
जमीर की आवाज खुरा की आवाज है। जमीर (अन्तरात्मा) के अंदर किसी अमल के बारे में 
सवाल पैदा होना आदमी का इम्तेहान के मैदान में खड़ा होना है। अगर आदमी अपने जमीर की 





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सूरा-5. अल-माइदह 273 पारा 6 


आवाज पर लब्बैक कहे तो वह कामयाब हुआ। और अगर उसने झूठे अल्फाज का सहारा लेकर 
जमीर की आवाज को दबा दिया तो वह नाकाम हो गया। 

हदीस में है कि ज्यादती और संबंध तोड़ना ऐसे गुनाह हैं कि उनकी सजा इसी मौजूदा दुनिया 
से शुरू हो जाती है। काबील ने अपने भाई के साथ जो नाहक जुल्म किया था उसकी सजा 
उसे न सिफ आख़िरत में मिली बल्कि इसी दुनिया से उसका अंजाम शुरू हो गया मुजाहिद और 
जुबैर ताबई (सहाबा के अनुयायी) से मंकूल है कि कत्ल के बाद काबील का यह हाल हुआ कि 
उसकी पिंडली उसकी रान से चिपक गई। वह असहाय जमीन पर पड़ा रहता, यहां तक कि 
इसी हाल में जिल्लत और तकलीफ के साथ मर गया। (इने कसीर) 

काबील को कौवे के जरिए यह तालीम दी गई कि वह लाश को जमीन के नीचे दफन 
कर दे। यह इस बात की तरफ इशारा था कि इंसान फितरत के रास्ते को जानने के मामले 
में जानवर से भी ज्यादा कम अक्ल है। इसके बावुजूद वह अपने जज्बात के पीछे चलता है 
तो उससे ज्यादा जलिम और कोई नहीं। साथ ही इसमें इस हकीकत की तरफ भी लतीफ 
इशारा है कि जुर्म से पहले अगर आदमी जुर्म के इरादे को अपने सीने के अंदर दफन कर दे 
तो उसे शर्मिन्दगी न उठाना पड़े। आदमी को चाहिए कि वह दिल के एहसास को दिल के 
अंदर दबाए, उसे दिल से बाहर आकर वाकया न बनने दे। बुरे एहसास को दिल के बाहर 
निकालने से पहले तो सिर्फ एहसास को दफन करना पड़ता है। लेकिन अगर उसने उसे बाहर 
निकाला तो फिर एक जिंदा इंसान की 'लाश' को दफन करने का मसला उसके लिए पैदा हो 
जाएगा। जो दफन होकर भी खुदा के यहां दफन नहीं होता। 


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इसी सबब से हमने बनी इस्राईल पर यह लिख दिया कि जो शख्स किसी को कत्ल 


करे, कौर इससे कि उसने किसी को कत्ल किया हो या जमीन में फसाद बरपा किया 
हो तो गोया उसने सारे आदमियाँ को कत्ल कर डाला और जिसने एक शख्स को बचाया 





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पारा 6 274 सूरा-5. अल-माइदह 


तो गोया उसने सारे आदमियों को बचा लिया। और हमारे पैग़म्बर उनके पास खुले 
अहकाम लेकर आए। इसके बावुजूद उनमें से बहुत से लोग जमीन में ज्यादतियां करते 

हैं। जो लोग अल्लाह और उसके रसूल से लड़ते हैं और जमीन में फसाद करने के लिए 

दौड़ते हैं उनकी सजा यही है कि उन्हें कत्ल किया जाए या वे सूली पर चढ़ाए जाएं या 

उनके हाथ और पेर विपरीत दिशा से काटे जाएं या उन्हें मुल्क से बाहर निकाल दिया 
जाए। यह उनकी रुस्वाई दुनिया में हे और आखिरत में उनके लिए बड़ा अजाब है। 
मगर जो लोग तोबा कर लें तुम्हारे काबू पाने से पहले तो जान लो कि अल्लाह बस्शने 
वाला महरबान है। (३2-३4) 





कोई शख्स जब किसी शख्स को कत्ल करता है तो वह सिर्फ एक इंसान का कातिल 
नहीं होता बल्कि तमाम इंसानों का कातिल होता है। क्योंकि वह हुरमत (मनाही) के उस 
कानून को तोड़ता है जिसमें तमाम इंसानों की जिंदगियां बंधी हुई हैं। इसी तरह जब कोई 
शख्स किसी को जालिम के जुल्म से नजात देता है तो वह सिर्फ एक शख्स को नजात 
देने वाला नहीं होता बल्कि तमाम इंसानों को नजात देने वाला होता है। क्योंकि उसने 
इस उसूल की हिफाजत की कि तमाम इंसानों की जान मोहतरम (सम्मानीय) है। किसी 
को किसी के ऊपर हाथ उठाने का हक नहीं। जब कोई शख्स किसी की इज्जत या उसके 
माल या उसकी जान पर हमला करे तो इसका मतलब यह है कि मुआशिरे के अंदर हंगामी 
हालत पैदा हो गई है। मुसलमानों को चाहिए कि ऐसे किसी एक वाकथे को भी इस नजर 
से देखें गोया सारे लोगों की जान और माल और आवरू ख़तरे में है। किसी मुआशिरे 
में एक दूसरे के एहतराम की रिवायात लम्बी तारीख़ के नतीजे में बनती हैं। और अगर 
एक बार ये रिवायतें टूट जाएं तो दुबारा लम्बी तारीख़ के बाद ही उन्हें मुआशिरे के अंदर 
कायम किया जा सकता है। जो लोग मुआशिरे के अंदर फसाद की रिवायत कायम करें 
वे मुआशिरे के सबसे बड़े दुश्मन हैं। 

खुदा ने अपनी दुनिया का निजाम जिस उसूल पर कायम किया है वह यह है कि हर एक 
अपने हिस्सा का फर्ज अंजाम दे। कोई शख्स दूसरे के दायरे में बेजा मुदाख़लत (हस्तक्षेप) न 
करे। तमाम जमादात और हैवानात इसी फितरत पर अमल कर रहे हैं। इंसान को भी पैग़म्बरों 
के जरिये ये हिदायतें वाजेह तौर पर बता दी गई हैं। मगर इंसान जो कि दीगर मख्लूकात के 
बरअक्स वक्ती तौर पर आजाद रखा गया है, सरकशी करता है और इस तरह फितरत के 
निजाम में फसाद पैदा करता है। ऐसे लोग खुदा की नजर में सखन मुजरिम हैं। और वे लोग 
और भी ज्यादा बड़े मुजरिम हैं जो ख़ुदा और रसूल से जंग करें। यानी ख़ुदा अपने बंदों के 
दर्मियान ऐसी दावत उठाए जो लोगों को मुपिसदाना तरीकों से बचने और फितरते खुदावंदी पर 
जिंदगी गुजारने की तरफ बुलाती हो तो वे उसका रास्ता रोकें और उसके खिलाफ तख़रीबी 
कार्रवाईयां करें। ऐसे लोगों के लिए दुनिया में इबरतनाक सजा है और आखिरत में भड़कती 
हुई आग। 











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सूरा-5. अल-माइदह 275 पारा 6 
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ऐ ईमान वालो, अल्लाह से डरो और उसका कुर्ब (समीपता) तलाश करो और उसकी 
राह में जदूदोजहद करो ताकि तुम फलाह पाओ। बेशक जिन लोगों ने कुफ्र किया है 

अगर उनके पास वह सब कुछ हो जो जमीन में है और इतना ही और हो ताकि वे उसे 
फिदये (अर्थदण्ड) में देकर कियामत के दिन के अजाब से छूट जाएं तब भी वह उनसे 

कुबूल न की जाएगी और उनके लिए दर्दनाक अजाब है। वे चाहेंगे कि आग से निकल 

जाएं मगर वे उससे निकल न सकेंगे और उनके लिए एक मुस्तकिल अजाब है। और 

चोर मर्द और चोर औरत दोनों के हाथ काट दो। यह उनकी कमाई का बदला है और 
अल्लाह की तरफ से इबरतनाक सजा। और अल्लाह ग़ालिब और हकीम (तत्वदर्शी) 
है। फिर जिसने अपने जुल्म के बाद तोबा की और इस्लाह कर ली तो अल्लाह बेशक 
उस पर तवज्जोह करेगा। और अल्लाह बस्शने वाला महरबान है। क्या तुम नहीं जानते 
कि अल्लाह जमीन और आसमानाँ की सल्तनत का मालिक है। वह जिसे चाहे सजा 

दे और जिसे चाहे माफ कर दे। और अल्लाह हर चीज पर कादिर है। (35-40) 



































बंदे के लिए सबसे बड़ी चीज अल्लाह की कुरबत (समीपता) है। यह कुरबत अपनी 
महसूस और कामिल सूरत में तो आख़िरत में हासिल होगी। ताहम किसी बंदे का अमल जब 
उसे अल्लाह से करीब करता है तो एक लतीफ एहसास की सूरत में इसका तजर्बा उसे इसी 
दुनिया में होने लगता है। इस कुरबत तक पहुंचने का जरिए तकवा और जिहाद है। यानी 
डरने और जदूदोजहद करने की सतह पर अल्लाह का परस्तार बनना। आदमी की जिंदगी 
में ऐसे लम्हात आते हैं जबकि वह अपने को हक और नाहक के दर्मियान खड़ा हुआ पाता 
है। हक की तरफ बढ़ने में उसकी अना (अंहकार) टूटती है। उसकी दुनियावी मस्लेहतों का 
ढांचा बिखरता हुआ नजर आता है। जबकि नाहक का तरीका इर्न्ियार करने में उसकी अना 
कायम रहती है। उसकी मस्लेहतें पूरी तरह महफूज दिखाई देती हैं। ऐसे वक्त में जो शख्स 


पारा 6 276 सूरा-5. अल-माइदह 


खुदा से डरे और तमाम दूसरी बातों को नजरअंदाज करके ख़ुदा को पकड़ ले। और हर 
मुश्किल और हर नाखुशगवारी को झेल कर ख़ुदा की तरफ बढ़े तो यही वह चीज है जो 
आदमी को खुदा से करीब करती है। और इस कुरबत का नकद तजुर्बा आदमी को संवेदना 
की सतह पर एक लतीफ इदराक (अनुभूति) की सूरत में उसी वक्त हो जाता है। इसके 
बरअक्स जो शख्स तकवा और जिहाद के रास्ते पर चलने के लिए तैयार न हो उसने खुदा 
का इंकार किया। वह ख़ुदा से दूर होकर ऐसे अजाब में पड़ जाता है जिससे वह किसी तरह 
छुटकारा न पा सकेगा। 

जजा का मामला तमामतर खुदा के इख्तियार में है। न तो ऐसा है कि कोई बाद की जिंदगी 
में इस्लाह कर ले तब भी उसके पिछले आमाल उससे न धुलें और न यह बात है कि यहां कोई 
और ताकत है जो सिफारिश या मुदाख़लत (हस्तक्षेप) के जोर पर किसी के अंजाम को बदल 
सके। सारा मामला एक खुदा के हाथ में है और वही कमाल दर्जे हिक्मत और कुदरत के साथ 
सबका फैसला करेगा। 

समाजी जुर्मों के लिए इस्लाम की सजाएं दो ख़ास पहलुओं को सामने रख कर मुक्रर 
की गई हैं। एक, आदमी के जुर्म की सजा। दूसरे यह कि सजा ऐसी इबरतनाक हो कि उसे 
देख कर दूसरे मुजरिमों की हौसलाशिकनी हो। ताहम मुजरिम अगर जुर्म के बाद अपने किए 
पर शर्मिन्दा हो। वह अल्लाह से माफी मांगे और आइंदा इस किस्म की चीजों को बिल्कुल 
छोड़ दे तो उम्मीद है कि आख़िरत में अल्लाह उसे माफ कर देगा। 


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ऐ पेग़म्बर, तुम्हें वे लोग रंज में न डालें जो कुफ्र की राह में बड़ी तेजी दिखा रहे हैं। 
चाहे वे उनमें से हों जो अपने मुंह से कहते हैं कि हम ईमान लाए हालांकि उनके दिल 
ईमान नहीं लाए या उनमें से हों जो यहूदी हैं, झूठ के बड़े सुनने वाले, सुनने वाले दूसरे 
लोगों की खातिर जो तुम्हारे पास नहीं आए। वे कलाम को उसके मकाम से हटा देते 
हैं। वे लोगों से कहते हैं कि अगर तुम्हें यह हुक्म मिले तो कुबूल कर लेना और अगर 
यह हुक्म न मिले तो उससे बचकर रहना। और जिसे अल्लाह फितने में डालना चाहे 
तो तुम अल्लाह के मुकाबिल उसके मामले में कुछ नहीं कर सकते। यही वे लोग हैं कि 


अल्लाह ने न चाहा कि उनके दिलों को पाक करे। उनके लिए दुनिया में रुस्वाई है और 
आखिरत में उनके लिए बड़ अजाब है। (4॥) 


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सूरा-5. अल-माइदह 277 पारा 6 





मदीना में अंदरूनी तौर पर दो किस्म के लोग इस्लामी दावत की मुखालफत कर रहे थे । एक 
मुनाफिकीन, दूसरे यहूद । मुनाफिकीन वे लोग थे जो जाहिरी और नुमाइशी इस्लाम को लिए हुए 
थे। सच्चे इस्लाम की दावत में उन्हें अपने स्वार्थो व मफादात पर जद पड़ती हुई महसूस होती थी । 
यहूद वे लोग थे जो मजहब की नुमाइंदगी की गदूदियों पर बैठे हुए थे। उन्हें महसूस होता था कि 
इस्लामी दावत उन्हें उनके बरतरी के मकाम से नीचे उतार रही है। यह दोनों किस्म के लोग सच्चे 
इस्लाम को दावत को अपना मुश्तरक (साक्षी) दुश्मन समझते थे | इसलिए इस्लाम के खिलाफ मुहिम 
चलाने में दोनों एक हो गए। उनके “बड़े” रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की मज्लिस में 
आना अपनी शान के खिलाफ समझते थे। इसलिए वे खुद न आते । अलबत्ता उनके “छोटे? इस 
पर लगे हुए थे कि वे आपकी बातों को सुनें और उन्हें अपने बड़ों तक पहुंचाएं । फिर ये लोग उसे 
उल्टे मअना पहनाते और आपको और आपकी तहरीक को बदनाम करते । उनकी सरकशी ने उन्हें 
ऐसा ढीठ बना दिया था कि वे अल्लाह के कलाम को उसके परिप्रेक्ष्य से हटा कर उससे अपना 
मुफीदे मतलब मफहूम निकालने से भी न डरते। 

ये वे लोग हैं जो अपने को ख़ुदा व रसूल के ताबेअ नहीं करते। बल्कि उनका जेहन यह 
हेता है कि जो बात अपने जैक के मुताबिक हो उसे ले लो और जो बात जैक के मुताबिक 
न हो उसे छोड़ दो। यह मिजाज किसी आदमी के लिए सरन्न फितना है। जिन लोगों का यह 
हाल हो कि वे हक के मुकाबले में मफाद और मस्लेहत को तरजीह दें, जो हर हाल में अपने 
को बड़ाई के मकाम पर देखना चाहें, जो हक को जेर (परास्त) करने के लिए उसके खिलाफ 
तख़रीबी साजिशे करें, यहां तक कि अपने अमल को जाइज साबित करने के लिए ख़ुदा के 
कलाम को बदल डालें, ऐसे लोगों की नफ्सियात बिलआखिर यह हो जाती है कि वे हक को 
कुबूल करने की सलाहित से महरूम हो जाते हैं। उन्होंने खुदा का साथ छोड़ा, इसलिए ख़ुदा 
ने भी उनका साथ छोड़ दिया। ऐसे लोग ख़ुदा की तौफीक से महरूम होकर बातिल मशगलों 
में लगे रहते हैं, यहां तक कि आग की दुनिया में पहुंच जाते हैं। 

अल्लाह का जो बंदा अल्लाह के सच्चे दीन का पैग़ाम लेकर उठा हो उसे मुखालिफतों 
की वजह से बेहिम्मत नहीं होना चाहिए । ऐसे लोगों की सरगर्मियां हकीकतन दाऔ (आह्वानकर्ता) 
के खिलाफ नहीं बल्कि ख़ुदा के ख़िलाफ हैं। इसलिए वह कभी कामयाब नहीं हो सकतीं । 
दावती अमल से अल्लाह को जो चीज मत्लूब है वह सिर्फ यह कि अस्ल बात से बखूबी तौर 
पर लोगों को आगाह कर दिया जाए। और यह काम अल्लाह की मदद से लाजिमन अपनी 


तक्मील तक पहुंच कर रहता है। 

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पारा 6 278 सूरा-5. अल-माइदह 


वे झूठ के बड़े सुनने वाले हैं, हराम के बड़े खाने वाले हैं। अगर वे तुम्हारे पास आएं तो 
चाहे उनके दर्मियान फैसला करो या उन्हें टाल दो। अगर तुम उन्हें टाल दोगे तो वे 
तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं सकते। और अगर तुम फैसला करो तो उनके दर्मियान इंसाफ 

के मुताबिक फैसला करो। अल्लाह इंसाफ करने वालों को पसंद करता है। और वे कैसे 

तुम्हें हकम (मध्यस्थ) बनाते हैं हालांकि उनके पास तौरात है जिसमें अल्लाह का हुक्म 
मौजूद है। और फिर वे उससे मुंह मोड़ रहे हैं। और ये लोग हरगिज ईमान वाले नहीं 
हैं। (42-43) 


हराम (सुहत) से मुराद रिश्वत है। रिश्वत की एक आम शक्ल वह है जो बराहेरास्त इसी 
नाम पर ली जाती है। चुनांचे यहूदी उलमा (विद्वानों) में ऐसे लोग थे जो रिश्वत लेकर ग़लत 
मसाइल बताया करते थे। ताहम रिश्वत की एक और सूरत वह है जिसमें बराहेरास्त लेन देन 
नहीं होता मगर वह तमाम रिश्वतों में ज्यादा बड़ी और ज्यादा कबीह (निकृष्ट) रिश्वत होती 
है। यह है दीन को अवामी पसंद के मुताबिक बनाकर पेश करना ताकि अवाम के दर्मियान 
मकबूलियत हो, लोगों का एजाज व इकराम मिले, लोगों के चन्दे और नजराने वसूल होते रहें। 

दीन को उसकी बेआमेज (विशुद्ध) सूरत में पेश करना हमेशा इस कीमत पर होता है कि 
आदमी अवाम के अंदर नामकबूल हो जाए। इसके बरअक्स दीन को अगर ऐसी सूरत में पेश 
किया जाए कि जिंदगी में कोई हकीकी तब्दीली भी न करना पड़े और आदमी को दीन भी हासिल 
रहे तो ऐसे दीन के गिर्द बहुत जल्द भीड़ की भीड़ इकट्ठा हो जाती है। वह दीन जिसमें अपनी 
दुनियापरस्ताना जिंदगी को बदले बगैर कुछ सस्ते आमाल के जरिए जन्नत मिल रही हो। वह दीन 
जो कौमी और माद्दी (भौतिक) हंगामाआराइयों को दीनी जवाज (औचित्य) अता करता हो। वह 
दीन जिसमें यह मौका हो कि आदमी अपनी जाहपसंदी (मायामोह) के लिए सरगर्म हो, फिर भी 
वह जो कुछ करे सब दीन के खाने में लिखा जाता रहे। जो लोग इस किस्म का दीन पेश करें 
वे बहुत जल्द अवाम के अंदर महबूबियत का मकाम हासिल कर लेते हैं। 

यहूद के कायदीन (धार्मिक नायक) इसी किस्म का दीन चला कर अवाम के आकर्षण 
का केन्द्र बने हुए थे। वे अवाम को उनका पसंदीदा दीन पेश कर रहे थे और अवाम इसके 
मुआवजे में उन्हें माली सहयोग से लेकर एज़ाज व इकराम तक हर चीज निसार कर रहे थे। 
ऐसी हालत में रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का सच्चे दीन की आवाज बुलन्द करना 
उन्हें नाकाबिले बर्दाश्त मालूम हुआ। क्योकि यह उनके मफादात (हितों) के ढांचे को तोड़ने 
के हममअना (समान) था, आपसे उन्हें इतनी जिद हो गई कि आपके मुतअल्लिक किसी 
अच्छी ख़बर से उन्हें कोई दिलचस्पी न रही। अलबत्ता अगर वे आपके बारे में कोई बुरी ख़बर 
सुनते तो उसमें खूब दिलचस्पी लेते और उसमें इजाफा करके उसे फैलाते। जिन लोगों में इस 
किस्म का बिगाड़ आ जाए उनका हाल यह हो जाता है कि अगर वे दीनी फैसला लेने की तरफ 
रुजूअ भी होते हैं तो इस उम्मीद में कि फैसला अपनी ख़्वाहिश के मुताबिक होगा । अगर ऐसा 
न हो तो यह जानते हुए कि यह ख़ुदा और रसूल का फैसला है उसे मानने से इंकार कर देते 
हैं। वे भूल जाते हैं कि ऐसा करना महज एक फैसले को न मानना नहीं है बल्कि खुद ईमान 
व इस्लाम का इंकार करना है। 











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सूरा-5. अल-माइदह 279 पारा 6 
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बेशक हमने तौरात उतारी है जिसमें हिदायत और रोशनी है। उसी के मुताबिक ख़ुदा 

के फरमांबरदार अंबिया यहूदी लोगों का फैसला करते थे और उनके दुर्वेश और उलमा 
(विद्वान) भी। इसलिए कि वे खुदा की किताब पर निगहबान ठहराए गए थे। और वे 
उसके गवाह थे। पस तुम इंसानों से न डरो मुझसे डरो और मेरी आयतों को तुच्छ मूल्यों 
के ऐवज न बेचो। और जो कोई उसके मुवाफिक हुक्म न करे जो अल्लाह ने उतारा है 

तो वही लोग मुंकिर हैं। और हमने उस किताब में उन पर लिख दिया कि जान के बदले 
जान और आंख के बदले आंख और नाक के बदले नाक और कान के बदले कान और 
दांत के बदले दांत और जरम का बदला उनके बराबर। फिर जिसने उनसे माफ कर 

दिया तो वह उसके लिए कफ्फारा (प्रायश्चित) है। और जो शख्स उसके मुवाफिक 

फैसला न करे जो अल्लाह ने उतारा तो वही लोग जालिम हैं। और हमने उनके पीछे 

ईसा इब्ने मरयम को भेजा तस्दीक (पुष्टि) करते हुए अपने से पहले की किताब तौरात 
की और हमने उसे इंजील दी जिसमें हिदायत और नूर है और वह तस्दीक करने वाली 
थी अपने से अगली किताब तौरात की और हिदायत और नसीहत डरने वालों के लिए। 
और चाहिए कि इंजील वाले उसके मुवाफिक फैसला करें जो अल्लाह ने उसमें उतारा 

है। और जो कोई उसके मुवाफिक फैसला न करे जो अल्लाह ने उतारा तो वही लोग 


पारा 6 280 सूरा-5. अल-माइदह 


नाफरमान हैं। (44-47) 


ख़ुदा की किताब इसलिए आती है कि वह लोगों को उनकी अबदी फलाह की राह दिखाए । 
ख्ाहिशपरस्ती के अंधेरे से निकाल कर उन्हें हकपरस्ती की रोशनी में लाए। जो खुदा से डरने 
वाले हैं वे ख़ुदा की किताब को ख़ुदा और बंदे के दर्मियान मुकद्दस अहद समझते हैं जिसमें 
अपनी तरफ से कमी या ज्यादती जाइज़ न हो। वे उसकी तामील इस तरह करते हैं जिस तरह 
किसी के पास कोई अमानत हो और वह ठीक-ठीक उसकी अदायगी करे। अल्लाह की किताब 
बंदों के हक में अल्लाह का फैसला होता है। जरूरत होती है कि जिंदगी के मामलात में उसी की 
हिदायत पर चला जाए और आपसी विवादों में उसी के अहकाम के मुताबिक फैसला किया 
जाए। ख़ुदा की किताब को अगर यह हाकिमाना हैसियत न दी जाए बल्कि अपने मामलात और 
विवादों को अपनी दुनियावी मस्लेहतों के ताबेअ रखा जाए जो यह ख़ुदा की किताब से इंकार 
के हममअना होगा, चाहे तबररुक के तौर पर उसका कितना ही ज्यादा जाहिरी एहतराम किया 
जाता हो। जो लोग अपने को मुस्लिम कहें मगर उनका हाल यह हो कि वे इख़्तियार और आजादी 
रखते हुए भी अपने मामलात का फैसला अल्लाह की किताब के मुताबिक न करें बल्कि ख़ाहिशों 
की शरीअत पर चलें वे अल्लाह की नजर में मुंकेर और जालिम और फासिक (उदूदंड) हैं। वे 
खुदा की हाकिमाना हैसियत का इंकार करने वाले हैं, वे हक के तलफ करने वाले हैं, वे इताअते 
खुदावंदी के अहद से निकल जाने वाले हैं। शरीअत के हुक्म को जान बूझकर नजरअंदाज करने 
के बाद आदमी की कोई हैसियत ख़ुदा के यहां बाकी नहीं रहती । 

क्षति (समान दंड) के सिलसिले में शरीअत का तकाजा है कि किसी की हैसियत की 
परवाह किए बगैर उसका निफाज किया जाए। ताहम कभी-कभी आदमी की जारिहियत 
(आक्रामकता) उसकी शरपसंदी का नतीजा नहीं होती बल्कि वक्ती जज्बे के तहत हो जाती 
है। ऐसी हालत में अगर मजरूह (पीड़ित) जारह को माफ कर दे तो यह उसकी तरफ से जारह 
(अत्याचारी) के लिए एक सदका होगा और समाज में वुस्अते जर्फ (उच्चादर्श) कीफ़ोब् 
करने का जरिया। 


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और हमने तुम्हारी तरफ किताब उतारी हक के साथ, तस्दीक (पुष्टि) करने वाली पिछली 
किताब की और उसके मजामीन पर निगहबान। पस तुम उनके दर्मियान फैसला करो 
उसके मुताबिक जो अल्लाह ने उतारा। और जो हक तुम्हारे पास आया है उसे छोड़कर 





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सूरा-5. अल-माइदह 28] पारा 6 


उनकी ख़्वाहिशों की पैरवी न करो। हमने तुममें से हर एक लिए एक शरीअत और एक 
तरीका ठहराया। और अगर खुदा चाहता तो तुम्हें एक ही उम्मत बना देता। मगर 
अल्लाह ने चाहा कि वह अपने दिए हुए हुक्मों में तुम्हारी आजमाइश करे। पस तुम 
भलाइयाँ की तरफ दौड़े। आखिरकार तुम सबको खुदा की तरफ पलटकर जाना है। 

फिर वह तुम्हें आगाह कर देगा उस चीज से जिसमें तुम इम़्तिलाफ (मत-भिन्नता) कर 
रहे थे। (48) 





यहां “किताब” से मुराद दीन की असली और असासी (मौलिक) तालीमात हैं। अल्लाह 
की यह किताब एक ही किताब है और वही एक किताब, जबान और तर्तीब के फर्क के साथ, 
तमाम नबियों की तरफ उतारी गई है। ताहम दीन की हकीकत जिस जाहिरी ढांचे में निरूपित 
होती है उसमें विभिन्न अंबिया के दर्मियान फर्क पाया जाता है। इस फर्क की वजह यह नहीं 
कि दीन के उतारने में कोई इरतकाई (चरणबद्ध) तर्तीब है। यानी पहले कम तरवकीयाफ्ता 
और गैर कामिल दीन उतारा गया और इसके बाद ज्यादा तरकीयाफ्ता और ज्यादा कामिल 
दीन उतरा। इस फर्क की वजह खुदा की हिक्मते इन्तिला (आजमाइश) है न कि हिक्मते 
इरतका। कुरआन के मुताबिक ऐसा सिर्फ इसलिए हुआ कि लोगों को आजमाया जाए। 
जमाना गुजरने के बाद ऐसा होता है कि दीन की अंदरूनी हकीकत गुम हो जाती है और 
रीति-रिवाज मुकदूदस होकर असल बन जाते हैं। लोग इबादत इसे समझ लेते हैं कि एक ख़ास 
ढांचे को जाहिरी शराइत के साथ दोहरा लिया जाए। इसलिए जाहिरी ढांचे में बार-बार 
तब्दीलियां की गईं ताकि ढांचे की मकसूदियत का जेहन ख़त्म हो और ख़ुदा के सिवा कोई 
और चीज तवज्जोह का मर्कज न बनने पाए। इसकी एक मिसाल किबले की तब्दीली है। बनी 
इस्राईल को हुक्म था कि वे बैतुलमविदस की तरफ रुख़ करके इबादत करें। यह हुक्म सिर्फ 
रुख़बंदी के लिए था। मगर धीरे-धीरे उनका जेहन यह बन गया कि बैतुमलमविदस की तरफ 
रुख़ करने का नाम ही इबादत है। उस वक्त पहले हुक्म को बदल कर काबे का किबला बना 
दिया गया। अब कुछ लोग पहले की रिवायत से लिपटे रहे और कुछ लोगों ने खुदा की 
हिदायत को पा लिया। इस तरह तब्दीली किब्ले से यह खुल गया कि कौन दरोदीवार को पूजने 
वाला था और कौन खुदा को पूजने वाला। (सूरा बकरह, 43) 

अब इस किस्म की तब्दीली का कोई इम्कान नहीं। क्योंकि ढांचे को नबी बदलता है 

और नबी अब आने वाला नहीं। ताहम जहां तक अस्ल मकसूद का तअल्लुक है वह बदस्तूर 
बाकी है। अब भी खुदा के यहां उसका सच्चा परस्तार वही शुमार होगा जो जाहिरी ढांचे की 
पाबंदी के बावुजूद जाहिरी ढांचे को मक्सूदियत का दर्जा न दे, जो जवाहिर से जेहन को 
आजाद करके खुदा की इबादत करे। पहले यह मकसद जाहिरी ढांचे को तोड़ कर हासिल होता 
था अब उसे जेहनी शिकस्त व पराभाव के जरिए हासिल करना होगा। 

जवाहिर के नाम पर दीन में जो झगड़े हैं वह सिर्फ इसलिए हैं कि लोगों की गफलत ने 
उन्हें असल हकीकत से बेखबर कर दिया है। अगर हकीकत को वे इस तरह पा लें जिस तरह 
वह आखिरत में दिखाई देगी तो तमाम झगड़े अभी ख़त्म हो जाएं। 








पारा 6 282 
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सूरा-5. अल-माइदह 




















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और उनके दर्मियान उसके मुताबिक फैसला करो जो अल्लाह ने उतारा है और उनकी 
ख्याहिशों की पैरवी न करो और उन लोगों से बचो कि कहीं वह तुम्हें फिसला दें तुम्हारे 
ऊपर अल्लाह के उतारे हुए किसी हुक्म से। पस अगर वे फिर जाएं तो जान लो कि 
अल्लाह उन्हं उनके कुछ गुनाहों की सजा देना चाहता है। और यकीनन लोगों में से 

ज्यादा आदमी नाफरमान हैं। क्या ये लोग जाहिलियत का फैसला चाहते हैं। और 

अल्लाह से बढ़कर किसका फैसला हो सकता है उन लोगों के लिए जो यकीन करना 

चाहें। (49-50) 





कुरआन और दूसरे आसमानी सहीफे अलग-अलग किताबें नहीं हैं। ये सब एक ही 
किताबे इलाही के मुख्नलिफ एडीशन हैं जिसे यहां 'अलकिताब' कहा गया है। खुदा की तरफ 
से जितनी किताबें आई, चाहे वे जिस दौर में और जिस जबान में आई हों, सबका मुश्तरक 
मजमून एक ही था । ताहम पिछली किताबों के हामिलीन बाद के जमाने में उन्हें उनकी असली 
सूरत में महफूज न रख सके। इसलिए खुदा ने एक किताबे मुंहेमीन (कुरआन) उतारा। यह 
ख़ुदा की तरफ से उसकी किताब का मुस्तनद एडीशन है और इस आधार पर वह एक कसौटी 
है जिस पर जांच कर मालूम किया जाए कि बाकी किताबों का कौन सा हिस्सा असली हालत 
में है और कौन सा वह है जो बदला जा चुका है। 

यहूद ख़ुदा के सच्चे दीन के साथ अपनी बातों को मिलाकर एक ख़ुदसाख्ता दीन बनाए 
हुए थे। इस खुदसाख्ता दीन से उनकी अकीदतें भी वाबस्ता थीं और उनके मफादात भी। 
इसलिए वह किसी तरह तैयार न थे कि उसे छोड़कर पैगम्बर के लाए हुए बेआमेज (विशुद्ध) 
दीन को मान लें। उन्होंने हक के आगे झुकने के बजाए अपने लिए यह तरीका पसंद किया 
कि वे हक के अलमबरदार को इतना ज्यादा परेशान करें कि वह खुद उनके आगे झुक जाए, 
वह ख़ुदा के सच्चे दीन को छोड़कर उनके अपने बनाए हुए दीन को इख़्तियार कर ले। ख़ुदा 
अगर चाहता तो पहले ही मरहले में इन जालिमों का हाथ रोक देता और वे हक के दाऔ को 
सताने में कामयाब न होते। मगर अल्लाह ने उन्हें छूट दी कि वे अपने नापाक मंसूबों को 
बरूएकार ला सके। ऐसा इसलिए हुआ ताकि यह बात पूरी तरह खुल जाए कि दीनदारी के 
ये दावेदार सबसे ज्यादा बेदीन लोग हैं। वे खुदा के परस्तार नहीं हैं बल्कि खुद अपनी जात 
के परस्तार हैं। अल्लाह की यह सुन्नत अगरचे हक के दाजियों के लिए बड़ा सख्त इम्तेहान 
है। मगर यही वह अमल है जिसके जरिए यह फैसला होता है कि कौन जन्नत का मुस्तहिक 








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सूरा-5. अल-माइदह 283 पारा 6 
है और कौन जहन्नम का। 

इंसान की यह कमजोरी है कि वह अपनी ख्याहिशों के पीछे चलना चाहता है, अल्लाह के 
हुक्म का पाबंद बनकर रहना उसे गवारा नहीं होता। यहां तक कि दीने ख़ुदावंदी की ख़ुदसाख्ता 
तशरीह करके वह उसे भी अपनी ख़्वाहिशों के सांचे में ढाल लेता है। ऐसी हालत में बेआमेज 
(विशुद्ध) दीन को वही लोग कुबूल करेगे जो चीजों को ख़ाहिश की सतह पर न देखते हों बल्कि 
इससे ऊपर उठकर अपनी राय कायम करते हों। अल्लाह की बात बिलाशुबह सहीतरीन बात 
है। मगर मौजूदा आजमाइशी दुनिया में हर सच्चाई पर एक शुबह का पर्दा डाल दिया गया है। 
आदमी का इम्तेहान यह है कि वह इस पर्दे का फाइकर उस पर यकीन करे, वह गैब (अप्रकट) 
को शुहूद (प्रकट रूप) में देख ले। जो शख्स जाहिरी शुब्हात में अटक जाए वह नाकाम हो गया 
और जो शख्स जाहिरी शुब्हात के गुबार को पार करके सच्चाई को पा ले वह कामयाब रहा। 


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ऐ ईमान वालो, यहूद और नसारा को दोस्त न बनाओ। वे एक दूसरे के दोस्त हैं। और 
तुममें से जो शख्स उन्हें अपना दोस्त बनाएगा तो वह उन्हीं में से होगा। अल्लाह जालिम 
लोगों को राह नहीं दिखाता। तुम देखते हो कि जिनके दिलों में रोग है वे उन्हीं की 
तरफ दौड़ रहे हैं। वे कहते हैं कि हमें यह अंदेशा है कि हम किसी मुसीबत में न फंस 
जाएं। तो मुमकिन है कि अल्लाह फतह दे दे या अपनी तरफ से कोई ख़ास बात जाहिर 
करे तो ये लोग उस चीज पर जिसे ये अपने दिलों में छुपाए हुए हैं नादिम होंगे। और 
उस ववत अहले ईमान कहे क्या ये वही लोग हैं जो जोर शोर से अल्लाह की कसमें 
खाकर यकीन दिलाते थे कि हम तुम्हारे साथ हैं। उनके सारे आमाल जाए (नष्ट) हो 
गए और वे घाटे में रहे। (5।-53) 









































अरब में मुसलमान अभी एक नई ताकत की हैसियत रखते थे। साथ ही यह कि उनके 
मुखालिफीन उन्हें खाइने की कोशिश में रात दिन लगे हुए थे। दूसरी तरफ मुल्क के यहूदी और 
ईसाई कबीलों का यह हाल था कि मुल्क के अधिकतर आर्थिक साधनों पर उनका कब्जा था। 
सदियों की तारीख़ ने उनकी अज्मत लोगों के दिलों पर बिठा रखी थी। लोगों को यकीन नहीं था 
कि ऐसी ताकत को मुल्क से ख़त्म किया जा सकता है। चुनांचे मुसलमानों की जमाअत में जो 


पारा 6 284 सूरा-5. अल-माइदह 





कमजोर लोग थे वे चाहते थे कि इस्लाम की जद्दोजहद में इस तरह शरीक न हों कि यहूद व नसारा 
को अपना दुश्मन बना लें। ताकि यह कशमकश अगर मुसलमानों की शिकस्त पर ख़त्म हो तो यहूद 
व नसारा की तरफ से उन्हें किसी इंतिकामी कार्रवाई का सामना न करना पड़े। ये लोग मुस्तकबिल 
के संभावी ख़तरे से बचने के लिए अपने को वक्त के यकीनी ख़तरे में मुब्तला कर रहे थे, और 
वह उनकी दोहरी वफादारी थी । जो शख्स हानिरहित मामलात में हकपरस्त बने और हानि का अदिशा 
हो तो बतिलपरस्तों का साथ देने लगे, उसका अंजाम खुदा के यहां उन्हीं लोगों में होगा जिनका 
उसने ख़तरे के मौकों पर साथ दिया। 
किसी की जिंदगी में वह वक्‍त बड़ नाजुक हेता है जबकि इस्लाम पर कायम रहने के लिए 
उसे किसी किस्म की कुर्बानी देनी पड़े। ऐसे मौके आदमी के इस्लाम की तस्दीक या तरदीद करने 
के लिए आते हैं। खुदा चाहता है कि आदमी जिस इस्लाम का सुबूत बे-ख़तर हालात में दे रहा 
था उसी इस्लाम का सुबूत वह उस वक्‍त भी दे जबकि जज्बात को दबा कर या जान व माल 
का ख़तरा मोल लेकर आदमी अपने इस्लाम का सुबूत पेश करता है। इस इम्तेहान में पूरा उतरने 
के बाद ही आदमी इस काबिल बनता है कि उसका ख़ुदा उसे अपने वफादार बंदों में लिख ले। 
इन मौकों पर इस्लामियत का सुबूत देना ही किसी आदमी के पिछले आमाल को बा-कीमत 
बनाता है। और अगर वह ऐसे मौकों पर इस्लामियत का सुबूत न दे सके तो इसका मतलब यह 
है कि उसने अपने पिछले तमाम आमाल को बे-कीमत कर लिया। 
दुनिया का हर इम्तेहान इरादे का इम्तेहान है। आदमी को सिर्फ यह करना है कि वह 
ख़तरात को नजरअंदाज करके इरादे का सुबूत दे दे, वह अल्लाह की तरफ अपना पहला कदम 
उठा दे। उसके बाद फौरन ख़ुदा की मदद उसका सहारा बन जाती है। मगर जो शख्स इरादे 
का सुबूत न दे, जो खुदा की तरफ अपना पहला कदम न उठाए वह अल्लाह की नजर में 
जालिम है। ऐसे लोगों को खुदा एकतरफा तौर पर अपनी मदद का सहारा नहीं भेजता। 
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ऐ ईमान वालो, तुममें से जो शख्स अपने दीन से फिर जाए तो अल्लाह जल्द ऐसे लोगों 


को उठाएगा जो अल्लाह को महबूब होंगे और अल्लाह उन्हें महबूब होगा। वे मुसलमानों 
के लिए नर्म और मुंकिरों के ऊपर सख्त होंगे। वे अल्लाह की राह में जिहाद करेंगे और 





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सूरा-5. अल-माइदह 285 पारा 6 


किसी मलामत करने वाले की मलामत से न डरेंगे। यह अल्लाह का फज्ल है। वह जिसे 
चाहता है अता करता है। और अल्लाह वुस्अत वाला और इलम वाला है। तुम्हारे दोस्त 
तो बस अल्लाह और उसका रसूल और वे ईमान वाले हैं जो नमाज कायम करते हैं और 
जकात अदा करते हैं और वे अल्लाह के आगे झुकने वाले हैं। और जो शख्स अल्लाह 
और उसके रसूल और ईमान वालों को दोस्त बनाए तो बेशक अल्लाह की जमाअत ही 
ग़ालिब रहने वाली है। (54-56) 





ईमान लाने के बाद जो शख्स ईमान के तकाजे पूरे न करे वह अल्लाह की नजर में दीन 
को कुबूल करने के बाद दीन से फिर गया। अल्लाह की नजर में सच्चे ईमान वाले लोग वे 
हैं जिनके अंदर ईमान इस तरह दाख़िल हो कि उन्हें मुहब्बत की सतह पर अल्लाह से 
तअल्लुक पैदा हो जाए, उन्हें इस्लामी मकासिद की तकमील इतनी अजीज हो कि जो लोग 
इस्लाम की राह में उनके भाई बनें उनके लिए उनके दिल में नर्मी और हमदर्दी के सिवा कोई 
चीज बाकी न रहे। वे मुसलमानों के लिए इस दर्जे शफीक बन जाएं कि उनकी ताकत और 
उनकी सलाहियत कभी मुसलमानों के मुकाबले में इस्तेमाल न हो। वे दीन के मामले में इतने 
पुख्ता हों कि गैर इस्लामी लोगों के अफ्कार (विचार) व आमाल से कोई असर कुबूल न करें। 
उनके जज्बात इस दर्ज उसूल के ताबेअ हो जाएं कि मुसलमानों के लिए वे फूल से ज्यादा 
नाजुक साबित हों मगर नामुसलमानों के लिए वे पत्थर से ज्यादा सख्त बन जाएं। कोई 
नामुसलमान कभी उन्हें अपने मकासिद के लिए इस्तेमाल न कर सके। 

इस्लामी जिंदगी एक बामवसद जिंदगी है और इसी लिए वह जद्दोजहद की जिंदगी है। 
मुसलमान का मिशन यह है कि वह अल्लाह के दीन को अल्लाह के तमाम बंदों तक पहुंचाए । 
जहन्नम की तरफ जाती हुई दुनिया को जन्नत के रास्ते पर लाने को कोशिश करे। इस काम 
के फितरी तकाजे के तौर पर आदमी के सामने तरह-तरह की मुश्किलें और तरह-तरह की 
मलामतें पेश आती हैं। यहां तक कि दो अलग-अलग गिरोह बन जाते हैं। एक दुनियापरस्तों 
का और दूसरा आख़िरत के मुसाफिरों का। उनके दर्मियान एक मुस्तकिल कशमकश शुरू हो 
जाती है। आदमी का इम्तेहान यह है कि इन सारे मौकों पर वह उस इंसान का सुबूत दे जो 
अल्लाह के भरोसे पर चल रहा है और अल्लाह के सिवा किसी की परवाह किए बगैर अपना 
इस्लामी सफर जारी रखता है। यहां तक की मौत के दरवाजे में दाखिल होकर ख़ुदा के पास 
पहुंच जाता है। 

इस तरह के लोग किसी मकाम पर जब काबिले लिहाज तादाद में पैदा हो जाएं तो 
जमीन का ग़लबा भी उन्हीं के लिए मुकदूदर कर दिया जाता है। ये वे लोग हैं जो नमाज 
कायम करते हैं। यानी उनका मकजे तवज्जोह तमामतर अल्लाह बन जाता है। वे जकात अदा 
करते हैं। यानी उनके बाहमी तअल्लुकात एक दूसरे की ख़ैरख़ाही पर कायम होते हैं, वे 
अल्लाह के आगे झुकने वाले होते हैं। यानी दुनिया के मामलात में कोई भी चीज उन्हें 
अनानियत (अंहकार) पर आमादा नहीं करती बल्कि वे हर मौके पर वही करते हैं जो अल्लाह 
चाहे। वह तवाजोअ (विनम्रता) इख्तियार करने वाले होते हैं न कि सरकशी करने वाले। 








पारा 6 286 


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ऐ ईमान वालो, उन लोगों को अपना दोस्त न बनाओ जिन्होंने तुम्हारे दीन को मजाक 
और खेल बना लिया है, उन लोगों में से जिन्हें तुमसे पहले किताब दी गई और न मुंकिरों 
को। और अल्लाह से उरते रहो अगर तुम ईमान वाले हो। और जब तुम नमाज के लिए 
पुकारते हो तो वे लोग उसे मजाक और खेल बना लेते हैं। इसकी वजह यह है कि वे 
अक्ल नहीं रखते। कहो कि ऐ अहले किताब, तुम हमसे सिर्फ इसलिए जिद रखते हो 
कि हम ईमान लाए अल्लाह पर और उस पर जो हमारी तरफ उतारा गया और उस पर 
जो हमसे पहले उतरा। और तुम में से अक्सर लोग नाफरमान हैं। कहो क्या में तुम्हें 
बताऊ वह जो अल्लाह के यहां अंजाम के एतबार से इससे भी ज्यादा बुरा है। वह जिस 
पर खुदा ने लानत की और जिस पर उसका गजब हुआ। और जिनमें से बन्दर और सुअर 
बना दिए और उन्होंने शैतान की परस्तिश की। ऐसे लोग मकाम के एतबार से बदतर 
और राहेरास्त से बहुत दूर हैं। (57-60) 


सूरा-5. अल-माइदह 











वे लोग जो ख़ुदसाख्ता दीन की बुनियाद पर ख़ुदापरस्ती के इजारेदार बने हुए हों उनके 
दर्मियान जब सच्चे और बेआमेज (विशुद्ध) दीन की दावत उठती है तो उसके ख़िलाफ वे 
इतनी शदीद नफरत में मुब्तिला होते हैं कि अपनी माकूलियत तक खो बैठते हैं। यहां तक कि 
ऐसी चीजंजो बिला इरिन्निलाफ काबिले एहतराम हैंउनका भी मजाक उड्ने लगते हैं। यही मदीना 
के यहूद का हाल था। चुनांचे वे मुलसमानों की अजान का मजाक उड़ाने से भी नहीं रुकते 
थे। जो लोग इतने बेहिस और इतने गैर संजीदा हो जाएं उनसे एक मुसलमान का तअल्लुक 
दावत (आह्वान) का तो हो सकता है मगर दोस्ती का नहीं हो सकता। 

उन लोगों की ख़ुदा से बेखौफी का यह नतीजा होता है कि वे सच्चे मुसलमानों को 
मुजरिम समझते हैं और अपने तमाम जराइम के बावुजूद अपने मुतअल्लिक यह यकीन रखते 
हैं कि उनका मामला खुदा के यहां बिल्कुल दुरुस्त है। जब वे अपनी इस कैफियत की इस्लाह 
नहीं करते तो बिलआखिर उनकी बेहिसी उन्हें इस नौबत तक पहुंचाती है कि उनकी अक्ल 


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सूरा-5. अल-माइदह 287 पारा 6 


हक व बातिल के मामले में कुंद हो जाती है। वे शक्ल के एतबार से इंसान मगर बातिन के 
एतबार से बदतरीन जानवर बन जाते हैं। वे लतीफ एहसासात जो आदमी के अंदर ख़ुदा के 
चौकीदार की तरह काम करते हैं, जो उसे बुराइयों से रोकते हैं वे उनके अंदर ख़त्म हो जाते 
हैं। मसलन हया, शराफत, वूअते जर्फ पाकीज तरीकेंको पसंद करना, कैहह । इस गिरावट 
का आखिरी दर्जा यह है कि आदमी की पूरी जिंदगी शैतानी रास्तों पर चल पड़े। जब कोई 
गिरोह इस नौबत को पहुंचता है तो वह लानत का मुस्तहिक बन जाता है, वह ख़ुदा की रहमत 
से आखिरी हद तक दूर हो जाता है। उसकी इंसानियत मिट जाती है वह फितरत के सीधे 
रास्ते से भटक कर जानवरों की तरह जीने लगता है। 

इंसान को अपनी ख्याहिशों के पीछे चलने से जो चीज रोकती है वह अक्ल है। मगर जब 
आदमी पर जिद और अदावत का गलबा होता है तो उसकी अक्ल उसकी ख़ाहिश के नीचे 
दबकर रह जाती है। अब वह जाहिर में इंसान मगर बातिन में हैवान होता है। यहां तक कि 
साहिबे बसीरत आदमी उसे देखकर जान लेता है कि उसके जाहिरी इंसानी ढांचे में अंदर कौन 
सा हैवान छुपा हुआ है। 


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और जब वे तुम्हारे पास आते हैं तो कहते हैं कि हम ईमान लाए हालांकि वे मुंकिर 
आए थे और मुंकिर ही चले गए। और अल्लाह ख़ूब जानता है उस चीज को जिसे वे 
छुपा रहे हैं। और तुम उनमें से अक्सर को देखोगे कि वे गुनाह और जुल्म और हराम 
खाने पर दौड़ते हैं। कैसे बुरे काम हैं जो वे कर रहे हैं। उनके मशाइख़ (संत) और उलमा 


(विद्वान) उन्हें क्यों नहीं रोकते गुनाह की बात कहने से और हराम खाने से। कैसे बुरे 
काम हैं जो वे कर रहे हैं। (6-63) 


मदीना के यहूदियों में कुछ लोग थे जो इस्लाम से जेहनी तौर पर मरऊब थे। साथ ही 
इस्लाम का बढ़ता हुआ ग़लबा देखकर खुल्लम खुल्ला उसका हरीफ (प्रतिपक्षी) बनना भी नहीं 
चाहते थे। ये लोग अगरचे अंदर से अपने आबाई दीन पर जमे हुए थे मगर अल्फाज बोलकर 
जाहिर करते थे कि वे भी मोमिन हैं। ऐसे लोग भूल जाते हैं कि असल मामला किसी इंसान 
से नहीं बल्कि ख़ुदा से है। और खुदा वह है जो दिलों तक का हाल जानता है। वह किसी से 
जो मामला करेगा हकीकत के एतबार से करेगा न कि उन अल्फाज की बिना पर जो उसने 
मस्लेहत के तौर पर अपने मुंह से निकाला था। 

यहूद के ख़ास (विशिष्ट जनों) में दो किस्म के लोग थे। एक रिब्बी जिन्हें मशाइख़ (धर्म 
गुरू) कहा जा सकता है। दूसरे अहबार जो उनके उलमा (विद्वानों) और फुक्हा (आचार 





पारा 6 288 सूरा-5. अल-माइदह 


शास्त्री) के मानिन्द थे। दोनों किस्म के लोग अगरचे दीन ही को अपना सुबह व शाम का मशगला 
बनाए हुए थे। दीन के नाम पर उनकी कयादत (नेतृत्व) कायम थी और दीन ही के नाम पर 
उन्हें बझ़े-बड्ी रकमें मिलती थीं। मगर उनकी कयादत व मकबूलियत का राज अवामपसंद दीन 
की नुमाइंदगी थी न कि खुदापसंद दीन की नुमाइंदगी। उनका बोलना और उनका चलना बजाहिर 
दीन के लिए था। मगर हकीकतन वह एक किस्म की दुनियादारी थी जो दीन के नाम पर जारी 
थी। वे दीन के नाम पर लोगों को वही चीज दे रहे थे जिसे वे दीन के बगैर अपने लिए पसंद 
किए हुए थे। 

ख़ुदा का पसंदीदा दीन तकवे का दीन है। यानी यह कि आदमी लोगों के दर्मियान इस 
तरह रहे कि उसकी जबान गुनाह के कलिमात न बोले, वह अपनी सरगर्मियों में हराम तरीकों 
से पूरी तरह बचता हो। जिन लोगों से उसका मामला पेश आए उनके साथ वह इंसाफ करने 
वाला हो न कि जुल्म करने वाला। मगर आदमी का नफ्स हमेशा उसे दुनियापरस्ती के रास्ते 
पर डाल देता है। वह ऐसी जिंदगी गुजारना चाहता है जिसमें उसे सही और गलत न देखना 
हो बल्कि सिर्फ अपने फायदों और मस्लेहतों को देखना हो। यहूद के अवाम इसी हालत पर 
थे। अब उनके ख़ास का काम यह था कि वे उन्हें इससे रोकते। मगर उन्होंने अवाम से एक 
खामोश मुफाहमत कर ली। वे अवाम के दर्मियान ऐसा दीन तक़्सीम करने लगे जिसमें अपनी 
हकीकी जिंदगी को बदले बगैर नजात की जमानत हो और बड़ेबड़े दरजात तै होते हों। ये 
ख़ास अपने अवाम की हकीकी जिंदगियों को न छेड़ते अलबत्ता उन्हें मिल्लते यहूद की 
फजीलत के झूठे किस्से सुनाते। उनके कौमी हंगामों को दीन के रंग में बयान करते। रस्मी 
किस्म के आमाल दोहरा देने पर यह बशारत देते कि इनके जरिए से उनके लिए जन्नत के 
महल तामीर हो रहे हैं। अल्लाह के नजदीक यह बहुत बुरा काम है कि लोगों के दर्मियान ऐसा 
दीन तक्सीम किया जाए जिसमें हकीकी अमली जिंदगी को बदलना न हो, अलबत्ता कुछ 
नुमाइशी चीजों का एहतिमाम करके जन्नत की जमानत मिल जाए 


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और यहूद कहते हैं कि खुदा के हाथ बंधे हुए हैं। उन्हीं के हाथ बंध जाएं और लानत हो 
उन्हें इस कहने पर। बल्कि ख़ुदा के दोनों हाथ खुले हुए हैं। वह जिस तरह चाहता है खर्च 
करता है। और तुम्हारे ऊपर तुम्हारे परवरदिगार की तरफ से जो कुछ उतरा है वह उनमें 
से अक्सर लोगों की सरकशी और इंकार को बढ़ा रहा है। और हमने उनके दर्मियान 


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सूरा-5. अल-माइदह 289 पारा 6 


दुश्मनी और कीना कियामत तक के लिए डाल दिया है। जब कभी वे लड़ाई की आग 
भड़काते हैं तो अल्लाह उसे बुझा देता है। और वे जमीन में फसाद फैलाने में सरगर्म हैं। 
हालांकि अल्लाह फसाद बरपा करने वालों को पसंद नहीं करता। (64) 





कुरआन में जब अल्लाह की राह में खर्च करने पर जोर दिया गया और कहा गया कि 
अल्लाह को कर्ज हसन दो तो यहूद ने इसे मजाक का विषय बना लिया । वे कहते कि अल्लाह 
फकीर है और उसके बंदे अमीर हैं। अल्लाह के हाथ आजकल तंग हो रहे हैं। उनकी इस 
किस्म की बातों का रुछ़ खुदा की तरफ नहीं बल्कि रसूल और कुरआन की तरफ होता था। 
वे जानते थे कि ख़ुदा इससे बरतर है कि उसके यहां किसी चीज की कमी हो। इस तरह की 
बातें वे दरअस्ल यह जाहिर करने के लिए कहते थे कि रसूल सच्चा रसूल नहीं। और कुरआन 
खुदा की किताब नहीं। अगर यह कुरआन खुदा की तरफ से होता तो (नऊजुबिल्लाह) ऐसी 
मजहकारेज बातें इसमें न होतीं। मगर जो लोग इस किस्म की बातें करें वे सिर्फ यह साबित 
करते हैं कि वे हकीकी दीनी जज्बे से ख़ाली हैं वे बेहिसी की सतह पर जी रहे हैं। 

मौजूदा इम्तेहानी दुनिया में इंसान को अमल की आजादी है। यहां एक शख्स यह भी 
कह सकता है कि 'कुरआन ख़ुदा की किताब है” और अगर कोई शख्स यह कहना चाहे कि 
'कुरआन एक बनावटी किताब है! तो उसे भी अपनी बात कहने के लिए अल्फाज मिल 
जाएंगे। यही वजह है कि यहां आदमी एक वाकये से हिदायत पकड़ सकता है और उसी 
वाकये से दूसरा आदमी सरकशी की गिजा भी ले सकता है। 

यहूद ने जब कुरआन की हिदायत को मानने से इंकार किया तो वह सादा मञनों में 
महज इंकार न था बल्कि इसके पीछे उनका यह जोम शामिल था कि हम तो नजातयाफ्ता 
लोग हैं, हमें किसी और हिदायत को मानने की क्या जरूरत | जो लोग इस किस्म की पुरफख़ 
नप्सियात में मुब्तला हों उनके अंदर शदीदतरीन किस्म की अनानियत जन्म लेती है। रोजमर्रह 
की जिंदगी में जब उनका मामला दूसरों से पड़ता है तो वहां भी वे अपनी 'मैं! को छोड़ने पर 
राजी नहीं होते। नतीजा यह होता है कि पूरा मुआशिरा आपस के इख़्तेलाफ और एनाद (देष) 
का शिकार होकर रह जाता है। 

पैगम्बर की दावत यह होती है कि आदमी भी उसी इताअते ख़ुदावंदी के दीन को अपना 
ले जिसे कायनात की तमाम चीजें अपनाए हुए हैं। यही जमीन की इस्लाह है। अब जो लोग 
पैग़म्बराना दावत की राह में रुकावट डालें वे खुदा की जमीन में फसाद पैदा करने का काम 
कर रहे हैं। ताहम इंसान को सिर्फ इतनी ही आजादी हासिल है कि वह अपने अंदर के फसाद 
को बाहर लाए, दूसरों की किस्मत का मालिक बनने की आजादी किसी को नहीं। 


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पारा 6 290 सूरा-5. अल-माइदह 


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और अगर अहले किताब ईमान लाते और अल्लाह से डरते तो हम जरूर उनकी बुराइयां 
उनसे दूर कर देते और उन्हें नेमत के बाग़ों में दाखिल करते। और अगर वे तौरात और 
इंजील की पाबंदी करते और उसकी जो उन पर उनके रब की तरफ से उतारा गया है 
तो वे खाते अपने ऊपर से और अपने कदमों के नीचे से। कुछ लोग उनमें सीधी राह 
पर हैं। लेकिन ज्यादा उनमें ऐसे हैं जो बहुत बुरा कर रहे हैं। (65-66) 





तमाम गुमराहियों का असल सबब आदमी का ढीठ हो जाना है। अगर आदमी अल्लाह 
से डरे तो उसे यह समझने में देर नहीं लग सकती कि कौन सी बात ख़ुदा की तरफ से आई 
हुई बात है। डर की नफ्सियात उसके अंदर से दूसरे तमाम मुहर्रिकात को ख़त्म कर देगी और 
आदमी खुदा की बात को फौरन पहचान कर उसे मान लेगा। जब आदमी इस हद तक अपने 
आपको खुदा की तरफ मुतवज्जह कर दे तो इसके बाद वह भी ख़ुदा की तवज्जोह का 
मुस्तहिक हो जाता है। खुदा उसकी बशरी (इंसानी) कमजोरियों को उससे धो देता है और 
मरने के बाद उसे जन्नत के नेमत भरे बागों में जगह देता है। आदमी की बुराइयां, बअल्फाजे 
दीगर उसकी नफ्सियाती कमजोरियां वे चीजें हैं जो उसे जन्नत के रास्ते पर बढ़ने नहीं देतीं। 
खुदा की तौफीक से जो शख़म अपनी नफ्सियाती कमजेरियों पर काबू पा लेता है वही जन्नत 
की मंजिल तक पहुंचता है। 

जब भी हक की दावत उठती है तो वे लोग इससे भयभीत हो जाते हैं जो साबिका निजाम 
के तहत सरदारी का मकाम हासिल किए हुए हों। उन्हें अदेशा होता है कि इसको कुबूल करते 
ही उनके मआशी (आर्थिक) मफादात और उनकी कायदाना अजमतें ख़त्म हो जाएंगी । मगर यह 
सिर्फ तंगनजरी है। ऐसे लोग भूल जाते हैं कि जिस चीज को वह वहशत की नजर से देख रहे 
हैं वह सिर्फ उनकी अहलियत को जांचने के लिए जाहिर हुई है। आइंदा वे ख़ुदा के इनामात के 
मुस्तहिक होया न हो इसका फैसला उनकी अपनी तहफ्फुजाती (संरक्षण) तदबीरों पर नहीं होगा 
बल्कि इस पर होगा कि दावते हक के साथ वे क्या रवैया इख्ियार करते हैं। गोया दावते हक 
के इंकार के जरिए वे अपनी जिस बड़ाई को बचाना चाहते हैं वही इंकार वह चीज है जो ख़ुदा 
के नजदीक उनके इस्तेहकाक (पात्रता) को म कर रहा है। 

आसमानी किताब की हामिल कौमों में हमेशा ऐसा होता है कि अस्ल खुदाई तालीताम में 
इफरात या तफरीत (बढ़ाकर या घटाकर) वे एक खुदसारता दीन बना लेती हैं और लम्बी मुदृदत 
गुजरने के बाद उसके अफराद उससे इस कद्र मानूस हो जाते हैं कि उसी को अस्ल खुदाई 
मजहब समझने लगते हैं। ऐसी हालत में जब ख़ुदा का सीधा और सच्चा दीन उनके सामने आता 
है तो वे उसे अपने लिए गैर मानूस पाकर भयभीत होते हैं। यहूद व नसारा का यही हाल था। 
चुनांचे उनकी बहुत बढ़ी अक्सरियत इस्लाम की सदाकत को पाने से कासर रही । सिर्फ चन्द 
लोग (मसलन नजाशी शाहे हबश, अब्दुल्लाह बिन सलाम वगैरह) जो एतदाल की राह पर बाकी 
थे, उन्हें इस्लाम की सदाकत को समझने में देर नहीं लगी। उन्होंने बढ़कर इस्लाम को इस तरह 








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सूरा-5. अल-माइदह 29I पारा 6 


अपना लिया जैसे वह पहले से इसी रास्ते पर चल रहे हों और अपने सफर के तसलसुल को 
जारी रखने के लिए मुसलमानों की जमाअत में शामिल हो गए हों। 


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ऐ पैग़म्बर, जो कुछ तुम्हारे ऊपर तुम्हारे रब की तरफ से उतरा है उसे पहुंचा दो। और 


अगर तुमने ऐसा न किया तो तुमने अल्लाह के पेगाम को नहीं पहुंचाया। और अल्लाह 
तुम्हें लोगों से बचाएगा। अल्लाह यकीनन मुंकिर लोगों को राह नहीं देता। (67) 





पैग़म्बरे इस्लाम मुहम्मद (सल्ल०) जब अरब में आए तो ऐसा न था कि वहां दीन का 
नाम लेने वाला कोई न हो। बल्कि उनका सारा समाज दीन ही के नाम पर कायम था। दीन 
के नाम पर बहुत से लोग पेशवाई और कयादत का मकाम हासिल किए हुए थे। दीन के नाम 
पर लोगों को बड़ी-बड़ी रकमें मिलती थीं। दीनी मंसबों का हामिल होना समाज में इज्जत और 
फख़ की अलामत बना हुआ था। इसके बावुजूद आपको अरब के लोगों की तरफ से 
सख्ततरीन मुखालिफत का सामना करना पड़ा। इसकी वजह यह थी कि दीने ख़ुदावंदी के 
नाम पर उनके यहां एक ख़ुदसाख्ता (स्वनिर्मित) दीन राइज हो गया था। सदियों की रिवायतों 
के नतीजे में इस दीन के नाम पर गद्दियां बन गई थीं और मफादात की बहुत सी सूरतें 
कायम हो गई थीं। ऐसे माहौल में जब पेग़म्बरे इस्लाम ने बेआमेज (विशुद्ध) दीन की दावत 
पेश की तो लोगों को नजर आया कि वह उनकी दीनी हैसियत को बेएतबार साबित कर रही 
है। उन्हें अंदेशा हुआ कि अगर यह दीन फैला तो उनका वह मजहबी ढांचा ढह जाएगा जिसमें 
उन्हें बड़ाई का मकाम मिला हुआ है। 

यह सूरतेहाल दाऔ के लिए बहुत सख्त होती है। अपने दावती काम को खुले तौर पर 
अंजाम देना वक्‍त की मजहबी ताकतों से लड़ने के समान बन जाता है। उसे दिखाई देता है 
कि अगर मैं किसी मुसालेहत के बगैर सच्चे दीन की तब्लीग़ करूं तो मुझे सख्ततरीन 
रद्देअमल (प्रतिक्रिया) का सामना करना पड़ेगा। मेरा मजाक उडया जाएगा। मुझे बेइज्जत 
किया जाएगा । मेरी मआशियात तबाह की जाएगी । मेरे खिलाफ जारिहाना (आक्रामक) कार्रवाइयां 
होंगी । में साथियों सहयोगियों से महरूम हो जाऊंगा। 

अब उसके सामने दो रास्ते होते हैं। दावती जिम्मेदारियों को अदा करने में दुनियावी 
मस्लेहतों (हितों) के सिरे हाथ से छूटते हैं। और अगर दुनियावी मस्लेहतों का लिहाज किया जाए 
तो दावती अमल की पूरी अंजामदेही नामुमकिन नजर आती है। यहां ख़ुदा का वादा दाऔ को 
यकसू करता है। ख़ुदा का वादा है कि दाऔ अगर अपने आपको खुदा के पैग़ाम की पैग़ामरसानी 
में लगा दे तो लोगों की तरफ से डाली जाने वाली मुश्किलात में खुदा उसके लिए काफी हो 
जाएगा। दाऔ को चाहिए कि वह सिर्फ दावत के तकाजों की तकमील में लग जाए और मदऊ 
(संबोधित) कौम की तरफ से डाले जाने वाले मसाइब में वह ख़ुदा पर भरोसा करे। 


पारा 6 292 सूरा-5. अल-माइदह 


मुखातबीन का रद्देअमल (प्रतिक्रिया) एक फितरी चीज है और दाऔ को बहरहाल उससे 
साबिका पेश आता है। मगर उसका असर उसी दायरे तक महदूद रहता है जितना खुदा के कानूने 
आजमाइञ का तकज है। ऐसा कभी नहीं हे सकता कि मूखलिफीन इस हद तक कबूयाफ्ता 
हो जाएं कि वह दावती मुहिम को रोक दें या उसे तकमील तक पहुंचने न दें। एक सच्ची दावत 
का अपने दावती निशाने तक पहुंचना एक खुदाई मंसूबा होता है इसलिए वह लाजिमन पूरा होकर 
रहता है। इसके बाद मदऊ (संबोधित) गिरोह का मानना उसकी अपनी जिम्मेदारी है जो उसी 
के बकद्र नतीजाख़ेज़ होती है जितना मदऊ ख़ुद चाहता है। 

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कह दो, ऐ अहले किताब तुम किसी चीज पर नहीं जब तक तुम कायम न करो तौरात 
और इंजील को और उसे जो तुम्हारे ऊपर उतरा है तुम्हारे रब की तरफ से। और जो 
कुछ तुम्हारे ऊपर तुम्हारे रब की तरफ से उतारा गया है वह यकीनन उनमें से अक्सर 
की सरकशी और इंकार को बढ़ाएगा। पस तुम इंकार करने वालों के ऊपर अफसोस 
न करो। बेशक जो लोग ईमान लाए और जो लोग यहूदी हुए और साबी और नसरानी, 


जो शख्स भी ईमान लाए अल्लाह पर और आखिरत (परलोक) के दिन पर और नेक 
अमल करे तो उनके लिए न कोई अंदेशा है और न वे ग़मगीन होंगे। (68-69) 














यहूद का यह हाल था कि उनके अफराद अमलन खुदा के दीन पर कायम न थे। उन्होंने 
अपने नफ्स को और अपनी जिंदगी के मामलात को ख़ुदा के ताबेअ नहीं किया था। अलबत्ता 
ख़ुशगुमानियों के तहत उन्होंने यह अकीदा बना लिया था कि ख़ुदा के यहां उनकी नजात 
यकीनी है। वे अपनी कैमी फजीलत के अफ्सानेंऔर अपने बूजौके तकुस की दास्तानें 
में जी रहे थे। मगर अल्लाह के यहां इस किस्म की खुशख्य़ालियों की कोई कीमत नहीं। अल्लाह 
के यहां जो कुछ कीमत है वह सिर्फ इस बात की है कि आदमी अल्लाह के अहकाम का पाबंद 
बने और अपनी हकीकी जिंदगी को खुरा के दीन पर कायम करे। 

जो लोग झूठी आरजुओं में जी रहे हों उनके सामने जब यह दावत आती है कि अल्लाह 
के यहां अमल की कीमत है न कि आरजुओं और तमन्नओं की तो ऐसी दावत के खिलाफ 
वे शदीद रद्देअमल का इज्हार करते हैं। ऐसी दावत में उन्हें अपनी खुशख्यालियों का महल 
गिरता हुआ नजर आता है। यह सूरतेहाल उनके लिए आजमाइश बन जाती है। वे ऐसी दावत 
के सख्त मुखालिफ हो जाते हैं। नुमाइशी खुदापरस्ती के अंदर छुपी हुई उनकी ख़ुदपरस्ती 


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सूरा-5. अल-माइदह 293 पारा 6 


बेपर्दा होकर सामने आ जाती है। जिस दावत से उन्हें रब्बानी गिजा लेना चाहिए था उससे वे 
सिर्फ इंकार और सरकशी की गिजा लेने लगते हैं। 

कदीम जमाने में जो पैगम्बर आए उनके मानने वालों की नस्लें धीरे-धीरे मुस्तकिल कौम 
की सूरत इख्तियार कर लेती हैं। अब पैग़म्बरों के नमूने पर अमल तो बाकी नहीं रहता । अलबत्ता 
अपनी अज्मत और फजीलत के कसीदे किस्से कहानियों की सूरत में खूब फैल जाते हैं। हर 
गिरोह समझने लगता है कि हम सबसे अफजल हैं। हमारी नजात यकीनी है। अल्लाह के यहां 
हमारा दर्जा सबसे बढ़ा हुआ है। मगर इस किस्म के गिरोही मजाहिब (धर्मी) की खुदा की नजदीक 
कोई कीमत नहीं। अल्लाह के यहां हर शख्स का मुकदमा इंफरादी हैसियत में पेश होगा और 
उसके मुस्तकबिल की बाबत जो कुछ फैसला होगा वह तमामतर उसके अपने अमल की बुनियाद 
पर होगा न कि किसी और बुनियाद पर। 

ख़ुदा की किताब को कायम करना नाम हैअल्लाह पर यकीन करने का, आखिरत की 
पकड़ के अंदेशे को अपने ऊपर तारी करने का और इंसानों के दर्मियान सालेह किरदार के 
साथ जिंदगी गुजारने का। यही अस्ल दीन है और हर फर्द को यही अपनी जिंदगी में इख्नियार 
करना है। आसमानी किताब की हामिल कौम की कीमत दुनिया में उसी वक्‍त है जबकि उसके 
अफराद उस दीने खुदावंदी पर कायम हों। इससे हटने के बाद वे ख़ुदा की नजर में बिल्कुल 
बेकीमत हो जाते हैं, यहां तक कि खुले हुए मुंकिरों और मुश्रिकों से भी ज्यादा बेकीमत। 

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हमने बनी इस्राईल से अहद (वचन) लिया और उनकी तरफ बहुत से रसूल भेजे। जब 
कोई रसूल उनके पास ऐसी बात लेकर आया जिसे उनका जी न चाहता था तो कुछ 
को उन्होंने झुठलाया और कुछ को कत्ल कर दिया। और ख्याल किया कि कुछ ख़राबी 
न होगी। पस वे अंधे और बहरे बन गए। फिर अल्लाह ने उन पर तवज्जोह की। फिर 


उनमें से बहुत से अंधे और बहरे बन गए। और अल्लाह देखता है जो कुछ वे कर रहे 
हैं। (70-7॥) 


यहूद से अल्लाह ने हजरत मूसा के जरिए ईमान व इताअत का अहद लिया था। वे कुछ 
दिन उस पर कायम रहे। इसके बाद उनमें बिगाड़ शुरू हो गया। अब अल्लाह ने उनके 
दर्मियान अपने सुधारक उठाए जो उन्हें अपने अहद की याददिहानी कराएं। मगर यहूद की 
बेराही और सरकशी बढ़ती ही चली गई। उन्होंने खुद नसीहत करने वालों की जबान बन्द 
करने की कोशिश की। यहां तक कि कितने लोगों को कत्ल कर दिया। जब उनकी सरकशी 
हद को पहुंच गई तो अल्लाह ने बाबिल व नैनवा (इराक) के बादशाह बनू ख़ज़ नस्र को उनके 


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पारा 6 294 सूरा-5. अल-माइदह 


ऊपर मुसल्लत कर दिया जिसने 586 ई०पू० में यरोशलम पर हमला करके यहूद के मुकदूदस 
शहर को ठा दिया और यहूदियों को गिरफ्तार करके अपने मुल्क ले गया ताकि उनसे बेगार 
ले। इस वाकये के बाद यहूद के दिल नर्म हो गए। उन्होंने अल्लाह से माफी मांगी। अब 
अल्लाह ने साइरस (शाह ईरान) के जरिए उनकी मदद की। साइरस ने 539 ई०पू० में 
कल्दानियों के ऊपर हमला किया और उन्हें शिकस्त देकर उनके मुल्क पर कब्जा कर लिया। 
इसके बाद उसने यहूद को जलावतनी (देश निकाला) से नजात दिलाकर उन्हें उनके वतन 
जाने और वहां दुबारा बसने की इजाजत दे दी। 

अब यहूद को नई जिंदगी मिली और उन्हें काफी फरोग हासिल हुआ। मगर कुछ दिनों 
के बाद वे दुबारा गफलत और सरकशी में मुब्तला हुए। अब फिर नबियों और मुस्लिहीन के 
जरिए अल्लाह ने उन्हें सचेत किया। मगर वे होश में न आए, यहां तक कि उन्होंने हजरत 
यहया को कत्ल कर दिया और (अपनी हद तक) हजरत मसीह को भी। अब अल्लाह का 
गजब उन पर भड़का और 70 ई० में रूमी शहंशाह टाइटस को उन पर मुसल्लत कर दिया 
गया। जिसने उनके मुल्क पर हमला करके उन्हें वीरान कर दिया। इसके बाद यहूद कभी 
अपनी जाती बुनियादों पर खड़े न हो सके। 

आसमानी किताब की हामिल कौमा की नपिसियात बाद के जमाने में यह बन जाती है 
कि वे ख़ुदा के ख़ास लोग हैं। वे जो कुछ भी करें उस पर उनकी पकड़ नहीं होगी। ख़ुदा की 
तालीमात में इस अकीदे के खिलाफ खुले खुले बयानात होते हैं। मगर वे उनके बारे में अंधे 
और बहरे बन जाते हैं। वे अपने गिर्द खुदसाख़्ता (स्वनिर्मित) अकीदों और फर्जी किस्से 
कहानियां का ऐसा हाला बना लेते हैं कि ख़ुदा की तंबीहात उन्हें दिखाई और सुनाई नहीं 
देतीं। यहूद की यह तारीख बताती है कि जब भी एक हामिले किताब कौम को उसके 
दुश्मनों के कञ्जे में दे दिया जाए तो यह उसके लिए खुदा की तरफ से आजमाइश का 
वक्त होता है। इसका मतलब यह होता है कि हल्की सजा देकर कौम को जगाया जाए। 
अगर इसके नतीजे में कौम के अफराद में खुदापरस्ताना जज्बात जाग उठें तो उसके ऊपर से 
सजा उठा ली जाती है। और अगर ऐसा न हो तो ख़ुदा उसे रदूद करके फेंक देता है और 
फिर कभी उसकी तरफ मुतवज्जह नहीं होता। 


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यकीनन उन लोगों ने कुफ्र किया जिन्होंने कहा कि खुदा ही तो मसीह इब्मे मरयम है। 
हालांकि मसीह ने कहा था कि ऐ बनी इस्राईल अल्लाह की इबादत करो जो मेरा रब 
है और तुम्हारा रब भी। जो शख्स अल्लाह का शरीक ठहराएगा तो अल्लाह ने हराम 
की उस पर जन्नत और उसका ठिकाना आग है। और जालिमों का कोई मददगार नहीं। 
यकीनन उन लोगों ने कुफ्र किया जिन्होंने कहा कि खुदा तीन में का तीसरा है। हालांकि 

कोई माबूद (पूज्य) नहीं सिवाए एक माबूद के। और अगर वे बाज़ न आए उससे जो 
वे कहते हैं तो उनमें से कुफ्र पर कायम रहने वालों को एक दर्दनाक अजाब पकड़ लेगा । 

ये लोग अल्लाह के आगे तोबा क्यों नहीं करते और उससे माफी क्यों नहीं चाहते। और 
अल्लाह बख्शने वाला महरबान है। मसीह इब्ने मरयम तो सिर्फ एक रसूल हैं। उनसे 
पहले भी बहुत रसूल गुजर चुके हैं। और उनकी मां एक रास्तबाज (नेक) ख़ातून थीं। 

दोनों खाना खाते थे। देखो हम किस तरह उनके सामने दलीलें बयान कर रहे हैं। फिर 
देखो वे किधर उल्टे चले जा रहे हैं। कहो क्या तुम अल्लाह को छोड़कर ऐसी चीज की 
इबादत करते हो जो न तुम्हारे नुक्सान का इख्तियार रखती है और न नफा का। और 

सुनने वाला और जानने वाला सिर्फ अल्लाह ही है। (72-76) 


पारा 6 


हजरत मसीह को अल्लाह तआला ने गैर मामूली मुअजिजे (चमत्कार) दिए । ये मुअजिजे 
इसलिए थे कि लोग आपके पैगम्बर होने को पहचानें और आप पर ईमान लाएं। मगर मामला 
बरअक्स हुआ । ईसाइयों ने आपके मुअजिजात को देखकर यह अकीदा कायम किया कि आप 
खुदा हैं। आपके अंदर खुदा हुलूल किए हुए है। यहूद ने यह कहकर आपको नजरअंदाज कर 
दिया कि यह एक शोअबदाबाज और जादूगर हैं। हजरत मसीह अल्लाह की तरफ से लोगों की 
हिदायत के लिए आए थे। मगर एक गिरोह ने आपसे शिक की गिजा ली और दूसरे गिरोह ने 
इंकार की। 

माबूद (पूज्य) वही हो सकता है जो ख़ुद बेएहतियाज (निरपेक्ष) हो और दूसरों को नफा 
नुक्सान पहुंचाने की कुदरत रखे। खाना आदमी के मोहताज होने की आखिरी अलामत है। 
जो खाने का मोहताज है वह हर चीज का मोहताज है। जो शख्स खाना खाता हो वह मुकम्मल 
तौर पर एक मोहताज हस्ती है। ऐसी हस्ती ख़ुदा किस तरह हो सकती है। यही मामला नफा 
नुक्सान का है। किसी को नफा मिलना या किसी को नुक्सान पहुंचना ऐसे वाकेयात है जिनके 
जहूर में आने के लिए पूरी कायनात की मदद दरकार होती है। कोई भी शख्स इस किस्म के 
कायनाती असबाब फराहम करने पर कादिर नहीं। इसलिए इंसानों में से किसी इंसान का यह 
दर्जा भी नहीं हो सकता कि उसे माबूद मान लिया जाए। 

जब भी आदमी ख़ुदा के सिवा किसी और को अपनी अकीदत (आस्था) व मुहब्बत का 


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पारा 6 296 सूरा-5. अल-माइदह 


मर्कज बनाता है तो उसके पीछे यह छुपा हुआ जज्बा होता है कि उसे खुदा की दुनिया में कोई 
बड़ा दर्जा हासिल है। वह ख़ुदा के यहां उसका मददगार बन सकता है। मगर इस किस्म की 
तमाम उम्मीदें महज झूठी उम्मीदें हैं। मौजूदा इम्तेहान की दुनिया में खुदा के सिवा दूसरी चीजों 
का बेबस होना खुला हुआ नहीं है। इसलिए यहां आदमी गलतफहमी में पड़ा हुआ है। मगर 
आखिरत में तमाम हकाइक खोल दिए जाएंगे तो आदमी देखेगा कि खुदा के सिवा जिन 
सहारों पर वह भरोसा किए हुए था वह किस कद्र बेकीमत थे। 


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कहो, ऐ अहले किताब अपने दीन में नाहक गुलू (अति) न करो और उन लोगों के 
ख्यालात की पैरवी न करो जो इससे पहले गुमराह हुए और जिन्होंने बहुत से लोगों को 
गुमराह किया। और वे सीधी राह से भटक गए। (77) 





हजरत मसीह के इब्तिदाई शागिर्दो के नजदीक मसीह “एक इंसान था जो खुदा की तरफ 
से था / वे आपको इंसान और अल्लाह का रसूल समझते थे। मगर आपका दीन जब शाम 
के इलाके से बाहर निकला तो उसे मिम्न व यूनान के फलसफे से साबिका पेश आया। 
मसीहियत वुबूल करके ऐसे लोग मसीहियत में दाखिल हुए जो वक्‍त के फलसफियाना 
अफ्कार से मुतारिसर थे। इस तरह अंदरूनी असबाब और बाहरी प्रेरकों के तहत मसीहियत 
में एक नया दौर शुरू हुआ जबकि मसीहियत को वक्त के ग़ालिब फलसफियाना उस्लूब में 
बयान करने की कोशिश शुरू हुई । 

उस जमाने की सभ्य दुनिया मैमिम्न व यूनान के फ्लसफियिंका जेर था। वक्‍त के ज्हीन 
लोग आम तौर पर उन्हीं के अपकार (विचारों) की रोशनी में सोचते थे। यूनानी फलसफियों ने 
अपने कयासात के जरिए आलम की एक ख््राली तस्वीर बना रखी थी। वे हकीकत की ताबीर 
तीन अक़्नूमों (१०४३४९५) की सूरत में करते थे। वुजूद, हयात और इल्म। मसीही उलमा जो 
खुद भी इन अपार से मरऊब थे साथ ही वक्त के जहीन तबकेको मसीहियत की तरफ मायल 
करना चाहते थे, उन्होंने अपने मजहब को वकत के गालिब फिक्र पर ढालने की कोशिश की । उन्होंने 
मसीहियत की ऐसी ताबीर की जिसमें खुदा का दीन भी इसी “तीन” के जामे में ठल जाए और लोग 
उसेअपनेज्हन के मुाबिक पाकर उसेवुङ्ून कर लें। उच्ह्ली कहा कि मजहवी हवीकत भी एक 
तस्लीस (तीन खुदा) की सूरतगरी है। अकनूमे वुजूद बाप है। अकनूमे हयात बेटा है और अक्नूमे 
इल्म रूहुल कुदूस है। इस कलामी मजहब को मुकम्मल करने के लिए और बहुत से ख़्यालात उसमें 
दाखिल किए गए । मसलन यह कि हजरत मसीह 'कलाम' का जसदी जुहूर (भौतिक रूप) हैं। आदम 
के जमीन पर उतरने के बाद हर इंसान गुनाहगार हो चुका है और इंसान की नजात (मुक्ति) के 
लिए खुदा के बेटे को सूली पर चढ़कर इसका कप्फारा (प्रायश्चित) देना पड़ा, वगैरह । इस तरह 
चौथी सदी ईसवी में मिस्री, यूनानी और रूमी विचारों में ढलकर वह चीज तैयार हुई जिसे मौजूदा 
मसीहियत कहा जाता है। 


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सूरा-5. अल-माइदह 297 पारा 6 


ख़ुदा के सीधे रास्ते से भटकने की वजह अक्सर यह होती है कि लोग गुमराह कौमों के 
ख्यालात से मरऊब होकर दीन को उनके ख़्यालात के सांचे में ढालने लगते हैं। ख़ुदा के दीन 
को मानते हुए उसकी ताबीर इस ढंग से करते हैं कि वह गालिब अफ्कार के मुताबिक नजर 
आने लगे। वे खुदा के दीन के नाम पर गैर ख़ुदा के दीन को अपना लेते हैं। नसारा ने अपने 
दीन को अपने जमाने की मुश्रिक कौमों के अपकार में ढाल लिया और उसी को ख़ुदा का 
मकबूल दीन कहने लगे। यही चीज कभी इस तरह पेश आती है कि दीन को ख़ुद अपने कौमी 
अजाइम (महत्वाकांक्षाओं) के सांचे में ठाल लिया जाता है। इस दूसरी तहरीफ (परिवर्तन) की 
मिसाल यहूद हैं। उन्होंने खुदा के दीन की ऐसी ताबीर की कि वह उनकी दुनियावी जिंदगी 
की तस्दीक करने वाला बन जाए। मुसलमानों के लिए किताबे इलाही के मत्न में इस किस्म 
की ताबीरात दाखिल करने का मौका नहीं है। ताहम मत्न (मूल पाठ) के बाहर उन्हें वह सब 
कुछ करने की आजादी है जो पिछली कौमों ने किया। 


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बनी इस्राईल में से जिन लोगों ने कुफ्र किया उन पर लानत की गई दाऊद और ईसा 
इन्ने मरयम की जबान से। इसलिए कि उन्होंने नाफरमानी की और वे हद से आगे बढ़ 
जाते थे। वे एक दूसरे को मना नहीं करते थे बुराई से जो वे करते थे। निहायत बुरा 
काम था जो वे कर रहे थे। तुम उनमें बहुत आदमी देखोगे कि कुफ्र करने वालों से दोस्ती 
रखते हैं। केसी बुरी चीज है जो उन्होंने अपने लिए आगे भेजी है कि खुदा का गजब 
हुआ उन पर और वे हमेशा अजाब में पड़े रहेंगे। अगर वे ईमान रखने वाले होते अल्लाह 
पर और नबी पर और उस पर जो उसकी तरफ उतरा तो वे मुंकिरों को दोस्त न बनाते। 
मगर उनमें अक्सर नाफरमान हैं। (78-8) 


ईमान आदमी को जुल्म और बुराई के बारे में हस्सास (संवेदनशील) बना देता है। वह 
किसी को जुल्म और बुराई करते देखता है तो तड़प उठता है और चाहता है कि फौरन उसे 
रोक दे। बुरे लोगों से उसका तअल्लुक जुदाई का होता है न कि दोस्ती का। मगर जब ईमानी 
जज्बा कमजोर पड़ जाए तो आदमी सिर्फ अपनी जात के बारे में हस्सास होकर रह जाता है। 
अब उसे सिर्फ वह बुराई बुराई मालूम होती है जिसकी जद उसके अपने ऊपर पड़े। जिस 
बुराई का रुख़ दूसरों की तरफ हो उसके बारे में वह गैर जानिबदार हो जाता है। 


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पारा 7 298 सूरा-5. अल-माइदह 


बनी इस्राईल जो इस जवाल का शिकार हुए इसका मतलब यह न था कि उन्होंने अपनी 
जबान से अच्छी बात बोलना छोड़ दिया था। उनके ख़ास अब भी ख़ूबसूरत तकरीरें करते थे 
मगर इस मामले मे वे इतने संजीदा न थे कि जब किसी को जुल्म और बुराई करते देखें तो 
वहां कूद पड़ें और उसे रोकने की कोशिश करें। हजरत दाऊद अपने जमाने के यहूद के बारे 
में फरमाते हैं कि उनमें कोई नेकोकार नहीं, एक भी नहीं (4)। मगर इसी के साथ आपके 
कलाम से इसकी तस्दीक होती है कि यहूद अपने हमसायों से सुलह की बातें करते थे जबकि 
उनके दिलों में बदी होती थी (28)। वे ख़ुदा के आईन (विधान) को बयान करते और ख़ुदा 
के अहद को जबान पर लाते (50)। हजरत मसीह अपने जमाने के यहूदियों के बारे में फरमाते 
हैं ऐ रियाकार फकीहो तुम पर अफसोस, तुम बेवाओं के घरों को दबा बैठे हो और दिखावे 
के लिए नमाज को लंबा करते हो। तुम पौदीना और सौंफ और जीरे पर तो ज़ोर देते हो पर 
तुमने शरीअत की ज्यादा भारी बातों यानी इंसाफ, रहम और ईमान को छोड़ दिया है। ऐ अंधे 
राह बताने वालो मच्छर को छानते हो और ऊंट को निगल जाते हो। ऐ रियाकार फकीहो तुम 
जाहिर में तो लोगों को रास्तबाज (नेक) दिखाई देते हो मगर अंदर से रियाकारी और बेदीनी 
से भरे हुए हो। (मत्ता 28) 

यहूद खुदा का आईन (विधान) बयान करते थे। वे लम्बी नमाजें पढ़ते और फसलों में 
दसवां हिस्सा निकालते। मगर उनकी बातें सिर्फ कहने के लिए होती थीं। वह हानि रहित 
अहकाम पर नुमाइशी एहतमाम के साथ अमल करते मगर जब साहिबे मामला से इंसाफ करने 
का सवाल होता, जब एक कमजोर पर रहम का तकाजा होता, जब अपने नपस को कुचल 
कर अल्लाह के हुक्म को मानने की जरूरत होती तो वे फिसल जाते। यहां तक कि अगर कोई 
ख़ुदा का बंदा उनकी गलतियों को बताता तो वे उसके दुश्मन हो जाते। यही चीज थी जिसने 
उन्हें लानत और गजब का मुस्तहिक बना दिया। 


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सूरह-5. अल-माइदा 299 पारा 7 


ईमान वालों के साथ दुश्मनी में तुम सबसे बढ़कर यहूद और मुश्रिकीन को पाओगे। 
और ईमान वालों के साथ दोस्ती में तुम सबसे ज्यादा उन लोगों को पाओगे जो अपने 
को नसारा कहते हैं। यह इसलिए कि उनमें आलिम और राहिब हैं। और इसलिए कि 
वे तकब्बुर (घमंड) नहीं करते। और जब वे उस कलाम को सुनते हैं जो रसूल पर उतारा 
गया है तो तुम देखोगे कि उनकी आंखों से आंसू जारी हैं इस सबब से कि उन्होंनें हक 
को पहचान लिया। वे पुकार उठते हैं कि ऐ हमारे रब हम ईमान लाए। पस तू हमें 
गवाही देने वालों में लिख ले। और हम क्यों न ईमान लाएं अल्लाह पर और उस हक 
पर जो हमें पहुंचा है जबकि हम यह आरजू रखते हैं कि हमारा रब हमें सालेह (नेक) 
लोगों में शामिल करे। पस अल्लाह उन्हें इस कौल के बदले में ऐसे बाग़ देगा जिनके 
नीचे नहरें बहती होंगी वे उनमें हमेशा रहेंगे। और यही बदला है नेक अमल करने वालों 
का। और जिन्होंने इंकार किया और हमारी निशानियों को झुठलाया तो वही लोग 
दोज़ख़ वाले हैं। (82-86) 


इस आयत मेंजन्नत को 'कील' (कथन) का बदला करार दिया गया है। मगर वह कौल 
क्या था जिसने उसके कहने वालों को अबदी (चिरस्थाई) जन्नत का मुस्तहिक बना दिया । वह 
कील उनकी पूरी हस्ती का नुमाइंदा था। वह उनकी शख्सियत की फटन की आवाज था। 
उन्होंने अल्लाह के कलाम को इस तरह सुना कि उसके अंदर जो हक था उसे वह पूरी तरह 
पा गए। वह उनके दिल व दिमाग़ में उतर गया। इसने उनके अंदर ऐसा इंकिलाब बरपा किया 
कि उनके हौसलों और तमन्नाओं का मर्कज बदल गया। तअस्सुब और मस्लेहत की तमाम 
दीवारें ढह पड़ीं । उन्होंने हक के साथ अपने आपको इस तरह शामिल किया कि उससे अलग 
उनकी कोई हस्ती बाकी न रही। वे इसके गवाह बन गए, और गवाह बनना एक हकीकत 
का इंसान की सूरत में मुजस्सम होना है। कुरआन अब उनके लिए महज एक किताब न रहा 
बल्कि मालिके कायनात की जिंदा निशानी बन गया। यह रब्बानी तजर्बा जो उन पर गुजरा 
बजहिर इसका इयर अगरचेलफोकी सूत मेहुआ थ मगर उनके ये अत्ाज अत्फज 
न थे बल्कि वह एक जलजला था जिसने उनके पूरे वजूद को हिला दिया। यहां तक कि उनकी 
आंखों से आंसू बह पड़े। 

कैल अपनी हवीकत केएतबार सेकिसी किस्म केज़बानी तलप्झु (उच्चारण) का नाम 
नहीं। वह आदमी के अमल को मअनवियत (सार्थकता) का रूप देने की आलातरीन सूरत है 
जिसका इशन्नियार मालूम कायनात मेंसिर्फइंसान को हासिल है। एक हकीकी कैल सबसे ज्यादा 
लतीफ और सबसे ज्यादा बामअना वाकया है। कैल आदमी की हस्ती का सबसे बड़ इज्हार है। 
कौल बोलने का अमल है। इसलिए जब कोई शख्स कौल की सतह पर अपनी अबदियत (बंदा 
होने) का सुबूत दे दे तो वह जन्नत का यकीनी इस्तहकाक (पात्रता) हासिल कर लेता है। 

हक को न मानने की सबसे बड़ी वजह हमेशा किब्र होता है। जिनके दिलों में किब्र छुपा 
हुआ हो वे हक की दावत के मुकाबले में सबसे ज्यादा सखन रद्देअमल का इज्हार करते हैं। 
और जिन लोगों के अंदर किब्र न हो, चाहे वे दूसरी किसी गुमराही में मुब्तिला हों, वे हक की 








पारा 7 300 सूरह5. अल-माइदा 


मुखालिफत में कभी इतना आगे नहीं जा सकते कि उसके जानी दुश्मन बन जाएं। और किसी 
हाल में उसे कुबूल न करें। 


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ऐ ईमान वालो, उन सुथरी चीजों को हराम न ठहराओ जो अल्लाह ने तुम्हारे लिए हलाल 
की हैं और हद से न बढ़ो। अल्लाह हद से बढ़ने वालों को पसंद नहीं करता, और 
अल्लाह ने तुम्हें जो हलाल चीजें दी हैं उनमें से खाओ। और अल्लाह से डरो जिस पर तुम 
ईमान लाए हो। अल्लाह तुमसे तुम्हारी बेमअना कसमों पर गिरफ्त नहीं करता। मगर 

जिन कसमां को तुमने मजबूत बांधा उन पर वह जरूर तुम्हारी गिरफ्त करेगा। ऐसी 

कसम का कफ्फारा है दस मिस्कीनां को औसत दजे का खाना खिलाना जो तुम अपने 

घर वालों को खिलाते हो या कपड़ा पहना देना या एक गर्दन आजाद करना। और जिसे 
मयस्सर न हो वह तीन दिन के रोजे रखे। यह कप्फारा (प्रायश्चित) है तुम्हारी कसमा 

का जबकि तुम कसम खा बैठो। और अपनी कसमों की हिफाजत करो। इस तरह 

अल्लाह तुम्हारे लिए अपने अहकाम बयान करता है ताकि तुम शुक्र अदा करो। (87-89) 





बंदे और खुदा का तअल्लुक एक जिंदा तअल्लुक है जो नपिसयात की सतह पर कायम 
होता है। यह तमामतर एक अंदरूनी मामला है। मगर मजहब के जवाल (पतन) के जमाने में 
जब यह अंदरूनी तअल्लुक कमजोर पड़ता है तो लोगों में यह जेहन उभरता है कि इसे वाह्य 
साधनों से हासिल करने की कोशिश की जाए। इन्हीं में से दुनियावी लज्जतों को छोड़ना भी 
है जिसे रहबानियत (सन्यास) कहा जाता है। यह ख्याल कर लिया जाता है कि मादूदी 
(सांसारिक) चीजों से दूरी आदमी को ख़ुदा से करीब करने का जरिया बनेगी। सहाबा में से 
कुछ अफराद इस किस्म के रहबानी ख्यालात से मुतअस्सिर हुए। उन्होंने इरादा किया कि वे 
गोश्त न खाएं। रातों को न सोएं। अपने आपको ख़सी करा लें। और घरों को छोड़कर दुर्वेशी 
की जिंदगी इख़्तियार कर लें। यहां तक कि कुछ ने इसकी कसमें भी खा लीं। इस पर उन्हें 
मना किया गया और कहा गया कि हलाल को हराम करने से कोई शख्स खुदा की कुरबत हासिल 





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सूरह-5. अल-माइदा 30I पारा 7 


नहीं कर सकता । आदमी जो कुछ हासिल करता है फितरत की हदों में रहकर हासिल करता 
है न कि उससे आजाद होकर । 
इस्लाम के मुताबिक असल 'रहबानियत' तकवा और शुक्र है। तकवा यह है कि आदमी खुदा 
की मना की हुई चीजें से बचे । उसके अंदर यह ख़ाहिश उभरती है कि एक हराम चीज से लज्जत 
हासिल करे मगर वह ख़ुदा के डर से रुक जाता है। किसी के ऊपर गुस्सा आ जाता है और वह 
चाहने लगता है कि उसे तहस नहस कर दे मगर ख़ुदा का डर उसे अपने भाई के खिलाफ तरीबी 
कार्रवाई से रोक देता है। उसका दिल कहता है कि बेकैद जिंदगी गुजारे मगर खुदा की पकड़ का 
अंदेशा उसे मजबूर करता है कि वह अपने को खुदा की मुकर्रर की हुई हदों का पाबंद बना ले। 
यही मामला शुक्र का है। आदमी को कोई दुनियावी चीज हासिल होती है। सेहत, दौलत, ओहदा, 
साजोसामान, मकबूलियत का कोई हिस्सा उसको मिलता है। मगर वह खुदपसंदी और घमंड में 
मुब्तिला नहीं होता बल्कि हर चीज को ख़ुदा की देन समझ कर उसके एहसान का एतराफ करता 
है। वह तवाजोअ (विनम्रता) और ममनूनियत (सुशीलता) के जज्बात में ढल जाता है। यही वे 
चीजे हैं जो आदमी को ख़ुदा से जोड़ती हैं। खुदा से डरने और उसका शुक्र अदा करने से आदमी 
उसकी कुरबत (समीपता) हासिल करता है। मादूदी (भौतिक) चीजों से दूरी यकीनन मत्लूब है। 
मगर वह जेहनी व कल्बी (दिली) दूरी है न कि जिस्मानी टूरी। 
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ऐ ईमान वालो, शराब और जुआ और देव-स्थान और पांसे सब गदे काम हैं शैतान के। 
पस तुम इनसे बचो ताकि तुम फलाह (कल्याण) पाओ। शैतान तो यही चाहता है कि 
शराब और जुएऐ के जरिए तुम्हारे दर्मियान दुश्मनी और बुग्ज (देष) डाल दे और तुम्हे 
अल्लाह की याद और नमाज से रोक दे। तो क्या तुम इनसे बाज आओगे। और 
इताअत करो अल्लाह की और इताअत करो रसूल की और बचो। अगर तुम ऐराज 
(उपेक्षा) करोगे तो जान लो कि हमारे रसूल के जिम्मे सिर्फ खोल कर पहुंचा देना है। जो 
लोग ईमान लाए और नेक काम किए उन पर उस चीज में कोई गुनाह नहीं जो वे खा 
चुके। जबकि वे डरे और ईमान लाए और नेक काम किया। फिर डरे और ईमान लाए 














पारा 7 302 सूरह-5. अल-माइदा 


फिर डरे और नेक काम किया। और अल्लाह नेक काम करने वालों के साथ मुहब्बत 
रखता है। (90-93) 


शराब और जुआ और वे आस्ताने जो ख़ुदा के सिवा किसी दूसरे को पूजने या किसी और 
के नाम पर नज़ और वुर्ब्ननी चढ्नने के लिए हों और पांसा यानी फालगीरी और कुर॒आअंदाजी 
(अनुमान एवं संयोग) के वे तरीके जिनमें गेर-अल्लाह से इस्तआनत (मदद) का अकीदा शामिल 
हो, ये सब गदे शैतानी काम हैं। इसकी वजह यह है कि ये चीजें इंसान को जेहनी व अमली पस्ती 
की तरफ ले जाती हैं। शराब आदमी के अंदर लतीफ इंसानी एहसासात को ख़त्म कर देती है 
और जुआ बेगजी की नफ्सियात के लिए कातिल है। इसी तरह थान व पांसे वे चीजें जिनकी 
बुनियाद या तो सतही जज्बात पर कायम होती है या अंधविश्वास पर। 

इस्लाम यह चाहता है कि इंसान अल्लाह की याद करने वाला और उसकी इबादत करने 
वाला बन जाए। वह ख़ुदा की और उसके पैगम्बर की इताअत में अपने को डाल दे। इन कामों 
के लिए आदमी का संजीदा होना जरूरी है। मगर मज्कूरा चीजें आदमी के अंदर से सबसे ज्यादा 
जो चीज ख़त्म करती हैं वह संजीदगी ही है। इस्लाम वह इंसान बनाना चाहता है जो हकीकतों 
का इदराक (ज्ञान) करे, जबकि शराब आदमी को हकीकत से गाफिल कर देने वाली चीज है। 
इस्लाम का मत्लूब इंसान वह है जो माद्दियत (भौतिकवाद) से बुलन्द होकर जिए, जबकि जुआ 
आदमी को मुजरिमाना हद तक माद्दियत की तरफ मायल कर देता है। इस्लाम वह इंसान 
बनाना चाहता है जो वाकेआत की बुनियाद पर अपने को खड़ा करे, जबकि आस्ताने और पांसे 
इंसान को तवहहुमात (अंधविश्वासों) की वादियों में गुम कर देते हैं। 

शराब बढ़ी हुई बेहिसी पैदा करती है और जुआ बढ़ी हुई ख़ुदगर्जी। और ये दोनों चीजें 
बाहमी फसाद की जड़ हैं। जो लोग बेहिस हो जाएं वे दूसरे की इज्जत को इज्जत और दूसरे 
की चीज को चीज नहीं समझते। ऐसे लोग जुम्म, बेइंसाफी, दूसरे को नाहक सताने में आझिरी 
हद तक जरी हो जाते हैं। इसी तरह जुआ इस्तहसाल (शोषण) और खुदगार्जी की बदतरीन 
सूरत है जबकि एक आदमी यह कोशिश करता है कि वह बहुत से लोगों को लूटकर अपने 
लिए एक बड़ी कामयाबी हासिल करे। शराबी आदमी दूसरों के दुख दर्द को महसूस करने में 
असमर्थ होता है और जुऐबाज के लिए दूसरा आदमी सिर्फ शोषण की वस्तु होता है, इन 
खुसूसियात के लोग जिस समाज में जमा हो जाएं वहां आपस की बेएतमादी, एक दूसरे से 
शिकायतें, बाहमी टकराव और दुश्मनी के सिवा और क्या चीज परवरिश पाएगी। 


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सूरह-5. अल-माइदा 303 पारा 7 


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ऐ ईमान वालो, अल्लाह तुम्हें उस शिकार के जरिए से आजमाइश में डालेगा जो बिल्कुल 

तुम्हारे हाथों और तुम्हारे नेजाँ की जद में होगा ताकि अल्लाह जाने की कौन शख्स उससे 

बिना देखे डरता है। फिर जिसने इसके बाद ज्यादती की तो उसके लिए दर्दनाक अजाब 

है। ऐ ईमान वालो, शिकार को न मारो जबकि तुम हालते एहराम में हो। और तुममें से 
जो शख्स उसे जान बूझकर मारे तो इसका बदला उसी तरह का जानवर है जैसा कि उसने 
मारा है जिसका फैसला तुममें से दो आदिल आदमी करेंगे और यह नजराना काबा 
पहुंचाया जाए। या इसके कफ्फारे (प्रायश्चित) में कुछ मोहताजों को खाना खिलाना 

होगा। या इसके बराबर रोजे रखने होंगे, ताकि वह अपने किए की सजा चखे। अल्लाह 

ने माफ किया जो कुछ हो चुका। और जो शख्स फिरेगा तो अल्लाह उससे बदला लेगा। 
और अल्लाह जबरदस्त है बदला लेने वाला है। (94-95) 





हज या उमरे के लिए यह कायदा है कि काबा पहुंचने से पहले मुर्करह मकामात से एहराम 
बांध लिया जाता है। इसके बाद काबा तक के सफर में जानवर या चिड़ियां सामने आती हैं जिन्हें 
बाआसानी शिकार किया जा सकता हो। मगर ऐसे शिकार को हराम करार दिया गया है। आदमी 
चाहे खुद शिकार करे या दूसरे को शिकार करने में मदद दे, दोनों चीजें एहराम की हालत में 
नाजाइज हैं। रिवायात के मुताबिक यह आयत हुदैबिया के सफर में उतरी जबकि मुसलमानों ने 
उमरे के इरादे से एहराम बांध रखा था। उस वक्त चिड़ियां और जानवर कसीर तादाद में इतने 
करीब फिर रहे थे कि बाआसानी उन्हें तीर या नेजे से मारा जा सकता था। मुसलमान उस वक्त 
अपनी आदत और जरूरत के तहत चाहते भी थे कि उनका शिकार करें। मगर हुक्म उतरते ही 
हर एक ने अपना हाथ रोक लिया। यह हुक्म जो एहराम को हालत में जानवरों के बारे में दिया 
गया है वही रोजमर्रह की जिंदगी में आम इंसानों के साथ मत्लूब है। 

इस हुक्म का असल मकसद यह है कि 'अल्लाह जान ले कि कौन है जो अल्लाह को देखे 
बगैर अल्लाह से डरता है। दुनिया में इंसान को रख कर ख़ुदा उसकी नजरों से ओझल हो गया 
है। अब वह देखना चाहता है कि लोगों में कौन इतना हकीकत शनास है कि बजाहिर खुदा को 
न देखते हुए भी इस तरह रहता है जैसे कि वह उसे उसकी तमाम ताकतों के साथ देख रहा है 
और कौन इतना गाफिल है कि खुदा को अपने सामने न पाकर बेख़ौफ हो जाता है और मनमानी 
कार्वाइयां करने लगता है। इसका तजर्बा हज के सफर में चन्द दिन और इंसानी तअल्लुकात 
में रोजाना होता है। एक आदमी किसी की जद में इस तरह आता है कि उसके लिए बिल्कुल 
मुमकिन हो जाता है कि वह उसकी जान पर हमला करे। वह उसे माली नुक्सान पहुंचाए । वह 
उसके बारे में ऐसी बात कहे जिससे उसकी रुस्वाई होती हो। अब एक शख्स वह है जो इस तरह 
काबू पाने के बावजूद खुदा के डर से अपनी जबान और अपने हाथ को उसके मामले में रोक 
लेता है। दूसरा शख्स वह है जो किसी पर काबू पाते ही उसे जलील करता है और उसे अपनी 


पारा 7 304 सूरह5. अल-माइदा 


ताकत का निशाना बनाता है। इनमें से पहले शख्स ने यह साबित किया कि वह देखे बगैर अल्लाह 
से डरता है और दूसरे ने अपने बारे में इसके बरअक्स हालत का सुबूत दिया । पहले के लिए ख़ुदा 
के यहां बेहिसाब इनामात हैं और दूसरे के लिए दर्दनाक अजाब। 


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तुम्हारे लिए दरिया का शिकार और उसका खाना जाइज किया गया, तुम्हारे फायदे के 
लिए और काफिला के लिए। और जब तक तुम एहराम में हो खुश्की का शिकार तुम्हारे 
ऊपर हराम किया गया। और अल्लाह से डरो जिसके पास तुम हाजिर किए जाओगे। 
अल्लाह ने काबा, हुरमत वाले घर, को लोगों के लिए कयाम का जरिया बनाया। और 
हुरमत वाले महीनों को और कुर्बानी के जानवरों को और गले में पट्टा पड़े हुए जानवरों 
को भी, यह इसलिए कि तुम जानो कि अल्लाह को मालूम है जो कुछ आसमानों में 
हे और जो कुछ जमीन में है। और अल्लाह हर चीज से वाकिफ है। जान लो कि अल्लाह 
का अजाब सखन है और बेशक अल्लाह बख्शने वाला महरबान है। रसूल पर सिर्फ पहुंचा 
देने की जिम्मेदारी है। अल्लाह जानता है जो कुछ तुम जाहिर करते हो और जो कुछ 
तुम छुपाते हो। कहो कि नापाक और पाक बराबर नहीं हो सकते, अगरचे नापाक की 


अधिकता तुम्हें भली लगे। पस अल्लाह से डरो ऐ अक्ल वालो, ताकि तुम फलाह 
पाओ। (96-00) 


हालते एहराम में शिकार हराम है। मगर जो लोग दरिया या समुद्र से बैतुल्लाह (काबा) 
का सफर कर रहे हों उनके लिए जाइज है कि वे पानी में शिकार करें और उसे खाएं। 
इसकी वजह यह है कि शिकार की यह मनाही इसके अंदर किसी जाती हुरमत (मनाही) की 
वजह से न थी बल्कि महज 'आजमाइश* के लिए थी। इंसान को आजमाने के लिए अल्लाह 
ने अलामती तौर पर कुछ चीजें मुकर्रर कर दीं। इसलिए जहां शारअ (ईश्वरीय विधान) ने 
महसूस किया कि जो चीज आजमाइश के लिए थी वह बंदोंके लिए गैर जरूरी मशक्कत का 
सबब बन जाएगी वहां कानून में न्मी कर दी गई। क्योंकि समुद्र के सफर में अगर जादेराह 


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सूरह5. अल-माइदा 305 पारा 7 


(यात्रा सामग्री) न रहे तो आदमी के लिए अपनी जिंदगी को बाकी रखने की इसके सिवा और 
सूरत नहीं रहती कि वह आबी जानवरों को अपनी ख़ुराक बनाए। 
काबा इस्लाम और मिल्लते इस्लाम का दायमी मकज है। काबा की तरफ रुख़ करने को 
नमाज की शर्त ठहरा कर अल्लाह ने दुनिया के एक-एक मुसलमान को काबा की मर्कजियत 
के साथ जोड़ दिया। फिर हज की सूरत में इसे इस्लाम का अन्तराष्ट्रीय इज्तिमागाह बना 
दिया । जियारते काबा के अन्तर्गत में जो शआइर (प्रतीक) मुकर्रर किए गए हैं उनके एहतराम 
की वजह उनका कोई जाती तकदूदुस (पवित्रता) नहीं है। इसकी वजह यह है कि वह आदमी 
के इम्तेहान की अलामत हैं। बंदा जब इन शआइर के बारे में अल्लाह के हुक्म को पूरा करता 
हेतो वह अपने जेहन में इस हकीकत को ताजा करता है कि अल्लाह अगरचे बजाहिर दिखाई 
नहीं देता मगर वह जिंदा मौजूद है। वह हुक्म देता है, वह बंदों की निगरानी करता है। वह 
हमारी तमाम हरकतों से बाखबर है। ये एहसासात आदमी के अंदर अल्लाह का डर पैदा करते 
हैं और उसे इस काबिल बनाते हैं कि वह जिंदगी के मुख्तलिफ मोकों पर अल्लाह का सच्चा 
बंदा बनकर रह सके। 
इंसान की यह कमजोरी है कि जिस तरफ भीड़ हो, जिधर जाहिरी साजोसामान की 
कसरत (बहुलता) हो उसी को अहम समझ लेता है। मगर खुदा के नजदीक सारी अहमियत 
सिर्फ कैफियत की है। मिक्‍दार (मात्रा) की उसके यहां कोई कीमत नहीं। जो लोग 'कसरत' 
की तरफ दौड और 'किल्लत' (कमी) को नजदअंदाज कर दें वे अपने ख़्याल से बड़ी होशियारी 
कर रहे हैं। मगर हकीकत के एतबार से वे इंतिहाई नादान हैं। कामयाब वह है जो ख़ुदा के 
डर के तहत अपना रवैया मुतअय्यन करे न कि भौतिक हितों या दुनियावी अंदेशों के तहत। 


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ऐ ईमान वालो, ऐसी बातों के मुतअल्लिक सवाल न करो कि अगर वे तुम पर जाहिर कर 
दी जाएं तो तुम्हें गिरां गुजरं। और अगर तुम उनके मुतअल्लिक सवाल करोगे ऐसे वक्‍त 


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पारा 7 306 सूरह5. अल-माइदा 


में जबकि कुरआन उतर रहा है तो वे तुम पर जाहिर कर दी जाएंगी। अल्लाह ने उनसे 
दरगुजर किया। और अल्लाह बख्शने वाला, तहम्मुल (उदारता) वाला है। ऐसी ही बातें 
तुमसे पहले एक जमाअत ने पूछीं। फिर वे उनके मुंकिर होकर रह गए। अल्लाह ने 
बहीरा और साएबा और वसीला और हाम (बुतों के नाम पर छोड़े हुए जानवर) मुकर्रर 
नहीं किए। मगर जिन लोगों ने कुफ्र किया वे अल्लाह पर झूठ बांधते हैं और उनमें से 
अक्सर अक्ल से काम नहीं लेते। और जब उनसे कहा जाता है कि अल्लाह ने जो कुछ 
उतारा है उसकी तरफ आओ और रसूल की तरफ आओ तो वे कहते हैं कि हमारे लिए 

वही काफी है जिस पर हमने अपने बड़ों को पाया है। क्या अगरचे उनके बड़े न कुछ 
जानते हों और न हिदायत पर हों। ऐ ईमान वालो, तुम अपनी फिक्र रखो। कोई गुमराह 

हो तो इससे तुम्हारा कुछ नुक्सान नहीं अगर तुम हिदायत पर हो। तुम सबको अल्लाह 
के पास लोटकर जाना है फिर वह तुम्हें बता देगा जो कुछ तुम कर रहे थे। (02-05) 








रिवायतों में आता है कि जब हज का हुक्म आया तो रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम 
ने खुवा देते हुए फरमाया : ऐ लोगो तुम पर हज फर्ज किया गया है। यह सुनकर कबीला 
बनी असद का एक शख्स उठा और कहा : ऐ ख़ुदा के रसूल क्या हर साल के लिए। 
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम यह सुनकर सख गजबनाक हुए और फरमाया : उस 
जात की कसम जिसके कनेमेमेरी जान है अगर मेंकह देता हां तो हर साल के लिए फर्म 
हो जाता और जब फर्ज हो जाता तो तुम लोग हर साल इसे कर न पाते और फिर तुम कुफ़् 
करते। पस जो मैं छोडूं उसे तुम भी छोड़ दो। जब मैं किसी चीज का हुक्म दूं तो उसे करो 
और जब मैं किसी चीज से रोकूं तो उससे रुक जाओ। (तफ्सीर इब्ने कसीर) 

शेर जरूरी सवालात में पड़ने की मनाही जो नुजूले कुरआन के वक्‍त थी वही आज भी 
मत्लूब है। आज भी सही तरीका यह है कि जो हुक्म जिस तरह दिया गया है उसे उसी तरह 
रहने दिया जाए। गैर जरूरी सवालात कायम करके उसकी हदों व नियमों को बढ़ाने की 
कोशिश न की जाए। जो हुक्म मुज्मल (संक्षिप्त) सूरत में है उसे मुफस्सल (विस्तृत) बनाना, 
जो मुतलक है उसे सशर्त करना और जो चीज अनिश्चित है उसे निश्चित करने के दरपे होना 
दीन में ऐसा इजाफा है जिससे अल्लाह और रसूल ने मना फरमाया है। 

किसी कैम के जो गुजर हए बुर्ज हेते है जमाना गुजरने के बाद वे मुक़द्द्स हैसियत 
हासिल कर लेते हैं। अक्सर गुमराहियां इन्हीं गुजरे हुए लोगों के नाम पर होती हैं। यहां तक 
कि अगर वे बकरी और ऊंट की ताजीम का रिवाज कायम कर गए हों तो उसे भी बाद के 
लोग सोचे समझे बगैर दोहराते रहते हैं। जिस बिगाड़ की रिवायात माजी (अतीत) के तकद्दुस 
(पवित्रता) पर कायम हों उसकी जड़ें इतनी गहरी जमी हुई होती हैं कि उससे लोगों को हटाना 
सखन दुश्वार होता है। इस किस्म की नपिसयाती पेचीदगियां से ऊपर उठना उसी वक्‍त 
मुमकिन होता है जबकि आदमी के अंदर वाकई अर्थो में यह यकीन पैदा हो जाए कि 
बिलआखिर उसे खुदा के सामने हाजिर होना है। ऐसा शख्स आज ही उस हकीकत को मान 
लेता है जिसे मौत के बाद हर आदमी मानने पर मजबूर होगा मगर उस वक्‍त का मानना 
किसी के कुछ काम न आएगा। 


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सूरह-5. अल-माइदा 307 पारा 7 
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ऐ ईमान वालो, तुम्हारे दर्मियान गवाही वसीयत के वक्‍त, जबकि तुममें से किसी की 
मौत का वक्‍त आ जाए, इस तरह है कि दो मोतबर (विश्वसनीय) आदमी तुममें से 
गवाह हों। या अगर तुम सफर की हालत में हो और वहां मौत की मुसीबत पेश आ 
जाए तो तुम्हारे गैरों में से दो गवाह ले लिए जाएं। फिर अगर तुम्हें शुबह हो जाए तो 
दोनों गवाहों को नमाज के बाद रोक लो और वे दोनों खुदा की कसम खाकर कहें कि 
हम किसी कीमत के ऐवज इसे न बेचेंगे चाहे कोई संबंधी ही क्यों न हो। और न हम 
अल्लाह की गवाही को छुपाएंगे। अगर हम ऐसा करें तो बेशक हम गुनाहगार होंगे। 
फिर अगर पता चले कि उन दोनों ने कोई हकतल्फी की है तो उनकी जगह दो और 
शख्स उन लोगों में से खड़े हों जिनका हक पिछले दो गवाहाँ ने मारना चाहा था। वे 
खुदा की कसम खाएं कि हमारी गवाही उन दोनों की गवाही से ज्यादा बरहक है और 
हमने कोई ज्यादती नहीं की है। अगर हम ऐसा करें तो हम जालिमों में से होंगे। यह 
करीबतरीन तरीका है कि लोग गवाही ठीक दें। या इससे डरे कि हमारी कसम उनकी 
कसम के बाद उल्टी पड़ेगी। और अल्लाह से डरो और सुनो। अल्लाह नाफरमानों को 
सीधी राह नहीं चलाता। (06-08) 





एक आदमी सफर करता है और उसके साथ माल है। रास्ते में उसकी मौत का वक्त 
आ जाता है। अब अगर वह अपने करीब दो मुसलमान पाए तो उन्हें अपना माल दे दे और 
उसके बारे में उन्हें वसीयत कर दे। अगर दो मुसलमान बरवक्त न मिलें तो गैर मुस्लिमों 
में से दो आदमियों के साथ यही मामला करे। ये दो साहिबान माल लाकर उसे वारिसों के 
हवाले करें। इस वक्‍त वारिसों को अगर उनके बयान के बारे में शुबह हो जाए तो किसी 








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पारा 7 308 सूरह-5. अल-माइदा 


नमाज के बाद मस्जिद में इन गवाहों को रोक लिया जाए। यह दोनों शख्स आम मुसलमानों 
के सामने कसम खाएं कि उन्होंने मरने वाले की तरफ से जो कुछ कहा सही कहा। अगर 
वारिस उसके हल्फिया बयान पर मुतमइन न हों तो वारिसों में से दो आदमी अपनी बात 
के हक में कसम खाएं और फिर उनकी कसम के मुताबिक फैसला कर दिया जाए। वारिसों 
को यह हक देना गोया एक ऐसी रोक कायम करना है कि कोई ख़ियानत करने वाला ख़ियानत 
करने की जुर्॑त न कर सके। 

शरीअत में एक मस्लेहत यह मल्हूज रखी गई है कि रोज मर्रह के मामलात में ऐसे अहकाम 
दिए जाएं जो आदमी की वसीअतर जिंदगी के लिए सबक हों। किसी शख्स के मरने के बाद 
उसके माल का हकदारों तक पहुंचना एक ख़ानदानी और मआशी (आर्थिक) मामला है। मगर 
इसे दो अहम बातों की तर्बियत का जरिया बना दिया गया | एक यह कि लोगों में यह मिजाज 
बने कि मामलात मेंवे तअल्लुक और रिशतेदारी का लिहाज न करेंबल्कि सिर्फहक का लिहाज 
करें। वे यह देखें कि हक क्या है न यह कि बात किसके मुवाफिक जा रही है और किसके 
खिलाफ। दूसरे यह की हर बात को ख़ुदा की गवाही समझना । कोई बात जो आदमी के पास 
है वह खुदा की एक अमानत है। क्योंकि आदमी ने उसे खुदा की दी हुई आंख से देखा और 
खुदा के दिए हुए हाफिजे में उसे महफूज रखा । और अब खुदा की दी हुई जबान से वह उसके 
मुतअल्लिक एलान कर रहा है। ऐसी हालत में यह अमानत में खियानत होगी कि आदमी बात 
को उस तरह बयान न करे जैसा कि उसने देखा और जिस तरह उसके हाफिज ने उसे महफूज 


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जिस दिन अल्लाह पेग़म्बरों को जमा करेगा फिर पूछेगा तुम्हें क्या जवाब मिला था। वह 

कहेंगे हमें कुछ इलम नहीं, छुपी हुई बातों को जानने वाला तू ही है। जब अल्लाह कहेगा 

ऐ ईसा इब्ने मरयम, मेरी उस नेमत को याद करो जो मैंने तुम पर और तुम्हारी मां पर 


किया जबकि मैंने रूहे पाक से तुम्हारी मदद की। तुम लोगों से कलाम करते थे गोद 
में भी और बड़ी उम्र में भी। और जब मैंने तुम्हें किताब और हिक्मत और तौरात और 


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सूरह-5. अल-माइदा 309 पारा 7 


इंजील की तालीम दी। और जब तुम मिट्टी से परिंदे जैसी सूरत मेरे हुक्म से बनाते 
थे फिर उसमें फूंक मारते थे तो वह मेरे हुक्म से परिंदा बन जाती थी। और तुम अंधे 
और कोढ़ी को मेरे हुक्म से अच्छा कर देते थे। और जब तुम मुर्दो को मेरे हुक्म से 
निकाल खड़ा करते थे। और जब मैंने बनी इस्राईल को तुमसे रोका जबकि तुम उनके 
पास खुली निशानियां लेकर आए तो उनके मुंकिरों ने कहा यह तो बस एक खुला हुआ 
जादू है। (09-0) 





पैग़म्बरों पर जो लोग ईमान लाए, बाद के जमाने में सबके अंदर बिगाड़ पैदा हुआ। 
उन्होंने अपने तौर पर एक दीन बनाया और उसे अपने पैग़म्बर की तरफ मंसूब कर दिया। 
इसके बावजूद हर गिरोह अपने आपको अपने पैगम्बर की उम्मत शुमार करता रहा। हालांकि 
पैगम्बर की असल तालीमात से हटने के बाद उसका पैगम्बर से कोई तअल्लुक बाकी न रहा 
था। यहूदी अपने को हजरत मूसा की तरफ मंसूब करते हैं और ईसाई अपने को हजरत ईसा 
की तरफ । हालांकि उनके प्रचलित दीन का ख़ुदा के इन पैग़म्बरों से कोई तअल्लुक नहीं। यह 
हकीकत मौजूदा इम्तेहान की दुनिया में छुपी हुई है। मगर कियामत के दिन वह खोल दी 
जाएगी। उस दिन ख़ुदा तमाम पैग़म्बरों को और इसी के साथ उनकी उम्मतों को जमा करेगा। 
उस वक्‍त उम्मतों के सामने उनके पेगम्बरों से पूछा जाएगा कि तुमने अपनी उम्मतों को क्या 
तालीम दी और उम्मतों ने तुम्हारी तालीमात को किस तरह अपनाया । इस तरह हर उम्मत पर 
उसके पैगम्बर की मौजूदगी में वाजेह किया जाएगा कि उसने खुदा के दीन के मामले में अपने 
पैगम्बर की क्या-क्या ख़िलाफवर्जी की है और किस तरह खुदसाख्ता (स्वनिर्मित) दीन को 
उनकी तरफ मंसूब किया है। 

इन्हीं पैग़म्बरों में से एक मिसाल हजरत ईसा की है जो ख़ातमुन्नबिय्यीन (अंतिम नबी) 
और आप से पहले के नंबियों की दर्मियानी कड़ी हैं। हजरत ईसा को इंतिहाई खुसूसी मोजिजे 
(चमत्कार) दिए गए। आप पर ईमान लाने वाले बहुत कम थे और आपके मुखालिफीन (यहूद) 
को हर तरह का दुनियावी जोर हासिल था। इसके बावजूद वे हजरत ईसा का कुछ नुक्सान 
न कर सके और न आपके साथियों को ख़त्म करने में कामयाब हुए। इन मोजिजात का 
नतीजा यह होना चाहिए था कि लोग आपके लाए हुए दीन को मान लेते। मगर अमलन यह 
हुआ कि आपके मुख़ालिफीन ने यह कह कर आपको नजरअंदाज कर दिया कि वह जो 
मोजिजे दिखा रहे हैं वह सब जादू का करिश्मा है। और जो लोग आप पर ईमान लाए उन्होंने 
बाद के जमाने में आपको खुदाई का दर्जा दे दिया। कियामत के दिन आपकी पैरवी का दावा 
करने वालों के सामने यह हकीकत खोल दी जाएगी कि हजरत ईसा ने जो कमालात दिखाए 
वे सब खुदा के हुक्म से थे। आपके दुश्मनों ने आपको जिन ख़तरात में डाला उनसे भी 
अल्लाह ही ने आपको बचाया । जब सूरतेहाल यह थी और हजरत ईसा खुद सामने खड़े होकर 
इसकी तस्दीक कर रहे हैं तो अब उनके उम्मती बताएं कि उन्होंने आपकी तरफ जो दीन 
मंसूब किया वह किसने उन्हें दिया था। 


पारा 7 3]0 
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और जब मैंने हवारियों (साथियों) के दिल में डाल दिया कि मुझ पर ईमान लाओ और 
मेरे रसूल पर ईमान लाओ तो उन्होंने कहा कि हम ईमान लाए और तू गवाह रह कि 
हम फरमांबरदार हैं। जब हवारियों ने कहा कि ऐ ईसा इब्ने मरयम, क्या तुम्हारा रब 
यह कर सकता है कि हम पर आसमान से एक ख़ान (भोजन भरा थाल) उतारे। ईसा 
ने कहा अल्लाह से डरो अगर तुम ईमान वाले हो। उन्होंने कहा कि हम चाहते हैं कि 
हम उसमें से खाएं और हमारे दिल मुतमइन (संमुष्ट) हों और हम यह जान लें कि तूने 
हमसे सच कहा और हम उस पर गवाही देने वाले बन जाएं। ईसा इब्ने मरयम ने दुआ 
कि ऐ अल्लाह, हमारे रब, तू आसमान से हम पर एक ख़्वान उतार जो हमारे लिए एक 
ईद बन जाए, हमारे अगलों के लिए और हमारे पिछलों के लिए और तेरी तरफ से एक 
निशानी हो। और हमें अता कर, तू ही बेहतरीन अता करने वाला है। अल्लाह ने कहा 
मैं यह ख़्वान जरूर तुम पर उतारुंगा। फिर इसके बाद तुममें से जो शख्स मुंकिर होगा 
उसे मैं ऐसी सजा दूंगा जो दुनिया में किसी को न दी होगी। (27-.5) 


सूरह-5. अल-माइदा 








लोगों को हक की तरफ पुकारने का काम अगरचे दाओ (आह्वानकर्ता) अंजाम देता है 
मगर पुकार पर लब्बैक कहना हमेशा खुदा की तौफीक से होता है। दावत की सदाकत को 
दलीलों से जान लेने के बाद भी बहुत सी रुकावटें बाकी रहती हैं जो आदमी को उसकी तरफ 
बढ़ने नहीं देतीं। दाऔ का एक आम इंसान की सूरत में दिखाई देना, यह अंदेशा कि दावत 
(आह्वान) कुबूल करने के बाद जिंदगी का बना बनाया ढांचा टूट जाएगा, यह सवाल कि 
अगर यह सच्चाई है तो फलां-फलां बड़े लोग क्या सच्चाई से महरूम थे, वगैरह। यह एक 
इंतिहाई नाजुक मोड़ होता है जहां आदमी फैसले के किनारे पहुंच कर भी फैसला नहीं कर 
पाता | यही वह मकाम है जहां खुदा उसकी मदद करता है। जिस शख्स के अंदर वह कुछ खैर 





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सूरह-5. अल-माइदा 3]] पारा 7 


(भलाई) देखता है उसका हाथ पकड़ कर उसे शुबह की सरहद पार करा देता है और उसे यकीन 
के दायरे में दाखिल कर देता है। 

खुद्रा की तरफ से हर वक्त इंसान को रिज्क फराहम किया जा रहा है। यहां तक कि 
पूरी जमीन इंसान के लिए रिज्क का दस्तरख्रान बनी हुई है। मगर मोमिनीने मसीह ने 
आसमान से खाना उतारने का मुतालबा किया तो उन्हें सख्त तंबीह की गई | इसको वजह यह 
है कि आम हालात में हमें जो रिज्क मिलता है वह असबाब के पर्दे में मिल रहा है। जबकि 
मोमिनीने मसीह का मुतालबा यह था कि असबाब का पर्दा हटा कर उनका रिज्क उन्हें दिया 
जाए। यह चीज अल्लाह की सुन्नत के खिलाफ है। क्योंकि अगर असबाब का जाहिरी पर्दा 
हटा दिया जाए तो इम्तेहान किस बात का होगा। 

हकीकत यह है कि खेत से लहलहाती हुई फसल का पैदा होना या मिट्टी के अंदर से 
एक शादाब दरख्न का निकल कर खड़ा हो जाना भी इसी तरह मोजिजा (चमत्कार) है जिस 
तरह बादलों में होकर किसी ख़ान का हमारी तरफ आना। मगर इन वाकेयात का मोजिजा 
होना हमें इसलिए नजर नहीं आता कि वे पर्दे में होकर जाहिर हो रहे हैं। आदमी का इम्तेहान 
यह है कि वह पर्दे को फाइकर हकीकत को देख सके। वह 'जमीन' से निकलने वाले रिज्क 
को “आसमान” से उतरने वाले रिज्क के रूप में पा ले। अगर कोई शख्स यह मुतालबा करे 
कि मैं देख कर मानूंगा तो गोया वह कह रहा है कि इम्तेहान से गुजरे बगैर मैं खुदा की रहमत 
में दाखिल हूंगा। हालांकि खुदा की सुन्नत के मुताबिक ऐसा होना मुमकिन नहीं । 


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पारा 7 3]2 सूरह-5. अल-माइदा 


और जब अल्लाह पूछेगा कि ऐ ईसा इब्ने मरयम क्या तुमने लोगों से कहा था कि मुझे 
और मेरी मां को खुदा के सिवा माबूद (पूज्य) बनालो। वह जवाब देंगे कि तू पाक है, 
मेरा यह काम न था कि में वह बात कहूं जिसका मुझे कोई हक नहीं। अगर मैंने यह 
कहा होगा तो तुझे जरूर मालूम होगा। तू जानता है जो मेरे जी में है और में नहीं जानता 
जो तेरे जी में है। बेशक तू ही है छुपी बातों का जानने वाला। मैंने उनसे वही बात 
कही जिसका तूने मुझे हुक्म दिया था। यह कि अल्लाह की इबादत करो जो मेरा रब 
है और तुम्हारा भी। और में उन पर गवाह था जब तक मैं उनमें रहा। फिर जब तूने 
मुझे उठा लिया तो उन पर तू ही निगरां था और तू हर चीज पर गवाह है। अगर तू 
उन्हें सजा दे तो वे तेरे बदे हैं और अगर तू उन्हें माफ कर दे तो तू ही जबरदस्त है हिक्मत 

वाला है। अल्लाह कहेगा कि आज वह दिन है कि सच्चों को उनका सच काम आएगा। 
उनके लिए बाग़ हैं जिनके नीचे नहरें बह रही हैं। उनमें वे हमेशा रहेंगे। अल्लाह उनसे 
राजी हुआ और वे अल्लाह से राजी हुए। यही है बड़े कामयाबी। आसमाना और जमीन 

में और जो कुछ उनमें है सबकी बादशाही अल्लाह ही के लिए है और वह हर चीज पर 
कादिर है। (6-20) 





कियामत जब आएगी तो हकीकते इस तरह खुल जाएंगी कि आदमी बग बताए हुए यह 
जान लेगा कि सच क्या है और ग़लत क्या। लोग अपनी आंखों से देख रहे होंगे कि सारी ताकतें 
सिर्फ एक अल्लाह को हासिल हैं। ख़ालिक और मालिक, माबूद और मत्लूब होने में कोई भी 
उसका शरीक नहीं। उसके सिवा किसी को न कोई ताकत हासिल है और न उसके सिवा कोई 
इस काबिल है कि उसकी इबादत व इताअत की जाए। ऐसी हालत में जब ख़ुदा अपने पैग़म्बरों 
से पूछेगा कि मैंने तुम्हें क्या पैगाम देकर दुनिया में भेजा था तो यह एक ऐसी बात का पूछना 
होगा जो पहले ही लोगों के लिए मालूम बन चुकी होगी। इस सवाल का जवाब उस वक्‍त इतना 
खुला हुआ होगा कि किसी के बोले बगैर कियामत का पूरा माहौल इसका जवाब पुकार रहा 
होगा। यह सवाल व जवाब महज लोगों की रुस्वाई में इजाफा करने के लिए होगा । वह इसलिए 
होगा कि पैग़म्बरों के सामने खड़ा करके लोगों पर वाजेह किया जाएगा कि पैग़म्बरों के नाम पर 
जो दीन तुमने बना रखा था वह उनकी हकीकी तालीमात से कोई तअल्लुक नहीं रखता था। 

यह दुनिया इम्तेहान के लिए बनाई गई है। इसलिए यहां हर एक को आजादी है। यहां 
आदमी ख़ुदा व रसूल की तरफ ऐसा दीन मंसूब करके भी फल फूल सकता है जिसका ख़ुदा 
व रसूल से कोई तअल्लुक न हो। यहां फर्जी उम्मीदों और झूठी आरजुओं पर भी जन्नत को 
अपना हक साबित किया जा सकता है। यहां यह मुमकिन है कि आदमी अपनी कयादत 
(नेतृत्व) के हंगामें खड़े करे और यह साबित करे कि जो कुछ वह कर रहा है वही ऐन ख़ुदा 
का दीन है। मगर कियामत में इस किस्म की कोई चीज काम आने वाली नहीं। कियामत में 
जो चीज काम आएगी वह सिर्फ यह कि आदमी खुदा की नजर में सच्चा साबित हो। 
आसमानी किताब की हामिल कौमों का इम्तेहान यह नहीं है कि वे ईमान की दावेदार बनती 
हैं या नहीं। उनका इम्तेहान यह है कि वे अपने ईमान के दावे को सच्चा साबित करती हैं या 
नहीं। 





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सूरह-6. अल-अनआम 3]3 पारा 7 


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(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान निहायत रहम वाला है। 
तारीफ अल्लाह के लिए है जिसने आसमानाँ और जमीन को पैदा किया और तारीकियों 
और रोशनी को बनाया। फिर भी मुंकिर लोग दूसरों को अपने रब का हमसर ठहराते 
हैं। वही है जिसने तुम्हें मिटटी से पैदा किया। फिर एक मुदूदत मुक्रर की और मुर्कररह 
मुदूदत उसी के इल्म में है। फिर भी तुम शक करते हो। और वही अल्लाह आसमानों 
में हे और वही जमीन में। वह तुम्हारे छुपे और खुले को जानता है और वह जानता है 
जो कुछ तुम करते हो। (-8) 





आसमान और जमीन का निजाम अपनी सारी वुस्अतों (व्यापकताओं) के बावजूद इतना 
मरबूत (सुगठित) और इतना वहदानी (एकीय) है कि वह पुकार रहा है कि उसका ख़ालिक 
और मुंतजिम एक ख़ुदा के सिवा कोई और नहीं हो सकता । फिर जमीन व आसमान की यह 
कायनात अपने फैलाव और अपनी हिक्मत व सार्थकता के एतबार से नाकाबिले कयास हद 
तक अजीम है। सूरज के रोशन ग्रह के गिर्द ख़ला (अंतरिक्ष) में जमीन की हद दर्जा मुनज्जम 
गर्दिश और उससे जमीन की सतह पर रोशनी और तारीकी और दिन और रात का पैदा होना 
इंसान के तमाम कयास व गुमान से कहीं ज्यादा बड़ा वाकया है। अब जो खुदा इतने बड़े 
कायनाती कारखाने को इतने बाकमाल तरीके पर चला रहा है उसकी जात में वह कौन सी 
कमी हो सकती है जिसकी तलाफी के लिए वह किसी को अपना शरीक ठहराए। हकीकत यह 
है कि हमारी दुनिया और उसके अंदर कायमशुदा हैरतनाक निजाम ख़ुद ही इस बात का सुबूत 
है कि इसका ख़ुदा सिर्फ एक है और यही निजाम इस बात का भी सुबूत है कि यह ख़ुदा इतना 
अजीमुश्शान है कि उसे अपनी तख़्तीक और इंतजाम में किसी मददगार की जरूरत नहीं। 

मौजूदा दुनिया की उम्र महदूद है। यहां दुख से ख़ाली जिंदगी मुमकिन नहीं। यहां हर 
ख़ुशगवारी के साथ नाख़ुशगवारी का पहलू लगा हुआ है। यहां शर को खैर से और ख़ैर को 
शर से जुदा नहीं किया जा सकता। ऐसी हालत में आदमी की समझ में नहीं आता कि आखिरत 
की अबदी दुनिया जो हर किस्म के दुख-तकलीफ (फातिर 34) से खाली होगी कैसे बन जाएगी। 


पारा 7 34 सूरह-6. अल-अनआम 


अगर किसी और मादूदे से आखिरत की दुनिया बनने वाली हो तो इंसान उससे वाकिफ नहीं 
और अगर इसी दुनिया के मादूदे से वह दूसरी दुनिया बनने वाली है तो इस दुनिया के अंदर 
उस किस्म की एक कामिल दुनिया को वजूद में लाने की सलाहियत नहीं। 

मगर सवाल करने वाले का ख़ुद अपना वजूद ही इस सवाल का जवाब देने के लिए 
काफी है इंसान का जिस्म पूरा का पूरा मिट्टी (जमीनी अज्जा) से बना है, मगर उसके अंदर 
ऐसी मुंफरिद (विशिष्ट) सलाहियतें हैं जिनमें से कोई सलाहियत भी मिट्टी के अंदर नहीं। 
आदमी सुनता है, वह बोलता है, वह सोचता है, वह तरह-तरह के हैरतनाक अमल अंजाम देता 
है। हालांकि वह जिस मिट्टी से बना है वह इस किस्म का कोई भी अमल अंजाम नहीं दे 
सकती | जमीनी अज्जा से हैरतअंगेज तौर पर एक गैर जमीनी मर्क बन कर खट्नै हो गई 
है। यह एक ऐसा तजर्बा है जो हर रोज आदमी के सामने आ रहा है। ऐसी हालत में कैसी 
अजीब बात है कि आदमी आखिरत के वाकेअ (घटित) होने पर शक करे। अगर मिट्टी से 
जीता जागता इंसान निकल सकता है। अगर मिट्टी से खुशबूदार फूल और जायकेदार फल 
बरामद हो सकते हैं तो हमारी मौजूदा दुनिया से एक और ज्यादा कामिल और ज्यादा मेयारी 
दुनिया क्यों जाहिर नहीं हो सकती। 


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और उनके रब की निशानियों में से जो निशानी भी उनके पास आती है वे उससे 
एराज(उपेक्षा) करते हैं। चुनांचे जो हक उनके पास आया है उसे भी उन्होंने झुठला दिया । 
पस अनकरीब उनके पास उस चीज की ख़बरें आएंगी जिसका वह मजाक उझते थे। 
क्या उन्होंने नहीं देखा कि हमने उनसे पहले कितनी कीमों को हलाक कर दिया। उन्हें 
हमने जमीन में जमा दिया था जितना तुम्हें नहीं जमाया। और हमने उन पर आसमान 
से ख़ूब बारिश बरसाई और हमने नहरें जारी कीं जो उनके नीचे बहती थीं फिर हमने 
उन्हें उनके गुनाहों के सबब हलाक कर डाला। और उनके बाद हमने दूसरी कीमों को 
उठाया। (4-6) 








ख़ुदा और आख़िरत की दावत जो ख़ुदा की बराहेरास्त ताईद से उठी हो उसके साथ 
वाजेह अलामतें होती हैं जो इस बात का एलान कर रही होती हैं कि यह एक सच्ची दावत 
है और खुदा की तरफ से है। उसका उस फितरत के अंदाज पर होना जिस पर खुदा की अबदी 
दुनिया का निजाम कायम है। उसका ऐसी दलीलों की बुनियाद पर उठना जिसका तोड़ किसी 


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सूरह-6. अल-अनआम 3]5 पारा 7 


के लिए मुमकिन न हो। उसकी पुश्त पर ऐसे दाऔ (आह्वानकर्ता) का होना जिसकी संजीदगी 
और इख्लास पर शुबह न किया जा सकता हो। उसके साथ ऐसे ताईदी वाकेआत का वाबस्ता 
होना कि मुखालिफीन अपनी बरतर कुवत के बावजूद इसके खिलाफ अपने तरीबी (विध्वंसक) 
मंसूबों में कामयाब न हुए हों। इस तरह के वाजेह कराइन हैं जो उसके बरहक होने की तरफ 
खुला इशारा कर रहे होते हैं। इसके बावजूद इंसान उस पर यकीन नहीं करता और उसका साथ 
देने पर आमादा नहीं होता। इसकी वजह यह है कि ये तमाम ताईदी कराइन अपनी सारी वजाहत 
के बावजूद हमेशा असबाब के पर्दे में जाहिर होते हैं। आदमी के सामने जब ये कराइन आते 
हैं तो वह उन्हें मछ्मूस असबाब की तरफ मंसूब करके उन्हें नजरअंदाज कर देता है, उसका 
जेहन एतराफ के रुख़ पर चलने के लिए आमादा नहीं होता । वह कहता है कि यह दावत अगर 
ख़ुदा की तरफ से होती तो ख़ुदा और फरिश्ते साक्षात रूप में इसके साथ मौजूद होते। हालांकि 
यह ख्याल सरासर बातिल है। क्योंकि खुदा और फरिश्ते जब साक्षात रूप में सामने आ जाएंगे 
तो वह फैसले का वक्त होता है न कि दावत और तब्लीग (आस्वान एवं प्रचार) का। 

जिन लोगों को जमीन में जमाव हासिल हो, जिन्होंने अपने लिए मआशी (आर्थिक) 
साजोसामान जमा कर लिया हो, जिन्हें अपने आस पास अज्मत और मकबूलियत के मजाहिर 
दिखाई देते हों वे हमेशा गलतफहमी में पड़ जाते हैं। वे अपने गिर्द जमाशुदा चीजों के मुकाबले 
में उन चीजों को हकीर समझ लेते हैं जो हक के दाओ के गिर्द खुदा ने जमा की हैं। उनकी 
यह खुद एतमादी इतना बढ़ती है कि वे खुदा की तरफ से भी बेख़फ हो जाते हैं। वे हक के 
दाऔ की उस तंबीह का मजाक उड़ाने लगते हैं कि तुम्हारी सरकशी जारी रही तो तुम्हारी 
मादूदी तरविकयां तुम्हें खुदा की पकड़ से न बचा सकेंगी। हक के दाजी को नाचीज समझना 
उनकी नजर में दाऔ की तंबीहात (चेतावनियों) को भी नाचीज बना देता है। माजी के वे 
तारीख़ी वाकेआत भी उन्हें सबक देने के लिए काफी साबित नहीं होते जबकि बड़े-बड़े मादूदी 
इस्तहकाम के बावजूद खुदा ने लोगों को इस तरह मिटा दिया जैसे उनकी कोई कीमत ही न 
थी। जमीन में बार-बार एक कौम का गिरना और दूसरी कौम का उभरना जाहिर करता है 
कि यहां उत्थान-पतन का कानून नाफिज है। मगर आदमी सबक नहीं लेता। पिछले लोग 
दुबारा उसी अमल को दोहराते हैं जिसकी वजह से अगले लोग बर्बाद हो गए। 


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पारा 7 3I6 सूरह-6. अल-अनआम 


और अगर हम तुम पर ऐसी किताब उतारते जो कागज में लिखी हुई होती और वे उसे 
अपने हाथों से छू भी लेते तब भी इंकार करने वाले यह कहते कि यह तो एक खुला 
हुआ जादू है। और वे कहते हैं कि इस पर कोई फरिश्ता क्यों नहीं उतारा गया। और 
अगर हम कोई फरिश्ता उतारते तो मामले का फैसला हो जाता फिर उन्हें कोई मोहलत 

न मिलती। और अगर हम किसी फरिश्ते को रसूल बनाकर भेजते तो उसे भी आदमी 
बनाते और उन्हें उसी शुबह में डाल देते जिसमें वे अब पड़े हुए हैं। और तुमसे पहले 
भी रसूलों का मजाक उद्या गया तो उनमें से जिन लोगों ने मजाक उदया उन्हें उस 

चीज ने आ घेरा जिसका वे मजाक उझते थे। कहो, जमीन में चलो फिरो और देखो कि 

झुठलाने वालों का अंजाम क्या हुआ। (7-7) 





दुनिया में आदमी की गुमराही का सबब यह है कि यहां उसे हक के इंकार की पूरी 
आजादी मिली हुई है। यहां तक कि उसे यह मौका भी हासिल है कि वह अपने अफ्कार की 
खूबसूरत तौजीह कर सके। इम्तेहान की इस दुनिया में इतनी वुस्अत है कि यहां अल्फाज हर 
उस मफहूम में ढल जाते हैं जिसमें इंसान उन्हें डालना चाहे दाऔ अगर एक आम इंसान के 
रूप में जाहिर हो तो आदमी उसे यह कह कर नजरअंदाज कर सकता है कि यह एक शख्स 
का कयादती (नितृत्वपरक) हौसला है न कि कोई हक व सदाकत का मामला । इसी तरह अगर 
आसमान से कोई लिखी लिखाई किताब उतर आए तो उसे रद्द करने के लिए भी वह ये 
अल्फाज पा लेगा कि यह तो एक जादू है। 

मक्का के लोग कहते थे कि पैग़म्बर अगर ख़ुदा की तरफ से उसकी पैग़ाम्बरी के लिए 


मर किया गया है तो उसके साथ खुदा के फरिशते क्यों नहीं जो उसकी तस्दीक करें। इस 


किस्म की बातें आदमी इसलिए कहता है कि वह दावत (आह्वान) के मामले में संजीदा नहीं 

होता । अगर वह संजीदा हो तो उसे फौरन मालूम हो जाए कि यह दुनिया इम्तेहान की दुनिया है। 

इम्तेहान उसी वकत हो सकता है जबकि गेबी हकीकतों पर पर्दा पञ हुआ हो। अगर गैबी 

हकीकतें खुल जाएं और खुदा और उसके फरिश्ते सामने आ जाएं तो फिर पेगम्बरी और 

दावतरसानी का कोई सवाल ही नहीं होगा। क्योंकि इसके बाद किसी को यह जुर्रत ही न होगी 

कि वह हकीकतों का इंकार कर सके । मौजूदा दुनिया में लोग अपनी जाहिरपरस्ती की वजह से 

ख़ुदा के दाजी को उसकी बातों की अज्मत में नहीं देख पाते, वे उसका अंदाजा सिर्फ उसके 

जाहिरी पहलू के एतबार से करते हैं और जाहिरी एतबार से गैर अहम पाकर उसका इंकार कर 

देते हैं। यहां तक कि वे उसका मजाक उड़ाने लगते हैं। खुदा के दाऔ का मामला उन्हें ऐसा 

मालूम होता है जैसे एक मामूली आदमी अचानक उठकर बहुत बड़ी हैसियत का दावा करने लगे। 
इस दुनिया में दावतरसानी का सारा मामला ख़ुदा के समरूपता के नियम के तहत होता 

है। यहां हक के ऊपर शुबह का एक पहलू रखा गया है ताकि आदमी इकरार के तर्को के साथ 

कुछ इंकार के कारण भी पा सकता हो। आदमी का अस्ल इम्तेहान यह है कि वह इस शुबह 

के पर्दे को फाइकर अपने को यकीन के मकाम पर पहुंचाए। वह शुबह के पहलुओं को 

मिटाकर यकीन के पहलुओं को ले ले। आदमी का असल इम्तेहान यह है कि वह देखे बगैर 

माने। जब हकीकत को दिखा दिया जाए तो फिर मानने की कोई कीमत नहीं। 


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सूरह-6. अल-अनआम 3]7 पारा 7 


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पूछो कि किसका है जो कुछ आसमानों और जमीन में है। कहो सब कुछ अल्लाह का 
है। उसने अपने ऊपर रहमत लिख ली है। वह जरूर तुम्हें जमा करेगा कियामत के दिन, 
इसमें कोई शक नहीं। जिन लोगों ने अपने आपको घाटे में डाला वही हैं जो इस पर 
ईमान नहीं लाते। और अल्लाह ही का है जो कुछ ठहरता है रात में और जो कुछ दिन 
में। और वह सब कुछ सुनने वाला जानने वाला है। कहो, क्या में अल्लाह के सिवा 
किसी और को मददगार बनाऊं जो बनाने वाला है आसमानों और जमीन का। और 
वह सबको खिलाता है और उसे कोई नहीं खिलाता। कहो मुझे हुक्म मिला है कि मैं 
सबसे पहले इस्लाम लाने वाला बनूं और तुम हरगिज मुश्रिकों में से न बनो। कहो अगर 
मैं अपने रब की नाफरमानी करू तो में एक बड़े दिन के अजाब से डरता हूं। जिस 


शख्स से वह उस रोज हटा लिया गया उस पर अल्लाह ने बझ रहम फरमाया और यही 
खुली कामयाबी है। (2-6) 


इंसान खुले हुए हक का इंकार करता है। वह ताकत पाकर दूसरों को जलील करता है। 
एक इंसान दूसरे इंसान को अपने जुल्म का निशाना बनाता है। ऐसा क्यों है। क्या इंसान को 
इस दुनिया मेंमुतलक इक्तेदार (निरंकुश सत्ता) हासिल है। कया यहां उसका कोई हाथ पकड़ने 
वाला नहीं। क्या खुदा के यहां तजाद (अन्तर्विरोध) है कि उसने बाकी दुनिया को रहमत व 
मअनवियत (सार्थकता) से भर रखा है और इंसान की दुनिया को जुल्म और बेइंसाफी से। 
ऐसा नहीं है। जो खुदा जमीन व आसमान का मालिक है वही खुदा उस मख्लूक का मालिक 
भी है जो दिन को मुतहर्रिक (गतिवान) होती है और रातों को करार पकड़ती है। ख़ुदा जिस 
तरह बाकी कायनात के लिए सरापा रहमत है उसी तरह वह इंसानों के लिए भी सरापा रहमत 
है। फर्क यह है कि बाकी दुनिया में खुदा की रहमतों का जुहूर अव्वल दिन से है और इंसान 
की दुनिया में उसकी रहमतों का कामिल जुहूर कियामत के दिन होगा। 

इंसान इरादी मख्नूक है और उससे इरादी इबादत मत्लूब है। इसी से यह बात निकलती 
है कि जो लोग अपने इरादे का सही इस्तेमाल न करें वे इस काबिल नहीं कि उन्हें खुदा की 





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पारा 7 38 सूरह-6. अल-अनआम 


रहमतों में हिस्सेदार बनाया जाए। क्योंकि उन्होंने अपने मक्सदे तख़्तीक को पूरा न किया। 
आजमाइशी मुद्दत पूरी होने के बाद सारे लोग एक नई दुनिया में जमा किए जाएंगे। उस दिन 
ख़ुदा उसी तरह दुनिया का निजाम अपने हाथ में लेगा जिस तरह आज वह बाकी कायनात 
का इंतिजाम अपने हाथ में लिए हुए है। उस रोज खुदा के इंसाफ का तराजू खड़ा होगा । उस 
दिन वेला सरफाज (लाभांवित) ही जिन्हे हकीकते वाक्या का एतराफ करके अपने को 
खुदाई इताअत में दे दिया। और वे लोग घाटे में रहेंगे जिन्होंने हकीकते वाकया का एतराफ 
नहीं किया और खुदा की दुनिया में सरकशी और हठधर्मी के तरीके पर चलते रहे। 

इंसान जब भी सरकशी करता है किसी बरते (आधार) पर करता है। मगर जिन चीजों के बरते 
पर इंसान सरकशी करता है उनकी इस कायनात मेंकोई हकीकत नहीं। यहां हर चीज बेजेर है, जेर 
वाला सिर्फ एक ख़ुदा है। सब उसके मोहताज हैं और वह किसी का मोहताज नहीं। इसलिए फैसले 
के दिन वही शख्स बामुराद होगा जिसने हकीकी सहारे को अपना सहारा बनाया होगा, जिसने 
हकीकी दीन को अपनी जिंदगी के दीन की हैसियत से इस्क्तियार किया होगा। 


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और अगर अल्लाह तुझे कोई दुख पहुंचाए तो उसके सिवा कोई उसे दूर करने वाला 
नहीं। और अगर अल्लाह तुझे कोई भलाई पहुंचाए तो वह हर चीज पर कादिर है। और 

उसी का जोर है अपने बंदों पर। और वह हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला सबकी ख़बर रखने 
वाला है, तुम पूछो कि सबसे बड़ा गवाह कौन है। कहो अल्लाह, वह मेरे और तुम्हारे 
दर्मियान गवाह है और मुझ पर यह कुरआन उतरा है ताकि में तुम्हें इससे ख़बरदार कर 

दूं और उसे जिसे यह पहुंचे। क्या तुम इसकी गवाही देते हो कि खुदा के साथ कुछ और 
माबूद भी हैं। कहो, मैं इसकी गवाही नहीं देता। कहो, वह तो बस एक ही माबूद है 
और मैं बरी हूं तुम्हारे शिर्क से। (7-9) 








हमारे सामने जो अजीम कायनात फैली हुई है उसके मुख़्तलिफ अज्जा आपस में इतने 
ज्यादा मरबूत (सुव्यवस्थित) हैं कि यहां किसी एक वाकथे को जुहू में लाने के लिए भी पूरी 
कायनात की कार्य'प्रणाली जरूरी है। इस कारण कोई भी इंसान किसी वाकये को जुहूर में 
लाने पर कादिर नहीं। क्योंकि कोई भी इंसान कायनात के ऊपर काबूयाफ्ता नहीं। यहां एक 
छोटी सी चीज भी उस वक्त वजूद में आती है जबकि बेशुमार आलमी असबाब उसकी पुश्त 


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सूरह-6. अल-अनआम 3]9 पारा 7 


पर जमा हो गए हों। और ख़ुदा के सिवा कोई नहीं जो इन असबाब पर हुक्मरां हो। कायनाती 
असबाब के दर्मियान आदमी सिर्फ एक हकीर इरादे का मालिक है। हकीकत यह है कि इस 
दुनिया में किसी को कोई सुख मिले या किसी को कोई दुख पहुंचे, दोनों ही बराहेरास्त ख़ुदा 
की इजाजत के तहत होते हैं। ऐसी हालत में किसी का यह सोचना भी हिमाकत है कि वह 
किसी को आबाद या बर्बाद कर सकता है। और यह बात भी हास्यास्पद हद तक निरर्थक है 
कि ख़ुदा के सिवा भी कोई है जिससे आदमी डरे या खुदा के सिवा कोई है जिससे वह अपनी 
उम्मीदें वाबस्ता करे। 

दुनिया में अहले हक और अहले बातिल के दर्मियान जो कशमकश जारी है इसमें 
फैसलाकुन चीज सिर्फ खुदा की किताब है। खुदा के सिवा किसी को हकाइक (यथार्थ का 
इल्म नहीं, और खुदा के सिवा किसी को किसी किस्म का जोर हासिल नहीं। इसलिए खुदा 
ही वह हस्ती है जो इस झगड़े में वाहिद सालिस (मध्यस्थ) है। और ख़ुदा ने कुरआन की सूरत 
में यह सालिस लोगों के दर्मियान रख दिया है अब आदमी के सामने दो ही रास्ते हैं। अगर 
वह कुरआन की सदाकत से बेडर है तो वह तहकीक करके जाने कि क्या वाकई वह खुदा 
की किताब है। और जब वह जान ले कि वह वास्तव में ख़ुदा की किताब है तो उसे लाजिमन 
उसके फैसले पर राजी हो जाना चाहिए । जो आदमी कुरआन के फैसले पर राजी न हो वह 
यह ख़तरा मोल ले रहा है कि आखिरत में रुस्वाई और अजाब की कीमत पर उसे इसके 
पेले पर राजे होना पंड़े। 

कुरआन इसलिए उतारा गया है कि फैसले का वक्‍त आने से पहले लोगों को आने वाले 
वक्त से होशियार कर दिया जाए। रसूल ने यही काम अपने जमाने में किया और आपकी 
उम्मत को यही काम आपके बाद कियामत तक अंजाम देना है। कुरआन इस बात की पेशगी 
इत्तला है कि आखिरत की अबदी दुनिया में लोगों का ख़ुदा लोगों के साथ क्या मामला करने 
वाला है। पहुंचाने वाले उस वक्त अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं जबकि वह उसे पूरी 
तरह लोगों तक पहुंचा दें मगर सुनने वाले ख़ुदा के यहां उस वक्त मुक्त होंगे जबकि वे उसे 
मानें और उसे अपनी अमली जिंदगी में इख़्तियार करें। दाऔ की जिम्मेदारी 'तब्लीग़ (प्रचार) 
पर ख़त्म होती है और मदऊ (संबोधित व्यक्ति) की जिम्मेदारी 'इताअत”' (आज्ञापालन) पर। 


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पारा 7 320 सूरह-6. अल-अनआम 


जिन लोगों को हमने किताब दी है वह उसे पहचानते हैं जैसा अपने बेटों को पहचानते 
हैं। जिन लोगों ने अपने को घाटे में डाला वे उसे नहीं मानते। और उस शख्स से ज्यादा 
जालिम कौन होगा जो अल्लाह पर बोहतान बांधे या अल्लाह की निशानियों को झुठलाए। 
यकीनन जालिमों को फलाह (कल्साण) नहीं मिलती । और जिस दिन हम उन सबको जमा 

करेंगे फिर हम कहेंगे उन शरीक ठहराने वालों से कि तुम्हारे वे शरीक कहां हैं जिनका तुम्हे 
दावा था। फिर उनके पास कोई फरेब न रहेगा मगर ये कि वे कहेंगे कि अल्लाह अपने 
रब की कसम, हम शिर्क करने वाले न थे। देखो यह किस तरह अपने आप पर झूठ बोले 
और खोई गईं उनसे वे बातें जो वे बनाया करते थे। (20-24) 





हकीकत आदमी के लिए जानी पहचानी चीज है। क्योंकि वह आदमी की फितरत मेंपेवस्त 
है और कायनात में हर तरफ खामोश जबान में बोल रही है। यहूद व नसारा का मामला इस बाब 
में और भी ज्यादा आगे था। क्योंकि उनके अंबिया और उनके सहीफे (दिव्यग्रंथ) उन्हें कुरआन 
और पैगम्बर आहिरुज्जमां मुहम्मद (सल्ल०) के बारे में साफ लफ्जोंमें पेशगी ख़बर दे चुके थे, 
यहां तक कि उनके लिए इसे जानना ऐसा ही था जैसा अपने बेटों को जानना। 
इस कद्र खुला हुआ होने के बावजूद इंसान क्यांहकीकत को तस्लीम नहीं करता । इसकी वजह 
वक्ती नुक्सान का उदिशा है। हकीकत को मानना हमेशा इस कीमत पर होता हैकि आदमी अपने 
को बड़ाई के मकाम से उतारे, वह तक्लीदी (अनुसरणपरक) ढांचे से बाहर आए, वह मिले हुए 
फायदोंको छोड़ दे। आदमी यह कुर्बानी देने के लिए तैयार नहीं होता इसलिए वह हक को भी कुबूल 
नहीं करता। वक्ती फायदे की ख़ातिर वह अपने को अबदी घाटे में डाल देता है। 
अपने इस मौकिफ पर मुतमइन रहने के लिए यह बात भी उसे धोखे में डालती है कि 
वह इम्तेहान की इस दुनिया में हमेशा अपने अनुकूल तौजीहात पाने में कामयाब हो जाता है। 
वह सच्चाई के हक में जाहिर होने वाले दलाइल को रद्द करने के लिए झूठे अल्फाज पा लेता 
है। यहां तक कि यहां उसे यह आजादी भी हासिल है कि हकीकत की खुदसाख़ता ताबीर 
करके यह कह सके कि सच्चाई ऐन वही है जिस पर मैं कायम हूं। 
जब भी आदमी खुदा को छोड़कर दूसरी चीजों को अपना मर्कजे तवज्जोह बनाता है तो 
धीरे-धीरे इन चीजों के गिर्द ताईदी बातों का तिलिस्म तैयार हो जाता है। वह ख्याली आरजुओं 
और झूठी तमन्नाओं का एक ख़ुदसाख्ता हाला बना लेता है जो उसे इस फरेब में मुब्तिला 
रखते हैं कि उसने बड़े मजबूत सहारे को पकड़ रखा है। मगर कियामत में जब तमाम पर्दे फट 
जाएंगे और आदमी देखेगा कि ख़ुदा के सिवा तमाम सहारे बिल्कुल झूठे थे तो उसके सामने 
इसके सिवा कोई राह न होगी कि वह ख़ुद अपनी कही हुई बातों की तरदीद (खंडन) करने 
लगे। गोया इस किस्म के लोग उस वक्त खुद अपने खिलाफ झूठे गवाह बन जाएंगे। दुनिया 
में वे जिन चीजों के हामी बने रहे और जिनसे मंसूब होने को अपने लिए बाइसे फख़ समझते 
रहे, आख़िरत में खुद उनके मुंकिर हो जाएंगे । उन्होंने अकाइद और तौजीहात का जो झूठा किला 
खड़ा किया था वह इस तरह ढह जाएगा जैसे उसका कोई वजूद ही न था। 


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सूरह-6. अल-अनआम 32I पारा 7 

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और उनमें कुछ लोग ऐसे हैं जो तुम्हारी तरफ कान लगाते हैं और हमने उनके दिलों 
पर पर्दे डाल दिए हैं कि वे उसे न समझें। और उनके कानों मे बोझ है। अगर वे तमाम 
निशानियां देख लें तब भी उन पर ईमान न लाएंगे। यहां तक कि जब वे तुम्हारे पास 
तुमसे झगड़ने आते हैं तो वे मुंकिर कहते हैं कि यह तो बस पहले लोगों की कहानियां 
हैं। वे लोगों को रोकते हैं और ख़ुद भी उससे अलग रहते हैं। वे खुद अपने को हलाक 
कर रहे हैं मगर वे नहीं समझते। और अगर तुम उन्हें उस वक्‍त देखो जब वे आग पर 
खड़े किए जाएंगे और कहेंगे कि काश हम फिर भेज दिए जाएं तो हम अपने रब की 
निशानियों को न झुठलाएं और हम ईमान वालों में से हो जाएं। अब उन पर वह चीज 
खुल गई जिसे वे इससे पहले छुपाते थे। और अगर वे वापस भेज दिए जाएं तो वे फिर 
वही करेंगे जिससे वे रोके गए थे। और बेशक वे झूठे हैं। (25-28) 


मौजूदा इम्तेहान की दुनिया में आदमी को यह मौका हासिल है कि वह हर बात की 
मुफीदे मतलब तौजीह कर सके। इसलिए जो लोग तअस्सुब का जेहन लेकर बात को सुनते 
हैं उनका हाल ऐसा होता है जैसे उनके कान बंद हों और उनके दिलों पर पर्दे पड़े हुए हों। 
वे सुनकर भी नहीं सुनते और बताने के बाद भी नहीं समझते। दलाइल (तर्क) अपनी सारी 
वजाहत के बावजूद उन्हें मुतमइन करने में नाकाम रहते हैं। क्योंकि वे जो कुछ सुनते हैं झगड़े 
के जेहन से सुनते हैं न कि नसीहत के जेहन से। उनके अंदर बात को सुनने और समझने 
का कोई इरादा नहीं होता। इसका नतीजा यह होता है कि किसी बात का असल पहलू उनके 
जेहन की गिरफ्त में नहीं आता। इसके बरअक्स हर बात को उल्टी शक्ल देने के लिए उन्हें 
कोई न कोई चीज मिल जाती है। दलाइल उनके जेहन का जुज नहीं बनते। अपने 
मुखालिफाना जेहन की वजह से वे हर बात में कोई ऐसा पहलू निकाल लेते हैं जिसे गलत 
मअना देकर वे अपने आपको बदस्तूर मुतमइन रखें कि वे हक पर हैं। 

जो लोग यह मिजाज रखते हों उनके लिए तमाम दलाइल बेकार हैं। क्योंकि इम्तेहान की 
इस दुनिया में कोई भी दलील ऐसी नहीं जो आदमी को इससे रोक दे कि वह इसके रद्द के 








पारा 7 322 सूरह-6. अल-अनआम 


लिए कुछ ख़ुदसाख़्ता अल्फाज न पाए। अगर कोई दलील न मिल रही हो तब भी वह हकारत 
के साथ यह कह कर उसे नजरअंदाज कर देगा “यह कौन सी नई बात है। यह तो वही पुरानी 
बात है जो हम बहुत पहले से सुनते चले आ रहे हैं। इस तरह आदमी उसकी सदाकत को 
मान कर भी उसे रद्द करने का एक बहाना पा लेगा। ऐसे लोग खुदा के नजदीक दोहरे मुजरिम 
हैं। क्योंकि वे न सिर्फ खुद हक से रुकते हैं बल्कि एक खुदाई दलील को गलत मआना पहना 
कर आम लोगों की नजर में भी उसे मशकूक (संदिग्ध) बनाते हैं जो इतनी समझ नहीं रखते 
कि बातों का गहराई के साथ तज्जिया (विश्लेषण) कर सकें। 

दुनिया की जिंदगी में इस किस्म के लोग खूब बढ़ बढ़कर बातें करते हैं। दुनिया में हक 
का इंकार करके आदमी का कुछ नहीं बिगड़ता। इसलिए वह गलतफहमी में पड़ा रहता है। 
मगर कियामत में जब उसे आग के ऊपर खड़ा करके पूछा जाएगा तो उन पर सारी हकीकतें 
खुल जाएंगी। अचानक वह उन तमाम बातों का इकरार करने लगेगा जिन्हें वह दुनिया में 
ठुकरा दिया करता था। 


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और कहते हैं कि जिंदगी तो बस यही हमारी दुनिया की जिंदगी है। और हम फिर उठाए 

जाने वाले नहीं। और अगर तुम उस वक्‍त देखते जबकि वे अपने रब के सामने खड़े किए 
जाएंगे। वह उनसे पूछेगा : क्या यह हकीकत नहीं है, वे जवाब देंगे हां, हमारे रब की 

कसम, यह हकीकत है। सुदा फरमाएगा। अच्छा तो अजब चखो उस इंकार के बदले 

जो तुम करते थे। यकीनन वे लोग घाटे में रहे जिन्होंने अल्लाह से मिलने को झुठलाया। 
यहां तक कि जब वह घड़ी उन पर अचानक आएगी तो वे कहेंगे हाय अफसोस, इस 
बाब में हमने कैसी कोताही की और वे अपने बोझ अपनी पीठों पर उठाए हुए होंगे। 
देखो, कैसा बुरा बोझ है जिसे वे उठाएंगे और दुनिया की जिंदगी तो बस खेल तमाशा 

है और आख़िरत का घर बेहतर है उन लोगों के लिए जो तकवा (ईश-भय) रखते हैं, 
क्या तुम नहीं समझते। (29-32) 





जब भी कोई आदमी हक का इंकार करता है या नफ्स की ख़्वाहिशात पर चलता है तो 
ऐसा इस वजह से होता है कि वह यह समझ कर दुनिया में नहीं रहता कि मरने के बाद वह 
दुबारा उठाया जाएगा और मालिके कायनात के सामने हिसाब किताब के लिए खड़ा किया 


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सूरह-6. अल-अनआम 323 पारा 7 





जाएगा। दुनिया में आदमी को इख्तियार मिला हुआ है जिसे वह बेरोक टोक इस्तेमाल करता 
है। उसे माल व दौलत और दोस्त और साथी हासिल हैं जिन पर वह भरोसा कर सकता है। 
उसे अक्ल मिली हुई है जिससे वह सरकशी की बातें सोचे और अपने जालिमाना अमल की 
खूबसूरत तौजीह कर सके। यह चीजें उसे धोखे में डालती हैं। वह ख़ुदा के सिवा दूसरी चीजों 
पर झूठा भरोसा कर लेता है। वह समझने लगता है कि जैसा मैं आज हूं वैसा ही मैं हमेशा 
रहूंगा । वह भूल जाता है कि दुनिया में उसे जो कुछ मिला हुआ है वह बतौर इम्तेहान है न 
कि बतैर इस्तहकक (पात्रता)। 

इस किस्म की जिंदगी चाहे वह आख़िरत का इंकार करके हो या इंकार के अल्फाज बोले 
बगैर हो, आदमी का सबसे बड़ा जुर्म है। जिन दुनियावी चीजों को आदमी अपना सब कुछ 
समझ कर उन पर टूटता है। आख़िर किस हक की बिना पर वह ऐसा कर रहा है। आदमी 
जिस रोशनी में चलता है और जिस हवा में सांस लेता है उसका कोई मुआवजा उसने अदा 
नहीं किया है। वह जिस जमीन से अपना रिज्क निकालता है उसका कोई भी जुज उसका 
बनाया हुआ नहीं है। वह तमाम पसंदीदा चीजें जिन्हें हासिल करने के लिए आदमी दौड़ता है 
उनमें से कोई चीज नहीं जो उसकी अपनी हो। जब ये चीजें इंसान की अपनी पैदा की हुई 
नहीं हैं तो जो इन तमाम चीजों का मालिक है क्या उसका आदमी के ऊपर कोई हक नहीं। 
हकीकत यह है कि आदमी का मौजूदा दुनिया को इम्तेमाल करना ही लाजिम कर देता है कि 
वह एक रोज उसके मालिक के सामने हिसाब के लिए खड़ा किया जाए। 

जो लोग दुनिया को खुदा की दुनिया समझ कर जिंदगी गुजारे उनकी जिंदगी तकवा की 
जिंदगी होती है। और जो लोग उसे खुदा की दुनिया न समझें उनकी जिंदगी उन्मुक्त जिंदगी 
होती है। उन्मुक्त जिंदगी चन्द रोज का तमाशा है जो मरने के साथ ख़त्म हो जाएगा। और 
तकवा की जिंदगी खुदा के अबदी उसूलों पर कायम है इसलिए वह अबदी तौर पर आदमी 
का सहारा बनेगी। मौजूदा दुनिया में आदमी इन हकीकतों का इंकार करता है मगर इम्तेहान 
की आजादी ख़त्म होते ही वह उसका इकरार करने पर मजबूर होगा अगरचे उस वकत का 
इकरार उसके कुछ काम न आएगा। 

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पारा 7 324 सूरह-6. अल-अनआम 


हमें मालूम है कि वे जो कुछ कहते हैं उससे तुम्हें रंज होता है। ये लोग तुम्हें नहीं झुठलाते 
बल्कि यह जालिम दरअस्ल अल्लाह की निशानियाँ का इंकार कर रहे हैं। और तुमसे 
पहले भी रसूलों को झुठलाया गया तो उन्होंने झुठलाए जाने और तकलीफ पहुंचाने पर 
सब्र किया यहां तक कि उन्हें हमारी मदद पहुंच गई। और अल्लाह की बातों को कोई 
बदलने वाला नहीं। और पैग़म्बरों की कुछ ख़बरें तुम्हें पहुंच ही चुकी हैं। और अगर 
उनकी बेरुख़ी तुम पर गिरां गुजर रही है तो अगर तुममें कुछ जोर है तो जमीन में कोई 

सुरंग दूंढो या आसमान में सीढ़ी लगाओ और उनके लिए कोई निशानी ले आओ। और 
अगर अल्लाह चाहता तो उन सबको हिदायत पर जमा कर देता। पस तुम नादानों में 
से न बनो। कुबूल तो वही लोग करते हैं जो सुनते हैं और मुर्दों को अल्लाह उठाएगा 
फिर वे उसकी तरफ लौटाए जाएंगे। (33-36) 








अबू जहल ने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से कहा : 'ऐ मुहम्मद, खुदा की 
कसम हम तुम्हें नहीं झुठलाते। यकीनन तुम हमारे दर्मियान एक सच्चे आदमी हो। मगर हम 
उस चीज को झुठलाते हैं जिसे तुम लाए हो।' मक्का के लोग जो ईमान नहीं लाए वे आपको 
एक अच्छा इंसान मानते थे। मगर किसी के मुतअल्लिक यह मानना कि उसकी जबान पर 
हक जारी हुआ है उसे बहुत बड़ा ऐज़ाज देना है और इतना बड़ा ऐज़ाज देने के लिए वे तैयार 
न थे। आपको जब वे 'सच्चा' या ईमानदार” कहते तो उन्हें यह नफ्सियाती तस्कीन हासिल 
रहती कि आप हमारी ही सतह के एक इंसान हैं। मगर इस बात का इकरार कि आपकी 
जबान पर ख़ुदा का कलाम जारी हुआ है आपको अपने से ऊंचा दर्जा देने के हममअना था। 
और इस किस्म का एतराफ आदमी के लिए मुश्किलतरीन काम है। 

मौजूदा दुनिया में ख़ुदा अपनी बराहेरास्त सूरत में सामने नहीं आता, वह दलाइल (तर्को) 
और निशानियों की सूरत में इंसान के सामने जाहिर होता है। इसलिए हक के दलाइल को 
न मानना या उसके हक में जाहिर होने वाली निशानियों की तरफ से आंखें बन्द कर लेना 
गोया खुदा को न मानना और खुदा के चेहरे की तरफ से आंखें फेर लेना है। ताहम ऐसा नहीं 
हो सकता कि ख़ुदा मजबूरकुन मोजिजात (चमत्कारो) के साथ सामने आए। मजबूरकुन 
मोजिजात के साथ ख़ुदा की दावत पेश की जाए तो फिर इख़्तियार की आजादी ख़त्म हो 
जाएगी और इम्तेहान के लिए आजादाना इख्तियार का माहौल होना जरूरी है। दाऔ को इस 
बात का ग़म न करना चाहिए कि उसके साथ सिर्फ दलाइल (तर्को) का वजन है, गैर मामूली 
किस्म की तस्खीरी (वर्चस्वपरक) कुव्वतें उसके पास मौजूद नहीं। दाऔ को इस फिक्र में पड़ने 
के बजाए सब्र करना चाहिए। हक की दावत की जद्दोजहद एक तरफ दाओ के सब्र का 
इम्तेहान होती है और दूसरी तरफ मुखातबीन के लिए इस बात का इम्तेहान कि वे अपने जैसे 
एक इंसान में ख़ुदा का नुमाइंदा होने की झलक देखें। वे इंसान के मुंह से निकले हुए कलाम 
में खुदाई कलाम की अज्मतों को पा लें, वे मादूदी (भौतिक) जोर से ख़ाली दलाइल (तको) 
के आगे इस तरह झुक जाएं जिस तरह वे जोरआवर ख़ुदा के आगे झुकेंगे। जिंदा लोगों के 
लिए सारी कायनात निशानियों से भरी हुई है। और जिन्होंने अपने एहसासात को मुर्दा कर 
लिया हो वे कियामत के जलजले के सिवा किसी और चीज से सबक नहीं ले सकते। 








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सूरह-6. अल-अनआम 325 पारा 7 
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और वे कहते हैं कि रसूल पर कोई निशानी उसके रब की तरफ से क्यों नहीं उतरी। 
कहो अल्लाह बेशक कादिर है कि कोई निशानी उतारे मगर अक्सर लोग नहीं जानते। 
और जो भी जानवर जमीन पर चलता है और जो भी परिंदा अपने दोनों बाजुओं से उड़ता 
है वे सब तुम्हारी ही तरह के समूह हैं। हमने लिखने में कोई चीज नहीं छोड़ी है। फिर 
सब अपने रब के पास इकट्ठा किए जाएंगे। और जिन्होंने हमारी निशानियों को 
झुठलाया वे बहरे और गूंगे हैं, तारीकियों में पड़े हुए हैं। अल्लाह जिसे चाहता है भटका 
देता है और जिसे चाहता है सीधी राह पर लगा देता है। (37-39) 





इन आयात के इख्तिसार (सार) को खोल दिया जाए तो पूरा मज्मून इस तरह होगा वे 
कहते हैं कि पैगम्बर के साथ गैर मामूली निशानी क्यों नहीं जो उसके पैग़ाम के बरहक होने 
का सुबूत हो। तो अल्लाह हर किस्म की निशानी उतारने पर कादिर है। मगर असल सवाल 
निशानी का नहीं बल्कि लोगों की बेइल्मी का है। निशानियां तो बेशुमार तादाद में हर तरफ बिखरी 
हुई हैं जब लोग इन मौजूद निशानियों से सबक नहीं ले रहे हैं तो कोई नई निशानी उतारने से 
वे क्या फायदा उठा सकेंगे। तरह-तरह के चलने वाले जानवर और मुख़तलिफ किस्म की उड़ने 
वाली चिड़ियां जो जमीन में और फजा में मौजूद हैं व तुम्हारे लिए निशानियां ही तो हैं। इन तमाम 
जिंदा मख्लूकात से भी अल्लाह को वही कुछ मत्लूब है जो तुमसे मत्लूब है। और हर एक से 
जो कुछ मत्लूब है वह ख़ुदा ने उसके लिए लिख दिया है, इंसान को शरई तौर पर और दूसरी 
मख्नूकात को जिबिल्ली (स्वभावगत) तौर पर । चिड़ियों और जानवरों जैसी मख्नूकात ख़ुदा के 
लिखे पर पूरा-पूरा अमल कर रही हैं। मगर इंसान ख़ुदा के लिखे को मानने के लिए तैयार नहीं। 
इसलिए यह मामला निशानी का नहीं बल्कि अंधेपन का है, बाकी तमाम मख्लूकात जो दीन 
इख्तियार किए हुए हैं, इंसान के लिए उसके सिवा कोई दीन इख़्तियार करने का जवाज 
(औचित्य) क्या है। हकीकत यह है कि जिन्हें अमल करना है वे निशानी का मुतालबा किए बगैर 
अमल कर रहे हैं और जिन्हें अमल करना नहीं है वे निशानियों के हुजूम में रहकर निशानियां 
मांग रहे हैं। ऐसे लोगों का अंजाम यही है कि कियामत में सबको जमा करके दिखा दिया जाए 
कि हर किस्म के हैवानात किस तरह हकीकतपसंदी का तरीका इख्ियार करके खुदा के रास्ते 
पर चल रहे थे। यह सिर्फ इंसान था जो इससे भटकता रहा। 

जानवरों की दुनिया मुकम्मल तौर पर मुताबिके फितरत दुनिया है। उनके यहां रिज्क की 
तलाश है मगर लूट और जुल्म नहीं। उनके यहां जरूरत है मगर हिर्स और ख़ुदगजी नहीं। उनके 








पारा 7 326 सूरह-6. अल-अनआम 





यहां आपसी तअल्लुकात हैं मगर एक दूसरे की काट नहीं | उनके यहां ऊंच-नीच है मगर हसद 
और गुरूर नहीं। उनके यहां एक को दूसरे से तकलीफ पहुंचती है मगर बुग्ज व अदावत नहीं। 
उनके यहां काम हो रहे हैं मगर क्रेडिट लेने का शौक नहीं। मगर इंसान सरकशी करता है। वह 
खुदाई नक्शे का पाबंद बनने के लिए तैयार नहीं होता। इंसान से जिस चीज का मुतालबा है 
वह ठीक वही है जिस पर दूसरे हैवानात कायम हैं। फिर इसके लिए मोजिजे (चमत्कार) मांगने 
की क्या जरूरत । हैवानात की सूरत में चलती फिरती निशानियां क्या आदमी के सबक के लिए 
काफी नहीं हैं जो खुदाई तरीके अमल का जिंदा नमूना पेश कर रही हैं और इस तरह पैगम्बर 

की तालीमात के बरहक होने की अमली तस्दीक करती हैं। 


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कहो, यह बताओ कि अगर तुम पर अल्लाह का अजाब आए या कियामत आ जाए 
तो क्या तुम अल्लाह के सिवा किसी और को पुकारोगे। बताओ अगर तुम सच्चे हो, 
बल्कि तुम उसी को पुकारोगे। फिर वह दूर कर देता है उस मुसीबत को जिसके लिए 
तुम उसे पुकारते हो। अगर वह चाहता है। और तुम भूल जाते हो उन्हें जिन्हें तुम शरीक 
ठहराते हो। (40-4]) 





अबू जहल के लड़के इकरिमा इस्लाम के सख्त दुश्मन थे। वह फतहे मक्का तक इस्लाम 
के मुखालिफ बने रहे। फतह मक्का के दिन भी उन्होंने एक मुसलमान को तीर मारकर हलाक 
कर दिया था। इकरिमा उन लोगों में से थे जिनके मुतअल्लिक फतहे मक्का के दिन रसूलुल्लाह 
सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने यह हुक्म दिया था कि जहां मिलें कत्ल कर दिए जाएं। 

मक्का जब फतह हो गया तो इकरिमा मक्का छोड़कर जद्दा की तरफ भागे। उन्होंने 
चाहा कि कश्ती के जरिए बहरे कुलजुम (लाल सागर) पार करके हबश पहुंच जाएं। मगर वह 
कश्ती में सवार होकर समुद्र में पहुंचे थे कि तुन्द हवाओं ने कश्ती को घेर लिया। कश्ती ख़तरे 
में पड़ गई। कशती के मुसाफिर सब मुश्रिक लोग थे। उन्होने लात और उज्जा वगैरह अपने 
बुतों को मदद के लिए पुकारना शुरू किया। मगर तूफान की शिदूदत बढ़ती रही। यहां तक 
कि मुसाफिरों को यकीन हो गया कि अब कश्ती डूब जाएगी। अब कश्ती वालों ने कहा कि 
इस वक्‍त लात व उज्जा कुछ काम न देंगे। अब सिर्फ एक खुदा को पुकारो, वही तुम्हें बचा 
सकता है। चुनांचे सब एक ख़ुदा को पुकारने लगे। अब तूफान थम गया और कश्ती वापस 
अपने साहिल पर आ गई। इकरिमा पर इस वाकये का बहुत असर हुआ। उन्होंने कहा : ख़ुदा 
की कसम, दरिया में अगर कोई चीज खुदा के सिवा काम नहीं आ सकती तो यकीनन ख़ुश्की 
में भी ख़ुदा के सिवा कोई दूसरी चीज काम नहीं आ सकती। ख़ुदाया मैं तुझसे वादा करता हूं 
कि अगर तूने मुझे इससे नजात दे दी जिसमें इस वक्त मैं फंसा हुआ हूं तो मैं जरूर मुहम्मद 
के यहां जाऊंगा और अपना हाथ उनके हाथ में दे दूंगा और मुझे यकीन है कि मैं उन्हें माफ 


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सूरह-6. अल-अनआम 327 पारा 7 


करने वाला, दरगुजर करने वाला और और महरबान पाऊंगा। (अबूदाऊद, नसई) 

सारी तारीख़ का यह मुशाहिदा है कि इंसान नाजुक लम्हात में खुदा को पुकारने लगता है। 
यहां तक कि वह शख्स भी जो आम जिंदगी में खुदा के सिवा दूसरों पर भरोसा किए हो या सिरे 
से खुदा को मानता न हो। यह खुदा के वजूद और उसके कादिरे मुतलक होने की फितरी शहादत 
है। गैर मामूली हालात में जब जाहिरी पर्दे हट जाते हैं और आदमी तमाम मस्नूई (कृत्रिम) 
ख्य़ालात को भूल चुका होता है उस वक्‍त आदमी को खुदा के सिवा कोई चीज याद नहीं आती। 
बअल्फाजे दीगर, मजबूरी के नुते पर पहुंच कर हर आदमी खुरा का इकरार कर लेता है, 
कुरआन का मुतालबा यह है कि यही इकरार और इताअत (आज्ञापालन) आदमी उस वक्‍त करने 
लगे जबकि बजाहिर मजबूर करने वाली कोई चीज उसके सामने मौजूद न हो। 

बाकी हैवानात अपनी जिबिल्लत (प्राकृतिक स्वभाव) के तहत हकीकतपसंदाना जिंदगी 
गुजार रहे हैं। मगर इंसान को जो चीज हकीकतपसंदी और एतराफ की सतह पर लाती है वह 
खौफ की नपिसियात है। हैवानात की दुनिया में जो काम जिबिल्लत करती है, इंसान की 
दुनिया में वही काम तकवा अंजाम देता है। 


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और तुमसे पहले बहुत सी कौमा की तरफ हमने रसूल भेजे। फिर हमने उन्हें पकड़ा 
सख्ती में और तकलीफ में ताकि वे गिड़गिड़ाएं। पस जब हमारी तरफ से उन पर सख्ती 
आई तो क्यों न वे गिड़गिड़ाए। बल्कि उनके दिल सख्त हो गए। और शैतान उनके 
अमल को उनकी नजर में खुशनुमा करके दिखाता रहा। फिर जब उन्होंने उस नसीहत 
को भुला दिया जो उन्हें की गई थी तो हमने उन पर हर चीज़ के दरवाज़े खोल दिये। 
यहां तक की जब वे उस चीज़ पर खुश हो गए जो उन्हें दी गई थी तो हमने अचानक 
उन्हें पकड़ लिया। उस वक्‍त वे नाउम्मीद होकर रह गए। पस उन लोगों की जड़ काट 


दी गई जिन्होंने जुल्म किया था और सारी तारीफ अल्लाह के लिए है, तमाम जहानों 
का रब। (42-45) 


आदमी के सामने एक हक आता है और वह उसे नहीं मानता तो अल्लाह उसे फौरन नहीं 
पकडता । बल्कि उसे माली नुक्सान और जिस्मानी तकलीफ की सूरत में कुछ झटके देता है ताकि 
उसकी सोचने की सलाहियत बेदार हो और वह अपने रवैये के बारे में नजरेसानी करे, जिंदगी के 
हादसे महज हादसे नहीं हैं, वे खुदा के भेजे हुए महसूस पैग़ामात हैं जो इसलिए आते हैं ताकि 


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पारा 7 328 सूरह-6. अल-अनआम 


गफलत में सोए हुए इंसान को जगाएं। मगर आदमी अक्सर इन चीजों से नसीहत नहीं लेता । वह 
यह कहकर अपने को मुतमइन कर लेता है कि ये तो उतार चढ़ाव के वाकेयात हैं और इस किस्म 
के उतार चढ़ाव जिंदगी में आते ही रहते हैं। इस तरह हर मौके पर शैतान कोई खुशनुमा तौजीह 
पेश करके आदमी के जेहन को नसीहत की बजाए गफलत की तरफ फेर देता है। आदमी जब 
बार-बार ऐसा करता है तो हक व बातिल और सही व ग़लत के बारे में उसके दिल की 
हस्सासियत ख़त्म हो जाती है। वह कसावत (बेहिसी) का शिकार होकर रह जाता है। 

जब आदमी खुदा की तरफ से आई हुई तंबीहात को नजरअंदाज कर दे तो इसके बाद 
उसके बारे में खुदा का अंदाज बदल जाता है। अब उसके लिए ख़ुदा का फैसला यह होता है कि 
उस पर आसानियों और कामयाबियों के दरवाजे खोले जाएं। उस पर खुशहाली की बारिश की 
जाए। उसकी इन्त व मवूलियत मेइजफ किया जाए । यह दरहमीक्त एक सज हिजो 
इसलिए होती है ताकि उसका अंदरून और ज्यादा बाहर आ जाए। इसका मकसद यह होता है 
कि आदमी मुतमइन होकर अपनी बेहिसी को और बढ़ ले, वह हक को नजरअंदाज करने में और 
ज्यादा दीठ होजाए और इस तरह. की सजा का इस्तहकक (पात्रता) उसके लिए पूरी तरह 
साबित हो जाए। जब यह मकसद हासिल हो जाए तो उसके बाद अचानक उस पर ख़ुदा का 
अजाब टूट पड़ता है। उसे दुनियावी जिंदगी से महरूम करके आख़िरत की अदालत में हाजिर कर 
दिया जाता है ताकि उसकी सरकशी की सजा में इसके लिए जहन्नम का फैसला हो। 

यह दुनिया खुदरा की दुनिया है। यहां हर किस्म की बझ़ई और तारीफ का हक सिर्फएक 
जात के लिए है। इसलिए जब कोई शख्स खुदा की तरफ से आए हुए हक को नजरअंदाज 
कर देता है तो वह दरअस्ल ख़ुदा की नाक्रद्री करता है। वह ख़ुदा की अज्मतों की दुनिया में 
अपनी अज्मत कायम करना चाहता है। वह ऐसा जुम करता है जिससे बझ कोई जुल्म नहीं। 
वह उस ख़ुदा के सामने गुस्ताखी करता है जिसके सामने इज्ज (विनय) के सिवा कोई और 
रवैया किसी इंसान के लिए दुरुस्त नहीं। 


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सूरह-6. अल-अनआम 329 पारा 7 


कहो, यह बताओ कि अल्लाह अगर छीन ले तुम्हारे कान और तुम्हारी आंखें और तुम्हारे 
दिलों पर मुहर कर दे तो अल्लाह के सिवा कौन माबूद (पूज्य) है जो उसे वापस लाए। 
देखो हम क्यांकर तरह-तरह से निशानियां बयान करते हैं फिर भी वे एराज (उपेक्षा) 
करते हैं। कहो, यह बताओ अगर अल्लाह का अजाब तुम्हारे ऊपर अचानक या 
एलानिया आ जाए तो जालिमों के सिवा और कौन हलाक होगा। और रसूलों को हम 
सिर्फ खुशखबरी देने वाले या डराने वाले की हैसियत से भेजते हैं। फिर जो ईमान लाया 
और अपनी इस्लाह की तो उनके लिए न कोई अंदेशा है और न वे ग़मगीन होंगे। और 
जिन्होंने हमारी निशानियाँ को झुठलाया तो उन्हें अजाब पकड़ लेगा इसलिए कि वे 
नाफरमानी करते थे। कहो, में तुमसे यह नहीं कहता कि मेरे पास अल्लाह के ख़जाने 

हैं और न मैं गेब को जानता हूं और न में तुमसे कहता हूं कि में फरिश्ता हूं। मैं तो 
बस उस “वही” (ईश्वरीय वाणी) की पैरवी करता हूं जो मेरे पास आती है। कहो, क्या 
अंधा और आंखों वाला दोनों बराबर हो सकते हैं। क्या तुम ग़ौर नहीं करते। (46-50) 


आदमी को कान और आंख और दिल जैसी सलाहियतें देना जाहिर करता है कि उसका 
खालिक उससे क्या चाहता है। ख़ालिक यह चाहता है कि आदमी बात को सुने और देखे, वह 
अक्ली दलील से उसे मान ले। अगर आदमी अपनी इन ख़ुदादाद (ईश प्रदत्त) सलाहियतों से वह 
काम न ले जो उससे मकसूद है तो गोया वह अपने को इस ख़तरे में डाल रहा है कि उसे नाअहल 
करार देकर ये नेमतें उससे छीन ली जाएं। किस कद्र महरूम है वह शख्स जिसे अंधा और बहरा 
और बेअक्ल बना दिया जाए। क्योकि ऐसा आदमी दुनिया में बिल्कुल जलील और बेकीमत 
होकर रह जाता है। फिर इससे भी बड़ी महरूमी यह है कि आदमी के पास बजाहिर कान हों मगर 
वे हक को सुनने के लिए बहरे हो जाएं। बजाहिर आंख हो मगर वह हक को देखने के लिए अंधी 
हो। सीने में दिल मौजूद हो मगर वह हक को समझने की इस्तेदाद (सामर्थ्य) से ख़ाली हो जाए। 
छीनने की यह किस्म पहली किस्म से कहीं ज्यादा संगीन है। क्योंकि वह आदमी को आख़िरत 
के एतबार से जलील और बेकीमत बना देती है जिससे बड़ी महरूमी कोई दूसरी नहीं। 

आदमी को हक के इंकार के अंजाम से डराया जाए तो ढीठ आदमी बेख़फी का जवाब 
देता है। दुनिया में अपने मामलात को दुरुस्त देख कर वह समझता है कि ख़ुदा की पकड़ का 
अंदेशा उसके अपने लिए नहीं है। यहां तक कि जो ज्यादा ढीठ हैं वे हक के दाऔ से कहते 
हैं कि तुम अगर सच्चे हो तो अजाब को लाकर दिखाओ। वे नहीं समझते कि खुदा का अजाब 
आया तो वह ख़ुद उन्हीं के ऊपर पड़ेगा न कि किसी दूसरे के ऊपर। 

अल्लाह का दाऔ आगाह करने वाला और ख़ुशख़बरी देने वाला बनकर आता है। दूसरे 
शब्दों में, आदमी का इम्तेहान खुदा के यहां जिस बुनियाद पर हो रहा है वह यह है कि आदमी 
आगाही (विवेक) की जबान में हक को पहचाने और अपनी इस्लाह (सुधार) कर ले। अगर 
उसने आगाही की जबान में हक को न पहचाना और उसे मानने के लिए रहस्यमयी चीज़ों का 
मुतालबा किया तो गोया वह अंधेपन का सुबूत दे रहा है और अंधों के लिए ख़ुदा की इस 
दुनिया में भटकने और बर्बाद होने के सिवा कोई अंजाम नहीं। 





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पारा 7 330 सूरह-6. अल-अनआम 


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और तुम इस “वही” (ईश्वरीय वाणी) के जरिए से डराओ उन लोगों को जो अंदेशा रखते 
हैं इस बात का कि वे अपने रब के पास जमा किए जाएंगे इस हाल में कि अल्लाह 
के सिवा न उनका कोई हिमायती होगा और न सिफारिश करने वाला, शायद कि वे 
अल्लाह से डरें। और तुम उन लोगों को अपने से दूर न करो जो सुबह व शाम अपने 
रब को पुकारते हैं उसकी ख़ुशनूदी चाहते हुए। उनके हिसाब में से किसी चीज का बोझ 
तुम पर नहीं और तुम्हारे हिसाब में से किसी चीज का बोझ उन पर नहीं कि तुम उन्हें 
अपने से दूर करके बेइंसाफों में से हो जाओ। और इस तरह हमने उनमें से एक को 


दूसरे से आजमाया है ताकि वे कहें कि क्‍या यही वे लोग हैं जिन पर हमारे दर्मियान 
अल्लाह का फल हुआ है। क्या अल्लाह शुकगुजरों से सूत्र वाकिफ नहीं। (5-53) 


नसीहत हमेशा उन लोगों के लिए कारगर होती है जो अंदेशे की नफ्सियात में जीते हों। 
जिसे किसी चीज का खटका लगा हुआ हो उसी को उसके ख़तरे से आगाह किया जा सकता 
है। इसके बरअक्स जो लोग बेख़ौफी की नफ्सियात में जी रहे हों वे कभी नसीहत के बारे में 
संजीदा नहीं होते, इसलिए वे नसीहत को कुबूल करने के लिए भी तैयार नहीं होते। 

बेखौफी की नफ्सियात पैदा होने का सबब आमतौर पर दो चीजें होती हैं। एक 
दुनियापरस्ती, दूसरे अकाबिरपरस्ती (व्यक्ति पूजा)। जो लोग दुनिया की चीजों में गुम हों या 
दुनिया की कोई कामयाबी पाकर उस पर मुतमइन हो गए हों, यहां तक कि उन्हें यह भी याद 
न रहता हो कि एक रोज उन्हें मर कर ख़ालिक व मालिक के सामने हाजिर होना है, ऐसे लोग 
आख़िरत को कोई काबिले लिहाज चीज नहीं समझते, इसलिए आखिरत की याददिहानी 
उनके जेहन में अपनी जगह हासिल नहीं करती। उनका मिजाज ऐसी बातों को गैर अहम 
समझ कर नजरअंदाज कर देता है। 

दूसरी किस्म के लोग वे हैं जो आखिरत के मामले को सिफारिश का मामला समझ लेते हैं। 
वे फर्ज कर लेते हैं कि जिन बड़ों के साथ उन्होंने अपने को वाबस्ता कर रखा है वे आख़िरत में 
उनके मददगार और सिफारिशी बन जाएंगे और किसी भी नामुवाफिक (प्रतिकूल) सूरतेहाल में 
उनकी तरफ से काफी साबित होंगे। ऐसे लोग इस भरोसे पर जी रहे होते हैं कि उन्होंने मुकद्दस 








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सूरह-6. अल-अनआम 33] पारा 7 


हस्तियों का दामन थाम रखा है, वे खुदा के महबूब व मकबूल गिरोह के साथ शामिल हैं इसलिए 
अब उनका कोई मामला बिगड़ने वाला नहीं है। यह नफ्सियात उन्हें आख़िरत के बारे में निडर बना 
देती है, वे किसी ऐसी बात पर संजीदगी के साथ गौर करने के लिए तैयार नहीं होते जो आखिरत 
में उनकी हैसियत को मुश्तबह (संदिग्ध) करने वाली हो। 
जो लोग मस्लेहतों की रिआयत करके दौलत व मकबूलियत हासिल किए हुए हों वे कभी 

हक की बेआमेज (विशुद्ध) दावत का साथ नहीं देते। क्योंकि हक का साथ देना उनके लिए 
यह मअना रखता है कि अपनी मस्लेहतों के बने बनाए ढांचे को तोड़ दिया जाए। फिर जब 
वे यह देखते हैं कि हक के गिर्द मामूली हैसियत के लोग जमा हैं तो यह सूरतेहाल उनके लिए 
और ज्यादा फितना बन जाती है। उन्हें महसूस होता है कि इसका साथ देकर वे अपनी हैसियत 
को गिरा लेंगे। वे हक को हक की कसौटी पर न देख कर अपनी कसौटी पर देखते हैं और 
जब हक उनकी अपनी कसौटी पर पूरा नहीं उतरता तो वे उसे नजरअंदाज कर देते हैं। 

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और जब तुम्हारे पास वे लोग आएं जो हमारी आयतों पर ईमान लाए हैं तो उनसे कहो 
कि तुम पर सलामती हो। तुम्हारे रब ने अपने ऊपर रहमत लिख ली है। बेशक तुममें 
से जो कोई नादानी से बुराई कर बैठे फिर इसके बाद वह तोबा करे और इस्लाह (सुधार) 


कर ले तो वह बख्शने वाला महरबान है। और इस तरह हम अपनी निशानियां खोल 
कर बयान करते हैं, और ताकि मुजरिमीन का तरीका जाहिर हो जाए। (54-55) 


रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जमाने में एक किस्म के लोग वे थे जो 
आपकी सदाकत पर मोजिजे (चमत्कार) तलब करके रहे। दूसरे लोग वे थे जो कुरआनी 
आयतों को सुनकर आपके मोमिन बन गए। यही इम्तेहान हर जमाने में इंसान के साथ जारी 
है। मौजूदा दुनिया में ख़ुदा ख़ुद सामने नहीं आता, वह दाऔ (आह्वानकर्ता) की जबान से 
अपने दलाइल (तको) का एलान कराता है, वह अपनी सदाकत को लफ्जों के रूप में ढाल कर 
इंसान के सामने लाता है। अब जिसकी फितरत जिंदा है वह इन्हीं दलाइल में ख़ुदा का जलवा 
देख लेता है और उसका इकरार करके उसके आगे झुक जाता है। इसके बरअक्स जिन्होंने 
अपनी फितरत पर मस्नूई पर्दे डाल रखे हैं वे 'अल्फाज' के रूप में खुदा को पाने में नाकाम 
रहते हैं। वे खुदा को उसकी इस्तदलाली (तार्किक) सूरत में देख नहीं पाते इसलिए चाहते हैं कि 
ख़ुदा अपनी मुशाहिदाती सूरत (प्रकट रूप) में उनके सामने आए। मगर मौजूदा इम्तेहान की 
दुनिया में ऐसा होना मुमकिन नहीं। यहां वही शख्स खुदा को पाएगा जो ख़ुदा को हालते गैब 


पारा 7 332 सूरह-6. अल-अनआम 


(अप्रकट) में पा ले, जो शख्स ख़ुदा को हालते शुहूद (साक्षात रूप) में देखने पर इसरार करे, 
उसका अंजाम ख़ुदा की इस दुनिया में महरूमी के सिवा और कुछ नहीं। 

जो लोग अपनी कजी की वजह से हक से दूर रहते हैं वे हक को कुबूल करने वालों पर 
तरह-तरह के इल्जाम लगाते हैं ताकि उनके मुकाबले में अपने को बेहतर साबित कर सकें। 
उन्हें अपने जराइम नजर नहीं आते, अलबत्ता हकपरस्तों से अगर कभी कोई गलती हो गई 
तो उसे खूब बढ़ाकर बयान करते हैं ताकि यह जाहिर हो कि जो लोग इस दावत के गिर्द जमा 
हैं वे काबिले एतबार लोग नहीं हैं। हालांकि असल सूरतेहाल इसके बरअक्स है। जिन लोगों 
ने नाहक को छोड़कर हक को कुबूल किया है उन्होंने अपने इस अमल से ईमान व इस्लाह 
(सुधार) के रास्ते पर चलने का सुबूत दिया है। इस तरह वे खुदा के कानून के मुताबिक इसके 
मुस्तहिक हो गए कि उन्हें इस्लाहे हाल की तौफीक मिले और वे खुदा की रहमतों में अपना 
हिस्सा पाएं। इसके बरअक्स जो लोग हक से दूर पड़े हुए हैं वे अपने अमल से साबित कर 
रहे हैं कि वे ईमान व इस्लाह का तरीका इर्ियार करने से कोई दिलचस्पी नहीं रखते। ऐसे 
लोग खुदा की तौफीक से महरूम (वंचित) रहते हैं। उनकी ढिठाई कभी ख़त्म नहीं होती और 
ढिठाई ही ख़ुदा की इस दुनिया में किसी का सबसे बड़ा जुर्म है। 

ख़ुदा 'निशानियाँ' की जबान में बोलता है। निशानियां उस शख्स के लिए कारआमद 
होती हैं जो उन्हें पढ़ना चाहे। इसी तरह हिदायत उसी को मिलेगी जो उसका तालिब हो। जो 
शख्स हिदायत की तलब न रखता हो उसके लिए ख़ुदा की इस दुनिया में भटकने के सिवा 
कोई दूसरा अंजाम नहीं। 


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कहो, मुझे इससे रोका गया है कि में उनकी इबादत करूं जिन्हें तुम अल्लाह के सिवा 
पुकारते हो। कहो मैं तुम्हारी ख़्याहिशों की पैरवी नहीं कर सकता। अगर में ऐसा करूं 
तो मैं बेराह हो जाऊंगा और में राह पाने वालों में से रहूंगा। कहो में अपने रब की 
तरफ से एक रोशन दलील पर हूं और तुमने उसे झुठला दिया है। वह चीज मेरे पास 


























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सूरह-6. अल-अनआम 333 पारा 7 


नहीं है जिसके लिए तुम जल्दी कर रहे हो। फैसले का इसख्तियार सिर्फ अल्लाह को है। 

वही हक को बयान करता है और वह बेहतरीन फैसला करने वाला है। कहो, अगर 

वह चीज मेरे पास होती जिसके लिए तुम जल्दी कर रहे हो तो मेरे और तुम्हारे दर्मियान 
मामले का फैसला हो चुका होता, और अल्लाह खूब जानता है जालिमों को। और उसी 

के पास शैब (अप्रकट) की कुजियां हैं, उसके सिवा उसे कोई नहीं जानता। अल्लाह 
जानता है जो कुछ ख़ुश्की और समुद्र में है। और दरख़्त से गिरने वाला कोई पत्ता नहीं 
जिसका उसे इल्म न हो और जमीन की तारीकियाँ में कोई दाना नहीं गिरता और न 
कोई तर और खुश्क चीज मगर सब एक खुली किताब में दर्ज है। (56-59) 





ख़ुदा के सिवा जिस चीज को आदमी माबूद (पूज्य) का दर्जा देता है वह उसकी एक 
ख्वाहिश होती है जिसे वह वाकया (सच) मान लेता है। कभी अपनी बेअमली के अंजाम से 
बचने के लिए वह किसी को ख़ुदा का मुकर्रब यकीन कर लेता है जो ख़ुदा के यहां उसका 
मददगार और सिफारिशी बन जाए। कभी वह एक शख्मियत के हक में तिलिस्माती अज्मत 
का तसबुर कायम कर लेता है ताकि अपने को उससे मंसूब करके अपने छोटेपन की तलाफी 
कर सके। कभी अपनी सहल (आसान) पसंदी की वजह से वह ऐसा ख़ुदा गढ़ लेता है जो 
सस्ती कीमत पर मिल जाए और मामूली-मामूली चीजों से जिसे खुश किया जा सके। 

मगर इस किम की तमाम चीजिमहज मफरजत (कत्पनाए हैर मफजत किसी 
को हकीकत तक नहीं पहुंचा सकते। ताहम आदमी अपनी सस्ती तलब में कभी इतना अंधा 
हो जाता है कि वह ख़ुद उन लोगों को चैलेंज करने लगता है जिन्होंने कायनात के हकीकी 
मालिक की तरफ अपने को खड़ा कर रखा है। वह कहता है कि सारी बड़ाई अगर उसी एक 
खुदा के लिए है जिसके तुम नुमाइदे हो तो हम जैसे नाफरमानों पर उसका एताब नाजिल 
करके दिखाओ । यह जुरअत उन्हें इसलिए होती है कि वे देखते हैं कि तौहीद के दाजियों के 
मुकाबले में उनके अपने गिर्द ज्यादा दुनियावी रौनकें जमा हैं। वे भूल जाते हैं कि ये मादूदी 
चीजें उन्हें दुनियादारी और मस्लेहतपरस्ती की बिना पर मिली हैं और तौहीद के दाऔ जो इन 
चीजों से ख़ाली हैं वे इसलिए ख़ाली हैं कि उनकी आख़िरतपसंदी ने उन्हें मस्लेहतपरस्ती की 
सतह पर आने से रोके रखा। 

मौजूदा दुनिया इम्तेहान की दुनिया है। इसलिए यहां देखने की चीज यह नहीं है कि 
आदमी के मादूदी हालात क्या हैं। बल्कि यह कि वह हकीकी दलील पर खड़ा हुआ है या 
मफरूजात (कल्पनाओं) और ख़ुशगुमानियों पर। बिलआखिर वही शख्स कामयाब होगा जो 
वाकई दलील पर खड़ा होगा । जो लोग मफरूजात पर खड़े हुए हैं उनका आखिरी अंजाम इसके 
सिवा और कुछ नहीं कि वे ख़ुदा की इस दुनिया में बिल्कुल बेसहारा होकर रह जाएं। जिस दुनिया 
का सारा निजाम मोहकम (सुदृढ़) कानूनों पर चल रहा हो उसका आखिरी अंजाम खुशख्यालियों 
के ताबेअ क्‍्योंकर हो जाएगा। 





पारा 7 334 सूरह-6. अल-अनआम 


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और वही है जो रात में तुम्हें वफात देता है और दिन को जो कुछ तुम करते हो उसे 
जानता है। फिर तुम्हें उठा देता है उसमें ताकि मुकर्रर मुदृदत पूरी हो जाए। फिर उसी 
की तरफ तुम्हारी वापसी है। फिर वह तुम्हें बाख़बर कर देगा उससे जो तुम करते रहे 
हो। और वह ग़ालिब (वर्चस्वमान) है अपने बंदों के ऊपर और वह तुम्हारे ऊपर निगरां 
(निरीक्षक) भेजता है। यहां तक कि जब तुममें से किसी की मौत का वक्‍त आ जाता 
है तो हमारे भेजे हुए फरिश्ते उसकी रूह कब्ज कर लेते हैं और वे कोताही नहीं करते। 


फिर सब अल्लाह, अपने मालिके हकीकी की तरफ वापस लाए जाएंगे। सुन लो, हुक्म 
उसी का है और वह बहुत जल्द हिसाब लेने वाला है। (60-62) 





खुदा ने यह दुनिया इस तरह बनाई है कि वह उन हकीकतों की अमली तस्दीक बन गई 
है जिनकी तरफ इंसान को दावत दी जा रही है। अगर आदमी अपनी आंखों को बंद न करे 
और अपनी अक्ल पर मस्नूई (बनावटी) पर्दे न डाले तो पूरी कायनात उसे कुरआन की फिक्री 
दावत (वैचारिक आह्वान) का अमली मुजाहिरा दिखाई देगी। 
दरख़्त के तने में शाख निकलती है और शाख़ में पत्ते। मगर दोनों के जोड़ों में फर्क होता 
है। गोया कि बनाने वाले को मालूम है कि शाख को अपने तने से जुड़ा रहना है और पत्ते 
को अलग होकर गिर जाना है। अगर शाख़ की जड़ के मुकाबले में पत्ते की जड़ में यह 
इंफिरादी खुसूसियत न हो तो पत्ता शाख से जुदा न हो और दरख़न को हर साल नई जिंदगी 
देने का निजाम अबतर (बाधित) हो जाए। इसी तरह जब एक दाना जमीन में डाला जाता 
है तो जमीन में पहले से उसके लिए वह तमाम जरूरी खुराक मौजूद होती है जिससे रिजक 
पाकर वह बढ़ता है और बिलआखिर पूरा दरख़्त बनता है। अब कैसे मुमकिन है कि जो ख़ुदा 
पत्ता और दाना तक के अहवाल से बाख़बर हो वह इंसानों के अहवाल से बेख़बर हो जाए। 
हमारी जमीन सारी कायनात में एक अनोखा वाकया है। यहां का निजाम विलक्षण रूप से 
इंसान जैसी एक मख्लूक के अनूकूल बनाया गया है। जमीन के अंदर का एक बड़ा हिस्सा आग 
है मगर वह फट नहीं पड़ता । सूरज इंतिहाई सही हिसाबी फासले पर है, वह उससे न दूर जाता 
है और न करीब होता। आदमी को हर वक्त हवा और पानी की जरूरत है। चुनांचे हवा को 
गैस की शक्ल में हर जगह फैला दिया गया है और पानी को तरल रूप में जमीन ने नीचे रख 


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सूरह-6. अल-अनआम 335 पारा 7 


दिया गया है। इस किस्म के बेशुमार इंतिजामात हैं जिन्हें जमीन पर मुसलसल बरकरार रखा जाता 
है। अगर इनमें मामूली फर्क आ जाए तो इंसान के लिए जमीन पर जिंदगी गुजारना नामुमकिन 
हो जाए। 

नींद बड़ी अजीब चीज है। आदमी चलता फिरता है। वह देखता और बोलता है। मगर 
जब वह सोता है तो उसके तमाम हवास इस तरह मुअत्तल हो जाते हैं जैसे जिंदगी उससे 
निकल गई हो। इसके बाद जब वह नींद पूरी करके उठता है तो वह फिर वैसा ही इंसान होता 
है जैसा कि वह पहले था। यह गोया जिंदगी और मौत की तमसील है। यह मामला हमारे लिए 
इस बात को काबिले फहम बना देता है कि आदमी किस तरह मरेगा और किस तरह वह 
दुबारा जिंदा होकर खड़ा हो जाएगा। ये वाकेआत साबित करते हैं कि सारे इंसान खुदा के 
इख्तियार में हैं और जल्द वह वकत आने वाला है जबकि ख़ुदा अपने इख्तियार के मुताबिक 
उनका फैसला करे। 


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कहो, कौन तुम्हें नजात देता है ख़ुश्की और समुद्र की तारीकियों से, तुम उसे पुकारते 
हो आजिजी से और चुपके-चुपके कि अगर ख़ुदा ने हमें नजात दे दी इस मुसीबत से 
तो हम उसके शुक्रगुजार बंदों में से बन जाएंगे। कहो, ख़ुदा ही तुम्हें नजात देता है उससे 
और हर तकलीफ से, फिर भी तुम शिर्क (साझीदार ठहराना) करने लगते हो। कहो, 
ख़ुदा कादिर है इस पर कि तुम पर कोई अजाब भेज दे तुम्हारे ऊपर से या तुम्हारे पेरों 

के नीचे से या तुम्हे गिरोह-गिरोह करके एक को दूसरे की ताकत का मजा चखा दे। 

देखो, हम किस तरह दलाइल (तर्क) मुख़्तलिफ पहलुओं से बयान करते हैं ताकि वे 
समझें। और तुम्हारी कौम ने उसे झुठला दिया है हालांकि वह हक है। कहो, में तुम्हारे 

ऊपर दारोगा नहीं हूं। हर ख़बर के लिए एक वक्‍त मुकर्रर है और तुम जल्द ही जान 

लोगे। (63-67) 





इंसान को इस दुनिया में जितनी मुसीबतें पेश आती हैं उतनी किसी भी दूसरे जानदार 
को पेश नहीं आतीं। ऐसा इसलिए होता है ताकि आदमी पर ऐसे हालात तारी किए जाएं 
जबकि उसके अंदर से तमाम मस्नूई (कृत्रिम) ख्यालात ख़त्म हो जाएं और आदमी अपनी 


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पारा 7 336 सूरह-6. अल-अनआम 


असली फितरत को देख सके। चुनांचे जब भी आदमी पर कोई कड़ी मुसीबत पड़ती है तो वह 
यकसू होकर ख़ुदा को पुकारने लगता है। उस वक्त उसके जेहन से तमाम बनावटी पर्दे हट 
जाते हैं। वह जान लेता है कि इस दुनिया में इंसान तमामतर आजिज (निर्बल) है और सारी 
कुदरत सिर्फ खुदा को हासिल है। मगर जैसे ही मुसीबत के हालात ख़त्म होते हैं वह बदस्तूर 
गफलत का शिकार होकर वैसा ही बन जाता है जैसा कि वह पहले था। 

शिर्क की असली हकीकत अल्लाह के सिवा किसी दूसरी चीज पर एतमाद करना है और 
तौहीद यह है कि आदमी का सारा एतमाद अल्लाह पर हो जाए। शिर्क की एक सूरत वह है जो 
बुतों और दूसरे पूज्यों की पूजा के रूप में पेश आती है। मगर शुक्र के बजाए नाशुक्री का रवैया 
इख्तियार करना भी शिक है। शिर्क की ज्यादा आम सूरत यह है कि आदमी ख़ुद अपने को बुत 
बना ले, वह अपने आप पर एतमाद करने लगे। आदमी जब अकड़ कर चलता है तो गोया वह 
अपने जिस्म व जान पर एतमाद कर रहा है। आदमी जब अपनी कमाई को अपनी कमाई 
समझता है तो गोया वह अपनी काबलियत पर भरोसा कर रहा है। आदमी जब एक हक को 
नजरअंदाज करता है तो गोया वह समझता है कि मैं जो भी करूं, कोई मेरा कुछ बिगाड़ नहीं 
सकता। आदमी जब किसी के ऊपर जुल्म करने में जरी होता है तो उस वकत उसकी नपिसयात 
यह होती है कि मैं इसके ऊपर इख्तियार रखता हूं, उसके हक में अपनी मनमानी करने से मुझे 
कोई रोकने वाला नहीं। यह सारी सूरतें घमंड की सूरतें हैं और घमंड खुदा के नजदीक सबसे बड़ा 
शिर्क है। क्योंकि यह अपने आपको खुदा के मकाम पर रखना है। 

आदमी अगर अपने हाल पर सोचे तो वह घमंड न करे। वह ऐसी हवाओं से घिरा हुआ 
है जो किसी भी वक्‍त तूफान की सूरत इस़्तियार करके उसकी जिंदगी को तहस नहस कर 
सकती हैं, वह ऐसी जमीन पर खड़ा हुआ है जो किसी भी लम्हे जलजले की सूरत में फट 
सकती है। वह जिस समाज में रहता है उसमें हर वक्‍त इतनी अदावतें मौजूद रहती हैं कि एक 
चिंगारी पूरे समाज को ख़ाक व ख़ून के हवाले करने के लिए काफी है। 





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सूरह-6. अल-अनआम 337 पारा 7 


और जब तुम उन लोगों को देखो जो हमारी आयतों में ऐब निकालते हैं तो उनसे अलग 
हो जाओ यहां तक कि वे किसी और बात में लग जाएं। और अगर कभी शैतान तुम्हें 
भुला दे तो याद आने के बाद ऐसे बेइंसाफ लोगों के पास न बैठो। और जो लोग अल्लाह 

से डरते हैं उन पर उनके हिसाब में से किसी चीज की जिम्मेदारी नहीं। अलबत्ता याद 
दिलाना है शायद कि वे भी डरें। उन लोगों को छोड़ो जिन्होंने अपने दीन को खेल 
तमाशा बना रखा है और जिन्हें दुनिया की जिंदगी ने धोखे में डाल रखा है। और 
कुरआन के जरिए नसीहत करते रहो ताकि कोई शख्स अपने किए में गिरफ्तार न हो 

जाए, इस हाल में कि अल्लाह से बचाने वाला कोई मददगार और सिफारिशी उसके 
लिए न हो। अगर वह दुनिया भर का मुआवजा दे तब भी कुबूल न किया जाए। यही 

लोग हैं जो अपने किए में गिरफ्तार हो गए। उनके लिए खोलता पानी पीने के लिए 
होगा और दर्दनाक सजा होगी इसलिए कि वे कुफ्र करते थे। (68-70) 





अब्दुल्लाह बिन अब्बास रजि० ने फरमाया कि अल्लाह ने हर उम्मत के लिए एक ईद 
का दिन मुकर्रर किया ताकि उस दिन वे अल्लाह की बड़ाई करें और उसकी इबादत करें और 
अल्लाह की याद से उसे मामूर करें। मगर बाद के लोगों ने अपनी ईद (मजहबी त्यौहार) को 
खेल तमाशा बना लिया। (तफ्सीर कबीर) 

हर दीनी अमल का एक मकसद होता है और एक इसका जाहिरी पहलू होता है। ईद का 
मकसद अल्लाह की बड़ाई और उसकी याद का इज्तिमाई मुजाहिरा है। मगर ईद की अदायगी 
के कुछ जाहिरी पहलू भी हैं। मसलन कपड़ा पहनना या इज्तिमाअ का सामान करना वैरह। 
अब ईद को खेल तमाशा बनाना यह है कि उसके असल मकसद पर तवज्जोह न दी जाए 
अलबत्ता उसके जाहिरी और मादूदी पहलुओं की खूब धूम मचाई जाए। मसलन कपड़ों और 
सामानों की नुमाइश, ख़रीद व फरोख्त के हंगामे, तफरीहात का एहतिमाम, अपनी हैसियत 
और शान व शौकत के मुजाहिरे वगैरह । 

उम्मतों के बिगाड़ के जमाने में यही मामला तमाम दीनी आमाल के साथ पेश आता है। 
लोग दीनी अमल की असल हकीकत को अलग करके उसके जाहिरी पहलू को ले लेते हैं। अब 
जो लोग इस नौबत को पहुंच जाएं कि वे दीन के मक्सदी पहलू को भुला कर उसे अपने 
दुनियावी तमाशों का उन्वान (विषय) बना लें वे अपने इस अमल से साबित कर रहे हैं कि 
वे दीन के मामले में संजीदा नहीं हैं और जो लोग किसी मामले में संजीदा न हों उन्हें उस 
मामले की कोई ऐसी बात समझाई नहीं जा सकती जो उनके मिजाज के खिलाफ हो। मजीद 
यह कि मादूदी (भौतिक) चीजों का मालिक होना उन्हें इस गलतफहमी में मुब्तिला कर देता 
है कि सच्चाई के मालिक भी वही हैं। वे देखते हैं कि यहां उनकी जरूरतें बफरागत पूरी हो 
रही हैं। हर जगह वे रौनके महफिल बने हुए हैं। उनकी जिंदगी में कहीं कोई कमी नहीं। 
इसलिए वे समझ लेते हैं कि आख़िरत में भी वही कामयाब रहेंगे। ऐसे लोग ऐन अपनी 
नफ्सियात (मानसिकता) की बिना पर आखिरत की बातों के बारे में संजीदा नहीं होते। मगर 
वे जान लें कि वे जो कुछ कर रहे हैं वह यूं ही ख़त्म हो जाने वाला नहीं। उनका अमल उन्हें 
घेरे में ले रहा है। अनकरीब वे अपनी सरकशी में फंसकर रह जाएंगे और किसी हाल में उससे 
छुटकारा न पा सकेंगे। 





पारा 7 338 सूरह-6. अल-अनआम 


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कहो, कया हम अल्लाह को छोड़कर उन्हें पुकारें जो न हमें नफा दे सकते और न हमें 
नुक्सान पहुंचा सकते। और क्या हम उल्टे पांव फिर जाएं, बाद इसके कि अल्लाह हमें 
सीधा रास्ता दिखा चुका है, उस शख्स की मानिंद जिसे शैतानों ने बयाबान में भटका 
दिया हो और वह हैरान फिर रहा हो, उसके साथी उसे सीधे रास्ते की तरफ बुला रहे 
हों कि हमारे पास आ जाओ। कहो कि रहनुमाई तो सिर्फ अल्लाह की रहनुमाई है और 
हमें हुक्म मिला है कि हम अपने आपको संसार के रब के हवाले कर दें। और यह कि 
नमाज कायम करो और अल्लाह से डरो वही है जिसकी तरफ तुम समेटे जाओगे। और 
वही है जिसने आसमानों और जमीन को हक के साथ पैदा किया है और जिस दिन 
वह कहेगा कि हो जा तो वह हो जाएगा। उसकी बात हक है और उसी की हुकूमत 


होगी उस रोज जब सूर फूंका जाएगा। वह गायब और जाहिर का आलिम और हकीम 
(तत्वदर्शी) व ख़बीर (सर्वज्ञात) है। (7-74) 





जो लोग ख़ुदा के सिवा दूसरे सहारों पर अपनी जिंदगी कायम करें उनकी मिसाल उस 
मुसाफिर की सी होती है जो बेनिशान सहरा में भटक रहा हो। सहरा में भटकने वाला 
मुसाफिर फौरन जान लेता है कि उसने अपना रास्ता खो दिया है। रास्ता दिखाई देते ही वह 
फौरन उसकी तरफ दौड़ पड़ता है। मगर जो लोग खुदा के बजाए दूसरे सहारों पर जीते हैं उन्हें 
अपने बेराह होने की ख़बर नहीं होती। उनके आस पास पुकारने वाले पुकारते हैं कि असल 
रास्ता यह है, इधर आ जाओ मगर वे इस किस्म की आवाजों पर ध्यान नहीं देते। इस फर्क 
की वजह यह है कि पहले मामले में आदमी की अक्ल खुली हुई होती है, सही रास्ते को देखने 
में उसके लिए कोई रुकावट नहीं होती। जबकि दूसरी सूरत में आदमी की अक्ल शैतान के 
जेरेअसर आ जाती है। उसकी सोच अपने फितरी ढंग पर काम नहीं करती । इसका नतीजा यह 
होता है कि वह सुनकर भी नहीं सुनता और देखकर भी नहीं देखता। 

खुदा के सिवा दूसरी चीजों का तालिब (इच्छुक) बनना ऐसी चीजों का तालिब बनना है 





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सूरह-6. अल-अनआम 339 पारा 7 


जोइस दुनिया मंफायदा व नुक्सान की ताकत नहीं रखतीं। जमीन व आसमान अपने पूरे निजाम 
के साथ इंकार कर रहे हैं कि यहां एक हस्ती के सिवा किसी और हस्ती को कोई ताकत हासिल 
हो। इसी तरह जिन दुनियावी रौनकों को आदमी अपना मकसूद बनाता है और उन्हें पाने की 
कोशिश में सच्चाई व इंसाफ के तमाम तकाजों को रौद डालता है, वह भी सरासर बातिल है। 
क्योंकि इंसानी जिंदगी अगर इसी जालिमाना हालत पर तमाम हो जाए तो यह दुनिया बिल्कुल 
बेमअना करार पाती है। इसका मतलब यह है कि यह दुनिया ख़ुदगर्ज और अनानियतपसंद 
(अहंकारी) लोगों की तमाशागाह है। हालांकि कायनात का निजाम जिस बाकमाल ख़ुदा की 
तजल्लियां (आलोक) दिखा रहा है उससे इंतिहाई बईद (परे) है कि वह इस तरह की कोई 
बेमक्सद तमाशागाह खड़ी करे। 

दुनिया की मौजूदा सूरतेहाल बिल्कुल आरजी है। खुदा किसी भी दिन अपना नया हुक्म 
जारी करके इस निजाम को तोड़ देगा। इसके बाद इंसान की मौजूदा आजादी ख़त्म हो जाएगी 
और खुदा का इक्तेदार इंसानों पर भी उसी तरह कायम हो जाएगा जिस तरह आज वह बाकी 
कायनात पर कायम है। उस ववत कामयाब वे होंगे जिन्होंने इम्तेहान के जमाने में अपने को 
खुदा के हवाले किया था, जो किसी दबाव के बगैर अल्लाह से डरने वाले और उसके आगे 
हमहतन झुक जाने वाले थे। 


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और जब इब्राहीम ने अपने बाप आजर से कहा कि क्या तुम बुतों को खुदा मानते हो। में 
तुम्हें और तुम्हारी कौम को खुली हुई गुमराही में देखता हूं। और इसी तरह हमने इब्राहीम 
को दिखा दी आसमानाँ और जमीन की हुकूमत, और ताकि उसे यकीन आ जाए । फिर जब 

रात ने उस पर अंधेरा कर लिया उसने एक तारे को देखा। कहा यह मेरा रब है। फिर जब 
वह डूब गया तो उसने कहा मैं डूब जाने वालों को दोस्त नहीं रखता। फिर जब उसने चांद 
को चमकते हुए देखा तो कहा यह मेरा रब है। फिर जब वह डूब गया तो उसने कहा अगर 
मेरा रब मुझे हिदायत न करे तो मैं गुमराह लोगों में से हो जाऊ। फिर जब सूरज को चमकते 
हुए देखा तो कहा कि यह मेरा रब है, यह सबसे बड़ा है। फिर जब वह डूब गया तो उसने 












































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पारा 7 340 सूरह-6. अल-अनआम 


अपनी कौम से कहा कि ऐ लोगो, में उस शिर्क (साझीदार ठहराना) से बरी हूं जो तुम करते 


हो। मैंने अपना रुख़ यकसू होकर उसकी तरफ कर लिया जिसने आसमानों और जमीन को 
पैदा कर लिया है और मैं शिर्क करने वालों में से नहीं हूं। (75-80) 





इब्राहीम अलैहिसल्लाम की कहानी जो जहां बयान हुई है वह हक की तलाश की कहानी 
नहीं है बल्कि हक के मुशाहिदे (अवलोकन) की कहानी है। इब्राहीम अलैहिस्सलाम चार हजार 
साल पहले इराक में ऐसे माहौल में पैदा हुए जहां सूरज, चांद और तारों की परस्तिश होती 
थी। ताहम फितरत की रहनुमाई और अल्लाह की खुसूसी मदद ने आपको शिक से महफूज 
रखा। आप की बेदार निगाहें कायनात के फैले हुए शवाहिद (साक्षातरूप) में तौहीद (एक 
ख़ुदा) के खुले हुए दलाइल देखतीं। कायनात के आइने में हर तरफ आपको एक ख़ुदा का 
चेहरा नजर आता था। आप कौम की हालत पर अफसोस करते और लोगों को बताते कि 
खुले हुए हकाइक के बावजूद क्यों तुम लोग अंधे बने हुए हो। 

रात का वक्त है। इब्राहीम आसमान में खुदाए वाहिद की निशानियां देख रहे हैं। उसी आलम 
में सय्यारा जोहरा (शुक्र ग्रह) चमकता हुआ उनके सामने आता है जिसे उनकी कौम माबूद समझ 
कर पूजती थी । उनके दिल में बतौर सवाल नहीं बल्कि बतौर इस्तेजाब (आश्चर्य) यह ख्याल आता 
है कि क्या यही वह चीज है जो मेरा रब हो, यही वह माबूद (पूज्य) है जिसकी हमें परस्तिश करनी 
चाहिए । यहां तक कि जब वह उसे अपने सामने डूबता हुआ देखते हैं तो उसका डूबना उनके लिए 
अपने अकीदे के सही होने की एक मुशाहिदाती (अवलोकनीय) दलील बन जाती है। वह कह उठते 
हैं कि जो चीज एक लम्हे के लिए चमके और फिर गायब हो जाए वह कैसे इस काबिल हो सकती 
है कि उसे पूजा जाए। बिल्कुल यही तजर्बा उन्हें चांद और सूरज के साथ भी गुजरता है। हर एक 
चमक कर थोड़ी देर के लिए इस्तेजाब (आश्चर्य) पैदा करता है और फिर डूब जाता है। यह 
फल्कियाती मुशाहिदात (आकाशीय अवलोकन) जो उनके अपने लिए तौहीद की खुली हुई तस्दीक 
थे। इसी को वह कौम के सामने अपनी तब्लीग में बतौर इस्तदलाल (तर्क) पेश करते हैं और अंदाजे 
कलाम वह इख्तियार करते हैं जिसे इस्तलाह (शब्दावली) में हुज्जते इलजामी कहा जाता है। यानी 
मुख्रतिब के अल्फाज को दोहराकर फिर उसे कायल करना। हुजते इल्जामी का यह तरीका 
कुरआन में दूसरे मकामात पर भी मज्कूर हुआ है। मसलन और तू अपने माबूद (पूज्य) को देख 
जिस पर तू बड़ा एकाग्र रहता है।' (ता० हा० 97) 

कायनात में ख़ुदा की जो तख्लीकी निशानियां फैली हुई हैं वे किसी बंदे के लिए ईमान के 
इज़ाफे का जरिया भी हैं और इन्हीं से दावते हक के लिए मजबूत दलाइल भी हासिल होते हैं। 


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सूरह-6. अल-अनआम 34] पारा 7 
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और उसकी कौम उससे झगड़ने लगी। उसने कहा क्या तुम अल्लाह के मामले में मुझसे 

झगड़ते हो हालांकि उसने मुझे राह दिखा दी है। और मैं उनसे नहीं डरता जिन्हें तुम 

अल्लाह का शरीक ठहराते हो मगर यह कि कोई बात मेरा रब ही चाहे। मेरे रब का 
इल्म हर चीज पर छाया हुआ है, क्या तुम नहीं सोचते। और मैं क्यांकर इरू तुम्हारे 
शरीकों से जबकि तुम अल्लाह के साथ उन चीजों को खुदाई में शरीक ठहराते हुए नहीं 
डरते जिनके लिए उसने तुम पर कोई सनद नहीं उतारी। अब दोनों फरीकों (पक्षो) में 

से अम्न का ज्यादा मुस्तहिक कौन है, अगर तुम जानते हो। जो लोग ईमान लाए और 

नहीं मिलाया उन्होंने अपने ईमान में कोई नुक्सान, उन्हीं के लिए अम्न है और वही 

सीधी राह पर हैं। यह है हमारी दलील जो हमने इब्राहीम को उसकी कौम के मुकाबले 

में दी। हम जिसके दर्जे चाहते हैं बुलन्द कर देते हैं। बेशक तुम्हारा रब हकीम (तत्वदर्शी) 

व अलीम (ज्ञानवान) है। (8.-84) 








जब किसी चीज या किसी शख्सियत को माबूद का दर्जा दे दिया जाए तो इसके बाद 
फितरी तौर पर यह होता है कि उसके साथ रहस्यमयी अज्मतों के तसबुरात वाबस्ता हो जाते 
हैं। लोग समझने लगते हैं कि इस जात को कायनाती नक्शे में कोई ऐसा बरतर मकाम हासिल 
है जो दूसरे लोगों को हासिल नहीं। उसे खुश करने से किस्मतें बनती हैं। और उसे नाराज 
करने से किस्मतें बिगड़ जाती हैं। चुनांचे हजरत इब्राहीम ने जब अपनी कौम के बुतों के बारे 
में कहा कि ये बेहकीकत हैं, इन्हें खुदा की इस दुनिया में कोई जोर हासिल नहीं तो लोगों को 
अंदेशा होने लगा कि इस गुस्ताख़ी के नतीजे में कहीं कोई वबाल न आ पड़े। वे हजरत 
इब्राहीम से बहसें करने लगे। उन्होंने आपको डराया कि तुम ऐसी बातें न करो वर्ना इन माबूदों 
का गजब तुम्हारे ऊपर नाजिल होगा। तुम अंधे हो जाओगे, तुम पागल हो जाओगे । तुम बर्बाद 
हो जाओगे, वगैरह। 

इस दुनिया में सिर्फ खुदा की एक जात है जिसकी किबरियाई (बड़ाई) दलील व बुरहान 
(सुस्पष्ट तक) के ऊपर कायम है। इसके सिवा बड़ाई और माबूदियत की जितनी किस्में हैं सब 
तवह्हुमाती अकाइद (अंधविश्वासों) की बुनियाद पर खड़ी होती हैं। खुदा की खुदाई अपने 
आप कायम है, जबकि दूसरी तमाम खुदाइयां सिर्फ उनके मानने वालों की बदौलत हैं। अगर 
मानने वाले न मानें तो ये ख़ुदाइयां भी बेवजूद होकर रह जाएं। 

जाहिर हालात को देखकर इन माबूदों के परस्तार अक्सर इस धोखे में पड़ जाते हैं कि 
वे सच्चे खुदापरस्तों के मुकाबले में ज्यादा महफूज मकाम पर खड़े हए हैं। मगर यह बदतरीन 
गलतफहमी है। महफूज हैसियत दरअस्ल उसकी है जो दलील और बुरहान पर खड़ा हुआ है। 
दुनियावी रवाज से मुसालेहत करके कोई शख्स अपने लिए महफूज दीवार हासिल कर ले तो 
आखिरी अंजाम के एतबार से उसकी कोई हकीकत नहीं। 


पारा 7 342 सूरह-6. अल-अनआम 





झूठे माबूदों का लबा (वर्चस्व) कभी इस नौबत को पहुंचता है कि सच्चे खुदापरस्त भी 
उससे मरऊब होकर उससे साजगारी कर लेते हैं। दुनियावी मस्लेहतें और मादूदी मफादात 
(सांसारिक हित, स्वार्थ) उनसे इस दर्जे वाबस्ता हो जाते हैं कि बजाहिर ऐसा मालूम होने लगता 
है कि बाइज्जत जिंदगी हासिल करने की इसके सिवा कोई और सूरत नहीं कि इन माबूदों के 
तहत बने हुए ढांचे से मुसालेहत कर ली जाए। मगर इस किस्म का रवैया अपने ईमान में ऐसा 
नुक्सान शामिल कर लेना है जो ख़ुद ईमान ही को ख़ुदा की नजर में मुशतबह (संदिग्ध) बना दे। 
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और हमने इब्राहीम को इस्हाक और याकूब अता किए, हर एक को हमने हिदायत दी 
और नूह को भी हमने हिदायत दी इससे पहले। और उसकी नस्ल में से दाऊद और 
सुलैमान और अय्यूब और यूसुफ और मूसा और हारून को भी। और हम नेकों को इसी 
तरह बदला देते हैं। और जकरिया और यहया और ईसा और इलियास को भी, इनमें से 
हर एक सालेह (नेक) था। और इस्माईल और अलयसअ और यूनुस और लूत को भी और 
इनमें से हर एक को हमने दुनिया वालों पर फजीलत (श्रेष्ठता) अता की। और उनके बाप 
दादों और उनकी औलाद और उनके भाइयों में से भी, और उन्हें हमने चुन लिया और हमने 
सीधे रास्ते की तरफ उनकी रहनुमाई की । यह अल्लाह की हिदायत है, वह इससे सरफराज 
करता है अपने बदों में से जिसे चाहता है। और अगर वे शिर्क करते तो जाया हो जाता 
जो कुछ उन्होंने किया था। ये लोग हैं जिन्हें हमने किताब और हिक्मत और नुबुव्वत अता 
की। पस अगर ये मक्का वाले इसका इंकार कर दें तो हमने इसके लिए ऐसे लोग मुक्रर 
कर दिए हैं जो इसके मुंकिर नहीं हैं। यही लोग हैं जिन्हें अल्लाह ने हिदायत बख्शी, पस 
तुम भी उनके तरीके पर चलो। कह दो, में इस पर तुमसे कोई मुआवजा नहीं मांगता। 
यह तो बस एक नसीहत है दुनिया वालों के लिए। (85-9]) 


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सूरह-6. अल-अनआम 343 पारा 7 





'फजीलत' किसी का नस्ली या कैमी लकब नहीं, यह अल्लाह का एक अतिया (दिन) है 
जिसका तहव्युक्र (अधिकार) सिर्फ उन अफराद के लिए होता है जो खुदा की हिदायत के 
मुताबिक अपने को सालेह बनाएं, शिर्क की तमाम किस्मों से अपने आपको बचाएं। और 
‘बिला मुआवजा नसीहत” के दावती मंसूबे में अपने को हमहतन शामिल करें। ये वे लोग हैं 
जो खुदा की किताब को अपने हकीकी रहनुमा बनाते हैं। वे इसके साथ अपने वजूद को इतना 
ज्यादा शामिल कर देते हैं कि उन पर इस राह के वे भेद खुलने लगते हैं जिन्हें हिक्मत कहा 
जाता है। यही वे लोग हैं जिन्हें ख़ुदा चुन लेता है और उनमें से जिन्हें चाहता है अपने दीन 
की पैगामरसानी की तौफीक देता है, दौरे नुबुब्वत में अल्लाह के खुसूसी पैगम्बर की हैसियत 
से और ख़त्मे नुबुव्यत के बाद अल्लाह के आम दाऔ की हैसियत से अल्लाह का इनाम चाहे 
वह पैग़म्बरों के लिए हो या आम इंसानों के लिए, तमामतर नेक अमली की बुनियाद पर 
मिलता है न कि किसी और बुनियाद पर। 

दावते हक का काम सिर्फ वे लोग करते हैं जो उसकी ख़तिर इतना ज्यादा यकसू और 
बेनफ्स हो चुके हों कि वे मदऊ (संबोधित व्यक्ति) से किसी किस्म की मादूदी उम्मीद न रखें। 
जिस शख्स या गिरोह तक आप आख़िरत का पैग़ाम पहुंचा रहे हों उसी से आप अपने दुनियावी 
हुकूक के लिए एहतेजाज (प्रोटेस्ट) और मुतालबात की मुहिम नहीं चला सकते। दा का ऐसा 
करना सिर्फ इस कीमत पर होगा कि उसकी दावत मदऊ की नजर में हास्यास्पद बन कर रह 
जाए और माहौल के अंदर कभी उसे संजीदा मुहिम की हैसियत हासिल न हो। 

मक्का में कुछ लोग आप पर ईमान लाए। मगर बहैसियत 'कौम' मक्का वालों ने आपका 
इंकार कर दिया। इसके बाद अल्लाह तआला ने मदीने वालों के दिल आपकी दावत के पक्ष 
में नर्म कर दिए और वे बहैसियत कौम आपके मोमिन बन गए। यहां तक कि आपके लिए 
यह मुमकिन हो गया कि आप मक्का से मदीना जाकर वहां इस्लाम का मकज कायम कर 
सकें। अल्लाह तआला की यह मदद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को कामिल दर्जे 
में हासिल हुई। ताहम आपकी उम्मत में उठने वाले दाञियों को भी अल्लाह यह मदद दे 
सकता है और अपनी मस्लेहत के मुताबिक देता रहा है। 


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पारा 7 344 सूरह-6. अल-अनआम 


और उन्होंने अल्लाह का बहुत ग़लत अंदाजा लगाया जब उन्होंने कहा कि अल्लाह ने 
किसी इंसान पर कोई चीज नहीं उतारी। कहो कि वह किताब किसने उतारी थी जिसे 
लेकर मूसा आए थे, वह रोशनी थी और रहनुमाई थी लोगों के वास्ते, जिसे तुमने 
वरक-वरक कर रखा है। कुछ को जाहिर करते हो और बहुत कुछ छुपा जाते हो। और 

तुम्हें वे बातें सिखाई जिन्हें न जानते थे तुम और न तुम्हारे बाप दादा। कहो कि अल्लाह 
ने उतारी। फिर उन्हें छोड़ दो कि अपनी कजबहसियों (कुसंवाद) में खेलते रहें। और 
यह एक किताब है जो हमने उतारी है, बरकत वाली है, तस्दीक करने वाली उनकी जो 
इससे पहले हैं। और ताकि तू डराए मक्का वालों को और उसके आस पास वालों को। 
और जो आख़िरत पर यकीन रखते हैं वही उस पर ईमान लाएंगे। और वे अपनी नमाज 

की हिफाजत करने वाले हैं। (92-93) 





रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की दावत मक्का वालों के सामने आई तो 
उनके कुछ लोगों ने कुछ यहूद से पूछा कि तुम्हारा इस बारे में क्या ख्याल है। क्या मुहम्मद 
पर वाकई खुदा का कलाम नाजिल हुआ है। यहूद ने जवाब दिया “खुदा ने किसी बशर 
पर कुछ नाजिल नहीं किया है।' बजाहिर यह बात बड़ी अजीब है। क्योंकि यहूद तो ख़ुद 
नबियों को मानने वाले थे। और इस तरह गोया वे इकरार कर रहे थे कि बशर पर ख़ुदा 
का कलाम उतरता है। मगर जब आदमी मुखालिफत में अंधा हो जाए तो वह मुखालिफ 
की तरदीद (रदूद) के जोश में कभी यहां तक पहुंच जाता है कि अपनी मानी हुई बातों 
को तरदीद करने लगे। 

यहूद के अंदर यह ढिठाई इसलिए पैदा हुई कि उन्होंने खुदा की किताब को वरक-वरक 
कर दिया था। वे खुदा की तालीमात के कुछ किस्से को सामने लाते और बाकी को किताब 
में बंद रखते। मसलन वे इनाम वाली आयतों को ख़ूब सुनते सुनाते और उन आयतों को 
छोड़ देते जिनमें वे आमाल बताए गए हैं जिनके करने से किसी को मज्कूरा इनाम मिलता 
है। वे ऐसी आयतों का ख़ुसूसी तज्किरा करते जिनसे उनकी शोर व गुल की सियासत की 
ताईद निकलती हो और उन आयतां को नजरअंदाज कर देते जिनमें खामोश इस्लाह के 
अहकाम दिए गए हों। वे ऐसी आयतों के दर्स में बड़ा एहतिमाम करते जिनमें उनके लिए 
लमग्ीफ्ि (कुतर्को) का कमाल दिखाने का मौका हो मगर उन आयतों से सरसरी 
गुजर जाते जिनमें दीन के अबदी हकाइक बयान किए गए हैं। वे ऐसी आयतों का खूब 
चर्चा करते जिनसे अपनी फजीलत निकलती हो और उन आयतों से बेतवज्जोही बरतते हैं 
जिनसे उनकी जिम्मेदारियां मालूम होती हैं। जो लोग ख़ुदा की किताब को इस तरह 
'वरक-वरक' करें उनके अंदर फितरी तौर पर ढिठाई आ जाती है। वे गैर संजीदा बहसें 
करते हैं, परस्पर विरोधी बयानात देते हैं। उनसे किसी हकीकी तआवुन की उम्मीद नहीं 





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सूरह-6. अल-अनआम 345 पारा 7 
की जा सकती। जो लोग ख़ुदा की किताब के साथ इंसाफ न करें वे इंसानों के साथ मामला 
करने में कैसे इंसाफ कर सकते हैं। 
दीन की दावत अस्लन लोगों को होशियार करने की दावत है। इस किस्म की दावत चाहे 
कितने ही कामिल इंसान की तरफ से पेश की जाए वह सुनने वाले के दिल में उस वक्‍त जगह 
करेगी जबकि वह अपने सीने में एक अंदेशानाक दिल रखता हो और आखिरत के मामले को 
एक संजीदा मामला समझता हो। सुनने वाले में अगर यह इब्तदाई मादूदा मौजूद न हो तो 
सुनाने वाला उसे कोई फायदा नहीं पहुंचा सकता। 
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और उससे बढ़कर जालिम कौन होगा जो अल्लाह पर झूठ तोहमत बांधे या कहे 
कि मुझ पर “वही” (ईश्वरीय वाणी) आई है हालांकि उस पर कोई “वही” नाजिल 
नहीं की गई हो। और कहे कि जैसा कलाम ख़ुदा ने उतारा है में भी उतारूंगा। 
और काश तुम उस वक्‍त देखो जबकि ये जालिम मौत की ससख्तियों में हागे और 
फरिश्ते हाथ बढ़ा रहे होंगे कि लाओ अपनी जानें निकालो। आज तुम्हें जिल्लत 

का अजाब दिया जाएगा इस सबब से कि तुम अल्लाह पर झूठी बातें कहते थे। 
और तुम अल्लाह की निशानियों से तकब्बुर (घमंड) करते थे। और तुम हमारे पास 
अकेले-अकेले आ गए जैसा कि हमने तुम्हें पहली मर्तबा पैदा किया था। और जो 
कुछ असबाब हमने तुम्हें दिया था सब तुम पीछे छोड़ आए। और हम तुम्हारे साथ 
उन सिफारिश वालों को भी नहीं देखते जिनके मुतअल्लिक तुम समझते थे कि 
तुम्हारा काम बनाने में उनका भी हिस्सा है। तुम्हारा रिश्ता टूट गया और तुमसे 
जाते रहे वे दावे जो तुम करते थे। (94-95) 








अल्लाह जब अपने किसी बंदे को अपनी पुकार बुलन्द करने के लिए खड़ा करता है तो 
इसी के साथ उसे खुसूसी तोफीक भी अता करता है। उसके किरदार में आखिरत के ख़ौफ 
की झलक होती है। उसकी बातों में खुदाई इस्तदलाल (तर्को) की ताकत नजर आती है। 


पारा 7 346 सूरह-6. अल-अनआम 


बेपनाह मुखालिफतों के बावजूद वह अपने पैग़ामरसानी के अमल को आलातरीन शक्ल में जारी 
रखने में कामयाब होता है। वह अपने पूरे वजूद के साथ ख़ुदा की जमीन पर खुदा की निशानी 
होता है। मगर जिनकी निगाहें दुनियावी अज्मत की चीजों में गुम हों वे आख़िरत के दाऔ की 
अज्मत को समझ नहीं पाते। यहां तक कि उनके मादुदी पेमाने में उनकी अपनी जात बरतर 
और अल्लाह के दाऔ की जात कमतर दिखाई देती है। यह चीज उन्हें तकब्बुर (घमंड) में 
मुब्तिला कर देती है और जो लोग तकब्बुर की नफ्सियात में मुब्तिला हो जाएं उनसे कोई भी 
नामाकूल रवैया दूर नहीं रहता। यहां तक कि वह इस गलतफहमी में मुब्तिला हो सकते हैं कि 
वे भी वैसा ही कलाम तख़नीक कर सकते हैं जैसा कलाम खुदा की तरफ से किसी बंदे पर उतरता 
है। वे खुदा को तिलिस्माती निशानियों में देखना चाहते हैं इसलिए वे बशरी निशानियों में जाहिर 
होने वाले ख़ुदा को पहचान नहीं पाते। 

यह तकब्बुर जो किसी आदमी के अंदर पैदा होता है वह उस दुनियावी हैसियत और 
मादूदी सामान की बुनियाद पर होता है जो उसे दुनिया में मिला हुआ है। वह भूल जाता 
है कि दुनिया में जो कुछ उसे हासिल है वह महज आजमाइश के लिए और निर्धारित 
मुद्दत के लिए है। मौत का वक्त आते ही अचानक ये तमाम चीजें छिन जाएंगी। इसके 
बाद आदमी उसी तरह महज एक तंहा वजूद होगा जिस तरह वह इब्तिदाई पैदाइश के 
वक्त एक तंहा वजूद था। मौत के फौरन बाद हर आदमी अपनी जिंदगी के इस मरहले 
में पहुंच जाता है जहां न उसकी दौलत होगी और न उसकी हैसियत, जहां न उसके साथी 
होंगे और न उसके सिफारिशी। वह होगा और उसका ख़ुदा होगा। दुनिया में उसे जिन 
चीजों पर नाज था उनमें से कोई चीज भी उस दिन उसे ख़ुदा की पकड़ से बचाने के 
लिए मौजूद न होगी। 

दुनिया में हर आदमी अल्फाज के तिलिस्म में जीता है। हर आदमी अपने हस्बेहाल ऐसे 
अल्फाज तलाश कर लेता है जिसमें उसका वजूद बिल्कुल बरहक दिखाई दे, उसका रास्ता 
सीधा मंजिल की तरफ जाता हुआ नजर आए। मगर आहित का इंक्रलाब जब हवीकतेंके 
पर्दे फाड़ देगा तो लोगों के ये अल्फाज इस कद्र बेमअना हो जाएंगे जैसा कि उनका कोई वजूद 
ही न था। 


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बेशक अल्लाह दाने और गुठली को फाड़ने वाला है। वह जानदार को बेजान से 


निकालता है और वही बेजान को जानदार से निकालने वाला है। वही तुम्हारा अल्लाह 
है, फिर तुम किधर बहके चले जा रहे हो। वही बरामद करने वाला है सुबह का और 





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सूरह-6. अल-अनआम 347 पारा 7 


उसने रात को सुकून का वक्‍त बनाया और सूरज और चांद को हिसाब से रखा है। यह 
ठहराया हुआ है बड़े लबे (वर्चस्व) वाले का, बड़े इलम वाले का। और वही है जिसने 
तुम्हारे लिए सितारे बनाए ताकि तुम उनके जरिए से ख़ुश्की और तरी के अंधेरों में राह 
पाओ। बेशक हमने दलाइल (तर्क) खोल कर बयान कर दिए हैं उन लोगों के लिए जो 
जानना चाहें। (96-98) 





इंसान को जब एक मोटरकार या और कोई चीज बनाना होता है तो वह उसके हर जुज 
को अलग-अलग बनाता है। और फिर उसके अज्जा को जोड़ कर मत्लूबा चीज तैयार करता 
है, मगर जब ख़ुदा एक दरख्त उगाता है या एक इंसान पैदा करता है तो उसकी नौइयत 
बिल्कुल दूसरी होती है। वह किसी चीज को उसके पूरे मज्मूओ के साथ एक वक्त में बरामद 
कर देता है। ख़ुदाई कारखाने में पूरा का पूरा दरख्त या पूरा का पूरा इंसान एक ही बीज या 
एक ही बूंद से क्रमशः निकल कर खड़ा हो जाता है। यह इंतिहाई अनोखी तकनीक है जिस 
पर किसी भी इंसान को काबू नहीं। इससे साबित होता है कि यहां इंसान से बढ़कर एक हस्ती 
मौजूद है जिसका मंसूबा तमाम मंसूबों से बुलन्द है। 

सूरज की जसामत जमीन से बारह लाख गुनाह ज्यादा है। और जमीन चांद से चौगुना 
ज्यादा बड़ी है। ये सब अज्राम (रचनाएं) मुसलसल हरकत में हैं। चांद जमीन से तकरीबन ढाई 
लाख मील दूर रह कर जमीन के गर्द चक्कर लगा रहा है और जमीन सूरज से तकरीबन साढ़े 
नौ करोड़ मील के फासले पर रहते हुए सूरज के गिर्द दो तरीके से घूम रही है, एक अपने 
महवर (धुरी) पर और दूसरे सूरज के मदार (कक्ष) पर। इसी तरह सितारों की गर्दिश का 
मामला है जो दहशतनाक हद तक असीम फासलों पर हद दर्जा बाकायदगी के साथ मुतहरिक 
(गतिमान) हैं। इसी कायनाती तंजीम से दिन और रात पैदा होते हैं। इसी से औकात (समयों) 
का नवशा मुर्करर होता है। इसी से ख़ुश्की और तरी में इंसान के लिए अपनी जिंदगी की 
तर्तीब कायम करना मुमकिन होता है। यह इतना बड़ा निजाम इतनी सेहत के साथ चल रहा 
है कि हजारों साल में भी इसके अंदर कोई फर्क नहीं आता। इससे साबित होता है कि यहां 
एक ऐसी हस्ती है कि जिसकी ताकतें लामहदूद (असीमित) हद तक ज्यादा हैं। 

ख़ुदा की ये निशानियां बहुत बड़े पैमाने पर बता रही हैं कि इस कारखाने का बनाने 
वाला बहुत बड़े इलम वाला है। कोई बेइल्म हस्ती इतना बड़ा ढांचा कायम नहीं कर सकती । 
वह बहुत ग़लबे वाला है, उसके बगैर इतने बड़े कारखाने का इस तरह चलना मुमकिन नहीं 
हो सकता। उसकी मंसूबाबंदी इंतिहाई हद तक कामिल है। अगर ऐसा न हो तो इतनी बड़ी 
कायनात में इस कद्र मअनवियन (सार्थकता) और हमआहंगी (सामंजस्य) का वजूद नामुमकिन 
हो जाए। 

ख़ुदा की दुनिया खुदा के दलाइल से भरी हुई है। मगर दलील एक नजरी माकूलियत का 
नाम है न कि किसी हथोड़े का। इसलिए दलील को मानना किसी के लिए सिर्फ उस वक्त 
मुमकिन होता है जबकि वह वाकई संजीदा हो, वह शुऊरी तौर पर इसके लिए तैयार हो कि 
वह दलील को मान लेगा चाहे वह उसकी मुवाफिकत में जारी हो या उसके ख़िलाफ। 





पारा 7 348 


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और वही है जिसने तुम्हें पैदा किया एक जान से, फिर हर एक के लिए एक ठिकाना 
है और हर एक के लिए उसके सौंपे जाने की जगह। हमने दलाइल खोल कर बयान 
कर दिए हैं उन लोगों के लिए जो समझें। और वही है जिसने आसमान से पानी 
बरसाया, फिर हमने उससे निकाली उगने वाली हर चीज। फिर हमने उससे सरसब्ज 
शाख निकाली जिससे हम तह-ब-तह दाने पैदा कर देते हैं। और खजूर के गाभे में से 
फल के गुच्छे झुके हुए और बाग़ अंगूर के और जैतून के और अनार के, आपस में मिलते 
जुलते और जुदा जुदा भी। हर एक के फल को देखो जब वह फलता है। और उसके 
पकने को देखो जब वह पकता है। बेशक इनके अंदर निशानियां हैं उन लोगों के लिए 
जो ईमान की तलब रखते हैं। (99-00) 


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इंसानी कारखाने इस पर कादिर नहीं कि वे एक ऐसी मशीन बना दें कि उसके बल से 
उसी किस्म की बेशुमार मशीनें खुद बखुद निकलती चली जाएं। हमारे कारख़ानों को हर 
मशीन अलग-अलग बनानी पड़ती है। मगर खुदा के कारखाने में यह वाकया हर रोज हो रहा 
है। दरख्त का एक बीज बो दिया जाता है। फिर इस बीज से बेशुमार दरख़्त निकलते चले 
जाते हैं। यही मामला इंसान का है। एक मर्द और एक औरत से शुरू होकर खरब हा खरब 
इंसान पैदा होते जा रहे हैं और इनका सिलसिला ख़त्म नहीं होता। यह मुशाहिदा बताता है 
कि जिस ख़ुदा ने कायनात को पैदा किया है उसकी कुदरत बेहद वसीअ है। वह इस नादिर 
(दुर्लभ) तख्नीक पर कादिर है कि एक इब्तिदाई चीज वजूद में लाए और फिर उसके अंदर 
से बेहिसाब गुना ज्यादा बड़ी-बड़ी चीजें मुसलसल निकलती चली जाएं। इसी तरह ख़ुदा 
मौजूदा दुनिया से एक ज्यादा शानदार और ज्यादा मेयारी दुनिया निकाल सकता है। आख़िरत 
का अकीदा कोई दूर का अकीदा नहीं बल्कि जिस इम्कान को हम हर रोज देख रहे हैं उसी 
इम्कान को मुस्तकबिल के एक वाकये की हैसियत से तस्लीम करना है। 

मिट्टी बजाहिर एक मुर्दा और जामिद (जड़) चीज है। फिर उसके ऊपर बारिश होती है। 
पानी पाते ही मिट्टी के अंदर से एक नई सरसब्ज दुनिया निकल आती है। उसके अंदर से 
तरह-तरह की फसलें और किस्म किस्म के फलदार दर वजूद में आ जाते हैं। यह वाकया 
भी मौजूदा दुनिया के बाद आने वाली दुनिया की एक तमसील है। मिट्टी पर पानी पड़ने से 


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सूरह-6. अल-अनआम 349 पारा 7 


जमीन के ऊपर रंग और खुशबू और जायके का एक सरसब्ज व शादाब चमन खिल उठना 
उस इम्कान को बताता है जो दुनिया के ख़ालिक ने यहां रख दिया है। आज की दुनिया में इंसान 
जो नेक अमल करता है वह इसी किस्म का एक इम्कान है। जब ख़ुदा की रहमतों की बारिश 
होगी तो यह इम्कान हरा भरा होकर आख़िरत की लहलहाती हुई फसल की सूरत में तब्दील हो 
जाएगा। 

इंसान अव्वलन मां के बल के सुपुर्द होता है फिर मौजूदा दुनिया में आता है। कब्र भी 
गोया इसी किस्म का एक 'बल' है। आदमी कब्र के सुपुर्द किया जाता है और इसके बाद वह 
अगली दुनिया में आंख खोलता है ताकि अपने अमल के मुताबिक जन्नत या जहन्नम में 
दाखिल कर दिया जाए। इंसान से गैब की जिस दुनिया को मानने का मुतालबा किया जा रहा 
है उसकी झलकियां और उसके दलाइल मौजूदा महसूस कायनात में पूरी तरह मौजूद हैं। मगर 
मानता वही है जो पहले से मानने के लिए तैयार हो। ईमान” की राह में आदमी जब आधा 
सफर तै कर चुका होता है इसके बाद ही यह मुमकिन होता है कि ईमान की दावत उसके 
जेहन का जुज बने और वह उसे कुबूल कर ले। जो शख्स ईमान के उल्टे रुख़ पर सफर कर 
रहा हो उसे ईमान की दावत कभी नफा नहीं पहुंचा सकती। 

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और उन्होंने जिन्नात को अल्लाह का शरीक करार दिया। हालांकि उसी ने उन्हें पैदा 
किया है। और बे जाने बूझे उसके लिए बेटियां और बेटे तराशीं। पाक और बरतर है 
वह उन बातों से जो ये बयान करते हैं। वह आसमानां और जमीन का मूजिद 
(उत्पत्तिकर्ता) है। उसका कोई बेटा कैसे हो सकता है जबकि उसकी कोई बीवी नहीं। 
और उसने हर चीज को पैदा किया है और वह हर चीज से बाख़बर है। यह है अल्लाह 
तुम्हारा रब। उसके सिवा कोई माबूद नहीं। वही हर चीज का ख़ालिक है, पस तुम उसी 
की इबादत करो। और वह हर चीज का कारसाज है। उसे निगाहें नहीं पार्ती। मगर 
वह निगाहों को पा लेता है। वह बड़ा बारीकबीं और बड़ा बाख़बर है। अब तुम्हारे पास 
तुम्हारे रब की तरफ से बसीरत की रोशनियां आ चुकी हैं। पस जो बीनाई से काम 


लेगा वह अपने ही लिए, और जो अंधा बनेगा वह ख़ुद नुक्सान उठाएगा। और में तुम्हारे 
ऊपर कोई निगरां नहीं हूं। (0-05) 








पारा 7 350 सूरह-6. अल-अनआम 





कदीमतरीन जमाने से इंसान की यह कमजेरी रही है कि जिस चीज में भी कोई इम्तियाज 
या कोई पुरअसरारियत (रहस्य) देखता है उसे वह ख़ुदा का शरीक समझ लेता है। और उससे 
मदद लेने और उसकी आफतों से बचने के लिए उसे पूजने लगता है। इसी जेहन के तहत बहुत 
से लोगों ने फरिश्तों और सितारों और जिन्नात को पूजना शुरू कर दिया। हालांकि इन चीजों 
के ख़ुदा न होने का खुला हुआ सुबूत यह है कि उनके अंदर 'ख़ल्क' की सिफ्त नहीं। उन्होंने 
न अपने आपको पैदा किया और न वे दूसरी किसी चीज को पैदा करने पर कादिर हैं। उन्हें 
खुद किसी दूसरी हस्ती ने तख्नीक किया है। फिर जो ख़ालिक है वह ख़ुदा होगा या जो मख्लूक 
है वह ख़ुदा बन जाएगा । 

एक दरख को समुचित रूप से वे तमाम चीजें पहुंचती हैं जो उसकी बका के लिए जरूरी 
हैं। इसी तरह कायनात की तमाम चीजों का हाल है। जब यह हकीकत है कि इन चीजों को 
जो कुछ मिलता है किसी देने वाले के दिए से मिलता है तो यकीनन देने वाला हर जुज व 
कुल से बाख़बर होगा। अगर वह इनसे बाख़बर न हो तो हर चीज की उसकी ऐन जरूरत के 
मुताबिक कारसाजी किस तरह करे। अब जो खुदा इतनी कामिल सिफात का मालिक हो वह 
आखिर किस जरूरत के लिए किसी को अपनी खुदाई में शरीक करेगा। 

इंसान खुदा को महसूस सूरत में देखना चाहता है। और जब वह उसे महसूस सूरत में 
नजर नहीं आता तो वह दूसरी महसूस चीजें को खुदा फर्ज करके अपनी जहिरपरस्ती की 
तस्कीन कर लेता है। मगर यह ख़ुदा की हस्ती का बहुत कमतर अंदाजा है। आख़िर जो ख़ुदा 
ऐसा अजीम हो कि इतनी बड़ी कायनात पैदा करे और इंतिहाई नज्म के साथ उसे मुसलसल 
चलाता रहे, वह इतना मामूली कैसे हो सकता है कि एक कमजोर मख़्तूक उसे अपनी आंखों 
से देखे और अपने हाथों से छुऐ। अलबत्ता इंसान दिल की राह से ख़ुदा को पाता है और 
यकीन की आंख से उसे देखता है। जो शख्स बसीरत (सूझबूझ) की आंख से देखकर मानने 
पर राजी हो वही खुदा को पाएगा। जो बसारत (निगाह) से देखने पर इसरार करे वह खुदा 
को पाने से उसी तरह महरूम रहेगा जिस तरह वह शख्स फूल की खुशबू को जानने से महरूम 
रहता है जो उसे कीमयाई (रासायनिक) मेयारों पर परख कर जानना चाहे। 


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सूरह-6. अल-अनआम 35] पारा 7 


और इस तरह हम अपनी दलीलें मुख़्लिफ तरीकों से बयान करते हैं और ताकि वे कहें 

कि तुमने पढ़ दिया और ताकि हम अच्छी तरह खोल दें उन लोगों के लिए जो जानना 
चाहें। तुम बस उस चीज की पैरवी करो जो तुम्हारे रब की तरफ से तुम पर “वही!” 
(प्रकाशना) की जा रही है। उसके सिवा कोई माबूद नहीं और मुश्रिकों से एराज (उपेक्षा) 
करो। और अगर अल्लाह चाहता तो ये लोग शिर्क न करते। और हमने तुम्हें उनके ऊपर 
निगरां (संरक्षक) नहीं बनाया है और न तुम उन पर मुख्तार (साधिकार) हो। और 
अल्लाह के सिवा जिन्हें ये लोग पुकारते हैं उन्हें गाली न दो वर्ना ये लोग हद से गुजर कर 
जहालत की बुनियाद पर अल्लाह को गालियां देने लगेंगे। इसी तरह हमने हर गिरोह की 
नजर में उसके अमल को खुशनुमा बना दिया है। फिर उन सबको अपने रब की तरफ 
पलटना है। उस वक्‍त अल्लाह उन्हें बता देगा जो वे करते थे। (06-09) 


एक शख्स वह है जिसके अंदर तलब की नफ्सियात हो, जो सच्चाई की तलाश में रहता 
हो। दूसरे लोग वे हैं जो दौलत या इक्तेदार (सत्ता) का कोई हिस्सा पाकर यह समझने लगते 
हैं कि वे पाए हुए लोग हैं। उनके अंदर कोई कमी नहीं है जो कोई शख्स आकर पूरी करे। 
हक की दावत जब उठती है तो उसे कुबूल करने वाले ज्यादातर पहली किस्म के लोग होते 
हैं। इसके बरअक्स जो दूसरी किस्म के लोग हैं वे उसे कोई काबिले लिहाज चीज नहीं समझते। 
वे कभी संजीदगी के साथ उस पर गौर नहीं करते। इसलिए उसकी अहमियत भी उन पर वाजेह 
नहीं होती ऐसे हालात में हक की दावत के मकसद दो होते हैं। जो सच्चे तालिब हैं उनकी तलब 
का जवाब फराहम करना | और जो लोग तालिब नहीं हैं उन पर हुज्जत कायम करना । पहली 
किस्म के लोगों के लिए दावत का निशाना यह होता है कि वे उसके मानने वाले बन जाएं। 
और दूसरी किस्म के लोगों के लिए यह कि वे कह उठें कि “तुमने बता दिया, तुमने बात हम 
तक पहुंचा दी।' 

जो लोग दावत का इंकार करते हैं वे अपने इंकार को बरहक साबित करने के लिए 
तरह-तरह की बातें निकालते हैं। ऐसे मौके पर दाओ के दिल में यह ख्याल आने लगता है 
कि वह दावत के अंदाज में ऐसी तब्दीली कर दे जिससे वह मदऊ के लिए काबिले कुबूल बन 
जाए। मगर इस किस्म का इंहिराफ (भटकाव) दुरुस्त नहीं। दाओ को हमेशा उसी उस्लूब पर 
कायम रहना चाहिए जो बराहेरास्त खुदा की तरफ से तल्कीन किया गया है। क्योंकि असल 
मकसद इंसान को खुदा से जोड़ना है न कि किसी न किसी तरह लोगों को अपने हलके में 
शामिल करना। दूसरी तरफ यह बात भी ग़लत है कि मदऊ के रवैये से उत्तेजित होकर ऐसी 
बातें को जाएं कि उसकी गुमराही जाहिलाना बदकलामी तक जा पहुंचे। 

आदमी जिन ख़ास रिवायात में पैदा होता है और जिन अफ्कार (विचारों) से वह मानूस 
(अंतरंग) हो जाता है, उनके हक में उसके अंदर एक तरह की अस्बियत पेदा हो जाती है। उसके 
मुताबिक उसका एक फिक्री ढांचा बन जाता है जिसके तहत वह सोचता है। यही फिक्री 
(वैचारिक) ढांचा हक को कुबूल करने की राह में सबसे बड़ी रुकावट है। जब तक आदमी इस 
फिक्री ढांवे को न तेंडिउसके जेहन मेंवह दरवाजा नहीं खुलता जिसके जरिये हक की आवाज 
उसके अंदर दाखिल हो। 


पारा 8 352 सूरह-6. अल-अनआम 


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और ये लोग अल्लाह की कसम बड़े जोर से खाकर कहते हैं कि अगर उनके पास कोई 
निशानी आ जाए तो वे जरूर उस पर ईमान ले आएं। कह दो कि निशानियां तो 
अल्लाह के पास हैं। और तुम्हें क्या ख़बर कि अगर निशानियां आ जाएं तब भी ये 
ईमान नहीं लाएंगे। और हम उनके दिलों और उनकी निगाहों को फेर देंगे जैसा कि 
ये लोग उसके ऊपर पहली बार ईमान नहीं लाए। और हम उन्हें उनकी सरकशी में 
भटकता हुआ छोड़ देंगे। और अगर हम उन पर फरिश्ते उतार देते और मुर्दे उनसे बातें 
करते और हम सारी चीजें उनके सामने इकट्ठा कर देते तब भी ये लोग ईमान लाने 
वाले न थे इल्ला यह कि अल्लाह चाहे मगर उनमें से अक्सर लोग नादानी की बातें करते 
हैं। (0-72) 


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हक एक शख्स के सामने दलाइल (तर्को) के साथ आता है और वह उसका इंकार कर 
देता है तो इसकी वजह हमेशा एक होती है। बात को उसके सही रुख़ से देखने के बजाए 
उल्टे रुख़ से देखना। कोई बात चाहे कितनी ही ताकिक हो, आदमी अगर उसे मानना न चाहे 
तो वह उसे रद्द करने के लिए कुछ न कुछ अल्फाज पा लेगा । मसलन दाजी (आह्वानकर्ता) 
के दलाइल को दलाइल की हैसियत से देखने के बजाए वह यह बहस छेड़ देगा कि तुम्हारे 
सिवा जो दूसरे बुजुर्ग हैं क्या वे सब हक से महरूम थे। और इसी तरह दूसरी बातें। 

जिस आदमी के अंदर इस किस्म का मिजाज हो उसका राहेरास्त (सन्मार्ग) पर आना 
इंतिहाई मुश्किल है। वह हर बात को ग़लत रुख़ देकर उसके इंकार का एक बहाना तलाश 
कर सकता है। नजरी दलाइल को रद्द करने के लिए अगर उसे ये अल्फाज मिल रहे थे कि 
यह अस्लाफ (पूर्वजों) के मस्लक के ख़िलाफ है तो महसूस मुशाहिदे को रद्द करने के लिए 
वह ये अत्फज पा लेग कि यह नजर का धे है इसकी हकीकत एक फी तिलिस्म के 
सिवा और कुछ नहीं। जो मिजाज नजरी दलील को मानने में रुकावट बना था वही मिजाज 
महसूस दलील को मानने में भी रुकावट बन जाएगा। आदमी अब भी इसी तरह महरूम 
(वंचित) रहेगा जैसे वह पहले महरूम था। 





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सूरह-6. अल-अनआम 353 पारा 8 


इस किस्म के लोग अपनी नफ्सियात के एतबार से सरकश होते हैं। वे हर हाल में अपने 
को ऊंचा देखना चाहते हैं। एक दाओ जब उनके सामने हक का पेग़ाम ले आता है तो अक्सर 
ऐसा होता है कि वह माहौल में अजनबी होता है, वह वक्त की अज्मतों से ख़ाली होता है। 
उसके साथ अपने को मंसूब करना अपनी हैसियत को नीचा गिराने के समान होता है। 
इसलिए बरतरी की नफ्सियात रखने वाले लोग उसे कुबूल नहीं कर पाते। वे तरह-तरह की 
तौजीहात पेश करके उसे मानने से इंकार कर देते हैं। 

दानाई यह है कि आदमी खुदा के नक्शे को माने और उसके मुताबिक अपने जेहन को 
चलाने के लिए तैयार हो। इसके बरअक्स नादानी यह है कि आदमी खुदा के नक्शे के बजाए 
खुदसाख्ता मेयार कायम करे और कहे कि जो चीज मुझे इस मेयार पर मिलेगी मैं उसे मानूंगा 
और जो चीज इस मेयार पर नहीं मिलेगी उसे नहीं मानूंगा। ऐसे आदमी के लिए इस दुनिया 
में सिर्फ भटकना है। खुदा की इस दुनिया में आदमी ख़ुदा के मुरकर किए हुए तरीकों की 
पैरवी करके मंजिल तक पहुंच सकता है न कि उसके मुर्कररह तरीके को छोड़कर। 


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और इसी तरह हमने शरीर (दुष्ट) आदमियों और शरीर जिन्नों को हर नबी का दुश्मन 
बना दिया। वे एक दूसरे को पुरफरेब बातें सिखाते हैं धोखा देने के लिए। और अगर 
तेरा रब चाहता तो वे ऐसा न कर सकते। पस तुम उन्हें छोड़ दो कि वे झूठ बांधते रहें। 
और ऐसा इसलिए है कि उसकी तरफ उन लोगों के दिल मायल हों जो आख़िरत 
(परलोक) पर यकीन नहीं रखते। और ताकि वे उसे पसंद करें और ताकि जो कमाई 
उन्हें करनी है वह कर लें। (]3-4) 








इन्ने जरीर ने हजरत अबूजर से नकल किया है कि मैं रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व 
सल्लम की मज्लिस में शरीक हुआ। यह एक लम्बी मज्लिस थी। आपने फरमाया ऐ अबूजर, 
क्या तुमने नमाज पढ़ ली। मैंने कहा नहीं ऐ खुदा के रसूल। आपने फरमाया : उठो और दो 
रकअत नमाज पढ्े। वह नमाज पढ़कर दुबारा मज्लिस में आकर बैठे तो आपने फरमाया : 
ऐ अबूजर क्या तुमने जिन्न व इन्स के शैतानों के मुकाबले में अल्लाह से पनाह मांगी। मैंने 
कहा नहीं ऐ ख़ुदा के रसूल, क्या इंसानों में भी शैतान होते हैं। आपने फरमाया हां, वे 
शयातीने जिन्न से भी ज्यादा बुरे होते हैं। (तफ्सीर इब्ने कसीर) 

यहां शयातीने इन्स से मुराद वे लोग हैं जो दावते हक को बेएतबार साबित करने के लिए 


पारा 8 354 सूरह-6. अल-अनआम 


कायदाना किरदार अदा करते हैं। ये वे लोग हैं जो खुदसाख्ना मजहब की बुनियाद पर इज्जत 
व मकबूलियत का मकाम हासिल किए हुए हेति हैं। जब हक की दावत अपनी बेआमेज शक्ल 
में उठती है तो उन्हें महसूस होता है कि वह उन्हें बरहना (नंगा) कर रही है। ऐसे लोगों के 
लिए सीधा रास्ता तो यह था कि वे हक की वजाहत के बाद उसे मान लें मगर हक के मामले 
में अपना मकाम उन्हें ज्यादा अजीज होता है। अपनी हैसियत को बचाने के लिए वे खुद दाओ 
और उसकी दावत को मुश्तबह (संदिग्ध) साबित करने में लग जाते हैं। इस मकसद के लिए 
वे खुशनुमा अल्फाज का सहारा लेते हैं। वे दाजी और उसकी दावत में ऐसे शोशे निकालते 
हैं जो अगरचे बजातेखुद बेहकीकत होते हैं मगर बहुत से लोग उनसे मुतअस्सिर होकर उनके 
बारे में शुबह में पड़ जाते हैं। 

मौजूदा दुनिया में जो इम्तेहानी हालात पैदा किए गए हैं उनमें से एक यह है कि यहां 
सही बात कहने वाले को भी अल्फाज मिल जाते हैं और गलत बात कहने वाले को भी। हक 
का दाऔ अगर हक को दलाइल की जबान में बयान कर सकता है तो इसी के साथ 
बातिलपरस्तों को भी यह मोका हासिल है कि वे हक के खिलाफ कुछ ऐसे खुशनुमा अल्फाज 
बोल सकें जो लोगों को दलील मालूम हों और वे उनसे मुतअस्सिर होकर हक का साथ देना 
छोड़ दें। यह सूरतेहाल इम्तेहान की गरज से है इसलिए वह लाजिमन कियामत तक बाकी 
रहेगी । इस दुनिया में बहरहाल आदमी को इस इम्तेहान में खड़ा होना है कि वह सच्चे दलाइल 
और बेबुनियाद बातों के दर्मियान फर्क करे और बेबुनियाद बातों को रद्द करके सच्चे दलाइल 
को कुकू कर ले। 

शयातीने इन्स (इंसानी शैतान) अपनी जहानत से हक के खिलाफ जो पुरफरेब शोशे 
निकालते हैं वे उन्हीं लोगों को मुतास्सिर करते हैं जो आख़िरत (परलोक) की फिक्र से ख़ाली 
हों। आखिरत का अंदेशा आदमी को इंतिहाई संजीदा बना देता है और जो शख्स संजीदा हो 
उससे बातों की हकीकत कभी छुपी नहीं रह सकती। मगर जो लोग आख़िरत के अंदेशे से 
ख़ाली हों वे हक के मामले में संजीदा नहीं होते, इसीलिए वे शोशे और दलील का फर्क भी 
समझ नहीं पाते। 


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सूरह-6. अल-अनआम 355 पारा 8 


क्या में अल्लाह के सिवा किसी और को मुंसिफ बनाऊ। हालांकि उसने तुम्हारी तरफ 

वाजेह किताब उतारी है। और जिन लोगों को हमने पहले किताब दी थी वे जानते हैं 
कि यह तेरे रब की तरफ से उतारी गई है हक के साथ। पस तुम न हो शक करने वालों 

में। और तुम्हारे रब की बात पूरी सच्ची है और इंसाफ की, कोई बदलने वाला नहीं 
उसकी बात को और वह सुनने वाला, जानने वाला है। और अगर तुम लोगों की 
अक्सरियत के कहने पर चलो जो जमीन में हैं तो वे तुम्हें खुदा के रास्ते से भटका देंगे। 

वे महज गुमान की पैरवी करते हैं और कयास आराइयां (अटकल बाते) करते हैं। बेशक 
तुम्हारा रब ख़ूब जानता है उन्हें जो उसके रास्ते से भटके हुए हैं और ख़ूब जानता है उन्हे 
जो राह पाए हुए हैं। (5-28) 





कुरआन में जबीहा के अहकाम उतरे और यह कहा गया कि मुर्दा जानवर न खाओ, 
जबह किया हुआ खाओ तो कुछ लोगों ने कहा : मुसलमानों का मजहब भी अजीब है। वे 
अपने हाथ का मारा हुआ जानवर हलाल समझते हैं और जिसे अल्लाह ने मारा हो उसे हराम 
बताते हैं। इस जुमले में लफजी तुकबंदी के सिवा और कोई दलील नहीं है। मगर बहुत से लोग 
उसे सुनकर धोखे में आ गए और इस्लाम को शुबह की नजर से देखने लगे। ऐसा ही हमेशा 
होता है। हर जमाने में ऐसे लोग कम होते हैं जो बातों को उनकी असली हकीकत के एतबार 
से समझते हों। बेशतर लोग अल्फाज के गोरखधंधे में गुम रहते हैं। वह ख्याली बातों को 
हकीकी समझ लेते हैं सिर्फ इसलिए कि उन्हें सूरत अल्फाज में बयान कर दिया गया है। 

मगर यह दुनिया ऐसी दुनिया है जहां तमाम बुनियादी हकीकतों के बारे में खुदा के वाजेह 
बयानात आ चुके हैं। इसलिए यहां किसी के लिए इस किस्म की बेराही में पड़ना काबिले 
माफी नहीं हो सकता। खुदा का कलाम एक खुली हुई कसौटी है जिस पर जांच कर हर 
आदमी मालूम कर सकता है कि उसकी बात महज एक लपजी शोबदा (शब्द जाल) है या कोई 
वाकई हकीकत है। ररा ने माजी, हाल और मूतकबिल की तमाम जरी चीजेके बोर में 
सच्चा बयान दे दिया है। उसने इंसानी ताल्लुकात के तमाम पहलुओं के बारे में कामिल इंसाफ 
की राह बता दी है। आदमी अगर वाकई संजीदा हो तो उसके लिए यह जानना कुछ भी 
मुश्किल नहीं कि हक क्या और नाहक क्या। अब इसके बाद शुबह में वही पड़ेगा जिसका 
हाल यह हो कि उसकी सोच खुदा के कलाम के सिवा दूसरी चीजों के जेरेअसर काम करती 
हो। जो शख्स अपनी सोच को खुदाई हकीकतों के मुवाफिक बना ले उसके लिए यहां फिक्री 
बेराहरवी (वैचारिक भटकाव) का कोई इम्कान नहीं। 

इस खुदाई वजाहत के बाद भी अगर आदमी भटकता है तो ख़ुदा को उसका हाल अच्छी 
तरह मालूम है। वह खूब जानता है कि वह कौन है जिसने अपनी बड़ाई कायम रखने की 
खातिर अपने से बाहर जाहिर होने वाली सच्चाई को कोई अहमियत न दी। कौन है जिसके 
तअस्सुब ने उसे इस काबिल न रखा कि वह बात को समझ सके। किस ने सस्ती नुमाइश में 
अपनी राबत की वजह से सच्चाई की आवाज पर ध्यान नहीं दिया। कौन है जो हसद की 
नपिसियात में मुन्तिला होने की वजह से हक से नाआशना रहा। 





पारा 8 356 सूरह-6. अल-अनआम 


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पस खाओ उस जानवर में से जिस पर अल्लाह का नाम लिया जाए, अगर तुम उसकी 
आयतों पर ईमान रखते हो। और क्या वजह है कि तुम उस जानवर में से न खाओ 
जिस पर अल्लाह का नाम लिया गया है, हालांकि ख़ुदा ने तफ़्सील से बयान कर दी 
हैं वे चीजें जिन्हें उसने तुम पर हराम किया है। सिवा इसके कि उसके लिए तुम मजबूर 

हो जाओ। और यकीनन बहुत से लोग अपनी ख़ाहिशात की बिना पर गुमराह करते 

हैं बगैर किसी इलम के। बेशक तुम्हारा रब ख़ूब जानता है हद से निकल जाने वालों 
को। और तुम गुनाह के जाहिर को भी छोड़ दो और उसके बातिन को भी। जो लोग 
गुनाह कमा रहे हैं उन्हें जल्द बदला मिल जाएगा उसका जो वे कर रहे थे। और तुम 
उस जानवर में से न खाओ जिस पर अल्लाह का नाम न लिया गया हो। यकीनन यह 
बेहुक्मी है और शयातीन इल्का (संप्रेषित) कर रहे हैं अपने साथियों को ताकि वे तुमसे 
झगड़ें। और अगर तुम उनका कहा मानोगे तो तुम भी मुश्रिक (बहुदेववादी) हो 
जाओगे। (29-22) 


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दुनिया में जो कुछ है वह सब हमारे लिए “माले गैर' है। क्योंकि सबका सब ख़ुदा का 
है। उसे अपने लिए जाइज करने की वाहिद सूरत यह है कि उसे ख़ुदा के बताए हुए तरीके 
से हासिल किया जाए और उसे ख़ुदा के बताए हुए तरीके से इस्तेमाल किया जाए। यही 
मामला जानवरों का भी है। 

जानवर हमारे लिए कीमती खुराक हैं। मगर सवाल यह है कि उन्हें खुराक बनाने का हक 
हमें कैसे मिला। जानवर को ख़ुदा बनाता है और वही उसे परवरिश करके तैयार करता है। 
फिर हमारे लिए कैसे जाइज हुआ कि हम उसे अपनी खुराक बनाएं। जबह के वक्‍त अल्लाह 
का नाम लेना इसी सवाल का जवाब है। अल्लाह का नाम लेना कोई लफ्जी रस्म नहीं। यह 
दरअस्ल जानवर के ऊपर ख़ुदा की मालिकाना हैसियत को तस्लीम करना और उसके अतिये 
(देन) पर खुदा का शुक्र अदा करना है। जबह के वक्‍त अल्लाह का नाम लेना इसी एतराफ 


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सूरह-6. अल-अनआम 357 पारा 8 


व शुक्र की एक अलामत है और यही एतराफ व शुक्र वह 'कीमत' है जिसे अदा करने से मालिक 
के नजदीक उसका एक जानवर हमारे लिए हलाल हो जाता है। ताहम जिसे इत्तफाकी मजबूरी 
पेश आ जाए उसे इस पाबंदी से आजाद कर दिया गया है। 
जब आदमी हराम व हलाल और जाइज व नाजाइज में खुदा का हुक्म छोड़ता है तो 
इसके बाद तवहहुमात (अंधविश्वास) इसकी जगह ले लेते हैं। लोग तवह्हुमाती ख्यालात के 
आधार पर चीज़ों के बारे में तरह-तरह की राए कायम कर लेते हैं। इन तवह्हुमात के पीछे 
कुछ ख़ुदसाख़्ता फलसफे होते हैं और उनकी बुनियाद पर उनके कुछ जवाहिर (प्रकट दृश्य) 
कायम होते हैं। जो लोग अल्लाह के फरमांबरदार बनना चाहें उनके लिए जरूरी होता है कि 
इन तवह्हुमात को फिक्री (वैचारिक) और अमली दोनों एतबार से मुकम्मल तौर पर छोड़ दें। 
खाने पीने और दूसरे उमूर में हर कौम का एक रवाजी दीन बन जाता है। इस रवाजी दीन 
के बारे में लोगों के जज्बात बहुत शदीद होते हैं। क्योंकि इसके हक में अस्लाफ और बुजुर्गों की 
तस्दीकात शामिल रहती हैं। इससे हटना बुजुर्गों के दीन से हटने के समान बन जाता है। इसलिए 
जब हक की दावत इस रवाजी दीन से टकराती है तो हक की दावत के ख़िलाफ तरह-तरह के 
एतराजात किए जाते हैं। वक्त के बड़े ऐसी खुशकुन बातें निकालते हैं जिनसे वे अपने अवाम को 
मुतमइन कर सके कि तुम्हारा रवाजी दीन सही है और यह “नया दीन” बिल्कुल बातिल है। मगर 
अल्लाह हर चीज से बाख़बर है। कियामत में जब वह हकीकतों को खोलेगा तो हर आदमी देख 
लेगा कि वह हकीकत की जमीन पर खड़ था या तवह्हुमात की जमीन पर । 


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पारा 8 358 सूरह-6. अल-अनआम 


करते हैं मगर वे उसे नहीं समझते। और जब उनके पास कोई निशान आता है तो वे 
कहते हैं कि हम हरगिज न मानेंगे जब तक हमें भी वही न दिया जाए जो खुदा के 
पेग़म्बरों को दिया गया। अल्लाह ही बेहतर जानता है कि वे अपनी पैग़म्बरी किसे 
बख्शे। जो लोग मुजरिम हैं जरूर उन्हें अल्लाह के यहां जिल्लत नसीब होगी और सख्त 

अजाब भी, इस वजह से कि वे मक्र (चालबाजी) करते थे। (23-25) 





अल्लाह की नजर में वह शख्स जिंदा है जिसके सामने हिदायत की रोशनी आई और 
उसने उसे अपने रास्ते की रोशनी बना लिया। इसके मुकाबले में मुर्दा वह है जो हिदायत की 
रोशनी से महरूम होकर बातिल के अंधेरों में भटक रहा हो। 

मुर्दा आदमी ओहाम (भ्रमो) व तअस्सुबात (विद्वेषो) के जाल में इतना फंसा हुआ होता 
है कि सीधे और सच्चे हकाइक उसके जेहन की गिरफ्त में नहीं आते। वह चीजों की माहियत 
(स्वरूप) से इतना बखर हेता है कि लफी बहस और हकीकी कलाम में फर्क नहीं कर 
पाता। वह अपनी बड़ाई के तसव्वुर में इतना डूबा हुआ होता है कि किसी दूसरे की तरफ से 
आई हुई सच्चाई का एतराफ करना उसके लिए मुमकिन नहीं होता। उसके जेहन पर रवाजी 
ख्यालात का इतना गलबा होता है कि उनसे हट कर किसी और मेयार पर वह चीजों को जांच 
नहीं पाता। अपनी इन कमजोरियों की बिना पर वह अंधेरे में भटकता रहता है, बजाहिर जिंदा 
होते हुए भी वह एक मुर्दा इंसान बन जाता है। 

इसके बरअक्स (विपरीत) जो शख्स हिदायत के लिए अपना सीना खोल देता है वह हर 
किस्म की नपिसयाती गिरहों से आजाद हो जाता है। सच्चाई को पहचानने में उसे जरा भी देर 
नहीं लगती । अल्फाज के पर्दे कभी उसके लिए हकीकत का चेहरा देखने में रुकावट नहीं बनते। 
जैक और आदत के मसाइल उसकी जिंदगी में कभी यह मकाम हासिल नहीं करते कि उसके 
और हक के दर्मियान हायल हो जाएं। सच्चाई उसके लिए एक ऐसी रोशन हकीकत बन जाती 
है जिसे देखने में उसकी नजर कभी न चूके और जिसे पाने के लिए वह कभी सुस्त साबित न हो। 
वह ख़ुद भी हक की रोशनी में चलता है और दूसरों को भी उसमें चलाने की कोशिश करता है। 








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ह a 4४ “2“ 425५“ a Ree ८९ ८ वे लोग जो खुदसाख्ञा (स्वनिर्मित) चीजों को खुदा का मजहब बताकर अवाम का 
हु a OE es | i 0-2 3 टी Js > > आकर्षण केन्द्र बने हुए होते हैं वे हर ऐसी आवाज के दुश्मन बन जाते हैं जो लोगों को सच्चे 

८ VUE TANS I हर“ हि। Nas दीन की तरफ पुकारे। ऐसी हर आवाज उन्हें अपने ख़िलाफ बेएतमादी की तहरीक दिखाई 
a ५ देती है। ये वक्‍त के बड़े लोग हक की दावत में ऐसे शोशे निकालते हैं जिससे वे अवाम को 
ice | i» उससे मुतअस्सिर होने से रोक सकें। वे हक के दलाइल को ग़लत रुख़ देकर अवाम को 

शुबहात में मुब्तला करते हैं। यहां तक कि बेबुनियाद बातों के जरिये दाओ (आह्वानकर्ता) की 

जात को बदनाम करने की कोशिश करते हैं। मगर इस किस्म की कोशिशें सिर्फ उनके जुर्म 

को बढ़ाती हैं, वह दाऔ और दावत को कोई नुक्सान नहीं पहुंचा सकतीं। हकपरस्त वह है 

जो हक को उस वक्‍त देख ले जबकि उसके साथ दुनियावी अज्मतें शामिल न हुई हों। 

दुनियावी अज्मत वाले हक को मानना दरअस्ल दुनियावी अज्मतों को मानना है न कि खुदा 

की तरफ से आए हुए हक को। 


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क्या वह शख्स जो मुर्दा था फिर हमने उसे जिंदगी दी और हमने उसे एक रोशनी दी 
कि उसके साथ वह लोगों में चलता है वह उस शख्स की तरह हो सकता है जो तारीकियों 
में पड़ा है, इससे निकलने वाला नहीं। इस तरह मुंकिरों की नजर में उनके आमाल 
खुशनुमा बना दिए गए हैं। और इस तरह हर बस्ती में हमने गुनाहगारों के सरदार रख 
दिए हैं कि वे वहां हीले (चालें) करें। हालांकि वे जो हीला करते हैं अपने ही खिलाफ 


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सूरह-6. अल-अनआम 359 पारा 8 


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अल्लाह जिसे चाहता है कि हिदायत दे तो उसका सीना इस्लाम के लिए खोल देता है। 
और जिसे चाहता है कि गुमराह करे तो उसके सीने को बिल्कुल तंग कर देता है जैसे उसे 
आसमान में चढ़ना पड़ रहा हो। इस तरह अल्लाह गन्दगी डाल देता है उन लोगों पर जो 
ईमान नहीं लाते। और यही तुम्हारे रब का सीधा रास्ता है। हमने वाजेह कर दी हैं 

निशानियाँ ग़ौर करने वालों के लिए। उन्हीं के लिए सलामती का घर है उनके रब के 
पास। और वह उनका मददगार है उस अमल के सबब से जो वे करते रहे। (26-28) 


हक अपनी जात में इतना वाजेह है कि उसका समझना कभी किसी आदमी के लिए 
मुश्किल न हो। फिर भी हर जमाने में बेशुमार लोग हक की वजाहत के बावजूद हक को 
कुबूल नहीं करते। इसकी वजह उनके अंदर की वे रूकावटे हैं जो वे अपनी नफ्सियात में पैदा 
कर लेते हैं। कोई अपने आपको मुकद्दस हस्तियों से इतना ज्यादा वाबस्ता कर लेता है कि 
उन्हें छोड़ते हुए उसे महसूस होता है कि वह बिल्कुल बर्बाद हो जाएगा। किसी का हाल यह 
होता है कि अपनी मस्लेहतों का निजाम टूटने का अंदेशा उसके ऊपर इतना ज्यादा छा जाता 
है कि उसके लिए हक की तरफ इकदाम करना मुमकिन नहीं रहता। किसी को नजर आता 
है कि हक को मानना अपनी बड़ाई के मीनार को अपने हाथ से ढा देना है। किसी को महसूस 
होता है कि माहौल के रवाज के ख़िलाफ एक बात को अगर मैंने मान लिया तो मैं सारे माहौल 
में अजनबी बन कर रह जाऊंगा। इस तरह के ख़यालात आदमी के ऊपर इतने मुसल्लत हो 
जाते हैं कि हक को मानना उसे एक बेहद मुश्किल बुलन्दी पर चढ़ाई के समान नज़र आने 
लगता है जिसे देखकर ही आदमी का दिल तंग होने लगता हो। 

इसके बरअक्स मामला उन लोगों का है जो नफ्सियाति पेचीदगियों में मुब्तला नहीं होते, 
जो हक को हर दूसरी चीज से आला समझते हैं। वे पहले से सच्चे मुतलाशी बने हुए होते हैं। 
इसलिए जब हक उनके सामने आता है तो बिला ताख़ीर (अविलंब) वे उसे पहचान लेते हैं 
और तमाम उजरात (विवशताओं) और उदिशों को नजरअंदाज करके उसे कुबूल कर लेते हैं। 

ख़ुदा अपने हक को निशानियाँ (इशाराती हकीकतों) की सूरत में लोगों के सामने लाता है। 
अब जो लोग अपने दिलों में कमजोरियां लिए हुए हैं, वे इन इशारात की ख़ुदसाख़्ता तावील 
करके अपने लिए इसे न मानने का जवाज बना लेते हैं। और जिन लोगों के सीने खुले हुए हैं वे 


पारा 8 360 सूरह-6. अल-अनआम 


इशारात को उनकी अस्ल गहराइयों के साथ पा लेते हैं और उन्हें अपने जेहन की गिजा बना लेते 
हैं। उनकी जिंदगी फौरन उस सीधे रास्ते पर चल पड़ती है जो खुदा की बराहेरास्त रहनुमाई में तै 
होता है और बिलआख़िर आदमी को अबदी कामयाबी के मकाम पर पहुंचा देता है। 

खुदा के यहां जो कुछ कीमत है वह अमल की है न कि किसी और चीज की। जो शख्स 
अमली तौर पर खुदा की फरमांबरदारी इस्क्तियार करेगा वही इस काबिल ठहरेगा कि खुदा 
उसकी दस्तगीरी करे और उसे अपने सलामती के घर तक पहुंचा दे। यह सलामती का घर 
खुदा की जन्नत है जहां आदमी हर किस्म के दुख और आफत से महफूज रहकर अबदी 
(चिरस्थाई) सुकून की जिंदगी गुजारेगा। खुदा की यह मदद अफराद को उनके अमल के 
मुताबिक मौत के बाद आने वाली जिंदगी में मिलेगी। लेकिन अगर अफराद की काबिले 
लिहाज तादाद दुनिया में खुदा की फरमांबरदार बन जाए तो ऐसी जमाअत को दुनिया में भी 
उसका एक हिस्सा दे दिया जाता है। 


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और जिस दिन अल्लाह उन सबको जमा करेगा, ऐ जिन्‍नों के गिरोह तुमने बहुत से ले 
लिए इंसानों में से। और इंसानों में से उनके साथी कहेंगे ऐ हमारे रब, हमने एक दूसरे 
को इस्तेमाल किया और हम पहुंच गए अपने उस वादे को जो तूने हमारे लिए मुकर्रर 
किया था। खुदा कहेगा अब तुम्हारा ठिकाना आग है, हमेशा उसमें रहोगे मगर जो 
अल्लाह चाहे। बेशक तुम्हारा रब हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला इल्म वाला है। और इसी 
तरह हम साथ मिला देंगे गुनाहगारों को एक दूसरे से, उन आमाल के सबब जो वे करते 
थे। ऐ जिन्‍नों और इंसानों के गिरोह क्या तुम्हारे पास तुम्हीं में से पेग़म्बर नहीं आए 
जो तुम्हें मेरी आयते सुनाते और तुम्हें इस दिन के पेश आने से डराते थे। वे कहेंगे हम 
खुद अपने खिलाफ गवाह हैं। और उन्हे दुनिया की जिंदगी ने धोखे में रखा। और वे 
अपने खिलाफ खुद गवाही देंगे कि बेशक हम मुंकिर थे। यह इस वजह से कि तुम्हारा 


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सूरह-6. अल-अनआम 36] पारा 8 


रब बस्तियां को उनके जुल्म पर इस हाल में हलाक करने वाला नहीं कि वहां के लोग 
बेख़बर हों। (।29-32) 





किसी के गुमराह करने से जब कोई शख्स गुमराह होता है तो यह एकतरफा मामला नहीं 
होता। दोनों अपनी-अपनी जगह यही समझते हैं कि वे अपना मकसद पूरा कर रहे हैं। शैतान 
जब आदमी को सब्ज बाग़ दिखा कर अपनी तरफ ले जाता है तो वह अपने उस चैलेंज को 
सही साबित करना चाहता है जो उसने आगजे तरळ्गीक (उत्पत्ति काल) में ख़ुदा को दिया था 
कि मैं तेरी मख्नूक के बड़े हिस्से को अपना हमनवा बना लूंगा (बनी इस्राईल 6)। दूसरी 
तरफ जो लोग अपने आपको शैतान के हवाले करते हैं उनके सामने भी वाजेह मफादात 
(स्वार्थ) होते हैं। कुछ लोग जिन्नों के नाम पर अपने सहर (जादू) के कारोबार को फरोग़ देते 
हैं या अपनी शायरी और कहानत का रिश्ता किसी जिन्नी उस्ताद से जोड़ कर अवाम के 
ऊपर अपनी बरतरी कायम करते हैं। इसी तरह वे तमाम तहरीकें जो शैतानी तर्गीबात (प्रेरणा) 
के तहत उठती हैं, उनका साथ देने वाले भी इसीलिए उनका साथ देते हैं कि उन्हें उम्मीद होती 
है कि इस तरह अवाम के ऊपर आसानी के साथ वे अपनी कयादत (नेतृत्व) कम्म कर 
सकते हैं। क्योकि खुदाई पुकार के मुकाबले में शैतानी नारे हमेशा अवाम की भीड़ के लिए 
ज्यादा पुरकशिश साबित होते हैं। 

कियामत में जब हकीकतों से पर्दा उठाया जाएगा तो यह बात खुल जाएगी कि जो लोग 
बेराह हुए या जिन्होंने दूसरों को बेराह किया उन्होंने किसी गलतफहमी की बिना पर ऐसा नहीं 
किया। इसकी वजह हक को नजरअंदाज करना था न कि हक से बेख़बर रहना । वे दुनियावी 
तमाशों से ऊपर न उठ सके, वे वकती फायदों को कुर्बान न कर सके। वर्ना खुदा ने अपने 
ख़ास बंदों के जरिए जो हिदायत खोली थी वह इतनी वाजेह थी कि कोई शख्स हकीकते हाल 
से बेख़बर नहीं रह सकता था। मगर उनकी दुनियापरस्ती उनकी आंखों का पर्दा बन गई। 
जानने के बावजूद उन्होंने न जाना। सुनने के बावजूद उन्होंने न सुना। 

आखिरत (परलोक) में वे बनावटी सहारे उनसे छिन जाएंगे जिनके बल पर वे हकीकत 
से बेपरवाह बने हुए थे। उस वक्त उन्हें नजर आएगा कि किस तरह ऐसा हुआ कि हक उनके 
सामने आया मगर उन्होंने झूठे अल्फाज बोलकर उसे रद्द कर दिया। किस तरह उनकी गलती 
उन पर वाजेह की गई मगर खूबसूरत तावील करके उन्होंने समझा कि अपने आपको हक पर 
साबित करने में वे कामयाब हो गए हैं। 


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पारा 8 362 सूरह-6. अल-अनआम 


और हर शख्स का दर्जा है उसके अमल के लिहाज से और तुम्हारा रब लोगों के आमाल 

से बेख़बर नहीं। और तुम्हारा रब बेनियाज (निस्पुह), रहमत वाला है। अगर वह चाहे 
तो तुम सबको उठा ले और तुम्हारे बाद जिसे चाहे तुम्हारी जगह ले आए, जिस तरह 
उसने तुम्हें पैदा किया दूसरों की नस्ल से। जिस चीज का तुमसे वादा किया जा रहा 

है वह आकर रहेगी और तुम खुदा को आजिज नहीं कर सकते। कहो, ऐ लोगो तुम 

अमल करते रहो अपनी जगह पर, में भी अमल कर रहा हूं। तुम जल्द ही जान लोगे 
कि अंजामकार किसके हक में बेहतर होता है। यकीनन जालिम कभी फलाह (कल्याण) 

नहीं पा सकते। (33-36) 


दुनिया की जिंदगी में हम देखते हैं कि एक शख्स और दूसरे शख्स के मर्तबे में फर्क होता 
है। यह फर्क ठीक उस तनासुब से होता है जो एक आदमी और दूसरे आदमी की जद्दोजहद 
में पाया जाता है। किसी आदमी की दानिशमंदी, उसकी मेहनत, मस्लेहतों के साथ उसकी 
रिआयत जिस दर्जे की होती है उसी दर्जे की कामयाबी उसे यहां हासिल होती है। 

ऐसा ही मामला आख़िरत (परलोक) का भी है। आखिरत में दर्जात और मकामात की 
तकसीम ठीक उसी तनासुब से होगी जिस तनासुब से किसी आदमी ने दुनिया में उसके लिए 
अमल किया है। आखिरत के लिए भी आदमी को उसी तरह माल और वक्‍त खर्च करना है 
जिस तरह वह दुनिया के लिए अपने वक्‍त और माल को खर्च करता है। आख़िरत के मामले 
में भी उसे उसी तरह होशियारी दिखानी है जिस तरह वह दुनिया के मामले में होशियारी 
दिखाता है। आखिरत की बातों में भी उसे मस्लेहतों और नजाकतों की उसी तरह रिआयत 
करना है जिस तरह वह दुनिया की बातों में मस्लेहतों और नजाकतों की रिआयत करता है। 
जिस ख़ुदा के हाथ में आख़िरत का फैसला है वह एक-एक शख्स के अहवाल से पूरी तरह 
बाख़बर है। उसके लिए कुछ भी मुश्किल न होगा कि वह हर एक को वही दे जो उसके 
इक (पात्रता) के बकद्र उसे मिलना चाहिए। 

ख़ुदा ने इम्तेहान और अमल की यह जो दुनिया बनाई है इसके जरिए उसने इंसान के 
लिए एक कीमती इम्कान खोला है। वह चन्द दिन की जिंदगी में अच्छे अमल का सुबूत देकर 
अबदी जिंदगी में उसका अंजाम पा सकता है। इस निजाम को कायम करने से खुदा का 
अपना कोई फायदा नहीं। मौजूदा लोग अगर उसके तख्लीकी मंसूबे को कुबूल न करें तो खुदा 
को इसकी परवाह नहीं। वह उनकी जगह दूसरों को उठा सकता है जो उसके तख़्लीकी मंसूबे 
को मानें और अपने आपको उसके साथ शामिल करें। यहां तक कि वह रेगिस्तान के जर्रो 
और दरख्तों के पत्तों को अपने वफादार बंदों की हैसियत से खड़ा कर सकता है। 

एक ऐसी दुनिया जो सरासर हक और इंसाफ पर कायम हो वहां जालिमाँ और सरकशों 
को छूट मिलना खुद ही बता रहा है कि यह छूट कोई इनाम नहीं है बल्कि वह उन्हें उनके 
आखिरी अंजाम तक पहुंचाने के लिए है। जो शख्स हक को मानने से इंकार करता है और 
इसके बावजूद बजाहिर उसका कुछ नहीं बिगड़ता उसे इस सूरतेहाल पर खुश नहीं होना 
चाहिए। यह हालत सरासर वक्ती है। बहुत जल्द वह वक्त आने वाला है जबकि आदमी से 
वह सब कुछ छीन लिया जाए जिसके बल पर वह सरकशी कर रहा है और उसे हमेशा के लिए 





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सूरह-6. अल-अनआम 363 पारा 8 


एक ऐसी बर्बादी में डाल दिया जाए जहां से कभी उसे निकलना न हो। जहां न दुबारा अमल 
का मौका हो और न अपने अमल के अंजाम से अपने को बचाने का। 


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और ख़ुदा ने जो खेती और चौपाए पैदा किए उसमें से उन्होंने खुदा का कुछ हिस्सा 
मुकर्रर किया है। पस वे कहते हैं कि यह हिस्सा अल्लाह का है, उनके गुमान के 
मुताबिक, और यह हिस्सा हमारे शरीकों का है। फिर जो हिस्सा उनके शरीकों का होता 
है वह तो अल्लाह को नहीं पहुंचता और जो हिस्सा अल्लाह के लिए है वह उनके शरीकों 
को पहुंच जाता है। केसा बुरा फैसला है जो ये लोग करते हैं। और इस तरह बहुत 
से मुशिरिकों (बहुदेववादियों) की नजर में उनके शरीकों ने अपनी औलाद के कत्ल को 
खुशनुमा बना दिया है ताकि उन्हें बर्बाद करें और उन पर उनके दीन को मुशतबह 


(संदिग्ध) बना दें। और अगर अल्लाह चाहता तो वे ऐसा न करते। पस उन्हें छोड़ दो 
कि अपनी इफ्तिरा (झूठ गढ़ने) में लगे रहें। (87-58) 





मुश्रिकीन (बहुदेववादियों) में यह रवाज था कि वे फसल और मवेशी में से अल्लाह का 
और बुतों का हिस्सा निकालते | अगर वे देखते कि खुदा के हिस्से का जानवर या गल्ला अच्छा 
है तो उसे बदल कर बुतों की तरफ दे देते। मगर बुतों का अच्छा होता तो उसे ख़ुदा की तरफ 
न करते। पैदावार की तक्सीम के वक्त बुतों के नाम का कुछ हिस्सा इत्तफाकन अल्लाह के 
हिस्से में मिल जाता तो उसे अलग करके बुतों की तरफ लौटा देते। और अल्लाह के नाम का 
कुछ हिस्सा बुतों की तरफ चला जाता तो उसे लौटाते। इसी तरह अगर कभी नज़ व नियाज 
का गल्ला ख़ुद इस्तेमाल करने की जरूरत पेश आ जाती तो ख़ुदा का हिस्सा ले लेते मगर बुतों 
के हिस्से को न छूते। वे डरते थे कि कहीं कोई बला नाजिल हो जाए। कहने के लिए वे खुदा 
को मानते थे मगर उनका असल यकीन अपने बुतों के ऊपर था। हकीकत यह है कि आदमी 
महसूस बुतों को इसीलिए गढ़ता है कि उसे गैर महसूस ख़ुदा पर पूरा भरोसा नहीं होता। 
यही हाल हर उस शख्स का होता है जो जबान से तो अल्लाह को मानता हो मगर उसका 
दिल अल्लाह के सिवा कहीं और अटका हुआ हो। जो लोग किसी जिंदा या मुर्दा हस्ती को 
अपनी अकीदतों का मर्कज (आस्था केन्र) बना लें उनका हाल भी यही होता है कि जो वकत 
उनके यहां खुदा की याद का है उसमें तो वे अपने 'शरीक' की याद को शामिल कर लेते हैं। 
मगर जो वक्त उनके नजदीक अपने शरीक की याद का है उसमें खुदा का तज्किरा उन्हें गवारा 


पारा 8 364 सूरह-6. अल-अनआम 


नहीँ होता। शेफ्तगी और वारुफ्तगी (मुहब्बत और शीक) का जो हिस्सा खुदा के लिए होना 
चाहिए उसका कोई जुज वे बाआसानी अपने शरीकों को दे देंगे। मगर अपने शरीक के लिए 
वे जिस शेफ़तगी और वारुफ़्तगी को जरूरी समझते हैं उसका कोई हिस्सा कभी ख़ुदा को नहीं 
पहुंचेगा । जो मज्लिस ख़ुदा की अज्मत व किब्रियाई बयान करने के लिए आयोजित की जाए 
उसमें उनके शरीकों की अज्मत व किब्रियाई का बयान तो किसी न किसी तरह दाखिल हो 
जाएगा। मगर जो मज्लिस अपने शरीकों की अज्मत व किब्रियाई का चर्चा करने के लिए हो 
वहां खुदा की अज्मत व किब्रियाई का कोई गुजर न होगा। 
उन शरीकों की अहमियत कभी जेहन पर इतना ज्यादा गालिब आती है कि आदमी 
अपनी औलाद तक को उनके लिए निसार कर देता है। अपनी औलाद को ख़ुदा के लिए पेश 
करना हो तो वह पेश नहीं करेगा मगर अपने शरीकों की ख़िदमत में उन्हें देना हो तो वह 
बखुशी इसके लिए आमादा हो जाता है। 
इस किस्म की तमाम चीजेखुदा के दीन के नाम पर की जाती हैं मगर हकीकतन वे गढ़े 
हुए झूठ हैं। क्योंकि यह एक ऐसी चीज को ख़ुदा की तरफ मंसूब करना है जिसे खुदा ने कभी 
तालीम नहीं किया। 
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और कहते हैं कि यह जानवर और यह खेती मना है, इन्हें कोई नहीं खा सकता सिवा 
उसके जिसे हम चाहें, अपने गुमान के मुताबिक। और फलां चोपाए हैं कि उनकी पीठ 
हराम कर दी गई है और कुछ चोपाए हैं जिन पर वे अल्लाह का नाम नहीं लेते। यह 
सब उन्होंने अल्लाह पर झूठ गढ़ा है। अल्लाह जल्द उन्हें इस झूठ गढ़ने का बदला देगा। 
और कहते हैं कि जो फलां किस्म के जानवरों के पेट में है वह हमारे मदों के लिए ख़ास 
है और वह हमारी औरतों के लिए हराम है। अगर वह मुर्दा हो तो उसमें सब शरीक 
हैं। अल्लाह जल्द उन्हें इस कहने की सजा देगा। बेशक अल्लाह हिक्मत (तत्वदर्शिता) 


वाला इलम वाला है। वे लोग घाटे में पड़ गए जिन्होंने अपनी औलाद को कत्ल किया 
नादानी से बगैर किसी इल्म के। और उन्होंने उस रिज्क को हराम कर लिया जो अल्लाह 


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सूरह-6. अल-अनआम 365 पारा 8 


ने उन्हें दिया था, अल्लाह पर बोहतान बांधते हुए। वे गुमराह हो गए और हिदायत 
पाने वाले न बने। (।39-4]) 





क्दरीम अरब के लोग अपने मजहब को हजरत इब्रहीम और हजरत इस्माईल की तरफ 
मंसूब करते थे। मगर अमलन उनके यहां जो मजहब था वह एक ख़ुदसाख़्ता मजहब था जो 
उनके पेशवाओं ने गठ़कर उनके दर्मियान राइज कर दिया था। पैदावार और चौपायों की जो 
नज्रें (अर्पित वस्तुएं) ख़ुदा या उसके शरीकों के नाम पर पेश होतीं उनके लिए उनके यहां 
बहुत सी कड़ी पाबंदियां थीं। मसलन बहीरा या सायबा (जानवरों) को अगर जबह किया और 
उसके पेट से जिंदा बच्चा निकला तो उसका गोश्त सिफ मर्द खाएं, औरतें न खाएं। और 
अगर बच्चा मुर्दा हालत में हो तो उसे मर्द और औरत दोनों खा सकते हैं। इसी तरह कुछ 
जानवरों की पीठ पर सवार होना या उनके ऊपर बोझ लादना उनके नजदीक हराम था। कुछ 
जानवरों के बारे में उनका अकीदा था कि उन पर सवार होते वकत या उन्हें जबह करते वक्‍त 
या उनका दूध निकालते वक्‍त ख़ुदा का नाम नहीं लेना चाहिए। 

ऐसे लोग दीन के असल तकाजे (अल्लाह से तअल्लुक और आएिरत की फिक्र) से 
इंतिहाई हद तक दूर होते हैं। वे रोजाना अल्लाह की हुदूद को तोड़ते रहते हैं। अलबत्ता कुछ 
शे मुतअल्लिक जहिरी चीजें में तशद्दुद की हद तक कवाइद व जवाबित (नियमे) का 
एहतेमाम करते हैं। यह शैतान की निहायत गहरी चाल है। वह लोगों को अस्ल दीन से दूर 
करके कुछ दूसरी चीजों को दीन के नाम पर उनके दर्मियान जारी कर देता है और उनमें 
शिद्दत (अति) की नपिसयात पैदा करके आदमी को इस गलतफहमी में मुन्तिला कर देता है 
कि वे कमाले एहतियात की हद तक ख़ुदा के दीन पर कायम हैं। इबादत की जवाहिर में 
तशद्दुद (अतिवाद) भी इसी ख़ास नफ्सियात की पैदावार है। आदमी ख़ुशूअ और खुलूस 
(निष्ठा भाव) से ख़ाली होता है और कुछ जाहिरी आदाब का शदीद इल्तजाम करके समझता 
है कि उसने कमाल अदायगी की हद तक इबादत का फेअल (कृत्य) अंजाम दे दिया है। 

इस किस्म के लोगों की गुमराही इससे वाजेह है कि उनमें से बहुत से लोगों ने औलाद 
के कल्ल जैसे वहशियाना फेअल को दुरुस्त समझ लिया। वे खा के पाकीज (पावन) रिज्फ 
से लोगों को महरूम कर देते हैं। वे मामूली मसाइल पर लड़ते हैं और उन बड़ी चीजों को 
नजरअंदाज कर देते हैं जिनकी अहमियत को अक्ले आम के जरिए समझा जा सकता है। 

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पारा 8 366 सूरह-6. अल-अनआम 


और वह अल्लाह ही है जिसने बाग़ पैदा किए, कुछ टट्रटियों पर चढ़ाए जाते हैं और 
कुछ नहीं चट़ाए जाते। और खजूर के दरखत और खेती कि उसके खाने की चीजें 
मुख्तलिफ होती हैं और जैतून और अनार आपस में मिलते जुलते भी और एक दूसरे 

से मुख्तलिफ भी। खाओ उनकी पैदावार जबकि वे फले और अल्लाह का हक अदा करो 

उसके काटने के दिन। और इसराफ (हद से आगे बढ़ना) न करो, बेशक अल्लाह 
इसराफ करने वालों को पसंद नहीं करता। और उसने मवेशियों में बोझ उठाने वाले 
पेदा किए और जमीन से लगे हुए भी। खाओ उन चीजों में से जो अल्लाह ने तुम्हें दी 

हैं। और शैतान की पैरवी न करो, वह तुम्हारा खुला हुआ दुश्मन है। (42-43) 





खुदा ने इंसान के लिए तरह-तरह की गिजाएं पैदा की हैं। कुछ चीजें वे हैं जो जमीन में 
फैलती हैं। मसलन ख़रबूजे, सब्जियां वगैरह । कुछ चीजें वे हैं जो टट्टियों पर चढ़ाई जाती हैं 
मसलन अंगूर वगैरह । कुछ चीजें ऐसी हैं जो अपने तने पर खड़ी रहती हैं। मसलन खजूर, आम 
वरह । इसी तरह आदमी की जरूरत के लिए मुख़लिफ किस्म के छोटेबड़े जानवर पैदा 
किए। मसलन ऊंट, घोड़े और भेड़ बकरियां । 

आदमी एक अलेहिदा मख्नूख है और बाकी चीजें अलेहिदा मख्लूक। दोनों एक दूसरे से 
अलग-अलग पैदा हुए हैं। मगर इंसान देखता है कि दोनों में जबरदस्त हमआहंगी (अंतरंगता) 
है। आदमी के जिस्म को अगर गिजाइयत दरकार है तो उसके बाहर हरे भरे दरख्ों में 
हेतआज किस्म के गिजई फैट लटक रहेहैं। अगर उसकी जबान मेंमजका एहसास पाया 
जाता है तो फलों के अंदर इसकी तस्कीन का आला सामान मौजूद है। अगर उसकी आंखों 
मेहस्ने नजर का जैक है तो कुदरत का पूरा कार्‌ब़ना हुस्न और दिलकशी का मुखका (पुंज) 
बना हुआ है। अगर उसे सवारी और बारबरदारी (यातायात) के जराए दरकार हैं तो यहां ऐसे 
जानवर मौजूद हैं जो उसके लिए यातायात का जरिया भी बनें और इसी के साथ उसके लिए 
कीमती गिजा भी फराहम करें। इस तरह कायनात अपने पूरे वजूद के साथ तौहीद 
(एकेश्वावाद) का एलान बन गई है। क्‍योंकि कायनात के मुख्लिफ मजाहिर में यह वहदत 
(एकत्व) इसके बगैर मुमकिन नहीं कि उसका ख़ालिक व मालिक एक हो। 

आदमी जब देखता है कि इतना अजीम कायनाती एहतिमाम उसके किसी जाती 
इक्क (पात्रता) के बगर हो रहा है तो इस एकतरफा इनाम पर उसका दिल शुक्र के जज्बे 
से भर जाता है। फिर इसी के साथ यह सारा मामला आदमी के लिए तकवा की गिजा बन 
जाता है। इंसानी फितरत का यह तकजा है कि हर इनायत (Privil€६९) के साथ जिम्मेदारी 
(Responsibility) हो। यह चीज आदमी को जजा व सजा की याद दिलाती है और उसे 
आमादा करती है कि वह दुनिया में इस एहसास के साथ रहे कि एक दिन उसे ख़ुदा के सामने 
हिसाब के लिए खड़ा होना है। ये एहसासात अगर हकीकी तौर पर आदमी के अंदर जाग उठें 
तो लाजिमी तौर पर उसके अंदर दो बातें पैदा होंगी । एक यह कि उसे जो कुछ मिलेगा उसमें 
वह अपने मालिक का हक भी समझेगा। दूसरे यह कि वह सिर्फ वाकई जरूरत के बकर ख़र्च 
करेगा न कि फुज़ूल और बेमौका खर्च करने लगे। मगर शैतान यह करता है कि अस्ल रुख़ 
से आदमी का जेहन मोड़कर उसे दूसरी गैर मुतअल्लिक बातों में उलझा देता है। 


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सूरह-6. अल-अनआम 367 पारा 8 
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अल्लाह ने आठ जोड़े पैदा किए। दो भेड़ की किस्म से और दो बकरी की किस्म से। 
पूछो कि दोनों नर अल्लाह ने हराम किए हैं या दोनों मादा। या वे बच्चे जो भेड़ों और 
बकरियों के पेट में हों। मुझे दलील के साथ बताओ अगर तुम सच्चे हो। और इसी तरह 
दो ऊंट की किस्म से हैं और दो गाय की किस्म से। पूछो कि दोनों नर अल्लाह ने हराम 
किए हैं या दोनों मादा। या वे बच्चे जो ऊंटनी और गाय के पेट में हों। क्या तुम उस 
वक्‍त हाजिर थे जब अल्लाह ने तुम्हें इसका हुप्रम दिया था। फिर उससे ज्यादा जालिम 
कौन है जो अल्लाह पर झूठ बोहतान बांधे ताकि वह लोगों को बहका दे बगैर इलम के। 
बेशक अल्लाह जालिमों को राह नहीं दिखाता। कहो, मुझ पर जो “वही” (ईश्वरीय 
वाणी) आई है उसमें तो में कोई चीज नहीं पाता जो हराम हो किसी खाने वाले पर सिवा 
इसके कि वह मुर्दार हो या बहाया हुआ ख़ून हो या सुअर का गोश्त हो कि वह नापाक 
है। या नाजाइज जबीहा जिस पर अल्लाह के सिवा किसी और का नाम पुकारा गया 
हो। लेकिन जो शख्स भूख से बेइख्तियार हो जाए, न नाफरमानी करे और न ज्यादती 
करे, तो तेरा रब बख्शने वाला महरबान है। (44-46) 





अरबों में गोश्त और दूध वगैरह के लिए जो जानवर पाले जाते थे उनमें से चार ज्यादा 
मशहूर थे। भेड़ बकरी और ऊंट गाय । इनके बारे में उन्होंने तरह-तरह के तहरीमी (निषिद्धता के) 
कायदे बनाए थे। मगर इन तहरीमी कायदों के पीछे अपने मुश्रिकाना रवाजों के सिवा कोई दलील 
उनके पास न थी। भेड़ और बकरी और ऊंट और गाय, चाहे नर हों या मादा, अक्ली तौर पर 
कोई हुरमत (मनाही) का सबब इनके अंदर मौजूद नहीं है, इनका तमाम का तमाम गोश्त इंसान 
की बेहतरीन गिजा है। इनमें कोई ऐसी नापाक आदत भी नहीं जो इनके बारे में इंसानी तबीअत 
में कराहियत पैदा करती हो। आसमान से उतरे हुए इल्म में भी इनकी हुरमत का जिक्र नहीं । 


पारा 8 368 सूरह-6. अल-अनआम 


फिर क्यों ऐसा होता है कि इन हैवानात के बारे में लोगों के अंदर तरह-तरह के तहरीमी 
(निषिद्धता के) कायदे बन जाते हैं। इसकी वजह शैतानी तर्गीबात हैं। इंसान के अंदर फितरी 
तौर पर ख़ुदा का शुऊर और हराम व हलाल का एहसास मौजूद है। आदमी अपने अंदरूनी 
तकाजेके तहत किसी हस्ती को अपना खुदा बनाना चाहता है और चीजें में जाइज नाजाइज 
का फर्क करना चाहता है। शैतान इस हकीकत को खूब जानता है। वह समझता है कि इंसान 
को अगर सादा हालात में अमल करने का मौका मिला तो वह फितरत के सही रास्ते को पकड़ 
लेगा। इसलिए वह फितरते इंसानी को कुंद करने के लिए तरह-तरह के गलत रवाज कायम 
करता है। वह ख़ुदा के नाम पर कुछ फर्जी खुदा गढ़ता है। वह हराम व हलाल के नाम पर 
कुछ बेबुनियाद मुहर्रमात (अवैध) वजअ करता है। इस तरह शैतान यह कोशिश करता है कि 
आदमी इन्हीं फर्जी चीजों में उलझ कर रह जाए और असली सच्चाई तक न पहुंचे। वह सीधे 
रास्ते से भटक चुका हो। मगर बजाहिर अपने को चलता हुआ देखकर यह समझे कि मैं 
रास्ते” पर हूं। हालांकि वह एक टेढ़ी लकीर हो न कि सीधा और सच्चा रास्ता। 

जो लोग इस तरह शैतानी बहकावे का शिकार हों वे खुदा की नजर में जालिम हैं। उन्हें 
ख़ुदा ने समझ दी थी जिससे वे हक व बातिल में तमीज कर सकते थे। मगर उनके तअस्सुबात 
उनके लिए पर्दा बन गए। समझने की सलाहियत रखने के बावजूद समझने से दूर रहे। 


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और यहूद पर हमने सारे नाखून वाले जानवर हराम किए थे और गाय और बकरी की 
चरबी हराम की सिवा उसके जो उनकी पीठ या अंतड़ियों से लगी हो या किसी हड्डी 
से मिली हुई हो। यह सजा दी थी हमने उन्हें उनकी सरकशी पर और यकीनन हम सच्चे 


हैं। पस अगर वे तुम्हें झुठलाएं तो कह दो कि तुम्हारा रब बड़ी वसीअ (व्यापक) रहमत 
वाला है। और उसका अजाब मुजरिम लोगों से टल नहीं सकता। (47-48) 





शरीअते खुदावंदी में असल मुहरमात (अवैध) हमेशा वही रहे हैं जो ऊपर की आयत में 
बयान हुए । यानी मुर्दार, बहाया हुआ ख़ून, सुअर का गोश्त और वे जानवर जिसे गैर अल्लाह 
के नाम पर जबह किया गया हो। इसके सिवा अगर कुछ चीजें हराम हैं तो वे इन्हीं की तशरीह 
व तफ़्सील हैं। 

मगर इसी के साथ अल्लाह की एक सुन्नते तहरीम (निषिद्धता) और है। वह यह कि जब 
कोई किताब की हामिल कौम इताअत के बजाए सरकशी का तरीका इख़्तियार करती है तो 
उसकी सरकशी की सजा के तौर पर उसे नई-नई मुश्किलात में डाल दिया जाता है। उस पर 
ऐसी चीजें हराम कर दी जाती हैं जो असलन शरीअते ख़ुदावंदी में हराम न थीं। 


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सूरह-6. अल-अनआम 369 पारा 8 


इस हुरमत की (मनाही) शक्ल क्या होती है। इसकी एक शक्ल यह होती है कि उस कौम 
के अंदर ऐसे पेशवा उठते हैं जो दीन की हकीकत से बिल्कुल ख़ाली होते हैं। वे सिर्फ जाहिरी 
दीनदारी से वाकिफ होते हैं। ऐसे लोगों का हाल यह होता है कि जो एहतिमाम दीन की मअनवी 
हकीकत में करना चाहिए वही एहतिमाम वे जाहिरी आदाब व कवाइद में करने लगते हैं। इसके 
नतीजे में जवाहिर दीन में गैर जरूरी मूशिगाफियां (कुतक) वजूद में आती हैं। ऐसे लोग दीन 
के खुदसाख्ता जाहिरी मेयार वजअ करते हैं। वे गुलू (अति) और तशद्दुद करके सादा हुक्म 
को फेचीदा और जाइज चीज को नाजाइज बना देते हैं। 

मसलन यहूद के अंदर जब सरकशी आई तो उनके दर्मियान ऐसे उलमा उठे जिन्होंने 
अपनी मूशिगाफियों से यह कायदा बनाया कि किसी चौपाए के हलाल होने के लिए दो शर्ते 
एक वक्त में जरूरी हैं। एक यह कि उसके पांव चिरे हुए हों, दूसरे यह कि वह जुगाली करता 
हो। इनमें से कोई एक शर्त भी अगर न पाई जाए तो वह जानवर हराम समझा जाएगा। इस 
खुदसाख्ता शर्त की वजह से ऊंट, साफान और ख़रगोश जैसी चीजें भी ख़ामख्याह हराम 
करार पा गई। इसी तरह 'नाखुन' की तशरीह में गुलू (अति) करके उन्होंने गैर जरूरी तौर 
पर शुतुरमुर्ग, काज और बत वगैरह को अपने लिए हराम कर लिया। इस किस्म की गैर 
फितरी बंदिशों ने उनके लिए वहां तंगी पैदा कर दी जहां खुदा ने उनके लिए फराख़ी रखी थी। 

हक को ना मानने के बाद आदमी फौरन ख़ुदा की पकड़ में नहीं आता। वह बदस्तूर 
अपने को आजाद और भरपूर पाता है। इस बिना पर अक्सर वह इस गलतफहमी में मुब्तिला 
हो जाता है कि हक को ना मानने से उसका कुछ बिगड़ने वाला नहीं। वह भूल जाता है कि 
वह महज ख़ुदा की रहमत की समाई से बचा हुआ है। ख़ुदा आदमी की सरकशी के बावजूद 
उसे आखिरी हद तक मौका देता है। बिलआखिर जब वह अपनी रविश को नहीं बदलता तो 
अचानक ख़ुदा का अजाब उसे अपनी पकड़ में ले लेता है। कभी दुनिया में और कभी दुनिया 
और आख़िरत दोनों में। 


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पारा 8 370 सूरह-6. अल-अनआम 


जिन्होंने शिर्क किया वे कहेंगे कि अगर अल्लाह चाहता तो हम शिर्क न करते और 
न हमारे बाप दादा करते और न हम किसी चीज को हराम कर लेते। इसी तरह 
झुठलाया उन लोगों ने भी जो इनसे पहले हुए हैं। यहां तक कि उन्होंने हमारा अजाब 
चखा। कहो क्या तुम्हारे पास कोई इल्म है जिसे तुम हमारे सामने पेश करो। तुम 
तो सिर्फ गुमान की पैरवी कर रहे हो और महज अटकल से काम लेते हो। कहो 

कि पूरी हुज्जत तो अल्लाह की है। और अगर अल्लाह चाहता तो तुम सबको 
हिदायत दे देता। कहो कि अपने गवाहों को लाओ जो इस पर गवाही दें कि अल्लाह 
ने इन चीजों को हराम ठहराया है। अगर वे झूठी गवाही दे भी दें तो तुम उनके साथ 
गवाही न देना, और तुम उन लोगों की ख्वाहिशों की पैरवी न करो जिन्होंने हमारी 
निशानियों को झुठलाया और जो आख़िरत (परलोक) पर ईमान नहीं रखते और दूसरों 
को अपने रब का हमसर (समकक्ष) ठहराते हैं। (49-5) 


हक की बेआमेज (विशुद्ध) दावत हमेशा अपने माहौल में अजनबी दावत होती है। एक 
तरफ प्रचलित दीन होता है जिसे तमाम इज्तिमाई इदारों (सामूहिक संस्थाओं) मेलवेकामम 
हासिल होता है। सदियों की रिवायतें उसे बावजन बनाने के लिए उसकी पुश्त पर मौजूद होती 
हैं। दूसरी तरफ हक की दावत होती है जो इन तमाम इजाफी खुसूसियात से ख़ली होती है। ऐसी 
हालत में लोगों के लिए यह समझना मुश्किल हो जाता है कि जिस दीन को इतना दर्जा और 
इतनी मकबूलियत हासिल हो वह दीन खुदा की पसंद के मुताबिक न होगा । लोग फर्ज कर लेते 
हैं कि प्रचलित दीन का इतना फैलाव इसीलिए मुमकिन हो सका कि खुदा की मर्जी उसके 
शामिलेहाल थी। अगर ऐसा न होता तो उसे यह फैलाव कभी हासिल न होता। वे कहते हैं कि 
जिस दीन को खुदा की दुनिया में हर तरफ बुलन्द मकाम हासिल हो वह खुदा का पसंदीदा दीन 
होगा या वह दीन जिसे ख़ुदा की दुनिया में कहीं कोई मकाम हासिल नहीं । 

मगर हक व बातिल का फैसला हकीकी दलाइल (तक) पर हेता है न कि इस किस्म 
के अनुमानों पर। ख़ुदा ने इस दुनिया को इम्तेहानगाह बनाया है। यहां आदमी को यह मौका 
है कि वह जिस चीज को चाहे इख़्तियार करे और जिस चीज को चाहे इख्तियार न करे। यह 
मामला तमामतर आदमी के अपने ऊपर निर्भर है। ऐसी हालत में किसी चीज का आम रवाज 
उसके बरहक होने की दलील नहीं बन सकता। कोई चीज बरहक है या नहीं, इसका फैसला 
दलाइल की बुनियाद पर होगा न कि रवाजी अमल की बुनियाद पर। 

दुनिया को अल्लाह ने इम्तेहानगाह बनाया। इंसान पर अपनी मर्जी जबरन मुसल्लत 
करने के बजाए यह तरीका इख्तियार किया कि इंसान को सही और गलत का इलम दिया और 
यह मामला इंसान के ऊपर छोड़ दिया कि वह सही को लेता है या गलत को। इसका मतलब 
यह है कि दुनिया की जिंदगी में दलील (हुज्जत) खुदा की नुमाइंदा है। आदमी जब एक सच्ची 
दलील के आगे झुकता है तो वह ख़ुदा के आगे झुकता है। और जब वह एक सच्ची दलील 
को मानने से इंकार करता है तो वह ख़ुदा को मानने से इंकार करता है। 

जब आदमी दलील के आगे नहीं झुकता तो इसकी वजह यह होती है कि वह अपनी 





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सूरह-6. अल-अनआम 37] पारा 8 





ख्वाहिश से ऊपर उठ नहीं पाता। वह बातिल को हक कहने के लिए खड़ा हो जाता है ताकि 
अपने अमल को जाइज साबित कर सके | उसकी ढिठाई उसे यहां तक ले जाती है कि वह ख़ुदा 
की निशानियों को नजरअंदाज कर दे। वह इस बात से बेपरवाह हो जाता है कि खुदा उसे 
बिलआख़िर पकड़ने वाला है। वह दूसरी-दूसरी चीजों को वह अहमियत दे देता है जो अहमियत 
सिर्फ खुदा को देना चाहिए । 


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कहो, आओ मैं सुनाऊं वे चीजें जो तुम्हारे रब ने तुम पर हराम की हैं। यह कि तुम 
उसके साथ किसी चीज़ को शरीक न करो और मां बाप के साथ नेक सुलूक करो और 
अपनी औलाद को मुफ्लिसी के डर से कत्त न करो। हम तुम्ह भी रोजी देते हैं और 
उन्हें भी। और बेहयाई के काम के पास न जाओ चाहे वह जाहिर हो या पोशीदा। और 


जिस जान को अल्लाह ने हराम ठहराया उसे न मारो मगर हक पर। ये बातें हैं जिनकी 
खुदा ने तुम्हें हिदायत फरमाई है ताकि तुम अक्ल से काम लो। (52) 








खुदाई पाबंदी के नाम पर लोग तरह-तरह की रस्मी और जाहिरी पाबंदियां बना लेते हैं 
और उनका खुसूसी एहतिमाम करके मुतमइन हो जाते हैं कि उन्होंने खुदाई पाबंदियों का हक 
अदा कर दिया। मगर ख़ुदा इंसान से जिन पाबंदियों का एहतिमाम चाहता है वे हकीकी 
पाबंदियां हैं न कि किसी किस्म के रस्मी मजाहिर। 

सबसे पहली चीज यह है कि आदमी एक ख़ुदा को अपना ख़ुदा बनाए। उसके सिवा 
किसी की बड़ाई का गलबा उसके जेहन पर न हो। उसके सिवा किसी को वह काबिले भरोसा 
न समझता हो। उसके सिवा किसी से वह उम्मीदें कायम न करे। उसके सिवा किसी से वह 
न डरे और न उसके सिवा किसी की शदीद मुहब्बत में मुब्तला हो। 

वालिदेन अक्सर हालात में कमजोर और मोहताज होते हैं और औलाद ताकतवर । उनसे 
हुस्ने सुलूक का प्रेरक मफाद (स्वार्थ) नहीं होता बल्कि सिर्फ हकशनासी (दायित्व बोध) होता 
है। इस तरह वालिदेन के हुकूक अदा करने का मामला आदमी के लिए एक बात का सबसे 
पहला इम्तेहान बन जाता है कि उसने खुदा के दीन को कौल की सतह पर इख्तियार किया 
है या अमल की सतह पर। अगर वह वालिदेन की कमजोरी की बजाए उनके हक को 
अहमियत दे, अगर अपने दोस्तों और अपने बीवी बच्चों की मुहब्बत उसे वालिदेन से दूर न 
करे तो गोया उसने इस बात का पहला सुबूल दे दिया कि उसका अख्नाक उसूलपसंदी और 
हकशनासी के ताबेअ (अनुरूप) होगा न कि मफादात और मस्लेहत (हितों, स्वार्थो) के ताबेअ। 





पारा 8 372 सूरह-6. अल-अनआम 


इंसान अपने हिर्स और जुल्म की वजह से खुदा के पैदा किए हुए रिज्क को तमाम बंदों 
तक मुंसिफाना तौर पर पहुंचने नहीं देता। और जब इसकी वजह से किल्लत के मस्नूई 
(कृत्रिम) मसाइल पैदा होते हैं तो वह कहता है कि खाने वालों को कत्ल कर दो या पैदा 
होने वालों को पैदा न होने दो। इस किस्म की बातें खुदा के रिज्क के निजाम पर बोहतान 
के हममअना हैं। 

बहुत सी बुराइयां ऐसी हैं जो अपनी हैयत में इतनी फोहश (अश्लील) होती हैं कि इनकी 
बुराई को जानने के लिए किसी बड़े इलम की जरूरत नहीं होती। इंसानी फितरत और उसका 
जमीर ही यह बताने के लिए काफी है कि यह काम इंसान के करने के काबिल नहीं। ऐसी 
हालत में जो शख्स किसी फहहाशी या बेहयाई के काम में मुब्तिला हो वह गोया साबित कर 
रहा है कि वह उस इब्तिदाई इंसानियत के दर्जे से भी महरूम है जहां से किसी इंसान के इंसान 
होने का आगाज होता है। 

हर इंसान की जान मोहतरम (सम्मानीय) है। किसी इंसान को हलाक करना किसी के 
लिए जाइज नहीं जब तक ख़ालिक के कानून के मुताबिक वह कोई ऐसा जुर्म न करे जिसमें 
उसकी जान लेना मखझ्सूस शर्तो के साथ मुबाह (वैध) हो गया हो। ये बातें इतनी वाजेह हैं कि 
अक्ल से काम लेने वाला इनकी सदाकत (सत्यता) जानने से महरूम नहीं रह सकता। 


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और यतीम के माल के पास न जाओ मगर ऐसे तरीके से जो बेहतर हो यहां तक कि 
वह अपनी जवानी को पहुंच जाए। और नाप तील में पूरा इंसाफ करो। हम किसी के 
जिमे व्यै चीज लाजिम करते हैं जिसकी उसे ताकत हो। और जब बोलो तो इंसाफ 

की बात बोलो चाहे मामला अपने रिश्तेदार ही का हो। और अल्लाह के अहद (वचन) 
को पूरा करो। ये चीजें हैं जिनका अल्लाह ने तुम्हें हुक्म दिया है ताकि तुम नसीहत 
पकड़ो। और अल्लाह ने हुक्म दिया कि यही मेरी सीधी शाहराह है। पस इसी पर चलो 
और दूसरे रास्तों पर न चलो कि वे तुम्हें अल्लाह के रास्ते से जुदा कर देंगी। यह अल्लाह 
ने तुम्हें हुक्म दिया है ताकि तुम बचते रहो। (53-54) 





यतीम किसी समाज का सबसे कमजेर फ होता है। वे तमाम इजाफी असबाब (अतिरिक्त 
कारक) उसकी जात में नहीं होते जो आम तौर पर किसी के साथ अच्छे सुलूक का प्रेरक बनते 


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सूरह-6. अल-अनआम 373 पारा 8 


हैं। 'यतीम' के साथ जिम्मेदारी का मामला वही शख्स कर सकता है जो ख़ालिस उसूली बुनियाद 
पर बाकिरदार बना हो न कि फायदा और मस्लेहत (स्वार्थ) की बुनियाद पर। यतीम किसी समाज 
में हुस्ने सुलूक की आखिरी अलामत होता है। जो शख्स यतीम के साथ खैरख्याहाना सुलूक करे 
वह दूसरे लोगों के साथ और ज्यादा खैरख्ाहाना सुलूक करेगा। 

कायनात की हर चीज दूसरी चीज से इस तरह वाबस्ता है कि हर चीज दूसरे को वही 
देती है जो उसे देना चाहिए और दूसरे से वही चीज लेती है जो उसे लेना चाहिए। यही उसूल 
इंसान को अपनी जिंदगी में इख्तियार करना है। इंसान को चाहिए कि जब वह दूसरे इंसान 
के लिए नापे तो ठीक नापे और जब तौले तो ठीक तौले। ऐसा न करे कि अपने लिए एक 
पैमाना इस्तेमाल करे और गैर के लिए दूसरा पैमाना। 

जिंदगी में बारबार ऐसे मौके आते हैं कि आदमी को किसी के ड्िलाफ इहारे राय 
करना होता है। ऐसे मौकों पर खुदा का पसंदीदा तरीका यह है कि आदमी वही बात कहे जो 
इंसाफ से मेयार पर पूरी उतरने वाली हो। कोई अपना हो या गैर हो। उससे दोस्ती के 
तअल्लुकात हों या दुश्मनी के तअल्लुकात, ऐसा शख्स हो जिससे कोई फायदा वाबस्ता है या 
ऐसा शख्स हो जिससे कोई फायदा वाबस्ता नहीं, इन तमाम चीजों की परवाह किए बगैर 
आदमी वही कहे जो फिलवाकअ दुरुस्त और हक है। 

हर आदमी फितरत के अहद में बंधा हुआ है। कोई अहद लिखा हुआ होता है और कोई 
अहद वह होता है जो लफ्जों में लिखा हुआ नहीं होता मगर आदमी का ईमान, उसकी 
इंसानियत और उसकी शराफत का तकाजा होता है कि इस मौके पर ऐसा किया जाए। दोनों 
किस्म के अहदों को पूरा करना हर मोमिन व मुस्लिम का फरीजा है। ये तमाम बातें इंतिहाई 
वाजेह हैं। आसमानी 'वही' और आदमी की अक्ल उनके बरहक होने की गवाही देते हैं। मगर 
उनसे वही शख्स नसीहत पकड़ेगा जो ख़ुद भी नसीहत पकड़ना चाहता हो। 

ये अहकाम (52-53) शरीअते इलाही के बुनियादी अहकाम हैं। इन पर उनके सीधे 
मफहूम के एतबार से अमल करना खुदा की सीधी शाहराह पर चलना है। और अगर तावील और 
मूशिगाफियों (कुतर्को) के जरिए उनमें शाख़ें निकाली जाएं और सारा जोर इन शाख़ों पर दिया 
जाने लगे तो यह इधर-उधर के विभिन्न रास्तों में भटकना है जो कभी आदमी को ख़ुदा तक नहीं 
पहुँचाते । 


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पारा 8 374 सूरह-6. अल-अनआम 


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फिर हमने मूसा को किताब दी नेक काम करने वालों पर अपनी नेमतें पूरी करने के 
लिए और हर बात की तफ्सील और हिदायत और रहमत ताकि वे अपने रब के मिलने 
का यकीन करें। और इसी तरह हमने यह किताब उतारी है, एक बरकत वाली किताब। 
पस इस पर चलो और अल्लाह से डरो ताकि तुम पर रहमत की जाए। इसलिए कि तुम 
यह न कहने लगो कि किताब तो हमसे पहले के दो गिरोहों को दी गई थी और हम 
उन्हें पढ़ने पढ़ाने से बेख़बर थे। या कहो कि अगर हम पर किताब उतारी जाती तो हम 
उनसे बेहतर राह पर चलने वाले होते। पस आ चुकी तुम्हारे पास तुम्हारे रब की तरफ 
से एक रोशन दलील और हिदायत और रहमत। तो उससे ज्यादा जालिम कौन होगा 
जो अल्लाह की निशानियों को झुठलाए और उनसे मुंह मोड़े। जो लोग हमारी निशानियों 
से एराज (उपेक्षा) करते हैं हम उन्हें उनके एराज की पादाश में बहुत बुरा अजाब देगे। 
ये लोग क्या इसके मुंतजिर हैं कि उनके पास फरिश्ते आएं या तुम्हारा रब आए या 
तुम्हारे रब की निशानियों में से कोई निशानी जाहिर हो। जिस दिन तुम्हारे रब की 
निशानियों में से कोई निशानी आ पहुंचेगी तो किसी शख्स को उसका ईमान नफा 


न देगा जो पहले ईमान न ला चुका हो या अपने ईमान में कुछ नेकी न की हो। कहो 
तुम राह देखो, हम भी राह देख रहे हैं। (।55-59) 


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खुदा की तरफ से जो किताब आती है उसमें अगरचे बहुत सी तफ्सीलात होती हैं मगर 
बिलआख़िर उसका मकसद सिर्फ एक होता है यह कि आदमी अपने रब की मुलाकात पर 
यकीन करे। यानी दुनिया में वह इस तरह जिंदगी गुजारे कि वह अपने हर अमल के लिए 
अपने आपको खुदा के यहां जवाबदेह समझता हो। उसकी जिंदगी एक जिम्मेदाराना जिंदगी 
होन कि आजाद और केद्र जिगी । यही पिछली किताबका मवसद था और यही कुआन 
का उद्देश्य भी है। 
ख़ुदा ने बाकी दुनिया को बराहेरास्त अपने जब्री हुक्म के तहत अपना पाबंद बना रखा 
है। मगर इंसान को उसने पूरा इख्तियार दे दिया है। उसने इंसान की हिदायत का यह तरीका 
रखा है कि रसूल और किताब के जरिए दलाइल की जबान में वह लोगों को हक और बातिल 
से बाख़बर करता है। दुनिया में खुदा की मर्जी लोगों के सामने दलील की सूरत में जाहिर होती 
है। यहां दलील को मानना ख़ुदा को मानना है और दलील को झुठलाना ख़ुदा को झुठलाना। 
कियामत का धमाका होने के बाद तमाम छुपी हुई हकीकतें लोगों के सामने आ जाएंगी । 


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सूरह-6. अल-अनआम 375 पारा 8 


उस वक्‍त हर आदमी ख़ुदा और उसकी बातों को मानने पर मजबूर होगा। मगर उस वक्त के 
मानने की कोई कीमत नहीं । मानना वही मानना है जो हालते गैब में मानना हो। ईमान दरअस्ल 
यह है कि देखने के बाद आदमी जो कुछ मानने पर मजबूर होगा उसे वह देखे बगैर मान ले। 
जो शख्स देखकर माने उसने गोया माना ही नहीं। 

जो लोग आज इख्तियार की हालत में अपने को ख़ुदा का पाबंद बना लें उनके लिए ख़ुदा 
के यहां जन्नत है। इसके बरअक्स जो लोग कियामत के आने के बाद ख़ुदा के आगे झुकेंगे 
उनका झुकना सिर्फ उनके जुर्म को और भी ज्यादा साबित करने के हममअना होगा। इसका 
मतलब यह होगा कि उन्होंने, खुद अपने एतराफ के मुताबिक, एक मानने वाली बात को न 
माना, उन्होंने एक किए जाने वाले काम को न किया। 


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जिन्होंने अपने दीन में राहे निकाली और गिरोह-गिरोह बन गए तुम्हें उनसे कुछ सरोकार 
नहीं। उनका मामला अल्लाह के हवाले है। फिर वही उन्हें बता देगा जो वे करते थे। 
जो शख्स नेकी लेकर आएगा तो उसके लिए उसका दस गुना है। और जो शख्स बुराई 


लेकर आएगा तो उसे बस उसके बराबर बदला मिलेगा और उन पर जुल्म नहीं किया 
जाएगा। (60-67) 


दीन यह है कि आदमी एक ख़ुदा के सिवा किसी को अपनी जिंदगी में बरतर मकाम न 
दे। वह हकशनासी (दायित्व बोध) की बुनियाद पर तअल्लुकात कायम करे न कि मफाद (स्वाथी 
की बुनियाद पर, जिसकी पहली अलामत वालिदेन हैं। वह रिज्क को खुदा का अतिया समझे 
और खुदाई निजाम में मुदाख़लत (हस्तक्षेप) न करे, इस मामले में आदमी की गुमराही उसे औलाद 
के कत्ल और तहदीदे नस्ल (परिवार नियोजन) की हिमाकत तक ले जाती है। वह फोहश और 
बेहयाई के कामों से बचे ताकि बुराई के बारे में उसके दिल की हस्सासियत जिंदा रहे। वह 
कमजोर का इस्तहसाल (शोषण) न करे जिसका करीबी इम्तेहान आदमी के लिए यतीम की सूरत 
में होता है। वह हुकूक की अदायगी और लेन देन में तराजू की तरह बिल्कुल ठीक-ठीक रहे। 
वह अपनी जबान का इस्तेमाल हमेशा हक के मुताबिक करे। वह इस एहसास के साथ जिंदगी 
गुजारे कि हर हाल में वह अहदे खुदावंदी में बंधा हुआ है, वह किसी भी वक्त खुदाई अहद की 
जिम्मेदारियाँ से आजाद नहीं है। यही किसी आदमी के लिए खुदा की पसंद के मुताबिक जिंदगी 
गुजारने का सीधा रास्ता है। आदमी को चाहिए कि वह दाएं बाएं भटके बगैर इस सीधे रास्ते 
पर हमेशा कायम रहे। 

ऊपर जो दस अहकाम (5-59) बयान हुए हैं वे सब सादा फितरी अहकाम हैं। हर 





पारा 8 376 सूरह-6. अल-अनआम 
आदमी की अक्ल उनके सच्चे होने की गवाही देती है। अगर सिर्फ इन चीजें पर जोर दिया 
जाए तो कभी इरनेलाफ और फिस््रबी न हो। मगर जब कैमें में जवाल (पतन) आता है 


तो उनमें ऐसे रहनुमा पैदा होते हैं जो इन सादा अहकाम में तरह-तरह की गैर फितरी शिकें 
निकालते हैं। यही वह चीज है जो दीनी इत्तेहाद को टुकड़े-टुकड़े कर देती है। 

तौहीद में अगर यह बहस छेड़ी जाए कि ख़ुदा जिस्म रखता है या वह बगैर जिस्म है। 
यतीम के मामले में मूशिगाफियां (कुतर्क) की जाएं कि यतीम होने की शराइत क्या हैं। या 
यह नुकता निकाला जाए कि इन खुदाई अहकाम पर उस वक्‍त तक अमल नहीं हो सकता 
जब तक हुकूमत पर कब्जा न हो। इसलिए सबसे पहला काम गैर इस्लामी” हुकूमत को 
बदलना है। इस किस्म की बहसें अगर शुरू कर दी जाएं तो इनकी कोई हद न होगी। और 
उन पर उमूमी इत्तेफाक हासिल करना नामुमकिन हो जाएगा। इसके बाद मुर्ललिफ फिक्री 
(वैचारिक) हलकेबना। अलग-अलग फिरे और जमाअतंकयम ह्ली। आपसी इत्तेमक 
आपस में बिखराव की सूरत इख्तियार कर लेगा। 

इस सादा और फितरी दीन पर अपनी सारी तवज्जोह लगाना सबसे बड़ी नेकी है। मगर 
इसके लिए आदमी को नफ्स से लड़ना पड़ता है। माहौल की नासाजगारी के बावजूद सब्र और 
कुर्बानी का सुबूत देते हुए उस पर जमे रहना होता है। यह एक बड़ा पुरमशवकत अमल है 
इसलिए इसका बदला भी ख़ुदा के यहां कई गुना बढ़ा कर दिया जाता है। जो लोग बुराई करते 
हैं, जो ख़ुदा की दुनिया में ख़ुदा के मुकर्रर रास्ते के सिवा दूसरे रास्तों पर चलते हैं वे अगरचे 
बहुत बड़ा जुर्म करते हैं। ताहम खुदा उनके खिलाफ इंतकामी कार्रवाई नहीं करता। वह उन्हें 
उतनी ही सजा देता है जितना उन्होंने जुर्म किया है। 


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कहो मेरे रब ने मुझे सीधा रास्ता बता दिया है। सही दीने इब्राहीम की मिल्लत की तरफ 
जो यकसू थे और मुश्रिकीन (बहुदेववादियों) में से न थे। कहो मेरी नमाज और मेरी 


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सूरह-6. अल-अनआम 377 पारा 8 


कुर्बानी, मेरा जीना और मेरा मरना अल्लाह के लिए है जो रब है सारे जहान का। कोई 
उसका शरीक नहीं। और मुझे इसी का हुक्म मिला है और में सबसे पहले फरमांबरदार 
हूं। कहो, क्या में अल्लाह के सिवा कोई और रब तलाश करूं जबकि वही हर चीज का 
रब है और जो शख्स भी कोई कमाई करता है वह उसी पर रहता है। और कोई बोझ 
उठाने वाला दूसरे का बोझ न उठाएगा। फिर तुम्हारे रब ही की तरफ तुम्हारा लोटना है। 
पस वह तुम्हें बता देगा वह चीज जिसमें तुम इख़्तेलाफ (मतभेद) करते थे। और वही है 
जिसने तुम्हें जमीन में एक दूसरे का जानशीन बनाया और तुममें से एक का रुत्बा दूसरे 
पर बुलन्द किया। ताकि वह आजमाए तुम्हें अपने दिए हुए में। तुम्हारा रब जल्द सजा 

देने वाला है और बेशक वह बख्शने वाला महरबान है। (62-66) 


कुरआन की सूरत में खुदा ने अपना वह बेआमेज (विशुद्ध) दीन नाजिल कर दिया है जो 
उसने हजरत इब्राहीम और दूसरे पैग़म्बरों को दिया था। अब जो शख्स ख़ुदा की रहमत और 
नुसरत में हिस्सेदार बनना चाहता हो वह इस दीन को पकड़ ले, वह अपनी इबादत को ख़ुदा 
के लिए ख़ास कर दे। वह खुदा से कुर्बानी की सतह पर तअल्लुक कायम करे। वह जिए तो 
ख़ुदा के लिए जिए और उसे मौत आए तो इस हाल में आए कि वह हमहतन ख़ुदा का बंदा 
बना हुआ हो। अजीम कायनात अपने तमाम अज्जा के साथ इताअते खुदावंदी के इसी दीन 
पर कायम है। फिर इंसान इसके सिवा कोई दूसरा रास्ता कैसे इख्तियार कर सकता है। ख़ुदा 
की इताअत की दुनिया में ख़ुदा की सरकशी का तरीका इख्तियार करना किसी के लिए 
कामयाबी का सबब किस तरह बन सकता है। यह मामला हर शख्स का अपना मामला है। 
कोई न किसी के इनाम में शरीक हो सकता और न कोई किसी की सजा में। आदमी को 
चाहिए कि इस मामले में वह उसी तरह संजीदा हो जिस तरह दुनिया में कोई मसला किसी 
का जाती मसला हो तो वह उसमें आखिरी हद तक संजीदा हो जाता है। 

दुनिया का निजाम यह है कि यहां एक शख्स जाता है और दूसरा उसकी जगह आता 
है। एक कौम पीछे हटा दी जाती है और दूसरी कौम उसके बजाए जमीन के जराए व वसाइल 
(संसाधनों) पर कब्जा कर लेती है। यह वाकया बार-बार याद दिलाता है कि यहां किसी का 
इक्तेदार दायमी (स्थाई) नहीं। मगर इंसान का हाल यह है कि जब किसी को जमीन पर मौका 
मिलता है तो वह गुजरे हुए लोगों के अंजाम को भूल जाता है। वह अपने जुल्म और सरकशी 
को जाइज साबित करने के लिए तरह-तरह के दलाइल गढ़ लेता है। मगर जब खुदा हकीकतों 
को खोल देगा तो आदमी देखेगा कि उसकी उन बातों की कोई कीमत न थी जिन्हें वह अपने 
मौकिफ के जवाज (औचित्य) के लिए मजबूत दलील समझे हुए था। 

दुनिया में आदमी की सरकशी की वजह अक्सर यह होती है कि वह दुनिया की चीजों को 
अपने हक में ख़ुदा का इनाम समझ लेता है। हालांकि दुनिया में जो कुछ किसी को मिलता है 
वह सिर्फ बतौर आजमाइश है न कि बतौर इनाम। दुनिया की चीजों को आदमी अगर इनाम 
समझे तो उसके अंदर फख़ पैदा होगा और अगर वह उन्हें आजमाइश समझे तो उसके अंदर इज्ज 
पैदा होगा। फख़ की नफ्सियात ढिठाई पैदा करती है और इज्ज की नफ्सियात इताअत। 





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पारा 8 378 सूरह अल-आराफ 
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आयतें-206 सह. अल-आराफ रुकूअ-24 
(मक्का में नाजिल हुई) 

शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
अलिफ० लाम० मीम० साद०। यह किताब है जो तुम्हारी तरफ उतारी गई है। पस तुम्हारा 
दिल इस वजह से तंग न हो ताकि तुम इसके जरिए से लोगों को डराओ, और वह ईमान 
वालों के लिए याददिहानी है। जो उतरा है तुम्हारी जानिब तुम्हारे रब की तरफ से उसकी 
पैरवी करो और उसके सिवा दूसरे सरपरस्तों की पैरवी न करो। तुम बहुत कम नसीहत 
मानते हो। और कितनी ही बस्तियां हैं जिन्हें हमने हलाक कर दिया। उन पर हमारा अजाब 
रात को आ पहुंचा या दोपहर को जबकि वे आराम कर रहे थे। फिर जब हमारा अजाब 
उन पर आया तो वे इसके सिवा कुछ न कह सके कि वाकई हम जालिम थे। पस हमें जरूर 
पूछना है उन लोगों से जिनके पास रसूल भेजे गए और हमें जरूरी पूछना है रसूलों से। फिर 
हम उनके सामने सब बयान कर देंगे इलम के साथ और हम कहीं गायब न थे। उस दिन 
वजनदार सिर्फ हक होगा। पस जिनकी तोले भारी होंगी वही लोग कामयाब ठहरेगे और 
जिनकी तौलें हल्की होंगी वही लोग हैं जिन्होंने अपने आपको घाटे में डाला, क्योंकि वे 
हमारी निशानियों के साथ नाइंसाफी करते थे। (-9) 











खुदा की किताब अपनी असल हकीकत के एतबार से एक नसीहत है। मगर वह अमलन सिर्फ 
उन थोड़े से लोगों के लिए नसीहत बनती है जो अपनी फितरी सलाहियत को जिंदा किए हुए हों। 


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सूरह-7. अल-आराफ 379 पारा 8 


बाकी लोगों के लिए वह सिफ उस बुरे अंजाम से डराने के हममअना होकर रह जाती है जिसकी 
तरफ वे अपनी सरकशी की वजह से बढ़ रहे हैं। दाऔ यह देखकर तड़पता है कि जो चीज मुझे 
कामिल सदाकत के रूप में दिखाई दे रही है उसे बेशतर लोग बातिल समझ कर ठुकरा रहे हैं। जो 
चीज मेरी नजर में पहाड़ से भी ज्यादा अहम है उसके साथ लोग ऐसी बेपरवाही का सुलूक कर 
रहे हैं जैसे उसकी कुछ हकीकत ही न हो, जैसे वह बिल्कुल बेअस्ल हो। 

यह दुनिया इम्तेहान की दुनिया है। यहां हर आदमी के लिए मौका है कि अगर वह किसी 
बात को न मानना चाहे तो वह उसे न माने, यहां तक कि वह उसे रदूद करने के लिए 
खूबसूरत अल्फाज भी पा ले। मगर यह सूरतेहाल बिल्कुल आरजी है। इम्तेहान की मुद्दत 
खत्म होते ही अचानक खुल जाएगा कि दाओ की बात लोहे और पत्थर से भी ज्यादा 
साबितशुदा थी। यह सिर्फ मुखालिफीन का तअस्सुब और उनकी अनानियत (अहंकार) थी 
जिसने उन्हें दलील को दलील की सूरत में देखने न दिया। उस वक्त खुल जाएगा कि हक 
के दाओ की बातों की रदूद में जो दलीलें वे पेश करते थे वे महज धांधली थी न कि हकीकी 
मअनों में कोई इस्तदलाल (तक)। 

दुनिया में जो चीजें किसी को बावजन बनाती हैं वे ये कि उसके गिर्द मादूदी रोनके जमा हों। 
वह अल्फाज के दरिया बहाने का फन जानता हो। उसके साथ अवाम की भीड़ इकट्ठा हो गई 
हो। क्योंकि हक के दाऔ के साथ आम तौर पर ये असबाब जमा नहीं होते इसलिए दुनिया के 
लोगों की नजर में उसकी बात बेवजन और उसके मुखालिफों की बात वजनदार बन जाती है। 
मगर कियामत जब बनावटी पर्दो को फाड़ेगी तो सूरतेहाल बिल्कुल बरअक्स हो जाएगी। अब 
सारा वजन हक की तरफ होगा और नाहक बिल्कुल बेदलील और बेक्नीमत होकर रह जाएगा। 


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पारा 8 880 सूरह-7. अल-आराफ 


और हमने तुम्हें जमीन मे जगह दी और हमने तुम्हारे लिए उसमें जिंदगी का सामान 
फराहम किया, मगर तुम बहुत कम शुक्र करते हो। और हमने तुम्हें पैदा किया, फिर 
हमने तुम्हारी सूरत बनाई। फिर फरिश्ता से कहा कि आदम को सज्दा करो। पस 
उन्होंने सज्दा किया। मगर इब्लीस (शैतान) सज्दा करने वालों में शामिल नहीं हुआ। 
ख़ुदा ने कहा कि तुझे किस चीज ने सज्दा करने से रोका जबकि मैंने तुझे हुक्म दिया 
था। इब्लीस ने कहा कि मैं इससे बेहतर हूं। तूने मुझे आग से बनाया है और आदम 
को मिट्टी से। ख़ुदा ने कहा कि तू उतर यहां से। तुझे यह हक नहीं कि तू इसमें घमंड 
करे। पस निकल जा, यकीनन तू जलील है। इब्लीस ने कहा कि उस दिन तक के लिए 

तू मुझे मोहलत दे जबकि सब लोग उठाए जाएंगे। खुदा ने कहा कि तुझे मोहलत दी 
गई। इब्लीस ने कहा कि चूंकि तूने मुझे गुमराह किया है, में भी लोगों के लिए तेरी 
सीधी राह पर बैटूंगा। फिर उन पर आऊंगा उनके आगे से और उनके पीछे से और उनके 
दाएं से और उनके बाएं से, और तू उनमें से अक्सर को शुक्रगुजार न पाएगा। खुदा 

ने कहा कि निकल यहां से जलील और ठुकराया हुआ। जो कोई उनमें से तेरी राह पर 
चलेगा तो मैं तुम सबसे जहन्नम को भर दूंगा। (0-28) 





ख़ुदा ने इंसान को इस दुनिया में जो कुछ दिया है इसलिए दिया है कि उसका नफ्सियाती 
जवाब वह शुक्र की सूरत में पेश करे। मगर यही वह चीज है जिसे आदमी अपने रब के सामने 
पेश नहीं करता। इसकी वजह यह है कि शैतान उसके अंदर दूसरे-दूसरे जज्बात उभार कर 
उसे शुक्र की नफ्सियात से दूर कर देता है। 

आदम और इब्लीस के किस्से से मालूम होता है कि दुनिया में हिदायत और गुमराही का 
मअरका कहां बरपा है। यह मअरका उन मौकों पर बरपा है जहां आदमी के अंदर हसद और 
घमंड की नफ्सियात जागती है। इम्तेहान की इस दुनिया में बार-बार ऐसा होता है कि एक 
आदमी दूसरे आदमी से ऊपर उठ जाता है। कभी कोई शख्स दौलत व इज्जत में दूसरे से 
ज्यादा हिस्सा पा लेता है। कभी दो आदमियों के दर्मियान ऐसा मामला पड़ता है कि एक शख्स 
के लिए दूसरे को उसका जाइज हक देना अपने को नीचे गिराने के हममअना नजर आता है। 
कभी किसी शख्स की जबान से खुदा एक सच्चाई का एलान कराता है और वह उन लोगों 
को अपने से बरतर दिखाई देने लगता है जो उस सच्चाई तक पहुंचने में नाकाम रहे थे। ऐसे 
मौकों पर शैतान आदमी के अंदर हसद और घमंड की नफ्सियात जगा देता है। 'मैं बेहतर 
हूँ के जज्बे से मगलूब होकर वह दूसरे का एतराफ करने के लिए तैयार नहीं होता । यही ख़ुदा 
की नजर में शैतान के रास्ते पर चलना है। जिस शख्स ने ऐसे मोकों पर हसद और घमंड का 
तरीका इख्तियार किया उसने अपने को जहन्नमी अंजाम का मुस्तहिक बना लिया जो शैतान 
के लिए मुकदूदर है और जिसने ऐसे मौको पर शैतान के पैदा किए हुए जज्बात को अपने 
अंदर कुचल डाला उसने इस बात का सुबूत दिया कि वह इस काबिल है कि उसे जन्नत के 
बागों में बसाया जाए। 

जो कुछ किसी को मिलता है खुदा की तरफ से मिलता है। इसलिए किसी की फजीलत 








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सूरह-7. अल-आराफ 38] पारा 8 


का एतराफ दरअसल खुदा की तवसीम के बरहक हेने का एतराफ है और उसकी फीलत को 

न मानना खुदा की तक्र्सीम को न मानना है। इसी तरह जब एक शख्स किसी हक की बिना 
पर दूसरे के आगे झुकता है तो वह किसी आदमी के आगे नहीं झुकता बल्कि ख़ुदा के आगे 
झुकता है। क्योकि ऐसा वह ख़ुदा के हुक्म की बिना पर कर रहा है न कि उस आदमी के जाती 
फ्ल की बिना पर। 


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और ऐ आदम, तुम और तुम्हारी बीवी जन्नत में रहो और खाओ जहां से चाहो। मगर 
उस दरख्त के पास न जाना वर्ना तुम नुक्सान उठाने वालों में से हो जाओगे। फिर शैतान 

ने दोनों को बहकाया ताकि वह खोल दे उनकी वह शर्म की जगहें जो उनसे छुपाई गई 
थीं। उसने उनसे कहा कि तुम्हारे रब ने तुम्हें इस दरख़्त से सिफ इसलिए रोका है कि 
कहीं तुम दोनों फरिश्ते न बन जाओ या तुम्हें हमेशा की जिंदगी हासिल हो जाए। और 

उसने कसम खाकर कहा कि मैं तुम दोनों का ख़ैरख़ाह (हितेषी) हूं। (।9-2) 


जन्नत अपनी तमाम वुस्अतों के साथ आदम और उनकी बीवी के लिए खुली हुई थी। 
उसमें तरह-तरह की चीजें थीं और ख़ुदा की तरफ से उन्हें आजादी थी कि उन्हें जिस तरह 
चाहें इस्तेमाल करें। बेशुमार जाइज चीजों के दर्मियान सिर्फ एक चीज के इस्तेमाल से रोक 
दिया था। शैतान ने उसी ममनूआ (निषिद्ध) मकाम से उन पर हमला किया। उसने 
वसवसाअंदाजियों के जरिए सिखाया कि जिस चीज से तुम्हें रोका गया है वही जन्नत की 
अहमतरीन चीज है। उसी में तकद्दुस (पवित्रता) और अबदियत का सारा राज छुपा हुआ है। 
आदम और उनकी बीवी इब्लीस की मुसलसल तल्कीन से मुतास्सिर हो गए। और बिलआखिर 
ममनूआ दरख़्त का फल खा लिया। मगर जब उन्होंने ऐसा किया तो नतीजा उनकी उम्मीदों 
के बिल्कुल बर॒अक्स निकला। उनकी इस खिलाफवर्जी ने खुदा का लिबासे हिफाजत उनके 
जिस्म से उतार दिया। वह उस दुनिया में बिल्कुल बेयारोमददगार होकर रह गए जहां इससे 
पहले उन्हें तरह-तरह की सुहूलत और हिफाजत हासिल थी। 

इससे मालूम हुआ कि शैतान का वह ख़ास हरवा क्या है जिससे वह इंसान को बहका 
कर ख़ुदा की रहमत व नुसरत (मदद) से दूर कर देता है। वह है हलाल रिज्क के फैले हुए 
मैदान को आदमी की नजर में कमतर करके दिखाना और जो चन्द चीजें हराम हैं उन्हें खूबसूरत 


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पारा 8 382 सूरह+7. अल-आराफ 


तौर पर पेश करके यकीन दिलाना कि तमाम बड़ेबड़े फायदों और मस्लेहतों का राज बस इन्हीं 
चन्द चीजों में छुपा हुआ है। 

शैतान अपना यह काम हर एक के साथ उसके अपने जौक और हालात के एतबार से 
करता है। किसी को तमाम कीमती गिजाओं से बेरगबत करके यह सिखाता है कि शानदार 
तंदरुस्ती हासिल करना चाहते हो तो शराब पियो। कहीं लाखों बेरोजगार मर्द काम करने के 
लिए मौजूद होंगे मगर वह तर्गीब देगा कि अगर तरक्की की मंजिल तक जल्द पहुंचना चाहते 
हो तो औरतों को घर से बाहर लाकर उन्हें मुख्तलिफ तमदूदुनी (सांस्कृतिक) शोबों में सरगर्म 
कर दो। किसी के पास अपने मुखालिफ को जेर करने का यह काबिले अमल तरीका मौजूद 
होगा कि वह अपने आपको मुस्तहकम (सुदृढ़) बनाए मगर शैतान उसके कान में डालेगा कि 
तुम्हारे लिए अपने मुखालिफ को शिकस्त देने का सबसे ज्यादा कारगर तरीका यह है कि 
उसके खिलाफ तष्ीबी (विध्वंसक) कार्रवाइयां शुरू कर दो। किसी के लिए “अपनी तामीर 
आप' के मैदान में काम करने के लिए बेशुमार मौके खुले हुए होंगे मगर वह सिखाएगा कि 
दूसरों के खिलाफ एहतेजाज (प्रोटेस्ट) और मुतालबे का तूफान बरपा करना अपने को 
कामयाबी की तरफ ले जाने का सबसे ज्यादा करीबी रास्ता है। किसी के सामने हुकूमते ववत 
से टकराव किए बगैर बेशुमार दीनी काम करने के लिए मौजूद होंगे मगर वह उसे इस 
गलतफहमी में डालेगा कि गैर इस्लामी हुक्मरानों को अगर किसी न किसी तरह फांसी पर चढ़ा 
दिया जाए या उन्हें गोली मार कर ख़त्म कर दिया जाए तो इसके बाद आनन-फानन इस्लाम 
का मुकम्मल निजाम सारे मुल्क में कायम हो जाएगा, वरह । 


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पस मायल कर लिया उन्हें फरेब से। फिर जब दोनों ने दरख़ का फल चखा तो उनकी 
शर्मगाहें उन पर खुल गई। और वे अपने को बाग़ के पत्तों से ठांकने लगे और उनके 
रब ने उन्हें पुकारा कि क्या मैंने तुम्हें उस दरख़्त (वृक्ष) से मना नहीं किया था और यह 
नहीं कहा था कि शैतान तुम्हारा खुला हुआ दुश्मन है। उन्होंने कहा, ऐ हमारे रब हमने 
अपनी जानों पर जुल्म किया और अगर तू हमें माफ न करे और हम पर रहम न करें 
तो हम घाटा उठाने वालों में से हो जाएंगे। खुदा ने कहा, उतरो, तुम एक दूसरे के दुश्मन 


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सह. अल-आराफ 383 पारा 8 


होगे, और तुम्हारे लिए जमीन में एक ख़ास मुद्दत तक ठहरना और नफा उठाना है। 
ख़ुदा ने कहा, उसी में तुम जियोगे और उसी में तुम मरोगे और उसी से तुम निकाले 
जाओगे। (22-25) 


आदम और शैतान दोनों एक दूसरे के दुश्मन की हैसियत से जमीन पर भेजे गए हैं। अब 
कियामत तक दोनों के दर्मियान यही जंग जारी है। शैतान की मुसलसल कोशिश यह है कि 
वह इंसान को अपने रास्ते पर लाए और जिस तरह वह ख़ुद खुदा की रहमत से महरूम हुआ 
है इंसान को भी ख़ुदा की रहमत से महरूम कर दे। इसके मुकाबले में इंसान को यह करना 
है कि वह शैतान के मंसूबे को नाकाम बना दे। वह शैतान की पुकार को नजरअंदाज करके 
खुदा की पुकार की तरफ दौड़े। 

आदम और शैतान की यह जंग अमलन इंसानों में दो गिरोह बन जाने की सूरत में जाहिर 
होती है। कुछ लोग शैतान की तर्गीबात (प्रेरणा) का शिकार होकर उसकी सफ में शामिल हो 
जाते हैं। और कुछ लोग खुदा की आवाज पर लब्बैक (स्वीकारोक्ति) कह कर यह ख़तरा मोल 
लेते हैं कि शैतान के तमाम साथी उसे बेइज्जत करने और नाकाम बनाने के लिए हर किस्म 
की तदबीरें करना शुरू कर दें। हर दौर में यह देखा गया है कि सच्चे हकपरस्त जो हमेशा कम 
तादाद में होते हैं, लोगों की सख़्ततरीन अदावतों का शिकार रहते हैं। इसकी वजह यही शैतान 
की दुश्मनाना कार्रवाइयां हैं। वह लोगों को सच्चे हकपरस्त आदमी के खिलाफ भड़का देता 
है। वह मूर्ललिफ तरीकों से लोगों के दिल में उसके खिलाफ नफरत की आग भरता है। 
चुनांचे वे शैतान का आलाकार बनकर ऐसे आदमी को सताना शुरू कर देते हैं। 

शैतान का अस्ल जुर्म एतराफ न करना था। शैतान की यह कोशिश होती है कि हर आदमी 
के अंदर यही एतराफ न करने का मिजाज पैदा कर दे। वह छोटे को भड़काता है कि वह अपने 
बड़े का लिहाज न करे। मामलात के दौरान जब एक शख्स के जिम्मे दूसरे का कोई हक आता 
है तो वह उसे सिखाता है कि वह हकदार का हक अदा न करे। कोई खुदा का बंदा सच्चाई का 
पैगाम लेकर उठता है तो लोगों के दिलों में तरह-तरह के शुबहात डाल कर उन्हें आमादा करता 
है कि वे उसकी बात न मानें। दो फीकें (पक्षों) के दर्मियान निजाअ (विवाद) हो और एक 
फरीक अपने हालात के एतबार से कुछ देने पर राजै हे जाए ते तान दूसरे फीक के जन 
में यह डालता है कि उसकी पेशकश को कुबूल न करो, और इतना ज्यादा का मुतालबा करो जो 
वह न दे सकता हो। ताकि जंग व फसाद मुस्तकिल तौर पर जारी रहे। 

इस तरह शैतान के बहकावों से हर जगह लोगों के दर्मियान दुश्मनियां जारी रहती हैं। 
इंसानों में दो गिरोह बन जाते हैं और उनमें ऐसा टकराव शुरू होता है जो कभी ख़त्म नहीं होता। 


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पारा 8 384 सूरह-7. अल-आराफ 
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ऐ बनी आदम, हमने तुम पर लिबास उतारा जो तुम्हारे बदन के काबिले शर्म हिस्सों को 
ठे और जीनत (साज-सज्जा) भी। और तका (ईश-परायणता) का लिबास इससे भी 
बेहतर है। यह अल्लाह की निशानियों में से है ताकि लोग ग़ौर करें। ऐ आदमी की 
औलाद, शैतान तुम्हें बहका न दे जिस तरह उसने तुम्हारे मां बाप को जन्नत से निकलवा 
दिया, उसने उनके लिबास उतरवाए ताकि उन्हें उनके सामने बेपर्दा कर दे। वह और 
उसके साथी तुम्हें ऐसी जगह से देखते हैं जहां से तुम उन्हें नहीं देखते। हमने शैतानों को 
उन लोगों का दोस्त बना दिया है जो ईमान नहीं लाते। (26-27) 


दुनिया का निजाम खुदा ने इस तरह बनाया है कि इसकी जाहिरी चीजें इसकी बातिनी 
हकीकतें की अलामत हैं। जहिरी चीजें पर गैर करके आदमी छुपी हुई हवीकतों तक पहुंच 
सकता है। इसी किस्म की एक चीज लिबास है। 

ख़ुदा ने इंसान को लिबास दिया जो उसकी हिफाजत करता है और इसी के साथ उसके 
हुस्न व वकार को बढ़ाने का जरिया भी है। यह इस बात का इशारा है कि आदमी के रूहानी 
वजूद के लिए भी इसी तरह एक लिबास जरूरी है, यह लिवास तकवा है। तकवा आदमी का 
मअनवी (अर्थपूर्ण) लिबास है। जो एक तरफ उसे शैतान के हमलों से बचाता है और दूसरी 
तरफ उसके बातिन (भीतर) को संवार कर उसे जन्नत की लतीफ व नफीस दुनिया में बसाने 
के काबिल बनाता है। यह तकवा का लिबास क्या है। यह है अल्लाह का रेफ, हक का 
एतराफ, अपने लिए और दूसरों के लिए एक मेयार रखना, अपने को बंदा समझना, तवाजोअ 
(विनम्रता) को अपना शिआर बनाना, दुनिया में गुम होने के बजाए आख़िरत (परलोक) की 
तरफ मुतवज्जह रहना । आदमी जब इन चीजों को अपनाए तो वह अपने अंदरूनी वजूद को 
ढकता है और अगर वह इसके खिलाफ रवैया इख्तियार करता है तो वह अपने अंदरून को 
नंगा कर लेता है। जाहिरी जिस्म को कपड़े का बना हुआ लिबास ढांकता है और बातिनी 
(भीतरी) जिस्म को तक्वा (परहेजगारी, ईश-परायणता) का लिबास। 

आदमी को गुमराह करने के लिए शैतान का तरीका यह है कि वह उसे बहकाता है। वह 
ख़ुदा के ममनूआ दरख़्त को हर किस्म के खैर का सरचश्मा (स्रोत) बताता है। वह ऐसे मासूम 
रास्तों से उसकी तरफ आता है कि आदमी का गुमान भी नहीं जाता कि उधर से उसकी तरफ 
गुमराही आ रही होगी। शैतान आदमी के तमाम नाजुक मकामात को जानता है और उन्हीं 
नाजुक मकमात से वह उस पर हमलाआवर होता है। कभी एक बेहकीकत नजरिये को 
खूबसूरत अल्फाज में बयान करता है। कभी एक जुजई (आंशिक) ह्वीक्त के कुली 
हकीकत के रूप में उसके सामने लाता है। कभी मामूली चीजें में फायदों का खजाना बताकर 
सारे लोगों को उसकी तरफ दौज् देता है। कभी एक बेफायदा हरकत में तरी का राज 





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सूरह-7. अल-आराफ 385 पारा 8 


बताता है। कभी एक तख्रीबी (विध्वंसक) अमल को तामीर के रूप में पेश करता है। 
शैतान किन लोगों को बहकाने में कामयाब होता है। वह उन लोगों पर कामयाब होता 
है जो इम्तेहान के मौकों पर ईमान का सुबूत नहीं दे पाते। जो ख़ुदा की निशानियों पर गौर 
नहीं करते। जो दलाइल (तर्को) की जबान में बात को समझने के लिए तैयार नहीं होते । जिन्हें 
अपने जाती रुज्हान के मुकाबले में हक के तकाजे को तरजीह देना गवारा नहीं होता । जिन्हे 
ऐसी सच्चाई, सच्चाई नजर नहीं आती जिसमें उनके फायदों और मस्लेहतों की रिआयत 
शामिल न हो। जिन्हें वह हक पसंद नहीं आता जो उनकी जात को नीचे करके खुद उनके 
मुकाबले में ऊंचा होना चाहता हो। 
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और जब वे कोई फोहश (खुली बुराई) करते हैं तो कहते हैं कि हमने अपने बाप दादा 
को इसी तरह करते हुए पाया है और ख़ुदा ने हमें इसी का हुक्म दिया है। कहो, अल्लाह 
कभी बुरे काम का हुक्म नहीं देता। क्या तुम अल्लाह के जिम्मे वह बात लगाते हो 
जिसका तुम्हें कोई इल्म नहीं। कहो कि मेरे रब ने किस्त (न्याय) का हुक्म दिया है और 
यह कि हर नमाज के वकत अपना रुख़ सीधा रखो। और उसी को पुकारो उसी के लिए 
दीन को ख़ालिस करते हुए। जिस तरह उसने तुम्हें पहले पैदा किया उसी तरह तुम दूसरी 
बार भी पेदा होगे। एक गिरोह को उसने राह दिखा दी और एक गिरोह है कि उस 
पर गुमराही साबित हो चुकी। उन्होंने अल्लाह को छोड़कर शैतानों को अपना रफीक 
बनाया और गुमान यह रखते हैं कि वे हिदायत पर हैं। (28-30) 











की (प्राचीन) अख में लोग नंगे होकर काबा का तवाफ करते और इसकी हिमायत 
में यह कहते कि ख़ुदा की इबादत दुनिया की गंदगियों से पाक होकर फितरी हालत में करना 
चाहिए। हालांकि नंगापन ऐसी खुली हुई बुराई है जिसका बुरा होना अक्लेआम से मालूम हो 
सकता है। इसी तरह आदमी यह अकीदा कायम कर लेता है कि बेअमली और सरकशी के 
बावजूद सिफारिशों की बुनियाद पर खुदा उसे इनामात से नवाजेगा हालांकि वह अपने सरकश 
गुलामों के मामले में महज किसी के कहने से ऐसा नहीं कर सकता। मामूली मामूली 
नाकाबिलेफहम आमाल जिनसे दुनिया में एक घर भी नहीं बन सकता उनसे यह उम्मीद कर 





पारा 8 386 सूरह-7. अल-आराफ 


लेता है कि वे आख़िरत में उसके लिए आलीशान महल तामीर कर देंगे। अल्फाज का शोर व 
गुल जिससे दुनिया में एक दरख़्त भी नहीं उगता उनके मुतअल्लिक यह खुशगुमानी कायम कर 
लेता है कि वे आख़िरत में उसके लिए जन्नत के बाग़ उगा रहे हैं। 

किस्त से मुराद वह मुंसिफाना रविश है जो हर नाप में पूरी उतरे, वह ऐन वही हो जो 
कि होना चाहिए। इबादत इंसान की एक फितरी ख़्वाहिश है। वह किसी को सबसे ऊंचा मान 
कर उसके आगे अपने को डाल देना चाहता है। इस मामले में किस्त यह होगा कि आदमी 
सिर्फ खुदा का इबादतगुजार बने जो उसका खलिक और रब है। इंसान किसी को यह मकाम 
देना चाहता है कि वह उसके लिए एतमाद की बुनियाद हो। इस मामले में किस्त यह होगा 
कि आदमी ख़ुदा को अपनी जिंदगी में एतमाद की बुनियाद बनाए जो सारी ताकतों का 
मालिक है। इसी तरह मौत के बाद एक और जिंदगी को मानना ऐन किस्त है। क्योंकि आदमी 
जब पैदा होता है तो वह अदम (अस्तित्वहीनता) से वजूद की सूरत इख्तियार करता है। 
इसलिए मौत के बाद दुबारा पैदा होने को मानना ऐन उसी हकीकत को मानना है जो अव्वल 
पैदाइश के वक्‍त हर आदमी के साथ पेश आ चुकी है। 

हकके दाजी का इंकार करनेके लिए आदमी कदीम बूजाका सहारा लेता है। कवीम बूर्जा 
वेलोग हेतेहैजिनकी अज्मत तारीख तौर पर कायम हो चुकी है। हर आदमी की नजर मेंउनका हक 
पर होना मुसल्लमा अम्र (वास्तविकता) बना हुआ होता है। दूसरी तरफ सामने का हक का दाऔ एक 
नया आदमी होता है जिसके साथ अभी तारीख़ की तस्दीक जमा नहीं हुई है कदीम बुजुर्ग को आदमी 
उसकी तारीख़ के साथ देख रहा होता है और नए दाऔ को उसकी तारीख़ के बगैर। वह कदीम 
बुजुर्गों के नाम पर हक के दाओ का इंकार कर देता है और समझता है कि वह ऐन हिदायत पर है। 
मगर इस तरह की गलतफहमी किसी के लिए खुदा के यहां उज़ (विवशता) नहीं बन सकती । यह 
खुदा के नाम पर शेतान की पैरवी है न कि हकीकतन खुदा की पैरवी । 


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ऐ औलादे आदम, हर नमाज के वक्‍त अपना लिबास पहनो और खाओ पियो। और 

हद से तजन (सीमा उल्लंघन) न करो। बेशक अल्लाह हद से तजावुज करने वालों 

को पसंद नहीं करता। कहो अल्लाह की जीनत (साज-सज्जा) को किसने हराम किया 

जो उसने अपने बंदों के लिए निकाला था और खाने की पाक चीजों को। कहो वे दुनिया 


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सूरह-7. अल-आराफ 387 पारा 8 


की जिंदगी में भी ईमान वालों के लिए हैं और आख़ित (परलोक) में तो वे ख़ास उन्हीं 
के लिए हांगी। इसी तरह हम अपनी आयतें खोल कर बयान करते हैं उन लोगों के 
लिए जो जानना चाहे। कहो मेरे रब ने तो बस फोहश (अश्लील) बातों को हराम 
ठहराया है वे खुली हों या छुपी। और गुनाह को और नाहक की ज्यादती को और इस 

बात को कि तुम अल्लाह के साथ किसी को शरीक करो जिसकी उसने कोई दलील 
नहीं उतारी और यह कि तुम अल्लाह के जिम्मे ऐसी बात लगाओ जिसका तुम इलम 
नहीं रखते। (३।-33) 


अरब के कुछ कबीले नंगे होकर काबे का तवाफ करते थे और उसे बड़ी कुरबत का 
जरिया समझते थे। इसी तरह जाहिलियत के जमाने में कुछ लोग ऐसा करते कि जब वे हज 
के लिए निकलते तो कुछ मुतअय्यन चीजें मसलन बकरी का दूध या गोश्त इस्तेमाल करना 
छोड़ देते और यह ख्याल करते कि वे परहेजगारी का कोई बड़ा अमल कर रहे हैं। यह गुमराही 
की वह किस्म है जिसमें हर जमाने के लोग मुब्तिला रहे हैं। ऐसे अफराद अपनी हकीकी और 
मुस्तकिल जिंदगी में दीन के तकाजें को शामिल नहीं करते। अलबत्ता चन्द मौके पर कुछ 
गैर मुतअल्लिक किस्म के बेफायदा आमाल का खुसूसी एहतिमाम करके यह मुजाहिरा करते 
हैं कि वे ख़ुदा के दीन पर मामूली जुज॒यात (अंशो) की हद तक अमल कर रहे हैं। वे ख़ुदा 
की मर्जियात पर कामिल अदायगी की हद तक कायम हैं। 

इंसान के बारे में अल्लाह की असल मर्जी तो यह है कि आदमी इसराफ (हद से बढ़ने) 
से बचे, वह ख़ुदा की मुकर्रर की हुई हदों से तजावुज न करे। वह हलाल को हराम न करे और 
खुदा की हराम की हुई चीजों को अपने लिए हलाल न समझ ले। वह फोहश कामों से अपने 
को दूर रखे। वह उन बुराइयों से बचे जिनका बुरा होना अक्लेआम से साबित होता है। वह 
बगावत की रविश को छोड़ दे। जब भी उसके सामने कोई हक आए तो हर दूसरी चीज को 
नजरअंदाज करके वह हक को इख़्तियार कर ले। वह शिक से अपने आपको पूरी तरह पाक 
करे, अल्लाह के सिवा किसी से वह बरतर तअल्लुक कायम न करे जो सिर्फ एक खुदा का 
हक है। वह ऐसा न करे कि अपनी पसंद का एक तरीका इख़्तियार करे और उसे बिना दलील 
ख़ुदा की तरफ मंसूब कर दे, अपने जाती दीन को ख़ुदा का दीन कहने लगे। वह पूरी तरह 
ख़ुदा का बंदा बनकर रहे, ऐसी कोई रविश इख्तियार न करे जो बंदा होने के एतबार से उसके 
लिए दुरुस्त न हो। 

आखिरत में किसी को जो नेमतें मिलेंगी वे बतौर इनाम मिलेंगी । इसलिए वे सिर्फ उन ख़ुदा 
के बंदों के लिए होंगी जिनके लिए ख़ुदा जन्नत में दाखिले का फैसला करेगा। मगर दुनिया में 
किसी को जो नेमतें मिलती हैं वह महदूद मुदूदत के लिए बतौर आजमाइश मिलती हैं। इसलिए 
यहां की नेमतों में हर एक को उसके इम्तेहान के पर्चे के बकद्र हिस्सा मिल जाता है। इस इम्तेहान 
में पूरा उतरने का तरीका यह नहीं है कि आदमी खुद इम्तेहान के सामान से दूरी इख़्तियार कर 
ले। बल्कि सही तरीका यह है कि उन्हें मुकर की हुई हदों के मुताबिक इस्तेमाल करे। वह उनके 
मिलने पर शुक्र का जवाब पेश करे न कि बेनियाजी और ढिठाई का। 





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और हर कौम के लिए एक मुर्कररह मुद्दत है। फिर जब उनकी मुदूदत आ जाएगी तो 

वे न एक साअत (क्षण) पीछे हट सकेंगे और न आगे बढ़ सकेंगे। ऐ बनी आदम, अगर 
तुम्हारे पास तुम्हीं में से रसूल आएं जो तुम्हें मेरी आयतें सुनाएं तो जो शख्स डरा और 
जिसने इस्लाह कर ली उनके लिए न कोई ख़ौफ होगा और न वे ग्रमगीन होंगे। और 
जो लोग मेरी आयतों को झुठलाएं और उनसे तकब्बुर करें वही लोग दोजख़ वाले हैं। 

वे उसमें हमेशा रहेंगे। फिर उससे ज्यादा जालिम कौन होगा जो अल्लाह पर बोहतान 

बांधे या उसकी निशानियों को झुठलाए उनके नसीब का जो हिस्सा लिखा हुआ है वे 
उन्हें मिलकर रहेगा। यहां तक कि जब हमारे भेजे हुए उनकी जान लेने के लिए उनके 
पास पहुंचेंगे तो उनसे पूछेंगे कि अल्लाह के सिवा जिन्हें तुम पुकारते थे कहां हैं। वे 
कहेंगे कि वे सब हमसे खोए गए। और वे अपने ऊपर इकरार करेंगे कि बेशक वे इंकार 
करने वाले थे। (३4-37) 





मौजूदा दुनिया में किसी को काम का मौका उसी वक्त तक है जब तक उसकी इम्तेहान 
की मुरकरह मुद्दत पूरी हो जाए। फर्द (व्यक्ति) की मुदूदत उसकी उम्र के साथ पूरी होती है। 
मगर कैम के बार मरुद्राई फैसले के निफज (लागू होने) की इस किस्म की कोई हद नहीं। 
इसका फैसला इस बुनियाद पर किया जाता है कि हक के सामने आने के बाद वह उसके साथ 
क्या मामला करती है। जिस कौम की मुदूदत पूरी हो जाए उसको कभी गैर मामूली अजाब 
भेज कर फना कर दिया जाता है और कभी उसकी सजा यह होती है कि उसे इज्जत व बड़ाई 
के मकाम से हटा दिया जाए। 
किसी आदमी के लिए जन्नत या दोजख़ का फैसला इस बुनियाद पर किया जाता है कि 
उसके सामने जब हक आया है तो उसने उसके साथ क्या मामला किया । जब भी कोई हक 
ऐसे दलाइल के साथ सामने आ जाए जिसकी सदाकत (सच्चाई) पर आदमी की अवल गवाही 
दे रही हो तो उस आदमी पर गोया ख़ुदा को हुज्जत पूरी हो गई। इसके बाद भी अगर आदमी 


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सूरह-7. अल-आराफ 389 पारा 8 


उस हक को मानने से इंकार करता है तो वह यकीनन किब्र (अहं, बड़ाई) की वजह से ऐसा 
कर रहा है। अपने आपको बड़ा रखने की नपिसियात उसके लिए रुकावट बन गई कि वह हक 
को बड़ा बना कर उसके मुकाबले में अपने को छोटा बनाने पर राजी कर ले। ऐसे आदमी के 
लिए ख़ुदा के यहां जहन्नम के सिवा कोई अंजाम नहीं। 

आदमी जब भी हक का इंकार करता है तो वह किसी एतमाद के ऊपर करता है। किसी 
को दौलत व इक्तदार का एतमाद होता है। कोई अपनी इज्जत व मकबूलियत पर भरोसा 
किए हुए होता है। किसी को यह एतमाद होता है कि उसके मामलात इतने दुरुस्त हैं कि हक 
को न मानने से उसका कुछ बिगड़ने वाला नहीं। किसी को यह नाज होता है कि उसकी 
जिहानत ने अपनी बात को ऐन खुदा की बात साबित करने के लिए शानदार अल्फाज 
दरयाफ्त कर लिए हैं। मगर यह इंसान की बहुत बड़ी भूल है। वह आजमाइश की चीजों को 
एतमाद की चीज समझे हुए है। कियामत के दिन जब ये तमाम झूठे सहारे उसका साथ छोड़ 
देंगे तो उस वक्‍त उसके लिए यह समझना मुश्किल न होगा कि वह महज सरकशी की बिना 
पर हक का इंकार करता रहा। अगरचे अपने इंकार को जाइज साबित करने के लिए वह 
बहुत से उसूली अल्फाज बोलता था। 


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ख़ुदा कहेगा, दाखिल हो जाओ आग में जिन्नों और इंसानों के उन गिरोहों के साथ जो 
तुमसे पहले गुजर चुके हैं। जब भी कोई गिरोह जहन्नम में दाखिल होगा वह अपने साथी 
गिरोह पर लानत करेगा। यहां तक कि जब वे उसमें जमा हो जाएंगे तो उनके पिछले 
अपने अगले वालों के बारे में कहेंगे, ऐ हमारे रब, यही लोग हैं जिन्होंने हमें गुमराह किया 
पस तू उन्हें आग का दोहरा अजाब दे। ख़ुदा कहेगा कि सबके लिए दोहरा है मगर तुम 
नहीं जानते। और उनके अगले अपने पिछलों से कहेंगे, तुम्हें हम पर कोई फजीलत 
(श्रेष्ठता) हासिल नहीं। पस अपनी कमाई के नतीजे में अजाब का मजा चखो। (38-39) 











इस आयत में 'उम्मत' से मुराद गुमराह करने वाले लीडर और 'उख्त' से मुराद गुमराह होने 
वाले अवाम हैं। आख़िरत में जब हर दौर के बेराह कायदीन और उनका साथ देने वाले बेराह अवाम 
जहन्नम में डाले जाएंगे तो यह एक बड़ा इबरतनाक मंजर होगा। दुनिया में तो वे एक दूसरे के बड़े 
छैरख्ाह और फिदाकार बने हुए थे। कायदीन (लीडर) अपने अवाम की हर ख़्वाहिश का एहतराम 


पारा 8 390 सूरह-7. अल-आराफ 


करते थे और अवाम अपने कायदीन को हीरो बनाए हुए थे। मगर जब जहन्नम की आग उन्हें 
पकड़ेगी तो उनको आंखों से तमाम मस्नूई (बनावटी) पर्दे हट जाएंगे। अब हर एक दूसरे को उसके 
असली रूप में देखने लगेगा । पैरवी करने वाले अपने कायदीन से कहेंगे कि तुम पर लानत हो। 
तुम्हारी कयादत कैसी बुरी कयादत थी जिसने चन्द दिन के झूठे तमाशे दिखाए और इसके बाद हमें 
इतनी बड़ी तबाही में डाल दिया । इसके जवाब में कायदीन अपने पैरोकारों से कहेंगे कि तुम अपनी 
पसंद का एक दीन चाहते थे और ऐसा दीन हमारे पास देखकर हमारे पीछे दौड़ पड़े। वर्ना ऐन उसी 
जमाने में ऐसे भी ख़ुदा के बै थे जो तुम्हें कामयाबी के सच्चे रास्ते की तरफ बुलाते थे। तुमने उनकी 
पुकार सुनी मगर तुमने उनकी तरफ कोई तवज्जोह न दी। 

रहनुमा अपने पैरोकारों से कहेंगे कि तुम किसी एतबार से हमसे बेहतर नहीं हो। हमने 
अपनी ख़्वाहिशों की खातिर कयादतें खड़ी कीं और तुमने भी अपनी ख़्वाहिशों की ख़ातिर 
हमारा साथ दिया। हकीकत के एतबार से दोनों का दर्जा एक है। इसलिए यहां तुम्हें भी वही 
सजा भुगतनी है जो हमारे लिए हमारे आमाल के सबब से मुकदूदर की गई है। 

पैरोकारों की जमाअत अपने रहनुमाओं के बारे में ख़ुदा से कहेगी कि उन्होंने हमें गुमराह 
किया था इसलिए उन्हें हमारे मुकाबले में दुगना अजाब दिया जाए । जवाब मिलेगा कि तुम्हारे 
रहनुमाओं में से हर एक को दुगना अजाब मिल रहा है मगर तुम्हें इसका एहसास नहीं है। 
हकीकत यह है कि जहन्नम में जिसे जो अजाब मिलेगा वह उसे इतना ज्यादा सर्न मालूम 
होगा कि वह समझेगा कि मुझसे ज्यादा तकलीफ में कोई दूसरा नहीं है। हर शख्स जिस 
तकलीफ में होगा वही तकलीफ उसे सबसे ज्यादा मालूम होगी। 

दुनिया में मफादपरस्त (स्वार्थी) रहनुमा और उनके मफादपरस्त पैरोकार खूब एक दूसरे 
के दोस्त बने हुए हैं। हर एक के पास दूसरे के लिए उम्दा अल्फाज हैं। हर एक दूसरे की 
बेहतरी में लगा हुआ है। मगर आखिरत में हर एक दूसरे से नफरत करेगा, हर एक दूसरे को 
शदीदतर (सख्त) अजाब में धकेलना चाहेगा। 


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सूरह-7. अल-आराफ 39] पारा 8 


बेशक जिन लोगों ने हमारी निशानियों को झुठलाया और उनसे तकब्बुर (घमंड) किया 
उनके लिए आसमान के दरवाजे नहीं खोले जाएंगे और वे जन्नत में दाखिल न होंगे जब 
तक कि ऊंट सूई के नाके में न घुस जाए। और हम मुजरिमों को ऐसी ही सजा देते हैं। 
उनके लिए दोजख़ का बिछोना होगा और उनके ऊपर उसी का ओढ़ना होगा। और हम 
जालिमों को इसी तरह सजा देते हैं। और जो लोग ईमान लाए और उन्होंने नेक काम 

किए हम किसी शख्स पर उसकी ताकत के मुवाफिक ही बोझ डालते हैं यही लोग 

जन्नत वाले हैं, वे उसमें हमेशा रहेंगे। और उनके सीने की हर ख़लिश (दुराव) को हम 
निकाल देंगे। उनके नीचे नहरें बह रही होंगी और वे कहेंगे कि सारी तारीफ अल्लाह के 
लिए है जिसने हमें यहां तक पहुंचाया और हम राह पाने वाले न थे अगर अल्लाह हमें 
हिदायत न करता। हमारे रब के रसूल सच्ची बात लेकर आए थे। और आवाज आएगी 
कि यह जन्नत है जिसके तुम वारिस ठहराए गए हो अपने आमाल के बदले। (40-43) 





ख़ुदा के दाजियों के मुकाबले में क्यों ऐसा होता है कि उनके मदऊ के अंदर 
मुतकब्बिराना नफ्सियात जाग उठती हैं और वे उन्हें मानने से इंकार कर देते हैं। इसकी वजह 
यह है कि दाऔ की तरफ सिर्फ निशानी (दलील) का जोर होता है और मदऊ की तरफ 
मादूदी रौनकों का जोर। दाऔ दलील की बुनियाद पर खड़ा होता है और उसके मदऊ 
मादिदियात (संसाधनों) की बुनियाद पर। दलील की ताकत दिखाई नहीं देती और मादूदी 
ताकत आंखों से दिखाई देती है। यही फर्क लोगों के अंदर किब्र (अहं) मिजाज पैदा कर देता 
है। लोग दाऔ को अपने मुकाबले में हकीर (तुच्छ) समझ कर उसे नजरअंदाज कर देते हैं। 

ऐसे लोगों का ख़ुदा की रहमत में दाखिल होना उतना ही नामुमकिन है जितना ऊंट का 
सूई के नाके में दाखिल होना। उन्होंने खुदा को नजरअंदाज किया इसलिए खुदा ने भी उन्हें 
नजरअंदाज कर दिया। ख़ुदा ने अपने दाजी के जरिए उन्हें अपनी झलकियां दिखाई। खुदा 
उनके सामने दलाइल के रूप में जाहिर हुआ । मगर उन्होंने उसे बेवजन समझा उन्होंने खुदाई 
निशानियों के सामने झुकने से इंकार कर दिया। ऐसा लोग क्योंकर ख़ुदा की रहमतों में हिस्सा 
पा सकते हैं। 

दोजख़ियों का यह हाल होगा कि जो लोग दुनिया में एक दूसरे के दोस्त बने हुए थे वे 
वहां एक दूसरे से नफरत करने लगेंगे। और एक दूसरे पर लानत कर रहे होंगे। मगर जन्नत 
का माहौल इससे बिल्कुल मुख़्तलिफ होगा । यहां सबके दिल एक दूसरे के लिए खुले हुए होंगे। 
हर एक के दिल में दूसरे के लिए मुहब्बत और ख़ैरख़्याही का चश्मा फूट रहा होगा। दोजख़ी 
इंसान के लिए उसका माजी (अतीत) एक दुख भरी दास्तान बना हुआ होगा और जन्नती 
इंसान के लिए उसका माजी एक ख़ुशगवार याद। 

बुरे लोगों के लिए उनकी अगली जिंदगी इस तरह शुरू होगी कि उनका सीना हसरत और 
यास (नाउम्मीदी) का कब्रस्तान बना हुआ होगा। उनका माजी (अतीत) उनके लिए तल्ख़ यादों 
के सिवा और कुछ न होगा। दूसरी तरफ अच्छे लोगों का यह हाल होगा कि उनकी जबानें उस 
ख़ुदा की याद से तर होंगी जिसे उन्होंने बजा तौर पर अपना सहारा बनाया था। वे हक के 





पारा 8 392 सूरह+7. अल-आराफ 


अलमबरदारों की दी हुई ख़बर को ऐन सच्चा पाकर खुश हो रहे होंगे कि ख़ुदा का यह कितना बड़ा 
एहसान था कि उसने उन्हें उन हक के दाजियों का साथ देने की तौफीक अता फरमाई। 


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और जन्नत वाले दोजख़ वालों को पुकारेंगे कि हमसे हमारे रब ने जो वादा किया था 
हमने उसे सच्चा पाया, क्या तुमने भी अपने रब के वादे को सच्चा पाया। वे कहेंगे हां। 
फिर एक पुकारने वाला दोनों के दर्मियान पुकारेगा कि अल्लाह की लानत हो जालिमों 
पर। जो अल्लाह की राह से रोकते थे और उसमें कजी (टेठ़) ढूंढते थे और वे आखिरत 
(परलोक) के मुंकिर थे। (44-45) 


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इन आयतों में कदीम जमाने के कुछ लोगों ने यह सवाल उठाया था कि जन्नत और 
जहन्नम तो एक दूसरे से बहुत ज्यादा दूर वाकअ होंगी, जन्नत आसमानों के ऊपर होगी और 
दोजख़ सबसे नीचे तहतुस्सरा में। फिर जन्नत वालों की आवाज जहन्नम वालों तक किस तरह 
पहुंचेगी । मगर अब रेडियो और टेलिविजन के दौर में यह सवाल कोई सवाल नहीं। आज 
इंसान यह जान चुका है कि दूर के फासलों से किसी को देखना भी मुमकिन है और उसकी 
आवाज को सुनना भी। जो बात कदीम इंसान को नाकबिलेफहम नजर आती थी वह आज 
के इंसान के लिए ख़ुद अपने तजर्बात व मुशाहिदात की रोशनी में पूरी तरह काबिलेफहम हो 
चुकी है। इससे मालूम हुआ कि कुरआन की कोई बात अगर आज की मालूमात की रोशनी 
में समझ में न आ रही हो तो इस बिना पर उसके बारे में कोई हुक्म नहीं लगाना चाहिए। 
ऐन मुमकिन है कि इल्म के इजाफे के बाद कल वह चीज एक जानी पहचानी चीज बन जाए 
जो आज बजाहिर अनजान चीज की तरह दिखाई दे रही है। 

इसका मतलब यह नहीं कि आख़िरत (परलोक) में जन्नतियों और दोजख़ियों के दर्मियान 
तअनल्लुक मैज़ूदा किस्म के रेडियो और देलिविजन के जरिए कायम होगा। इसका मतलब 
सिर्फ यह है कि जदीद दरयाप्तों ने इस बात को काबिलेफहम बना दिया है कि खुदा की 
कायनात में ऐसे इंतजामात भी मुमकिन हैं कि एक दूसरे से बहुत दूर रहकर भी दो आदमी 
एक दूसरे को देखें और एक दूसरे से बखूबी तौर पर बात करें। 

किसी दलील का वजन आदमी उसी वक्‍त समझ पाता है जबकि वह उसके बारे में 
संजीदा हो। जो लोग आखिरत को अहमियत न दें वे आख़िरत के मुतअल्लिक दलाइल का 
वजन भी महसूस नहीं कर पाते। आख़िरत की बात उनके सामने इंतिहाई मजबूत दलाइल के 
साथ आती है। मगर इसके बारे में उनका गैर संजीदा जेहन उसके अंदर कोई न कोई ऐब तलाश 


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सूरह-7. अल-आराफ 393 पारा 8 पारा 8 394 सूरह-7. अल-आराफ 

कर लेता है। वे तरह-तरह के एतराजात निकाल कर ख़ुद भी शक व शुबह में मुब्तला होते हैं अरफ के मअना अरबी जबान में बुलन्दी के होते हैं। आराफ वाले का मतलब है बुलन्दियों 

और दूसरों को भी शक व शुबह में मुब्तिला करते हैं। ऐसे लोग खुदा की नजर में सख्त मुजरिम वाले। इससे मुराद पैग़म्बरों और दाजियों का गिरोह है जिन्होंने मुख़्तलिफ वक्‍्तों में लोगों को 

हैं। वे आखिर में सिर्फ खुदा की लानत के मुस्तहिक होंगे चाहे दुनिया में वे अपने को खुदा की हक का पैगाम दिया । कियामत मे जब लोगों का हिसाब होगा और हर एक को मालूम हो चुका 

रहमतों का सबसे बड़ा हकदार समझते रहे हों। होगा कि उसका अंजाम क्या होने वाला है और हक के दाऔ की बात जो वह दुनिया में कहता 
कोई दलील चाहे कितनी ही वजनी और कतई हो, आदमी के लिए हमेशा यह मौका था आखिरी तौर पर सही साबित हो चुकी होगी उस वक्त हर दाऔ अपनी कौम को खिताब 

रहता है कि वह कुछ खूबसूरत अल्फाज बोल कर उसकी सदाकत के बारे में लोगों को करेगा। ख़ुदा के हुक्म से आख़िरत में उनके लिए ऊंचा स्टेज मुहय्या किया जाएगा जिस पर 

मुश्तबह कर दे। अवाम एक हवीकी दलील और एक लफी क्म पर्क नहीं कर पाते खड़े होकर वे पहले अपने मानने वालों को ख़िताब करेंगे। ये लोग अभी जन्नत में दाखिल नहीं 


आख़िरत के दिन ख़ुदा की रहमतों से आख़िरी हद तक दूर होगे । किया जाएगा । वे र हालत देखकर कमाले अब्दियत त आजिज) को वजह से 
‘, Me en si PT ध 3252५ कह उठेंगे कि ख़ुदाया हमें इन जालिमों में शामिल न कर। वे मुंकिरों के गिरोह के लीडरों को 
१/८/६१ 5४४2७ WON उनके चहरे की हैयत से पहचान लेंगे और उनसे कहेंगे कि तुम्हें अपने जिस जत्ये और अपने 


foe 9०5 5 SIS 452 ८८ »< जिस साजोसामान पर घमंड था और जिसकी वजह से तुमने हमारे हक के पैगाम को झुठला 
AE TRAC SANE ECS वि k 


दिया वह आज तुम्हारे कुछ काम न आ सका। 








Sa) Ie CE (2:८८ 5 7; ed i हक का इंकार करने वाले वक्‍त के कायमशुदा निजाम के साए में होंगे। इस दुनिया में 
Re १ 7 १ +/ ८ द्॒ Re उनकी हैसियत हमेशा मजबूत होती है। इसके बरअक्स (विपरीत) जो लोग हक के दाजियों 
ES | | > a SVS) Se) ists का साथ देते हैं उनका साथ देना सिर्फ इस कीमत पर होता है कि ववत के जमे हुए निजाम 
EE ais) ६४ rv | ह Ne x ३ Ns pet a2 be SE 2 की सरपरस्ती उन्हें हासिल न रहे। इसके नतीजे में ऐसा होता है कि जो लोग हक को नहीं 
Aad SBS 22% RoR ह i) 5 , मानते वे मानने वालों की बेचारगी को देखकर उनका मजाक उड़ाते हैं। वे कहते हैं कि क्या 
COIN CAINE यही वे लोग हैं जो ख़ुदा की जन्नतों में जाएंगे। असहाबे आराफ कियामत में ऐसे लोगों से 
और दोनों के दर्मियान एक आड़ होगी। और आराफ (जन्नत और जहन्नम के बीच की कहेंगे कि अब देख लो कि हकीकत क्या थी और तुम उसे क्या समझे हुए थे। बिलआख़िर 
जगह) के ऊपर कुछ लोग होंगे जो हर एक को उनकी अलामत से पहचानेंगे और वे कौन कामयाब रहा और कौन नाकाम ठहरा। 
जन्नत वालों को पुकार कर कहेंगे कि तुम पर सलामती हो, वे अभी जन्नत में दाखिल (६. 5 2) ~ (४८ f १.८ १८५८८ | Ed 
नहीं हुए होंगे मगर वे उम्मीदवार होंगे। और जब दोजख़ वालों की तरफ उनकी निगाह i 2 ०2 i 9०3 (७) a) ख | pS] fe 565 
फेरी जाएगी तो वे कहेंगे कि ऐ हमारे रब हमें शामिल न करना इन जालिम लोगों के NINE: SEE 38 Cis 3 55) | IE KCNA 
साथ। और आराफ वाले उन लोगों को पुकारेंगे जिन्हें वे उनकी अलामत से पहचानते ho (6८ DN ८} 2) 2) 9५:०८ ० pe 
होंगे। वे कहेंगे कि तुम्हारे काम न आई तुम्हारी जमाअत और तुम्हारा अपने को बड़ा Dl aC K SNE FS lg 
समझना । क्या यही वे लोग हैं जिनके बारे में तुम कसम खाकर कहते थे कि उन्हें कभी IES Tid ५% 
अल्लाह की रहमत न पहुंचेगी। जन्नत में दाखिल हो जाओ, अब न तुम पर कोई डर SO i i 6 | 
है और न तुम ग़मगीन होगे। (46-49) और दोजख़ के लोग जन्नत वालों को पुकारेंगे कि कुछ पानी हम पर डाल दो या उसमें 
द न क्र हाय से जो अल्लाह ने तुम्हें खाने को दे रखा है। वे कहेंगे कि अल्लाह ने इन दोनों चीजों 
दुनिया में ऐसा होता है कि ख़ुदा की नेमतों और उसकी जानिब आई हुई सख्तियों से मोमिन को मुंकिरों के लिए हराम कर दिया है। वे जिन्होंने अपने दीन को खेल और तमाशा 
व मुस्लिम सब यकसां दो चार होते हैं। मगर आख़िरत में ऐसा नहीं होगा। वहां दोनों के दर्मियान बना लिया था और जिन्हें दुनिया की जिंदगी ने धोखे में डाल रखा था। पस आज हम 


“आड़” कायम हो जाएगी। वहां मोमिनीन को मिली हुई नेमतों की कोई खुशबू मुंकिरों को नहीं 
मिलेगी और इसी तरह मुंकिरों को मिली हुई तकलीफों का कोई असर जन्नत वालों तक नहीं 
पहुंचेगा । 


उन्हें भुला देंगे जिस तरह उन्होंने अपने इस दिन की मुलाकात को भुला दिया था और 
जैसा कि वे हमारी निशानियों का इंकार करते रहे। (50-5]) 


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सूरह-7. अल-आराफ 395 पारा 8 





दुनिया दो किस्म की गिजाओं का दस्तरख़्वान है। एक दुनियावी और दूसरी उख़रवी। 
एक इंसान वह है जिसकी रूह की गिजा यह है कि वह अपनी जात को नुमायां होते हुए देखे। 
दुनिया की रौनकें अपने गिर्द पाकर उसे खुशी हासिल होती हो। मादूदी साजोसामान का 
मालिक होकर वह अपने को कामयाब समझता है। ऐसा आदमी ख़ुदा और आखिरत को भूला 
हुआ है। उसके सामने खुदा की बात आएगी तो वह उसे गैर अहम समझ कर नजरअंदाज 
कर देगा। वह उसके साथ ऐसा सरसरी सुलूक करेगा जैसे वह कोई संजीदा मामला न हो 
बल्कि महज खेल तमाशा हो। 

ऐसे आदमी के लिए आख़िरत के इनामात में कोई हिस्सा नहीं। उसने अपने अंदर एक ऐसी 
रूह की परवरिश की जिसकी गिजा सिर्फ दुनिया की चीजें बन सकती थीं। फिर आख़िस्त की 
चीजों से उसकी रूह क्योंकर अपनी खुराक पा सकती है, जो इंसान आज आखिरत में न जिया 
हो उसके लिए आहिरत, कल के दिन भी जिंदगी का जरिया नहीं बन सकती। 

दूसरा इंसान वह है जो गैबी हकीकतों में गुम रहा हो जिसकी रूह को आख़िरत की याद 
मे लज्जत मिली हो। जिसकी गिजा यह रही हो कि वह खुदा में जिए और खुदा की फजाओं 
में सांस ले। यही वह इंसान है जिसके लिए आख़िरत रिज्क का दस्तरख़ान बनेगी । वह जन्नत 
के बागों में अपने लिए जिंदगी का सामान हासिल कर लेगा। उसने गैब (अप्रकट) के आलम 
में खुदा को पाया था इसलिए शुहूद (प्रकट) आलम में भी वह ख़ुदा को पा लेगा। 

ख़ुदा की दुनिया में आदमी ख़ुदा को क्यों भुला देता है। इसकी वजह यह है कि ख़ुदा 
ऐसी निशानियों के साथ सामने आता है जो सिर्फ सोचने से जेहन की पकड़ में आती हैं, 
जबकि दुनिया की चीजें आंखों के सामने अपनी तमाम रौनकों के साथ मौजूद होती हैं। 
आदमी जाहिरी चीजों की तरफ झुक जाता है और खुदा की तरफ इशारा करने वाली 
निशानियाँ को नजरअंदाज कर देता है। मगर ऐसा हर अमल दुनिया की कीमत पर आखिरत 
को छोड़ना है। और जिसने मौत से पहले वाली जिंदगी में आखिरत को छोड़ा वह मौत के बाद 
वाली जिंदगी में भी आख़िरत से महरूम रहेगा। 

अल्लाह जब एक चीज को हक की हैसियत से लोगों के सामने लाए और वे उसे 
अहमियत न दें, वे उसके साथ गैर संजीदा मामला करें तो यह दरअस्ल ख़ुद ख़ुदा को गैर 
अहम समझना और उसके साथ गैर संजीदा मामला करना है। दुनिया में हक को नजरअंदाज 
करने से आदमी का कुछ बिगड़ता नहीं, हक की पुश्त पर जो खुदाई ताकतें हैं वे अभी गैब 
में होने की वजह से उसे नजर नहीं आतीं। यह सूरतेहाल उसे धोखे में डाल देती है। जो लोग 
इस तरह हक को नजरअंदाज करें वे यह ख़तरा मोल लेते हैं कि ख़ुदा भी आख़िरत के दिन 
उद्ेनजअंशज कर दे। 


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पारा 8 396 सूरह-7. अल-आराफ 
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और हम उन लोगों के पास एक ऐसी किताब ले आए हैं जिसे हमने इलम की बुनियाद 
पर मुप्रसल (विस्तृत) किया है, हिदायत और रहमत बनाकर उन लोगों के लिए जो 
ईमान लाएं। क्या अब वे इसी के मुंतजिर हैं कि उसका मजमून जाहिर हो जाए। जिस 

दिन उसका मजमून जाहिर हो जाएगा तो वे लोग जो उसे पहले भूले हुए थे बोल उउेंगे 

कि बेशक हमारे रब के पेग़म्बर हक लेकर आए थे। पस अब क्या कोई हमारी सिफारिश 

करने वाले हैं कि हमारी सिफारिश करें या हमें दुबारा वापस ही भेज दिया जाए ताकि 
हम उससे मुख्तलिफ अमल करें जो हम पहले कर रहे थे। उन्होंने अपने आपको घाटे 

में डाला और उनसे गुम हो गया वह जो वे गठ़ते थे। (52-53) 





कुरआन आदमी को मौत के बाद आने वाली जिंदगी से डराता है, वह आखिरत के 
हिसाब किताब से लोगों को आगाह करता है। मगर आदमी चौकन्ना नहीं होता। कुरआन की 
ये ख़बरें अगरचे महज ख़बरें नहीं हैं बल्कि वे कायनात की अटल हकीकतें हैं। ताहम अभी 
वे वाकेयात की सूरत में जाहिर नहीं हुई, अभी वे मुस्तकबिल के पर्दे में छुपी हुई हैं। इस बिना 
पर गाफिल इंसान यह समझता है कि ये सिर्फ कहने की बातें हैं। वे उन्हें गैर अहम समझ 
कर नजरअंदाज कर देता है। 

मगर ये बातें खुदा की तरफ से हैं जो तमाम बातों का जानने वाला है। जिन लोगों ने 
अपनी फितरत को बिगाड़ा नहीं है। जिनकी आंखों पर मस्नूई (बनावटी) पर्दे पड़े हुए नहीं हैं 
वे कुरआन की इन बातों को अपने दिल की आवाज पाएंगे। वे उन्हें ऐन वही चीज मालूम 
होगी जिसकी तलाश उनकी फितरत पहले से कर रही थी। कुरआन उनके लिए जिंदगी और 
यकीन का खूजना बन जाएगा। 

इसके बरअक्स हाल उन लोगों का है जो कुरआन की आगाही को कोई संजीदा चीज 
नहीं समझते। वे अपनी इसी गफलत की हालत में पड़े रहेंगे यहां तक कि वह वकत उन पर 
फट पड़े जिसकी ख़बर उन्हें दी जा रही है। उस वक्‍त आदमी अचानक देखेगा कि वह बिल्कुल 
बेसहारा हो चुका है। वह जिन मसाइल को अहम समझ कर उनमें उलझा हुआ था उस दिन 
वे बिल्कुल बेहकीकत नजर आएंगे। वह जिन चीजों पर भरोसा किए हुए था वे सब उसका 
साथ छोड़ चुके होंगे। वह जिन उम्मीदों पर जी रहा था वे सब झूठी खुशख्यालियां साबित 
होंगी। 

आहिरत का मसला आज महज एक नजरिया है, वह बजाहिर कोई संगीन मसला नहीं। 
इसलिए आदमी इसके बारे में संजीदा नहीं हो पाता। मगर मौत के बाद आने वाली जिंदगी 
में जब आखिरत अपनी तमाम हौलनाकियों के साथ फट पड़ेगी, उस वक्‍त हर आदमी उस 
बात को मानने पर मजबूर होगा जिसे वह इससे पहले मानने को तैयार नहीं होता था। उस 
वकत आदमी जान लेगा कि इससे पहले जो बात दलील की जबान में कही जा रही थी वह ऐन 





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सूरह-7. अल-आराफ 397 पारा 8 


हकीकत थी मगर मैं उसके बारे में संजीदा न हो सका इसलिए मैं उसे समझ भी न पाया। 

जब वे तमाम चीजें आदमी का साथ छोड़ देंगी जिन्हें वह दुनिया में अपना सहारा बनाए 
हुए था तो वह चाहेगा कि दुनिया में उसे दुबारा भेज दिया जाए ताकि वह सही जिंदगी गुजारे। 
मगर जिंदगी का यह मौका किसी को दुबारा मिलने वाला नहीं। 


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बेशक तुम्हारा रब वही अल्लाह है जिसने आसमानों और जमीन को छः दिनों में पैदा 
किया। फिर वह अर्श पर मुतमक्किन (आसीन) हुआ। वह उठ़ाता है रात को दिन पर, 
दिन उसके पीछे लगा आता है दौड़ता हुआ। और उसने पैदा किए सूरज और चांद और 
सितारे, सब ताबेदार हैं उसके हुक्म के। याद रखो, उसी का काम है पैदा करना और 
हुक्म करना। बड़ी बरकत वाला है अल्लाह जो रब है सारे जहान का। अपने रब को 
पुकारो गिड़गिड़ाते हुए और चुपके-चुपके। यकीनन वह हद से गुजरने वालों को पसंद 
नहीं करता। और जमीन में फसाद न करो उसकी इस्लाह के बाद। और उसी को पुकारो 
खौफ के साथ और तमअ (आशा) के साथ। यकीनन अल्लाह की रहमत नेक काम करने 
वालों से करीब है। (54-56) 





जमीन व आसमान और उसकी तमाम चीजों का पैदा करने वाला ख़ुदा है। इस पैदा 
करने की एक सूरत यह भी थी कि वह तमाम चीजों को बनाकर उन्हें इंतिशार (बिखराव) की 
हालत में छोड़ देता। मगर उसने ऐसा नहीं किया। उसने तमाम चीजों को एक हद दर्जा 
कामिल और हकीमाना निजाम के तहत जोड़ा और उन्हें इस तरह चलाया कि हर चीज ठीक 
उसी तरह काम करती है जैसा कि मज्मूई मस्लेहत के एतबार से उसे करना चाहिए। 

इंसान भी इसी दुनिया का एक छोटा सा हिस्सा है। फिर ऐसी इस्लाहयाफ्ता दुनिया में 
उसका रवैया क्या होना चाहिए। उसका रवैया वही होना चाहिए जो बाकी तमाम चीजों का 
है। वह भी अपने आपको उसी ख़ालिक के मंसूबे में दे दे जिसके मंसूबे में बाकी कायनात पूरी 
ताबेदारी के साथ अपने आपको दिए हुए है। 

कायनात की तमाम चीजें एहसान (सर्वोत्तम कारकर्दगी) की हद तक अपने आपको ख़ुदा 
के मंसूबे में शामिल किए हुए हैं। इसलिए इंसान को भी एहसान की हद तक अपने आपको 





पारा 8 398 सूरह-7. अल-आराफ 


उसके हवाले कर देना चाहिए । यहां कोई चीज कभी ऐतिदा (अपनी मुकर्ररह हद से तजावुज) 

नहीं करती । इसलिए इंसान के वास्ते भी लाजिम है कि वह अदूल और हक की खुदाई हदों 

से तजावुज न करे। मजीद यह कि इंसान नुक (बोलने) और शुऊर की इजाफी खुसूसियात 

रखता है। इसलिए नुत्क और शुऊर की सतह पर भी उसका रब के हवाले होने का इज्हार 

होना जरूरी है। इंसान के अंदर खुदा की मअरफत इतनी गहराई तक उतर जाना चाहिए कि 

उसकी जबान से बार-बार इसका इज्हार होने लगे। वह खुदा को इस तरह पुकारे जिस तरह 

बंदा अपने ख़ालिक व मालिक को पुकारता है। उसे खुदा की खुदाई का इतना इदराक (ज्ञान) 

होना चाहिए कि ख़ुदा के सिवा उसकी उम्मीदों और उसके अंदेशों का कोई केन्द्र बाकी न 

रहे। वह ख़ुदा ही से डरे और उसी से अपनी तमाम तमन्नाएं वाबस्ता करे। खुदा के साथ 

खौफ और उम्मीद को वाबस्ता करना खुदा की ताबेदारी की आखिरी और इंतहाई सूरत है। 
बंदे की सबसे बड़ी कामयाबी यह है कि उसे ख़ुदा की रहमत हासिल हो, मगर यह रहमत 

सिर्फ उन लोगों का हिस्सा है जो अल्लाह के साथ अपने आपको इतना ज्यादा मुतअल्लिक कर 

लें कि उनके तमाम जज्बात का रुख़ अल्लाह की तरफ हो जाए। वे उसी को पुकारें और उसी 

के साथ आजिजी करें। उन्हें पाने की उम्मीद उसी से हो और छिनने का डर भी उसी से। यही 

लोग हैं जिन्होंने खुदा की कुरबत चाही इसलिए खुदा ने भी उन्हें अपने करीब जगह दे दी। 


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और वह अल्लाह ही है जो हवाओं को अपनी रहमत के आगे खुशखबरी बनाकर भेजता 
है। फिर जब वे बोझल बादलों को उठा लेती हैं तो हम उसे किसी खुश्क सरजमीन की 
तरफ हांक देते हैं। फिर हम उसके जरिए पानी उतारते हैं। फिर हम उसके जरिए से हर 
किस्म के फल निकालते हैं। इसी तरह हम मुर्दों को निकालेंगे, ताकि तुम गौर करो। 
और जो जमीन अच्छी है उसकी पैदावार निकलती है उसके रब के हुक्म से और जो जमीन 


खराब है उसकी पैदावार कम ही होती है। इसी तरह हम अपनी निशानियां मुख्तलिफ 
पहलुओं से दिखाते हैं उनके लिए जो शुक्र करने वाले हैं। (57-58) 


दुनिया को ख़ुदा ने इस तरह बनाया है कि उसके मादूदी (भौतिक) वाकेग्रात उसके 
रूहानी पहलुओं की तमसील (उदाहरण) बन गए हैं। 

जब कहीं बारिश होती है तो उस मकाम के हर हिस्से तक उसका पानी यकसां तौर पर 
पहुंचता है। मगर फैन उठाने के एतबार से मुज्ञलिफ जमीनें का हाल मुरललिफ हो ता है। कोई 





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सूरह-7. अल-आराफ 399 पारा 8 





हिस्सा वह है कि पानी उसे मिला तो उसके अंदर से एक लहलहाता हुआ चमनिस्तान निकल 
आया। दूसरी तरफ किसी हिस्से का हाल यह होता है कि वह बारिश पाकर भी बेफैज 
(अलाभांवित) पड़ा रहता है। वहां झाड़ झंकाड़ के सिवा कुछ नहीं उगता। 

यही हाल उस रूहानी बारिश का है जो ख़ुदा की तरफ से हिदायत की सूरत में उतरी 
है। इस हिदायत का पैग़ाम हर आदमी के कानों तक पहुंचता है। मगर फायदा हर एक को 
अपनी-अपनी इस्तेदाद (सामर्थ्य) की बकर मिलता है। जिसके अंदर हक को कुब़ूल करने की 
सलाहियत (क्षमता) जिंदा है वह उससे भरपूर फैज हासिल करता है। इससे उसे एक नई 
जिंदगी मिलती है। उसकी फितरत अचानक जाग उठती है। उसका रब्त अपने मालिकेआला 
से कायम हो जाता है। उसकी ख़ुश्क नपिसयात में रब्वानी कैफियात का बाग खिल उठता है। 

इसके बरअक्स हाल उस शख्स का होता है जिसने अपनी फितरी सलामती को खो दिया 
हो। हिदायत की बारिश अपने तमाम बेहतरीन इम्कानात के बावजूद उसे कोई फायदा नहीं 
पहुंचाती । इसके बाद भी वह वैसा ही ख़ुश्क पड़ा रहता है जैसा कि वह इससे पहले था। और 
अगर उसके अंदर कोई फसल निकलती है तो वह भी झाइ झंकाड़ की फसल होती है। हिदायत 
की बारिश पाकर उसके अंदर से हसद, किब्र (अहं), हुजतवाजे, हक की मुझलिफत जैसी 
चीजें जाग उठती हैं न कि हक का एतराफ करने और उसका साथ देने की। 

बारिश के पानी को कुबल करने के लिए जमीन का ख़ुश्क होना जरूरी है। जो जमीन 
ख़ुश्क न हो, पानी उसके ऊपर से गुजर जाएगा, वह उसके अंदर दाखिल नहीं होगा। इसी 
तरह ख़ुदा की हिदायत सिर्फ उस आदमी के अंदर जड़ पकड़ती है जो उसका तालिब हो, 
जिसने अपनी रूह को गैर खुदाई बातों से खाली कर रखा हो। इसके बरअक्स जो शख्स ख़ुदा 
की हिदायत से बेपरवाह हो, जिसका दिल दूसरी दिलचस्मियों या दूसरी अज्मतों में अटका 
हुआ हो, उसके पास ख़ुदा को हिदायत आएगी मगर वह उसके अंदुरून में दाखिल नहीं होगी, 
वह उसकी रूह की गिजा नहीं बनेगी, वह उसकी फितरत की जमीन को सैराब करके उसके 
अंदर ख़ुदा का बाग़ नहीं उगाएगी। 

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पारा 8 400 सूरह-7. अल-आराफ 


हमने नूह को उसकी कौम की तरफ भेजा। नूह ने कहा ऐ मेरी कौम, अल्लाह की 

इबादत करो। उसके सिवा तुम्हारा कोई माबूद नहीं। मैं तुम पर एक बड़े दिन के अजाब 

से डरता हूं। उसकी कौम के बड़े ने कहा कि हमें तो यह नजर आता है कि तुम एक 

खुली हुई गुमराही में मुब्तिला हो। नूह ने कहा कि ऐ मेरी कौम, मुझमें कोई गुमराही 
नहीं है। बल्कि में भेजा हुआ हूं सारे आलम के परवरदिगार का। तुम्हें अपने रब के 
पैग़ामात पहुंचा रहा हूं और तुम्हारी ख़रैरख्वाही कर रहा हूं। और में अल्लाह की तरफ 

से वह बात जानता हूं जो तुम नहीं जानते। क्या तुम्हें इस पर तज्जुब हुआ कि तुम्हारे 
रब की नसीहत तुम्हारे पास तुम्हीं में से एक शख्स के जरिए आई ताकि वह तुम्हें डराए 
और ताकि तुम बचो और ताकि तुम पर रहम किया जाए। पस उन्होंने उसे झुठला 
दिया। फिर हमने नूह को बचा लिया और उन लोगों को भी जो उसके साथ कश्ती 
में थे और हमने उन लोगों को डुबो दिया जिन्होंने हमारी निशानियों को झुठलाया था। 
बेशक वे लोग अंधे थे। (59-64) 


हजरत आदम के बाद तकरीबन एक हजार साल तक तमाम आदम की औलाद तौहीद 
पर कायम थी। हजरत अब्दुल्लाह बिन अब्बास से रिवायत है कि इसके बाद लोगों ने अपने 
अकाबिर असलाफ (पूर्वजों) की शक्लें बनाना शुरू कीं ताकि उनके अहवाल व इबादात की 
याद ताजा रहे। उन बुजुर्गों के नाम वुद, सुवाअ, यगूस, यऊक और नम्न थे। धीरे-धीरे इन 
बुजुर्गों ने उनके दर्मियान माबूद का दर्जा हासिल कर लिया। ये लोग कदीम इराक में आबाद 
थे। जब बिगाड़ इस नौबत तक पहुंचा तो अल्लाह ने उनकी इस्लाह के लिए हजरत नूह को 
पैगम्बर बनाकर उनकी तरफ भेजा। मगर उन्होंने हजरत नूह को मानने से इंकार कर दिया। 
वे तकवा की रविश इख़्तियार करने पर आमादा न हुए। 

इस इंकार की वजह कुरआन के बयान के मुताबिक यह थी कि उनके लिए यह समझना 
मुश्किल हो गया कि एक आदमी जो देखने में उन्हीं जैसा है वह ख़ुदा की तरफ से ख़ुदा का 
पैगाम पहुंचाने के लिए चुना गया है। वे अपने को जिन अकाबिर के दीन पर समझते थे उनके 
मुकाबले में हजरत नूह उन्हें बहुत मामूली आदमी दिखाई देते थे। इन कदीम अकाबिर की 
अज्मत सदियों की तारीख़ से मुसल्लम हो चुकी थी। इसके मुकाबले में हजरत नूह एक 
मुआसिर (समकालीन) शख्स थे। उनके नाम के साथ तारीख़ी अज्मतें जमा नहीं हुई थीं। 
चुनांचे कौम ने आपका इंकार कर दिया। उन्होंने वक्त के पैगम्बर को अहमक और गुमराह 
कहने से भी दरेग नहीं किया। क्योंकि उनके ख्याल के मुताबिक आप अकाबिर के दीन से 
मुंहरिफ हो गए थे। हजरत नूह की रैरखाही, उनके साथ दलाइल का जोर, उनका हक की 
राह पर कायम होना, कोई भी चीज कौम को मुतअस्सिर न कर सकी। 

हजरत नूह की तरफ से इतमामे हुज्जत (आह्वान की अति) के बाद कैम ग़र्ककरदी 
गई। इस गरकाबी की वजह यह थी कि उन्होंने खुदा की निशानियों को झुठलाया। उन्होंने 
चाहा कि "मामूली शख्सियत' के बजाए किसी 'मुसल्लमा शख्सियत” के जरिए उन्हें खुदा का 
पैग़ाम पहुंचाया जाए। मगर ख़ुदा की नजर में यह अंधापन था। ख़ुदा ने आदमी को बसीरत 





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सह. अल-आराफ 40] पारा 8 


(विवेक) इसलिए दी है कि वह “निशानी” के रूप में हक को पहचान ले न कि हिस्सी मुजाहिरा 

(प्रकट रूप) की सूरत में। जो लोग निशानी के रूप में हक को न पहचानें वे खुदा की नजर 

में आंख रखते हुए भी अंधे हैं। ऐसे लोगों के लिए ख़ुदा की रहमत में कोई हिस्सा नहीं । 
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और आद की तरफ हमने उनके भाई हूद को भेजा। उन्होंने कहा ऐ मेरी कौम, अल्लाह 
की इबादत करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई माबूद नहीं। सो क्या तुम डरते नहीं। उसकी 
कौम के बड़े जो इंकार कर रहे थे बोले, हम तो तुम्हें बेअक्ली में मुब्तिला देखते हैं और 
हमें गुमान है कि तुम झूठे हो। हूद ने कहा कि ऐ मेरी कीम, मुझे कुछ बेअक्ली नहीं। 
बल्कि मैं खुदावंदेआलम का रसूल हूं। तुम्हें अपने रब के पैग़ामात पहुंचा रहा हूं और 
तुम्हारा ख़ैरख़ाह और अमीन हूं। क्या तुम्हें इस पर तअज्जुब है कि तुम्हारे पास तुम्हीं 
में से एक शख्स के जरिए तुम्हारे रब की नसीहत आई ताकि वह तुम्हें डाए। और याद 
करो जबकि उसने कीमे नूह के बाद तुम्हें उसका जानशीन बनाया और डीलडोल में 
तुमको फेलाव भी ज्यादा दिया। पस अल्लाह की नेमतों को याद करो ताकि तुम फलाह 
पाओ। (65-69) 

हजरत नूह की कश्ती में जो अहले ईमान बचे थे उनमें आपके पोते इरम की औलाद से 
एक नस्ल चली। वे कदीम यमन में आवाद थे और आद कहलाते थे। ये लोग इब्तिदा में 
हजरत नूह के दीन पर थे। बाद को जब उनमें बिगाड़ पैदा हुआ तो अल्लाह ने हजरत हूद 
को उनके ऊपर अपना पेगम्बर मुरकर किया। मगर कौम के सरदारों को आपके अंदर वह 
अज्मत नजर न आई जो उनके ख़्याल के मुताबिक खुदा के पैगम्बर के अंदर होना चाहिए 
थी। उन्होंने समझा कि यह शख्स या तो अहमक है या फिर वह झूठा दावा कर रहा है। 

मैं तुम्हारा नासेह (नसीहत करने वाला) और अमीन हूं पैगम्बर की जबान से यह 
फी (वाक्य) बताता है कि दाऔ और मदऊ का रिश्ता कौमी हरीफ (प्रतिपक्षी) या सियासी 
मद्देमुकाबिल जैसा रिश्ता नहीं है। यह ख़ैरख़ाही और अमानतदारी का रिश्ता है। दाऔ को 
ऐसा होना चाहिए कि उसके दिल में मदऊ के लिए खैरख़्वाही के सिवा और कुछ न हो। मदऊ 








पारा 8 402 सूरह+7. अल-आराफ 


की तरफ से चाहे कैसा ही नाखुशगवार रवैया सामने आए मगर दाऔ आख़िर वक्त तक मदऊ 
का ख़ैरख़्वाह बना रहे। फिर जो पैग़ाम वह दे रहा है उसे देते हुए उसके अंदर यह एहसास न 
हो कि यह मेरी कोई अपनी चीज है जो मैं दूसरों को अता कर रहा हूं। बल्कि यह जज्वा हो 
कि यह ख़ुद दूसरों की चीज है। यह दूसरों के लिए ख़ुदा की अमानत है जो मैं उन्हें पहुंचा कर 
बीरि (दायित्व-मुक्त) हो रहा हूं। 

पैग़म्बरों को दावत की बुनियाद हमेशा यह रही है कि वे इंसान के ऊपर ख़ुदा की नेमतें 
याद दिलाएं और उसे इस बात से डराएं कि अगर वह ख़ुदा का शुक्रगुजार बनकर न रहा तो 
वह ख़ुदा की पकड़ में आ जाएगा । कौमी झगड़ों और मादूदी मसाइल को पैगम्बर कभी अपनी 
दावत का उनवान नहीं बनाते। वे आखिरी हद तक इस बात की कोशिश करते हैं कि उनके 
और मदऊ के दर्मियान अस्ल दावत के सिवा कोई चीज बहस की बुनियाद न बनने पाए, कौम 
उन्हें सिफ तौहीद और आखिरत के दाओ के रूप में देखे न कि किसी और रूप में। 

ख़ुदा की नेमतों को याद करो ताकि तुम कामयाब हो” इससे मालूम होता है कि आख़िरत 
की नतका इस्तहकक (अधिकार) उसके लिए है जिसने दुनिया में खुदा की नेमतों का एतराफ 
किया हो। जन्नत ख़ुदा के मुन्इम (दाता) व मोहसिन होने का सबसे बड़ा इज्हार है। इसलिए 
आखिरत की जन्नत को वही पाएगा जिसने दुनिया में खुदा के मुन्इम व मोहसिन होने की 
हैसियत को पा लिया हो। यही मअरफत (अन्तर्ज्ञान) जन्नत की असल कीमत है। 


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हूद की कौम ने कहा, क्या तुम हमारे पास इसलिए आए हो कि हम तनहा अल्लाह 
की इबादत करें और उन्हें छोड़ दें जिनकी इबादत हमारे बाप दादा करते आए हैं। पस 
तुम जिस अजाब की धमकी हमें देते हो उसे ले आओ अगर तुम सच्चे हो। हूद ने कहा 
तुम पर तुम्हारे रब की तरफ से नापाकी और गुस्सा वाकेअ हो चुका है। क्या तुम मुझसे 
उन नामों पर झगड़ते हो जो तुमने और तुम्हारे बाप दादा ने रख लिए हैं। जिनकी ख़ुदा 
ने कोई सनद नहीं उतारी। पस इंतजार करो, में भी तुम्हारे साथ इंतजार करने वालों 


में हूं। फिर हमने बचा लिया उसे और जो उसके साथ थे अपनी रहमत से और उन लोगों 
की जड़ काट दी जो हमारी निशानियों को झुठलाते थे और मानते न थे। (70-72) 





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सह. अल-आराफ 403 पारा 8 





इंसान नामों के जरिए किसी चीज का तसवुर कायम करता है। किसी शख्स के साथ अच्छा 
लफ्ज लग जाए तो वह अच्छा मालूम होता है और अगर बुरा लपज लग जाए तो बुरा दिखाई 
देने लगता है। खुदा के सिवा दूसरी चीजें या हस्तियां जो आदमी की तवज्जोहात का मर्कज बनती 
हैं इसकी वजह भी यही नाम होते हैं। लोग किसी शख्सियत को गरोस पाक, गंजबख्श, गरीब 
नवाज मुश्किलकुशा जैसे अल्फाज से पुकारने लगते हैं। ये अल्फाज धीस्थीरे इन शस्मियतों 
के साथ ऐसे वाबस्ता हो जाते हैं कि लोग यकीन कर लेते हैं कि जिसे गौस (फरयाद सुनने वाला) 
कहा जाता है वह वाकई फरयाद को पहुंचने वाला है और जिसे मुश्किलकुशा के नाम से पुकारा 
जाता है सचमुच वह मुश्किलों को हल करने वाला है। मगर हकीकत यह है कि इस किस्म के 
तमाम नाम सिर्फ इंसानों के रखे हुए हैं। इन नामों का कोई अस्ल कहीं मौजूद नहीं। इनके हक 
में न कोई शरई दलील है और न कोई अक्ली दलील। 

नामों की शरीअत की एक किस्म वह है जो जाहिल इंसानों के दर्मियान राइज है। ताहम 
इसकी एक ज्यादा मुहज्जब (सभ्य) सूरत भी है जो पढ़े लोगों के दर्मियान मकबूल है। यहां भी कुछ 
शस्कमियतों के साथ गैर मामूली अल्फाज वाबस्ता कर दिए जाते हैं। मसलन कुद्सी सिफात, 
महबूबेख़ुदा, सुतूने इस्लाम, नजात दहिंदए मिल्लत (समुदाय का मुक्ति दाता) वगैरह | इस किस्म 
के अल्फज धैसेधीरे मज्कूरा शख्मियतों के नाम का जुज बन जाते हैं। लोग इन शख्ियतोँ को 
वैसा ही गैर मामूली समझ लेते हैं जैसा कि इन्हें दिए हुए नाम से जाहिर होता है। 

जो चीज “बाप दादा' से चली आ रही हो, बअल्फाज दीगर जिसने तारीख़ी अहमियत 
हासिल कर ली हो और तवील (लंबी) रिवायात के नतीजे में जिसके साथ माजी का तकद्दुस 
शामिल हो गया हो वह लोगों की नजर में हमेशा अजीम हो जाती है। इसके मुकाबले मे 
'आज” के दाऔ की बात हल्की दिखाई देती है। वे हाल के दाऔ को गैर अहम समझ कर 
नजरअंदाज कर देते हैं। उन्हें एतमाद होता है कि वे असलाफ (पूर्वजो) की अज्मतों के वारिस 
हैं फिर कौन उनका कुछ बिगाड़ सकता है। 

ख़ुदा के मामले में ढिठाई आदमी को धीरे-धीरे बेहिस बना देती है। वह इस काबिल नहीं 
रहता कि वह नसीहत और याददिहानी की जबान में कोई इस्लाह कुबूल कर सके। ऐसे लोग 
गोया इस बात के मुंतजिर हैं कि खुदा अजाब की जबान में उनके सामने जाहिर हो। 


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और समूद की तरफ हमने उनके भाई सालेह को भेजा। उन्होंने कहा ऐ मेरी कौम, 





पारा 8 404 सूरह+7. अल-आराफ 


अल्लाह की इबादत करो उसके सिवा तुम्हारा कोई माबूद (पूज्य) नहीं। तुम्हारे पास 
तुम्हारे रब की तरफ से एक खुला हुआ निशान आ गया है। यह अल्लाह की ऊटनी 
तुम्हारे लिए एक निशानी की तौर पर है। पस इसे छोड़ दो कि वह खाए अल्लाह की 
जमीन में। और इसे कोई तकलीफ न पहुंचाना वर्ना तुम्हें एक दर्दनाक अजाब पकड़ 

लेगा। और याद करो जबकि ख़ुदा ने आद के बाद तुम्हें उनका जानशीन (उत्तराधिकारी) 
बनाया और तुम्हें जमीन में ठिकाना दिया, तुम उसके मेदानां में महल बनाते हो और 
पहाड़ों को तराश कर घर बनाते हो। पस अल्लाह की नेमतों को याद करो और जमीन 

में फसाद करते न फिरो। (73-74) 





कौमे आद की तबाही के बाद उसके नेक अफराद अरब के शिमाल मरिब (उत्तर-पश्चिम) 
में हिज़ के इलाके में आबाद हुए। उनकी नस्ल बढ़ी और उन्होंने जराअत (कृषि) और 
तामीरात में बड़ी तरविकयां कीं। उन्होंने मैदानों में महल बनाए और पहाड़ों को तराश कर 
उन्हें बड़े-बड़े पर्वतीय मकानात की सूरत दे दी। बाद में उनमें वे ख़राबियां पैदा हो गई जो 
मादूदी तरक्की और दुनियावी खुशहाली के साथ कौमों में पैदा होती हैं। ऐशपरस्ती, आख़िरत 
फरामोशी, अल्लाह की हदों से बेपरवाही, अल्लाह की बड़ाई को भूलकर अपनी बड़ाई कायम 
करना। उस वक्‍त अल्लाह ने हजरत सालेह को खड़ा किया ताकि वह उन्हें अल्लाह की पकड़ 
से डराएं। मगर उन्होंने नसीहत कुबूल न की। वे अपने बिगाड़ को सुधार में बदलने पर राजी 
न हुए। जिस कायनात में तमाम चीजें खुदा की ताबेअ बनकर रह रही हैं वहां उन्होंने खुदा 
का सरकश बनकर रहना चाहा। जहां हर चीज अपनी हद के अंदर अपना अमल करती है 
वहां उन्होंने अपनी हद से तजावुज करके जिंदा रहना चाहा। यह एक इस्लाहयाफ्ता दुनिया 
में फसाद फैलाना था। चुनांचे उन्हें दुनिया में बसने के नाअहल करार दे दिया गया। 

कौमे समूद को जांचने के लिए ख़ुदा ने एक ऊंटनी मुक्रर की और कहा की इसे 
तकलीफ न पहुंचाना वर्ना हलाक कर दिए जाओगे। ख़ुदा के लिए यह भी मुमकिन था कि 
वह उनके लिए एक ख़ौफनाक शेर मुकर्रर कर दे। मगर ख़ुदा ने शेर के बजाए ऊंटनी को 
मुक्रर फरमाया। इसका राज यह है कि आदमी की ख़ुदातरसी (खुदा से डरने) का इम्तेहान 
हमेशा 'ऊंटनी” की सतह पर लिया जाता है न कि 'शेर' की सतह पर। समाज में हमेशा कुछ 
नाकतुल्लाह (खुदा की ऊंटनी) जैसे लोग होते हैं। ये वे कमजोर अफराद हैं जिनके साथ वह 
मादूदी जोर नहीं होता जो लोगों को उनके ख़िलाफ कार्रवाई करने से रोके । जिनके साथ हुस्ने 
सुलूक का मुहर्रिक (प्रेरक) सिफ अख्लाकी एहसास होता है न कि कोई डर । मगर यही वे लोग 
हैं जिनकी सतह पर लोगों की ख़ुदापरस्ती जांची जा रही है। यही वे अफराद हैं जिनके जरिए 
किसी को जन्नत का सर्टिफिकेट दिया जा रहा है और किसी को जहन्नम का। 

समूद ने फने तामीर (निर्माण कला) में कमाल पैदा किया। संबंधित उलूम मसलन 
रियाजी (गणित), हिंदिसा (गणना), इंजीनियरिंग में भी यकीनन उन्होंने जरूरी योग्यता हासिल 
की होगी वर्ना ये तरक्कियात मुमकिन न होतीं । मगर उन्हें जिस बात का मुजरिम ठहराया गया 
वे उनकी मादूदी तरविकयां नहीं थीं बल्कि जमीन में फसाद फैलाना था। इसका मतलब यह 
है कि जाइज हुदूद में तरक्की करने से खुदा नहीं रोकता। अलबत्ता जिंदगी के मामलात में 
आदमी को उस निजामे इस्लाह (सुधारतंत्र) का पाबंद रहना चाहिए जो ख़ुदा ने पूरी कायनात 
में कायम कर रखा है। 








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सूरह-7. अल-आराफ 405 पारा 8 


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उनकी कौम के बड़े जिन्होंने घमंड किया, उन मोमिनीन से बोले जो कमज़ोर समझे जाते 

थे, क्या तुम्हें यकीन है कि सालेह अपने रब के भेजे हुए हैं। उन्होंने जवाब दिया कि हम 

तो जो वे लेकर आए हैं उस पर ईमान रखते हैं। वे मुतकब्बिर (घमंडी) लोग कहने लगे 
कि हम तो उस चीज के मुंकिर हैं जिस पर तुम ईमान लाए हो। फिर उन्होंने ऊंटनी को 
काट डाला और अपने रब के हुक्म से फिर गए। और उन्होंने कहा, ऐ सालेह अगर तुम 
पेगम्बर हो तो वह अजाब हम पर ले आओ जिससे तुम हमें उराते थे। फिर उन्हं जलजले 

ने आ पकड़ा और वे अपने घर में औंधे मुंह पड़े रह गए। और सालेह यह कहता हुआ उन 
की बस्तियों से निकल गया कि ऐ मेरी कौम, मैंने तुम्हें अपने रब का पेग़ाम पहुंचा दिया 
और मैंने तुम्हारी ख्रैरख्बाही की मगर तुम ख़ैरख्वाहों को पसंद नहीं करते। (75-79) 


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पैगम्बर जब आता है तो अपने जमाने में वह एक विवादित शख्सियत होता है न कि 
साबितशुदा शख्सियत। मजीद यह कि उसके साथ दुनिया की रौनकें जमा नहीं होतीं, वह 
दुनिया की गद्दयों में से किसी गद्दी पर बैठा हुआ नहीं होता। यही वजह है कि जो लोग 
पैगम्बर के मुआसिर (समकालीन) होते हैं वे पैगम्बर के पैगम्बर होने को समझ नहीं पाते और 
उसका इंकार कर देते हैं। उन्हें यकीन नहीं आता कि वह शख्स जिसे हम सिर्फ एक मामूली 
आदमी की हैसियत से जानते हैं वही वह शख्स है जिसे ख़ुदा ने अपने पैग़ाम की पैग़ामरसानी 
के लिए चुना है। 

“हम सालेह के पैगाम पर ईमान लाए हैं! हजरत सालेह के साथियों का यह जवाब बताता 
है कि उनमें और दूसरों में क्या फर्क था। मुंकिरीन ने हजरत सालेह की शख्सियत को देखा 
और मोमिनीन ने उनके अस्ल पैगाम को। मुंकिरों को हजरत सालेह की शख्सियत में जाहिरी 
अज्मत दिखाई नहीं दी, उन्होंने आपको नजरअंदाज कर दिया। इसके बरअक्स मोमिनीन ने 
हजरत सालेह के पेगाम में हक के दलाइल और सच्चाई की झलकियां देख लीं, वे फौरन उनके 
साथी बन गए । सच्चाई हमेशा दलाइल के जोर पर जाहिर होती है न कि दुनियावी अज्मतों के 





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पारा 8 406 सूरह-7. अल-आराफ 


जोर पर। जो लोग दलाइल के रूप में हक को देखने की सलाहियत रखते हैं वे फौरन उसे पा 
लेते हैं। और जो लोग जाहिरी बड़ाइयों मे अटके हुए हों वे मुशतबह (भ्रमित) होकर रह जाते 
हैं। उन्हें कभी हक का साथ देने की तौफीक हासिल नहीं होती। 
हजरत सालेह की ऊंटनी को मारने वाला अगरचे कौम का एक सरकश आदमी था। मगर 
यहां उसे पूरी कौम की तरफ मंसूब करके फरमाया उन लोगों ने ऊंटनी को हलाक कर दिया' 
इससे मालूम हुआ कि किसी गिरोह का एक शख्स बुरा अमल करे और दूसरे लोग उसके बुरे 
फेअल पर राजी रहें। तो सबके सब उस मुजरिमाना फेअल में शरीक करार दे दिए जाते हैं। 
जो कौम खाहिशपरस्ती का शिकार हो उसे हकीकतपसंदी की बातें अपील नहीं करतीं। 
वे ऐसे शख्स का साथ देने के लिए तैयार नहीं होती जो उसे संजीदा अमल की तरफ बुलाता 
हो। इसके बरअक्स जो लोग खुशनुमा अल्फाज बोलें और झूठी उम्मीदों की तिजारत करें। 
उनके गिर्द भीड़ की भीड़ जमा हो जाती है। सच्चे ख़ैरख़ाह के लिए उसके अंदर कोई कशिश 
नहीं होती। अलबत्ता उन लोगों की तरफ वह तेजी से दौड़ पड़ती है जो उसका इस्तहसाल 


(शोषण) करने के लिए उठे हों। 
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और हमने लूत को भेजा। जब उसने अपनी कौम से कहा। क्या तुम खुली बेहयाई का 
काम करते हो जो तुमसे पहले दुनिया में किसी ने नहीं किया। तुम औरतों को छोड़कर 
मर्दों से अपनी ख्वाहिश पूरी करते हो। बल्कि तुम हद से गुजर जाने वाले लोग हो। मगर 
उसकी कौम का जवाब इसके सिवा कुछ न था कि इन्हें अपनी बस्ती से निकाल दो। ये 
लोग बड़े पाकबाज बनते हैं। फिर हमने बचा लिया लूत को और उसके घर वालों को, 
उसकी बीवी के सिवा जो पीछे रह जाने वालों में से बनी। और हमने उन पर बारिश 
बरसाई पत्थरों की, फिर देखो कि कैसा अंजाम हुआ मुजरिमों का। (80-84) 








हजरत लूत हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के भतीजे थे। वह जिस कौम की तरफ पेगम्बर 
बनाकर भेजे गए वह दरियाए उर्दुन के किनारे जुनूबी शाम के इलाके में आबाद थी। इस कौम 
की खुशहाली उसे ऐशपरस्ती की तरफ ले गई। यहां तक कि उन लोगों की बेराहरवी इतनी बढ़ 
गई कि उन्होंने अपनी शहवानी ख़्वाहिशात (काम वासना) की तस्कीन के लिए हमजिन्सी 
(समलैंगिक) के तरीके को इख्तियार कर लिया। पैगम्बर ने उन्हें इस खुली हुई बेहयाई से डराया । 


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सूरह-7. अल-आराफ 407 पारा 8 


कायनात के लिए फितरत की एक स्कीम है। इस स्कीम को कुरआन में इस्लाह (सुधार) कहा 
गया है। इस इस्लाह के खिलाफ चलने का नाम फसाद है। कायनात की तमाम चीजेंइसी इस्लाही 
रास्ते पर चल रही हैं। यह सिर्फ इंसान है जो अपनी आजादी का गलत फायदा उठाता है और 
फितरत के रास्ते के खिलाफ अपना रास्ता बनाता है। हजरत लूत की कैम इसी किस्म के एक 
फसाद मेंमुब्तिला थी । जिन्सी तअल्लुक का फितरी तरीका यह है कि औरत मर्द बाहम बीवी और 
शौहर बनकर रहें। यह इस्लाह के तरीके पर चलना है। इसके बरअक्स अगर यह हो कि मर्द मर्द 
या औरत औरत के दर्मियान जिन्सी तअल्लुकात कायम किए जाने लगें तो यह खुदा की मुरकर की 
हुई हद से गुजर जाना है। यह वही चीज है जिसे कुरआन में फसाद कहा गया है। 

हजरत लूत पर सिर्फ उनके करीबी लोगों में से चन्द अफराद ईमान लाए। बाकी पूरी 
कौम अपनी हवसपरस्ती में गर्क रही । उन्होंने कहा 'जब यह हम सब लोगों को गंदा समझते 
हैं और ख़ुद पाक बनना चाहते हैं तो गंदों में पाकों का क्या काम। 'फिर तो यह निकल जाएं 
हमारे शहर से' उनका यह कौल दरअस्ल घमंड का कौल था। उन्हें यह कहने की जुरअत 
इसलिए हुई कि वे अपनी अक्सरियत और मादूदी तरक्की की वजह से अपने को महफूज 
हालत में समझते थे। घमंड की नफ्सियात में मुन्तिला लोग हमेशा अपने कमजोर पड़ौसियों 
से कहते हैं कि जिन लोगों को हमारा तरीका पसंद नहीं वे हमारी जमीन को छोड़ दें। मगर 
यह ख़ुदा की दुनिया में शिक करना है और शिक सबसे बड़ा जुर्म है। 

हजरत लूत की कौम पर खुदा का अजाब आया तो अजाब का शिवार होने वालों में 
पैगम्बर की बीवी भी शामिल थी। इससे इनाम और सजा के बारे में खुदा का बेलाग इंसाफ 
जाहिर होता है। खुदा के इंसाफ के तराजू में रिश्तों और दोस्तियों को कोई लिहाज नहीं । खुदा 
का फैसला इतना बेलाग है कि उसने हजरत नूह के बेटे, हजरत इब्राहीम के बाप, हजरत लूत 
की बीवी और हजरत मुहम्मद (सल्ल०) के चचा को भी माफ नहीं किया। और दूसरी तरफ 
फिरऔन की बीवी ने नेक अमल का सुबूत दिया तो उसे जन्नत में दाखिल कर दिया। 


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पारा 8 408 सूरह-7. अल-आराफ 


और मदयन की तरफ हमने उनके भाई शुऐब को भेजा। उसने कहा ऐ मेरी कौम, 
अल्लाह की इबादत करो, उसके सिवा कोई तुम्हारा माबूद (पूज्य) नहीं। तुम्हारे पास 
तुम्हारे रब की तरफ से दलील पहुंच चुकी है। पस नाप और तौल पूरी करो। और मत 
घटाकर दो लोगों को उनकी चीजे। और फसाद न डालो जमीन में उसकी इस्लाह के 

बाद। यह तुम्हारे हक में बेहतर है अगर तुम मोमिन हो। और रास्तों पर मत बैठो कि 
डराओ और अल्लाह की राह से उन लोगों को रोको जो उस पर ईमान ला चुके हैं और 
उस राह में कजी (टेढ़)े तलाश करो। और याद करो जबकि तुम बहुत थोड़े थे फिर तुम्हें 
बढ़ा दिया। और देखो फसाद करने वालों का अंजाम क्या हुआ। और अगर तुममें से 
एक गिरोह उस पर ईमान लाया है जो देकर में भेजा गया हूं और एक गिरोह ईमान 
नहीं लाया है तो इंतिजार करो यहां तक कि अल्लाह हमारे दर्मियान फैसला कर दे और 

वह बेहतर फैसला करने वाला है। (85-87) 





हजरत इब्राहीम के एक बेटे मदयान थे जो आपकी तीसरी बीवी कतूरा से पैदा हुए। 
अहले मदयन इन्हीं की नस्ल में से थे। यह कौम बहरे अहमर (लाल सागर) के अरब साहिल 
पर आबाद थी। ये लोग ख़ुदा को मानने वाले थे और अपने को दीने इब्राहीमी का हामिल 
समझते थे। मगर हजरत इब्राहीम के पांच सौ साल बाद उनके अंदर बिगाड़ आ गया। यह 
एक तिजारत पेशा कौम थी और उसके बिगाड़ का सबसे ज्यादा इज्हार इसी पहलू से हुआ। 
वे नाप तौल और लेन देने में दयानतदारी के उसूलों पर पूरी तरह कायम नहीं रहे। 

दूसरे से मामला करने में बेइंसाफी खुदा के कायमकरदा निजामे इस्लाह के खिलाफ है। 
खुदा ने अपनी दुनिया का निजाम कामिल इंसाफ पर कायम किया है। यहां कोई भी चीज 
ऐसी नहीं जो लेते वकत दूसरे से ज्यादा ले और देते वकत दूसरे को कम दे। यहां हर चीज 
हिसाबी सेहत की हद तक इंसाफ के उसूल पर कायम है। ऐसी हालत में इंसान को भी वही 
करना चाहिए जो उसके गिर्द व पेश की सारी कायनात कर रही है। ऐसा न करना ख़ुदा की 
इस्लाहयाप्ता दुनिया में फसाद बरपा करना है। 

अहले मदयन का मामलाती बिगाड़ जब बहुत बढ़ गया तो ख़ुदा ने हजरत शुऐब को उनकी 
तरफ अपना पैगाम लेकर भेजा। आपने उन्हें बताया कि मामलात में रास्ती (नेकी) और 
दयानतदारी का तरीका इख़्तियार करो। आपने खुले-खुले दलाइल के जरिए उन्हें आखिरी हद 
तक बाख़बर कर दिया। मगर वे नसीहत कुबूल करने के लिए तैयार नहीं हुए। यहां तक कि 
उनका हाल यह हुआ कि ख़ुद हजरत शुऐब की दावत को मिटाने पर तुल गए। वे आपकी बातों 
में तरह-तरह के शोशे निकाल कर लोगों को आपके बारे में गलतफहमी में डालते । वे जारिहाना 
(आक्रामक) कार्रवाइयों के जरिए कोशिश करते कि लोग आपका साथ न दें। बिलआख़िर उन 
पर खुदाई अजाब आया और वे तबाह कर दिए गए। बंदों के हुकूक की रिआयत और बाहमी 
मामलात की दुरुस्तगी खुदा की नजर में इतनी ज्यादा अहम है कि उसकी मुखालिफत पर एक 
कौम, ईमान की दावेदार होने के बावजूद तबाह कर दी गई। खुदा बेहतर फैसला करने वाला है 
और बेहतर फैसला जानिबदारी (पक्षपात) के साथ नहीं हो सकता । यह मुमकिन नहीं कि ख़ुदा 
बेकलिमा वालों को उनकी बेइंसाफी पर पकड़े और कलिमा वालों को ठीक उसी बेइंसाफी पर 
छोड़ दे। 


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सूह-. अल-आराफ 409 पारा 9 

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कौम के बड़े जो मुतकब्बिर (घमंडी) थे उन्होंने कहा कि ऐ शुऐब हम तुम्हें और उन लोगों 
को जो तुम्हारे साथ ईमान लाए हैं अपनी बस्ती से निकाल देंगे या तुम हमारी मिल्लत 
में फिर आ जाओ। शुऐब ने कहा, क्या हम बेजार हों तब भी। हम अल्लाह पर झूठ 
गढ़ने वाले होंगे अगर हम तुम्हारी मिल्लत में लौट आएं बाद इसके कि अल्लाह ने हमें 
उससे नजात दी। और हमसे यह मुमकिन नहीं कि हम उस मिल्लत मे लौट आएं मगर 
यह कि ख़ुदा हमारा रब ही ऐसा चाहे। हमारा रब हर चीज को अपने इत्म से घेरे हुए 
है। हमने अपने रब पर भरोसा किया। ऐ हमारे रब, हमारे और हमारी कौम के दर्मियान 
हक के साथ फैसला कर दे, तू बेहतरीन फैसला करने वाला है। और उन बझ़ें ने जिन्होंने 
उसकी कौम में से इंकार किया था कहा कि अगर तुम शुऐब की पैरवी करोगे तो तुम 
बर्बाद हो जाओगे। फिर उन्हें जलजले ने पकड़ लिया। पस वे अपने घर में औंधे मुंह 
पड़े रह गए। जिन्होंने शुऐब को झुठलाया था गोया वे कभी उस बस्ती में बसे ही न 
थे, जिन्होंने शुऐब को झुठलाया वही घाटे में रहे। उस वक्‍त शुऐब उनसे मुंह मोड़ कर 
चला और कहा, ऐ मेरी कौम मैं तुम्हें अपने रब के पेग़ामात पहुंचा चुका और तुम्हारी 
खैरख्याही कर चुका। अब मैं क्या अफसोस करू मुंकिरों पर। (88-93) 





हजरत शुऐब की कौम खुदा के इंकार की मुजरिम न थी बल्कि खुदा पर इफ्तिरा करने 
(झूठ गढ़ने) की मुजरिम थी। यानी उसने खुदा की तरफ एक ऐसे दीन को मंसूब कर रखा था 
जिसे खुदा ने उनके लिए उतारा न था। यही तमाम नबियों की कीमों का हाल रहा है। नबियों 


पारा 9 4I0 सूरह-7. अल-आराफ 


की कौमें सब वही थीं जिन पर इससे पहले खुदा ने अपना दीन उतारा था मगर बाद को उन्होंने 
ख़ुदसाख्ता (स्वनिर्मित) तब्दीलियाँ और इजाफों के जरिए उसे कुछ से कुछ कर दिया । उन्होंने 
ख़ुदा के दीन को अपनी ख़्वाहिशात का दीन बना डाला और उसी को ख़ुदा का दीन कहने लगे। 
वक्‍त के कायमशुदा दीन में जिन लोगों को इज्जत व बड़ई का मकाम मिला हुआ था 
उन्होंने महसूस किया कि दलील के एतबार से उनके पास पैगम्बर की बातों का तोड़ नहीं है। 
ताहम इक्तेदार के जराए (सत्ता-संसाधन) सब उन्हीं के पास थे। उन्होंने दलील के मैदान में 
अपने को लाजवाब पाकर यह चाहा कि जोर व कुव्वत के जरिए वे पैगम्बर को ख़ामोश कर 
दें। उन्होंने पैगम्बर के साथियों को इस नाजुक सूरतेहाल की याद दिलाई कि वक्त के निजाम 
में जिंदगी के तमाम सिरे उन्हीं लोगों के पास हैं जिन्हें वे बातिल ठहरा रहे हैं। ये बातिल लोग 
अगर उनके खिलाफ सरगर्म हो जाएं तो इसके बाद वे जिंदगी के जराए कहां से पाएंगे। मगर 
वे भूल गए कि ख़ुदा उनसे भी ज्यादा ताकतवर है। और ख़ुदा जिसके खिलाफ हो जाए उसके 
लिए कहीं पनाह की जगह नहीं। 
किसी शख्स के लिए सिर्फ उस ववत तक छूट है जब तक उस पर अम्रेक (सच्चाई) 
वाजेह न हुआ हो। अम्रेहक जब बखूबी वाजेह हो जाए और इसके बाद भी आदमी सरकशी 
करे तो वह हमददी का इस्तहकक (अधिकार) खो देता है। इसी बुनियाद पर दुनिया में भी 
किसी मुजरिम के लिए सजा है और इसी बुनियाद पर आख़िरत (परलोक) में भी लोगों के 
लिए उनके जुर्म के मुताबिक सजा का फैसला होगा। 


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और हमने जिस बस्ती में भी कोई नबी भेजा, उसके बाशिन्दों को हमने सख्ती और 
तकलीफ में मुब्तिला किया ताकि वे गिड़गिड़ाएं। फिर हमने दुख को सुख से बदल दिया 
यहां तक कि उन्हें खूब तरक्की हुई और वे कहने लगे कि तकलीफ और खुशी तो हमारे 

बाप दादाओं को भी पहुंचती रही है। फिर हमने उन्हें अचानक पकड़ लिया और वे 
इसका गुमान भी न रखते थे। और अगर बस्तियों वाले ईमान लाते और डरते तो हम 
उन पर आसमान और जमीन की नेमतें खोल देते। मगर उन्होंने झुठलाया तो हमने उन्हें 








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सह. अल-आराफ 4l] पारा 9 


पकड़ लिया उनके आमाल के बदले। फिर क्या बस्ती वाले इससे बेख़ोफ हो गए हैं कि 
उन पर हमारा अजाब रात के वक़्त आ पड़े जबकि वे सोते हों। या क्या बस्ती वाले 
इससे बेख़ोफ हो गए हैं कि हमारा अज़ाब आ पहुंचे उन पर दिन चढ़े जब वे खेलते हों। 
कया ये लोग अल्लाह की तदबीरों (युक्तियों) से बेखोफ हो गए हैं। पस अल्लाह की 
तदबीरों से वही लोग बेख़ोफ होते हैं जो तबाह होने वाले हों। (94-99) 


हदीस में आया है कि मोमिन पर मुसीबतें आती रहती हैं। यहां तक कि वह गुनाहों से 
पाक हो जाता है। और मुनाफिक की मिसाल गधे की तरह है कि वह नहीं जानता कि उसके 
मालिक ने किस लिए उसे बांधा और क्यों छोड़ दिया। 

खुदा इंसान के ऊपर मुख़्तलिफ किस्म की तकलीफें डालता है ताकि उसका दिल नर्म 
हो। खुदा के सिवा दूसरी चीजों पर से उसका एतमाद टूट जाए, उसका वह घमंड जाता रहे 
जो आदमी के लिए अपने से बाहर किसी सच्चाई को कुबूल करने में रुकावट बनता है। इस 
तरह खुदाई इंतिजाम के तहत आदमी के अंदर कमी और बेचारगी की नफ्सियात पैदा की 
जाती है ताकि वह हक की आवाज पर कान लगाए । खुदा का यह मामला आम लोगों के साथ 
भी होता है और पैग़म्बर के मुखातब गिरोह के साथ भी। ताहम यह मामला अल्लाह की 
सुन्नत लै के तहत रूपों-प्रतीकों में होता है। मसलन कोई आफत आती है तो वह 
असबाब व इलल (कारकों) के रूप में आती है। यह सूरतेहाल बहुत से लोगों के लिए फितना 
बन जाती है। वे यह कहकर उसे नजरअंदाज कर देते हैं कि यह तो एक होने वाली बात थी 
जो हो हुई। फिर जब वे मुसीबतों से असर नहीं लेते तो ख़ुदा उनके हालात बदल कर उन्हें 
खुशहाली में मुब्तिला कर देता है। अब इस किस्म के लोग और भी ज्यादा मुग़ालते में पड़ 
जाते हैं। उन्हें यकीन हो जाता है कि यह महज हवादिसे रोजगार (काल-चक्र) की बात थी। 
यह वही आम उतार चढ़ाव था जो हमेशा लोगों के साथ पेश आता रहा है वर्ना क्या वजह 
है कि हमें बुरे दिनों के बाद अच्छे दिन देखने को मिले। वे पहली तंबीह से भी सबक लेने से 
महरूम रहते हैं और दूसरी तंबीह से भी। 

सरकशी के बाद किसी को तरक्की मिलना सख्त ख़तरनाक है। यह इस बात की 
अलामत है कि ख़ुदा ने उसे ऐसी हालत में पकड़ने का फैसला कर लिया है जबकि वह अपने 
पकड़े जाने के बारे में ज्यादा से ज्यादा बेख़ैफ हो चुका हो। 

ईमान और तकवा की जिंदगी का फायदा अगरचे अस्लन आखिरत में मिलने वाला है। 
ताहम अगर खुदा चाहता है तो दुनिया में भी वह ऐसे लोगों को फराख़ी और इज्जत की सूरत 
में उनके अमल का इब्तिदाई इनाम दे देता है। हि 


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पारा 9 42 सूरह+7. अल-आराफ 


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क्या सबक नहीं मिला उन्हें जो जमीन के वारिस हुए हैं उसके अगले वाशिन्दों के बाद 
कि अगर हम चाहें तो उन्हें पकड़ लें उनके गुनाहां पर। और हमने उनके दिलों पर मुहर 
कर दी है पस वे नहीं समझते। ये वे बस्तियां हैं जिनके कुछ हालात हम तुम्हें सुना रहे 
हैं। उनके पास हमारे रसूल निशानियां लेकर आए तो हरगिज न हुआ कि वे ईमान लाएं 
उस बात पर जिसे वे पहले झुठला चुके थे। इस तरह अल्लाह मुंकिरों के दिलों पर मुहर 
कर देता है। और हमने उनके अक्सर लोगों में अहद (वचन) का निबाह न पाया और 
हमने उनमें से अक्सर को नाफरमान (अवज्ञाकारी) पाया। (00-02) 


जमीन पर बारबार यह वाकया हेता है कि एक कैम को यहां इज्जत और खुशहाली नसीब 
होती है। इसके बाद उस पर जवाल (पतन) आता है। वे मैदान से हटा दी जाती है और उसकी 
जगह ठ्ूसरे कैम इजत आह ख़हाली के तमाम मकमात पर काबिज हे जाती है। 

यह वाकया ख़ुदा की एक निशानी है। वह आदमी को ख़ुदा की याद दिलाने वाला है। वह 
बताता है कि मिलने या न मिलने के सिरे किसी बालातर (उच्च) हस्ती के हाथ में हैं। वह जिसे 
चाहे दे और जिससे चाहे छीन ले। ख़ुदा ने इंसान को देखने और समझने की जो ताकत दी है 
उसे काम में लाकर वह बाआसानी इस हकीकत को समझ सकता है। वह जान सकता है कि 
असल सरचश्मा (स्रोत) अगर किसी और के हाथ में न होता तो जो गिरोह एक बार ग़ालिब 
आ जाता वह कभी दूसरे को ऊपर आने न देता। आदमी अगर इस किस्म का सबक ले तो 
कीमों के उरूज व जवाल (उत्यान-पतन) में उसे रब्वानी गिजा मिलेगी । मगर जब भी एक कौम 
पीछे हटती है और उसकी जगह दूसरी कौम ऊपर आती है तो उसके अफराद इस गलतफहमी 
में पड़ जाते हैं कि पिछली कौम के साथ जो कुछ हुआ वह सिर्फ पिछली कौम के लिए था, 
हमारे साथ ऐसा कभी नहीं होगा। 

ख़ुदा ने आंख और कान और अक्ल की सलाहियत इंसान को इसलिए दी है कि वह इससे 
सबक ले, वह इनके जरिये खुदा के इशारात को समझे । मगर जब आदमी अपनी इन सलाहियतों 
से वह काम नहीं लेता जो उसे लेना चाहिए तो इसके बाद लाजिमी तौर पर ऐसा होता है कि 
ख़ुदा के कानून के तहत उसके दिल की हस्सासियत (संवेदनशीलता) मुर्दा होने लगती है। यहां 
तक कि इन मामलात में उसके जज्बात कुंद होकर रह जाते हैं। उसके दिल व दिमाग़ पर बेहिसी 
की मुहर लग जाती है। अब उसका हाल यह हो जाता है कि वह देखने के बावजूद न देखे और 
सुनने के बावजूद न सुने। वह अक्ल रखते हुए भी बातों को न समझे। वह इंसान होते हुए 
बेइंसान बन जाए। 

इंसानियत का आगाज हजरत आदम के मोमिनीन से हुआ। इसके बाद जब बिगाड़ हुआ 
तो याददिहानी के लिए ख़ुदा के पैग़म्बर आए। अब यह हुआ कि पैगम्बर के जरिए इस्लाह 
(सुधार) कुबूल करने वाले अफराद को बचाकर उन लोगों को हलाक कर दिया गया जिन्होंने 


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सूरह-7. अल-आराफ 4]3 पारा 9 


इस्लाह कुबूल करने से इंकार किया था। मगर बाद की नस्लें दुबारा अपने पैगम्बर के हाथ पर 
किए हुए इस्लाम के अहद को भुला बैठी और दुबारा वही अंजाम पेश आया जो पहली बार 
मोमिनीने आदम को पेश आया था। यह सूरत बार-बार पेश आती रही यहां तक कि नस्ले 
इंसानी की अक्सरियत के लिए तारीख़ नाफरमानी और अहदशिकनी (वचन-भंग) की तारीख 
बन गई। 

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फिर उनके बाद हमने मूसा को अपनी निशानियों के साथ भेजा फिर२औन और उसकी 
कौम के सरदारों के पास। मगर उन्होंने हमारी निशानियों के साथ जुल्म किया। पस 
देखो कि मुफ्सिदों (फसाद करने वालों) का कया अंजाम हुआ। और मूसा ने कहा ऐ 
फिरऔन, में परवरदिगारे आलम की तरफ से भेजा हुआ आया हूं। सजावार हूं कि 
अल्लाह के नाम पर कोई बात हक के सिवा न कहूं। मैं तुम्हारे पास तुम्हारे रब की 
तरफ से खुली हुई निशानी लेकर आया हूं। पस तू मेरे साथ बनी इस्राईल को जाने 
दे। फिरऔन ने कहा, अगर तुम कोई निशानी लेकर आए हो तो उसे पेश करो अगर 
तुम सच्चे हो। तब मूसा ने अपना असा (डंडा) डाल दिया तो यकायक वह एक साफ 
अजदहा बन गया। और उसने अपना हाथ निकाला तो अचानक वह देखने वालों के 
सामने चमक रहा था। फिरऔन की कोम के सरदारों ने कहा यह शख्स बड़ा माहिर 
जादूगर है। चाहता है कि तुम्हें तुम्हारी जमीन से निकाल दे। अब तुम्हारी क्या सलाह 


है। उन्होंने कहा, मूसा को और उसके भाई को मोहलत दो और शहरों में हरकारे भेजो 
कि वे तुम्हारे पास सारे माहिर जादूगर ले आएं। (03-22) 








पैगम्बर का खिताब अव्वलन उन लोगों से होता है जो वक्त के सरदार हों, जिन्हें माहौल 
मे कदत (वैचारिक नेतृत्व) हासिल हो। ये लोग अपनी बरतर जेहनी सलाहियत की 
वजह से सबसे ज्यादा इस पोजीशन में होते हैं कि सच्चाई के पैगाम को उसकी गहराई के साथ 


पारा 9 44 सूरह+7. अल-आराफ 


समझ सकें। मगर तारीख़ बताती है कि इन लोगों ने पैगम्बराना दावत के साथ हमेशा जुल्म! 
का सुलूक किया। यानी अपनी जहानत को इसके लिए इस्तेमाल किया कि हक के पैगाम को 
टेढ़े मअना पहनाएं। मसलन एक निशानी जो यह साबित कर रही हो कि वह ख़ुदा के जोर 
पर जाहिर हुई है उसके मुतअल्लिक यह कह देना कि यह जादू के जोर पर दिखाई गई है। 
या तहरीक को बदनाम करने के लिए उसे सियासी मअना पहनाना और यह कहना कि ये 
लोग महज अपने इक्तेदार के लिए उठे हैं। अवाम चूंकि बातों का तज्जिया (विश्लेषण) नहीं 
कर पाते इसलिए इस किस्म की बातें उन्हें हक से मुशतबह करने का सबब बन जाती हैं। 
मगर हक के दाजी के खिलाफ ऐसे शोशे निकालना बहुत बड़ा जुर्म है। इस तरह ववत के 
बड़े अपनी कयादत (नेतृत्व) कुक्क (सुरक्षा) तो जहर कर लेते हैमगर यह तहमा 
उन्हे सिर्फ इस कीमत पर मिलता है कि उनकी आखिरत हमेशा के लिए गैर महफूज हो जाए। 

खुदा कामिल हक पर है। इसलिए जो शख्स खुदा की तरफ से उठे उसके लिए जाइज 
नहीं कि वह हक व इंसाफ के सिवा कोई दूसरा कलिमा अपनी जबान से निकाले। अगर वह 
हक के सिवा कोई बात बोले तो वह खुदा की नुमाइंदगी के इस्तहकाक (अधिकार) को खो 
देगा और खुदा के यहां इनाम के बजाए सजा का मुस्तहिक हो जाएगा। 

हजरत मूसा एक ही वक्‍त में बनी इस्राईल की तरफ भी मबऊस थे और फिरजन और 
उसकी किब्ती कैम की तरफ भी। बनी इस्राईल में उस वक्त अगरचे बहुत सी कमजेरियां आ 
चुकी थीं। ताहम बुनियादी तौर पर उन्होंने हजरत मूसा का साथ दिया। इसके बरअक्स 
फिरऔन और उसकी कौम ने (चन्द अफराद को छोड़कर) आपका इंकार किया । बिलआख़िर 
चालीस साला तब्लीग़ के बाद आपने बनी इस्राईल के साथ मिस्र से हिजरत करने का फैसला 
किया । आपने फिरऔन से मुतालबा किया कि बनी इस्राईल को मुल्क से बाहर जाने दे ताकि 
वे बयाबान की खुली फजा में जाकर एक खुदा की इबादत कर सकें। (खुरूज 6)। हजरत 
मूसा अगरचे सच्चाई के नुमाइंदे थे। मगर फिरऔन ने उसे जादू का मामला समझा और 
जादूगरों के जरिये आपको जेर (परास्त) करने का फैसला किया। 


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सह. अल-आराफ 4]5 पारा 9 


और जादूगर फिरऔन के पास आए। उन्होंने कहा, हमें इनाम तो जरूर मिलेगा अगर 

हम ग़ालिब (विजित) रहे। फिरऔन ने कहा, हां और यकीनन तुम हमारे मु्कबीन 
(निकटवर्तियों) में दाखिल होगे। जादूगरों ने कहा, या तो तुम डालो या हम डालने वाले 
बनते हैं। मूसा ने कहा, तुम ही डालो। फिर जब उन्होंने डाला तो लोगों की आंखों पर 
जादू कर दिया और उन पर दहशत तारी कर दी और बहुत बड़ा करतब दिखाया, और 
हमने मूसा को हुक्म भेजा कि अपना असा (डंडा) डाल दो। तो अचानक वह निगलने 
लगा उसे जो उन्होंने गढ़ा था। पस हक जाहिर हो गया और जो कुछ उन्होंने बनाया 

था बातिल होकर रह गया। पस वे लोग वहीं हार गए और जलील होकर रहे। और 
जादूगर सज्दे में गिर पड़े। उन्होंने कहा, हम ईमान लाए रखुलआलमीन (सृष्टि-प्रभु) पर 
जो रब (प्रभु) है मूसा और हारून का। (।3-22) 


किसी माहौल में जिस चीज की अहमियत लोगों के जेहनों पर छाई हुई हो उसी निस्बत 
से उनके पैगम्बर को मोजिजा (चमत्कार) दिया जाता है। कदीम मिम्न में जादू का बहुत जोर 
था इसलिए हजरत मूसा को उसी नौइयत का मोजिजा दिया गया। 

फिरऔन के तैकरदा प्रोग्राम के मुताबिक मिम्नियों के कौमी त्यौहार (योमुलज्जीनह) के 
मौके पर उनके तमाम बड़े-बड़े जादूगर जमा हुए। जादूगरों ने कहा कि पहले हम अपना 
करतब सामने लाएं या तुम जो कुछ दिखाना चाहते हो दिखाओगे। हजरत मूसा ने कहा पहले 
तुम अपना करतब सामने लाओ। चुनांचे ऐसा ही हुआ। इससे मालूम होता है कि पैगम्बर 
अपने दुश्मन के खिलाफ इवदाम करने में कभी पहल नहीं करता। वह आख़िर वक्‍त तक 
दुश्मन को मीका देता है कि वह खुद पहल करे। मुखालिफ फरीक जब इस तरह पहल की 
जिम्मेदारी अपने ऊपर ले चुका होता है उस वक्त पेगम्बर अपनी पूरी कुत को इस्तेमाल 
करके उसे जेर कर देता है। नजरियाती दावत के मामले में पैगम्बर का तरीका इवदाम का 
होता है और अमली टकराव के मामले में दिफाअ (प्रतिरक्षा) का। 

मिस्न में हजरत मूसा की दावत तकरीबन चालीस साल तक जारी रही है। जादूगरों से 
मुकाबले का वाकया उसके आखिरी जमाने का है। इससे कयास किया जा सकता है कि 
जादूगर हजरत मूसा की दावत से आशना रहे होंगे। ताहम अभी तक उनकी आंख का पर्दा 
नहीं हटा था। जब उन्होंने अपन मख़सूस फन के मैदान में हजरत मूसा की बरतरी देखी तो 
हिजाबात उठ गए। उन्हें नजर आ गया कि यह जादूगरी का मामला नहीं बल्कि खुदाई 
पैग़म्बरी का मामला है। वे बेइख्तियार होकर ख़ुदा के सामने गिर पड़े। 

जादूगरों ने अपनी लाठियां और रस्सियां फेंकीं तो ख़्यालबंदी (दृष्टि भ्रम) की वजह से 
वे लोगों को चलता फिरता सांप नजर आने लगीं। मगर जब हजरत मूसा का असा (डंडा) सांप 
बनकर मैदान में घूमा तो जादूगरों की हर लाठी और रस्सी सिर्फ लाठी और रस्सी होकर रह 
गई। जादूगर जादू के हुटूद को जानते थे। इस वाकथे में जादूगरां को नजर आ गया कि 
इंसानी तदबीरें अपने आखिरी कमाल पर पहुंच कर भी कितनी हकीर हैं और ख़ुदा कितना 
अजीम और कितना ज्यादा ताकतवर है। इसके बाद फिरऔन उन्हें अपने तमाम इक्तेदार के 





पारा 9 4I6 सूरह-7. अल-आराफ 


बावजूद बेवकअत नजर आने लगा। वही जादूगर जो खुदा की अज्मत को देखने से पहले 
फिरऔन से इनाम के तालिब थे। अब उन्हेनि फिरऔन की तरफ से बदतरीन सजाओं की धमकी 
को भी इस तरह नजरअंदाज कर दिया जैसे उसकी कोई हकीकत ही नहीं। 


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फिरऔन ने कहा, तुम लोग मूसा पर ईमान ले आए इससे पहले कि मैं तुम्हें इजाजत दूं। 
यकीनन यह एक साजिश है जो तुम लोगों ने शहर में इस ग़रज से की है कि तुम उसके 

बाशिन्दों को यहां से निकाल दो, तो तुम बहुत जल्द जान लोगे। मैं तुम्हारे हाथ और पाओं 
मुख़ालिफ सम्तों से काटूंगा फिर तुम सबको सूली पर चढ़ा दूंगा। उन्होंने कहा, हमें अपने 
रब ही की तरफ लौटना है। तू हमें सिर्फ इस बात की सजा देना चाहता है कि हमारे रब 

की निशानियां जब हमारे सामने आ गईं तो हम उन पर ईमान ले आए। ऐ रब, हम पर 
सब्र उंडेल दे और हमें वफात दे इस्लाम पर। (23-।26) 


हक के लिए जान कुर्बान करना हक के हक हेने की आख़िरी गवाही देना है। जादूगरों को 
ख़ुदा की मदद से इसी की तौफीक हासिल हुई। जादूगरों ने अपने आपको सख्ततरीन सजा के 
लिए पेश करके यह साबित कर दिया कि उनका हजरत मूसा पर ईमान लाना कोई हीला और 
साजिश का मामला नहीं, यह सच्चे एतराफे हक का मामला है। मगर जादूगरों का सबसे बड़ 
अमल फिर॒औन की मुतकब्िराना नपिसयात (अहं भाव) के लिए सबसे बड़ा ताजयाना प्रहार 
था। उन्हेने फिरऔन के मुबले में हजरत मूसा का साथ देकर फिरऔन को सारी कैम के 
सामने रुसवा कर दिया था। चुनांचे फिरऔन उनके खिलाफ गुस्से से भर गया। उसने जादूगरों 
के साथ उसी जालिमाना कार्रवाई का फैसला किया जो हर वह मुतकब्बिर शख्स करता है जिसे 
जमीन पर किसी किस्म का इख्तियार हासिल हो जाए। जादूगर भी दलील के मैदान में हारे और 
फिरऔन भी। मगर जादूगर अपनी शिकस्त का एतराफ करके ख़ुदा की अबदी नेमता के 
मुस्तहिक बन गए और फिरऔन ने इसे अपनी इज्जत का मसला बना लिया। उसके हिस्से में 
सिर्फ यह आया कि अपनी झूठी अनानियत अहंकार की तस्कीन के लिए दुनिया में वह 
हकपरस्तों पर जुल्म करे और आख़िरत में खुदा के अबदी अजाब में डाल दिया जाए। 

फिरऔन ने मूसा की दावत को कुबूल करने या न करने को अपनी इजाजत” का मसला 
समझा । और जादूगरों ने “निशानी” का | मुतकब्बिर (घमंडी) आदमी का मिजाज हमेशा यह होता 
है कि वह अपनी मर्जी को सबसे ज्यादा अहम समझता है न कि दलील और सुबूत को। ऐसे 


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सूरह-7. अल-आराफ 4I7 पारा 9 


लोग कमी हक को वुक्ूल करने की तैपीक नहीं पाते। 

इस नाजुक़तरीन मौके पर जादूगरों ने जो कामिल इस्तिकामत (दृढ़ता) दिखाई वह 
सरासर ख़ुदा की मदद से थी और उनकी जबान से जो दुआ निकली वह भी तमामतर इल्हामी 
दुआ थी। जब कोई बंदा अपने आपको हमह-तन (पूर्णतः) खुदा के हवाले कर देता है तो उस 
वक्त वह खुदा के इतना करीब हो जाता है कि उसे खुदा का खुसूसी फैजान पहुंचने लगता 
है। उस वक्‍त उसकी जबान से ऐसे कलिमात निकलते हैं जो खुदा के इल्का किए हुए होते 
हैं। उस वक्‍त वह वही दुआ करता है जिसके मुतअल्लिक उसका खुदा पहले ही फैसला कर 
चुका होता है कि वह उसके लिए कुबूल कर ली गई है। 

जादूगरों का यह कहना कि ख़ुदाया हमारे ऊपर सब्र उंडेल दे और हमारी मौत आए तो 
इस्लाम पर आए, दूसरे लफ्जों में यह कहना है कि हमने अपने बसभर अपने आपको तेरे 
हवाले कर दिया है। अब जो कुछ हमारे बस से बाहर है उसके वास्ते तू हमारे लिए काफी हो 
जा। जब भी कोई बंदा दीन की राह में दिल से यह दुआ करता है तो ख़ुदा यकीनन उसकी 
मुश्किलात में उसके लिए काफी हो जाता है। 


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फिरऔन की कौम के सरदारों ने कहा, क्या तू मूसा और उसकी कीम को छोड़ देगा कि 
वे मुल्क में फसाद फैलाएं और तुझे और तेरे माबूदों (पूज्यो) को छोड़ं। फिरऔन ने कहा 
हम उनके बेटों को कत्ल करेंगे और उनकी औरतों को जिंदा रखेंगे। और हम उन पर पूरी 
तरह कादिर हैं। मूसा ने अपनी कौम से कहा कि अल्लाह से मदद चाहो और सब्र करो। 
जमीन अल्लाह की है, वह अपने बदों में से जिसे चाहता है उसका वारिस बना देता है। 
और आख़िरी कामयाबी अल्लाह से डरने वालों ही के लिए है। मूसा की कौम ने कहा, 
हम तुम्हारे आने से पहले भी सताए गए और तुम्हारे आने के बाद भी। मूसा ने कहा 


करीब है कि तुम्हारा रब तुम्हारे दुश्मन को हलाक कर दे और बजाए उनके तुम्हें इस 
सरजमीन का मालिक बना दे, फिर देखे कि तुम कैसा अमल करते हो। (27-29) 





























बनी इस्राईल ने अपने पैगम्बर के सामने जो मसला पेश किया वह हुकूमत का पैदा किया 
हुआ था। मगर पैगम्बर ने इसका जो हल बताया वह यह था कि अल्लाह की तरफ रुजूअ करो। 


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पारा 9 4I8 सूरह-7. अल-आराफ 


इससे अंदाजा होता है कि कौमी मसाइल के बारे में दुनियादार लीडरों के सोचने के अंदाज और 
पैगम्बर के सोचने के अंदाज में क्या फर्क है। दुनियादार लीडर इस किस्म के मसले का हल 
हुकूमत की सतह पर तलाश करता है, चाहे वह हुकूमत से मुसालेहत की सूरत में हो या हुकूमत 
से तसादुम (टकराव) की सूरत में। मगर पैगम्बर ने जो हल बताया वह यह था कि जो कुछ 
हो रहा हो उसे बर्दाश्त करते हुए खुदा से मदद के तालिब बनो, हुकूमत की तरफ से बेनियाज 
होकर खुदा की तरफ रुजूअ करो। 

फिर पेगम्बर ने यह भी बता दिया कि वह आम कैमी जैक के खिलाफ जो हल पेश 
कर रहा है वह क्यों पेश कर रहा है। इसकी वजह यह है कि ये मसाइल अगरचे बजाहिर 
इक्तेदार (सत्ता) की तरफ से पेश आ रहे हैं और बजाहिर इवतेदार ही के जरिए उनका हल 
भी निकलेगा। मगर ख़ुद इक्तेदार कैसे किसी को मिलता है। वह महज अपनी तदबीरों से 
किसी को नहीं मिल जाता बल्कि बराहेरास्त खुदा की तरफ से किसी को दिए जाने का फैसला 
होता है और किसी से छीने जाने का। जब इक्तेदार का तअल्लुक ख़ुदा से है तो मसले के 
हल की जड़ भी यकीनन ख़ुदा ही के पास हो सकती है। 

फिर यह कि यह इक्तेदार जिसे भी दिया जाए वह हकीकतन उसके हक में आजमाइश 
होता है। इस दुनिया में बेताकती भी आजमाइश है और ताकतवर होना भी आजमाइश । आज 
जिसके पास इक्तेदार है, उसके पास भी इसी लिए है कि उसे आजमाया जाए कि वह जालिम 
और मुतकब्बिर बनता है या इंसाफ और तवाजोअ (विनम्रता) की रविश इख्तियार करता है। 
इसके बाद जब इक्तेदार (सत्ता) का फैसला तुम्हारे हक में किया जाएगा उस वक्‍त भी इसका 
मकसद तुम्हें जांचना ही होगा। जिस तरह एक गिरोह की नाअहली की बिना पर उससे 
इक्तेदार छीन कर किसी दूसरे गिरोह को दिया जाता है इसी तरह दूसरा गिरोह अगर नाअहल 
साबित हो तो उससे भी छीन कर दुबारा किसी और को दे दिया जाएगा। 

खुशहाली और इक्तेदार (सत्ता) जिसे आदमी दुनिया में चाहता है वह हकीकत में 
आखिरत में मिलने वाली चीज है। क्योंकि दुनिया में ये चीजें बतौर आजमाइश मिलती हैं और 
आखिरत में वे बतौर इनाम ख़ुदा के नेक बंदों को दी जाएंगी। 


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और हमने फिरऔन वालों को कहत (अकाल) और पैदावार की कमी में मुब्तिला किया 
ताकि उन्हें नसीहत हो। लेकिन जब उन पर खुशहाली आती तो कहते कि यह हमारे 





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सह. अल-आराफ 49 पारा 9 


लिए है और अगर उन पर कोई आफत आती तो उसे मूसा और उसके साथियों की 
नहूसत बताते। सुनो, उनकी बदबख्ती तो अल्लाह के पास है मगर उनमें से अक्सर नहीं 
जानते। और उन्होंने मूसा से कहा, हमें मस्हूर (जादू ग्रस्त) करने के लिए तुम चाहे कोई 
भी निशानी लाओ हम तुम पर ईमान लाने वाले नहीं हैं। (30-32) 


किसी बात को ग़लत कहना हो तो उसका गलत होना लफ्जों की सूरत में बताया जाता 
है और किसी बात को सही कहना हो तो उसे भी लफ्जों ही के जरिए सही कहा जाता है। 
इसी तरह किसी को मुजरिम करार देना हो तो उसे लफ्जें के जरिए मुजरिम करार दिया जाता 
है और अगर किसी को हक पर जाहिर करना हो तो उसका हक पर होना भी लफ्जें में बताया 
जाता है। मगर अल्फाज का इस्तेमाल करने वाला इंसान है और मौजूदा इम्तेहान की दुनिया 
में इंसान को यह इर््ियार हासिल है कि वह अल्फाज को जिस तरह चाहे अपनी मर्जी के 
मुताबिक इस्तेमाल करे। 
इम्तेहान की इस दुनिया में आदमी को जो आजादी दी गई है उसमें सबसे ज्यादा नाजुक 
आजादी यह है कि वह हक को बातिल कहने के लिए भी अत्फाज पा लेता है और बातिल 
को हक कहने के लिए भी । वह एक खुले हुए पेगम्बराना मोजिजे को जादू कहकर नजरअंदाज 
कर सकता है। खुदा उसे कोई नेमत दे तो वह उसे ऐसे अल्फाज में बयान कर सकता है गोया 
कि उसे जो कुछ मिला है अपनी सलाहियतों (क्षमताओं) और कोशिशों की बदौलत मिला है। 
हक को नजरअंदाज करने की वजह से खुदा उसके ऊपर कोई तंबीही (सचेतक) सज फे 
तो वह आजाद है कि उसे वह उन्हीं खुदापरस्त बंदों की नहूसत का नतीजा करार दे दे जिनके 
साथ बुरा रवैया इख्तियार करने ही की वजह से उस पर यह तंबीह आई है। ख़ुदा की तरफ 
से हर बात इसलिए आती है कि आदमी उससे नसीहत पकड़े। मगर अल्फाज के जरिए 
आदमी हर नसीहत को एक उल्टा रुख़ दे देता है और उसके अंदर जो सबक का पहलू है उसे 
पाने से महरूम रह जाता है। 
(तुम चाहे कोई भी निशानी दिखाओ हम ईमान नहीं लाएंगे”! फिरऔन का यह जुमला 
बताता है कि हक अपनी मुकम्मल सूरत में मौजूद होने के बावजूद सिर्फ उसी को मिलता है 
जो उसे पाना चाहे। बअल्फाज दीगर, जो शख्स हक के मामले में संजीदा हो, जिसके अंदर 
स्तिरा (सचमुच) यह आमादगी हो कि हक चाहे जहां और जिस सूरत में भी मिले वह 
उसे ले लेगा, उस पर हक का हक होना खुलता है। इसके बरअक्स जो शख्स इस मामले में 
संजीदा न हो। जिसका हाल यह हो कि जो कुछ उसके पास है बस उसी पर वह मुतमइन 
(संतुष्ट) हैवह हक (सत्य) को हक की सूरत में देखने से आजिज रहेगा और इसीलिए वह 
उसे इख्तियार भी न कर सकेगा । अपने हाल पर मगन रहना आदमी को अपने से बाहर की 
चीजों के लिए बेख़बर बना देता है। वह जानकर भी नहीं जानता, वह सुनकर भी नहीं सुनता। 
आदमी अगर गैर मुतअस्सिर (निष्पक्ष) जेन के तहत सेवि तो वह जहर हवीक्त को 
पा लेगा। मगर अक्सर लोग अपनी नफ्सियात (मानसिकता) के जेअसर राय कयम करते 
हैं, यही वजह है कि वे हकीकत को पाने में नाकाम रहते हैं। 


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फिर हमने उनके ऊपर तूफान भेजा और टिडूडी और जुएं और मेंढक और ख़ून। ये सब 
निशानियां अलग-अलग दिखाई । फिर भी उन्होंने तकब्बुर (घमंड) किया और वे मुजरिम 
लोग थे। और जब उन पर कोई अजाब पड़ता तो कहते ऐ मूसा, अपने रब से हमारे लिए 
दुआ करो जिसका उसने तुमसे वादा कर रखा है। अगर तुम हम पर से इस अजाब को 
हटा दो तो हम जरूर तुम पर ईमान लाएंगे और तुम्हारे साथ बनी इस्राईल को जाने देंगे। 


फिर जब हम उनसे दूर कर देते आफत को कुछ मुदृदत के लिए जहां बहरहाल उन्हें 
पहुंचना था तो उसी वक्‍त वे अहद (वचन) को तोड़ देते। (33-35) 


हजरत मूसा ने मिम्न में तकरीबन 40 साल तक पेगम्बरी की । आपके मिशन के दो अज्जा 
थे। एक, फिरऔन को तौहीद का पैग़ाम देना। दूसरे, बनी इस्राईल को मिस्र से निकाल कर 
सहराए सीना में ले जाना और वहां आजादाना फजा में उनकी दीनी तर्बियत करना । बनी इस्राईल 
(हज़रत याकूब की औलाद) उस वक्‍त शदीद तौर पर कित्ती बादशाह (फिर॒औन) की गिरफ्त 
में थे। किब्ती कौम उन्हें अपने जराअती (कृषि) और तामीरी कामों में बतौर मजदूर इस्तेमाल 
करती थी। इसलिए किब्ती हुक्मरां नहीं चाहते थे कि बनी इस्राईल मिस्र से बाहर चले जाएं। 
हजरत मूसा ने इब्तदा में जब फिरऔन से मुतालबा किया कि बनी इस्राईल को मेरे साथ 
मिम्न से बाहर जाने दे तो फिरऔन और उसके दरबारियों ने उसे सियासी मअना पहना कर आप 
पर यह इल्जाम लगाया कि वह किब्ती कौम को मिस्न से निकाल देना चाहते हैं। (0) यह बात 
सरासर बेमअना (अर्थहीन) थी। क्योंकि हजरत मूसा का मंसूबा तो खुद अपने आपको मिस्र 
से बाहर ले जाने का था, और फिरऔन ने यह उल्टा इल्जाम लगाया कि वह किब्तियों को उनके 
मुल्क से बाहर निकाल देना चाहते हैं। उस वकत फिरऔन और उसके साथी इक्तेदार (सत्ता) 
के घमंड में थे इसलिए सीधी बात भी उन्हें टेढ़ी नजर आई। 
मगर बाद के मरहले में ख़ुदा ने फिरऔन और उसकी कौम पर हर तरह की बलाएं 
नाजिल कीं। उन पर कई साल तक मुसलसल कहत (अकाल) पड़े। शदीद गरज चमक के 
साथ ओलों का तूफान आया। टिड़िडयों के दल के दल आए जो फसल और बाग को खा गए 
और हर किस्म की सब्जी का खात्मा कर दिया। जुएं और मेंढक इस कसरत से हो गए कि 
कपड़ों और बिस्तरों पर जुएं ही जुएं थीं और घरों और रास्तों में हर तरफ मेंढक ही मेंढक 


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सूरह-7. अल-आराफ 42] पारा 9 


कूदने लगे। दरियाओं और तालाबों का पानी खून हो गया। फिरऔन और उसकी कौम जब 
इन अजीब व गरीब मुसीबतों में मुब्तिला हुए तो वे कह उठे कि ख़ुदा अगर इन मुसीबतों को 
हमसे टाल दे तो हम बनी इस्राईल को मूसा के साथ जाने देंगे। हजरत मूसा के जिस मुतालबे 
में पहले किब्तियों के इ्ाज (निष्कासन) की सियासी साजिश दिखाई दी थी वह अब ख़ुद 
बनी इस्राईल की हिजरत के हममअना नजर आने लगी। 

आदमी अपने को महफूज हालत में पा रहा हो तो वह तरह-तरह की बातें बनाता है। मगर 
जब उससे हिफाजत छीन ली जाए और उसको इज्ज और बेबसी के मकाम पर खड़ा कर दिया 
जाए तो अचानक वह हकीकतपसंद बन जाता है। अब वह बात ख़ुद ही उसकी समझ में आ 
जाती है जो पहले समझाने के बाद भी समझ में नहीं आती थी । मगर इंकार की ताकत रखते हुए 
इकार करने का नाम इकर है। अल्फजछिन जानेके बाद कोई इकरार इकार नहीं। 


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फिर हमने उन्हें सजा दी और उन्हें समुद्र में गर्क कर दिया क्योंकि उन्होंने हमारी 
निशानियों को झुठलाया और उनसे बेपरवाह हो गए। और जो लोग कमजोर समझे जाते 
थे उन्हें हमने उस सरजमीन के पूरब व पश्चिम का वारिस बना दिया जिसमें हमने बरकत 
रखी थी। और बनी इस्राईल पर तेरे रब का नेक वादा पूरा हो गया इस सबब से कि 


उन्होंने सब्र किया और हमने फिरऔन और उसकी कौम का वह सब कुछ बर्बाद कर 
दिया जो वे बनाते थे और जो वे चढ़ाते थे। (।36-37) 


नबियों की मुखातब कौमों पर जो अजाब आता है वह आयतों की तक्जीब की वजह से 
आता है। यानी निशानियों को झुठलाना । इसके मुकाबले में नबियों के साथियों पर जो ख़ुसूसी 
नुसरत (मदद) उतरती हेउसका इस्तहकक (पात्रता) उन्हें सब्र की वजह से हासिल होता है। 
यानी अपने जज्चात को थाम कर अल्लाह के तरीके पर साबित कदम रहना। 

निशानियों से मुराद वे दलाइल हैं जो हक को हक साबित करने वाले होते हैं मगर 
आदमी अपनी मुतकब्बिराना नफ्सियात (अहं-भाव) की वजह से उन्हें मानने पर कादिर नहीं 
होता। वह दलील के मामले को दलील पेश करने वाले का मामला बना लेता है। वह समझता 
है कि अगर मैंने यह दलील मान ली तो फलां शख्स के मुकाबले में मेरा मर्तबा घट जाएगा। 
वह दलील पेश करने वाले के मुकाबले में अपने को बाला (उच्च) रखने को खातिर दलील की 
बालातरी (उच्चता) को तस्लीम नहीं करता। मगर यही इंसान की आजमाइश का असल मकाम 





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पारा 9 422 सूरह-7. अल-आराफ 





है। मौजूदा दुनिया में खुदा निशानियों या दलाइल के पर्दे में जाहिर होता है, आख़िरत में वह 
बेहिजाब होकर जाहिर हो जाएगा। मगर ईमान वही मौतबर है जबकि आदमी पर्दादारी के 
साथ जाहिर होने वाले हक को पा ले। बेहिजाबी के साथ जाहिर होने वाले हक को मानना 
सिर्फ आदमी के जुर्म को साबित करेगा न कि वह उसे इनाम का मुस्तहिक बनाए। ऐसा 
इकरार सिर्फ इस बात का सुबूत होगा कि आदमी ने अपनी बेपरवाही की वजह से हक को 
ना जाना। अगर वह उसके बारे में संजीदा होता तो यकीनन वह उसे जान लेता। 

इसके मुकाबले में खुदा के वफादार बंदे हैं जिनकी सबसे नुमायां खुसूसियत सब्र है। 
हकीकत यह है कि इमान की जिंदगी सरासर सब्र की जिंदगी है। अपने जैसे एक इंसान की 
जबान से हक का एलान सुनकर उसे मान लेना, आदतों और मस्लेहतां पर कायमशुदा जिंदगी 
को हक और उसूल की बुनियाद पर कायम करना, लोगों की तरफ से पेश आने वाली ईजाओं 
(यातनाओं) को खुदा के ख़तिर नजरअंदाज करना, हक के मुखालिफीन की डाली हुई 
मुसीबतों से पस्तहिम्मत न होना, ये सब ईमान के लाजिमी मराहिल (चरण) हैं और आदमी 
सब्र के बगैर इन मराहिल से कामयाबी के साथ गुजर नहीं सकता। 

फिरऔन को अपने इक्तेदार पर और अपने बागों और इमारतों पर घमंड था। हजरत 
मूसा की हिजरत के बाद फिरऔन और उसका लश्कर समुद्र में गर्क कर दिया गया। ओलों 
और टिड़्डियों ने मिस्र के सरसब्ज व शादाब बागात को उजाड़ दिया और जलजलों ने उनकी 
शानदार इमारतें ठा दीं। दूसरी तरफ हजरत मूसा की चन्द नस्लों के बाद हजरत दाऊद और 
हजरत सुलेमान के जमाने मेंबनी इम्नईल अतराफेमिम्न (शाम व फिलिस्तीन) पर काबिज हो 
गए। निशानियों को झुठलाने वाले हमेशा खुदा के गजब के मुस्तहिक होते हैं और सब्र करने 
वाले हमेशा ख़ुदा की नुसरत के। 


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और हमने बनी इस्राईल को समुद्र के पार उतार दिया। फिर उनका गुजर एक ऐसी कौम 
पर हुआ जो पूजने में लग रहे थे अपने बुतों के। उन्होंने कहा ऐ मूसा, हमारी इबादत 
के लिए भी एक बुत बना दे जैसे इनके बुत हैं। मूसा ने कहा, तुम बड़े जाहिल लोग 


हो। ये लोग जिस काम में लगे हुए हैं वह बर्बाद होने वाला है और ये जो कुछ कर 
रहे हैं वह बातिल है। उसने कहा, क्या में अल्लाह के सिवा कोई और माबूद तुम्हारे 





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सूरह-7. अल-आराफ 423 पारा 9 


लिए तलाश करू हालांकि उसने तुम्हें तमाम अहले आलम पर फजीलत (श्रेष्ठता) दी 
है। और जब हमने फिरऔन वालों से तुम्हें नजात दी जो तुम्हें सख्त अजाब में डाले हुए 

थे। तुम्हारे बेटों को कत्ल करते और तुम्हारी औरतों को जिंदा रहने देते और इसमें 

तुम्हारे रब की तरफ से तुम्हारी बडी आजमाइश थी। (38-4]) 


बनी इस्राईल बहरे अहमर (लाल सागर) के शिमाली (उत्तरी) सिरे को पार करके जजीरा 
नुमाए सीना में पहुंचे। फिर शिमाल से जुनूब (दक्षिण) की तरफ समुद्र के किनारेकिनारे 
अपना सफर शुरू किया। इस दर्मियान में किसी मकाम से गुजरते हुए बनी इस्राईल ने एक 
कौम को देखा कि वह बुत की परस्तिश में मशगूल है। उस वक्‍त बनी इस्राईल के कुछ लोगों 
ने (न कि सारे बनी इस्राईल ने) यह तकाजा किया कि उनके लिए एक बुत बना दिया जाए। 

आदमी की सबसे बड़ी कमजोरी जाहिरपरस्ती है। वह गैब में छुपे हुए खुदा पर अपना 
जेहन पूरी तरह जमा नहीं पाता, इसलिए वह किसी न किसी जाहिरी चीज में अटक कर रह 
जाता है। कुछ बेशुऊर लोग पत्थर और धातु के बने हुए बुतों के आगे झुकते हैं। और जो 
लोग ज्यादा मुहज्जब (सभ्य) हैंवे किसी शख्मियत, किसी कौम या किसी तमदुदुनी (सांस्कृतिक) 
ढांचे को अपनी तवज्जोह का मकज बना लेते हैं। 

बनी इस्राईल के कुछ अफराद ने जब हजरत मूसा से जाहिरी बुत गढ़ने की फरमाइश की 
तो आपने फरमाया ये लोग जिस काम में लगे हुए हैं वह सब बर्बाद किया जाने वाला है। यानी 
हमारा मिशन तो यह है कि हम इन जाहिरी ख़ुदाओं को तोड़कर ख़त्म कर दें और आदमी को 
पूरी तरह सिर्फ एक ख़ुदा का परस्तार बनाएं। फिर कैसे मुमकिन है कि हम खुद ही इस किस्म 
का एक जाहिरी ख़ुदा अपने लिए गढ़ लें। 

“बनी इस्राईल को तमाम अहले आलम पर फजीलत दी' से मुराद किसी किस्म की नस्ली 
Ki] (श्रेष्ठता) नहीं है बल्कि मंसबी (दायित्वपूर्ण) फीलत है। यह उसी मअना मेंहै 
जिसमें उम्मते मुहम्मदी के बारे मे कहा गया है कि “तुम खैरे उम्मत हो’ । अल्लाह तआला की 
सुन्नत यह है कि वह किसी गिरोह को अपनी किताब का हामिल बनाता है और उसके जरिए 
दूसरी कौमों तक अपना पैगाम पहुंचाता है। कदीम जमाने में यह मंसब बनी इस्राईल (यहूद) 
को हासिल था, ख़त्मे नुबुव्वत के बाद यह मंसब उम्मते मुहम्मदी को दिया गया। 

फिरऔन को यह मौका मिलना कि वह बनी इस्राईल पर जुल्म करे। यह बनी इश्लाईल 
के लिए बतौर आजमाइश था न कि बतौर अजाब। इस तरह की आजमाइश इस लिए होती 
है कि अहले ईमान को झिंझोड़ कर बेदार किया जाए। यह मालूम किया जाए कि कौन 
मुश्किल हालात में खुदा के दीन से फिर जाता है और कौन है जो सब्र की हद तक ख़ुदा के 
दीन पर कायम रहने वाला है। 


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पारा 9 424 सूरह-7. अल-आराफ 
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और हमने मूसा से तीस रातों का वादा किया और उसे पूरा किया दस मजीद रातों से 
तो उसके रब की मुद्दत चालीस रातों में पूरी हुई। और मूसा ने अपने भाई हारून से 
कहा, मेरे पीछे तुम मेरी कौम में मेरी जानशीनी (प्रतिनिधित्व) करना, इस्लाह (सुधार) 
करते रहना, और बिगाड़ पैदा करने वालों के तरीके पर न चलना। और जब मूसा हमारे 
वक्‍त पर आ गया और उसके रब ने उससे कलाम किया तो उसने कहा, मुझे अपने को 
दिखा दे कि में तुझे देखूं। फरमाया, तुम मुझे हरगिज नहीं देख सकते। अलबत्ता पहाड़ 

की तरफ देखो, अगर वह अपनी जगह कायम रह जाए तो तुम भी मुझे देख सकोगे। 

फिर जब उसके रब ने पहाड़ पर अपनी तजल्ली (आलोक) झली तो उसे स्मर कर 
दिया। और मूसा बेहोश होकर गिर पड़ा। फिर जब होश आया तो बोला, तू पाक है, 
मैंने तेरी तरफ रुजूअ किया और में सबसे पहले ईमान लाने वाला हूं। (42-43) 





हजरत हारून हजरत मूसा के बड़े भाई थे, हजरत मूसा की उम्र उनसे तीन साल कम 
थी। मगर नुबुखत अस्लन हजरत मूसा को मिली और हजरत हारून उनके साथ सिर्फ 
मददगार की हैसियत से शरीक किए गए। इससे अंदाजा होता है कि दीनी ओहदों की तक्सीम 
में असल अहमियत इस्तेदाद (क्षमता) की है न कि उम्र या इसी किस्म की दूसरी इजाफी चीजों 
को। 

हजरत मूसा को मिस्र में दावती अहकाम दिए गए थे और सहराए सीना में पहुंचने के 
बाद पहाड़ी पर बुलाकर कानूनी अहकाम दिए गए। इससे खुदाई अहकाम को तर्तीब मालूम 
होती है। आम हालात में खुदापरस्तों से जो चीज मत्लूब है वह यह कि वे जाती जिंदगी को 
दुरुस्त करें और ख़ुदा के परस्तार बनकर रहें। इसी के साथ दूसरों को भी तौहीद व आखिरत 
की तरफ बुलाएं। मगर जब अहले ईमान आजाद और बाइख़्तियार गिरोह की हैसियत हासिल 
कर लें, जैसा कि सहराए सीना में बनी इस्राईल थे, तो उन पर यह फर्ज भी आयद हो जाता 
है कि अपनी इज्तिमाई जिंदगी को शरई कानूनों की बुनियाद पर कायम करें। 

हजरत मूसा ने अपनी गैर मौजूदगी के लिए जब हजरत हारून को बनी इस्राईल का 
निगरां बनाया तो फरमाया : 'इस्लाह (सुधार) करते रहना और बिगाड़ पैदा करने वालों के 
तरीके पर न चलना” (42)। इससे मालूम होता है कि इज्तिमाई सरबराह (प्रमुख) के लिए 
अपनी जिम्मेदारियों को अदा करने का बुनियादी उसूल क्या है। वह हैइस्लाह और 
मुझिदीन (उपद्रवियों) की पैरवी न करना। इस्लाह से मुराद यह है कि मुख़्लिफ अफराद के 


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सूरह-7. अल-आराफ 425 पारा 9 


दर्मिधान इंमाफका तवाज (संतुलन) किसी हाल में टूटने न दिया जाए। हर एक को वही मिले 
जो उसे अजरूए अदूल (न्यायानुसार) मिलना चाहिए और हर एक से वही छीना जाए जो अजरूए 
अदूल उससे छीना जाना चाहिए । इस इस्लाही अमल में अक्सर उस वक्त ख़राबी पैदा होती 
है जबकि सरदार 'मुफ्सिदीन' (उपद्रवियों) की पैरवी करने लगे। यह पैरवी कभी इस शक्ल में 
होती है कि उसके मुकर्रबीन (समीपवर्ती) अपने जाती अग़राज की बिना पर जो कुछ कहें वह 
उन्हें मान ले। और कभी इस तरह होती है कि मुफ्सिदीन की ताकत से ख़फजदा होकर वह 
खामोशी इख्तियार कर ले। 

हजरत मूसा ने ख़ुदा को देखना चाहा और जब मालूम हुआ कि खुदा को देखना मुमकिन 
नहीं तो उन्होंने तौबा की और बगैर देखे ईमान का इकरार किया। इंसान का इम्तेहान यह है 
कि वह देखे बगैर ख़ुदा को माने। ख़ुदा को देखना आखिरत (परलोक) का एक इनाम है फिर 
वह मौजूदा दुनिया में क्योंकर मुमकिन हो सकता है। 


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अल्लाह ने फरमाया, ऐ मूसा मैंने तुम्हें लोगों पर अपनी पेग़म्बरी और अपने कलाम के 
जरिए से सरफराज किया। पस अब लो जो कुछ मैंने तुम्हं अता किया है। और 
शुक्रगुजारों में से बनो। और हमने उसके लिए तख्तियों पर हर किस्म की नसीहत और 
हर चीज की तफ्सील लिख दी। पस इसे मजबूती से पकड़े और अपनी कैम को हम 

दो कि इनके बेहतर मफहूम (भावार्थ) की पेरवी करें। अनकरीब में तुम्हें नाफरमानों का 

घर दिखाऊगा। (44-45) 














हजरत मूसा को पहली बार नुबुव्वत पहाड़ के ऊपर मिली थी और दूसरी बार भी तौरात 
के अहकाम उन्हें पहाड़ पर बुलाकर दिए गए। यह इस बात का एक इशारा है कि ख़ुदा का 
फैजान हासिल करने की सब से ज्यादा मीट जगह फितरत का माहैल है न कि इंसानी 
आबादियों का माहौल । इंसानों की पुरशोर दुनिया से निकल कर आदमी जब पत्थरों और 
दरख्तों की ख़ामोश दुनिया में पहुंचता है तो वह अपने आपको खुदा के करीब महसूस करने 
लगता है। वह मस्नूई (कृत्रिम) एहसासात से ख़ाली होकर अपनी फितरी (स्वाभाविक) हालत 
पर पहुंच जाता है। यह किसी आदमी के लिए बेहतरीन लम्हा होता है जबकि वह बेआमेज 
फितरी (सहज-स्वाभाविक) अंदाज में सोचे और यकसू (एकाग्र) होकर अपने रब से जुड़ सके। 
पैगम्बर आम इंसानों में से एक इंसान होता है। वह किसी भी एतबार से कोई गैर इंसानी 
मख्नूक नहीं होता। उसकी खुसूसियत सिर्फ यह होती है कि वह अपनी पेदाइशी इस्तेदाद 
(क्षमता) को महफूज रखने मे कामयाब हो जाता है इसलिए खुदा उसे चुनता है कि वह उसके 





पारा 9 426 सूरह-7. अल-आराफ 


पैगाम का हामिल (धारक) बने और लोगों के दर्मियान उसकी काबिले एतमाद नुमाइंदगी करे। 
हजरत मूसा उस ववत अपनी कौम के बेहतरीन शख्स थे इसलिए खुदा ने उन्हें अपना पैगम्बर 
चुना और उन पर अपना कलाम उतारा। 
खुदा के कलाम में अगरचे हिदायत से मुतअल्लिक हर किस्म की जरूरी तप्सील मौजूद 
होती है मगर वह अल्फाज में होती है और मौजूदा इम्तेहानी दुनिया में बहरहाल इसका इम्कान 
बाकी रहता है कि आदमी इन अल्फाज की ग़लत तशरीह करके उसे गैर मत्लूब मअना पहना 
दे। मगर जो शख्स हिदायत के मामले में संजीदा हो और ख़ुदा की पकड़ से डरता हो वह इन 
अल्फाज से वही मअना लेगा जो कलामेइलाही की शायानेशान है न कि वह जो उसके नफ्स 
को मरशूब हो। 
मैं अनकरीब तुम्हें नाफरमानों का घर दिखाऊंगा' यानी अपने इस सफर में आगे चलकर 
तुम उन कीमों के खंडहरों से गुजरोगे जिन्हें इससे पहले खुदा की हिदायत दी गई थी। मगर 
वे उसे मजबूती के साथ पकड़ने में नाकाम साबित हुए। हालात के दबाव या जज्बात के 
मैलान को नजरअंदाज करके वे उस पर ठीक तरह कायम न रह सके। चुनांचे उनका अंजाम 
यह हुआ कि वे हलाक कर दिए गए। अगर तुमने ऐसा किया तो तुम्हारा अंजाम भी दुनिया 
व आखिरत में वही होगा जो उन पिछली कौमों का हुआ। ख़ुदा का मामला जैसा एक कौम 
के साथ है वैसा ही मामला दूसरी कौम के साथ है। अदले इलाही (ईश-न्याय) की मीजान 
(तुला) में एक कैम और दूसरी कैम के दर्मियान कोई फर्क नहीं। 
इस दुनिया में यह मौका है कि आदमी अपनी ख़ुदसाख्ता तशरीह से ख़ुदा के अहसन 
(अच्छे) कलाम का कोई गैर अहसन मफहूम (भावार्थ) निकाल ले। मगर यह ऐसी जसारत है 
जो फरमांबरदारी के दावेदार को भी नाफरमानों की फेहरिस्त में शामिल कर देती है। 


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मैं अपनी निशानियों से उन लोगों को फेर दूंगा जो जमीन में नाहक घमंड करते हैं। 

और अगर वे हर किस्म की निशानियां देख लें तब भी उन पर ईमान न लाएं। और 
अगर वे हिदायत का रास्ता देखें तो उसे न अपनाएंगे और अगर गुमराही का रास्ता देखें 
तो उसे अपना लेंगे। यह इस सबब से है कि उन्होंने हमारी निशानियों को झुठलाया 
और उनकी तरफ से अपने को गाफिल रखा। और जिन्होंने हमारी निशानियां को और 
आखिरत की मुलाकात को झुठलाया उनके आमाल अकारत हो गए और वे बदले में 
वही पाएंगे जो वे कहते थे। (46-47) 











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सूरह-7. अल-आराफ 427 पारा 9 


दुनिया में जिंदगी गुजारने की दो सूरते हैं। एक यह कि आदमी ने अपने आंख और कान 
खुले रखे हों। वह चीजों को उनके असली रंग में देखता और सुनता हो। ऐसे आदमी के 
सामने हक आएगा तो वह उसे पहचान लेगा। दुनिया में बिखरी हुई खुदाई निशानियां उसे जो 
सबक देंगी वह उन्हें पा लेगा। दूसरी सूरत यह है कि आदमी मुतकब्बिराना नफ्सियात 
(अहंभाव) के साथ जी रहा हो। वह जमीन में इस तरह रहता हो जैसे वह उसका मालिक हो, 
उसे अपने जाती दाजियात (निजी भावनाओं) के सिवा किसी और चीज की परवाह न हो। 
वह समझता हो कि यहां जो कुछ उसे मिल रहा है वह अपनी लियाकत की वजह से मिल रहा 
है। अपनी मिली हुई चीजों में उसे किसी और की मर्जी का लिहाज करने की जरूरत नहीं। 
इस दूसरे आदमी का इस्तगना (उदासीनता) उसके लिए कुबूलेहक में रुकावट बन जाएगा। 
पहले आदमी की नफ्सियात लेने वाली नपिसियात होती है। वह अपने खुले जेहन की 
वजह से ख़ुदा के हर इशारे को पढ़ लेता है। और फौरन अपने आपको उसके मुताबिक ढाल 
लेता है। इसके बरअक्स दूसरे आदमी की नपिसियात बेनियाजी (उदासीनता) की नपिसयात 
होती है। उसके सामने हक के दलाइल आते हैं मगर वह उन्हें गैर अहम समझ कर 
नजरअंदाज कर देता है। उसके सामने कुदरत ख़ामोश जबान में अपना नगमा छेड़ती है मगर 
वह उस पर ध्यान देने की जरूरत नहीं समझता। उसके अपने से बाहर किसी सच्चाई की 
तरफ रबत नहीं होती। मौत के बाद आने वाली दुनिया सिर्फ पहले लोगों के लिए है। दूसरे 
लोग खुदा की अबदी (चिरस्थाई) दुनिया में उसी तरह नजरअंदाज कर दिए जाएंगे जिस तरह 
मौजूदा इम्तेहान की दुनिया में वे खुदा की बात को नजरअंदाज किए हुए थे। 
गुमराही का रास्ता नफ्स (अंतःकरण) के मुहर्रिकात (प्रेरको) के तहत बनता है और 
हिदायत का रास्ता वह है जो नफ्स और माहौल के असरात से ऊपर उठकर ख़ालिस ख़ुदा के 
लिए वुजूद में आता है। अब जो लोग अपनी जात की सतह पर जी रहे हों , जो सिर्फ अपने 
नफ्स के अंदर उभरने वाले दाअियात (भावनाओं) को जानते हों वे गुमराही के रास्ते पर ऐन 
अपनी चीज समझ कर उसकी तरफ दौड़ पढ़ी। हिदायत का रास्ता उनका अपने मिजाज के 
एतबार से अजनबी दिखाई देगा इसलिए वे उसकी तरफ बढ़ने में भी नाकाम साबित होंगे। 
बड़ाई की नप्सियात उस चीज को आसानी से कुबूल कर लेती है जिसमें उसकी बड़ाई 
बाकी रहे। और जहां उसकी बड़ाई ख़त्म होती हो उससे उसे कोई दिलचस्पी नहीं होती । 








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और मूसा की कौम ने उसके पीछे अपने जेवरों से एक बछड़ा बनाया, एक धड़ जिससे 
बैल की सी आवाज निकलती थी। क्या उन्होंने नहीं देखा कि वह न उनसे बोलता है 
और न कोई राह दिखाता है। उसे उन्होंने माबूद (पूज्य) बना लिया और वे बड़े जालिम 
थे। और जब वे पछताए और उन्होंने महसूस किया कि वे गुमराही में पड़ गए थे तो 
उन्होंने कहा, अगर हमारे रब ने हम पर रहम न किया और हमें न बख़्शा तो यकीनन 
हम बर्बाद हो जाएंगे। और जब मूसा रंज और गुस्से में भरा हुआ अपनी कौम की तरफ 
लौटा तो उसने कहा, तुमने मेरे बाद मेरी बहुत बुरी जानशीनी (प्रतिनिधित्व) की। क्या 
तुमने अपने रब के हुक्म से पहले ही जल्दी कर ली। और उसने तख्तियां डाल दीं और 
अपने भाई का सिर पकड़ कर उसे अपनी तरफ खींचने लगे। हारून ने कहा, ऐ मेरी 
मां के बेटे, लोगों ने मुझे दबा लिया और करीब था कि मुझे मार डालें। पस तू दुश्मनों 
को मेरे ऊपर हंसने का मौका न दे और मुझे जालिमों के साथ शामिल न कर। मूसा 
ने कहा, ऐ मेरे रब माफ कर दे मुझे और मेरे भाई को और हमें अपनी रहमत में दाखिल 
फरमा और तू सबसे ज्यादा रहम करने वाला है। (48-5) 


बनी इस्राईल के गिरोह में उस वक्‍त सामिरी नाम का एक बहुत शातिर आदमी था। 
हजरत मूसा जब बनी इस्राईल को हजरत हारून की निगरानी में छोड़कर पहाड़ पर चले गए 
तो उसने लोगों को बहकाया। उसने लोगों से जेवरात लेकर उन्हें बड़े की सूरत में ढाल 
दिया । बुतगरी (मूर्ति शिल्प) के कदीम मिम्नी फन के मुताबिक बछड़े की यह मूरत इस तरह 
बनाई गई थी कि जब उसके अंदर से हवा गुजरे तो उसके मुंह से ख़रार (बैल की डकार की 
सी आवाज) आए। लोग आम तौर पर अजूबापसंद होते हैं। चुनांचे इतनी सी बात पर बहुत 
से लोग शुबह में पड़ गए और उसके बारे में खुदाई तसव्युर (धारण) कायम कर लिया। एक 
शातिर आदमी ने कुछ अवामी बातें करके भीड़ को भीड़ अपने गिर्द जमा कर ली। उसका जोर 





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इतना बढ़ा कि हजरत हारून और संभवतः उनके चन्द साथियों के सिवा कोई खुल्लम खुल्ला 
एहतेजाज (प्रतिरोध) करने वाला भी न निकला । जाहिर है कि जिस अवामी तूफान में पैगम्बर 
के नायब की आवाज दब जाए वहां कैसे कोई बोलने की जुर्रत कर सकता है। 

अवाम का जैक हर जमाने में यही रहा है और आज भी वह पूरी तरह मौजूद है। आज 
भी एक होशियार आदमी अपनी तकरीरों और तहरीरों से किसी न किसी “ख़्वार' पर लोगों 
की भीड़ जमा कर लेता है। लोग यह नहीं सोचते कि जिस चीज के गिर्द वे जमा हो रहे हैं 
वह महज एक तमाशा है न कि सचमुच कोई हकीकत । कोई संजीदा आदमी अगर इस तमाशे 
की हकीकत को खोलता है तो उसका वही अंजाम होता है जो बनी इस्राईल के दर्मियान 
हजरत हारून का हुआ। 


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सूरह-7. अल-आराफ 429 पारा 9 


हजरत मूसा ने जब देखा कि बनी इस्राईल मुश्रिकाना फेअल में मशगूल हैं तो उन्हें गुमान 
हुआ कि हजरत हारून ने इस्लाह (सुधार) के सिलसिले में कोताही की है। चुनांचे गुस्से में उन्हें 
पकड़ लिया। मगर जैसे ही उन्होंने बताया कि उन्होंने अपनी इस्लाह की कोशिश में कोई कमी 
न की थी तो उनके बयान के बाद फौरन रुक गए और अपने लिए और हजरत हारून के लिए 
ख़ुदा से दुआ करने लगे। एक मोमिन को दूसरे मोमिन के बारे में बड़ी से बड़ी गलतफहमी हो 
सकती है मगर मामले की वजाहत के बाद वह ऐसा हो जाता है जैसे उसे गलतफहमी पैदा ही नहीं 
हुई थी। 


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बेशक जिन लोगों ने बछड़े को माबूद (पूज्य) बनाया उन्हें उनके रब का ग़जब पहुंचेगा 
और जिल्लत दुनिया की जिंदगी में। और हम ऐसा ही बदला देते हैं झूठ बांधने वालों 


को। और जिन लोगों ने बुरे काम किए फिर इसके बाद तोबा की। और ईमान लाए 
तो बेशक इसके बाद तेरा रब बझ्शने वाला महरबान है। (52-53) 


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बनी इस्राईल के बछड़ा बनाने को यहां इफ्तिरा (झूठ बांधना) कहा गया है। ऐसा क्यों 
है। इसकी वजह यह है कि उन्होंने यह बातिल काम हक के नाम पर किया था। उन्होंने अपना 
यह काम ख़ुदा के दीन का इंकार करके नहीं किया था बल्कि ख़ुदा के दीन को मानते हुए 
किया था। अपनी इस बेदीनी को वे दीनी अल्फाज में बयान करते थे। मुश्रिकीन के आम 
अकीदे की तरह, वे कहते थे कि ख़ुदा उन की गढ़ी हुई मूरत में हुलूल कर आया है। इसलिए 
उसकी इबादत ख़ुद ख़ुदा की इबादत के हममअना है। यहां तक कि इस फेअल (कृत्य) के 
लीडर सामिरी ने उसके हक में कश्फ व करामत (दिव्य निर्देश) की दलील भी तलाश कर ली। 
उसने कहा कि मैंने ख़्वाब में देखा कि जिब्रील आए हैं और मैंने उनके घोड़े के नक्शे कदम 
से एक मुट्ठी मिट्टी उठाई है और एक बछड़ा बनाकर उसके अंदर वह मिट्टी डाल दी तो 
मुकद्दस (पवित्र) मिट्टी की बरकत से वह बछड़ा बोलने लगा। गोया सामिरी और उसके 
साथी ख़ुदा की तरफ ऐसी बात मंसूब कर रहे थे जो ख़ुदा ने खुद नहीं बताई थी। इस किस्म 
की निस्बत इफ्तिरा (खुदा पर झूठ बांधना) है चाहे वह एक सूरत में हो या दूसरी सूरत में। 
कोई दीन का हामिल (धारक) गिरोह इस किस्म का इपितरा करता है, वह बेदीनी के फेअल 
को दीन का नाम दे देता है, तो यह चीज ख़ुदा के गजब को शदीद तौर पर भड़का देती है। उसके 
मुतअल्लिक यह फैसला किया जाता है कि उसे आहरत से पहले दुनिया की जिंदगी ही में 
रुस्वाकुन सजा दी जाए। बनी इस्राईल के लिए यह दुनियावी सजा इस सूरत में आई कि हजरत 
मूसा के हुम पर हर कबीले के मुख्तिस जिम्मेदारों ने अपने अपने कबीले के उन अफराद को 
पकड़ा जिन्होंने बछड़ा बनाने के इस काम में हिस्सा लिया था और इस फितने में बराहेरास्त 
शरीक रहे थे। इसके बाद हर कबीले के अफराद ने खुद अपने हाथ से अपने कबीले के मुजरिमीन 


पारा 9 430 सूरह-7. अल-आराफ 


को कल्ल कर दिया। इस दर्दनाक अंजाम से सिर्फ वे लोग बचे जो अपने इस फेअल पर सर्न 
शर्मिन्दा हुए और उन्होंने अपने जुर्म का इकरार करते हुए तौबा की। 
बनी इञ्नाईल के जुर्म पर खुदा ने जिस सजा का फैसला किया उसका निफज खु उनकी 
अपनी तलवारों से किया गया । ताहम इस किस्म के फैसले का निफाज कभी अगयार (अन्ये 
की तलवारों के जरिए किया जाता है। और अगयार की तलवारों से इसका निफाज उस वक्‍त 
होता है जबकि सजा के साथ रुस्वाई को भी शामिल कर देने का फैसला किया गया हो। 
गुनाह पर तौबा यह है कि गुनाह हो जाने के बाद आदमी अपने उस फेअल पर शदीद 
शर्मिन्दा हो। तौबा की असल हकीकत शर्मिन्दगी है। यह शर्मिन्दगी इस बात की जमानत है 
कि आदमी अपने पूरे वजूद से फैसला करे कि आइंदा वह ऐसा फेअल (कृत्य) न करेगा। कोई 
गुनाहगार जब इस तरह शर्मिन्दगी का और आइंदा के लिए परहेज के अज्म (संकल्प) का 
सुबूत दे देता है तो गोया कि वह दुबारा ईमान लाता है, दीन के दायरे से निकल जाने के बाद 
वह दुबारा ख़ुदा के दीन में दाखिल होता है। 


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और जब मूसा का गुस्सा थमा तो उसने तख्तियां उठाई और जो उनमें लिखा हुआ था 
उसमें हिदायत और रहमत थी उन लोगों के लिए जो अपने रब से डरते हैं। और मूसा 
ने अपनी कीम में से सत्तर आदमी चुने हमारे मुकरर किए हुए वक्‍त के लिए। फिर जब 
उन्हें जलजले ने पकड़ा तो मूसा ने कहा ऐ रब, अगर तू चाहता तो तू पहले ही इन्हें 
हलाक कर देता और मुझे भी। क्या तू हमें ऐसे काम पर हलाक करेगा जो हमारे अंदर 
के बेवकूफों ने किया। ये सब तेरी आजमाइश है तू इससे जिसे चाहे गुमराह कर दे और 
जिसे चाहे हिदायत दे। तू ही हमारा थामने वाला है। पस हमें बख्श दे और हम पर 
रहम फरमा, तू सबसे बेहतर बख़्शने वाला है। और तू हमारे लिए इस दुनिया में भी 


भलाई लिख दे और आख़िरत में भी। हमने तेरी तरफ रुजूअ किया। अल्लाह ने कहा, 
मैं अपना अजाब उसी पर डालता हूं जिसे चाहता हूं और मेरी रहमत शामिल है हर चीज 





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सूरह-7. अल-आराफ 43] पारा 9 


को। पस मैं उसे लिख दूंगा उनके लिए जो डर रखते हैं और जकात अदा करते हैं और 
हमारी निशानियों पर ईमान लाते हैं। (54-56) 


बनी इस्राईल के बछड़ा बनाने से यह जाहिर हुआ था कि उनके अंदर ख़ुदा पर वह 
यकीन नहीं है जो होना चाहिए। चुनांचे उन्हें पहाड़ पर बुलाया गया। हजरत मूसा मुर्कररह 
वक्त के मुताबिक बनी इस्राईल के सत्तर नुमाइंदा अफराद को लेकर दुबारा कोहेतूर पर गए। 
वहां खुदा ने गरज चमक और जलजले के जरिए ऐसे हालात पैदा किए जिससे बनी इस्राईल 
के लोगों के अंदर इनाबत व ख़शिय्यत (ईशभय) पैदा हो। चुनांचे इसके बाद वे ख़ुदा के 
सामने रोए गिड़गिड़ाए और इज्तिमाई (सामूहिक) तौबा की। उन्होंने अहद किया कि वे तौरात 
के अहकाम पर सच्चाई के साथ अमल करेंगे। 

इस मौके पर हजरत मूसा ने दुआ कि 'ऐ हमारे रब, हमारे लिए दुनिया और आखिरत 
में भलाई लिख दे” अल्लाह तआला ने इसके जवाब में फरमाया मैं जिस पर चाहता हूं अपना 
अजाब डालता हूं और मेरी रहमत हर चीज को शामिल हैं' हजरत मूसा की दुआ बहैसियत 
मज्मूई अपनी पूरी उम्मत के लिए थी। मगर अल्लाह तआला ने अपने जवाब में वाजेह कर 
दिया कि नजात और कामयाबी कोई गिरोही चीज नहीं है। इसका फैसला हर हर फर्द के लिए 
उसके जाती अमल की बुनियाद पर होता है। अगरचे मैं तमाम रहम करने वालों से ज्यादा 
रहीम हूं। मगर जो शख्स अमले सालेह (सत्कर्मो) का सुबूत न दे वह मेरी पकड़ से बच नहीं 
सकता, चाहे वह किसी भी गिरोह से तअल्लुक रखता हो। 

खुदा की किताब हिदायत व रहमत होती है। वह दुनिया की जिंदगी में आदमी के लिए 
बेहतरीन रहनुमा है और आख़िरत में ख़ुदा की रहमत का यकीनी जरिया । मगर खुदा की किताब 
का यह फायदा सिफ उसे मिलता है जो 'डर” रखता हो, जिसे अंदेशा लगा हुआ हो कि मालूम नहीं 
ख़ुदा मेरे साथ क्या मामला करेगा । ये वे लोग हैं जो सच्चे हक के तालिब होते हैं। उनके सामने 
जब हक आता है तो वे किसी किस्म की नपिसयाती पेचीदगी में मुन्तिला हुए बगैर उसे पा लेते 
हैं। इसके बाद खुदा उनके ख़ोफ और उम्मीद का मकज बन जाता है। उनका सब कुछ खुदा के 
लिए वक्फ हो जाता है। उनका डर उनके शुऊर को बेदार कर देता है। उनकी निगाह से तमाम 
मस्नूई पर्दे हट जाते हैं। खुदा की तरफ से जाहिर होने वाली निशानियों को पहचानने में वे कभी 
नहीं चूकते। वे दिशे की नपिसियात में जीते हैं न कि कनात (संतोष) की नपिसियात में। 


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पारा 9 432 सूरह-7. अल-आराफ 


जो लोग पैरवी करेंगे उस रसूल की जो नबी उम्मी (अनपढ़) है, जिसे वे अपने यहां तौरात 
और इंजील में लिखा हुआ पाते हैं। वह उन्हें नेकी का हुक्म देता है और उन्हें बुराई से रोकता 
है और उनके लिए पाकीजा चीजंजाइज ठहराता है और नापाक चीजंहराम करता है और उन 

पर से वह बोझ और कैदे उतारता है जो उन पर थीं। पस जो लोग उस पर ईमान लाए और 
जिन्होंने उसकी इज्जत की और उसकी मदद की और उस नूर की पैरवी की जो उसके साथ 

उतारा गया है तो वही लोग फलाह पाने वाले हैं। (57) 





बनी इस्राईल देखते चले आ रहे थे कि जितने नबी आते हैं वे सब उनकी अपनी कौम 
में आते हैं। आखिरी रसूल ख़ुदा के मंसूबे के मुताबिक बनी इस्माईल में आने वाला था। 
इसलिए ख़ुदा ने बनी इस्राईल के नबियों के जरिए उन्हें पहले से इनकी ख़बर कर दी। उनकी 
किताबों में कसरत से इसकी पेशीनगोइयां अभी तक मौजूद हैं। ऐसा इसलिए हुआ ताकि जब 
आखिरी रसूल आए तो वे किसी बड़े फितने में न पड़ें और आसानी से उसे पहचान कर उसके 
साथी बन जाएं। 

पैग़म्बरे इस्लाम पढ़े लिखे न थे। आप उम्मी रसूल थे। उम्मियत के साथ पैग़म्बरी, जो 
पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की जिंदगी में आखिरी और 
इंतिहाई सूरत में जमा हुई यही हमेशा के लिए अल्लाह तआला की सुन्नत है। मअरफते 
ख़ुदावंदी का इज्हार हमेशा 'उम्मियत' की सतह पर होता है। यानी वह किसी ऐसे शख्स के 
जरिए जहिर किया जाता है जो दुनियावी मेयार के लिहाज से इस किस्म के अजीम काम का 
अहल न समझा जाता हो। तारीख़ (इतिहास) में कभी ऐसा नहीं हुआ कि ख़ुदा ने बुकरात 
और अफलातून को अपना पैगम्बर बनाकर भेजा हो। 

दीन की अस्ल रूह अल्लाह का ख़ैफ और आखिरत की फिक्र है। मगर बाद के जमाने 
में जब अंदरूनी रूह सर्द पड़ती है तो जवाहिर (वाह्यता) का जोर बहुत बढ़ जाता है। अब 
गैर जरूरी मूशिगाफियां (कुतक) करके नए-नए मसाइल बनाए जाते हैं। रूहानियत के नाम 
पर मशकों और रियाजतों (साधना) का एक पूरा ढांचा खड़ा कर लिया जाता है। अवामी 
तवह्हुमात (अंधविश्वास) मुकद्दस होकर नई शरीअत की सूरत इख्तियार कर लेते हैं। यहूद 
का यही हाल हो चुका था। उन्होंने खुदा के दीन के नाम पर तवहहुमात और जकड़बंदियों का 
एक ख़ुदसाख्ता ढांचा बना लिया था और उसे ख़ुदा का दीन समझते थे। पैग़म्बरे इस्लाम ने 
उनके सामने दीन को उसकी फितरी सूरत में पेश किया । गैर जरूरी पाबंदियों को ख़त्म करके 
सादा और सच्चे दीन की तरफ उनकी रहनुमाई फरमाई। 

पेग़म्बर जब आता है तो सबसे बड़ी नेकी यह होती है कि उस पर ईमान लाया जाए। 
मगर यह ईमान आम मअनों में महज एक कलिमा पढ़ाना नहीं है। यह बेरूह ढांचे वाले दीन 
से निकल कर जिंदा शुऊर वाले दीन में दाखिल होना है। साबिका (पूर्ववर्ती) मजहबी ढांचे से 
आदमी की वाबस्तगी महज तारीख़ी रिवायात या नस्ली रवाज के जोर पर होती है। मगर नए 
पैगम्बर के दीन को जब वह कुबूल करता है तो वह उसे शुऊरी फैसले के तहत कुबूल करता 
है, वह रस्म से निकल कर हकीकत के दायरे में दाखिल होता है। बजाहिर यह एक सादा सी 








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सूरह-7. अल-आराफ 433 पारा 9 


बात मालूम होती है। मगर यह सादा बात हर दौर में इंसान के लिए मुश्किलतरीन बात साबित 
हुई है। 


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कहो ऐ लोगो, बेशक मैं अल्लाह का रसूल हूं तुम सबकी तरफ जिसकी हुकूमत है 
आसमानों और जमीन में। वही जिलाता है और वही मारता है। पस ईमान लाओ 
अल्लाह पर और उसके उम्मी रसूल व नबी पर जो ईमान रखता है अल्लाह और उसके 
कलिमात (वाणी) पर और उसकी पेरवी करो ताकि तुम हिदायत पाओ। और मूसा की 
कौम में एक गिरोह ऐसा भी है जो हक के मुताबिक रहनुमाई करता है और उसी के 

मुताबिक इंसाफ करता है। (58-59) 











'कहो मैं सब इंसानों की तरफ अल्लाह का रसूल हूं' का मतलब यह नहीं है कि दूसरे 
तमाम पैगम्बर कौमी पैगम्बर थे और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम बैनुलअक्वामी 
(अन्तर्राष्ट्रीय) पैगम्बर हैं। यह बात बतौर तकाबुल (तुलना) नहीं कही गई है बल्कि बतौर 
वाक्या कही गई है। 

अस्ल यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम की दो बेअसतें (आगमन) हैं। एक बराहेरास्त, दूसरी 
बिलवास्ता उम्मत। आपकी बराहेरास्त (प्रत्यक्ष) बेअसत अरब के लिए थी (अनआम 92) और 
आपकी बिलवास्ता (परोक्ष) बेअसत सारे आलम के लिए है (हज्ज 78)। हुक्मन (सिद्धांततः) 
यही नौइयत ख़ुदा के तमाम पैगम्बरों की थी। मगर दूसरे पैगम्बरों का दीन महफूज हालत में 
बाकी न रह सका इसलिए यह मुमकिन नहीं हुआ कि वे तमाम आलम के लिए नजीर व बशीर 
(डराने और खुशखबरी देने वाले) बनते। आज मसीहियत की तब्लीग़ सारे आलम में बहुत बड़े 
पेमाने पर हो रही है। इसके बावजूद हजरत मसीह की नुबुव्वत सिर्फ फिलिस्तीन तक महदूद 
होकर रह गई। क्योंकि हजरत मसीह के बाद उनकी तालीमात अपनी अस्ल हालत में बाकी 
नहीं रहीं। आज मसीहियत के नाम से जो दीन लोगों तक पहुंच रहा है वह हकीकतन सेंट पॉल 
का दीन है न कि मसीह का दीन। गोया नबियों के वुस्अतेकार (कार्यक्षेत्र) में जो फर्क है वह 
फर्क्रक्ण्तबार वाक्य है न कि बएतबार तफ्धीज (प्रक्तत)। 

पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल०) अरबी के मुतअल्लिक बाइबल में यह पेशीनगोई (भविष्यवाणी) 
है कि जमीन के सब कबीले उसके वसीले से बरकत पाएंगे पिदाइश बाब 2)। सब कीमों 
तक आपकी बरकत पहुंचना इसलिए मुमकिन हो सका कि आपका लाया हुआ दीन महफूज 
(सुरक्षित) है। हजरत मूसा और हजरत मसीह का दीन महफूज नहीं। इसलिए बजहिर इसकी 
आवाज सब तक पहुंच कर भी उसकी बरकत सब तक न पहुंच सकी। 











पारा 9 434 सूरह+7. अल-आराफ 


अरब में यहूदी कबीले आबाद थे। ये वे लोग थे जिन्हें यह फख़ था कि उनके पास ख़ुदा 
की मुकदूदस किताव (दिव्य ग्रंथ) है। ऐसे लोग हमेशा अपने से बाहर किसी सच्चाई को मानने 
के लिए सबसे ज्यादा सख्त होते हैं। उनका यह एहसास कि वे सबसे बड़ी सच्चाई को लिए 
हुए हैं उनके लिए किसी दूसरे की तरफ से आने वाली सच्चाई को कुबूल करने में रुकावट 
हो जाता है। यही हाल यहूद का हुआ है। उनकी बहुत बड़ी अक्सरियत जिद और तअस्सुब 
की नफ्सियात में मुन्तिला हो गई। सिर्फ चन्द लोग (अब्दुल्लाह बिन सलाम वगैरह) ऐसे निकले 
जिन्होंने खुले जेहन के साथ इस्लाम को देखा । उन्होंने अपनी दुनियावी इज्जत की परवाह 
किए बौर उसकी सदाकत (सच्चाई) का एलान किया और अपनी दुनियावी जिंदगी को उसके 
हवाले कर दिया। 

“रसूल ईमान रखता है अल्लाह पर और उसके कलिमात (वाणी) पर” यह जुमला बताता है 
कि फ्लसफियोंके खुरा और पेगम्बर के खा मॅंक्या फर्कहै। फलसफी का खुदा एक मुज 
रूह (निर्जीव) है। उसे मानना ऐसा ही है जैसे कायनात में कुव्वते कशिश (गुरुत्वाकर्षण शक्ति) 
को मानना । कुव्वते कशिश न बोलती और न हुक्म देती । मगर पैगम्बर का खुदा एक जिंदा और 
बाशुऊर ख़ुदा है। वह इंसानों से हमकलाम होता है। वह अपने बंदों को हुक्म देता है और उस 
हुक्म के मानने या न मानने पर हर एक के लिए इनाम या सजा का फैसला करता है। 


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और हमने उन्हें बारह घरानों में तक्सीम करके उन्हें अलग-अलग गिरोह बना दिया। 
और जब मूसा की कीम ने पानी मांगा तो हमने मूसा को हुक्म भेजा कि फलां चट्टान 

पर अपनी लाठी मारो तो उससे बारह चशमे (जलस्रोत) फूट निकले। हर गिरोह ने अपना 
पानी पीने का मकाम मालूम कर लिया। और हमने उन पर बदलियों का साया किया 
और उन पर मन्न व सलवा उतारा। खाओ पाकीजा चीजों में से जो हमने तुम्हें दी हैं। 

और उन्होंने हमारा कुछ नहीं बिगाड़ा बल्कि खुद अपना ही नुक्सान करते रहे। और जब 
उनसे कहा गया कि उस बस्ती में जाकर बस जाओ। उसमें जहां से चाहो खाओ और 








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सह. अल-आराफ 435 पारा 9 


कहो हमें बख्श दे और दरवाजे में झुके हुए दाखिल हो, हम तुम्हारी ख़ताएं माफ कर 
दॅगे। हम नेकी करने वालों को और ज्यादा देते हैं। फिर उनमें से जालिमाँ ने बदल डाला 
दूसरा लफ्ज उसके सिवा जो उनके कहा गया था। फिर हमने उन पर आसमान से अजाब 
भेजा इसलिए कि वे जुल्म करते थे। (60-62) 


मिस्र की मुश्रिकाना फजा से निकाल कर खुदा ने बनी इस्राईल को सहराए सीना में 
पहुंचाया। यहां उनकी तंजीम कायम की गई। उन्हें बारह जमाअतों में बांट दिया गया। हर 
जमाअत के ऊपर एक निगरां था और हजरत मूसा सबके ऊपर निगरां थे। 

फिर बनी इस्राईल को खुसूसी तौर पर तमाम जरूरियाते जिंदगी अता की गई। पहाड़ी 
चशमे निकाल कर उनके लिए पानी फराहम किया गया। खुले सहरा में साये के लिए उन पर 
मुसलसल बदलियां भेजी गई। उनकी खुराक के लिए मन्न व सलवा उतरा जो बाआसानी उन्हें 
अपने खेमों के सामने मिल जाता था। उनकी बाकायदा सकूनत के लिए एक पूरा शहर अरीहा 
(वादी यरदुन में) उनके हवाले कर दिया गया। 

अल्लाह तआला ने उनसे कहा कि तुम्हारी तमाम जरूरियात का हमने इंतजाम कर दिया 
है। अब हिर्स और लज्जतपरस्ती में मुन्तिला होकर नापाक चीजों की तरफ न दौग़े। इसके 
बजाए कनाअत (संतोष) और अल्लाह के आगे शुक्रगुजारी का तरीका इख़्तियार करो। 

'बाब (दरवाजा) में झुके हुए दाखिल हो' यहां बाब से मुराद बस्ती का दरवाजा नहीं है 
बल्कि हैकले सुलैमानी का दरवाजा है। जमीन में इक्तेदार देने के बाद बनी इस्राईल से कहा गया 
कि अपनी इबादतगाह में ख़ाशेअ (शालीन) बनकर जाओ और गुनाहों से मग्फिरत मांगो। 
मुसलमानों के यहां जिस तरह काबा को बैतुल्लाह (ख़ुदा का घर) कहा जाता है इसी तरह यहूद 
के यहां हैकल को बाबुल्लाह (ख़ुदा का फाटक) कहा जाता है। यहूद को हुक्म दिया गया था कि 
अपने इबादतखाने में इज्ज व तवाजोअ के साथ दाखिल होकर अपने रब की इबादत करो और 
अल्लाह की अज्मत व जलाल को याद करके उसके आगे अपनी कोताहियों का एतराफ करते 
रहो । मगर यहूद ख़ुदा को नसीहतों को भूल गए । वे ख़ुदा की बताई हुई राह पर चलने के बजाए 
ख़ुदा के नाम पर ख़ुदसाख़्ता (स्वनिर्मित) राहों पर चलने लगे। उन्होंने इज्ज के बजाए सरकशी 
का तरीका अपनाया। शुक्र का कलिमा बोलने के बजाए वे बेसब्री के कलिमात बोलने लगे। 

यहूद जब बिगाड़ की इस हद को पहुंच गए तो ख़ुदा ने अपनी इनायात उनसे वापस ले 
लीं। रहमत के बजाए उन्हें मुख्नलिफ किस्म के आजाबों ने घेर लिया। 


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और उनसे उस बस्ती का हाल पूछो जो दरिया के किनारे थी। जब वे सब्त (सनीचर) 
के बारे में तजावुज (उल्लंघन) करते थे। जब उनके सब्त के दिन उनकी मछलियां पानी 

के ऊपर आती और जिस दिन सब्त न होता तो न आतीं। उनकी आजमाइश हमने 
इस तरह की, इसलिए कि वे नाफरमानी कर रहे थे। और जब उनमें से एक गिरोह 

ने कहा कि तुम ऐसे लोगों को क्यों नसीहत करते हो जिन्हें अल्लाह हलाक करने वाला 
है या उन्हें सख्त अजाब देने वाला है। उन्होंने कहा, तुम्हारे रब के सामने इल्जाम उतारने 

के लिए और इसलिए कि शायद वे डरें। (63-64) 


यहूद को यह तल्कीन की गई थी कि वे हफ्ते का एक दिन (सनीचर) इबादत और जिक्रे 
ख़ुदा के लिए ख़ास रखें। उस दिन कोई मआशी (आर्थिक) काम न करें। बाइबल के मुताबिक 
हुक्म यह था कि जो शख्स सन्त के कानून के ख़िलाफवर्जी करे वह मार डाला जाए (खुरूज 
बाब $)। मगर जब यहूद में बिगाड़ आया तो वे इसकी खिलाफवर्जी करने लगे। उनके 
मुस्लेहीन (सुधारकों) ने मुतवज्जह किया तो वे न माने। ताहम मुस्लेहीन ने अपनी कोशिश 
मुसलसल जारी रखी। हकीकत यह है कि दूसरों की इस्लाह का काम अगरचे बजाहिर दूसरों 
के लिए होता है मगर वह ख़ुद अपने लिए किया जाता है, इसका असली मुहर्रिक (प्रेरक) 
अपने आपको अल्लाह के यहां बरीउज्जिम्मा ठहराना है। अगर यह मुहर्रिक जिंदा न हो तो 
आदमी दर्मियान में ठहर जाएगा, वह अपने इस्लाह और तब्लीग़ के अमल को आख़िर वक्‍त 
तक जारी नहीं रख सकता। 
यहूद की सरकशी का नतीजा यह हुआ कि मामले को उनके लिए और सख्त कर दिया 
गया। बहरे कुलजुम (लाल सागर) की मश्रिकी ख़लीज के किनारे ईला शहर में यहूद की 
आबादियां थीं। उनकी मईशत (जीविका) का इंहिसार ज्यादातर मछलियों के शिकार पर था। 
ख़ुदा के हुक्म से यह हुआ कि सनीचर के दिन उनके साहिल पर मछलियों की आमद बहुत 
बढ़ गई। बाकी छः दिनों में मछलियां बहुत कम आतीं। मगर ममनूआ (निषिद्ध) दिन 
(सनीचर) को वे कसरत से पानी की सतह के ऊपर तैरती हुई दिखाई देतीं। 
यह यहूद के लिए बड़ी सख्त आजमाइश थी। गोया पहले अगर यह नौइयत थी कि 
सनीचर के अलावा छः जाइज दिनों में शिकार करने का पूरा मौका था तो अब सिर्फ एक 
हराम दिन ही शिकार करने का मौका उनके लिए बाकी रह गया। अब यहूद ने यह किया कि 
वे हीले के जरिए हराम को हलाल करने लगे। वे सनीचर के दिन शिकार न करते। अलबत्ता 
वे समुद्र का पानी काट कर बाहर बने हुए हौजों में लाते। सनीचर के दिन मछलियां चढ़तीं 
तो वे नाली के रास्ते से उनके बनाए हुए हौज में आ जातीं। इसके बाद वे हौज का मुंह बंद 
करके मछलियों के दरिया में लौटने का रास्ता रोक देते। फिर अगले दिन इतवार को जाकर 
उन्हें पकड़ लेते। इस तरह वे एक नाजाइज फेअल को जवाज की सूरत देने की कोशिश करते 
ताकि उन पर यह हुक्म सादिर न आए कि उन्होंने सनीचर के दिन शिकार किया है। 
इससे मालूम हुआ कि जो शख्स जाइज जरियाँ से अपनी जरूरियात फराहम करने पर 
कनाअत न करे तो वह अपने आपको इस ख़तरे में डालता है कि उसके लिए जाइज जरियों 
का दरवाजा सिरे से बंद कर दिया जाए और नाजाइज जरिये के सिवा उसके लिए हुसूले 
मआश की कोई सूरत बाकी न रहे। 





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सूरह-7. अल-आराफ 437 पारा 9 


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फिर जब उन्होंने भुला दी वह चीज जो उन्हें याद दिलाई गई थी तो हमने उन लोगों 
को बचा लिया जो बुराई से रोकते थे और उन लोगों को जिन्होंने अपनी जानों पर जुल्म 
किया एक सखन अजाब में पकड़ लिया। इसलिए कि वे नाफरमानी (अवज्ञा) करते थे। 


फिर जब वे बढ़ने लगे उस काम में जिससे वे रोके गए थे तो हमने उनसे कहा कि जलील 
बंदर बन जाओ। (65-66) 


एक काम जिससे खुदा ने मना किया हो उसे करना गुनाह है और हीले के जरिए 
नाजाइज को जाइज बनाकर करना गुनाह पर सरकी का इजफ है। कनूने सब्त की 
ख़िलाफवर्जी करके यहूद इसी किस्म के मुजरिम बन गए थे। ऐसे लोग खुदा की लानत के 
मुस्तहिक हो जाते हैं। यानी वे खुदा की उन इनायतों से महरूम हो जाते हैं जो उसने इस 
दुनिया में सिफ इंसान के लिए मखझ्सूस की हैं। ऐसे लोग इंसानियत की सतह से गिर कर 
हैवानियत की सतह पर आ जाते हैं। 

कानूने स्त की ख़िलाफवर्जा करने वालों के साथ यही मामला किया गया। “अल्लाह ने 
उन्हें बंदर बना दिया” का मतलब यह नहीं है कि उनकी सूरत बंदरों की सूरत हो गई। इसका 
मतलब यह है कि उनका अख्लाक बंदरों जैसा हो गया। उनका दिल और उनकी सोच इंसानों 
के बजाए बंदर जैसे हो गए। (तफ्सीर कुर्तुबी) 

इंसान एक ऐसी मख्लूक है जिसके अंदर उसके ख़ालिक ने अवल और जमीर रख दिया 
है। उसके अंदर जब कोई ख्याहिश उठती है तो उसकी अक्ल व जमीर (अन्तरात्मा) मुतहर्रिक 
होकर फौरन उसके सामने यह सवाल खड़ा कर देते हैं कि ऐसा करना तुम्हारे लिए दुरुस्त है 
या नहीं। इसके बरअक्स बंदर का हाल यह है कि उसकी ख़्वाहिश और उसके अमल के 
दर्मियान कोई तीसरी चीज हायल नहीं। जो बात भी उसके जी में आ जाए वह फौरन उसे 
कर डालता है। उसे न अपनी ख्ाहिश के बारे में सोचने की जरूरत होती है और न उस पर 
अमल करने के बाद उस पर शर्मिन्दा होने की। 

अब इंसान का बंदर हो जाना यह है कि वह अपनी अक्ल और अपने जमीर के खिलाफ 
अमल करते करते इतना बेहिस हो जाए कि इस किस्म के नाजुक अहसासात उसके अंदर से 
जाते रहें। उसके दिल में जो भी ख़्वाहिश पैदा हो उसे वह कर गुजरे। जब भी कोई शख्स 
उसकी जद में आ जाए तो वह उसकी इज्जत और उसके माल पर हमला कर दे। किसी से 
शिकायत पैदा हो तो फौरन उसे जलील करने के लिए खड़ा हो जाए। किसी से इख़्तेलाफ 
(मतभेद) हो जाए तो उस पर गुरनि लगे। कोई उसे अपनी राह में रुकावट नजर आए तो 
फौरन उससे लड़ना शुरू कर दे। सच्चा इंसान वह है जो अपने आप पर ख़ुदा की लगाम लगा 


पारा 9 438 सूरह-7. अल-आराफ 
ले। और बंदर इंसान वह है जो बेकैद होकर वह सब कुछ करने लगे जो उसका नफ्स उससे 
करने के लिए कहे। 

बुराई से रोकना एक किस्म का एलाने बरा-त (विरक्ति) है। इसलिए जब किसी गिरोह 
पर खुदा की यह सजा आती है तो उसकी जद में आने से वे लोग बचा लिए जाते हैं जो बुराई 
से इस हद तक बेजार (खिन्न) हों कि वे उसे रोकने वाले बन जाएं 


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और जब तुम्हारे रब ने एलान कर दिया कि वह यहूद पर कियामत के दिन तक जरूर 

ऐसे लोग भेजता रहेगा जो उन्हें निहायत बुरा अजाब दें। बेशक तेरा रब जल्द सजा देने 

वाला है और बेशक वह बर्शने वाला महरबान है। और हमने उन्हें गिरोह-गिरोह करके 
जमीन में बिखेर दिया। उनमें कुछ नेक हैं और उनमें कुछ इससे मुख्तलिफ (भिन्न) । 

और हमने उनकी आजमाइश की अच्छे हालात से और बुरे हालात से ताकि वे बाज 
आएं। (67-68) 





इन आयात में यहूद के लिए जिस सजा का एलान है उसके साथ कियामत के दिन तक 
की शर्त लगी हुई है। इससे मालूम होता है कि यह सजा वह है जिसका तअल्लुक दुनिया से है। 
आखिरत के अंजाम का मामला इससे अलग है जिसका जिक्र दूसरे मकामात पर आया है। 

किसी काम के करने पर जब बड़ा इनाम रखा जाए तो इसका मतलब यह है कि उस 
काम को न करने पर उतनी ही बड़ी सजा भी होगी। यही मामला उस कौम का है जो 
आसमानी किताब की हामिल बनाई गई हो। यहूद को खुदा ने इसी मंसब पर फायज किया 
था। चुनांचे आख़िरत के वादे के अलावा दुनिया में भी उन्हें गैर मामूली इनामात दिए गए। 
मगर यहूद ने मुसलसल नाफरमानी (अवज्ञा) की। वे दीन के नाम पर बेदीनी करते रहे। 
इसका नतीजा यह हुआ कि खुदा ने उन्हें फजीलत (श्रेष्ठता) के मंसब से हटा दिया। उनके 
लिए यह फैसला हुआ कि जब तक दुनिया कायम है वे खुदा की सजा का मजा चखते रही। 
और आख़िरत में जो कुछ होना है वह इसके अलावा है। 

इसका मतलब यह नहीं है कि अब कियामत तक उन पर कभी अच्छे हालात नहीं 
आएंगे। जैसा कि ख़ुद इन आयतों में सराहत है, उन पर 'हसनात' के वके (उत्तम काल) 
भी पढ़ी। मगर यह हसनह का ववफा भी उनके लिए एक किस्म का अताब होगा ताकि वे 
और सरकशी करके और ज्यादा सजा के मुस्तहिक बनें। 

इन आयतों में यहूद के लिए दो सजाओं का जिक्र है। एक यह कि उन पर ऐसी कीमें 
मुसल्लत की जाएंगी जो उन्हें अपने जुल्म का निशाना बनाएं। तारीख़ बताती है कि यहूद 


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सूरह-7. अल-आराफ 439 पारा 9 


कभी बुख्त नस्र और कभी टाइटस रूमी के शदाइद (उत्पीड़न) का निशाना बने। कभी वे 
मुसलमानों की मातहती में दिए गए। मौजूदा जमाने में उन्होने पूर्वी यूरोप में अपना जबरदस्त 
आर्थिक जाल फैला लिया तो हिटलर ने उन्हें तबाह व बर्बाद कर डाला। अब अर्जे मक्दिस 
में उनका जमा होना बजाहिर इसकी अलामत है कि उनकी पूरी कुवत शायद इज्मिई 
(सामूहिक) तौर पर हलाक की जाने वाली है। 

दूसरी सजा जिसका यहां जिक्र है वह 'तकतीअ' है। यानी उनके गिरोह को मुख़्तलिफ 
हिस्सों में बांट कर मुंतशिर (विघटित) कर देना। यह दूसरा वाकया भी तारीख़ में बार-बार 
उनके साथ होता रहा है। 

अल्लाह का यह कानून सिफ यहूद के लिए नहीं था। वह बाद के उस गिरोह के लिए भी 
है जिसे यहूद की माज़ूली के बाद खुदा की गवाही के मंसब पर फायज किया गया है। मुसलमान 
अपने को अगर इस हाल में पाएं कि मुंकिरीन व मुश्रिकीन ने उन पर ग़लबा पा लिया हो और 
वे छोटे-छोटे जुगराफियों (भू्षेत्रों) में बंटंकर बिखर गए हों तो उन्हें खुदा की तरफ लौटना 
चाहिए । क्योंकि इसका मतलब यह है कि वे एहतसाबे इलाही की जद में आ गए हैं। 


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फिर उनके पीछे नाख़ल्फ (अयोग्य) लोग आए जो किताब के वारिस बने, वे इसी 
दुनिया की मताअ (सुख-सामग्री) लेते हैं और कहते हैं कि हम यकीनन बख्श दिए 
जाएंगे। और अगर ऐसी ही मताअ उनके सामने फिर आए तो उसे ले लेंगे। क्या 
उनसे किताब में इसका अहद (वचन) नहीं लिया गया है कि अल्लाह के नाम पर 
हक के सिवा कोई और बात न कहें। और उन्होंने पढ़ा है जो कुछ उसमें लिखा है। 
और आखिरत का घर बेहतर है डरने वालों के लिए, क्या तुम समझते नहीं। और 
जो लोग खुदा की किताब को मजबूती से पकडते हैं और नमाज कायम करते हैं 

बेशक हम मुस्लिहीन (सुधारको) का अज्र जाया नहीं करेंगे। और जब हमने पहाड़ 
को उनके ऊपर उठाया गोया कि वह सायबान है। और उन्होंने गुमान किया कि वह 
उन पर आ पड़ेगा। पकड़ो उस चीज को जो हमने तुम्हें दी है मजबूती से, और याद 

रखो जो उसमें है ताकि तुम बचो। (69-77) 








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पारा 9 440 सूरह+7. अल-आराफ 


हजरत मूसा के जमाने में यहूद को जब खुदाई अहकाम दिए गए तो उसकी कार्रवाई 
पहाड़ के दामन में हुई थी। उस वक्त ऐसे हालात पैदा किए गए कि यहूद को महसूस हुआ 
कि पहाड़ उनके ऊपर गिरा चाहता है। यह इस बात का इज्हार था कि ख़ुदा से अहद बांधने 
का मामला बेहद संगीन मामला है। अगर तुमने उसके तकाजों को पूरा न किया तो याद रखो 
कि इस अहद का दूसरा फरीक वह अजीम हस्ती है जो चाहे तो पहाड़ को तुम्हारे ऊपर 
गिराकर तुम्हें हलाक कर दे। 

उस वक्त यहूद में बड़ी तादाद ऐसे लोगों की थी जो अल्लाह से डरने वाले और नेक 
अमल करने वाले थे। मगर बाद को धीरे-धीरे उन्होंने दुनिया को अपना मकसूद बना लिया। 
वे जाइज नाजाइज का फर्क किए बगैर माल जमा करने में लग गए। आसमानी किताब को 
अब भी वे पढ़ते थे मगर उसकी तालीमात को ख़ुदसाख्ता (स्वनिर्मित) तावीलें करके उसे 
उन्होंने ऐसा बना लिया कि ख़ुदा भी उन्हें अपनी बागियाना जिंदगी का हामी नजर आने 
लगा। उनकी बेहिसी यहां तक बढ़ी कि वे ये कहकर मुतमइन हो गए कि हम बरगुजीदा 
(प्रतिष्ठित) उम्मत हैं। हम नबियों की औलाद हैं। खुदा अपने महबूब बंदों के सदके में हमें 
जूर ब्ल देगा। 

यही वाकया हर नबी की उम्मत के साथ पेश आता है। इब्तिदाई दौर में उसके अफराद 
ख़ुदा से डरने वाले और नेक अमल करने वाले होते हैं। मगर अगली नस्लों में यह रूह निकल 
जाती है। वे दूसरे दुनियादार लोगों को तरह हो जाते हैं। उनके दर्मियान अब भी दीन मौजूद 
होता है। खुदा की किताब अब भी उनके यहां पढ़ी पढ़ाई जाती है। मगर यह सब कौमी 
विरासत के तौर पर होता है न कि हकीकतन अहदे खुदावंदी के तौर पर। वे अमलन आख़िरत 
को भूल कर दुनियापरस्ती की राह पर चल पड़ते हैं। वे सही और गलत से बेनियाज होकर 
अपनी ख़ाहिशों को अपना मजहब बना लेते हैं। मगर इसी के साथ उन्हें यह भी फख़ होता 
है कि वे बेहतरीन उम्मत हैं। वे महबूबे ख़ुदा के उम्मती हैं। वे आसमानी किताब के वारिस 
हैं। कलिमा तौहीद की बरकत से वे जरूर बख्श दिए जाएंगे। 

मगर अस्ल चीज यह है कि आदमी खुदा की किताब को मजबूती से पकड़े वह नमाज 
को कायम करे। और किताबे इलाही को पकड़ने और नमाज को कायम करने का मेयार यह 
है कि आदमी “मुस्लेह' (सुधारक) बन गया हो। ख़ुदा की किताब से तअल्लुक और ख़ुदा की 
इबादत करना आदमी को मुस्लेह बनाता है न कि मुपिसद। 

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सूरह-7. अल-आराफ 44] पारा 9 


और जब तेरे रब ने बनी आदम की पीटों से उनकी औलाद को निकाला और उन्हें गवाह 
ठहराया ख़ुद उनके ऊपर। क्या में तुम्हारा रब नहीं हूं। उन्होंने कहा हां, हम इकरार 
करते हैं। यह इसलिए हुआ कि कहीं तुम कियामत के दिन कहने लगो हमें तो इसकी 
ख़बर न थी। या कहो कि हमारे बाप दादा ने पहले से शिक (ख़ुदा का साझीदार 
ठहराना) किया था और हम उनके बाद उनकी नस्ल में हुए। तो क्या तू हमें हलाक 
करेगा उस काम पर जो ग़लतकार लोगों ने किया। और इस तरह हम अपनी निशानियां 
खोलकर बयान करते हैं ताकि वे पलट आएं। (72-74) 


एक जानवर को उसके मां बाप से अलग कर दिया जाए और उसकी परवरिश बिल्कुल 
अलग माहौल में की जाए तब भी बड़ा होकर वह मुकम्मल तौर पर अपनी नस्ली ख़ुसूसियात 
पर कायम रहता है। वह अपने तमाम मामलात में ऐन वही तरीका इस़्तियार करता है जो 
उसकी जिबिल्लत (5/८!) में पेवस्त है। यही मामला इंसान का 'शुऊरे रब” के बारे में है। 
इंसान की रूह में एक ख़ालिक व मालिक का शुऊर इतनी गहराई के साथ जमा दिया गया 
है कि वह किसी हाल में उससे जुदा नहीं होता। मौजूदा जमाने में एक एतबार से रूस और 
दूसरे एतबार से टर्की का तजर्बा बताता है कि मुकम्मल तौर पर मुखालिफे मजहब माहौल में 
तर्बियत पाने के बावजूद इंसान की फितरत ऐन वही बाकी रहती है जो इकरारे मजहब के 
माहौल में हमेशा पाई जाती रही है। 

ताहम जानवर और इंसान मेंएक फर्क है। जानवर अपनी फितरत की खिलाफवर्ज पर 
कादिर नहीं। वे मजबूर हैं कि अमलन भी वही करें जो उनके अंदर की फितरत उन्हें सबक 
दे रही है। इसके बरअक्स इंसान का हाल यह है कि शुऊरे फितरत की हद तक पाबंद होने 
के बावजूद अमल के मामले में वह पूरी तरह आजाद है। जब भी कोई बात सामने आती है 
तो उसकी अक्ल और उसका जमीर अंदर से इशारा करते हैं कि सही क्या है और गलत क्या। 
मगर इसके बावजूद इंसान को इख्तियार है कि वह चाहे अपनी अंदरूनी आवाज की पैरवी 
करे, चाहे उसे नजरअंदाज करके मनमानी कार्रवाई करने लगे। 

यही वह मकाम है जहां इंसान का इम्तेहान हो रहा है और इसी पर जन्नत और जहन्नम 
का फैसला होना है। जो शख्स खुदाई आवाज पर कान लगाए और वही करे जो खुदा फितरत 
की ख़ामोश जबान में उससे कह रहा है, वह इम्तेहान में पूरा उतरा। उसके मरने के बाद 
उसके लिए जन्नत के दरवाजे खोल दिए जाएंगे। और जो शख्स फितरत की सतह पर नशर 
(प्रसारित) होने वाली खुदाई आवाज को नजरअंदाज कर दे वह खुदा की नजर में मुजरिम है। 
उसे मरने के बाद जहन्नम में डाला जाएगा। खुदा भी उसे नजरअंदाज कर देगा जिस तरह 
उसने खुरा की आवाज को नजरअंदाज किया था। 

फितरत की यह आवाज हर आदमी के ऊपर खुदा की दलील है। अब किसी के पास न तो 
बेख़बरी का उज़ है और न कोई यह कह सकता है कि माजी में जो होता चला आ रहा था वही 
हम भी करने लगें। जब इंसान पैदाइश ही से ख़ुदा का शुऊर लेकर आता है और माहौल के 
विपरीत उसे हमेशा बाकी रखता है तो अब किसी शख्स के पास बेराह होने का क्या उज्र है। 








पारा 9 442 सह. अल-आराफ 
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और उन्हें उस शख्स का हाल सुनाओ जिसे हमने अपनी आयतें दी थीं तो वह उनसे 
निकल भागा। पस शैतान उसके पीछे लग गया और वह गुमराहों में से हो गया। और 
अगर हम चाहते तो उसे उन आयतों के जरिए से बुलन्दी अता करते मगर वह तो जमीन 
का हो रहा और अपनी ख़्वाहिशों की पैरवी करने लगा। पस उसकी मिसाल कुत्ते की 
सी है कि अगर तू उस पर बोझ लादे तब भी हांपे और अगर छोड़ दे तब भी हांपे। 
यह मिसाल उन लोगों की है जिन्होंने हमारी निशानियों को झुठलाया। पस तुम यह 
अहवाल उन्हें सुनाओ ताकि वे सोचें। केसी बुरी मिसाल है उन लोगों की जो हमारी 
निशानियां को झुठलाते हैं और वे अपना ही नुक्सान करते रहे। अल्लाह जिसे राह 
दिखाए वही राह पाने वाला होता है और जिसे वह बेराह कर दे तो वही घाटा उठाने 
वाले हैं। (75-78) 





रसूलुल्लाल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जमाने में एक शख्स उमैया बिन अबी अस्सल्त 
था। आला इंसानी औसाफ के साथ वह हकीमाना कलाम में भी मुमताज दर्जा रखता था। उसे जब 
मालूम हुआ कि ईसाइयों और यहूदियों की किताबों में एक पैगम्बर के आने की पेशीनगोइयां मौजूद 
हैं तो उसे गुमान हुआ कि शायद वह पैगम्बर मैं ही हूं। बाद को उसे जब रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु 
अलैहि व सल्लम के दावए नुबुव्वत की ख़बर मिली और उसने आपका आला कलाम सुना तो 
उसे सख्त मायूसी हुई। वह पैग़म्बरे इस्लाम का मुखालिफ बन गया। उमैया बिन अबी अस्सल्त 
को ख़ुदा ने जो आला खुसूसियात दी थीं उनका सही इस्तेमाल यह था कि वह ख़ुदा के पैग़म्बर 
को पहचाने और उनका साथी बन जाए। मगर खुदा की नवाजिशों से उसने अपने अंदर यह जेहन 
बनाया कि अब खुदा को मेरे सिवा किसी और पर अपना फज्ल न करना चाहिए । पैगम्बरे खुदा 
को न मानने में उसे दुनियावी फायदा नजर आता था इसके बरअक्स आपको मानने में उख़रवी 
फायदा था। उसने आहिरत के मुकाबले में दुनिया को तरजीह दी । वह अगर एतराफ के रु पर 
चलता तो वह फरिश्ता को अपना हमसफर बनाता। मगर जब वह हसद व घमंड के रास्ते पर 
चल पड़ता तो वहां शैतान के सिवा कोई और न था जो उसका साथ दे। यह मिसाल उन तमाम 
लोगों पर सादिक आती है जो हसद और किर (अहं, बड़ाई) की बिना पर सच्चाई को नजरअंदाज 
करें या उसे मानने से इंकार कर दें। 


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सूरह-7. अल-आराफ 443 पारा 9 


किसी आदमी का ऐसा बनना अपने आपको इंसानियत के मकाम से गिराकर कुत्ते के 
मकाम पर पहुंचा देना है। कुत्ता अच्छे सुलूक पर भी हांपता है और बुरे सुलूक पर भी। यही 
हाल ऐसे आदमी का है। ख़ुदा ने जब उसे दिया तब भी उसने उससे सरकशी की गिजा ली 
और न दिया तब भी वह सरकश ही बना रहा। हालांकि चाहिए यह था कि जब ख़ुदा ने उसे 
दिया था वह तो उसका एहसानमंद होता और जब ख़ुदा ने नहीं दिया तो वह ख़ुदा की तक्सीम 
पर राजी रहकर उसकी तरफ रुजूअ करता। 

किसी को रास्ता दिखाने के लिए ख़ुदा ख़ुद सामने नहीं आता बल्कि वह निशानियों 
(दलीलों) की सूरत में अपना रास्ता लोगों के ऊपर खोलता है। जिन लोगों के अंदर यह 
सलाहियत हो कि वे दलीलों और निशानियों के रूप में जाहिर होने वाले हक को पहचान लें 
और अपने आपको उसके हवाले करने पर राजी हो जाएं वही इस दुनिया में हिदायतयाब होते 
हैं। और जो लोग दलीलों और निशानियों को अहमियत न दें उनके लिए अबदी (चिरस्थाई) 
बर्बादी के सिवा और कुछ नहीं। 


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और हमने जिन्नात और इंसानों में से बहुतों को दोजख़ के लिए पैदा किया है। उनके 
दिल हैं जिनसे वे समझते नहीं, उनकी आंखें हैं जिनसे वे देखते नहीं, उनके कान हैं 
जिनसे वे सुनते नहीं। वे ऐसे हैं जैसे चौपाए बल्कि उनसे भी ज्यादा बेराह। यही लोग 
हैं ग़ाफिल। और अल्लाह के लिए हैं सब अच्छे नाम। पस इन्हीं से उसे पुकारो और 
उन लोगों को छोड़ दो, जो उसके नामों में कजरवी (कुटिलता) करते हैं। वे बदला पाकर 
रहेंगे अपने कामों का। और हमने जिन्हें पैदा किया है उनमें से एक गिरोह ऐसा है जो 
हक के मुताबिक फैसला करता है। और जिन लोगों ने हमारी निशानियाँ को झुटलाया 
हम उन्हें आहिस्ता आहिस्ता पकड़ेंगे ऐसी जगह से जहां से उन्हें ख़बर भी न होगी। और 
मैं उन्हें ढील देता हूं, बेशक मेरा दाव बड़ा मजबूत है। (79-83) 





सच्चाई एक ऐसी चीज है जिसे हर आदमी को खुद पाना होता है। खुदा ने हर आदमी 
को दिल और आंख और कान दिए हैं। आदमी इन्हीं सलाहियतों को इस्तेमाल करके सच्चाई 
को पाता है। और जो शख्स इन सलाहियतों को इस्तेमाल न करे वह यकीनन सच्चाई को पाने 
से महरूम रहेगा, चाहे सच्चाई उससे कितना ही ज्यादा करीब मौजूद हो। 





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पारा 9 444 सूरह+7. अल-आराफ 





सच्चाई को पाना हर आदमी का एक शुऊरी और इरादी फेअल है। सच्चाई को वही शख्स 
समझ सकता है जिसने अपने दिल के दरवाजे उसके लिए खुले रखे हों। उसे वही देख सकता है 
जिसने अपनी आंखों पर मस्नूई (कृत्रिम) पर्दे न डाले हों। उसकी आवाज उसी को सुनाई दे सकती 
है जिसने अपने कान में किसी किस्म के डाट न लगा रखे हों। ऐसे लोग सच्चाई की आवाज को 
पहचान कर उसके आगे अपने को डाल देंगे। और जिस शख्स का मामला इसके बरअक्स हो वह 
चौपायों की तरह नासमझ बना रहेगा । पहाड़ जैसे दलाइल का वजन महसूस करना भी उसके लिए 
मुमकिन न होगा। उसके सामने खुदा की तजल्लियां (आलोक) जाहिर होंगी मगर वह उसे देखने से 
आजिज होगा। उसके पास ख़ुदा का नग़मा छेड़ा जाएगा मगर वह उसे सुनने से महरूम रहेगा। 
सच्चाई हमेशा बेदार लोगों को मिलती है। गाफिलों के लिए कोई सच्चाई सच्चाई नहीं। 

ख़ुदा के बारे में इंसान के बेराह होने की वजह अक्सर यह होती है कि वह ख़ुदा को मानते 
हुए अपने जेहन में खुदा की गलत तस्वीर बना लेता है। वह खुदा की तरफ ऐसी बातें मंसूब कर 
देता है जो उसके शायानेशान नहीं हैं। मसलन इंसानों के हालात पर कयास करके ख़ुदा के 
मुकबीन (निकटस्थ) का अकीदा बना लेना । बादशाहोँ को देखकर यह फर्ज कर लेना कि जिस 
तरह बादशाहों के नायब और मददगार होते हैं उसी तरह ख़ुदा के भी नायब और मददगार हैं। 
खुदाई फैसले के बारे में ऐसा ख्याल कायम कर लेना जिसमें आदमी की अपनी ख़्ाहिशें तो पूरी 
हो रही हों मगर वह ख़ुदावंदी अदूल (न्याय) से मुताबिकत न रखता हो। यह खुदा के नामों में 
कजी (कुटिलता) करना है कि खुदा की तरफ ऐसी बातें मंसूब की जाएं जो उसकी अज्मत के 
शायानेशान न हों। 

ख़ुदा किसी आदमी की कजरवी पर फौरन उसे नहीं पकड़ता। इस तरह उसे मौका दिया 
जाता है कि वह या तो खुदा की तंबीहात को देखकर संभल जाए या मजीद ढीठ होकर अपने 
जुर्म को पूरी तरह साबितशुदा बना दे। 


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सूरह-7. अल-आराफ 445 पारा 9 


कया उन लोगों ने गौर नहीं किया कि उनके साथी को कोई जुनून नहीं है। वह तो एक 
साफ डराने वाला है। क्या उन्होंने आसमानों और जमीन के निजाम पर नजर नहीं की 

और जो कुछ अल्लाह ने पैदा किया है हर चीज से और इस बात पर की शायद उनकी 
मुदूदत करीब आ गई हो। पस इसके बाद वे किस बात पर ईमान लाएंगे। जिसे अल्लाह 
बेराह कर दे उसे कोई राह दिखाने वाला नहीं। और वह उन्हें सरकशी ही में भटकता 
हुआ छोड़ देता है। वह तुमसे कियामत के बारे में पूछते हैं कि वह कब वाके होगी। 

कहो इसका इल्म तो मेरे रब ही के पास है। वही उसके वक्‍त पर उसे जाहिर करेगा। 

वह भारी हो रही है आसमानों में और जमीन में। वह जब तुम पर आएगी तो अचानक 
आ जाएगी। वह तुमसे पूछते हैं गोया कि तुम उसकी तहकीक कर चुके हो। कहो इसका 

इल्म तो बस अल्लाह ही के पास है। लेकिन अक्सर लोग नहीं जानते। कहो में मालिक 
नहीं अपनी जान के भले का और न बुरे का मगर जो अल्लाह चाहे। और अगर मैं ग़ैब 
को जानता तो मैं बहुत से फायदे अपने लिए हासिल कर लेता और मुझे कोई नुक्सान 

न पहुंचता । में तो महज एक डराने वाला और खुशखबरी सुनाने वाला हूं उन लोगों के 
लिए जो मेरी बात मानें। (।84-88) 





बामक्सद आदमी की सबसे बड़ी खुसूसियत यह है कि वह गैर मस्लेहतपसंद (निस्वार्थ) 
इंसान होता है। वह वक्‍त के रवाज से ऊपर उठकर सोचता है। वह माहौल में जमे हुए 
मसालेह (स्वार्थ) से बेपरवाह होकर अपना काम करता है। वह एक ऐसे निशाने की ख़ातिर 
अपना जान व माल सब कुछ कुर्बान कर देता है जिसका कोई नतीजा बजाहिर इस दुनिया 
में मिलने वाला नहीं। यही वजह है कि बामक्सद आदमी अक्सर अपने मुआसिरीन (समकालीन) 
की तरफ से जो सबसे बड़ा ख़िताब मिलता है वह 'मजनून' है। खुदा का पेगम्बर अपने वक्त 
का सबसे बड़ा बामक्सद इंसान होता है। इसलिए ख़ुदा के पैग़म्बरों को हर जमाने के लोगों 
ने यही कहा कि यह मजनून हो गए हैं। 

ख़ुदा के दीन के दाऔ (आह्वानकर्ता) को मजनून कहना तमाम जुत्मों में सबसे बड़ा 
जुल्म है। क्योंकि वह जिस पैगाम को लेकर उठता है वह एक ऐसा पैगाम है जिसकी तस्दीक 
तमाम जमीन व आसमान कर रहे हैं। वह ऐसे ख़ुदा की तरफ बुलाता है जो अपनी कायनाती 
तख्लीकात में हर तरफ इंतिहाई हद तक नुमायां है। वह ऐसी आखिरत की ख़बर देता है जो 
जमीन व आसमान में उसी तरह संगीन हकीकत बनी हुई है जिस तरह किसी मां के पेट में 
पूरा हमल । लोग हक के बारे में संजीदा नहीं, इसलिए हक की ख़ातिर जान खपाने वाला उन्हें 
मजनून दिखाई देता है। अगर वे हक की कद्र व कीमत को जानते तो कभी ऐसा न कहते। 

'कियामत किस तारीख़ को आएगी” इस किस्म के सवालात गैर संजीदा जेहन से निकले 
हुए सवालात हैं। कियामत को मानने का इंहिसार (निर्भरता) किप्रामत के हक में उसूनी 
दलील पर है न कि इस बात पर कि कियामत की तारीख़ तैशुदा सूरत में बता दी जाए। जब 
यह दुनिया दारुल इम्तेहान है तो यहां कियामत को तंबीह (चेतावनी) की जबान में बताया 
जाएगा न कि हिसाबी तअय्युनात (निर्धारण) की जबान में। 





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पारा 9 446 सह. अल-आराफ 


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वही है जिसने तुम्हें पेदा किया एक जान से और उसी ने बनाया उसका जोड़ा ताकि 
उसके पास सुकून हासिल करे। फिर जब मर्द ने औरत को ढांक लिया तो उसे एक 
हल्का सा हमल रह गया। फिर वह उसे लिए फिरती रही। फिर जब वह बोझल हो गई 
तो दोनों ने मिलकर अल्लाह अपने रब से दुआ की, अगर तूने हमें तंदरुस्त औलाद दी 
तो हम तेरे शुक्रगुजार रहेंगे। मगर जब अल्लाह ने उन्हें तंदुरुस्त औलाद दे दी तो वे 
उसकी बख्शी हुई चीज में दूसरों को उसका शरीक ठहराने लगे। अल्लाह बरतर है उन 
मुश्रिकाना बातों से जो ये लोग करते हैं। क्या वे शरीक बनाते हैं ऐसों को जो किसी 
चीज को पैदा नहीं करते बल्कि वे खुद मख्तूक (सजित) हैं। और वे न उनकी किसी 

किस्म की मदद कर सकते हैं और न अपनी ही मदद कर सकते हैं। और अगर तुम उन्हें 
रहनुमाई के लिए पुकारो तो वे तुम्हारी पुकार पर न चलेंगे। बराबर है चाहे तुम उन्हें 
पुकारो या तुम खामोश रहो। जिन्हें तुम अल्लाह के सिवा पुकारते हो वे तुम्हारे ही जैसे 
बंदे हैं। पस तुम उन्हें पुकारो, वे तुम्हें जवाब दें अगर तुम सच्चे हो। (89-94) 





कायनात अपने ख़ालिक का जो तआरुफ (परिचय) कराती है वह ऐसा तआरुफ है तो 
किसी हाल में शिक के तसब्वुर को कुबूल नहीं करता । कायनात में बेशुमार अज्जा (अवयव) 
अलग-अलग पाए जाते हैं। मगर तमाम अज्जा मिलकर एक हमआहंग (अंतरंग) कुल बन जाते 
हैं। इनमें किसी किस्म का तजाद (अन्तर्विरोध) या टकराव नहीं। यह कामिल हमआहंगी 
इसके बगैर मुमकिन नहीं कि इस दुनिया का ख़ालिक व मालिक एक हो और वही तंहा इसको 
चला रहा हो। 

मर्द और औरत के मामले को देखिए। एक मर्द और एक औरत में जो कामिल 
मुताबिकत (सामंजस्य) होती है वह शायद मौजूदा कायनात का सबसे ज्यादा अजीब वाकया 
है जिसका तजर्बा एक शख्स करता है। मर्द एक मुंफरिद और मुस्तकिल (एकल) वजूद है। 
और औरत उससे अलग एक मुस्तकिल (एकल) वजूद। मगर ये मर्द और औरत जब मियां 








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सूरह-7. अल-आराफ 447 पारा 9 


और बीवी की हैसियत से एक दूसरे से मिलते हैं तो दोनों का वजूद इस तरह एक दूसरे में शामिल 
हो जाता है कि उनमें कोई दूरी बाकी नहीं रहती हर एक को ऐसा महसूस होता है कि मैं उसके 
लिए पैदा किया गया हूं और वह मेरे लिए। दोनों के दर्मियान यह गहरी साजगारी इस बात का 
खुला हुआ सुबूत है कि एक ही इरादे ने अपने पेशगी मंसूबे के तहत दोनों को एक ख़ास ढंग 
पर बनाया है। कायनात में अगर एक से ज्यादा हस्तियों की कारफरमाई होती तो दो मुख़्तलिफ 
और मुतजाद (अन्तविर्रोधी) चीजों के दर्मियान यह कामिल हमआहंगी (अंतरंगता) मुमकिन नहीं 
होती। 

मगर कैसी अजीब बात है कि जिस कायनात में तौहीद के इतने ज्यादा दलाइल मौजूद 
हैं वहां आदमी शिर्क को अपना मजहब बनाता है। दो इंसानों में 'वहदत' (एकत्व) के करिश्मे 
से एक तीसरे बच्चे ने जन्म लिया मगर जब वह पैदा हो गया तो किसी ने यह अकीदा बना 
लिया कि यह औलाद फलां जिंदा या मुर्दा बुज की बरकत से हुई है। किसी ने उसे मफरूजा 
(काल्पनिक) देवताओं की तरफ मंसूब कर दिया। किसी ने कहा कि यह माद्दा (पदार्थ) की 
अंधी ताकतों के अमल और रद्देअमल (क्रिया-प्रतिक्रिया) का नतीजा है। किसी ने यह समझा 
कि यह ख़ुद उसकी अपनी कमाई है जो एक खूबसूरत बच्चे की सूरत में उसे हासिल हुई है। 


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क्या उनके पाँव हैं कि उनसे चलें। क्या उनके हाथ हैं कि उनसे पकड़ें। क्या उनकी आंखें 
हैं कि उनसे देखें। क्या उनके कान हैं कि उनसे सुनें। कहो, तुम अपने शरीकों को 
बुलाओ। फिर तुम लोग मेरे खिलाफ तदबीरें करो और मुझे मोहलत न दो। यकीनन 
मेश कारसाज (कार्य साधक) अल्लाह है जिसने किताब उतारी है और वह कारसाजी 
करता है नेक बंदों की। और जिन्हें तुम पुकारते हो उसके सिवा वे न तुम्हारी मदद कर 
सकते हैं और न अपनी ही मदद कर सकते हैं। और अगर तुम उन्हें रास्ते की तरफ 


पुकारो तो वे तुम्हारी बात न सुनेंगे और तुम्हें नजर आता है कि वे तुम्हारी तरफ देख 
रहे हैं मगर वे कुछ नहीं देखते। (95-98) 








बुतपरस्त लोग पत्थर या धातु की जो मूर्तियां बनाते हैं इसका फलसफा यह बयान किया 
जाता है कि यह ख़ारजी मजाहिर (वास्य रूप) हैं जिनके अंदर उनका मज्ऊमा (मान्य) देवता 
हुलूल (विलय) कर आया है। इन मजाहिर की परस्तिश उनके नजदीक उन माबूदों की 


पारा 9 448 सूरह+7. अल-आराफ 





परस्तिश है जिनकी वे महसूस अलामतें हैं। ताहम अवाम की सतह पर अमलन बुतपरस्ती जो 
शक्ल इख़्तियार करती है वह यह कि लोग ख़ुद इन मूर्तियों को मुकद्दस (पवित्र) समझने 
लगते हैं। इन बुतों में न चलने की ताकत होती, न पकड़ने की, न देखने की और न सुनने 
की। मगर वही इंसान उनके बारे में यह फर्ज कर लेता है कि वे उसके काम आएंगे और 
उसकी हाजतें पूरी करेंगे । 

ताहम यह मामला प्रचलित बुतों ही का नहीं है। इनके सिवा जिन चीजों को इंसान 
माबूदियत (पूज्य) का दर्जा देता है उनका हाल भी यही है। वतन और कौम से लेकर जिंदा 
या मुर्दा शख्मियतां तक जिन-जिन चीजों से भी वे जज्बात वाबस्ता किए जाते हैं जो सिर्फ एक 
खुदा का हक हैं उनकी हकीकत क्या है। उनमें से किसी के पास भी कोई जाती ताकत नहीं। 
कोई भी पांव या हाथ या आंख वाला ऐसा नहीं जिसके पांव और हाथ और आंख उसके 
अपने हों। हर 'पांव' वाले के पास दिया हुआ पांव है और अगर उसका पांव छिन जाए तो 
वह उसे दुबारा वापस नहीं ला सकता। हर 'हाथ' वाले के पास दिया हुआ हाथ है और अगर 
उसका हाथ बाकी न रहे तो वह दुबारा अपना हाथ नहीं बना सकता। हर 'आंख' वाले की 
आंख दी हुई आंख है और अगर उसकी आंख जाती रही तो उसके लिए मुमकिन नहीं कि 
वह दुबारा अपने लिए आंख तैयार कर ले। 

गैर अल्लाह की परस्तिश करने वाले लोग अपने बुतों के भरोसे हमेशा एक ख़ुदा के 
परस्तारों पर जुल्म करते रहे हैं। मगर ये लोग बहुत जल्द जान लेंगे कि ख़ुदा की इस दुनिया 
में उनका भरोसा किस कद्र बेबुनियाद था। जिस ख़ुदा का जुहूर मौजूदा दुनिया में किताबी 
मीजान (तुला) की सूरत मे हुआ है, उसका जुहूर अनकरीब अदालती मीजान की सूरत में होने 
वाला है। उस वक्‍त हर आदमी देख लेगा कि काम बनाने वाला सिर्फ खुदा था, अगरचे आदमी 
अपनी नादानी की वजह से दूसरों को अपना काम बनाने वाला समझता रहा। शरीकों के पास 
तो सिरे से मदद करने की कोई ताकत ही नहीं, मगर ख़ुदा अपने वफादार बंदों की मदद 
दुनिया में भी करता है और आख़िरत में भी। 

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दुन (क्षमा) करो, नेकी का हुक्म दो और जाहिलों से न उलझो। और अगर तुम्हे 
कोई वसवसा शैतान की तरफ से आए तो अल्लाह की पनाह चाहो। बेशक वह सुनने 
वाला जानने वाला है। जो लोग डर रखते हैं जब कभी शैतान के असर से कोई बुरा 
ख्याल उन्हें छू जाता है तो वे फौरन चौंक पड़ते हैं और फिर उसी वक्‍त उन्हें सूझ आ 
जाती है। और जो शैतान के भाई हैं वे उन्हें गुमराही में खींचे चले जाते हैं फिर वे कमी 
नहीं करते। (99-202) 





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सूरह-7. अल-आराफ 449 पारा 9 





तौहीद (एकेश्वरवाद) और आखिरत (परलोक), नेकी और अदूल (न्याय) की तरफबुलाना 
'उर्फ की तरफ बुलाना है। यानी उन भलाइयेंकी तरफ जो अक्ल और फितरत के नजदीक 
जानी पहचानी हैं। मगर यह सादातरीन काम हर जमाने में मुश्किलतरीन काम रहा है। इंसान 
की हुब्बेआजिला (स्वार्थपरकता) का यह नतीजा है कि हर जमाने में लोग अपनी जिंदगी का 
निजम दनेयावी मफद और जती मस्लेहतें (हित, स्वार्थ) की बुनियाद पर कायम किए हुए होते 
हावेहक (सत्य) का नाम लेकर बातिलपरस्ती (असत्यता) के मशग़ले में मुब्तिला होते हैं। ऐसी 
हालत में जब भी सच्चाई की बेआमेज (विशुद्ध) दावत उठती है तो हर आदमी अपने आप पर 
उसकी जद पड़ते हुए महसूस करता है। नतीजा यह होता है कि हर आदमी उसका मुखालिफ 
बनकर खड़ा हो जाता है। 
ऐसी हालत मे दाऔ (आह्वानकर्ता) को क्या करना चाहिए। इसका एक ही जवाब है 
और वह है दरगुजर और एराज (क्षमा, उपेक्षा)। यानी लोगों से उलझे बगैर बिल्कुल ठंडे तौर 
पर अपना काम जारी रखना । दाऔ अगर लोगों के निकाले हुए शोशों का जवाब देने लगे तो 
हक की दावत मुनाजिरे की सूरत इसख़्तियार कर लेगी। दाऔ अगर लोगों की तरफ से छेड़े हुए 
शेर जरूरी सवालात में अपने को मशगूल करे तो वह सिर्फ अपने वक्‍त और अपनी ताकत 
को जाया करेगा। दाऔ अगर लोगों की तरफ से आनी वाली तकलीफों पर उनसे झगड़ने लगे 
तो हक की दावत (सत्य का आह्वान), हक की दावत न रहेगी बल्कि मआशी (आर्थिक) और 
सियासी लड़ाई बन जाएगी। इसलिए हक की दावत को उसकी असली सूरत में बाकी रखने 
के लिए जरूरी है कि दाऔ जाहिलों और विरोधियों की तरफ से पेश आने वाली नाखुशगवारियों 
पर सब्र करे और उनसे उलझे बगैर अपने मुस्बत (सकारात्मक) काम को जारी रखे। 
ताहम मौजूदा दुनिया में कोई शख्स नफ्स और शैतान के हमलों से ख़ाली नहीं रह 
सकता। ऐसे मौके पर जो चीज आदमी को बचाती है वह सिर्फ अल्लाह का डर है। अल्लाह 
का डर आदमी को बेहद हस्सास बना देता है। यही हस्सासियत (संवेदनशीलता) मौजूदा 
इम्तेहान की दुनिया में आदमी की सबसे बड़ी ढाल है। जब भी आदमी के अंदर कोई ग़लत 
ख़ाल आता है या किसी किस्म की मंगरी नपिसियात (नकारात्मक मानसिकता) उभरती है तो 
उसकी हस्सासियत उसे फौरन बता देती है कि वह फिसल गया है। एक लम्हे की गफलत के 
बाद उसकी आंख खुल जाती है और वह अल्लाह से माफी मांगते हुए दुबारा अपने को दुरुस्त 
कर लेता है। इसके बरअक्स जो लोग अल्लाह के डर से ख़ाली होते हैं उनके अंदर शैतान 
दाखिल होकर अपना काम करता रहता है और उन्हें महसूस भी नहीं होता कि उसके साथी 
बनकर वे किस गढ़े की तरफ चले जा रहे हैं। हस्सासियत आदमी की सबसे बड़ी मुहाफिज 
(रक्षक) है जबकि बेहिसी आदमी को शैतान के मुकाबले में गैर महफूज बना देती है। 


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पारा 9 450 सूरह-7. अल-आराफ 


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और जब तुम उनके सामने कोई निशानी मोजिजा (चमत्कार) नहीं लाए तो कहते हैं 
कि क्यों न तुम छांट लाए कुछ अपनी तरफ से। कहो, में तो उसी की पैरवी करता 

हूं जो मेरे रब की तरफ से मुझ पर 'वही' (प्रकाशना) की जाती है। ये सूझ की बातें 
हैं तुम्हारे रब की तरफ से और हिदायत और रहमत है उन लोगों के लिए जो ईमान 
रखते हैं। और जब कुरआन पढ़ा जाए तो उसे तवज्जोह से सुनो और खामोश रहो, ताकि 
तुम पर रहमत की जाए। और अपने रब को सुबह व शाम याद करो अपने दिल में, 
आजिजी ओर सफ के साथ ओर पस्त आवाज से, और ग़ाफिलों में से न बनों। जो 

(फरिश्ते) तेरे रब के पास हैं वे उसकी इबादत से तकबबुर (घमंड) नहीं करते। और वे 
उसकी पाक जात को याद करते हैं और उसी को सज्दा करते हैं। (203-206) 

















मक्का के लोग रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से कहते कि अगर तुम ख़ुदा के 
पैगम्बर हो तो ख़ुदा के यहां से कोई मोजिजा क्यों नहीं लाए। ख़ुदा के लिए इंतिहाई आसान 
था कि वह आपको एक मोजिजा दे देता। मगर इसका नतीजा यह होता कि असल मकसद 
जाता रहता। 

मसलन फर्ज कीजिए कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के लिए एक जदीद तर्ज 
की एक मोटरकार उतार दी जाती जिसमें लाउडस्पीकर नसब होता। आप उसमें बैठकर चलते 
और लोगों के दर्मियान तब्लीग़ करते । डेढ़ हजार साल पहले के हालात में ऐसी एक कार लोगों 
के लिए इंतिहाई हैरतनाक मौजजा होती। मगर इसका नुक्सान यह होता कि लोगों की 
तवज्जोह असल बात से हट जाती। असल मकसद तो यह था कि ख़ुदा का कलाम लोगों के 
लिए बसीरत बने। इससे लोगों को सोचने का ढंग और अमल करने का तरीका मालूम हो। 
इससे रूहों को खुदाई ठंडक मिले। मगर मज्कूरा मोजिजे के बाद यह सारा मंसूबा धरा रह 
जाता और लोग बस तिलिस्माती सवारी के अजूबे में मगन होकर रह जाते। 

करामाती चीजों में खोने का नाम दीन नहीं। दीन यह है कि आदमी ख़ुदा के कलाम पर 
ध्यान दे। उसे गौर के साथ पढ़े और तवज्जोह के साथ सुने। दीनदार होने की पहचान यह 
है कि खुदा के साथ आदमी का गहरा तअल्लुक कायम हो जाए। उसके दिल में गुदाज 
(नम्रता) पैदा हो। वह ख़ुदा की याद करने वाला बन जाए। ख़ुदा की अज्मत उसके दिल व 
दिमाग पर इस तरह छा जाए कि वह उसके अंदर तवाजोअ (विनम्रता) और ख़फ की 
कैफियत पैदा कर दे। खुदा का तज्किरा करते हुए उसकी आवाज पस्त हो जाए। वह गफलत 
से निकल कर बेदारी (सजगता) के आलम में पहुंच जाए। 


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सूरह8. अल-अनफाल 45] पारा 9 


आख़िर में फरिश्तों का किरदार बयान किया गया है। यह इसलिए कि तुम भी ऐसा ही 
करो ताकि तुम्हें फरिशतों का साथ हासिल हो जब आदमी अपने आपको घमंड से पाक करता 
है, और ख़ुदा के कमालात से इतना सरशार होता है कि उसके दिल से हर वक्त उसकी याद 
उबलती रहती है तो वह फरिश्तों का हम सतह (सम-स्तर) हो जाता है। इस दुनिया में किसी 
इंसान की तरवकी का आलातरीन मकाम यह है कि वह इंसान होते हुए मलकूती किरदार का 
हामिल (फरिश्ता-चरित्र) बन जाए। वह दुनिया में रहते हुए फरिश्तों के पड़ोस में जिंदगी 
गुजरने लगे। 


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आयतें-75 सूह-8. अल-अनफाल रुकूअ-0 
(मदीना में नाजिल हुई) 

शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान निहायत रहम वाला है। 
वे तुमसे अनफाल (ग़नीमत का माल) के बारे में पूछते हैं। कहो कि अनफाल अल्लाह 
और उसके रसूल के हैं। पस तुम लोग अल्लाह से उरो और अपने आपस के तअल्लुकात 
की इस्लाह (सुधार) करो और अल्लाह और उसके रसूल की इताअत (आज्ञापालन) करो, 
अगर तुम ईमान रखते हो। ईमान वाले तो वे हैं कि जब अल्लाह का जिक्र किया जाए तो 
उनके दिल दहल जाएं और जब अल्लाह की आयतें उनके सामने पढ़ी जाएं तो वे उनका 
ईमान बढ़ा देती हैं और वे अपने रब पर भरोसा रखते हैं। वे नमाज कायम करते हैं और 
जो कुछ हमने उन्हें दिया है उसमें से ख़र्च करते हैं। यही लोग हकीकी मोमिन हैं। उनके 
लिए उनके रब के पास दजे और मम्फिरत (क्षमा) हैं और उनके लिए इज्जत की रोजी है। 
(I-4) 


सूरह अनफाल बद्र की जंग (2 हि०) के बाद उतरी। इस जंग में मुसलमानों को फतह 
हुई थी और इसके बाद जंग के मैदान से काफी गनीमत का माल हासिल हुआ था। मगर ये 
अमवाल (धन) अमलन एक गिरोह के कब्जे में थे। इस बिना पर जंग के बाद गनीमत (युद्ध 
में प्राप्त सामग्री) की तक्सीम पर निज़ञाअ (विवाद) पैदा हो गई। जंग में कुछ लोग पिछली सफ 

















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पारा 9 452 सूरह-8. अल-अनफ़ल 





में थे। कुछ रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की हिफाजत में लगे हुए थे। कुछ लोग 
आखिरी मरहले में दुश्मन का पीछा करते हुए आगे निकल गए। इस तरह जंग के मैदान से 
ग़नीमत का माल लूटने का मौक्ष एक खस फरीक (पक्ष) को मिला। दूसरे लोग जो उस वक्‍त 
जंग के मैदान से दूर थे वे दुश्मन के छोड़े हुए अमवाल को हासिल न कर सके। 

अब सूरतेहाल यह थी की उसूली तौर पर तो जंग के तमाम शुरका (भागीदार) अपने को 
गनीमत के माल में हिस्सेदार समझते थे। मगर गनीमत का माल अमलन सिफ एक गिरोह के 
कब्जे में था। एक फरीक (पक्ष) के पास दलील थी और दूसरे फरीक के पास माल। एक के 
पास अपने हक को साबित करने के लिए सिर्फ अल्फाज़ थे। जबकि दूसरे का हक किसी 
दलील व सुबूत के बौर खुद कब्जे के जोर पर कायम था। 

इस किस्म के तमाम झगड़े खुदा के ख़ैफ के मनाफी (प्रतिकूल) हैं। खुदा का खौफ 
आदमी के अंदर जिम्मेदारी की नफ्सियात उभारता है। ऐसे आदमी की तवज्जोह फराइज पर 
होती है न कि हुकूक पर। वह अपनी तरफ देखने के बजाए खुदा की तरफ देखने लगता है। 
उसका दिल खुदा व रसूल की इताअत के लिए नर्म पड़ जाता है। वह ख़ुदा का इबादतगुजार 
बंदा बन जाता है। लोगों को देकर उसे तस्कीन मिलती है न कि लोगों से छीन कर। ये 
औसाफ (गुण) आदमी के अंदर हकीकतपसंदी और हक के एतराफ का मादूदा पैदा करते हैं। 
हवीकापसंरी और एतराफेहक की फज का लांजी नतीजा यह हेता है कि आपस के 
झगड़े ख़त्म हो जाते हैं। और अगर कभी इत्तेफाकन (संयोगवश) उभरते हैं तो एक बार की 
तंबीह उनकी इस्लाह के लिए काफी हो जाती है। 

ख़ुदा की पकड़ का अंदेशा हर एक को इस हद पर पहुंचा देता है जिस हद पर उसे 
फिलवाकेअ (वस्तुतः) होना चाहिए था। और जहां हर आदमी अपनी वाकई हद पर रुकने के 
लिए राजी हो जाए वहां झगड़े का कोई गुजर नहीं। 


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जैसा कि तुम्हारे रब ने तुम्हें हक के साथ तुम्हारे घर से निकाला। और मुसलमानों में 

से एक गिरोह को यह नागवार था। वे इस हक के मामले में तुमसे झगड़ रहे थे बावजूद 
यह कि वह जाहिर हो चुका था, गोया कि वे मौत की तरफ हांके जा रहे हैं आंखो देखते । 

और जब ख़ुदा तुमसे वादा कर रहा था कि दो जमाअतों में से एक तुम्हें मिल जाएगी। 
और तुम चाहते थे कि जिसमें कांटा न लगे वह तुम्हें मिले। और अल्लाह चाहता था 
कि वह हक का हक होना साबित कर दे अपने कलिमात से और मुंकिरों की जड़ काट 


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सूरह-8. अल-अनफाल 453 पारा 9 


देताकि स्क (सत्य) हक होकर रहे और बातिल (असत्य) बातिल होकर रह जाए चाहे 
मुजरिमों को वह कितना ही नागवार हो। (5-8) 





शाबान 2 हिजरी में मालूम हुआ कि कुंरेश का एक तिजारती काफिला शाम से मक्का 
की तरफ वापस जा रहा है। इस काफिले के साथ तकरीबन 50 हजर अशरफी का सामान 
था। इसका रास्ता मदीना के करीब से गुजरता था। यह अंदेशा था कि मुसलमान अपने 
दुश्मनों के तिजारत के काफिले पर हमला करें। चुनांचे काफिले के सरदार अबू सुफयान बिन 
हर्ब ने तेज रफ्तार ऊंटनी के जरिए मक्का वालों के पास यह ख़बर भेजी कि मदद के लिए 
दौड़ वर्ना मुसलमान तिजारती काफिले को लूट लेंगे। मक्का में इस ख़बर से बड़ा जोश पैदा 
हो गया। चुनांचे 950 सवार जिनमें 600 जिरहपोश (कवचधारी) थे मक्का से निकल कर 
मदीना की तरफ रवाना हुए। 
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को भी तमाम ख़बरें मिल रही थीं। अब मदीना 
के मुसलमान दो गिरोहों के दर्मियान थे। एक शाम से आने वाला तिजारती काफिला । दूसरा 
मक्का से मदीना की तरफ बढ़ने वाला जंगी लश्कर। मुसलमानों के एक तबके में यह जेहन 
पैदा हुआ कि तिजारती काफिले की तरफ बढ़ जाए। इस काफिले के साथ बमुश्किल 40 
मुहाफिज थे। उसे बाआसानी मगलूब करके उसके सामान पर कब्जा किया जा सकता था। 
मगर खुदा का मंसूबा दूसरा था। खुदा को दरअस्ल मुंकिरीने हक का जोर तोड़ना था न कि 
कुछ इक्तसादी (आर्थिक) फायदे हासिल करना। खुदा ने मख़सूस हालात पैदा करके ऐसा 
किया कि तमाम मुखालिफ सरदारों को मक्का से निकाला और उन्हें मदीना से 20 मील के 
फासले पर बद्र के मकाम पर पहुंचा दिया ताकि मुसलमानों को उनसे टकरा कर हमेशा के 
लिए उनका ख़ात्मा कर दिया जाए। अल्लाह के रसूल ने जब मुसलमानों को ख़ुदा के इस 
मंसूबे से सूचित किया तो सबके सब मुत्तफिक (सहमत) होकर बद्र की तरफ बढ़े। उनकी 
तादाद अगरचे सिर्फ 33 थी। उनके पास हथियार भी कम थे। मगर अल्लाह ने उनकी 
ख़ुसूसी मदद फरमाई। उन्होंने कुंरेश के लश्कर को बुरी तरह शिकस्त दी। उनके 70 सरदार 
कत्ल हुए और 70 गिरफ्तार कर लिए गए। बद्र का मैदान कुफ्र के मुकाबले में इस्लाम की 
फतह का मैदान बन गया। जब भी ऐसा हो कि एक तरफ माद्दी फायदा हो और दूसरी तरफ 
दीनी फायदा तो यह तक्सीम खुद इस बात का सुबूत है कि खुदा की मर्ज दीनी फायदे की 
तरफ हैन कि मादी फयदे की तरफ। 
इस्लामी जद्दोजहद का निशाना कभी मआशी मफाद हासिल करना नहीं होता। इस्लामी 
जद्दोजहद का निशाना हमेशा बातिल (असत्य) का जोर तोड़ना होता है। चाहे वह नजरियाती 
ताकत के जरिए हो या हालात के एतबार से मादूदी ताकत के जरिए 


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जब तुम अपने रब से फरियाद कर रहे थे तो उसने तुम्हारी फरियाद सुनी कि मैं तुम्हारी 

मदद के लिए एक हजार फरिश्ते लगातार भेज रहा हूं। और यह अल्लाह ने सिर्फ इसलिए 

किया कि तुम्हारे लिए खुशखबरी हो और ताकि तुम्हारे दिल उससे मुतमइन हो जाएं। 
और मदद तो अल्लाह ही के पास से आती है। यकीनन अल्लाह जबरदस्त है हिक्मत 
(तत्वदर्शिता) वाला है। जब अल्लाह ने तुम पर ऊघ डाल दी अपनी तरफ से तुम्हारी 
तस्कीन के लिए और आसमान से तुम्हारे ऊपर पानी उतारा कि उसके जरिए से तुम्हें पाक 
करे और तुमसे शैतान की नजासत (गंदगी) को दूर कर दे और तुम्हारे दिलों को मजबूत 
कर दे और उससे कदमों को जमा दे। जब तेरे रब ने फरिश्तां को हुक्म भेजा कि में तुम्हारे 

साथ हूं, तुम ईमान वालों को जमाए रखो। मैं मुंकिरों के दिल में रौब डाल दूंगा । पस तुम 
उनकी गर्दन के ऊपर मारो और उनके पोर-पोर पर जर्ब (चोट) लगाओ। यह इस सबब 

से कि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल की मुखालिफत की। और जो कोई अल्लाह और 
उसके रसूल की मुखालिफत करता है तो अल्लाह सजा देने में सख्त है। यह तो अब चखो 

और जान लो कि मुंकिरों के लिए आग का अजाब है। (9-4) 





बद्र की लड़ाई बड़े नाजुक हालात में हुई। तकरीबन एक हजार मुसल्लह दुश्मनों के 
मुकाबले में मुसलमानों की तादाद सिर्फ 3]3 थी। उनके पास हथियार भी कम थे। दुश्मनों 
ने जंग के मकाम (बद्र) पर पहले पहुंच कर वहां अच्छी जगह और पानी के चशमे पर कब्जा 
कर लिया। इस किस्म के हालात देखकर मुसलमानों के दिल में यह वसवसा आने लगा कि 
जिस मिशन के लिए वे अपनी जिंदगी वीरान कर रहे हैं उसके साथ शायद ख़ुदा की मदद 
शामिल नहीं। अगर वह हक होता तो ऐसे नाजुक मौके पर खुदा क्यों उनका साथ न देता, 
क्यों असबाब के तमाम सिरे उनके हाथ से निकल कर दुश्मनों की तरफ चले जाते। 

उस वक्त अल्लाह तआला ने बद्र के इलाके में जोर की बारिश बरसाई। मुसलमानों ने 
हौज बना बनाकर बारिश का पानी जमा कर लिया। दुश्मन ने मुसलमानों को जमीन के पानी 
से महरूम किया था, ख़ुदा ने उनके लिए आसमान से पानी का इंतिजाम कर दिया । इसी तरह 
ख़ुदा ने यह गैर मामूली इंतिजाम फरमाया कि मुसलमानों के ऊपर नींद तारी कर दी। सोना 


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सूरह-8. अल-अनफाल 455 पारा 9 


आदमी के ताजा दम होने के लिए बहुत जरूरी है। मगर जंग के मैदान के हालात इस कद्र 
वहशतनाक होते हैं कि आदमी की नींद उड़ जाती है। इसके बावजूद अल्लाह तआला ने 
मुसलमानों की यह ख़ुसूसी मदद फरमाई कि जंग के दिन से पहले वाली रात को उन पर नींद 
तारी कर दी। वे रात को जेहनी बोझ से फारिग होकर सो गए और सुबह को पूरी तरह ताजा 
दम होकर उठे। जो हालात मुसलमानों के अंदर वसवसा पैदा करने का सबब बन रहे थे, उन्हीं 
हालात के अंदर खुदा ने ऐसे इम्कानात पैदा कर दिए कि उनके अंदर नया यकीन व एतमाद 
उभर आया। 

मुकबले के ववत अहले हक से जो चीज मत्लूब है वह साबितकदमी है। उन्हेंकिसी हाल 
में बददिल नहीं होना चाहिए । इस साबितकदमी का नक . द इनाम खुदा की तरफ से यह मिलता 
है कि हक के दुश्मनों के दिलों में रौब डाल दिया जाता है। और जो गिरोह अपने हरीफ से 
मरऊब हो जाए, उसे कोई चीज शिकस्त से नहीं बचा सकती। 


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ऐ ईमान वालो, जब तुम्हारा मुकाबला मुंकिरीन से जंग के मैदान में हो तो उनसे पीठ 
मत फेरो। और जिसने ऐसे मौके पर पीठ फेरी, सिवा इसके कि जंगी चाल के तौर पर 


हो या दूसरी फौज से जा मिलने के लिए, तो वह अल्लाह के ग़जब (प्रकोप) में आ जाएगा 
और उसका ठिकाना जहन्नम है और वह बहुत ही बुरा ठिकाना है। (5-6) 





इस्लाम और गैर इस्लाम का टकराव जब जंग के मैदान तक पहुंच जाए तो यह गोया 
कोफीके (पक्षों) के लिए आरी फैसले का वकत होता है। ऐसे नाजुक लम्हे में अगर 
कोई शख्स या गिरोह ऐसा करे कि ऐन मअरके के वक्त वह मैदान छोड़ कर भागे तो उसने 
बदतरीन जुर्म किया। एक तरफ उसने हक को बचाने के मुकाबले में अपने आपको बचाने को 
ज्यादा अहम समझा, उसने अपने मकसद के मुकाबले में अपनी जात को तरजीह दी। और यह 
सब कुछ उसने उस वक्‍त किया जबकि उस हक की जिंदगी की बाजी लगी हुई थी जिसे 
आलातरीन सदाकत करार देकर वह उस पर ईमान लाया था। 

दूसरे यह कि ऐसे नाजुक मके पर अक्सर एक छोटा सा वाकया बहुत बड़े वाकधे का 
सबब बन जाता है। एक शख्स या एक गिरोह का मैदान छोड़कर भागना पूरी फौज का हौसला 
तोड़ देता है। एक शख्स की भगदड़ बिलआखिर आम भगदड़ की सूरत इख्तियार कर लेती 
है। और हंगामी हालात (आपात स्थिति) में जब किसी मज्मञ में आम भगदड़ शुरू हो जाए 
तो वह अपनी आखिरी हद पर पहुंचने से पहले कहीं नहीं रुकती। 

इससे मुस्तसना (अपवाद) सिफ वह सूरत है जबकि कोई सिपाही या सिपाहियों का कोई 
दस्ता किसी जंगी तदबीर के लिए पीछे हटता है या वह अपने एक मोर्चे से हटकर दूसरे मोर्चे 


पारा 9 456 सूरह8. अल-अनफाल 


की तरफ सिमटना चाहता है। फरार के तौर पर अगर कोई पीछे हटता है तो वह बिलाशुबह 
नाकाबिले माफी जुर्म करता है। मगर जो पीछे हटना जंग की तदबीर से तअल्लुक रखता हो 
वह जाइज है। इसके लिए आदमी पर कोई इल्जाम नहीं। 

मज्कूरा हुक्म अस्लन जंग से मुतअल्लिक है। ताहम दूसरी मुशाबह सूरतें भी दर्जा बदर्जा 
इसी के जेल में आ सकती हैं। मसलन एक शख्स बेआमेज (विशुद्ध) इस्लाम के ख़ामोश और 
तामीरी अमल की तरफ लोगों को पुकारे। मगर कुछ अर्सँ के बाद जब वह देखे कि उसकी 
दावत लोगों में ज्यादा मकबूल नहीं हो रही है तो वह बेसब्री का शिकार हो जाए और ख़ामोश 
तामीर के महाज को छोड़कर ऐसे इस्लाम की तरफ दौड़ पड़े जिसके जरिए अवाम में बहुत 
जल्द शोहरत और मर्तबा हासिल किया जा सकता है। 

जंग के मैदान से भागना शुऊर और इरादे के तहत होता है। मगर जंगी मैदान के बाहर जो 
मअरका जारी है उससे 'भागना' एक गैर शुऊरी वाकया है। आदमी तबई तौर पर (स्वभावगत) 
नतीजापसंद वाकअ हुआ है। वह अपने काम का एतराफ (स्वीकार्यता) चाहता है। उसका यह 
मिजाज गैर शुऊरी तौर पर उसे उन कामों से हटा देता है जिनमें फौरी नतीजा निकलता हुआ 
नजर न आता हो। वह अपने अंदर काम करने वाले गैर शुऊरी असरात के तहत उन चीजों की 
तरफ खिंच उठता है जिनमेंबजहिर यह उम्मीद हो कि फैरन इनत व कामयाबी हासिल हो 
जाएगी । इस किस्म का हर इहिराफ (भटकाव) अपनी हकीकत के एतबार से उसी नौइयत की 
चीज है जिसे मज्कूरा आयत में मुकाबले के मैदान से भागना कहा गया है। 


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पस उन्हें तुमने कत्ल नहीं किया बल्कि अल्लाह ने कत्ल किया। और जब तुमने उन 

पर ख़ाक फेंकी तो तुमने नहीं फेंकी बल्कि अल्लाह ने फेंकी ताकि अल्लाह अपनी तरफ 

से ईमान वालों पर ख़ूब एहसान करे। बेशक अल्लाह सुनने वाला जानने वाला है। यह 
तो हो चुका। और बेशक अल्लाह मुंकिरीन की तमाम तदबीरें (युक्तियां) बेकार करके 
रहेगा। अगर तुम फैसला चाहते थे तो फैसला तुम्हारे सामने आ गया। और अगर तुम 

बाज आ जाओ तो यह तुम्हारे हक में बेहतर है। और अगर तुम फिर वही करोगे तो 

हम भी फिर वही करेंगे और तुम्हारा जत्था तुम्हारे कुछ काम न आएगा चाहे वह कितना 
ही ज्यादा हो। और बेशक अल्लाह ईमान वालों के साथ है। (7-9) 


3 9 














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रिवायात में आता है कि जब बद्र का मअरका गर्म हुआ तो रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि 


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सूह-8. अल-अनफाल 457 पारा 9 


व सल्लम की जबान से दुआ करते हुए यह अल्फाज निकले : ऐ मेरे रब, अगर यह जमाअत 
हलाक हो गई तो कभी जमीन पर तेरी परस्तिश न होगी / फिर आपने अपने हाथ में मुट्ठी 
भर खाक ली और उसे मुश्रिकीन की तरफ फेंकते हुए कहा : “चेहरे बिगड़ जाएं! इसके बाद 
मुंकिरों के लश्कर का यह हाल हुआ जैसे सबकी आंखों में रेत पड़ गई हो। चुनांचे अहले 
ईमान ने निहायत आसानी से जिसे चाहा कत्ल किया और जिसे चाहा गिरफ्तार कर लिया। 

यह अल्लाह का जिम्मा है कि वह अहले ईमान की मदद करता है। उनके दुश्मन चाहे 
कितनी ही साजिशें करें वह उनकी साजिशों को अपनी तदबीरों से बेअसर कर देता है। वह 
उन्हें मगलूब करके अहले ईमान को उनके ऊपर ग़ालिब कर देता है। मगर ऐसा कब होता 
है। ऐसा उस वक्त होता है जबकि अहले ईमान अपने इरादे को ख़ुदा के इरादे में इस तरह 
मिला दें कि ख़ुदा की मंशा और अहले ईमान की मंशा दोनों एक हो जाएं। जब बंदा इस तरह 
अपने आपको ख़ुदा के मुताबिक कर लेता है तो जो कुछ ख़ुदा का है वह उसका हो जाता है 
क्यों कि जो कुछ उसका है वह ख़ुदा को दे चुका होता है। 

बद्र के लिए रवानगी से पहले मक्का के सरदार बैतुल्लाह गए और काबे के पर्दे को पकड़ 
कर यह दुआ की : 'ख़ुदाया उसकी मदद कर जो दोनों लश्करों में सबसे आला हो, जो दोनों 
गिरेहे में सबसे मुअजजज (आदरणीय) हो, जो दोनों कबीलों में सबसे बेहतर हो।' बद्र की 
लड़ाई में मक्का के सरदारों को कामिल शिकस्त और अहले ईमान को कामिल फतह हुई। इस 
तरह ख़ुद मक्का के सरदारों के मेयार के मुताबिक यह साबित हो गया कि ख़ुदा के नजदीक 
आला व अशरफ (उच्च, संभ्रात) गिरोह वह नहीं हैं बल्कि अहले इस्लाम हैं। इसके बावजूद 
उन्होंने इस्लाम कुबूल नहीं किया। जो लोग ऐसा करें उनके लिए आख़िरत में सख्ततरीन 
अजाब है और इसी के साथ दुनिया में भी। 

दोनों में जो सबसे आला और सबसे अशरफ हो उसे फतह दे' यह बजाहिर दुआ थी मगर 
हकीकतन वह अपने हक मेपुरफख़्एतमाद का इज्हार था। इसके पीछे उनकी यह नपिसियात 
काम कर रही थी कि हम काबा के पासबान हैं, हम इब्राहीम व इस्लाईल से निस्बत रखने वाले 
हैं। जब हमारे साथ इतनी बड़ी फजीलतें जमा हैं तो जीत बहरहाल हमारी होनी चाहिए । मगर 
ख़ुदा के यहां जाती अमल की कीमत है न कि ख़ारजी इंतिसाबात (वाह्य जुड़ावों) की । ख़ारजी 
इंतिसाब चाहे वह कितना ही बड़ा हो आदमी के कुछ काम आने वाला नहीं। 


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रूगर्दानी (अवहेलना) न करो हालांकि तुम सुन रहे हो। और उन लोगों की तरह न हो 








पारा 9 458 सूरह8. अल-अनफाल 


जाओ जिन्होंने कहा कि हमने सुना हालांकि वे नहीं सुनते। यकीनन अल्लाह के नजदीक 
बदतरीन जानवर वे बहरे गूंगे लोग हैं जो अक्ल से काम नहीं लेते। और अगर उनमें 
किसी भलाई का इल्म अल्लाह को होता तो वह जरुर उन्हे सुनने की तौफीक देता और 

अगर अब वह उन्हें सुनवा दे तो वे जरूर रूगर्दानी करेंगे बेरुख़ी करते हुए। (20-23) 


आदमी के सामने जब हक बात पेश की जाए तो एक सूरत यह है कि वह उसे उन 
तमाम सलाहियतों को इस्तेमाल करते हुए सुने जो ख़ुदा ने उसे बहैसियत इंसान अता की हैं। 
वह उस पर पूरी तरह ध्यान दे। वह उसकी सदाकत के वजन को महसूस कर ले। और फिर 
अपनी जबान से वह सही जवाब पेश करे जो एक हक के मुकाबले में इंसान की फितरत को 
पेश करना चाहिए। जो शख्स ऐसा करे उसने गोया पेश को हुई बात को इंसान की तरह 
सुना । दूसरी सूरत यह है कि वह उसे इस तरह सुने जैसे कि उसके पास सुनने के लिए कान 
नहीं हैं। उसके समझने की सलाहियत उसकी सच्चाई को पकड़ने से आजिज रह जाए। वह 
अपनी जबान से वह सही जवाब पेश न कर सके जो उसे अजरुए वाक्या (यथार्थतः) पेश 
करना चाहिए। जो शख्स ऐसा करे उसने गोया पेश की हुई बात को जानवर की तरह सुना। 
कोई बात चाहे वह कितनी ही बरहक हो उसकी हक्कानित सिर्फ उसी शर्म पर खुलती 
है जो दिल की आमादगी के साथ उसे सुने। इसके बरअक्स जो शख्स हसद, किब्र (अहं), 
मस्लेहत अंदेशी (स्वार्थता) और जाहिरपरस्ती का मिजाज अपने अंदर लिए हुए हो वह सच्चाई 
को काबिले गौर नहीं समझेगा, वह उसे संजीदगी के साथ नहीं सुनेगा, इसलिए वह उसकी 
सदाकत को पाने में भी यकीनी तौर पर नाकाम रहेगा। 
ईमान बजाहिर एक कैल है। मगर अपनी हकीकत के एतबार से वह एक इंसानी फैसला 
है। इमान महज शहादत के अल्फाज की तकरार नहीं बल्कि अपनी मअनवी (अर्थपूर्ण हालत 
का लफी इद्र है। अगर आदमी की हालत फिलवाकअ (वस्तुतः) वही हो जिसका वह उन 
अल्फज के जरिए एलान कर रहा है तो वह खा की नजर में हकीकी मेमिन है। मेमिन 
संजीदातरीन इंसान है और संजीदा इंसान कभी ऐसा नहीं कर सकता कि उसकी अंदुरूनी 
हालत कुछ हो और बोले हुए अल्फाज में वह अपने को कुछ जाहिर करे। 
जिस आदमी का ईमान अपनी अंदुरूनी हकीकत के एलान के हममअना हो वह ईमान 
का इकरार करते ही अमलन खुदा को अपना माबूद (पूज्य) बना लेगा और अपनी जिंदगी के 
तमाम मामलात में उसकी पैरवी करने वाला बन जाएगा। जबान से ईमान का इकरार उसके 
लिए अपनी सम्ते सफर बताने के हममअना होगा न कि किसी किस्म के ज़बानी तलप्फु 
(उच्चारण) के हममअना। इसके बरअक्स हालत उस शख्स की है जिसने बात सुनी। वह 
उसके दलाइल के मुकाबले में लाजवाब भी हो गया। मगर वह उसकी रूह में नहीं उतरी | वह 
उसके दिल की धड़कनों में शामिल नहीं हुई। ताहम ऊपरी तौर पर उसने जबान से कह दिया 
कि हां ठीक है। मगर उसकी वाकई जिंदगी इसके बाद भी वैसी ही रही जैसी कि वह इससे 
पहले थी। यह दूसरी सूरत निफाक (पाखंड) की सूरत है और खुदा के यहां ऐसे मुनाफिकाना 
(पाखंड भरे) ईमान की कोई कीमत नहीं। 








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सूह-8. अल-अनफाल 459 पारा 9 
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ऐ ईमान वालो, अल्लाह और रसूल की पुकार पर लब्बैक (स्वीकारोक्ति) कहो जबकि 
रसूल तुम्हें उस चीज़ की तरफ बुला रहा है जो तुम्हें जिंदगी देने वाली है। और जान 

लो कि अल्लाह आदमी और उसके दिल के दर्मियान हायल (बाधित) हो जाता है। और 
यह कि उसी की तरफ तुम्हारा इकट्ठा होना है। और डरो उस फितने से जो ख़ास उन्हीं 

लोगों पर घटित न होगा जो तुममें से जुल्म के करने वाला हुए हैं। और जान लो कि 
अल्लाह सख्त सजा देने वाला है। (24-25) 


“जिंदगी की पुकार' से मुराद यहां जिहाद की पुकार है। यानी हक को दूसरों तक पहुंचाने 
की जदूदोजहद । यह जद्दोजेहद इब्तिदा में जबान व कलम के जरिए तल्कीन (दीक्षा) की सूरत 
में शुरू होती है। मगर मदऊ (सम्बोधित पक्ष) का मुखालिफाना रद्देअमल उसे विभिन्न 
मराहिल तक पहुंचा देता है, यहां तक कि हिजरत (स्थान-परिवर्तन) और जंग तक भी। 
आदमी इंफिरादी सतह पर अपने ख्याल के मुताबिक एक दीनी जिंदगी बनाता है। इस 
जिंदगी को वह अपने हालात से इस तरह मुताबिक कर लेता है कि वह उसे आफियत का 
जजीरा (शांति द्वीप) मालूम होने लगती है। उसे ऐसा महसूस होता है कि अगर वह दूसरों की 
इस्लाह (सुधार) के लिए उठा तो उसका बना बनाया आशियाना उजड़ जाएगा। उसकी लगी 
बंधी जिंदगी बेतर्तीब हो कर रह जाएगी। उसके वक्‍त और उसके माल का वह निजाम बाकी 
न रहेगा जो उसने अपने जाती तकाजें के तहत बना रखा है। 
इस किस्म के अंदेशे उसके लिए दावत व इस्लाह की जद्दोजहद में निकलने और इसकी 
राह में जान व माल पेश करने के लिए रुकावट बन जाते हैं। मगर यह सरासर नादानी है। 


हकीकत यह है कि आदमी जिस आफिपतकदा (शांति-स्थल) को अपने लिए जिंदगी समझ 
रहा है वह उसका कब्रस्तान है। और जिस कुर्बानी में उसे अपनी मौत नजर आती है उसी 
मंउसकी जिगी का राज छुमा हुआ है। 


दावत व इस्लाह का अमल, बशर्ते कि वह आख़िरत के लिए हो न कि दुनियावी मकासिद 
के लिए, इंतिहाई अहम अमल है। वह आदमी के मुर्दा दीन को जिंदा दीन बनाता है। वह 
आलातरीन सतह पर इंसान को ख़ुदा से जोड़ता है। वह उन कीमती दीनी तजर्बात से आदमी 
को आशना करता है जो इंफिरादी ख़ोल में रहकर कभी हासिल नहीं होते। खुदा की तरफ से 
इतनी अहम पुकार को सुनकर जो लोग उसके बारे में बेतवज्जोह रहें वे यह ख़तरा मोल ले रहे 
हैंकि उनके और हक (सत्य) के दर्मियान एक नफ्सियाती (मनोवैज्ञानिक) आइ खड़ी हो जाए। 


पारा 9 460 सूरह8. अल-अनफाल 


उनकी यह फितरी सलाहियत हमेशा के लिए कुंद हो जाए कि वे हक की पुकार को सुनें और 
उसकी तरफ दौड़कर अपने रब को पा लें। 
इंसान की जिंदगी एक समाजी जिंदगी है। कोई शख्स उसके अंदर अपना इंफिरादी 
जजीरा बनाकर नहीं रह सकता। अगर एक शख्स जाती दीनदारी पर कानेअ (संतुष्ट) है तो 
वह हर वक्त इस अंदेशे में है कि इज्तिमाई (सामूहिक) बिगाड़ के नतीजे में कोई उमूमी आग 
फैले और वह ख़ुद भी उसकी लपेट में आ जाए। इस्लाही (सुधारवादी) जदूदोजहद इस्लाह 
के साथ दायित्व-पालन भी है। अगर आदमी दायित्व-पालन पेश करने में नाकाम रहे तो ख़ुदा 
उसके मामले को क्यों दूसरों से अलग करेगा। 
कोई बुराई हमेशा छोटी सतह से शुरू होती है और फिर बढ़ते-बढ़ते बड़ी बन जाती है। 
अगर ऐसा हो कि बुराई जब अपनी इब्तिदाई हालत में हो उसी वक्त कुछ लोग उसके खिलाफ 
उठ जाएं तो वे आसानी के साथ उसे कुचल देंगे। लेकिन जब बुराई फैल चुकी हो तो उसकी 
जड़ें इतनी गहरी हो जाती हैं कि फिर उसे ख़त्म करना मुमकिन नहीं रहता। 
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और याद करो जबकि तुम थोड़े थे और जमीन में कमजोर समझे जाते थे। डरते थे कि 
लोग अचानक तुम्हें उचक न लें। फिर अल्लाह ने तुम्हें रहने की जगह दी और अपनी 
नुसरत (मदद) से तुम्हारी ताईद की और तुम्हें पाकीजा रोजी दी ताकि तुम शुक्रगुजार 
बनो। ऐ ईमान वालो, खियानत (विश्‍वास-भंग) न करो अल्लाह और रसूल की और 
ख़ियानत न करो अपनी अमानतों में हालांकि तुम जानते हो। और जान लो कि तुम्हारे 


माल और तुम्हारी औलाद एक आजमाइश हैं। और यह कि अल्लाह ही के पास है बड़ा 
अज्र। (26-28) 





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मक्का में मुसलमान बिल्कुल बेबसी की हालत में थे। हर वक्‍त यह अंदेशा लगा रहता 
कि कब उन्हें उखाड़ कर फेंक दिया जाए। वे ऐसे कमजोर की मानिंद थे जिसे हर तरह दबाया 
जाता था और उसके जाइज हुकूक भी उसे नहीं दिए जाते। बिलआख़िर उनके लिए मदीने 
का रास्ता खुला। उन्हें यह मौका दिया गया कि वे मदीना जाकर अपना मर्कज बनाएं और 
वहां के माहौल में आजादी और इज्जत के साथ रहे। 

मुश्किल के बाद आसानी फराहम करने का यह मामला इसलिए किया जाता है ताकि 
आदमी के अंदर शुक्र का जज्बा उभरे। आदमी के हालात जब इस हद पर पहुंच जाते हैं 


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सूरह-8. अल-अनफाल 46] पारा 9 


जहां वह अपने आपको बेबस महसूस करने लगता है। उस वक्‍त अचानक अल्लाह का मदद 
जाहिर होकर हालात को बदल देती है। ऐसा इसलिए होता है ताकि आदमी यकीन करे कि 
जो कुछ हुआ वह ख़ुदा को तरफ से हुआ। इस एहसास की बिना पर वह ख़ुदा के इनामात 
के जज्बे से सरशार हो जाए। 

आदमी ख़ुदा और उसके रसूल पर ईमान लाता है। इस तरह वह यह अहद करता है कि 
वह ख़ुदा व रसूल के रास्ते पर चलेगा। मगर जब ईमानी तरीके को इख्तियार करने में उसके 
माल व औलाद के तकाजे हायल हेते हैं तो वह ईमान के तकाजे को छोड़कर माल व औलाद 
के तकाजे को पकड़ लेता है। यह ईमानी अहद के साथ खुली हुई गद्दारी है। इस गद्दारी 
की शनाअत (तीव्रता) उस वक्‍त और बढ़ जाती है जब यह देखा जाए कि आदमी जिस चीज 
की ख़ातिर खुदा के साथ गादूदारी का मामला कर रहा है वह भी ख़ुद ख़ुदा का एक अतिय्या 
(देन) है। 

आदमी का माल और उसकी औलाद क्या है। वह ख़ुदा ही का दिया हुआ तो है। वह 
बंदे के पास ख़ुदा की अमानत है। इस अमानत का अगर कोई सबसे बेहतर मसरफ (उपयोग) 
हो सकता है तो वह यह है कि जब देने वाला उसे मांगे तो उसे बख़ुशी उसके हवाले कर दिया 
जाए। मगर जब खुदा कहता है कि मेरे दीन के लिए उठो और उसमें अपनी कुव्वतें लगाओ 
तो आदमी उसी अमानत को अपने लिए उत्र बना लेता है जिसे ख़ुदा के दीन की राह में देकर 
उसे ख़ुदा से किए हुए ईमान के अहद को पूरा करना था। वह कामयाबी के कनारे पहुंच कर 
अपने को नाकामों की फेहरिस्त में लिखवा लेता है। 

कोई फेअल (कृत्य) खुदा के यहां जुर्म उस वक्त बनता है जबकि यह जानते हुए उस 
पर अमल किया जाए कि वह ग़लत है। किसी शख्स पर अगर उसके एक काम की गलती 
वाजेह हो जाती है और इसके बाद भी वह उसे करता है तो वह बहुत बड़ी जिम्मेदारी अपने 
सर ले रहा है। क्योंकि गलती को गलती जानने के बाद उसे दोहराना ढिठाई है और ढिठाई 
खुदा के यहां माफी के काबिल नहीं। 


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ऐ ईमान वालो, अगर तुम अल्लाह से डरोगे तो वह तुम्हारे लिए फुरकान बहम पहुंचाएगा 

और तुमसे तुम्हारे गुनाहों को दूर कर देगा और तुम्हें बख्श देगा और अल्लाह बड़े फज्ल 

वाला है, और जब मुंकिर तुम्हारे बारे में तदबीरें सोच रहे थे कि तुम्हें केद कर दें या कत्ल 

कर डालें या जलावतन (निर्वासित) कर दें। वे अपनी तदबीरें कर रहे थे और अल्लाह 
अपनी तदबीरें कर रहा था और अल्लाह बेहतरीन तदबीर वाला है। (29-30) 


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पारा 9 462 सूरह-8. अल-अनफाल 





पुरान के मअना हैर्फकरने वाली चीज। यहापुर्ान से मद हक व बातिल के 
दर्मियान फर्क करने की सलाहियत है। आदमी अगर अल्लाह से डरे, वह वही करे जिसका 
अल्लाह ने हुक्म दिया है और उससे बचे जिससे अल्लाह ने मना किया है तो उसे इस बात 
की तौफीक मिलती है कि वह हक और बातिल को एक दूसरे से अलग करके देख सके। 

इंसानी सलाहियतों को बेदार करने वाली सबसे बड़ी चीज डर है। जिस मामले में इंसान 
के अंदर डर की नफ्सियात पैदा हो जाए उस मामले में वह हद दर्जा हकीकतपसंद बन जाता 
है। डर की नफ्सियात उसके जेहन के तमाम पर्दो को इस तरह हटा देती है कि इस बारे में 
वह हर किस्म की गफलत या गलतफहमी से बुलन्द होकर सहीतरीन राय कायम कर सके। 
यही मामला ख़ुदा के उस बंदे के साथ पेश आता है जिसे रब्बुल आलमीन के साथ तकवा 
(डर) का तअल्लुक पैदा हो गया हो। 

यह फुकन तकरीबन वही चीज है जिसे मअरफत या बसीरत कहा जाता है। बसीरत 
किसी आदमी में वह अंदरूनी रोशनी पैदा करती है कि वह जाहिरी पहलुओं से धोखा खाए 
बगैर हर बात को उसके अस्ल रूप में देख सके । जब भी कोई आदमी किसी मामले में अपने 
को इतना ज्यादा शामिल करता है कि वह उसकी परवाह करने लगे। वह उसके बारे में 
अंदेशानाक (संदेह में) रहता हो तो इसके बाद उसके अंदर एक ख़ास तरह की हस्सासियत 
(संवेदनशीलता) पैदा होती है जो उसे इस मामले में मुवाफिक और मुखालिफ पहलुओं की 
पहचान करा देती है। यह फुरकानी मामला हर एक के साथ पेश आता है चाहे वह एक 
मजहबी आदमी हो या एक ताजिर और डॉक्टर और इंजीनियर। कोई भी आदमी जब अपने 
काम से तकवा (खटक) की हद तक अपने को वाबस्ता करता है तो उसे इस मामले की ऐसी 
मअरफत हो जाती है कि इधर उधर के मुगालतों (भरमों) में उलझे बगेर वह उसकी हकीकत 
तक पहुंच जाए। 

किसी आदमी के अंदर यह खुदाई बसीरत (फुरकान) पैदा होना इस बात की सबसे बड़ी 
जमानत है कि वह बुराइयों से बचे, वह ख़ुदा के साथ अपने तअल्लुक को दुरुस्त करे और 
बिलआरि सगरा केफल का मुर्तहिक बन जाए । यह फुकन (हकव बातिल की नपिसियाती 
तमीज) पैदा हो जाना इस बात का सुबूत है कि आदमी अपने आपको हक के साथ इतना ज्यादा 
वाबस्ता कर चुका है कि उसमें और हक में कोई फर्क नहीं रहा वह और हक दोनों एक दूसरे 
का मुसन्ना बन चुके हैं। इसके बाद उसका बचाया जाना उतना ही जरूरी हो जाता है जितना हक 
को बचाया जाना। ऐसे लोग बराहेरास्त खुदा की पनाह में आ जाते हैं। अब उनके ख़िलाफ 
तदबीरें करना खुद हक के ख़िलाफ तदबीरें करना बन जाता है। और खुदा के खिलाफ तदबीरे 
करने वाला हमेशा नाकाम रहता है चाहे उसने कितनी ही बड़ी तदबीर कर रखी हो। 


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सूरह. अल-अनफाल 463 पारा 9 


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और जब उनके सामने हमारी आयतें पढ़ी जाती हैं तो कहते हैं हमने सुन लिया। अगर 
हम चाहें तो हम भी ऐसा ही कलाम पेश कर दें। यह तो बस अगलों की कहानियां 
हैं। और जब उन्होंने कहा कि ऐ अल्लाह अगर यही हक है तेरे पास से तो हम पर 
आसमान से पत्थर बरसा दे या और कोई दर्दनाक अजाब हम पर ले आ। और अल्लाह 
ऐसा करने वाला नहीं कि उन्हें अजाब दे इस हाल में कि तुम उनमें मौजूद हो और 
अल्लाह उन पर अजाब लाने वाला नहीं जबकि वे इस्तग़फार (क्षमा-याचना) कर रहे हो। 
और अल्लाह उन्हें क्यों न अजाब देगा हालांकि वे मस्जिदे हराम से रोकते हैं जबकि वे 
उसके मुतवल्ली (संरक्षक) नहीं। उसके मुतवल्ली तो सिर्फ अल्लाह से डरने वाले हो 
सकते हैं। मगर उनमें से अक्सर इसे नहीं जानते। और वैतुलल्लाह के पास उनकी नमाज 
सीटी बजाने और ताली पीटने के सिवा और कुछ नहीं। पस अब चखो अजाब अपने 
कुफ्र का। (3।-35) 





हम भी ऐसा कलाम बना सकते हैं, हम नाहक पर हैं तो हमारे ऊपर पत्थर क्यों नहीं 
बरसता। ये सब घमंड की बातें हैं। आदमी जब दुनिया में अपने को महफूज हैसियत में पाता 
है, जब वह देखता है कि हक का इंकार करने या उसे नजरअंदाज करने से उसका कुछ नहीं 
बिगड़ा तो उसके अंदर झूठे एतमाद की नफ्सियात पैदा हो जाती है। वह समझता है कि मैं जो 
कुछ कर रहा हूं वह बिल्कुल दुरुस्त है। उसका यह एहसास उसकी जबान से ऐसे कलिमात 
निकलवाता है जो आम हालात में किसी की जबान से नहीं निकलते। 

इस किस्म के लोगों में यह दिलेरी खुदा के कानूने मोहलत की वजह से पैदा होती है। खुदा 
यकीनन मुजरिमों को सजा देता है मगर खुदा की सुन्नत यह है कि वह आदमी को हमेशा उस 
ववत पकड़ता है जबकि उसके ऊपर हक व बातिल की वजाहत का काम मुकम्मल तौर पर 
अंजाम दे दिया गया हो। इस काम की तक्मील से पहले किसी को हलाक नहीं किया जाता। 
साथ ही यह कि दावती अमल के दर्मियान अगर एक-एक दो-दो आदमी उससे मुतअस्सिर होकर 
अपनी इस्लाह कर रहे हों तब भी सजा का नुजूल रुका रहता है ताकि यह अमल इस हद तक 
मुकम्मल हो जाए कि जितनी सईद (पावन) रहें हैं सब उससे बाहर आ चुकी हों। 

उम्मतों में बिगाड़ आता है तो ऐसा नहीं होता कि उनके दर्मियान से दीन की सूरतें मिट 
जाएं। बिगाड़ के जमाने में हमेशा यह होता है कि खुदा के ख़ैफ वाला दीन जाता रहता है 








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पारा 9 464 सूरह-8. अल-अनफ्ाल 


और उसकी जगह धूम धाम वाला दीन आ जाता है। अब कौम के पास अमल नहीं होता 
बल्कि माजी की शख्सियत और उनके नाम पर कायमशुदा गद्दियां होती हैं। लोग इन 
शख्सियतों और इन गदिदियों से वाबस्ता होकर समझते हैं कि उन्हें वही अज्मत हासिल हो 
गई है जो तारीख़ी असबाब से ख़ुद इन शख्सियतों और गद्दियों को हासिल है। लोग अंदर 
से ख़ाली होते हैं मगर बड़े-बड़े नामों पर नुमाइशी आमाल करके समझते हैं कि वे बहुत बड़ा 
दीनी कारनामा अंजाम दे रहे हैं। 

मक्का के लोग इसी किस्म की नफ्सियात में मुन्तिला थे। उन्हें फख़ था कि वे बैतुल्लाह 
के वारिस हैं। इब्राहीम व इस्माईल जैसे जलीलुलकद्र पैग़म्बरों की उम्मत हैं। उन्हें काबा के 
ख़ादिम होने का शरफ हासिल है। उनका ख्याल था कि जब उन्हें इतने दीनी एजाजात 
(पारितोष) हासिल हैं और वे इतने बड़े-बड़े दीनी कारनामे अंजाम दे रहे हैं तो कैसे मुमकिन 
है कि ख़ुदा उन्हें जहन्नम में डाल दे। Fo 

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जिन लोगों ने इंकार किया वे अपने माल को इसलिए ख़र्च करते हैं कि लोगों को 

अल्लाह की राह से रोकें। वे उसे ख़र्च करते रहेंगे फिर यह उनके लिए हसरत बनेगा 

फिर वे मग़लूब (परास्त) किए जाएंगे। और जिन्होंने इंकार किया उन्हें जहन्नम की तरफ 

इकट्ठा किया जाएगा। ताकि अल्लाह नापाक को अलग कर दे पाक से और नापाक 


को एक पर एक रखे फिर इस ढेर को जहन्नम में डाल दे, यही लोग हैं ख़सारे (घाटे) 
में पड़ने वाले। (36-37) 


+ 





इंसानों में कुछ पाक हैं और कुछ नापाक । कुछ रूहों की गिजा वे चीजें होती हैं जो खुदा 
को पसंद हैं और कुछ रूहोँ को उन चीजों में लज्जत मिलती है जो उनके नफ्स को या शैतान 
को मरगूब हैं। 
आम हालात में ये दोनों किस्म के लोग एक दूसरे से मिले रहते हैं। बजाहिर इनमें कोई 
फर्क दिखाई नहीं देता । इसलिए अल्लाह तआला लोगों के दर्मियान हक व बातिल (सत्य-असत्य) 
की कशमकश बरपा करता है ताकि दोनों किस्म के लोग एक दूसरे से अलग हो जाएं और 
यह मालूम हो जाए कि कौन क्या था और कौन क्या था। 
इस कशमकश के दौरान खुल जाता है कि कौन हक के सामने आने के बाद फौरन 
उसे मान लेता है और कौन वह है जो उसका इंकार कर देता है। कौन दूसरों के साथ 
मामला पड़ने पर इंसाफ की हद पर कायम रहता है और कौन बेइंसाफी पर उतर आता 





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सूरह-8. अल-अनफाल 465 पारा 9 


है। कौन खुदा की जमीन में मुतवाजेअ (सदाचारी) बनकर रहता है और कौन सरकश बनकर । 
कौन सच्चाई की राह में अपना माल खर्च करने वाला है और कौन तअस्सुब और नुमाइश 
को राह में। 

जो लोग हक को छोड़कर दूसरी राहों में अपनी कोशिशें सर्फ करते हैं उनके इस अमल 
को शैतान उनकी नजर में इस तरह हसीन बनाता रहता है कि वे समझते हैं कि वे आला 
कारनामे अंजाम दे रहे हैं, वे शानदार मुस्तकबिल की तरफ बढ़ रहे हैं। मगर इस गलतफहमी 
की उम्र बहुत थोड़ी होती है। बहुत जल्द आदमी पर वह वक्‍त आ जाता है जबकि वह जान 
लेता है कि उसने जो कुछ किया वह सिर्फ अपनी कुवत और अपने माल को जाया करना 
था, वह जिस मुस्तकबिल की तरफ बढ़ रहा था वह हसरत और मायूसी का मुस्तकबिल था। 
अगरचे झूठी खुशफहमी के तहत वह उसे रोशन मुस्तकबिल की तरफ सफर के हममअना 
समझता रहा था। 

बेआमेज हक की दावत उठती है तो वे तमाम लोग अपने ऊपर उसकी जद पड़ती 
हुई महसूस करते हैं जो मिलावटी दीन की बुनियाद पर सरदारी कायम किए हुए थे। 
वे उस रवाजी ढांचे की हिफाजत में अपनी सारी ताकत खर्च कर देते हैं जिसके अंदर 
उन्हें बझ़ई का मकम हासिल है। मगर ऐसे लोग बेआमेज हक के मुक्रबले में लाजिमन 
नाकाम होते हैं, कभी दलील के मैदान में और कभी इसी के साथ अमल के मैदान में 
भी। 

मौजूदा दुनिया के हंगामे सिर्फ इसलिए जारी किए गए हैं कि पाक रूहों और नापाक रूहों 
को एक दूसरे से अलग कर दिया जाए। यह छांटने का अमल जब पूरा हो जाएगा तो ख़ुदा 
पाक रूहों को जन्नत में दाखिल कर देगा और नापाक रूहों को एक साथ जमा करके जहन्नम 
में धकेल देगा। 


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इंकार करने वालों से कहो कि अगर वे बाज आ जाएं तो जो कुछ हो चुका है 
वह उन्हें माफ कर दिया जाएगा। और अगर वे फिर वही करेंगे तो हमारा मामला 
अगलो के साथ गुजर चुका है। और उनसे ले यहाँ तक कि फितना बाकी न 

रहे और दीन सब अल्लाह के लिए हो जाए। फिर अगर वे बाज आ जाएं तो 
अल्लाह देखने वाला है उनके अमल का। और अगर उन्होंने एराज (उपेक्षा) किया 
तो जान लो कि अल्लाह तुम्हारा मौला है और क्या ही अच्छा मौला है और क्या 
ही अच्छा मददगार। (38-40) 


पारा 9 466 सूरह8. अल-अनफाल 





इस्लाम का उसूल यह है कि जो शख्स जैसा अमल करे उसके मुताबिक वह अपना बदला 
पाए। ताहम अल्लाह तआला ने इस आम उसूल में अपनी रहमत से एक ख़ास इस्तिसना 
(अपवाद) रखा है। वह यह कि आदमी जब 'तौबा' कर ले तो इसके बाद उसके पिछले आमाल 
पर उसे कोई सजा नहीं दी जाएगी। एक शख्स खुदा से दूरी की जिंदगी गुजार रहा था। फिर 
उसे हिदायत की रोशनी मिली । उसने सच्चा मोमिन बनकर सालेह ज़िंदगी इख्तियार कर ली तो 
इससे पहले उसने जो बुराईयां की थीं वे सब माफ कर दी जाएंगी। उसके पिछले गुनाहों की 
बिना पर उसे नहीं पकड़ा जाएगा। 

ठीक यही उसूल इज्तिमाई और सियासी मामले में भी है। किसी मकाम पर हक और 
बातिल की कशमकश बरपा होती है आपस में टकराव होता है, इस टकराव के दौरान में 
बातिल के अलमबरदार हक के लिए उठने वालों पर जुल्म करते हैं। बिलआख़िर जंग का 
फैसला होता है। हकपरस्त गालिब आ जाते हैं और नाहक के अलमबरदार मगलूब होकर जेर 
(परास्त) कर दिए जाते हैं। इस मामले में भी इस्लाम का उसूल वही है जो ऊपर मज्कूर हुआ। 
यानी फतह के बाद पिछले जुल्म व सितम पर किसी को सजा नहीं दी जाएगी। अलबत्ता जो 
शख्स फतह के बाद कोई ऐसी हरकत करे जो इस्लामी कानून में जुर्म करार दी गई हो तो 
जरूरी कार्रवाई के बाद उसे वह सजा मिलेगी जो शरीअत ने ऐसे एक मुजरिम के लिए मुक्रर 
की है। 

फितना का मतलब सताना (P०7७९००४।०॥) है। कदीम जमाने में सरदारी और हुकूमत 
शिक की बुनियाद पर कायम होती थी। आज हुकूमत करने वाले अवाम का नुमाइंदा बनकर 
हुकूमत करते हैं, माजी में खुदा या खुदा के शरीकों का नुमाइंदा बनकर लोग हुकूमत किया 
करते थे। इसके नतीजे मे शिर्क को कदीम समाज में बाइक्तेदार (सत्तायुक्त) हैसियत हासिल 
हो गई थी। अहले शिर्क अहले तौहीद को सताते रहते थे। अल्लाह ने अपने रसूल और आपके 
साथियों को हुक्म दिया कि शिर्क और इक्तेदार के बाहमी तअल्लुक को तोड़ दो ताकि 
मुश्रिकीन अहले तौहीद को सताने की ताकत से महरूम हो जाएं। चुनांचे आपके जरिए जो 
आलमी इंकलाब आया उसने हमेशा के लिए शिक का रिश्ता सियासी निजाम से ख़त्म कर 
दिया। अब शिर्क सारी दुनिया में सिर्फ एक मजहबी अकीदा है न कि वह सियासी नजरिया 
जिसकी बुनियाद पर हुकूमतों का कयाम अमल में आता है। 

ताहम जहां तक अरब का तअल्लुक है वहां यह मकसद दोहरी सूरत में मत्लूब था, यहां 
शिक और मुश्रिकीन दोनों को ख़त्म करना था ताकि हरमैन के इलाके को अबदी तौर पर 
खालिस तौहीद (एकेश्वरवाद) का मकज बना दिया जाए। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व 
सल्लम ने हुक्म दिया कि जजीरा अरब से मुश्रिकीन को निकाल दो। यह काम रसूलुल्लाह 
सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जमाने में शुरू हुआ और हजरत उमर फारूक की हिलाफत 
के जमाने में अपनी तक्मील को पहुंचा । 








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सूरह-8. अल-अनफाल 467 पारा 70 
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और जान लो कि जो कुछ गनीमत का माल (जंग में हासिल माल) तुम्हें हासिल हो 
उसका पांचवां हिस्सा अल्लाह और रसूल के लिए और रिश्तेदारों और यतीमों और 
मिस्कीनों और मुसाफिरों के लिए है, अगर तुम ईमान रखते हो अल्लाह पर और उस 


चीज पर जो हमने अपने बंदे (मुहम्मद) पर उतारी फैसले के दिन, जिस दिन कि दोनों 
जमाअतों में मुठभेड़ हुई और अल्लाह हर चीज पर कादिर है। (4) 





ग़नीमत अरबी जबान में उस माल को कहते हैं जो जंग के मैदान में दुश्मन से लड़कर 
हासिल किया गया हो। कदीम जमाने में यह रवाज था कि जंग के बाद दुश्मन की जो चीज 
जिसके हाथ लगे वह उसी की समझी जाए। इस्लाम ने यह उसूल मुकर्रर किया कि हर एक 
को जो कुछ मिला हो वह सबका सब लाकर अमीर के पास जमा करे, कोई शख्स सूई का 
धागा तक छुपाकर न रखे। 

इस तरह सारा ग़नीमत का माल इकट्ठा करने के बाद उसमें से पांचवां हिस्सा खुदा का 
है जिसे रसूल नियाबत (प्रतिनिधि) के तौर पर वुसूल करके पांच जगह इस तरह ख़र्च करेगा कि 
एक हिस्सा अपनी जात पर, फिर अपने उन रिश्तेदारों पर जिन्होंने रिश्ते की बुनियाद पर मुश्किल 
वक्तों में आपके दीनी मिशन में आपका साथ दिया, और यतीमों पर और हाजतमंदों पर और 
मुसाफिरों पर। इसके बाद बाकी चार हिस्से को तमाम फैजियों के दर्मियान इस तरह तवसीम 
किया जाए कि सवार को दो हिस्सा मिले और पैदल को एक हिस्सा । 

इस्लाम यह जेहन बनाना चाहता है कि आदमी जो चीज पाए उसे वह खुदा की तरफ 
से मिली हुई चीज समझे। इस दुनिया में किसी वाकये को जुहूर में लाने के लिए बेशुमार 
असबाब की एक ही वक्‍त मुवाफिकत (अनुकूलता) जरूरी है जो किसी भी इंसान के बस में 
नहीं। बद्र की लड़ाई में एक बेहद ताकतवर गिरोह के मुकाबले में एक कमजोर गिरोह का 
फैसलाकुन तौर पर ग़लबा पाना इस बात का एक गैर मामूली सुबूत था कि जो कुछ हुआ है 
वह ख़ुदा की तरफ से हुआ है। ऐसी हालत में फतह के बाद मिली हुई चीज को खुदा की तरफ 
से मिली हुई चीज समझना ऐन उस हकीकत को मानना था जो वाकेआत के नतीजे में फितरी 
तौर पर सामने आई है। 

ग़नीमत के माल में दूसरे मुस्तहिक भाइयों का हिस्सा रखना इस बात का सबक है कि 
अमवाल में हकदार होने की बुनियाद सिर्फ महनत और विरासत नहीं बल्कि ऐसी बुनियादें भी 
हैं जो महनत और विरासत जैसी चीजों के दायरे में नहीं आती | इस्तहकाक (पात्रता) की इन 
दूसरी मर्दों का एतराफ गोया इस वाकये का अमली एतराफ है कि आदमी चीजों को खुदा 
की चीज समझता है न कि अपनी चीज। 


पारा 70 468 सूरह-8. अल-अनफल 


ग़नीमत के इस कानून मेंतीसरा जबरदस्त सबक यह है कि मिल्कियत की बुनियाद कजा 
नहीं बल्कि उसूल है। कोई शख्स महज इस बिना पर किसी चीज का मालिक नहीं बन जाएगा 
कि वह इत्तेमक से उसके कजेमेंआ गई है। कन्ेके बावजूद आदमी को चाहिए कि उस 
चीज को जिम्मेदार अफराद के हवाले करे और उसूली और कानूनी बुनियाद पर उसे जितना 
मिलना चाहिए उसे लेकर उस पर राजी हो जाए। 


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और जबकि तुम वादी के करीबी किनारे पर थे और वे टूर के किनारे पर। और काफिला 

तुमसे नीचे की तरफ था। और अगर तुम और वे वक्‍त मुर्कश करते तो जरूर इस तक्र 

के बारे में तुममें इस्तेलाफ (मतभेद) हो जाता। लेकिन जो हुआ वह इसलिए हुआ ताकि 
अल्लाह उस चीज़ का फैसला कर दे जिसे होकर रहना था, ताकि जिसे हलाक होना 

है वह रोशन दलील के साथ हलाक हो और जिसे जिंदगी हासिल करना है वह रोशन 

दलील के साथ जिंदा रहे। यकीनन अल्लाह सुनने वाला जानने वाला है। जब अल्लाह 

तुम्हारे ख़्वाब में उन्हें थोड़ा दिखाता रहा। अगर वह उन्हें ज्यादा दिखा देता तो तुम लोग 

हिम्मत हार जाते और आपस में झगड़ने लगते इस मामले में। लेकिन अल्लाह ने तुम्हे 

बचा लिया। यकीनन वह दिलों तक का हाल जानता है। और जब अल्लाह ने उन लोगों 

को तुम्हारी नजर में कम करके दिखाया और तुम्हें उनकी नजर में कम करके दिखाया 

ताकि अल्लाह उस चीज़ का फैसला कर दे जिसका होना तै था। और सारे मामलात 
अल्लाह ही की तरफ लोटते हैं। (42-44) 


अल्लाह तआला को यह मल्लूब है कि हक का हक होना और बातिल का बातिल होना 
लोगों पर पूरी तरह खुल जाए। यह काम इब्तिदा में दावत के जरिए दलाइल की जबान में 
हेता है। दाजी ताकतवर और आमफहम दलाइल के जरिए हक का हक होना और बातिल 
का बातिल होना साबित करता है। इस काम की तक्मील बिलआखिर गैर मामूली वाकेयात 
से की जाती है, चाहे यह गैर मामूली वाकया कोई आसमानी मौजजा हो या जमीनी गलबा। 
बद्र की जंग में यही दूसरा वाकया पेश आया। 


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सूरह8. अल-अनफाल 469 पारा ।0 


कुरेश मक्का से इसलिए निकले कि शाम से आने वाले अपने तिजारती काफिले की मदद 
करें। मुसलमान मदीने से इसलिए निकले कि तिजारती काफिले पर हमला करें। तिजारती 
फिला मारूफ रास्ते को छोह्कर समै साहिल से गुजरा और बच गया। और ये देनोंफीक 
बद्र पहुंच कर आमने सामने हो गए। यह अल्लाह की तदबीर से हुआ। दोनों को एक दूसरे से 
टकरा कर अहले ईमान को फतह दी गई। इस तरह रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सललम और 
आपके मिशन की सदाकत (सच्चाई) लोगों पर पूरी तरह खुल गई। जो लोग सच्चे तालिब थे उन 
पर आखिरी हद तक यह बात वाजेह हो गई कि यही हक है। और जो लोग अपने अंदर किसी 
किस्म की नफ्सियाती पेचीदगी लिए हुए थे उन्होंने इसके बाद भी अपने मस्लक पर कायम रहकर 
साबित कर दिया कि वे इसी काबिल हैं कि उन्हें हलाक कर दिया जाए। 

बद्र में कुरेश की फौज की तादाद ज्यादा थी। अगर मुसलमान उनकी अस्ल तादाद को 
देखते तो कोई कहता कि लड़ो और कोई कहता कि न लड़ो। इस तरह इख़्तेलाफ (मतभेद) 
पैदा हो जाता और अस्ल काम होने से रह जाता। ख़ुदा ने हस्बेमौका कभी तादाद घटा कर 
दिखाई और कभी बढ़ाकर। इस तरह मुमकिन हो सका कि तमाम मुसलमान बेजिगरी के साथ 
लड़ें | खुदा को जब कोई काम मत्लूब होता है तो वह इसी तरह अपनी मदद भेजकर उस काम 
की तक्मील का सामान कर देता है। 

अमल के दौरान जो हालात पेश आते हैं वे खुदा की तरफ से होते हैं और यह देखने 
के लिए होते हैं कि किस शख्स ने अपने हालात के अंदर किस किस्म का रदूदेअमल पेश 
किया। 


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ऐ ईमान वालो जब किसी गिरोह से तुम्हारा मुकाबला हो तो तुम साबितकदम रहो और 
अल्लाह को बहुत याद करो ताकि तुम कामयाब हो। और इताअत (आज्ञापालन) करो 
अल्लाह की और उसके रसूल की और आपस में झगड़ा न करो वर्ना तुम्हारे अंदर 
कमजोरी आ जाएगी और तुम्हारी हवा उखड़ जाएगी और सब्र करो, बेशक अल्लाह सब्र 
करने वालों के साथ है, और उन लोगों की तरह न बनो जो अपने घरों से अकड़ते हुए 


और लोगों को दिखाते हुए निकले और जो अल्लाह की राह से रोकते हैं। हालांकि वे 
जो कुछ कर रहे हैं अल्लाह उसका इहाता (आच्छादन) किए हुए है। (45-47) 














कामयाबी खुदा की मदद से आती है। मगर ख़ुदा की मदद हमेशा असबाब के पर्दे में 


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पारा 70 470 सूरह-8. अल-अनफल 


आती है न कि बेअसबाबी के हालात में। मुसलमान अगर अपने मुमकिन असबाब को जमा 
कर दें तो बाकी कमी खुदा की तरफ से पूरी करके उन्हें कामयाब कर दिया जाता है। लेकिन 
अगर वे बेअसबाबी का मुजाहिरा करें तो खुदा कभी ऐसा नहीं कर सकता कि बेअसबाबी के 
नक्शे में उनके लिए अपनी मदद भेज दे। 

असबाब क्या हैं। असबाब ये हैं कि मुसलमान इक़्दाम में पहल न करें। वे अपनी जड़ों 
को मजबूत करने में लगे रहें यहां तक कि हरीफ ख़ुद चढ़ाई करके उनसे लड़ने के लिए आ 
जाए। फिर जब टकराव की सूरत पैदा हो जाए तो वे उसके मुकाबले में पूरी तरह जमाव का 
सुबूत दें। अल्लाह की याद, ब-अल्फाज दीगर, मक्सूदे असली की मुकम्मल पाबंदी रखें ताकि 
उनका कत्बी हौसला बाकी रहे। सरदार के हुक्म के तहत पूरी तरह मुनज्जम रहें। बाहमी 
इर्नेलाफात को नजरअंदाज करें न यह कि इर्नेलाफात को बद़कर टुकड़ेटुकड़े हो जाएं। वे 
अपने इत्तेहाद से हरीफ को मरऊब कर दें। वे सब्र करें, यानी जोश के बजाए होश को 
अपनाएं। जल्द कामयाबी के शौक में गैर पुरा इक्दाम न करें। उनकी नजर हमेशा आखिरी 
मंजिल पर हो न कि वकती मसालेह और मुनाफे पर। इन्हीं चीजें का नाम असबाब है और 
इन्हीं असबाब के पर्द में खुदा की मदद आती है। 

मौजूदा दुनिया इम्तेहान की दुनिया है। यहां खुदा गैब' में रहकर अपने तमाम काम अंजाम 
देता है, इसलिए जब वह मुसलमानों की मदद करता है तो असबाब के पर्दे में करता है। 
मुसलमान अगर असबाब का माहौल पैदा न करें वे बेहौसलगी का सुबूत दें, वे इब्तिदाई तैयारी 
के बगैर इवदामात करने लगें। वे इख़्तेलाफ और इंतिशार में मुन्तिला हों, तो उन्हें कभी यह 
उम्मीद न करनी चाहिए कि ख़ुदा गैब का पर्दा फाइकर सामने आ जाएगा और बेअसबाबी का 
शिकार होने के बावजूद बगैर असबाब के उनकी मदद करके उनके तमाम काम बना देगा। 

मुसलमान अगर अपने हरीफ के मुकाबले में अपने को बेहतर हालात में पाएं तब भी 
ऐसा नहीं होना चाहिए कि वे मुंकिरों की तरह अपनी ताकत पर घमंड करें, वे फ़ व नुमाइश 
के जज्बात में मुन्तिला हो जाएं। वे बड़ाई के जोम (दंभ) में इस हद तक आगे बढ़ें कि एक 
शख्स के सिर्फ इसलिए मुखालिफ बन जाएं कि वह ऐसे हक की दावत दे रहा है जिसकी जद 
खुद उनकी अपनी जात पर भी पड़ रही है। 

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सूरह-8. अल-अनफाल 4 पारा 0 


और जब शैतान ने उन्हें उनके आमाल ख़ुशनुमा बनाकर दिखाए और कहा कि लोगों 
में से आज कोई तुम पर ग़ालिब आने वाला नहीं और मैं तुम्हारे साथ हूं। मगर जब 
दोनों गिरोह आमने सामने हुए तो वह उल्टे पांव भागा और कहा कि मैं तुमसे बरी हूं, 
मैं वह कुछ देख रहा हूं जो तुम लोग नहीं देखते। में अल्लाह से डरता हूं और अल्लाह 
सखन सजा देना वाला है। जब मुनाफिक (पाखंडी) और जिनके दिलों में रोग है कहते 

थे कि इन लोगों को इनके दीन ने धोखे में डाल दिया है और जो अल्लाह पर भरोसा 
करे तो अल्लाह बड़ा जबरदस्त और हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। (48-49) 





मक्का के मुखालिफीन अपने आपको बरसरे हक और पेग़म्बर के साथियों को बरसरे 
बातिल समझते थे। इस पर उन्हें इतना यकीन था कि उन्होंने काबा के सामने खड़े होकर दुआ 
की कि (राया, देनाफरीकॅमेसे जो फीक हक पर हेतू उसे कामयाब कर और जो फीक 
बातिल पर हो तू उसे हलाक कर दे। ताहम उनका यह यकीन झूठा यकीन था। इस किस्म 
का यकीन हमेशा शैतान के बहकावे की वजह से पैदा होता है। 

शैतान ने मक्का के लोगों को सिखाया कि तुम तारीख़ के मुसल्लमा (सुस्थापित) पैग़म्बरों 
(इब्राहीम अलैहि० व इस्माईल अलैहि०) के मानने वाले हो जबकि मुसलमान एक ऐसे शख्स 
को मानते हैं जिसका पैगम्बर होना अभी एक मुतनाजआ (विवादित) मसला है। तुम काबा के 
वारिस हो जबकि मुसलमानों को काबा की सरजमीन से निकाल दिया गया है। तुम असलाफ 
(पूर्वजों) की रिवायतों को कायम रखने के लिए लड़ रहे हो जबकि मुसलमान असलाफ की 
रिवायतों को तोड़ने के लिए उठे हैं। शैतान ने मक्का वालों के दिलों में इस किस्म के ख्यालात 
डाल कर उन्हें झूठे यकीन में मुब्तिला कर दिया था। वे समझते थे कि हम जो कुछ कर रहे 
हैं बिल्कुल दुरुस्त कर रहे हैं और ख़ुदा की मदद बहरहाल हमें हासिल होगी। 

मक्का के मूख्लिफीन एक तरफ अपने झूठे यकीन को इस किस्म की चीजें की बिना 
पर सच्चा यकीन समझ रहे थे। दूसरी तरफ जब वे देखते कि पैगम्बर के साथी उनसे भी 
ज्यादा यकीन और सरफरोशी के जज्बे के साथ इस्लाम के महाज पर अपने आपको लगाए 
हुए हैं तो वे उनके सच्चे यकीन को यह कह कर बेएतबार साबित करते थे कि यह महज एक 
मजहबी जुनून है। वह एक शख्स (पि़म्बर) की खूबसूरत बातों से जोश में आकर दीवाने हो 
रहे हैं। उनके यकीन और वुर्ब्ननी की इससे ज्यादा और कोई हकीकत नहीं। 

मगर जब दोनों गिरोहों में मुकाबला हुआ और मुसलमानों के लिए अल्लाह की मदद उतर 
पड़ी तो शैतान इस्लाम के मुख़ालिफों को छोड़कर भागा। एक तरफ ख़ुदा की मदद से 
मुसलमानों के दिल और ज्यादा कवी (दू हो गए। दूसरी तरफ मुर्लिफीन का झूठा यकीन 
बेदिली और पस्तहिम्मती में तब्दील हो गया। क्योंकि उनका एतमाद शैतान पर था और 
शैतान अब उन्हें छोड़कर भाग चुका था। 

जो लोग अल्लाह पर भरोसा करें अल्लाह जरूर उनकी मदद करता है। मगर अल्लाह की 
मदद हमेशा उस वक्‍त आती है जबकि अहले ईमान अल्लाह पर यकीन का इतना बड़ा सुबूत 
दे दें कि बेयकीन लोग कह उठें कि ये मजनून हो गए हैं। 


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पारा ।0 472 सूरह. अल-अनफाल 
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और अगर तुम देखते जबकि फरिश्ते इन मुँकिरीन की जान कब्ज करते हैं, मारते हुए 
उनके चेहरों और उनकी पीठों पर, और यह कहते हुए कि अब जलने का अजाब चखो। 
यह बदला है उसका जो तुमने अपने हाथां आगे भेजा था और अल्लाह हरगिज बंदों पर 
जुल्म करने वाला नहीं। फिरऔन वालों की तरह और जो उनसे पहले थे कि उन्होंने 
अल्लाह की निशानियों का इंकार किया पस अल्लाह ने उनके गुनाहों पर उन्हें पकड़ 
लिया। बेशक अल्लाह कुवत (शक्ति) वाला है, सख्त सजा देने वाला है। यह इस वजह 
से हुआ कि अल्लाह उस इनाम को जो वह किसी कौम पर करता है उस वक्‍त तक 
नहीं बदलता जब तक वे उसे न बदल दें जो उनके नफ्सों (अंतःकरणों) में है। और 
बेशक अल्लाह सुनने वाला जानने वाला है। फिरऔन वालों की तरह और जो उनसे 
पहले थे कि उन्होंने अपने रब की निशानियों को झुठलाया फिर हमने उनके गुनाहों के 


सबब से उन्हें हलाक कर दिया और हमने फिरऔन वालों को गर्क कर दिया और ये 
सब लोग जालिम थे। (50-54) 


६) 




















नेमत का दारोमदार नेमत के इस्तहकाक (पात्रता) की हालत पर है। कौमी सतह पर 
किसी को जो नेमतें मिलती हैं वे हमेशा उस इस्तहकाक के बक्द्र होती हैं जो नफ्सी 
(आंतरिक) हालत के एतबार से उसके यहां पाया जाता है। यह 'नफ्स' चूंकि फर्द के अंदर 
होता है इसलिए इस बात को दूसरे लफ्जों में यूं कहा जा सकता है कि इज्तिमाई (सामूहिक) 
इनामात का इंहिसार इंफिरादी (व्यक्तिगत) हालात पर है। अफराद की सतह पर कौम जिस 
दर्ज में हो उसी के बकद्र उसे इज्तिमाई इनामात दिए जाते हैं। इसका मतलब यह है कि कोई 
गिरोह अगर खुदा के इज्तिमाई इनामात को पाना चाहता है तो उसे अपने अफराद की नफ्सी 
इस्लाह पर अपनी ताकत सर्फ करना चाहिए। इसी तरह कोई कौम अगर अपने को इस हाल 
में देखे कि उससे इज्तिमाई नेमतें छिन गई हैं तो उसे ख़ुद नेमतों के पीछे दौड़ने के बजाए अपने 


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सूरह-8. अल-अनफाल 473 पारा ।0 


अफराद के पीछे दौड़ना चाहिए । क्योंकि अफराद ही के बिगड़ने से उसकी नेमतें छिनी हैं और 
अफराद ही के बनने से दुबारा वे उसे मिल सकती हैं। 
जब कोई कौम अदूल (न्याय) के बजाए जुल्म और तवाजोअ (विनम्रता) के बजाए सरकशी 
का रवैया इख्तियार करती है तो खुदा की तरफ से उसके सामने सच्चाई का एलान कराया जाता 
है ताकि वह मुतनब्बह (सचेत) हो जाए। यह एलान कमाले वजाहत के एतबार से ख़ुदा की एक 
निशानी होता है। उसे मानना ख़ुदा को मानना होता है और उसे न मानना ख़ुदा को न मानना। 
ख़ुदा की दावत (आह्वान) जब आयत (निशानी) की हद तक खुलकर लोगों के सामने आ जाए 
फिर भी वे उसका इंकार करें तो इसके बाद लाजिमन वे सजा के मुस्तहिक हो जाते हैं। इस सजा 
का आगाज अगरचे दुनिया ही से हो जाता है। ताहम दुनिया की सजा उस सजा के मुकाबले में 
बहुत कम है जो मौत के बाद आदमी के सामने आने वाली है। फरिश्तों की मार, सारी मख्तूक 
के सामने रुस्वाई और जहन्नम की आग में जलना । ये सब इतने हौलनाक मराहिल हैं कि मौजूदा 
हालात में उनका तसव्वुर भी नहीं किया जा सकता। 
इंसान जब जुल्म और सरकशी का रवैया इख्तियार करता है अव्वलन तो उसके लिए 
तंबीहात (चेतावनियां) जाहिर होती हैं। अगर वह उनसे सबक न ले तो बिलआख़िर वह खुदा 
के फैसलाकुन अजब की जद मेंआ जाता है। 
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बेशक सब जानदारों में बदतरीन अल्लाह के नजदीक वे लोग हैं जिन्होंने इंकार किया 
और वे ईमान नहीं लाते। जिनसे तुमने अहद (वचन) लिया, फिर वे अपना अहद हर बार 
तोड़ देते हैं और वे डरते नहीं। पस अगर तुम उन्हें लड़ाई में पाओ तो उन्हें ऐसी सजा दो 
कि जो उनके पीछे हैं वे भी देखकर भाग जाएं, ताकि उन्हें इबरत (सीख) हो। और अगर 
तुम्हें किसी कौम से बदअहदी (वचन भंग) का डर हो तो उनका अहद उनकी तरफ फेंक 


दो, ऐसी तरह कि तुम और वे बराबर हो जाएं। बेशक अल्लाह बदअहदों को पसंद नहीं 
करता । (55-58) 


























मदीना के यहूद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की रिसालत (ईशदूतत्व) का इंकार 
करके खुदा की नजर में मुजरिम हो चुके थे। इस जुर्म पर मजीद इजाफा उनकी बदअहदी थी। 
हिजरत के बाद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और मदीना के यहूद के दर्मियान यह 
तहरीरी मुआहिदा हुआ कि दोनों एक दूसरे के मामले में गैर जानिबदार रहेंगे। मगर यहूद खुफिया 


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पारा 70 474 सूरह-8. अल-अनफल 


तौर पर आपके दुश्मनों (मुश्रिकीन) से मिलकर आपके खिलाफ साजिशें करने लगे। यह कुफ्र पर 
बदअहदी का इजाफा था। यह इंकार के साथ कमीनगी को जमा करना था। ऐसे लोगों के लिए 
आखिरत में हौलनाक अजाब है और दुनिया में यह हुक्म है कि उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की 
जाए ताकि उनकी शरारतों का ख़ात्मा हो और उनके इरादे पस्त हो जाएं। 

अगर किसी कौम से मुसलमानों का अहद हो और मुसलमान उनकी तरफ से बदअहदी 
के अंदेशे की बिना पर उस अहद को तोड़ना चाहें तो जरूरी है कि वे पहले उन्हें इसकी इत्तिला 
दें ताकि दोनों पेशगी तौर पर यह जान लें कि अब दोनों के दर्मियान अहद की हालत बाकी 
नहीं रही। अमीर मुआविया और रूमी हुक्मरां में एक बार मीआदी मुआहिदा (अवधिगत 
समझौता) था। मुआहिदे की मुद्दत करीब आई तो अमीर मुआविया ने अपनी फौजों को 
खामोशी के साथ रूम की सरहद पर जमा करना शुरू किया ताकि मुआहिदे की तारीख़ ख़त्म 
होते ही अगली सुबह अचानक रूमी इलाके में हमला कर दिया जाए। उस वक्त एक सहाबी 
हजरत अम्र बिन अंबसा घोड़े पर सवार होकर आए। वह ब-आवाज बुलन्द कह रहे थे 
'अल्लाहु अकबर, अहद पूरा करो, अहद को न तोड़ो' उन्होंने लोगों को रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु 
अलैहि व सल्लम की यह हदीस सुनाई : 'जिसका किसी कौम से मुआहिदा हो तो कोई गिरह 
न खोली जाए और न बांधी जाए यहां तक कि मुआहिदे की मुद्दत पूरी हो जाए या बराबरी 
के साथ अहद उसकी तरफ फेंक दिया जाए। (तफ्सीर इब्ने कसीर) 

दूसरी सूरत वह है जबकि सिर्फ उदिशे की बात न हो बल्कि फरीक सानी (प्रतिपक्ष) की 
तरफ से अमलन मुआहिदे की वाजेह ख्िलाफवर्ज हो चुकी हो। ऐसी सूरत में इजाजत है कि 
फरीक सानी को मुतलअ (सूचित) किए बगैर जवाबी कार्रवाई की जाए। गजवए मक्का इसी 
की मिसाल है। कुरैश ने आपके समर्थक (बनू खुजाआ) के ख़िलाफ बनू बक्र की आक्रमक 
कार्खाई में शरीक होकर मुआहिदाए हुँदैबिया की एकतरफा ख़िलाफवर्जी की तो आपने कैश 
को पेशगी इत्तला दिए बगैर उनके खिलाफ ख़ामोश कार्रवाई फरमाई। 


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सूरह-8. अल-अनफाल 475 पारा ।0 


और इंकार करने वाले यह न समझें कि वे निकल भागेंगे, वे हरगिज अल्लाह को आजिज 

नहीं कर सकते। और उनके लिए जिस कद्र तुमसे हो सके तैयार रखो कुत और पले 

हुए घोड़े कि इससे तुम्हारी हैबत रहे अल्लाह के दुश्मनों पर और तुम्हारे दुश्मनों पर और 
इनके अलावा दूसरों पर भी जिन्हें तुम नहीं जानते। अल्लाह उन्हें जानता है। और जो 
कुछ तुम अल्लाह की राह में ख़र्च करोगे वह तुम्हें पूरा कर दिया जाएगा और तुम्हारे 
साथ कोई कमी न की जाएगी। और अगर वे सुलह (संधि) की तरफ झुकें तो तुम भी 
इसके लिए झुक जाओ और अल्लाह पर भरोसा रखो। बेशक वह सुनने वाला जानने 
वाला है। और आगर वे तुम्हें धोखा देना चाहेंगे तो अल्लाह तुम्हारे लिए काफी है। वही 

है जिसने अपनी नुसरत (मदद) और मोमिनों के जरिए तुम्हें कुब्बत दी। और उनके दिलों 

में इत्तिफाक (जुझव) पैदा कर दिया। अगर तुम जमीन में जो कुछ है सब खर्च कर डालते 

तब भी उनके दिलों में इत्तिफाक पैदा न कर सकते। लेकिन अल्लाह ने उन में इत्तिफाक 

पैदा कर दिया, बेशक वह जोरआवर है हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। (59-63) 


इस्लाम का एतमाद इस्तेमाले कुवत से ज्यादा मजाहिर-ए-कुब्बत (शक्ति प्रदर्शन) पर है। 
इसीलिए अहले इस्लाम को कुब्वते मुर्हिबा (सैन्य शक्ति) फराहम करने का हुक्म दिया गया, 
यानी वे चीजें जो हरीफ (प्रतिपक्ष) को इस कद्र मरऊब करें कि वह इक्दाम का हौसला खो 
दे। इस्लाम ववत के मेयार के मुताबिक अपने को ताकतवर बनाता है, मगर लाजिमन लड़ने 
के लिए नहीं। बल्कि इसलिए ताकि उसके दुश्मनों पर उसका धाक कायम रहे और वे उसके 
खिलाफ जारिहाना (आक्रामक) कार्रवाई की हिम्मत न करें। इस्लाम को वक्त के मेयार के 
मुताबिक फिक्री (वैचारिक) और अमली एतबार से ताकतवर बनाने में जो लोग अपनी कमाई 
खर्च करेंगे वे कई गुना ज्यादा मिक्दार में इसका बदला अपने रब के यहां पाएंगे। 
इस्लाम की फतह का राज अस्लन जंगी मुकाबलों में नहीं बल्कि उसके उसूलों की तब्लीग 
में है। इसलिए हुक्म हुआ कि जब भी फरीके सानी (प्रतिपक्षी) सुलह की पेशकश करे तो हर 
उदिशे को नजरअंदाज करते हुए उसे कुबल कर लो। क्योंकि अदेशा बहरहाल यकीनी नहीं और 
जंगबंदी का यह फायदा यकीनी है कि पुरअम्न फजा में इस्लाम का दावती अमल शुरू हो जाए 
और इस तरह जंग का रुकना इस्लाम की नजरियाती तोसीअ (प्रसार) का सबब बन जाए। 
इस्लाम खुद अपनी जात में सबसे बड़ी ताकत है। खुदा और आखिरत का अकीदा अगर 
पूरी तरह किसी गिरोह के अफराद में पैदा हो जाए तो उनके अंदर से वे तमाम नफ्सियाती 
ख़राबियां निकल जाती हैं जो नाइत्तिफाकी और बाहमी टकराव का सबब होती हैं। इसके बाद 
लाजिमन ऐसा होता है कि वे सबके सब बाहम जुड़ कर एक हो जाते हैं। और यह एक 
हकीकत है कि इत्तिहाद सबसे बड़ी ताकत है। मुत्तहिद गिरोह अगर तादाद में कम हो तब भी 
वह अपने से ज्यादा तादाद रखने वाले गिरोह पर गालिब आ जाएगा। 
बाहमी इत्तिफाक (एकजुटता) सबसे मुश्किल चीज है। किसी गिरोह के नुसरतयाफ्ता 
(सहायता प्राप्त) होने की एक पहचान यह है कि उसके अफराद बाहम मुत्तहिद रहें, कोई भी 
चीज उनके इत्तिहाद को तोड़ने वाली साबित न हो। 


पारा 70 476 सूरह8. अल-अनफाल 


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ऐ नबी तुम्हारे लिए अल्लाह काफी है और वे मोमिनीन जिन्होंने तुम्हारा साथ दिया है। 
ऐ नबी मोमिनीन को लड़ाई पर उभारो। अगर तुम में बीस आदमी साबितकदम (दृढ़) 
होंगे तो दो सौ पर ग़ालिब आएंगे और अगर तुम में सौ होंगे तो हजार मुंकिरों पर ग़ालिब 
आएंगे, इस वास्ते कि वे लोग समझ नहीं रखते। अब अल्लाह ने तुम पर से बोझ हल्का 
कर दिया और उसने जान लिया कि तुम में कुछ कमजोरी है। पस अगर तुम में सो 
साबितकदम होंगे तो दो सौ पर ग़ालिब आएंगे और अगर हजार होंगे तो अल्लाह के 
हुक्म से दो हजार पर ग़ालिब आएंगे, और अल्लाह साबितकदम रहने वालों के साथ 
है। (64-66) 





अहले ईमान की कम तादाद गैर अहले ईमान की ज्यादा तादाद पर ग़ालिब आने की 
वजह यह बताई कि अहले ईमान के अंदर फिक्ह होती है जबकि गैर अहले ईमान फिक्ह से 
महरूम हैं। फिक्ह के लपजी मअना समझ के हैं। इससे मुराद वह बसीरत (विवेक) और शुऊर 
है जो ईमान के नतीजे में एक शख्स को हासिल होता है। ख़ुदा पर ईमान किसी आदमी के 
लिए वही मअना रखता है जो अंधेरे कमरे में बजली का बल्ब जल जाना। बल्ब पूरे कमरे को 
इस तरह रोशन कर देता है कि उसकी हर चीज वाजेह तौर पर दिखाई देने लगे। इसी तरह 
ईमान आदमी को एक रब्बानी शुऊर अता करता है जिसके बाद वह तमाम हकीकतों को 
उसकी असली सूरत में देखने लगता है। 

ईमान के नतीजे में यह होता है कि आदमी जिंदगी और मोत की हकीकत को समझ लेता 
है। वह जान लेता है कि अस्ल चीज दुनिया की हयात (जिंदगी) नहीं बल्कि आख़िरत की हयात 
है। यह चीज उसे बेपनाह हद तक निडर बना देती है। वह मौत को इस नजर से देखने लगता 
है कि वह उसके लिए जन्नत में दाखिले का दरवाजा है। मोमिन शहादत को जन्नत का मुख्नसर 
रास्ता समझता है। अल्लाह की राह में जान देना उसके लिए मत्लूब चीज बन जाता है, जबकि 
गैर मोमिन की जन्नत यही मौजूदा दुनिया है। वह जिंदा रहना चाहता है ताकि अपनी जन्नत का 
लुत्फ उठा सके। गैर मोमिन कौमी शुऊर के तहत लड़ता है और मोमिन जन्नती शुऊर के तहत, 
और कमी शुऊर वाला कभी इतनी बेजिगरी के साथ नहीं लड़ सकता। 








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सूरह-8. अल-अनफाल 477 पारा 70 


मोमिन खुदा से डरने वाला होता है, वह आख़िरत की फिक्र करने वाला होता है, यह मिजाज 
उसे हर किस्म के मंफी (नकारात्मक) जज्चात से पाक करता है। वह जिद, नफरत, तअस्सुब 
(विद्वेष), इंतकाम और घमंड जैसी चीजों से ऊपर उठ जाता है। दूसरी तरफ गैर मोमिन का 
मामला सरासर इसके बरअक्स होता है। इसका नतीजा यह होता है कि गैर मोमिन के इक्दामात 
मंफी नफ्सियात के तहत होते हैं और मोमिन के इक्दामात ईजाबी नफ्सियात (सकारात्मक 
मानसिकता) के तहत । गैर मोमिन जज्बाती अंदाज से अमल करता है और मोमिन हकीकतपसंदाना 
अंदाज से। गैर मोमिन इंसानों का दुश्मन होता है और मोमिन सिर्फ इंसानों की बुराई का । गैर 
मोमिन तंगजर्फी (कुइच्छा) के साथ मामला करता है और मोमिन वुस्अते जर्फ (सदुइच्छा) के 
साथ। 

हजर के मुकबले मेसी और दो हजर के मुक़बले मएक हजर के अल्फज बताते 
हैं कि किताल का हुक्म जमाअत और फौज के लिए है। ऐसा करना सही न होगा कि एक 
दो आदमी हों तब भी वे लड़ने के लिए खड़े हो जाएं 


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किसी नबी के लिए लायक नहीं कि उसके पास कैदी हो जब तक वह जमीन में अच्छी तरह 
ख़ूरेजी न कर ले। तुम दुनिया के असबाब चाहते हो और अल्लाह आखिरत को चाहता है। 
और अल्लाह जबरदस्त है, हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। और अगर अल्लाह का एक 
लिखा हुआ पहले से मौजूद न होता तो जो तरीका तुमने इख्तियार किया उसके सबब तुम्हे 
सख्त अजाब पहुंच जाता। पस जो माल तुमने लिया है उसे खाओ, तुम्हारे लिए हलाल और 
पाक है और अल्लाह से डरो, बेशक अल्लाह बख्शने वाला महरबान है। (67-69) 











बद्र की लड़ाई में मुसलमानों ने सत्तर बड़े-बड़े मुंकिरों को कत्ल किया। इसके बाद जब 
उनके पांव उखड़ने लगे तो उनके सत्तर आदमियों को गिरफ्तार कर लिया। इन गिरफ्तार होने 
वालों में अक्सर सरदार थे। जंग के बाद मश्वरा हुआ कि इन कैदियों के साथ क्या किया 
जाए। सहाबा की अक्सरियत ने यह राय दी कि इनको फिदया (आर्थिक मुआवजा) लेकर 
छोड़ दिया जाए। उस वक्त इस्लाम के दुश्मनों ने मुसलसल जंग को हालत बरपा कर रखी 
थी। मगर मुसलमानों के पास माल न होने की वजह से जंग के सामान की बहुत कमी थी। 
यह ख्याल किया गया कि फिदये से जो रकम मिलेगी उससे जंग का सामान ख़रीदा जा सकता 
है। हजरत उमर बिन खुताव और हजरत साद बिन मुआज इस राय के खलाफ थे। हजरत 
उमर ने कहा : 'ऐ ख़ुदा के रसूल ये कैदी कुफ्र के इमाम और मुश्रिकीन के सरदार हैं।' यानी 
दुश्मनों की असल ताकत हमारी मुट्ठी में आ गई है, इनको कत्ल करके इस मसले का हमेशा 


पारा 70 478 सूरह8. अल-अनफाल 





के लिए ख़ात्मा कर दिया जाए। ताहम रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने पहली राय 
पर अमल फमाया। 

बाद को जब वे आयतें उतरीं जिन में जंग पर तबसिरा था तो अल्लाह तआला ने फिदये 
की रकम को जाइज ठहराते हुए इस रविश पर अपनी नाराजी का इज्हार फरमाया। जंगी 
कैदियों को फिदया लेकर छोड़ना अगरचे बजाहिर रहमत व शफकत का मामला था। मगर वह 
अल्लाह के दूररस (दूरगामी) मंसूबे के मुताबिक न था। अल्लाह का अस्ल मंसूबा कुफ्र व शिक 
की जड़ उखाड़ना था। इस मकसद के लिए अल्लाह तआला ने क्रैश के तमाम लीडरों को 
(अबू लहब और अबू सुफियान को छोड़कर) बद्र के मैदान में जमा कर दिया और ऐसे हालात 
पैदा किए कि वे पूरी तरह मुसलमानों के काबू में आ गए। अगर इन लीडरों को उस वक्त 
ख़त्म कर दिया जाता तो कुफ्र व शिर्क की मुजाहमत (प्रतिरोध) बद्र के मैदान ही में पूरी तरह 
दफन हो जाती। मगर लीडरों को छोड़ने का नतीजा यह हुआ कि वे मुनज्जम होकर दुबारा 
अपनी मुजाहमत की तहरीक जारी रखने के काबिल हो गए। 

यह फैसला जंगी मस्लेहत के खिलाफ था। वे मुसलमानों के लिए अजाबे अजीम (सरन 
मुसीबतों) का जरिया बन जाता। ये लीडर अपनी अवाम को साथ लेकर इस्लाम के सारे मामले 
को तहस नहस कर देते। मगर अल्लाह ने आखिरी रसूल और आपके असहाब (साथियों) के 
लिए पहले से मुकदूदर कर दिया था कि वे लाजिमन ग़ालिब रहेंगे, उन्हें जेर करने में कोई 
कामयाब न हो सकेगा । यही वजह है कि जंगी तदबीर में इस कोताही के बावजूद कुरैश अहले 
ईमान के ऊपर गालिब न आ सके। और बिलआखिर वही हुआ जिसका होना पहले से ख़ुदा 
के यहां लिखा जा चुका था, यानी मुसलमानों की फतह और इस्लाम का गलबा। 


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ऐ नबी तुम्हारे हाथ में जो कैदी हैं उनसे कह दो कि अगर अल्लाह तुम्हारे दिलों में कोई 
भलाई पाएगा तो जो कुछ तुमसे लिया गया है उससे बेहतर वह तुम्हें दे देगा और तुम्हें 
बख्श देगा और अल्लाह बख्शने वाला महरबान है। और अगर ये तुमसे बदअहदी 


(वचन-भंग) करेंगे तो इससे पहले इन्होंने खुदा से बदअहदी की तो ख़ुदा ने तुम्हें उन 
पर काबू दे दिया और अल्लाह इलम वाला हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। (70-7]) 








बद्र के कैदियों को फिदया लेकर छोड़ना मुसलमानों के लिए एक जंगी गलती थी। मगर 
खु कैदियों के हक में यह एक नई जिंदगी फराहम करने के हममअना था। इसका मतलब 
यह था कि वे लोग जो अपनी मुखालिफते हक के नतीजे मे हलाकत के मुस्तहिक हो चुके थे 
उन्हें एक बार और मौका मिल गया कि वे इस्लाम की दावत और उसके मुकाबले में अपनी 


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सूह-8. अल-अनफाल 479 पारा 0 


बेजा रविश पर दुबारा गौर कर सकें। इस मोहलत ने उनके लिए अपनी इस्लाह का नया 
दरवाजा खोल दिया। 
अब एक सूरत यह थी कि इन कैदियों के दिल में शिकस्त की बिना पर इंतिकाम (बदले) 
की आग भड़के। फिदया देने की वजह से उन्हें जो जिल्लत व नुक्सान हुआ है उसका बदला 
लेने के लिए वे बेचैन हो जाएं। ऐसी सूरत में वे फिर उसी ग़लती को दोहराएंगे जिसके नतीजे 
में वे खुदा की पकड़ के मुस्तहिक बन गए थे। वे अपनी कुब्वतों को इस्लाम की मुखालिफत 
में सर्फ करेंगे जिसका अंजाम दुनिया में हलाकत है और आख़िरत में अजाब। 
दूसरी सूरत यह थी कि वे बद्र के मैदान में पेश आने वाले गैर मामूली वाकये पर गौर 
करें कि मुसलमानों को कमतर असबाब के बावजूद इतनी खुली हुई फतह क्यों नसीब हुई। 
इसका साफ मतलब यह है कि खुदा मुसलमानों के दीन के साथ है न न कि क्रैश के दीन के 
साथ। यह दूसरा जेहन अगर पैदा हो जाए तो वह उन्हें आमादा करेगा कि वे अपनी साबिका 
(पहली) रविश को बदल लें और जिस दीन को पहले इख़्तियार न कर सके उसे अब से 
इख्तियार कर लें। और इस तरह दुनिया व आख़िरत में खुदा के इनाम के मुस्तहिक बनें। 
तारीख़ बताती है कि कुरैश के लोगों में एक तादाद ऐसी निकली जिनके दिल में मज्कूरा 
सवाल जाग उठा और जल्द या देर से वे इस्लाम में दाखिल हो गए। हजरत अब्बास बिन 
अब्दुल मुत्तलिब ने कैद के जमाने ही में इस्लाम कुबूल कर लिया। कुछ दूसरे लोग बाद को 
इस्लाम के हलके में आ गए। ये लोग अगरचे गिरोही तअस्सुब की नजर में जलील हुए मगर 
उन्हेंनि खुदा की नजर में इज्जत हासिल कर ली। दुनिया का नुक्सान उठाकर वे आख़िरत के 
फायदे के मालिक बन गए। 
कैदियों को छोड़ने की वजह से मुसलमानों को यह अंदेशा था कि वे इसे एहसान समझ 
कर इसका एतराफ नहीं करेंगे बल्कि पहले की तरह दुबारा साजिश और तरीबकारी (विध 
वंस) का रास्ता इख्तियार करके इस्लाम की राह में रुकावट बन जाएंगे। मगर कुरआन ने इस 
अंदेशे को अहमियत न दी। क्योंकि ख़ालिस हक (सत्य) के लिए जो तहरीक उठती है वह 
आम तर्ज की इंसानी तहरीक नहीं होती। वह एक ख़ुदाई मामला होता है। उसकी पुश्त पर 
ख़ुद ख़ुदा होता है और ख़ुदा से लड़ना किसी के बस की बात नहीं। 


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पारा ।0 480 सूरह-8. अल-अनफाल 


जो लोग ईमान लाए और जिन्होंने हिजरत की और अल्लाह की राह में अपने जान व 
माल से जिहाद किया। और वे लोग जिन्होंने पनाह दी और मदद की, वे लोग एक दूसरे 
के रफीक हैं और जो लोग ईमान लाए मगर उन्होंने हिजरत नहीं की तो उनसे तुम्हारा 
रिफाकत का कोई तअल्लुक नहीं जब तक कि वे हिजरत करके न आ जाएं। और वे 

तुमसे दीन के मामले में मदद मांगे तो तुम पर उनकी मदद करना वाजिब (जरूरी) है, 
इल्ला यह कि मदद किसी ऐसी कौम के खिलाफ हो जिसके साथ तुम्हारा मुआहिदा 

(संधि) है। और जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उसे देख रहा है। और जो लोग मुंकिर 
हैं वे एक दूसरे के रफीक (सहयोगी) हैं। अगर तुम ऐसा न करोगे तो जमीन में फितना 

फैलेगा और बझ फसाद होगा। (72-73) 


आम तौर पर जब एक आदमी दूसरे की मदद करता है तो इसकी वजह यह होती है कि वह 
आदमी उसके अपने ख़ानदान का है, उससे गिरोही और जमाअती तअल्लुक है। मगर हिजरत के 
बाद मदीने में जो इस्लामी मआशरा (समाज) कायम हुआ वह ऐसा मआशरा था जिसमें घर वालों 
ने अपने घर ऐसे लोगों को दे दिए जिनसे तअल्लुक की बुनियाद सिर्फ दीन थी। जो लोग अपने 
वतन को छोड़कर मदीना आए वे भी अल्लाह के लिए और आखिरत तलबी के लिए आए। और 
जिन्होंने इन अजनबी लोगों को अपने माल और अपनी जायदाद में शरीक किया वे भी सिफ 
इसलिए ताकि उनका ख़ुदा उनसे खुश हो और आखिरत में उन्हें जन्नतों में दाखिल करे। 

यह एक ऐसा समाज था जिसमें अहम चीज ख़ानदान और नसब (वंश) नहीं बल्कि 
ईमान व इस्लाम था। वे एक दूसरे की मदद करते थे मगर दुनियावी फायदे के लिए नहीं 
बल्कि आख़िरत के फायदे के लिए। वे एक दूसरे को देते थे मगर पाने वाले से किसी बदले 
की उम्मीद में नहीं बल्कि अल्लाह से इनाम की उम्मीद में। वही मुआशिरा हकीकतन इस्लामी 
मुआशिरा है जहां तअल्लुकात ख़ानदानी रिश्तों और गिरोही अस्बियतों पर कायम न हों बल्कि 
हक की बुनियाद पर कायम हों। जहां लोग एक दूसरे के हामी व नासिर (मददगार) इस 
बुनियाद पर हों कि वे उनके दीनी भाई हैं न कि इस बुनियाद पर कि दुनियावी मस्लेहतों में 
से कोई मस्लेहत उनके साथ वाबस्ता है। 

एक मुसलमान जब दूसरे मुसलमान से हक के मामले में मदद तलब करे तो उस वक्‍त 
उसकी मदद करना बिल्कुल लाजिम है। अगर मुसलमानों में बाहमी मदद की यह रूह बाकी 
न रहे तो यह होगा कि शरीर लोग कमजोर मुसलमानों पर दिलेर हो जाएंगे और उनकी जिंदगी 
और उनके ईमान का महफूज रहना सरन्न मुश्किल हो जाएगा। हक के मुरलिफीन अपने 
साथियों की मदद के लिए इंतिहाई हस्सास होते हैं फिर हक के मानने वाले अपने साथियों की 
मदद में क्यों न सरगर्म हों। इस में इस्तिसना (अपवाद) सिर्फ उस वक्‍त है जबकि मामला 
अन्तराष्ट्रीय हो और मुसलमानों की मदद करना अन्तर्राष्ट्रीय पेचीदगियां पैदा करने के 
हममअना समझा जाए। 

'हिजरत' जन्नत में दाखिले का दरवाजा है। एक बंदा जब ख़ुदा के नापसंदीदा मकाम 
से निकल कर खुदा के पसंदीदा मकाम की तरफ जाता है तो दरअस्ल वह गैर जन्नत को 
छोड़कर जन्नत में दाखिल होता है। 








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सूरह-8. अल-अनफल 48] 


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और जो लोग ईमान लाए और उन्होंने हिजरत (स्थान परिवर्तन) की और अल्लाह की 
राह में जिहाद किया और जिन लोगों ने पनाह दी और मदद की, यही लोग सच्चे मोमिन 
हैं। इनके लिए बश्‍्शिश है और बेहतरीन रिज्क है। और जो लोग बाद में ईमान लाए 

और हिजरत की और तुम्हारे साथ मिलकर जिहाद किया वे भी तुम में से हैं। और खून 
के रिश्तेदार एक दूसरे के ज्यादा हकदार हैं अल्लाह की किताब में। बेशक अल्लाह हर 

चीज का जानने वाला है। (74-75) 


ख़ुदा पर ईमान लाना खुदा के लिए जिंदगी गुजारने का फैसला करना है। ऐसे लोग 
अक्सर उन लोगों के दर्मियान अजनबी बन जाते हैं जो खुदा के सिवा किसी और चीज की 
खातिर जिंदगी गुजार रहे हों। यह अजनबिय्यत कभी इतनी बढ़ती है कि हिजरत की नौबत 
आ जाती है। माहौल की मुखालिफत के नतीजे में पूरी जिंदगी जद्दोजहद और जांफशानी 
(संघर्ष) की जिंदगी बनकर रह जाती है। यही लोग हैं जो ख़ुदा के नजदीक सच्चे मोमिन हैं। 
इसके बाद सच्चा ईमान उन लोगों का है जो इस्लाम की खातिर बजाहिर बर्बाद हो जाने वाले 
इस काफिले के पुश्तपनाह बनें वे उन्हें जगह दें और उनकी हर मुमकिन मदद के लिए खड़े 
हो जाएं। जिनकी जिंदगियां नहीं लुटी हैं वे अपना असासा (सम्पत्ति) उन लोगों के हवाले कर 
दें जिनकी जिंदगियां इस्लाम की राह में लुट गई हैं। 

इससे मालूम हुआ कि हकीकी मुस्लिम बनने के लिए आदमी को दो में से कम से कम 
एक चीज का सुबूत देना है। आदमी या तो अपने आपको इस्लाम के साथ इस तरह वाबस्ता 
करे कि अगर उसे अपनी बनी बनाई दुनिया उजाड़ देनी पड़े तो इससे भी दरेग (संकोच) न 
करे, आराम की जिंदगी को बेआरामी की जिंदगी बना देना पड़े तो इसे भी गवारा कर ले। 
फिर यह कि इस्लाम की खातिर जब कुछ लोग अपना असासा लुटा दें तो वे लोग जो अभी 
लुटने से महफूज हैं वे पहले फीक की मदद के लिए अपना बाज़ खोल दें यहां तक कि 
जरूरत हो तो अपनी कमाई और अपनी जायदाद में भी उन्हें शरीक कर लें। सच्चा ईमान 
किसी को या तो 'मुहाजिर' (हिजरत करने वाला) बनने की सतह पर मिलता है या “अंसार” 
(मदद करने वाला) बनने की सतह पर। 

यही दो किस्म के लोग हैं जिनके लिए खुदा के यहां मग्फित और रिजक करीम है। 
आखिरत में आने वाली जन्नत इंतिहाई सुथरी और नफीस दुनिया है। वह एक कामिल दुनिया 
है और कामिल दुनिया में बसाए जाने के लायक वही लोग हो सकते हैं जो ख़ुद भी कामिल 
हों। कोई इंसान अपनी बशरी कमजोरियों को बिना पर ऐसी कामलियत (पूर्णता) का सुबूत 





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पारा 70 482 सूरह-9. अत-तौबह 


नहीं दे सकता । ताहम अल्लाह का यह वादा है कि जो शख्स मज्कूरा दोनों कसौटी में से किसी 
एक कसौटी पर पूरा उतरेगा खुदा अपनी कुदरत से उसकी कमियां की तलाफी करके उसे 
जन्नत में दाखिल कर देगा। 

दीन की बुनियाद पर भाई बनने वालों की मदद और हिमायत बेहद अहम है ताहम वह 
रहमी (खून के) रिश्तों के हुकूक और उनके दर्मियान विरासतां की तक्सीम पर असरअंदाज न 
होगी । अपनी ख्वाहिश के तहत कोई शख्स अपने अहले ख़ानदान के लिए जिन चीजों को जरूरी 
समझ ले उनकी कोई अहमियत अल्लाह ने नजदीक नहीं है। ताहम अल्लाह ने ख़ुद अपनी 
किताब में अहले ख़नदान के लिए हुकूक और विरासत का जो कानून मुरकर कर दिया है वह 
हर हाल में कायम रहेगा। और कोई दूसरी चीज उसकी अदायगी के लिए उज़ नहीं बन सकती। 


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(मदीना में नाजिल हुई) 

बरा-त (विरक्ति) का एलान है अल्लाह और उसके रसूल की तरफ से उन मुश्रिकीन 
(बहुदेववादियों) को जिनसे तुमने मुआहिदे (संधि) किए थे। पस तुम लोग मुल्क में चार 
महीने चल फिर लो और जान लो कि तुम अल्लाह को आजिज नहीं कर सकते और 
यह कि अल्लाह मुंकिरों को रुसवा करने वाला है। एलान है अल्लाह और रसूल की 
तरफ से बड़े हज के दिन लोगों के लिए कि अल्लाह और उसका रसूल मुश्रिकों से 
बरीउज्जिम्मा (जिम्मेदारी-मुकत) हैं। अब अगर तुम लोग तोबह करो तो तुम्हारे हक में 

बेहतर है। और अगर तुम मुंह फेरोगे तो जान लो कि तुम अल्लाह को आजिज करने 
वाले नहीं हो। और इंकार करने वालों को सख्त अजाब की खुशखबरी दे दो। मगर 
जिन मुश्रिकों से तुमने मुआहिदा किया था फिर उन्होंने तुम्हारे साथ कोई कमी नहीं 


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सूरह-9. अत-तौबह 483 पारा 70 


की और न तुम्हारे खिलाफ किसी की मदद की तो उनका मुआहिदा (संधि) उनकी 
मुद्दत तक पूरा करो। बेशक अल्लाह परहेजगारों को पसंद करता है। (।-4) 


मौजूदा दुनिया में इंसान को रहने बसने का जो मौका दिया गया है वह किसी हक की 
बिना पर नहीं है बल्कि महज आजमाइश के लिए है। खुदा जब तक चाहता है किसी को इस 
जमीन पर रखता है और जब उसके इलम के मुताबिक उसकी इम्तेहान की मुदृदत पूरी हो 
जाती है तो उस पर मौत वारिद करके उसे यहां से उठा लिया जाता है। 

यही मामला पैगम्बर के मुख़ातबीन के साथ दूसरी सूरत में किया जाता है। पैगम्बर जिन 
लोगों के दर्मियान आता है उन पर वह आखिरी हद तक हक की गवाही देता है। पेगम्बर के 
दावती काम की तक्मील (पूर्णता) के बाद जो लोग ईमान न लाएं वे खुदा की जमीन पर जिंदा 
रहने का हक खो देते हैं। वे आजमाइश की गरज से यहां रखे गए थे। इतमामे हुज्जत 
(आह्वान की अति) ने आजमाइश की तक्मील कर दी। फिर इसके बाद जिंदगी का हक 
किस लिए। यही वजह है कि पैग़म्बरों के काम की तक्मील के बाद उनके ऊपर कोई न कोई 
हलाकतखेज आफत आती है और उनका इस्तिसाल (विनाश) कर दिया जाता है। 

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के मुखातबीन के साथ भी यही मामला हुआ । मगर 
उन पर कोई आसमानी आफत नहीं आई। उनके ऊपर खुदा की मज्कूरा सुन्नत का निफाज 
असबाब के नव्शे में किया गया। अव्वलन कुरआन के बरतर उस्लूब (शैली) और पैगम्बर के 
आला किरदार के जरिए उन्हें दावत पहुंचाई गई। फिर अहले तौहीद को मक्का के अहले शिक 
पर ग़ालिब करके उनके ऊपर इतमामे हुज्जत कर दिया गया। जब यह सब कुछ हो चुका और 
इसके बावजूद वे इंकार की रविश पर कायम रहे तो उन्हें मुसलसल ख़ियानत और अहद शिकनी 
का मुजरिम करार देकर उन्हें अल्टीमेटम दिया गया कि चार माह के अंदर अपनी इस्लाह कर लो, 
वर्ना मुसलमानों की तलवार से तुम्हारा ख़ात्मा कर दिया जाएगा। 

फिर यह सारा मामला तकवा के उसूल पर किया गया न कि कौमी सियासत के उसूल पर। 
मुश्रिकीन को दलाइल के मैदान में लाजवाब कर दिया गया, उन्हें पेशगी इंतिबाह (संचेतना) के 
जरिए कई महीने तक सोचने का मौका दिया गया। आख़िर ववत तक उनके लिए दरवाजा खुला 
रखा गया कि जो लोग तौबह कर लें वे खुदा के इनामयाफ्ता बंदों में शामिल हो जाएं । जिन कुछ 
कबाइल ने मुआहिदा नहीं तोड़ा था उनके मामले को मुआहिदा तोड़ने वालों से अलग रखा गया, 
वगैरह । 


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पारा 70 484 सूरह-9. अत-तौबह 


फिर जब हुरमत (गरिमा) वाले महीने गुजर जाएं तो मुश्रिकीन को कत्ल करो जहां पाओ 

और उन्हें पकड़ो और उन्हें घेरो और बैठो हर जगह उनकी घात में। फिर अगर वे तोबह 
कर ले और नमाज कायम करें और जकात अदा करें तो उन्हें छोड़ दो। अल्लाह बख़्शने 

वाला महरबान है। और अगर मुश्रिकीन में से कोई शख्स तुमसे पनाह मांगे तो उसे 
पनाह दे दो ताकि वह अल्लाह का कलाम सुने फिर उसे उसके अमान (सुरक्षा) की जगह 
पहुंचा दो। यह इसलिए कि वे लोग इलम नहीं रखते। (5-6) 


मोहलत के चार महीने गुजरने के बाद यहां जिस जंग का हुक्म दिया गया वह कोई आम 
जंग न थी यह खुदा के कानून के मुताबिक वह अजाब था जो पेगम्बर के इंकार के नतीजे 
में उन पर जाहिर किया गया। उन्होंने इतमामे हुज्जत (आह्वान की अति) के बावजूद ख़ुदा 
के पैगम्बर का इंकार करके अपने को इसका मुस्तहिक बना था कि उनके लिए तलवार या 
इस्लाम के सिवा कोई और सूरत बाकी न रखी जाए। यह खुदा का एक ख़ुसूसी कानून है 
जिसका तअल्लुक पैगम्बर के मुखातबीन से है न कि आम लोगों से। ताहम इतमामे हुज्जत 
के बाद भी इस हुक्म का निफाज अचानक नहीं किया गया बल्कि आखिरी मरहले में फिर उन्हें 
चार महीने की मोहलत दी गई। 

इंतिकाम माफ करना नहीं जानता । इंतिकामी जज्बे के तहत जो कारवाई की जाए उसे 
सिर्फ उस वक्त तस्कीन मिलती है जबकि वह अपने हरीफ को जलील और बर्बाद होते हुए 
देख ले। मगर अरब के मुश्रिकीन के खिलाफ जो कार्रवाई की गई उसका तअल्लुक किसी 
किस्म के इंतकाम से नहीं था बल्कि वह सरासर हकीकतपसंदाना (यथार्थवादी) उसूल पर 
मबनी था। यही वजह है कि इतने शदीद हुक्म के बावजूद उनके लिए यह गुंजाइश हर वक्त 
बाकी थी कि वे दीने इस्लाम को इख्तियार करके अपने को इस सजा से बचा लें और इस्लामी 
बिरादरी में इज्जत की जिंदगी हासिल कर लें। किसी की तौबह के काबिले वुकूल होने के लिए 
सिर्फ दो अमली शर्तों का पाया जाना काफी है। नमाज और जक्रात। 

जंग के दौरान दुश्मन का कोई फर्द यह कहे कि मैं इस्लाम को समझना चाहता हूं तो 
मुसलमानों को हुक्म है कि उसे अमान देकर अपने माहौल में आने का मौका दें और इस्लाम के 
पैगाम को उसके दिल में उतारने की कोशिश करें| फिर भी अगर वह कुबूल न करे तो अपनी 
हिफाजत में उसे उसके ठिकाने तक पहुंचा दें। ऐसा नहीं किया जा सकता कि उसने दीन की बात 
नहीं मानी है तो उसे कत्ल कर दिया जाए । जब कोई शख्स अमान में हो तो अमान के दौरान उस 
पर हाथ उठाना जाइज नहीं। 

जंग के जमाने में दुश्मन को इस किस्म की रिआयत देना इंतिहाई नाजुक है। क्योंकि ऐन 
मुमकिन है कि दुश्मन का कोई जासूस इस रिआयत से फायदा उठाकर मुसलमानों के अंदर 
घुस आए और उनके फौजी राज मालूम करने की कोशिश करे। मगर इस्लाम की नजर में 
दावत व तब्लीग़ (आह्वान एवं प्रचार) का मसला इतना ज्यादा अहम है कि इस नाजुक ख़तरे 
के बावजूद इसका दरवाजा बंद नहीं किया गया। 

एक शख्स अगर बेख़बरी और लाइल्मी की बिना पर जुल्म करे तो उसका जुल्म चाहे 
कितना ही ज्यादा हो मगर उसके साथ हर मुमकिन रिआयत की जाएगी उस वक्‍त तक कि 
उसकी लाइल्मी और बेख़बरी ख़त्म हो जाए। 





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सूरह-9. अत-तोबह 485 पारा 70 


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इन मुश्रिकों के लिए अल्लाह और उसके रसूल के जिम्मे कोई अहद (वचन) कैसे रह 
सकता है, मगर जिन लोगों से तुमने अहद किया था मस्जिदे हराम के पास, पस जब 
तक वे तुमसे सीधे रहें तुम भी उनसे सीधे रहो, बेशक अल्लाह परहेजगारों को पसंद 
करता है। कैसे अहद रहेगा जबकि यह हाल है कि अगर वे तुम्हारे ऊपर काबू पाएं तो 
तुम्हारे बारे में न कराबत (निकट के संबंधों) का लिहाज करें और न अहद का। वे तुम्हें 

अपने मुंह की बात से राजी करना चाहते हैं मगर उनके दिल इंकार करते हैं। और उनमें 
अक्सर बदअहद हैं। उन्होंने अल्लाह की आयतां को थोड़ी कीमत पर बेच दिया, फिर 
उन्होंने अल्लाह के रास्ते से रोका। बहुत बुरा है जो वे कर रहे हैं। किसी मोमिन के 
मामले में वे न कराबत का लिहाज करते हैं और न अहद का, यही लोग हैं ज्यादती 

करने वाले। पस अगर वे तोबह करें और नमाज कायम करें और जकात अदा करें तो 

वे तुम्हारे दीनी भाई हैं। और हम खोलकर बयान करते हैं आयतों को जानने वालों के 
लिए। (7-॥) 


मुसलमानों को जब जोर हासिल हो गया तो कुरैश ने उनसे मुआहिदे कर लिए । ताहम वे 
इन मुआहिदों से खुश न थे। वे समझते थे कि अपने “दुश्मन” से यह मुआहिदा उन्होंने अपनी 
बर्बादी की कीमत पर किया है। यही वजह है कि वे हर ववत इस इंतिजार में रहते थे कि जहां 
मौका मिले मुआहिदे (संधि) की खिलाफवर्जी करके मुसलमानों को नुक्सान पहुंचाएं या कम से 
कम उन्हें बदनाम करें। जहिर है कि जब एक फीक (पक्ष की तरफ से इस किस्म की 
खियानत का मुजाहिरा हो तो दूसरे फरीक के लिए किसी मुआहिदे की पाबंदी जरूरी नहीं रहती । 
यह क्रैश का हाल था जिन्हें मुसलमानों के उरूज (उत्थान काल) में अपनी कयादत 
छिनती हुई नजर आती थी। ताहम कुछ दूसरे अरब कबीले (बनू किनाना, बनू खुजाआ, बनू 
जमरा) जो इस किस्म की नफ्सियाती पेचीदगी में मुक्तिला न थे, उन्होंने मुसलमानों से 


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पारा 70 486 सूरह-9. अत-तौबह 


मुआहिदे किए और अपने मुआहिदे पर कायम रहे। जब चार माह की मोहलत का एलान किया 
गया तो उनके मुआहिदे की मीयाद पूरी होने में तकरीबन नौ महीने बाकी थे। हुक्म हुआ कि 
उनसे मुआहिंदे को आखिर ववत तक बाकी रखो, क्येकि तकवा का तकाजा यही है। मगर इस 
मुदूदत के ख़त्म होने के बाद फिर किसी से इस किस्म का मुआहिदा नहीं किया गया और तमाम 
मुश्रिकीन के सामने सिर्फ दो सूरतें बाकी रखी गई या इस्लाम लाएं या जंग के लिए तैयार हो 
जाएं। 

समाजी जिंदगी की बुनियाद हमेशा दो चीजों पर होती है। रिश्तेदारी या कौल व करार । 
जिनसे रहमी (खून के) रिश्ते हैं उनके हुकूक का लिहाज आदमी रहमी रिश्तों की बुनियाद पर 
करता है। और जिनसे कौल व करार हो चुका है उनसे कैल व करार की बिना पर। मगर 
जब आदमी के ऊपर दुनिया के मफाद और मस्लेहत (हित, स्वार्थ) का गलबा होता है तो वह 
दोनों बातों को भूल जाता है। वह अपने हकीर (तुच्छ) फायदे के ख़ातिर रहमी हुकूक को भी 
भूल जाता है और कौल व करार को भी। ऐसे लोग हद से गुजर जाने वाले हैं। वे खुदा की 
नजर में मुजरिम हैं। दुनिया में अगर वे छूट गए तो आख़िरत में वे खुदा की पकड़ से बच न 
सकेंगे। इल्ला यह कि वे तौबह करें और अपनी सरकशी से बाज आएं। कोई शख्स माजी में 
चाहे कितना ही बुरा रहा हो मगर जब वह इस्लाह कुबूल कर ले तो वह इस्लामी बिरादरी का 
एक मुअज्जज (सम्मानित) रुक्न बन जाता है। इसके बाद उसमें और दूसरे मुसलमानों में कोई 
पनविख्त। 


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और अगर अहद (वचन) के बाद ये अपनी कसमों को तोड़ डालें और तुम्हारे दीन में 
ऐब लगाएं तो कुफ्र के इन सरदारों से लड़ो। बेशक उनकी कसमें कुछ नहीं, ताकि वे 
बाज आएं। क्या तुम न लड़ोगे ऐसे लोगों से जिन्होंने अपने अहद तोड़ दिए और रसूल 
को निकालने की जसारत (दुस्साहस) की और वही हैं जिन्होंने तुमसे जंग में पहल की। 
क्या तुम उनसे डरोगे। अल्लाह ज्यादा मुस्तहिक है कि तुम उससे उरो अगर तुम मोमिन 
हो। उनसे लड़ो। अल्लाह तुम्हारे हाथों उन्हें सजा देगा और उन्हें रुसवा करेगा और तुम्हे 
उन पर गलबा देगा और मुसलमान लोगों के सीने को ठंडा करेगा और उनके दिल की 


जलन को दूर कर देगा और अल्लाह तोबह नसीब करेगा जिसे चाहेगा और अल्लाह 
जानने वाला है हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। (2-5) 


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सूरह-9. अत-तौबह 487 पारा 70 





कुफ्र के सरदारों से मुराद कुश हैं जो अपने कायदाना मकाम की वजह से अख में 
इस्लाम के खिलाफ तहरीक की इमामत (नेतृत्व) कर रहे थे। कुंरेश के इस किरदार से मालूम 
होता है कि इस्लाम की तहरीक जब उठती है तो उसका पहला मुखालिफ कौन गिरोह बनता 
है। यह वह गिरोह है जिसे बेआमेज (विशुद्ध) हक के पेगाम में अपनी बड़ाई पर जद पड़ती 
हुई नजर आती है। यही वह सरबरआवुरदह (शीर्ष) तवका है जिसके पास वह जेहन होता है 
कि वह इस्लामी दावत में शोशे निकाल कर लोगों को उसकी तरफ से मुशतबह करे। उसी 
के पास वे वसाइल होते हैं कि वह इस्लाम के दाजियों की हौसलाशिकनी के लिए उन्हें 
तरह-तरह की मुश्किलात में डाले। उसी के पास वह जोर होता है कि वह हकपरस्तों को उनके 
घरों से निकालने की तदबीरें करे। यहां तक कि उसी को ये मौके हासिल होते हैं कि इस्लाम 
के मानने वालों के खिलाफ बाकायदा जंग की आग भड़का सके। 
'उनके अहद कुछ नहीं बहुत मअनाखेज फिकरा है। जो लोग दुश्मनी और जिद की 
बुनियाद पर खड़े हुए हों उनके वादे और मुआहिदे बिल्कुल गैर यकीनी होते हैं। उनकी 
नपिसियात में अपने हरीफ के खिलाफ मुस्तकिल इशतेआल (उत्तेजना) बरपा रहता है। उनके 
अंदर ठहराव नहीं होता। वे अगर मुआहिदा भी कर लें तो अपने मिजाज के एतबार से उसे 
देर तक बाकी रखने पर कादिर नहीं हेति। ज्यादा देर नहीं गुजरती कि अपने मंफी जज्बात 
से मगलूब होकर वे मुआहिदे को तोड़ देते हैं और इस तरह अहले हक को यह मौका देते हैं 
कि अपने ऊपर पहल का इल्जाम लिए बगैर वे उनके खिलाफ मुदाफिआना (सुरक्षात्मक) 
कार्रवाई करें और ख़ुद की मदद से उनका खात्मा करें। 
तमाम हिक्मत और दानाई (सूझबूझ) का सिरा अल्लाह का डर है। अल्लाह का डर 
आदमी के अंदर एतराफ का मादूदा पैदा करता है। वह आदमी के अंदर वह शुऊर जगाता 
है कि वह हकीकतों को उनके असली रूप में देख सके यही वजह है कि अल्लाह से डरने 
वाले के लिए खुदाई मंसूबे को समझने में देर नहीं लगती। वह ख़ुदा की मंशा को जान कर 
पूरे एतमाद के साथ अपने आपको उसमें लगा देता है। वह उस सहीतरीन रास्ते पर चल पड़ता 
है जिसकी आखिरी मंजिल सिर्फ कामयाबी है। अल्लाह का डर आदमी की आंखों को अश्क 
आलूद कर देता है। मगर अल्लाह के लिए भीगी हुई आंख ही वह आंख है जिसके लिए यह 
मुकदूदर है कि उसे ठंडक हासिल हो, दुनिया में भी और आख़िरत में भी। 


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क्या तुम्हारा यह गुमान है कि तुम छोड़ दिए जाओगे हालांकि अभी अल्लाह ने तुम में 
से उन लोगों को जाना ही नहीं जिन्होंने जिहाद किया और जिन्होंने अल्लाह और रसूल 
और मोमिनीन के सिवा किसी को दोस्त नहीं बनाया और अल्लाह जानता है जो कुछ 





पारा 70 488 सूरह-9. अत-तौबह 


तुम करते हो। (6) 


मौजूदा दुनिया में आदमी जब किसी चीज को अपनी ज़िंदगी का मकसद बनाता है तो 
उसे हासिल करने में तरह-तरह के मसाइल और तकाजे सामने आते हैं। अगर आदमी को 
अपना मवसद अजीज है तो वह इन मसाइल को हल करने और इन तकाजें को पूरा करने 
में अपनी सारी कुव्वत लगा देता है। इसी का नाम जिहाद है। यह जिहाद इस दुनिया में हर 
एक को पेश आता है। हर आदमी को जिहाद की सतह पर अपनी तलब का सुबूत देना पड़ता 
है इसके बाद ही यह मुमकिन होता है कि वह अपनी तलब में कामयाब हो। फर्क यह है कि 
गैर मोमिन दुनिया की राह में जिहाद करता है और मोमिन आखिरत की राह में। 
यही जिहाद यह साबित करता है कि आदमी अपने मकसद में कितना संजीदा है। एक 
शख्स जो ईमान का मुद्दई (दावेदार) हो उसके सामने बार-बार मुख़्तलिफ मौके आते हैं जो 
उसके दावे का इम्तेहान हों। कभी उसका दिल किसी के खिलाफ बुग्ज व हसद के जज्बात 
से मुतअस्सिर होने लगता है और उसका ईमान उससे कहता है कि इस किस्म के तमाम 
जज्बात को अपने अंदर से निकाल दो। कभी उसकी जबान पर नापसंदीदा कलिमात आते हैं 
और ईमान का तकाजा यह होता है कि उस वक्‍त अपनी जबान को पकड़ लिया जाए। कभी 
मामलात के दौरान किसी को ऐसा हक देना पड़ता है जो कल्ब को बिल्कुल नागवार हो मगर 
ईमान यह कह रहा होता है कि हकदार को इंसाफ के मुताबिक उसका पूरा हक पहुंचाया 
जाए। इसी तरह इस्लाम की दावत कभी ऐसे मोड़ पर पहुंच जाती है कि ईमान यह कहता 
है कि इसको कामयाब बनाने के लिए अपनी जान व माल कुर्बान कर दो। ऐसे तमाम मौकों 
पर गुरेज (संकोच) या फरार से बचना और हर कीमत पर ईमान व इस्लाम के तकजे पूरे 
करते रहना, इसी का नाम जिहाद है। 
जब कोई शख्स इस्लाम के लिए मुजाहिद बन जाए तो उसका तमामतर नपिसयाती (मनोवैज्ञानिक) 
तअल्लुक अल्लाह और रसूल और अहले ईमान से हो जाता है। वह इनके सिवा किसी को अपना 
वलीजा नहीं बनाता | वलज के मअना हैं दाखिल होना । वलीजा किसी वादी के उस गार को कहते 
हैं जहां रास्ता चलने वाले बारिश वगैरह से पनाह लें। इसी से वलीजा है, यानी वली दोस्त । 
मौजूदा दुनिया में जब भी आदमी किसी वसीअतर (बड़े) मकसद को अपनाता है तो उसे 
लाजिमन ऐसा करना पड़ता है कि वह अपने मकसद की मर्कजियत से वाबस्ता हो। वह अपने 
कायद का मुकम्मल वफादार बने। वह इस राह के साथियों से पूरी तरह जुड़ जाए । मक्सदियत 
के एहसास के साथ ये चीजैलाजिम मत्जूम (परस्पर पूरक) हैं। इनके ब बामवसद जिंदगी 
का दावा बिल्कुल झूठा है। इसी तरह आदमी जब दीन को संजीदगी के साथ अपनी जिंदगी 
में दाखिल करेगा तो लाजिमी तौर पर ऐसा होगा कि ख़ुदा और रसूल और अहले ईमान उसका 
'वलीजा' बन जाएंगे। वह हर एतबार से उनके साथ जुड़ जाएगा। संजीदगी के साथ दीन 
इख्तियार करने वाले के लिए अल्लाह और रसूल और अहले ईमान, अमली तौर पर, ऐसी 
वहदत (एकत्व) के अज्जा हैं जिनके दर्मियान तक्सीम मुमकिन नहीं। 
इस मामले की नजाकत बहुत बढ़ जाती है जब यह सामने रखा जाए कि इसकी जांच 
करने वाला वह है जिसे खुले और छुपे का इल्म है, वह हर आदमी से उसकी हकीकत के एतबार 





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सूरह-9. अत-तोबह 489 पारा 70 
से मामला करेगा न कि उसके जाहिरी रवैये के एतबार से। 


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मुश्रिकों का काम नहीं कि वे अल्लाह की मस्जिदों को आबाद करें हालांकि वे ख़ुद अपने 
ऊपर कुफ्र के गवाह हैं। उन लोगों के आमाल अकारत गए और वे हमेशा आग में रहने 
वाले हैं। अल्लाह की मस्जिदों को तो वह आबाद करता है जो अल्लाह और आख़िरत के 
दिन पर ईमान लाए और नमाज कायम करे और जकात अदा करे और अल्लाह के सिवा 
किसी से न डरे। ऐसे लोग उम्मीद है कि हिदायत पाने वालों में से बनें। क्या तुमने 
हाजियों के पानी पिलाने और मस्जिदे हराम के बसाने को बराबर कर दिया उस शख्स के 
जो अल्लाह और आख़िरत पर ईमान लाया और अल्लाह की राह में जिहाद किया, 
अल्लाह के नजदीक ये दोनों बराबर नहीं हो सकते। और अल्लाह जालिम लोगों को राह 
नहीं दिखाता । जो लोग ईमान लाए और उन्होंने हिजरत की और अल्लाह के रास्ते में 
अपने जान व माल से जिहाद किया, उनका दर्जा अल्लाह के यहां बड़ा है और यही लोग 
कामयाब हैं। उनका रब उन्हें खुशखबरी देता है अपनी रहमत और खुशनूदी (प्रसन्नता) 
की और ऐसे बागों की जिनमें उनके लिए दाइमी (हमेशा रहने वालों) नेमत होगी, उनमें 
वे हमेशा रहेंगे। बेशक अल्लाह ही के पास बड़ा अज्र (प्रतिफल) है। (।7-22) 





नुजूले कुरआन के वक्त अरब में यह सूरतेहाल थी कि मुसलमान रसूलुल्लाह सल्सल्लाहु 
अलैहि व सल्लम के गिर्द जमा थे और मुश्रिकीन बैलुल्लाह के गिर्द। उस वक्‍त तक 
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ अज्मतों की वह तारीख़ वाबस्ता नहीं हुई 
थी जिसे आज हम जानते हैं। लोगों को आप आम इंसानों की तरह एक इंसान दिखाई देते 








पारा 0 490 सूरह-9. अत-तौबह 


थे। दूसरी तरफ मस्जिदे हराम हजारों वर्षो की तारीख़ के नतीजे में अज्मत व तकद्दुस 
(पावनता) की अलामत बनी हुई थी। मुश्रिकोन की नजर में अपनी तस्वीर तो यह थी कि 
वे एक मुकदूदसतरीन मर्कज के ख़ादिम और आबादकार हैं। दूसरी तरफ जब वे मुसलमानों 
को देखते तो उस वक्त के हालात में उन्हें ऐसा मालूम होता जैसे कुछ लोग बस एक दीवाने 
के पीछे लगे हुए हैं। 

मगर मुश्रिकीन का यह ख्याल सरासर बातिल था। वह जवाहिर का तकाबुल (तुलना) 
हकाइक से करने की गलती कर रहे थे। मस्जिदे हराम के जायरीन को पानी पिलाना, उसके 
अंदर रोशनी और सफाई का इंतिजाम। काबा पर गिलाफ चट़् देना। मस्जिद के फर्श और 
दीवार की मरम्मत, ये सब जाहिरी नुमाइश की चीजें हैं। ये भला उन आमाल के बराबर हो 
सकती हैं जबकि आदमी अल्लाह को पा लेता है और आखिरत की फिक्र में जीने लगता है। 
वह अपनी जिंदगी और अपने असासे को ख़ुदा के हवाले कर देता है। वह दूसरी तमाम 
बड़ाइयों का इंकार करके एक ख़ुदा को अपना बड़ा बना लेता है। सच्चाई को पाने वाले 
दरअस्ल वे लोग हैं जिन्होंने उसे मआना (निहितार्थ) की सतह पर पाया हो न कि जवाहिर की 
सतह पर। जो कुर्बानी की हद तक सच्चाई से तअल्लुक रखने वाले हों न कि महज सतही 
और नुमाइशी कार्रवाइयों की हद तक। 

अल्लाह से तअल्लुक की दो विसमं हैं। एक तअन्लुक वह है जो रस्मी अकीदे की हद 
तक होता है, जिसमें आदमी कुछ दिखावे के आमाल तो करता है मगर अपने को और अपने 
माल को ख़ुदा की राह में नहीं देता। दूसरा तअल्लुक वह है जबकि आदमी अपने ईमान में 
इतना संजीदा हो कि इस राह में उसे जो कुछ छोड़ना पड़े वह उसे छोड़ दे और जो चीज देनी 
पड़े उसे देने के लिए तैयार हो जाए। यही दूसरी किस्म के बंदे हैं जो मरने के बाद ख़ुदा के 
यहां आलातरीन इनामात से नवाजे जाएंगे। 


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ऐ ईमान वालो अपने बापों और अपने भाइयों को दोस्त न बनाओ अगर वे ईमान के 
मुकाबले में कुफ़ को अजीज रखें। और तुम में से जो उन्हें अपना दोस्त बनाएंगे तो ऐसे 
ही लोग जालिम हैं। कहो कि अगर तुम्हारे बाप और तुम्हारे लड़के और तुम्हारे भाई 


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सूरह-9. अत-तौबह 49I पारा 0 


और तुम्हारी बीवियां और तुम्हारा खानदान और वे माल जो तुमने कमाए हैं और वह 
तिजारत जिसके बंद होने से तुम डरते हो और वे घर जिन्हें तुम पसंद करते हो, ये सब 
तुम्हें अल्लाह और उसके रसूल और उसकी राह में जिहाद करने से ज्यादा महबूब हैं तो 
इंतिजार करो यहां तक कि अल्लाह अपना हुक्म भेज दे और अल्लाह नाफरमान लोगों 

को रास्ता नहीं देता। (23-24) 





लोगों के लिए अपना ख़ानदान, अपनी जायदाद, अपने मआशी मफादात सबसे कीमती होते 
हैं। इन्हीं चीजें को वे सबसे ज्यादा अहम समझते हैं। हर दूसरी चीज के मुकाबले में वे उन्हे 
तरजीह देते हैं और अपना सब कुछ उनके ऊपर निसार कर देते हैं। इस किस्म की जिंदगी 
दुनियादाराना जिंदगी है। ऐसा आदमी जो कुछ पाता है बस इसी दुनिया में पाता है। मौत के बाद 
वाली अबदी दुनिया में उसके लिए कुछ नहीं। इसके बरअक्स दूसरी जिंदगी वह है जबकि आदमी 
अल्लाह और रसूल को और अल्लाह की राह में जदूदोजहद को सबसे ज्यादा अहमियत दे और 
इसके ख़ातिर दूसरी हर चीज छोड़ने के लिए तैयार रहे। यही दूसरी जिंदगी खुदापरस्ताना जिंदगी 
है और ऐसे ही लोगों के लिए आख़िरत में अबदी जन्नतों के दरवाजे खोले जाएंगे। 

एक जिंदगी वह है जो दुनियावी तअल्लुकात और दुनियावी मफादात की बुनियाद पर 
कायम होती है। दूसरी जिंदगी वह है जो ईमान की बुनियाद पर कायम होती है। दोनों में से 
जिस चीज को भी आदमी अपनी जिंदगी की बुनियाद बनाए, वह हमेशा इस कीमत पर होता 
है कि वह उसके ख़ातिर दूसरी चीजों को छोड़ दे। वह कुछ लोगों से तअल्लुक कायम करे और 
कुछ दूसरे लोगों से बेतअल्लुक हो जाए । वह कुछ चीजें की बका और तरक्की में अपनी सारी 
तवज्जोह लगा दे और कुछ दूसरी चीजों की बका और तरवकी के मामले में बेपरवाह बना रहे। 
कुछ नुक्सानात उसे किसी कीमत पर गवारा न हों, वह जान पर खेलकर और अपना बेहतरीन 
सरमाया खर्च करके उन्हें बचाने की कोशिश करे और कुछ दूसरे नुक्सानात को वह अपनी 
आंखों से देखे मगर उनके बारे में उसके अंदर कोई तड़प पैदा न हो। दुनिया हमेशा उन लोगों 
को मिलती है जो दुनिया की ख़ातिर अपना सब कुछ लगा दें। इसी तरह आख़िरत सिर्फ उन्हीं 
लोगों के हिस्से में आएगी जो आखिरत के ख़ातिर दूसरी चीजों को कुर्बान कर दें। 

तरजीह (एक को छोड़कर दूसरे को इख्तियार करने का मामला) इंतिहाई संगीन है। यहां 
तक कि वही आदमी के कुफ्र व ईमान का फैसला करता है। खुदा की दुनिया में जिस तरह 
खुले मुंकिरों के लिए कामयाबी मुकदूदर नहीं है इसी तरह उन लोगों के लिए भी यहां 
कामयाबी का कोई इम्कान नहीं जो ईमान का दावा करें और जब नाजुक मौका आए तो वे 
आखिरत पसंदाना रविश के मुकाबले में दुनियादाराना रविश को तरजीह दें। ऐसे ईमान के 
दावेदार अगर अपने बारे में खुशफहमी में मुब्तिला हों तो उन्हें उस वक्त मालूम हो जाएगा 
जब अल्लाह अपना फैसला जाहिर कर देगा। 


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बेशक अल्लाह ने बहुत से मौकों पर तुम्हारी मदद की है और हुनैन के दिन भी जब 
तुम्हारी कसरत ने तुम्हें नाज में मुब्तिला कर दिया था। फिर वह तुम्हारे कुछ काम न 
आई। और जमीन अपनी वुस्अत के बावजूद तुम पर तंग हो गई, फिर तुम पीठ फेर 
कर भागे। इसके बाद अल्लाह ने अपने रसूल और मोमिनीन पर अपनी सकीनत 
(शांति) उतारी और ऐसे लश्कर उतारे जिन्हें तुमने नहीं देखा और अल्लाह ने मुंकिरों 
को सजा दी और यही मुंकिरों का बदला है। फिर इसके बाद अल्लाह जिसे चाहे तोबह 
नसीब कर दे और अल्लाह बझुशने वाला महरबान है। ऐ ईमान वालो, मुश्रिकीन 
बिल्कुल नापाक हैं। पस वे इस साल के बाद मस्जिदे हराम के पास न आएं और अगर 


तुम्ह मुफ्लिसी का अदेशा हो तो अल्लाह अगर चाहेगा तो अपने फज्ल से तुम्हें धनी 
कर देगा। अल्लाह अलीम (ज्ञानवान) व हकीम (तत्वदर्शी) है। (25-28) 


पारा ।0 492 





मुसलमानों का लबा मुंकिरों को उनके कुफ्र की सजा का अगला नतीजा है। मगर मुंकिरों 
का कुफ्र मुसलमानों के इस्लाम की निस्बत से मुतहव्किक होता है। अगर मुसलमान अपनी 
इस्लामियत खो दें तो मुंकिरों का कुफ़ किस चीज के मुकाबले में साबित होगा और किस बुनियाद 
पर खुदा वह फर्क का मामला करेगा जो एक के लिए इनाम बने और दूसरे के लिए सजा। 

रमजान 8 हिजरी में मुसलमानों ने कैश को कामयाब तौर पर मग़लूब करके मक्का को 
फतह किया । मगर अगले ही महीने शव्याल 8 हिजरी में उन्हें हवाजिन व सकीफ के मुश्रिक 
कबीलों के मुकाबले में शिकस्त हुई, जबकि फतह मक्का के वक्‍त मुसलमानों की तादाद दस 
हजर थी और हवाजित व सवीफ से मुकबले के वक्त बारह हजर | इसकी वजह यह थी 
कि कैश से मुकाबले के वक्‍त मुसलमान सिर्फ अल्लाह के भरोसे पर निकले थे। मगर 
हवाजिन व सकीफ से मुक्बले पर निकलते हुए उन्हें यह नाज होगया कि अब तो हम फतेह 
मक्का हैं। हमारे साथ बारह हजार आदमियों का लश्कर है, आज हमें कौन शिकस्त दे सकता 
है। जब वे ख़ुदा के एतमाद पर थे तो उन्हें कामयाबी हुई, जब उन्हें अपनी जात पर एतमाद 
हो गया तो उन्हें शिकस्त का सामना करना पड़ा। 

अपनी जात पर भरोसा आदमी के अंदर घमंड का जज्बा उभारता है जिसके नतीजे में 
खारजी (वाह्य) हकीकतों से बेपरवाई पैदा होती है। वह नज्म की पाबंदी में कोताह हो जाता 


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सूरह-9. अत-तौबह 493 पारा 70 


है। वह बेजा खुदएतमादी की वजह से गैर हकीकतपसंदाना इक्दाम करने लगता है जिसका 
नतीजा इस आलमे असबाब में लाजिमी शिकस्त है। इसके बरअक्स खुदा पर भरोसा सबसे 
बड़ी ताकत पर भरोसा है। इससे आदमी के अंदर तवाजोअ (विनम्रता) का जज्बा उभरता 
है। वह इंतिहाई हकीकतपसंद बन जाता है। और हकीकतपसंदी बिलाशुबह तमाम कामयाबियों 
की जड़ है। 

इब्तिदा में जब यह हुक्म आया कि हरम में मुश्रिकों का दाखिला बंद कर दो तो 
मुसलमानों को तशवीश हुई क्योंकि बगैर खेती का मुल्क होने की वजह से अरब की 
इक्तिसादयात (अर्थव्यवस्था) का इंहिसार तिजारत पर था और तिजारत की बुनियाद हमेशा 
साझे तअल्लुकात पर होती है। मुसलमानों ने सोचा कि जब हरम में मुड्रिकीन का आना बंद 
होगा तो उनके साथ तिजारती रिश्ते भी टूट जाएंगे। मगर उनकी नजर इस इम्कान पर नहीं 
गई कि आज के मुश्रिक कल के मुसलमान हो सकते हैं। चुनांचे यही हुआ। अरबों के उमूमी 
तौर पर इस्लाम कुबूल कर लेने की वजह से तिजारती सरगर्मियां दुबारा नई सूरत से बहाल 
हो गई। साथ ही इस इब्तिदाई कुर्बानी का नतीजा यह हुआ कि बिलआखिर इस्लाम एक 
अन्तरराष्ट्रीय दीन बन गया। जो आर्थिक दरवाजे मकामी सतह पर बंद होते नजर आते थे 
वे आलमी सतह पर खुल गए। 

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उन अहले किताब से लड़ो जो न अल्लाह पर ईमान रखते हैं और न आख़िरत के दिन 
पर और न अल्लाह और उसके रसूल के हराम ठहराए हुए को हराम ठहराते और न दीने 
हक को अपना दीन बनाते यहां तक कि वे अपने हाथ से जिज्या (जान माल की 
हिफाजत) दें और छोटे बनकर रहें। और यहूद ने कहा कि उजैर अल्लाह के बेटे हैं और 
नसारा (ईसाइयों) ने कहा कि मसीह अल्लाह के बेटे हैं। ये उनके अपने मुंह की बातें 
हैं। वे उन लोगों की बात की नकल कर रहे हैं जिन्होंने इनसे पहले कुफ़ किया। अल्लाह 
इन्हें हलाक करे, वे किधर बहके जा रहे हैं। उन्होंने अल्लाह के सिवा अपने उलमा 


(विद्वानों) और मशाइख (धर्म गुरूओं) को रब बना डाला और मसीह इब्ने मरयम को 
भी। हालांकि उन्हें सिर्फ यह हुक्म था कि वे एक माबूद की इबादत करें। उसके सिवा 


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पारा 0 494 सूरह-9. अत-तौबह 


कोई माबूद (पूज्य) नहीं। वह पाक है इससे जो वे शरीक करते हैं। (२9-3]) 


ईमान जिंदा हो तो आदमी हर वाकये को खुदा की तरफ मंसूब करता है। वह किसी चीज 
को सिर्फ उस ववत समझ पाता है जबकि खुदा की निस्बत से उसके बारे में राए कायम कर ले। 
वह फूल की खुशबू को उस वक्त समझता है जबकि उसमें उसे खुदा की महक मिल जाए। वह 
सूरज को उस वक्त दरयाफ्त करता है जबकि वह उसके अता करने वाले को मालूम कर ले। 
हर बड़ाई उसे ख़ुदा का अतिय्या (देन) नजर आती है। हर खूबी उसे खुदा का एहसान याद 
दिलाती है। इसके बरअक्स अगर खुदा से आदमी का तअल्लुक घटकर सिर्फ मोहूम (काल्पनिक) 
अकीदे के दर्ज पर आ जाए तो खुदा उसके जिंदा शुऊर के लिए एक लामालूम (अज्ञात) चीज 
बन जाएगा। वह दुनिया की नजर आने वाली चीजें पर खुदा को कयास करने लगेगा। 

दूसरी किस्म के लोग तबई (मैतिक) तौर पर खलिक (रचयिता) को उन दुनियावी चीजें की 
नजर से देखने लगते हैं जिन्हें वे जानते हैं। वे ़ालिक को मख्तूक (रचना) की सतह पर उतार लाते 
हैं। यही हाल यहूद व नसारा का अपने बिगाड़ के जमाने में हुआ। अब खुदा उनके यहां काल्पनिक 
आस्था के खने में चला गया। चुनांचे वे अपने नजर आने वाले अकाबिर (बड़े) और बुजुर्गों को वह 
दर्जा देने लगे जो दर्जा खुदाए आलिमुलगैब को देना चाहिए । उन्होंने देखा कि यूनानी और रूमी कौमें 
सूरज को खुदा बनाकर उसके लिए बेटा फर किए हुए हैं तो उन्हें भी अपने बुजुर्गों के लिए यही 
सबसे ऊंचा लफ्ज नजर आया। उन्हेने अपनी आसमानी किताबों में अबू (पिता) और इन (बेटा) 
के अल्फाज की ख़ुदसाख़्ता तशरीह करके खुदा को बाप और अपने पैगम्बर को उसका बेटा कहना 
शुरू कर दिया। हालांकि खुदा सिर्फ एक ही है, वह हर मुशाबिहत से पाक है, वही तंहा इसका 
मुस्तहिक है कि उसे बड़ा बनाया जाए और उसकी इबादत की जाए। 

रसूलुल्लाह के खिलाफ जारिहियत करने वाले मुश्रिकीन (बनू इस्माईल) भी थे और 
अहले किताब (बनू इस्राईल) भी। मगर दोनों के साथ अलग-अलग मामला किया गया। 
मुश्रिकोन के साथ जंग या इस्लाम का उसूल इख़्तियार किया गया। मगर अहले किताब के 
लिए हुक्म हुआ कि अगर वे जिज्या (सियासी इताअत) पर राजी हो जाएं तो उन्हें छोड़ दो। 
इस फर्क की वजह यह है कि मुश्रिकीन रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के अस्लन 
मुखातब थे और अहले किताब तबअन (परिवेशगत)। अल्लाह की सुन्नत यह है कि जिस 
कौम पर पैगम्बर के जरिए बराहेरास्त दावत पहुंचाई जाती है उससे इतमामे हुज्जत (आह्वान 
की अति) के बाद जिंदगी का हक छीन लिया जाता है, ठीक वैसे ही जैसे किसी रियासत में 
एक शख्स के बागी साबित होने के बाद उससे जिंदगी का हक छीन लिया जाता है। मगर 
जहां तक दूसरे गिरोहों का तअल्लुक है उनके साथ वही सियासी मामला किया जाता है जो 
आम अन्तर्राष्ट्रीय उसूल के मुताबिक दुरुस्त हो। 





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सूरह-9. अत-तौबह 495 पारा 70 


वे चाहते हैं कि अल्लाह की रोशनी को अपने मुंह से बुझा दें और अल्लाह अपनी रोशनी 
को पूरा किए बगैर मानने वाला नहीं, चाहे मुंकिरों को यह कितना ही नागवार हो। 
उसी ने अपने रसूल को भेजा है हिदायत और दीने हक के साथ ताकि उसे सारे दीन 
पर गालिब कर दे चाहे यह मुश्रिकों को कितना ही नागवार हो। (32-33) 


इन आयतों में खुदा ने अपने उस मुस्तकिल फैसला का एलान किया है कि वह अपने 
दीन को कियामत तक पूरी तरह महफूज रखेगा, माजी (अतीत) की तरह अब ऐसा नहीं होने 
दिया जाएगा कि लोग अपनी मिलावटों से खुदा के दीन को गुम कर दें या कोई ताकत उसे 
सफहा-ए-हस्ती से मिटा देने में कामयाब हो। 

अल्लाह तआला ने जब इंसान को जमीन पर बसाया तो इसी के साथ उसके लिए अपना 
हिदायतनामा भी इंसान के हवाले कर दिया। बाद के दौर में जब लोग गफलत और 
दुनियापरस्ती में मुब्तिला हुए तो उन्होंने खुदा के अल्फाज को बदल कर उसे अपनी ख्याहिशों 
के मुताबिक बना लिया। मसलन अपने बुजुर्गों को खुदा के यहां सिफारिशी मान कर यह 
अकीदा कायम कर लिया कि हम जो कुछ भी करें हमारे बुज अपनी सिफारिश के जोर पर 
हमें खुदा के यहां नजात दिला देंगे या यह कि जन्नत और जहन्नम सब इसी दुनिया में हैं। 
इसके आगे और कुछ नहीं। लोग जो कुछ ख़ुद चाहते थे उसे उन्होंने खुदा की तरफ मंसूब 
करके ख़ुदा की किताब में लिख दिया। इसके बाद ख़ुदा ने दूसरा नबी भेजा जिसने ख़ुदा के 
दीन को इंसानी मिलावटों से अलग करके दुबारा उसे सही शक्ल में पेश किया। मगर बाद 
के जमाने में लोगों ने उसे भी बदल डाला। यही बार-बार होता रहा। बिलआखिर अल्लाह 
तआला ने फैसला किया कि एक आखिरी रसूल भेजे और उसके जरिए ऐसे हालात पैदा करे 
कि ख़ुदा का दीन हमेशा के लिए अपनी असली हालत में महफूज हो जाए। मुहम्मद 
सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जरिए तरीखे नुबुब्वत का यही अजीम कारनामा अंजाम पाया। 

अल्लाह के रसूल मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम तशरीफ लाए तो उस वक्त लोगों 
ने ख़ुदसाख्ता तौर पर बहुत से दीन बना रखे थे। अरब के मुड्रिकीन का एक दीन था जिसे 
वे दीने इब्राहीम कहते थे। यहूद का एक दीन था जिसे वे दीने मूसा कहते थे। नसारा का एक 
दीन था जिसे वे दीने मसीह कहते थे। ये सब ख़ुदा के दीन के ख़ुदसाख्ता (स्वनिर्मित) एडीशन 
थे जिन्हें उन्होंने गलत तौर पर खुदा की तरफ से आया हुआ दीन करार दे रखा था। ख़ुदा 
ने इन सब दीनों को रदूद कर दिया और मुहम्मद (सल्ल०) के दीन को अपने दीन के वाहिद 
(एकमात्र) मुस्तनद एडीशन के तौर पर कियामत तक के लिए कायम कर दिया। 

आज इस्लाम वाहिद दीन है जिसके मत्न (मूल रूप) में कोई तब्दीली मुमकिन न हो सकी 
जबकि दूसरे तमाम अदयान (धर्म) इंसानी तहरीफात (संशोधनों) का शिकार होकर अपनी 
असली तस्वीर गुम कर चुके हैं। इस्लाम वाहिद दीन है जो तारीख़ी तौर पर मोतबर दीन है 
जबकि दूसरे तमाम अदयान (धर्म) अपने हक में तरीख़ी एतबारियत खो चुके हैं। इस्लाम 
वाहिद दीन है जिसकी तमाम तालीमात एक जिदा जबान में पाई जाती हैं जबकि दूसरे तमाम 
अदयान इब्तिदाई किताबें ऐसी जबानों में हैं जो अब मुर्दा हो चुकी हैं। इस्लाम की सूरत में 
ख़ुदा ने मजहब की जो रोशनी जलाई वह कभी हल्की नहीं हुई और न बुझाई जा सकी। वह 








पारा 70 496 सूरह-9. अत-तौबह 


कामिल तौर पर दुनिया के सामने मौजूद है और हर दूसरे दीन के ऊपर अपनी उसूली बरतरी 
को मुसलसल कायम रखे हुए है। 


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के माल बातिल (अवैध) तरीकों से खाते हैं और लोगों को अल्लाह के रास्ते से रोकते 
हैं और जो लोग सोना और चांदी जमा करके रखते हैं और उन्हें अल्लाह की राह में ख़र्च 
नहीं करते उन्हें एक दर्दनाक अजाब की खुशख़बरी दे दो। उस दिन इस माल पर दोजख़ 
की आग दहकाई जाएगी। फिर उससे उनकी पेशानियां और उनके पहलू और उनकी 


पीठें दागी जाएंगी। यही है वह जिसे तुमने अपने वास्ते जमा किया था। पस अब चखो 
जो तुम जमा करते रहे। (३4-35) 





दूसरे का माल लेने का एक तरीका यह है कि उसे हक के मुताबिक लिया जाए। यानी 
आदमी दूसरे की कोई वाकई ख़िदमत करे या उसे कोई हकीकी नफा पहुंचाए और इसके 
बदले में उसका माल हासिल करे। यह बिल्कुल जाइज है। बातिल तरीके से दूसरे का माल 
लेना यह है कि दूसरे को धोखे में डाल कर उसका माल हासिल किया जाए। यह दूसरा तरीका 
नाजाइज है और खुदा के गजब को भड़काने वाला है। 

बातिल तरीके से दूसरे का माल खाना वही चीज है जिसे मौजूदा जमाने में इस्तगलाल 
(Expl0itati0n) कहा जाता है। यहूद के अकाबिर बहुत बड़े पैमाने पर अपने अवाम का 
मजहबी इस्तगलाल (शोषण) कर रहे थे। वे अवाम में ऐसी झूठी कहानियां फैलाए हुए थे 
जिसके नतीजे में लोग बुजुर्गों से गैर मामूली उम्मीदें वाबस्ता करें और फिर उन्हें बुजुर्ग समझ 
कर उनकी बरकत लेने के लिए आएं और उन्हें हदिये और नजराने पेश करें। वे खुदा के दीन 
की ख़िदमत के नाम पर लोगों से रकमें वसूल करते थे हालांकि जो दीन वे लोगों के दर्मियान 
तक्सीम कर रहे थे वह उनका अपना बनाया हुआ दीन था न कि हकीकतन खुदा का उतारा 
दीन। वे मिल्लते यहूद के इहया (उत्थान) के नाम पर बड़े-बड़े चन्दे वसूल करते थे हालांकि 
मिल्लत के इहया के नाम पर वे जो कुछ कर रहे थे वह सिफ यह था कि लोगों को 
खुशख्यालियों में उलझा कर उन्हें अपनी कयादत (नेतृत्व) के लिए इस्तेमाल करते रहें। वे 
तावीज गडे में रहस्य भरे औसाफ बता कर उन्हें लोगों के हाथों फरोख़न करते थे। हालांकि 
उनका हाल यह था कि ख़ुद अपने नाजुक मामलात में वे कभी इन तावीज गंडों पर भरोसा 
नहीं करते थे। 


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सूरह-9. अत-तोबह 497 पारा 70 


आदमी के पास जो माल आता है उसके दो ही जायज मसरफ (उपयोग) हैं। अपनी वाकई 
जरूरतों में खर्च करना, और जो कुछ वाकई जरूरत से जायद हो उसे खुदा के रास्ते में दे देना । 
इसके अलावा जो तरीके हैं वे सब आदमी के लिए अजाब बनने वाले हैं। चाहे वह अपने माल 
को फुजूलखर्चियों में उड़ाता हो या उसे जमा करके रख रहा हो। 

जो लोग यहूद की तरह ख़ुदसाख़्ता मजहब की बुनियाद पर किसी गिरोह के ऊपर अपनी 
कयादत कायम किए हुए हों और ख़ुदा के दीन के नाम पर लोगों का शोषण कर रहे हों वे 
किसी ऐसी दावत को सख्त नापसंद करते हैं जो ख़ुदा के सच्चे और बेआमेज (विशुद्ध) दीन 
को जिंदा करना चाहती हो। ऐसे दीन में उन्हें अपनी मजहबी हैसियत बेएतबार होती नजर 
आती है। उन्हें दिखाई देता है कि अगर उसे अवाम में फरोग हासिल हुआ तो उनकी मजहबी 
तिजारत बिल्कुल बेनकाब होकर लोगों के सामने आ जाएगी। वे ऐसी तहरीक के उठते ही उसे 
सूंघ लेते हैं और उसके मुखालिफ बनकर खड़े हो जाते हैं। 

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महीनों की गिनती अल्लाह के नजदीक बारह महीने हैं अल्लाह की किताब में जिस दिन 

से उसने आसमानों और जमीन को पैदा किया, इनमें से चार हुरमत (गरिमा) वाले हैं। 
यही है सीधा दीन। पस उनमें तुम अपने ऊपर जुल्म न करो। और मुश्रिकों से सब 
मिलकर लड़ो जिस तरह वे सब मिलकर तुमसे लड़ते हैं और जान लो कि अल्लाह 
मुत्तकियों (ईश परायण लोगे) के साथ है। महीनों का हटा देना कुफ़् में एक इजाफा 

है। इससे कुफ्र करने वाले गुमराही में पड़ते हैं। वे किसी साल हराम महीने को हलाल 
कर लेते हैं और किसी साल उसे हराम कर देते हैं ताकि ख़ुदा के हराम किए हुए की 
गिनती पूरी करके उसके हराम किए हुए को हलाल कर लें। उनके बुरे आमाल उनके 
लिए खुशनुमा बना दिए गए हैं। और अल्लाह इंकार करने वालों को रास्ता नहीं 
दिखाता। (36-37) 





दीनी अहकाम पर हर शख्स अलग-अलग भी अमल कर सकता है। मगर अल्लाह 
तआला को यह मत्लूब है कि तमाम अहले ईमान एक साथ उन पर अमल करें ताकि उनमें 
इज्तिमाइयत (सामूहिकता) पैदा हो। इसी इज्तिमाइयत के मकसद को हासिल करने की ख़ातिर 


पारा 0 498 सूरह-9. अत-तौबह 


इबादात की अदायगी के लिए मुतअय्यन औकात और तारीखें मुकर की गई हैं। ये तारीख़ें अगर 
शमसी केलेन्डर के एतबार से रखी जातीं तो इनके जमाने में यकसानियत (समरूपता) आ जाती। 
मसलन रोजा हमेशा एक मौसम में आता और हज हमेशा एक मौसम में | मगर यकसानियत 
आदमी के अंदर जुमूद (जड़ता) पैदा करती है और तब्दीली से नई कुव्वते अमल बेदार होती 
है। इस बिना पर दीनी उमूर के इज्तिमाई निजाम के लिए चांद का कुदरती केलेन्डर इख्तियार 
किया गया। 

इसी उसूल की वजह से हज की तारीखे मुख़्लिफ मौसमों में आती हैं, कभी सर्दियों में 
और कभी गर्मियों में। कदीम जमाने में जबकि हज का इज्तिमा जबरदस्त तिजारती अहमियत 
रखता था, मुख्तलिफ मौसमों में हज का आना तिजारती एतबार से नुक्सानदेह मालूम हुआ। 
अहले अरब को दीनी मस्लेहतों के मुकाबले में दुनियावी मस्लेहतें ज्यादा अहम नजर आई। 
उन्होंने चाहा कि ऐसी सूरत इख्तियार करें कि हज की तारीख़ हमेशा एक ही मुवाफिक मौसम 
में पड़े। इस मौके पर यहूद व नसारा का कबीसा का हिसाब उनके इलम में आया। अपनी 
ख़्वाहिशों के ऐन मुताबिक होने की वजह से वह उन्हें पसंद आ गया और उन्होंने उसे अपने 
यहां राइज कर लिया। यानी महीनों को हटाकर एक की जगह दूसरे को रख देना। मसलन 
मुहरम को सफर की जगह कर देना और सफर को मुहर्रम की जगह। 

'नसी' के इस तरीके से अहले अरब को दो फायदे हुए। एक यह कि हज के मौसम को 
तिजारती तकजे के मुताबिक कर लेना । दूसरे यह कि हराम महीनों (मुहरम, रजब, जीकअदा, 
जिलहिज्ज) में किसी के खिलाफ लड़ाई छेड़ना हो तो हराम महीने की जगह गैर हराम महीना 
रखकर लड़ाई को जाइज कर लेना। अहले अरब के सामने हजरत इब्राहीम का तरीका भी था। 
मगर उनके जेहन पर चूके तिजारती मकसिद और कबाइली तकाजोंका गलबा था। इसलिए 
उन्हें 'नसी' का तरीका ज्यादा अच्छा मालूम हुआ और उन्होंने अपने मामलात के लिए उसे 
इख्तियार कर लिया। 

'तुम भी मिलकर लड़ी जिस तरह वे मिलकर लड़ते हैं! इसका मतलब यह है कि मुंकिर 
लोग खुदा से बेख़ीफी पर मुत्तहिद हो जाते हैं, तुम खुदा से खौफ (तकवा) पर मुत्तहिद हो 
जाओ। वे मंफी (नकारात्मक) मकासिद के लिए बाहम जुड़ जाते हैं तुम मुसबत (सकारात्मक) 
मकासिद के लिए आपस में जुड़ जाओ। वे दुनिया के खातिर एक हो जाते हैं तुम आख़िरत 
की खातिर एक हो जाओ। 


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सूरह-9. अत-तौबह 499 पारा 70 


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ऐ ईमान वालो, तुम्हें क्या हो गया है कि जब तुमसे कहा जाता है कि अल्लाह की राह 
में निकलो तो तुम जमीन से लगे जाते हो। क्या तुम आख़िरत (परलोक) के मुकाबले 
में दुनिया की जिंदगी पर राजी हो गए। आखिरत के मुकाबले में ट्रनिया की जिंदगी 
का सामान तो बहुत थोड़ा है। अगर तुम न निकलोगे तो खुदा तुम्हें दर्दनाक सजा देगा 
और तुम्हारी जगह दूसरी कौम ले आएगा और तुम ख़ुदा का कुछ भी न बिगाड़ सकोगे। 
और खुदा हर चीज पर कादिर है। अगर तुम रसूल की मदद न करोगे तो अल्लाह खुद 
उसकी मदद कर चुका है जबकि मुंकिरों ने उसे निकाल दिया था, वह सिर्फ दो में का 
दूसरा था। जब वे दोनों ग़ार में थे। जब वह अपने साथी से कह रहा था कि ग़म न 
करो, अल्लाह हमारे साथ है। पस अल्लाह ने उस पर अपनी सकीनत (शांति) नाजिल 
फरमाई और उसकी मदद ऐसे लश्करों से की जो तुम्हें नजर न आते थे और अल्लाह 
ने मुंकिरों की बात नीची कर दी और अल्लाह ही की बात तो ऊंची है और अल्लाह 
जबरदस्त है हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। (38-40) 





ये आयतें गजवा तबूक (9 हिजरी) के जेल (प्रसंग) में उतरीं। इस मौके पर मदीने के 
मुनाफिम्ीन की तरफ से जो अमल जहिर हुआ उससे अंदाज होता हैकि कमजेर ईमान वाले 
लोग जब किसी इस्लामी समाज में दाखिल हो जाते हैं तो नाजुक मौके पर उनका किरदार क्या 
होता है। 

अस्ल यह है कि इस्लाम से तअल्लुक के दो दर्जे हैं। एक यह कि उसी से आदमी की तमाम 
वफादारियां वाबस्ता हो जाएं। वह आदमी के लिए जिंदगी व मौत का मसला बन जाए। दूसरे 
यह कि आदमी की हकीकी दिलचस्पियां तो कहीं और अटकी हुई हों और ऊपरी तौर पर वह 
इस्लाम का इकरार कर ले। पहली किस्म के लोग सच्चे मोमिन हैं और दूसरी किस्म के लोग वे 
हैं जिन्हें शरीअत की इस्तिलाह में मुनाफिक कहा गया है। मोमिन का हाल यह होता है कि आम 
हालात में भी वह इस्लाम को पकड़े हुए होता है और कुर्बानी के लम्हात में भी वह पूरी तरह उस 
पर कायम रहता है। इसके बरअक्स मुनाफिक का हाल यह होता है कि वह बेजरर (अहानिकारक) 
इस्लाम या नुमाइशी दीनदारी में तो बहुत आगे दिखाई देता है। मगर जब कुर्बानी को सतह पर 
इस्लाम के तकाजों को इख्तियार करना हो तो वह पीछे हट जाता है। 

इस फर्क की वजह यह है कि मोमिन के सामने अस्लन आहिरत होती है और मुनाफिक 
के सामने अस्लन दुनिया। मोमिन आखिरत की बेपायां (असीम) नेमतों के मुकाबले में दुनिया 
की कोई कीमत नहीं समझता, इसलिए जब भी दुनिया की चीजों में से कोई चीज उसके रास्ते 
में हायल हो तो वह उसे नजरअंदाज करके दीन की तरफ बढ़ जाता है। इसके बरअक्स 
मुनाफिक ऐसे इस्लाम को पसंद करता है जिसमें दुनिया को बिगाड़े बगैर इस्लामियत का 
क्रेडिट मिल रहा हो । इसलिए जब ऐसा मौका आता है कि दुनिया को खोकर इस्लाम को पाना 
हो तो वह दुनिया की तरफ झुक जाता है, चाहे इसके नतीजे में इस्लाम की रस्सी उसके हाथ 
से निकल जाए। 


पारा 70 500 सूरह-9. अत-तौबह 


इस्लाम और गैर इस्लाम की कशमकश के जो लम्हात मौजूदा दुनिया में आते हैं वे बजाहिर 
देखने वालों को अगरचे दो इंसानी गिरोहों की कशमकश दिखाई देती है मगर अपनी हकीकत 
के एतबार से यह एक खुदाई मामला होता है। ऐसे हर मौके पर ख़ुद खुदा इस्लाम की तरफ 
से खड़ा होता है। ऐसे किसी वाकये को असबाब के रूप में इसलिए जाहिर किया जाता है ताकि 
उन लोगों को दीन की ख़िदमत का क्रेडिट दिया जाए जो अपने आपको पूरी तरह ख़ुदा के हवाले 
कर चुके हैं। 


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हल्के और बोझल और अपने माल और अपनी जान से अल्लाह की राह में जिहाद करो, यह 
तुम्हारे लिए बेहतर है अगर तुम जानो। अगर नफा करीब होता और सफर हल्का होता तो 

वे जरूर तुम्हारे पीछे हो लेते मगर यह मंजिल उन पर कठिन हो गई। अब वे कसमें खाएंगे कि 

अगर हमसे हो सकता तो हम जरूर तुम्हारे साथ चलते। वे अपने आपको हलाकत में डाल 

रहे हैं। और अल्लाह जानता है कि ये लोग यकीनन झूठे हैं। (47-42) 


मदीना के मुनाफिकीन में एक तबका वह था जो कमजेर अकीदे के मुसलमान थे। 
उन्होंने इस्लाम को हक समझ कर उसका इकरार किया था। वे इस्लाम की उन तमाम 
तालीमात पर अमल करते थे जो उनकी दुनियावी मस्लेहतों के खिलाफ न हों। मगर जब 
इस्लाम का तज उनके दुनियावी तकर्जेसे टकराता तो ऐसे मैक्के पर वे इस्लामी तकजे 
को छोड़कर अपने दुनियावी तकाजे को पकड़ लेते। मदीने के समाज में मोमिन उस शख्स का 
नाम था जो कुर्बानी की सतह पर इस्लाम को इख़्तियार किए हुए हो और मुनाफिक वह था 
जो इस्लाम की ख़ातिर कुर्बानी की हद तक जाने के लिए तैयार न हो। 

तबूक का मामला एक अलामती (प्रतीकात्मक) तस्वीर है जिससे मालूम होता है कि ख़ुदा 
की नजर में मोमिन कौन होता है और मुनाफिक कौन। इस मौके पर रूम जैसी बै और 
मुनप्जम ताकत से मुक्रबले के लिए निकलना था । जमाना शदीद गर्मी का था । फसल बिल्कुल 
कारने के करीब पहुंच चुकी थी। हर किस्म की नासाजगारी का मुकाबला करते हुए शाम की 
दूरदराज सरहद पर पहुंचना था। फिर मुसलमानों में कुछ सामान वाले थे और कुछ बेसामान 
वाले। कुछ आजाद थे और कुछ अपने हालात में घिरे हुए थे। मगर हुक्म हुआ कि हर हाल 
में निकलो, किसी भी चीज को अपने लिए उज़ (विवशता) न बनाओ। इसकी वजह यह है 
कि ख़ुदा के यहां असल मसला मिक्दार का नहीं होता बल्कि यह होता है कि आदमी के पास 
जो कुछ भी है वह उसे पेश कर दे। यही दरअस्ल जन्नत की कीमत है, चाहे वह बजाहिर 
देखने वालों के नजदीक कितनी ही कम क्यों न हो। 


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सूरह-9. अत-तोबह 50l पारा 70 


मुनाफिक़् की खस पहचान यह है कि अगर वह देखता है कि वेमशक्‍्कत सफर करके 
इस्लाम की ख़िदमत का एक बड़ा क्रेडिट मिल रहा है तो वह फौरन ऐसे सफर के लिए तैयार 
हो जाता है। इसके बरअक्स अगर ऐसा सफर दरपेश हो जिसमें मशवकतें हों और सब कुछ 
करके भी बजाहिर कोई इज्जत और कामयाबी मिलने वाली न हो तो ऐसी दीनी मुहिम के लिए 
उसके अंदर राबत पैदा नहीं होती। 

एक हकीकी दीनी मुहिम सामने हो और आदमी उजरात (विवशताए) पेश करके उससे 
अलग रहना चाहे तो यह साफ तौर पर इस बात का सुबूत है कि आदमी ने ख़ुदा के दीन को 
अपनी जिंदगी में सबसे ऊंचा मकाम नहीं दिया है। उज़ (विवशता) पेश करने का मत्लब ही 
यह है कि पेशेनजर मवसद के मुकबले मे कोई और चीज आदमी के नजदीक ज्यादा 
अहमियत रखती है। जाहिर है कि ऐसा उज़ किसी आदमी को खुदा की नजर में बेएतबार 
साबित करने वाला है न यह कि इसकी बिना पर उसे मकबूलीन (प्रिय बंदों) की फेहरिस्त में 
शामिल किया जाए। मुनाफिकत दरअस्ल खुदा से बेपरवाह होकर बंदों की परवाह करना है। 
आदमी अगर ख़ुदा की कुदरत को जान ले तो वह कभी ऐसा न करे। 


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अल्लाह तुम्हें माफ करे, तुमने क्यों उन्हें इजाजत दे दी। यहां तक कि तुम पर खुल जाता 

कि कौन लोग सच्चे हैं और झूठों को भी तुम जान लेते। जो लोग अल्लाह पर और 
आखिरत के दिन पर ईमान रखते हैं वे कभी तुमसे यह दरख्यास्त न करेंगे कि वे अपने 
माल और अपनी जान से जिहाद न करें और अल्लाह डरने वालों को ख़ूब जानता है। 
तुमसे इजाजत तो वही लोग मांगते हैं जो अल्लाह पर और आख़िरत के दिन पर ईमान 
नहीं रखते और उनके दिल शक में पड़े हुए हैं। पस वे अपने शक में भटक रहे हैं। और 
अगर वे निकलना चाहते तो जरूर वे इसका कुछ सामान कर लेते। मगर अल्लाह ने 
उनका उठना पसंद न किया इसलिए उन्हें जमा रहने दिया और कह दिया गया कि बैठने 
वालों के साथ बैठे रहो। (43-46) 








मुनाफिक वह है जो इस्लाम के नफाबर्श या बेजरर (अहानिकारक) पहलुओं में आगे 
आगे रहे मगर जब उसके मफादात पर जद पड़ती नजर आए तो वह पीछे हट जाए। ऐसे 


पारा 70 502 सूरह-9. अत-तौबह 


मौक्रो पर इस किस्म के कमजोर लोग जिस चीज का सहारा लेते हैं वह उज़ है। वे अपनी 
बेअमली को ख़ूबसूरत तौजीहात (तर्को) में छुपाने की कोशिश करते हैं। मुसलमानों का 
सरबराह अगर इज्तिमाई मसालेह (जनहित) के पेशेनजर उनके उज़ को कुबूल कर ले तो वे 
खुश होते हैं कि उन्होंने अपने अल्फाज के पर्दे में निहायत कामयाबी के साथ अपनी बेअमली 
को छुपा लिया। मगर वे भूल जाते हैं कि असल मामला इंसान से नहीं बल्कि ख़ुदा से है। और 
वह हर आदमी की हकीकत को अच्छी तरह जानता है। खुदा ऐसे लोगों का राज कभी दुनिया 
में खोल देता है और आख़िरत में तो बहरहाल हर एक का राज खोला जाने वाला है। 

किसी का लड़का बीमार हो या किसी की लड़की की शादी हो तो उस वक्त वह अपने 
आपको और अपने माल को उससे बचाकर नहीं रखता। उसकी जिंदगी और उसका माल तो 
इसीलिए है कि ऐसा कोई मौका आए तो वह अपना सब कुछ निसार करके उनके काम आ 
सके। ऐसा कोई वकत उसके लिए बढ़कर कुर्बानी देने का होता है न कि उजरात की आड़ 
तलाश करने का। यही मामला दीन का भी है। जो शख्स अपने दीन में संजीदा हो वह दीन 
के लिए कुर्बानी का मौका आने पर कभी उज़ (विवशता) तलाश नहीं करेगा । उसके सीने में 
जो ईमानी जज्वात बेकरार थे वे तो गोया उसी दिन के इंतिजार में थे कि जब कोई मौका आए 
तो वह अपने आपको निसार करके ख़ुदा की नजर में अपने को वफादार साबित कर सके। 
फिर ऐसा मौका पेश आने पर वह उज़ का सहारा क्यों ढूंढेगा। 

मोमिन खुदा से डरने वाला होता है और डर का जज्बा आदमी के अंदर सबसे ज्यादा 
कवी (सशक्त) जज्चा है। डर का जज्बा दूसरे तमाम जज्बात पर गालिब आ जाता है। जिस 
चीज से आदमी को डर और अंदेशे का तअल्लुक हो उसके बारे में वह आखिरी हद तक 
संजीदा और हकीकतपसंद हो जाता है। यही वजह है कि जब कोई शख्स डर की सतह पर 
खुदा का मोमिन बन जाए तो उसे यह समझने में देर नहीं लगती कि किस मौके पर उसे किस 
किस्म का रद्देअमल (प्रतिक्रिया) पेश करना चाहिए। 

आखिरत का नफा सामने न होने की वजह से आदमी उसके लिए कुर्बानी देने में शक 
में पड़ जाता है। मगर इस शक के पर्दे को फाड़ना ही इस दुनिया में आदमी का अस्ल इम्तेहान 


है। 

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अगर ये लोग तुम्हारे साथ निकलते तो वे तुम्हारे लिए ख़राबी ही बढ़ाने का सबब बनते 
और वे तुम्हारे दर्मियान फितनापरदाजी (उपद्रव) के लिए दौडधूप करते और तुम में 
उनकी सुनने वाले हैं और अल्लाह जालिमां से खूब वाकिफ है। ये पहले भी फितने 

(उपद्रव) की कोशिश कर चुके हैं और वे तुम्हारे लिए कामों का उलट फेर करते रहे हैं। 





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सूरह-9. अत-तौबह 503 पारा 70 


यहां तक कि हक आ गया और अल्लाह का हुक्म जाहिर हो गया और वे नाखुश ही 
रहे। (47-48) 





दीन को इख़्तियार करना एक मुख्तिसाना होता है और दूसरा मुनाफिकाना । मुख्लिसाना 
तौर पर दीन को इख्तियार करना यह है कि दीन के मसले को आदमी अपना मसला बनाए, 
अपनी जिंदगी और अपने माल पर वह सबसे ज्यादा दीन का हक समझे। इसके बरअक्स 
मुनाफिकाना तौर पर दीन को इश््ियार करना यह है कि दीन से बस रस्मी और जाहिरी 
तअल्लुक रखा जाए। दीन को आदमी अपनी जिंदगी में यह मकाम न दे कि उसके लिए वह 
वफ हो जाए और हर किस्म के नुक्सान का ख़तरा मोल लेकर उसकी राह में आगे बढ़े। 

अपनी गलती को मानना अपने को दूसरे के मुकाबले में कमतर तस्लीम करना है और 
इस किस्म का एतराफ किसी आदमी के लिए मुश्किलतरीन काम है। यही वजह है कि आदमी 
हमेशा इस कोशिश में रहता है कि किसी न किसी तरह अपने मौकिफ को सही साबित कर 
दे। चुनांचे मुनाफिकाना तौर पर इस्लाम को इख्तियार करने वाले हमेशा इस तलाश में रहते 
हैं कि कोई मौका मिले तो मुख्लिस मोमिनों को मत्ऊन करें और उनके मुकाबले में अपने 
आपको ज्यादा दुरुस्त साबित कर सकें। 

मदीने के मुनाफिकीन मुसलसल इस कोशिश में रहते थे। मसलन उहुद की लड़ाई में 
मुसलमानों को शिकस्त हुई तो मदीना में बैठे रहने वाले मुनाफिकीन (पाखंडियों) ने रसूलुल्लाह 
सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के खिलाफ यह प्रोपेगंडा शुरू कर दिया कि इन्हें मामलाते जंग 
का तजर्बा नहीं है। इन्होंने जोश के तहत इक्दाम किया और हमारी कौम के जवानों को गलत 
मकाम पर ले जाकर रख्रामख्याह कटवा दिया । 

इंसानों में कम लोग ऐसे होते हैं जो मसाइल का गहरा तज्जिया (विश्लेषण) कर सकें 
और उस हकीकत को जानंकि किसी बात का क्माइदे जबान के एतबार से सही अल्फज 
में ढल जाना इसका काफी सुबूत नहीं है कि वह बात मअना के एतबार से भी सही होगी। 
बेशतर लोग सादा फिक्र के होते हैं और कोई बात खूबसूरत अल्फाज में कही जाए तो बहुत 
जल्द उससे मुतअस्सिर हो जाते हैं। इस बिना पर किसी मुस्लिम गिरोह में मुनाफिक किस्म 
के अफराद की मौजूदगी हमेशा उस गिरोह की कमजोरी का बाइस होती है। ये लोग अपने 
को दुरुस्त साबित करने की कोशिश में अक्सर ऐसा करते हैं कि बातों को ग़लत रुख़ देकर 
उन्हें अपने मुफीदे मतलब रंग में बयान करते हैं। इससे सादा फिक्र (सोच) के लोग मुतअस्सिर 
हो जाते हैं और उनके अंदर गैर जरूरी तौर पर शुबह और बेयकीनी की कैफियत पैदा होने 
लगती है। 

मुनाफिकीन की मुखालिफाना कोशिशों के बावजूद जब बद्र की फतह हुई तो अब्दुल्लाह 
बिन उबई और उसके साथियों ने कहा : 'यह चीज तो अब चल निकली? इस्लाम का ग़लबा 
जाहिर होने के बाद उन्हें इस्लाम की सदाकत (सच्चाई) पर यकीन करना चाहिए था मगर उस 
वक्त भी उन्होंने उससे हसद की गिजा ली। 





पारा 0 504 सूरह-9. अत-तौबह 


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और उनमें वे भी हैं जो कहते हैं कि मुझे रुख़सत दे दीजिए और मुझे फितने में न 
डालिए। सुन लो, वे तो फितने में पड़ चुके। और बेशक जहन्नम मुंकिरों को घेरे हुए 
है। अगर तुम्हें कोई अच्छाई पेश आती है तो उन्हें दुख होता है और अगर तुम्हें कोई 
मुसीबत पहुंचती है तो कहते हैं हमने पहले ही अपना बचाव कर लिया था और वे खुश 
होकर लौटते हैं। कहो, हमें सिर्फ वही चीज पहुंचेगी जो अल्लाह ने हमारे लिए लिख 
दी है। वह हमारा कारसाज (कार्य साधक) है और अहले ईमान को अल्लाह ही पर 
भरोसा करना चाहिए। कहो तुम हमारे लिए सिर्फ दो भलाइयों में से एक भलाई के 
मुंतजिर हो। मगर हम तुम्हारे हक में इसके मुंतजिर हैं कि अल्लाह तुम पर अजाब भेजे 
अपनी तरफ से या हमारे हाथों से। पस तुम इंतिजार करो हम भी तुम्हारे साथ इंतिजार 
करने वालों में हैं। (49-52) 


मदीने में एक शख्स जुद बिन कैस था । तबूक के गजवे में निकलने के लिए आम एलान हुआ 
तो उसने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आकर कहा कि मुझे इस गजवे से माफ 
रखिए । यह रूमी इलाका है। वहां रूमी औरतों को देखकर मैं फितने में पड़ जाऊंगा, मगर ऐसे मौकों 
पर उज़ (विवशता) पेश करना बजाए खुद फिलने में पड़ना है। क्योंकि नाजुक मौकों पर आदमी 
के अंदर दीन के ख़ातिर फिदा हो जाने का जज्बा भड़कना चाहिए न कि उजरात (विवशताएं) तलाश 
करके पीछे रह जाने का । फिर ऐसे किसी उज़ को दीनी और अख़्लाकी रंग देना और भी ज्यादा 
बुरा है। क्योंकि यह बेअमली पर फरेबकारी का इजाफ है। 

इस किस्म का मिजाज हकीकत में आदमी के अंदर इसलिए पेदा होता है कि वह अपनी 
दुनिया को आख़िरत के मुकाबले में अजीजतर रखता है। ख़तरात के मौके पर ऐसे लोग दीन 
की राह मे आगे बढ़ने से रुके रहते हैं। फिर जब सच्चे हकपरस्तों को उनकी गैर मस्लेहत 
अंदेशाना (निस्वार्थ) दीनदारी की वजह से कभी कोई नुक्सान पहुंच जाता है तो ये लोग ख़ुश 
होते हैं कि बहुत अच्छा हुआ कि हमने अपने लिए हिफाजती पहलू इख्तियार कर लिया था। 
इसके बरअक्स अगर ऐसा हो कि सच्चे हकपरस्त ख़तरात का मुकाबला करें और उसमें उन्हें 


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सूरह-9. अत-तोबह 505 पारा 0 


कामयाबी हो तो इन लोगों के दिल तंग होते हैं। क्योंकि ऐसा कोई वाकया यह साबित करता 
है कि उन्होंने जो पॉलिसी इख्तियार की वह दुरुस्त न थी। 

सच्चे अहले ईमान के लिए इस दुनिया में नाकामी का सवाल नहीं। उनको कामयाबी यह 
है कि ख़ुदा उनसे राजी हो और यह हर हाल में उन्हें हासिल होता है। मोमिन पर अगर कोई 
मुसीबत आती है तो वह उसके दिल की इनाबत (ख़ुदा की तरफ झुकाव) को बढ़ाती है। अगर 
उसे कोई सुख मिलता है तो उसके अंदर एहसानमंदी का जज्बा उभरता है और वह शुक्र करके 
ख़ुदा की मजीद इनायतों का मुस्तहिक बनता है। 

“तुम इंतिजार करो हम भी इंतिजार कर रहे हैं बजाहिर मेमिनीन का कलिमा है। मगर 
हकीकतन यह खा की तरफ से है। खुदा उन लोगों से तंबीही अंदाज में कह रहा है कि तुम लोग 
अहले हक की बर्बरी के मुजिर हे हालाकि रुद्रा के तक्दीरी निजम के मुताबिक उन्हें अबदी 
कामयाबी मिलने वाली है। और तुम्हारे साथ जो होना है वह यह कि तुम्हारे जुर्म को आखिरी हद 
तक साबित करके तुम्हें दाइमी (स्थाई) तौर पर रुस्वाई और अजाब के हवाले कर दिया जाए। 


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कहो तुम खुशी से ख़र्च करो या नाखुशी से, तुमसे हरगिज न कुबूल किया जाएगा। 
बेशक तुम नाफरमान लोग हो। और वे अपने खर्च की वुब्रलियत से सिर्फ इसलिए 
महरूम हुए कि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल का इंकार किया और ये लोग नमाज 
के लिए आते हैं तो गरानी (बेदिली) के साथ आते हैं और खर्च करते हैं तो नागवारी 
के साथ। तुम उनके माल और ओलाद को कुछ वकअत (महत्व) न दो। अल्लाह तो 
यह चाहता है कि उनके जरिए से उन्हें दुनिया की जिंदगी में अजाब दे और उनकी जाने 
इस हालत में निकलें कि वे मुंकिर हों। वे खुदा की कसम खाकर कहते हैं कि वे तुम 
में से हैं हालांकि वे तुम में से नहीं। बल्कि वे ऐसे लोग हैं जो तुमसे डरते हैं। अगर 


वे कोई पनाह की जगह पाएं या कोई खोह या घुस बैठने की जगह तो वे भाग कर 
उसमें जा छुपें। (53-57) 








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पारा 70 506 सूरह-9. अत-तौबह 





मदीने में यह सूरत पेश आई कि उमूमी तौर पर लोगों ने इस्लाम कुबूल कर लिया। उनमें 
अक्सरियत मुख्तिस अहले ईमान की थी ताहम एक तादाद वह थी जिसने वकत की फजा का 
साथ देते हुए अगरचे इस्लाम कुबूल कर लिया था लेकिन उसके अंदर वह सुपुर्दगी पैदा नहीं 
हुई थी जो हकीकी ईमान और अल्लाह से सच्चे तअल्लुक का तकाज है। यही वे लोग हैं 
जिन्हे मुनाफिकीन (पाखंडी) कहा जाता है। 

ये मुनाफिकीन ज्यादातर मदीने के मालदार लोग थे और यही मालदारी उनके निफ़क 
(पाखंड) का अस्ल सबब थी। जिसके पास खोने के लिए कुछ न हो वह ज्यादा आसानी के 
साथ उस इस्लाम को इख्तियार करने के लिए तैयार हो जाता है जिसमें अपना सब कुछ खो 
देना पड़े। मगर जिन लोगों के पास खोने के लिए हो वे आम तौर पर मस्लेहतअंदेशी में 
मुब्तिला हो जाते हैं। इस्लाम के बेजरर (अहानिकारक) अहकाम की तामील तो वे किसी न 
किसी तरह कर लेते हैं। मगर इस्लाम के जिन तकाजों को इख़्तियार करने में जान व माल 
की महरूमी दिखाई दे रही हो, जिसमें कुर्बानी की सतह पर मोमिन बनने का सवाल हो उनकी 
तरफ बढ़ने के लिए वे अपने को आमादा नहीं कर पाते। 

मगर कुर्बानी वाले इस्लाम से पीछे रहना उनके “नमाज रोजा' को भी बेकीमत कर देता 
है। मस्जिद की इबादत का बहुत गहरा तअल्लुक मस्जिद के बाहर की इबादत से है। अगर 
मस्जिद से बाहर आदमी की जिंदगी हकीकी दीन से ख़ाली हो तो मस्जिद के अंदर भी उसकी 
जिंदगी हकीकी दीन से ख़ली होगी और जाहिर है कि बेरह अमल की खुदा के नजदीक कोई 
कीमत नहीं। खुदा सच्चे अमल को कुबूल करता है न कि झूठे अमल को। 

किसी आदमी के पास दौलत की रौनकें हों और आदमियों का जत्था उसके गिर्द व पेश 
दिखाई देता हो तो आम लोग उसे रश्क (यश) की नजर से देखने लगते हैं। मगर हकीकत 
यह है कि ऐसे लोग सबसे ज्यादा बदकिस्मत लोग हैं। आम तौर पर उनका जो हाल होता है 
वह यह कि माल व जाह (सम्पन्नता) उनके लिए ऐसे बंधन बन जाते हैं कि वे ख़ुदा के दीन 
की तरफ भरपूर तौर पर न बढ़ सकें, वे खुदा को भूल कर उनमें मशगूल रहें यहां तक कि 
मौत आ जाए और बेरहमी के साथ उन्हें उनके माल व जाह से जुदा कर दे। 


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सूरह-9. अत-तौबह 507 पारा 70 


और उनमें ऐसे भी हैं जो तुम पर सदकात के बारे में ऐब लगाते हैं। अगर उसमें से उन्हें 
दे दिया जाए तो राजी रहते हैं और अगर न दिया जाए तो नाराज हो जाते हैं। क्या अच्छा 
होता कि अल्लाह और रसूल ने जो कुछ उन्हें दिया था उस पर वे राजी रहते और कहते 
कि अल्लाह हमारे लिए काफी है। अल्लाह अपने फज्ल से हमें और भी देगा और उसका 

रसूल भी, हमें तो अल्लाह ही चाहिए। सदकात (जकात) तो दरअस्ल फकीरों और 

मिस्कीनों के लिए हैं और उन कारकुनों के लिए जो सदकात के काम पर मुरकर हैं। और 
उनके लिए जिनकी तालीफे कल्ब (दिल भराई) मत्लूब है। और गर्दनों के छुड़ाने में और 

जो तावान भरें और अल्लाह के रास्ते में और मुसाफिर की इम्दाद में। यह एक फरीजा है 
अल्लाह की तरफ से और अल्लाह इल्म वाला हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। (58-60) 





यहां जकात के मसारिफ (खर्च की मदे) बताए गए हैं। ये मसारिफ कुरआन की तसरीह 


के मुताबिक आठ हैं: 
ष्फ जिनके पास कुछ न हो 

मसाकीन ; जिन्हें बक्द्र हाजत (जरूरत भर) मयस्सर न हो 

आमिलीन जो इस्लामी हुकूमत की तरफ से सदकात की वुसूली और 
उसके हिसाब किताब पर मामूर हों 

ततका जिन्हें इस्लाम की तरफ रागिब करना मकसूद हो या जो 
इस्लाम में कमजोर हों 

क्रि ५ गुलामों को आजादी दिलाने के लिए या कैदियों का फिदया 
देकर उन्हें रिहा करने के लिए 

ग़ारिमीन ४ जो करजदार हो गए होया जिनके ऊपर जमानत का भार हो 

सबीलिल्लाह : दीन की दावत और अल्लाह की राह में जिहाद की मद में 

मुपि मुसाफिर जो सफर की हालत में जरूरतमंद हो जाए चाहे 


अपने मकान पर गनी हो 

इज्तिमाई नज्म (सामूहिक) के तहत जब जकात व सदकात की तक्सीम की जाए तो 
हमेशा ऐसा होता है कि कुछ लोगों को हकतल्फी या गैर मुंसिफाना तक्सीम की शिकायत हो 
जाती है। मगर ऐसी शिकायत अक्सर ख़ुद शिकायत करने वाले की कमजोरी को जाहिर 
करती है। तक्सीम का जिम्मेदार चाहे कितना ही पाकबाज हो, लोगों की हिर्स और उनका 
महदूद तज फिक्र बहरहाल इस किस्म की शिकायतें निकाल लेगा। 

मजीद यह कि इस किस्म की शिकायत सबसे ज्यादा आदमी के अपने खिलाफ पड़ती 
है, वह आदमी के फिक्री (वैचारिक) इम्कानात को बरूऐकार लाने में रुकावट बन जाती है। 
आदमी अगर शिकायती मिजाज को छोड़कर ऐसा करे कि उसे जो कुछ मिला है उस पर वह 
राजी हो जाए और वह अपनी सोच का रुख़ अल्लाह की तरफ कर ले तो इसके बाद यह होगा 
कि उसके अंदर नई हिम्मत पैदा होगी। उसके अंदर छुपी हुई ईजाबी (सकारात्मक) सलाहियतें 
जाग उठेंगी । वह मिली हुई रकम को ज्यादा कारआमद मसरफ में लगाएगा । अतियात पर इंहिसार 


पारा 70 508 सूरह-9. अत-तौबह 


करने के बजाए उसके अंदर अपने आप पर एतमाद करने का जेहन उभरेगा। वह ख़ुदा के 
भरोसा पर नए इक्तेसादी (आर्थिक) मौकों की तलाश करने लगेगा। दूसरों से बेजारी के बजाए 
दूसरों को साथी बनाकर काम करने का जज्वा उसके अंदर पैदा होगा, वगैरह । 

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और उनमें वे लोग भी हैं जो नबी को दुख देते हैं और कहते हैं कि यह शख्स तो कान 
है। कहो कि वह तुम्हारी भलाई के लिए कान है। वह अल्लाह पर ईमान रखता है और 
अहले ईमान पर एतमाद करता है और वह रहमत है उनके लिए जो तुम में अहले ईमान 
हैं। और जो लोग अल्लाह के रसूल को दुख देते हैं उनके लिए दर्दनाक सजा है। वे तुम्हारे 
सामने अल्लाह की कसमें खाते हैं ताकि तुम्हें राजी करें। हालांकि अल्लाह और उसका 
रसूल ज्यादा हकदार हैं कि वे उसे राजी करें अगर वे मोमिन हैं। क्या उन्हें मालूम नहीं 
कि जो अल्लाह और उसके रसूल की मुखालिफत (विरोध) करे उसके लिए जहन्नम की 
आग है जिसमें वह हमेशा रहेगा। यह बहुत बड़ी रुस्वाई है। (62-63) 


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मदीना के मुनाफिकीन अपनी निजी मज्िसों में इस्लामी शख्मियतों का मजाक उड़ते। 
मगर जब वे मुसलमानों के सामने आते तो कसम खाकर यकीन दिलाते कि वे इस्लाम के 
वफादार हैं। इसकी वजह यह थी कि मुसलमान मदीना में ताकतवर थे। वे मुनाफिकीन को 
नुक्सान पहुंचाने की हैसियत में थे। इसलिए मुनाफिकीन मुसलमानों से डरते थे। 
इससे मुनाफिक (पाखंडी) के किरदार का असल पहलू सामने आता है। मुनाफिक की 
दीनदारी इंसान के डर से होती है न कि खुदा के डर से। वह ऐसे मौकों पर अख्ाक व इंसाफ 
वाला बन जाता है जहां इंसान का दबाव हो या अवाम की तरफ से अंदेशा लाहिक हो। मगर 
जहां इस किस्म का ख़तरा न हो और सिर्फ खुदा का डर ही वह चीज हो जो आदमी की जबान 
को बंद करे और उसके हाथ पांव को रोके तो वहां वह बिल्कुल दूसरा इंसान होता है। अब 
वह एक ऐसा शख्स होता है जिसे न न बाअख़्ताक बनने से कोई दिलचस्पी हो और न इंसाफ 
का रवैया इख्तियार करने की कोई जरूरत । 
जो लोग मस्लेहतों में गिरफ्तार होते हैं और इस बिना पर तहपफुजात (संरक्षणों) से ऊपर 
उठकर ख़ुदा के दीन का साथ नहीं दे पाते वे आम तौर पर समाज के साहिबे हैसियत लोग 





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सूरह-9. अत-तोबह 509 पारा 70 


होते हैं। अपनी हैसियत को बाकी रखने के लिए वे उन लोगों की तस्वीर बिगाड़ने की कोशिश 
करते हैं जो सच्चे इस्लाम को लेकर उठे हैं। वे उनके ख़िलाफ झूठे प्रोपेगंडे की मुहिम चलाते 
हैं। उन्हें तरह-तरह से बदनाम करने की तदबीरें करते हैं। उनकी बातों में बेबुनियाद किस्म 
के एतराजात निकालते हैं। 

ऐसे लोग भूल जाते हैं कि यह बेहद संगीन बात है। यह अहले ईमान की मुखालिफत 
(विरोध) नहीं बल्कि खुद ख़ुदा की मुखालिफत है। यह खुदा का हरीफ बनकर खड़ा होना है। 
ऐसे लोग अगर अपनी मासूमियत साबित करने के बजाए अपनी गलती का इकरार करते और 
कम से कम दिल से इस्लाम के दाजियों के ख़ैरख्याह होते तो शायद वे माफी के काबिल 
ठहरते। मगर जिद और मुखालिफत का तरीका इख्तियार करके उन्होंने अपने को खुदा के 
दुश्मनों की फेहरिस्त में शामिल कर लिया। अब रुस्वाई और अजाब के सिवा उनका कोई 
ठिकाना नहीं। 

अल्लाह का डर आदमी के दिल को नर्म कर देता है। वह लोगों की बेबुनियाद बातों को 
भी ख़ामोशी के साथ सुन लेता है, यहां तक कि नादान लोग कहने लगें कि ये तो सादालोह 
हैं, बातों की गहराइयों को समझते ही नहीं। 


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मुनाफिकीन (पाखंडी) डरते हैं कि कहीं मुसलमानों पर ऐसी सूरह नाजिल न हो जाए 

जो उन्हें उनके दिलों के भेदों से आगाह कर दे। कहो कि तुम मजाक उड़ा लो, अल्लाह 
यकीनन उसे जाहिर कर देगा जिससे तुम डरते हो। और अगर तुम उनसे पूछो तो वे 

कहेंगे कि हम तो हंसी और दिलल्‍्लगी कर रहे थे। कहो, क्या तुम अल्लाह से और उसकी 
आयतों से और उसके रसूल से हंसी दिल्‍्लगी कर रहे थे। बहाने मत बनाओ, तुमने 


ईमान लाने के बाद कुफ्र किया है। अगर हम तुम में से एक गिरोह को माफ कर दें 
तो दूसरे गिरोह को तो जरुर सजा देंगे क्योंकि वे मुजरिम हैं। (64-66) 





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तबूक की लड़ाई के मौके पर मदीने में यह फजा थी कि जो लोग रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु 
अलैहि व सल्लम के साथ निकले वे अरबाबे अजीमत (पराक्रमी) शुमार हो रहे थे और जो 
लोग अपने घरों में बैठ रहे थे वे मुनाफिक और पस्तहिम्मत समझे जाते थे। बैठे रहने वाले 
मुनाफिकीन ने रसूल और असहाबे रसूल के अमल को कमतर जाहिर करने के लिए उनका 
मजाक उड़ाना शुरू किया । किसी ने कहा : ये कुरआन पढ़ने वाले हमें तो इसके सिवा कुछ 


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पारा 70 50 सूरह-9. अत-तौबह 


और नजर नहीं आते कि वे हम में सबसे ज्यादा भूखे हैं, हम में सबसे ज्यादा झूठे हैं और हम 
में सबसे ज्यादा बुजदिल हैं। किसी ने कहा : क्या तुम समझते हो कि रूमियों से लड़ना भी वैसा 
ही है जैसा अरबों का आपस में लड़ना | खुदा की कसम कल ये सब लोग रस्सियों में बंधे हुए 
नजर आएंगे। किसी ने कहा : ये साहब समझते हैं कि वे रूम के महल और उनके किले फतह 
करने जा रहे हैं, इनकी हालत पर अफसोस है। (तफ्सीर इब्ने कसीर) 

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को मालूम हुआ तो आपने उन लोगों को बुला 
कर पूछा। वे कहने लगे : हम तो सिर्फ हंसी खेल की बातें कर रहे थे। इसके जवाब में अल्लाह 
तआला ने फरमाया : क्या अल्लाह और उसके अहकाम और उसके रसूल के मामले में तुम 
हंसी खेल कर रहे थे। 

अल्लाह और रसूल की बात हमेशा किसी आदमी की जबान से बुलन्द होती है। यह 
आदमी अगर देखने वालों की नजर में बजाहिर मामूली हो तो वे उसका मज़ाक उड़ाने लगते 
हैं। मगर यह मज़ाक उड़ाना उस आदमी का नहीं है ख़ुद खुदा का है। जो लोग ऐसा करें वे 
सिर्फ यह साबित करते हैं कि वे खुदा के दीन के बारे में संजीदा नहीं हैं। ऐसे लोग ख़ुदा की 
नजर में सख्त मुजरिम हैं उनकी झूठी तावीलें उनकी हकीकत को छुपाने में कभी कामयाब 
नहीं हो सकतीं । 

निफाक और इरतिदाद दोनों एक ही हकीकत की दो सूरतें हैं। आदमी अगर इस्लाम 
इख्तियार करने के बाद खुल्लम खुल्ला मुंकिर हो जाए तो यह इरतिदाद है। और अगर ऐसा 
हो कि जेहन और कल्ब (दिल) के एतबार से वह इस्लाम से दूर हो मगर लोगों के सामने वह 
अपने को मुसलमान जाहिर करे तो यह निफाक (पाखंड) है, ऐसे मुनाफिकीन का अंजाम खुदा 
के यहां वही है जो मुरतदीन (इस्लाम त्यागने वालों) का है, इल्ला यह कि वे मरने से पहले 
अपनी गलतियाँ का इकरार करके अपनी इस्लाह कर लें। 


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मुनाफिक (पाखंडी) मर्द और मुनाफिक औरतें सब एक ही तरह के है। वे बुराई का हुक्म 
देते हैं और भलाई से मना करते हैं। और अपने हाथों को बंद रखते हैं। उन्होंने अल्लाह 
को भुला दिया तो अल्लाह ने भी उन्हं भुला दिया। बेशक मुनाफिकीन बहुत नाफरमान 
हैं। मुनाफिक मर्दों और मुनाफिक औरतों और मुंकिरों से अल्लाह ने जहन्नम की आग 
का वादा कर रखा है जिसमें वे हमेशा रहेंगे। यही उनके लिए बस है। उन पर अल्लाह 
की लानत है और उनके लिए कायम रहने वाला अजाब है। जिस तरह तुमसे अगले 
लोग, वे तुमसे जोर में ज्यादा थे और माल व औलाद की कसरत में तुमसे बढ़े हुए थे 
तो उन्होंने अपने हिस्से से फायदा उठाया और तुमने भी अपने हिस्से से फायदा उठाया, 
जैसा कि तुम्हारे अगलों ने अपने हिस्से से फायदा उठाया था। और तुमने भी वही बहसें 
कीं जैसी बहसें उन्होंने की थीं। यही वे लोग हैं जिनके आमाल दुनिया व आख़िरत में 
जाया हो गए और यही लोग घाटे में पड़ने वाले हैं। क्या उन्हें उन लोगों की ख़बर नहीं 
पहुंची जो इनसे पहले गुजरे। कीमे नूह और आद और समूद और कीमे इब्राहीम और 
असहाबे मदयन और उल्टी हुई बस्तियों की। उनके पास उनके रसूल दलीलों के साथ 
आए। तो ऐसा न था कि अल्लाह उन पर जुल्म करता मगर वे खुद अपनी जानों पर 
जुल्म करते रहे। (67-70) 








पहले लोगों को ख़ुदा ने जाह व माल दिया तो उन्होंने उससे फख़ और घमंड और बेहिसी 
की गिजा ली। ताहम बाद वालों ने उनके अंजाम से कोई सबक नहीं सीखा। उन्होंने भी 
दुनिया के साजोसामान से अपने लिए वही हिस्सा पसंद किया जिसे उनके पिछलों ने पसंद 
किया था। यही हर दौर में आम आदमियाँ का हाल रहा है। वे हक के तकाजों को कोई 
अहमियत नहीं देता। माल व औलाद के तकाजे ही उसके नजदीक सबसे बड़ी चीज होते हैं। 
मुनाफिक का हाल भी ब-एतबार हकीकत यही होता है। वह जहिरी तौर पर तो मुसलमानों 
जैसा नजर आता है। मगर उसके जीने की सतह वही होती है जो आम दुनियादारों की सतह होती 
है। इसका नतीजा यह होता है कि कुछ नुमाइशी आमाल को छोड़कर हकीकी जिंदगी में वह वैसा 
ही होता है जैसे आम दुनियादार हेते हैं। मुनाफिक की कल्बी दिलचस्पियां दीनदार के मुकाबले 
में दुनियादारों से ज्यादा वाबस्ता होती हैं। आख़िरत की मद में ख़र्च करने से उसका दिल तंग 
होता है मगर बेफायदा दुनियावी मशग़लों में खर्च करना हो तो वह बढ़ चढ़कर उसमें हिस्सा लेता 
है। हक का फरोग उसे पसंद नहीं आता अलबत्ता नाहक का फरोग हो तो उसे वह शैक् से 
गवारा करता है। जाहिरी दीनदारी के बावजूद वह खुदा और आख़िरत को इस तरह भूला रहता 
है जैसे उसके नजदीक खुदा और आखिरत की कोई हकीकत नहीं। 





पारा 0 5]2 सूरह-9. अत-तौबह 


ऐसे लोग अपने जाहिरी इस्लाम की बिना पर खुदा की पकड़ से बच नहीं सकते । दुनिया 
में उनके लिए लानत है और आख़िरत में उनके लिए अजाब । दुनिया में भी वे खुदा की रहमतों 
से महरूम रहेंगे और आख़िरत में भी। 

खुदा के साथ कामिल वाबस्तगी ही वह चीज है जो आदमी के अमल में कीमत पैदा 
करती है। कामिल वाबस्तगी के बगैर जो अमल किया जाए, चाहे वह बजाहिर दीनी अमल 
क्यों न हो, वह आख़िरत में उसी तरह बेकीमत करार पाएगा जैसे रूह के बगैर कोई जिस्म, 
जो जिस्म से जाहिरी मुशाबिहत के बावजूद अमलन बेकीमत होता है। 


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और मोमिन मर्द और मोमिन औरतें एक दूसरे के मददगार हैं। वे भलाई का हुक्म देते 
हैं और बुराई से रोकते हैं और नमाज कायम करते हैं और जकात अदा करते हैं और 
अल्लाह और उसके रसूल की इताअत (आज्ञापालन) करते हैं। यही लोग हैं जिन पर 
अल्लाह रहम करेगा। बेशक अल्लाह जबरदस्त है हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। 
मोमिन मर्दों और मोमिन औरतों से अल्लाह का वादा है बाग़ों का कि उनके नीचे नहरें 


जारी होंगी, उनमें वे हमेशा रहेंगे। और वादा है, सुथरे मकानों का हमेशगी के बागों 
में, और अल्लाह की रिजामंदी जो सबसे बढ़कर है। यही बड़ी कामयाबी है। (7।-72) 


मुनाफिकाना तौर पर इस्लाम से वाबस्ता रहने वाले लोगों में जो खुसूसियात होती हैं वे हैं 
आखिरत से गफलत, दुनियावी जरूरतों से दिलचस्पी, भलाई के साथ तआवुन से दूरी और 
नुमाइशी कामों की तरफ राबत । इन मुश्तरक (साझी) खुसूसियात की वजह से वे एक दूसरे से 
खूब मिले जुले रहते हैं। ये चीजें उन्हें मुश्तरक (साझी) दिलचस्पी की बातचीत का विषय देती हैं। 
इससे उन्हें एक दूसरे की मदद करने का मैदान हासिल होता है । यह उनके लिए बाहमी तअल्लुकात 
का जरिया बनता है। 

यही मामला एक और शक्ल में सच्चे अहले ईमान का होता है, उनके दिल में ख़ुदा की 
लगन लगी हुई होती है। उन्हें सबसे ज्यादा आखिरत की फिक्र होती है। वे दुनिया की चीजों से 
बतौर जरूरत तअल्लुक रखते हैं न कि बतौर मकसद । खुदा की पसंद का काम हो रहा हो तो 
उनका दिल फौरन उसकी तरफ खिंच उठता है। बुराई का काम हो तो इससे उनकी तबीअत इबा 
(इंकार) जाती है। उनकी जिंदगी और उनका असासा सबसे ज्यादा खुदा के लिए होता है न कि 








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सूरह-9. अत-तोबह 5]3 पारा 70 


अपने लिए। वे ख़ुदा की याद करने वाले और खुदा की राह में ख़र्च करने वाले होते हैं। 
अहले ईमान के ये मुशतरक (साझे) औसाफ उन्हें एक दूसरे से करीब कर देते हैं। सबकी 
दौड़ ख़ुदा की तरफ होती है। सबकी इताअत का मर्कज ख़ुदा का रसूल होता है। जब वे 
मिलते हैं तो यही वह बाहमी दिलचस्पी की चीजें होती हैं जिन पर वे बात करें। इन्हीं औसाफ 
के जरिए वे एक दूसरे को पहचानते हैं। इसी की बुनियाद पर उनके आपस के तअल्लुकात 
कायम होते हैं। इसी से उन्हें वह मकसद हाथ आता है जिसके लिए वे मुत्तहिदा कोशिश करें। 
इसी से उन्हें वह निशाना मिलता है जिसकी तरफ सब मिलकर आगे बढ़ें। 
दुनिया में अहले ईमान की जिंदगी उनकी आखिरत की जिंदगी की तमसील है। दुनिया 
में अहले ईमान इस तरह जीते हैं जैसे एक बाग़ में बहुत से शादाब दरख़्त खड़े हों, हर एक 
दूसरे के हुस्न में इजाफा कर रहा हो। उन दरों को फैजाने खुदावंदी से निकलने वाले आंसू 
सैराब कर रहे हों। हर मुसलमान दूसरे मुसलमान का इस तरह खैरख्ाह और साथी हो कि 
पूरा माहौल अम्न व सुकून का गहवारा बन जाए। यही रब्बानी जिंदगी आख़िरत में जन्नती 
जिंदगी में तब्दील हो जाएगी । वहां आदमी न सिर्फ अपनी बोई हुई फसल काटेगा बल्कि खुदा 
को ख़ुसूसी रहमत से ऐसे इनामात पाएगा जिनका इससे पहले उसने तसव्वुर भी नहीं किया 
था। 


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ऐ नबी मुंकिरों (सत्य का इंकार करने वालों) और मुनाफिकों (पाखंडियों) से जिहाद करो 
और उन पर कड़े बन जाओ। और उनका ठिकाना जहन्नम है और वह बहुत बुरा ठिकाना 
है। वे खुदा की कसम खाते हैं कि उन्होंने नहीं कहा। हालांकि उन्होंने कुफ़ की बात 
कही और वे इस्लाम के बाद मुंकिर हो गए और उन्होंने वह चाहा जो उन्हें हासिल न हो 
सकी। और यह सिर्फ इसका बदला था कि उन्हं अल्लाह और रसूल ने अपने फज्ल से 
गनी कर दिया। अगर वे तोबह करें तो उनके हक में बेहतर है और अगर वे एराज 
(उपेक्षा) करें तो ख़ुदा उन्हें दर्दनाक अजाब देगा दुनिया में भी और आख़िरत में भी। और 
जमीन में उनका न कोई हिमायती होगा और न मददगार। (73-74) 


एक रिवायत के मुताबिक रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जमाने में तकरीबन 


पारा 0 54 सूरह-9. अत-तौबह 


80 मुनाफिकीन मदीने में मौजूद थे। इससे मालूम हुआ कि मुनाफिकीन से जिस जिहाद का हुक्म 
दिया गया है वह जंग के मअना में नहीं है। अगर ऐसा होता तो आप इन मुनाफिकों का ख़ात्मा 
कर देते। इससे मुराद दरअस्ल वह जिहाद है जो जबान और बर्ताव और शिदूदते एहतिसाब के 
जरिए किया जाता है। (कुर्तुबी) चुनांचे जमहूर उम्मत (विद्वानों के मतैक्य) के नजदीक 
मुनाफिकीन के मुकाबले में सशस्त्र जिहाद वेध नहीं है। 

मुनाफिकत (पाखंड) यह है कि आदमी इस्लाम को इस तरह इख्तियार करे कि वह उसे 
मफादात और मस्लेहतों (हितां, स्वार्थो) के ताबेअ किए हुए हो। इस किस्म के लोग जब देखते 
हैं कि कुछ ख़ुदा के बदे गैर मस्लेहतपरस्ताना अंदाज में इस्लाम को इख्तियार किए हुए हैं और 
उसकी तरफ लोगों को दावत देते हैं तो ऐसा इस्लाम उन्हें अपने इस्लाम को बेवकअत साबित 
करता हुआ नजर आता है। ऐसे दाजियों (आह्वानकर्ताओं) से उन्हें सखन नफरत हो जाती 
है। वे उन्हें उखाइने के दरपे हो जाते हैं। जिस इस्लाम के नाम पर वे अपनी तिजारतें कायम 
करते हैं उसी इस्लाम के दाजियों के वे दुश्मन बन जाते हैं। 

मुनाफिमीन की यह ठूमनी साज्श्रि और इस्तहज (मजक उड्ने के अंदाज मेजहिर 
होती है। अगर वे किसी को देखते हैं कि उसके अंदर किसी वजह से सच्चे इस्लाम के दाजियों 
के बारे में मुखालिफाना जज्बात हैं तो वे उसे उभारते हैं ताकि वह उनसे लड़ जाए। वे मुख्निस 
(निष्ठावान) अहले ईमान का मजाक उड़ते हैं। वे ऐसी बातें कहते हैं जिससे उनकी कुर्बानियां 
बेहकीकत मालूम होने लगें। वे उनकी मामूली बातों को इस तरह बिगाड़ कर पेश करते हैं कि 
अवाम में उनकी तस्वीर ख़राब हो जाए। तबूक के सफर में एक बार ऐसा हुआ कि एक पड़ाव 
के मकाम पर रसूलुल्लाह सल्सल्लाहु अलैहि व सल्लम की ऊंटनी गुम हो गई। कुछ मुसलमान 
उसे तलाश करने के लिए निकले। यह बात मुनाफिकों को मालूम हुई तो उन्होंने मजाक उड़ते 
हुए कहा : यह साहब हमें आसमान की ख़बरें बताते हैं। मगर उन्हें अपनी ऊंटनी की ख़बर 
नहीं कि वह इस वक्‍त कहां है। 

मुनाफिक मुसलमान सच्चे इस्लाम के दाञियों को नाकाम करने के लिए शैतान के 
आलाकार बनते हैं। मगर सच्चे इस्लाम के दाञियों का मददगार हमेशा ख़ुदा होता है। वह 
मुनाफिकों की तमाम साजिशों के बावजूद उन्हें बचा लेता है। और मुनाफिकीन का अंजाम 
यह होता है कि वे अपना जुर्म साबित करके इसके मुस्तहिक बनते हैं कि उन्हें दुनिया में भी 
अजाब दिया जाए और आख्िरत में भी। 


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सूरह-9. अत-तोबह 5]5 पारा 70 


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और उनमें वे भी हैं जिन्होंने अल्लाह से अहद किया कि अगर उसने हमें अपने फज्ल 
से अता किया तो हम जरूर सदका करगे और हम सालेह (नेक) बनकर रहेंगे। फिर 
जब अल्लाह ने उन्हें अपने फज्ल से अता किया तो वे बुखल करने लगे और बेपरवाह 
होकर मुंह फेर लिया। पस अल्लाह ने उनके दिलों में निफाक (पाखंड) बिठा दिया उस 
दिन तक के लिए जबकि वे उससे मिलेंगे इस सबब से कि उन्होंने अल्लाह के किए हुए 
वादे की ख़िलाफवरजी की और इस सबब से कि वे झूठ बोलते रहे। क्या उन्हें ख़बर नहीं 
कि अल्लाह उनके राज और उनकी सरगोशी (गुप्त वार्ता) को जानता है और अल्लाह 
तमाम छुपी हुई बातों को जानने वाला है। वे लोग जो तअन (कटाक्ष) करते हैं उन 
मुसलमानों पर जो दिल खोल कर सदकात देते हैं और जो सिर्फ अपनी मेहनत मजदूरी 
मेसे देते है उनका मजाक उडते है। अल्लाह इन मजक उड़ने वालो का मजक उद़्ता 
है और उनके लिए दर्दनाक अजाब है। तुम उनके लिए माफी की दरखास्त करो या 
न करो, अगर तुम सत्तर मर्तबा उन्हें माफ करने की दरख़्वास्त करोगे तो अल्लाह उन्हें 
माफ करने वाला नहीं। यह इसलिए कि उन्होंने अल्लाह और रसूल का इंकार किया 
और अल्लाह नाफरमानां को राह नहीं दिखाता। (75-80) 





सालबा बिन हातिब अंसारी ने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से कहा कि मेरे लिए 
दुआ कीजिए कि खुदा मुझे माल दे दे। आप ने फरमाया : थोड़े माल पर शुक्रगुजार होना इससे 
बेहतर है कि तुम्हें ज्यादा माल मिले और तुम शुक्र अदा न कर सको। मगर सालबा ने बार-बार 
दरख़्वास्त की चुनांचे रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने दुआ फरमाई कि खुदाया सालबा 
को माल दे दे। इसके बाद सालबा ने बकरी पाली उसकी नस्ल इतनी बढ़ी कि मदीने की जमीन 
उनको बकरियों के लिए तंग हो गई। सालबा ने मदीने के बाहर एक वादी में रहना शुरू किया। 
अब सालबा के इस्लाम में कमजोरी आना शुरू हो गई। पहले उनकी जमाअत की नमाज छूटी । 
फिर जुमा छूट गया। यहां तक कि यह नौबत आई कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम 
का आमिल सालबा के पास जकात लेने के लिए गया तो सालबा ने जकात नहीं दी और कहा 
कि जकात तो जिज्या (सुरक्षा-प्रभार) की बहिन मालूम होती है। 

वह शख्स खुदा की नजर में मुनाफिक है जिसका हाल यह हो कि वह माल के लिए खुदा 
से दुआएं करे और जब ख़ुदा उसे माल वाला बना दे तो वह अपने माल में खुदा का हक 
निकालना भूल जाए। आदमी के पास माल नहीं होता तो वह माल वालों को बुरा कहता है कि 











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सूरह-9. अत-तौबह 
ये लोग माल को ग़लत कामों में बर्बाद करते हैं। अगर ख़ुदा मुझे माल दे तो मैं उसे खैर के 
कामों में खर्च करूं। मगर जब उसके पास माल आता है तो उसकी नफ्सियात बदल जाती है। 
वह भूल जाता है कि पहले उसने क्या कहा था और किन जज्बात का इज्हार किया था। अब 
वह माल को अपनी मेहनत और लियाकत (योग्यता) का नतीजा समझ कर तंहा उसका मालिक 
बन जाता है। ख़ुदा का हक अदा करना उसे याद नहीं रहता । 

इस किस्म के लोग अपनी कमजोरियों को छुपाने के लिए मजीद सरकशी यह करते हैं कि 
वे उन लोगों का मजाक उड़ते हैं जो खुदा की राह में अपना माल ख़र्च करते हैं। किसी ने ज्यादा 
दिया तो उसे रियाकार कह कर गिराते हैं। और किसी ने अपनी हैसियत की बिना पर कम दिया 
तो कहते हैं कि खुदा को इस आदमी के सदके की क्या जरूरत थी । जो लोग इतना ज्यादा अपने 
आप में गुम हों उन्हें अपने आप से बाहर की आलातर हकीकतें कभी दिखाई नहीं देतीं । 


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पीछे रह जाने वाले अल्लाह के रसूल से पीछे बैठे रहने पर बहुत खुश हुए और उन्हें गिरां 
(भारी) गुजरा कि वे अपने माल और जान से अल्लाह की राह में जिहाद करें। और 
उन्होंने कहा कि गर्मी में न निकलो। कह दो कि दोजख़ की आग इससे ज्यादा गर्म 
है, काश उन्हें समझ होती। पस वे हंसे कम और रोएं ज्यादा, इसके बदले में जो वे करते 
थे। पस अगर अल्लाह तुम्हें उनमें से किसी गिरोह की तरफ वापस लाए और वे तुमसे 
जिहाद के लिए निकलने की इजाजत मांगें तो कह देना कि तुम मेरे साथ कभी नहीं 
चलोगे और न मेरे साथ होकर किसी दुश्मन से लड़ोगे। तुमने पहली बार भी बैठे रहने 
को पसंद किया था पस पीछे रहने वालों के साथ बैठे रहो। और उनमें से जो कोई मर 
जाए उस पर तुम कभी नमाज न पढ़ो और न उसकी कब्र पर खड़े हो। बेशक उन्होंने 
अल्लाह और उसके रसूल का इंकार किया और वे इस हाल में मरे कि वे नाफरमान 
थे। (8-84) 


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सूरह-9. अत-तौबह 5]7 पारा 0 





ग़जवए तबूक सख्त गर्मी के मौसम में हुआ मदीना से चल कर शाम की सरहद तक तीन 
सौ मील जाना था। मुनाफिक मुसलमानों ने कहा कि ऐसी तेज गमी में इतना लम्बा सफर न 
करो। यह कहते हुए वे भूल गए कि ख़ुदा की पुकार सुनने के बाद किसी ख़तरे की बिना पर 
न निकलना अपने आपको शदीदतर ख़तरे में मुब्तिला करना है। यह ऐसा ही है जैसे धूप से 
भाग कर आग के शोलों की पनाह ली जाए। 

जो लोग खुदा के मुकाबले में अपने को और अपने माल को ज्यादा महबूब रखते हैं वे 
जब अपनी खूबसूरत तदबीरों से उसमें कामयाब हो जाते हैं कि वे मुसलमान भी बने रहें और 
इसी के साथ उनकी जिंदगी और उनके माल को कोई ख़तरा लाहिक न हो तो वे बहुत खुश 
होते हैं। वे अपने को अक्लमंद समझते हैं और उन लोगों को बेवकूफ कहते हैं जिन्होंने खुदा 
की रिजा के ख़ातिर अपने को हल्कान (कष्टमय) कर रखा हो। 

मगर यह सरासर नादानी है। यह ऐसा हंसना है जिसका अंजाम रोने पर ख़त्म होने वाला 
है। क्योंकि मौत के बाद आने वाली दुनिया में इस किस्म की “होशियारी' सबसे बड़ी नादानी 
साबित होगी। उस वक्‍त आदमी अफसोस करेगा कि वह जन्नत का तलबगार था मगर उसने 
अपने असासे की वही चीज उसके लिए न दी जो दरअस्ल जन्नत की वाहिद कीमत थी। 

इस किम के मुनाफिफ हमेशा वेलेग हेतेहैजोअपनी तहफुज़ती (संरक्षण) पॉलिसी 
की वजह से अपने गिर्द माल व जाह (सम्पन्नता) के असबाब जमा कर लेते हैं इस बिना पर 
आम मुसलमान उनसे मरऊब हो जाते हैं। उनकी शानदार जिंदगियां और उनकी खूबसूरत 
बातें लोगों की नजर में उन्हें अजीम बना देती हैं। यह किसी इस्लामी मआशरे के लिए एक 
सख्त इम्तेहान होता है। क्योंकि एक हकीकी इस्लामी मआशरे (समाज) में ऐसे लोगों को 
नजरअंदाज किया जाना चाहिए, न यह कि उन्हें इज्जत का मकम दिया जाने लगे। 

जिन लोगों के बारे में पूरी तरह मालूम हो जाए कि वे बजाहिर मुसलमान बने हुए हैं मगर 
हकीकतन वे अपने मफदात और अपनी दुनियावी मस्लेहतें के वफदार हैं उन्हें वीक 
इस्लामी मआशरा (समाज) कभी इज्जत के मकाम पर बिठाने के लिए राजी नहीं हो सकता। 
ऐसे लोगों का अंजाम यह है कि वे इस्लामी तकरीबात (समारोहों) में सिर्फ पीछे की सफों मे 
जगह पाएं। मुसलमानों के इज्तिमाई मामलात में उनका कोई दख़ल न हो। दीनी मनासिब 
(पदो) के लिए वे नाअहल करार पाएं। जिस मआशरे में ऐसे लोगों को इज्जत का मकाम 
मिला हुआ हो वह कभी ख़ुदा का पसंदीदा मआशरा नहीं हो सकता। 


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और उनके माल और उनकी औलाद तुम्हें ताज्जुब में न डालें। अल्लाह तो बस यह 
चाहता है कि इनके जरिए से उन्हें दुनिया में अजाब दे ओर उनकी जानें इस हाल में 
निकलें कि वे मुंकिर हों। और जब कोई सूरह उतरती है कि अल्लाह पर ईमान लाओ 
और उसके रसूल के साथ जिहाद करो तो उनके मकदूर वाले (सामर्थ्यवान) तुमसे रुख्सत 
मांगने लगते हैं और कहते हैं कि हमें छोड़ दीजिए कि हम यहां ठहरने वालों के साथ 
रह जाएं। उन्होंने इसको पसंद किया कि पीछे रहने वाली औरतों के साथ रह जाएं। 
और उनके दिलों पर मुहर कर दी गई पस वे कुछ नहीं समझते। लेकिन रसूल और जो 
लोग उसके साथ ईमान लाए हैं उन्होंने अपने माल और जान से जिहाद किया और उन्हीं 
के लिए हैं खूबियां और वही फलाह (कल्याण) पाने वाले हैं। उनके लिए अल्लाह ने 
ऐसे बाग़ तैयार कर रखे हैं जिनके नीचे नहरें बहती हैं। उनमें वे हमेशा रहेंगे। यही बड़ी 
कामयाबी है। (85-89) 





मुनाफिक्र अपने दुनियापरस्ताना तरीकें की वजह से अपने आस पास दुनिया का साजेसामान 
जमा कर लेता है। उसके साथ मददगारों की भीड़ दिखाई देती है। ये चीजें सतही किस्म के लोगों 
के लिए मरऊबकुन बन जाती हैं। लेकिन गहरी नजर से देखने वालों के लिए उसकी जाहिरी चमक 
दमक काबिले रश्क नहीं बल्कि काबिले इबरत है। क्योंकि ये चीजें जिन लोगों के पास जमा हों 
वे उनके लिए ख़ुदा की तरफ बढ़ने में रुकावट बन जाती हैं। खुदा का महबूब बंदा वह है जो किसी 
तहप्मुन और किसी मस्लेहत के बीए खुद्रा की तरफ बढ़े। मगर जो लोग दुनिया की रेनकेंमे 
घिरे हों वे इनसे ऊपर नहीं उठ पाते। जब भी वे खुदा की तरफ बढ़ना चाहते हैं उन्हें ऐसा नजर 
आता है कि वे अपना सब कुछ खो देंगे। वे इस कुर्बानी की हिम्मत नहीं कर पाते, इसलिए वे 
खुदा के वफादार भी नहीं हेते। उनकी दुनियावी तरविकयां उन्हें इस बर्बादी की कीमत पर मिलती 
है कि आखिरत में वे बिल्कुल महरूम होकर हाजिर हों। 

ऐसे लोगों का हाल यह होता है कि जब ख़ुदा का दीन कहता है कि अपनी अना (अहंकार) 
को दफन करके खुदा को पकड़े तो वे अपनी बढ़ी हुई अना को दफन नहीं कर पाते। जब खुदा 
का दीन उनसे शोहरत और मकबूलियत से खाली रास्तों पर चलने के लिए कहता है तो वे अपनी 
शोहरत व मकबूलियत को संभालने की फिक्र में पीछे रह जाते हैं। जब खुदा के दीन की जद्दोजहद 
जिंदगी और माल की वुर्ज्नी मांगती है तो उन्हें अपनी जिंदगी और माल इतने कीमती नजर आते 
हैं कि वे उसे गैर दुनियावी मकसद के लिए कुर्बान न कर सकें। 

यह कैफियत बढ़ते-बढ़ते यहां तक पहुंच जाती है कि उनके दिल की हस्सासियत 
(संवेदनशीलता) ख़त्म हो जाती है। वे बेहिसी का शिकार होकर उस तड़प को खो देते हैं जो 
आदमी को खुदा की तरफ खींचे और गैर खुदा पर राजी न होने दे। 





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सूरह-9. अत-तोबह 5]9 पारा 70 


इसके बरअक्स जो सच्चे अहले ईमान हैं वे सबसे बड़ा मकाम ख़ुदा को दिए होते हैं इसलिए 
दूसरी हर चीज उन्हेखुदा के मुकाबले मेंहेच नजर आती है। वे हर कुर्बानी देकर खुदा की तरफ 
बढ़ने के लिए तैयार रहते हैं। यही वे लोग हैं जिनके लिए ख़ुदा की रहमतें व नेमतें हैं। उनके 
और ख़ुदा की अबदी जन्नत के दर्मियान मौत के सिवा कोई चीज हायल नहीं। 


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देहाती अरबों में से भी बहाना करने वाले आए कि उन्हें इजाजत मिल जाए और जो 
अल्लाह और उसके रसूल से झूठ बोले वह बैठा रहे। उनमें से जिन्होंने इंकार किया उन्हें 
एक दर्दनाक अजाब पकड़ेगा। कोई गुनाह कमजोरों पर नहीं है और न बीमारों पर और 

न उन पर जो खर्च करने को कुछ नहीं पाते जबकि वे अल्लाह और उसके रसूल के साथ 
खेरख्याही करें। नेककारों पर कोई इल्जाम नहीं और अल्लाह बर्शने वाला महरबान है। 
और न उन लोगों पर कोई इल्जाम है कि जब तुम्हारे पास आए कि तुम उन्हें सवारी दो। 
तुमने कहा कि मेरे पास कोई चीज नहीं कि तुम्हें उस पर सवार कर दूं तो वे इस हाल में 
वापस हुए कि उनकी आंखों से आंसू जारी थे इस ग़म में कि उन्हें कुछ मयस्सर नहीं जो 
वे ख़र्च करें। इल्जाम तो बस उन लोगों पर है जो तुमसे इजाजत मांगते हैं हालांकि वे 
मालदार हैं। वे इस पर राजी हो गए कि पीछे रहने वाली औरतों के साथ रह जाएं और 
अल्लाह ने उनके दिलों पर मुहर कर दी, पस वे नहीं जानते। (90-93) 





दीन की दावत की जद्दोजहद जब लोगों से उनकी जिंदगी और उनके माल का तकाजा 
कर रही हो उस वक्त साहिबे इस्तेताअत (क्षमतावान) होने के बावजूद उज़ करके बैठे रहना 
बदतरीन जुर्म है। यह दीनी पुकार के मामले में बेहिसी का सुबूत है। एक मुसलमान के लिए 
इस किस्म का रवैया खुदा व रसूल से गद्दारी करने के हममअना है। ऐसे लोग ख़ुदा की 
रहमतों में कोई हिस्सा पाने के हकदार नहीं हैं। उनके पास जो कुछ था उसे जब उन्होंने खुदा 
के लिए पेश नहीं किया तो खुदा के पास जो कुछ है वह किस लिए उन्हें दे देगा। कीमत अदा 
किए बगैर कोई चीज किसी को नहीं मिल सकती। 


पारा 77 520 सूरह-9. अत-तौबह 


ताहम माजूरीन के लिए खुदा के यहां माफी है। जो शख्स बीमार हो, जिसके पास ख़र्च करने 
के लिए कुछ न हो, जो असबाबे सफर न रखता हो, ऐसे लोगों से खुदा दरगुजर फरमाएगा । यही 
नहीं बल्कि यह भी मुमकिन है कि कुछ न करने के बावजूद सब कुछ उनके खाने में लिख दिया 
जाए जैसा कि हदीस में आया है कि गजवए तबूक से वापस होते हुए रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु 
अलैहि व सल्लम ने अपने साथियों से फरमाया : मदीने में कुछ ऐसे लोग हैं कि तुम कोई रास्ता 
नहीं चले और तुमने कोई वादी तै नहीं की मगर वे बराबर तुम्हारे साथ रहे। 

ये खुशकिस्मत लोग कौन हैं जो न करने के बावजूद करने का इनाम पाते हैं। ये वे लोग 
हैं जो माजूर (अक्षम) होने के साथ तीन बातों का सुबूत दें। नुस्ह, यानी अमली शिरकत न 
करते हुए भी कल्बी (दिली) शिरकत | एहसान, यानी शरीक न होने के बावजूद कम से कम 
जबान से उनके बस में जो कुछ है उसे पूरी तरह करते रहना। हुज्न, यानी अपनी कोताही पर 
इतना शदीद रंज जो आंसुओं की सूरत में बह पड़े। 

कोई आदमी जब अपनी अमली जिंदगी में एक चीज को गैर अहम दर्ज में रखे और बार- 
बार ऐसा करता रहे तो इसके बाद ऐसा होता है कि उस चीज की अहमियत का एहसास उसके 
दिल से निकल जाता है। उस चीज के तकाजे उसके सामने आते हैं मगर दिल के अंदर उसके 
बारे में तड़प न होने की वजह से वह उसकी तरफ बढ़ नहीं पाता । यह वही चीज है जिसे बेहिसी 
कहा जाता है और इसी को कुरआन में दिलों पर मुहर करने से ताबीर किया गया है। 





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तुम जब उनकी तरफ पलटोगे तो वे तुम्हारे सामने उज्न (विवशताएं) पेश करेंगे। कह 
दो कि बहाने न बनाओ। हम हरगिज तुम्हारी बात न मानेंगे। बेशक अल्लाह ने हमें 
तुम्हारे हालात बता दिए हैं। अब अल्लाह और रसूल तुम्हारे अमल को देखेंगे। फिर 
तुम उसकी तरफ लौटाए जाओगे जो खुले और छुपे का जानने वाला है, वह तुम्हें बता 
देगा जो कुछ तुम कर रहे थे। ये लोग तुम्हारी वापसी पर तुम्हारे सामने अल्लाह की 
कसमें खाएंगे ताकि तुम उनसे दरगुजर करो। पस तुम उनसे दरगुजर करो बेशक वे 
नापाक हैं और उनका ठिकाना जहन्नम है बदले में उसके जो वे करते रहे। वे तुम्हारे 


सामने कसमें खाएंगे कि तुम उनसे राजी हो जाओ। अगर तुम उनसे राजी भी हो जाओ 
तो अल्लाह नाफरमान लोगों से राजी होने वाला नहीं। (94-96) 











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सूरह-9. अत-त्तौबह 52] पारा 77 





(तुम्हारे हालात हमें अल्लाह ने बता दिए हैं” का जुमला जाहिर कर रहा है कि यहां जिन 
मुनफ्मिन का जिक्र है इससे मुद जमानएनूले कुआन के मुनफ्लीन ही। क्येंक् 
बराहेरास्त खुदाई 'वही' (ईश्वरीय वाणी) के जरिए आगाह होने का मामला सिर्फ रिसालत के 
जमाने में हुआ या हो सकता था। बाद के जमाने में ऐसा होना मुमकिन नहीं। तबकात इब्ने 
साद की रिवायत के मुताबिक ये कुल 82 अफराद थे जिनके निफाक (पाखंड) के बारे में 
अल्लाह ने बजरिए 'वही' मुतलअ (सूचित) फरमाया था। 
ताहम इस इलम के बावजूद सहाबा किराम को उनके साथ जिस सुलूक की इजाजत दी 
गई वह तगाफुल और ऐराज (उपेक्षा) था न कि उन्हें हलाक करना। उन्हें सजा या अजाब देने 
का मामला फिर भी ख़ुदा ने अपने हाथ में रखा। मदीने के मुनाफिकीन के साथ अगरचे इतनी 
सख्ती की गई कि उन्होंने उजरात (विवशताएं) पेश किए तो उनके उजरात कुबूल नहीं किए 
गए। यहां तक कि सालबा बिन हातिब अंसारी ने मुनाफिकाना रविश इख्तियार करने के बाद 
जकात पेश की तो उनकी जकात लेने से इंकार कर दिया गया। ताहम उनमें से किसी को भी 
आप ने कत्ल नहीं कराया। अब्ुल्लाह बिन उबई के लड़के अब्दुल्लाह ने अपने बाप की 
मुनाफिकाना हरकत पर सख्त कार्रवाई करनी चाही तो आप ने रोक दिया और फरमाया : 
उन्हें छोड़ दो, बख़ुदा जब तक वे हमारे दर्मियान हैं हम उनके साथ अच्छा ही सुलूक करेंगे। 
बाद के जमाने के मुनाफिकीन के बारे में भी यही हुक्म है। ताहम दोनों के दर्मियान एक 
फर्क है। दौरे अव्वल के मुनाफिकीन से उनकी हालते कल्बी की बुनियाद पर मामला किया 
गया, मगर बाद के मुनाफिकीन से उनकी हालते जाहिरी की बुनियाद पर मामला किया 
जाएगा। उनसे एराज व तगफुल (उपेक्षा) का सुल्क सिर्फ उस वक्‍त जाइज होगा जबकि 
उनके अमल से उनकी मुनाफिकत का ख़ारजी सुबूत मिल रहा हो। उनकी नियत या उनकी 
कल्बी हालत की बिना पर उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी। बाद के लोग उज़ 
(विवशता) पेश करें तो उनका उज़ भी कुबूल किया जाएगा और इसके साथ उनके सदकात 
वगैरह भी। उनके अंजाम को अल्लाह के हवाले करते हुए उनके साथ वही मामला किया 
जाएगा जो जाहिरी कानून के मुताबिक किसी के साथ किया जाना चाहिए । 
जन्नत किसी को जाती अमल की बुनियाद पर मिलती है न कि मुसलमानों की जमाअत 
या गिरोह में शामिल होने की बुनियाद पर। मुनाफिकीन सबके सब मुसलमानों की जमाअत 
में शामिल थे वे उनके साथ नमाज रोजा करते थे मगर इसके बावजूद उनके जहन्नमी होने 
का एलान किया गया। 


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पारा ]7 522 सूरह-9. अत-तौबह 


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देहात वाले कुफ़ व निफाक में ज्यादा सखन हैं और इसी लायक हैं कि अल्लाह ने अपने 

रसूल पर जो कुछ उतारा है उसके हुदूद से बेखबर रहें। और अल्लाह सब कुछ जानने 
वाला हिक्मत वाला है। और देहातियों में ऐसे भी हैं जो ख़ुदा की राह में ख़र्च को एक 
तावान (जुर्माना) समझते हैं और तुम्हारे लिए जमाने की गर्दिशों के मुंतजिर हैं। बुरी 

गर्दिश खुद उन्हीं पर है और अल्लाह सुनने वाला जानने वाला है। और देहातियों में 
वे भी हैं जो अल्लाह पर और आखिरत के दिन पर ईमान रखते हैं और जो कुछ खर्च 
करते हैं उसे अल्लाह के यहां कुर्ब का और रसूल के लिए दुआएं लेने का जरिया बनाते 

हैं। हां बेशक वह उनके लिए कुर्ब (समीपता) का जरिया है। अल्लाह उन्हं अपनी रहमत 

में दाखिल करेगा। यकीनन अल्लाह बख्शने वाला महरबान है। (97-99) 





हदीस में आया है कि जिसने देहात में सुकूनत (वास) इख्तियार की वह सख्त मिजाज 
हो जाएगा। शहर के अंदर इलमी माहौल होता है, तालीमी इदारे कायम होते हैं। वहां इलम व 
फन का चर्चा रहता है। जबकि देहात में लोगों को इसके मौके हासिल नहीं होते। इसी के साथ 
देहात के लोगों के रहन-सहन के तरीके और उनके मआशी जरिये भी निस्बतन मामूली होते 
हैं। इसका नतीजा यह होता है कि देहात के लोगों के अंदर ज्यादा गहरा शुऊर पैदा नहीं 
होता। उनकी तबीअत में सख्ती और उनके सोचने के अंदाज में सतहियत पाई जाती है। 
उनके लिए मुश्किल होता है कि वे दीन की नजाकतों को समझें और उन्हें अपने अंदर उतारें। 

अल्लाह हर बात को जानता है और इसी के साथ वह हकीम और रहीम भी है। वह 
देहात के लोगों, बअल्फाजे दीगर अवाम, की इस कमजोरी से बाख़बर है और अपनी हिक्मत 
(तत्वदर्शिता) व रहमत की बिना पर उन्हें इसकी पूरी रिआयत देता है। चुनांचे ऐसे लोगों से 
ख़ुदा का मुतालबा यह नहीं है कि वे गहरी मअरफत और आला दीनदारी का सुबूत दें। वे 
अगर नेक नीयत हों तो खुदा उनसे सादा दीनदारी पर राजी हो जाएगा। 

अवाम की दीनदारी यह है कि वे सच्चे दिल से खुदा का इकरार करें। अपने अंदर इस 
एहसास को ताजा रखें कि आखिरत का एक दिन आने वाला है। वे अपनी कमाई का एक 
हिस्सा खुदा की राह में दें और यह समझें कि इसके जरिए से उन्हें खुदा की कुरबत (समीपता) 
और बरकत हासिल होगी। वे ख़ुदा की नुमाइंदगी करने वाले पैग़म्बर को खुश करके उसकी 
दुआएं लेने के तालिब हों। यह दीनदारी की अवामी सतह है, और अगर आदमी की नीयत 
में बिगाड़ न हो तो उसका ख़ुदा उससे इसी सादा दीनदारी को कुबूल कर लेगा। 

लेकिन अगर अवाम ऐसा करें कि वे खुदा और उसके अहकाम से बिल्कुल गाफिल हो 
जाएं। उनकी दीन से इतनी बेतअल्लुकी हो कि दीन की राह में कुछ खर्च करना उन्हें जुर्माना 
मालूम होने लगे। इस्लाम की तरक्की से उन्हें वहशत होती हो, तो बिलाशुबह वे नाकाबिले 





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सूरह-9. अत-त्तौबह 523 पारा ]7 


माफी हैं। अवाम की कमफहमी (अबोधता) की बिना पर उन्हें यह रिआयत तो जरूरी दी जा 
सकती है कि उनसे गहरी दीनदारी का मुतालबा न किया जाए। लेकिन उनकी कमफहमी 
अगर सरकशी और इस्लाम के साथ बेवफाई की सूरत इख्तियार कर ले तो वे किसी हाल में 


बख्श नहीं जा सकते। 
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और मुहाजिरीन व अंसार में जो लोग साविक और मुकदूदम हैं और जिन्होंने ख़ूबी के 

साथ उनकी पेरवी की, अल्लाह उनसे राजी हुआ और वे उससे राजी हुए। और अल्लाह 

ने उनके लिए ऐसे बाग़ तैयार कर रखे हैं जिनके नीचे नहरें बहती होंगी। वे उनमें हमेशा 
रहेंगे। यही है बड़ी कामयाबी। और तुम्हारे गिर्द व पेश जो देहाती हैं उनमें मुनाफिक 
(पाखंडी) हैं और मदीना वालों में भी मुनाफिक हैं। वे निफाक (पाखंड) पर जम गए हैं। 

तुम उन्हें नहीं जानते, हम उन्हें जानते हैं। हम उन्हें दोहरा अजाब देंगे। फिर वे एक 
अजाबे अजीम (महाऱ्यातना) की तरफ भेजे जाएंगे। (00-07) 


ख़ुदा के दीन की दावत जब भी शुरू को जाए तो दो में से कोई एक सूरत पेश आती 
है। या तो माहौल उसका दुश्मन हो जाता है। ऐसे माहौल में दीन के लिए पुकारने वाले 
अजनबी बन जाते हैं। वे अपनी जगह के अंदर बेजगह कर दिए जाते हैं। यही वे लोग हैं जिन्हें 
मुहाजिर (छोड़ने वाला) कहा जाता है। दूसरी सूरत वह है जबकि माहौल ख़ुदा के दीन की 
दावत के लिए साजगार साबित हो। ऐसे माहौल में जो लोग दीन के दा बनते हैं उनके साथ 
यह हादसा पेश नहीं आता कि उनका सब कुछ उनसे छिन जाए। ये दूसरी किस्म के लोग 
अगर ऐसा करें कि वे पहले लोगों का सहारा बनकर खड़े हो जाएं तो यही अंसार (मदद करने 
वाले) करार पाते हैं। दौरे अव्वल में मक्का के हालात ने वहां के मुसलमानों को मुहाजिर बना 
दिया और मदीने के हालात ने वहां के मुसलमानों को अंसार की हैसियत दे दी। 

खुदा की रिजामंदी और उसकी जन्नत किसी आदमी को या तो मुहाजिर बनने की 
कीमत पर मिलती है या अंसार बनने की कीमत पर। या तो वह खुदा के लिए इतना यकसू 
हो कि दुनिया के सिरे उससे छूट जाएं। या अगर वह अपने को साहिबे वसाइल (साध 
गन-सम्पन्नता) पाता है तो अपने वसाइल (साधनों) के जरिए वह पहले गिरोह की महरूमी का 
बदल बन जाए। दौरे अव्वल के मुसलमान (सहाबा किराम) इस हिजरत व नुसरत का कामिल 
नमूना थे। बाद के मुसलमानों में जो लोग इस हिजरत व नुसरत के मामले में अपने पेशरवों 


पारा ]7 524 सूरह-9. अत-तौबह 
(पूर्ववर्तियों) की तक्लीद (अनुसरण) करेंगे वे इससे इस मुकदूदस खुदाई गिरोह में शामिल होते 
चले जाएंगे। ख़ुदा कुछ लोगों को महरूम करता है ताकि उनके अंदर इनाबत (ख़ुदा की तरफ 
झुकने) का जज्बा उभरे इसी तरह खुदा कुछ लोगों को महरूमी से बचाता है ताकि वे महरूमों 
की मदद करके ख़ुदा के लिए ख़र्च करने वाले बनें। यह ख़ुदा का मंसूबा है। जो लोग इसका 
सुबूत न दें वे ऐसे लोग हैं जो ख़ुदा के मंसूबे पर राजी न हुए इसलिए ख़ुदा भी आख़िरत के 
दिन उनसे राजी न होगा। 

'वे अल्लाह से राजी हो गए' यानी जिसे अल्लाह ने ऐसे हालात में उठाया कि उसे सब 
कुछ छोड़ने की कीमत पर दीन को इख़्तियार करना पड़ा तो वह उसमें साबितकदम रहा। इसी 
तरह जिसके हालात का तकाजा यह हुआ कि वह अपने असासे में ऐसे दीनी भाइयों को 
शरीक करे जिनसे उसका तअल्लुक सिर्फ मकसद का है न कि रिश्तेदारी का तो वह भी उस 
पर राजी हो गया। यही वे लोग हैं जिन्होंने अल्लाह की ख़ुशी हासिल की और यही वे लोग 
हैं जो जन्नत के अबदी बागों में दाखिल किए जाएंगे। 

मुनाफिक वह है जो मुसलमान होने का दावा करे मगर जब हिजरत व नुसरत की कीमत 
पर दीनदार बनने का सवाल हो तो उसके लिए अपने को राजी न कर सके। 


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कुछ और लोग हैं जिन्होंने अपने कुसूरों का एतराफ कर लिया है। उन्होंने मिले जुले 
अमल किए थे, कुछ भले और कुछ बुरे। उम्मीद है कि अल्लाह उन पर तवज्जोह करे। 
बेशक अल्लाह बख्शने वाला महरबान है। तुम उनके मालों में से सदका लो, इससे तुम 
उन्हें पाक करोगे और उनका तज्किया (पवित्रीकरण) करोगे। और तुम उनके लिए दुआ 
करो। बेशक तुम्हारी दुआ उनके लिए तस्कीन (शांति) का जरिया होगी। अल्लाह सब 
कुछ सुनने वाला जानने वाला है। क्या वे नहीं जानते कि अल्लाह ही अपने बंदों की 
तोबा वुक्ूल करता है। और वही सदकों को कुबूल करता है। और अल्लाह तौबा वुक्रूल 


करने वाला महरबान है। कहो कि अमल करो, अल्लाह और उसका रसूल और अहले 
ईमान तुम्हारे अमल को देखेंगे और तुम जल्द उसके पास लौटाए जाओगे जो तमाम खुले 


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सूरह-9. अत-त्तौबह 525 पारा ]7 


और छुपे को जानता है। वह तुम्हें बता देगा जो कुछ तुम कर रहे थे। कुछ दूसरे लोग 
हैं जिनका मामला अभी खुदा का हुक्म आने तक ठहरा हुआ है, या वह उन्हें सजा देगा 
या उनकी तोबा कुबूल करेगा, और अल्लाह जानने वाला हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला 
है। (02-06) 


कुछ ऐसे लोग हैं जिनकी तबीअतों में अगरचे शर नहीं होता। वे मअमूल (आम प्रचलन) 
वाले दीनी आमाल भी करते रहते हैं। मगर जब दीन का कोई ऐसा तकाजा सामने आता है 
जिसमें अपने बने हुए नक्शे को तोड़ कर दीनदार बनने की जरूरत हो तो वे अपनी जिंदगी 
और माल को इस तरह दीन के लिए नहीं दे पाते जिस तरह उन्हें देना चाहिए । कुव्वते फैसला 
की कमजोरी या दुनिया में उनकी मशगूलियत उनके लिए दीन की राह में अपना हिस्सा अदा 
करने में रुकावट बन जाती हैं। ऐसे लोग अगरचे कुसूरवार होते हैं। ताहम उनका कुसूर उस 
वक्‍त माफ कर दिया जाता है जबकि याददिहानी के बाद वे अपनी गलती का एतराफ कर 
लें और शर्मिन्दगी के एहसास के साथ दुबारा दीन की तरफ लौट आएं। 

एतराफ और शर्मिन्दगी का सुबूत यह है कि उनके अंदर नए सिरे से दीनी खिदमत का 
जज्बा पैदा हो। वे अपने एहसासे गुनाह को धोने के लिए अपने महबूब माल का एक हिस्सा 
खुदा की राह में पेश करें। जब उनकी तरफ से ऐसा रद्देअमल (प्रतिक्रिया) जाहिर हो तो 
पैगम्बर को तल्कीन की गई कि अब उन्हें मलामत न करो बल्कि उन्हें नफ्सियाती सहारा देने 
की कोशिश करो। उन्हें दुआएं दो ताकि उनके दिल का बोझ दुबारा ईमानी अज्म व एतमाद 
में तब्दील हो जाए। 

खुदा के नजदीक अस्ल बुराई गलती करना नहीं है बल्कि गलती पर कायम रहना है। जो 
आदमी गलती करने के बाद उसकी तावीलें (हीले) ढूंढने लगे वह बर्बाद हो गया और जो शख्स 
गलती का एतराफ करके अपनी इस्लाह कर ले वह खुद्रा के नजदीक काबिले माफी ठहरा। 

गलती करने के बाद आदमी हमेशा दो इम्कानात के दर्मियान होता है। एक यह कि वह 
अपनी गलती का एतराफ कर ले। दूसरा यह कि वह ठिठाई करने लगे, जो शख्स अपनी 
गलती का एतराफ कर ले उसके अंदर तवाजोअ (विनम्रता) पैदा होती है। वह दुबारा खुदा की 
रहमतों का मुस्तहिक बन जाता है। इसके बरअक्स जो शख्स ढिठाई का तरीका इख्तियार करे 
वह गोया ख़ुदा के गजब के रास्ते पर चल पड़ा। वह अपने को बेख़ता साबित करने के लिए 
झूठी तावीलें करेगा । एक गलती को निभाने के लिए वह दूसरी बहुत सी गलतियां करता चला 
जाएगा। पहले शख्स के लिए ख़ुदा की रहमत है और दूसरे शख्स के लिए ख़ुदा की सजा। 


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और उनमें ऐसे भी हैं जिन्होंने एक मस्जिद बनाई नुक्सान पहुंचाने के लिए और कुफ्र 

के लिए और अहले ईमान में फूट डालने के लिए और इसलिए ताकि कमीनगाह 
(शरण-स्थल) फराहम करें उस शख्स के लिए जो पहले से अल्लाह और उसके रसूल 

से लड़ रहा है। और ये लोग कसमें खाएंगे कि हमने तो सिर्फ भलाई चाही थी और 
अल्लाह गवाह है कि वे झूठे हैं। तुम उस इमारत में कभी खड़े न होना। अलबत्ता जिस 
मस्जिद की बुनियाद अबल दिन से तकवे (ईश-परायणता) पर पड़ी है वह इस लायक 

है कि तुम उसमें खड़े हो। उसमें ऐसे लोग हैं जो पाक रहने को पसंद करते हैं और 
अल्लाह पाक रहने वालों को पसंद करता है। क्या वह शख्स बेहतर है जिसने अपनी 
इमारत की बुनियाद ख़ुदा से डर पर और खुदा की खुशनूदी पर रखी या वह शख्स बेहतर 

है जिसने अपनी इमारत की बुनियाद एक खाई के किनारे पर रखी जो गिरने को है। 
फिर वह इमारत उसे लेकर जहन्नम की आग में गिर पड़ी। और अल्लाह जालिम लोगों 
को राह नहीं दिखाता। और यह इमारत जो उन्होंने बनाई हमेशा उनके दिलों में शक 
की बुनियाद बनी रहेगी सिवाए इसके कि उनके दिल ही टुकड़े हो जाएं। और अल्लाह 
अलीम (जञानवान) व हकीम (तत्वदर्शी) है। (07-20) 





जिंदगी की तामीर की दो बुनियादें हैं। एक तकवा, दूसरे जुल्म । पहली सूरत यह है कि 
ख़ुदा के डर की बुनियाद पर जिंदगी की इमारत उठाई जाए। आदमी की तमाम सरगर्मियां 
जिस फिक्र के मातहत चल रही हों वह फिक्र यह हो कि उसे अपने तमाम कैल व फेअल का 
हिसाब एक ऐसी हस्ती को देना है जो खुले और छुपे से बाख़बर है और हर एक को उसके 
हकीकी कारनामोंके मुताबिक जज या सज देने वाला है। ऐसा शर्म गोया मजबूत चट्टान 
पर अपनी इमारत खड़ी कर रहा है। दूसरी सूरत यह है कि आदमी इस किस्म के अंदेशे से 
ख़ाली हो। वह दुनिया में बिल्कुल बेकैद जिंदगी गुजारे। वह किसी पाबंदी को कुबूल किए बगैर 
जो चाहे बोले और जो चाहे करे। ऐसे शख्स की जिंदगी की मिसाल उस इमारत की सी है 
जो ऐसी खाई के किनारे उठा दी गई हो जो बस गिरने ही वाली हो और अचानक एक रोज 
उसका मकान अपने मकीनों सहित गहरे खड में गिर पड़े। 

जो लोग जुल्म की बुनियाद पर अपनी जिंदगी की इमारत उठाते हैं उनके जराइम में 
सबसे ज्यादा सख्त जुर्म वह है जिसकी मिसाल मदीने में मस्जिदे जिरार की सूरत में सामने 
आई। उस वक्त मदीने में दो मस्जिदें थीं। एक आबादी के अंदर मस्जिदे नबवी। दूसरी 
मुजाफात (निकर क्षेत्र) में मस्जिदे कुबा । मुनाफिक मुसलमानों ने उसके तोड़ पर एक तीसरी 








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सूरह-9. अत-तोबह 527 पारा ]7 


मस्जिद तामीर कर ली। इस किस्म की कार्रवाई बजाहिर अगरचे दीन के नाम पर होती है मगर 
हकीकत मेंइसका मकसद होता है अपनी कयादत और पेशवाई को कयम रखने के तिर हक 
की दावत का मुख़ालिफ (विरोधी) बन जाना । जो लोग अपनी खुदपरस्ती की वजह से हक की 
दावत को कुबूल नहीं कर पाते वे उसके खिलाफ महाज बनाते हैं; उसके खिलाफ तरीबी (विध 
वंसक) कार्रवाइयां करते हैं। उनकी मंफी (सकारात्मक) सरगर्मियां मुसलमानों को दो गिरोहों में 
बांट देती हैं। ऐसे लोग अपने तरट्रीबी अमल को दीन के नाम पर करते हैं। यहां तक कि वे 
मुसल्लमा दीनी शख्सियतों को अपने स्टेज पर लाने की कोशिश करते हैं ताकि लोगों की नजर 
में उन्हें एतमाद हासिल हो जाए। 

ये लोग अपनी अंधी दुश्मनी में भूल जाते हैं कि हक की मुखालिफत (विरोध) दरअस्ल 
ख़ुदा की मुखालिफत है जो ख़ुदा की दुनिया में कभी कामयाब नहीं हो सकती। ऐसे लोगों के 
लिए जो चीज मुकदरदर है वह सिर्फ यह कि वे हसरत व अफसोस के साथ मरें और अल्लाह 
की रहमतों से हमेशा के लिए महरूम हो जाएं। 


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बिलाशुबह अल्लाह ने मोमिनों से उनके जान और उनके माल को ख़रीद लिया है जन्नत 
के बदले। वे अल्लाह की राह में लड़ते हैं। फिर मारते हैं और मारे जाते हैं। यह अल्लाह 
के जिम्मे एक सच्चा वादा है, तौरात में और इंजील में और कुरआन में। और अल्लाह 
से बढ़कर अपने वादे को पूरा करने वाला कौन है। पस तुम खुशियां करो उस मामले 
पर जो तुमने अल्लाह से किया है। और यही है सबसे बड़ी कामयाबी। वे तौबा करने 
वाले हैं। इबादत करने वाले हैं। हम्द (ईश-प्रशंसा) करने वाले हैं। ख़ुदा की राह में 
फिरने वाले हैं। रुकूअ करने वाले हैं। सज्दा करने वाले हैं। भलाई का हुक्म देने वाले 


है। बुराई से रोकने वाले हैं। अल्लाह की हदों का ख्याल रखने वाले हैं। और मोमिनों 
को ख़ुशख़बरी दे दो। (-2) 





अल्लाह का मोमिन बनना अल्लाह के हाथ अपने आपको बेच देना है। बंदा अपना माल 
और अपनी जिंदगी अल्लाह को देता है ताकि अल्लाह इसके बदले में अपनी जन्नत उसे दे दे। 


पारा ]7 528 सूरह-9. अत-तौबह 


यह दरअस्ल हवालगी और सुपुर्दगी की ताबीर है। किसी भी चीज से हकीकी तअल्लुक हमेशा 
हवालगी और सुपुर्दगी की सतह पर होता है। तअल्लुक का यही दर्जा अल्लाह के मामले में भी 
मत्लूब है। जन्नत की अबदी नेमतें किसी को कामिल हवालगी के बगैर नहीं मिल सकतीं । 
जब आदमी अल्लाह के दीन को इस तरह इख़्तियार करता है तो दीन का मामला उसके 
लिए कोई अलग मामला नहीं होता। बल्कि वह उसका जाती मामला बन जाता है। अब वही 
उसकी दिलचस्पियों और उसके उदिशों का मर्कज होता है। दीन अगर माल का तकाजा करे 
तो वह अपना माल उसके लिए हाजिर कर देता है। दीन के लिए अपने वक्‍त और अपनी 
सलाहियत को वक्फ करना पड़े तो वह अपने वक्‍त और अपनी सलाहियत को उसके लिए 
पेश कर देता है। यहां तक कि अगर वह मरहला आ जाए जबकि अपने वुजूद को मिटा कर 
या माल से बेमाल होने का खतरा मोल लेकर दीन में अपना हिस्सा अदा करना हो तो इससे 
भी वह दरेग़ नहीं करता। 
जो लोग इस तरह अपने को अल्लाह के हवाले करें उनके अंदर किस किस्म के इंफिरादी 
औसाफ पैदा होते हैं। उनकी हस्सासियत इतनी बेदार हो जाती है कि गलती होते ही वे उसे 
जान लेते हैं और फौरन अपनी गलती का एतराफ कर लेते हैं। वे अल्लाह के लिए बिछ जाने 
वाले होते हैं। वे खुदा की अज्मतों को इस तरह पा लेते हैं कि उनके कल्ब और जबान से 
बेइख्तियार इसका इज्हार होने लगता है। वे साएह हो जाते हैं, यानी इंसानी दुनिया से निकल 
कर ख़ुदाई दुनिया में जाना उनके लिए ज्यादा सुकून का बाइस होता है। ख़ुदा के आगे झुकना 
उनके लिए महबूब चीज बन जाता है। जो भी उनके रब्त (सम्पर्क) में आता है उसे भलाई 
के रास्ते पर डालने की कोशिश करते हैं। अपने सामने किसी को बुराई करते देखते हैं तो उसे 
रोकने के लिए खड़े हो जाते हैं। वे ख़ुदा की हदबंदियों के मामले में हद दर्जा चौकन्ना हो जाते 
हैं, वे अल्लाह की हदों के इस तरह निगहबान बन जाते हैं जिस तरह बाग़बान अपने बाग़ का। 
यही वे लोग हैं जिनके लिए खुदाई इनामात की ख़ुशख़बरी है। 
खुदा की जन्नत तमाम कीमती चीजों से ज्यादा कीमती है। मगर खुदा की जन्नत एक 
मोऊद (बाद का) इनाम है, वह नकद इनाम नहीं। जन्नत की इसी मुवज्जल (बाद की) नौइयत 
का यह नतीजा है कि लोग जन्नत को छोड़कर हकीर फायदों की तरफ भागे जा रहे हैं। 


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सूरह-9. अत-त्तौबह 529 पारा ]7 


नबी को और उन लोगों को जो ईमान लाए हैं रवा नहीं कि मुश्रिकों के लिए मग्फिरत 
(क्षमा) की दुआ करें, चाहे वे उनके रिश्तेदार ही हों जबकि उन पर खुल चुका कि ये 
जहन्नम में जाने वाले लोग हैं। और इब्राहीम का अपने बाप के लिए मग्फिरत की दुआ 
मांगना सिर्फ इस वादे के सबब से था जो उसने उससे कर लिया था। फिर जब उस 
पर खुल गया कि वह अल्लाह का दुश्मन है तो वह उससे बेतअल्लुक हो गया। बेशक 
इब्राहीम बड़ा नर्मदिल और बुर्दबार (उदार) था। और अल्लाह किसी कौम को, उसे 
हिदायत देने के बाद गुमराह नहीं करता जब तक उन्हें साफसाफ वे चीजे बता न दे 

जिनसे उन्हें बचना है, बेशक अल्लाह हर चीज का इलम रखता है। अल्लाह ही की 
सल्तनत है आसमानों में और जमीन में, वह जिलाता है और वही मारता है। और 
अल्लाह के सिवा न तुम्हारा कोई दोस्त है ओर न मददगार। (3-6) 





एक शख्स मुंकिर व मुश्रिकि हो और उसके सामने इतमामे हुज्जत (आह्वान की अति) की 
हद तक दीन की दावत आ जाए, इसके बावजूद वह ईमान न लाए तो खुदा के कानून के 
मुताबिक वह जहन्नमी हो जाता है। ऐसे शख्स के लिए इसके बाद नजात की दुआ करना गोया 
ईमान को बेवकअत बनाना और खुदाई इंसाफ की तरदीद करना है, यही वजह है कि ऐसी दुआ 
से मना कर दिया गया। 

ताहम आयत में मिन बअ-दि मा तबय्य-न' का लफ्ज बताता है कि इस हुम का तअल्लुक 
रिसालत के जमाने के मुश्रिकीन से है जिनके बारे में 'वही' के जरिए बता दिया गया था कि 
वे जहन्नमी हैं। इन आयतों का पसमंजर यह है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को 
यह हुक्म दिया गया था कि आप मुनाफिकीन की नमाजे जनाजा न पढ़ें और उनके हक में 
मग्फिरत की दुआ न करें (अत तौबा 84)। यह बात मदीना के मुनाफिकों को बहुत नागवार 
हुई । उन्होंने इसे लेकर आपके खिलाफ प्रोपेगंडा शुरू कर दिया। वे कहते कि यह नबी तो नबी 
रहमत हैं और अपने को इब्राहीम का पैरोकार बताते हैं। फिर क्या वजह है कि मुसलमानों को 
अपने भाइयों और अपने रिश्तेदारों के लिए इस्तग़फार से रोकते हैं। हालांकि इब्राहीम का हाल 
यह था कि अपने मुश्रिक बाप के लिए भी उन्होंने मग्फिरत की दुआ की। 

जवाब दिया गया कि इब्राहीम बड़े दर्दमंद और इंसानियत के गम में घुलने वाले थे। अपने 
इस जज्बे के तहत उन्होंने अहद कर लिया कि वह अपने मुश्रिक बाप के हक में खुदा से दुआ 
करेंगे। मगर जब 'वही' ने तंबीह की तो इसके बाद वह फौरन इससे बाज आ गए। 

अल्लाह ने हर आदमी के अंदर बुराई की फितरी तमीज रखी है। जब आदमी के सामने 
एक ऐसा पैग़ाम आता है जो उसे बुराई से रोकता है तो उसका वुजूद अंदर से उसकी तस्दीक 
करता है। उसके दिल के अंदर एक खामोश खटक पैदा होती है। आदमी अगर इस खटक को 
नजरअंदाज कर दे, वह फितरत की गवाही के बावजूद बचने वाली चीज से न बचे तो उसकी 
फितरी हस्सासियत (संवेदनशीलता) कमजोर पड़ जाती है, यहां तक कि धीरे-धीरे बिल्कुल मुर्दा 
हो जाती है। यही वह चीज है जिसे गुमराह करने से ताबीर किया गया है। 'हिदायत देने के बाद 
गुमराह करना” के अल्फाज बता रहे हैं कि इसका ख़तरा मुसलमानों के लिए भी उसी तरह है 
जिस तरह गैर मुसलमानों के लिए। 








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पारा ]7 530 सूरह-9. अत-तौबह 


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अल्लाह ने नबी पर और मुहाजिरीन व अन्सार पर तवज्जोह फरमाई जिन्होंने तंगी के वक्‍त 

मे नबी का साथ दिया, बाद इसके कि उनमें से कुछ लोगों के दिल कजी की तरफ मायल 

हो चुके थे। फिर अल्लाह ने उन पर तवज्जोह फरमाई। बेशक अल्लाह उन पर महरबान 

है रहम करने वाला है। और उन तीनों पर भी उसने तवज्जोह फरमाई जिनका मामला 
उठा रखा गया था। यहां तक कि जब जमीन अपनी वुस्अत के बावजूद उन पर तंग हो 
गई और वे खुद अपनी जानों से तंग आ गए और उन्होंने समझ लिया कि अल्लाह से 
बचने के लिए ख़ुदा अल्लाह के सिवा कोई जाएपनाह (शरण-स्थल) नहीं। फिर अल्लाह 
उनकी तरफ पलटा ताकि वे उसकी तरफ पलट आएं। बेशक अल्लाह तोबा कुबूल करने 

वाला रहम करने वाला है। (।7-8) 


तबूक की लड़ाई के मौके पर एक गिरोह वह निकला जिसने अपना बेहतरीन असासा 
इस्लाम के हवाले कर दिया। उनकी फसल कटने के लिए तैयार थी मगर वह उसे छोड़कर एक 
ऐसे सफर पर रवाना हो गए जिसमें सर्न गर्मी के तीन सौ मील तै करके वक्त की सबसे बड़ी 
ताकत व सल्तनत का मुकाबला करना था। सामान की कमी का यह हाल था कि एक-एक ऊट 
पर कई-कई आदमियों की बारी लगी हुई थी। खाने के लिए कभी-कभी सिफ एक खजूर एक 
आदमी के हिस्से में आती थी। ताहम यह इंतिहाई सर मरहला सिफ इरादों के इम्तेहान के 
लिए सामने लाया गया था। जब इरादा करने वालों ने इरादे का सुबूत दे दिया तो ख़ुदा ने दुश्मन 
के ऊपर रौब तारी कर दिया। वे मुकाबले के मैदान से हट गए और मुसलमान खून बहाए बगैर 
कामयाब व कामरान होकर वापस आ गए। 

दूसरा तबका मोतरिफीन (अत तौबा 02) का था। ये लोग अपने दुनियावी मशागिल 
(व्यस्तताओं) की वजह से सफर पर रवाना न हो सके। ताहम फौरन ही बाद उन्हें महसूस हो 
गया कि उन्होंने गलती की है। उनके अंदर एतराफ और शर्मिन्दगी की आग भड़क उठी। उनके 
आंसुओं की कसरत ने उनके अमल की कमी की तलाफी कर दी। ख़ुदा ने उन्हें भी अपनी 
रहमतों के साये मे जगह दे दी। क्योंकि उन्होंने आजिजाना तौर पर अपनी गलती को मान लिया 
था। 

तीसरा गिरोह मुखल्लफीन (अत-तौबह 8) का था। ये तीन नौजवान काब बिन मालिक, 
मुरारा बिन रबीअ, हिलाल बिन उमैया थे। वे अगरचे सफर पर न निकलने को अपनी कोताही 


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सूरह-9. अत-तोबह 53] पारा ]7 


समझत थे मगर उनके अंदर तौबा व इनाबत (अल्लाह की तरफ विनय-भाव से झुकना) का इतना 
शदीद एहसास पहले मरहले में नहीं उभरा था जो मत्लूबा मेयार के मुताबिक हो। चुनांचे उनके साथ 
समाजी बायकॉट का मामला किया गया । ये लोग इस बायकॉट के बावजूद मुतमइन रह सकते थे। 
वे अपने घर और अपने बागों में मशगूल हो जाते। वे बरहमी (खिन्नता) और नावफादारी के रास्तों 
पर चलना शुरू कर देते। वे नाराज अनासिर (तत्वों) के साथ मिलकर अपनी अलग जमीयत बना 
लेते। वे आम मुसलमानों से अलग अपना एक जजीरा बनाकर उसके अंदर अपनी खुशियों की 
दुनिया बसा सकते थे। मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया। ख़ुदा व रसूल से दूरी के एहसास ने उन्हें 
इस कद्र परेशान कर दिया कि न बाहर उनके लिए सुकून की कोई जगह नजर आई और न अपने 
दिल के अंदर उनके लिए सुकून का कोई गोशा बाकी रहा। बअल्फाजे दीगर उनकी परेशानी 
इख्तियाराना थी न कि मजबूराना । उनकी इस रविश का नतीजा यह हुआ कि उनका दिल पिघल 
उठा। 50 दिन में वे तौबा व इनाबत के मत्लूबा मेयार पर पहुंच गए। इसके बाद उन्हें भी माफ 
कर दिया गया। ६ 
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ऐ ईमान वालो, अल्लाह से डरो और सच्चे लोगों के साथ रहो। मदीना वालों और 
अतराफ (आसपास) के देहातियों के लिए जेबा न था कि वे अल्लाह के रसूल को छोड़कर 

पीछे बैठे रहं और न यह कि अपनी जान को उसकी जान से अजीज रखें। यह इसलिए 

कि जो प्यास और थकान और भूख भी उन्हें खुदा की राह में लाहिक होती है और जो 
कदम भी वे मुंकिरों को रंज पहुंचाने वाला उठाते हैं और जो चीज भी वे दुश्मन से छीनते 

हैं इनके बदले में उनके लिए एक नेकी लिख दी जाती है। अल्लाह नेकी करने वालों 
का अत्र (प्रतिफल) जाया नहीं करता। और जो छोटा या बड़ा खर्च उन्होंने किया और 

जो मैदान उन्होंने तै किए वे सब उनके लिए लिखा गया ताकि अल्लाह उनके अमल 
का अच्छे से अच्छा बदला दे। (9-27) 


























इंसानी जिंदगी इज्तिमाई जिंदगी है। यही वजह है कि हर आदमी का अपने जैक और 


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सूरह-9. अत-तौबह 


रूझान के एतबार से एक हलका बन जाता है जिसमें वह अपने रोज व शब गुजारता है। जो 
लोग अल्लाह से डरने वाले हों और ईमान के रास्ते पर चलना चाहें उनके लिए लाजिम है कि 
वे अपनी सोहबतों और मुलाकातों के लिए उन लोगों को चुनें जो सच्चे लोग हों। यानी जिनके 
दिल का ख़ौफे खुदा उनकी जिंदगी की रविश बन गया हो। जिनके कौल व अमल के दर्मियान 
मुताबिकत पाई जाती हो। सच्चों के साथ रहकर आदमी सच्चा बन जाता है। इसके बरअक्स 
अगर वह झूठों का साथ पकड़े तो बिलआखिर वह खुद भी झूठा बन जाएगा। 

आदमी के सामने ऐसे मौके आते हैं जबकि जान को ख़तरे में डाल कर इस्लाम की 
खिदमत करने का सवाल हो। जब भूख प्यास का मुकाबला करके इस्लाम के लिए अपना 
हिस्सा अदा करना हो। जब अपने को थका कर ख़ुदा की राह में आगे बढ़ना हो। जब दुश्मनों 
का ख़तरा मोल लेकर अपने को इस्लाम की सफ में शामिल करना हो। जब अपनी पुरसुकून 
जिंदगी को बरहम करके ख़ुदा व रसूल का साथ देना हो। ऐसे मौकों पर आदमी एहतियात 
और बचाव का तरीका इख्तियार करके पीछे बैठ जाने को पसंद करता है। वह भूल जाता है 
कि यही तो वे मौके हैं जबकि वह ख़ुदा के साथ अपने तअल्लुक का अमली सुबूत पेश कर 
सकता है। जबकि वह जन्नत के लिए अपनी उम्मीदवारी को खुदा की नजर में काबिले कुबूल 
साबित कर सकता है। 

ग़जवए तबूक के मौके पर पीछे रहने वालो में एक अबू ख़ैसमा अंसारी भी थे। 
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की रवानगी के बाद वह अपने बाग़ में गए। वहां 
खुशगवार साया था, बीवी ने पानी छिड़क कर जमीन को ठंडा किया, चटाई का फर्श बिछाया, 
ताजा खजूर के ख़ोशे लाकर सामने रखे और ठंडा पानी पीने के लिए पेश किया। अबू खैसमा 
दुनियावी आसानियों ही की ख़ातिर तबूक के सफर पर न जा सके थे। मगर जब जाने वाले 
और रहने वाले के दर्मियान फर्क इस इंतिहाई नौबत को पहुंच गया जो अब उनके सामने था 
तो अबू खैसमा उसे बर्दाश्त न कर सके। उन्होंने कहा "मैं यहां बाग़ में साये में हूं और ख़ुदा 
के बंदे लू और गर्मी में कोह व बयाबान तै कर रहे हैं' उन्होंने तलवार संभाली और तेज रफ्तार 
ऊंटनी पर सवार होकर उसी वक्त रवाना हो गए। यहां तक कि गर्द व गुबार में अटे हुए तबूक 
के कफ्लि से जा मिले। 


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और यह मुमकिन न था कि अहले ईमान सबके सब निकल खड़े हों। तो ऐसा क्यों 
न हुआ कि उनके हर गिरोह में से एक हिस्सा निकल कर आता ताकि वह दीन में समझ 


पेदा करता और वापस जाकर अपनी कौम के लोगों को आगाह (दीक्षित) करता ताकि 
वे भी परहेज करने वाले बनते। (22) 


पारा ।7 532 








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सूरह-9. अत-तोबह 533 पारा ]7 





कुरआन की यह आयत एक एतबार से जेरेबहस सूरतेहाल से मुतअल्लिक है और दूसरे 
एतबार से वह एक कुल्ली हुक्म को बता रही है। एक तरफ वह बताती है कि मदीने के 
अतराफ मे बसने वाले देहातियाँ की तालीम व तर्बियत किस तरह की जाए। दूसरी तरफ 
इससे मालूम होता है कि इस्लाम का तालीमी निजाम और नई नस्लों के लिए उसका तर्बियती 
ढांचा किन उसूली बुनियादों पर कायम होना चाहिए । 

तालीम एक ऐसा काम है जिसमें आदमी को दूसरी मशगूलियतों से फारिग होकर शामिल 
होना पढ़ता है। अब अगर सारे लोग बयकवक्त तालीमी काम में लग जाएं तो जिंदगी की 
दूसरी सरगर्मियां, मसलन हुसूले मआश (जीविका) की कोशिशें, मुतअस्सिर हो जाएंगी। 
इस्लाम का यह तरीका नहीं कि एक काम को बिगाड़ कर दूसरा काम अंजाम दिया जाए, 
इसलिए हुक्म दिया गया कि बारी-बारी का उसूल मुकर्रर करो। कुछ लोग तालीम के मकज 
में आएं तो कुछ और लोग दूसरी सरगर्मियों को अंजाम देने में लगे रहें। इस तरह दोनों काम 
बयकवक्त अंजाम पाते रहेंगे। 

इस आयत मेइस्लामी तालीम के लिए तफम्ेह फिङ्ीन का लफ्ज आया है। इससे 
माद मस्मिशे (प्रचलित आचार-शास्त्र संबंधी) तालीम नहीं है जो दीन की शक्ल 
(बमुकाबला रूहे दीन) के तफ्सीली इलम का नाम है और जिसके नतीजे में दीन का इलम 
मसाइल के इल्म के हममअना (समान) बन गया है। यहां तफक्लेह फिद्ठीन का मतलब रुदर 
के उतारे हुए असासी (मौलिक) दीन को जानना और उसमें समझ हासिल करना है। इससे 
मुराद वह इल्म है जो हक शनासी (सत्य का ज्ञान) पैदा करे जो बुनियादी हकीकतों से आदमी 
को बाख़बर करे और आखिरत की बुनियादों पर जिंदगी की तामीर करना सिखाए। 

आयत मंतफत्रोेह फिद्ठीन (तालीमे दीन) मवसद यह बताया गया हैकि आदमी कैम 
के ऊपर इंजार का काम करने के काबिल हो सके। इंजार के मअना हैं डराना। कुरआन में 
यह लफज आख़िरत के मसले से डराने और होशियार करने के लिए आया है। इससे मालूम 
हुआ कि इस्लामी तालीम से ऐसे अफराद तैयार हों जो कीमों के ऊपर ख़ुदा की तरफ से 
मुंजिर (डरानेवाला) बनकर खड़े हो सकें। ताकि लोग ख़ुदा से डरें और दुनिया की जिंदगी में 
उस रविश से बचें जो उन्हें आखिरत के अबदी अजाब की तरफ ले जाने वाली हो। इस्लामी 
तालीम दावत इलल्लाह की तालीम का नाम है न कि मारूफ मजनें में सिर्फ मसाइले फिक्ह 
या जुजयाते शरअ (शरीअत के विभिन्न अंगों) की तालीम का। 

इस एतबार से इस्लामी तालीम का निसाब दो ख़ास चीजों पर मुशतमिल होना 
चाहिए : 

. कुरआन व सुन्नत 

2. वे उलूम जो मदऊ (संबोधित वर्ग) की निस्बत से जरूरी हों। मसलन मुखातब की 

जवान, उसके तजफिक्र और उसकी नपिसयात, कह । 


पारा ]7 4 सूरह-9. अत-तौबह 


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ऐ ईमान वालो, उन मुंकिरों से जंग करो जो तुम्हारे आस-पास हैं और चाहिए कि वे 
तुम्हारे अंदर सख्ती पाएं और जान लो कि अल्लाह डरने वालों के साथ है। और जब 
कोई सूरह उतरती है तो उनमें से कुछ कहते हैं कि इसने तुम में से किस का ईमान 
ज्यादा कर दिया। पस जो ईमान वाले हैं उनका इसने ईमान ज्यादा कर दिया और वे 
खुश हो रहे हैं। और जिन लोगों के दिलों में रोग है तो उसने बढ़ा दी उनकी गंदगी 
पर गंदगी। और वे मरने तक मुंकिर ही रहे। क्या ये लोग देखते नहीं कि वे हर साल 
एक बार या दो बार आजमाइश में डाले जाते हैं, फिर भी न तोबा करते हैं और न सबक 
हासिल करते हैं। और जब कोई सूरह उतारी जाती है तो ये लोग एक दूसरे को देखते 
हैं कि कोई देखता तो नहीं, फिर चल देते हैं। अल्लाह ने उनके दिलों को फेर दिया 
इस वजह से कि ये समझ से काम लेने वाले लोग नहीं हैं। (23-27) 


'करीब के मुंकिरों से जंग करो' के अल्फाज बताते हैं कि इस्लामी जद्दोजहद कोई बेमंसूबा 
जद्दोजहद नहीं है बल्कि इसमें तर्तीब को मल्हूज रखना जरूरी है। पहले करीब की रुकावटों को 
काबू पाने की कोशिश की जाएगी और इसके बाद दूर की रुकावटों से निपटा जाएगा। इसी से 
यह बात भी निकली कि सबसे पहले मुजाहिदा (संघर्ष) खुद अपने नफ्स (अंतःकरण) से किया 
जाना चाहिए। क्योंकि आदमी के सबसे करीब खुद उसका अपना नफ्स होता है। बाहर के 
दुश्मनों की बारी इसके बाद आती है। फिर इस्लाम दुश्मनों से भी अव्वलन जो चीज मत्लूब है 
वह सख्ती (गिल्जह) है यानी वह मजबूती जो दुश्मनों के लिए रौब का बाइस बन जाए। 

इसी के साथ जरूरी है कि दुश्मनों के मुकाबले की सारी कार्रवाई तकवे की बुनियाद पर 
की जाए। तकवा (खुदा का ख़ौफ) की रविश ही मुसलमानों के लिए नुसरते खुदावंदी की 
जामिन है। तकवा से हटते ही वे खुदा की मदद से महरूम हो जाएंगे। वे खुदा से दूर हो जाएंगे 
और ख़ुदा उनसे। 





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सूरह-9. अत-तौबह 535 पारा ]7 
तकवा गोया बंदे और खुदा के दर्मियान नुक्ता-ए-मुलाकात है। जब आदमी ख़ुदा से डरता 
है तो वह अपने आपको उस मकाम पर लाता है जहां खुदा उसे देखना चाहता था जहां ख़ुदा 
ने उसे बुला रखा था। ऐसी हालत में तकवा ही आदमी को ख़ुदा के करीब करने वाला बन 
सकता है न कि कोई दूसरी चीज। जब खुदा अपने बंदे को मुत्तकी के रूप में देखना चाहता 
है तो वह उस बंदे की तरफ कैसे मुतवज्जह होगा जो गैर मुत्तकी के रूप में उसके सामने आए। 
कुरआन ने अपनी यह ख़ुसूसियत बयान की है कि उसकी आयतों को सुनकर मोमिनीन 
के ईमान में इजफ हेता है। मगर ईमान के इजफेका तअल्लु आदमी की अपनी कल्बी 
सलाहियत पर है न कि सिर्फ आयतों के सुन लेने पर डेढ़ हजार साल पहले जब कुरआन उतरा 
तोउसके अल्मजअमी सिर्फअत्फजवे वेतरिखन वाक्या नहींबनेये। उस वक्त कुआन 
की अहमियत को सिर्फ वही लोग समझ सकते थे जो हकीकत को उसकी मुजर्रद (मूल भावना) 
सूरत में देखने की सलाहियत रखते हों। जाहिरपरस्त मुनाफिकीन के अंदर यह सलाहियत न थी। 
उन्हें कुआन के अल्फज सिर्फ अल्फाज मालूम हेति थे। उनकी समझ मेंनहीं आता था कि 
चन्द अल्फाज का मज्मूआ किसी के यकीन व एतमाद मेइजफे का सबब कैसे बन जाएगा। 
चुनांचे जब कोई नई आयत उतरती तो वे यह कह कर मजाक उड़ते कि अरबी के इन अल्फाज 
ने तुम में से किसके ईमान में इजाफा किया। 
इस बात को आदमी उस वक्त तक नहीं समझ सकता जब तक वह तारीख़ को हटा कर 
कुरआन को उसके मुजर्रद रूप में देखने की नजर न पैदा करे। आज 'कुरआन' के लफ्ज के 
साथ वे तमाम तारीख़ अज्मतें शामिल हो चुकी हैं जो नुजूले कुरआन के वक्त मौजूद न थीं 
और बाद को हजार साल से ज्यादा असे में उसके गिर्द जमा हुई। 
मगर नुज़ूत के जमाने में कुआन की हैसियत सिर्फ एक किताब की थी। उस वक्‍त 
जाहिरबीं इंसान उसे सिर्फ एक 'किताब' के रूप में देखता था न कि तारीख़साज सहीफे 
(इतिहासनिर्माता ग्रंथ) के रूप में। वे लोग जो कुरआन को उसकी छुपी हुई अज्मत के साथ 
देख रहे थे जब वे कुरआन से गैर मामूली तास्सुर कुबूल करते तो जाहिरबीनों की समझ में न 
आता। वे कहते कि आखिर यह एक किताब ही तो है। फिर एक लफ्जी मज्मूए में वह कौन 
सी खास बात है कि लोग उससे इस कद्र मुतअस्सिर हो रहे हैं। 
खुदा ऐसे लोगों को बार-बार मुख़्तलिफ किस्म के झटके देता है ताकि उनके दिल की 
हस्सासियत बढ़े और वे बातों को ज्यादा गहराई के साथ पकड़ने के काबिल हो जाएं। मगर 
जब आदमी ख़ुद नसीहत न लेना चाहे तो कोई ख़ारजी (वाहय) चीज उसकी नसीहत के लिए 
काफी नहीं हो सकती । नसीहत लेने वाली कोई बात सामने आए और आदमी उसे नजरअंदाज 
कर दे तो उसका यह अमल उसे नसीहत के मामले में बेहिस बना देता है। 
'वे हर साल एक बार या दो बार आजमाइश में डाले जाते हैं मगर वे न तौबा करते हैं 
न सबक हासिल करते हैं। यहां आजमाइश से मुराद कहत, मर्ज, भूख वीह में मुन्तिला किया 
जाना है। इस किस्म की आफतें आदमी की जिंदगी में बार-बार पेश आती हैं मगर वह उनसे 
तौबा और इबरत (सीख) की गिजा नहीं लेता। तौबा हकीकतन तजक्कुर (साधना) के नतीजे 
का दूसरा नाम है। 


पारा ]7 536 सूरह-9. अत-तौबह 


हर आदमी के साथ ऐसा होता है कि साल में एक दो बार जरूर कुछ गैर मामूली वाकेयात 
पेश आते हैं। ये वाकेयात खुदाई हकीकतों की तरफ इशारा करने वाले होते हैं। कभी वे खुदा 
के मुकाबले में इंसान की बेचारगी को याद दिलाते हैं। कभी वे आखिरत के मुकाबले में मौजूदा 
दुनिया की बेवकअती को जाहिर करते हैं। ऐसे मौके आदमी के लिए एक बात का इम्तेहान 
होते हैं कि वह उन्हें अपने लिए सबक बनाए, वह मादूदी वाकेयात (भौतिक घटनाओं) में गैर 
मादूदी हकाइक (दिव्य यथार्थ) को देख ले। 

सबक वाली चीज से आदमी सबक क्यों नहीं ले पाता। इसकी वजह यह है कि वह एक 
चीज को दूसरी चीज से मरबूत नहीं कर पाता। दुनिया के वाकेयात से सबक लेने के लिए 
यह सलाहियत दरकार है कि आदमी एक बात को दूसरी बात से जोड़कर देखना जानता हो। 
वह जहिरी वाक्ये को छुपी हुई हकीकत से मिला कर देख सके। वह पेश आने वाली चीज 
के आइने में उस चीज को पढ़ सके जो अभी पेश नहीं आई। 


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तुम्हरे पास एक रसूल आया है जो ख़ुद तुम में से है। तुम्हारा नुक्सान में पड़ना उस 
पर शाक (असहय) है। वह तुम्हारी भलाई का हरीस (लालसा रखने वाला) है। ईमान 
वालों पर निहायत शफीक (करुणामय) और महरबान है। फिर भी अगर वे मुंह फेरें 
तो कह दो कि अल्लाह मेरे लिए काफी है। उसके सिवा कोई माबूद नहीं। उसी पर 
मैंने भरोसा किया। और वही मालिक है अर्श अजीम का। (28-29) 








इस आयत में रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की यह तस्वीर बताई गई है कि 
इस्लाम की जद्दोजहद में उनका सारा एतमाद सिर्फ एक अल्लाह पर है। वे लोगों को जिस 
खुदा की तरफ बुलाने के लिए उठे हैं वह ऐसा खुदा है जो सारे इक्तेदार (संप्रभुत्व) का मालिक 
है। तमाम ख़जानों की कुंजियां उसके पास हैं। रसूल इसी ईमान व यकीन की जमीन पर खड़ा 
हुआ है। इसलिए बिल्कुल फितरी है कि उसका सारा भरोसा सिर्फ एक खुदा पर हो। वह हर 
किस्म की मस्लेहतों और अंदेशों से बेपरवाह होकर हक की ख़िदमत में लगा रहे। 

फिर यह बताया कि खुदा का रसूल लोगों के हक में हद दर्जा शफीक और महरबान है। 
वह दूसरों की तकलीफों पर इस तरह कुट़ता है जैसे कि वह तकलीफ ख़ुद उसके ऊपर पड़ी 
हो। वह हिर्स की हद तक लोगों की हिदायत का तालिब है। हक की दावत (आह्वान) की 
जद्दोजहद के लिए उसे जिस चीज ने मुतहर्रिक किया है वह सरासर खैरख़ाही का जज्बा है 
न कि कोई शख्सी हौसला या कौमी मसला। वह ख़ुद लोगों की भलाई के लिए उठा है न कि 
अपनी जाती भलाई के लिए। 

अब्दुल्लाह बिन मसऊद से रिवायत है कि आप (सल्ल०) ने फरमाया : लोग परवानों की 





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सूरह-।0. यूनुस 537 पारा ।7 
तरह आग में गिर रहे हैं और मैं उनकी कमर पकड़ कर उन्हें आग में गिरने से रोक रहा हूं। 
(मुस्नद अहमद) 





रसूल की इस तस्वीर की शक्ल में हक के दा की तस्वीर हमेशा के लिए बता दी गई 
है। इससे मालूम होता है कि इस्लाम के दाओ के अंदर दो ख़ास सिफात नुमायां तौर पर होनी 
चाहिएं। एक यह कि उसका भरोसा सिर्फ एक अल्लाह पर हो। दूसरे यह कि मदऊ (संबोधित 
व्यक्ति) के लिए उसके दिल में सिर्फ मुहब्बत और खैरख्याही का जज्बा हो, इसके सिवा और 
कुछ न हो। अगरचे मदऊ की तरफ से तरह-तरह की शिकायतें पेश आती हैं। उसके और 
दाओ के दर्मियान कौमी और मादूदी (सांसारिक) झगड़े भी हो सकते हैं। इन सबके बावजूद 
यह मत्लूब है कि दाऔ (आह्वानकर्ता) इन तमाम चीजें को नजरअंदाज करे और मदऊ के 
लिए रहमत व राफ्त (हमदर्दी) के सिवा कोई और जज्बा अपने अंदर पैदा न होने दे। 

दाऔ को रद्देअमल की नफ्सियात से बुलन्द होना पड़ता है। उसे एकतरफा तौर पर 
ऐसा करना पड़ता है कि वह मदऊ का खैरख्याह बने, चाहे मदऊ ने उसके खिलाफ कितना 
ही ज्यादा काबिले शिकायत रवैया क्यों न इसख़्तियार किया हो। दाऔ ख़ुदा के लिए जीता है 
और मदऊ अपनी जात के लिए। 

इब्तदाए इस्लाम में जिन लोगों ने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का साथ दिया 
उनके लिए आपका साथ देना अपनी बनी बनाई जिंदगी को उजाइ देने के हममअना बन 
गया। इससे कुछ लोगों के अंदर यह ख्याल पैदा हुआ कि रसूल हमारे लिए मुसीबत बनकर 
आया है। मगर यह वही बात है जो ऐन मत्लूब है। हक की दावत इसीलिए उठती है कि लोगों 
को बताया जाए कि उनकी कुब्वतों और सलाहियतों का मसरफ आख़िरत की दुनिया है न कि 
मौजूदा दुनिया । इसलिए अगर रसूल का लाया हुआ दीन इख्तियार करने में दुनियावी नक्शा 
बिगड़ता हुआ नजर आए तो इस पर आदमी को मुतमइन रहना चाहिए। क्योंकि इसका 
मतलब यह है कि उसकी मताअ (सम्पत्ति) को खुदा ने आख़िरत के लिए कुबूल कर लिया। 


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आयतें-09 सूरह-0. यूनुस रुकूअ- 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान निहायत रहम वाला है। 
अलिफ० लाम० रा०। ये पुरहिक्मत (तत्वदर्शितामय) किताब की आयतें हैं। क्यों लोगों 
को इस पर हैरत है कि हमने उन्हीं में से एक शख्स पर “वही? (प्रकाशना) की कि लोगों 
को डराओ और जो ईमान लाएं उन्हें खुशखबरी सुना दो कि उनके लिए उनके रब के 








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पारा ।7 538 


सूरह-0. यूनुस 
पास सच्चा मर्तबा है। मुंकिरों ने कहा कि यह शख्स तो खुला जादूगर है। (-2) 


पैगम्बर का कलाम इंतिहाई मोहकम (ठोस) दलाइल पर आधारित होता है। वह अपने गैर 
मामूली अंदाज की बिना पर खुद इस बात का सुबूत होता है कि वह ख़ुदा की तरफ से बोल रहा 
है। इसके बावजूद हर जमाने में लोगों ने पैगम्बर का इंकार किया। इसकी वजह इंसान की 
जाहिरपरस्ती है। पेगम्बर अपने समकालीन की नजर में आम इंसानों की तरह बस एक इंसान 
होता है। उसके गिर्द अभी अज्मत की वह तारीख़ जमा नहीं होती जो बाद के जमाने में उसके 
नाम के साथ वाबस्ता हो जाती है। इसलिए पेगम्बर के जमाने के लोग पैगम्बर को महज एक 
इंसान समझ कर नजरअंदाज कर देते हैं। वे पैगम्बर को न खुदा के भेजे हुए की हैसियत से देख 
पाते और न मुस्तकबिल में बनने वाली तारीख़ के एतबार से इसका अंदाजा कर पाते जबकि 
हर आदमी उसकी पैगम्बराना अज्मत को मानने पर मजबूर होगा। 

पैगम्बर का कलाम सरापा एजाज (मोजिजा) होता है जो सुनने वालों को बेदलील कर 
देता है। मगर मुंकिरीन इसकी अहमियत को घटाने के लिए यह कह देते हैं कि यह अदबी 
जादूगरी है। वे दलील के मैदान में अपने आपको आजिज पाकर उसके ऊपर ऐब लगाने लगते 
हैं। इस तरह वे पैगम्बर के कलाम की सदाकत को मुशतबह (संदिग्ध) करते हैं। पैगम्बर का 
कलाम जिन लोगों को मफतूह (विजित) कर रहा था उनके बारे में यह तअस्सुर देते हैं कि वे 
महज सादगी में पड़े हुए हैं वर्ना यह सारा मामला अल्फाज के फरेब के सिवा और कुछ नहीं। 
यह जबान की जादूगरी है न कि कोई वाकई अहमियत की चीज। 

पैग़म्बर का असल मिशन इंजार व तब्शीर है। यानी ख़ुदा की पकड़ से डराना और जो 
लोग खुदा से डर कर दुनिया में रहने के लिए तैयार हों उन्हें जन्नत की ख़ुशख़बरी देना। 
पैगम्बर इसलिए आता है कि लोगों को इस हकीकत से आगाह कर दे कि आदमी इस दुनिया 
में आजाद और खुदमुख्तार नहीं है और न जिंदगी का किस्सा आदमी की मौत के साथ ख़त्म 
हो जाने वाला है। बल्कि मौत के बाद अबदी जिंदगी है और आदमी को सबसे ज्यादा उसी 
की फिक्र करना चाहिए। जो शज्ल॒ गफलत बरतेगा या सरकशी करेगा वह मौत के बाद की 
दुनिया में इस हाल में पहुंचेगा कि वहां उसके लिए दुख के सिवा और कुछ न होगा। 

जहिरपरस्त इंसान हमेशा यह समझता रहा है कि इज्जत और तखन उस श के लिए 
है जिसके पास दुनिया का इक्तेदार है, जो दुनिया की दौलत का मालिक है। पैगम्बर बताता है 
कि यह सरासर थेखा है। यह इज्जत व तखन तो वह है जो मैजूदा आरजे जिगी मेइंसानों 
के दर्मियान मिलती है। मगर इजत और तरकी दरअसल वह है जो मुस्तक्ल जिंशी मुद्र 
के यहां हसिल हो। वही इलत व तर्री हवीकी हे और इसी के साथ दाइमी भी। 


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सूरह-0. यूनुस 539 पारा ।7 
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बेशक तुम्हारा रब अल्लाह है जिसने आसमानां और जमीन को छः दिनों (चरणों) में 
पैदा किया, फिर वह अर्श पर कायम हुआ। वही मामलात का इंतिजाम करता है। 
उसकी इजाजत के कौर कोई सिफारिश करने वाला नहीं। यही अल्लाह तुम्हारा रब है 
पस तुम उसी की इबादत करो, क्या तुम सोचते नहीं। उसी की तरफ तुम सबको लोट 
कर जाना है, यह अल्लाह का पक्का वादा है। बेशक वह पेदाइश की इब्तिदा करता 
है, फिर वह दुबारा पेदा करेगा ताकि जो लोग ईमान लाए और उन्होंने नेक काम किए 


उन्हें इंसाफ के साथ बदला दे। और जिन्होंने इंकार किया उनके इंकार के बदले उनके 
लिए खौलता पानी और दर्दनाक अजाब है। (3-4) 





कायनात मेमुर्ललिफ किस्म की चीजँहैं। इल्मी मुताला बताता है कि इन चीजेंका जहूर 
एक ही वक्‍त में नहीं हुआ बल्कि तदरीज (क्रम) के साथ एक के बाद एक हुआ है। कुरआन 
इस तदरीजी तख़्तीक को छ: अदवार (९7०05) में तक्सीम करता है। यह दोरी (चरण बद्ध) 
तख़्लीक साबित करती है कि कायनात की पैदाइश शुऊरी मंसूबे के तहत हुई है। फिर कायनात 
का मुताला यह भी बताता है कि उसका निजाम हद दर्जा मोहकम नियमों के तहत चल रहा है। 
हर चीज ठीक उसी तरह अमल करती है जिस तरह सामूहिक तकाजे के तहत उसे अमल करना 
चाहिए । यह वाकया इस बात का वाजेह सुबूत है कि इस निज़ामे कायनात का एक जिंदा मुदब्बिर 
(संचालक) है जो हर लम्हा उसका इंतजाम कर रहा है। 

कायनात का यह हैरानकुन निजाम खुद ही पुकार रहा है कि उसका मालिक इतना कामिल 
और इतना अजीम है जिसके यहां किसी सिफारिशी की सिफारिश चलने का कोई सवाल नहीं। 
कायनात अपनी खुसूसियात के आइने में अपने ख़ालिक की खुसूसियात को बता रही है। 

सारी कायनात में 'किस्त' (न्याय) का निजाम कायम है। यहां हर एक के साथ यह हो 
रहा है कि जो कुछ वह करता है उसी के मुताबिक नतीजा उसके सामने आता है। हर एक 
को वही मिलता है जो उसने किया था और हर एक से वह छिन जाता है जिसके लिए उसने 
नहीं किया था। जमीन का जो हिस्सा रात के असबाब जमा करे वहां तारीकी फैल कर रहती 
है और जमीन का जो हिस्सा रोशनी के असबाब पैदा करे उसके ऊपर रोशन सूरज चमक कर 
रहता है। 

यह मादूदी (भौतिक) नताइज का हाल है। मगर अख्लाकी नताइज के मामले में दुनिया की 
तस्वीर बिल्कुल मुख्ललिफ नजर आती है। इंसान नेकी करता है और उसे नेकी का फल नहीं 
मिलता । इंसान सरकशी करता है मगर उसकी सरकशी अपना नतीजा दिखाए बगैर जारी रहती 
है। ख़ालिक की जो मर्जी उसकी दूसरी मख्लूकात (जीवों) में चल रही है उसकी वही मर्जी इंसान 
के मामलात में क्यों जाहिर नहीं होती । 


पारा 77 540 सूरह-0. यूनुस 
इसका जवाब यह है कि इंसान की जिंदगी में खुदाई इंसाफ के जुहूर को खुदा ने बाद को 

आने वाली दुनिया के लिए मुवख्र (लंबित) कर दिया है। पहली जिंदगी इंसान को अमल के 

लिए दी गई है, दूसरी जिंदगी उसे अपने अमल का नतीजा पाने के लिए दी जाएगी। और दूसरी 

जिंदगी का जुहूर यकीनन इतना ही मुमकिन है जितना पहली जिगी का जुहू । 


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अल्लाह ही है जिसने सूरज को चमकता बनाया और चांद को रोशनी दी और उसकी 
मंजिलें मुकर कर दीं ताकि तुम वर्षो का शुमार और हिसाब मालूम करो। अल्लाह ने 
ये सब कुछ बेमक्सद नहीं बनाया है। वह निशानियां खोल कर बयान करता है उनके 
लिए जो समझ रखते हैं। यकीनन रात और दिन के उलट फेर में और अल्लाह ने जो 
कुछ आसमानाँ और जमीन में पैदा किया है उनमें उन लोगों के लिए निशानियां हैं जो 
डरते हैं। (5-6) 








सूरज हमारी जमीन से निहायत दुरुस्त फासले पर कायम है, यही वजह है कि वह हमारे 
लिए रोशनी और हरारत जैसी नेमतों का जाना बना हुआ है। अगर इस अंदाजे में फर्क हो 
जाए तो सूरज हमारे लिए सूरज न रहे बल्कि आग का जहन्नम बन जाए, वह जिंदगी के 
बजाए मौत का पैगाम साबित हो। चांद एक हददर्जा रियाजियाती (गणितीय) हिसाब के 
मुताबिक अपने मदार (कक्ष) पर ठीक-ठीक गर्दिश करता है। इसी बिना पर यह मुमकिन होता 
है कि चांद बजाते ख़ुद बेनूर होने के बावजूद हमारे लिए न सिर्फ ठंडी रोशनी दे बल्कि महीने 
और साल की कुदरती तवयीम (कलेंडर) भी फराहम करे। ये फल्कियाती (आकाशीय) 
निशानियां साबित करती हैं कि इस कायनात में गहरी मक्सदियत है, और मक्सदियत वाली 
कायनात का आखिरी अंजाम बेमक्सद नहीं हो सकता। 

फिर हमारी दुनिया में रात के बाद दिन का आना मादूदी तमसील (भौतिक प्रक्रिया) की 
जवान मेइस अख्ललाकी हकीकत को बता रहा है कि मैना दुनिया मेयह कनून नाफिजहि 
कि तारीकी के बाद रोशनी फेले, अंधेरे के बाद उजाले का जुहूर हो। यहां हुकूक की पामाली 
के बाद हुवूक़् की अदायगी का निजाम आने वाला है। इंसान की सरकशी की जगह खुदाई 
इंसाफ को गलबा मिलने वाला है। यहां उस वक्‍त का आना सुनिश्चित है जबकि धांधली ख़त्म 
हो और हक के एतराफ का माहोल चारों तरफ कायम हो जाए। 

आहित की हकीकतेंको खुदरा ने निशानियेंके अंदाज मंजहिर किया है। बअल्फजे 
दीगर, खुदा मौजूदा दुनिया में दलील के रूप में जाहिर होता है न कि महसूस मुशाहिदे (अवलोकन) 





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सूरह-0. यूनुस 54] पारा 7 


के रूप में। फिर ख़ुदा जिस रूप में अपना जलवा दिखाता है उसी रूप में हम उसे पा सकते 
हैं न कि किसी और रूप में। 

ख़ुदा ने इस दुनिया में हिदायत के रास्ते खोल रखे हैं मगर यह हिदायत उन्हीं का मुकदूदर 
है जो खुदाई नक्शे के मुताबिक उसकी पैरवी करने के लिए तैयार हों। यहां वही लोग सही रास्ते 
पर चलने की तौफीक पाएंगे जो दलील की जबान में बात को समझने और मानने के लिए तैयार 
हों। जो लोग सच्ची दलील के आगे न झुकें वे गोया ख़ुदा के आगे नहीं झुके । उन्होंने खुदा 
को नहीं माना । ऐसे लोगों को अपने लिए जहन्नम के सिवा किसी और चीज का इंतिजार न 
करना चाहिए। 

जमीन व आसमान में अगरचे बेशुमार निशानियां फैली हुई हैं मगर वे उन्हीं लोगों के 
लिए सबक बनती हैं जो डर रखने वाले हैं। डर या अंदेशा वह चीज है जो आदमी को संजीदा 
बनाता है। जब तक आदमी किसी मामले में संजीदा न हो वह उस मामले पर पूरा ध्यान नहीं 
देगा और न उसके पहलुओं को समझेगा। पूरी कायनात एक जबरदस्त तख्तीकी तवाजुन 
(संतुलन) में जकड़ी हुई है। यह इस बात का खुला हुआ इशारा है कि कायनात का मालिक 
ऐसा मालिक है जो इंसान को पकड़ने की ताकत रखता है। इसी तरह पहली जिंदगी जिसका 
हम तजर्बा कर रहे हैं वह इसका यकीनी सुबूत है कि दूसरी जिंदगी भी मुमकिन है। मौजूदा 
दुनिया में मादूदी नताइज का निकलना मगर अख़्लाकी नताइज का न निकलना तकाजा करता 
है कि एक और दुनिया बने जहां अख़्लाकी नताइज अपनी पूरी सूरत में जाहिर हों। ये सब 
इंतिहाई मोहकम बातें हैं मगर इनका मोहकम होना वही शख्स जानेगा जो अंदेशे की 
नपिसियात के तहत जिंदगी के मामले को देखता हो। 


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बेशक जो लोग हमारी मुलाकात की उम्मीद नहीं रखते और दुनिया की जिंदगी पर राजी 

और मुतमइन हैं और जो हमारी निशानियों से बेपरवा हैं, उनका ठिकाना जहन्नम होगा 
इस सबब से कि जो वे करते थे। बेशक जो लोग ईमान लाए और नेक काम किए, 
अल्लाह उनके ईमान की बदौलत उन्हें पहुंचा देगा। उनके नीचे नहरें बहती होंगी नेमत 
के बागों में। उसमें उनका कौल होगा कि ऐ अल्लाह तू पाक है। और मुलाकात उनकी 

सलाम होगी। और उनकी आखिरी बात यह होगी कि सारी तारीफ अल्लाह के लिए 

है जो रब है सारे जहान का। (7-0) 


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पारा 77 542 सूरह-।0. यूनुस 


जहन्नम किसके लिए है। उन लोगों के लिए जो उस दिन को भूले हुए हों जबकि ख़ुदा 
से उनका सामना होगा । जो आखिरत की अबदी (चिरस्थाई) नेमतों के मुकाबले में दुनिया की 
आरजी (क्षणिका) चीजों पर राजी हो गए हों। जिनका यह हाल हो कि दुनिया में जो कुछ उन्हे 
इम्तेहान के तौर पर मिला है उसी पर वे मुतमइन हो जाएं। जो गैर खुदाई चीजों में इतना दिल 
लगा लेंकि खुदा की तरफ से जाहिर की जानी वाली हकीकतों से गाफिल हो जाएं। यह सब 
ख़ुदा के नजदीक जहन्नमी रास्तों में चलना है, और जो लोग जहन्नमी रास्तों पर चल रहे हों 
वे आखिरकार जहन्नम के सिवा और कहां पहुंचेंगे । 

“अल्लाह उन्हें उनके ईमान की वजह से जन्नत की मंजिल तक पहुंचाएगा' इससे मालूम 
हुआ कि ईमान आदमी के लिए रहनुमाई है। वह आदमी को ग़लत राहों से बचा कर सही 
रास्ते पर चलाता रहता है, यहां तक कि उसे हकीकी मंजिल तक पहुंचा देता है। 

ईमान खुदा की दरयाफ्त (खोज) है। जिस आदमी को ईमान हासिल हो जाए उसे इल्म 
का सिरा हाथ आ जाता है, वह इस काबिल हो जाता है कि हर मामले में सही मकाम से 
अपनी सोच का आगाज कर सके। वह फिक्री (वैचारिक) बेराहरवी से बचकर फिक्री सेहत का 
मालिक बन जाए। मजीद यह कि खुदा को मानना किसी किताबी फलसफे को मानना नहीं 
है। यह एक जिंदा ख़ुदा को मानना है जो बिलआखिर तमाम इंसानों को अपने यहां जमा 
करके उनका हिसाब लेने वाला है। इस तरह ईमान आदमी के अंदर अपने अंजाम के बारे में 
अंदेशे की कैफियत पैदा करके उसे इंतिहाई संजीदा इंसान बना देता है। वह अपने को मजबूर 
पाता है कि अपनी तमाम कार्रवाइयों को सही और गलत की रोशनी में देखे और सिफ सही 
रुख़ पर चले और गलत रुख़ पर चलने से हमेशा परहेज करे। 

इस तरह ईमान आदमी को सही फिक्र (सोच) भी देता है और इसी के साथ वह कुव्वते 
तमीज (सही गलत की पहचान) भी जो उसके लिए मुस्तकिल अमली रहनुमा बन जाए। 

आखिरत की जन्नत उन लोगों के लिए है जिन्होंने दुनिया में अपने आपको उसका 
मुस्तहिक साबित किया हो। आख़िरत ख़ुदा के बराहेरास्त (प्रत्यक्ष) जलवों में सरशार होने का 
मकाम है, वहां बसने का मौका सिर्फ उन लोगों को मिलेगा जो दुनिया में खुदा के बिलवास्ता 
(परोक्ष) जलवों से सरशार हुए थे। आखिरत में लोगों के दिल एक दूसरे के लिए सलामती और 
खैरख्याही के जज्बात से भरे हुए होंगे, इसलिए वहां की आबादी में वही लोग जगह पाएंगे 
जिन्होंने दुनिया में इस बात का सुबूत दिया था कि दूसरों के लिए उनके दिल में सलामती और 
खैररख्ाही के सिवा कोई दूसरा जज्बा नहीं। 


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सूरह-0. यूनुस 543 पारा 7 


अगर अल्लाह लोगों के लिए अजाब उसी तरह जल्दी पहुंचा दे जिस तरह वह उनके 
साथ रहमत में जल्दी करता है तो उनकी मुद्दत ख़त्म कर दी गई होती। लेकिन 
हम उन लोगों को जो हमारी मुलाकात की उम्मीद नहीं रखते उनकी सरकशी में 
भटकने के लिए छोड़ देते हैं। और इंसान को जब कोई तकलीफ पहुंचती है तो वह 
खड़े और बैठे और लेटे हमें पुकारता है। फिर जब हम उससे उसकी तकलीफ को 
दूर कर देते हैं तो वह ऐसा हो जाता है गोया उसने कभी अपने किसी बुरे वक्‍त पर 
हमें पुकारा ही न था। इस तरह हद से गुजर जाने वालों के लिए उनके आमाल 
खुशनुमा बना दिए गए हैं। (-2) 





खुदा का कानून यह है कि कोई शख्स काबिले इनाम अमल करे तो उसका अमल फौरन 
उसके आमालनामे में शामिल कर दिया जाता है। लेकिन अगर कोई शख्स काबिले सजा 
फेअल करता है तो ख़ुदा उसे ढील देता है ताकि वह किसी न किसी मोड़ पर सचेत होकर 
अपनी इस्लाह कर ले। खुदा का यह कानून इंसान के लिए बहुत बड़ी नेमत है, वर्ना इंसान 
इतना जालिम है कि वह हर वक्त बुराई करने पर आमादा रहता है, और अगर लोगों को 
उनकी बुराइयों पर फौरन पकड़ा जाने लगे तो उनकी मोहलते उम्र बहुत जल्द ख़त्म हो जाए 
और जमीन की पुश्त चलने वाले इंसानों से ख़ाली हो जाए। 

दुनिया की जिंदगी में सरकश वे लोग बनते हैं जो दुनिया में यह समझ कर रहें कि मरने 
के बाद उन्हें ख़ुदा का सामना नहीं करना होगा। जो पकड़ के अंदेशे से ख़ाली होकर जिंदगी 
गुजारते हैं। जो समझते हैं कि वे आजाद हैं कि जो धांधली चाहें करें और जो फसाद चाहें 
फैलाएं। हकीकत यह है कि लोगों के दर्मियान सच्चाई और इंसाफ के साथ मामला करने का 
एक ही हकीकी मुहर है। और वह यह कि आदमी यह समझे कि सब ताकतवरों के ऊपर 
एक ताकतवर है। हर आदमी उसके आगे बेबस है। वह एक दिन तमाम इंसानों को पकड़ेगा 
और हर एक मजबूर होगा कि अपने बारे में उसके फैसले को तस्लीम करे। 

दुनिया का निजाम इस तरह बना है कि आदमी बार-बार किसी न किसी तकलीफ या 
हादसे की जद में आ जाता है, आदमी महसूस करने लगता है कि ख़ारजी (वाहय) ताकतों के 
मुकाबले में वह बिल्कुल बेबस है। उस वक्‍त आदमी बेइस्तियार होकर खुदा को पुकारने 
लगता है। वह खुदा की कुदरत के मुकाबले में अपने इज्ज का एतराफ कर लेता है। मगर यह 
हालत सिर्फ उस वक्‍त तक रहती है जब तक वह मुसीबतों की गिरफ्त में हो, मुसीबत से 
नजात पाते ही वह दुबारा वैसा ही गाफिल और सरकश बन जाता है जैसा वह पहले था। ऐसे 
लोगों के इज्हारे बंदगी को ख़ुदा तस्लीम नहीं करता। क्योंकि इज्हारे बंदगी वह मत्लूब है 
जो आजादाना हालात में की जाए, मजबूराना हालात में जाहिर की हुई बंदगी की खुदा के 
नजदीक केई कीमत नही। 

आदमी एक तौजीहपसंद मख़्तूक है। वह हर अमल का एक जवाज (औचित्य) तलाश 
करता है। अगर आदमी सरकशी को अपने लिए पसंद कर ले तो उसका जेहन भी उसी तरफ 
मुड़ जाएगा। वह अमलन सरकशी करेगा और उसका जेहन उसकी सरकशी को दुरुस्त साबित 





पारा 77 544 सूरह-0. यूनुस 
करनेके लिए उसे खुबसूरत अल्फाज फराहम करता रहेगा । इसी का नाम तजईने आमाल है। आदमी 

अपनी गलतियों को खुशनुमा अल्फाज में बयान करके अपने को मुतमइन कर लेता है कि वह हक 

पर है। मगर यह ऐसा ही है जैसे कोई शख़्स आग का अंगारा अपने हाथ में ले ले और समझे 
कि वह उसे नहीं जलाएगा क्योंकि उसका नाम उसने सुर्ख़ फूल रख दिया है। 


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और हमने तुमसे पहले कौमा को हलाक किया जबकि उन्होंने जुल्म किया। और उनके 
पेग़म्बर उनके पास खुली दलीलों के साथ आए और वे ईमान लाने वाले न बने। हम 
ऐसा ही बदला देते हैं मुजरिम लोगों को। फिर हमने उनके बाद तुम्हें मुल्क में जानशीन 
(उत्तराधिकारी) बनाया ताकि हम देखें कि तुम कैसा अमल करते हो। (3-4) 





पैगम्बर अपनी कीमों के पास बय्यिनात के साथ आए मगर उन्होंने न माना।' बय्यिनह 
बहुवचन बय्यनात के मअना दलील के हैं, इससे मालूम होता है कि ख़ुदा का दाऔ हमेशा 
बय्यिनात की बुनियाद पर उठता है। लोगों को उसे दलाइल की सतह पर पहचानना पड़ता 
है। जो लोगा जाहिरी अज्मतों और अवामी इस्तकबालियों में खुदा के दाऔ को पाना चाहें वे 
कभी उसे नहीं पाएंगे, क्योंकि खुदा का दाओ वहां मौजूद ही नहीं होता। नबी मोजिजा 
दिखाता है। मगर मोजिजा आखिरी मरहले में इतमामे हुज्जत (आह्वान की अति) के लिए 
आता है, दावती मरहले में सारा काम दलाइल की बुनियाद पर होता है। 

किसी शख्स या गिरोह का जालिम होना यह है कि वह दलील के रूप में जाहिर होने वाली 
दावते ख़ुदावंदी को न पहचाने और अपने ख़ुदसाख्ता मेयार पर न पाने की वजह से उसका इंकार 
कर दे। ऐसे लोग अपनी इस रविश की वजह से खुदाई कानून की जद में आ जाते हैं 

माजी की जिन कँमों पर इंकारे नुबुब्यत के जुर्म में खुदा का अजाब नाजिल हुआ वे सिरे 
से नुबुव्वत की मुंकिर न थीं। ये तमाम कौमें किसी न किसी साबिक (पूर्ववर्ती) पैगम्बर को 
मानती थीं। अलबत्ता उन्होंने वक्‍त के पैग़म्बर को मानने से इंकार कर दिया था। पिछले 
पैगम्बर का मामला यह था कि उसकी पुश्त पर तारीख़ की तस्दीकात (पुष्टियां) कायम हो गई 
थीं और कौमी अस्बियतें उसके साथ वाबस्ता हो चुकी थीं। जबकि मुआसिर (समकालीन) 
पैगम्बर अभी इस किस्म की इजाफी खुसूसियात (अतिरिक्त विशिष्टताओं) से ख़ाली था। 
उन्होंने उस गुजरे हुए पैगम्बर का इकरार किया जो नस्लों की रिवायतों के नतीजे में उनका 
कौमी पैगम्बर बन चुका था, जिसके साथ अपने को मंसूब करना तारीख़ी अज्मत के मीनार 
से अपने को मंसूब करने के हममअना था। उन्होंने अपने कौमी पैगम्बर को पैगम्बर माना 
मगर उस पैगम्बर का इंकार कर दिया जिसे सिर्फ दलील और बुरहान (सुस्पष्ट तर्क) के जरिए 
जाना जा सकता था। 

यह जुर्म खुदा की नजर में इतना शदीद था कि वे लोग नबी के मुंकिर करार देकर हलाक 


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सूरह-।0. यूनुस 545 पारा ।7 
कर दिए गए। 

फिर हमने इसके बाद तुम्हे मुल्क में खलीफा बनाया ।' खलीफा के अस्ल मअना हैं बाद 
को आने वाला । यह लफ्ज जानशीन (उत्तराधिकारी), ख़ास तौर पर, इक्तेदार (सत्ता) में जानशीन 
के लिए बोला जाता है। यह जानशीनी इंसान की होती है न कि ख़ुदा की । कोई इंसान इक्तेदार 
में खुदा का जानशीन नहीं हो सकता । इंसान हमेशा किसी मख्तूक का जानशीन होता है। कुरआन 
में जहां भी खिलाफत का लफ्ज आया है वह मख्लूक की जानशीनी के लिए है न कि खुदा की 
जानशीनी के लिए। 

किसी को खलीफा (जानशीन) बनाना एजाज के लिए नहीं बल्कि सिर्फ इम्तेहान के लिए 
होता है। जानशीन बनाने का मतलब एक के बाद दूसरे को काम का मौका देना है, एक कौम 
के बाद दूसरी कौम को इम्तेहान के मैदान में खड़ा करना है। जैसे हिंदुस्तान में देसी राजाओं 
को जगह मुगलों को इख्तियार दिया गया । फिर उन्हें हटाकर अंग्रेज उनके जानशीन बनाए गए। 
इसके बाद उन्हें मुल्क से निकाल कर अक्सरियती फिरके के लिए जगह ख़ाली की गई। इनमें 
से हर बाद को आने वाला अपने पहले का खलीफा (उत्तराधिकारी) था। 


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और जब उन्हें हमारी खुली हुई आयतें पढ़कर सुनाई जाती हैं तो जिन लोगों को हमारे 
पास आने का खटका नहीं है वे कहते हैं कि इसके सिवा कोई और कुरआन लाओ या 
इसको बदल दो। कहो कि मेरा यह काम नहीं कि मैं अपने जी से इसको बदल दूं। में 
तो सिर्फ उस “वही” (ईश्वरीय वाणी) की पैरवी करता हूं जो मेरे पास आती है। अगर मैं 
अपने रब की नाफरमानी करूं तो में एक बड़े दिन के अजाब से डरता हूं। कहो कि अगर 
अल्लाह चाहता तो मैं इसको तुम्हें न सुनाता और न अल्लाह इससे तुम्हें बाख़बर 
करता। में इससे पहले तुम्हारे दर्मियान एक उम्र बसर कर चुका हूं, फिर क्या तुम अक्ल 

से काम नहीं लेते, उससे बढ़कर जालिम और कौन होगा जो अल्लाह पर झूठ बोहतान 
बांधे या उसकी निशानियों को झुठलाए। यकीनन मुजरिमों को फलाह हासिल नहीं 
होती। (5-7) 











मक्का के क्रैश खुदा और रसूल को मानते थे। वे अपने को मिल्लते इब्राहीम का पैरोकार 


पारा ।7 546 


सूरह-0. यूनुस 
कहते थे। यहां तक कि इस्लाम की बहुत सी दीनी इस्तिलाहें (शब्दावलियां) मसलन सलात, सोम, 
जकात, हज वगैरह वही हैं जो पहले से उनके यहां राइज थीं। इसके बावजूद क्यों उन्होंने कहा 
कि दूसरा कुरआन लाओ या इस कुरआन में कुछ तरमीम (संशोधन) कर दो तब हम इसको मानेंगे। 

इसकी वजह यह थी कि कुरआन में खुदा के ख़ालिस दीन का एलान था। जबकि कुरैश 
ख़ुदा के दीन के नाम पर एक मिलावटी दीन को इख्तियार किए हुए थे। 

कुरआन की तौहीद (एकेश्‍्वरवाद) से उनके मुश्रिकाना अकीदा-ए-खुदा पर जद पड़ती 
थी। कुरआन के तसबुरे इबादत की रोशनी में उनकी इबादतें महज खेल तमाशा मालूम होती 
थीँ। वे पैगम्बर को अपने कौमी फख़ का निशान बनाए हुए थे और कुरआन उनसे एक ऐसे 
पैग़म्बर को मानने का मुतालबा कर रहा था जो उनकी अमली जिंदगी में रहनुमा का दर्जा 
हासिल कर ले। उन्होंने काबे की ख़िदमत को अपनी दीनदारी का सबसे बड़ा सुबूत समझ 
रखा था जबकि कुरआन ने बताया कि दीनदारी यह है कि आदमी खुदा से डरे और जो कुछ 
करे आख़िरत को सामने रखकर करे। 

आदमी कुछ अल्फज बोलकर हक को नजरअंदाज कर देता है। इसकी वजह यह है कि 
उसके दिल में 'खटका' नहीं होता। अगर आदमी के दिल में यह खटका लगा हुआ हो कि 
वह अपने कौल व फेअल के लिए खुदा के यहां जवाबदेह है तो वह फौरन संजीदा हो जाएगा। 
और जो शख्स संजीदा हो वह मामले को हकीकतपसंदी की नजर से देखेगा, वह सरसरी तौर 
पर उसे नजरअंदाज नहीं कर सकता। 








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और वे अल्लाह के सिवा ऐसी चीजों की इबादत करते हैं जो उन्हें न नुक्सान पहुंचा सकें 
और न नफा पहुंचा सकें। और वे कहते हैं कि ये अल्लाह के यहां हमारे सिफारिशी हैं। 
कहो, क्या तुम अल्लाह को ऐसी चीज की ख़बर देते हो जो उसे आसमानां और जमीन 
में मालूम नहीं। वह पाक और बरतर है उससे जिसे वे शरीक करते हैं। और लोग एक 
ही उम्मत थे। फिर उन्होंने इख़्तेलाफ किया। और अगर तुम्हारे रब की तरफ से एक 


बात पहले से न ठहर चुकी होती तो उनके दर्मियान उस अम्र (मामले) का फैसला कर 
दिया जाता जिसमें वे इख्तेलाफ कर रहे हैं। (8-9) 


हमारी दुनिया में जो वाकेयात हो रहे हैं वे बजाहिर मादूदी असबाब के तहत हो रहे हैं। 
मगर हकीकत यह है कि तमाम वाकेयात के पीछे खुदा का तसर्रुफ (नियति) काम कर रहा 





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सूरह-0. यूनुस 547 पारा 77 


है। इस दुनिया में किसी को कोई जाती इख्तियार हासिल ही नहीं। तौहीद यह है कि आदमी 
जहिरी चीजें से गुजर कर गे में छुपे हुए खुद्रा को पा ले। इसके मुकले में शिर्क यह 
है कि आदमी जहिरी चीजें में अटक कर रह जाए। वे चीजें ही को चीजें के लिक का 
मकम देदे। 

इस दुनिया में खुदा के सिवा किसी के पास नफा देने या नुक्सान पहुंचाने की ताकत 
नहीं। जो आदमी इस हकीकत को पा लेता है उसकी तमाम तवज्जोह खुदा की तरफ लग 
जाती है। वह ख़ुदा ही की परस्तिश करता है। वह उसी से डरता है और उसी से उम्मीदें 
कायम करता है। वह अपना सब कुछ एक ख़ुदा को बना लेता है। इसके बरअक्स जो लोग 
चीजों में अटके हुए हों वे अपने-अपने जोक के लिहाज से किसी गैर खुदा को अपना खुदा 
बना लेते हैं और उन गैर ख़ुदाओं से वही उम्मीदें और अंदेशे वाबस्ता कर लेते हैं जो 
दरहकीकत खुदा-ए-वाहिद के साथ वाबस्ता करना चाहिए । इसी की एक सूरत शफाअत का 
अकीदा है। लोग यह फर्ज कर लेते हैं कि इंसानों या गैर इंसानों में कुछ ऐसी बरतर हस्तियां 
हैं जो खुदा की नजर में मुकदूदस हैं। खुदा उनकी सुनता है और उनकी सिफारिश पर दुनियावी 
रिज्क या उवी नजात के फैसले करता है। मगर इस किस्म का अकीदा बातिल है। वह 
खुदा की खुदाई का कमतर अंदाजा है। 

ख़ुदा इस किस्म के हर शिक (ईश्वरत्व में साझीदारी) से पाक है। खुदा अपनी सिफात का 
जो तआरुफ अपनी अजीम कायनात मेंकरा रहा है उसके लिहाज से इस किस्म के तमाम अकीदे 
बिल्कुल बेजोड़ हैं। ऐसे किसी अकीदे का मतलब यह है कि ख़ुदा वह नहीं है जो बजाहिर अपनी 
तखनीकी सिफत के आइने मेनजर आ रहा हैया फिर खुद्रा की सिफ्तेंमितजद (अन्तर्विरोध) 
है। जाहिर है कि इन दोनों में से कोई चीज मुमकिन नहीं। 

खुदा ने इंसानियत का आगाज दीने फितरत से किया था। उस वक्‍त तमाम इंसानों का 
एक ही दीन था। इसके बाद लोगों ने फर्क करके दीन के मुर्जलिफ रूप बना लिए। इसकी 
वजह उस आजादी का गलत इस्तेमाल है जो लोगों को इम्तेहान की गरज से दी गई है। अगर 
ख़ुदा जाहिर हो जाए तो उसकी ताकतों को देखकर लोगों की सरकशी ख़त्म हो जाए और 
अचानक इख़्तेलाफ की जगह इत्तेहाद पैदा हो जाए। क्योंकि शिद्दे ख़फ राय के दअदूदुद 
(मत-भिन्नता) को ख़त्म कर देता है। मगर ख़ुदा कियामत से पहले इस सूरतेहाल में मुदाखलत 
(हस्तक्षेप) नहीं करेगा। मौजूदा दुनिया को ख़ुदा ने इम्तेहान के लिए बनाया है और इम्तेहान 
की फिज बाकी रखने के लिए जरूरी है कि हवीकत छुपी रहे और लेगोंको मैक्न हो कि 
वे अपनी अक्ल को सही रुख़ पर भी इस्तेमाल कर सकें और गलत रुख़ पर भी। 

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और वे कहते हैं कि नबी पर उसके रब की तरफ से कोई निशानी क्यों नहीं उतारी 








पारा 77 548 सूरह-0. यूनुस 


गई, कहो कि गैब की ख़बर तो अल्लाह ही को है। तुम लोग इंतिजार करो, में भी तुम्हारे 
साथ इंतिजार करने वालों में से हूं। और जब कोई तकलीफ पड़ने के बाद हम लोगों 

को अपनी रहमत का मजा चखाते हैं तो वे फौरन हमारी निशानियाँ के मामले में हीले 

बनाने लगते हैं। कहो कि खुदा अपने हीलों में उनसे भी ज्यादा तेज है। यकीनन हमारे 

फरिश्ते तुम्हारी हीलाबाजियों को लिख रहे हैं। (20-2) 





मक्का के लोग जब मुसलसल इंकार की रविश पर कायम रहे तो खुदा ने उन पर कहत 
भेजा जो सात साल मुसलसल रहा और बिलआखिर रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम 
की दुआ के बाद ख़त्म हुआ। यह एक निशानी थी जिससे उन्हें यह सबक लेना चाहिए था 
कि रसूल का इंकार करने के बाद वे खुदाई पकड़ को जद में आ जाएंगे। मगर उनका हाल 
यह हुआ कि जब तक कहत रहा विनती-विलाप करते रहे और जब कहत रुख्सत हुआ तो 
कहने लगे कि यह तो जमाने की गर्दिशें हैं जो हर एक के साथ पेश आती हैं। इसका रसूल 
को मानने या न मानने से कोई तअल्लुक नहीं। 

पैगम्बर से लोग निशानी मांगते हैं। मगर असल सवाल निशानी के जुहूर का नहीं बल्कि 
उससे सबक लेने का है। क्योंकि निशानी सिर्फ देखने के लिए होती है वह मजबूर करने के 
लिए नहीं होती। निशानी जाहिर होने के बाद भी यह आदमी के अपने इख्तियार में होता है 
कि वह उसे माने या झूठी तौजीह निकाल कर उसे रदूद कर दे। 

ताहम जब खुदा की आखिरी निशानी जाहिर होती है तो उसके मुकाबले में इंसान को 
कोई इख्तियार नहीं होता। यह आखिरी निशानी इतमामे हुज्जत (आह्वान की अति) के बाद 
ख़ुदा की अदालत बनकर आती है और वह मुख़्तलिफ पैग़म्बरों के लिए मुख़्तलिफ सूरतों में 
आती है। पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल०) के लिए मुख्तलिफ मस्लेहतों के बिना पर यह निशानी इस 
सूरत में जाहिर हुई कि मुंकिरीन को मग़लूब करके मोमिनीन को उनके ऊपर ग़ालिब कर दिया 
गया। शाह अबुल कादिर साहब इस सिलसिले में मूजिहुल कुरआन में लिखते हैं यानी अगर 
कहें कि हम कैसे जानें कि तुम्हारी बात सच है। फरमाया कि आगे हक तआला इस दीन को 
रोशन करेगा और मुखालिफ जलील और बर्बाद हो जाएंगे। सो वैसा ही हुआ। सच की 
निशानी एक बार काफी है। और हर बार मुखालिफ जलील हों तो फैसला हो जाए। हालांकि 
फैसले का दिन दुनिया में नहीं।' 

आदमी जब सरकशी करता है और इसकी वजह से उसका कुछ बिगड़ता हुआ नजर नहीं 
आता तो वह और भी ज्यादा ढीठ हो जाता है। वह समझता है कि वह ख़ुदा की पकड़ से बाहर 
है। हालांकि यह ऐन ख़ुदा की तदबीर होती है। खुदा सरकश आदमी को ढील देता है ताकि वह 
बेफिक्र होकर खूब सरकशी करे। और इस सरकशी के दौरान खुदा के कारिदे पर्दे में रहकर 
ख़ामोशी के साथ उसके तमाम अकवाल व अफआल (कथनी-करनी) को लिखते रहते हैं। यहां 
तक कि जब उसका ववत पूरा हो जाता है तो अचानक मौत का फरिश्ता जाहिर होकर उसे पकड़ 
लेता है कि उसे उसके आमाल का हिसाब देने के लिए ख़ुदा के सामने हाजिर कर दे। 














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सूरह-0. यूनुस 549 पारा 77 
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वह अल्लाह ही है जो तुम्हें खुश्की और तरी में चलाता है। चुनांचे जब तुम कश्ती में 
होते हो और कश्तियां लोगों को लेकर मुवाफिक हवा से चल रही होती हैं और लोग 

उससे खुश होते हैं कि यकायक तुंद हवा आती है और उन पर हर जानिब से मौजें उठने 
लगती हैं और वे गुमान कर लेते हैं कि हम घिर गए। उस वक्‍त वे अपने दीन को 
अल्लाह ही के लिए ख़ालिस करके उसे पुकारने लगते हैं कि अगर तूने हमें इससे नजात 
दे दी तो यकीनन हम शुक्रगुजार बंदे बनेंगे। फिर जब वह उन्हें नजात दे देता है तो 

फौरन ही जमीन में नाहक की सरकशी करने लगते हैं। ऐ लोगो तुम्हारी सरकशी तुम्हारे 

अपने ही खिलाफ है, दुनिया की जिंदगी का नफा उठा लो, फिर तुम्हें हमारी तरफ लौट 

कर आना है, फिर हम बता देंगे जो कुछ तुम कर रहे थे। (22-23) 





इंसान एक बेहद हस्सास (संवेदनशील) वजूद है। वह तकलीफ को बर्दाश्त नहीं कर 
सकता। यही वजह है कि इंसान पर जब तकलीफ का कोई लम्हा आता है तो वह फौरन 
संजीदा हो जाता है। उस वक्‍त उसके जेहन से तमाम मस्नूई (बनावटी) पर्दे हट जाते हैं। फिक्र 
के लम्हात में आदमी उस हकीकत का एतराफ कर लेता है जिसका एतराफ करने के लिए 
वह बेफिक्री के लम्हात में तैयार न होता था। 

इसकी एक मिसाल समुद्र का सफर है। समुद्र में सुकून हो और कश्ती मंजिल की तरफ 
रवां हो तो उसके मुसाफिरों के लिए यह बड़ा खुशगवार लम्हा होता है। उस वक्त उनके अंदर 
एक झूठा एतमाद पैदा हो जाता है। वह समझ लेते हैं कि उनका मामला दुरुस्त है, अब उसे 
कोई बिगाइने वाला नहीं। 

इसके बाद समुद्री हवाएं उठती हैं। पहाड़ जैसी मौजें मुसाफिरों को चारों तरफ से घेर 
लेती हैं। उनके दर्मियान बड़े से बड़ा जहाज भी मामूली तिके की तरह हिचकोले खाने लगता 
है। बजाहिर ऐसा मालूम होता है कि अब हलाकत के सिवा दूसरा कोई अंजाम नहीं। उस 
वक्त खुदा के मुंकिर खुदा का इकरार कर लेते हैं। देवताओं को पूजने वाले ख़ुदाए वाहिद को 
पुकारना शुरू करते हैं। अपनी कुव्यत और अपनी तदबीर पर भरोसा करने वाले हर दूसरी चीज 


पारा 77 550 सूरह-0. यूनुस 


को छोड़कर सिर्फ खुदा को याद करने लगते हैं। यह एक तजर्बाती सुबूत है कि तौहीद एक फितरी 
अकीदा है। तौहीद के सिवा दूसरे तमाम अकीदे बिल्कुल बेबुनियाद हैं। 

यह तजर्वा बताता है कि खुदा को न मानने के लिए आदमी चाहे कितने ही फलसफे पेश 
करे हकीकतन इस किस्म की तमाम बातें बेपिक्री की नजरियासाजै हैं। इंसान अगर जाने 
कि दुनिया के मौके महज वकती तौर पर उसे इम्तेहान के लिए दिए गए हैं तो वह फौरन 
संजीदा हो जाए। उसके जेहन से तमाम मस्नूई दीवारें गिर जाएं और एक ख़ुदा को मानने के 
सिवा उसके लिए कोई चारा न रहे। 

वह वक्त आने वाला है जब इंसान खुदा के जलाल को देखकर कांप उठे और तमाम 
खुदाई बातों का इकरार करने पर मजबूर हो जाए। मगर अक्लमंद वह है जो मौजूदा जिंदगी 
के तजर्बात में आने वाली जिंदगी की हकीकतों को देख ले और आज ही उस बात को मान 
ले जिसे वह कल मानने पर मजबूर होगा। मगर कल का मानना उसके कुछ काम न आएगा। 


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दुनिया की जिंदगी की मिसाल ऐसी है जैसे पानी कि हमने उसे आसमान से बरसाया 
तो जमीन का सब्जा खूब निकला जिसे आदमी खाते हैं और जिसे जानवर खाते हैं। यहां 
तक कि जब जमीन पूरी रौनक पर आ गई और संवर उठी और जमीन वालों ने गुमान 
कर लिया कि अब यह हमारे काबू में है तो अचानक उस पर हमारा हुक्म रात को या 
दिन को आ गया, फिर हमने उसे काट कर ढेर कर दिया गोया कल यहां कुछ था ही 


नहीं। इस तरह हम निशानियां खोल कर बयान करते हैं उन लोगों के लिए जो ग़ौर 
करते हैं। (24) 








दुनिया की जिंदगी इम्तेहान के लिए है। इसलिए यहां इंसान को मुकम्मल आजादी और 
हर किस्म के खुले मौके दिए गए हैं। बजाहिर ऐसा मालूम होता है कि इंसान आजाद है कि 
जो चाहे करे और जिस किस्म का मुस्तकबिल चाहे अपने लिए बनाए। मगर इन्हीं हालात के 
दौरान ऐसे वाकेयात भी रख दिए गए हैं जो सोचने वालों के लिए नसीहत का काम करते हैं, 
जो इस हकीकत की निशानदेही कर रहे हैं कि यह सब कुछ महज वक्ती है और बहुत जल्द 
उससे छिन जाने वाला है। 

इन्हीं में से एक जमीन की सरसब्जी का वाकया है। जब बारिश होती है तो जमीन हर 
किस्म की नबातात से लहलहा उठती है। आदमी उन्हें देखकर खुश होता है। वह समझने 
लगता है कि मामला पूरी तरह उसके काबू में है और बहुत जल्द वह तैयार फसल का मालिक 





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सूरह-।0. यूनुस 55 पारा 77 
बनने वाला है। ऐन उस वक्‍त अचानक कोई आफत आ जाती है। मसलन बगीला आ गया, 
ओले पड़ गए, टिडूडी दल पहुंच गया और एक लम्हे में सारी फसल का ख़ात्मा कर दिया। 

यही हाल इंसानी जिंदगी का है। आदमी एक उम्दा जिस्म लेकर पैदा होता है। दुनिया 
के असबाब उसका साथ देते हैं और वह अपने लिए एक कामयाब और शानदार जिंदगी बना 
लेता है। अब उसके अंदर एक एतमाद पैदा हो जाता है। वह समझता है कि उसका मामला 
उसके अपने इख्तियार में है। इसके बाद किसी दिन या किसी रात में अचानक उसकी मौत 
आ जाती है। अपने आपको बाइख्तियार समझने वाला यकायक अपने को इस हाल में पाता 
है कि मजबूरी और बेइख्तियारी के सिवा उसके पास और कोई सरमाया नहीं। आदमी अगर 
इस हकीकत को सामने रखे तो वह दुनिया में कभी सरकश न बने, वह कभी किसी के साथ 
जुम व बेइंसाफी का तरीका इह््रियार न करे। 


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और अल्लाह सलामती (शांति) के घर की तरफ बुलाता है और वह जिसे चाहता है सीधा 
रास्ता दिखा देता है। जिन लोगों ने भलाई की उनके लिए भलाई है और उससे अधिक 
भी। और उनके चेहरों पर न स्याही छाएगी और न जिल्लत। यही जन्नत वाले लोग 

हैं, वे उसमें हमेशा रहेंगे। और जिन्होंने बुराइयां कमाई तो बुराई का बदला उसके बराबर 
है। और उन पर रुस्वाई छाई हुई होगी। कोई उन्हें अल्लाह से बचाने वाला न होगा। 
गोया कि उनके चेहरे अंधेरी रात के टुकड़ों से ठांक दिए गए हैं। यही लोग दोजख़ वाले 

हैं, वे उसमें हमेशा रहेंगे। (25-27) 


दुनिया के जाहिरी हालात से आदमी धोखा खा जाता है। वह वक्ती चीज को मुस्तकिल 
चीज समझ लेता है। उसका ख्याल यह हो जाता है कि खुशियों और राहतों की जिंदगी जो 
वह चाहता है वह उसे इसी मौजूदा दुनिया में हासिल हो सकती है। मगर इंसानी आरजुओं 
की दुनिया दरअसल आख़िरत में बनने वाली है और उसे वही शख्स पाएगा जो खुदा के बताए 
हुए तरीके के मुताबिक उसे हासिल करने की कोशिश करे। 

दुनिया में आदमी बिलफर्ज सब कुछ हासिल कर ले तब भी वह इस पर कादिर नहीं कि 
अपनी जिंदगी को दुख और गम से पाक कर सके। यहां हर ख़ुशी के साथ कोई अंदेशा लगा 
हुआ है। यहां की हर कामयाबी बहुत जल्द किसी दुख की नज़र हो जाती है। दुख और रंज से 





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पारा ]7 552 सूरह-0. यूनुस 


खाली जिंदगी एक ऐसी अनोखी जिंदगी है जो सिर्फ जन्नत के माहौल में आदमी को हासिल 
होगी। जो लोग इस राज को पा लें वही वे लोग हैं जो जन्नत का रास्ता इख़्तियार करेंगे और 
बिलआखिर ख़ुदा की अबदी जन्नतों में पहुंचेंगे। 

राहत और ख़ुशी की जिंदगी जो इंसान को बेहद मरशूब (प्रिय) है वह ख़ुदा के वफादार 
बंदों को कामिल तौर पर जन्नत में मिलेगी। मगर राहत और ख़ुशी का एक और दर्जा है जो 
मारूफ राहतों और खुशियों से बहुत बुलन्द है। यह मालिके कायनात का दीदार है जो अहले 
जन्नत को खुसूसी तौर पर हासिल होगा। जो खुदा राहतां और लज्जतों का ख़ालिक है वह 
यकीनी तौर पर तमाम राहतों और लज्जतों का सबसे बझ ख़जाना है। हदीस में आया है कि 
जब जन्नत वाले जन्नत में और दोजख़ वाले दोजख़ में दाखिल हो चुके होंगे तो एक पुकारने 
वाला पुकारेगा। ऐ जन्नत वालो, तुम्हारे लिए खुदा का एक वादा बाकी है जिसे अब वह पूरा 
करना चाहता है। जन्नत वाले यह सुनकर कहेंगे कि वह क्या है। क्या हमारे पलड़े भारी नहीं 
कर दिए गए। कया हमारे चेहरों को रोशन नहीं कर दिया गया। क्या ख़ुदा ने हमें जन्नत में 
दाखिल नहीं कर दिया और हमें आग से नहीं बचा लिया। इसके बाद उनके ऊपर से हिजाब 
उठा लिया जाएगा और वे अपने रब को देखने लगेंगे। पस ख़ुदा की कसम कोई नेमत जो 
ख़ुदा ने उन्हें दी है वह उनके लिए ख़ुदा को देखने से ज्यादा महबूब न होगी और न उससे 
ज्यादा उनकी आंखों को ठंडी करने वाली होगी। (तफ्सीर इनेकसीर) 

आदमी के लिए इससे ज्यादा सख्त हालत और कोई नहीं कि वह एक ऐसी बेबसी से 
दो चार हो जो अबदी है। वह अपने आपको एक ऐसी नाकामी में पड़ा हुआ पाए जो दुबारा 
कामयाबी में तब्दील नहीं हो सकती। जो लोग आख़िरत में जहन्नम के बाशिंदे करार दिए 
जाएंगे वह इसी हालत से दो चार होंगे। उनके चेहरे शदीद मायूसी की वजह से ऐसे काले हो 
जाएंगे गोया कि वे तह-ब-तह अंधेरे में डूब गए हैं। आदमी को अगरचे उसकी बुराई का बदला 
इतना ही दिया जाएगा जितना उसने बुराई की है। मगर अबदी महरूमी का एहसास उसके 
लिए इतना सख्त होगा कि उसका चेहरा तक इसकी वजह से स्याह पड़ जाएगा। 

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और जिस दिन हम उन सबको जमा करेंगे, फिर हम शिर्क करने वालों से कहेंगे कि 
ठहरो तुम भी और तुम्हारे बनाए हुए शरीक भी। फिर हम उनके दर्मियान तफरीक 
(विभेद) कर देंगे और उनके शरीक कहेंगे कि तुम हमारी इबादत तो नहीं करते थे। 
अल्लाह हमारे दर्मियान गवाही के लिए काफी है। हम तुम्हारी इबादत से बिल्कुल 
बेखबर थे। उस वक्‍त हर शख्स अपने उस अमल से दो चार होगा जो उसने किया था 

















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सूरह-।0. यूनुस 553 पारा 7 


और लोग अल्लाह अपने मालिके हकीकी की तरफ लोटाए जाएंगे और जो झूठ उन्होंने 
गढ़े थे वे सब उनसे जाते रहेंगे। (28-30) 





शिक का पूरा कारोबार झूठी उम्मीदों पर कायम होता है, वे वाकेयात जो खुदा के किए 
से हो रहे हैं उन्हें आदमी झूठे माबूदों की तरफ मंसूब कर देता है और इस तरह खुदसाख्ता 
तसबुर के तहत उन्हें अपनी अकीदत व परस्तिश का मर्कज बना लेता है, अपने इन माबूदों 
के ऊपर उसका एतमाद इतना बढ़ता है कि वह समझ लेता है कि आख़िरत में भी वे जरूर 
खुदा के मुकाबले में उसके मददगार बन जाएंगे। और उसे ख़ुदा की पकड़ से बचा लेंगे। 

ये सरासर झूठी उम्मीदें हैं। मगर दुनिया की जिंदगी में उनका झूठ होना जाहिर नहीं होता 
क्योंकि यहां इम्तेहान की वजह से हर चीज पर गैब का पर्दा पड़ा हुआ है। यहां आदमी को 
मैक है कि वह वाकेपात को अपने फी माबूदों की तरफ मंसूब करे और इस तरह उनकी 
माबूदियत पर मुतमइन हो जाए। मगर आखिरत में सारी हकीकतें खुल जाएंगी। वहां मालूम 
होगा कि इस कायनात में एक ख़ुदा के सिवा किसी को कोई जोर हासिल न था। 

मौजूदा दुनिया में आदमी इस ख़ुशफहमी में जी रहा है कि वह अपने बड़ों या अपने 
माबूदों की मदद से आख़िरत के मरहले में कामयाब हो जाएगा। मगर आख़िरत में अचानक 
उस पर खुलेगा कि उसका एतमाद सरासर झूठा था। यहां किसी को सिर्फ वही मिलेगा जो 
उसने खुद किया था। फर्जी सहारे वहां इस तरह गायब हो जाएंगे जैसे कि उनका कोई वजूद 
ही न था। 


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कहो कि कौन तुम्हें आसमान और जमीन से रोजी देता है। या कौन है जो कान पर 

और आंखों पर इख्तियार रखता है। और कौन बेजान में से जानदार को और जानदार 

में से बेजान को निकालता है। और कौन मामलात का इंतिजाम कर रहा है। वे कहेंगे 

कि अल्लाह। कहो कि फिर क्या तुम डरते नहीं। पस वही अल्लाह तुम्हारा परवरदिगार 

(पालनहार) हकीकी है। तोफीक के बाद भटकने के सिवा और क्या है, तुम किधर फिरे 

जाते हो, इसी तरह तेरे रब की बात सरकशी करने वालों के हक में पूरी हो चुकी है 

कि वे ईमान न लाएंगे। (3-33) 


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पारा 77 554 सूरह-।0. यूनुस 

इंसान को रिज्क की जरूरत है। यह र्ज्कि इंसान को कैसे मिलता है। कायनात के मज्मूई 
अमल से। सारी कायनात हददर्जा हमआहंगी (सामंजस्य) के साथ एक ख़ास रुख़ पर अमल 
करती है। तब यह मुमकिन होता है कि इंसान के लिए वह रिज्क फराहम हो जिसके कौर 
उसका वजूद इस जमीन पर मुमकिन नहीं। खुदाई के मफरूज़ा शरीक या देवी देवता ख़ुद 
मुश्रिकीन के अकीदे के मुताबिक, इंसान के लिए र्ज्कि फराहम नहीं कर सकते। क्येंकि हर 
मफरूज़ा (काल्पनिक) शरीक किसी जुज का माबूद है, और जुज (अंश) का माबूद कभी ऐसे 
वाक्ये को जहूर में नहीँ ला सकता जो कुल अज्ज की मुवापिक्त से जहू में आता हो। 

इसी तरह मसलन इंसान के अंदर कान और आंख जैसी हैरतअंगेज सलाहियतें हैं। वे भी 
किसी देवता को दी हुई नहीं हो सकतीं । देवी देवता या तो ख़ुद इन सलाहियतों से महरूम 
हैं या अगर किसी मफरूजा (काल्पनिक) माबूद के अंदर ये सलाहियतें हों तो वह उनका 
खालिक नहीं। यहां तक कि ख़ुद उससे ये सलाहियतें वैसे ही छिन जाती हैं जैसे आम इंसानों 
से छिन जाती हैं। इसी तरह बेजान चीजों में जान डालना और जानदार को बेजान कर देना 
भी मफरूजा माबूदों के लिए मुमकिन नहीं। न इसका कोई सुबूत है और न कोई पूजने वाला 
इनके बारे में इस किस्म का अकीदा रखता है। फिर कैसे मुमकिन है कि ये चीजें उन माबूदों 
से इंसान को मिलें। 

कैसी अजीब बात है कि इंसान एक बड़े खुदा को मानता है। इसके बावजूद वह ख़ुदा 
की तरफ ऐसी बातें मंसूब करता है जो उसकी तमाम आला सिफात को नकार दें। इसकी 
वजह यह है कि उसे ख़ुदा का डर नहां। झूठे ख्यालात के जरिए उसने अपने आपको यह 
तसल्ली दे ली है कि ख़ुदा उससे बाजपुर्स (पूछगछ) करने वाला नहीं। और अगर बाजपुर्स की 
नौबत आई तो उसकी मदद पर ऐसी हस्तियां हैं जो ख़ुदा के यहां सिफारिश करके उसे बचा 
लें। डर आदमी को संजीदा बनाता है। जब किसी के दिल से डर निकल जाए तो उसे गैर 
मुंसिफाना (अन्यायपूर्ण) रवैया इख्तियार करने से कोई चीज रोक नहीं सकती । ऐसा आदमी 
सरकश हो जाता है। और सरकश आदमी कभी सच्चाई का एतराफ नहीं करता। 

2 


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कहो, क्या तुम्हारे ठहराए हुए शरीकों में कोई है जो पहली बार पैदा करता हो फिर वह 
दुबारा भी पैदा करे। कहो, अल्लाह ही पहली बार भी पैदा करता है फिर वही दुबारा 
भी पैदा करेगा। फिर तुम कहां भटके जाते हो। कहो, क्या तुम्हारे शरीकों में कोई है 





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सूरह-0. यूनुस 555 पारा 7 


जो हक की तरफ रहनुमाई करता हो, कह दो कि अल्लाह ही हक की तरफ रहनुमाई 

करता है। फिर जो हक की तरफ रहनुमाई करता है वह पेरवी किए जाने का मुस्तहिक 

है या वह जिसे ख़ुद ही रास्ता न मिलता हो बल्कि उसे रास्ता बताया जाए। तुम्हें क्या 
हो गया है, तुम कैसा फैसला करते हो। उनमें से अक्सर सिर्फ गुमान की पेरवी कर 

रहे हैं। और गुमान हक बात में कुछ भी काम नहीं देता। अल्लाह को खूब मालूम है 
जो कुछ वे करते हैं। (34-36) 





अल्लाह के सिवा जिनको खुदाई का मकाम दिया जाता है, चाहे वे इंसान हों या गैर 
इंसान, कोई भी यह ताकत नहीं रखता कि वह किसी गैर मौजूद को मौजूद कर दे। यह सिफ 
अल्लाह है जिसके लिए तख़्तीक का अमल साबित है। और जब तरीक का अमल एक बार 
अल्लाह के लिए साबित है तो इसी से यह भी साबित हो जाता है कि वह इसे दुबारा कर 
सकता है और करेगा। फिर जब वजूदे अव्वल और वजूदे सानी दोनों का इख्तियार सिफ एक 
अल्लाह को है तो दूसरे शरीकों की तरफ तवज्जोह लगाना बिल्कुल अबस (व्यर्थ) है। इनसे 
आदमी न अपनी पहली जिंदगी में कुछ पाने वाला है और न दूसरी जिंदगी में। 

यही मामला रहनुमाई का है। “अल्लाह रहनुमाई करता है' यह चीज पैग़म्बरों की हिदायत 
से साबित है। पैग़म्बरों ने जिस हिदायत को खुदाई हिदायत कह कर इंसान के सामने पेश किया 
वह मुसल्लम तौर पर एक हिदायत है। इसके बरअक्स शरीकों का हाल यह है कि वे या तो सिरे 
से इस काबिल नहीं कि वे इंसान को हक और नाहक के बारे में कोई इल्म दें (मसलन बुत) या 
वे अपनी कमियां और महदूदियतों की वजह से ख़ुद रहनुमाई के मोहताज हैं, कुजा कि वे दूसरों 
को वाकई रहनुमाई फराहम करें (मसलन इंसानी माबूद)। जब सूरतेहाल यह है तो इंसान को 
सिर्फएक (खडा की तरफ रुजूअ करना चाहिए न कि फी शरीकोकी तरफ। 

शिर्क का कारोबार किसी वाकई इलम पर कायम नहीं है बल्कि वह मफरूजात और 
कयासात (अनुमाना) पर कायम है। कुछ हस्तियों के बारे में बेबुनियाद तौर पर यह राय 
कायम कर ली गई है कि वे खुदाई सिफात के हामिल हैं। हालांकि इतनी बड़ी राय किसी 
हकीकी इल्म की बुनियाद पर कायम की जा सकती है न कि महज अटकल और कयास की 
बुनियाद पर। 
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पारा 77 556 सूरह-0. यूनुस 


और यह कुरआन ऐसा नहीं है कि अल्लाह के सिवा कोई इसको बना ले। बल्कि यह 
तक्ष (पुष्टि) है उन पेशीनगोइयों (भविष्यवाणियों) की जो इसके पहले से मौजूद हैं। 
और किताब की तफ्सील है, इसमें कोई शक नहीं कि वह खुदावंदे आलम की तरफ से 
है। क्या लोग कहते हैं कि इस शख्स ने इसको गढ़ लिया है। कहो कि तुम इसकी 
मानिंद कोई सूरह ले आओ। और अल्लाह के सिवा तुम जिसे बुला सको बुला लो, अगर 
तुम सच्चे हो। बल्कि ये लोग उस चीज को झुठला रहे हैं जो उनके इल्म के इहाते में नहीं 
आई। और जिसकी हकीकत अभी उन पर नहीं खुली। इसी तरह उन लोगों ने भी 
झुठलाया जो इनसे पहले गुजरे हैं, पस देखो कि जालिमों का अंजाम क्या हुआ। (37-39) 





कुआन अपनी दलील आप है कुआन का मेम (विशिष्ट) अंदाजे कलाम इंतिहाई 
तैर पर नाकबिले तकीद (अअनुकरणीय) है, और यही वाकया यह साबित करने के लिए 
काफी है कि कुरआन एक गैर इंसानी कलाम है। अगर वह किसी इंसान का कलाम होता तो 
यकीनन दूसरे इंसानों के लिए भी यह मुमकिन होना चाहिए था कि वे अपनी कोशिश से वैसा 
ही एक कलाम बना लें। 

कुरआन के कलामे इलाही होने का दूसरा सुबूत यह है कि वह उन पेशीनगोइयों 
(भविश्वाणियों) की तस्दीक है जो उसके बारे में पहले से आसमानी सहीफों में मौजूद हैं। 
आसमानी तालीमात की हामिल कौमें पहले से एक आखिरी हिदायतनामा की मुंतजिर थीं। 
कुरआन उसी इंतजार का जवाब बनकर आया है, फिर इसमें शक करने की क्या जरूरत। 
मजीद यह कि वह 'किताब' की तफ्सील है। यानी वह इलाही तालीमात जो तमाम आसमानी 
किताबों का खुलासा हैं उन्हीं को वह सही और बेआमेज (विशुद्ध) रूप में पेश करता है। यह 
एक वाजेह करीना (सकित) है जिससे जाहिर होता है कि कुआन उसी खुदा की तरफ से 
आया है जिसकी तरफ से पिछली आसमानी किताबें आई थीं। 

जब कोई शख्स कहता है कि कुरआन एक इंसानी तस्नीफ (रचना) है तो वह अपने दावे 
को एक ऐसे मैदान में लाता है जहां उसे जांचना आसान हो। क्योंकि वह अपनी या दूसरों 
की इंसानी सलाहियतों को काम में लाकर कुरआन जैसी एक किताब या उसके जैसी एक 
सूरह तैयार कर सकता है। और इस तरह अमली तौर पर इस दावे को रदूद कर सकता है 
कि कुरआन खुदाई जेहन से निकली हुई किताब है। मगर कुर॒आनी चैलेन्ज के बावजूद किसी 
का ऐसा न कर सकना आखिरी तौर पर साबित कर रहा है कि कुरआन को इंसानी किताब 
कहने वालों का दावा दुरुस्त नहीं। 

कुरआन की सदाकत के ये दलाइल ऐसे नहीं हैं कि आदमी उन्हें समझ न सके। अस्ल 
यह है कि कुरआन को झुठलाने के नताइज से वे बेख़ीफ हैं। उन्हें यह डर नहीं कि कुरआन 
का इंकार करके वे किसी अजाब की पकड़ में आ जाएंगे। उनकी मुख़ालिफाना रविश की 
वजह वह गैर संजीदगी है जो उनकी बेख़ीफी की वजह से पैदा हुई है न कि किसी किस्म का 
अक्ली और इस्तदलाली (तर्कपूर्ण) इत्मीनान। 


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सूरह-0. यूनुस 557 पारा ।7 
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और उनमें से वे भी हैं जो कुरआन पर ईमान ले आएंगे और वे भी हैं जो उस पर ईमान 
नहीं लाएंगे। और तेरा रब मुफ्सिदों (उपद्रवियों) को ख़ूब जानता है। और अगर वे तुम्हें 
झुठलाते हैं तो कह दो कि मेरा अमल मेरे लिए है और तुम्हारा अमल तुम्हारे लिए। 
तुम उससे बरी हो जो में करता हूं और मैं उससे बरी हूं जो तुम कर रहे हो। और उनमें 
कुछ ऐसे भी हैं जो तुम्हारी तरफ कान लगाते हैं तो क्या तुम बहरों को सुनाओगे जबकि 

वे समझ से काम न ले रहे हां। और उनमें से कुछ ऐसे हैं जो तुम्हारी तरफ देखते हैं 
तो क्या तुम अंधों को रास्ता दिखाओगे अगरचे वे देख न रहे हों। अल्लाह लोगों पर 
कुछ भी जुल्म नहीं करता मगर लोग खुद ही अपनी जानों पर जुल्म करते हैं। (40-44) 





ईमान न लाने वाले खुदा की नजर में मुफ्सिद (उपद्रवी) हैं। क्योंकि अपनी फितरत को 
बिगाड़ कर ही किसी के लिए यह मुमकिन होता है कि वह हक को कुबूल करने से बाज रहे। 
ऐसा आदमी अपने जमीर की आवाज को दबाता है, वह अपने सोचने की सलाहियत को 
इस्तेमाल नहीं करता, वह खुले खुले दलाइल को झूठे अल्फाज बोल कर नजरअंदाज कर देता 
है, वह सुनकर नहीं सुनता और समझने के बावजूद समझने की कोशिश नहीं करता, वह हक 
के मुकाबले में अपने तसस्सुबात (विद्देष) और अपने मफादात (स्वार्थो) को तरजीह देता है। 
बहस व मुनाजिरा करने वाले लोग आख़िर वक्‍त तक अपनी बहस जारी रखते हैं। मेरा 
मामला मेरे साथ है और तुम्हारा मामला तुम्हारे साथ' इस किस्म का जुमला कहना उन्हें अपनी 
शिकस्त नजर आता है, मगर दाओ फतह व शिकस्त की नपिसियात से बुलन्द होकर काम 
करता है, इसलिए जब वह देखता है कि मुखातब जिद और हठधर्मी पर उतर आया है और 
मजीद बात करने का कोई फायदा नहीं तो वह यह कह कर अलग हो जाता है कि असल 
फैसला अल्लाह के यहां होना है। खुदा की मीजान (तुला) में जो शख़्स जैसा निकलेगा वैसा 
ही उसका अंजाम होगा। 
हक को न मानने वालों में एक तबका वह है जो शुरू से अपना मुंकिर होना जाहिर कर 
देता है। मगर ज्यादा होशियार किस्म के लोग यह करते हैं कि बजाहिर वे बातों को इस तरह 
सुनते हैं गोया कि वे सचमुच समझना चाहते हैं। हालांकि उनके दिल में यह होता है कि इसको 





पारा 77 558 सूरह-0. यूनुस 


समझना नहीं है। वे दाऔ की सदाकत की निशानियों को इस तरह देखते हैं जैसे वे खुले दिल 
से उनका मुशाहिदा करना चाहते हैं। हालांकि उनका जेहन पहले से यह तै किए हुए होता है 
कि उसे देखना और मानना नहीं है। ऐसे लोगों की जाहिरी सादगी से दाऔ इस ख़ुशगुमानी 
में पड़ जाता है कि वे कुबूलियते हक के करीब हैं। मगर खुदा की नजर में वे ऐसे लोग हैं जो 
कान रखते हुए बहरे और आंख रखते हुए अंधे बन जाएं। ऐसे लोगों को कभी ख़ुदा की तरफ 
सेकुलेहककी तैमिक नहीमिलती। 

ख़ुदा ने इंसान को बेहतरीन सलाहियतें दी हैं। अगर वह इन सलाहियतों को इस्तेमाल करे 
तो वह कभी गुमराह न हो। मगर इंसान अपने को आजाद पाकर गलतफहमी में पड़ जाता है। 
वह बेजा सरकशी करने लगता है। ऐसा इसलिए होता है कि उसने ख़ुदा की स्कीम को नहीं 
समझा, जो चीज उसे आजमाइश के तौर पर दी गई थी उसे उसने अपना हक समझ लिया। 


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और जिस दिन अल्लाह उन्हें जमा करेगा, गोया कि वे बस दिन की एक घड़ी दुनिया में 
थे। वे एक दूसरे को पहचानेंगे। बेशक सस्त घाटे में रहे वे लोग जिन्होंने अल्लाह से 
मिलने को झुठलाया और वे राहेरास्त (सन्मार्ग) पर न आए। हम तुम्हें उसका कोई 
हिस्सा दिखा दें जिसका हम उनसे वादा कर रहे हैं या तुम्हें वफात (मोत) दे दें, बहरहाल 
उन्हें हमारी ही तरफ लौटना है, फिर अल्लाह गवाह है उस पर जो कुछ वे कर रहे हैं। और 

हर उम्मत के लिए एक रसूल है। फिर जब उनका रसूल आ जाता है तो उनके दर्मियान 
इंसाफ के साथ फैसला कर दिया जाता है और उन पर कोई जुल्म नहीं होता। (45-47) 





आज आखिरत इंसान के सामने नहीं है। आज एक देखने वाले को उसे तसुर की 
निगाह से देखना पड़ता है। इसलिए जो शख्स आखिरत के मामले में संजीदा न हो उसे 
आखिरत बहुत दूर की चीज मालूम होगी। मगर जब आख़िरत सबसे बड़ी हकीकत की 
हैसियत से इंसान के ऊपर टूट पड़ेगी और वह उसे उसकी तमाम संगीनियों के साथ अपनी 
आंख से देखने लगेगा, उस वक्त वह अपनी मौजूदा सरकशी को भूल जाएगा, उस वक्‍त उसे 
दुनिया के वे लम्हात बहुत हकीर (तुच्छ) मालूम होंगे जिनकी वजह से वह गफलत में पड़ गया 
था और आख़िरत के बारे में सोचने पर तैयार न होता था। 

आख़िरत किसी अजनबी दुनिया में वाकेअ (घटित) नहीं होगी बल्कि हमारी जानी 





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सूरह-।0. यूनुस 559 पारा 77 
पहचानी दुनिया में वाकेअ होगी। वहां आदमी अपने आपको उसी माहौल में पाएगा जिस 
माहौल में उसने इससे पहले हक का इंकार किया था, वह अपने आपको उन्हीं लोगों के 
दर्मियान देखेगा जिनके बल पर वह सरकशी करता था मगर उस दिन वे लोग उसके कुछ 
काम न आएंगे। उस वक्त हर बात उसके जेहन में इस तरह ताजा होगी गोया उस पर कोई 
मुद्दत गुजरी ही नहीं। 
दाऔ और मदऊ का मामला आसमान के नीचे पेश आने वाले तमाम मामलात में सबसे 
ज्यादा नाजुक़् मामला है। दाजी (आह्वानकर्ता) अगर फिलवाकअ हक को लेकर उठा है तो 
वह इस दुनिया में खुदा का नुमाइंदा है। उसका इकरार खुदा का इकरार है और उसका इंकार 
खुदा का इंकार है। ऐसा एक वाकया अंजाम से ख़ाली नहीं हो सकता। हक के दाओ के जुहूर 
के बाद लाजिमन ऐसा होता है कि उसकी जबान से जारी होने वाले रब्बानी कलाम के सामने 
तमाम लोग बेदलील होकर रह जाते हैं। यह बातिल के ऊपर हक की पहली फतह है। दूसरी 
फतह आहिरत में होगी जबकि उसके मुखालिफीन खुदा के इज्न (इच्छा) से उसके मुकाबले 
में बेजोर होकर रह जाएंगे। पहला वाकया लाजिमी तौर पर इसी दुनिया में पेश आता है और 
दूसरा वाकया भी जुजई (आंशिक) तौर पर मौजूदा दुनिया में जाहिर होता है अगर ख़ुदा उसे 
मौजूदा दुनिया में जाहिर करना चाहे। 
यह मामला हर गिरोह के साथ पेश आना लाजिमी है जबकि वह बराहेरास्त ख़ुदा के 
सामने खड़ा होने से पहले मौजूदा दुनिया में बिलवास्ता (परोक्ष) तौर पर ख़ुदा के नुमाइंदे के 
सामने खड़ा किया जाए। इस तरह ख़ुदा देखता है कि कौन है जो इस वक्‍त अपने आपको 
ख़ुदा के हवाले कर देता है जबकि ख़ुदा अभी गैब में है और कौन है जो ऐसा नहीं करता। 
पहली किस्म के लोगों के लिए जन्नत है और दूसरी किस्म के लोगों के लिए दोजख़। 
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और वे कहते हैं कि यह वादा कब पूरा होगा अगर तुम सच्चे हो। कहो मैं अपने वास्ते 
भी बुरे और भले का मालिक नहीं, मगर जो अल्लाह चाहे। हर उम्मत के लिए एक वक्‍त 
है। जब उनका वक्‍त आ जाता है तो फिर न वे एक घड़ी पीछे होते और न आगे। कहो 
कि बताओ, अगर अल्लाह का अजाब तुम पर रात को आ पड़े या दिन को आ जाए 


पारा 77 560 सूरह-0. यूनुस 


तो मुजरिम लोग इससे पहले क्या कर लेंगे। फिर क्या जब अजाब वाकेअ (घटित) हो 
चुकेगा तब उस पर यकीन करोगे। अब कायल हुए और तुम इसी का तकाजा करते 

थे, फिर जालिमाँ से कहा जाएगा कि अब हमेशा का अजाब चखो। यह उसी का बदला 
मिल रहा है जो कुछ तुम कमाते थे। (48-52) 


इंसान मौजूदा दुनिया में अपने को आजाद पाता है। वह बजाहिर देखता है कि वह जो 
चाहे करे, कोई उसे पकड़ने वाला नहीं, कोई उसे सजा देने वाला नहीं। यह सूरतेहाल उसे 
भुलावे में डाल देती है। यहां तक कि ख़ुदा का दाऔ जब उसे उसके अमल के अंजाम से 
डराता है तो वह ख़ुदा के दाऔ का मजाक उड़ाने लगता है। वह कहता है हमारी सरकशी 
पर तुम जिस अजाब की धमकी दे रहे हो वह कब पूरी होगी। 

इस किस्म की बातों का सबब नादानी के सिवा और कुछ नहीं। क्योंकि यह पकड़ खुद 
हक के दा की तरफ से आने वाली नहीं है बल्कि खुदा की तरफ से आने वाली है। और 
ख़ुदा हर आन अपनी दुनिया में बता रहा है कि उसका तरीका जल्दी का तरीका नहीँ। 

कश्ती में सुराख हो और कोई मल्लाह उसकी परवाह न करते हुए अपनी कश्ती को 
दरिया में डाल दे तो ख़ुदा का लाजिमी कानून है कि ऐसी कश्ती पानी में डूब जाए । मगर ऐसी 
कश्ती फौरन पानी में नहीं डूबती बल्कि खुदा की सुन्नत के मुताबिक अपने मुरकर वक्‍त पर 
डूबती है। इस किस्म की मिसालें दुनिया में फैली हुई हैं जो इंसान को ख़ुदाई सुन्नत का 
तआरुफ करा रही हैं मगर उन्हें देखने के बावजूद वह कहता है कि अगर इन आमाल पर ख़ुदा 
का अजाब है तो वह अजाब जल्द क्यों नहीं आ जाता इसकी वजह यह है कि इंसान ख़ुदा 
की पकड़ के बारे में संजीदा नहीं। 

जलजले और तूफान खुदाई वाकेयात हैं। ये वाकेयात बताते हैं कि जब मामला खा 
और इंसान के दर्मियान हो तो फैसले का इरिन्नयार तमामतर सिर्फ फरीके अव्वल (प्रथम पक्ष) 
को होता है। मगर इंसान इस पहलू पर गौर नहीं करता। वह सिफ यह देखता है कि ख़ुदा 
का कानून फौरन हरकत में नहीं आ रहा है और चूंकि वह फौरन हरकत में नहीं आता इसलिए 
वह गफलत में पड़ा रहता है। मगर जब खुदा का फैसला आएगा तो उस वक्‍त इंसान अपने 
को बेबस पाकर सब कुछ मान लेगा। हालांकि उस वक्त का मानना कुछ काम न आएगा। 
क्योंकि वह अमल का अंजाम पाने का वक्‍त होगा न कि अमल करने का। 





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सूरह-0. यूनुस 56] पारा 7 


और वे तुमसे पूछते हैं कि क्या यह बात सच है। कहो कि हां मेरे रब की कसम यह सच 

है और तुम उसे थका न सकोगे। और अगर हर जालिम के पास वह सब कुछ हो जो 
जमीन में है तो वह उसे फिदये (आर्थिक दंड) में दे देना चाहेगा और जब वे अजाब को 

देखेंगे तो अपने दिल में पछताएंगे। और उनके दर्मियान इंसाफ से फैसला कर दिया 
जाएगा और उन पर जुल्म न होगा। याद रखो जो कुछ आसमानां और जमीन में है सब 
अल्लाह का है, याद रखो अल्लाह का वादा सच्चा है मगर अक्सर लोग नहीं जानते। वही 
जिंदा करता है और वही मारता है और उसी की तरफ तुम लोटाए जाओगे। (53-56) 





अरब के लोगों से रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहा कि अगर तुमने अपनी 
इस्लाह न को तो तुम्हें आखिरत का अजाब पकड़ लेगा। इसके जवाब में वे आपकी बात का 
मजाक उड़ाने लगे। इसका मतलब यह नहीं है कि वे लोग आखिरत के मुंकिर थे। वे दरअस्ल 
पैग़म्बरे इस्लाम की तंबीह (चेतावनी) को बेवजन समझ रहे थे न कि ख़ुद आखिरत को। 
पैगम्बरे इस्लाम की अज्मत उस वक्‍त तक मुसल्लम न हुई थी। उस ववत आपके मुख़ातबीन 
आपको एक मामूली इंसान के रूप में देखते थे। उनकी समझ में न आता था कि ऐसे मामूली 
इंसान की बात न मानने से उन के ऊपर ख़ुदा का अजाब कैसे आ जाएगा । उन्हें आपके ख़ुदा 
के नुमाइंदे होने पर शक था न कि ख़ुद खुदा और आखिरत पर। 

यह तकाबुल (तुलना) हकीकतन इकरारे आखिरित और इंकारे आहिरत के दर्मियान न था, 
बल्कि बड़ी शख्सियत के दीन और छोटी शख्सियत के दीन के दर्मियान था। वे माजी के मशहूर 
बुजुर्गों के साथ अपने को मंसूब करते थे। वे अपने आपको मुसल्लमा (सुस्थापित) शख्सियतों के 
दीन पर समझते थे। इसके मुकाबले में जब वे सामने के पैगम्बर को देखते तो वह उन्हें एक 
मामूली इंसान के रूप में नजर आता । उनकी समझ में न आता था कि तारीख़ की जिन बड़ी-बड़ी 
शख्मियतों के साथ वे अपने को वाबस्ता किए हुए हैं, उनसे वाबस्तगी उनके लिए बाइसे नजात 
(मुक्ति का साधन) न हो। बल्कि नजात के लिए यह जरूरी हो कि वे अपने आपको उस शख्स 
के साथ वाबस्ता करेंजिसे बजाहिर कोई तकद्दुस और अज्मत हासिल नहीं । यही वह नपिसियात 
थी जिसकी वजह से उन्हें यह जुरअत हुई कि वे आपका मजाक उड़ाएं। 

आदमी एक हस्सास मख्नूक है। वह तकलीफ को बर्दाश्त नहीं कर सकता । दुनिया में 
जब तक उसे अजाब का सामना नहीं है वह हक का मजाक उड़ता है। वह उसे बॅनियाजी 
के साथ ठुकरा देता है। मगर जब आखिरत का अजाब सामने होगा तो उस पर इतनी 
घबराहट तारी होगी कि सब कुछ उसे हकीर (तुच्छ) मालूम होने लगेगा। सारी दुनिया की 
दौलत और तमाम दुनिया की नेमत भी अगर उसके पास हो तो अजाब के मुकाबले में वह 
इतनी बेकीमत नजर आएगी कि वह चाहेगा कि सब कुछ देकर सिर्फ इतना हो जाए कि वह 
इस तकलीफ से नजात पा जाए। 

मगर आख़िरत का मसला कोई सौदेबाजी का मसला नहीं। वह तो अपने किए का 
अंजाम भुगतने का मसला है। जिंदगी और मौत के बारे में खुदा का जो मंसूबा है उसका यह 
लाजिमी जुज है। खुदाई इंसाफ का तकज है कि वह हो। और खुदाई कुदरत इस बात की 


पारा 77 562 सूरह-0. यूनुस 
जमानत है कि वह बहरहाल होकर रहेगा। 

उसके पेश आने में जो कुछ देर है वह सिर्फ उस मुकर्ररह वकत के आने की है जबकि 
मौजूदा इम्तेहान की मुदूदत ख़त्म हो और सारे इंसान ख़ुदा के यहां अपने आखिरी अंजाम का 


फैसला सुनने के लिए हाजिर कर दिए जाएं 
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ऐ लोगो, तुम्हारे पास तुम्हारे रब की जानिब से नसीहत आ गई और उसके लिए शिफा 
(निदान) जो सीनों में होती है और अहले ईमान के लिए हिदायत और रहमत। कहो 
कि यह अल्लाह के फज्ल और उसकी रहमत से है। अब चाहिए कि लोग खुश हों, यह 
उससे बेहतर है जिसे वे जमा कर रहे हैं। कहो, यह बताओ कि अल्लाह ने तुम्हारे लिए 
जो रिज्क उतारा था, फिर तुमने उसमें से कुछ को हराम ठहराया और कुछ को हलाल। 
कहो, क्या अल्लाह ने तुम्हें इसका हुक्म दिया है या तुम अल्लाह पर झूठ लगा रहे हो। 
और कियामत के दिन के बारे में उन लोगों का क्या ख्याल है जो अल्लाह पर झूठ लगा 
रहे हैं। बेशक अल्लाह लोगों पर बड़ा फज्ल फरमाने वाला है, मगर अक्सर लोग शुक्र 
अदा नहीं करते। (57-60) 


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इंसान एक नपिसियाती (मनोवैज्ञानिक) मख्नूक है। नपिसयात के बनने से वह बनता है 
और नपिसयात के बिगड़ने से वह बिगड़ जाता है। खुदा की किताब की सूरत में जो हिदायत 
उतरी है वह इंसान के लिए सरासर रहमत है। इसमें इंसान के लिए बेहतरीन नसीहत मौजूद 
है। मगर इस नसीहत को पाने के लिए जरूरी है कि आदमी ने अपनी रास्तफिक्री न खोई हो। 
जो शख्स अपनी रास्तफिक्री (सद्इच्छा) की सलाहियत को बिगाड़ ले, उसके लिए खुदा का 
नसीहतनामा बेअसर रहेगा। 
मौजूदा दुनिया की चीजें और उसकी रौनकें आदमी के सामने 'नवद' होती हैं। आदमी 
हर आन उनकी लज्जत और खूबी का तजर्बा करता है, इसके मुकाबले में आख़िरत की नेमतें 
सिर्फ वादे” की हैसियत रखती हैं। आदमी सिर्फ उनके बारे में सुनता है, वह उनका तजर्बा 
नहीं करता । इस बिना पर अक्सर लोग दुनिया की नकद चीजों पर टूट पड़ते हैं। मगर जो शख्स 
गहराई के साथ सोचेगा वह इस बात पर खुश होगा कि ख़ुदा ने अपनी हिदायत उतार कर उसके 


इशा 


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सूरह-।0. यूनुस 563 पारा 77 
लिए अबदी (चिरस्थाई) नेमतों के हुसूल का दरवाजा खोल दिया है। 

अल्लाह ने जो कुछ इंसान को दिया है, चाहे वह जरई (कृषि) पैदावार की सूरत में हो 
या दूसरी सूरत में, सबका सब रिज्क है। आदमी अगर इन चीजों को खुदा का दिया हुआ 
समझे और खुदा के बताए हुए तरीके के मुताबिक उनमें तसरुफ करे तो उसके अंदर खुदा 
के शुक्र का जज्बा उभरेगा। मगर शैतान हमेशा इस कोशिश में रहता है कि वह इस निस्बत 
को बदल दे, ताकि इस 'रिज्क' के इस्तेमाल के वक्‍त आदमी को खुदा की याद न आए बल्कि 
दूसरी-ूसरी चीजें की याद आए। कदीम जमाने में शैतान ने पैदावार में मफरूजा देवी 
देवताओं के मरासिम (रिति-रिवाज) मुकर्रर किए ताकि आदमी उन्हें लेते हुए ख़ुदा को याद 
न करे बल्कि देवी देवताओं को याद करे। मौजूदा जमाने में यही मकसद शैतान मादूदी 
तौजीहात (भौतिक तरको) के जरिए हासिल कर रहा है। वह ख़ुदा की तरफ से मिलने वाली 
चीज को माद्दी अवामिल (भौतिक कारकों) के तहत मिलने वाली चीज बनाकर लोगों को 
दिखा रहा है ताकि लोग जब इन नेमतों को पाएं तो वे उसे खुदा का रिज्क न समझें बल्कि 


सिर्फ मादूदे का करिश्मा समझें। 
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और तुम जिस हाल में भी हो और कुरआन में से जो हिस्सा भी सुना रहे हो और तुम 
लोग जो काम भी करते हो, हम तुम्हारे ऊपर गवाह रहते हैं जिस वक्‍त तुम उसमें मशगूल 
होते हो। और तेरे रब से जर्रा बराबर भी कोई चीज छुपी नहीं, न जमीन में और न 

आसमान में और न इससे छोटी न बड़ी, मगर वह एक वाजेह किताब में है। सुन लो, 
अल्लाह के दोस्तों के लिए न कोई ख़ोफ होगा और न वे ग़मगीन होंगे। ये वे लोग हैं 
जो ईमान लाए और डरते रहे, उनके लिए ख़ुशख़बरी है दुनिया की जिंदगी में भी और 
आखिरत में, अल्लाह की बातों में कोई तब्दीली नहीं, यही बड़ी कामयाबी है। और 
तुम्हें उनकी बात गम में न डाले। जोर सब अल्लाह ही के लिए है, वह सुनने वाला जानने 

वाला है। (6-65) 

















पारा 7 564 


सूरह-0. यूनुस 





दावत (आहवान) इस दुनिया के तमाम कामों में मुश्किलतरीन काम है। दाऔ (आहवानकर्ता) 
अपने पूरे वजूद को दावती अमल में शामिल करता है, इसके बाद ही यह मुमकिन होता है 
कि वह किसी पैग़ाम का दाऔ बन सके। इससे भी ज्यादा सख्त मरहला वह है जो मुखातबीन 
(संबोधित वर्ग) की तरफ से पेश आता है। 

दाऔ जब खुदा के दीन को बेआमेज (विशुद्ध) सूरत में पेश करता है और उसे खुले 
दलाइल की जबान में सुस्पष्ट कर देता है तो वे तमाम लोग बिफर उठते हैं जो ख़ुदसाख़्ता 
(स्वनिर्मित) दीन को ख़ुदा का दीन बताकर दीनदार बने हुए हों या दीनी पेशवाई का मकाम 
हासिल किए हुए हों। वे दाऔ को जेर करने की कोशिश करते हैं। बेबुनियाद प्रोपेगंडा, 
साजिशें यहां तक कि जारिहाना (आक्रामक) कार्वाइयां, हर चीज को वे अपने लिए जाइज 
कर लेते हैं। मौजूदा दुनिया में मिली हुई आजादी उन्हें मौका देती है और वे दाजी के खिलाफ 
जो कुछ करना चाहते हैं करते चले जाते हैं। ये सूरतेहाल यहां तक पहुंचती है कि दलील की 
ताकत तमामतर एक तरफ हो जाती है और भैतिक ताकत तमामतर दूसरी तरफ। 

यह सूरतेहाल बिलाशुबह बेहद सख्त है। इसके बाद एक तरफ यह होता है कि 
मुखालिफीने हक के हौसले बढ़ते चले जाते हैं। वे अपने को कामयाब समझने लगते हैं। दूसरी 
तरफ दाऔ पर भी यह ख्याल गुजरता है कि क्या खुदा इस मामले में गैर जानिबदार है। क्या 
वह मुझे हक व बातिल के इस मअरके में डाल कर खुद अलग हो गया है। 

मगर ऐसा नहीं है। यह मुमकिन नहीं है कि ख़ुदा हक का साथ न दे। मुखालिफीन का 
बेदलील हो जाना और दलील की कुव्वत का तमामतर दाऔ की तरफ होना यही इस बात 
का सुबूत है कि ख़ुदा दाऔ के साथ है न कि दूसरे गिरोह के साथ। क्योंकि दलील मौजूदा 
दुनिया में खुदा की नुमाइंदा है। जिसके साथ दलील है उसके साथ गोया ख़ुदा है। हक के 
मुखलिफीन को जारिहयत का मौका सिर्फ उस आजादी की वजह से मिल रहा है जो इम्तेहान 
की ख़ातिर उन्हें दी गई है। इम्तेहानी दुनिया के ख़त्म होते ही यह सूरतेहाल बदल जाएगी। 
उस वक्‍त इज्जत व बरतरी उसके लिए होगी जो दलील की बुनियाद पर खड़ा हुआ था। जो 
लोग दलील से ख़ाली थे वे वहां की दुनिया में रुसवा और नाकाम होकर रह जाएंगे। अल्लाह 
के सच्चे दाञियों का गिरोह ख़ुदा के दोस्तों का गिरोह है। अल्लाह उन्हें आख़िरत में एक ऐसी 
आला जिंदगी की खुशख़बरी देता है जहां न उन्हें पिछली जिंदगी के लिए कोई पछतावा होगा 
और न अगली जिंदगी के लिए कोई अंदेशा। 

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सूरह-।0. यूनुस 565 पारा 7 


सुनो, जो आसमानों में हैं और जो जमीन में हैं सब अल्लाह ही के हैं। और जो लोग 
अल्लाह के सिवा शरीकों को पुकारते हैं वे किस चीज की पेरवी कर रहे हैं, वे सिर्फ गुमान 

की पैरवी कर रहे हैं और वे महज अटकल दौड़ा रहे हैं। वह अल्लाह ही है जिसने तुम्हारे 
लिए रात बनाई ताकि तुम सुकून हासिल करो। और दिन को रोशन बनाया। बेशक 
इसमें निशानियां हैं उन लोगों के लिए जो सुनते हैं। (66-67) 


जमीन व आसमान के पीछे कौन है जो इसको संभाले हुए है और इसको चला रहा है। 
यह सवाल हर जमाने में इंसान की तलाश का मकजी नुक्ता रहा है। मगर इस सवाल का सही 
जवाब पाना उसी वक्त मुमकिन है जब आदमी मावराए तबीइयात (अलौकिक) दुनिया तक 
देख सके और इस दुनिया तक देखने वाली आंख किसी को हासिल नहीं। यही वजह है कि 
हर वह जवाब जो वह बतौर खुद कायम करता है वह महज कयास व गुमान की बुनियाद पर 
होता है न कि हकीकी इलम की बुनियाद पर। 

इस दुनिया में हकीकी इल्म की बुनियाद पर बोलने वाले सिर्फ वे लोग हैं जिनको पैगम्बर 
कहा जाता है। ये वे मख्सूस लोग हैं जिनका रब्त आलमे बाला से बराहेरास्त कायम होता है। 
खुदा खुद उन्हें अपनी तरफ से हकीकत की ख़बर देता है। इसलिए इस दुनिया में पैगम्बर का 
इलम ही वाहिद इलम है जिस पर यकीनी तौर पर भरोसा किया जा सकता है। 

पैगम्बरों के दावे की सदाकत को जांचने के लिए अगरचे हमारे पास कोई बराहेरास्त 
जरिया नहीं है। ताहम एक बिलवास्ता (परोक्ष) जरिया यकीनी तौर पर मौजूद है। और वह 
कायनात की आयात (निशानियां) हैं। ये निशानियां पेगम्बरों के बयानकर्दा मअनवी हकाइक 
की अमली तस्दीक कर रही हैं। 

मिसाल के तौर पर हम देखते हैं कि हमारी जमीन पर रात के बाद दिन आता है और 
दिन के बाद रात आती है। यह गर्दिश एक इंतिहाई मोहकम निजाम की वजह से वजूद में 
आती है जो रियाजयाती (गणितीय) सेहत की हद तक मुनज्जम है। मजीद यह कि यह गर्दिश 
हैरतनाक हद तक हमारी जिंदगी के मुवाफिक है। इसके पीछे वाजेह तार पर एक बामक्सद 
मंसूबा काम करता हुआ नजर आता है। यह सूरतेहाल यकीनी तौर पर एक ऐसे कादिरे 
मुतलक और रहमान व रहीम के वजूद का सुबूत है जिसकी ख़बर पैगम्बर देते हैं। 

जो लोग अपने ख्याल के मुताबिक 'शरीकों' की पैरवी कर रहे हैं, वे शुरका (साझीदार) 
चाहे कदीम इलाहियाती (पुरातन दैवीय) शुरका हों या जदीद माद्दी (आधुनिक भौतिक) 
शुरका वे किसी वाकई हकीकत की पैरवी नहीं कर रहे हैं। बल्कि सिर्फ अपने कयास व गुमान 
की पैरवी कर रहे हैं। पेगमबरों के जरिए जाहिर होने वाली हकीकत की तस्दीक सारी कायनात 
कर रही है मगर 'मुश्रिकीन' जिस चीज के दावेदार हैं उसकी तस्दीक करने वाला कोई नहीं। 


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पारा 77 566 सूरह-0. यूनुस 


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कहते हैं कि अल्लाह ने बेटा बनाया है। वह पाक है, बेनियाज (निस्पृह) है। उसी का 

है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ जमीन में है। तुम्हारे पास इसकी कोई दलील 
नहीं। क्या तुम अल्लाह पर ऐसी बात गढ़ते हो जिसका तुम इल्म नहीं रखते। कहो, 
जो लोग अल्लाह पर झूठ बांधते हैं वे फलाह नहीं पाएंगे। उनके लिए बस दुनिया में 
थोड़ा फायदा उठा लेना है। फिर हमारी ही तरफ उनका लौटना है। फिर उनको हम 

इस इंकार के बदले सख्त अजाब का मजा चखाएंगे। (68-70) 


ख़ुदा के लिए बेटा बेटियां मानना ख़ुदा को इंसान के ऊपर कयास करना है। इंसान 
कमियों और महदूदियतों (सीमितताओं) का शिकार है, इसलिए उसे औलाद की जरूरत है 
ताकि उनके जरिए वह अपनी कमियां और महदूदियतों की तलाफी करे मगर ख़ुदा के मामले 
में यह कयास बिल्कुल बेबुनियाद है। 

मज़्लूकत का निजाम खुद हो इस किस्म के ख़लिक की तरदीद (खंडन) है। मख्लूकत 
का आलमी निजाम जिस खुदा की शहादत दे रहा है वह यकीनी तौर पर एक ऐसा खुदा है 
जो अपनी जात में आखिरी हद तक कामिल (पूर्ण) है। वह हर किस्म के ऐबों और कमियों 
से पाक है। ख़ुदा अगर अपनी जात में कामिल न होता, अगर वह ऐबों और कमियों वाला 
ख़ुदा होता तो कभी वह मौजूदा कायनात जैसी कायनात को नहीं बना सकता था और न उसे 
इस तरह चला सकता था जिस तरह वह इंतिहाई मेयारी सूरत में चल रही है। 

इसका मतलब यह है कि पैगम्बर जिस खुदाए वाहिद का तसब्बुर पेश कर रहा है उसका 
वजूद तो जमीन व आसमान की तमाम निशानियों से साबित है। मगर मुश्रिकीन ने खुदा का 
जो तसव्वुर बना रखा है, उसका कोई सुबूत इस कायनात में मौजूद नहीं। अब जाहिर है कि 
बेसुबूत ख़ुदा को मानना ख़ुद ही इस बात का सुबूत है कि ऐसे लोग कभी कामयाब नहीं हो 
सकते। क्योंकि जो ख़ुदा सिरे से मौजूद न हो वह कैसे किसी की मदद पर आएगा और कैसे 
किसी को बामुराद करेगा। जो खुदा हकीकी तौर पर मौजूद है, मुश्रिकीन उसे मानते नहीं, 
और जिस ख़ुदा को मानते हैं उसका कहीं वजूद नहीं। ऐसी हालत में मुड्रिकीन मौजूदा 
कायनात में क्योंकर कामयाब हो सकते हैं। उनके लिए जो वाहिद अंजाम मुकदूदर है वह 
सिर्फ यह कि बिलआखिर वे बेबस और बेसहारा होकर रह जाएं और हमेशा के लिए जिल्लत 
व नाकामी में पड़े रहें। 

मौजूदा दुनिया में इंकार या शिक का रवैया इख्तियार करने से किसी का कुछ बिगड़ता 
नहीं। इससे आदमी गलतफहमी में पड़ जाता है। मगर यह सूरतेहाल सिर्फ इम्तेहान की 
मोहलत की बिना पर है। मौजूदा दुनिया में इंसान को इम्तेहान की वजह से अमल की आजादी 
दी गई है। जैसे ही इम्तेहान की मुदूदत ख़त्म होगी मौजूदा सूरतेहाल भी ख़त्म हो जाएगी। उस 





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सूरह-।0. यूनुस 567 पारा 77 
वक्‍त आदमी देखेगा कि उसके पास उन चीजों में से कोई चीज नहीं है जिसका वह अपने आपको 
मालिक समझ कर सरकश बना हुआ था। 
हदीस में आया है कि अल्लाह ने अक्ल से कहा : 'ऐ अक्ल, इस कायनात में मैंने तुझसे 
अफजल, तुझसे हसीन और तुझसे बेहतर मनक पैदा नहीं की / इंसान को ऐसी अजीम नेमत 
देने का यह तकाज है कि उसकी जिम्मेदारी भी अजीम हो। यही वजह है कि र्रा के नजदीक 
सच्चाई का इंकार सबसे बड़ा जुर्म है। सच्चाई को जब दलील से साबित कर दिया जाए तो 
आदमी के ऊपर लाजिम हो जाता है कि वह उसे माने। अक्ली तौर पर साबितशुदा हो जाने के 
बाद अगर वह सच्चाई का इंकार करता है तो वह नाकाबिले माफी जुर्म कर रहा है। खुदा ने जब 
इंसान को ऐसी अक्ल दी जिससे वह हक का हक होना और बातिल का बातिल होना जान सके 
तो इसके बाद क्या चीज होगी जो खुदा के यहां उसके लिए उज़ बन सके। 


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और उनको नूह का हाल सुनाओ। जबकि उसने अपनी कौम से कहा कि ऐ मेरी कौम, 

अगर मेरा खड़ा होना और अल्लाह की आयतों से नसीहत करना तुम पर गिरां (भार) 
हो गया है तो मैंने अल्लाह पर भरोसा किया। तुम अपना मुत्तफिका फैसला कर लो 

और अपने शरीकों को भी साथ ले लो, तुम्हें अपने फैसले में कोई शुबह बाकी न रहे। 

फिर तुम लोग मेरे साथ जो कुछ करना चाहते हो कर गुजरो और मुझको मोहलत न 
दो। अगर तुम एराज (उपेक्षा) करोगे तो मैंने तुमसे कोई मजदूरी नहीं मांगी है। मेरी 
मजदूरी तो अल्लाह के जिम्मे है। और मुझको हुक्म दिया गया है कि में फरमांबरदारों 

में से हूं। फिर उन्होंने उसे झुठला दिया तो हमने नूह को और जो लोग उसके साथ कश्ती 
में थे नजात दी और उन्हें जानशीन (उत्तराधिकारी) बनाया। और उन लोगों को गर्क 

कर दिया जिन्होंने हमारी निशानियों को झुठलाया था। देखो कि क्या अंजाम हुआ 
उनका जिन्हें डराया गया था। (7-73) 








हजरत नूह कदीमतरीन जमाने के रसूल हैं। वह जब तक ख़मेश्ष थे कैम उनकी इप्जत 
करती रही। मगर जब आप हक के दाऔ बनकर खड़े हुए और लोगों को बताने लगे कि ऐसा 


पारा 77 568 सूरह-0. यूनुस 


करो और वैसा न करो तो वह कौम की नजर में एक नापसंदीदा शख्स बन गए। यहां तक कि 
कौम ने एलान कर दिया कि तुम अपनी तब्लीग व नसीहत से बाज आओ वर्ना हम तुमको अपनी 
जमीन में नहीं रहने देंगे। 

हजरत नूह ने कहा कि तुम लोग मेरे मामले को एक इंसान का मामला समझते हो, 
इसलिए ऐसा कह रहे हो। मगर यह मामला ख़ुदा का मामला है। मुझसे लड़ने के लिए तुम्हें 
ख़ुदा से लड़ना पड़ेगा । तुमको अगर यकीन न हो तो तुम इस तरह तजर्बा कर सकते हो कि 
अपने साथियों और शरीकों को मिलाकर मेरे खिलाफ कोई मुत्तफिका मंसूबा बनाओ और 
अपनी तमाम ताकत के साथ उसकी तामील कर गुजरो। तुम देखोगे कि मेरे मुकाबले में 
तुम्हारा हर मंसूबा नाकाम है। मौजूदा दुनिया में हक के दाऔ की सदाकत (सच्चाई) को 
जांचने का मेयार यह है कि वह हर हाल में अपना काम पूरा करके रहता है। कोई भी उसे 
जेर (परास्त) करने में कामयाब नहीं होता। 

जो शख्स ख़ुदा की तरफ से हक की दावत लेकर उठे वह हमेशा निशानी (दलील) के 
जेर पर उठता है। दलील चूके एक जेहनी चीज है इसलिए जाहिरपसंद इंसान उसकी अमत 
को समझ नहीं पाता। वह जेहनी तौर पर लाजवाब होने के बावजूद उसके आगे झुकने से 
इंकार कर देता है। 

हक के दाऔ को जिन आदाबे दावत का लाजिमी तौर पर लिहाज करना है उनमें से 
एक यह है कि दाऔ अपने मदऊ से किसी भी किस्म का मआशी और मादूदी (सांसारिक) 
मुतालबा न करे। चाहे इस एकतरफा दस्तबर्दारी की वजह से उसे कितना ही नुक्सान उठाना 
पड़े। ऐसा करना इसलिए जरूरी है कि दोनों के दर्मियान आखिरी वक्‍त तक दाऔ और मदऊ 
का तअल्लुक बाकी रहे, वह किसी भी हाल में कैमी हरीफ और मादूदी रकीब (प्रतिपक्षी) का 
तअल्लुक न बनने पाए। 

हजरत नूह ने जब इतमामे हुज्जत (आह्वान की अति) की हद तक हक का पेगाम पहुंचा 
दिया, फिर भी उनकी कौम सरकशी पर कायम रही तो सरकशों को सैलाब में गर्क करके 
जमीन उनसे ख़ाली करा ली गई और मोमिनीने नूह को मौका दिया गया कि वे जमीन के 
वारिस बनकर उस पर आबाद हों। इसी को कुरआन की इस्तिलाह में 'खिलाफत' कहा जाता 
है। सैलाब से पहले कीमे नूह जमीन की ख़लीफा बनी हुई थी, सैलाब के बाद मोमिनीने नूह 
जीन के ख़ीफ कार पाए 


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फिर हमने नूह के बाद कितने रसूल भेजे। वे उनके पास खुली खुली दलीलें लेकर आए, 
मगर वे उस पर ईमान लाने वाले न बने जिसे पहले झुठला चुके थे। इसी तरह हम हद 
से निकल जाने वालों के दिलों पर मुहर लगा देते हैं। (74) 








इस आयत में 'हद से गुजर जाने वाला” उन लोगों को कहा गया है जिनका हाल यह होता 


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सूरह-0. यूनुस 569 पारा 7 


है कि एक बार अगर वे हक का इंकार कर दें तो इसके बाद वे उसे अपनी साख का मसला 
बना लेते हैं और फिर उसे मुसलसल नजरअंदाज करते रहते हैं ताकि लोगों की नजर में उनका 
इल्मे दीन और उनका बरसरे हक होना मुशतबह (संदिग्ध) न होने पाए। 

जो लोग इस किस्म का रवैया इख़्तियार करें उन्हें दुनिया में यह सजा मिलती है कि उनके 
दिलों पर मुहर लगा दी जाती है। यानी ख़ुदा के कानून के तहत उनकी नफ्सियात धीरे-धीरे 
ऐसी बन जाती हैं कि बिलआख़िर हक के मामले में उनका शिद्दते एहसास बाकी नहीं रहता। 
इब्तिदा में उनके अंदर जो थोड़ी सी हस्सासियत जिंदा थी वह भी बिलआख़िर मुर्दा होकर रह 
जाती है। वे इस काबिल नहीं रहते कि हक और नाहक के मामले में तड़पें और नाहक को 
छोड़कर हक को कुबूल कर लें। हजरत नूह और उनके बाद आने वाले बेशतर रसूलों की 
तारीख़ इसकी तस्दीक करती है। 

अल्लाह की तरफ से जब भी कोई हक का दाऔ आता है तो वह इस हाल में आता है 
कि उसके गिर्द किसी किस्म की जाहिरी अज्मत नहीं होती । उसके पास जो वाहिद चीज होती 
है वह सिर्फ दलील है। जो लोग दलील की जबान में हक को माने वही हक के दाऔ को 
मानते हैं। जिन लोगों का हाल यह हो कि दलील की जबान उन्हें मुतअस्सिर न कर सके वे 
हक के दाऔ को पहचानने से भी महरूम रहते हैं और उसका साथ देने से भी। 


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फिर हमने उनके बाद मूसा और हारून को फिरऔन और उसके सरदारों के पास अपनी 
निशानियां देकर भेजा, मगर उन्होंने घमंड किया और वे मुजरिम लोग थे। फिर जब उनके 
पास हमारी तरफ से सच्ची बात पहुंची तो उन्होंने कहा, यह तो खुला हुआ जादू है। 
मूसा ने कहा कि क्या तुम हक को जादू कहते हो जबकि वह तुम्हारे पास आ चुका 
है। कया यह जादू है, हालांकि जादू वाले कभी फलाह नहीं पाते। उन्होंने कहा कि क्या 
तुम हमारे पास इसलिए आए हो कि हमें उस रास्ते से फेर दो जिस पर हमने अपने 
बाप दादा को पाया है, और इस मुल्क में तुम दोनों की बड़ाई कायम हो जाए, और 
हम कभी तुम दोनों की बात मानने वाले नहीं हैं। (75-78) 


फिरऔन और उसकी कौम के सरदारों ने अपनी मुजरिमाना जेहनियत की बिना पर मूसा 
और हारून की बात नहीं मानी । वे चीजों को दलील के मेयार से देखने के बजाए जाह व इक्तेदार 
के मेयार से देखते थे। इस ख़ुदसाख्ता मेयार के नाम पर उन्होंने अपने को ऊंचा और मूसा 











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पारा ।7 570 


सूरह-।0. यूनुस 
व हारून को नीचा समझ लिया। उनकी यह नफ्सियात उनके लिए उस हक को कुबूल करने 
मे रुकावट बन गई जो उनके नजदीक एक छोटा आदमी उनके सामने पेश कर रहा था। 
हजरत मूसा की इस्तदलाल (तर्क) की जबान जब फिरऔन की समझ में नहीं आई तो 
आप ने असा (डंडे का सांप बनना) और यदेबेजा (हाथ का चमकना) के मोजिजात दिखाए । 
इन मोजिजात का तोड़ फिरऔन के पास न था। चुनांचे उसने कहा कि यह जादू है। इस तरह 
फिरऔन ने हजरत मूसा के मुकाबले में अपनी शिकस्त को एक झूठी तौजीह में छुपाने की 
कोशिश की। उसने लोगों को यह तास्सुर दिया कि मूसा का मामला हक का मामला नहीं है 
बल्कि जादू का मामला है, यह सही है कि जादू और मोजिजे में कुछ जाहिरी मुशाबिहत होती 
है। मगर बहुत जल्द मालूम हो जाता है कि जादू महज शोअबदा और करिश्मा था। इसके 
मुकाबले में मौजजे को मुस्तकिल कामयाबी हासिल होती है। जादू बिलआख़िर जादू साबित 
होता है और मोजिजा बिलआहिर मोजिजा। 
इस मौके पर फिरऔन ने लोगों को हजरत मूसा की दावत से फेरने के लिए दो और बातें 
कहीं । एक यह कि मूसा हमें हमारे आबाई दीन से बरगश्ता करना चाहते हैं। फिरऔन को चाहिए 
था कि वह हजरत मूसा के पेगाम को हक और नाहक की इस्तिलाह में समझने की कोशिश करे। 
मगर उसने उसे आबाई और गैर आबाई मेयार से जांचा। इसकी वजह यह थी कि हक और 
नाहक के मेयार से देखने में अपने आपको गलत मानना पड़ता । जबकि आबाई और गैर आबाई 
की तक्सीम में अपनी रविश पर बदस्तूर मौजूद रहने का जवाज मिल रहा था। 
फिरऔन ने दूसरी बात यह कही कि 'मूसा और हारून इस मुल्क में अपनी किबरियाई 
(प्रभुत्व) कायम करना चाहते हैं। यह भी अवाम को भड़काने के लिए महज एक सियासी 
शोशा था, क्योंकि हजरत मूसा ने तो अव्वल मरहले में फिरऔन के सामने यह बात रख दी 
थी कि उनका मकसद यह है कि वह फिरऔन को खुदा का पैगाम पहुंचाएं और इसके बाद 
बनी इस्राईल के साथ मिस्र से निकल कर सहराए सीना में चले जाएं। ऐसी हालत में यह 
इल्जाम सरासर छिलाफे वाकया था कि वह मिम्न की हुकूमत पर कब्जा करने का मंसूबा बना 
रहे हैं। 


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और फिरऔन ने कहा कि तमाम माहिर जादूगरों को मेरे पास ले आओ। जब जादूगर 
आए तो मूसा ने उनसे कहा कि जो कुछ तुम्हें डालना है डालो। फिर जब जादूगरों ने 
डाला तो मूसा ने कहा कि जो कुछ तुम लाए हो वह जादू है। बेशक अल्लाह इसको 


बातिल (विनष्ट) कर देगा, अल्लाह यकीनन मुफ्सिदों (उपद्रवियों) के काम को सुधरने 
नहीं देता। और अल्लाह अपने हुक्म से हक को हक कर दिखाता है चाहे मुजरिमों को 





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सूरह-0. यूनुस 57] पारा ।7 
वह कितना ही नागवार हो। (79-82) 


फिरऔन का माहिर जादूगरों को बुलाना इसलिए न था कि वह समझता था कि जादूगरों 
केजरिए वह हजरत मूसा कोज कर लेगा। यह किसी अकी पेमले सेर्‍्यादा फिरऔन की 
उस बढ़ी हुई ख़राहिश का नतीजा था कि वह हजरत मूसा को न माने। ख़ुदा के पैग़म्बर को 
जादूगरों के जरिए ग़लत साबित करने का मंसूबा एक ऐसा मंसूबा था जिसका नाकाम होना 
पहले से मालूम था। मगर आदमी जब किसी हकीकत को न मानना चाहे तो उसकी यह 
ख्वाहिश उसे यहां तक ले जाती है कि वह अहमकाना तदबीरों से उसका मुकाबला करने की 
नाकाम कोशिश करता है। वह सैलाब के मुकाबले में तिनकों का बांध बांधता है हालांकि वह 
खुद जान रहा होता है कि सैलाब के मुकाबले में तिनकों की कोई हकीकत नहीं। 

चुनांचे वही हुआ जो होना था। जादूगरों ने मैदान में रस्सियां और लकड़ियां फेंकीं जो 
देखने वालों को रेंगते हुए सांप की सूरत में दिखाई दीं। इसके बाद हजरत मूसा ने अपना असा 
(डंडा) डाला तो वह बहुत बड़ा सांप बनकर मैदान में दौड़ने लगा। हजरत मूसा का यह “सांप! 
महज सांप न था, वह दरअस्ल खुदा की एक ताकत थी जो इसलिए जाहिर हुई थी कि हक 
को हक और बातिल को बातिल साबित कर दे। चुनांचे उसके सामने आते ही जादूगरों की 
रस्सी, रस्सी रह गई और उनकी लकड़ी लकड़ी। 

यह ख़ुद अपने मुंतख़ब किए हुए मैदान में फिरऔन की शिकस्त थी। मगर अब भी 
फिरऔन ने शिकस्त न मानी। अब उसने हजरत मूसा की तरदीद (रद्द) के लिए कुछ और 
अल्फाज तलाश कर लिए जिस तरह उसे पहले मरहले में आप की तरदीद के लिए कुछ 
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फिर मूसा को उसकी कीम में से चन्द नौजवानों के सिवा किसी ने न माना, फिरऔन 
के डर से और खुद अपनी कौम के बड़े लोगों के डर से कि कहीं वे उन्हें किसी फितने 
में न डाल दे, बेशक फिरऔन जमीन में ग़लबा (संप्रभुत्व) रखता था और वह उन लोगों 
में से था जो हद से गुजर जाते हैं। और मूसा ने कहा ऐ मेरी कौम, अगर तुम अल्लाह 


पर ईमान रखते हो तो उसी पर भरोसा करो, अगर तुम वाकई फरमांबरदार हो। उन्होंने 
कहा, हमने अल्लाह पर भरोसा किया, ऐ हमारे रब, हमें जालिम लोगों के लिए फितना 





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पारा ।7 572 सूरह-0. यूनुस 
न बना। और अपनी रहमत से हमें मुंकिर लोगों से नजात दे। (83-86) 


नए फिक्र (विचारधारा) को कुबूल करना हमेशा इस कीमत पर होता है कि आदमी 
अपने मुआशिरे में नए-नए मसाइल से दो चार हो जाए। यही वजह है कि ज्यादा उम्र के लोग 
अक्सर किसी नए फिक्र को कुबूल करने में मोहतात (संकोची) होते हैं। मुर्ललिफ वजहों से 
ज्यादा उम्र के लोगों पर मस्लेहत का ग़लबा हो जाता है। वह नए फिक्र की सेहत को मानने 
के बावजूद आगे बढ़कर उसका साथ नहीं दे पाते। 

मगर नौजवान तवका आम तौर पर इस किस्म की मस्लेहतों से ख़ाली होता है। चुनांचे 
हमेशा तारीख़ में ऐसा हुआ है कि किसी नई और इंकिलाबी दावत को कुबूल करने में वही 
लोग ज्यादा आगे बढ़े जो अभी ज्यादा उप्र को नहीं पहुंचे थे। यही सूरतेहाल हजरत मूसा के 
साथ पेश आई। 

हजरत मूसा का साथ देने वाले नौजवानों को एक तरफ फिरऔन का ख़तरा था। दूसरी 
तरफ खुद अपनी कैम के बड़ेंकी तरफ से उन्हें हैसलाअफजाई नहीं मिली। ये बड़े अगरचे 
हजरत मूसा की नुबुव्वत को मानते थे। मगर अपनी मस्लेहतअंदेशी (स्वार्थ-भाव) की बिना पर 
वे नहीं चाहते थे कि उनके बेटे बेटियां पुरजोश तौर पर हजरत मूसा का साथ दें और इसके 
नतीजे में वे फिरऔन के जुल्म का शिकार बनें। 

मगर इस किस्म की सूरतेहाल का तकज यह नहीं होता कि आदमी मुख्ललिफीने हक 
के डर से ख़ामोश होकर बैठ जाए। उसे चाहिए कि वह इंसानी मुखालिफतों के मुकाबले में 
खुदाई नुसरतों पर नजर रखे, वह खुदा के भरोसे पर उस हक का साथ देने के लिए उठ खड़ा 
हो जिसका साथ देने के लिए जाती तौर पर वह अपने आपको आजिज पा रहा था। 


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और हमने मूसा और उसके भाई की तरफ “वही” (प्रकाशना) की कि अपनी कौम के 
लिए मिस्न में कुछ घर मुरकर कर लो और अपने इन घरां को किबला बनाओ और नमाज 
कायम करो। और अहले ईमान को खुशखबरी दे दो। (87) 





किबले के मअना अरबी जबान में मरजअ (आकर्षण केन्र या मकजे तवज्जोह के हैं। 
यहां घरों को किबला बनाने से मुराद यह है कि बनी इस्राईल की बस्तियों में कुछ घरों या उन 
घरों के कुछ मुनासिब हिस्सों को इस मकसद के लिए मख्सूस कर दिया जाए कि वे हजरत 
मूसा की दीनी जद्दोजहद के लिए बतौर मकज के काम दें। यहां तंजीमी इज्तिमाआत हों, 
बाहमी मश्विरे हों। दावती अमल की ख़ामोश मंसूबाबंदी की जाए। 

हजरत मूसा की तौहीद और आख़िरत की बातें मिस्र के बादशाह फिरऔन को सख्त 
नागवार थीं। उसने उनके ऊपर निहायत सख्त किस्म की पाबंदियां आयद कर दीं। यहां तक 
कि खुले तौर पर दीनी सरगर्मियां जारी रखना उनके लिए सख्त दुशवार हो गया। उस वक्त 


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सूरह-।0. यूनुस 573 पारा 77 
हुक्म हुआ कि फिरऔन से टकराने के बजाए यह करो कि अपने काम को करीबी दायरे में 
समेट लो। अपनी बस्तियों में छोटे-छोटे दावती और तंजीमी मकज बनाकर महदूद दायरे में 
ख़ामोशी के साथ अपना काम जारी रखो। 
इन हालात में उन्हें जो दूसरा हुक्म दिया गया वह नमाज की इकामत था। यानी अल्लाह 
से तअल्लुक जोड़ने और उससे मदद मांगने के लिए नमाजों का एहतिमाम, इंफिरादी तौर पर 
भी और इज्तिमाई तौर पर भी। नमाज दरअस्ल खुदा से करीब होकर ख़ुदा से मदद मांगने 
की एक सूरत है। नमाज में मशगूल होकर बंदा अपने आपको इज्ज (विनय) और तवाजोअ 
(विनम्रता) के मकाम पर लाता है और इज्ज और तवाजोअ ही वह मकाम है जहां बंदा और 
खुदा की मुलाकात होती है। बंदे के लिए अपने रब से मिलने का दूसरा कोई मकाम नहीं। 
यह जो प्रोग्राम बताया गया इसी की तक्मील में उनके लिए फलाह और नजात का राज 
छुपा हुआ था। यह हुक्म गोया इस बात की ख़ुशख़बरी थी कि खुदा उन्हें उस हालत से 
निकालने वाला है जिसमें उनके दुश्मनों ने उन्हें मुब्तिला कर दिया है। 


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और मूसा ने कहा, ऐ हमारे रब, तूने फिरऔन को और उसके सरदारों को दुनिया की 
जिंदगी में रोनक और माल दिया है। ऐ हमारे रब, इसलिए कि वे तेरी राह से लोगों 

को भटकाएं। ऐ हमारे रब, उनके माल को ग़ारत कर दे और उनके दिलों को सख्त 
कर दे कि वे ईमान न लाएं यहां तक कि दर्दनाक अजाब को देख लें। फरमाया, तुम 

दोनों की दुआ कुबूल की गई। अब तुम दोनों जमे रहो और उन लोगों की राह की 
पैरवी न करो जो इलम नहीं रखते। (88-89) 


जो लोग आखिरत की फिक्र करते हैं वे आम तौर पर दुनियावी साजोसामान जमा करने 
में उन लोगों से पीछे रह जाते हैं जो आख़िरत से बेफिक्र होकर दुनिया हासिल करने में लगे 
हुए हों। दुनियावी कमी आखिरत की तरफ ध्यान लगाने की कीमत है, और दुनियावी ज्यादती 
आहिरत से गाफिल होने की कीमत। 

मजीद यह कि जिसके पास दुनिया की रौनक और सामान ज्यादा जमा हो जाएं वह 
बड़ाई के एहसास में मुन्तिला हो जाता है। नतीजा यह होता है कि ऐसे लोग अपने अंदर यह 
सलाहियत खो देते हैं कि किसी दूसरे की जबान से जारी होने वाले हक को पहचानें और उसके 
आगे झुक जाएं। अपने वसाइल (संसाधनों) को अगर वे खुदा का अतिय्या (देन) समझते तो 


पारा 77 574 सूरह-।0. यूनुस 
उसे हक की ताईद में इस्तेमाल करते, मगर वे उसे अपना जाती कमाल समझते हैं इसलिए वे 
उसे सिर्फ इस मकसद के लिए इस्तेमाल करते हैं कि हक को दबाएं और इस तरह माहौल के 
अंदर अपनी बरतरी कायम रखें। 

'ताकि वे तेरी राह से भटकाएं' का मतलब यह है कि उन्होंने अल्लाह के दिए हुए माल 
व असबाब को सिर्फ इसलिए इस्तेमाल किया कि उसके जरिए से खुदा के बंदों को खुदा से 
दूर करें, उन्होंने उसे हक की ख़िदमत में लगाने के बजाए बातिल की ख़िदमत में लगाया । यहां 
शिदूदते बयान के खातिर कलाम का उस्लूब (शैली) बदल गया है। 

हजरत मूसा ने फिरऔन और उसके साथियों के सामने सच्चे दीन की दावत पेश की और 
अपनी आला सलाहियतों और खुदा की नुसरतों के जरिए उसे इतमामे हुज्जत की हद तक वाजेह 
कर दिया, इसके बावजूद फिरऔन और उसके साथियों ने आपके पैगाम को नहीं माना। उस 
वक्त हजत मूसा ने दुआ की कि खाया इनके ऊपर वह सज नाजिन फरमा जो ती नून 
के तहत ऐसे सरकशों के लिए मुकदुदर है। ऐसे मौके पर पैगम्बर की बददुआ खुद खुदा के फैसले 
का एलान होता है जो नुमाइंदाए खुदा की जबान से जारी किया जाता है। 

हजरत मूसा की दुआ कुबूल हो गई। ताहम जैसा कि कुछ रिवायात में आता है, हजरत मूसा 
की दुआ और फिरऔन की तबाही के दर्मियान 40 साल का फासला है। (तप्सीर नसफी)। 
इसका मतलब यह है कि इसके बाद भी लम्बी मुट्दत तक यह सूरतेहाल बाकी रही कि हजरत 
मूसा और आपके साथी अपने आपको बेबस पाते थे, और दूसरी तरफ फिरऔन और उसके 
साथियों की शान व शौकत बदस्तूर मुल्क में कायम थी। ऐसी हालत में आदमी अगर खुदा की 
उस सुन्नत से बेख़बर हो कि वह सरकशों को मोहलत देता है तो वह जल्दबाजी में असल काम 
को छोड़ देगा और मायूसी और बददिली का शिकार होकर रह जाएगा। 


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और हमने बनी इस्राईल को समुद्र पार करा दिया तो फिरऔन और उसके लश्कर ने 
उनका पीछा किया। सरकशी और ऱ्यादती की गरज से। यहां तक कि जब फिरऔन 
डूबने लगा तो उसने कहा कि मैं ईमान लाया कि कोई माबूद (पूज्य) नहीं मगर वह 
जिस पर बनी इस्राईल ईमान लाए। और में उसके फरमांबरदारों में हूं। क्या अब, और 


इससे पहले तू नाफरमानी करता रहा और तू फसाद बरपा करने वालों में से था। पस 
आज हम तेरे बदन को बचाएंगे ताकि तू अपने बाद वालों के लिए निशानी बने और 








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सूरह-।0. यूनुस 575 पारा ।7 
बेशक बहुत से लोग हमारी निशानियों से गाफिल रहते हैं। (90-92) 


मिम्न में हजरत मूसा का मिशन दोतरफा था। एक, फिरऔन को तौहीद (एकेश्वरवाद) 
और आखिरत की तरफ बुलाना। दूसरे, बनी इस्राईल को मिस्र से बाहर सहराई माहौल में ले 
जाना और वहां उनकी तर्बियत करना । जब फिरऔन पर हक की दावत की तक्मील हो चुकी 
तो अल्लाह के हुक्म से वह बनी इस्राईल को लेकर मिस्र से रवाना हुए। सहराए सीना पहुंचने 
के लिए उन्हें दरिया को पार करना था। जब बनी इस्राईल हजरत मूसा की रहनुमाई में दरिया 
के कनारे पहुंचे तो अल्लाह के हुक्म से हजरत मूसा ने पानी पर अपना असा (डंडा) मारा। 
पानी बीच से फटकर दाएं बाएं खड़ा हो गया, और दर्मियान में ख़ुश्क रास्ता निकल आया। 
हजरत मूसा और बनी इस्राईल उस रास्ते से बाआसानी पार हो गए। 
फिरऔन अपने लश्कर के साथ बनी इस्राईल का पीछा करते हुए आगे बढ़ा। वह दरिया 
के किनारे पहुंचा तो देखा कि मूसा और बनी इस्राईल पानी के दर्मियान एक ख़ुश्क रास्ते से 
गुजर रहे हैं। दरिया के वसीअ पाट ने फटकर हजरत मूसा और उनके साथियों को रास्ता दे 
दिया था। यह वाकया दरअस्ल खुदा की एक निशानी था। फिरऔन को उससे यह सबक 
लेना चाहिए था कि मूसा हक पर हैं और ख़ुदा उनके साथ है। मगर उसने दरिया के फटने 
को खुदाई वाकया समझने के बजाए आम वाकया समझा। अपने और मूसा के दर्मियान 
फिरऔन को सिर्फ दरिया नजर आया, हालांकि वहां खुद खुदा खड़ा हुआ था। इसका नतीजा 
यह हुआ कि जिस वाकये में फिरऔन के लिए इताअत (आज्ञापालन) और इनाबत (खुदा की 
तरफ झुकना) का पैगाम था वह उसके लिए सिर्फ सरकशी में इजाफे का सबब बन गया। 
उसने दरिया” को देखा मगर “खुदा” को नहीं देखा। उसने समझा कि जिस तरह मूसा और 
उनके साथियों ने दरिया को पार किया है उसी तरह वह भी दरिया को पार कर सकता है। 
अपने इस जेहन के साथ फिरऔन और उसके लश्कर दरिया में दाखिल हो गए। दरिया 
का पानी जो दो टुकड़े हुआ था वह मूसा और उनके साथियों के लिए हुआ था, वह फिरऔन 
और उसके साथियों के लिए नहीं हुआ था। चुनांचे फिरऔन और उसका लश्कर जब बीच 
दरिया में पहुंचे तो खुदा के हुक्म से दोनों तरफ का पानी मिल गया और फिरऔन अपने 
लश्कर सहित उसमें गर्क हो गया । गर्क होते हुए फिरऔन ने ईमान का इकरार किया मगर 
वह बेसूद (निरर्थक) था, क्योंकि अल्लाह तआला के यहां इख्तियारी ईमान मोतबर है न कि 
वह ईमान जबकि आदमी ईमान लाने पर मजबूर हो गया हो। 
ख़ुदा से नाफरमानी और सरकशी का अंजाम हलाकत है, इसका नमूना दौरे रिसालत में 
बार-बार इंसान के सामने आता था। ताहम इस किस्म के कुछ नमूने खुदा ने मुस्तकिल तौर 
पर महफूज कर दिए हैं ताकि वह बाद के जमाने में भी इंसान को सबक देते रहें जबकि 
नबियों की आमद का सिलसिला ख़त्म हो गया हो। इन्हीं में से एक तारीखी नमूना फिरऔने 
मूसा (रअमीस सानी) का है जिसकी ममी की हुई लाश पुरातत्व विशेषज्ञों को कदीम मिश्री 
शहर थेबिस (7०७९४) में मिली थी और अब वह काहिरा के म्यूजियम में नुमाइश के लिए 
रखी हुई है। 


पारा ]7 576 सूरह-।0. यूनुस 


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और हमने बनी इस्राईल को अच्छा ठिकाना दिया और उन्हें सुथरी चीजें खाने के लिए 
दीं। फिर उन्होंने इस्तेलाफ (मतभेद) नहीं किया मगर उस वक्‍त जबकि इलम उनके पास 


आ चुका था। यकीनन तेरा रब कयामत के दिन उनके दर्मियान उस चीज का फैसला 
कर देगा जिसमें वे इख़्तेलाफ करते रहे। (93) 


बनी इस्राईल कदीम जमाने में खुदा के दीन के हामिल थे। उनके साथ खुदा ने यह 
एहसान किया कि उनके दुश्मन (फिरऔन) से उन्हें नजात दी। इसके बाद वह उन्हें सीना की 
खुली फजा में ले गया। वहां उनके लिए खुसूसी इंतजाम के तहत पानी और रिज्क मुहय्या 
किया। सहराई तर्बियत के जरिए उनके अंदर एक नई ताकतवर नस्ल तैयार की। उस नस्ल 
ने हजरत मूसा की वफात के बाद एक अजीम मुल्क फतह किया और शाम और उर्दुन और 
फिलिस्तीन जैसे सरसब्ज इलाके में बनी इस्राईल की सल्तनत कायम की। जो कई सौ साल 
तक बाकी रही। 

इस एहसान का नतीजा यह होना चाहिए था कि बनी इस्राईल खुदा के फरमांबरदार और 
शुक्रगुजार रहते और खुदा के दीन की ख़िदमत को अपनी जिंदगी का मकसद बनाते। मगर 
वाजेह रहनुमाई के होते हुए वे राह से बेराह हो गए। 

उनका राह से बेराह होना क्या था। यह आपस का इख़्तेलाफ था। उनके पास खुदा का 
उतारा हुआ इलम मौजूद था जो वाहिद सच्चाई था। मगर उन्होंने इस इलम की तशरीह व 
तावील (भाष्य) में इख़्तेलाफ किया और टुकड़े-टुकड़े हो गए। तिमर ने कोई उम्मत 
जब तक खुदा के उतारे हुए दीन (अल-इल्म) पर रहती है, उसमें इत्तेफाक और इत्तेहाद रहता 
है। मगर बाद को उनके दर्मियान इस अल-इल्म की तशरीह में इख्तेलाफात शुरू होते हैं। कुछ 
लोग एक इख़्तेलाफी राय लेकर बैठ जाते हैं और कुछ लोग दूसरी इख़्तेलाफी राय लेकर। हर 
एक अपने अपने मस्लक (मत) को बरहक साबित करने के लिए बहस मुबाहिसा और तकरीर 
और मुनाजिरे का तूफान खड़ा करता है। नौबत यहां तक पहुंचती है कि अस्ल इलम किताबों 
में बंद पड़ा रहता है और सारा जोर उनकी तावीलात व तशरीहात (व्याख्या) भेसर्फ हेने 
लगता है। इस तरह बुनियादी दीनी तालीमात (अल-इल्म) में एक राय होने के बावजूद लोग 
जशी तालीमात (उप-शिक्षाओं) में मशगूल होकर मुख़्तलिफ राए वाले हो जाते हैं। 

“अल्लाह कियामत के दिन फैसला कर देगा' मतलब यह हैकि कियामत में जब खुदा जाहिर 
होगा तो हर आदमी अपने इख्तेलाफ (मतभेद) को भूलकर उसी बात को मान लेगा जो वाहिद 
(एक मात्र) सच्चाई है। अगर वे ख़ुदा से डरते तो आज ही सबके सब एक राय पर पहुंच जाते। 
मगर ख़ुदा से बेखौफ होकर वे अलग-अलग राहों में बट गए हैं। बेख़ीफी से बहुत सी राए पैदा 
होती हैं और ख़ौफ से राए का इत्तहाद । 





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सूरह-0. यूनुस 577 पारा 7! 

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पस आगर तुम्हें उस चीज के बारे में शक है जो हमने तुम्हारी तरफ उतारी है तो उन 
लोगों से पूछ लो जो तुमसे पहले से किताब पढ़ रहे हैं। बेशक यह तुम पर हक आया 
है तुम्हारे रब की तरफ से, पस तुम शक करने वालों में से न बनो। और तुम उन लोगों 
में शामिल न हो जिन्होंने अल्लाह की आयतां को झुठलाया है, वर्ना तुम नुक्सान उठाने 
वालों में से होगे। (94-95) 


पेगम्बर बेआमेज (विशुद्ध) हक को लेकर उठता है, और बेआमेज हक की दावत को 
कुबूल करना इंसान के लिए हमेशा सख्त दुश्वार काम रहा है। लोग आम तौर पर मिलावटी 
हक की बुनियाद पर खड़े होते हैं। वे अपनी दुनियापरस्ताना जिंदगी पर हक का लेबल लगा 
लेते हैं। ऐसी हालत में बेआमेज हक की दावत को मानना अपनो जात की नफी (नकार) की 
कीमत पर होता है। हक के दाओ को मानने के लिए उसके मुकाबले में अपने आपको छोटा 
करना पड़ता है, और अपने आपको छोटा करना बिलाशुबह इंसान के लिए मुश्किलतरीन काम 
है। यही वजह है कि ऐसा कभी नहीं होता कि हक की दावत उठे और लोग समूहों में उसकी 
तरफ दौड़ना शुरू कर दें। हक का इस्तकबाल इस दुनिया में हमेशा एराज (उपेक्षा) और 
मुखालिफत की सूरत में किया गया है। 

दाऔ जब अपने माहौल में हक की यह बेवक्अती देखता है तो कभी कभी उस पर यह 
शुबह गुजरता है कि मैं गलती पर तो नहीं हूं। इस आयत में दाऔ को इसी नफ्सियात 
(मन:स्थिति) से बचने की ताकीद की गई है। 

इस शुबह के गलत होने का एक निहायत वाजेह सुबूत यह है कि पिछले पैगम्बरों और 
दाजियों को भी इसी तरह की सूरतेहाल से साबिका पेश आया। जो लोग पहले के नबियों की 
तारीख़ से वाकिफ हैं उन्हें बखूबी मालूम है कि इस दुनिया में कभी ऐसा नहीं हुआ कि एक 
पेगम्बर उठे और फौरन उसे अवामी मकबूलियत हासिल हो जाए। फिर यही बात अगर बाद 
के जमाने के दाञियों के साथ पेश आए तो इस पर हैरान व परेशान होने की क्या जरूरत। 

आदमी की अवल अगर किसी चीज की सच्चाई पर गवाही दे और वह सिर्फ लोगों की 
बेतवज्जोही या मुखालिफत की वजह से इस चीज को छोड़ दे तो यह गोया अल्लाह की 
निशानियों को झुठलाना है। अल्लाह निशानियों (दलाइल) के रूप में इंसान के सामने जाहिर 
होता है। इसलिए जिस चीज की सदाकत (सच्चाई) पर दलील कायम हो जाए उसे मानना 
आदमी के ऊपर खुदा का हक हो जाता है। फिर जो शख्स खुदा का हक अदा न करे उसके 
हिस्से में नुक्सान और हलाकत के सिवा क्या आएगा। 





पारा ।7 578 सूरह-।0. यूनुस 
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बेशक जिन लोगों पर तेरे रब की बात पूरी हो चुकी है वे ईमान नहीं लाएंगे, चाहे उनके 
पास सारी निशानियां आ जाएं जब तक कि वे दर्दनाक अजाब को सामने आता न देख 
लें। पस क्‍यों न हुआ कि कोई बस्ती ईमान लाती कि उसका ईमान उसे नफा देता, 
यूनुस की कौम के सिवा। जब वे ईमान लाए तो हमने उनसे दुनिया की जिंदगी में 


रुस्वाई का अजाब टाल दिया और उन्हें एक मुद्दत तक बहरामंद (सुखी-सम्मन्न) होने 
का मोका दिया। (96-98) 








इंसान के सामने जब एक हक बात आती है तो उसकी अक्ल गवाही देती है कि यह 
सही है। मगर किसी हक को लेने के लिए आदमी को कुछ देना पड़ता है और इसी देने के 
लिए आदमी तैयार नहीं होता। इसके ख़ातिर आदमी को दूसरे के मुकाबले में अपने को छोटा 
करना पड़ता है। अपने मफाद (हित) को ख़तरे में डालना होता है। अपनी राय और अपने 
वकार (प्रतिष्ठा) को खोना पड़ता है। ये अदेशे आदमी के लिए कुबूले हक में रुकावट बन 
जाते हैं। जिस चीज का जवाब उसे कुबूलियत और एतराफ से देना चाहिए था उसका जवाब 
वह इंकार और मुख़ालिफत से देने लगता है। 

आदमी की नफ्सियात कुछ इस तरह बनी है कि वह एक बार जिस रुख़ पर चल पड़े 
उसी रुख़ पर उसका पूरा जेहन चलने लगता है। यही वजह है कि एक बार हक से इंहिराफ 
करने के बाद बहुत कम ऐसा होता है कि आदमी दुबारा हक की तरफ लौटे। क्योंकि हर आने 
वाले दिन वह अपने फिक्र (सोच) में पुख्तातर होता चला जाता है। यहां तक कि वह इस 
कबिल ही नहीं रहता कि हक की तरफ वापस जाए। 

इस तरह के लोग अपने मोकिफ (दृष्टिकोण) को बताने के लिए ऐसे अल्फाज बोलते हैं 
जिससे जहिर हो कि उनका केस नजरियाती केस है। मगर हकीकतन वह सिर्फजिद और 
तअस्सुब और हठधर्मी का केस होता है जो अपनी दुनियावी मस्लेहतों के खातिर इख्तियार 
किया जाता है। ताहम अजाबे खुदावंदी के जुहूर के वक्‍त आदमी का यह भरम खुल जाएगा। 
ख़फ की हालत उसे उस चीज के आगे झुकने पर मजबूर कर देगी जिसके आगे वह बेख़ौफी 
की हालत में झुकने पर तैयार न होता था। 

पिछले जमाने में जितने रसूल आए सबके साथ यह किस्सा पेश आया कि उनकी 
मुखातब कौम आखिर वक्‍त तक ईमान नहीं लाई। अलबत्ता जब वे अजाब की पकड़ में आ 
गए तो उन्होंने कहा कि हम ईमान कुबूल करते हैं। जब तक खुदा उन्हें दलील की जबान में 


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सूरह-।0. यूनुस 579 पारा 77 
पुकार रहा था। उन्होंने नहीं माना और जब खुदा ने उन्हें अपनी ताकतों की जद में ले लिया 
तो कहने लगे कि अब हम मानते हैं। मगर ऐसा मानना ख़ुदा के यहां मोतबर (मान्य) नहीं। 
खुदा को वह मानना मत्लूब है जबकि आदमी दलील के जोर पर झुक जाए न कि वह ताकत 
के जोर पर झुके। 

हजरत यूनुस अलैहिस्सलाम इराक के एक कदीम शहर नेनवा में भेजे गए। उन्होंने वहां 
तब्लीग की मगर वे लोग ईमान न लाए। आख़िर हजरत यूनुस ने पैग़म्बरों की सुन्नत के 
मुताबिक हिजरत की। वह यह कहकर नैनवा से चले गए कि अब तुम्हारे ऊपर ख़ुदा का 
अजाब आएगा। हजरत यूनुस के जाने के बाद अजाब की इब्तिदाई अलामतें जाहिर हुई। मगर 
उस वक्त उन्होंने वह न किया जो कौमे हूद ने किया था कि उन्होंने अजाब का बादल आते 
देखकर कहा कि यह हमारे लिए बारिश बरसाने आ रहा है। कौमे यूनुस के अंदर फौरन चौंक 
पैदा हो गई। सारे लोग अपने मवेशियों और औरतों और बच्चों को लेकर मैदान में जमा हो 
गए और खुदा के आगे आजिजी करने लगे। इसके बाद अजाब उनसे उठा लिया गया। जिस 
तरह जुडे अजब से पहले का ईमान कबिले एतबार है उसी तरह कुमे अजब के कीब 
का ईमान भी काबिले एतबार हो सकता है बशर्ते कि वह इतना कामिल हो जितना कामिल 
कीमे यूनुस का ईमान था। 


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और अगर तेरा रब चाहता तो जमीन पर जितने लोग हैं सबके सब ईमान ले आते। 
फिर क्या तुम लोगों को मजबूर करोगे कि वे मोमिन हो जाएं। और किसी शख्स के 
लिए मुमकिन नहीं कि वह अल्लाह की इजाजत के बर ईमान ला सके। और अल्लाह 
उन लोगों पर गंदगी डाल देता है जो अक्ल से काम नहीं लेते। (99-00) 


तेरा रब चाहता तो सारे लोग मोमिन बन जाते” का मतलब यह है कि ख़ुदा के लिए यह 
मुमकिन था कि इंसानी दुनिया का निजाम भी उसी तरह बनाए जिस तरह बकिया दुनिया का 
निजाम है। जहां हर चीज मुकम्मल तौर पर खुदा के हुक्म की पाबंद बनी हुई है। मगर इंसान 
के सिलसिले में ख़ुदा की यह स्कीम ही नहीं। इंसान के सिलसिले में ख़ुदा की स्कीम यह है 
कि आजादाना माहौल में रखकर इंसान को मौका दिया जाए कि वह खुद अपने जाती फैसले 
से खुदा का फरमांबरदार बने। वह अपने इख्तियार से वह काम करे जो बकिया दुनिया 
बेइख्तियारी के साथ कर रही है, जन्नत की अबदी (चिरस्थाई) नेमतें इसी इख्तियाराना 
इताअत की कीमत हैं। 

“कोई शख्स ख़ुदा के इज्न के बगैर ईमान नहीं ला सकता” का मतलब यह है कि मौजूदा 
दुनिया में किसी को ईमान की नेमत मिलेगी तो उस तरीके की पैरवी करके मिलेगी जो ख़ुदा 





पारा 77 580 सूरह-0. यूनुस 


ने उसके लिए मुकर्रर कर दिया है। मौजूदा दुनिया में ईमान को पाने का रास्ता यह है कि आदमी 
ईमान की दावत को अपनी अक्ल के इस्तेमाल से समझे । जिस शख्स की अक्ल के ऊपर उसकी 
दुनियावी मस्लेहतें (स्वार्थ गालिब आ जाएं उसको अक्ल गोया गंदगी की कीचड़ में लतपत हो 
गई है। ऐसे शख्स के लिए इस दुनिया में ईमान की नेमत पाने का कोई सवाल नहीं। 


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कहो कि आसमानों और जमीन में जो कुछ है उसे देखो और निशानियां और डरावे उन 
लोगों को फायदा नहीं पहुंचाते जो ईमान नहीं लाते। वे तो बस उस तरह के दिन का 
इंतिजार कर रहे हैं जिस तरह के दिन उनसे पहले गुजरे हुए लोगों को पेश आए। कहो, 
इंतिजार करो में भी तुम्हारे साथ इंतिजार करने वालों में हूं फिर हम बचा लेते हैं अपने 


रसूलों को और उन्हें जो ईमान लाए। इसी तरह हमारा जिम्मा है कि हम ईमान वालों 
को बचा लेंगे। (0-03) 


हमारे चारों तरफ जो कायनात है उसमें बेशुमार निशानियां मौजूद हैं जो ख़ुदा के वजूद 
को साबित करती हैं। और इसी के साथ यह भी बताती हैं कि इस कायनात के बारे में ख़ुदा 
का मंसूबा क्या है। मजीद यह कि दुनिया में डरावे (आंधी और भूचाल) जैसे वाकेयात भी पेश 
आते रहते हैं जो इंसान को ख़ुदा और आखिरत के मामले में संजीदा बनाएं। मगर यह सब 
कुछ आलमे इम्तेहान में होता है, यानी ऐसी दुनिया में जहां आदमी को इख्तियार रहे कि माने 
या न माने। चुनांचे आदमी यह करता है कि जब निशानियां और डरावे सामने आते हैं तो 
वह उनकी कोई न कोई ख़ुदसाख्ता (स्वनिर्मित) तौजीह करके बात को दूसरे रुख़ की तरफ 
फेर देता है और नसीहत से महरूम रह जाता है। 

जब आदमी दलील की जबान में बात को न माने तो गोया वह सिर्फ उस दिन का 
इंतिजार कर रहा है जबकि इम्तेहान का पर्दा हटा दिया जाए और ख़ुदा अपना आखिरी फैसला 
सुनाने के लिए सामने आ जाए। मगर वह दिन जब आएगा तो वह आज के दिन से बिल्कुल 
मुख़्तलिफ होगा। आज तो मानने वाले और न मानने वाले दोनों बजाहिर यकसां (एक जैसी) 
हालत में नजर आते हैं। मगर जब फैसले का दिन आएगा तो इसके बाद वही लोग अम्न में 
रही जो हकपरस्त साबित हुए थे। बकिया तमाम लोग इस तरह अजाब की लपेट में आ 
जाएंगे कि इसके बाद उनके लिए कोई राह न होगी जिससे भाग कर वे नजात (मुक्ति) हासिल 
करें । 








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सूरह-।0. यूनुस 58] पारा ]7 
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कहो, ऐ लोगो अगर तुम मेरे दीन के मुताल्लिक शक में हो तो में उनकी इबादत नहीं 
करता जिनकी इबादत तुम करते हो अल्लाह के सिवा। बल्कि में उस अल्लाह की 
इबादत करता हूं जो तुम्हें वफात (मोत) देता है और मुझको हुक्म मिला है कि मैं ईमान 
वालों में से बनूं। और यह कि अपना रुख़ यकसू (एकाग्र) होकर दीन की तरफ करूं। 
और मुश्रिकों में से न बनूं। और अल्लाह के अलावा उन्हें न पुकारो जो तुम्हें न नफा 
पहुंचा सकते हैं और न नुक्सान। फिर अगर तुम ऐसा करोगे तो यकीनन तुम जालिमों 

में से हो जाओगे। और अगर अल्लाह तुम्हें किसी तकलीफ में पकड़ ले तो उसके सिवा 
कोई नहीं जो उसे दूर कर सके। और अगर वह तुम्हें कोई भलाई पहुंचाना चाहे तो उसके 
फज्ल को कोई रोकने वाला नहीं। वह अपना फज्ल अपने बंदी मे से जिसे चाहता है 

देता है और वह बर्शने वाला महरबान है। (04-07) 


शत 











दाऔ पहले दलील की जबान में अपनी बात कहता है। मगर जब लोग दलील सुनने के 
बावजूद शक व शुबह में पड़े रहते हैं तो उसके पास आख़िरी चीज यह रह जाती है कि अज्म 
(संकल्प) की जबान में अपने पैगाम की सदाकत का इप्हार कर दे। 

तौहीद के दाओ का शिक करने वालों से यह कहना कि “मैं उसकी इबादत नहीं करता 
जिसकी इबादत तुम लोग करते हो” महज एक दावा नहीं बल्कि वह अपनी जात में एक दलील 
भी है। इसका मतलब यह है किमैं भी तुम्हारे जैसा एक इंसान हूं। मेरे पास भी वही अक्ल 
है जो तुम्हारे पास है। फिर जिस बात की सदाकत (सच्चाई) मेरी समझ मे आ रही है उसकी 
सदाकत तुम्हारी समझ में आख़िर क्‍यों नहीं आती। 

सच्चाई अगर एक इंसान की सतह पर काबिलेफहम (समझ में आने योग्य) हो जाए तो 
इससे यह साबित होता है कि वह दूसरे इंसानों के लिए भी काबिलेफहम थी। इसके बावजूद 
अगर दूसरे लोग इंकार करें तो यकीनन इसकी वजह ख़ुद उनका अपना कोई नुक्स (कमी) 





पारा 77 582 सूरह-।0. यूनुस 
होगा न कि हक की दावत का नुक्‍्स । जिस चीज को एक आंख वाला देख रहा हो और दूसरा 
आंख वाला शख्स उसे न देखे तो वह सिर्फ इस बात का सुबूत है कि आंख वाला हकीकतन 
आंख वाला नहीं। क्योंकि इस दुनिया में यह मुमकिन नहीं कि जिस चीज को एक आंख वाला 
देख ले उसे दूसरा शख्स आंख रखते हुए न देख सके। 

मौत इस बात का एलान है कि आदमी इस दुनिया में कामिल तौर पर बेइख्तियार है। 
मौत उन तमाम चीजों को बातिल (असत्य) साबित कर देती है जिनके सहारे आदमी इंकार 
और सरकशी का तरीका इस़्तियार करता है। मौत एक तरफ आदमी को अपने इज्ज और 
दूसरी तरफ खुदा की कुदरत का तआरुफ कराती है। वह बताती है कि इस दुनिया में कोई 
नहीं जिसे नफा देने या नुक्सान पहुंचाने का इख़्तियार हासिल हो। इस तरह मौत आदमी को 
हर दूसरी चीज से काट कर ख़ुदा की तरफ ले जाती है। वह मुकम्मल तौर पर इंसान को ख़ुदा 
का परस्तार बनाती है। अगर आदमी के अंदर सबक लेने का जेहन हो तो सिर्फ मौत का 
वाकया उसकी इस्लाह (सुधार) के लिए काफी हो जाए। 

हर इंसान पर एक वक्त आता है जबकि वह बेबसी के साथ अपने आपको मौत के 
हवाले कर देता है। इसी तरह किसी इंसान के बस में नहीं कि वह फायदा और नुक्सान के 
मामले में वही होने दे जो वह चाहता है। वह मत्लूब फायदे को हर हाल में पा ले और गैर 
मत्लूब नुक्सान से हर हाल में महफून रहे। 

यह सूरतेहाल बताती है कि इंसान एक बेइख्ियार मख्लूक है। वह एक ऐसी दुनिया में 
है जहां कोई और भी है जो उसके ऊपर हुक्‍्मरानी कर रहा है। 


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कहो, ऐ लोगो तुम्हारे रब की तरफ से तुम्हारे पास हक आ गया है। जो हिदायत कुबूल 
करेगा वह अपने ही लिए करेगा और जो भटकेगा तो उसका वबाल उसी पर आएगा, 
और मैं तुम्हारे ऊपर जिम्मेदार नहीं हूं। और तुम उसकी पैरवी करो जो तुम पर “वही” 


(प्रकाशना) की जाती है और सब्र करो यहां तक कि अल्लाह फैसला कर दे और वह 
बेहतरीन फैसला करने वाला है। (08-09) 


दावत (आह्वान) का काम अस्लन हक के एलान का काम है। किसी गिरोह के ऊपर 
उस वकत पेगामरसानी का हक अदा हो जाता है जबकि दाऔ हक (सत्य) को दलील के जरिए 
पूरी तरह वाजेह कर दे और इसी के साथ इस बात का सुबूत दे दे कि वह इस मामले में पूरी 
तरह संजीदा है। 

दाऔ अगर वक्त के मेयार के मुताबिक हक को मुदल्लल (तार्किक) कर दे। वह नफा 
नुक्सान से बेनियाज होकर हक की मुकम्मल गवाही दे दे। वह हर तकलीफ और नाखुशगवारी 


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सूरह-।. हूद 583 पारा 77 


को बर्दाश्त करता हुआ अपने दावती काम को जारी रखे तो इसके बाद मुखातब (संबोधित 
व्यक्ति) के ऊपर वह इतमामे हुज्जत (आह्वान की अति) हो जाता है जिसके बाद ख़ुदा के 
यहां किसी के लिए कोई उज़ (विवशता) बाकी न रहे। 

दाओ (आस्वानकर्ता) का काम अस्लन इत्तबाए 'वही' है। यानी अपनी जात की हद तक 
अमलन रब की मर्जी पर कायम रहते हुए दूसरों को रब की मजी की तरफ पुकारते रहना । 
इस काम को हर हाल में हिक्मत और सब्र और खैरख्याही के साथ मुसलसल जारी रखना है। 
इसके बाद जितने बकिया मराहिल हैं वे सब बराहेरास्त तौर पर खुदा से मुतअल्लिक हैं। दा 
की तरफ से कोई दूसरा अमली इवदाम सिर्फ उस वक्त दुरुस्त है जबकि खुद खुदा की तरफ 
से उसका फैसला किया जा चुका हो और उसके आसार जाहिर हो जाएं। 

खुदा का फैसला हमेशा हालात के रूप में जाहिर होता है। जब ख़ुदा के इलम में दाजी 
का दावती काम मत्लूबा हद को पहुंच चुका होता है तो ख़ुदा हालात में ऐसी तब्दीलियां पैदा 
करता है जिसे इस्तेमाल करके दाऔ अपने अमल के अगले मरहले में दाखिल हो जाए। 


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(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

अलिफ० लाम० रा०। यह किताब है जिसकी आयतें पहले मोहकम (दु) की गई फिर 
एक दाना (तत्वदर्शी) और ख़बीर (सर्वज्ञ) हस्ती की तरफ से उनकी तफ़्सील की गई 
कि तुम अल्लाह के सिवा किसी और की इबादत न करो। में तुम्हें उसकी तरफ से डराने 
वाला और खुशखबरी देने वाला हूं। और यह कि तुम अपने रब से माफी चाहो और 
उसकी तरफ पलट आओ, वह तुम्हें एक मुद्दत तक बरतवाएगा अच्छा बरतवाना, और 
हर ज्यादा के मुस्तहिक को अपनी तरफ से ज्यादा अता करेगा। और अगर तुम फिर 


जाओ तो मैं तुम्हारे हक में एक बड़े दिन के अजाब से डरता हूं। तुम सबको अल्लाह 
की तरफ पलटना है और वह हर चीज पर कादिर है। (-4) 





पारा ।7 584 सूरह-।. हूद 


कुरआन की दावत (आह्वान) यह है कि आदमी एक अल्लाह के सिवा किसी की इबादत 
न करे। वह एक ख़ुदा को अपना सब कुछ बनाए। वह उसी से डरे और उसी से उम्मीद रखे। 
उसके जेहन व दिमाग पर उसी का गलबा हो। अपनी जिंदगी के मामलात में वह सबसे ज्यादा 
उसकी मर्जी का लिहाज करे। वह अपने आपको आबिद (पूजक) के मकाम पर रखकर खुदा 
को माबूद (पूज्य) का मकाम देने पर राजी हो जाए। 

पैग़म्बराना दावत दरअस्ल इसी चीज से इंसान को बाख़बर करने की दावत है। कुरआन 
में इसको इंतिहाई मोहकम जबान और वाजेह उस्लूब में बयान कर दिया गया है। अब इंसान 
से जो चीज मल्लूब है वह यह कि वह इसके मुकाबले में सही रद्देअमल पेश करे। हसद, 
घमंड, मस्लेहतबीनी (स्वार्थता) और गिरोहपरस्ती जैसी चीजों के जेरेअसर आकर वह उसे 
नजरअंदाज न कर दे। बल्कि सीधी तरह उसे मान कर खुदा की तरफ पलट आए। वह अपनी 
माजी की गलतियों के लिए खुदा से माफी मांगे और मुस्तकबिल के लिए खुदा से मदद की 
दरख़्वास्त करे। 

आदमी के सामने खाना पेश किया जाए और वह खाने को कुबूल कर ले तो इसका 
मतलब यह है कि उसने अपनी जिस्मानी परवरिश का इंतिजाम किया । इसके बरअक्स अगर 
वह खाना कुबूल न करे तो गोया उसने अपने आपको जिस्मानी परवरिश से महरूम रखा। 
ऐसा ही मामला हक की दावत का है। जब आदमी हक को कुक्ून करता है तो दरहकीकत 
वह उस रिज्के रब्बानी को कुबूल करता है जो उसके अंदर दाखिल होकर उसकी रूह और 
उसके जिस्म की सालेह (सही) परवरिश का सबब बने और बिलआखिर उसे रूहानी तरक्की 
की उस मंजिल की तरफ ले जाए जो उसे जन्नत के बागों का मुस्तहिक बनाती है। 

जो शख्स हक की दावत को कुबूल न करे उसने गोया अपनी रूह को रब्बानी परवरिश के 
मौकों से महरूम कर दिया । हक को मानने वाला अगर तवाजोअ (विनम्रता) में जी रहा था तो 
यह दूसरा शख्स घमंड की नपिसियात में जिएगा । हक को मानने वाले के लम्हात अगर ख़ुदा की 
याद में बसर हो रहे थे तो उसके लम्हात गैर ख़ुदा की याद में बसर होंगे। हक को मानने वाला 
अगर ज़िंदगी के मौकों में इताअते खुदावंदी का रवैया इख्तियार किए हुए था तो यह उसकी जगह 
सरकशी का रवैया इख्तियार करेगा । इसका नतीजा यह होगा कि पहला शख्स इस दुनिया से इस 
हाल मेंजाएगा कि उसकी रूह सेहतमंद और तररीयाफ्ता रूह होगी और जन्नत की फजाओं 
में बसाए जाने की मुस्तहिक ठहरेगी। और दूसरे शख्स की रूह बीमार और पिछड़ी हुई रूह होगी 
और सिर्फ इस काबिल होगी कि उसे जहन्नम के कूड़ाघर में फेंक दिया जाए। 


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सूरह-]. हूद 585 पारा 2 


देखो, ये लोग अपने सीनों को लपेटते हैं ताकि उससे छुप जाएं। ख़बरदार, जब वे कपड़ों 
से अपने आपको ढांपते हैं, अल्लाह जानता है जो कुछ वे छुपाते हैं और जो वे जाहिर करते 
हैं। बह दिलों की बात तक जानने वाला है। और जमीन पर कोई चलने वाला ऐसा नहीं 
जिसकी रोजी अल्लाह की जिम्मे न हो। और वह जानता है जहां कोई ठहरता है और जहां 

वह सौंपा जाता है। सब कुछ एक खुली किताब में मौजूद है। (5-6) 





क्रैश के कुछ सरदारों ने ऐसा किया कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उनके 
सामने तौहीद (एकेश्वरवाद) की दावत पेश की तो वे बेपरवाही के साथ उठे। अपनी चादर 
अपने ऊपर डाली और रवाना हो गए। 

यह दरअस्ल किसी बात को नजरअंदाज करने की एक सूरत है। कोई आदमी जब दाऔ 
(आह्वानकर्ता) को हकीर (तुच्छ) समझे और उसके मुकाबले में अपने को बरतर ख्याल करे 
तो उस वक्‍त वह इसी किस्म का रवैया इख््तियार करता है। मगर आदमी भूल जाता है कि 
जिस नफ्सियात के तहत वह ऐसा कर रहा है वह अल्लाह तआला को ख़ूब मालूम है। यह 
सिर्फ एक इंसान (दाओ) को नजरअंदाज करना नहीं है बल्कि खु खुरा को नजरअंदाज 
करना है जो हर खुले और छुपे को जानने वाला है। 

फिर आदमी का हाल उस वक्त क्या होगा जब वह खुदा का सामना करेगा। वह देखेगा 
कि जिस खुदा को उसने नजरअंदाज किया था वही वह हस्ती था जिससे उसे वह सब कुछ 
मिला था जो उसके पास था। यहां तक कि वे असबाब भी जिनके बल पर उसने ख़ुदा की 
बात को नजरअंदाज कर दिया था। आदमी खुदा की दुनिया में है और बिलआखिर वह खुदा 
की तरफ जाने वाला है। मगर वह इस तरह रहता है जैसे कि न आज खुदा से उसका कोई 
तअल्लुक है और न आइंदा उसका ख़ुदा से कोई वास्ता पड़ने वाला है। 

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और वही है जिसने आसमानां और जमीन को छः दिनों में पेदा किया। और उसका 
अर्श (सिंहासन) पानी पर था, ताकि तुम्हें आजमाए कि कौन तुम में अच्छा काम करता 
है। और अगर तुम कहो कि मरने के बाद तुम लोग उठाए जाओगे तो मुंकिरीन कहते 
हैं यह तो खुला हुआ जादू है। और अगर हम कुछ मुदूदत तक उनकी सजा को रोक 
दें तो कहते हैं कि क्या चीज उसे रोके हुए है। आगाह, जिस दिन वह उन पर आ पड़ेगा 


पारा 72 586 सूरह-]. हूद 


तो वह उनसे फेरा न जा सकेगा और उन्हें घेर लेगी वह चीज जिसका वे मजाक उद़ 
रहे थे। (7-8) 





मौजूदा दुनिया को ख़ुदा ने छः दिनो, यानी छः अदवार (P०००५) में पैदा किया है। 
जमीन पर एक ऐसा दौर गुजरा है जबकि उसकी सतह पानी से ढकी हुई थी। खुदा की 
सल्तनत के इस हिस्से में उस वक्त सिर्फ पानी नजर आता था। इसके बाद ख़ुदा के हुक्म से 
खुश्की के इलाके उभर आए और पानी समुद्रों की गहराई में जमा हो गया। इस तरह यह 
मुमकिन हुआ कि जमीन पर मौजूदा जीवधारी जहूर में आए। 

खुदा अगरचे कादिर है कि वाकेयात को अचानक जाहिर कर दे। मगर यह दुनिया इंसान 
के लिए बतौर इम्तेहानगाह बनाई गई है। यही वजह है कि खुदा ने मौजूदा दुनिया को मंसूबे 
के तहत बनाया और अपनी तख्लीकात (रचनाओं) पर असबाब का पर्दा कायम रखा। 

दुनिया की पैदाइश और उस पर इंसान की आबादकारी से ख़ुदा का मकसूद अच्छा अमल 
करने वाले का इंतख़ाब है। 'अच्छा अमल” दरअस्ल हकीकतपसंदाना अमल का दूसरा नाम है। 
यानी किसी दबाव के बगैर वह करना जो अजरूए हकीकत आदमी को करना चाहिए। 
हकीकतपसंद शख्स वह है जो असबाब के जाहिरी पर्दे से गुजर कर खुदा की छुपी हुई हुई 
कारफरमाई को देख ले। बजाहिर इख़्तियार रखते हुए अपने आपको बेइख््ियार कर ले। 
सरकशी की जिंदगी गुजारने का मौका रखते हुए खुदा का ताबेअदार बन जाए। 

मौजूदा दुनिया में ऐसे ही हकीकतपसंद इंसानों का चुनाव हो रहा है। जब चुनाव की यह 
मुद्दत ख़त्म होगी तो मौजूदा निजाम को ख़त्म करके दूसरा मेयारी निजाम बनाया जाएगा 
जहां तमाम अच्छी चीजें सिर्फ अच्छा अमल करने वालों के लिए होंगी और तमाम बुरी चीजे 
सिर्फ बुरा अमल करने वालों के लिए। 

अल्लाह तआला अपने कानूने मोहलत की वजह से मुंकिरों और सरकशों को फौरन नहीं 
पकड़ता। उन्हें इंतिहाई हद तक मौका देता है कि वे या तो सचेत होकर अपनी इस्लाह कर 
लें या आखिरी तौर पर अपने आपको मुजरिम साबित कर दें। यह कानूने मोहलत कुछ 
सरकशों के लिए गलतफहमी का सबब बन जाता है। वे अपनी हैसियत को भूल कर बड़ी-बड़ी 
बातें करने लगते हैं। मगर जब वे ख़ुदा की पकड़ में आ जाएंगे उस वक्‍त उन्हें मालूम होगा 
कि वे खुदा के मुकाबले 29 28, थे। हा (६6 

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और अगर हम इंसान को अपनी किसी रहमत से नवाजते हैं फिर उससे उसे महरूम 
कर देते हैं तो वह मायूस और नाशुक्रा बन जाता है। और अगर किसी तकलीफ के 
बाद जो उसे पहुंची थी, उसे हम नेमत से नवाजते हैं तो वह कहता है कि सारी मुसीबतें 


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सूरह-।।. हूद 587 पारा ।2 


मुझसे दूर हो गई, वह इतराने वाला और अकड़ने वाला बन जाता है। मगर जो लोग 
सब्र करने वाले और नेक अमल करने वाले हैं उनके लिए बर्शिश (क्षमा) है और बड़ा 
अज्र (प्रतिफल) । (9-) 


मौजूदा दुनिया में आदमी को कभी राहत दी जाती है और कभी मुसीबत। मगर यहां न 
राहत इनाम के तौर पर है और न मुसीबत सजा के तौर पर। दोनों ही का मकसद जांच है। 
यह दुनिया दारुल इम्तेहान (परीक्षा-स्थल) है। यहां इंसान के साथ जो कुछ पेश आता है वह 
सिर्फ इसलिए होता है कि यह देखा जाए कि मुख़्तलिफ हालात में आदमी ने किस किस्म का 
रदूदेअमल पेश किया। 

वह आदमी नाकाम है जिसका हाल यह हो कि जब उसे खुदा की तरफ से कोई राहत 
पहुंचे तो वह फख़ की नफ्सियात में मुब्तिला हो जाए। और जो अफराद उसे अपने से कम 
दिखाई दें उनके मुकाबले में वह अकड़ने लगे। इसी तरह वह शख्स भी नाकाम है कि जब 
उससे कोई चीज छिने और वह मुसीबत का शिकार हो तो वह नाशुक्री करने लगे। किसी 
महरूमी के बाद भी आदमी के पास ख़ुदा की दी हुई बहुत सी चीजें मौजूद होती हैं। मगर 
आदमी उन्हें भूल जाता है और खोई हुई चीज के ग़म में ऐसा पस्तहिम्मत होता है गोया उसका 
सब कुछ लुट गया है। 

इसके बरअक्स ईमान में पूरा उतरने वाले वे हैं जो साबिर (धैर्यवान) और नेक अमल 
करने वाले हों। यानी हर झटके के बावजूद अपने आपको एतदाल पर बाकी रखें और वही 
करें जो ख़ुदा का बंदा होने की हैसियत से उन्हें करना चाहिए । 

सब्र यह है कि आदमी की नपिसयात हालात के जेरेअसर न बने बल्कि उसूल और 
नजरिये के तहत बने। हालात चाहे कुछ हों वह उनसे बुलन्द होकर ख़ालिस हक की रोशनी 
में अपनी राय बनाए । वह हालात से गैर मुतअस्सिर रहकर अपने अकीदे और शुऊर की सतह 
पर जिंदा रहने की ताकत रखता हो। इसी किस्म की जिंदगी नेक अमली की जिगी है। जो 
लोग इस नेक अमली का सुबूत दें वही वे लोग हैं जो अगली जिंदगी में खुदा की रहमतों के 
हिस्सेदार होंगे और ख़ुदा की अबदी (चिरस्थाई) जन्नतों में जगह पाएंगे। 


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पारा 2 588 सूरह-]. हूद 


कहीं ऐसा न हो कि तुम उस चीज का कुछ हिस्सा छोड़ दो जो तुम्हारी तरफ “वही! 
(प्रकाशना) की गई है। और तुम इस बात पर दिलतंग हो कि वे कहते हैं कि उस पर कोई 
खजाना क्यों नहीं उतारा गया या उसके साथ कोई फरिश्ता क्यों नहीं आया। तुम तो सिर्फ 

डराने वाले हो और अल्लाह हर चीज का जिम्मेदार है। क्या वे कहते हैं कि पेगम्बर ने इस 

किताब को गढ़ लिया है। कहो, तुम भी ऐसी ही दस सूरतें बना कर ले आओ और अल्लाह 
के सिवा जिसे बुला सको बुला लो, अगर तुम सच्चे हो। पस आगर वे तुम्हारा कहा पूरा 
न कर सके तो जान लो कि यह अल्लाह के इलम से उतरा है और यह कि उसके सिवा कोई 
माबूद (पूज्य) नहीं, फिर क्या तुम हुक्म मानते हो। (।2-4) 








रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने जब शिर्क की तरदीद की और लोगों को 
तौहीद की तरफ बुलाया तो आपके मुखातबीन बिगड़ गए। इसकी वजह यह थी कि आपकी 
बातों से उनके उन बड़ों पर जद पड़ती थी जिनके दीन को उन्होंने इख़््तियार कर रखा था और 
जिनसे जुड़ाव पर वे फख़ करते थे। सूरतेहाल यह थी कि कदीम अरबों के ये अकाबिर (बड़े) 
तारीख़ी तौर पर उनकी नजर में बाअज्मत बने हुए थे, जबकि पैग़म्बरे इस्लाम के साथ अभी 
तारीख़ की अज्मतें शामिल नहीं हुई थीं। उस वक्‍त आप लोगों को एक बेंहैसियत इंसान के 
रूप में नजर आते थे। अरब के लोग यह देखकर सख्त बरहम (आक्रोशित) होते थे कि एक 
मामूली आदमी ऐसी बातें कह रहा है जिससे उनके अकाबिर व महापुरुष बेएतबार साबित हो 
रहे हैं। 

ऐसी हालत में दाओ के जेहन में यह ख्याल आता है कि वह, कम से कम वक्ती तौर 
पर, तंकीदी अंदाज से परहेज करे और सिर्फ मुस्बत (सकारात्मक) तौर पर अपना पैगाम 
पेश करे । “शायद तुम “वही” के कुछ हिस्से की तब्लीग़ छोड़ दोगे।” से मुराद खुदाई “वही! 
का यही तंकीदी हिस्सा है। मगर अल्लाह तआला को वजाहत मत्लूब है और तंकीद 
(आलोचना) के बगैर वजाहत मुमकिन नहीं। फिर अगर हक को पूरी तरह खोलने के 
नतीजे में लोग दाऔ को मज़ाक और मुखालिफत का मौजूअ (विषय) बनाएं तो इससे 
घबराने की क्या जरूरत। मदऊ की तरफ से यह मुख़ालिफाना रद्देअमल तो दरअस्ल वह 
कीमत है जो किसी आदमी को बेआमेज (विशुद्ध) हक का दाऔ बनने के लिए इस दुनिया 
में अदा करनी पड़ती है। 

खुदा के दा के बरहक हेने का सबसे ज्यादा यकीनी सुबूत उसका नाकबिले तक्तीद 
(अद्वितीय) कलाम है। जो लोग पैगम्बर को हकीर (तुच्छ) समझ रहे थे और यह यकीन करने 
के लिए तैयार न थे कि इस बजाहिर मामूली आदमी को वह सच्चाई मिली है जो उनके 
अकाबिर को भी नहीं मिली थी, उनसे कहा गया कि पैगम्बर की सदाकत को इस मेयार पर 
न जांचो कि मादूदी एतबार से वह कैसा है। बल्कि इस हैसियत से देखो कि वह जिस कलाम 
के जरिए अपनी दावत पेश कर रहा है वह कलाम इतना अजीम है कि तुम और तुम्हारे तमाम 
अकाबिर मिलकर भी वैसा कलाम नहीं बना सकते। यह नाकाबिले तक्लीद इम्तियाज 
(विशिष्टता) इस बात का कतई सुबूत है कि पैगम्बर खुदा की तरफ से बोल रहा है। पैगम्बर 
के बरसरे हक होने की इस वाजेह निशानी के बाद आख़िर लोगों को ख़ुदा का हुक्मबरदार बनने 
मेंकिस चीज का इतिजर है। 





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सूरह-]. हूद 589 पारा ।2 

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जो लोग दुनिया की जिंदगी और उसकी जीनत (विभव) चाहते हैं, हम उनके आमाल का 

बदला दुनिया ही में दे देते हैं। और इसमें उनके साथ कोई कमी नहीं की जाती। यही 


लोग हैं जिनके लिए आख़िरत में आग के सिवा कुछ नहीं है। उन्होंने दुनिया में जो कुछ 
बनाया था वह बर्बाद हुआ और ख़राब गया जो उन्होंने कमाया था। (5-6) 





दीन की दो किस्में हैं। एक मिलावटी दीन, दूसरा बेआमेज दीन मिलावटी दीन दरअस्ल 
दुनिया के ऊपर दीन का लेबल लगाने का दूसरा नाम है। वह दुनिया और दीन के दर्मियान 
मुसालेहत करने से वजूद में आता है। यही वजह है कि हर जमाने में ऐसा होता है कि 
मिलावटी दीन की बुनियाद पर बड़ेबड़े इदारे कायम होते हैं। मफादपरस्त लोग उसके जरिए 
दीन के नाम पर दुनिया हासिल कर लेते हैं। 

बेआमेज (विशुद्ध) दीन का मामला इसके बिल्कुल बरअक्स है। बेआमेज दीन की दावत 
जब किसी माहील में उठती है तो वह सिर्फ एक नजरी सच्चाई होती है। मआशी मफादात 
और कयादती मसालेह (हित) उसके साथ जमा नहीं होते। ऐसी हालत में जो लोग मिलावटी 
दीन के नाम पर इज्जत और मकाम हासिल किए हुए हों उनके सामने जब बेआमेज दीन का 
दावत आती है तो वे सख्त ख़ौफजदा होते हैं। क्योंकि इसे इख़्तियार करने की सूरत में उन्हें 
नजर आता है कि तमाम दुनियावी चीजें उनसे छिन जाएंगी । 

इस एतबार से किसी माहौल में बेआमेज दीन का दावत का उठना वहां एक नाजुक 
इम्तेहान का बरपा होना है। ऐसे वक्त में जो लोग दुनिया की इज्जत और दुनिया के मफादात 
को काबिले तरजीह समझें और बेआमेज दीन का साथ न दें उनकी सारी दौड़ धूप दुनिया के 
खाने में चली जाती है। क्योंकि उन्होंने उस दीन का साथ दिया जिसमें उनके दुनियावी 
मपब्त (स्वार्थ) महफूज थे। और उस दीन का साथ न दिया जिसमें उन्हें अपने दुनियावी 
मफादात छिनते हुए नजर आते थे। वे बजाहिर चाहे दीनी सरगर्मियों में मशगूल हों, अस्ल 
मकसूद के एतबार से वे दुनिया के हुसूल मे मशगूल होते हैं। जाहिर है कि ऐसी कोशिशों का 
आखिरत में कोई नतीजा मिलना मुमकिन नहीं । 

उन्होंने अगरचे अपनी सरगर्मियों को दीन का नाम दे रखा था वे अपने कौमी मेलों के 
ऊपर जश्ने दीनी का बोर्ड लगाते थे। वे अपनी कौमी लड़ाइयों को मुकद्दस जंग का नाम देते 
थे। वे अपनी कयादती नुमाइश को दीनी कॉन्फ्रेंस कहते थे, वे अपने सियासी हंगामों को 
मजहब की इस्तेलाहात (शब्दावलियों) में बयान करते थे, वे अपने दुनियावी जज्बात के तहत 
धूम मचाते थे और उसे ख़ुदा और रसूल के साथ जोड़ते थे। मगर ये सारी तामीरात दुनिया 
की जमीन में थीं, वे आखिरत की जमीन में न थीं, इसलिए कयामत का जलजला उन्हें 
बिल्कुल बर्बाद कर देगा। अगली दुनिया में उनका कोई अंजाम उनके हिस्से में न आएगा। 





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भला एक शख्स जो अपने रब की तरफ से एक दलील पर है, इसके बाद अल्लाह की 
तरफ से उसके लिए एक गवाह भी आ गया, और इससे पहले मूसा की किताब रहनुमा 
और रहमत की हैसियत से मोजूद थी, ऐसे ही लोग उस पर ईमान लाते हैं और जमाअतों 
में से जो कोई इसका इंकार करे तो उसके वादे की जगह आग है। पस तुम इसके बारे 
में किसी शक में न पड़ो। यह हक है तुम्हारे रब की तरफ से मगर अक्सर लोग नहीं 
मानते। (7) 


पैग़म्बरे इस्लाम ने अरब में तौहीद की दावत पेश की तो कुछ लोगों ने उसे माना और 
ज्यादा लोग इसके मुंकिर हो गए। यही हर जमाने में हक की दावत के साथ होता रहा है। 

खुदा ने हर आदमी को फितरते सही पर पैदा किया है। गिर्द व पेश की दुनिया में हर तरफ 
ऐसी निशानियां फैली हुई हैं जो अपने ख़ालिक का एलान करती हैं और इसी के साथ उसके 
तख्लीकी मंसूबे की तरफ इशारा कर रही हैं। फिर इंसानियत के बिल्कुल इब्तिदाई जमाने से खुदा 
के रसूल आते रहे और ख़ुदा की बातें लोगों को बताते रहे। उन्हीं में से एक पैगम्बर हजरत मूसा 
अलैहिस्सलाम हैं जिनकी लाई हुई किताब अब तक किसी न किसी शक्ल में मौजूद है। अब जो 
शख्स संजीदा हो और चीजें से सबक लेना जानता हो तो वह हकीकत से इतना मानूस (भिज्ञ) 
होगा कि दाऔ जब उसके सामने हकीकत का एलान करेगा तो फौरन वह उसे पहचान लेगा। 
उसका दिल और उसका दिमाग़ हक के हक होने पर गवाही देंगे। वह आगे बढ़कर उसे इस तरह 
इख़्तियार कर लेगा जैसे वह उसके अपने दिल की आवाज हो। 

मगर अक्सर लोगों का हाल यह होता है कि वे चीजों को बहुत ज्यादा संजीदगी के साथ 
नहीं देखते। वे सतही तमाशों और वक्ती दिलचस्पियों में पड़कर अपना मिजाज बिगाड़ लेते 
हैं। गैर मुतअल्लिक चीजें की मसरूफियत उन्हें इसका मोका नहीं देती कि वे दाओ और 
उसकी दावत पर ठहर कर सोचें। चुनांचे उनके सामने जब हक की बात आती है तो वे उसे 
पहचान नहीं पाते। वे अपने बिगड़े हुए मिजाज की बिना पर उसके मुंकिर बल्कि मुखालिफ 
बन जाते हैं। ये वे लोग हैं जिन्होंने खुदा की और खुदा के तख़्तीकी मंसूबे की नाकद्री की। 
उनके लिए आखिरत में जहन्नम की आग के सिवा और कुछ नहीं। 

इंसानी फितरत, जमीन व आसमान के वाकेयात और पिछली आसमानी किताबें कुरआन 
के हक होने की गवाही दे रही हैं। इसके बाद अगर लोगों की अक्सरियत (बहुसंख्या) इसका 
इंकार करती है तो इसकी वजह मुंकिरीन के अंदर तलाश की जाएगी न यह कि ख़ुद कुरआन 
के किताबे हक (दिव्य ग्रंथ) होने पर शक किया जाए। 





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सूरह-]. हूद 59l पारा 2 


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और उससे बढ़कर जालिम कौन है जो अल्लाह पर झूठ गढ़े। ऐसे लोग अपने रब के 
सामने पेश होंगे और गवाही देने वाले कहेंगे कि ये वे लोग हैं जिन्होंने अपने रब पर 
झूठ गढ़ा था। सुनो, अल्लाह की लानत है जालिमों के ऊपर। उन लोगों के ऊपर जो 
अल्लाह के रास्ते से लोगों को रोकते हैं और उसमें कजी (टेढ़) ढूंढते हैं। यही लोग 
आख़िरत के मुंकिर हैं। वे लोग जमीन में अल्लाह को बेबस करने वाले नहीं और न 
अल्लाह के सिवा उनका कोई मददगार है, उन पर दोहरा अजाब होगा। वे न सुन सकते 

थे और न देखते थे। ये वे लोग हैं जिन्होंने अपने आपको घाटे में डाला। और वे सब 
कुछ उनसे खोया गया जो उन्होंने गढ़ रखा था। इसमें शक नहीं कि यही लोग आख्रिरत 
(परलोक) में सबसे ज्यादा घाटे में रहेंगे। (8-22) 


ख़ुदा पर झूठ गढ़ने” से मुराद खुदा की जात पर झूठ गढ़ना नहीं है। इससे मुराद ख़ुदा 
की बात पर झूठ गढ़ना है। ख़ुदा अपना पैग़ाम सुनाने के लिए ख़ुद सामने नहीं आता बल्कि 
एक इंसान की जबान से इसका एलान कराता है। यह इंसान उस वक्त बजाहिर एक मामूली 
इंसान होता है, मगर उसके कलाम में खुदा की वाजेह झलकियां होती हैं। अगर लोग उसे 
उसके कलाम के एतबार से देखें तो वे उसकी अज्मतों में खुदा को पा लें। मगर लोगों की 
सतहियत और जाहिरपरस्ती का नतीजा यह होता है कि उनकी निगाहें सुनाने वाले की मामूली 
हैसियत में अटक कर रह जाती हैं। पैगम्बर का मामूली होना उन्हें नजर आता है मगर पैग़ाम 
का गैर मामूली होना उन्हें दिखाई नहीं देता चुनांचे वे उसे एक आम इंसान का मामला समझ 
कर उसका मजाक उड़ते हैं। उसकी बात में झूठे एतराजात निकालते हैं। और उसे इस तरह 
नजरंअदाज कर देते हैं जैसे कि इसकी कोई अहमियत ही नहीं। 

इस जालिमाना रवैये की असल वजह बेख़फी की नफ्सियात है। लोगों को आख़िरत पर 
यकीन नहीं। उनके दिलों में खुदाए कहहार व जब्बार का ख़ौफ नहीं। इसलिए वे इस पेगाम के 


पारा ।2 592 सूरह-।।. हूद 


बारे में संजीदा नहीं हो पाते। और जिस मामले में आदमी संजीदा न हो वह उसके मुतअल्लिक 
सही रद्देअमल पेश करने में हमेशा नाकाम रहेगा। 

मगर लोगों की यह गैर संजीदगी उस वक्त रुख़सत हो जाएगी जब वे कियामत में 
मालिके कायनात के सामने खड़े होंगे। उस वक्‍त उनकी मौजूदा आजादी उनसे छिन चुकी 
होगी। जिन असबाब व वसाइल के भरोसे पर वे सरकश बने हुए थे वे ख़ुदा का टेपरिकॉर्डर 
बनकर उनके खिलाफ गवाही देने लगेंगे। उस वक्‍त यह सुस्पष्ट हो जाएगा कि खुदा के दाऔ 
(आह्वानकर्ता) को जो उन्होंने झुठलाया तो इसकी वजह यह नहीं थी कि वे उसे समझने से 
आजिज थे। इसकी वजह यह थी कि वे उसके बारे में संजीदा न थे। कियामत की हौलनाकी 
अचानक उन्हें संजीदा बना देगी। उस वक्‍त अपनी बेबसी के माहौल में वे उस बात को पूरी 
तरफ समझ लेंगे जिसे दुनिया में अपनी आजादी के माहौल में समझ नहीं पाते थे। 

अल्लाह ने इंसान को ऐसी आला सलाहियतें दी हैं कि अगर वह उन्हें इस्तेमाल करे तो 
वह हर बात को उसकी गहराई तक समझ सकता है। और अपने दुनियावी मामलात में 
वाकेयतन वह ऐसा ही साबित होता है। मगर आखिरत के मामले में आदमी का हाल यह है 
कि वह कान रखते हुए बहरा बन जाता है और आंख रखते हुए अंधेपन का सुबूत देता है। 

आदमी की कामयाबी उसकी संजीदगी (97८९7४) की कीमत है। जो लोग दुनिया के 
मामले में संजीदा हों वे दुनिया में कामयाब रहते हैं। इसी तरह जो लोग आख़िरत के मामले 
में संजीदा हों वे आख़िरत में कामयाब रहेंगे । 


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जो लोग ईमान लाए और जिन्होंने नेक अमल किए और अपने रब के सामने आजिजी 
(समर्पण) की वही लोग जन्नत वाले हैं। वे उसमें हमेशा रहेंगे। इन दोनों फरीकों (पक्षों) 


की मिसाल ऐसी है जैसे एक अंधा और बहरा हो और दूसरा देखने और सुनने वाला। 
क्या ये दोनों यकसां (समान) हो जाएंगे। क्या तुम गौर नहीं करते। (2३-24) 





इख्बात के मअना हैं आजिजी करना (समर्पण भाव से झुकना)। यही ईमान का खुलासा 
है। ईमान न कोई विरासत है और न किसी लफ्जी मज्मूओ की ज़बानी अदायगी । ईमान एक 
दरयाफ्त (खोज) है। आदमी जब अपने देखने-सुनने (दूसरे शब्दों में शुऊर) को इस्तेमाल 
करके ख़ुदा को पाता है और इसके मुकाबले में अपनी हैसियत का इदराक (भान) करता है 
तो उस वक्‍त उसके ऊपर जो कैफियत तारी होती है उसी का नाम इज्ज (इर्रात) है। इज्ज 
खुदा के मुकाबले में अपनी हैसियते वाकई की पहचान का लाजिमी नतीजा है। 

ईमान, इख़्बात और अमले सालेह (सत्कर्म) तीनों एक ही हकीकत के मुख्तलिफ पहलू 
हैं। इमान खुदा के वजूद और उसकी सिफाते कमाल की शुऊरी दरयापत है। इख़्बात उस कल्बी 





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सूरह-]. हूद 593 पारा 2 


हालत का नाम है जो खुदा की दरयाफ्त के नतीजे में लाजिमन आदमी के अंदर पैदा होती है। 
अमले सालेह उसी शुऊर और उसी कैफियत से पैदा होने वाली ख़ारजी (वाह्य) सूरत है। आदमी 
जब ख़ुदा के जेहन से सोचता है। जब उसका दिल ख़ुदाई कैफियतों से भर जाता है तो उस 
वक्त उसके ऐन फितरी नतीजे के तौर पर उसकी जाहिरी जिंदगी खुदाई अमल में ढल जाती 
है। इसी का नाम अमले सालेह है। जो शख्स ईमान, इख़्बात और अमले सालेह का पैकर बन 
जाए वही ख़ुदा का मत्लूब इंसान है। और वही वह इंसान है जिसे जन्नत के अबदी (चिरस्थाई) 
बागों में बसाया जाएगा। 

दुनिया में आलातरीन इम्तेहानी हालात पैदा करके यह दिखाया जा रहा है कि कौन अपने 
आपको क्या साबित करता है। एक गिरोह वह है जिसने अपने समअ व बसर (शुऊर) को 
सही तौर पर इस्तेमाल करके हकीकते वाकया को जाना और अपने आपको उसके मुताबिक 
ढाल लिया। ये देखने और सुनने वाले लोग हैं। दूसरा गिरोह वह है जिसने अपने समअ व 
बसर (सुनने-देखने) को सही तौर पर इस्तेमाल नहीं किया। उसे न हकीकते वाकया की 
मअरफत (अन्तर्ज्ञान) हासिल हुई और न वह अपने आपको उसके मुताबिक ढाल सका। ये 
अंधे और बहरे लोग हैं। जाहिर है कि ये दोनों बिल्कुल मुर्ललिफ किस्म के इंसान हैं। और 
दो मुख़्तलिफ इंसानों का अंजाम एक जैसा नहीं हो सकता। 


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और हमने नूह को उसकी कौम की तरफ भेजा कि में तुम्हें खुला हुआ डराने वाला हूं। 
यह कि तुम अल्लाह के सिवा किसी की इबादत न करो। में तुम पर एक दर्दनाक अजाब 
के दिन का अंदेशा रखता हूं। उसकी कौम के सरदारों ने कहा, जिन्होंने इंकार किया 
था कि हम तो तुम्हें बस अपने जैसा एक आदमी देखते हैं। और हम नहीं देखते कि 
कोई तुम्हारे ताबेअ हुआ हो सिवाए उनके जो हम में पस्त लोग हैं, बेसमझे वूझे। और 


हम नहीं देखते कि तुम्हें हमारे ऊपर कुछ बड़ाई हासिल हो, बल्कि हम तो तुम्हें झूठा 
ख्याल करते हैं। (25-27) 








ख़ुदा के जितने पैगम्बर आए, इसीलिए आए कि वे इंसान को खुदा के तख्लीकी मंसूबे 
से आगाह करें। यह मंसूबा कि इंसान मौजूदा दुनिया में इम्तेहान की गरज से रखा गया है। 
यहां अगरचे बजहिर मूरन्नलिफ चीजें की इबादत के मौके हैं। मगर अस्ल मत्लूब सिर्फ यह 
है कि इंसान खुदा का आबिद बने। जो लोग ख़ुदा के आबिद (पूजक) न बनें वे इम्तेहान में 


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पारा 72 594 सूरह-।।. हूद 
नाकाम हो गए। ऐसे लोगों के लिए मरने के बाद की जिंदगी में सर्न अजाब है। हजरत नूह 
ने अपनी कौम के लोगों से यही बात कही। वह उसके लिए नजीरे मुबीन (खुले हुए डराने वाले) 
बन गए। मगर आपकी कौम ने आपकी बात नहीं मानी। 

इसकी वजह लोगों की जाहिरपरस्ती थी। इंसान की गुमराही की नजरियाती तौर पर 
बहुत सी किसमें हैं। मगर हकीकत के एतबार से हर दौर के इंसानों की गुमराही सिर्फ एक 
रही है। और वह है जाहिरपरस्ती या दुनियापसंदी। दुनियापरस्त लोग, ऐन अपने मिजाज के 
मुताबिक, दुनियावी चीजों को हक और नाहक का मेयार समझते हैं। वे शुऊरी या गैर शुऊरी 
तौर पर यह फर्ज कर लेते हैंकि जिसके पास जाहिरी रौनकेंहों वह हक पर है और जो दुनिया 
की रोनकों से महरूम हो वह नाहक पर। 

ख़ुदा का दाऔ (आस्वानकर्ता) जब उठता है तो अपने हमअस्रों (समकालीन) को वह 
सिर्फ इंसानों में से एक इंसान नजर आता है। दुनियावी एतबार से उसके गिर्द व पेश बड़ाई 
का कोई ख़ुसूसी निशान नहीं होता। दूसरी तरफ यह होता है कि वह जिस दीन का 
अलमबरदार होता है उसके साथ चूंकि अभी तक दुनियावी फायदे वाबस्ता नहीं होते, इसलिए 
उसकी तरफ बढ़ने वाले ज्यादा वे तहीदस्त (साधनहीन) लोग होते हैं जिन्हें एक 'नए दीन” को 
इख्तियार करने के नतीजे में कुछ खोना न पड़े। यह सूरतेहाल ख़ालिस तौर पर, वक्त के बड़ों 
के लिए, फितना बन जाती है। वे समझ लेते हैं कि जब दुनिया उनके साथ नहीं है तो हक 
भी उनके साथ नहीं हो सकता। यहां तक कि कौम में ऐसे लोग भी निकलते हैं जो उन्हें झूठा 
और धोखेबाज कहने से भी दरेग न करें। 


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नूह ने कहा ऐ मेरी कौम, बताओ अगर में अपने रब की तरफ से एक रोशन दलील 
पर हूं और उसने मुझ पर अपने पास से रहमत भेजी है, मगर वह तुम्हें नजर न आई 


तो क्या हम उसे तुम पर चिपका सकते हैं जबकि तुम उससे बेजार (खिन्न) हो। और 
ऐ मेरी कौम, में उस पर तुमसे कुछ माल नहीं मांगता। मेरा अज्र (प्रतिफल) तो बस 








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सूरह-]. हूद 595 पारा 72 


अल्लाह के जिम्मे है और में हरगिज उन्हें अपने से दूर करने वाला नहीं जो ईमान लाए 

हैं। उन लोगों को अपने रब से मिलना है। मगर मैं देखता हूं तुम लोग जहालत में 
मुब्तिला हो। और ऐ मेरी कौम, अगर में उन लोगों को धुत्कार दूं तो खुदा के मुकाबले 

में कौन मेरी मदद करेगा। क्या तुम गौर नहीं करते। और में तुमसे नहीं कहता कि 
मेरे पास अल्लाह के ख़जाने हैं। और न में गेब की ख़बर रखता हूं। और न यह कहता 

हूं कि में फरिश्ता हूं। और में यह भी नहीं कह सकता कि जो लोग तुम्हारी निगाहों 

में हकीर (तुच्छ) हैं उन्हें अल्लाह कोई भलाई नहीं देगा। अल्लाह ख़ूब जानता है जो कुछ 
उनके दिलों में है। अगर में ऐसा कहूं तो में ही जालिम हूंगा। (28-37) 


यहां 'बय्यिनह' से मुराद दलील है और रहमत से मुराद नुबुव्वत है। (तफ्सीरे नसफी) 
इससे मालूम हुआ कि पैगम्बर जब किसी कौम को दावत देता है तो वह दो चीजों के ऊपर 
खड़ा होता है। दलील और नुबुव्वत । पैगम्बर के बाद कोई दाऔ (आह्वानकर्ता) भी उसी वक्‍त 
दाओ है जबकि वह इन्हीं दो चीजों पर खड़ा हो। इस फर्क के साथ कि दलील के बाद दूसरी 
चीज जो उसके पास होगी वह बिलवास्ता (परोक्ष) तौर पर पैग़म्बर से मिली हुई होगी । जबकि 
पैग़म्बर के पास वह बराहेरास्त (प्रत्यक्ष) खुदा की तरफ से आई है। 

कैम जिस वक्‍त खुदा के दाऔ को यह समझ कर नजरअंदाज कर देती है कि उसके 
यहां जहिरी एतबार से कोई काबिले लिहाज चीज नहीं, ऐन उसी वक्‍त उसके पास एक बहुत 
बड़ी काबिले लिहाज चीज मौजूद होती है। और वह दलील और हिदायत है। दलील और 
हिदायत की बड़ाई कामिल तौर पर ख़ुदा के दाओ के पास मौजूद होती है। मगर यह बहरहाल 
मअनवी (अर्थपूर्ण) बड़ाई है। और जिन लोगों की निगाहें जाहिरी चीजों में अटकी हुई हों उन्हें 
मअनवी बड़ाई क्योंकर दिखाई देगी । 

दावते इलल्लाह का काम खालिस उख़रवी (परलोकवादी) काम है। उसकी सही कारकर्दगी 
के लिए जरूरी है कि दाओ और मदऊ के दर्मियान जर और जमीन के झगड़े न हों। यह 
जिम्मेदारी खुद दाऔ को लेनी पड़ती है कि उसके और मदऊ के दर्मियान मोअतदिल 
(अनुकूल) फजा हो। और इसकी ख़ातिर वह हर किस्म के मादुदी और मआशी (आर्थिक) 
झगड़े एकतरफा तौर पर ख़त्म कर दे। जिस दाऔ का यह हाल हो कि वह एक तरफ दावत 
दे और दूसरी तरफ मदऊ से दुनियावी चीजों के लिए एहतजाज (प्रोटेस्ट) और मुतालबा भी 
कर रहा हो, वह दाओ नहीं, मस्खरह है। उसकी कोई कीमत न मदऊ की नजर में हो सकती 
है और न खुदा की नजर में। 

मदऊ का इम्तेहान यह है कि वह बजाहिर एक बेअज्मत इंसान के अंदर हक की अज्मत 
को देख ले। इसी तरह दाऔ का इम्तेहान यह है कि वह किसी बेदीन का इसलिए इस्तकबाल 
न करने लगे कि वह माल व जाह का मालिक है। और किसी दीनदार को इसलिए नाकाबिले 
लिहाज न समझ ले कि उसके पास दुनियावी शान व शौकत की चीजें मौजूद नहीं। दाजी 
अगर ऐसा करे तो इसका मतलब यह होगा कि वह जबान से आख़िरत (परलोक) की 
अहमियत का वअज (प्रवचन) कह रहा है और अमल से दुनिया की अहमियत का सुबूत दे 
रहा है। जाहिर है कि यह अपनी तरदीद (खंडन) अपने आप है। और जो शख्स अपनी तरदीद 
अपने आप करे उसकी बात की दूसरों की नजर में क्या कीमत हो सकती है। 








पारा 72 596 सूरह-।. हूद 
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उन्होंने कहा कि ऐ नूह तुमने हमसे झगड़ा किया और बहुत झगड़ा कर लिया। और 
वह चीज ले आओ जिसका तुम हमसे वादा करते रहे हो, अगर तुम सच्चे हो। नूह ने 
कहा उसे तो तुम्हारे ऊपर अल्लाह ही लाएगा अगर वह चाहेगा और तुम उसके काबू 
से बाहर न जा सकोगे। और मेरी नसीहत तुम्हें फायदा नहीं देगी अगर में तुम्हें नसीहत 
करना चाहूं जबकि अल्लाह यह चाहता हो कि वह तुम्हें गुमराह करे। वही तुम्हारा रब 
है और उसी की तरफ तुम्हें लौट कर जाना है। (३2-34) 


हजरत नूह ने अपनी कौम से जिदाल (झगड़ा और बहस) नहीं किया था। वह संजीदा 
अंदाज में अपना सालेह पैगाम उनके सामने पेश कर रहे थे। मगर आपकी संजीदा दावत 
आपकी कौम को उल्टी सूरत में नजर आ रही थी। इसकी वजह इंसान की यह कमजोरी है 
कि जब उसकी अपनी जात जद (निशाने) में आ रही हो तो वह संजीदगी खो देता है। ऐसी 
बात को वह दलील और सुबूत के एतबार से नहीं देखता | वह बगैर सोचे समझे उसे रदूद कर 
देता है। हक के दाऔ की ठोस दलील भी उसे बहस व जिदाल मालूम होने लगती है। 
“बहुत जिदाल कर चुके” का जुमला दरअस्ल यह बताने के लिए नहीं है कि नूह ने क्या 
कहा था। बल्कि वह इसे बताता है कि सुनने वालों ने आपकी बात को क्या दर्जा दिया था। 
इसी तरह मूखलिफीने नूह का अजब को तलब करना हकीकतन अजब को तलब 
करना नहीं था। बल्कि हजरत नूह का मजाक उड़ाना था कि देखो यह शख्स ऐसी बात कह 
रहा है जो कभी होने वाली नहीं। वे अपनी पोजीशन को इतना मुस्तहकम (सुदृढ़) समझते थे 
जिसमें उनके ख्याल के मुताबिक कहीं से अजाब आने की गुंजाइश न थी। इसी जेहन के तहत 
उन्होंने कहा कि हमारे इंकार की सजा में जिस अजाब की तुम ख़बर देते रहे हो वह अजाब 
लाओ। और चूंकि उनके नजदीक ऐसा अजाब कभी आने वाला न था इसलिए तार्किक रूप 
से इसका मतलब यह था कि हम हक पर हैं और तुम नाहक पर। 
हजरत नूह ने जवाब दिया कि तुम मामले को मेरी निस्बत से देख रहे हो और चूंकि मैं 
कमजोर हूं इसलिए तुम्हारी समझ में नहीं आता कि यह अजाब कभी तुम्हारे ऊपर आ सकता 
है। अगर मामले को ख़ुदा की निस्बत से देखते तो तुम यह न कहते। क्योंकि फिर तुम्हें नजर 
आ जाता कि इस दुनिया में जालिमों के लिए अजाब का आना इतना ही यकीनी है जितना 
सूरज का निकलना और जलजले का फटना। 
हक के दाओ की बात को मानने का तमामतर इंहिसार इस पर है कि सुनने वाला उसे कहने 
वाले के एतबार से न देखे बल्कि जो कहा गया है उसके एतबार से देखे। चूंकि हजरत नूह की 








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सूरह-।. हूद 597 पारा 22 
कौम आपकी बात को बस एक आम इंसान की बात समझ रही थी, इसलिए आपने फरमाया कि 

इस जेहन के तहत तुम मेरी बात की कद्र व कीमत कभी नहीं पा सकते। अब तो तुम्हारे लिए 

उसी दिन का इंतजार करना है जबकि ख़ुदा बराहेरास्त तुम्हारे सामने आ जाए 




















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क्या वे कहते हैं कि पेग़म्बर ने उसे गढ़ लिया है। कहो कि अगर मैंने इसको गढ़ा है 
तो मेरा जुर्म मेरे ऊपर है और जो जुर्म तुम कर रहे हो उससे मैं बरी हूं। (35) 





जो लोग कहते थे कि पैगम्बर ने यह कलाम ख़ुद गढ़ लिया है, यह खुदा की तरफ से 
नहीं है, वे “वही” (ईश्वरीय वाणी) व इल्हाम (दिव्य प्रकाशना) के मुंकिर न थे। यहां तक कि 
वे माजी (अतीत) के रसूलों को मानते थे। फिर उन्होंने ऐसा क्यों कहा। यह दरअस्ल “वही! 
का इंकार नहीं था । बल्कि साहिबे “वही” का इंकार था। जो शख्स खुदा की तरफ से बोल रहा 
था वह देखने में उन्हें एक मामूली इंसान दिखाई देता था। उनका जाहिरपरस्त मिजाज समझ 
नहीं पाता था कि ऐसा एक आदमी वह शख्स कैसे हो सकता है जिसे ख़ुदा ने अपने पैगाम 
की पैग़ाम्बरी (संदेश वाहन) के लिए चुना हो। 

'मेरा जुर्म मेरे ऊपर, तुम्हारा जुर्म तुम्हारे ऊपर” यह दरअस्ल कलिमए रुख्सत है। जब 
मुखातब दलील से बात को नहीं मानता। हर किस्म की वजाहत के बावजूद वह इंकार पर 
तुला हुआ है तो दाऔ महसूस करता है कि उसके लिए अब आखिरी चाराएकार सिफ यह 
है कि वह यह कहकर खामोश हो जाए कि मैं और तुम दोनों असली हाकिम के सामने पेश 
होने वाले हैं। वहां हर एक का हाल खुल जाएगा। और हर आदमी अपनी हकीकत के एतबार 
से जैसा था उसके मुताबिक उसे बदला दिया जाएगा। जब दलील की हद ख़त्म हो जाए तो 
दाऔ (आह्वानकर्ता) के लिए इसके सिवा कोई सूरत बाकी नहीं रहती कि वह यकीन की 
जबान में कलाम करके अलग हो जाए 


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और नूह की तरफ “वही” (प्रकाशना) की गई कि अब तुम्हारी कौम में से कोई ईमान 

नहीं लाएगा सिवा उसके जो ईमान ला चुका। पस तुम उन कामों पर ग़मगीन न हो 
जो वे कर रहे हैं। और हमारे रूबरू और हमारे हुक्म से तुम कश्ती बनाओ और जालिमों 

के हक में मुझसे बात न करो, बेशक ये लोग गर्क हेगे। और नूह कश्ती बनाने लगा। 

और जब उसकी कौम का कोई सरदार उस पर गुजरता तो वह उसकी हंसी उड़ाता, 
उन्होंने कहा अगर तुम हम पर हंसते हो तो हम भी तुम पर हंस रहे हैं। तुम जल्द जान 
लोगे कि वे कौन हैं जिन पर वह अजाब आता है जो उसे रुसवा कर दे और उस पर 
वह अजाब उतरता है जो दाइमी है। (36-39) 





इंसान से जो ईमान मत्लूब है वह ईमान वह है जबकि आदमी शुऊरी तौर पर अपने 
आजादाना फैसले से ईमान कुबूल करे। पैगम्बर के लंबे दावती अमल के बावजूद जो लोग 
ईमान न लाएं वे ऐसा करके यह साबित करते हैं कि वे आजादाना फैसले के तहत खुदा के 
मोमिन बनने के लिए तैयार नहीं हैं। ऐसे लोगों के लिए दूसरा मरहला यह होता है कि उनकी 
आजादी छीन ली जाए और उन्हें ले जाकर बराहेरास्त खुदाए जुलजलाल (प्रतापी प्रभु) के 
सामने खड़ा कर दिया जाए ताकि जिस चीज को उन्होंने मोमिनाना इकरार नहीं किया था, 
उसका वे मुजरिमाना इकरार करें और अपनी सरकशी की सजा भुगतें। 

हजरत नूह की सैंकड़ों साल की तब्लीग के बाद उनकी कौम के लिए यह वक्‍त आ गया 
था। इसके बाद हजरत नूह से कह दिया गया कि अब तब्लीग़ के काम से फारिग होकर कश्ती 
तैयार करो ताकि जब सरकशों को गर्क करने के लिए खुदा का सैलाब आए तो उस वक्त तुम 
और तुम्हारे साथी अहले ईमान उसमें पनाह ले सकें। 

हजरत नूह ने एक बहुत बड़ी तीन मंजिला कश्ती तैयार की। उसे बनाने में कई साल लग 
गए। जिस जमाने में हजरत नूह अपने चन्द साथियों को लेकर कश्ती बना रहे थे तो कौम के 
सरकश लोग आते जाते हुए उसे देखते। चूके वे लोग अजाब की बात को महज फर्जी समझ 
रहे थे इसलिए जब उन्होंने देखा कि आने वाले मफरूजा (काल्पनिक) अजाब से बचने के लिए 
कश्ती भी तैयार की जा रही है तो वे हजरत नूह का और भी.ज्यादा मजाक उड़ाने लगे। 

एक आदमी सरकशी और नाइंसाफी के जरिए दौलत समेट रहा हो तो जाहिरपरस्त 
आदमी उसके गिर्द दुनिया का साजोसामान देखकर उसे कामयाब समझ लेगा । मगर जो शख्स 
जानता हो कि दुनिया का निजाम अख्लाकी कानूनों पर चल रहा है, वह मज्कूरा (उक्त) शख्स 
की वकती कामयाबी में मुस्तकबिल की अजीम तबाही का मंजर देख रहा होगा । नूह की कैम 
के जहिरपरस्त लोग अगरचे हज्त नूह का मजक ख रहे थे मगर हवीकते वाक्या की 
नजर मखु उनका मजक उड़ रहा था। 


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यहां तक कि जब हमारा हुक्म आ पहुंचा और तूफान उबल पड़ा हमने नूह से कहा कि 
हर किस्म के जानवरों का एक-एक जोड़ा कश्ती में रख लो और अपने घर वालों को 
भी, सिवा उन लोगों के जिनकी बाबत पहले कहा जा चुका है और सब ईमान वालों 
को भी। और थोड़े ही लोग थे जो नूह के साथ ईमान लाए थे। और नूह ने कहा कि 
कश्ती में सवार हो जाओ, अल्लाह के नाम से इसका चलना है और इसका ठहरना भी। 
बेशक मेरा रब बरशने वाला महरबान है। और कश्ती पहाड़ जैसी मौजों के दर्मियान 
उन्हें लेकर चलने लगी। और नूह ने अपने बेटे को पुकारा जो उससे अलग था। ऐ मेरे 
बेटे, हमारे साथ सवार हो जा और मुंकिरों के साथ मत रह। उसने कहा में किसी पहाड़ 
की पनाह ले लूंगा जो मुझे पानी से बचा लेगा। नूह ने कहा कि आज कोई अल्लाह 
के हुक्म से बचाने वाला नहीं मगर वह जिस पर अल्लाह रहम करे। और दोनों के 
दर्मियान मौज हायल (बाधित) हो गई और वह डूबने वालों में शामिल हो गया। और 
कहा गया कि ऐ जमीन, अपना पानी निगल ले और ऐ आसमान थम जा। और पानी 
सुखा दिया गया। और मामले का फैसला हो गया और कश्ती जूदी पहाड़ पर ठहर गई 
और कह दिया गया कि दूर हो जालिमों की कोम। (40-44) 





जब कश्ती बनकर तैयार हो गई तो खुदा के हुक्म से तूफानी हवाएं चलने लगीं। जमीन 
से पानी के दहाने फूट पड़े। ऊपर से मुसलसल बारिश होने लगी। यहां तक कि हर तरफ पानी 
ही पानी हो गया। तमाम लोग उसमें डूब गए । सिर्फ वे चन्द इंसान और कुछ मवेशी बचे जो 
हजरत नूह की कश्ती में सवार थे। यहां तक कि हजरत नूह का बेटा भी गर्क हो गया । खुदा 
की नजर में किसी की कीमत उसके अमल के एतबार से है न कि रिश्ते के एतबार से, चाहे 
वह रिश्ता पैगम्बर का क्यों न हो। 








पारा 72 600 सूरह-]. हूद 


जब तमाम डूबने वाले डूब चुके तो ख़ुदा ने हुक्म दिया कि तूफान थम जाए, और तूफान 
थम गया। पानी समुद्रों और दरियाओं में चला गया और जमीन दुबारा रहने के काबिल हो गई। 

तूफाने नूह के मौके पर देखने वालों ने यह मंजर देखा कि ऊंचे पहाड़ पर चढ़ने वाले डूब 
गए और हौलनाक मौजों के बावजूद कश्ती में बैठने वाले सलामत रहे इसकी वजह ख़ुद पहाड़ 
में या कश्ती में न थी। इसकी वजह यह थी कि यह हुक्मे खुदावंदी का मामला था। हुक्मे ख़ुदावंदी 
अगर पहाड़ के साथ होता तो पहाड़ अपने चढ़ने वालों को बचाता और कश्ती का सहारा लेने 
वाले हलाक हो जाते। मगर इस मौके पर हुक्म ख़ुदावंदी कश्ती के साथ था। इसलिए कश्ती 
वाले महफूज रहे और दूसरी चीजें की पनाह लेने वाले गर्क हो गए। 

दुनिया में असबाब का निजाम महज एक पर्दा है। वर्ना यहां जो कुछ हो रहा है 
बराहेरास्त (प्रत्यक्षतः) खुदा के हुक्म से हो रहा है। इंसान का इम्तेहान यह है कि वह जाहिरी 
पर्दे से गुजर कर असल हकीकत को देख ले। वह असबाब के अंदर खुदाई ताकतों को काम 


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और नूह ने अपने रब को पुकारा और कहा कि ऐ मेरे रब, मेरा बेटा मेरे घर वालों में 
है, और बेशक तेरा वादा सच्चा है। और तू सबसे बड़ा हाकिम है। खुदा ने कहा ऐ 
नूह, वह तेरे घर वालों में नहीं। उसके काम ख़राब हैं। पस मुझसे उस चीज के बारे में 
सवाल न करो जिसका तुम्हें इल्म नहीं। मैं तुम्हें नसीहत करता हूं कि तुम जाहिलों में 
से न बनो। नूह ने कहा कि ऐ मेरे रब, में तेरी पनाह चाहता हूं कि तुझसे वह चीज 
मांगूं जिसका मुझे इलम नहीं। और अगर तू मुझे माफ न करे और मुझ पर रहम न 
फरमाए तो में बर्बाद हो जाऊगा। (45-47) 









































तूफाने नूह में जो लोग गर्क हुए उनमें खुद हजरत नूह का बेटा कआन भी था। हजरत 
नूह ने उसे अपनी कश्ती में बिठाना चाहा। मगर उसके लिए डूबना मुकद्दर था इसलिए वह 
नहीं बैठा। फिर उन्होंने उसके बचाव के लिए ख़ुदा से दुआ की तो जवाब मिला कि यह 
नादानी का सवाल है, ऐसे सवालात न करो। 

अस्ल यह है कि खुदा का फैसला इस बुनियाद पर नहीं होता कि जो लोग बुजुर्गों की 
औलाद हैं। या जो किसी हजरत का दामन थामे हुए हैं उन सबको नजातयाफ्ता (मुक्ति-प्राप्त) 
करार देकर जन्नतों में दाखिल कर दिया जाए । खुदा के यहां नजात का फैसला ख़ालिस अमल 


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सूरह-]. हूद 60l पारा 2 


की बुनियाद पर होता है न कि नसबी या गिरोही तअल्लुक की बुनियादों पर। 

दुनिया में अगर नसबी रिश्ते का एतबार है तो आख़िरत में अख्लाकी रिश्ते का एतबार। 
तूफाने नूह इसीलिए आया था कि इंसानों के दर्मियान दूसरी तमाम तक्सीमात को तोड़कर 
अख्लाकी तक्सीम कायम कर दे। जो अमले सालेह वाले लोग हैं उन्हें खुदाई कश्ती में बिठा 
कर बचा लिया जाए और गैर अमले सालेह वाले तमाम लोगों को तूफान की बेरहम मौजों के 
हवाले कर दिया जाए। यही वाकया दुबारा कियामत में ज्यादा बड़े पेमाने पर और ज्यादा 


कामिल तौर पर होगा। 
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कहा गया कि ऐ नूह, उतरो, हमारी तरफ से सलामती के साथ और बरकतों के साथ, 
तुम पर और उन गिरोहों पर जो तुम्हारे साथ हैं। और (उनसे जुहूर में आने वाले) गिरोह 
कि हम उन्हें फायदा दग, फिर उन्हें हमारी तरफ से एक दर्दनाक अजाब पकड़ लेगा। 

ये शैब की ख़बरें हैं जिनको हम तुम्हारी तरफ “वही” (प्रकाशना) कर रहे हैं। इससे पहले 
न तुम उन्हें जानते थे और न तुम्हारी कौम। पस सब्र करो बेशक आख़िरी अंजाम डरने 
वालों के लिए है। (48-49) 


जब तमाम बुरे लोग गर्क हो चुके तो तूफान थम गया। पानी धीरे-धीरे जमीन में और 
समुद्रो में चला गया | हजरत नूह की कश्ती जूदी पहाड़ पर ठहर गई थी, आप अपने साथियों 
के साथ उससे निकल कर जमीन पर उतरे। जमीन दुबारा खुदा के हुक्म से सरसब्ज व आबाद 
हो गई। 
हजरत नूह जिन लोगों के दर्मियान आए वे हजरत आदम की नुबुव्वत को मानने वाले 
लोग थे। आपके बाद आपकी उम्मत इब्तिदा में राहेरास्त पर रही। इसके बाद उसकी अगली 
नस्लों में बिगाड़ आया तो दुबारा अंबिया (ईशदूत) भेजे गए। ये बाद को आने वाले आंबिया 
उन कीमों में आए जो हजरत नूह की नुबुव्यत को मानती थीं। इसके बावजूद जब उन्होंने 
वक्त के नबी को मान कर अपनी इस्लाह न की तो वे हलाक कर दी गईं। गोया सिर्फ किसी 
नबी को मानना या उसकी तरफ अपने को मंसूब करना नजातयाफ्ता होने के लिए काफी नहीं 
है। बल्कि वह ईमान मत्लूब है जो जिंदा ईमान हो और जिसके अंदर यह ताकत हो कि वह 
आदमी को जिंदगी को नेक अमली की जिंदगी में तब्दील कर दे। 
हजरत नूह की तारीख़ (इतिहास) यह सबक देती है कि बातिलपरस्तां का जोर चाहे 
कितना ही ज्यादा हो और उनकी जिंदगी चाहे कितनी ही लंबी हो जाए। बिलआख़िर उनके 
लिए जो चीज मुकदुदर है वह हलाकत है। और इसके मुकाबले में अहले ईमान चाहे कितने 





पारा ।2 602 सूरह-।।. हूद 


ही कम हों और चाहे वे बजाहिर कितने ही बेजोर हों। मगर जब खुदा का फैसला जाहिर होता 
है तो यही लोग हैं जो ख़ुदा की रहमतों में हिस्सेदार बनाए जाते हैं, इब्तिदा में मौजूदा दुनिया 
में और आखिरी तौर पर आखिरत में। 
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और आद की तरफ हमने उनके भाई हूद को भेजा। उसने कहा कि ऐ मेरी कौम, 
अल्लाह की इबादत करो। उसके सिवा तुम्हारा कोई माबूद नहीं। तुमने महज झूठ गढ़ 
रखे हैं। ऐ मेरी कौम, में इस पर तुमसे कोई अज्र (प्रतिफल) नहीं मांगता। मेरा अज्र 
तो उस पर है जिसने मुझे पेदा किया है। क्या तुम नहीं समझते। और ऐ मेरी कौम, 
अपने रब से माफी चाहो, फिर उसकी तरफ पलटो। वह तुम्हारे ऊपर ख़ूब बारिशे 


बरसाएगा। और तुष्हारी वुघत पर मजीद कुत का इजफ करेगा। और तुम मुजरिमि 
होकर रूगर्दानी (अवहेलना) न करो। (50-52) 


कौमे आद की हिदायत के लिए हजरत हूद को उठाया गया जो उन्हीं के भाई थे। यह 
पैग़म्बरों के मामले में हमेशा से अल्लाह तआला की सुन्नत (तरीका) रही है। इसकी हिक्मत 
यह है कि कौम का फर्द होने की वजह से वह बखूबी तौर पर कैम की नपिसियात, उसके 
हालात और उसकी जबान को जानते हैं और ज्यादा प्रभावी तौर पर उसके अंदर हक की 
दावत का काम कर सकते हैं। 

हजरत हूद ने अपनी कौम को एक अल्लाह की इबादत का पैगाम दिया। इसी के साथ 
उन्होंने यह भी कहा कि तुम्हारा जो दीन है वह महज एक झूठ है जो तुमने गढ़ लिया है। 
इससे मालूम हुआ कि पैगम्बर का तरीका मारूफ (प्रचलित) मअनों में सिर्फ 'मुस्बत 
(सकारात्मक) तौर पर” अपनी बात कहने का तरीका नहीं है। बल्कि इसी के साथ वह खुली 
खुली तंकीद (आलोचना) भी करता है। क्योंकि जब तक तंकीद व तज्जिया (विश्लेषण) के 
जरिए नाहक का नाहक हेमा वजह न किया जाए उस ववत तक हक का हक हेन लेग 
को समझ में नहीं आ सकता। 

हर पैगम्बर के जमाने में ऐसा हुआ कि उसके मुखालिफीन उसकी पेगम्बरी को मानने 
के लिए यह चाहते थे कि वह कोई बड़ा ओहदेदार हो, उसे दौलत के ख़जाने हासिल हों, 
वह आलीशान इमारतों में रहता हो। मगर हक के दाऔ को जांचने का यह मेयार सही 
नहीं। दाओ की सदाकत को जांचने का असल मेयार यह है कि वह अपने मिशन में पूरी 
तरह संजीदा हो, उसकी बात आखिरी हद तक मुदल्लल (ताकिक) हो। वह हर किस्म की 





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सूरह-।।. हूद 603 पारा 72 
दुनियावी गरज से बालातर हो। वह जो कुछ कह रहा है वह ऐन हकीकते वाकया है। उसका 
पैगाम कायनाती निजाम से कामिल मुताबिकत (अनुकूलता) रखता हो। उसे इख्तियार करना 
कामयाबी की शाहराह पर चलना हो। 
'तु्हारी कुवत पर मजीद कुवत का इजफ करेगा ।' इस जुमले का मतलब मादुदी 
कुवत मेइजफ नहींहै। क्येकि कैमे आद अपने जमाने मेनिहायत ताकतवर थी। कुआन 
से मालूम होता है कि पैगम्बर ने जब उन्हें अजाब से डराया तो उन्होंने कहा कि हमसे ज्यादा 
ताकतवर कौन हे। (हामीम अस्सज्दह : 5) इसलिए मादूदी कुत (भौतिक शक्ति) के 
को बात, दावती एतबार से उनके लिए ज्यादा पुरकशिश नहीं हो सकती थी। 
इस आयत मेंकुवत पर इजफ का मतलब है मादूदी कुचत पर ईमानी कुवत का 
इजाफा । पैगम्बर का मतलब यह था कि अगर तुम ईमानी जिंदगी इख़्तियार कर लो तो इससे 
तुम्हें अछ्लाकी और रूहानी कुवत हासिल होगी । मौजूदा मादूदी जोर के साथ अख़्ताकी और 
रूहानी जोर मिलने से तुम्हारी ताकत घटेगी नहीं। बल्कि वह मजीद बहुत .ज्यादा बढ़ जाएगी। 


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उन्होंने कहा कि ऐ हूद, तुम हमारे पास कोई खुली निशानी लेकर नहीं आए हो, और 
हम तुम्हारे कहने से अपने माबूदों (पूज्यो) को छोड़ने वाले नहीं हैं। और हम हरगिज 
तुम्हें मानने वाले नहीं हैं। हम तो यही कहेंगे कि तुम्हारे ऊपर हमारे माबूदों में से किसी 
की मार पड़ गई है। हूद ने कहा, में अल्लाह को गवाह ठहराता हूं और तुम भी गवाह 
रहो कि मैं बरी हूं उनसे जिनको तुम शरीक करते हो उसके सिवा। पस तुम सब मिलकर 
मेरे खिलाफ तदबीर (युक्ति) करो, फिर मुझे मोहलत न दो। मैंने अल्लाह पर भरोसा 


किया जो मेरा रब है और तुम्हारा रब भी। कोई जानदार ऐसा नहीं जिसकी चोटी उसके 
हाथ में न हो। बेशक मेरा रब सीधी राह पर है। (53-56) 





कौम ने हजरत हूद से कहा कि तुम्हारे पास अपने बरसरे हक होने की कोई दलील नहीं। 
इसका यह मतलब नहीं कि फिलवाकअ भी हजरत हूद के पास कोई दलील नहीं थी। आप 
के पास यकीनन दलील थी, मगर वह मुखातबीन को दलील दिखाई नहीं देती थी। इसकी 
वजह यह थी कि आदमी आम तौर पर किसी बात को ख़ालिस दलील की बुनियादों पर जांच 


पारा ।2 604 सूरह-]. हूद 


नहीं पाता। बल्कि इस एतबार से देखता है कि जो शख्स उसे पेश कर रहा है वह कैसा है। 
चूंकि पेश करने वाला अपने जमाने में लोगों को एक नाकाबिले लिहाज इंसान दिखाई देता था 
इसलिए उसकी बात भी लोगों को नाकाबिले लिहाज नजर आती थी। 

जब एक शख़स वक्‍त के जमे हुए मजहब को छोड़कर ख़ालिस बेआमेज (विशुद्ध) दीन 
की दावत लेकर उठता है तो हमेशा ऐसा होता है कि माहौल में वह अजनबी बल्कि हकीर 
(तुच्छ) बनकर रह जाता है। लोग उसे इस नजर से देखते हैं जैसे वह कोई ऐसा शख्स हो जिसे 
ख़लले दिमागी का रोग लाहिक हो गया हो। हजरत हूद के मामले में यही सूरतेहाल थी 
जिसकी वजह से उनकी कौम के लोगों को यह कहने की जुरअत हुई कि 'हमारा तो ख्याल 
है कि तुम्हारे ऊपर हमारे बुजुर्गों की मार पड़ गई है” मगर हक के दाऔ की सदाकत का 
सु, नजी (वैचारिक) दलाइल के बाद, हमेशा यह होता है कि उसके मुखालिफीन हर किस्म 
की कोशिशों के बावजूद उसे जेर (परास्त) नहीं कर पाते। 

ख़ुदा के पैगम्बर जिन कौमों में आए वे सब ख़ुदा को मानने वाली थीं। गोया दाऔ 
भी ख़ुदापरस्त होने का दावेदार था और मदऊ भी ख़ुदापरस्त होने का दावेदार। ऐसी हालत 
में यह सवाल पैदा होता है कि ख़ुदा दोनों में से किस गिरोह के साथ है। इस सवाल का 
आसान जवाब यह है कि ख़ुदा सिराते मुस्तकीम (सीधी शाहराह) पर है। इसलिए जो दीन 
के सीधे ख़त (लाइन) पर चल रहा है वह बराहेरास्त ख़ुदा तक पहुंचेगा और जो टेढ़े रास्तों 
पर चल रहा है उसका रास्ता इधर उधर भटक कर रह जाएगा। वह ख़ुदा तक पहुंचने में 
कभी कामयाब नहीं हो सकता। 

हजरत हूद ने जब कहा कि 'मेरा रब सिराते मुस्तकीम पर हैं तो दूसरे लफ्जें में गोया 
वह यह कह रहे थे कि मैं जिस चीज की तरफ बुला रहा हूं वह सिराते मुस्तकीम (दीन की 
शाहराह) है। और तुम लोग जिन चीजों को दीन समझ कर इख्तियार किए हुए हो वह दीन 
की शाहराह के अतराफ में पगडंडियां निकाल कर उनके ऊपर दौड़ना है। इस किस्म की दौड़ 
आदमी को ख़ुदा तक नहीं पहुंचाती, वह उसे इधर उधर भटका कर छोड़ देती है। 

इन आयात की रोशनी में गीर किया जाए तो हजरत हूद की बताई हुई सिराते मुस्तकीम 
यह निकलती हैतौहीद, इबादते इलाही, इस्तग़फार, तौबा, नेमतों पर खुदा का शुक्र, 
तवक्कुल अलल्लाह (ख़ुदा पर भरोसा), खुदा को अपना परवरदिगार मानना, सिर्फ खुदा को 
तमाम ताकतों का मालिक समझना, खुदा को अपने ऊपर निगरां (निरीक्षक) बना लेना। किब्र 
(अहं, बड़ाई) की रविश के बजाए इताअत (आज्ञापालन) की रविश इख्तियार करना। 

ये सब दीन की बुनियादी तालीमात हैं। इन तालीमात पर चलना और उन्हें अपनी 
तवज्जोह का मर्कज बनाना गोया दीन की शाहराह पर चलना है। इस पर चलने वाला सीधे 
ख़ुदा तक पहुंचता है। इसके सिवा जिन चीजों को आदमी अहमियत दे और उनकी धूम मचाए 
वह गोया असल शाहराह के दाएं बाएं पगडंडियां निकाल कर उनके ऊपर दौड़ रहा है। ऐसी 
दौड़ आदमी को सिर्फ खुदा से दूर करने वाली है, वह उसे खुदा के करीब नहीं पहुंचा सकती। 


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सूरह-।. हूद 5 पारा 72 
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अगर तुम एराज (उपेक्षा) करते हो तो मैंने तुम्हें वह पैग़ाम पहुंचा दिया जिसे देकर मुझे 
तुम्हारी तरफ भेजा गया था। और मेरा रब तुम्हारी जगह तुम्हारे सिवा किसी और गिरोह 
को जानशीन (खलीफा, उत्तराधिकारी) बनाएगा। तुम उसका कुछ न बिगाड़ सकोगे। 
बेशक मेरा रब हर चीज पर निगहबान है। और जब हमारा हुक्म आ पहुंचा, हमने अपनी 
रहमत से बचा दिया हूद को और उन लोगों को जो उसके साथ ईमान लाए थे। और 
हमने उन्हें एक सख्त अजाब से बचा दिया। और ये आद थे कि उन्होंने अपने रब की 
निशानियों का इंकार किया। और उसके रसूलों को ना माना और हर सरकश और 
मुखालिफ की बात की इत्तिबाअ (अनुसरण) की। और उनके पीछे लानत लगा दी गई 
इस दुनिया में और कियामत के दिन। सुन लो, आद ने अपने रब का इंकार किया। 
सुन लो, दूरी है आद के लिए जो हूद की कौम थी। (57-60) 


०० 





जो लोग ख़ुदा की बात को नजरअंदाज कर दें खुदा भी उन्हें नजरअंदाज कर देता है। 
यह वाकया जो मौजूदा दुनिया में जुजई तौर पर पेश आता है यही कियामत में कुल्ली और 
आखिरी तौर पर पेश आएगा। उस वक्‍त तमाम सरकश लोग ख़ुदा की रहमतों से दूर कर दिए 
जाएंगे। और ख़ुदा की रहमत सिर्फ उन लोगों का हिस्सा होगी जो दुनिया की जिंदगी में ख़ुदा 
के ताबेअ और वफादार बनकर रहे थे। 

इस दुनिया में खुदा ने 'इस्तख़लाफ' का उसूल राइज किया है। यानी एक कौम को हटाने 
के बाद दूसरी कौम को उसकी जगह जमीन पर मुतमक्किन (आसीन) करना। दुनिया में यह 
तमक्कुन (आसीन करना) इम्तेहान की गर्ज से वक्ती तौर पर होता है। आख़िरत में खुदा की 
मेयारी दुनिया में यह तमक्कुन इनाम के तौर पर मुस्तकिल तौर पर सच्चे अहले ईमान को 
हासिल होगा। 

मौजूदा इम्तेहानी दुनिया का निजाम कुछ इस तरह बना है कि यहां आदमी हमेशा खैर 
और शर के दर्मियान होता है। उसे आजादी होती है कि दोनों में से जिस राह को चाहे 
इख्तियार करे। मजीद यह कि अक्सर हालात में इस दुनिया में शर का गलबा होता है। खैर की 





पारा 72 606 सूरह-।]. हूद 
जानिब सिर्फ निशानियों (नजरी दलाइल) का जोर होता है। दूसरी तरफ शर की जानिब मादुदी 

(भौतिक) ताकत मौजूद होती है, वह भी इतनी बड़ी मिकदार में कि उसके अलमबरदार सरकशी 

और घमंड में मुन्तिला होकर माहौल के अंदर ऐसी दबाव की फजा पैदा करते हैं कि आम आदमी 

हक की तरफ बढ़ने की जुरअत ही न करे। 


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और समूद की तरफ हमने उनके भाई सालेह को भेजा। उसने कहा, ऐ मेरी कौम, 
अल्लाह की इबादत करो। उसके सिवा तुम्हारा कोई माबूद (पूज्य) नहीं। उसी ने तुम्हें 
जमीन से बनाया, और उसमें तुम्ह आबाद किया। पस माफी चाहो, फिर उसकी तरफ 

रुजूअ करो। बेशक मेरा रब करीब है, कुबूल करने वाला है। उन्होंने कहा कि ऐ सालेह 

इससे पहले हमें तुमसे उम्मीद थी। क्या तुम हमें उनकी इबादत से रोकते हो जिनकी 
इबादत हमारे बाप दादा करते थे। और जिस चीज की तरफ तुम हमें बुलाते हो उसके 

बारे में हमें सख्त शुबह है और हम बड़े ख़लजान (दुविधा) में हैं। उसने कहा कि ऐ मेरी 
कौम, बताओ अगर में अपने रब की तरफ से एक वाजेह (सुस्पष्ट) दलील पर हूं और 

उसने मुझे अपने पास से रहमत दी है तो मुझे खुदा से कौन बचाएगा अगर में उसकी 
नाफरमानी करूं। पस तुम कुछ नहीं बढ़ाओगे मेरा सिवाए नुक्सान के। (6-63) 


हजरत सालेह ने अपनी कौम को एक खुदा की इबादत की तरफ बुलाया । यही हर 
जमाने में तमाम पेगम्बरों का मकसद था। मगर हजरत सालेह की कौम आपके पैगाम को 
कुबूल न कर सकी। इसकी वजह यह थी कि आप उसे बराहेरास्त खुदा से जोड़ने की बात 
करते थे, जबकि कौम का हाल यह था कि वह ख़ुदा के नाम पर सिर्फ अपने पूर्वजों व 
अकाबिर (महापुरुषों) से जुड़ी हुई थी। 

ऐसे लोगों का हाल यह होता है कि वे अपने मख्मूस मिजाज की वजह से किसी चीज की 
अहमियत और मअनवियत (सार्थकता) सिर्फ उस वक्‍त समझ पाते हैं जबकि उनके कैमी बूजुगों 
के कैल व अमल में उसकी तस्दीक मिल जाए। अब चूके हजरत सालेह के पास सिर्फ दलील 
का जोर था, उनकी कौम उनकी बात की अहमियत को महसूस न कर सकी । हजरत सालेह जिस 
दीन की तरफ बुला रहे थे उसकी अहमियत ख़ुदा की “वही” (वाणी) और जमीन व आसमान की 





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सूरह-।]. हूद 607 पारा 72 
निशानियों में गैर करने से वाजेह होती थी। जबकि उनकी कीम सिर्फ उस दीन की अहमियत से 
बाख़बर थी जो महापुरुषों की कौम के मल्फूजात (ग्रंथो) और मअमूलात (क्रिया-कलापों) से साबित 
होता हो। इसका नतीजा यह हुआ कि उनकी कौम आप के दलाइल के मुकाबले में लाजवाब होकर 
भी बस एक किस्म के शुबह की हालत में पड़ी रही। 

हजरत सालेह, दूसरे तमाम पेगम्बरों की तरह, शख्सियत और जहानत में अपनी कौम के 
मतजरफ (सर्वोत्तम व्यक्ति) थे। लोग उम्मीद रखते थे कि बड़े होकर वह कौम के एक 
कारआमद फर्द साबित होंगे। मगर वह बड़ी उम्र को पहुंचे तो उन्होंने कौम के प्रचलित मजहब 
पर तंकीद शुरू कर दी। यह देखकर कौम के लोगों को उनके बारे में सखस मायूसी हुई । 
उन्होंने कहा, हम तो यह समझे हुए थे कि तुम हमारे कायमशुदा मजहबी निजाम के एक सुतून 
(स्तंभ) बनोगे। इसके बरअक्स हम यह देख रहे हैं कि तुम हमारे मजहबी निजाम को 
बेबुनियाद साबित करने पर अपना सारा जोर लगाए हुए हो। यही मामला हर दौर में ख़ुदा के 
सच्चे दाजियों को अपनी कौम की तरफ से पेश आया है। 


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और ऐ मेरी कौम, यह अल्लाह की ऊटनी तुम्हारे लिए एक निशानी है। पस इसे छोड़ 

दो कि वह अल्लाह की जमीन में खाए। और इसे कोई तकलीफ न पहुंचाओ वर्ना बहुत 

जल्द तुम्हें अजाब पकड़ लेगा। फिर उन्होंने उसके पांव काट डाले। तब सालेह ने कहा 
कि तीन दिन और अपने घरों में फायदा उठा लो। यह एक वादा है जो झूठा न होगा। 
फिर जब हमारा हुक्म आ गया तो हमने अपनी रहमत से सालेह को और उन लोगों 
को जो उसके साथ ईमान लाए थे बचा लिया और उस दिन की रुस्वाई से (महफूज 

रखा)। बेशक तेरा रब ही कवी (शक्तिमान) और जबरदस्त है। और जिन लोगों ने जुल्म 

किया था उन्हें एक हौलनाक आवाज ने पकड़ लिया फिर सुबह को वे अपने घरों में 
औंधे पड़े रह गए। जैसे कि वे कभी उनमें बसे ही नहीं। सुनो, समूद ने अपने रब से 
कुफ्र किया। सुनो, फिटकार है समूद के लिए। (64-68) 








हजरत सालेह अपनी कौम से कहते थे कि मैं खुदा का रसूल हूं। अगर तुमने मेरी बात न 
मानी तो तुम ख़ुदा की पकड़ में आ जाओगे उनकी कौम अगरचे खुदा और रिसालत की मुंकिर 


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पारा 72 608 सूरह-।]. हूद 
न थी मगर उसने हजरत सालेह की बात को एक मजाक समझा । क्येकि हजरत सालेह के पास 
अपनी पैग़म्बरी को साबित करने के लिए सिर्फ नजरी (वैचारिक) दलील थी और यह इंसान की 
कमजोरी है कि वह सिर्फ नजरी दलील की बुनियाद पर बहुत कम इसके लिए तैयार होता है कि 
एक मानूस (परिचित) चीज को छोड़े और दूसरी गैर मानूस चीज को इख्तियार कर ले। 

हजरत सालेह की कौम जब नजरी निशानियों के आगे झुकने पर तैयार न हुई तो आख़िरी 
मरहले में उसके मुतालबे के मुताबिक उसके लिए स्पष्ट निशानी भी जाहिर कर दी गई। यह एक 
ऊंटनी थी जो लोगों के सामने ठोस चट्टान के अंदर से निकल आई। ऐसी निशानी के बारे में 
खुदा का कानून है कि जब वह जाहिर की जाती है तो इसके बाद लोगों के लिए इम्तेहान की 
मजीद मोहलत बाकी नहीं रहती । चुनांचे हजरत सालेह ने एलान कर दिया कि अब तुम लोग या 
तो तौबा करके मेरी बात मान लो, वर्ना तुम सब लोग हलाक कर दिए जाओगे। मगर जो लोग 
नजरी दलाइल की कुब्वत को महसूस न कर सकें वे स्पष्ट दलाइल को देखकर भी उससे इबरत 
पकड़ने में नाकाम रहते हैं। चुनांचे इसके बाद भी हजरत सालेह की कौम अपनी सरकशी से 
बाज न आई। यहां तक कि उसने ख़ुद ऊंटनी को मार डाला। इसके बाद उन लोगों के लिए 
मजीद मोहलत का सवाल न था। चुनांचे वह मिटा दी गई। 

कीमे सालेह (समूद) का इलाका शिमाल मग्रिबी अरब (अलहिज़ था। हजरत सालेह को 
हुक्म हुआ कि तुम यहां से बाहर चले जाओ। चुनांचे वह अपने मुख्लिस (आस्थावान) साथियों 
को लेकर शाम की तरफ चले गए। इसके बाद एक सर जलजला आया और सारी कैम 
उसकी लपेट में आकर बुरी तरह हलाक हो गई। 


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और इब्राहीम के पास हमारे फरिश्ते खुशखबरी लेकर आए। कहा तुम पर सलामती हो। 
इब्राहीम ने कहा तुम पर भी सलामती हो। फिर देर न गुजरी कि इब्राहीम एक भुना 
हुआ बछड़ा ले आया। फिर जब देखा कि उनके हाथ खाने की तरफ नहीं बढ़ रहे हैं 
तो वह खटक गया और दिल में उनसे डरा। उन्होंने कहा कि डरो नहीं, हम लूत की 
कौम की तरफ भेजे गए हैं। और इब्राहीम की बीवी खड़ी थी, वह हंस पड़ी। पस हमने 

उसे इसहाक की खुशख़बरी दी और इसहाक के आगे याकूब की। उसने कहा, ऐ ख़राबी, 





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सूरह-।. हूद 609 पारा ।2 
क्या में बच्चा जनूंगी, हालांकि मैं बुढ़िया हूं और यह मेरा खाविंद भी बूढ़ा है। यह तो 
एक अजीब बात है। फरिश्तों ने कहा, क्या तुम अल्लाह के हुक्म पर तअज्जुब करती 
हो। इब्राहीम के घर वालो, तुम पर अल्लाह की रहमतें और बरकतें हैं। बेशक अल्लाह 
निहायत काबिले तारीफ और बड़ी शान वाला है। (69-73) 


हजरत इब्राहीम की उम्र तकरीबन सौ साल हो चुकी थी कि एक रोज चन्द इंतिहाई खूबसूरत 
नौजवान उनके घर में दाखिल हुए । हजरत इब्राहीम ने उन्हें मेहमान समझ कर फौरन उनके खाने 
का इंतजाम किया । मगर वे इंसान नहीं थे बल्कि खुदा के फरिश्ते थे। वे एक ही वक्त में दो 
मकसद के लिए आए थे। एक, हजरत इब्राहीम को औलाद की बशारत देना । (शुभ सूचना) दूसरे, 
हजरत लूत की कौम को हलाक करना जो इंकार और सरकशी की आखिरी हद पर पहुंच चुकी 
थी। 

हजरत इब्राहीम और उनकी बीवी को इस्हाक (बेटे) और याकूब (पोते) की बशारत देना आम 
मअनों में महज औलाद की बशारत न थी। यह सालेह (नेक) और दाओ इंसानों का एक घराना 
वजूद में लाना था। तारीख़ का तजर्बा है कि अक्सर कोई 'घराना' होता है जो दीने हक की ख़िदमत 
के लिए खड़ा होता है। नबियों की तारीख़ और नबियों के बाद उनके सच्चे पैरोकारों के वाकेयात 
यही बताते हैं। इसकी वजह यह है कि एक शख्स जिस पर सच्चाई का इंकिशाफ होता है वह अपने 
जमाने के लोगों की नजर में एक मामूली इंसान होता है। इस बिना पर आम लोगों के लिए उसके 
मकाम का पहचानना और उसका साथ देना बहुत मुश्किल होता है। मगर उसके अपने घर वाले 
के लिए जाती रिश्ता एक मजीद वजह बन जाता है। जिस चीज को बाहर वाले जाहिरबीनी की 
बिना पर देख नहीं पाते, घर वाले जाती तअल्लुक की बिना पर उसे महसूस कर लेते हैं। और 
उसके मिशन में उसके साथी बन जाते हैं। 


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फिर जब इब्राहीम का ख़ोफ दूर हुआ और उसे खुशख़बरी मिली तो वह हमसे कीमे लूत 
के बारे में झगड़ने लगा। बेशक इब्राहीम बड़ा हलीम (उदार) और नर्म दिल था और 
रुजूअ करने वाला था। ऐ इब्राहीम उसे छोड़ो। तुम्हारे रब का हुक्म आ चुका है और 
उन पर एक ऐसा अजाब आने वाला है जो लौटाया नहीं जाता। (74-76) 





हजरत इब्राहीम की यह गुफ्तगू उन फरिशतों से हुई जो कीमे लूत को हलाक करने के 
लिए आए थे। चूंकि ये फरिश्ते खुदा की तरफ से और उसके हुक्म की तामील में आए थे, 
इसलिए खुदरा ने इसे अपनी तरफमंसूब फरमाया । पेएबर और फरिश्तेंके दर्मियान इस गुप्लुगू 
का एक जुज सूरह अनकबूत (आयत 32) में मज्कूर है। और इसका तफ्सीली जिक्र मौजूदा 


पारा ।2 6l0 सूरह-।. हूद 
बाइबल (पिदाइश बाब ।8) में आया है। 

हजरत इब्रहीम की दुआ कैम लूत के हक में मंज़ नहीं हुई। इसी तरह इससे पहलेहजरत 
नूह की दुआ अपने बेटे के लिए मंजूर नहीं हुई थी। इसकी वजह यह है कि मग्फिरत (क्षमा, 
मुक्ति) की दुआ मारूफ मअनों में कोई सिफारिश नहीं है जो कि एक शख्स दूसरे शख्स के लिए 
करे। और वह दुआ करने वाले की बुजुर्गी की बिना पर उसके हक में मान ली जाए। 

दुआ ख़ुद अपने आपको खुदा के सामने पेश करना है। अगर हजरत नूह के बेटे या 
हजरत लूत की कौम के लोगों के अंदर खुद दुआ का जज्बा उभर आता और वे अपनी नजात 
के लिए खुदा को पुकारते तो यकीनन खुदा उन्हें माफ कर देता और अपनी रहमत उनकी 
तरफ भेज देता। अजाब का लौटा दिया जाना मुमकिन है, जैसा कि हजरत यूनुस की कैम 
की मिसाल से साबित होता है। मगर वह जब भी लौटेगा ख़ुद जेरे सजा (सजा के पात्र) 
अफराद की दुआओं से लौटेगा न कि किसी गैर शख्स की दुआओं से, चाहे यह गैर शख्स 
पैगम्बर ही क्यों न हो। 

एक शख्स को दूसरे शख्स के लिए भी दुआ करनी चाहिए । और हर जमाने में पैग़म्बरों 
ने और सालेह लोगों ने दूसरों के लिए दुआएं की हैं। मगर यह दुआ हकीकतन खुद दुआ करने 
वाले के हलीम (उदार, सहृदय) और परोपकारी होने का इज्हार होता है। अल्लाह का एक बंदा 
जो अल्लाह से डरता हो वह अल्लाह के अजाब को देखकर कांप उठता है और अपने लिए 
और दूसरों के लिए दुआएं करने लगता है। ताहम किसी की दुआ दूसरे के हक में उसी वक्‍त 
मुफीद होगी जबकि वह ख़ुद भी अल्लाह से डर कर अल्लाह को पुकार रहा हो। 


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और जब हमारे फरिश्ते लूत के पास पहुंचे तो वह घबराया और उनके आने से दिल तंग 
हुआ। उसने कहा आज का दिन बड़ा सख्त है। और उसकी कौम के लोग दौड़ते हुए 
उसके पास आए। और वे पहले से बुरे काम कर रहे थे। लूत ने कहा ऐ मेरी कौम, 

ये मेरी बेटियां हैं, वे तुम्हारे लिए ज्यादा पाकीजा हैं। पस तुम अल्लाह से डरो और मुझे 

मेरे मेहमानों के सामने रुसवा न करो। क्या तुम में कोई भला आदमी नहीं है। उन्होंने 
कहा, तुम जानते हो कि हमें तुम्हारी बेटियों से कुछ गरज नहीं, और तुम जानते हो कि 
हम क्या चाहते हैं। (77-79) 





६ / 





हजरत लूत के पास जो फरिश्ते आए वे अजाब के फरिशते थे। मगर वे निहायत खुबसूरत 
नौजवानों की सूरत में बस्ती के अंदर दाखिल हुए। यह दरअस्ल उन्हें आखिरी तौर पर मुजरिम 


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सूरह-।]. हूद 6l] पारा 72 
साबित करने के लिए था। आदमी जब मुसलसल एक बुराई करता है तो उसके बारे में वह बिल्कुल 
बेहिस (संवेदनाहीन) हो जाता है। यही हाल कौमे लूत का था। वे अब खुल्लम खुल्ला बदकारी करने 
लगे थे। चुनांचे जब उन्होंने देखा कि ख़ूबसूरत लड़के हजरत लूत के घर आए हुए हैं तो वे शहवत 
(कामवासना) के जज्बात लिए हुए आपके घर की तरफ दौड़ पड़े। उन्होंने इंतिहाई बेहयाई के साथ 
मुतालबा शुरू किया कि इन लड़कों को हमारे हवाले कर दिया जाए। 

हजरत लूत ने शरीर (दुष्ट) लोगों को इस तरह आते हुए देखा तो आप पर सख्त शर्म 
और गैरत तारी हुई। आप ने कहा, 'ये कौम की बेटियां हैं, इनमें से जिससे चाहो निकाह कर 
लो और अपनी फितरी ख़्वाहिश पूरी करो।' किसी कौम में जो बड़े बूढ़े होते हैं वे कौम की 
तमाम लड़कियों को बेटी कह कर पुकारते हैं। इसी मअना में हजरत लूत ने कौम की बेटियों 
को भेरी बेटियां फरमाया। 

मगर उन्हेनि हजरत लूत की जाइज पेशकश को टुकरा दिया और नाजाइज की तरफ 
बदस्तूर दौड़ते रहे। इससे आखिरी तौर पर साबित हो गया कि ये मुजरिम लोग हैं और 
यकीनन इस काबिल हैं कि इन्हें हलाक कर दिया जाए। चुनांचे इसके बाद वे सबके सब 
हलाक कर दिए गए। 

क्या तुम में एक भी भला आदमी नहीं।” यह उस बंदए ख़ुदा का आखिरी कलिमा होता 
है जिसके पास शरीर (दुष्ट) लोगों के रोकने के लिए मादूदी कुवत न हो और माकूलियत 
(विवेक) की तमाम बातें उन्हें रोकने के लिए नाकाफी साबित हुई हों। उस वक्त इस तरह का 
जुमला बोलकर वह कौम की गैरत को पुकारता है और उसके जमीर (अन्तरात्मा) को बेदार 
करना चाहता है। इसके बाद भी अगर ऐसा हो कि लोग बदस्तूर बेहिस बने रहें तो इसका 
मतलब होता है कि उनके अंदर इंसानियत और शराफत का कोई दर्जा बाकी नहीं रहा। 


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लूत ने कहा, काश मेरे पास तुमसे मुकाबले की कुब्बत होती या में जा बैठता किसी 
मुस्तहकम (सुटु) पनाह में। फरिश्तों ने कहा कि ऐ लूत, हम तेरे रब के भेजे हुए हैं। 

वे हरगिज तुम तक न पहुंच सकेंगे। पस तुम अपने लोगों को लेकर कुछ रात रहे निकल 
जाओ। और तुम में से कोई मुड़कर न देखे। मगर तुम्हारी औरत कि उस पर वही कुछ 


गुजरने वाला है जो उन लोगों पर गुज्रेगा। उनके लिए सुबह का वक्त मुकर है, क्या 
सुबह करीब नहीं। फिर जब हमारा हुक्म आया तो हमने उस बस्ती को तलपट कर 














पारा 72 62 सूरह-।. हूद 
दिया और उस पर पत्थर बरसाए कंकर के, तह-ब-तह, तुम्हारे रब के पास से निशान 
लगाए हुए। और वह बस्ती उन जालिमों से कुछ दूर नहीं। (80-83) 





हजरत लूत इब्तिदा में आने वाले नौजवानों को इंसान समझ रहे थे। जब हजरत लूत की 
परेशानी बढ़ी और वह अपने को ख़तरे में महसूस करने लगे तो उन्होंने बताया कि हम फरिश्ते 
है और ख़ुदा की तरफ से भेजे गए हैं। यानी यह मामला इंसानी मामला नहीं बल्कि खुदाई 
मामला है। वे न हमारा कुछ बिगाड़ सकेंगे और न तुम्हारा। चुनांचे रिवायात में आता है कि 
जब कौमे लूत के लोग आगे बढ़ने से न रुके तो एक फरिश्ते ने अपना बाजू घुमाया। इसके 
बाद वे सबके सब अंधे हो गए और यह कहते हुए लौट गए किभागो, लूत के मेहमान तो 
बड़े जादूगर मालूम होते हैं। 

जब खुदा किसी कौम को उसकी सरकशी की बिना पर हलाक करने का फैसला करता 
है तो यह उस पूरे इलाके के लिए एक आम हुक्म होता है। ऐसे मौके पर उस इलाके में बसने 
वाले तमाम जानदार खुदाई अजाब की लपेट में आ जाते हैं। अलबत्ता ख़ुदा के ख़ुसूसी 
इंतजामात के तहत वे लोग उससे बचा लिए जाते हैं जिन्होंने उन सरकश लोगों के ऊपर हक 
का एलान किया हो। हक का एलान ख़ुदा की पकड़ से बचने की सबसे बड़ी जमानत है। 
मौजूदा दुनिया में भी और आख़िरत में भी। 

हजरत लूत की बीवी के बारे में रिवायात में आता है कि वह दिल से हजरत लूत के साथ 
न थी। मगर आखिर वक्त में जब हजरत लूत यह कहकर बस्ती से निकले कि सुबह तक यहां 
अजाब आ जाएगा तो वह भी आपके काफिले के साथ हो गई। ताहम अभी ये लोग रास्ते 
में थे कि पीछे जलजला और तूफान का शोर सुनाई दिया। हजरत लूत और उनके मुख्लिस 
साथियों ने पीछे तवज्जोह न दी। मगर हजरत लूत की बीवी पीछे मुड़कर देखने लगी और जब 
उसे धुआं और शोर दिखाई दिया तो उसकी जबान से निकला 'हाय मेरी काम” उस वक्‍त 
अजाब का एक पत्थर आकर उसे लगा और वहीं उसका ख़ात्मा हो गया। 

इसमें यह सबक है कि एक शख्स अगर वाकेअतन खुदा व रसूल का वफादार नहीं है 
तो किसी और मुहरिक (प्रेरक) के तहत हक के काफिले के साथ लग जाने से वह नजात नहीं 
पा जाएगा। उसकी कमजोरी कहीं न कहीं जाहिर होगी और वहीं वह बैठकर रह जाएगा। 


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सूरह-।. हूद 63 पारा ।2 
और मदयन की तरफ उनके भाई शुऐब को भेजा। उसने कहा ऐ मेरी कौम, अल्लाह 

की इबादत करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई माबूद (पूज्य) नहीं। और नाप और तोल 
में कमी न करो। में तुम्हें अच्छे हाल में देख रहा हूं, और में तुम पर एक घेर लेने वाले 
दिन के अजाब से डरता हूं। और ऐ मेरी कौम, नाप और तोल को पूरा करो इंसाफ 

के साथ। और लोगों को उनकी चीजे घटाकर न दो। और जमीन पर फसाद न मचाओ। 

जो अल्लाह का दिया बच रहे वह तुम्हारे लिए बेहतर है अगर तुम मोमिन हो। और 
मैं तुम्हारे ऊपर निगहबान (रखवाला) नहीं हूं। (84-86) 





मदयन का इलाका हिजाज और शाम के दर्मियान था। उनके पेगम्बर हजरत शुऐब का 
अपनी कौम से यह कहना कि “अगर तुम ईमान वाले हो' जाहिर करता है कि उनकी कौम 
मोमिन होने की मुद्दई (दावेदार) थी। बअल्फाजे दीगर, वह अपने जमाने की मुसलमान कौम 
थी। वह हजरत शुऐब से पहले आने वाले नबी की उम्मत थी और अब लम्बा अर्सा गुजरने 
के बाद उनकी बाद की नस्लों में बिगाड़ आ गया था। 
हजरत शुऐब ने उनसे कहा कि अगर तुम मोमिन होने के दावेदार हो तो तुम्हारा दावा 
खुदा के यहां उसी वक्‍त माना जाएगा जबकि तुम अपने दावे के तकजे पूरे करो। तकाजा 
पूरा किए बगैर दावे की कोई कीमत नहीं। 
तुम्हारे ईमान का तकाजा यह है कि तुम सिर्फ एक अल्लाह की इबादत करो। लेन देन 
में इंसाफ बरतो। दूसरों के लिए वही पसंद करो जो अपने लिए पसंद करते हो। तुम में से 
हर शख्स को चाहिए कि वह लोगों के हुकूक ठीक-ठीक अदा करे। और इसमें किसी तरह की 
कमी न करे। जमीन में इस तरह रहो जिस तरह ख़ुदा चाहता है कि उसके बदे रहें। जाइज 
तरीकेसे हासिल किए हुए स्कि पर कनाअत (संतो9) करो न कि नाफरमानो करके ज्यादा 
हासिल करने को कोशिश करो। अगर तुम ऐसा करो जभी तुम ख़ुदा के यहां मोमिन ठहरोगे। 
वर्ना अंदेशा है कि ख़ुदा का अजाब तुम्हें पकड़ लेगा। 
हजरत शुऐब ने एक तरफ यह कहा कि लोगों को कम न दो। दूसरी तरफ यह फरमाया 
कि “आज मैं तुम्हें अच्छे हाल में देख रहा हूं' इससे मालूम होता है कि कीमे शुऐब में कुछ 
गरीब थे और कुछ अमीर। कुछ ज्यादा पाने वाले थे और कुछ वे थे जिनको घटाकर मिल रहा 
था। अगर सारे लोग कम पाने वाले होते तो उनमें 'अच्छे हाल वाला' कौन बाकी रहता। 
इससे मालूम होता है कि यहां जिन मुखातबीन का जिक्र है। वे कौम के बाअसर और 
साहिबे हैसियत अफराद थे। अंबिया अगरचे हर एक की हिदायत के लिए आते हैं मगर 
उनका खिताब ख़ास तौर पर वक्‍त के मुमताज (शीर्ष) तबके से होता है। क्योंकि अवाम उन्हीं 
लोगों के ताबेअ होते हैं। वे ज्यादातर अपने बड़ों के नक्शेकदम पर चलते हैं। ख़्वास (विशिष्ट 
जनों) तक दावत (सत्य-संदेश) पहुंचना परोक्ष तौर पर अवाम तक भी दावत का पहुंचना है। 


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पारा ।2 64 सूरह-7. हूद 
उन्होंने कहा कि ऐ शुऐब, क्या तुम्हारी नमाज तुम्हें यह सिखाती है कि हम उन चीजों 

को छोड़ दें जिनकी इबादत हमारे बाप दादा करते थे। या अपने माल में अपनी मर्जी 

के मुताबिक तसर्रुफ (उपभोग) करना छोड़ दें। बस तुम ही तो एक दानिशमंद (प्रबुद्ध) 

और नेक चलन आदमी हो। (87) 


कभी ऐसा होता है कि नमाज बोलकर दीन मुराद लिया जाता है। मतलब यह है कि क्या 
तुम्हारा दीन तुम्हें ऐसा हुक्म दे रहा है। उन्होंने नमाज का लफ्ज इसलिए इस्तेमाल किया कि 
नमाज दीन की सबसे ज्यादा वाजह अलामत है। 

हजरत शुऐब की कौम दीनदार होने की मुद्दई थी। वह इबादत भी करती थी। मगर 
उन्होंने अपने दीन और इबादत के साथ शिक और बदमामलगी को भी जमा कर रखा था। 
हजरत शुऐब ने उन्हें सच्ची ख़ुदापरस्ती और लोगों के साथ हुस्ने मामला की दावत दी और 
कहा कि दीन के साथ अगर शिर्क है और इबादत के साथ बदमामलगी भी जारी है तो ऐसे 
दीन और ऐसी इबादत की ख़ुदा के यहां कोई कीमत नहीं। 

इस किस्म की बातों से कौम का दीनी भरम खुलता था। इससे उनके उस जोम (दंभ) 
पर जद पड़ती थी कि सब कुछ करते हुए भी वे दीनदार हैं और इबादत गुजारी का तमग़ा भी 
हर हाल में उन्हें मिला हुआ है। चुनांचे वे बिगड़ गए। उन्होंने कहा कि क्या तुम ही एक खुदा 
के इबादत गुजार हो। क्या हमारे वे तमाम बुजुर्ग जाहिल थे या हैं जिनके तरीके को हमने 
इख्तियार कर रखा है। क्या तुम्हारे सिवा कोई यह जानने वाला नहीं कि इबादत क्या है और 
उसके तकाजे क्या हैं। शायद तुम समझते हो कि सिर्फ तुम ही दुनिया भर में एक समझदार 
और सालेह (नेक) पैदा हुए हो। 

कौमे शुऐब को वे लोग ज्यादा बड़े मालूम होते थे जो लम्बी रिवायात के नतीजे में बड़े 
बन चुके थे। या जो अब ऊंची गद्दयों पर बैठे हुए थे। इसीलिए उन्हें हजरत शुएऐब के बारे 
में ऐसा कहने की जुरअत हुई। 


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शुऐब ने कहा कि ऐ मेरी कौम, बताओ, अगर में अपने रब की तरफ से एक वाजेह दलील 
पर हूं और उसने अपनी जानिब से मुझे अच्छा रिज्क भी दिया। और में नहीं चाहता कि 


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सूरह-।. हूद 6l5 पारा ।2 
मैं खुद वही काम करूं जिससे मैं तुम्हें रोक रहा हूं। में तो सिर्फ इस्लाह (सुधार) चाहता 

हूं, जहां तक हो सके। और मुझे तोफीक तो अल्लाह ही से मिलेगी। उसी पर मैंने भरोसा 

किया है। और उसी की तरफ में रुजूअ करता हूं। और ऐ मेरी कौम, ऐसा न हो कि मेरा 

विरोध करके तुम पर वह आफत पड़ जो कीमे नूह या कीमे हूद या कोमे सालेह पर आई 

थी, और लूत की कौम तो तुमसे दूर भी नहीं। और अपने रब से माफी मांगो फिर उसकी 

तरफ पलट आओ। बेशक मेरा रब महरबान और मुहब्बत वाला है। (88-90) 





मानने की दो सूरतें हैं। एक है तक्लीदी (अनुकरणीय) तौर पर मानना। दूसरा सही समझ 
कर मानना। पहली सूरत में आदमी किसी बात को इसलिए मानता है कि लोग उसे मानते 
हैं। दूसरी सूरत में वह उसे इसलिए मानता है कि उसने ख़ुद दलील की बुनियाद पर पाया है 
कि वह बात सही है। पहला अगर रस्मी इकरार है तो दूसरा शुऊरी दरयाफ्त। 

हक को दलील (या शुऊर) की सतह पर पाना ही मोमिन का असल सरमाया है। इसी से 
वह जिंदा यकीन हासिल होता है जबकि आदमी हर चीज से बेपरवाह होकर लोगों के दर्मियान 
खड़ा हो और हक की नुमाइंदगी कर सके। हक की शुऊरी याफ्त हर दूसरी चीज का बदल है। 
जिसे यह नेमत हासिल हो जाए उसे फिर किसी और चीज की जरूरत बाकी नहीं रहती। 

आम आदमी “रोटी” पर जीता है। मोमिन वह इंसान है जो हक की दलील पर जीता है। 
इस तरह का रिज्क (शुऊरी याफ्त) मिलने के बाद आदमी के लिए नामुमकिन हो जाता है कि 
वह उसके खिलाफ रवैया इख्ियार करे। कौल व अमल का तजाद (अन्तर्विरोध) रस्मी ईमान 
का नतीजा है और कौल व अमल की यकसानियत शुऊरी ईमान का नतीजा। 

“शिकाक” की तशरीह में हजरत हसन बसरी का कील है कि मेरी दुश्मनी तुम्हें ईमान 
का रास्ता छोड़ देने पर न उभारे कि इसके बाद तुम्हें वह सजा मिले जो मुंकिरों को मिली । 

दाऔ चूंकि अपने जमाने के लोगों को एक आम इंसान की मानिंद नजर आता है। 
इसलिए उसकी नाकिदाना (आलोचनात्मक) बातों से वे लोग बिगड़ उठते हैं जिन्हें माहौल में 
ऊंची हैसियत हासिल हो। एक मामूली आदमी की यह जुरअत उनके लिए नाकाबिले बर्दाश्त 
हो जाती है कि वह उन पर और उनके बड़ों पर तंकीद (आलोचना) करे। इस वजह से उनके 
अंदर दाऔ के खिलाफ जिद और नफरत पैदा हो जाती है। 

किसी आदमी के अंदर इस किस्म की नफ्सियात का पैदा होना उसका निहायत कड़े 
इम्तेहान में मुब्तिला किया जाना है। क्योंकि ऐसा आदमी एक शख्स को हकीर (तुच्छ) समझने 
की वजह से उसकी तरफ से आने वाली खुदाई बात को भी हकीर समझ लेता है। वह एक 
इंसान को नजरअंदाज करने के नाम पर खुद खुदा को नजरअंदाज कर देता है। 
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उन्होंने कहा कि ऐ शुएऐब, जो तुम कहते हो उसका बहुत सा हिस्सा हमारी समझ में 
नहीं आता। और हम तो देखते हैं कि तू हम में कमजोर है। और अगर तेरी बिरादरी 
न होती तो हम तुम्हें संगसार (पत्थरों से मार डाला) कर देते। और तुम हम पर कुछ 
भारी नहीं। शुऐब ने कहा कि ऐ मेरी कौम, क्या मेरी बिरादरी तुम पर अल्लाह से ज्यादा 
भारी है। और अल्लाह को तुमने पसेपुश्त (पीछे) डाल दिया। बेशक मेरे रब के काबू 
में है जो कुछ तुम करते हो। और ऐ मेरी कौम, तुम अपने तरीके पर काम किए जाओ 
और मैं अपने तरीके पर करता रहूंगा। जल्द ही तुम्हें मालूम हो जाएगा कि किसके ऊपर 
रुसवा करने वाला अजाब आता है और कौन झूठा है। और इंतिजार करो, में भी तुम्हारे 
साथ इंतिजार करने वालों में हूं। (9-93) 





हजरत शुऐब को हदीस में ख़तीबुल आंबिया (नबियों के वक्ता) कहा गया है। आप अपनी 
कौम को उसकी अपनी काबिलेफहम जबान मेंनिहायत मुवस्सिर (प्रभावी) अंदाज में समझाते 
थे। फिर आपकी बात उसकी समझ में क्यों नहीं आई। इसकी वजह यह थी कि कौम का जेहनी 
सांचा बिगड़ा हुआ था। उसके सोचने का अंदाज और था और हजरत शुएऐब के सोचने का 
अंदाज और। इस बिना पर आप की बात उसकी समझ में न आ सकी। 

कौम इंसानों की ताजीम में गुम थी । आप उसे एक अल्लाह की ताज़ीम की तरफ बुलाते 
थे। वह खुश अकीदगी को नजात का जरिया समझे हुए थी, आपका कहना था कि सिर्फ अमल 
के जरिए नजात हो सकती है। कौम का ख्याल था कि वह अपने को मोमिन समझती है इसलिए 
वह मोमिन है। आपने कहा कि मोमिन वह है जो ख़ुदा की मीजान (तुला) में मोमिन करार पाए। 
कैम के नजदीक नमाज की हैसियत बस एक गैर मुअस्सिर किस्म के रस्मी जमीमा (परिशिष्ट) 
की थी। आपने एलान किया कि नमाज आदमी की जिंदगी और उसके आमद व खर्च की 
मुहासिब है। कौम समझती थी कि ईमान बस एक बेरूह इकरार है, आपने बताया कि ईमान 
वह है जो एक जिंदा शुऊर के तौर पर हासिल हुआ हो। 

इस तरह हजरत शुऐब और उनकी कैम के दर्मियान एक किस्म का फसल (GP) पैदा 
हो गया था। यही जेहनी फस्ल कौम के लिए आपकी सीधी और सच्ची बात को समझने में 
रुकावट बना रहा। 

“अगर तुम्हारा कबीला न होता तो हम तुम्हें संगसार कर देते।' यह जुमला बताता है कि 
हजरत शुख की कैम किस कद बेहिस और जहिरपरस्त होचुरी थी । किस्सा यह था कि हजरत 
शुऐब ने जब कौम के दीनी भरम को बेन काब किया तो कौम के लोग उनके दुश्मन बन गए। 
उस वक्त हजरत शुऐब के साथ न अवाम की भीड़ थी जो लोगों को रोके और न आप दौलत 
और हैसियत के मालिक थे जिसे देखकर लोग मरऊब हों। आपके पास सिर्फ सदाकत (सच्चाई) 
और माकूलियत (विवेक) का जेर था और ऐसे लेगोंके नजदीक सिर्फसदाकत और मावूलियत 


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सूरह-।]. हूद 67 पारा 72 
की कोई अहमियत नहीं होती । 
ऐसी हालत मेंवे यकीनन आप पर कातिलाना हमला कर देते । ताहम जिस चीज ने उन्हें इस 
किस्म के इवदाम से रोका वह कबीले के इतिकाम का अदेशा था। कबाइली दौर में कबीले के 
किसी फर्द को मारने का मतलब यह था कि कबाइली दस्तूर के मुताबिक पूरा कबीला उससे खून 
का बदना लेने के लिए उठ खड़ा हो जाए । यह अंदेशा कौमे शुऐब के लिए आपके खिलाफ किसी 
इंतिहाई इवदाम में रुकावट बन गया ठीक उसी तरह जैसे मौजूदा जमाने में शरीर अफराद की 
शरारत से अक्सर औकात लोग इसलिए महफूज रहते हैं कि उन्हें अदिशा होता है कि अगर उन्होंने 
कोई जारिहयत (आक्रामक) की तो उन्हें पुलिस और अदालत का सामना करना पड़ेगा। 


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और जब हमारा हुक्म आया हमने शुऐब को और जो उसके साथ ईमान लाए थे अपनी 
रहमत से बचा लिया। और जिन लोगों ने जुल्म किया था उन्हें कड़क ने पकड़ लिया। 


पस वे अपने घरों में औंधे पड़े रह गए। गोया कि कभी उनमें बसे ही न थे। सुनो, 
फिटकार है मदयन को जैसे फिटकार हुई थी समूद को। (94-95) 














हजरत शुऐब की कौम के लोग समझते थे कि वे मदयन के मालिक हैं। जो चीज उन्हें 
इम्तेहान की मस्लेहत के तहत दी गई थी उसे उन्होंने अपना मुस्तकिल हक समझ लिया। इस 
एहसास के तहत उन्होंने आपके खिलाफ जारिहाना (आक्रामक) तदबीरें कीं। उन्होंने आपको 
यह धमकी भी दी कि हम तुम्हें और तुम्हारे साथियों को अपनी सरजमीन से निकाल देंगे । (अल 
आराफ 88)। मगर वही जमीन जिसे वे अपनी जमीन समझते थे और जिसके वे मालिक बने 
हुए थे। वहां खुदा के हुक्म से हौलनाक गड़गड़ाहट के साथ जलजला आया। जिसके नतीजे 
में यह पूरा इलाका तबाह हो गया। वे ख़ुद अपनी दुनिया में इस तरह मिटकर रह गए जैसे कभी 
उनका वजूद ही न था। 

अलबत्ता कौम के वे अफराद जिन्होंने हजरत शुऐब की बात मानी थी और आपके साथ 
हो गए थे उन्हें खुसूसी नुसरत से बचा लिया गया। 


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पारा ।2 68 सूरह-. हूद 
और हमने मूसा को अपनी निशानियों और वाजेह सनद (स्पस्ट प्रमाण) के साथ भेजा, 
फिरऔन और उसके सरदारों की तरफ। फिर वे फिरऔन के हुम पर चले हालांकि 

फिरऔन का हुक्म रास्ती (भलाई) पर न था। कियामत के दिन वह अपनी कीम के 

आगे होगा और उन्हें आग पर पहुंचाएगा। और कैसा बुरा घाट है जिस पर वे पहुंचेंगे। 
और इस दुनिया में उनके पीछे लानत लगा दी गई और कियामत के दिन भी। केसा 
बुरा इनाम है जो उन्हें मिला। (96-99) 


हजरत मूसा ने हक की दावत आखिरी मुमकिन हद तक पेश कर दी। उन्होंने फिरऔन 
और उसके साथियों को न सिर्फ नजरी (वैचारिक) तौर पर बेदलील कर दिया। बल्कि असा 
(डंडा) के मोजिजे की सूरत में अपनी सदाकत का खुला हुआ जाहिरी सुबूत भी उन्हें दिखा 
दिया। फिर भी फिरऔन की कौम फिरऔन ही के साथ रही, वह हजरत मूसा का साथ देने 
पर तैयार न हुई। 

इसकी वजह यह थी कि इन लोगों के नजदीक सारी अहमियत इक्तेदार और दुनियावी 
साजोसामान की थी और ये चीजें वे हजरत मूसा के अंदर न देखते थे। वे आपकी बातों पर 
हैरान जरूर होते थे। मगर जब वे हजरत मूसा का मुकाबला फिरऔन से करते तो उन्हें एक 
तरफ बेसरोसामानी (साधनहीनता) दिखाई देती और दूसरी तरफ हर किस्म का मादूदी जाह 
व जलाल। यह तकाबुल उनके लिए फैसलाकुन बन गया। और वे दलाइल और मोजिजात 
(चमत्कार) देखने के बावजूद इसके लिए तैयार न हुए कि फिरऔन को छोड़ दें और उससे 
अलग होकर हजरत मूसा के साथ हो जाएं। 

जो लोग दुनिया में किसी का साथ सिफ इसलिए देंगे कि उसके पास मादूदी (सांसारिक) 
बड़ाई की चीजें थीं, वे आखिरत में भी उसके साथ कर दिए जाएंगे। मगर दुनिया के बरअक्स 
यह बहुत बुरा साथ होगा। क्योंकि उस दिन उस आदमी से उसका तमाम सामान छिन चुका 
होगा। अब उसका वजूद सिर्फ जिल्लत और बर्बादी का निशान होगा। वह अपने साथियों को 
भी उसी आग में पहुंचा देगा जो खुद उसके लिए उसकी गुमराह कयादत (नेतृत्व) के नतीजे 
में खुदा की तरफ से मुकदूदर की जा चुकी है। 


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ये बस्तियों के कुछ हालात हैं जो हम तुम्हें सुना रहे हैं। इनमें से कुछ अब तक कायम 
हैं और कुछ मिट गई। और हमने उन पर जुल्म नहीं किया। बल्कि उन्होंने खुद अपने 
ऊपर जुल्म किया। फिर जब तेरे रब का हुक्म आ गया तो उनके माबूद (पूज्य) उनके 
कुछ काम न आए जिनको वे अल्लाह के सिवा पुकारते थे। और उन्होंने उनके हक में 
बर्बादी के सिवा और कुछ नहीं बढ़ाया। (00-0]) 





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सूरह-।।. हूद 6l9 पारा 72 
कदीम तारीखों (इतिहासों) में बादशाहों और फौजी जनरलों के हालात दर्ज हैं मगर नबियों 
और उनकी कीमों के हालात किसी तारीख़ में दर्ज नहीं। दूसरी तरफ कुरआन को देखिए तो 
उसमें सबसे ज्यादा एहतिमाम के साथ नबियों और उनकी कौमों के हालात मिलते हैं। बकिया 
बातें उसने इस तरह नजरअंदाज कर दी हैं जैसे उसकी नजर में उनकी कोई अहमियत नहीं। 
इंसान ने जो तारीख़ लिखी उसमें उसने वही बात छोड़ दी जो ख़ालिक के नजदीक सबसे ज्यादा 
कब्लितकिर थै। 
दौरे नुबुव्वत की उन हलाकशुदा बस्तियों में से कुछ बस्तियां ऐसी हैं जो अभी तक 
आबाद हैं। जैसे मित्र जो फिरऔन का मकाम था। दूसरी तरफ कमे हृद और कीमे लूत जैसी 
कौमें हैं जिनकी बस्तियां उनके बाशिंदों सहित नापैद हो गई। अलबत्ता कहीं कहीं उनके कुछ 
निशानात खंडहर की सूरत में खड़े हैं या जमीन की खुदाई से बरामद किए गए हैं। 
इन बस्तियां का हलाक किया जाना बजाहिर एक जालिमाना वाकया मालूम होता है। 
मगर जब यह देखिए कि क्यों ऐसा हुआ तो वह ऐन मुताबिके हकीकत बन जाता है। क्योंकि 
ये उनकी अपनी बदअमली के नताइज थे। जो कुछ हुआ वह उनकी बदकिरदारी के बाद हुआ 
न कि उनकी बदकिरदारी से पहले। 
जब भी आदमी सरकशी और जुल्म करता है तो वह किसी बरते पर करता है। वह कुछ 
चीजों या हस्तियों को अपना सहारा समझ लेता है और ख्याल करता है कि ये मुश्किल वक्तों 
में उसके मददगार साबित होंगे। मगर ये सहारे उसी वक्‍त तक सहारे हैं जब तक खुदा ढील 
दे रहा हो। जब ख़ुदा के कानून के मुताबिक ढील की मुद्दत ख़त्म हो जाए और ख़ुदा अपना 
आखिरी फैसला जाहिर कर दे उस वक्‍त आदमी को मालूम होता है कि वे सब महज झूठे 
मफरूजे थे जिनको उसने अपनी नादानी की वजह से सहारा समझ लिया था। 


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और तेरे रब की पकड़ ऐसी ही है जबकि वह बस्तियों को उनके जुल्म पर पकड़ता है। 
बेशक उसकी पकड़ बड़ी दर्दनाक और सख्त है। इसमें उन लोगों के लिए निशानी है जो 
आखिरत के अजाब से डरें। वह एक ऐसा दिन है जिसमें सब लोग जमा होंगे। और वह 
हाजिरी का दिन होगा। और हम उसे एक मुद्दत के लिए टाल रहे हैं जो मुक्रर है। जब 

वह दिन आएगा तो कोई जान उसकी इजाजत के बौर कलाम न कर सकेगी। पस उनमें 
कुछ बदबख्त (अभागे) होंगे। और कुछ नेकबख्त (भाग्यशाली) । (02-05) 





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पारा 72 620 सूरह-]. हूद 


मौजूदा दुनिया में इंसान को रहने और बसने का मौका सिर्फ इम्तेहान की बिना पर हासिल 
है। पैगम्बरों के जरिए इतमामे हुज्जत के बाद भी जो लोग मुंकिर बने रहें वे खुदा की जमीन 
में मजीद ठहरने का हक खो देते हैं। यही वजह है कि पैग़म्बरों के मुंकिरीन को ख़ुदा ने हलाक 
कर दिया (अनकबूत 40)। यह हलाकत ज्यादातर इस तरह हुई कि आम जमीनी आफतों में 
शिद्दत पैदा कर दी गई मसलन आंधी, सैलाब या जलजला, जो आम हालात में एक हद के 
अंदर रहते हैं, उन्हें गैर महदूद तौर पर शदीद कर दिया गया। 

माजी में इस तरह कीमों की तबाही के वाकेयात को भूगोलविद मौसमी परिवर्तनशीलता 
(Climatic Pulsati0n$) का नाम देते हैं। गोया जो कुछ हुआ वह महज भौगोलिक उथल 
पुथल के नतीजे में हुआ। अगरचे वे इस वाकये की कोई तौजीह नहीं कर पाते कि इस किस्म 
के शदीद मौसमी परिवर्तन सिर्फ माजी में क्यों पेश आए। वे अब (ख़त्मे नुबुव्वत के बाद) क्यों 
नहीं पेश आते। 

हकीकत यह है कि ये वाकेयात सादा मजने मे सिर्फ भैगेलिक वाकेयात न थे बल्कि 
यह हुक्मे खुदावंदी का जहूर था। इनसे यह साबित होता है कि मौजूदा दुनिया का निजाम 
अदल पर कायम है। यहां खुद कानूने कुदरत के तहत लाजिमन ऐसा हेने वाला है कि जालिम 
अपने जुल्म की सजा पाए और आदिल को अपने अदूल का इनाम मिले। इन वाकेयात को 
मौसमी तग़य्युरात (परिवर्तन) कहना इन्हें भूगोल के ख़ाने में डाल देना है। इसके बरअक्स 
अगर उन्हें खुदाई तग़य्युरात (परिवर्तन) माना जाए तो वे आदमी के लिए ख़ौफे खुदा और 
फिक्रे आझित का जबरदस्त सबक बन जाएी। 

पैगम्बरों के जमाने में जो वाकेयात पेश आए वे गोया बड़ी कियामत से पहले उसकी एक 
छोटी निशानी थे। उनमें ऐसा हुआ कि मुंकिरीन को एक मुद्दत तक ढील दी गई। इसके बाद 
खुदा का फैसला जाहिर हुआ तो सबके सब हलाक कर दिए गए। सिर्फ वे लोग बच सके जो 
हक का साथ देने की वजह से खुदा के नजदीक नेकबख्त करार पा चुके थे। इनके अलावा 
जो लोग खुदा की मीजान में सरकश और बदबर््ञ थे वे लाजिमी तौर पर अजाब की जद में 
आए। यहां तक कि पेग़म्बरों की सिफारिश भी उन्हें बचा न सकी, जैसा कि हजरत नूह और 
हजरत इब्राहीम की मिसाल से साबित होता है। 


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सूरह-।. हूद 62] पारा 2 
पस जो लोग बदबख्त हैं वे आग में होंगे। उन्हें वहां चीख़ना है और दहाइना। वे उसमें 
रहेंगे जब तक आसमान और जमीन कायम हैं, मगर जो तेरा रब चाहे। बेशक तेरा रब 

कर डालता है जो चाहता है। और जो लोग नेकबस्त हैं तो वे जन्नत में होंगे, वे उसमें 
रहेंगे जब तक आसमान और जमीन कायम हैं, मगर जो तेरा रब चाहे बख्शिश है 
बेइंतिहा। पस तू उन चीजों से शक में न रह जिनकी ये लोग इबादत कर रहे हैं। ये तो 
बस उसी तरह इबादत कर रहे हैं जिस तरह उनसे पहले उनके बाप दादा इबादत कर रहे 
थे। और हम उनका हिस्सा उन्हें पूरा पूरा देंगे बगेर किसी कमी के। (06-09) 


कुरआन में सबसे ज्यादा अहमियत और सबसे ज्यादा तकरार (पुनरावृत्ति) के साथ जिस 
चीज का जिक्र है वह यह है कि इंसान अपनी मौजूदा हालत पर छोड़ नहीं दिए जाएंगे। बल्कि 
वे मौत के बाद ख़ुदा की अदालत में हाजिर किए जाएंगे। वहां हर एक अपनी कारकर्दगी के 
मुताबिक जन्नत या दोजछ़ में डाला जाएगा। 

इस अहमियत और तकरार की वजह लोगों का 'शक' है। लोग देखते हैं कि जमीन पर 
बेशुमार इंसान ऐसे हैं जो ख़ुदा की हिदायत को नहीं मानते। बेशुमार इंसान ऐसे हैं जो ख़ुदा 
की हिदायत से आजाद होकर अमल करते हैं। बेशतर इंसान खुदापसंद जिंदगी की बजाए 
खुदपसंद जिंदगी गुजार रहे हैं। फिर भी उनका कुछ नहीं बिगड़ता। फिर भी सारे लोग 
कामयाब हैं। बजाहिर यहां कहीं दिखाई नहीं देता कि ख़ुदा के वफादारों को कोई ख़ुसूसी 
इनाम मिल रहा हो। या ख़ुदा के नाफरमानों को कोई ख़ास सजा भुगतनी पड़ती हो। 

इस बिना पर लोगों को शक होने लगता है। उन्हें यकीन नहीं आता कि इंसानों का जो 
अंजाम मुसलसल वे अपनी आंखों से देख रहे हैं उसके सिवा भी कोई अंजाम उनके लिए मुकदूदर 
है। यहां कुरआन बताता है कि लोगों का मुसलसल गैर हक पर चलना इसलिए नहीं है कि उन्होंने 
मसले के तमाम पहलुओं पर गौर किया और फिर उसे माकूल पाकर उसे इख्तियार कर लिया। 
इसका सबब दरअस्ल रिवाज की पैरवी है न कि दलील और माकूलियत की पैरवी। 

इसके बावजूद लोगों के अमल का अंजाम उनके सामने नहीं आता तो इसका सबब 
मोहलते इम्तेहान है। जमीन पर मौत से पहले की जिंदगी जांच की जिंदगी है। इसलिए मौत 
तक इंसान को यहां ढील दी जा रही है कि वह जो चाहे बोले और जो चाहे करे। मौत इस 
मुकर्ररह (निर्धारित) मुद्दत का खात्मा है। मौत का मतलब यह है कि इंसान को मकामे 
इम्तेहान से उठाकर मकामे अदालत में पहुंचा दिया जाए। वहां हर एक को वही मिलेगा 
जिसका वह फिलवाकअ मुस्तहिक (पात्र) था और हर एक से वह छिन जाएगा जिसे उसने 
इस्तहकाक (पात्रता) के बगैर अपने गिर्द जमा कर रखा था। 


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पारा ।2 सूरह-]. हूद 
और हमने मूसा को किताब दी। फिर उसमें फूट पड़ गई। और अगर तेरे रब की तरफ से 


पहले ही एक बात न आ चुकी होती तो उनके दर्मियान फैसला कर दिया जाता। और उन्हें 
इसमें शुबह है कि वह मुतमइन (संतुष्ट) नहीं होने देता और यकीनन तेरा रब हर एक को 
उसके आमाल का पूरा बदला देगा। वह बाखबर है उससे जो वे कर रहे हैं। (।।0-2) 





“मूसा की किताब में इख़्तेलाफ' का मतलब यह है कि उसके मुखातबीन उसके बयानात 
के बारे में कई राय हो गए। उनमें से कुछ लोगों ने झुठलाया और कुछ लोगों ने तस्लीम किया। 
जब भी कोई बात कही जाए तो आदमी उसके बारे में हमेशा दो चीजों के दर्मियान होता 
है। एक, सही ताबीर (भाष्य) । दूसरे, गलत ताबीर। अगर सुनने वाले फिलवाकअ संजीदा हों 
तो वे एक ही सही ताबीर तक पहुंचेंगे उनकी संजीदगी उनके लिए इत्तेहादे राय की जामिन 
बन जाएगी । इसके बरअक्स अगर वे बात के बारे में संजीदा न हों तो वे उसे कोई अहमियत 
न देंगे और अपने अपने ख्याल के मुताबिक उसकी मुख्तलिफ ताबीरें करेंगे कोई एक बात 
कहेगा, कोई दूसरी बात। इस तरह उनकी गैर संजीदगी उन्हें इख़्तेलाफे राय तक पहुंचा देगी । 
यह सूरत तमाम पैग़म्बरों के साथ पेश आई। इसके बावजूद ख़ुदा इसे गवारा करता रहा। 
इसकी वजह यह है कि ख़ुदा ने मौजूदा दुनिया को अमल की जगह बनाया है और अगली आने 
वाली दुनिया को बदला पाने की जगह। ख़ुदा की यही सुन्नत है जिसकी बिना पर लोगों को 
मुकम्मल आजादी मिली हुई है। मौजूदा सूरतेहाल इसी मोहलते इम्तेहान की बिना पर है न कि 
खुदा के इज्ज या लोगों के किसी इस्तहकाक (पात्रता) की बिना पर। 


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पस तुम जमे रहो जैसा कि तुम्हें हुक्म हुआ है और वे भी जिन्होंने तुम्हारे साथ तौबा की 
है और हद से न बढ़ो बेशक वह देख रहा है जो तुम करते हो। और उनकी तरफ न झुको 
जिन्होंने जुल्म किया, वर्ना तुम्हें आग पकड़ लेगी और अल्लाह के सिवा तुम्हारा कोई 
मददगार नहीं, फिर तुम कहीं मदद न पाओगे और नमाज कायम करो दिन के दोनों 
हिस्सों में और रात के कुछ हिस्से में। बेशक नेकियां दूर करती हैं बुराइयों को। यह 
याददिहानी (अनुस्मरण) है याददिहानी हासिल करने वालों के लिए और सब्र करो 
अल्लाह नेकी करने वालों का अज्र जाए (विनष्ट) नहीं करता। (72-5) 








हक की दावत (आह्वान) का इव्तिदाई इस्तकबाल नजरअंदाज करने की सूरत में होता है। 


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सूरह-]. हूद 623 पारा 2 


इसके बाद मुखालिफत शुरू होती है, यहां तक कि मुख़ालिफत अपने आखिरी नुक्ते पर पहुंच 
जाती है। यह दाजियों के लिए बड़ा नाजुक़ ववत होता है। उस वक्‍त उनके दर्मियान दो किस्म 
के जेहन उभरते हैं। कुछ लोग झुंझला कर यह चाहने लगते हैं कि मुखालिफीन से टकरा जाएं 
और उन लोगों से कुवत के जरिए निपटें जिनके लिए नजरी दलाइल बेअसर साबित हुए हैं। 
दूसरा जेहन वह है जो यह सोचता है कि मुखातबीन के लिए काबिले कुबूल बनाने के ख़ातिर 
अपनी दावत में कुछ तरमीम (संशोधन) कर ली जाए। दावत के उन अज्जा (अंशों) का जिक्र 
न किया जाए जिन्हें सुनकर मुखातबीन बिगड़ जाते हैं। 

पहला रवैया अगर हद से तजावुज (सीमा-उल्लंघन) करना है तो दूसरा रवैया बातिल से 
मुसालेहत (असत्य से समझौता) करना । और ये दोनों ही अल्लाह की नजर में यकसां तौर पर 
गलत हैं। ख़ास तौर पर दूसरी चीज (काबिले कुबूल बनाने के खातिर तब्दीली) तो जुर्म का 
दर्जा रखती है। क्योंकि अल्लाह तआला को सबसे ज्यादा जो चीज मत्लूब है वह हक का 
एलान है। और मुसालेहत की सूरत में हक का वाजेह एलान नहीं हो सकता। 

दावत की राह में जब भी कोई मुश्किल पेश आए तो दाऔ (आह्वानकर्ता) को चाहिए 
कि खुदा की तरफ ज्यादा से ज्यादा रुजूअ करे क्योंकि सब कुछ करने वाला वही है। खुदा 
की मदद ही तमाम मुश्किलात के हल का वाहिद यकीनी जरिया है। 


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पस क्यों न ऐसा हुआ कि तुमसे पहले की कीमों में ऐसे अहले खैर होते जो लोगों को 
जमीन में फसाद करने से रोकते। ऐसे थोड़े लोग निकले जिनको हमने उनमें से बचा 
लिया। और जालिम लोग तो उसी ऐश में पड़े रहे जो उन्हें मिला था और वे मुजरिम 


थे। और तेरा रब ऐसा नहीं कि वह बस्तियों को नाहक तबाह कर दे हालांकि उसके 
बाशिंदे इस्लाह (सुधार) करने वाले हों। (26-77) 








यहां पिछलों से मुराद पिछली उम्मतें बअल्फाजे दीगर पिछली मुस्लिम कीमें हैं। कौम का 
बिगाड़ हमेशा इस तरह होता है कि दुनियावी सामान जो ख़ुदा की तरफ से उन्हें इसलिए दिया 
गया था कि इससे उनके अंदर शुक्र का जज्बा उभरे, वह उनके लिए सरमस्ती (उन्मुकता) और 
दुनियापरस्ती पैदा करने का जरिया बन गया। 

ऐसी हालत में मुस्लिम कौम की इस्लाह के लिए जो काम करना है उसका उच्वान 
शरीअत की इस्तेलाह में “अम्र बिल मारूफ और नही अनिलमुंकर” है। यह हुक्म एक 
मुसलमान की उस जिम्मेदारी को बताता है जो अपने करीबी माहौल की इस्लाह के सिलसिले 
में उस पर आयद होती है। इससे मुराद यह है कि मुस्लिम मुआशिरे में हमेशा ऐसे अफराद मौजूद 


पारा ।2 624 सूरह-।।. हूद 


रहने चाहिएं जो मुसलमानों को खुदा और आखिरत की याद दिलाएं। वे उनके अख़्ताक की 
निगरानी करें। वे मामलात में उन्हें राहेरास्त पर कायम रखने की कोशिश करें। 

किसी कौम में ऐसे अहले ख़ैर का न निकलना हमेशा दो सबब से होता है। या तो पूरी 
कौम की कौम बिगड़ चुकी हो और उसमें कोई सालेह इंसान बाकी न रहा हो। या सालेह 
अफराद मौजूद तो हों मगर उमूमी बिगाड़ की वजह से वे ज़बान खोलने की हिम्मत न करते 
हों। उन्हें अदेशा हो कि अगर उन्होंने सच्ची बात कही तो कौम के दर्मियान वे बेइज्जत होकर 
रह जाएंगे। 

मज्कूरा दोनों सूरतों में कौम ख़ुदा की नजर में अपना एतबार खो देती है और इसकी 
मुस्तहिक हो जाती है कि एक या दूसरी सूरत में वह इताबे खुदावंदी की जद में आ जाए। 


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और अगर तेरा रब चाहता तो लोगों को एक ही उम्मत बना देता मगर वे हमेशा 
इख्तेलाफ (मत-भिन्नता) में रहेंगे सिवा उनके जिन पर तेरा रब रहम फरमाए । और उसने 
इसीलिए उन्हें पैदा किया है। और तेरे रब की बात पूरी हुई कि में जहन्नम को जिन्नों 
और इंसानों से इकटूठे भर दूंगा। (8-29) 





हमारी दुनिया में इंसान के सिवा दूसरी बेशुमार मख़्तूकात भी हैं। ये सब हमेशा फितरत 
के एक ही मुकर्र रास्ते पर चलती हैं। इसी तरह इंसान को भी ख़ुदा एक ही सिराते मुस्तकीम 
(सन्मार्ग) का पाबंद बना सकता था। मगर इंसान के बारे में ख़ुदा की यह स्कीम ही नहीं। 
इंसान के सिलसिले में खुदा का मंसूबा यह था कि एक ऐसी मख्लूक पैदा की जाए जो ख़ुद 
अपने आजादाना इख़्तियार के तहत एक चीज को ले और दूसरी चीज को छोड़ दे। इंसान की 
दुनिया में इख़्तेलाफ (किसी का एक रास्ते पर चलना और किसी का दूसरे रास्ते पर) दरअस्ल 
इसी ख़ास खुदाई मंसूबे की बिना पर है। 

यह मंसूबा यकीनन एक पुरख़तर (ख़तरे भरा) मंसूबा था क्योंकि इसका मतलब यह था 
कि बहुत से लोग आजादी का ग़लत इस्तेमाल करके अपने आपको जहन्नम का मुस्तहिक बना 
लेंगे। मगर इसी पुरखतर मंसूबे के जरिए वे आला रूहें भी चुनी जा सकती थीं जो ख़ुदा की 
ख़ास रहमत की मुस्तहिक करार पाएं। खुदा ने अपनी रहमतें सारी कायनात को बतौर 
अतिय्या (पारितोष) दे रखी हैं। अब ख़ुदा ने यह मंसूबा इसलिए बनाया ताकि अपनी रहमत 
वह अपनी एक मख्लूक को यह कहकर दे कि यह तुम्हारा हक है। 

ख़ुदा की रहमत उस शख्स को मिलती है जिसका शुऊर इतना बेदार हो गया हो कि वह 
इम्तेहानी इख्तियार के अंदर अपनी हकीकी बेइस््तियारी को जान ले। वह इंसानी कुदरत के पर्दे 


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सूरह-।।. हूद 625 पारा 72 
में खुदा की कुदरत को देख ले। यह शुऊर ऐसे आदमी से सरकशी की ताकत छीन लेता है। 

यहां तक कि उसका यह हाल हो जाता है कि जब ख़ुदा अपनी रहमत को उसका हक कहकर 
पेश करे तो उसका शुऊरे हकीकत पुकार उदेखुदाया यह भी तेरी रहमतों ही का एक करिश्मा 

है। वर्ना मेरा अमल तो किसी कीमत का मुस्तहिक (पात्र) नहीं। 


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और हम रसूलों के अहवाल से सब चीज तुम्हें सुना रहे हैं। जिससे तुम्हारे दिल को 
मजबूत करें और इसमें तुम्हारे पास हक आया है और मोमिनां के लिए नसीहत और 
याददिहानी (अनुस्मरण) । और जो लोग ईमान नहीं लाए उनसे कहो कि तुम अपने 
तरीके पर करते रहो और हम अपने तरीके पर कर रहे हैं। और इंतिजार करो हम भी 
मुंतजिर हैं। और आसमानां और जमीन की छुपी बात अल्लाह के पास है और वही 


तमाम मामलों का मरजअ (उन्मुख-केन्द्र) है। पस तुम उसकी इबादत करो और उसी 
पर भरोसा रखो और तुम्हारा रब उससे बेख़बर नहीं जो तुम कर रहे हो। (20-23) 





कुरआन में रसूलों के अहवाल (वृत्तांत) इसलिए सुनाए गए हैं कि बाद के दाजियों को 
इससे सबक हासिल हो। रसूलों के अहवाल में दाओ देखता है कि उनकी मुख़ातब कौमों ने 
उनसे झगड़े किए । सीधी बात को गलत रुख़ देकर उन्हें मतऊन (लांछित) किया। उन्हें तरह 
तरह की तकलीफें पहुंचाई। उन्हें इस तरह रद्द कर दिया जैसे उनकी कोई कीमत ही नहीं। 

मगर बिलआखिर अल्लाह ने उनकी मदद की। उनको बात सबसे बरतर साबित हुई। 
मुखालिफीन की तमाम कार्रवाइयां नाकाम होकर रह गई। दोनों गिरोहों का यह मुख़्तलिफ 
अंजाम अपनी इब्तिदाई सूरत में मौजूदा दुनिया ही में पेश आया और आख़िरत में वह अपनी 
कामिलतरीन सूरत में पेश आएगा। 

इन मिसालों से दाऔ को यह तारीख़ी एतमाद हासिल होता है कि उसे हक की दावत की 
राह में जो मुश्किलें पेश आ रही हैं उनमें उसके लिए न मायूसी का सवाल है और न घबराहट 
का। हक की दावत की राह में ये चीजें हमेशा पेश आती हैं। और इसे भी बिलआख़िर उसी तरह 
कामयाबी हासिल होगी जिस तरह इससे पहले खुदा के सच्चे दाञियों को हासिल हुई। 





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पारा ।2 626 सूह-2. यूसुफ 
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(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
अलिफ० लाम० रा०। ये वाजेह (स्पष्ट) किताब की आयतें हैं। हमने इसे अरबी 
कुरआन बनाकर उतारा है ताकि तुम समझो। हम तुम्हें बेहतरीन सरगुजश्त (किस्से) 
सुनाते हैं इस कुरआन की बदौलत जो हमने तुम्हारी तरफ “वही” (प्रकाशना) किया। 
इससे पहले बेशक तू बेख़बरों में था। (-3) 





कुरआन अगरचे सारी दुनिया की हिदायत के लिए आया है। ताहम इससे मुखातबे अव्वल 
अरब थे। इसलिए वह अरबी जबान में उतरा। अब इस पर ईमान लाने वालों की जिम्मेदारी 
है कि वे इसकी तालीमात को हर जबान में मुंतकिल करें। और इसको दुनिया की तमाम कौमों 
तक पहुंचाएं । 

कुरआन की तालीमात कुरआन में मुछ्नलिफ अंदाज और उस्लूब (शैली) से बयान की गई 
हैं। कहीं वह कायनाती इस्तदलाल (तर्को) की जबान में हैं, कहीं इंजार और तबशीर (डरावा और 
खुशखबरी) की जबान में और कहीं तारीख़ की जबान में। सूरह यूसुफ में यह पैगाम हजरत यूसुफ 
के किस्से की शक्ल मेंसामने लाया गया है। इस सूरह में अहले ईमान को एक पैगम्बर की सरगुजश्त 
(किस्सा) की सूरत मेंबताया गया है कि खुदा हर चीज पर कादिर है। वह हक के लिए उठने वालों 
की मदद करता है। और मुखालिफीन की तमाम साजिशों के बावजूद बिलआखिर उन्हें कामयाब 
करता है। शर्त यह है कि अहले ईमान के अंदर तकवा और सब्र की सिफत मौजूद हो। यानी वे 
अल्लाह से डरने वाले हों और हर हाल में हक के रास्ते पर जमे रहें। 


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सूरह।2. यूसुफ 627 पारा 72 


जब यूसुफ ने अपने बाप से कहा कि अब्बाजान मैंने ख़्वाब में ग्यारह सितारे और सूरज 
और चांद देखे हैं। मैंने उन्हें देखा कि वे मुझे सज्दा कर रहे हैं। उसके बाप ने कहा 
कि ऐ मेरे बेटे, तुम अपना यह ख़्वाब अपने भाइयों को न सुनाना कि वे तुम्हारे खिलाफ 
कोई साजिश करने लगें। बेशक शैतान आदमी का खुला हुआ दुश्मन है। और इसी 
तरह तेरा रब तुझे मुंत़ब करेगा और तुम्हें बातों की हकीकत तक पहुंचना सिखाएगा 

और तुम पर और आले याकूब पर अपनी नेमत पूरी करेगा जिस तरह वह इससे पहले 
तुम्हारे अज्दाद (पूर्वजों) इब्राहीम और इसहाक पर अपनी नेमत पूरी कर चुका है। 
यकीनन तेरा रब अलीम (जञानवान) और हकीम (तत्वदर्शी) है। (4-6) 





हदीस में है कि ख़्वाब की तीन किसमें हैं। अपने दिल की बात, शैतान का डरावा और 
ख़ुदा की बशारत (शुभ सूचना)। आम आदमी का ख़्वाब तीनों में से कोई भी हो सकता है। 
मगर पैगम्बर का ख़्वाब हमेशा खुदा की बशारत होता है, कभी रास्त (प्रत्यक्ष) अंदाज में और 
कभी तमसीली (उपमा के) अजम 

हजरत यूसुफ का जमाना उन्नीसवीं सदी ईसा पूर्व का जमाना है। आपके वालिद हजरत 
याकूब फिलिस्तीन में रहते थे। हजरत यूसुफ और उनके भाई बिन यामीन एक मां से थे और 
बकिया दस भाई दूसरी माओं से। इस ख़्वाब में सूरज और चांद से मुराद आपके वालिदेन हैं 
और ग्यारह सितारों से मुराद ग्यारह भाई। इसमें यह बशारत थी कि हजरत यूसुफ को पैग़म्बरी 
मिलेगी और इसी के साथ यह ख़्वाब आपके उस उरूज व इक्तेदार (सत्ता) की तमसील था 
जो बाद को मिस्र पहुंच कर आपको मिला और जिसके बाद सारे अहले ख़ानदान मजबूर हुए 
कि वे आपकी अज्मत को तस्लीम कर लें। 

हजरत यूसुफ के दस सौतेले भाई आपकी शख्सियत और मकबूलियत को देखकर आपसे 
हसद रखते थे। इसलिए आपके वालिद (हजरत याकूब) ने ख़ाब सुनकर फौरन कहा कि 
अपने भाइयों से इसका जिक्र न करना वर्ना वे तुम्हारे और ज्यादा दुश्मन हो जाएंगे। 

किसी की बड़ाई देखकर उसके खिलाफ जलन पैदा होना ख़ालिस शैतानी फेअल (कृत्य) 
है। जिस शख्स के अंदर यह सिफत पाई जाए उसे अपने बारे में तौबा करनी चाहिए। क्योंकि 
यह इस बात का सुबूत है कि वह ख़ुदा के फैसले पर राजी नहीं। वह शैतान की हिदायत पर 
चल रहा है न कि ख़ुदा की हिदायत पर। 

यहां इतमामे नेमत का लफ्ज हजरत यूसुफ के लिए भी बोला गया है जिनको हुकूमत 
हासिल हुई और हजरत इब्राहीम के लिए भी जिनको कोई हुकूमत नहीं मिली । फिर दोनों के 
दर्मियान वह मुश्तरक (साम्य) चीज क्या थी जिसे इतमामे नेमत कहा गया। वह नुबुब्वत थी। 
यानी खुदा की उस खुसूसी हिदायत की तौफीक जो किसी को आख़िरत में आला मर्तबों तक 
पहुंचाने वाली है। ख़ुदा की हिदायत इंसान के ऊपर ख़ुदा की नेमतों की तक्मील है। यह नेमत 
पैगम्बरों को बराहेरास्त (प्रत्यक्ष) तौर पर मिलती है और आम सालेहीन को बिलवास्ता (परोक्ष) 
तौर पर। 











पारा 2 628 सूह-2. यूसुफ 


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हकीकत यह है कि यूसुफ और उसके भाइयों में पूछने वालों के लिए बड़ी निशानियां 
हैं। जब उसके भाइयों ने आपस में कहा कि यूसुफ और उसका भाई हमारे बाप को 
हमसे ज्यादा महबूब हैं। हालांकि हम एक पूरा जत्या हैं। यकीनन हमारा बाप एक खुली 
हुई गलती में मु्तिला है। यूसुफ को कत्ल कर दो या उसे किसी जगह फेंक दो ताकि 
तुम्हारे बाप की तवज्जोह सिर्फ तुम्हारी तरफ हो जाए। और इसके बाद तुम बिल्कुल 
ठीक हो जाना। उनमें से एक कहने वाले ने कहा कि यूसुफ को कत्ल न करो। अगर 
तुम कुछ करने ही वाले हो तो उसे किसी अंधे कुवें में डाल दो। कोई राह चलता 
काफिला उसे निकाल ले जाएगा। (7-0) 





मक्का के आखिरी दिनों में जबकि अबू तालिब और हज़रत ख़दीजा का इंतिकाल हो चुका 
था मक्का के लोगों ने आपकी मुखालिफत तेजतर कर दी। उस जमाने में मक्का के कुछ लोगों 
ने आपसे हजरत यूसुफ का हाल पूछा जिनका नाम उन्हेंनि सफरों के दौरान कुछ यहूदियों से सुना 
था। यह सवाल अगरचे उन्होंने मज़ाक के तौर पर किया था मगर अल्लाह तआला ने उसे ख़ुद 
पूछने वालों की तरफ लौटा दिया। इस किस्से के जरिए बिलवास्ता (परोक्ष) तौर पर उन्हें बताया 
गया कि तुम लोग वे हो जिनके हिस्से में यूसुफ के भाइयों का किरदार आया है। जबकि पैगम्बर 
का अंजाम खुदा की रहमत से वह होने वाला है जो यूसुफ का मिस्र में हुआ। 

हजरत याकूब देख रहे थे कि उनकी औलाद में सबसे ज्यादा लायक और सालेह (नेक) 
हजरत यूसुफ हैं। उनके अंदर उन्हें मुस्तकबिल के नबी की शख्सियत दिखाई देती थी। इस 
बिना पर उन्हें हजरत यूसुफ से बहुत ज्यादा लगाव था। मगर आपके दस साहबजादे मामले 
को दुनियावी नजर से देखते थे। उनका ख्याल था कि बाप की नजर में सबसे ज्यादा अहम 
चीज उनका जत्था होना चाहिए। क्योंकि वही इस काबिल है कि ख़ानदान की मदद और 
हिमायत कर सके। उनका यह एकतरफा दृष्टिकोण यहां तक पहुंचा कि उन्होंने सोचा कि 
यूसुफ को मैदान से हटा दें तो बाप की सारी तवज्जोह उनकी तरफ हो जाएगी। 

वे लोग जब हजरत यूसुफ के ख़िलाफ मंसूबा बनाने बैठे तो उनके एक भाई (यहूदा) ने 
यह तज्वीज पेश की कि यूसुफ को कत्ल करने के बजाए किसी अंधे कुवे में डाल दिया जाए। 
यह अल्लाह तआला का ख़ास इंतिजाम था। अल्लाह का यह तरीका है कि कोई गिरोह जब 


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सूरह।2. यूसुफ 629 पारा 72 


नाहक किसी बंदे के दरपे हो जाता है तो ख़ुद उस गिरोह में से एक ऐसा शख्स निकलता है 
जो अपने लोगों को किसी ऐसी मोअतदिल तदबीर पर राजी कर ले जिसके अंदर से उस ख़ुदा 
के बंदे के लिए नया इम्कान खुल जाए 


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उन्होंने अपने बाप से कहा, ऐ हमारे बाप, क्या बात है कि आप यूसुफ के मामले में हम 
पर भरोसा नहीं करते। हालांकि हम तो उसके ख़ैरख्वाह हैं। कल उसे हमारे साथ भेज 
दीजिए, खाए और खेले, और हम उसके निगहबान हैं। बाप ने कहा में इससे ग़मगीन 
होता हूं कि तुम उसे ले जाओ और मुझे अंदेशा है कि उसे कोई भेड़िया खा जाए जबकि 


तुम उससे गाफिल हो। उन्होंने कहा कि अगर उसे भेड़िया खा गया जबकि हम एक पूरी 
जमाअत हैं, तो हम बड़े ख़सारे (घाटे) वाले साबित होंगे। (-4) 





हजरत याकूब ने अपने बेटों को जो जवाब दिया उससे मालूम होता है कि हालात के 
मुतालओ से उन्होंने अंदाजा कर लिया था कि यह सहरा में खेलने कूदने का मामला नहीं है। बल्कि 
यूसुफ के खिलाफ उनके भाइयों की साजिश का मामला है। मगर अल्लाह से डरने वाला इंसान 
अल्लाह पर भरोसा करने वाला इंसान होता है । हजरत याकूब ने अगरचे अपनी फरासत (दूरदृष्टि) 
से यह महसूस कर लिया था कि क्या होने जा रहा है। ताहम वह ख़ुदा की कुदरत को हर दूसरी 
चीज से ऊपर समझते थे। उन्हें खुदा की बालादस्ती पर कामिल यकीन था। चुनांचे वाजेह 
ख़तरात के बावजूद उन्होंने यूसुफ को ख़ुदा के भरोसे पर उनके भाइयों के हवाले कर दिया । 

यह खुदा से डरने वाले इंसान की तस्वीर थी। दूसरी तरफ हजरत यूसुफ के भाइयों में 
उन लोगों की तस्वीर नजर आती है जिनके दिल ख़ुदा के ख़ौफ से ख़ाली हों। ये लोग एक 
ख़ुदा के बंदे को नाहक बर्बाद करने के मंसूबे बना रहे थे। वे यह भूल गए थे कि वे एक ऐसी 
दुनिया में हैं जहां खुदा के सिवा किसी और को कोई इख्तियार हासिल नहीं। वे लफ्जों के 
एतबार से अपने को ख़ेरख़्वाह (हितैषी) साबित कर रहे थे। हालांकि ख़ुदा के नजदीक 
खैरख़्वाह वह है जो अमल के एतबार से अपने को खैरख़्वाह साबित करे। 


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फिर जब वे उसे ले गए और यह तै कर लिया कि उसे एक अंधे कुवे में डाल दें और हमने 
यूसुफ को “वही” (प्रकाशना) की कि तू उन्हें उनका यह काम जताएगा और वे तुझे न जानेंगे 
और वे शाम को अपने बाप के पास रोते हुए आए। उन्होंने कहा कि ऐ हमारे बाप हम 
दौड़ का मुकाबला करने लगे और यूसुफ को हमने अपने सामान के पास छोड़ दिया । फिर 

उसे भेड़िया खा गया। और आप हमारी बात का यकीन न करेंगे चाहे हम सच्चे हों। और 

वे यूसुफ की कमीज पर झूठा खून लगाकर ले आए। बाप ने कहा नहीं, बल्कि तुम्हारे नफ्स 

ने तुम्हारे लिए एक बात बना दी है। अब सब्र ही बेहतर है। और जो बात तुम जाहिर 
कर रहे हो उस पर अल्लाह ही से मदद मांगता हूं। (5-8) 





हजरत यूमुफका अस्ल किस्सा यकीनी तैर पर उससे ज्यादा मुफरसल (विस्त) हैजितना 
कि कुरआन में बयान हुआ है। मगर कुरआन का अस्ल मवसद नसीहत है न कि वाकयानिगारी । 
इसलिए वह सिर्फ उन पहलुओं को लेता है जो नसीहत और तज्कीर के लिए मुफीद हों। और 
बकिया तमाम अज्जा (अंशों) को हटा देता है ताकि तारीख़निगार उसे मुरत्तब करें। 

रिवायात के मुताबिक हजरत यूसुफ तीन दिन तक अंधे कुवे में रहे। इन्हीं तीन दिनों में 
ग़ालिबन ख़्वाब के जरिए आपको आपका मुस्तकबिल दिखाया गया। उसमें आपने देखा कि 
आप कुवे से निकलते हैं और फिर अज्मत व शान के एक ऊंचे मकाम पर पहुंचते हैं। यहां 
तक कि आपके और आपके भाइयों के दर्मियान हैसियत के एतबार से इतना फर्क हो जाता 
है कि वे आपको देखते हैं तो पहचान नहीं पाते। 

हजरत यूसुफ के भाइयों ने जो कुछ किया वह इंतिहाई इश्तिआलअंगेज (उत्तेजक) हरकत 
थी। मगर एक तरफ हजरत यूसुफ का हाल यह था कि उन्होंने अपने मामले को खुदा के 
हवाले कर दिया और सुनसान मकाम पर अंधे कुवें के अंदर ख़ामोश बैठे हुए खुदा की मदद 
का इंतिजार करते रहे। दूसरी तरफ आपके वालिद हजरत याकूब ने सब्र जमील (असीम 
संयम) की रविश इख्तियार की। कुछ तफ्सीरों में आया है कि उन्होंने अपने बेटों से कहा : 
अगर यूसुफ को भेड़िया खा जाता तो वह उसकी कमीज को भी जरूर भाड़ डालता । यानी 
वह भेड़िया भी कैसा शरीफ भेड़िया था जो यूसुफ को तो उठा ले गया और खून आलूद कमीज 
को निहायत सही व सालिम हालत में उतार कर तुम्हारे हवाले कर गया। 


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सूहह-2. यूसुफ 63] पारा 2 


और एक काफिला आया तो उन्होने अपना पानी भरने वाला भेजा। उसने अपना डोल 
लटकाया। उसने कहा, खुशखबरी हो यह तो एक लड़का है। और उसे तिजारत का 
माल समझ कर महफूज कर लिया। और अल्लाह खूब जानता था जो वे कर रहे थे। 

और उन्होंने उसे थोड़ी सी कीमत चन्द दिरहम के ऐवज बेच दिया। और वे उससे बेसाबत 
(उदासीन) थे। (।9-20) 





हजरत यूसुफ के भाई जब आपको अंधे कुवें में डाल कर चले गए तो तीन दिन बाद एक 
तिजारती काफिला उधर से गुजरा जो मदयन से मिम्न जा रहा था। काफिले के एक आदमी 
ने पानी की ख़ातिर कुवें में डोल डाला तो हजरत यूसुफ (जो उस वक्‍त तकरीबन 6 साल 
के थे) डोल पकड़ कर बाहर आ गए। 
यह इंसानों को बेचने का जमाना था। इसलिए काफिले वाले खुश हुए कि वे मिम्न ले 
जाकर लड़के को फरोख़्त कर सकेंगे। चुनांचे जब वे मिस्र पहुंचे तो अपने दीगर सामानों के 
साथ हजरत यूसुफ को भी बाजार में रखा । वहां एक आदमी ने होनहार लड़का देखकर 
आपको बीस दिरहम में ख़रीद लिया। 
हजरत यूसुफ के भाई आपको बेवतन करके कुं में डाल चुके थे। काफिले वालों ने 
गुलाम की हैसियत से फरोख़्त कर दिया। इसके बाद मिस्र के एक आला सरकारी अफसर की 
बीवी (जुलेखा) ने आपको कैदखाने में कैद करा दिया। मगर अल्लाह तआला ने इन तमाम 
मरहलों को आपके लिए इज्जत व सखबुलन्दी तक पहुंचने का जीना बना दिया। किस कद्र 
फर्क है इल्मे इंसान में और इल्मे खुदावंदी में! 
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और अहले मिस्र में से जिस शख्स ने उसे खरीदा उसने अपनी बीवी से कहा कि इसे 
अच्छी तरह रखो। उम्मीद है कि वह हमारे लिए मुफीद हो या हम उसे बेटा बना लें। 
और इस तरह हमने यूसुफ को उस मुल्क में जगह दी। और ताकि हम उसे बातों की 
तावील (निहितार्थ) सिखाएं। और अल्लाह अपने काम पर ग़ालिब (अधिकार प्राप्त) 
रहता है। लेकिन अक्सर लोग नहीं जानते। और जब वह अपनी पुख़्तगी को पहुंचा 


हमने उसे हुक्म और इलम अता किया। और नेकी करने वालों को हम ऐसा ही बदला 
देते हैं। (2।-22) 





























कहा जाता है कि मिम्री हुकूमत के एक अफसर (फेतिफार) ने हजरत यूसुफ को खुरीदा। 


पारा 72 632 सूह-2. यूसुफ 
मामूली कपड़े में छुपी हुई आपकी शानदार शख्सियत को उसने पहचान लिया। उसने समझ लिया 
कि यह कोई गुलाम नहीं है बल्कि शरीफ ख़ानदान का लड़का है। किसी वजह से वह काफिले 
के हाथ लग गया और उसने इसे यहां लाकर बेच दिया। चुनांचे उसने अपनी बीवी से कहा 
कि इसे गुलाम की तरह न रखना। यह एक लायक नौजवान मालूम होता है और इस काबिल 
है कि हमारे घर और जायदाद का इंतिजाम संभाल ले। मजीद यह की फोतिफार बेऔलाद था 
और किसी को अपना मुतबन्ना (ले पालक) बनाना चाहता था। उसने यह इरादा भी कर लिया 
कि अगर वाकई यह नौजवान उसकी उम्मीदों के मुताबिक निकला तो वह उसे अपना बेटा बना 
लेगा। 
हजरत यूसुफ जब तकरीबन चालीस साल के हुए तो खुदा ने उन्हें एक तरफ नुबुवत 

अता की और दूसरी तरफ इक्तेदार (सत्ता)। उन्हें यह इनाम उनके हुस्ने अमल की वजह से 
मिला। खुदा के इनाम का दरवाजा हमेशा मोहसिनीन के लिए खुला हुआ है। फर्क यह है कि 
दौरे नुबु्वत में किसी को उसके हुस्ने अमल के नतीजे में नबी भी बनाया जा सकता था। 
मगर बाद के जमाने में उसे सिर्फ वे इनामात मिलेंगे जो नुबुव्वत के अलावा हैं। 

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और यूसुफ जिस औरत के घर में था वह उसे फुसलाने लगी और एक रोज दरवाजे बंद 
कर दिए और बोली कि आ जा। यूसुफ ने कहा खुदा की पनाह। वह मेरा आका है, 
उसने मुझे अच्छी तरह रखा है। बेशक जालिम लोग कभी फलाह नहीं पाते। और औरत 
ने उसका इरादा कर लिया और वह भी उसका इरादा करता अगर वह अपने रब की 


बुरहान (स्पष्ट प्रमाण) न देख लेता। ऐसा हुआ ताकि हम उससे बुराई और बेहयाई 
को दूर कर दें। बेशक वह हमारे चुने हुए बंदों में से था। (28-24) 





अजैजमिश्न की बीवी जगे हजरत यूमुफ पर फसा हो गई। वह बराबर आपको 
फुसलाती रही। यहां तक की एक दिन मौका पाकर उसने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया। 

एक गैर शादीशुदा नौजवान के लिए यह बड़ा नाजुक मौका था। मगर हजरत यूसुफ ने 
अपनी फिरते ख्बानी कोमहफूज रख था और यह फितरत उस वक्त हजरत यूमुके काम 
आ गई। हक और नाहक भलाई और बुराई को पहचानने की यह ताकत हर आदमी के अंदर 
पैदाइशी तौर पर मौजूद होती है। वह हर मौके पर इंसान को मुतनब्बह (सचेत) करती है। जो 
श उसे नजरअंदाज कर दे उसने गोया खुदा की आवाज को नजरअंदाज कर दिया। ऐसा 
आदमी खुदा की मदद से महरूम होकर धीरे-धीरे अपनी फितरत को कमजोर कर लेता है। इसके 
बरअक्स जो शख्स खुदाई पुकार के जाहिर होते ही उसके आगे झुक जाए, खुदा की मदद उसकी 


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सूरह-2. यूसुफ 633 पारा ।2 
इस्तेदाद (क्षमता) बढ़ाती रहती है। वह इस काबिल हो जाता है कि आइंदा ज्यादा कुब्बत के 
साथ बुराई के मुकाबले में ठहर सके। 


हजरत यूसुफ को जिस चीज ने बुराई से रोका वह हकीकतन अल्लाह का डर था। मगर 
जुलेखा के लिए खुदा का हवाला देना उस ववत बेअसर रहता । यह मौका हक के एलान का 
नहीं था बल्कि एक नाजुक सूरतेहाल से अपने आपको बचाने का था। इसी नजाकत की बिना 
पर आपने जुलेखा को उसके शोहर का हवाला दिया। आपने फरमाया कि वह मेरा आका है। 
उसने मुझे निहायत इज्जत के साथ अपने घर में रखा है। फिर कैसे मुमकिन है कि मैं अपने 
मोहसिन के नामूस (मर्यादा) पर हमला करूं। 
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और दोनों दरवाजे की तरफ भागे। और औरत ने यूसुफ का कुर्ता पीछे से फाड़ दिया। 

और दोनों ने उसके शोहर को दरवाजे पर पाया। औरत बोली जो तेरी घरवाली के साथ 
बुराई का इरादा करे उसकी सजा इसके सिवा क्या है कि उसे कैद किया जाए या उसे 

सख्त अजाब दिया जाए। यूसुफ ने कहा कि इसी ने मुझे फुसलाने की कोशिश की। 

और औरत के कुनबे वालों में से एक शरस ने गवाही दी कि अगर उसका कुर्ता आगे 
से फटा हुआ हो तो औरत सच्ची है और वह झूठा है। और अगर उसका कुर्ता पीछे 
से फटा हुआ हो तो औरत झूठी है और वह सच्चा है। फिर जब अजीज ने देखा कि 
उसका कुर्ता पीछे से फटा हुआ है तो उसने कहा कि बेशक यह तुम औरतों की चाल 
है। और तुम्हारी चालें बहुत बड़ी होती हैं। यूसुफ, इससे दरगुजर करो। और ऐ औरत 

तू अपनी गलती की माफी मांग। बेशक तू ही ख़ताकार थी। (25-29) 





हजरत यूसुफ अपने आपको बचाने के लिए दरवाजे की तरफ भागे। जुने भी उनके 
पीछे दौड़ी और पीछे से आपका कुर्ता पकड़ लिया। खींच तान में पीछे का दामन फट गया। 
ताहम हजरत यूसुफ दरवाजा खोल कर बाहर निकलने में कामयाब हो गए । दरवाजे के बाहर 
इत्तेमक से जुने का शैहर मौजूद था । उसे देखते ही जुने ने सारी जिम्मेदारी हजरत यूसुफ 


पारा 72 634 सूह-2. यूसुफ 
पर डाल दी। एक लम्हा पहले वह जिस शख्स से इज्हारे मुहब्बत कर रही थी, एक लम्हा बाद 
उस पर झूठा इल्जाम लगाने लगी। 

हजरत यूसुफ ने बताया कि मामला इसके बिल्कुल बरअक्स है। अब सवाल यह था कि 
फैसला कैसे किया जाए कि गलती किस की है। कोई तीसरा शख्स मौके पर मौजूद नहीं था 
जो ऐनी गवाही दे। उस वक्त घर के एक समझदार शख्स ने लोगों को रहनुमाई दी। संभव 
है कि यह शख्स पहले से हालात से बाखबर था। साथ ही, उसने यह भी देख लिया था कि 
यूसुफ का कुर्ता आगे के बजाए पीछे से फटा हुआ है। मगर उसने अपनी बात को ऐसे अंदाज 
में कहा गोया कि वह लोगों से कह रहा है कि जब ऐनी शहादत मौजूद नहीं है तो करीना की 
शहादत (Circumstantial evidence) देखकर फैसला लो। और करीने की शहादत यह थी 
कि हजरत यूसुफ का कुर्ता पीछे की जानिब से फटा हुआ था। यह वाजेह तौर पर इसका सुबूत 
था कि इस मामले में इक्दाम जुनेब की तरफ से हुआ है कि यूसुफ की तरफ से। 


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और शहर की औरतें कहने लगीं कि अजीज की बीवी अपने नोजवान गुलाम के पीछे 
पञ्चे हुई है। वह उसकी मुहब्बत में फरेफ्ता है। हम देखते हैं कि वह खुली हुई गलती 
पर है। फिर जब उसने उनका फरेब सुना तो उसने उन्हें बुला भेजा। और उनके लिए 
एक मज्लिस तैयार की और उनमें से हर एक को एक-एक छुरी दी और यूसुफ से कहा 
कि तुम उनके सामने आओ। फिर जब औरतों ने उसे देखा तो वे दंग रह गई। और 
उन्होंने अपने हाथ काट डाले। और उन्होंने कहा पाक है अल्लाह, यह आदमी नहीं है, 


यह तो कोई बुजुर्ग फरिश्ता है। उसने कहा यह वही है जिसके बारे में तुम मुझे मलामत 
कर रही थीं और मैंने इसे रिझाने की कोशिश की थी मगर वह बच गया। और अगर 











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सूहह-2. यूसुफ 635 पारा 2 


उसने वह नहीं किया जो में उससे कह रही हूं तो वह कैद में पड़ा और जरुर बेइज्जत 

होगा। यूसुफ ने कहा, ऐ मेरे रब, कैदखाना मुझे उस चीज से ज्यादा पसंद है जिसकी 

तरफ ये मुझे बुला रही हैं। और अगर तूने उनके फरेब को मुझसे दफा न किया तो में 

उनकी तरफ मायल हो जाऊंगा और जाहिलों में से हो जाऊंगा। पस उसके रब ने उसकी 
दुआ बुबूल कर ली और उनके फरेब को उससे दफा कर दिया। बेशक वह सुनने वाला 

और जानने वाला है। (30-34) 


इस किस्से में एक तरफ मिम्न की ऊंचे तबके की ख्रातीन (औरतें) थीं और दूसरी तरफ 
हजरत यूसुफ। ख़ातीन आपको बस एक ख़ूबसूरत जवान की सूरत में देख रही थीं। इसी 
तरह हजरत यूसुफ उन ख््रातीन को तस्कीने नफ्स (काम-तृप्ति) के सामान के रूप में देख 
सकते थे। मगर इंतिहाई हैजानखेज हालात में भी आपने ऐसा नहीं किया। 

ख़्वातीन का हाल यह था कि वे सबकी सब आपकी पुरकशिश शख्सियत की तरफ 
मुतवज्जह थीं। यहां तक को शिदूदते महवियत (तल्लीनता) में उन्होंने छुरी से फल काटते हुए 
अपने हाथ जमी कर लिए। मगर हजरत यूसुफ अपनी तमामतर तवज्जोह खुदा की तरफ 
लगाए हुए थे। खुदा की अज्मत व किबरियाई का एहसास आपके ऊपर इतना गालिब आ 
चुका था कि कोई दूसरी चीज आपको अपनी तरफ मुतवज्जह करने में कामयाब न हो सकी । 
कितना फर्क है एक इंसान और दूसरे इंसान में! 


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फिर निशानियां देख लेने के बाद उन लोगों की समझ में आया कि एक मुदृदत के लिए 
इसको कैद कर दें। और कैदख़ाने में उसके साथ दो और जवान दाख़िल हुए। उनमें 

से एक ने (एक रोज) कहा कि मैं ख़्वाब में देखता हूं कि में शराब निचोड़ रहा हूं और 
दूसरे ने कहा कि मैं ख्वाब में देखता हूं कि अपने सर पर रोटी उठाए हुए हूं जिसमें से 
चिड़िया खा रही हैं। हमें इसकी ताबीर (अर्थ) बताओ। हम देखते हैं कि तुम नेक लोगों 
में से हो। (35-36) 





मिञ्न के आला तबके की रब्रातीन जब हजरत यूसुफ को अपनी तरफ रागिब न कर सकीं 
तो इसके बाद उन्होंने आपके लिए जो मकाम पसंद किया वह कैदख़ाना था । चूंकि उस वक्त 
आपकी हैसियत एक गुलाम की थी इसलिए कदीम रवाज के मुताबिक आपको कैदख़ाने भेजने 
के लिए किसी अदालती कार्रवाई की जरूरत न थी। आपका आका खुद अपने फैसले से आपको 
कैद में डालने का इख्तियार रखता था। 


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पारा 22 636 सूह-2. यूसुफ 
मगर कैदख़ाना आपके लिए नया अजीमतर जीना बन गया। अब तक ऐसा था कि मित्र 
के एक या चन्द अफसरों के घराने आपसे परिचित हुए थे। अब इस का इम्कान पैदा हो गया 
कि आपकी शख्सियत का चर्चा ख़ुद बादशाहे मिस्र तक पहुंचे। 
इसकी सूरत यह हुई कि आप जिस कैदखाने में रखे गए उसमें दो और नौजवान कैद 
होकर आए। ये दोनों शाही महल से तअल्लुक रखते थे। उन दोनों ने कैदख़ाने में खराब देखे 
और आपसे उनकी ताबीर पूछी। आपने उन्हें ख़राब की ताबीर बता दी। यह ताबीर बिल्कुल 
सही साबित हुई। इसके बाद उनमें से एक कैदख़ाने से छूटकर दुबारा शाही महल में पहुंचा 
तो उसने एक मौके पर बादशाह से बताया कि कैदख़ाने में एक ऐसा नेक इंसान है जो ख़राब 
की बिल्कुल सही ताबीर बताता है। इस तरह आपका कैद होना आपके लिए शाही महल तक 
रसाई का इब्तिदाई जीना बन गया। 


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यूसुफ ने कहा, जो खाना तुम्हें मिलता है उसके आने से पहले में तुम्हें इन ख़्वाबों की 
ताबीर बता दूंगा। यह उस इल्म में से है जो मेरे रब ने मुझे सिखाया है। मैंने उन लोगों 
के मजहब को छोड़ा जो अल्लाह पर ईमान नहीं लाते और वे लोग आख़िरत (परलोक) 
के मुंकिर हैं और मैंने अपने बुजुगों इब्राहीम और इसहाक और याकूब के मजहब की पेरवी 
की। हमें यह हक नहीं कि हम किसी चीज को अल्लाह का शरीक ठहराएं। यह अल्लाह 
का फज्ल है हमारे ऊपर और सब लोगों के ऊपर मगर अक्सर लोग शुक्र नहीं करते। 
ऐ मेरे जेल के साथियो, क्या जुदा जुदा कई माबूद (पूज्य) बेहतर हैं या अल्लाह अकेला 
जबरदस्त। तुम उसके सिवा नहीं पूजते हो मगर कुछ नामों को जो तुमने और तुम्हारे 


बाप दादा ने रख लिए हैं। अल्लाह ने इसकी कोई सनद नहीं उतारी। इक्तेदार 
(संप्रभुत्व) सिर्फ अल्लाह के लिए है। उसने हुक्म दिया है कि उसके सिवा किसी की 





















































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सूरह।2. यूपुफ 637 पारा ।2 
इबादत न करो। यही सीधा दीन है। मगर बहुत लोग नहीं जानते। (37-40) 


नौजवान कैदियों ने अपने खराब की ताबीर जानने के लिए हजरत यूसुफ से रुजूअ 
किया। उन्होंने जिस अंदाज से सवाल किया उससे साफ जाहिर हो रहा था कि वे आपकी 
शख्मियत से मुतअस्सिर हैं। और आपकी राय पर एतमाद करते हैं। हजरत यूसुफ जैसे नेक 
और बाउसूल इंसान के साथ एक अर्से तक रहने के बाद ऐसा होना बिल्कुल फितरी था। 
हजरत यूसुफ के दावती जज ने फैरन महसूस कर लिया कि यह बेहतरीन मौ है कि 
इन नौजवानों को दीने हक का पैगाम पहुंचाया जाए। मगर ख़्वाब की ताबीर फौरन बता देने के 
बाद उनकी तवज्जोह आपकी तरफ से हट जाती । चुनांचे आपने हकीमाना (सूझबूझ भरा) अंदाज 
इख्तियार किया और ख़्वाब की ताबीर को थोड़ी देर के लिए टाल दिया। इसके बाद आपने 
तौहीद (एकेश्वरवाद) पर मुख़्तसर तकरीर की। उसमें मुखातब की नपिसियात की रिआयत करते 
हुए निहायत ख़ूबसूरत इस्तदलाल (तर्क) के साथ अपना पैग़ाम उन्हें सुना दिया। 
दरख्त, पत्थर, सितारे और रूहों वगैरह को जो लोग पूजते हैं इसका राज यह है कि वे 
बतौर ख़ुद उन्हें मुश्किलकुशा (संकट मोचक) और हाजतरवा (दाता) जैसे अल्काब देते हैं और 
समझ लेते हैं कि वाकई वे मुश्किलकुशा और हाजतरवा हैं। हालांकि ये सब इंसान के अपने 
बनाए हुए इस्म (नाम) हैं जिनका मूल रूप कहीं मौजूद नहीं। 
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ऐ मेरे केदखाने के साथियो तुम में से एक अपने आका को शराब पिलाएगा। और जो 
दूसरा है उसे सूली दी जाएगी। फिर परिंदे उसके सर में से खाएंगे। उस अम्र मामला 
का फैसला हो गया जिस अम्र के बारे में तुम पूछ रहे थे। और यूसुफ ने उस शख्स से 
कहा जिसके बारे में उसने गुमान किया था कि बच जाएगा कि अपने आका के पास 


मेरा जिक्र करना। फिर शेतान ने उसे अपने आका से जिक्र करना भुला दिया। पस 
वह कैदख़ाने में कई साल पड़ा रहा। (4-42) 





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दोनों जवान जो जेल में लाए गए वह शाहे मिस्र (रियान बिन वलीद) के साकी (शराब पिलाने 
वाला) और ख़ब्बाज (खाना बनाने वाला) थे। दोनों पर यह इल्जाम था कि उन्होंने बादशाह के खाने 
मजहर मिलाने की कोशिश की । उनमंसेजो साकी था वह तहकीक के बाद इत्जाम से बरी साबित 
हुआ और रिहाई पाकर दुबारा बादशाह का साकी मुर्करर हुआ। उसके ख़ाब का मतलब यह था 
कि अब वह बादशाह को ख़्वाब में शराब पिला रहा है कुछ दिन बाद वह बेदारी में उसे शराब 





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पारा 2 638 सूह-2. यूसुफ 
पिलाएगा । ख़ब्बाज पर इल्जाम साबित हो गया । उसे सूली देकर छोड़ दिया गया कि चिड़ियां उसका 
गोश्त खाएं और वह लोगों के लिए इबरत (सीख) हो। 

हजरत यूसुफ की दोनों ताबीरें बिल्कुल दुरुस्त साबित हुई। मगर साकी कैद से छूटकर 
दुबारा महल में पहुंचा तो वह वादे के मुताबिक बादशाह से हजरत यूसुफ का जिक्र करना भूल 
गया। उसे अपना किया हुआ वादा सिफ उस वक्त याद आया जबकि बादशाह ने एक ख्वाब 
देखा और दरबारियों से कहा कि इसकी ताबीर बताओ। 


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और बादशाह ने कहा कि मैं ख्वाब में देखता हूं कि सात मोटी गायें हैं जिन्हें सात दुबली 

गायें खा रही हैं और सात हरी बालियां हैं और दूसरी सात सूखी, ऐ दरबार वालो मेरे ख़्वाब 

की ताबीर मुझे बताओ, अगर तुम ख़्वाब की ताबीर देते हो। वे बोले ये ख्याली ख़्वाब हैं। 

और हमें ऐसे ख़वाबों की ताबीर मालूम नहीं। उन दो कैदियों में से जो शख्स बच गया था 


और उसे एक मुद्दत के बाद याद आया, उसने कहा कि में तुम लोगों को इसकी ताबीर 
बताऊंगा, पस मुझे (यूसुफ के पास) जाने दो। (43-45) 


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मिस्र का बादशाह अगरचे मुश्रिक और शराबी था, मगर खुदा की तरफ से उसे 
मुस्तकबिल के बारे में एक सच्चा ख़्वाब दिखाया गया। इससे अंदाजा होता है कि ख़ुदा हक 
के दाजियोँ की मदद किन-किन तरीकों से करता है। उनमें से एक तरीका यह है कि फरीके 
सानी को कोई ऐसा ख़्वाब दिखाया जाए जिससे उसके जेहन पर दाऔ की अज्मत और 
अहमियत कायम हो और उसका दिल नर्म होकर दाऔ के लिए नए रास्ते खुल जाएं। 
बादशाह के साकी ने जब बादशाह का ख़ाब सुना उस वक्‍त उसे कैदख़ाने का माजरा 
याद आया। उसने बादशाह और दरबारियों के सामने अपना जाती तजर्वा बताया कि किस तरह 
यूपुफ की बताई ह ख़ाब की ताबीर दो वैदियाके हक मेलफ् बलफ्न सही साबित हुई। 
इसके बाद वह बादशाह से इजाजत लेकर कैदख़ाने पहुंचा ताकि यूसुफ से बादशाह के ख्वाब 
की ताबीर दरयाफ्त करे। 
हजरत यूसुफ की इसी हैसियत के तआरुफ से उनके लिए कैद्राने से बाहर आने का 
रास्ता खुला । खुदा ऐसा कर सकता था कि साकी की रिहाई के बाद हजरत यूसुफ को मजीद 
कैदख़ाने में न रहने दे। वह साकी को महल के अंदर पहुंचते ही याद दिला सकता था कि वह 





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सूहह-2. यूसुफ 639 पारा 2 


वादे के मुताबिक बादशाह के सामने यूसुफ का जिक्र करे। मगर खुदा का हर काम अपने मुरकर 
वक्त पर होता है। वक्‍त से पहले कोई काम करना खुदा का तरीका नहीं। 


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यूसुफ ऐ सच्चे, मुझे इस ख़्वाब का मतलब बता कि सात मोटी गायें हैं जिन्हें सात 
दुबली गायें खा रही हैं। और सात बालें हरी हैं और सात सूखी। ताकि में उन लोगों 
के पास जाऊं ताकि वे जान लें। यूसुफ ने कहा कि तुम सात साल तक बराबर खेती 
करोगे। पस जो फसल तुम काटो उसे उसकी बालियों में छोड़ दो मगर थोड़ा सा जो 
तुम खाओ। फिर इसके बाद सात सख्त साल आएंगे। उस जमाने में वह गल्ला खा 
लिया जाएगा जो तुम उस वक्‍त के लिए जमा करोगे, सिवाय थोड़े के जो तुम महफूज 

कर लोगे। फिर इसके बाद एक साल आएगा जिसमें लोगों पर मेंह बरसेगा। और 
वे उसमें रस निचोड़ेंगे। (46-49) 


हजरत यूसुफ ने बादशाह के ख़ाब की ताबीर यह बताई कि सात मोटी गायें और सात 
हरी बालें सात वर्ष हैं। उनमें लगातार अच्छी पैदावार होगी। हैवानात और नबातात (खेती) 
खूब बढ़ेंगे। इसके बाद सात साल कहत (अकाल) पड़ेगा जिसमें तुम सारा पिछला भंडार 
खाकर ख़त्म कर डालोगे। सिर्फ आइंदा बीज डालने के लिए थोड़ा सा बाकी रह जाएगा। ये 
बाद के सात साल गोया दुबली गायें और सूखी बालें हैं जो पिछली मोटी गायों और हरी बालों 
का खात्मा कर देंगी। 

इसी के साथ हजरत यूसुफ ने इसकी तदबीर (समाधान) भी बता दी | अपने कहा की पहले 
सात साल में जो पेदावार हो उसे निहायत हिफाजत से रखो और किफायत के साथ खर्च करो। 
जरूरी खुराक से ज्यादा जो गल्ला है उसे बालों के अंदर रहने दो। इस तरह वह कीड़े वगैरह 
से महफूज रहेगा। और सात साल की पैदावार चौदह साल तक काम आएगी। मजीद आपने 
यह खुशख़बरी भी सुना दी कि बाद के सात साल कहत के बाद जो साल आएगा वह दुबारा 
फावनी (सम्पन्नता) का साल होगा। उसमें खूब बारिश होगी, कसरत से दूध और फल लोगों 
को हासिल होंगे। 





पारा 72 640 सूह-2. यूसुफ 
अल्लाह तआला ने बादशाह को एक अजीब खराब दिखाया और हजरत यूसुफ के जरिए 

उसकी कामयाब ताबीर जाहिर फरमाई। इस तरह आपके लिए यह मौका फराहम किया गया 

कि मिस्र के निजामे हुकूमत में आपको निहायत आला मकाम हासिल हो। 


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और बादशाह ने कहा कि उसे मेरे पास लाओ। फिर जब कासिद (संदेशवाहक) उसके 
पास आया तो उसने कहा कि तुम अपने आका के पास वापस जाओ और उससे पूछो 
कि उन औरतों का क्या मामला है जिन्होंने अपने हाथ काट लिए थे। मेरा रब तो उनके 
फरेब से खूब वाकिफ है। बादशाह ने पूछा, तुम्हारा क्या माजरा है जब तुमने यूसुफ 

को फुसलाने की कोशिश की थी। उन्होंने कहा कि पाक है अल्लाह, हमने उसमें कुछ 
बुराई नहीं पाई। अजीज की बीवी ने कहा अब हक खुल गया। मैंने ही इसे फुसलाने 

की कोशिश की थी और बिलाशुबह वह सच्चा है। (50-52) 





कैद्ऱाने से निकल कर हजरत यूसुफ को एक मुलकी किरदार अदा करना था, 
इसलिए जरूरी था कि आपकी शख्सियत मुलकी सतह पर एक मारूफ शख्सियत बन 
जाए। इसकी सूरत बादशाह के ख़्वाब के जरिए पैदा हो गई। बादशाह ने एक अजीब 
ख्वाब देखा। वह उसकी ताबीर के लिए इतना बेचैन हुआ कि आम एलान करके तमाम 
मुल्क के उलमा, ज्ञातां और दानिशवरों को अपने दरबार में जमा किया। और उनसे 
कहा कि वे इस ख़्वाब की ताबीर बताएं मगर सबके सब आजिज रहे। इस तरह ख़्वाब 
का वाकया एक उमूमी शोहरत का वाक्या बन गया। अब जब हजरत यूसुफ ने ख़ाब 
की ताबीर बयान की और बादशाह ने उसे पसंद किया तो अचानक वह तमाम मुल्क की 
नजरों में आ गए। 

बादशाह ने सारी बात सुनने के बाद संबंधित औरतों से इसकी तहकीक की । सबने एक 
जान हजत यूम कोकम कार दिया। अजजमिन्नकी बीवी एतरफेहक मेसबसे 
आगे निकल गई। उसने साफ लप जेंमेएलान किया कि अब सच्चाई खुल चुकी है। हकीकत 
यह हैकि सारा कुसूर मेरा था । यूसुफ का कुछ भी कुसूर न था। अजीजेमिम्नकी बीवी (जुरे) 
का यह इकरार इतना अजीम अमल है कि अजब नहीं कि इसके बाद उसे ईमान की तौफीक 
दे दी गई हो। 


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सूरह।2. यूसुफ 64I पारा 3 
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यह इसलिए कि (अजीजे मिस्र) यह जान ले कि मैंने दरपर्दा उसकी खियानत नहीं की। 

और बेशक अल्लाह ख़ियानत (विश्‍वासघात) करने वालों की चाल चलने नहीं देता। 
और मैं अपने नफ्स को बरी नहीं करता। नफ्स (मन) तो बदी ही सिखाता है मगर 

यह कि मेरा रब रहम फरमाए। बेशक मेरा रब बख्शने वाला महरबान है। (52-53) 





बादशाह ने जब हजरत यूसुफ को बुलाया तो वह फौरन कैदख़ने से बाहर नहीं आ गए। 
बल्कि यह कहा कि पहले उस वाकये की तहकीक होनी चाहिए जिसे बहाना बनाकर मुझे कैद 
किया गया था। खुदा की नजर में अगरचे आप पूरी तरह बरीउज्जिम्मा थे मगर मसला यह था 
कि आपको अवाम के दर्मियान पैग़म्बरी की ख़िदमत अंजाम देनी थी। यानी ख़ुदा की अमानते 
हिदायत को उसके बंदों तक पहुंचाना था। मज्कूरा वाकथे में आप पर अपने आका के साथ 
खियानत का इल्जाम लगाया गया था। यह एक बहुत नाजुक मामला था और अवाम के सामने 
आने से पहले जरूरी था कि आप के ऊपर से यह इल्जाम ख़त्म हो क्योंकि जिस शख्स को लोग 
बंदों के मामले में अमानतदार न समझें उसे वे खुदा के मामले में अमानतदार नहीं समझ सकते । 
मोमिन बयकवक्त दो चीजों के दर्मियान होता है। एक इंसान दूसरे खुदा। कभी ऐसा 
होता है कि उसे इंसानों की निस्बत से मामले की वजाहत के लिए कोई ऐसा कलिमा बोलना 
पड़ता है जिसमें बजाहिर दावे का पहलू नजर आता है। मगर उसका दिल उस वकत भी इज्ज 
(निर्बलता) के एहसास से भरा हुआ होता है। क्योंकि जब वह अपने आपको खुदा की निस्बत 
से देखता है तो वह पाता है कि ख़ुदा की निस्बत से वह सिर्फ आजिज (निर्बल) है इसके सिवा 
और कुछ नहीं। खुदा का तसव्वुर हर आन मोमिन को मुतवाजिन (संतुलित) करता रहता है। 
हजरत यूसुफ का मज्कूरा कलाम मोमिन की शख्सियत के उसी दो गुना पहलू की तस्वीर है। 


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और बादशाह ने कहा उसे मेरे पास लाओ। मैं उसे ख़ास अपने लिए रखूंगा। फिर जब 








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पारा 3 642 सूएह-।2. यूसुफ 
यूसुफ ने उससे बात की तो बादशाह ने कहा, आज से तुम हमारे यहां मुअजज और 

मोअतमद (विश्वसनीय) हुए। यूसुफ ने कहा मुझे मुल्क के जानां पर मुरकर कर दो। 

में निगहबान हूं और जानने वाला हूं। और इस तरह हमने यूसुफ को मुल्क में 
बाइख्तियार बना दिया। वह उसमें जहां चाहे जगह बनाए। हम जिस पर चाहें अपनी 
इनायत मुतवज्जह कर दें। और हम नेकी करने वालों का अज्र जाए (नष्ट) नहीं करते। 
और आखिरत का अज्र (प्रतिफल) कहीं ज्यादा बढ़कर है ईमान और तकवा (ईश-भय) 

वालों के लिए। (54-57) 


'मुझे जमीन के जानां पर मुकर कर दो' यहां छुजानों से मुराद गल्ले के खित हैं। 
हजरत यूसुफ ने बादशाह को अपनी तरफ मुतवज्जह देखकर शाह मिम्न से यह इख़्तियार मांगा 
कि वह हुकूमती वसाइल के तहत सारे मुल्क में गल्ले के बड़े-बड़े ख़ित्ते बनवाएं ताकि इब्तिदाई 
सात सालों में किसानों से फाजिल गल्ला लेकर वहां महफूज किया जा सके। (तफ्सीर इन्ने 
कसीर)। बादशाह राजी हो गया और अपने आईनी (संवैधानिक) और कानूनी इवतदार 
(शासन) के तहत आपको हर किस्म का इख़्तियार दे दिया। 

मिस्र का बादशाह मुश्रिक था। आयत नम्बर 76 से मालूम होता है कि हजरत यूसुफ के 
तकुरुर के तकरीबन दस साल बाद तक भी उसी बादशाह का कानून (दीनुल मुल्क) मिम्न में 
राइज था। यह ख़ुदा के एक पैग़म्बर का उसवा (आदर्श) है जो बताता है कि गैर मुस्लिम 
हुकूमत के तहत कोई जेली ओहदा कुबूल करना इस्लाम के ख़िलाफ नहीं है। इसी बिना पर 
अस्लाफ (पूर्वजे) ने जालिम बादशाहेंके तहत कजा (न्याय-विधान) के ओहदे वुक्ूल किए । 
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मिम्न में इख्तियार संभालने से हजरत यूसुफ का मकसद क्या था, कुरआन की तपसील 
से बजाहिर इसका मकसद यह मालूम होता है कि बंदगाने खुदा को तवील कहत (लंबे अकाल) 
की मुसीबत से बचाया जाए, और फिर इसके नतीजे में बनी इस्राईल के लिए मिस्र में आबाद 
होने के अवसर फराहम किए जाएं। 

ईमान और तकवे की रविश इख्तियार करने वालों के लिए ख़ुदा ने अबदी जन्नत का 
यकीनी वादा किया है। दुनिया की जिंदगी में भी उन्हें खुदा की मदद हासिल होती है। ताहम 
इसमेंएक फर्कहै। जहां तक हक के एलान का मामला है, उसकी तैफीक हर एक को यकसां 
(समान) तौर पर मिलती है। मगर अमली मदद के मामले में सबकी नुसरत यकसां अंदाज में 
नहीं। अमली नुसरत (मदद) किसी को एक ढंग पर मिलती है और किसी को दूसरे ढंग पर। 


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सूहह-2. यूपुफ 643 पारा 3 


और यूसुफ के भाई मिस्र आए फिर उसके पास पहुंचे, पस यूसुफ ने उन्हें पहचान लिया। 

और उन्होंने यूसुफ को नहीं पहचाना। और जब उसने उनका सामान तैयार कर दिया 
तो कहा कि अपने सौतेले भाई को भी मेरे पास ले आना। तुम देखते नहीं हो कि मैं 
गल्ला भी पूरा नाप कर देता हूं और बेहतरीन मेजबानी करने वाला भी हूं। और अगर 
तुम उसे मेरे पास न लाए तो न मेरे पास तुम्हारे लिए गल्ला है और न तुम मेरे पास 
आना। उन्होंने कहा कि हम उसके बारे में उसके बाप को राजी करने की कोशिश करेंगे 
और हमें यह काम करना है। (58-6]) 





हजरत यूसुफ के इक्तेदार के इब्तिदाई सात साल तक खूब फसल पैदा हुई। आपने सारे 
मुल्क में बड़े-बड़े खित्ते बनवाए और किसानों से उनका फाजिल गल्ला ख़रीद कर हर साल इन 
खितं में महफूज करते रहे। इसके बाद जब कहत के साल शुरू हुए तो आपने उस गल्ले को 
दारुस्सल्तनत (राजधानी) में मंगवा कर मुनासिब कीमत पर फरोख्न करना शुरू कर दिया। 

यह कहत चूके मिम्न के अलावा अतराफके इलाकों (शाम, फिलिस्तीन, शर्कर्दुन वीह) 
तक फैला हुआ था, इसलिए जब यह ख़बर मशहूर हुई कि मिस्र में गल्ला सस्ती कीमत पर 
फरोख्त हो रहा है तो बिरादराने यूसुफ भी गल्ला लेने के लिए मित्र आए । यहां हजरत यूसुफ को 
अगरचे उन्होंने बीस साल बाद देखा था, ताहम आपकी शक्ल व सूरत में उन्हें अपने भाई की 
झलक नजर आई । मगर जल्द ही उन्होंने इसे अपने दिल से निकाल दिया। क्योंकि उनकी समझ 
में नहीं आया कि जिस शख्स को वे अंधे कुवें में डाल चुके हैं वह मिस्र के तख्त पर मुतमक्किन 
हो सकता है। हजरत यूसुफ ने अपने भाइयों को एक-एक ऊंट प्रति व्यक्ति गल्ला दिलवाया। 
अब उनके दिल में यह ख्वाहिश हुई कि बिन यामीन के नाम पर एक ऊंट गल्ला और हासिल 
करें । उन्होंने दरख्वास्त की कि हमारे एक भाई (बिन यामीन) को बूढ़े बाप ने अपने पास रोक 
लिया है। अगर हमें उस भाई के हिस्से का गल्ला भी दिया जाए तो बड़ी इनायत हो। हजरत 
यूसुफ ने कहा कि गायब का हिस्सा देना हमारा तरीका नहीं। तुम दुबारा आओ तो अपने उस 
भाई को भी साथ लाओ। उस वक्त तुम उसका हिस्सा पा सकोगे। तुम मेरी बख्शिश का हाल 
देख चुके हो। क्या इसके बाद भी तुम्हें अपने भाई को लाने में तरदूदुद (झिझक) है।हज्त 
यूसुफ ने मजीद कहा कि जो भाई तुम बता रहे हो अगर तुम अगली बार उसे न लाए तो समझा 
जाएगा कि तुम झूठ बोलते हो और महज धोखा देकर एक ऊंट गल्ला और लेना चाहते थे। 
इसकी सजा यह होगी कि आइंदा खुद तुम्हारे हिस्से का गल्ला भी तुम्हें नहीं दिया जाएगा। 


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पारा 3 644 सूरह2. यूसुफ 


और उसने अपने कारिंदों से कहा कि इनका माल इनके असबाब में रख दो ताकि जब 
वे अपने घर पहुंचें तो उसे पहचान लें, शायद वे फिर आएं। फिर जब वे अपने बाप 
के पास लौटे तो कहा कि ऐ बाप, हमसे गल्ला रोक दिया गया, पस हमारे भाई (बिन 
यामीन) को हमारे साथ जाने दे कि हम गल्ला लाएं और हम उसके निगहबान हैं। 
याकूब ने कहा, क्या में इसके बारे में तुम्हारा वैसा ही एतबार करूं जैसा इससे पहले 
इसके भाई के बारे में तुम्हारा एतबार कर चुका हूं। पस अल्लाह बेहतर निगहबान है 
और वह सब महरबानों से ज्यादा महरबान है। (62-64) 





हजरत यूसुफ ने गालिबन भाइयों से कीमत लेना मुख्वत के खिलाफ समझा या इस 
ख्याल से कि माल की कमी उनके दुबारा यहां आने में रुकावट न बन जाए, अपने आदमियों 
को हिदायत की कि जो रकम उन्होंने गल्ले की कीमत के तौर पर अदा की है वह ख़ामोशी 
से उनके माल में डाल दी जाए ताकि जब वे घर पर जाकर अपना सामान खोलें तो उसे पा 
लें और अपने भाई (बिन यामीन) को लेकर दुबारा यहां आएं। 

हजरत याकूब ने एक तरफ बिन यामीन के सिलसिले में अपने बेटों पर बेएतमादी का 
इप्हार किया दूसरी तरफ यह भी फरमाया कि तुम्हें या किसी और को कोई ताकत हासिल 
नहीं। होना वही है जो ख़ुदा चाहे। मगर यह होना इंसान के हाथों कराया जाता है ताकि जो 
बुरा है वह बुरा करके अपनी हकीकत को साबित करे। और जो अच्छा है वह अच्छा करके 
अपने आपको उस फेहरिस्त में लिखवाए जिसका वह मुस्तहिक है। 

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और जब उन्होंने अपना सामान खोला तो देखा कि उनकी पूंजी भी उन्हें लौटा दी गई 
है। उन्होंने कहा, ऐ हमारे बाप और हमें क्या चाहिए। यह हमारी पूंजी भी हमें लौटा दी 
गई है। अब हम जाएंगे और अपने अहल व अयाल (परिवारजनों) के लिए रसद लाएंगे। 
और अपने भाई की हिफाजत कशे। और एक ऊंट का बोझ गल्ला और ज्यादा लाएंगे। 
यह ल्ला तो थोड़ा है। याकूब ने कहा, में उसे तुम्हारे साथ हरगिज न भेजूंगा जब तक 
तुम मुझसे खुदा के नाम पर यह अहद न करो कि तुम इसे जरूर मेरे पास ले आओगे, 


इल्ला यह कि तुम सब घिर जाओ। फिर जब उन्होंने उसे अपना पक्का कौल (वादा) दे 
दिया, उसने कहा कि जो हम कह रहे हैं उस पर अल्लाह निगहबान है। (65-66) 


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पारा ।3 


सूरह-2. यूसुफ 645 
घर लौट कर जब उन्होंने देखा कि उनकी रकम उनकी ग़ल्ले की बोरी में मौजूद है तो वे 
बहुत खुश हुए । उन्होंने अपने वालिद से कहा कि आप जरूर हमारे साथ बिन यामीन को जाने 
दें। हम उसकी पूरी हिफाजत करेंगे। और अपने हिस्से के अलावा उसके हिस्से का भी मजीद 
एक ऊंट गल्ला लाएंगे। यह गल्ला जो हम लाए हैं यह तो इर्राजात के लिए थोड़ा है। 
हजरत यूसुफ ने तवसीम का जो निजाम कायम किया था, उसके तहत ग़लिबन ऐसा 
था कि बाहर के एक आदमी को एक ऊंट गल्ला दिया जाता था। 


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और याकूब ने कहा कि ऐ मेरे बेटो, तुम सब एक ही दरवाजे से दाखिल न होना बल्कि 
अलग-अलग दरवाजों से दाखिल होना। और में तुम्हें अल्लाह की किसी बात से नहीं 
बचा सकता। हुक्म तो बस अल्लाह का है। में उसी पर भरोसा रखता हूं और भरोसा 
करने वालों को उसी पर भरोसा करना चाहिए। और जब वे दाखिल हुए जहां से उनके 
बाप ने उन्हें हिदायत की थी, वह उन्हें नहीं बचा सकता था अल्लाह की किसी बात 
से। वह बस याकूब के दिल में एक ख्याल था जो उसने पूरा किया। बेशक वह हमारी 
दी हुई तालीम से इलम वाला था मगर अक्सर लोग नहीं जानते। (67-68) 





मिस्र का कदीम दारुस्सल्तनत (राजधानी) एक ऐसा शहर था जिसके चारों तरफ ऊंची 
फसील थी और मुझ्नलिफ सम्तों मे दाखिले के लिए दरवाजे बने हुए थे। हजरत याकूब का 
अपने बेटों से यह कहना कि तुम लोग इकट्ठा होकर एक ही दरवाजे से दाखिल न हो बल्कि 
विभिन्न दरवाजों से दाखिल हो, इस अंदेशे की बिना पर था कि उनके दुश्मन उन्हें हलाक 
करने की कोशिश न करें। 

इस अंदेशे का मामला इसी सूरह की आयत 73 से वाजेह है जिसमें बिरादराने यूसुफ 
अपनी बरा-त (असंबद्धता) इन अल्फाज में करते हैं कि हम यहां फसाद के लिए या चोरी के 
लिए नहीं आए हैं। बिरादराने यूसुफ मिस्र में बाहर से आए थे। उनके लिबास मकामी लोगों 
के लिबास से मुख़्तलिफ थे। वे अपने हुलिये से यकीनन मिस्र वालों को अजनबी दिखाई देते 
होंगे। ऐसे ग्यारह आदमियों का एक साथ शहर में दाखिल होना उन्हें लोगों की नजर में 
मुशतबह बना सकता था। इसलिए मकामी लोगों से किसी गैर जरूरी टकराव से बचने के लिए 
उन्होंने उन्हें यह हिदायत की कि शहर में दाखिल हो तो एक साथ जत्थे की सूरत में दाखिल 
न हो। 








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पारा ।3 646 


सूरह ।2. यूसुफ 
मोमिन की नजर एक तरफ खुदा की कुदरते कामिला पर होती है। वह देखता है कि इस 
कायनात में खुदा के सिवा किसी को कोई इख्तियार हासिल नहीं। इसी के साथ वह जानता 
है कि यह दुनिया दारुल इम्तेहान है। यहां इम्तेहान की मस्लेहत से ख़ुदा ने हर मामले को 
जाहिरी असबाब के मातहत कर रखा है। यही वजह है कि हजरत याकूब ने एक तरफ अपने 
बेटों को दुनियावी तदबीर इस्क्तियार करने की तल्कीन फरमाई। दूसरी तरफ यह भी फरमा 
दिया कि जो कुछ होगा ख़ुदा के हुक्म से होगा क्योंकि यहां ख़ुदा के सिवा किसी को कोई 
ताकत हासिल नहीं। 
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और जब वे यूसुफ के पास पहुंचे तो उसने अपने भाई को अपने पास रखा। कहा कि 
मैं तुम्हारा भाई (यूसुफ) हूं। पस ग़मगीन न हो उससे जो वे कर रहे हैं। फिर जब उनका 
सामान तैयार करा दिया तो पीने का प्याला अपने भाई के असबाब में रख दिया। फिर 
एक पुकारने वाले ने पुकारा कि ऐ काफिले वालो, तुम लोग चोर हो। उन्होंने उनकी 
तरफ मुतवज्जह होकर कहा, तुम्हारी क्या चीज खोई गई है। उन्होंने कहा, हम शाही 
पेमाना नहीं पा रहे हैं। और जो उसे लाएगा उसके लिए एक ऊंट के बोझ भर ग़ल्ला 
है और में इसका जिम्मेदार हूं। उन्होंने कहा, खुदा की कसम तुम्हें मालूम है कि हम 
लोग इस मुल्क में फसाद करने के लिए नहीं आए और न हम कभी चोर थे। उन्होंने 
कहा अगर तुम झूठे निकले तो उस चोरी करने वाले की सजा क्या है। उन्होंने कहा, 
इसकी सजा यह है कि जिस शख्स के असबाब में मिले पस वही शख्स अपनी सजा 
है। हम लोग जालिमां को ऐसी ही सजा दिया करते हैं। फिर उसने उसके (छोटे) भाई 


से पहले उनके थैलों की तलाशी लेना शुरू किया। फिर उसके भाई के थेले से उसे 
बरामद कर लिया। इस तरह हमने यूसुफ के लिए तदबीर की। वह बादशाह के कानून 















































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सूरह-।2. यूसुफ 647 पारा 3 
की रू से अपने भाई को नहीं ले सकता था मगर यह कि अल्लाह चाहे। हम जिसके 
दर्जे चाहते हैं बुलन्द कर देते हैं। और हर इलम वाले के ऊपर एक इलम वाला है। 
(69-76) 





बिरादराने यूसुफ रवाना होने लगे तो हजरत यूसुफ ने अजराहे मुहब्बत अपना पानी पीने 
का प्याला (जो ग़ालिबन चांदी का था) अपने भाई बिन यामीन के सामान में रख दिया। 
इसकी ख़बर न बिन यामीन को थी और न दरबार वालों को। इसके बाद ख़ुदा की कुदरत 
से ऐसा हुआ कि गल्ला नापने का शाही पैमाना (जो ख़ुद भी कीमती था) कहीं इधर-उधर 
(Misplace) हो गया। तलाश के बावजूद जब वह नहीं निकला तो कारिंदों का शुबह 
बिरादराने यूसुफ की तरफ गया जो अभी अभी यहां से रवाना हुए थे। एक कारिदै ने आवाज 
देकर काफिले को बुलाया। पूछगछ के दौरान उन्हेनि बतौर खुद चोरी की वह सजा तज्चीज 
की जो शरीअते इब्राहीमी की रू से उनके यहां राइज थी। यानी जो चोर है वह एक साल तक 
मालिक के यहां गुलाम बनकर रहे। 
इसके बाद कारिंदे ने तलाशी शुरू की। अब गाल्ले का पैमाना तो उनके यहां नहीं मिला। 
मगर दरबार की एक और ख़ास चीज (चांदी का प्याला) बिन यामीन के सामान से बरामद 
हो गया । चुनांचे बिन यामीन को हस्बे फैसला हजरत यूसुफ के हवाले कर दिया गया। अगर 
शे मिम्न के कानून पर फैसले की करारदाद हुई होती तो हजरत यूसुफ अपने भाई को न 
पाते। क्योंकि शाहे मिस्र के मुरव्वजा कानून में चोर की सजा यह थी कि उसे मारा जाए और 
चुराई गई चीज की कीमत उससे वसूल की जाए। इस वाक्ये में हजरत यूसुफ की नियत 
शामिल न थी, यह खुदाई तदबीर से हुआ इसलिए खुदा ने उसे अपनी तरफ मंसूब फरमाया। 
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उन्होंने कहा कि अगर यह चोरी करे तो इससे पहले इसका एक भाई भी चोरी कर चुका 
है। पस यूसुफ ने इस बात को अपने दिल में रखा। और इसे उन पर जाहिर नहीं किया। 
उसने अपने जी में कहा, तुम ख़ुद ही बुरे लोग हो, और जो कुछ तुम बयान कर रहे 
हो अल्लाह उसे खूब जानता है। उन्होंने कहा कि ऐ अजीज, इसका एक बहुत बूढ़ा बाप 
है सो तू इसकी जगह हम में से किसी को रख ले। हम तुझे बहुत नेक देखते हैं। उसने 


कहा, अल्लाह की पनाह कि हम उसके सिवा किसी को पकड़ें जिसके पास हमने अपनी 
चीज पाई है। इस सूरत में हम जरुर जालिम ठहंशे। (77-79) 


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पारा ।3 648 


सूरह-।2. यूसुफ 


मुफस्सिरीन ने लिखा है कि हजरत यूसुफ की किसी नानी के यहां एक बुत था। हजरत 
यूसुफ अपने बचपन में उसे चुपके से उनके यहां से उठा लाए और उसे तोड़ डाला। इसी 
वाकये को बहाना बनाकर बिरादराने यूसुफ ने कहा कि 'इसका बड़ा भाई भी इससे पहले चोरी 
कर चुका हैं एक वाकया जो आपकी गेरते तौहीद को बता रहा था उसे महज एक जाहिरी 
मुशाबिहत (समरूपता) की वजह से उन्होंने चोरी के ख़ाने में डाल दिया। 

बिरादराने यूसुफ का हाल यह था कि मिस्न के तर्त पर बैठे हुए यूसुफ को तो वह 
अजीज (हुज़ूर, सरकार) कह रहे थे और उसके सामने खूब तवाजोअ दिखा रहे थे। मगर 
कनआन का यूसुफ जो उनकी नजर में सिर्फ एक देहाती लड़का था, उसे ऐन उसी वक्‍त 
नाहक चोरी के इल्जाम में मुलव्विस कर रहे थे। 

हजरत यूसुफ को इल्म था कि उनके रखे हुए प्याले की वजह से बिन यामीन ख्ामख्नाह 
चोर बन रहा है, मगर वक्ती मस्लेहत की बिना पर वह ख़ामोश रहे और वाकये को अपनी 
रफ्तार से चलने दिया जो भाइयों और शाही कारिंदे के दर्मियान हो रहा था। एक बार जब 
आपको बोलना पड़ा तो यह नहीं कहा कि “जिसने हमारी चोरी की है” बल्कि यह फरमाया कि 
“जिसके पास हमने अपना माल पाया है। 


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जब वे उससे नाउम्मीद हो गए तो अलग होकर बाहम मश्विरा करने लगे। उनके बड़े 
ने कहा क्या तुम्हें मालूम नहीं कि तुम्हारे बाप ने अल्लाह के नाम पर पक्का इकरार 
लिया और इससे पहले यूसुफ के मामले में जो ज्यादती तुम कर चुके हो वह भी तुम्हे 
मालूम है। पस में इस सरजमीन से हरगिज नहीं टलूंगा जब तक मेरा बाप मुझे इजाजत 
न दे या अल्लाह मेरे लिए कोई फैसला फरमा दे। और वह सबसे बेहतर फैसला करने 
वाला है। तुम लोग अपने बाप के पास जाओ और कहो कि ऐ हमारे बाप, तेरे बेटे ने 
चोरी की और हम वही बात कह रहे हैं जो हमें मालूम हुई और हम गेब (अप्रकट) के 


निगहबान नहीं और तू उस बस्ती के लोगों से पूछ ले जहां हम थे और उस काफिले 
से पूछ ले जिसके साथ हम आए हैं। और हम बिल्कुल सच्चे हैं। (80-82) 











हजरत यूसुफ के सौतेले भाइयों में गालिबन एक भाई दूसरों से मुख्ञलिफ था। उसी भाई 


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सूरह-2. यूसुफ 649 पारा 73 
ने इब्तदाई मरहले में मश्विरा दिया था कि यूसुफ को कत्ल न करो बल्कि किसी अंधे कुवे में 
डाल दो ताकि कोई आता जाता काफिला उसे निकाल ले जाए। यही हाल अब उस भाई का 
मिस्र में हुआ। वह दूसरे भाइयों से अलग हो गया उसकी गैरत ने गवारा नहीं किया कि जिस 
बाप के नजदीक वह एक भाई को खोने का मुजरिम बन चुका है, उसी बाप के सामने अब 
वह दूसरे भाई को खोने का मुजरिम बनकर हाजिर हो। 

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बाप ने कहा, बल्कि तुमने अपने दिल से एक बात बना ली है, पस मैं सब्र करूगा। 
उम्मीद है कि अल्लाह उन सबको मेरे पास लाएगा। वह जानने वाला, हकीम (तत्वदर्शी) 
है। और उसने रुख़ फेर लिया और कहा, हाय यूसुफ, और ग़म से उसकी आंखे सफेद 

पड़ गई। वह घुटा घुटा रहने लगा। उन्होंने कहा, खुदा की कसम तू यूसुफ ही की याद 

में रहेगा। यहां तक कि घुल जाए या हलाक हो जाए। उसने कहा, मैं अपनी परेशानी 
और अपने ग़म का शिकवा सिर्फ अल्लाह से करता हूं और में अल्लाह की तरफ से वे 

बातें जानता हूं जो तुम नहीं जानते। ऐ मेरे वेटो, जाओ यूसुफ और उसके भाई की 
तलाश करो और अल्लाह की रहमत से नाउम्मीद न हो। अल्लाह की रहमत से सिर्फ 
मुंकिर ही नाउम्मीद होते हैं। (83-87) 





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तुमने बात बना ली है। कह कर हजरत याकूब ने बिरादराने यूसुफ के दिल का खोट 
वाजेह किया । वे बाप के यहां से गए तो मुकम्मल हिफाजत का वादा करके उसे साथ ले गए। 
और जब बिन यामीन के असबाब में से प्याला बरामद हुआ तो उसकी तरफ से इतनी 
मुदाफअत भी न कर सके कि यह कहते कि महज प्याला बरामद होने से वह चोर कैसे साबित 
हो गया। शायद किसी और ने रख दिया हो या किसी गलती से वह उसके असबाब के साथ 
बंध गया हो। इसके बरअक्स उन्होंने यह किया कि यह कह कर उसके जुर्म को मिस्रियों की 
नजर में और पुख्ता कर दिया कि इसका भाई भी इससे पहले चोरी कर चुका है। 

हजरत यावूब्ब अगरचे दो अजीज बेयेंको खेने की वजह से बेहद गमजदा थे। मगर इसी 


पारा 3 650 सूरह2. यूसुफ 
के साथ वह ख़ुदा से उसकी रहमत को उम्मीद भी लगाए हुए थे। उनका अब भी यह ख्याल 
था कि यूसुफ का इब्तिदाई जमाने का ख़ाब एक खुदाई बशारत था और वह जरूर पूरा होगा। 

इसीलिए उन्होंने बेटों से कहा कि जाओ यूसुफ को तलाश करो और बिन यामीन की रिहाई 


की भी कोशिश करो। 
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फिर जब वे यूसुफ के पास पहुंचे, उन्होंने कहा, ऐ अजीज, हमें और हमारे घर वालों को 
बड़ी तकलीफ पहुंच रही है और हम थोड़ी पूंजी लेकर आए हैं, तू हमें पूरा ल्ला दे और 
हमें सदका भी दे। बेशक अल्लाह सदका करने वालों को उसका बदला देता है। उसने 
कहा, क्या तुम्हें ख़बर है कि तुमने यूसुफ और उसके भाई के साथ क्या किया जबकि 
तुम्हें समझ न थी। उन्होंने कहा, क्या सचमुच तुम ही यूसुफ हो। उसने कहा हां मैं 
यूसुफ हूं और यह मेरा भाई है। अल्लाह ने हम पर फज्ल फरमाया। जो शख्स डरता 
है और सब्र करता है तो अल्लाह नेक काम करने वालों का अज्र (प्रतिफल) जाए (नष्ट) 
नहीं करता। (88-90) 





'तकवा और सब्र करने वालों का अज्र ख़ुदा जाया नहीं करता' यही बात पूरे यूसुफ के 
किस्से का खुलासा है। अल्लाह तआला को इसकी एक वाजेह मिसाल कायम करनी थी कि 
मामलाते दुनिया में जो शख्स अल्लाह से डरने वाला तरीका इख्ियार करे और बेसब्री वाले तरीकों 
से बचे, बिलआहिर वह खुदा की मदद से जरूर कामयाब होता है। हजरत यूसुफ के वाकये को 
इसी हकीकत की एक नजर आने वाली मिसाल बिना दिया गया। 
मि्न में इब्तिदाअन सात अच्छे साल और इसके बाद सात ख़राब साल दोनों खुदा के इज्न 
के तहत हुए । खुदा चाहता तो तमाम सालों को अच्छे साल बना देता। इसी तरह हजरत यूसुफ 
का कुवें में डाला जाना और फिर उससे निकल कर मिस्र पहुंचना दोनों ख़ुदा की निगरानी में 
हुआ | खुदा चाहता तो आपको कुवें के मरहले से गुजारे बगैर मिम्न के इक्तेदार तक पहुंचा देता। 
लेकिन अगर यह तमाम गैर मामूली हालात पेश न आते तो असबाब की इस दुनिया में वह इस 
बात की मिसाल कैसे बनते कि ख़ुदा उन लोगों की मदद करता है जो ख़ुदा पर भरोसा करते 
हुए तकवे (खुदा के डर) और सब्र की रविश पर कायम रहें। 
वाकेयात दो किस्म के होते हैं। एक वह जिसके अंदर शोहरत का मादूदा हो। और दूसरा 
वह जिसके अंदर शोहरत का माद्दा न हो। दो वाकेयात नौइयत के एतबार से बिल्कुल यकसां 


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सूरह-2. यूसुफ 65] पारा ]3 
दर्ज के हो सकते हैं। मगर एक वाकया शोहरत पकड़ेगा और दूसरा गुमनाम होकर रह जाएगा। 
हजरत यूसुफ के साथ नुसरते खुदावंदी का जो मामला हुआ वह दूसरे नेक लोगों और मोहसिनीन 

के साथ भी पेश आता है। मगर हजरत यूसुफ के वाकये की खुसूसियत यह है कि इसमें शोहरत 

का मादूदा भी पूरी तरह मौजूद था। इसलिए वह बख़ूबी तौर पर लोगों की नजर में आ गया। 


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* भाइयों ने कहा, खुदा की कसम, अल्लाह ने तुम्हें हमारे ऊपर फजीलत दी, और बेशक 
हम गलती पर थे। यूसुफ ने कहा, आज तुम पर कोई इल्जाम नहीं, अल्लाह तुम्हें माफ 
करे और वह सब महरबानों से ज्यादा महरबान है। तुम मेरा यह कुर्ता ले जाओ और 
इसे मेरे बाप के चेहरे पर डाल दो, उसकी बीनाई (दृष्टि) पलट आएगी और तुम अपने 
घरवालों के साथ मेरे पास आ जाओ। (9-93) 





जब हकीकत खुल गई तो भाइयों ने हजरत यूसुफ की बझई को तस्लीम करते हुए खुले 
तौर पर अपनी गलती का इकरार कर लिया। दूसरी तरफ हजरत यूसुफ ने भी उस आली 
जर्फी का सुबूत दिया जो एक सच्चे खुदापरस्त को ऐसे मौके पर देना चाहिए । उन्होंने अपने 
भाइयों को कोई मलामत नहीं की। उन्होंने माजी के तल्ख़ वाकेयात को अचानक भुला दिया 
और भाइयों से दुबारा बिरादराना तअल्लुकात उस्तुवार कर लिए। 

इस वाकये में इंफिरादी नुसरत (व्यक्तिगत मदद) के साथ इज्तिमाई नुसरत (सामूहिक 
मदद) की मिसाल भी मौजूद है। इसी के जरिए वे हालात पैदा हुए कि बनी इस्राईल 
फिलिस्तीन से निकल कर मिम्न पहुंचें और वहां इज्जत और खुशहाली का मकाम हासिल करें। 
चुनंचि हजरत यूसुफ के जमाने में हजरत यावूब्र का ख़नदान मिम्न मुंकिल हो गया और 
तकरीबन पांच सौ साल तक वहां इज्जत के साथ रहा। बाइबल के बयान के मुताबिक सब 
खानदान के अफराद जो इस मौके पर मिस्न गए उनकी तादाद 67 थी। 


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पारा 3 652 सूह-2. यूसुफ 


और जब काफिला (मिस्र से) चला तो उसके बाप ने (कंआन में) कहा कि अगर तुम 

मुझे बुढ़ापे में बहकी बातें करने वाला न समझो तो मैं यूसुफ की खुशबू पा रहा हूं। 
लोगों ने कहा, खुदा की कसम, तुम तो अभी तक अपने पुराने ग़लत ख्याल में मुब्तला 
हो। पस जब खुशखबरी देने वाला आया, उसने कुर्ता याकूब के चहरे पर डाल दिया, 
पस उसकी बीनाई (दृष्टि) लौट आई। उसने कहा, क्या मैंने तुमसे नहीं कहा था कि 
मैं अल्लाह की जानिब से वे बातें जानता हूं जो तुम नहीं जानते। बिरादराने यूसुफ ने 
कहा, ऐ हमारे बाप, हमारे गुनाहों की माफी की दुआ कीजिए। बेशक हम ख़तावार 
थे। याकूब ने कहा, में अपने रब से तुम्हारे लिए मग्फिरत (क्षमा) की दुआ करूगा। 

बेशक वह बर्शने वाला, रहम करने वाला है। (94-98) 


हजरत यूसुफ अपने बाप से जुदा होकर 20 साल से ज्यादा मुदूदत तक पड़ीसी मुल्क 
मिम्न में रहे। मगर हजरत याकूब को इसका इलम न हो सका। अलबत्ता आखिरी वक्त में 
आपका लिबास मिस्र से चला तो आपको उसके पहुंचने से पहले उसकी खुशबू महसूस होने 
लगी। इससे मालूम हुआ कि पैग़म्बरों का इलम उनका जाती इल्म नहीं होता बल्कि खुदा का 
अतिया होता है। अगर जाती इल्म होता तो हजरत याकूब पहले ही जान लेते कि उनके 
साहबजादे मिम्न में हैं। मगर ऐसा नहीं हुआ। आप हजरत यूसुफ के बारे में सिर्फ उस ववत 
मुत्तलअ हुए जबकि अल्लाह ने आपको उनकी ख़बर कर दी। 

हजरत याकूब के साथ आपके ख़ानदान वालों की गुप्तुगुएं जो इस सूरह में मुरन्नलिफ 
मकमात पर नकल हई हैं उनसे अंदाज होता है कि नदान वालोंकी नजर मेंहजरत याकू 
को वह अज्मत हासिल न थी जो एक पैगम्बर के लिए होनी चाहिए। वही लोग जो माजी के 
बुजुर्गों की परस्तिश कर रहे होते हैं वे जिंदा बुजुर्गों की अज्मत मानने के लिए तैयार नहीं 
होते। इसकी वजह यह है कि मुर्दा बुजुर्गों के गिर्द हमेशा मुबालगाआमेज (अतिरंजनापूर्णी 
किस्सों और तिलिस्माती कहानियों का हाला बना दिया जाता है। इसकी वजह से लोगों के 
जेहन में “बुजुर्ग की एक मस्ूई (कृत्रिम) तस्वीर बैठ जाती है। चूंकि जिंदा बुजुर्ग उस मस्नूई 
तस्वीर के मुताबिक नहीं होता इसलिए वह लोगों को बुजुर्ग भी नजर पक आता। ५ 

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पस जब वे सब यूसुफ के पास पहुंचे तो उसने अपने वालिदैन को अपने पास बिठाया। 
और कहा कि मिस्र में इंशाअल्लाह अम्न चैन से रहो और उसने अपने वालिदैन को तख्त 


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सूरह-।2. यूसुफ 653 पारा 3 
पर बिठाया और सब उसके लिए सज्दे में झुक गए। और यूसुफ ने कहा ऐ बाप, यह 

है मेरे ख्वाब की ताबीर जो मैंने पहले देखा था। मेरे रब ने उसे सच्चा कर दिया और 
उसने मेरे साथ एहसान किया कि उसने मुझे कैद से निकाला और तुम सबको देहात 

से यहां लाया बाद इसके कि शैतान ने मेरे और मेरे भाइयों के दर्मियान फसाद डाल 
दिया था। बेशक मेरा रब जो कुछ चाहता है उसकी उम्दा तदबीर कर लेता है, वह जानने 
वाला हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। (99-00) 





यहां तख्त से मुराद तख्ते शाही नहीं है बल्कि वह तखन है जिस पर हजरत यूसुफ अपने 
ओहदे की जिम्मेदारियों को अदा करने के लिए बैठते थे। सज्दे से मुराद भी मारूफ सज्दा नहीं 
बल्कि रुकूअ के अंदाज पर झुकना है। किसी बड़े की ताजीम के लिए इस अंदाज में झुकना 
कमलेम जमने मैब्ल माफ ्ष। 

'इन्न रब्बी लतीफुल लिमा यशा” का मतलब यह है कि मेरा रब जिस काम को करना 
चाहे उसके लिए वह निहायत छुपी राहें निकाल लेता है। ख़ुदा अपने मंसूबे को तक्मील के 
लिए ऐसी तदबीरें पैदा कर लेता है जिसकी तरफ आम इंसानों का गुमान भी नहीं जा सकता। 


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ऐ मेरे रब, तूने मुझे हुकूमत में से हिस्सा दिया और मुझे बातों की ताबीर करना 
सिखाया। ऐ आसमानों और जमीन के पैदा करने वाले, तू मेरा कारसाज (कार्य-साधक) 

है, दुनिया में भी और आखिरत में भी। मुझे फरमांबरदारी की हालत में वफात दे और 

मुझे नेक बंदों में शामिल फरमा। (0]) 


गैर मोमिन हर चीज को इंसान के एतबार से देखता है और मोमिन हर चीज को ख़ुदा 
के एतबार से। हजरत यूसुफ को आला हुकूमती ओहदा मिला तो उसे भी उन्होंने खुदा का 
अतिया करार दिया। उन्हें तावील और ताबीर (बातों की गहराई और अस्लियत का इलम) का 
इल्म हासिल हुआ तो उन्होंने कहा कि यह मुझे ख़ुदा ने सिखाया है। उनके अपनों ने उन्हें 
मुसीबत में डाला तो उसे भी उन्होंने इस नजर से देखा कि यह ख़ुदा की लतीफ तदबीरें थीं 
जिनके जरिए वह मुझे इरतकाई (उत्थानगत) सफर करा रहा था। 

खुदा की अज्मत के एहसास ने उनसे जाती अज्मत के तमाम एहसासात छीन लिए थे। 
दुनियावी बुलन्दी की चोटी पर पहुंच कर भी उनकी जबान से जो अल्फाज निकले वे ये थे 
ख़ुदाया, तू ही तमाम ताकतों का मालिक है। तू ही मेरे सब काम बनाने वाला है। तू दुनिया 
और आखिरत में मेरी मदद फरमा। मुझे उन लोगों में शामिल फरमा जो दुनिया में तेरी पसंद 
पर चलने की तौफीक पाते हैं और आखिरत में तेरा अबदी इनाम हासिल करते हैं। 





पारा ।3 654 सूएह-।2. यूसुफ 
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यह गैब की ख़बरों में से है जो हम तुम पर “वही” (प्रकाशना) कर रहे हैं और तुम उस 
वक्‍त उनके पास मौजूद न थे जब यूसुफ के भाइयों ने अपनी राय पुख्ता की और वे 
तदबीरें कर रहे थे और तुम चाहे कितना ही चाहो, अक्सर लोग ईमान लाने वाले नहीं 


हैं। और तुम इस पर उनसे काई मुआवजा (बदला) नहीं मांगते। यह तो सिर्फ एक 
नसीहत है तमाम जहान वालों के लिए। (02-04) 


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हजरत यूसुफ का किस्सा जो रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सललम की जबान पर जारी 
हुआ वह बजाए ख़ुद इस बात का सुबूत है कि कुरआन रब्बानी “वही” (ईश्वरीय वाणी) है न कि 
इंसानी कलाम । यह वाकया रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से तकरीबन ढाई हजार साल 
पहले पेश आया । आपने इस वाकये को न तो बतौर खुद देखा था और न वह किसी तारीख़ में 
लिखा हुआ था कि आप उसे पढ़ें या किसी से पढ़वा कर सुनें। वह सिर्फ तौरात के सफ्हात में 
था। और प्रेस के दौर से पहले तौरात एक ऐसी किताब थी जिसकी वाकफियत सिर्फ यहूदी 
मराकिज (केन्द्रों) के चन्द यहूदी उलेमा को होती थी, और किसी को नहीं। 

मजीद यह कि कुरआन में इस वाकये को जिस तरह बयान किया गया है, बुनियादी तौर 
पर तौरात के मुताबिक होने के बावजूद, तफ्सीलात में वह उससे काफी मुख़लिफ है। यह 
इख़्तेलाफ बजाते खुद कुरआन के इलाही वही” होने का सुबूत है। क्योंकि जहां-जहां दोनों में 
इर्गेलाफ (भिन्नता) है वहां कुआन का बयान वाज्ह तैर अक्ल व फितरत के मुताबिक 
मालूम होता है। कुरआन का बयान पढ़कर वाकई यह समझ में आता है कि वह हजरत याकूब 
और हजरत यूसुफ की पेगम्बराना सीरत के मुनासिब है जबकि तौरात के बयानात पेगम्बराना 
सीरत के मुनासिबे हाल नहीं। इसी तरह वाकये के कई बेहद कीमती अज्जा (मसलन कैदख़ाने 
मंहजरत यूसुफ की तकरीर, आयत 37-40) जो कुरआन में मंकूल हुई है। बाइबल या तलमूद 
में इसका कोई जिक्र नहीं। यहां तक कि कुछ तारीखी गलतियां जो बाइबल में मौजूद हैं उनका 
इआदा (पुनः उल्लेख) कुरआन में नहीं हुआ है। मिसाल के तौर पर बाइबल हजरत यूसुफ के 
जमाने के बादशाह को फिर॒औन कहती है। हालांकि फिरऔन का ख़नदान हजरत यूसुफ के 
पांच सौ साल बाद मिम्न में हुक्मरां बना है। हजरत यूसुफ के जमाने में मिस्र में एक अरब 
खानदान हुकूमत कर रहा था जिसे चरवाहे बादशाह (H४६५०५ £९४) कहा जाता है। 
(तकाबुल के लिए मुलाहिजा हो, बाइबल, किताब पैदाइश) 

हक को न मानने का सबब अगर दलील हो तो दलील सामने अपने के बाद आदमी 
फौरन उसे मान लेगा। मगर अक्सर हालात में इंकारे हक का सबब हठधर्मी होता है। ऐसे 
लोग हक को इसलिए नहीं मानते कि वह उसे मानना नहीं चाहते। हक को मानना अक्सर 


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सूरह-2. यूसुफ 655 पारा 3 
हालात में अपने को छोटा करने के हममअना होता है, और अपने को छोटा करना आदमी के 
लिए सबसे ज्यादा मुश्किल काम है। यही वजह है कि इस किस्म के लोग हर किस्म के दलाइल 

और कराइन (संकेत) सामने आने के बाद भी अपनी रविश को नहीं छोड़ते। वे इसे गवारा कर 
लेते हैं कि हक छोटा हो जाए मगर वे अपने आपको छोटा करने पर राजी नहीं होते। वे भूल 

जाते हैं कि जो दुनिया में अपने आपको छोटा कर ले वह आख़िरत में बड़ा किया जाएगा। 
और जो शख्स दुनिया में अपने को छोटा न करे वही वह शख्स है जो आइंदा आने वाली दुनिया 
में हमेशा के लिए छोटा होकर रह जाएगा। 


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और आसमानों और जमीन में कितनी ही निशानियां हैं जिन पर उनका गुजर होता रहता 
है और वे उन पर ध्यान नहीं करते। और अक्सर लोग जो ख़ुदा को मानते हैं वे उसके 
साथ दूसरों को शरीक भी ठहराते हैं। क्या ये लोग इस बात से मुतमइन हैं कि उन 
पर अजाबे इलाही की कोई आफत आ पड़े या अचानक उन पर कियामत आ जाए और 
वे इससे बेख़बर हों। कहो यह मेरा रास्ता है, में अल्लाह की तरफ बुलाता हूं समझ-बूझ 
कर, मैं भी और वे लोग भी जिन्होंने मेरी पैरवी की है। और अल्लाह पाक है और मैं 
मुश्रिकों (बहुदेववादियों) में से नहीं हूं। (05-08) 





हक के जुहूर के बाद जो लोग उसे न मानें वे अपने इंकार को हमेशा इस रंग में पेश 
करते हैं कि जो दलील मत्लूब थी वह दलील हक की तरफ से उनके सामने नहीं आई। अगर 
ऐसी दलील होती तो वे उसे जरूर मान लेते। गोया उनके एराज (उपेक्षा) या इंकार का सबब 
उनके बाहर है न कि उनके अंदर। 

मगर हकीकते हाल इसके बरअक्स है। हक इतना वाज्ह है कि जब वह जाहिर होता 
है तो जमीन व आसमान की तमाम निशानियां उसकी तस्दीक (पुष्टि) करती हैं। वह सारी 
कायनात में सबसे ज्यादा साबितशुदा चीज होता है। मगर हक को पाने के लिए असल जरूरत 
देखने वाली आंख और इबरत (सीख) पकड़ने वाले दिमाग़ की है। और यही चीज मुंकिरीन 
के यहां मौजूद नहीं होती। 

हक के मुकाबले में आदमी जब सरकशी दिखाता है तो अक्सर हालात में इसकी वजह 
'शिर्क' होता है। बेशतर लोगों का हाल यह है कि ख़ुदा को मानते हुए उन्होंने कुछ और जिंदा 
या मुर्दा हस्तियां फर्ज कर रखी हैं जिन पर वे अपना एतमाद कायम किए हुए हैं जिनको वे 


पारा ।3 656 


सूरह।2. यूसुफ 
बड़ाई का मकाम देते हैं। इस तरह हर एक ने ख़ुदा के सिवा कुछ 'बड़े' बना रखे हैं। वे उन्हीं 
बड़ों के भरोसे पर जी रहे हैं। हालांकि ख़ुदा के यहां सब छोटे हैं। वहां किसी को जो चीज 
बचाएगी वह उसका जाती अमल है न कि काल्पनिक बड़ों की बड़ाई। 

पैगम्बर का काम एक अल्लाह की तरफ बुलाना है। यही उसका मिशन है। इस मिशन 
को उसने बसीरत के तौर पर इख्तियार किया है न कि तक्लीद के तौर पर। गोया पेग़म्बराना 
दावत (आस्वान) वह दावत है जो इंसान को एक ख़ुदा से जोड़ने की दावत हो और जिसकी 
सदाकत (सत्यता) दाजी के ऊपर इतनी खुल चुकी हो कि वह उसके लिए बसीरत और 
मअरफत (अन्तरज्ञान) बन जाए। इसी तरह पैगम्बर के पैरोकार वे लोग हैं जो हक को बसीरत 
(सूझबूझ) की सतह पर पाएं और तौहीद की सतह पर उसका एलान करें। 

आदमी अपने वक्ती इत्मीनान को मुस्तकिल इत्मीनान समझ लेता है। हालांकि किसी के 
पास इस बात की जमानत नहीं कि उसकी मोहलते उम्र कब तक है। कोई नहीं जानता कि 
कब मौत आकर उसके तमाम मजऊमात (दंभो) को बातिल कर देगी। कब कियामत का 
जलजला उसकी बनी बनाई दुनिया को उलट-पलट कर देगा। आदमी अपने आपको यकीनी 
अंजाम को दुनिया में समझता है। हालांकि वह हर लम्हा एक गैर यकीनी अंजाम के कनारे 


खड़ा हुआ है। 
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और हमने तुमसे पहले मुख़्तलिफ बस्ती वालों में से जितने रसूल भेजे सब आदमी ही 
थे। हम उनकी तरफ “वही” (प्रकाशना) करते थे। क्या ये लोग जमीन पर चले फिरे 
नहीं कि देखते कि उन लोगों का अंजाम क्या हुआ जो उनसे पहले थे और आख़िरत 
(परलोक) का घर उन लोगों के लिए बेहतर है जो डरते हैं, क्या तुम समझते नहीं। यहां 
तक कि जब पेग़्म्बर मायूस हो गए और वे ख्याल करने लगे कि उनसे झूठ कहा गया 
था तो उन्हें हमारी मदद आ पहुंची। पस नजात (मुक्ति) मिली जिसे हमने चाहा और 
मुजरिम लोगों से हमारा अजाब टाला नहीं जा सकता। (09-20) 











तारीख़ बताती है कि जो लोग रिसालत और पैग़म्बरी को मानते थे वे भी उस वक्त 
इसके मुंकिर हो गए, जबकि ख़ुद अपनी कौम के अंदर से एक शख्स पैग़म्बर होकर उनके 
सामने खड़ा हुआ। इसकी वजह यह थी कि माजी का पैग़म्बर तारीख़ी तौर पर साबितशुदा 
पैगम्बर बन चुका होता है, जबकि हाल का पैग़म्बर एक निजाई (विवादित) शख्सियत होता 


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सूरह-2. यूसुफ 657 पारा 73 
है। तारीख़ी पैगम्बर को मानना हमेशा इंसान के लिए आसानतरीन काम रहा है और निजाई 
पैगम्बर को मानना हमेशा उसके लिए मुश्किलतरीन काम। 

आद और समूद और मदयन और कीमे लूत वरह की तबाहशुदा बस्तियां कुंरेश के 
आस पास के इलाकों में मौजूद थीं। वे अपने सफरों के दौरान उन्हें देखते थे। ये आसार 
जबाने हाल से कह रहे थे कि पेगम्बर को निजाई दौर में न पहचानने ही की वजह से इन 
कौमों पर खुदा का अजाब आया और वे हलाक कर दी गई। इसके बावजूद कुंरेश ने उनसे 
सबक नहीं लिया। इसकी वजह इंसान की यह कमजोरी है कि वह एक गलत काम करता है 
मगर कुछ खुदसाख्ता (स्वनिर्मित) ख़्यालात की बिना पर अपने आपको गलतकारों की 
फेहरिस्त से अलग कर लेता है। 

सूरह यूसुफ की आयत 720 की तशरीह सूरह बकरह की आयत 24 से हो रही है जिसमें 
इरशाद हुआ है 'क्या तुम ख्याल करते हो कि तुम जन्नत में दाखिल कर दिए जाआगे। हालांकि 
तुम पर अभी वह हालात गुजरे ही नहीं जो तुमसे पहले वालों पर गुजरे थे। उन्हें सख्ती और 
तकलीफ पहुंची और वे हिला मारे गए। यहां तक कि रसूल और उसके साथ ईमान लाने वाले 
पुकार उठे कि ख़ुदा की मदद कब आएगी। जान लो, ख़ुदा की मदद करीब है।' 

खुदा हमेशा दाऔ (आह्वानकर्ता) की मदद करता है। मगर यह मदद मदऊ के ख़िलाफ 
दाओ के हक में खुदा का फैसला होता है, इसीलिए यह मदद हमेशा उस ववत आती है जबकि 
दावती जदूदोजहद अपनी तक्मील के आखिरी मरहले में पहुंच चुकी हो, चाहे इस ताख़ीर की 
वजह से दावत देने वालों पर मायूसी के एहसासात तारी होने लगें। 

“और आख़िरत का घर मुत्तकियों के लिए ज्यादा बेहतर है” इससे मालूम हुआ कि दुनिया 
में अहले ईमान के साथ जो सुलूक किया जाता है वह आखिरत में उनके साथ किए जाने वाले 
सुलूक की अलामत होता है। 

दुनिया में ख़ुदा हक के दाजियों की इस तरह मदद करता है कि उनकी बात तमाम दूसरी 
बातों पर बुलन्द व बाला साबित होती है। वे अपने दुश्मनों की तमाम साजिशों और 
मुखालिफतों के बावजूद अपना मिशन पूरा करने में कामयाब साबित होते हैं। यही इज्जत 
और सरबुलन्दी उन्हें आख़िरत में ज्यादा कामिल और मेयारी सूरत में हासिल होगी। 


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” उनके किस्सों में समझदार लोगों के लिए बड़ी इबरत (सीख) है। यह कोई गढ़ी हुई बात 


नहीं, बल्कि तस्दीक (पुष्टि) है उस चीज की जो इससे पहले मौजूद है। और तफ़्सील 
है हर चीज की। और हिदायत और रहमत है ईमान वालों के लिए। (॥॥) 


पिछले पेग़म्बरों और उनकी कौमों की कहानी इबरत के एतबार से तमाम इंसानों की 
कहानी है। अगर आदमी अक्ल से काम ले तो वह माजी (अतीत) के वाकये में हाल की 





पारा ।3 658 सूरह-।3. अर-रअूद 





नसीहत पा लेगा। दूसरों के अंजाम को देखकर वह अपने अहवाल को दुरुस्त कर लेगा। 
कुरआन किसी इंसान की गढ़ी हुई किताब नहीं, वह खुदा की तरफ से उतरी हुई किताब 

है। वह ऐन उस पेशीनगोई (भविष्यवाणी) के मुताबिक आई है जो पिछली आसमानी किताबों 

में की गई थीं। इसमें हिदायत से मुतअल्लिक हर जरूरी चीज का बयान मौजूद है। वह अपने 

आगाज के एतबार से इंसानों के लिए रहनुमाई है और अपने अंजाम के एतबार से उनके लिए 


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आयतें-43 सूरह-।3. अर-रअूद रुकूअ-6 
(मदीना में नाजिल हुई) 

शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
अलिफ० लाम० मीम० रा०। ये किताबे इलाही की आयतें हैं। और जो कुछ तुम्हारे 
ऊपर तुम्हारे रब की तरफ से उतरा है वह हक (सत्य) है। मगर अक्सर लोग नहीं 
मानते। अल्लाह ही है जिसने आसमान को बुलन्द किया बगैर ऐसे सुतून (स्तंभ) के 
जो तुम्हें नजर आएं। फिर वह अपने तख्त पर मुतमक्किन (आसीन) हुआ और उसने 
सूरज और चांद को एक कानून का पाबंद बनाया, हर एक एक मुरकर ववत पर चलता 
है। अल्लाह ही हर काम का इंतिजाम करता है। वह निशानियों को खोल खोल कर 
बयान करता है ताकि तुम अपने रब से मिलने का यकीन करो। (:-2) 





कुरआन एक ख़ुदा को मानने की दावत देता है। जो लोग ख़ुदा को नहीं मानते उनकी 
सबसे बड़ी दलील यह होती है कि ख़ुदा अगर है तो हमें दिखाई क्यों नहीं देता। मगर हमारी 
मालूम कायनात बताती है कि किसी चीज का दिखाई न देना इस बात का सुबूत नहीं है कि 
उसका कोई वजूद भी नहीं। इसकी एक मिसाल कुव्वते कशिश (गुरुत्वाकर्षण शक्ति) है। 
ख़ला में बेशुमार अलग-अलग सितारे और सय्यारे (ग्रह) हैं। इंसानी इलम कहता है कि इन 
अजरामे समावी (आकाशीय पिंडों) के दर्मियान एक गैर मरई (अदृश्य) कुव्वते कशिश है जो 
वसीअ ख़ला (विशाल अंतरिक्ष) में उन्हें संभाले हुए है। फिर इंसान जब गैर मरई होने के 
बावजूद कुव्वते कशिश की मौजूदगी का इकरार कर रहा है तो गैर मरई होने की वजह से ख़ुदा 
के वजूद का इंकार करने में वह क्योंकर हक बजानिब होगा। 

यही मामला “वही” (ईश्वरीय वाणी) व रिसालत का है। कायनात का तालिबे इलम जब 





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सूरह-।3. अर-रअ्‌द 659 पारा 23 


कायनात का मुतालआ करता है तो वह पाता है कि यहां हर चीज एक निजाम की पाबंद है। 
ऐसा मालूम होता है कि तमाम चीजें किसी ख़ास हुक्म में जकड़ी हुई हैं। यह हुक्म” ख़ुद इन 
चीजों के अंदर मौजूद नहीं है। यकीनन वह ख़ारिज (बाहर) से आता है। गोया तमाम दुनिया 
अपने अमल के लिए “खारिज” से हिदायात ले रही है। इंसान के अलावा बकिया दुनिया में 
इस ख़ारजी (वाह्य) हिदायत का नाम कानूने फितरत है, और इंसान की दुनिया में इसका नाम 
वही” व इल्हाम। “वही” दरअस्ल इसी ख़ारजी रहनुमाई की इंसानी दुनिया तक तौसीअ 
(विस्तार) है जिसे बकिया दुनिया में कानूने फितरत कहा जाता है। 

कायनात गोया एक मशीन है और कुरआन उसकी गाइड बुक। कायनात ख़ुदा की 
तदबीरे अम्र (कार्यप्रणाली) की मिसाल है और कुरआन खुदा की तफ्सीले आयात (निशानियों 
की व्याख्या) की मिसाल। इन दोनों के दर्मियान कामिल मुताबिकत (अुकूलता) है। जो कुछ 
कायनात में अमलन नजर आता है वह कुरआन में लफ्जी तौर पर मौजूद है। यह मुताबिकत 
बयकवक्त दो बातें साबित करती है। एक यह कि इस कायनात का एक ख़ालिक है। और 
दूसरे यह कि कुरआन उसी ख़ालिक की किताब है न कि महदूद (सीमित) इंसानी दिमाग की 


तर्गीक (रचना) 
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और वही है जिसने जमीन को फेलाया। और उसमें पहाड़ और नदियां रख दीं और हर 
किस्म के फलों के जोड़े इसमें पैदा किए। वह रात को दिन पर उट़ा देता है। बेशक 
इन चीजों में निशानियां हैं उन लोगों के लिए जो गौर करें। (3) 





आसमान की निशानियों के बाद जब जमीन की हालत पर गौर किया जाए तो वह इंसान 
की रिहाइश के लिए इंतिहाई बामअना तौर पर मौजूं (उपयुक्त) नजर आती है। 

जमीन एक कुदरती फर्श की मानिंद आदमी के कदमों के नीचे फैली हुई है। इसमें एक 
तरफ इंसान की जरूरत के लिए समुद्र की गहराइयां हैं तो दूसरी तरफ पहाड़ों की बुलन्दियां 
भी हैं ताकि दोनों मिलकर जमीन का तवाजुन (संतुलन) बरकरार रखें। दरख्न एक दूसरे से 
अलग-अलग भी हो सकते थे मगर इनमें जोड़े हैं जिनके दर्मियान तजवीज (निषेचन) के अमल 
से दाने और फल पेदा होते हैं। जमीन का यह हाल है कि सूरज के चारों तरफ अपनी सालाना 
दौर वाली गर्दिश के साथ अपने महवर (धुरी) पर भी मुसलसल गर्दिश करती है जिसका दौर 
24 घंटे में पूरा होता है और जिससे रात और दिन पैदा होते हैं। 

इस किस्म की निशानियों पर जो शख्स भी संजीदगी से गोर करेगा वह यह मानने पर 
मजबूर होगा कि यह दुनिया एक बाइख्तियार मालिक के तहत है और उसने अपने इरादे के 
तहत उसकी एक बामक्सद मंसूबाबंदी कर रखी है। बाशुऊर मंसूबाबंदी के बगैर जमीन पर 
यह मअनवियत (अर्थपूर्णता) हरगिज मुमकिन न थी। 





पारा ।3 660 सूरह-।3. अर-रअद 
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और जमीन में पास-पास मुख्तलिफ कितओ (भू-भाग) हैं और अंगूरों के बाग़ हैं और खेती 

है और खजूरे हैं, उनमें से कुछ इकहरे हैं और कुछ दोहरे। सब एक ही पानी से सैराब 
होते हैं। और हम एक को दूसरे पर पैदावार में फौकियत (श्रेष्ठता) देते हैं बेशक इनमें 
निशानियां हैं उन लोगों के लिए जो ग्रौर करें। (4) 





हजरत अब्दुल्लाह बिन अब्बास ने फरमाया कि कोई अच्छी जमीन है और कोई बंजर 
जमीन। एक उगती है और उसी के पास दूसरी नहीं उगती। मुजाहिद ने कहा कि यही मामला 
बनी आदम (मानव-जाति) का है। उनमें अच्छे भी हैं और बुरे भी, हालांकि सबकी असल एक 
है। हसन बसरी ने कहा कि यह एक मिसाल है जो अल्लाह ने बनी आदम के दिलों के लिए 
दी है। 

जमीन में एक अजीब निशानी यह है कि एक ही मिट्टी है। एक ही पानी से उसे सैराब 
किया जाता है मगर एक जगह से एक दरख़्त निकलता है और उसी के पास दूसरी जगह से 
दूसरा दरख़्त एक में मीठा फल है और दूसरे में खट्टा फल। कोई ज्यादा पैदावार देता है और 
कोई कम पैदावार। 

यह इंसानी वाकये की जमीनी तमसील (उपमा) है। इससे मालूम होता है कि अगरचे 
तमाम इंसान बजाहिर यकसां (समान) हैं और उन सबके पास एक ही हिदायत आती है। मगर 
हिदायत से इस्तिफादे के मामले में एक इंसान और दूसरे इंसान में बहुत ज्यादा फर्क हो जाता 
है। कोई इससे रहनुमाई हासिल करता है और कोई इसका मुंकिर बन जाता है। कोई थोड़ी 
हिदायत लेता है और किसी की जिंदगी हिदायत से मालामाल हो जाती है। गोया जैसी जमीन 
वैसी पैदावार का उसूल यहां भी है और वहां भी। 


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और अगर तुम तअज्जुब करो तो तअज्जुब के काबिल उनका यह कौल है कि जब वे 
मिट्टी हो जाएंगे तो क्या हम नए सिरे से पैदा किए जाएंगे। ये वे लोग हैं जिन्होंने अपने 


रब का इंकार किया और ये वे लोग हैं जिनकी गर्दनों में तोक पड़े हुए हैं वे आग वाले 
लोग हैं, वे उसमें हमेशा रहेंगे। (5) 





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सूरह-3. अर-रअूद 66I पारा ]3 


दूसरी जिंदगी के मुंकिरीन का केस निहायत अजीब है। वे जिस वाकये के जुहूर को एक 
बार मान रहे हैं उसी वाकये के दुबारा जुहूर का इंकार कर देते हैं। 
जो लोग दूसरी जिंदगी के वुकूअ (घटित होने) को नहीं मानते वे दूसरी जिंदगी का 
अकीदा रखने वालों पर हैरानी का इज्हार करते हैं। उनका ख्याल यह होता है कि दूसरी 
जिंदगी को मानना एक गैर इलमी (अबौद्धिक) बात को मानना है। मगर हकीकत यह है कि 
सूरतेहाल इसके बिल्कुल बरअक्स है। क्योंकि कोई मुंकिर जिस चीज का इंकार कर सकता 
है, वह सिर्फ दूसरी जिंदगी है। जहां तक पहली जिंदगी का तअल्लुक है उसका इंकार करना 
किसी शख्स के लिए मुमकिन नहीं। क्योंकि वह तो एक जिंदा वाकये के तौर पर हर आदमी 
के सामने मौजूद है। फिर जब पहली जिंदगी का वजूद में आना मुमकिन है तो दूसरी जिंदगी 
का वजूद में आना नामुमकिन क्यों हो। 
ऐसे लोग हमेशा बहुत कम पाए गए हैं जो ख़ुदा के मुंकिर हों। बेशतर लोगों का हाल 
यह है कि वे एक ख़ालिक को मानते हैं मगर वे आखिरत (परलोक) को नहीं मानते। मगर 
आहिरत के इंकार के बाद ख़ालिक के इकरार की कोई कीमत बाकी नहीं रहती । खुदा इस 
कायनात का ख़ालिक ही नहीं वह बजाते खुद हक (सत्य) भी है। खुदा का सरापा हक और 
अदल (न्याय) होना लाजिमी तौर पर तकाजा करता है कि वह जो कुछ करे हक और अदल 
के मुताबिक करे। आख़िरत दरअस्ल खुदा की सिफ्ते अदल का जुहूर है। खुदा को मानना वही 
मानना है जबकि उसके साथ आखिरत को भी माना जाए। आखिरत को माने बगैर ख़ुदा का 
अकीदा मुकम्मल नहीं होता। 
जो लोग हक के सीधे और सच्चे पैगाम को नहीं मानते इसकी वजह अक्सर यह होती 
है कि वे जुमूद (जड़ता), तअस्सुब (विद्वेष) अनानियत (अहंकार) के शिकार होते हैं। उनसे 
बात कीजिए तो ऐसा मालूम होगा कि वे खुद अपने ख्यालात के कैदी बने हुए हैं। इससे 
निकल कर वे आजादाना तौर पर किसी ख़ारजी (वाह्य) हकीकत पर गौर नहीं कर सकते। 
इसी हालत को “गर्दन में तौक पड़ना” फरमाया। क्योंकि गर्दन में तौक होना गुलामी की 
अलामत है। गोया कि ये लोग ख़ुद अपने ख़्यालात के गुलाम हैं। जो इस तरह अपने आपको 
दुनिया में कैदी बना लें, आख़िरत में भी उनके हिस्से में कैद ही आएगी। 


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वे भलाई से पहले बुराई के लिए जल्दी कर रहे हैं। हालांकि उनसे पहले मिसालें गुजर 


चुकी हैं और तुम्हारा रब लोगों के जुल्म के बावजूद उन्हें माफ करने वाला है। और बेशक 
तुम्हारा रब सख्त सजा देने वाला है। (6) 














रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मक्का के लोगों से कहते थे कि ख़ुदा की 
हिदायत को मानो वर्ना तुम खुदा की पकड़ में आ जाओगे। इसके जवाब में उन्होंने कहा 
'खुदाया, मुहम्मद जो कुछ पेश कर रहे हैं अगर वह हक है तो तू हमारे ऊपर आसमान से 
पत्थर बरसा' यह दुआ बजाहिर खुदा से थी मगर हकीकतन इसका रुख़ रसूल की तरफ था। 


पारा ।3 662 सूरह-।3. अर-रअ्‌द 
आप उस ववत मक्का के लोगों को बिल्कुल बेवजन मालूम होते थे। उन्हें यकीन नहीं आता 
था कि ऐसे मामूली आदमी के इंकार पर ख़ुदा हमें सजा देगा । 'मुहम्मद' के इंकार पर अजाब 
आना उन्हें इतना असंभावी नजर आता था कि वे बतौर मजाक कहते थे कि तुम जिस खुदाई 
अजाब की धमकी दे रहे हो हम चाहते हैं कि वह हमारे ऊपर आ जाए। 

फरमाया कि तुम्हारे इंकारे हक के सबब से तुम्हारे ऊपर खुदा का अजाब तो आने ही 
वाला है। यह सिफ तुम्हारी बदबख़्ती है कि तुम उसे जल्द बुलाना चाहते हो। हालांकि तुम्हे 
चाहिए था कि इस वकफे (अंतराल) को दावते कुरआन पर गैर व फिक्र और उसकी 
कबूलियत में इस्तेमाल करो न कि अजाब को वक्त से पहले बुलाने में। 

लोग चाहते हैं कि खुदा के अजाब को अपनी आंखों से देख लें फिर उसे मानें। मगर 
यह सिफ अंधेपन का मुतालबा है। अगर उनके पास आंखें हों तो जो कुछ दूसरों के साथ पेश 
आया वही उनके सबक के लिए काफी है। इनसे पहले कितनी कीमें गुजर चुकी हैं जिन्हेंनि 
इन्हीं की तरह अपने जमाने के पेग़म्बरों को झुठलाया और बिलआखिर उन्हें उसकी सजा 
भुगतनी पड़ी। 

खुदा का कानून यह है कि वह इंसान को अमल की मोहलत देता है। यही कानूने मोहलत 
है जिसने लोगों को सरकश बना रखा है। मगर मोहलत की एक हद है। इस हद के बाद जो चीज 
उनका इंतिजार कर रही है वह सिर्फ दर्दनाक अजाब है जिससे वे अपने आपको बचा न सकेंगे। 


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और जिन लोगों ने इंकार किया वे कहते हैं कि इस शख्स पर उसके रब की तरफ से 
कोई निशानी क्यों नहीं उतरी। तुम तो सिर्फ ख़बरदार कर देने वाले हो। और हर कौम 
के लिए एक राह बताने वाला है। (7) 


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आज सारी दुनिया में एक अरब से भी ज्यादा इंसान मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व 
सल्लम) को ख़ुदा का रसूल मानते हैं। मगर आपकी जिंदगी में मक्का वालों की समझ में न 
आ सका कि आपको खुदा ने अपना रसूल बनाया है। इसकी वजह यह थी कि अपनी तारीख़ 
के इब्तिदाई दौर में आपकी नुबुब्वत एक निजाई (C०॥।०४९7५।१]) नुबुव्वत थी। मगर अब 
अपनी तारीख के इंतिहाई दौर में आपकी नुबुव्वत एक साबितशुदा (£४०७।५॥९०) नुबुव्वत 
बन चुकी है। निजाई (विवादपूर्ण) दौर में पैगम्बर को पहचानना जितना मुश्किल है, इस्बाती 
(सुस्थापित) दौर में उसे पहचानना उतना ही आसान हो जाता है। 

मक्का के लोगों के पास जो पैमाना था वह दौलत, इक्तेदार (सत्ता) और अवाम में 
मकबूलियत का पेमाना था। इस एतबार से आप उन्हें गैर मामूली नजर न आते थे। इसलिए 
उन्होंने चाहा कि आपके साथ कोई गैर मामूली निशानी हो जो उनके लिए आपके पैगम्बर होने 
का कतई सुबूत बन जाए। इसके जवाब में फरमाया गया कि ये लोग ऐसी चीज मांग रहे हैं 
जो ख़ुदाई मंसूबे के मुताबिक नहीं, इसलिए वे किसी को मिलने वाली भी नहीं। 





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सूरह-।3. अर-रअूद 663 पारा 23 


मौजूदा दुनिया दारुल इम्तेहान (परीक्षा-स्थल) है। यहां हिदायत ऐसी सरीह निशानियों के 
साथ नहीं आ सकती कि उसके बाद आदमी के लिए शुबह की गुंजाइश बाकी न रहे। क्योंकि 
ऐसी हालत में इम्तेहान की मस्लेहत फौत हो जाती है। यहां बहरहाल यही होगा कि आदमी 
को ख़बर” की सतह पर जांच कर उसका यकीन करना पड़ेगा । जो शख्स इस इम्तेहान में पूरा 
न उतरे, उसके हिस्से में हिदायत भी कभी नहीं आ सकती। 

ख़ुदा हर कौम में उसके अपने अंदर के एक आदमी को खड़ा करता है ताकि वह उसकी 
मानूस जबान में उसे खुदा का पैगाम पहुंचा दे। यह इंतिजाम कौमा की आसानी के लिए था। 
मगर अक्सर ऐसा हुआ कि कीमों ने इससे उल्टा असर लेकर खुदा के पैग़म्बरों का इंकार कर 
दिया। उनकी निगाहें पैग़ामरसां (संदेशवाहक) के मामूलीपन पर अटक कर रह गई, वे पैगाम 
के गैर मामूलीपन को न देख सकीं। 


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अल्लाह जानता है हर मादा के हमल (गर्भ) को। और जो कुछ रहमों में घटता या बढ़ता 
है उसे भी। और हर चीज का उसके यहां एक अंदाजा है। वह पोशीदा और जाहिर को 
जानने वाला है, सबसे बड़ा है, सबसे बरतर। तुम में से कोई शख्स चुपके से बात कहे 


और जो पुकार कर कहे और जो रात में छुपा हुआ हो। और दिन में चल रहा हो, ख़ुदा 
के लिए सब यकसां (समान) हैं। (8-0) 








मां का पेट एक हैरतअंगेज फैक्टरी है। इस खुदाई फैक्टरी में जो इंसानी पैदावार तैयार 
होती है उसका एक अजीब पहलू यह है कि वह “मुकर मिवदार” के मुताबिक अमल करती 
है। आजकल की जबान में गोया डिमांड और सप्लाई के दर्मियान मुसलसल एक तवाजुन 
(संतुलन) बरकरार रहता है। 

मसलन यह फैक्टरी हजारों साल से काम कर रही है। इससे मर्द भी पैदा हो रहे हैं और 
औरतें भी। मगर दोनों जिन्सों की तादाद के दर्मियान हमेशा एक तनासुब (संतुलन) कायम 
रहता है। ऐसा कभी नहीं होता कि इस फैक्टरी से सब मर्द ही मर्द पैदा हो जाएं या सब औरतें 
ही औरतें पैदा होने लगें। जंग जैसा कोई हादसा मकामी तौर पर कभी इस तनासुब (संतुलन) 
को बिगाड़ देता है। मगर हैरतअंगेज तौर पर देखा गया है कि कुछ अर्से बाद ही यह कुदरती 
कारख़ाना इस तनासुब को दुबारा कायम कर देता है। 

यही मामला इस फैक्टरी से निकलने वाले मर्द व औरत के दर्मियान सलाहियतों 
(क्षमताओं) के तवाजुन का है। मुतालआ बताता है कि पैदा होने वाले मर्द व औरत सब 
यकसां इस्तेदाद के नहीं होते। उनकी सलाहियतों में बहुत ज्यादा विविधता है। इस विविधता 
की गैर मामूली तमद्दुनी (सांस्कृतिक) अहमियत है। क्योंकि तमदूदुन (संस्कृति) के निजाम 


पारा ।3 664 सूरह-3. अर-रअ्‌द 


को चलाने के लिए मुख्ललिफ किस्म की सलाहियतों के इंसान दरकार है। मां की फैक्टरी निहायत 
ख़ामोशी से हर किस्म की इस्तेदाद (सामर्थ्य) वाले इंसान इस तरह कामयाबी के साथ तैयार कर 
रही है जैसे उसे बाहर से “ऑर्डर” मोसूल होते हों। और वह पेट के अंदर उसके मुताबिक इंसानों 
की तशकील कर रही हो। अगर इंसानी पैदावार में यह विविधता न हो तो तमदूदुन का सारा 
निजाम सर्द पड़ जाए और तमाम तरविकयां मांद होकर रह जाएं। 

मां के पेट के अमल में इस मंसूबाबंदी का होना सरीह तौर पर इस बात का सुबूत है 
कि इसके पीछे कोई मंसूबासाज है। इरादे के साथ मंसूबाबंदी के बगैर इस किस्म का निजाम 
इस कद्र तसलसुल (निरंतरता) के साथ कायम नहीं रह सकता। 

इससे यह भी साबित होता है कि इस दुनिया का ख़ालिक व मालिक एक ऐसी हस्ती है 
जिसे न सिर्फ खुले की ख़बर है बल्कि वह छुपे को भी जानता है। रहम (गर्भ) के अंदर और 
मां के पेट में जो कुछ होता है वह बजाहिर एक छुपी चीज है। मगर मज्कूरा वाकया बताता 
है कि ख़ुदा को इसकी मुकम्मल ख़बर है। फिर जो हस्ती एक के छुपे और खुले को जानती 
है वह दूसरे के छुपे और खुले को क्यों नहीं जानेगी। फरिश्तों का अकीदा भी इसी से साबित 
होता है। क्योंकि वह “निगरानी” के मौजूदा निजाम की गोया तौसीअ (विस्तार) है। 


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हर शख्स के आगे और पीछे उसके निगरां (रक्षक) हैं जो अल्लाह के हुक्म से उसकी 
देखभाल कर रहे हैं। बेशक अल्लाह किसी कौम की हालत को नहीं बदलता जब तक 
कि वे उसे न बदल डालें जो उनके जी में है। और जब अल्लाह किसी कौम पर कोई 
आफत लाना चाहता है तो फिर उसके हटने की कोई सूरत नहीं और अल्लाह के सिवा 
उसके मुकाबले में कोई उनका मददगार नहीं। (2) 





दुनिया में कौमों का उरूज व जवाल (उत्थान-पतन) अललटप तौर पर नहीं होता बल्कि 
खुदा की निगरानी और फैसले के तहत होता है। खुदा जब किसी कौम को अपनी नेमत से 
नवाजता है तो वह उस नेमत को उस वक्त तक उसके लिए बाकी रखता है जब तक वह 
अपने अंदर उसकी इस्तेदाद (सामर्थ्य) बाकी रखे। इस्तेदाद खो देने के बाद वह कौम लाजिमी 
तौर पर खुदाई नेमत को भी खो देती है, मसलन अपने दर्मियान इत्तेहाद खोने के बाद ख़ारजी 
दुनिया में रौब से महरूम हो जाना, वगैरह। 
दुनिया में कोई कौम जो कुछ पाती है, खुदा के कानून के तहत पाती है और कोई कौम 
जो कुछ खोती है ख़ुदा के कानून के तहत खोती है। ख़ुदा के सिवा यहां न कोई देने वाला 
है और न कोई छीनने वाला। 


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सूरह-3. अर-रअद 665 पारा ।3 

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वही है जो तुम्हें बिजली दिखाता है जिससे डर भी पेदा होता है और उम्मीद भी। और 
वही है जो पानी से लदे हुए बादल उठाता है। और बिजली की गरज उसकी हम्द 
(प्रशंसा) के साथ उसकी पाकी बयान करती है और फरिश्ते भी उसके ख़ोफ से। और 

वह बिजलियां भेजता है, फिर जिस पर चाहे उन्हें गिरा देता है और वे लोग खुदा के बाब 

में झगड़ते हैं, हालांकि वह जबरदस्त है कुब्बत वाला है। (2-3) 





बिजली चमकती है तो कभी वह नए ख़ुशगवार मौसम की आमद का पैग़ाम होती है और 
कभी वह साइका (बिजली) बनकर जमीन पर गिरती है और चीजों को जला डालती है। इसी 
तरह बादल उठते हैं तो कभी वे मुफीद बारिश की सूरत में जमीन पर बरसते हैं और कभी 
तूफान और सैलाब का पेशख़ेमा (पूर्व-क्रिया) साबित होते हैं। 
इसका मतलब यह है कि इस दुनिया में एक ही चीज में डर का पहलू भी है और उम्मीद 
का पहलू भी। दुनिया का इंतिजाम करने वाला जिस चीज के जरिए दुनिया वालों पर अपनी 
रहमत भेजता है उसी को वह तबाहकुन अजाब भी बना सकता है। इस सूरतेहाल का तकाजा 
है कि आदमी कभी अपने आपको ख़ुदा की पकड़ से मामून (सुरक्षित) न समझे। 
गाफिल इंसान हमेशा किसी अनोखी और तिलिस्माती निशानी के जुहूर के मुंतजिर रहते 
हैं। मगर जिन लोगों का शुऊर बेदार है, वे अपने आस पास रोज मरह के वाकेयात में हर 
किस्म की आला निशानी पा लेते हैं। बिजली की कड़क चमक उनके दिल की धड़कनें तेज 
कर देती है। और बारिश के कतरे देखकर उनकी आंखों से आंसुओं का सैलाब बह पड़ता है। 
ख़ुदा की ताकतों को बराहेरास्त देखकर फरिश्तों का जो हाल होता है वही हाल सच्चे इंसानों 
का उस वक्त हो जाता है जबकि उन्होंने खुदा की ताकतों को अभी बराहेरास्त नहीं देखा है। 


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सच्चा पुकारना सिर्फ खुदा के लिए है। और उसके सिवा जिनको लोग पुकारते हैं वे 
उनकी इससे ज्यादा दादरसी (सहायता) नहीं कर सकते जितना पानी उस शख्स की 
करता है जो अपने दोनों हाथ पानी की तरफ फैलाए हुए हो ताकि वह उसके मुंह तक 
पहुंच जाए और वह उसके मुंह तक पहुंचने वाला नहीं। और मुंकिरीन की पुकार सब 
बेफायदा है। (4) 


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पारा ।3 666 सूरह-।3. अर-रअ्‌द 





अगर आप हाथ फैलाकर समुद्र के पानी को पुकारें तो ऐसा कभी नहीं होगा कि समुद्र 
आपकी पुकार को सुने और उसका पानी समुद्र की गहराइयों से निकल कर आपकी तरफ 
आए और आपके खेतों और बागों को सैराब करे। मगर इसी समुद्र के साथ ऐसा होता है कि 
कुदरत के कानून के तहत उसका पानी नमक के जुज को छोड़कर फज में बुलन्द होता है। 
फिर गर्मी, कशिश और हवा के अमल से मुतहर्रिक होकर वह आपकी बस्ती के ऊपर आता 
है और मीठे पानी की सूरत में बरस कर आपकी जमीन को सैराब कर देता है। इससे मालूम 
हुआ कि समुद्र बजाहिर अजीम होने के बावजूद सरासर आजिज है उसे किसी किस्म का जाती 
इख्तियार हासिल नहीं। 
यही इस दुनिया की तमाम चीजों का हाल है। ऐसी हालत में अक्लमंद इंसान सिर्फ वह 
है जो ख़ालिक (रचयिता) को पूजे न कि मख्नूक (रचना) को, जो चीजों के रब को अपना 
मकजे तवज्जोह बनाए न कि खुद चीजों को। 
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और आसमानां और जमीन में जो भी हैं सब खुदा ही को सज्दा करते हैं। खुशी से या 
मजबूरी से और उनके साये भी सुबह व शाम। कहो, आसमानों और जमीन का रब 
कौन है। कह दो कि अल्लाह। कहो, क्या फिर भी तुमने उसके सिवा ऐसे मददगार 
बना रखे हैं जो खुद अपनी जात के नफा और नुक्सान का भी इख्तियार नहीं रखते। 
कहो, क्या अंधा और आंखों वाला दोनों बराबर हो सकते हैं। या क्या अंधेरा और 
उजाला दोनों बराबर हो जाएंगे। क्या उन्होंने खुदा के ऐसे शरीक ठहराए हैं जिन्होंने 
भी पेदा किया है जैसा कि अल्लाह ने पेदा किया, फिर पेदाइश उनकी नजर में मुशतबह 


(संदिग्ध) हो गई। कहो, अल्लाह हर चीज का पेदा करने वाला है और वही है अकेला, 
जबरदस्त। (5-6) 


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ख़ुदा का मुतालबा इंसान से यह है कि वह उसके आगे झुक जाए। यही 'झुकना' तमाम 
कायनात का दीन है। इस दुनिया की हर चीज ख़ुदा के हुक्म के आगे कामिल तौर पर झुकी 
हुई है। इसी झुकाव की एक अलामत है चीजों के साये का सुबह व शाम मग्रिब और मशरिक 
की तरफ गिरना। चीजों का यह साया गोया उस सज्दे को मादूदी (भौतिक) तौर पर दर्शा रहा 
है जो इंसान से शुऊरी तौर पर मत्लूब है। पहला सज्दे का अलामती (प्रतीकात्मक) रूप है और 





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सूरह-3. अर-रअद 667 पारा 8 


दूसरा उसका हवीवी रूप। 
वसीअ कायनात का मुतालआ (अवलोकन) बताता है कि सारी कायनात एक ही 
आफाकी (सार्वभौम) कानून में बंधी हुई है। यह इस बात का सुबूत है कि इसका ख़ालिक और 
मालिक एक है। इंसान का इल्मी और अक्ली मुतालआ किसी भी तरह यह साबित नहीं करता 
कि इस कायनात में एक से ज्यादा ताकतों की कारफरमाई हो। ऐसी हालत में एक खुदा के 
सिवा मजीद (अतिरिक्त) ख़ुदा मानना सरासर बेबुनियाद कल्पना है। 
'आंख' का मुशाहिदा तो सिफ एक ख़ुदा का पता देता है। इसलिए जो लोग एक ख़ुदा 
से ज्यादा ख़ुदा मानें वे सिफ इस बात का सुबूत देते हैं कि वे अंधे हैं। उन्होंने अपने अंधेपन 
की वजह से कई खुदा फर्ज कर लिए हैं न कि हकीकी मञनों में इलम और मुशाहिदे (साक्ष्य) 


की बुनियाद पर। 
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अल्लाह ने आसमान से पानी उतारा। फिर नाले अपनी-अपनी मिवदार के मुवाफि क 

बह निकले। फिर सैलाब ने उभरते झाग को उठा लिया और इसी तरह का झाग उन 
चीजों में भी उभर आता है जिन्हें लोग जेवर या असबाब बनाने के लिए आग में पिघलाते 

हैं। इस तरह अल्लाह हक (सत्य) और बातिल (असत्य) की मिसाल बयान करता है। 
पस झाग तो सूखकर जाता रहता है और जो चीज इंसानों को नफा पहुंचाने वाली है 

वह जमीन में ठहर जाती है। अल्लाह इसी तरह मिसालें बयान करता है। (7) 





ख़ुदा ने अपनी दुनिया इस तरह बनाई है कि यहां मादूदी (भौतिक) वाकेयात अख़्ताकी 
हकीकतों की तमसील बन गए हैं। जो कुछ अल्लाह तआला को इंसान से शुऊर की सतह पर 
मत्लूब है, उन्हीं को बकिया दुनिया में मादूदी सतह पर दिखाया जा रहा है। 

यहां कुरआन में फितरत के दो वाकेयात की तरफ इशारा किया गया है। एक यह कि जब 
बारिश होती है और उसका पानी बहकर नदियों और नालों में पहुंचता है तो पानी के ऊपर हर 
तरफ झाग फैल जाती है। इसी तरह जब चांदी और अन्य धातुओं को साफ करने के लिए आग 
पर तपाते हैं तो उसका मैलकुचेल झाग की सूरत में ऊपर आ जाता है। मगर जल्द ही बाद यह 
होता है कि दोनों चीजों का झाग, जिसमें इंसान के लिए कोई फायदा नहीं फजा में उड़ जाता है। 
और पानी और धातु अपनी जगह पर महफूज रह जाते हैं जो इंसान के लिए मुफीद हैं। 

ये फितरत के वाकेयात हैं जिनके जरिए ख़ुदा तमसील के रूप में दिखा रहा है कि उसने 
जिंदगी की कामयाबी और नाकामी के लिए क्या उसूल मुरकर फरमाया है। वह उसूल यह है 


पारा ।3 668 सूरह-।3. अर-रअूद 


कि इस दुनिया में सिर्फ उस शख्स या कौम को जगह मिलती है जो दूसरों के लिए नफाबख्शी 
का सुबूत दे। जो फर्द या गिरोह दूसरे इंसानों को नफा पहुंचाने की ताकत खो दे उसके लिए 
ख़ुदा की बनाई हुई दुनिया में कोई जगह नहीं । 


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जिन लोगों ने अपने रब की पुकार को लब्बैक कहा उनके लिए भलाई है और जिन 
लोगों ने उसकी पुकार को न माना, अगर उनके पास वह सब कुछ हो जो जमीन 
में है, और उसके बराबर और भी तो वह सब अपनी रिहाई के लिए दे डालें। उन 
लोगों का हिसाब सख्त होगा और उनका ठिकाना जहन्नम होगा। और वह कैसा बुरा 
ठिकाना है। (8) 


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दुनिया में खुदा का यह कानून है कि चाहे वक्ती तौर पर मैल और झाग उभर कर ऊपर 
आ जाए मगर बिलआहिर जिस चीज को यहां मकाम मिलता है वह वही है जो हकीकी है 
और जिसमें नफाबख्शी की सलाहियत है। आख़िरत के एतबार से भी इंसानों का मामला यही 
है। दुनिया में कुछ लोग अपनी इजाफी हैसियत की बिना पर नुमायां हो सकते हैं। मगर 
आखिरत में वही लोग ऊंची जगह पाएंगे जो हकीकी औसाफ (गुणों) के मालिक हों। 

दुनिया में जो लोग हक की पुकार पर लब्बैक नहीं कहते। इसकी वजह हमेशा यह होती 
है कि बेआमेज (विशुद्ध) हक की तरफ बढ़े में उन्हें दुनिया के फायदे हाथ से जाते हुए नजर 
आते हैं। ऐसे लोगों को हक को नजरअंदाज करने की कीमत हमेशा यह मिलती है कि वे 
दुनिया में इज्जत और मकबूलियत और खुशहाली के मालिक बन जाते हैं। वे हक का इंकार 
करके ऊंची गद्दियाँ पर सरफराज नजर अते हैं। 

मगर इन चीजों की हैसियत मेल और झाग से ज्यादा नहीं। आखिरत में ये सारे लोग 
वक्ती झाग की तरह दूर फेंके जा चुके होंगे। और वही लोग नुमायां नजर आएंगे जिन्होंने 
तमाम वक्ती फयदों को नजरअंदाज करके अपने आपको हक के हवाले किया था। 

जो लोग दुनिया की हैसियत और दुनिया के फायदों को इतनी अहमियत दे रहे हैं कि 
इसकी ख़तिर हक को नजरअंदाज कर देते हैं आहिरत में ये चीजंउन्हें इतनी हकीर (तुच्छ) 
दिखाई देंगी कि वे चाहेंगे कि यह सारी दुनिया और इसके बराबर एक और दुनिया मिल जाए 
तो वे उन सबको सिर्फ अजाब से बचने की ख़ातिर फिदथे में दे दें। 

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सूरह-।3. अर-रअ्‌द 669 पारा 23 


जो शख्स यह जानता है कि जो कुछ तुम्हारे रब की तरफ से उतारा गया है वह हक 
(सत्य) है, क्या वह उसके मानिंद हो सकता है जो अंधा है। नसीहत तो अक्ल वाले 
लोग ही कुबूल करते हैं। (9) 


इंसानों में हमेशा दो किस्म के लोग होते हैं। एक इंसान वह है जिसने ख़ुदा की दी हुई 
अक्ल से सोचा और हकाइक की रोशनी में एक यकीनी फैसले तक पहुा। इस तरह बेलाग 
जायजे के नतीजे में उसका दिल जिस चीज पर मुतमइन हुआ उसे उसने इरादा और शुऊर 
के साथ इख्तियार कर लिया। 

दूसरे लोग वे हैं जो कौमी रिवायात और तक्लीदी ख़्यालात के दायरे में सोचते हों। जो 
चीजों को दलाइल की नजर से देखने के बजाए रवाज की नजर से देखते हों। और फिर जो 
चीज उन्हें अवाम में चलती हुई दिखाई दे उसी को हक समझ कर इख़्तियार कर लें। 

कुरआन के नजदीक पहला शख्स वह है जो इलम की रोशनी में ईमान लाया है। इसके 
मुकाबले में दूसरा आदमी कुरआन की नजर मे अंधा है। पहला आदमी खुद अपनी बसीरत 
(सूझबूझ) से हक और बातिल को जानता है। जबकि दूसरे आदमी का सरमाया सिर्फ सुनी 
सुनाई बातें हैं। लोग जिसे बातिल (असत्य) समझ लें उसे उसने बातिल समझ लिया, लोग 
जिसे हक समझें उसके मुतअल्लिक उसने भी यकीन कर लिया कि वह हक होगी। 

हक की दावत (आह्वान) ऐसे लोगों की तलाश के लिए उठती है जो अपनी अक्ल से 
काम लेकर फैसला कर सकते हों। बाकी जो लोग आंख रखते हुए अंधे बने हुए हों उन्हें हक 
की दावत कुछ फायदा नहीं पहुंचाएगी। 


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वे लोग जो अल्लाह के अहद (वचन) को पूरा करते हैं और उसके अहद को नहीं तोड़ते। 
और जो उसे जोड़ते हैं जिसे अल्लाह ने जोड़ने का हुक्म दिया है और वे अपने रब से डरते 


हैं और वे बुरे हिसाब का अंदेशा रखते हैं और जिन्होंने अपने रब की रिजा के लिए सत्र 
किया। और नमाज कायम की। और हमारे दिए में से पोशीदा और एलानिया ख़र्च 





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पारा ]3 670 सूरह-3. अर-रअद 


किया। और जो बुराई को भलाई से मिटाते हैं। आख़िरत का घर इन्हीं लोगों के लिए 
है। अबदी (चिरस्थाई) बाग़ जिनमें वे दाखिल होंगे। और वे भी जो उसके अहल बनें, 
उनके आबा व अज्दाद (पूर्वन) और उनकी बीवियों और उनकी औलाद में से। और 
फरिश्ते हर दरवाजे से उनके पास आएंगे, कहेंगे तुम लोगों पर सलामती हो उस सब्र के 

बदले जो तुमने किया। पस क्या ही ख़ूब है यह आखिरत का घर। (20-24) 





इंसान को ख़ुदा ने पैदा किया। उसने उसे रहने के लिए बेहतरीन दुनिया दी। वह हर 
आन उसकी परवरिश कर रहा है। यह वाकया इंसान को अपने ख़ालिक व मालिक के साथ 
एक फितरी अहद (वचन) बांध देता है। इसका तकाजा है कि इंसान सरकश न बने बल्कि 
हकीकते वाकया का एतराफ करते हुए द्रा के आगे झुक जाए। 

दुनिया में इंसान की जिंदगी मुर्ललिफ किस्म के तअल्लुकात व रवाबित (संपक) के 
दर्मियान है। इंसान की बंदगी का तकाजा है कि वह उसी से जुड़े जिससे जुड़ना खुदा को पसंद 
है और उससे कट जाए जिससे कटने का हुक्म दिया गया है। उस पर ख़ुदा की अज्मत का 
एहसास इतनी शिद्दत से तारी हो कि वह उसके आगे झुक जाए, जिसकी एक मुकर्रर सूरत 
का नाम नमाज है। वह अपने असासे में से दूसरों को उसी तरह दे जिस तरह ख़ुदा ने अपने 
असासे में से उसे दिया है। उसे किसी की तरफ से बुरे सुलूक का तजर्बा हो तो वह अच्छे 
सुलूक के साथ उसका जवाब दे। क्योंकि वह ख़ुद भी यह चाहता है कि आख़िरत में ख़ुदा 
उसकी बुराइयों को नजरअंदाज कर दे और उसके साथ फल व रहमत का मामला फरमाए । 

यह सब कुछ मुसलसल सब्र का तालिब है। नफ्स के मुहरिकात प्रिरकों) के मुकाबले में 
सब्र। मफादात का जियाअ (नाश) के मुकाबले में सब्र। माहौल के दबाव के मुकाबले में 
सब्र। मगर मोमिन को जन्नत की ख़ातिर इन तमाम चीजों पर सब्र करना है। सब्र ही जन्नत 
की कीमत है। सब्र की कीमत अदा किए बगैर किसी को खुदा की अबदी जन्नत नहीं मिल 
सकती । 


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और जो लोग अल्लाह के अहद को मजबूत करने के बाद तोडते हैं और उसे काटते हैं 
जिसे अल्लाह ने जोड़ने का हुक्म दिया है और जमीन में फसाद करते हैं, ऐसे लोगों पर 
लानत है और उनके लिए बुरा घर है। अल्लाह जिसे चाहता है रोजी ज्यादा देता है और 
जिसके लिए चाहता है तंग कर देता है। और वे दुनिया की जिंदगी पर खुश हैं। और 
दुनिया की जिंदगी आखिरत के मुकाबले में एक मताए कलील (अल्प सुख-सामग्री) के 

सिवा और कुछ नहीं। (25-26) 


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सूरह-3. अर-रअद 67ा पारा 8 


इंसान अपने ख़ुदा से अहदे फितरत में बांधा हुआ है और दूसरे इंसानों से अहद आदमियत 
में। इन दोनों अहदों को तोड़ना ख़ुदा की जमीन में फसाद करना है। ख़ुदा की जमीन में 
इस्लाहयाफ्ता बनकर रहना यह है कि आदमी मज्कूरा दोनों अहदों का पाबंद बनकर जिंदगी 
गुजरे। इसके बरअक्स खुद्रा की जमीन मेंफसादी बनना यह है कि आदमी इन अहदोसे आजाद 
हो जाए। उसे न खुदा के हुकूक की परवाह हो और न इंसानों के हुकूक की । 

ऐसे लोग ख़ुदा के नजदीक लानतजदा हैं। ये वे लोग हैं जो ख़ुदा की रहमतों में हिस्सेदार 
नहीं बनाए जाएंगे। उन्होंने ख़ुदा की जमीन को गंदा किया, इसलिए वे इसी काबिल हैं कि 
आइंदा उन्हें सिफ गंदे घर में जगह मिले। 

दुनिया में किसी को कम मिलता है और किसी को ज्यादा। अब जिसे ज्यादा मिला वह 
एहसासे बरतरी में मुब्तिला हो जाता है और जिसे कम मिला वह एहसासे कमतरी में । मगर 
खुदा की नजर में ये दोनों गलत हैं। सही रद्देअमल यह है कि ज्यादा मिले तो आदमी खुदा 
का शुक्रगुजार बने। कम मिले तो वह सब्र और कनाअत (संतोष) का तरीका इख़्तियार करे। 

दुनियापरस्त लोग हमेशा हक के दाजी को नजरअंदाज कर देते हैं। इसकी वजह यह है कि 
दुनियापरस्त आदमी सिर्फ जाहिरी अज्मतों को पहचानना जानता है। चूँकि दाओ के पास सिर्फ 
मअनवी अज्मत होती है इसलिए वह उसे पहचान नहीं पाता। वह उसे हकीर समझ कर 
नजरअंदाज कर देता है। मगर जब हकीकत का पर्दा फटेगा उस वक्‍त इंसान जानेगा कि जिस 
नजर आने वाली रौनक को वह सब कुछ समझे हुए था वह बिल्कुल बेमरीमत थी । कदर व कीमत 
की चीज दरअस्ल वह थी जो दिखाई न देने की वजह से उसकी तवज्जोह का मकज न बन सकी । 
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और जिन्होंने इंकार किया वे कहते हैं कि इस शख्स पर उसके रब की तरफ से कोई 
निशानी क्यों नहीं उतारी गई। कहो कि अल्लाह जिसे चाहता है गुमराह करता है और 
वह रास्ता उसे दिखाता है जो उसकी तरफ मुतवज्जह हो। वे लोग जो ईमान लाए और 
जिनके दिल अल्लाह की याद से मुतमइन होते हैं। सुनो, अल्लाह की याद ही से दिलों 


को इत्मीनान हासिल होता है। जो ईमान लाए और जिन्होंने अच्छे काम किए उनके 
लिए खुशखबरी है और अच्छा ठिकाना है। (27-29) 





हक के दाऔ (आह्वानकर्ता) को न मानने की वजह आम तौर पर यह होती है कि लोगों 
को दाओ के गिर्द महसूस किस्म के करिश्मे नजर नहीं आते। मगर यह ऐन उसी मकाम पर 
नाकाम होना है जहां आदमी को कामयाबी का सुबूत देना चाहिए । खुदा यह चाहता है कि आदमी 


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पारा 3 672 सूरह-3. अर-रअद 


हक को उसके मुजर्रद (साक्षात) रूप में पहचाने और अपने आपको उसके हवाले कर दे। अब 
जो शख्स इसरार करे कि वह महसूस करिश्मों की दलील के बगैर नहीं मानेगा, उसका अंजाम 
इस दुनिया में यही हो सकता है कि खुदा के कानून के मुताबिक कभी उसे हक न मिले। वह 
हमेशा के लिए हिदायत से महरूम हो जाए। 

यह दुनिया दारुल इम्तेहान (परीक्षा-स्थल) है। यहां आदमी सिर्फ “याद” की सतह पर 
ख़ुदा को पा सकता है। वह उसे 'मुशाहिदे' (अवलोकन) की सतह पर नहीं पा सकता। जो 
लोग इस खुदाई मंसूबे पर राजी होंगे वे खुदा को पाएंगे। और जो लोग इस पर राजी न हों 
वे ख़ुदा को पाने से उसी तरह महरूम रहेंगे जिस तरह नंगी आंख से सूरज को देखने पर 
इसरार करने वाला सूरज को देखने से। 

इस दुनिया में कामयाबी सिर्फ उस शख्स के लिए है जो ख़ुदा के मंसूबे को माने और 
उसके मुताबिक अपनी जिंदगी को ढाल ले। क्योंकि दुनिया की तख़्तीक करने वाला ख़ुदा है 
न कि कोई इंसान। 


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इसी तरह हमने तुम्हें भेजा है, एक उम्मत में जिससे पहले बहुत सी उम्मतें गुजर चुकी 
हैं, ताकि तुम लोगों को वह पेग़ाम सुना दो जो हमने तुम्हारी तरफ भेजा है। और वे 
महरबान ख़ुदा का इंकार कर रहे हैं। कहो कि वही मेरा रब है, उसके सिवा कोई माबूद 
(पूज्य) नहीं, उसी पर मैंने भरोसा किया और उसी की तरफ लौटना है। (30) 





जब यह दुनिया दारुल इम्तेहान है तो इसका फितरी तकाजा यह है कि हिस्सी (महसूस) 
निशानियां दिखाने के बाद लोगों का फैसला कर दिया जाए। अब अगर लोगों के मुतालबे पर 
खुदा फौरन कोई हिस्सी निशानी जाहिर कर दे और इसके बाद भी लोग न मानें तो फौरन 
वे हलाकत के मुस्तहिक हो जाएंगे। मगर यह ख़ुदाए रहमान व रहीम की ख़ास इनायत है कि 
वे लोगों के मुतालबे के बावजूद हिस्सी निशानियां जाहिर नहीं करता। बल्कि नसीहत और 
दलील की जबान में हक का पेगाम पहुंचाता रहता है। इस तरह लोगों को ज्यादा से ज्यादा 
मोहलत मिलती है कि वे अपनी इस्लाह (सुधार) करके खुदाई रहमतों के मुस्तहिक बन सकें। 
ऐसी हालत में दाऔ को चाहिए कि वह लोगों के नादान मुतालबे की वजह से घबरा न 
जाए। वह खुदा के मंसूबे पर राजी रहते हुए लोगों को उसकी तरफ बुलाता रहे। 

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सूरह-3. अर-रअूद 673 पारा 3 
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और अगर ऐसा कुरआन उतरता जिससे पहाड़ चलने लगते, या उससे जमीन टुकड़े हो 
जाती या उससे मुर्दे बोलने लगते बल्कि सारा इख़्तियार अल्लाह ही के लिए है। क्या 
ईमान लाने वालों को इससे इत्मीनान नहीं कि अगर अल्लाह चाहता तो सारे लोगों 
को हिदायत दे देता। और इंकार करने वालों पर कोई न कोई आफत आती रहती है, 
उनके आमाल के सबब से, या उनकी बस्ती के करीब कहीं नाजिल होती रहेगी, यहां 
तक कि अल्लाह का वादा आ जाए। यकीनन अल्लाह वादे के खिलाफ नहीं करता । 


और तुमसे पहले भी रसूलों का मजाक उड़ाया गया तो मैंने इंकार करने वालों को टील 
दी, फिर मैंने उन्हें पकड़ लिया। तो देखो केसी थी मेरी सजा। (३।-32) 





हक को न मानने का असल सबब दलील की कमी नहीं बल्कि इंसान की यह आजादी है 
कि वह चाहे तो माने और चाहे तो न माने। जब तक इंसान को इंकार की आजादी हासिल 
है वह किसी भी चीज का इंकार करने के लिए उज़ (बहाना) तलाश कर सकता है। 

उसके सामने अल्फाज में एक दलील लाई जाए तो वह कुछ दूसरे अल्फाज बोलकर उसे 
रदूद कर देगा। कायनात को निशानियों का हवाला दिया जाए तो वह उसकी तरदीद के लिए 
ख़ुदसाख्ता तौजीह तलाश कर लेगा। यहां तक कि अगर पहाड़ चलाए जाएं और जमीन फाड़ 
दी जाए और मुर्दो को जिंदा कर दिया जाए तब भी कोई चीज आदमी को यह कहने से रोक 
नहीं सकती कि यह तो जादू है। 

कभी-कभी ऐसा होता है कि इंकार करने वाला बजाहिर दलील मांगता है। मगर हकीकतन 
वह मज़ाक उड़ा रहा होता है। वह यह जाहिर करना चाहता है कि यह शख्स जो चीज पेश कर 
रहा है वह हक नहीं। अगर वह फिलवाकअ हक होता तो जरूर उसके पास ऐसी दलील होती 
कि सारे लोग उसे मानने पर मजबूर हो जाते। 

खुदा ने लोगों को मोहलत दी है इसकी वजह से लोग बेख़ीफ हो गए हैं। मगर जब मोहलत 
खत्म होगी और ख़ुदा लोगों को पकड़ेगा तो आदमी देखेगा कि वह किस कद्र बेइख्तियार था, 
अगरचे वह फर्जी तौर पर अपने को खुदमुख्ार समझता रहा। 


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पारा ।3 674 सूरह-3. अर-रअद 


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फिर कया जो हर शख्स से उसके अमल का हिसाब करने वाला है, और लोगों ने अल्लाह 
के शरीक बना लिए हैं। कहो कि उनका नाम लो। क्या तुम अल्लाह को ऐसी चीज 
की ख़बर दे रहे हो जिसे वह जमीन में नहीं जानता। या तुम ऊपर ही ऊपर बातें कर 
रहे हो बल्कि इंकार करने वालों को उनका फरेब खुशनुमा बना दिया गया है। और 
वे रास्ते से रोक दिए गए हैं। और अल्लाह जिसे गुमराह करे उसे कोई राह बताने वाला 
नहीं। उनके लिए दुनिया की जिंदगी में भी अजाब है और आख़िरत का अजाब तो बहुत 
सख्त है। कोई उन्हें अल्लाह से बचाने वाला नहीं। (33-34) 





मुतालआ बताता है कि कायनात में रिकाडिंग का निजाम है। आदमी जो कुछ बोलता 
है या जो कुछ करता है, वह कायनाती इंतिजाम के तहत फौरन रिकार्ड हो जाता है। ऐसी 
हालत में इस कायनात का ख़ुदा किसी ऐसी हस्ती ही को माना जा सकता है जिसके अंदर 
सुनने! और 'देखने' की ताकत हो। मगर इंसानों ने अब तक जितने शरीक फर्ज किए हैं, सब 
के सब वे हैं जिनके अंदर न सुनने की ताकत है और न देखने की। ऐसी हालत में क्योंकर 
वे मौजूदा कायनात जैसी दुनिया के ख़ालिक व मालिक हो सकते हैं। जो खुद न सुने वह 
अपनी मख्तूकात में सुनने का माद्दा किस तरह पैदा करेगा जो ख़ुद न देखे वह दूसरी चीजों 
को देखने के काबिल कैसे बनाएगा। 

इसी तरह कायनात में इतनी ज्यादा वहदत (एकत्व) है कि वह किसी तरह शिक को 
कुबूल नहीं करती । जिस शरीक का भी नाम लिया जाए, कायनात पूरे वजूद के साथ उसे 
तस्लीम करने से इंकार कर देगी। 

मुंकिरीन के लिए उनका मक्र खुशनुमा बना दिया गया है। यहां मक्र से मुराद उनका 
“कील” है जिसका जिक्र इसी आयत में ऊपर मौजूद है। जब भी आदमी हक का इंकार करता 
है तो उसका जेहन अपने इंकार को जाइज साबित करने के लिए कोई कौल गढ़ लेता है। यह 
कैल अगरचे केकीकत अल्फजके मज्मूओे के सिवा और कुछ नहीं होता । मगर जो लोग हक 
के मामले में ज्यादा संजीदा न हों वे कुछ न कुछ अल्फाज बोलकर समझ लेते हैं कि उन्होंने 
अपने इंकार व एराज (उपेक्षा) को हक बजानिब साबित कर दिया है। चाहे उनके बोले हुए 
अल्फज उनके अपने ज्हन के बाहर कोई कीमत न रखते हें। 

इस किस्म के झूठे अल्फाज किसी आदमी को सिर्फ मौजूदा दुनिया में सहारा दे सकते 
हैं। आह्रित मेंजब हर चीज की हकीकत खुलेगी ते ये खुशनुमा अल्फाज इतने बेबजन हो 
जाएंगे कि आदमी उन्हें दोहराते हुए भी शर्म महसूस करेगा। 


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सूरह-3. अर-रअद 675 पारा ]3 


और जन्नत की मिसाल जिसका मुत्तकियों (डर रखने वालों) से वादा किया गया है यह 
है कि उसके नीचे नहरें बहती होंगी। उसका फल और साया हमेशा रहेगा। यह अंजाम 
उन लोगों का है जो ख़ुदा से डरें और मुंकिरों का अंजाम आग है। (35) 





जन्नत की कीमत तकवा है। यानी अल्लाह की अज्मत का इतना शदीद एहसास जो डर 
बनकर आदमी के दिल में समा जाए। जो लोग दुनिया में खुदा से डरें वही वे लोग हैं जो 
आखिरत के उन घरों में बसाए जाएंगे जहां आदमी के लिए किसी किस्म का डर न होगा। 
जिसके चारों तरफ सरसब्ज बागात उनकी अज्मत व शान को दोचन्द कर रहे होंगे। 

इसके बरअक्स हाल उन लोगों का है जो दुनिया में बेख़ौफ बनकर रहे। वे आख़िरत में 
अपने आपको आग की दुनिया में पाएंगे। 


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और जिन लोगों को हमने किताब दी थी वे उस चीज पर ख़ुश हैं जो तुम पर उतारी 
गई है। और उन गिरोहों में ऐसे भी हैं जो उसके कुछ हिस्से का इंकार करते हैं। कहो 
कि मुझे हुक्म दिया गया है कि मैं अल्लाह की इबादत करू और किसी को उसका 
शरीक न ठहराऊ। में उसी की तरफ बुलाता हूं और उसी की तरफ मेरा लोटना है 

और इसी तरह हमने उसे एक हुक्म की हैसियत से अरबी में उतारा है। और अगर तुम 
उनकी ख़्वाहिशों की पैरवी करो बाद इसके कि तुम्हारे पास इलम आ चुका है तो ख़ुदा 
के मुकाबले में तुम्हारा न कोई मददगार होगा और न कोई बचाने वाला। (36-37) 


























कुरआन आया तो यहूद व नसारा में दो गिरोह हो गए। उनमें जो लोग अल्लाह से डरने 
वाले थे और हजरत मूसा और हजरत मसीह की सच्ची तालीमात पर कायम थे, उन्होंने 
कुरआन को अपने दिल की आवाज समझा और खुश होकर उसे कुबल कर लिया। मगर जो 
लोग अस्बियत (द्वेष) और गिरोहबंदी को दीन समझे हुए थे वे अपने मानूस (परिचित) दायरे 
से बाहर आने वाली सच्चाई को पहचान न सके और उसके मुखालिफ बनकर खड़े हो गए। 
अल्लाह से उनकी बेखैफी ने हक की दावत की मुखालिफत में भी उन्हें बेखफ बना दिया। 

जो शख्स अस्बियत और गिरोहबंदी की बिना पर सच्चाई का मुखालिफ बनता है वह 
दरअस्ल ख़ुदा को छोड़कर अपनी ख्याहिशात पर चलता है। ऐसे लोगों की रिआयत से हक 
की दावत में कोई तब्दीली करना दाऔ के लिए जाइज नहीं। दाऔ के लिए लाजिम है कि 
वह अपने कौल और फेअल से बेलाग हक पर पूरी तरह जमा रहे। ऐसे लोगों के मुकाबले में 


पारा 3 676 सूरह-।3. अर-रअद 
उसे इस्तकामत (टुढ़ता) का सुबूत देना है न कि मुसालेहत का। 
आदमी के सामने उसकी काबिलेफहम जबान में हक का इलम आ जाए। इसके बावजूद 
वह ख़्वाहिशात का पेरोकार बना रहे तो यह बेहद संगीन बात है। क्योंकि यह ऐसा फेअल 
(कृत्य) है जो आदमी को ख़ुदा की मदद से यकसर महरूम कर देता है। 
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और हमने तुमसे पहले कितने रसूल भेजे और हमने उन्हें बीवियां और औलाद अता 
किया और किसी रसूल के लिए यह मुमकिन नहीं कि वह अल्लाह की आज्ञा के बगैर 


कोई निशानी ले आए। हर एक वादा लिखा हुआ है। अल्लाह जिसे चाहे मिटाता है 
और जिसे चाहे बाकी रखता है। और उसी के पास है असल किताब। (38-39) 








ख़ुदा की तरफ से जितने पैगम्बर आए वे सब आम इंसानों की तरह एक इंसान थे और 
दुनियावी तअल्लुकात रखते थे। फिर क्या वजह है कि कीमों ने इसके बावजूद पिछले पैग़म्बरों 
को माना और अपने समकालीन पैगम्बर का इसी सबब से इंकार कर दिया। इसकी वजह यह 
है कि पिछले पैग़म्बरों के साथ अतिरिक्त एक चीज शामिल थी जो समकालीन पेग़म्बर का 
हासिल न थी। यह अतिरिक्त चीज तारीख़ की अज्मत है। कीमों ने तारीख़ अज्मत की बिना 
पर पिछले पेगम्बरों को माना और तारीख़ी अज्मत से ख़ाली होने की बिना पर समकालीन 
पैग़म्बर का इंकार कर दिया। 

इंसान की यह कमजोरी है कि वह हकीकत को उसके मूल रूप में देख नहीं पाता । जिंदा 
पैगम्बर के साथ हकीकत मूल रूप में थी। इसलिए इंसान उसे पहचान न सका। तारीख़ के 
पैगम्बर के साथ इजाफी (अतिरिक्त) अहमियतें भी शामिल हो चुकी थीं इसलिए उसने उन्हें 
पहचान लिया और उनका मोअतकिद (आस्थावान) बन गया। 

'उम्मुल किताब” से मुराद ख़ुदा का वह असल नविश्ता (मूल ग्रंथ) है जो ख़ुदा के पास 
है और जिसमें हिदायत की वे तमाम उसूली बातें लिखी हुई हैं जो ख़ुदा को इंसान से मत्लूब 
हैं। मुख्तलिफ पैग़म्बरों पर जो किताबें उतरीं वे सब इसी उम्मुल किताब से ली गई थीं। ख़ुदा 
ने अपनी यह किताब कभी एक जबान में उतारी और कभी दूसरी जबान में। कभी उसके लिए 
तमसील का पेराया इख्तियार किया गया और कभी उसे बराहेरास्त पेराया में बयान किया 
गया। कभी नाजिल होने के बाद उसकी हिफाजत की जिम्मेदारी इंसानों पर डाली गई और 
कभी उसकी हिफाजत की जिम्मेदारी खुद खुदा ने ले ली। 


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सूरह-3. अर-रअूद 677 पारा ।3 

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और जिसका हम उनसे वादा कर रहे हैं उसका कुछ हिस्सा हम तुम्हें दिखा दें या हम तुम्हें 
वफात दे दें, पस तुम्हारे ऊपर सिर्फ पहुंचा देना है और हमारे ऊपर है हिसाब लेना। क्या 

वे देखते नहीं कि हम जमीन की तरफ उसे उसके अतराफ (चतुर्दिक) से कम करते चले 

आ रहे हैं। और अल्लाह फैसला करता है, कोई उसके फैसले को हटाने वाला नहीं और 

वह जल्द हिसाब लेने वाला है। जो उनसे पहले थे उन्होंने भी तदबीरें कीं मगर तमाम 
तदबीरें अल्लाह के इख्तियार में हैं। वह जानता है कि हर एक क्या कर रहा है और 
मुंकिरीन जल्द जान लेंगे कि आख़िरत का घर किस के लिए है। (40-42) 





खुदा के दीन को इख्तियार न करने का अंजाम आम तौर पर आखिरत में सामने आता 
है। मगर पैगम्बर के मुख़ातबीन अगर पैग़म्बर की दावत का इंकार कर दें तो इसका बुरा 
अंजाम उनके लिए मौजूदा दुनिया ही से शुरू हो जाता है। 

ताहम इस दुनियावी अंजाम का कोई एक उसूल नहीं। यह मुख़्तलिफ पैगम्बरों के जमाने 
में मुख्तलिफ सूरतों में जाहिर होता रहा है। पैग़म्बर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के 
लिए मख्सूस मुसालेह की बिना पर ख़ुदा का यह फैसला इस शक्ल में जाहिर हुआ कि पैग़म्बर 
के पैरोकारों को पैग़म्बर के मुंकिरीन पर ग़ालिब कर दिया गया। 

मक्की दौर के आखिरी जमाने में जबकि मक्का के सरदारों ने आपका इंकार कर दिया 
था, ऐन उसी वक्त यह हो रहा था कि इस्लाम की दावत धीरे-धीरे मदीना में और मक्का के 
बाहरी कबाइल में फैल रही थी। गोया इस्लाम की दावती कुव्वत मक्का के अतराफ (चतुर्दिक) 
को फतह करती हुई मक्का की तरफ बढ़ रही थी। पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल०)के लिए खुदा की 
सुन्नत दावती फतहों की सूरत में जाहिर हुई। 

यहां दावती तदबीर को खुदाई तदबीर कहा गया है। इससे इसकी अहमियत का अंदाजा 
होता है। कुंरेश ने जब मक्का से आपको निकाला तो उन्होंने यह समझा था कि उन्होंने आपका 
खात्मा कर दिया। उस वक्‍त आप एक ऐसे शख्स थे जिसकी मआशियात (आर्थिक संसाधन) 
बर्बाद हो चुकी थीं। जिसे खुद अपने कबीले की हिमायत से महरूम कर दिया गया था। 

क्रैश यह सब करके अपने तौर पर खुश थे। वे समझते थे कि उन्होंने पैगम्बर के 
'मसले' को हमेशा के लिए दफ्न कर दिया है। मगर वे उस राज को समझ न सके कि दाऔ 
का सबसे बड़ा हथियार दावत (आह्वान) है और यह वह चीज है जिसे कोई शख्स कभी दाऔ 
से छीन नहीं सकता । दाऔ की दूसरी महरूमियां उसके दाजियाना जोर को और बढ़ा देती हैं, 
वह किसी तरह उसे कम नहीं करतीं। चुनांचे ऐन उस वक्त जबकि क्रैश अपने ख्याल के 
मुताबिक पेगम्बर से उसका सब कुछ छीन चुके थे, उसकी दावत चारों तरफ अरब के कबाइल 











पारा ।3 678 सूरह-3. अर-रअद 


में फैल रही थी। लोगों के दिल उससे मुसख्खर (विजित) होते जा रहे थे। यह अमल ख़ामोशी 
के साथ मुसलसल जारी था। और फतह मक्का गोया इसी का इंतिहाई नुक्ता था। मक्का 
वालों ने जिन लोगों को 'दस सौ” समझ कर घर से बेघर किया था वे सिर्फ चन्द साल में “दस 
हजार” बनकर दुबारा मक्का में इस तरह वापस आए कि मक्का वालों को यह हिम्मत भी न 
थी कि उन्हें मक्का में दाखिल होने से रोकने की कोशिश करें। 

हक की दावत से जिन लोगों के मफादात (स्वार्थे) पर जद पड़ती है वे उसे जेर करने 
के लिए उसके ख़िलाफ तदबीरें करते हैं। मगर तमाम तदबीरों का सिरा ख़ुदा के हाथ में है। 
वह हर एक के ऊपर पूरा इख्तियार रखता है। खुदा की इस बरतर हैसियत का इब्तिदाई जुहूर 
इसी मौजूदा दुनिया में हो रहा है। इसका कामिल और इंतिहाई जुहूर आखिरत में होगा जबकि 


अंधे भी उसे देख लें और बहरे भी उसे सुनने लगें। 
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और मुंकिरीन कहते हैं कि तुम ख़ुदा के भेजे हुए नहीं हो, कहो कि मेरे और तुम्हारे 
दर्मियान अल्लाह की गवाही काफी है। और उसकी गवाही जिसके पास किताब का 
इल्म है। (43) 





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जाहिरपरस्त लोग जिस वक्‍त हक के दाओ में निशानियां न पाकर उसकी सदाकत के 
बारे में शुबह कर रहे होते हैं, ऐन उसी वक्‍त मअनवी (अर्थपूर्ण) निशानियां पूरी तरह उसकी 
तस्दीक (पुष्टि) के लिए मौजूद होती हैं। सच्चाई अपनी दलील आप है। मगर उसे महसूस 
करना सिर्फ उस शख्स के लिए मुमकिन है जो जवाहिर से गुजर कर हकाइक को देखने की 
निगाह अपने अंदर पैदा कर चुका हो। वर्ना जिन लोगों की निगाहें जवाहिर में अटकी हुई हों 
वे हक को बेदलील समझ कर उसका इंकार कर देंगे। हालांकि ऐन उसी वक्‍त दलाइल का 
अंबार उसकी तस्दीक के लिए उनके करीब मौजूद होगा। 


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सूरह-4. इब्राहीम 679 पारा ।3 
आयतें-52 सूरह-।4. इब्राहीम रुकूअ-7 
(मक्का में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
अलिफ० लाम० रा०। यह किताब है जिसे हमने तुम्हारी तरफ नाजिल किया है ताकि 
तुम लोगों को अंधेरों से निकाल कर उजाले की तरफ लाओ, उनके रब के हुक्म से ख़ुदाए 
अजीज (प्मु्वशाली) व हमीद (प्रशसित) के रास्ते की तरफ, उस अल्लाह की तरफ कि 
आसमानों और जमीन में जो कुछ है सब उसी का है और मुंकिरों के लिए एक सख्त 
अजाब की तबाही है जो कि आख़िरत के मुकाबले में दुनिया की जिंदगी को पसंद करते 
हैं और अल्लाह के रास्ते से रोकते हैं और उसमें कजी (टेढ़) निकालना चाहते हैं। ये 
लोग रास्ते से भटक कर दूर जा पड़े हैं। (-3) 


ईमान यह है कि आदमी खुदा को एक ऐसी हस्ती की हैसियत से पा ले जो सारी ताकतों 
का मालिक है और सारी खूबियों वाला भी है। ऐसा वाकया किसी आदमी के लिए महज एक 
रस्मी अकीदा (आस्था) नहीं होता। यह किसी आदमी का बेइल्मी की तारीकी से निकल कर 
इल्म की रोशनी में आना है। यह गैब (अप्रकट) के पर्दे से गुजर कर शुहूद (साक्षात) के जलवे 
को देख लेना है। यह दुनिया में रहते हुए आख़िरत का इदराक (भाव) कर लेना है। ईमान 
अपनी हकीकत के एतबार से एक शुऊरी याफ्त है न कि किसी मज्मूए अल्फाज की बेरूह 
तकरार। खुदा की किताब इसलिए आती है कि आदमी को इस शुऊरी दर्जे पर पहुंचा दे। 

अल्लाह के इज्न से हिदायत मिलना, बजाहिर हिदायत के मामले को अल्लाह की तरफ 
मंसूब करना है। मगर इस इर्शाद का रुख़ हकीकतन खुद इंसान की तरफ है। 'इज्न से मुराद 
खुदा का वह मुकर कानून है जो उसने इंसान की हिदायत व गुमराही के लिए मुक्रर किया 
है। इस कानून के मुताबिक आदमी की अपनी संजीदा तलब वाहिद शर्त है जो उसे हिदायत 
तक पहुंचाती है। इस दुनिया में जिस शख्स को हिदायत मिलती है वह महज किसी दाऔ की 
दाञियाना कोशिशों से नहीं मिलती बल्कि ख़ुदा के कानून के तहत मिलती है। और ख़ुदा का 
कानून यह है कि हिदायत की नेमत को सिर्फ वह शख्स पाएगा जो खुद हिदायत का तालिब 
हो। जाती तलब के बगैर किसी को हिदायत नहीं मिल सकती। 

हिदायत के रास्ते को खुदा ने इंतिहाई हद तक साफ और रोशन बनाया है। जमीन व 
आसमान में उसकी निशानियां फैली हुई हैं। खुदा की किताब उसके हक में नाकाबिले इंकार 
दलाइल (तर्क) फराहम करती है। इंसानी फितरत उसकी सदाकत की गवाही दे रही है। गोया 
तमाम बेहतरीन कराइन (संकेत) उसके हक में जमा हैं। ऐसी हालत में जो लोग हिदायत के 
रास्ते को इख्तियार न करें वे यकीनी तौर पर दुनियावी मफाद की बिना पर ऐसा कर रहे हैं 
न कि किसी वाकई सबब की बिना पर। अगरचे ऐसे लोग अपनी रविश को दुरुस्त साबित 
करने के लिए कुछ 'दलाइल' भी पेश करते हैं मगर ये दलाइल सिर्फ सीधी बात में टेढ़ 
निकालने का नतीजा होते हैं। वे सिर्फ इसलिए होते हैं कि लोगों की नजर में अपने न मानने 
का जवाज (औचित्य) फाहम करें। 

ऐसी हालत में हिदायत से महरूम सिर्फ वही शख्स रह सकता है जिसकी मफादपरस्ती 
(स्वार्थता) और दुनियावी रग़बत ने उसे बिल्कुल अंधा बहरा बना दिया हो। 





पारा 3 680 सूरह-4. इब्राहीम 
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और हमने जो पेग़म्बर भी भेजा उसकी कौम की जबान में भेजा ताकि वह उनसे बयान 


कर दे फिर अल्लाह जिसे चाहता है भटका देता है और जिसे चाहता है हिदायत देता 
है। वह जबरदस्त है, हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। (4) 


ख़ुदा का तरीका यह है कि वह पैग़म्बरों को खुद मदऊ (संबोधित) कैम के अंदर से 
उठाता है। ताकि वह लोगों की नपिसयात की रिआयत करते हुए, उनकी अपनी काबिलेफहम 
जबान में उन्हें हक की तरफ बुलाए । मगर अजीब बात है कि जो चीज इंसान की बेहतरी के 
लिए की गई थी उससे उसने उल्टा नतीजा निकाल लिया। उसने जब देखा कि पैगम्बर उन्हीं 
की तरह का एक आदमी है और उनकी अपनी मानूस जबान में कलाम कर रहा है तो उन्होंने 
पैगम्बर को मामूली समझ कर उसका इंकार कर दिया। जो चीज उनकी हिदायत को आसान 
बनाने के लिए की गई थी उसे उन्होंने अपनी गुमराही का जरिया बना दिया। 

ख़ुदा ऐसा नहीं करता कि वह लोगों को अपनी तरफ मुतवज्जह करने के लिए शोअबदे 
(करिश्मे) दिखाए। वह किसी कौम के पास ऐसा पेगम्बर भेजे जो अनोखी जबान या 
तिलिस्माती उस्लूब (जादुई शैली) में कलाम करके लोगों को अचंभे में डाल दे। ख़ुदा लोगों की 
अजाइबपसंदी की ख़ातिर करिश्मे दिखाने के अंदाज इख़्तियार नहीं करता। खुदा का तरीका 
सादगी और हकीकतपसंी का तरीक है। खुद्रा ने अपनी दुनिया को हकाइक (यथार्थ) की 
बुनियाद पर कायम किया है। और इंसान की हिदायत की स्कीम को भी वह हकाइक की 
बुनियाद पर चलाता है न कि तिलिस्मात की बुनियाद पर। 


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और हमने मूसा को अपनी निशानियों के साथ भेजा कि अपनी कौम को अंधेरों से 
निकाल कर उजाले में लाओ और उन्हें अल्लाह के दिनों की याद दिलाओ। बेशक उनके 
अंदर बड़ी निशानियां हैं हर उस शख्स के लिए जो सब्र और शुक्र करने वाला हो। (5) 





“अल्लाह की आयात” से मुराद कायनात की वे निशानियां हैं जो ख़ुदा की बात को 
बरहक साबित करती हैं। ‘अल्लाह के दिन” से मुराद तारीख़ के वे यादगार वाकेयात हैं जबकि 
खुदा का फैसला जाहिर हुआ और खुदा की खुसूसी मदद से हक (सत्य) ने बातिल (असत्य) 
के ऊपर फतह पाईं। एक अगर कायनाती दलील है तो दूसरी तारीख़वी (ऐतिहासिक) दलील। 
मगर अजीब बात है कि यही दोनों चीजें हमारी दुनिया में सबसे ज्यादा गैर मौजूद नजर 


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सूरह-4. इब्राहीम 68] पारा 3 


आती हैं। अल्लाह की आयात को गलत तशरीह व ताबीर (व्याख्या, भाष्य) के पर्द में छुपा दिया 
गया है और अल्लाह के दिनों का यह हाल है कि तारीख़निगारी का काम जिन लोगों के हाथ 
में था उन्होंने इंसानों के दिन तो ख़ूब कलमबंद किए मगर अल्लाह के दिन उनकी किताबों में 
अमकू रह गए। 

ऐसी हालत में किसी ख़ुदा के बंदे के लिए बातिल के अंधेरे से निकलने की सूरत सिफ 
यह है कि वह सब्र और शुक्र का सुबूत दे। 

हक के एतराफ की वाहिद कीमत अपनी बेएतराफी है। हक को पाने के लिए अपने 
आपको खोना पड़ता है। और यह चीज सब्र के बगैर किसी को हासिल नहीं होती फिर हक 
का इदराक आदमी को यह बताता है कि इस कायनात में जो तक्सीम है वह मुन्इम (इनाम 
करने वाला) और मुन्अम अलैह (इनाम पाने वाला) की है। ख़ुदा देने वाला है और इंसान पाने 
वाला। इस हकीकते वाका की दरयाफ्त के बाद आदमी के अंदर जो सही जज्बा पैदा होना 
चाहिए उसी का नाम शुक्र है। गोया हकीकत तक पहुंचने के लिए आदमी को सब्र का सुबूत 
देना पड़ता है। और हकीकत को अपने अंदर उतारने के लिए शुक्र का। 


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और जब मूसा ने अपनी कौम से कहा कि अपने ऊपर अल्लाह के उस इनाम को 
याद करो जबकि उसने तुम्ह फिरऔन की कौम से छुझ़या जो तुम्हें सख्त तकलीरफे 
पहुंचाते थे और वे तुम्हारे लड़कों को मार डालते थे और तुम्हारी औरतों को जिंदा 
रखते थे और इसमें तुम्हारे रब की तरफ से बड़ा इम्तेहान था। और जब तुम्हारे रब 
ने तुम्हें आगाह कर दिया कि अगर तुम शुक्र करोगे तो में तुम्हें ज्यादा दूंगा। और 
अगर तुम नाशुक्री करोगे तो मेरा अजाब बड़ा सख्त है। और मूसा ने कहा कि अगर 
तुम इंकार करो और जमीन के सारे लोग भी मुंकिर हो जाएं तो अल्लाह बेपरवा है, 
खूबियों वाला है। (6-8) 








इन आयात में हजरत मूसा की जिस तकरीर का हवाला है वह गालिबन आपकी वह 
तकरीर है जो आपने अपनी वफात से कुछ दिनों पहले सहराए सीना में बनी इस्राईल के सामने 
फरमाई थी। यह तकरीर मौजूदा बाइबल (किताब इस्तिसना) में तफ्सील के साथ मौजूद है। 

हजरत मूसा की इस मुफस्सल तकरीर का खुलासा यह है कि अगर तुम दुनिया में खुदा 


पारा 3 682 सूरह-4. इब्राहीम 


वाले बनकर रहो और ख़ुदा की बातों का चर्चा करो तो दुनिया की तमाम चीजें तुम्हारा साथ 
देंगी । सब कौमों के दर्मियान तुम्हारा रैब कायम होगा । खुदा तुम्हारे दुश्मनों को जेर करेगा । यहां 
तक कि अगर कभी दरिया तुम्हारे रास्ते में हायल हो तो ख़ुदा हुक्म देगा और दरिया फटकर 
तुम्हें रास्ता दे देगा, जबकि उसी दरिया में तुम्हारे दुश्मन गक हो जाएंगे। 

इसके बरअक्स अगर तुम ऐसा न करो तो तुम ख़ुदा की नजर में लानती ठहरोगे, यानी तुम 
ख़ुदा की रहमतों से दूर हो जाओगे । तुम्हारी महनत की पैदावार दूसरे लोग खाएंगे । तुम्हारे हर 
काम बिगड़ते चले जाएंगे तुम फिक्री और अमली एतबार से दूसरी कौमों के जेरेदस्त हो जाओगे। 

खुदा का यह कानून मारूफ मञनों में 'यहूद' के लिए नहीं है बल्कि हामिले किताब (ग्रंथ 
धारक) कौम के लिए है। जो कौम भी हामिले किताब हो, उसके साथ ख़ुदा का यही मामला 
है चाहे वे माजी (अतीत) के हामिलीने किताब हों या हाल के हामिलीने किताब । 


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क्या तुम्हें उन लोगों की ख़बर नहीं पहुंची जो तुमसे पहले गुजर चुके हैं कौमे नूह और 

आद और समूद और जो लोग इनके बाद हुए हैं, जिन्हें खुदा के सिवा कोई नहीं जानता । 
उनके पैग़म्बर उनके पास दलाइल (स्पष्ट प्रमाण) लेकर आए तो उन्होंने अपने हाथ उनके 
मुंह में दे दिए और कहा कि जो तुम्हें देकर भेजा गया है, हम उसे नहीं मानते और जिस 
चीज की तरफ तुम हमें बुलाते हो हम उसके बारे में सख्त उलझन वाले शक में पड़े हुए 

हैं। (9) 


खुदा के जितने रसूल मुख़्तलिफ कीमों में आए सबके साथ एक ही किस्सा पेश आया। हर 
कौम ने अपने पेगम्बरों की मुखालिफत की । हर जगह उनका मुंह बंद करने की कोशिश की गई। 

इसकी वजह क्या थी। इसकी वजह उनका 'शक' था। यह शक इसलिए था कि उनके 
सामने एक तरफ उनका आबाई (पैतृक) दीन था जिसकी पुश्त पर अकाबिर और अआजिम 
(महापुरुषों) के नाम थे। दूसरी तरफ पैगम्बर का दीन था जो बजाहिर एक मामूली इंसान के 
जरिए पेश किया जा रहा था। दलाइल का जोर पैगम्बर के दीन के साथ नजर आता था मगर 
तारीख़ी अज्मत और अवामी भीड़ आबाई दीन के साथ दिखाई देती थी। पैग़म्बर के 
मुखातबीन का यह हाल हुआ कि वे दलाइल को रद्द करने की कुव्वत अपने अंदर न पाते 
थे। और यह भी उनकी समझ में नहीं आता था कि अआजिम और अकाबिर को किस तरह 
ग़लत समझ लें। इस दोतरफा सूरतेहाल ने उन्हें शक में मुब्तिला कर दिया। अमलन अगरचे 
वे आबाई दीन के साथ वाबस्ता रहे मगर अपने कल्ब (दिल) व दिमाग को शक से आजाद 











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सूरह-4. इब्राहीम 683 पारा 3 
भी न कर सके। 
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उनके पेग़म्बरों ने कहा, क्या खुदा के बारे में शक है जो आसमानों और जमीन को 
वजूद में लाने वाला है। वह तुम्हें बुला रहा है कि तुम्हारे गुनाह माफ कर दे और 
तुम्हें एक मुकर्रर मुदूदत तक मोहलत दे। उन्होंने कहा कि तुम इसके सिवा कुछ नहीं 
कि हमारे जैसे एक आदमी हो। तुम चाहते हो कि हमें उन चीजों की इबादत से 


रोक दो जिनकी इबादत हमारे बाप दादा करते थे। तुम हमारे सामने कोई खुली 
सनद ले आओ। (20) 





इस आयत का तअल्लुक अस्लन कदीम (प्राचीन) कैमों से है। मगर कुरआन की एक 
ख़ुसूसियत यह है कि इसमें खुदा की अबदी तालीमात को तारीख़ के सांचे में ढाल कर पेश 
किया गया है। इसलिए कुरआन में ऐसे अल्फाज इस्तेमाल किए जाते हैं जिनमें मुखातबे 
अव्वल को रिआयत के साथ बाद के इंसानों की रिआयत भी पूरी तरह शामिल हो। 

इस आयत में'फतिर' का लफ्न इसी की एक मिसाल है। फतिर के लफी मअना है 
'फाइने वाला'। उमूमी मफ्झ के लिहाज से फ़तिर का लफ्ज यहां ख़लिक के मअना में 
इस्तेमाल हुआ है। मगर इसका ख़ालिस लफ्जी तर्जुमा किया जाए तो वह होगा 'क्या तुम्हें 
ख़ुदा के बारे में शक है जो जमीन व आसमान का फाड़ने वाला है।' 

लफ्जी तर्जुमे के एतबार से यह आयत मौजूदा जमाने में खुदा के मुंकिरीन के लिए खुदा 

के वजूद को साबित कर रही है। जदीद तहकीकात (आधुनिक खोजें) बताती हैं कि जमीन व 
आसमान का माद्दा इब्तिदा में एक सालिम गोले को सूरत में था। जिसे सुपर एटम कहा जाता 
है। मालूम कवानीने फितरत के मुताबिक इसके तमाम अज्जा इंतिहाई शिदूदत के साथ अंदर की 
तरफ जुड़े हुए थे। मौजूदा वसीअ कायनात इसी सुपर एटम में इंफिजार (महाविस्फोट) से वजूद 
में आई। इस आयत मेंफतिर (फाइने वाला) का लफ्न इसी कायनाती वाक्ये की तरफ इशारा 
कर रहा है जो एक ख़ालिक के वजूद का कतई सुबूत है। क्योंकि सुपर एटम के अज्जा जो 
मुकम्मल तौर पर अंदर की तरफ खिंचे हुए थे। उन्हें बाहरी सम्त में मुतहर्रिक करना अपने आप 
नहीं हो सकता। लाजिम है कि इसके लिए किसी ख़ारजी मुदाखलत (वाह्य हस्तक्षेप) को माना 
जाए। इसी मुदाखलत करने वाली ताकत का दूसरा नाम खुदा है। 


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सूरह-।4. इब्राहीम 
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उनके रसूलों ने उनसे कहा, हम इसके सिवा कुछ नहीं कि तुम्हारे ही जैसे इंसान हैं मगर 
अल्लाह अपने बदों में से जिस पर चाहता है अपना इनाम फरमाता है और यह हमारे 
इख्तियार में नहीं कि हम तुम्हें कोई मोजिजा (चमत्कार) दिखाएं बगैर खुदा के हुक्म के। 
और ईमान वालों को अल्लाह ही पर भरोसा करना चाहिए। और हम क्यों न अल्लाह 
पर भरोसा करें जबकि उसने हमें हमारे रास्ते बताए। और जो तकलीफ तुम हमें दोगे 


हम उस पर सब्र करेंगे। ओर भरोसा करने वालों को अल्लाह ही पर भरोसा करना 
चाहिए। (7-2) 


पारा ।3 684 








पैग़म्बरों के मुखातबीन ने जब अपने समकालीन पैगाम्बरों को यह कहकर रदूद किया कि 
तुम तो हमारे जैसे एक बशर हो' तो इसकी वजह हकीकतन यह नहीं थी कि वे पेगम्बरी के 
लिए गैर बशर होने को जरूरी समझते थे। इसकी वजह दरअस्ल वह फर्क था जो उनके अपने 
तसव्वुर के मुताबिक उन्हें पिछले पैगम्बर और समकालीन पेगम्बर में नजर आता था। 

गुजरा हुआ पेगम्बर भी अगरचे अपने वकत में वैसा ही था जैसा कि समकालीन पेगम्बर । 
मगर बाद के दौर में गुजरे हुए पेगम्बरों के पेरोकारों ने उनके गिर्द तिलिस्माती किस्सों का 
हाला बना दिया। बाद के दौर में पैग़म्बरों की शह्सियतों को ऐसा अफसानवी रंग दे दिया 
गया जो इब्तिदा में उनके यहां मौजूद न था। अब कौमों के सामने एक तरफ फर्जी शोअबदों 
करिशमों वाला पैगम्बर था, दूसरी तरफ हकीकी वाकेपात वाला पेगम्बर। इस तकाबुल में 
पिछला पैगम्बर पेगम्बरी के लिए मेयारी नमूना बन गया। और जब कौमों ने इस मेयार के 
एतबार से देवा तो वक्त का हवीकी पेणबर उन्हेमाजी (अतीत) के अफ्सानवी पाबर से 
कम नजर आया। चुनांचे उन्हेनि उसे हकीर (तुच्छ) समझ कर नजरअंदाज कर दिया। 

पैग़म्बरों ने अपने मुखातबीन से कहा कि तुम्हारी इन बातों के जवाब में हमारे पास सत्र 
के सिवा और कुछ नहीं है। तुम गैर बशरियत (अ-मानव) की सतह पर हिदायत के तालिब 
हो। और खुदा ने हमें सिर्फ बशरियत की सतह पर हिदायत देने की ताकत अता की है। ऐसी 
हालत में हम इसके सिवा और क्या कर सकते हैं कि तुम्हारी ईजाओं (यातनाओं) को बर्दाश्त 
करें और इस सारे मामले को ख़ुदा के हवाले कर दें। 


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सूरह-4. इब्राहीम 685 पारा ।3 


और इंकार करने वालों ने अपने पैग़म्बरों से कहा कि या तो हम तुम्हें अपनी जमीन 

से निकाल देंगे या तुम्हें तुम्हारी मिल्लत में वापस आना होगा। तो पैग़म्बरो के रब ने 
उन पर “वही” (ईश्वरीय वाणी) भेजी कि हम इन जालिमाँ को हलाक कर देंगे। और 
उनके बाद तुम्हें जमीन पर बसाएंगे। यह उस शख्स के लिए है जो मेरे सामने खड़ा होने 

से डरे और जो मेरी वईद (चेतावनी) से डरे। (।3-4) 


पेग़म्बरों की दावत से उनकी कौमों के दीन पर जद पड़ती थी। वे लोग अपने जिन अफराद 
को कौम के अकाबिर (बड़ों) का दर्जा दिए हुए थे, पैग़म्बरों के तज्जिए (विश्लेषण) में वे छोटे 
करार पा रहे थे। इस बिना पर वे पैग़म्बरों से बिगड़ गए। वे दलाइल से तो उन्हें रदूद नहीं 
कर सकते थे। अलबत्ता वक्‍त के निजाम में उन्हें हर किस्म का इस़्तियार हासिल था। चुनांचे 
उनकी मुतकब्बिराना नफ्सियात (घमंड-भाव) ने उन्हें समझाया कि पेगम्बर को बेघर और बेजमीन 
कर दिया जाए । जिस चीज का तोड़ उनके पास दलील की जबान में न था, उसका तोड़ उन्होंने 
ताकत के जरिए करने का फैसला किया। 

जो जमीन आदमी के पास है, वह उसके पास बतौर इम्तेहान है न कि बतौर हक। अगर 
आदमी यह समझे कि यह खुदा की चीज है जिसे उसने इम्तेहान की गरज से उसकी तहवील 
(कब्जे) में दिया है तो इससे आदमी के अंदर तवाजोअ की नफ्सियात पैदा होगी। वह डरेगा 
कि जिस खुदा ने दिया है वह उसे दुबारा उससे छीन न ले। मगर गाफिल लोग इसे अपना जाती 
हक समझ लेते हैं। उनका यही एहसास उन्हें जालिम और मुतकब्बिर (घमंडी) बना देता है। 
पैगम्बर की दावत जब तक्मील के मरहले में पहुंचती है तो यह मुखातब कौम के लिए इम्तेहान 
की मोहलत ख़त्म होने के हममअना होती है। इसके बाद वे लोग दुनिया को अपने लिए बिल्कुल 
बदला हुआ पाते हैं। जिन चीजों को वे अपनी चीज समझ कर मुतकब्बिराना मंसूबे बना रहे 
थे वे चीजें अचानक उनका साथ छोड़ देती हैं। यहां तक कि वह वकत आता है जबकि जमीन 
उनसे छीन कर दूसरे लोगों को दे दी जाए जो इनके मुकाबले में उसका ज्यादा इस्तहकाक 
(पात्रता) रखते हों। 


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और उन्होंने फैसला चाहा और हर सरकश, जिद्दी नामुराद हुआ। उसके आगे दोजख़ 
है और उसे पीप का पानी पीने को मिलेगा वह उसे घूंट-घूंट पिएगा और उसे हलक 
से मुश्किल से उतार सकेगा। मौत हर तरफ से उस पर छाई हुई होगी। मगर वह किसी 
तरह नहीं मरेगा और उसके आगे सख्त अजाब होगा। (5-7) 

















खुदा के नजदीक किसी आदमी का सबसे बड़ा जुर्म यह है कि उसे खुदा की तरफ बुलाया 


पारा 3 686 सूरह-4. इब्राहीम 
जाए और वह जब्बार और अनीद (दंभी) बनकर उसका जवाब दे। ऐसे लोगों के लिए दुनिया 
में जिल्लत है और आखिरत में ऐसा शदीद अजाब कि वे हर वक्‍त अपने आपको मौत और 
हलाकत के किनारे पाएंगे। 
जब आदमी किसी के ख़िलाफ जुल्म और सरकशी का रवैया इख्तियार करता है तो वह 
किसी बरते पर ऐसा करता है। ये मुखालिफीन अपने आपको 'अकाबिर' (बड़े) के दीन पर 
समझते थे। इसके मुकाबले में पैगम्बर और उसके साथी उन्हें '“असागिर' (छोटे) दिखाई देते 
थे। उनकी यही नफ्सियात थी जिसने उन्हें आमादा किया कि वे पैगम्बर और उसके साथियों 
के ऊपर हर किस्म के जुल्म को अपने लिए जाइज समझ लें। अपने को 'अकाबिर' से मंसूब 
करने ही की वजह से वे 'असागिर' के खिलाफ हर किस्म की कार्रवाइयों के लिए दिलेर हो 
गए 


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जिन लोगों ने अपने रब का इंकार किया उनके आमाल उस राख की तरह हैं जिसे एक 
तूफानी दिन की आंधी ने उड़ा दिया हो। वे अपने किए में से कुछ भी न पा सकेंगे। 
यही दूर की गुमराही है। क्या तुमने नहीं देखा कि अल्लाह ने आसमानों और जमीन 
को बिल्कुल टीक-ठीक पैदा किया है। अगर वह चाहे तो तुम लोगों को ले जाए और 
एक नई मख़्तूक ले आए। और यह ख़ुदा पर कुछ दुश्वार भी नहीं। (8-20) 














अरब के जिन लोगों ने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का इंकार किया वे सब 
ख़ुदा और मजहब को मानने वाले लोग थे। फिर क्यों वे आपके मुंकिर बन गए। इसकी वजह 
यह थी कि आपकी सतह पर हक अपनी मुजर्रद (साक्षात) सूरत में जाहिर हुआ था। जबकि 
वे लोग सिर्फउस चीज को हक समझते थे जो उनके कैमी बूजों के जरिए उन्हें मिला हो। 
उन्होंने अपने मुसल्लम कौमी बुजुर्गों के दीन को पहचाना, मगर वे “मुहम्मद बिन अब्ुल्लाह' 
के दीन को पहचानने में नाकाम रहे। 

जो लोग कौमी रिवायात के जेरेअसर दीन को पाएं उनके यहां भी दीनी मजाहिर मौजूद 
होते हैं। बल्कि अक्सर उनके यहां दीन की धूम पाई जाती है। ताहम यह सब कुछ महज 
जाहिरी दीनदारी होती है, दीन की असल हकीकत से इसका कोई तअल्लुक नहीं होता। मगर 
खुदा को जो चीज मत्लूब है वह हकीकी दीनदारी है न कि जहिरी हंगामे। 

खुदा को वह इंसान मत्लूब है जिसने जाती शुऊर की सतह पर हक को पाया हो। जिसने 
आलमे गैब में ख़ुदा का मुशाहिदा किया हो। जिसने हक को उसकी मुजर्रद सूरत में पहचाना 


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सूरह-4. इब्राहीम 687 पारा 3 
हो और उसका साथ दिया हो। जिसकी रूह ख़ुदा के समुद्र में नहाई हो। जो ख़ुदा की मुहब्बत 
में तड़पा हो और ख़ुदा के ख़ौफ से जिसकी आंखों ने आंसू बहाए हों। 

पहली किस्म के लोगों की दीनदारी ऊपरी दीनदारी है। कियामत की आंधी उसे इसी 
तरह उड़ा ले जाएगी जिस तरह सतह जमीन की ख़स व ख़ाशाक (धूल-मिट्टी) तेज हवा मे 
उड़ जाती है। इसके बरअक्स दूसरी किस्म के लोगों का दीन हकीकी दीन है। वह इंसानी 
वजूद की आखिरी गहराई तक पेवस्त होता है। ऐसे वजूद के लिए आंधी सिर्फ इसलिए आती 
है कि वह उसकी मजबूती को साबित करे न कि उसे उखाड़ ले जाए। 

कायनात का मुतालआ बताता है कि उसकी तख़्नीक हकाइक पर हुई है। ऐसी कायनात 
मेसिर्फहीवी अमल की वीमत हेसकतीहिन कि मफ्जे (कल्पनाओं) और ख़ुशगुमानियों 


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और ख़ुदा के सामने सब पेश होंगे। फिर कमजोर लोग उन लोगों से कहेंगे जो बड़ाई 
वाले थे, हम तुम्हारे ताबेअ (अधीन) थे तो क्या तुम अल्लाह के अजाब से कुछ हमें 
बचाओगे। वे कहेंगे कि अगर अल्लाह हमें कोई राह दिखाता तो हम तुम्हें भी जरूर वह 
राह दिखा देते। अब हमारे लिए यकसां (समान) है कि हम बेकरार हों या सब्र करें, 
हमारे बचने की कोई सूरत नहीं। (2]) 





इंसान, बतौर वाकया अगरचे हर वक्त खुदा के सामने' है। मगर मौजूदा दुनिया में 
आदमी अपने आपको बजाहिर ख़ुदा के सामने नहीं पाता। आखिरत में यह पर्दा हट जाएगा। 
उस वक्त आदमी देखेगा कि वह इस तरह कामिल तौर पर खुदा के सामने था कि उसकी कोई 
चीज ख़ुदा से छुपी हुई नहीं थी। 

दुनिया मेंजो लोग हक को नजरअंदाज करते हैंउनका सबसे बड़ सहारा उनके मफरूजा 
(काल्पनिक) अकाबिर (बड़े) होते हैं। चाहे वे मुर्दा अकाबिर हों या जिंदा अकाबिर। छोटे जो 
कुछ करते हैं अपने बड़ों के बल पर करते हैं। आख़िरत में जब ये लोग अपने आपको बिल्कुल 
बेबसी की हालत में पाएंगे तो वे अपने बड़ों से कहेंगे कि दुनिया में हम तुम्हारी रहनुमाई पर 
एतमाद किए हुए थे, अब यहां भी तुम हमारी कुछ रहनुमाई करो। 

इसके जवाब में उनके बड़े अपने छोटों से कहेंगे कि आज का दिन तो इसीलिए आया 
है कि वह हमारे बेरहनुमा होने को बेनकाब करे। फिर अब हम तुम्हें क्या रहनुमाई दे सकते 
हैं। हमारी रहनुमाई तो महज वक्ती फरेब थी जो पिछली दुनिया में ख़त्म हो गई। अब तो यही 
है कि तुम भी अपने भटकने का नतीजा भुगतो और हम भी अपनी गुमराही का नतीजा भुगतें । 
हम चाहें या न चाहें, बहरहाल अब हमारा इसके सिवा कोई और अंजाम नहीं। 





पारा ]3 688 सूरह-4. इब्राहीम 
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और जब मामले का फैसला हो जाएगा तो शैतान कहेगा कि अल्लाह ने तुमसे सच्चा 
वादा किया था और मैंने तुमसे वादा किया तो मैंने उसकी ख़िलाफवर्जी की। और मेरा 
तुम्हारे ऊपर कोई जोर न था। मगर यह कि मैंने तुम्हें बुलाया तो तुमने मेरी बात को 
मान लिया पस तुम मुझे इल्जाम न दो, और तुम अपने आपको इल्जाम दो। न में तुम्हारा 
मददगार हो सकता हूं और न तुम मेरे मददगार हो सकते हो। में खुद इससे बेजार हूं 
कि तुम इससे पहले मुझे शरीक ठहराते थे। बेशक जालिमां के लिए दर्दनाक अजाब 
है। (22) 


खुदा की दुनिया वाकेयात की दुनिया है न कि कल्पनाओं की दुनिया। यहां शैतान के वादे 
पर उठना यह है कि आदमी गैर हकीकी बुनियादों पर अपनी जिंदगी की तामीर करना चाहे। 

आदमी हक के दाजी को नजरअंदाज कर दे और दूसरेूसरे कारनामे दिखा कर हक का 
अलमबरदार (ध्वजावाहक) होने का क्रेडिट ले। वह आख़िरत के लिए अमल न करे और 
ख़ुदसाख़्ता मफरूजों के तहत यह उम्मीद कायम कर ले कि उसकी नजात हो जाएगी। वह 
खुदा के अहकाम के मुताबिक जिंदगी न गुजारे और यह यकीन कर ले कि उसका नाम अपने 
आप ख़ुदा के महबूब बंदों में लिख लिया जाएगा। यह सब शैतान के वादों पर भरोसा करना 
है। और आखिरत में आदमी जान लेगा कि सिर्फ ख़ुदा का वादा सच्चा वादा था। और बाकी 
तमाम वादे झूठे भरोसे थे जो कभी पूरे होने वाले नहीं। 

ख़ुदा की दुनिया में गैर खुदा से उम्मीद कायम करना शिक है। इसलिए जो लोग खुदाई 
हकीकतों को नजरअंदाज करते हैं और गे खाई उम्मीदों पर अपनी जिगी का महल खड़ 
करना चाहते हैं। वे गोया ख़ुदा के साथ दूसरी चीजों को ख़ुदा का शरीक ठहरा रहे हैं। ये 
दूसरी चीजें फैसले के दिन उनका कुछ भी सहारा न बन सकेंगी। 


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और जो लोग ईमान लाए और जिन्होंने नेक अमल किए वे ऐसे बागों में दाखिल किए 
जाएंगे जिनके नीचे नहरें बहती होंगी। उनमें वे अपने रब के हुक्म से हमेशा रहेंगे। उसमें 
उनकी मुलाकात एक दूसरे पर सलामती होगी। (23) 





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सूरह-4. इब्राहीम 689 पारा 3 


मुलाकात के ववत अस्सलामु अलैकुम कहना महज एक मुआशिरती रस्म नहीं। यह कल्ब 
तअल्लुक की एक जाहिरी अलामत है। दुनिया का अस्सलामु अलैकुम भी अपनी हकीकत के 
एतबार से यही है और आखिरत का अस्सलामु अलैकुम भी मजीद इजाफे के साथ यही। 

जो लोग दुनिया में इस तरह रहे कि उनके अंदर एक दूसरे के लिए ख़ैरख़्वाही के जज्बात 
भरे हुए थे। जो शिकायतों को नजरअंदाज करके एक दूसरे से मुहब्बत करना जानते थे। जो 
दूसरे के लिए हमेशा वे अल्फाज बोलते थे जिसमें उसका एतराफ और एहतराम शामिल हो। 
जो दूसरे के लिए वही चीज पसंद करते थे जो अपने लिए पसंद करते थे। जिनके सीने में दूसरों 
के लिए सलामती के चशमे उबलते थे और जिनकी आंखे दूसरे की भलाई को देखकर ठंडी होती 
थीं। यही वे लोग हैं जो जन्नत की नफीस दुनिया में बसाए जाने के अहल ठहरेंगे। दुनिया में 
भी उनका यह हाल था कि जब वे अपने भाइयों से मिलते तो उनके लिए उनकी मुहब्बत और 
खैररखाही 'अस्सलामु अलैकुम' की सूरत में टपकती थी। आख़िरत में यही चीज और ज्यादा 
लतीफ और ख़ालिस बनकर अपने जन्नती पड़ौसियों के बारे में उनकी जबानों से निकलेगी। 


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क्या तुमने नहीं देखा, किस तरह मिसाल बयान फरमाई अल्लाह ने कलिमा-ए-तय्यिबा 
(शुभ बात) की। वह एक पाकीजा दरझख़्त की मानिंद है जिसकी जड़ जमीन में जमी हुई 

है। और जिसकी शास्रे आसमान तक पहुंची हुई हैं। वह हर वक्‍त पर अपना फल देता 

है अपने रब के हुक्म से और अल्लाह लोगों के लिए मिसाल बयान करता है ताकि वे 
नसीहत हासिल करें। और कलिमा-ए-ख़बीसा (अशुभ बात) की मिसाल एक ख़राब 
दरख़्त की है जो जमीन के ऊपर ही से उखाड़ लिया जाए। उसे कोई सबात  (टृढ़ता) 
न हो। (24-26) 








मौजूदा दुनिया में अल्लाह तआला ने मुरलिफ हकीकतों की जहिरी तमसीलात कायम 
की हैं। शजर-ए-तय्यिबा (अच्छा दरख्त) एक एतबार से मोमिन की तमसील है। 

दरख्त की यह अजीब ख़ुसूसियत है कि वह पूरी कायनात को अपना गिजाई दस्तरखान 
बनाता है और इस तरह बीज से तरक्की करके एक अजीम दररन्न की सूरत में जमीन के 
ऊपर खड़ा हो जाता है। दरख्त जमीन से पानी और मअदनियात (खनिज) और नमकियात 
(लवण) लेकर बढ़ता है। इसी के साथ वह हवा और सूरज से अपने लिए गिजा हासिल करता 
है। वह नीचे से भी ख़ुराक लेता है और ऊपर से भी। 

यही मोमिन का मामला भी है। आम दरख्त अगर मादूदी (भौतिक) दरख्त है तो मोमिन 


पारा 3 690 सूरह-4. इब्राहीम 


शुऊरी दरख़्त मोमिन एक तरफ दुनिया में खुदा की तख़्लीकात (सृष्टि) और उसके निजाम को 
देखकर इबरत और नसीहत हासिल करता है। दूसरी तरफ 'ऊपर” से उसे मुसलसल ख़ुदा का 
फैजान पहुंचता रहता है। वह म्नात से भी अपने लिए इजाफए ईमान की खुराक हासिल 
करता है और ख़ालिक से भी उसकी कुरबत और मुलाकात बराबर जारी रहती है। 

दरख़्त हर मौसम में अपने फल देता है। इसी तरह मोमिन हर मौके पर वह सही रवैया 
जाहिर करता है जो उसे जाहिर करना चाहिए। मआशी (आर्थिक) तंगी हो या मआशी 
फराख़ी, खुशी का लम्हा हो या ग़म का। शिकायत की बात हो या तारीफ की। जोरआवरी 
की हालत हो या बेजोरी की। हर मौके पर उसकी जबान और उसका किरदार वही रद्देअमल 
जाहिर करता है जो ख़ुदा के सच्चे बंदे की हैसियत से उसे जाहिर करना चाहिए। 

दूसरी मिसाल शजर-ए-ख़बीसा (झाड़ झंकाड़) की है। उसे देखकर ऐसा मालूम होता है 
कि कायनात से उसे बिल्कुल बरअक्स किस्म की खुराक मुहय्या की जा रही है जिसके नतीजे 
में उसके ऊपर कांटे उगते हैं। उसकी शाख़ों में कड़वे और बदमजा फल लगते हैं। उसके पास 
कोई शख्स जाए तो वह बदबू से उसका इस्तकबाल करता है। ऐसे दरख़्त को कोई पसंद नहीं 
करता । वह जहां उगे वहां से उसे उखाड़ कर फेंक दिया जाता है। 

यही मामला गैर मोमिन का है। वह जमीन में एक गैर मत्लूब वजूद की हैसियत से उगता 
है। कायनात अपनी तमाम बेहतरीन निशानियों के बावजूद उसके लिए ऐसी हो जाती है जैसे 
यहां उसके लिए न कोई दलील है और न कोई नसीहत। खुदा का फैजान अगरचे हर ववत 
बरसता है मगर उसे उसमें से कोई हिस्सा नहीं मिलता। उसके किरदार और मामलात में 
इसका इज्हार नहीं होता। 

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अल्लाह ईमान वालों को एक पक्की बात से दुनिया और आख़िरत (परलोक) मेमजूत 


करता है। और अल्लाह जालिमों को भटका देता है। और अल्लाह करता है जो वह 
चाहता है। (27) 











ख़ुदा अहले ईमान को कलिमा तौहीद के जरिए दुनिया में भी साबित कदम रखता है 
और आख़िरत में भी।' दुनिया में साबित कदम रहने से मुराद अपनी जिंदगी के हर मोड़ पर 
खैर और अमले सालेह (नेक अमल) की रविश पर कायम रहना है। आख़िरत में साबित कदम 
रहने से मुराद यह है कि कब्र के सवाल व जवाब के वक्‍त वे कामयाब रहेंगे। 
इंसान हर लम्हा इम्तेहान की हालत में है। उस पर तरह-तरह के पसंदीदा और 
नापसंदीदा अहवाल आते हैं। इन मौकों पर सही खुदाई रविश पर सिर्फ वे लोग कायम रहते 
हैं जो अपने अंदर 'दरख्ते ईमान” उगा चुके हों। वे पेश आने वाली सूरतेहाल में उस सहीतरीन 
रद्देअमल का सुबूत देते हैं जो खुदा की मर्जी के मुताबिक उन्हें देना चाहिए । इसके बरअक्स 
जिस आदमी की शख्सियत झाड़ झंकाड़ की मानिंद उगी हो वह हर तजर्ब में कड़वाहट का सुबूत 


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सूरह-4. इब्राहीम 69I पारा ।3 


देता है। वह हर मौके पर कांटा और बदबू साबित होता है। 

दोनों किस्म के इंसान जब कब्र के मरहले में आखिरी तौर पर जांचे जाएंगे तो जो 
शजर-ए-तय्यिबा था वह शजर-ए-तय्यिबा साबित होकर जन्नत के बाग़ में दाखिल कर दिया 
जाएगा। और जो शजर-ए-ख़बीसा था उसके साथ ऐसा मामला होगा गोया वह दुनिया से 
सिफ इसलिए उखाड़ा गया था कि जहन्नम का ईधन बनने के लिए जहन्नम की आग में फेंक 
दिया जाए 


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क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जिन्होंने अल्लाह की नेमत के बदले कुफ्र किया और 
जिन्होंने अपनी कौम को हलाकत के घर में पहुंचा दिया, वे उसमें दाखिल होंगे और वह 
कैसा बुरा ठिकाना है। और उन्होंने अल्लाह के मुकाबिल ठहराए ताकि वे लोगों को 
अल्लाह के रास्ते से भटका दें। कहो कि चन्द दिन फायदा उठा लो, आखिरकार तुम्हारा 
ठिकाना दोजख़ है। (28-30) 





इन आयात का इब्तिदाई ख़िताब कुंरेश के सरदारों से है। मगर इसके उमूमी इंतिबाक 
(चरितार्थता) में वे तमाम लीडर शामिल हैं जो हक के इंकार की मुहिम की सरदारी करते हैं। 
किसी कौम के बड़े वही लोग बनते हैं जिन्हें खुसूसी नेमतें और मवाकेअ (अवसर) हासिल 
हों। इन नेमतों और मवाकेअ का सहीतरीन इस्तेमाल यह है कि जब उनके सामने हक की दावत 
उठे तो वे अपने तमाम वसाइल के साथ उसकी जानिब खड़े हों और उसकी पूरी मदद करें। जो 
चीजें खुदा की दी हुई हैं उन पर सबसे ज्यादा हक खुदा का है न कि किसी और का। 
मगर अक्सर हालात में मामला इसके बरअक्स होता है। ऐसे लोग न सिर्फ यह कि हक 
को कुबूल नहीं करते बल्कि उसके खिलाफ उठने वाली तहरीक की कयादत करते हैं। इसकी 
वजह यह है कि अपने से बाहर उठने वाले हक को कुबूल करना गोया अपने आपको उसके 
मुकाबले में छोटा करना है। और ऐसा बहुत कम होता है कि वे लोग उस पर राजी हो जाएं 
जिन्हें किसी वजह से माहौल में बड़ाई का दर्जा मिल गया हो। 
इंसान को एक खुदा चाहिए । एक ऐसी हस्ती जिसे वह अपनी जिंदगी में सबसे बड़ा मकाम 
दे सके। चुनांचे जब भी कोई शख्स लोगों की तवज्जोह ख़ुदाए वाहिद से हटाता है तो इसका 
नतीजा यह होता है कि लोगों की तवज्जोह किसी गैर ख़ुदा की तरफ मायल हो जाती है। ख़ुदा 
को छोड़ना हमेशा गैर खुदा को अपना खुदा बनाने की कीमत पर होता है। मजीद यह कि ख़ुदा 
से लोगों को हटाने वाले किसी गैर खुदा में फर्जी तौर पर वह आला सिफात साबित करते हैं 
जो सिर्फ खुदा में पाई जाती हैं। क्योकि जब तक गैर ख़ुदा में वे आला सिफात साबित न की 
जाएं लोग उसकी तरफ मुतवज्जह नहीं हो सकते। यही वजह है कि आदमी जब एक खुदा की 





पारा 3 692 सूरह-4. इब्राहीम 
परस्तिश छोड़ता है तो वह इसके बाद लाजिमी तौर पर तवहहुमपरस्ती में पड़ जाता है। ख़ुदा 
को छोड़ने का वाहिद बदल इस दुनिया में तवहहुमपरस्ती (अंधविश्वास) है। 
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मेरे जो बंदे ईमान लाए हैं उनसे कह दो कि वे नमाज कायम करें और जो कुछ हमने 


उन्हें दिया है उसमें से खुले और छुपे ख़र्च करें इससे पहले कि वह दिन आए जिसमें 
न ख़रीद व फरोख्त होगी और न दोस्ती काम आएगी। (3]) 








आदमी के ऊपर जब कोई मुसीबत आती है तो वह उससे बचने की हर मुमकिन कोशिश 
करता है। अगर उसके कुछ साथी हैं तो वह साथियों का जोर इस्तेमाल करता है। और अगर 
दौलत है तो दौलत को उसकी राह में ख़र्च करता है। अपने को बचाने की तड़प आदमी को 
मजबूर करती है कि वह इन दोनों चीजों की तरफ दैड़े। 

नमाज और इंफाक (अल्लाह की राह में खच) हकीकतन आहरत के मसले के बारे में 
आदमी के इसी एहसास का दुनियावी इज्हार हैं। नमाज गोया आख़िरत की हौलनाकी की याद 
करके ख़ुदा की पनाह की तरफ भागना है ताकि उसकी मदद से वह अपने आपको बचाए। 
इसी तरह दुनिया में खुले और छुपे खर्च करना गोया अपनी कमाई को आख़िरत की मद में 
देना है ताकि वह आख़िरत की मुसीबत से छुटकारा हासिल करने का जरिया बने। 

आखिरत में वही आदमी सहारा पाएगा जिसने दुनिया में ख़ुदा का सहारा पकड़ा हो। 
आख़िरत में वही आदमी छुटकारा हासिल करेगा जिसने दुनिया में उसकी ख़ातिर अपने दाएं 
बाएं खर्च किया हो। जो लोग दुनिया में ऐसा न कर सकें वे आख़िरत में सहारे के लिए दौड़ेंगे 
मगर वहां वे कोई सहारा न पाएंगे। वे आख़िरत में ख़र्च करना चाहेंगे मगर उनके पास कुछ 

होगा जिसे फिदया देकर वे वहां की मुसीबतों से नजात हासिल करें। 


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अल्लाह वह है जिसने आसमान और जमीन बनाए और आसमान से पानी उतारा। फिर 
उससे मुख्तलिफ फल निकाले तुम्हारी रोजी के लिए और कश्ती को तुम्हारे लिए 
मुसख्खर (अधीनस्थ) कर दिया कि समुद्र में उसके हुक्म से चले और उसने दरियाओं 
को तुम्हारे लिए मुसख्खर किया। और उसने सूरज और चांद को तुम्हारे लिए मुसरुख़र 











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सूरह-4. इब्राहीम 693 पारा 3 
कर दिया कि बराबर चले जा रहे हैं और उसने रात और दिन को तुम्हारे लिए मुसरुख़र 
कर दिया। और उसने तुम्हें हर चीज में से दिया जो तुमने मांगा। अगर तुम अल्लाह 
की नेमतों को गिनो तो तुम गिन नहीं सकते। बेशक इंसान बहुत बेइंसाफ और बड़ा 
नाशुक्रा है। (३2-३4) 








मौजूदा दुनिया इंतिहाई हैरतनाक हद तक ख़ुदा की गवाही दे रही है। वसीअ खला में सितारों 
और सथ्यारा 6हे की गवि, पानी के जरिए जमीन पर जिगी और स्किकी फाहमी, रकी 
और तरी और फजा पर इंसान को यह कुदरत होना कि वह उनमें अपनी सवारियां दौड़ाए, 
दरियाआं और पहाड़ों के जरिए जमीन का इंसान के मुवाफिक हो जाना, सूरज और चांद के 
जरिए मौसमों का और रात और दिन का इतिजाम, सब कुछ इससे ज्यादा अजीम है कि इन्हें 
लफ्जों में बयान किया जा सके । इंसान और कायनात में इतनी कामिल मुताबिकत (अनुकूलता) 
हैकि इंसान को हर काबिले कयास (अनुमान योग्य) या नाकबिले कयास जरूरत पेशगी तौर 
पर यहां बइफरात (बहुलता से) मौजूद है। 
ये तमाम चीजें इतनी ज्यादा अजीब हैं कि आदमी को हिला दें और उसे बंदगी के जज्बे 
से सरशार कर दें इसके बावजूद ऐसा क्यों नहीं होता कि कायनात को देखकर आदमी के अंदर 
इस्तेजाब (विस्मय) की कैफियत पैदा हो। ख़ालिके कायनात के तसब्बुर से उसके बदन के रोंगटे 
खड़े हो जाएं। इसकी वजह यह है कि आदमी पेदा होते ही कायनात को देखता है, देखते-देखते 
वह उसे एक आम चीज मालूम होने लगती है। इसमें उसे कोई अनोखापन नजर नहीं आता। 
मजीद यह कि इस दुनिया में आदमी को जब कोई चीज मिलती है तो वह बजाहिर उसे 
असबाब के तहत मिलती हुई नजर आती है। इस बिना पर वह समझ लेता है कि जो चीज 
उसे मिली है वह उसकी अपनी महनत और सलाहियत की बिना पर मिली है। यही वजह है 
कि आदमी के अंदर देने वाले खुदा के लिए शुक्र का जज्बा पैदा नहीं होता। 
इंसान की यही वह गफलत है जिसे यहां बेइंसाफी और नाशुक्रगुजारी से ताबीर (परिभाषित) 
किया गया है। 


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और जब इब्राहीम ने कहा, ऐ मेरे रब, इस शहर को अम्न वाला बना। और मुझे और 
मेरी औलाद को इससे दूर रख कि हम बुतों की इबादत करें। ऐ मेरे रब इन बुतों ने 


बहुत लोगों को गुमराह कर दिया। पस जिसने मेरी पैरवी की वह मेरा है। और जिसने 
मेरा कहा न माना तो तू बर्शने वाला महरवान है। (35-36) 











हजरत इब्राहीम के जमाने तक मुल्कों और कीमों का यह हाल हो चुका था कि हर तरफ 
शिर्क का दौर दौरा था। सूरज चांद और दूसरे मजाहिरे फितरत इंसान की परस्तिश का मौजूअ 


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पारा 3 694 सूरह-4. इब्राहीम 


बने हुए थे। कदीम जमाने में जिंदगी की तमाम सरगर्मियों पर शिर्क का इस तरह गलबा हुआ 
कि इंसानी नस्लों में शिक का तसलसुल कायम हो गया। बजाहिर यह नामुमकिन नजर आने 
लगा कि लोगों को शिक की फजा से निकाल कर तौहीद के दायरे में लाया जा सके। उस 
वक्त खुदा के हुक्मे ख़ास के तहत हजरत इब्राहीम इराक से निकल कर आरब के सहर में 
आए जो तमदूदुन (संस्कृति) से दूर बिल्कुल गैर आबाद इलाका था। आपने अगल-थलग 
माहौल में अपनी बीवी हाजरा और अपने बच्चे इस्माईल को बसाया। ताकि यहां वक्‍त के 
मुश्रिकाना तसलसुल से कटकर एक नई नस्ल तैयार हो। जो आजादाना फजा में परवरिश 
पाकर अपनी सही फितरत पर कायम हो सके। हजरत इब्राहीम का कलाम दुआ के अंदाज 
मेंइसी ख़स हकीकत को जहिर कर रहा है। 

बनू इस्माईल को ख़ुश्क और गैर आबाद बयाबान में बसाने से ख़ुदा का मंसूबा यही था, 
अब यहां के जिन लोगों ने तौहीद (एकेश्वरवाद) को अपने दिल की आवाज बनाया वे गोया 
बागे इब्राहीम की सही पैदावार थे। इसके बरअक्स जिन लोगों ने दुबारा शिक का तरीका 
इख्तियार कर लिया वे उस बाग की नाकिस पैदावार करार पाएंगे। 


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ऐ हमारे रब, मैंने अपनी औलाद को एक बेखेती की वादी में तेरे मोहतरम घर के पास 


बसाया है। ऐ हमारे रब ताकि वे नमाज कायम करें। पस तू लोगों के दिल उनकी तरफ 
मायल कर दे और उन्हें फलों की रोजी अता फरमा। ताकि वे शुक्र करें। (37) 





की (प्राचीन) मक्का जहां बनू इस्माईल बसाए गए वहां की पहाड़ी और सहराई 
दुनिया गोया खुदा की मअरफत (अन्तर्ज्ञान) की कुदरती तर्बियतगाह थी। दूसरी तरफ वहां 
इंसानी तामीरात के एतबार से वाहिद काबिले लिहाज निशान अल्लाह का काबा था। एक 
तरफ फितरत का माहौल इंसान के अंदर खुदा की याद उभारने वाला था। इसके बाद अपने 
करीब उसे जो नुमायां चीज नजर आती थी वह हजरत इब्राहीम और हजरत इस्माइल की 
बनाई हुई पत्थरों की मस्जिद थी जिसमें दाखिल होकर वह ख़ुदा को याद में मशगूल हो जाए। 
फिर इस माहील में बनू इस्माईल को मोजिजाती तौर पर जमजम के जरिए पानी मुह्या 
किया गया। इसी के साथ उनके लिए यह इंतिजाम किया गया कि ऐसी पैदावार से उन्हें रिज्क 
मिले जो उनके कदमों के नीचे पैदा नहीं होता। यह गोया उन्हें शाकिर (कृतज्ञ) बनाने का ख़ुसूसी 
एहतिमाम था। गैर मामूली नेमत से आदमी के अंदर शुक्र का गैर मामूली जज्बा उभरता है। 
और यही वह हिक्मत है जो हजरत इब्राहीम की इस दुआ में छुपी हुई थी कि सहरा में उन्हें 
फलों की रोजी दे। 


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ऐ हमारे रब, तू जानता है जो कुछ हम छुपाते हैं और जो कुछ हम जाहिर करते हैं। और 
अल्लाह से कोई चीज छुपी नहीं, न जमीन में और न आसमान में। शुक्र है उस खुदा 
का जिसने मुझे बुढ़ापे में इस्माईल और इस्हाक दिए। बेशक मेरा रब दुआ का सुनने 
वाला है। ऐ मेरे रब, मुझे नमाज कायम करने वाला बना। और मेरी औलाद में भी। 


ऐ मेरे रब मेरी दुआ कुबूल कर। ऐ हमारे रब, मुझे माफ फरमा और मेरे वालिदेन को 
और मोमिनीन को, उस रोज जबकि हिसाब कायम होगा। (38-47) 





हजरत इब्राहीम की इस दुआ में वे तमाम जज्बात झलक रहे हैं जो एक सच्चे बंदे के 
अंदर खुदा को पुकारते हुए उमंडते हैं। उसकी बंदगी जोर करती है कि वह ख़ुदा के सामने 
अपनेइज (निर्बलता) का इकरार करे। जो कुछ मांगे जरूरतमंदी की बुनियाद पर मांगे न कि 
इक्क (अधिकार) की बुनियाद पर। एक तरफ वह मिली हुई नेमतों का एतराफ करे और 
दूसरी तरफ अदब के तमाम तकाजें के साथ अपनी दरर्ब्रास्त पेश करे। वह इकरार करे कि 
ख़ुदा देने वाला है और इंसान पाने वाला। 
वह अपने रब से यह तौफीक मांगे कि वह दुनिया में उसका परस्तार बनकर रहे। इसी 
की दरख़्वास्त वह अपने लिए भी करे और अपने अहले खानदान के लिए भी और इसी की 
दरख़्वास्त तमाम मोमिनीन के लिए भी। दुआ के वक्‍त उसके सामने जो सबसे बड़ा मसला 
हो वह दुनिया का न हो बल्कि आख़िरत का हो जहां अबदी तौर पर आदमी को रहना है। 
इन आदाब के साथ जो दुआ की जाए वह पैग़म्बराना दुआ है और ऐसी दुआ अगर 
सच्चे दिल से निकले तो वह जरूर खुदा के यहां कुबूलियत का दर्जा हासिल करती है। 
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और हरगिज मत ख्याल करो कि अल्लाह इससे बेख़बर है जो जालिम लोग कर रहे हैं। 
वह उन्हें उस दिन के लिए ढील दे रहा है जिस दिन आंखें पथरा जाएंगी। वे सिर उठाए 
हुए भाग रहे होंगे। उनकी नजर उनकी तरफ हटकर न आएगी और उनके दिल 
बदहवास होंगे। (42-43) 





पारा 3 696 सूरह-4. इब्राहीम 





आदमी के सामने हक आता है तो वह उसका मुखालिफ बनकर खड़ा हो जाता है। वह 
उसके मुकाबले में ऐसी बेखौफी का मुजाहिरा करता है जैसे कि उससे ज्यादा बहादुर दुनिया 
में और कोई नहीं। 

मगर यही हक जो मौजूदा दुनिया में 'दाऔ' की सतह पर जाहिर होता है वह आख़िरत 
में 'खुदा' की सतह पर जाहिर होगा। उस दिन ऐसे लोगों की सारी बहादुरी जाती रहेगी। 
आखिरत का हौलनाक मंजर देखकर उनका यह हाल होगा कि जब उनकी निगाहें उठेंगी तो 
वे उठी की उठी रह जाएंगी, पलक झपकने की नौबत भी नहीं आएगी। वे सर उठाए हुए तेजी 
से मैदाने हशर की तरफ भाग रहे होंगे। और उनके दिल दहशत की वजह से उड़ रहे होंगे। 


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और लोगों को उस दिन से डरा दो जिस दिन उन पर अजाब आ जाएगा। उस वक्‍त 

जालिम लोग कहेंगे कि ऐ हमारे रब, हमें थोड़ी मोहलत और दे दे, हम तेरी 

दावत(आझ्वान) कुबूल कर लेंगे और रसूलों की पेरवी करेंगे। क्या तुमने इससे पहले 
कसम नहीं खाई थीं कि तुम पर कुछ जवाल (पतन) आना नहीं है। और तुम उन लोगों 

की बस्तियों में आबाद थे जिन्होंने अपने जानों पर जुल्म किया। और तुम पर खुल चुका 
था कि हमने उनके साथ क्या किया। और हमने तुमसे मिसालें बयान कीं। और उन्होंने 


अपनी सारी तदबीरें (युक्तियां) कीं और उनकी तदबीरें अल्लाह के सामने थीं। अगरचे 
उनकी तदबीरें ऐसी थीं कि उनसे पहाड़ भी टल जाएं। (44-46) 





आदमी का हाल यह है कि एक दिन पहले तक भी वह अपने अंजाम का एहसास नहीं 
करता। उसे अगर कोई कुव्वत या हैसियत हासिल हो तो वह इस तरह अकड़ता है गोया कि 
उसकी हैसियत कभी उससे छिनने वाली नहीं। वह ख़ुदा की दावत (आह्वान) को ठुकराता 
है और भूल जाता है कि वह जिन चीजों के बल पर उसे ठुकरा रहा है वे सब खुदा की ही 
दी हुई हैं। उसके सामने दलाइल आते हैं मगर वह उन पर ध्यान नहीं देता । माजी के सरकशों 
का अंजाम उसके सामने होता है मगर वह समझता है कि जो कुछ हुआ वह सिर्फ दूसरों के 
लिए था। ख़ुद उसके अपने लिए कभी ऐसा होने वाला नहीं। 

मौजूदा दुनिया में जिन लोगों को मवाकेअ (अवसर) हासिल हैं वे हक को नजरअंदाज 
करने में फख़ महसूस करते हैं। मगर मौत के बाद जब वे अपनी सरकशी का अंजाम देखेंगे 








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सूरह-4. इब्राहीम 697 पारा ।3 


तो उन्हें अपने माजी पर इस कद्र शर्म आएगी कि वे चाहेंगे कि अगर उन्हें दुबारा मोहलत मिले 
तो वे मौजूदा दुनिया में आकर खुद अपनी तरदीद (खंडन) करें। और उस चीज को मानलें 
जिसका इससे पहले उन्होंने फख़या तोर पर इंकार कर दिया था। 

हक की मुखलिफत खुदा की मुरलिफत है। जिस हक के साथ खुदा हो उसकी 
मुखालिफत करने वाले हमेशा नाकाम रहते हैं, चाहे वे उसके खिलाफ इतनी बड़ी तैयारियों के 
साथ आए हों जो पहाड़ को हिलाने के लिए भी काफी साबित हो। 


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पस तुम अल्लाह को अपने पेग़म्बरों से वादाख्िलाफी करने वाला न समझो। बेशक 
अल्लाह जबरदस्त है, बदला लेने वाला है। जिस दिन यह जमीन दूसरी जमीन में से बदल 

जाएगी और आसमान भी। और सब एक जबरदस्त अल्लाह के सामने पेश होंगे। और 
तुम उस दिन मुजरिमों को जंजीरों में जकड़ा हुआ देखोगे। उनके लिबास तारकोल के 
होंगे। और उनके चेहरों पर आग छाई हुई होगी ताकि अल्लाह हर शख्स को उसके किए 
का बदला दे। बेशक अल्लाह जल्द हिसाब लेने वाला है। यह लोगों के लिए एक एलान 
है और ताकि इसके जरिए से वे डरा दिए जाएं। और ताकि वे जान लें कि वही एक 
माबूद (पूज्य) है और ताकि दानिशमंद (प्रबुद्ध) लोग नसीहत हासिल करें। (47-52) 


पैगम्बर खुदा के दीन की गवाही अपनी कामिल सूरत में देता है। इसलिए पैगम्बर के साथ 
ख़ुदा की नुसरत (मदद) भी अपनी कामिल सूरत में आती है। बाद के पैरोकार जितना-जितना 
पैगम्बर के नमूने पर पूरे उतरेंगे उतना-उतना वे खुदा की नुसरत के मुस्तहिक होते चले जाएंगे। 

आज इंसान जमीन पर ऐसा महसूस करता है जैसे वह ख़ुश्की और तरी का मालिक हो। 
वह फजओं और ख़लाओं (अंतरिक्ष) को कंट्रोल कर सकता है। वह इर््ियार रखता है कि 
यहां के वसाइल को जिस तरह चाहे इस्तेमाल करे और जिस तरह चाहे इस्तेमाल न करे। मगर 
ये सब कुछ सिफ इसलिए है कि ख़ुदा ने इम्तेहान की मुदूदत तक जमीन व आसमान को इंसान 
के लिए मुसख्ख़र (अधीनस्थ) कर रखा है। इम्तेहान की मुद्दत ख़त्म होते ही हालात यकसर 
बदल जाएंगे। इसके बाद जमीन भी दूसरी जमीन होगी और आसमान भी दूसरा आसमान । इंसान 
अचानक अपने को एक और ही दुनिया में पाएगा। 

जहां आदमी अपने आपको हुकमरां समझता है वहां सारी हुकूमत सिर्फ खुदा के लिए हो 


सूरह-।5. अल-हिज्र 
चुकी होगी । जहां हर चीज उसके हुक्म के ताबेअ थी वहां हर चीज उसकी ताबेदारी करना छोड़ 
देगी। मौजूदा दुनिया में जो लोग बड़े बने हुए थे वे उस दिन बेबस मुजरिम के रूप में नजर 
आएंगे। जो लिबास आज जिस्म को जीनत (सज्जा) देता है वह उस दिन ऐसा हो जाएगा जैसे 
जिस्म के ऊपर तारकोल फेर दी गई हो। पुररौनक चेहरे उस दिन आग में झुलसे हुए होंगे। 
और यह सब कुछ उन लोगों के साथ होगा जो दुनिया में खुदा का बंदा बनकर रहने पर राजी 
न हुए। जिन्हेनि खुदा की तरफ से होने वाले एलान को नजरअंदाज किया। 

ह्वीकत का हकीकत हेमा काफी नहैंहिकि आदमी उसे मान ले। हकीकत कोमानने 
के लिए जरूरी है कि आदमी खुद भी उसे मानना चाहे। जो शख्स हकीकत के मामले में 
संजीदा हो, जो ़ली जेहन होकर उसे सुने वही हकीकत को समझेगा, वही हकीकत का सही 
इस्तकबाल करने में कामयाब होगा। 


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(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

अलिफ० लाम० रा०। ये आयते हैं किताब की और एक वाजेह (सुस्पष्ट) कुआन की। 
वह वक्‍त आएगा जब इंकार करने वाले लोग तमन्ना करेंगे कि काश वे मानने वाले बने 
होते। उन्हें छोड़ो कि वे खाएं और फायदा उठाएं और ख्याली उम्मीद उन्हें भुलावे में डाले 
रखे, पस आइंदा वे जान लेंगे। और हमने इससे पहले जिस बस्ती को भी हलाक किया 
है उसका एक मुकर ववत लिखा हुआ था। कोई कैम न अपने मुर्कश ववत से आगे 
बढ़ती और न पीछे हटती। (-5) 


दुनिया में इंसान को जो आजादी मिली हुई है वह सिर्फ इम्तेहान की मुदूदत तक के लिए 
है। यह एक बहुत नाजुक सूरतेहाल है। अगर आदमी वाकई तौर पर इसे सोचे तो वह ऐसा 
महसूस करेगा कि जो मुदूदत कल ख़त्म होने वाली है वह गोया आज ख़त्म हो चुकी है। यह 
ख्याल उसे हिलाकर रख देगा। मगर आदमी सिर्फ 'आज” में जीता है, वह 'कल' पर ध्यान 
नहीं देता। उसके सामने हकीकत खोली जाती है मगर वह खुशफहमियों में मुन्तिला होकर रह 
जाता है। वह खुदसाख़्ता तौर पर कुछ फर्जी सहारे तलाश कर लेता है और समझता है कि ये 
सहारे फैसले के ववत उसके काम आएंगे। 


पारा ।4 698 


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सूरह-5. अल-हिज़ 699 पारा ।4 
मगर गफलत और खुशगुमानी का तिलिस्म उस वक्त टूट जाता है जब मुदूदत ख़त्म होती 
है और ख़ुदा के फरिश्ते उसके पास आ जाते हैं ताकि उसे इम्तेहान की दुनिया से निकाल कर 
अंजाम की दुनिया में पहुंचा दें। 
उस वक्‍त उसे वे मौके याद आने लगते हैं जबकि उसने एक सच्ची दलील को झूठे 
अल्फाज के जरिए रदूद करने की कोशिश की थी। जब उसने जमीर की आवाज को छोड़कर 
अपनी ख़्वाहिशात की पैरवी की थी। जब उसने ख़ुदा के दाओ में ख़ुदा की झलकियां पाने के 
बावजूद जाती पिंदार की ख़ातिर उसे नजरअंदाज कर दिया था। जब वह देखेगा कि मेरी कोई 
तदबीर मेरे काम नहीं आई तो वह कहेगा कि काश मैंने वह न किया होता जो मैंने किया। 
काश मैं “मुंकिर' का तरीका इख््ियार करने के बजाए 'मुस्लिम' का तरीका इख़्तियार करता। 


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और ये लोग कहते हैं कि ऐ वह शख्स जिस पर नसीहत उतरी है तू बेशक दीवाना है। 
अगर तू सच्चा है तो हमारे पास फरिश्ता को क्यों नहीं ले आता। हम फरिश्ता को सिर्फ 
फैसले के लिए उतारते हैं और उस वक्‍त लोगों को मोहलत नहीं दी जाती। (6-8) 








पैगम्बर के मुख़ातबीन ने पैग़म्बर के ऊपर दीवानगी का शुबह किया। इसकी वजह क्या 
थी। इसकी वजह पैगम्बर की दावत थी जिसका मतलब यह था कि 'मैं खुदा का नुमाइंदा हूं। 
जो शख्स मेरी बात मानेगा वह कामयाब होगा और जो शख्स नहीं मानेगा वह नाकाम होकर 
रह जाएगा ।' 

मगर ये मुखातबीन अमलन जो कुछ देख रहे थे वह इसके बरअक्स था। उनका अपना यह 
हाल था कि उन्हें वक्त के राइज निजाम में सरदारी और पेशवाई का मकाम हासिल था। दूसरी 
तरफ पैगम्बर एक गैर रवाजी दीन का दाओ होने की वजह से राइज निजाम में बेहसियत और 
अजनबी बना हुआ था। इस फर्क की बिना पर मुख़ातबीन को यह कहने की जुरअत हुई कि 
तुम हमें दीवाना मालूम होते हो। हर किस्म की दुनियावी ख़बियां तो ख़ुदा ने हमें दे रखी हैं और 
तुम कहते हो कि कामयाबी तुम्हारे लिए है और तुम्हारा साथ देने वालों के लिए। 

मगर यह उनके जविय-ए-नजर (दृष्टिकोण) का फर्क्रथा। वे अपनी चीजेको इनाम! 
के तौर पर देख रहे थे। हालांकि ये तमाम चीजें सिर्फ 'आजमाइश' का सामान हैं जो मौजूदा 
दुनिया में किसी को वक्ती तौर पर दी जाती हैं। 

वे ये भी कहते थे कि तुम्हारे दावे के मुताबिक तुम्हारे पास खुदा के फरिश्ते आते हैं तो 
ये फरिश्ते हमें क्यों नहीं दिखाई देते। यह भी जाविय-ए-नजर के फर्क की बिना पर था। 
पैगम्बर के पास जो फरिश्ता आता है वह वहीं (प्रकाशना) का फरिश्ता होता है जो ख़ुदा का 
कलाम पैगम्बर तक पहुंचाता है। इसके अलावा खुदा के वे फरिश्ते भी हैं जो इसलिए आते हैं 


पारा ।4 700 सूरह-5. अल-हिज़ 


कि वे हकीकत को लोगों के सामने बेनकाब कर दें। मगर वे दावत (आह्वान) की तक्मील के 
बाद आते हैं और जब वे आते हैं तो यह फैसला करने का वक्‍त होता है न कि ईमान की तरफ 


बुलाने का। 
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यह याददिहानी (किताब) हम ही ने उतारी है और हम ही इसके मुहाफिज (संरक्षक) 
हैं। (9) 


कुआन को खुरा ने उतारा है और वही उसकी हिफजत करने वाला है। नुजूने कुरआन 
के वक्त इस इर्शाद का बराहेरास्त ख़िताब कुंरेश से था। मगर वसीअतर मञनों में यह पूरी 
इंसानियत के लिए एक चैलेन्ज था। इस तरह सातवीं सदी ईसवी से लेकर कियामत तक के 
इंसानों के सामने एक ऐसा कतई मेयार रख दिया गया जिसके ऊपर जांच कर वे देख सकें 
कि कुरआन वाकई खुदा की किताब है या नहीं। 

जिस वक्‍त यह चैलेन्ज दिया गया उस वक्‍त तमाम जाहिरी इम्कानात इसके सरासर 
खिलाफ थे। किसी निजाई (विवादित) किताब को मुस्तकिल तौर पर महफूज रखने के लिए 
ताकतवर जमाअत दरकार है। और नुजूने कुरआन के वकत उसके हामिलीन (धारक) अपने 
दुश्मनों के मुकाबले में बिल्कुल कमजोर हैसियत रखते थे। कागज और प्रेस का दौर भी दुनिया 
में नहीं आया था जिसने मौजूदा जमाने में किसी किताब की हिफाजत को बहुत आसान बना 
दिया है। किताब जैसी एक चीज को महफूज रखने के लिए उसकी जबान को महफून रखना 
भी लाजिमी तौर पर जरूरी था, जबकि तारीख़ बताती है कि कोई जवान कभी मुस्तकिल तौर 
पर बाकी नहीं रहती । कुरआन मौजूदा साइंसी दौर से बहुत पहले रिवायती (परम्परागत) दौर 
में आया। ऐसी हालत में इसके जिंदा और महफूज रहने के लिए जरूरी था कि उसके 
मजामीन अबदी (सर्वागीण) जांच में पूरे उतरें। 

इन तमाम चेलेन्जों को मुकाबला करते हुए कुरआन पूरी तरह महफूज (सुरक्षित) रहा। 
और आज भी वह पूरी तरह महफूज है। यह इस बात का कतई सुबूत है कि यह खुदा की 
किताब है। डेढ़ हजार साल पहले के दौर में तैयार की जाने वाली कोई भी किताब इस तरह 
जि आ महपून नहीजिस तरह कुआन आज जि औ महफूनहे। 

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और हम तुमसे पहले गुजरी हुई कीमों में रसूल भेज चुके हैं। और जो रसूल भी उनके 
पास आया वे उसका मजाक उड़्ते रहे। इसी तरह हम यह (मजाक) मुजरिमीन के दिलों 





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सूरह-5. अल-हिज़ 70I पारा 4 


में डाल देते हैं। वे इस पर ईमान नहीं लाएंगे। और यह दस्तूर अगलों से होता आया 
है। और अगर हम उन पर आसमान का कोई दरवाजा खोल देते जिस पर वे चढ़ने लगते 
तब भी वे कह देते कि हमारी आंखों को धोखा हो रहा है, बल्कि हम पर जादू कर दिया 
गया है। (0-5) 


हर दौर में खुदा के पेग़म्बरों का मजाक उड़ाया गया है। इसकी वजह यह थी कि लोगों 
ने बतौर खुद जो फर्जी मेयार किसी को खुदा का नुमाइंदा करार देने के लिए बना रखे थे, 
उस पर उनके पैगम्बर पूरे नहीं उतरते थे। इस मेयार के एतबार से पैगम्बर उन्हें कमतर नजर 
आता था। इसलिए लोगों ने पेगम्बरों को इस्तहजा (मज़ाक) का विषय बना लिया। 
किसी नई हकीकत को पाने के लिए जरूरी है कि आदमी खुले जेहन के साथ सोचने 
और ख़ालिस वाकेयात की बुनियाद पर राय कायम करने के लिए तैयार हो। जो लोग सच्चाई 
का इंकार करते हैं वे अक्सर इसलिए ऐसा करते हैं कि सच्चाई उन्हें अपने मानूस (परिचित) 
मेयार के एतबार से अजनबी मालूम होती है। यह मानूस मेयार लम्बे अर्से के बाद उनके दिल 
में ऐसा रच बस जाता है कि उससे बाहर निकल कर सोचना उनके लिए नामुमकिन हो जाता 
है। वे आख़िर वक्त तक भी अपने मानूस दायरे से बाहर की सच्चाई को पहचान नहीं पाते। 
कीमों के इसी मिजाज का नतीजा था कि मोजिजे को देखकर भी लोग इमान नहीं लाए। 
जिस शख्ियत के बारे में उनके जाहिरी हालात की बिना पर उनका यह जेहन बन गया था 
कि यह एक मामूली आदमी है वह फिर भी उनकी नजर में मामूली ही रहा। बाद को अगर 
उसने कोई ख़ारिके आदत (अस्वाभाविक) चीज दिखाई तो चूंकि दूसरे पहलुओं के एतबार से 
वह बजाहिर अब भी उनके लिए गैर अहम था, उन्होंने समझ लिया कि यह कोई जादू या 
नजरबंदी है। न कि हकीकतन उसके खुदा के नुमाईदे होने का सुबूत । 


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और हमने आसमान में बुर्ज बनाए और देखने वालों के लिए उसे रौनक दी। और उसे 
हर शैतान मूद से महफूज किया। अगर कोई चोरी छुपे सुनने के लिए कान लगाता 
है तो एक रोशन शोला उसका पीछा करता है। (6-8) 





कायनात में बेशुमार सितारे फैले हुए हैं। मगर ये सितारे मज्मूओं (संग्रह) की सूरत में हैं। हर 
एक मज्मूऐ को एक कहकशां कहा जाता है। हो सकता है कि बुरूज से मुराद ये कहकशाएं हों । 
'जथ्यन्नाहा लिन्नाजिरीन' में सादा तैर पर सिर्फ जैनत' स्मे मुराद नहीं है बल्कि 
आसमान का वह हैरानकुन मंजर मुराद है जो रात के वक्त उसका होता है। रात को जब 
बादल और गर्द व गुबार न हों, खुले मैदान में खड़े होकर आसमान की तरफ नजर डालें तो 
वसीअ आसमान में जगमगाते हुए सितारों का मंजर इतना हैरानकुन हद तक शानदार होता 
है कि आदमी उसे देखकर ख़ुदा की अज्मत व जलाल के एहसास में डूब जाए। 


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पारा ।4 702 


सूरह-।5. अल-हिज्र 
जो लोग पैगम्बर से कहते थे कि आसमान से फरिश्ता उतरता हुआ हमें दिखाओ उनसे 
कहा गया कि तारों भरे आसमान का वह मंजर जो हर रोज तुम्हारे सामने खोला जाता है क्या 
वह तुम्हारे शुऊर को जगाने और तुम्हारे दिलों को पिघलाने के लिए कम है कि तुम दूसरे 
मेजिजत का तकज करते हे। 
जमीन पर इंसान के साथ शैतान भी बसाए गए हैं। यहां शयातीन को पूरी आजादी है 
कि वे जिधर चाहे जाएं और जिस तरह चाहें लोगों को बहकाएं। मगर जमीन से मावरा (परे) 
जो ख़ुदा की दुनिया है उसमें शयातीन की परवाज के लिए नाकाबिले उबूर (अलांघनीय) 
रुकावटें कायम कर दी गई हैं। वे एक ख़ास हद से आगे उसके अंदर दाखिल नहीं हो पाते। 


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और हमने जमीन को फैलाया और उस पर हमने पहाड़ रख दिए और उसमें हर चीज 


एक अंदाजे से उगाई। और हमने तुम्हारे लिए उसमें मईशत (जीविका) के असबाब 
बनाए और वे चीजें जिन्हें तुम रोजी नहीं देते। (9-20) 


भौगोलिक अध्ययन बताता है कि जमीन इब्तिदा में ख़ुश्क गोले की सूरत में थी फिर वह 
फटी जिसकी वजह से समुद्र की गहराइयां पैदा हुई और उनमें पानी जमा हो गया। इन 
गहराइयों को संतुलित रखने के लिए जमीन पर जगह-जगह ऊंचे पहाड़ उभर आए। 

इसके बाद जमीन पर नबातात (वनस्पति) और हैवानात वजूद में आए और खूब फैले। 
उनमें से हर एक के अंदर बढ़ने की लामहदूद सलाहियत (असीम क्षमता) है मगर उन्हें देखने 
से साफ मालूम होता है कि हर एक का एक अंदाजा मुरकर है। हर चीज बढ़ते बढ़ते एक 
ख़ास हद पर रुक जाती है, वह उससे आगे नहीं जाने पाती। 

मसलन पौधों और दरों में अपनी नस्ल बढ़ाने की इतनी ज्यादा इस्तेदाद (सामर्थ्य) है 
कि अगर किसी एक पौधे को उसकी अंदरूनी इस्तेदाद के एतबार से बिला रोक टोक बढ़ने 
दिया जाए तो चन्द साल के अंदर सारी सतहे जमीन पर हर तरफ बस वही पौधा नजर 
आएगा। किसी दूसरी चीज के लिए यहां कोई जगह बाकी न रहेगी। मगर ऐसा मालूम होता 
हैकि कोई जबरदस्त नाजिम (व्यवस्थापक) है जो हर एक पर कंट्रोल कायम किए हुए है। 
यही मामला हैवानात का है। उनके अंदर भी अफजाइशे नस्ल की लामहदूद सलाहियत है। 
मगर हर एक की तादाद एक हद पर पहुंच कर रुक जाती है। इसी तरह हैवानात में अपनी 
जसामत बढ़ाने की इस्तेदाद इतनी ज्यादा है कि एक पतिंगे को बढ़ने दिया जाए तो वह हाथी 
के बराबर हो जाए। मगर कुदरती कंट्रोल एक ख़ास हद पर उसकी जसामत को रोक देता है। 
अगर चीजें अपनी हद पर न रुकें तो जमीन पर इंसान की रिहाइश नामुमकिन हो जाए। 

इंसान को अपनी मईशत (जीविका) और तमदूदुन (संस्कृति) के लिए बेशुमार चीजे 
दरकार हैं। ये सारी चीजें ऐन हमारी जरूरत के मुताबिक जमीन पर मुहय्या कर दी गई हैं। 











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सूरह-5. अल-हिज़ 703 पारा 4 


इन तमाम चीजें की फराहमी और हर एक की बका (अस्तित्व) का ईतिजम खा की तरफ 
से है। अगर हमें उन्हें उनका रिज्क देना हो तो हमारे लिए उनका हुसूल नामुमकिन हो जाए। 


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और कोई चीज ऐसी नहीं जिसके ख़जाने हमारे पास न हों और हम उसे एक मुअय्यन 
(निर्धारित) अंदाजे के साथ ही उतारते हैं। और हम ही हवाओं को बारआवर (वर्षा लाने 
वाली) बनाकर चलाते हैं। फिर हम आसमान से पानी बरसाते हैं फिर उस पानी से तुम्हें 
सैराब करते हैं। और तुम्हारे वश में न था कि तुम उसका जखीरा जमा करके रखते। 
(2-22) 





हदबंदी का उसूल कायनात की तमाम चीजों में राइज है। हवा एक हद के अंदर चलती 
है, हालांकि ख़ुदा कभी-कभी दिखाता है कि वह आंधी भी बन सकती है। सूरज एक ख़ास 
फासले पर है। अगर वह उससे ऊपर चला जाए तो जमीन बर्फ की तरह जम जाए। सूरज 
नीचे आ जाए तो जमीन जलती हुई भट्टी बन जाए। जमीन की कशिश निहायत मीजूं 
मिक्दार में है। अगर जमीन की जसामत दुगना होती तो उसकी कशिश इतनी बढ़ जाती कि 
बोझ की वजह से आदमी के लिए जमीन पर चलना मुश्किल होता। और अगर जमीन की 
जसामत मौजूदा जसामत से आधे के बराबर कम होती तो उसकी कशिश इतनी घट जाती कि 
आदमी और उसके मकानात हल्केपन की वजह से जमीन पर ठहर न सकते। यही हाल उन 
तमाम चीजें का है जिनके दर्मियान इंसान रहता है। हर चीज का एक अंदाजा मुकर है वह 
न उससे घटता है और न उससे बढ़ता है। 

जमीन पर इंसान और तमाम जीवधारियों की जिंदगी का इंहिसार पानी पर है। जरेजमीन 
पानी के जशरों लेकर फजाई बादलों तक पानी की फराहमी का निजाम इतने अजीब और 
इतने अजीम पेमाने पर है जिसका कायम करना हरगिज इंसान के बस में नहीं। इस अजीब 
और अजीम इतिजाम को खुदा मुसलसल ऐन इंसानी जरूरत के मुताबिक कायम किए हुए है। 

इंसान एक बेहद नाजुक़ मख़्तुक है। उसके माहौल में कोई फर्क उसकी पूरी हस्ती को 
तह व बाला कर देने के लिए काफी है। ऐसी हालत में बेशुमार अज्जा (अवययों) की एक 
कायनात, लातादाद इम्कानात का हामिल होने के बावजूद, ऐन उसी मख्सूस इम्कानी अंदाजे 
पर कायम है जो इंसान जैसी एक मख्नूक के लिए मुनासिब है। यह एतदाल और तनासुब 
(संतुलन) हरगिज इत्तफकी नहीं हो सकता। यकीनन इसका कोई जबरदस्त ख़लिक और 
नाजिम है। ऐसी हालत में जो शख्स खुदा को न माने या ख़ुदा को मान कर उसका शरीक 
ठहराए वह सिर्फ अपने गलत होने का सुबूत देता है न कि अकीदए तौहीद के गलत होने का । 


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सूरह-।5. अल-हिज्र 
और बेशक हम ही जिंदा करते हैं और हम ही मारते हैं। और हम ही बाकी रह जाएंगे 

और हम तुम्हारे अगलों को भी जानते हैं और तुम्हारे पिछलों को भी जानते हैं। और 
बेशक तुम्हारा रब उन सबको इकट्ठा करेगा। वह इलम वाला है, हिक्मत (तत्वदर्शिता) 
वाला है। (2३-25) 


पारा ।4 704 





दुनिया में इंसान को बसाना, फिर यहां से उसे उठा लेना दोनों खुदा की तरफ से होता 
है। अगर यह इंसान की मर्जी से होता तो वह कभी यहां न आ सकता और आने के बाद 
कभी यहां से वापस न जाता। इसी से यह भी साबित है कि इंसान की पेदाइश से पहले भी 
जमीन व आसमान खुदा के थे और इसके बाद भी वे ख़ुदा के रहेंगे। 

जमीन पर अनगिनत चीजें हैं। मगर हर एक की एक इंफिरादियत (विशिष्टता) है। हर 
चीज वही ख़ास और निश्चित किरदार अदा करती है जो उसे अदा करना चाहिए। इससे 
साबित होता है कि जमीन का ख़लिक एक-एक चीज का इंफिरादी इलम रखता है। वह हर 
चीज को उसके अपने ख़ुसूसी काल में लगाए हुए है। यहां तक कि एक आदमी के हाथ के 
अंगूठे पर जो निशान होता है वह भी तमाम दूसरे इंसानों से बिल्कुल मुख्तलिफ होता है। एक 
शख्स के अंगूठे का निशान फिर कभी किसी दूसरे इंसान के साथ दोहराया नहीं जाता। 

ऐसे कादिर और बाख़बर ख़ुदा के लिए इसमें क्या मुश्किल है कि वह हर आदमी का 
अलग-अलग हिसाब ले और हर एक के साथ वही मामला करे जिसका वह फिलवाकअ 
(तस्तुतः) मुस्तहिक है। 


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और हमने इंसान को सने हुए गारे की खनखनाती मिट्टी से पैदा किया और इससे 
पहले जिन्नों को हमने आग की लपट से पैदा किया। (26-27) 








इंसान का वजूद दो चीजों से मुरक्कब है। एक जिस्म और दूसरे रूह। जिस्म तमामतर 
जमीनी मादूदों से बना है। इंसानी जिस्म का तज्जिया बताता है कि वह उन्हीं अज्जा की 
तरकीब से बना है जिसे आम तौर पर पानी और मिट्टी कहते हैं गोया जिस्म के एतबार से 
इंसान सरासर एक बेहयात (निर्जीव) और बेशुऊर वजूद का नाम है। मगर जब ख़ुदा उसके 
अंदर अपने पास से रूह डाल दे तो अचानक यही जिस्म ऐसी सलाहियतों (क्षमताओं) का 
हामिल बन जाता है जो मालूम कायनात में किसी दूसरी मख्नूक को हासिल नहीं। 

यहां दूसरी मख़्तूक वह है जिसे जिन्न कहते हैं। जिन इंसान के हरीफ (प्रतिपक्षी) हैं। 
जिन्न आग के शोले से बनाए गए हैं। गोया कि वे ऐन अपनी पैदाइश के एतबार से जलाने 
वाली मख्लूक हैं। जिस तरह मिट्टी वाली जमीन अपने आपको आग वाले सूरज से दूर रखती 
है ताकि वह जल न जाए। इसी तरह इंसान को चाहिए कि वह अपने आपको जिन्नों से 
बचाए। वर्ना वे उसे अछ़्ताकी और दीनी एतबार से जला डालेंगे। 





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सूरह-5. अल-हिज़ 705 पारा 4 


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और जब तेरे रब ने फरिश्तों से कहा कि में सने हुए गारे की सूखी मिटूटी से एक बशर 
(इंसान) पैदा करने वाला हूं। जब मैं उसे पूरा बना लूं और उसमें अपनी रूह में से फूंक 
दूं तो तुम उसके लिए सज्दे में गिर पड़ना। पस तमाम फरिश्तों ने सज्दा किया मगर 
इब्लीस (शैतान), कि उसने सज्दा करने वालों का साथ देने से इंकार कर दिया। ख़ुदा 
ने कहा ऐ इब्लीस, तुझे क्या हुआ कि तू सज्दा करने वालों में शामिल न हुआ। इब्लीस 


ने कहा कि मैं ऐसा नहीं कि बशर को सज्दा करू जिसे तूने सने हुए गारे की सूखी 
मिट्टी से पैदा किया है। (28-33) 









































इब्लीस ने सज्दा न करने की वजह बजाहिर यह बताई कि इंसान मेरे मुकाबले में कमतर 
है। मगर हकीकत यह है कि इसकी वजह ख़ुद इब्लीस का अपना एहसासे कमतरी था। वह 
यह देखकर जल उठा कि मैं पहले से कायनात में हूं और मुझे यह इज्जत नहीं मिली कि तमाम 
मख्लूकात से मुझे सज्दा कराया जाए। और इंसान जो अभी पैदा किया गया है उसे तमाम 
मख्लूकात से सज्दा कराया जा रहा है। उसने इंसान को सज्दा करने से इंकार कर दिया। 
इंसान मुझसे कमतर है” का मतलब यह है कि सज्दे का मुस्तहिक दरअस्ल मैं था फिर गैर 
मु्तहिक की इना अफई को मैक्येंफ़र तस्लीम करूं। 

यही घमंड और हसद तमाम इज्तिमाई ख़राबियों की जड़ है। मौजूदा दुनिया में ऐसे मौके 
इंसान के सामने बार-बार आते हैं। जो शख्स ऐसे मौके पर जलन की नफ्सियात में मुब्तिला 
न हो उसने फरिश्तों की पैरवी की और जो शख्स जलन का शिकार हो जाए वह गोया शैतान 
का पैरोकार बना। 


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खुदा ने कहा तू यहां से निकल जा क्योंकि तू मरटूद (धुत्कारा हुआ) है, और बेशक 
तुझ पर खेजज (बदले के दिन) तक लानत है। इब्लीस ने कहा, ऐ मेरे रब, तू मुझे 





पारा ।4 706 


सूरह-5. अल-हिज़ 


उस दिन तक के लिए मोहलत दे जिस दिन लोग उठाए जाएंगे। खुदा ने कहा, तुझे 
मोहलत है उस मुरकर वक्‍त के दिन तक। (34-38) 


इंसान की तख्लीक के बाद वाकेयात ने जो रुख़ इख््तियार किया उसने शैतान को 
मुस्तकिल तौर पर इंसान का दुश्मन बना दिया। अब कियामत तक के लिए आदमी शैतान 
की जद में है। इंसान के लिए सबसे ज्यादा काबिले लिहाज बात यह है कि वह शैतान के फेब 
से चौकन्ना रहे। मौजूदा दुनिया में यही वह मकाम है जहां इंसान की कामयाबी का फैसला 
भी हो रहा है और उसी मकाम पर उसकी नाकामी का भी। 

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इब्लीस ने कहा, ऐ मेरे रब, जैसे तूने मुझे गुमराह किया है इसी तरह मैं जमीन में उनके 
लिए मुजय्यन (दिलकशी) करूंगा और सबको गुमराह कर दूंगा। सिवा उनके जो तेरे 
चुने हुए बंदे हैं। (39-40) 





इब्लीस के सामने एक आजमाइशी सूरतेहाल आई। उसमें वह शिकस्त खा गया। अब 
उसके लिए सही तरीका यह था कि वह अपनी हार मान ले। मगर इसके बजाए उसने यह 
किया कि ख़ुद ख़ुदा पर इल्जाम देने लगा कि उसने जो कुछ किया मुझे गुमराह करने के 
ख़ातिर किया। जिस वाकये से उसकी अपनी कमजोरी साबित हो रही थी उसे उसने चाहा कि 
ख़ुदा के ऊपर डाल दे। अपनी शिकस्त का जिम्मेदार दूसरों को करार देना इसी शैतानी राह 
की पैरवी है। 

इब्लीस ने इंसान को सज्दा न करने का सबब यह बताया कि इंसान को मिट्टी से 
बनाया गया है और मुझे आग से। इसकी कोई माकूल वजह नहीं है कि मिट्टी के मुकाबले 
में आग को फजीलत क्यों हासिल हो। मगर इब्लीस के अपने जेहनी खाने में ख़ुदसाख््ता 
तसब्वुर के तहत यह हुआ कि मिट्टी हकीर (तुच्छ) चैजबनर्गगओऔ आग अफ चैज 
इसी का नाम तज़ईन (मनमोहकता) है। यह एक नप्सियाती चीज है न कि कोई अक्ली 
चीज। इब्लीस ने अपनी गलती मानने के बजाए यह फैसला किया कि वह दूसरों से भी 
वही गलती कराए। वह ख़ुद जिस नपिसयाती कमजोरी का शिकार हुआ है, उसी नपिसयाती 
कमजोरी में तमाम इंसानों को मुन्तिला कर दे। 

इब्लीस ने कहा कि तेरे मुंतख़ब बंदों के अलावा सबको मैं गुमराह करूंगा । ये ख़ुदा के 
मुंतख़त बंदे कौन हैं। ये वे लोग हैं जो ख़ुदा के मुकाबले में सीधी राह पर आ चुके हों। यानी 
बंदगी की राह । बअल्फजे दीगर, खुदा के मुकाबले में अपनी हैसियते वाकई के एतराफ की 
राह। 


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सूरह-5. अल-हिज़ 707 


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पारा 4 


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अल्लाह ने फरमाया, यह एक सीधा रास्ता है जो मुझ तक पहुंचता है। बेशक जो मेरे 
बंदे हैं उन पर तेरा जोर नहीं चलेगा। सिवा उनके जो गुमराहों में से तेरी पैरवी करें। 
और उन सबके लिए जहन्नम का वादा है। उसके सात दरवाजे हैं। हर दरवाजे के लिए 
उन लोगों के अलग-अलग हिस्से हैं। (4।-44) 


सिराते मुस्तकीम की तशरीह मुजाहिद और हसन और कतादा से यह मरवी है कि इससे 
मुराद हक का रास्ता है जो अल्लाह की तरफ निकलता है और उसी पर ख़त्म होता है। अगर 
आदमी शिक की राह चले तो वह राह ख़ुदा तक नहीं पहुंचेगी बल्कि शरीकों तक पहुंचेगी। 
वह अगर सरकशी का तरीका इख्तियार करे तो उसकी मंजिल आदमी का अपना वजूद होगा 
न कि खुदा। अगर वह बेकैद होकर जिंदगी गुजारे तो वह मुख्तलिफ सम्तों में भटकेगा। 
उसका सफर खुदा पर ख़त्म नहीं हो सकता। 

मगर जब आदमी सिर्फ खुदा को अपना मकजे तवज्जोह बनाता है और उसी को सब 
कुछ समझ कर अपनी जिंदगी को ख़ुदा के रुख़ पर चलाता है तो बिल्कुल कुदरती बात है कि 
उसका सफर खुदा की तरफ जारी हो और बिलआख़िर वह खुदा तक पहुंच जाए । खुदा कादिर 
है और इंसान आजिज। इसलिए ख़ुदा और बंदे के दर्मियान एक ही सही निस्बत है और वह 
अबदियत (बंदगी) की निस्बत है। अबदियत की रविश इख्तियार करना ख़ुदा के साथ अपनी 
सहीतरीन निस्बत को पा लेना है। जिस शख्स की निस्बत ख़ुदा के साथ कायम हो जाए उस 
पर शैतान का जोर नहीं चलता। और जिसने खुदा के साथ अपनी निस्बत कायम न की 
उसकी निस्बत शैतान के साथ कायम हो जाती है। फिर वह शैतान के मश्वरों पर चलने 
लगता है। यहां तक कि वहीं पहुंच जाता है जहां बिलआख़िर शैतान को पहुंचना है। 

जहन्नम जो शैतान और उसके साथियों का आखिरी ठिकाना है। उसके सात दर्जे हैं। 
जहन्नमी लोग अपने आमाल के फर्क के लिहाज से सात बड़े गिरोहों में तक्सीम किए जाएंगे 
और उसके मुताबिक जहन्नम के सात तबकों में से किसी एक तबके में जगह पाएंगे। 

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पारा ।4 708 सूरह-5. अल-हिज़ 


बेशक डरने वाले बाग़ों और चशमों (स्रोतों) में होंगे। दाखिल हो जाओ इनमें सलामती 
और अम्न के साथ। और उनके सीनों की कुदूरतें (मन-मुटाव) हम निकाल देंगे, सब 
भाई-भाई की तरह रहेंगे तख़्तों पर आमने सामने। वहां उन्हें कोई तकलीफ नहीं पहुंचेगी 
और न वे वहां से निकाले जाएंगे। मेरे बंदों को ख़बर दे दो कि मैं बख्शने वाला रहमत 
वाला हूं और मेरी सजा दर्दनाक सजा है। (4550) 


जन्नत की जिंदगी बेब्रैफ जिंदगी होगी। उसके मुस्तहिक वे लोग करार पाणी जिन्होंने 
दुनिया मेंखुदा का ख़ैफ किया । दुनिया में खुदा का खौफ आहिरत की बेख्फी की कीमत है। 

आपस की रंजिशें दो किस्म की होती हैं। एक सरकशी की वजह से, दूसरी गलतफहमी 
की वजह से | सरकशी की बिना पर रंजिश और इनाद (दुराव) पैदा होना सबसे बड़ी इज्तिमाई 
बुराई है। अहले ईमान को उसे दुनिया ही में ख़त्म कर लेना चाहिए। जो लोग इसे दुनिया में 
ख़त्म न करें वे आख़िरत में जहन्नम का ख़तरा मोल ले रहे हैं। 

दूसरी रंजिश वह है जो गलतफहमी की वजह से पैदा होती है। वह कभी ख़त्म हो जाती 
है और कभी तरफैन (पक्षो) के इख़्तास के बावजूद आख़िर वक्‍त तक बाकी रहती है। यह 
दूसरी किस्म की रंजिश आखिरत में मुकम्मल तौर पर ख़त्म हो जाएगी। क्योंकि आख़िरत 
हकीकतें के कामिल जुहू की दुनिया है। जब तमाम हवीकते बेनकाब हेफर सामने आ 
जाएंगी तो एक मुख्लिस आदमी के लिए कोई वजह बाकी न रहेगी कि वह क्यों अपने भाई 
के खिलाफ खामखाह रंजिश रखे। 

जन्नत की जिंदगी इतनी लतीफ और नफीस जिंदगी है कि मौजूदा दुनिया में इसका 
तसव्वुर नहीं किया जा सकता। ताहम मौजूदा दुनिया की लज्जते और खुशियां आने वाली 
लज्जतों और खुशियों की दुनिया का एक इब्तिदाई तआरुफ हैं। हर आदमी समझ सकता है 
कि जिस जन्नत का तआरुफ इतना लजैज हे वह रुद्र कितनी ज्यादा लजीज हेपी। 

मौजूदा दुनिया में कोई शख्स बिलफर्ज हर किस्म की लज्जते जमा कर ले तब भी 
तरह-तरह की नाखुशगवारियां उसकी हर लज्जत को बेमअना बना देती हैं। मगर जन्नत एक 
ऐसी जगह है जिसकी लज्जतें हर किस्म की नाखुशगवारियों से पाक होंगी। हदीस में आया 
है कि अहले जन्नत से कहा जाएगा कि अब तुम हमेशा सेहतमंद रहोगे और कभी बीमार न 
होगे अब तुम हमेशा जियोगे और कभी न मरोगे। अब तुम हमेशा जवान रहोगे और कभी बूढ़े 
न होगे। अब तुम हमेशा यहां रहोगे तुम्हें यहां से कभी जाना न होगा। 

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सूरह-5. अल-हिज़ 709 पारा 74 


और उन्हें इब्राहीम के महमानों से आगाह करो। जब वे उसके पास आए फिर उन्होंने 
सलाम किया। इब्राहीम ने कहा कि हम तुम लोगों से डरते हैं हैं। उन्होंने कहा कि 
अंदेशा न करो हम तुम्हें एक लड़के की बशारत (शुभ सूचना) देते हैं जो बड़ा आलिम 
होगा। इब्राहीम ने कहा क्या तुम इस बुट़ापे में मुझे औलाद की बशारत देते हो। पस 
तुम किस चीज की बशारत मुझे दे रहे हो। उन्होने कहा कि हम तुम्हें हक के साथ 
बिशारत देते हैं। पस तू नाउम्मीद होने वालों में से न हो। इब्राहीम ने कहा कि अपने 
रब की रहमत से गुमराहों के सिवा और कौन नाउम्मीद हो सकता है। (52-56) 





हजरत इब्राहीम के पास फरिश्ते इंसानी सूरत में आए । सवाल व जवाब के दौरान उन्होंने 
कहा कि हम हक के साथ आए हैं। यह हक (अग्रेवाकई) क्या था जिसके लिए फरिशते हजरत 
इब्राहीम के पास आए । यह एक गैर मामूली इनाम की बशारत थी जिसकी आम हालात में उम्मीद 
नहीं की जा सकती । इंसान पर जब ख़ुदा कोई गैर मामूली इनाम करना चाहता है तो उसकी 
तक्मील के लिए वह उसके पास ख़ुसूसी फरिश्ते भेजता है। 

इस किस्म के फरिशते पैगम्बरों के पास भी आते हैं और गैर पेगम्बरों के पास भी। फर्क 
यह है कि पैगम्बरों के पास फरिश्ते आते हैं तो वह उन्हें देखता है और शुऊरी तौर पर वाकिफ 
होता है कि ये फरिशते हैं। मगर आम इंसान को इस किस्म का यकीनी इदराक (भान) नहीं होता । 
अलबत्ता फरिश्तों की खुसूसी कुरबत उसके अंदर खुसूसी कैफियात पैदा कर देती है। यह 
कैफियात गोया इसका इशारा होती हैं कि इस वक्‍त आदमी खुदा के भेजे हुए खुसूसी फरिश्तों 
की सोहबत में है। 


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कहा ऐ भेजे हुए फरिश्तो अब तुम्हारी मुहिम क्या है। उन्होंने कहा कि हम एक 
मुजरिम कौम की तरफ भेजे गए हैं। मगर लूत के घर वाले कि हम उन सबको बचा 


लेंगे सिवाए उसकी बीवी के कि हमने ठहरा लिया है कि वह जरूर मुजरिम लोगों में 
रह जाएगी। (57-60) 





हजरत इब्राहीम फिलिस्तीन में रहते थे। इसके करीब ही बह मुर्दार (0०४० ५०३) के 
किनारे आपके भतीजे हजरत लूत थे। हजरत लूत ने इस इलाके में बसने वालों पर तब्लीग 
की। मगर वे इस्लाह कुबूल करने पर राजी न हुए उनकी सरकशी बढ़ती चली गई। यहां तक 
कि खुदा का फैसला यह हुआ कि उन्हें हलाक कर दिया जाए। ये फरिश्ते उसी खुदाई फैसले 
के निफज के लिए आए थे। 

ग़ालिबन हजरत लूत के चन्द अहले ख़ानदान के सिवा और कोई शख्स उन पर ईमान 
न लाया। घर से बाहर वालों के लिए हक के दाओ को कुबूल करना बहुत मुश्किल होता है। 
क्योंकि उनके लिए बहुत सी नफ्सियाती रुकावटें हायल हो जाती हैं। ताहम ख़ुद अपने खूनी 








पारा ।4 7I0 सूरह-।5. अल-हिज्र 
रिश्तेदारों के लिए ये रुकावटें नहीं होतीं चुनांचे ये लोग निस्बतन ज्यादा आसानी के साथ हक 
के दाऔ के साथी बन जाते हैं। 

हजरत लूत के साथ ऐसा ही हुआ। आपकी दावत पर गालिबन सिर्फ आपकी लड़कियां 
ईमान लाई। औलाद को अपने बाप से जो खुसूसी तअल्लुक होता है वह बाप की दावत 
(आह्वान) को कुबूल करने में खुसूसी मददगार बन जाता है। उन लड़कियों ने हजरत लूत के 
साथ नजात पाई। मगर आपको बीवी दिल से आपकी मोमिन न बन सकी। चुनांचे उसे दूसरे 
मुजरिमों के साथ हलाक कर दिया गया। ख़ुदा के कानून में महज रिश्तेदारी की बुनियाद पर 
किसी के साथ कोई रिआयत नहीं की जाती। 


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फिर जब भेजे हुए फरिश्ते लूत के खानदान के पास आए। उन्होंने कहा कि तुम लोग 
अजनबी मालूम होते हो। उन्होंने कहा कि नहीं बल्कि हम तुम्हारे पास वह चीज लेकर 
आए हैं जिसमें ये लोग शक करते हैं। और हम तुम्हारे पास हक के साथ आए हैं, और 
हम बिल्कुल सच्चे हैं। पस तुम कुछ रात रहे अपने घर वालों के साथ निकल जाओ। 
और तुम उनके पीछे चलो और तुम में से कोई पीछे मुड़कर न देखे और वहां चले जाओ 
जहां तुम्हें जाने का हुक्म है। और हमने लूत के पास यह हुक्म भेजा कि सुबह होते 
ही उन लोगों की जड़ कट जाएगी। (6-66) 





एक 'हक' वह था जिसे लेकर फरिश्ते हजरत इब्राहीम के पास आए थे। दूसरा हक वह 
है जिसे लेकर वे हजरत लूत के पास पहुंचे। पहला हक खुदा के खुसूसी इनाम की सूरत में 
था। दूसरा हक खुदा की खुसूसी सजा की सूरत में। 
हजरत लूत के पास फरिश्ते इंसान की सूरत में आए। ये फरिश्ते इसलिए आए थे कि 
वे पैगम्बर को न मानने वालों के दर्मियान वह फैसला नाफिज कर दें जो खुदा ने उनकी 
सरकशी की बिना पर उनके लिए मुकदूदर किया है। उनकी हिदायत के मुताबिक हजरत लूत 
रात के अंधेरे में दूसरे अहले ईमान को लेकर बस्ती से निकल गए। इसके बाद सुबह सवेरे 
शदीद जलजलों के धमाकों से वह पूरा इलाका तलपट हो गया । तमाम मुंकिरीन इंतिहाई बेदर्दी 
के साथ हलाक कर दिए गए। 
यह हलाकत कहां हुई। यह उनकी उसी दुनिया में हुई जिसे वे अपनी दुनिया समझे हुए 
थे। जहां की हर चीज उन्हें अपनी साथी और मददगार दिखाई देती थी। ख़ुदा जब हुक्म देता 
है तो ऐन वही नक्शा आदमी के लिए हलाकत का नक्शा बन जाता है जिसे वह अपने लिए 





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सूरह-5. अल-हिज़ प्र] पारा ।4 


कामयाबी का नक्शा समझे हुए था। जिस महल के अंदर अपने आपको पाकर आदमी फख़ 
करता है उस महल को इस तरह खंडहर कर दिया जाता है जैसे कि वह एक मलबा था जो 


आदमी के सिर पर पटक दिया गया। 


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और शहर के लोग खुश होकर आए। उसने कहा ये लोग मेरे महमान हैं, तुम लोग मुझे 
रुसवा न करो। और तुम अल्लाह से डरो और मुझे जलील न करो। उन्होंने कहा, क्या 
हमने तुम्हें दुनिया भर के लोगों से मना नहीं कर दिया। उसने कहा ये मेरी बेटियां हैं 
अगर तुम्हें करना है। (67-77) 


कीमे लूत की बस्ती (सदूम) में जो फरिश्ते आए वे निहायत खूबसूरत नौजवान की सूरत 
में आए। यह गोया फह्हाशी (अश्लीलता) में डूबी हुई उस कौम की जांच का आखिरी पर्चा था। 
चुनांचे ये लोग अपनी बढ़ी हुई सरकशी की बिना पर उन नौजवानों पर टूट पड़े। वे हस्बे आदत 
उनके साथ बदकारी करना चाहते थे। मगर उन्हें मालूम न था कि वे जिन्हें पुरकशिश नौजवान 
समझ रहे हैं वे दरअसल अजाब के फरिशते हैं जो सिर्फ इसलिए आए हैं कि उन्हें हमेशा के लिए 
जलील करके छोड़ दें। 

मेरी बेटियां' से मुराद कौम की बेटियां हैं। हजरत लूत ने जब देखा कि जालिम लोग मना 
करने के बावजूद महमानों पर टूटे पड़ रहे हैं तो आपने उनसे कहा कि ख़ुदारा, मेरे महमानों 
के मामले में मुझे रुसवा न करो। आगर तुम्हें कुछ करना है तो ये कौम की लड़कियां हैं इनमें 
से जिससे चाहो निकाह कर लो। 

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तेरी जान की कसम, वे अपनी सरमस्ती में मदहोश थे। पस दिन निकलते ही उन्हें 
चिंघाइ ने पकड़ लिया। फिर हमने उस बस्ती को तलपट कर दिया और उन लोगों पर 
ककर के पत्थर की बारिश कर दी। बेशक इसमें निशानियां हैं ध्यान करने वालों के 


लिए। और यह बस्ती एक सीधी राह पर वाके (स्थिति) है। बेशक इसमें निशानी 
है ईमान वालों के लिए। (72-77) 


कौमे लूत का यह हाल क्यों हुआ कि वे सरकशी में आपे से बाहर हो गए इसकी वजह यह 


ए 


पारा ।4 7I2 सूरह-5. अल-हिज्र 
थी कि उन्होंने मामले को हजरत लूत की निस्बत से देखा। चूँकि वे हजरत लूत के मुकाबले में 
ताकतवर थे। इसलिए उन्होंने समझा कि हम जो चाहें करें । कोई हमारा कुछ बिगाइने वाला नहीं । 
अगर वे मामले को अल्लाह की निस्बत से देखते तो सूरतेहाल बिल्कुल बरअक्स होती। 
अब उन्हें मालूम होता कि उनकी सरकशी सरासर मजहकाख़ेज (हास्यास्पद) है। क्योंकि खुदा 
के मुकाबले में किसी भी ताकतवर की कोई हैसियत नहीं। चुनांचे ऐन सुबह को उन पर कड़क 
चमक का शदीद तूफान आया। खुदा ने हवाओं को हुक्म दिया और उन्होंने कौमे लूत की 
बस्तियों (सदूम और अमूरा) पर कंकरियों की बारिश शुरू कर दी। कौम की कौम थोड़ी देर 
में तबाह होकर रह गई। 
इस वाकये में गौर करने वालों के लिए यह नसीहत है कि इस दुनिया में किसी का 
सवि (सामना) हकीकतन इंसान से नहीं बल्कि खुदरा से है। अगर आदमी इस हकीकत को 
जान ले तो उसकी सारी सरकशी ख़त्म हो जाए। 


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और ऐका वाले यकीनन जालिम थे। पस हमने उनसे इंतिकाम लिया। और ये दोनों 
बस्तियां खुले रास्ते पर वाके (स्थित) हैं। और हिज़ वालों ने भी रसूलों को झुठलाया। 
और हमने उन्हें अपनी निशानियां दीं। मगर वे उससे मुंह फेरते रहे और वे पहाड़ों को 
तराशकर उनमें घर बनाते थे कि अम्न में रहें। पस उन्हें सुबह के वक्‍त सख्त आवाज ने 
पकड़ लिया। पस उनका किया हुआ उनके कुछ काम न आया। (78-84) 


असहाबे ऐका से मुराद हजरत शुऐब की कौम है। उस कौम का असल नाम बनी मदयान 
था। ये लोग मौजूदा तबूक के इलाके में आबाद थे। असहाबे हिज़ से मुराद कौमे समूद है जिसकी 
तरफ हजरत सालेह मबऊस हुए। यह इलाका मौजूदा मदीना के शुमाल में वाके था। 

असहाबे ऐका की सरकशी ने उन्हें न सिफ शिक में मुब्तिला किया बल्कि उन्हें बदतरीन 
अख़्लाकी जराइम तक पहुंचा दिया। हजरत शुऐब की याददिहानी के बावजूद उन्होंने सबक 
नहीं लिया तो ख़ुदा ने जमीन को हुक्म दिया। इसके बाद यह हुआ कि जो जमीन उनके लिए 
गहवार-ए-ऐश बनी हुई थी वही उनके लिए गहवार-ए-अजाब बन गई। 

कौमे समूद संग तराशी के फन में माहिर थे। उन्होंने पहाड़ों को काट कर उन्हें शानदार 
घरों में तब्दील कर दिया था। वे समझते थे कि उन्होंने अपनी हिफाजत का आखिरी इंतिजाम 
कर लिया है। जब उन्होंने खुदा की पुकार को नजरअंदाज कर दिया तो ख़ुदा ने हुक्म दिया और 
उनके अजीम मकानात उनके लिए अजीम वक्रो में तब्दील हो गए। 


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सूरह-5. अल-हिज़ 73 पारा ।4 


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और हमने आसमानों और जमीन को और जो कुछ उनके दर्मियान है हिक्मत 
(तत्वदर्शिता) के बगैर नहीं बनाया और बिलाशुबह कियामत आने वाली है। पस तुम 


खूबी के साथ दरगुजर (क्षमा) करो। बेशक तुम्हारा रब सबका खालिक (स्रष्टा) है, जानने 
वाला है। (85-86) 


जमीन व आसमान का मुतालआ बताता है कि यह पूरा निज़ाम हददर्जे हिक्मत के साथ 
बनाया गया है। यहां हर चीज ठीक वैसी ही है जैसा कि उसे होना चाहिए । इस पूरे निजाम 
मे सिर्फ इंसान है जो खिलाफे हकीकत रवैया इख़्तियार करता है। इंसान और कायनात में यह 
तजाद (अन्तर्विरोध) तकाजा करता है कि वह ख़म हो। कियामत का अकीदा इस एतबार से 
ऐन अक्ली और मंतिकी (तर्कपूर्ण अकीदा है। क्योंकि कियामत के सिवा कोई और चीज नहीं 
है जो इस तजाद को ख़त्म करने वाली हो। 
दावते इलल्लाह के अमल का एक अहम जुज 'एराज' है। यानी मुख़ातब जब गैर 
मुतअल्लिक बहस और झगड़ा छेड़े तो उसके साथ मशगूल होने के बजाए उससे अलग हो जाना। 
एराज का उसूल इख्तियार किए बगैर दावत का काम मुअस्सिर तौर पर नहीं किया जा सकता। 
एराज की मस्लेहत यह है कि मदऊ हमेशा दाऔ (आह्वानकर्ता) से गैर मुतअल्लिक 
झगड़े छेड़ता है। अब अगर दाऔ यह करे कि हर ऐसे मौके पर मदऊ से लड़ जाए तो गैर 
मुतअल्लिक उमूर पर टकराव तो खूब होगा मगर अस्ल दावती काम बगैर हुए पड़ा रह 
जाएगा। 


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और हमने तुम्हें सात मसानी और कुरआने अजीम अता किया है। तुम इस दुनिया की 
मताअ (सुख-सामग्री) की तरफ आंख उठाकर न देखो जो हमने उनमें से मुख़्तलिफ लोगों 
को दी हैं और उन पर ग़म न करो और इमान वालों पर अपने शफकत (स्नेह) के बाज़ू 
झुका दो और कहो कि में एक खुला हुआ डराने वाला हूं। इसी तरह हमने तक्सीम करने 


वालों पर भी उतारा था जिन्होंने अपने कुरआन के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। पस तेरे रब की 
कसम, हम उन सबसे जरूर पूछेंगे, जो कुछ वे करते थे। (87-93) 


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सूरह-5. अल-हिज़ 


पारा ।4 74 





सात मसानी से मुराद सूरह फातिहा है। सूरह फातिहा पूरे कुरआन का खुलासा (सार) है 
और बकिया कुरआन उसकी तफ्सील। यह कुरआन बिलाशुबह जमीन व आसमान की सबसे 
बड़ी नेमत है। इसका हिदायतनामा होना इसके मानने वालों के लिए आख़िरत की कामयाबी 
की जमानत है। और इसका आखिरी किताब होना लाजिम ठहराता है कि जरूर इसे अपने 
मु्लिफैन (विरोधियों) पर ग़लबा हासिल हो। क्योंकि अगर गलबा न हो तो वह आखिरी 
किताब की हैसियत से बाकी नहीं रह सकती। 

दाऔ (आह्वानकर्ता) को चाहिए कि जो लोग ईमान नहीं लाते उन्हें सोच कर वह मायूस 
न हो। बल्कि जो लोग ईमान लाए हैं उन्हें देखकर मुतमइन हो और उनकी दिलजोई और 
तर्बियत में पूरी तवज्जोह सर्फ करे। 

कुरआन को टुकड़े-टुकड़े करने से मुराद तौरात को टुकड़े-टुकड़े करना है। यहूद ने अपनी 
आसमानी किताब को अमलन दो हिस्सों में बांट रखा था। उसकी जो तालीम उनकी 
ख़्वाहिशात के खिलाफ होती उसे वे छोड़ देते और जो उनकी ख्ाहिशों के मुताबिक होती उसे 
ले लेते। पहली किस्म की आयते उनके यहां सिर्फ तकदुदुस (पावनता) के खाने में पड़ी रहतीं। 
उन पर वे न ज्यादा ध्यान देते और न उन्हें ज्यादा फैलाते। अलबत्ता दूसरी किस्म की आयतो 
को वे ख़ूब इशाअत (प्रसार) करते। बअल्फाज दीगर उन्होंने किताबे खुदावंदी को अपने 
मफ् (हितों) के ताबेअ बना लिया था न कि ख़ुदाई अहकाम के ताबेअ। 

किसी चीज को पाने के दो दर्जे हैं। एक है उसके अज्जा (अंशो) को पाना। दूसरा है उसे 
उसकी कुल्ली हैसियत में पाना। दरख़्त को जब आदमी उसकी कुल्ली हैसियत में पहचान ले 
तो वह कहता है कि यह दरख़्त है। लेकिन अगर वह उसे उसकी कुल्ली हैसियत में न पहचाने 
तो वह तना और शाख और पत्ती और फूल और फल का जिक्र करेगा । वह उस वाहिद (एक) 
लफ्ज को न बोल सकेगा जिसके बोलने के बाद उसके तमाम मुतफस्कि (विभिन्न) अन्ञएक्र 
अस्ल में जुड़कर वहदत (एकत्व) की शक्ल इख्तियार कर लेते हैं। 

यही मामला ख़ुदा की किताब का है। ख़ुदा की किताब में बहुत से मुतफर्रिक अहकाम 
हैं। इसी के साथ उसका एक एक कुल्ली और मकजी नुक्ता है। जो लोग ख़ुदा की किताब 
में गुम हों वे खुदा की किताब को उसकी कुल्ली हैसियत में पा लेंगे। इसके बरअक्स जो लोग 
ख़ुद अपने आप में गुम हों वे ख़ुदा की किताब को देखते हैं तो ख़ुदा की किताब उन्हें बस 
मुक्नलिफ और मुतफि अहकाम का मज्मूआ दिखाई देती है। वे उनमें से अपने जैक और 
हालात के मुताबिक कोई जुज ले लेते हैं और उस पर इस तरह जोर सर्फ करने लगते हैं जैसे 
कि बस वही एक चीज सब कुछ हो। 

दरख़्त की जड़ में पानी देने से पूरे दरख़्त में पानी पहुंच जाता है। इसी तरह जब ख़ुदा 
की किताब के कुल्ली और मकजी पहलू को जिंदा किया जाए तो उसके जिंदा होते ही बकिया 
तमाम अज्जा लाजिमी तौर पर जिंदा हो जाते हैं। इसके बर॒अक्स अगर किसी एक जुज को 
लेकर उस पर जोर दिया जाए तो उसकी जाहिरी धूम तो मच सकती है मगर उससे दीन का 
स्म (उत्थान) नहीं होता । क्योंकि उसे जिंदगी मर्कजो पहलू के जिंदा होने से मिलती 
और वह सिरे से जिंदा ही नहीं हुआ। 











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सूरह-5. अल-हिज़ प्रा5 पारा ॥4 
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पस जिस चीज का तुम्हें हुक्म मिला है उसे खोलकर सुना दो और मुश्रिकों से एराज 
(उपेक्षा) करो। हम तुम्हारी तरफ से उन मजाक उड़ने वालो के लिए काफी हैं जो 

अल्लाह के साथ दूसरे माबूद को शरीक करते हैं। पस अनकरीब वे जान लेंगे। और हम 
जानते हैं कि जो कुछ वे कहते हैं उससे तुम्हारा दिल तंग होता है। पस तुम अपने रब की 
हम्द (प्रशंसा) के साथ उसकी तस्बीह करो। और सज्दा करने वालों में से बनो और 
अपने रब की इबादत करो। यहां तक कि तुम्हारे पास यकीनी बात आ जाए। (94-99) 


मौजूदा दुनिया में हर आदमी को बोलने और करने की छूट मिली हुई है। इसलिए दाऔ 
जब खुदा की तरफ बुलाने का काम शुरू करता है तो दूसरों की तरफ से तरह-तरह की 
बेमअना बातें कही जाती हैं। लोग मुख़्तलिफ किस्म के गैर मुतअल्लिक मसले छेड़ देते हैं। ऐसे 
मोको पर दाओ के लिए लाजिमी है कि वह इन तमाम बातों के मुकाबले में एराज (उपेक्षा) 
का तरीका इख़्तियार करे। अगर वह ऐसे मोको पर लोगों से लड़ने लगे तो वह हक की दावत 
के मुस्बत (सकारात्मक) काम को अंजाम नहीं दे सकता। 
इस दुनिया में हक के दाओ के लिए एक ही सकारात्मक तरीका है। वह यह कि वह 
उलझने वालों से न उलझे। और जो हक उसे मिला है उसका वह पूरी तरह एलान कर दे। हर 
उस बात को वह ख़ुदा के हवाले कर दे जिससे निपटने की ताकत वह अपने अंदर न पाता हो। 
दुनिया के नामुवाफिक हालात जब उसे सताएं तो वह आखिरत की तरफ अपनी तवज्जोह को 
फेर दे । इंसानों की उदासीनता जब उसे तंगदिल करे तो वह ख़ुदा की याद में मशगूल हो जाए। 
सच्चे दाऔ का हाल यह होता है कि जब उस पर गम की कोई हालत तारी होती है तो वह 
हमहतन खुदा की तरफ मुतवज्जह हो जाता है। जो चीज वह इंसानों से न पा सका उसे वह ख़ुदा 
से पाने की कोशिश करता है। नमाज में खुदा के सामने खड़े होने से उसे तस्कीन मिलती है। 
आंखों से आंसू बहाकर उसके दिल का बोझ हल्का होता है। खुदा के साथ सरगोशियों में मशगूल 
होकर वह महसूस करता है कि उसने वह सब कुछ पा लिया जो उसे पाना चाहिए था। 


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पारा 4 7l6 सूरह-6. अन-नहल 
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(मक्का में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
आ गया अल्लाह का फैसला, पस उसकी जल्दी न करो। वह पाक है और बरतर है उससे 
जिसे वे शरीक ठहराते हैं। वह फरिश्तों को अपने हुक्म की रूह के साथ उतारता है अपने 
बंदों में से जिस पर चाहता है कि लोगों को ख़बरदार कर दो कि मेरे सिवा कोई इबादत 
के लायक नहीं। पस तुम मुझसे डरो। उसने आसमानों और जमीन को हक के साथ 
पैदा किया है। वह बरतर है उस शिर्क से जो वे कर रहे हैं। (-3) 





दीन की हकीकत यह है कि इंसान खुदा की हस्ती और कायनात में उसकी कारफरमाई 
को इस तरह जान ले कि एक ख़ुदा की जात ही उसे सब कुछ नजर आने लगे। उसी से वह 
डरे और उसी से वह हर किस्म की उम्मीद रखे। एक खुदा उसके कल्ब (दिल) व दिमाग की 
तमाम तवज्जोहात का म्कज बन जाए। 

यही अल्लाह को इलाह (पूज्य) बनाना और उसकी इबादत करना है। इंसानों के अंदर 
यही कैफियत पैदा करने के लिए तमाम पैगम्बर इस दुनिया में आए। जो लोग इस अबदियत 
(बंदगी) का सुबूत दें वे फैसले के दिन कामयाब ठहरेंगे। जो लोग इसके खिलाफ चलें वे फैसले 
के दिन नामुराद हो जाएंगे। यह फैसला आम इंसानों के लिए कियामत में होगा । मगर पैगम्बर 
के मुखातबीन के लिए वह इसी दुनिया में शुरू हो जाता है। 

कायनात में मुकम्मल वहदत (एकत्व) है और इसी के साथ मुकम्मल मक्सदियत भी। 
कायनात की वहदत इससे इंकार करती है कि यहां एक ख़ुदा के सिवा किसी और को 
तवज्जोह का मर्कज बनाना किसी के लिए जाइज हो। और इसकी मवसदियत तकाज करती 
है कि उसका ख़ात्मा एक बामअना अंजाम पर होना चाहिए न कि बेमअना अंजाम पर। गोया 
कायनात का निजाम बयकवक्त तीहीद की दलील भी फराहम करता है और आखिरत की 


दलील भी। 
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उसने इंसान को एक बूंद से बनाया। फिर वह यकायक खुल्लम खुल्ला झगड़ने लगा 


और उसने चौपायों को बनाया उनमें तुम्हारे लिए पोशाक भी है और खुराक भी और 
दूसरे फायदे भी, और उनमें से खाते भी हो। और उनमें तुम्हारे लिए रौनक है, जबकि 





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सूरह-6. अन-नहल प्र 7 पारा 4 


शाम के वक्‍त उन्हें लाते हो और जब सुबह के वक्‍त छोड़ते हो और वे तुम्हारे बोझ ऐसे 
मकामात तक पहुंचाते हैं जहां तुम सख्त महनत के बगेर नहीं पहुंच सकते थे। बेशक 

तुहा रब बूब शपीक (करुणामय) महरबान है। और उसने घोड़े और ख़च्चर और 
गधे पैदा किए ताकि तुम उन पर सवार हो और जीनत (साज-सज्जा) के लिए भी और 
वह ऐसी चीजें पेदा करता है जो तुम नहीं जानते। (4-8) 





इंसान का आगाज एक हकीर मादूदा से होता है। मगर इंसान जब बड़ा होता है तो वह 
खुदा को मद्देमुकाबिल बनने की कोशिश करता है। वह ख़ुदा की कायनात में बेखुदा बनकर 
रहना चाहता है। अगर इंसान अपनी इब्तिदाई हकीकत को नजर में रखे तो कभी वह जमीन 
में सरकशी का रवैया इख्तियार न करे। 
इंसान को मौजूदा दुनिया में जो नेमतें हासिल हैं उनमें से एक चौपाए हैं। यह गोया कुदरत 
की जिंदा मशीनें हैं जो इंसान की मुर्ललिफ जरूरियात फराहम करने में लगी हुई हैं। ये चौपाए 
घास और चारा खाते हैं। और उन्हें इंसानी खुराक के लिए गोश्त और दूध में तब्दील करते हैं। 
वे अपने जिस्म पर बाल और ऊन निकालते हैं जिनसे आदमी अपने पोशाक बनाता है। वे इंसान 
को और उसके सामान को एक जगह से उठाकर दूसरी जगह पहुंचाते हैं। इन चौपायों का गल्ला 
आदमी के असासे में शामिल होकर उसकी हैसियत और शान में इजाफा करता है। 
और ख़ुदा ऐसी चीजें पैदा करता है जिन्हें तुम नहीं जानते' इससे मुराद वे फायदे हैं जो 
चौपायों के अलावा दूसरे जराये से हासिल होते हैं। इन दूसरे जराये का एक हिस्सा कदीम 
जमाने में भी इंसान को हासिल था। और इनका बड़ा हिस्सा मौजूदा जमाने में दरयापत करके 
इंसान इनसे फायदा उठा रहा है। मिसाल के तौर पर जानवर की जगह मशीन। 
दुनिया में इंसान के लिए जो बेशुमार नेमतें हैं वे इंसान ने ख़ुद नहीं बनाई हैं बल्कि वे ख़ुदा 
की तरफ से उसके लिए मुहय्या की गई हैं। इससे जाहिर होता है कि इस दुनिया का ख़ालिक 
एक महरबान खलिक है। इसका तकज है कि इंसान अपने लिक का शुक्रगुजर बने और 
उसका वह हक अदा करे जो मोहसिन होने की हैसियत से उसके ऊपर लाजिम आता है। 


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और अल्लाह तक पहुंचती है सीधी राह। और कुछ रास्ते टेढ़े भी हैं और अगर अल्लाह 
चाहता तो तुम सबको हिदायत दे देता। (9) 


एक जगह से दूसरी जगह सफर करने के लिए कोई निश्चित सड़क होती है जो सीधी 
मंजिल तक पहुंचाती है। सवारियां अपनी मंजिले मकसूद के मुताबिक इन्हीं सीधी सड़कों पर 
चलती हैं। ताहम इन सड़कों के अलावा अतराफ में भी रास्ते और पगडंडियां होती हैं। अगर 
कोई शख्स इन विभिन्‍न रास्तों को रास्ता समझ कर उन पर चल पड़े तो वह कभी अपनी 
मत्लूबा मंजिल तक नहीं पहुंच सकता। वह अस्ल मंजिल के दाएं बाएं भटक कर रह जाएगा। 





पारा 74 प्र8 सूरह-6. अन-नहल 


यही मामला ख़ुदा तक पहुंचने का भी है। ख़ुदा ने इंसान को वाजेह तौर पर बता दिया 
है कि वह कौन सा रास्ता है जो उसे ख़ुदा तक पहुंचाने वाला है। यह रास्ता तौहीद और तकवा 
का रास्ता है। जो शख्स इस रास्ते को इख्तियार करेगा वह ख़ुदा तक पहुंचेगा और जो शख्स 
दूसरे रास्तों पर चलेगा वह इधर-उधर भटक जाएगा। वह कभी अपने रब तक नहीं पहुंच 
सकता। 

दुनिया में हर चीज खुदा के मुक्रर किए हुए रास्ते पर चलती है। खुदा अगर चाहता तो 
इसी तरह इंसान को भी एक मुक्रर रास्ते का पाबंद बना देता। मगर इंसान का तख्लीकी 
मंसूबा दूसरी अशया (चीज्रे के तख्लीकी मंसूबे से मुख्नलिफ है। दूसरी अशया से सिर्फ 
पाबंदी मत्लूब है। मगर इंसान से जो चीज मत्लूब है वह इख्तियारी पाबंदी है। इसी इख्तियारी 
पाबंदी का मौका देने का यह नतीजा है कि कोई शख्स सच्चे रास्ते पर चलता है और कोई 
उसे छोड़कर ख़ुदसाख्ता (स्वनिर्मित) राहों में भटकने लगता है। 


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वही है जिसने आसमान से पानी उतारा, तुम उसमें से पीते हो और उसी से दरख्त होते 
हैं जिनमें तुम चराते हो। वह उसी से तुम्हारे लिए खेती और जैतून और खजूर और अंगूर 
और हर किस्म के फल उगाता है। बेशक इसके अंदर निशानी है उन लोगों के लिए 
जो गौर करते हैं। (0-]) 











बादल ऊपर फजा से पानी बरसाते हैं और नीचे जमीन पर उससे निहायत बामअना 
किस्म के नतीजे जाहिर होते हैं। जमीन व आसमान” का इस तरह हमआहंग (अंतरंग) होकर 
अमल करना वाजेह तौर पर यह साबित करता है कि जो ख़ुदा आसमान का है वही ख़ुदा 
जमीन का भी है। 

कायनात के मुख्तलिफ हिस्सों के दर्मियान कामिल हमआहंगी है। यह हमआहंगी इस 
बात का कतई सुबूत है कि सारी कायनात का ख़ालिक व मालिक सिर्फ एक है। कायनात के 
मौजूदा ढांचे में एक से ज्यादा खुदा की कोई गुंजाइश नहीं। और जब ख़ालिक व मालिक 
हकीकतन सिर्फ एक खुदा है तो उसके सिवा दूसरी जिस चीज को भी माबूदियत (पूज्यता) 
का दर्जा दिया जाएगा वह सरासर बेबुनियाद होगा। 


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सूरह-6. अन-नहल 7l9 पारा ।4 


और उसने तुम्हारे काम में लगा दिया रात को और दिन को और सूरज को और चांद 
को और सितारे भी उसके हुक्म से मुसख्खर (अधीनस्थ) हैं। बेशक इसमें निशानियां 
हैं अक्लमंद लोगों के लिए। और जमीन में जो चीजे मुख्तलिफ किस्म की तुम्हारे लिए 

फैलाई, बेशक इसमें निशानी है उन लोगों के लिए जो सबक हासिल करें। (।2-3) 





सूरज, चांद सितारे वसीअ ख़ला में इंतिहाई सेहत के साथ मुसलसल गर्दिश करते हैं। 
जमीन में तरह-तरह की मख्नूकात (हैवानात, नबातात, जमादात) बेशुमार तादाद में पाई जाती 
हैं। पहले में अधीनता का पहलू नुमायां है। और दूसरे में बहुरूपता का पहलू । एक मंजर ख़ुदा 
की कुदरत के बेपनाह होने को याद दिलाता है। दूसरा मंजर खुदाई सिफात के अनगिनत होने 
को। 

ये मनाजिर इतने हैरतनाक हैं कि जो शख्स उन्हें नजर ठहराकर देखे वह उनसे 
मुतअस्सिर हुए बगैर नहीं रह सकता। इन चीजों में उसे खुदा की अज्मत और उसकी 
रबूबियत दिखाई देगी। वह जाहिरी वाकेपरात के अंदर छुपे हुए गे्ी हकाइक को दरयाप्त 
करेगा। वह मख्नूकात को देखकर ख़ालिक की मअरफत (अन्तर्ज्ञान) में डूब जाएगा। 


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SLCC 558: 


और वही है जिसने समुद्र को तुम्हारे काम में लगा दिया ताकि तुम उसमें से ताजा गोश्त 
खाओ और उससे जेवर निकालो जिसे तुम पहनते हो और तुम कश्तियों को देखते हो 
कि उसमें चीरती हुई चलती हैं और ताकि तुम उसका फज्ल (अनुग्रह) तलाश करो और 
ताकि तुम शुक्र करो। (4) 








समुद्र में लोहे का टुकड़ा डालें तो फौरन डूबकर पानी की तह में चला जाएगा । मगर जब 
इसी लोहे को जहाज की शक्ल दे दी जाए तो वह भारी बोझ लिए हुए समुद्र में तैरने लगता 
है और एक मुल्क से दूसरे मुल्क में पहुंच जाता है। 

यह खुदा का ख़ास कानून है जिसके जरिए उसने समुद्र जैसी मुहीब (भयावह) मूक 
को इंसान के लिए कारआमद बना रखा है। इसी तरह समुद्र के अंदर हैरतनाक इंतजाम के 
तहत मछली की सूरत में ताजा गोश्त तैयार किया जाता है और उसके अंदर इंसानी जीनत 
(साज-सज्जा) के लिए कीमती मोती बनते हैं। 

ख़ुदा के लिए दुनिया के इंतिजाम की दूसरी सूरतें भी मुमकिन थीं। मसलन ऐसा हो 
सकता था कि जमीन पर समुद्र न हों। या इंसान जिस तरह खुश्की पर चलता है उसी तरह 
वह समुद्र में चलने लगे। मगर खुदा ने ऐसा नहीं किया। इसका मकसद आदमी के अंदर 
शुक्रगुजारी का जज्वा पैदा करना था। आदमी जब अपने पैरों से समुद्र में न चल सके और 
कश्ती और जहाज पर बैठे तो निहायत आसानी से समुद्र को उबूर (पार) करने लगे तो उसे 


पारा 74 720 सूरह-।6. अन-नहल 


देखकर कुदरती तौर पर आदमी के अंदर शुक्र का जज्बा उभर आता है। वह सोचता है कि 
जिस समुद्र को मैं अपने कदमों के जरिए पार नहीं कर सकता था, खुदा ने कश्ती और जहाज 

के जरिए उसे पार करने का इंतिजाम कर दिया। वह फजा जिसमें मैं खुद नहीं उड़ सकता 

था, उसमें हवाई जहाज के जरिए निहायत तेज रफ्तारी के साथ उड़ने की सूरत पैदा कर दी। 

इस किस्म के फर्क कुदरत के निजाम में इसीलिए रखे गए हैंकि वे इंसान के शुऊर को जगाएं 

और उसके अंदर अपने रब के लिए शुक्र और एहसानमंदी का जज्बा पैदा करें। 


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और उसने जमीन में पहाड़ रख दिए ताकि वह तुम्हें लेकर डगमगाने न लगे और उसने 


नहरें और रास्ते बनाए ताकि तुम राह पाओ। और बहुत सी दूसरी अलामतें (चिह्न) 
भी हैं, और लोग तारों से भी रास्ता मालूम करते हैं। (5-6) 





यहां दो चीजें का जिक्र है। पहाड़ उभार कर जमीन पर तवाज (संतुलन) कयम कस्ने 
का। और जमीन व आसमान में ऐसी अलामतें (चिह्न) कायम करने का जो लोगों के लिए 
रास्ता मालूम करने का काम दें। 

भौगोलिक अध्ययन बताता है कि जमीन में जब गहराइयां पैदा हुई और उनमें पानी जमा 
होकर समुद्र बने तो जमीन हिलने लगी। इसके बाद खुश्को पर ऊचे पहाड़ उभर आए। इस 
तरह दोतरफ़ा अमल के नतीजे में जमीन पर तवाजु (संतुलन) कयम हेगया। अगर जीन 
की सतह पर यह तवाजुन न होता तो इंसान के लिए यहां जिंदगी नामुमकिन या कम से कम 
सख्त दुश्वार हो जाती। 

इसी तरह इंसान को अपने सफर और यातायात के लिए अलामतों की जरूरत है 
जिनकी मदद से वह सम्त को पहचाने और भटके बगैर अपनी मंजिल पर पहुंच जाए। 
इसका इंतिजाम भी यहां कामिल तौर पर मौजूद है। कदीम जमाने का इंसान दरियाओं और 
सितारों जैसी चीजों से अपने रास्ते पहचानता था। अब वह मक्नातीसी आलात (चुंबकीय 
उपकरणों) की मदद से अपना रास्ता और दूसरी जरूरी बातें मालूम करता है। खुश्की और 
तरी, तथा फजाओं और ख़लाओं (अंतरिक्ष) में तेज रफ्तार परवाजे इसी की मदद से 
मुमकिन होती हैं। अगर इस किस्म की अलामतें मौजूद न हों तो इंसानी सरगर्मियां इंतिहाई 
हद तक सिमट कर रह जाएं 


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फिर क्या जो पैदा करता है वह बराबर है उसके जो कुछ पैदा नहीं कर सकता, क्या 
तुम सोचते नहीं। अगर तुम अल्लाह की नेमतों को गिनो तो तुम उन्हें गिन न सकोगे, 





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सूरह-6. अन-नहल प्रशा 


बेशक अल्लाह बस्शने वाला, महरबान है। और अल्लाह जानता है जो कुछ तुम छुपाते 
हो और जो तुम जाहिर करते हो। (7-9) 


दुनिया में जितनी चीजें हैं उनमें से किसी के अंदर तख़्तीक (अदम से वजूद में लाने) की 
ताकत नहीं। इससे साबित है कि दुनिया अपनी ख़ालिक आप नहीं है। उसका ख़ालिक वही 
हो सकता है जिसके अंदर यह ताकत हो कि एक चीज जो मौजूद नहीं है उसे मौजूद कर दे। 
इसलिए एक ख़ुदा का अकीदा ऐन फितरी है। कायनात की तौजीह एक ऐसे ख़ुदा को माने 
बगैर नहीं हो सकती जिसके अंदर तख़लीक की सलाहियत कामिल दर्जे में पाई जाए। 
मुश्रिकीन ने ख़ुदा के सिवा जितने ख़ुदा के शरीक गढ़े हैं। या मुंकिरीन ने ख़ुदा को 
छोड़कर जिन दूसरी चीजों को खुदा का बदल बनाने की कोशिश की है उनमें से कोई भी नहीं 
जिसके अंदर जाती तख़्लीक (निजी रचनाशीलता) की सलाहियत हो। यही वाकया यह साबित 
करने के लिए काफी है कि शिक और इल्हाद (नास्तिकता) के गढ़े हुए तमाम ख़ुदा सरासर 
फर्ज हैं। क्येकि जिसके अंदर तख््लीकी कुत न हो उसके मुतअल्लिक यह दावा करना 
सरासर बेबुनियाद है कि वह एक मौजूद कायनात का ख़ुदा है। जो खुद जाती वजूद न रखता 
हो वह किस तरह दूसरी चीज को वजूद दे सकता है। 
खुदा को अपने बंदों से सबसे ज्यादा जो चीज मल्लूब हैं वह उसकी नेमतों पर शुक्रगुजारी 
है। अगरचे खुदा की नेमतें इससे ज्यादा हैं कि कोई शख़्स भी उनका वाकई शुक्र अदा कर 
सके। मगर ख़ुदा बेनियाज (निस्पृह) है। वह ज्यादा नेमत के लिए थोड़ा शुक्र भी कुबूल कर 
लेता है। ताहम यह शुक्र हकीकी शुक्र होना चाहिए न कि महज रस्मी किस्म की हम्दर््रानी 


पारा 4 























(स्तुतिगान) 
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और जिन्हें लोग अल्लाह के सिवा पुकारते हैं वे किसी चीज को पैदा नहीं कर सकते 
और वे ख़ुद पैदा किए हुए हैं। वे मुर्दा हैं जिनमें जान नहीं और वे नहीं जानते कि वे 
कब उठाए जाएंगे। तुम्हारा माबूद (पूज्य) एक ही माबूद है मगर जो लोग आख़िरत पर 
ईमान नहीं रखते उनके दिल मुंकिर हैं और वे तकबुर (घमंड) करते हैं अल्लाह यकीनन 
जानता है जो कुछ वे छुपाते हैं और जो कुछ वे जाहिर करते हैं। बेशक वह तकब्बुर करने 
वालों को पसंद नहीं करता। (20-23) 


अक्सर शिर्क की सूरत यह होती है कि पिछले बुजुर्गों को मुकदूदस और मुर्करब मान कर 
लोग उनकी परस्तिश करने लगते हैं। हालांकि यह परस्तिश सरासर अहमकाना होती है। जिन 





पारा 74 722 सूरह-6. अन-नहल 


दफ्न हुए बुजुर्गों की बड़ी-बड़ी कब्रें बनाकर लोग उनसे मुरादें मांगते हैं वे खुद मुर्दा हालत में 
आलमे बरजख़ में पड़े होते हैं। उन्हें खुद अपने बारे में भी मालूम नहीं होता कि वे कब उठाए 
जाएंगे, कुजा यह कि वे किसी दूसरे की मदद करें। 

'वे तकबबुर करते हैं' का मतलब यह नहीं कि वे ख़ुदा से तकब्बुर (घमंड) करते हैं। 
जमीन व आसमान के ख़ालिक से तकब्बुर की जुरअत कौन करेगा । इससे मुराद दरअस्ल ख़ुदा 
के दाऔ से तकब्बुर है न कि ख़ुद ख़ुदा से तकब्बुर। अल्लाह का जो बंदा तौहीद का दाऔ 
बनकर उठता है वह दुनियावी एतबार से अपने मुख़ातबीन के मुकाबले में हमेशा कम होता 
है। क्योंकि मुखातब रवाजी मजहब का हामी होने की वजह से वकत के नके में ऊंचा दर्जा 
हासिल किए हुए होता है जबकि हक का दाऔ “नए दीन” का अलमबरदार होने की बिना पर 
इन दर्जात व मकामात से महरूम होता है। वह मुखातबीन को अपने मुकाबले में मादूदी 
एतबार से कमतर नजर आता है। चुनांचे उनके अंदर बरतरी की नफ्सियात पैदा हो जाती है। 
वे उसकी बात को बेवजन समझ कर उसे नजरअंदाज कर देते हैं। 

ऐसे लोगों का केस अगरचे तकब्बुर (घमंड) का केस होता है लेकिन वे उसे उसूली और 
नजरियाती केस बनाकर पेश करते हैं। मगर अल्लाह को लोगों की अंदरूनी नफ्सियात का 
हाल ख़ूब मालूम है। अल्लाह उनकी असल हकीकत के एतबार से उसके साथ सुलूक करेगा 
न कि उनकी जाहिरी बातों के एतबार से। 


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और जब उनसे कहा जाए कि तुम्हारे रब ने क्या चीज उतारी है तो कहते हैं कि अगले 
लोगों की कहानियां हैं, ताकि वे कियामत के दिन अपने बोझ भी पूरे उठाएं और उन 


लोगों के बोझ में से भी जिन्हें वे बगैर किसी इलम के गुमराह कर रहे हैं। याद रखो बहुत 
बुरा है वह बोझ जिसे वे उठा रहे हैं। (24-25) 








रवायात में आया है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने जब मक्का में नुबुव्वत 
का दावा किया और इसकी ख़बर धीरे-धीरे अरब के दूसरे कबाइल में पहुंची तो वे मुलाकात के 
वक्त मक्का के सरदारों से पूछते कि जिस शख्स ने नुबुव्यत का दावा किया है उसके बारे में 
तुम्हारी क्या राय है। इसके जवाब में मक्का के सरदार कोई ऐसी बात कह देते जिससे आपकी 
शख्सियत और आपके कलाम के बारे में लोग शक में मुब्तिला हो जाएं। (तफ्सीर मजहरी) 
इसका एक तरीका यह है कि बात को बिगड़े हुए अल्फाज में बयान किया जाए। मसलन 
कुआन मॅपिएबरंका जोज्क्रि है उसके मुतअल्लिक वे पिछले पेएबराका इतिहास' का लफ् 
भी बोल सकते थे मगर उसे उन्होंने पिछले लोगों के किस्से कहानियाँ' का नाम दे दिया। 
हक की दावत से लोगों को इस तरह फेरना या मुशतबह (संदिग्ध) करना खुदा के नजदीक 


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सूरह-6. अन-नहल 728 पारा 4 


बदतरीन जुर्म है। ऐसे लोगों को कियामत के दिन दुगना अजाब होगा। क्योंकि वे न सिर्फ खुद 
गुमराह हुए बल्कि दूसरों को गुमराह करने का जरिया भी बने। 


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उनसे पहले वालों ने भी तदबीरें कीं। फिर अल्लाह उनकी इमारत पर बुनियादों से आ 
गया। पस छत ऊपर से उनके ऊपर गिर पड़ी और उन पर अजाब वहां से आ गया जहां 

से उन्हें गुमान भी न था। फिर कियामत के दिन अल्लाह उन्हें रुसवा करेगा और कहेगा 
कि वे मेरे शरीक कहां हैं जिनके लिए तुम झगड़ा किया करते थे। जिन्हें इल्म दिया गया 
था वे कहेंगे कि आज रुस्वाई और अजाब मुंकिरों पर है। (26-27) 





जो लोग झूठी बुनियादों पर बड़ाई का मकाम हासिल किए हुए हैं, वे जब किसी हक की 
दावत को उठता हुआ देखते हैं तो उन्हें अपने मकाम के लिए ख़तरा महसूस होने लगता है। 
वेअमनम्न क्रेत (सुरक्षा) के लिए यह तदबीर करते हैं कि हक की दावत के 
खिलाफ ऐसी फितनाअंगेज बातें फैलाते हैं जिससे अवाम उसके बारे में मुशतबह हो जाएं और 
उसके गिर्द जमा न हो सकें। 

मगर हक की दावत के खिलाफ ऐसे लोगों की तदबीरें कभी कामयाब नहीं होतीं। हक 
के मुख़ालिफोन अपनी जिन बुनियादों पर भरोसा कर रहे थे ऐन वही बुनियादें इस तरह 
कमजोर साबित होती हैं कि उनकी छत उनके ऊपर गिर पड़ती है। कभी ऐसा होता है कि 
कोई कुदरती जलजला उनकी बुनियादों को हिलाकर उनकी तामीरात को उनके ऊपर गिरा 
देता है। कभी उनके अवाम उनका साथ छोड़कर हक की सफों में शामिल हो जाते हैं। और 
इस तरह वे अपने मददगारों को खोकर मजबूर हो जाते हैं कि हक की दावत के आगे हथियार 
डाल दें। यह अंजाम अपनी आखिरी और तक्मीली सूरत में कियामत में सामने आएगा। 
जबकि मुंकिरीन अपनी अबदी जिल्लत को देखेंगे और कुछ न कर सकेंगे। 


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जिन लोगों को फरिश्ते इस हाल में वफात (मौत) देंगे कि वे अपनी जानों पर जुल्म कर 


पारा 74 724 सूरह-।6. अन-नहल 


रहे होंगे तो उस वक्‍त वे सिपर डाल देंगे कि हम तो कोई बुरा काम न करते थे, हां 
बेशक अल्लाह जानता है जो कुछ तुम करते थे। अब जहन्नम के दरवाजों में दाखिल 
हो जाओ। उसमें हमेशा हमेशा रहो। पस केसा बुरा ठिकाना है तकब्बुर (घमंड) करने 
वालों का। (28-29) 


तकब्बुर (घमंड) सबसे बड़ा जुर्म है। खुदा इंसान की हर गलती माफ कर देगा मगर वह 
तकब्बुर को माफ नहीं करेगा। 

तकब्बुर के इज्हार की दो बड़ी सूरतें हैं। एक तकब्बुर वह है जो आम बंदों के दर्मियान 
जाहिर होता है। एक आदमी ताकत, दौलत और दीगर साजोसामान में अपने को दूसरे के 
मुकाबले में ज्यादा पाता है, इस बिना पर वह उससे तकब्बुर करने लगता है। 

दूसरा ज्यादा शदीद तकब्बुर वह है जो हक के दाऔ के साथ किया जाता है। ख़ुदा का 
एक बंदा ख़ुदा के सच्चे दीन की दावत लेकर उठता है। अब जो लोग झूठे दीन की बुनियाद 
पर बड़ाई का मकाम हासिल किए हुए हैं, वे महसूस करते हैं कि उनके ऊपर इसकी जद पड़ 
रही है। वे सच्चे दीन के मेयार पर बेकीमत करार पा रहे हैं। यह देखकर वे बिफर उठते हैं। 
और हक के दाओ को मुतकब्बिराना नपिसियात (धमंड-भाव) के साथ नजरअंदाज कर देते हैं। 

आदमी जब किसी के मुकाबले में तकब्बुर करता है तो इसलिए करता है कि वह समझता 
है कि वह उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता । मगर जब मौत के फरिश्ते आएंगे और उसे बेबस 
कर देंगे, उस वक्‍त उसे मालूम होगा कि मामला किसी इंसान का नहीं बल्कि ख़ुदा का था, 
इंसान किसी दूसरे इंसान के मुकाबले में ताकतवर हो सकता है मगर खुदा के मुकाबले में कीन 
ताकतवर है। खुदा के फरिश्ते जब इंसान को अपने कन्न में लेते हैं तो उस वक्‍त हर आदमी 
हथियार डाल देता है। मगर अल्लाह का सच्चा बंदा वह है जो उस मौके के आने से पहले ख़ुदा 
के आगे हथियार डाल दे। 


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और जो तकवा (ईश-परायणता) वाले हैं उनसे कहा गया कि तुम्हारे रब ने क्या चीज 
उतारी है तो उन्होंने कहा कि नेक बात। जिन लोगों ने भलाई की उनके लिए इस 
दुनिया में भी भलाई है और आख़िरत का घर बेहतर है और क्या ख़ूब घर है तकवा वालों 
का। हमेशा रहने के बागा हैं जिनमें वे दाखिल होंगे, उनके नीचे से नहरें जारी होंगी। 
उनके लिए वहां सब कुछ होगा जो वे चाहें, अल्लाह परहेजगारों को ऐसा ही बदला देगा। 
जिनकी रूह फरिश्ते इस हालत में कज करते हैकि वे पाक है। फरिश्त ˆ कहते हैं तुम पर 





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सूरह-।6. अन-नहल 725 पारा 74 
सलामती हो, जन्नत में दाखिल हो जाओ अपने आमाल के बदले में। (30-32) 


जो लोग किब्र (अहं, बड़ाई) की नफ्सियात मे मुब्तिला हों वे खुदा की बात सुनते हैं तो 
उनका जेहन उल्टी सम्त में चलने लगता है। इस बिना पर वे उससे नसीहत नहीं ले पाते। मगर 
जिस शख्स के दिल में अल्लाह का डर हो वह ख़ुदा की बात को पूरी आमादगी के साथ सुनेगा। 
ऐसे शख्स के लिए अल्लाह का कलाम मअरफत (अन्तर्ज्ञान) का जरिया बन जाता है। उसे इसके 
अंदर हकीकत की झलकियां दिखाई देने लगती हैं। 

जन्नत की सिफत यह है कि वहां वह सब कुछ है जो इंसान चाहे। यह ऐसी चीज है जो 
कभी किसी इंसान को, यहां तक कि बड़े-बड़े बादशाहों को भी हासिल न हो सकी। मौजूदा दुनिया 
में इंसान की महदूदियत (सीमितता) और खारजी हालात की ना मुवाफिकत (प्रतिकूलता) की 
बिना पर कभी ऐसा नहीं होता कि इंसान जो कुछ चाहता है उसे हासिल कर ले। यह तसव्वुर 
कि “जन्नत में वह सब कुछ होगा जो इंसान चाहेगा' इतना पुरकैफ (आनंदमय) है कि इसकी 
खातिर जो कुर्बानी भी देनी पड़े वह यकीनन हल्की है। 


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क्या ये लोग इसके मुंतजिर हैं कि उनके पास फरिश्ते आएं या तुम्हारे रब का हुक्म आ 
जाए। ऐसा ही इनसे पहले वालों ने किया। और अल्लाह ने उन पर जुल्म नहीं किया 
बल्कि वे खुद ही अपने ऊपर जुल्म कर रहे थे। फिर उन्हें उनके बुरे काम की सजाएं 
मिलीं। ओर जिस चीज का वे मजाक उडते थे उसने उन्हं घेर लिया। (33-34) 

















ख़ुदा की बात इंसान के सामने अव्वलन दलाइल (तरको) के जरिए बयान की जाती है। यह 
दावती मरहला होता है। अगर वह दलाइल के जरिए न माने तो फिर वह वक्‍त आ जाता है 
जबकि इंफिरादी मौत या इज्तिमाई कियामत की सूरत में उसे लोगों के सामने खोल दिया जाए। 

आदमी के सामने अगर खुदा की बात दलाइल के जरिए आए और वह उसे नजरअंदाज 
कर दे तो गोया वह उस दूसरे मरहले का इंतिजार कर रहा है जबकि खुदा और उसके फरिश्ते 
जाहिर हो जाएं और आदमी उस बात को जिल्लत के साथ मानने पर मजबूर हो जाए जिसे उसे 
इज्जत के साथ मानने का मौका दिया गया था मगर उसने नहीं माना। 

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पारा 74 726 सूरह-6. अन-नहल 


और जिन लोगों ने शिक किया वे कहते हैं, अगर अल्लाह चाहता तो हम उसके सिवा 
किसी चीज की इबादत न करते, न हम और न हमारे बाप दादा, और न हम उसके 
बगैर किसी चीज को हराम ठहराते। ऐसा ही इनसे पहले वालों ने किया था, पस रसूलों 

के जिमे तो सिर्फ साफसाफ पूछा देना है। (85) 


गाफिल इंसान अपने हक से इंहिराफ को जाइज साबित करने के लिए जो बातें करता है उसमें 
से एक बात यह है कि जब इस दुनिया में हर चीज खुदा की मर्जी से होती है तो हमारा मौजूदा अमल 
भी खुदा की मर्ज से है उसकी मर्जी न होती तो हम ऐसा कर ही न पाते । अगर वाकई खुदा को हमारे 
काम पसंद न होते तो वह हमें ऐसा काम करने क्यों देता फिर तो ऐसा होना चाहिए था कि जब भी 
हम उसकी मर्जी के खिलाफ कोई काम करेंतो वह फौरन हमें रोक दे। 
यह बात आदमी सिर्फ इसलिए कहता है कि वह हक नाहक के मामले में संजीदा नहीं 
होता। अगर वह संजीदा हो तो फौरन उसकी समझ में आ जाए कि उसे मौजूदा अमल की जो 
छूट है वह इम्तेहान की वजह से है न कि ख़ुदा की पसंद की वजह से। 
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और हमने हर उम्मत में एक रसूल भेजा कि अल्लाह की इबादत करो और तागूत (बढ़े 
हुए उपद्रवी) से बचो, पस उनमें से कुछ को अल्लाह ने हिदायत दी और किसी पर 
गुमराही साबित हुई। पस जमीन में चल फिरकर देखो कि झुठलाने वालों का अंजाम 
क्या हुआ। अगर तुम उसको हिदायत के हरीस (लालसा रखने वाले) हो तो अल्लाह 
उसे हिदायत नहीं देता जिसे वह गुमराह कर देता है और उनका कोई मददगार नहीं। 
(36-37) 





ख़ुदा ने कहीं बराहेरास्त अपने पैगम्बर भेजे और कहीं पैगम्बर के नायब और नुमाइंदे के 
जरिए बिलवास्ता तौर पर अपना पैग़ाम पहुंचाने का इंतिजाम किया । उन तमाम लोगों ने इंसान 
को जिस चीज की तल्कीन की वह यही थी कि इबादत का हक सिर्फ एक खुदा को है। शैतान 
इस इबादत से इंसान को फेरने की कोशिश करता है, इसलिए आदमी को चाहिए कि वह शैतानी 
तर्गीबात से बचे। वर्ना वह आदमी को झूठे माबूदों की परस्तिश के रास्ते पर डाल देगा। 
हिदायत अगरचे वाजेह है। मगर उसे कुबूल करने या न करने का इंहिसार तमामतर इस 
बात पर है कि आदमी उसके बारे में कितना संजीदा है। जो शख्स हिदायत पर संजीदगी के 
साथ गौर करेगा उसे उसकी सदाकत को पाने में देर नहीं लगेगी। मगर जो शख्स इसके बारे 
में संजीदा न हो वह मामूली-मामूली बातों पर अटक कर रह जाएगा। ऐसा आदमी कभी हक 
को नहीं पा सकता। 


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सूरह-6. अन-नहल 727 पारा ।4 


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और ये लोग अल्लाह की कसमें खाते हैं, सख़्त कसमें कि जो शख्स मर जाएगा अल्लाह 
उसे नहीं उठाएगा। हां, यह उसके ऊपर एक पक्का वादा है, लेकिन अक्सर लोग नहीं 
जानते। ताकि उनके सामने उस चीज को खोल दे जिसमें वे इख़्तेलाफ (मतभेद) कर 
रहे हैं और इंकार करने वाले लोग जान लें कि वे झूठे थे। जब हम किसी चीज का इरादा 
करते हैं तो इतना ही हमारा कहना होता है कि हम उसे कहते हैं हो जा तो वह हो 
जाती है। (38-40) 


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मौजूदा दुनिया कुछ इस ढंग से बनी है कि यहां हक और नाहक इस तरह साबित नहीं 
हो पाते कि किसी के लिए इंकार की गुंजाइश बाकी न रहे | यहां आदमी हर दलील को काटने 
के लिए कुछ अल्फाज पा लेता है। हर साबितशुदा चीज को मुशतबह (संदिग्ध) करने के लिए 
वह कोई न कोई बात निकाल लेता है। 

यह बात कायनात के मिजाज के सरासर ख़िलाफ है। मादूदी उलूम (भौतिक ज्ञानों) में 
आदमी के लिए मुमकिन होता है कि वह कतई नताइज तक पहुंच सके। इसी तरह यह भी 
जरूरी होना चाहिए कि इंसानी मामलात में कतई हकाइक खुलकर सामने आ जाएं। यही वह 
काम है जो कियामत में अंजाम पाएगा। शाह अब्दुल कादिर देहलवी लिखते हैं 'इस जहान में 
बहुत बातों का शुबह रहा। किसी ने अल्लाह को माना और कोई उसका मुंकिर रहा तो दूसरा 
जहान होना लाजिम है कि झगड़े तहकीक हों। सच और झूठ जुदा हो और मुतीअ 
(आज्ञाकारी) और मुंकिर अपना किया पाएं।' 


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और जिन लोगों ने अल्लाह के लिए अपना वतन छोड़ा, बाद इसके कि उन पर जुल्म 
किया गया, हम उन्हें दुनिया में जरूर अच्छा ठिकाना देंगे और आख़िरत का सवाब तो 
बहुत बड़ा है, काश वे जानते। वे ऐसे हैं जो सब्र करते हैं और अपने रब पर भरोसा 
रखते हैं। (4-42) 


पारा 74 728 सूरह-6. अन-नहल 





अक्सर मुफस्सिरीन ने इस आयत को उन 80 सहाबा से मुतअल्लिक माना है जो मक्का में 
इस्लाम के मुखालिफीन की ज्यादतियों का निशाना बन रहे थे और बिलआखिर अपना वतन छोड़कर 
हबश चले गए। यह वाकया मदीना की हिजरत से पहले मक्की दौर में पेश आया। 

हक के मामले में हमेशा दो गिरोह होते हैं। एक वह जो हक को इतनी अहमियत न दें 
कि उसकी ख़ातिर मिली हुई चीजों को छोड़ दें या अपनी जिंदगी का नवशा बदल लें। दूसरे 
वे लोग जो हक को इस तरह इख्तियार करते हैं कि वही उनके नजदीक सबसे अहम चीज 
बन जाता है। वे उसकी ख़ातिर हर तकलीफ को सहने के लिए तैयार रहते हैं। वे हक को 
अपना अहमतरीन मसला बना लेते हैं। वे हर दूसरी चीज को छोड़ सकते हैं मगर हक को नहीं 
छोड़ सकते । 

जाहिर है कि दोनों किस्म के गिरोहों का अंजाम यकसां (समान) नहीं हो सकता । जिन 
लोगों ने हक को अपनी जिंदगी में अहमतरीन मकाम दिया वे खुदा की अबदी नेमतों के 
मुस्तहिक ठहेशे। और जिन लेगेंनेहक को नजरअंदाज किया उन्हा भी नजरअंदाज कर 
देगा। वे खुदा के यहां कोई इज्जत का मकाम नहीं पा सकते। और न वे खुदा की नेमतों में 
हिस्सेदार बन सकते । 


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और हमने तुमसे पहले भी आदमियों ही को रसूल बनाकर भेजा, जिनकी तरफ हम 
“वही? (प्रकाशना) करते थे, पस अहले इलम से पूछ लो अगर तुम नहीं जानते। हमने 
भेजा था उन्हें दलाइल (स्पष्ट प्रमाणो) और किताबों के साथ। और हमने तुम पर भी 
याददिहानी (अनुस्मृति) उतारी ताकि तुम लोगों पर उस चीज को वाजेह कर दो जो 
उनकी तरफ उतारी गई है और ताकि वे गोर करें। (43-44) 


'अहले इलम” से मुराद यहां अहले किताब हैं। या वे लोग जो पिछली उम्मतों और पिछले 
पैग़म्बरों के तारीख़ी हालात का इल्म रखते हैं। जो चीज उनसे पूछने के लिए फरमाई गई है 
वह यह नहीं है कि हक क्या है और नाहक क्या । बल्कि यह कि पिछले जमानों में जो पैगम्बर 
आए वे इंसान थे या गैर इंसान। मक्का वाले रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के इंसान 
होने को इस बात की दलील बनाते थे कि आप खुदा के पैगम्बर नहीं हैं। उनसे कहा गया 
कि जिन कौमों में इससे पहले पैग़म्बर आते रहे हैं (मसलन यहूद) उनसे पूछ कर मालूम कर 
लो कि उनके यहां जो पैगम्बर आए वे इंसान थे या फरिश्ते। 

पैगम्बर सिफ 'याददिहानी' के लिए आता है, यह याददिहानी अस्लन दलाइल के जरिए 
होती है। ताहम यह भी जरूरी है कि पैगम्बर अपने आपको इस मामले में पूरी तरह संजीदा 
साबित करे। अगर एक शख्स लोगों को जन्नत और जहन्नम से बाख़बर करे और इसी के साथ 











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सूरह-6. अन-नहल 729 पारा ।4 


वह ऐसे कामों में मशगूल हो जो जन्नत और जहन्नम के मामले में उसे गैर संजीदा साबित करते 
हों तो उसका दावती काम लोगों की नजर में मजाक बनकर रह जाएगा। 

ताहम दावत (आस्वान) चाहे कितने ही आला दर्जे पर और कितने ही कामिल अंदाज 
में पेश कर दी जाए उससे वही लोग फायदा उठाएंगे जो ख़ुद भी उस पर ध्यान दें। जो लोग 
ध्यान न दें वे किसी भी हालत में हक की दावत से फैज़याब नहीं हो सकते। 


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क्या वे लोग जो बुरी तदबीरें कर रहे हैं वे इस बात से बेफिक्र हैं कि अल्लाह उन्हें जमीन 
में धंसा दे या उन पर अजाब वहां से आ जाए जहां से उन्हें गुमान भी न हो या उन्हें चलते 
फिरते पकड़ ले तो वे लोग खुदा को आजिज नहीं कर सकते या उन्हें अदेशे की हालत में 
पकड़ ले। पस तुष्हारा रब शफीक (करुणामय) और महरबान है। (45-47) 


यह आयत मक्की दौर के आखिरी जमाने की है जबकि मक्का के मुखालिफीन 
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के कत्ल की साजिशें कर रहे थे। पैगम्बर खुदा की 
जमीन पर खुदा का नुमाइंदा होता है। इसलिए पैगम्बर के खिलाफ इस किस्म में साजिश 
करना ऐसे ही लोगों का काम हो सकता है जो खुदा की पकड़ से बिल्कुल बेख़ौफ हो चुके हों। 
हालांकि खुदा इंसान के ऊपर इतना ज्यादा काबूयापता है कि वह चाहे तो इंसान को 
जमीन में धंसा दे या जिस मकाम को आदमी अपने लिए महफूज समझे हुए है वहीँ से उसके 
लिए एक अजाब फट पड़े। या ख़ुदा ऐसा करे कि लोगों की सरगर्मियों के दौरान उन्हें पकड़ 
ले, फिर वे अपने आपको उससे बचा न सकें। खुदा यह भी कर सकता है कि वह इस तरह 
उन्हें पकड़े कि वे ख़तरे को महसूस कर रहे हों और उसके लिए पूरी तरह बेदार हों। 
गरज ख़ुदा हर हालत में इंसान को पकड़ सकता है। अगर वह लोगों को शरारतें करते 
हुए देखता है और इसके बावजूद वह उन्हें नहीं पकड़ता तो लोगों को बेख़ौफ नहीं होना 
चाहिए। क्योकि यह उसकी इम्तेहान की मस्लेहत है न कि उसका इज्ज (निर्बलताः 


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क्या नहीं देखते कि अल्लाह ने जो चीज भी पैदा की है उसके साये दाई तरफ और बाई 

तरफ झुक जाते हैं, अल्लाह को सज्दा करते हुए, और वे सब आजिज (नम्र) हैं। और 
अल्लाह ही को सज्दा करती हैं जितनी चीजें चलने वाली आसमानों और जमीन में हैं। 

और फरिश्ते भी और वे तकबुर (घमंड) नहीं करते। वे अपने ऊपर अपने रब से डरते 
हैं और वही करते हैं जिसका उन्हें हुक्म मिलता है। (48-50) 


सूरह-।6. अन-नहल 





इंसान एक ऐसी दुनिया में सरकशी करता है जिसमें उसके चारों तरफ उसे ताबेदारी का 
सबक दिया जा रहा है। मिसाल के तौर पर मादूदी अजसाम (वस्तुओं) के साये। एक चीज 
जो खड़ी हुई हो, उसका साया जमीन पर पड़ जाता है। इस तरह वह सज्दे को मुमस्सल 
(प्रतिरूपित) कर रहा है। वह तमसीली अंदाज में बताता है कि इंसान को किस तरह अपने 
खालिक के आगे झुक जाना चाहिए । 

फरिश्ते अगरचे इंसान को नजर नहीं आते। मगर अजीम कायनात का इस क्र मुनप्ज़म 
होकर चलना साबित करता है कि इसे चलाने के लिए ख़ुदा ने अपने जो कारिंदे मुकर्रर किए 
हैं वे इंतिहाई ताकतवर हैं। ये फरिश्ते गैर मामूली ताकतवर होने के बावजूद खुदा के हददर्जा 
मुतीअ (आज्ञाकारी) हैं। अगर वे हददर्जा मुतीअ न हों तो कायनात का निजाम इस दर्जे सेहत 
और यकसानियत के साथ मुसलसल चलता हुआ नजर न आए। 

ऐसी हालत में इंसान के लिए सही रवैया इसके सिवा और कुछ नहीं हो सकता कि वह 
अपने आपको खुदा की इताअत में दे दे, वह मुकम्मल तौर पर उसका फरमांबरदार बन जाए 


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और अल्लाह ने फरमाया कि दो माबूद (पूज्य) मत बनाओ । वह एक ही माबूद है तो मुझ 


ही से डरो और उसी का है जो कुछ आसमानों और जमीन में है। और उसी की इताअत 
(आज्ञापालन) है हमेशा। तो क्या तुम अल्लाह के सिवा औरों से डरते हो। (5.-52) 





पैगम्बरों के जरिए ख़ुदा ने इंसान को इससे डराया है कि वह एक माबूद (पूज्य) के सिवा 
दूसरे माबूद अपने लिए बनाए। इस कायनात का माबूद सिर्फ एक है। उसी से आदमी को 
डरना चाहिए। उसे सिर्फ उसी की ताबेदारी (आज्ञापालन) करना चाहिए। 

अगर आदमी को इस बात का सही इदराक हो जाए कि ख़ुदा ही इंसान का और तमाम 
मौजूदात का ख़ालिक व मालिक है। उसी पर उसकी जिंदगी का सारा दारोमदार है तो इस 
इदराक के लाजिमी नतीजे के तौर पर जो कैफियत आदमी के अंदर पैदा होती है उसी का 
नाम तक्वा है। 


जमीन व आसमान में खुदा ही की दाइमी (स्थाई) इताअत है। यहां हर चीज मुकम्मल तौर 


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सूरह-6. अन-नहल 73] पारा ॥4 
पर कानूने खुदावंदी में जकड़ी हुई है। एक ऐसी दुनिया में किसी और की इबादत करना या 
किसी और से उम्मीद कायम करना बिल्कुल बेबुनियाद है। मौजूदा कायनात ऐसे शिर्क को कुबूल 

करने से सरासर इंकार करती है। 


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और तुम्हारे पास जो नेमत भी है वह अल्लाह ही की तरफ से है। फिर जब तुम्हें 
तकलीफ पहुंचती है तो उससे फरयाद करते हो। फिर जब वह तुमसे तकलीफ दूर कर 
देता है तो तुम में से एक गिरोह अपने रब का शरीक ठहराने लगता है ताकि मुंकिर 
हो जाएं उस चीज से जो हमने उन्हें दी है। पस चन्द रोज फायदे उठा लो। जल्द ही तुम 
जान लोगे। और ये लोग हमारी दी हुई चीजों में से उनका हिस्सा लगाते हैं जिनके 
मुतअल्लिक उन्हें कुछ इलम नहीं। खुदा की कसम, जो झूठ तुम गढ़ रहे हो उसकी तुमसे 
जह बर (पूछगछ) होगी। (53-56) 


पूरी तारीख़ का तजर्बा है कि आदमी जब किसी ऐसी मुसीबत में पड़ता है जहां वह अपने 
को आजिज महसूस करने लगता है तो उस वक्त वह खुदा को याद करने लगता है। मुंकिर और 
मुश्रिक दोनों ही ऐसा करते हैं। इस तजर्वे से मालूम हुआ कि ख़ुदा का तसव्वुर इंसानी फितरत 
में पैवस्त है। जब तमाम दूसरे अलाइक (बखेंड़े) कट जाते हैं तो आखिरी चीज जो बाकी रहती 
है वह सिर्फ खुदा है। 

मगर यह इंसान की अजीब गफलत है कि जब वह मुसीबत में नजात पाता है तो दुबारा 
अपने फर्जी खुदाओं की याद में मशगूल हो जाता है। वह मिली हुई नेमत को खुदा के बजाए 
दूसरी-दूसरी चीजें की तरफ मंसूब कर देता है। उसे वह अजीम सबक याद नहीं रहता जो खुद 
उसकी फितरत ने चन्द लम्हा पहले उसे दिया था। 

शैतान ने फर्जी माबूदों की माबूदियत के अकीदे को पुख्ता करने के लिए तरह-तरह की 
झूठी रस्में अवाम में राइज कर रखी हैं। उनमें से एक है अपनी आमदनी में फर्जी माबूदों का 
हिस्सा निकालना । इस किस्म की रस्में खुदा की दुनिया में एक बोहतान की हैसियत रखती हैं 
क्योंकि वह खुदा की तरफ से मिली हुई चीज के लिए गैर खुदा का शुक्र अदा करने के हममअना 
हैं। 


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और वे अल्लाह के लिए बेटियां ठहराते हैं, वह इससे पाक है, और अपने लिए वह जो 

दिल चाहता है। और जब उनमें से किसी को बेटी की खुशखबरी दी जाए तो उसका 

चेहरा स्याह पड़ जाता है और वह जी में घुटता रहता है। जिस चीज की उसे खुशखबरी 

दी गई है उसके आर (लाज) से लोगों से छुपा फिरता है। उसे जिल्लत के साथ रख छोड़े 

या उसे मिट्टी में गाइ़ दे। क्या ही बुरा फैसला है जो वे करते हैं। बुरी मिसाल है उन 


लोगों के लिए जो आख़िरत पर ईमान नहीं रखते। और अल्लाह के लिए आला मिसालें 
हैं। वह ग़ालिब (प्रभुत्वशाली) और हकीम (तत्वदर्शी) है। (57-60) 


सूरह-6. अन-नहल 


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एक ख़ुदा के सिवा इंसान ने दूसरे जो माबूद बनाए हैं उनमें देवता भी हैं और देवियां 
भी। यहां देवियों के अकीदे को बेबुनियाद साबित करने के लिए एक आम मिसाल दी गई है। 
मर्द के मुकाबले में औरत चूंकि कमजोर होती है, इसके अलावा आम हालात में वह असासे 
(सम्पत्ति) से ज्यादा जिम्मेदारी होती है, इसलिए आम तौर पर लोग लड़के की पैदाइश पर 
ज्यादा खुश होते हैं। और लड़की की पैदाइश पर कम । अब जबकि लड़के और लड़की में यह 
फर्क है तो ख़ुदा अगर अपने लिए औलाद पैदा करता तो वह लड़कियां क्यों पैदा करता। 

इंसान किस लिए औलाद चाहता है। इसलिए ताकि वह उसके जरिए से अपनी कमी को 
पूरा कर सके। मगर ख़ुदा इस तरह की कमियों से बुलन्द है। खुदा की अज्मत व कुदरत जो 
उसकी कायनात में जाहिर हुई है वह बताती है कि खुदा इससे बुलन्द व बरतर है कि उसके 
अंदर ऐसी कोई कमी हो जिसकी तलाफी (पूर्ति) के लिए वह अपने यहां लड़का और लड़की 
पैदा करे। हकीकत यह है कि खुदा अगर कमियों वाला होता तो वह ख़ुदा ही न होता । खुदा 
इसीलिए खुदा है कि वह हर किस्म की तमाम कमियों से पाक है। 





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और अगर अल्लाह लोगों को उनके जुल्म पर पकड़ता तो जमीन पर किसी जानदार को 
न छोड़ता। लेकिन वह एक मुकर्र वक्‍त तक लोगों को मोहलत देता है। फिर जब 
उनका मुकर्रर वक्‍त आ जाएगा तो वे न एक घड़ी पीछे हट सकेंगे और न आगे बढ़ 
सकेंगे। (62) 


जुल्म पर गिरफ्त की एक शक्ल यह है कि जैसे ही कोई शख्स जुल्म करे फौरन उसे पकड़ 


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सूरह-6. अन-नहल 733 पारा 4 
कर सख्त सजा दी जाए। मगर खुदा का यह तरीका नहीं। अगर खुदा ऐसा करे तो जमीन पर 
कोई चलने वाला बाकी न रहे। खुदा ने हर शख्स और हर कौम को एक मुरकर मोहलत दी 
है। उस मुद्दत तक वह हर एक को मौका देता है कि वह अपने जमीर (अन्तरात्मा) कैआवज 
से या ख़ारजी तंबीहात (वास्य चेतावनियों) से चौकन्ना हो और अपनी इस्लाह कर ले। इस्लाह 
करते ही लोगों के पिछले तमाम जराइम माफ कर दिए जाते हैं। वे ऐसे हो जाते हैं कि जैसे 
उन्होंने अभी नई जिंदगी शुरू की हो। 

मोहलत के दौरान न पकड़ना जिस तरह ख़ुदा ने अपने ऊपर लाजिम किया है इसी तरह 
उसने यह भी अपने ऊपर लाजिम किया है कि मोहलत के ख़त्म होने के बाद वह लोगों को 
जरूर पकड़े। मोहलत ख़त्म होने के बाद किसी को मजीद (अतिरिक्त) मोका नहीं दिया जाता, 
न फ्ई को और न कैम को। 


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और वे अल्लाह के लिए वह चीज ठहराते हैं जिसे अपने लिए नापसंद करते हैं और उनकी 
जबानें झूठ बयान करती हैं कि उनके लिए भलाई है। निश्चय ही उनके लिए दोजख़ 
है और वे जरूर उसमें पहुंचा दिए जाएंगे। (62) 


इंसानी गुमराहियों की बहुत बड़ी वजह ख़ुदा की खुदाई का कमतर अंदाजा करना है। 
अक्सर ग़लत अकाइद इसीलिए बने कि ख़ुदा को उससे कम समझ लिया गया जैसा कि वह 
हकीकतन है। यहां तक कि लोगों का हाल यह है कि जो चीजें कमतर समझ कर वे खुद अपने 
लिए पसंद नहीं करते (मसलन बेटियां या अपनी सम्पत्ति में किसी अजनबी की शिरकत) उसे 
भी वे ख़ुदा के लिए साबित करने लगते हैं। 

खुदा के इसी कमतर अंदाजे का नतीजा है कि लोग ख़ुदा पर अकीदा रखते हुए ख़ुदा 
से बेख़फ रहते हैं। वे निहायत मामूली-मामूली चीजों के बारे में यह अकीदा बना लेते हैं कि 
वे उन्हें खुदा की कुरबत (समीपता) दे देंगी। और आख़िरत की तमाम नेमतें उनके हिस्से में 
लिख दी जाएंगी। जो चीज एक आम इंसान को भी खुश नहीं कर सकती उसके मुतअल्लिक 
यह अकीदा बना लिया जाता है कि वह खुदा को खुश कर देगी। इस किस्म की कोई हरकत 
गलती पर सरकशी का इजाफा है जिसे खुदा कभी माफ नहीं कर सकता। 


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खुदा की कसम हमने तुमसे पहले मुख्तलिफ कमो की तरफ रसूल भेजे। फिर शैतान 





पारा 4 734 सूरह-।6. अन-नहल 
ने उनके काम उन्हें अच्छे करके दिखाए । पस वही आज उनका साथी है और उनके लिए 
एक दर्दनाक अजाब है। और हमने तुम पर किताब सिर्फ इसलिए उतारी है कि तुम 

उन्हें वह चीज खोल कर सुना दो जिसमें वे इस्तेलाफ (मत-भिन्नता) कर रहे हैं और वह 
हिदायत और रहमत है उन लोगों के लिए जो ईमान लाएं। (63-64) 


रसूल की दावत जब उठती है तो सुनने वाले महसूस करते हैं कि यह उनके रवाजी 
मजहब से टकरा रही है। अब चूंकि वे उस रवाजी मजहब से मानूस (भिज्ञ) होते हैं और उससे 
उनके बहुत से मफादात वाबस्ता हो चुके होते हैं इसलिए वे चाहते हैं कि उससे लिपटे रहें। 
उस वक्‍त शैतान उन्हें ऐसे खूबसूरत अल्फाज समझा देता है जिससे वे पैगम्बर के दीन को 
छोड़ने और रवाजी दीन पर कायम रहने को दुरुस्त साबित कर सकें। 

आदमी अगर रसूल की बात को सीधी तरह मान ले तो यह ख़ुदा को अपना साथी 
बनाना है। इसके बरअक्स अगर वह खूबसूरत तावीलात (हीलों-बहानों) का सहारा ले तो यह 
शैतान को अपना साथी बनाना होगा। 

पैगम्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) को भेजकर खुदा ने यह इंतिजाम किया था कि लोग 
मजहबी इख़्तेलाफात (मत-भिन्नता) के जंगल के दर्मियान खुदा के सच्चे रास्ते को मालूम कर 
सकें। यही सूरतेहाल आज भी बाकी है। एक शख्स ख़ुदा के रास्ते की तलाश में हो और वह 
मुख्ललिफ मजहबों का मुतालआ करे तो वह यकीनन जेहनी इंतिशार में पड़ जाएगा । क्योंकि 
मजहबों की जो तालीमात आज मौजूद हैं उनमें बाहम सख्त इख़्तेलाफात हैं। चुनांचे हक के 
मुतलाशी की समझ में नहीं आता कि वह किस चीज को सही समझे और किस चीज को 
ग़लत। 

ऐसी हालत में पैग़म्बर हजरत मुहम्मद (सल्ल०) का लाया हुआ दीन ख़ुदा के बंदों के 
लिए रहमत है क्योंकि दूसरे अदयान (धर्मो) के बरअक्स, आपका दीन एक महफूज दीन है। 
वह तारीखी एतबार से पूरी तरह मुस्तनद है। इस बिना पर पूरा एतमाद किया जा सकता है 
कि आपने जो दीन छोड़ा वही वह हकीकी दीन है जो ख़ुदा को अपने बंदों से मत्लूब है। 

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और अल्लाह ने आसमान से पानी उतारा। फिर उससे जमीन को उसके मुर्दा होने के 
बाद जिंदा कर दिया। बेशक इसमें निशानी है उन लोगों के लिए जो सुनते हैं। (65) 





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बारिश और नबातात (वनस्पति) का निजाम अपने अंदर बहुत बड़ा सबक रखता है। 
मुरन्नलिफ अवामिल (कारक) की मु्तहदा कारफरमाई से पानी के कतरे फिज में जाकर दुबारा 
जमीन पर बारिश की सूरत में बरसते हैं। फिर यह बारिश हैरतअंगेज तौर पर जमीन पर सब्जा 
उगाने का सबब बनती है। 

इस वाकये में एक तरफ यह सबक है कि इस कायनात में चारों तरफ एक खुदा की 
कारफरमाई है। अगर यहां कई खुदाओं की कारफरमाई होती तो कायनात की मुख़लिफ त्र 


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सूरह-।6. अन-नहल 735 पारा ।4 
इस तरह हमआहंग होकर मुशतरका (साझा) अमल नहीं कर सकती थीं। कायनात के निजाम 
की वहदानियत (एकत्व) वाजेह तौर पर इसका सुबूत है कि उसका ख़ालिक व मालिक सिर्फ 
एक है न कि एक से ज्यादा। 

दूसरा सबक यह है कि खुदा की कुदरत इतनी अजीम है कि वह मुर्दा जिस्म में जिंदगी 
पैदा कर सकती है। वह सूखी हुई चीजों में हरियाली, रंग, खुशबू और मजा का बाग़ उगा 
सकती है। 

पहले वाकये में तौहीद का सुबूत है और दूसरा वाकया तमसील के रूप में बता रहा है 
कि इसी तरह इंसानी रूहों के लिए भी एक ख़ुदाई बारिश है, और वह “वही” (ईश्वरीय वाणी) 
है। जो शख्स अपनी मुर्दा और सूखी हुई रूह को नई जिंदगी देना चाहे, उसे अपने आपको 
खुदाई “वही” की बारिश में नहलाना चाहिए 


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और बेशक तुम्हारे लिए चौपायों में सबक है। हम उनके पेटों के अंदर के गोबर और ख़ून 

के दर्मियान से तुम्हें ख़ालिस दूध पिलाते है, ख़ुशगवार पीने वालों के लिए और खजूर 
और अंगूर के फलों से भी। तुम उनसे नशे की चीजें भी बनाते हो और खाने की अच्छी 
चीजें भी। बेशक इसमें निशानी है उन लोगों के लिए जो अक्ल रखते हैं। (66-67) 





दूध देने वाले जानवरों में यह अजीब ख़ुसूसियत है कि वे जो कुछ खाते हैं वह एक तरफ 
उनके अंदर गोबर और खून बनाता है, दूसरी तरफ इसी के दर्मियान से दूध जैसा कीमती तरल 
भी बनकर निकलता है जो इंसान के लिए बेहद कीमती गिजा है। यही हाल दरख़्तों का है। 
उनके अंदर मिट्टी और पानी जैसी चीजें दाखिल होती हैं और फिर उनके अंदरूनी निजाम 
के तहत वे रसदार फल की सूरत में शाख़ों में लटक पड़ती हैं। 

ये वाकेयात इसलिए हैं कि वे लोगों को खुदा की याद दिलाएं। आदमी इन में खुदा की 
कुदरत की झलकियां देखने लगे, यहां तक कि उसका यह एहसास इतना बढ़े कि वह पुकार 
उठे कि खुदाया तू जो गोबर और खून के दर्मियान से दूध जैसी चीज निकालता है, मेरी 
नामुवाफिक हालत के अंदर से मुवाफिक नताइज जाहिर कर दे। तू जो मिट्टी और पानी को 
फल में तब्दील कर देता है, मेरी बेकीमत जिंदगी को बाकीमत जिंदगी बना दे। 

(तुम उनसे नशे की चीज भी बनाते हो और रिप्कि हसन भी' इसमें इस हकीकत की 
तरफ इशारा है कि दुनिया में खुदा ने जो चीजें पैदा की हैं उनका सही इस्तेमाल भी है और 
उनका ग़लत इस्तेमाल भी | खजूर और अंगूर को उसकी कुदरती हालत में खाया जाए तो वह 
सेहतबर्ा गिजा है जिससे जिस्म और अक्ल को तवानाई (ऊर्जा) हासिल होती है। इसके 
बरअक्स अगर इंसानी अमल से उसे नशे में तब्दील कर दिया जाए तो वह जिस्म को भी नुक्सान 
पहुंचाती है और अक्ल को भी बिगाड़ देने वाली है। 


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पारा 4 736 सूरह-6. अन-नहल 


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और तुम्हारे रब ने शहद की मक्खी पर “वही” (प्रकाशना) किया कि पहाड़ों और दरख्तों 
और जहां टट्टिटियां बांधते हैं उनमें घर बना। फिर हर किस्म के फलों का रस चूस और 
अपने रब की हमवार की हुई राहों पर चल। उसके पेट से पीने की चीज निकलती है, 


इसके रंग मुख़्तलिफ हैं, इसमें लोगों के लिए शिफा (आरोग्य) है। बेशक इसमें निशानी 
है उन लोगों के लिए जो गौर करते हैं। (68-69) 





शहद की मक्खी खुदा की कुदरत का एक हैरतनाक शाहकार है। वह रियाजयाती 
कवानीन (गणितीय नियमों) की पाबंदी करते हुए इंतिहाई मेयारी किस्म का छत्ता बनाती है। 
फिर ख़ास मंसूबाबंद अंदाज में फूलों का रस चूस कर लाती है। उसे एक कामिलतरीन निजाम 
के तहत छतत में ज़ीरा करती है। फिर ऐन कवानीने सेहत के मुताबिक शहद जैसी कीमती 
चीज तैयार करती है जो इंसान के लिए गिजा भी है और इलाज भी। यह सब कुछ इतने 
अजीब और इतने मुनज्जम अंदाज में होता है कि इस पर मोटी-मोटी किताबें लिखी गई हैं 
फिर भी इसका बयान मुकम्मल नहीं हुआ। 

शहद का यह मोजिजाती कारख़ाना तमाम इंसानी कारख़ानों से ज्यादा पेचीदा और ज्यादा 
कामयाब है। ताहम बजाहिर वह ऐसी मकिख्यों के जरिए चलाया जा रहा है जिन्होंने इस फन की 
कहीं तालीम नहीं पाई । यहां तक कि उन्हें अपने आमाल का जाती शुऊर भी हासिल नहीं । इससे 
साबित होता है कि कोई काम लेने वाला है जो अपनी छुपी हिदायतों के जरिए मक्खियों से यह 
सब कुछ काम ले रहा है। शहद की मक्खियों को अगर कोई देखने वाला देखे तो वह उनकी 
हैरानकुन हद तक बामअना सरगर्मियों में खुदा की कारफरमाई का जिंदा मुशाहिदा करने लगेगा । 

शहद की मक्खी की मिसाल देने का एक पहलू यह भी है कि जिस तरह शहद की मक्खी 
जबरदस्त महनत के जरिए फूलों का रस चूस कर शहद बनाती है जिसमें लोगों के लिए गिजा 
और शिफा है। इसी तरह अल्लाह के बंदों को चाहिए कि वे कायनात में गौरोफिक्र के जरिए 
हिक्मत की चीजें हासिल करें जो उनकी रूह की गिजा भी हों और उनकी अख़्लाकी बीमारियों 
का इलाज भी। जो चीज शहद की मक्खी के लिए 'रस” है वही इंसान की सतह पर पहुंच 
कर 'मअरफत' बन जाती है। 


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सूरह-6. अन-नहल 737 पारा 74 
और अल्लाह ने तुम्हें पेदा किया, फिर वही तुम्हें वकात (मौत) देता है। और तुम में 
से कुछ वे हैं जो नाकारा उम्र तक पहुंचाए जाते हैं कि जानने के बाद वे कुछ न जानें। 
बेशक अल्लाह इल्म वाला है, कुदरत वाला है। (70) 





जिंदगी का मजहर जो जमीन पर है उसके कई पहलू इंसान के सामने आते हैं। एक 
शख्स नहीं था इसके बाद वह दुनिया में मौजूद हो गया, फिर हर एक मरता है मगर सबका 
एक वक्त नहीं। कोई बचपन में मरता है, कोई जवानी में और कोई बुढ़ापे में। फिर यह मंजर 
भी अजीब है कि उम्र की आखिरी हद पर पहुंच कर अक्ल और इल्म और ताकत आदमी से 
बिल्कुल रुख्सत हो जाते हैं। इंसान मौजूदा जमीन पर बजाहिर आजाद है मगर उसे अपनी 
किसी चीज पर कोई इख्तियार नहीं। 
यह सब इसलिए होता है ताकि इंसान को बताया जाए कि इलम और कुदरत दोनों फि ख़ुदा 
का हिस्सा हैं। इंसानी जिंदगी में मज्कूरा किस्म के जो वाकेयात पेश आते हैं उनमें इंसान का अपना 
कोई दख़ल नहीं। वह उनमें कोई तब्दीली करने पर कादिर नहीं इससे साबित होता है कि जो कुछ 
हो रहा है वह किसी और करने वाले के जरिए हो रहा है। बचपन से मौत तक इंसान की जिंदगी यह 
गवाही देती है कि यहां सारा इल्म भी सिर्फखुदा के लिए है और सारी कुदरत भी सिर्फ.ुदा के लिए । 
इंसान की मजवरी कर्दिर मुलक (सर्वशक्तिमान) खुदा की मौजूदगी का सुबूत है। 


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और अल्लाह ने तुम में से कुछ को कुछ पर रोजी में बड़ाई दी है। पस जिन्हें बड़ाई दी 
गई है वे अपनी रोजी अपने गुलामों को नहीं दे देते कि वे इसमें बराबर हो जाएं। फिर 
कया वे अल्लाह की नेमत का इंकार करते हैं। (7]) 





यहां एक सादा सी मिसाल के जरिए इस अकीदे को गलत साबित किया गया है कि खुदा 
के कुछ शरीक हैं। और उसने अपने इख्तियारात का कुछ हिस्सा अपने उन शरीकों को दे 
दिया है। वह मिसाल यह कि दुनिया में रोजी की तक्सीम यकसां (समान) नहीं है। आम तौर 
पर देखने में आता है कि किसी के पास बहुत ज्यादा होता है और किसी के पास इतना कम 
होता है कि वह ज्यादा वाले के यहां नौकर और गुलाम बनने पर मजबूर हो जाता है। अब 
कोई भी ज्यादा वाला ऐसा नहीं करता कि अपनी दौलत अपने नौकरों में बांट दे और इस तरह 
अपना और नौकरों का फर्क मिटाकर यकसां हो जाए। फिर ख़ुदा के बारे में यह मानना कैसे 
सही हो सकता है कि उसने अपने इख्तियारात दूसरों को तक्सीम कर दिए हैं। 

कोई शख्स अपनी बड़ाई का आप इंकार नहीं करता । फिर जो बात एक इंसान भी पसंद 


पारा ।4 738 सूरह-6. अन-नहल 
नहीं करता, हालांकि उसके पास कोई जाती असासा (सम्पत्ति) नहीं, इस बात को ख़ुदा क्यों 
पसंद करेगा जिसके पास जो कुछ है वह उसका अपना जाती है। किसी दूसरे का दिया हुआ 
नहीं। हकीकत यह है कि इस किस्म के तमाम अकीदे खुदा की हस्ती की नफी कर रहे हैं 

वे ख़ुदा को गैर ख़ुदा की सतह पर पहुंचा रहे हैं जो किसी हाल में मुमकिन नहीं। 


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और अल्लाह ने तुम्हारे लिए तुम ही में से बीवियां बनाई और तुम्हारी बीवियों से तुम्हारे 
लिए बेटे और पोते पैदा किए और तुम्हें सुथरी चीजें खाने के लिए दीं। फिर क्या ये बातिल 
(असत्य) पर ईमान लाते हैं और अल्लाह की नेमत का इंकार करते हैं। और वे अल्लाह 
के सिवा उन चीजों की इबादत करते हैं जो न उनके लिए आसमान से किसी रोजी पर 
इख्तियार रखती हैं और न जमीन से, और न वे कुदरत रखती हैं। पस तुम अल्लाह के लिए 
मिसालें न बयान करो। बेशक अल्लाह जानता है और तुम नहीं जानते। (72-74) 





इंसान एक ऐसी मख्लूक है जिसकी बेशुमार जरूरतें हैं। इन तमाम जरूरतों का इंतिजाम 
निहायत कामिल सूरत में दुनिया के अंदर मौजूद है। 

आदमी को भूख प्यास लगती है तो यहां खाने पीने की बेहतरीन चीजें इफरात के साथ 
मौजूद हैं। आदमी को शख्सी सुकून के लिए बीवी दरकार है तो यहां ऐन उसके तकाजों 
मुताबिक मुसलसल औरतें पैदा की जा रही हैं। आदमी के सामने अपनी नस्ल की बका का 
मसला है तो यहां उसके लिए बेटे और पोते की पैदाइश का निजाम भी मौजूद है। 

यह सब कुछ खुदा की तरफ से है। मगर हर जमाने में इंसान ने यह गलती की कि खुदा 
की इन नेमतों को गैर खुदा की तरफ मंसूब कर दिया। मुश्रिक लोग उन्हें खुदा के सिवा देवी 
देवताओं या जिंदा मुर्दा हस्तियाँ की तरफ मंसूब करते हैं। और जो मुल्हिद (नास्तिक) हैं वे उन्हे 
कवानीने फितरत के अंधे अमल का नतीजा करार देते हैं। नेमता का यह निजाम इसलिए था 
कि उसे देखकर आदमी के अंदर शुक्रेखुदावंदी का जज्बा उमड़े। मगर ख़ुदसाख़्ता कपोल-कल्पनाओं 
की बिना पर यह निजाम उसके लिए सिर्फ कुफ्रेखराकी की गिज देने का जरिया बन गया। 

अक्सर एतकादी गुमराहियां मिसालों की वजह से पैदा होती हैं। मसलन इंसान के 
बेटे-बेटियां हैं तो इसी पर कयास करके समझ लिया गया कि ख़ुदा की भी बेटे-बेटियां हैं। दुनिया 
में बड़े लोगों के यहां कुछ अफराद होते हैं जो मुकरब और सिफारिशी होते हैं। इसे मिसाल 


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सूरह-6. अन-नहल 739 पारा ।4 


बनाकर फर्ज कर लिया गया कि खुदा के दरबार में भी कुछ कुरबत वाले हैं और खुदा के यहां 
उनकी सिफारिश चलती हैं। 
इस किस्म की तमसीलात से शिक और गुमराही की अक्सर किस्में पैदा होती हैं। मगर 
यह ख़लिक को मर्क के ऊपर कयास करना है जो सरासर जहालत है। ख़लिक हर 
एतबार से मख्लूक से मुर्ललिफ है। मख़्तूक की कोई मिसाल खलिक पर चसपां नहीं होती। 
मिसाल के जरिए बात को समझाना बजाए खुद गलत नहीं। मगर मिसाल उसी वक्‍त 
कारआमद है जबकि आदमी को असल और तशबीह (उपमा) दोनों का इलम हो। इंसान जब 
खुदा की हकीकत को नहीं जानता तो कैसे वह उसके मुताबिक कोई मिसाल ला सकता है। 


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और अल्लाह मिसाल बयान करता है एक गुलाम ममलूक की जो किसी चीज पर 
इख्तियार नहीं रखता, और एक शर्स है जिसे हमने अपने पास से अच्छा रिज्क दिया 

है, बह उसमें से पोशीदा और एलानिया ख़र्च करता है। क्या ये यकसां (समान) होंगे। 
सारी तारीफ अल्लाह के लिए है, लेकिन उनमें अक्सर लोग नहीं जानते। (75) 





मुश्रिकाना तमसीलात की गलती वाजेह करने के लिए यहां एक सादा और आम मिसाल 
दी गई है। एक शख्स है जिसके पास हर किस्म के असबाब हैं और वह उनका जाती मालिक 
है। वहीं दूसरा शख्स है जो किसी भी चीज का जाती मालिक नहीं। ये दोनों आदमी एक दूसरे 
से नौई (मौलिक) तौर पर मुख़्तलिफ हैं। इसलिए एक की मिसाल दूसरे पर कभी चसपां नहीं 
होगी। फिर खुदा और बद में यह नाई फर्क तो अपने कमाल पर पहुंचा हुआ है। ऐसी हालत 
में कैसे मुमकिन है कि इंसान के वाकेयात से खुदा पर मिसाल कायम की जाए। इस कायनात 
में खुदा और दूसरी चीजें के दर्मियान जो तवसीम है वह ख़लिक और मए्लूक की तवसीम 
है न कि ख़ुदा और शरीके खुदा की। खुदा की हस्ती वह हस्ती है जो हर किस्म के कमालात 
का जाती सरचशमा (स्रोत) है। जो हर किस्म की नेमतों का तनहा बर्ाने वाला है। इस 
कायनात में सबसे ज्यादा ख़िलाफे वाकिआ बात यह है कि ख़ुदा के सिवा किसी और के लिए 
वे चीजे फर्ज की जाएं जिनमें कोई भी उनका शरीक नहीं। 


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पारा 74 740 सूरह-6. अन-नहल 


और अल्लाह एक और मिसाल बयान करता है कि दो शख्स हैं जिनमें से एक गूंगा 
है, कोई काम नहीं कर सकता और वह अपने मालिक पर एक बोझ है। वह उसे जहां 
भेजता है वह कोई काम दुरुस्त करके नहीं लाता। क्या वह और ऐसा शख्स बराबर 
हो सकते हैं जो इंसाफ की तालीम देता है और वह एक सीधी राह पर है। (76) 





ऊपर आयत नम्बर 75 में खुदा के मुकाबले में शरीकों का बेहकीकत होना बताया गया 
था। अब आयत 76 में रसूल के मुकाबले में उन हस्तियों का बेहकीकत होना वाजेह किया 
जा रहा है जिनके बल पर आदमी रसूल की हिदायत को नजरअंदाज करता है। 

पैगम्बर को ख़ुदा अपनी खुसूसी तवज्जोह के जरिए उस शाहराह की तरफ रहनुमाई 
करता है जो हक की शाहराह है और जो बराहेरास्त खुदा तक पहुंचाने वाली है। पैगम्बर और 
उसके साथी इस शाहराह पर खुद चलते हैं और दूसरों को भी उसकी तरफ रहनुमाई देते हैं। 
दूसरी तरफ वे लोग हैं जो पैगम्बर के रास्ते के सिवा दूसरे रास्तों की तरफ बुलाते हैं। उनकी 
मिसाल अंधे बहरे की है। उनके पास कान नहीं कि वे खुदा की आवाजों को सुनें, उनके पास 
आंख नहीं कि उसके जरिए खुदा के जलवों को देखें। उनके अंदर वह कल्ब व दिमाग नहीं 
कि वे कायनात में फैली हुई खुदाई निशानियों को पा लें। 

समअ व बसर व फुआद (सुनना, देखना, दिल) इसलिए दिए गए थे कि इनके जरिए 
आदमी मख्नूकात के आइने में ख़ालिक का जलवा देखे। मगर इंसान ने इनका इस्तेमाल यह 
किया कि वह ख़ुद मख्नूकात में अटक कर रह गया। 

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और आसमानां और जमीन की पोशीदा (छुपी) बातें अल्लाह ही के लिए हैं और 
कियामत का मामला बस ऐसा होगा जैसे आंख झपकना बल्कि इससे भी जल्द। बेशक 


अल्लाह हर चीज पर कादिर है। (77) 








आलमे जहिर के पीछे एक मे निजाम है। यह रेटी निजाम खुदा का कायम किया 
हुआ है। अपनी महदूदियत की वजह से अगरचे हम इस गैबी निजाम को नहीं देखते मगर ख़ुद 
इस गैबी निजाम पर हमारी हर चीज बिल्कुल खुली हुई है। खुदा गेब में रहकर हर आन अपनी 
दुनिया की हर छोटी बड़ी चीज को देख रहा है। उसे हर बात का सहीतरीन अंदाजा है। खुदा 
जब फैसला करेगा कि अब इंसान के इम्तेहान की मुदूदत तमाम हो चुकी है, ऐन उस वक्‍त 
वह इशारा करेगा और इसके बाद पलक झपकते में मौजूदा निजाम यकलख्त टूट जाएगा। और 
नया निजाम बिल्कुल मुख़्तलिफ बुनियादों पर कायम होगा ताकि हर एक को उस असल मकाम 
पर पहुंचा दिया जाए जहां वह बाएतबार वाकिआ था न कि उस मकाम पर जहां वह मस्नूई 
(बनावटी) तौर पर अपने आपको बिठाए हुए था। 


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सूरह-6. अन-नहल 74I पारा 4 
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और अल्लाह ने तुम्हें तुम्हारी मांओं के पेट से निकाला, तुम किसी चीज को न जानते थे। 
और उसने तुम्हारे लिए कान और आंख और दिल बनाए ताकि तुम शुक्र करो। (78) 





इंसान जब पैदा होता है तो वह बिल्कुल आजिज और बेसमझ बच्चा होता है। मगर बड़ा 
होकर वह उन हैरतअंगेज कुव्वतों का मालिक बन जाता है जिन्हें कान और आंख और अक्ल 
कहते हैं। यह भी मुमकिन था कि आदमी जिस रोज पैदा हो उसी रोज उसके अंदर वे तमाम 
सलाहियतें मौजूद हों जो बड़ी उम्र को पहुंचकर उसके अंदर पैदा होती हैं। 

मगर ऐसा नहीं किया गया। सिर्फ इसलिए कि इंसान के अंदर शुक्र का जज्बा पैदा हो। 
अव्वलन वह अपनी इब्तिदाई बेबसी की हालत को देखे और फिर यह देखे कि बाद को किस 
तरह वह एक तरवकीयाफ्ता हालत को पहुंच गया है। यह देखकर वह ख़ुदा की मिली हुई 
नेमत का एहसास करे और खुदा की एहसानमंदी के जज्बे से सरशार हो जाए। 

किसी आदमी के अंदर यह कैफियत सिर्फ उस वक्त पैदा हो सकती है जबकि वह खुदा 
की दी हुई कुव्वतों को सही तौर पर इस्तेमाल करे। उसके कान और आंख और दिल बस 
जाहिरी दुनिया में अटक कर न रह जाएं बल्कि वे उसके लिए ऐसे रोशनदान बन जाएं जिनके 
जरिए झांक कर कोई शख्स गैब की झलकियों को देख लेता है। 
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क्या लोगों ने परिंदों को नहीं देखा कि आसमान की फजा में मुसखख़र (अधीनस्थ) हो 
रहे हैं। उन्हें सिर्फ अल्लाह थामे हुए है। बेशक इसमें निशानियां हैं उन लोगों के लिए 
जो ईमान लाएं। और अल्लाह ने तुम्हारे लिए तुम्हारे घरों को सुकून का मकाम बनाया 
और तुम्हारे लिए जानवरों की खाल के घर बनाए जिन्हें तुम अपने कूच के दिन और 


कयाम के दिन हल्का पाते हो। और उनकी ऊन और उनके रूऐं और उनके बालों से 
घर का सामान और फायदे की चीजें एक मुद्दत तक के लिए बनाई। (79-80) 





पारा 74 742 सूरह-6. अन-नहल 





परिदों का फजा में उड़ना कुदरत की एक अजीम मंसूबाबंदी के तहत मुमकिन होता है। 
परवाज के मकसद के लिए परिदों की निहायत मौजूं बनावट, जिसकी मशीनी नवल हवाई 
जहाज की सूरत में की गई है। जमीन के ऊपर हवा जो परिंदों के लिए ऐसी ही है जैसे कश्ती 
के लिए समुद्र। जमीनी कशिश की वजह से हवा का मुसलसल जमीन के ऊपर कायम रहना 
वगैरह । ये आला इंतिजामात अगर न हों तो फजा में परिंदों का उड़ना मुमकिन न हो सके। 

इस वाकये को गहरी नजर से देखा जाए तो आदमी को ऐसा मालूम होगा कि गोया वह 
खुदा को अपनी कायनात में अमल करते हुए देख रहा है। वह तख़्शीकी निजाम के अंदर 
उसके ख़ालिक को पा जाएगा। वह मस्नूआत (रचनाओं) के दर्मियान सानेअ (रचयिता) का 
जलवा देख लेगा। 

यही मामला खुद इंसान का है। घर आदमी के लिए सुकून का मकाम है। लेकिन घर 
कैसे बनता है। खुदा के बहुत से इंतिजामात हैं जिनकी वजह से जमीन पर एक घर का कयाम 
मुमकिन होता है। वे तमाम तामीरी अज्जा जिनके जरिए एक मकान बनता है, पेशगी तौर पर 
हमारी दुनिया में रख दिए गए हैं। जमीन में निहायत मुनासिब मिवदार में कुवते कशिश 
(गुरुत्वाकर्षण शक्ति) है जिसकी वजह से मकानात जमीन की सतह पर जमे खड़े होते हैं। 
ऐसा न हो तो एक हजार मील फी घंटा की रफ्तार से दौड़ती हुई जमीन के ऊपर मकानात 
उड़ जाएं। इसी तरह वे चीजें जिनसे आदमी हल्के फुल्के खेमे बनाता है और वे चीजें जिनमें 
यह सलाहियत है कि इंसान के लिबास की सूरत में ठल जाएं और उसकी जीनत (सज्जा) का 
और मौसमों में उसकी जिस्मानी हिफाजत का काम दें। 

इस तरह की तमाम चीजें इसलिए हैं कि आदमी के अंदर अपने रब की नेमतों पर शुक्र 
का जज्बा पैदा हो, वह उसकी अज्मत व कुदरत के एहसास से उसके आगे गिर पड़े। 


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और अल्लाह ने तुम्हारे लिए अपनी पैदा की हुई चीजों की साये बनाए और तुम्हारे लिए 
पहाड़ों में छुपने की जगह बनाई और तुम्हारे लिए ऐसे लिबास बनाए जो तुम्हें गर्मी से 


बचाते हैं और ऐसे लिबास बनाए जो लड़ाई में तुम्हें बचाते हैं। इसी तरह अल्लाह तुम 
पर अपनी नेमतें पूरी करता है ताकि तुम फरमांबरदार बनो। (8!) 





छत का और दूसरी चीजों को साया कितनी अहमियत रखता है, इसका अंदाजा उस ववत 
होता है जबकि आदमी अपने आपको किसी ऐसे सहरा में पाए जहां किसी किस्म का कोई साया 
न हो। सूरज की हददर्जा हिसाबी हरारत (तापमान) का यह नतीजा है कि एक मामूली आड़ भी 
हमें साया दे देता है। हालांकि अगर सूरज की हरारत मौजूदा हरारत से ज्यादा होती, जो यकीनी 


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सूरह-6. अन-नहल 743 पारा 4 


तौर पर मुमकिन थी, तो हमारे तमाम सायादार घर आग की भट्टी में तब्दील हो जाते । पहाड़ जैसी 
सख्त चट्टानों में ऐसे शिगाफ होना जहां आदमी अपनी पनाहगाहें बना सके । दुनिया में ऐसी चीजें 
मौजूद होना जो बारीक रेशों में ढलकर आदमी को उसके जिस्म के बचाव के लिए लिबास दें। इस 
किस्म की चीजेआदमी जैसी मरनूक के लिए इतनी अहम हैंकि अगर वे न होतीं तो जमीन पर 
न इंसान का वजूद होता और न किसी इंसानी तहजीब का। 

यह मअरफत बयकवक्त आदमी के अंदर दो चीजें पैदा करती है। एक, ख़ुदा के लिए 
एहसानमंदी का जज्बा, क्योंकि वही है जिसने आदमी को ऐसी कीमती नेमतें दीं, दूसरे, अदेशे 
का जज्बा, क्योंकि खुदा अगर अपनी नेमता को वापस ले ले तो इसके बाद आदमी के पास 
इनकी तलाफी (क्षतिपूर्ति) की कोई सूरत नहीं। ये एहसासात जब आदमी के अंदरून को इस 
तरह जगा दें कि वह अपने रब के सामने गिर पड़े तो इसी का नाम इबादत है। 


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पस अगर वे एराज (उपेक्षा) करें तो तुम्हरे ऊपर सिर्फ साफसाफ पूछुंचा देने की 


जिम्मेदारी है। वे लोग खुदा की नेमत को पहचानते हैं फिर वे उसके मुंकिर हो जाते 
हैं और उनमें अक्सर नाशुक्र हैं। (82-83) 


जो शख्स भी कायनात का मुतालआ करता है, चाहे वह एक आम आदमी हो या एक 
साइंसदां हो, उस पर ऐसे लम्हात गुजरते हैं, जबकि मख्लूकात पर गौर करते हुए उसका जेहन 
ख़ालिक की तरफ मुंतकिल हो जाता है। उसे महसूस होने लगता है कि ये हैरतनाक चीजें न 
तो अपने आप बन गई हैं और न मफरूजा (काल्पनिक) माबूदों ने इन्हें बनाया है। इनका 
बनाने वाला यकीनन खुदाए बुजुर्ग व बरतर है। 
मगर खुदा को मानना लाजिमी तौर पर आदमी की अपनी जिंदगी में तब्दीली का तकाजा 
करता है। वह आदमी से उसकी आजादी छीन लेता है। इसलिए आदमी पर जब यह तजर्बा 
गुजरता है तो वक्ती तअस्सुर (प्रभाव) के बाद वह अपने जेहन को इस तरफ से हटा देता है। 
वह ख़ुदा को पाकर भी ख़ुदा को छोड़ देता है। 


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और जिस दिन हम हर उम्मत में एक गवाह उठाएंगे। फिर इंकार करने वालों को हिदायत 
न दी जाएगी । और न उनसे तोबा ली जाएगी। और जब जालिम लोग अजाब को देखेंगे तो 
वह अजाब न उनसे हल्का किया जाएगा और न उन्हें मोहलत दी जाएगी । (84-85) 


पारा 74 744 सूरह-6. अन-नहल 





पेगम्बर और पैगम्बर के सच्चे पैरोकारों का कीमों के सामने हक का दाऔ बनकर उठना 
बजाहिर एक मामूली वाकया मालूम होता है। दुनिया ने आम तौर पर इन वाकेयात को इतना 
कम अहम समझा है कि एक पैगम्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) को छोड़कर कोई दूसरा 
पेगम्बर नहीं जिसका काम उसके समकालीन इतिहास में काबिले जिक्र करार पाया हो। 

मगर यह काम उस वक्त बेहद अहम और बेहद संगीन बन जाता है जबकि उसे 
आखिरत से जोड़ कर देखा जाए। क्योंकि आखिरत की अजीम अदालत में यही पैगम्बर और 
दाओ खुदा के गवाह होंगे और इन्हीं की गवाही पर लोगों के अबदी मुस्तकबिल का फैसला 
किया जाएगा। जिन अफराद के बारे में गवाह ये कहेंगे कि उन्होंने हक को माना और अपने 
आपको उसकी इताअत में दिया वे वहां की अबदी दुनिया में जन्नती करार पाएंगे। और 
जिनके बारे में खुदा के ये गवाह बताएंगे कि उन्होंने हक का इंकार किया और उसकी इताअत 
(आज्ञापालन) पर राजी नहीं हुए वे अबदी जहन्नम में डाल दिए जाएंगे। 

किसी कौम में खुदा के सच्चे दाऔ उठें और वह कौम उनकी बात न माने तो यह उसके 
मुजरिम होने का कतई सुबूत होता है, इसके बाद वह कौम यह कहने का हक खो देती है कि 
हमें कियामत और जन्नत दोजछ़ की ख़बर न थी, इसलिए हमें आज के दिन की सजा से माफ 
रखा जाए। 


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और जब मुश्रिक (बहुदेववादी) लोग अपने शरीकों को देखेंगे तो कहेंगे कि ऐ हमारे रब, 
यही हमारे वे शुर्का (ईश्वरत्व के साझीदार) हैं जिन्हें हम तुझे छोड़कर पुकारते थे। तब 
वे बात उनके ऊपर डाल देंगे कि तुम झूठे हो। और उस दिन वे अल्लाह के आगे झुक 
जाएंगे और उनकी इफ्तिरा परदाजियां (गढ़े हुए झूठ) उनसे गुम हो जाएंगी। जिन्होंने 

इंकार किया और लोगों को अल्लाह के रास्ते से रोका, हम उनके अजाब पर अजाब का 

इजाफा कशे उस फसाद की वजह से जो वे करते थे। (86-88) 





कियामत में यह हकीकत आखिरी हद तक खुल जाएगी कि इस कायनात में एक खुदा के 
सिवा किसी के पास कोई ताकत नहीं। उस वक्‍त जब पूजने वाले अपने उन माबूदों को देखेंगे 
जिन्हें वे पूजते थे तो वे ऐसी बातें कहेंगे जिनसे उनकी बरा-त (विरक्ति) साबित होती हो। गोया 
कि ये झूठे माबूद धोखा देकर उनसे गैर खुदा की परस्तिश कराते थे। मगर वे माबूद फौरन इसकी 


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सूरह-6. अन-नहल 745 पारा 74 


तरदीद करेंगे और कहेंगे कि यह तुम्हारी अपनी सरकशी थी। तुमने खुदा की ताबेदारी से बचने 
के लिए बतौर खुद झूठे माबूद गढ़े और उनके नाम पर अपने ख्ाहिशपरस्ताना मजहब को जाइज 
साबित करते रहे। 

एक वह शख्स है जो हक की दावत को कुबूल नहीं करता। दूसरा वह है जो इसी के 
साथ दूसरों को भी तरह-तरह से रोकने की कोशिश करता है। पहली रविश अगर गुमराही 
है तो दूसरी रविश गुमराही की कयादत। गुमराह लोगों को जो अजाब होगा, उसका दुगना 
अजाब उन लोगों को मिलेगा जो दुनिया में गुमराही की कयादत (नेतृत्व) करते रहे। 


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और जिस दिन हम हर उम्मत में एक गवाह उन्हीं में से उन पर उठाएंगे और तुम्हें उन धर 
लोगों पर गवाह बना कर लाएंगे और हमने तुम पर किताब उतारी है हर चीज को खोल 

देने के लिए। वह हिदायत और रहमत और बशारत (शुभ सूचना) है फरमांबरदारों के 
लिए। (89) 





अल्लाह तआला का तरीका यह है कि किसी कौम पर इंजार व तबशीर (तंबीह और 
खुशखबरी) का काम खुद उस कौम के किसी मुंतख़ब फर्द के जरिए अंजाम दिलाता है। यही 
वजह है कि किसी कौम में जो पैगम्बर आए वे खुद उसी कौम के एक फर्द थे। अब उम्मते 
मुस्लिमा को कियामत तक इसी तरह हर कौम के अंदर दावत (आह्वान) व शहादत (सत्य 
की गवाही) की जिम्मेदारी अंजाम देना है। 

यह दुनिया में कीमों को दावत देने वाले आख़िरत में कामों के ऊपर ख़ुदा के गवाह होंगे। 
उन्हीं की गवाही पर कौम के हर फर्द के लिए सवाब या अजाब का फैसला किया जाएगा। 

कुरआन में हर चीज का बयान है। इसका मतलब यह नहीं कि दूसरी आसमानी किताबों 
में हर चीज का बयान न था। हकीकत यह है कि हर आसमानी किताब जो खुदा की तरफ 
से आई उसमें हर चीज का बयान मौजूद था। ताहम उस हर चीज का तअल्लुक दुनिया के 
उलूम व फुनून (ज्ञान-विज्ञान) से नहीं है बल्कि आख़िरत की कामयाबी और नाकामी के इल्म 
से है। वे तमाम चीजें जो आख़िरत में किसी को कामयाब या नाकाम बनाने वाली हैं वे सब 
उसूली तौर पर कुरआन में बयान कर दी गई हैं। अब जो लोग उससे हिदायत लेंगे, उनके लिए 
वह एक अजीम नेमत बन जाएगी। और जो लोग उससे हिदायत न लें उनके हिस्से में सिर्फ 
यह आएगा कि उसका इंकार करके अपनी हलाकत के लिए जवाज (औचित्य) फराहम करें। 


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पारा 74 746 सूरह-6. अन-नहल 


बेशक अल्लाह हुक्म देता है अदूल (न्याय) का और एहसान (परोपकार) का और 
काबतदारी (नातेदारों) को देने का। और अल्लाह रोकता है बेहयाई के कामों और 
बुराई से और सरकशी से। अल्लाह तुम्हें नसीहत करता है ताकि तुम याददिहानी 
(अनुस्मरण) हासिल करो। (90) 





दुनिया में कोई अल्लाह का बंदा किस तरह रहे, इसका वाजेह बयान इस आयत में मौजूद 
है। इसकी इसी अहमियत की बिना पर ुलीफा-एराशिद हजरत उमर बिन अबुल अजीज 
ने इस आयत को जुमा के हफ्तेवार खुतबे में शामिल किया था। 

पहली चीज जिसका एक शख्स को एहतमाम करना है वह अदूल है। इसका मतलब यह 
है कि एक शख्स का जो हक दूसरे पर आता है वह उसे पूरी तरह अदा करे, चाहे साहिबे हक 
कमजोर हो या ताकतवर, और चाहे वह पसंदीदा शख्स हो या नापसंदीदा । हुकूक की अदायगी 
मे सिर्फ हक का लिहाज किया जाए न कि दूसरे एतबारात का। 

दूसरी चीज एहसान है। इससे मुराद यह है कि हूक की अदायगी में आली जी का 
तरीका अपनाया जाए। इंसाफ के साथ मुरव्वत को जमा किया जाए। कानूनी दायरे से आगे 
बढ़कर लोगों के साथ फय्याजी (सहदयता) और हमदर्दी का रवैया इख्तियार किया जाए। 
आदमी के अंदर यह हौसला हो कि मुमकिन हद तक वह अपने लिए अपने हक से कम पर 
राजी हो जाए, और दूसरे को उसके हक से ज्यादा देने की कोशिश करे। 

तीसरी चीज संबंधियों को देना है। इसका मतलब यह है कि आदमी जिस तरह अपने बीवी 
बच्चों की जरूरत को देखकर तड़प उठता है और उसे पूरा करता है, इसी तरह वह दूसरे करीबी लोगों 
की जरूरत के बारे में भी हस्सास हो। हर साहिबे इस्तेदाद शख्स अपने माल पर सिर्फ अपना और 
अपने घर वालों ही का हक न समझे बल्कि अपने र्श्तिदारों के हुकूक अदा करने को भी वह अपनी 
जिम्मेदारी में शामिल करे। इसके बाद आयत में तीन चीजों से मना फरमाया गया है। 

पहली चीज फह्हश है। इसके मुराद खुली हुई अख़्लाकी बुराइयां हैं। यानी वे बुराइयां 
जिनका बुरा होना ख़ुद अपने जमीर के तहत हर आदमी को मालूम होता है। और लोग आम 
तौर पर उसे शर्मनाक समझते हैं। 

दूसरी चीज मुन्कर है। मुन्कर मारूफ का उल्टा है। मारूफ उन अच्छी बातों को कहते 
हैं जिन्हें हर मुआशिरे में अच्छा समझा जाता है। इसके बरअक्स मुन्कर से मुराद वे नामाकूल 
काम हैं जो आम अख्लाकी मेयार के ख़िलाफ हैं। इसमें वे तमाम चीजें शामिल हैं जिन्हें इंसान 
आम तौर पर बुरा जानते हैं और जिन्हें कुबूल करने से इंसान की फितरत इंकार करती है। 

तीसरी चीज बगी है। इसके मअना हैं हद से तजावुज करना। इसमें हर वह सरकशी 
दाखिल है जबकि आदमी अपनी वाकई हद से गुजर कर दूसरे शख्स पर दस्तदराजी करे। वह 
किसी की जान या माल या आवरू लेने के लिए उसके ऊपर नाहक कार्रवाइयां करे। वह अपने 
जोर व असर को नाजाइज फायदा उठाने के लिए इस्तेमाल करने लगे। 

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सूरह-6. अन-नहल 747 पारा 4 


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और तुम अल्लाह के अहद (वचन) को पूरा करो जबकि तुम आपस में अहद कर लो। 
और कसमों को पक्का करने के बाद न तोड़े। और तुम अल्लाह को जामिन भी बना 

चुके हो। बेशक अल्लाह जानता है जो कुछ तुम करते हो। और तुम उस औरत की 
मानिंद न बनो जिसने अपना महनत से काता हुआ सूत टुकड़े-टुकड़े करके तोड़ दिया। 
तुम अपनी कसमो को आपस में फसाद डालने का जरिया बनाते हो महज इस वजह 

से कि एक गिरोह दूसरे गिरोह से बढ़ जाए। अल्लाह इसके जरिए से तुम्हारी आजमाइश 

करता है और वह कियामत के दिन उस चीज को अच्छी तरह तुम पर जाहिर कर देगा 

जिसमे तुम इस्तेलाफ (मत-भिन्नता) कर रहे हो। (9-92) 


सूत कातना महनत के जरिए बिखरे हुए रेशों का यकजा करना है। ऐसा इसलिए किया 
जाता है ताकि इंसान के लिए कारआमद चीजें तैयार हों। अब अगर कोई मर्द या औरत दिन 
भर महनत करके सूत काते और फिर शाम के वक्त अपने काते हुए सूत को पारा-पारा कर 
दे तो उसकी सारी महनत बेनतीजा होकर रह जाएगी । 

यही मामला उन लोगों का है जो आपस में एक मुआहिदा (समझौता) करें और फिर एक 
या दूसरा फरीक (पक्ष) किसी माकूल सबब के बगैर उसे तोड़ डाले। काते हुए सूत का 
ख्वामख्याह बिखेरना अपनी महनत को अकारत करना है। इसी तरह किए हुए मुआहिदे को 
तोड़ डालना उस पूरे अमल को बातिल करना है जिसके नतीजे में बाहमी इत्तेफाक का एक 
मामला वजूद में आया था। 

मौजूदा दुनिया में एक आदमी दूसरे आदमियों के साथ मिलकर जिंदगी गुजारता है। हर 
आदमी को अपना काम दूसरे बहुत से आदमियों के दर्मियान करना होता है। इस बिना पर 
इज्तिमाई जिंदगी में बाहमी एतमाद की बहुत ज्यादा अहमियत है। इसी इज्तिमाई जिंदगी को 
कायम करने की ख़ातिर बार-बार एक इंसान और दूसरे इंसान के दर्मियान मुआहिदे और कौल 
व करार वजूद में आते हैं, कभी कसम खाकर और कभी कसम के बर । अब अगर लोग ऐसा 
करें कि मुआहिदों को हकीकी जवाज (औचित्य) के बगैर तोड़ डालें तो इज्तिमाई जिंदगी में 
फसाद फैल जाए और किसी किस्म की तामीर मुमकिन न रहे। 

खुदा के नाम पर मुआहिदे की दो सूरते है। एक यह कि बाकायदा कसम के अल्फाज अदा 
करके किसी से कोई अहद किया जाए। दूसरे यह कि कसम के अल्फाज न बोले जाएं ताहम 
जो मुआहिदा किया गया है उसमें खुदा का हवाला भी किसी पहलू से शामिल हो। ऐसी तमाम 
सूरतों में अहद करने वाले गोया ख़ुदा को इस मामले का गवाह या जामिन बनाते हैं। ऐसे मुआहिदे 
जिनमें खुदा का नाम भी शामिल किया गया हो उन्हें तोड़ना और भी ज्यादा बुरा है क्योंकि इसका 
मतलब यह है कि जब आदमी को दूसरों के ऊपर अपना एतबार कायम करना था तो उसने 





पारा 74 748 सूरह-।6. अन-नहल 


खुदा के नाम को इस्तेमाल किया और जब उस पर नफ्स या मफाद के तकाजे गालिब आए 
तो उसने खुरा को नजएअंद्रज कर दिया। 

अफराद या कीमों के दर्मियान जो मुआहिदे होते हैं उनकी दो सूरतें हैं। एक यह कि वे 
उसूलों के ताबेअ हों। दूसरे यह कि वे मफादात के ताबेअ हों। कदीम जमाने में और आज 
भी आम हालत यह हैं कि जब मुआहिदा करने में कोई फायदा नजर आए तो मुआहिदा कर 
लिया। और जब तोड़ना मुफीद मालूम हुआ तो उसे तोड़ दिया। इसके बरअक्स इस्लाम की 
तालीम यह है कि मुआहिदों को शरई और अख्लाकी उसूलों के ताबेअ रखा जाए 


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और अगर अल्लाह चाहता तो तुम सबको एक ही उम्मत बना देता लेकिन वह बेराह 
कर देता है जिसे चाहता है और हिदायत दे देता है जिसे चाहता है और जरूर तुमसे 
तुम्हारे आमाल की पूछ होगी। (93) 





दुनिया में इख्तलेलाफत (मत-भिन्नताएं) हैं। हक और नाहक एक दूसरे से अलग नहीं 
होते। इसकी वजह ख़ुदा का वह मंसूबा है जिसके तहत उसने मौजूदा दुनिया को बनाया है। 
और वह मंसूबा इम्तेहान है। 

मौजूदा दुनिया में इंसान को जांच की गरज से रखा गया है। यह मकसद इसके बगैर पूरा 
नहीं हो सकता था कि हर आदमी को मानने और न मानने की आजादी हो। यहां तक कि 
उसे यह भी आजादी हो वह हक को नाहक साबित करे और नाहक को हक के रूप में पेश 
करे। अगर यह मस्लेहत न होती तो ख़ुदा तमाम इंसानों को उसी तरह अपने हुक्म का पाबंद 
बना देता जिस तरह वह बकिया कायनात को अपने हुक्म का पाबंद बनाए हुए है। 

यह सूरतेहाल कियामत तक के लिए है। कियामत के दिन खुल जाएगा कि किसने 
अपनी समझ को सही तौर पर इस्तेमाल किया और किसने अपने मफाद (स्वार्थ) के ख़ातिर 
सच्चाई को नजरअंदाज किया । उस वक्‍त खुदा हर एक के साथ वह मामला करेगा जिसका 
उसने मौजूदा इम्तेहानी मरहले में अपने को अहल साबित किया था। 


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और तुम अपनी कसमां को आपस में फेख का जरिया न बनाओ कि कोई कदम जमने 
के बाद फिसल जाए और तुम इस बात की सजा चखो कि तुमने अल्लाह की राह से 


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सूरह-।6. अन-नहल 749 पारा ।4 
रोका और तुम्हारे लिए एक बड़ा अजाब है। और अल्लाह के अहद (वचन) को थोड़े 
फायदे के लिए न बेचो। जो कुछ अल्लाह के पास है वह तुम्हारे लिए बेहतर है अगर 
तुम जानो। (94-95) 





कसम खाकर मुआहिदा (समझौता) करना पुख्ता मुआहिदे की आखिरी सूरत है। इस 
एतबार से इस आयत के तहत तमाम मुआहिदे आ जाते हैं। 

अगर मुसलमान ऐसा करें कि वे दूसरों से मुआहिदाती मामले करें और फिर किसी हकीकी 
सबब के बौर महज मफद के ख़तिर उन्हें तोड़ दें तो इससे माहोल में मुसलमानों की अख़्लाकी 
साख ख़त्म हो जाएगी। और नतीजतन उनका यह अमल लोगों को अल्लाह की राह से रोकने 
का जरिया बन जाएगा। मुफस्सिर इब्ने कसीर लिखते हैं कि जब मुंकिरे इस्लाम देखेगा कि 
मुसलमान ने मुआहिदा किया और फिर उसने उससे बेवफाई की तो उसे दीने इस्लाम पर एतमाद 
बाकी न रहेगा और इसकी वजह से वह ख़ुदा के दीन में दाखिल होने से रुक जाएगा। 

अहद को गैर शरई तौर पर तोड़ने का वाकया हमेशा इसलिए पेश आता है कि आदमी 
को यह नजर आने लगता है कि अगर वह मुआहिदे को तोड़ दे तो उसे फुलां दुनियावी फायदा 
हासिल हो जाएगा। मगर मोमिन की नजर आख़िरतपसंदाना नजर होती है। जब भी उसका 
नफ्स इस किस्म की तहरीक करता है तो वह अपने नफ्स को यह कहकर दबा देता है कि 
मुआहिदा तोड़ने में अगर दुनिया का फायदा है तो मुआहिदा न तोड़ने में आख़िरत का 
फायदा | और दुनिया के फयदे के मुकबले में आख़िरत का फ़ायदा यकीनन ज्यादा बच्च है। 


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जो कुछ तुम्हारे पास वह ख़त्म हो जाएगा और जो कुछ अल्लाह के पास है वह बाकी 
रहने वाला है। और जो लोग सब्र करेंगे हम उनके अच्छे कामों का अज्र (प्रतिफल) उन्हें 
जरूर देंगे। जो शख्स कोई नेक काम करेगा, चाहे वह मर्द हो या औरत, बशर्ते कि वह 


मोमिन हो तो हम उसे जिंदगी देंगे, एक अच्छी जिंदगी। और जो कुछ वे करते रहे उसका 
हम उन्हें बेहतरीन बदला देंगे। (96-97) 








खुदा के दाजी का साथ देना रवाजयाफ्ता मजहबी निजाम को छोड़कर गैर रवाजी मजहब 
के साथ अपने आपको वाबस्ता करना है। इस तरह का इक्दाम हमेशा आदमी के लिए 
मुश्किलतरीन होता है। इसमें उस फायदे को नजरअंदाज करना होता है जो इंसानों से मिल रहा 
है। और उस फायदे की तरफ बढ़ना होता है जो ख़ुदा से मिलने वाला है। 
इस किस्म का फैसला करने के लिए वाहिद चीज जो दरकार है वह 'सब्र' है। यानी यह 
बर्दाश्त कि आदमी कल के फायदे के ख़ातिर आज का नुक्सान गवारा कर सके। यह 


पारा 74 750 सूरह-6. अन-नहल 


सलाहियत कि आदमी नजर आने वाली चीज के मुकाबले में उसे ज्यादा अहमियत दे सके जो 
नजर नहीँ आती । यह हौसला कि आदमी कुर्बानी की कीमत पर किसी चीज को इस्ज्ियार करे 
न कि महज फैरी नफ की कीमत पर । ररा के जो बै इस उलुलअजऔी (संकल्प) का सुकन 
दें यकीन वे इस काबिल हैं कि खुदा उन्हें अपनी आलातरीन नेमतों से नवाजे। 

जो अफराद बेआमेज (विशुद्ध) हक का साथ देने की वजह से मुरव्वजह (स्थापित) 
निजाम में नुक्सान उठाते हैं। उन्हें लोग समझ लेते हैं कि वे बर्बाद हो गए। मगर खुदा का 
वादा है कि वह उन्हें उनकी कुर्बानियों का भरपूर मुआवजा देगा। मौत के बाद की अबदी 
(चिरस्थाई) दुनिया में वह उन्हें निहायत बेहतर जिंदगी से नवाजेगा। जिन चीजों को उन्होंने 
वक्ती तौर पर खोया है, उन्हें वह ज्यादा बेहतर शक्ल में अबदी तौर पर दे देगा। 

ख़ुदा का यह वादा औरतों के लिए भी इसी तरह है जिस तरह वह मर्दों के लिए है। ख़ुदा 
के यहां जजा के मामले में औरत और मर्द की कोई तक्सीम नहीं। 


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पस जब तुम कुरआन को पढ़ो तो शैतान मर्दूद से अल्लाह की पनाह मांगो। उसका 
जोर उन लोगां पर नहीं चलता जो ईमान वाले हैं और अपने रब पर भरोसा रखते हैं। 
उसका जोर सिर्फ उन लोगों पर चलता है जो उससे तअल्लुक रखते हैं, और जो अल्लाह 

के साथ शिर्क करते हैं। (98-00) 





कुरआन को पढ़ने की दो सूरते हैं। एक, अपनी नसीहत के लिए पढ़ना। दूसरे, दावत 
(आह्वान) की ख़ातिर दूसरों के सामने पेश करना, चाहे कुरआन के अल्फाज दोहराए जाएं 
या उसके मतालिब (भावार्थ) बयान किए जाएं। दोनों सूरतों में जरूरी है कि आदमी शैतान 
के मुकाबले में खुदा की पनाह मगि। पनाह चाहने का मतलब सिर्फ कुछ मुर्करह अल्फाज 
की तकरार नहीं बल्कि अपने आपको शुऊरी तौर पर मुसल्लह करना है ताकि शैतान का 
हमला बेअसर होकर रह जाए। 

शैतान हर वक्‍त आदमी की घात में है। वह वुरुआन के अत्फाज के मफहूम (भावार्थ 
को उसके कारी के जेहन में बदल देता है। और जो चीज मत्न (मूल पाठ) में न हो उसे तपसीर 
में शामिल करा देता है। इसी तरह शैतान दाऔ और मदऊ के दर्मियान ऐसे फितने उभारता 
है जिसके नतीजे में दावत (आह्वान) का अमल रुक जाए। 

ताहम शैतान को खुदा ने सिर्फ बहकाने और वरगलाने की आजादी दी है। उसे यह ताकत 
नहीं दी कि वह किसी को बजोर गुमराही के रास्ते पर डाल दे। जो लोग खुदा से अपना जेहनी 
राब्ता कायम किए हुए हों उन पर उसका कुछ बस नहीं चलता। अलबत्ता जो लोग ख़ुदा से 
गाफिल हों और शैतान की बातों पर ध्यान दें उनके ऊपर शैतान मुसल्लत हो जाता है और 
फिर जिधर चाहता है उधर उन्हें ले जाता है। 











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सूरह-6. अन-नहल प्रा पारा 4 


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और जब हम एक आयत की जगह दूसरी आयत बदलते हैं, और अल्लाह ख़ूब जानता 
है जो कुछ वह उतारता है, तो वे कहते हैं कि तुम गढ़ लाए हो। बल्कि उनमें अक्सर 
लोग इल्म नहीं रखते। कहो कि इसे रूहुल कुदस (पवित्र आत्मा) ने तुम्हारे रब की तरफ 

से हक के साथ उतारा है ताकि वह ईमान वालों को साबित कदम रखे और वह हिदायत 

और खुशखबरी हो फरमांबरदारों के लिए। (07-02) 


कुरआन एक दावती किताब है। इसके मुख़्तलिफ हिस्से 23 साल के असे में थोड़ा-थोड़ा 
करके उतरते रहे। दावत व तर्बियत के मुसालेह के तहत कुछ अहकाम में तदरीज (क्रम) का 
तरीका भी इख्ियार किया गया (मसलन पहले यह हुक्म आया कि मुखालिफों के मुकाबले 
में सब्र करो। इसके बाद यह हुक्म आया कि उनसे जंग करो।) 
इस किस्म की 'तब्दीलियौँ को लेकर मुखालिफीन यह कहते कि कुरआन ख़ुदा की किताब 
नहीं। यह मुहम्मद की अपनी तस्नीफ (कृति) है जिसे उन्होंने खुदा की तरफ मंसूब कर दिया है। 
अगर वह खुदा की तरफ से होती तो उसमें कभी इस किस्म की तब्दीलियां न होतीं। 
मुखालिफीन अगर कुरआन के मामले में संजीदा होते और तब्दीली के वाकये को सही 
रुख से देखते तो इसमें उन्हें तदरीज फिलअहकाम (आदेशों में क्रम) की हिक्मत नजर आती। 
मगर जब उन्होंने इसे गलत रुख़ से देखा तो तब्दीली का वाकया उन्हें इंसानी इल्म की कमी 
का नतीजा नजर आया। जिस चीज में उनके लिए तस्दीक (प्रमाण) का सामान छुपा हुआ था 
उसे उन्होंने अपने लिए इफ्तिरा (गढ़ना) का जरिया बना लिया। 
कुरआन को हक के साथ उतारा गया है। यहां हक से मुराद खुदा का ख़ालिस और 
बेआमेज (विशुद्ध) दीन है। जो लोग सच्चाई के तालिब हों और मिलावटी दीनों में इत्मीनान 
न पाते हों, उनके लिए कुरआनी दीन में अपनी तलाश का जवाब भी है और उनकी तस्कीने 
कल्ब का सामान भी। 
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और हमें मालूम है कि ये लोग कहते हैं कि इसे तो एक आदमी सिखाता है। जिस 
शख्स की तरफ वे मंसूब करते हैं। उसकी जवान अजमी (गैर-अरबी) है और यह 





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पारा 74 752 सूरह-।6. अन-नहल 


कुरआन साफ अरबी जबान है। बेशक जो लोग अल्लाह की आयतो पर ईमान नहीं 

लाते, अल्लाह उन्हें कभी राह नहीं दिखाएगा और उनके लिए दर्दनाक सजा है। झूठ 
तो वे लोग गढ़ते हैं जो अल्लाह की आयतों पर ईमान नहीं रखते और यही लोग 
झूठे हैं। (03-05) 


मक्का में कुछ अजमी (गैर-अरबी) गुलाम थे। उनके नाम तफ़्सीर की किताबों में हैर, 
यसार आइश, यईश वरह आए हैं। इस जिम्न में सलमान फारसी का नाम भी लिया गया 
है जो बाद को मुसलमान हो गए। ये गुलाम या यहूदी थे या नसरानी। इस बिना पर वे कदीम 
आसमानी मजाहिब, यहूदियत और नसरानियत के बारे में मालूमात रखते थे। इनमें से किसी 
की कभी रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से मुलाकात हो जाती थी। इस तरह की 
मुलाकातों को बुनियाद बनाकर क्रैश के लीडरों ने कहा कि 'यही अजमी लोग मुहम्मद को 
कुछ बातें बता देते हैं और वह उन्हें खुदाई कलाम बताकर लोगों के सामने पेश करते हैं। 
यह मजहकाखेज़ बात उन्होंने क्यों कही । इसकी वजह वही आम बुराई है जो हर जमाने 
में और हमेशा दुनिया में पाई गई है। वह है अपने हमअस्र (समकालीन) की कीमत को न 
पहचानना । क्रैश के लिए रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम एक मुआसिर (समकालीन) 
शख्सियत थे, इसलिए वे आपको पहचानने और आपकी कद्र करने में नाकाम रहे। 
इस आयत से मालूम होता है कि जो लोग मुआसिराना नफ्सियात के फितने में मुब्तिला हों 
वे कभी हक को कुबूल करने की तौफीक नहीं पाते। वे हक को मान लेने के बजाए यह करते है 
कि हक के अलमबरदार के खिलाफ झूठी बातें गढ़ते रहते हैं। वे बड़ी-बड़ी हकीकतों को 
नजरअंदाज कर देते हैं। और छोटी-छोटी बातों को लेकर दाऔ की शख्सियत को बदनाम करते 
हैं। वे इसी में मशगूल रहते हैं, यहां तक कि मर कर ख़ुदा की पकड़ के मुस्तहिक बन जाते हैं। 


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जो शख्स ईमान लाने के बाद अल्लाह से मुंकिर होगा, सिवा उसके जिस पर जबरदस्ती 
की गई हो बशर्ते कि उसका दिल ईमान पर जमा हुआ हो, लेकिन जो शख्स दिल 
खोलकर मुंकिर हो जाए तो ऐसे लोगों पर अल्लाह का गजब होगा और उन्हें बड़ी सजा 


होगी। यह इस वास्ते कि उन्होंने आखिरत (परलोक) के मुकाबले में दुनिया की जिंदगी 
को पसंद किया और अल्लाह मुंकिरों को रास्ता नहीं दिखाता। ये वे लोग हैं कि अल्लाह 











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सूरह-6. अन-नहल 753 पारा ।4 


ने उनके दिलों पर और उनके कानों पर और उनकी आंखों पर मुहर कर दी। और ये 
लोग बिल्कुल गाफिल हैं। लाजिमी बात है कि आख़िरत में ये लोग घाटे में रहेंगे। 
(06-09) 


खुदा के यहां हकीकत का एतबार किया जाता है न कि महज जाहिर का। यही वजह 
है कि इस्लाम में इंसान के साथ बहुत रिआयत की गई है। अगर कोई शख्स दिल से खुदा 
का सच्चा वफादार हो। मगर सख्त मजबूरी की हालत में अपनी जान बचाने के लिए वक्ती 
तौर पर कोई ख़िलाफे ईमान कलिमा कह दे तो ख़ुदा के यहां इस पर उसकी पकड़ न होगी। 
मगर वे लोग खुदा के यहां नाकाबिले माफी हैं जो अंदर से बदल चुके हों। जो शैतानी शुबहात 
या हालात के दबाव से मुतअस्सिर होकर दिल की रिजामंदी से किसी और रास्ते पर चल पड़ें। 
जब आदमी ईमान के बजाए गैर ईमान की रविश इख़्तियार करता है तो इसकी वजह 
हमेशा दुनियापरस्ती होती है। वह दुनियावी मफाद को खतरे में देखकर गैर मोमिनाना रविश 
पर चल पड़ता है। अगर वह आखिरत की कद्र व कीमत को समझता तो दुनिया का मफाद 
उसे इतना हकीर (तुच्छ) नजर आता कि उसे यह बात बिल्कुल लग्व (घटिया) मालूम होती 
कि दुनिया की ख़ातिर वह आख़िरत को छोड़ दे। 
आखिरत के मुकाबले में दुनिया के फायदे अगर किसी के नजदीक अहमतर बन जाएं 
तो इसका लाजिमी नतीजा यह होता है कि वह मामलात को आख़िरत के नुक्तए नजर से 
सोच नहीं पाता। वह देखता और सुनता है मगर दुनिया की तरफ झुकाव की वजह से चीजों 
का उख़रवी (परलोकवादी) पहलू उसकी निगाहों से ओझल हो जाता है। वह उसी पहलू को 
देख पाता है जो दुनियावी मसालेह (हितों) से तअल्लुक रखते हों। जो लोग गफलत के इस 
मर्तबे को पहुंच जाएं उनके हिस्से में अबदी (चिरस्थाई) नुक्सान के सिवा और कुछ नहीं। 


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(स्थान-परिवर्तन) की, फिर जिहाद किया और कायम रहे तो इन बातों के बाद बेशक तेरा 
रब बख्शने वाला, महरबान है। जिस दिन हर शख्स अपनी ही तरफदारी में बोलता हुआ 


आएगा। और हर शख्स को उसके किए का पूरा बदला मिलेगा और उन पर जुल्म न किया 
जाएगा। (20-77) 








माहौल पर नाहक का गलबा हो, उस ववत कोई शख हक को कुब्ूल कर ले तो वह सरन 
आजमाइश में पड़ जाता है। चारों तरफ से माहौल का दबाव जोर करता है कि आदमी दुबारा 
रवाजी दीन की तरफ लौट जाए। ऐसी हालत में अगर वह हक पर कायम रहे, वह हर चीज 
यहां तक कि जायदाद और वतन को छोड़ दे मगर हक को न छोड़े तो वह मुहाजिर और मुजाहिद 
है। और अल्लाह की नजर में बहुत बड़े सवाब का मुस्तहिक है। 





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पारा 4 754 सूरह-6. अन-नहल 
दुनिया की आजमाइश मेंजो चीज हक पर साबित कदम रखने वाली है वह सिर्फ आख़िर्त 

की याद है। हर आदमी पर बहुत जल्द एक हौलनाक दिन आने वाला है। वह दिन ऐसा सख्त 

होगा कि आदमी अपने दोस्तों और रिश्तेदारों तक को भूल जाएगा। वहां न कोई शख्स किसी 

की तरफ से बोल सकेगा और न कोई शख्स किसी का सिफारिशी बनकर खड़ा होगा। अगर 

आदमी को उस आने वाले दिन का एहसास हो तो उसका यही हाल होगा कि वह हर किस्म 

का नुक्सान गवारा कर लेगा मगर हक को कभी न छोड़ेगा। 


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और अल्लाह एक बस्ती वालों की मिसाल बयान करता है कि वे अम्न और इत्मीनान 
में थे। उन्हं उनका रिजक फरागत के साथ हर तरफ से पहुच रहा था। फिर उन्होंने खुदा 
की नेमतों की नाशुक्री की तो अल्लाह ने उन्हें उनके आमाल के सबब से भूख और 


ख़ौफ का मजा चखाया। और उनके पास एक रसूल उन्हीं में से आया तो उसे उन्होंने 
झूठा बताया फिर उन्हें अजाब ने पकड़ लिया और वे जालिम थे। (22-3) 





इंसानों की कोई आबादी इत्मीनान की हालत में हो और उसके दर्मियान रिज्क की 
फरावानी हो। फिर खुदा अपने किसी बदे को उनके दर्मियान खड़ा करे जो उन्हें हक की तरफ 
बुलाए तो ऐसी हालत में हमेशा दो में से कोई एक सूरत पेश आती है। या तो यह आबादी 
हककेकूत के मजैद (अतिरिक्त) खुदाई इनामात की मुस्तहिक बने और अगर वह 
ऐसा न करे तो फिर यह होता है कि उस पर तरह-तरह के हादसात गुजरते हैं। ये हादसात 
उसके हक में खुदाई अजाब नहीं होते बल्कि खुदाई तंबीहात (चेतावनियां) होते हैं। इनका 
मकसद यह होता है कि लोग चौकन्ने हो जाएं। उनकी हस्सासियत (संवेदनशीलता) जागे और 
वे ख़ुदा के दाऔ की पुकार पर लब्बैक कहने के लिए तैयार हो जाएं। 

अगर इस किस्म की तंबीहात कारगर न हों तो दावत की तक्मील के बाद दूसरा मरहला 
यह आता है कि उस कौम को हलाक कर दिया जाए ताकि वह आख़िरत के आलम में पहुंच 
कर अपने अबदी अंजाम को भुगते। 


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सूरह-।6. अन-नहल 755 पारा ।4 
सो जो चीजें अल्लाह ने तुम्हें हलाल और पाक दी हैं उनमें से खाओ और अल्लाह की 
नेमत का शुक्र करो। अगर तुम उसकी इबादत करते हो। उसने तो तुम पर सिर्फ मुर्दार 
को हराम किया है और ख़ून को और सुअर के गोश्त को और जिस पर गेर-अल्लाह 
का नाम लिया गया हो। फिर जो शख्स मजबूर हो जाए बशर्ते कि वह न तालिब हो 
और न हद से बढ़ने वाला, तो अल्लाह बस्शने वाला महरबान है। (4-5) 





इस आयत का तउल्लुक रोजमर्र खाने वाली चीजें से है। खुदरा ने जो काबिले खाक 
चीजें पैदा की हैं, उनमें चन्द मुतअय्यन चीजों को छोड़कर बकिया सब इंसान के लिए हलाल 
हैं। ताहम कदीम मुश्रिक इंसान ने यह किया कि खुदा की हलाल की हुई बहुत सी गिजाओं 
को बतौर ख़ुद अपने लिए हराम कर लिया। जदीद मुलहिद (आधुनिक नास्तिक) इंसान ने 
इसके बरअक्स यह किया कि खुदा की हराम की हुई बहुत सी गिजाओं को बतौर खुद अपने 
लिए हलाल ठहरा लिया। यह दोनों चीजें उस रूह (भावना) की कातिल हैं जिसे गिजाई नेमतों 
के जरिए इंसान के अंदर पैदा करना मवसूद है। 
गिजा इंसान की तमाम जरूरतों में सबसे ज्यादा अहम जरूरत है जिसका हर इंसान को 
सुबह व शाम तजर्वा होता है। खुदा को यह मत्लूब है कि आदमी जब गिजा का इस्तेमाल करे 
तो वह उसे ख़ुदा का अतिय्या (देन) समझ कर खाए और उस पर ख़ुदा का शुक्र अदा करे। 
मगर इंसान ने पूरे मामले को उलट दिया। 
कदीम मुश्रिकाना दौर में उसने इन गिजाओं को देवताओं के साथ मंसूब किया और इस 
तरह उन्हें खुदा के बजाए देवताओं की याद का जरिया बना दिया। जदीद मुलहिदाना जमाने 
में यह हुआ है कि इंसान ने सारे मामले को अपनी लज्जते नफ्स के ताबेअ कर दिया । उसने 
खुदा की हराम शिजाओं को भी अपने लिए हलाल ठहरा लिया। नतीजा यह हुआ कि खुदा 
की पैदा की हुई चीजें उसके लिए सिर्फ अपनी लज्जत का दस्तरुब्रान बनकर रह गई। 
मजबूरी की हालत में अगर कोई शख्स खुदा के गिजाई कानून को बदले तो वह नदामत 
के जज्बे के तहत ऐसा करेगा न कि सरकशी के जज्बे के तहत। इसलिए इससे नपिसयाते 
इंसानी में कोई ख़राबी पैदा होने का अंदेशा नहीं। 


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और अपनी जबानों के गढ़े हुए झूठ की बिना पर यह न कहो कि यह हलाल है, और 
यह हराम है कि तुम अल्लाह पर झूठी तोहमत लगाओ। जो लोग अल्लाह पर झूठी 
तोहमत लगाएंगे वे फलाह (कल्याण, सफलता) नहीं पाएंगे। वे थोड़ा सा फायदा उठा 
लें, और उनके लिए दर्दनाक अजाब है। (6-7) 


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पारा 74 756 सूरह-।6. अन-नहल 


इस आयत का तअल्लुक आम कान्ूमसाज से नहींहै बल्कि गिजई चीजेमंहराम व हलाल 
मुकर करने से है। इंसान हमेशा यह करता रहा है कि वह खाने की चीजों में कुछ को जाइज और 
कुछ को नाजाइज ठहराता है। ऐसा या तो तवहहुमात (अंधविश्वास) के तहत होता है या ख़्वाहिशात 
के तहत। मगर इसे करने वाले इसे मजहब की तरफ मंसूब कर देते हैं। 

मज्कूरा किस्म की तहरीम (अवेधता) व तहलील (वैधता) का यह नुक्सान है कि इससे 
लोगों में तवह्हुमपरस्ती और ख़्वाहिशपरस्ती का मिजाज पैदा होता है। जबकि आदमी के लिए 
सही बात यह है कि वह दुनिया में ख़ुदापरस्त बनकर रहे। 

मौजूदा जिंदगी में इम्तेहान की वजह से इंसान को आजादी हासिल है। तवहहुमात और 
र्राहिशात को अपना दीन बनाने का मौका मिलने की वजह यही आजादी है। जब इम्तेहान 
को मुदूदत ख़त्म होगी तो अचानक इंसान पाएगा कि उसके लिए एक ही मुमकिन रास्ता था। 
यानी ख़ुदापरस्ती को अपना दीन बनाना। इसके अलावा जिन चीजों को उसने अपनाया वह 
सिर्फइम्तेहानी आजादी का गलत इस्तेमाल था न कि उसका कोई जाइज हक। उस वक्‍त उसे 
वही सजा भुगतनी पड़ेगी जो इम्तेहान में नाकाम होने वालों के लिए मुकदूदर है। 


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और यहूदियों पर हमने वे चीजें हराम कर दी थीं जो हम इससे पहले तुम्हें बता चुके हैं कि 
हमने उन पर कोई जुल्म नहीं किया बल्कि वे खुद अपने ऊपर जुल्म करते रहे। (8) 


यहूद की मजहबी किताबों में कुछ ऐसी खाने की चीजें हराम हैं जो इस्लाम की शरीअत 
में हराम नहीं की गई हैं। (अन-निसा 60)। इसकी वजह यह नहीं कि ख़ुद ख़ुदा ने दो किस्म 
के अहकाम दिए हैं। यहूद पर भी अस्लन वही गिजाई चीजें हराम ठहराई गई थीं जो यहां (अन 
नहल, आयत 775) में मज्कूर हैं। मगर बाद को यहूद ने ख़ुदसाख़्ता (स्वनिर्मित) तसव्वुरात के 
तहत कुछ जाइज चीजें को अपने ऊपर हराम कर लिया। पैगम्बरों की फहमाइश के बावजूद 
वे अपने इस ख़ुदसाख्ता दीन को छोड़ने पर तैयार नहीं हुए। 

मजीद यह कि अव्वलन उन्होंने खुदा के हलाल को हराम किया और इस तरह अपने 
आपको नाहक मुसीबतों में डाला। और फिर जब वे उस हराम पर कायम न रह सके तो 
अकीदतन उसे हराम समझते हुए अमलन उसे अपने लिए जाइज बना लिया। इस तरह वे दोहरे 
मुजरिम बन गए। 

आदमी अगर किसी खुदसारना नजरिये के तहत एक जाइज चीज को अपने लिए नाजाइज 
बना ले और उसकी खातिर कुर्बानियां देना शुरू करे, तो यह महज अपनी जान पर जुल्म करना 
होगा न कि खुदा के रास्ते में कुर्बानी पेश करना। 


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सूरह-6. अन-नहल 757 पारा ।4 


फिर तुम्हारा रब उन लोगों के लिए जिन्होंने जहालत से बुराई कर ली, इसके बाद तोबा 
की और अपनी इस्लाह की तो तुम्हारा रब इसके बाद बख्शने वाला महरबान है। (.9) 





जब बुराई के साथ सरकशी और तअस्सुब के जज्बात इकट्ठा हो जाएं तो आदमी उससे 
हटने के लिए तैयार नहीं होता, चाहे उसके अमल को ग़लत साबित करने के लिए कितने ही 
दलाइल दिए जाएं। मगर बुराई की दूसरी किस्म वह है जो महज नादानी की वजह से पैदा 
होती है। आदमी बेख़बरी में या नफ्स से मग़लूब होकर कोई गलती कर बैठता है। ऐसे आदमी 
के अंदर आम तौर पर ढिठाई नहीं होती। जब दलील से उस पर उसकी गलती वाजेह हो जाए 
तो वह फौरन पलट आता है और दुबारा अपने को सही रवैया पर कायम कर लेता है। 
पहली किस्म के लोगों के लिए माफी का कोई सवाल नहीं। मगर दूसरी किस्म के लोगों 
के लिए यह बशारत (शुभ सूचना) है कि ख़ुदा उन्हें अपनी रहमतों के साये में ले लेगा क्योंकि 
वह अपने बंदों पर बहुत ज्यादा महरबान है। 
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बेशक इब्राहीम एक अलग उम्मत था, अल्लाह का फरमांबरदार, और उसकी तरफ 
यकसू (एकाग्रचित्त), और वह शिर्क (खुदा के साझीदार बनाना) करने वालों में से न 
था। वह उसकी नेमतों का शुक्र करने वाला था। ख़ुदा ने उसे चुन लिया। और सीधे 
रास्ते की तरफ उसकी रहनुमाई की। और हमने उसे दुनिया में भी भलाई दी और 
आख़िरत में भी। वह अच्छे लोगों में से होगा। फिर हमने तुम्हारी तरफ “वही! 
(प्रकाशना) की कि इब्राहीम के तरीके की पैरवी करो जो यकसू था और वह शिर्क करने 
वालों में से न था। (20-23) 





हजरत इब्राहीम को कुरआन में खुदा के मत्लूब इंसान के नमूने के तौर पर पेश किया 
गया है। वह नमूने के इंसान क्यों बने। इसलिए कि वह माहौल के बिगाड़ के विपरीत तनहा 
ईमान पर कायम रहने वाले इंसान थे। वह अकेले खुदा के लिए खड़े हुए जबकि इस राह में 
कोई उनका साथ देने वाला न था। 

हजरत इब्राहीम पूरी तरह अपने आपको खुदा की पाबंदी में दिए हुए थे। उन्होंने आलमगीर 
(विश्वव्यापी) मुश्रिकाना माहौल में अपने आपको तौहीद (एकेश्वरवाद) के लिए यकसू कर लिया 
था। वह तमाम चीजों को खुदा की तरफ से मिली हुई चीज समझते थे और उनके लिए उनका 
दिल ख़ुदा के शुक्र के जज्बे से भरा रहता था। हजरत इब्राहीम के इस कमाले ईमान की वजह 
से ख़ुदा ने उन पर अपनी हिदायत की राहें खोल दीं और उन्हें पैगाम्बरी के लिए चुन लिया ताकि 
वह दुनिया वालों को ख़ुदा के दीन से आगाह करें। 








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पारा 74 758 सूरह-।6. अन-नहल 


हजरत इब्राहीम को दुनिया का हसनह (बेहतरी) दी गई और आख़िरत की बेहतरी भी | यह 
मालूम है कि दुनियावी में हजरत इब्राहीम को न अवाम की भीड़ मिली, न इक्तेदार (सत्ता) का 
तख्त, और न और कोई दुनिया रौनक की चीज। इसके बावजूद कुरआन की यह गवाही है कि 
उन्हें खुदा की तरफ से दुनिया की बेहतरी मिली थी। इससे मालूम हुआ कि ख़ुदा की नजर में 
दुनिया की बेहतरी न अवामी मकबूलियत का नाम है और न दौलत व हुकूमत का । बल्कि दुनिया 
की बेहतरी खुदा की नजर में अस्लन वही चीजें हैं जिन्हें यहां हजरत इब्राहीम की खुसूसियत के 
तौर पर बयान किया गया है। 


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सब्त उन्हीं लोगों पर आयद किया गया था जिन्होंने उसमें इख़्तेताफ (मतभेद) किया 


था। और बेशक तुम्हारा रब कियामत के दिन उनके दर्मियान फैसला कर देगा जिस 
बात में वे इख़्तेलाफ कर रहे थे। (24) 


हफ्ते का एक दिन तमाम शरीअतों में इज्तिमाई इबादत का दिन रहा है। यहूद उसे 
सनीचर (सब्त) के दिन मनाते हैं। ईसाई इतवार के दिन। और मुसलमानों को हुक्म है कि वे 
जुमा के दिन इसका एहतिमाम करें। 

यहूद के बुजुर्गों ने मूशिगाफियां (कुतर्क) करके बतौर ख़ुद सब्त (Sabbath) के लिए 
नए-नए जवाबित (नियम) बनाए और अपने आपको मस्नूई पाबंदियों में जकड़ लिया। फिर 
जब इन पाबंदियों पर अमल करना उन्हें नामुमकिन मालूम हुआ तो अपने बुजुर्गों के तकद्दुस 
(पवित्रता) की वजह से वे उन्हें रदूद न कर सके। अलबत्ता अमली तौर पर उन्होंने उनके 
ख़िलाफ चलना शुरू कर दिया। 

खुदा के दीन में बाद के आलिमों और बुजुर्गों ने अपनी तशरीहात से जो इख़्तेलाफात 
(मतभेद) पैदा किए उनका फैसला दुनिया में होने वाला नहीं। मगर जब कियामत आएगी तो 
ख़ुदा बता देगा कि असल आसमानी दीन क्या था और वे क्या चीजें थीं जो लोगों ने अपनी 
तरफ से इजफ करके दीन में शामिल कर दीं। 


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अपने रब के रास्ते की तरफ हिक्मत (तत्वदर्शिता) और अच्छी नसीहत के साथ बुलाओ 
और उनसे अच्छे तरीके से बहस करो। बेशक तुम्हारा रब ख़ूब जानता है कि कौन 
उसकी राह में भटका हुआ है और वह उन्हें भी ख़ूब जानता है जो राह पर चलने वाले 
हैं। (25) 


दावत (आह्वान) का अमल एक ऐसा अमल है जो इंतिहाई संजीदगी और खैरख्वाही के 
जज्बे के तहत उभरता है। खुदा के सामने जवाबदेही का एहसास आदमी को मजबूर करता 








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सूरह-6. अन-नहल 759 पारा ।4 


है कि वह ख़ुदा के बंदों के सामने दाऔ बनकर खड़ा हो। वह दूसरों को इसलिए पुकारता है 
कि वह समझता है अगर मैंने ऐसा न किया तो मैं कियामत के दिन पकड़ा जाऊंगा। इस 
नप्सियात का कुदरती नतीजा है कि आदमी का दावती अमल वह अंदाज इस्क्ियार कर लेता 
है जिसे हिक्मत, अच्छी नसीहत और अच्छी बहस कहा गया है। 
हिक्मत से मुराद दलील व बुरहान (स्पष्ट प्रमाण) है। कोई दावती अमल उसी वक्त 
हकीकी दावती अमल है जबकि वह ऐसे दलाइल के साथ हो जिसमें मुखातब के जेहन की पूरी 
रिआयत शामिल हो। मुखातब के नजदीक, किसी चीज के साबितशुदा चीज होने की जो 
शराइत हैं, उन शराइत की तक्मील के साथ जो कलाम किया जाए उसी को यहां हिक्मत का 
कलाम कहा गया है। जिस कलाम में मुखातब की जेहनी व फिक्री रिआयत शामिल न हो वह 
गैर हकीमाना कलाम है। और ऐसा कलाम किसी को दाऔ का मर्तबा नहीं दे सकता। 
अच्छी नसीहत उस खुसूसियत का नाम है जो दर्दमंदी और खैरख़ाही की नफ्सियात से 
किसी के कलाम में पैदा होती है। जिस दाऔ का यह हाल हो कि ख़ुदा के अज्मत व जलाल 
(प्रताप) के एहसास से उसकी शख्सियत के अंदर भूचाल आ गया हो जब वह ख़ुदा के बारे 
में बोलेगा तो यकीनी तौर पर उसके कलाम में अज्मते खुदावंदी की बिजलियां चमक उठेंगी । 
जो दाऔ जन्नत और जहन्नम को देखकर दूसरों को उसे दिखाने के लिए उठे। उसके कलाम 
में यकीनी तौर पर जन्नत की बहारें और जहन्नम की हौलनाकियां गूंजती हुई नजर आएंगी । 
इन चीजों की आमेजिश दाऔ के कलाम को ऐसा बना देगी जो दिलों को पिघला दे और 
आंखों को अश्कबार (नम) कर दे। 
दावती कलाम की ईजाबी ख़ुसूसियात यही दो हैं हिक्मत और मोअज़ते हसनह (अच्छी 
नसीहत) । ताहम हमेशा दुनिया में कुछ ऐसे लोग मौजूद रहते हैं जो गैर जरूरी बहसें करते हैं। 
जिनका मकसद उलझाना होता है न कि समझना समझाना । ऐसे लोगों के बारे में मज्कूरा किस्म 
का दाऔ जो अंदाज इख़्तियार करता है, उसी का नाम 'अच्छी बहस” है। वह टेढ़ी बात का जवाब 
सीधी बात से देता है, वह सरन्न अल्फाज सुनकर भी अपनी जबान से नर्म अल्फ़ज निकालता 
है। वह इल्जाम तराशी के मुकाबले में इस्तदलाल (तर्क) और तज्जिया (विश्लेषण) का अंदाज 
इख्तियार करता है। वह इश्तेआल (उत्तेजना) के उस्लूब के जवाब में सब्र का उस्लूब (शैली) 
इख्तियार करता है। 
हक के दाऔ की नजर सामने के इंसान की तरफ नहीं होती बल्कि उस ख़ुदा की तरफ 
होती है जो सबके ऊपर है। इसलिए वह वही बात कहता है जो ख़ुदा की मीजान (तुला) में 


हवीकी बात ठहर न कि इंसान की मीजन में। 
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और अगर तुम बदला लो तो उतना ही बदला लो जितना तुम्हारे साथ किया गया है 
और अगर तुम सब्र करो तो वह सब्र करने वालों के लिए बहुत बेहतर है और सब्र करो 


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पारा 5 760 सूरह-।6. अन-नहल 
और तुम्हारा सब्र खुदा ही की तौफीक से है और तुम उन पर गम न करो और जो कुछ 

तदबीरें वे कर रहे हैं उससे तंग दिल न हो। बेशक अल्लाह उन लोगों के साथ है जो 
प्रजार (ईश-परायण) हैं और जो नेकी करने वाले हैं। (26-28) 





यहां दाऔ का वह किरदार बताया गया है जो मुखालिफीन के मुकाबले में उसे इख्तियार 
करना है। फरमाया कि अगर मुख़ालिफीन की तरफ से ऐसी तकलीफ पहुंचे जिसे तुम बर्दाश्त न 
कर सको तो तुम्हें उतना ही करने की इजाजत है जितना तुम्हारे साथ किया गया है। ताहम यह 
इजाजत सिर्फ इंसान की कमजोरी को देखते हुए बतौर रिआयत है। वर्ना दाऔ का अस्ल किरदार 
तो यह होना चाहिए कि वह मदऊ की तरफ से पेश आने वाली हर तकलीफ पर सब्र करे। वह 
मदऊ से हिसाब चुकाने के बजाए ऐसे तमाम मामलात को ख़ुदा के ख़ाने में डाल दे। 

मुखातब आख़िर हक को न माने। वह उसे मिटाने के दरपे हो जाए तो उस वक्‍त दाजी 
को सबसे बड़ी तदबीर जो करनी है वह सब्र है यानी रद्देअमल की नफ्सियात या जवाबी 
कार्रवाइयों से बचते हुए मुस्बत (सकारात्मक) तौर पर हक का पैग़ाम पहुंचाते रहना । दाऔ 
को अस्लन जो सुबूत देना है वह यह कि वह फिलवाकअ अल्लाह से डरने वाला है। उसके 
अंदर वह किरदार पैदा हो चुका है जो उस वक्त पैदा होता है जबकि आदमी दुनिया के पर्दो 
से गुजर कर खुदा को उसकी छुपी हुई अज्मतों के साथ देख ले। अगर दाऔ यह सुबूत दे 
दे तो इसके बाद बकिया मामलों में खुदा उसकी तरफ से काफी हो जाता है। इसके बाद दावत 
(आह्वान) के मुखालिफीन की कोई तदबीर दाओ को नुक्सान नहीं पहुंचा सकती, चाहे वह 
तदबीर कितनी ही बड़ी क्यों न हो। 

दुनिया में दो किस्म के इंसान होते हैं। एक वे जिनकी निगाहें इंसानों में अटकी हुई हों। 
जिन्हें बस इंसानों की कार्रवाइयां दिखाई देती हों | दूसरे वे लोग जिनकी निगाहें ख़ुदा में अटकी 
हुई हों। जो खुदा की ताकतों को अपनी आंखों से देख रहे हैं। पहली किस्म के लोग कभी 
सब्र पर कादिर नहीं हो सकते। ये सिर्फ दूसरी किस्म के इंसान हैं जिनके लिए यह मुमकिन 
है कि वे शिकायतों और तल्ख़ियों (कटुताओं) को सह लें। और जो कुछ खुदा की तरफ से 
मिलने वाला है उसके ख़ातिर उसे नजरअंदाज कर दें जो इंसान की तरफ से मिल रहा है। 

दाओ को जिस तरह जवाबी नपिसयात से परहेज करना है उसी तरह उसे जवाबी 
कारवाई से भी अपने आपको बचाना है। मुखालिफीन की साजिशें और तदबीरें बजाहिर 
डराती हैं कि कहीं वे दावत और दाऔ को तहस नहस न कर डालें। मगर दाऔ को हर हाल 
में ख़ुदा पर भरोसा रखना है। उसे यह यकीन रखना है कि ख़ुदा सब कुछ देख रहा है। और 
वह यकीनन हक की दावत का साथ देकर बातिलपरस्तोँ को नाकाम बना देगा। 


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सूरह-7. बनी इस्राईल 76I पारा ॥5 
आयरतें-77 सूरह-7. बनी इस्राईल रुकूअ-2 
(मक्का में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
पाक है वह जो ले गया एक रात अपने बंदे को मस्जिदे हराम से दूर की उस मस्जिद 
तक जिसके माहौल को हमने बाबरकत बनाया है ताकि हम उसे अपनी कुछ निशानियां 
दिखाएं। बेशक वह सुनने वाला, देखने वाला है। (7) 





हिजरत से एक साल पहले मक्का के हालात बेहद सख्त थे। ऐसा मालूम होता था कि 
इस्लाम की तारीख़ बनने से पहले ख़त्म हो जाएगी। ऐन उस वक्त अल्लाह ने पैग़म्बरे इस्लाम 
को एक अजीम निशानी दिखाई। यह निशानी उस हकीकत का महसूस मुजाहिरा था कि 
इस्लाम की तारीख़ न सिफ यह कि अपनी तक्मील तक पहुंचेगी, बल्कि इसके गिर्द ऐसे अमली 
हालात जमा किए जाएंगे कि वह अबदी (चिरस्थाई) तैर पर जिंश और महपूल़ रहे। क्येंकि 
अब इसी को कियामत तक तमाम कीमों के लिए ख़ुदा के दीन का मुस्तनद माखज (प्रमाणिक 
स्रोत) करार पाना है। 

अल्लाह अपने खुसूसी एहतमाम के तहत पैग़म्बरे इस्लाम को मक्का से फिलिस्तीन 
(बैतुल मविदस) ले गया। यह जिस्मानी या रूहानी सफर आपके सफरे मेराज की पहली 
मंजिल थी। यहां बैतुल मक्रिदस में पिछले तमाम पैगम्बर भी जमा थे। उन सब ने मिलकर 
बाजमाअत नमाज अदा की और पेगम्बरे इस्लाम ने आगे खड़े होकर उन सबकी इमामत 
फरमाई। आपकी इमामत का यह वाकया गोया उस खुदाई फैसले की एक अलामत था कि 
पिछली तमाम नुबुव्वतें अब हिदायते इलाही के मुस्तनद माखज (प्रमाणिक स्रोत) की हैसियत 
से मंसूख कर दी गई। अब खुदाई हिदायत को जानने के लिए तमाम कीमों को पेगम्बरे 
इस्लाम के लाए हुए दीन की तरफ रुजूअ करना चाहिए। 

इस अहम तकरीब को अंजाम देने के लिए फिलिस्तीन मौज़ूंतरीन जगह थी । फिलिस्तीन 
पिछले अक्सर अंबिया की दावत (आह्वान) का मकज रहा है। इसलिए ख़ुदा ने अपने इस 
फैसले के इ्हार के लिए इसी ख़स इलाके का इतिख़ब फरमाया। 


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और हमने मूसा को किताब दी और उसे बनी इस्राईल के लिए हिदायत बनाया कि मेरे 


सिवा किसी को अपना कारसाज (कार्य-साधक) न बनाओ। तुम उन लोगों की औलाद 
हो जिन्हें हमने नूह के साथ सवार किया था, बेशक वह एक शुक्रगुजार बंदा था। (2-3) 





इसरा (मेराज) के मज्कूरा वाकये का मतलब यह था कि बनू इस्राईल (यहूद) को हामिले 


पारा ।5 762 


सूरह-।7. बनी इस्राईल 
किताब (ग्रंथ धारक) के मकाम से माजूल कर दिया गया और उनकी जगह बनू इस्माईल को 
किताबे इलाही का हामिल बना दिया गया। यह वाकया खुदा की सुन्नत के तहत अमल में 
आया। खुदा इस दुनिया में हक के एलान के लिए किसी तैशुदा गिरोह को मुंतख़ब करता है। 
यह सबसे बड़ा एज़ाज है जो इस दुनिया में किसी को मिलता है। 
ताहम यह इंतिख़ाब नस्ल या कौम की बुनियाद पर नहीं है इसका इस्तहकाक किसी गिरोह 
के लिए सिर्फ उस वकस साबित होता है जबकि वह उसके लिए जरूरी अहलियत (योग्यता) का 
सुबूत दे। अहलियत के ख़त्म होते ही उसका इस्तहकाक भी ख़त्म हो जाता है। उम्मते आदम, 
उम्मते नूह, उम्मते मूसा, उम्मते मसीह, हर एक के साथ यह वाकया हो चुका है। आइंदा उम्मत 
के लिए भी ख़ुदा का कानून यही है, इसमें किसी का कोई इस्तसना (अपवाद) नहीं। 
इस मंसब के लिए जो अहलियत दरकार है वह यह कि खुदा के सिवा किसी को वकील 
(कारसाज) न बनाया जाए। सिर्फ एक खुदा पर सारा भरोसा करके अपने सारे मामलात 
उसके हवाले कर दिए जाएं। 
खुदा को जब आदमी उसकी तमाम अज्मतों और कुदरतों के साथ पाता है तो इसका 
नतीजा यह होता है कि वह खुदा को अपना वकील (करसजे बना लेता है। जिस शख्स को 
खुदा की हकीकी मअरफत हो जाए, उसका हाल यही होगा कि वह इस दुनिया में खुदा को 
अपना सब कुछ बना लेगा। जो लोग इस तरह ख़ुदा को पा लें वही मौजूदा दुनिया में 
मोमिनाना जिंदगी गुजार सकते हैं। मोमिनाना जिंदगी गुजारने के लिए आदमी को तमाम 
मख्नूकात से ऊपर उठना पड़ता है। और तमाम मख्तूकात से वही शख़्स ऊपर उठ सकता 
है जो सबसे बच्चै चीज मर्तुक्षत (सृष्टि) के ख़ालिक व मालिक को पा ले। 
हक की दावत की जिम्मेदारी भी वही लोग सही तौर पर अदा कर सकते हैं जिन्हें खुदा 
की मअरफत का यह दर्जा हासिल हो जाए। हक की दावत के लिए कामिल बेगर्जी और 
कामिल यकसूई (एकाग्रता) लाजिमी तौर पर जरूरी है। और कामिल बेगजी और कामिल 
यकसूई इसके बगैर किसी के अंदर पैदा नहीं हो सकती कि उसकी तमाम उम्मीदें और अंदेशे 
ख़ुदा से वाबस्ता हो चुके हों, खुदा ही उसका सब कुछ बन चुका हो। 
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और हमने बनी इस्राईल को किताब में बता दिया था कि तुम दो मर्तबा जमीन (शाम) 
में खराबी करोगे और बड़ी सरकशी दिखाओगे। फिर जब उनमें से पहला वादा आया 


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सूरह-7. बनी इस्राईल 763 पारा ॥5 


तो हमने तुम पर अपने बंदे भेजे, निहायत जोर वाले। वे घरों में घुस पड़े और वादा पूरा 
होकर रहा। फिर हमने तुम्हारी बारी उन पर लौटा दी और माल और औलाद से तुम्हारी 
मदद की और तुम्हें ज्यादा बड़ी जमाअत बना दिया। (4-6) 


यहां फसाद से मुराद दीनी बिगाड़ है। जो हजरत मूसा के बाद बनी इस्राईल के दर्मियान 
जाहिर हुआ। इसके दो दौर हैं। पहले दौर के बिगाड़ की तफसीलात पुराने अहदनामे 
(ओल्डटेस्टामेंट) में जबूर, यसअयाह, यरमियाह, हजकीइयल की किताबों में पाई जाती हैं। 
और दूसरे दौर के बिगाड़ की तफसील हजरत मसीह की जबान से है जो नए अहदनामे (न्यू 
टेस्टामेंट) में मत्ता और लूका की इंजीलों में मौजूद है। 

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को मक्का से उठाकर बैतुल मक्दिस ले जाया 
गया ताकि “आपको ख़ुदा को निशानियां दिखाई जाएं” इन निशानियों में से एक निशानी वह 
तारीख (इतिहास) भी है जो बैतुल मक्दिस से वाबस्ता है। 

यह तारीख़ दरअस्ल खुदा के एक कानून का जुहूर है। वह कानून यह है कि आसमानी 
किताब की हामिल कौम अगर किताबे इलाही के हुकूक अदा करे तो उसे (आखिरत की 
कामयाबी के अलावा) दुनिया में सरफराजी दी जाए। और अगर वह किताब के हुकूक अदा 
न करे तो उसे दुनिया की जाबिर (दमनकारी) कौमों के हवाले कर दिया जाए जो उसे अपने 
जुल्म व दमन का निशाना बनाएं। यह गोया एक अलामत है जो इसी दुनिया में बता देती है 
कि ख़ुदा उस कौम से खुश है या नाखुश। 

इस कून क दकू सबिक (पूर्ववर्ती) हामिलीने किताब (यहूद) पर बार-बार हुआ है 
जिनमें से दो नुमायां वाकेयात का यहां बतौर नसीहत हवाला दिया गया है। 

बनी इस्राईल पर अव्वलन ख़ुदा ने यह इनाम किया कि उन्हें फिरऔन के जुल्म से नजात 
दिलाई और फिर हजरत मूसा के बाद उनके लिए ऐसे हालात पैदा किए कि वे फिलिस्तीन पर 
कब्जा करके अपनी सल्तनत कायम कर सकें। मगर बाद को यहूद के अंदर बिगाड़ आ गया। 
एक तरफ वे मुश्रिक कौमों पर दाओ (आह्वानकर्त) बनने के बजाए खुद उनके मदऊ बन 
गए और उनके असर से मुश्रिकाना आमाल में मुन्तिला हो गए। दूसरी तरफ वे आपस के 
इषक्राफ (मतभेद) का शिकार होकर टुकड़े-टुकड़े हो गए। 

ख़ुदा की नाफरमानी के नतीजे में बनी इस्राईल पर जो कुछ गुजरा उसमें से एक नुमायां 
वाकया बाबिल (इराक) के बादशाह बनू कदनजर का है। यहूद की कमजेरियों से फ्रयदा उठा 
कर बनू कदनजर ने फिलिस्तीन पर अपनी बालादस्ती कायम कर ली। इसके बाद उसने खुद 
यहूद के शाही ख़ानदान में से एक शख्स को अपना नुमाइंदा बना दिया कि वह उसकी तरफ 
से उनके ऊपर हुकूमत करे। मगर यहूद ने इस 'मातहती' को अपने कौमी फख़ के खिलाफ 
समझा और उसके खिलाफ बगावत के दरपे हो गए। उनके अंदर ऐसे शायर और मुकर्रिर 
(वक्ता) पैदा हुए जिन्होंने पुरजोश अंदाज में यहूद को उभारना शुरू किया। यहूद के पैगम्बर 
यरमियाह ने मुतनब्बह किया कि ये सब झूठे लीडर हैं। तुम उनके फरेब में न आओ। तुम 





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पारा ।5 764 


सूरह-।7. बनी इस्राईल 


अपनी मौजूदा कमजोरियों के साथ शाह बाबिल के मुकाबले में कामयाब नहीं हो सकते। 

इसके बजाए तुम ऐसा करो कि शाह बाबिल को सियासी बालादस्ती को तस्लीम करते हुए 
अपनी दीनी इस्लाह और तामीरी जद्दोजहद में लग जाओ यहां तक की अल्लाह आइंदा 
तुम्हारे लिए मजीद राहें पैदा कर दे। मगर यहूद ने यरमियाह नबी की नसीहत को नहीं माना। 
ख़ुशफहम लीडरों की बातों में आकर उन्होंने शाह बाबिल के खिलाफ बगावत कर दी। इसके 

बाद शाह बाबिल सख्त गजबनाक हो गया। उसने दुबारा 586 ई०पू० में अपनी पूरी ताकत 

से फिलिस्तीन पर हमला किया । यहूद की मुकम्मद शिकस्त हुई । शाह बाबिल ने न सिर्फ यहूद 

को जबरदस्त दुनियावी नुक्सान पहुंचाए बल्कि यरोशलम में यहूद के इबादतख़ाने को मुकम्मल 

तौर पर ढा दिया जो यहूद की अज्मत का आखिरी निशान था। 














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अगर तुम अच्छा काम करोगे तो तुम अपने लिए अच्छा करोगे और अगर तुम बुरा काम 
करोगे तब भी अपने लिए बुरा करोगे। फिर जब दूसरे वादे का वक्‍त आया तो हमने 
और बंदे भेजे कि वे तुम्हारे चेहरे को बिगाड़ दें और मस्जिद (बैतुल मक्दिस) में घुस जाएं 
जिस तरह उसमें पहली बार घुसे थे और जिस चीज पर उनका जोर चले उसे बर्बाद कर 
दें। बईद (असंभव) नहीं कि तुम्हारा रब तुम्हारे ऊपर रहम करे। और अगर तुम फिर 


वही करोगे तो हम भी वही करेंगे और हमने जहन्नम को मुंकिरीन के लिए कैदख़ाना 
बना दिया है। (7-8) 





हादसों के नतीजे में बनी इस्राईल के अंदर रुजूअ इलल्लाह की कैफियत पैदा हुई तो 
ख़ुदा ने दुबारा उनकी मदद की। इस बार ख़ुदा ने शाह ईरान साइरस (ख़ुसरू) को उठाया। 
उसने 539 ई०पू० में बाबिल पर हमला किया, और उसकी हुकूमत को शिकस्त देकर उसके 
ऊपर कब्जा कर लिया। इसके बाद उसने यहूद पर यह महरबानी की कि उन्हें दुबारा बाबिल 
से उनके वतन फिलिस्तीन जाने की इजाजत दे दी। चुनांचे वे वापस आए और एक अर्स के 
बाद दुबारा अपना इबादतख़ाना तामीर किया। 

ताहम यहूद की नई नस्ल में दुबारा वही बिगाड़ पैदा होने लगा जो उनकी पिछली नस्ल 
में पैदा हुआ था। इस दर्मियान में उनके अंदर मुख्तलिफ उतार चढ़ाव आए। यहां तक कि 
उनके दर्मियान हजरत यहया और हजरत मसीह उठे। इन पेग़म्बरों ने यहूद की रविश पर 
तंकीदें कीं। उनकी उस बेदीनी को खोला जो वे दीन के नाम पर कर रहे थे। मगर यहूद इस 


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सूरह-7. बनी इस्राईल 765 पारा ॥5 
तंकीद व तज्जिया का असर कुब्ूल करने के बजाए बिगड़ गए । यहां तक कि उन्होंने हजरत 
यहया को कत्ल कर दिया और हजरत मसीह को सूली पर चढ़ाने के लिए तैयार हो गए। 
अब दुबारा उन पर खुदा का गजब भड़का। सन्‌ 70 ई० में रूमी बादशाह तीतस 
(ए०४) उठा और उसने यरोशलम पर हमला करके उसे बिल्कुल तबाह व बर्बाद कर डाला। 
यहूद की तारीख़ के ये वाकेयात ख़ुद यहूद के नजदीक भी मुसल्लम (प्रमाणिक) हैं। मगर 
यहूद जब इन तारीख़ी वाकेयात का जिक्र करते हैं तो वे उन्हें जालिमों के ख़ाने में डाल देते 
हैं। मगर कुरआन वाजेह तौर पर इन्हें खुद यहूद के ख़ाने में डाल रहा है। इससे मालूम हुआ 
कि सियासी हालात हमेशा अख़्ताकी हालात के ताबेअ होते हैं। कोई जालिम किसी के ऊपर 
जुल्म नहीं करता । बल्कि कम की दीनी और अख्लाकी हालत का बिगाड़ लोगों को यह मौका 
दे देता है कि वे उसे अपने जुल्म व दमन का निशाना बनाएं । 


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बिला शुबह यह कुरआन वह राह दिखाता है जो बिल्कुल सीधी है और वह बशारत (शुभ | 
सूचना) देता है ईमान वालों को जो अच्छे अमल करते हैं कि उनके लिए बड़ा अज्र 


(प्रतिफल) है। और यह कि जो लोग आखिरत (परलोक) को नहीं मानते उनके लिए 
हमने एक दर्दनाक अजाब तैयार कर रखा है। (9-0) 





कुरआन तमाम इंसानों को तौहीद की तरफ बुलाता है। यानी एक ख़ुदा को मान कर 
अपने आपको उसकी इताअत में दे देना। यह एक ऐसी बात है जिससे ज्यादा सहीह, जिससे 
ज्यादा माकूल और जिससे ज्यादा मुताबिके फितरत बात कोई और नहीं हो सकती । तैहीद 
बिला शुबह सबसे बड़ी हकीकत है और इसी के साथ सबसे बड़ी सदाकत (सच्चाई)। 

तौहीद की इस हैसियत का तकाजा है कि यही तमाम इंसानों के लिए जांच का मेयार 
हो। इसी की बुनियाद पर किसी को सही करार दिया जाए और किसी को ग़लत। कोई 
कामयाब ठहरे और कोई नाकाम। 

मौजूदा दुनिया में बजाहिर यह मेयार सामने नहीं आता और इसकी बुनियाद पर इंसानों 
की अमली तक्सीम नहीं की जाती। मगर यह सिर्फ खुदा के कानूने इम्तेहान की वजह से है। 
इंफिरादी तौर पर मौत और इज्तिमाई तौर पर कियामत इस मुद्दते इम्तेहान की आखिरी हद 
है। यह हद आते ही इंसान दो गिरोहों की सूरत में अलग-अलग कर दिए जाएंगे। तौहीद के 
के रास्ते को इख्तियार करने वाले अपने आपको जन्नत में पाएंगे और उसे इख्तियार न करने 
वाले अपने आपको जहन्नम में। 





सूरह-।7. बनी इस्राईल 
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और इंसान बुराई मांगता है जिस तरह उसे भलाई मांगना चाहिए और इंसान बड़ा 
जल्दबाज है। और हमने रात और दिन को दो निशानियां बनाया। फिर हमने रात की 
निशानी को मिटा दिया और दिन की निशानी को हमने रोशन कर दिया ताकि तुम 
अप्नेख क फ्ल (अनुग्रह) तलाश करो और ताकि तुम वर्षो की गिनती और हिसाब 
मालूम करो। और हमने हर चीज को ख़ूब खोलकर बयान किया है। (-2) 


पारा ।5 766 





रात और दिन का निजाम बताता है कि खुदा का तरीका यह है कि पहले तारीकी 
(अंधकार) हो और इसके बाद रोशनी आए। खुदाई नक्शे में दोनों यकसां तौर पर जरूरी हैं। 
जिस तरह रोशनी में फायदे हैं इसी तरह तारीकी में भी फायदे हैं। दुनिया में अगर रात और 
दिन का फर्क न हो तो आदमी अपने औकात की तक्सीम किस तरह करे। वह अपने काम 
और आराम का निजाम किस तरह बनाए। 

आदमी को ऐसा नहीं करना चाहिए कि वह “तारीकी' से घबराए और सिर्फ 'रोशनी' का 
तालिब बन जाए। क्योंकि खुदा की दुनिया में ऐसा होना मुमकिन नहीं। जो आदमी ऐसा 
चाहता हो उसे ख़ुदा की दुनिया छोड़कर अपने लिए दूसरी दुनिया तलाश करनी पड़ेगी। 

मगर अजीब बात है कि यही इंसान की सबसे बड़ी कमजोरी है। वह हमेशा यह चाहता 
है कि उसे तारीकी का मरहला पेश न आए और फौरन ही उसे रोशनी हासिल हो जाए। इसी 
कमजोरी का नतीजा वह चीज है जिसे उजलत (जल्दबाजी, उतावलापन) कहा जाता है। 
उजलत दरअस्ल ख़ुदावंदी मंसूबे पर राजी न होने का दूसरा नाम है। और ख़ुदावंदी मंसूबे पर 
राजी न होना ही तमाम इंसानी बर्बादियों का असल सबब है। 

ख़ुदा चाहता है कि इंसान दुनिया की फीरी लज्जतों पर सब्र करे ताकि वह आखिरत की 
तरफ अपने सफर को जारी रख सके। मगर इंसान अपनी उजलत की वजह से दुनिया की 
वक्ती लज्जतोंपर टूट पड़ता है। वह आगे की तरफ अपना सफर तय नहीं कर पाता । आदमी 
की उजलतपसंदी उसे आख़िरत की नेमतों से महरूम करने का सबसे बड़ा सबब है। 

यही दुनिया का मामला भी है। दुनिया में भी हकीकी कामयाबी सब्र से मिलती है न कि 
जत्दबाजे से। 

यहूद को उनके पैगम्बर यरमियाह ने नसीहत की कि तुम बाबिल के हुक्मरां के सियासी 

ग़लबे को फिलहाल तस्लीम कर लो और इब्तिदाई मरहले में अपनी कोशिशों को सिर्फ दावती 


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सूरह-7. बनी इस्राईल 767 पारा ॥5 
और तामीरी मैदान में लगाओ। इसके बाद वह वक्‍त भी आएगा जबकि अल्लाह तआला 
तुम्हारे लिए गलबा और इक्तेदार की राहें खोल दे। मगर यहूद की उजलतपसंदी इस पर राजी 

नहीं हुई। उन्होंने चाहा कि 'तारीकी' के मरहले से गुजरे बगैर 'रोशनी' के मरहले में दाखिल 

हो जाएं। उन्होंने फौरन शाह बाबिल के खिलाफ सियासी लड़ाई शुरू कर दी। चूंकि खुदा के 

निजाम में ऐसा होना मुमकिन नहीं था, उनके हिस्से में जिल्लत और रुस्वाई के सिवा और 

कुछ न आया। 


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और हमने हर इंसान की किस्मत उसके गले के साथ बांध दी है। और हम कियामत 
के दिन उसके लिए एक किताब निकालेंगे जिसे वह खुला हुआ पाएगा पढ़ अपनी 
किताब। आज अपना हिसाब लेने के लिए तू खुद ही काफी है। जो शख्स हिदायत 
की राह चलता है तो वह अपने ही लिए चलता है। और जो शख्स बेराही करता 
है वह भी अपने ही नुक्सान के लिए बेराह होता है। और कोई बोझ उठाने वाला 


दूसरे का बोझ न उठाएगा। और हम कभी सजा नहीं देते जब तक हम किसी रसूल 
को न भेजें। (3-5) 





कदीम जमाने में तवहहुमपरस्त (अंधविश्वास) लोग अक्सर चिड़ियों के उड़ने से या 
सितारों की गर्दिश से या तरह-तरह के फाल से अपनी किस्मत का हाल मालूम करते थे। 
मौजूदा जमाने मेंजो लोग इस किस्म के तवह्हुमात पर यकीन नहीं रखते वे भी अपनी किस्मत 
के मामले को किसी न किसी पुरअसरार (रहस्यमयी) सबब के साथ वाबस्ता करते हैं। वे 
समझते हैं कि कोई न कोई ख़ारजी आमिल (वाह्य कारक) है जो इस सिलसिले में असल 
प्रभावी हैसियत रखता है। 

फरमाया कि तुम्हारी किस्मत न चिड़ियों और सितारों के साथ वाबस्ता है और न किसी 
दूसरी ख़ारजी चीज से इसका तअल्लुक है। हर आदमी की किस्मत का मामला तमामतर 
उसके अपने अमल पर मुंहसिर है। हर आदमी जो कुछ सोचता या करता है वह उसके अपने 
वजूद के साथ नकश हो रहा है। आदमी उसे कियामत के दिन एक ऐसी डायरी की सूरत में 
लिखा हुआ पाएगा जिसमें हर छोटी और बड़ी चीज दर्ज हो। 

खुदा ने कीमों के दर्मियान रसूल खड़े किए और किताब उतारी। उसने ऐसा इसलिए 
किया ताकि लोगों को आने वाले सख्त दिन से पहले उसकी ख़बर हो जाए। अब यह हर 
आदमी के अपने फैसला करने की बात है कि जिंदगी के अगले मुस्तकिल मरहले में वह अपना 


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पारा ।5 768 


सूरह-।7. बनी इस्राईल 


क्या अंजाम देखना चाहता है। वह हिदायत के तरीके पर चलकर जन्नत में पहुंचना चाहता 
है या हिदायत के तरीके को छोड़कर जहन्नम में गिरने का सामान कर रहा है। 


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और जब हम किसी बस्ती को हलाक करना चाहते हैं तो उसके खुशऐश (सुखभोगी) 
लोगों को हुक्म देते हैं, फिर वे उसमें नाफरमानी करते हैं। तब उन पर बात साबित 
हो जाती है। फिर हम उस बस्ती को तबाह व बर्बाद कर देते हैं। और नूह के बाद 
हमने कितनी ही कीमें हलाक कर दीं। और तेरा रब काफी है अपने बंदों के गुनाहों 
को जानने के लिए और उन्हें देखने के लिए। (6-7) 


किसी कौम की इस्लाह या किसी कौम के बिगाड़ का मेयार उस कौम का 
सरबरआवुरदह (शीर्ष) तबका होता है। यही तबका सोचने समझने की सलाहियत का 
मालिक होता है। यही तबका अपने वसाइल (संसाधनों) के जरिए लोगों पर असरअंदाज 
होने की ताकत रखता है। यही तबका इस काबिल होता है कि वह किसी गिरोह के ऊपर 
कायद बनने की कीमत अदा कर सके। 

यही वजह है कि किसी कौम के सरबरआवुरदह तबके की इस्लाह पूरी कौम की इस्लाह 
है और किसी कौम के सरबरआवुरदह तबके का बिगाड़ पूरी कौम का बिगाड़। हजतर नूह के 
जमाने से लेकर अब तक की कौमों का जायजा लिया जाए तो हर एक की तारीख़ इस आम 
उसूल की सेहत की तस्दीक करेगी। 

इसी आम हुक्म में कौम के उन “बड़ों' का मामला भी शामिल है जो कौम को अपनी 
का (नेतृत्व) की शिकारगाह बनाते हैं और इस तरह उसकी गलत रहनुमाई करके उसकी 
हलाकत का सामान करते हैं। वे कौम को हकीकतपसंदी के बजाए जज्बातियत का दर्स देते 
हैं। उसे मआना के बजाए अल्फाज के तिलिस्म में गुम करते हैं। उसे संजीदगी के बजाए 
कल्पनाओं की फज में उड़ते हैं। वे उसे हकाइक का एतराफ करने के बजाए रुछर्ग्रालियों 
में जीना सिखाते हैं। खुलासा यह कि वे कौम को ख़ुदा के बजाए गैर खुदा की तरफ मुतवज्जह 
कर देते हैं। 

जब किसी कौम पर इस किस्म के रहनुमा छा जाएं तो यह इस बात की अलामत है कि 
खुदा के यहां से उस कौम की हलाकत का फैसला हो चुका है। इस किस्म का हर वाकया 
खुदा की इजाजत के तहत होता है। और किसी शख्स या कौम का कोई अमल खुदा से छुपा 
हुआ नहीं है। 


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सूरह-7. बनी इस्राईल 769 पारा ॥5 


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जो शख्स आजिला (जल्द हासिल होने वाली दुनिया) को चाहता हो, उसे हम उसमें से 

दे देते हैं, जितना भी हम जिसे देना चाहें। फिर हमने उसके लिए जहन्नम ठहरा दी है, 

वह उसमें दाखिल होगा बदहाल और रांदह (ठुकराया हुआ) होकर। और जिसने 


आख़िरत को चाहा और उसके लिए दौड़ की जो कि उसकी दौड़ है और वह मोमिन 
हो तो ऐसे लोगों की कोशिश मकबूल होगी। (8-9) 


मौजूदा दुनिया में आदमी दो रास्तों के दर्मियान है। एक का फायदा नकद मिलता है और 
दूसरे का फायदा उधार । जो शख्स पहले रास्ते पर चले उसने आजिला को पसंद किया । और 
जो शख्स दूसरे रास्ते को इख्तियार करे उसने आख़िरत को पसंद किया। 

एक तरफ आदमी के सामने मस्लेहतपरस्ती (स्वार्थता) का तरीका है जिसे इख्ियार 
करने से फैरी तौर पर इज्जत और दौलत मिलती है। दूसरी तरफ बेलाग हकपरस्ती का 
तरीका है जिसका क्रेडिट आदमी को मौत के बाद की जिंदगी में मिलेगा। किसी से शिकायत 
पैदा हो जाए तो एक सूरत यह है कि उसके बारे में अपने दिल के अंदर इंतिकाम की 
नफ्सियात पैदा कर ली जाए और उसके ख़िलाफ वह सब कुछ किया जाए जो अपने बस 
में है। इसके बरअक्स दूसरी सूरत यह है कि उसे माफ कर दिया जाए। और उसके लिए 
अच्छी दुआएं करते हुए सारे मामले को अल्लाह के हवाले कर दिया जाए। इसी तरह आदमी 
के पास जो माल है उसके ख़र्च की एक शक्ल यह है कि उसे अपने शौक की तक्मील 
और अपनी इज्जत को बढ़ाने की राहाँ में लगाया जाए। दूसरी शक्ल यह है कि उसे खुदा 
के दीन की मदों में ख़र्च किया जाए। 

इसी तरह तमाम मामलात में आदमी के सामने दो मुख़्तलिफ तरीके होते हैं। एक 
ख़ाहिशपरस्ती का तरीका और दूसरा खुदापरस्ती का तरीका। एक सामने की चीजों को 
अहमियत देना और दूसरा गैब की हकीकतों को अहमियत देना। एक मस्लेहतपरस्ती का 
अंदाज और दूसरा उसूलपरस्ती का अंदाज। एक बेसब्री के तहत कर गुजरना और दूसरा सब्र 
के साथ वह करना जो करना चाहिए। 

पहले तरीके में वक्ती फायदा है और इसके बाद हमेशा की महरूमी। दूसरे तरीके में 
वकती नुक्सान है और इसके बाद हमेशा की इज्जत और कामयावी। 


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सूरह-।7. बनी इस्राईल 


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हम हर एक को तेरे रब की बर्शिश में से पहुंचाते हैं, इन्हें भी और उन्हें भी। और 
तेरे रब की बझ्शिश किसी के ऊपर बंद नहीं। देखो हमने उनके एक को दूसरे पर किस 
तहत (अग्रसरता) दी है। और यकीनन आख़िरत और भी ज्यादा बड़ी है दर्जे 
के एतबार से औ फलत (श्रेष्ठता) के एतबार से। (20-2) 





दुनिया की कामयाबी हो या आख़िरत की कामयाबी, दोनों ही अल्लाह के फराहम किए 
हुए मवावेभ (अवसरों) और इंतिजामात को इस्तेमाल करने का दूसरा नाम है। जो शख्स 
दुनिया की कामयाबी हासिल करता है वह भी ख़ुदा के इंतिजामात से फायदा उठाकर ऐसा 
करता है। इसी तरह जो शख्स आख़िरत को अपना मकसूद बनाए उसके लिए भी ख़ुदा ने 
ऐसे इंतिजामात कर रखे हैं जो उसके आख़िरत के सफर को आसान बनाने वाले हैं। 

दुनिया में कोई आदमी आगे नजर आता है और कोई पीछे। किसी के पास ज्यादा है 
और किसी के पास कम। यह इस बात की अलामत है कि खुदा की दुनिया में मवाकेअ 
(अवसरों) की कोई हद नहीं। दुनिया में जो शख्स जितना ज्यादा अमल करता है वह उतना 
ज्यादा उसका फल पाता है। इसी तरह आख़िरत के लिए जो शख्स जितना ज्यादा अमल का 
सुबूत देगा वह उतना ही ज्यादा वहां इनाम पाएगा। मजीद यह कि आख़िरत में मिलने वाली 
चीज अबदी होगी जबकि दुनिया में मिलने वाली चीज सिर्फ वक्ती होती है। 


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बेकस होकर रह जाएगा। और तेरे रब ने फैसला कर दिया है कि तुम उसके सिवा किसी 
और की इबादत न करो और मां-बाप के साथ अच्छा सुलूक करो। अगर वे तेरे सामने 


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सूरह-।7. बनी इस्राईल प्रणव पारा ॥5 
बुढ़ापे को पहुंच जाएं, उनमें से एक या दोनों, तो उन्हें उफ न कहो और न उन्हें झिड़को, 
और उनसे एहतराम के साथ बात करो। और उनके सामने नर्मी से इज्ज (सदाशयता) 
के बाजू झुका दो। और कहो कि ऐ रब इन दोनों पर रहम फरमा जैसा कि इन्होंने मुझे 
बचपन में पाला। तुम्हारा रब ख़ूब जानता है कि तुम्हारे दिलों में क्या है। अगर तुम नेक 
रहोगे तो वह तोबा करने वालों को माफ कर देने वाला है। (22-25) 





ख़ुदा इंसान का सब कुछ है। वह उसका ख़ालिक भी है और मालिक भी और राजिक 
भी। मगर ख़ुदा गैब में है। वह अपने आपको मनवाने के लिए इंसान के सामने नहीं आता। 
इसका मतलब यह है कि एक आदमी जब खुदा की बड़ाई और उसके मुकाबले में अपने इज्ज 
(निर्बलता) का इकरार करता है तो वह महज अपने इरादे के तहत ऐसा करता है न कि किसी 
जाहिरी दबाव के तहत। 

इस एतबार से बूढ़े मां-बाप का मामला भी अपनी नौइयत के एतबार से ख़ुदा के मामले 
जैसा है। क्योंकि बूढ़े मां-बाप का अपनी औलाद के ऊपर कोई मादूदी जोर नहीं होता। 
औलाद जब अपने बूढ़े मां-बाप के साथ अच्छा सुलूक करती है तो वह अपने आजादाना 
जेहनी फैसले के तहत ऐसा करती है न कि मादुदी दबाव के तहत। 

मौजूदा दुनिया में आदमी का असल इम्तेहान यही है। यहां उसे हक और इंसाफ के रास्ते 
पर चलना है बगैर इसके कि उसे इसके लिए मजबूर किया गया हो। उसे ख़ुद अपने इरादे 
के तहत वह करना है जो वह उस वक्‍त करता जबकि खुदा उसके सामने अपनी तमाम 
ताकतों के साथ जाहिर हो जाए। 

यह इख्तियाराना अमल इंसान के लिए बड़ा सख्त इम्तेहान है। ताहम अल्लाह तआला 
ने अपनी रहमते ख़ास से उसे इंसान के लिए आसान कर दिया है। वह इंसान को तानाशाह 
हाकिम की तरह सख्ती से नहीं जांचता। आदमी अगर बुनियादी तौर पर खुदा का वफादार 
है तो उसकी छोटी-छोटी ख़ताओं को वह नजरअंदाज कर देता है। इंसान अगर गलती करके 
पलट आए तो वह उसे माफ कर देता है चाहे उसने बजाहिर कितना बड़ा जुर्म कर दिया हो। 


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और रिश्तेदार को उसका हक दो और मिस्कीन को और मुसाफिर को। और फुल 
खर्ची न करो। बेशक फुजूलख़र्ची करने वाले शैतान के भाई हैं, और शैतान अपने 
रब का बझ नाशुक्रा हे। और अगर तुम्हें अपने रब के फज्ल (अनुग्रह) के इतेजर 


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पारा ।5 772 


में जिसकी तुम्हें उम्मीद है, उनसे एराज करना 
बात कहो। (26-28) 


सूरह-।7. बनी इस्राईल 
(बचना) पड़े तो तुम उनसे नर्मी की 





हर आदमी जो कुछ अपनी महनत से कमाता है उसे वह अपने ऊपर ख़र्च करने का हक 
रखता है, ताहम शरीअत का हुक्म है कि वह फुजूलख़र्ची से बचे। वह अपने माल को अपनी 
वाकई जरूरतों में खर्च करे न कि फख़ और नुमाइश के लिए। 

दूसरी बात यह कि हर आदमी को चाहिए कि वह अपनी कमाई में दूसरे जरूरतमंदों का 
भी हक समझे । चाहे वे उसके रिश्तेदार हों या उसके पड़ौसी हों। मुसाफिर हों या और किसी 
किस्म के हाजतमंद हों। 

कभी-कभी ऐसा होता है कि आदमी मोहताज को देने के काबिल नहीं होता। ताहम उस 
वक्त के लिए भी हुक्म है कि अगर तुम माल देने के काबिल नहीं हो तो अपने जरूरतमंद 
भाई को नर्म बात दो और उससे माफी का कलिमा कहो। क्योंकि वह तुम्हें एक नेकी का 
मौका देने आया था मगर तुम उस मौके को अपने लिए इस्तेमाल न कर सके। 

अपने कमाए हुए माल को खुदा की मर्जी के मुताबिक ख़र्च करने में वही शख्स कामयाब 
हो सकता है जो अपने माल को बेफायदा मदों में जाया होने से बचाए । वर्ना उसके पास माल 
ही न होगा जिसे वह खुदा के रास्तों में दे। हकीकत यह है कि फुजूलखची शैतान का एक 
हरबा है जिसके जरिए से वह साहिबे माल को इस काबिल नहीं रखता कि वह दूसरे 


जरूरतमंदों के सिलसिले में अपनी जिम्मेदारियां को अदा कर सके। 
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और न तो अपना हाथ गर्दन से बांध लो और न उसे बिल्कुल खुला छोड़ दो कि तुम 
मलामतजप्र (निंदित) औः आजिज (असहाय) बनकर रह जाओ। बेशक तेरा रब जिसे 
चाहता है ज्यादा रिज्क देता है। और जिसके लिए चाहता है तंग कर देता है। बेशक 

वह अपने बंदों को जानने वाला, देखने वाला है। (29-30) 





इस्लाम हर मामले में एतदाल (मध्यमार्ग) को पसंद करता है। ज्यादती और कमी से 
बचकर जो दर्मियानी रास्ता है वही इस्लाम के नजदीक बेहतरीन रास्ता है। चुनांचे यही तालीम 
खर्च के मामले में भी दी गई है कि आदमी न तो ऐसा करे कि इतना बख़ील (कंजूस) हो कि 
वह लोगों की नजरों से गिर जाए। और न इतना ज्यादा ख़र्च करे कि इसके बाद बिल्कुल 
खाली हाथ होकर बैठा रहे। हदीस में इर्शाद हुआ है कि जिसने मियानारवी (मध्यमार्ग) 
इख्तियार की वह मोहताज नहीं हुआ। 

माल के सिलसिले में बेएतिदाली का जेहन अक्सर इसलिए पैदा होता है कि आदमी की 








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सूरह-।7. बनी इस्राईल 773 पारा ॥5 
नजर से यह हकीकत ओझल हो जाती है कि देने वाला खुदा है। वही अपने मसालेह (सोच) 
के तहत किसी को कम देता है और किसी को ज्यादा | हदीस कुदसी में आया है कि मेरे बंदों 

में कोई ऐसा है जिसके लिए सिर्फ मोहताजी मुनासिब है। अगर मैं उसे गनी कर दूं तो उसके 
दीन में बिगाड़ आ जाए। और मेरे बंदों में कोई ऐसा है जिसके लिए सिर्फ अमीरी मुनासिब 
है। अगर में उसे फकीर बना दूं तो उसके दीन में बिगाड़ आ जाए 


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और अपनी औलाद को मुफ्लिसी के अदेशे से कत्त न करो, हम उन्हें भी सि देते 
हैं और तुम्हें भी। बेशक उन्हें कत्ल करना बड़ा गुनाह है। और जिना (व्यभिचार) के 
करीब न जाओ, वह बेहयाई है और बुरा रास्ता है। (३।-32) 





ख़ुदा ही ने तमाम जानदारों को पैदा किया है वही उनके रिज्क का इंतिजाम करता है। 
ऐसी हालत में किसी इंसान का किसी को रिज्क की तंगी का नाम लेकर हलाक करना एक 
ऐसा काम करना है जिसका उससे कोई तअल्लुक न था। जब रिक का इंतिजाम खुदा की 
तरफ से हो रहा है तो किसी को क्या हक है कि वह किसी जान को इस अदेशे से हलाक 
करे कि वह खाएगी क्या। 

हम उन्हें भी र्कि दी और तुहेंभी' इन अल्फज के जरिए इंसान के जेहन को इस 
मामले में तरट्ीब के बजाए तामीर की तरफ मोड़ा गया है। गौर कीजिए कि जो इंसान मौजूद 
हैं वे अपना रिज्क किस तरह हासिल कर रहे हैं। वे उसे खुदा के फराहमकरदा पेदावारी 
वसाइल (संसाधनों) पर अमल करके हासिल कर रहे हैं। यही तरीका आइंदा आने वाली नस्ल 
के लिए भी दुरुस्त है। तुम्हें चाहिए कि मजीद (अतिरिक्त) पैदा होने वालों को ख़ुदा के 
पैदावारी वसाइल में मजीद अमल करने पर लगाओ न कि ख़ुद पैदा होने वालों की आमद को 
रोकने लगो। 

ख़ुदा इंसानों के दर्मियान जिन आमाल को मुकम्मल तौर पर ख़त्म करना चाहता है उनमें 
से एक जिना (व्यभिचार) है। इसीलिए फरमाया कि 'जिना के करीब न जाओ यानी जिना 
इतनी बड़ी बुराई और ऐसी बेहयाई है कि उसके मुकदूदमात (संबंधित चीजों) से भी तुम्हें 
परहेज करना चाहिए । यहां इस सिलसिले में सिर्फ उसूली हुक्म दिया गया है। इसके तफसीली 
अहकाम आगे सूरह नूर में बयान किए गए हैं। 


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और जिस जान को खुदा ने मोहतरम ठहराया है उसे कत्ल मत करो मगर हक पर। और 





सूरह-।7. बनी इस्राईल 


जो शख्स नाहक कत्ल किया जाए तो हमने उसके वारिस को इख्तियार दिया है। पस 
वह कत्ल में हद से न गुजरे, उसकी मदद की जाएगी। (33) 


पारा ।5 774 





हवके शरई के बगैर किसी को कत्ल करना सरासर हराम है। जो शख्स शरई जवाज 
(औचित्य) के बर कत्ल किया जाए वह मज्लुमाना कल्ल हुआ। ऐसी हालत में मलूल 
(मृतक) के औलिया को कातिल के ऊपर पूरा इख्तियार है। वे चाहें तो उससे किसास (समान 
बदला) लें। चाहें तो खूंबहा (आर्थिक मुआवजा) लेकर छोड़ दें। और चाहें तो सिरे से माफ कर 
दें। इस्लामी कानून के मुताबिक कल्ल के मामले में अस्ल मुद्दई मक्तूल के औलिया (वारिस) 
हैं न कि हुकूमत। हुकूमत का काम सिर्फ यह है कि वह मक्तूल के औलिया की मर्जी को 
नाफिज करने में उनकी मदद करे। 

कत्ल इतना भयानक जुर्म है कि हदीस में इर्शाद हुआ है कि सारी दुनिया का चला जाना 
अल्लाह के नजदीक इससे कमतर है कि एक मोमिन को नाहक कत्ल कर दिया जाए। इसके 
बावजूद मक्तूल मृतक के औलिया को यह हक नहीं कि वे कातिल से बदला लेते हुए उसके 
साथ ज्यादती करें। मसलन वे कातिल के अंग भंग कर दें या कातिल के बदले उसके किसी 
साथी को कत्ल कर दें, वरह । मवतूल के वारिस अगर बदला लेने में ज्यादती करें तो यहां 
हुकूमत उसी तरह उनकी प्रतिरोधी हो जाएगी जिस तरह वह उनके हके किसास के मामले 
में उनकी मददगार हुई थी। 

इससे इस्लामी शरीअत की यह रूह मालूम होती है कि कोई शख्स चाहे कितना ही ज्यादा 
मज्जूम हे, अगर वह जालिम से बदला लेना चाहता है तो वह सिर्फ जुम के बकद्र बदला ले 
सकता है। इससे ज्यादा कोई कारवाई करने की इजाजत उसे हरगिज हासिल नहीं 


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और तुम यतीम (अनाथ) के माल के पास न जाओ मगर जिस तरह कि बेहतर हो। यहां 
तक कि वह अपनी जवानी को पहुंच जाए। और अहद (वचन) को पूरा करो। बेशक 
अहद की पूछ होगी। और जब नाप कर दो तो पूरा नापो और ठीक तराजू से तौल कर 
दो। यह बेहतर तरीका है और इसका अंजाम भी अच्छा है। (34-35) 





नाबालिग यतीम के सरपरस्त उसके करीबी रिश्तेदार होते हैं। मगर यतीम का माल उन 
औलिया (सरक्षकों) के हाथ में उस वक्त तक के लिए बतौर अमानत है जब तक कि यतीम 
आकिल व बालिग न हो जाए। औलिया को चाहिए कि वे यतीम के माल को हाथ न लगाएं। 


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सूरह-7. बनी इस्राईल 775 पारा ॥5 
वेसिर्फउस व्ल उसमेतसर्स्फ (व्यय) कर सकते हैं जबकि खुद यतीम की खैरख़ाही और 
तरकी का तकज हो। और यतीम जैसे ही अपने नफ नुक्सान को समझने के बिल हे 
उसका माल पूरी तरह उसके हवाले कर दिया जाए। 

अहद (वचन, प्रतिज्ञा) को पूरा करना इंसानी किरदार की अहमतरीन सिफत है। जो 
आदमी एक अहद करे और फिर उसे पूरा न करे वह बिल्कुल बेकीमत इंसान है। बंदों के 
नजदीक भी और खुदा के नज्दीक भी। 

'अहद खुदा के नजदीक काबिले पुरसिश हैं ये अल्फाज बताते हैं कि जब एक आदमी 
किसी दूसरे आदमी से अहद करता है तो यह सिफ दो इंसानों का बाहमी मामला नहीं होता 
बल्कि इसमें खुदा भी तीसरे फीक (पक्ष) की हैसियत से शरीक होता है। आदमी को अहद 
तोडते हुए डरना चाहिए कि अहद का दूसरा फरीक सिर्फ एक कमजोर इंसान नहीं है बल्कि 
वह खुदा है जिसकी पकड़ से बचना किसी तरह मुमकिन नहीं। 

दुनिया में हर किस्म का कारोबार नाप तौल की बुनियाद पर कायम है। इस सिलसिले 
में हुक्म दिया गया कि नाप तौल बिल्कुल ठीक रखा जाए और जो चीज दी जाए पूरे नाप तौल 
के साथ दी जाए। 

यह तरीका बयकवव्त अपने अंदर दो पहलू रखता है। एक तरफ वह इंसानी अज्मत के 
मुताबिक है। नाप तौल में फर्क करना किरदार की पस्ती है। और नाप तौल में पूरा देना 
किरदार की बुलन्दी। इसका दूसरा अजीम फायदा यह है कि इससे कारोबार को फरोग हासिल 
होता है। क्योकि कारोबार की तरक्की की बुनियाद तमामतर एतमाद (विश्वास, भरोसा) पर 
है और नाप तोल सही देना वह चीज है जिससे किसी शख्स का कारोबारी एतमाद लोगों के 
दर्मियान कायम होता है। 


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और ऐसी चीज के पीछे न लगो जिसकी तुम्हें ख़बर नहीं। बेशक कान और आंख और 
दिल सबकी आदमी से पूछ होगी। और जमीन में अकड़ कर न चलो। तुम जमीन को 

फाड़ नहीं सकते और न तुम पहाड़ों की लम्बाई को पहुंच सकते हो। ये सारे बुरे काम 
तेरे रब के नजदीक नापसंदीदा हैं। (36-58) 


कतादा ने कहा है कि "मैंने देखा' मत कहो जबकि तुमने देखा न हो। 'मैंने सुना! मत 
कहो जबकि तुमने सुना न हो। “मैंने जाना! मत कहो जबकि तुमने जाना न हो। 

जिस आदमी को इस बात का डर हो कि ख़ुदा के यहां हर बात की पूछ होगी वह 
कभी बेतहकीक बात अपनी जबान से नहीं निकालेगा और न आंख बंद करके बेतहकीक 


पारा ॥5 776 सूरह-7. बनी इस्राईल 


बात की पैरवी करेगा। इंसान को चाहिए कि वह कान और आंख और दिमाग़ से वह 
काम ले जिसके लिए वे बनाए गए हैं और वही बात मुंह से निकाले या अमल में लाए 
जो पूरी तरह साबित हो चुकी हो। इस हुक्म में तमाम बेबुनियाद चीजें आ गईं। मसलन 
झूठी गवाही देना, गलत तोहमत लगाना, सुनी सुनाई बातों की बुनियाद पर किसी के दरपे 
हो जाना, महज तअस्सुब (विद्वेष) की बिना पर नाहक बात की हिमायत करना, ऐसी चीजों 
के पीछे पड़ना जिन्हें अपनी महदूदियत (असमर्थता) की बिना पर इंसान जान नहीं सकता। 
आंख, कान, दिल बजाहिर इंसान के कब्जे में हैं। मगर ये इंसान के पास बतौर अमानत 
हैं। इंसान पर लाजिम है कि वह इन चीजों को खुदा की मंशा के मुताबिक इस्तेमाल करे। 
वर्ना उनकी बाबत उससे सख्त बाजपुर्स होगी। 

इंसान एक ऐसी जमीन पर है जिसे वह फाड़ नहीं सकता, वह एक ऐसे माहौल में है जहां 
ऊंचे-ऊंचे पहाड़ उसकी हर बुलन्दी की नफी कर रहे हैं। यह ख़ुदा के मुकाबले में इंसान की 
हैसियत का एक तमसीली (प्रतीकात्मक) एलान है। इसका तकाजा है कि आदमी दुनिया में 
मुतकब्बिर (घमंडी) बनकर न रहे। वह इज्ज और तवाजोअ का तरीका इसख़्तियार करे न कि 
अकड़ने और सरकशी करने का। 


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ये वे बातें हैं जो तुम्हारे रब ने हिक्मत (तत्वदर्शिता) में से तुम्हारी तरफ “वही” की हैं। 
और अल्लाह के साथ कोई और माबूद न बनाना, वर्ना तुम जहन्नम में डाल दिए 
जाओगे, मलामतजदा (निंदित) और रांदह (ठुकराया हुआ) होकर। (39) 


ऊपर की आयतों में जो अहकाम दिए गए उन्हें यहां हिक्मत कहा गया है। हिक्मत का 
मतलब है ठोस हकीकत, दानाई (सूझबूझ) की बात। ये बातें जो यहां बताई गई हैं ये जिंदगी 
के मोहकम हकाइक हैं। इनकी बुनियाद पर दुरुस्त जिंदगी की तामीर होती है। और जो 
इंसानी मुआशिरा इनसे खाली हो उसके लिए ख़ुदा की दुनिया में हलाकत के सिवा और कोई 
चीज मुकदूदर नहीं। आज भी और आज के बाद की जिंदगी में भी। 

मज्कूरा बाला नसीहतों का बयान तौहीद से शुरू हुआ था। (आयत नम्बर 22) अब 
उनका खात्मा भी तौहीद पर किया गया है। (आयत नम्बर 39)। यह इस बात का इशारा 
है कि तमाम भलाइयों की बुनियाद यह है कि आदमी एक ख़ुदा को अपना ख़ुदा बनाए। 
वह उसी से डरे और उसी से मुहब्बत करे। खुदा से दुरुस्त तअल्लुक ही में जिंदगी की 
दुरुस्ती का राज छुपा हुआ है। अगर ख़ुदा से तअल्लुक दुरुस्त न हो तो कोई भी दूसरी 
चीज इंसानी जिंदगी के निजाम को दुरुस्त नहीं कर सकती । खुदरा इंसान का आगाज (आरंभ) 
है और वही उसका इख्तेताम (अंत) भी। 


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सूरह-7. बनी इस्राईल 777 पारा ॥5 
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क्या तुम्हारे रब ने तुम्हें बेटे चुनकर दिए और अपने लिए फरिश्तों में से बेटियां बना 
लीं। बेशक तुम बड़ी सख्त बात कहते हो। और हमने इस कुरआन में तरह-तरह से 
बयान किया है ताकि वे याददिहानी (अनुस्मरण) हासिल करें। लेकिन उनकी वेजारी 
बढ़ती ही जाती है। कहो कि अगर अल्लाह के साथ और भी माबूद (पूज्य) होते जैसा 
कि ये लोग कहते हैं तो वे अर्श वाले की तरफ जरूर रास्ता निकालते। अल्लाह पाक 

और बरतर है उससे जो ये लोग कहते हैं। सातां आसमान और जमीन और जो उनमें 

हैं सब उसकी पाकी बयान करते हैं। और कोई चीज ऐसी नहीं जो तारीफ के साथ 
उसकी पाकी बयान न करती हो। मगर तुम उनकी तस्बीह को नहीं समझते। बिला 
शुबह वह हिल्म (उदारता) वाला, बख़्शने वाला है। (40-44) 





हकीकत इतनी कामिल और मुकम्मल है कि जो भी ख़िलाफे वाक्या बात उसके साथ 
मंसूब की जाए वह फौरन बेजोड़ होकर रह जाती है। इसकी एक मिसाल खुदा के साथ शरीक 
ठहराने का मामला है। 
मुश्रिक लोग अपने मफरूजा शरीकों को खुदा की औलाद कहते हैं मगर यह बात खुद 
ही अपने दावे की तरदीद (खंडन) है। अगर इन शरीकों को स्त्रीलिंग करार देकर ख़ुदा की 
बेटियां कहा जाए तो फौरन यह एतराज वाकेअ होता है कि बेटियां खुद मुश्रिकीन के एतराफ 
कमाबिक कमज सिर्फ (G९९) से तअल्लुक रखती हैं। फिर खुदा ने कमजोर सिन्फ 
को अपना शरीक बनाना क्यों पसंद किया। कैसी अजीब बात होगी कि ख़ुदा इंसानों को 
उनकी महबूब औलाद की हैसियत से बेटा दे और ख़ुद अपने लिए बेटियों का इंतिख़ाब करे। 
इसके बरअक्स अगर इन शरीकों को बेटा फर्ज किया जाए जो इंसानी तजर्बात के 
मुताबिक कुब्बत व ताकत की अलामत है तब भी यह बात नाकाबिलेफहम है। वर्येकि 
इक्तेदार एक नाकबिले तवसीम चीज है। जब भी किसी निजम में एक से ज्यादा साहिब 
ताकत और साहिबे इक्तेदार हों तो उनके दर्मियान लाजिमन कशमकश शुरू हो जाती है। 


सूरह-।7. बनी इस्राईल 
उनमें से हर एक यह चाहता है कि उसे मुतलक इक्तेदार (सम्पूर्ण सत्ता) मिल जाए। अब अगर 
कायनात में एक से ज्यादा ताकतवर हस्तियां होतीं तो उनके दर्मियान जरूर इक्तेदार की जंग 
बरपा हो जाती और कायनात के सारे निजाम में अव्यवस्था व इंतिशार पैदा हो जाता। मगर 
चूंकि कायनात में कोई अव्यवस्था व इंतिशार नहीं । इससे साबित हुआ कि यहां दूसरी ऐसी 
हस्तियां भी मौजूद नहीं जो खुदा के साथ उसकी ताकत में हिस्सेदार हों। 

शरीकों को अगर बेटे कहा जाए तब भी वह सूरते वाकये से टकराता है और बेटियां कहा 
जाए तब भी। हकीकत यह है कि कायनात अपने पूरे वजूद के साथ ऐसे हर तसबुर को कुबूल 
करने से इंकार करती है जिसमें खुदा की खुदाई में किसी और को शरीक किया गया हो। 

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और जब तुम कुरआन पढ़ते हो तो हम तुम्हारे और उन लोगों के दर्मियान एक छुपा 
हुआ पर्दा हायल कर देते हैं जो आख़िरत को नहीं मानते। और हम उनके दिलों पर 
पर्दा रख देते हैं कि वे उसे न समझें और उनके कानों में गिरानी (बोझ) पेदा कर देते 
हैं और जब तुम कुरआन में तंहा अपने रब का जिक्र करते हो तो वे नफरत के साथ 
पीठ फेर लेते हैं। (45-46) 


पारा ।5 778 





यहां जिस चीज को छुपा हुआ पर्दा' कहा गया है वह दरअस्ल नपिसयाती (मनोवैज्ञानिक) 
पर्दा है। इससे मुराद वह सूरतेहाल है जबकि आदमी बतौर खुद अपने जेहन में किसी गैर 
सक्न (सच्चाई) को सदाकत का मकाम दे दे। ऐसे शख्स के सामने जब एक ऐसा हक 
आता है जिसके मुताबिक उसकी मफरूज (मान्य) सदाकतों की नफी हो रही हो तो ऐसी 
बेआमेज (विशुद्ध) दावत उसके लिए नाकबिलेफहम बन जाती है। अपनी मख्सूस नपिसियात 
की बिना पर उसकी समझ में नहीं आता कि ऐसी दावत भी सच्ची दावत हो सकती है जिसे 
मानने की सूरत में वह चीज बातिल (असत्य) करार पाए जिसे वह अब तक मुसल्लमा सदाकत 
(प्रमाणिक सच्चाई) समझे हुए था। वह नई दावत के दलाइल का तोड़ नहीं कर पाता। ताहम 
अपने मख़्मूस जेहन की बिना पर यह मानने के लिए भी तैयार नहीं होता कि यही वह मुतलक 
सदाकत है जिसे उसे दूसरी तमाम चीजों को छोड़कर मान लेना चाहिए। 

बेआमेज (विशुद्र) सदाकत का एलान हमेशा दूसरी मफरूज (मान्य) सकती नै 
(नकार) के हममअना होता है। इसलिए इसे सुनकर वे लोग बिफर उठते हैं जो इसके सिवा 
दूसरी चीजें या शख्मियतां को भी अज्मत व तकदूदुस का मकाम दिए हुए हों। उनके अंदर 
आख़िरत की जवाबदेही का यकीन न होना उन्हें गैर संजीदा बना देता है और गैर संजीदा 
जेहन के साथ कोई बात समझी नहीं जा सकती। 





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सूरह-।7. बनी इस्राईल 779 पारा ॥5 
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और हम जानते हैं कि जब वे तुम्हारी तरफ कान लगाते हैं तो वे किस लिए सुनते हैं और 
जबकि वे आपस में सरगोशियां करते हैं। ये जालिम कहते हैं कि तुम लोग तो बस एक 
सहाय (जादूग्रस्त) आदमी के पीछे चल रहे हो देखो तुम्हारे ऊपर वह कैसी-केसी 
मिसालें चसपां कर रहे हैं। ये लोग खोए गए, वे रास्ता नहीं पा सकते। (47-48) 








रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की दावत में दलाइल का जोर इतना ज्यादा था 
कि अरब के आम लोग इससे मरऊब होने लगे। यह देखकर वहां के सरदारों को ख़तरा 
महसूस हुआ कि अगर इन लोगों ने बड़ी तादाद में नए दीन को कुबूल कर लिया तो हमारी 
सरदारी ख़त्म हो जाएगी। उन्होंने लोगों को उससे फेरने के लिए एक तदबीर की। उन्होंने 
कहा कि इस शख्स के कलाम में तुम जो जोर देख रहे हो वह दरअस्ल साहिराना (जादुई) 
कलाम का जोर है। यह 'अदब' (साहित्य) का मामला है न कि हकीकतन सदाकत का 
मामला। इस तरह उन्होंने यह किया कि जिस कलाम की अज्मत में लोग सदाकत की झलक 
देख रहे थे उसे लोगों की नजर में 'कलम के जादू” के हममअना बना दिया। 

जो लोग किसी दावत को उसके जौहर की बुनियाद पर न देखें बल्कि इस एतबार से देखें 
कि वह उनकी हैसियत की तस्दीक (पुष्टि) करती है या तरदीद (रदूद), ऐसे लोग कभी 


सदाकत को पाने में कामयाब नहीं हो सकते। 
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और वे कहते हैं कि क्या जब हम हड्डी और रेजा हो जाएंगे तो क्या हम नए सिरे से 
उठाए जाएंगे। कहो कि तुम पत्थर या लोहा हो जाओ या और कोई चीज जो तुम्हारे 


ख्याल में इनसे भी ज्यादा मुश्किल हो। फिर वे कहेंगे कि वह कौन है जो हमें दुबारा 
जिंदा करेगा। तुम कहो कि वही जिसने तुम्हें पहली बार पैदा किया है। फिर वे तुम्हारे 




















सूरह-।7. बनी इस्राईल 


आगे अपना सर हिलाएंगे और कहेंगे कि यह कब होगा, कहो कि अजब नहीं कि उसका 
वक्त करीब आ पहुंचा हो, जिस दिन खुदा तुम्हें पुकारेगा तो तुम उसकी हम्द (प्रशंसा) 
करते हुए उसकी पुकार पर चले आओगे और तुम यह ख्याल करोगे कि तुम बहुत थोड़ी 
मुद्दत रहे। (49-52) 


पारा ।5 780 





इंसान का वजूदे अव्वल वाजेह तौर पर उसके वजूदे सानी को मुमकिन साबित करता है। 
जो शख्स इंसान की पहली पेदाइश को बतौर वाकया मानता हो, उसके पास कोई हकीकी 
दलील नहीं जिससे वह इंसान की दूसरी पैदाइश के इम्कान को न माने। 

फिर यह कि इंसान की दूसरी पैदाइश, कम से कम उन लोगों के लिए हरगिज हैरत नहीं 
जो इंसान को पत्थर और लोहा (दूसरे शब्दों में मादूदी चीज़ों का मज्मूआ) समझते हैं क्योंकि 
जिस्म की कोशिकाएं (८९५) के टूटने के साथ इसी मालूम दुनिया में यह वाकया हो रहा है 
कि आदमी का मादूदी (भौतिक) वजूद मुसलसल ख़त्म होता है और फिर दुबारा बनता है। 
हकीकत यह है कि हशर व नशर (परलोक) इसी वाकये को मौत के बाद मानना है जिसका 
मौत से पहले हम बार-बार तजर्वा कर रहे हैं। 

कियामत दरअस्ल उसी दिन का नाम है जबकि गैब का पर्दा फट जाए और ख़ुदा अपनी 
तमाम ताकतों के साथ बिल्कुल सामने आ जाए। जब ऐसा होगा तो मुंकिर भी वही करने पर 
मजबूर होगा जो आज सिर्फ सच्चा मोमिन कर पाता है। उस वक्त तमाम लोग ख़ुदा के 
कमालात का इकरार करते हुए उसकी तरफ दौड़ पड़ी। 


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और मेरे बंदों से कहो कि वही बात कहें जो बेहतर हो। शैतान उनके दर्मियान फसाद 
डालता है। बेशक शैतान इंसान का खुला हुआ दुश्मन है। (53) 





यह आयत दाओ (आस्वानकर्ता) और मदऊ (संबोधित व्यक्ति) के नाजुक रिश्ते के बारे में 
है। हुक्म दिया गया है कि मदऊ की तरफ से चाहे कितनी ही सख़्त बात कही जाए और कितना 
ही उत्तेजक मामला किया जाए, दाओ को हर हाल में कौले अहसन (उत्तम बात) का पाबंद रहना 
है। क्योंकि दाऔ अगर जवाबी जेहन के तहत कार्रवाई करे तो मदऊ के अंदर मजीद नफरत और 
जिद की नफ्सियात उभरेगी । और दा और मदऊ के दर्मियान ऐसी कशमकश पैदा होगी कि 
लोग दाऔ की बात को ठंडे जेहन के साथ सुनने के काबिल ही न रहें। 
दाओ और मदऊ के अंदर जिद और नफरत की फजा पैदा होना सरासर शैतान की 
मुवाफिकत मेंहै ताकि वह हक के पेगाम को लोगोंके लिए नाकाबिले कुबूल बना दे। इसलिए 
दाऔ अगर अपने किसी फेअल (कृत्य) से मदऊ के अंदर जिद और नफरत की नप्सियात 


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सूरह-7. बनी इस्राईल 78] पारा ॥5 


जगाने लगे तो गोया कि उसने शैतान का काम किया, उसने अपने दुश्मन का काम अपने हाथ 
से अंजाम दे दिया। 


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तुम्हारा रब तुम्हें ख़ूब जानता है, अगर वह चाहे तो तुम पर रहम करे या अगर वह चाहे 
तो तुम्हें अजाब दे। और हमने तुम्हें उनका जिम्मेदार बनाकर नहीं भेजा। और तुम्हारा 
रब ख़ूब जानता है उन्हें जो आसमानों और जमीन में हैं और हमने कुछ नबियों को कुछ 
प्रित (श्रेष्ठता) दी है और हमने दाऊद को जबूर दी। (54-55) 





एक शख्स सच्चे दीन की दावत दे और दूसरा शख्स उसे न माने तो दाऔ के अंदर 
झुंझलाहट पैदा हो जाती है कि यह शख्स कैसा है कि खुली हुई सदाकत को मानने के लिए 
तैयार नहीं। कभी बात और आगे बढ़ती है और वह एलान कर बैठता है कि यह शख्स 
जहन्नमी है। इस किस्म का कलाम दाओ के लिए किसी हाल में जाइज नहीं। 

एक है हक का पैगाम पहुंचाना। और एक है पैगाम के रद्देअमल के मुताबिक हर एक 
को उसका बदला देना। पहला काम दाऔ (आह्वानकर्ता) का है और दूसरा काम ख़ुदा का। 
दाऔ को कभी यह गलती नहीं करना चाहिए कि वह अपने दायदे से गुजर कर खुदा के दायरे 
में दाखिल हो जाए। 

इसी तरह कभी ऐसा होता है कि दाऔ और मदऊ के दर्मियान अपने-अपने पेशवाओं 
की फजीलत की बहस उठ खड़ी होती है। हर एक अपने पेशवा को दूसरे से आला और 
अफजल साबित करने में लग जाता है। इसका नतीजा यह होता है कि जो बहस उसूल के 
दायरे में रहनी चाहिए वह शख्सियत के दायरे में चली जाती है और तअस्सुबात को जगाकर 
कुबूले हक की राह में मजीद रुकावट खड़ी करने का सबब बनती है। इस सिलसिले में कहा 
गया कि यह ख़ुदा का मामला है कि वह किसको क्या दर्जा देता है। तुम्हें चाहिए कि इस 
किस्म की बहस से बचते हुए असल पैगाम को पहुंचाने में लगे रहो। 


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कहो कि उन्हें पुकारो जिन्हें तुमने खुदा के सिवा माबूद (पूज्य) समझ रखा है। वे न तुमसे 





पारा 5 782 सूरह-।7. बनी इस्राईल 


किसी मुसीबत को दूर करने का इख्तियार रखते हैं और न उसे बदल सकते हैं। जिन्हें ये 
लोग पुकारते हैं वे खुद अपने रब का कुर्ब (समीप्य) टूंढते हैं कि उनमें से कौन सबसे 
ज्यादा करीब हो जाए। और वे अपने रब की रहमत के उम्मीदवार हैं। और वे उसके 

अजाब से इते हैं। वाकई तुम्हारे रब का अजाब डरने ही की चीज है। (56-57) 





इंसान जिन हस्तियों को अल्लाह के सिवा अपना माबूद (पूज्य) बनाता है वे सब वही हैं 
जो अल्लाह की मख्लूक हैं। मसलन बुजुर्ग या फरिशते वरह । गौर से देखिए तो यह माबूदियत 
सरासर एकतरफा होती है। इन हस्तियों ने ख़ुद अपने खुदा होने का दावा नहीं किया है। ये 
सिर्फ दूसरे लोग हैं जो उन्हें माबूद मानकर उनकी तकदीस व ताजीम में लगे हुए हैं। 

अगर किसी को हाजिर से गायब तक देखने की नजर हासिल हो और वह पूरी सूरतेहाल 
पर नजर करे तो वह अजीब मजहकाछ़ेज मंजर देखेगा। वह देखेगा कि इंसान कुछ हस्तियों 
को बतौर ख़ुद माबूद का दर्जा देकर उनकी परस्तिश कर रहा है। और उनसे मुरादें मांग रहा 
है। जबकि ऐन उसी वक्त ख़ुद इन हस्तियों का यह हाल है कि वे अल्लाह की अज्मत के 
एहसास से सहमे हुए हैं और उसकी रहमत व कुरबत की तलाश में हमहतन सरगर्म हैं। 


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और कोई बस्ती ऐसी नहीं जिसे हम कियामत से पहले हलाक न करें या सख्त अजाब 
न दें। यह बात किताब में लिखी हुई है। (58) 





अफराद के लिए जिस तरह फना का कानून है इसी तरह कौमों और बस्तियों के लिए 
भी फना का कानून है। कोई बस्ती चाहे वह कितनी ही मजबूत और पुररीनक हो, बहरहाल 
वह एक दिन ख़त्म होकर रहेगी। चाहे उसकी सूरत यह हो कि वह अपने गुनाह और सरकशी 
की वजह से पहले हलाक कर दी जाए। या वह बाकी रहे यहां तक कि जब आखिरत कायम 
होने का वक्‍त आए तो जमीन की तमाम आबादियों के साथ उसे इकट्ठे मिटा दिया जाए 


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और हमें निशानियां भेजने से नहीं रोका मगर उस चीज ने कि अगलों ने उन्हें झुठला 


दिया। और हमने समूद को ऊरटनी दी उन्हें समझाने के लिए। फिर उन्होंने उस पर जुल्म 
किया। और निशानियां हम सिर्फ डराने के लिए भेजते हैं। (59) 


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सूरह-7. बनी इस्राईल 783 पारा ॥5 


पैग़म्बरों के साथ जो गैर मामूली वाकेयात पेश आते हैं वे दो किस्म के होते हैं। एक वे 
जो पैगम्बर और आपके साथियों की उमूमी नुसरत के लिए होते हैं। उन्हें ताईद (खुदाई मदद) 
कहा जा सकता है। दूसरे वे हैं जो मुश्रिकीन के मुतालबे के तौर पर जाहिर किए जाते हैं। 
इनका पारिभाषिक नाम मोजिजा है। पैगम्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) और आपके असहाब 
के साथ ताईदे इलाही के बेशुमार वाकेयात पेश आए। मगर जहां तक फरमाइशी निशानी 
(मोजिजा) का तअल्लुक है। आपके लिए उन्हें भेजना रोक दिया गया। 

इसकी वजह यह है कि हर चीज के कुछ तकाजे होते हैं। जो लोग गैर मामूली निशानी 
का मुतालबा करें, उनके ऊपर गैर मामूली जिम्मेदारियां भी आयद होती हैं। चुनांचे खुदा का 
यह कानून है कि जो लोग गैर मामूली निशानी (मोजिज़ा) देखने के बावजूद ईमान न लाएं 
उन्हें सख्त अजाब भेजकर नेस्तोनाबूद कर दिया जाए। अब चूंकि हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु 
अलैहि व सल्लम पर नुबुव्यत का सिलसिला ख़त्म होने वाला था इसलिए आपकी मुखातब 
कौम के साथ ऐसा नहीं किया जा सकता था। क्योंकि पूरी तबाही की सूरत में कौम मिट 
जाती। फिर पैगम्बर के बाद पैगम्बर की नुमाइंदगी के लिए दुनिया में कौन बाकी रहता। 

पैगम्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) के मुखातबीन के साथ यह अल्लाह तआला की ख़ास 
रहमत थी कि उनके मुतालबे के बावजूद उन्हें महसूस मोजिजात नहीं दिखाए गए। अगर ऐसा 
किया जाता तो अंदेशा था कि उनका भी वही सख्त अंजाम हो जो इससे पहले कौमे समूद 
का हुआ। 


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और जब हमने तुमसे कहा कि तुम्हारे रब ने लोगों को घेरे में ले लिया है। और वह 
रूया (अलौकिक दृश्य) जो हमने तुम्हें दिखाया वह सिर्फ लोगों की जांच के लिए था, 
और उस दरख्त को भी जिसकी कुरआन में मजम्मत (निंदा) की गई है। और हम उन्हे 

डराते हैं, लेकिन उनकी बढ़ी हुई सरकशी बढ़ती ही जा रही है। (60) 














लोग ख़ुदा के दाऔ से अक्सर अपने प्रस्तावित मोजिजे (दिव्य चमत्कार) का मुतालबा 
करते हैं। हालांकि अगर वे खुले जेहन के साथ देखें तो दाऔ की ख़ुसूसी नुसरत की शक्ल 
में वह मोजिजा उन्हें दिखाया जा चुका होता है जिसे वे उसकी सदाकत (सच्चाई) को जांचने 
के लिए देखना चाहते हैं। 

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के मुखातबीन आप से महसूस मोजिजात मांग 
रहे थे। फरमाया कि क्या ये मोजिजे तुम्हारी आंख खोलने के लिए काफी नहीं कि दावत के 
इब्तिदाई दौर में जब इसकी बजाहिर कोई ताकत नहीं थी, यह एलान किया गया कि ख़ुदा 





पारा 5 784 सूरह-।7. बनी इस्राईल 


तुम्हें घेरे में लिए हुए है। यह पेशीनगोई अरब कबीलों में इस्लाम की तोसीअ (प्रसार) से पूरी 
हो गई। फिर इसकी तक्मील बद्र की फतह और सुलह हुंदैबिया के बाद मक्का की फतह की 
सूरत में हुई । 

इसी तरह रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मेराज की सुबह को जब यह एलान 
किया कि आज रात मैं बैतुल हराम से बैतुल मक्सिद तक गया तो लोगों को यकीन नहीं 
आया। इसके बाद ऐसे अफराद बुलाए गए जो बैतुल मक्सिद को देखे हुए थे और उनके 
सामने आपने बैतुल मक्सिद की इमारत की पूरी तफसील बयान कर दी। 

मगर इन वाकेयात को लोगों ने मजाक में टाल दिया हालांकि वह आपकी सदाकत का 
मोजिजाती सुबूत था हकीकत यह है कि असल मसला महसूस मोजिजा दिखाने का नहीं है बल्कि 
दावत पर संजीदा गौर व फिक्र का है। अगर लोग दावत के बारे में संजीदा न हों तो हर चीज को 
मजाक की नज़कर दी। चाहे वह बात बजते खुद कितनी ही काबिले लिहाज क्योंन हो। 

कुआन मेंजब डराया गया कि जहन्नम मेंजम्मूम्त का खाना होगा (अस साफ्म्त 6१) 
तो रिवायत में आता है कि अबू जहल ने कहा कि हमारे लिए खजूर और मक्खन ले आओ। 
जब वह लाया गया तो वह दोनों को मिलाकर खाने लगा और कहा कि तुम लोग भी खाओ 
यही जन है। (तिफीर इभकसीर) 

इसी तरह कुरआन में शजरह मलऊना (बनी इस्राईल 60) का जिक्र है जो जहन्नमियों 
का खाना होगा। जब कुरआन में यह आयत उतरी तो कुरेश के एक सरदार ने कहा : अबू 
कब्शा के लड़के को देखो। वह हमसे ऐसी आग का वादा करता है जो पत्थर तक को जला 
देगी। फिर उसका गुमान है कि उसके अंदर एक दरख्त उगता है हालांकि मालूम है कि आग 
जलाने वाली चीज है। (तफ्सीर मज़हरी) 

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और जब हमने फरिश्ता से कहा कि आदम को सज्दा करो तो उन्होंने सज्दा किया मगर 
इब्लीस (शैतान) ने नहीं किया। उसने कहा क्या में ऐसे शख्स को सज्दा करू जिसे 
तूने मिट्टी से बनाया है। उसने कहा, जरा देख, यह शख्स जिसे तूने मुझ पर इज्जत 


दी है अगर तू मुझे कियामत के दिन तक मोहलत दे तो मैं थोड़े लोगों के सिवा इसकी 
तमाम औलाद को खा जाऊंगा। (6-62) 








फरिश्ते और इब्लीस का किस्सा बताता है कि मानने वाले कैसे होते हैं और न मानने 
वाले कैसे। मानने वाले लोग हक को हक के लिहाज से देखते हैं चुनांचे उसे समझने में उन्हें 
देर नहीं लगती। वे फौरन उसे समझ कर उसे मान लेते हैं। जैसा कि आदम की पैदाइश के 


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सूरह-7. बनी इस्राईल 785 पारा ॥5 


वक्त परिशतिनेकिया। 

दूसरे लोग वे हैं जो हक को अपनी जात की निस्बत से देखते हैं। शैतान ने यही किया। 
उसने हक को अपनी जात की निस्बत से देखा। चूँकि आदम को सज्दे का हुक्म आदम को 
बजाहिर बड़ा बना रहा था और उसे छोटा, उसने ऐसे हक को मानने से इंकार कर दिया जिसे 
मानने के बाद उसकी अपनी जात छोटी हो जाए। 

शैतान ने ख़ुदा को जो चैलेन्ज दिया था उसे सामने रखकर देखिए तो हर वह शख्स 
शैतान का शिकार नजर आएगा जो हक को इसलिए नजरअंदाज कर दे कि उसे मानने की 
सूरत में उसकी अपनी जात दूसरे के मुकाबले में छोटी हो जाती है। 


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ख़ुदा ने कहा कि जा उनमें से जो भी तेरा साथी बना तो जहन्नम तुम सबका पूरा-पूरा 
बदला है। और उनमें से जिस पर तेरा बस चले, तू अपनी आवाज से उनका कदम उखाड़ 

दे और उन पर अपने सवार और प्यादे (पैदल सेना) चढ़ा ला और उनके माल और 
औलाद में उनका साझी बन जा और उनसे वादा कर। और शैतान का वादा एक धोखे 
के सिवा और कुछ नहीं। बेशक जो मेरे बंदे हैं उन पर तेरा जोर नहीं चलेगा और तेरा 
ख कारसामे (कार्य-सिधि) के लिए काफी है। (63-65) 


इंसानों में से जो शख्स शैतान की राह चलेगा” ये अल्फाज बताते हैं कि मौजूदा दुनिया 
में इंसान को आजादी हासिल है कि वह चाहे शैतान के रास्ते पर चले या खुदा के बताए हुए 
रास्ते पर। इसी आजादी के इस्तेमाल में इंसान का अस्ल इम्तेहान है। यहीं कामयाब होकर 
या तो वह ख़ुदा का इनाम पाता है या नाकाम होकर शैतान के अंजाम का मुस्तहिक बन जाता 
है। 

शैतान को इस दुनिया में आजादी हासिल है कि वह इंसान को अपना साथी बनाए। वह 
उसके ऊपर अपनी सारी कोशिश इस्तेमाल करे। वह उसके अंदर घुसकर उसके माल व 
औलाद में शामिल हो जाए। मगर शैतान को किसी भी दर्जे में इंसान के ऊपर कोई इख्तियार 
नहीं दिया गया है। शैतान के बस में सिर्फ यह है कि वह आवाज और अल्फाज के जरिए 
लेगको बहकाए। वह बेहकीक्त चीजेको रझनुमा बनाकर उन्ह अजम हकीकत के रूप 
में पेश करे। 

आयत में 'लइ-स ल-क अलैहिम सुलतान०' के अल्फाज बताते हैं कि शैतान इम्कानी 


सूरह-।7. बनी इस्राईल 


तौर पर इंसान के मुकाबले में ज्यादा ताकतवर है। फिर एक ऐसी दुनिया जहां शैतान अपने 

तमाम “सवार और प्यादे' के जरिए इंसान के ऊपर हमलाआवर हो वहां उससे बचने का रास्ता 
क्या है। इसका रास्ता सिर्फ यह है कि इंसान खुदा को हकीकी मञनों में अपना कारसाज 

बनाए । जो शख्स ऐसा करेगा खुदा उसे इस तरह अपनी हिफाजत में ले लेगा कि शैतान उसके 
मुकाबले में अपनी तमाम ताकतों के बावजूद आजिज होकर रह जाए 


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तुम्हारा रब वह है जो तुम्हारे लिए समुद्र में कश्ती चलाता है ताकि तुम उसका फज्ल 
(अनुग्रह) तलाश करो। बेशक वह तुम्हारे ऊपर महरबान है। और जब समुद्र में तुम 
पर कोई आफत आती है तो तुम उन माबूदों (पूज्यो) को भूल जाते हो जिन्हें तुम अल्लाह 
के सिवा पुकारते थे। फिर जब वह तुम्हें ख़ुश्की की तरफ बचा लाता है तो तुम दुबारा 
फिर जाते हो, और इंसान बड़ा ही नाशुक्रा है। (66-67) 


पारा ।5 786 





ख़ुदा ने मौजूदा दुनिया को ख़ास कवानीन (नियमों) का पाबंद बना रखा है, इस बिना 
पर इंसान के लिए यह मुमकिन होता है कि वह समुद्र में अपना जहाज चलाए और हवा में 
अपनी सवारियां दौड़ाए । यह सब इसलिए था कि इंसान अपने हक में अपने खुदा की रहमतों 
को पहचाने और उसका शुक्रगुजार बने। मगर इंसान का हाल यह है कि वह जो कुछ होते 
हुए देखता है वह समझता है कि उसे बस ऐसा ही होना है। वह एक इरादी (नियोजित) क्र 
को अपने आप होने वाला वाक्या फर्ज कर लेता है। यही वजह है कि इन वाकेयात को 
देखकर उसके अंदर कोई खुदाई एहसास नहीं जागता। 
खुदा की मअरफत इतनी हकीकी है कि वह इंसान की फितरत के अंदर आखरी गहराई 
तक पेवस्त है। इसका एक मुजाहिरा उस वकत होता है जबकि उस पर कोई आफत आ पड़े 
जिसके मुकाबले में वह अपने आपको बेबस महसूस करे। मसलन अथाह समुद्र में तूफान का 
आना और जहाज का उसके अंदर फंस जाना। इस तरह के लम्हात में इंसान के ऊपर से 
उसके तमाम मस्नूई पर्दे हट जाते हैं वह एक ख़ुदा का पहचान कर उसे पुकारने लगता है। 
यह वक्ती तजर्बा इंसान को इसलिए कराया जाता है ताकि वह अपनी पूरी जिंदगी को 
उस पर ढाल ले। वह वक्ती एतराफ को अपना मुस्तकिल ईमान बना ले। मगर इंसान का यह 
हाल है कि समुद्र के तूफान में वह जिस हकीकत को याद करता है, खुश्की के माहौल में 
पहुंचते ही वह उसे भूल जाता है। 
ख़ुदा की खुदाई को मानने का नाम तौहीद (एकेश्‍्वरवाद) है और ख़ुदा की ख़ुदाई को 
न मानने का नाम शिर्क (बहुदेववादी) । इस एतबार से तैहीद की असल हकीकत एतराफ 





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सूरह-7. बनी इस्राईल 787 पारा ॥5 
(स्वीकार) है और शिर्क की असल हकीकत अदम एतराफ (अस्वीकार) । इंसान से उसके खुदा 

को अस्लन जो चीज मत्लूब है वह यही एतराफ है। मगर इंसान इतना जालिम है कि वह 

एतराफ के बकद्र भी ख़ुदा का हक देने के लिए तैयार नहीं होता। 


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क्या तुम इससे बेडर हो गए कि खुदा तुम्हें खुश्की की तरफ लाकर जमीन में धंसा दे 

या तुम पर पत्थर बरसाने वाली आंधी भेज दे, फिर तुम किसी को अपना कारसाज न 
पाओ। या तुम इससे बेडर हो गए कि वह तुम्हें दुबारा समुद्र में ले जाए फिर तुम पर 


हवा का सख्त तूफान भेज दे और तुम्हें तुम्हारे इंकार के सबब से गार्क कर दे। फिर 
तुम इस पर कोई हमारा पीछा करने वाला न पाओ। (68-69) 


खुदा इंसान को उसकी सरकशी के बावजूद फौरन नहीं पकड़ता। बल्कि उस पर वक्ती 
आफत भेजकर उसे खबरदार करता है। मगर इंसान का हाल यह है कि जब आफत आती 
है तो वक्ती तौर पर उसके अंदर एहसास जागता है मगर आफत के रुख्सत होते ही उसका 
एहसास भी रुख़सत हो जाता है। हालांकि बाद को भी वह उतना ही खुदा के कब्जे में होता 
है जितना कि वह पहले था। 

समुद्र के सफर से अगर एक बार वह सलामती के साथ वापस आ गया है तो यह भी 
मुमकिन है कि उसे दुबारा समुद्र का सफर पेश आए और वह दुबारा उसी आफत में घिर जाए 
जिसमें वह पहले घिरा था। मजीद यह कि ख़ुश्की के ख़तरात समुद्र के ख़तरात से कम नहीं 
हैं। समुद्र में जो चीज तूफान है खुश्की पर वही चीज जलजला बन जाती है। फिर वह कौन 
सा मकाम है जहां आदमी कोई ऐसी चीज पा ले जो खुदा के मुकाबले में उसकी तरफ से रोक 
बन सके। 


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और हमने आदम की औलाद को इज्जत दी और हमने उन्हें ख़ुश्की और तरी में सवार 
किया और उन्हें पाकीजा (पवित्र) चीजे का स्कि दिया और हमने उन्हं अपनी बहुत 
सी मर्त पर फैक्ियत (श्रेठता) दी। (70) 


दुनिया की तमाम मख्नूकात में इंसान को खुसूसी फजीलत 





(श्रेष्ठता) हासिल है। चांद 


पारा ।5 788 


सूरह-।7. बनी इस्राईल 


और सितारे बेशुऊर मख्लूक हैं जबकि इंसान शुऊर और इरादे का मालिक है। दरख़्त पर दूसरे 
जिस तरह चाहते हैं तसरुफ करते हैं मगर इंसान खुद दूसरी चीजों के ऊपर तसरुफ करता 
है। जानवर सिर्फ अपने आजा (अंगे) के जरिए अमल करते हैं मगर इंसान औजार और 
मशीन बनाकर उनके जरिए अपना मकसद हासिल करता है। दरिया के लिए सिर्फ यह 
मुमकिन है कि वह ढलान के रुख़ पर बहे मगर इंसान बुलन्दियों पर चढ़ता है और बहाव के 
उलटे रुख़ पर सफर करने की ताकत रखता है। 

इंसान के लिए इस दुनिया में रिज्क का शाहाना इंतिजाम किया गया है। दरख्त के पत्ते 
सूरज की एनर्जी को केमिकल एनर्जी में तब्दील करते हैं ताकि इससे इंसान की गिजा तैयार 
हो। जानवर घास खाते हैं ताकि उसे इंसान के लिए दूध और गोश्त की शक्ल में लौटाएं। 
मक्खियां रात दिन सरगर्म रहती हैं ताकि वे दुनिया भर के फूलों का रस चूसकर इंसान के लिए 
शहद का जखीरा जमा करें, वगैरह वगैरह। 

इस इनाम का तकाजा था कि इंसान खुदा का शुक्रगुजार बने। मगर तमाम मर्नूकात 
में इंसान ही वह मख्लूक है जो सबसे कम ख़ुदा का शुक्र अदा करता है। 


390 SG 68 BPE 
GIBB GE Cos NESSES 
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जिस दिन हम हर गिरोह को उसके रहनुमा के साथ बुलाएंगे। पस जिसका आमालनामा 
(कर्म-पत्र) उसके दाएं हाथ में दिया जाएगा वे लोग अपना आमालनामा पढ़ेंगे और उनके 
साथ जरा भी नाइंसाफी न की जाएगी। और जो शख्स इस दुनिया में अंधा रहा वह 
आखिरत में भी अंधा रहेगा और बहुत दूर पड़ा होगा रास्ते से। (7-72) 








दुनिया में हर इंसानी गिरोह अपने रहनुमाओं के साथ होता है। चुनांचे आख़िरत में भी 
हर गिरोह अपने अपने रहनुमा के साथ बुलाया जाएगा। अच्छे लोग अपने रहनुमा के साथ 
और बुरे लोग अपने रहनुमा के साथ। 

इसके बाद हर एक को उसकी जिंदगी का आमालनामा दिया जाएगा। नेक लोगों का 
आमालनामा उनके दाएं हाथ में और बुरे लोगों का आमालनामा उनके बाएं हाथ में। यह गोया 
एक महसूस अलामत होगी कि पहला गिरोह खुदा का मकबूल गिरोह है और दूसरा गिरोह 
उसका नामकबूल गिरोह । 

आख़िरत में अच्छे और बुरे की जो तक्सीम होगी वह इस बुनियाद पर होगी कि कौन 
दुनिया में अंधा बनकर रहा और कौन बीना (दृष्टवान) बनकर । दुनिया में चूंकि ख़ुदा खुद 
बराहेरास्त इंसान से हमकलाम नहीं होता। इसलिए दुनिया की जिंदगी में ख़ुदा की बातों को 
कायनात की ख़ामोश निशानियाँ और दाञियाने हक के अल्फाज से जानना पड़ता है। जो 


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सूरह-7. बनी इस्राईल 789 पारा ॥5 
लोग इस बिलवास्ता (परोक्ष) कलाम से मअरफत हासिल करें वे खुदा की नजर में 'बीना' लोग 
हैं। और जो लोग बिलवास्ता कलाम की जबान न समझें और उस वक्त के मुंतजिर हों जब 
ख़ुदा जाहिर होकर खुद कलाम फरमाएगा वे खुदा की नजर में 'अंधे' लोग हैं। ऐसे लोगों का 
बराहेरास्त (प्रतयक्ष) कलाम को सुनना कुछ भी काम न आएगा। वे उस वक्त भी हकीकत से 
दूर रहेंगे जैसा कि आज उससे दूर पड़े हुए हैं। 
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और करीब था कि ये लोग फितने में डाल कर तुम्हें उससे हटा दें जो हमने तुम पर 
“वही? (प्रकाशना) की है ताकि तुम उसके सिवा हमारी तरफ ग़लत बात मंसूब करो 
और तब वे तुम्हें अपना दोस्त बना लेते। और अगर हमने तुम्हें जमाए न रखा होता 
तो करीब था कि तुम उनकी तरफ कुछ झुक पड़े। फिर हम तुम्हें जिंदगी और मोत 


दोनों का दोहरा (अजाब) चखाते। इसके बाद तुम हमारे मुकाबले में अपना कोई 
मददगार न पाते। (73-75) 











मक्का में रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की दावत (आह्वान) का अस्ल नुक्ता 
यह था कि ख़ुदा सिर्फ एक है और उसके सिवा जिन बुतों को तुम पूजते हो वे सब बातिल 
(झूठे) हैं। अहले मक्का अगरचे एक बड़े खुदा का इकरार करते थे मगर इसी के साथ वे दूसरे 
ख़ुदाओं को भी मानते थे। 

ये दूसरे खुदा कौन थे। ये उनके बुजुर्ग और अकाबिर थे। जिन्हें वे मुकद्दस समझते थे 
और उनकी मूर्तियां बनाकर उनके सामने झुकना शुरू कर दिया था। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु 
अलैहि व सल्लम की तौहीद की दावत से बुजुर्गों के इस अकीदे पर जद पड़ती थी। चुनांचे 
वे रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से इस मुसालेहत के लिए कहते थे कि हम आपके 
माबूद को मानेंगे, शर्त यह है कि आप हमारे माबूदों को बुरा कहना छोड़ दें। 

इस दुनिया में वह शख्स फौरन लोगों की नजर में मद्गूज (अप्रिय) हो जाता है जो ऐसी 
बात कहे जिसको जद लोगों के बड़ों पर पड़ती हो। इसके बरअक्स लोगों के दर्मियान महबूब 
बनने का सबसे आसान तरीका यह है कि ऐसी बात कहो जिसमें सब लोग अपने-अपने 
बुजुर्गों की तस्दीक पा रहे हों। मगर पैगम्बर का तरीका यह है कि सच्चाई का खुला एलान 
किया जाए। इसकी परवाह न की जाए कि किस बुजुर्ग पर इसकी जद पड़ती है और किस 
पर नहीं पड़ती । 

दावती अमल से अस्ल मकसूद हकीकत का कामिल एलान है। इसीलिए एलान के मामले 
मे किसी कमी या रिआयत की इजाजत नहीं है। पेगम्बर या गैर पैगम्बर, जो भी हक की दावत 








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सूरह-।7. बनी इस्राईल 


के लिए उठे उसे हकीकत का खुला एलान करना है, चाहे इसकी यह कीमत देनी पड़े कि दुनिया 
में उसका कोई दोस्त बाकी न रहे। 


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पारा ।5 790 


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और ये लोग इस सरजमीन से तुम्हारे कदम उखाड़ने लगे थे ताकि तुम्हें इससे निकाल 

दें। और अगर ऐसा होता तो तुम्हारे बाद ये भी बहुत कम ठहरने पाते। जैसा कि उन 
रसूलों के बारे में हमारा तरीका रहा है जिन्हें हमने तुमसे पहले भेजा था और तुम हमारे 
तरीके में तब्दीली न पाओगे। (76-77) 


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जब भी किसी गिरोह में सच्चे दीन की दावत उठती है तो सूरतेहाल यह होती है कि एक 
तरफ वे लोग होते हैं जो मजहब के नाम पर कायमशुदा गददियों के मालिक होते हैं। दूसरी 
तरफ हक का दाओ हेता है जो वेआमेज (विशुद्ध) दीन का नुमाइंदा होने की वजह से वक्त 
के माहौल में तंहा और बेजोर दिखाई देता है। यह फर्क लोगों को गलतफहमी में डाल देता 
है। वे हक के दाऔ को बिल्कुल बेकीमत समझ लेते हैं। यहां तक कि यह चाहते हैं कि उसे 
अपनी बस्ती से निकाल दें। 

ऐसे लोग भूल जाते हैं कि यह जमीन खुदा की जमीन है। यहां किसी ख़ुदा के बंदे के 
खिलाफ त़ीब (प्रतिरोध) का मंसूबा बनाना खुद अपने आपको खुदा की नजर में मुजरिम 
साबित करना है। ख़ुदा के दाओ को किसी बस्ती से निकालना ऐसा ही है जैसे किसी शहर 
से उस शख्स को निकाल दिया जाए जिसे वहां हुकूमते वक्त के नुमाइंदे की हैसियत हासिल 
हो। ऐसे शख्स को बस्ती में न रहने देने का नतीजा बिलआख़िर यह होता है कि बस्ती वाले 
ख़ुद वहां न रहने पाएं। 

आदमी दूसरे को निकालता है हालांकि वह ख़ुद अपने आपको निकाल रहा होता है। 
आदमी दूसरे को छोटा करना चाहता है हालांकि वह ख़ुद अपने आपको उस मालिके हकीकी 
की नजर में छोटा कर रहा होता है जिसे हकीकतन यह इख़्तियार है कि वह जिसे चाहे छोटा 
करे और जिसे चाहे बड़ा कर दे। 


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नमाज कायम करो सूरज ढलने के बाद से रात के अंधेरे तक। और ख़ास कर फत्र की 
क्लि (प्रभात-पाठ)। बेशक फत्र की किरात मशहूद (उपस्थित) होती है। (78) 





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सूरह-7. बनी इस्राईल 79I पारा ॥5 





आयत का लफ्जी तर्जुमा यह है : 'कायम करो नमाज को सूरज ढलने से रात के अंधेरे 
तक' इन अल्फाज से बजाहिर यह निकलता है कि दोपहर बाद से लेकर रात का अंधेरा छाने 
तक मुसलसल नमाज पढ़ी जाती रहे। इसमें शक नहीं कि खुदा की अज्मत और उसके 
एहसानात का तकाजा यही है कि बंदे हर वक्‍त उसकी इबादत करते रहें। मगर हदीस की 
तशरीह ने इस आम हुक्म को ख़ास कर दिया। हदीस ने इस मुश्किल हुक्म को इस तरह 
आसान कर दिया कि उसने करार दिया कि आम औकात में लोग सिर्फ जिक्र (याद) की हद 
तक ख़ुदा से अपना तअल्लुक वाबस्ता रखें और दोपहर से रात तक के औकात में चार बार 
(जुहर, अस्र, मग्रिब, इशा) उसकी इबादत कर लिया करें। 
इसी तरह आयत के दूसरे टुकड़े का लफ्जी तर्जुमा यह है : 'और कुरआन पढ़ना फ़ 
का' इसे भी अगर इसके जाहिरी मफहूम में लिया जाए तो इसका मतलब यह निकलेगा कि 
रोजाना सुबह के तमाम औकात में कुरआन पढ़ा जाता रहे। मगर यहां हदीस की तशरीह ने 
हमारे लिए आसानी पैदा कर दी। हदीस के मुताबिक इस हुक्म का मुतअय्यन (निश्चित) 
मतलब यह है कि सुबह के वक्‍त भी एक नमाज अदा की जाए और इस (पांचवीं) नमाज का 
नुमायां पहलू यह हो कि इसमें कुरआन की लम्बी तिलावत (पाठ) को जाए 


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और रात को तहज्जुद पढ़ो, यह नफ्ल है तुम्हारे लिए। उम्मीद है कि तुम्हारा रब तुम्हें 
मकमे महमूइ (प्रशंसित-स्थल) पर खड़ा करे। (79) 





तहज्जुद की नमाज की रूह अल्लाह को अपनी मख्सूस तंहाइयों में याद करना है। 
तहज्जुद के लफ्जी मअना रात की बेदारी के हैं। रात का वक्त तंहाई और सुकून का वक्‍त 
होता है। रात को जब आदमी एक नींद पूरी करके उठता है तो वह उसके तमाम औकात 
(समयों) में सबसे बेहतर वक्त होता है। इन लम्हात में आदमी जब ख़ुदा की तरफ मुतवज्जह 
होता है और नमाज की सूरत में हाथ बांधकर ख़ुदा के कलाम को पढ़ता है तो गोया वह 
अपनी अबदियत (बंदगी) की आखिरी तस्वीर बना रहा होता है। ख़ास तौर पर उस वक्त 
जबकि उसका दिल भी उसका साथ दे रहा हो और उसकी शख्सियत इस तरह पिघल उठी 
हो कि वह बेकरार होकर आंखों के रास्ते से बह पड़े। 

मकमे महमूद के लफी मना हैं तारीफ किया हुआ मकम । इस महमूदियत का एक 
दुनियावी पहलू है और एक इसका उख़रवी (परलोकवादी) पहलू। उख़रवी पहलू वह है जिसे 
मुफस्सिरीन शफाअते कुबरा कहते हैं। जैसा कि हदीस से मालूम होता है, कियामत के दिन 
तमाम अंबिया अपने मोमिनीन की शफाअत करेंगे। यह शफाअत गोया उनके मोमिन होने की 
तस्दीक होगी जिसके बाद उन लोगों को जन्नत में दाखिल किया जाएगा जिन्हें खुदा जन्नत 
में दाखिल करना चाहे। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की शफाअत सबसे बड़ी 








पारा ॥5 792 सूरह-।7. बनी इस्राईल 


होगी । क्योंकि अपने उम्मतियों की तादाद सबसे ज्यादा होने की वजह से आप सबसे बड़ी तादाद 
की शअत फमाएी। 
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की महमूदियत का दुनियावी पहलू यह है कि 
आपके साथ ऐसी तारीख़ जमा हो जाए कि आप तमाम अकवामे आलम (विश्व-समुदायों) की 
नजर में मुसल्लमा (सुस्थापित) तौर पर काबिले सताइश (प्रशंसनीय) और लायके एतराफ बन 
जाएं। ख़ुदा का यह मंसूबा आपके हक में मुकम्मल तौर पर पूरा हुआ। आज दुनिया में तमाम 
लोग आपका एतराफ करने पर मजबूर हैं। आपकी नुबुव्वत एक मुसल्लम नुबुव्वत बन चुकी 
है न कि निजाई (विवादित) नुबुव्वत जैसा कि वह आपके जहूर के इब्तिदाई सालों में थी। 
महमूदी नुबुव्वत, दुनियावी एतबार से मुसल्लमा (£5६७।।५१९०) नुबुव्वत का दूसरा नाम 
है। यानी ऐसी नुबुव्वत जिसके हक में तारीखी शहादतें इतनी ज्यादा कामिल तौर पर मौजूद 
हों कि आपकी शख्सियत और आपकी तालीमात के बारे में किसी के लिए शुबह की गुंजाइश 
न रहे। इंसान, ख़ुद अपने मुसल्लमा इलमी मेयार के मुताबिक आपकी हैसियत का एतराफ 
करने पर मजबूर हो जाए। इकरार व एतराफ की आखिरी सूरत तारीफ है इसलिए उसे 
'मकामे महमूद” कहा गया। 


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और कहो कि ऐ मेरे रब मुझे दाख़िल कर सच्चा दाख़िल करना और मुझे निकाल 
सच्चा निकालना। और मुझे अपने पास से मददगार कुत (शक्ति) अता कर और 
कह कि हक (सत्य) आया और बातिल (असत्य) मिट गया। बेशक बातिल मिटने ही 
वाला था। (80-87) 





पैग़म्बरे इस्लाम को अरब के सरदार “'मज्मूम” (निंदित) बना देना चाहते थे। मगर 
अल्लाह का फैसला था कि आपको 'महमूद' (प्रशंसित) के मकाम तक पहुंचाया जाए। इसके 
लिए अल्लाह का मंसूबा यह था कि मदीना में आपके लिए मुवाफिक (अनुकूल) हालात पैदा 
किए जाएं और मक्का से निकाल कर आपको मदीना ले जाया जाए। मदीना में इस्लाम का 
इक्तेदार (शासन) कायम हो। तब्लीगी कोशिश के जरिए मुसलमानां की तादाद ज्यादा से 
ज्यादा बढ़ाई जाए। यहां तक कि वे लोग मक्का फतह कर लें और बिलआखिर सारा अरब 
मुसख्र हो जाए। इस तरह तौहीद की पुश्त पर वह ताकत जमा हो जो मुसलसल अमल के 
जरिए सारी दुनिया से शिर्क का गलबा ख़त्म कर दे। 

यही वह ख़ुदाई मंसूबा था जिसे यहां दुआ की सूरत में पैग़म्बरे इस्लाम को तल्कीन किया 
गया। 





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सूरह-7. बनी इस्राईल 793 पारा ॥5 


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और हम कुरआन में से उतारते हैं जिसमें शिफा (निदान) और रहमत है ईमान वालों 
के लिए, और जालिमाँ के लिए इससे नुक्सान के सिवा और कुछ नहीं बढ़ता। (82) 








कुरआन ख़ालिस सच्चाई का एलान है। खालिस सच्चाई जब पेश की जाती है तो उन 
तमाम लोगों पर इसकी जद पड़ती है जो या तो सच्चाई से ख़ाली हों या मिलावटी सच्चाई लिए 
हुए हों। अब जो लोग हकीकतपसंद हैं उनके सामने जब ख़ालिस सच्चाई आती है तो वे 
सच्चाई को मेयार बनाते हैं न कि अपनी जात को। वे अपने आपको सच्चाई पर ढाल लेते 
हैं न यह कि ख़ुद सच्चाई को अपने ऊपर ढालने लगें। इस तरह उनकी संजीदगी और 
हकीकतपसंदी उनके कुरआन को उनके लिए रहमत बना देती है। 

दूसरे लोग वे हैं जिनके अंदर अपनी बड़ाई का एहसास छुपा हुआ होता है। उनके सामने 
जब बेआमेज (खुली) सच्चाई आती है तो अपनी मख़्मूस नफ्सियात की बिना पर उनका जेहन 
उलटे रुख़ पर चल पड़ता है। वे यह नहीं सोच पाते कि “अगर मैं सच्चाई को इख्तियार कर लूं तो 
मैं सच्चा बन जाऊंगा” इसके बजाए वे यह सोचने लगते हैं कि “अगर मैंने सच्चाई को माना तो 
मैं छोटा हो जाऊंगा ।' वे जाने वाली चीज की हिफाजत में रहने वाली चीज को खो देते हैं। वे 
अपनी बड़ाई को कायम रखने की ख़ातिर सच्चाई को छोटा करने पर राजी हो जाते हैं। 


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और आदमी पर जब हम इनाम करते हैं तो वह एराज (उपेक्षा) करता है और पीठ मोड़ 
लेता है। और जब उसे तकलीफ पहुंचती है तो वह नाउम्मीद हो जाता है। कहो कि 
हर एक अपने तरीके पर अमल कर रहा है। अब तुम्हारा रब ही बेहतर जानता है कि 
कौन ज्यादा ठीक रास्ते पर है। (83-84) 














हर इंसान पर ये हालात गुजरते हैं कि जब उसे राहत और फरावानी हासिल होती है तो 
वह जबरदस्त खुद एतमादी (आत्मविश्वास) का मुजाहिरा करता है। किसी बात को मानने के 
लिए वह इतना कड़ा बन जाता है जैसे कि वह ऐसा लोहा है जो झुकना नहीं जानता। मगर 
जब उसके असबाब छिन जाते हैं और उसे इज्ज (निर्बलता) का तजर्बा होता है तो अचानक 
वह बेहिम्मत हो जाता है। वह मायूसी से निढाल हो जाता है। 

मौजूदा दुनिया में हर आदमी अपने बारे में इस तजर्बे से गुजरता है। मगर कोई ऐसा नहीं 
जो इस तजर्बे में अपनी दरयाफ्त कर ले। वह यह सोचे कि दुनिया में जबकि उसे आजादी 


पारा ।5 794 


सूरह-।7. बनी इस्राईल 


हासिल है वह हक के मुकाबले में इतनी सरकशी दिखा रहा है। मगर उस वकत उसका क्या 
हाल होगा जबकि कियामत आएगी और उससे उसका सारा इख़्तियार छीन लेगी। आदमी 
कितना ज्यादा कमजोर है मगर वह कितना ज्यादा अपने को ताकतवर समझता है। 

शाकिला से मुराद जेहनी सांचा है। हर आदमी के हालात और रुझानात के तहत धीरे-धीरे 
उसका एक ख़ास जेहनी सांचा बन जाता है। वह उसी के जेरेअसर सोचता है और उसी के 
मुताबिक उसका नुक्तए नजर बनता है। मगर सही नुक्तए नजर (दृष्टिकोण) वह है जो इल्मे 
इलाही के मुताबिक सही हो और ग़लत वह है जो इल्मे इलाही के मुताबिक ग़लत हो। 

यही वह मकाम है जहां आदमी का इम्तेहान है। आदमी को यह करना है कि उसके 
शाकिला ने उसका जो जेहनी ख़ोल बना दिया है वह उस ख़ोल को तोड़े। ताकि वह चीजों 
को वैसा ही देख सके जैसी कि वे हैं। ब-अल्फाज दीगर वह चीजों को रब्बानी निगाह से देखने 
लगे। जो लोग अपने जेहनी खोल में गुम हों, वे भटके हुए लोग हैं। और जो लोग अपने जेहनी 
खोल से निकल कर खुदाई नुक्तए नजर को पा लें वही वे लोग हैं जिन्होंने हिदायत पाई। 


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और वे तुमसे रूह (आत्मा) के मुतअल्लिक पूछते हैं। कहो कि रूह मेरे रब के हुक्म से 
है। और तुम्हें बहुत थोड़ा इलम दिया गया है। (85) 





यहां रूह से मुराद “वही” इलाही है। अरब के जिन लोगों ने रसूलुल्लाल सल्लल्लाहु अलैहि 
व सल्लम से यह सवाल किया, वे “वही” व इल्हाम के मुंकिर न थे। इस सवाल का रुख़ उनके 
नजदीक रसूलुल्लाह की बेबरी की तरफ था न कि हकीकतन अपनी बेबरी की तरफ। 

यह वह जमाना था जबकि रसूलुल्लाह के गिर्द अज्मत की तारीख़ नहीं बनी थी। लोगों 
को आप महज एक आम इंसान नजर आते थे। चूंकि उन्हें यकीन नहीं था कि खुदा का 
फरिश्ता आपके पास ख़ुदा की “वही! (ईश्वरीय वाणी) लेकर आता है। इसलिए उन्होंने 
आपका मजाक उड़ने के लिए यह सवाल किया। 

ताहम इस सवाल के जवाब में कुरआन में एक अहम उसूली बात बता दी गई। वह यह 
कि इंसान को सिर्फ 'इल्मे कलील' (अल्पज्ञान) दिया गया है। वह 'इल्मे कसीर” (अधिक ज्ञान) 
का मालिक नहीं है। इसलिए हकीकतपसंदी का तकाजा यह है कि वह उन सवालात में न 
उलझे जिन्हें वह अपनी पैदाइशी कम इलमी की बिना पर जान नहीं सकता। 

कदीम जमाने में इंसान सिर्फ आंख के जरिए चीजें को देख सकता था। ताहम दृष्टि 
प्रयोगों ने बताया कि आंख सिर्फ एक हद तक काम करती है। इसलिए वह सम्पूर्ण अवलोकन 
के लिए काफी नहीं। मसलन एक चीज जो दूर से देखने में एक नजर आती हैं, करीब से 
जाकर देखा जाए तो मालूम होता है कि वह दो थीं। 





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सूरह-।7. बनी इस्राईल 795 पारा 75 
मौजूदा जमाने में आलाती मुतालआ (उपकरणीय अध्ययन) वजूद में आया तो इंसान ने 
समझा कि आलात (उपकरण) उसकी सीमितता का बदल हैं। आलाती मुतालआ के जरिए 
चीजों को उनकी आखिरी हद तक देखा जा सकता है। मगर बीसवीं सदी में पहुंच कर इस 
खुशख्याली का खात्मा हो गया। अब मालूम हुआ कि चीजें उससे ज्यादा पेचीदा और उससे 
ज्यादा पुरअसरार (रहस्यमयी) हैं कि आलात की मदद से उन्हें पूरी तरह देखा जा सके। 
ऐसी हालत में इज्माली इलम (अल्पज्ञान) पर संतुष्ट होना इंसान के लिए हकीकतपसंदी 
का तकज बन गया है न कि महज अर्कीदे का तकज । हमारी सलाहियतेमहदूद (सीमित) 
हैं और हमसे मावरा जो आलम है वह लामहदूद, फिर महदूद के लिए किस तरह मुमकिन है 
कि वह लामहदूद का इहाता कर सके। इंसान की महदूदियत का तकाजा है कि वह बिलवास्ता 
(परोक्ष) इलम पर कनाअत (संतोष) करे और बराहेरास्त इल्म में उलझना छोड़ दे। दूसरे शब्दों 
में तक से हासिलशुदा इलम को भी उसी तरह माकूल (४/20) मान ले जिस तरह वह मुशाहिदे 
(अवलोकन) से हासिलशुदा इलम को माकूल मानता है। 


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और अगर हम चाहें तो वह सब कुछ तुमसे छीन लें जो हमने 'वही” (प्रकाशना) के जरिए 
तुम्हें दिया है, फिर तुम इसके लिए हमारे मुकाबले में कोई हिमायती न पाओ, मगर यह 

सिर्फ तुम्हारे रब की रहमत है, बेशक तुम्हारे ऊपर उसका बड़ा फज्ल है। कहो कि अगर 


तमाम इंसान और जिन्नात जमा हो जाएं कि ऐसा कुरआन बना लाएं तब भी वे इसके 
जैसा न ला सकेंगे। अगरचे वे एक दूसरे के मददगार बन जाएं। (86-88) 








कुरआन रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर ख़ास-ख़ास औकात (समयों) में 
उतरता था। इन मख्मूस औकात के अलावा आप खुद भी इस पर कादिर न थे कि कुरआन 
जैसा कलाम बना सकें। दूसरे वक्‍्तों में आपकी जबान से जो कलाम निकलता था वह हमेशा 
कुरआन के कलाम से मुख़्तलिफ होता था। जब कभी लम्बी मुद्दत के लिए 'वही' रुकती तो 
आप बेहद परेशान हो जाते। मगर आपके लिए यह मुमकिन न हो सका कि ख़ुद या किसी 
की मदद से कुरआन जैसा कलाम बना लें। यह एक हकीकत है कि कुरआन की जबान और 
आपकी अपनी जबान मेंकेहद नुमायां फर्क होता था । यह फर्क आज भी हर अखीदां कुआन 
और हदीस की जबान का तकाबुल (तुलना) करके देख सकता है। 

यह वाक्या इस बात का एक वाजेह सुबूत है कि कुरआन मुहम्मद का कलाम नहीं। वह 


पारा ।5 796 


सूरह-।7. बनी इस्राईल 


मुहम्मद के सिवा एक और बरतर जेहन से निकला हुआ कलाम है। 

जो लोग कुरआन को इंसानी कलाम कहते थे उनसे कहा गया कि अगर तुम्हारा ख्याल सही 
है तो बहैसियत इंसान के तुम्हें भी इसकी कुदरत होनी चाहिए। तुम तंहा या दूसरे इंसानों को 
लेकर कुरआन जैसा कलाम बना कर लाओ। मगर उस वक्त के लोगों में से किसी के लिए 
मुमकिन न हो सका कि वह इस चैलेन्ज का जवाब दे। बाद के जमाने में भी कोई अदीब या 
आलिम कुरआन जैसे कलाम का नमूना पेश न कर सका। वाकेयात बताते हैं कि बहुत से लोगों 
ने कोशिश की मगर वे सरासर नाकाम रहे। वे कुरआन जैसी एक सूरह भी न बना सके। 


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और हमने लोगों के लिए इस कुरआन में हर किस्म का मज्मून तरह-तरह से बयान 
किया है, फिर भी अक्सर लोग इंकार ही पर जमे रहे और वे कहते हैं कि हम 
हरगिज तुम पर ईमान न लाएंगे जब तक तुम हमारे लिए जमीन से कोई चशमा 
(स्रोत) जारी न कर दो या तुम्हारे पास खजूरों और अंगूरों का कोई बाग़ हो जाए, 
फिर तुम उस बाग़ के बीच में बहुत सी नहरें जारी कर दो। या जैसा कि तुम 
कहते हो, हमारे ऊपर आसमान से टुकड़े गिरा दो या अल्लाह और फरिश्तों को 
लाकर हमारे सामने खड़ा कर दो या तुम्हारे पास सोने का कोई घर हो जाए या 
तुम आसमान पर चढ़ जाओ और हम तुम्हारे चढ़ने को भी न मानेंगे जब तक तुम 


वहां से हम पर कोई किताब न उतार दो जिसे हम पढ़ें। कहो कि मेरा रब पाक 
है, में तो सिर्फ एक बशर (इंसान) हूं, अल्लाह का रसूल। (89-93) 








रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने हक का पैग़ाम पेश किया तो आपके 
मुआसिरीन (समकालीन) ने कहा कि हम तुम्हें उस वक्त मानेंगे जबकि तुम ख़ारिके आदत 
(दिव्य) करिश्मे दिखाओ। मगर इस किस्म के मुतालबात खुदा के मंसूबए तख़्तीक के खिलाफ 
हैं। इंसान को खुदा ने बाशुऊर वजूद के तौर पर पैदा किया है। यह सारी कायनात में एक 
इंतिहाई नादिर अतिय्या (अद्वितीय देन) है जो इसलिए दिया गया है कि इंसान जाती शुऊर 


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सूरह-।7. बनी इस्राईल 797 पारा ॥5 
के जरिए हक को पहचाने न कि मस्हूरकुन (विस्मयकारी) करिश्मों के जरिए। 

हकीकत यह है कि मौजूदा दुनिया में इंसान का इम्तेहान 'दलील' की सतह पर हो रहा 
है। यहां हर आदमी को दलील की जबान में हक को पहचानना और उसे इख्तियार करना है। 
जो लोग दलील की सतह पर हक को न पहचानें वही वे लोग हैं जो बिलआखिर नाकाम और 
नामुराद रहेंगे । 


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और जब उनके पास हिदायत आ गई तो उन्हें ईमान लाने से इसके सिवा और कोई 
चीज रुकावट नहीं बनी कि उन्होंने कहा कि क्या अल्लाह ने बशर (इंसान) को रसूल 
बनाकर भेजा है। कहो कि अगर जमीन में फरिश्ते होते कि उसमें चलते फिरते तो 
अलबत्ता हम उन पर आसमान से फरिश्ते को रसूल बनाकर भेजते। कहो कि अल्लाह 
मेरे और तुम्हारे दर्मियान गवाही के लिए काफी है। बेशक वह अपने बंदों को जानने 
वाला, देखने वाला है। (94-96) 





इस तरह की आयतों को आज जब आदमी पढ़ता है तो उसे तअज्जुब होता है कि वे 
कैसे हठधर्म लोग थे जिन्होंने पैगम्बरे आजम (मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इंकार 
किया। इस तअज्जुब की वजह दरअस्ल यह है कि आज का एक आदमी मुंकिरीन का 
तकाबुल (तुलना) भैगम्बरे आजम” से करता है। जबकि दौरे अव्वल के मुंकिरीन के सामने 
जो शख्स था वह एक ऐसा शख्स था जो अभी तक सिर्फ “मुहम्मद बिन अब्ुल्लाह' था। वह 
सारी तारीख़ उस वक्‍त मुस्तकबिल (भविष्य) के पर्दे में छुपी हुई थी जिसके बाद दुनिया ने 
आपको पैग़म्बरे आजम की हैसियत से तस्लीम किया। 

पैगम्बर अपने जमाने के लोगों को सिर्फ एक 'बशर' नजर आता है। बाद को जब 
तारीख़ी तस्दीकात जमा हो जाती हैं तो लोगों को नजर आता है कि यह वाकई पेगम्बर था। 
यही वजह है कि हर पैगम्बर के साथ यह वाकया पेश आया कि उसके समकालीन मुखातबीन 
ने उसका इंकार किया और बाद के लोग उसका एतराफ करने पर मजबूर हुए। 

मौजूदा दुनिया में आदमी हालते इम्तेहान में है। इसलिए यह मुमकिन नहीं कि फरिश्तों 
के जरिए उसे हक से बाखबर किया जाए। फरिश्ता के जरिए हक से बाखबर करने का 
मतलब हकीकत को आखरी हद तक बेनकाब कर देना है। जब हकीकत को आखरी हद 
तक बेनकाब कर दिया जाए तो इसके बाद आदमी का इम्तेहान किस चीज में होगा। 





पारा ।5 798 


सूरह-।7. बनी इस्राईल 
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अल्लाह जिसे राह दिखाए वही राह पाने वाला है। और जिसे वह बेराह कर दे तो 
तुम उनके लिए अल्लाह के सिवा किसी को मददगार न पाओगे। और हम कियामत 
के दिन उन्हें उनके मुंह के बल अंधे और गूंगे और बहरे इकट्ठा करेंगे उनका ठिकाना 
जहन्नम है। जब-जब उसकी आग धीमी होगी हम उसे मजीद भड़का देंगे। यह है 
उनका बदला इस सबब से कि उन्होंने हमारी निशानियों का इंकार किया। और कहा 
कि जब हम हड्डी और रेजा हो जाएंगे तो क्या हम नए सिरे से पैदा करके उठाए 
जाएंगे। (97-98) 





दुनिया में आदमी अपनी हैसियते मादूदी के मुताबिक जीता है। आखिरत में वह अपनी 
हैसियते रूहानी के मुताबिक नजर आएगा। यही वजह है कि जो लोग दुनिया में राह से बेराह 
हुए वे कियामत में उठेंगे तो अपने आपको अंधा, बहरा, गूंगा पाएंगे। उनका राह से बेराह 
होना इसलिए था कि उन्होंने आंख और कान और जबान को उस मकसद में इस्तेमाल नहीं 
किया जिसके लिए वे उन्हें दिए गए थे। उन्होंने खुदा की निशानियों को नहीं देखा । उन्होंने 
ख़ुदा के दलाइल को नहीं सुना । उनकी जबान हक की हिमायत में नहीं खुली । वे आंख, कान 
और जबान रखते हुए हक की निस्बत से बेआंख, बेकान और बेजबान हो गए। मौत के बाद 
जब वे आलमे हकीकी में पहुंचेंगे तो वहां वे अपने आपको अपनी असली सूरत में पाएंगे न 
कि उस मस्नूई (कृत्रिम) सूरत में जो हालते इम्तेहान होने की वजह से वक्ती तौर पर उन्हें 
मौजूदा दुनिया में हासिल थी। 

जब हम रेजारेजा हो जाएंगे' कहने वाले एक वे हैं जो जबाने काल (कथन) से यह 
जुमला दोहराएं। दूसरे वे लोग हैं जो जबाने हाल (व्यवहार) से उसे कहें। ये दूसरे लोग वे हैं 
जो आंख और कान और जबान को उसके मक्सदे तर्तीक (रचना, उद्देश्य) के खिलाफ 
इस्तेमाल करें और यह गुमान रखें कि उनका यह अमल बस इसी दुनिया में गुम होकर रह 
जाएगा, वह आख़िरत में पहुंचने वाला नहीं। 


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सूरह-7. बनी इस्राईल 799 पारा ॥5 


कया उन लोगों ने नहीं देखा कि जिस अल्लाह ने आसमानों और जमीन को पैदा किया 
वह इस पर कादिर है कि उनके मानिंद दुबारा पेदा कर दे और उसने उनके लिए एक 
मुदूदत मुरकर कर रखी है, इसमें कोई शक नहीं। इस पर भी जालिम लोग बेइंकार किए 

न रहे। (99) 





जमीन व आसमान हमारे सामने एक हकीकत के तौर पर मौजूद हैं। हम इनका इंकार 
नहीं कर सकते। यह मौजूदगी साबित करती है कि यहां कोई जिंदा हस्ती है जो यह ताकत 
रखती है कि वह पहली बार तख्नीक (सृजन) करे। वह 'नहीं' से है” को वजूद में लाए। फिर 
जब पहली तख्नीक मुमकिन है तो दूसरी तरीक क्यों मुमकिन नहीं। हकीकत यह है कि 
पहली तख़्तीक को मानने के बाद दूसरी तख्तीक को मानने में कोई इलमी व अक्ली दलील 
मानेअ (रुकावट) नहीं रहती। 

इतने खुले हुए करीने (तर्क) के बावजूद जो शख्स दुबारा तरीक को न माने वह जालिम 
है। वह हठधर्मी की जमीन पर खड़ा हुआ है न कि दलील और माकूलियत की जमीन पर। 


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कहो कि अगर तुम लोग मेरे रब की रहमत के ख़जानों के मालिक होते तो इस सूरत 
में तुम खर्च हो जाने के अदेशे से जरूर हाथ रोक लेते और इंसान बड़ा ही तंग दिल है। 
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इंसान तंग जर्फवाकेअ हुआ है। वह हर किस्म के शरफ को अपने लिए या अपने गिरोह 
के लिए जमा कर लेना चाहता है। अगर नेमतों की तक्सीम इंसान के हाथ में होती तो जिन 
लोगों के पास दौलत व अज्मत आ गई थी वही नुबुव्वत को भी अपने पास जमा कर लेते। 
वे उसे दूसरों के पास जाने न देते। 

मगर ख़ुदा मामलात को जौहर के एतबार से देखता है न कि गिरोही तअस्सुबात की 
नजर से। वह तमाम इंसानों पर नजर डालता है। और पूरी नस्ल में जो सबसे बेहतर इंसान 
होता है उसे नुबुव्वत के लिए चुन लेता है। नुबुव्वत का इंतख़ाब अगर इंसान करने लगें तो 
यहां भी वही कैफियत पैदा हो जाए जो इंसानी इदारों में जानिबदारी की वजह से नाअहल 
इंसानों की भीड़ की सूरत में नजर आती है। 


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सूरह-।7. बनी इस्राईल 


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और हमने मूसा को नौ निशानियां खुली हुई दीं। तो बनी इस्राईल से पूछ लो जबकि वह 
उनके पास आया तो फिरओन ने उससे कहा कि ऐ मूसा, मेरे ख्याल में तो जरूर तुम पर 

किसी ने जादू कर दिया है। मूसा ने कहा कि तू ख़ूब जानता है कि उन्हें आसमानों और 
जमीन के रब ही ने उतारा है, आंखें खोल देखने के लिए और मेरा ख़्याल है कि ऐ 
फिरजोन, तू जरूर शामतजदा (प्रकोषित) आदमी है। फिर फिरऔन ने चाहा कि उन्हं 

इस सरजमीन से उखाड़ दे। पस हमने उसे और जो उसके साथ थे सबको गर्क कर दिया। 

और हमने बनी इस्राईल से कहा कि तुम जमीन में रहो। फिर जब आखिरत का वादा आ 
जाएगा तो हम तुम सबको इकट्ठा करके लाएंगे। (02-04) 


फिरऔन के सामने खुली हुई निशानियां पेश की गईं तो उसने कहा कि यह “जादू” है। 
इसका मतलब यह है कि दाऔ की तरफ से चाहे कितनी ही ताकतवर दलील और कितनी ही 
बड़ी निशानी पेश कर दी जाए, इंसान के लिए यह दरवाजा बंद नहीं होता कि वह कुछ अल्फाज 
बोलकर उसे रद्द कर दे। वह ख़ुदाई निशानी को इंसानी जादू कह दे। वह इलमी दलील को 
नाकिस मुतालआ कहकर टाल दे। वह वाजेह काइन कोरर माकून कहकर नजरअंदाजकर दे। 

हक के मु़लिफीन जब लफी मूलिफत से हक की आवाज को दबाने मंकामयाब 
नहीं होते तो वे जारिहाना (आक्रामक) कार्रवाइयों पर उतर आते हैं। मगर वे भूल जाते हैं कि 
यह किसी इंसान का मामला नहीं। बल्कि ख़ुदा का मामला है और कौन है जो ख़ुदा के साथ 
जारिहियत (आक्रामकता) करके कामयाब हो। 


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और हमने कुरआन को हक के साथ उतारा है और वह हक ही के साथ उतरा है। और 

हमने तुम्हें सिर्फ खुशखबरी देने वाला और डराने वाला बनाकर भेजा है और हमने 
कुरआन को थोड़ा-थोड़ा करके उतारा ताकि तुम उसे लोगों के सामने ठहर-ठहर कर पढ़ो। 
और उसे हमने बतदरीज (क्रमवार) उतारा है। (05-06) 





कुरआन बेआमेज (विशुद्ध) सच्चाई का एलान है। मगर बेआमेज सच्चाई हमेशा लोगों 


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सूरह-7. बनी इस्राईल 80I पारा ॥5 


के लिए सबसे कम काबिले कुबूल चीज होती है। इस बिना पर अल्लाह तआला ने दाऔ पर 
यह जिम्मेदारी नहीं डाली कि वह लोगों को जरूर मनवा ले। दाऔ की जिम्मेदारी यह है कि 
वह कामिल तौर पर सच्चाई का एलान कर दे। 

कुरआन में मुखातब की आखिरी हद तक रिआयत की गई है। इसी मस्लेहत की बिना 
पर कुरआन को ठहर-ठहर कर उतारा गया है। ताकि जो लोग समझना चाहते हैं वे उसे खूब 
समझते जाएं। वह आहिस्ता-आहिस्ता उनके फिक्र व अमल का जुज बनता चला जाए 


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कहो कि तुम इस पर ईमान लाओ या ईमान न लाओ, वे लोग जिन्हें इससे पहले इल्म 
दिया गया था जब वह उनके सामने पढ़ा जाता है तो वे ठोड़ियाँ के बल सज्दे में गिर 
पड़ते हैं। और वे कहते हैं कि हमारा रब पाक है। बेशक हमारे रब का वादा जरूर पूरा 
होता है। और वे ठोड़ियों के बल रोते हुए गिरते हैं और कुरआन उनका खुशूअ (विनय) 
बढ़ा देता है। (07-09) 





खुरा का कलाम इंसान से इज्ज व तवाजेअ (विनम्र) का तकज करता है। मगर 
मौजूदा दुनिया में ख़ुदा अपना कलाम खुद सुनाने नहीं आता। वह एक इंसान” की जबान से 
अपना कलाम जारी कराता है। अब जो लोग अपने अंदर किब्र (अहं) की नफ्सियात लिए हुए 
हैं, वे उसके आगे झुकने को एक इंसान के आगे झुकने के समान मान लेते हैं और इस बिना 
पर उसे मानने से इंकार कर देते हैं। 

इसके बरअक्स जो लोग किब्र (अहं) की नफ्सियात से ख़ाली हों वे खुदा के कलाम को 
बस खुदा के कलाम की हैसियत से देखते हैं। उन्हें इंसान की जबान से जारी होने वाले कलाम 
में खुदा की झलकियां नजर आ जाती हैं। वे इसके जरिए ख़ुदा से मरबूत हो जाते हैं। वे ख़ुदा 
की बई के मुकाबले में अपने इज्ज को और अपने इज्ज के मुकाबले में खुदा की बझई को 
पा लेते हैं। यह एहसास उनके सीने को पिघला देता है। वे रोते हुए उसके आगे सज्दे में गिर 
पड़ते हैं। 

पहली किस्म के आदमियों के मिसाल कुंरेश के सरदारों की है। और दूसरी किस्म के 
आदमियों की मिसाल अहले किताब के उन मोमिनीन की जो दौरे अव्बल में रसूलुल्लाह 
सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर ईमान लाए थे। 

इस आयत में बजाहिर सालिहीन निक) अहले किताब का जिक्र है। उन्होंने कदीम 
आसमानी सहीफों में पढ़ा था कि एक आखिरी पैगम्बर आने वाले हैं। जो लोग उन पर ईमान 
लाएंगे और उनका साथ देंगे वे खुदा की खुसूसी रहमत के मुस्तहिक करार पाएंगे। इस बिना 





पारा ॥5 802 सूरह-।7. बनी इस्राईल 


पर वे उस आखिरी नबी का पहले से इंतिजार कर रहे थे। यह इंतिजार इतना शदीद था कि 
जब वह पैग़म्बर आया तो उन्होंने फौरन उसे पहचान लिया। उनका यह हाल हुआ कि इस 
पैग़म्बर की लाई हुई किताब (कुरआन) को जब वे पढ़ते तो शिद्दते एहसास से उनकी आंखों 
से आंसू जारी हो जाते और वे रोते हुए ख़ुदा के आगे सज्दे में गिर जाते। 

ताहम यह सिफ अहले किताब के एक गिरोह का मामला नहीं है बल्कि वह सारे इंसानों 
का मामला है। हर इंसान के अंदर खुदा ने पेशगी तौर पर हक की मअरफत रख दी है गोया 
कि हर इंसान पहले ही से खुदाई सच्चाई का मुंतजिर है। अब जो लोग अपनी इस फितरत 
को जिंदा रखें उनका वही हाल होगा जो साबिक (पूर्ववर्ती) अहले किताब का हुआ। वे अपनी 
फितरत के जिंदा शुऊर की बिना पर खुदाई सच्चाई को पहचान लेंगे और दिल की पूरी 
आमादगी के साथ उसकी तरफ बेताबाना दौड़ पड़ेंगे। 


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कहो कि चाहे अल्लाह कहकर पुकारो या रहमान (कृपाशील) कहकर पुकारो, उसके लिए 
सब अच्छे नाम हैं। और तुम अपनी नमाज न बहुत पुकार कर पढ़ो और न बिल्कुल 
चुपके-चुपके पढ़ो। और दोनों के दर्मियान का तरीका इख्तियार करो। और कहो कि 
तमाम खूबियां उस अल्लाह के लिए हैं जो न औलाद रखता है और न बादशाही में कोई 
उसका शरीक है। और न कमजोरी की वजह से उसका कोई मददगार है। और तुम 
उसकी खूब बड़ाई बयान करो। (0-7) 


स्िशर 


जो लोग सच्चाई को गहराई के साथ पाए हुए नहीं होते। वे हमेशा जाहिरी चीजों में 
उलझे रहते हैं। कोई कहता है कि खुदा को इस लफ्ज से पुकारना अफजल है और कोई कहता 
है कि उस लफ्ज से। कोई कहता है कि फुलां इबादती फेअल (कू्य) जेर से अदा करना 
चाहिए और कोई कहता है कि धीरे से। 

अरब में भी इस किस्म की बहस मुर्ललिफ अंदाज में जारी थीं। फरमाया कि खुदा को 
जिस बेहतर नाम से पुकारो वह उसी का नाम है। इसी तरह इबादत के बारे में फरमाया कि 
ख़ुदा की इबादत की अदायगी का इंहिसार न जोर से बोलने पर है और न धीरे बोलने पर। 
तुम इबादत की असल रूह अपने अंदर पैदा करो और उसकी अदायगी में एतदाल (मध्य मार्ग) 
से काम लो। 

इबादत की रूह यह है कि अल्लाह की बड़ाई का कामिल एहसास आदमी के अंदर पैदा 
हो जाए। अल्लाह पर ईमान उसके लिए ऐसी कामिल और अजीम हस्ती की दरयाफ्त के 





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सूह-8. अल-कहफ 803 पारा [5 


हममअना बन जाए जिसे किसी से मदद लेने की जरूरत न हो। जिसका कोई शरीक और बराबर 
न हो। जिस पर कभी कोई ऐसा हादसा न गुजरता हो जबकि वह किसी की मदद का मोहताज 
हो। यह याफ्त जब लफ्जें की सूरत में ढलकर जबान से निकलने लगे तो इसी का नाम तकबीर 


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(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

तारीफ अल्लाह के लिए है जिसने अपने बंदे पर किताब उतारी। और उसमें कोई कजी 
(टेढ़) नहीं रखी। बिल्कुल ठीक, ताकि वह अल्लाह की तरफ से एक सखन अजाब से 
आगाह कर दे। और ईमान वालों को खुशखबरी दे दे जो नेक आमाल करते हैं कि उनके 
लिए अच्छा बदला है। वे उसमें हमेशा रहेंगे। और उन लोगों को डरा दे जो कहते हैं कि 
अल्लाह ने बेटा बनाया है। उन्हें इस बात का कोई इलम नहीं और न उनके बाप दादा 
को। यह बड़ी भारी बात है जो उनके मुंह से निकल रही है, वे सिर्फ झूठ कहते हैं। (-5) 





कुरआन पिछली किताबों का तस्हीहशुदा एडीशन है। पिछली किताबों में यह हुआ कि 
बाद के लोगों ने मूशिगाफियां (कुतक) करके खुदाई तालीमात को पुरपेच बना दिया। दूसरे 
यह कि ख़ुदसाख़्ता तशरीहात के जरिए इब्तिदाई तालीम में इंहिराफ पैदा किया गया और इस 
तरह उसके रुख़ को बदल दिया गया। कुरआन इन दोनों किस्म की इंसानी आमेजिशों 
(मिलावटों) से पाक है। इसमें एक तरफ असल दीन अपनी फितरी सादगी के साथ मौजूद है। 
दूसरी तरफ इसका रुख़ सीधा खुदा की तरफ है, जैसा कि ब-एतबार वाकया होना चाहिए । 

ख़ुदा ने यह एहतिमाम क्यों किया कि वह दुनिया वालों के पास अपनी किताब भेजे। 
इसका मकसद लोगों को ख़ुदा की स्कीम से आगाह करना है। ख़ुदा ने इंसान को इस दुनिया 
में इम्तेहान की गर्ज से आबाद किया है। इसके बाद वह हर एक का हिसाब लेगा। और हर 


पारा [5 804 सूह-8. अल-कहफ 


एक को उसके अमल के मुताबिक या तो जहन्नम में डालेगा या जन्नत के अबदी बागों में 
बसाएगा । खुदा चाहता है कि हर आदमी मौत से पहले इस मसले से बाख़बर हो जाए ताकि 
किसी के लिए कोई उज्ज बाकी न रहे। 

दुनिया में इंसान की गुमराही का एक सबब यह है कि वह ख़ुदा के सिवा किसी और 
को अपना सहारा बना लेता है। इसी की एक बेतुकी सूरत किसी को खुदा का बेटा फर्ज कर 
लेना है। मगर इस किस्म का हर अकीदा सिर्फ एक झूठ है। क्योकि जमीन व आसमान में 
ख़ुदा के सिवा कोई नहीं जिसे किसी किस्म का कोई इख्तियार हासिल हो। 


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शायद तुम उनके पीछे गम से अपने को हलाक कर डालोगे, अगर वे इस बात पर ईमान 
न लाएं। जो कुछ जमीन पर है उसे हमने जमीन की रौनक बनाया है ताकि हम लोगों 

को जांचें कि उनमें कौन अच्छा अमल करने वाला है और हम जमीन की तमाम चीजों 

को एक साफ मैदान बना देंगे। (6-8) 





‘शायद तुम अपने को हलाक कर डालोगे।' यह जुमला बताता है कि दाऔ अगर दावत 
के मामले में संजीदा हो तो शिदूदते एहसास से उसका क्या हाल हो जाता है। हकीकत यह 
है कि हक की दावत का इतमाम (अति) उस इंतिहा पर पहुंच कर होता है जब यह कहा जाने 
लगे कि दाऔ शायद इस ग़म में अपने को हलाक कर लेगा कि लोग हक की दावत को कुबूल 
नहीं कर रहे हैं। 

एक दावत जो दलील के एतबार से इंतिहाई वाजेह हो, जिसे पेश करने वाला दर्दमंदी की 
आखिरी हद पर पहुंच कर उसे लोगों के लिए संजीदा गौरोफिक्र का मौजूअ (विषय) बना दे, 
इसके बावजूद लोग उसे न मानें तो इस न मानने की वजह क्या होती है। इसकी वजह दुनिया 
की दिलफरेबियां हैं। मौजूदा दुनिया इतनी पुरकशिश है कि आदमी इससे ऊपर उठ नहीं 
पाता। इसलिए वह ऐसी दावत की अहमियत को समझ नहीं पाता जो उसकी तवज्जोहों को 
सामने की दुनिया से हटाकर उस दुनिया की तरफ ले जा रही है जिसकी रौनकें बजाहिर 
दिखाई नहीं देतीं। 

मगर जमीन की दिलफरेबियां इंतिहाई आरजी हैं। वे इम्तेहान की एक मुरकर मुदूदत तक 
हैं। इसके बाद जमीन की यह हैसियत ख़त्म कर दी जाएगी। यहां तक कि वह सहरा 
(रेगिस्तान) की तरह बस एक ख़ुश्क मैदान होकर रह जाएगी। 





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सूह-8. अल-कहफ 805 पारा ॥5 
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क्या तुम ख्याल करते हो कि कहफ और रकीम वाले हमारी निशानियों में से बहुत 
अजीब निशानी थे। जब उन नौजवानों ने गार मे पनाह ली, फिर उन्होंने कहा कि ऐ 
हमारे रब हमें अपने पास से रहमत दे और हमारे मामले को दुरुस्त कर दे। पस हमने 
गार में उनके कानों पर सालहा साल (दीर्घ काल) के लिए (नींद का पर्दा) डाल दिया। 
फिर हमने उन्हें उठाया ताकि हम मालूम करें कि दोनों गिरोहों में से कौन ठहरने की 
मुद्दत का ज्यादा ठीक शुमार करता है। (9-।2) 





असहाबे कहफ का वाकया एक अलामती वाकया है जो बताता है कि सच्चे अहले ईमान 
की जिंदगी में किस किस्म के मराहिल पेश आते हैं। इससे मालूम होता है कि अहले ईमान 
कभी-कभी हालात की शिदूदत की बिना पर किसी गार” में पनाह लेने पर मजबूर होते हैं। 
मगर यह गार जो बजाहिर उनके लिए एक कब्र था, वहां से जिंदगी और हरकत का एक नया 
सैलाब फूट पड़ता है। उनके मुखालिफीन ने जहां उनकी तारीख़ ख़त्म कर देनी चाही थी वहीं 
से दुबारा उनके लिए एक नई तारीख़ शुरू हो जाती है। 

कहफ वाले अगर वही हैं जो मसीही तारीख़ में सात सोने वाले (Seven Sleepers) कहे 
जाते हैं तो यह किस्सा शहर एफेसस (E९५७8) से तअल्लुक्र रखता है। यह कयीम जमाने 
का एक मशहूर शहर है। जो टर्की के मर्रिबी साहिल पर वाकेअ था और जिसके पुरअज्मत 
खंडहर आज भी वहां पाए जाते हैं। 249-25] ई० में इस इलाके में रूमी हुक्‍्मरां डेसियस 
(D९५5) की हुकूमत थी । यहां बुतपरस्ती का जोर था। और चांद को माबूद करार देकर उसे 
पूजा जाता था। उस जमाने में मसीह के इब्तिदाई पैरोकारों के जरिए यहां तौहीद (एकेश्वरवाद) 
की दावत पहुंची और फैलने लगी। रूमी हुक्मरां जो ख़ुद भी बुतपरस्त था, मजहबे तौहीद की 
इशाअत को बर्दाश्त न कर सका और हजरत मसीह के पेरोकारों पर सख्तियां करने लगा। 
मज्कूरा असहाबे कहफ एफेसस के आला घरानों के सात नौजवान थे जिन्होंने गालिबन 250 
ई० में मजहबे तौहीद को कुबूल कर लिया। और उसके मुबल्लिग (प्रचारक) बन गए । हुकूमत 
की तरफ से उन पर सख्ती हुई तो वे शहर से निकल कर करीब के एक पहाड़ की तरफ चले 
गए और वहां एक बड़े गार में छुप गए। 

असहाबे रकीम ग़ालिबन इन्हीं असहाबे कहफ का दूसरा नाम है। रकीम के मअना 
मरकूम के हैं। यानी लिखी हुई चीज। कहा जाता है कि आला ख़ानदानों के मज्कूरा सात 


पारा [5 806 सूरह-।8. अल-कहफ 


नौजवान जब लापता हो गए तो बादशाह के हुक्म से उनके नाम और हालात एक सीसे की 
तख़ती पर लिखकर शाही ख़जाने में रख दिए गए। इस बिना पर उनका दूसरा नाम असहाबे 
रकीम (तरङ्गी वाले) पड़ गया। (तफ्सीर इनेकसीर) 


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हम तुम्हें उनका अस्ल किस्सा सुनाते हैं। वे कुछ नौजवान थे जो अपने रब पर ईमान 
लाए और हमने उनकी हिदायत में मजीद तरक्की दी और हमने उनके दिलों को मजबूत 

कर दिया जबकि वे उठे और कहा कि हमारा रब वही है जो आसमानों और जमीन का 
रब है। हम उसके सिवा किसी दूसरे माबूद (पूज्य) को न पुकारेंगे। अगर हम ऐसा करेंगे 
तो हम बहुत बेजा बात करेंगे। ये हमारी कौम के लोगों ने उसके सिवा दूसरे माबूद बना 
रखे हैं। ये उनके हक में वाजेह दलील क्यों नहीं लाते। फिर उस शख्स से बड़ा जालिम 

और कौन होगा जो अल्लाह पर झूठ बांधे। (3-5) 











'ये लोग वाजेह दलील क्यों नहीं लाते! इस जुमले से अंदाजा होता है कि ईमान लाने के 
बाद उन नौजवानों और कौम के बड़े लोगों के दर्मियान एक मुदूदत तक बहस व गुफ्तगू रही। 
मगर इस दर्मियान में उन बड़ों की तरफ से जो बातें कही गईं उनमें शिक के हक में कोई 
वाजेह दलील न थी। इस तजर्बे ने उन तीहीदपरस्त नौजवानों के यकीन को और ज्यादा बढ़ा 
दिया। उनके लिए नामुमकिन हो गया कि गैर साबितशुदा चीज की ख़ातिर साबितशुदा चीज 
को तक कर दें। 

मज्कूरा मुखालिफत के बाद अगर वे बड़ों की बड़ाई को अहमियत देते तो वे बेयकीनी 
और तजबजुब (दुविधा) का शिकार हो जाते। मगर जब उन्होंने दलील और बुरहान (स्पष्ट 
प्रमाण) को अहमियत दी तो उसने उनके यकीन में और इजाफा कर दिया। क्योंकि दलील 
और बुरहान के एतबार से ये बड़े उन्हें बिल्कुल छोटे नजर आए। अपनी तमाम जाहिरी 
अज्मतों के बावजूद वे लोग झूठ की जमीन पर खड़े हुए मिले न कि सच की जमीन पर। 


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सूह-8. अल-कहफ 807 पारा ॥5 


और जब तुम उन लोगों से अलग हो गए हो और उनके माबूदों से जिनकी वे ख़ुदा के 
सिवा इबादत करते हैं तो अब चलकर गार में पनाह लो, तुम्हारा रब तुम्हारे ऊपर अपनी 
रहमत फैलाएगा। और तुम्हारे काम के लिए सरोसामान मुहय्या करेगा। (6) 


बंदा जब हक की खातिर इंसानों से कटता है तो ऐन उसी वक्‍त वह ख़ुदा से जुड़ जाता 
है। यहां तक कि वह अपने रब से इतना करीब हो जाता है कि उससे उसकी सरगोशियां शुरू 
हो जाती हैं। वह अपने रब से कलाम करता है और उससे उसका जवाब पाता है। 

असहाबे कहफ का नोमुसलमाना यकीन, उनकी बेख़फ तब्लीग, उनका सब कुछ छोड़ने 
पर राजी हो जाना मगर हक को न छोड़ना, इन चीजें ने उन्हें कुरबते खुदावंदी का आला 
मकाम अता कर दिया था। वे बजाहिर जो कुछ खो रहे थे, उससे ज्यादा बढ़ी चीज उनके लिए 
वह थी जिसे उन्होंने पाया था। यही याफ्त (प्राप्ति) का वह एहसास था जिसने उन्हें आमादा 
किया कि वे हर दूसरी चीज की महरूमी गवारा कर लें मगर हक से महरूमी को गवारा न करें। 
वे इस पर राजी हो गए कि वे अपने घर और शहर को छोड़कर गार में चले जाएं और फिर 
भी उनकी यह उम्मीद बाकी रहे कि उनका खुदा जरूर उनकी मदद करेगा और उनके हालात 
को दुरुस्त कर देगा। 

इब्ने जरीर ने अता का कौल नकल किया है कि उनकी तादाद सात थी। वे गार में 
दाखिल होकर इबादत करते रहते और रोते और अल्लाह से मदद मांगते। यहां तक कि 
बिलआख़िर ख़ुदा ने उन पर लम्बी नींद तारी कर दी। 

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और तुम सूरज को देखते कि जब वह तुलूअ (उदय) होता है तो उनके गार से दाई जानिब 
को बचा रहता है और जब डूबता है तो उनसे बाई जानिब को कतरा जाता है और वे 
गार के अंदर एक वसीअ (विस्तृत) जगह में हैं। यह अल्लाह की निशानियों में से है 
जिसे अल्लाह हिदायत दे वही हिदायत पाने वाला है और जिसे अल्लाह बेराह कर दे 
तो तुम उसके लिए कोई मददगार राह बताने वाला न पाओगे। (7) 





दावती दौर में जब असहाबे कहफ और उनकी कौम के लोगों के दर्मियान कशमकश बढ़ी, 
इसी दौरान ग़ालिबन उन्होंने इम्कानी अदेशे के पेशेनजर एक मख्सूस गार का इंतिख़ाब कर लिया 
था। यह गार इतना वसीअ था कि सात आदमी बाआसानी इसके अंदर कयाम कर सकें। मजीद 
यह कि गालिबन वह शिमाल रूया (उत्तर-मुखी) था । इस बिना पर सूरज की रोशनी सुबह या शाम 
किसी वक्त भी बराहेरास्त उसके अंदर नहीं पहुंचती थी और उधर से गुजरने वाला कोई शख्स 





पारा [5 808 सूह-8. अल-कहफ 


बाहर से देखकर यह नहीं जान सकता था कि इसके अंदर कुछ इंसान मौजूद हैं। 

जब आदमी ऐसा करे कि हक के मामले में मस्लेहत का रवैया न इख्तियार करे। 
मुश्किलतरीन हालात में भी वह सब्र व शुक्र के साथ खुदा की तरफ मुतवज्जह रहे तो ख़ुदा 
उसे ऐसे रास्तों की तरफ रहनुमाई फरमाता है जिसमें उसका ईमान भी महफूल रहे और वह 
अपने दावती मिशन को भी न खोए। यह नुसरत असहाबे कहफ को उनके मख्सूस हालात 
के एतबार से पूरी तरह हासिल हुई। 

मजीद यह कि खुदा ने उन्हें अपने ख़ास काम के लिए चुन लिया। उन्होंने जिस रूहानी 
बुलन्दी का सुबूत दिया था। इसके बाद वे खुदा की नजर में इस काबिल हो गए कि उन्हें 
जिंदगी बाद मौत का हिस्सी (महसूस) सुबूत बना दिया जाए। असहाबे कहफ का दो सौ साल 
तक सोकर दुबारा उठना इसी नौइयत का एक वाकया है। 


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और तुम उन्हें देखकर यह समझे कि वे जाग रहे हैं, हालांकि वे सो रहे थे। हम उन्हें 
दाएं और बाएं करवट बदलवाते रहते थे। और उनका कुत्ता ग़ार के दहाने पर दोनों हाथ 
फैलाए बैठा था। अगर तुम उन्हें झांक कर देखते तो उनसे पीठ फेर कर भाग खड़े होते 
और तुम्हारे अंदर उनकी दहशत बैठ जाती। (8) 














अल्लाह तआला ने एक तरफ यह किया कि असहाबे कहफ पर मुसलसल नींद तारी कर 
दी। इसी के साथ उनकी हिफाजत के लिए मूरन्नलिफ इँतेजामात फरमा दिए। मसलन वे 
बराबर करवटें लेते रहते थे। क्योंकि हजरत इने अब्बास के अल्फाज में, अगर ऐसा न होता 
तो उनका जिस्म जमीन खा जाती। उनके गार के दहाने पर एक कुत्ता मुसलसल बैठा रहा। 
यह ग़ालिबन इसलिए था कि कोई इंसान या जानवर अंदर दाखिल न हो सके। मजीद यह 
कि गार के अंदर ख़ुदा ने ऐसा पुरहैबत माहौल बना दिया था कि कोई शख्स अगर झांकने 
की कोशिश करे तो पहली ही नजर में दहशतजदा होकर भाग जाए 


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सूह-8. अल-कहफ 809 पारा [5 


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और इसी तरह हमने उन्हें जगाया ताकि वे आपस में पूछ गछ करें। उनमें से एक कहने 
वाले ने कहा, तुम कितनी देर यहां ठहरे। उन्होंने कहा कि हम एक दिन या एक दिन 
से भी कम ठहरे होंगे। वे बोले कि अल्लाह ही बेहतर जानता है कि तुम कितनी देर 
यहां रहे। पस अपने में से किसी को यह चांदी का सिक्का देकर शहर भेजो, पस वह 
देखे कि पाकीजा खाना कहां मिलता है, और तुम्हारे लिए इसमें से कुछ खाना लाए। 
और वह नर्मी से जाए और किसी को तुम्हारी ख़बर न होने दे। अगर वे तुम्हारी ख़बर 
पा जाएंगे तो तुम्हें पत्थरों से मार डालेंगे या तुम्हें अपने दीन में लोटा लेंगे और फिर 
तुम कभी फलाह न पाओगे। (9-20) 





असहाबे कहफ जब सोकर उठे तो कुदरती तौर पर वे आपस में जिक्र करने लगे कि वे 
कितनी मुद्दत तक सोए होंगे। मगर जमाना ख़ुदा के हुक्म के तहत उनके लिए ठहर गया 
था। इसलिए जो मुदूदत दूसरों के लिए सदियो में फैली हुई थी वह असहाबे कहफ को बस 
एक दिन के बराबर मालूम हुई। 

सोकर उठने के बाद उन्हें भूख का एहसास हुआ। उनके पास कुछ चांदी के सिक्के थे। 
उन्होंने अपने में से एक शख्स को एक सिक्का लेकर भेजा। गालिबन उनका ख्याल होगा कि 
शहर के जिन हिस्सों में ईसाई बसे होंगे वहां हलाल खाना मिल सकेगा इसलिए उन्होंने कहा 
कि तलाश करके पाकीजा खाना ले आना। साथ ही उन्होंने ताकीद की कि सारा मामला 
निहायत खुश तदबीरी से अंजाम देना। क्योंकि साबिका (पहले के) तजर्बे की बिना पर उन्हें 
अंदेशा था कि अगर वे लोग हमसे बाख़बर हो जाएंगे तो वे हमें दुबारा बुतपरस्त बनाने की 
कोशिश करेंगे। और जब हम राजी न होंगे तो वे हमें मार डालेंगे। 


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और इस तरह हमने उन पर लोगों को मुतलअ (सूचित) कर दिया ताकि लोग जान लें 
कि अल्लाह का वादा सच्चा है और यह कि कियामत में कोई शक नहीं। जब लोग 
आपस में उनके मामले में झगड़ रहे थे। फिर कहने लगे कि उनके गार पर एक इमारत 
बना दो। उनका रब उन्हें ख़ूब जानता है। जो लोग उनके मामले में ग़ालिब आए उन्होंने 
कहा कि हम उनके गार पर एक इबादतगाह बनाएंगे। (2) 











इंसान सौ साल या इससे भी कम मुद्दत मौजूदा जमीन पर जिंदगी गुजार कर मर जाता 


पारा [5 8I0 सूह-8. अल-कहफ 


है। बजाहिर ऐसा मालूम होता है कि वह हमेशा के लिए ख़त्म हो गया। मगर हकीकत यह है 
कि वह मर कर बाकी रहता है और दुबारा एक नई दुनिया में उठता है जहां उसके लिए या 
अबदी राहत है या अबदी अजाब। 

यह इंसान का सबसे ज्यादा संगीन मसला है और इस पर लोगों के दर्मियान हमेशा बहस 
जारी रही है। इसकी इसी अहमियत की बिना पर ख़ुदा ने ऐसा किया कि अक्ली दलील के 
साथ उसके हक में हिस्सी (महसूस) दलील का भी इंतिजाम फरमाया ताकि “जिंदगी बाद मौत' 
के मामले में किसी के लिए इसकी गुंजाइश बाकी न रहे। मुख़्तलिफ जमानों में यह हिस्सी 
दलील मुख़तलिफ अंदाज से दिखाई जा रही है। पांचवीं सदी ईसवी में असहाबे कहफ का 
'मौत' के बाद दुबारा गार से निकलना इसी किस्म का एक गैर मामूली वाकया था। मौजूदा 
जानेमेमएक्रस (Meta Science) की तहकीकात भी संभवतः इसी नौइयत की मिसाल 
हैं जिनसे जिंदगी बाद मौत का नजरिया हिस्सी मेयारे इस्तदलाल पर साबित होता है। 

असहाबे कहफ दो सौ साल (या इससे ज्यादा मुद्दत के बाद) जब गार से निकले तो 
उनके शहर की दुनिया बिल्कुल बदल चुकी थी। गालिबन 250 ई० में वे अपने शहर एफेसस 
से निकल कर गार में गए थे। उस वक्त इस इलाके में बुतपरस्त हुक्मरां डेसियस की हुकूमत 
थी। इस दौरान में मसीही मुबल्लिगीन की कोशिशों से रूमी बादशाह किस्तिनतीन (१72-337 
ई०) ईसाई हो गया और इसके बाद सारे रूमी इलाके में ईसाई मजहब फैल गया । 447 ई० 
में जब असहाबे कहफ दुबारा अपने शहर में वापस आए तो उनके शहर में ईसाइयत का 
ग़लबा हो चुका था। 

जब ये सातां नौजवान गार से बाहर आए और शाही ख़जाने में महफूज उनके नाम की 
तख़्ती, साथ ही दूसरे कराइन से तस्दीक हो गई कि ये वही नौजवान हैं जो बुतपरस्ती के दौर 
में अपने मसीही अकाइद के खातिर शहर छोड़कर चले गए थे तो वे फौरन लोगों की अकीदत 
का मकज बन गए। नया रूमी हुक्मरां थयोडोसीस खुद उनसे मिलने और उनकी बरकत लेने 
के लिए पैदल चलकर उनके पास आया | और जब इन नौजवानों का इंतिकाल हुआ तो उनकी 
यादगार में उनके गार पर इवादतख़ाना तैयार किया गया। 


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कुछ लोग कहेंगे कि वे तीन थे, और चोथा उनका कुत्ता था। और कुछ लोग कहेंगे 
कि वे पांच थे और छठा उनका कुत्ता था, ये लोग बेतहकीक बात कह रहे हैं, 
और कुछ लोग कहेंगे कि वे सात थे और आठवां उनका कुत्ता था। कहो कि मेरा 
रब बेहतर जानता है कि वे कितने थे। थोड़े ही लोग उन्हें जानते हैं। पस तुम 


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सूएह-8. अल-कहफ 8] पारा 75 


सरसरी बात से ज्यादा उनके मामले में बहस न करो और न उनके बारे में उनमें 
से किसी से पूछो। (22) 





असहाबे कहफ के बारे में कुछ लोग गैर जरूरी बहसों में मुब्तिला थे। किसी ने कहा कि 
उनकी तादाद तीन थी और चौथा उनका कुत्ता था। किसी ने कहा कि वे पांच थे और छठा 
उनका कुत्ता था। किसी ने कहा कि वे सात थे और आठवां उनका कुत्ता था। 

मगर इस किस्म की बहसें मिजाज की ख़राबी की अलामत हैं। जब दीनी रूह (भावना) 
जिंश होतोसारा जेर असल हकीकत पर दिया जाता है। और जब कैम पर जवाल (पतन) आता 
हैतो अस्ल रूह पसे पुश्त चली जाती है और जाहिरी तपसीलात बहस व मुनाजिरे का मौजूअ बन 
जाती हैं । सच्चे खुदापरस्त को चाहिए कि वह इन बहसों में न पड़े बल्कि अगर कोई दूसरा शख्स 
इस किस्म के सवालात करे तो उसे इज्माली (संक्षिप्त) जवाब देकर गुजर जाए। 





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और तुम किसी काम के बारे में यूं न कहो कि मैं इसे कल कर दूंगा, मगर यह कि 

अल्लाह चाहे। और जब तुम भूल जाओ तो अपने रब को याद करो। और कहो कि 


उम्मीद है कि मेरा रब मुझे भलाई की इससे ज्यादा करीब राह दिखा दे। (2-24) 





कुंरेश ने नजर बिन हारिस और उकबा बिन मुईत को मदीना भेजा कि वे यहूद से मिलकर 
मुहम्मद सल्ल० के बारे में पूछें। क्योंकि वे लोग नबियों का इलम रखते हैं। दोनों मदीना आए 
और यहूदी आलिमों से कहा कि हमें हमारे आदमी के बारे में बताओ। उन्होंने कहा कि तुम 
लोग उनसे तीन चीजों के बारे में पूछो। अगर वह तुम्हें उनकी बाबत बता दें तो वह पैगम्बर 
हैं। वर्ना वह बातें बनाने वाले हैं। उनमें से एक सवाल असहाबे कहफ के नौजवानों के बारे 
में था। दूसरा जुलकरनैन के बारे में और तीसरा रूह के बारे में। 

प्रेस के दौर से पहले आम लोगों को असहाबे कहफ की बाबत कुछ मालूम न था। यह 
किस्सा कुछ सुरयानी मख़्तूतात (पांडुलिपियों) में दर्ज था जिसकी ख़बर सिफ चन्द ख़ास उलमा 
को थी। आपके सामने यह सवाल आया तो आपने फरमाया कि तुमने जो बात पूछी है उसका 
जवाब मैं कल दूंगा। आपको उम्मीद थी कि कल तक जिब्रील आ जाएंगे और मैं उनसे मालूम 
करके जवाब दे दूंगा । मगर जिब्रील के आने में ताख़ीर हुई। यहां तक कि वह पंद्रह दिन के 
बाद सूरह कहफ लेकर आए। 

'वही' में इस ताख़ीर से मक्का के मुखालिफीन को मौका मिल गया। उन्होंने इसे 
बुनियाद बनाकर लोगों को आपसे बदजन करना शुरू कर दिया। अल्लाह तआला ने फरमाया 
कि तुम एक मामूली बात को शोशा बनाकर जिस शख्स की सदाकत (सच्चाई) से लोगों को 


पारा 5 82 सूरह-8. अल-कहफ 


मुशतबह (संदिग्ध) करना चाहते हो उसकी सदाकत पर इससे ज्यादा यकीनी और इससे ज्यादा 
बड़ी दलीलें जमा होने वाली हैं। 

यह बात आज वाकया बन चुकी है। आज पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम 
की पैग़म्बराना सदाकत पर इतने दलाइल जमा हो चुके हैं कि कोई होशमंद आदमी इससे 
इंकार की जुरअत नहीं कर सकता । आपकी नुबुव्वत आज एक साबितशुदा नुबुव्यत है। न कि 
महज दावे की नुबु्यत। 


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और वे लोग अपने ग़ार में तीन सौ साल रहे (कुछ लोग मुदृदत की शुमार में) 9 साल 
और बढ़ गए हैं, कहो कि अल्लाह उनके रहने की मुद्दत को ज्यादा जानता है। 
आसमानां और जमीन का गेब उसके इलम में है, क्या ख़ूब है वह देखने वाला और 


सुनने वाला। ख़ुदा के सिवा उनका कोई मददगार नहीं और न अल्लाह किसी को अपने 
इख्तियार में शरीक करता है। (25-26) 





कतादा और मुतरिफ बिन अब्ुल्लाह की तफ्सीर के मुताबिक यहां 300 साल या 309 
साल लोगों के कौल की हिकायत है न कि खुदा की तरफ से ख़बर। अब्ुल्लाह बिन मसऊद 
की किरात से भी इसी की ताईद होती है। उस जमाने के अहले किताब गैर मुस्तनद किस्सों 
की बुनियाद पर यह समझते थे कि गार में असहाबे कहफ के कियाम की मुद्दत शमसी 
कैलेंडर के लिहाज से 300 साल है और कमरी कैलेंडर के लिहाज से 309 साल (तफ्सीर इने 
कसीर)। कुरआन ने लोगों के इस ख्याल को नकल किया। मगर इसी के साथ यह कहकर 
उसे बेबुनियाद करार दे दिया कि 'कुलिल्लाह अअलमु बिमा लबिसू०' (कहो कि अल्लाह 
ज्यादा जानता है कि वे गार में कितना ठहरे)। 

मौजूदा जमाने के मुहव्वरिवीन ने दरयाफ्त किया कि यह मुदूदत शमसी कैलेंडर से 
लिहाज से ।96 साल थी। यह तहकीक इस बात का सुबूत है कि कुरआन खुदा की किताब 
है जो तमाम अगली पिछली बातों से वाख़बर है। और इसी इलम की बिना पर उसने मज्कूरा 
कौल को कुब्ूल नहीं किया। कुरआन अगर कोई इंसानी कलाम होता तो यकीनन वह अपने 
जमाने के मशहूर कौल को ले लेता जो बिलआखिर बाद की तहकीक से टकरा जाता। 

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और तुम्हारे रब की जो किताब तुम पर “वही” (प्रकाशना) की जा रही है उसे सुनाओ, 
खुदा की बातों को कोई बदलने वाला नहीं। और उसके सिवा तुम कोई पनाह नहीं 
पा सकते। और अपने आपको उन लोगों के साथ जमाए रखो जो सुबह व शाम अपने 
रब को पुकारते हैं, वे उसकी रिजा (प्रसन्नता) के तालिब हैं। और तुम्हारी आंखे हयाते 
दुनिया की रौनक की ख़ातिर उनसे हटने न पाएं। और तुम ऐसे शख्स का कहना न 
मानो जिसके कल्ब (हदय) को हमने अपनी याद से गाफिल कर दिया। और वह अपनी 
ख्राहिश पर चलता है। और उसका मामला हद से गुजर गया है। (27-28) 


कदीम मक्का में जिन लोगों ने पैग़म्बर का साथ देकर बेआमेज (विशुद्ध) दीन को अपना 
दीन बनाया था उनके लिए यह इक्दाम कोई सादा चीज न थी। यह मफादात से वाबस्ता 
निजाम को छोड़कर एक ऐसे अकीदे का साथ देना था जिससे बजाहिर कोई मफाद वाबस्ता 
न था। पहला गिरोह नए दीन को इख्तियार करते ही वक्त के जमे हुए निजाम से कट गया 
था जबकि दूसरा गिरोह पूरी तरह वक्त के जमे हुए निजाम के जोर पर खड़ा हुआ था। पहले 
गिरोह के पास सिर्फ खुदा की बातें थीं जिसकी अहमियम आख़िरत में जाहिर होगी जबकि 
दूसरा गिरोह उन चीजों का मालिक बना हुआ था जिसकी कीमत इसी दुनिया के बाजार में 
होती है। 
यह जाहिरी फर्क अगर दाजी को मुतअस्सिर कर दे तो इसका नतीजा यह होगा कि दीन 
की बेआमेज दावत की अहमियत उसकी नजर में कम हो जाएगी। और आमेजिश (मिलावट) 
वाला दीन उसकी नजर में अहमियत इख्तियार कर लेगा जिसके अलमबरदार बनकर लोग 
दुनिया की रौनकें हासिल किए हुए हैं। 
मगर यह बहुत बड़ी भूल है। क्योंकि यह उस असल मिशन से हटना है जो ख़ुदा को 
सबसे ज्यादा मत्लूब है। दाज अगर ऐसा करे तो वह खुदा की मदद से महरूम हो जाएगा। 
वह ख़ुदा की दुनिया में ऐसा हो जाएगा कि कोई दरख्त उसे साया न दे और कोई पानी उसकी 
प्यास न बुझाए । चुनांचे इव्ने जरीर ने इस आयत की तफ्सीर में लिखा है कि अल्लाह फरमाता 
है कि ऐ मुहम्मद, अगर तुमने लोगों को कुरआन न सुनाया तो खुदा के मुकाबले में तुम्हारे 
लिए कोई जाए पनाह न होगी। 


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पारा [5 84 सूह-8. अल-कहफ 


और कहो कि यह हक (सत्य) है तुम्हारे रब की तरफ से, पस जो शख्स चाहे इसे माने 
और जो शख्स चाहे न माने। हमने जालिमों के लिए ऐसी आग तैयार कर रखी है 
जिसकी कनातें उन्हें अपने घेरे में ले लेंगी। और अगर वे पानी के लिए फरयाद करेंगे 
तो उनकी फरयादरसी ऐसे पानी से की जाएगी जो तेल की तलछट की तरह होगा। 
वह चेहरों को भून डालेगा। क्या बुरा पानी होगा और केसा बुरा ठिकाना। (29) 


जो हक खुदा की तरफ से आता है वह आखरी हद तक सदाकत (सच्चाई) होता है। 
इसलिए लोगों की रिआयत से उसमें किसी किस्म की तरमीम (संशोधन) नहीं की जा सकती। 
खुदाई हक में तरमीम करना गोया उस मेयार को तब्दील करना है जिस पर जांच कर हर 
शख्स की हैसियत मुतअय्यन (सुनिश्चित) की जाने वाली है। 

जो लोग यह चाहते हैं कि ख़ुदाई हक में ऐसी तरमीम की जाए कि इससे उनकी गलत 
रविश का जवाज (औचित्य) निकल आए वे गुमराही पर सरकशी का इजाफा कर रहे हैं। ऐसे 
लोगों को अपने लिए सिर्फ सरक्नतरीन सजा का इंतिजार करना चाहिए 


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बेशक जो लोग ईमान लाए और उन्होंने अच्छे काम किए तो हम ऐसे लोगों का अज्र 
(प्रतिफल) जाया नहीं करेंगे जो अच्छी तरह काम करें। उनके लिए हमेशा रहने वाले 
बागा हैं जिनके नीचे नहरें बहती होंगी वहां उन्हें सोने के कंगन पहनाए जाएंगे। और 
वे बारीक और दबीज (गाढ़) रेशम के सब्ज कपड़े पहनेंगे, तख्ता पर टेक लगाए हुए। 
कैसा अच्छा बदला है और कैसी अच्छी जगह। (३0-3]) 





जो लोग घमंड, मस्लेहत (स्वार्थ और जाहिरपरस्ती से ख़ाली होते हैं, उनका हाल यह 
होता है कि जब खुदाई सदाकत (सच्चाई) उनके सामने जाहिर होती है तो वे उसे फौरन 
पहचान लेते हैं। चाहे वह सदाकत उनके जैसे एक इंसान की जबान से क्यों न जाहिर हुई हो। 

वे अपने आपको हक के आगे डाल देते हैं। वे अपनी जिंदगी को उसके मुताबिक ढालना 
शुरू कर देते हैं न कि खुद सदाकत को अपनी जिंदगी के मुताबिक ढालने लगें। जो लोग इस 
तरह हकपरस्ती का सुबूत दें वे खुदा के महबूब बंदे हैं। उन्हें आखिरत में शाहाना इनामात 
से नवाज जाएगा। 


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तुम उनके सामने एक मिसाल पेश करो। दो शख्स थे। उनमें से एक को हमने अंगूरों 
के दो बाग़ दिए। और उनके गिर्द खजूर के दरख्तों का इहाता बनाया और दोनों के 
दर्मियान खेती रख दी। दोनों बाग़ अपना पूरा फल लाए, उनमें कुछ कमी नहीं की। 
और दोनों बाग़ों के बीच हमने नहर जारी कर दी और उसे ख़ूब फल मिला तो उसने 
अपने साथी से बात करते हुए कहा कि मैं तुझसे माल में ज्यादा हूं और तादाद में भी 
ज्यादा ताकतवर हूं। वह अपने बाग़ में दाखिल हुआ और वह अपने आप पर जुल्म कर 

रहा था। उसने कहा कि मैं नहीं समझता कि यह कभी बर्बाद हो जाएगा। और मैं नहीं 
समझता कि कियामत कभी आएगी। और अगर में अपने रब की तरफ लौटा दिया 

गया तो जरूर इससे ज्यादा अच्छी जगह मुझे मिलेगी। (32-36) 











एक बाग़ जो खूब हरा भरा हो, फिर कुदरती आफत से अचानक ख़त्म हो जाए, वह उस 
शख्स की तमसील है जो दुनिया में दौलत और इज्जत पाकर घमंड में मुब्तिला हो जाता है। 
दुनिया में किसी इंसान को दौलत या इज्जत का जो हिस्सा मिलता है वह ख़ुदा की तरफ से 
बतौर इम्तेहान होता है। मगर जालिम इंसान अक्सर उसे अपने लिए इनाम या अपनी कुवते 
बाजू का हासिल समझ लेता है। इसका नतीजा यह होता है कि उसके अंदर सरकशी के 
जज्बात पैदा हो जाते हैं। वह उन लोगों को हकीर (तुच्छ) समझने लगता है जिनके पास दौलत 
और इज्जत में कम हिस्सा मिला हो। उसकी नफ्सियात ऐसी हो जाती है गोया उसकी दुनिया 
कभी ख़त्म होने वाली नहीं। और अगर यह दुनिया ख़त्म होकर दूसरी दुनिया बनी तो कोई 
वजह नहीं कि वहां भी उसका हाल अच्छा न हो जिस तरह यहां उसका हाल अच्छा है। 
यह इम्तेहान की हालत पर इनाम की हालत को कयास (अनुमानित) करना है। हालांकि 


दोनों में कोई निस्बत नहीं। 
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उसके साथी ने बात करते हुए कहाक्या तुम उस जात से इंकार कर रहे हो जिसने 
तुम्हें मिट्टी से बनाया, फिर पानी की एक बूंद से। फिर तुम्हें पूरा आदमी बना दिया। 
लेकिन मेरा रब तो वही अल्लाह है और में अपने रब के साथ किसी को शरीक नहीं 
ठहराता। और जब तुम अपने बाग़ में दाखिल हुए तो तुमने क्यों न कहा कि जो अल्लाह 
चाहता है वही होता है, अल्लाह के बगैर किसी में कोई कुव्यत (शक्ति) नहीं। अगर 
तुम देखते हो कि मैं माल और औलाद में तुमसे कम हूं तो उम्मीद है कि मेरा रब मुझे 
तुम्हारे बाग़ से बेहतर बाग़ दे दे। और तुम्हारे बाग़ पर आसमान से कोई आफत भेज 
दे जिससे वह बाग़ साफ मैदान होकर रह जाए या उसका पानी खुश्क हो जाए, फिर 
तुम उसे किसी तरह न पा सको। (37-47) 





खुदा किसी इंसान को दौलत दे तो उसे ख़ुदा का शुक्रगुजार बंदा बनकर रहना चाहिए । 
लेकिन अगर जेहन सही न हो तो दौलतमंदी आदमी के लिए सरकशी का सबब बन जाती है। 
इसके बरअक्स अगर जेहन सही है तो मुफिलिसी में भी आदमी खुदा को नहीं भूलता। जो कुछ 
मिला है उस पर कानेअ (संतुष्ट) रहकर वह उम्मीद रखता है कि उसका ख़ुदा उसे मजीद देगा। 
आदमी अगर आंख खोलकर दुनिया में रहे तो कभी वह सरकशी में मुब्तिला न हो। 
इंसान एक हकीर वजूद की हैसियत से परवरिश पाता है। उसे हादसात पेश आते हैं। उसे 
बीमारी और बुढ़ापा लाहिक होता है। पानी और दूसरी चीजें जिनके जरिए वह इस दुनिया में 
अपना 'बाग' उगाता है उनमें से कोई चीज भी उसके जाती कणे में नहीं। 
यह सब इसलिए है कि आदमी मुतवाजेअ (विनम्र) बनकर दुनिया में रहे। मगर जालिम 
इंसान किसी चीज से सबक नहीं लेता। उसे उस वक्‍त तक होश नहीं आता जब तक वह हर 
चीज से महरूम होकर अपनी आंखों से देख न ले कि उसके पास इज्ज (निर्बलता) से सिवा 


और कुछ न था। 
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और उसके फल पर आफत आई तो जो कुछ उसने उस पर ख़र्च किया था उस पर वह 
हाथ मलता रह गया। और वह बाग़ अपनी टट्रिटयों पर गिरा हुआ पड़ा था। और वह 


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सूह-8. अल-कहफ 8।7 पारा ॥5 


कहने लगा कि ऐ काश मैं अपने रब के साथ किसी को शरीक न ठहराता। और उसके 
पास कोई जत्या न था जो ख़ुदा के सिवा उसकी मदद करता और न वह खुद बदला 
लेने वाला बन सका। यहां सारा इख्तियार सिर्फ खुदाए बरहक का है। वह बेहतरीन 

अज्र (प्रतिफल) और बेहतरीन अंजाम वाला है। (42-44) 





आदमी एक काम में अपनी पूंजी लगाता है और अपनी काबलियत सर्फ करता है। वह 
समझता है कि मेरी काबलियत और मेरी पूंजी कामयाब नतीजे के साथ मेरी तरफ लौटेगी। 
मगर मुख्तलिफ किस्म के हादसात आते हैं और उसकी उम्मीदों को तहस-नहस कर देते हैं। 
आदमी की कोई भी तदबीर या उसकी कोई भी काबलियत उसे बचाने वाली साबित नहीं 
होती। 

ख़ुदा मौजूदा दुनिया में बार-बार इस तरह के नमूने दिखाता है ताकि इंसान उससे सबक 
ले। ताकि वह खुदा के सिवा किसी दूसरी चीज को अहमियत देने की गलती न करे। 


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और उन्हें दुनिया की जिंदगी की मिसाल सुनाओ। जैसे कि पानी जिसे हमने आसमान 
से उतारा। फिर उससे जमीन की नबातात (पौध) खूब घनी हो गई। फिर वे रेजाररेजा 
हो गई जिसे हवाएं उड़ती फिरती हैं। और अल्लाह हर चीज पर कुदरत रखने वाला है। 


माल और औलाद दुनियावी जिंदगी की रौनक हैं। और वाकी रहने वाली नेकियां तुम्हारे 
रब के नजदीक सवाब के एतबार से बेहतर हैं। (45-46) 





दुनिया आख़िरत की तमसील है। पानी पाकर जमीन जब सरसब्ज हो जाती है तो 
बजाहिर ऐसा मालूम होता है कि वह हमेशा इसी तरह रहेगी, मगर इसके बाद मौसम बदलता 
है और सारा सब्जा सूख कर ख़त्म हो जाता है। 

यही हाल दुनिया की रौनक का है। मौजूदा दुनिया की रौनकें आदमी को अपनी तरफ 
खींचती हैं। मगर ये तमाम रीनकें इंतिहाई आरजी हैं। कियामत बहुत जल्द उन्हें इस तरह 
ख़त्म कर देगी कि ऐसा मालूम होगा जैसे उनका कोई वजूद ही न था। 

दुनिया की रोनकें बाकी नहीं रहतीं मगर यहां एक और चीज है जो हमेशा बाकी रहने 
वाली है। और वे इंसान के नेक आमाल हैं। जिस तरह जमीन में बीज डालने से बाग़ उगता 
है उसी तरह अल्लाह की याद और अल्लाह की फरमांबरदारी से भी एक बाग़ उगता है। इस 


पारा [5 88 सूह-8. अल-कहफ 


बाग़ पर कभी उजाड़ नहीं आता। मगर दुनियावी बाग़ के बरअक्स यह दूसरा बाग़ आख़िरत 
में उगता है और वहीं वह अपने उगाने वाले को मिलेगा । 
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और जिस दिन हम पहाड़ों को चलाएंगे। और तुम देखोगे जमीन को बिल्कुल खुली हुई। 
और हम उन सबको जमा करेंगे। फिर हम उनमें से किसी को न छोड़ेंगे। और सब लोग 
तेरे रब के सामने सफ बांधकर पेश किए जाएंगे। तुम हमारे पास आ गए जिस तरह 
हमने तुम्हें पहली बार पैदा किया था, बल्कि तुमने यह गुमान किया कि हम तुम्हारे 
लिए कोई वादे का वक्‍त मुर्करर नहीं करेगे। (47-48) 








मौजूदा दुनिया में जो हालात जमा किए गए हैं वे महज इम्तेहान के लिए हैं। इम्तेहान 
की मुकर्ररह मुदूदत पूरी होने के बाद ये हालात बाकी नहीं रहेंगे। इसके बाद जमीन की सारी 
जिंदगीबख़श खुसूसियात ख़त्म कर दी जाएंगी । वह ऐसी ख़ाली जगह हो जाएगी जहां न किसी 
के लिए अकड़ने का सामान होगा और न फख़ करने का। 

दुनिया में इम्तेहान की वजह से इंसान अपने आपको इख्तियार की फजा में पा रहा है। मगर 
कियामत इस फज को यकसर खुम कर देगी । उस दिन लोग बेधारोमददगार फज में अपने रब 
के पास जमा किए जाएंगे। तमाम लोग अपने मालिक के सामने उसका फैसला सुनने के लिए 
खड़े होंगे। ख़ुदा के पास हर शख्स की जिंदगी का इंतिहाई मुकम्मल रिकार्ड होगा। उसके 
मुताबिक वह किसी को इनाम देगा और किसी के लिए सजा का हुक्म सुनाएगा। 

मौजूदा दुनिया में इंसान की बयकवक्त दो हालतें हैं। एक एतबार से वह आजिज है और 
दूसरे एतबार से आजाद। आदमी अगर अपने इज्ज को देखे तो उसके अंदर खुदा की तरफ 
रुजूअ का जज्बा पैदा होगा। मगर इंसान सिर्फ अपनी आजादी की हालत को देखता है। 
नतीजा यह होता है कि वह गाफिल और सरकश बनकर रह जाता है। 


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और रजिस्टर रखा जाएगा तो तुम मुजरिमों को देखोगे कि उसमें जो कुछ है वे उससे 


डरते होंगे और कहेंगे कि हाय ख़राबी। कैसी है यह किताब कि इसने न कोई छोटी 
बात दर्ज करने से छोड़ी है और न कोई बड़ी बात। और जो कुछ उन्होंने किया है वह 


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सूरह।8. अल-कहफ 89 पारा ।5 
सब सामने पाएंगे। और तेरा रब किसी के ऊपर जुल्म न करेगा। (49) 





इंसान जो कुछ करता है वह सब खुदा के इंतिजाम के तहत रिकार्ड हो रहा है। आदमी 
की नीयत, उसका कौल और उसका अमल सब कायनाती पर्दे पर नकश हो रहे हैं। ताहम यह 
इंतजाम आज दिखाई नहीं देता। कियामत में यह ओट हटा दी जाएगी। उस वकत इंसान यह 
देखकर दहशतजदा रह जाएगा कि दुनिया में जो कुछ वह यह समझकर कर रहा था कि कोई 
उसे जानने वाला नहीं वह इतने कामिल तौर पर यहां दर्ज है कि उसकी फेहरिस्त से न कोई 
छोटी चीज बची है और न कोई बड़ी चीज। 

कियामत के दिन इंसान के साथ जो मामला किया जाएगा उसकी हर चीज इतनी 
साबितशुदा होगी कि आदमी जब अपने अमल का बदला पाएगा तो उसे यकीन होगा कि 
उसके साथ वही किया जा रहा है जिसका वह फिलवाकअ (वस्तुतः) मुस्तहिक था, न उससे 


कम न उससे ऱ्यादा। 
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और जब हमने फरिश्ता से कहा कि आदम को सज्दा करो तो उन्होंने सज्दा किया मगर 
इब्लीस (शैतान) ने न किया, वह जिन्नों में से था। पस उसने अपने रब के हुक्म की 
नाफरमानी की। अब क्या तुम उसे और उसकी औलाद को मेरे सिवा अपना दोस्त 
बनाते हो हालांकि वे तुम्हारे दुश्मन हैं। यह जालिमों के लिए बहुत बुरा बदल है। (50) 


रिवायात से मालूम होता है कि इब्लीस एक इबादतगुजार जिन्न था। वह बजाहिर आबिद 
व जाहिद बना हुआ था। मगर जब ख़ुदा ने आदम के सामने झुकने का हुक्म दिया तो वह 
घमंड की बिना पर झुकने के लिए तैयार न हुआ। अब जो लोग घमंड के जज्बे के तहत हक 
के सामने झुकने से इंकार करें वे सब इब्लीस की औलाद हैं। चाहे वे बजाहिर इबादतगुजार 
ही क्यों न दिखाई देते हों। 

खुदा के सामने झुकना दरअस्ल खुदा के मुकाबले में अपने इज्ज का इकरार करना है। 
अगर कोई शख्स हकीकी मअनों में खुदा के सामने झुकने वाला हो तो जहां कहीं भी उसका 
सामना हक से होगा वह फौरन झुक जाएगा। इसके बरअक्स जो शख्स जाहिरी तौर पर 
सज्दागुजार हो मगर अपने अंदर घमंड की नपिसियात लिए हुए हो वह ऐसे मौके पर 
बाआसानी सज्दा कर लेगा जहां उसकी अना (अंहकार) को ठेस न लगती हो। मगर जहां अना 
को झुकाने की कीमत पर अपने आपको झुकाना पड़े वहां अचानक वह सरकश बन जाएगा 
और झुकने से इंकार कर देगा। 





पारा ॥5 820 सूरह8. अल-कहफ 


जब हक की पुकार उठे और कुछ लोग इब्लीस और उसकी औलाद के असर में आकर 
उसे कुबूल न करें तो गोया वे इब्लीस और उसकी औलाद को ख़ुदा का बदल बना रहे हैं। 
जहां उन्हें खुदा के डर से हक के आगे झुक जाना चाहिए था वहां वे झूठे माबूदों के डर से 
उसके आगे झुकने से इंकार कर रहे हैं। ऐसे लोग बदतरीन जालिम हैं। बहुत जल्द उन्हें मालूम 
हो जाएगा कि ख़ुदा को छोड़कर उन्होंने जिनके ऊपर भरोसा किया था वे उनके कुछ काम 
आने वाले नहीं। 


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मैंने उन्हें न आसमानों और जमीन पैदा करने के वक्‍त बुलाया। और न खुद उनके पेदा 


करने के वक्‍त बुलाया। और में ऐसा नहीं कि गुमराह करने वालों को अपना मददगार 
बनाऊ। (5) 


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लोग अपने जिन बड़ों को दुनिया की जिंदगी में काबिले भरोसा समझ लेते हैं। वे इस कद्र 
कमजोर हैं कि न कायनात के वजूद में उनका कोई दख़ल है और न ख़ुद अपने वजूद में | साथ 
ही यह कि ये लोग हक की दावत के मुकाबले में मुजिल (गुमराह करने वाले) का किरदार अदा 
करके साबित कर रहे हैं कि वे कतई काबिले भरोसा नहीं। एक ऐसी दुनिया जहां हर तरफ 
हक की कारफरमाई हो, वहां ऐसी शख्ियतें किस तरह दाखिल हो सकती हैं जिनका वाहिद 
(एक मात्र) सरमाया लोगों को हक से दूर करना है। 


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और जिस दिन ख़ुदा कहेगा कि जिन्हें तुम मेरा शरीक समझते थे उन्हें पुकारो। पस वे 
उन्हें पुकारेंगे मगर वे उन्हें कोई जवाब न देंगे। और हम उनके दर्मियान (अदावत की) 
आइ कर देंगे। और मुजरिम लोग आग को देखेंगे और समझ लेंगे कि वे उसमें गिरने 
वाले हैं और वे उससे बचने की कोई राह न पाएंगे। (52-53) 


दुनिया में जिन शख्मियतों के बल पर आदमी हक का इंकार करता है, कियामत में वे 
उसके कुछ काम न आएंगी । आज वे एक दूसरे के साथी हैं मगर जब हकाइक खुलेंगे तो दोनों 
एक दूसरे से नफरत करने लगेंगे। ऐसा मालूम होगा गोया दोनों के दर्मियान हलाकतख़ेज 
(विनाशक) रुकावट कायम हो गई है। मौजूदा दुनिया में वे अपने आपको मामून व महफूज 
समझते हैं। मगर कियामत में उनका अंजाम सिर्फ यह होने वाला है कि वे अपने आपको 


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सूह-8. अल-कहफ 82] पारा 5 


जहन्नम के दरवाजे पर खड़ा हुआ पाएं और उससे भागने की कोई तदबीर न कर सकें। | 


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और हमने इस कुरआन में लोगों की हिदायत के लिए हर किस्म की मिसाल बयान 
की है और इंसान सबसे ज्यादा झगड़ालू है। और लोगों को बाद इसके कि उन्हें हिदायत 
पहुंच चुकी, ईमान लाने से और अपने रब से बर्शिश मांगने से नहीं रोका मगर उस 
चीज ने कि अगलों का मामला उनके लिए भी जाहिर हो जाए, या अजाब उनके सामने 
आ खड़ा हो। (54-55) 





मौजूदा दुनिया में इम्तेहान की आजादी है। इस बिना पर यहां आदमी हक का एतराफ 
न करने के लिए कोई न कोई उज्ज पा लेता है। हर बात को रदूद करने के लिए उसे कुछ न 
कुछ अल्फाज मिल जाते हैं। कभी ऐसा होता है कि वह एक खुली हुई दलील को बेमअना 
बहसों से काटने की कोशिश करता है। कभी वह ऐसा करता है कि जो दलील दी गई है उसे 
नजरअंदाज करके एक और चीज का तकाजा करता है जो किसी वजह से अभी पेश नहीं की 
गई। 

इस आखिरी सूरत की एक मिसाल यह है कि पैगम्बर ने अपने मुखातबीन के सामने 
वाजेह दलाइल के साथ अपना पैगाम पेश किया तो उन्होंने उस पर ध्यान नहीं दिया बल्कि 
उससे कतअ नजर करते हुए यह कहा कि इंकार की सूरत में तुम हमें जिस अजाब की ख़बर 
दे रहे हो वह कहां है, उसे लाकर हमें दिखाओ। 


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और रसूलों को हम सिर्फ खुशख़बरी देने वाला और डराने वाला बनाकर भेजते हैं, 
और मुंकिर लोग नाहक की बातें लेकर झूठा झगझ करते हैं ताकि इसके जरिए से 
हक को नीचा कर दें और उन्होंने मेरी निशानियों को और जो डर सुनाए गए उन्हें 
मजाक बना दिया। उससे बड़ जालिम कौन होगा जिसे उसके रब की आयतो के 
जरिए याददिहानी की जाए तो वह उससे मुंह फेर ले और अपने हाथों के अमल को 


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पारा ॥5 822 सूह-8. अल-कहफ 


भूल जाए। हमने उनके दिलों पर पर्दे डाल दिए हैं कि वे उसे न समझें और उनके 
कानों में डाट है। और अगर तुम उन्हें हिदायत की तरफ बुलाओ तो वे कभी राह 
पर आने वाले नहीं हैं। (56-57) 


खुदा की बात सबसे ज्यादा सच्ची बात है। तमाम बेहतरीन दलाइल उसकी मुवाफिकत 
करते हैं। चुनांचे जो लोग उसे मानना नहीं चाहते वे कोई हकीकी दलील नहीं पाते जिसके 
जरिए वे उसे रदूद कर सकें। उनके पास हमेशा सिर्फ बेअस्ल बातें होती हैं जिनके जरिए वे 
उसे जेर करने की नाकाम कोशिशें करते हैं। वे ठोस दलाइल का मुकाबला झूठे एतराजात से 
करते हैं। वे संजीदा काम को मजाक में गुम कर देना चाहते हैं। 

यह सब वे इसलिए करते हैं कि दाऔ (आह्वानकर्ता) को अवाम की नजर में बेएतबार 
साबित कर सकें। मगर वे भूल जाते हैं कि ऐसा करके वे ख़ुद अपने आपको ख़ुदा की नजर 
में बेएतबार साबित कर रहे हैं। 

आदमी को सोचने और समझने की सलाहियत इसलिए दी गई है कि वह हक और 
नाहक में तमीज कर सके। मगर जब वह अपनी सूझ-बूझ को गलत रुख़ पर इस्तेमाल करता 
है तो उसका जेहन उसी गलत रुख़ पर चल पड़ता है जिस रुख़ पर उसने उसे चलाया है। 
इसके बाद उसके लिए नामुमकिन हो जाता है कि किसी बात को उसके सही रुख़ से देखे। 
और उसकी वाकई अहमियत को समझ सके। वह आंख रखते हुए भी बेआंख हो जाता है। 


वह कान रखते हुए बेकान हो जाता है। 
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और तुम्हारा रब बख्शने वाला, रहमत वाला है। अगर वह उनके किए पर उन्हें पकड़े 
तो फौरन उन पर अजाब भेज दे, मगर उनके लिए एक मुर वक्‍त है और वे उसके 

मुकाबले में कोई पनाह की जगह न पाएंगे। और ये बस्तियां हैं जिन्हें हमने हलाक कर 
दिया जबकि वे जालिम हो गए। और हमने उनकी हलाकत का एक वक्‍त मुरकर किया 

था। (58-59) 








आदमी हक के मुकाबले में सरकशी करता है तो उसे फौरन उसकी सजा नहीं मिलती । 
इससे गलतफहमी में पड़्कर वह अपने आपको आजाद समझ लेता है और मजीद सरकशी 
करने लगता है। हालांकि यह न पकड़ा जाना, इम्तेहान की मोहलत की बिना पर है न कि 
आजादी और ख़ुदमुख़्तारी की बिना पर। 

आदमी सबक लेना चाहे तो माजी (अतीत) का अंजाम उसके सामने मौजूद है जिससे 


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सूरह8. अल-कहफ 


वह हाल के लिए सबक ले सकता है। सतहे जमीन पर बार-बार मुरललिफ कैमें और तहजीबें 
उभरी हैं और तबाह कर दी गई हैं। जब पिछली नस्लों के साथ ऐसा हुआ कि उन्हें उनकी 
सरकशी की सजा मिली तो अगली नस्लों के साथ यही वाकया क्यों नहीं होगा। 


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और जब मूसा ने अपने शागिर्द से कहा कि में चलता रहूंगा यहां तक कि या तो दो 
दरियाओं के मिलने की जगह पर पहुंच जाऊं या इसी तरह वर्षों तक चलता रहूं। पस 
जब वे दरियाओं के मिलने की जगह पहुंचे तो वे अपनी मछली को भूल गए। और मछली 
ने दरिया में अपनी राह ली। फिर जब वे आगे बढ़े तो मूसा ने अपने शागिर्द से कहा 
कि हमारा खाना लाओ, हमारे इस सफर से हमें बड़ी थकान हो गई। (60-62) 


823 पारा ।5 











ख़ुदा फरिश्तों के जरिए मुसलसल दुनिया का इंतिजाम कर रहा है। इंसान चूँकि इस 
इंतजाम को नहीं देखता, वह इसके भेदों को पूरी तरह समझ नहीं पाता। वह कमतर 
वाकफियत की बिना पर तरह-तरह के शुव्हात में मुन्तिला हो जाता है। 

इसके इलाज के लिए ख़ुदा ने बिलवास्ता मुशाहिदे (परोक्ष अवलोकन) का इंतिजाम 
किया। उसने अपने चुने हुए बंदों को छुपी हुई दुनिया का मुशाहिदा कराया ताकि वे उसकी 
हिक्मतां को अपनी आंखों से देखें और दूसरे इंसानों को उससे बाख़बर कर दें। यहां हजरत 
मूसा के जिस वाक्ये का जिक्र है वह इसी किस्म का एक अनुपम वाकया है जिसके जरिए 
उन्हें खुदा के छुपे हुए निजाम की एक झलक दिखाई गई। 

हजरत मूसा ने यह सफर गालिबन मिस्र व सूडान के दर्मियान अपने एक नौजवान 
शागिर्द (यूशअ बिन नून) के साथ किया था। ख़ुदा ने बतौर अलामत उन्हें बताया था कि तुम 
चलते रहो। यहां तक कि जब तुम उस जगह पहुंचो जहां दो दरिया बाहम मिलते हों तो वहां 
तुम्हें हमारा एक बंदा (गालिबन फरिश्ता बाशक्ल इंसान) मिलेगा । तुम उसके साथ हो लेना। 


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शागिर्द ने कहा, क्या आपने देखा, जब हम उस पत्थर के पास ठहरे थे तो में मछली 





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पारा ॥5 824 सूह-8. अल-कहफ 


को भूल गया। और मुझे शैतान ने भुला दिया कि में उसका जिक्र करता। और मछली 
अजीब तरीके से निकल कर दरिया में चली गई। मूसा ने कहा, उसी मौके की तो हमें 
तलाश थी। पस दोनों अपने कदमों के निशान देखते हुए वापस लौटे। तो उन्होंने वहां 
हमारे बंदों में से एक बंदे को पाया जिसे हमने अपने पास से रहमत दी थी और जिसे 
अपने पास से एक इलम सिखाया था। (63-65) 


हजरत मूसा को मजीद अलामत यह बताई गई थी कि तुम जब मत्लूबा मकाम पर 
पहुंचोगे तो तुम्हारे नाश्ते की मछली अजीब तरीके से पानी में चली जाएगी। यह वाकया एक 
मकाम पर हुआ। मगर मछली शागिर्द के साथ थी और शागिर्द किसी वजह से हजरत मूसा 
को बता न सका कि ऐसा वाकया हुआ है। कुछ आगे बढ़ने के बाद जब हजरत मूसा को 
मालूम हुआ तो वह फौरन वापस हुए और मज्कूरा मकाम पर उस बदे (खिज्ञो को पा लिया 
जिससे मिलने के लिए उन्होंने यह लम्बा सफर किया था। 


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मूसा ने उससे कहा, क्‍या मैं आपके साथ रह सकता हूं ताकि आप मुझे उस इलम 
में से सिखा दें जो आपको सिखाया गया है। उसने कहा कि तुम मेरे साथ सब्र नहीं 
कर सकते और तुम उस चीज पर केसे सब्र कर सकते हो जो तुम्हारी वाकफियत 
(जानकारी) के दायरे से बाहर है। मूसा ने कहा, इंशाअल्लाह आप मुझे सब्र करने 
वाला पाएंगे और मैं किसी बात में आपकी नाफरमानी नहीं करूगा। उसने कहा कि 


अगर तुम मेरे साथ चलते हो तो मुझसे कोई बात न पूछना जब तक कि मैं खुद तुमसे 
उसका जिक्र न करूं। (66-70) 








उस बंदे (ख़िज़) को खुदा ने खुसूसी इलम और ताकत अता की थी ताकि उसके मुताबिक 
वह दुनिया के मामलात में गैर मामूली तसर्रुफ कर सकें। इस इलम के तहत वह अक्सर 
औक्वात आम जन्ते के ख़लाफ अमल करते थे। इसलिए हजरत मूसा की फरमाइश पर 


उन्होंने कहा कि तुम उसकी बर्दाश्त नहीं ला सकते। 
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सूह-8. अल-कहफ 825 पारा 6 


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फिर दोनों चले। यहां तक कि जब वे कश्ती में सवार हुए तो उस शख्स ने कश्ती में 
छेद कर दिया। मूसा ने कहा, क्या आपने इस कश्ती में इसलिए छेद किया है कि कश्ती 
वालों को शर्क कर दें। यह तो आपने बड़ी सख्त चीज कर डाली। उसने कहा, मैंने तुमसे 

नहीं कहा था कि तुम मेरे साथ सब्र न कर सकोगे। मूसा ने कहा, मेरी भूल पर मुझे 
न पकड़िए और मेरे मामले में सख्ती से काम न लीजिए। फिर वे दोनों चले यहां तक 
कि वे एक लड़के से मिले तो उस शख्स ने उसे मार डाला। मूसा ने कहा, क्या आपने 
एक मासूम जान को मार डाला हालांकि उसने किसी का खून नहीं किया था। यह तो 
आपने एक नामाकूल बात की है। (7-74) 





अच्छी कश्ती को ऐबदार बनाना और छोटे बच्चे को हलाक करना बजाहिर ऐसे काम हैं 
जो सही नहीं। मगर जैसा कि आगे की आयात बताती हैं, इसमें निहायत गहरी मस्लेहत छुपी 
हुई थी। ये बजाहिर गलत काम हकीकत के एतबार से बिल्कुल सही और मुफीद काम थे। 

इसमें इस मसले का भी एक जवाब है जिसे आम तौर पर खराबी का मसला (Problem 
०£ ८४!) कहा जाता है। इंसानी दुनिया की बहुत सी चीजें जिन्हें देखकर यह समझ लिया 
जाता है कि दुनिया के निजाम में ख़राबियां हैं, वे गहरी मस्लेहत पर मबनी होती हैं। मौजूदा 
जिंदगी में यकीनन इस मस्लेहत पर पर्दा पड़ा हुआ है। मगर आख़िरत में यह पर्दा बाकी न 
रहेगा। उस वक्‍त आदमी जान लेगा कि जो कुछ हुआ वही होना भी चाहिए था। 


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उस शख्स ने कहा कि क्या मैंने तुमसे नहीं कहा था कि तुम मेरे साथ सब्र न कर 
सकोगे। मूसा ने कहा कि इसके बाद अगर में आपसे किसी चीज के मुतअल्लिक 


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पारा 76 826 सूरह8. अल-कहफ 


पूछूं तो आप मुझे साथ न रखें। आप मेरी तरफ से उज़ की हद को पहुंच गए। फिर 

दोनों चले। यहां तक कि जब वे एक बस्ती वालों के पास पहुंचे तो वहां वालों से 
खाने को मांगा। उन्होंने उनकी मेजबानी से इंकार कर दिया। फिर उन्हें वहां एक 
दीवार मिली जो गिरा चाहती थी तो उसने उसे सीधा कर दिया। मूसा ने कहा अगर 
आप चाहते तो इस पर कुछ उजरत (मेहनताना) ले लेते। उसने कहा कि अब यह 
मेरे और तुम्हारे दर्मियान जुदाई है। में तुम्हें उन चीजों की हकीकत बताऊंगा जिन 

पर तुम सब्र न कर सके। (75-78) 





हजरत मूसा और हजरत ख़िज़ जैसे मुकर्रबीने खुदा एक बस्ती में पहुंचते हैं और चाहते 
हैं कि बस्ती वाले महमान समझकर उन्हें खाना खिलाएं। मगर बस्ती वाले खाना खिलाने से 
इंकार कर देते हैं। इससे मालूम हुआ कि किसी का सादिक और मुकर्रब होना काफी नहीं है 
कि वह देखने वालों को भी सादिक और मुर्करब नजर आए। अगर बस्ती वालों ने उन्हे 
पहचाना होता तो जरूर वे उन्हें अपना ख़ुसूसी महमान बनाते और उनसे बरकत हासिल करते, 
मगर उनके मामूली जाहिरी हुलिये की बिना पर उन्हेंनि उन्हें नजरअंदाज कर दिया। वे उनकी 
अंदुरूनी हकीकत के एतबार से उन्हें न देख सके। 

इस नाख़ुशगवार सुलूक के बावजूद हजरत खिज्ग ने बस्ती वालों की एक गिरती हुई 
दीवार सीधी कर दी। ख़ुदा के सच्चे बंदों का दूसरों से सुलूक जवाबी सुलूक नहीं होता । बल्कि 
हर हाल में वही होता है जो अजरुए हक उनके लिए दुरुस्त है। 


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कश्ती का मामला यह है कि वह चन्द मिस्कीनों की थी जो दरिया में मेहनत करते थे। 
तो मैंने चाहा कि उसे ऐबदार कर दूं, और उनके आगे एक बादशाह था जो हर कश्ती 
को जबरदस्ती छीन कर ले लेता था। (79) 





हजरत ख़िज्न ने कशती को बेकार नहीं किया था बल्कि वक्ती तौर पर उसे ऐबदार बनाया 
था। इसकी मस्लेहत यह थी कि कश्ती जिस तरफ जा रही थी उस तरफ आगे एक बादशाह 
था जो गालिबन अपनी किसी जंगी मुहिम के लिए अच्छी कश्तियों को जबरदस्ती अपने कब्जे 
में ले रहा था। चुनांचे उन्होंने उसे ऐसा बना दिया कि बादशाह के कारिंदे उसे देखें तो उसे 
नाकाबिले तवज्जोह समझकर छोड़ दें। 

इससे मालूम हुआ कि दुनिया में किसी के साथ कोई हादसा पेश आए तो उसे चाहिए 
कि वह बददिल न हो। वह यह सोचकर उस पर राजी हो जाए कि ख़ुदा ने जो कुछ किया 
है उसमें उसके लिए कोई फायदा छुपा होगा, अगरचे वह अभी उससे पूरी तरह बाख़बर नहीं । 








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सूरह8. अल-कहफ 827 पारा 6 


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और लड़के का मामला यह है कि उसके मां-बाप ईमानदार थे। हमें अंदेशा हुआ कि 
वह बड़ा होकर अपनी सरकशी और नाफरमानी से उन्हें तंग करेगा। पस हमने चाहा 
कि उनका रब उन्हें उसकी जगह ऐसी औलाद दे जो पाकीजगी में उससे बेहतर हो और 
शफकत करने वाली हो। (80-87) 


लड़के की यह मिसाल बताती है कि ख़ुदा अपने बंदों की मदद कहां कहां करता है। यहां 
तक कि वह ऐसे मामले में भी उनकी मदद करता है जिसका उन्हें इलम तक नहीं होता कि 
वह उसके लिए अपने रब से दरख्वास्त कर सकें। इंसान को चाहिए कि वह हमेशा सब्र व 
शुक्र का रवैया इख़्तियार करे। वह हर हाल में खुदा से ख़ैर की उम्मीद रखे। ख़ुदा कुल्ली 
(पूर्ण) इलम रखता है, इसलिए वह किसी बंदे की भलाई को उससे ज्यादा जानता है जितना 
इंसान जुजई (आंशिक) इल्म की बिना पर नहीं जान सकता। 


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और दीवार का मामला यह है कि वह शहर के दो यतीम लड़कों की थी। और उस दीवार 
के नीचे उनका एक ख़जाना दफ्न था और उनका बाप एक नेक आदमी था पस तुम्हारे 
रब ने चाहा कि वे दोनों अपनी जवानी की उम्र को पहुंचे और अपना ख़जाना निकालें। 


यह तुम्हारे रब की रहमत से हुआ। और मैंने उसे अपनी राय से नहीं किया। यह है 
हकीकत उन बातों की जिन पर तुम सब्र न कर सके। (82) 











इन मिसालों से अंदाजा होता है कि ख़ुदा हर वक्त मौजूदा दुनिया की निगरानी कर रहा 
है। उसने अगरचे इम्तेहान की मस्लेहत की बिना पर इस दुनिया का निजाम असबाब व इलल 
के तहत कायम कर रखा है। मगर इसी के साथ वह इस निजाम में बार-बार मुदाखलत 
(हस्तक्षेप) करता रहता है। ख़ुदा कहीं तामीर (निर्माण) का तरीका इख्तियार करता है और 
कहीं बजाहिर तर्रीब (बिगाड़) का। मगर वसीअतर मस्लेहत के एतबार से सब उसकी रहमत 
होती है। और इस बात का यकीन हासिल करना होता है कि असबाब की आजादाना गर्दिश 
में तख्लीक के असल मकसद फत (विनष्ट) न हेने पाएं। 


पारा 6 828 सूह-8. अल-कहफ 


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और वे तुमसे जुलकरनेन का हाल पूछते हैं। कहो कि मैं उसका कुछ हाल तुम्हारे सामने 


बयान करूंगा। हमने उसे जमीन में इक्तेदार (शासन) दिया था। और हमने उसे हर 
चीज का सामान दिया था। (83-84) 


जुनकरनेन के लफी मना हैं दो सांगा वाला। यानी वह बादशाह जिसकी पुुहात 
(विजयां) का सिलसिला दुनिया के दोनों किनारों (मश्रिक व मग्रिब) तक पहुंचा हुआ था। 
यहां जुलकरनैन से मुराद गालिबन कदीम इरानी बादशाह खुसरू (C४7७8) है। उसका जमाना 
पांचवीं सदी ई०पू० है। उसने कदीम आबाद दुनिया का बड़ा हिस्सा फतह कर डाला था। और 
बिलआख़िर एक जंग में मारा गया। वह निहायत मुंसिफ और आदिल बादशाह था। 


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फिर जुलकरनेन एक राह के पीछे चला। यहां तक कि वह सूरज के गुरूब होने के मकाम 
तक पहुंच गया। उसने सूरज को देखा कि वह एक काले पानी में डूब रहा है और वहां 
उसे एक कम मिली। हमने कहा कि ऐ जुलकरनैन तुम चाहो तो उन्हें सजा दो और 
चाहो तो उनके साथ अच्छा सुलूक करो। उसने कहा कि जो उनमें से जुल्म करेगा हम 
उसे सजा देंगे। फिर वह अपने रब के पास पहुंचाया जाएगा, फिर वह उसे सख्त सजा 


देगा। और जो शख्स ईमान लाएगा और नेक अमल करेगा उसके लिए अच्छी जजा है 
और हम भी उसके साथ आसान मामला करेंगे। (85-88) 





जुलकरनेन गालिबन ईरान के मरिब में फुतूहात करता हुआ एशिया माइनर तक पहुंच 
गया जहां एजियन समुद्र (९६९३० 9९१) का “स्याह पानी” ख़ुश्की की हदबंदी कर रहा है। 
यहां एक शख्स साहिल (समुद्र-तट) के किनारे खड़ा होकर समुद्र की तरफ देखे तो शाम के 
वक्त उसे नजर आएगा कि गोया कि सूरज का गोला पानी में दाखिल होकर उसके अंदर डूब 
रहा है। यह मुहावरे की जबान में उस हद का बयान है जहां तक जुलकरनैन पहुंचा था। 


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सूरह8. अल-कहफ 829 पारा 6 


जुलकरनैन समुद्र के इस किनारे तक बतौर सय्याह (पर्यटक) नहीं आया था बल्कि बतौर 
फातेह (विजेता) आया था। यहां उस वक्‍त जो कौम आबाद थी उसके ऊपर उसे पूरा 
इख्तियार मिल गया। उसके ऊपर उसकी हुकूमत कायम हो गई। बहैसियत हुक्मरां उसे 
कामिल इख्तियार हासिल था कि उसके साथ जो चाहे करे। ताहम जुलकरनैन एक आदिल 
(न्यायप्रिय) बादशाह था । उसने किसी पर कोई जुल्म नहीं किया । उसने आम एलान कर दिया 
कि हम सिफ उस शख्स के साथ सख्ती करेंगे जो बुराई करता हुआ पाया जाए। जो लोग अम्न 
व नज्म (अनुशासन) के साथ रहेंगे उनके ऊपर कोई ज्यादती नहीं की जाएगी। 


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फिर वह एक राह पर चला। यहां तक कि जब वह सूरज निकलने को जगह पहुंचा तो 
उसने सूरज को एक ऐसी कौम पर उगते हुए पाया जिनके लिए हमने सूरज के ऊपर 
कोई आड़ नहीं रखी थी। यह इसी तरह है। और हम जुलकरनेन के अहवाल (हालात) 

से बाखबर हैं। (89-9]) 





जुनकरनेन की दूसरी मुहिम ईरान के मश्रिक (पूर्व की तरफ थी। वह फुतूहात करता 
हुआ आगे बढ़ा। यहां तक कि वह ऐसे मकाम पर पहुंच गया जहां बिल्कुल गैर मुतमद्दिन 
(असभ्य) लोग बसते थे ‘उनके और आफताब (सूरज) के दर्मियान आड़ नहीं थी” का मतलब 
ग़ालिबन यह है कि वे ख़ानाबदोश थे और तामीरशुदा मकानात में रहने के बजाए खुले मैदानों 








मंजिशी गुजरते थे। 
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फिर वह एक राह पर चला। यहां तक कि जब वह दो पहाड़ों के दर्मियान पहुंचा तो 
उनके पास उसने एक कौम को पाया जो कोई बात समझ नहीं पाती थी। उन्होंने कहा 
कि ऐ जुलकरनेन, याजूज और माजूज हमारे मुल्क में फसाद फैलाते हैं तो कया हम तुम्हे 

कोई महसूल इसके लिए मुकर्रर कर दें कि तुम हमारे और उनके दर्मियान कोई रोक 
बना दो। (92-94) 


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पारा 6 830 सूह-8. अल-कहफ 


जुलकरनैन की तीसरी मुहिम गालिबन ईरान के शिमाल मश्रिक (उत्तर-पूर्व] की जानिब थी। 
वह ऐसे इलाके में पहुंचा जहां बिल्कुल वहशी किस्म के लोग आबाद थे। दूसरी कौमों से उनका 
मेल जोल नहीं हो सका था चुनांचे वह कोई और जबान मुश्किल ही से समझ पाते थे। 

यह ग़ालिबन बहरे केसपियन और बहरे असवद (काला सागर) के दर्मियान के पहाड़ थे। 
यहां वहशी कबीले दूसरी तरफ से आकर ग़ारतगरी करते और फिर पहाड़ी दर्रे के रास्ते से 
भाग जाते। जुलकरनेन ने यहां दोनों पहाड़ों के दर्मियान आहनी (लौह) दीवार खड़ी कर दी। 
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जुलकरनेन ने जवाब दिया कि जो कुछ मेरे रब ने मुझे दिया है वह बहुत है। तुम महनत 

से मेरी मदद करो। में तुम्हारे और उनके दर्मियान एक दीवार बना दूंगा। तुम लोहे के 
तख्ते लाकर मुझे दो। यहां तक कि जब उसने दोनों के दर्मियानी खला (रिक्त-स्थान) 
को भर दिया तो लोगों से कहा कि आग दहकाओ यहां तक कि जब उसे आग कर 
दिया तो कहा कि लाओ अब मैं उस पर पिघला हुआ तांबा डाल दूं। पस याजूज व 
माजूज न उस पर चढ़ सकते थे और न उसमें सुराख कर सकते थे। जुलकरनैन ने कहा 


कि यह मेरे रब की रहमत है। फिर जब मेरे रब का वादा आएगा तो वह उसे ठाकर 
बराबर कर देगा और मेरे रब का वादा सच्चा है। (95-98) 


मैय रूस केइलकेमेकुन्राजपहूड (Caucasus Mountains) वाकेअ हैं। उनका 
सिलसिला केसपियन समुद्र और ब्लैक समुद्र के दर्मियान फैला हुआ है। ये ऊंचे-ऊंचे पहाड़ 
हैं जो यूरोप और एशिया के दर्मियान कुदरती दीवार का काम देते हैं। इस पहाड़ी सिलसिले 
में कुछ मकामात पर दरे थे जिनसे जुनूब (दक्षिण) के इलाके से याजूज माजूज के वहशी 
कबीले शिमाल (उत्तर) की तरफ आ जाते और ईरानी ममलकत (राज्य) के हिस्से में गारतगरी 
करते । यहां पर आज भी एक कदीम दीवार के आसार मौजूद हैं। संभव है कि यही वह दीवार 
है जो जकन ने हिफजी मवसद के तहत तामीर की थी। 

दुश्मन के मुकाबले में 'लोहे की दीवार” खड़ी करना एक ऐसा कारनामा है जिस पर आम 
तौर पर लोगों में फ़ और घमंड के जज्बात पैदा हो जाते हैं। मगर जुलकरनैन ने ऐसी 





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सूरह-8. अल-कहफ 83I पारा 76 
नाकाबिले तसख़ीर (अलांघनीय) दीवार खड़ी करने के बाद भी इतनी तवाजोअ (विनम्रता) नहीं 

खोई। उसकी नजर अपने कारनामे पर नहीं थी बल्कि खुदा के इख्तियारात पर थी और ख़ुदा 

के मुकाबले में किसी इंसान को कोई जोर हासिल नहीं। 


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और उस दिन हम लोगों को छोड़ देंगे। वे मौजों की तरह एक दूसरे में घुसेंगे। और 
सूर फूंका जाएगा पस हम सबको एक साथ जमा करेंगे और उस दिन हम जहन्नम को 
मुंकिरों के सामने लाएंगे, जिनकी आंखों पर हमारी याददिहानी से पर्दा पड़ा रहा और 
वे कुछ सुनने के लिए तैयार न थे। (99-07) 


कियामत आने के बाद मौजूदा दुनिया एक और दुनिया बन जाएगी । उस वकत गालिबन 
ऐसा होगा कि दरियाओं और पहाड़ों की मौजूदा हदबंदियां तोड़कर ख़त्म कर दी जाएंगी। 
इंसानों का एक हुजूम होगा, जो एक दूसरे से उसी तरह टकराएगा जिस तरह समुद्र में मौजें 
टकराती हैं। 

आज लोगों को अक्ल की आंख से जहन्नम दिखाई जा रही है तो वह उन्हें नजर नहीं 
आती। कियामत में लोगों को पेशानी की आंख से जहन्नम दिखाई जाएगी। उस वक्त हर 
आदमी देख लेगा । मगर यह देखना किसी के कुछ काम न आएगा। क्योंकि नसीहत के जरिए 
जिसने अपनी आंख का पर्दा हटाया वही पर्दा हटाने वाला है। वर्ना कियामत के दिन पर्दा 
हटाया जाना तो सिफ इसलिए होगा कि सरकशी करने वालों को उनके आखिरी अंजाम तक 
पहुंचा दिया जाए 


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क्या इंकार करने वाले यह समझते हैं कि वे मेरे सिवा मेरे बंदों को अपना कारसाज 
बनाएं। हमने मुंकिरों की महमानी के लिए जहन्नम तैयार कर रखी है। (02) 





हक को मानना खुदा को मानना है और हक को न मानना खुदा को न मानना। जब भी 
आदमी हक को न माने तो वह किसी न किसी चीज या शख्सियत के बल पर ऐसा करता है। 
ऐसा हर भरोसा झूठा भरोसा है। क्योंकि इस दुनिया में खुदा के सिवा किसी को कोई इख्तियार 
हासिल नहीं। फैसले के दिन ऐसे लोगों को बचाने वाला कोई न होगा । क्योकि बचाने वाला तो 


पारा 76 832 सह-8. अल-कहफ 
सिर्फ खुदा था और उसकी हिमायत को उन्होंने पहले ही सरकशी करके खो दिया। 


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कहो क्या मैं तुम्हें बता दूं कि अपने आमाल के एतबार से सबसे ज्यादा घाटे में कौन 
लोग हैं। वे लोग जिनकी कोशिश दुनिया की जिंदगी में अकारत हो गई और वे 
समझते रहे कि वे बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। यही लोग हैं जिन्होंने अपने रब की 
निशानियों का और उससे मिलने का इंकार किया। पस उनका किया हुआ बर्बाद 
हो गया। फिर कियामत के दिन हम उन्हें कोई वजन न देंगे। यह जहन्नम उनका 

बदला है इसलिए कि उन्होंने इंकार किया और मेरी निशानियों और मेरे रसूलों का 
मजक उब्रया। (॥08-.06) 








आदमी दुनिया में अमल करता है। वह देखता है कि उसके अमल का नतीजा इज्जत 
और दौलत की सूरत में उसे मिल रहा है। अपना कोई काम उसे बिगड़ता हुआ नजर नहीं 
आता। वह समझ लेता है कि मैं कामयाब हूं। 

मगर यह सरासर नादानी है। खुदा के नक्शे में जिंदगी की कामयाबी का मेयार आख़िरत 
है। ऐसी हालत मेनिया की तरक को तरक समझना खुदा के नको के खिलाफ अपना 
नवशा बनाना है। यह आहित को हजफ करके जिगी के मसले को देखना है। जाहिर है 
कि ऐसे लोग कभी कामयाब नहीं हो सकते। 

खुदा अपनी निशानियां जाहिर करता है। मगर जो लोग अपने जेहन को दुनिया में लगाए 
हुए हों वे आखिरत की निशानियों से मुतअस्सिर नहीं होते। ख़ुदा अपने दलाइल खोलता है 
मगर जो लोग दुनिया को बातों में गुम हों उन्हें आख़िरत को दलीलें अपील नहीं करतीं। ऐसे 
लोग हिदायत के कनारे खड़े होकर भी हिदायत को कुबूल करने से महरूम रहते हैं। उन्होंने 
खुदा की बातों को कोई वजन नहीं दिया। फिर कैसे मुमकिन है कि ख़ुदा उन्हें अपने यहां 
किसी वजन का मुप्तहिक समझे। 


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सूह-8. अल-कहफ 833 


बेशक जो लोग ईमान लाए और उन्होंने नेक अमल किया उनके लिए फिरदौस के बागों 
की महमानी है। उसमें वे हमेशा रहेंगे। वहां से कभी निकलना न चाहेंगे। (07-08) 


पारा 6 


मौजूदा दुनिया में ईमान और अमले सालेह की जिंदगी इख्तियार करना जबरदस्त कुर्बानी 
का सुबूत देना है। यह छुपी हुई जन्नत के ख़ातिर नजर आने वाली जन्नत को छोड़ना है। 
यह उस मुश्किलतरीन इम्तेहान में पूरा उतरना है जबकि आदमी मात्र दलील की सतह पर हक 
को पहचानता है और अपनी जिंदगी उसके रास्ते पर डाल देता है, हालांकि ऐसा करने के लिए 
वहां कोई दबाव नहीं होता। 

जो लोग इस मअरफत (अन्तर्ज्ञान) और इस कारकरर्दगी को सुबूत दें उनका इनाम यही 
है कि उन्हें अबदी (चिरस्थाई) राहत व आराम के बागों में दाखिल कर दिया जाए 


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कहो कि अगर समुद्र मेरे रब की निशानियों को लिखने के लिए रोशनाई हो जाए तो 
समुद्र ख़त्म हो जाएगा इससे पहले कि मेरे रब की बातें ख़त्म हों, अगरचे हम उसके 
साथ उसी के मानिंद और समुद्र मिला दें। (09) 


जो लोग खुदा के पैग़ाम को नहीं मानते वे ऐसी चीज को नहीं मानते जो तमाम 
साबितशुदा चीजों से ज्यादा साबितशुदा है। वह इतनी मुसल्लम (सुस्थापित) है जिसे लिखने 
के लिए दुनिया के तमाम दरख़्तों के कलम भी नाकाफी साबित हों। तमाम समुद्रों को स्याही 
भी ख़ुश्क हो जाए इससे पहले कि उसकी फेहरिस्त ख़त्म हो। 

मगर इंसान कैसा जालिम है कि इसके बावजूद वह हक (सत्य) को नहीं पहचानता। 


इसके बावजूद वह अपनी जिंदगी को हक के मुताबिक नहीं ढालता। 
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कहो कि मैं तुम्हारी ही तरह एक आदमी हूं। मुझ पर “वही” (ईश्वरीय वाणी) आती 
है कि तुम्हारा माबूद (पूज्य) सिर्फ एक ही माबूद है। पस जिसे अपने रब से मिलने की 


उम्मीद हो उसे चाहिए कि नेक अमल करे और अपने रब की इबादत में किसी को 
शरीक न ठहराए। (।0) 








पैगम्बर खुदा या फरिश्ता नहीं होता। वह इंसानों की तरह एक इंसान होता है। उसकी 
मजीद खुसूसियत सिर्फ यह होती है कि उस पर गैर मरई (गैर-महसूस) जरिए से खुदा की 
“वही” आती है। गोया पैगम्बर एक ऐसी हस्ती है जो अपने जाहिर के एतबार से एक इंसान 


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पारा ।6 834 सूरह-9. मरयम 


है और अपनी अंदरूनी हकीकत के एतबार से नुमाइंदए खुदा । 

यही वजह है कि हक को पाने के लिए जौहर शनासी की सलाहियत दरकार होती है। 
हक को पाना सिर्फ उस शख्स के लिए मुमकिन होता है जो हकीकत को उसके गेबी रूप में 
देख सके। जो “इंसान! की सतह पर 'पैग़म्बर' को पहचानने का सुबूत दे। 


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आयतें-98 सूरह-।9. मरयम रुकूअ-6 


(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 


काफ० हा० या० अइन० साद०। यह उस रहमत का जिक्र है जो तेरे रब ने अपने बंदे 
जकरिया पर की। जब उसने अपने रब को छुपी आवाज से पुकारा। (-3) 





हजरत जकरिया हजरत मरयम के बहनोई थे। हजरत मरयम के वालिद का नाम इमरान 
था। हजरत मरयम अभी सिर्फ चन्द साल की थीं कि उनके वालिद का इंतकाल हो गया । वह 
हैकल के नाजिमे आला थे। उनके बाद हजरत जकरिया हैकल के नाजिमे आला (काहिनों के 
सरदार) मुकर हुए । उस जमाने में हजरत मरयम अपनी वालिदा की नज् के मुताबिक हैकल 
की खिम मेदे दी गई थीं। हजरत जकरिया चूके हजरत मरयम के करीबी अजीज ये और 
हैकल के सरदार भी इसलिए वही हजरत मरयम की तर्बियत के जिम्मेदार करार पाए। 

हजरत जकरिया अलैहिस्सलाम ने छुपी आवाज' में खुदा से दुआ की। यह दुआ 
हैरतअंगेज तौर पर पूरी हुई। इससे मालूम होता है कि सच्ची दुआ क्या है। सच्ची दुआ 
दरअस्ल इस यकीन का बेताबाना इज्हार है कि सारा इस़्तियार सिर्फ खुदा के पास है। उसी 
के देने से आदमी को मिलेगा और वह न दे तो कभी किसी को कुछ नहीं मिल सकता । सच्ची 
दुआ का सारा रुख़ सिर्फ एक खुदा की तरफ होता है। यही वजह है कि सच्ची दुआ सबसे 
ज्यादा उस वक्‍त उबलती है जबकि आदमी तंहाई में हो। जहां उसके और खुदा के सिवा कोई 
तीसरा न पाया जाए 


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जकरिया ने कहा, ऐ मेरे रब, मेरी हड़डियां कमजोर हो गई हैं। और सर में बालों की 


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सूरह-9. मरयम 835 पारा 76 


सफेदी फैल गई है और ऐ मेरे रब, तुझसे मांग कर में कभी महरूम नहीं रहा। और 
मैं अपने बाद रिश्तेदारों की तरफ से अंदेशा रखता हूं। और मेरी बीवी वांझ है, पस 
मुझे अपने पास से एक वारिस दे जो मेरी जगह ले और याकूब की आल (संतति) की 
भी। और ऐ मेरे रब उसे अपना पसंदीदा बना। (4-6) 





यह उस बंदे की जबान से निकली हुई दुआ है जो दीन का मिशन चलाते हुए बिल्कुल 
बूढ़ा हो गया था। और अहले ख़ानदान में कोई शख्स उसे नजर नहीं आता था जो उसके बाद 
उसके मिशन को जारी रखे। एक तरफ अपना इज्ज (निर्बलता) और दूसरी तरफ मिशन की 
अहमियत, ये दोनों एहसासात उसकी जबान पर उस दुआ की सूरत में ढल गए जो मज्कूरा 
आयात में नजर आते हैं। गोया यह आम मअनों में महज एक बेटे की दुआ न थी। बल्कि 
इस बात की दुआ थी कि मुझे एक ऐसा लायक शख्स हासिल हो जाए जो मेरे बाद मेरे 
पैग़म्बराना मिशन को जारी रखे। 
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ऐ जकरिया, हम तुम्हें एक लड़के की बशारत (शुभ सूचना) देते हैं जिसका नाम यहया 
होगा। हमने इससे पहले इस नाम का कोई आदमी नहीं बनाया। उसने कहा, ऐ मेरे 
रब, मेरे यहां लड़का कैसे होगा जबकि मेरी बीवी बांझ है। और में बुढ़ापे के इंतिहाई 
दर्जे को पहुंच चुका हूं। (7-8) 





यह दुआ बेटे की सूरत में कुबूल हुई। एक ऐसा बेटा जैसा बेटा आम तौर पर लोगों के 
यहां पैदा नहीं होता। एक शख्स जो आखिरी हद तक बूढ़ा हो चुका हो और जिसकी बीवी 
पूरी उम्र तक बांझ रही हो। उसके यहां बच्चा पैदा होना यकीनन एक इंतिहाई गैर मामूली बात 
है। इस बिना पर हजरत जकरिया को इस ख़बर पर खुशी के साथ तअज्जुब भी हुआ। मिलने 
वाली नेमत के गेह मुतववकअ (अप्रयाशित) हेने का एहसास उनकी जबान से इन अल्फाज 
में निकल पड़ा कि मेरे यहां कैसे बच्चा पैदा होगा जबकि में और मेरी बीवी दोनों इस एतबार 
से अजकार रफ्ता (असमर्थ) हो चुके हैं। 


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जवाब मिला कि ऐसा ही होगा। तेरा रब फरमाता है कि यह मेरे लिए आसान है। मैंने 


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पारा ।6 836 सूरह-9. मरयम 


इससे पहले तुम्हें पैदा किया, हालांकि तुम कुछ भी न थे। जकरिया ने कहा कि ऐ मेरे 
रब, मेरे लिए कोई निशानी मुक्रर कर दे। फरमाया कि तुम्हारे लिए निशानी यह है 
कि तुम तीन शब व रोज लोगों से बात न कर सकोगे हालांकि तुम तंदुरुस्त होगे। फिर 
जकरिया इबादत की मेहराब से निकल कर लोगों के पास आया और उनसे इशारे से 
कहा कि तुम सुबह व शाम ख़ुदा की पाकी बयान करो। (9-2) 


पहले इंसान का बाप और मां के बगैर पैदा होना जिस तरह एक खुदाई मोजिजा (दिव्य 
चमत्कार) है इसी तरह बाप और मां के जरिए बच्चे का पैदा होना भी एक खुदाई मोजिजा 
है। चाहे ये मां-बाप बूढ़े हों या जवान हकीकत यह है कि यह ख़ुदा है जो इंसान को पैदा 
करता है। उसी ने पहले पैदा किया और वही आज भी पैदा करने वाला है। दूसरी हर चीज 
महज एक जहिंशे बहाना है न कि हवीवी वजह। 

हजरत जकरिया ने रहमते खुदावंदी के मिलने की अलामत दरयापत की। बताया गया 
कि तंदरुस्त होने के बावजूद जब कामिल तीन रात दिन तक लोगों से जबान के जरिए बात 
न कर सको, उस ववत समझ लेना कि हमल (गर्भ) करार पा गया है। चुनांचे जब वह वक्‍त 
आया तो जबान बातचीत से रुक गई। हजरत जकरिया अपने इबादतख़ाने से निकले और 
लोगों से इशारे के साथ कहा कि सुबह व शाम अल्लाह को याद करो और उसकी इबादत व 
इताअत (आज्ञापालन) में मशगूल रहो। 

हजरत जकरिया का गालिबन यह नियम था कि वह रोजाना लोगों को वअज व नसीहत 
फरमाते थे। जब जबान बोलने से रुक गई तब भी आप मकामे इज्तिमाअ पर आए और लोगों 
को नसीहत को। अलबत्ता चूँकि जबान चल नहीं रही थी, आपने इशारे के साथ लोगों को 
तत्वीन (नसीहत) फमाई। 


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ऐ यहया किताब को मजबूती से पकड़ो। और हमने उसे बचपन ही में दीन की समझ 
अता की। और अपनी तरफ से उसे नर्मदेली और पाकीजगी (पवित्रता) अता की। और 
वह परहेजगार और अपने वालिंदैन का ख़िदमतगुजार था। और वह सरकश और 
नाफरमान न था। और उस पर सलामती है जिस दिन वह पेदा हुआ और जिस दिन 
वह मरेगा और जिस दिन वह जिंदा करके उठाया जाएगा। (2-5) 





कहा जाता है कि हजरत यहया जब छोटे थे तो लड़कों ने एक बार उन्हें खेलने के लिए 


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सूरह-।9. मरयम 837 पारा 76 


बुलाया । उन्होंने इंकार कर दिया और कहा कि 'हम इसलिए नहीं बनाए गए हैं” इससे अंदाजा 
होता है कि उन्हें बचपन से यह शुऊर हासिल था कि जिंदगी को बामक्सद होना चाहिए । इसी 
तरह उनके अंदर पेदाइशी तौर पर सोज व गुदाज (शालीनता, सहदयता) मौजूद था वह 
नफ्सियाती गिरहों (कुप्रवृत्तियों) से आजाद थे। वे अपने वालिदेन के हुकूक अदा करने वाले 
थे। वे सरकशी और नाफरमानी से बिल्कुल खाली थे। 

यही वे औसाफ (गुण) हैं जो आदमी को इस काबिल बनाते हैं कि वह किसी हाल में 
ख़ुदा की किताब से न हटे। और इन्हीं औसाफ वाला आदमी वह है जिस पर दुनिया में भी 
ख़ुदा की रहमत नाजिल होती है और आख़िरत में भी खुदा की रहमत। 


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और किताब में मरयम का जिक्र करो जबकि वह अपने लोगों से अलग होकर शरकी पूर्वी 
मकान में चली गई। फिर उसने अपने आपको उनसे पर्दे में कर लिया। फिर हमने उसके 
पास अपना फरिश्ता भेजा जो उसके सामने एक पूरा आदमी बनकर जाहिर हुआ। 
मरयम ने कहा, में तुझसे खुदाए रहमान की पनाह मांगती हूं अगर तू खुदा से डरने वाला 
है। उसने कहा, में तुम्हारे रब का भेजा हुआ हूं ताकि तुम्हें एक पाकीजा लड़का दूं। 
मरयम ने कहा, मेरे यहां कैसे लड़का होगा, जबकि मुझे किसी आदमी ने नहीं छुवा और 
न मैं बदकार (बदचलन) हूं। फरिश्ते ने कहा कि ऐसा ही होगा। तेरा रब फरमाता है कि 
यह मेरे लिए आसान है। और ताकि हम उसे लोगों के लिए निशानी बना दें और अपनी 
जानिब से एक रहमत। और यह एक तैदा बात है। (6-2]) 





हजरत मरयम अपनी वालिदा की नज़ के मुताबिक हैकल (बैतुल मवसद) की ख़्दिमत 
के लिए दे दी गई थीं। कदीम (प्राचीन) हेकल का मश्रिकी हिस्सा औरतों के लिए ख़ास था। 
वह उस हिस्से में एक तरफ पर्दा डाल कर मोतकिफ (एकांतवासीय) हो गईं। इसके बाद 
अचानक एक रोज ऐसा हुआ कि उन्होंने देखा कि एक तंदुरुस्त व तवाना (सशक्त) आदमी 
उनके सामने खड़ा हुआ है। इस मंजर से उनका घबरा उठना बिल्कुल फितरी था। मगर 
आदमी ने बताया कि वह फरिश्ता है। और खुदा की तरफ से इसलिए आया है कि हजरत 


पारा ।6 838 सूरह-9. मरयम 


मरयम को मोजिजाती तौर पर एक बच्चा अता करे। 

हजरत मसीह अलैहिस्सलाम का इस तरह मोजिजाती तौर पर पैदा होना ख़ुदा की एक 
अजीम निशानी थी। इसका मकसद यह था कि यहूद आपके ख़ुदा के संदेशवाहक होने पर 
शक न करें और आप ख़ुदा की तरफ से जो बातें बताएं उन्हें मान लें। मगर इतनी खुली हुई 
निशानी के बावजूद उन्होंने हजरत मसीह का इंकार कर दिया। 


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पस मरयम ने उसका हमल (गर्भ) उठा लिया और वह उसे लेकर एक दूर की जगह चली 


गई। फिर दर्देजह (प्रसव-पीड़) उसे खजूर के दरख्त की तरफ ले गया। उसने कहा, काश 
मैं इससे पहले मर जाती और भूली बिसरी चीज हो जाती। (22-23) 





हजरत मसयम एक मुअज्जज़ मजहबी घराने की गैर शादीशुदा ख़ातून थीं। ऐसी एक 
खातून का हामिला (गर्भवती) होना उसके लिए एक ऐसी आजमाइश है जिससे बड़ी कोई 
आजमाइश नहीं । इस परेशानी में मुब्तिला होने के बाद वह ख़ामोशी के साथ हैकल से निकलीं 
और दूर के एक मकाम (बैतेलहम) चली गई। जब वक्‍त पूरा हुआ और दर्देजह (प्रसव-पीड़ा) 
की कैफियत पैदा हुई तो वह बस्ती से बाहर एक खजूर के नीचे बैठ गई। एक पाकबाज गैर 
शादीशुदा ख़तून पर ऐसे वक्‍त में जो कैफियम गुजरेगी उसकी तस्वीर इन अल्फज में मिलती 
है काश में इससे पहले ख़त्म हो जाती और लोगों के हाफिजे में मेरा कोई वजूद न होता। 
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फिर मरयम को उसने उसके नीचे से आवाज दी कि ग़मगीन न हो। तेरे रब ने तेरे नीचे 
एक चशमा (स्रोत) जारी कर दिया है और तुम खजूर के तने को अपनी तरफ हिलाओ। 
उससे तुम्हारे ऊपर पकी खजूरें गिरेंगी। पस खाओ और पियो और आंखे ठंडी करो। फिर 
अगर तुम कोई आदमी देखो तो उससे कह दो कि मैंने रहमान का रोजा मान रखा है 
तो आज मैं किसी इंसान से नहीं बोलूंगी। (24-26) 








इतनी नाजुक आजमाइश में मुब्तिला होने के बाद हजरत मरयम के लिए तस्कीन का 
सिर्फएक ही जरिया हो सकता था। वह यह कि खा का फरिश्ता जाहिर होकर उन्हें यकीन 


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सूरह-9. मरयम 839 पारा 76 


दिलाए । चुनांचे यही हुआ। ऐन उस वक्‍त फरिश्ते ने आकर आवाज दी कि घबराओ मत। यह 
सब जो हो रहा है यह खुदा के मंसूबे के तहत हो रहा है। तुम्हारे करीब साफ पानी का चशमा 
(स्रोत) रवां कर दिया गया है। और खजूर का यह दर तुम्हें हर वक्‍त ताजा फल मुहय्या करेगा। 
इससे खाओ और पियो। 

बच्चे के सिलसिले में फरिश्ते ने यह कहकर मुतमइन कर दिया कि ख़ुदा के मोजिजे से 
पैदा होने वाला यह ख़ुद तुम्हारे दिफाअ (प्रतिरक्षा) के लिए काफी है। तुम बनी इस्राईल के 
रवाज के मुताबिक चुप का रोजा रख लो। और जब किसी आदमी से तुम्हारा सामना हो और 
वह तुमसे पूछे तो तुम बच्चे को तरफ इशारा कर दो। वह ख़ुद जवाब देकर तुम्हारी पाकी 
बयान कर देगा। 


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फिर वह उसे गोद में लिए हुए अपनी कौम के पास आई। लोगों ने कहा, ऐ मरयम, 
तुमने बड़ा तूफान कर डाला। ऐ हारून की बहिन, न तुम्हारा बाप कोई बुरा आदमी 
था और न तुम्हारी मां बदकार (बदचलन) थी। (27-28) 





फरिश्ते की बात सुनने के बाद हजरत मरयम के अंदर एतमाद पैदा हो गया। वह बच्चे 
को लेकर अपने ख़ानदान वालों के पास वापस आई। उन्हें इस हाल में देखकर यहूद के तमाम 
लोग उन्हें मलामत करने लगे। हजरत मरयम ने वही किया जो फरिश्ते ने उन्हें बताया था। 
उन्होंने खुद खामोश रहते हुए बच्चे की तरफ इशारा कर दिया। मतलब यह था कि यह लड़का 
कोई आम किस्म का लड़का नहीं है। और इसका सुबूत यह है कि तुम इससे कलाम करो, 
वह गोद का बच्चा होने के बावजूद तुम्हारे कलाम को समझेगा और साफ जबान में तुम्हारा 


जवाब देगा। 
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फिर मरयम ने उसकी तरफ इशारा किया। लोगों ने कहा, हम इससे किस तरह बात 


करें जो कि गोद में बच्चा है। बच्चा बोला, में अल्लाह का बंदा हूं। उसने मुझे किताब 
दी और मुझे नबी बनाया। और मैं जहां कहीं भी हूं उसने मुझे बरकत वाला बनाया 





पारा ।6 840 सूरह-9. मरयम 


हे। और उसने मुझे नमाज और जकात की ताकीद की है जब तक में जिंदा रहूं। और 

मुझे मेरी मां का ख़िदमतगुजार बनाया है। और मुझे सरकश, बदबख्त नहीं बनाया है। 
और मुझ पर सलामती है जिस दिन मैं पैदा हुआ और जिस दिन मैं मरूंगा और जिस 
दिन में जिंदा करके उठाया जाऊंगा। (29-33) 





हजरत मरयम के इशारे के बावजूद यहूद की समझ में नहीं आता था कि वे एक छोटे 
से बच्चे से किस तरह बात करें। उस वक्‍त हजरत मसीह खुद बोल पड़े। उनकी मोजिजाना 
गुप्तुगू में एक तरफ हजरत मरयम की कामिल बरा-्त (विरक्ति) थी। दूसरी तरफ यह एक 
पेशगी शहादत (गवाही) थी। ताकि यह नोमोलूद (नवजात) जब बड़ा होकर नुबुव्वत का 
एलान करे तो लोगों के लिए आपकी नुबुव्वत पर शक करने की कोई गुंजाइश बाकी न रहे। 
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यह है ईसा इब्ने मरयम, सच्ची बात जिसमें लोग झगड़ रहे हैं। अल्लाह ऐसा नहीं कि 
वह कोई औलाद बनाए। वह पाक है। जब वह किसी काम का फैसला करता है तो 
कहता है कि हो जा तो वह हो जाता है। (३4-35) 





हजरत मसीह की गैर मामूली पेदाइश एक अनोखा वाकया था। इस अनोखे वाकये की 
तौजीह में मसीही उलेमा ने अजीब-अजीब अकीदे बना लिए। मगर हमेशा तौजीह की एक हद 
होती है। और उस हद के अंदर रहकर ही किसी चीज की तौजीह की जा सकती है। हजरत 
मसीह की गैर मामूली पेदाइश की तौजीह में उन्हें खुदा का बेटा बना देना हद से बाहर जाना 
है क्योंकि यह खुदा की यकताई (एक होने) के मनाफी है कि उसकी कोई औलाद हो। 
साथ ही यह कि कायनात में बेशुमार अनोखे वाकेयात हैं जिन्हें हम रोजाना देखते हैं। इस 
निया की हर चीज एक अनोखा वाक्या है। अब अगर मजीद एक अनोखी चीज सामने आए 
तो इंसान को यह कहना चाहिए कि खुदा ने जिस तरह दूसरी बेशुमार अनोखी चीजें पैदा की हैं 
उसी तरह वह इस अनोखी चीज का भी ख़ालिक है जो आज हमारे सामने जाहिर हुई है। 


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और बेशक अल्लाह मेरा रब है और तुम्हारा रब भी, पस तुम उसी की इबादत करो। 
यही सीधा रास्ता है। फिर उनके फिरकों (समुदायों) ने आपस में मतभेद किया। पस 





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सूरह-।9. मरयम 84] पारा 6 


इंकार करने वालों के लिए एक बड़े दिन के आने से ख़राबी है। जिस दिन ये लोग हमारे 
पास आएंगे। वे ख़ूब सुनते और ख़ूब देखते होंगे, मगर आज ये जालिम खुली हुई 
गुमराही में हैं। (36-38) 


हजरत मसीह और दूसरे तमाम पेगम्बरों ने एक ही सिराते मुस्तकीम (सन्मार्ग) की तरफ 
लोगों को बुलाया। वह यह कि आदमी ख़ुदा को अपना रब बनाए और उसी की इबादत करे। 
मगर हमेशा यह हुआ कि ख़ुदसाख्ता (स्वनिर्मित) तावीलात व तशरीहात के जरिए इस सिराते 
मुस्तकीम से इंहिराफ (भटकाव) किया गया। किसी ने एक बात निकाली और किसी ने दूसरी 
बात । इस तरह इख्तेलाफ (मत-भिन्नता) पैदा हुआ और एक दीन कई दीनों में तक्‍्सीम हो गया । 

दुनिया में भी हक बात पूरी तरह वाजेह है मगर यहां इंसान को इम्तेहान की वजह से 
आजादी हासिल है। वह चाहे तो माने और चाहे तो न माने। इस वकती आजादी की वजह 
से इंसान गलतफहमी में पड़ जाता है। और सरकशी करने लगता है। उसे दलाइल (तर्को) के 
जरिए बताया जाता है कि ख़ुदा की सिराते मुस्तकीम क्या है। मगर वह उसे नहीं मानता। 
लेकिन आखिरत में जब आजादी छिन चुकी होगी, इंसान की वही आंखें और वही कान ख़ूब 
देखने और सुनने वाले बन जाएंगे, जो आज ऐसे मालूम होते हैं गोया कि वे देखना और सुनना 
जानते ही न हों। 





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और इन लोगों को उस हसरत (प्रश्‍चाताप) के दिन से डरा दो जब मामले का फैसला 
कर दिया जाएगा, और वे गफलत में हैं। और वे ईमान नहीं ला रहे हैं। बेशक हम 

ही जमीन और जमीन के रहने वालों के वारिस हेंगे। और लोग हमारी ही तरफ लौटाए 
जाएंगे। (39-40) 





आदमी दुनिया में नाकामी से दो चार होता है तो उसे मौका होता है कि वह दुबारा नई 
जिंदगी शुरू कर सके। उसके पास साथी और मददगार होते हैं जो उसे संभालने के लिए खड़े 
हो जाते हैं। मगर आखिरत की नाकामी ऐसी नाकामी है जिसके बाद दुबारा संभलने का कोई 
इम्कान नहीं। कैसा अजीब हसरत का लम्हा होगा जब आदमी यह जानेगा कि वह सब कुछ 
कर सकता था मगर उसने नहीं किया। यहां तक कि करने का वक्त ही ख़त्म हो गया। 

सारी ख़राबियों की जड़ यह है कि आदमी यह समझ लेता है कि वह अपना मालिक 
आप है। मगर हकीकत यह है कि यह सिर्फ एक दर्मियानी वकम (अंतराल) है। पहले भी 
सिर्फ खुदा तमाम चीजों का मालिक था और आखिर में भी यह सिर्फ खुदा है जो तमाम 
चीजों का मालिक होगा। खुदा के सिवा कोई नहीं जिसे यहां हकीकी मअनों में कोई 
मालिकाना हैसियत हासिल हो। 


पारा 6 842 सूरह-]9. मरयम 


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और किताब में इब्राहीम का जिक्र करो। बेशक वह सच्चा था और नबी था। जब उसने 
अपने बाप से कहा कि ऐ मेरे बाप, ऐसी चीज की इबादत क्यों करते हो जो न सुने 
और न देखे, और न तुम्हारे कुछ काम आ सके। ऐ मेरे बाप मेरे पास ऐसा इलम आया 
है जो तुम्हारे पास नहीं है तो तुम मेरे कहने पर चलो। मैं तुम्हें सीधा रास्ता दिखाऊंगा। 
ऐ मेरे बाप शैतान की इबादत न करो, बेशक शैतान खुदाए रहमान की नाफरमानी 

करने वाला है। ऐ मेरे बाप, मुझे डर है कि तुम्हें खुदाए रहमान का कोई अजाब पकड़ 

ले और तुम शैतान के साथी बनकर रह जाओ। (4-45) 


हजरत इब्राहीम इराक में पैदा हुए। उनके वालिद आजर बुतपरस्त थे। आपको नुबुब्बत 
मिली तो आपने अपने वालिद को नसीहत की कि बुतों की इबादत छोड़ दो और ख़ुदा की 
इबादत करो। वर्ना तुम ख़ुदा की पकड़ में आ जाओगे। 

शैतान की इबादत का मतलब ख़ुद शैतान की इबादत नहीं है बल्कि शैतान की बताई 
हुई चीज की इबादत है। इंसान के अंदर फितरी तौर पर यह जज्बा रखा गया है कि वह किसी 
को ऊंचा दर्जा देकर उसके आगे अपने जज्बाते अकीदत को निसार करे। इस जज्बे का 
हकीकी मर्कज खुरा है। मगर शैतान मूरन्ललिफ तरीके से लोगोंके जेहन को फेरता है। ताकि 
वह इंसान को मुश्रिक (बहुदेववादी) बना दे, ताकि इंसान गैर ख़ुदा को वह चीज दे दे जो उसे 
सिर्फ खुदा को देना चाहिए 


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बाप ने कहा कि ऐ इब्राहीम, क्या तुम मेरे माबूदों (पूज्यो) से फिर गए हो। अगर तुम 
बाज न आए तो मैं तुम्हें संगसार (पत्थरों से मार डालना) कर दूंगा। और तुम मुझसे 
हमेशा के लिए दूर हो जाओ। इब्राहीम ने कहा, तुम पर सलामती हो। मैं अपने रब 


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सूरह-9. मरयम 843 पारा 6 
से तुम्हारे लिए बख्शिश की दुआ करूंगा, बेशक वह मुझ पर महरबान है। और में तुम 
लोगों को छोइ़ता हूं और उन्हें भी जिन्हें तुम अल्लाह के सिवा पुकारते हो। और मैं अपने 
रब ही को पुकारूगा। उम्मीद है कि में अपने रब को पुकार कर महरूम (वंचित) नहीं 
रहूंगा । (46-48) 





हजरत इब्राहीम ने जिन बुतों पर तंकीद की, वे सादा मअनों में महज पत्थर के टुकड़े न 
थे बल्कि वे उन हस्तियों के नुमाइंदे थे जिनकी तिलिस्माती अज्मत माजी (अतीत) की तवील 
रिवायात के नतीजे में लोगों के जेहनों पर कायम हो चुकी थी। इस तकाबुल में 'नौजवान 
इब्राहीम' एक मामूली शख नजर आए और इराक के बुत अज्मतों के पहाड़ दिखाई दिए। 
यही वजह है कि हजरत इब्राहीम के वालिद ने हकारत के साथ उनकी नसीहत को नजरअंदाज 
कर दिया। 

हक की दावत एक मकाम पर शुरू की जाए और फिर वह उस मरहले में पहुंच जाए कि 
लोग उसे अच्छी तरह समझ चुके हों मगर वे मानने के बजाए जारिहियत (आक्रामकता) पर 
उतर आएं तो उस वकत दाऔ अपने मकामे अमल को तब्दील कर देता है। इसी का दूसरा 
नाम हिजरत है। मकामे अमल की यह तब्दीली कभी करीब के दायरे में होती है और कभी 
दूर के दायरे में। 

दावत का अमल एक ख़ुदाई अमल है। यही वजह है कि वह जब भी शुरू होता है 
रब्बानी नफ्सियात के साथ शुरू होता है। मदऊ अगर दाओ (आह्वानकर्ता) के साथ जुल्म व 
हकारत का मामला करे तब भी दाओ के दिल में उसके लिए नर्म गोशा मौजूद रहता है। इसी 
तरह दाऔ अगर अपने माहौल में बेयारोमददगार हो जाए तब भी वह मायूस नहीं होता 
क्योंकि उसका अस्ल सहारा खुदा होता है। वह यकीन रखता है कि वह बदस्तूर उसके साथ 





मौजूद है और हमेशा मौजूद रहेगा। 
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पस जब वह लोगों से जुदा हो गया। और उनसे जिन्हें वे अल्लाह के सिवा पूजते थे 
तो हमने उसे इस्हाक और याकूब अता किए और हमने उनमें से हर एक को नबी 
बनाया। और उन्हें अपनी रहमत का हिस्सा दिया और हमने उनका नाम नेक और 
बुलन्द किया। (49-50) 


आदमी अपने खानदान और अपने गिरोह के साथ जीता है। ऐसी हालत में किसी शख्स 
को उसके खानदान और उसके गिरोह से निकाल देना गोया उसे बर्बादी के सहरा में धकेल 
देना है। मगर हजरत इब्राहीम के वाकये के सूरत में अल्लाह तआला ने हमेशा के लिए दिखा 
दिया कि जो बंदा ख़ालिस अल्लाह के लिए बेघर किया जाए उसे अल्लाह अपनी तरफ से 


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पारा 6 844 सूरह-।9. मरयम 


ज्यादा अच्छा घर अता कर देता है। जो शख्स ख़ालिस अल्लाह के लिए गुमनामी में डाल दिया 
जाए उसे अल्लाह ज्यादा बड़े पेमाने पर नेक नाम बना देता है। 


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और किताब में मूसा का जिक्र करो। बेशक वह चुना हुआ था और रसूल नबी था। 
और हमने उसे कोहे तूर के दाहिनी जानिब से पुकारा और उसे हमने राज की बातें करने 
के लिए करीब किया। और अपनी रहमत से हमने उसके भाई हारून को नबी बनाकर 
उसे दिया। (5.-53) 





हजरत मूसा मदयन से चलकर मिस्र जा रहे थे। इस सफर में वह कोहे तूर से गुजरे। वहां 
खुदा ने उन्हें पैगम्बरी अता फरमाई। अल्लाह तआला ने पिछले हर दौर में अपने पैगम्बर 
मुंतख़ब किए और उनके पास अपना कलाम भेजा। यह कलाम हमेशा जिब्रील फरिश्ते के 
जरिए आया। मगर हजरत मूसा के साथ यह खुसूसी मामला हुआ कि अल्लाह ने उनसे 
बराहेरास्त कलाम किया। यह भी हजरत मूसा की ख़ुसूसियत है कि आपके लिए ख़ुदा ने एक 
अतिरिक्त पैगम्बर (हजरत हारून) मुकर्रर फरमाया। जो आपका मददगार हो। इस खुसूसियत 
की वजह शायद वे मख़्मूस हालात हों जिनमें आपको अपना पैग़म्बराना फर्ज अंजाम देना था। 
क्योंकि आपके सामने एक तरफ फिरऔन जैसा जाबिर बादशाह था और दूसरी तरफ यहूद 
जैसी कौम जो अपने जवाल (पतन) की आखिरी हद को पहुंच चुकी थी। 

रहमत व नुसरत के ये मामलात अपनी इंतिहाई सूरत में सिर्फ पैग़म्बरों के लिए ख़ास हैं। 
ताहम अल्लाह अपने मोमिन बंदों के साथ भी दर्जा-ब-दर्जा इसी किस्म का मामला फरमाता 
है। वह उनके हस्बे इस्तेदाद यथा सामर्थ्य उन्हें अपने किसी काम को करने की तौफीक देता 
है। वह उन पर ख़ामोशी से अपनी बात इलका करता है। वह उनके लिए ऐसी ख़ुसूसी ताईद 
का इंतिजाम करता है जो आम हालात में किसी को नहीं मिलतीं। 


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और किताब में इस्माईल का जिक्र करो। वह वादे का सच्चा था और रसूल नबी था। 
वह अपने लोगों को नमाज और जकात का हुक्म देता था। और अपने रब के नजदीक 





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सूरह-।9. मरयम 845 पारा 6 


पसंदीदा था। और किताब में इदरीस का जिक्र करो। बेशक वह सच्चा था और नबी 
था। और हमने उसे बुलन्द रुतबे तक पहुंचाया। (54-57) 





हजरत इस्माईल हजरत इब्रहीम के फरजंद थे। हजरत इदरीस एक पेगम्बर हैं जो 
ग़ालिबन हजरत नूह से पहले पैदा हए । इन पैग़म्बरों की दो ख़ास सिफतें यहां बयान की गई 
हैं सच्चा होना, लोगों को नमाज (खुदा की इबादत) और जकात (बंदों के ह्यूक की 
अदायगी) की तलकीन करना । इर्शाद हुआ है कि इन सिफतों ने उन्हें खुदा का पसंदीदा बना 
दिया और वे इंतिहाई आला दर्जे पर पहुंचा दिए गए। 

जिन शख्मियतों को ख़ुदा ने अपनी पैग़म्बरी के लिए चुना। उनके अंदर ये सिफतें कमाल 
दर्जे में मौजूद होती थीं। ताहम आम अहले ईमान से भी यही सिफात मत्लूब हैं और उन्हें भी 
दर्जा-ब-दर्जा इसके वे समरात (प्रतिफल) हासिल होते हैं जो ख़ुदा ने इन सिफतों के लिए 
अबदी तौर पर मुक्रर किए हैं। 


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ये वे लोग हैं जिन पर अल्लाह ने पेशम्बरों में से अपना फज्ल फरमाया। आदम की 

औलाद में से और उन लोगों में से जिन्हें हमने नूह के साथ सवार किया था। और 
इब्राहीम और इस्राईल की नस्ल से और उन लोगों में से जिन्हें हमने हिदायत बर्शी 
और उन्हें मकबूल बनाया। जब उन्हें खुदाए रहमान की आयतें सुनाई जातीं तो वे सज्दा 
करते हुए और रोते हुए गिर पड़ते। (58) 





यहां उन पेग़म्बरों की तरफ इशारा किया गया है जो आदम की नस्ल, नूह की नस्ल और 
इब्राहीम की नस्ल में ख़ुसूसियत से पैदा हुए जिन्हें खुदा ने इसका अहल पाया कि उन्हें अपनी 
खास हिदायत से नवाजे और उन्हें लोगों के सामने अपनी नुमाइंदगी के लिए चुन ले। 

इन हजरात पर खुदा ने इतने बड़े-बड़े इनामात क्यों किए। फरमाया कि इसकी वजह 
उनका यह मुशतरक वस्फ (साझा गुण) था कि वे ख़ुदा की खुदाई के एहसास में इतना बढ़े 
हुए थे कि उसका कलाम सुनकर उनका सीना हिल जाता था और वे रोते हुए उसके आगे 
जमीन पर गिर पड़ते थे। 

'रोते हुए सज्दे में गिरना” खुदा की अज्मत व जलाल (प्रताप) के एतराफ का आखिरी 
दर्जा है। जिसे यह दर्जा मिले उसने गोया उस ईमान का जायका चखा जो नबियों और रसूलों 
के लिए ख़ास है। 





पारा ।6 846 सूरह-9. मरयम 


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फिर उनके बाद ऐसे नाखलफ जानशीन (बुरे उत्तराधिकारी) हुए जिन्होंने नमाज को खो 

दिया और ख़ाहिशों के पीछे पड़ गए, पस अनकरीब वे अपनी ख़राबी को देखेंगे, 
अलबत्ता जिसने तौबा की और ईमान ले आया और नेक काम किया तो यही लोग 
जन्नत में दाखिल होंगे और उनकी जरा भी हकतलफी नहीं की जाएगी। (59-60) 





पैगम्बर की दावत के जरिए जो अफराद बनते हैं उनकी नुमायां खुसूसियत यह होती है 
कि वे ख्वाहिशपरस्ती से ऊपर उठ जाते हैं। वे अल्लाह को याद करने वाले बन जाते हैं 
जिसकी एक मुतअय्यन (सुनिश्चित) सूरत का नाम नमाज है। दीन की अस्ल ख़ुदा की याद 
है। और नमाज उसी खुदा की याद की एक मुनज्जम सूरत । 

पैग़म्बरों को मानने वालों की अगली नस्लें अगर ख़ुदा से गाफिल हो जाएं और ख़ाहिश 
के पीछे चलने लगें तो ख़ुदा के नजदीक वे गुमराह लोग हैं। पैग़म्बरों से वाबस्तगी उन्हें कोई 
फायदा देने वाली नहीं। ऐसे लोग यकीनन अपने अंजाम को पहुंचेगे। उनमें से सिर्फ वही लोग 
बचेंगे जो दुबारा असल दीन की तरफ लौटे और हकीकी मअनों में ईमान और अमले सालेह 
की जिंदगी इख्तियार करें। 

आखिरत के लिए कोशिश करने वाले को फौरन अपनी महनतों और कुर्बानियों का 
अंजाम नहीं मिलता। इसलिए कोई शख्स शुबह कर सकता है कि यह रास्ता ऐसा है जिसमें 
अमल है मगर अमल का अंजाम नहीं। मगर यह महज गलतफहमी है। हकीकत यह है कि 
जिस तरह दुनिया के लिए अमल करने वाले अपने अमल का बदला पाते हैं इसी तरह 
आख़िरत के लिए अमल करने वाले भी अपने अमल का भरपूर बदला पाएंगे। इस मामले में 
किसी शक में पड़ने की जरूरत नहीं। 


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उनके लिए हमेशा रहने वाले बाग़ हैं जिनका रहमान ने अपने बंदों से ग़ायबाना 
वादा कर रखा है। और यह वादा पूरा होकर रहना है। उसमें वे लोग कोई फुजूल 
बात नहीं सुनेगे सिवाए सलाम के। और उसमें उनका रिज्क सुबह व शाम मिलेगा, 

















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सूरह-।9. मरयम 847 पारा 6 


यह वह जन्नत है जिसका वारिस हम अपने बदों में से उन्हें बनाएंगे जो ख़ुदा से 
डरने वाले हों। (6-63) 


मौजूदा दुनिया में इम्तेहान की वजह से हर एक को आजादी मिली हुई है। यहां अच्छाई 
करने वाले भी आजाद हैं और बुराई करने वाले भी आजाद । इसका नतीजा यह है कि मौजूदा 
दुनिया में एक सच्चे इंसान को कभी सुकून हासिल नहीं होता। वह जाती तौर चाहे कितना 
ही ठीक हो मगर दूसरे लोगों की बेठीक बातें उसे सुकून लेने नहीं देतीं। लोग अपनी आजादी 
से गलत फायदा उठाकर माहौल को गंदी बातों और बुरी आवाजों से भर देते हैं। 

जन्नत वह बस्ती है जिससे इस किस्म के तमाम इंसान ख़ारिज कर दिए जाएंगे। वहां 
सिर्फ वे आला जौक (उच्च रूचि) के लोग आबाद किए जाएंगे जिन्होंने दुनिया में यह सुबूत 
दिया था कि वे कांटों की मानिंद नहीं जीते बल्कि फूल की मानिंद रहना जानते हैं। ऐसे लोगों 
के माहौल में जो जिंदगी बनेगी वह बिलाशुबह अबदी सलामती की जन्नत होगी। 

दुनिया में ल्ग्व (निकृष्ट) चीजों से बचना और सलामती का पैकर बनकर जिंदगी 
गुजारना एक सर््ततरीन अमल है। इसके लिए अपनी आजाद जिंदगी को खुद अपने इरादे 
से पाबंद जिंदगी बना लेना पड़ता है। यह मुश्किलतरीन कुर्बानी है जिसका सुबूत सिर्फ वह 
शख्स दे सकता है जो फिलवाकअ अल्लाह से डरता हो। अल्लाह से डरने वाले ही दुनिया 
में जन्नती इंसान बनकर रह सकते हैं। और यही वे लोग हैं जो आख़िरत की अबदी जन्नतों 
में दाखिल किए जाएंगे। 


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और हम नहीं उतरते मगर तुम्हारे रब के हुक्म से। उसी का है जो हमारे आगे है और 
जो हमारे पीछे है और जो इसके बीच में है। और तुम्हारा रब भूलने वाला नहीं। वह 
रब है आसमानों का और जमीन का और जो इनके बीच में है, पस तुम उसी की इबादत 
करो और उसकी इबादत पर कायम रहो। क्या तुम उसका कोई हमसिफ्त (उसके गुणों 

जैसा) जानते हो। (64-65) 





इस्लामी दावत (आह्वान) जब मुखालिफत के दौर में हो तो यह दाऔ (आह्वानकर्ता) 
के लिए बड़ा सख्त मरहला होता है। दाओ हर रोज चाहता है कि मौजूदा कैफियत को ख़त्म 
करने के लिए कोई नया इक्दाम किया जाए। जबकि ख़ुदा का हुक्म यह होता है कि सब्र और 
इतिजार का तरीका इश्न्ियार करो। 

ऐसी ही एक कैफियत एक बार रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ पेश 





पारा ।6 848 सूरह-9. मरयम 


आई। हालात की शिदूदत के पेशेनजर आप खुदा की तरफ से मजीद हिदायत के मुंतजिर थे। 
मगर एक रिवायत के मुताबिक तकरीबन चालीस दिन तक जिब्रील नहीं आए। फिर जब वह 
आए तो आपने कहा कि ऐ जिब्रील, इतनी देर क्यों कर दी। उन्होंने जवाब दिया कि हम ख़ुदा 
की मर्जी के पाबंद हैं। जब ख़ुदा की तरफ से कोई हिदायत मिलती है तो आते हैं और जब 
हिदायत नहीं मिलती तो नहीं आते। 
यह वाकया बयान करके यहां सब्र की तल्कीन की गई है। जो सूरतेहाल जारी है उसे 
ख़ुदा पूरी तरह देख रहा है। इसके बावजूद अगर उसकी तरफ से नई हिदायत नहीं आ रही 
है तो इसका मतलब यह है कि उस वक्त यही मत्लूब है कि इस सूरतेहाल को बर्दाश्त किया 
जाए। अगर हिक्मत का तकाजा कुछ और होता तो यकीनन कोई और हुक्म आता। खुदा से 
ज्यादा कोई जानने वाला नहीं इसलिए खुदा से बेहतर किसी की रहनुमाई भी नहीं हो सकती। 
'रुकने' वाले हालात में 'इक्दाम' (पहल) की आयत तलाश करना सही नहीं। ऐसा 
करना गोया उस हुक्म को वक्त से पहले उतारने की कोशिश करना है जो अभी आदमी के 
लिए नहीं उतरा। 


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और इंसान कहता है क्या जब में मर जाऊंगा तो फिर जिंदा करके निकाला जाऊगा। 
क्या इंसान को याद नहीं आता कि हमने उसे इससे पहले पैदा किया और वह कुछ 
भी न था। पस तेरे रब की कसम, हम उन्हें जमा करेंगे और शैतानों को भी, फिर उन्हें 
जहन्नम के गिर्द इस तरह हाजिर करेंगे कि वे घुटनों के बल गिरे होंगे। (66-68) 








अरब के लोग जो कुरआन के पहले मुखातब थे वे जिंदगी बाद मौत को मानते थे। मगर 
यह मानना सिर्फ रस्मी मानना था, वह हकीकी मानना न था। कुरआन में आहिरत (परलोक) 
से मुतअल्लिक जितने अल्फाज हैं वे सब पहले से उनकी जबान में मौजूद थे। मगर उनकी 
जिंदगी पर इस मानने का कोई असर न था। उनकी अमली जिंदगी ऐसी थी गोया कि वे 
जबानेहाल से कह रहे हों कि जिंदगी तो बस यही दुनिया की जिंदगी है। मरने के बाद कौन 
हमें उठाएगा और कौन हमारा हिसाब लेगा। 
मगर यह गफलत या इंकार सिफ इसलिए है कि आदमी संजीदगी के साथ गौर नहीं 
करता । अगर वह गौर करे तो उसकी पहली पैदाइश ही उसके लिए उसकी दूसरी पैदाइश की 
दलील बन जाए। 
यहां 'शयातीन' से मुराद बुरे लीडर हैं। ये लीडर पुरफरेब अल्फाज बोल कर अवाम को 
बहकाते हैं। इस एतबार से वे वही काम करते हैं जो शैतान करता है। मौजूदा दुनिया में ये 


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सूरह-।9. मरयम 849 पारा 6 
लीडर अज्मत के मकाम पर खड़े हए नजर आते हैं। इसलिए लोग उन्हें नजरअंदाज नहीं कर 

पाते। मगर आख़िरत में उनकी अज्मत ख़त्म हो जाएगी। वहां ये बड़े लोग भी उसी तरह 
जिल्लत के गढ़े में डाल दिए जाएंगे जिस तरह उनके छोटे लोग। 


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फिर हम हर गिरोह में से उन लोगों को जुदा करेंगे जो रहमान के मुकाबले में सबसे 
ज्यादा सरकश बने हुए थे। फिर हम ऐसे लोगों को ख़ूब जानते हैं जो जहन्नम में दाखिल 
होने के ज्यादा मुस्तहिक हैं और तुम में से कोई नहीं जिसका उस पर से गुजर न हो, 

यह तेरे रब के ऊपर लाजिम है जो पूरा होकर रहेगा। फिर हम उन लोगों को बचा लेंगे 
जो डरते थे और जालिमों को उसमें गिरा हुआ छोड़ देंगे। (69-72) 











हक को न मानना जुर्म है मगर हक को न मानने की तहरीक चलाना इससे भी ज्यादा 
बड जुर्म है। जो लोग हक के खिलाफ तहरीक के कायद बने वे खुदा की नजर में बदतरीन 
सजा के मुस्तहिक हैं। उन्हें आझ़िरत में आम लोगों के मुकाबले में दुगनी सजा दी जाएगी। 
कुरआन के अल्फाज से और कुछ रिवायात से यह मालूम होता है कि अल्लाह तआला 
कियामत के दिन तमाम लोगों को जहन्नम से गुजारेगा । यह गुजरना जहन्नम के अंदर से नहीं 
होगा बल्कि उसके ऊपर से होगा। यह ऐसा ही होगा जैसे गहरे दरिया के ऊपर आदमी खुले 
पुल के जरिए गुजर जाता है। वह दरिया की ख़तरनाक मौजों को देखता है मगर वह उसमें 
गर्क नहीं होता इसी तरह कियामत के दिन तमाम लोग जहन्नम के ऊपर से गुजरेंगे। जो नेक 
लोग हैं वे आगे जाकर जन्नत में दाखिल हो जाएंगे। और जो बुरे लोग हैं वे आगे न बढ़ 
सकेंगे। जहन्नम उन्हें पहचान कर उन्हें अपनी तरफ खींच लेगी। 
इस तजर्बे का मकसद यह होगा कि जन्नत में दाखिल किए जाने वाले लोग खुदा की उस 
अजीम नेमत का वाकई एहसास कर सकें कि उसने कैसी बुरी जगह से बचा कर उन्हें कैसी 
बेहतर जगह पहुंचा दिया है। 


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और जब उन्हें हमारी खुली-खुली आयतें सुनाई जाती हैं तो इंकार करने वाले ईमान लाने 


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पारा ।6 850 सूरह-9. मरयम 


वालों से कहते हैं कि दोनों गिरोहों में से कौन बेहतर हालत में है और किस की मज्लिस 
ज्यादा अच्छी है। और उनसे पहले हमने कितनी ही कमें हलाक कर दी जो उनसे ज्यादा 
असबाब (संसाधन) वाली और उनसे ज्यादा शान वाली थीं। (73-74) 


जो लोग हक नाहक की बहस में न पड़ें। जो आहिरत के मुकाबले में दुनिया की 
मस्लेहतों को अहमियत दें। जो खुदा को खुश करने से ज्यादा अवाम को खुश करने का 
एहतिमाम करते हों। ऐसे लोग हमेशा ज्यादा कामयाब रहते हैं। उनके गिर्द ज्यादा रौनक और 
शान जमा हो जाती है। दूसरी तरफ जो लोग हर मामले में यह देखें कि हक क्या है और 
नाहक क्या । जो दुनिया की मस्लेहतों (हितों) को नजरअंदाज करें और आखिरत की मस्लेहतों 
को तरजीह दें। जो अवामी रुज्हान से ज्यादा खुदा का लिहाज करें। ऐसे लोग अक्सर जाहिरी 
शान व शौकत वाली चीजों से महरूम रहते हैं। 

यह फर्क बहुत से लोगों के लिए गलतफहमी का सबब बन जाता है। वे समझते हैं कि 
जो लोग दुनियावी एतबार से बेहतर हैं वे खुदा के पसंदीदा हैं और जो लोग दुनियावी एतबार 
से बेहतर नहीं वे खुदा के नजदीक नापसंदीदा हैं। मगर यह मेयार सरासर ग़लत है। और 
माजी की तारीख़ इसकी तरदीद (खंडन) करने के लिए काफी है। कितने पुरफख्र सर जमीन 
के नीचे दफन हो गए। कितने महल हैं जो आज खंडहर के सिवा किसी और सूरत में देखने 
वालों को नजर नहीं आते। 


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कहो कि जो शख्स गुमराही में होता है तो रहमान उसे टील दिया करता है यहां तक 
कि जब वे देख लेंगे उस चीज को जिसका उनसे वादा किया जा रहा है, अजाब या 
कियामत, तो उन्हें मालूम हो जाएगा कि किस का हाल बुरा है और किस का जत्था 
कमजे। (75) 





सरकश आदमी को सरकशी का मौका मिलना मोहलते इम्तेहान की वजह से होता है न 
कि किसी हक (अधिकार) की बिना पर । मगर अक्सर ऐसा होता है कि आदमी इस फर्क को 
समझ नहीं पाता। वह वक्ती मोहलत को अपनी मुस्तकिल हालत समझ लेता है। उस की 
आंख उस वक्त तक नहीं खुलती जब तक मुद्दत के ख़ात्मे का एलान न हो जाए और उससे 
सरकशी का हक छीन न लिया जाए। 

ख़ुदा अपनी मस्लेहत के तहत किसी को दुनिया ही में यह तजर्बा करा देता है। कोई इसी 
हाल पर बाकी रहता है। यहां तक मौत उसे वह चीज दिखा देती है जिसे वह जिंदगी में देखने 
के लिए तैयार न हुआ था। 


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सूरह-।9. मरयम 85] पारा 6 
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और अल्लाह हिदायत पकड़ने वालों की हिदायत में इजाफा करता है और बाकी रहने 
वाली नेकियां तुम्हारे रब के नजदीक अज्र (प्रतिफल) के एतबार से बेहतर हैं और अंजाम 
के एतबार से भी बेहतर। (76) 


हिदायतयाब होना यह है कि आदमी का शुऊर सही रुख़ पर जाग उठे। ऐसे आदमी के 
सामने कोई सूरतेहाल आती है तो वह उसकी सही तौजीह करके उसे अपनी गिजा बना लेता 
है। इस तरह उसकी हिदायत में यकीन और कैफियत के एतबार से बराबर इजाफा होता रहता 
है। उसकी हिदायत जामिद (स्थिर) चट्टान की तरह नहीं होती बल्कि जिंदा दरख़्त की मानिंद 
होती है जो बराबर बढ़ता चला जाए। 

जिस तरह दुनिया के पेशेनजर अमल करने वाला बराबर तरक्की करता रहता है, इसी 
तरह आखिरत को सामने रखकर अमल करने वाले का अमल भी मुसलसल इजाफा पजीर 
(वद्धिशील) है। यह इजाफा पजीरी चूके आहित में जखीरा हो रही है। इसलिए वह दुनिया 
में नजर नहीं आती। मगर कियामत जब पर्दा फाड़ देगी तो हर आदमी देख लेगा कि हिदायत 
पाने वाले की हिदायत किस तरह बढ़ रही थी और इसी के साथ उसका अमल भी। 


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क्या तुमने उसे देखा जिसने हमारी आयतों का इंकार किया और कहा कि मुझे माल 
और औलाद मिलकर रहेंगे। क्या उसने ग़ैब में झांक कर देखा है या उसने अल्लाह से 
कोई अहद (वचन) ले लिया है, हरगिज नहीं, जो कुछ वह कहता है उसे हम लिख लेंगे 
और उसकी सजा में इजाफा कशे। ओर जिन चीजों का वह दावेदार है उसके वारिस 

हम बनेंगे और वह हमारे पास अकेला आएगा। (77-80) 























जब आदमी के पास दौलत और ताकत का कोई हिस्सा आता है तो उसके अंदर ग़लत 
किस्म की ख़ुदएतमादी पैदा हो जाती है। वह ऐसी रविश इख्तियार करता है जो उसकी वाकई 
हैसियत से मुताबिकत नहीं रखती। वह ऐसी बातें बोलने लगता है जो उसे नहीं बोलना 
चाहिए । 

ऐसा ही एक वाकया मक्का में हुआ। आस बिन वाइल मक्का का एक मुश्रिक सरदार 


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पारा 76 852 सूरह-9. मरयम 


था। हजरत खुब्वाब बिन अल अरत की कुछ रकम उसके जिम्मे बाकी थी। उन्हेनि रकम का 
मुतालबा किया तो आस बिन वाइल ने कहा कि मैं तुम्हारी रकम उस वक्त दूंगा जबकि तुम 
मुहम्मद का इंकार करो। उनकी जबान से निकला कि मैं हरगिज मुहम्मद का इंकार नहीं 
करूंगा यहां तक कि तुम मरो और फिर पैदा हो। आस बिन वाइल ने यह सुनकर कहा कि 
जब मैं दुबारा पैदा हूंगा तो वहां भी मैं माल और औलाद का मालिक रहूंगा, उस वक्‍त तुम 
मुझसे अपनी रकम ले लेना। 

यह सब झूठी ख़ुदएतमादी की बातें हैं और झूठी ख़ुदएतमादी किसी के कुछ काम आने 
वाली नहीं। 


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और उन्होंने अल्लाह के सिवा माबूद (पूज्य) बनाए हैं ताकि वे उनके लिए मदद बनें। 
हरगिज नहीं, वे उनकी इबादत का इंकार करेंगे और उनके मुखालिफ बन जाएंगे। 
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इंसान यह चाहता है कि वह दुनिया में जो चाहे करे, मगर उसे उसकी बदअमली का 
अंजाम न भुगतना पड़े। इस किस्म की हिफाजत किसी को अल्लाह से नहीं मिल सकती थी। 
इसलिए उसने ऐसी हस्तियां तज्चीज कर लीं जो अल्लाह की महबूब हों और उसकी तरफ से 
अल्लाह के यहां सिफारिशी बन सकें। 

मगर यह सब बेबुनियाद कयासात (अनुमान) हैं जो किसी के कुछ काम आने वाले नहीं। 
यहां तक कि वे हस्तियां जिन्हें आदमी ने शरीक फर्ज करके उनके लिए इबादती मरासिम 
(रस्में) अदा किए थे वे भी कियामत के दिन उससे बरा-त (विरक्ति) करेंगे। इंसान को उनसे 
नफरत के सिवा और कुछ हासिल न हो सकेगा। 

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क्या तुमने नहीं देखा कि हमने मुंकिरों पर शेतानों को छोड़ दिया है, वे उन्हें खूब उभार 
रहे हैं। पस तुम उनके लिए जल्दी न करो। हम उनकी गिनती पूरी कर रहे हैं। जिस 
दिन हम डरने वालों को रहमान की तरफ महमान बनाकर जमा करेंगे। और मुजरिमों 


को जहन्नम की तरफ प्यासा हांको। किसी को शफाअत का इख्तियार न होगा मगर 
उसे जिसने रहमान के पास से इजाजत ली हो। (83-87) 





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सूरह-9. मरयम 853 पारा 6 





आदमी के सामने हक अपनी वाजेह सूरत में आए मगर वह उसे नजरअंदाज कर दे तो 
ऐसा अमल शैतान को अपने अंदर राह देने का सबब बन जाता है। इसके बाद आदमी का 
जेहन बिल्कुल मुखालिफ सम्त में चल पड़ता है। अब हर दलील उसके जेहन में जाकर उलट 
जाती है। ख़ुदा की निशानियां उसके सामने आती हैं। मगर वह उनकी ख़ुदसाख्ता (स्वनिर्मित) 
तौजीह करके उन्हें अपनी सरकशी की गिजा बना लेता है। 
जो शख्स झूठे सहारों को अपना सहारा समझ ले वह हमेशा इसी किस्म की नादानी में 
मुब्तिला हो जाता है। मगर जो अल्लाह से डरने वाले हैं वे सिफ अल्लाह को अपना सहारा 
समझते हैं। अल्लाह का डर उनकी नजर से उन तमाम हस्तियों को हटा देता है जिन्हें झूठा 
सहारा बनाकर लोग गुमराह होते हैं। यही वे लोग हैं जो आखिरत में अल्लाह के बाइज्जत 
महमान बनाए जाएंगे । 
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और ये लोग कहते हैं कि रहमान ने किसी को बेटा बनाया है। यह तुमने बड़ी संगीन 
बात कही है। करीब है कि इससे आसमान फट पड़ और जमीन टुकड़े हो जाए और 
पहाड़ टूट कर गिर पड़े, इस पर कि लोग रहमान की तरफ औलाद की निस्बत करते 
हैं। हालांकि रहमान की यह शान नहीं कि वह औलाद इख्तियार करे। (88-92) 








खुदा के लिए औलाद मानना दो वजहों से हो सकता है। या तो यह कि ख़ुदा को अपने 
लिए मददगार की जरूरत है। या वह आम इंसानों की तरह औलाद की तमन्ना रखता है। 
इसलिए उसने अपनी औलाद बनाई है। ये दोनों बातें बेबुनियाद हैं। 

जमीन व आसमान की बनावट इतनी कामिल है कि यह बिल्कुल नाकाबिले तसब्बुर 
(अकल्पनीय) है कि उसे बनाने और चलाने वाला ख़ुदा ऐसा हो जो इंसानों की तरह की 
कमियां अपने अंदर रखता हो। मख्लूकात अपने ख़ालिक का जो तआरुफ करा रही हैं उसमें 
ख़ुदा की औलाद का तसव्युर किसी तरह चसपां नहीं होता। 


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आसमानों और जमीन में कोई नहीं जो रहमान का बंदा होकर न आए। उसके पास 


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पारा ।6 854 सूरह-9. मरयम 


उनका शुमार है और उसने उन्हें अच्छी तरह गिन रखा है और उनमें से हर एक कियामत 
के दिन उसके सामने अकेला आएगा। अलबत्ता जो लोग ईमान लाए और जिन्होंने नेक 
अमल किए उनके लिए ख़ुदा मुहब्बत पैदा कर देगा। (93-96) 


अक्सर ऐसा होता है कि जो लोग बेआमेज (विशुद्ध) हक को लेकर उठते हैं वे अवाम 
के नजदीक मबगूज (अप्रिय) होकर रह जाते हैं। मिलावटी सच्चाई पर कायम होने वाले लोग 
बेमिलावट वाली सच्चाई के अलमबरदार को वहशत की नजर से देखने लगते हैं। 

मगर यह सिर्फ मौजूदा दुनिया का मामला है। आख़िरत का मामला इसके बिल्कुल 
मुख्तलिफ होगा । वहां का सारा माहौल उन्हीं लोगों के साथ होगा जो बेआमेज (विशुद्ध) हक 
पर अपने आपको खड़ा करें। आख़िरत की दुनिया में इज्जत और मकबूलियत तमामतर उन 
अशख़ास (लोगों) के हिस्से में आएगी जिन्होंने मौजूदा दुनिया की इज्जत व मकबूलियत से 
बेपरवाह होकर अपने आपको बेआमेज (विशुद्ध) सच्चाई के साथ वाबस्ता किया था। 

मिलावटी सच्चाई की दुनिया में मिलावटी सच्चाई पर खड़ा होने वाला इज्जत पाता है। 
इसी तरह बेआमेज सच्चाई की दुनिया में उसे इज्जत मिलेगी जो बेआमेज सच्चाई की जमीन 


पर खड़ा हुआ था। 
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पस हमने इस कुरआन को तुम्हारी जबान में इसलिए आसान कर दिया है कि तुम 
मुत्तकियों (ईश-परायण लोगों) को खुशखबरी सुना दो। और हटधर्म लोगों को डरा दो। 
और इनसे पहले हम कितनी ही कौमों को हलाक कर चुके हैं। क्या तुम उनमें से किसी 
को देखते हो या उनकी कोई आहट सुनते हो। (97-98) 


खुदा की किताब इंसान की काबिलेफहम जबान में है। इसी के साथ उसके मजामीन में 
उन तमाम पहलुओं की पूरी रिआयत मौजूद है जो किसी किताब को इस काबिल बनाते हैं 
कि वह उससे रहनुमाई ले सके। मगर इन सबके बावजूद कुरआन उन्हीं लोगों के लिए 
रहनुमाई का जरिया बनता है जो संजीदा हों और जिन्हें यह खटक हो कि वे हक और नाहक 
को जानें। वे नाहक (असत्य) से बचें और हक (सत्य) के मुताबिक अपनी जिंदगी की तामीर 
करें। जो लोग संजीदगी और तलब से ख़ाली हों वे कुरआन की तालीमात को सुनकर सिर्फ 
बेमअना बहसें करेंगे, वे उससे कोई फायदा हासिल नहीं कर सकते। 

जो लोग हक की दावत के मुखालिफ बनकर खड़े होते हैं वे हमेशा इस गलतफहमी में 
रहते हैं कि ऐसा करने से उनका कुछ बिगड़ने वाला नहीं। उनके आसपास मुखालिफीने हक 


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सूरह-20. ता० हा० 855 पारा 6 
की तबाही के वाकेयात मौजूद होते हैं मगर वे उनसे इबरत (सीख) नहीं लेते। वे आखिर वक्त 
तक यही समझते हैं कि जो कुछ हुआ वह सिर्फ दूसरों के लिए था। उनके अपने साथ कुछ 
होने वाला नहीं । 

मगर अल्लाह के कानून में कोई इस्तिसना (अपवाद) नहीं। यहां हर आदमी के साथ वही 
होने वाला है जो दूसरे के साथ हुआ, अच्छों के लिए अच्छा और बुरों के लिए बुरा। 


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आयतें-35 सूरह-20. ता० हा० रुकूअ-8 
(मक्का में नाजिल हुई) 

शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
ता० हा०। हमने कुरआन तुम पर इसलिए नहीं उतारा कि तुम मुसीबत में पड़ जाओ। 
बल्कि ऐसे शख्स को नसीहत के लिए जो डरता हो। यह उसकी तरफ से उतारा गया 
है जिसने जमीन को और ऊंचे आसमानाँ को पैदा किया है। वह रहमत वाला है, अर्श 
पर कायम है। उसी का है जो कुछ आसमानों में हे और जो कुछ जमीन में है और जो 
इन दोनों के दर्मियान है और जो कुछ जमीन के नीचे है। (-6) 


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कुरआन अगरचे सिर्फ एक याददिहानी (अनुस्मरण) है। मगर वह मदऊ (संबंधित 
व्यक्ति) के लिए काबिलेहुज्जत याददिहानी उस वक्‍त बनता है जबकि उसकी दावत देने वाला 
अपने आपको उसकी राह में खपा दे। दूसरों की खैरख़्वाही में वह अपने आपको इस हद तक 
नजरअंदाज कर दे कि यह कहा जाए कि इसने तो लोगों को हक (सत्य) की राह पर लाने 
के ख़ातिर अपने आपको मशक्कत में डाल लिया। 

ताहम दावत (आह्वान) को चाहे कितना ही कामिल और मेयारी अंदाज में पेश कर दिया 
जाए, अमलन उससे हिदायत सिर्फ उस ख़ुदा के बंदे को मिलती है जो हक शनास (सत्य को 
पहचानने वाला) हो। जिसके अंदर यह सलाहियत हो कि दलील की सतह पर बात का वाजेह 
होना ही उसकी आंख खोलने के लिए काफी हो जाए। 

जिस हस्ती ने आलम की तख़्लीक की है उसी ने कुरआन को भी नाजिल किया है। 
इसलिए कुआन और फितरत मेंकेई तजद (अन्तर्वरिध) नहीं। कुआन एक ऐसी हकीकत 
की याददिहानी है जिसे पहचानने की सलाहियत फितरते इंसानी के अंदर पहले से मौजूद है। 


पारा 6 856 सूरह-20. ता० हा० 


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और तुम चाहे अपनी बात पुकार कर कहो, वह चुपके से कही हुई बात को जानता है। 


और इससे ज्यादा छुपी बात को भी। वह अल्लाह है। उसके सिवा कोई माबूद (पूज्य) 
नहीं। तमाम अच्छे नाम उसी के हैं। (7-8) 


दुनिया में एक तरफ वे लोग हैं जिनका मजहब दुनिया से साजगारी होता है। दूसरी तरफ 
बेआमेज (विशुद्ध) हक का दाजी है जिसका मजहब खुदा से साजगारी पर कायम होता है। 
पहला गिरोह अपने माहौल में हर तरफ अपने साथी और मददगार पा लेता है। उसे कभी तंहा 
होने का एहसास नहीं होता इसके बरअक्स हक का दाऔ जिस माबूद (पूज्य) के ऊपर खड़ा 
हुआ है वह आंखों से ओझल होता है। हालात के तूफान में बार-बार उसका दिल तड़प उठता 
है। वह कभी अपने दिल में ख़ुदा की तरफ मुतवज्जह होता है और कभी उसकी जबान से 
बआवाज बुलन्द दुआ के कलिमात निकल जाते हैं। ऐसा मालूम होता है कि इस भरी हुई 
दुनिया में वह अकेला है। कोई उसका साथी और मददगार नहीं। 

मगर यह सिर्फजहिरी हालत है। हकीकत के एतबार से हक का दाओ (आह्वानकर्त) 
सबसे ज्यादा मजबूत सहारे पर खड़ा हुआ होता है। वह ऐसे ख़ुदा को पुकार रहा है जो तंहाई 
के अल्फाज और दिल की सरगोशियों तक से बाख़बर है। वह उस ख़ुदा को अपना सहारा 
बनाए हुए है जो उन तमाम कबिले कयास (कल्पनीय) और नाकबिले कयास कुतो का 
मालिक है जो किसी की मदद के लिए दरकार हैं। 


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और क्या तुम्हें मूसा की बात पहुंची है। जबकि उसने एक आग देखी तो अपने घर 


वालों से कहा कि ठहरो, मैंने एक आग देखी है, शायद में उसमें से तुम्हारे लिए एक 
अंगारा लाऊ या उस आग पर मुझे रास्ते का पता मिल जाए। (9-0) 


हजरत मूसा मिम्न में पैदा हुए । वहां एक मौके पर एक किबती उनके हाथ से हलाक हो 
गया। इसके बाद वह मिस्र से निकल कर मदयन चले गए। वहां वह कई साल तक रहे। वहीं 
एक ख़ातून से निकाह किया और फिर अपनी अहलिया (पत्नी) को लेकर वापस मिस्र के लिए 
रवाना हो गए। उस वक्त आपके साथ बकरियां भी थीं। 

हजरत मूसा इस सफर में सीना प्रायद्वीप के जुनूब (दक्षिण) में वादी तूर के इलाके से 


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सूरह-20. ता० हा० 857 पारा 76 


गुजर रहे थे। रात हुई तो तारीकी में रास्ते का अंदाजा नहीं हो रहा था मजीद यह कि यह सर्न 

सर्दी का मौसम था। इसी दौरान उन्हें दिखाई दिया कि दूर एक आग जल रही है। यह देखकर 
हजरत मूसा उसके रुख़ पर रवाना हुए ताकि सर्दी का मुकाबला करने के लिए आग हासिल 

करें और वहां कुछ लोग हों तो उनसे रास्ता मालूम करें। 


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फिर जब वह उसके पास पहुंचा तो आवाज दी गई कि ऐ मूसा। में ही तुम्हारा रब हूं, 
पस तुम अपने जूते उतार दो क्‍योंकि तुम तुवा की मुकद्दस (पवित्र) वादी में हो। और 
मैंने तुम्हें चुन लिया है। पस जो “वही” (प्रकाशना) की जा रही है उसे सुनो। में ही 
अल्लाह हूं। मेरे सिवा कोई माबूद (पूज्य) नहीं। पस तुम मेरी ही इबादत करो और मेरी 
याद के लिए नमाज कायम करो। बेशक कियामत आने वाली है। में उसे छुपाए रखना 

चाहता हूं। ताकि हर शख्स को उसके किए का बदला मिले। पस इससे तुम्हें वह शख्स 
गाफिल न कर दे जो इस पर ईमान नहीं रखता और अपनी ख़्याहिशों पर चलता है कि 

तुम हलाक हो जाओ। (7-6) 





हजरत मूसा को जो आग नजर आई वह आम किस्म की आग नहीं थी बल्कि ख़ुदा की 
तजल्ली (आलोक) थी। चुनांचे जब वे वहां पहुंचे तो उन्हें एहसास दिलाया गया कि वह इस 
वक्त कहां हैं। उन्हें तवाजोअ (आदर) के साथ पूरी तरह मुतवज्जह होने के लिए जूते उतारने 
का हुक्म हुआ । फिर आवाज आई कि इस वक्‍त तुम खुदा से हमकलाम हो और खुदा ने तुम्हें 
अपनी पैग़म्बरी के लिए चुना है। 

उस वक्‍त हजरत मूसा को जो तालीम दी गई वह वही थी जो तमाम पेगम्बरों को हमेशा 
तालीम की गई है। यानी एक ख़ुदा को माबूद (पूज्य) बनाना। उसी की इबादत करना। उसी 
को हर मैक्के पर याद रखना । फिर हजरत मूसा को जिंदगी की इस हकीकत की ख़बर दी गई 
कि मौजूदा दुनिया इम्तेहान की दुनिया है। एक ख़ास मुदूदत तक के लिए खुदा ने हकीकतों 
को गैब में छुपा दिया है। कियामत में यह पर्दा फट जाएगा। इसके बाद इंसानी जिंदगी का 
अगला दौर शुरू होगा जिसमें हर आदमी उस अमल के मुताबिक मकाम पाएगा जो उसने 
मौजूदा दुनिया में किया था। 





पारा 6 858 सूरह-20. ता० हा० 


जब एक आदमी पर ख्वाहिशों का गलबा होता है और वह आख़िरत से बेपरवाह होकर 
दुनिया के रास्तों में चल पड़ता है तो वह अपने इस फेअल (कृत्य) को हक बजानिब साबित 
करने के लिए नजरियात वजअ करता है। वह अपनी रविश को खूबसूरत अल्फाज में बयान 
करता है। उसे सुनकर दूसरे लोग भी आख़िरत से गाफिल हो जाते हैं। ऐसी हालत में मोमिन 
को अपने बारे में सख्त चौकन्ना रहने की जरूरत है। उसे अपने आपको इससे बचाना है कि 
वह खुदा से गाफिल और आखिरत फरामोश लोगों को देखकर उनसे मुतअस्सिर (प्रभावित) 
हो जाए। या उनकी ख़ूबसूरत बातों के फरेब में आकर आखिरतपसंदाना जिंदगी को खो बैठे। 


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और यह तुम्हारे हाथ में क्या है ऐ मूसा, उसने कहा, यह मेरी लाठी है। में इस पर टेक 
लगाता हूं और इससे अपनी बकरियों के लिए पत्ते झाइता हूं। इसमें मेरे लिए दूसरे काम 
भी हैं। फरमाया कि ऐ मूसा इसे जमीन पर डाल दो। उसने उसे डाल दिया तो यकायक 

वह एक दौड़ता हुआ सांप बन गया। फरमाया कि इसे पकड़ लो और मत डरो, हम 
फिर इसे इसकी पहली हालत पर लौटा देंगे। (7-2) 


तुम्हारे हाथ में क्या है? यह सवाल हजरत मूसा के शुऊर को जिंदा करने के लिए था। 
इसका मकसद यह था कि लाठी का लाठी होना हजरत मूसा के जेहन में ताजा हो जाए । ताकि 
अगले लम्हे जब वह खुदा की कुदरत से सांप बन जाए तो वह पूरी तरह उसकी कद्र व कीमत 
का एहसास कर सकें। 

हजरत मूसा की लकड़ी का सांप बन जाना वैसा ही एक अनोखा वाकया था जैसा मिट्टी 
और पानी का लकड़ी बन जाना। वह सब कुछ जो हम जमीन पर देख रहे हैं वह सब एक 
चीज से दूसरी चीज में तब्दील हो जाने का ही दूसरा नाम है गैस का पानी में तब्दील होना, 
मिट्टी का दरख़त में तब्दील होना वगैरह | आम हालात में तब्दीली का यह अमल क्रमवत होता 
है। इसलिए इंसान उसे महसूस नहीं कर पाता। हजरत मूसा की लकड़ी ने यकायक सांप की 
सूरत इख्तियार कर ली इसलिए वह अजीब मालूम होने लगी। 

हकीकत यह है कि इस दुनिया में जो कुछ है या हो रहा है वह सब का सब ख़ुदा का 
मोजिजा (चमत्कार) है। चाहे वह जमीन से लकड़ी का निकलना हो या लकड़ी का सांप बन 
जाना। पेगम्बरों के जरिए गैर मामूली” मोजिजा सिर्फ इसलिए दिखाया जाता है ताकि आदमी 
“मामूली? (\०n००००७४) मोजिजात को देखने के काबिल हो जाए। 





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सूरह-20. ता० हा० 859 पारा 6 
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और तुम अपना हाथ अपनी बग़ल से मिला लो, वह चमकता हुआ निकलेगा बगैर 
किसी ऐब के। यह दूसरी निशानी है। ताकि हम अपनी बड़ी निशानियों में से 
कुछ निशानियां तुम्हें दिखाएं। तुम फिरऔन के पास जाओ। वह हद से निकल 
गया है। (22-24) 


जारी 





पिछले नबियों के वाकेयात बाइबल में भी हैं और कुरआन में भी। मगर बहुत से 
मकामात पर कुरआन और बाइबल में बहुत बामअना फर्क है। मसलन यहां बाइबल में है 
मूसा ने अपना हाथ अपने सीने पर रखकर उसे ढांक लिया और जब उसने उसे निकाल कर 
देखा तो उसका हाथ कोढ़ से बर्फ की मानिंद सफेद था। (ख़ुरूज 4 : 7) 

बाइबल हजरत मूसा के हाथ की सफेदी को 'कोढ़' बता रही है। ऐसी हालत में कुरआन 
में यदबेज के मेजिज को बयान करते हुए मिन गहरि सूँ का इजफ वाज्ह तौर पर बता 
रहा है कि कुरआन बाइबल से माख़ूज (उद्धृत) नहीं है। बल्कि यह ख़ुदाए आलिमुलगैब की 
तरफ से है जो बाइबल की तहरीफात (परिवर्तनों) को सही कर रहा है। 

हजरत मूसा को दो ख़स मोजिजे दिए गए । सांप का मोजिजा आपके लिए गोया ताकत 
की अलामत था। और यदबेजा (हाथ का चमकना) का मोजिजा इस बात की अलामत कि 
आप एक रोशन सदाकत पर कायम हैं। 

फिरऔन का हद से गुजर जाना यह था कि उसे इव्तेदार (सत्ता) मिला तो उसने अपने 
को खुदा समझ लिया । फिरऔन के लपजी मअना हैं सूरज की औलाद। कदीम मिम्री सूरज 
को सबसे बड़ा देवता (रब्बे आला) समझते थे। चुनांचे फिरऔन ने अपने को सूर्य देवता का 
जमीनी मजहर (प्रतीक) बताया । उसने अपने स्टेचू और बुत बनवा कर मिस्र के तमाम शहरों 
में रखवा दिए जो बाकायदा पूजे जाते थे। 

इव्तेदार खुदा की एक नेमत है। इस नेमत को पाकर आदमी के अंदर शुक्र का जज्बा 
उभरना चाहिए । मगर सरकश इंसान इक्तेदार को पाकर ख़ुद अपने आपको ख़ुदा समझ लेता है। 


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पारा 6 860 सूरह-20. ता० हा० 


मूसा ने कहा कि ऐ मेरे रब, मेरे सीने को मेरे लिए खोल दे। और मेरे काम को मेरे 
लिए आसान कर दे। और मेरी जबान की गिरह खोल दे। ताकि लोग मेरी बात समझें। 
और मेरे ख़ानदान से मेरे लिए एक मुआविन (सहायक) मुक्रर कर दे, हारून को जो 
मेरा भाई है। उसके जरिए से मेरी कमर को मजबूत कर दे। और उसे मेरे काम में शरीक 

कर दे ताकि हम दोनों कसरत (अधिकता) से तेरी पाकी बयान करें और कसरत से 
तेरा चर्चा करें। बेशक तू हमें देख रहा है। फरमाया कि दे दिया गया तुम्हें ऐ मूसा 
तुम्हारा सवाल। (25-36) 





पैगम्बरी मिलने के बाद एक सूरत यह थी कि हजरत मूसा के अंदर अहसासे फख़ पैदा 
हो। मगर उस वक्‍त उन्होंने जो कुछ अल्लाह से मांगा उससे जाहिर होता है कि उन्होंने 
पेगम्बरी को फन की चीज नहीं समझा बल्कि जिम्मेदारी की चीज समझा । उस वक्‍त उन्हेनि 
जो अल्फाज कहे वे सब वे हैं जो दावत (सत्य का आह्वान) की नाजुक जिम्मेदारी का एहसास 
करने वाले की जबान से निकलते हैं। 

दाओ के लिए सीने का खुलना यह है कि हस्बे मौका उसके अंदर प्रभावशाली मजामीन 
का वुरूद (जाप) हो। मामले का आसान होना यह है कि मुखालिफीन कभी दावत की राह बंद 
करने में कामयाब न हो सकें। जबान की गिरह खुलना यह है कि बड़े-बड़े मजमे में बिला 
झिझक दावत पेश करने का मलका पैदा हो जाए। अल्लाह तआला ने हजरत मूसा को 
पैगम्बराना जिम्मेदारी अदा करने के लिए ये सब कुछ दिया। इसी के साथ उनकी दरख़्वास्त 
के मुताबिक उनके भाई को उनके लिए एक ताकतवर मुआविन (सहायक) बना दिया। 

नुसरत मदद का यह ख़ुसूसी मामला जो पैग़म्बर के साथ किया गया यही गैर पैगम्बर 
दाऔ के लिए भी हो सकता है बशर्ते कि वह दावत के काम से अपने आपको इस तरह 
कामिल तौर पर वाबस्ता करे जिस तरह पैग़म्बर ने अपने आपको कामिल तौर पर वाबस्ता 
किया था। 

'तस्वीह और जिक्र' ही दीन का अस्ल मकसूद है। मगर तस्बीह और जिक्र से मुराद 
किसी किस्म का लफ्मी विर्द (जाप) नहीं है। इससे मुराद वह कैफियत है जो हक की याफ्त 
के बाद बिल्कुल कुदरती तौर पर पैदा होती है। उस वक्‍त इंसान का वजूद अल्लाह के सिफाते 
कमाल का इस तरह तजर्बा करता है कि वह उसमें नहा उठता है। वह खुदाई एहसास से इस 
तरह सरशार होता है कि वह उसका मुबल्लिग़ (प्रचारक) बन जाता है। 


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और हमने तुम्हारे ऊपर एक बार और एहसान किया है जबकि हमने तुम्हारी मां की 
तरफ “वही” (प्रकाशना) की जो “वही” की जा रही है, कि उसे संदूक में रखो, फिर 
उसे दरिया में डाल दो, फिर दरिया उसे किनारे पर डाल दे। उसे एक शख्स उठा लेगा 
जो मेरा भी दुश्मन है और उसका भी दुश्मन है। और मैंने अपनी तरफ से तुम पर 
एक मुहब्बत डाल दी। और ताकि तुम मेरी निगरानी में परवरिश पाओ। जबकि 
तुम्हारी बहिन चलती हुई आई, फिर वह कहने लगी, क्या में तुम लोगों को उसका 
पता दूं जो इस बच्चे की परवरिश अच्छी तरह करे। पस हमने तुम्हें तुम्हारी मां की 
तरफ लौटा दिया ताकि उसकी आंख ठंडी हो और उसे ग़म न रहे। और तुमने एक 
शख्स को कत्ल कर दिया। फिर हमने तुम्हें इस ग़म से नजात दी। और हमने तुम्हें 
खूब जांचा। फिर तुम कई साल मदयन वालों में रहे। फिर तुम एक अंदाजे पर आ 
गए ऐ मूसा। (37-40) 


मिस्न के अस्ल बाशिंदे किबती थे जिनका सियासी और मजहबी नुमाइंदा फिरऔन था। 
वहां की दूसरी कौम बनी इस्राईल थी जो हजरत यूसुफ के जमाने में बाहर से आकर यहां 
आबाद हुई थी। हजरत मूसा जिस जमाने में बनी इस्राईल के एक घर में पैदा हुए । उस जमाने 
में फिरऔन ने इस्राईल की नस्ल ख़त्म करने के लिए यह हुक्म दे दिया था कि इस्राईल के घरों 
में जितने बच्चे पैदा हों सब कत्ल कर दिए जाएं। हजरत मूसा की मां ने बच्चे को कत्ल से 
बचाने के लिए खुदाई इल्हाम के तहत यह किया कि उसे टोकरी में रखकर दरियाए नील में 
डाल दिया। 
यह टोकरी बहते हुए फिरऔन के महल के पास पहुंची । वहां फिरऔन और उसकी बीवी 
ने उसे देखा तो उन्हें छोटे बच्चे पर रहम आ गया। उन्होंने उसे निकाल कर महल के अंदर 
रख लिया। इसके बाद हजरत मूसा की बहिन की निशानदेही पर आपकी मां आपको दूध 
पिलाने के लिए मुकर्रर हुई। यह ख़ुदा का एक करिश्मा है कि जिस फिरऔन को मूसा का 
सबसे बड़ा दुश्मन बनना था उसी फिरऔन के जरिए हजरत मूसा की परवरिश और तर्बियत 
कराई गई। 
हजरत मूसा बड़े हुए तो एक किबती और एक इस्राईली के झगड़े में उन्होंने किबती को 
तंबीह की । अप्रत्याशित तौर पर वह किबती मर गया। इसके बाद हुकूमत की तरफ से हुक्म 
जारी हुआ कि मूसा को गिरफ्तार कर लिया जाए। मगर हजरत मूसा खुफिया तौर पर मिस्र 
से निकल कर मदयन चले गए। वहां के सहराई माहौल में वह जिंदगी के मजीद तजर्बात से 


पारा 76 862 सूरह-20. ता० हा० 


आशना हुए । किबती की हलाकत के बाद हजरत मूसा ने अल्लाह तआला से गैर मामूली दुआएं 
कीं। इसका नतीजा यह हुआ कि अल्लाह तआला ने इस हादसे को उनके लिए मजीद तर्बियत 
और तालीम का जरिया बना दिया। 


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और मैंने तुम्हें अपने लिए मुंतख़ब किया। जाओ तुम और तुम्हारा भाई मेरी निशानियों 
के साथ। और तुम दोनों मेरी याद में सुस्ती न करना। तुम दोनों फिरऔन के पास 
जाओ कि वह सरकश हो गया है। पस उससे नर्मी के साथ बात करना, शायद वह 
नसीहत कुबूल करे या डर जाए। (4-44) 





मुख़्तलिफ तजर्बात से गुजर कर हजरत मूसा जब तकमीले शुऊर के आखिरी मरहले में 
पहुंच गए तो अल्लाह तआला ने उन्हें पैग़म्बराना दावत की जिम्मेदारी सौंप दी। उस वक्‍त 
हजरत मूसा को दो ख़ास नसीहतें की गईं। एक ख़ुदा के जिक्र में कमी न करना। दूसरे दावत 
(आस्वान) में नर्म अंदाज इख्तियार करना। 
खुदरा के जिक्र से मुराद यह है कि आदमी के कल्ब व दिमाग में खुदा का यकीन इस तरह 
शामिल हो गया हो कि वह बार-बार उसे याद आता रहे। आदमी का हर मुशाहिदा (अवलोकन) 
और उसकी जिंदगी का हर वाकया उसके खुदाई शुऊर से जुड़कर उसे जगाने वाला बन जाए। 
आम इंसान मादूदी (भौतिक) गिजाओं पर जीते हैं। हक का दाओ ख़ुदा की याद में जीता है। 
ख़ुदा की याद मोमिन का सरमाया है और इसी तरह दाऔ (आस्वानकर्ता) का भी। 
दूसरी जरूरी चीज दावत में नर्म अंदाज इ्ियार करना है। फिरऔन जैसे सरकश इंसान 
के सामने भेजते हुए यह हिदायत करना साबित करता है कि दावत के लिए नर्म और 
हकीमाना अंदाज मुतलक तौर पर मत्लूब है। मदऊ की तरफ से कोई भी सख्ती या सरकशी 
दाऔ को यह हक नहीं देती कि वह अपनी दावत में न्मी और शफकत (स्नेह) का अंदाज 
खो दे। 


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सूरह-20. ता० हा० 863 पारा 6 


दोनों ने कहा कि ऐ हमारे रब, हमें अंदेशा है कि वह हम पर ज्यादती करे या सरकशी 
करने लगे। फरमाया कि तुम अंदेशा न करो। में तुम दोनों के साथ हूं, सुन रहा हूं और 
देख रहा हूं। पस तुम उसके पास जाओ और कहो कि हम दोनों तेरे रब के भेजे हुए 
हैं, पस तू बनी इस्राईल को हमारे साथ जाने दे। और उन्हें न सता। हम तेरे रब के 
पास से एक निशानी भी लाए हैं। और सलामती उस शख्स के लिए है जो हिदायत 
की पैरवी करे। हम पर यह “वही” (प्रकाशना) की गई है कि उस शख्स पर अजाब होगा 
जो झुठलाए और एराज (उपेक्षा) करे। (45-48) 





फिरऔन निहायत मुतकब्बिर (घमंडी) था। इक्तेदार (सत्ता) पाकर वह अपने आपको 
ख़ुदा समझने लगा था। इसलिए हजरत मूसा को अंदेशा हुआ कि जब वह देखेगा कि उसके 
सिवा किसी और ख़ुदा का पैगाम उसे सुनाया जा रहा है तो वह गुस्से में भड़क उठेगा। मगर 
खुदा का पैगम्बर मुकम्मल तौर पर ख़ुदा की हिफाजत में होता है। इसलिए हुक्म हुआ कि तुम 
जाओ और यह यकीन रखो कि फिरऔन अपनी सारी ताकत और जबरूत (शीय) के बावजूद 
तुम्हें कोई नुक्सान नहीं पहुंचा सकता। 

बनी इस्राईल कदीम जमाने के मुसलमान थे। वे अस्लन एक मुअहिहद (एकेश्वरवादी) 
कौम थे। मगर मिस्र की मुश्रिक कौम के दर्मियान रहते हुए वे मुश्रिकाना तहजीब से बुरी तरह 
मुतअस्सिर हो गए थे। मजीद यह कि मुश्रिक हुक्मरानों ने बनी इस्राईल को इस तरह मेहनत 
मजदूरी में लगा रखा था कि वे इस काबिल नहीं रहे थे कि वे तौहीद और आख़िरत की आला 
हकीकतों के बारे में सोच सकें। इसलिए हजरत मूसा को हुक्म हुआ कि बनी इस्राईल को 
मुश्रिकाना माहौल से निकालो और उन्हें अलग ख़ित्तए जमीन में आबाद करो। ताकि शिक 
और जाहिलियत की फजा से कटकर उनकी तर्बियत मुमकिन हो सके। 


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फिरऔन ने कहा, फिर तुम दोनों का रब कौन है, ऐ मूसा। मूसा ने कहा, हमारा रब 
वह है जिसने हर चीज को उसकी सूरत अता की, फिर रहनुमाई फरमाई। फिरऔन ने 
कहा, फिर अगली कौमों का कया हाल है। मूसा ने कहा। इसका इलम मेरे रब के पास 
एक दफ्तर में है। मेरा रब न ग़लती करता है और न भूलता है। (49-52) 








(तुम्हारा रब कौन है।' फिरऔन का यह जुमला इस मअना में न था कि वह अपने सिवा 
किसी खुदा से बेख़बर था। या किसी बरतर ख़ुदा का सिरे से कायल न था। उसका यह जुमला 
दरअस्ल मूसा की बात की तहकीर (अवमानना) था न कि उसका सिरे से इंकार। 


पारा 6 864 सूरह-20. ता० हा० 


मिस्र में हजरत यूसुफ अलैहिस्सलाम ने तौहीद (एकेश्वरवाद) की तब्लीग की थी। अब भी 
बनी इस्राईल वहां लाखों की तादाद में मौजूद थे। जो ख़ुदाए वाहिद पर अकीदा रखते थे। इस 
तरह मिस्र में अगरचे खुदाए बरतर का अकीदा मौजूद था मगर अमलन वहां सारा जोर और 
शानो शोकत फिरऔन के गिर्द जमा था। वह मिम्रियों के अकीदे के मुताबिक उनके सबसे बड़े 
देवता (सूरज) का जमीनी मजहर था। वह मिस्र का अवतार बादशाह (6०4-९) था और 
उसके बुत और स्टेचू सारे मिस्र में परस्तिश की चीज बने हुए थे। इसके मुकाबले में मूसा बनी 
इस्राईल के एक फर्द थे जो मिम्न में गुलामों और मजदूरों की एक कौम समझी जाती थी। और 
इस बिना पर उसका मजहबी अकीदा भी मिश्न में एक नाकबिले जिक्र अकीदे की हैसियत 
इख्तियार कर चुका था। 

दुनिया में बेशुमार चीजें हैं मगर हर चीज की एक मुन्फरिद (विशिष्ट) बनावट है और 
हर चीज का एक मुतअय्यन (सुनिश्चित) तरीके अमल है। न इस बनावट में कोई तब्दीली 
मुमकिन है और न इस तरीके अमल में। इससे खुद फिरऔन जैसा सरकश बादशाह भी 
अपवाद नहीं। यह वाकया वाजेह तौर पर एक बालातर ख़ालिक का वजूद साबित करता है। 

हजरत मूसा ने यह बात कही तो फिरऔन ने महसूस किया कि उसके पास इस बात का 
कोई बराहेरास्त जवाब नहीं है। अब उसने बात को फेर दिया। दलील के मैदान में अपने को 
कमजोर पाकर उसने चाहा कि तअस्सुब (विद्वेष) के जज्बात को भड़का कर लोगों के दर्मियान 
अपनी बरतरी कायम रखे। चुनांचे उसने कहा कि अगर तुम्हारी बात सही है तो हमारे पिछले 
बड़ों का अंजाम क्या हुआ जो तुम्हारे नजरिये के मुताबिक गुमराह हालत में मर गए । हजरत 
मूसा ने इसके जवाब में एराज का तरीका इख़्तियार किया। उन्होंने कहा कि गुजरे हुए लोगों 
को ख़ुदा के हवाले करो और अब अपने बारे में गौर करो। 


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वही है जिसने तुम्हारे लिए जमीन का फर्श बनाया। और उसमें तुम्हारे लिए राहे 
निकाला और आसमान से पानी उतारा। फिर हमने उसके जरिए से मुख़तलिफ किस्म 
की नबातात (पौधे) पैदा कीं। खाओ और अपने मवेशियों को चराओ। इसके अंदर 
अक्ल वालों के लिए निशानियां हैं। उसी से हमने तुम्हें पेदा किया है और उसी में 
हम तुम्हें लौटाएंगे और उसी से हम तुम्हें दुबारा निकालेंगे। (53-55) 


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जमीन की पैदाइश, बारिश का निजाम, नबातात (पेड़-पौधों) का उगना, और दूसरे 


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सूरह-20. ता० हा० 865 पारा 6 


एहतिमामात जिसने मौजूदा दुनिया को जिंदा चीजों के लिए वाबिले रिहाइश बनाया है वे हैरतनाक 
हद तक अजीम हैं। 

यह एक 'निशानी” है जो साबित करती है कि इस दुनिया का ख़ालिक व मालिक एक 
अजीम खुदा है। मौजूदा दुनिया जैसी दुनिया को वजूद में लाने के लिए इतनी बड़ी कुदरत 
दरकार है जो न किसी “सूरज” को हासिल है और न किसी “बादशाह” को। ऐसी हालत में यह 
माने बगैर चारा नहीं कि इसे बनाने और चलाने वाला एक बरतर ख़ुदा है। 

फिर इसी से यह भी साबित होता है कि यह दुनिया अबस (निरर्थक) दुनिया नहीं है जो 
यूं ही पैदी हो और यूं ही ख़त्म हो जाए। बामअना दुनिया लाजिमी तौर पर एक बामअना 
अंजाम चाहती है। इस तरह दुनिया का मुशाहिदा (अवलोकन) बयकवक्त तौहीद को भी 
साबित कर रहा है और आख़िरत को भी। 


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और हमने फिरऔन को अपनी सब निशानियां दिखाई तो उसने झुठलाया और इंकार 
किया। उसने कहा कि ऐ मूसा, क्या तुम इसलिए हमारे पास आए हो कि अपने जादू 
से हमें हमारे मुल्क से निकाल दो। तो हम तुम्हारे मुकाबले में ऐसा ही जादू लाएंगे। 
पस तुम हमारे और अपने दर्मियान एक वादा मुरकर कर लो, न हम उसके खिलाफ 

करें और न तुम। यह मुकाबला एक हमवार (खुले) मैदान में हो। (56-58) 





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हजरत मूसा की दावत फिरऔन के ऊपर लम्बी मुदृदत तक जारी रही। इस दौरान आपने 
उसके सामने अक्ली दलाइल भी पेश किए और महसूस मोजिजे (चमत्कार) भी दिखाए। मगर 
वह हजरत मूसा पर ईमान न लाया। हजरत मूसा की सच्चाई का इकरार फिरऔन के लिए 
अपनी नफी (नकार!) के हममअना होता । और फिर॒औन की मुतकब्बिराना नपिसयात (घमंड-भाव) 
इसमें रुकावट बन गई कि अपनी नफी की कीमत पर वह सच्चाई का इकरार करे। 

हजरत मूसा के अक्ली दलाइल को फिरऔन ने शेर मुतअल्लिक बातें के जरिए बेअसर 
करने की कोशिश की। और आपके मोजिजात के बारे में उसने कहा कि यह जादू है। यानी 
एक ऐसी चीज जिसका ख़ुदा से कोई तअल्लुक नहीं। हर आदमी महारत पैदा करके इस 
किस्म का करिश्मा दिखा सकता है। अपनी इस ढिठाई को निभाने के लिए मजीद उसे यह 
करना पड़ा कि उसने कहा कि हम भी अपने जादूगरों के जरिए वैसा ही करिश्मा दिखा सकते 
हैं जैसा करिश्मा तुमने हमें दिखाया है। गुफ्तुगू के बाद बिलआखिर यह तय हुआ कि आने 
वाले कौमी मेले के दिन मुल्क के जादूगरों को जमा किया जाए और सबके सामने मूसा और 





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पारा 76 866 सूरह-20. ता० हा० 


जादूगरों का मुकाबला हो। 


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मूसा ने कहा, तुम्हारे लिए वादे का दिन मेले वाला दिन है और यह कि लोग दिन चढ़े 
तक जमा किए जाएं। फिरऔन वहां से हटा, फिर अपने सारे दाव जमा किए, इसके 
बाद वह मुकाबले पर आया। मूसा ने कहा कि तुम्हारा बुरा हो अल्लाह पर झूठ न बांधो 
कि वह तुम्हें किसी आफत से ग़ारत कर दे। और जिसने ख़ुदा पर झूठ बांधा वह नाकाम 
हुआ। (59-6) 





फिरऔन ने सारे मुल्क में आदमी भेजकर तमाम माहिर जादूगरों को बुलाया। जब ये 
लोग मेले के मैदान में जमा हुए तो मुकाबला पेश आने से पहले हजरत मूसा ने एक तकरीर 
की। यह तकरीर लोगों के लिए बिल्कुल नई चीज न थी बल्कि यह एक किस्म की याददिहानी 
थी। इससे पहले हजरत मूसा की दावत के जरिए जादूगर और दूसरे हजरात यकीनन इस बात 
से आगाह हो चुके थे कि मूसा का पैग़ाम क्या है। वे जानते थे कि मूसा शिक के मुकाबले 
में तौहीद की दावत लेकर खड़े हुए हैं। 

इस पसमंजर में हजरत मूसा ने इतमामेहुज्जत (आह्वान की अति) के तौर पर आखिरी 
नसीहत की । हजरत मूसा ने फिरऔन और जादूगरों से कहा कि इस मामले को तुम लोग जादू 
का मामला न समझो। खुदा की निशानी को जादू कहना और इंसानी जादू के जरिए उसे जेर 
करने की कोशिश करना बेहद संगीन बात है। यह एक वाकई हकीकत का मुकाबला एक 
सरासर वेहवीकत चीज के जरिए करना है जिसका यवीनी नतीजा हलाकत है। तुम बजहिर 
मुझे झूठा साबित करना चाहते हो मगर यह ख़ुद खुदा को नऊजुबिल्लाह झूठा साबित करने 
की कोशिश करना है। जो लोग इस किस्म की सरकशी करें वे ख़ुदा की दुनिया में कभी 


कामयाब नहीं हो सकते । 
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फिर उन्होंने अपने मामले में इख़्तेलाफ (मतभेद) किया। और उन्होंने चुपके-चुपके बाहम 








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सूरह-20. ता० हा० 867 पारा 76 
मश्विरा किया। उन्होंने कहा ये दोनों यकीनन जादूगर हैं, वे चाहते हैं कि अपने जादू 
के जोर से तुम्हें तुम्हारे मुल्क से निकाल दें और तुम्हारे उम्दा तरीके का खात्मा कर दें। 

पस तुम अपनी तदबीरें इकट्ठा करो। फिर मुत्तहिद होकर आओ और वही जीत गया 
जो आज ग़ालिब रहा। (62-64) 





हजरत मूसा की इब्तिदाई तकरीर से जादूगरों की जमाअत में इख़्तेलाफ पड़ गया । उनके 
एक गिरोह ने कहा कि यह जादूगर का कलाम नहीं है बल्कि यह नबी का कलाम है। दूसरे 
लोगों ने कहा कि नहीं, यह शख्स हमारी ही तरह का एक जादूगर है। (तफ्सीर इब्ने कसीर) 
जादूगर यकीनी तौर पर अपने पेशे के लोगों को पहचानते थे। उनके तजर्बेकार अफराद 
ने महसूस कर लिया कि यह जादू का मामला नहीं है बल्कि मोजिजे (दिव्य चमत्कार) का 
मामला है। चुनांचे वे मुकाबले की हिम्मत खो बैठे। मगर फिरऔन और उसके पुरजोश 
साथिया के उकसाने पर वे मुकाबले के लिए राजी हो गए। 
'तशीकए मूसला' का मतलब है अफल तरी । उस वक मिम्नियिंकी जिगी का पूण 
ढांचा मुश्रिकाना अकाइद के ऊपर कायम था। सबसे बड़े देवता (सूरज) के जिस्मानी मजहर 
(रूप) की हैसियत से फिरऔन की शख्सियत उनके सियासी और समाजी निजाम की बुनियाद 
बनी हुई थी। फिरऔन ने तअस्सुब (विद्ेष) के जज्बात को उभार कर कहा कि यह निजाम 
हमारा कौमी निजाम है। अब अगर तौहीद के इन अलमबरदारों की जीत हो गई तो हमारा 
पूरा कैमी निजाम उखड़ जाएगा। 


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उन्होंने कहा कि ऐ मूसा या तो तुम डालो या हम पहले डालने वाले बनें। मूसा ने कहा 
कि तुम ही पहले डालो तो यकायक उनकी रस्सियां और उनकी लाठियां उनके जादू के 
जोर से उसे इस तरह दिखाई दीं गोया कि वे दौड़ रही हैं। पस मूसा अपने दिल में कुछ 
डर गया। हमने कहा कि तुम डरो नहीं तुम ही ग़ालिब रहोगे। और जो तुम्हारे दाहिने 
हाथ में है उसे डाल दो, वह उन्हें निगल जाएगा जो उन्होंने बनाया है। यह जो कुछ 


उन्होंने बनाया है यह जादूगर का फरेब है। और जादूगर कभी कामयाब नहीं होता, चाहे 
वह कैसे आए। पस जादूगर सज्दे में गिर पड़े। उन्होंने कहा कि हम हारून और मूसा 











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पारा 6 868 सूरह-20. ता० हा० 


के रब पर ईमान लाए। (65-70) 





मुकाबला इस तरह शुरू हुआ कि जादूगरों ने पहले अपनी रस्सियां और लाठियां मैदान 
में फेंकी तो उनकी रस्सियां और लाठियां सांप बनकर मैदान में चलती हुई दिखाई दीं। ताहम 
यह सिर्फ नजरबंदी का मामला था। यानी रस्सियां और लाठियां फिलवाकअ सांप नहीं बन गई 
थीं बल्कि जादूगरों ने नजरबंदी के अमल से हाजिरीन की कुतेख़्ाली को इस तरह 
मुतअस्सिर किया कि उन्हें वक्ती तौर पर दिखाई दिया कि रस्सियां और लाठियां सांप की 
मानिंद मैदान में चल रही हैं। 

उस वक्त अल्लाह तआला के हुक्म से हजरत मूसा ने अपनी लाठी मैदान में फेंकी। 
उनकी लाठी फौरन बहुत बड़ा सांप बनकर मैदान में दौड़ने लगी। उसने उन जादूगरों के 
नजरबंदी के तिलिस्म को निगल लिया। वे चीजें जो सांपों की शक्ल में चलती हुई नजर आती 
थीं वे उसके छूते ही महज रस्सी और लाठी होकर रह गई। 

जादूगर हजरत मूसा का कलाम सुनकर पहले ही उससे मुतअस्सिर हो चुके थे। अब जब 
अमली मुजाहिरा हुआ तो उन्होंने हजरत मूसा की सदाकत को अपनी खुली आंखों से देख 
लिया। उन्होंने यकीन के साथ जान लिया कि मूसा के पास जो चीज है वह कोई इंसानी जादू 
नहीं है बल्कि वह खुदाई मोजिजा है। यह यकीन इतना गहरा था कि उन्हेनि उसी ववत हजरत 
मूसा के दीन को इख्तियार करने का एलान कर दिया। 


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फिरऔन ने कहा कि तुमने उसे मान लिया इससे पहले कि में तुम्हें इजाजत देता। 

वही तुम्हारा बड़ा है जिसने तुम्हें जादू सिखाया है। तो अब मैं तुम्हारे हाथ और पांव 
मुखालिफ सम्तों से कटवाऊंगा। और मैं तुम्हें खजूर के तनों पर सूली दूंगा। और तुम 
जान लोगे कि हम में से किस का अजाब ज्यादा सखन है और ज्यादा देर तक रहने 

वाला है। (7) 





यह मुकाबला महज दो किस्म के आदमियों के करतब का मुकाबला न था बल्कि वह 
तौहीद और शिर्क का मुकाबला था। यानी इसके जरिए से यह फैसला होना था कि सदाकत 
(सच्चाई) शिर्क की तरफ है या तौहीद की तरफ। चूँकि फिरऔन की बड़ाई की बुनियाद 
तमामतर शिक के ऊपर कायम थी इसलिए वह शिर्क की शिकस्त को बरदश्ति न कर सका 
और जादूगरों के लिए उस सख्तरीन सजा का हुक्म सुना दिया जो मिम्न में कदीम जमाने में 
राइज थी। 


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सूरह-20. ता० हा० 869 पारा 6 


फिरऔन जब दलील के मैदान में हार गया तो उसने यह कोशिश की कि ताकत के जरिए 
हक को दबा दे । यह हर जमाने में अरबाबे इक्तेदार की आम नफ्सियात रही है, चाहे वह शाहाना 
इख्तियार रखने वाले अरबाबे इक्तेदार (सत्ताधारी) हों या गैर शाहाना इख़्तियार रखने वाले। 


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जादूगरों ने कहा कि हम तुझे हरगिज उन दलाइल (स्पष्ट प्रमाणों) पर तरजीह नहीं देंगे 
जो हमारे पास आए हैं। और उस जात पर जिसने हमें पैदा किया है, पस तुझे जो कुछ 
करना है उसे कर डाल। तुम इसी दुनिया की जिंदगी का कर सकते हो। हम अपने 


रब पर ईमान लाए ताकि वह हमारे गुनाहों को बख्श दे और उस जादू को भी जिस 
पर तुमने हमें मजबूर किया। और अल्लाह बेहतर है और बाकी रहने वाला है। (72-73) 





जादूगरों के सामने एक तरफ हजरत मूसा की दलील थी। और दूसरी तरफ फिरऔन की 
जाबिराना (दमनकारी) शख्सियत । यह दलील और शख्सियत का मुकाबला था। जादूगरों ने 
शख्सियत पर दलील को तरजीह (वरीयता) दी। अगरचे वे जानते थे कि इस तरजीह की 
कीमत उन्हें इंतिहाई मंहगी सूरत में देनी पड़ेगी। 

जादूगरों का ईमान कोई नस्ली या रस्मी ईमान न था। उनका ईमान उनके लिए दरयाफ्त 
के हममअना था। और जो ईमान किसी आदमी को दरयाफ्त के तौर पर हासिल हो वह इतना 
ताकतवर होता है कि इसके बाद हर दूसरी चीज उसे हेच (महत्वहीन) नज़र आने लगती है, 
चाहे वह कोई बड़ी शख्सियत हो या कोई बड़ी दुनियावी मस्लेहत। 





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बेशक जो शख्स मुजरिम बनकर अपने रब के सामने हाजिर होगा तो उसके लिए जहन्नम 
है, उसमें वह न मरेगा और न जिएगा। और जो शख्स अपने रब के पास मोमिन होकर 
आएगा जिसने नेक अमल किए हों, तो ऐसे लोगों के लिए बड़े ऊचे दर्जे हैं। उनके लिए 


हमेशा रहने वाले बाग़ हैं जिनके नीचे नहरें जारी होंगी। वे उनमें हमेशा रहेंगे। और यह 
बदला है उस शरस का जो पाकीजगी इख्तियार करे। (74-76) 


पारा 76 870 सूरह-20. ता० हा० 





मुजरिम बनना क्या है। मुजरिम बनना यह है कि आदमी के सामने ख़ुदा की निशानी आए 
मगर वह उससे नसीहत हासिल न करे। उसके सामने दलादल की जबान में हक को खोला जाए 
मगर वह उसे नजरअंदाज कर दे। वह जाहिरी कुव्वतों और माददी मस्लेहतों से बाहर निकल 
कर हकीकत का एतराफन कर सके। 

ऐसे लोगों के लिए आख़िरत में सख्ततरीन सजा है। दुनिया की कोई मुसीबत, चाहे वह 
कितनी ही बड़ी हो, बहरहाल वह महदूद (सीमित) है। और मौत के साथ एक न एक दिन 
ख़त्म हो जाती है। मगर आख़िरत वह जगह है जहां मुसीबतों का तूफान हर तरफ से आदमी 
को घेरे हुए होगा। मगर आदमी के लिए वहां से भागना मुमकिन न होगा। और न वहां मौत 
आएगी जो नाकाबिले बयान मुसीबतों का सिलसिला मुंकतअ (ख़त्म) कर दे। 

जन्नत उसके लिए है जो अपने आपको पाक करे। पाक करना यह है कि आदमी 
फलत की जिंदगी को तक करे और शुऊर की जिंदगी को अपनाए । वह अपने आपको उन 
चीजों से बचाए जो हक से रोकने वाली हैं। मस्लेहत (स्वार्थ) की रुकावट सामने आए तो उसे 
नजरअंदाज कर दे। नपस की ख््राहिश उभरे तो उसे कुचल दे। जुल्म और घमंड की 
नप्सियात जागे तो उसे अपने अंदर ही अंदर दफन कर दे। 

यही लोग सच्चे ईमान वाले हैं। दुनिया में उनका ईमान अमले सालेह (सत्कर्मो) के बाग़ 
की सूरत में उगा था, आखिरत में वह अबदी (चिरस्थाई) जन्नतों के रूप में सरसब्ज व शादाब 
होकर उन्हें वापस मिलेगा। 


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और हमने मूसा को “वही” (प्रकाशना) की कि रात के वक्‍त मेरे बंदों को लेकर निकलो। 
फिर उनके लिए समुद्र में सूखा रास्ता बना लो, तुम न तआकुब (पीछा करने) से डरो 
और न किसी और चीज से डरो। फिर फिरऔन ने अपने लश्करों के साथ उनका पीछा 


किया फिर उन्हें समुद्र के पानी ने ठांप लिया। जैसा कि ढांप लिया और फिरऔन ने 
अपनी कौम को गुमराह किया और उसे सही राह न दिखाई। (77-79) 














जादूगरों से मुकाबले के बाद हजरत मूसा कई साल तक मिम्न में रहे। एक तरफ तो 
उन्होंने फिरऔन और कीमे फिरऔन पर अपनी तब्लीग जारी रखी। दूसरी तरफ उन्होंने 
मुतालबा किया कि मुझे इजाजत दे दो कि मैं अपने साथियों को लेकर मिस्र से बाहर सहराए 
सीना में चला जाऊं और वहां आजादी के साथ ख़ुदाए वाहिद की इबादत करूं। मगर 
फिरन ने न तो नसीहत कुब्रूल की और न हजरत मूसा को बाहर जाने की इजाजत दी। 


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सूरह-20. ता० हा० 87I पारा 76 


आखिरकार हजरत मूसा ने खुदा के हुक्म से ख़ामोश हिजरत का फैसला किया । उस वक्‍त 
मिस्र में जो इस्राईली या गैर इस्राईली मुसलमान थे, सब पेशगी मंसूबे के तहत एक ख़ास मकाम 
पर जमा हुए और वहां से रात के वक्त इज्तिमाई तौर पर रवाना हो गए। 

यह काफिला बहरे अहमर (लाल सागर) की शिमाली ख़लीज (उत्तरी खाड़ी) तक पहुंचा था 
कि फिरऔन अपने लश्कर के साथ उनका पीछा करते हुए वहां आ गया। पीछे फिरऔन का 
लश्कर था और आगे समुद्र की मानिंद वसीअ ख़लीज । अब हजरत मूसा ने ख़लीज के पानी पर 
अपनी लाठी मारी। ख़ुदा के हुक्म से पानी दो टुकड़े हो गया । हजरत मूसा और उनके साथी 
उसके दर्मियान खुश्की पर चलते हुए दूसरी तरफ पहुंच गए। यह देखकर फिरऔन भी उसके 
अंदर दाखिल हो गया । मगर फिरऔन और उसका लश्कर जैसे ही दर्मियान में पहुंचे दोनों तरफ 
का पानी मिल गया। वे लोग उसके अंदर गर्क हो गए | एक ही दरिया खुदा के वफादार बंदों के 
लिए नजात का जरिया बन गया। और खुदा के दुश्मनों के लिए मौत का गढ़ा। 

लोग अक्सर अपने कायदीन लीडरों के भरोसे पर हक को नजरअंदाज कर देते हैं। मगर 
फिरऔन की मिसाल बताती है कि कायदीन का सहारा निहायत कमजोर सहारा है। इस 
दुनिया में असल सहारे वाला वह है जो खुदा की आयात (निशानियों) की बुनियाद पर अपनी 
राह मुतअय्यन करे न कि कौम के अकाबिर बड़ों की बुनियाद पर। 


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ऐ बनी इस्राईल हमने तुम्हें तुम्हारे दुश्मन से नजात दी और तुमसे तूर के दाई जानिब 
वादा ठहराया। और हमने तुम्हारे ऊपर मन्न और सलवा उतारा। खाओ हमारी दी हुई 
पाक रोजी और उसमें सरकशी न करो कि तुम्हारे ऊपर मेरा गजब नाजिल हो। और 

जिस पर मेरा गजब उतरा वह तबाह हुआ। अलवत्ता जो तोबा करे और ईमान लाए 
और नेक अमल करे और सीधी राह पर रहे तो उसके लिए मैं बहुत ज्यादा बख़्शने वाला 
हूं। (80-82) 








खलीज (खाड़ी) को पार करने के बाद हजरत मूसा और उनके साथी चलते रहे। यहां 
तक कि वे सहराए सीना में पहुंच गए। इसके बाद कोहेतूर के दामन में बुलाकर ख़ास 
एहतिमाम से उन्हें शरीअत अता की गई। ये लोग चालीस साल तक सहराए सीना में रहे। 
यहां उनके लिए खुसूसी नेमत के तौर पर पानी और गिजा (मन्न और सलवा) का इंतिजाम 


पारा 6 872 सूरह-20. ता० हा० 


किया गया जो उस वक्‍त तक मुसलसल जारी रहा जबकि उनकी अगली नस्ल फिलिस्तीन के 
सरसव्ज इलाकेमेप्हुंच गई। 

अल्लाह तआला के ऊपर बंदों का यह हक है कि वह हर हाल में अपने बंदों के लिए 
रिज्क फराहम करे। और बंदों के ऊपर अल्लाह का यह हक है कि वे किसी हाल में उसके 
साथ सरकशी न करें। जो लोग ख़ुदा की नेमतों के शुक्रगुजार बनकर रहें उनके लिए ख़ुदा की 
मी (अतिरिक्त) रहमतें हैं। और जो लोग सरकश बन जाएं उनके लिए ख़ुदा का शदीद 
अजाब है जो कभी ख़त्म न होगा। 


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और ऐ मूसा, अपनी कौम को छोड़कर जल्द आने पर तुम्हें किस चीज ने उभारा। मूसा 
ने कहा, वे लोग भी मेरे पीछे ही हैं। और में ऐ मेरे रब, तेरी तरफ जल्द आ गया ताकि 


तू राजी हो। फरमाया तो हमने तुम्हारी कैम को तुम्हारे बाद एक फितने में डाल दिया। 
और सामिरी ने उसे गुमराह कर दिया। (83-85) 





मिस्न से निकलने के बाद अल्लाह तआला ने हजरत मूसा के लिए एक तारीख़ मुकर्रर की 
कि उस रोज वह कोहेतूर के उसी दामन में दुबारा आएं जहां उन्हें इब्तिदाअन पैगम्बरी मिली 
थी। यहां हजरत मूसा को तौरात लेने के लिए अपनी पूरी कौम के साथ पहुंचना था। मगर 
फ्त शौक में वह तेजी से रवाना होकर मु्करह तारीख़ से कुछ दिन पहले मकमे मोऊद 
(निश्चित-स्थल) पर आ गए। और कौम को पीछे छोड़ दिया। कौम से हजरत मूसा का अलग 
होना कौम के लिए फितना बन गया। कौम में कुछ मुश्रिकाना जेहनियत के लोग थे। सामरी 
उनका लीडर था। उन लोगों ने हजरत मूसा की गैर मौजूदगी से फायदा उठाकर कौम को 
बहकाया और उसे बछड़े की परस्तिश में मुब्तिला कर दिया जैसा कि मिस्र में उस जमाने में 


होता था। 
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फिर मूसा अपनी कौम की तरफ गुस्से और रंज में भरे हुए लोटे। उन्होंने कहा कि ऐ 
मेरी कौम क्या तुमसे तुम्हारे रब ने एक अच्छा वादा नहीं किया था। क्या तुम पर ज्यादा 
जमाना गुजर गया। या तुमने चाहा कि तुम्हारे ऊपर तुम्हारे रब का गजब (प्रकोप) 

नाजिल हो, इसलिए तुमने मुझसे वादाखिलाफी की। (86) 


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सूरह-20. ता० हा० 873 पारा 76 





अल्लाह तआला ने जब हजरत मूसा को ख़बर दी कि तुम्हारी कौम फितने में मुक्तिला 
हो गई है तो वह शदीद जज्बात में भरे हुए कौम की तरफ वापस आए। उन्होंने उन्हें याद 
दिलाया कि अभी-अभी खुदा ने तुम्हारे ऊपर इतने एहसानात किए हैं और अपनी इतनी ज्यादा 
निशानियां तुम्हारे लिए जाहिर की हैं। फिर कैसे तुम इतनी जल्द सब भूलकर गुमराही में पड़ 
गए। 

हजरत मूसा बनी इस्राईल के लिए अल्लाह की किताब लेने गए। और बनी इस्राईल की 
बड़ी तादाद कुछ लोगों की बातों में आकर गैर अल्लाह की परस्तिश में मशगूल हो गई। इससे 
अंदाजा होता है कि बनी इस्राईल मिम्न के मुश्रिकाना माहौल से कितना ज्यादा मुतअस्सिर हो 
चुके थे। और क्यों यह जरूरी हो गया था कि दुबारा तौहीद का परस्तार बनाने के लिए उन्हें 
मिस्र के माहौल से निकाल कर बाहर ले जाया जाए। 

हजरत मूसा ने फिरऔन के मुकाबले में जो कुछ किया वह दावते दीन का काम था। 
और आपने बनी इस्राईल के सिलसिले में जो कुछ किया वह तहपफुजे दीन का काम । दोनों 
काम आपने साथ-साथ अंजाम दिए। इससे दोनों कामों की अहमियत मालूम होती है। 
मुसलमान अगर बिगड़े हुए हों तो इस बिना पर दावते आम का काम रोका नहीं जा सकता। 
और अगर दावते आम का काम करना हो तो वह इस तरह नहीं किया जाएगा कि दाख़िली 
इस्लाह (आन्तरिक सुधार) का काम बंद कर दिया जाए 


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"उन्होंने कहा कि हमने अपने इख्तियार से आपके साथ वादाख़िलाफी नहीं की। बल्कि 
कौम के जेवरात का बोझ हमसे उठवाया गया था तो हमने उसे फेंक दिया। फिर इस 
तरह सामरी ने ढाल लिया। पस उसने उनके लिए एक बछड़ा बरामद कर दिया। एक 
मूर्ति जिससे बैल की सी आवाज निकलती थी। फिर उसने कहा कि यह तुम्हारा माबूद 
(पूज्य) है और मूसा का माबूद भी, मूसा इसे भूल गए। क्या वे देखते न थे कि न वह 
किसी बात का जवाब देता है और न कोई नफा या नुक्सान पहुंचा सकता है। (87-89) 


बनी इस्राईल की औरतें गालिबन कदीम रवाज के मुताबिक भारी जेघरात अपने जिस्म 
पर लादे हुए थीं। इस सफर में कौम ने कहीं पड़ाव डाला तो उन्होंने इन जेवरात को उतार 
कर एक जगह ढेर कर दिया। उनके दर्मियान एक सामरी था जो मिस्र की कदीम शिल्पकारी 


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पारा 6 874 सूरह-20. ता० हा० 


बुतसाजी का तजर्वा रखता था। उसने इन जेवरात को पिघलाया और उनसे बछड़े जैसी एक 
मूर्ति बना डाली। यह बछड़ा अंदर से ख़ाली था। और इस तरह हुनरमंदी से बनाया गया था 
कि जब उसके अंदर से हवा गुजरती तो बैल की डकार की सी आवाज आती। सामरी ने बनी 
इस्राईल के जाहिल अवाम से कहा कि देखो तुम्हारा माबूद (पूज्य) तो यह है जो यहां मौजूद 
है। मूसा माबूद की तलाश में मालूम नहीं किस पहाड़ पर चले गए। 

हर जमाने के 'सामरी' इसी तरह अवाम को बेवकूफ बनाते हैं। वे किसी महसूस चीज 
को निशाना बनाकर उसी को सबसे बझ़ हक साबित करते हैं। और अत्फाज के फ में 
आकर अवाम की एक भीड़ उनके गिर्द जमा हो जाती है। महसूसपरस्ती इंसान की सबसे बड़ी 
कमजोरी है। चाहे वह दौरे कदीम का इंसान हो या दौरे जदीद (आधुनिक काल) का इंसान । 


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और हारून ने उनसे पहले ही कहा था कि ऐ मेरी कौम, तुम इस बछड़े के जरिए से 
बहक गए हो और तुम्हारा रब तो रहमान है। पस मेरी पेरवी करो और मेरी बात मानो। 
उन्होंने कहा कि हम तो इसी की परस्तिश (पूजा) में लगे रहेंगे जब तक कि मूसा हमारे 
पास लोट न आए। (90-9]) 





हजरत मूसा के बाद कैम की देखभाल की जिम्मेदारी हजरत हारून पर थी। उन्हेनि कैम 
को काफी समझाने की कोशिश की। मगर कौम के ऊपर उनका वह दबाव न था जो हजरत 
मूसा का था। इसलिए उनके मना करने के बाद भी लोग इससे न रुके। हजरत हारून का 
इसरार बढ़ा तो लोगों ने कहा कि अब जो हो गया है वह तो इसी तरह जारी रहेगा। मूसा जब 
लौट कर आएंगे तो वही इसका फैसला करेंगे। 

हजरत हारून उस वक्‍त अगर कोई सर इवदाम करते तो वह नतीजाखेज न होता। 
क्योंकि आपके साथ जो लोग थे उनकी तादाद कम थी। आपने बेनतीजा कार्रवाई करने के 
मुकाबले में इसे ज्यादा मुनासिब समझा कि वक्ती तौर पर सब्र का तरीका इह्न्ियार कर लें। 
और लोगों की इस्लाह (सुधार) के लिए अल्लाह तआला से दुआ करते रहें। 

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मूसा ने कहा कि ऐ हारून, जब तूने देखा कि वे बहक गए हैं तो तुम्हें किस चीज ने 
रोका कि तुम मेरी पैरवी करो। क्या तुमने मेरे कहने के खिलाफ किया। हारून ने कहा 


























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सूरह-20. ता० हा० 875 पारा 76 


कि ऐ मेरी मां के बेटे, तुम मेरी दाढ़ी न पकड़ो और न मेरा सर। मुझे यह डर था कि 
तुम कहोगे कि तुमने बनी इस्राईल के दर्मियान फूट डाल दी और मेरी बात का लिहाज 
न किया। (92-94) 


हजरत मूसा ने अपने भाई का सख्ती के साथ मुहासबा किया। हजरत हारून ने जवाब 
दिया कि ऐसा नहीं है कि मैंने इस्लाह की कोशिश नहीं की और जाहिलों के साथ मुसालेहत 
कर ली। बल्कि मैंने पूरी कुव्वत के साथ उन्हें इस मुश्रिकाना फेअल से रोकने की कोशिश 
की। मगर मसला यह था कि कौम की अक्सरियत सामरी के फरेब में आकर उसकी साथी 
बन गई। मैंने इसरार किया तो वे लोग जंग व कत्ल पर आमादा हो गए। मुझे अंदेशा हुआ 
कि अगर मैं इसरार जारी रखता हूं तो कौम के अंदर बाहमी खूरेजी शुरू हो जाएगी। 

मामला इस नौबत तक पहुंचने के बाद अब मुझे दो में से एक चीज का इंतिख़ाब करना 
था। या तो बाहमी जंग, या आपकी आमद तक इस मामले को मुल्तवी रखना । मैंने दूसरी 
सूरत को बेहतर समझ कर उसे इस़्तियार कर लिया। बहुत से मौकों पर दीन का तकाजा यह 
होता है कि बाहमी लड़ाई से बचने के लिए ख़ामोशी का तरीका इख्तियार कर लिया जाए, यहां 
तक कि शिक जैसे मामले में भी। 


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मूसा ने कहा कि ऐ सामरी, तुम्हारा क्या मामला है। उसने कहा कि मुझे वह चीज नजर 

आई जो दूसरों को नजर नहीं आई तो मैंने रसूल के नवशेकदम (पद चिन्हे) से एक 

मुट्ठी उठाई और वह इसमें डाल दी। मेरे नफ्स (अंतःकरण) ने मुझे ऐसा ही समझाया। 
मूसा ने कहा कि दूर हो। अब तेरे लिए जिंदगी भर यह है कि तू कहे कि मुझे न छूना। 
और तेरे लिए एक और वादा है जो तुझसे टलने वाला नहीं। और तू अपने इस माबूद 
(पूज्य) को देख जिस पर तू बराबर मोअतकिफ (एकाग्र) रहता था, हम उसे जलाएंगे 
फिर उसे दरिया में बिखेर कर बहा देंगे। तुम्हारा माबूद तो सिर्फ अल्लाह है उसके सिवा 
कोई माबूद नहीं। उसका इल्म हर चीज पर हावी है। (95-98) 








हजरत मूसा को जब मालूम हुआ कि इस फेअल (कृत्य) का अस्ल लीडर सामरी है तो 
आपने उससे पूछ-गछ की। सामरी ने दुबारा होशियारी का तरीका इख्तियार किया और बात 


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पारा 6 876 सूरह-20. ता० हा० 


बनाते हुए कहा कि मैंने जो कुछ किया एक कश्फ (दिव्य निर्देश) के जेरे असर किया। और 
ख़ुद रसूल के नक्शे कदम की मिट्टी भी इसमें बरकत के लिए शामिल कर दी। 

पैगम्बर को फरेब देने की कोशिश की बिना पर सामरी का जुर्म और ज्यादा शदीद हो 
गया। बाइबल के बयान के मुताबिक उसे खुदा ने कोढ़ का मरीज बना दिया। उसका जिस्म 
ऐसा मकरूह हो गया कि लोग उसे देखकर दूर ही से उससे कतराने लगे। सामरी ने झूठ 
की बुनियाद पर कौम का महबूब बनने की कोशिश की | इसकी उसे यह सजा मिली कि उसे 
कौम का सबसे ज्यादा मबगूज (पणित) शख्स बना दिया गया। और आहिरत की सजा इसके 
अलावा है। 

बनी इस्राईल के जेहन में मुश्रिकाना मजाहिर की जो अज्मत थी उसे ख़त्म करने के लिए 
हजरत मूसा ने यह किया कि लोगों के सामने बछड़े को जला डाला और फिर उसकी ख़ाक 
को समुद्र की मौजों में बहा दिया । 


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इसी तरह हम तुम्हें उनके अहवाल (वृत्तांत) सुनाते हैं जो पहले गुजर चुके। और हमने 
तुम्हें अपने पास से एक नसीहतनामा दिया है। जो इससे एराज (उपेक्षा) करेगा वह 
कियामत के दिन एक भारी बोझ उठाएगा। वे उसमें हमेशा रहेंगे और यह बोझ 
कियामत के दिन उनके लिए बहुत बुरा होगा। जिस दिन सूर में फूंक मारी जाएगी और 
मुजरिमों को उस दिन हम इस हाल में जमा करेंगे कि ख़ोफ से उनकी आंखें नीली होंगी। 
आपस में चुपके-चुपके कहते होंगे कि तुम सिर्फ दस दिन रहे होगे। हम ख़ूब जानते 
हैं जो कुछ वे कछी। जबकि उनका सबसे ज्यादा वाकिफकार कहेगा कि तुम सिर्फ एक 

दिन ठहरे। (99-04) 





पैग़म्बरों का इंकार करने वालों का जो अंजाम हुआ वह गोया दुनिया में उस इलाही फैसले 
का जुजई जुहूर (आंशिक प्रदर्शन) था जो कियामत में कुल्ली तौर पर तमाम नोए इंसानी (मानव 
जाति) के लिए पेश आने वाला है। कुरआन इसी हकीकत की एक याददिहानी है। 

दुनिया में आदमी जब हक को नजरअंदाज करता है तो बजाहिर यह बहुत हलकी सी 
चीज मालूम होती है। मगर आख़िरत में आदमी का यह फेअल उसके लिए निहायत भारी बोझ 


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सूरह-20. ता० हा० 877 पारा 76 
बन जाएगा । जब खुदाई बिगुल (सूर) यह एलान करेगा कि इम्तेहान की मुद्दत ख़त्म हो चुकी, 
उस वक्त अचानक लोग अपने आपको एक और दुनिया में पाएंगे। जब आदमी पर यह खुलेगा 
कि जिस दुनिया को वह अपनी दुनिया समझे हुए था वह दरअस्ल ख़ुदा की दुनिया थी तो उस 
पर इस कद्र दहशत तारी होगी कि उसकी हैयत (स्वरूप) तक बदल जाएगी। 

मौजूदा दुनिया में आदमी आख़िरत को इस तरह नजरअंदाज करता है जैसे वह कोई 
बहुत दूर की चीज हो। मगर कियामत आने के बाद आदमी को ऐसा मालूम होगा जैसे दुनिया 
की जिंदगी तो बस गिनती के चन्द रोज की थी। इसके बाद सारी लम्बी जिंदगी वही थी जो 
आखिरत के आलम में गुजरने वाली थी। 


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और लोग तुमसे पहाड़ों की बाबत पूछते हैं। कहो कि मेरा रब उन्हें उड़ाकर बिखेर देगा। 
फिर जमीन को साफ मैदान बनाकर छोड़ देगा। तुम इसमें न कोई कजी (टेढ़) देखोगे 

और न कोई ऊंचान। उस दिन सब पुकारने वाले के पीछे चल पड़गे। जरा भी कोई 


कजी न होगी। तमाम आवाजें रहमान के आगे दब जाएंगी। तुम एक सरसराहट के 
सिवा कुछ न सुनोगे। (05-08) 


कियामत में मौजूदा जमीन एक वसीअ (विस्तृत) और हमवार (समतल) फर्श की मानिंद 
बना दी जाएगी । उस वक्त यहां न पहाड़ों की बुलन्दियां होंगी और न दरियाओं की गहराइयां। 
तमाम इंसान दुबारा पैदा होकर उस जमीन पर जमा किए जाएंगे। दुनिया में खुदा की आवाज 
खुदा के दाऔ (आह्वानकर्ता) की जबान से बुलन्द होती है तो लोग उसे नजरअंदाज कर देते 
हैं। मगर कियामत में जब खुदा बराहेरास्त लोगों को पुकारेगा तो सारे इंसान किसी अदना 
इंहिराफ के बर उसकी आवाज की तरफ चल पड़ी। लोगों पर इस कद्र हौल तारी होगा कि 
किसी की जबान से कोई लफ्ज नहीं निकलेगा। लोगों के चलने की सरसराहट के सिवा कोई 
और आवाज न होगी जो उस वक्‍त लोगों को सुनाई दे। 


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पारा ।6 878 


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उस दिन सिफारिश नफा न देगी मगर ऐसा शख्स जिसे रहमान ने इजाजत दी हो और 

उसके लिए बोलना पसंद किया हो। वह सबके अगले और पिछले अहवाल को जानता 
है। और उनका इलम उसका इहाता नहीं कर सकता। और तमाम चेहरे उस हय्य व 
कय्यूम (जीवंत एवं शाश्वत) के सामने झुके होंगे। और ऐसा शख्स नाकाम रहेगा जो 
जुल्म लेकर आया होगा। और जिसने नेक काम किए होंगे और वह ईमान भी रखता 
होगा तो उसे न किसी ज्यादती का अंदेशा होगा और न किसी कमी का। (09-72) 


सूरह-20. ता० हा० 





सिफारिश का मुस्तकिल बिज्जात मुअस्सिर (स्वयं प्रभावी) होना सरासर बातिल है। खुदा 
न तो बंदों के अहवाल से बेख़बर है कि कोई उसे किसी के बारे में बताए और न वह कमजोर 
है कि कोई उस पर दबाव डाल सके। अलबत्ता कुछ ख़ास अहवाल में ख़ुद अल्लाह तआला 
ही की यह मंशा हो सकती है कि वह किसी की जबान से जारी होने वाली एक काबिले लिहाज 
दरखास्त को इनो कूल अता फमाए। 
कियामत में असल अहमियत इसकी होगी कि कौन शख्स ख़ुद क्या लेकर आया है। जिस 
शख्स ने मौजूदा दुनिया में अपनी जिंदगी नाहक पर खड़ी की होगी उसका आख़िरत में नाकाम 
होना यकीनी है। वहां सिर्फ वही लोग कामयाब होंगे जिन्होंने हालते गेब (अप्रकट) में अपने 
रब को पहचाना और अपनी जिंदगी को उसकी मर्जी के मुताबिक ढाल लिया। 


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और इसी तरह हमने अरबी का कुरआन उतारा है और इस में हमने तरह-तरह से 
वईद (चेतावनी) बयान की है ताकि लोग डरें या वह उनके दिल में कुछ सोच डाल 
दे। पस बरतर है अल्लाह, बादशाह हकीकी। और तुम कुरआन के लेने में जल्दी न 
करो जब तक उसकी “वही” (प्रकाशना) तक्मील को न पहुंच जाए। और कहो कि 
ऐ मेरे रब मेरा इलम ज्यादा कर दे। (3-4) 











ख़ुदा ने अपनी किताब जिसमें हर किस्म के दलाइल हैं, इंसानी जबान में उतारी है। और 
उस जबान को हमेशा के लिए एक जिंदा जबान बना दिया है। इस तरह खुदा की हिदायत 
को एक ऐसी चीज बना दिया गया है जिसे हर जमाने का आदमी पढ़ और समझ सके। 

दाऔ जब हक की दावत लेकर उठे तो उसके सामने नतीजे के एतबार से दो चीजें होनी 
चाहिएं। पहली मत्लूब चीज तो यह है कि सुनने वाले के अंदर नपिसियाती इंकिलाब पैदा हो 


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सूरह-20. ता० हा० 879 पारा 76 


और वह अल्लाह से डरने वाला बन जाए । दूसरी इससे कमतर बात यह है कि दाऔ की बात 
सुनने वाले के जेहन में सवाल बनकर दाखिल हो जाए। 

मक्का में दावती मुहिम के दौरान रोजाना लोगों की तरफ से सवाल उठाए जाते थे और 
नए-नए मसाइल पैदा होते थे। अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम 
की ख्राहिश फितरी तौर पर यह होती थी कि कुरआन के नाज़िल होने का वफ़ा (अंतराल) 
कम हो ताकि आपको जल्द-जल्द खुदाई रहनुमाई मिलती रहे। फरमाया कि कुरआन जिस 
तदरीज (क्रम) से उतर रहा है वह ख़ुदा का तय शुदा मंसूबा है। वह इसी तरह उतरेगा और 
बहरहाल अपनी तक्मील तक पहुंचेगा। तुम मुस्तकबिल (भविष्य) के कुरआन को हाल 
(वर्तमान) में उतारने के ख़्वाहिशमंद न बनो। अलबत्ता यह दुआ करो कि ख़ुदा तुम्हारे फहमे 
कुरआन में इजाफा करे। कुरआन की आयतों में जो वसीअ (सार्वभीम) मजामीन छुपे हए 
हैं उनका इदराक करने की सलाहियत पैदा कर दे। कुरआन की अगली आयतों के बारे में 
जल्दी के बजाए तुम्हें उस हिक्मत को जानने का ख़्वाहिशमंद होना चाहिए कि कुरआन के 
नुजूल में तर्तीब व तदरीज (चरणबद्धता) क्यों रखी गई है। 

इससे यह नतीजा निकलता है कि दाऔ को कभी जल्दबाजी से काम नहीं लेना चाहिए। 
दावत (आह्वान) के हालात में जिहाद के मसाइल बयान करना। लोगों की इस्लाह के दौर में 
इज्तिमाई इक्दाम (सामूहिक पहल) के अहकाम सुनाना। जिन मौकों पर सब्र मत्लूब है उन 
मौकों पर संघर्ष की आयतों के हवाले देना, ये सब इसी के दायरे में दाखिल है। और इससे 
बचना दा के लिए लाजिमी तौर पर जरूरी है। 


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और हमने आदम को इससे पहले हुक्म दिया था तो वह भूल गया और हमने उस में 
अज्म (दुठ-संकल्प) न पाया। और जब हमने फरिश्ता से कहा कि आदम को सज्दा करो 

तो उन्होंने सज्दा किया मगर इब्लीस (शैतान) कि उसने इंकार किया। फिर हमने कहा 
कि ऐ आदम, यह बिलाशुबह तुम्हारा और तुम्हारी बीवी का दुश्मन है तो कहीं वह तुम 
दोनों को जन्नत से निकलवा न दे फिर तुम महरूम होकर रह जाओ। (5-27) 





खुदा के हुक्म पर कायम रहने के लिए मजबूत इरादा इंतिहाई तौर पर जरूरी है। आदमी 
अगर गैर मुतअल्लिक चीजों से मुतअस्सिर (प्रभावित) हो जाया करे तो वह यकीनन खुदा के 
रास्ते से हट जाएगा। ख़ुदा के रास्ते पर कायम रहने के लिए सिर्फ खुदा के हुक्म का जानना 
काफी नहीं, बल्कि यह अज्म (दूकसंकल्प) भी लाजिमी तौर पर जरूरी है कि आदमी हुकमे 


पारा 6 880 सूरह-20. ता० हा० 


खुदावंदी के खिलाफ बातों से मुजाहमत (प्रतिरोध) करे और उन्हें अपने ऊपर असरअंदाज न 
होने दे। 

खुदा ने आदम को सज्दा करने का हुक्म दिया तो फरिश्ते फौरन सज्दे में गिर गए । मगर 
शैतान ने सज्दा नहीं किया। इस फर्क की वजह क्या थी। इसकी वजह यह थी कि फरिश्तों 
ने इस मामले को ख़ुदा का मामला समझा । इसके बरअक्स इब्लीस ने इसे इंसान का मामला 
समझा। जब मामले को ख़ुदा का मामला समझा जाए तो आदमी के लिए एक ही मुमकिन 
सूरत होती है। वह यह कि वह उसकी इताअत (आज्ञापालन) करे। मगर जब मामले को 
इंसान का मामला समझ लिया जाए तो आदमी यह करेगा कि वह सामने के इंसान को 
देखेगा। अगर वह उससे ताकतवर है तो वह झुक जाएगा। और अगर वह उससे ताकतवर 
नहीं है तो वह झुकने से इंकार कर देगा, चाहे हक का वाजेह तकाजा यही हो कि वह उसके 
आगे अपने आपको झुका दे। 


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यहां तुम्हारे लिए यह है कि तुम न भूखे रहोगे और न तुम नंगे होगे। और तुम यहां न 
प्यासे होगे, और न तुम्हें धूप लगेगी। फिर शैतान ने उन्हें बहकाया। उसने कहा कि 
क्या मैं तुम्हें हमेशगी (अमरता) का दरख़्त बताऊं। और ऐसी बादशाही जिसमें कभी 
कमजोरी न आए। पस उन दोनों ने उस दरख़्त का फल खा लिया तो उन दोनों से सत 
एक दूसरे के सामने खुल गए। और दोनों अपने आपको जन्नत के पत्तों से ढांकने लगे। 
और आदम ने अपने रब के हुक्म की खिलाफवर्जी की तो भटक गए। फिर उसके रब ने 
उसे नवाजा। पस उसकी तोबा कुबूल की और उसे हिदायत दी। (8-29) 





आदम और उनकी बीवी को जिस जन्नत में रखा गया था वहां जिंदगी की तमाम जरूरतें 
उन्हें बफराग़त हासिल थीं। गिजा, लिबास, पानी, साया (मकान) ये सब चीजें वहां खुदा की 
तरफ से बिल्कुल मुफ्त मुहय्या की गई थीं। मौजूदा दुनिया में ये चीज आदमी को पुरमशक्कत 
कस्ब के जरिए मिलती हैं जन्नत में ये चीजे उन्हें किसी मशक्कत के बौर हासिल थीं। 

एक दरख़्त का फल खाना आदम के लिए ममनूअ था। शैतान ने उस दरख्त के फल में 
अबदी फायदे बताए । बिलआख़िर आदम उसकी बातों से मुतअस्सिर हो गए और उन्होंने उस 
दरख़्त का फल खा लिया। इसके फौरन बाद उन्होंने महसूस किया कि वे नंगे हो गए हैं। यह 
गोया एक अलामत थी कि ख़ुदा की वह जमानत उनसे उठा ली गई जिसकी वजह से वे अब 
तक बगैर मेहनत रोजी के मालिक थे। इसके बाद तौबा और दुआ की वजह से आदम की 


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सूरह-20. ता० हा० 88] पारा 76 
माफी हो गई। ताहम वह बिना मेहनत की रोजी वाली दुनिया से निकाल कर मेहनत की रोजी 
वाली दुनिया में पहुंचा दिए गए। इस तरह जमीन पर मौजूदा नस्ले इंसानी का आगाज हुआ। 
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ख़ुदा ने कहा कि तुम दोनों यहां से उतरो। तुम एक दूसरे के दुश्मन हो गए। फिर अगर 
तुम्हारे पास मेरी तरफ से हिदायत आए तो जो शख्स मेरी हिदायत की पैरवी करेगा 
वह न गुमराह होगा और न महरूम रहेगा। और जो शख्स मेरी नसीहत से एराज (उपेक्षा) 
करेगा तो उसके लिए तंगी का जीना होगा। और कियामत के दिन हम उसे अंधा 
उठाएंगे। वह कहेगा कि ऐ मेरे रब, तूने मुझे अंधा क्यों उठाया में तो आंखों वाला था। 
इर्शाद होगा कि इसी तरह तुम्हारे पास हमारी निशानियां आई तो तुमने उनका कुछ 
ख्याल न किया तो इसी तरह आज तुम्हारा कुछ ख्याल न किया जाएगा। और इसी 
तरह हम बदला देंगे उसे जो हद से गुजर जाए और अपने रब की निशानियों पर ईमान 
न लाए। और आखिरत (परलोक) का अजाब बड़ा सख्त है और बहुत बाकी रहने 
वाला। (।23-।27) 


ख़ुदा ने आदम और इब्लीस दोनों को जमीन पर बसाया । उसने इब्तिदा ही में यह तंबीह 
कर दी कि कियामत तक तुम दोनों के दर्मियान एक दूसरे से मुकाबला जारी रहेगा । इब्लीस 
इंसानी नस्ल को बहकाने में अपनी सारी कोशिश लगा देगा। इसके जवाब में इंसान को यह 
करना है कि वह अपने सबसे बड़े दुश्मन इब्लीस को समझे और उसके वसवसों से आखिरी 
हद तक दूर रहने की कोशिश करे। 

इंसान की मजीद हिदायत के लिए ख़ुदा ने यह इंतिजाम किया कि मुसलसल अपने 
पेएबर भेजे जो इंसान की कबिलेफ्हम जबान में उसे जिगी की हकीकत से बाख़बर करते 
रहे। अब इंसान की कामयाबी और नाकामी का दारोमदार इस पर है कि वह पैगम्बर की बात 
को मानता है या नहीं मानता। जो शख्स उसे मानेगा उसे दुबारा जन्नत की राहत भरी हुई 
जिंदगी दे दी जाएगी। और जो शख्स नहीं मानेगा उसकी जिंदगी सख््ततरीन जिंदगी होगी जिससे 
वह कभी निकल न सकेगा। 

हिदायत से एराज (उपेक्षा) करने वाले लोग आखिरत में इस तरह उठेंगे कि वे दोनों 


पारा 76 882 सूरह-20. ता० हा० 
आंखों से अंधे होंगे। इसकी वजह यह है कि उन्हें आंखें इसलिए दी गई थीं कि वे खुदा की 
निशानियों को देखकर उसे पहचानें। मगर उनका हाल यह हुआ कि उनके सामने ख़ुदा की 
निशानियां आई और उन्होंने उन्हें नहीं पहचाना। इस तरह उन्होंने साबित किया कि वे आंख 
रखते हुए भी अंधे हैं। फिर खुदा फरमाएगा कि ऐसे अंधों को आंख देने की क्या जरूरत। 


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क्या लोगों को इस बात से समझ न आई कि उनसे पहले हमने कितने गिरोह हलाक कर 
दिए। ये उनकी बस्तियों में चलते हैं बेशक इसमें अहले अक्ल के लिए बड़ी निशानियां हैं। 
और अगर तुम्हारे रब की तरफ से एक बात पहले तय न हो चुकी होती । और मोहलत की 
एक मुदुदत मुरकर न होती तो जरूर उनका फैसला चुका दिया जाता। पस जो ये कहते हैं 
उस पर सब्र करो। और अपने रब की हम्द (प्रशंसा) के साथ उसकी तस्बीह (अर्चना) करो, 


सूरज निकलने से पहले और उसके डूबने से पहले, और रात के औकात में भी तस्बीह करो। 
और दिन के किनारों पर भी। ताकि तुम राजी हो जाओ। (28-30) 











किसी कौम को जमीन पर उरूज (उत्थान) हासिल हो और फिर वह हलाक या मग़लूब 
(परास्त) कर दी जाए तो इसकी वजह हमेशा यह होती है कि उसने बंदगी की हद से तजावुज 
किया । हर तबाहशुदा कौम अपने बाद वालों के लिए दर्सेइबरत होती है। मगर बहुत कम लोग 
हैं जो इस तरह के वाकेयात से दर्स (सीख) हासिल करते हों। 

यहां तस्बीह और नमाज की जो तल्कीन की गई है वह मक्की दौर के इंतिहाई सख्त 
हालात में की गई है। इससे अंदाजा होता है कि इंकार और मुखालिफत के सख्ततरीन हालात 
में नमाज और ख़ुदा की याद मोमिन की ढाल है। इससे राहे हमवार होती हैं। और फुतुहात 
(विजयो) के दरवाजे खुलते हैं। इससे सब कुछ इतनी बड़ी मिक्दार (मात्रा) में मिल जाता है 
कि आदमी उसे पाकर राजी हो जाए। 


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सूरह-20. ता० हा० 883 पारा 6 


और हरगिज उन चीजों की तरफ आंख उठाकर भी न देखो जिन्हें हमने उनके कुछ गिरोहों 
को उनकी आजमाइश के लिए उन्हे दे रखा है। और तुम्हारे रब का स्क ज्यादा बेहतर 

है और बाकी रहने वाला है। और अपने लोगों को नमाज का हुक्म दो और उसके पाबंद 
रहो। हम तुमसे कोई सकि नहीं मांगते। रिस्क तो तुम्हें हम दंगे और बेहतर अंजाम 

तो तकवा (ईश-परायणता) ही के लिए है। (3-39) 





इन आयात का ख़िताब अगरचे बजाहिर पेगम्बर से है मगर इसके मुखातब तमाम अहले 
ईमान हैं। दुनिया में एक शख्स ईमान और दावत (आह्वान) की जिंदगी इख्तियार करता है। 
इसके नतीजे में उसकी जिंदगी मशक्कतोंकी जिंदगी बन जाती है। दूसरी तरफ यह हाल है कि 
जो लोग इस किस्म की जिम्मेदारियों से आजाद हैं वे आराम और राहत में अपने सुबह व शाम 
गुजार रहे हैं। इस सूरतेहाल को नुमायां करके शैतान आदमी के दिल में वसवसा डालता है। वह 
मोमिन और दाऔ (आह्वानकर्ता) को मुतजलजल (अस्थिर) करने की कोशिश करता है। 

लेकिन गहराईसेदेख जाए तोइस जहिरी फ्क्रकेअगेएक औए फहि औ वह फर्क 
ज्यादा कबिले लिह्जहै। वह फर्क्रयह कि वुुनियापरस्त लेगको जो चीज मिली है वह महज 
इम्तेहान के लिए है और सरासर वक्ती है। इसके बाद अबदी जिंदगी में उनके लिए कुछ नहीं। 
दूसरी तरफ मोमिन और दाओ को खुदा से वाबस्तगी इसख़्तियार करने के नतीजे में जो चीज मिली 
है वह तमाम दुनिया की चीजें से ज्यादा कीमती है। वह है अल्लाह की याद, आख़िस्त की 
फिक्र, इबादत और तकवे की जिंदगी, खुदा के बंदों को आख़िरत की पकड़ से बचाने के लिए 
फिक्रमंद होना । यह भी सकि है। और यह ज्यादा आला रिक है क्येकि वह आहित मेऐपी 
बेहिसाब नेमतों की शक्ल में आदमी की तरफ लौटेगा जो कभी ख़त्म होने वाली नहीं। 


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और लोग कहते हैं कि यह अपने रब के पास से हमारे लिए कोई निशानी क्यों नहीं 
लाते। क्या उन्हें अगली किताबों की दलील नहीं पहुंची। और अगर हम उन्हें इससे 
पहले किसी अजाब से हलाक कर देते तो वे कहते कि ऐ हमारे रब तूने हमारे पास रसूल 
क्यों न भेजा कि हम जलील और रुसवा होने से पहले तेरी निशानियाँ की पैरवी करते। 


कहो कि हर एक मुन्तजिर है तो तुम भी इंतिजार करो। आइंदा तुम जान लोगे कि कौन 
सीधी राह वाला है और कौन मंजिल तक पहुंचा। (33-35) 


पारा 77 884 सूरह-2।. अल-अंबिया 








पैगम्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की बैअसत से पहले अल्लाह तआला ने यह एहतिमाम 
किया कि पिछले नबियों की जबान से आपकी आमद का पेशगी एलान किया । ये पेशीनगोइयां 
(भविष्यवाणियां) आज भी तमाम तहरीफात (परिवर्तनां) के बावजूद, पिछली आसमानी 
किताबों में मौजूद हैं। यह पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की सदाकत (सच्चाई) की सबसे 
बड़ी दलील थी। मगर दलील की कुत को समझने के लिए संजीदगी की जरूरत होती है 
और यह वह चीज है जो हमेशा सबके कम पाई गई है। 








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आयतें-2 सूरह-2।. अल-अंबिया रुकूअ-7 


(मक्का में नाजिल हुई) 

शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
लोगों के लिए उनका हिसाब नजदीक आ पाछुंचा। और वे गफलत में पड़े हुए एराज 
(उपेक्षा) कर रहे हैं। उनके रब की तरफ से जो भी नई नसीहत उनके पास आती 
है वे उसे हंसी करते हुए सुनते हैं। उनके दिल गफलत में पड़े हुए हैं। और जालिमों 
ने आपस में यह सरगोशी (कानाफूसी) की कि यह शख्स तो तुम्हारे ही जैसा एक 
आदमी है। फिर तुम क्यों आंखों देखे इसके जादू में फसते हो। रसूल ने कहा कि 
मेरा रब हर बात को जानता है, चाहे वह आसमान में हो या जमीन में। और वह 
सुनने वाला, जानने वाला है। (-4) 





हर आदमी जो दुनिया में है वह जिंदगी से ज्यादा मौत से करीब है। इस एतबार से हर 
आदमी अपने रोजे हिसाब के ऐन किनारे पर खड़ा हुआ है। मगर इंसान का हाल यह है कि 
वह किसी भी याददिहानी पर तवज्जोह नहीं देता, चाहे वह पैगम्बर के जरिए से कराई जाए, 
या गैर पैगम्बर के जरिए। हक (सत्य) के दाऔ (आवाहक) की बात को वह बस 'एक इंसान' 
की बात कहकर नजरअंदाज कर देता है। 





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सूरह-2।. अल-अंबिया 885 पारा ॥7 





अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मक्का में जब कुरआन के जरिए दावत 
शुरू की तो कुरआन का खुदाई कलाम लोगों के दिलों को मुसख़र करने लगा। यह वहां के 
सरदारों के लिए बड़ी सख्त बात थी। क्योंकि इससे उनकी कयादत ख़तरे में पड़ रही थी। 
कुरआन तौहीद (एकेश्वरवाद) की दावत देता था, और मक्का के सरदार शिर्क (बहुदेववाद) के 
ऊपर अपनी सरदारी कायम किए हुए थे। उन्होंने लोगों के जेहन को इससे हटाने के लिए यह 
किया कि लोगों से कहा कि इस कलाम में बजाहिर जो तासीर तुम देख रहे हो वह इसलिए नहीं 
हैकि वह खुदा का कलाम है। इसका जोर सदाकत (सच्चाई) का जोर नहीं बल्कि जादू का जोर 
है। यह जादू बयानी का मामला है न कि आसमानी कलाम का मामला। 

इस किस्म की बात कहने वाले लोग अगरचे खुदा का नाम लेते हैं मगर उन्हें यकीन नहीं 
कि ख़ुदा उन्हें देख और सुन रहा है। अगर उन्हें ख़ुदा के आलिमुलगैब होने का यकीन होता 
तो वे ऐसी गैर संजीदा बात हरगिज अपनी जबान से न निकालते। 
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बल्कि वे कहते हैं, ये परागंदा ख़्वाब (दुस्वप्न) हैं। बल्कि इसे उन्होंने गढ़ लिया है। बल्कि 
वह एक शायर हैं। उन्हें चाहिए कि हमारे पास उस तरह की कोई निशानी लाएं जिस 
तरह की निशानियों के साथ पिछले रसूल भेजे गए थे। इनसे पहले किसी बस्ती के लोग 
भी जिन्हें हमने हलाक किया, ईमान नहीं लाए तो क्या ये लोग ईमान लाएंगे। (5-6) 





हक का दाओ हमेशा हक की दावत (आह्वान) को दलील के जोर पर पेश करता है। 
मुखालिफीन जब देखते हैं कि वे दलील से उसका तोड़ नहीं कर सकते तो वे तरह-तरह की 
बातें निकाल कर अवाम को उससे बरगश्ता (खिन्न) करने की कोशिश करते हैं। मसलन यह 
कि यह शायराना कलाम है। यह अदबी साहिरी (साहित्यिक जादूगरी) है। यह एक दीवाने की 
कल्पनाएं हैं। यह अपने जी से बनाई हुई बातें हैं। वगैरह । अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि 
व सल्लम ने चूंकि अहले मक्का के सामने कोई महसूस मोजिजा नहीं दिखाया था। इसलिए 
आपको रिसालत को मुशतबह करने के लिए वे यह भी कहते थे कि यह अगर ख़ुदा के भेजे 
हुए हैं तो पिछले पैग़म्बरों की तरह ख़ुदा के पास से कोई मोजिजा (दिव्य चमत्कार) लेकर क्यों 
नहीं आए। 

मगर तारीख़ का तजर्बा बताता है कि जो लोग दलील से बात को न मानें वे मोजिजे को 
देखकर भी उसे मानने के लिए तैयार नहीं होते । इसलिए लोगों के साथ ख़ैरख़्वाही यह है कि 
दलील की जबान में उनकी नसीहत जारी रखी जाए न कि मोजिजा दिखाकर उन पर 
इतमामेहुज्जत (आह्वान को अति) कर दी जाए। क्योंकि मोजिजे से न मानने के बाद दूसरा 
मरहला सिर्फ हलाकत होता है। 





पारा 77 886 सूरह-2।. अल-अंबिया 


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और तुमसे पहले भी जिसे हमने रसूल बनाकर भेजा, आदमियों ही में से भेजा। 
हम उनकी तरफ “वही” भेजते थे। पस तुम अहले किताब से पूछ लो, अगर तुम 
नहीं जानते। और हमने उन रसूलों को ऐसे जिस्म नहीं दिए कि वे खाना न खाते 
हों। और वे हमेशा रहने वाले न थे। फिर हमने उनसे वादा पूरा किया। पस उन्हें 


और जिस-जिस को हमने चाहा बचा लिया। और हमने हद से गुजरने वालों को 
हलाक कर दिया। (7-9) 





जो लोग यह कहकर पैगम्बर का इंकार करते थे कि यह तो हमारी तरह के एक इंसान 
हैं, उनसे कहा गया कि अगर तुम अपने इस एतराज में संजीदा हो तो तुम्हारे लिए मामले को 
समझना कुछ मुश्किल नहीं। बहुत सी गुजरी हुई हस्तियां जिन्हें तुम पैगम्बर तस्लीम करते हो, 
उनके जानने वाले मौजूद हैं। फिर उन जानने वालों से तहकीक कर लो कि वे इंसान थे या 
गैर इंसान। अगर वे इंसान थे तो मौजूदा पैगम्बर को तुम सिफ इस बिना पर कैसे रद्द कर 
सकते हो कि वह एक मां-बाप के जरिए आम इंसान की तरह पैदा हुए हैं। 

पिछले पैग़म्बरों की तारीख यह भी बताती है कि उनका इकरार या इंकार लोगों के लिए 
महज सादा किस्म का इकरार या इंकार न था। उसने दोनों गिरोहों के लिए वाजेह तौर पर 
अगल-अगल नतीजा पैदा किया। इकरार करने वालों ने नजात पाई और इंकार करने वाले 
हलाक कर दिए गए। इसलिए इस मामले मे तुम्हें हद दर्जा संजीदा होना चाहिए । 


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सूरह-2।. अल-अंबिया 887 पारा ॥7 


हमने तुम्हारी तरफ एक किताब उतारी है जिसमें तुम्हारी याददिहानी है, फिर क्या तुम 
समझते नहीं। और कितनी ही जालिम बस्तियां हैं जिन्हें हमने पीस डाला। और उनके 
बाद दूसरी कौम को उठाया। पस जब उन्होंने हमारा अजाब आते देखा तो वे उससे 

भागने लगे। भागो मत। और अपने सामाने ऐश की तरफ और अपने मकानों की तरफ 

वापस चलो, ताकि तुमसे पूछा जाए। उन्होंने कहा, हाय हमारी कमबसख्ती, बेशक हम 
लोग जालिम थे। पस वे यही पुकारते रहे। यहां तक कि हमने उन्हें ऐसा कर दिया जैसे 
खेती कट गई हो और आग बुझ गई हो। (0-5) 








खुदा की किताब आम मञनों में महज एक किताब नहीं वह एक याददिहानी है। वह 
इस बात की चेतावनी है कि मौजूदा दुनिया में इंसान का आना इत्तेफाक से नहीं है वह एक 
खुदाई मंसूबा है। और वह मंसूबा यह है कि इंसान को आजमाइश के लिए वकती आजादी 
दी जाए। इसके बाद आदमी जैसा अमल करे उसके मुताबिक उसे बदला दिया जाए। इस 
हकीकत का जुजई जुहू (आशिक प्रदर्शन) जलिम कैमों की हलाकत की सूरत में बारबार 
होता रहा है। और उसका कुल्ली जुहूर (पूर्ण प्रदर्शन) कियामत में होगा। जबकि तमाम अगले 
पिछले इंसान दुबारा पैदा करके जमा किए जाएंगे। 

जब खुदा की पकड़ जाहिर होती है तो वे तमाम मादूदी (भौतिक) साजोसामान आदमी 
को मुसीबत मालूम होने लगते हैं जिनके बल पर इससे पहले वह हक की दावत को 
नजरअंदाज कर देता था। मादूदी सामान जब तक साथ न छोड़ दें वह गफलत के निकलने 
के लिए तैयार नहीं होता। और जब ये सामान उसका साथ छोड़ देते हैं उस वक़्त उसकी आंख 
खुल जाती है। मगर उस वक्त आंख का खुलना उसके काम नहीं आता। क्योंकि उस वक़्त 
तमाम चीजें अपनी ताकत खो चुकी होती हैं। इसके बाद सिर्फ खुदा किसी के काम आता है 
न कि झूठे माबूद। 


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और हमने आसमान और जमीन को और जो कुछ उनके दर्मियान है खेल के तौर पर 

नहीं बनाया। अगर हम कोई खेल बनाना चाहते तो उसे हम अपने पास से बना लेते, 

अगर हमें यह करना होता। बल्कि हम हक (सत्य) को बातिल (असत्य) पर मारेंगे तो 


वह उसका सिर तोड़ देगा तो वह यकायक जाता रहेगा और तुम्हारे लिए उन बातों से 
बड़ी ख़राबी है जो तुम बयान करते हो। (6-8) 





जो लोग खुदा की दावत के बारे में संजीदा न हों वे गोया मौजूदा दुनिया को एक किस्म 


पारा 7 888 सूरह-2।. अल-अंबिया 


का खुदाई खिलौना समझते हैं। जिसका वक्ती तफरीह के सिवा और कोई मकसद न हो। मगर 
मौजूदा दुनिया अपनी बेपनाह हिक्मत व मअनवियत (अर्थपूर्णता) के साथ अपने ख़ालिक का 
जो तआरुफ कराती है उसके लिहाज से यह नामुमकिन मालूम होता है कि उसका ख़ालिक 
कोई ऐसा ख़ुदा हो जिसने इस दुनिया को महज खेल के तौर पर बनाया हो। 

मौजूदा दुनिया में इंसान जैसी अनोखी मख्नूक है जिसकी फितरत में हक व बातिल की 
तमीज पाई जाती है। दुनिया में ऐसी मख़्नूक का होना जो एक तरीके को हक और दूसरे 
तरीके को बातिल समझे और फिर हक व बातिल के नाम पर बार-बार मुकाबला पेश आना 
जाहिर करता है कि यहां कोई ऐसा वकत आने वाला है जबकि आखिरी तौर पर यह बात खुल 
जाए कि फिलवाकअ हक क्या था और बातिल क्या। और फिर जिसने हक का साथ दिया 
हो उसे कामयाबी हासिल हो और जिसने हक का साथ न दिया हो वह नाकाम कर दिया 
जाए। जिस दुनिया में ऐसा “पत्थर” हो जो एक शख्स के 'सर' को तोड़ दे वहां क्या ऐसा हक 
न होगा जो बातिल को बातिल साबित कर सके। 

६६ पर « १८? बढ pi 
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और उसी के हैं जो आसमानां और जमीन में हैं। और जो (फरिशते) उसके पास हैं वे 
उसकी इबादत से सरताबी (विमुखता) नहीं करते और न काहिली (सुस्ती) करते हैं। 
वे रात दिन उसे याद करते हैं, कभी नहीं थकते। (9-20) 








जमीन व आसमान की हर चीज खुदा की मख़्तूक है। हर चीज वही करती है जिसका 
उसे ऊपर से हुक्म दिया गया हो। सारी कायनात में सिफ इंसान है जो सरकशी करता है। 
जो लोग ख़ुदा को नहीं मानते वे यह कहकर सरकशी करते हैं कि हमारे ऊपर कोई मालिक 
और हाकिम नहीं। हम आजाद हैं कि जो चाहें करें। 
जो लोग ख़ुदा को मानते हैं वे भी सरकशी करते हैं। अलबत्ता उनके पास अपनी सरकशी 
की तौजीह दूसरी होती है। वे खुदा के सिवा किसी और को अपना शफीअ (शफाअत करने 
वाला) और वसीला मान लेते हैं। वे किसी को खुदा का मुकर्रब मानकर यह फर्ज कर लेते हैं 
कि हम उनके लिए अकीदत व एहतराम का इज्हार करते रहें तो वे खुदा के यहां हमारे लिए 
नजात की सिफारिश कर देंगे। कुछ लोग फरिश्ता को अपना शफीअ और वसीला मान लेते 
हैं और कुछ लोग किसी दूसरी हस्ती को। 
मगर इस किस्म के तमाम नजरिये मजहकाखेन (हास्यास्पद) हद तक बातिल हैं। अगर 
किसी को वह निगाह हासिल हो कि वह कायनाती सतह पर हकीकत को देख सके तो वह 
देखेगा कि मफरूजा हस्तियां खुद तो खुदा की हैबत से उसके आगे झुकी हुई हैं और इंसान 
उनके नाम पर दुनिया में सरकश बना हुआ है। 





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सूरह-2।. अल-अंबिया 889 पारा ॥7 
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क्या उन्होंने जमीन में से माबूद (पूज्य) ठहराए हैं जो किसी को जिंदा करते हों। अगर 
इन दोनों में अल्लाह के सिवा माबूद होते तो दोनों दरहम-बरहम हो जाते। पस अल्लाह, 


अर्श का मालिक, उन बातों से पाक है जो ये लोग बयान करते हैं। वह जो कुछ करता 
है उस पर वह पूछा न जाएगा और उनसे पूछ होगी। (2।-23) 


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जमीन बकिया कायनात से अगल नहीं है। वह वसीअतर कायनात के साथ मुसलसल 
तौर पर मरबूत (जुडी हुई) है। जमीन पर जिंदगी और सरसब्जी उसी वक्त मुमकिन होती है 
जबकि बकिया कायनात उसके साथ पूरी तरह हमआहंगी करे। जमीन व आसमान का यह 
मुतवाफिक अमल (संयुक्त प्रक्रिया) साबित करता है कि जमीन व आसमान का इंतिजाम एक 
ही हस्ती के हाथ में है। अगर वह दो के हाथ में होता तो यकीनन दोनों के दर्मियान बार-बार 
टकराव होता और जमीन पर मौजूदा जिंदगी का कियाम मुमकिन न होता। 

कायनात अपनी बेपनाह अज्मत और मअनवियत (अर्थपूर्णता) के साथ अपने जिस 
ख़लिक का तआरुफ कराती है वह यकीनी तौर पर ऐसा खुदा है जो हर किस्म की कमियों 
से यकसर पाक है। यह मौजूदा कायनात का कमतर अंदाजा है कि उसका ख़ालिक एक ऐसी 
हस्ती को माना जाए जिसके साथ कमियां और कमजोरियां लगी हुई हों। 

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क्या उन्होंने खुदा के सिवा और माबूद (पूज्य) बनाए हैं। उनसे कहो कि तुम अपनी 
दलील लाओ। यही बात उन लोगों की है जो मेरे साथ हैं और यही बात उन लोगों 
की है जो मुझसे पहले हुए। बल्कि उनमें से अक्सर हक को नहीं जानते। पस वे 
एराज (उपेक्षा) कर रहे हैं। और हमने तुमसे पहले कोई ऐसा पैग़म्बर नहीं भेजा 
जिसकी तरफ हमने यह “वही” (प्रकाशना) न की हो कि मेरे सिवा कोई माबूद नहीं, 
पस तुम मेरी इबादत करो। (24-25) 


पारा 77 890 सूरह-2।. अल-अंबिया 





एक खुदा के सिवा दूसरे माबूद फर्ज करना किसी वाकई दलील की बुनियाद पर नहीं है। 
बल्कि सरासर लाइल्मी की बुनियाद पर है। जो लोग ख़ुदा के लिए शुर्का (साझीदार) मानते 
हैं उनके पास अपने अकीदए शिर्क के हक में कोई दलील नहीं, न इंसानी इलम में और न 
आसमानी 'वही' में। वे तौहीद के दलाइल सुनकर उनसे एराज करते हैं तो इसकी वजह उनका 
इस्तदलाली (ताकिंक) यकीन नहीं है बल्कि इसकी वजह सिर्फ उनका तअस्सुब है। अपने 
तअस्सुब भरे मिजाज की वजह से वे अपने अकीदे में इतना पुख्ता हो गए हैं कि इस्तदलाल 
के एतबार से बेहकीकत होने के बावजूद वे उसे छोड़ने के लिए राजी नहीं होते। 


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और वे कहते हैं कि रहमान ने औलाद बनाई है, वह इससे पाक है, बल्कि (फरिश्ते) 
तो मुअज्जज (सम्मानीय) बदे हैं। वे उससे आगे बढ़कर बात नहीं करते। और वे उसी 
के हुक्म के मुताबिक अमल करते हैं। अल्लाह उनके अगले और पिछले अहवाल को 
जानता है। और वे सिफारिश नहीं कर सकते मगर उसके लिए जिसे अल्लाह पसंद करे। 
और वे उसकी हैबत से डरते रहते हैं। और उनमें से जो शख्स कहेगा कि उसके सिवा 


मैं माबूद (पूज्य) हूं तो हम उसे जहन्नम की सजा देगे। हम जालिमों को ऐसी ही सजा 
देते हैं। (26-29) 


एक चीज को हक और दूसरी चीज को बातिल समझना आदमी से उसकी आजादी छीन 
लेता है। इसलिए इंसान हमेशा इस कोशिश में रहा है कि वह ऐसा नजरिया दरयाफ्त करे 
जिससे हक व बातिल का फर्क मिट जाए । जिससे उसे यह इत्मीनान हासिल हो कि वह दुनिया 
में चाहे जिस तरह भी रहे उससे यह पूछ नहीं होने वाली है कि तुमने ऐसा क्यों किया और 
वैसा क्यों नहीं किया । गैर मजहबी लोगों ने यह तस्कीन इंकारे आखिरत के जरिए हासिल 
करने की कोशिश की है और मजहबी लोगों ने मुश्रिकाना अकीदे के जरिए। 

फरिश्ते एक गैबी (अप्रकट) मखूक हैं। पेगम्बरां के जरिए इंसान को फरिश्तों की 
मौजूदगी की ख़बर दी गई ताकि वह ख़ुदा की कुदरत का एहसास करे। मगर उसने फरिश्तों 
को ख़ुदा की बेटी बनाकर अजीब व गरीब तौर पर यह अकीदा गढ़ लिया कि वे फरिश्तों के 
नाम पर कुछ इबादती रस्में अदा करता रहे, और वह आखिरत में अपने बाप से सिफारिश 
करके उसकी बख्शिश करा देंगे । 


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सूरह-2।. अल-अंबिया 89I पारा ॥7 


इस किस्म के तमाम अकीदे खुदा की खुदाई की नफी हैं। खुदा इसीलिए खुदा है कि वह 
ऐसी तमाम कमियों से पाक है। अगर वह इन कमियों में मुब्तिला होता तो वह ख़ुदा न होता। 


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क्या इंकार करने वालों ने नहीं देखा कि आसमान और जमीन दोनों बंद थे फिर हमने 
उन्हें खोल दिया। और हमने पानी से हर जानदार चीज को बनाया। क्या फिर भी वे 
ईमान नहीं लाते। (30) 








रत्क के मअना किसी चीज का मुंह बंद होना है और फत्क का मतलब उसका खुल जाना 
है। गालिबन इससे जमीन व आसमान की वह इब्तिदाई हालत मुराद है जिसे मौजूदा जमाने 
में बिगबैंग (महाविस्फोट) नजरिया कहा जाता है। जदीद साइंसी तख्लीक के मुताबिक जमीन 
व आसमान का तमाम मादूदा इब्तिदा में एक बहुत बड़े गोले (सुपर एटम) की सूरत में था। 
ज्ञात भौतिक विज्ञान के नियमों के मुताबिक उस व॒क़्त उसके तमाम अज्जा (अवयय) अपने 
अंदरूनी मकज की तरफ खिंच रहे थे और इंतिहाई शिदूदत के साथ आपस में जुड़े हुए थे। 
इसके बाद उस गोले के अंदर एक धमाका हुआ और उसके अज्जा अचानक बाहर की दिशा 
में फैलना शुरू हुए। इस तरह बिलआख़िर वह वसीअ कायनात बनी जो आज हमारे सामने 
मौजूद है। 

इब्तिदाई मादूदी गोले (सुपर एटम) में यह गैर मामूली वाकया बाहर की मुदाखलत 
(हस्तक्षेप) के बगेर नहीं हो सकता। इस तरह आगाजे कायनात की यह तारीख़ वाजेह तौर 
पर एक ऐसी हस्ती को साबित करती है जो कायनात के बाहर अपना मुस्तकिल वजूद रखती 
है और जो अपनी जाती कुवत से कायनात के ऊपर असरअंदाज होती है। 

हमारी दुनिया में हर जानदार चीज सबसे ज्यादा जिस चीज से मुरक्कब (निर्मित) होती 
है वह पानी है। पानी न हो तो जिंदगी का ख़ात्मा हो जाए। यह पानी हमारी जमीन के सिवा 
कहीं और मौजूद नहीं। वसीअ कायनात में अपवाद के तौर पर सिर्फ एक मकाम पर पानी 
का पाया जाना वाजेह तौर पर 'खुसूसी तख्लीक' (विशिष्ट सृजन) का पता देता है। कैसी 
अजीब बात है कि ऐसी खुली-खुली निशानियों के बाद भी आदमी ख़ुदा को नहीं पाता। इसके 
बावजूद वह बदस्तूर महरूम पड़ा रहता है। 


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सूरह-2।. अल-अंबिया 


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और हमने जमीन में पहाड़ बनाए कि वह उन्हें लेकर झुक न जाए और उसमें हमने 
कुशादा रास्ते बनाए ताकि लोग राह पाएं। और हमने आसमान को एक महफूज 
(सुरक्षित) छत बनाया। और वे उसकी निशानियों से एराज (उपेक्षा) किए हुए हैं। 
और वही है जिसने रात और दिन और सूरज और चांद बनाए। सब एक-एक 
मदार (कक्ष) में तैर रहे हैं। (३।-33) 


पारा ।7 892 





यहां जमीन की चन्द नुमायां निशानियों का जिक्र है जो इंसान को खुदा की याद दिलाती 
हैं ताकि वह उसका शुक्रगुजार बंदा बने। उनमें से एक पहाड़ों के सिलसिले हैं जो समुद्रों के 
नीचे के कसीफ (गाढ़) मादूदे को संतुलित रखने के लिए सतह जमीन पर जगह-जगह उभर 
आए हैं। इससे मुराद गालिबन वही चीज है जिसे जदीद साइंस में भू-संतुलन ([५०४।३5४) कहा 
जाता है। इसी तरह जमीन का इस काबिल होना भी एक निशानी है कि इंसान उस पर अपने 
लिए रास्ते बना सकता है, कहीं हमवार (समतल) मैदान की सूरत में, कहीं पहाड़ी द्रो की 
सूरत में और कहां दरियाई शिगाफ (फाड़) की सूरत में। 

आसमान की “छत” जो हमारी बालाई फजा है, उसकी तर्कीब इस तरह से है कि वह हमें 
सूरज की नुक्‍्सानदेह किरणों से बचाती है। वह शिहाबे साकिब (तारों के टूटने) की मुसलसल 
बारिश को हम तक पहुंचने से रोके हुए है। इसी तरह सूरज और चांद का टकराए बगैर एक 
ख़ास दायरे में घूमना और इसकी वजह से जमीन पर दिन और रात का बाकायदगी के साथ 
पैदा होना। 

इस किस्म की बेशुमार निशानियां हमारी दुनिया में हैं। आदमी उन्हें गहराई के साथ देखे 
तो वह ख़ुदा की कुदरतों और नेमतों के एहसास में डूब जाए। मगर आदमी उन्हें नजरअंदाज 
कर देता है। वह खुले-खुले वाकेयात को देखकर भी अंधा बहरा बना रहता है। 


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और हमने तुमसे पहले भी किसी इंसान को हमेशा की जिंदगी नहीं दी तो क्या अगर 
तुम्हें मौत आ जाए तो वे हमेशा रहने वाले हैं। हर जान को मौत का मजा चखना है। 
और हम तुम्हें बुरी हालत और अच्छी हालत से आजमाते हैं परखने के लिए। और तुम 
सब हमारी तरफ लोटाए जाओगे। (34-35) 








मक्का में जो लोग अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के 


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सूरह-2।. अल-अंबिया 893 पारा 7 
मुखालिफ थे वे वसाइल (संसाधनों) के एतबार से आपसे बहुत बढ़े हुए थे। उन्हें उस वक्त 
के माहैल मं इज्जत और बरतरी हासिल थी। इस फर्कका मतलब उनके नजदीक यह था कि 
वे हक पर हैं और मुहम्मद (सल्ल०) नाहक पर। मगर दुनियावी चीजें की ज्यादती और कमी 
हक और नाहक की बुनियाद पर नहीं होती बल्कि सिर्फ इम्तेहान के लिए होती है। यह खुदा 
की तरफ से बतौर आजमाइश है। दुनियावी सामान पाकर अगर कोई शख्स अपने को बड़ा 
समझने लगे तो गोया वह अपने को इन चीजों का नाअहल साबित कर रहा है। इसका नतीजा 
सिर्फ यह है कि मौत के बाद की जिंदगी में उसे हमेशा के लिए महरूम कर दिया जाए। 

मक्का के लोग अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को नाकाम करने के लिए 
हर किस्म की मुखालिफाना कोशिशों में लगे हुए थे। यहां तक कि वे चाहते थे कि किसी न 
किसी तरह वे आपका खात्मा कर दें। ताकि यह मिशन अपनी जड़ से महरूम होकर हमेशा 
के लिए ख़त्म हो जाए। फरमाया कि पेगम्बर के खिलाफ इस किस्म की साजिें करने वाले 
लोग इस हकीकत को भूल गए हैं कि जिस कब्र में वे दूसरे को दाखिल करना चाहते हैं उसी 
कब्र में बिलआखिर उन्हें खुद भी दाखिल होना है। फिर मौत के बाद जब उनका सामना 
मालिके हकीकी से होगा तो वहां वे क्या करै । 


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और मुंकिर लोग जब तुम्हें देखते हैं तो वे सब तुम्हें मजाक बना लेते हैं। क्या यही है 


जो तुम्हारे माबूदों (पूज्यो) का जिक्र किया करता है। और खुद ये लोग रहमान के जिक्र 
का इंकार करते हैं। (36) 





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कैश के माबूद अक्सर उनकी कौम के अकाबिर (महापुरुष) थे। एक तरफ अपने इन 
अकाबिर की ख्याली अज्मत उनके जेहनों में बसी हुई थी। दूसरी तरफ पैगम्बर था जिसकी 
तस्वीर उस वक्त एक आम इंसान से ज्यादा न थी। इस तकाबुल (तुलना) में पैगम्बर उन्हे 
बिल्कुल मामूली नजर आता। वे हकारत के साथ कहते कि क्या यही वह शख्स है जो हमारे 
अकाबिर पर तंकीद करता है और अकाबिर के जिस दीन पर हम कायम हैं उसे रद्द करके 
दूसरा दीन पेश कर रहा है। 

अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम लोगों को सिर्फ एक ख़ुदा की तरफ बुलाते 
थे। मगर उन्हें खुदा से कोई दिलचस्पी नहीं थी। उनकी तमाम दिलचस्पियां अपने अकाबिर 
से वाबस्ता थीं। उन्होंने अपने इन अकाबिर को माबूद का दर्जा दे रखा था। आपकी दावत 
(आह्वान) से चूँकि इन अकाबिर पर जद पड़ती थी। इसलिए वे आपके सख्त मुखालिफ हो 
गए। वे भूल गए कि माबूदों को रद्द करके आप खुदा को पेश कर रहे हैं न कि ख़ुद अपनी 
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पारा 7 894 सूरह-2।. अल-अंबिया 


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इंसान उजलत (जल्दबाज़ी) के ख़मीर से पैदा हुआ है। मैं तुम्हें अनकरीब अपनी 
निशानियां दिखाऊंगा, पस तुम मुझसे जल्दी न करो और लोग कहते हैं कि यह वादा 
कब आएगा अगर तुम सच्चे हो। काश इन मुंकिरों को उस वक्‍त की ख़बर होती जबकि 

वे आग को न अपने सामने से रोक सकेंगे और न अपने पीछे से। और न उन्हें मदद 
पहुंचेगी । बल्कि वह अचानक उन पर आ जाएगी, पस उन्हें बदहवास कर देगी। फिर 
वे न उसे दफा कर सकेंगे और न उन्हें मोहलत दी जाएगी। और तुमसे पहले भी रसूलों 
का मजाक उद्या गया। फिर जिन लोगो ने उनमे से मजक उज्चया था उन्हें उस चीज 

ने घेर लिया जिसका वे मजाक उडते थे। (87-4) 





अरब के लोग आखिरत के मुंकिर न थे। वे आख़िरत की उस नौइयत के मुंकिर थे 
जिसकी ख़बर उन्हें उनकी कौम का एक शख्स “मुहम्मद बिन अब्ुल्लाह' दे रहा था। उन्हें 
फख़ था कि वे एक ऐसे दीन पर हैं जो उनकी कामयाबी की यकीनी जमानत है। हज़रत 
मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उनके इस यकीन की तरदीद की तो वे बिगड़ गए। 
वे अपनी बेख़फ नफ्सियात की बिना पर यह कहने लगे कि वह अजाब हमें दिखाओ जिसकी 
तुम हमें धमकी दे रहे हो। 

फरमाया कि उनकी यह जल्दबाजी सिर्फ इसलिए है कि अभी इम्तेहान के दौर में होने 
की वजह से वे अजाब से दूर खड़े हुए हैं। जिस दिन यह मोहलत ख़त्म होगी और खुदा का 
अजाब उन्हें घेर लेगा, उस वक्‍त उनकी समझ में आ जाएगा कि रसूल की दावत के बारे में 
संजीदा न होकर उन्होंने कितनी बड़ी गलती की थी। 

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सूरह-2।. अल-अंबिया 895 पारा ॥7 


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कहो कि कौन है जो रात और दिन में रहमान से तुम्हारी हिफाजत करता है। बल्कि 
वे लोग अपने रब की याददिहानी से एराज (उपेक्षा) कर रहे हैं। क्या उनके लिए हमारे 
सिवा कुछ माबूद (पूज्य) हैं जो उन्हें बचा लेते हैं। वे खुद अपनी हिफाजत की कुदरत 
नहीं रखते। और न हमारे मुकाबले में कोई उनका साथ दे सकता है। (42-43) 


खुदा की पकड़ का मसला किसी दूरदराज मुस्तकबिल का मसला नहीं है। वह उसी 
दिन-रात के अंदर छुपा हुआ है जिसमें आदमी अपने आपको मामून व महफूज समझता है। 
मसलन सूरज और जमीन का फासला अगर आधे के बराकर घट जाए तो हमारे दिन इतने 
गर्म हो जाएं कि वे हमें आग के शोलों की तरह जला दें। इसके बरअक्स अगर जमीन से सूरज 
का फासला दुगना बढ़ जाए तो हमारी रातें इतनी ठंडी हो जाएं कि हम बर्फ की तरह जमकर 
रह जाएं। 

जमीन व आसमान का यह हद दर्जा मुवाफिक इतिजाम जिसने कायम कर रखा है वह 
इस काबिल है कि इंसान अपनी तमाम अकीदतें और वफादारियां उससे वाबस्ता करे। न कि 
वह उन झूठे माबूदों को परस्तिश करने लगे जो उसे कुछ नहीं दे सकते। 


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बल्कि हमने उन्हें और उनके बाप-दादा को दुनिया का सामान दिया। यहां तक कि 
इसी हाल में उन पर लम्बी मुद्दत गुजर गई। क्या वे नहीं देखते कि हम जमीन को 


उसके अतराफ (चतुर्दिक) से घटाते चले जा रहे हैं। फिर क्‍या यही लोग ग़ालिब 
(वर्चस्वशील) रहने वाले हैं। (44) 





मक्का के लोग उस जमाने में अरब के कायद (नायक) समझे जाते थे। यह कयादत 
(नेतृत्व) उनके लिए ख़ुदा की एक नेमत थी। मगर उससे उन्होंने किब्र (अभिमान) की गिजा 
ली। चुनांचे हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की जबान से हक का एलान हुआ 
तो उन्होंने अपनी मुतकब्बिराना नफ्सियात (घमंड-भाव) की बिना पर इसका इंकार कर दिया। 

यह मक्का में इस्लाम का हाल था। मगर बाहर के अवाम जो इस किस्म की नफ्सियाती 
पेचीदगियों में मुन्तिला न थे उनके अंदर इस्लाम की सदाकत फैलती जा रही थी। मक्का में 
इस्लाम को रद्द कर दिया गया था मगर बाहर के कबाइल में इस्लाम को इख्तियार किया जा 
रहा था। मदीना के बाशिंदों के बड़े पैमाने पर कुबूले इस्लाम ने यह बात आखिरी तौर पर 
वाजेह कर दी कि मक्का के लोगों की कयादत का दायरा सिमटता जा रहा है। यह एक खुली 


पारा 77 896 सूरह-2।. अल-अंबिया 
हुई तंबीह थी। मगर जो लोग बड़ाई की नफ्सियात में मुब्तिला हों वे किसी भी तंबीह से सबक 
लेने वाले नहीं बनते। 

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कहो कि मैं बस “वही” (ईश्वरीय वाणी) के जरिए से तुम्हें डराता हूं। और बहरे पुकार 


को नहीं सुनते जबकि उन्हें डराया जाए और अगर तेरे रब के अजाब का झौंका उन्हें 
लग जाए तो वे कहने लगेंगे कि हाय हमारी बदबख्ती, बेशक हम जालिम थे। (45-46) 





ही के जरिए डराना' गोया दलील के जरिए लोगों को सचेत करना है। हक का दाऔ 
हमेशा दलील की जबान में अपनी बात को पेश करता है। और दलील ही की जबान में लोगों 
को उसे पहचानना पड़ता है। जो लोग दलील के सामने अंधे बहरे बने रहें, उनकी आंख सिर्फ 
उस वक्‍त खुलती है जबकि खुदा की ताकत खुले तौर पर जाहिर हो जाए। उस वक्‍त हर 
सरकश और मुतकब्बिर (घमंडी) फौरन मान लेगा। मगर उस वक्‍त का मानना किसी के कुछ 
काम न आएगा। 


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और हम कयामत के दिन इंसाफ की तराज़ रखो। पस किसी जान पर जश भी जुम 


न होगा। और अगर राई के दाने के बराबर भी किसी का अमल होगा तो हम उसे 
हाजिर कर दॅग। और हम हिसाब लेने के लिए काफी हैं। (47) 





'तराजू' मौजूदा दुनिया में किसी चीज का वजन मालूम करने की अलामत है। इसलिए 
अल्लाह तआला ने इसी मालूम शब्दावली को आखिरत का मामला समझाने के लिए इस्तेमाल 
किया। दुनिया का तराजू मादूदी (भौतिक) चीजों को तोलना है। आख़िरत में खुदा का तराजू 
मअनवी (अर्थपूर्ण हकीकतोँ को तोलकर उसका वजन बताएगा। 
दुनिया में आदमी किसी चीज को उसी वक्‍त पाता है जबकि वह उसकी कीमत अदा 
करे। कम कीमत देने वाला कम चीज पाता है। और ज्यादा कीमत देने वाला ज्यादा चीज। 
यही मामला आखिरत में भी पेश आएगा। वहां की आला चीजें भी आदमी को कीमत देकर 
मिलेंगी। कीमत अदा किए बगैर जिस तरह दुनिया की चीज किसी को नहीं मिलती। इसी 
तरह आहिरत की चीजें भी उसी को मिलेंगी जो उनकी जरूरी कीमत अदा करे। कुरआन इसी 
कीमत की निशानदेही करने वाली किताब है। 





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सूरह-2।. अल-अंबिया 897 पारा 77 
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और हमने मूसा और हारून को फुरकान (सत्य-असत्य की कसौटी) और रोशनी और 
नसीहत अता की ख़ुदातरसों (ईश-परायण लोगों) के लिए, जो बिना देखे अपने रब से 


डरते हैं और वे कियामत का ख़ोफ रखने वाले हैं। और यह एक बाबरकत याददिहानी 
है जो हमने उतारी है, तो क्या तुम इसके मुंकिर हो। (48-50) 


~ 


२ 





फुरकान और जिया (रोशनी) और जिक्र जो हजरत मूसा को दिया गया, यही खुदा की 
तरफ से तमाम पेगम्बरों को मिला था। पुर॒कान से मुराद वह नजरियाती मेयार है जिसके 
जरिए आदमी हक और बातिल के दर्मियान फर्क कर सकता है। जिया से मुराद खुदा की 
रहनुमाई है जो आदमी को बेराही के अंधेरे से निकाल कर सिराते मुस्तकीम (सन्मार्ग) के 
उजाले में लाती है। जिक्र से मुराद याददिहानी है। यानी चीजों के अंदर छुपे हुए नसीहत के 
पहलू को खोलना। ताकि चीजें लोगों के लिए महज चीजें न रहें बल्कि वे नसीहत और 
मञरफत (अन्तर्ज्ञान) का जाना बन जाएं। 

इस तरह खुदा ने इंसान की हिदायत का इंतिजाम किया। मगर खुदाई हिदायतनामे को 
वाकई तौर पर अपने लिए हिदायत बनाना उसी वक्त मुमकिन है जबकि आदमी अंजाम का 
अंदेशा रखता हो। उसकी अंदेशानाक नफ्सियात उसे इस हद तक संजीदा बना दे कि वह हर 
दूसरी चीज के मुकबले में हक व सदाकत को ज्यादा अहमियत देने लगे। 


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और हमने इससे पहले इब्राहीम को इसकी हिदायत अता की। और हम उसे ख़ूब जानते 
थे। जब उसने अपने बाप और अपनी कौम से कहा कि ये क्या मूर्तियां हैं जिन पर तुम 
जमे बैठे हो। उन्होंने कहा कि हमने अपने बाप दादा को इनकी इबादत करते हुए पाया 
है। इब्राहीम ने कहा कि बेशक तुम और तुम्हारे बाप दादा एक खुली गुमराही में 
मुब्तिला रहे। (5-54) 








पारा 77 898 सूरह-2।. अल-अंबिया 
खुदरा के यहां फैन बकद्र इस्तेदाद (सामर्थ्य) का उसूल है। हजरत इब्रहीम ने मुरललिफ 
इम्तेहानात से गुजरकर जिस इस्तेदाद का सुबूत दिया था उसे खुदा ने जाना और उसके 
मुताबिक उन्हें हिदायत और मअरफत (अन्तर्ज्ञान) अता फरमाई। यही मामला खुदा का अपने 
हर बंदे के साथ है। 
हजरत इब्रहीम इराक के कदीम शहर उर मेंपेदा हुए । उस वक्‍त यहां की जिंदगी मेंपूरी 
तरह शिक छाया हुआ था। मुहिरिकाना माहौल में परवरिश पाने के बावजूद वह उससे 
मुतअस्सिर नहीं हुए। उन्होंने चीजों को ख़ुद अपनी अक्ल से जांचा और माहौल के विपरीत 
तौहीद (एकेश्वरवाद) की सदाकत को पा लिया। वह ऐसी दुनिया में थे जहां हर किस्म की 
इज्जत और तर्न शिर्क से वाबस्ता हो गई थी। मगर उन्हेने किसी चीज की परवाह नहीँ 
की। तमाम मस्लेहतों से बेनियाज होकर कैम की रविश पर तंकीद की और उसके सामने हक 
का एलान करने के लिए खड़े हो गए। यही वे सिफात हैं जो किसी शख्स को इस काबिल 
बनाती हैं कि उसे ख़ुदा की हिदायत हासिल हो। 


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उन्होंने कहा, क्या तुम हमारे पास सच्ची बात लाए हो या तुम मजाक कर रहे हो। 
इब्राहीम ने कहा बल्कि तुम्हारा रब वह है जो आसमानों और जमीन का रब है। जिसने 
उन्हें पैदा किया। और में इस बात की गवाही देने वाला हूं और ख़ुदा की कसम मैं 
तुम्हारे बुतों के साथ एक तदबीर (युक्ति) करूंगा। जबकि तुम पीठ फेरकर चले जाओगे। 
पस उसने उन्हें टुकड़े-टुकड़े कर दिया सिवा उनके एक बड़े के ताकि वे उसकी तरफ 
रुजूअ करें। (55-58) 











हजरत इब्राहीम के जमाने में मुश्रिकाना तख््युलात (बहुदेववादी परिकल्पनाएं) लोगों के 
जेहनाँ पर इतना ज्यादा छाए हुए थे कि इब्तिदा में वे हजरत इब्राहीम की तंकीद को गैर 
संजीदा बात समझे । उन्होंने कहा कि तुम कोई सोची समझी बात कह रहे हो या महज तफरीह 
के तौर पर कुछ अल्फाज अपनी जबान से निकाल रहे हो। 

हजरत इब्राहीम ने कहा कि यह तुम्हारी मजीद नासमझी है कि तुम इस अहमतरीन बात 
को गैर संजीदा बात समझ रहे हो। हालांकि तमाम जमीन व आसमान इसके हक में गवाही 


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सूरह-2।. अल-अंबिया 899 पारा ॥7 





दे रहे हैं। अगले दिन उन्होंने मजीद यह किया कि गैर मामूली जुरअत से काम लेकर उनके बुतों 
को तोड़ डाला । इस तरह गोया हजरत इब्राहीम ने अमलन दिखाया कि ये बुत फिलवाकअ भी 
इतने ही बेहकीकत हैं जितना मैन लफ्नी तैर पर तुम्हें बताया था। 


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उन्होंने कहा कि किसने हमारे बुतों के साथ ऐसा किया है बेशक वह बड़ा जालिम है। 
लोगों ने कहा कि हमने एक जवान को इनका तज्किरा करते हुए सुना था जिसे इब्राहीम 
कहा जाता है। उन्होंने कहा कि उसे सब आदमियों के सामने हाजिर करो। ताकि वे 
देखें। उन्होंने कहा कि ऐ इब्राहीम, क्या हमारे माबूदों (पूज्यो) के साथ तुमने ऐसा किया 


है। इब्राहीम ने कहा, बल्कि उनके इस बड़े ने ऐसा किया है तो उनसे पूछ लो अगर 
ये बोलते हों। (59-63) 





अगले दिन जब लोग बुतख़ाने में गए और देखा कि वहां के बुत टूटे पड़े हैं। तो उन्हें 
सख्त धक्का लगा। बिलआखिर उनकी समझ में आया कि यह उस नौजवान का किस्सा 
मालूम होता है जो हमारे आबाई (पितृक) दीन से मुंहरिफ (भटका हुआ) है और उसके खिलाफ 
बोलता रहता है। 

हजरत इब्राहीम ने बुतों को तोड़ते हुए जानबूझ कर सबसे बड़े बुत को छोड़ दिया था। 
अब जब वे बुलाए गए और उनसे बाजपुर्स (पूछगछ) हुई तो उन्होंने कहा कि यह बड़ा बुत 
सही व सालिम मौजूद है। इससे पूछ लो। अगर वह वाकई माबूद है तो बोलकर तुम्हें बताए 
कि यह किस्सा इन बुतों के साथ कैसे पेश आया। 

हजरत इब्राहीम ने बराहेरास्त तौर पर कोई बात नहीं कही । मगर बिलवास्ता (परोक्ष) तौर 
पर उन्होंने वह बात कह दी जो इस मौके पर बराहेरास्त्‌ कलाम से भी ज्यादा मुअस्सिर थी। 


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फिर उन्होंने अपने जी में सोचा फिर कहने लगे कि हकीकत में तुम ही नाहक 


पारा 7 900 सूरह-2।. अल-अंबिया 


पर हो। फिर अपने सरों को झुका लिया। ऐ इब्राहीम, तुम जानते हो कि ये 
बोलते नहीं। इब्राहीम ने कहा, क्या तुम खुदा के सिवा ऐसी चीजों की इबादत 
करते हो जो तुम्हें न कोई फायदा पहुंचा सके और न कोई नुवसान। अफसोस 

है तुम पर भी और उन चीजों पर भी जिनकी तुम अल्लाह के सिवा इबादत करते 
हो। क्या तुम समझते नहीं। (64-67) 


हजरत इब्राहीम के इन जवाबात पर वे लोग आपको गुस्ताख़ ठहरा कर बिगड़ सकते थे। 
जैसा कि इन मौकों पर आम तौर पर होता है। ताहम बुतपरस्ती के बावजूद उनमें अभी जिंदगी 
मौजूद थी। चुनांचे उन्होंने आपके जवाब के इस्तदलाली (तार्किक) वजन को महसूस किया। 
और शर्मिंदा होकर अपने बरसरे नाहक (असत्यवादी) होने का एतराफ किया । बाद को अगर 
अस्बियत (देष) के जज्बात न उभर आते तो यह तजर्बा उन्हें ईमान तक पहुंचाने के लिए 
काफी हो जाता। 


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उन्होंने कहा कि इसे आग में जला दो और अपने माबूदों (पूज्यो) की मदद करो, अगर 
तुम्हें कुछ करना है। हमने कहा कि ऐ आग तू इब्राहीम के लिए ठंडक और सलामती 


बन जा। और उन्होंने उसके साथ बुराई करना चाहा तो हमने उन्हीं लोगों को नाकाम 
बना दिया। (68-70) 





जो लोग इख़्तियारात के मालिक होते हैं वे दलील के मैदान में हार जाने के बाद हमेशा 
जुल्म का तरीका इख्ियार करते हैं। यही हजरत इब्राहीम के साथ हुआ। बुतशिकनी के 
वाकये के बाद जब कौम के लीडरों ने महसूस किया कि वे इब्राहीम के मुकाबले में बेदलील 
हो चुके हैं तो अब उन्होंने आपके ऊपर सख्तियां शुरू कर दीं। यहां तक कि ताकत के घमंड 
में आकर एक रोज आपको आग के अलाव में डाल दिया। 

मगर ख़ुदा का पैग़म्बर दुनिया में ख़ुदा का नुमाइंदा होता है। उसका मामला ख़ुदा का 
मामला होता है। इसलिए ख़ुदा इस्तिसनाई तौर पर पैगम्बर की गैर मामूली मदद करता है। 
चुनांचे ख़ुदा ने हुक्म दिया और आग आपके लिए ठंडी हो गई। इस नौइयत की नुसरत (मदद) 
गैर पैग़म्बरों के लिए भी नाजिल हो सकती है। बशर्ते कि वे अपने आपको ख़ुदा के मंसूबे के 
साथ उस हद तक वाबस्ता करें जिस तरह पैग़ाम्बर उसके साथ अपने को वाबस्ता करता है। 


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सूरह-2।. अल-अंबिया 90I पारा ॥7 
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और हमने उसे और लूत को उस जमीन की तरफ नजात दे दी जिसमें हमने दुनिया वालों 
के लिए बरकतें रखी हैं। और हमने उसे इस्हाक दिया और मजीद बरआं (तदधिक) 
याकूब। और हमने उन सबको नेक बनाया। और हमने उन्हें इमाम (नायक) बनाया 
जो हमारे हुक्म से रहनुमाई करते थे। और हमने उन्हें नेक अमली और नमाज की 
इकामत और जकात की अदायगी का हुक्म भेजा और वे हमारी इबादत करने वाले थे। 
(7-73) 


हजरत इब्राहीम इराक में पैदा हुए। जब उनकी कौम और वहां का बादशाह नमरूद 
आपका दुश्मन हो गया तो इतमामेहुज्जत (आह्वान की अति) के बाद आपने अपना वतन 
छोड़ दिया। और अल्लाह के हुक्म से शाम व फिलिस्तीन के सरसब्ज इलाके की तरफ चले 
गए । आपके मुल्क वालों ने अगरचे आपका साथ नहीं दिया था। मगर ख़ुदा ने आपको बेटे 
और पोते दिए जो आपके रास्ते पर चलने वाले बने। यहां तक कि उनकी नेकी ख़ुदा ने इस 
तरह कुबूल फरमाई कि आपकी नस्ल में नुबुव्वत का सिलसिला जारी कर दिया। 


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और लूत को हमने हिक्मत (तत्वदर्शिता) और इल्म अता किया। और उसे उस बस्ती से 


नजात दी जो गंदे काम करती थी। बिलाशुबह वे बहुत बुरे, फासिक (अवज्ञाकारी) लोग 
थे। और हमने उसे अपनी रहमत में दाखिल किया बेशक वह नेकों में से था। (74-75) 


हिक्मत से मुराद मअरफत (अन्तरज्ञान) और इल्म से मुराद “वही” (ईश्वरीय वाणी) है। 
हजरत लूत को ये चीजें अता हुई। दूसरे तमाम पैगम्बरों को भी ये चीजें दी जाती रही हैं। अब 
ख़त्मे नुबुव्वत के बाद 'वही' का कायम मकाम (स्थानापन्न) कुरआन है। ताहम हिक्मत 
(मअरफत) से गैर पेग़म्बरों को भी बकद्र इस्तेदाद (यथा सामर्थ्य) हिस्सा मिलता है। 

जिन लोगों पर अल्लाह की नजर होती है वह उनका वली व कारसाज बन जाता है। वह 
उन्हें बुरे लोगों के माहौल से निकाल कर अच्छे लोगों के माहौल में ले जाता है। वह जिंदगी 
के हर मोड़ पर उनका मददगार बन जाता है। वह उन्हें वह हिक्मत अता फरमाता है जिसके 
बाद उनकी पूरी जिंदगी रहमते खुदावंदी के आबशार (झरने) में नहा उठती है। 


पारा ॥7 902 सूरह-2।. अल-अंबिया 
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और नूह को जबकि इससे पहले उसने पुकारा तो हमने उसकी दुआ कुबूल की। पस 
हमने उसे और उसके लोगों को बहुत बड़े ग़म से नजात दी। और उन लोगों के मुकाबले 


में उसकी मदद की जिन्होंने हमारी निशानियों को झुठलाया। बेशक वे बहुत बुरे लोग 
थे। पस हमने उन सबको गर्क कर दिया। (76-77) 





हजरत नूह ने इंतिहाई लम्बी मुद्दत तक अपनी कौम को दावत दी। मगर चन्द लोगों 
के सिवा किसी ने इस्लाह कुबूल न की। आखिरकार हजरत नूह ने अपनी कौम की हलाकत 
की दुआ की। इसके बाद ऐसा सख्त सैलाब आया कि पहाड़ की चोटियां भी लोगों को बचाने 
के लिए आजिज हो गई। 

यह वाकया अगरचे पैगम्बर की सतह पर पेश आया। ताहम आम इंसानों के लिए भी 
इसमें बहुत तस्कीन का सामान है। इससे मालूम होता है कि इस दुनिया में बिगाड़ पैदा करने 
वाले बिल्कुल आजाद नहीं हैं। और सच्चाई के लिए उठने वाला शख्स बिल्कुल अकेला नहीं 
है। अगर कोई शख्स सच्चाई से इस हद तक अपने आपको वाबस्ता करे कि वह दुनिया में 
सच्चाई का नुमाइंदा बन जाए तो इसके बाद वह दुनिया में अकेला नहीं रहता। बल्कि ख़ुदा 
उसके साथ हो जाता है और जिसके साथ खुदा हो जाए उसे कौन जेर कर सकता है। 


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और दाऊद और सुलैमान को जब वे दोनों खेत के बारे में फैसला कर रहे थे, जबकि 
उसमें कुछ लोगों की बकरियां रात के वक्‍त जा पडी। और हम उनके इस फैसले को देख 

रहे थे। पस हमने सुलैमान को उसकी समझ दे दी। और हमने दोनों को हिक्मत 
(तत्वदर्शिता) और इलम अता किया था। और हमने दाऊद के साथ ताबेअ कर दिया था 
पहाड़ों को कि वे उसके साथ तस्बीह करते थे और परिंदों को भी। और हम ही करने 
वाले थे। और हमने उसे तुम्हारे लिए एक जंगी लिबास की संअत (शिल्पकला) सिखाई । 





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सूरह-2।. अल-अंबिया 903 पारा ॥7 
ताकि वह तुम्हें लड़ाई में महफूज रखे। तो क्या तुम शुक्र करने वाले हो। (78-80) 





इन आयात में दो इस्राईली पैगम्बरों का जिक्र है। एक हजरत दाऊद और दूसरे उनके 
साहबजादे हजरत सुलैमान । इन्हें अल्लाह तआला ने इंसानी मामलात का सही फैसला करने 
की सलाहियत दी। हजरत दाऊद अल्लाह की तस्बीह इतने आला तरीके पर करते थे कि 
पहाड़ और चिड़ियां भी उनकी हमनवां हो जातीं । इसी तरह अल्लाह ने उन्हें बताया कि लोहे 
का इस्तेमाल किस तरह किया जाए। 

यह एक हकीकत है कि खुदा के पैग़म्बरों ही ने इंसान को बताया कि वह अपने रब की 
तस्बीह व इबादत किस तरह करे। मगर इन आयात से मालूम होता है कि दूसरी जरूरी चीजें 
भी इंसान को सही तौर पर पेग़म्बरों ही के जरिए मालूम हुई। मसलन अदूले इज्तिमाई 
(सामूहिक न्याय) का उसूल और मादनियात (धातु, खनिज) का इस्तेमाल भी पैग़म्बरों ही के 
जरिए इंसानों के इल्म में आया। जिंदगी के मुतअल्लिक हर जरूरी चीज का इब्तिदाई इलम 
ग़ालिबन पैगम्बरों ही के जरिए इंसान को दिया गया है। 


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और हमने सुलैमान के लिए तेज हवा को मुसरुख़र (वशीभूत) कर दिया जो उसके हुक्म 
से उस सरजमीन की तरफ चलती थी जिसमें हमने बरकतें रखी हैं। और हम हर चीज 
को जानने वाले हैं। और शयातीन में से भी हमने उसके ताबेअ (अधीन) कर दिया था 


जो उसके लिए गोता लगाते थे। और इसके सिवा दूसरे काम करते थे और हम उन्हें 
संभालने वाले थे। (8-82) 








यहां हवाओं की तस्वीर से मुराद समुद्री जहाजरानी है। कदीम जमाने में समुद्री सफर 
मं उस वक्‍त इंकलाब आया जबकि इंसान ने बादबानी जहाज बनाने का तरीक दरयाफ्त 
किया। ये बादबान गोया हवाओं को मुसख़वर करने का जरिया थे और उस जमाने के जहाजों 
के लिए इंजन का काम करते थे। बादबानी जहाजों की ईजाद ने समुद्रों को ज्यादा बड़े पैमाने 
पर नकल व हमल (यातायात) के लिए काबिले इस्तेमाल बना दिया। इससे अंदाजा होता है 
कि समुद्री जहाजरानी की साइंस भी ग़ालिबन इंसान को पेग़म्बरों के जरिए सिखाई गई। 
इसके अलावा जिन्नों में से भी एक गिरोह को अल्लाह ने हजरत सुलैमान के ताबेअ कर 
दिया था। वे उनके लिए ऐसे बड़े-बड़े रिफाही (जनहित के) काम करते थे जो आम इंसान नहीं 
कर सकते। जदीद (आधुनिक) मशीनी दौर में इंसानी फायदे के ज्यादा बड़े काम मशीनें 


पारा 77 904 सूरह-2।. अल-अंबिया 


अंजाम देती हैं। मशीनी दौर से पहले इस किस्म के बड़े-बड़े कामों को मुमकिन बनाने के लिए 
खुदा ने जिन्नों को अपने पैग़म्बर की मातहती में दे दिया था। 


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और अय्यूब को जबकि उसने अपने रब को पुकारा कि मुझे बीमारी लग गई है और 
तू सब रहम करने वालों से ज्यादा रहम करने वाला है। तो हमने उसकी दुआ कुबूल 

की और उसे जो तकलीफ थी उसे दूर कर दिया। और हमने उसे उसका कुंबा (परिवार) 
अता किया और इसी के साथ उसके बराबर और भी, अपनी तरफ से रहमत और 
नसीहत, इबादत करने वालों के लिए। (83-84) 





पैगम्बरों के जरिए खुदा हर किस्म की आलातरीन मिसाल कायम करता है ताकि वे लोगों 
के लिए नमूना हों। उन्हीं में से एक मिसाल हजरत अय्यूब की है। हजरत अय्यूब गालिबन 
नवीं सदी कब्ल मसीह (ई० पू०) के इस्राईली पैगम्बर थे। बाइबल के बयान के मुताबिक 
इब्तिदा में वह बहुत दौलतमंद थे। खेती, मवेशी, मकानात, आल औलाद, हर चीज की इतनी 
कसरत थी कि कहा जाने लगा कि अहले मशरिक में कोई इतना बड़ा आदमी नहीं। इसके 
बावजूद हजरत अय्यूब बेहद शुक्रगुजार और वफादार बदि थे। उनकी जिंदगी इस बात का 
नमूना बन गई कि इज्जत और दौलत पाने के बावजूद किस तरह एक आदमी मुतवाजेअ 
(विनम्र) बंदा बना रहता है। 

मगर शैतान ने इस वाकये को लोगों के जेहनों में उलट दिया। उसने लोगों को सिखाया 
कि अय्यूब की यह गैर मामूली ख़ुदापरस्ती इसलिए है कि उन्हें गैर मामूली नेमतें हासिल हैं। 
अगर ये नेमतें उनके पास न रहें तो उनकी सारी शुक्रगुजारी ख़त्म हो जाएगी। 

इसके बाद खुदा ने आपके जरिए से दूसरी मिसाल कायम की । हजरत अय्यूब के मवेशी 
मर गए। खेतियां बर्बाद हो गई। औलाद ख़त्म हो गई। यहां तक कि जिस्म भी बीमारी की 
नञ्ज हो गया। दोस्तों और रिश्तेदारों ने साथ छोड़ दिया। सिर्फ एक बीवी आपके साथ बाकी 
रह गई। मगर हजरत अय्यूब खुदा के फैसले पर राजी रहे उन्होंने कामिल सब्र का मुजाहिरा 
किया। बाइबल के अल्फज में: 

“तब अय्यूब ने जमीन पर गिर कर सज्दा किया। और कहा नंगा मैं अपनी मां के पेट 
से निकला और नंगा ही वापस जाऊंगा । ख़ुदावंद ने दिया और ख़ुदावंद ने ले लिया । ख़ुदावंद 
का नाम मुबारक हो। इन सब बातों में अय्यूब ने न तो गुनाह किया और न ख़ुदा पर बेजा 
काम का ऐब लगाया। (अय्यूब ] : 22) 

हजरत अय्यूब ने जब मुसीबत में इस तरह सब्र व शुक्र का मुजाहिरा किया तो न सिर्फ 








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सूरह-2।. अल-अंबिया 905 पारा 7 
आखिरत में उनके लिए बेहतरीन अज्र लिख दिया गया। बल्कि दुनिया में भी उनकी हालत बदल 
दी गई। और ख़ुदावंद ने अय्यूब को जितना उसके पास पहले था उसका दोचन्द उसे दिया। 
(अय्यूब 42 : 2) | हदीस में इसी को तमसील के अल्फाज में इस तरह कहा गया है कि ख़ुदा 
ने जब दुबारा अय्यूब के दिन फेरे तो उन पर सोने की टिड़िडयों को बारिश कर दी। 


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और इस्माईल और इदरीस और जुलकिफ्ल को, ये सब सब्र करने वालों में से थे। 


और हमने उन्हें अपनी रहमत में दाखिल किया। बेशक वे नेक अमल करने वालों 
में से थे। (85-86) 





हजरत इस्माइल हजरत इब्राहीम के साहबजदे थे। कुछ मुफस्सिरीन ने हजरत इदरीस से 
वह पैगम्बर मुराद लिया है जिनका जिक्र बाइबल में हनूक (६०८॥) के नाम से आया है। 
इसी तरह हजरत जुनकिफ्ल से मुराद गलिबन वह नबी हैं जो बाइबल में हिजकील 
(£7९।९]) के नाम से मज्कूर हुए हैं। 

इन पैग़म्बरों की नुमायां सिफ्त सब्र बताई गई है। इसकी वजह यह है कि सब्र तमाम 
खुदापरस्ताना आमाल की बुनियाद है। सब्र का मतलब अपने आपको रद्देअमल (प्रतिक्रिया) 
की नफ्सियात से बचाना है। जो शख्स अपने आपको रद्देअमल की नफ्सियात से न बचाए 
वह इम्तेहान की इस दुनिया में कभी ख़ुदा की पसंदीदा जिंदगी पर कायम नहीं हो सकता । 
हकीकत यह है कि सब्र खुदा की तमाम रहमतों का दरवाजा है, इस दुनिया में भी और मौत 
के बाद आने वाली दूसरी दुनिया में भी। 


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और मछली वाले (यूनुस) को, जबकि वह अपनी कौम से बरहम (क्रुद्ध) होकर चला 
गया। फिर उसने यह समझा कि हम उसे न पकड़ेंगे फिर उसने अंधेरे में पुकारा 
कि तेरे सिवा कोई माबूद (पूज्य) नहीं, तू पाक है। बेशक में कुसूरवार हूं। तो 
हमने उसकी दुआ कुबूल की और उसे ग़म से नजात दी। और इसी तरह हम ईमान 
वालों को नजात (मुक्ति) देते हैं। (87-88) 


हजरत यूनुस, इराक के एक कदीम शहर नेनवा की तरफ पैगम्बर बनाकर भेजे गए । उस 


सूरह-2।. अल-अंबिया 
वक्त नेनवा की आबादी एक लाख से कुछ ज्यादा थी। उन्होंने एक अर्स तक कौम को तौहीद 
और आखिरत की तरफ बुलाया। मगर वे लोग मानने के लिए तैयार न हुए । पैग़म्बरों के बारे 
में खुदा की सुन्नत यह है कि इतमामेहुज्जत (आह्वान की अति) के बाद अगर कौम बदस्तूर 
पैगम्बर की मुंकिर बनी रहे तो पैगम्बर को बस्ती छोड़ने का हुक्म होता है और कौम पर 
अजाब आ जाता है। हजरत यूनुस ने ख्याल किया कि वह वक्त आ गया है। और ख़ुदा की 
तरफ से हिजरत (स्थान-परिवर्तन) का हुक्म मिले बगैर कौम को छोड़कर चले गए। 
शहर से निकल कर वह साहिले समुद्र पर आए और एक कश्ती में सवार हो गए। रास्ते 
में कश्ती डूबने लगी। लोगों ने समझा कि कोई गुलाम अपने मालिक से भागा है। कदीम 
रिवायत के मुताबिक इसका हल यह था कि उस गुलाम को मालूम करके उसे दरिया में फेंक 
दिया जाए। कुरआ (किसी एक का चयन करना) निकाला गया तो हजरत यूनुस का नाम 
कुरआ में निकला। चुनांचे उन्होंने आपको दरिया में फेंक दिया। ऐन उसी वक्त एक बड़ी 
मछली ने आपको निगल लिया। मछली आपको अपने पेट में लिए रही और फिर ख़ुदा के 
हुक्म से आपको लाकर साहिल (समुद्र-तट) पर डाल दिया । आप तंदुरुस्त होकर दुबारा अपनी 
कैम में वापस आए। 
एक पैगम्बर ने दावत (आह्वान) के महाज को सिर्फ तक्मील (पूर्णता) से पहले छोड़ 

दिया तो उनके साथ यह किस्सा पेश आया। फिर पेग़म्बर के उन वारिसों का क्या अंजाम 
होगा जो दावत के महाज को यकसर छोड़े हुए हों। 

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और जकरिया को, जबकि उसने अपने रब को पुकारा कि ऐ मेरे रब, तू मुझे अकेला 
न छोड़। और तू बेहतरीन वारिस है। तो हमने उसकी दुआ कुबूल की और उसे यहया 
अता किया। और उसकी बीवी को उसके लिए दुरुस्त कर दिया। ये लोग नेक कामों 
में दौड़ते थे और हमें उम्मीद और ख़ोफ के साथ पुकारते थे। और हमारे आगे झुके हुए 
थे। (89-90) 


पारा ।7 906 








पैगम्बर खुसूसी इनामयाफ्ता लोग हैं। इनकी सबसे बड़ी शख़्सी सिफत यह होती है कि 
उनकी दौड़ धूप दुनिया के लिए नहीं होती। बल्कि उन चीजों की तरफ होती है जो आख़िरत 
के एतबार से कीमत रखती हों। अल्लाह की अज्मत को वे इस तरह पा लेते हैं कि वही उन्हें 
सब कुछ नजर आने लगता है। वे सिर्फ उसी से डरते हैं और सिर्फ उसी को पुकारते हैं। वे 
हर हाल में ख़ुशूअ (विनय) और तवाजोअ (विनम्रता) की रविश पर कायम रहते हैं। 

ये चीजें हजरत जकरिया और दूसरे नबियों में कमाल दर्ज पर थीं। और इसी बिना पर 


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सूरह-2।. अल-अंबिया 907 पारा ॥7 


अल्लाह ने उन्हें अपनी ख़ुसूसी नेमतों से नवाजा । आम अहले ईमान भी जिस कद्र इन औसाफ 
का सुबूत देंगे, उसी कद्र वे खुदा की नुसरत व इआनत के मुस्तहिक करार पाएंगे। 


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और वह ख़ातून जिसने अपनी नामूस (स्तीत्व) को बचाया तो हमने उसके अंदर अपनी 


रूह फूंक दी और उसे और उसके बेटे को दुनिया वालों के लिए एक निशानी बना 
दिया। (9॥) 





हजरत मरयम की सिफते ख़ास यह बताई गई है कि उन्होंने अपनी शहवत (वासना) को 
काबू में रखा। इसका उन्हें यह इनाम मिला कि वह उस पैग़म्बर की मां बनाई गईं जो 
बराहेरास्त मोजिजा ख़ुदावंदी (ईश्वरीय चमत्कार) के तहत पैदा हुआ। 

यही बात आम मर्दों और औरतों के लिए भी सही है। हर एक का इम्तेहान मौजूदा दुनिया 
में यह है कि वे अपनी शहवतों और ख्ब्ाहिशों को काबू में रखे। जो शख़्स जितना ज्यादा इस 
जब्त का सुबूत देगा उसी के बकद्र वह ख़ुदा की ख़ुसूसी इनायतों में हिस्सेदार बनेगा। 


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और यह तुम्हारी उम्मत एक ही उम्मत है और मैं ही तुम्हारा रब हूं तो तुम मेरी इबादत 
करो। और उन्होंने अपना दीन अपने अंदर टुकड़े-टुकड़े कर डाला। सब हमारे पास आने 


वाले हैं। पस जो शख्स नेक अमल करेगा और वह ईमान वाला होगा तो उसकी महनत 
की नाकद्री न होगी, और हम उसे लिख लेते हैं। (92-94) 





ख़ुदा ने तमाम नबियों को एक ही दीन लेकर भेजा है। वह यह कि सिर्फ एक ख़ुदा को 
अपना खुदा बनाओ और उसी की इबादत करो। अगर लोग इसी असल दीन पर कायम रहते 
तो सब एक ही उम्मत बने रहते। मगर लोगों ने अपनी तरफ से नई-नई बहसें निकाल कर 
दीन के मुख़्तलिफ एडीशन तैयार कर लिए। किसी ने एक को लिया और किसी ने दूसरे को। 
इस तरह एक दीन कई दीनों में तक्सीम होकर रह गया। 

ख़ुदा के यहां ईमान व अमल की कीमत है, यानी खुदा की सच्ची मअरफत (अन्तर्ज्ञान) 
और खुदा की सच्ची ताबेअदारी। इसके सिवा जो चीजें हैं उनकी ख़ुदा के यहां कोई कद्रदानी 
न होगी, चाहे कोई शख्स बतौर खुद उन्हें कितना ही ज्यादा काबिलेकद्र क्यों न समझता हो। 


पारा 77 908 सूरह-2।. अल-अंबिया 


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और जिस बस्ती वालों के लिए हमने हलाकत मुकदूदर कर दी है उनके लिए हराम है 
कि वे रुजूअ करें। यहां तक कि जब याजूज और माजूज खोल दिए जाएंगे और वे हर 
बुलन्दी से निकल पड़ेंगे। और सच्चा वादा नजदीक आ लगेगा तो उन लोगों की निगाहें 
फटी रह जाएंगी जिन्होंने इंकार किया था। हाय हमारी कमबख्ती, हम इससे गफलत 

में पड़े रहे। बल्कि हम जालिम थे। (95-97) 


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किसी बस्ती के लिए ईमान में दाखिला हराम होने का मतलब यह है कि उसके कुबूले 
ईमान की इस्तेदाद (सामर्थ्य) ख़त्म हो जाए। जब हक वाजेह दलाइल के साथ सामने आता 
है तो आदमी अपनी ऐन फितरत के तहत मजबूर होता है कि वह उसे पहचाने। अब जो लोग 
इस पहचान के बाद हक का एतराफ कर लें वे अपनी फितरत को बाकी रखते हैं। इसके 
बरअक्स जो लोग दूसरी चीजों को अहमियत देने की बिना पर उसका एतराफ न करें वे गोया 
अपनी फितरत पर पर्दा डाल रहे हैं। हक का इंकार हमेशा अपनी फितरत को अंधा बनाने 
की कीमत पर होता है। जो लोग अपनी फितरत को अंधा बनाने का ख़तरा मोल लें उनका 
अंजाम यही है कि उनके लिए ईमान में दाखिल होना बिल्कुल नामुमकिन हो जाए। 
जो लोग दलाइल की जबान में हक को न पहचानें वे हक को सिर्फ उस वक्‍त पहचानी 
जबकि कियामत उनकी आंख का पर्दा फाड़ देगी। मगर उस वक्त का पहचानना किसी के 
कुछ काम न आएगा क्योंकि वह मानने का अंजाम पाने का वक्त होगा न कि मानने का। 
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सूरह-2।. अल-अंबिया 909 पारा ॥7 


बेशक तुम और जिन्हें तुम खुदा के सिवा पूजते थे सब जहन्नम का ईंधन हैं। वहीं तुम्हें 
जाना है। अगर ये वाकई माबूद (पूज्य) होते तो उसमें न पड़ते। और सब उसमें हमेशा 
रहेंगे। उसमें उनके लिए चिल्लाना है और वे उसमें कुछ न सुनेंगे। बेशक जिनके लिए 
हमारी तरफ से भलाई का पहले फैसला हो चुका है वे उससे दूर रखे जाएंगे। वे उसकी 

आहट भी न सुनेंगे। और वे अपनी पसंदीदा चीजों में हमेशा रहेंगे। उन्हें बड़ी घबराहट 
ग़म में न डालेगी। और फरिश्ते उनका इस्तकबाल करेंगे। यह है तुम्हारा वह दिन 
जिसका तुमसे वादा किया गया था। (98-03) 





अब्दुल्लाह बिन अलजबअरी कदीम अरब का एक मशहूर शायर था। यह आयत उतरी 
तो उसने लोगों से कहा कि मुहम्मद से पूछो कि आपके ख्याल में ख़ुदा के सिवा जितने माबूद 
हैं और जो उनके आबिद हैं, सबके सब जहन्नम में जाएंगे, तो हम तो फरिश्तों की इबादत 
करते हैं। यहूद उजैर पैगम्बर की इबादत करते हैं। नसारा (ईसाई) मसीह पैग़म्बर की इबादत 
करते हैं। मुश्रिकीन इस नुक्ते को पाकर बहुत खुश हुए और आपसे जाकर सवाल किया। 
आपने फरमाया कि हर एक जिसने पसंद किया कि वह ख़ुदा के सिवा पूजा जाए तो वह उसके 
साथ होगा जिसने उसे पूजा। इस जवाब के बाद अब्दुल्लाह बिन अलजबअरी ने मजीद बहस 
नहीं की। बल्कि उसने इस्लाम कुबूल कर लिया। 

इससे मालूम हुआ कि इस आयत के मिस्दाक या तो पत्थर वगैरह के बुत हैं या वह 
माबूद जो ख़ुद भी अपने माबूद बनाए जाने पर राजी रहा हो। जिसने ख़ुदा के सिवा किसी 
को माबूद बनाया और जिसने अपने माबूद बनने को पसंद किया, दोनों एक साथ इसलिए 
जहन्नम में डाले जाएंगे ताकि लोगों को इबरत हो। 

कियामत का दिन इंतिहाई हौलनाक दिन होगा। मगर जिन लोगों को यह तौफीक मिली 
कि वे कियामत के आने से पहले कियामत से डरे वे उस दिन की दहशत से महफूज रही। 
वे जन्नत की राहतों से भरी हुई दुनिया में दाखिल कर दिए जाएंगे। 


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जिस दिन हम आसमान को लपेट देंगे जिस तरह तूमार (पुस्तिका) में औराक (पन्ने) 
लपेट दिए जाते हैं। जिस तरह पहले हमने तख्लीक की इब्तिदा की थी उसी तरह हम 
फिर उसका इआदा (पुनरावृत्ति) करेंगे। यह हमारे जिम्मे वादा है और हम उसे करके 
रहेंगे। और जबूर में हम नसीहत के बाद लिख चुके हैं कि जमीन के वारिस हमारे नेक 
बंदे होंगे। इसमें एक बड़ी ख़बर है इबादतगुजार लोगों के लिए। (04-06) 





पारा 77 9I0 सूरह-2।. अल-अंबिया 





कायनात का मौजूदा फैलाव इम्तेहान वाली दुनिया बनाने के लिए था। इसके बाद जब 
अंजाम वाली दुनिया बनाने का वक़्त आएगा तो ख़ुदा इस आलम को समेट देगा। और 
ग़ालिबन इसी मादूदा (पदार्थ) से दूसरा आलम बनाएगा जो अंजाम वाले मकासिद (उद्देश्यों) 
के हस्बेहाल (अनुरूप) हो। एक दुनिया का वजूद में आना यही इस बात के सुबूत के लिए 
काफी है कि दूसरी दुनिया भी वजूद में लाई जा सकती है। 

मौजूदा दुनिया में अक्सर बुरे लोग बड़ाई का मकाम हासिल कर लेते हैं। मगर यह सिर्फ 
इम्तेहान की मुदूदत तक के लिए है। जब इम्तेहान की मुदूदत ख़त्म होगी और स्थाई तौर पर 
खुदा की मेयारी दुनिया बनाई जाएगी। तो वहां हर किस्म की इज्जत और राहत सिर्फ उन 
लोगों का हिस्सा होगी जो मौजूदा इम्तेहानी दौर में ख़ुदा के सच्चे बंदे साबित हुए थे। यह बात 
मौजूदा जबूर में भी तपसील से मौजूद है। इसके चन्द अल्फज ये हैं: 

और बदी करने वालों पर रश्क न कर। ख़ुदावंद पर तवक्कुल (भरोसा) कर और नेकी 
कर। वह तेरी रास्तबाजी (सच्चाई) को नूर की तरह और तेरे हक को दोपहर की तरह रोशन 
करेगा। क्योंकि बदकिरदार काट डाले जाएंगे सादिक (सच्चे) जमीन के वारिस होंगे। और वे 


उसमें हमेशा बसे रहेंगे। (जबूर, बाब 37 
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और हमने तुम्हें तो बस दुनिया वालों के लिए रहमत बनाकर भेजा है। कहो कि मेरे पास 
जो “वही” (ईश्वरीय वाणी) आती है वह यह है कि तुम्हारा माबूद (पूज्य) सिर्फ एक 
माबूद है, तो क्या तुम इताअतगुजार बनते हो। पस अगर वे एराज (उपेक्षा) करें तो कह 
दो कि मैं तुम्हें साफ तौर पर इत्तिला कर चुका हूं। और में नहीं जानता कि वह चीज 
जिसका तुमसे वादा किया जा रहा है, करीब है या दूर। बेशक वह खुली बात को भी 
जानता है और उस बात को भी जिसे तुम छुपाते हो। और मुझे नहीं मालूम शायद वह 
तुम्हारे लिए इम्तेहान हो और फायदा उठा लेने की एक मोहलत हो। पेग़म्बर ने कहा 


कि ऐ मेरे रब, हक के साथ फैसला कर दे। और हमारा रब रहमान (कृपाशील) है, उसी 
से हम उन बातों पर मदद मांगते हैं जो तुम बयान करते हो। (07-22) 


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सूरह-22. अल-हज 9]I पारा ॥7 





खुद की तरफ से जितने पेगबर आए सब एक ही मकसद के लिए आए। उनके जरिए 
ख़ुदा यह चाहता था कि इंसानों को हकीकत का वह इल्म दे जिसे इर्ियार करके वे अबदी 
(चिरस्थाई) जन्नत के बाशिंदे बन सकते हैं। मगर इंसान हर बार पेग़म्बरों को रद्द करता रहा। 
इस एतबार से तमाम पैगम्बर खुदा की रहमत थे। मगर अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद 
सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का इम्तियाज यह है कि आपको अल्लाह तआला ने अपने बंदों के 
लिए एक खुमूसी इनायत का जरिया बनाया। खुदा ने यह फैसला फरमाया कि आपके जरिए 
हिदायत के उस दरवाजे को हमेशा के लिए खोल दे जो अब तक उनके ऊपर बंद पड़ा हुआ था। 
इस बिना पर आपकी मदऊ कौम के लिए अल्लाह तआला का यह खुसूसी फैसला था कि उसे 
बहरहाल हक के रास्ते पर लाना है। ताकि पैगम्बर के साथ एक ताकतवर जमाअत तैयार हो और 
वह दुनिया में इंकिलाब बरपा करके तारीख़ के रुख़ को मोड़ दे। रहमते खुदावंदी का यह ख़ुसूसी 
मंसूबा आप और आपके असहाब के जरिए बातमाम व कमाल अंजाम पाया। 


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(मदीना में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

ऐ लोगो, अपने रब से डरो। बेशक कियामत का भूकम्प बड़े भारी चीज है। जिस 

दिन तुम उसे देखोगे, हर दूध पिलाने वाली अपने दूध पीते बच्चे को भूल जाएगी। 
और हर हमल (गर्भ) वाली अपना हमल डाल देगी। और लोग तुम्हें मदहोश नजर 
आएंगे हालांकि वे मदहोश न होंगे। बल्कि अल्लाह का अजाब बड़ा ही सख्त है। 
और लोगों में कोई ऐसा भी है जो इल्म के बगैर अल्लाह के विषय में झगड़ता है। 
और हर सरकश शैतान की पैरवी करने लगता है। उसके बारे में यह लिख दिया 
गया है कि जो शख्स उसे दोस्त बनाएगा वह उसे बेराह कर देगा और उसे अजाबे 


पारा 7 9.2 सूरह-22. अल-हज 
जहन्नम का रास्ता दिखाएगा। (2-4) 





दूध पिलाने वाली अपने दूध पीते बच्चे को भूल जाएगी और हमल (गर्भ) वाली औरत 
अपना हमल गिरा देगी' यह तमसील की जबान में कियामत की हौलनाकी का बयान है। यानी 
उस दिन लोगों का यह हाल होगा कि अगर मां की गोद में दूध पीने वाला बच्चा हो तो 
घबराहट की बिना पर वह अपने बच्चे को भूल जाए। और अगर कोई हामिला (गर्भवती) 
औरत हो तो शिद्दते हौल से उसका हमल साकित हो जाए। 

हमारी मौजूदा दुनिया में जो भूचाल आते हैं वे कियामत के वाकये का हल्का सा नमूना 
हैं। कियामत का सबसे बड़ा भूचाल जब आएगा तो आदमी हर वह चीज भूल जाएगा जिसे 
अहमियत देने की वजह से वह कियामत के दिन को भूला हुआ था। यहां तक कि अपनी 
अजीजतरीन चीज भी उस दिन उसे याद न रहेगी। 

पैगम्बर की बात इलम की बिना पर होती है। वह दलाइल से उसे साबितशुदा बनाता है। 
मगर जो लोग अपने से बाहर किसी सदाकत का एतराफ करना नहीं चाहते वे अपने को 
बरसरे हक जाहिर करने के लिए पैगम्बर की बात में झूठी बहसें निकालते हैं। इस किस्म की 
रविश ख़ुदा के मुकाबले में सरकशी करने के हममअना है। जो लोग इस तरह की बहसों को 
हक का पैग़ाम न मानने के लिए बहाना बनाएं वे गोया शैतान को अपना मुशीर (सलाहकार) 
बनाए हुए हैं। वे इस बात का सुबूत देते हैं कि वे खुदा के ख़ौफ से ख़ाली हैं। बेख़फी की 
नप्सियात आदमी को इससे महरूम कर देती है कि वह हक को पहचाने और उसका एतराफ 
करे। वह निहायत आसानी से शैतान का शिकार बन जाता है। ऐसा आदमी सिर्फ कियामत 
की चिंधाड़ से जागेगा। मगर कियामत का जलजला ऐसे लोगों के लिए सिर्फ जहन्नम का 
दरवाजा खोलने के लिए आता है न कि उन्हें हिदायत का रास्ता दिखाने के लिए 


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सूरह-22. अल-हज 93 पारा 77 


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ऐ लोगो, अगर तुम दुबारा जी उठने के मुतअल्लिक शक में हो तो हमने तुम्हें मिट्टी 

से पैदा किया है, फिर नुत्फा (वीर्य) से, फिर खून के लोथड़े से, फिर गोश्त की बोटी 
से, शक्ल वाली और बर शक्ल वाली भी, ताकि हम तुम पर वाजेह करें। और हम 
रहमों (गर्भो) में ठहरा देते हैं जो चाहते हैं एक मुअय्यन (निश्चित) मुदूदत तक। फिर 
हम तुम्हें बच्चा बनाकर बाहर लाते हैं। फिर ताकि तुम अपनी पूरी जवानी तक पहुंच 
जाओ। और तुम में से कोई शख्स पहले ही मर जाता है और कोई शख्स बदतरीन उम्र 
तक पहुंचा दिया जाता है ताकि वह जान लेने के बाद फिर कुछ न जाने। और तुम जमीन 
को देखते हो कि खुश्क पड़ी है फिर जब हम उस पर पानी बरसाते हैं तो वह ताजा हो 

गई और उभर आई और वह तरह-तरह की खुशनुमा चीजें उगाती है। यह इसलिए कि 
अल्लाह ही हक है और वह बेजानों में जान डालता है, और वह हर चीज पर कादिर है। 

और यह कि कियामत आने वाली है, इसमें कोई शक नहीं और अल्लाह जरूर उन लोगों 

को उठाएगा जो कब्र में हैं। (5-7) 





आख़िरत की जिंदगी के बारे में आदमी को इसलिए शुबह होता है कि उसकी समझ में 
नहीं आता कि जब इंसान मर चुका होगा तो वह किस तरह दुबारा जिंदा होकर खड़ा हो 
जाएगा। मुर्दा कायनात दुबारा जिंदा कायनात कैसे बन जाएगी। 

इस शुबह का जवाब ख़ुद हमारी मौजूदा दुनिया की साख़्त (बनावट) में मौजूद है। 
मौजूदा दुनिया क्या है। यह एक हालत का दूसरी हालत में तब्दील हो जाना है। वह चीज 
जिसे हम जिंदा वजूद कहते हैं वह हकीकत में गैर जिंदा वजूद की तब्दीली है। इंसानी जिस्म 
का तज्जिया यह बताता है कि वह लोहा, कार्बन, कैल्शियम, नमकयात (लवणों), पानी और 
गैसों वगैरह से मिलकर बना है। इंसानी वजूद के ये मुरक्कबात (अवयव) सबके सब बेजान 
हैं। मगर यही गैर जीरूह (आत्माहीन) माद्दे तब्दील होकर जीरूह अशया (जीव) की सूरत 
इख्तियार कर लेते हैं। और इंसान की सूरत में चलने लगते हैं। फिर जो इंसान एक बार गैर 
जिंदा से जिंदा सूरत इस्तियार कर लेता है वह अगर दुबारा गैर जिंदा से जिंदा स्वरूप में 
तब्दील हो जाए तो इसमें ताज्जुब की बात क्या है। 

इसी तरह जमीन के सब्जा (वनस्पति) को देखिए । मिट्टी या दूसरी जिन चीजों से तर्कीब 
पाकर सब्जा बनता है वे सबकी सब इब्तिदा में उन खुसूसियात से ख़ाली होती हैं जिनके 
मज्मूओे का नाम सब्जा है। मगर यही गैर सब्जा तब्दील होकर सब्जा बन जाता है। तब्दीली 
का यह वाकया रोजाना हमारी आंखों के सामने हो रहा है। फिर इसी होने वाले वाकये का 
दूसरी बार होना नामुमकिन क्यों हो। 

हकीकत यह है कि पहली दुनिया का वजूद में आना ख़ुद ही दूसरी दुनिया के वजूद में 
आने का सुबूत है। एक दुनिया का तजर्बा करने के बाद दूसरी दुनिया को समझना अक्ली 
और मंतकी (ताकिंक) तौर पर कुछ भी मुश्किल नहीं। 





पारा 7 94 सूरह-22. अल-हज 
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और लोगों में कोई शरस है जो अल्लाह की बात में झगइ़ता है, इलम और हिदायत और 
रोशन किताब के बगैर तकब्बुर (घमंड) करते हुए ताकि वह अल्लाह की राह से बेराह 
कर दे। उसके लिए दुनिया में रुसवाई है और कियामत के दिन हम उसे जलती आग 
का अजाब चखाएंगे। यह तुम्हारे हाथ के किए हुए कामां का बदला है और अल्लाह 
अपने बंदों पर जुल्म करने वाला नहीं। (8-0) 


अरब के लोगों ने शिक को सच्चाई समझ कर इख्तियार कर रखा था। पैग़म्बर की दावते 
तौहीद से शिर्क को मानने वालों के अकाइद मुतजलजल (शिथिल) हुए तो इसमें उन लोगों को 
ख़तरा महसूस होने लगा जो शिक की जमीन पर अपनी सरदारी कायम किए हुए थे। एक 
आम आदमी के लिए शिक को छोड़ना सिर्फ अपने आबाई (पैतृक) दीन को छोड़ना होता है। 
जबकि एक सरदार के लिए शिक का ख़ात्मा उसकी सरदारी के ख़ात्मे के हममअना है। 
इसलिए हर दौर में बेआमेज (विशुद्ध) दीन की दावत के सबसे ज्यादा मुखालिफ वे लोग बन 
जाते हैं जो मिलावटी दीन की बुनियाद पर अपनी कयादत (नेतृत्व) कायम किए हुए हों। 

ये लोग हक की दावत और उसके दाओ के बारे में लायअनी (निरर्थक) बहसें पैदा करते 
हैं। वे कोशिश करते हैं कि उनके जेरे असर अवाम दावत के बारे में शक में पड़ जाएं। और 
बदस्तूर अपने रवाजी दीन पर कायम रहें। 

हक की यह मुखालिफत वे सिर्फ इसलिए करते हैं कि ख़ुदसाख़्ता दीन की बुनियाद पर 
उन्होंने जो अपनी झूठी बड़ाई कायम कर रखी है वह बदस्तूर कायम रहे। उन्हें सच्चाई से 
ज्यादा अपनी जात से दिलचस्पी होती है। ऐसे लोग खुदा के नजदीक बहुत बड़े मुजरिम हैं। 
कियामत में उनके हिस्से में रुसवाई और अजाब के सिवा कुछ आने वाला नहीं। 


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और लोगों में कोई है जो किनारे पर रहकर अल्लाह की इबादत करता है। पस अगर 


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सूरह-22. अल-हज 95 पारा ॥7 


उसे कोई फायदा पहुंचा तो वह उस इबादत पर कायम हो गया। और अगर कोई 
आजमाइश पेश आई तो उल्टा फिर गया। उसने दुनिया भी खो दी और आखिरत भी। 
यही खुला हुआ ख़सारा (घाटा) है। (॥7) 


एक शख्स वह है जो दीन को कामिल सदाकत (सच्चाई) के तौर पर दरयाफ्त करता है। 
दीन उसके दिल व दिमाग़ पर पूरी तरह छा जाता है। वह किसी संकोच के बगैर अपने आपको 
दीन के हवाले कर देता है। उसकी नजर में हर दूसरी चीज महत्वहीन बन जाती है। यही शख्स 
खुदा की नजर में सच्चा मोमिन है। 

दूसरे लोग वे हैं जो बस ऊपरी जज्बे से दीन को मानें। ऐसे लोगों की हकीकी 
दिलचस्पियां अपने मफादात (हितों) से वाबस्ता होती हैं। अलबत्ता सतही तअस्सुर (प्रभाव) के 
तहत वे अपने आपको दीन से भी वाबस्ता कर लेते हैं। उनकी यह वाबस्तगी सिर्फ उस वक्त 
तक के लिए होती है जब तक दीन को इख्तियार करने से उन्हें कोई नुक्सान न हो रहा हो। 
उनके मफादात पर उससे कोई जद न पड़ती हो। जैसे ही उन्होंने देखा कि दीन और उनका 
मफाद दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते वे फौरन जाती मफाद को इख्तियार कर लेते हैं और 
दीन को छोड़ देते हैं। 

यही दूसरे किस्म के लोग हैं जिन्हें मुनाफिक (पाखंडी) कहा जाता है। मुनाफिक् इंसान 
आखिरत को पाने में भी नाकाम रहता है और दुनिया को पाने में भी। इसकी वजह यह है 
कि दुनिया और आख़िरत दोनों मामले में कामयाबी के लिए एक ही लाजिमी शर्त है, और वह 
यकसूई (एकाग्रता) है। और यही वह कल्बी सिफत है जिससे मुनाफिक इंसान हमेशा महरूम 
रहता है। वह अपने दोतरफा रुज्हान की वजह से न पूरी तरह आख़िरत की तरफ यकसू होता 
और न पूरी तरह दुनिया की तरफ। इस तरह वह दोनों में से किसी की भी लाजिमी कीमत 
नहीं दे पाता। ऐसे लोग दोतरफा महरूमी की अलामत बनकर रह जाते हैं। 


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वह ख़ुदा के सिवा ऐसी चीज को पुकारता है जो न उसे नुक्सान पहुंचा सकती और न 

उसे नफा पहुंचा सकती। यह इंतिहा दर्जे की गुमराही है। वह ऐसी चीज को पुकारता 

है जिसका नुक्सान उसके नफा से करीबतर है। केसा बुरा कारसाज है और कैसा बुरा 

रफीक (साथी)। बेशक अल्लाह उन लोगों को जो ईमान लाए और नेक अमल किए 


ऐसी जन्नतों में दाखिल करेगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी। अल्लाह करता है जो 
वह चाहता है। (2-4) 





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पारा 77 96 सूरह-22. अल-हज 





ख़ुदा को छोड़ना हमेशा गैर ख़ुदा पर भरोसे की वजह से होता है। जब भी ऐसा होता 
है कि एक आदमी ख़ुदा के सच्चे रास्ते से हटता है या उसे नजरअंदाज करता है तो इसकी 
वजह यह होती है कि वह ख़ुदा के सिवा किसी और चीज पर भरोसा किए हुए होता है। यह 
गैर खुदा कभी कोई बुत होता है और कभी बुत के सिवा कोई दूसरी चीज। 
मगर इस दुनिया में एक ख़ुदा के सिवा किसी को कोई ताकत हासिल नहीं। इसलिए 
आदमी जब ख़ुदा के सिवा दूसरों पर भरोसा करता है तो वह ताकतवर को छोड़कर ऐसी 
मोहूम (कल्पित) चीज का सहारा पकड़ता है जिसका बहैसियत ताकत कोई वजूद नहीं। इससे 
ज्यादा भूल की बात और क्या हो सकती है। 
मजीद यह कि अपने आपको खुरा के साथ वाबस्ता करना सिर्फजरूरत का तकजा नहीं 
है बल्कि वह हकीकत का तकाजा भी है। वह इंसान के ऊपर रा का हक है। इसलिए जब 
आदमी ख़ुदा को छोड़कर मोहूम (कल्पित) चीजेंकी तरफजाता हैतोउसका नुमसान फैन 
उसके लिए मुकदूदर हो जाता है। और जहां तक उसके नफा का सवाल है तो वह तो कभी 
मिलने वाला नहीं। 
गैर खुदा को सहारा बनाने वाले बजाहिर उसे अपने से ऊंचा समझते हैं। वर्ना वे उसे 
सहारा ही न बनाएं। मगर हकीकत यह है कि वह गैर खुदा जिसे सहारा बनाया जाए और 
वे लोग जो उन्हें अपना सहारा बनाएं दोनों यकसां (समान) दर्जे में मजबूर और बेताकत हैं। 
ऐसी दुनिया में जो लोग इसका सुबूत दें कि उन्होंने माहौल से ऊपर उठकर सोचा। गैर 
ख़ुदाओं के पुरफरेब हुजूम में उन्होंने खुदा को दरयाफ्त किया । और फिर सिर्फ आखिरत के 
खातिर अपनी जिंदगी को ख़ुदा की पसंद के रास्ते पर डाल दिया वे इस दुनिया की सबसे 
कीमती रूहें हैं। खुदा उनकी इस तरह कद्रदानी करेगा कि उन्हें जन्नत की कामिल दुनिया में 
बसाएगा। जहां वे अबदी तौर पर ऐश करते रहें। 
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जो शख्स यह गुमान रखता हो कि ख़ुदा दुनिया और आख़िरत में उसकी मदद नहीं 
करेगा तो उसे चाहिए कि एक रस्सी आसमान तक ताने। फिर उसे काट डाले और देखे 
कि क्या उसकी तदबीर उसके गुस्से को दूर करने वाली बनती है। और इस तरह हमने 
कुरआन को खुली खुली दलीलों के साथ उतारा है। और बेशक अल्लाह जिसे चाहता 
है हिदायत दे देता है। (5-6) 





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सूरह-22. अल-हज 9]7 पारा ॥7 








अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने लोगों को हक की तरफ पुकारा तो जो 
लोग नाहक की बुनियाद पर अपनी इमारत खड़ी किए हुए थे वे आपके दुश्मन हो गए। 
मुखालिफत बढ़ती रही। यहां तक कि ऐसा मालूम हुआ गोया नाहक के अलमबरदार 
(ध्वजावाहक) हक के अलमबरदारों का ख़ात्मा कर देंगे। ऐसे नाजुक हालात में कुछ 
मुसलमानों के दिल में यह वसवसा पैदा हुआ कि अगर हम हक पर हैं तो खुदा हमारी मदद 
क्यों नहीं करता। हक और नाहक की कशमकश में वह गैर जानिबदार क्यों बना हुआ है। 
फरमाया कि खुदा बिलाशुबह हक का साथ देता है। मगर खुदा का यह तरीका नहीं कि 
वह फौरन मुदाख़लत (हस्तक्षेप) करे। वह मामलात के उस हद तक पहुंचने का इंतिजार करता 
है जहां एक फरीक (पक्ष) का बरसरे हक होना और दूसरे फरीक का बरसरे बातिल होना पूरी 
तरह साबितशुदा बन जाए। जब यह हद आ जाती है उस वक्‍त ख़ुदा बिलाताख़ीर मुदाख़लत 
करके फैसला कर देता है। 
यह ख़ुदा की सुन्नत (तरीका) है। आदमी को चाहिए कि वह अपने आपको खुदा की 
इस सुन्नत पर राजी करे। क्योंकि इसके सिवा कोई और चीज इस जमीन व आसमान के 
अंदर मुमकिन नहीं। इसके सिवा हर रास्ता मौत का रास्ता है न कि जिंदगी का रास्ता। 


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इसमें कोई शक नहीं कि जो लोग ईमान लाए और जिन्होंने यहूदियत इख्तियार 
की, और साबी और नसारा और मजूस और जिन्होंने शिर्क (खुदा का साझीदार 


बनाना) किया। अल्लाह उन सबके दर्मियान कियामत के रोज फेसला फरमाएगा। 
बेशक अल्लाह हर चीज से वाकिफ़ है। (79 








इस आयत में छः मजहबी गिरोहों का जिक्र है मुसलमान, यहूदी, साबी, नसारा, मजूस 
और मुश्रिकीने मक्का । यहूदी हजरत मूसा को मानने वाले लोग हैं। इसी तरह साबी हजरत 
यहया को मानने वाले थे। नसारा हजरत ईसा को मजूस जरतुश्त को और मुश्रिकीन हजरत 
इब्राहीम को। 

ये सारे लोग इब्तिदाअन तौहीदपरस्त थे। मगर बाद को उन्होंने अपने दीन में बिगाड़ पैदा 
कर लिया। और अब वे उसी बिगड़े हुए दीन पर कायम हैं। मुसलमानों का हाल भी अमलन 
ऐसा हो सकता है। मुसलमानों की किताब अगरचे महफूज (सुरक्षित) है। मगर इम्तेहान की 
इस दुनिया में उनके हाथ इससे बंधे हुए नहीं हैं कि वे कुरआन व सुन्नत की ख़ुदसाख्ता 
(स्वनिर्मित) तशरीह करके अपना एक दीन बनाएं और उस ख़ुदसाख़्ता दीन पर कायम होकर 
समझें कि वे खुदा के दीन पर कायम हैं। 





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पारा 77 98 सूरह-22. अल-हज 


ख़ुदा का असल दीन एक है। मगर लोगों की अपनी तशरीहात में वह हमेशा मुख्तलिफ हो 
जाता है। इसलिए जब लोग खुदा के असल दीन पर हों तो उनके दर्मियान इत्तेहाद फरोग़ पाता 
है। मगर जब लोग ख़ुदसाख़्ता दीन पर चलने लगें तो हमेशा उनके दर्मियान मजहबी इख़्तेलाफात 
पैदा हो जाते हैं। ये इख्तेलाफात लामुतनाही (अंतहीन) तौर पर बढ़ते हैं। वे कभी ख़त्म नहीं 
होते । ताहम अल्लाह तआला को हर शख्स का हाल पूरी तरह मालूम है। वह कियामत में बता 
देगा कि कौन हक पर था और कौन नाहक पर। 


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क्या तुम नहीं देखते कि अल्लाह ही के आगे सज्दा करते हैं जो आसमानों में हैं और 
जो जमीन में हैं। और सूरज और चांद और सितारे और पहाड़ और दरख़त और चौपाए 
और बहुत से इंसान। और बहुत से ऐसे हैं जिन पर अजाब साबित हो चुका है और 
जिसे खुदा जलील कर दे तो उसे कोई इज्जत देने वाला नहीं। बेशक अल्लाह करता 

है जो वह चाहता है। (8) 








जिस तरह इंसान के लिए ख़ुदा का एक कानून है उसी तरह बकिया कायनात के लिए 
भी खुदा का एक कानून है। बकिया कायनात खुदा के कानून पर सहज रूप से कायम है। 
वह निहायत इत्तेफाक और हमआहंगी के साथ खुदा के मुकर करदा कानून की पैरवी कर 
रही है। यह सिर्फ इंसान है जो इख़्तेलाफात (मत-भिन्नता) पैदा करता है। वह ख़ुदासाख्ता 
तशरीह निकाल कर नए-नए रास्तों पर चलने लगता है। 

खुदा की नजर में वे लोग बहुत बड़े मुजरिम हैं जो खुदा के दीन में इख़्तेलाफात पैदा करते 
हैं। वे बेइख़्तेलाफ कायनात में इख्तेलाफ के साथ रहना चाहते हैं। जिस दुनिया में चारों तरफ 
निहायत वसीअ पैमाने पर 'एक दीन” का सबक दिया जा रहा है वहां वे 'कई दीन” बनाने 
में मशगूल हैं। 

खुदा की कायनात ख़ुदा की मर्जी का अमली एलान है। जो लोग खुदा के कायम करदा 
इस अमली नमूने के खिलाफ चलते हैं वे आज ही अपने आपको मुस्तहिके अजाब साबित कर 
रहे हैं। कियामत उस नतीजे का सिर्फ लफ्जी एलान करेगी जिसका अमली एलान इसी आज 
की दुनिया में हर आन हो रहा है। 

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सूरह-22. अल-हज 9I9 पारा 7 
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ये दो फरीक (पक्ष) हैं जिन्होंने अपने रब के बारे में झगड़ा किया। पस जिन्होंने 
इंकार किया उनके लिए आग के कपड़े काटे जाएंगे। उनके सरों के ऊपर से 
खोलता हुआ पानी डाला जाएगा। इससे उनके पेट की चीजें तक गल जाएंगी और 
खालें भी और उनके लिए वहां लोहे के हथीड़े होंगे। जब भी वे घबराकर उससे 
बाहर निकलना चाहेंगे तो फिर उसमें धकेल दिए जाएंगे और चखते रहो जलने का 
अजब। (92) 


बड़ी तवसीम में तमाम गिरोह सिर्फ दो हैं। एक अहले हक, दूसरे उनका इंकार करने 
वाले। जो लोग मौजूदा दुनिया में अहले हक से झगडते हैं वे बतौर ख़ुद यह समझते हैं कि वे 
दलाइल का पहाड़ अपने साथ लिए हुए हैं। मगर यह सिर्फ उनकी गैर संजीदगी है जो उनकी 
बेमअना बहसों को उन्हें दलील के रूप में दिखाती है। वे चूंकि हक का एतराफ करना नहीं 
चाहते इसलिए वे उसके खिलाफ झूठे झगड़े खड़े करते हैं। ऐसे लोग आख़िरत में एतराफ न 
करने की ऐसी सख्त सजा पाएंगे जिससे वे कभी निकल न सकें। 


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बेशक जो लोग ईमान लाए और नेक अमल किए, अल्लाह उन्हें ऐसे बाग़ों में दाखिल 
करेगा जिनके नीचे नहरें जारी होंगी। उन्हें वहां सोने के कंगन और मोती पहनाए जाएंगे 
और वहां उनकी पोशाक रेशम होगी। और उन्हें पाकीजा कौल (कथन) की हिदायत 
बख्शी गई थी। और उन्हें खुदाए हमीद (प्रशंसित) का रास्ता दिखाया गया था। 
(23-24) 





जिस दुनिया में हर तरफ पुरफेब अल्फाज का जाल बिछा हुआ हो। जहां हक से फिरे 
हुए लोग लबा हासिल किए हुए हों। ऐसे माहौल में ईमान की सदाकत को पहचानना 
बिलाशुबह सख्त मुश्किल काम है। और इससे भी ज्यादा मुश्किल काम यह है कि ईमान के 
इस रास्ते पर अमलन अपने आपको डाल दिया जाए। 

यह वे लोग हैं जिन्हें अकवाल (कथनों) के पुरशोर हंगामों में तय्यब (पावन) कौल को 
पाने की तौफीक मिली। जिन्होंने रास्तों के हुजूम में सिराते हमीद (प्रशंसित मार्ग) को देखा 


पारा 7 920 सूरह-22. अल-हज 
और उसे पहचान लिया। जो लोग दुनिया में इस अजीम लियाकत (योग्यता) का सुबूत दें वे 
इंसानियत के सबसे ज्यादा कीमती लोग हैं। वे इस काबिल हैं कि उन्हें जन्नत के अबदी बागों 

में बसाया जाए 


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बेशक जिन लोगों ने इंकार किया और वे लोगों को अल्लाह की राह से और मस्जिदे 


हराम से रोकते हैं जिसे हमने लोगों के लिए बनाया है जिसमें मकामी (स्थानीय) 
बाशिंदे और बाहर से आने वाले बराबर हैं। और जो इस मस्जिद में रास्ती 
(शालीनता) से हटकर जुल्म का तरीका इस़्तियार करेगा उसे हम दर्दनाक अजाब का 

मजा चखाएंगे। (25) 





हक का इंकार करने की एक मिसाल वह है जो कदीम मक्का में पेश आई। मक्का के 
लोगों ने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की इंतिहाई पुरअमन तब्लीग़ को भी 
बर्दाश्त नहीं किया। उन्होंने आपके ऊपर पाबंदियां लगाई । आपको और आपके साथियों को 
यकतरफा तौर पर जुल्म का निशाना बनाया। यहां तक कि उन्होंने यह जुल्म भी किया कि 
आपको और आपके असहाब (साथियों) को मस्जिदे हराम में दाखिल होने से रोका। 
मक्का के लोगों की यह रविश इंकार पर सरकशी का इजाफा थी। जो लोग ऐसे 
जालिमाना रवैये का सुबूत दें। उनके लिए खुदा के यहां सख्तरीन सजा है, चाहे वे माजी 
(अतीत) के जालिम लोग हों या हाल के जालिम लोग। और चाहे उनकी सरकशी का 
तअल्लुक हजरत इब्राहीम की तामीर करदा मस्जिद से हो या उस वसीअतर (विराट) 'मस्जिद' 
से जिसे ख़ुदा ने ज़मीन की सूरत में अपने तमाम बंदों के लिए बनाया है। 


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और जब हमने इब्राहीम को बैतुल्लाह (अल्लाह के घर) की जगह बता दी, कि मेरे साथ 
किसी चीज को शरीक न करना और मेरे घर को पाक रखना तवाफ (परिक्रमा) करने 

वालों के लिए और कियाम करने वालों के लिए और रुकूअ और सज्दा करने वालों के 
लिए। (26) 





हजरत इब्रहीम का जमाना चार हजार साल पहले का जमाना है। उस जमाने में सारी 
आबाद दुनिया में मुश्रिकाना मजहब छाया हुआ था। यहां तक कि शिर्क के उमूमी गलबे की 


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सूरह-22. अल-हज 92I पारा 77 


वजह से तारीख़ में शिर्क का तसलसुल कायम हो गया। अब यह नौबत आ गई कि जो बच्चा 
पैदा हो वह अपने माहौल से सिर्फ शिर्क का सबक ले। 

हजरत इब्राहीम इराक में पैदा हुए थे। अल्लाह तआला ने उन्हें हुक्म दिया कि वह इराक 
और शाम और मिस्न जैसे आबाद इलाकों को छोड़कर हिजाज (अरब) के गैर आबाद इलाके 
में चले जाएं और वहां अपनी औलाद को बसा दें। गैर आबाद इलाके में बसाने का मकसद 
यह था कि यहां अलग थलग दुनिया में एक ऐसी नस्ल पैदा हो जो शिक से अलग होकर 
परवरिश पा सके। हजरत इब्राहीम ने इसी खुदाई मंसूबे के तहत अपनी औलाद को मौजूदा 
मक्का में लाकर बसा दिया जो उस वक्‍त यकसर गैर आबाद थी। इसी के साथ हजरत 
इब्राहीम ने एक मस्जिद (खाना काबा) की तामीर की ताकि वह इस नई नस्ल के लिए और 
बिलआखिर सारी दुनिया के लिए एक खुदा की इबादत का मर्कज बन सके। 


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और लोगों में हज का एलान कर दो, वे तुम्हारे पास आएंगे। पैरों पर चलकर और दुबले 

ऊंटों पर सवार होकर जो कि दूर दराज रास्तों से आएंगे ताकि वे अपने फायदे की जगह 

पर पहुंचें और चन्द मालूम दिनों में उन चोपायों पर अल्लाह का नाम लें जो उसने उन्हें 

बख्शे हैं। पस उसमें से खाओ और मुसीबतजदा मोहताज को खिलाओ। तो चाहिए कि 

वे अपना मेल कुचैल ख़त्म कर दें। और अपनी नजरें (मन्नतें) पूरी करें। और इस कदीम 

(प्राचीन) घर का तवाफ (परिक्रमा) करें। (27-29) 





काबा की तामीर का इन्तिदाई मकसद उन लोगों के लिए मकजे इबादत फराहम करना 
था। जो पैदल’ चलकर वहां पहुंचने की मसाफत (दूरी) पर हों। मगर बिलआख़िर उसे सारे 
आलम के लिए एक खुदा की इबादत का मर्कज बनना था। और यह मकसद पूरी तरह हासिल 
हुआ। यहां पहुंचकर हाजी जो मनासिक व मरासिम (रीति-रस्में) अदा करता है, कुरआन में 
उसका मुख्तसरन बयान है और अहादीस में उसकी पूरी तफ्सील माजूद है। 

“ताकि अपने फायदों के लिए हाजिर हाँ का मतलब यह है कि दीन के फायदे जिन्हें वे 
एतकादी तौर पर मानते हैं उन्हें यहां अमली तौर पर देखें। हज के लिए आदमी जिन मकामात 
पर हाजिर होता है उनसे दीने खुदावंदी की अजीम तारीख (इतिहास) वाबस्ता है। इस बिना 
पर वहां जाना और उन्हें देखना दिलों को पिघलाने का सबब बनता है। वहां सारी दुनिया के 
मुसलमान जमा होते हैं। इस तरह वहां इस्लाम की वैनुलअकवामी (अन्तराष्ट्रीय) वुसअत 
(व्यापकता) खुली आंखों से नजर आती है। हज का सालाना इज्तिमाअ मुसलमानों के अंदर 








पारा 7 922 सूरह-22. अल-हज 
आलमी सतह पर इज्तिमाइयत (सामूहिकता) पैदा करने का जरिया बनता है। आदमी को इस 
सफर से बहुत से दीनी और दुनियावी तजर्बे हासिल होते हैं। जो उसके लिए जिंदगी की तामीर 

में मददगार बनते हैं। वगैरह। 


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यह बात हो चुकी और जो शख्स अल्लाह की हुरमतों (मर्यादाओं) की ताजीम करेगा 
तो वह उसके हक में उसके रब के नजदीक बेहतर है और तुम्हारे लिए चौपाए हलाल 
कर दिए गए हैं, सिवा उनके जो तुम्हें पठ़कर सुनाए जा चुके हैं। तो तुम बुतों की गंदगी 
से बचो और झूठी बात से बचो। (30) 





हलाल क्या है और हराम क्या, क्या चीज मुकद्दस (पवित्र) है और क्या चीज गैर 

मुकद्दस । इबादत के कौन से तरीके दुरुस्त हैं और कौन से तरीके दुरुस्त नहीं। ये सब बातें 

खुदा ने अपने पैगम्बरों के जरिए वाजेह तौर पर बता दी हैं। उनमें किसी किस्म की तब्दीली 

जाइज नहीं। हर तब्दीली जो बतौर खुद इन चीजों में की जाए वह अल्लाह के नजदीक झूठ 

है, बल्कि वह सबसे बड़ा झूठ है। इंसान के लिए लाजिम है कि इन चीजों में बिल्कुल लफ्जी 

तौर पर पैग्रम्बराना तालीमात की पैरवी करे। वह किसी हाल में इनमें कोई कमी बेशी न करे। 
ये उमूर (मामले) वे हैं जिनकी हकीकत सिर्फ खुदा को मालूम है। आदमी जब उनमें 

अपनी तरफ से कोई बात कहता है तो वह ऐसी चीज के बारे में अपनी वाकफियत का दावा 

करता है जिसकी उसे कोई वाकफियत नहीं। जाहिर है कि यह झूठ है, बल्कि यह इतना बड़ा 

झूठ है कि इससे बड़ा झूठ और कोई नहीं । 


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अल्लाह की तरफ यकसू (एकाग्र) रहो, उसके साथ शरीक न ठहराओ। और जो शख्स 
अल्लाह के साथ शिर्क करता है तो गोया वह आसमान से गिर पड़ा। फिर चिड़ियां उसे 
उचक लें या हवा उसे किसी दूर दराज मकाम पर ले जाकर डाल दे। (3।) 





इस कायनात में मकजी कुवत (केन्द्रीय शक्ति) सिर्फ एक है। और वह खुदाए वाहिद 
की जात है। जो शख़्स अपने आपको खुदा से जोड़े उसने अपने लिए हकीकी ठिकाना पा 
लिया। वह मजबूत जमीन पर खड़ा हो गया। इसके बरअक्स जो शख्स अपने आपको खुदा 


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सूरह-22. अल-हज 923 पारा ।7 
से न जोड़े या ऐसा हो कि वह जबान से खुदा का इकरार करे मगर अपने दिली तअल्लुक किसी 

और से वाबस्ता रखे। वह गोया उस मकज (केन्द्र) से कटा हुआ है जिसके सिवा इस कायनात 

में दूसरा कोई मर्कज नहीं। ऐसे शख्स का हाल उस इंसान जैसा होगा जिसकी एक मिसाल ऊपर 

की आयत में बताई गई है। 


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यह बात हो चुकी। और जो शख्स अल्लाह के शआइर (प्रतीकों) का पूरा लिहाज रखेगा 
तो यह दिल के तकवे (ईश-परायणता) की बात है। तुम्हें उनसे एक मुकर वक़्त तक 
फायदा उठाना है। फिर उन्हं कुर्बाना के लिए कदीम (प्राचीन) घर की तरफ ले जाना 

है। (३2-33) 





शईरह (बहुवचन शआइर) के मअना अलामत (5४/7७0|) के हैं। इस्लाम की जो इबादात 
हैं, उनका एक जाहिरी पहलू है और एक अंदरूनी पहलू। अंदरूनी पहलू इबादत का अस्ल है। 
और जो जाहिरी पहलू है वह उसी अंदरूनी पहलू की अलामत, या शईरह है। अल्लाह तआला ने 
जो शआइर मुकर्रर किए हैं। उनका हक इस तरह अदा नहीं हो सकता कि जाहिरी तौर पर उनकी 
ताजीम (सम्मान) कर ली जाए। उनका हक अदा करने के लिए दिल का तकवा मत्लूब है। 

हदी व नियाज के जानवर (अल्लाह के) शआइर मे से हैं। वे एक हकीकत की अलामत 
(प्रतीक) हैं न कि वे बजाते खुद हकीकत हैं। इन जानवरों को रंगना या इसका एहतिमाम 
करना कि उन पर सवारी न की जाए, उनसे किसी किस्म का फायदा न उठाया जाए, ये वे 
चीजें नहीं हैं जिनसे अल्लाह खुश होता हो। अल्लाह की खुशनूदी इसमें है कि जो कुछ किया 
जाए अल्लाह के लिए किया जाए। अल्लाह के यहां कल्बी हालत की कद्र है न कि महज 
जहिरी हालत की। 


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और हमने हर उम्मत के लिए कुर्बानी करना मुक्रर किया ताकि वे उन चोपायो पर 
अल्लाह का नाम लें जो उसने उन्हें अता किए हैं। पस तुम्हारा इलाह (पूज्य-प्रभु) एक 
ही इलाह है तो तुम उसी के होकर रहो और आजिजी (नम्रता) करने वालों को बशारत 
(शुभ सूचना) दे दो। जिनका हाल यह है कि जब अल्लाह का जिक्र किया जाता है तो 


पारा ।7 924 सूरह-22. अल-हज 


उनके दिल कांप उठते हैं। और जो उन पर पड़े उसे सहने वाले और नमाज की पाबंदी 
करने वाले और जो कुछ हमने उन्हें दिया है वे उसमें से खर्च करते हैं। (34-35) 





इंसान इस दुनिया में जो कुछ पैदावार हासिल करता है, चाहे वह जरई (कृषि) पैदावार 
हो या हैवानी पैदावार या संअती (औद्योगिक) पैदावार, उनके बारे में उसके अंदर दो किस्म 
की मुमकिन नफ्सियात पैदा होती हैं। एक यह कि यह मेरी अपनी कमाई है या यह कि वह 
माबूदों की बरकत का नतीजा है। यह नफ्सियात सरासर मुश्रिकाना नफ्सियात है। 

दूसरी नफ्सियात यह है कि आदमी जो कुछ हासिल करे उसे वह ख़ुदा की तरफ से मिली 
हुई चीज समझे। उश्र और जकात और कुर्बानी इसी दूसरे जज्बे के ख़रजी इज्हार के मु 
तरीके हैं। आदमी अपनी कमाई का एक हिस्सा ख़ुदा की राह में नज़ (अर्पित) करता है और 
इस तरह वह इस बात का अमली इकरार करता है कि उसके पास जो कुछ है वह ख़ुदा का 
अतिया है न कि महज उसकी अपनी कमाई। 

इंसान को अगर सही मअनों में खुदा की मअरफत हासिल हो जाए तो इसके बाद उसके 
दिल का जो हाल होगा वह वही होगा जिसे यहां इख़बात कहा गया है। ऐसा आदमी हमहतन 
खुदा की तरफ मुतवज्जह हो जाएगा। उस पर इज्ज की कैफियत तारी हो जाएगी। अल्लाह 
के तसबुर से उसका दिल दहल उठेगा। वह अपनी हर चीज को ख़ुदा की चीज समझने 
लगेगा। न कि अपनी जती चीज। 


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और कुर्बानी के ऊटों को हमने तुम्हारे लिए अल्लाह की यादगार बनाया है। उनमें 
तुम्हारे लिए भलाई है। पस उन्हें खड़ा करके उन पर अल्लाह का नाम लो। फिर जब 
वे करवट के बल गिर पड़ें तो उनमें से खाओ और बेसवाल मोहताज और साइल 
(मांगने वाले) को खिलाओ। इस तरह हमने इन जानवरों को तुम्हारे लिए मुसख्खर 
(वशीभूत) कर दिया ताकि तुम शुक्र अदा करो। और अल्लाह को न उनका गोश्त 
पहुंचता है और न उनका ख़ून बल्कि अल्लाह को सिर्फ तुम्हारा तकवा (ईश-परायणता) 
पहुंचता है इस तरह अल्लाह ने उन्हें तुम्हारे लिए मुसख्ख़र कर दिया है। ताकि तुम 
अल्लाह की बस्शी हुई हिदायत पर उसकी बड़ाई बयान करो और नेकी करने वालों 
को खुशखबरी दे दो। (36-37) 


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सूरह-22. अल-हज 925 पारा 77 


दुनिया में अगर ऊंट और दूसरे मवेशी न होते। सिर्फ शेर और रीछ और भेड़िए होते तो 
उनसे खिदमत लेना इंसान के लिए बहुत मुश्किल होता। और उन्हें उमूमी पैमाने पर कुर्बान 
करना तो बिल्कुल नामुमकिन हो जाता। यह अल्लाह तआला का बहुत बड़ा एहसान है कि 
उसने सिर्फ वहशी और दरिंदे जानवर पैदा नहीं किए । बल्कि कुछ ऐसे जानवर भी पैदा किए 
जिनमें फितरी तौर पर यह मिजाज मौजूद है कि वे अपने आपको इंसान के काबू में दे देते 
हैं। और जब इंसान उन्हें गिजा या कुर्बानी के लिए जबह करता है तो उस ववत उनकी 
तस्खीरी फितरत अपनी आखिरी हद पर पहुंच जाती है। 

कुर्बानी का तरीका इसलिए मुक्रर नहीं किया गया है कि खुदा को गोश्त और खून की 
जरूरत है। कुर्बानी तो सिर्फएक अलामती फेल है। जानवर की कुर्बानी उस इंसान की एक 
जाहिरी तस्वीर है जो अपने आपको अल्लाह के लिए जबह कर चुका है। यह दरअस्ल ख़ुद अपना 
जबीहा है जो जानवर के जबीहा की सूरत में मुमस्सल (प्रतिरूपित) होता है। खुशकिस्मत हैं वे 
लोग जिन के लिए जानवर की कुर्बानी खुद अपनी कुर्बानी के हममअना बन जाए। 





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बेशक अल्लाह उन लोगों की मुदाफिअत (प्रतिरक्षा) करता है जो ईमान लाए। बेशक 
अल्लाह बदअहदों (वचन तोड़ने वालों) और नाशुक्रों को पसंद नहीं करता। इजाजत दे 
दी गई उन लोगों को जिनसे लड़ाई की जा रही है इस वजह से कि उन पर जुल्म किया 
गया है। और बेशक अल्लाह उनकी मदद पर कादिर है। वे लोग जो अपने घरों से 
बेवजह निकाले गए। सिर्फ इसलिए कि वे कहते हैं कि हमारा रब (प्रभु) अल्लाह है। 
और अगर अल्लाह लोगों को एक दूसरे लिए जरिए हटाता न रहे तो ख़ानकाहे (आश्रम) 
और गिरजा और इबादतख़ाने और मस्जिदें जिनमें अल्लाह का नाम कसरत (अधिकता) 
से लिया जाता है ठा दिए जाते। और अल्लाह जरूर उसकी मदद करेगा जो अल्लाह की 
मदद करे। बेशक अल्लाह जबरदस्त है, जोर वाला है। (38-40) 








अल्लाह का कोई बंदा या कोई गिरोह अपने आपको अल्लाह के रास्ते पर डाले तो 
वह इस दुनिया में तंहा नहीं होता। गाफिल और सरकश लोग जब उसे अपने जुल्म का 


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पारा ।7 926 सूरह-22. अल-हज 


निशाना बनाएं तो ख़ुदा जालिमों के मुकाबले में उनकी जानिब खड़ा हो जाता है। ख़ुदा 
इब्तिदा में अपना नाम लेने वालों के इख्लास (निष्ठा) का इम्तेहान लेता है। मगर जो लोग 
इम्तेहान में पड़कर अपना मुख्लिस (निष्ठावान) होना साबित कर दें ख़ुदा जरूर उनकी मदद 
पर आ जाता है। और उनके लिए ऐसे हालात पैदा करता है कि वे तमाम रुकावटों पर 
काबू पाते हुए हक पर कारबंद रह सकें। 

अहले ईमान का अस्ल इवदाम सिर्फ दावत है। वे दावत से आगाज करते हैं और बराबर 
दावत ही पर कायम रहते हैं। वे बवक़्ते जरूरत कभी जंग भी करते हैं मगर उनकी जंग हमेशा 
दिफाअ (प्रतिरक्षा) के लिए होती है न कि जारिहिव्यत (आक्रामकता) के लिए। 

एक गिरोह अगर ज्यादा मुद्दत तक इक्तेदार (सत्ता) पर रहे तो उसके अंदर सरकशी 
और घमंड पैदा हो जाता है। इसलिए खुदा ने इस दुनिया में दिफअ (हटाना) का कानून मुक्रर 
किया है। वह बार-बार एक गिरोह के जरिए दूसरे गिरोह को इक्तेदार के मकाम से हटाता है। 
इस तरह तारीख़ में सियासी तवाजुन (संतुलन) कायम रहता है। अगर ख़ुदा ऐसा न करे तो 
लोगों की सरकशी यहां तक बढ़ जाए कि इबादतख़ाने जैसे मुकदूदस इदारे भी उनकी जद से 
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इस दिफअ की एक सूरत यह है कि किसी गिरोह के इक्तेदार (सत्ता) को सिरे से ख़त्म 
कर दिया जाए। इसकी एक मिसाल मौजूदा जमाने में ब्रिटिश साम्राज्य की है। जिसे वतनी 
आजादी की तहरीकों के जरिए ख़त्म किया गया। दूसरा तरीका वह है जिसकी मिसाल रूस 
और अमेरिका की शक्ल में नजर आती है। यानी एक के जरिए दूसरे पर रोक लगाना । और 
इस तरह बैनुल अकवामी सियासत में तवाजुन कायम रखना । 


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ये वे लोग हैं जिन्हें अगर हम जमीन पर ग़लबा दें तो वे नमाज का एहतिमाम करेंगे और 
जकात अदा करेंगे और मअरूफ (भलाई) का हुक्म देंगे और मुंकर (बुराई) से रोकेंगे और 
सब कामों का अंजाम ख़ुदा ही के इख्तियार में है। (4) 





ख़ुदा की मदद का मुस्तहिक बनने की ख़ास शर्त यह है कि आदमी ऐसा हो कि उसे 
इक्तेदार मिले फिर भी वह न बिगड़े उसे बड़ई का मकाम मिलना उसके इज्ज व तवाजोअ 
(विनम्रता) को बढ़ाने वाला बन जाए। जो लोग इक्तेदार से पहले की हालत में इस तरह 
सालेह (नेक) साबित हों वही इक्तेदार के बाद के हालात में सालेह साबित हो सकते हैं। 
यही वे लोग हैं कि जब उन्हें कोई इक्तेदार (सत्ता) दिया जाता है तो वे ख़ुदा के आगे 
झुक जाते हैं। वे बंदों का पूरा-पूरा हक अदा करते हैं। वे जिंदगी के मामलात में वही करते 
हैं जिसे खुदा पसंद करता है। और उससे दूर रहते हैं जो खुदा को पसंद नहीं। 





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सूरह-22. अल-हज 927 पारा ।7 

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और अगर वे तुम्हें झुठलाएं तो उनसे पहले कीमे नूह और आद और समूद झुठला चुके 
हैं और कोमे इब्राहीम और कौमे लूत और मदयन के लोग भी। और मूसा को झुठलाया 
गया। फिर मैंने मुंकिरों को टील दी। फिर मैंने उन्हें पकड़ लिया। पस केसा हुआ मेरा 
अजब। (42-44) 


'इब्राहीम और मूसा को झुठलाने वाले लोगों” से मुराद हजरत इब्राहीम और हजरत मूसा 
के हम जमाना लोग हैं न कि वे लोग जो इस आयत के उतरने के वक़्त मौजूद थे। क्योंकि 
कुरआन के उतरने के जमाने में तो तमाम लोग इन पैग़म्बरों को मानने वाले बने हुए थे। 
यही मामला हर पैग़म्बर के साथ पेश आया। उनके जमाने के लोगों ने उन्हें झुठलाया । 
और बाद के लोगों ने उन्हें अज्मत व तकदूदुस (पवित्रता) का मकाम दिया। इसकी वजह यह 
है कि पैगम्बर अपने जमाने में सिर्फ एक दाओ होता है। मगर बाद के जमाने में उसके नाम 
के साथ अज्मतों की तारीख़ वाबस्ता हो जाती है। हर दौर के इंसानों ने यह सुबूत दिया है 
कि वे पैगम्बर को मुजर्रद दाओ के रूप में पहचानने की सलाहियत नहीं रखते । वे पैगम्बर को 
सिफ अज्मतों के रूप में पहचानना जानते हैं। अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु 
अलैहि व सल्लम हजरत इब्राहीम और हजरत मूसा ही का दाजियाना रूप थे। मगर आपके 
जमाने के वही लोग जो हजरत इब्राहीम और हजरत मूसा से वाबस्तगी पर फख़ करते थे 
उन्होंने अल्लाह के रसूल मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को मानने से इंकार कर दिया। 
इससे मालूम होता है कि पेगम्बर को मानने वाले हकीकत में कौन लोग हैं। पैगम्बर 
को मानने वाले दरअस्ल वे लोग हैं जो 'दावत” (आह्वान) वाले पैग़म्बर को पहचानें। जो 
लोग सिर्फ 'अज्मत' (महानता) वाले पैग़म्बर को पहचानें वे तारीख़ के मोमिन हैं न कि 


हकीकत में पेगम्बरे खुदा के मोमिन। 

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पारा ।7 928 सूरह-22. अल-हज 


पस कितनी ही बस्तियां हैं जिन्हें हमने हलाक कर दिया और वे जालिम थीं। पस अब 

वे अपनी छतों पर उल्टी पड़ी हैं और कितने ही बेकार कुवें और कितने पुख्ता महल जो 
वीरान पड़े हुए हैं। क्या ये लोग जमीन में चले फिरे नहीं कि उनके दिल ऐसे हो जाते 
कि वे उनसे समझते या उनके कान ऐसे हो जाते कि वे उनसे सुनते। क्योंकि आंखें 
अंधी नहीं होतीं बल्कि वे दिल अंधे हो जाते हैं जो सीनों में हैं। (45-46) 





ख़ुदा के नजदीक देखने वाले वे लोग हैं जो इबरत (सीख) और नसीहत की नजर से चीजे 
को देखें। जिन लोगों का हाल यह हो कि वे वाकेयात को देखें मगर उससे नसीहत न ले सकें 
वे खुदा की नजर में अंधे हैं। उनका देखना जानवर का देखना है न कि इंसान का देखना। 
खुदा ने जमीन पर नसीहत के बेशुमार सामान फैला दिए हैं। उन्हीं में से एक वे कदीम 
यादगार हैंजो पिछली कैमें ने दुनिया में छोड हैं। ये कैमें कभी अज्मत व इक्तेदार का मकम 
हासिल किए हुए थीं। मगर आज उनका निशान टूटे हुए खंडहरों के सिवा और कुछ नहीं। 
यह वाकया हर इंसान को उसका अंजाम याद दिला रहा है मगर जब लोग दिल वाली 
आंख खो दें तो सर की आंख उन्हें कोई भी बामअना चीज नहीं दिखाती । 


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और ये लोग तुमसे अजाब के लिए जल्दी किए हुए हैं। और अल्लाह हरगिज अपने वादे 

के खिलाफ करने वाला नहीं है। और तेरे रब के यहां का एक दिन तुम्हारे शुमार के 
एतबार से एक हजार साल के बराबर होता है। और कितनी ही बस्तियां हैं जिन्हें मैंने 
टील दी और वे जालिम थीं। फिर मैंने उन्हें पकड़ लिया और मेरी ही तरफ लोट कर 
आना है। (47-48) 


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इस दुनिया में कोई शख्स या कौम अगर सरकशी करे तो खुदा जरूर उसे पकड़ता है। 
मगर ख़ुदा कभी पकड़ने में जल्दी नहीं करता। इंसान एक दिन में बेबरदाश्त हो सकता है। 
मगर खुदा एक हजार साल तक भी बेबरदाश्त नहीं होता। खुदा नाफरमानियों को देखता है 
फिर भी लम्बी मुदृदत तक लोगों को मौका देता है। ताकि अगर वे इस्लाह (सुधार) करने वाले 
हों तो अपनी इस्लाह कर लें। खुदा किसी फर्द (व्यक्ति) या वै कोसिर्फउस वक्त पकक्ञा 
है जबकि वे आखिरी तौर पर अपना मुजरिम होना साबित कर चुके हों। 

पिछले लोगों के साथ ख़ुदा ने यही मामला किया। आइंदा के लोगों के साथ भी खुदा 
अपनी इसी सुन्नत लक के तहत मामला फरमाएगा। 


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सूरह-22. अल-हज 929 पारा 77 


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कहो कि ऐ लोगो मैं तुम्हारे लिए एक खुला हुआ डराने वाला हूं। पस जो लोग 
ईमान लाए और अच्छे काम किए उनके लिए मग्फित (क्षमा) हे ओ इना वी 


रोजी। और जो लोग हमारी आयतों को नीचा दिखाने के लिए दौड़े वही दोजख़ 
वाले हैं। (49-52) 





इंसान का असल मसला यह है कि वह बिलआख़िर एक ऐसी दुनिया में पहुंचने वाला है 
जहां मोमिनीन और सालिहीन (नेक लोगों) के लिए अबदी राहत है और जो लोग हक को 
नजरअंदाज करें और उसके मुकाबले में सरकशी का रवैया दिखाएं उनके लिए अबदी 
(चिरस्थाई) आग का अजाब है। 

इस्लामी दावत का असल मकसद यह है कि लोगों को उस आने वाले दिन से बाखबर कर 
दिया जाए। काम की यह नौइयत ख़ुद मुतअय्यन कर रही है कि दाऔ का असल काम 
खबरदार करना है। इसके बाद जो कुछ है वह सिर्फ ख़ुदा से मुतअल्लिक है और वही उसे 
अंजाम दे सकता है। 


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और हमने तुमसे पहले जो भी रसूल और नबी भेजा तो जब उसने कुछ पढ़ा तो शैतान 
ने उसके पढ़ने में मिला दिया। फिर अल्लाह शैतान के डाले हुए को मिटा देता है। 
फिर अल्लाह अपनी आयतों को पुख्ता कर देता है। और अल्लाह इल्म वाला हिक्मत 
(तत्वदर्शिता) वाला है। ताकि जो कुछ शैतान ने मिलाया है उससे वह उन लोगों को 


जांचे जिनके दिलों में रोग है और जिनके दिल सख्त हैं। और जालिम लोग मुखालिफत 
में बहुत दूर निकल गए हैं और ताकि वे लोग जिन्हें इल्म मिला है जान लें कि यह सच 


पारा 77 930 सूरह-१2. अल-हज 


है तेरे रब की तरफ से है। फिर वे उस पर यकीन लाएं। और उनके दिल उसके आगे 
झुक जाएं। और अल्लाह ईमान लाने वालों को जरूर सीधा रास्ता दिखाता है। (52-54) 





हक का दाऔ चाहे वह पैगम्बर हो या गैर पैगम्बर, उसके साथ हमेशा यह पेश आता 
है कि जब वह ख़ुदा की सच्ची बात का एलान करता है तो मुआनिदीन (विरोधी) उसकी बात 
में तरह-तरह के शोशे निकालते हैं ताकि लोगों को उसकी सदाकत (सच्चाई) के बारे में 
मुशतबह (संदिग्ध) कर दें। 

इस तरह के शोशे हमेशा बेबुनियाद होते हैं। जब वे पेश किए जाते हैं तो दाऔ को मौका 
मिलता है कि वह उनकी वजाहत करके अपनी बात को और ज्यादा साबितशुदा बना दे। 
इससे मुख्तिस (निष्ठावान) लोगों के यकीन में इजाफा होता है। इसके बाद ख़ुदा के साथ 
उनका तअल्लुक और ज्यादा मजबूत हो जाता है। मगर जो लोग मुख्लिसाना शुऊर से ख़ाली 
होते हैं, ये शोशे उनके लिए फितना बन जाते हैं। वे उनके फरेब में मुब्तिला होकर हक से दूर 
चले जाते हैं। 

“अल्लाह ईमान वालों को जरूर सिराते मुस्तकीम दिखाता है। इसका मतलब दूसरे 
लफ्जों में यह है कि जो लोग फिलवाकअ ईमान के मामले में संजीदा हों वे कभी झूठे प्रोपेगंडों 
से मुतअस्सिर नहीं होते। वे अल्फाज के तिलिस्म से कभी धोखा नहीं खाते। उनका ईमान 
उनके लिए ऐसा इल्म बन जाता है जो बातों को उनकी गहराई के साथ जान ले, न कि महज 
बातों के जाहिरी रूप में अटक कर रह जाए 


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और इंकार करने वाले लोग हमेशा उसकी तरफ से शक में पड़े रहेंगे। यहां तक 
कि अचानक उन पर कियामत आ जाए। या एक मनहूस दिन का अजाब आ जाए। 

उस दिन सारा इख्तियार सिर्फ अल्लाह को होगा। वह उनके दर्मियान फैसला 
फरमाएगा। पस जो लोग ईमान लाए और अच्छे काम किए वे नेमत के बागों में 
होंगे और जिन्होंने इंकार किया और हमारी आयतों को झुठलाया तो उनके लिए 
ज्िलित का अजब है। (5557) 





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पैगम्बर की दावत में दलील की अज्मत पूरी तरह मौजूद होती है। मगर वे लोग जो 
सिर्फ जाहिरी अज्मतों को जानते हैं वे पैगम्बर की मअनवी अज्मत को देख नहीं पाते और 
उसका इंकार कर देते हैं। ऐसे लोग हमेशा शक व शुबह में पड़े रहते हैं। क्योंकि वे हक 


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सूरह-22. अल-हज 93] पारा ॥7 
को जाहिरी अज्मतों में देखना चाहते हैं। और अल्लाह की सुन्नत ते यह है कि वह 
हक को अस्ल रूप में लोगों के सामने लाए ताकि जो लोग हकीकत शनास हैं वे उसे पहचान 
कर उससे वाबस्ता हो जाएं। और जो जाहिरबीं हैं वे उसे नजरअंदाज करके अपना मुजरिम 
होना साबित करें। 

'आयतों को झुठलाना' यह है कि आदमी दलील की सतह पर जाहिर होने वाले हक को 
नजरअंदाज कर दे। वह उस सदाकत को मानने के लिए तैयार न हो जो अस्ल रूप में उसके 
सामने जाहिर हुई है। 


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और जिन लोगों ने अल्लाह की राह में अपना वतन छोड़ा, फिर वे कत्ल कर दिए गए 
या वे मर गए, अल्लाह जरूर उन्हें अच्छा स्पि देगा। और बेशक अल्लाह ही सबसे 


बेहतर र्ज्कि देने वाला है। वह उन्हें ऐसी जगह पहुंचाएगा जिससे वे राजी होंगे। और 
बेशक अल्लाह जानने वाला, हिल्म (उदारता) वाला है। (58-59) 








जो शख्स ईमान के मामले में मुख्लिस हो उसका हाल यह हो जाता है कि वह हर दूसरी 
चीज की कुर्बानी गवारा कर लेता है। मगर ईमान की कुर्बानी उसे गवारा नहीं होती। इस राह 
में अगर वतन छोड़ना पड़े तो वह वतन छोड़ देता है। इस राह में कत्ल होना पड़े तो वह कत्ल 
हो जाता है। वह ईमान के साथ बंधा रहता है। यहां तक कि वह इसी हाल में मर जाता है। 
जो लोग दुनिया की जिंदगी में इस बात का सुबूत देंगे कि वे ईमान को सबसे कीमती 
चीज समझते हैं, अल्लाह उनकी इस तरह कद्रदानी फरमाएगा कि उन्हें आख़िरत की सबसे 
कीमती चीज दे देगा। वे वहां अबदी तौर पर खुशियाँ और राहतं की जिंदगी गुजारते रहेंगे। 
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यह हो चुका, और जो शख्स बदला ले वैसा ही जैसा उसके साथ किया गया था, और 
फिर उस पर ज्यादती की जाए तो अल्लाह जरूर उसकी मदद करेगा। बेशक अल्लाह 
माफ करने वाला, दरगुजर करने वाला है। (60) 


अहले ईमान को यह तल्कीन की गई थी कि वे उस खुदा के तरीके को अपना तरीका 
बनाएं जो गफूर व रहीम है। वह लोगों की ज्यादतियों से मुसलसल दरगुजर करता है। और 


पारा ।7 932 सूरह-22. अल-हज 


उन्हें माफ फरमाता है। चुनांचे सहाबा किराम का गिरोह आम तौर पर इसी अख्लाके खुदावंदी 
पर कायम था। उन पर जुल्म किया जाता था मगर वे उसे बदश्ति करते थे। उनके साथ 
इश्तआलआज (उत्तेजक) बातें की जाती थीं मगर वे दरगुजर करते थे। 

ताहम कुछ मुसलमानों से ऐसा हुआ कि उनके साथ ज्यादती की गई तो फौरी जज्बे के 
तहत उन्होंने जवाबी कार्रवाई की। उन्हें नुक्सान पहुंचाया गया तो उन्होंने भी कुछ नुक्सान 
पहुंचाया । दुश्मनों ने इसे बहाना बनाकर मुसलमानों के खिलाफ जबरदस्त प्रोपेगंडा किया । वे 
ख़ुद अपनी जालिमाना कार्रवाइयोँ को भूल गए। अलबत्ता मुसलमानों के मामूली वाकये को 
जुल्म करार देकर उन्हें बदनाम करना शुरू कर दिया। 

ऐसा करना बदतरीन कमीनापन है। जो लोग इस किस्म के कमीनापन का सुबूत दें 
वे ख़ुदा की गैरत को चैलेन्ज करते हैं। बजाहिर वे एक मुसलमान को जालिम साबित कर 
रहे हैं। मगर हकीकत की नजर में वे खुर सबसे बड़े जालिम हैं। वे अपने जुम की 
सख़्ततरीन सजा पाकर रहेंगे। इस किस्म के झूठे प्रेपगंडों से वे अहले हक को कोई नुक्सान 
नहीं पहुंचा सकते। 


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यह इसलिए कि अल्लाह रात को दिन में दाखिल करता है और दिन को रात में दाखिल 
करता है। और अल्लाह सुनने वाला देखने वाला है। यह इसलिए कि अल्लाह ही हक 


(सत्य) है और वे सब बातिल (असत्य) हैं जिन्हें अल्लाह को छोड़कर लोग पुकारते हैं। 
और बेशक अल्लाह ही सबसे ऊपर है, सबसे बड़ा है। (6-62) 





दुनिया का निजाम ख़ामोश जबान में इंसान को जबरदस्त सबक दे रहा है। यहां बार-बार 
ऐसा होता है कि रात की तारीकी आती है और वह दिन को ढांक लेती है। यहां हर रोज दिन 
आता है और रात की तारीकी को ख़त्म कर देता है। यह तमसील की जबान में उस हकीकत 
का कायनाती एलान है कि एक गिरोह अगर शान व शौकत हासिल किए हुए हो तो उसे इस 
गलतफहमी में नहीं रहना चाहिए कि उसकी शान व शौकत ख़त्म होने वाली नहीं। इसी तरह 
दूसरा गिरोह अगर मज्लूम है तो उसे भी यह ख्याल नहीं करना चाहिए कि उसकी मज्लूमियत 
हमेशा बाकी रहेगी। 

जो ख़ुदा आसमानी दुनिया में रोशनी को तारीकी के ख़ाने में डाल देता है और तारीकी 
को रोशनी का रूप अता करता है वही ख़ुदा इंसानी दुनिया में भी इसी किस्म के वाकेयात 
रूनुमा कर सकता है। यहां कोई भी ताकत नहीं जो खुदा को ऐसा करने से रोक दे। 


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सूरह-22. अल-हज 933 पारा ॥7 


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क्या तुम नहीं देखते कि अल्लाह ने आसमान से पानी बरसाया। फिर जमीन सरसव्ज 

हो गई। बेशक अल्लाह बारीकबीं (सूक्ष्मदर्शी) है, ख़बर रखने वाला है। उसी का है जो 


कुछ आसमानों में है और जो कुछ जमीन में है। बेशक अल्लाह ही है जो बेनियाज 
(निस्पृह) है, तारीफाँ वाला है। (63-64) 


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दुनिया में जब एक आदमी हक के ऊपर अपनी जिंदगी खड़ी करता है तो उसे तरह-तरह 
की मुश्किलें पेश आती हैं। शैतान लोगों को वरग़लाता है और वे उसे सताने के लिए जरी हो 
जाते हैं। यह सूरतेहाल बड़ी सख्त होती है। उसे देखकर हकपरस्त आदमी मायूसी में मुन्तिला 
होने लगता है। 

मगर कायनात जबाने हाल से कहती है कि यहां किसी खुदा के बदे के लिए मायूसी का कोई 
सवाल नहीं। खुदा हर साल यह मंजर दिखाता है कि जमीन का सब्जा गर्मी की शिदूदत से झुलस 
जाता है। मिट्टी खुश्क वीरान नजर आने लगती है। बजाहिर उसमें जिंदगी का कोई इम्कान नहीं 
होता। इसके बाद बारिश बरसती है। और ख़ुश्क मिट्टी में सब्जा लहलहा उठता है। 

यह ख़ुदा की कुदरत का एक नमूना है जो हर साल मादूदी सतह पर दिखाया जाता है। 
फिर ख़ुदा के लिए क्या मुश्किल है कि वह इंसानी सतह पर भी अपना यही करिश्मा दिखा 
दे। 


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क्या तुम देखते नहीं कि अल्लाह ने जमीन की चीजों को तुम्हारे काम में लगा रखा है 

और कश्ती को भी, वह उसके हुक्म से समुद्र में चलती है। और वह आसमान को जमीन 
पर गिरने से थामे हुए है, मगर यह कि उसके हुक्म से। बेशक अल्लाह लोगों पर नर्मी 
करने वाला, महरबान है। और वही है जिसने तुम्हें जिंदगी दी, फिर वह तुम्हें मौत देता 
है। फिर वह तुम्हें जिंदा करेगा। बेशक इंसान बड़ा ही नाशुक्र है। (65-66) 


पारा 77 934 सूरह-22. अल-हज 


जमीन की तमाम चीजेएक ख़स तवाजु (संतुलन) को मुसलसल अपने अंदर कायम 
रखती हैं। अगर उनका तवाजुन बिगड़ जाए तो चीजें मुफीद बनने के बजाए हमारे लिए सख्त 
मुजिर बन जाएं। पानी में धातु का एक टुकड़ा डालें तो वह फौरन डूब जाएगा मगर पानी को 
खुदा ने एक ख़ास कानून का पाबंद बना रखा है जिसकी वजह से यह मुमकिन होता है कि 
लोहे या लकड़ी को कश्ती की सूरत दे दी जाए तो वह पानी में नहीं डूबती । ख़ला (अंतरिक्ष) 
में बेशुमार कुरे (ग्रह, नक्षत्र) हैं। उन्हें बजाहिर गिर पड़ना चाहिए। मगर वे ख़ास कानून के 
तहत निहायत सेहत के साथ अपने मदार (कक्ष) पर थमे हुऐ हैं। 

इंसान ने अपने आपको खुद नहीं बनाया। उसे ख़ुदा ने पैदा किया है। फिर उसे एक 
ऐसी दुनिया में रखा जो उसके लिए सरापा रहमत है। मगर आजादी पाकर इंसान ऐसा 
सरकश हो गया कि वह अपने सबसे बड़े मोहसिन के एहसान का एतराफ नहीं करता। 


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और हमने हर उम्मत के लिए एक तरीका मुर्करर किया कि वे उसकी पेरवी करते थे। 

पस वे इस मामले में तुमसे झगड़ा न करें। और तुम अपने रब की तरफ बुलाओ। 
यकीनन तुम सीधे रास्ते पर हो। अगर वे तुमसे झगड़ा करें तो कहो कि अल्लाह ख़ूब 
जानता है जो कुछ तुम कर रहे हो। अल्लाह कियामत के दिन तुम्हारे दर्मियान उस चीज 

का फैसला कर देगा जिसमें तुम इस़्तेलाफ (मतभेद) कर रहे हो। क्या तुम नहीं जानते 
कि आसमान व जमीन की हर चीज अल्लाह के इल्म में है। सब कुछ एक किताब में 

है। बेशक यह अल्लाह के लिए आसान है। (67-70) 





इबादत के दो पहलू हैं। एक उसकी अंदरूनी हकीकत और दूसरे उसका जाहिरी तरीका । 
अंदरूनी हवीकत इबादत का असल जुज़है और जहिरी तरीक उसका इजपी (अतिरिक्त) 
जुज। मगर कोई गिरोह जब लम्बी मुदूदत तक इस पर कारबंद रहता है तो वह इस फर्क को भूल 
जाता है। वह इबादत की जाहिरी तामील (अनुपालन) ही को असल इबादत समझ लेता है। 
इसी का नाम जुमूद (जड़ता) है। चुनांचे अल्लाह तआला की यह सुन्नत रही है कि जब वह 
अगला पेगम्बर भेजता है तो वह उसकी शरीअत (जाहिरी तरीक) में कुछ फर्क कर देता है। इस 





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सूरह-22. अल-हज 935 पारा ॥7 


फर्क का मकसद यह होता है कि लोगों के जुमूद को तोड़ जाए । लोगों को जाहिरपरस्ती की हालत 
से निकाल कर जिंदा इबादत करने वाला बनाया जाए। अब जो लोग जाहिरी आदाब व कवाइद 
ही को सब कुछ समझे हुए हों वे पैगम्बर की इताअत (आज्ञापालन) से इंकार कर देते हैं। इसके 
बरअक्स जो लोग इबादत की हकीकत को जानते हैं वे पैगम्बर के कहने पर अमल करने लगते 
हैं। यह तब्दीली उनकी इबादत में नई रूह पैदा कर देती है। वह उन्हें जामिद (निर्जीव) ईमान 
की हालत से निकाल कर जिंदा ईमान की हालत तक पहुंचा देती है। 

यही वह ख़ास हिक्मत है जिसकी बिना पर एक पैगम्बर और दूसरे पैगम्बर के मंसक 
(इबादत का तरीका) में कुछ फर्क रखा गया। जब कोई पेगम्बर नया मंसक लाया तो जुमूद 
(जड़ता) में पड़े हुए लोगों ने उसके खिलाफ सख्त एतराजात निकालने शुरू किए। मगर 
पैग़म्बरों को यह हुक्म था कि वे इन मामलों को बहस का मौज़ूअ (विषय) न बनने दें। वे 
असली और बुनियादी तालीमात पर अपनी सारी तवज्जोह सर्फ करें। 


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और वे अल्लाह के सिवा उनकी इबादत करते हैं जिनके हक में अल्लाह ने कोई दलील 
नहीं उतारी और न उनके बारे में उन्हें कोई इल्म है। और जालिमां का कोई मददगार 
नहीं। और जब उन्हें हमारी वाजेह (सुस्पष्ट) आयतें पढ़कर सुनाई जाती हैं तो तुम मुंकिरों 
के चेहरे पर बुरे आसार देखते हो। गोया कि वे उन लोगों पर हमला कर देंगे जो उन्हे 
हमारी आयतें पढ़कर सुना रहे हैं। कहो कि क्या मैं तुम्हें बताऊ कि इससे बदतर चीज 
क्या है। वह आग है। उसका अल्लाह ने उन लोगों से वादा किया है जिन्होंने इंकार 
किया और वह बहुत बुरा ठिकाना है। (77-72) 





ख़ालिस तोहीद की दावत हमेशा उन लोगों के लिए नाकाबिले बर्दाश्त होती है जो एक 
अल्लाह के सिवा दूसरों से अपनी अकीदतें (आस्थाएं) वाबस्ता किए हुए हों। वे अपने माबूदों 
और अपनी महबूब शख्सियतों पर तंकीद को सुनकर बिफर उठते हैं। हक की दावत की 
तरदीद से अपने आपको बेबस पाकर वे दाञियाने हक पर टूट पड़ते हैं। वे चाहते हैं कि 
उनका सिरे से खात्मा कर दें। 

ऐसे लोगों से कहा गया कि तुम्हारा रवैया सरासर बेअक़्ली का रवैया है। आज तुम 


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पारा 77 936 सूरह-22. अल-हज 


लफ्जी तंकीद बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं हो। कल तुम्हारा क्या हाल होगा जबकि तुम्हें 
अपनी इस रविश को बिना पर आग का अजाब बर्दश्ति करना पड़ेगा। 


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ऐ लोगो, एक मिसाल बयान की जाती है तो इसे ग़ौर से सुनो। तुम लोग ख़ुदा के 
सिवा जिस चीज को पुकारते हो वे एक मक्खी भी पैदा नहीं कर सकते। अगरचे सबके 
सब उसके लिए जमा हो जाएं। और अगर मक्खी उनसे कुछ छीन ले तो वे उसे उससे 
छुड़ा नहीं सकते। मदद चाहने वाले भी कमजोर और जिनसे मदद चाही गई वे भी 
कमजोर। उन्होंने अल्लाह की कद्र न पहचानी जैसा कि उसके पहचानने का हक है। 
बेशक अल्लाह ताकतवर है, ग़ालिब (प्रभुत्वशाली) है। (73-74) 





अल्लाह के सिवा किसी और को तकद्दुस (पवित्रता) का मकम देना सरासर वेअक्ली 
की बात है। इसलिए कि मुकद्दस (पवित्र) मकाम उसे दिया जाता है जिसके अंदर कोई 
ताकत हो। और इस दुनिया का हाल यह है कि यहां किसी भी इंसान या गैर इंसान को कोई 
हकीकी ताकत हासिल नहीं। मक्खी एक इतिहाई मामूली चीज है। मगर जमीन व आसमान 
की तमाम चीजें मिलकर भी एक मक्खी को वजूद में नहीं ला सकतीं। फिर किसी गैर ख़ुदा 
को मुकदूदस (पवित्र पूज्य) समझना क्योंकर दुरुस्त हो सकता है। 

इस किस्म के तमाम अकीदे दरअस्ल खुदा की खुदाई के कमतर अंदाजा (Underes- 
timation) पर आधारित हैं। लोग ख़ुदा को मानते हैं मगर वे उसकी अज्मत व कुदरत से 
बेख़बर हैं। अगर वे ख़ुदा को वैसा मानें जैसा कि उसे मानना चाहिए तो उन्हें अपने ये तमाम 
उ्किमब्े् (हास्यास्पद) हद तक बेमअना मालूम हों। वे खुद ही ऐसे तमाम अकीदों 


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अल्लाह फरिश्तों में से अपना पेग़ाम पहुंचाने वाला चुनता है। और इंसानों में से भी। 
बेशक अल्लाह सुनने वाला, देखने वाला है। वह जानता है जो कुछ उनके आगे है और 
जो कुछ उनके पीछे है। और अल्लाह ही की तरफ लौटते हैं सारे मामलात। (75-76) 






























































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सूरह-22. अल-हज 937 पारा ॥7 





अल्लाह ने जिस स्कीम के तहत इंसान को बनाया और उसे जमीन पर रखा, इसका यह तकाजा 
था कि वह इंसानों की हिदायत का इंतिजाम करे। वह उन्हें बताए कि जन्नत का रास्ता कौन सा है 
और जहन्नम का रास्ता कौन सा। चुनांचे उसने यह इंतिजाम किया कि वह इंसानों में से किसी को 
पैगम्बरी के लिए चुनता है। और उसके पास फरिश्ते के जरिए अपना कलाम भेजता है। 

इस इंतिजाम के तहत इंसान को असल हकीकत से बाख़बर किया जा रहा है। दूसरी 
तरफ अल्लाह तआला लोगों के आमाल की निगरानी भी फरमा रहा है। इसके बाद जब 
इम्तेहान की मुद्दत ख़त्म होगी तो तमाम लोग ख़ुदा की तरफ लौटाए जाएंगे ताकि अपनी 
अपनी कारकर्दगी के मुताबिक अपने अंजाम को पाएं 





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ऐ ईमान वालो, रुकूअ और सज्दा करो। और अपने रब की इबादत करो और भलाई 
के काम करो ताकि तुम कामयाब हो। और अल्लाह की राह में कोशिश करो जैसा कि 
कोशिश करने का हक है। उसी ने तुम्हें चुना है। और उसने दीन के मामले में तुम 
पर कोई तंगी नहीं रखी। तुम्हारे बाप इब्राहीम का दीन। उसी ने तुम्हारा नाम मुस्लिम 
(आज्ञाकारी) रखा, इससे पहले और इस कुरआन में भी ताकि रसूल तुम पर गवाह हो 
और तुम लोगों पर गवाह बनो। पस नमाज कायम करो और जकात अदा करो। और 

अल्लाह को मजबूत पकड़ो, वही तुम्हारा मालिक है। पस केसा अच्छा मालिक है और 
कैसा अच्छा मददगार। (77-78) 





इस आयत का ख़िताब अस्लन असहाबे रसूल से और तबअन (सामान्यतः) तमाम 
मोमिनीने कुरआन से है। इस गिरोह को ख़ुदा ने इस ख़ास काम के लिए मुंतख़ब किया है कि 
वह कियामत तक तमाम कैमों को खुदा के सच्चे और हकीकी दीन से बाखबर करता रहे। 
रसूल ने यही शहादत (आह्वान) का अमल अपने जमाने के लोगों पर किया। और आपके 
पेरोकारों को यही अमल बाद में अपने हमजमाना (समकालीन) लोगों पर अंजाम देना है। 
यह काम एक बेहद नाजुक काम है। इसके लिए मुजाहिदाना (संघर्षपरक) अमल दरकार 
है। इसे सिर्फ वही लोग हकीकी तौर पर अंजाम दे सकते हैं जो सही मअनों में खुदा के आगे 


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पारा 8 938 सूरह-23. अल-मोमिनून 
झुकने वाले बन गए हों। जो दूसरों के इतने ज्यादा खैरख्याह (हितैषी) हों कि अपना वक्‍त और 
अपना पैसा उनके लिए खर्च करने में खुशी महसूस करें। जो हर दूसरी चीज से ऊपर उठकर 
सिर्फ एक खुदा पर भरोसा करने वाले बन गए हों। जो हकीकी मअनोंमें लफ्ज 'मुस्लिम' का 
मिस्दाक हों जो उनके लिए खुसूसी तौर पर वजअ किया गया है। 
ताहम इस कारेशहादत (आह्वान-कार्य) के साथ ख़ुदा ने एक ख़ास मामला यह किया है 
कि उसकी राह की खारजी (वास्य) रुकावटों को हमेशा के लिए दूर कर दिया है। अल्लाह के 
रसूल हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जरिए दुनिया में ऐसा इंकिलाब लाया 
गया है जिसने उन रुकावटों को हमेशा के लिए ख़त्म कर दिया जिनका साबिका पिछले नबियों 
और उनकी उम्मतों को पेश आता था। अब इस काम के लिए हकीकी रुकावट कोई नहीं है। 
यह अलग बात है कि कुरआन के हामिलीन (धारक) खुद ही अपनी नादानी से अपनी राह 
में खुदसाख्ता मुश्किलें पैदा कर लें और एक आसान काम को मस्नूई तौर पर मुश्किल काम 
बना डालें। हा 
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आयतें-28 सूरह-23. अल-मोमिनून रुकूअ-6 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
यकीनन फलाह पाई ईमान वालों ने जो अपनी नमाज में झुकने वाले हैं और जो लख 
(घटिया, निरर्थक) बातों से बचते हैं। और जो जकात अदा करने वाले हैं और जो अपनी 
शर्मगाहों की हिफाजत करने वाले हैं, सिवा अपनी बीवियाँ के और उन औरतों के जो उनके 
अधीन दासियां हों कि उन पर वे काबिले मलामत नहीं। अलबत्ता जो इसके अलावा चाहें 
तो वही ज्यादती करने वाले हैं। और जो अपनी अमानतों और अपने अहद (वचन) का 
ख्याल रखने वाले हैं। और जो अपनी नमाजों की हिफाजत करते हैं। यही लोग वारिस होने 
वाले हैं जो फिरदोस की विरासत पाएंगे। वे उसमें हमेशा रहेंगे। (-2) 





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सूरह-23. अल-मोमिनून 939 पारा 8 





ख़ुदा की इस दुनिया में कामयाबी सिर्फ उस शख्स के लिए है जो साहिबे ईमान हो। जो 
किसी और वाला न होकर एक अल्लाह वाला बन जाए। जिसकी जिंदगी अंदर से बाहर तक 
ईमान में ढल गई हो। 

जब किसी शख्स को ईमान मिलता है तो यह सादा सी बात नहीं होती। यह उसकी 
जिंदगी में एक इंकिलाब आने के हममअना होता है। अब वह अल्लाह की इबादत करने वाला 
और उसके आगे झुकने वाला बन जाता है। उसकी संजीदगी इतनी बढ़ जाती है कि बेफायदा 
मशागिल में वक़्त जाया करना उसे हलाकत मालूम होने लगता है। वह अपनी कमाई का एक 
हिस्सा ख़ुदा के नाम पर निकालता है। और उससे जरूरतमंदों की मदद करता है। वह अपनी 
शहवानी ख़्वाहिशात को कंट्रोल में रखने वाला बन जाता है। और उसे उन्हीं हुदूद (हदों) के 
अंदर इस्तेमाल करता है। जो ख़ुदा ने उसके लिए मुक्रर कर दी हैं। वह दुनिया में एक 
जिम्मेदार आदमी की तरह जिंदगी गुजारता है। दूसरे की अमानत में वह कभी ख़ियानत नहीं 
करता। किसी से जब वह कोई अहद कर लेता है तो वह कभी उसके खिलाफ नहीं जाता। 

जिन लोगों के अंदर ये ख़ुसूसियात हों वे अल्लाह के मत्लूब बंदे हैं। यही वे लोग हैं जिनके 
लिए खुदा ने जन्नतुल फिरदौस की मेयारी दुनिया तैयार कर रखी है। मौत के बाद वे उसकी 
फजाओं में दाखिल कर दिए जाएंगे ताकि अबदी तौर पर उसके अंदर ऐश करते रहें। 


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और हमने इंसान को मिट्टी के खुलासा (सत) से पैदा किया। फिर हमने पानी की 
एक बूंद की शक्ल में उसे एक महफूज ठिकाने में रखा। फिर हमने पानी की बूंद को 

एक जनीन (भ्रूण) की शक्ल दी। फिर जनीन को गोश्त का एक लोथड़ा बनाया। पस 
लौथड़े के अंदर हड़िडयां पैदा कीं। फिर हमने हड्डियों पर गोश्त चढ़ा दिया। फिर हमने 
उसे एक नई सूरत में बना खड़ा किया। पस बड़ा ही बाबरकत है अल्लाह, बेहतरीन 
पैदा करने वाला। फिर इसके बाद तुम्हें जरूर मरना है। फिर तुम कियामत के दिन उठाए 
जाओगे। (2-6) 





इंसान का बच्चा मां के पेट में परवरिश पाता है। कदीम जमाने में इस्तकरारे हमल (गर्भ 
धारण) से लेकर बच्चे की पैदाइश तक की पूरी मुद्दत इंसान के लिए एक छुपी हुई चीज की 
हैसियत रखती थी। बीसवीं सदी में जदीद साइंसी जराए के बाद यह मुमकिन हुआ है कि पेट 


सूरह-१३. अल-मोमिनून 
में परवरिश पाने वाले बच्चे का मुशाहिदा (अवलोकन) किया जाए और उसके बारे में बराहेरास्त 
मालूमात हासिल की जाएं । 

कुरआन ने जो चौदह सौ साल पहले इंसानी तख्लीक के जो मुख़्तलिफ तदरीजी (क्रमवत) 
मरहले बताए थे, वे हैरतअंगेज तौर पर दौरे जदीद के मशीनी मुशाहिदे के ऐन मुताबिक 
साबित हुए हैं। यह एक खुला हुआ सुबूत है कि कुरआन खुदा की किताब है। अगर ऐसा न 
होता तो जदीद तहकीक और कुरआन के बयान में इतनी कामिल मुताबिकत मुमकिन न थी। 

तख़्तीक का यह वाकया जो हर रोज मां के पेट में हो रहा है। वह बताता है कि इस 
दुनिया का ख़ालिक एक हददर्जा बाकमाल हस्ती है। इंसान की तख़्लीके अव्वल (प्रथम सृजन) 
का हैरतनाक वाकया जो हर रोज हमारी आंखों के सामने हो रहा है वही यह यकीन दिलाने 
के लिए काफी है कि इसी तरह तख़नीके सानी (पुनः सूजन) का वाकया भी होगा। और ऐन 
उसके मुताबिक होगा जिसकी ख़बर नबियों के जरिए दी गई है। 


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और हमने तुम्हारे ऊपर सात रास्ते बनाए। और हम मख्नूक (सृष्टि) से बेख़बर नहीं 
हुए। और हमने आसमान से पानी बरसाया एक अंदाजे के साथ। फिर हमने उसे जमीन 

में ठहरा दिया। और हम उसे वापस लेने पर कादिर हैं। फिर हमने उससे तुम्हारे लिए 
खजूर और अंगूर के बाग पेदा किए। तुम्हारे लिए उनमें बहुत से फल हैं। और तुम उनमें 

से खाते हो। और हमने वह दरख्त पैदा किया जो तूरे सीना से निकलता है, वह तेल 
लिए हुए उगता है। और खाने वालों के लिए सालन भी। और तुम्हारे लिए मवेशियों 
में सबक है। हम तुम्हें उनके पेट की चीज से पिलाते हैं। और तुम्हारे लिए उनमें बहुत 

फायदे हैं। और तुम उन्हें खाते हो। और तुम उन पर और कश्तियों पर सवारी करते 
हो। (7-22) 


पारा ।8 940 





इंसान एक हकीर वजूद है। इसके मुकाबले में कायनात दहशतनाक हद तक अजीम है। 
मगर कायनात का सबसे ज्यादा हैरतअंगेज पहलू यह है कि वह इंसान के लिए इंतिहाई तौर 


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सूरह-23. अल-मोमिनून 94] पारा 8 


पमि (अनुकूल) है। 

यहां वसीअ ख़ला में अंगिनत सितारे और सय्यारे (ग्रह) तेज रफ्तारी के साथ घूम रहे हैं। 
मगर बेशुमार नामुवाफिक इम्कानात (प्रतिकूल संभावनाओं) के बावजूद वे इंसान के लिए कोई 
नामुवाफिक सूरतेहाल पैदा नहीं करते। बारिश अगर बहुत ज्यादा बरसने लगे तो इंसानी 
आबादियां तबाह हो जाएं मगर उसकी भी एक हद है, वह उस हद से बाहर नहीं जाती। 
जमीन पर पानी के जो जह्रे हैं वे सबके सब जमीन में जज्ब हो सकते हैं या भाप बनकर 
फज़ा में उड़ सकते हैं मगर कभी ऐसा नहीं होता । 

मजीद यह कि जमीन की सूरत में एक अद्वितीय ग्रह मौजूद है जो ऐसा मालूम होता है 
कि ख़ास तौर पर इंसान की जरूरियात का सामने रखकर बनाया गया है। यहां इंसान की 
गिजाई जरूरियात से लेकर उसकी सनअती (औद्योगिक) जबरयात तक तमाम चज्हफात 
के साथ मौजूद हैं। जमीन के जानवर बजाहिर वहशी मख्लूक हैं मगर उन्हें खुदा ने तरह-तरह 
से इंसान के लिए कारआमद बना दिया है। इन जानवरों का पेट एक हैरतअंगेज कारखाना 
है जो घास और चारा लेता है और उसे दूध और गोश्त जैसी कीमती चीजों में तब्दील करता 
है। जानवरों में से बहुत से जानवर हैं जो जानवर होने के बावजूद अपने आपको पूरी तरह 
इंसान के कब्जे में दे देते हैं कि वह उन पर सवारी करे और उनसे दूसरे मुर्ललिफ फायदे 
हासिल करे। 

ये वाकेयात इसका तकाजा करते हैं कि इंसान अपने महरबान खुदा को पहचाने और 
उसका शुक्रगुजार बंदा बनकर रहे। 


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और हमने नूह को उसकी कौम की तरफ भेजा तो उसने कहा कि ऐ मेरी कौम, तुम 
अल्लाह की इबादत करो। उसके सिवा तुम्हारा कोई माबूद (पूज्य) नहीं। क्या तुम डरते 
नहीं। तो उसकी कौम के सरदार जिन्होंने इंकार किया था उन्होंने कहा कि यह तो बस 
तुम्हारे जैसा एक आदमी है। वह चाहता है कि तुम्हारे ऊपर बरतरी हासिल करे। और 
अगर अल्लाह चाहता तो वह फरिश्ते भेजता। हमने यह बात अपने पिछले बड़ों में नहीं 
सुनी। यह तो बस एक शख्स है जिसे जुनून हो गया है। पस एक वक्‍त तक इसका 
इंतिजार करो। (23-25) 











हजरत नूह जिस कौम में आए वह प्रचलित मञनों में कोई 'मुन्किर* कौम न थी। बल्कि 
वह आदम अलैहिस्सलाम की उम्मत थी। वह ख़ुदा पर और रिसालत पर अकीदा रखती थी। 


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पारा ।8 942 


सूरह-१३. अल-मोमिनून 
इसके बावजूद क्यों उसने हजरत नूह को ख़ुदा का पैगम्बर मानने से इंकार कर दिया। इसकी 
वजह सिर्फ एक थी नूह उसे अपने जैसे एक आदमी मालूम हुए। 
पैगम्बर एक इंसान होता है वह मां बाप के जरिए पैदा होता है। इसलिए अपने जमाने 
के लोगों को वह हमेशा अपने ही जैसा एक आदमी दिखाई देता है। यह सिफ बाद की तारीख़ 
में होता है कि पैगम्बर का नाम लोगों को एक पुरअज्मत नाम महसूस होने लगे। यही वजह 
है कि पैगम्बर के हमअस्र (समकालीन लोग) पैग़म्बर को पहचान नहीं पाते । उन्हें पैगम्बर एक 
ऐसा आदमी मालूम होता है जो बड़ा बनने के लिए फर्जी तौर पर पैगम्बरी का दावा करने 
लगे। वे पैगम्बर को एक मजनून समझ कर उसे नजरअंदाज कर देते हैं। 
हर उम्मत का यह हाल हुआ है कि बाद के जमाने के वह खुदा की तालीमात के 
बजाए अपने असलाफ (पूर्वजो) की रिवायात पर कायम हो गई। पैगम्बर ने आकर जब 
अस्ल दीनी तालीमात को दुबारा पेश किया तो पैगम्बर का दीन उसे असलाफ की रिवायात 
से हटा हुआ मालूम हुआ। उसके अपने जेहनी सांचे में उसे असलाफ बरतर नजर आए 
और वक्त का पैगम्बर उनके मुकाबले में उसे कमतर दिखाई दिया। यही सबसे बड़ी वजह 
है जिसकी बिना पर हर दौर में ऐसा हुआ कि पैग़म्बरों की दावत उनके हमअसरों 
(समकालीनलोगों) के लिए अजनबी बनी रही। 
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उसे “वही” (प्रकाशना) की कि तुम कश्ती तैयार करो हमारी निगरानी में और हमारी 
हिदायत के मुताबिक। तो जब हमारा हुक्म आ जाए और जमीन से पानी उबल पड़े तो 
हर किस्म के जानवरों में से एक-एक जोड़ा लेकर उसमें सवार हो जाओ। और अपने घर 
वालों को भी, सिवा उनके जिनके बारे में पहले फैसला हो चुका है। और जिन्होंने जुल्म 
किया है उनके मामले में मुझसे बात न करना। बेशक उन्हें डूबना है। (26-27) 








हजरत नूह लम्बी मुदूदत तक अपनी कैम को तल्कीन करते रहे। मगर उनकी कैम 
उनकी बात मानने के लिए तैयार न हुई । आखिरकार हजरत नूह ने दुआ की कि ख़ुदाया, मेरी 
दावत व तब्लीग इनसे अम्रेहक (सत्य बात) को मनवा न सकी। अब तू ही इन पर अम्रे हक 
को जाहिर कर दे। मगर जब इंसानी अमल की हद ख़त्म होकर खुदाई अमल की हद शुरू हो 
तो यह मुवाडा (पकड़) का ववत होता है कि वअज व तल्कीन का । चुनांचे खुदा का हुक्म 


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सूरह-23. अल-मोमिनून 943 पारा 8 
नाकाबिले तसर तूफान की सूरत में जाहिर हुआ और चन्द मोमिनीने नूह का छोड़कर बकिया 
सारी कैम गर्क होकर रह गई। 

अम्रे हक का एतराफ न करना सबसे बझ जुम है। जो लोग यह जुर्म करें वे हमेशा 
ख़ुदा की पकड़ में आ जाते हैं। कोई दूसरी चीज उन्हें इस पकड़ से बचाने वाली साबित नहीं 
होती। 


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फिर जब तुम और तुम्हारे साथी कश्ती में बैठ जाएं तो कहो कि शुक्र है अल्लाह का 
जिसने हमें जालिम लोगों से नजात दी और कहो कि ऐ मेरे रब तू मुझे उतार बरकत 


का उतारना और तू बेहतर उतारने वाला है। बेशक इसमें निशानियां हैं और बेशक 
हम बंदों को आजमाते हैं। (28-30) 





शिक से भरे हुए माहौल में जो चन्द अफराद हजरत नूह पर ईमान लाए वे उसी दिन 
मअनवी एतबार से ख़ुदा की कश्ती में दाखिल हो चुके थे। इसके बाद जब तूफान के वक्‍त 
वे लकड़ी की बनाई हुई कश्ती में बैठे तो यह गोया उनके इब्तिदाई फैसले की तक्मील थी। 
उन्होंने अपने आपको फिक्री (वैचारिक) तौर पर बदी के तूफान से बचाया था। खुदा ने उन्हें 
अमली (व्यावहारिक) तौर पर बदी के सख्त अंजाम से बचा लिया। 

मोमिन हर कामयाबी को ख़ुदा की तरफ से समझता है, इसलिए वह हर कामयाबी पर 
ख़ुदा का शुक्र अदा करता है। और तूफाने नूह से नजात तो खुला हुआ खुदाई नुसरत का 
वाकया था। ऐसे मौके पर मोमिन की जबान से जो कलिमात निकलते हैं वे वही हैं जिनकी 
एक तस्वीर मज्कूरा आयत में नजर आती है। वह हाल के लिए खुदा की कुदरत का एतराफ 
करते हुए मुस्तकबिल के लिए मजीद इनायत की इल्तजा करने लगता है। क्योंकि उसे यकीन 
होता है कि हाल भी खुदा के कने में है और मुस्तकबिल भी खुदा के कले में। 


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पारा ।8 सूरह-23. अल-मोमिनून 


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फिर हमने उनके बाद दूसरा गिरोह पैदा किया। फिर उनमें एक रसूल उन्हीं में से भेजा, 
कि तुम अल्लाह की इबादत करो। उसके सिवा तुम्हारा कोई माबूद (पूज्य) नहीं। क्या 
तुम डरते नहीं। और उसकी कौम के सरदारों ने जिन्होंने इंकार किया। और आखिरत 
की मुलाकात को झुठलाया, और उन्हें हमने दुनिया की जिंदगी में आसूदगी (सम्पन्नता) 

दी थी, कहा यह तो तुम्हारे ही जैसा एक आदमी है। वही खाता है जो तुम खाते हो, 
और वही पीता है जो तुम पीते हो। और अगर तुमने अपने ही जैसे एक आदमी की 
बात मानी तो तुम बड़े घाटे में रहोगे। (३।-34) 


हजरत नूह के मोमिनीन की नस्ल बढ़ी और उस पर सदियां गुजर गई तो दुबारा वे उसी 
गुमराही में मुब्तिला हो गए जिसमें उनके पिछले लोग मुब्तिला हुए थे। इससे मुराद गालिबन 
वही कौम है जिसे कमे आद कहा जाता है। ये लोग ख़ुदा से गाफिल होकर गैर खुदाओं में 
मशगूल हो गए। अब दुबारा उनके दर्मियान खुदा का रसूल आया। और उसने उन्हें हक से 
आगाह किया। 

मगर दुबारा यही हुआ कि कौम के सरदार पैगम्बर के मुखालिफ बनकर खड़े हो गए। 
ये सरदार वे लोग थे जो वक्त के ख्मालात से मुवाफिकत करके लोगों के कायद (लीडर) बने 
हुए थे। इसी के साथ खुशहाली भी उनके गिर्द जमा हो गई थी। यह एक आम कमजोरी है 
कि जिन लोगों को दौलत और इक्तेदार (सत्ता) हासिल हो जाए वे उसे अपने बरसरे हक होने 
की दलील समझ लेते हैं। यही उन सरदारों के साथ हुआ। उनकी खुशहाली और इक्तेदार 
उनके लिए यह समझने में मानेअ (रुकावट) हो गए कि वे गलती पर भी हो सकते हैं। 

उन्होंने देखा कि पैगम्बर के गिर्द न दौलत का ढेर जमा है और न उसे इक्तेदार की गदूदी 
हासिल है, इसलिए उन्होंने पैगम्बर को हकीर (तुच्छ) समझ लिया। वे अपनी जाहिरपरस्ती की 
बिना पर पैगम्बर की मअनवी अज्मत को देखने में नाकाम रहे। 


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क्या यह शख्स तुमसे कहता है कि जब तुम मर जाओगे और मिट्टी और हड़िडयां हो 
जाओगे तो फिर तुम निकाले जाओगे। बहुत ही बईद (असंभव) और बहुत ही बईद है 
जो बात उनसे कही जा रही है। जिंदगी तो यही हमारी दुनिया की जिंदगी है। यहीं हम 

मरते हैं और जीते हैं। और हम दुबारा उठाए जाने वाले नहीं हैं। यह तो बस एक ऐसा 
शख्स है जिसने अल्लाह पर झूठ बांधा है। और हम उसे मानने वाले नहीं। (35-38) 





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सूरह-23. अल-मोमिनून 945 पारा 8 


इस आयत में आख़िरत के बारे में जो कलिमात नकल किए गए हैं वे कभी जबानेहाल 
(व्यवहार) से अदा हेते हैं और कभी जबानेकाल (कथन) से। कभी ऐसा होता है कि आदमी 
हमहतन बस दुनिया की चीजों में मशगूल होता है। वह आख़िरत से इस तरह गाफिल नजर 
आता है जैसे कि आख़िरत उसके नजदीक बिल्कुल बईद अज़ कयास (कल्पना से परे की) 
बात है। और कभी ऐसा होता है कि उसकी आखिरत से गफलत उसे सरकशी की उस हद 
तक पहुंचा देती है कि वह अपनी जबान से भी कह देता है कि आख़िरत तो बहुत बईद अज 
कयास चीज है। इसलिए आज जो कुछ मिल रहा है उसे हासिल करो, कल के मोहूम (कल्पित) 
फायदे की ख़तिर आज के यकीनी फायदे को न खोओ। 

“इस शख्स ने अल्लाह पर झूठ बांधा है” इस कलिमे की भी दो सूरते हैं। एक यह कि 
आदमी ऐन इसी जुमले को अपनी जबान से अदा करे। दूसरे यह कि वह हक के दाऔ 
(आस्वानकर्ता) को इस तरह नजरअंदाज करे जैसे कि उसकी बात महज एक सिरफिरे शख्स 
की बात है। उसका ख़ुदा से कोई तअल्लुक नहीं । 


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रसूल ने कहा, ऐ मेरे रब, मेरी मदद फरमा कि उन्होंने मुझे झुठला दिया। फरमाया कि 

ये लोग जल्द ही पछताएंगे। पस उन्हें एक सर्त आवाज ने हक के मुताबिक पकड़ 
लिया। फिर हमने उन्हें खस व ख़ाशाक (कूड़ा-कचरा) कर दिया। पस दूर हो जालिम 
कैम। (394) 








ख़ुदा का पैगम्बर जिस चीज के एलान के लिए आता है वह इस कायनात की सबसे 
संगीन हकीकत है। मगर पेएबर इस हकीकत को सिर्फ दलील के रूप में जहिर करता है। 
वही लोग दरअस्ल मोमिन हैं जो उसे दलील के रूप में पहचानें और अपने आपको उसके 
हवाले कर दें। 

जब कोई गिरोह आखिरी तौर पर यह साबित कर दे कि वह हकीकत को दलील के रूप में 
पहचानने की सलाहियत नहीं रखता तो फिर खुदा हकीकत को 'सइहूह' (सन्नआवाजे के रूप में 
जाहिर करता है। हकीकत एक ऐसी चिंधाड़ बन जाती है जिसका सामना करने की ताकत किसी 
को न हो। मगर जब हकीकत “सर्न आवाज' के रूप में जाहिर हो जाए तो यह उसे भुगतने का 
वक्त होता है न कि उसे मानने का। हकीकत जब 'सरळ्न आवाज़' के रूप में जाहिर होती है तो 
आदमी के हिस्से में सिर्फ यह रह जाता है कि वह अबद (अनंत) तक अपनी उस नादानी पर 
पछताता रहे कि उसने हकीकत को देखा मगर वह उसकी तरफ से अंधा बना रहा । हकीकत की 
आवाज उसके कान से टकराई मगर उसने उसे सुनने के लिए अपने कान बंद कर लिए। 


सूरह-23. अल-मोमिनून 


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फिर हमने उनके बाद दूसरी कौमें पैदा की। कोई कौम न अपने वादे से आगे जाती 

और न उससे पीछे रहती। फिर हमने लगातार अपने रसूल भेजे। जब भी किसी कौम 

के पास उसका रसूल आया तो उन्होंने उसे झुठलाया। तो हमने एक के बाद एक को 
लगा दिया। और हमने उन्हें कहानियां बना दिया। पस दूर हों वे लोग जो ईमान नहीं 
लाते। (42-44) 


पारा ।8 946 





पैग़म्बरों के बाद हमेशा उनकी उम्मतों में बिगाड़ आता रहा। उनकी इस्लाह के 
लिए बार-बार पैगम्बर भेजे गए उम्मते आदम में हज रत नूह आए। इसके बाद उम्मते 
नूह (आद) में हजरत हूद आए। फिर उम्मते हूद (समूद) में हजरत सालेह आए, वगैरह । मगर 
हर बार यह हुआ कि वही लोग जो माजी के पैगम्बर को बगैर बहस माने हुए थे वे हाल के 
पैगम्बर को किसी तरह मानने पर तैयार न हुए। 

इसकी वजह यह है कि माजी का पेगम्बर तवील रिवायात के नतीजे में कौमी फख़ का 
निशान बन जाता है। वह कौमों के लिए उनके कौमी तशख्बुस (पहचान) की अलामत होता 
है। वह उनके लिए कौमी हीरो का दर्जा इख्तियार कर लेता है। उसे मानकर आदमी के 
अहसासे बरतरी को तस्कीन मिलती है। जाहिर है कि ऐसे पैगम्बर को कौन नहीं मानेगा। 

मगर हाल के पैग़म्बर का मामला इसके बिल्कुल बरअक्स होता है। हाल के पैगम्बर के 
साथ उसकी तारीख (इतिहास) वाबस्ता नहीं होती। उसके साथ अज्मत और तकद्‌दुस की 
रिवायत शामिल नहीं होती उसे मानना सिर्फ एक मअनवी हकीकत के एतराफ के हममअना 
होता है। न कि किसी हिमालयाई अज्मत से अपने आपको वाबस्ता करना । यही वजह है कि 
मी (अतीत) के पैगम्बर को मानने वाले हमेशा हाल के पैगम्बर का इंकार करते हैं। 

दूर हों जो ईमान नहीं लाते” इसे लफ्ज बदल कर कहें तो इसका मतलब यह होगा कि 
दूर हों वे लोग जो खुदा के सफीर (दूत) को खुदा के सफीर की हैसियत से नहीं पहचान पाते। 
वे खुदा के सफीर को सिर्फ उसी ववत पहचानते हैं जबकि तारीख़ी अमल के नतीजे में वह 
उनका कीमी हीरो बन चुका हो। 

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सूरह-23. अल-मोमिनून 947 पारा 8 
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फिर हमने मूसा और उसके भाई हारून को भेजा अपनी निशानियों और खुली दलील 

के साथ फिरऔन और उसके दरबारियों के पास तो उन्होंने तकब्बुर॒ (घमंड) किया और 

वे मग़रूर (अभिमानी) लोग थे। पस उन्होंने कहा क्या हम अपने जैसे दो आदमियाँ की 

बात मान लें हालांकि उनकी कौम के लोग हमारे ताबेअदार हैं। पस उन्होंने उन्हें झुठला 


दिया। फिर वे हलाक कर दिए गए। और हमने मूसा को किताब दी ताकि वे राह पाएं। 
(45-49) 


हजरत मूसा और हजरत हारून बनी इम्नाईल के फर्द थे। बनी इ्नाईल उस वक्‍त मिम्न में 
थे और वहां की हुक्मरां कौम के लिए मजदूर की हैसियत रखते थे। बनी इस्राईल की कमतर 
हैसियत और उनके मुकाबले में फिरऔन और उसके साथियों की बरतर हैसियत उनके लिए 
रुकावट बन गई। वे एक इस्राईली पैगम्बर को नुमाइंद-ए-खुदा मानने के लिए तैयार न हुए। 
हजरत मूसा ने अगरचे उनके सामने निहायत मोहकम (ठोस) दलाइल पेश किए । मगर दलाइल 
का वजन उन्हें इसके लिए मजबूर न कर सका कि वे अपनी बरतर नफ्सियात को बदलें और 
एक महकूम (अधीन) शख्स की जवान से जाहिर हेने वाली सदाकत का एतराफ करें। 

इसका नतीजा यह हुआ कि अल्लाह तआला ने पैगम्बर की मदद की। फिरऔन अपनी 
तमाम ताकतों के साथ गर्क कर दिया गया । दूसरी तरफ जिन लोगों ने पैगम्बर का साथ दिया था। 
उन पर ख़ुदा ने यह एहसान फरमाया कि उनके पास अपना हिदायतनामा भेजा जिसे इख्तियार 
करके आदमी दुनिया और आख़िरत में कामयाबी को अपने लिए यकीनी बना सकता है। 


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और हमने मरयम के बेटे को और उसकी मां को एक निशानी बनाया और हमने उन्हें 
एक ऊंची जमीन पर ठिकाना दिया जो सुकून की जगह थी और वहां चशमा जारी था। 
(50) 


हजरत मसीह की बगैर बाप के पेदाइश एक बेहद अनोखा वाकया था। यह वाकया क्यों 
हुआ। यह एक “निशानी” के तौर पर हुआ। कदीम जमाने में यहूद को हामिले रिसालत 
(ईशदूतत्व की धारक) गिरोह की हैसियत हासिल थी। मगर उन्होंने मुसलसल सरकशी से 
अपने लिए इसका इस्तहकाक (पात्रता) खो दिया। अब वक्‍त आ गया था कि यह अमानत 
उनसे लेकर बनू इस्माईल को दे दी जाए। चुनांचे यहूद के ऊपर आखिरी इतमामेहुज्जत 
(आह्वान की अति) के लिए उनके आखिरी पैगम्बर को मोजिजाती अंदाज में पैदा किया 
गया। और उस पैगम्बर को मजीद गैर मामूली मोजिजे दिए गए। इसके बावजूद जब यहूद 


पारा ।8 948 


सूरह-23. अल-मोमिनून 


आपके मुंकिर बने रहे तो यह बात आखिरी तौर पर साबित हो गई कि वे हामिले रिसालत बनने 
के अहल नहीं हैं। 

हजरत मसीह की वालिदा हजरत मरयम के लिए यह इंतिहाई नाजुक मरहला था। ऐसे 
हाल में उन्हें सख्त जरूरत थी कि कोई ऐसा गोशा हो जहां वह लोगों की नजरों से दूर होकर 
रह सकें। वहां जिंदगी की जरूरी चीजें भी हों और सुकून व इत्मीनान भी हासिल हो। अल्लाह 
तआला ने जब उन्हें इस नाजुक इम्तेहान में डाला तो इसी के साथ उनके वतन के करीब एक 
पुरअम्न गोशा भी उनके लिए मुहय्या फरमा दिया। 


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ऐ पेग़म्बरो, सुथरी चीजें खाओ और नेक काम करो। में जानता हूं जो कुछ तुम करते 
हो। और यह तुम्हारा दीन एक ही दीन है। और मैं तुम्हारा रब हूं, तो तुम मुझसे डरो। 
(5I-52) 





दीन अस्लन सिर्फ एक है। और यही एक दीन तमाम पैग़म्बरों को बताया गया। वह यह 
कि आदमी ख़ुदा को एक ऐसी अजीम हस्ती की हैसियत से पाए कि वह उससे डरने लगे। 
उसके दिल व दिमाग़ पर यह तसवुर छा जाए कि उसके ऊपर एक ख़ुदा है। वह हर हाल 
में उसे देख रहा है। और वह मौत के बाद उससे उसके तमाम आमाल का हिसाब लेगा। 

यहमअसन्न (अन्तज्ञन) ही अस्ल दीन है। इस मअरफत और इस एहसास के तहत जो 
जिंदगी बने वह यही होगी कि आदमी दुनिया की चीजें में से पाकीजा और सुथरी चीजे लेगा। 
वह अपने मामलात में नेकी और भलाई का तरीका इस़्तियार करेगा। खुदा की मअरफत का 
लाजिमी नतीजा खा का खैफ है और खा के ख़ैफ का लाजिमी नतीजा नेक जिगी। 


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फिर लोगों ने अपने दीन (धर्म) को आपस में टुकड़े-टुकड़े कर लिया। हर गिरोह के पास 
जो कुछ है उसी पर वह नाजा (गोरवांवित) है। पस उन्हें उनकी बेहोशी में कुछ दिन 
छोड़ दो। क्या वे समझते हैं कि हम उन्हें जो माल और औलाद दिए जा रहे हैं तो हम 
उन्हें फायदा पहुंचाने में सरगर्म हैं। बल्कि वे बात को नहीं समझते। (53-56) 


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सूरह-23. अल-मोमिनून 949 पारा 8 








ख़ुदा का दीन जब अपनी असल रूह के साथ जिंदा हो तो वह लोगों में खौफ पैदा करता 
है और जब दीन की असल रूह निकल जाए तो वह फख़ का जरिया बन जाता है। यही वह 
वक्त है जबकि अहले दीन गिरोहों में बटकर टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। हर गिरोह अपने हालात 
के लिहाज से कोई ऐसा पहलू ले लेता है जिसमें उसके लिए फख़ का सामान मौजूद हो। फख़ 
वाले दीन हमेशा कई होते हैं और ख़ौफ वाला दीन हमेशा एक होता है। बेख़ौफी की 
नपिसयात राय का तअद्दुद (मत-भिन्नता) पैदा करती है। और ख़ौफ की नपिसयात राय का 
इत्तेहाद (मतैक्य) । 

मौजूदा दुनिया में इंसान हालते इम्तेहान में है। ख़ुदा के इलम में किसी शख्स या गिरोह 
की जो मुदूदत है उस मुदूदत तक उसे जिंदगी का सामान लाजिमन दिया जाता है। इस बिना 
पर गाफिल लोग समझ लेते हैं कि वे जो कुछ कर रहे हैं सही कर रहे हैं। अगर वे गलती पर 
होते तो उनका माल व असबाब उनसे छीन लिया जाता। हालांकि खुदा का कानून यह है कि 
माल व असबाब मुद्दते इम्तेहान के ख़त्म होने पर छीना जाए न कि इम्तेहान के दौरान में 
हिदायत से इंहिराफ पर । 





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बेशक जो लोग अपने रब की हैबत से डरते हैं। और जो लोग अपने रब की आयतों 
पर यकीन रखते हैं। और जो लोग अपने रब के साथ किसी को शरीक नहीं करते। 
और जो लोग देते हैं जो कुछ देते हैं और उनके दिल कांपते हैं कि वे अपने रब की तरफ 
लौटने वाले हैं। ये लोग भलाइयां की राह में सबकत (अग्रसरता) कर रहे हैं और वे 
उन पर पहुंचने वाले हैं सबसे आगे। और हम किसी पर उसकी ताकत से ज्यादा बोझ 

नहीं डालते। और हमारे पास एक किताब हे जो बिल्कुल ठीक बोलती है, और उन पर 
जुल्म न होगा। (57-62) 





जो शख्स अल्लाह को इस तरह पाए कि उस पर अल्लाह की हैबत तारी हो जाए वह 
आम इंसानों से बिल्कुल मुख़्तलिफ इंसान होता है। ख़फ की नफ्सियात उसे इंतिहाई हद तक 
संजीदा बना देती है। उसकी संजीदगी इसकी जामिन बन जाती है कि वह दलाइले ख़ुदावंदी 


पारा ।8 950 


सूरह-१३. अल-मोमिनून 
के वजन को पूरी तरह समझे और उसके आगे फौरन झुक जाए। खुदा के सिवा हर चीज 
उसकी नजर में अपना वजन खो दे। वह सब कुछ करके भी यह समझे कि उसने कुछ नहीं 
किया। 

मौजूदा दुनिया में दौड़-धूप की दो राहें खुली हुई हैं। एक दुनिया की राह और दूसरी 
आखिरत की राह । जिन लोगों के अंदर मज्कूरा सिफात पाई जाएं वही वे लोग हैं जो आख़िरत 
की तरफ दौड़ने वाले हैं। ताहम आखिरत की तरफ दौड़ना मौजूदा दुनिया में एक बेहद 
मुश्किल काम है। इसमें इंसान से तरह-तरह की कोताहियां हो जाती हैं। मगर अल्लाह तआला 
का मुतालबा हर आदमी से उसकी ताकत के बवट्र है न कि ताकत से ज्यादा। हर आदमी 
की इस्तेताअत (सामर्थ्य) और उसका कारनामा दोनों कामिल तौर पर ख़ुदा के इल्म में है। 
और यही वाकया इस बात की जमानत है कि कियामत में हर शख्स को वह रिआयत मिले 
जो अजरुए इंसाफ उसे मिलनी चाहिए। और हर शख्स वह इनाम पाए जिसका वह 
फलिका मूतस्कि्ष। 


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बल्कि उनके दिल इसकी तरफ से गफलत में हैं। और उनके कुछ काम इसके अलावा 

हैं वे उन्हें करते रहेंगे। यहां तक कि जब हम उनके खुशहाल लोगों को अजाब में 
पकड़े तो वे फरयाद करने लगेगे। अब फरयाद न करो। अब हमारी तरफ से तुम्हारी 

कोई मदद न होगी। तुम्हें मेरी आयतें सुनाई जाती थीं तो तुम पीठ पीछे भागते थे, 
उससे तकब्बुर (घमंड) करके। गोया किसी किस्सा कहने वाले को छोड़ रहे हो। 
(63-67) 








जो लोग दुनियापरस्ती में गक हों उन्हें खुदा और आख़िरत की बातों से दिलचस्पी नहीं 
होती। उनकी दिलचस्पी की चीजें उससे मुख़तलिफ होती हैं जो सच्चे अहले ईमान की 
दिलचस्पी की चीजें होती हैं। खुदा और आख़िरत की बात चाहे कितने ही मुवस्सिर (प्रभावी) 
अंदाज में बयान की जाए, उन्हें वह ज्यादा अपील नहीं करती। वे ऐसी बातों को नजरअंदाज 
करके अपनी दूसरी दिलचस्पियों में गुम रहते हैं। वे हक के दाओ (आस्वानकर्ता) की मज्लिस 
से इस तरह उठ जाते हैजैस किसी फुका किस्सागो (कथावाचक) को छोड़कर चले गए। 
मगर जब खुदा की पकड़ आती है तो ऐसे लोग गफलत और सरकशी को भूलकर 


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सूरह-23. अल-मोमिनून 95] पारा 8 
आजिजाना फरयाद करने लगते हैं। उस वक्‍त वे खुदा के आगे झुक जाते हैं। मगर उस ववत 

का झुकना बेकार होता है। क्योंकि खुदा के आगे झुकना वह मोतबर है जबकि आदमी ख़ुदा 
की निशानी को देखकर झुक गया हो। जब खुदा खुद अपनी ताकतों के साथ जाहिर हो जाए 

उस वकत झुकने की कोई कीमत नहीं। 


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फिर क्या उन्होंने इस कलाम पर गौर नहीं किया। या उनके पास ऐसी चीज आई है 
जो उनके अगले बाप दादा के पास नहीं आई। या उन्होंने अपने रसूल को पहचाना 
नहीं। इस वजह से वे उसे नहीं मानते। या वे कहते हैं कि उसे जुनून है। बल्कि वह 
उनके पास हक (सत्य) लेकर आया है। और उनमें से अक्सर को हक बात बुरी लगती 
है। और अगर हक उनकी ख्याहिशों के ताबेअ (अधीन) होता तो आसमान और जमीन 
और जो उनमें हैं सब तबाह हो जाते। बल्कि हमने उनके पास उनकी नसीहत भेजी है 
तो वे अपनी नसीहत से एराज (उपेक्षा) कर रहे हैं। (68-7) 














हक वह है जो हकीकते वाकये के मुताबिक हो। मगर र्राहिशपरस्त इंसान यह चाहने 
लगता है कि हक को उसकी ख्वाहिश के ताबेअ (अधीन) कर दिया जाए। इस किस्म के लोगों 
का हाल यह होता है कि दाओ जब हक बात कहता है तो वे उससे नाराज हो जाते हैं। वे 
हक के ताबेअ नहीं बनना चाहते। इसलिए वे चाहने लगते हैं कि हक को उनके ताबेअ कर 
दिया जाए। अपनी इस नफ्सियात की बिना पर वे हक की आवाज पर ध्यान नहीं देते। हक 
उन्हें अजनबी दिखाई देता है। वे हक के दाऔ (आस्वानकर्ता) को उसकी अस्ल हैसियत में 
पहचान नहीं पाते। अपने को बरसरे हक जाहिर करने के लिए वे दाऔ को मत्ऊन (लांछित) 
करने लगते हैं। 

कायनात में कामिल दुरुस्तगी नजर आती है। इसके बरअक्स इंसानी दुनिया में हर तरफ 
फसाद और बिगाड़ है। इसकी वजह यह है कि कायनात का निजाम हक की बुनियाद पर चल 
रहा है। यानी वही होना जो होना चाहिए, वह न होना जो न होना चाहिए। अब अगर 
कायनात का निजाम भी इंसान की ख़्वाहिशों पर चलने लगे तो जो फसाद इंसानी दुनिया में 
है वही फसाद बकिया कायनात में भी बरपा हो जाएगा। 

नसीहत और तंकीद हमेशा आदमी के लिए सबसे ज्यादा तल्ख़ चीज होती है। बहुत ही 
कम वे ख़ुदा के बंदे हैं जो नसीहत और तंकीद को खुले जेहन के साथ सुनें। बेशतर लोग इसे 
नजरअंदाज कखे गुजर जति हि 


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सूरह-23. अल-मोमिनून 


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क्या तुम उनसे कोई माल मांग रहे हो तो तुम्हारे रब का माल तुम्हारे लिए बेहतर 

है। और वह बेहतरीन रोजी देने वाला है। और यकीनन तुम उन्हें एक सीधे रास्ते 

की तरफ बुलाते हो। और जो लोग आख़िरत पर यकीन नहीं रखते वे रास्ते से हट 

गए हैं। (72-74) 















































पैग़म्बर अपने मुखातबीन से कभी कोई माली गर्ज नहीं रखता। पैगम्बर और उसके 
मुखातबीन का तअल्लुक दाज और मदऊ का तअल्लुक होता है। दाओ और मदऊ का 
तअल्लुक बेहद नाजुक तअल्लुक है। दाजी अगर एक तरफ लोगों को आहिरत का पैगाम दे 
और इसी के साथ वह उनसे दुनिया के मुतालबात भी छेड़े हुए हो तो उसकी दावत (आह्वान) 
लोगों की नजर में मजाक बनकर रह जाएगी। यही वजह है कि पैगम्बर किसी भी हाल में 
अपने मदऊ से कोई मादूदी मुतालबा नहीं करता, चाहे इसकी वजह से उसे एकतरफा तौर पर 
हर किस्म का नुक्सान बर्दाश्त करना पड़े। 

दाऔ का अस्ल मुआवजा ख़ुद वह हक होता है जिसे लेकर वह खड़ा हुआ है। खुदा की 
दरयापत उसका सबसे बड़ा सरमाया होती है। दाजियाना जिंदगी गुजारने के नतीजे में उसे जो 
रब्बानी तजर्बात होते हैं वे उसकी रूह को सबसे बड़ी गिजा फराहम करते हैं। आलातरीन 
मकसद के लिए सरार्म रहने से जो लज्जत मिलती है वह उसकी तस्कीन का सबसे बड़ा 
सामान होती है। 

हक की दावत को वही शख्स मानेगा जिसे आखिरत का खटका लगा हुआ हो। आख़िरत 
का एहसास आदमी को संजीदा बनाता है और संजीदगी ही वह चीज है जो आदमी को मजबूर 
करती है कि वह हकीकत को माने। जो शख्स संजीदा न हो वह कभी हकीकत को तस्लीम 
नहीं करेगा, चाहे उसे दलाइल से कितना ही ज्यादा साबितशुदा बना दिया जाए 


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और अगर हम उन पर रहम करें और उन पर जो तकलीफ है वह दूर कर दें तब भी 
वे अपनी सरकशी में लगे रहेंगे बहके हुए। और हमने उन्हें अजाब में पकड़ा। लेकिन 
न वे अपने रब के आगे झुके और न उन्होंने आजिजी की। यहां तक कि जब हम 





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सूरह-23. अल-मोमिनून 953 पारा 8 


उन पर सखन अजाब का दरवाजा खोल की तो उस वकत वे हेतजदा रह जाएंगे। 
(75-77) 





मक्की दौर में जब कुंरेश ने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की दावत 
(आह्वान) को रद्द कर दिया तो अल्लाह तआला ने चन्द साल के लिए मक्का वालों को कहत 
(अकाल) में मुन्तिला कर दिया। यह कहत इतना शदीद था कि बहुत से लोग मुर्दार खाने पर 
मजबूर हो गए। यह अल्लाह तआला की एक आम सुन्नत है कि जब कोई गिरोह सरकशी 
इख्तियार करता है और नसीहत कुबूल करने पर तैयार नहीं होता तो वह उस गिरोह पर तंबीही 
अजाब भेजता है ताकि उनके दिल नर्म हाँ और वे हक बात की तरफ ध्यान दे सकें। 

मगर तारीख़ का तजर्बा है कि इंसान न अच्छे हालात से सबक लेता और न बुरे हालात 
से। दोनों किस्म के हालात का मकसद यह होता है कि आदमी अल्लाह की तरफ रुजूअ करे। 
मगर इंसान यह करता है कि वह अच्छे हालात को अपनी तदबीर का नतीजा समझ लेता है 
और बुरे हालात को जमाने के उलट-फेर का। इस तरह वह दोनों ही किस्म के वाकेयात से 
सबक लेने से महरूम रहता है। 

आदमी इसी तरह गफलत में पड़ा रहता है यहां तक कि खुदा का आखिरी फैसला आ 
जाता है। उस वक्‍त वह हैरान रह जाता है कि वह चीज जिसे उसने गैर अहम समझकर 
नजरअंदाज कर दिया था वही इस दुनिया की सबसे बै और सबसे अहम हकीकत थी। 


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और वही है जिसने तुम्हारे लिए कान और आंखें और दिल बनाए। तुम बहुत कम शुक्र 
अदा करते हो। और वही है जिसने तुम्हें जमीन में फेलाया। और तुम उसी की तरफ 

जमा किए जाओगे। और वही है जो जिलाता है और मारता है और उसी के इख्तियार 
में है रात और दिन का बदलना। तो क्या तुम समझते नहीं। (78-80) 





इंसान इस कायनात की वह ख़ास मख्नूक है जिसे विशेष तौर पर सुनने और देखने और 
सोचने की आला सलाहियतें दी गई हैं। ये खुसूसी सलाहियतें यकीनन किसी ख़ुसूसी मकसद के 
लिए हैं। वह मकसद यह है कि आदमी उ्हेंहकीकते हयात की मअरफत (जीवन के यथार्थ को 
समझने) के लिए इस्तेमाल करे। वह अपने कान से उस सदाकत (सच्चाई) की आवाज को सुने 
जिसका एलान यहां किया जा रहा है। वह अपनी आंख से उन निशानियों को देखे जो उसके 
चारों तरफ बिखरी हुई हैं। वह अपनी सोचने की सलाहियत को इस्तेमाल करके उनकी गहराई 


सूरह-2३. अल-मोमिनून 
तक पहुंचे । यही कान और आंख और दिल का शुक्र है। जो लोग मौजूदा दुनिया में इस शुक्र का 
सुबूत न दें वे इन इनामात का इस्तहकाक (अधिकार) हमेशा के लिए खो रहे हैं। 

खुदा की जो सिफात (गुण) दुनिया में नुमायां हो रही हैं उनमें से एक यह है कि वह 
जिंदा को मुर्दा और मुर्दा को जिंदा करता है। यह ख़ुदा बिलआख़िर तमाम मरे हुए लोगों 
को दुबारा जमा करेगा। फिर जिस तरह वह रात को दिन बनाता है इसी तरह वह लोगों 
की निगाहों से गफलत का पर्दा हटा देगा। इसके बाद विभिन्न चीजों की हकीकत लोगों 


पर ठीक-ठीक स्पष्ट हो जाएगी। 
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बल्कि उन्होंने वही बात कही जो अगलों ने कही थी। उन्होंने कहा कि क्या जब हम 
मर जाएंगे और हम मिट्टी और हड़िडियां हो जाएंगे तो क्या हम दुबारा उठाए जाएंगे। 
इसका वादा हमें और इससे पहले हमारे बाप दादा को भी दिया गया। ये महज अगलों 

के अफसाने हैं। (87-83) 


पारा ।8 954 








इंसान को अक्ल दी गई है। अक्ल के अंदर यह सलाहियत है कि वह मामलात की 
गहराई में दाखिल हो और असल हकीकत को दरयाफ्त करके उसे समझ सके । मगर बहुत कम 
ऐसा होता है कि इंसान हकीकी मअनों में अपनी अवल को इस्तेमाल करे। वह बस जाहिरी 
तअस्सुर (प्रभाव) के तहत एक राय कायम कर लेता है और उसे दोहराने लगता है। माजी 
(अतीत) के लोग भी ऐसा करते रहे और हाल के लोग भी यही कर रहे हैं। 

मौत के बाद दुबारा उठाए जाने का शुऊरी या लफ्जी इंकार करने वाले बहुत कम होते 
हैं। ज्यादातर लोगों को इस अकीदे का अमली मुंकिर कहा जा सकता है। ये वे लोग हैं जो 
रस्मी तौर पर जिंदगी बाद मौत को मानते हुए अमलन ऐसी जिंदगी गुजारते हैं जैसे कि उन्हें 
इस पर यकीन न हो कि मरने के बाद वे दुबारा उठाए जाएंगे। और जिस तरह आज वे होश 
व हवास के साथ जिंदा हैं, उसी तरह दुबारा होश व हवास के साथ जिंदा होकर ख़ुदा के 
सामने पेश होंगे । 


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सूरह-23. अल-मोमिनून 955 पारा 8 
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कहो कि जमीन और जो कोई इसमें है यह किसका है, अगर तुम जानते हो। वे कहेंगे 
कि अल्लाह का है। कहो कि फिर तुम सोचते नहीं। कहो कि कौन मालिक है सात 
आसमानों का और कौन मालिक है अर्श अजीम का। वे कहेंगे कि सब अल्लाह का 
है। कहो, फिर क्या तुम डरते नहीं। कहो कि कौन है जिसके हाथ में हर चीज का 
इख्तियार है और वह पनाह देता है और उसके मुकाबले में कोई पनाह नहीं दे सकता, 
अगर तुम जानते हो। वे कहेंगे कि यह अल्लाह के लिए है। कहो कि फिर कहां से तुम 
मस्हूर (जाटूग्रस्त) किए जाते हो। (84-89) 





इन आयात में उस तजादे फिक्र (वैचारिक अन्तर्विरोध) का तज्किरा है जिसमें हर दौर 
के बेशतर लोग मुब्तिला रहे हैं। चाहे वे मुश्रिक हों या गैर मुश्रिक। बजाहिर खुदा को एक 
मानने वाले हों या कई ख़ुदाओं को मानने वाले। 

बेशतर लोगों का हाल यह है कि वे इस बात को मानते हैं कि जमीन व आसमान का 
खालिक एक अल्लाह है। वही उसका मालिक है। वही उसे चला रहा है। तमाम बरतर 
इख्ियारात उसी को हासिल हैं। मगर इस मानने का जो लाजिमी तकाजा है उसका कोई 
असर उनकी जिंदगियाँ में नहीं पाया जाता। 

इस अजीम इकरार का तकाजा है कि वही उनकी सोच बन जाए। खुदा का एहसास 
उनके अंदर ख़ौफ बनकर दाख़िल हो जाए। उनके अंदर यह माद्दा पैदा हो कि उनके सामने 
हक आए तो वे फौरन उसका एतराफ कर लें। उनकी जिंदगी पूरी की पूरी उसी में ठल जाए। 
मगर यह सब कुछ नहीं होता। वे अगरचे अकीदे के तौर पर ख़ुदा को मानते हैं मगर उनका 
अवीदए खुरा अलग रहता है और उनकी हवीकी जिगी अलग। 

ख़ुदा का तसव्वुर इंसान को मस्हूर (जादूग्रस्त) नहीं करता । अलबत्ता दूसरी-दूसरी चीजें 
उसकी नजर में इतनी अहम बन जाती हैं जिनसे वह मस्हूर होकर रह जाए। कैसा अजीब है 
इंसान का मामला! 


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पारा 8 956 सूरह-23. अल-मोमिनून 


बल्कि हम उनके पास हक लाए हैं और बेशक वे झूठे हैं। अल्लाह ने कोई बेटा नहीं 
बनाया और उसके साथ कोई और माबूद (पूज्य) नहीं। ऐसा होता तो हर माबूद अपनी 
मख्लूक को लेकर अलग हो जाता। और एक दूसरे पर चढ़ाई करता। अल्लाह पाक है 
उससे जो वे बयान करते हैं। वह खुले और छुपे का जानने वाला है। वह बहुत ऊपर 
है उससे जिसे ये शरीक बताते हैं। (90-92) 





इक्तेदार (सत्ता) की यह फितरत है कि वह तक्सीम को गवारा नहीं करता। इंसानों में 
जब भी कई साहिबे इक्तेदार हों तो वे आपस में एक दूसरे को जेर करने या नीचा दिखाने 
की कोशिश में लगे रहते हैं। यहां तक कि जो कौमें मुख्तलिफ देवताओं को मानती हैं उनकी 
मैथोलोजी में कसरत (अधिकता) से दिखाया गया है कि एक देवता और दूसरे देवता में 
लड़ाइयां जारी हैं। 

कायनात में इस सूरतेहाल की मौजूदगी कि इसके एक हिस्से और इसके दूसरे हिस्से 
में कोई टकराव नहीं होता, यह इस बात का सुबूत है कि हर हिस्से का ख़ुदा एक ही है। 
अगर हर हिस्से के अलग-अलग ख़ुदा होते तो हर हिस्से का खुदा अपने हिस्से को लेकर 
अलग हो जाता और इसके नतीजे में कायनात के मुख़्तलिफ हिस्सों की मौजूदा हमआहंगी 
बाकी न रहती। मुख़लिफ ख़ुदाओं की कशाकश (परस्पर टकराव) में कायनात का निजाम 
दरहम-बरहम हो जाता। 

ऐसी हालत में तौहीद का नजरिया सरापा सच्चाई है और शिर्क का नजरिया सरापा झूठ । 


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कहो कि ऐ मेरे रब, अगर तू मुझे वह दिखा दे जिसका उनसे वादा किया जा रहा है। 


तो ऐ मेरे रब मुझे जालिम लोगों में शामिल न कर। और बेशक हम कादिर हैं कि हम 
उनसे जो वादा कर रहे हैं वह तुम्हें दिखा दें। (93-95) 





पैगम्बर की इस दुआ का तअल्लुक खुद पैगम्बर के दिल की कैफियत से है न कि ख़ुदा के 
अजाब से | पैगम्बर की यह दुआ बताती है कि मोमिन हर हाल में ख़ुदा से डरने वाला इंसान होता 
है। खुदा का अजाब जब दूसरों के लिए आ रहा हो उस वक्त भी मोमिन का दिल कांप उठता 
है। वह आजिजी के साथ ख़ुदा को पुकारने लगता है। क्योंकि वह जानता है कि इंसान सिर्फ खुदा 
की इनायत से बच सकता है न कि अपने किसी अमल या अपनी किसी ताकत से। 

पैगम्बर के मुंकिरीन पर ख़ुदा का फैसला कभी पैगम्बर की जिंदगी में आता है और कभी 
पैगम्बर की वफात के बाद। आयत का आखिरी टुकड़ा बताता है कि अल्लाह के रसूल 
सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के मुंकिरीन पर खुदा का यह फैसला आपकी जिंदगी ही में 
आया। आपके दुश्मन आपको जिंदगी ही में पामाल कर दिए गए। 





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सूरह-23. अल-मोमिनून 957 पारा 8 
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तुम बुराई को उस तरीके से दूर करो जो बेहतर हो। हम ख़ूब जानते हैं जो ये लोग कहते 


हैं। और कहो कि ऐ मेरे रब मैं पनाह मांगता हूं शैतानों के वसवसों से। और ऐ मेरे 
रब में तुझसे पनाह मांगता हूं कि वे मेरे पास आएं। (96-98) 





ख़ुदा का दाजी (आह्वानकर्ता) जब लोगों को हक की तरफ बुलाता है तो अक्सर ऐसा 
होता है कि लोग उसके दुश्मन बन जाते हैं। वे उसके ख़िलाफ झूठे प्रोपेगंडे करते हैं। वे उसे 
अपने शर (कुकृत्यों) का निशाना बनाते हैं। उस वक़्त दाऔ के अंदर भी जवाबी जेहन 
उभरता है। उसके दिल में यह ख्याल आता है कि जिन लोगों ने तुम्हारे साथ बुरा सुलूक किया 
है तुम भी उनके साथ बुरा सुलूक करो। अगर तुम ख़ामोश रहे तो उनके हौसले बढ़ेंगे और 
वे मजीद मुखालिफाना कार्रवाई करने के लिए दिलेर हो जाएंगे। 

मगर इस किस्म के ख़्यालात शैतान का वसवसा हैं। शैतान इस नाजुक मौके पर आदमी 
को बहकाता है ताकि उसे राह से बेराह कर दे। ऐसे मौके पर दाओ और मोमिन को चाहिए 
कि वह शैतानी बहकावों के मुकाबले में खुदा की पनाह मांगे। न कि शैतानी बहकावों को मान 
कर अपने मुालिफीन (विरोधियों) के खिलाफ इंतिकामी कार्वाइयां करने लगे। 


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यहां तक कि जब उनमें से किसी पर मोत आती है तो वह कहता है कि ऐ मेरे रब, 
मुझे वापस भेज दे। ताकि जिसे मैं छोड़ आया हूं उसमें कुछ नेकी कमाऊं। हरगिज 
नहीं,यह एक बात है कि वही वह कहता है। और उनके आगे एक पर्दा है उस दिन 


तक के लिए जबकि वे उठाए जाएंगे। फिर जब सूर फूंका जाएगा तो फिर उनके दर्मियान 
न कोई रिश्ता रहेगा और न कोई किसी को पूछेगा। पस जिनके पल्ले भारी होंगे वही 


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पारा 8 958 सूरह-23. अल-मोमिनून 


लोग कामयाब होंगे। और जिनके पल्ले हल्के होंगे तो यही लोग हैं जिन्होंने अपने 
आपको घाटे में डाला, वे जहन्नम में हमेशा रहेंगे। उनके चेहरों को आग झुलस देगी 
और वे उसमें बदशक्ल हो रहे होंगे। (99-04) 


मौत आते ही आदमी मौजूदा दुनिया से जुदा हो जाता है। इसके बाद उसके और मौजूदा 
दुनिया के दर्मियान एक ऐसी आड़ कायम हो जाती है कि वह कभी इधर वापस न हो सके। 

आदमी जब मौत के बाद अगली दुनिया में दाखिल होता है तो अचानक उसकी आंख 
खुल जाती है। अब वह जान लेता है कि जिस आख़िरत को वह नजरअंदाज किए हुए था वही 
दरअस्ल जिंदगी का सबसे बड़ा मसला था। दुनिया के सामान तो सिर्फ इसलिए थे कि उससे 
आखिरत की कमाई की जाए न यह कि बजाते खुद उन्हीं को असल मक्सूद समझ लिया 
जाए। चुनांचे मौत के बाद वह बेइख्तियार चाहेगा कि काश वह दुबारा दुनिया में लौटा दिया 
जाए। मगर ऐसा होना मुमकिन नहीं क्‍योंकि खुदा का कानून यह है कि किसी आदमी को 
सिर्फ एक बार मौका दिया जाए, दुबारा नहीं। 

मौजूदा दुनिया में आदमी अपने साथियों और रिश्तेदारों पर भरोसा करता है। मगर 
कियामत में वह बिल्कुल तंहा होगा । वहां आदमी का जाती अमल उसके काम आएगा, इसके 
सिवा कोई चीज किसी के काम आने वाली नहीं। 


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क्या तुम्हें मेरी आयतें पढ़कर नहीं सुनाई जाती थीं तो तुम उन्हें झुठलाते थे। वे कहेंगे 

कि ऐ हमारे रब हमारी बदबस्ती ने हमें घेर लिया था और हम गुमराह लोग थे। ऐ हमारे 


रब हमें इससे निकाल ले, फिर अगर हम दुबारा ऐसा करें तो बेशक हम जालिम हैं। 
खुदा कहेगा कि दूर हो, इसी में पड़े रहो और मुझसे बात न करो। (05-08) 








आखिरत के मनाजिर आंखों से देख लेने के बाद किसी को यह मौका नहीं दिया जाएगा 
कि वह दुबारा मौजूदा दुनिया में आकर रहे और सही अमल का सुबूत दे। क्योंकि दुनिया की 
जिंदगी का मकसद इम्तेहान है, इस बात का इम्तेहान कि आदमी देखे बगैर झुकता है या नहीं। 
जब आख़िरत का मुशाहिदा (अवलोकन) करा दिया जाए तो इसके बाद न झुकने को कोई 
कीमत है और न वापस भेजने का कोई इम्कान। 

आदमी का इम्तेहान देखकर मानने में नहीं है बल्कि सोच कर मानने में है। तालिबे इल्म 
(छात्र) की जांच पर्चा आउट होने से पहले की जाती है। जब पर्चा आउट होकर अख़बारों में 


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पारा ।8 


सूरह-23. अल-मोमिनून 959 

छप चुका हो इसके बाद किसी तालिबे इल्म की जांच करने का कोई सवाल नहीं। 

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मेरे बंदों में एक गिरोह था जो कहता था कि ऐ हमारे रब हम ईमान लाए, पस तू हमें 

बख्श दे और हम पर रहम फरमा और तू बेहतरीन रहम फरमाने वाला है। पस तुमने 

उन्हें मजाक बना लिया। यहां तक कि उनके पीछे तुमने हमारी याद भुला दी और तुम 


उन पर हंसते रहे। मैंने उन्हें आज उनके सब्र का बदला दिया कि वही हैं कामयाब होने 
वाले। (09-7) 





दुनिया की जिंदगी में जबकि अभी आख़िरत के हकाइक आंखों के सामने नहीं आए थे। 
उस वक्त खुदा के कुछ बंदों ने खुदा को उसके जलाल (प्रताप) व कमाल के साथ पहचाना । 
उनके सामने हक की दावत सिर्फ दलाइल की सतह पर आई। इसके बावजूद उन्होंने उस पर 
यकीन किया। वे उसके बारे में इस हद तक संजीदा हुए कि उसी को अपनी कामयाबी और 
नाकामी का मेयार बना लिया। एक अजनबी हक के साथ अपनी कामिल वाबस्तगी की उन्हें 
यह कीमत देनी पद्धि कि माहैल में वे मजक का मैएूभ (विषय) बन गए। इसके बावजूद 
उन्होंने उससे अपनी वाबस्तगी को ख़त्म नहीं किया। 

यह फिक्री इस्तकामत (आस्थागत दृढ़ता) ही सबसे बड़ा सब्र है और आखिरत का इनाम 
आदमी को इसी सब्र की कीमत में मिलता है। वही लोग दरअस्ल कामयाब हैं जो मौजूदा 
इम्तेहान की दुनिया में इस सब्र का सुबूत दे सकें। 


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इर्शाद होगा कि वर्षों के शुमार से तुम कितनी देर जमीन में रहे। वे कहेंगे हम एक दिन 


रहे या एक दिन से भी कम। तो गिनती वालों से पूछ लीजिए। इर्शाद होगा कि तुम 
थोड़ी ही मुदूदत रहे। काश तुम जानते होते। (2-74) 





ऐश वही है जो अबदी (चिरस्थाई) हो। जो ऐश अबदी न हो वह जब ख़त्म होता है तो 
ऐसा मालूम होता है कि वह बस एक लम्हा था जो आया और गुजर गया। 
दुनिया की जिंदगी में आदमी इस हकीकत को भूला रहता है। मगर आखिरत में यह 


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पारा 8 960 सूरह-23. अल-मोमिनून 
हकीकत उस पर आड़िरी हद तक खुल जाएगी। उस ववत वह जानेगा । मगर उस ववत जानने 
का कोई फायदा नहीं। 

दुनिया में आदमी के सामने हक आता है मगर वह अपने सुकून को ख़त्म करना नहीं 
चाहता इसलिए वह उसे कुबूल नहीं करता। वह मिलने वाले फायदे की ख़ातिर मिले हुए 
फायदे को छोड़ने के लिए तैयार नहीं होता। यहां की इज्जत, यहां का आराम, यहां की 
मस्लेहतें उसे इतनी कीमती मालूम होती हैं कि उसकी समझ में नहीं आता कि वह किस तरह 
ऐसा करे कि 'चीज' को नजरअंदाज करके अपने आपको शिचीज' से वाबस्ता कर ले। 
हालांकि जब उम्र की मोहलत पूरी होगी तो सौ साल भी ऐसा मालूम होगा जैसा कि वह बस 
एक दिन था जो आया और ख़त्म हो गया। 


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पस क्या तुम यह ख्याल करते हो कि हमने तुम्हें बेमक्सद पैदा किया है और तुम हमारे 
पास नहीं लाए जाओगे। पस बहुत बरतर (उच्च) है अल्लाह, बादशाह हकीकी, उसके 
सिवा कोई माबूद (पूज्य) नहीं। वह मालिक है अर्श अजीम का। और जो शख्स अल्लाह 
के साथ किसी और माबूद को पुकारे, जिसके हक में उसके पास कोई दलील नहीं। तो 
उसका हिसाब उसके रब के पास है बेशक मुंकिरों को फलाह न होगी। और कहो कि 
ऐ मेरे रब, मुझे बख्श दे और मुझ पर रहम फरमा, तू बेहतरीन रहम फरमाने वाला है। 
(II5-28) 





इंसानों में दो किस्म के इंसान हैं। कोई इंसान बाउसूल जिंदगी गुजारता है और कोई 
बेउसूल। कोई अनदेखी सदाकत (सच्चाई) के लिए अपने आपको कुर्बान कर देता है और 
कोई सिर्फ दिखाई देने वाली चीजों में मशगूल रहता है। कोई हक की दावत को उसकी सारी 
अजनबियत के बावजूद कुबूल करता है। और कोई उसे नजरअंदाज कर देता है और उसका 
मजाक उड़ाता है। कोई अपने आपको जुल्म से रोकता है, सिर्फ इसलिए कि खुदा ने उसे ऐसा 
करने से मना किया है। कोई मौका पाते ही दूसरों के लिए जालिम बन जाता है, क्योंकि 
उसका नस (अंतःकरण) उससे ऐसा ही करने के लिए कह रहा है। 

अगर इस दुनिया का कोई अंजाम न हो, अगर वह इसी तरह चलती रहे और इसी तरह 
बिलआखिर उसका खात्मा हो जाए तो इसका मतलब यह है कि यह एक बेमक्सद हंगामे के 


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सूरह-24. अन-नूर 96I पारा 78 


सिवा और कुछ न थी। मगर कायनात की मअनवियत (सार्थकता) इस किस्म के बेमअना 
नजरिये की तरदीद (खंडन) करती है। कायनात का आला निजाम इससे इंकार करता है कि 
उसका ख़ालिक एक गैर संजीदा हस्ती हो। 

कायनात अपने वसीअ निजाम (सार्वभौम व्यवस्था) के साथ जिस ख़ालिक का तआरुफ 
करा रही है वह एक ऐसा ख़ालिक है जो अपनी जात में आखिरी हद तक कामिल है। ऐसे 
ख़लिक के बारे में नाक्राबिले कयास है कि वह दो मूरन्नलिफ किस्म के इंसानों का यकसां 
(समान) अंजाम होते हुए देखे और उसे गवारा कर ले। यह सरासर नामुमकिन है। यकीनन 
ऐसा होने वाला है कि मालिके कायनात एक तबके को बेकीमत कर दे जिस तरह उन्होंने हक 
(सत्य) को बेकीमत किया और दूसरे तबके की कद्रदानी करे जिस तरह उन्होंने हक की 
कानो की। 

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आयतें-64 सूरह-24. अन-नूर रुकूअ-9 
(मदीना में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
यह एक सूरह है जिसे हमने उतारा है और इसे हमने फर्ज किया है। और इसमें हमने 
साफ-साफ आयते उतारी हैं। जानी (व्यभिचारी) औरत और जानी मर्द दोनों में से हर 
एक को सौ कोड़े मारो। और तुम्हें उन दोनों पर अल्लाह के दीन के मामले में रहम न 
आना चाहिए। अगर तुम अल्लाह पर और आख़िरत के दिन पर ईमान रखते हो। और 
चाहिए कि दोनों की सजा के वक्‍त मुसलमानों का एक गिरोह मौजूद रहे। जानी निकाह 
न करे मगर जानिया (व्यभिचारिणी) के साथ या मुश्रिका (बहुदेववादी स्त्री) के साथ। 


और जानिया के साथ निकाह न करे मगर जानी या मुश्रिक (ब्हुदेववादी पुरुष)। और 
यह हराम कर दिया गया अहले ईमान पर। (।-3) 








सूरह नूर गजवा (जंग) बनी अलमुस्तलक के बाद सन्‌ 6 हि० में नाजिल हुई। इस गजवे 
में एक मामूली वाकया पेश आया । उसे शोशा बनाकर मदीना के मुनाफिकीन ने हजरत आइशा 


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पारा ।8 962 सूरह-24. अन-नूर 


और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को बदनाम करना शुरू किया। इस सूरह 
में एक तरफ हजरत आइशा को पूरी तरह निर्दोष घोषित किया गया, और दूसरी तरफ वे ख़ास 
अहकाम दिए गए जो मआशिरे (समाज) में इस किस्म की सूरतेहाल पेश आने के बाद नाफिज 
किए जाने चाहिए । 
इस्लामी कानून में जिना (व्यभिचार) बेहद संगीन जुर्म है। ताहम इस्लामी कानून दो 
किस्म के इंसानेंमें फर्ककरता है। एक वह जिसके लिए जाइज सिंफी तअल्लुक (यैन संबंध) 
के मैके मौजूद हों इसके बावजूद वह नाजाइज सिंफी तअल्लुक कायम करे। दूसरा वह जिसे 
अभी जाइज सिं तअल्लुक़ के मैक्के हासिल न हुए हो। 
जानी और जनिया को सौ कौड़ मारं यह जिना कब्ल एहसान की सजा है। यानी 
उस जानी या जानिया की जो निकाह किए हुए न हों। इसके मुकाबले में जिना बाद एहसान 
(शादी-शुदा होने के बाद जिना करना) की सजा रज्म है। यानी मुजरिम को पत्थर मारकर 
हलाक कर देना। रज्म का हुक्म कुरआन (अल माइदा 48) में संक्षेप में और हदीस में 
सविस्तार मौजूद है। 
अवाम के सामने सजा देना दरअस्ल सजा में इबरत (सीख) का पहलू शामिल करना है। 
इसका मकसद यह है कि हाल (वर्तमान) के मुजरिम का अंजाम देखकर मुस्तकबिल (भविष्य) 
के मुजरिम डर जाएं और इस किस्म का जुर्म करने से बाज रहें। 
जानी और जानिया अगर सजा के बाद तौबा और इस्लाह (सुधार) कर लें तो वे दुबारा 
आम मुसलमानों की तरह हो जाएंगे। लेकिन अगर वे तौबा और इस्लाह न करें तो इसके बाद 
वे इस काबिल नहीं रहते कि इस्लामी मआशिरे में वे रिश्ता और तअल्लुक के लिए कुबूल किए 
जा सकें 


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और जो लोग पाक दामन औरतों पर ऐब लगाएं, फिर चार गवाह न ले आएं उन्हें अस्सी 
कौड़े मारो और उनकी गवाही कभी कुबूल न करो। यही लोग नाफरमान हैं। लेकिन 

जो लोग इसके बाद तौबा करें और इस्लाह (सुधार) कर लें तो अल्लाह बर्शने वाला 
महरबान है। (4-5) 





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जिना केशदीद जुर्मकार केका फितरी तकज यह हैकि किसी म जनी पर जिना 
का इल्जाम लगाना भी शदीद जुर्म हो। चुनांचे यह हुक्म दिया गया कि जो शख्स किसी पर 
जिना का इल्जाम लगाए और फिर उसे शरई कायदे के मुताबिक साबित न कर सके, उसे 
अस्सी कौड़े मारे जाएं। मजीद यह कि ऐसे शख्स को हमेशा के लिए शहादत (गवाही) के 
अयोग्य करार दे दिया जाए । यहां तक कि अहनाफ के नजदीक तौबा के बाद भी उसकी गवाही 


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सूरह-24. अन-नूर 963 पारा 78 


मामलात में कुबूल नहीं की जाएगी। 
किसी शख्स पर झूठा इल्जाम लगाना उसे अख्लाकी तौर पर कत्ल करने की कोशिश है। 
ऐसे जुर्म पर इस्लाम में सख्त सजाएं मुर्करर की गई हैं। और अगर कोई शख्स दुनिया में सजा 
पाने से बच जाए तब भी वह आख़िरत की सजा से बहरहाल नहीं बच सकता। इल्ला यह कि 
वह तौबा करे और अल्लाह से माफी का तलबगार हो। 


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और जो लोग अपनी बीवियों पर ऐब लगाएं और उनके पास उनके अपने सिवा और 
गवाह न हों तो ऐसे शख़्स की गवाही की सूरत यह है कि वह चार बार अल्लाह की 
कसम खाकर कहे कि बेशक वह सच्चा है। और पांचवीं बार यह कहे कि उस पर 
अल्लाह की लानत हो अगर वह झूठा हो। और औरत से सजा इस तरह टल जाएगी 
कि वह चार बार अल्लाह की कसम खाकर कहे कि यह शख्स झूठा है। और पांचवीं 
बार यह कहे कि मुझ पर अल्लाह का गजब हो अगर यह शख्स सच्चा हो। और अगर 
तुम लोगों पर अल्लाह का फज्ल और उसकी रहमत न होती और यह कि अल्लाह तोबा 

कुबूल करने वाला हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। (6-70) 











इस सिलसिले में एक मसला यह है कि अगर कोई शख्स अपनी बीवी पर बदचलनी का 
इल्जाम लगाए और उसके पास खुद अपने बयान के सिवा कोई ऐनी गवाह मौजूद न हो तो 
उसका फैसला किस तरह होगा। जवाब यह है कि इस सूरत में मामले का फैसला कसम के 
जरिए किया जाएगा जिसे शरई इस्तलाह (शब्दावली) में लिआन कहा जाता है। 

अगर मर्द मुकर्रह तरीके पर कसम खा ले और औरत ख़ामोश रहे तो मर्द के बयान को 
मान कर औरत के ऊपर मज्कूरा सजा नाफिज कर दी जाएगी । और अगर ऐसा हो कि औरत 
भी मप्कूरा तरीके पर कसम खाकर कहे कि वह बेकुसूर है तो फिर उसे सजा नहीं दी जाएगी। 
अलबत्ता इसके बाद दोनों के दर्मियान तफरीक (अलगाव) करा दी जाएगी। 


पारा 78 964 सूरह-24. अन-नूर 





मआशिरत (सामाजिकता) के मामलात बेहद पेचीदा होते हैं। इन मामलात में इंसान जब 
कानूनसाजी करता है तो वह एक पहलू की तरफ झुक कर दूसरे पहलू को छोड़ देता है। खुदा 
के कानून में तमाम पहलुओं की कामिल रिआयत है। इस एतबार से खुदा का कानून इंसान 
के लिए बहुत बड़ी रहमत है। हर 


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जिन लोगों ने यह तूफान बरपा किया वह तुम्हारे अंदर ही की एक जमाअत है। तुम 
उसे अपने हक में बुरा न समझो बल्कि यह तुम्हारे लिए बेहतर है। उनमें से हर आदमी 

के लिए वह है जितना उसने गुनाह कमाया। और जिसने उसमें सबसे बड़ा हिस्सा लिया 
उसके लिए बड़ा अजाब है। (॥) 





दाऔ (आस्वानकर्ता) अगर वाकेअतन सच्चाई पर है तो उसके खिलाफ झूठे प्रोपेगडे 
हमेशा उसके हक में मुफीद साबित होते हैं क्योंकि झूठे प्रोपेगंडों की हकीकत आखिरकार 
खुलकर रहती है। और जब हकीकत खुलती है तो एक तरफ दाओ का बरसरे हक होना और 
ज्यादा वाजेह हो जाता है। और जो लोग उसके बारे में दुविधा में थे वे इसके बाद यकीन के 
दर्जे तक पहुंच जाते हैं। वे अमलन देख लेते हैं कि हक के दाऔ के मुखालिफीन (विरोधियों) 
के पास झूठे इल्जाम और बेबुनियाद इत्तिहाम (आक्षेप) के सिवा और कुछ नहीं । 
हजरत आइशा सिद्दीका के खिलाफ इल्जाम में सबसे बड़ा हिस्सा लेने वाला मशहूर 
मुनाफिक अब्दुल्लाह बिन उबई था। उसके लिए कुरआन में सख्त उख़रवी अजाब का एलान 
किया गया। मगर दुनिया में उसे कोई सजा नहीं दी गई, यहां तक कि वह अपनी तबई 
(स्वाभाविक) मौत मर गया। वाकये के बाद हजरत उमर ने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु 
अलैहि व सल्लम से कहा कि इस शख्स को कत्ल कर दिया जाए। आपने फरमाया : 'ऐ उमर, 
क्या होगा जब लोग कहेंगे कि मुहम्मद अपने साथियों को कत्ल करते हैं। इससे अंदाजा होता 
है कि बअज औकात हिक्मत का तकाजा यह होता है कि बड़ेबड़े मुजरिमीन को भी दुनिया 
में सजा न दी जाए बल्कि उनके मामले को आखिरत के ऊपर छोड़ दिया जाए 
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सूरह-24. अन-नूर 965 पारा 78 


जब तुम लोगों ने उसे सुना तो मुसलमान मर्दों और मुसलमान औरतों ने एक दूसरे के 
बारे में नेक गुमान क्यों न किया और क्यों न कहा कि यह खुला हुआ बोहतान (आक्षेप) 
है। ये लोग इस पर चार गवाह क्यों न लाए। पस जब वे गवाह नहीं लाए तो अल्लाह 
के नजदीक वही झूठे हैं। (2-3) 





एक मुसलमान पर दूसरे मुसलमान का यह हक है कि वह उसके बारे में हमेशा नेक 
गुमान करे। दूसरे के बारे में बदगुमानी करना ख़ुद अपनी बदनफ्सी (कुप्रवृत्ति) का सुबूत है। 
और दूसरे के बारे में नेक गुमान करना अपनी नेकनफ्सी (सदप्रवृत्ति) का सुबूत । 
सही तरीका यह है कि जब भी कोई शख्स किसी के बारे में बुरी ख़बर दे तो फौरन उससे 
सुबूत का मुतालबा किया जाए। जो शख्स सुने वह महज सुनकर उसे दोहराने न लगे बल्कि 
वह ख़बर देने वाले से कहे कि अगर तुम सच्चे हो तो शरीअत के मुताबिक गवाह ले आओ। 
अगर वह गवाह ले आए तो उसकी बात काबिले लिहाज हो सकती है। और अगर वह अपनी 
बात के हक में गवाह न लाए तो वह खुद सबसे बड़ा मुजरिम है। क्योंकि किसी शख्स को 
भी यह हक नहीं है कि वह बगैर सुबूत किसी के ऊपर ऐब लगाने लगे। 
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और अगर तुम लोगों पर दुनिया और आखिरत में अल्लाह का फज्ल और उसकी रहमत 
न होती तो जिन बातों में तुम पड़ गए थे उसके सबब तुम पर कोई बड़ी आफत आ 
जाती। जबकि तुम उसे अपनी जबानों से नकल कर रहे थे। और अपने मुंह से ऐसी 
बात कह रहे थे जिसका तुम्हें कोई इल्म न था। और तुम उसे एक मामूली बात समझ 
रहे थे। हालांकि वह अल्लाह के नजदीक बहुत भारी बात है। और जब तुमने उसे सुना 
तो यूं क्यों न कहा कि हमें जेबा नहीं कि हम ऐसी बात मुंह से निकालें। मआजल्लाह, 
यह बहुत बड़ा बोहतान (आक्षेप) है। अल्लाह तुम्हें नसीहत करता है कि फिर कभी ऐसा 


न करना अगर तुम मोमिन हो। अल्लाह तुमसे साफसाफ अहकाम बयान करता है। 
और अल्लाह जानने वाला हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। (4-8) 





पारा 78 966 सूरह-24. अन-नूर 





अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की हैसियत हक के दाज (आस्वानकर्ता) 
की थी। हक के दाऔ का मामला बेहद नाजुक मामला होता है। किरदार की एक गलती 
उसके पूरे मिशन को ढा देने के लिए काफी होती है। ऐसी हालत में जिन लोगों ने यह किया 
कि एक इस्लामी ख़ातून के बारे में एक बेबुनियाद बात सुनकर उसे इधर-उधर बयान करने 
लगे, उन्होंने सख्त गैर जिम्मेदारी का सुबूत दिया। अगर अल्लाह तआला की ख़ुसूसी मदद से 
उस इल्जाम की बरवक्त तरदीद न हो गई होती तो यह गलती इस्लाम को नाकाबिले तलाफी 
नुक्सान पहुंचाने का सबब बन जाती। इसके नतीजे में पूरा इस्लामी मआशिरा बदगुमानियों 
का शिकार हो जाता। मुसलमान दो गिरोहों में बटकर आपस में लड़ने लगते। जिस गिरोह के 
लिए खुदा का मंसूबा यह था कि उसके जरिए से शिक का आलमी गलबा ख़त्म किया जाए 
वे आपस की जंग में ख़ुद अपने आपको ख़त्म कर लेता। 


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बेशक जो लोग यह चाहते हैं कि मुसलमानों में बेहयाई का चर्चा हो उनके लिए दुनिया 
और आख़िरत में दर्दनाक सजा है। और अल्लाह जानता है और तुम नहीं जानते। और 


अगर तुम पर अल्लाह का फज्ल और उसकी रहमत न होती, और यह कि अल्लाह नमी 
करने वाला रहमत करने वाला है। (।9-20) 





इस आयत में 'फाहिशा' की इशाअत (प्रसार) से मुराद उसी चीज की इशाअत है जिसे 
ऊपर आयत नम्बर ।! में इपक कहा गया है। यानी किसी के खिलाफ बेबुनियाद इल्जाम 
वजअ करना और उसे लोगों के अंदर फैलाना। 

बात कहने के दो तरीके हैं। एक यह कि आदमी सिर्फ वह बात अपने मुंह से निकाले 
जिसके हक में उसके पास फिलवाकअ कोई मजबूत दलील हो, जो शरई तौर पर साबित की 
जा सके। दूसरा तरीका यह है कि किसी हकीकी बुनियाद के बगैर खुद अपने जेहन से बात 
गढ़ना और उसे लोगों से बयान करना। पहला तरीका जाइज तरीका है। और दूसरा तरीका 
सरासर नाजाइज तरीक । 

आम तौर पर ऐसा होता है कि अपने मुखालिफ (विरोधी) के बारे में कोई बात हो तो 
आदमी उसकी ज्यादा तहकीक की जरूरत नहीं समझता। वह बगैर बहस उसे मान लेता है 
और दूसरों से उसे बयान करना शुरू कर देता है। यह न सिर्फ गैर जिम्मेदाराना फेअल (कृत्य) 
है बल्कि वह बहुत बड़ा जुर्म है। वह दुनिया में भी काबिले सजा है और आख़िरत में भी। 





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सूरह-24. अन-नूर 967 पारा 8 
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ऐ ईमान वालो, तुम शैतान के कदमों पर न चलो। और जो शख्स शैतान के कदमों 
पर चलेगा तो वह उसे बेहयाई और बदी ही का काम करने को कहेगा। और अगर तुम 
पर अल्लाह का फज्ल और उसकी रहमत न होती तो तुम में से कोई शख्स पाक न 


हो सकता। लेकिन अल्लाह ही जिसे चाहता है पाक कर देता है। और अल्लाह सुनने 
वाला जानने वाला है। (2]) 





शैतान के कदमों पर चलना यह है कि आदमी शैतानी वसवसों की पैरवी करने लगे। एक 
बेबुनियाद बात पर जब किसी के अंदर बदगुमानी के जज्बात पैदा होते हैं तो यह एक शैतानी 
वसवसा होता है। अपने मुखालिफ के बारे में जब आदमी के अंदर मंफी (नकारात्मक) 
ख्यालात उभरते हैं तो यह भी दरअस्ल शैतान होता है जो उसके दिल में रेंगता है। ऐसे 
जज्बात और ख्यालात जब किसी के अंदर पैदा हों तो उसे चाहिए कि वह अंदर ही अंदर उन्हें 
कुचल दे, न यह कि वह उनकी पैरवी करने लगे। ऐसे एहसासात की पैरवी करना बराहेरास्त 
शैतान की पैरवी करना है। 

दूसरों के खिलाफ तूफान उठाना एक ऐसा अमल है जो तवाजोअ (शालीनता) के 
खिलाफ है। आम तौर पर ऐसा होता है कि आदमी अपने बारे में जरूरत से ज्यादा खुशगुमान 
होता है। और दूसरे के बारे में जरूरत से ज्यादा बदगुमान । ये दोनों ही बातें ऐसी हैं जो ईमान 
के साथ मुताबिकत नहीं रखतीं। अगर आदमी के अंदर ईमानी तवाजोअ पैदा हो जाए तो वह 
अपने एहतिसाब (जांच) में इतना ज्यादा मशगूल होगा कि उसे फुरसत ही न होगी कि वह 
दूसरे के एहतिसाब का झूठा झंडा उठाए। 


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और तुम में से जो लोग फज्ल वाले और वुस्अत (सामर्थ्य) वाले हैं वे इस बात 
की कसम न खाएं कि वे अपने रिश्तेदारों और मिस्कीनों और ख़ुदा की राह में 
हिजरत करने वालों को न देंगे। और चाहिए कि वे माफ कर दे और दरगुजर करें। 


पारा 8 968 सूरह-24. अन-नूर 
क्या तुम नहीं चाहते कि अल्लाह तुम्हें माफ करे। और अल्लाह बरुशने वाला, 


महरबान है। (2१) 





हजरत आइशा के खिलाफ तूफान उठाने वालों में एक साहब मिसतह बिन उसासा थे। वह 
एक ्मुफिेस (गरीब) मुहाजिर थे और हजरत अबूबक्र के दूर के रिश्तेदार थे। हजरत अबूबक्र 
इआनत के तौर पर उन्हें कुछ रकम दिया करते थे। हजरत आइशा अबूबक्र की साहबजादी थीं। 
कुदरती तौर पर हजरत अबूबक्र को मिसतह बिन उसासा के अमल से तकलीफ हुई । आपने 
कसम खा ली कि वह आइंदा मिसतह बिन उसासा की कोई मदद न करेंगे। 

इस्लाम में मोहताजों की मदद उनकी मोहताजी की बुनियाद पर होती है न कि किसी 
और बुनियाद पर। चुनांचे कुरआन में यह हुक्म उतरा कि तुम में से जो लोग साहिबे माल हैं 
वे जाती शिकायत की बिना पर बेमाल लोगों की इमदाद बंद न करें। क्या तुम नहीं चाहते 
कि खुदा तुम्हें माफ कर दे। अगर तुम अपने लिए खुदा से माफी के उम्मीदवार हो तो तुम्हें 
भी दूसरों के बारे में माफी का तरीका इस़्तियार करना चाहिए । यह आयत सुनकर हजरत 
अबूबक्र ने कहा : हां खुदा की कसम हम चाहते हैं ऐ हमारे रब कि तू हमें माफ कर दे।' 
और दुबारा मिसतह की इमदाद जारी कर दी। 

मोमिन की नजर में सबसे ज्यादा अहमियत खुदा के हुक्म की होती है। ख़ुदा का हुक्म 
सामने आते ही वह फौरन झुक जाता है, चाहे ख़ुदा का हुक्म उसकी ख्वाहिश के सरासर 
खिलाफ क्यों न हो। 


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बेशक जो लोग पाक दामन, बेखबर, ईमान वाली औरतों पर तोहमत लगाते हैं, उन 
पर दुनिया और आखिरत में लानत की गई। और उनके लिए बड़ा अजाब है। उस दिन 
जबकि उनकी जबानें उनके खिलाफ गवाही देंगी और उनके हाथ और उनके पांव भी 


उन कामों की जो कि ये लोग करते थे। उस दिन अल्लाह उन्हें वाजिबी बदला पूरा-पूरा 
देगा। और वे जान लेंगे कि अल्लाह ही हक है, खोलने वाला है। (2३-25) 





इंसान अपनी जबान से दूसरों के खिलाफ बुरे अल्फाज निकालता है। मगर वह नहीं 
जानता कि उसकी जबान से निकले हुए अल्फाज दूसरों तक पहुंचने से पहले खुदा तक पहुंच 
रहे हैं। आदमी अपने हाथ और अपने पांव को दूसरों पर जुल्म करने के लिए इस्तेमाल करता 


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सूरह-24. अन-नूर 969 पारा 78 


है। मगर वह इससे बेखबर होता है कि कियामत जब आएगी तो उसके हाथ और पांव उसके 
हाथ और पांव न रहेंगे बल्कि वह ख़ुदा के गवाह बन जाएंगे। 

यही बेख़बरी तमाम बुराइयों की अस्ल जड़ है। अगर आदमी को इस हकीकते हाल का 
वाकई एहसास हो कि वह ऐसी दुनिया में है जहां वह हर आन खुदा की निगाह में है, जहां 
उसका हर अमल खुदाई निजाम के तहत रिकॉर्ड हो रहा है तो उसकी जिंदगी बिल्कुल बदल 
जाए। वह हर लफ्ज तौल कर अपनी जबान से निकाले। वह अपने हाथ और पांव की ताकत 
को इंतिहाई एहतियात के साथ इस्तेमाल करे। 


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खबीसात (गंदी बातें) ख़बीसों के लिए हैं और ख़बीस (गंदे लोग) ख़बीसात के लिए 
हैं। और तय्यिबात (अच्छी बातें) तय्यबों के लिए हैं और तय्यब (अच्छे लोग) तय्यिबात 
के लिए। वे लोग बरी हैं उन बातों से जो ये कहते हैं। उनके लिए बश्‍्शिश है और 
इज् की री है। (2) 





ख़बीसात के मुराद ख़बीस कलिमात (बुरी बातें) हैं और इसी तरह तस्यिबात से मुराद 
तय्यिब कलिमात (अच्छी बातें)। मतलब यह है कि महज किसी के बुरा कहने से कोई शख्स 
बुरा नहीं हो जाता। आदमी ख़ुद जैसा हो वैसी ही बात उसके ऊपर चस्पां होती है। बुरे लोग 
अगर अच्छे लोगों के बारे मे बुरी बात कहें तो ऐसी बात आख़िरकार ख़ुद कहने वाले पर 
पड़ती है और अच्छे लोग उससे पूरी तरह बरीउज्जिम्मा हो जाते हैं। 

जो लोग अपनी जात में अच्छे हों वे दुनिया में भी झूठे इल्जामात से बरी होकर रहते हैं। 
और आहिरत में तो उनका बरी होना बिल्कुल यकीनी है। आख़िरत में उन्हें मजीद इजाफे 
के साथ ख़ुदा के इनामात मिलेंगे। क्योंकि उनके ख़िलाफ नाहक बातें दरअस्ल इस बात की 
कीमत थीं कि उन्होंने अपने आपको नाहक से काटा और अपने आपको पूरी तरह हक के 
साथ वाबस्ता किया। 


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पारा 78 970 सूरह-24. अन-नूर 


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ऐ ईमान वालो तुम अपने घरों के सिवा दूसरे घरों में दाख़िल न हो जब तक इजाजत 
हासिल न कर लो और घर वालों को सलाम न कर लो। यह तुम्हारे लिए बेहतर है। 
ताकि तुम याद रखो। फिर अगर वहां किसी को न पाओ तो उनमें दाखिल न हो जब 
तक तुम्हें इजाजत न दे दी जाए। और अगर तुमसे कहा जाए कि लौट जाओ तो तुम 
लौट जाओ। यह तुम्हारे लिए बेहतर है। और अल्लाह जानता है जो कुछ तुम करते हो। 
तुम पर इसमें कुछ गुनाह नहीं कि तुम उन घरों में दाखिल हो जिनमें कोई न रहता हो। 
उनमें तुम्हारे फायदे की कोई चीज हो। और अल्लाह जानता है जो कुछ तुम जाहिर करते 
हो और जो कुछ तुम छुपाते हो। (27-29) 





इज्तिमाई (सामूहिक) जिंदगी में अक्सर मुलाकात की जरूरत पेश आती है। अब एक 
तरीका यह है कि आदमी बिला इत्तला किसी के यहां पहुंचे और अचानक उसके मकान के 
अंदर दाखिल हो जाए। यह तरीका दोनों ही के लिए तकलीफ का बाइस है। इसलिए पेशगी 
इजाजत को मुलाकात के आदाब में शामिल किया गया। 

अगर मुमकिन हो तो बेहतर तरीका यह है कि अपने घर से रवाना होने से पहले साहिबे 
मुलाकात से रावता कायम किया जाए और उससे पेशगी तौर पर मुलाकात का वक्त मुकर 
कर लिया जाए। और फिर जब आदमी उसके मकान पर पहुंचे तो अंदर दाखिल होने से पहले 
इसकी बाकायदा इजाजत ले। तमद्दुनी (रीतिगत) हालात के लिहाज से इस इजाजत के 
मुख्तलिफ तरीके हो सकते हैं। ताहम हर तरीके में इस्लामी शाइस्तगी (शालीनता) की शर्त 
मौजूद रहना जरूरी है। 

इस्लाम इज्तिमाई जिंदगी के तमाम मामलात को आलाजर्फी (उच्च-आचरण) की बुनियाद 
पर कायम करना चाहता है। यही आलाजर्फी मुलाकात के मामले में भी मत्लूब है। अगर आप 
किसी से मिलने के लिए उसके घर जाएं, और साहिबेखाना किसी वजह से उस वक्त मुलाकात 
से मअजरत करे तो आपको ख़ुशदिली के साथ वापस आ जाना चाहिए । ताहम वह इज्तिमाई 
मकामात इस हुक्म के मुस्तसना (अपवाद) हैं जहां उसूलन लोगों के लिए दाखिले की आम 
इजाजत हेती है। 


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मोमिन मर्दों से कहो वे अपनी निगाहें नीची रखें और अपनी शर्मगाहों की 
हिफाजत करें। यह उनके लिए पाकीजा है। बेशक अल्लाह बाख़बर है उससे जो 
वे करते हैं। (30) 


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सूरह-24. अन-नूर 97I पारा 8 





औरत और मर्द घर में और मआशरे में किस तरह रहें, इस सिलसिले में यहां दो उसूली 
हिदायतें दी गई हैं। एक है सत्र को ढांकना। और दूसरे निगाह को नीची रखना। 

मर्द के जिस्म का वह हिस्सा जो उसे हर हाल में छुपाए रखना है वह नाफ से लेकर घुटने 
तक है। यह सत्र है और उसे अपनी बीवी के सिवा किसी और के सामने खोलना जाइज 
नहीं। इल्ला यह कि इस नौइयत की कोई जरूरत पेश आ जाए जबकि हराम भी हलाल हो 
जाता है। मसलन मेडिकल जांच के लिए। 

दूसरी जरूरी चीज यह है कि जब मर्द और औरत का सामना हो तो मर्दों को चाहिए कि 
वे अपनी निगाहें नीची रखें। मर्द और औरत की मुलाकात इस तरह बेतकल्लुफ अंदाज में नहीं 
होनी चाहिए जिस तरह मर्द और मर्द एक दूसरे से मिलते हैं। मर्द और औरत की मुलाकात 
में मर्द की निगाहें नीची रहनी चाहिएं। अगर इत्तफाकन मर्द की निगाह किसी अजनबी औरत 
पर पड़ जाए तो वह फौरन अपनी नजर उससे हटा ले। वह जानबूझकर दूसरी बार उसकी 
तरफ न देखे। 

निगाहें नीची रखने और शर्मगाहों की हिफाज़त करने का जो हुक्म मर्दों के लिए है वही 
हुक्म औरतों के लिए भी है, जैसा कि अगली आयत (3]) से वाजेह है। 


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और मोमिन औरतों से कहो कि वे अपनी निगाहें नीची रखें और अपनी शर्मगाहों की 
हिफाजत करं। और अपनी जीनत (बनाव-सिंगार) को जाहिर न करें। मगर जो उसमें 

से जाहिर हो जाए और अपने दुपट्टे अपने सीनों पर डाले रहं। और अपनी जीनत को 

जाहिर न करें मगर अपने शहरों पर या अपने बाप पर या अपने शोहर के बाप पर या 
अपने बेटों पर या अपने शोहर के बेटों पर या अपने भाइयों पर या अपने भाइयों के 
बेटों पर या अपनी बहिनों के बेटों पर या अपनी औरतों पर या अपने ममलूक (गुलाम) 


पारा ।8 972 सूरह-24. अन-नूर 


पर या जसत (अधीन) मर्दों पर जो कुछ गरज नहीं रखते। या ऐसे लड़कों पर जो औरतों 
के पर्दे की बातों से अभी नावाकिफ हों। वे अपने पांव जोर से न मारं कि उनकी छुपी 

जीनत मालूम हो जाए। और ऐ ईमान वालो, तुम सब मिलकर अल्लाह की तरफ तोबा 
करो ताकि तुम फलाह पाओ। (3]) 





ख़्वातीन के सिलसिले में इस्लाम के अहकाम दो पहलुओं से तअल्लुक रखते हैं। एक वह 
जिसका उन्वान (विषय) सह है और दूसरा वह जिसका उन्वान हिजाब है। सत्र का तअल्लुक 
जिस्म के पर्दे से है। यानी औरत चाहे घर के अंदर हो या घर के बाहर, उसे अपने बदन का 
कौन सा हिस्सा, किस के सामने और किन हालात में खुला रखना जाइज है और कब खुला 
रखना जाइज नहीं। 

हिजाब का तअल्लुक बाहर के पर्दै से है। यानी इस मसले से कि शरीअत ने औरत को 
किन हालात में घर से बाहर निकलने और सफर करने की इजाजत दी है। इन आयात में 
बुनियादी तौर पर सतर का मसला बयान हुआ है। हिजाब का मसला आगे सूरह अहजाब में 
है। 

ऐ मोमिनों तुम सब अल्लाह की तरफ रुजूअ करों' ये अल्फाज बताते हैं कि अहकामे 
शरीअत की तामील के सिलसिले में सबसे अहम चीज यह है कि दिलों के अंदर उसकी 
आमादगी हो। सहाबा और सहाबियात इस मामले में आखिरी मेयारी दर्जे पर थे। हजरत 
आइशा कहती हैं कि खुदा की कसम मैंने खुदा की किताब की तस्दीक और उसके अहकाम 
पर ईमान के मामले में अंसार की औरतों से बेहतर किसी को नहीं पाया। जब सूरह नूर की 
आयत “वल यजरिब-न बिखुमुरिहिन-न अला जुयूबिहिन-न०' उतरी तो उनके मर्द अपने घरों 
की तरफ लौटे। उन्होंने अपनी औरतों और लड़कियों और बहिनों को वह हुक्म सुनाया जो 
खुदा ने उनके लिए उतारा था। पस अंसार की औरतों में से हर औरत फौरन उठ खड़ी हुई। 
किसी ने अपनी कमरपट्टी खोल कर और किसी ने अपनी चादर लेकर उसका दुपट्टा बनाया 
और उसे ओढ़ लिया । अगले दिन सुबह की नमाज उन्होंने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि 
व सल्लम के पीछे पढ़ी तो दुपट्टे की वजह से ऐसा मालूम होता था गोया उनके सिरों पर कौवे 
हों। (तफ्सीर इन्ने कसीर) 


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सूरह-24. अन-नूर 973 पारा 8 
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और तुम में जो बेनिकाह हां उनका निकाह कर दो। और तुम्हारे गुलामों और दासियों 

में से जो निकाह के लायक हों उनका भी। अगर वे गरीब होंगे तो अल्लाह उन्हें अपने 
फज्ल से ग़नी कर देगा। और अल्लाह वुसअत (सामर्थ्य) वाला, जानने वाला है। और 
जो निकाह का मोका न पाएं उन्हें चाहिए कि वे जब्त करें यहां तक कि अल्लाह अपने 

फज्ल से उन्हें गनी कर दे। और तुम्हारे ममलूकों (गुलामों) में से जो मुकातब (लिखित) 

होने के तालिब हों तो उन्हें मुकातब बना लो अगर तुम उनमें सलाहियत (क्षमता) 
पाओ। और उन्हें उस माल में से दो जो अल्लाह ने तुम्हें दिया है। और अपने दासियों 
को पेशे पर मजबूर न करो जबकि वे पाक दामन रहना चाहती हों, महज इसलिए कि 
दुनियावी जिंदगी का कुछ फायदा तुम्हें हासिल हो जाए। और जो शख्स उन्हें मजबूर 

करेगा तो अल्लाह इस जब्र के बाद बर्शने वाला महरबान है। और बेशक हमने तुम्हारी 
तरफ रोशन आयतें उतारी हैं और उन लोगों की मिसालें भी जो तुमसे पहले गुजर चुके 

हैं और डरने वालों के लिए नसीहत भी। (2-34) 


इस्लाम मर्द और औरत के लिए शादी-शुदा जिंदगी पसंद करता है। किसी भी उज़ की 
वजह से निकाह से रुकना इस्लाम में दुरुस्त नहीं। कुछ लोग किसी जाती सबब से गैर शादी 
शुदा रह जाएं तो उस वक्‍त इस्लाम पूरे मुआशिरे में यह रूह देखना चाहता है कि तमाम लोग 
उसे एक मुश्तरक (साझा) मसला समझें और उस वक्त तक मुतमइन न हों जब तक वे इस 
मसले को शरई तरीके पर हल न कर लें। 

किताब या मुकातिबत के लफ्जी मअना हैं लिखना। इससे मुराद वह तहरीर है जिसमें 
कोई दासी या गुलाम अपने आका से यह अहद करे कि मैं इतनी मुदूदत में इतना माल 
कमाकर तुझे दे दूंगा । और इसके बाद से मैं आजाद हूंगा। 

इस्लाम जिस जमाने में आया उस वक्‍त अरब में और सारी दुनिया में गुलाम बनाने का 
रिवाज था। इस्लाम ने निहायत मुनज्जम तौर पर उसे ख़त्म करना शुरू किया । उसी में से एक 
तरीका वह था जिसे मुकातिबत कहा जाता है। ताहम इस्लाम ने 'गर्दनें छुड़ाने! की यह मुहिम 
अपने आम उसूल के मुताबिक तदरीज (क्रम) के तहत चलाई। मुख़्तलिफ तरीकों से गुलामों 
और दासियों को रिहा किया जाता रहा। यहां तक कि ख़िलाफत राशिदा के आखिरी दौर तक 
इस इदारे का तकरीबन ख़ात्मा हो गया। 

कदीम जमाने में कुछ लोग अपनी दासियों से कस्ब 





(कमाई) कराते थे। मदीना के 


पारा 78 974 सूरह-24. अन-नूर 
मुनाफिक अब्दुल्लाह बिन उबई के पास कई दासियां थीं जिनसे बदकारी कराकर वह रकम 

हासिल करता था। उनमें से एक दासी ने इस्लाम कुबूल कर लिया और कस्ब से बाज आना 

चाहा तो अब्दुल्लाह बिन उबई ने उस पर जब्र करना शुरू किया। बिलआख़िर अल्लाह के 
रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के हुक्म से यह दासी अब्दुल्लाह बिन उबई के कब्जे से रिहा 


कराई गई। 
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अल्लाह आसमानों और जमीन की रोशनी है। उसकी रोशनी की मिसाल ऐसी है जैसो 
एक ताक उसमें एक चिराग़ है। चिराग़ एक शीशे के अंदर है। शीशा ऐसा है जैसे एक 
चमकदार तारा। वह जैतून के एक ऐसे मुबारक दरख़्त के तेल से रोशन किया जाता 

है जो न पूर्वी है और न पश्चिमी। उसका तेल ऐसा है गोया आग के छुए कौर ही 
ख़ुद-ब-ख़ुद जल उठेगा। अल्लाह अपनी रोशनी की राह दिखाता है जिसे चाहता है। 
और अल्लाह लोगों के लिए मिसालें बयान करता है। और अल्लाह हर चीज को जानने 
वाला है। (35) 





यह एक मुरक्कब तमसील (संयुक्त उपमा) है। इस आयत में रोशनी से मुराद अल्लाह 
तआला की हिदायत है। ताक से मुराद इंसान का दिल है और चिराग से मुराद ईमान की 
इस्तेदाद (समर्थता) है। शीशा और तेल इसी इस्तेदाद की मजीद (अतिरिक्त) खुसूसियत को 
बता रहे हैं। शीशा इस बात की ताबीर है कि यह इस्तेदाद कल्बे इंसानी में इस तरह रखी गई 
हैकि वह ख़रजी असरात से पूरी तरह महफूज रहे। और शपफाफ तेल इस बात की ताबीर 
है कि उसकी यह इस्तेदाद इतनी कवी (सशक्त) है कि वह बेताब हो रही है कि कब उसके 
सामने हक आए और वह उसे बिला ताख़ीर कुबूल कर ले। 

यह एक हकीकत है कि इस कायनात में रोशनी का वाहिद माखज (स्रोत) सिर्फ एक 
अल्लाह की जात है। उसी से हर एक को रोशनी और हिदायत मिलती है। मजीद यह कि 
अल्लाह तआला ने इंसान को इस तरह पैदा किया है कि उसके अंदर फितरी तौर पर हक की 
तलब मौजूद है। यह तलब बेहद ताकतवर है। और अगर उसे जाया न किया जाए तो वह 
हर आन अपना जवाब पाने के लिए बेताब रहती है। बएतबार फितरत इंसान की इस्तेदादे 


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सूरह-24. अन-नूर 975 पारा 78 
कुबूल इतनी बढ़ी हुई है गोया वह कोई पेट्रोल है कि आग अगर उसके करीब भी लाई जाए 
तो वह फौरन भड़क उठे। 
मोमिन वह हकीकी इंसान है जिसने अपनी फितरी इस्तेदाद (समर्थता) को जाया नहीं 
किया। चुनांचे हक की दावत सामने आते ही उसकी इस्तेदाद जाग उठी । नूरे फितरत के साथ 
नूरे हिदायत ने मिलकर उसके पूरे वजूद को रोशन कर दिया। 


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ऐसे घरों में जिनके बारे में अल्लाह ने हुक्म दिया है कि वे बुलन्द किए जाएं और उनमें 
उसके नाम का जिक्र किया जाए उनमें सुबह व शाम अल्लाह की याद करते हैं वे लोग 
जिन्हें तिजारत और ख़रीद व फरोख्त अल्लाह की याद से गाफिल नहीं करती और न 
नमाज की इकामत से और जकात की अदायगी से। वे उस दिन से डरते हैं जिसमें दिल 
और आंखें उलट जाएंगी। कि अल्लाह उन्हें उनके अमल का बेहतरीन बदला दे और 
उन्हेमेद (अतिरिक्त) अपने फ्त से नवाजे। और अल्लाह जिसे चाहता है बेहिसाब 
देता है। (३6-38) 





इंसानी जिस्म में जो मकाम दिल का है वही मकाम इंसानी बस्ती में मस्जिद का है। 
इंसान का दिल ईमान से आबाद होता है और मस्जिदें अल्लाह की इबादत से आबाद होती 
हैं। मस्जिदें खुदा का घर हैं। वे इसीलिए बनाई जाती हैं कि वहां अल्लाह की याद की जाए। 
वहां आने वाले वही लोग होते हैं जो इसलिए आते हैं कि वहां के रूहानी माहौल में अल्लाह 
की तरफ मुतवज्जह हो सकें। वे इसलिए आते हैं कि अपने आपको यकसू (एकाग्र) करके कुछ 
वक्त अल्लाह की इबादत में गुजारे। 

जिस इंसान को यह तौफीक मिले कि वह अपनी फितरत की आवाज को पहचान कर 
ख़ुदा पर ईमान लाए। और फिर वह अपने आपको मस्जिद वाले आमाल में मशगूल कर ले। 
उसके दिल में अल्लाह अपनी हैबत का एहसास डाल देता है जो मौजूदा दुनिया में किसी 
इंसान के लिए सबसे बड़ी नेमत है। यही वे लोग हैं जो कुर्बानी की सतह पर ख़ुदापरस्ती को 
इख्तियार करते हैं। और गैर ख़ुदा से कटकर ख़ुदा वाले बनते हैं। 

यही वह इंसान है जो अल्लाह के यहां बेहतरीन इनाम का मुस्तहिक है। अल्लाह उसे 
वहिसाब फल अत फमाएगा। 








पारा 28 976 सूरह-24. अन-नूर 
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और जिन लोगों ने इंकार किया उनके आमाल ऐसे हैं जैसे चटियल मेदान में सराब 
(मरीचिका)। प्यासा उसे पानी ख्याल करता है यहां तक कि जब वह उसके पास 
आया तो उसे कुछ न पाया। और उसने वहां अल्लाह को मौजूद पाया, पस उसने 
उसका हिसाब चुका दिया। और अल्लाह जल्द हिसाब चुकाने वाला है। या जैसे 
एक गहरे समुद्र में अंधेरा हो, मौज के ऊपर मोज उठ रही हो, ऊपर से बादल छाए 
हुए हों, ऊपर तले बहुत से अंधेरे, अगर कोई अपना हाथ निकाले तो उसे भी 


न देख पाए। और जिसे अल्लाह रोशनी न दे तो उसके लिए कोई रोशनी नहीं। 
(39-40) 








इंसानों की एक किस्म वह है जिसका जिक्र आयत 535 में था। यह वह इंसान है 
जो अपनी फितरी इस्तेदाद (समर्थता) को जिंदा रखता है और इसके नतीजे में ईमान की 
दौलत से सरफराज होता है। अब आयत 39-40 में इंसानों की मजीद दो किस्मों का 
जिक्र है। यह वे लोग हैं जिनका तेल हक की दावत की आग से भड़कने के लिए तैयार 
नहीं होता। 

एक किस्म वह है जो किसी ख़ुदसाख्ता (स्वनिर्मित) दीन पर कायम रहती है। वह झूठी 
तमन्नाओं का एक महल बनाकर उसमें खुश रहती है। ये लोग इसी तरह खुशगुमानियों में पड़े 
रहते हैं। यहां तक कि जब मौत आती है तो उनकी ख़ुशगुमानियों का तिलिस्म टूट जाता है। 
और फिर अचानक उन्हें मालूम होता है कि जिस चीज को वे मंजिल समझे हुए थे वह हलाकत 
के गढ़े के सिवा और कुछ न थी। 

दूसरी किस्म वह है जो खुल्लम खुल्ला मुंकिरों और बागियों की है। ये लोग ख़ुदा की 
हिदायत को छोड़कर बतौर ख़ुद हिदायत वजअ करने की कोशिश करते हैं। मगर वे सरासर 
नाकाम रहते हैं। क्योंकि इस दुनिया में हिदायत देने वाला ख़ुदा के सिवा और कोई नहीं । ख़ुदा 
को छोड़ने के बाद आदमी के हिस्से में इसके सिवा कुछ नहीं रहता कि वह अबदी तौर पर 
अंधेरे में भटकता रहे। 


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सूरह-24. अन-नूर 977 पारा 8 
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क्या तुमने नहीं देखा कि अल्लाह की पाकी बयान करते हैं जो आसमानों और जमीन 

में हैं और चिड़ियां भी पर को फैलाए हुए। हर एक अपनी नमाज को और अपनी तस्वीह 
को जानता है। और अल्लाह को मालूम है जो कुछ वे करते हैं। और अल्लाह ही की 


हुकूमत है आसमानां और जमीन में। और अल्लाह ही की तरफ है सबकी वापसी। 
(4-42) 





इंसान से खुदा का जो मुतालबा है उसे लफ्ज बदल कर कहें तो वह यह है कि इंसान 
चेमा ही रहेजेसा कि अजछए हकीकत (यथार्थतः) उसे रहना चाहिए । यही दीने हक है। इस 
एतबार से सारी कायनात दीने हक पर है। क्योंकि इस कायनात की हर चीज ऐन उसी तरह 
अमल करती है जैसा कि फिलवाकअ उसे अमल करना चाहिए । इंसान के सिवा इस कायनात 
में कोई भी चीज नहीं जिसके अमल में और हकीकते वाकया में कोई टकराव हो। 

इन्हीं बेशुमार चीजों में से एक मिसाल चिड़िया की है। चिड़िया जब अपना पर फैलाए 
हुए फजा में उड़ती है तो वह उसी हकीकत का एक कामिल नमूना होती है। ऐसा मालूम होता 
है गोया वह अबदी हकीकत की दुनिया में कामिल मुवाफिकत करके तैर रही हो। गोया उसने 
अपने ईफावी कू को हकइक (यथार्थ) के वसीअतर समुद्र में गुम कर दिया हो। 

हर एक की एक तस्बीहे ख़ुदावंदी है और वही उससे मत्लूब (अपेक्षित) है। इसी तरह 
इंसान की एक तस्बीह ख़ुदावंदी है और वह उससे मत्लूब है। इंसान अगर इस मामले में 
गफलत या सरकशी का रवैया इख्तियार करे तो उस वक्त उसे इसकी सख्त कीमत अदा 
करनी होगी जब ख़ुदा के साथ उसका सामना पेश आएगा। 


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क्या तुमने देखा नहीं कि अल्लाह बादलों को चलाता है। फिर उन्हें आपस में मिला 
देता है। फिर उन्हें तह-ब-तह कर देता है। फिर तुम बारिश को देखते हो कि उसके 





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पारा 78 978 सूरह-24. अन-नूर 


बीच से निकलती है और वह आसमान सेउसके अंदर के पहाड़ों सेओले बरसाता 

है। फिर उसे जिस पर चाहता है गिराता है। और जिससे चाहता है उन्हें हटा देता 
है। उसकी बिजली की चमक से मालूम होता है कि निगाहों को उचक ले जाएगी। 
अल्लाह रात और दिन को बदलता रहता है। बेशक इसमें सबक है आंख वालों के 
लिए। (43-44) 


यहां दुनिया के चन्द वाकेयात को बतौर तमसील जिक्र करके कहा गया है कि इसमें 
अहले बसीरत (प्रबुद्ध) के लिए इबरत है। इबरत के असल मअना है उबूर करना, तै करना। 
इससे मुराद वह जेहनी सफर है जबकि आदमी एक चीज से दूसरी चीज तक पहुंचता है। जब 


आदमी एक वाक्ये को हवीकत से लिंक (Ln) करता है। जब वह एक जहिरी चीज के 
अंदर उसके मअनवी पहलू को देख लेता है तो इसी का नाम इबरत है। 
बारिश को देखिए जमीन से लेकर सूरज तक एक अजीम हमआहंग अमल (संयुक्त 


प्रक्रिया) के नतीजे में वह चीज वजूद में आती है जिसे बारिश कहते हैं। फिर ये बादल कभी 
जिंदगीबख्श बारिश लाते हैं और कभी इन्हीं बादलों से हलाकतख़ेज ओले बरसने लगते हैं। 
यही मामला बिजली की चमक और रात और दिन की गर्दिश का है। इन जाहिरी वाकेयात 
में बेशुमार मअनवी (अर्थपूर्ण) हकाइक छुपे हुए हैं। जो लोग उन्हें देखकर जाहिर को मअना 
से जोड़ सकें वही खुदा की नजर में बसीरत (सूझबूझ) वाले हैं। 
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और अल्लाह ने हर जानदार को पानी से पेदा किया। फिर उनमें से कोई अपने पेट 
के बल चलता है। और उनमें से कोई दो पांवों पर चलता है। और उनमें से कोई चार 
पैरों पर चलता है। अल्लाह पेदा करता है जो वह चाहता है। बेशक अल्लाह हर चीज 


पर कादिर है। हमने खोलकर बताने वाली आयतें उतार दी हैं। और अल्लाह जिसे 
चाहता है सीधी राह की हिदायत देता है। (45-46) 


दुनिया की चीजों में बजाहिर तअद्दुद (भिन्नता) है। इससे मुश्रिक इंसान ने यह कयास 
(अनुमान) किया कि चीजों के ख़ालिक भी बहुत से हैं। मगर जब चीजों को इस पहलू से देखा 
जाए कि जाहिरी भिन्नता और विविधता के अंदर एक यकसानियत (समरूपता) छुपी हुई है 
तो मामला बिल्कुल बदल जाता हैं 


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सूरह-24. अन-नूर 979 पारा 8 


हैवानात की लाखों किस्में हैं। मगर गहरा मुतालआ बताता है कि इन सबकी अस्ल एक 
है। तमाम हैवानात का हयातयाती (जैविक) निजाम बिल्कुल यकसां (समान) है। इस मुतालओ 
के बाद चीजों की भिन्नता और विविधता ख़ालिक की कुदरत का करिश्मा बन जाता है। एक 
एतबार से जो चीज तअदुदुदे तरीक (बहु-सृजन) का इज्हार मालूम हो रही थी वह दूसरे 
एतबार से तौहीदे तख्ीक (एकीय सृजन) का सुबूत बन जाती है। 

मौजूदा दुनिया एक ऐसी दुनिया है जहां फरेब के दर्मियान हकीकत को पाना पड़ता है। 
यहां अपने आपको धोखा देने वाली बातों से ऊपर उठाना पड़ता है। ताकि आदमी हक का 
मुशाहिदा (सत्य का अवलोकन) कर सके। इसी ख़ास काम के लिए अल्लाह तआला ने 
आदमी को अक्ल की सलाहियत दी है। जो शख्स इस ख़ुदाई टॉर्च को सही तौर पर इस्तेमाल 
करेगा वह रास्ता पा लेगा। और जो शख्स इसे इस्तेमाल नहीं करेगा उसके लिए इस दुनिया 
में भटकने के सिवा कोई और अंजाम मुकदूदर नहीं। 


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और वे कहते हैं कि हम अल्लाह और रसूल पर ईमान लाए और हमने इताअत 
(आज्ञापालन) की। मगर उनमें से एक गिरोह इसके बाद फिर जाता है। और ये लोग 
ईमान लाने वाले नहीं हैं। और जब उन्हें अल्लाह और रसूल की तरफ बुलाया जाता 

है ताकि ख़ुदा का रसूल उनके दर्मियान फैसला करे तो उनमें से एक गिरोह रूगर्दानी 
(अवहेलना) करता है। और अगर हक उन्हें मिलने वाला हो तो उसकी तरफ 
फरमांबरदार बनकर आ जाते हैं। क्या उनके दिलों में बीमारी है या वे शक में पड़े हुए 

हैं या उन्हें यह अंदेशा है कि अल्लाह और उसका रसूल उनके साथ जुल्म करेंगे। बल्कि 
यही लोग जालिम हैं। (47-50) 


कदीम मदीना में एक तबका वह था जिसने बजाहिर इस्लाम कुबूल कर लिया था मगर 
वह इस्लाम के मामले में मुख्लिस (निष्ठावान) न था। इस गिरोह को मुनाफिक (पाखंडी) कहा 
जाता है। ये लोग जबान से तो खुदा व रसूल की इताअत के अल्फाज बोलते थे। मगर जब 
तजर्बा पेश आता तो वे खुद अपने अमल से अपने इस दावे की तरदीद कर देते। 

उस वक़्त सूरतेहाल यह थी कि मदीना में बाकायदा नौइयत की इस्लामी अदालत अभी 


पारा 78 980 सूरह-24. अन-नूर 
कायम नहीं हुई थी। वहां एक तरफ यहूदी सरदार थे जो सैंकड़ों साल से रवाजी तौर पर लोगों 

के फैसले करते चले आ रहे थे। दूसरी तरफ अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम 

मक्का से हिजरत करके वहां पहुंच चुके थे। मुनाफिकीन का हाल यह था कि अगर किसी 
मुसलमान से उनका विवाद हो जाए और वह कहे कि चलो अल्लाह के रसूल के यहां इसका 
फैसला करा लो तो मज्यूरा मुनाफिक उसके लिए सिर्फ इस सूरत में राजी होता था जबकि 

उसे यकीन होता कि मुकदमे की नोइयत ऐसी है कि फैसला उसके अपने हक में हो जाएगा। 

अगर मामला इसके बरअक्स होता तो वह कहता कि फलां यहूदी सरदार के यहां चलो और 
इसका फैसला करा लो। यह बजाहिर होशियारी है मगर यह खुद अपने ऊपर जुल्म करना है। 

इस तरह जीतने वाले आख़िरत में इस हाल में पहुंचेंगे कि वे अपना मुकदमा बिल्कुल हार चुके 
होंगे। 


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ईमान वालों का कील (कथन) तो यह है कि जब वे अल्लाह और उसके रसूल की तरफ 
बुलाए जाएं ताकि रसूल उनके दर्मियान फैसला करे तो वे कहें कि हमने सुना और हमने 
माना। और यही लोग फलाह पाने वाले हैं। और जो शख्स अल्लाह और उसके रसूल 
की इताअत (आज्ञापालन) करे और वह अल्लाह से डरे और वह उसकी मुखालिफत 
(विरोध) से बचे तो यही लोग हैं जो कामयाब होंगे। (5.-52) 








आम आदमी अपने मफाद के ताबेअ (अधीन) होता है। मोमिन वह है जो अपने आपको 
अल्लाह और रसूल का ताबेअ बना ले। जब ख़ुदा और रसूल का फैसला सामने आ जाए तो 
वह हर हाल में वही करे जो ख़ुदा व रसूल का फैसला हो। चाहे वह उसकी ख़ाहिश के 
मुताबिक हो या उसकी ख्वाहिश के खिलाफ। चाहे उसमें उसका मफाद (हित) महूमेक्ष 
हो या उसमें उसका मफाद मजरूह हो रहा हो। 

आख़िरत की कामयाबी सिर्फ उस शख्स के लिए है जिसका ईमान उसे ख़ुदा व रसूल के 
हुक्म के आगे झुका दे। ख़ुदा का एहसास उसके दिल में इस तरह उतर जाए कि वह उसी 
से सबसे ज्यादा डरने लगे। खुदा की नाराजगी से अपने आपको बचाना उसकी जिंदगी का 
सबसे बड़ा मसला बन जाए 


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सूरह-24. अन-नूर 98] पारा 78 
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और वे अल्लाह की कसमें खाते हैं, बड़ी सख्त कसमें, कि अगर तुम उन्हें हुक्म दो तो 

वे जरूर निकलेगे। कहो कि कसमें न खाओ दस्तूर के मुताबिक इताअत (आज्ञापालन) 
चाहिए । बेशक अल्लाह को मालूम है जो तुम करते हो। कहो कि अल्लाह की इताअत 
करो और रसूल की इताअत करो। फिर अगर तुम रूगर्दानी (अवहेलना) करोगे तो रसूल 
पर वह बोझ है जो उस पर डाला गया है और तुम पर वह बोझ है जो तुम पर डाला 
गया है। और अगर तुम उसकी इताअत करोगे तो हिदायत पाओगे। और रसूल के 
जिमे सिर्फ साफसाफ पुहा कना है। (5554) 








जिस शख्स के दिल में गहराई के साथ ख़ुदा उतरा हुआ हो उसकी निगाहें झुक जाती 
हैं। उसकी जबान बंद हो जाती है। उसका अहसासे जिम्मेदारी उससे बड़ी-बड़ी कुर्बानियां करा 
देता है। मगर जबानी दावों के वक्‍त वह देखने वाले लोगों को गूंगा नजर आता है। 

इसके बरअक्स जो शख्स खुदा से तअल्लुक के मामले में कम हो वह अल्फाज के मामले 
में ज्यादा हो जाता है। वह अपने अमल की कमी को अल्फाज की ज्यादती से पूरा करता है। 
उसके पास चूँकि किरदार (सदाचरण) की गवाही नहीं होती इसलिए वह अपने को मोतबर 
साबित करने के लिए बड़ेबड़े अल्फाज का मुजाहिरा करता है। 

जो लोग अल्फाज का कमाल दिखाकर दूसरों को मुतअस्सिर करना चाहते हैं वे समझते हैं 
कि सारा मामला बस इंसानों का मामला है। मगर जिस शख्स को यकीन हो कि असल मामला 
वह है जो ख़ुदा के यहां पेश आने वाला है। उसका सारा अंदाज बिल्कुल बदल जाएगा । 


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अल्लाह ने वादा फरमाया है तुम में से उन लोगों के साथ जो ईमान लाएं और नेक अमल 
करें कि वह उन्हें जमीन में इक्र्तदार (सत्ता) देगा जैसा कि उसने पहले लोगों को इक्तेदार 
दिया था। और उनके लिए उनके दीन को जमा देगा जिसे उनके लिए पसंद किया है। 
और उनकी ख़ोफ की हालत के बाद उसे अम्न से बदल देगा। वे सिर्फ मेरी इबादत 


पारा ।8 982 सूरह-24. अन-नूर 


करेंगे और किसी चीज को मेरा शरीक न बनाएंगे। और जो इसके बाद इंकार करे तो 
ऐसे ही लोग नाफरमान हैं। (55) 





यहां जिस ग़लबे (वर्चस्व) का वादा किया गया है उसका तअल्लुक अव्वलन रसूल और 
असहाबे रसूल से है। मगर तबअन (सिद्धांततः) उसका तअल्लुक पूरी उम्मत से है। इससे 
मालूम होता है कि ग़लबा और इक्तेदार अहले ईमान के अमल का निशाना नहीं। वह एक 
ख़ुदाई इनाम है जो ईमान और अमल के नतीजे में मोमिनीन की जमाअत को दिया जाता है। 
इस गलबे का मकसद यह है कि अहले ईमान को जमीन में इस्तहकाम (सुदृढ़ता) अता 
किया जाए। उन्हें यह मौका दिया जाए कि वे दुश्मनाने हक के अंदेशों से मामून (सुरक्षित) 
होकर रह सकें। वे आजादाना तौर पर ख़ुदा की इबादत करें। और सिर्फ एक ख़ुदा के बंदे 
बनकर जिंदगी गुजारें। अहले ईमान के गलबे की यह हालत उस वक्‍त तक बाकी रहेगी जब 
तक वे ख़ुदा के शुक्र करने वाले बने रहें। और तकवा की कैफियत को न खोएं। 
खलीफा के मअना अरबी जबान में जानशीन या बाद को आने वाले के हैं। इस्तख़लाफ 
या खलीफा बनाना यह है कि एक कौम के बाद दूसरी कौम को उसकी जगह पर ग़लबा और 
इस्तहकाम अता किया जाए। लबा दरअस्ल ख़ुदाई इम्तेहान का एक पर्चा है। खुदा एक के 
बाद एक हर कौम को जमीन पर गलबा देता है। और इस तरह उसे जांचता है। अहले ईमान 
की जमाअत के लिए यह ग़लबा इम्तेहान के साथ एक इनाम भी है। 


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और नमाज कायम करो और जकात अदा करो और रसूल की इताअत (आज्ञापालन) 
करो ताकि तुम पर रहम किया जाए। जो लोग इंकार कर रहे हैं उनके बारे में यह गुमान 


न करो कि वे जमीन में अल्लाह को आजिज कर देंगे। और उनका ठिकाना आग है और 
वह निहायत बुरा ठिकाना है। (56-57) 


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ख़ुदा की रहमत यह है कि दुनिया में गलबा और आख़िरत में जन्नत अता की जाए। 
जो लोग ख़ुदा की इस रहमत का मुस्तहिक बनना चाहें उन्हें अपने अंदर तीन सिफतें पैदा 
करनी चाहिए । 

एक इकमते सलात। इकमते सलात सूरूतन पंजवक्ता नमाज का निजम कयम करने 
का नाम है। और मअनन इसका मतलब यह है कि लोग ख़ुशूअ (विनय) और तवाजेअ 
(विनम्रता) में जीने वाले बनें न कि किब्र (अहं) और सरकशी में जीने वाले। 

इसी तरह जकात की अमली सूरत यह है कि अपने अमवाल में मुकर्ररह शरह के 
मुताबिक सालाना एक रकम निकाली जाए और उसे बैतुलमाल के हवाले किया जाए। और 


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सूरह-24. अन-नूर 983 पारा 78 


जकात अपनी मअनवी हकीकत के एतबार से यह है कि लोग खुारज (स्वार्थी) बनकर न रहें 
बल्कि वे दूसरों के खैरख़्याह (हितैषी) बनकर रहें | यहां तक कि उनकी खैरख़्वाही इतनी बढ़े 
कि अपनी जात और अपने असासे (धन-सम्पत्ति) में वे दूसरों का हक समझने लगें। 

रसूल की इताअत रसूल के जमाने में जाते रसूल की इताअत थी। और बाद के जमाने 
में सुन्नते रसूल की इताअत। इसका मतलब यह है कि लोगों के लिए जिंदगी का नमूना 
अल्लाह का रसूल हो। लोग अपनी जिंदगी के तमाम मामलात में सिर्फ खुदा के रसूल को 
अपना रहनुमा समझें। रसूल की राय सामने आने के बाद लोग अपनी जाती राय से 
दस्तबरदार हो जाएं। रसूल आगे हो और तमाम लोग उसके पीछे। 


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ऐ ईमान वालो, तुम्हारे ममलूकों (गुलामों) को और तुम में जो बुलूग (युवावस्था) को 
नहीं पहुंचे उन्हें तीन ववतों में इजाजत लेना चाहिए। फत्र की नमाज से पहले, और 
दोपहर को जब तुम अपने कपड़े उतारते हो, और इशा की नमाज के बाद। ये तीन वक्‍त 
तुम्हारे लिए पर्दे के हैं। इनके बाद न तुम पर कोई गुनाह है और न उन पर। तुम एक 
दूसरे के पास बकसरत (अधिकता से) आते जाते रहते हो। इस तरह अल्लाह तुम्हारे 
लिए अपनी आयतों की वजाहत करता है। और अल्लाह जानने वाला हिक्मत 
(तत्वदर्शिता) वाला है। और जब तुम्हारे बच्चे अक्ल की हद को पहुंच जाएं तो वे भी 
इसी तरह इजाजत लें जिस तरह उनके अगले इजाजत लेते रहे हैं। इस तरह अल्लाह 
तुम्हारे लिए अपनी आयतां की वजाहत करता है और अल्लाह अलीम (जानने वाला) 
व हकीम (तत्वदर्शी) है। और बड़ी बूढ़ी औरतें जो निकाह की उम्मीद नहीं रखतीं, उन 
पर कोई गुनाह नहीं अगर वे अपनी चादरें उतार कर रख दें, बशर्ते कि वे जीनत 


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पारा 78 984 सूरह-24. अन-नूर 


(बनाव-सिंगार) की नुमाइश करने वाली न हों। और अगर वे भी एहतियात करें तो 
उनके लिए बेहतर है। और अल्लाह सुनने वाला जानने वाला है। (58-60) 





ऊपर मआशिरती (समाजी) अहकाम बयान हुए थे। ये आयतें गालिबन बाद को उनके 
पूरक या तौजीह (विवेचना) के तौर पर नाजिल हुई। मसलन ऊपर औरतों के लिए घर के 
अंदर पर्दे की जो हिदायत दी गई हैं उनमें यह है कि औरतें अपनी ओढ़नी के आंचल अपने 
सीने पर डाल लिया करें (आयत 32) यहां (आयत 60) में इस आम हुक्म से उन औरतों को 
अलग कर दिया गया जो निकाह की उम्र से गुजर चुकी हों। फरमाया कि अगर वे ओठ़नी 
का एहतिमाम न करें तो कोई हरज नहीं। ये दोनों किस्म के अहकाम एक साथ उतर सकते 
थे। मगर इनके दर्मियान चार रुकूओं का फासला है। इन दर्मियानी रुकूओं में दूसरे मजामीन 
हैं। जैसा कि रिवायात से मालूम होता है, इब्तिदाई अहकाम उतरने के बाद कुछ अमली 
सवालात पैदा हुए। चुनांचे उनकी वजाहत में ये आखिरी आयतें उतरीं और यहां शामिल की 
गईं। इससे मालूम होता है कि कुरआन का अंदाज तर्तीब और तदरीज (क्रम) का अंदाज है 
न कि यकबारगी इक्दाम का। खुदा के लिए यह मुमकिन था कि वह तमाम अहकाम एक 
साथ बयकवक्त नाजिल कर दे। मगर खुदा ने हालात के एतबार से अहकाम को बतदरीज 
नन्नि प्सथ। 


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अंधे पर कोई तंगी नहीं और लंगड़े पर कोई तंगी नहीं और बीमार पर कोई तंगी नहीं 
और न तुम लोगों पर कोई तंगी है कि तुम अपने घरों से खाओ या अपने बाप दादा 
के घरों से, या अपनी मांओं के घरों से, या अपने भाइयों के घरों से, या अपने चचाओं 
के घरों से, या अपनी फूफियों के घरों से, या अपने मामुओं के घरों से, या अपनी 
ख़ालाओं के घरों से या जिस घर की कुजियों के तुम मालिक हो या अपने दोस्तों के 
घरों से। तुम पर कोई गुनाह नहीं कि तुम लोग मिलकर खाओ या अलग-अलग । फिर 
जब तुम घरों में दाखिल हो तो अपने लोगों को सलाम करो जो बाबरकत दुआ है 
अल्लाह की तरफ से। इस तरह अल्लाह तुम्हारे लिए आयतां की वजाहत करता है ताकि 

तुम समझो। (62) 





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सूरह-24. अन-नूर 985 पारा 78 





इस्लाम से पहले अरब का मआशिरा एक आजाद मआशिरा था। वहां किसी किस्म की 
कोई पाबंदी न थी। इसके बाद इस्लाम ने घरों के अंदर जाने पर पर्दे की पाबंदियां आयद कीं 
जिनका बयान ऊपर की आयतों में है, तो कुछ लोगों को एहसास हुआ कि इन पाबंदियों के 
बाद हमारी समाजी जिंदगी बिल्कुल महदूद (सीमित) होकर रह जाएगी। 

इस सिलसिले में ये वजाहती आयतें नाजिल हुई। फरमाया कि ये पाबंदियां तुम्हारी 
समाजी जिंदगी को मुनज्जम करने के लिए हैं न कि तुम्हारी जाइज आजादी को ख़म करने 
के लिए। मसलन अंधे, लंगड़े और बीमार अगर अपने तअल्लुक के लोगों से दूर हो जाएं तो 
यह अमलन उन्हें बेसहारा कर देने के हममअना होगा। मगर इस्लाम का यह मंशा हरगिज 
नहीं। चुनांचे साबिका (पहले के) अहकाम में जरूरी गुंजाइशें देते हुए इसकी अस्ल रूह 
(भावना) की निशानदेही फरमा दी। 

इर्शाद हुआ कि इस्लाम का असल मत्लूब यह है कि लोगों के दिलों में एक दूसरे की 
सच्ची खैरख्याही हो। जब एक आदमी दूसरे के घर में दाखिल हो तो वह सलाम करे। और 
कहे कि "तुम्हारे ऊपर सलामती हो और अल्लाह की बरकतें तुम्हारे ऊपर नाजिल हों। यह 
रूह (भावना) अगर हकीकी तौर पर लोगों के अंदर मौजूद हो तो अक्सर इज्तिमाई ख़राबियों 
का अपने आप खात्मा हो जाएगा। 

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ईमान वाले वे हैं जो अल्लाह और उसके रसूल पर यकीन लाएं। और जब किसी 
इज्तिमाई (सामूहिक) काम के मौके पर रसूल के साथ हों तो जब तक तुमसे इजाजत 
न ले लें वहां से न जाएं। जो लोग तुमसे इजाजत लेते हैं वही अल्लाह और उसके रसूल 
पर ईमान रखते हैं। पस जब वे अपने किसी काम के लिए तुमसे इजाजत मांगे तो उन्हें 
इजाजत दे दो। और उनके लिए अल्लाह से माफी मांगो। बेशक अल्लाह माफ करने 
वाला रहम करने वाला है। (62) 











जब कुछ लोग अपने आपको इस्लाम के साथ वाबस्ता करें तो मुख्तलिफ असबाब से 
बार-बार इसकी जरूरत पेश आती है कि उन्हें इकट्ठा किया जाए। मसलन मुसलमानों के 
किसी मुशतरक (साझे) मामले में मश्विरा करने के लिए, किसी इज्तिमाई मुहिम पर लोगों का 
तआवुन (सहयोग) हासिल करने के लिए। वगैरह। 


- 


पारा 78 986 सूरह-24. अन-नूर 


ऐसे मौकों पर यह होता है कि जिन लोगों पर अपने इंफिरादी (व्यक्तिगत) तकेलिब 
हों वे थोड़ी देर के बाद अपनी दिलचस्पी खो देते हैं। और चाहते हैं कि ख़ामोशी के साथ उठकर 
चले जाएं। यह मिजाज सही इस्लामी मिजाज नहीं। ताहम जो लोग इस जेहनियत से पाक हों 
उनमें भी कुछ ऐसे अफराद हो सकते हैं जो किसी वकती जरूरत की वजह से इज्तिमाअ (बैठक, 
सभा) के ख़त्म होने से पहले उठना चाहें। ऐसे अफराद का तरीका यह होता है कि वे जिम्मेदार 
शख्सियत से (और रसूल के जमाने में रसूल से) बाकायदा इजाजत लेकर वापस जाते हैं। अगर 
जिम्मेदार उन्हें किसी वजह से इजाजत न दे तो वह किसी नागवारी के बगैर आख़िर ववत तक 
कार्रवाई में शरीक रहते हैं। 
जो शख्स मुसलमानों के इज्तिमाई (सामूहिक) मामलात का जिम्मेदार हो उसके अंदर यह 
मिजाज होना चाहिए कि कोई शख्स अगर वक्ती जरूरत की वजह से मअजरत पेश करे तो 
वह उसकी मअजरत को दिल से कुबूल करे। और उसके हक में दुआ करे कि अल्लाह तआला 
उसकी मदद फरमाए। 


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तुम लोग रसूल के बुलाने को इस तरह का बुलाना न समझो जिस तरह तुम आपस 
में एक दूसरे को बुलाते हो। अल्लाह तुम में से उन लोगों को जानता है जो एक दूसरे 
की आइ लेते हुए चुपके से चले जाते हैं। पस जो लोग उसके हुक्म की ख़िलाफवर्जी करते 

हैं उन्हें डरना चाहिए कि उन पर कोई आजमाइश आ जाए। या उन्हें एक दर्दनाक अजाब 

पकड़ ले। याद रखो कि जो कुछ आसमानां और जमीन में है सब अल्लाह का है। 
अल्लाह उस हालत को जानता है जिस पर तुम हो। और जिस दिन लोग उसकी तरफ 


लाए जाएंगे तो जो कुछ उन्होंने किया था वह उससे उन्हें बाख़बर कर देगा। और अल्लाह 
हर चीज को जानने वाला है। (63-64) 





यहां जिस इताअते रसूल का जिक्र है उसका तअल्लुक रसूल की जिंदगी में रसूल से था। 
रसूल के बाद इसका तअल्लुक हर उस शख्स से है जो मुसलमानों के मामले का जिम्मेदार 
बनाया जाए। 

इज्तिमाई मामलात में अपना हिस्सा अदा करने से जो लोग कतराएं वे बतौर ख़ुद यह 
समझते हैं कि वे इज्तिमाई काम में वक्‍त जाया न करके अपने इंफिरादी मामले को मजबूत कर 
रहे हैं। मगर जो गिरोह इज्तिमाइयत (सामूहिकता) को खो दे उसके दुश्मन उसके अंदर घुसने की 


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सूह. अलस्फूकान 987 पारा 78 
राह पा लेते हैं। इस तरह जो बर्बादी आती है वह अपने नतीजे के एतबार से उमूमी बर्बादी होती 
है। उसका नुक्सान हर एक को पहुंचता है, यहां तक कि उसे भी जो यह समझ रहा था कि उसने 
जाती मामलात में पूरी तवज्जोह लगाकर अपने आपको महफूज़ कर लिया है। 

आदमी जब इस किस्म की कमजोरी दिखाता है तो बतौर खुद वह समझता है कि वह 
जो कुछ कर रहा है इंसानों के साथ कर रहा है। मगर हकीकत यह है कि वह जो कुछ कर 
रहा होता है वह ख़ुदा के साथ कर रहा होता है। अगर यह एहसास जिंदा हो तो आदमी कभी 
इस किस्म की बेउसूली की जुरअत न करे। 


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(मक्का में नाजिल हुई) 

शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
बड़ी बाबरकत है वह जात जिसने अपने बदे पर फुरकान उतारा ताकि वह जहान वालों 
के लिए डराने वाला हो। वह जिसके लिए आसमानों और जमीन की बादशाही है। 
और उसने कोई बेटा नहीं बनाया और बादशाही में कोई उसका शरीक नहीं। और 
उसने हर चीज को पैदा किया और उसका एक अंदाजा मुर्करर किया। और लोगों 
ने उसके सिवा ऐसे माबूद (पूज्य) बनाए जो किसी चीज को पेदा नहीं करते, वे खुद 
पैदा किए जाते हैं। और वे खुद अपने लिए न किसी नुक्सान का इख्तियार रखते 
हैं और न किसी नफा का। और न वे किसी के मरने का इख्तियार रखते हैं और 
न किसी के जीने का। (-3) 


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'फुककन' के लफी मअना है पर्क्रकरने वाला। यानी हक व बातिल के दर्मिधान 
इत्याज (अंतर) करने का मेयार (९7६९7००) । यहां फुान से मुराद कुरआन है। खुरा 
अलीम व ख़बीर भी है और हाकिमे मुतलक भी। इसलिए खुदा की तरफ से एक किताब 
पुरकान का आना बयकववत अपने अंदर दो पहलू रखता है। एक यह कि वह यकीनी तौर 


पारा 8 988 सूह. अलःपुान 
पर सही है उसकी सेहत व कतइयत (परिपूर्णता) में कोई शुबह नहीं । दूसरे यह कि उसे मानना 
और उसे न मानना दोनों का अंजाम यकसां (समान) नहीं हो सकता। 
ख़ुदा तंहा तमाम इख्तियारात का मालिक है। कोई उसकी राय पर असरअंदाज नहीं हो 
सकता। कोई उसके और उसके फैसलों के दर्मियान हायल नहीं हो सकता। यही वाकया इस 
बात की जमानत है कि जो शख्स कुरआन को अपनी रहनुमा किताब बनाएगा वह कामयाब 
होगा और जो शख्स इसे नजरअंदाज करेगा उसके लिए किसी तरह यह मुमकिन नहीं कि 
अपने आपको उस नाकामी से बचाए जो हक को नजरअंदाज करने वाले के लिए खुदा ने 


_ मुरकर कर दी है। 

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और मुंकिर लोग कहते हैं कि यह सिर्फ एक झूठ है जिसे उसने गढ़ा है। और कुछ 
दूसरे लोगों ने इसमें उसकी मदद की है। पस ये लोग जुल्म और झूठ के मुरतकिब 
हुए। और वे कहते हैं कि ये अगलों की बेसनद बातें हैं जिन्हें उसने लिखवा लिया 
है। पस वे उसे सुबह व शाम सुनाई जाती हैं। कहो कि इसे उसने उतारा है जो 
आसमानों और जमीन के भेद को जानता है। बेशक वह बख़्शने वाला रहम करने 
वाला है। (4-6) 


मुंकेरीन बजाहिर कुरआन को झूठी किताब कहते थे। मगर हकीकत यह है कि उनके 
इस कौल का रुख़ पैगम्बर की तरफ था। पैगम्बर उन्हें देखने में एक मामूली इंसान दिखाई 
देता था। उनकी समझ में नहीं आता था कि एक मामूली इंसान एक गैर मामूली किताब का 
मालिक किस तरह हो सकता है। 

कुरआन हर किस्म के मजामीन को छूता है। तारीख़ी, तबीई (भौतिक), नप्सियाती, 
मआशिरती, वगेरह। मगर इसमें आज तक किसी वाकई गलती की निशानदेही न की जा 
सकी। इससे साबित होता है कि कुरआन एक ऐसी हस्ती का कलाम है जो कायनात के भेदों 
को आखिरी हद तक जानने वाला है। अगर ऐसा न होता तो कुरआन में भी गलतियां मिलतीं 
जिस तरह दूसरी इंसानी किताबों में मिलती हैं। यही वाकया कुरआन के खुदाई किताब होने 
की सबसे बड़ी दलील है। 

जो लोग कुरआन के बारे में बेबुनियाद बातें कहें वे बहुत ज्यादा जसारत (दुस्साहस) की 


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सूह. अलसपुान 989 पारा 78 
बातें करते हैं। ऐसे लोग यकीनन ख़ुदा की पकड़ में आ जाएंगे। अलबत्ता अगर वे रुजूअ कर 

लें तो खुदा का यह तरीका नहीं कि इसके बाद भी वह उनसे इंतिकाम ले। ख़ुदा आदमी के 

हाल को देखता है न कि उसके माजी (अतीत) को। 


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और वे कहते हैं कि यह कैसा रसूल है जो खाना खाता है और बाजारों में चलता फिरता 
है। क्यों न इसके पास कोई फरिश्ता भेजा गया कि वह इसके साथ रहकर डराता या 
इसके लिए कोई ख़जाना उतारा जाता। या इसके लिए कोई बाग़ होता जिससे वह 
खाता। और जालिमां ने कहा कि तुम लोग एक सहरजदा (जादूग्रस्त) आदमी की पैरवी 


कर रहे हो। देखो वे कैसी-कैसी मिसाले तुम्हारे लिए बयान कर रहे हैं। पस वे बहक 
गए हैं, फिर वे राह नहीं पा सकते। (7-9) 





हक के हर दाजी (आस्वानकर्ता) के साथ यह हुआ है कि उसके जमाने के लोगों 
ने उसे हीर (तुच्छ) समझा। और बाद के लोगों ने उसकी परस्तिश की। इसकी वजह 
यह है कि अपनी जिंदगी में वह अपनी हकीकी शख्सियत के साथ लोगों के सामने होता 
है। इसलिए वह उन्हें बस एक आम इंसान की मानिंद दिखाई देता है। मगर बाद को 
उसकी शख्सियत के गिर्द अफसानवी किस्सों का हाला बन जाता है। बाद के लोग उसे 
मुबालग़ाआमेज (अतिरंजित) रूप में देखते हैं। इसलिए बाद के लोग मुबालग़ाआमेज हद 
तक उसकी ताजीम व तकदीस (मान-सम्मान) करने लगते हैं। 

बाद के जमाने में लोगों के जेहनों में पैगम्बर की गैर मामूली अज्मत कायम हो जाती है। 
इसलिए कोई बड़ा अपने आपको पैगम्बर से बड़ा नहीं पाता। मगर पैग़म्बर की जिंदगी में 
उसकी जो जाहिरी सूरतेहाल होती है वह ववत के बड़ों को मौका देती है कि वे पैगम्बर के 
मुकाबले में मुतकब्बिगना नपिसयात (घमंड-भाव) में मुब्तिला हो सके । ऐसे लोग जब कुछ 
लोगों को देखते हैं कि वे पैगम्बर की बातों को सुनकर मुतअस्सिर (प्रभावित) हो रहे हैं तो वे 
उनके तअस्सुर को घटाने के लिए कह देते हैं कि यह तो एक मजनून है। यह तो एक 
सहरजदा इंसान है, वगैरह। वे दलील के मैदान में अपने आपको आजिज पाकर ऐब लगाने 
का तरीका इख्तियार करते हैं। हालांकि दलील के जरिए किसी को रद्द करना ऐन दुरुस्त है। 
जबकि ऐब लगाकर किसी को बदनाम करना सरासर नादुरुस्त। 





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बड़ा बाबरकत है वह। अगर वह चाहे तो तुम्हें इससे भी बेहतर चीज दे दे। ऐसे 
बाग़ात जिनके नीचे नहरें जारी हों, और तुम्हें बहुत से महल दे दे। बल्कि उन्होंने 
कियामत को झुठला दिया है। और हमने ऐसे शख्स के लिए जो कियामत को 
झुठलाए दोजख़ तैयार कर रखी है। जब वह उन्हें दूर से देखेगी तो वे उसका बिफरना 
और दहाइना सुनेंगे। और जब वे उसकी किसी तंग जगह में बांध कर डाल दिए 
जाएंगे तो वे वहां मौत को पुकारेंगे। आज एक मौत को न पुकारो, और बहुत सी 
मौत को पुकारो। कहो क्या यह बेहतर है या हमेशा की जन्नत जिसका वादा खुदा 
से डरने वालों से किया गया है, वह उनके लिए बदला और ठिकाना होगी। उसमें 
उनके लिए वह सब होगा जो वे चाहेंगे, वे उसमें हमेशा रहेंगे। यह तेरे रब के जिम्मे 
एक वादा है वाजिबुल अदा। (0-6) 





हक के मुखालिफीन अक्सर हक के दाजी की जात को निशाना बनाते हैं। वे दाजी को 
गैर मोतबर साबित करने के लिए तरह-तरह की बातें करते हैं। इस तरह वे यह तअस्सुर देते 
हैं कि हक का दाऔ अगर उनके मेयार पर होता तो वे उसकी बात मान लेते। मगर यह सही 
नहीं। उनका असल मसला यह नहीं है कि हक का दाओ उन्हें काबिले एतबार नजर नहीं 
आता। उनका असल मसला यह है कि वे कियामत की पकड़ से बेख़ीफ हैं, इसलिए वे गैर 
जिम्मेदाराना तौर पर तरह-तरह के अल्फाज बोलते रहते हैं। 

हक और नाहक के मामले की सारी अहमियत इस बिना पर है कि आखिरत में उसकी 
बाबत पूछ होगी। जो लोग आख़िरत की पकड़ के बारे में बेख़ौफ हो जाएं वे उसके बिल्कुल 
लाजिमी नतीजे के तौर पर हक और नाहक के मामले में संजीदा नहीं रहते। और जिस चीज 
के बारे में आदमी संजीदा न हो वह उसकी अहमियत को किसी तरह महसूस नहीं कर सकता, 
चाहे उसके हक मे कितनी ही ज्यादा दलीलें दे दी जाएं। ऐसे लोगों के अत्फाज सिर्फ उस 
वक्‍त खुम हेग जबकि कियामत की चिंधाड़ उनसे उनके अत्फाज छीन ले। 


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सूह. अलपपुष्ान 99I पारा ।8 
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और जिस दिन वह उन्हें जमा करेगा और उन्हें भी जिनकी वे अल्लाह के सिवा इबादत 
करते हैं, फिर वह कहेगा, क्या तुमने मेरे उन बंदों को गुमराह किया या वे ख़ुद रास्ते 
से भटक गए। वे कहेंगे कि पाक है तेरी जात। हमें यह सजावार न था कि हम तेरे 
सिवा दूसरों को कारसाज तज्चीज करें। मगर तूने उन्हें और उनके बाप दादा को दुनिया 
का सामान दिया। यहां तक कि वे नसीहत को भूल गए। और हलाक होने वाले बने। 
पस उन्होंने तुम्हें तुम्हारी बातों में झूठा ठहरा दिया। अब न तुम ख़ुद टाल सकते हो 
और न कोई मदद पा सकते हो। और तुम में से जो शख्स जुल्म करेगा हम उसे एक 
बझ अजाब चखाएंगे। (7-9) 





'जिक्र' की तशरीह मुफस्सिर इन्ने कसीर ने इन अल्फाज में की है : वे उस पैगाम को 
भूल गए जो उनकी तरफ तूने अपने पैगम्बरों की जबान से तंहा और लाशरीक अपनी इबादत 
के लिए उतारा था।' 
हकीकत यह है कि अंबिया की मुखतब कैंमे मअरूफ मअनों (प्रचलित भावार्थ) में 
मुंकिर और मुश्रिक कौमें न थीं। वे दरअस्ल पिछले अंबिया की उम्मतें थीं। उनके पैग़म्बरों 
ने उन्हें खुदा की हिदायत पहुंचाई। मगर जमाना गुजरने के बाद वे दुनिया में मशगूल हो गए 
और अपने बुजुर्गों और पैगम्बरों के बारे में यह अकीदा बना लिया कि वे खुदा के यहां उनकी 
बश्रिश का जरिया बन जाएंगे। मगर जब कियामत आएगी तो इस किस्म के तमाम अकीदे 
बातिल (झूठे) साबित होंगे। उस वक्त लोगों को मालूम होगा कि अल्लाह की पकड़ से बचाने 
वाला ख़ुद अल्लाह के सिवा कोई और न था। 


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और हमने तुमसे पहले जितने पैग़म्बर भेजे सब खाना खाते थे और बाजारों में चलते 
फिरते थे। और हमने तुम्हें एक दूसरे के लिए आजमाइश बनाया है। क्या तुम सब्र करते 


पारा ।9 992 


सूह, अल'पुान 
हो। और तुम्हारा रब सब कुछ देखता है। (20) 





कुआन के मूग्रतवीने अव्वल हजरत नूह, हजरत इब्रहीम, हजरत इस्माईल, हजरत 
मूसा और दूसरे पैगाम्बरों को मानते थे। इसके बावजूद उन्होंने हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु 
अलैहि व सल्लम को मानने से इंकार कर दिया। इसकी एक वजह यह है कि बाद के जमाने 
में हमेशा ऐसा होता है कि लोग अपने गुजरे हुए पैगम्बरों को आला और अफजल साबित 
करने के लिए बतौर ख़ुद तिलिस्माती कहानियां वजअ करते हैं। इन कहानियों में उनके 
साबिक पैग़म्बर की शख्सियत एक पुरअजूबा शख्सियत की हैसियत इख्तियार कर लेती है। 
अब इसके बाद जब उनका हमअस्र (समकालीन) नबी उनके सामने आता है तो वह बजाहिर 
सिर्फ एक इंसान दिखाई देता है। उनके तसबुर में एक तरफ माजी (अतीत) का पैगम्बर होता 
है जो उन्हें फीकुलबशर (दिव्य) हस्ती मालूम होता है। दूसरी तरफ जिंदा पैगम्बर होता है जो 
सिर्फ एक बशर (इंसान) के रूप में नजर आता है। इस तकाबुल (तुलना) में वे हाल के 
पैग़म्बर पर यकीन नहीं कर पाते। वे पैगम्बरी को मानते हुए पैगम्बर का इंकार कर देते हैं। 
मुंकिरीन के लिए रसूल और अहले ईमान आजमाइश हैं। और रसूल और अहले ईमान 
के लिए मुंकिरीन आजमाइश हैं। मुकिरीन की आजमाइश यह है कि वे रसूल के बजाहिर 
बेअज्मत हृलिये में उसके अंदर छुपी हुई अज्मत को दरयापत करें। और अहले ईमान की 
आजमाइश यह है कि वे मुंकिरीन की लायअनी निरर्थक बातों पर बेबर्दाश्‍्त न हों। वे हर हाल 


में साबिर व शाकिर बने रहें। 
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और जो लोग हमारे सामने पेश होने का अंदेशा नहीं रखते वे कहते हैं कि हमारे ऊपर 
फरिश्ते क्यों नहीं उतारे गए। या हम अपने रब को देख लेते। उन्होंने अपने जी में अपने 
को बहुत बड़ा समझा और वे हद से गुजर गए हैं सरकशी में। जिस दिन वे फरिश्तों 

को देखेंगे। उस दिन मुजरिमों के लिए कोई खुशखबरी न होगी। और वे कहेंगे कि 
पनाह, पनाह। और हम उनके हर अमल की तरफ बढ़ेंगे जो उन्होंने किया था और फिर 
उसे उड़ती हुई खाक बना देंगे। जन्नत वाले उस दिन बेहतरीन ठिकाने में होंगे। और 
निहायत अच्छी आरामगाह में। (2।-24) 


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सूह, अलपुचान 993 पारा 9 


जो लोग दाओ के पैगाम को मानने के लिए फरिश्ते और खुदा के जुहूर का मुतालबा करें 
वे कोई वाकई बात नहीं कहते। वे सिर्फ अपनी गैर संजीदगी का सुबूत देते हैं। उन्हें मालूम 
नहीं कि खुदा और फरिश्तों का जुहूर क्या मअना रखता है। हकीकत यह है कि उनके लिए 
बोलने का जो मौका है वह सिर्फ उसी वक्‍त तक है जब तक हक को दाऔ की सतह पर 
जाहिर किया गया हो। जब हक खुदा और फरिश्ता की सतह पर जाहिर हो जाए तो वह 
फैसले का ववत होता है न कि मानने और तस्दीक करने का। 

बहुत से लोग इस गलतफहमी में रहते हैं कि कियामत में जब खुदा पूछेगा कि क्या लाए 
तो मैं अपना फलां अमल पेश कर दूंगा। मैं कला कि फलां और फलां बुजुर्गों की निस्बत 
(संबंध) मुझे हासिल है। मगर कियामत के आते ही इस किस्म की खुशख्यालियां इस तरह 
बेहकीकत साबित होंगी जैसे गर्म लोहे पर पानी का कतरा पड़े और वह फौरन उड़ जाए । उस 
दिन सिर्फ हकीकी अमल किसी के काम आएगा न कि किसी किस्म की झूठी खुशख़्याली। 


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और जिस दिन आसमान वादल से फट जाएगा। और फरिश्ते लगातार उतारे जाएंगे। 

उस दिन हकीकी बादशाही सिर्फ रहमान की होगी। और वह दिन मुंकिरां पर बड़ा सख्त 

होगा। और जिस दिन जालिम अपने हाथों को काटेगा, वह कहेगा कि काश मैंने रसूल 

के साथ राह इख्तियार की होती। हाय मेरी शामत, काश में फलां शख्स को दोस्त न 

बनाता। उसने मुझे नसीहत से बहका दिया बाद इसके कि वह मेरे पास आ चुकी थी। 

और शैतान है ही इंसान को दगा देने वाला। और रसूल कहेगा कि ऐ मेरे रब मेरी कौम 

ने इस कुरआन को बिल्कुल नजरअंदाज कर दिया। और इसी तरह हमने मुजरिमां में 

से हर नबी के दुश्मन बनाए। और तुम्हारा रब काफी है रहनुमाई के लिए और मदद 

करने के लिए। (25-3]) 


पारा ।9 994 सूह. अलप्ूक्ान 
जब भी हक की दावत उठती है तो वे लोग उसके दुश्मन बन जाते हैं जो हक के नाम 

पर नाहक का कारोबार कर रहे हों। वे तरह-तरह के शोशे निकाल कर दाऔ की सदाकत को 

मुशतबह (संदिग्ध) साबित करते हैं। और बहुत से लोगों को अपना हमनवा बना लेते हैं। 
जो लोग इन झूठे लीडरों की बातों पर यकीन करके हक के दाऔ का साथ नहीं देते उन 

पर कियामत के दिन खुल जाएगा कि लीडरों की दलीलें दलीलें न थीं। वे महज झूठे शोशे थे 

जिन्हे उन्होंने अपने मफाद के मुताबिक पाकर मान लिया। और उसे हक से दूर रहने का 

बहाना बना लिया। उस वक्त वे अफसोस करेंगे कि क्यों उन्होंने ऐसा किया कि वे लीडरों के 

झूठे शोशों के फरेब में पड़े रहे। और हक के दाऔ का साथ देने वाले न बने। 


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और इंकार करने वालों ने कहा कि इसके ऊपर पूरा कुरआन क्यों नहीं उतारा गया। 
ऐसा इसलिए है ताकि इसके जरिए से हम तुम्हारे दिल को मजबूत करें और हमने इसे 
ठहर-ठहर कर उतारा है। और ये लोग कैसा ही अजीब सवाल तुम्हारे सामने लाएं मगर 
हम उसका ठीक जवाब और बेहतरीन वजाहत तुम्हें बता देंगे। जो लोग अपने मुंह के 
बल जहन्नम की तरफ ले जाए जाएंगे। उन्हीं का बुरा ठिकाना है। और वही हैं राह से 
बहुत भटके हुए। (३2-34) 





कुरआन जब उतरा तो वह बयकवक्त एक पूरी किताब की शक्ल में नहीं उतरा बल्कि 
जुज-जुज करके 23 साल में उतारा गया। इसे मुंकिरीन ने शोशा बना लिया और कहा कि 
इससे जाहिर होता है कि यह इंसान की किताब है न कि ख़ुदा की किताब। क्योंकि ख़ुदा के 
लिए बयकवक्त पूरी किताब बना देना कुछ मुश्किल नहीं। 

फरमाया कि कुरआन महज एक तस्नीफ (कृति) नहीं, वह एक दावत (आह्वान) है। 
और दावत की मस्लेहतों में से एक मस्लेहत यह है कि उसे बतदरीज (क्रमवत) सामने लाया 
जाए ताकि वह माहौल में मुस्तहकम (सुटृढ़) होती चली जाए। 

जो दावत कामिल हक हो उसके खिलाफ हर एतराज झूठा एतराज होता है। उसके 
खिलाफ जब भी कोई एतराज उठे और फिर उसकी सच्ची वजाहत कर दी जाए तो इससे 
दावत की सदाकत मजीद साबित हो जाती है। वह किसी भी दर्जे में मुशतबह (संदग्धि) नहीं 
होती । 


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995 पारा ।9 
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और हमने मूसा को किताब दी। और उसके साथ उसके भाई हारून को मददगार 

बनाया। फिर हमने उनसे कहा कि तुम दोनों उन लोगों के पास जाओ जिन्होंने हमारी 

आयतों को झुठला दिया है। फिर हमने उन्हें बिल्कुल तबाह कर दिया। और नूह की 
कौम को भी हमने गर्क कर दिया जबकि उन्होंने रसूलों को झुठलाया और हमने उन्हें 

लोगों के लिए एक निशानी बना दिया। और हमने जालिमाँ के लिए दर्दनाक अजाब 

तैयार कर रखा है। और आद और समूद को और अर-रस वालों को और उनके दर्मियान 

बहुत सी कौमों को। और हमने उनमें से हर एक को मिसालें सुनाई और हमने हर एक 

को बिल्कुल बर्बाद कर दिया। और ये लोग उस बस्ती पर से गुजरे हैं जिस पर बुरी तरह 
पत्थर बरसाए गए। क्या वे उसे देखते नहीं रहे हैं। बल्कि वे लोग दुबारा उठाए जाने 

की उम्मीद नहीं रखते। (३5-40) 


कुरआन बार-बार जिन पेगम्बरों का हवाला देता है उनमें से अक्सर वे हैं जिनका जिक्र 
इंसानियत के संकलित इतिहास में जगह न पा सका। इससे अंदाजा होता है कि उन पैग़म्बरों 
के समकालीन प्रबुद्ध वर्ग ने उन्हें कोई अहमियत न दी। उन्होंने बादशाहों और फौजी नायकों 
के हालात जोश के साथ लिखे क्योंकि उनके हालात में सियासी पहलू मौजूद था। मगर उन्होंने 
पेगम्बरों को नजरअदांज कर दिया । क्योंकि उनके हालात में सियासी जौक की तस्कीन का 
सामान मौजूद न था। 

अजीब बात है कि यह मिजाज आज भी मुकम्मल तौर पर मौजूद है। आज भी जो लोग 
अपने आपको सियासी प्लेटफॉर्म पर नुमायां करें वे फौरन प्रेस और रेडियों में जगह पा लेते 
हैं और जो लोग गैर सियासी मैदान में काम करें उन्हें आज का इंसान भी ज्यादा काबिले 
तज्किरा नहीं समझता । 

इंसान से सबसे ज्यादा जो चीज मत्लूब (अपेक्षित) है वह यह कि वह वाक्य्रात से सबक 
ले। मगर यही वह चीज है जो इंसान के अंदर सबसे कम पाई जाती है, मौजूदा जमाने में भी 
और इससे पहले के जमाने में भी। 





पारा 79 996 सूह. अलःपुछ्रन 


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और वे जब तुम्हें देखते हैं तो वे तुम्हारा मजाक बना लेते हैं। क्या यही है जिसे खुदा 

ने रसूल बनाकर भेजा है। इसने तो हमें हमारे माबूदों (पूज्यों) से हटा ही दिया होता। 
अगर हम उन पर जमे न रहते। और जल्द ही उन्हें मालूम हो जाएगा जब वे अजाब को 
देखेंगे कि सबसे ज्यादा बेराह कौन है। (4-42) 





“अगर हम जमे न रहते तो वह हमें हमारे दीन से हटा देता” इससे मालूम होता है कि उनके 
अपने दीन पर कायम रहने की वजह उनका तअस्सुब (विद्वेष) था न कि कोई दलील। दलील 
के मैदान में वे बेहथियार हो चुके थे। मगर तअस्सुब के बल पर वे अपने आबाई दीन पर जमे 
रहे। यही अक्सर इंसानों का हाल होता है। बेशतर इंसान महज तअस्सुब की जमीन पर खड़े 
होते हैं। अगरचे जबान से वे जाहिर करते हैं कि वे दलील की जमीन पर खड़े हुए हैं। 

किसी दावत का मुकाबले करने के दो तरीके हैं। एक है उसे दलील से रद्द करना। 
दूसरा है उसका मजक उद्ना । पहला तरीक जाइज है और दूसरा तरीक सरासर नाजाइज। 
जो लोग किसी दावत का मजाक उड़ाएं वे सिर्फ यह साबित करते हैं कि दलील के मैदान में 
वे अपनी बाजी हार चुके हैं। और अब मजाक और हंसी की बातों से अपनी हार पर पर्दा 
डालना चाहते हैं। 


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क्या तुमने उस शख्स को देखा जिसने अपनी ख़्वाहिश को अपना माबूद (पूज्य) बना 
रखा है। पस क्या तुम उसका जिम्मा ले सकते हो। या तुम ख्याल करते हो कि उनमें 

से अक्सर सुनते और समझते हैं। वे तो महज जानवरों की तरह हैं बल्कि वे उनसे भी 
ज्यादा बेराह हैं। (43-44) 








एक हदीस में है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया कि 
आसमान के साये के नीचे अल्लाह के सिवा पूजे जाने वाले माबूदों में सबसे ज्यादा संगीन 
अल्लाह के नजदीक वह ख्वाहिश है जिसकी पैरवी की जाए। (तबरानी) 

यह एक हकीकत है कि सबसे बड़ बुत आदमी की ख्वाहिश नफ्स (मनोकामनाएं) है। 
बल्कि यही अस्ल बुत है। बकिया तमाम बुत सिर्फ ख््राहिशपरस्ती के दीन को जाइज साबित 





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सूह>5. अलमुष्न 997 पारा ।9 
करने के लिए वजअ किए गए हैं। 

ख्वाहिश को अपना रहबर बनाने के बाद इंसान उसी सतह पर आ जाता है जो जानवरों 
की सतह है। जानवर सोच कर कोई काम नहीं करते बल्कि सिर्फ जिबिल्ली तकाजे के तहत 
करते हैं। अब अगर इंसान भी अपने सोचने की सलाहियत को काम में न लाए और सिर्फ 
ख़वाहिशे नफ्स के तहत चलने लगे तो उसमें और जानवर में क्या फर्क बाकी रहा। 


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क्या तुमने अपने रब की तरफ नहीं देखा कि वह किस तरह साये को फैला देता है। 
और अगर वह चाहता तो वह उसे ठहरा देता। फिर हमने सूरज को उस पर दलील 
बनाया। फिर हमने आहिस्ता-आहिस्ता उसे अपनी तरफ समेट लिया। और वही है 
जिसने तुम्हारे लिए रात को पर्दा और नींद को राहत बनाया और दिन को जी उठना 
का वक्‍त बनाया। और वही है जो अपनी रहमत से पहले हवाओं को खुशखबरी बनाकर 
भेजता है। और हम आसमान से पाक पानी उतारते हैं। ताकि उसके जरिये से मुर्दा 


जमीन में जान डाल दें। और उसे पिलाएं अपनी मख्लूकात में से बहुत से जानवरों और 
इंसानों को। (45-49) 

















यहां आम मुशाहिंदे के जबान में उस हकीकत की तरफ इशारा किया गया है जिसे मौजूदा 
जमाने में जमीन की महवरी (धुरीय) गर्दिश कहा जाता है। जमीन अपने महवर (धुरी) पर हर 
24 घंटे में एक बार घूम जाती है। इसी से रात और दिन पैदा होते हैं। यह अल्लाह तआला की 
कुदरत का एक हैरतअंगेज करिश्मा है। अगर जमीन की महवरी गर्दिश न हो तो जमीन के आधे 
हिस्से पर मुसलसल तेज धूप रहे। और दूसरे आधे हिस्से पर मुसलसल रात की तारीकी छाई रहे। 
और इस तरह जमीन पर जिंदगी गुजारना इंतिहाई हद तक दुश्वार हो जाए। 

जमीन के इस निजाम में बहुत सी मअनवी नसीहतें मौजूद हैं। जिस तरह रात की 
तारीकी के बाद लाजिमन दिन की रोशनी आती है। उसी तरह नाहक के बाद हक का आना 
भी इस जमीन पर लाजिमी है। रात को सोकर दुबारा सुबह को उठना मौत के बाद दुबारा 
आखिरत की दुनिया में उठने की तमसील है, वगैरह। 

इसी तरह बारिश के निजाम में उसके मादूदी (भौतिक) पहलू के साथ अजीम मअनवी 


पारा ।9 998 सूह-#, अल'्फूक्ान 
(अर्थपूर्ण) सबक का पहलू भी छुपा हुआ है। जिस तरह बारिश से मुर्दा जमीन सरसब्ज हो जाती 

है उसी तरह ख़ुदा की हिदायत उस सीने को ईमान और तकवा का चमनिस्तान बना देती है 
जिसके अंदर वाकई सलाहियत हो, जो बंजर जमीन की तरह बेजान न हो चुका हो। 


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और हमने इसे उनके दर्मियान तरह-तरह से बयान किया है ताकि वे सोचें। फिर भी 
अक्सर लोग नाशुक्री किए बगैर नहीं रहते। और अगर हम चाहते तो हर बस्ती में एक 


डराने वाला भेज देते। पस तुम मुंकिरों की बात न मानो और इस (कुआने केज्थि 
से उनके साथ बड़ा जिहाद करो। (50-52) 





कुरआन में तैहीद और आहिरित के मजमीन मुख़्नलिफ अंदाज और मुष्ललिफ उस्लूब 
से बार-बार बयान हुए हैं। आदमी अगर संजीदा हो तो ये मजामीन उसे तड़पा देने के लिए 
काफी हैं। मगर गाफिल इंसान किसी दलील से कोई असर नहीं लेता। 

इसके जरिए जिहादे कबीर करो' से मुराद कुरआन के जरिए बड़ा जिहाद करना है। 
इससे अंदाजा होता है कि कुरआन के जरिए जिहाद, दूसरे शब्दों में, पुरअम्न (शांतिमय) 
दावती जद्दोजहद ही असल जिहाद है। बल्कि यही सबसे बड़ा जिहाद है। मुंकिर लोग अगर 
यह कोशिश करें कि अहले ईमान को दावत (आह्वान) के मैदान से हटाकर दूसरे मैदान में 
उलझाएं तब भी अहले ईमान की सारी कोशिश यह होनी चाहिए कि वह अपने अमल को 
कुरआनी दावत के मैदान में केन्द्रित रखें। और अगर मुखालिफीन के हंगामों की वजह से 
किसी वक्‍त अमल का मैदान बदलता हुआ नजर आए तो हर मुमकिन तदबीर करके दुबारा 
उसे दावत के मैदान में ले आएं 


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और वही है जिसने दो समुद्रों को मिलाया। यह मीठा है प्यास बुझाने वाला और यह 
खारी है कडुवा। और उसने उनके दर्मियान एक पर्दा रख दिया और एक मजबूत आइ। 


और वही है जिसने इंसान को पानी से पैदा किया। फिर उसे खानदान वाला और 
सुसराल वाला बनाया। और तुम्हारा रब बड़ी कुदरत वाला है। (53-54) 








जब किसी संगम पर दो दरिया मिलते हैं या कोई बड़ा दरिया समुद्र में जाकर गिरता है तो 


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सूह. अलपुष्ान 999 पारा 79 
ऐसे मकम पर बाहम (परस्पर) मिलने के बावजूद दोनों का पानी अलग-अलग रहता है। दोनों के 
बीच में एक धारी दूर तक जाती हुई नजर आती है। इस लेखक ने यह मंजर इलाहाबाद में गंगा 
और जमना के संगम पर देखा है। यह वाकया उस कुदरती कानून के तहत होता है जिसे मौजूदा 
जमानेमेंसतही तनाव ($एrfac€ ।०१५।००) कहा जाता है। इसी तरह जब समुद्र में ज्वारभाटा आता 
है तो समुद्र का खारी पानी साहिली दरिया के मीठे पानी के ऊपर चढ़ जाता है। मगर सतही तनाव 
दोनों पानी को बिल्कुल अलग रखता है। और जब समुद्र का पानी दुबारा उतरता है तो उसका 
खारी पानी ऊपर-ऊपर से वापस चला जाता है और नीचे का मीठा पानी बदस्तूर अपनी पहले 
की हालत पर बाकी रहता है। यहां तक कि इसी सतही तनाव के कानून की वजह से यह मुमकिन 
हुआ है कि खारी समुद्रों के ऐन बीच में मीठे पानी के जख़ीरे मौजूद हैं और बहरी (समुद्री) मुसाफिरों 
को मीठा पानी फराहम कर सकें। 

इंसानी जिस्म की अस्ल पानी है। पानी से इंसान जैसी हैरतअंगेज नूअ (जाति) बनी। 
फिर नसबी तअल्लुकात और सुसराली रवाबित (संबंधों) के जरिए उसकी नस्ल चलती रही। 
इस तरह के मुर्ललिफ वाकेयात जो जमीन पर पाए जाते हैं उन पर गौर किया जाए तो उनमें 
खुदा की कुदरत की निशानियां छुपी हुई नजर आएंगी। 


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और वे अल्लाह को छोड़कर उन चीजों की इबादत करते हैं जो उन्हें न नफा पहुंचा सकती 

हैं और न नुक्सान। और मुंकिर तो अपने रब के खिलाफ मददगार बना हुआ है। और 

हमने तुम्हें सिर्फ खुशखबरी देने वाला और डराने वाला बनाकर भेजा है। तुम कहो कि 

मैं तुमसे इस पर कोई उजरत (बदला) नहीं मांगता, मगर यह कि जो चाहे वह अपने 

रब का रास्ता पकड़ ले। (55-57) 





ख़ुदा ने इंसान को ऐसी दुनिया में रखा है जहां की हर चीज और उसका पूरा माहौल 
तौहीद (एकेश्वरवाद) की गवाही देता है। मगर इंसान उससे रोशनी हासिल नहीं करता। वह 
अपनी गुमराही में इस हद तक जाता है कि वह तौहीद के बजाए शिक की बुनियाद पर अपनी 
जिंदगी का निजाम बनाता है। और जब कोई खुदा का बंदा इंसानों को तौहीद की तरफ 
पुकारने के लिए उठे तो वह दावते तौहीद का मुखालिफ बनकर खड़ा हो जाता है। 

ताहम हक के दाओ को जारिहिय्यत (आक्रामकता) की हद तक जाने की इजाजत नहीं। 
उसेसिपन्त्वीन (दीक्षा) और नसीहत के दायरे में अपना काम जारी रखना है। अगर दावत 
कारगर न हो रही हो तो उसका यह काम नहीं कि वह दावत पर जारिहियत का इजाफा करे। 





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पारा ।9 I000 सूह. अलःपुान 
उसे जिस चीज का इजाफा करना है वह है खुदा से दुआ, हर किस्म के मादूदी झगड़े को 

एकतरफा तौर पर ख़म करना, बेगर्जी और अख़्ताक के जरिए मूखातब के दिल को 
मुतअस्सिर करना । 


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और जिंदा खुदा पर, जो कभी मरने वाला नहीं, भरोसा रखो और उसकी हम्द (प्रशंसा) 
के साथ उसकी तस्बीह करो। और वह अपने बंदों के गुनाहों से बाख़बर रहने के लिए 
काफी है। जिसने पैदा किया आसमानों और जमीन को और जो कुछ उनके दर्मियान 

है, छः दिन में। फिर वह तख्त पर मुतमक्किन (आसीन) हुआ। रहमान, पस उसे किसी 
जानने वाले से पूछो। और जब उनसे कहा जाता है कि रहमान को सज्दा करो तो कहते 
हैं कि रहमान क्या है। क्या हम उसे सज्दा करें जिसे तू हमसे कहे। और उनका 
बिदकना और बढ़ जाता है। (58-60) 





“रहमान की बाबत जानने वाले से पूछो” इसमें पूछे जाने वाली बात पर जोर है न कि 
पूछे जाने वाले शख्स पर। मतलब यह है कि अगर कोई शख्स खुदाए रहमान के करिश्मों को 
जाने तो वह तुम्हें बताएगा कि रहमान की जात कितनी बुलन्द व बरतर है। मौजूदा जमाने 
में साइंसदानों ने कायनात में जो तहकीक की है वह जुजई (आंशिक) तौर पर इस आयत की 
मिस्दाक है। साइंसदानों की तहकीकात से कायनात के जो भेद सामने आए हैं वे इतने 
हैरतनाक हैं कि उन्हें पढ़कर आदमी के जिस्म के रोंगटे खड़े हो जाएं और उसका दिल 
बेइस्तियार ख़ालिक की अज्मतों के आगे झुक जाए। 

“छः दिन’ से मुराद खुदा के छः दिन हैं। इंसान की जबान में इसे छः अदवार (चरण) 
कहा जा सकता है। छः दौरों में पैदा करना जाहिर करता है कि कायनात की तख़््तीक 
मंसूबाबंद तौर पर हुई है। और जो चीज मंसूबा और एहतिमाम के साथ वजूद में लाई जाए 
वह कभी अबस (निरर्थक) नहीं हो सकती । 


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बड़ी बाबरकत है वह जात जिसने आसमान में बुर्ज बनाए और उसमें एक चराग़ 
(सूरज) और एक चमकता चांद रखा। और वही है जिसने रात और दिन को एक 


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सूह. अल'पूछान I00I पारा 79 
के बाद दूसरे आने वाला बनाया, उस शख्स के लिए जो सबक लेना चाहे और 
शुक्रगुजार बनना चाहे। (6-62) 





बुर्ज के लफ्जी मअना किला के हैं। आसमानी बुर्ज से क्या मुराद है, इसकी कोई 
क्के (सर्वस्वीकार्य) तफ्सीर अभी तक नहीं की जा सकी है। मुमकिन है कि इससे मुराद 
वह चीज हो जिसे मौजूदा जमाने में शम्सी निजाम (सूर्यमंडल) कहा जाता है। कायनात में 
करोड़ों की तादाद में शम्सी निजाम पाए जाते हैं। उन्हीं में से एक वह है जो हमसे करीब है 
और जिसके अंदर हमारी जमीन और सूरज और चांद वाकेअ हैं। 

शम्सी निजाम की बेशुमार निशानियों में से एक निशानी जमीन का सूरज के गिर्द 
मुसलसल घूमना है। इसकी एक गर्दिश मदार (कक्ष) पर होती है। यह गर्दिश साल में पूरी 
होती है और इसकी वजह से मौसम वाकेअ होते हैं। इसकी दूसरी गर्दिश उसके महवर (धुरी) 
पर होती है। यह 24 घंटे में पूरी हो जाती है और इससे रात और दिन पैदा होते हैं। 

अथाह ख़ला (अंतरिक्ष) में हददर्जा सेहत के साथ जमीन की गर्दिश और उसका इंसानी 
मस्लेहतेके इतना ज्यादा मुत्रफिक् (अनुकूल) होना इतने हैरतनाक वाकेयात हैं कि जो शख्स 
उन पर गौर करेगा वह शुक्रे खुदावंदी की जज्बे में गक होकर रह जाएगा । 


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और रहमान के बदे वे हैं जो जमीन पर आजिजी (नम्रता) के साथ चलते हैं। और जब 
जाहिल लोग उनसे बात करते हैं तो वे कह देते हैं कि तुम्हें सलाम। और जो अपने 
रब के आगे सज्दा और कियाम में रातें गुजारते हैं। और जो कहते हैं कि ऐ हमारे रब 
जहन्नम के अजाब को हमसे दूर रख। बेशक उसका अजाब पूरी तबाही है। बेशक वह 

बुरा ठिकाना है और बुरा मकाम है। और वे लोग कि जब वे खर्च करते हैं तो न फुजूल 

खर्ची करते हैं और न तंगी करते हैं। और उनका ख़र्च इसके दर्मियान एतदाल (मध 
य-मार्ग) पर होता है। (63-67) 











“चलना” पूरी शख्सियत की अलामत है। जिन लोगों के दिल में अल्लाह का यकीन उतर 
जाए वे सरापा इज्ज व तवाजोअ बन जाते हैं। खुदा का ख़फ उनसे बड़ाई का एहसास छीन 


पारा 9 002 सूह. अल'्फू्ान 
लेता है। उनका चलना-फिरना और रहना-सहना ऐसा हो जाता है जिसमें अबदियत (बंदा होने) 
की रूह पूरी तरह समाई हुई हो। 


रहमान के बंदों का मामला अगर सिफ इतना ही हो तो कोई भी उनसे न उलझे। 
मगर ख़ुदा की मअरफत उन्हें ख़ुदा का दाऔ भी बना देती है। बस यहीं से उनका टकराव 
दूसरों से शुरू हो जाता है। उनका एलाने हक बातिलपरस्तों के लिए नाकाबिले बर्दाश्त हो 
जाता है। और वे उनसे टकराने के लिए आ जाते हैं। मगर यहां भी ख़ुदा का ख़ौफ उन्हें 
जवाबी टकराव से रोक देता है। वे उनके हक में हिदायत की दुआ करते हुए उनसे अलग 
हो जाते हैं। 

खुदा की मअरफत ही का यह नतीजा भी है कि उनकी जिंदगी में एक कभी न ख़त्म होने 
वाली बेचैनी शामिल हो जाती है। वे न सिर्फ दिन के वक्‍त ख़ुदा को बेताबाना पुकारते रहते 
हैं बल्कि उनकी रातों की तंहाइयां भी ख़ुदा की याद में बसर होने लगती हैं। 

इसी तरह ख़ुदा का एहसास उन्हें हददर्जा मोहतात बना देता है। वे जिम्मेदाराना तौर 
पर कमाते हैं और जिम्मेदाराना तौर पर ख़र्च करते हैं। खुदा के आगे जवाबदेही के एहसास 
उन्हें अपने आमद व खर्च के मामले में मोअतदिल (मध्यमार्गी) और मोहतात बना देता 
है। हदीस में आता है कि यह आदमी की दानाई में से है कि वह अपनी मईशत में बीच 
को राह इख्तियार करे। 


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और जो अल्लाह के सिवा किसी दूसरे माबूद (पूज्य) को नहीं पुकारते। और वे अल्लाह 
की हराम की हुई किसी जान को कत्ल नहीं करते मगर हक पर। और वे बदकारी 
(व्यभिचारी) नहीं करते। और जो शख्स ऐसे काम करेगा तो वह सजा से दो चार होगा। 
कियामत के दिन उसका अजाब बढ़ता चला जाएगा। और वह उसमें हमेशा जलील 

होकर रहेगा। मगर जो शख्स तौबा करे और ईमान लाए और नेक काम करे तो अल्लाह 
ऐसे लोगों की बुराइयों को भलाइयों से बदल देगा। और अल्लाह बरुशने वाला 
महरबान है। और जो शख्स तोबा करे और नेक काम करे तो वह दरहकीकत अल्लाह 

की तरफ रुजूअ कर रहा है। (68-7]) 





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सूह. अलःफूकन I003 


इस आयत में तीन गुनाहों का जिक्र है। शिक और कल्ले नाहक और जिना। ये तीनों 
गुनाह खुदा और बंदों के हक में सबसे बड़े गुनाह हैं। अल्लाह पर हकीकी ईमान की अलामत 
यह है कि आदमी इन तीनों गुनाहों से दूर हो जाए। जो लोग इन गुनाहों में मुलव्विस हों वे 
तौबा करके इनके अंजाम से बच सकते हैं। जो लोग तौबा और रुजूअ के बगैर मर जाएं उनके 
लिए ख़ुदा के यहां निहायत सख्त सजा है जिससे वे किसी हाल में बच न सकेंगे। 

ख़ुदा के नजदीक अस्ल नेकी यह है कि आदमी ख़ुदा से डरने वाला बन जाए। जो नेकी 
आदमी को ख़ुदा से बेख़ौफ करे वह बदी है। और जो बदी आदमी को ख़ुदा से डराए वह 
अपने अंजाम के एतबार से नेकी। 

अगर एक आदमी से बुराई हो जाए। इसके बाद उसे खुदा की याद आए। वह ख़ुदा की 
बाजपुर्स (पकड़) को सोचकर तड़प उठे और तौबा और इस्त्ग्फार करते हुए ख़ुदा की तरफ 
दौड़ पड़े तो ख़ुदा अपनी रहमत से ऐसी बुराई को नेकी के खाने में लिख देगा। क्योंकि वह 
आदमी को खुदा की तरफ रुजूअ करने का सबब बन गई। 


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और जो लोग झूठे काम में शामिल नहीं होते। और जब किसी बेहूदा चीज से उनका 
गुजर होता है तो संजीदगी के साथ गुजर जाते हैं। और वे ऐसे हैं कि जब उन्हें उनके 
रब की आयतों के जरिए नसीहत की जाती है तो वे उन पर बहरे और अंधे होकर नहीं 
गिरते। और जो कहते हैं कि ऐ हमारे रब, हमें हमारी बीवी और औलाद की तरफ से 
आंखों की ठंडक अता फरमा और हमें परहेजगारों का इमाम बना। (72-74) 


पारा ।9 











मौजूदा दुनिया में जो गलत काम हैं उन सबका मामला यह है कि शैतान ने उन्हें जाहिरी 
तौर पर खूबसूरत बना रखा है। हर बातिलपरस्त अपने नजरिये को खुशनुमा अल्फाज में पेश 
करता है। इसी जाहिरी फेबी की वजह से लोग इन चीजों की तरफ खिंचते हैं। अगर उनके 
इस जाहिर गिलाफ को हटा दिया जाए तो हर चीज इतनी मकरूह (घृणित) दिखाई देने लगे 
कि कोई शख्स उसके करीब जाने के लिए तैयार न हो। 

इस एतबार से हर बुराई एक किस्म का झूठ है जिसमें आदमी मुब्तिला होता है। मौजूदा 
दुनिया में आदमी का इम्तेहान यह है कि वह झूठ को पहचाने। वह जाहिरी पर्दे को फाइकर 
चीजें को उनकी असल हकीकत के एतबार से देख सके। 

जब किसी को एक ऐसी नसीहत की जाए जिसमें उसकी जात पर जद पड़ती हो तो वह 


पारा ।9 I004 सूह. अलऱफूक्ान 
फौरन बिफर उठता है। ऐसा शख्स खुदा की नजर में अंधा बहरा है। क्योंकि उसने अपनी आंख 
से यह काम न लिया कि वह हकीकत को देखे। उसने अपने कान से यह काम न लिया कि 
वह सच्चाई की आवाज को सुने। उसने नसीहत का इस्तकबाल सुनने और देखने वाले आदमी 
की हैसियत से नहीं किया । उसने नसीहत का इस्तकबाल एक ऐसे आदमी की हैसियत से किया 
जो सुनने और देखने की सलाहियत से महरूम हो। ख़ुदा की नजर में देखने और सुनने वाला 
वह है जो लग्व (निरर्थक घटिया बात) को देखे तो उससे एराज करे और जब उसके सामने 
सच्ची नसीहत आए तो फौरन उसे कुबूल कर ले। 

हर आदमी जो कुबे वाला है वह अपने कुंबे का “इमाम” (मुखिया) है। अगर उसके कुबे 
वालेमुतती (ईश-परायणता) हैं तो वह मुत्तकियों का इमाम है। और अगर उसके कुबे वाले 
ख़ुदा फरामोश हैं तो खुदा फरामोशों का इमाम । 


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‘ये लोग हैं कि उन्हें बालाख़ाने (उच्च भवन) मिलेंगे इसलिए कि उन्होंने सब्र किया। 
और उनमें उनका इस्तकबाल दुआ और सलाम के साथ होगा। वे उनमें हमेशा रहेंगे। 
वह ख़ूब जगह है ठहरने की और ख़ूब जगह है रहने की। कहो कि मेरा रब तुम्हारी 
परवाह नहीं रखता। अगर तुम उसे न पुकारो। पस तुम झुठला चुके तो वह चीज 
अनकरीब होकर रहेगी। (75-77) 


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जन्नत के ऊंचे बालाख़ानों में वे लोग जगह पाएंगे जिन्होंने दुनिया में अपने आपको हक 
के ख़ातिर नीचा कर लिया था। उन्होंने दुनिया में तवाजोअ (विनम्रता) इख्तियार की थी 
इसलिए आख़िरत में उनका खुदा उन्हें सरफराजी (उच्च स्थान) अता फरमाएगा। यही वह 
बात है जिसे हजरत मसीह ने इन लफ्जों में अदा फरमाया : “मुबारक हैं वे जो दिल के गरीब 
हैं। आसमान की बादशाही में वही दाखिल होंगे ।' 

वे औसाफ जो किसी आदमी को जन्नत में ले जाने वाले हैं उन्हें हासिल करना उस शख्स 
के लिए मुमकिन होता है जो सब्र करने के लिए तैयार हो। जन्नत वह आला मकाम है जहां 
आदमी की तमाम ख्वाहिशें कामिल तौर पर पूरी होंगी। मगर जन्नत उसी साबिर इंसान के 
हिस्से में आएगी जिसने दुनिया में अपनी ख़्वाहिशों पर कामिल रोक लगाई हो। जन्नत सब्र 
की कीमत है। और जहन्नम उसके लिए है जो दुनिया की जिंदगी में सब्र की मल्लूबा 
(अपेक्षित) कीमत देने के लिए तैयार नहीं हुआ था। 





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(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
ता० सीन० मीम०। ये वाजेह किताब की आयते हैं। शायद तुम अपने को हलाक कर 
डालोगे इस पर कि वे ईमान नहीं लाते। अगर हम चाहें तो उन पर आसमान से निशानी 
उतार दें। फिर उनकी गर्दनें उसके आगे झुक जाएं। उनके पास रहमान की तरफ से 
कोई भी नई नसीहत ऐसी नहीं आती जिससे वे बेरुखी न करते हों। पस उन्होंने झुठला 
दिया। तो अब अनकरीब उन्हें उस चीज की हकीकत मालूम हो जाएगी जिसका वे 
मजक उडते वे। (-6) 





हक की दावत जब जाहिर होती है तो वह हमेशा कलामे मुबीन (सुस्पष्ट वाणी) में जाहिर 
होती है। किसी दावत के ख़ुदाई दावत होने की यह भी एक अलामत है कि उसकी हर बात 
वाजेह हो। उसकी हर बात खुले हुए दलाइल पर मबनी (आधारित) हो। एक शख्स उसका 
इंकार तो कर सके मगर कोई शख्स वाकई तौर पर यह कहने की पोजीशन में न हो कि उसका 
पैग़ाम मेरी समझ में नहीं आया। 

‘शायद तुम अपने आपको हलाक कर लोगे? का जुमला उस कामिल खैरख़्वाही (परहित) 
को बता रहा है जो दाऔ (आस्वानकर्ता) को मदऊ के हक में होती है। दावती अमल ख़ालिस 
खैरख्वाही के जज्बे से उबलता है। इसलिए दाऔ जब देखता है कि मदऊ उसके पैगाम को 
नहीं मान रहा है तो वह उसके ग़म में इस तरह हल्कान होने लगता है जिस तरह मां अपने 
बच्चे की भलाई के लिए हल्कान (व्यथित) होती है। कुरआन का यह जुमला कुरआन के दाऔ 
की रैर्राहाना कैफियत की तस्दीक है न कि उस पर तंकीद। 

हक की दावत (आह्वान) ख़ुदा की दावत होती है। खुदा वह ताकतवर हस्ती है जिसके 
मुकाबले में किसी के लिए इंकार व सरकशी की गुंजाइश न हो। मगर यह सूरतेहाल ख़ुद ख़ुदा 
के अपने मंसूबे को बिना (आधार) पर है। ख़ुदा को अपनी जन्नत में बसाने के लिए वे 
कीमती इंसान दरकार हैं जो फरेब से भरी हुई दुनिया में हक को पहचानें और किसी दबाव के 





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पारा ।9 006 सूरह-26. अश-शुअरा 

बगैर उसके आगे झुक जाएं। ऐसे इंसानों का चुनाव ऐसे ही हालात में किया जा सकता था 

जहां हर इंसान को फिक्र (विचार) व अमल की पूरी आजादी दी गई हो। 

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क्या उन्होने जमीन को नहीं देखा कि हमने उसमें किस कद्र तरह-तरह की उम्दा चीजे 

उगाई हैं। बेशक इसमें निशानी है और उनमें से अक्सर लोग ईमान नहीं लाते। और 

बेशक तुम्हारा रब ग़ालिब (प्रभुत्वशाली) है, रहम करने वाला है। (7-9) 





मिट्टी के अंदर से हरे-भरे दरख् का निकलना उतना ही अजीब है जितना यह वाकया 
कि मिट्टी के अंदर से अचानक एक जिंदा ऊंट निकल आए और जमीन पर चलने फिरने 
लगे। लोग दूसरी किस्म के वाकये को देखकर हैरान होते हैं। हालांकि उससे ज्यादा बड़ा 
वाकया हर वक्‍त जमीन पर हो रहा है। मगर उसमें उन्हें कोई सबक नहीं मिलता। 

अल्लाह तआला को इंसान से जो चीज मल्लूब है वह यह है कि वह मामूली वाकेयात में 
छुपे हुए गैर मामूली पहलुओं को देखे। वह असबाब के तहत पेश आने वाले वाकये में ख़ुदा 
की बराहेरास्त कारफरमाई का मुशाहिदा (अवलोकन) कर ले। जो लोग इस आला बसीरत 
(समझ) का सुबूत दें वही वे लोग हैं जो ख़ुदा पर ईमान लाने वाले हैं। और वही वे लोग हैं 
जो ख़ुदा की अबदी रहमतों में दाखिल किए जाएंगे। 


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और जब तुम्हारे रब ने मूसा को पुकारा कि तुम जालिम कौम के पास जाओ, फिरऔन 
की कौम के पास, क्या वे नहीं डरते। मूसा ने कहा ऐ मेरे रब, मुझे अंदेशा है कि वे 
मुझे झुठला देंगे। और मेरा सीना तंग होता है और मेरी जबान नहीं चलती। पस तू 


हारून के पास पैग़ाम भेज दे। और मेरे ऊपर उनका एक जुर्म भी है पस में डरता हूं 
कि वे मुझे कत्ल कर देंगे। (0-4) 


हजरत मूसा को मिम्न के फिरऔन पर दीने तौहीद की तब्लीग करनी थी जो अपने जमाने 
में दुनिया की सबसे बड़ी और सबसे मुतमद्दिन (वैभवशाली) सल्तनत का बादशाह था। दूसरी 
तरफ हजरत मूसा का मामला यह था कि वह बनी इस्राईल के फरजंद थे जिनकी हैसियत उस 
वक्त के मिम्न में गुलामों और मजदूरों जैसी थी । कीमे फिरऔन का एक शख्स हजरत मूसा के 


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सूरह-26. अश-शुअरा I007 पारा 29 
हाथ से बिला इरादा हलाक हो गया था। मजीद यह कि हजरत मूसा अपने अंदर कुव्वते बयान 
की कमी महसूस फरमाते थे। इसके बावजूद अल्लाह तआला ने अपने पैगाम की पैगामरसानी 
के लिए हजरत मूसा का इंतिख़ाब (चयन) फरमाया । 

हकीकत यह है कि खुदा जाहिर से ज्यादा आदमी के बातिन (भीतर) को देखता है। और 
अगर किसी के अंदर बातिनी जौहर मौजूद हो तो उसी बातिनी जौहर की बुनियाद पर उसे अपने 
दीन के लिए मुंतख़ब फरमा लेता है। बातिनी जौहर आदमी को ख़ुद पेश करना पड़ता है। इसके 
बाद अगर बएतबार जाहिर कुछ कमी हो तो वह ख़ुदा की तरफ से पूरी कर दी जाती है। 


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फरमाया कभी नहीं। पस तुम दोनों हमारी निशानियों के साथ जाओ, हम तुम्हारे साथ 
सुनने वाले हैं। पस तुम दोनों फिरऔन के पास जाओ और कहो कि हम ख़ुदावंद आलम 

के रसूल हैं। कि तू बनी इस्राईल को हमारे साथ जाने दे। फिरऔन ने कहा, क्या हमने 
तुम्हें बचपन में अपने अंदर नहीं पाला। और तुमने अपने उम्र के कई साल हमारे यहां 
गुजारे। और तुमने अपना वह फेअल (कृत्य) किया जो किया। और तुम नाशुक्रों में से 

हो। (5-9) 


ख़ुदा जिस शख्स को अपनी नुमाइंदगी के लिए मुंतख़ब करे वह हर एतबार से ख़ुदा को 
हिफाजत में होता है। इसी के साथ उसके लिए मजीद एहतिमाम यह किया जाता है कि उसे 
ख़ुसूसी निशानियां दी जाती हैं जो इस बात की सरीह अलामत होती हैं कि उसका मामला 
खुदा का मामला है। मगर इंसान इतना जालिम है कि इसके बावजूद वह एतराफ नहीं करता । 

हजरत मूसा ने बनी इस्राईल के सिलसिले में फिरऔन से जो मुतालबा किया उसका 
तफ्सीली मतलब क्या था, इसके बारे में कुरआन में कोई वजाहत मौजूद नहीं है। तौरात का 
बयान इस सिलसिले में हस्बे जेल है : 

(मूसा ने फिरऔन से कहा) अब तू हमें तीन दिन की मंजिल तक बयावान (निर्जन-स्थल) 
में जाने दे। ताकि हम ख़ुदावंद अपने खुदा के लिए कुर्बानी करें (4 : 8) | मेरे लोगों को जाने 
दे ताकि वे बयाबान में मेरे लिए ईद करें (] : 5) तब फिरऔन ने मूसा और हारून को बुलवा 
कर कहा कि तुम जाओ और अपने ख़ुदा के लिए इसी मुल्क में कुर्बानी करो। मूसा ने कहा 
ऐसा करना मुनासिब नहीं क्योंकि हम ख़ुदावंद अपने खुदा के लिए उस चीज की कुर्बानी करेंगे 





पारा ।9 I008 सूरह-26. अश-शुअरा 
जिससे मिस्र नफरत रखते हैं। सो अगर हम मिस्नियों की आंखों के आगे उस चीज की कुर्बानी 
करें जिससे वे नफरत रखते हैं तो क्या वे हमें संगसार न कर डालेंगे। पस हम तीन दिन की 
राह बयानात में जाकर ख़ुदावंद अपने खुदा के लिए जैसा वह हमें हुक्म देगा कुर्बानी करेंगे। 
(8 : 25-27) 

बाइबल के बयान से बजाहिर ऐसा मालूम होता है कि हजरत मूसा का यह सफर हिजरत 
(स्थान-परिवर्तन) के लिए नहीं बल्कि तर्बियत के लिए था। मिस्र में गाय मुकदूदस मानी जाती 
थी। सदियों के अमल से बनी इस्राईल भी उससे मुतअस्सिर हो गए थे। अब हजरत मूसा ने 
चाहा कि बनी इस्राईल को कुछ दिनों के लिए मिस्र के मुश्रिकाना माहौल से बाहर ले जाएं 
और उन्हें आजाद फा में रखकर उनकी तर्बियत करें। 


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मूसा ने कहा। उस वक्‍त मैंने किया था और मुझसे गलती हो गई। फिर मुझे तुम लोगों 

से डर लगा तो मैं तुमसे भाग गया। फिर मुझे मेरे रब ने दानिशमंदी (सूझबूझ) अता 
फरमाई और मुझे रसूलों में से बना दिया। और यह एहसान है जो तुम मुझे जता रहे 
हो कि तुमने बनी इस्राईल को गुलाम बना लिया। (20-22) 





हजरत मूसा ने फिरऔन के सामने तौहीद की दावत पेश की और असा और यदेवेजा 
(हाथ का चमकना) का मोजिजा दिखाया । फिरऔन ने आपकी अहमियत घटाने के लिए 
उस वकत आपकी साबिका (पिछली) जिंदगी की दो बातें याद दिलाई। एक, बचपन में 
हजरत मूसा का फिरऔन के घर में परवरिश पाना। दूसरे, एक किबती का कल । हजरत 
मूसा ने जवाब में फरमाया कि तुम्हारे घर में मेरी परवरिश की नौबत ख़ुद तुम्हारे जुल्म की 
वजह से आई। तुम चूंकि बनी इस्राईल के बच्चों को कत्ल कर रहे थे इसलिए मेरी मां ने 
यह किया कि मुझे टोकरी में रखकर बहते दरिया में डाल दिया। और इसके बाद ख़ुद तुमने 
मुझे दरिया से निकाला और मुझे अपने घर में रखा। जहां तक किबती के कत्ल का मामला 
है तो वह मैंने इरादतन नहीं किया। मैंने अपने इस्राईली भाई की तरफ से किबती की 
जारिहिव्यत (आक्रामकता) का दिफाअ किया था और वह इत्तफाकन मर गया। 

हजरत मूसा किबती के कत्ल के बाद मिस्र को छोड़कर मदयन चले गए थे। वहां वह कई 
साल तक रहे। शहर की मस्नूई (कृत्रिम) फजा से निकल कर देहात की फितरी फिज में चन्द 
साल गुजारना शायद आपकी तर्बियत के लिए जरूरी था। चुनांचे मदयन से निकल कर जब 
आप दुबारा मिस्र जाने लगे तो रास्ते में अल्लाह तआला ने आपको नुबुव्वत अता फरमाई। 





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सूरह-26. अश-शुअरा I009 पारा ।9 


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फिरऔन ने कहा कि रब्बुल आलमीन क्या है। मूसा ने कहा, आसमानां और जमीन 
का रब और उन सबका जो उनके दर्मियान हैं, अगर तुम यकीन लाने वाले हो। फिरऔन 
ने अपने इर्द-गिर्द वालों से कहा, क्या तुम सुनते नहीं हो। मूसा ने कहा वह तुम्हारा 
भी रब है। और तुम्हारे अगले बुजुर्गों का भी। फिरऔन ने कहा तुम्हारा यह रसूल जो 
तुम्हारी तरफ भेजा गया है मजनून है। मूसा ने कहा, मश्रिक (पूर्व व मग्रिब (पश्चिम) 
का रब और जो कुछ इनके दर्मियान है, अगर तुम अक्ल रखते हो। फिरऔन ने कहा, 
अगर तुमने मेरे सिवा किसी को माबूद (पूज्य) बनाया तो में तुम्हें केद कर दूंगा। मूसा 
ने कहा क्या अगर में कोई वाजेह दलील पेश करूं तब भी। फिरऔन ने कहा फिर उसे 
पेश करो अगर तुम सच्चे हो। फिर मूसा ने अपना असा (डंडा) डाल दिया तो यकायक 
वह एक सरीह (साक्षात अजदहा था। और उसने अपना हाथ खींचा तो यकायक वह 
देखने वालों के लिए चमक रहा था। फिरऔन ने अपने इर्द गिर्द के सरदारों से कहा, 
यकीनन यह शख्स एक माहिर जादूगर है। वह चाहता है कि अपने जादू से तुम्हें तुम्हारे 
मुल्क से निकाल दे। पस तुम क्या मश्विरा देते हो। (2३-55) 





तुम्हारा रब्खुल आलमीन क्या है। फिरऔन का यह जुमला दरअस्ल इस्तेहजा (मज़ाक) 
था न कि सवाल। मगर हजरत मूसा ने किसी झुंझलाहट के बगैर बिल्कुल मोअतदिल (शालीन) 
अंदाज में इसका जवाब दिया । फिरऔन ने दुबारा अपने दरबारियों से यह कहकर हजरत मूसा 
की तहकीर (अपमान) की कि “सुनते हो, यह क्या कह रहे हैं। हजरत मूसा ने इसे भी 
नजरअंदाज किया और अपना सिलसिला कलाम बदस्तूर जारी रखा। फिरऔन ने मुशतइल 
(उत्तेजित) होकर हजरत मूसा को दीवाना करार दिया। मगर अब भी हजरत मूसा ने अपने 
एतदाल को नहीं खोया। फिरऔन ने कैद की धमकी दी तो हजरत मूसा ने अपनी आखिरी 


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पारा ।9 I0l0 सूरह-26. अश-शुअरा 
दलील (मोजिजा) को उसके सामने रख दिया। अब फिरऔन के लिए मजीद कुछ कहने की 
गुंजाइश न थी। मगर उसने हार न मानी। उसने हजरत मूसा की अहमियत घटाने के लिए 
कहा कि यह कोई खुदाई वाकया नहीं। यह तो महज एक साहिराना वाकया है। और हर 
जादूगर ऐसा करिश्मा दिखा सकता है। 

हजरत मूसा की दावत (आह्वान) सरासर पुरअम्न दावत थी। उसका सियासत और 
हुकूमत से भी बराहेरास्त कोई तअल्लुक न था। मगर फिरऔन ने अपनी कौम को आपके 
खिलाफ भड़काने के लिए यह कह दिया कि वह हमें हमारे मुल्क से निकाल देना चाहते हैं। 
फिरऔन की गैर संजीदगी इसी से वाजेह है कि हजरत मूसा ने तो खुद अपनी कौम को साथ 
लेकर मिस्र से बाहर जाने की बात की थी। मगर फिरऔन ने उसे उलट कर यह कह दिया 
कि मूसा हम लोगों को मिस्र से बाहर निकाल देना चाहते हैं। 


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दरबारियों ने कहा कि इसे और इसके भाई को मोहलत दीजिए। और शहरों में 
हरकारे भेजिए कि वे आपके पास तमाम माहिर जादूगरों को लाएं। पस जादूगर एक 
दिन मुक्रर वक्‍त पर इकट्ठा किए गए और लोगों से कहा गया कि क्या तुम जमा 
होगे। ताकि हम जादूगरों का साथ दें अगर वे ग़ालिब रहने वाले हों। फिर जब 
जादूगर आए तो उन्होंने फिरऔन से कहा, क्या हमारे लिए कोई इनाम है अगर हम 
ग़ालिब रहे। उसने कहा हां, और तुम इस सूरत में मुकर्रब (निकटवर्ती) लोगों में 
शामिल हो जाओगे। (36-42) 





फिरऔन और उसके दरबारियों ने हजरत मूसा के मामले को सिर्फ जादू का मामला 
समझा। इसलिए जादू के जरिए उनका मुकाबला करने का मंसूबा बनाया | उनकी सोच जहां 
तक पहुंची वह सिर्फ यह था किमूसा अगर लकड़ी को सांप बना सकते हैं तो हमारे जादूगर 
भी लकड़ी को सांप बना सकते हैं। इससे आगे की उन्हें ख़बर न थी। वे मूसा के मामले को 
इंसान का मामला समझते थे इसलिए इंसान के जरिए उसका तोड़ करना चाहते थे। उन्होंने 
उस राज को नहीं जाना कि मूसा का मामला ख़ुदा का मामला है और कौन इंसान है जो ख़ुदा 
से टक्कर ले सके। 

हजरत मूसा और जादूगरों के दर्मियान मुकाबले के लिए मिश्नियों के सालाना कौमी 





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सूरह-26. अश-शुअरा I0lI पारा 79 
त्यौहार का दिन मुकरर हुआ। और उसके लिए एक बहुत बड़े मैदान का इंतिखाब हुआ ताकि 
ज्यादा से ज्यादा लोग जमा हों और ज्यादा से ज्यादा जादूगरों की हैसलाअफजाई कर सकें। 


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मूसा ने उनसे कहा कि तुम्हें जो कुछ डालना हो डालो। पस उन्होंने अपनी रस्सियां और 
लाठियां डाली। और कहा कि फिरऔन के इकबाल की कसम हम ही ग़ालिब रहोे। 
फिर मूसा ने अपना असा (डंडा) डाला तो अचानक वह उस स्वांग को निगलने लगा 
जो उन्होंने बनाया था। फिर जादूगर सज्दे में गिर पड़े। उन्होंने कहा हम ईमान लाए 
रब्बुल आलमीन पर जो मूसा और हारून का रब है। (43-48) 


जादूगरों ने अपनी रस्सियां और लाठियां मैदान में डालीं तो देखने वालों को ऐसा महसूस 
हुआ गोया कि वे सांप बनकर मैदान में दौड़ रही हैं। मगर यह कोई हकीकी तब्दीली न थी, यह 
सिर्फ नजरबंदी का मामला था। इसके बरअक्स हजरत मूसा के असा का सांप बनना असा का 
मौजजए खुदावंदी (दिव्य चमत्कार) में ढल जाना था। चुनांचे जब हजरत मूसा का असा सांप 
बनकर मैदान में चला तो अचानक उसने जादूगरों के सारे तिलिस्म को बातिल कर दिया। इसके 
बाद जादूगरों की रस्सियां और लाठियां सिर्फ रस्सियां और लाठियां होकर रह गई जैसा कि वह 
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जादूगरों ने पहले हजरत मूसा को अपनी तरह का एक जादूगर समझा था। मगर तजर्े 
ने उनकी आंखें खोल दीं। वे जादू के फन को बख़ूबी जानते थे इसलिए वे फौरन समझ गए 
कि यह जादूगरी नहीं है बल्कि पैग़म्बरी है। ताहम उनके लिए मुमकिन था कि अब भी वे 
एतराफ न करें और हजरत मूसा को रद्द करने के लिए फिरऔन की तरह कुछ झूठे अल्फाज 
बोल दें। मगर एक जिंदा इंसान के लिए यह नामुमकिन होता है कि हक के पूरी तरह खुल 
जाने के बाद वह हक का एतराफ न करे। जादूगर इसी किस्म के ज़िंदा इंसान थे। चुनांचे 
उन्ही फैरन हजरत मूसा की सदाकत (सच्चाई) का एतराफ कर लिया। 


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पारा 9 I022 सूरह-१6. अश-शुअरा 
फिरऔन ने कहा, तुमने उसे मान लिया इससे पहले कि मैं तुम्हें इजाजत दूं। बेशक 

वही तुम्हारा उस्ताद है जिसने तुम्हें जादू सिखाया है। पस अब तुम्हें मालूम हो जाएगा। 
मैं तुम्हारे एक तरफ के हाथ और दूसरी तरफ के पांव काटूंगा और तुम सबको सूली 

पर चढ़ाऊंगा। उन्होंने कहा कि कुछ हरज नहीं। हम अपने मालिक के पास पहुंच 
जाएंगे। हम उम्मीद रखते हैं कि हमारा रब हमारी ख़ताओं को माफ कर देगा। इसलिए 
कि हम पहले ईमान लाने वाले बने। (49-5) 


जादूगरों का हजरत मूसा पर ईमान लाना फिरऔन के लिए जबरदस्त रुसवाई का 
बाइस था। उसने इसके इजाले के लिए यह किया कि इस पूरे वाक्य को साजिश करार 
दे दिया। उसने कहा कि तुम लोग मूसा के साथ मिले हुए हो। और तुमने जान बूझकर 
उनके मुकाबले में अपनी शिकस्त का मुजाहिरा किया है ताकि मूसा की बड़ाई लोगों के 
दिलों पर कायम हो और तुम्हारे लिए अपना मकसद हासिल करना आसान हो जाए। 
फिरऔन ने जादूगरों को अपना यह फैसला सुनाया कि तुम लोगों को बगावत की सजा 
दी जाएगी। तुम्हारे हाथ पांव बेतर्तीब काट कर तुम्हें बरसरे आम सूली पर चढ़ाया जाएगा। 
इस शदीद हुक्म के बावजूद जादूगर बेहिम्मत नहीं हुए। वही जादूगर जो पहले (आयत 4॥) 
फि के इकबाल (गरिमा) की कसम खा रहे थे और उससे इनाम व इकराम की 
दरख्यास्त कर रहे थे उन्होंने बिल्कुल बेखौफ होकर कहा कि तुम जो चाहे करो अब हम 
मूसा के दीन से हटने वाले नहीं हैं। इस आला हिम्मती का सबब ईमानी दरयाफ्त थी। 
आदमी किसी चीज का खोना उस ववत बर्दाश्त करता है जबकि उसे खोकर वह ज्यादा 
बड़ी चीज पा रहा हो। ईमान से पहले जादूगरों के पास सबसे बड़ी चीज फिरऔन और 
उसका इनाम था। मगर ईमान के बाद उन्हें खुदा और उसकी जन्नत सबसे बड़ी चीज़ नजर 
आने लगी। यही वजह है कि ईमान से पहले जिस चीज की कुर्बानी वे बर्दाश्त नहीं कर 
सकते थे ईमान के बाद निहायत ख़ुशी से वे उसकी कुर्बानी देने पर राजी हो गए 


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और हमने मूसा को “वही” (ईश्वरीय वाणी) भेजी कि मेरे बंदों को लेकर रात को निकल 
जाओ। बेशक तुम्हारा पीछा किया जाएगा। पस फिरऔन ने शहरों में हरकारे भेजे। 
ये लोग थोड़ी सी जमाअत हैं। और उन्होंने हमें गुस्सा दिलाया है। और हम एक मुस्तइद 
(चुस्त) जमाअत हैं। पस हमने उन्हें बाग़ों और चशमों (स्रोतों) से निकाला, और ख़जानों 





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सूरह-26. अश-शुअरा I03 पारा ।9 


और उम्दा मकानात से। यह हुआ, और हमने बनी इस्राईल को इन चीजों का वारिस 
बना दिया। (52-59) 





वर्षों की दावती जद्दोजहद के बावजूद फिरऔन हजरत मूसा पर ईमान न लाया। 
आखिरकार इतमामेहुज्जत (आह्वान की अति) के बाद अल्लाह तआला ने हजरत मूसा को 
हुक्म दिया कि बनी इस्राईल को लेकर मिस्र से बाहर चले जाएं। फिरऔन को जब मालूम हुआ 
कि बनी इस्राईल इज्तिमाई तौर पर मिस्र से रवाना हो गए हैं। तो उसने अपने लश्कर और 
अपने आयाने सल्तनत (पदाधिकारियों) के साथ उनका पीछा किया। बजाहिर फिरऔन का 
यह इवदाम बनी इस्राईल के खिलाफ था। मगर अमलन वह खुद उसके अपने खिलाफ इवदाम 
बन गया। इस तरह फिरऔन और उसके साथी अपनी शानदार आबादियों को छोड़कर वहां 
पहुंच गए जहां उन्हें यकजाई (सामूहिक) तौर पर समुद्र में गर्क होना था। 

अल्लाह तआला ने एक तरफ फिरऔन और उसके साथियों को उनके जुल्म के नतीजे 
में अपनी नेमतों से महरूम किया जो उन्हें मिस्र में हासिल थीं। दूसरी तरफ बनी इस्राईल के 
सालिहीन के साथ यह मामला फरमाया कि उन्हें एक मुद्दत के बाद फिलिस्तीन पहुंचाया । 
और वहां उन्हें ये तमाम नेमतें मजीद इजाफे के साथ दे दीं। 


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पस उन्होंने सूरज निकलने के वक्‍त उनका पीछा किया। फिर जब दोनों जमाअतें आमने 
सामने हुई तो मूसा के साथियों ने कहा कि हम तो पकड़े गए। मूसा ने कहा कि हरगिज 
नहीं, बेशक मेरा रब मेरे साथ है। वह मुझे राह बताएगा। फिर हमने मूसा को “वही! 
(प्रकाशना) की कि अपना असा दरिया पर मारो। पस वह फट गया और हर हिस्सा 
ऐसा हो गया जैसे बड़ा पहाड़। और हमने दूसरे फरीक (पक्ष) को भी उसके करीब पहुंचा 

दिया। और हमने मूसा को और उन सबको जो उसके साथ थे बचा लिया। फिर दूसरों 
को गर्क कर दिया। बेशक इसके अंदर निशानी है। और उनमें से अक्सर मानने वाले 
नहीं हैं। और बेशक तेरा रब जबरदस्त है रहमत वाला है। (60-68) 


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पारा ।9 I0I4 सूरह-26. अश-शुअरा 





फिरऔन बनी इस्राईल का पीछा करते हुए वहां पहुंच गया जहां बनी इस्राईल के आगे 
समुद्र था और पीछे फिरऔन और उसका लश्कर । बनी इस्राईल इस नाजुक सूरतेहाल को देखकर 
घबरा उठे। बाइबल के बयान के मुताबिक वे मूसा से कहने लगे 'क्या मिस्र में कब्रें न थीं कि 
तू हमें वहां से मरने के लिए बयाबान (निर्जन स्थान) में ले आया है।' 
मगर हजरत मूसा को यकीन था कि अल्लाह तआला उनकी मदद फरमाएगा । चुनांचे 
अल्लाह तआला के हुक्म पर हजरत मूसा ने अपना असा (डंडा) समुद्र के पानी पर मारा। पानी 
बीच से फट गया। दोनों तरफ ऊंची दीवारों की मानिंद पानी खड़ा हो गया। और दर्मियान में 
ख़ुश्क रास्ता निकल आया। बनी इस्राईल इस रास्ते से पार होकर अगले किनारे पर पहुंच गए। 
यह मंजर देखकर फिरऔन ने समझा कि वह भी इस खुले हुए रास्ते से पार हो सकता 
है। उसे मालूम न था कि यह रास्ता नहीं है बल्कि खुदा का हुक्म है। फिरऔन अपने पूरे लश्कर 
के साथ उसके अंदर दाखिल हो गया। जैसे ही वे लोग बीच में पहुंचे खुदा के हुक्म से समुद्र 
का खड़ा हुआ पानी दोनों तरफ से मिलकर बराबर हो गया। फिरऔन अपने तमाम लश्कर के 
साथ दफअतन (यकायक) गर्क हो गया । एक ही नक्शे में एक गिरोह के लिए नजात छुपी हुई 


थी और दूसरे गिरोह के लिए हलाकत। 
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और उन्हें इब्राहीम का किस्सा सुनाओ। जबकि उसने अपने बाप से और अपनी कौम 

से कहा कि तुम किस चीज की इबादत करते हो। उन्होंने कहा कि हम बुतों की इबादत 
करते हैं और बराबर इस पर जमे रहेंगे। इब्राहीम ने कहा, क्या ये तुम्हारी सुनते हैं जब 
तुम इन्हें पुकारते हो। या वे तुम्हें नफा नुक्सान पहुंचाते हैं। उन्होंने कहा, बल्कि हमने 

अपने बाप दादा को ऐसा ही करते हुए पाया है। (69-74) 


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एक तरफ हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की कौम थी कि उसने बाप दादा को जो कुछ 
करते हुए देखा वही खुद भी करने लगी। दूसरी तरफ हजरत इब्राहीम थे जिन्होंने खुद अपनी 
अक्ल से सोचा। उन्होंने माहौल से ऊपर उठकर सच्चाई को मालूम करने की कोशिश की। 
यही वह ख़ास सिफत है जो आदमी को खुदा की मअरफत तक पहुंचाती है। और इस सिफत 
में जो कमाल दर्जे पर हो उसे ख़ुदा अपने दीन की पैग़ामबरी के लिए मुंतख़ब फरमाता है। 
(हम अपने बुतों पर जमे रही।' का लफ्ज बताता है कि हजरत इब्राहीम से गुफ्तगू में 
उन्होंने अपने आपको बेदलील पाया । इसके बावजूद वे मानने के लिए तैयार न हुए। दलील की 





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सूरह-26. अश-शुअरा 0l5 पारा 9 
सतह पर शिकस्त खाने के बावजूद वे तअस्सुब (विद्वेष) की सतह पर अपने आबाई (पैतृक) दीन 
पर कयम रहे। 


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इब्राहीम ने कहा, क्या तुमने उन चीजों को देखा भी जिनकी इबादत करते हो, तुम भी 
और तुम्हारे बड़े भी। ये सब मेरे दुश्मन हैं सिवा एक ख़ुदावंद आलम के जिसने मुझे 
पैदा किया, फिर वही मेरी रहनुमाई फरमाता है। और जो मुझे खिलाता है और पिलाता 
है। और जब मैं बीमार होता हूं तो वही मुझे शिफा देता है। और जो मुझे मौत देगा 


फिर मुझे जिंदा करेगा। और वह जिससे मैं उम्मीद रखता हूं कि बदले के दिन मेरी ख़ता 
माफ कसा। (75-82) 


इंसान एक मुस्तकिल हस्ती के तौर पर दुनिया में आता है। उसके अंदर अक्ल है जो खैर 
और शर में फर्क करती है, जो जुजइयात (अंशं) से कुल्लियात (कुल) अख़ज करती है और 
महसूसात से माकूलात (तथ्यों) तक पहुंच जाती है। आदमी के लिए यहां निहायत आला दर्जे 
पर वे चीजेंमीजूद हैं जो उसे मुसलसल रिजक फराहम करती हैं। आदमी बीमार होता है तो वह 
पाता है कि यहां वे असबाब भी मुकम्मल तौर पर मौजूद हैं जिनसे इलाज का फन वजूद में आ 
सके। फिर आदमी देखता है कि बजाहिर सारी आजादी के बावजूद वह मौत के सामने बेबस 
है। वह एक ख़ास उम्र को पहुंच कर मर जाता है। 

इन वाकेयात का तअल्लुक एक ख़ुदा के सिवा किसी और से नहीं हो सकता, फिर कैसे 
जाइज है कि एक खुदा के सिवा किसी और की इबादत की जाए। मजीद यह कि इस मामले 
में आदमी को हददर्जा संजीदा होना चाहिए । क्योंकि यही वाकेयात यह इशारा भी कर रहे हैं कि 
जो ख़ुदा यह सब कर रहा है वह इंसान से हिसाब लेने के लिए उसे एक रोज अपने यहां 
बुलाएगा। मौत इसी बुलावे के अमल का आग़ाज (आरंभ) है। 


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पारा ।9 I06 सूरह-26. अश-शुअरा 


ऐ मेरे रब, मुझे हिक्मत (तत्वदर्शिता) अता फरमा और मुझे नेक लोगों में शामिल फरमा। 

और मेरा बोल सच्चा रख बाद के आने वालों में। और मुझे बागे नेमत के वारिसों में से 
बना। और मेरे बाप को माफ फरमा, बेशक वह गुमराहों में से है। और मुझे उस दिन रुसवा 

न कर जबकि लोग उठाए जाएंगे। जिस दिन न माल काम आएगा और न औलाद। मगर 
वह जो अल्लाह के पास कल्बे सलीम (पाकदिल) लेकर आए। (83-89) 





इस आयत में हुक्म” से मुराद सही फहम है। यानी चीजों को वैसा ही देखना जैसा कि 
वे फिलवाकअ हैं। नुबुव्यत के बाद किसी बंदाए खुदा के लिए यह सबसे बड़ी नेमत है। 
इसीलिए हदीस में आया है कि : 'अल्लाह जिस शख्स के लिए खैर का इरादा करता है उसे 
दीन की समझ दे देता है। 

हजरत इब्राहीम ने अपनी दुआ में जो बातें कहीं वे सब कुबूल हो गईं। मगर अपने बाप 
(आजर) की मम्फिरत की दुआ कुबूल नहीं हुई। इससे अंदाजा होता है कि दुआ तमामतर 
ख़ुदा और बंदे के दर्मियान का मामला है। किसी शख्स की दुआ किसी दूसरे शख्स को 
मभ्फिरत नहीं दिला सकती। 

अल्लाह तआला के यहां असल कीमत 'कल्वे सलीम' की है। कल्वे सलीम से मुराद कल्वे 
सही या पाक दिल है यानी वह दिल जो शिर्क और निफाक और हसद और बुज के जज्बात 
से पाक हो। बअल्फाज दीगर खुदा ने पैदाइशी तौर पर जो दिल आदमी को दिया था वही दिल 
लेकर वह ख़ुदा के यहां पहुंचे। कोई दूसरा दिल लेकर वह ख़ुदा के यहां हाजिर न हो। 


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और जन्नत डरने वालों के करीब लाई जाएगी। और जहन्नम गुमराहों के लिए जाहिर 


की जाएगी। और उनसे कहा जाएगा। कहां हैं वे जिनकी तुम इबादत करते थे, अल्लाह 
के सिवा। क्या वे तुम्हारी मदद करेंगे। या वे अपना बचाव कर सकते हैं। फिर उसमें 





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सूरह-26. अश-शुअरा I0I7 पारा ।9 
औंधे मुंह डाल दिए जाएंगे, वे और गुमराह लोग और इब्लीस (शैतान) का लश्कर, सबके 
सब। वे उसमें बाहम झगड़ते हुए कहेंगे। खुदा की कसम, हम खुली हुई गुमराही में थे। 
जबकि हम तुम्हें खुदावंद आलम के बराबर करते थे। और हमें तो बस मुजरिमों ने रास्ते 
से भटकाया। पस अब हमारा कोई सिफारिशी नहीं। और न कोई मुख्लिस (निष्ठावान) 
दोस्त। पस काश हमें फिर वापस जाना हो कि हम ईमान वालों में से बनें। बेशक इसमें 
निशानी है। और उनमें अक्सर लोग ईमान लाने वाले नहीं। और बेशक तेरा रब 
जबरदस्त है, रहमत वाला है। (90-04) 





आदमी की जन्नत और जहन्नम आदमी से दूर नहीं। दोनों के दर्मियान सिफ एक पर्दा 
हायल है। कियामत जब इस पर्दे को हटाएगी तो हर आदमी देखेगा कि वह ऐन अपनी जन्नत 
या ऐन अपनी जहन्नम के किनारे खड़ा हुआ था। अगरचे गाफिल इंसान उसे बहुत दूर की 
चीज समझ रहा था। 

'मुजरिमीन” से मुराद यहां झूठे लीडर हैं। ये लोग अपने वक्त के समाज में बड़ाई का 
मकाम हासिल किए हुए थे। उन्हेंने हक की दावत को सिर्फ इसलिए कुबूल नहीं किया कि 
इसके बाद उनकी बड़ाई ख़त्म हो जाएगी। उनका किब्र (अहं, बड़ाई) उनके लिए हक के 
एतराफ में रुकावट बन गया। इसका नतीजा यह हुआ कि उनके पैरोकार भी हक की दावत 
को कबिले लिहाज चीज न समझ सके। 

'लीडरों को ख़ुदावंद आलम के बराबर करना” यह है कि उनकी बात को वह दर्जा दिया 
जाए जो ख़ुदावंद आलम की बात का दर्जा होता है। मुफस्सिर इब्ने कसीर ने इसकी तशरीह 
इन अल्फाज में की है : 'हम तुम्हारे हुक्म की इताअत (आज्ञापालन) इस तरह करते रहे जिस 
तरह रब्बुल आलमीन के हुक्म की इताअत की जाती है।' वे लोग जो दुनिया में अपने लीडरों 
की बात को ख़ुदा की बात की तरह मानते थे वे आख़िरत में अपने लीडरों को ख़ुद अपनी 
जबान से मुजरिम कहेंगे। मगर इसका उन्हें कोई फायदा नहीं मिलेगा। क्योंकि मुजरिम और 
हकपरस्त को पहचानने की जगह दुनिया थी न कि आखिरत। 


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पारा 9 I0I8 सूरह-26. अश-शुअरा 
नूह की कौम ने रसूलों को झुठलाया। जबकि उनके भाई नूह ने उनसे कहा, क्या तुम 
डरते नहीं हो। मैं तुम्हारे लिए एक अमानतदार रसूल हूं। पस तुम लोग अल्लाह से डरो। 
और मेरी बात मानो। और में इस पर तुमसे कोई अज्र (बदला) नहीं मांगता। मेरा अज 
तो सिर्फ रब्बुल आलमीन के जिम्मे है। पस तुम अल्लाह से डरो और मेरी बात मानो। 

उन्होंने कहा क्या हम तुम्हें मान लें। हालांकि तुम्हारी पैरवी रजील (नीच) लोगों ने की 
है। नूह ने कहा कि मुझे क्‍या ख़बर जो वे करते रहे हैं। उनका हिसाब तो मेरे रब के 
जिम्मे है, अगर तुम समझो। और मैं मोमिनों को दूर करने वाला नहीं हूं। में तो बस 
एक खुला हुआ डराने वाला हूं। (05-75) 





हजरत नूह की कीम ने उन्हें झुठलाया। हालांकि उनकी दावत (आह्वान) में दलील का 
वजन पूरी तरह मौजूद था। इसी के साथ उनकी सीरत उनकी सदाकत की तस्दीक कर रही 
थी। हजरत नूह के बारे में उनकी कौम के लोग जानते थे कि वह एक सच्चे और अमानतदार 
आदमी हैं। वे जानते थे कि हजरत नूह जो दावत दे रहे हैं उससे उनका कोई जाती मफाद 
वाबस्ता नहीं। ये खुसूसियात हजरत नूह को संजीदा साबित करने के लिए काफी थीं। और 
जो आदमी मख्लूक के बारे में संजीदा हो, वह ख़ालिक के बारे में गैर संजीदा नहीं हो सकता। 

हजरत नूह की कौम ने आपकी दावत को मानने से इंकार कर दिया । हालांकि इस इंकार 
के लिए उनके पास गैर मुतअल्लिक बातों के सिवा कोई चीज मौजूद न थी। किसी दावत को 
रदूद करने के लिए यह कहना कि उसका साथ देने वाले मामूली लोग हैं। यह दावत की 
तरदीद (रदूद) नहीं बल्कि खुद अपनी तरदीद है। क्योंकि इसका मतलब यह है कि आदमी 
दलील के एतबार से इस दावत के हक में कुछ कहने की गुंजाइश नहीं पाता । ताहम वह सिफ 
इसलिए उसका साथ देना नहीं चाहता कि उसमें मामूली किस्म के लोग जमा हैं। उसे यह 
उम्मीद नहीं कि उसके हलके में शामिल होने के बाद उसे कोई बड़ा मकाम हासिल हो सकेगा । 


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उन्होंने कहा कि ऐ नूह अगर तुम बाज न आए तो जरूर संगसार कर दिए जाओगे। 
नूह ने कहा कि ऐ मेरे रब, मेरी कौम ने मुझे झुठला दिया। पस तू मेरे और उनके 
दर्मियान वाजेह फैसला फरमा दे। और मुझे और जो मोमिन मेरे साथ हैं उन्हें नजात 





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सूरह-26. अश-शुअरा I09 पारा ।9 
दे। फिर हमने उसे और उसके साथियों को एक भरी हुई कश्ती में बचा लिया। फिर 
इसके बाद हमने बाकी लोगों को गर्क कर दिया। यकीनन इसके अंदर निशानी है, और 

उनमें से अक्सर लोग मानने वाले नहीं। और बेशक तेरा रब वही जबरदस्त है, रहमत 
वाला है। (6-22) 





हजरत नूह सदियों तक अपनी कौम के लोगों को हक की तरफ बुलाते रहे। मगर उन्हेनि 
आपकी बात न मानी। यहां तक कि आखिरकार उन्होंने फैसला किया कि सब लोग मिलकर 
नूह को पत्थर मारें, यहां तक कि वह हलाक हो जाएं और फिर सुबह व शाम उनकी बात 
सुनने से नजात मिल जाए। जब कौम इस हद को पहुंच गई तो अल्लाह तआला का फैसला 
हुआ कि अब इस कौम का ख़ात्मा कर दिया जाए। अल्लाह तआला का यही फैसला है जो 
हजरत नूह की दुआ की शक्ल में जाहिर हुआ। 

अल्लाह के हुक्म से हजरत नूह ने एक बड़ी कश्ती बनाई। उसमें हजरत नूह के तमाम 
साथी और हर किस्म के जानवरों का एक-एक जोड़ा रख लिया गया। इसके बाद अल्लाह ने 
शदीद तूफान भेजा जमीन से पानी उबलने लगा और ऊपर से मुसलसल बारिश होने लगी। 
यहां तक कि कश्ती के सिवा सारी जिंदा मख्लूक फना हो गई। यह एक तारीख़ी (ऐतिहासिक) 
मिसाल है जिससे जाहिर होता है कि इस दुनिया में नजात सच्चे अहले ईमान के लिए है और 
बाकी लोगों के लिए यहां हलाकत के सिवा कुछ और मुकदूदर नहीं। 


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आद ने रसूलों को झुठलाया। जबकि उनके भाई हूद ने उनसे कहा कि क्या तुम लोग 
डरते नहीं। मैं तुम्हारे लिए एक मोतबर (विश्‍वसनीय) रसूल हूं। पस अल्लाह से डरो और 
मेरी बात मानो। और में इस पर तुमसे कोई बदला नहीं मांगता। मेरा बदला सिर्फ 
खुदावंद आलम के जिम्मे है। क्या तुम हर ऊंची जमीन पर लाहासिल (व्यर्थ एक 
यादगार इमारत बनाते हो और बड़े-बड़े महल तामीर करते हो। गोया तुम्हें हमेशा रहना 
है। और जब किसी पर हाथ डालते हो तो जब्बार (दमनकारी) बनकर डालते हो। पस 


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पारा 9 I020 सूरह-26. अश-शुअरा 
तुम अल्लाह से डरो और मेरी बात मानो। और उस अल्लाह से डरो जिसने उन चीजों 

से तुम्हें मदद पहुंचाई जिन्हें तुम जानते हो। उसने तुम्हारी मदद की चौपायों और औलाद 
से और बाग़ों और चशमों (स्रोतों) से। में तुम्हारे ऊपर एक बड़े दिन के अजाब से डरता 
हूं। (23-35) 





आद वह कौम है जिसे कीमे नूह की तबाही के बाद दुनिया में उरूज मिला (अल-आराफ 
69)। इस कौम को अल्लाह तआला ने सेहत, फारिगुल बाली (सम्पन्नता) और इक्तेदार 
(सत्ता) हर चीज अता फरमाई। इन चीजों पर अगर वे शुक्र करते तो उनके अंदर तवाजोअ 
(विनम्रता) का जज्बा उभरता । मगर उन्होंने इस पर फख़ किया। नतीजा यह हुआ कि उनके 
लिए अपने वसाइल का सबसे ज्यादा पसंदीदा मसरफ यह बन गया कि वे अपने मेयारे जिंदगी 
को बढ़ाएं। वे अपने नाम को ऊंचा करें। वे अपनी अज्मत के संगी निशानात कायम करने 
को सबसे बड़ा काम समझने लगें। 

ऐसे लोगों का हाल यह होता है कि जब उन्हें किसी से इख्तेलाफ या शिकायत हो जाए तो 
उनकी मुतकब्बिराना नफ्सियात (घमंड-भाव) उन्हें किसी हद पर रुकने नहीं देती। वे उसके 
खिलाफ हर बेइंसाफी को अपने लिए जाइज कर लेते हैं। वे उसे अपनी पूरी ताकत से पीस डालना 
चाहते हैं। दुनिया की दुरुस्तगी उन्हें आख़िरत की पकड़ से बेख़ौफ कर देती है। और जो शख्स 
अपने आपको आहिरत की पकड़ से महफूज समझ ले, दूसरे लोग उसकी पकड़ से महफूज नहीं 
रह सकते । 

जिन लोगों को खुशहाली और बरतरी हासिल हो जाए उनके अंदर अपने बारे में झूठा 
एतमाद पैदा हो जाता है। यह झूठा एतमाद उनके लिए अपने से बाहर की सदाकत को 
समझने में रुकावट बन जाता है। वे नासेह (नसीहत करने वाले) की बात को अहमियत नहीं 
देते, चाहे वह कितना ही काबिले एतबार क्यों न हो, चाहे वह ख़ुदा का रसूल ही क्यों न हो। 
ऐसे लोग उसी वक्‍त मानते हैं जबकि खुदा का अजाब उन्हें मानने पर मजबूर कर दे। 


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उन्होंने कहा, हमारे लिए बराबर है, चाहे तुम नसीहत करो या नसीहत करने वालों में 
से न बनो। यह तो बस अगले लोगों की एक आदत है। और हम पर हरगिज अजाब 

आने वाला नहीं है। पस उन्होंने उसे झुठला दिया, फिर हमने उन्हें हलाक कर दिया। 
बेशक इसके अंदर निशानी है। और उनमें से अक्सर लोग मानने वाले नहीं हैं। और 
बेशक तुम्हारा रब वह जबरदस्त है रहमत वाला है। (36-40) 





कौमे आद का झूठा एतमाद उसके लिए पैगम्बर की बात को मानने में रुकावट बन 


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सूरह-26. अश-शुअरा I02I पारा 79 
गया। यहां तक कि वह उसके पैगाम का मजाक उड़ाती रही। वह दुनिया में अपनी खुशहाली 
को इस बात की अलामत समझती रही कि वह ख़ुदा की इनामयाफ्ता है। वे लोग इस राज 
को न समझ सके कि दुनिया का असासा (धन-सम्पत्ति) आदमी को बतौर इम्तेहान मिलता है 
न कि बतौर इस्तहकक। 

जब आखिरी तौर पर साबित हो गया कि वे हक को मानने वाले नहीं हैं तो ख़ुदा ने 
तूफानी हवा और शदीद बारिश भेजी जो एक हफ्ते तक मुसलसल अपनी तमाम ख़ौफनाकियों 
के साथ रात दिन जारी रही। नतीजा यह हुआ कि पूरी कौम अपने शानदार तमदूदुन सहित 
बर्बाद होकर रह गई। इस कौम का निशान अब सिर्फ वह रेगिस्तान है जो मौजूदा उमान और 
यमन के दर्मियान दूर तक फैला हुआ है। कदीम जमाने में यह इलाका निहायत शादाब और 
आबाद था। मगर अब वहां किसी किस्म की जिंदगी नहीं पाई जाती। 


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समूद ने रसूलों को झुठलाया। जब उनके भाई सालेह ने उनसे कहा, क्या तुम डरते नहीं। 
मैं तुम्हारे लिए एक मोतबर (विश्‍वसनीय) रसूल हूं। पस तुम अल्लाह से डरो और मेरी 
बात मानो। और मैं तुमसे इस पर कोई बदला नहीं मांगता। मेरा बदला सिर्फ ख़ुदावंद 
आलम के जिम्मे है। क्या तुम्हें उन चीजों में बेफिक्री से रहने दिया जाएगा जो यहां हैं, 
बाग़ों और चशमों में। और खेतों और रस भरे गुच्छों वाले खजूरों में। और तुम पहाड़ 
खोदकर फख़ करते हुए मकान बनाते हो। पस अल्लाह से उरो और मेरी बात मानो 


और हद से गुजर जाने वालों की बात न मानो जो जमीन में ख़राबी करते हैं। और 
इस्लाह नहीं करते। (4-52) 


आद के बाद दूसरी कौम जिसे उरूज मिला वह समूद की कौम थी (अल-आराफ 74)। 
इस कौम की आबादियां खैबर और तबूक के दर्मियान उस इलाके में थीं जिसे अल हिज़ कहा 
जाता है। उस कौम को भी जबरदस्त खुशहाली और गलबा हासिल हुआ। मगर उसके 
अफराद की भी सारी तवज्जेह दुबारा सिर्फ मादूदी (भैतिक) तरक्की की तरफ लग गई। 
पहाड़ों को काट कर बड़े-बड़े मकान बनाने का फन ग़ालिबन इसी कौम ने शुरू किया। 


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पारा ।9 022 सूरह-26. अश-शुअरा 
जिसकी ज्यादा तरवकीयाफ्ता सूरत अजन्ता और एलोरा के गारों की शक्ल में पाई जाती है। 

हर शख्स और हर गिरोह जिसे दुनिया का साजोसामान मिलता है वह इस गलतफहमी 
में पड़ जाता है कि यह सब उसका हक है और वह जिस तरह चाहे उसे इस्तेमाल करे। मगर 
यह सबसे बड़ी भूल है। हकीकत यह है कि दुनिया का असबाब सिर्फ इम्तेहान की मुदूदत तक 
के लिए है। इसके बाद वह इस तरह छीन लिया जाएगा कि आदमी के पास उनमें से कुछ 
भी बाकी न रहेगा। 

हद से गुजरने वाला (मुसरिफ) वह शख्स है जिसके पास दौलत आए तो वह शुक्र के 
बजाए फख़ की नफ्सियात में मुक्षिला हो जाए। वह इक्तेदार पाए तो तवाजोअ (विनम्रता) 
के बजाए घमंड करने लगे। उसे ओहदा दिया जाए तो वह उसे ख़िदमत के बजाए अपना नाम 
बुलन्द करने के लिए इस्तेमाल करे। मवाकेअ (अवसरों) के यही ग़लत इस्तेमालात हैं जो 
मआशिरे में बिगाड़ पैदा करते हैं। कौमे समूद के बड़े लोग इसी किस्म के इसराफ में मुब्तिला 
थे। और उनके अवाम उनकी पैरवी कर रहे थे। पैगम्बर ने उन्हें मुतनब्बह (सचेत) किया कि 
ये लोग जिन्हें तुम बड़ा समझते हो वे तो ख़ुद बेराह हैं फिर वे तुम्हें कैसे रास्ता दिखाएंगे । 








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उन्होंने कहा, तुम पर तो किसी ने जादू कर दिया है। तुम सिर्फ हमारे जैसे एक आदमी 
हो, पस तुम कोई निशानी लाओ अगर तुम सच्चे हो, सालेह ने कहा यह एक ऊंटनी है। 
इसके लिए पानी पीने की एक बारी है। और एक मुरकर दिन की बारी तुम्हारे लिए है। 
और इसे बुराई के साथ मत छेड़ना वर्ना एक बड़े दिन का अजाब तुम्हें पकड़ लेगा। फिर 
उन्होंने उस ऊटनी को मार डाला फिर पशेमां (पछतावा-ग्रस्त) होकर रह गए। फिर उन्हें 
अजाब ने पकड़ लिया। बेशक इसमें निशानी है और उनमें से अक्सर मानने वाले नहीं। 
और बेशक तुम्हारा रब वह जबरदस्त है, रहमत वाला है। (53-59) 


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पैगम्बर जिस कौम में उठता है वह कोई लामजहब कौम नहीं होती । वह पूरे मअनों में एक 
मजहबी कैम होती है। मगर यह मजहब उसके बुजा का मजहब होता है और पेगमबर खा 
का मजहब पेश करता है। जो लोग अपने बूज्ञों के तरीके को मुकदूदस समझ कर उस पर 
कायम हों वे कभी किसी दूसरे तरीके की अहमियत नहीं समझ पाते, चाहे वह उनके पैगम्बर 


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सूरह-26. अश-शुअरा 023 पारा 79 
की जबान से क्यॉंन पेश किया जाए। बूजाँ के तरीके से हटना कैम की नजर में इतना सरन 
था कि उसने हजरत सालेह को दीवाना करार दे दिया। यह कशमकश लम्बी मुदूदत तक जारी 
रही। आख़िर उन्होंने मुतालबा किया कि कोई मोजिजा दिखाओ। अल्लाह तआला के हुक्म से 
एक मेजिज जहिर हुआ। जो बयकवक्त मेजिज भी था और कैम के हक मेखा की 
अदालत भी। यह एक ऊंटनी थी जो खिर्के आदत (दिव्य रूप) के तौर पर जुहूर में आई। हजरत 
सालेह ने कहा कि यह खुदा की ऊंटनी है। यह तुम्हारे खेतों और बागों में आजादाना तौर पर 
घूमेगी और पानी का घाट एक दिन सिर्फ इसके लिए ख़ास होगा। कौम ने कुछ दिन तक उस 
ऊंटनी को बर्दाश्त किया इसके बाद उसके एक सरकश आदमी ने उसे मार डाला। उसके सिर्फ 
तीन दिन के बाद पूरी कैम शदीद जलजले से हलाक कर दी गई। 

ऊंटनी को हलाक करने का जुर्म कौम के एक शख्स ने किया था मगर बहुवचन में 
फरमाया कि उन्होंने उसे हलाक कर दिया। इसकी वजह यह है कि हलाक करने के वक्‍त न 
तो कौम के लोगों ने उसे रोका और न बाद को अपने उस आदमी को बुरा कहा। सारे लोग 
उसकी हिमायत में हजरत सालेह के खिलाफ बोलते रहे। हलाक करने वाले ने अगर अपने 
हाथ से जुर्म किया था तो बकिया लोग दिल और जबान से उसके साथ शरीके जुर्म थे। 
इसलिए खुदा की नजर में सबके सब मुजरिम करार पाए 


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लूत की कौम ने रसूलों को झुठलाया। जब उनके भाई लूत ने उनसे कहा, क्या तुम 
डरते नहीं। मैं तुम्हारे लिए एक मोतबर (विश्‍वसनीय) रसूल हूं। पस अल्लाह से डरो और 
मेरी बात मानो। में इस पर तुमसे कोई बदला नहीं मांगता। मेरा बदला तो ख़ुदावंद 
आलम के जिम्मे है। क्या तुम दुनिया वालों में से मर्दों के पास जाते हो। और तुम्हारे 
रब ने तुम्हारे लिए जो बीवियां पैदा की हैं उन्हें छोड़ते हो, बल्कि तुम हद से गुजर जाने 
वाले लोग हो। (60-66) 





हजरत लूत जिस कौम में आए वह शहवतपरस्ती में हद को पार कर गई थी। उनके लिए 
उनकी बीवियां काफी न थीं। वे नौजवान लड़कों से मुबाशिरत का फेअल (समलैंगिकता) करने 
लगे थे। हजरत लूत ने उन्हें खुदापरस्ती और तकवे की तालीम दी और बुरे अफआल से उन्हे 
मना किया। 


पारा ।9 024 सूरह-26. अश-शुअरा 
हजरत लूत उनके दर्मियान एक ऐसे दाऔ की हैसियत से उठे जिसकी शख्सियत झूठ और 

फुजूलगाई से सद फी सद पाक थी। कैम से मादूदी मफद का झगड् छेड़ने से भी उन्हेनि मुकम्मल 

परहेज किया । ये वाकेयात यह साबित करने के लिए काफी थे कि हजरत लूत जो कुछ कह रहे 

हैं पूरी संजीदगी के साथ कह रहे हैं। मगर चूँकि आपकी बात कौम की रविश के खिलाफ थी वे 

आपके दुश्मन हो गए । हजरत लूत की बात को वजन देने के लिए जरूरी था कि लोगों के अंदर 

खुदा का ख़फ हो। मगर यही वह चीज थी जिससे उनकी कीम के लोग पूरी तरह ख़ाली हो चुके 

थे। फिर वे पैगम्बर की बात पर ध्यान देते तो किस तरह देते। 


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उन्होंने कहा कि ऐ लूत, अगर तुम बाज न आए तो जरूर तुम निकाल दिए जाओगे। 
उसने कहा मैं तुम्हारे अमल से सख्त बेजार हूं। ऐ मेरे रब, तू मुझे और मेरे घर वालों 
को उनके अमल से नजात दे। पस हमने उसे और उसके सब घर वालों को बचा लिया। 
मगर एक बुट़िया कि वह रहने वालों में रह गई। फिर हमने दूसरों को हलाक कर दिया। 
और हमने उन पर बरसाया एक मेंह। पस केसा बुरा मेंह था जो उन पर बरसा जिन्हें 


डराया गया था। बेशक इसमें निशानी है। और उनमें से अक्सर मानने वाले नहीं। और 
बेशक तेरा रब वह जबरदस्त है, रहमत वाला है। (67-75) 














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बहरे मुर्दार (९३4 $९१) के जुनूब (दक्षिण) और मश्रिक (पूर्व का इलाका आज वीरान 
हालत में नजर आता है। मगर 2800-900 ई० पू० के जमाने में वह निहायत सरसब्ज 
इलाका था। कैमे लूत इसी इलाके में आबाद थी। हजरत लूत की मुसलसल तब्लीग के 
बावजूद उन्होंने अपनी इस्लाह नहीं की यहां तक कि वे आपको कत्ल करने के दरपे हो गए। 
उस वक्‍त उन्हें जबरदस्त जलजले के जरिए हलाक कर दिया गया। इस बर्बदशुा इलाकेका 
एक हिस्सा बहरे मुर्दार के नीचे दफन है और एक हिस्सा खंडहर बना हुआ पड़ा है। यह 
वाकया अब से चार हजार साल पहले पेश आया। 

हजरत लूत की बीवी अपने आपको कीमी रिवायात से ऊपर न उठा सकी। वह पैगम्बर 
की बीवी होने के बावजूद अपने कौमी मजहब की वफादार बनी रही। नतीजा यह हुआ कि 
जब ख़ुदा का अजाब आया तो वह भी आम मुंकिरीन के साथ हलाक कर दी गई। 


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सूरह-26. अश-शुअरा I023 पारा 79 


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ऐका वालों ने रसूलों को झुठलाया। जब शुऐब ने उनसे कहा क्या तुम डरते नहीं । मैं तुम्हारे 
लिए एक मोतबर (विश्वसनीयता) रसूल हूं। पस अल्लाह से डरो और मेरी बात मानो। और 
मैं इस पर तुमसे कोई बदला नहीं मांगता। मेरा बदला ख़ुदावंद आलम के जिम्मे है। तुम 
लोग पूरा-पूरा नापो और नुक्सान देने वालों में से न बनो। और सीधी तराजू से तोलो और 

लोगों को उनकी चीजें घटाकर न दो और जमीन में फसाद न फेलाओ। और उस जात से 

डरो जिसने तुम्हें पैदा किया है और पिछली नस्लों को भी। (76-84) 





'ऐका' के लफ्जी मअना जंगल के हैं। यह तबूक का पुराना नाम है। कैमे शुऐब हजरत 
इब्राहीम अलैहिस्सलाम की नस्ल से थी। वह जिस इलाके में आबाद हुई, उसका मर्कजी शहर 
तबूक था। इसीलिए कुरआन में उसे असहाबे ऐका कहा गया है। 

तमाम अख्लाकी और मआशिरती ख़राबियों की जड़ 'मीजान' में फर्क करना है। सही 
मीजान (तराजू) यह है कि आदमी दूसरों को वह दे जो अजरुए हक उन्हें देना चाहिए । और 
अपने लिए वह ले जो अजरुए हक उसे लेना चाहिए । यही खुदाई मीजान है। जब इस मीजान 
में फर्क किया जाता है तो उसी ववत इज्तिमाई जिंदगी में बिगाड़ पैदा हो जाता है। ताहम इस 
मीजान पर कायम होने का राज अल्लाह का ख़ैफ है। अगर अल्लाह का डर दिल से निकल 
जाए तो कोई चीज आदमी को मीजान पर कायम नहीँ रख सकती। 

खुदा की तरफ से जितने रसूल आए सबने अपनी मुखातब कौमों से कहा कि भं तुम्हारे 
लिए एक मोतबर रसूल हूं इससे अंदाजा होता है कि दा के अंदर एतबारियत की सिफत 
लाजिमी तौर पर मौजूद होना चाहिए | इसी एतबारियत का एक पहलू यह है कि दाऔ अपनी 
मदऊ कौम से मआशी (आर्थिक) और मादूदी झगड़ा न छेड़े ताकि उसकी बेगरज मवसदियत 
मुशतबह (संदिग्ध) न हो। यह एतबारियत इतनी अहम है कि उसे हर हाल में हासिल करना 
जरूरी है। चाहे इसकी ख़ातिर दाऔ को अपने मादूदी हुकूक से यकतरफा तौर पर दस्तबरदार 
होना पड़े। 


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पारा ।9 I026 सूरह-26 अश-शुअरा 
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उन्होंने कहा कि तुम पर तो किसी ने जादू कर दिया है। और तुम हमारे ही जैसे एक 
आदमी हो। और हम तो तुम्हें झूठे लोगों में से ख्याल करते हैं। पस हमारे ऊपर 
आसमान से कोई टुकड़ा गिराओ अगर तुम सच्चे हो। शुऐब ने कहा, मेरा रब ख़ूब 
जानता है जो कुछ तुम कर रहे हो। पस उन्होंने उसे झुठला दिया। फिर उन्हें बादल वाले 
दिन के अज़ाब ने पकड़ लिया। बेशक वह एक बड़े दिन का अजाब था। बेशक इसमें 
निशानी है और उनमें से अक्सर मानने वाले नहीं। और बेशक तुम्हारा रब जबरदस्त 

है, रहमत वाला है। (85-797) 


हजरत श्रु की कैम को अपने आबाई तरीकेकी सदाकत पर इस कद यकीन था कि 
पैगम्बर की बात उसे उल्टी और बेजोड़ मालूम हुई। उसने कहा कि तुम पर शायद किसी ने 
सख्त अमल कर दिया है। इसलिए तुम ऐसी बातें कर रहे हो। 

उनका यह कहना कि हमारे ऊपर आसमानी अजाब लाओ, इसका रुख़ खुदा की तरफ 
नहीं बल्कि हजरत शुऐब की तरफ था। वे हजरत शुऐव को वेहकीकत साबित करने के लिए 
ऐसा कहते थे। क्योकि वे हजरत शुऐब को ऐसा नहीं समझते थे कि उनके कहने से आसमानी 
अजब आ जाएगा। 

आखिरकार कौम की सरकशी का नतीजा यह हुआ कि साएबान की तरह एक बादल 
ने उनके ऊपर साया कर लिया। फिर खुदा के हुक्म से उसके अंदर से ऐसी आग बरसी 
जिसने पूरी कौम को मिटाकर रख दिया। 


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और बेशक यह खुदावंद आलम का उतारा हुआ कलाम है। इसे अमानतदार फरिश्ता 


लेकर उतरा है तुम्हारे दिल पर ताकि तुम डराने वालों में से बनो। साफ अरबी जबान 
में और इसका जिक्र अगले लोगों की किताबों में है और कया उनके लिए यह निशानी 


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सूरह-26. अश-शुअरा I027 पारा ।9 
नहीं है कि इसे बनी इस्राईल के उलमा (विद्वान) जानते हैं। (92-97) 





कुरआन अगरचे बजाहिर एक इंसानी जबान में है। मगर इसकी अदबी अज्मत इतनी गैर 
मामूली है कि वह खुद अपनी जबान के एतबार से एक बरतर खुदाई कलाम होने की शहादत 
दे रहा है। कुरआन की सदाकत का मजीद सुबूत यह है कि कुरआन के नुजून से बहुत पहले 
पैदा होने वाले पैग़म्बरों ने इसकी पेशीनगोई (भविष्यवाणी) की। यह पेशीनगोई आज भी 
तौरात और जबूर और इंजील में मौजूद है। इन्हीं पेशीनगोइयों की बिना पर उस जमाने के 
बहुत से मसीही और यहूदी उलमा (मसलन अब्दुल्लाह बिना सलाम) इस पर ईमान लाए। यह 
सिलसिला आज तक जारी है। 

ख़ुदा के कलाम का इस तरह ख़ुसूसी एहतिमाम के साथ उतरना किसी बहुत ख़ुसूसी 
मकसद के तहत ही हो सकता है। और वह मकसद यह है कि इंसान को आने वाले सख्त दिन 
से आगाह किया जाए। आखिरत से सचेत करना पिछली तमाम आसमानी किताबों का भी 
ख़ास मकसद था और यही कुरआन का भी खस मकसद है। 


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और अगर हम इसे किसी अजमी (गैर अरबी) पर उतारते फिर वह उन्हें पढ़कर सुनाता 
तो वे इस पर ईमान लाने वाले न बनते। इसी तरह हमने ईमान न लाने को मुजरिमों 
के दिलों में डाल रखा है। ये लोग ईमान न लाएंगे जब तक सख्त अजाब न देख लें। 


पस वह उन पर अचानक आ जाएगा और उन्हें ख़बर भी न होगी। फिर वे कहेंगे कि 
क्या हमें कुछ मोहलत मिल सकती है। (98-203) 





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कुरआन अरबी जबान में आया और जिस पैगम्बर ने इसे पेश किया उसकी भी मादरी 
जबान (मातृ-भाषा) अरबी थी। इस बिना पर मुंकिरीन को यह कहने का मौका मिल गया कि 
यह तो ख़ुद इनका अपना कलाम है। वह एक अरब हैं इसलिए इन्होंने अरबी में एक कुरआन 
तस्नीफ (रचित) कर लिया। 
मगर एतराज का यह अंदाज खुद बता रहा है कि यह कोई संजीदा एतराज नहीं है। और 
जो लोग किसी मामले में संजीदा न हों वे हमेशा कोई न कोई शोशा निकाल लेते हैं। मसलन 
अगर ऐसा किया जाता कि किसी गैर अरबी पर यह अरबी कुरआन उतार दिया जाता और 
वह शख्स अरबी जबान से नावाकिफ होने के बावजूद अरबी कुरआन उन्हें पढ़कर सुनाता तो 
वे फौरन यह कह देते कि 'कोई अरब इसे सिखा जाता है।' 
जो लोग नाहक की बुनियाद पर अपनी जिंदगी की इमारत खड़ी किए हों उनके लिए हक का 


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पारा 9 028 सूरह-26. अश-शुअरा 
एतराफ करना खुद अपनी नफी (नकार) के हममअना होता है। ऐसे लोगोंके सामने जब हक आए 

और वेजाती मसालेह (हितों) को अहमियत देते हुए हक का एतराफ न करेंतो इंकार का मिजाज 

उनकी नफ्सियात में इस तरह शामिल हो जाता है कि उन्हें दुबारा उससे निकलना नसीब नहीं होता । 


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क्या वे हमारे अजाब को जल्द मांग रहे हैं। बताओ कि अगर हम उन्हें चन्द साल तक 

फायदा पहुंचाते रहे फिर उन पर वह चीज आ जाए जिससे उन्हें डराया जा रहा है तो 

यह फायदामंदी उनके किस काम आएगी। और हमने किसी बस्ती को भी हलाक नहीं 

किया मगर उसके लिए डराने वाले थे याद दिलाने के लिए, और हम जालिम नहीं हैं। 


और इसे शैतान लेकर नहीं उतरे हैं। न यह उनके लिए लायक है। और न वे ऐसा कर 
सकते हैं। वे इसे सुनने से रोक दिए गए हैं। (204-2।2) 


पैग़म्बर की सतह पर जब ख़ुदा की दावत जाहिर होती है तो वह अपनी आखिरी कामिल 
सूरत में जाहिर होती है। यही वजह है कि पैगम्बर का इंकार करने वाली कौम पर खुदा का 
अजाब आना लाजिमी हो जाता है। ताहम जब तक अजाब अमलन न आ जाए आदमी अपने 
को महफून समझता है। वह हक की दावत को बेहकीकत साबित करने के लिए तरह-तरह 
की बातें करता है। कभी पैग़म्बर की शख्सियत की तहकीर करता है। कभी पैग़म्बर के लाए 
हुए कलाम को बनावटी कलाम बनाता है। कभी यह कहता है कि तुम्हारे बयान के मुताबिक 
अगर खुदा हमारे साथ नहीं तो वह हमें सजा क्यों नहीं देता। 

पैगम्बर की जिम्मेदारी या पैगम्बर की पैरवी में दाओ की जिम्मेदारी सिर्फ यह है कि वह 
लोगों को अम्रे हक से आगाह कर दे। इससे आगे के तमाम मामलात खुदा के जिम्मे हैं और 
वही जब चाहता है उन्हें जाहिर करता है। 


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सूरह-26. अश-शुअरा I029 पारा 79 


पस तुम अल्लाह के साथ किसी दूसरे माबूद (पूज्य) को न पुकारो कि तुम भी सजा 
पाने वालों में से हो जाओ। और अपने करीबी रिश्तेदारों को डराओ। और उन लोगों 
के लिए अपने बाजू झुकाए रखो जो मोमिनीन में दाखिल होकर तुम्हारी पैरवी करें। 
पस अगर वे तुम्हारी नाफरमानी करें तो कहो कि जो कुछ तुम कर रहे हो मैं उससे 
बरी हूं। और जबरदस्त और महरबान खुदा पर भरोसा रखो। जो देखता है तुम्हें 
जबकि तुम उठते हो और तुम्हारी चलत-फिरत नमाजियों के साथ, बेशक वह सुनने 
वाला जानने वाला है। (23-220) 





अल्लाह के सिवा किसी और को माबूद बनाना अल्लाह की नजर में बहुत बड़ा जुर्म है। 
ऐसा करने के बाद कोई शख्स सजा से बच नहीं सकता, यहां तक कि वह शख्स भी नहीं जो 
जबान व कलम से तौहीद (एकेश्वरवाद) का अलमबरदार बना हुआ हो। दाऔ का काम यह 
है कि अपने आपको पूरी तरह शिक से बचाते हुए लोगों को हक की तरफ बुलाए, जिनमें 
उसके करीबी लोग बदर्जए ऊला (प्राथमिकता से) शामिल हैं। 

हक का साथ देने के लिए अपनी बड़ाई के बुत को तोड़ना पड़ता है। यही वजह है कि 
बड़े लोगों में बहुत कम ऐसे अफराद निकलते हैं जो हक का साथ देने के लिए तैयार हों। 
ज्यादातर ऐसा होता है कि हक का साथ देने के लिए वे लोग उठते हैं जो समाज में कमतर 
हैसियत रखते हों। यह वाकया दाऔ के लिए सख्त इम्तेहान होता है। दाऔ को इससे बचना 
पड़ता है कि दूसरों की तरह वह भी उन्हें हकीर समझे, जो लोग गैर इस्लामी समाज में हकीर 
(तुच्छ) बने हुए थे वे इस्लामी हलके में आकर भी बदस्तूर हकीर बने रहें। 

दाऔ वह है जिसका ख़ुदा से तअल्लुक इतना बढ़ा हुआ हो कि रात की तंहाइयों में वह 
बेकरार होकर अपने बिस्तर से उठ खड़ा हो। अपने सज्दागुजार साथियों की कीमत उसकी 
नजर में इतनी ज्यादा हो कि वह उन्हीं को अपनी दिलचस्पियों का मर्कज बना ले। 


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क्या मैं तुम्हें बताऊं कि शैतान किस पर उतरते हैं। वे हर झूठे गुनाहगार पर उतरते हैं। 
वे कान लगाते हैं और उनमें से अक्सर झूठे हैं। और शायरों के पीछे बेराह लोग चलते 
हैं। क्या तुम नहीं देखते कि वे हर वादी में भटकते हैं और वह कहते हैं जो वह करते 


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पारा 9 I030 सूरह-26. अश-शुअरा 
नहीं। मगर जो लोग ईमान लाए और अच्छे काम किए और उन्होंने अल्लाह को बहुत 
याद किया और उन्होने बदला लिया बाद इसके कि उन पर जुल्म हुआ। और जुल्म करने 

वालों को बहुत जल्द मालूम हो जाएगा कि उन्हें कैसी जगह लौटकर जाना है। 
(22-227) 





पैग़म्बर के कलाम में गैर मामूलीपन इतना नुमायां (स्पष्ट) था कि पैग़म्बर के मुंकिरीन 
भी उसकी तरदीद (खंडन) नहीं कर सकते थे। चुनांचे वे अपने लोगों को मुतमइन करने 
के लिए कह देते कि यह काहिन और आमिल हैं। और इनके कलाम में जो गैर मामूलीपन 
है वह काहिन और आमिल होने की बिना पर है न कि पैगम्बर होने की बिना पर। इसी 
तरह वे कुरआन को शायर का कलाम बताते थे। फरमाया कि इस बात की तरदीद (खंडन) 
के लिए यही काफी है कि पैगम्बर का और काहिनों और शायरों का मुकाबला करके देखा 
जाए। दोनों की जिंशगियों में इतना ज्यादा फर्क मिलेगा कि कोई संजोदा आदमी हरगिज 
एक को दूसरे पर कयास नहीं कर सकता। 

शायरी की बुनियाद तख्युल (कल्पना) पर है न कि हकाइक (यथार्थ) व वाकेयात पर। 
यही वजह है कि शायर लोग हमेशा ख्यालात की दुनिया में परवाज करते हैं। वे कभी एक 
किस्म की बातें करते हैं और कभी दूसरे किस्म की। इसके बरअक्स पैगम्बर और आपके 
साथियों का हाल यह है कि वे अल्लाह की बुनियाद पर खड़े हुए हैं जो सबसे बड़ी हकीकत 
है। उनकी जिंदगियां कौल व अमल की यकसानियत (एकरुपता) की मिसालें हैं। अल्लाह की 
गहरी मअरफत (अन्तज्ञान) ने उन्हें अल्लाह की याद करने वाला बना दिया है। उनकी 
एहतियात इतनी बढ़ी हुई है कि वे अगर किसी के खिलाफ कार्रवाई करते हैं तो सिर्फ उस 
वक्त करते हैं जबकि उसने उनके ऊपर सरीह जुल्म किया हो। मुस्तकबिल (भविष्य) की 
नजाकत आदमी को उसके हाल (वर्तमान) के बारे में संजीदा बना देती है। जो शख्स 
मुस्तकबिल के बारे में हस्सास (संवेदनशील) न हो वह हाल के बारे में भी हस्सास नहीं हो 
सकता। 


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सूरह-2 7. अन-नम्ल 03 पारा ।9 
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(मक्का में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
ता० सीन०। ये आयते हैं कुरआन की और एक वाजेह किताब की। रहनुमाई और 
खुशख़बरी ईमान वालों के लिए। जो नमाज कायम करते हैं और जकात देते हैं और 
वे आखिरत पर यकीन रखते हैं। जो लोग आखिरत पर ईमान नहीं रखते उनके कामों 
को हमने उनके लिए खुशनुमा बना दिया है, पस वे भटक रहे हैं। ये लोग हैं जिनके 
लिए बुरी सजा है और वे आख़िरत में सख्त ख़सारे (घाटे) में हांगे। और बेशक 
कुरआन तुम्हें एक हकीम (तत्वदर्शी) और अलीम (ज्ञानवान) की तरफ से दिया जा 
रहा है। (-6) 


जब आदमी के सामने हक आए और वह किसी तहपझुन के ब उसका एतराफ कर 
ले तो इसका नतीजा यह होता है कि वह फौरन सही रुख़ पर चल पड़ता है। उसकी जिंदगी 
हर एतबार से दुरुस्त होती चली जाती है। इसके बरअक्स जो शख्स अपने आपको हक के 
मुताबिक ढालने के लिए तैयार न हो वह मजबूर होता है कि ख़ुद हक को अपने मुताबिक 
ढाले। इसी नपिसयाती कैफियत का दूसरा नाम तजईने आमाल है। 

ऐसा आदमी अपनी रविश को जाइज साबित करने के लिए ख़ुदसाख्ता दलीलें तलाश 
करता है। ये दलीलें धीरे-धीरे उसके जेहन पर इस तरह छा जाती हैं कि वे उसे ऐन दुरुस्त 
मालूम होती हैं। अपना ग़लत अमल उसे अपनी झूठी तौजीहात (तर्को) की रोशनी में सही 
नजर आने लगता है। 

जो लोग हक की दावत के बारे में संजीदा न हाँ वे हमेशा तजईने आमाल का शिकार 
हो जाते हैं। ऐसे लोग ऐन अपनी नफ्सियात के नतीजे में अपनी इस्लाह की तरफ से बिल्कुल 
गाफिल हो जाते हैं। अपने ग़लत को सही समझने की उन्हें यह भारी कीमत देनी पड़ती है 
कि वे ऐसे रास्ते पर चलते रहें जिसकी आखिरी मंजिल जहन्नम के सिवा और कुछ नहीं। 


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जब मूसा ने अपने घर वालों से कहा कि मैंने एक आग देखी है। में वहां से कोई ख़बर 
लाता हूं या आग का कोई अंगारा लाता हूं ताकि तुम तापो। फिर जब वह उसके पास 


पहुंचा तो आवाज दी गई कि मुबारक है वह जो आग में है और जो उसके पास है। 
और पाक है अल्लाह जो रब है सारे जहान का। (7-8) 





किबती की मौत के वाकये के बाद हजरत मूसा अलैहिस्सलाम मिस्र से मदयन चले गए 


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पारा 9 032 सूरह-27. अन-नम्ल 
थे। मदयन का इलाका बहरे अहमर (लाल सागर) की उस शाख़ के महिरिकी साहिल (पूर्वी तट) 
पर था जिसे ख़लीज अकबा कहा जाता है। हजरत मूसा ने यहां तकरीबन आठ साल गुजारे। 
इसके बाद वह अपनी अहलिया (पत्नी) के साथ मिस्र वापस जाने के लिए रवाना हुए। इस 
सफर में वह बहरे अहमर की दोनों शाख़ों के दर्मियान उस पहाड़ के किनारे पहुंचे जिसका कदीम 
नाम तूर था और अब उसे जबल मूसा (5%८।| ४७६४) कहा जाता है। 
यह ग़ालिबन सर्दियों की रात थी। हजरत मूसा को दूर पहाड़ पर एक आग सी चीज 
नजर आई। वह उसकी तरफ रवाना हुए। मगर करीब पहुंच कर मालूम हुआ कि यह खुदा 
की तजल्ली (आलोक) थी न कि कोई इंसानी आग। 
पहाड़ के ऊपर जहां हजरत मूसा ने रोशनी देखी थी वहां आज भी एक कदीम दरख्त 
मौजूद है। कहा जाता है कि यही वह दरख़त है जिसके ऊपर से हजरत मूसा को ख़ुदा की 
आवाज सुनाई दी थी। यहां बाद को ईसाई हजरात ने गिरजा और ख़ानकाह (आश्रम) तामीर 
कर दिया जो आज भी लोगों के लिए जियारतगाह बना हुआ है। 


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ऐ मूसा यह मैं हूं अल्लाह, जबरदस्त हकीम (तत्वदर्शी) । और तुम अपना असा (डंडा) 
डाल दो। फिर जब उसने उसे इस तरह हरकत करते देखा जैसे वह सांप हो तो वह पीछे 
को मुड़ा और पलट कर न देखा। ऐ मूसा, डरो नहीं मेरे हुजूर पैग़म्बर डरा नहीं करते। 
मगर जिसने ज्यादती की। फिर उसने बुराई के बाद उसे भलाई से बदल दिया। तो मैं 
बस्शने वाला महरबान हूं। और तुम अपना हाथ अपने गिरेवान में डालो, वह किसी ऐब 
के बगैर सफेद निकलेगा। यह दोनों मिलकर नौ निशानियों के साथ फिरऔन और 
उसकी कौम के पास जाओ। बेशक वे नाफरमान लोग हैं। पस जब उनके पास हमारी 

वाजेह निशानियां आई, उन्होंने कहा यह खुला हुआ जादू है। और उन्होंने उनका इंकार 
किया हालांकि उनके दिलों ने उनका यकीन कर लिया था, जुल्म और घमंड की वजह 

से। पस देखो केसा बुरा अंजाम हुआ मुफ्सिदों (उपद्रवियों) का। (9-4) 





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सूरह-27. अन-नम्ल 033 पारा 79 
हजरत मूसा पहाड़ पर आग के लिए गए थे। मगर वहां पहुंच कर मालूम हुआ कि वह 
पैग़म्बरी के लिए बुलाए गए हैं। अल्लाह तआला जब अपने किसी बंदे को खुसूसी अतिया देता 
है तो अचानक और गे मुतवक्कअ (अप्रत्याशित) तौर पर देता है ताकि वह उसे बराहेरास्त 
अल्लाह की तरफ से समझे और उसके अंदर ज्यादा से ज्यादा शुक्र का जज्बा पैदा हो। 
हजरत मूसा की कैम (बनी इम्नईल) अगरचे उस ववत के लिहाज से एक मुस्लिम कैम 
थी। मगर अब वह बिल्कुल बेजान हो चुकी थी। दूसरी तरफ उन्हें फिरऔन जैसे जाबिर 
(दमनकारी) हुक्मरां के सामने तौहीद की दावत पेश करना था। इसलिए अल्लाह तआला ने 
आगाज ही में आपको असा का मोजिजा अता फरमा दिया। यह असा हजरत मूसा के लिए 
एक मुस्तकिल खाई ताकत था। इसके जरिए सेफिर॒औन के मुकबले मे9 मेजिजत जहिर 
हुए। बनी इस्राईल के लिए जाहिर होने वाले मोजिजात इनके अलावा थे। 
हजरत मूसा के मोजिजात ने आखिरी हद तक आपकी सदाकत साबित कर दी थी। 
इसके बावजूद फिरऔन और उसके साथियों ने आपका एतराफ नहीं किया। इसकी वजह 
उनका जुल्म और घमंड था। फिरऔन और उसके साथी अपनी आजादी पर कैद लगाने के 
लिए तैयार न थे। मजीद यह कि वे जानते थे कि मूसा की बात मानना अपनी बड़ाई की नफी 
(नकार) करना है। और कौन है जो अपनी बड़ाई की नफी की कीमत पर सच्चाई को माने। 


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और हमने दाऊद और सुलैमान को इलम अता किया। और उन दोनों ने कहा कि शुक्र 
है अल्लाह के लिए जिसने हमें अपने बहुत से ईमान वाले बंदों पर फजीलत (श्रेष्ठता) 
अता फरमाई। और दाऊद का वारिस सुलैमान हुआ। और कहा कि ऐ लोगो, हमें 
परिंदों की बोली सिखाई गई है, और हमें हर किस्म की चीज दी गई। बेशक यह खुला 

हुआ फल है। (5-6) 














हजरत दाऊद अलैहिस्सलाम बनी इस्राईल के पैगम्बर और बादशाह थे। आपके बेटे हजरत 
सुलैमान अलैहिस्सलाम भी पैगम्बर और बादशाह हुए । आपकी सल्तनत फिलिस्तीन और शक 
उर्दुन से लेकर शाम तक फैली हुई थी । आपको अल्लाह तआला ने मुख्तलिफ किस्म की संअती 
(औद्योगिक) मालूमात दी थीं। साथ ही, आपको मोजिजाती तौर पर कई चीजें अता हुई थीं। 
मसलन चिड़ियों की बोलियां समझना । और उन्हें तर्बियत देकर उन्हें ख़बर रसानी के लिए 
इस्तेमाल करना । हजरत सुलेमान अलैहिस्सलाम को अपने हमजमाना लोगों पर गैर मामूली 
बरतरी हासिल थी। मगर इस बरतरी ने उनके अंदर सिर्फ तवाजोअ (विनम्रता) का जबा फा 
किया । उन्हें जो कुछ हासिल था उसे उन्होंने बराहेरास्त खुदा का अतिय्या करार दिया। 

हजरत सुलैमान अलैहिस्सलाम का जमानए सल्तनत 926 ई०पू० से लेकर 965 ई०पू० 





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तक है। इस लिहाज से आप तकरीबन चालीस साल हुक्‍्मरां रहे। 
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और सुलैमान के लिए उसका लश्कर जमा किया गया, जिन्न और इंसान और परिंदे, फिर 
उनकी जमाअतें बनाई जातीं, यहां तक कि जब वह चींटियों की वादी पर पहुंचे । एक चींटी 
ने कहा, ऐ चींटियो , अपने सुराखों में दाखिल हो जाओ, कहीं सुलैमान और उसका लश्कर 
तुम्हें कुचल डालें और उन्हें ख़बर भी न हो। पस सुलैमान उसकी बात पर मुस्कराते हुए 
हंस पड़ा और कहा, ऐ मेरे रब मुझे तोफीक दे कि मैं तेरी नेमत का शुक्र अदा करूं जो 


तूने मुझ पर और मेरे वालिदैन पर किया है और यह कि मैं नेक काम करूं जो तुझे पसंद 
हो और अपनी रहमत से तू मुझे अपने नेक बंदों में दाखिल कर। (7-9) 


सूरह-27. अन-नम्ल 





हजरत सुलेमान अलैहिस्सलाम के लश्कर में न सिर्फ इंसान थे। बल्कि जिन्नात और 
परिंदे भी आपकी फौज में शामिल थे। हजरत सुलैमान का लश्कर एक बार किसी वादी से 
गुजरा जहां चींटियां बहुत ज्यादा थीं। चींटियो ने गैर मामूली तौर पर आपके लश्कर की 
अज्मत का एतराफ किया। चीटियों ने इस मौके पर जो गुप्तुगू की उसे हजरत सुलेमान ने 
भी समझ लिया। 

इस तरह का कोई वाकया एक आम इंसान को फख़ व गुरूर में मुब्तिला करने के लिए 
काफी है। मगर हजरत सुलेमान अपने इस हाल को देखकर सरापा शुक्र बन गए। जो कुछ 
बजाहिर खुद उन्हें हासिल था उसे उन्होंने पूरे तौर पर ख़ुदा के ख़ाने में डाल दिया। यही है 
सालेह (निक) इंसान का तरीका। 


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सूरह-27 अन-नम्ल I035 पारा 9 
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और सुलेमान ने परिंदों का जायजा लिया तो कहा, क्या बात है कि मैं हुदहुद को नहीं 
देख रहा हूं। क्या वह कहीं गायब हो गया है। में उसे सख्त सजा दूंगा। या उसे जिव्ह 
कर दूंगा, या वह मेरे सामने कोई साफ हुज्जत लाए। ज्यादा देर नहीं गुजरी थी कि उसने 

आकर कहा, कि मैं एक चीज की ख़बर लाया हूं जिसकी आपको ख़बर न थी। और 
मैं सबा से एक यकीनी ख़बर लेकर आया हूं। मैंने पाया कि एक औरत उन पर 
बादशाही करती है और उसे सब चीज मिली है। और उसका एक बड़ा तख्त है। मैंने 
उसे और उसकी कौम को पाया कि सूरज को सज्दा करते हैं अल्लाह के सिवा। और 
शैतान ने उनके आमाल उनके लिए खुशनुमा बना दिए, फिर उन्हें रास्ते से रोक दिया, 
पस वे राह नहीं पाते, कि वे अल्लाह को सज्दा न करें जो आसमानों और जमीन की 
छुपी चीज को निकालता है और वह जानता है जो कुछ तुम छुपाते हो और जो कुछ तुम 
जाहिर करते हो। अल्लाह, उसके सिवा कोई माबूद (पूज्य) नहीं, मालिक अर्श अजीम 
(महान सिंहासन) का। (20-26) 





सबा (920९३५) क्रीम जमाने की एक दैलतमंद कैम थी। उसका जमाना ।00 
ई०पू०से लेकर ]025 ई०पू० तक है। उसका मर्कज मआरिब (यमन) था। उस इलाके में आज 
भी उसके शानदार खंडहर पाए जाते हैं। हजरत सुलैमान के जमाने में यहां एक औरत 
(बिलकीस) की हुकूमत थी। ये लोग सूरज की परस्तिश करते थे। शैतान ने उन्हें सिखाया कि 
माबूद वही हो सकता है जो सबसे ज्यादा नुमायां (सुस्पष्ट) हो। सूरज चूँकि तमाम दिखाई देने 
वाली चीजों में सबसे ज्यादा नुमायां है इसलिए वही इस काबिल है कि उसे माबूद समझा जाए 
और उसकी परस्तिश की जाए। 

हुदहूद के जरिये हजरत सुलेमान को कौमे सबा के बारे में मुफस्सल मालूमात हासिल 
हुई। यह हुदहुद गालिबन आपकी परिंदों की फौज से तअल्लुक रखता था और बाकायदा 
तर्वियतयाप्ता था। 


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पारा ।9 036 सूरह-27. अन-नम्ल 


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सुलैमान ने कहा, हम देखेंगे कि तुमने सच कहा या तुम झूठों में से हो। मेरा यह ख़त 
लेकर जाओ। फिर इसे उन लोगों की तरफ डाल दो। फिर उनसे हट जाना। फिर देखना 
कि वे क्या रद्देअमल प्रतिक्रिया जाहिर करते हैं। मलिका सबा ने कहा कि ऐ दरबार 
वालो, मेरी तरफ एक बावकअत (प्रतिष्ठित) ख़त डाला गया है। वह सुलेमान की तरफ 
से है। और वह है शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान निहायत रहम वाला है 
कि तुम मेरे मुकाबले में सरकशी न करो। और मुतीअ (आज्ञाकारी) होकर मेरे पास आ 
जाओ। मलिका ने कहा कि ऐ दरबारियो, मेरे मामले में मुझे राय दो। में किसी मामले 
का फैसला नहीं करती जब तक तुम लोग मौजूद न हो। उन्होंने कहा, हम लोग 
जोरआवर हैं। और सख्त लड़ाई वाले हैं। और फैसला आपके इख्तियार में है। पस आप 
देख लें कि आप क्या हुक्म देती हैं। मलिका ने कहा कि बादशाह लोग जब किसी बस्ती 
में दाखिल होते हैं तो उसे ख़राब कर देते हैं और उसके इज्जत वालों को जलील कर 


देते हैं। और यही ये लोग करेंगे। और में उनकी तरफ एक हदिया (उपहार) भेजती हूं, 
फिर देखती हूं कि सफीर (दूत) क्या जवाब लाते हैं। (27-35) 





हजरत सुलैमान की कुव्वत व सल्तनत एक खुदाई अतिया थी। इसी तरह आपने सबा 
की हुकूमत के साथ जो मामला किया वह भी एक ख़ुदाई मामला था। शाह अब्दुल कादिर 
देहलवी आयत 37 के जेल में लिखते हैं : “और किसी पेग़म्बर ने इस तरह की बात नहीं 
फरमाई। सुलैमान को हक तआला की सल्तनत का जोर था जो यह फरमाया । 

मलिका सबा (बिलकीस) ने मामले को ख़ालिस हकीकतपसंदाना अंदाज से देखा। उसने 
यह राय कायम की कि अगर हम सुलेमान की ताकत से टकराएं तो ज्यादा इम्कान यह है कि 
हम हारंगे और फिर हमारे साथ वही किया जाएगा जो हर गालिब (विजित) कौम मग़लूब कौम 
के साथ करती है। इसके बरअक्स अगर हम इताअत कुबूल कर लें तो हम तबाही से बच 
जाएंगे। ताहम मलिका ने इब्तिदाई अंदाजे के लिए तोहफे भेजने का तरीका इस़्तियार किया। 


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सूरह-27. अन-नम्ल I037 पारा 79 
ताकि मालूम हो जाए कि सुलैमान हमारी दौलत के ख्वाहिशमंद हैं। या इससे आगे उनका हमसे 
कोई उसूली मुतालबा है। 


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फिर जब सफीर (दूत) सुलैमान के पास पहुंचा, उसने कहा क्या तुम लोग माल से मेरी मदद 
करना चाहते हो। पस अल्लाह ने जो कुछ मुझे दिया है वह उससे बेहतर है जो उसने तुम्हें 
दिया है। बल्कि तुम ही अपने तोहफे से खुश हो। उनके पास वापस जाओ। हम उन पर 
ऐसे लश्कर लेकर आएंगे जिनका मुकाबले वे न कर सकेंगे और हम उन्हे वहां से बेइज्जत 
करके निकाल देंगे। और वे ख़्वार सम्मानहीन होंगे। (36-37) 








हजरत सुलैमान को नुबु्यत और खुदा की मअरफत की शक्ल में जो कीमती दौलत 
मिली थी, उसके मुकाबले में हर दूसरी दौलत उनकी नजर में हैच हो चुकी थी। चुनांचे मलिका 
सबा की तरफ से जब उनके पास सोने चांदी के तोहफे पहुंचे तो उन्होंने उनकी तरफ निगाह 
भी न की। 

हजरत सुलैमान ने अपने अमल से मलिका सबा के सफीरों को यह तास्सुर दिया कि मेरा 
मामला उसूली मामला है न कि मफाद का मामला। मुफस्सिर इब्ने कसीर इसकी तशरीह में 
यह अल्फाज लिखते हैं : 'क्या तुम माल देकर मुझे मुतअस्सिर करना चाहते हो कि मैं तुम्हें 
तुम्हारे शिक पर छोड़ दूं और तुम्हारी हुकूमत तुम्हारे पास रहने दूं। 


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सुलैमान ने कहा ऐ दरबार वालो, तुम में से कौन उसका तख्त (सिंहासन) मेरे पास लाता 
है इससे पहले की वे लोग मुतीअ (आज्ञाकारी) होकर मेरे पास आएं। जिन्नों में से एक 
देव ने कहा, में उसे आपके पास ले आऊगा इससे पहले कि आप अपनी जगह से उठें, 


















































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पारा ।9 I038 सूरह-27. अन-नम्ल 
और में इस पर कुदरत रखने वाला, अमानतदार हूं। जिसके पास किताब का एक इलम 

था उसने कहा, में आपके पलक झपकने से पहले उसे ला दूंगा। फिर जब उसने तख्त 
को अपने पास रखा हुआ देखा तो उसने कहा, यह मेरे रब का फज्ल है। ताकि वह 

मुझे जांचे कि मैं शुक्र करता हूं या नाशुक्री। और जो शख्स शुक्र करे तो अपने ही लिए 
शुक्र करता है। और जो शख्स नाशुक्री करे तो मेरा रब बेनियाज (निस्पृह) है करम करने 
वाला है। (38-40) 





हजरत सुलैमान के पास अगरचे गैर मामूली ताकत थी। मगर उन्होंने इस्तेमाले ताकत 
के बजाए मुजाहिरे ताकत के जरिए कीमे सबा को जेर करने का मंसूबा बनाया । चुनांचे आपने 
अपने खुसूसी कारिंदे के जरिए मलिका के तखन को मआरिब (270) के महल से यरोशलम 
(फिलिस्तीन) मंगवाया। तख़्त को मंगवाने का वाकया गालिबन उस वकत पेश आया जबकि 
तोहफे की वापसी के बाद मलिका सबा यमन से फिलिस्तीन के लिए रवाना हुई। ताकि वह 
हजरत सुलैमान के दरबार में पहुंच कर बराहेरास्त आपसे गुफ्तुगू करे। मलिका सबा का अपने 
ख़दम व हशम (सेवकों, दरबारियों) के साथ यह सफर यकीनन उस वकत हुआ होगा, जबकि 
उसके सिफारती वपद ने वापस जाकर हजरत सुलैमान की हिक्मत की बातें और आपके गैर 
मामूली किरदार की शहादत दी और आपकी गैर मामूली अज्मत का हाल बयान किया। 
मआरिब से यरोशलम का फासला तकरीबन डेढ़ हजार मील है। यह लम्बा फासला इस 
तरह तै हुआ कि इधर हजरत सुलेमान की जबान से हुक्म के अल्फाज निकले और उधर 
जरोजवाहर (रत्नों) से जड़ा हुआ तख्त उनके सामने रखा हुआ मौजूद था। इस गैर मामूली 
कुवत के बावजूद हजरत सुलेमान के अंदर फख़ का कोई जज्बा पैदा नहीं हुआ। वह सर ता 
पा तवाजोअ (सर्वथा विनम्रता) बनकर खुदा के आगे झुके रहे। 
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सुलैमान ने कहा कि उसके तख्त (सिंहासन) का रूप बदल दो, देखें वह समझ पाती 
है या उन लोगों में से हो जाती है जिन्हें समझ नहीं। पस जब वह आई तो कहा 





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सूरह-27. अन-नम्ल I039 पारा 79 
गया क्या तुम्हारा तख्त ऐसा ही है। उसने कहा, गोया कि यह वही है। और हमें 
इससे पहले मालूम हो चुका था। और हम फरमांबरदारों में थे। और उसे रोक रखा 
था उन चीजों ने जिन्हें वह अल्लाह के सिवा पूजती थी। वह मुंकिर लोगों में से थी। 
उससे कहा गया कि महल में दाखिल हो। पस जब उसने उसे देखा तो उसे ख़्याल 
किया कि वह गहरा पानी है और अपनी दोनों पिंडलियां खोल दीं। सुलैमान ने कहा, 
यह तो एक महल है जो शीशों से बनाया गया है। उसने कहा कि ऐ मेरे रब, मैंने 
अपनी जान पर जुल्म किया। और में सुलैमान के साथ होकर अल्लाह रब्बुल आलमीन 
पर ईमान लाई। (4।-44) 


मलिका सबा अपने मुल्क से रवाना होकर बैतुल मक्विदिस पहुंची । यहां वह हजरत सुलेमान 
के महल में दाखिल हुई तो बिल्कुल अंजान तौर पर उसके सामने एक तख्त लाया गया। और 
कहा गया कि देखो, क्या यह तुम्हारा तख्त है। यह देखकर वह ख़ुदा की कुदरत पर हैरान रह 
गई कि अपने जिस तख््त को वह मआरिब के महल में महफूज करके आई थी वह पुरअसरार 
(करिश्माई) तौर पर डेढ़ हजार मील का फासला तै करके बैतुल मक्दिस पहुंच गया है। 

हजरत सुलैमान के महल में दाखिल होकर मलिका सबा एक ऐसे मकाम पर पहुंची 
जिसका फर्श साफ शपफाफ शीशे की मोटी तस्क्षियों से बनाया गया था और उसके नीचे पानी 
बह रहा था। मलिका जब चलते हुए यहां पहुंची तो उसे अचानक महसूस हुआ कि उसके 
आगे पानी का हौज है। उस वक्‍त उसने वही किया जो पानी में उतरने वाला हर आदमी 
करता है। यानी उसने गैर इरादी तौर पर अपने कपड़े उठा लिए। 

इस तरह गोया अमली तजर्बे की जबान में उसे बताया गया कि इंसान जाहिर को देखकर 
फख खा जाता है। मगर अस्ल हकीकत अक्सर उससे मुज्नलिफ हेती है जो जहिरी आंखो से 
दिखाई देती है। आदमी जाहिरी तौर पर सूरज और चांद को नुमायां देखकर उनकी परस्तिश 
करने लगता है। हालांकि हकीकी खुदा वह है जो इन जवाहिर (प्रकट चीजें) से आगे है। 

मलिका सबा अब तक कीमी रिवायात के जेरेअसर सूरज की परस्तिश कर रही थी। 
मगर हजरत सुलेमान के करीब पहुंच कर उसने जो कुछ सुना और जो कुछ देखा उसने उसके 
जेहन से गैर अल्लाह की अज्मत का यकसर खात्मा कर दिया। उसने दीने शिक को छोड़ दिया 
और दीने तौहीद को दिल व जान से इख्तियार कर लिया। 


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पारा ।9 I040 सूरह-27. अन-नम्ल 


और हमने समूद की तरफ उनके भाई सालेह को भेजा, कि अल्लाह की इबादत करो, 
फिर वे दो फरीक (पक्ष बनकर आपस में झगड़ने लगे। उसने कहा कि ऐ मेरी कोम 

के लोगो, तुम भलाई से पहले बुराई के लिए क्यों जल्दी कर रहे हो। तुम अल्लाह से 
माफी क्‍यों नहीं चाहते कि तुम पर रहम किया जाए। उन्होंने कहा, हम तो तुम्हें और 
तुम्हारे साथ वालों को मनहूस समझते हैं। उसने कहा कि तुम्हारी बुरी किस्मत अल्लाह 

के पास है बल्कि तुम तो आजमाए जा रहे हो। (45-47) 


हजरत सालेह अलैहिस्सलाम ने तौहीदे ख़ालिस की दावत शुरू की तो उनकी कौम दो 
तबकों में बट गई। जो लोग कीम के बड़े थे वे अपनी बड़ाई में गुम रहे, और हजरत सालेह 
के बेआमेज (विशुद्ध) दीन को कुबूल करने के लिए तैयार न हुए। अलबत्ता छोटे लोगों में से 
कुछ अफराद निकले जिन्होंने आपकी पुकार पर लब्बैक कहा। 

इन दोनों गिरोहों में इख़्तेलाफी बहसें शुरू हो गईं। बड़े लोग पुरफख़ अंदाज में कहते कि 
हम तुम्हारे मुंकिर हैं। फिर हमारे इंकार की पादाश में जो अजाब तुम ला सकते हो ले आओ। 
कभी कोई मुसीबत पड़ती तो वे कह देते कि सालेह और उनके साथियों की नहूसत की वजह 
से यह बला हमारे ऊपर आई है। ये बातें वे हजरत सालेह और आपकी दावत की तहकीर 
(अनादर) के तौर पर कहते थे न कि संजीदा ख्याल के तौर पर। उनकी अच्छी हालत और 
उनकी बुरी हालत दोनों खुदा की तरफ से थी। मगर अच्छी हालत से उन्होंने झूठे फख़ की 
गिजा ली और बुरी हालत से झूठी शिकायत की। 

उनके दर्मियान हक के दाऔ का उठना उनके लिए ख़ुदा का एक इम्तेहान था। वे इस 
आजमाइश के मैदान में खड़े कर दिए गए थे कि वे हक को पहचान कर उसका साथ देते हैं 
या इसके मुकाबले में अंधे बहरे बने रहते हैं। मगर वे दूसरी-टूसरी बातों में उलझे रहे और 
अस्ल मामले को समझने से कासिर (असमर्थ) रहे। 


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और शहर में नो शख्स थे जो जमीन में फसाद करते थे और इस्लाह (सुधार) का काम 


न करते थे। उन्होंने कहा कि तुम लोग अल्लाह की कसम खाओ कि हम उसे और उसके 
लोगों को चुपके से हलाक कर देंगे। फिर उसके वली (संरक्षक) से कह देंगे कि हम उसके 


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सूरह-27. अन-नम्ल I04I पारा ।9 
घर वालों की हलाकत के वक्‍त मौजूद न थे। और बेशक हम सच्चे हैं। और उन्होंने 
एक तदबीर (युक्ति) की और हमने भी एक तदबीर की और उन्हें ख़बर भी न हुई। 
पस देखो केसा हुआ उनकी तदबीर का अंजाम। हमने उन्हें और उनकी पूरी कौम को 
हलाक कर दिया। पस ये हैं उनके घर वीरान पड़े हुए उनके जुल्म के सबब से। बेशक 
इसमें सबक है उन लोगों के लिए जो जानें। और हमने उन लोगों को बचा लिया जो 
ईमान लाए और जो डरते थे। (48-53) 


कौम में नौ बड़े सरदार थे। वे अपने को बड़ा बाकी रखने के लिए हक को छोटा करने 
की कोशिश में लगे रहते थे। और इस किस्म की कोशिश बिला शुबह ख़ुदा की जमीन में 
सबसे बड़ा फसाद है। 
इन सरदारों ने आखिरी मरहले में हजरत सालेह को हलाक करने की साजिश की । मगर 
कब्ल इसके कि वे अपने खुफिया मंसूबे के मुताबिक हजरत सालेह के खिलाफ कोई इक्दाम 
करें, ख़ुदा ने ख़ुद उन्हें पकड़ लिया। वे अपनी सारी बड़ाई के बावजूद इस तरह बर्बाद कर 
दिए गए कि उनकी कदीम बस्तियों में अब सिर्फ उनके टूटे हुए खंडहर, उनकी यादगार बाकी 
रह गए हैं। 
इस किस्म के ताशी वाकेयात में जबरदस्त सबक छुपा हुआ है। मगर इस सबक को 
वही शख्स पाएगा जो इसे कानून इलाही से जोड़े। इसके बरअक्स जो लोग इसे असबाबे 


तबीई (स्वाभाविक प्रक्रिया) से जोड़ें वे इससे कोई सबक हासिल नहीं कर सकते। 
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और लूत को जब उसने अपनी कौम से कहा, क्या तुम बेहयाई करते हो और तुम देखते 
हो। क्या तुम मर्दों के साथ शहवतरानी करते हो। औरतों को छोड़कर, बल्कि तुम लोग 
बेसमझ हो। फिर उसकी कौम का जवाब इसके सिवा कुछ न था कि उन्होंने कहा, लूत 
के घर वालों को अपनी बस्ती से निकाल दो, ये लोग पाक साफ बनते हैं। फिर हमने 
उसे और उसके लोगों को नजात दी सिवा उसकी बीवी के, जिसका पीछे रह जाना हमने 
तै कर दिया था। और हमने उन पर बरसाया एक होलनाक बरसाना। पस कैसा बुरा 
बरसाव था उन पर जिन्हें आगाह किया जा चुका था, कहो हम्द है अल्लाह के लिए और 


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पारा 20 I042 सूरह-27. अन-नम्ल 
सलाम उसके उन बंदों पर जिन्हें उसने मुंतख़़ब फरमाया। क्या अल्लाह बेहतर है या वे 
जिन्हें वे शरीक करते हैं। (54-59) 





कैमे लूत अपनी लज्जतियत में हमजिंसी (समलैंगिकता) की हद तक पहुंच गई थी । हजरत 
लूत ने कौम के जमीर को झिंझोइते हुए कहा कि ख़ुदा के बंदो, तुम्हें आंख दी गई है कि देखो 
और भले बुरे की तमीज दी गई है कि पहचानो। फिर कैसे तुम वह काम करते हो जो खुली 
हुई बेहयाई का काम है। 

कौम के पास इसका कोई जवाब न था। वे पैगम्बर की बात को दलील से रद्द नहीं कर 
सकते थे। इसलिए वे पैगम्बर के खिलाफ जारिहियत पर आमादा हो गए। मगर जब यह 
नौबत आ जाए तो फिर बिला ताख़ीर खुदा का फैसला आ जाता है। चुनांचे खुदा ने आतिश 
फञ्जी (विनाशक) माद्दा बरसाकर उन्हें हलाक कर दिया। इस खुदाई फैसले से हजरत लूत 
की बीवी भी न बची जो मुश्रिकों से मिली हुई थी। ख़ुदा का मामला हर शख्स से उसके जाती 
अमल की बुनियाद पर होता है न कि रिश्ते और तअल्लुक की बुनियाद पर। 

तारीख़ के मज्कूरा वाकेयात पर जो शख्स गौर करेगा वह पुकार उठेगा कि उस खुदा का 
शुक्र है जिसने हर दौर में इंसान की रहनुमाई का इंतिजाम किया और फिर उन बंदों की 
अकीदत से उसका सीना लबरेज हो जाएगा जिन्होंने अपनी जिंदगी कामिल तौर पर खुदा के 
हवाले करके ख़ुदा के मंसूबए हिदायत की तक्मील की। 


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भला वह कौन है जिसने आसमानों और जमीन को पैदा किया। और तुम्हारे लिए 
आसमान से पानी उतारा। फिर हमने उससे रौनक वाले बाग़ उगाए। तुम्हारे वश में 

न था कि तुम इन दरख्तों को उगा सकते। क्या अल्लाह के साथ कोई और माबूद 
(पूज्य) है। बल्कि वे राह से इंहिराफ करने वाले लोग हैं। भला किसने जमीन का ठहरने 

के लायक बनाया और उसके दर्मियान नदियां जारी कीं। और उसके लिए उसने पहाड़ 
बनाए। और दो समुद्रों के दर्मियान पर्दा डाल दिया। क्या अल्लाह के साथ कोई और 
माबूद है। बल्कि उनके अक्सर लोग नहीं जानते। (60-6]) 


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सूरह-27. अन-नम्ल 043 पारा 20 


कायनात नाकबिले क्यास हद तक अजीम है। उसकी अमत के आगे वे अत्फज 
सरासर नाकाफी हो जाते हैं जो गुमराहकुन इंसान उसकी गैर खुदाई तौजीह के लिए बोलता 
रहा है। चाहे वे कदीम मुश्रिक इंसान के बुत हों या जदीद मुल्हिद (नास्तिक) इंसान के वे 
नजरियात जो असबाब और इत्तफाकात (संयोगो) की इस्तेहालों में बयान किए जाते हैं। 

बेशुमार अजराम (आकाशीय पिंडों) को पैदा करके उन्हें अथाह ख़ला (अंतरिक्ष) में 
मुतहस्कि करना, जमीन को निहायत आला एहतिमाम के जरिए जिंदगी के मुवाफिक बनाना, 
पानी और नबातात (वनस्पति) जैसी नादिर चीजों को इंतिहाई इफरात (बहुलता) के साथ 
वजूद में लाना, मुसलसल हरकत करती हुई जमीन पर कामिल सुकून के हालात पैदा करना, 
दरियाओं और पहाड़ों के जरिए जमीन को जाए रिहाइश (आवास-स्थल) बनाना, पानी के 
सतही तनाव ("a९ !९१५¡०॥) के कानून के जरिए खारी पानी और मीठे पानी को एक 
दूसरे से अलग रखना, ये और इस तरह के दूसरे वाकेयात इससे ज्यादा अजीम हैं कि कोई 
बुत इन्हें अंजाम दे या कोई अंधा तबीई (भौतिक) कानून इन्हें वजूद दे सके। 

हकीकत यह है कि एक अल्लाह के सिवा दूसरी बुनियादों पर कायनात की तौजीह करना 
झूठी तौजीह को तौजीह के कायम मकाम बनाना है। यह इंहिराफ (भटकाव) है न कि 
फिलवाकअ कोई तैजीह। 


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कौन है जो बेबस की पुकार को सुनता है और उसके दुख को दूर कर देता है। और 
तुम्हें जमीन का जानशीन (उत्तराधिकारी) बनाता है। क्या अल्लाह के सिवा कोई और 
माबूद (पूज्य) है। तुम बहुत कम नसीहत पकड़ते हो। कौन है जो तुम्हें ख़ुश्की और समुद्र 
के अंथेरों में रास्ता दिखाता है। और कौन अपनी रहमत के आगे हवाओं को खुशखबरी 
बनाकर भेजता है। क्या अल्लाह के साथ कोई और माबूद है। अल्लाह बहुत बरतर है 
उससे जिन्हें वे शरीक ठहराते हैं। कौन है जो ख़ल्क (सृष्टि) की इब्तिदा करता है और 
फिर उसे दोहराता है। और कीन तुम्हें आसमानां और जमीन से रोजी देता है। क्या 


अल्लाह के साथ कोई और माबूद है। कहो कि अपनी दलील लाओ, अगर तुम सच्चे 
हो। (62-64) 





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पारा 20 I044 सूरह-27. अन-नम्ल 





एक हाजतमंद की हाजत पूरी होना उस वक्त मुमकिन होता है जबकि तमाम कायनाती 
असबाब उसके साथ मुवाफिकत करें। फिर एक कार्दिर मुतलक (सर्वशक्तिमान) खुदा के 
सिवा कौन है जो इतने बड़े पैमाने पर मुवाफिक (अनुकूल) असबाब को जमा कर सकता हो। 

इसी तरह एक कौम का हटना और दूसरी कौम का उसकी जगह लेना, समुद्री जहाज 
और मौजूदा जमाने में हवाई जहाज का इम्कानाते फितरत से फायदा उठाकर अंधेरे और 
उजाले में सफर करना, समुद्र से भाप का उठना और फिर बारिश बनकर बरसना, चीजों को 
अदम से वजूद में लाना और फिर उन्हें दुबारा पैदा करना। इंसान के लिए वसीअ पैमाने पर 
हर किस्म के रिज्क का बंदोबस्त करना, ये सब खुदाई सतह के काम हैं। और एक बरतर ख़ुदा 
ही इन्हें अंजाम दे सकता है। 

यही जमीन में जाहिर होने वाले तमाम वाकेयात का हाल है। यहां एक वाहिद वाकये को 
जहूर में लाने के लिए भी इतने बेशुमार अवामिल (कारक) दरकार होते हैं कि उसे वही हस्ती 
जहू में ला सकती है जिसके कब्ज में सारी कायनात हो। फिर यह किस कदर बेअक्ली की 
बात है कि आदमी एक ख़ुदा के सिवा किसी और को अपने जज्बाते अबदियत (बंदा होने की 
भावना) का मकज बनाए। वह एक ख़ुदा के सिवा किसी और की परस्तिश करे। 

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कहो कि अल्लाह के सिवा, आसमानों और जमीन में कोई गैब (अप्रकट) का इलम नहीं 

रखता । और वे नहीं जानते वे कब उठाए जाएंगे। बल्कि आख़िरत के बारे में उनका 
इल्म उलझ गया है। बल्कि वे उसकी तरफ से शक में हैं। बल्कि वे उससे अंधे हैं। और 
इंकार करने वालों ने कहा, क्या जब हम मिट्टी हो जाएंगे और हमारे बाप दादा भी, 
तो क्या हम जमीन से निकाले जाएंगे। इसका वादा हमें भी दिया गया और इससे पहले 


हमारे बाप दादा को भी। यह महज अगलों की कहानियां हैं। कहो कि जमीन में चलो 
फिरो, पस देखो कि मुजरिमों का अंजाम क्या हुआ। (65-69) 





किसी पैगम्बर के मुखातब आखिरत के सिरे से मुंकिर न थे। बल्कि वे उस तसवुरे 
आख़िरत के मुंकिर थे जिसे पैग़म्बर पेश करते थे। लोग यह यकीन किए हुए थे कि आख़िरत 


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सूरह-27. अन-नम्ल I045 पारा 20 
का मसला उनके अपने लिए नहीं है बल्कि दूसरों के लिए है। पैग़म्बर ने बताया कि आखिरत 
तुम्हारे लिए भी वैसा ही एक संगीन मसला है जैसा कि वह दूसरों के लिए है। लोग समझते 
थे कि अपने बुजुर्गों से वाबस्तगी आखिरत में उनके लिए नजात का जरिया बन जाएगी । पैगम्बरों 
ने बताया कि आखिरत में सिर्फ खुदा को रहमत आदमी के काम आएगी न कि किसी बुजुर्ग 
से वाबस्तगी । 

यही वजह है कि वे लोग आखिरत के बारे में एक किस्म की जेहनी उलझन में पड़े हुए 
थे। उनके कुछ सिरफिरे कभी ऐसे अल्फाज बोलते जैसे कि वे आख़िरत के मुंकिर हों। मगर 
आम लोगों का हाल यह था कि वे नफ्से आखिरत का इंकार नहीं करते थे। अलबत्ता पैगम्बर 
के तसबुरे आख़िरत को मानने में जिंदगी की आजादियां ख़त्म होती थीं इसलिए उनका नफ्स 
इसे मानने के लिए तैयार न था। चुनांचे इसके जवाब में वे ऐसी बातें करते थे जैसे कि वे 
शक में हों। अपनी इसी जेहनी कैफियत की वजह से उन्होंने आखिरत के दलाइल पर कभी 
संजीदगी के साथ गौर नहीं किया। उसके बारे में वे अंधे बहरे बने रहे। 

हकीकत यह है कि कैमेंका फैसला करने के लिए जो ताक्तेदरकार हैवे सिर्फ्राए 
आलिमुल गैब को हासिल हैं। वह जुजई (आंशिक) तौर पर मौजूदा दुनिया में भी अपना 
फैसला नाफिज करता है। और वही आहिरत में कुल्ली तौर पर तमाम कीमों के ऊपर अपना 
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और उन पर ग़म न करो और दिल तंग न हो उन तदबीरों पर जो वे कर रहे हैं। और 
वे कहते हैं कि यह वादा कब है अगर तुम सच्चे हो। कहो कि जिस चीज की तुम जल्दी 
कर रहे हो शायद उसमें से कुछ तुम्हारे पास आ लगा हो। और बेशक तुम्हारा रब लोगों 
पर बड़े फज्ल वाला है। मगर उनमें से अक्सर शुक्र नहीं करते। और बेशक तुम्हारा रब 

ख़ूब जानता है जो उनके सीने छुपाए हुए हैं ओर जो वे जाहिर करते हैं। और आसमानों 
और जमीन की कोई पोशीदा चीज नहीं है जो एक वाजेह किताब में दर्ज न हो। 

(70-75) 








“गम न करो' का मतलब हक के दाओ को ग़म से रोकना नहीं है। ग़म तो दाऔ की 


पारा 20 I046 सूरह-27. अन-नम्ल 
गिजा है। यह दरअस्ल हक की बेबसी की तरदीद (खंडन) है। इसका मतलब यह है कि सारे 
नामुवाफिक (प्रतिकूल) हालात के बावजूद आखिरकार बहरहाल हक को और हक का साथ 
देने वालों को कामयाबी हासिल होगी। 
हक के दाजी (आह्वानकर्ता) के मूरग्रलिफीन जब हक के दाओ की मूख्लिफत करते हैं 
तो वे समझते हैं कि वे एक शख्स की मुखालिफत कर रहे हैं। वे नहीं समझते कि यह ख़ुद खुदा 
की मुख़लिफत है न कि महज एक शर की मुग्रलिफत। यह सूरतेहाल सिर्फउस वक्‍त तक 
बाकी रहती है जब तक इम्तेहान की मुदृदत ख़त्म न हुई हो। इम्तेहान की मुकर्ररह मुदूदत ख़त्म 
होते ही खुदा की ताकतें जाहिर हो जाती हैं और वे मुखालिफीन का इस तरह ख़ात्मा कर देती 
हैं जैसे कि कभी उनकी कोई हैसियत ही न थी। आदमी के लिए इससे बड़ी कोई नादानी नहीं 
कि वह आजमाइश की फुरसत को अपने लिए सरकशी की फुरसत के हममअना बना ले। 


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बेशक यह कुरआन बनी इस्राईल पर बहुत सी चीजों को वाजेह कर रहा है जिनमें वे 

इख्तेलाफ (मतभेद) रखते हैं। और वह हिदायत और रहमत है ईमान वालों के लिए। 
बेशक तुम्हारा रब अपने हुक्म के जरिए उनके दर्मियान फैसला करेगा और वह जबरदस्त 

है, जानने वाला है। पस अल्लाह पर भरोसा करो। बेशक तुम सरीह हक (सुस्पष्ट सत्य) 

पर हो। तुम मुर्दों को नहीं सुना सकते और न तुम बहरों को अपनी पुकार सुना सकते 
हो जबकि वे पीठ फेरकर चले जाएं। और न तुम अंधों को उनकी गुमराही से बचाकर 
रास्ता दिखाने वाले हो। तुम तो सिर्फ उन्हें सुना सकते हो जो हमारी आयतों पर ईमान 
लाते हैं, फिर फरमांबरदार बन जाते हैं। (76-87) 


इंसान एक ऐसी मख्नूक है जो आंख, कान और दिमाग़ की सलाहियतें रखता है। इन 
सलाहियतों को अगर खुले तरीके से इस्तेमाल किया जाए तो वे बेख़ता (अचूक) तौर पर 
हकीकतों को देखने और पहचानने का जरिया बन सकती हैं। लेकिन अगर कोई शख्स अपने 
आपको किसी मस्नूई (बनावटी) तसव्वुर से मग़लूब कर ले तो उसको इदराक (भिज्ञता) की 


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सूरह-27. अन-नम्ल 047 पारा 20 
सलाहियतें मुअत्तल (नष्ट) होकर रह जाती हैं। उसके सामने हकीकत बेनकाब सूरत में आती 
है मगर वह उससे इस तरह बेख़बर रहता है जैसे कि वह अंधा बहरा हो। हकीकत यह है कि 
इस दुनिया में उसी शख्स को रास्ता दिखाया जा सकता है जो रास्ता देखना चाहे जिसके अंदर 
ख़ुद रास्ते की तड़प न हो उसके लिए किसी रहनुमा को रहनुमाई काम आने वाली नहीं। 
हकपरस्त बनने के लिए सबसे ज्यादा जो चीज दरकार है वह एतराफ (स्वीकार) है। इस 
दुनिया में उसी शख्स को हिदायत मिलती है जिसके अंदर यह माद्दा हो कि जो बात दलाइल 
से वाजेह हो जाए वह फौरन उसे मान ले और अपनी जिंदगी को उसकी मातहती में दे दे। 
जो लोग ख़ुदा की दावत के आगे न झुकें, उन्हें आखिरकार ख़ुदा के फैसले के आगे 
झुकना पड़ता है। मगर उस वक्‍त का झुकना किसी के कुछ काम आने वाला नहीं। 





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और जब उन पर बात आ पड़ेगी तो हम उनके लिए जमीन से एक दाब्बह (जानवर) 
निकालेंगे जो उनसे कलाम करेगा। कि लोग हमारी आयतों पर यकीन नहीं रखते थे। 
और जिस दिन हम हर उम्मत में से एक गिरोह उन लोगों का जमा करेंगे जो हमारी 
आयतों को झुठलाते थे, फिर उनकी जमाअतबंदी की जाएगी। यहां तक कि जब वे आ 
जाएंगे तो ख़ुदा कहेगा कि तुमने मेरी आयतों को झुठलाया हालांकि तुम्हारा इलम उनका 
अहाता न कर सका, या बोलो कि तुम क्या करते थे। और उन पर बात पूरी हो जाएगी 
इस सबब से कि उन्होंने जुल्म किया, पस वे कुछ न बोल सकेंगे। क्या उन्होंने नहीं देखा 
कि हमने रात बनाई ताकि लोग उसमें आराम करें। और दिन कि उसमें देखें। बेशक 
इसमें निशानियां हैं उन लोगों के लिए जो यकीन करते हैं। (82-86) 





जब अल्लाह तआला का यह फैसला होगा कि जमीन की मौजूदा तारीख़ ख़त्म कर दी 
जाए तो आखिरी तौर पर कुछ गैर मामूली निशानियां जाहिर होंगी। उन्हीं में से एक दाब्बह 
(जानवर) का जुहूर है। इंसानी दाअियों की जबान से जो बात लोगों ने नहीं मानी उसका 
एलान एक गैर इंसानी मख्लूक के जरिए से कराया जाएगा। ताहम यह इम्तेहान का वक्त 
ख़त्म होने का घंटा होगा न कि इम्तेहान का वक्त शुरू होने का एलान। 


पारा 20 I048 सूरह-27. अन-नम्ल 
कियामत में जब तमाम लोग हाजिर होंगे तो उनकी जमाअतें बनाई जाएंगी । मानने वाले 

एक तरफ कर दिए जाएंगे और न मानने वाले दूसरी तरफ। इसके बाद मुंकिरीन से पूछा 

जाएगा कि तुम्हारे पास कौन सी इलमी दलील थी जिसकी बिना पर तुमने सदाकत (सच्चाई) 

का इंकार किया । उस वक्‍त उनका लाजवाब होना साबित करेगा कि उनका इंकार महज जिद 

और तअस्सुब पर मबनी था। अगरचे अपने को बरहक जाहिर करने के लिए वे झूठे दलाइल 

पेश किया करते थे। उस वक्‍त उन पर खुलेगा कि दाजी के मलफूज (शाब्दिक) कलाम के 

अलावा रात और दिन भी गैर मलफूज जबान में उन्हें अग्रे हक से मुल (सूचित) कर रहे 

थे। रात की नींद गोया मौत की तमसील थी। और सुबह का जागना दुबारा जी उठने की 

तमसील। हक के एलान के इतने गैर मामूली एहतिमाम के बावजूद वे हक की दरयाफ्त से 

महरूम रहे। 





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और जिस दिन सूर फूंका जाएगा तो घबरा उठेंगे जो आसमानों में हैं और जो जमीन 

में हैं मगर वह जिसे अल्लाह चाहे। और सब चले आएंगे उसके आगे आजिजी से। और 
तुम पहाड़ों को देखकर गुमान करते हो कि वे जमे हुए हैं, और वे चलेंगे जैसे बादल चलें। 
यह अल्लाह की कारीगरी है जिसने हर चीज को मोहकम (सुटुट) किया है। बेशक वह 
जानता है जो तुम करते हो। जो शख्स भलाई लेकर आएगा तो उसके लिए इससे बेहतर 
है, और वे उस दिन घबराहट से महफूज होंगे। और जो शख्स बुराई लेकर आया तो 

ऐसे लोग औंधे मुंह आग में डाल दिए जाएंगे। तुम वही बदला पा रहे हो जो तुम करते 
थे। (87-90) 





मौजूदा दुनिया में इंकार का असल सबब इंसान की बेख़ीफी है। यह दरअस्ल बेख़ौफी की 
नप्सियात है जिसकी वजह से आदमी हक को नजरअंदाज करता है और इसके मुकबले में 
सरकशी का रवैया इख्तियार करता है। मगर जब इम्तेहान की मुदूदत ख़त्म होगी और इसकी 
अलामत के तौर पर सूर फूंक दिया जाएगा तो अचानक लोग महसूस करेंगे कि उनकी बेखौफी 
महज बेख़बरी की बिना पर थी। उस दिन तमाम बड़ाइयां रेत की दीवार की तरह ढह जाएंगी । 


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सूरह-27. अन-नम्ल I049 पारा 20 

यह ऐसा सख्त लम्हा होगा कि इंसान तो दरकनार पहाड़ भी रेजाररेजा हो जाएंगे। उस वक्‍त 

सारा इज्ज एक तरफ हो जाएगा और सारी कुदरत दूसरी तरफ। 

उस दिन वे तमाम चीजें बिल्कुल गैर अहम हो जाएंगी जिन्हें लोग दुनिया में अहम समझे 

हुए थे। उस दिन सारा वजन सिर्फ अमले सालेह में होगा। उस दिन, खोने वाले पाएंगे और 

पाने वाले अबदी (चिरस्थाई) तौर पर महरूम होकर रह जाएंगे। 
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मुझे यही हुक्म दिया गया है कि में इस शहर (मक्का) के रब की इबादत करूं जिसने 
इसे मोहतरम (आदरणीय) ठहराया और हर चीज उसी की है। और मुझे हुक्म दिया गया 
है कि मैं फरमांबरदारी करने वालों में से बनूं। और यह कि कुरआन को सुनाऊं। फिर 
जो शख्स राह पर आएगा तो वह अपने लिए राह पर आएगा और जो गुमराह हुआ तो 
कह दो कि मैं तो सिर्फ डराने वालों में से हूं। और कहो कि सब तारीफ अल्लाह के 
लिए है, वह तुम्हें अपनी निशानियां दिखाएगा तो तुम उन्हें पहचान लोगे और तुम्हारा 
रब उससे बेख़बर नहीं जो तुम करते हो। (9-93) 





इस शहर (मक्का) का हवाला कुरआन के मुख़ातबे अव्वल की रिआयत से है। ताहम यह 
एक उस्लूबे कलाम (शैली) की बात है। आयत का अस्ल उद्देश्य इंसान को उस अबदी 
(शाश्वत) हकीकत की तरफ मुतवज्जह करना है कि उसके लिए एक ही सही रवैया है। और 
वह यह कि वह एक ख़ुदा का इबादतगुजार बने। 

दाओ (आसह्वानकर्ता) का काम “सुनाना” है। यानी अम्रे हक का एलान। आदमी को 
दाजी की लफ्नी पुकार में मअनवी हकीकत का इदराक करना है। बेजेर दावत में खुदाई 
ताकत का जलवा देखना है। जो लोग इस सलाहियत का सुबूत दें वही वे लोग हैं जो ख़ुदा 
के अबदी इनामात के मुस्तहिक करार दिए जाएंगे। 

ख़ुदा अपनी निशानियां दिखाएगा? इस पेशीनगोई का एक पहलू कुरआन के मुख़ातबे 
अव्वल (कुंरेशे मक्का) से तअल्लुक रखता है जिन्हें दौरे अव्वल में जंगे बद्र और फतह मक्का 
की सूरत में ख़ुदा की निशानियां दिखाई गई। इसका दूसरा पहलू वह है जिसका तअल्लुक 
कुरआन की अबदियत (शाश्वतता) से है। इस दूसरे एतबार से इस मौजूदा जमाने में जाहिर 
होने वाली साइंसी निशानियां भी इस गैर मामूली पेशीनगोई (भविष्यवाणी) के वसीअतर 
मिस्दाक में शामिल हैं। 











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(मक्का में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

ता० सीन० मीम०। ये वाजेह किताब की आयतें हैं। हम मूसा और फिरऔन का कुछ 
हाल तुम्हें ठीक-ठीक सुनाते हैं, उन लोगों के लिए जो ईमान लाएं। बेशक फिरऔन 
ने जमीन में सरकशी की। और उसने उसके बाशिंदों को गिरोहों में तक्‍्सीम कर दिया। 
उनमें से एक गिरोह को उसने कमजोर कर रखा था। वह उनके लड़कों को जबह करता 

था और उनकी औरतों को जिंदा रखता था। बेशक वह फसाद करने वालों में से था। 
और हम चाहते थे कि उन लोगों पर एहसान करें जो जमीन में कमजारे कर दिए गए 

थे और उन्हें पेशवा (नायक) बनाएं और उन्हें वारिस बना दें और उन्हें जमीन में इक्तेदार 
(सत्ता) अता करें। और फिरऔन और हामान और उनकी फीौजों को उनसे वही दिखा 

दें जिससे वे डरते थे। (-6) 


फिरऔन को यहां फसाद फिलअर्ज (धरती पर उपद्रव) का मुजरिम बताया गया है। 
फिरऔन का फसाद यह था कि उसने मिम्न की दो वैमा मे इम्तियाज किया। किबती कैम 
जो उसकी अपनी कौम थी, उसे उसने हर किस्म के मवाकेअ (अवसर) दिए। और बनी 
इस्राईल को न सिर्फ मवाकेअ से महरूम किया बल्कि उनके नौमोलूद (नवजात) लड़कों को 
कत्ल करना शुरू कर दिया ताकि धीरे-धीरे उनकी नस्ल का खात्मा हो जाए। फिरऔन का 
यह अमल फितरत के निजाम में मुदाख़लत (हस्तक्षेप) थी । खुदा के कानून मुँ निजामे फितरत 
से मुताबिकत का नाम इस्लाह है और निजामे फितरत में मुदाख़लत का नाम फसाद । 


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सूरह28. अल-कसस I05I पारा 20 
इज्जत और केज्जती का फैसला खा की तरफ से हेता है। खरा ने उसके बरअक्स 

फैसला किया जो फिरऔन ने फैसला किया था। खुदा ने फैसला किया कि वह बनी इस्राईल 

को इज्जत और इवतेदार दे और फिरऔन को उसकी फैजों के साथ हलाक कर दे। हजरत 

मूसा के जरिए इतमामेहुज्जत (आह्वान की अति) के बाद फिरऔन ने अपने को मुस्तहिके 

अजाब साबित कर दिया । चुनांचे ख़ुदा ने उसे समुद्र में डुबा कर हमेशा के लिए उसका ख़ात्मा 

कर दिया। और बनी इस्राईल को मिस्र से ले जाकर शाम व फिलिस्तीन का हुक्मरां (शासक) 

बना दिया। 


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और हमने मूसा की मां को इल्हाम (दिव्य संकेत) किया कि उसे दूध पिलाओ। फिर 
जब तुम्हें उसके बारे में डर हो तो तुम उसे दरिया में डाल दो। और न अंदेशा करो और 
न ग़मगीन हो। हम उसे तुम्हारे पास लौटा कर लाएंगे। और उसे पैग़म्बरों में से 
बनाएंगे। फिर उसे फिरऔन के घर वालों ने उठा लिया ताकि वह उनके लिए दुश्मन 
हो और ग़म का बाइस बने। बेशक फिरऔन और हामान और उनके लश्कर ख़ताकार 
थे। और फिरऔन की बीवी ने कहा कि यह आंख की ठंडक है, मेरे लिए और तुम्हारे 


लिए। इसे कत्ल न करो। क्या अजब कि यह हमें नफा दे या हम इसे बेटा बना लें। 
और वे समझते न थे। (7-9) 


हजरत मूसा की पेदाइश के जमाने में बनी इस्राईल के लड़के हलाक किए जा रहे थे। 
इस बिना पर हजरत मूसा की वालिदा परेशान हुई। उस वक्त गालिबन ख़ाब के जरिए 
आपको वालिदा को यह तदबीर बताई गई कि वह आपको एक छोटी कश्ती में रखकर 
दरियाए नील में डाल दें। उन्होंने तीन माह बाद ऐसा ही किया। यह छोटी कश्ती बहते हुए 
फिरऔन के महल के सामने पहुंची । फिरऔन की बीवी (आसिया) एक नेकबर (सदाचारी) 
खातून थीं। उन्हें हजरत मूसा के मासूम और पुरकशिश हुलिये को देखकर रहम आ गया। 
चुनांचे उनके मश्विरे पर हजरत मूसा फिरऔन के महल में रख लिए गए। 

रिवायतों में आता है कि फिरऔन की बीवी ने कहा कि यह बच्चा आंख की ठंडक है। 
फिरऔन ने जवाब दिया कि तुम्हारे लिए है न कि मेरे लिए। यह बात ग़ालिबन फिरऔन ने 
मर्द और औरत के फर्क पर कही होगी मगर बाद को वह ऐन वाकया बन गई। 





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पारा 20 052 सूरह-28. अल-कसस 
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और मूसा की मां का दिल बेचैन हो गया। करीब था कि वह उसे जाहिर कर दे अगर 

हम उसके दिल को न संभालते कि वह यकीन करने वालों में से रहे। और उसने उसकी 
बहिन से कहा कि तू इसके पीछे-पीछे जा। तो वह उसे अजनबी बनकर देखती रही और 
उन लोगों को ख़बर नहीं हुई। और हमने पहले ही मूसा से दाइयों को रोक रखा था। 
तो लड़की ने कहा, क्या मैं तुम्हें ऐसे घर वालों का पता दूं जो इसे तुम्हारे लिए पालें 
और वे इसकी ख़ैरख्याही करें। पस हमने उसे उसकी मां की तरफ लोटा दिया ताकि 
उसकी आंखें ठंडी हों। और वह ग़मगीन न हो। और ताकि वह जान ले कि अल्लाह 
का वादा सच्चा है, मगर अक्सर लोग नहीं जानते। और जब मूसा अपनी जवानी को 


पहुंचा और पूरा हो गया तो हमने उसे हिक्मत (तत्वदर्शिता) और इलम अता किया और 
हम इसी तरह बदला देते हैं नेकी करने वालों को। (0-4) 





हजरत मूसा की हिफाजत को अल्लाह तआला ने तमामतर अपनी तरफ मंसूब किया है। 
हालांकि वाकये की तफ्सीलात बताती हैं कि पूरा वाकया असबाब के तहत पेश आया । इससे 
मालूम होता है कि मौजूदा इम्तेहान की दुनिया में अल्लाह तआला की मर्जी का जुहूर आम 
तौर पर असबाब के अंदाज में होता है न कि तिलिस्मात और ख़वारिक (अस्वाभाविकता) के 
अंग्रजमे 

हजरत मूसा बेबसी की हालत में दरिया की मौजों में डाले गए मगर वह पूरी तरह महफूज 
रहकर साहिल पर पहुंच गए । बादशाहे वक़्त ने उनके कत्ल का मंसूबा बनाया मगर अल्लाह 
ने उसी बादशाह के जरिए आपकी परवरिश का इंतिजाम किया। वह एक मामूली ख़ानदान 
में पैदा हुए मगर अल्लाह तआला ने उन्हें शाही महल से वाबस्ता करके आलातरीन सतह पर 
उनके लिए वक्त के उलूम (ज्ञा) व आदाब सीखने का इंतिजाम किया । यह एक मि साल है 
जो बताती है कि अल्लाह तआला की कुदरत लामहदूद (असीम) है। कोई नहीं जो उसके 
मंसूबे को जुहूर में आने से रोक सके। 





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सूरह-28. अल-कसस I053 पारा 20 


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और शहर में वह ऐसे वक्‍त में दाखिल हुआ जबकि शहर वाले गफलत में थे तो उसने 

वहां दो आदमियों को लड़ते हुए पाया। एक उसकी अपनी कौम का था और दूसरा 
दुश्मनों में से था। तो जो उसकी कौम में से था उसने उसके खिलाफ मदद तलब की 

जो उसके दुश्मनों में से था। पस मूसा ने उसे घूंसा मारा। फिर उसका काम तमाम कर 
दिया। मूसा ने कहा कि यह शैतान के काम से है। बेशक वह दुश्मन है, खुला गुमराह 
करने वाला। उसने कहा कि ऐ मेरे रब, मैंने अपनी जान पर जुल्म किया है। पस तू 
मुझे बख्श दे तो ख़ुदा ने उसे बख्श दिया। बेशक वह बर्शने वाला, रहम करने वाला 
है। उसने कहा कि ऐ मेरे रब, जैसा तूने मेरे ऊपर फज्ल किया तो मैं कभी मुजरिमों 

का मददगार नहीं बनूंगा। (5-7) 


पैग़म्बरी मिलने से पहले का वाकया है, हजरत मूसा मिस्र के दारुस्सल्तनत (राजधानी) 
में थे। एक रोज उन्होंने देखा कि एक किबती (मूल मिस्र) और एक इस्राईली लड़ रहे हैं। 
इम्राईली ने हजरत मूसा को अपना हमकैम समझ कर पुकारा कि जालिम किबती के मुकाबले 
में मेरी मदद कीजिए। हजरत मूसा ने दोनों को अलग करना चाहा तो किबती आपसे उलझ 
गया। आपने दिफाअ (आत्मरक्षा) के तौर पर उसे एक घूंसा मारा। वह इत्तफाकन ऐसी जगह 
लगा कि किबती मर गया। 

किबती कैम उस वक्‍त बनी इम्नाईल पर सरन्न ज्यादतियां कर रही थी। ऐसी हालत में 
हजरत मूसा अगर इस वाक्ये को कैमी नुक्तए नजर से देखते तो वह उसे मुजाहिदाना 
कारनामा करार देकर फक करते। मगर उन्हें किबती की मौत पर शदीद अफसोस हुआ। वह 
फौरन अल्लाह की तरफ मुतवज्जह हुए और अल्लाह से माफी मांगने लगे। 

“अब मैं किसी मुजरिम की हिमायत नहीं करूंगा’ इसका मतलब यह है कि अब मैं बिला 
तहवीक किसी की हिमायत नहींका । एक श्न का बजहिर जूम फिकेसेतअल्लुक़ 
रखना या किसी को जालिम बताकर उसके खिलाफ मदद मांगना यह साबित करने के लिए 
काफी नहीं कि फितवाकअ भी ठूसरा शर जलिम है। और फायाद करने वाला मज्तूम। 


पारा 20 I054 सूरह-28. अल-कसस 
इसलिए सही तरीका यह है कि ऐसे मौके पर असल मामले की तहकीक की जाए और सिर्फ 

उस वक्‍त किसी की हिमायत की जाए जबकि गैर जानिबदाराना तहकीक में उसका मजलूम 

होना साबित हो जाए 


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फिर सुबह को वह शहर में उठा डरता हुआ, ख़बर लेता हुआ। तो देखा कि वही शख्स 
जिसने कल मदद मांगी थी, वही आज फिर उसे मदद के लिए पुकार रहा है। मूसा ने 
उससे कहा, बेशक तुम सरीह गुमराह हो। फिर जब उसने चाहा कि उसे पकड़े जो उन 
दोनों का दुश्मन था तो उसने कहा कि ऐ मूसा क्या तुम मुझे कत्ल करना चाहते हो 
जिस तरह तुमने कल एक शख्स को कत्ल किया। तो तुम जमीन में सरकश बनकर 

रहना चाहता हो। तुम सुलह करने वालों में से बनना नहीं चाहते। और एक शख्स शहर 
के किनारे से दौड़ता हुआ आया। उसने कहा ऐ मूसा, दरबार वाले मश्विरा कर रहे हैं 
कि तुम्हें मार डालें। पस तुम निकल जाओ, में तुम्हारे खैरख्वाहों में से हूं। फिर वह वहां 
से निकला डरता हुआ, ख़बर लेता हुआ। उसने कहा कि ऐ मेरे रब, मुझे जालिम लोगों 

से नजात दे। (8-2) 





अगले दिन वही इस्राईली दुबारा एक किबती से लड़ रहा था। यह इस बात का वाजेह 
करीना (संकेत) था कि वह एक झगड़ालू किस्म का आदमी है और रोजाना किसी न किसी 
से लड़ता रहता है। चुनांचे अपनी कौम का फर्द होने के बावजूद हजरत मूसा ने उसे मुजरिम 
ठहराया। मज्कूरा इस्राईली का मुजरिम होना इस वाकथे से मजीद साबित हो गया कि उस 
इस्राईली ने जब देखा कि हजरत मूसा आज उसकी मदद नहीं कर रहे हैं और उसकी उम्मीद 
के ख़िलाफ ख़ुद उसी को बुरा कह रहे हैं तो वह कमीनेपन पर उतर आया। उसने गैर 


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सूरह-28. अल-कसस 055 पारा 20 
जिम्मेदाराना तौर पर कल के कल्ल का राज खोल दिया जो अभी तक किसी के इल्म में न आया 
था। 

इस्राईली की जबान से कातिल का नाम निकला तो बहुत से लोगों ने सुन लिया। चन्द 
दिन में उसकी ख़बर हर तरफ फैल गई। यहां तक कि हुक्मरानों में मूसा के कत्ल के मश्विरे 
होने लगे। एक नेकबख्त आदमी को इसका पता चल गया। वह खुफिया तौर पर हजरत मूसा 
से मिला और कहा कि इस वक्त यही बेहतर है कि आप इस जगह को छोड़ दें। चुनांचे आप 
मिस्र से निकल कर मदयन की तरफ रवाना हो गए। मदयन ख़लीज अकबा के मग्रिबी साहिल 
(पश्चिमी तट) पर था और फिरऔन की सल्तनत के हुदूद (सीमाओं) से बाहर था। 


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और जब उसने मदयन का रुख़ किया तो उसने कहा, उम्मीद है कि मेरा रब मुझे सीधा 
रास्ता दिखा दे। और जब वह मदयन के पानी पर पहुंचा तो वहां लोगों की एक जमाअत 
को पानी पिलाते हुए पाया। और उनसे अलग एक तरफ दो औरतों को देखा कि वे 
अपनी बकरियों को रोके हुए खड़ी हैं। मूसा ने उनसे पूछा कि तुम्हारा क्या माजरा है। 
उन्होंने कहा कि हम पानी नहीं पिलाते जब तक चरवाहे अपनी बकरियां न हटा लें। 
और हमारा बाप बहुत बूढ़ा है तो उसने उनके जानवरों को पानी पिलाया। फिर साये 
की तरफ हट गया। फिर कहा कि ऐ मेरे रब, तू जो चीज मेरी तरफ उतारे में उसका 
मोहताज हूं। (22-24) 





हजरत मूसा का यह सफर गोया नामालूम मंजिल की तरफ सफर था। ऐसे हालात में 
मोमिन के दिल की जो कैफियत होती है वह पूरी तरह आपके ऊपर तारी थी। आप दुआओं 
के साये में अपना कदम आगे बढ़ा रहे थे। तकरीबन दस दिन के सफर के बाद मदयन पहुंचे। 
ग़ालिब गुमान है कि आप भूखे भी होंगे। 

हजरत मूसा ने कमजोरों की हिमायत के जज्बे के तहत मदयन की दोनों लड़कियों की 
मदद की। यह वाकया उनके लिए लड़कियों के वालिद तक पहुंचने का जरिया बना। यह 
बुजुर्ग मदयान बिन इब्राहीम की औलाद से थे और हजरत मूसा, इसहाक बिन इब्राहीम की 
औलाद से। इस एतबार से दोनों में नस्ली कुरबत भी थी। 


उस वक्‍त हजरत मूसा की जबान से यह दुआ निकली : 'ऐ मेरे रब, तू जो चीज़ मेरी तरफ 


पारा 20 I056 सूरह-28. अल-कसस 
उतारे मैं उसका मोहताज हूं।' यह दुआ बताती है कि ऐसे वक्‍त में मोमिन का हाल क्या होता है। 
वह अपने मामले को तमामतर अल्लाह पर डाल देता है। उसे यकीन होता है कि बंदे को जो कुछ 
मिलता है खुदा से मिलता है, और खैर वही है जो उसे खुदा की तरफ से मिले। 


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फिर उन दोनों में से एक आई शर्म से चलती हुई। उसने कहा कि मेरा बाप आपको 
बुला रहा है कि आपने हमारी ख़ातिर जो पानी पिलाया उसका आपको बदला दे। फिर 
जब वह उसके पास आया और उससे सारा किस्सा बयान किया तो उसने कहा कि 
अंदेशा न करो। तुमने जालिमों से नजात पाई। उनमें से एक ने कहा कि ऐ बाप इसे 
मुलाजिम रख लीजिए। बेहतरीन आदमी जिसे आप मुलाजिम रखें वही है जो मजबूत 

और अमानतदार हो। उसने कहा कि मैं चाहता हूं कि अपनी इन दो लड़कियों में से 
एक का निकाह तुम्हारे साथ कर दूं। इस शर्त पर कि तुम आठ साल मेरी मुलाजिमत 
करो। फिर अगर तुम दस साल पूरे कर दो तो वह तुम्हारी तरफ से है। और में तुम 
पर मशक्कत डालना नहीं चाहता। इंशाअल्लाह तुम मुझे भला आदमी पाओगे। मूसा 

ने कहा कि यह बात मेरे और आपके दर्मियान तै है। इन दोनों मुदूदतों में से जो भी 
मैं पूरी करूं तो मुझ पर कोई जब्र न होगा। और अल्लाह हमारे कौल व करार पर गवाह 

है। (25-28) 


लड़कियां उस दिन मअमूल से कुछ पहले पहुंच गई। वालिद ने पूछा तो उन्होंने बताया 
कि आज एक मुसाफिर ने हमारी बकरियों को पहले ही पानी पिला दिया। लड़कियों के वालिद 
ने कहा कि फिर तुम उस मुसाफिर को घर क्यों न लाई कि वह हमारे साथ खाना खाए। 
चुनांचे एक लड़की दुबारा कुंवें पर गई और हजरत मूसा को बुलाकर ले आई। 


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सूरह28. अल-कसस I057 पारा 20 
चन्द दिन के तजर्वे ने बताया कि हजरत मूसा महनती भी हैं और अमानतदार भी। 
चुनांचे मज्कूरा बुर्जा ने अपनी बेटी की राय से इत्तफक करते हुए हजरत मूसा को अपने 
यहां मुस्तकिल ख़िदमत के लिए रख लिया। हकीकत यह है कि यह दोनों सिफात, अमानत 
औह कुब्रत (Honesty & hard ०६।१९) तमाम जरूरी सिफात की जामेअ हैं। आदमी 
के इंतख़ाब के लिए मेयार मुक्रर होना हो तो इन दो लफ्जों से बेहतर कोई मेयार नहीं 
हो सकता। 
बाद को मज्कूरा बुजुर्ग ने अपनी एक लड़की की शादी भी हजरत मूसा से कर दी। ताहम 
चूंकि उस वक्त उन्हें अपने घर और जायदाद की देखभाल के लिए एक मर्द की शदीद जरूरत 
थी, उन्होंने हजरत मूसा को इस पर आमादा किया कि वह आठ साल या दस साल तक उनके 
यहां कियाम करें। इसके बाद वे जहां जाना चाहें जा सकते हैं। 
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फिर मूसा ने मुदूदत पूरी कर दी और वह अपने घर वालों के साथ रवाना हुआ तो उसने 
तूर की तरफ से एक आग देखी। उसने अपने घर वालों से कहा कि तुम ठहरो, मैंने 
एक आग देखी है। शायद में वहां से कोई ख़बर ले आऊ या आग का अंगारा ताकि 
तुम तापो। फिर जब वह वहां पहुंचा तो वादी के दाहिने किनारे से बरकत वाले ख़ित्ते 
में दरख़्त से पुकारा गया कि ऐ मूसा, में अल्लाह हूं, सारे जहान का मालिक। और यह 
कि तुम अपना असा (डंडा) डाल दो। तो जब उसने उसे हरकत करते हुए देखा कि गोया 
सांप हो, तो वह पीठ फेरकर भागा और उसने मुड़कर न देखा। ऐ मूसा आगे आओ 
और न डरो। तुम बिल्कुल महफूज हो। अपना हाथ गरेबान में डालो, वह चमकता हुआ 
निकलेगा ब्रश किसी मरज के, और ख़ोफ के वास्ते अपना बाज़ू अपनी तरफ मिला लो। 


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पारा 20 I058 सूरह-28. अल-कसस 
पस यह तुम्हारे रब की तरफ से दो सनदें हैं फिऔन और उसके दरबारिया के पास 
जाने के लिए। बेशक वे नाफरमान लोग हैं। (29-32) 





हजरत मूसा गालिबन दस साल मदयन में रहे। इस मुद्दत में साबिका फिरऔन मर गया 
और ख़ानदाने फिरऔन का दूसरा शख्स मिस्र के तख्त पर बैठा। अब आप अपनी बीवी (और 
तौरात के मुताबिक दो बच्चों) के साथ दुबारा मिस्र की तरफ रवाना हुए । रास्ते में आप पर 
तूर का तजर्बा गुजरा। 

जिस ख़ुदा ने सीना के पहाड़ पर एक इंसान से बराहेरास्त कलाम किया । वह ख़ुदा तमाम 
इंसानों को भी बराहेरास्त आवाज देकर अपनी मर्जी से बाखबर कर सकता है। मगर यह ख़ुदा 
का तरीका नहीं। बराहेरास्त ख़िताब का मतलब पर्दे को हटा देना है, जबकि इम्तेहान की 
मस्लेहत चाहती है कि पर्दा लाजिमन बाकी रहे। चुनांचे खुदा अपना बराहेरास्त कलाम सिर्फ 
किसी मुंतख़ब इंसान के ऊपर उतारता है और बकिया लोगों को उसके जरिए से बिलवास्ता 
(परोक्ष) तौर पर अपना पैग़ाम पहुंचाता है। 


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मूसा ने कहा ऐ मेरे रब मैंने उनमें से एक शख्स को कत्ल किया है तो मैं डरता हूं कि 

वे मुझे मार डालेंगे। और मेरा भाई हारून वह मुझसे ज्यादा फसीह (वाक-कुशल) है 
जबान में, पस तू उसे मेरे साथ मददगार की हैसियत से भेज कि वह मेरी ताईद करे। 

मैं डरता हूं कि वे लोग मुझे झुठला देंगे। फरमाया कि हम तुम्हारे भाई के जरिए तुम्हारे 

बाजू को मजबूत कर देंगे और हम तुम दोनों को ग़लबा देंगे तो वे तुम लोगों तक न 

पहुंच सकेंगे। हमारी निशानियों के साथ, तुम दोनों और तुम्हारी पैरवी करने वाले ही 
ग़ालिब रहेंगे। (33-35) 





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ख़ुदा जब किसी को अपनी दावत के काम पर मामूर (नियुक्त) करता है तो लाजिमी 
तौर पर उसे वह तमाम असबाब भी देता है जो कारे दावत की मुवस्सिर अदायगी के लिए 
जरूरी हैं। चुनांचे हजरत मूसा को उनके हालात के लिहाज से विभिन्न चीजें दी गई। आपको 
मामूरियत की सनद के तौर पर ख़ारिके आदत (दिव्य) मोजिजे अता किए गए। आपको 
मददगार दिया गया जो हक के एलान के काम में आपका मुआविन (सहयोगी) हो। आपको 


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सूरह-28. अल-कसस I059 पारा 20 
शख़मी हैबत दी गई ताकि फिरऔन की कौम आप पर हाथ डालने की जुरअत न करे। खुदा 

की तरफ से यह मुकदूदर कर दिया गया कि हजरत मूसा और आपके साथियों (बनी इस्राईल) 

ही को आखिरी ग़लबा हासिल हो। 


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फिर जब मूसा उन लोगों के पास हमारी वाजेह निशानियों के साथ पहुंचा, उन्होंने कहा 
कि यह महज गढ़ा हुआ जादू है। और यह बात हमने अपने अगले बाप दादा में नहीं 
सुनी। और मूसा ने कहा मेरा रब खूब जानता है उसे जो उसकी तरफ से हिदायत लेकर 
आया है और जिसे आखिरत का घर मिलेगा। बेशक जालिम फलाह न पाएंगे। और 
फिरऔन ने कहा कि ऐ दरबार वालो, में तुम्हारे लिए अपने सिवा किसी माबूद (पूज्य) 
को नहीं जानता। तो ऐ हामान मेरे लिए मिट्टी को आग दे, फिर मेरे लिए एक ऊंची 
इमारत बना ताकि मैं मूसा के रब को झांक कर देखूं, और मैं तो इसे एक झूठा आदमी 
समझता हूं। (36-38) 





एक शख्स अपने को बड़ा समझता हो, उसके सामने एक बजाहिर मामूली आदमी आए 
और उस पर बराहेरास्त तंकीद करे तो वह फौरन बिफर उठता है। वह उसका इस्तहजा 
(परिहास) करता है और उसका मजाक उड़ाने के लिए तरह-तरह की बातें करता है। यही उस 
वक्त फिरऔन ने हजरत मूसा के मुक्बले मेकिया। 

मैं अपने सिवा कोई माबूद नहीं जानता” कोई संजीदा जुमला नहीं है। इन अल्फाज से 
फिरऔन का मवसूद बयाने हकीकत नहीं बल्कि तहवीरे मूसा है। इसी तरह फिरऔन ने जब 
अपने वजीर हामान से कहा कि पुख्ता ईट तैयार करके एक ऊंची इमारत बनाओ ताकि मैं 
आसमान में झांक कर मूसा के ख़ुदा को देखूं, तो यह कोई संजीदा हुक्म नहीं था। इसका 
मतलब यह नहीं था कि वाकेयातन वह अपने वजीर के नाम एक तामीरी फरमान जारी कर 
रहा है। यह सिर्फ हजरत मूसा का इस्तहज (मज़ाक उड़ना) था न कि फिलवाकअ तामीरे 
मकान का कोई हुक्म । 


पारा 20 I060 सूरह-28. अल-कसस 
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और उसने और उसकी फौजा ने जमीन में नाहक घमंड किया और उन्होंने समझा कि 

उन्हें हमारी तरफ लोट कर आना नहीं है। तो हमने उसे और उसकी फौजा को पकझ। 

फिर उन्हें समुद्र में फेंक दिया। तो देखो कि जालिमाँ का अंजाम क्या हुआ। और हमने 
उन्हें सरदार बनाया कि आग की तरफ बुलाते हैं। और कियामत के दिन उन्हें मदद 

नहीं मिलेगी। और हमने इस दुनिया में उनके पीछे लानत लगा दी। और कियामत के 
दिन वे बदहाल लोगों में से होंगे, और हमने अगली उम्मतों को हलाक करने के बाद 
मूसा को किताब दी। लोगों के लिए बसीरत (सूझबूझ) का सामान, और हिदायत और 
रहमत ताकि वे नसीहत पकड़ें। (39-43) 


हजरत मूसा की तहरीक फर्द इंसानी में रब्बानी इंकिलाब बरपा करने की तहरीक थी। 
आपका मक़्सद यह था कि आदमी अल्लाह से डरे और अल्लाह का बंदा बनकर दुनिया में 
जिंदगी गुजारे। आपका यही पेगाम दूसरे अफराद के लिए भी था और यही उस फर्द के लिए 
भी जो मुल्क के तख्त पर बैठा हुआ था। 
यह एक आम बात है कि इख़्तियार व इक्तेदार पाकर आदमी घमंड की नफ्सियात में 
मुन्तिला हो जाता है। यही फिरऔन का हाल भी था। हजरत मूसा ने फिरऔन को डराया कि 
अगर तुम मुतकब्बिर (घमंडी) बनकर दुनिया में रहोगे तो ख़ुदा की पकड़ में आ जाओगे । मगर 
फिरऔन ने नसीहत कुबूल नहीं की। नतीजा यह हुआ कि उसे हलाक कर दिया गया। 
फिरऔन कदीम मुश्रिकाना (बहुंदेववादी) तहजीब का इमाम था। मुश्रिकाना तहजीब में 
फिरऔन को ऊंचा मकाम हासिल था। मगर मुश्रिकाना तहजीब न सिर्फ मिम्न से बल्कि सारी 
दुनिया से ख़त्म हो गई। अब दुनिया की आबादी में ज्यादातर या तो मुसलमान हैं या यहूदी 
या इसाई। और यह सबके सब मुत्तफिका तौर पर फिरऔन को लानतजदा समझते हैं। अब 
दुनिया में कोई भी फिरऔन की अज्मत को मानने वाला नहीं। 





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सूरह-28. अल-कसस I06] पारा 20 


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और तुम पहाड़ के मग्रिबी (पश्चिमी) जानिब मौजूद न थे जबकि हमने मूसा को 
अहकाम दिए और न तुम गवाहों में शामिल थे। लेकिन हमने बहुत सी नस्लें पैदा 
कीं फिर उन पर बहुत जमाना गुजर गया। और तुम मदयन वालों में भी न रहते थे 
कि उन्हें हमारी आयतें सुनाते। मगर हम हैं पेग़म्बर भेजने वाले। और तुम तूर के 
किनारे न थे जब हमने मूसा को पुकारा, लेकिन यह तुम्हारे रब का इनाम है, ताकि 
तुम एक ऐसी कौम को डरा दो जिनके पास तुमसे पहले कोई डराने वाला नहीं आया 
ताकि वे नसीहत पकड़ें। (44-46) 


अल्लाह के रसूल मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम कुरआन में हजरत मूसा के 
वाकेयात इस क्द्र तप्सील के साथ बयान कर रहे थे जैसे कि आप वहीं मौके पर खड़े हों और 
सब कुछ देख और सुन रहे हों। हालांकि वाकया यह है कि आप हजरत मूसा के दो हजार 
साल बाद मक्का में पैदा हुए । यह इस बात की वाजेह दलील थी कि कुरआन का कलाम खुदा 
का कलाम है क्योंकि कोई इंसान इस तरह के बयान पर कादिर नहीं हो सकता। 

अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जमाने में आजकल की तरह किताबें 
नहीं होती थीं। उस ववत हजरत मूसा के वाकेयात का जिक्र यहूद की गैर अरबी किताबों में 
था जिनके सिर्फ चन्द नुस्खे यहूदी इबादतख़ानों में महफूज थे और यकीनी तौर पर अल्लाह 
के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की दस्तरस से बाहर थे। मजीद यह कि कुरआन के 
बयानात और यहूदी किताबों के बयानात में बहुत से निहायत बामअना फर्क हैं और करीना 
बताता है कि कुरआन का बयान ही ज्यादा सही है। मिसाल के तौर पर हजरत मूसा के हाथ 
से किबती की मौत कुरआन के बयान के मुताबिक बगैर इरादे के हुई। जबकि बाइबल हजरत 
मूसा के बारे में कहती है : 

“फिर उसने इधर-उधर निगाह की और जब देखा कि वहां कोई दूसरा आदमी नहीं है तो 
उस मिस्री को जान से मार कर उसे रेत में छुपा दिया” (खुरूज 2 : 2) 

खुली हुई बात है कि हजरत मूसा जैसी मुक़दृदस शख्सियत से कुरआन का बयान 
मुताबिकत रखता है न कि तौरात का बयान। फिर अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व 








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पारा 20 062 सूरह-28. अल-कसस 
सल्लम किस तरह इस पर कादिर हुए कि किसी जाहिरी वसीले के बगैर हजरत मूसा के वाकेयात 

इस कद्र सेहत के साथ कुरआन में पेश कर सकें। इसका कोई भी जवाब इसके सिवा नहीं 
हो सकता कि ख़ुदाए आलिमुलगैब ने यह बातें आपके ऊपर बजरिये “वही” (प्रकाशना) नाजिल 


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और अगर ऐसा न होता कि उन पर उनके आमाल के सबब से कोई आफत आई तो 

वे कहेंगे कि ऐ हमारे रब, तूने हमारी तरफ कोई रसूल क्‍यों न भेजा कि हम तेरी आयतों 
की पेरवी करते और हम ईमान वालों में से होते। फिर जब उनके पास हमारी तरफ 

से हक (सत्य) आया तो उन्होंने कहा कि क्यों न इसे वैसा मिला जैसा मूसा को मिला 
था। क्या लोगों ने उसका इंकार नहीं किया जो इससे पहले मूसा को दिया गया था, 
उन्होंने कहा कि दोनों जादू हैं एक दूसरे के मददगार, और उन्होंने कहा कि हम दोनों 
का इंकार करते हैं। (47-48) 





हजरत मूसा अलैहिस्सलाम ने कदीम मिस्रियों के सामने अपना पैगामे रिसालत पेश किया 
तो इसी के साथ आपने मोजिजे भी दिखाए। मगर उन लोगों ने नहीं माना और कह दिया कि 
यह तो जादू है। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कदीम अरब में दलाइल की 
बुनियाद पर हक की दावत पेश की तो उन्होंने कहा कि अगर यह पैगम्बर हैं तो मूसा जैसे 
मोजिजे क्यों नहीं दिखाते। 

ये सब गैर संजीदा जेहन से निकली हुई बातें हैं। मौजूदा दुनिया में हक को मानने के 
लिए सबसे जरूरी शर्त यह है कि आदमी संजीदा हो। जो शख़्स हक और नाहक के मामले 
में संजीदा न हो उसे कोई भी चीज हक के एतराफ पर मजबूर नहीं कर सकती । वह हर बार 
नए उज् (बहाना) तलाश कर लेगा। वह हर बात के जवाब में नए अल्फाज पा लेगा। 





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सूरह-28. अल-कसस I063 पारा 20 


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कहो कि तुम अल्लाह के पास से कोई किताब ले आओ जो हिदायत करने में इन दोनों 
से बेहतर हो, मैं उसकी पैरवी करूंगा अगर तुम सच्चे हो। पस अगर ये लोग तुम्हारा 
कहा न कर सकें तो जान लो कि वे सिर्फ अपनी ख़्वाहिश की पैरवी कर रहे हैं। और 
उससे ज्यादा गुमराह कौन होगा जो अल्लाह की हिदायत के बर अपनी ख़्याहिश की 
पैरवी करे। बेशक अल्लाह जालिम लोगों को हिदायत नहीं देता। और हमने उन लोगों 
के लिए पे दर पे अपना कलाम भेजा ताकि वे नसीहत पकड़ें। (49-5]) 





हक के पैग़ाम को मानने या न मानने का जो अस्त मेयार है वह यह है कि पैगाम को 
खुद उसके जाती जोहर की बुनियाद पर जांचा जाए। अगर वह अपनी जात पर बरतर 
सदाकत (सच्चाई) होना साबित कर रहा हो तो यही काफी है कि उसे मान लिया जाए। इसके 
बाद उसे मानने के लिए किसी और चीज की जरूरत नहीं। 

सदाकत (सच्चाई) का जवाब सदाकत है। अगर आदमी सदाकत का इंकार करे और उसके 
जवाब में दूसरी आलातर (उच्चतर) सदाकत न पेश कर सके। तो इसका मतलब यह है कि वह 
रव्वाहिशपरस्ती की वजह से उसका इंकार कर रहा है। जिन लोगों का यह हाल हो कि वे सदाकत 
को माकूलियत के जरिए रदूद न कर सकें और फिर भी ख़ाहिश और तअस्सुब के जेरेअसर उसे 
न मानें वे बदतरीन गुमराह लोग हैं। ऐसे लोग ख़ुदा के यहां जालिमों में शुमार होंगे । 


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जिन लोगों को हमने इससे पहले किताब दी है वे इस (कुरआन) पर ईमान लाते हैं। 
और जब वह उन्हें सुनाया जाता है तो वे कहते हैं कि हम इस पर ईमान लाए। बेशक 
यह हक (सत्य) है हमारे रब की तरफ से, हम तो पहले ही से इसे मानने वाले हैं। ये 


लोग हैं कि उन्हें उनका अज्र (प्रतिफल) दोहरा दिया जाएगा इस पर कि इन्होंने सब्र 
किया। और वे बुराई को भलाई से दूर करते हैं और हमने जो कुछ उन्हें दिया है उसमें 





पारा 20 I064 सूरह-28. अल-कसस 

से ख़र्च करते हैं और जब वे लग्ब (घटिया निरर्थक) बात सुनते हैं तो उससे एराज (उपेक्षा) 

करते हैं और कहते हैं कि हमारे लिए हमारे आमाल हैं और तुम्हारे लिए तुम्हारे आमाल। 
तुम्हें सलाम, हम बेसमझ लोगों से उलझना नहीं चाहते। तुम जिसे चाहो हिदायत नहीं 
दे सकते। बल्कि अल्लाह जिसे चाहता है हिदायत देता है। और वही ख़ूब जानता है 
जो हिदायत कुबूल करने वाले हैं। (52-56) 


मानने की दो सूरते हैं। एक यह कि हक है इसलिए मानना। दूसरे यह कि अपने गिरोह 
का है इसलिए मानना । इन दोनों में सिर्फ पहली किस्म के इंसान हैं जिन्हें हिदायत की तौफीक 
मिलती है। और इसी किस्म के लोग थे जो दौरे अव्वल में कुरआन और पैगम्बर पर ईमान 
लाए। 

ईसाइयाँ और यहूदियों में एक तादाद थी जो कुरआन को सुनते ही उसकी मोमिन बन 
गई। ये वे लोग थे जो साबिका पेगम्बरों की हकीकी तालीमात पर कायम थे। इसलिए उन्हें 
पैगम्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) को पहचानने में देर नहीं लगी। उन्होंने नए पैग़म्बर को भी 
उसी तरह पहचान लिया जिस तरह उन्होंने पिछले पैग़म्बरों को पहचाना था। मगर अपने 
आपको इस काबिल रखने के लिए उन्हें 'सब्र' के मरहलों से गुजरना पड़ा। 

उन्होंने अपने जेहन को उन असरात से पाक रखा जिसके बाद आदमी हक की मअरफत 
(अन्तरज्ञान) के लिए नाअहल हो जाता है। ये वे तारीख़ी और समाजी अवामिल (कारक) हैं 
जो आदमी के जेहन में खुदाई दीन को गिरोही दीन बना देते हैं। आदमी का यह हाल हो जाता 
है कि वह सिर्फ उस दीन को पहचान सके जो उसे अपने गिरोह से मिला हो। वह उस दीन 
को पहचानने में नाकाम रहे जो उसके अपने गिरोह के बाहर से उसके पास आए। इन 
असरात से महफून रहने के लिए आदमी को जबरदस्त नपिसयाती (मानसिक, मनोवैज्ञानिक) 
कुु्बानी देनी पड़ती है। इसलिए इसे सब्र से ताबीर फरमाया। ऐसे लोगों को दोहरा अज्र दिया 
जाएगा। एक उनकी इस कुर्बानी का कि उन्होंने अपने साबिका (पहले के) ईमान को गिरोही 
ईमान बनने नहीं दिया। और दूसरे उनकी जौहरशनासी का कि उनके सामने नया पैगम्बर 
आया तो उन्होंने उसे पहचान लिया और उसके साथ हो गए। 

जिन लोगों के अंदर हक शनासी का मादूदा हो उन्हीं के अंदर आला अख़्लाकी औसाफ 
(गुण) परवरिश पाते हैं। लोग उनके साथ बुराई करें तब भी वे लोगों के साथ भलाई करते 
हैं। वे दूसरों की मदद करते हैं ताकि खुदा उनकी मदद करे। उनका तरीका एराज (बचने) का 
तरीका होता है न कि लोगों से उलझने का तरीका। 


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सूरह-28. अल-कसस I065 पारा 20 


और वे कहते हैं कि अगर हम तुम्हारे साथ होकर इस हिदायत पर चलने लगें तो हम 
अपनी जमीन से उचक लिए जाएंगे। क्या हमने उन्हें अम्न व अमान वाले हरम में जगह 
नहीं दी। जहां हर किस्म के फल खिंचे चले आते हैं हमारी तरफ से रिफ के तौर पर, 

लेकिन उनमें से अक्सर लोग नहीं जानते। (57) 





जिस निजाम से आदमी के फायदे वाबस्ता हो जाएं वह समझने लगता है कि मुझे जो 
कुछ मिल रहा है वह इसी निजाम की बदौलत मिल रहा है। आदमी सिर्फ हाल (वर्तमान) के 
फायदों को जानता है, वह मुस्तकबिल (भविष्य) के फायदों को नहीं जानता । 

यही मामला कदीम मक्का के मुहिरिकों का था। उन्होंने काबा में तमाम अरब कबीलों के 
बुत रख दिए थे। इस तरह उन्हें पूरे मुल्क की मजहबी सरदारी हासिल हो गई थी। इसी तरह 
उन बुतों के नाम पर जो नजराने आते थे वे भी उनकी मआश (जीविका) का ख़ास जरिया थे। 

मगर यह सिर्फ उनकी तंगनजरी थी। खुदा का रसूल उन्हें एक ऐसे दीन की तरफ बुला 
रहा था जो उन्हें आलम की इमामत (नेतृत्व) देने वाला था, और वे एक ऐसे दीन की ख़ातिर 
उसे छोड़ रहे थे जिसके पास मुल्क के कबीलों की मामूली सरदारी के सिवा और कुछ न था। 


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और हमने कितनी ही बस्तियां हलाक कर दीं जो अपने सामाने मईशत (जीविका के 
साधनों) प्र नज (गीरवांवित) थीं। पस ये हैं उनकी बस्तियां जो उनके बाद आबाद 
नहीं हुई मगर बहुत कम, और हम ही उनके वारिस हुए और तेरा रब बस्तियों को हलाक 
करने वाला न था जब तक उनकी बड़ी बस्ती में किसी पेगाम्बर को न भेज ले जो उन्हें 
हमारी आयतें पढ़कर सुनाए और हम हरगिज बस्तियां को हलाक करने वाले नहीं मगर 
जबकि वहां के लोग जालिम हों। (58-59) 








दुनिया में किसी को मादूदी इस्तहकाम (आर्थिक सम्पन्नता) हासिल हो तो वह बड़ाई के 
एहसास में मुब्तिला हो जाता है। हालांकि तारीख़ मुसलसल यह सबक दे रही है कि किसी भी 
शख या कैम का मादुदी इस्तहकाम मुस्तकिल नहीं। जब भी किसी कैम ने हक (सत्य) को 
नजरअंदाज किया, सारी अज्मत के बावजूद वह हलाक कर दी गई। 

अरब के भूम्षत्र में इस्लाम से पहले मुख्ञलिफ कमें उभरीं। मसलन आद, समूद, सबा, 
मदयन, कौमे लूत वगैरह | हर एक किब्र (अहं, बड़ाई) में मुन्तिला हो गई। मगर हर एक का 





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पारा 20 066 सूरह-28. अल-कसस 
किब्र जमाने ने बातिल कर दिया। और बिलआख़िर उनकी हैसियत गुजरी हुई कहानी के सिवा 
और कुछ न रही। इन कौमों के खंडहर चारों तरफ फैले इंसानी अज्मतों की नफी कर रहे थे। 
इसके बावजूद पैगम्बरे इस्लाम के जमाने में जिन लोगों को बड़ाई हासिल थी उन्होंने पैगम्बर 
को इस तरह झुठला दिया जैसे कि माजी के वाकेयात में उनके हाल के लिए कोई नसीहत 
नहीं। 
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और जो चीज भी तुम्हें दी गई है तो वह बस दुनिया की जिंदगी का सामान और उसकी 
रौनक है। और जो कुछ अल्लाह के पास है वह बेहतर है और बाकी रहने वाला है, फिर 
क्या तुम समझते नहीं। भला वह शख्स जिससे हमने अच्छा वादा किया है फिर वह उसे 


पाने वाला है, क्या उस शख्स जैसा हो सकता है जिसे हमने सिर्फ दुनियावी जिंदगी का 
फायदा दिया है, फिर कियामत के दिन वह हाजिर किए जाने वालों में से है। (60-6) 











दुनिया में आदमी के पास कितना ही ज्यादा साजोसामान हो, बहरहाल वह मौत के वक्‍त 

आदमी का साथ छोड़ देता है। मौत के बाद जो चीज आदमी के साथ जाती है वे उसके नेक 

आमाल हैं न कि दुनियावी इज्जत और माद्दी साजोसामान। 
ऐसी हालत में अक्लमंदी यह है कि आदमी चन्द दिन की कामयाबी के मुकाबले में 

अबदी कामयाबी को तरजीह दे। वह दुनिया की तामीर के बजाए आखिरत की तामीर की 

फिक्र कर। 

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और जिस दिन ख़ुदा उन्हें पुकारेगा फिर कहेगा कि कहां हैं मेरे वे शरीक जिनका तुम 

दावा करते थे। जिन पर बात साबित हो चुकी होगी वे कहेंगे कि ऐ हमारे रब ये लोग 


हैं जिन्होंने हमें बहकाया। हमने उन्हें उसी तरह बहकाया जिस तरह हम ख़ुद बहके थे। 
हम इनसे बरा-त (विरक्ति) करते हैं। ये लोग हमारी इबादत नहीं करते थे। (62-63) 








यहां 'शरीक' से मुराद गुमराह लीडर हैं। यानी वे बड़े लोग जिनकी बात लोगों ने इस तरह 


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मानी जिस तरह ख़ुदा की बात माननी चाहिए । कियामत में जब इन बड़ों का साथ देने वाले 
लोग अपना बुरा अंजाम देखेंगे तो उनका अजीब हाल होगा। वे पाएंगे कि जिन बड़ों से वाबस्ता 
होने पर वे फट करते थे, उन बड़ ने उन्हें सिर्फ जहन्नम तक पहुंचाया है। उस वक्त वे बेजार 

होकर उनसे कहेंगे कि हमारी बर्बादी के जिम्मेदार तुम हो। उनके बड़े जवाब देंगे कि तुम्हारी 
अपनी जात के सिवा कोई तुम्हारी बर्बादी का जिम्मेदार नहीं। अगरचे बजाहिर तुम हमारे कहने 

पर चले मगर हमारा साथ तुमने इसलिए दिया कि हमारी बात तुम्हारी ख़राहिशात के मुताबिक 

थी । तुम दरहकीकत अपनी ख़्वाहिशात की पैरवी करने वाले थे न कि हमारे पेरोकार। हम भी 

अपनी ख़्वाहिशात पर चले और तुम भी अपनी ख़्वाहिशात पर चले। अब दोनों को एक ही 
अंजाम भुगतना है। एक दूसरे को बुरा कहने से कोई फायदा नहीं। 


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और कहा जाएगा कि अपने शरीकों को बुलाओ तो वे उन्हें पुकारेंगे तो वे उन्हें जवाब 
न देंगे। और वे अजाब को देखेंगे। काश वे हिदायत इख़्तियार करने वाले होते। और 
जिस दिन ख़ुदा उन्हें पुकारेगा और फरमाएगा कि तुमने पैग़ाम पहुंचाने वालों को क्या 
जवाब दिया था। फिर उस दिन उनकी तमाम बातें गुम हो जाएंगी। तो वे आपस में 
भी न पूछ सकेंगे। अलबत्ता जिसने तोबा की और ईमान लाया और नेक अमल किया 
तो उम्मीद है कि वह फलाह (कल्याण, सफलता) पाने वालों में से होगा। (64-67) 





दुनिया में आदमी जब हक का इंकार करता है तो वह किसी भरोसे पर हक का इंकार 
करता है। आख़िरत में उससे कहा जाएगा कि जिनके भरोसे पर तुमने हक को नहीं माना था 
आज उन्हें बुलाओ ताकि वे तुम्हें हक के इंकार के बुरे अंजाम से बचाएं। मगर यह ख़ुदा के 
जुहूर का दिन होगा। और कौन है जो ख़ुदा के मुकाबले में किसी की मदद कर सके। 

दुनिया में आदमी किसी हाल में चुप नहीं होता। हर दलील को रद्द करने के लिए उसे 
यहां अल्फज मिल जाते है। मगर यह सारे अल्फज कियामत मंझूठे अत्फज साबित ह्ली। 
वहां आदमी अफसोस करेगा कि कितनी छोटी चीज की ख़ातिर उसने कितनी बड़ी चीज को 
खो दिया। 


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खास I068 728, अल-कसस 
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और तेरा रब पेदा करता है जो चाहे और वह पसंद करता है जिसे चाहे। उनके हाथ 
में नहीं है पसंद करना। अल्लाह पाक और बरतर है उससे जिसे वे शरीक ठहराते हैं 
और तेरा रब जानता है जो कुछ उनके सीने छुपाते हैं और जो कुछ वे जाहिर करते हैं। 
और वही अल्लाह है, उसके सिवा कोई माबूद (पूज्य) नहीं। उसी के लिए हम्द (प्रशंसा) 
है दुनिया में और आखिरत में। और उसी के लिए फैसला है और उसी की तरफ तुम 
लौटाए जाओगे। (68-70) 





अल्लाह तआला इंसानों को पैदा करता है। फिर इंसानों में से किसी शख्स को वह किसी 
खास काम के लिए मुंतख़ब कर लेता है। यह इंतिखाब (चयन) उसके जती तक्क़ुप्त की 
बिना पर नहीं होता। बल्कि खुदा के अपने फैसले के तहत होता है। इसलिए ऐसी शख्सियतों 
को मुकदूदस मान कर उन्हें खुदा का दर्जा देना सरासर बेबुनियाद है। ख़ुदा की दुनिया में 
इसकी कोई गुंजाइश नहीं। 

आदमी हक का इंकार करने के लिए जबान से कुछ अल्फाज बोल देता है। मगर उसके 
दिल में कुछ और बात होती है। वह जाती मस्लेहतों की बिना पर हक को नहीं मानता और 
अल्फज के जरिए यह जहिर करता है कि वह दलील और मावूलियत की बिना पर उसका 
इंकार कर रहा है। आख़िरत में यह पर्दा बाकी नहीं रहेगा। उस वक्‍त खुले तौर पर मालूम हो 
जाएगा कि उसके दिल में कुछ और था मगर अपनी बड़ाई को बाकी रखने के लिए वह कुछ 
दूसरे अत्फज बेलता रह्म। 


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कहो कि बताओ, अगर अल्लाह कियामत के दिन तक तुम पर हमेशा के लिए रात कर 
दे तो अल्लाह के सिवा कौन माबूद (पूज्य) है जो तुम्हारे लिए रोशनी ले आए। तो क्या 
तुम लोग सुनते नहीं। कहो कि बताओ अगर अल्लाह कियामत तक तुम पर हमेशा के 





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सूरह-28. अल-कसस I069 पारा 20 
लिए दिन कर दे तो अल्लाह के सिवा कौन माबूद है जो तुम्हारे लिए रात को ले आए 
जिसमें तुम सुकून हासिल करते हो। क्या तुम लोग देखते नहीं। और उसने अपनी 
रहमत से तुम्हारे लिए रात और दिन को बनाया ताकि तुम उसमें सुकून हासिल करो 
औए ताकि तुम उसका फल (जीविका) तलाश करो और ताकि तुम शुक्र करो। (7-73) 





जिस जमीन पर इंसान आबाद है उसके बेशुमार हैरतनाक पहलुओं में से एक हैरतनाक 
पहलू यह है कि वह मुसलसल सूरज के गिर्द घूम रही है। सूरज के गिर्द उसकी महवरी (धुरीय) 
गर्दिश इस तरह होती है कि हर चौबीस घंटे में इसका एक चक्कर पूरा हो जाता है। यही वजह 
है कि इसके ऊपर बार-बार रात और दिन आते रहते हैं। अगर जमीन की यह महवरी गर्दिश 
न हो तो जमीन के एक हिस्से में मुस्तकिल रात होगी और दूसरे हिस्से में मुस्तकिल दिन। 
इसका नतीजा यह होगा कि मौजूदा पुरराहत जमीन इंसान के लिए एक नाकाबिले बयान 
अजाबख़ाना बन जाएगी। 

ख़ला (अंतरिक्ष) में जमीन का इस तरह हददर्जा सेहत के साथ मुसलसल गर्दिश करना 
इतना बझ़ वाकया है कि इस वाकये को जुहू में लाने के लिए तमाम जिन्न व इन्स की ताकतें 
भी नाकाफी हैं। कादिरे मुतलक खुदा के सिवा कोई नहीं जो इतने बड़े वाकये को जुहूर में 
ला सके। ऐसी हालत में यह कितनी बड़ी गुमराही है कि इंसान अपने ख़ौफ व मुहब्बत के 
जज्बात को एक ख़ुदा के सिवा किसी और के साथ वाबस्ता करे। 


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और जिस दिन अल्लाह उन्हें पुकारेगा फिर कहेगा कि कहां हैं मेरे शरीक जिनका तुम 
गुमान रखते थे। और हम हर उम्मत में से एक गवाह निकाल कर लाएंगे। फिर लोगों 
से कहेंगे कि अपनी दलील लाओ, तब वे जान लेंगे कि हक अल्लाह की तरफ है। 

और वे बातें उनसे गुम हो जाएंगी जो वे गढ़ते थे। (74-75) 








पैगम्बर और पैग़म्बर की सच्ची पैरवी करने वाले दाओ कियामत में ख़ुदा के गवाह बनाकर 
खड़े किए जाएंगे। जिन कौमों पर उन्होंने खुदा का पैगाम पहुंचाने का फर्ज अंजाम दिया था उनके 
बारे में वे वहां बताएंगे कि पैगाम को सुनकर उन्होंने किस किस्म का रद्देअमल पेश किया। उस 
दिन उन लोगों के तमाम भरोसे ख़त्म हो जाएंगे जिन्होंने गैर अल्लाह के एतमाद पर हक की 
दावत को नजरअंदाज किया था। उस दिन उनका यह हाल होगा कि वे अपनी सफाई पेश 
करना चाही मगर वे अपनी सफई के लिए अल्फाज न पाएग। 


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कारून मूसा की कीम में से था। फिर वह उनके खिलाफ सरकश हो गया। और हमने 
उसे इतने ख़जाने दिए थे कि उनकी कुजियां उठाने से कई ताकतवर मर्द थक जाते थे। 
जब उसकी कौम ने उससे कहा कि इतराओ मत, अल्लाह इतराने वालों को पसंद नहीं 
करता। और जो कुछ अल्लाह ने तुम्हें दिया है उसमें आख़िरत के तालिब बनो। और 
दुनिया में से अपने हिस्से को न भूलो। और लोगों के साथ भलाई करो जिस तरह 
अल्लाह ने तुम्हारे साथ भलाई की है। और जमीन में फसाद के तालिब न बनो, अल्लाह 
फसाद करने वालों को पसंद नहीं करता। (76-77) 


सूएह-28. अल-कसस 




















कारून का नाम यहूदी किताबों में कोरह (K०३॥) आया है। वह बनी इस्राईल का एक 
फर्द था। मगर वह अपनी कैम से कटकर फिरऔन का वफादार बन गया। इसकी उसे यह 
कीमत मिली कि वह फिरऔन का मुर्करब बन गया। उसने अपनी दुनियादाराना सलाहियत 
के जरिए इतना कमाया कि वह मिस्र का सबसे ज्यादा दौलतमंद शख्स बन गया। दौलत पाकर 
उसके अंदर शुक्र का जज्बा उभरना चाहिए था। मगर दौलत ने उसके अंदर फख़ का जज्बा 
पैदा किया। अपने मआशी वसाइल (आर्थिक संसाधनों) से उसे जो नेकी कमानी चाहिए थी 
वह नेकी उसने नहीं कमाई । 

जमीन में फ्साद करना क्या है। इस आयत (77) के मुताबिक जमीन में फसाद बरपा 
करने की एक सूरत यह है कि एक शख्स को ज्यादा दौलत मिले तो वह उसे सिर्फ अपनी जात 
के लिए ख़र्च करे। समुद्र में जमीन का पानी आकर जमा होता है तो समुद्र पानी को भाप की 
शक्ल में उड़ाकर दुबारा उसे पूरी जमीन पर फैला देता है। यह ख़ुदा की दुनिया में इस्लाह का 
एक नमूना है। यही चीज इंसान से इस तरह मत्लूब (अपेक्षित) है कि अगर किसी वजह से 
एक शख्स के पास ज्यादा दौलत इकट्ठा हो जाए तो उसे चाहिए कि वह उसे मुख़्तलिफ 
तरीकों से उन लोगों की तरफ लौटाए जिन्हें मआशी तक्सीम में कम हिस्सा मिला है। गोया 
जमाशुदा दौलत को गर्दिश में लाना इस्लाह है और जमाशुदा दौलत को जमा रखना फसाद। 


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सूरह-28. अल-कसस I07] पारा 20 


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उसने कहा, यह माल मुझे एक इल्म की बिना पर मिला है जो मेरे पास है। क्या उसने 
यह नहीं जाना कि अल्लाह उससे पहले कितनी जमाअतों को हलाक कर चुका है जो 


उससे यादा बुत और जमीयत (जन-समूह) रखती थीं। और मुजरिमों से उनके गुनाह 
पूछे नहीं जाते। (78) 





कारून का जो किरदार यहां बयान हुआ है यही हमेशा दौलत वालों का किरदार रहा है। 
दौलतमंद आदमी समझता है कि उसे जो कुछ मिला है वह उसके इलम की बदौलत मिला है। 
मगर किसी दौलतमंद का इलम उसे यह नहीं बताता कि तुमसे पहले भी बहुत से लोगों को 
दौलत मिली मगर उनकी दौलत उन्हें मौत या हलाकत से न बचा सकी। फिर तुम्हें वह किस 
तरह बचाने वाली साबित होगी । 


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पस वह अपनी कौम के सामने अपनी पूरी आराइश (भव्यता) के साथ निकला। जो 
लोग हयाते दुनिया के तालिब थे उन्होंने कहा, काश हमें भी वही मिलता जो कारून 
को दिया गया है, बेशक वह बड़ी किस्मत वाला है, और जिन लोगों को इलम मिला 
था उन्होंने कहा, तुम्हारा बुरा हो अल्लाह का सवाब बेहतर है उस शख्स के लिए 
जो ईमान लाए और नेक अमल करे। और यह उन्हीं को मिलता है जो सब्र करने 
वाले हैं। (79-80) 








जिस आदमी के पास दौलत हो उसके गिर्द लाजिमी तौर पर दुनिया की रौनक जमा हो 
जाती है। उसे देखकर बहुत से नादान लोग उसके ऊपर रश्क करने लगते हैं। मगर जिन लोगों 
को हकीकत का इलम हासिल हो जाए उन्हें यह जानने में देर नहीं लगती कि यह महज चन्द 
दिन की रौनक है और जो चीज चन्द रोजा हो उसकी कोई कीमत नहीं। 

इत्मे हकीकत इस निया मंसबसे ज्यादा वीमती चीज है। मगर इत्मे हकीकत का 


पारा 20 072 सूरह-28. अल-कसस 
मालिक बनने के लिए सब्र की सलाहियत दरकार होती है। यानी ख़ारजी (वास्य) हालात का 
दबाव कुबूल न करते हुए अपना जेहन बनाना । जाहिरी चीजें से गैर मुतअस्सिर रहकर सोचना । 

वक्ती कशिश की चीजें को नजरअदंज करके राय कायम करना। यह बिलाशुबह सब्र की 

मुश्किलतरीन किस्म है। मगर इसी मुश्किलतरीन इम्तेहान में पूरा उतरने के बाद आदमी को वह 
चीज मिलती है जिसे इलम और हिक्मत (तत्वदर्शिता) कहा जाता है। 


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फिर हमने उसे और उसके घर को जमीन में धसा दिया। फिर उसके लिए कोई जमाअत 
न उठी जो अल्लाह के मुकाबले में उसकी मदद करती। और न वह खुद ही अपने को 
बचा सका। और जो लोग कल उसके जैसा होने की तमन्ना कर रहे थे वे कहने लगे 
कि अफसोस, बेशक अल्लाह अपने बदों में से जिसके लिए चाहता है र्ज्कि कुशादा 
कर देता है और जिसके लिए चाहता है तंग कर देता है। अगर अल्लाह ने हम पर 


एहसान न किया होता तो हमें भी जमीन में धंसा देता। अफसोस, बेशक इंकार करने 
वले फ्लाह (कल्याण, सफलता) नहीं पाएंगे। (8-82) 








बाइबल के बयान के मुताबिक, हजरत मूसा ने कारून के बुरे आमाल की वजह से 
उसके लिए बददुआ फरमाई और वह अपने साथियों और ख़जाने सहित जमीन में धंसा दिया 
गया। यह अल्लाह की तरफ से मुशाहिदाती (अवलोकनीय) सतह पर दिखाया गया कि 
ख़ुदापरस्ती को छोड़कर दौलतपरस्ती इख्तियार करने का आखिरी अंजाम क्या होता है। 
दुनिया का रिज्क दरअस्ल इम्तेहान का सामान है। यह हर आदमी को खुदा के फैसले 
के तहत कम या ज्यादा दिया जाता है। आदमी को चाहिए कि रिज्क कम मिले तो सब्र करे। 
और अगर रिज्क ज्यादा मिले तो शुक्र करे। यही किसी इंसान के लिए नजात और कामयाबी 
का वाहिद रास्ता है। 


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सूरह-28. अल-कसस I073 पारा 20 
यह आख़िरत का घर हम उन लोगों को देंगे जो जमीन में न बड़ा बनना चाहते हैं और 

न फसाद करना। और आख़िरी अंजाम डरने वालों के लिए है। जो शख्स नेकी लेकर 
आएगा उसके लिए उससे बेहतर है और जो शख्स बुराई लेकर आएगा तो जो लोग बुराई 
करते हैं उन्हें वही मिलेगा जो उन्होंने किया। (83-84) 





जन्नत की आबादी में बसने के काबिल वे लोग हैं जिनके सीने अपनी बड़ाई के एहसास 
से ख़ाली हों। जो खुदा की बड़ाई को इस तरह पाएं कि अपनी तरफ उन्हें छोटाई के सिवा 
और कुछ नजर न आए। 
फसाद यह है कि आदमी खुदा की स्कीम से मुवाफिकत न करे। वह खुदा की दुनिया 
में खुदा की मर्जी के खिलाफ चलने लगे। जो लोग किब्र (बड़ाई) से खाली हो जाएं वे लाजिमी 
तौर पर फसाद से भी ख़ाली हो जाते हैं। और जिन लोगों के अंदर ये आला औसाफ (सद्गुण) 
पैदा हो जाएं वही वे लोग हैं जो ख़ुदा के अबदी बागों में बसाए जाएंगे। 
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बेशक जिसने तुम पर कुरआन को फर्ज किया है वह तुम्हे एक अच्छे अंजाम तक पहुंचा 

कर रहेगा। कहो कि मेरा रब ख़ूब जानता है कि कौन हिदायत लेकर आया है और 
कौन खुली हुई गुमराही में है। और तुम्हें यह उम्मीद न थी कि तुम पर किताब उतारी 
जाएगी। मगर तुम्हारे रब की महरबानी से। पस तुम मुंकिरों के मददगार न बनो। और 
वे तुम्हें अल्लाह की आयतों से रोक न दें जबकि वे तुम्हारी तरफ उतारी जा चुकी हैं। 
और तुम अपने रब की तरफ बुलाओ और मुशिरिकों में से न बनो। और अल्लाह के साथ 
किसी दूसरे माबूद (पूज्य) को न पुकारो। उसके सिवा कोई माबूद नहीं। हर चीज हलाक 
(विनष्ट) होने वाली है सिवा उसकी जात के। फैसला उसी के लिए है और तुम लोग 

उसी की तरफ लोटाए जाओगे। (85-88) 


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पैगम्बर का मामला हर एतबार से ख़ुदाई मामला होता है। उसे पैग़म्बरी किसी तलब के 


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पारा 20 I074 सूरह-29. अन-अनकबूत 
बगैर यकतरफा तौर पर ख़ुदा की तरफ से दी जाती है। वह अपने पूरे वजूद के साथ हक पर 
कायम होता है। वह मामूर (नियुक्त) होता है कि ख़ालिस बेआमेज सदाकत (विशुद्ध सच्चाई) 
का एलान करे, चाहे वह लोगों को कितना ही नागवार हो। उसके लिए मुकदूदर होता है कि 
वह लाजिमी तौर पर अपनी मल्लूबा मंजिल तक पहुंचे और कोई रुकावट उसके लिए रुकावट 
न बनने पाए। 

यही मामला पैग़म्बर के बाद पैग़म्बर की पैरवी में उठने वाले दाऔ का होता है। वह 
जिस हद तक पैग़म्बर की मुशाबिहत (समानता) करे उसी कद्र वह ख़ुदा के उन वादों का 
मुस्तहिक होता चला जाएगा जो उसने अपने पैग़म्बरों से अपनी किताब में किए हैं। 


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आयतें-69 सूरह-29. अल-अनकबूत रुकूअ-7 
(मक्का में नाजिल हुई) 

शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
अलिफ० लाम० मीम०। कया लोग यह समझते हैं कि वे महज यह कहने पर छोड़ दिए 
जाएंगे कि हम ईमान लाए और उन्हें जांचा न जाएगा। और हमने उन लोगों को जांचा 


है जो इनसे पहले थे, पस अल्लाह उन लोगों को जानकर रहेगा जो सच्चे हैं और वह 
झूठो को भी जरूर मालूम करेगा। (-3) 





आदमी के मोमिन व मुस्लिम होने का फैसला सामान्य हालात में किए जाने वाले अमल 
पर नहीं होता । बल्कि उस अमल पर होता है जो आदमी गैर मामूली हालात में करता है। ये 
गैर मामूली हालात वे गैर मामूली मवाकेअ (अवसर) हैं जबकि यह खुल जाता है कि आदमी 
हकीकत में वह है या नहीं जिसका दावा वह अपने जाहिरी अमल से कर रहा है। जो लोग 
गैर मामूली हालात में ईमान व इस्लाम पर कायम रहने का सुबूत दें वही खुदा के नजदीक 
हकीकी मअनों में मोमिन व मुस्लिम करार पाते हैं। 

जांच में पूरा उतरना, बाअल्फाज दीगर, कुर्बानी की सतह पर ईमान व इस्लाम वाला 
बनना है। यानी जब आम लोग इंकार कर देते हैं उस वकत तस्दीक करना। जब लोग शक 
करते हैं उस वक्‍त यकीन कर लेना। जब अपनी अना (अंहकार) को कुचलने की कीमत पर 
मोमिन बनना हो उस वक्त मोमिन बन जाना। जब न मान कर कुछ बिगड़ने वाला न हो उस 
वक्त मान लेना। जब हाथ रोकने के तकजे हों उस वक्‍त ख़र्च करना। जब फरार के हालात 


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सूरह-29. अन-अनकबूत I075 पारा 20 
हों उस वकत जमने का सुबूत देना। जब अपने आपको बचाने का वकत हो उस वक्‍त अपने 

आपको हवाले कर देना। जब सरकशी का मौका हो उस वक्त सरे तस्लीमख़म कर देना। जब 

सब कुछ लुटा कर साथ देना हो उस वक्त साथ देना। ऐसे गैर मामूली मौकों पर अंदर वाला 

इंसान बाहर आ जाता है। इसके बाद किसी के लिए यह मौका नहीं रहता कि वह फर्जी 

अल्फज बोलकर अपने को वह जहिर करे जो कि हकीकत में वह नहीं है। 


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क्या जो लोग बुराइयां कर रहे हैं वे समझते हैं कि वे हमसे बच जाएंगे। बहुत बुरा 
फैसला है जो वे कर रहे हैं। जो शख्स अल्लाह से मिलने की उम्मीद रखता है तो 
अल्लाह का वादा जरूर आने वाला है। और वह सुनने वाला है, जानने वाला है। 
और जो शख्स मेहनत करे तो वह अपने ही लिए मेहनत करता है। बेशक अल्लाह 
जहान वालों से बेनियाज (निस्पृह) है। और जो लोग ईमान लाए और उन्होंने नेक 
काम किया तो हम उनकी बुराइयां उनसे दूर कर देंगे और उन्हें उनके अमल का 
बेहतरीन बदला देंगे। (4-7) 





मोमिन बनना अक्सर हालात में जमाने के खिलाफ चलने के हममअना होता है। यह 
अकाबिरपरस्ती (व्यक्ति-पूजा) के माहौल में खुदापरस्त बनना है। ख़ाहिश को ऊंचा मकाम 
देने के माहौल में उसूल को ऊंचा मकाम देना है। दुनियावी मफाद के लिए जीने के माहौल 
में आखिरत के मफाद के लिए जीने का हौसला करना है। 

इस तरह की जिंदगी के लिए सख्त मुजाहिदा (संघर्षशीलता) दरकार है। और इस सख्त 
मुजाहिदे पर वही लोग कायम रह रह सकते हैं जो खुदा पर कामिल यकीन रखते हों। जो ख़ुदा 
की तरफ से मिलने वाले इनाम ही को अपनी उम्मीदों का अस्ल मर्कज बनाए हुए हों। 


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पारा 20 I076 सूरह-29. अन-अनकबूत 
और हमने इंसान को ताकीद की कि वह अपने मां-बाप के साथ नेक सुलूक करे। और 
अगर वे तुझ पर दबाव डालें कि तू ऐसी चीज को मेरा शरीक ठहराए जिसका तुझे कोई 
इल्म नहीं तो उनकी इताअत (आज्ञापालन) न कर। तुम सबको मेरे पास लोट कर 
आना है, फिर मैं तुम्हें बता दूंगा जो कुछ तुम करते थे। और जो लोग ईमान लाए और 
उन्होंने नेक काम किए तो हम उन्हें नेक बंदों में दाखिल करेंगे। (8-9) 


इंसान पर तमाम मख्नूकात में सबसे ज्यादा जिसका हक है वह उसके मां-बाप हैं। मगर 
हर चीज की एक हद होती है, इसी तरह मां-बाप के हुकूक की भी एक हद है। और हदीस 
के अल्फज मेंवह हद यह है कि ख़लिक की नाफरमानी में किसी मरू की इताअत नहीं। 

मांबाप के ह्यूक़ उसी वक्‍त तक कबिले लिहाज हैजब तक वेरु के हूक से न 
टकराएं। मां-बाप का हुक्म जब ख़ुदा के हुक्म से टकराने लगे तो उस वक्त मां-बाप का हुक्म 
न मानना उतना ही जरूरी हो जाएगा जितना आम हालात में मां-बाप का हुक्म मानना जरूरी 
होता है। इस्लाम में मां-बाप के हुकूक से मुराद मां-बाप की ख़िदमत है न कि मां-बाप की 
इबादत। 


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और लोगों में कोई ऐसा है जो कहता है कि हम अल्लाह पर ईमान लाए। फिर जब 
अल्लाह की राह में उसे सताया जाता है तो वह लोगों के सताने को अल्लाह के अजाब 
की तरह समझ लेता है। और आगर तुम्हारे रब की तरफ से कोई मदद आ जाए तो 

वे कहेंगे कि हम तो तुम्हारे साथ थे। क्या अल्लाह उससे अच्छी तरह बाखबर नहीं जो 
लोगों के दिलों में है। और अल्लाह जरूर मालूम करेगा उन लोगों को जो ईमान लाए 
औए वह जरूर मालूम कशा मुनाफ्धीन (पाखंडियों) को। (0-7) 





एक शख्स अपने को मोमिन कहे। मगर उसका हाल यह हो कि जब मोमिन बनने में 
फायदा हो तो वह बढ़-चढ़कर अपने मोमिन होने का इज्हार करे। मगर जब मोमिन बनने में 
दुनियावी नुक्सान नजर आए तो वह फौरन वापस जाने लगे। ऐसा आदमी कुरआन की 
इस्तिलाह (शब्दावली) में मुनाफिक है। ये वे लोग हैं जो बजाहिर मोमिन थे मगर वे अपने 
ईमान की कीमत देने के लिए तैयार नहीं हुए। वे ऐन उसी मकाम पर नाकाम हो गए जहां 
उन्हें सबसे ज्यादा कामयाबी का सुबूत देना चाहिए था। 


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सूरह-29. अन-अनकबूत I077 पारा 20 
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और मुंकिर लोग ईमान वालों से कहते हैं कि तुम हमारे रास्ते पर चलो और हम तुम्हारे 
गुनाहों को उठा लेंगे। और वे उनके गुनाहों में से कुछ भी उठाने वाले नहीं हैं। बेशक 
वे झूठे हैं। और वे अपने बोझ उठाएंगे, और अपने बोझ के साथ कुछ और बोझ भी। 
और ये लोग जो झूठी बातें बनाते हैं कियामत के दिन उसके बारे में उनसे पूछ होगी। 
(I2-3) 


इपतरा (झूठ गढ़ना) यह है कि आदमी खुद एक बात कहे और उसे ख़ुदा की तरफ मंसूब 
कर दे। हर किस्म की बिदआत (कुरीतियां) और गलत ताबीरात इसमें दाखिल हैं। इस इफ्तरा 
की एक सूरत यह है कि इंकार करने वाले बड़े अपने छोटों से यह कहें कि तुम हमारे रास्ते पर 
चलते रहो, अगर खुदा के यहां इस पर पूछा गया तो हम इसके जिम्मेदार हैं। खुदा ने किसी को 
इस किस्म का हक नहीं दिया है इसलिए ऐसी बात कहना खुदा पर झूठ बांधना है। 

आदमी बहुत सी बातें सिर्फ कहने के लिए कह देता है। अगर वह उसके अंजाम को देख 
ले तो वह कभी ऐसे अल्फाज अपने मुंह से न निकाले। चुनांचे ये लोग जब कियामत की 
हौलनाकी को देखेंगे तो उस वक्‍त उनका हाल उससे बिल्कुल मुख़्तलिफ होगा जो आज की 
दुनिया में उनका नजर आ रहा है। 


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और हमने नूह को उसकी कौम की तरफ भेजा तो वह उनके अंदर पचास साल कम 
एक हजार साल रहा। फिर उन्हें तूफान ने पकड़ लिया और वे जालिम थे। फिर हमने 


नूह को और कश्ती वालों को बचा लिया। और हमने इस वाकये को दुनिया वालों 
के लिए एक निशानी बना दिया। (4-5) 











हजरत नूह की उम्र साढ़े नौ सौ साल थी। नुबुव्वत से पहले भी आप एक सालेह (नेक) 
इंसान थे और शरीअते आदम पर कायम थे। नुबुव्यत मिलने के बाद आप बाकायदा ख़ुदा के 
दाओ बनकर अपनी कौम को डराते रहे। मगर सैंकड़ों साल की मेहनत के बावजूद कौम न 


पारा 20 I078 सूरह-29. अन-अनकबूत 
मानी। आखिरकार चन्द इस्लाहयाप्ता (ईमान वाले) अफाद कोछेह्कर फी कैम एक अजैम 
तून मेंगर्ककर दी गई। 

टर्की और रूस की सरहद पर मश्रिकी अनातूलिया के पहाड़ी सिलसिले में एक ऊंची 
चोटी है जिसे अरारात (4१7३!) कहा जाता है। इसकी बुलन्दी पांच हजार मीटर से ज्यादा 
है। इस पहाड़ के ऊपर से उड़ने वाले जहाजों का बयान है कि उन्होंने अरारात की बर्फ से 
ढकी हुई चोटी पर एक कश्ती जैसी चीज देखी है। चुनांचे उस कश्ती तक पहुंचने की कोशिशें 
जारी हैं। अहले इलम का ख्य़ाल है कि यह वही चीज है जिसे मजहबी रिवायात में कश्ती नूह 
कहा जाता है। 

अगर यह इत्तिला सही है तो इसका मतलब यह है कि अल्लाह तआला ने हजरत नूह 
की कश्ती को आज भी बाकी रखा है ताकि वह लोगों के लिए इस बात की निशानी हो कि 
खुदा के तूफान से बचने के लिए आदमी को पैग़म्बर की कश्ती” दरकार है। कोई दूसरी चीज 
आदमी को खुदा के तूफान से बचाने वाली साबित नहीं हो सकती। 


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और इब्राहीम को जबकि उसने अपनी कौम से कहा कि अल्लाह की इबादत करो और 
उससे डरो। यह तुम्हारे लिए बेहतर है अगर तुम जानो। तुम लोग अल्लाह को छोड़कर 
महज बुतों को पूजते हो और तुम झूठी बातें गढ़ते हो। अल्लाह के सिवा तुम जिनकी 
इबादत करते हो वे तुम्हें रिज्क देने का इख्तियार नहीं रखते। पस तुम अल्लाह के पास 

स्ज्ि तलाश करो और उसकी इबादत करो और उसका शुक्र अदा करो। उसी की तरफ 

तुम लौटाए जाओगे। और अगर तुम झुठलाओगे तो तुमसे पहले बहुत सी कीमें झुठला 
चुकी हैं। और रसूल पर साफ-साफ पहुंचा देने के सिवा कोई जिम्मेदारी नहीं। (6-8) 





एक खुदा के सिवा जिसे भी आदमी अपने आला जज्बात का मर्कज बनाता है वह एक 
झूठ होता है। क्योंकि वह गैर खुदा में खुदाई औसाफ को फर्ज करता है। वह बरतर सिफात 
जो सिर्फ खुदा के लिए ख़ास हैं उन्हें आदमी गैर ख़ुदा में फर्ज करता है, इसके बाद ही यह 
मुमकिन होता है कि वह किसी गैर ख़ुदा का परस्तार बने। 

कदीम मुश्स्काना दौर मेइंसान इस किस्म की सिफात बुतें में फर्म करता था, आज का 


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सूरह-29. अन-अनकबूत I079 पारा 20 
इंसान भी यही कर रहा है। अलबत्ता आज के इंसान के बुतों के नाम उनसे मुख्तलिफ हैं जो 
कदीम मुहिरिकों के हुआ करते थे। कदीम व जदीद का फर्क सिर्फ यह है कि कदीम इंसान 

अगर खेत की पैदावार को किसी मफरूजा देवता की महरबानी समझता था तो आज का 

इंसान इसके लिए ये अल्फाज बोलता है हमारा ग्रीन रेवॉल्यूशन हमारी ऐग्रीकल्चर साइंस का 

करिश्मा है। 


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क्या लोगों ने नहीं देखा कि अल्लाह किस तरह ख़ल्क (सृष्टि) को शुरू करता है, फिर 
वह उसे दोहराएगा। बेशक यह अल्लाह पर आसान है। कहो कि जमीन में चलो फिरो 
फिर देखो कि अल्लाह ने किस तरह ख़ल्क को शुरू किया, फिर वह उसे दुबारा 
उठाएगा। बेशक अल्लाह हर चीज पर कादिर है। वह जिसे चाहेगा अजाब देगा और 
जिस पर चाहेगा रहम करेगा। और उसी की तरफ तुम लोटाए जाओगे। और तुम न 
जमीन में आजिज करने वाले हो और न आसमान में, और तुम्हारे लिए अल्लाह के सिवा 
न कोई कारसाज है और न कोई मददगार। और जिन लोगों ने अल्लाह की आयतों 


का और उससे मिलने का इंकार किया तो वही मेरी रहमत से महरूम हुए और उनके 
लिए दर्दनाक अजाब है। (9-23) 





इंसान नहीं था, इसके बाद वह हो जाता है। फिर जो तख़्तीक एक बार मुमकिन हो वह 
दूसरी बार क्यों मुमकिन न होगी। शाह अब्दुल कादिर देहलवी ने इस मौके पर यह बामअना 
नोट लिखा है : 'शुरू तो देखते हो, दोहराना इसी से समझ लो / 

हर आदमी अपनी जात में तरळ्लीके अव्वल (प्रथम सृजन) की एक मिसाल है। अगर 
आदमी को मजीद मिसालें दरकार हैं तो वह ख़ुदा की वसीअ दुनिया में मुतालआ और 
मुशाहिदा करे। वह देखेगा कि पूरी दुनिया इसी वाकये का जिंदा नमूना है। खुदा ने अपनी 
दुनिया में ये नमूने इसलिए कायम किए कि इंसान तख्तीके सानी (दूसरे सृजन) के मामले को 
समझे और फिर वह अमल करे जो अगले हयात के मरहले में उसके काम आने वाला हो। 


पारा 20 I080 सूरह-29. अन-अनकबूत 
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फिर उसकी कौम का जवाब इसके सिवा कुछ न था कि उन्होंने कहा कि उसे कत्ल 

कर दो या उसे जला दो। तो अल्लाह ने उसे आग से बचा लिया। बेशक इसके अंदर 
निशानियां हैं उन लोगों के लिए जो ईमान लाए। और उसने कहा कि तुमने अल्लाह 
के सिवा जो बुत बनाए हैं, बस वह तुम्हरे आपसी दुनिया के तअल्लुकात की वजह 

से है, फिर कियामत के दिन तुम में से हर एक दूसरे का इंकार करेगा और एक 
दूसरे पर लानत करेगा। और आग तुम्हारा ठिकाना होगी और कोई तुम्हारा मददगार 
न होगा। फिर लूत ने उसे माना और कहा कि में अपने रब की तरफ हिजरत करता 
हूं। बेशक वह जबरदस्त है, हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। और हमने अता किए 
उसे इस्हाक और याकूब और उसकी नस्ल में नुबुचत और किताब रख दी। और 

हमने दुनिया में उसे अज्र (प्रतिफल) अता किया और आखिरत में यकीनन वह 
सालिहीन में से होगा। (24-27) 





जो चीज किसी मआशिरे में कीमी रवाज की हैसियत हासिल कर ले वह उसके हर फर्द 
की जरूरत बन जाती है। इसी की बुनियाद पर आपसी तअल्लुकात पैदा होते हैं। इसी से हर 
किस्म के मफादात वाबस्ता होते हैं। इसी के एतबार से लोगों के दर्मियान किसी आदमी की 
कीमत मुर्कर हेती है। कद्दीम जमाने मे शिर्क की हैसियत इसी किस्म के कैमी खाज की 
हो गई थी। 

हजरत इब्राहीम ने इराक के लोगों को बताया कि तुम जिस बुतपरस्ती को पकड़े हुए हो 
वह महज एक कैमी रवाज है न कि कोई वाकई सदाकत । तुम्हारी मौजूदा जिंदगी के ख़म 
होते ही उसकी सारी अहमियत ख़त्म हो जाएगी। मगर सिर्फ एक आपके भतीजे लूत थे 
जिन्होंने आपका साथ दिया । कौम आपकी इतनी दुश्मन हुई कि उसने आपको आग में डाल 
दिया । ताहम अल्लाह ने आपको बचा लिया। आपको न सिर्फ आखिरत का आला इनाम मिला 





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सूरह-29. अन-अनकबूत I08] पारा 20 
बल्कि आपको ऐसी सालेह औलाद दी गई जिसके अंदर चार हजार साल से नुबुव्वत का 
सिलसिला जारी है। आपके बेटे इस्हाक पैगम्बर थे। फिर उनके बेटे याकूब पैगम्बर हुए और 
इसके बाद हजरत ईसा तक मुसलसल इसी ख़ानदान में पैग़म्बरी का सिलसिला जारी रहा। 
हजरत इब्राहीम के एक और बेटे मदयान की नस्ल में हजरत शुऐब अलैहिस्सलाम पैदा हुए । 
इसी तरह आपके बेटे इस्माईल खुद पैगम्बर थे और इन्हीं की नस्ल में हजरत मुहम्मद 
सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पैदा हुए जिनकी पैग़म्बरी कियामत तक जारी है। 

हजरत इब्राहीम की इस तारीख़ में बातिलपरस्तों के लिए भी नसीहत है और उन लोगों 
के लिए भी रोशनी है जो हक की बुनियाद पर अपने आपको खड़ा करें। 

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और लूत को, जबकि उसने अपनी कौम से कहा कि तुम ऐसी बेहयाई का काम करते 
हो कि तुमसे पहले दुनिया वालों में से किसी ने नहीं किया। क्या तुम मर्दों के पास 
जाते हो और राह मारते हो। और अपनी मज्लिस में बुरा काम करते हो। पस उसकी 
कौम का जवाब इसके सिवा कुछ न था कि उसने कहा कि अगर तुम सच्चे हो तो हमारे 
ऊपर अल्लाह का अजाब लाओ। लूत ने कहा कि ऐ मेरे रब, मुफ्सिद (उपद्रवी) लोगों 
के मुकाबले में मेरे मदद फरमा। (28-30) 








हजरत लूत बाबिल को छोड़कर उर्दुन के इलाके में आ गए थे। अल्लाह तआला ने उन्हें 
पैगम्बर बनाया और उन्हें कौमे लूत की इस्लाह के काम पर मुकर्रर किया। यह कौम बहरे 
मुर्दार (९३५ 9९१) के करीब सदूम के इलाके में रहती थी और हमजिंसी (समलैंगिकता) की 
गैर फितरी आदत में मुब्तिला थी। इसी निस्बत से दूसरी बुराइयां भी उनके अंदर आम हो 
चुकी थीं। मगर उन्होंने इस्लाह कुबूल न की। 

“अल्लाह का अजाब लाओ' का अस्ल रुख़ हजरत लूत की तरफ था न कि अल्लाह की 
तरफ। उन्हें हजरत लून को इतना हकीर (तुच्छ) समझा कि उनके नजदीक यह नामुमकिन 
था कि उनकी बात न मानने से वे ख़ुदा की पकड़ में आ जाएंगे। चुनांचे बतौर मजाक उन्होंने 
कहा कि अगर तुम वाकई सच्चे हो तो हमारे ऊपर खुदा का अजाब लाओ। 


पारा 20 082 सूरह-29. अन-अनकबूत 
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और जब हमारे भेजे हुए इब्राहीम के पास बशारत लेकर पहुंचे, उन्होंने कहा कि हम इस 
बस्ती के लोगों को हलाक करने वाले हैं। बेशक इसके लोग सख्त जालिम हैं। इब्राहीम 
ने कहा कि इसमें तो लूत भी है। उन्होंने कहा कि हम ख़ूब जानते हैं कि वहां कौन 
है। हम उसे और उसके घर वालों को बचा लेंगे मगर उसकी बीवी कि वह पीछे रह जाने 
वालों में से होगी। फिर जब हमारे भेजे हुए लूत के पास आए तो वह उनसे परेशान 
हुआ और दिल तंग हुआ। और उन्होंने कहा कि तुम न डरो और न ग़म करो। हम 
तुम्हें और तुम्हारे घर वालों को बचा लेंगे मगर तुम्हारी बीवी कि वह पीछे रह जाने वालों 
में से होगी। हम इस बस्ती के बाशिंदों पर एक आसमानी अजाब उनकी बदकारियाँ 
की सजा में नाजिल करने वाले हैं। और हमने उस बस्ती के कुछ निशान रहने दिए है 
उन लोगों की इबरत (सीख) के लिए जो अक्ल रखते हैं। (3-35) 





कैमे लूत का इलाका (सदूम, अमूरा) शदीद जलजले से तबाह कर दिया गया। वह 
सरसब्ज व शादाब वादी जहां चार हजार साल पहले यह कौम आबादी थी, अब वहां बहरे 
मुर्दार का कसीफ (मलिन) पानी फैला हुआ है। 

कुरआन के बयान के मुताबिक तबाही का यह वाकया खा के फरिश्तेंके जरिए जूहू 
में आया। मगर भूगोल और पुरातत्व विशेषज्ञों का कहना है कि इस इलाके में जब अरजी 
अमल (भू-प्रक्रिया) से पहाड़ उभरे तो इसी के साथ जमीन के एक हिस्से में ढाल (रscarp- 
men!) पैदा हो गया। बाद को इस ढाल के जुनूबी (दक्षिणी) हिस्से में समुद्र का पानी भर 
गया। इस तरह वह ख़ुश्क हिस्सा पानी के नीचे आ गया जिसे अब बहरे मुर्दार का कम गहरा 
जुनूबी किनारा कहा जाता है। कुरआन में जो चीज खुदाई निशान है वह गैर कुर॒आनी 
मुशाहिदे (अवलोकन) में सिर्फ एक तबीई वाकया (भौतिक घटना) नजर आती है। 


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सूरह-29. अन-अनकबूत I083 पारा 20 
माहिरीन का ख्याल है कि इस बर्बादशुदा बस्ती के खंडहर अब भी समुद्र में पानी के नीचे 
पाए जाते हैं। बिलाशुबह इसमें बहुत बड़ी इबरत (सीख) है। मगर यह इबरत सिर्फ उन लोगों 
के लिए है जो बातों को उसकी गहराई के साथ समझने की कोशिश करें। 
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और मदयन की तरफ उनके भाई शुऐब को। पस उसने कहा कि ऐ मेरी कौम, अल्लाह 
की इबादत करो। और आखिरत के दिन की उम्मीद रखो और जमीन में फसाद फेलाने 


वाले न बनो। तो उन्होंने उसे झुठला दिया। पस जलजले ने उन्हें आ पकड़ा। फिर वे 
अपने घरों में औंधे पड़े रह गए। (36-37) 








हजरत शुऐब जिस कौम में आए वह एक तिजारत पेशा कौम थी। वे लोग माल की हिर्स 
में इतना बढ़े कि धोखा और फेब के जरिए माल कमाने लगे। यही उनका जमीन में फसाद 
करना था। जाइज तिजारत हुसूले मआश (जीविका) का इस्लाही तरीका है और धोखा और 
लूट खसोट हुसूले मआश का मुपिसिदाना तरीका । 

हजरत शुऐब ने कौम से कहा कि तुम दुनिया के पीछे आख़िरत से गाफिल न हो जाओ। 
तुम लोग उस तरीके पर काम करो जिससे तुम आखिरत में अपने लिए अच्छे अंजाम की 
उम्मीद कर सको। मगर पैगम्बर की सारी कोशिशों के बावजूद कौम न मानी। यहां तक कि 
वह खुदा के कानून के मुताबिक हलाक कर दी गई। जिन घरों को उन्होंने अपने लिए जिंदगी 
का घर समझा था वह उनके लिए मौत का घर बन गया। 


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और आद और समूद को, और तुम पर हाल खुल चुका है उनके घरों से। और उनके 
आमाल को शैतान ने उनके लिए खुशनुमा बना दिया। फिर उन्हें रास्ते से रोक दिया 
और वे होशियार लोग थे। (38) 





आद और समूद को भी ख़ुदा के अजाब ने पकड़ लिया। वे अपने दुनिया के मामलात 
में बहुत होशियार थे मगर वे आख़िरत के मामले मे बिल्कुल नादान निकले । उन्होंने पहाड़ों 
के जरिए घर बनाने के राज को जान लिया। मगर वे पेगम्बर के जरिए जिंदगी बनाने का राज 
न जान सके। इसकी वजह वह चीज थी जिसे तजईने आमाल कहा गया है। शैतान ने उन्हें 


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पारा 20 084 सूरह-29. अन-अनकबूत 
इस धोखे में रखा कि दुनिया की तामीर ही सारी तामीर है। अगर दुनिया को बना लिया तो 
इसके बाद कोई मसला मसला नहीं। मगर यह फरेब उनके काम न आया और न इस किस्म 
का फरेब आइंदा किसी के कुछ काम आने वाला है। 

जुनूबी (दक्षिणी) अरब का इलाका जो अब यमन, अहकाफ और हज़मौत के नाम से जाना 
जाता है यही कदीम जमाने में आद का इलाका था । इसी तरह हिजाज के शिमाली (उत्तरी) हिस्से 
में राबिग से अकबह तक और मदीना और खैबर से तेमा और तबूक तक का इलाका वह था 
जिसमें समूद की आबादियां पाई जाती थीं। 


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और कारून को और फिरऔन को और हामान को और मूसा उनके पास खुली 
निशानियां लेकर आया तो उन्होंने जमीन में घमंड किया और वे हमसे भाग जाने वाले 

न थे। पस हमने हर एक को उसके गुनाह में पकड़ा फिर उनमें से कुछ पर हमने पथराव 
करने वाली हवा भेजी। और उनमें से कुछ को कड़क ने आ पकड़ा। और उनमें से कुछ 
को हमने जमीन में धंसा दिया। और उनमें से कुछ को हमने गर्क कर दिया। और 
अल्लाह उन पर जुल्म करने वाला न था। मगर वे खुद अपनी जानों पर जुल्म कर रहे 

थे। (39-40) 





आंबिया की मुखातब कौमों ने जब अपने नबी का इंकार किया तो उन्हें जमीनी और 
आसमानी अजाब से हलाक कर दिया गया। कौमे लूत पर हासिब (पत्थर बरसाने वाली 
तूफानी हवा) का अजाब आया। आद और समूद और असहाबे मदयन पर सइहूह (बिजली 
और कड़क) का अजाब आया। करून के लिए खुस्फ (जमीन में धंसा देने का अजब 
आया। फिरऔन और हामान के लिए गर्क (समुद्र के पानी में डुबा देने) का अजाब आया। 

इन तमाम अजाबाँ का मुशतरक सबब लोगों का घमंड था। यानी हक की दावत को 
इसलिए न मानना कि उसे मानने से अपनी बड़ाई ख़त्म हो जाएगी। 


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सूरह-29. अन-अनकबूत I085 पारा श 


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जिन लोगों ने अल्लाह के सिवा दूसरे कारसाज बनाए हैं उनकी मिसाल मकड़ी की सी 
है। उसने एक घर बनाया। और बेशक तमाम घरों से ज्यादा कमजोर मकड़ी का घर 

है। काश कि लोग जानते। बेशक अल्लाह जानता है उन चीजों को जिन्हें वे उसके सिवा 
पुकारते हैं। और वह जबरदस्त है, हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। और ये मिसालें हैं 
जिन्हें हम लोगों के लिए बयान करते रहे हैं और इन्हें वही लोग समझते हैं जो इलम वाले 
हैं। अल्लाह ने आसमानों और जमीन को बरहक पेदा किया है। बेशक इसमें निशानी 

है ईमान वालों के लिए। (4-44) 


यहां बताया गया है कि 'मकड़ी' के घर को देखकर जो शख्स हकीकत का सबक पा ले 
वही दरअस्ल आलिम है। इससे मालूम होता है कि ख़ुदा के नजदीक सच्चे इलम वाले कौन हैं। 
ये वे लोग नहीं हैं जो किताबी बहसों के माहिर बने हुए हों। बल्कि ये वे लोग हैं जो ख़ुदा की 
दुनिया में फैली हुई कुदरती निशानियाँ से नसीहत की गिजा ले सकें। दुनिया के छोटे-छोटे 
वाकेयात जिनके जेहन में दाखिल होकर बड़ेबड़े सबक में तब्दील हो जाएं। यही इलम जब 
आख्री मअरफ्त (अन्तज्ञान) तक पहुंच जाए तो इसी का दूसरा नाम ईमान है। 


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तुम उस किताब को पढ़ो जो तुम पर “वही” (प्रकाशना) की गई है। और नमाज कयम 


करो। बेशक नमाज बेहयाई से और बुरे कामों से रोकती है। और अल्लाह की याद 
बहुत बड़ी चीज है। ओर अल्लाह जानता है जो कुछ तुम करते हो। (45) 





“नमाज बुराई से रोकती है” का मतलब यह है कि कैफियते नमाज बुराई से रोकती है। 
अगर आदमी वाकेअतन ख़ुदा के आगे रुकूअ और सज्दा करने वाला हो तो उसके अंदर 
जिमेदरी और तवाजेअ (विनम्रता) का एहसास पैदा हो जाता है। और जिम्मेदारी और 
तवाजोअ के एहसास से जो किरदार उभरता है वह यही होता है कि आदमी वह करता है जो 
उसे करना चाहिए और वह नहीं करता जो उसे नहीं करना चाहिए। 

जिक्र से मुराद खुदा की याद है। जब आदमी को खुदा की कामिल मअरफत हासिल 
होती है। जब वह पूरी तरह ख़ुदा की तरफ मुतवज्जह हो जाता है तो इसका नतीजा यह होता 





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पारा 2 086 सूरह-29. अन-अनकबूत 
है कि उसके ऊपर ख़ुदा का तसव्वुर छा जाता है। उसके अंदर ख़ुदा की याद का चशमा बह 
पड़ता है। इस रूहानी दर्जे को पहुंच कर आदमी की जबान से ख़ुदा के लिए जो आला 
कलिमात निकलते हैं उन्हीं का नाम जिक्र है। यह जिक्र बिलाशुबह आलातरीन इबादत है। 

“वही” की तिलावत से मुराद “वही” की तब्लीग़ है। यानी लोगों को कुरआन सुनाना और 
उसके जरिए से उन्हें खुदा की मर्जी से बाख़बर करना। दावत व तब्लीग का यह काम बेहद 
सब्र आजमा काम है। इसमें अपने मुखालिफीन का खैर्‌त्राह बनना पड़ता है। इसमें फरीके 
सानी (प्रतिपक्ष) की ज्यादतियों को यकतरफा तैर पर नजरअंदाज करना पड़ता है। इसमें 
अपने मुखातबीन को मदऊ (जिन्हें दावत दी जाए) की नजर से देखना पड़ता है चाहे वे खुद 
दाऔ (आह्वानकर्ता) के लिए रकीब व हरीफ (विरोधी, प्रतिपक्षी) बने हुए हों। 

नमाज जिस तरह आम जिंदगी में एक मोमिन को बुराई से रोकती है, उसी तरह वह 
दाऔ को गैर दाञियाना रविश से बचाती है। ख़ुदा का दाऔ वही शख्स बन सकता है जिसके 
सीने में ख़ुदा को याद समाई हुई हो, जो अपने पूरे वजूद के साथ ख़ुदा के आगे झुकने वाला 
बन गया हो। 


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और तुम अहले किताब से बहस न करो मगर उस तरीके पर जो बेहतर है, मगर जो 
उनमें बेइसाफ हैं। और कहो कि हम ईमान लाए उस चीज पर जो हमारी तरफ भेजी 

गई है। और उस पर जो तुम्हारी तरफ भेजी गई है। हमारा माबूद (पूज्य) और तुम्हारा 
माबूद एक है और हम उसी की फरमांबरदारी करने वाले हैं। (46) 





दाऔ के लिए सही तरीका यह है कि जो लोग बहस करें और उलझें उनसे वह सलाम 
करके जुदा हो जाए। और जो लोग संजीदा हों उन पर वह अम्रे हक को वाजेह करने की 
कोशिश करे। साथ ही, यह कि दावती कलाम को हकीमाना कलाम होना चाहिए। और 
हकीमाना कलाम की एक ख़ास पहचान यह है कि उसमें मदऊ की नपिसयात का पूरा लिहाज 
किया जाता है। दाऔ अपनी बात को ऐसे उस्लूब (शैली) से कहता है कि मदऊ उसे अपने 
दिल की बात समझे न कि गैर की बात समझ कर उससे भयभीत हो जाए। दाजियाना कलाम 
नासिहाना कलाम (उपदेश) होता है न कि मुनाजिराना कलाम (शास्त्रार्थ) । 


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सूरह-29. अन-अनकबूत I087 पारा श 


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और इसी तरह हमने तुम्हारे ऊपर किताब उतारी। तो जिन लोगों को हमने किताब 
दी है वे उस पर ईमान लाते हैं। और इन लोगों में से भी कुछ ईमान लाते हैं। और 
हमारी आयतां का इंकार सिर्फ मुंकिर ही करते हैं। और तुम इससे पहले कोई किताब 
नहीं पढ़ते थे और न उसे अपने हाथ से लिखते थे। ऐसी हालत में बातिलपरस्त 
(असत्यवादी) लोग शुबह में पड़ते। बल्कि ये खुली हुई आयते हैं उन लोगों के सीनों 
में जिन्हें इलम अता हुआ है। और हमारी आयतों का इंकार नहीं करते मगर वे जो 
जालिम हैं। (47-49) 





लोगों में दो किस्म के अफराद होते हैं। एक वे जिन्हें पहले से सच्चाई का इल्म हासिल 
होता है। और दूसरे वे लोग जो बजाहिर सच्चाई का इल्म नहीं रखते। ताहम ये दूसरी किस्म 
के लोग भी फितरत की सतह पर सच्चाई से आशना (भिज्ञ) होते हैं। पहले, अगर हामिले 
किताब हैं तो दूसरे, हामिले फितरत। 

अगर लोग फिलवाकअ संजीदा हों तो वे फौरन हक को पहचान लेंगे। एक गिरोह अगर 
उसे किताबे आसानी की सतह पर पहचान लेगा तो दूसरा गिरोह किताबे फितरत की सतह 
पर। हर एक को सच्चाई की बात अपने दिल की बात नजर आएगी। मगर अक्सर हालात 
में लोग तरह-तरह की नफ्सियाती पेचीदगी में मुब्तिला हो जाते हैं। इसकी वजह से उनके 
अंदर इंकार का मिजाज आ जाता है। वे सच्चाई का इंकार ही करते रहते हैं, चाहे उसकी पुश्त 
पर कितने ही कराइन जमा हों और उसके हक में कितने ही ज्यादा दलाइल दे दिए जाएं 


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और वे कहते हैं कि उस पर उसके रब की तरफ से निशानियां क्यों नहीं उतारी गई। कहो 


कि निशानियां तो अल्लाह के पास हैं। और में सिर्फ खुला हुआ डराने वाला हूं। क्या उनके 
लिए यह काफी नहीं है कि हमने तुम पर किताब उतारी जो उन्हें पढ़कर सुनाई जाती है। 


पारा शा I088 सूरह-29. अन-अनकबूत 
बेशक इसमें रहमत और याददिहानी है उन लोगों के लिए जो ईमान लाए हैं। कहो कि 
अल्लाह मेरे और तुम्हारे दर्मियान गवाही के लिए काफी है। वह जानता है जो कुछ आसमानों 
और जमीन में है। और जो लोग बातिल (असत्य) पर ईमान लाए और जिन्होंने अल्लाह का 
इंकार किया वही ख़सारे (घाटे) में रहने वाले हैं। (50-52) 


जो लोग कहते थे कि पैग़म्बरे इस्लाम को उस तरह की निशानियां क्यों नहीं दी गई जैसी 
निशानियां मिसाल के तौर पर मूसा को दी गई थीं। फरमाया कि निशानियां अल्लाह के पास 
हैं। यानी निशानियों (मोजिजे) का तअल्लुक ख़ुदा से है न कि पैगम्बर से। पैगम्बर की दावत 
का असल इंहिसार दलाइल पर होता है। पैगम्बर हमेशा दलाइल के जोर पर अपनी दावत पेश 
करता है। अलबत्ता दूसरे मसालेह के तहत ख़ुदा कभी किसी पैग़म्बर को निशानी (मोजिजा) 
दे देता है और कभी नहीं देता। 

ईमान एक शुऊरी वाकया है। वही ईमान ईमान है जो दलील से मुतमइन होकर किसी 
बंदे के दिल में उभरा हो। जो शख्स दलील की रोशनी में जांच कर किसी चीज को माने वह 
हकपरस्त है और जो शख्स दूसरी गैर मुतअल्लिक बहसें निकाले वह बातिलपरस्त। 


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और ये लोग तुमसे अजाब जल्द मांग रहे हैं। और अगर एक वक्त मुर्कर न होता तो 

उन पर अजाब आ जाता। और यकीनन वह उन पर अचानक आएगा और उन्हें ख़बर 
भी न होगी। वे तुमसे अजाब जल्द मांग रहे हैं। और जहन्नम मुंकिरों को घेरे हुए है। 
जिस दिन अजाब उन्हें ऊपर से ढांक लेगा और पांव के नीचे से भी, और कहेगा कि 
चखो उसे जो तुम करते थे। (53-55) 








इंसान के आमाल ही उसकी जन्नत हैं और इंसान के आमाल ही उसकी दोजख़। एक 
शख्स जो इंकार और सरकशी का रवैया इख्तियार किए हुए हो, उसकी जिंदगी को अगर 
उसके मअनवी अंजाम के एतबार से देखना मुमकिन हो तो नजर आएगा कि उसके बुरे 
आमाल उसे अजाब बनकर घेरे हुए हैं। और सिर्फ इतनी सी देर है कि मौत आए और उसे 
उसको बनाई हुई दुनिया में डाल दे। 

इंसान की बहुत सी सरकशी सिर्फ अपनी हकीकत से बेख़बरी का नतीजा होती है। अगर 
उसको यह बेख़बरी ख़त्म हो जाए तो अचानक वह बिल्कुल दूसरा इंसान बन जाए। 


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सूरह-29. अन-अनकबूत I089 पारा श 
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ऐ मेरे बंदो जो ईमान लाए हो, बेशक मेरी जमीन वसीअ (विस्तृत) है तो तुम मेरी ही 
इबादत करो। हर जान को मोत का मजा चखना है। फिर तुम हमारी तरफ लोटाए 
जाओगे। और जो लोग ईमान लाए और उन्होंने नेक अमल किए उन्हें हम जन्नत के 
बालाख़ानों (उच्च भवनों) में जगह देंगे जिनके नीचे नहरें जारी होंगी वे उनमें हमेशा 
रहेंगे। क्या ही अच्छा अज्र है अमल करने वालों का। जिन्होंने सब्र किया और जो अपने 
रब पर भरोसा रखते हैं। और कितने जानवर हैं जो अपना रिज्क उठाए नहीं फिरते। 
अल्लाह उन्हें रिज्क देता है और तुम्हें भी। और वह सुनने वाला जानने वाला है। 
(56-60) 


हिजरत एक एतबार से तरीकेकार की तब्दीली है। यह तब्दीली कभी मकामे अमल 
बदलने की सूरत में होती है, जैसे मक्का को छोड़कर मदीना जाना। कभी मैदाने अमल बदलने 
की सूरत में होती है, जैसे सुलह हुदैबिया के जरिए जंग के मैदान से हटकर दावत के मैदान 
में आना। 

इन आयात में मक्का के अहले ईमान से कहा गया कि मक्का के लोग अगर तुम्हें 
सताते हैं तो तुम मक्का को छोड़कर दूसरे इलाके में चले जाओ और वहां अल्लाह की 
इबादत करो। इससे मालूम हुआ कि सब्र और तवक्कुल का मतलब इबादत पर जमना है 
न कि दुश्मन से टकराव पर जमना। अगर हर हाल में दुश्मन से टकराते रहना मकसूद होता 
तो उनसे कहा जाता कि मुखालिफीन (विरोधियों) से लड़ते रहो और वहां से किसी हाल 
में कदम बाहर न निकालो। 


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और अगर तुम उनसे पूछो कि किसने पैदा किया आसमानों और जमीन को, और 
मुसझ्ख़र किया सूरज को और चांद को, तो वे जरूर कहेंगे कि अल्लाह ने। फिर वे कहां 
से फेर दिए जाते हैं। अल्लाह ही अपने बंदों में से जिसका चाहता है रिज्क कुशादा कर 
देता है और जिसका चाहता है तंग कर देता है। बेशक अल्लाह हर चीज का जानने 
वाला है। और अगर तुम उनसे पूछो कि किसने आसमान से पानी उतारा, फिर उसने 
जमीन को जिंदा किया उसके मर जाने के बाद, तो जरूर वे कही कि अल्लाह ने। कहो 


कि सारी तारीफ अल्लाह के लिए है। बल्कि उनमें से अक्सर लोग नहीं समझते। 
(6-63) 





जमीन व आसमान को पैदा करना इतना बझ़ वाकया है कि एक कादिरे मुतलक 
(सर्वशक्तिमान) ख़ुदा ही इसे अंजाम दे सकता है। सूरज और चांद की गर्दिश, बारिश का 
बरसना और जमीन से नबातात (पौध) का उगना ये सब इससे ज्यादा बड़े वाकेयात हैं कि 
कोई गैर ख़ुदा इन्हें वजूद में ला सके। 

जो लोग किसी नौइयत के शिर्क में मुब्तिला हैं वे भी अपने मफरूजा (काल्पनिक) 
हस्तियों के बारे में यह अकीदा नहीं रखते कि वे इन अजीम वाकेयात को जहूर में लाए हैं। 
इसके बावजूद बहुत से लोग ख़ुदा के सिवा दूसरों की इस उम्मीद में परस्तिश करते हैं कि वे 
उनका र्ज्कि बढ़ दी। हालांकि जब हर किस्म के आला इह््ियारात सिर्फ खुदा को हासिल 


हैं तो दूसरा कौन है जो रिज्क की तवसीम में असरअंदाज हो सके। 
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और यह दुनिया की जिंदगी कुछ नहीं है मगर एक खेल और दिल का बहलावा। और 
आख़िरत का घर ही अस्ल जिंदगी की जगह है, काश कि वे जानते। पस जब वे कश्ती 

में सवार होते हैं तो अल्लाह को पुकारते हैं, उसी के लिए दीन को ख़ालिस करते हुए। 
फिर जब वह उन्हें नजात देकर ख़ुश्की की तरफ ले जाता है तो वे फीरन शिर्क करने 


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सूरह-29. अन-अनकबूत I09I पारा श] 
लगते हैं। ताकि हमने जो नेमत उन्हें दी है उसकी नाशुक्री करें और चन्द दिन फायदा 
उठाएं। पस वे अनकरीब जान लेंगे। (6466) 





इंसान की गुमराही का असल सबब यह है कि वह दुनिया की रौनकों और दुनिया के 
मसाइल में इतना गुम होता है कि इससे ऊपर उठकर सोच नहीं पाता। हकीकत को पाने के 
लिए अपने आपको जाहिर से ऊपर उठाना पड़ता है। बेशतर लोग अपने आपको जाहिर से 
उठा नहीं पाते इसलिए बेशतर लोग हकीकत को पाने वाले भी नहीं बनते। 

दुनिया में आदमी को बार-बार ऐसे तजर्बात पेश आते रहते हैं जो उसे उसका इज्ज याद 
दिलाते हैं। उस ववत उसके तमाम मस्ूई ख़्यालात ख़त्म हो जाते हैं और हकीकी फितरत 
वाला इंसान जाग उठता है। मगर जैसे ही हालात मोअतदिल (सहज) हुए वह दुबारा पहले की 
तरह गाफिल और सरकश बन जाता है। इन्हीं नाजुक तजर्बात में से सफर का वह तजर्बा है 
जिसका जिक्र आयत में किया गया है। 

आदमी को जानना चाहिए कि आजादी का यह मौका उसे सिर्फ चन्द दिन की जिंदगी 
तक हासिल है। मौत के बाद उसके सामने बिल्कुल दूसरी दुनिया होगी और बिल्कुल दूसरे 
मसाइल। 


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क्या वे देखते नहीं कि हमने एक पुरअम्न हरम बनाया। और उनके गिर्द व पेश (आस 
पास) लोग उचक लिए जाते हैं। तो क्या वे बातिल (असत्य) को मानते हैं और अल्लाह 
की नेमत की नाशुक्री करते हैं। और उस शख्स से बड़ा जालिम कौन होगा जो अल्लाह 
पर झूठ बांधे या हक को झुठलाए जबकि वह उसके पास आ चुका। क्या मुंकिरों का 


ठिकाना जहन्नम में न होगा। और जो लोग हमारी खातिर मशक्कत उठाएंगे उन्हें हम 
अपने रास्ते दिखाएंगे। और यकीनन अल्लाह नेकी करने वालों के साथ है। (67-69) 








मक्का का हरम अल्लाह तआला की एक अजीब नेमत है। अल्लाह ने लोगों के ऊपर 
उसका ऐसा रब बिठा रखा है कि वहां पहुंच कर जालिम और सरकश भी अपना जुल्म और 
सरकशी भूल जाते हैं। हरम का यह तकदूदुस (पवित्रता) खुदा की कुदरत की एक निशानी 


पारा श 092 सूरह-30. अर-रूम 
था। इसका तकाजा था कि लोगों के दिल ख़ुदा के लिए झुक जाएं। मगर बातिलपरस्तों ने यह 
किया कि गैर ख़ुदा में खुदा के औसाफ फर्ज करके लोगों के जज्बाते परस्तिश को बिल्कुल 
गलत तौर पर उनकी तरफ फेर दिया। उनका मजीद जुल्म यह है कि अल्लाह के रसूल ने जब 
उन्हें नसीहत की कि इन मफरूजा (काल्पनिक) खुदाओं को छोड़ो और एक ख़ुदा के आगे 
झुक जाओ तो वे रसूल के दुश्मन बन गए। 

नाहकपरस्ती के माहौल में हकपरस्त बनना एक शदीद मुजाहिदे (संघर्षशीलता) का 
अमल है। इसमें मिली हुई चीज छिनती है। हासिलशुदा सुकून दरहम-बरहम हो जाता है। मगर 
इसी महरूमी में एक अजीम याफ्त (प्राप्त) का राज छुपा हुआ है। और वह मअरफत 
(अन्तज्ञान) और बसीरत (अन्तर्दृष्टि) है। ऐसे लोगों के लिए इंसानों के दरवाज बंद होते हैं। 
मगर उनके लिए ख़ुदा के दरवाजे खुल जाते हैं। वे दुनिया से खोकर ख़ुदा से पाने लगते हैं। 
वे मादुदी राहतां से दूर होकर रब्बानी कैफियात से करीब हो जाते हैं। जाहिरी चीजें उनसे 
ओझल होती हैं मगर मअनवी चीजें उन पर मुंकशिफ हो जाती हैं। उन पर वे गहरे भेद खुलने 
लगते हैं जिनकी बड़े-बड़े लोगों को ख़बर भी नहीं होती। 


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आयतें-60 सूरह-30. अर-रुम रुकूअ-6 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
अलिफ० लाम० मीम०। रूमी पास के इलाके में मग़लूब (परास्त) हो गए, और वे अपनी 
मग़लूबियत के बाद अनकरीब ग़ालिब होंगे। चन्द वर्षों में। अल्लाह ही के हाथ में सब 
काम है, पहले भी और पीछे भी। और उस दिन ईमान वाले खुश होंगे, अल्लाह की 
मदद से। वह जिसकी चाहता है मदद करता है। और वह जबरदस्त है, रहमत वाला 
है। अल्लाह का वादा है। अल्लाह अपने वादे के खिलाफ नहीं करता। लेकिन अक्सर 





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सूरह-30. अर-रूम 093 पारा शा 
लोग नहीं जानते। वे दुनिया की जिंदगी के सिर्फ जाहिर को जानते हैं, और वे आख़िरत 
से बेख़बर हैं। (-7) 





जुहूरे इस्लाम के वक्‍त दुनिया में दो बहुत बड़ी सल्तनतें थीं। एक मसीही रूमी सल्तनत। 
दूसरे मजूसी ईरानी सल्तनत। दोनों में हमेशा रकीबाना कशमकश जारी रहती थी। अल्लाह 
के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की पैदाइश के बाद 603 ई० का वाकया है कि कुछ 
कमजोरियों से फायदा उठाकर ईरान ने रूमी सल्तनत पर हमला कर दिया। रूमियों को 
शिकस्त पर शिकस्त हुई। यहां तक कि 66 ई० तक यरोशलम सहित रूम की मश्रिकी 
सल्तनत का बड़ा हिस्सा ईरानियों के कब्जे में चला गया। 

अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को नुबुव्वत 60 ई० में मिली और आपने 
मक्का में तौहीद की दावत का काम शुरू किया। इस लिहाज से यह ऐन वही जमाना था 
जबकि मक्का में तौहीद और शिक की कशमकश जारी थी। मक्का के मुश्रिकीन ने सरहदी 
वाकये से फाल लेते हुए मुसलमानों से कहा कि हमारे मुश्रिक भाइयों (मजूस) ने तुम्हारे अहले 
किताब भाइयों (मसीही) को शिकस्त दी है। इसी तरह हम भी तुम्हारा ख़ात्मा कर देंगे। 

उस वक्त कुरआन में हालात के सरासर खिलाफ यह पेशीनगोई (भविष्यवाणी) उतरी कि 
दस साल के अंदर रूमी दुबारा ईरानियों पर गालिब आ जाएंगे। रूमी इतिहासकार बताते हैं 
कि इसके जल्द ही बाद रूम के पराजित बादशाह (हिरकल) में पुरअसरार तौर पर तब्दीली 
पैदा होना शुरू गई। यहां तक कि 623 ई० में उसने ईरान पर जवाबी हमला किया । 624 ई० 
में उसने ईान पर पैसलाकुन फतह हासिल की। 627 ई० तक उसने अपने सारे मकबूजा 
इलाके झानियाँ से वापस ले लिए। कुआन की पेशीनगेई लफा-ब-लफ्न परी हुई। इससे 
साबित होता है कि कुरआन का मुसन्निफ (लेखक) खुदा है। ख़ुदा के सिवा कोई भी 
मुस्तकबिल के बारे में इतना सही बयान नहीं दे सकता। 

मजीद यह वाकया बताता है कि हार और जीत बराहेरास्त खुदा के इख्तियार में है। उसी 
के फैसले से किसी को इक्तेदार (सत्ता) मिलता है और किसी से इक्तेदार छिन जाता है। एक 
कैम का गिरना और दूसरी कौम का उठना बजाहिर आम दुनियावी वाक्या है। मगर इस 
जाहिर का एक बातिन (भीतर) है। हर वाकये के पीछे खुदा के फरिश्ते फैसलाकुन तौर पर 
काम कर रहे होते हैं, अगरचे वे आम इंसानी आंखों को दिखाई नहीं देते। इसी तरह मौजूदा 
आलमे जाहिर का भी एक बातिन (भीतर) है और वह आलमे आखिरत है। 


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क्या उन्होंने अपने जी में गौर नहीं किया, अल्लाह ने आसमानों और जमीन को और 
जो कुछ इनके दर्मियान है बरहक पैदा किया है। और सिर्फ एक मुकर मुद्दत के लिए। 

और लोगों में बहुत से हैं जो अपने रब से मुलाकात के मुंकिर हैं। क्या वे जमीन में चले 

फिरे नहीं कि वे देखते कि कैसा अंजाम हुआ उन लोगों का जो उनसे पहले थे। वे उनसे 
ज्यादा ताकत रखते थे। और उन्होंने जमीन को जोता और उसे उससे ज्यादा आबाद 

किया जितना इन्होंने आबाद किया है। और उनके पास उनके रसूल वाजेह निशानियां 
लेकर आए। पस अल्लाह उन पर जुल्म करने वाला न था। मगर वे ख़ुद ही अपनी 
जानों पर जुल्म कर रहे थे। फिर जिन लोगों ने बुरा काम किया था उनका अंजाम बुरा 
हुआ, इस वजह से कि उन्होंने अल्लाह की आयतों को झुठलाया। और वे उनकी हंसी 
उड़ाते थे। (8-0) 





खुदा किसी आदमी को जिक्र व फिक्र की सतह पर मिलता है। यानी आदमी सोच के 
जरिए से खुदा को पाता है। ख़ुदा ने मौजूदा दुनिया में अपने दलाइल बिखेर दिए हैं, आदमी 
की अपनी जात में, बाहर की कायनात में और फिर पैगम्बर की तालीमात में। जो लोग इन 
ख़ुदाई निशानियों में गौर करेंगे वही ख़ुदा को पाएंगे। 

दलील इस दुनिया में ख़ुदा की नुमाइंदा (प्रतिनिधि) है। एक शख्स के सामने सच्ची 
दलील आए और वह उसे नजरअंदाज कर दे तो गोया कि उसने खुदा को नजरअंदाज किया । 
ऐसे लोगों के लिए ख़ुदा के यहां अबदी महरूमी के सिवा और कुछ नहीं । 

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सूरह-30. अर-रूम I095 पारा श 
अल्लाह ख़ल्क (सृष्टि) को पहली बार पैदा करता है, फिर वही दुबारा उसे पैदा करेगा। 
फिर तुम उसी की तरफ लोटाए जाओगे और जिस दिन कियामत बरपा होगी उस दिन 
मुजरिम लोग हैरतजदा रह जाएंगे। और उनके शरीकों में से उनका कोई सिफारिशी न 

होगा और वे अपने शरीकों के मुंकिर हो जाएंगे। और जिस दिन कियामत बरपा होगी 
उस दिन सब लोग जुदा-जुदा हो जाएंगे। पस जो ईमान लाए और जिन्होंने नेक अमल 
किए वे एक बाग़ में मसरुर (प्रसन्न) होंगे। और जिन लोगों ने इंकार किया और हमारी 
आयतों को और आम़िरत के पेश आने को झुठलाया तो वे अजाब में पकड़े हुए होंगे। 
पस तुम पाक अल्लाह की याद करो जब तुम शाम करते हो और जब तुम सुबह करते 
हो। और असामानों और जमीन में उसी के लिए हम्द (प्रशंसा) है और तीसरे पहर और 
जब तुम जुहर करते हो। (-8) 


एक मुकम्मल दुनिया का मौजूद होना पहली तख़्तीक (सृजन) का यकीनी सुबूत है। फिर 
जब पहली तख़्तीक मुमकिन है तो दूसरी तख्नीक क्यों मुमकिन नहीं । जो शख्स मौजूदा दुनिया 
को माने और आखिरत को न माने वह खुद अपनी मानी हुई बात के लाजिमी तकाजे का इंकार 
कर रहा है। 

'मुजरिमीन' से मुराद वे बड़े लोग हैं जिन्होंने इंकारे हक की मुहिम की कयादत की । जिन्होंने 
इंकारे हक के लिए दलाइल फराहम किए । कियामत का धमाका जब निजामे आलम को बदलेगा 
तो अचानक ये मुजरिमीन देखेंगे कि वे तमाम सहारे बिल्कुल बेबुनियाद थे जिन पर उन्हें बड़ा 
नाज थ। वे तमाम अल्फज झूठे अत्फज साबित हुए जिन्हेवे अपने मैक्फ़ि के हक में 
नाकाबिले तरदीद (अकाट्य) दलील समझते थे। अपनी उम्मीदों और खुशख्यालियों के बरअक्स 
जब वे इस सूरतेहाल को देखेंगे तो वे बिल्कुल हैरतजदा होकर रह जाएंगे । 

कियामत में इंसानों की दो तक्सीम की जाएगी । एक, खुदा की हम्द व तस्बीह करने वाले 
लोग। दूसरे, हम्द व तस्बीह से खाली लोग | खुदा की हम्द व तस्बीह करने वाले लोग वे हैं जो 
ख़ुदा को इस तरह पाएं कि वह उनकी यादों में समा जाए। वह उनके दिमाग़ की सोच और 
उनकी जबान का तज्किरा बन जाए। इसी हम्द व तस्बीह की एक मुतअय्यन सूरत का नाम 
पांच वक्‍त की नमाज है। आयत में सुबह की तस्बीह से मुराद फज्र की नमाज है। शाम की 
तस्बीह में मग्रिब और इशा की नमाजें शामिल हैं। दोपहर ढलने के बाद की तस्बीह से मुराद 
जुहर की नमाज है। और दिन के पिछले वक्‍त की तस्बीह से मुराद अन्न की नमाज 


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पारा शा I096 सूरह-30. अर-रूम 


वह जिंदा को मुर्दा से निकालता है और मुर्दा को जिंदा से निकालता है। और वह जमीन 

को उसके मुर्दा हो जाने के बाद जिंदा करता है और इसी तरह तुम लोग निकाले 
जाओगे। और उसकी निशानियों में से यह है कि उसने तुम्हें मिट्टी से पैदा किया है। 
फिर यकायक तुम बशर इंसान बनकर फैल जाते हो। और उसकी निशानियों में से 
यह है कि उसने तुम्हारी जिन्स से तुम्हारे लिए जोड़े पैदा किए ताकि तुम उनसे सुकून 
हासिल करो। और उसने तुम्हारे दर्मियान मुहब्बत और रहमत रख दी। बेशक इसमें 
बहुत सी निशानियां हैं उन लोगों के लिए जो गौर करते हैं। (।9-27) 





मौजूदा दुनिया का एक अजीब व गरीब करिश्मा एक चीज का दूसरी चीज में तब्दील 
होना है। यहां अवृद्धिशील पदार्थ वृद्धिशील पदार्थ में तब्दील हो रहा है। यहां बेजान मिट्टी 
(दूसरे शब्दों में भूमि के तत्व) तब्दील होकर चलने और बोलने वाले इंसान की सूरत इख्तियार 
कर लेते हैं। मजीद यह कि यह सब कुछ हददर्जा बामअना तौर पर हो रहा है। मिसाल के 
तौर पर “मिट्टी” जब तब्दील होकर इंसान बनती है तो उसका तकरीबन आधा हिस्सा मर्द की 
सूरत में ढल जाता है और तकरीबन निस्फ (आधा) हिस्सा औरत की सूरत में। इसी तक्सीम 
की बदौलत इंसानी तहजीब हजारों साल से कायम है। यह तब्दीली और फिर मुनज्जम और 
मुतनासिब (संतुलित) तब्दीली इसके बगैर मुमकिन नहीं कि उसके पीछे एक कादिरे मुतलक 
(सर्वशक्तिमान) खुदा की कारफरमाई मानी जाए। 

हकीकत यह है कि आदमी अगर खुदा की तख्नीक पर गौर करे तो उसे ऐसा लगेगा जैसे 
हर चीज में खुदा का जलवा हो। हर चीज से ख़ुदा झांक रहा हो। 


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और उसकी निशानियों में से आसमानों और जमीन की पेदाइश और तुम्हारी बोलियां 
ओर तुम्हारे रंगों का इख़तेलाफ (अंतर) है। बेशक इसमें बहुत सी निशानियां हैं इलम 
वालों के लिए। और उसकी निशानियों में से तुम्हारा रात और दिन में सोना और 


तसय उसके फल (जीविका) को तलाश करना है। बेशक इसमें बहुत सी निशानियां 
हैं उन लोगों के लिए जो सुनते हैं। और उसकी निशानियों में से यह है कि वह तुम्हें 








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सूरह-30. अर-रूम I097 पारा शा 
बिजली दिखाता है, ख़ोफ के साथ और उम्मीद के साथ। और वह आसमान से पानी 
उतारता है फिर उससे जमीन को जिंदा करता है उसके मुर्दा हो जाने के बाद। बेशक 

इसमें निशानियां हैं उन लोगों के लिए जो अक्ल से काम लेते हैं। (22-24) 


कायनात अपने पूरे वजूद के साथ ख़ुदा की निशानी है। इसका अदम से वुजूद में आना 
खुदा की कुब्वते तख़लीक को बताता है। इसके अंदर बेशुमार तनव्वोअ (विविधता) खुदा की 
कुदरत की तरफ इशारा कर रही है। तमाम चीजों में हददर्जा मअनवियत (अर्थपूर्णता) ख़ुदा 
की सिफ्ते रहमत का आइना है। बिजली जैसी तबाहकुन चीजों की मौजूदगी खुदा की सिफ्ते 
इंतिकाम का तआरुफ है। जमीन का ख़ुश्क हो जाने के बाद दुबारा हरा भरा हो जाना 
तख्लीके सानी (दुबारा पैदा करने) के इम्कान को बता रहा है। 

ये सब ख़ुदा की निशानियां हैं। मगर ये निशानियां सिर्फ उन लोगों के लिए हैं जो 
कायनात की ख़ामोश पुकार पर कान लगाएं। जो अपनी अक्ल और अपने इल्म को सही रुख़ 
पर इस्तेमाल करें । 

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और उसकी निशानियों में से यह है कि आसमान और जमीन उसके हुक्म से कायम 

है। फिर जब वह तुम्हें एक बार पुकारेगा तो तुम उसी वक्‍त जमीन से निकल पड़ोगे। 

और आसमानां और जमीन में जो भी है उसी का है। सब उसी के ताबे (अधीन) हैं 
और वही है जो अव्वल बार पैदा करता है फिर वही दुबारा पैदा करेगा। और यह उसके 
लिए ज्यादा आसान है। और आसमानां और जमीन में उसी के लिए सबसे बरतर 

सिफत है। और वह जबरदस्त है, हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। (25-27) 








अथाह ख़ला में जमीन और सूरज और सय्यारों (ग्रहे) और सितारों का निजाम इस वद्र 
हैरतनाक हद तक नादिर वाकया है कि वह ख़ुद बोल रहा है कि वह किसी कायम रखने वाले 
की कुदरत से कायम है। और किसी चलाने वाले के जोर पर चल रहा है। यह गैर मामूली मदद 
अगर एक लम्हा के लिए भी उससे जुदा हो तो वह बिल्कुल दरहम बरहम हो जाए। एक दुनिया 
में इस मामूली हवाई जहाज भी पायलेट का कंट्रोल खोने के बाद बर्बाद हो जाता है, फिर 
कायनात का इतना बड़ा कारख़ाना किसी कट्रोलर के कंट्रोल के बगैर कैसे चल सकता है। 
कायनात का ख़ालिक कायनात में अपनी कुदरत का जो मुजाहिरा कर रहा है उसके 


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पारा श I098 सूरह-30. अर-रूम 
लिहाज से उसके लिए यह काम आसानतर है कि वह इंसान को मौत के बाद दुबारा पैदा करे। 
तख्लीके अव्वल का जो मुजाहिरा कायनात में हर आन हो रहा है उसके बाद तख्तीके सानी 

को मानना ऐसा ही है जैसे एक साबितशुदा चीज को मानना । कायनात में खुदा की कुदरत 

और उसकी हिक्मत का इज्हार इतनी आला सतह पर हो रहा है कि इसके बाद किसी भी 
कारनामे को खुदा की तरफ मंसूब करना कोई अनहोनी चीज नहीं। 


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वह तुम्हारे लिए ख़ुद तुम्हारी जात से एक मिसाल बयान करता है। क्या तुम्हारे गुलामों 

में कोई तुम्हारे उस माल में शरीक है जो हमने तुम्हें दिया है कि तुम और वह उसमें 
बराबर हों। और जिस तरह तुम अपनों का लिहाज करते हो उसी तरह उनका भी लिहाज 

करते हो। इस तरह हम आयतें खोलकर बयान करते हैं उन लोगों के लिए जो अक्ल 

से काम लेते हैं। बल्कि अपनी जानों पर जुल्म करने वालों ने बगेर दलील अपने ख्यालात 
की पैरवी कर रखी है तो उसे कौन हिदायत दे सकता है जिसे अल्लाह ने भटका दिया 
हो। और कोई उनका मददगार नहीं। (28-29) 





एक मुशतरक (साझा) माल या जायदाद हो तो उसमें उसके तमाम शरीकों का हक होता 
है और हर शरीक को दूसरे शरीक का लिहाज रखना पड़ता है। मगर खुदा का मामला इस किस्म 
का मामला नहीं । खुदा तंहा तमाम कायनात का मालिक है। ख़ुदा के लिए सही मिसाल आका 
(स्वामी) और गुलाम की है न कि जायदाद के शरीकों की। ख़ुदा और उसकी मख्लूकात के 
दर्मियान ज्यादा बड़े पैमाने पर वही निस्बत है जो एक आका और एक गुलाम के दर्मियान पाई 
जाती है। कोई शख्स अपने गुलाम या नौकर को अपने बराबर का दर्जा नहीं देता। इसी तरह 
कायनात में कोई भी नहीं है जिसे ख़ुदा के साथ बराबरी की हैसियत हासिल हो । खुदा की तरफ 
सिर्फआकई है और बकिया मर्रू्जत की तरफ सिर्फमहकूगी और उुलामी। 

मख्लूकात का अपने-अपने तख्नीकी निजाम का पाबंद होना बताता है कि ख़ुदा और 
मख्नूकात के दर्मियान सही निस्बत आका और गुलाम की है। इसके सिवा जो निस्बत 
भी कायम की जाएगी उसकी बुनियाद महज इंसानी मफरूज पर होगी न कि किसी वाकई 
दलील पर। 





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पस तुम यकसू होकर अपना रुख इस दीन की तरफ रखो, अल्लाह की फितरत जिस 
पर उसने लोगों को बनाया है। उसके बनाए हुए को बदलना नहीं। यही सीधा दीन 
है। लेकिन अक्सर लोग नहीं जानते। उसी की तरफ मुतवज्जह होकर और उसी से डरो 
और नमाज कायम करो और मुश्रिकीन में से न बनो जिन्होंने अपने दीन को टुकडेटुकड़े 


कर लिया। और बहुत से गिरोह हो गए। हर गिरोह अपने तरीके पर नाजां (मग्न) है 
जो उसके पास है। (30-32) 








अस्ल दीन यह है। और वह हर पैगम्बर पर अपनी कामिल शक्ल में उतरा है। वह है 
एक अल्लाह की तरफ रुजूअ (प्रवृत्त होना), एक अल्लाह का डर, एक अल्लाह की परस्तारी, 
हमह-तन एक अल्लाह की तरफ मुतवज्जह हो जाना, यही दीने फितरत है। यह दीन अबदी 
तौर पर हर इंसान की नफ्सियात में समाया हुआ है। तमाम पैग़म्बरों ने इसी एक दीन की 
तालीम दी। मगर उनके पैरोकारों की बाद की नस्लों ने एक दीन को कई दीन बना डाला। 
कई दीन हमेशा उन इजपी (अतिरिक्त) बहसों से बनता है जो बाद के लोग पैग़म्बरों की 
इब्तिदाई तालीमात में पैदा करते हैं। अकाइद में नई ईजाद की गई मूशिगाफियां, इबादात में 
ख़ुदसाख्ता मसाइल, जमाने के तास्सुर के तहत दीन की नई-नई ताबीरें। यही वे चीजें हैं जो बाद के 
दौर में एक दीन को कई दीन बना देती हैं। जब ये इजाफे वजूद में आते हैं तो लोग अस्ल दीन के 
बजाए अपने इन्हीं इजाफें पर सबसे ज्यादा जोर देने लगते है जिनकी बदौलत वे दूसरे गिरोह से जुदा 
होकर अलग गिरोह बने हैं। एक गिरोह एक किस्म के इजाफे पर जेर देता है; और दूसरा गिरोह 
दूसरे किस्म के इजाफे पर । इस तरह बिलआख़िर यह नौबत आती है कि एक दीन को मानने वाले 
अमलन कई दीनी गिरोहों में बट कर रह जाते हैं। 


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और जब लोगों को कोई तकलीफ पहुंचती है तो वे अपने रब को पुकारते हैं उसी की 


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तरफ मुतवज्जह होकर। फिर जब वह अपनी तरफ से उन्हें महरबानी चखाता है तो उनमें 

से एक गिरोह अपने रब का शरीक ठहराने लगता है कि जो कुछ हमने उन्हें दिया है 
उसके मुंकिर हो जाएं। तो चन्द दिन फायदा उठा लो, अनकरीब तुम्हें मालूम हो 
जाएगा। क्या हमने उन पर कोई सनद उतारी है कि वह उन्हें खुदा के साथ शिर्क करने 
को कह रही है। (३३-35) 


आम हालात में आदमी अपने को बाइख़्तियार पाता है। इसलिए आम हालात में वह 
मस्नूई (बनावटी) तौर पर सरकश बना रहता है। मगर जब नाजुक हालात उसे उसकी बेबसी 
का तजर्बा कराते हैं, उस वक्‍त उसके जेहन के पर्दे हट जाते हैं। वह उस वक्‍त असली इंसान 
(Man cut (0 ऽ।2९) बन जाता है जोकि वह हकीकतन है। उस वक्‍त वह अपनी आजिजना 
हैसियत का एतराफ करते हुए खुदा को पुकारने लगता है। 

यह नफ्सियात की सतह पर तौहीदे इलाह (एक ही पूज्य) का सुबूत है। इस तरह इंसान 
को उसके जाती तजु्ब में हकीकत का चेहरा दिखाया जाता है। मगर आदमी इतना नादान है कि 
जैसे ही हालात बदले वह दुबारा पहले की तरह गफलत और सरकशी में मुब्तिला हो जाता है। 


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और जब हम लोगों को महरबानी चखाते हैं तो वे उससे खुश हो जाते हैं। और अगर 
उनके आमाल के सबब से उन्हें कोई तकलीफ पहुंचती है तो यकायक वे मायूस हो जाते 
हैं। क्या वे देखते नहीं कि अल्लाह जिसे चाहे ज्यादा रोजी देता है और जिसे चाहे कम। 
बेशक इसमें निशानियां हैं उन लोगों के लिए जो ईमान रखते हैं। पस रिश्तेदार को 
उसका हक दो और मिस्कीन को और मुसाफिर को। यह बेहतर है उन लोगों के लिए 
जो अल्लाह की रिजा चाहते हैं और वही लोग फलाह पाने वाले हैं। और जो सूद तुम 
देते हो ताकि लोगों के माल में शामिल होकर वह बढ़ जाए, तो अल्लाह के नजदीक 
वह नहीं बढ़ता। और जो जकात तुम दोगे अल्लाह की रिजा हासिल करने के लिए तो 
यही लोग हैं जो अल्लाह के यहां अपने माल को बढ़ाने वाले हैं। (36-39) 





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सूरह-30. अर-रूम I0l पारा श 


मोमिन राहत और मुसीबत दोनों को खुदा की तरफ से समझता है। इसलिए वह दोनों 
हालतों में खुदा की तरफ मुतवज्जह होता है। वह राहत में शुक्र करता है और मुसीबत में सब्र। 
इसके बरअक्स गैर मोमिन का भरोसा अपने आप पर होता है। इसलिए वह अच्छे हालात में 
नाजां होता है और जब उसकी कुब्वतें जवाब दे जाएं तो वह मायूसी का शिकार हो जाता है। 
क्योंकि उसे महसूस होता है कि अब उसकी आखिरी हद आ गई। यह गोया फितरत की 
शहादत है जोबताती हिकि पहला ज्हन हवीवी ज्हन है और दूसरा ज्हन मे हवीवी जेहन । 

मोमिन की एक पहचान यह है कि वह अपने माल को रिजाए इलाही के लिए खर्च करता 
है। चुनांचे वह अपने माल में दूसरे जरूरमंदों का भी हिस्सा लगाता है, चाहे वे उसके रिश्तेदार 
हों या गैर रिश्तेदार वह अपने माल को आख़िरत का नफा कमाने के लिए खर्च करता है न 
कि सूद ख़ारों की तरह सिर्फ दुनिया का नफा कमाने के लिए। 


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अल्लाह ही है जिसने तुम्हें पेदा किया, फिर उसने तुम्हें रोजी दी, फिर वह तुम्हें मौत 
देता है, फिर वह तुम्हें जिंदा करेगा। क्या तुम्हारे शरीकों में से कोई ऐसा है जो इनमें 
से कोई काम करता हो। वह पाक है और बरतर है उस शिर्क से जो ये लोग करते हैं। 
ख़ुश्की और तरी में फसाद फैल गया लोगों के अपने हाथों की कमाई से, ताकि अल्लाह 
मजा चखाए उन्हें उनके कुछ आमाल का, शायद की वे बाज आएं। कहो कि जमीन 


में चलो फिरो, फिर देखो कि उन लोगों का अंजाम क्या हुआ जो इससे पहले गुजरे हैं। 
उनमें से अक्सर मुश्रिक (बहुदेववादी) थे। (40-42) 








एक इंसान का पैदा होना, उसका सुबह व शाम का रिज्क मिलना, उस पर मौत वाकेअ 
होना, ये वाकेयात इतने अजीम हैं कि इनके जुहूर के लिए कायनाती कुवत दरकार है। और 
ख़लिकेकायनात के सिवा कोई भी मफरूज (काल्पनिक) हस्ती ऐसी नहीं जो इस किस्म की 
कायनाती कुत रखती हो। हकीकत यह है कि तौहीद (एकेश्वरवाद) अपनी दलील आप है 
और शिक (बहुदेववाद) अपनी तरदीद (रद्द) आप। 

अगर इंसान एक ख़ुदा को अपना माबूद बनाए तो सबका मकजे तवज्जोह एक होता है। 
इससे इंसानों के दर्मियान इत्तेहाद की फजा पैदा होती है। इसके बरअक्स जब दूसरे-दूसरे 


पारा श II02 सूरह-30. अर-रूम 
माबूद बनाए जाने लगें तो बेशुमार चीजेमर्कजे तवज्जोह बन जाती हैं। इससे अफराद और कीमों 
में इनाद (देष) और इख़्तेलाफ पैदा होता है। खुशकी और समुद्र और फजा सब फसाद (उपद्रव, 
बिगाड़) से भर जाते हैं। 

इंसान की बेराहरवी (पथभ्रष्टता) का मुस्तकिल अंजाम मौत के बाद सामने आने वाला 
है। मगर इंसान की बेराहरवी का वक्ती अंजाम इसी दुनिया में दिखाया जाता है ताकि लोगों 
को याददिहानी हो। 


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पस अपना रुख़ दीने कय्यिम (सीधे-सहज धर्म) की तरफ सीधा रखो। इससे पहले कि 
अल्लाह की तरफ से ऐसा दिन आ जाए जिसके लिए वापसी नहीं है। उस दिन लोग 
जुदा-जुदा हो जाएंगे। जिसने इंकार किया तो उसका इंकार उसी पर पड़ेगा। और जिसने 
नेक अमल किया तो ये लोग अपने ही लिए सामान कर रहे हैं। ताकि अल्लाह ईमान 


लाने वाला को और नेक अमल करने वाला को अपने फज्ल से जजा (प्रतिफल) दे। 
बेशक अल्लाह मुंकिरों को पसंद नहीं करता। (43-45) 








मौजूदा दुनिया में अच्छे और बुरे दोनों किस्म के लोग मिले हुए हैं। आख़िरत इसलिए 
आएगी कि वह दोनों किस्म के लोगों को अलग-अलग कर दे। उस दिन ख़ुदा का इनाम उन 
लोगों के लिए होगा जो मौजूदा दुनिया में सिर्फ ख़ुदा वाले बनकर रहे। और जिन लोगों की 
दिलचस्पियां गैर ख़ुदा के साथ वाबस्ता रहीं वे वहां अबदी (चिरस्थाई) तौर पर ख़ुदा की 
रहमतों से महरूम कर दिए जाएंगे। 


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और उसकी निशानियों में से यह है कि वह हवाएं भेजता है खुशखबरी देने के लिए 
और ताकि वह तुम्हें अपनी रहमत से नवाजे। और ताकि कश्तियां उसके हुक्म से चलें। 


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सूरह-30. अर-रूम I03 पारा श 
और ताकि तुम उसका फज्ल तलाश करो। और ताकि तुम उसका शुक्र अदा करो। 

और हमने तुमसे पहले रसूलाँ को भेजा उनकी कौम की तरफ। पस वे उनके पास खुली 
निशानियां लेकर आए। तो हमने उन लोगों से इंतिकाम लिया जिन्होंने जुर्म किया था। 
और हम पर यह हक था कि हम मोमिनों की मदद करें। (46-47) 





बारिश से पहले ठंडी हवाओं का आना इस बात का एलान है कि इस दुनिया का ख़ुदा 
रहमतों वाला ख़ुदा है। समुद्री जहाजरानी तमद्दुन (संस्कृति) के लिए इंतिहाई अहम है। मगर 
समुद्री जहाजरानी उसी वक्त मुमकिन होती है जबकि हवा एक ख़ास हद के अंदर रहे। इसी 
तरह मौजूदा जमाने में हवाई सफर का भी बहुत गहरा तअल्लुक इस इंतजाम से है कि खुदा 
ने जमीन की सतह के ऊपर हवा का दबीज (मोटा) गिलाफ कायम कर रखा है। 

यह सारा एहतिमाम इसलिए किया गया है ताकि इंसान ख़ुदा का शुक्रगुजार बंदा बनकर 
रहे। खुदा के पैगम्बर इन्हीं हकीकतों की तरफ लोगों को मुतवज्जह करने के लिए आए । फिर 
कुछ लोगों ने उन्हें माना, और कुछ लोगों ने उनका इंकार कर दिया। उस वक्त ख़ुदा ने मानने 
वालों की मदद की और इंकार करने वालों को हलाक कर दिया । यही मामला दोनों किस्म के 
इंसानों के साथ आख़िरत में ज्यादा बड़े पैमाने पर पेश आएगा । 


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अल्लाह ही है जो हवाओं को भेजता है। पस वे बादल को उठाती हैं। फिर अल्लाह उन्हें 
आसमान में फेला देता है जिस तरह चाहता है। और वह उन्हें तह-ब-तह करता है। 
फिर तुम बारिश को देखते हो कि उसके अंदर से निकलती है। फिर जब वह अपने बंदों 
में से जिसे चाहता है उसे पहुंचा देता है तो यकायक वे खुश हो जाते हैं। और वे उसके 


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पारा शा I04 सूरह-30. अर-रूम 
नाजिल किए जाने से पहले, ख़ुशी से पहले, नाउम्मीद थे। पस अल्लाह की रहमत के 
आसार (निशान) को देखो, वह किस तरह जमीन को जिंदा कर देता है उसके मुर्दा हो 

जाने के बाद। बेशक वही मुर्दो को जिंदा करने वाला है। और वह हर चीज पर कादिर 

है। और अगर हम एक हवा भेज दें, फिर वे खेती को जर्द हुई देखें तो इसके बाद वे 
इंकार करने लगेंगे। तो तुम मुर्दो को नहीं सुना सकते, और न तुम बहरों को अपनी 
पुकार सुना सकते जबकि वे पीठ फेरकर चले जा रहे हों। और न तुम अंधों को उनकी 
गुमराही से निकाल कर राह पर ला सकते हो। तुम सिफ उसे सुना सकते हो जो हमारी 
आयतों पर ईमान लाने वाला हो। पस यही लोग इताअत (आज्ञापालन) करने वाले 
हैं। (48-53) 





आदमी हक का रास्ता इख्तियार करे तो उसे अक्सर सख्त दुश्वारियों का सामना करना 
पड़ता है, जैसा कि दौरे अव्वल में रसूल और असहाबे रसूल के साथ पेश आया। मगर इन 
हालात में किसी के लिए मायूस होने का सवाल नहीं। जो ख़ुदा इतना रहीम है कि जब खेती 
को पानी की जरूरत होती है तो वह आलमी निजाम को मुतहरिक (सक्रिय) करके उसे सैराब 
करता है वह यकीनन अपने रास्ते पर चलने वालों की भी जरूर मदद फरमाएगा। ताहम यह 
मदद खुदा के अपने अंदाजे के मुताबिक आएगी । इसलिए अगर इसमें देर हो तो आदमी को 
मायूस और बददिल नहीं होना चाहिए। 

ख़ुदा की बात निहायत वाजेह और निहायत मुदल्लल (तर्कपूर्ण) बात है। मगर ख़ुदा की 
बात का मोमिन वही बनेगा जो चीजों को गहराई के साथ देखे, जो बातों को ध्यान के साथ 
सुने। जिसके अंदर यह मिजाज हो कि जो बात समझ में आ जाए उसे मान ले, जिस रास्ते 
का सही होना मालूम हो जाए उस पर चलने लगे। 


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अल्लाह ही है जिसने तुम्हें कमजोरी से पेदा किया, फिर कमजोरी के बाद कुव्वत (शक्ति) 
दी, फिर कुव्वत के बाद कमजोरी और बुढ़ापा तारी कर दिया। वह जो चाहता है पैदा 


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सूरह-30. अर-रूम II05 पारा शा 
करता है। और वह इलम वाला, कुदरत वाला है। और जिस दिन कियामत बरपा होगी, 
मुजरिम कसम खाकर कहेंगे कि वे एक घड़ी से ज्यादा नहीं रहे। इस तरह वे फेरे जाते 

थे। और जिन लोगों को इलम व ईमान अता हुआ था वे कहेंगे कि अल्लाह की किताब 
में तो तुम हश्र (जीवित हो उठने) के दिन तक पड़े रहे। पस यह हशर (जीवित हो उठने) 
का दिन है, लेकिन तुम जानते न थे। पस उस दिन जालिमों को उनकी मअजरत (सफाई 


पेश करना) कुछ नफा न देगी और न उनसे माफी मांगने के लिए कहा जाएगा। 
(54-57) 


इंसान पैदा होता है तो वह निहायत कमजोर बच्चा होता है। फिर दर्मियान में ताकत 
और जवानी के कुछ साल गुजरने के बाद दुबारा बुढ़ापे की कमजोरी आ जाती है। इसका 
मतलब यह है कि इंसान की ताकत उसकी अपनी नहीं है। वह उसे देने से मिलती है। यह 
देने वाले के इख्तियार में है कि वह जब चाहे दे और जब चाहे वापस ले ले। 

दुनिया की जिंदगी में आदमी आख़िरत के लिए फिक्रमंद नहीं होता। क्योंकि कियामत 
उसे बहुत दूर की चीज मालूम होती है। मगर यह सिर्फ बेख़बरी की बात है। कियामत जब 
आएगी तो उसे ऐसा मालूम होगा कि बस एक घड़ी पिछली दुनिया में रहना हुआ था कि 
अगली दुनिया का मरहला पेश आ गया। 


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और हमने इस कुरआन में लोगों के लिए हर किस्म की मिसालें बयान की हैं। और 
अगर तुम उनके पास कोई निशानी ले आओ तो जिन लोगों ने इंकार किया है वे यही 
कहेंगे कि तुम सब बातिल (असत्य) पर हो। इस तरह अल्लाह मुहर कर देता है उन 


लोगों के दिलों पर जो नहीं जानते। पस तुम सब्र करो, बेशक अल्लाह का वादा सच्चा 
है। और तुम्हें बेबरदाश्त न कर दें वे लोग जो यकीन नहीं रखते। (58-60) 





मक्का में लोग कहते थे कि अगर तुम पैग़म्बर हो तो कोई खारिके आदत (दिव्य) 
करिश्मा दिखाओ। मगर उनके इस मुतालबे को पूरा नहीं किया गया। इसकी वजह यह है कि 
खारिके आदत करिश्मा असल मकसद के एतबार से बेफायदा था। इस्लाम का मकसद तो यह 
था कि लोगों के अमल में तब्दीली हो और अमल में तब्दीली फिक्र (विचार) की तब्दीली से 
आती है न कि ख़ारिके आदत करिश्मा दिखाकर लोगों को अचंभे में डाल देने से। 


पारा श I06 सूएह3]. लुक्रमान 

चुनांचे कुरआन का सारा जोर इस्तदलाल (तर्क) पर है। वह दलील के जरिए इंसान के 
जेहन को बदलना चाहता है। वह आदमी को इस काबिल बनाना चाहता है कि वाकेयात को 
सही रुख़ से देखे और मामलात पर सही राय कायम कर सके। हकीकत यह है कि इंसान का 
अस्ल मसला सेहते फिक्र (सुविचारता) है। अगर आदमी के अंदर सही फिक्र न जागा हो तो 
करिश्मा और मोजिजों को देखकर दुबारा वह कोई नासमझी का लफ्ज बोल देगा जिस तरह 
वह इससे पहले नासमझी के अल्फाज बोलता रहा है। 

लाइल्मी की बिना पर मुहर लगना, सेहते फिक्र न होने की वजह से बातों को न समझना 
है। आदमी के अंदर राय कायम करने की सलाहियत न हो तो वह चीजों को उनके सही रुख़ 
से नहीं देख पाता। इस बिना पर वह चीजों से अपने लिए सही रहनुमाई भी हासिल नहीं कर 
पाता। 

जो अल्लाह का बंदा बेआमेज (विशुद्ध) हक की दावत लेकर उठे उसे हमेशा लोगों की 
तरफ से हौसलाशिकन रद्देअमल का सामना पेश आता है। दाऔ तमामतर आख़िरत की बात 
करता है जबकि लोगों का जेहन दुनिया के मसाइल में उलझा हुआ होता है। इस बिना पर 
लोग दाऔओ की तहकीर (अनादर) करते हैं। वे उसे हर लिहाज से नीचा दिखाने की कोशिश 
करते हैं। यहां तक कि माहौल में दाऔ की बात बेवजन बात मालूम होने लगती है। 

यह सूरतेहाल मदऊ के साथ दाऔ को भी आजमाइश में डाल देती है। ऐसे ववत में दाजी 
के लिए जरूरी हो जाता है कि वह अपने यकीन को न खोए। अगर हालात के दबाव के तहत 
उसने अपने यकीन को खो दिया तो वह ऐसी बात बोलने लगेगा जो आम लोगों को शायद अहम 
मालूम हो मगर अल्लाह की नजर में उससे ज्यादा गैर अहम बात और कोई न होगी। 


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आयतें-34 सूरह-3]. लुक्रमान रुकूअ-4 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 


अलिफ० लाम० मीम०। ये पुरहिक्मत (तत्वज्ञानपूर्ण) किताब की आयतें हैं, हिदायत 
और रहमत नेकी करने वालों के लिए। जो कि नमाज कायम करते हैं और जकात अदा 





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सूरह-3]. लुक्रमान I07 पारा शा 
करते हैं। और वे आखिरत पर यकीन रखते हैं। ये लोग अपने रब के सीधे रास्ते पर 
हैं और यही लोग फलाह (कल्याण, सफलता) पाने वाले हैं। (।-5) 


एहसान का असल मफहूम है, किसी काम को अच्छी तरह करना। मोहसिन के मअना हैं 
अच्छी तरह करने वाला। इस दुनिया में किसी काम के अच्छे होने का मेयार यह है कि वह 
ह्वीको वाकेके मुताबिक हे। इस एतबार से मेहसिन वह शूझञ है जे हवीक्ते वाक्या का 
एतराफ करे, जिसका अमल वही हो जो होना चाहिए और वह न हो जो नहीं होना चाहिए। 
जो लोग अपने आपको हकीकते वाकया के मुताबिक ढालने का मिजाज रखेंवही वे लोग 
हैं कि जब उनके सामने सदाकत (सच्चाई) आती है तो वे किसी नफ्सियाती पेचीदगी में 
मुन्तिला हुए बगैर उसे मान लेते हैं। वे फौरन ही उसके अमली तकाजे पूरे करने लगते हैं। 
वे नमाजी बन जाते हैं जो खुदा का हक अदा करने की एक अलामत है। वे जकात अदा करते 
हैं जो गोया माल के दायरे में बंदों का हक अदा करना है। वे दुनियापरस्ती को छोड़कर 
आखिरतपसंद बन जाते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि कामयाबी और नाकामयाबी का फैसला 
आखिरकार जहां होना है वह आख़िरत ही है। 


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और लोगों में कोई ऐसा है जो उन बातों का ख़रीदार बनता है जो ग्राफिल करने वाली 
हैं। ताकि अल्लाह की राह से गुमराह करे, बगैर किसी इलम के। और उसकी हंसी 
उडाए । ऐसे लोगों के लिए जलील करने वाला अजाब है। और जब उन्हें हमारी आयते 
सुनाई जाती हैं तो वह तकब्बुर (घमंड) करता हुआ मुंह मोड़ लेता है, जैसे उसने सुना 
ही नहीं, जैसे उसके कानों में बहरापन है। तो उसे एक दर्दनाक अजाब की खुशखबरी 
दे दो। बेशक जो लोग ईमान लाए और उन्होंने नेक काम किया। उनके लिए नेमत 
के बाग़ हैं। उनमें वे हमेशा रहेंगे। यह अल्लाह का पुख्ता वादा है और वह जबरदस्त 
है हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। (6-9) 








बातें दो किस्म की होती हैं। एक नसीहत दूसरे तफरीह | नसीहत की बात जिम्मेदारी का 
एहसास दिलाती है। वह आदमी से कुछ करने और कुछ न करने के लिए कहती है। इसलिए 
हर दौर में बहुत कम ऐसे लोग हुए हैं जो नसीहत की बातों से दिलचस्पी लें। इंसान का आम 


पारा शा II08 सूएह3]. लुक्रमान 
मिजाज हमेशा यह रहा है कि वह तफरीह की बातों को ज्यादा पसंद करता है। वह नसीहत की 
'किताब' के मुकाबले में उस किताब का ज्यादा खरीदार बनता है जिसमें उसके लिए जेहनी 
तफरीह का सामान हो और वह उससे कुछ करने के लिए न कहे। 

जिस शख्स का हाल यह हो कि वह अपनी जात से आगे बढ़कर दूसरों को इस किस्म 
की तफरीही बातों में मशशूल करने लगे वह ज्यादा बड़ा मुजरिम है। क्योंकि वह इस जेहनी 
बेराहरवी (भटकाव) का कायद बना। उसने लोगों के जेहन को बेफायदा बातों में मशगूल 
करके उन्हें इस काबिल न रखा कि वे ज्यादा संजीदा बातों में ध्यान दे सकें। 

सबसे बुरी नफ्सियात घमंड की नफ्सियात है। जो शख्स घमंड की नफ्सियात में मुक्तिला 
हो उसके सामने हक आएगा मगर वह अपने को बुलन्द समझने की वजह से उसका एतराफ 
नहीं करेगा। वह उसे हिकारत के साथ नजरअंदाज करके आगे बढ़ जाएगा। इसके बरअक्स 
मामला अहले ईमान का है। उनका नसीहतपसंद मिजाज उन्हें मजबूर करता है कि वे सच्चाई 
का एतराफ करें, वे अपनी जिंदगी को तमामतर उसके हवाले कर दें। 


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अल्लाह ने आसमानों को पैदा किया, ऐसे सुतूनों (स्तंभो) के बगैर जो तुम्हें नजर आएं। 
और उसने जमीन में पहाड़ रख दिए कि वे तुम्हें लेकर झुक न जाए। और उसमें हर किस्म 

के जानदार फैला दिए। और हमने आसमान से पानी उतारा फिर जमीन में हर किस्म 
की उम्दा चीजें उगाईं। यह है अल्लाह की तख़्तीक, तो तुम मुझे दिखाओ कि उसके 
सिवा जो हैं उन्होंने क्या पेदा किया है। बल्कि जालिम लोग खुली गुमराही में हैं। 
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कायनात लामुतनाही (अनंत) ख़ला है। इसके अंदर बेशुमार निहायत बड़े-बड़े अजराम 
(आकाशीय पिंड) मुसलसल गर्दिश कर रहे हैं। इन अजराम का इस तरह ख़ला (अंतरिक्ष) में 
गर्दिश करते हुए कायम रहना दहशतनाक हद तक अजीम वाकया है। फिर हमारी जमीन 
मौजूदा कायनात में एक इंतिहाई विलक्षण ग्रह है जिसमें अनगिनत इंतिजामात ने इसके ऊपर 
इंसानी जिंदगी को मुमकिन बना दिया है। इन्हीं इंतजामात में से चन्द ये हैं जमीन की सतह 
पर पहाड़ों के उभार से तवाजुन (संतुलन) कायम होना । फिर पानी और जिंदगी और नबातात 
(वनस्पति) जैसी अजीब चीजें की जमीन पर इफरात (बहुलता) के साथ मौजूदगी । 

एक खुदाए बरतर के सिवा कोई नहीं जो इस अजीम निजाम को कायम रख सके । फिर 


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सूरह-3]. लुक्रमान I09 पारा शा 
इंसान के लिए कैसे जाइज हो सकता है कि वह खुदा के सिवा दूसरी चीजों को अपना मर्कजे 
परस्तिश बनाए 


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और हमने लुकमान को हिक्मत (तत्वज्ञान) अता फरमाई कि अल्लाह का शुक्र करो। 
और जो शख्स शुक्र करेगा तो वह अपने ही लिए शुक्र करेगा और जो नाशुक्री करेगा 
तो अल्लाह बेनियाज (निस्पृह) है खूबियां वाला है। और जब लुकमान ने अपने बेटे को 
नसीहत करते हुए कहा कि ऐ मेरे बेटे, अल्लाह के साथ शरीक न ठहराना, बेशक शिक 
बहुत बड़ा जुल्म है। (2-3) 





लुकमान हकीम की तारीख़ी हैसियत के बारे में अभी तक कतई मालूमात हासिल नहीं 
हो सकी हैं। ताहम वह एक दानिशमंद (प्रबुद्ध) और ख़ुदापरस्त आदमी थे। 
कुरआन बताता है कि लुकमान हकीम खुदा के एक शुक्रगुजार बंदे थे। और अपने बेटे 
को उन्होंने शिर्क से बचने की तल्कीन की। ये दोनों बातें एक हैं। तौहीद अल्लाह को अपना 
मोहसिन (उपकारक) समझने के एहसास से उभरती है। और शिक यह है कि आदमी अल्लाह 
के सिवा किसी और को अपना मोहसिन समझ ले और उसके लिए अपने एहसानमंदी के 
जज्बात न्यौछावर करने लगे। जब देने वाला सिर्फ एक है तो शुक्रगुजारी भी सिर्फ एक ही की 
होनी चाहिए 
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और हमने इंसान को उसके मां-बाप के मामले में ताकीद की। उसकी मां ने दुख पर 
दुख उठाकर उसे पेट में रखा और दो वर्ष में उसका दूध छुड़ाना हुआ। कि तू मेरा शुक्र 
कर और अपने वालिदैन का। मेरी ही तरफ लौट कर आना है और अगर वे दोनों तुझ 
पर जोर डालें कि तू मेरे साथ ऐसी चीज को शरीक ठहराए जो तुझे मालूम नहीं तो उनकी 

बात न मानना। और दुनिया में उनके साथ नेक बर्ताव करना। और तुम उस शख्स 





पारा श II0 सूरह-3]. लुफरमान 
के रास्ते की पैरवी करना जिसने मेरी तरफ रुजूअ किया है। फिर तुम सबको मेरे पास 
आना है। फिर में तुम्हें बता दूंगा जो कुछ तुम करते रहे। (4-5) 





खुदा के बाद इंसान के ऊपर सबसे ज्यादा हक मां-बाप का है। अलबत्ता अगर मां-बाप 
का हुक्म ख़ुदा के हुक्म से टकराए तो उस वक्त ख़ुदा का हुक्म लेना है और मां-बाप का हुक्म 
छोड़ देना है। ताहम उस वक्त भी यह जरूरी है कि मां-बाप की ख़िदमत को बदस्तूर जारी 
रखा जाए। 

दो मुक्नलिफ तकाजों में यह तवाजुन हिवमते इस्लाम की आलातरीन शक्ल है। और 
इसी आला हिक्मत में तमाम आला कामयाबियों का राज छुपा हुआ है। 


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ऐ मेरे बेटे, कोई अमल अगर राई के दाने के बराबर हो फिर वह किसी पत्थर के अंदर 
हो या आसमानों में हो या जमीन में हो, अल्लाह उसे हाजिर कर देगा। बेशक अल्लाह 
बारीकर्बी है, बाख़बर है। ऐ मेरे बेटे नमाज कायम करो, अच्छे काम की नसीहत करो 

और बुराई से रोको और जो मुसीबत तुम्हें पहुंचे उस पर सब्र करो। बेशक यह हिम्मत 
के कामों में से है। और लोगों से बेरुख़ी न कर। और जमीन में अकड़ कर न चल। 
बेशक अल्लाह किसी अकड़ने वाले और फख्र करने वाले को पसंद नहीं करता। और 


अपनी चाल में मियानारवी (शालीनता) इख्तियार कर और अपनी आवाज को पस्त 
कर। बेशक सबसे बुरी आवाज गधे की आवाज है। (6-9) 





मैज़्द्ा जमाने मंसाइंस की तरकि ने साबित किया है कि आड़ और फसला इजफी 
(अतिरिक्त) अल्फाज हैं। एक्सरे किरणें जिस्म के अंदर तक देख लेती हैं। दूरबीन और 
ख़ुर्दबीन (८० $८०९) के जरिए वे चीजें दिखाई देने लगती हैं जो ख़ली आंख से नजर 
नहीं आतीं। यह इम्कान जिसका तजर्बा हमें महदूद सतह पर हो रहा है यही ख़ुदा के यहां 
लामहदूद (असीम) तौर पर मौजूद है। 

दीन पर ख़ुद अमल करना या दूसरों को दीन की तरफ बुलाना, दोनों ही सब्र चाहते हैं। 


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सूरह-3]. लुक्रमान वव] पारा शा 
इसके लिए करने से पहले सोचना पड़ता है। नफ्स की ख्वाहिश पर चलने के बजाए नफ्स के 
ख़िलाफ चलना पड़ता है। अपनी बड़ाई को महफूज करने के बजाए अपनी बड़ाई को खो देना 
पड़ता है। दूसरों की तरफ से पेश आने वाली तकलीफों को यकतरफा तौर पर बर्दाश्त करना 
पड़ता है। 

ये सब हौसलामंदी के काम हैं, और हौसलामंद किरदार (चरित्र) ही का दूसरा नाम 
इस्लामी किरदार है। 
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क्या तुम नहीं देखते कि अल्लाह ने तुम्हारे काम में लगा दिया है जो कुछ आसमानों 
में है और जो जमीन में है। और उसने अपनी खुली और छुपी नेमतें तुम पर तमाम कर 
दीं। और लोगों में ऐसे भी हैं जो अल्लाह के बारे में झगड़ते हैं, किसी इलम और किसी 
हिदायत और किसी रोशन किताब के बगौर। और जब उनसे कहा जाता है कि तुम पैरवी 
करो उस चीज की जो अल्लाह ने उतारी है तो वे कहते हैं कि नहीं, हम उस चीज की 


पैरवी करेंगे जिस पर हमने अपने बाप दादा को पाया है। क्या अगर शैतान उन्हें आग 
के अजाब की तरफ बुला रहा हो तब भी। (20-2) 





मौजूदा दुनिया इस तरह बनी है कि वह इंसान के लिए कामिल तौर पर साजगार है। नीज 
यह कि मौजूदा दुनिया में हर वह चीज इफरात (बहुलता) के साथ मौजूद है जिसकी इंसान को 
जरूरत है। इसके बावजूद इंसान का यह हाल है कि वह ख़ालिके कायनात का शुक्र नहीं करता। 
वह बेमअना बहसे पैदा करके चाहता है कि लोगों की तवज्जोह ख़ुदा की तरफ से फेर दे। 

इंसान के बेराह होने का सबब अक्सर हालात में यह होता है कि वह अपनी अक्ल को 
काम में नहीं लाता। वह रवाजे आम से हटकर नहीं सोचता। आदमी अगर रवाज से ऊपर 
उठ जाए तो खुदा की दी हुई अक्ल ख़ुद उसे सही सम्त में रहनुमाई के लिए काफी हो जाए। 


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और जो शख्स अपना रुख़ अल्लाह की तरफ झुका दे और वह नेक अमल करने वाले 
भी हो तो उसने मजबूत रस्सी पकड़ ली। और अल्लाह ही की तरफ है तमाम मामलात 

का अंजामकार। और जिसने इंकार किया तो उसका इंकार तुम्हें गमगीन न करे। हमारी 
ही तरफ है उनकी वापसी। तो हम उन्हें बता देंगे जो कुछ उन्होंने किया। बेशक अल्लाह 
दिलों की बात से भी वाकिफ है। उन्हें हम थोड मुददत फायदा देंगे। फिर उन्हें एक 

सख्त अजाब की तरफ खींच लाएंगे। (22-24) 


सूरह-3.. लुफ्रमान 


हर आदमी का एक रुख़ होता है जिधर वह अपने पूरे फिक्री (वैचारिक) और अमली 
वजूद के साथ मुतवज्जह रहता है। मोमिन वह है जिसका रुख़ पूरी तरह ख़ुदा की तरफ हो 
जाए। मेमिनाना जिंदगी दूसरे लफ्जें में खुदा रुख़ (God-oriented) जिंदगी का नाम है। 
और गैर मोमिनाना जिंदगी गैर ख़ुदा रुख़ी जिंदगी का। 
जिस शख़म ने ख़ुदा की तरफ रुख़ किया उसने सही मंजिल की तरफ रुख़ किया। वह 
यकीनन अच्छे अंजाम को पहुंचेगा। इसके बरअक्स जो शख्स ख़ुदा से गाफिल होकर किसी 
और तरफ मुतवज्जह हो जाए वह बेरुड और बेमंजिल हो गया उसे आज की वकती जिंदगी 
में कुछ फायदे हो सकते हैं। मगर आहिरत की मुस्तकिल जिंदगी में उसके लिए अजाब के 
सिवा और कुछ नहीं। 
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और अगर तुम उनसे पूछो कि आसमानों और जमीन को किसने पैदा किया, तो वे 
जरूर कहेंगे कि अल्लाह ने। कहो कि सब तारीफ अल्लाह के लिए है, बल्कि उनमें 
से अक्सर नहीं जानते। अल्लाह ही का है जो कुछ आसमानों में है और जमीन में। 
बेशक अल्लाह बेनियाज (निस्पृह) है, खूबियों वाला है। और अगर जमीन में जो दरख्त 
हैं वे कलम बन जाएं और समुद्र, सात अतिरिक्त समुद्रो के साथ, रोशनाई बन जाएं, 


तब भी अल्लाह की बातें ख़त्म न हों। बेशक अल्लाह जबरदस्त है, हिक्मत 
(तत्वदर्शिता) वाला है। (25-27) 





कायनात इतनी वसीअ और इतनी अजीम है कि कोई भी शख्स होश व हवास के साथ 
यह दावा नहीं कर सकता कि इसे खुदा के सिवा किसी और ने बनाया है। मगर इस हकीकत 


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सूएह-3।. लुक्मान 3 पारा श 
को मानने के बावजूद इंसान का हाल यह है कि वह ख़ुदा के सिवा दूसरी चीजों को अज्मत 
का मकाम देता है। यही वह गैर माकूल रवैया है जिसका दूसरा नाम शिक है। 

खुदा की अज्मत इससे ज्यादा है कि वह लफ्जें में बयान की जा सके। उलूमे तबीई 
(भौतिक विज्ञानों) की तारीख़ हजारों वर्ष के दायरे में फैली हुई है। मगर बेशुमार तहकीकात 
के बावजूद अभी तक किसी एक चीज के बारे में भी पूरी मालूमात हासिल न हो सकीं। इंसान 
को आज भी यह नहीं मालूम कि ख़ला (अंतरिक्ष) में कितने सितारे हैं। जमीन में नबातात 
(पेड़-पौधों) और हैवानात की कितनी किसमें हैं। दरख्ञ की एक पत्ती और रेत के एक जरें की 
माहियत (पूर्ण संरचना) क्या है। समुद्र के अंदर कितने अजायबात छुपे हुए हैं। गरज इस 
दुनिया की कोई भी छोटी या बड़ी चीज ऐसी नहीं जिसके बारे में इंसान को पूरी मालूमात 
हासिल हो चुकी हों। यही वाकया यह साबित करने के लिए काफी है कि दरों के कलम 
और समुद्रों की स्याही भी खुदा के अनगिनत करिश्मों को तहरीर करने के लिए काफी नहीं। 


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तुम सबका पैदा करना और जिंदा करना बस ऐसा ही है जैसा एक शख्स का। बेशक 
अल्लाह सुनने वाला देखने वाला है। क्या तुमने नहीं देखा कि अल्लाह रात को दिन 
में दाखिल करता है और दिन को रात में दाखिल करता है। और उसने सूरज और चांद 
को काम में लगा दिया है। हर एक चलता है एक मुक्रर वक्‍त तक। और यह कि जो 
कुछ तुम करते हो अल्लाह उससे बाख़बर है। यह इस वजह से है कि अल्लाह ही हक 


है। और उसके सिवा जिन चीजों को वे पुकारते हैं वे बातिल हैं और बेशक अल्लाह बरतर 
(सर्वोच्च) है, बड़ा है। (28-30) 





इंसान अपनी जात में इस बात का सुबूत है कि एक जिंदगी का वुजूद में आना मुमकिन 
है। और जब एक जिंदगी का वजूद मुमकिन हो तो उसी किस्म की दूसरी जिंदगियों का वुजूद 
में आना और भी मुमकिन हो जाता है। इसी तरह हर आदमी इस वाकये का तजर्बा कर रहा 
है कि वह एक आवाज को सुन सकता है। वह एक मंजर को देख सकता है और जब एक 
आवाज का सुनना और एक मंजर का देखना मुमकिन हो तो बहुत सी आवाजों को सुनना 
और बहुत से मनाजिर को देखना नामुमकिन क्यों होगा। 

रात को दिन में दाखिल करना और दिन को रात में दाखिल करना किनाया (संकेत) की 
जबान में उस वाकये की तरफ इशारा है जिसे मौजूदा जमाने में जमीन की महवरी गर्दिश कहा 


पारा शा II4 सूएह3]. लुक्रमान 
जाता है। अपने महवर (धुरी) पर कामिल सेहत के साथ जमीन की मुसलसल गर्दिश और इस 
तरह के दूसरे वाकेयात बताते हैं कि इस कायनात का खलिक व मालिक नाकाबिले कयास 
हद तक अजीम है। ऐसी हालत में उसके सिवा कौन है जिसकी इबादत की जाए। जिसे 
अपनी जिंदगी में बड़ाई का मकाम दिया जाए । हकीकत यह है कि एक खुदा को छोड़कर जिसे 
भी अज्मत का मकाम दिया जाता है वह सिर्फ एक झूठ होता है। क्योंकि एक ख़ुदा के सिवा 
किसी को कोई अज्मत हासिल नहीं। 
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क्या तुमने देखा नहीं कि कश्ती समुद में अल्लाह के फज्ल (अनुग्रह) से चलती है 

ताकि वह तुम्हें अपनी निशानियां दिखाए। बेशक इसमें निशानियां हैं हर सब्र करने 
वाले, शुक्र करने वाले के लिए। और जब मौत उनके सर पर बादल की तरह छा 
जाती है, वे अल्लाह को पुकारते हैं उसके लिए दीन को ख़ालिस करते हुए। फिर 
जब वह उन्हें नजात देकर ख़ुश्की की तरफ ले आता है तो उनमें कुछ एतदाल 
(संतुलित मार्ग) पर रहते हैं। और हमारी निशानियों का इंकार वही लोग करते हैं 
जो बदअहद (वचन तोड़ने वाले) और नाशुक्रगुजार हैं। (-32) 





समुद्र में कोई चीज डाली जाए तो वह फौरन डूब जाएगी। मगर अल्लाह तआला ने 
पानी को एक खास कानून का पाबंद बना रखा है। इस वजह से कश्ती और जहाज अथाह 
समुद्रो में नहीं डूबते, वे इंसान को और उसके सामान को बहिफाजत एक जगह से दूसरी 
जगह पहुंचा देते हैं। यह बिलाशुबह एक अजीम निशानी है। मगर इस निशानी से सिफ 
साबिर और शाकिर इंसान सबक लेते हैं। साबिर वह है जो अपने आपको गलत एहसासात 
के जेरेअसर जाने से रोके। और शाकिर वह है जो अपने बाहर पाई जाने वाली हकीकत 
का एतराफ कर सके। 

ताहम जब समुद्र में तूफान आता है तो आदमी को मालूम हो जाता है कि वह किस कद्र 
बेबस है। उस वक्त वह हर एक की बड़ाई को भूलकर सिफ खुदा को पुकारने लगता है। यह 
तजर्बा जो कश्ती के मुसाफिरों को पेश आता है उससे लोगों को सबक लेना चाहिए। मगर 
बहुत कम लोग हैं जो इन वाकेयात से सबक लें और हक और अदूल की राह पर कायम रहें। 
बेशतर लोगों का हाल यह है कि मुसीबत में पड़े तो ख़ुदा को याद कर लिया और मुसीबत 
हटी तो दुबारा सरकश और एहसान फरामोश बन गए। 


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सूरह3]. लुक्रमान ॥5 पारा शा 
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ऐ लोगो अपने रब से डरो और उस दिन से डरो जबकि कोई बाप अपने बेटे की तरफ 
से बदला न देगा और न कोई बेटा अपने बाप की तरफ से कुछ बदला देने वाला 
होगा। बेशक अल्लाह का वादा सच्चा है तो दुनिया की जिंदगी तुम्हें धोखे में न डाले 
न धोखेबाज तुम्हें अल्लाह के बारे में धोखा देने पाए। बेशक अल्लाह ही को कियामत 
का इलम है और वही बारिश बरसाता है और वह जानता है जो कुछ रहम (गर्भ) में 
है। और कोई शख्स नहीं जानता कि कल वह क्या कमाई करेगा। और कोई शख्स 
नहीं जानता कि वह किस जमीन में मरेगा। बेशक अल्लाह जानने वाला, बाखबर 
है। (३३-34) 


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मौजूदा दुनिया में इम्तेहान की मस्लेहत से लोगों को आजादी दी गई है। इस इम्तेहानी 
आजादी को आदमी हकीकी आजादी समझ लेता है। यही सबसे बड़ा धोखा है। तमाम इंसानी 
बुराइयां इसी धोखे की वजह से पैदा होती हैं। यहां बजाहिर ऐसा मालूम होता है कि इंसान 
जो चाहे करे कोई उसे पकड़ने वाला नहीं | हालांकि आखिरकार आदमी के ऊपर इतना कठिन 
वक्त आने वाला है कि बाप बेटा भी एक दूसरे का साथ देने वाले न बन सकेंगे। 
'कियामत आने वाली है तो वह कब आएगी” ऐसा सवाल करना अपनी हद से तजावुज 
करना है। इंसान अपनी करीबी और मालूम दुनिया के बारे में भी कल की ख़बर नहीं रखता। 
मसलन बारिश, पेट का बच्चा, मआशी मुस्तकबिल (आर्थिक भविष्य), मौत, इन चीजों के बारे 
में कोई कतई पेशीनगोई नहीं की जा सकती। ताहम इस इलमी महदूदियत के बावजूद इंसान 
इन हकीकतों के सच होने को मानता है। इसी तरह कियामत की घड़ी के बारे में भी उसे 
मुजमल (संक्षिप्त) ख़बर की बुनियाद पर यकीन करना चाहिए 


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पारा श II6 सूरह-32. अस-सज्दह 
आयतें-30 सूरह-32. अस-सज्दह रुकूअ-3 
(मक्का में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
अलिफ० लाम० मीम०। यह नाजिल की हुई किताब है, इसमें कुछ शुबह नहीं, खुदावंद 
आलम की तरफ से है। क्या वे कहते हैं कि इस शख्स ने इसे खुद गढ़ लिया है। बल्कि 
यह हक है तुम्हारे रब की तरफ से, ताकि तुम उन लोगों को डरा दो जिनके पास तुमसे 
पहले कोई डराने वाला नहीं आया, ताकि वे राह पर आ जाएं। (।-3) 





'यह खुदा की किताब है! बजाहिर चन्द अल्फाज का एक जुमला है। मगर यह इतना 
मुश्किल जुमला है कि तारीख़ में यह जुमला कहने की हिम्मत हकीकी तौर पर उन ख़ास 
अफराद के सिवा किसी को न हो सकी जिन पर वाकेअतन खुदा की किताब उतरी थी। अगर 
कभी किसी और शख्स ने यह जुमला बोलने की जुरअत की है तो वह या तो मसख़रा था या 
पागल। और उसका मसख़रा या पागल होना बाद को पूरी तरह साबित हो गया। 

कुरआन अपना सुबूत आप है। इसका मोजिजाती उस्लूब (दिव्य शैली), इसकी किसी 
बात का सैंकड़ों साल में गलत साबित न होना, इसका अपने मुखालिफीन पर पूरी तरह गालिब 
आना, ये और इस तरह के दूसरे वाकेयात इस बात का कतई सुबूत हैं कि कुरआन ख़ुदा की 
तरफ से आई हुई किताब है। और जब वह ख़ुदा की किताब है तो लाजिम है कि हर शख्स 
उसकी चेतावनी पर ध्यान दे, वह इंतिहाई संजीदगी के साथ इस पर गौर करे। 


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अल्लाह ही है जिसने पैदा किया आसमानों और जमीन को और जो इनके दर्मियान है 
छः दिनों में, फिर वह अर्श (सिंहासन) पर कायम हुआ। उसके सिवा न तुम्हारा कोई 
मददगार है और न कोई सिफारिश करने वाला। तो क्या तुम ध्यान नहीं करते। वह 


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सूरह-32. अस-सज्दह II7 पारा शा 
आसमान से जमीन तक तमाम मामलात की तदबीर करता है। फिर वे उसकी तरफ 

लौटते हैं एक ऐसे दिन में जिसकी मिक्दार तुम्हारी गिनती से हजार साल के बराबर 

है। वही है पोशीदा और जाहिर को जानने वाला। जबरदस्त है, रहमत वाला है। उसने 

जो चीज भी बनाई खूब बनाई। और उसने इंसान की तख्लीक की इन्तिदा मिट्टी से 

की। फिर उसकी नस्ल हकीर पानी के खुलासा (सत्त) से चलाई। फिर उसके आजा 
(शरीरांग) दुरुस्त किए। और उसमें अपनी रूह फूंकी। तुम्हारे लिए कान और आंखें 
और दिल बनाए। तुम लोग बहुत कम शुक्र करते हो। (4-9) 





छः दिनों (छः चरणों) में पैदा करने से मुराद तदरीज (क्रम) व एहतिमाम के साथ पैदा 
करना है। कायनात की तदरीजी तर्तीक और इसका पुरहिक्मत निजाम बताता है कि इस 
तख्लीक से ख़ालिक का कोई ख़ास मकसद वाबस्ता है। फिर कायनात में मुसलसल तौर पर 
बेशुमार अमल जारी हैं। इससे मजीद यह साबित होता है कि कायनात को पैदा करने वाला 
उसे मंसूबाबंद तौर पर चला रहा है। इंसान एक हैरतनाक किस्म का जिंदा वजूद है मगर उसके 
जिस्म का तज्जिया किया जाए तो मालूम होता है कि वह सिर्फ मिट्टी (भूमि के तत्वों) का 
मुरक्कब है। फिर यह इब्तिदाई तख़्तीक ख़त्म नहीं हो जाती बल्कि तवालुद व तनासुल 
(प्रजनन क्रिया) के जरिए इसका सिलसिला मुस्तकिल तौर पर जारी है। 
इन वाकेयात पर जो शख्स गौर करे उसके जेहन से एक ख़ुदा की अज्मत के सिवा दूसरी 
तमाम अज्मतें मिट जाएंगी । वह खुदा का शुक्रगुजार बंदा बन जाएगा। मगर बहुत कम लोग 
हैं जो गहराई के साथ गौर करें। यही वजह है कि बहुत कम लोग हैं जो हम्द और शुक्र वाले 
बनें । 
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और उन्होंने कहा कि क्या जब हम जमीन में गुम हो जाएंगे तो हम फिर नए सिरे से 
पैदा किया जाएंगे। बल्कि वे अपने रब की मुलाकात के मुंकिर हैं। कहो कि मौत का 
फरिश्ता तुम्हारी जान कज करता है जो तुम पर मुकर किया गया है। फिर तुम अपने 








पारा शा III8 सूरह-32. अस-सज्दह 
रब की तरफ लौटाए जाओगे। और काश तुम देखो जबकि ये मुजरिम लोग अपने रब 

के सामने सर झुकाए होंगे। ऐ हमारे रब, हमने देख लिया और हमने सुन लिया तू हमें 
वापस भेज दे कि हम नेक काम करें। हम यकीन करने वाले बन गए। और अगर हम 
चाहते तो हर शख्स को उसकी हिदायत दे देते। लेकिन मेरी बात साबित हो चुकी कि 
मैं जहन्नम को जिन्नों और इंसानों से भर दूंगा। तो अब मजा चखो इस बात का कि 
तुमने इस दिन की मुलाकात को भुला दिया। हमने भी तुम्हें भुला दिया। और अपने 
किए की बदौलत हमेशा का अजाब चखो। (0-4) 





इंसान की तख़्तीके अव्वल उसकी तख्लीके सानी (पुनःसृजन) के मामले को समझने के 
लिए बिल्कुल काफी है। मगर जब ख़ुदा के सामने जवाबदेही का यकीन न हो तो आदमी 
तख्लीके सानी का मजाक उड़ता है, वह गैर संजीदा तौर पर मुख़्तलिफ बातें करता है। 

मगर यह जसारत (दुस्साहस) सिर्फ उस वक्‍त तक है जब तक आदमी की इम्तेहानी 
आजादी की मुद्दत ख़त्म न हुई हो। जब यह मुद्दत ख़त्म होगी और आदमी मरकर ख़ुदाए 
जुलजलाल के सामने हिसाब के लिए खड़ा होगा तो उसके सारे अल्फाज गुम हो जाएंगे। उस 
वक्त सरकश लोग कहेंगे कि हमने मान लिया। हमें दुबारा जमीन में भेज दीजिए ताकि हम 
नेक अमल करें। मगर उनका यह मानना बेफायदा होगा। खुदा को अगर इस तरह मनवाना 
होता तो वह दुनिया ही में लोगों को मानने के लिए मजबूर कर देता। 

ख़ुदा के यहां उस एतराफ की कीमत है जो बगैर देखे किया गया हो। देखने के बाद जो 
एतराफ किया जाए उसकी कोई कीमत नहीं। 


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हमारी आयतां पर वही लोग ईमान लाते हैं कि जब उन्हें उनके जरिए से याददिहानी 
की जाती है तो वे सज्दे में गिर पड़ते हैं और अपने रब की हम्द के साथ उसकी तस्बीह 
करते हैं। और वे तकबबुर (घमंड) नहीं करते। उनके पहलू बिस्तरों से अलग रहते हैं। 
वे अपने रब को पुकारते हैं डर से और उम्मीद से। और जो कुछ हमने उन्हें दिया है 
उसमें से खर्च करते हैं। तो किसी को ख़बर नहीं कि उन लोगों के लिए उनके आमाल 
के बदले में आंखों की क्या ठंडक छुपा रखी गई है। (5-7) 


हिदायत के सिलसिले में सबसे अहम चीज माद्दा-ए-एतराफ (स्वीकार की क्षमता) है। 


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सूरह-32. अस-सज्दह II9 पारा श 
हिदायत सिर्फ उन लोगों को मिलती है जिनके अंदर यह मिजाज हो कि जब सच्चाई उनके सामने 
आए तो वे फौरन उसे मान लें। चाहे सच्चाई बजाहिर एक छोटे आदमी के जरिये सामने आई 
हो, चाहे उसे मानना अपने आपको गलत करार देने के हममअना हो, चाहे उसे मानकर अपनी 
जिंदगी का नक्शा दरहम बरहम होता हुआ नजर आए । जिन लोगों के अंदर यह हौसला हो वही 
सच्चाई को पाते हैं। जो लोग यह चाहें कि वे सच्चाई को इस तरह मानें कि उनकी बड़ाई बदस्तूर 
कायम रहे ऐसे लोगों को सच्चाई कभी नहीं मिलती। 

जो आदमी हक की खातिर अपनी बड़ाई को खो दे वह सबसे बड़ी चीज को पा लेता 
है और वह ख़ुदा की बड़ाई है। उसकी जिंदगी में ख़ुदा इस तरह शामिल हो जाता है कि वह 
उसकी यादों के साथ सोए और वह उसकी यादों के साथ जागे। उसके ख़ौफ और उम्मीद के 
जज्बात तमामतर ख़ुदा के साथ वाबस्ता हो जाएं। वह अपना असासा (धन-सम्पत्ति) इस तरह 
ख़ुदा के हवाले कर देता है कि उसमें से कुछ बचाकर नहीं रखता। यही वे लोग हैं जिनकी 
आंखें जन्नत के अबदी बागों में ठंडी होंगी। 





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तो क्या जो मोमिन है वह उस शख्स जैसा होगा जो नाफरमान है। दोनों बराबर नहीं 
हो सकते। जो लोग ईमान लाए और उन्होंने अच्छे काम किए तो उनके लिए जन्नत 
की कियामगाहे हैं, जियाफत (सत्कार) उन कामों की वजह से जो वे करते थे। ओर जिन 

लोगों ने नाफरमानी की तो उनका ठिकाना आग है, वे लोग जब उससे निकलना चाहेंगे 
तो फिर उसी में धकेल दिए जाएंगे। और उनसे कहा जाएगा कि आग का अजाब चखो 
जिसे तुम झुठलाते थे। और हम उन्हं बड़े जाब से पहले करीब का अजाब चखाएंगे 

शायद कि वे बाज आ जाएं। और उस शख्स से ज्यादा जालिम कौन होगा जिसे उसके 

रब की आयतों के जरिए नसीहत की जाए। फिर वह उनसे मुंह मोड़े। हम ऐसे मुजरिमों 

से जरूर बदला लेंगे। (8-22) 





मोमिन वह है जो खुदाई सच्चाई का एतराफ करे। और फासिक (अवज्ञाकारी) वह है 


पारा शा II20 सूरह-३2. अस-सज्दह 
जिसके सामने सच्चाई आए तो वह अपनी जात के तहपफुज (संरक्षण) की ख़तिर उसका इंकार 
कर दे। ये दोनों एक दूसरे से बिल्कुल मुख़्तलिफ किरदार हैं और दो मुख़्तलिफ किरदार का अंजाम 
एक जैसा नहीं हो सकता। 

मौजूदा दुनिया में जो शख्स सच्चाई का एतराफ करता है वह इस बात का सुबूत देता 
है कि वह सच्चाई को सबसे बड़ी चीज समझता है। ऐसा शख्स आख़िरत में बड़ा बनाया 
जाएगा। इसके बरअक्स जो शख्स सच्चाई को नजरअंदाज करे उसने अपनी जात को बझ 
समझा, ऐसा शख्स आख़िरत की हकीकी दुनिया में छोटा कर दिया जाएगा। 

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और हमने मूसा को किताब दी। तो तुम उसके मिलने में कुछ शक न करो। और हमने 
उसे बनी इस्राईल के लिए हिदायत बनाया। और हमने उनमें पेशवा बनाए जो हमारे 
हुक्म से लोगों की रहनुमाई करते थे। जबकि उन्होंने सब्र किया। और वे हमारी आयतों 
पर यकीन रखते थे। बेशक तेरा रब कियामत के दिन उनके दर्मियान उन मामलों में 
फैसला कर देगा जिनमें वे बाहम इख़्तेलाफ (परस्पर मतभेद) करते थे। क्या उनके लिए 
यह चीज हिदायत देने वाली न बनी कि उनसे पहले हमने कितनी कौमों को हलाक 


कर दिया। जिनकी बस्तियों में ये लोग आते जाते हैं। बेशक इसमें निशानियां हैं, क्या 
ये लोग सुनते नहीं। (23-26) 





ख़ुदा को किताब किसी गिरोह को मिलना उसे इमामते आलम (विश्व नेतृत्व) की कुंजी 
अता करना है। मगर इमामते आलम का मकाम किसी गिरोह को उस वक्त मिलता है जबकि 
वह सब्र का सुबूत दे। यानी पेशवाई का मकाम उन्हें उस वक्‍त मिला जबकि उन्होंने दुनिया 
से सब्र किया। (तफ्सीर इन्ने कसीर) 
लोग उसी शख्स या गिरोह को अपना इमाम तस्लीम करते हैं जो उन्हें अपने से बुलन्द 
दिखाई दे। जो उस वक्‍त उसूल के लिए जिए जबकि लोग मफाद के लिए जीते हैं। जो उस 
वकत इंसाफ की हिमायत करे जबकि लोग कौम की हिमायत करने लगते हैं। जो उस वक्‍त 
बर्दाश्त करे जबकि लोग इंतिकाम लेते हैं। जो उस वकत अपने को महरूमी पर राजी कर ले 
जबकि लोग पाने के लिए दौड़ते हैं। जो उस वकत हक के लिए कुर्बान हो जाए जबकि लोग 


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सूरह-32. अस-सज्दह व2] पारा श 
सिर्फ अपनी जात के लिए कुर्बान होना जानते हैं। यही सब्र है और जो लोग इस सब्र का सुबूत 
दें वही कौमों के इमाम बनते हैं। 

दीन में नई-नई तशरीह व ताबीर निकाल कर जो लोग इख़्तेलाफात खड़े करते हैं वे अपने 
लिए यह ख़तरा मोल ले रहे हैं कि आखिरकार ख़ुदा उनकी बात को रदूद कर दे और इसके 
बाद अबदी जिल्लत के सिवा और कुछ उनके हिस्से में न आए। आदमी अक्सर हालात में 
सबक नहीं लेता, यहां तक कि जो कुछ दूसरों पर गुज़रा वही उस पर भी न गुजर जाए। 


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क्या उन्होंने नहीं देखा कि हम पानी को चटियल जमीन की तरफ हांककर ले जाते 
हैं। फिर हम उससे खेती निकालते हैं जिससे उनके चौपाए खाते हैं और वे ख़ुद भी। 
फिर क्या वे देखते नहीं। और वे कहते हैं कि यह फैसला कब होगा अगर तुम सच्चे 
हो। कहो कि फैसले के दिन उन लोगों का ईमान नफा न देगा जिन्होंने इंकार 
किया। और न उन्हें मोहलत दी जाएगी। तो उनसे दूर रहो और इंतिजार करो, ये 
भी मुंतजिर हैं। (27-30) 


कदीम मक्का में मुश्रिकीन हर एतबार से गालिब और सरबुलन्द थे और इस्लाम हर 

एतबार से पस्त और मग़लूब हो रहा था। चुनांचे मुश्रिकीन इस्लाम और मुसलमानों का मजाक 

उड़ाते थे। इसका जवाब अल्लाह तआला ने एक मिसाल के जरिये दिया । फरमाया, क्या तुम 

ख़ुदा की इस कुदरत को नहीं देखते कि एक जमीन बिल्कुल खुश्क और चटियल पड़ी होती है। 
बजाहिर यह नामुमकिन मालूम होता है कि वह कभी सरसब्ज व शादाब हो सकेगी । मगर इसके 

बाद ख़ुदा बादलों को लाकर उसके ऊपर बारिश बरसाता है तो चन्द दिन में यह हाल हो जाता 
है कि जहां ख़ाक उड़ रही थी वहां सब्जा लहलहाने लगता है। खुदा की यही कुदरत यह भी कर 

सकती है कि इस्लाम को इस तरह फरोग दे कि वही वक्‍त का गालिब फिक्र बन जाए। 


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पारा 27 I22 सूरह-33. अल-अहजाब 
आयतें-73 सूरह-33. अल-अहजाब रुकूअ-9 
(मदीना में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
ऐ नबी, अल्लाह से डरो और मुंकिरों और मुनाफिकों (पाखंडियों) की इताअत 
(आज्ञापालन) न करो, बेशक अल्लाह जानने वाला, हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। 
और पैरवी करो उस चीज की जो तुम्हारे रब की तरफ से तुम पर “वही” (प्रकाशना) 
की जा रही है, बेशक अल्लाह बाखबर है उससे जो तुम लोग करते हो। और अल्लाह 
पर भरोसा रखो, और अल्लाह कारसाज (कार्यपालक) होने के लिए काफी है। (-3) 





पैगम्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम बेआमेज (विशुद्ध) हक के 
दाऔ थे। इस दुनिया में जो शख्स बेआमेज हक का दाऔ बनकर उठे उसे निहायत 
हौसलाशिकन (निराशाजनक) हालात का सामना करना पड़ता है। वह पूरे माहौल में अजनबी 
बनकर रह जाता है। किसी का दुनियापरस्ताना मजहब दाऔ के आखिरपसंदाना दीन से मेल 
नहीं खाता। किसी की जमानासाजी (महत्वाकांक्षा) दाऔ की बेलाग हकपरस्ती से टकराती है। 
कोई दीन को अपनी कौमपरस्ती का जमीमा (परिशिष्ट) बनाए हुए होता है, जबकि दाऔ का 
मुतालबा यह होता है कि दीन को ख़ालिस ख़ुदापरस्ती की बुनियाद पर कायम किया जाए। 

ऐसी हालत में दाज अगर माहौल का दबाव कुबूल कर ले तो बहुत से लोग उसका साथ 
देने वाले मिल जाएंगे। और अगर वह ख़ालिस हक पर कायम रहे तो एक खुदा के सिवा कोई 
और उसका सहारा नजर नहीं आता। मगर दाऔ को किसी हाल में पहला रास्ता नहीं 
इर्न्ियार करना है। उसे अल्लाह के भरोसे पर ख़ालिस हक पर कायम रहना है। और यह 
उम्मीद रखना है कि ख़ुदा हकीम और अलीम है, वह जरूर अपने बदे की मदद फरमाएगा। 


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अल्लाह ने किसी आदमी के सीने में दो दिल नहीं रखे, और न तुम्हारी बीवियों को जिनसे 


तुम जिहार (तलाक देने की एक सूरत जिसमें शोहर अपनी बीबी से कहता था कि तुम 
मेरे लिए मेरी माँ की पीठ की तरह हो।) करते हो तुम्हारी मां बनाया और न तुम्हारे मुंह 





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सूरह-33. अल-अहज़ाब 23 पारा शा 
बोले बेटों को तुम्हारा बेटा बना दिया। ये सब तुम्हारे अपने मुंह की बातें हैं। और अल्लाह 
हक बात कहता है और वह सीधा रास्ता दिखाता है। मुंह बोले बेटों को उनके बापों की 
निस्बत से पुकारो यह अल्लाह के नजदीक ज्यादा मुंसिफाना बात है। फिर अगर तुम उनके 

बाप को न जानो तो वे तुम्हारे दीनी भाई हैं और तुम्हारे रफीक हैं। और जिस चीज में तुमसे 

भूल चूक हो जाए तो उसका तुम पर कुछ गुनाह नहीं मगर जो तुम दिल से इरादा करके 
करो। और अल्लाह माफ करने वाला, रहम करने वाला है। (4-5) 


आदमी के सीने में दो दिल न होना बताता है कि तजादे फिक्री (वैचारिक दंड) खुदा के 
तख्नीकी मंसूबे के खिलाफ है। जब इंसान को एक दिल दिया गया है तो उसकी सोच भी एक 
होना चाहिए। ऐसा नहीं हो सकता कि एक ही दिल में बयकवक्त इख्लास (निष्ठा) भी हो 
और निफाक (कपट) भी, खुदापरस्ती भी हो और जमानापरस्ती भी, इंसाफ भी हो और जुम 
भी, घमंड भी हो और तवाजोअ भी। आदमी दोनों में से कोई एक ही हो सकता है और उसे 
एक ही होना चाहिए। 

यह एक उसूली बात है। इसी के तहत जमानए जाहिलियत की रस्में मसलन जिहार व 
तबन्नियत आती हैं। अरब जाहिलियत का एक रवाजी कानून यह था कि अगर कोई शख्स 
अपनी बीवी से यह कह दे कि : "तू मेरे ऊपर मेरी मां की पीठ की तरह है” तो उसकी बीवी 
उसके ऊपर हमेशा के लिए हराम हो जाती थी जिस तरह किसी की मां उसके लिए हराम 
होती है। इसे जिहार कहते हैं। इसी तरह मुतबन्ना (मुंह बोले बेटे) के मामले में भी उनका 
अकीदा था कि वह बिल्कुल सुलबी (सगे) बेटे की तरह हो जाता है। उसे हर मामले में वही 
दर्जा दे दिया गया था जो हकीकी औलाद का होता है। कुरआन ने इस रवाज को बिल्कुल 
ख़त्म कर दिया। कुरआन में एलान किया गया कि यह तख़्तीकी निजाम के सरासर खिलाफ 
है कि हकीकी मां और जबान से कही हुई मां या हकीकी बेटा और मुंह बोला बेटा दोनों की 
हैसियत बिल्कुल एक हो जाए। 

आदमी अगर बेख़बरी में कोई गलती करे तो वह खुदा के यहां काबिले माफी है। मगर 
जब किसी मामले की हकीकत पूरी तरह वाजेह हो जाए, इसके बावजूद आदमी अपनी गलत 
रविश को न छोड़े तो इसके बाद वह काबिले माफी नहीं रहता। 


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और नबी का हक मोमिनों पर उनकी अपनी जान से भी ज्यादा है, और नबी की 
बीवियां उनकी माएं हैं। और रिश्तेदार ख़ुदा की किताब में, दूसरे मोमिनीन और 


मुहाजिरीन की बनिस्बत, एक दूसरे से ज्यादा तअल्लुक रखते हैं। मगर यह कि तुम 
अपने दोस्तों से कुछ सुलूक करना चाहो। यह किताब में लिखा हुआ है। (6) 





पारा 27 I24 सूरह-33. अल-अहजाब 


पैगम्बर अपनी जिंदगी में जाती तौर पर और वफात के बाद उसूली तौर पर अहले ईमान 
के लिए सबसे ज्यादा मुकदूदम हैसियत रखता है। इसकी वजह यह है कि पैगम्बर दुनिया में 
खुदा का नुमाइंदा होता है। पैगम्बर की तालीमात की अज्मत को कायम रखने के लिए जरूरी 
है कि उसका वजूद लोगों की नजर में मुकदूदस वजूद हो । यहां तक कि उसकी बीवियां भी लोगों 
के लिए माओं की तरह काबिले एहतराम करार पाएं। पैगम्बर और आपकी बीवियों के बाद 
उम्मत के बकिया लोगों के तअल्लुकात की बुनियाद यह है कि रहमी (खून के) रिश्ते रखने वाले 
“करीबी रिश्तेदार सबसे पहले हकदार” के उसूल पर एक दूसरे के हकदार ठहरेंगे। दीनी जरूरत 
के तहत वकती तौर पर गैर रिश्तेदारों में हुकूक की शिरकत कायम की जा सकती है। जैसा कि 
हिजरत के बाद इब्तिदाई जमाने में मदीना में किया गया । मगर मुस्किल मआशिरती इंतिजाम 
के एतबार से हकीकी रिश्तेदार ही सबसे पहले हकदार हैं और हमेशा रही। 


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और जब हमने पेग़म्बरों से उनका अहद (वचन) लिया और तुमसे और नूह से और 
इब्राहीम और मूसा और ईसा बिन मरयम से। और हमने उनसे पुख्ता अहद लिया। 


ताकि अल्लाह सच्चे लोगों से उनकी सच्चाई के बारे में सवाल करे, और मुंकिरों के लिए 
उसने दर्दनाक अजाब तैयार कर रखा है। (7-8) 











अल्लाह तआला ने इंसान को जिस मंसूबे के तहत पैदा किया है वह इम्तेहान है। यानी 
मौजूदा दुनिया में हर किस्म के असबाबे हयात देकर उसे आजादाना माहौल में रखना और 
फिर हर एक के अमल के मुताबिक उसे अबदी (चिरस्थाई) इनाम या अबदी सजा देना। 
जिंदगी की यह इम्तेहानी नौइयत लाजिमन यह चाहती है कि आदमी को अस्ल सूरतेहाल 
से पूरी तरह बाख़बर कर दिया जाए। इस मकसद के लिए अल्लाह तआला ने पैग़म्बरी का 
सिलसिला कायम फरमाया । पैगम्बरी कोई लाउडस्पीकर का एलान नहीं है। यह एक बेहद सब्र 
आजमा काम है। इसलिए तमाम पैग़म्बरों से निहायत एहतिमाम के साथ यह अहद लिया गया 
कि वे पैगामरसानी के इस नाजुक काम को उसके तमाम आदाब और तकाजों के साथ अंजाम 
देंगे। और इसमें हरगिज कोई अदना कोताही न करेंगे। 


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सूरह-33. अल-अहज़ाब पारा शा 


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ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अपने ऊपर अल्लाह के एहसान को याद करो, जब तुम 
पर फीजें चढ़ आई तो हमने उन पर एक आंधी भेजी और ऐसी फौज जो तुम्हें दिखाई 

न देती थी। और अल्लाह देखने वाला है जो कुछ तुम करते हो। जबकि वे तुम पर 
चढ़ आए, तुम्हारे ऊपर की तरफ से और तुम्हारे नीचे की तरफ से। और जब आंखें 

खुल गई और दिल गलों तक पहुंच गए और तुम अल्लाह के साथ तरह-तरह के गुमान 
करने लगे। उस वक्त ईमान वाले इम्तेहान में डाले गए और बिल्कुल हिला दिए गए। 
(9-]) 


I25 


गजवए अहजाब (5 हि०) अरब कबाइल और यहूद की तरफ से मदीना पर मुशतरक 
हमला था। इसमें हमलाआवरों की तादाद तकरीबन 2 हजार थी। मुसलमान इस अजीम 
फौज से लड़ने की ताकत न रखते थे। मगर अल्लाह तआला ने अपनी खुसूसी तदबीरों के 
जरिए दुश्मनों को इस कद्र ख़ैफजदा किया कि तकरीबन एक महीने के मुहासिरे धिराव) के 
बाद वे ख़ुद मदीना को छोड़कर चले गए। 

इस तरह के सख्त हालात इस्लामी दावत के साथ इसलिए पेश आते हैं कि मुसलमानों 
के गिरोह से मुख्लिसीन (निष्ठावानों) और गैर मुख्लिसीन को अलग कर दें। और दूसरे यह 
कि दुश्मन ताकतों को दिखा दें कि ख़ुदा अपने दीन का खुद हामी है। वह किसी हाल में उसे 
मग़लूब (परास्त) होने नहीं देगा। 


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पारा 27 सूरह-33. अल-अहजाब 


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और जब मुनाफिकीन (पाखंडी) और वे लोग जिनके दिलों में रोग है, कहते थे कि 
अल्लाह और उसके रसूल ने जो वादा हमसे किया था वह सिर्फ फरेब था। और जब 
उनमें से एक गिरोह ने कहा कि ऐ यसरिब वालो, तुम्हारे लिए ठहरने का मोका नहीं, 
तो तुम लौट चलो। और उनमें से एक गिरोह पेग़म्बर से इजाजत मांगता था, वह कहता 
था कि हमारे घर शेर महफूज है और वे गैर महफूज नहीं। वे सिर्फ भागना चाहते थे। 
और अगर मदीना के अतराफ से उन पर कोई घुस आता और उन्हें फितने की दावत 
देता तो वे मान लेते और वे इसमें बहुत कम देर करते। और उन्होंने इससे पहले अल्लाह 
से अहद किया था कि वे पीठ न फेरेंगे। और अल्लाह से किए हुए अहद (वचन) की 
पूछ होगी। कहो कि अगर तुम मौत से या कत्ल से भागो तो यह भागना तुम्हारे कुछ 
काम न आएगा। और इस हालत में तुम्हें सिर्फ थोड़े दिनों फायदा उठाने का मौका 
मिलेगा। कहो, कौन है जो तुम्हें अल्लाह से बचाए अगर वह तुम्हें नुक्सान पहुंचाना 
चाहे, या वह तुम पर रहमत करना चाहे। और वे अपने लिए अल्लाह के मुकाबले में 
कोई हिमायती और मददगार न पाएंगे। (2-7) 


I26 





ग़ज्वए अहजब मेखूतरात का तून देखकर मुनाफिक़ किम के लोग घबरा उठे और 
भागने की राहें तलाश करने लगे। मगर जो सच्चे अहले ईमान थे वे अल्लाह के एतमाद पर 
कायम रहे। वे जानते थे कि आगे भी खुदा है और पीछे भी ख़ुदा है। इस्लाम दुश्मनों के ख़तरे 
से भागना अपने आपको खुदा के ख़तरे में डालना है जो कि इससे ज्यादा सख्त है। उन्हें यकीन 
था कि अगर हम दुश्मनों के मुकाबले में जमे रहे तो अल्लाह की मदद हमें हासिल होगी और 
अगर हम इस्लाम के महाज को छोड़कर भाग जाएं तो आखिरकार दुनिया में भी अपने आपको 
हलाकत से बचा नहीं सकते और आखिरत में ख़ुदा की हौलनाक पकड़ इसके अलावा है। 


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सूरह-33. अल-अहजाब I27 पारा 27 


अल्लाह तुम में से उन लोगों को जानता है जो तुम में से रोकने वाले हैं और जो अपने 
भाइयों से कहते हैं कि हमारे पास आ जाओ। और वे लड़ाई में कम ही आते हैं। वे 
तुमसे बुख़्ल (कूपणता) करते हैं। पस जब ख़ोफ पेश आता है तो तुम देखते हो कि वे 
तुम्हारी तरफ इस तरह देखने लगते हैं कि उनकी आंखें उस शख़्स की आंखों की तरह 
गर्दिश कर रही हैं जिस पर मोत की बेहोशी तारी हो। फिर जब ख़तरा दूर हो जाता 
है तो वे माल की हिर्स में तुमसे तेज जबानी के साथ मिलते हैं। ये लोग यकीन नहीं 

लाए तो अल्लाह ने उनके आमाल अकारत कर दिए। और यह अल्लाह के लिए आसान 
है। वे समझते हैं कि फौजें अभी गई नहीं हैं। और अगर फौजें आ जाएं तो ये लोग 

यही पसंद करें कि काश हम बदूदुओं के साथ देहात में हों, तुम्हारी ख़बरें पूछते रहें। 
और अगर वे तुम्हारे साथ होते तो लड़ाई में कम ही हिस्सा लेते। (8-20) 





एक आदमी वह है जो कुर्बानी के वक़्त पीछे रह जाए तो उस पर शर्मिदगी तारी होती 
है। उसका बोलना बंद हो जाता है। दूसरा शख्स वह है जो कुर्बानी के वक्‍त कुर्बानी नहीं 
देता। और फिर दूसरों को भी इससे रोकता है। यह कोताही पर ढिठाई का इजाफा है। 
कोताही काबिले माफी हो सकती है मगर ढिठाई काबिले माफी नहीं। 

जिन लोगों के अंदर ढिठाई की नफ्सियात हो वे बजाहिर कोई अच्छा अमल करें तब भी 
वे बेकीमत हैं। क्योंकि अमल की असल रूह इख्लास है और वही उनके अंदर मौजूद नहीं। 

दीन के लिए कुर्बानी न देना हमेशा दुनिया की मुहब्बत में होता है। आदमी अपनी 
दुनिया को बचाने के लिए अपने दीन को खो देता है। इसलिए ऐसे लोग जहां देखते हैं कि 
दीन में दुनिया का फायदा भी जमा हो गया है तो वहां वे खूब अपने बोलने का कमाल दिखाते 
है ताकि दीन के साथ ज्यादा से ज्यादा तअल्लुक़ जहिर करे ज्यादा से यादा फयदा 
हासिल कर सकें। मगर जहां दीन का मतलब कुर्बानी हो वहां दीनदार बनने से उन्हें कोई 
दिलचस्पी नहीं होती। 


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पारा शा I28 सूरह-53 अल-अहजाब 
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तुम्हारे लिए अल्लाह के रसूल में बेहतरीन नमूना था, उस शख्स के लिए जो अल्लाह 
का और आखिरत के दिन का उम्मीदवार हो और कसरत से अल्लाह को याद करे। 
और जब ईमान वालों ने फौजों को देखा, वे बोले यह वही है जिसका अल्लाह और उसके 
रसूल ने हमसे वादा किया था और अल्लाह और उसके रसूल ने सच कहा। और इसने 
उनके ईमान और इताअत में इजाफा कर दिया। ईमान वालों में ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने 
अल्लाह से किए हुए अहद (वचन) को पूरा कर दिखाया। पस उनमें से कोई अपना 
जिम्मा पूरा कर चुका और उनमें से कोई मुंतजिर है। और उन्होंने जरा भी तब्दीली नहीं 

की। ताकि अल्लाह सच्चों को उनकी सच्चाई का बदला दे और मुनाफिकों (पाखंडियों) 

को अजाब दे अगर चाहे या उनकी तोबा कुबूल करे। बेशक अल्लाह बरुशने वाला 
महरबान है। (2।-24) 





रसूल और असहाबे रसूल (रसूल के साथियों) की जिंदगियां कियामत तक के अहले 
ईमान के लिए ख़ुदापरस्ताना जिंदगी का नमूना हैं, इस बात का नमूना कि अल्लाह और 
आखिरत की उम्मीदवारी के मअना क्या हैं। अल्लाह को याद करने का मतलब क्या होता है। 
मुश्किल हालात में साबितकदमी किसे कहते हैं। खुदा के वादों पर भरोसा किस तरह किया 
जाता है। इजाफापजीर (वृद्धिशील) ईमान क्या है और वह क्योंकर हासिल होता है। ख़ुदा 
से किए हुए अहद को पूरा करने का तरीका क्या है। 

रसूल और असहाबे रसूल ने इन चीजों का आखिरी नमूना कायम कर दिया । शदीदतरीन 
हालात में भी उन्होंने कोई कमजोरी नहीं दिखाई। उन्होंने हर मामले में इस्लामी फिक्र और 
इस्लामी किरदार का कामिल सुबूत दिया। इम्तेहान का लम्हा आने से पहले भी वे हक पर 
कायम थे और इम्तेहान का लम्हा आने के बाद भी वे हक पर कायम रहे। 

फिर रसूल और असहाबे रसूल की जिंदगियां ही इस बात का नमूना भी हैं कि ख़ुदा के 
यहां किसी का फैसला इम्तेहान के बगैर नहीं किया जाता। खुदा का तरीका यह है कि वह 
शदीद हालात पैदा करता है ताकि सच्चे अहले ईमान और झूठे दावेदार एक दूसरे से अलग 
हो जाएं। इस खुदाई कानून में न पहले किसी का इस्तसना (अपवाद) था और न आइंदा 
किसी का इस्तसना होगा। 


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और अल्लाह ने मुंकिरों को उनके गुस्से के साथ फेर दिया कि उनकी कुछ भी मुराद 
पूरी न हुई और मोमिनीन की तरफ से अल्लाह लड़ने के लिए काफी हो गया। अल्लाह 

कुब्बत (शक्ति) वाला जबरदस्त है। और अल्लाह ने उन अहले किताब को जिन्होंने 
हमलाआवरों का साथ दिया उनके किलों से उतारा। और उनके दिलों में उसने रौब 
डाल दिया, तुम उनके एक गिरोह को कत्ल कर रहे हो और एक गिरोह को कैद कर 

रहे हो। और उसने उनकी जमीन और उनके घरों और उनके मालों का तुम्हें वारिस बना 
दिया। और ऐसी जमीन का भी जिस पर तुमने कदम नहीं रखा। और अल्लाह हर चीज 

पर कुदरत रखने वाला है। (25-27) 





ग़जवए खुंदक (अहजाब) में हालात बेहद सरन थे। मगर उसमें बाकायदा जंग की नौबत 
नहीं आई । अल्लाह तआला ने हवा का तूफान और फरिश्तों का लश्कर भेजकर दुश्मनों को इस 
तरह सरासीमा (हतोत्साहित) किया कि वे ख़ुद ही मैदान छोड़कर चले गए। 

मदीना के यहूद (बनू कुजा) का मुसलमानों से सुलह और अम्न का मुआहिदा था । मगर जंगे 
अहजाब के मौके पर उन्होंने गद्दारी की। वे मुआहिदे को तोड़कर मुश्रिकीन के साथी बन गए। 
जब हमलाआवरों का लश्कर मदीना से वापस चला गया तो अल्लाह के हुक्म से अल्लाह के रसूल 
सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने बनू कुजा की बस्तियां पर चढ़ाई की। इस्लामी फौज ने उनके 
किलों को घेर लिया । 25 दिन तक मुहासिरा (घेराव) जारी रहा। आखिर में खुद उनकी दरखास्त 
पर साद बिन मुआज हकम (निर्णायक) मुर हए । हजरत साद बिन मुआज ने वही फैसला किया 
जो खुद उनकी किताब तौरात मैं ऐसे मुजरिमीन के लिए मुरकर है। यानी बनू कुजा के सब जवान 
कत्ल कर दिए जाएं। औरतें और लड़के कैदे गुलामी में ले लिए जाएं। और उनके माल और जायदाद 
को जब्त कर लिया जाए। (इस्तसना 20 : ]0-74) 

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पारा 22 30 सूरह-33. अल-अहज़ाब 
ऐ नबी, अपनी बीवियों से कहो कि अगर तुम दुनिया की जिंदगी और उसकी जीनत 
चाहती हो तो आओ, मैं तुम्हें कुछ माल व मताअ देकर ख़ूबी के साथ रुख़्सत कर दूं। 
और अगर तुम अल्लाह और उसके रसूल और आख़िरत के घर को चाहती हो तो अल्लाह 
ने तुम में से नेक किरदारों के लिए बड़ा अज्र मुहय्या कर रखा है। ऐ नबी की बीवियो, 
तुम में से जो कोई खुली बेहयाई करेगी, उसे दोहरा अजाब दिया जाएगा। और यह 
अल्लाह के लिए आसान है। (28-30) 





हिजरत ने मुसलमानों की मआशयात को दरहम बरहम कर दिया था। मजीद यह कि 
हिजरत के बाद इस्लाम दुश्मनों ने मुसलमानों को मुसलसल जंग में उलझा दिया। इसका 
नतीजा यह हुआ कि मुसलमानों की मआशी (आर्थिक) हालत बिल्कुल बर्बाद होकर रह गई। 
इसका सबसे ज्यादा असर अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर पड़ा। 
आपके घर वालों का हाल यह हुआ कि नागुजीर (मूलभूत) जरूरत की फराहमी भी मुश्किल 
हो गई। यहां तक कि आपकी अजवाज (बीवियों) ने तंग आकर आप से नफका (ख़र्च) का 
मुतालबा शुरू कर दिया। 
अजवाज की तरफ से सिर्फ जरूरी ख़र्च का मुतालबा किया गया था। उसे अल्लाह ने 
जीनते दुनिया के मुतालबे से ताबीर फरमाया। यह दरअस्ल शिदूदते इज्हार है। इसी तरह 
'बेहयाई' का लफ्ज भी यहां शिद्दते इज्हार के लिए आया है। पेगम्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद 
सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम तारीख के एक अहमतरीन मिशन की तक्मील पर मामूर 
(नियुक्ति) थे। यानी दौरे शिर्क का ख़ात्मा और दौरे तौहीद का कियाम। ऐसी हालत में किसी 
भी दूसरी चीज को अहमियत देना आपके लिए मुमकिन न था। इसलिए अजवाजे रसूल से 
फरमाया गया कि या तो सब्र और कनाअत (संतोष) के साथ रसूल के साथ रहो। और अगर 
यह मंजूर नहीं है तो खुश उस्लूबी के साथ अलग हो जाओ। ख़ानगी निजाअ (विवाद) खड़ी 
करके पैगम्बर के जेहन को मुंतशिर करना किसी तरह भी काबिले बर्दाश्त नहीं। 


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और तुम में से जो अल्लाह और उसके रसूल की फरमांबरदारी करेगी और नेक अमल 
करेगी तो हम उसे उसका दोहरा अज देगे। और हमने उसके लिए बाइज्जत रोजी तैयार 
कर रखी है। ऐ नबी की बीवियो, तुम आम औरतों की तरह नहीं हो। अगर तुम 
अल्लाह से डरो तो तुम लहे में नर्मी न इख्तियार करो कि जिसके दिल में बीमारी है वह 
लालच में पड़ जाए और मारूफ (सामान्य नियम) के मुताबिक बात कहो। (37-32) 


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सूरह-33. अल-अहजाब I3I पारा 22 





पैगम्बर की बीवियों को मआशिरे में एक तरह का कायदाना (नेतृत्वपरक) मकाम हासिल 
था। ऐसे लोगों को हक के आगे झुकने के लिए उससे ज्यादा कुर्बानी देनी पड़ती है। जितनी 
एक आम आदमी को देनी पड़ती है। यही वजह है कि ऐसे लोगों से अल्लाह तआला ने दोहरा 
इनाम का वादा फरमाया है। वे अमल करने के लिए दूसरों से ज्यादा कुवते इरादी इस्तेमाल 
करते हैं। इसलिए वे अपने अमल की कीमत भी दूसरों से ज्यादा पाते हैं। 
पैगम्बर की औरतों की इसी खुसूसियत की वजह से उनका रब्त बार-बार दूसरों से 
कायम होता था। लोग दीनी उमूर (मामलों में रहनुमाई के लिए उनके पास आते थे। इसलिए 
हुक्म दिया गया कि दूसरों से बात करो तो किसी कद्र खुश्क अंदाज में बात करो। इस तरह 
बेतकल्लुफ अंदाज में बात न करो जिस तरह एक महरम रिश्तेदार से बात की जाती है। 
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और तुम अपने थर में करार से रहो और पहले की जाहिलियत की तरह दिखलाती न 
फिरो। और नमाज कायम करो और जकात अदा करो और अल्लाह और उसके रसूल 
की इताअत (आज्ञापालन) करो। अल्लाह तो चाहता है कि तुम अहलेबैत (रसूल के 
घर वालों) से आलूदगी को दूर करे और तुम्हें पूरी तरह पाक कर दे। और तुम्हारे घरों 


में अल्लाह की आयतों और हिक्मत (तत्वज्ञान) की जो तालीम होती है उसे याद रखो। 
बेशक अल्लाह बारीकबीं (सूक्ष्मदर्शी) है ख़बर रखने वाला है। (33-34) 








यहां अजवाजे रसूल को ख़िताब करते हुए मुस्लिम ख़रातीन को आम हिदायत दी गई है 
कि वे अपने घरों में किस तरह रहें। उन्हें उसूलन अपने घर के दायरे में रहना चाहिए। 
दुनियादार औरतों की तरह जेब व जीनत (बनाव-सिंगार) की नुमाइश उनका मकसूद नहीं 
होना चाहिए । उनकी तवज्जोह का मकज यह होना चाहिए कि वे अल्लाह की इबादतगुजार 
बन जाएं। वे अपने असासे (पूंजी) को अल्लाह के लिए ख़र्च करें। जिंदगी के मामलात में 
अल्लाह और रसूल का जो हुक्म मिले उसे फौरन इख्तियार कर लें। वे अल्लाह और रसूल की 
बातों को सुनने और समझने में अपना वक्त गुजारें। 

यह तर्जेजिदगी वह है जो आदमी को पाकबाज बनाता है। और पाकबाज आदमी ही 
अल्लाह तआला को पसंद है। 








पारा 22 32 सूरह-33. अल-अहजाब 
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बेशक इताअत (आज्ञापालन) करने वाले मर्द और इताअत करने वाली औरतें। और 
ईमान लाने वाले मर्द और ईमान लाने वाली औरतें। और फरमांबरदारी करने वाले मर्द 
और फरमांबरदारी करने वाली औरतं। और रास्तबाज (सत्यनिष्ठ) मर्द और रास्तबाज 

औरतें। और सब्र करने वाले मर्द और सब्र करने वाली औरतें। और ख़ुशूअ (विनय) 
करने वाले मर्द और खुशूअ करने वाली औरतें। और सदका देने वाले मर्द और सदका 

देने वाली औरतें। और रोजा रखने वाले मर्द और रोजा रखने वाली औरतें। और अपनी 
शर्मगाहाँ की हिफाजत करने वाले मर्द और हिफाजत करने वाली औरते। और अल्लाह 


को कसरत (अधिकता) से याद करने वाले मर्द और याद करने वाली औरतें। इनके लिए 
अल्लाह ने मग्फिरत और बड़ा अज्र मुहय्या कर रखा है। (35) 


इस आयत में बताया गया है कि अल्लाह तआला एक मर्द या एक औरत को जैसा 
देखना चाहता है वह क्या है। वे ये सिफात हैं इस्लाम, ईमान, फरमांबरदारी, सिदूक 
(सच्चाई) सब्र खुशूअ (विनय), सदका, रोज, इफ्फत (अस्मिता), अल्लाह का जिक्र। 
इन दस अत्फाज में इस्लामी अकीदे और इस्लामी किरदार के तमाम पहलू सिमट आए 
हैं। इसका खुलासा यह है कि हर वह शख्स जो अल्लाह के यहां मग्फिरत और इनाम का 
उम्मीदवार हो उसे ऐसा बनना चाहिए कि वह अल्लाह के हुक्म के आगे झुकने वाला हो। वह 
अल्लाह पर यकीन करने वाला हो। वह अपने पूरे वजूद के साथ अल्लाह के लिए यकसू हो 
जाए। उसकी जिंदगी कौल और फेअल के तजाद (अन्तर्विरोध) से ख़ाली हो। वह हर हाल 
में जमा रहने वाला हो। अल्लाह की बड़ाई के एहसास ने उसे मुतवाजेअ (विनम्र) बना दिया 
हो। वह दूसरों की जरूरत पूरी करने को भी अपनी जिम्मेदारी शुमार करता हो। वह रोजादार 
हो जो नफ्स को कट्रेल करने की तर्बियत है। वह शहवानी ख़्वाहिशात के मुकाबले में अफीफ 
(सुशील) और पाक दामन हो। उसके सुबह व शाम अल्लाह की याद में बसर होने लगें। 
ये औसाफ जिस तरह मर्दों से मत्लूब हैं उसी तरह वे औरतों से भी मत्लूब हैं। इन 
औसाफ के इप्हार का दायरा कुछ एतबार से दोनों के दर्मियान मुर्ललिफ है। मगर जहां तक 
खुद औसाफ का तअल्लुक है वह दोनों के लिए यकसां (समान) हैं। कोई औरत हो या कोई 


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सूरह-33. अल-अहजाब 33 पारा 22 
मर्द वह उसी ववत खुदा के यहां काबिले कुबूल ठहरेगा जबकि वह इन दस सिफतों को अपना 
कर ख़ुदा के यहां पहुंचे । 


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किसी मोमिन मर्द या किसी मोमिन औरत के लिए गुंजाइश नहीं है कि जब अल्लाह 
और उसका रसूल किसी मामले का फैसला कर दें तो फिर उनके लिए उसमें इख्तियार 


बाकी रहे। और जो शख्स अल्लाह और उसके रसूल की नाफरमानी करेगा तो वह सरीह 
गुमराही में पड़ गया। (36) 





इंसान को खुदमुख्तार (इच्छानुसार काम करने वाला) पैदा किया गया है। इस ख़ुदमुख्तारी 
को उसे ख़ुदा के हवाले करना है। यही मौजूदा दुनिया में इंसान का अस्ल इम्तेहान है। वही 
शख्स हिदायत पर है जो इस नाजुक इम्तेहान में पूरा उतरे। 

इसकी एक मिसाल दौरे अबल में जेर और जैनब के निकाह का वाकया है। जैद एक 
आजादकरदा गुलाम थे। इसके बरअक्स जैनब कैश के आला ख़ानदान से तअल्लुक रखती 
थीं। क्योंकि वह उमैमा बिन्त अब्दुल मुत्तलिब की साहबजादी थीं। अल्लाह के रसूल 
सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने जैद का निकाह जैनब से करना चाहा तो जैनब के घर वाले 
इसके लिए तैयार नहीं हुए। खुद जैनब ने कहा कि : मैं नसब (वंश) में जैद से बेहतर हूं।' 
मगर जब उन लोगों को कुरआन की मज्कूरा आयत सुनाई गई तो वे लोग फौरन राजी हो 
गए। सन्‌ 4 हि० में उनका निकाह कर दिया गया। 

यही इस्लाम का मिजाज है और यही मिजाज हर मुसलमान मर्द और औरत में होना 
चाहिए 
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और जब तुम उस शख्स से कह रहे थे जिस पर अल्लाह ने इनाम किया और तुमने इनाम 


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पारा 22 34 सूरह-33. अल-अहज़ाब 
किया कि अपनी बीवी को रोके रखो और अल्लाह से डरो। और तुम अपने दिल में वह 
बात छुपाए हुए थे जिसे अल्लाह जाहिर करने वाला था। और तुम लोगों से डर रहे थे, 
और अल्लाह ज्यादा हकदार है कि तुम उससे डरो। फिर जब जेर उससे अपनी रज 

तमाम कर चुका, हमने तुमसे उसका निकाह कर दिया ताकि मुसलमानों पर अपने मुंह 
बोले बेटों की बीवियों के बारे में कुछ तंगी न रहे। जबकि वे उनसे अपनी गरज पूरी 
कर लें। और अल्लाह का हुक्म होने वाला ही था। (37) 





हजरत जैद के साथ हजरत जैनब का निकाह सन्‌ 4 हि० में हुआ। मगर निबाह न हो 
सका, अगले साल दोनों में अलेहिदगी हो गई | हजरत जैद ने जब अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु 
अलैहि व सल्लम से तलाक का इरादा जाहिर किया तो आपने सबब पूछा। उन्होंने कहा कि 
वह अपने ख़ानदानी शरफ (यश) की वजह से मेरे मुकाबले में बड़ाई का एहसास रखती हैं। 
ताहम आपने उन्हें रोका। बार-बार की दरख्वास्त पर आखिरकार आपने उन्हें अलेहिदगी की 
इजाजत दे दी। 

जैद और जैनब के निकाह से अव्वलन यह रस्म तोझीे गई थी कि मआशिरती फर्क को 
निकाह में हायल नहीं होना चाहिए। मगर जब उनके दर्मियान अलाहिदगी हो गई तो अब 
अल्लाह तआला की मर्जी यह हुई कि जैनब को एक और ग़लत रस्म के तोड़ने का जरिया 
बनाया जाए। 

कदीम जाहिलियत में यह रवाज था कि मुतबन्ना (मुंह बोले बेटे) को बिल्कुल हकीकी बेटे 
की तरह समझते थे। हर एतबार से उसके वही हुकूक थे जो हकीकी बेटे के होते हैं। इस रस्म 
को तोड़ने की बेहतरीन सूरत यह थी कि तलाक के बाद हजरत जैनब का निकाह अल्लाह के 
रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ कर दिया जाए। जैद अल्लाह के रसूल के मुतबन्ना 
थे। यहां तक कि उन्हें जैद बिन मुहम्मद कहा जाने लगा था। ऐसी हालत में मुंह बोले बेटे 
की तलाकशुदा औरत से आपका निकाह करना उस रस्म के खिलाफ एक धमाके की हैसियत 
रखता था। क्योंकि उनका ख्याल था कि मुतबन्ना की मंकूहा (निकाह में आई औरत) बाप 
पर हराम है जिस तरह हकीकी बेटे की मंकूहा बाप पर हराम होती है। 

अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को पेशगी तौर पर बताया जा चुका था 
कि अगर दोनों में अलाहिदगी हुई तो इस जाहिली रस्म को तोड़ने की तदबीर के तौर पर जैनब 
को आपके निकाह में दे दिया जाएगा । चूंकि इस किस्म का निकाह कदीम माहौल में जबरदस्त 
बदनामी का जरिया होता। इसलिए अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हजरत जैद 
को रोकते रहे कि अगर वह तलाक न दें तो मैं इस शदीद आजमाइश से बच जाऊंगा । मगर 
जो चीज इल्मे इलाही में मुकदूदर थी वह होकर रही । जद ने जैनब को तलाक दे दी और उस 
रस्म को तोड़ने की अमली तदबीर के तौर पर सनू 5 हि० में जैनब का निकाह आप से कर 
दिया गया। 

















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सूरह-33. अल-अहज़ाब 35 पारा 22 
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” चेम्बर के लिए इसमें कोई हरज नहीं जो अल्लाह ने उसके लिए मुर्करर कर दिया हो। 

यही अल्लाह की सुन्नत (तरीका) उन पेगम्बरां के साथ रही है जो पहले गुजर चुके हैं। 

और अल्लाह का हुक्म एक कतई फैसला होता है। वे अल्लाह के पेगामों को पहुंचाते 

थे और उसी से डरते थे और अल्लाह के सिवा किसी से नहीं डरते थे। और अल्लाह 

हिसाब लेने के लिए काफी है। मुहम्मद तुम्हारे मर्दों में से किसी के बाप नहीं हैं, लेकिन 


वह अल्लाह के रसूल और नबियों के ख़ातम (समापक) हैं। और अल्लाह हर चीज का 
इलम रखने वाला है। (38-40) 





इस वाकये के बाद हस्वे तवक्मेअ आपके झ़लाफ जबरदस्त प्रेपेगंडा शुरू हो गया। 
कहा जाने लगा कि पैगम्बर ने अपनी बहू से निकाह कर लिया, हालांकि बेटे की मंकूहा बाप 
पर हराम होती है। फरमाया कि मुहम्मद का मामला तो यह है कि उनकी सिर्फ लड़कियां 
हैं। वह मर्दों में से किसी के बाप ही नहीं। जैद बिन हारिसा उनके सिर्फ मुंह बोले बेटे थे और 
मुंह बोला बेटा वाकई बेटा कैसे हो सकता है कि उसकी तलाकशुदा बीवी से निकाह आपके 
लिए जाइज न हो। 

आप ख़ुदा के पैगम्बर थे, फिर भी आपके साथ इतने उतार चढ़ाव के वाकेयात क्यों पेश 
आए। इसका जवाब यह है कि पैगम्बर पर अगरचे खुदा की “वही” आती है। मगर उसे आम 
इंसानों की तरह रहना होता है। मौजूदा इम्तेहान की दुनिया में उसे भी वैसे ही हालात पेश 
आते हैं जैसे हालात दूसरों को पेश आते हैं। अगर ऐसा न हो तो पैगम्बर की जिंदगी आम 
इंसानों पर हुज्जत (तर्कोक्ति) न बन सके। यही वजह है कि पैगम्बराना रहनुमाई हकीकी 
हालात के ढांचे में दी जाती है न कि मस्नूई हालात के ढांचे में। 

ख़ातमुंनबिय्यीन का लफ्जी तर्जुमा यह है कि आप नबियों की मुहर हैं। ख़ातम का लफ्ज 
स्टेम्प (9३०7) के लिए नहीं आता है बल्कि सील (9९०]) के लिए आता है। यानी आखिरी 
अमल । लिफाफे को सील करने का मतलब उसे आखिरी तौर पर बंद करना है कि इसके बाद 
न कोई चीज उसके अंदर से बाहर निकले और न बाहर से अंदर जाए। चुनांचे अरबी में कौम 
का ख़ातम कौम के आखिरी शख्स को कहा जाता है। 





पारा 22 36 सूरह-33. अल-अहजाब 
इस वाकये के जेल में आपके खातमुंनबिय्यीन (अंतिम नबी) होने के एलान का मतलब 

यह है कि आपके बाद चूंकि कोई और नबी आने वाला नहीं, इसलिए जरूरी है कि तमाम 

खुदाई बातों का इज्हार आपके जरिए से कर दिया जाए। 


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ऐ ईमान वालो, अल्लाह को बहुत ज्यादा याद करो। और उसकी तस्बीह करो सुबह 
और शाम। वही है जो तुम पर रहमत भेजता है और उसके फरिश्ते भी ताकि तुम्हें 
तारीकियों से निकाल कर रोशनी में लाए। और वह मोमिनों पर बहुत महरबान है। 
जिस रोज वे उससे मिलेंगे, उनका इस्तकबाल सलाम से होगा। और उसने उनके लिए 
बाइप्जत सिला (प्रतिफल) तैयार कर रखा है। (4।-44) 








जब मिलावटी दीन का गलबा हो, उस वक्त सच्चे दीन को इख्तियार करना हमेशा 
मुश्किलतरीन काम होता है। ऐसी हालत में अहले ईमान के दिल में बअज औकात दिल 
शिकस्तगी और मायूसी के जज्बात तारी होने लगते हैं। उससे बचने की सिर्फ एक ही यकीनी 
सूरत है जाहिरी नाखुशगवारियों के पीछे जो खुशगवार पहलू छुपा हुआ है, उस पर नजर को 
जमाए रखना। 

लोग माद्दयात (भौतिक वस्तुओं) के बल पर जीते हैं। मोमिन को अफ्कार (५९०४) के 
बल पर जीना पड़ता है। अफ्कार की सतह पर जीना यह है कि आदमी अल्लाह की यादों में 
जीने लगे। फरिश्तों का न सुनाई देने वाला कलाम उसे सुनाई देने लगे। उसे सही मकसद की 
शक्ल में जो फिक्री (वैचारिक) दरयाफ्त हुई है उसे वह सबसे बड़ी चीज समझे। दुनिया को 
देकर आख़िरत में जो कुछ मिलने वाला है उस पर वह पूरी तरह राजी और मुतमइन हो जाए 


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ऐ नबी, हमने तुम्हें गवाही देने वाला और ख़ुशख़बरी देने वाला और डराने वाला बनाकर 
भेजा है। और अल्लाह की तरफ, उसके इज्न (आज्ञा) से, दावत देने वाला (आस्वानकर्ता) 





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सूरह-33. अल-अहज़ाब 37 पारा 22 
और एक रोशन चराग़। और मोमिनां को बिशारत दे दो कि उनके लिए अल्लाह की 
तरफ से बहुत बड़ फत्ल (अनु) है। और तुम मुंकिरो और मुनाफिकम (पाखडियो) 

की बात न मानो और उनके सताने को नजरअंदाज करो और अल्लाह पर भरोसा रखो। 

और अल्लाह भरोसे के लिए काफी है। (45-48) 





शाहिद (गवाह), मुबश्शिर (खुशख़बरी देने वाला), नजीर (डराने वाला), दाऔ (आह्वानकर्ता) 
ये सब एक ही हकीकत के मुख़तलिफ पहलू हैं। पैगम्बर का मिशन यह होता है के वह लोगों 
को ज़िंदगी की हकीकत से आगाह करे। वह लोगों को जन्नत और जहन्नम की ख़बर दे। यह 
एक दावती अमल है और इसी दावती अमल की बुनियाद पर पैगम्बर आखिरत की अदालत 
में उन लोगों की बारे में गवाही देगा जिन पर उसने अम्र हक पंहुचाया और फिर किसी ने माना 
और किसी ने न माना। 
पैगम्बर का जो मिशन है वह उम्मते मुस्लिमा का मिशन भी है। इस राह में लोगों की 
तरफ से अजिय्यतें (यातनाएं) पेश आती हैं। कोई साथ नहीं देता और कोई वक्ती तौर पर 
साथ देता है और फिर झूठे अल्फाज बोलकर अलग हो जाता है। ऐसे हालात में सिर्फ ख़ुदा 
पर भरोसा ही वह चीज है जो पैग़म्बर (या उसकी पैरवी करने वाले दाऔ) को दावती अमल 
पर साबित कदम रख सकता है। लोगों की तरफ से जो कुछ पेश आए उस पर सब्र करना 
और उसे नजरअंदाज करना और हर हाल में खुदा पर अपनी नजर जमाए रखना, यही 
इस्लामी दावत का काम करने वाले का असल सरमाया है। 


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ऐ ईमान वालो, जब तुम मोमिन औरतों से निकाह करो, फिर उन्हें हाथ लगाने से पहले 


तलाक दे दो तो उनके बारे में तुम पर कोई इदूदत लाजिम नहीं है जिसका तुम शुमार करो। 
पस उन्हें कुछ मताअ (सामग्री) दे दो और ख़ूबी के साथ उन्हें रुख्सत कर दो। (49) 














एक शख्स किसी औरत से निकाह करे लेकिन मुलाकात की नौबत आने से पहले उसे 
तलाक दे दे तो ऐसी हालत में इद्दत की वह पाबंदी नहीं है जो आम निकाह में होती है। 
अलबत्ता इस्लामी अज्लाक का तकज हैकि जिस तरह बाइज्जत अंदाज मेंदेनोंके दर्मियान 
तअल्लुक का मामला हुआ था उसी तरह बाइज्जत तौर पर दोनों के दर्मियान जुदाई का मामला 
भी किया जाए। उस ख़ातून का अगर महर बांधा गया था तो मर्द को मुकर्ररह महर का निस्फ 
(आधा) देना होगा वर्ना उर्फ (आम रवाज) और हैसियत के मुताबिक कुछ देकर खूबसूरती से 
रुख्सत कर दिया जाए। औरत अगर चाहे तो फौरन ही दूसरा निकाह कर सकती है। इस 
सूरत में उसके लिए इदूदत गुजारने की शर्त नहीं। 





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पारा 22 38 सूरह-33. अल-अहजाब 
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ऐ नबी हमने तुम्हारे लिए हलाल कर दीं तुम्हारी वे बीवियां जिनकी महर तुम दे चुके 
हो और वे औरतें भी जो तुम्हारी ममलूका (मिल्कियत में) हैं जो अल्लाह ने ग़नीमत में 
तुम्हें दी हैं और तुम्हारे चचा की बेटियां और तुम्हारी फूफियों की बेटियां और तुम्हारे 
मामुओं की बेटियां और तुम्हारी ख़ालाओं की बेटियां जिन्होंने तुम्हारे साथ हिजरत की 
हो। और उस मुसलमान औरत को भी जो अपने आपको पैगम्बर को दे दे, बशर्ते कि 
पैगम्बर उसे निकाह में लाना चाहे, यह ख़ास तुम्हारे लिए है, मुसलमानों से अलग। 
हमें मालूम है जो हमने उन पर उनकी बीवियों और उनकी दासियों के बारे में फर्ज किया 

है, ताकि तुम पर कोई तंगी न रहे और अल्लाह बस्शने वाला, महरबान है। (50) 


आम मुसलमानों के लिए बीवियों की आखिरी तादाद को चार तक महदूद रखा गया है। 
मगर पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के लिए यह पाबंदी नहीं थी। आपने अल्लाह 
तआला की खुसूसी इजाजत के तहत चार से ज्यादा निकाह किया। इसकी मस्लेहत यह थी 
कि रसूल के ऊपर कोई तंगी न रहे। 

तंगी के मुराद पैगाम्बराना मिशन की अदायगी में तंगी है। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु 
अलैहि व सल्लम को मुख़्तलिफ दावती (आह्वानपरक) और इस्लाही (सुधारवादी) लेक 
तहत जरूरत महसूस होती थी कि आप ज्यादा औरतों को अपने निकाह में ला सकें। इसी 
दीनी मस्लेहत की बिना पर अल्लाह तआला ने आपके लिए चार की कैद नहीं रखी। मिसाल 
के तौर पर हजरत आइशा से निकाह में यह मस्लेहत थी कि एक कम उम्र और जहीन ख़ातून 
आपकी मुस्तकिल सोहबत (समीपता) में रहें ताकि आपके बाद लम्बी मुद्दत तक लोगों को 
दीन सिखाती रहें। चुनांचे हजरत आइशा आपकी वफात के बाद निस्फ (आधी) सदी तक 
उम्मत के लिए एक जिंदा कैसेट रिकॉर्डर बनी रहीं। इसी तरह हजरत उम्मे सलमा और हजरत 
उम्मे हबीबा से निकाह का यह फायदा हुआ कि ख़ालिद बिन वलीद और अबू सुफियान बिन 
हरब की मुखालिफत हमेशा के लिए ख़त्म हो गई। वगैरह 








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सूरह-33. अल-अहज़ाब I39 पारा 22 
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तुम उनमें से जिस-जिसको चाहो दूर रखो और जिसे चाहो अपने पास रखो। और जिन्हें 
दूर किया था उनमें से फिर किसी को तलब करो तब भी तुम पर कोई गुनाह नहीं। 
इसमें ज्यादा तवक्कोअ (संभावना) है कि उनकी आंखें ठंडी रहेगी, और वे रंजीदा न 
होंगी। और वे इस पर राजी रहें जो तुम उन सबको दो। और अल्लाह जानता है जो 
तुम्हारे दिलों में है। और अल्लाह जानने वाला है, बुर्दबार (उदार) है। इनके अलावा 
और औरतें तुम्हारे लिए हलाल नहीं हैं। और न यह दुरुस्त है कि तुम उनकी जगह दूसरी 
बीवियां कर लो, अगरचे उनकी सूरत तुम्हें अच्छी लगे। मगर जो तुम्हारी ममलूका 
(मिल्कियत) हो। और अल्लाह हर चीज पर निगरां है। (5-52) 





जहां कई ख़्वातीन का मसला हो वहां शिकायत का इम्कान बढ़ जाता है। अल्लाह के 
रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ कई बीवियां थीं। इस बिना पर अंदेशा था कि 
हुकूके जौजियत (दाम्पत्य अधिकारों) के बारे में ख़ातीन को अदम मुसावात (असमानता) की 
शिकायत हो और इसका नतीजा यह निकले कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम 
यकसूई के साथ दीनी मुहिम की अदायगी न फरमा सकें। इसलिए एलान फरमाया कि पैगम्बर 
का मामला खुसूसी मामला है। वह आम मुसलमानों की तरह हुकूके जोजियत में मुसावात 
(समानता) के पाबंद नहीं हैं। हूक जेजियत की रिआयत और हके इस्लाम की रिआयत 
में टकराव हो तो पैगम्बर के लिए जाइज होगा कि वह हुकूके इस्लाम की रिआयत को तरजीह 
दें। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को आम जाल्ले से मुस्तसना (अपवाद) करने 
का मकसद यह था कि ख्ातीन के अंदर शिकायती जेहन की पेदाइश को रोका जा सके। 
लेकिन अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इस इख्तियार को अमलन बहुत ही 
कम इस्तेमाल फरमाया। 











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ऐ ईमान वालो, नबी के घरों में मत जाया करो मगर जिस वक्‍त तुम्हें खाने के लिए 
इजाजत दी जाए, ऐसे तोर पर कि उसकी तैयारी के मुंतजिर न रहो। लेकिन जब तुम्हें 
बुलाया जाए तो दाख़िल हो। फिर जब तुम खा चुको तो उठकर चले जाओ और बातों 
में लगे हुए बैठे न रहो। इस बात से नबी को नागवारी होती है। मगर वह तुम्हारा 
लिहाज करते हैं। और अल्लाह हक बात कहने में किसी का लिहाज नहीं करता। और 

जब तुम रसूल की बीवियों से कोई चीज मांगो तो पर्दे की ओट से मांगो। यह तरीका 

तुम्हारे दिलों के लिए ज्यादा पाकीजा है और उनके दिलों के लिए भी। और तुम्हारे लिए 

जाइज नहीं कि तुम अल्लाह के रसूल को तकलीफ दो और न यह जाइज है कि तुम 

उनके बाद उनकी बीवियों से कभी निकाह करो। यह अल्लाह के नजदीक बड़ी संगीन 
बात है। तुम किसी चीज को जाहिर करो या उसे छुपाओ तो अल्लाह हर चीज को जानने 

वाला है। (53-54) 





यहां अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सिलसिले में हुक्म देते हुए 
मुसलमानों को बताया गया है कि उनकी घरेलू मआशिरत के आदाब किस किस्म के होने 
चाहिएं। वे दूसरों के घरों में दाखिल हों तो इजाजत लेकर दाखिल हों। खाने या किसी 
और जरूरत के लिए किसी के यहां बुलाया जाए तो सिर्फ बक्द्र जरूरत वहां बैठे और 
फरागत के बाद फौरन वापस हो जाएं। दूसरों से मिलने जाएं तो गैर जरूरी बातों से 
शदीद परहेज करें। औरतों से मुतअल्लिक कोई काम हो तो पर्दे की आड़ से उसे अंजाम 
दें, वगैरह। 

मआशिरती (सामाजिक) जिंदगी में आदमी को सिर्फ अपनी खाहिश या जरूरत नहीं 
देखना चाहिए बल्कि उसे निहायत शिद्दत से यह बात मल्हूज रखना चाहिए कि उसके 
रवैये से दूसरे शख्स को तकलीफ न पहुंचे। उसकी गैर जरूरी बातें दूसरे का ववत जाया 
करने वाली न हों। 


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सूरह-33. अल-अहज़ाब हट पारा 22 


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पैग़म्बर की बीवियों पर अपने बापों के बारे में कोई गुनाह नहीं है। और न अपने 
बेटों के बारे में और न अपने भाइयों के बारे में और न अपने भतीजों के बारे में 
और न अपने भांजों के बारे में और न अपनी औरतों के बारे में और न अपनी दासियों 
के बारे में। और तुम अल्लाह से डरती रहो, बेशक अल्लाह हर चीज पर निगाह रखता 
है। (55) 





ऊपर की आयत में मर्दों के लिए यह मुमानिअत (मनाही) थी कि वे रसूल की बीवियों 
के सामने न आएं। इस आयत में बताया गया है कि महरम रिश्तेदार और मेलजोल की औरतें 
इन पाबंदियों से मुस्तसना (अपवाद) हैं। यहां जिन रिश्तों का जिक्र है उसमें वे रिश्ते भी आ 
जाएंगे जो उनके हुक्म में दाखिल हों। इस कुरआनी हिदायत की मजीद तफ्सील सूरह नूर 
(आयत 3]) में मौजूद है। 

तमाम अहकाम का खुलासा यह है कि औरत हो या मर्द उसके दिल में अल्लाह का डर 
हो। वह यह समझ कर जिंदगी गुजारे कि अल्लाह हर हाल में उसकी निगरानी कर रहा है। 

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अल्लाह और उसके फरिश्ते नबी पर रहमत भेजते हैं। ऐ ईमान वालो, तुम भी उस पर 
दुरूद व सलाम भेजो। जो लोग अल्लाह और उसके रसूल को अजिय्यत (यातना) देते 
हैं, अल्लाह ने उन पर दुनिया और आख़िरत में लानत की और उनके लिए जलील करने 
वाला अजाब तैयार कर रखा है। और जो लोग मोमिन मर्दों और मोमिन औरतों को 
अजिय्यत देते हैं कौर इसके कि उन्होंने कुछ किया हो तो उन्होंने बोहतान का और 
सरीह गुनाह का बोझ उठाया। (56-58) 


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अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम दुनिया में खुदा के दीन का 


पारा 22 42 सूरह-33. अल-अहजाब 
इज्हार करने के लिए भेजे गए। अल्लाह का जो बंदा इस तरह के मुकद्दस (पावन) काम के 
लिए उठे उसे ख़ुदा और उसके फरिश्तों की कामिल ताईद हासिल होती है। उसकी हमनवाई 
करना ख़ुदा और उसके फरिश्तों की हमनवाई करना होता है। और उससे एराज (उपेक्षा) 
करना खुदा और उसके फरिश्तों से एराज करना होता है। 

जिन लोगों ने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को सताया वे अपने ख्याल 
के मुताबिक सिर्फ एक इंसान को सता रहे थे। मगर वे भूल गए कि वे खुदा के नुमाइंदे को 
सता रहे हैं। और जो लोग ख़ुदा के नुमाइंदे को सताएं, उन्होंने मालिके कायनात की नजर में 
हमेशा के लिए अपने आपको मलऊन (पतित) बना लिया। 


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ऐ नबी, अपनी बीवियों से कहो और अपनी बेटियों से और मुसलमानों की औरतों से 
कि नीचे कर लिया करें अपने ऊपर थोड़ी सी अपनी चादरें इससे जल्दी पहचान हो 
जाएगी तो वे सताई न जाएंगी। और अल्लाह बख्शने वाला महरबान है। मुनाफिकीन 
(पाखंडी) और वे लोग जिनके दिलों में रोग है और जो मदीना में झूठी ख़बरें फेलाने वाले 
हैं, अगर वे बाज न आए तो हम तुम्हें उनके पीछे लगा देंगे। फिर वे तुम्हारे साथ मदीना 

में बहुत कम रहने पाएंगे। फिटकारे हुए, जहां पाए जाएंगे पकड़े जाएंगे और बुरी तरह 
मारे जाएंगे। यह अल्लाह का दस्तूर है उन लोगों के बारे में जो पहले गुजर चुके हैं। 
और तुम अल्लाह के दस्तूर में कोई तब्दीली न पाओगे। (59-62) 








मुसलमान औरत जब किसी जरूरत से अपने घर से बाहर निकले तो वह किस तरह 
निकले। उसे ऐसे लिबास में निकलना चाहिए जो इस बात का एक ख़ामोश एलान हो कि वह 
एक शरीफ और हयादार औरत है। वह संजीदा जरूरत के तहत बाहर निकली है न कि 
तफरीह और दिल्लगी के लिए। सादा कपड़े, हयादार चाल, चादर या बुरके से जिस्म ढका हुआ 
होना इसी की एक अलामत है। हकीकत यह है कि जिस्मानी नुमाइश के साथ बाहर निकलना 
दूसरों को दावते इल्तफात देना (आकर्षित करना) है। और जिस्मानी नुमाइश के बगैर 


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सूरह-33. अल-अहजाब 43 पारा 22 
निकलना गोया अमल की जबान में दूसरों से यह कहना है कि मैं सिर्फ अपने काम से बाहर 
निकली हूं, मुझे तुमसे कोई मतलब नहीं। 

दिल के मरीजों' से यहां मुराद गालिबन यहूद हैं। क्योंकि वही लोग मुसलमानों को और 
मुस्लिम ख़ातीन को ज्यादा परेशान कर रहे थे और यही लोग थे जो मज्कूरा तंबीह के 
मुताबिक कत्ल किए गए या शहर से निकाल दिए गए थे। 


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लोग तुमसे कियामत के बारे में पूछते हैं। कहो कि उसका इल्म तो सिर्फ अल्लाह के पास 

है। और तुम्हें क्या ख़बर, शायद कियामत करीब आ लगी हो। बेशक अल्लाह ने मुंकिरों 

को रहमत से दूर कर दिया है। और उनके लिए भड़कती हुई आग तैयार है, उसमें वे हमेशा 
रहेंगे। वे न कोई हामी पाएंगे और न कोई मददगार। जिस दिन उनके चेहरे आग में 
उलट-पलट किए जाएंगे, वे कहेंगे, ऐ काश हमने अल्लाह की इताअत (आज्ञापालन) की 
होती और हमने रसूल की इताअत की होती। और वे कहेंगे कि ऐ हमारे रब, हमने अपने 
सरदारों और अपने बड़ों का कहना माना तो उन्होंने हमें रास्ते से भटका दिया। ऐ हमारे 
रब, उन्हें दोहरा अजाब दे और उन पर भारी लानत कर। (63-68) 





कियामत की तारीख़ पूछने का मतलब यह नहीं है कि वे लोग कियामत के आने को सिरे 
से मानते ही न थे। यह दरअस्ल कियामत का इस्तहजा (मज़ाक उड़ना) न था बल्कि कियामत 
की ख़बर देने वाले का इस्तहजा था। वे नफ्से कियामत के मुकेर न थे बल्कि कियामत की उस 
नौइयत के मुंकिर थे जिसकी रसूल और असहाबे रसूल उन्हें ख़बर दे रहे थे। 
उनकी अस्ल गलती यह थी कि उन्होंने अपने कौमी अकाबिर (नायकों) को बड़ा समझा 
और पैगम्बर को बड़ा न समझा । इसलिए उन्हें अपने कौमी अकाबिर की बात काबिले लिहाज 
नजर आई और पैगम्बर की बात काबिले लिहाज नजर न आई। चुनांचे कियामत में जब अस्ल 
हकीकत खुलेगी तो वे अफसोस कशि कि काश हम झूठी बई और सच्ची बड़ई के फर्क 
को समझते और झूठी बड़ाई के फरे में मुन्तिला होकर गुमराह न होते। 





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ऐ ईमान वालो, तुम उन लोगों की तरह न बनो जिन्होंने मूसा को अजिय्यत (यातना) 
पहुंचाई तो अल्लाह ने उसे उन लोगों की बातों से बरी साबित किया। और वह अल्लाह 
के नजदीक बाइप्जत था। ऐ ईमान वालो, अल्लाह से डरो और दुरुस्त बात कहो। वह 


तुम्हारे आमाल सुधारेगा और तुम्हारे गुनाहों को बख्श देगा। और जो शख्स अल्लाह और 
उसके रसूल की इताअत (आज्ञापालन) करे उसने बड़ी कामयाबी हासिल की। (69-7]) 
































'यहूदियाँ की तरह पैगम्बर को न सताओ' से क्या मुराद है, इसकी वजाहत एक वाकये 
से होती है। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मदीना में थे कि एक बार आपके 
पास कुछ माल आया। आपने उसे लोगों के दर्मियान तक्सीम किया । इसके बाद अंसार में से 
एक शख्स ने दूसरे शख्स से कहा : खुदा की कसम मुहम्मद ने इस तक्सीम से अल्लाह की 
रिजा और आख़िरत का घर नहीं चाहा है। इस वाकये की ख़बर अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु 
अलैहि व सल्लम को दी गई तो आप ने फरमाया कि अल्लाह की रहमत मूसा पर हो। उन्हें 
इससे ज्यादा अजिय्यत दी गई मगर उन्होंने सब्र किया । (तफ्सीर इने कसीर) 

कलाम की दो किस्में हैं। एक है सदीद कलाम। दूसरा है गैर सदीद कलाम। सदीद 
कलाम वह है जो ऐन मुताबिके हकीकत हो। जो वाकयाती तज्जिया (विश्लेषण) पर मबनी 
हो। जो ठोस दलाइल के साथ पेश किया जाए। इसके बरअक्स गैर सदीद कलाम वह है 
जिसमें हकीकत की रिआयत शामिल न हो। जिसकी बुनियाद जन व गुमान (पूर्वाग्रह) पर 
कयम हये। जिसकी हैसियत महज रायजी की हे न कि हवीकते वाक्या के इहार की। 
पहला कलाम मोमिनाना कलाम है और दूसरा कलाम मुनाफिकाना कलाम | 


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हमने अमानत को आसमानों और जमीन और पहाड़ों के सामने पेश किया तो उन्होंने 


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सूरह-34. सबा I45 पारा 22 
उसे उठाने से इंकार किया और वे उससे डर गए, और इंसान ने उसे उठा लिया। बेशक 
वह जालिम और जाहिल था। ताकि अल्लाह मुनाफिक (पाखंडी) मर्दों और मुनाफिक 

औरतों को और मुश्रिक मर्दों और मुश्रिक औरतों को सजा दे। और मोमिन मर्दों और 
मोमिन औरतों पर तवज्जोह फरमाए। और अल्लाह बख्शने वाला, महरबान है। (72-73) 





अमानत से मुराद इख्तियार है। इख्तियार को अमानत इसलिए फरमाया कि वह अल्लाह 
की एक चीज है जिसे उसने आरजी मुद्दत के लिए इंसान को बतौर आजमाइश दिया है ताकि 
इंसान खुद अपने इरादे से खुदा का ताबेदार बने। अमानत, दूसरे लफ्जों में, अपने ऊपर खुदा 
का कायम मकाम बनना है। अपने आप पर वह करना है जो ख़ुदा सितारों और सय्यारों पर 
कर रहा है। यानी अपने इख्तियार से अपने आपको ख़ुदा के कंट्रोल में दे देना। 

इस कायनात में सिर्फ अल्लाह हाकिम है और तमाम चीजें उसी की महकूम हैं। मगर 
अल्लाह तआला की मर्जी हुई कि वह एक ऐसी आजाद मख्लूक पैदा करे जो किसी जब्र 
(दबाव) के बगैर ख़ुद अपने इख्तियार से वही करे जो ख़ुदा उससे करवाना चाहता है। यह 
इख्तियारी इताअत बड़ी नाजुक आजमाइश थी । आसमान और जमीन और पहाड़ भी उसका 
तहम्मुल नहीं कर सकते । ताहम इंसान ने शदीद अंदेशे के बावजूद इसे कुबूल कर लिया। अब 
इंसान मौजूदा दुनिया में ख़ुदा की एक अमानत का अमीन (धारक) है। उसे अपने ऊपर वही 
करना है जो ख़ुदा दूसरी चीजों पर कर रहा है। इंसान को अपने आप पर ख़ुदा का हुक्म 
चलाना है। इंसान हालते इम्तेहान में है और मौजूदा दुनिया उसके लिए वसीअ इम्तेहानगाह। 

यह अमानत एक बेहद नाजुक जिम्मेदारी है। क्योकि इसी की वजह से जजा व सजा का 
मसला पैदा होता है। दूसरी मख्लूकात मजबूर व मकहूर (बाह्य) हैं। इसलिए उनके वास्ते जजा 
व सजा का मसला नहीं। इंसान आजाद है। इसलिए वह जजा व सज का मुस्तहिक बनता 
है। हजरत अब्दुल्लाह बिन अब्बास से रिवायत है कि अल्लाह तआला ने अमानत को आदम 
के सामने पेश किया, तो आदम ने पूछा कि अमानत क्या है। अल्लाह तआला ने फरमाया, 
अगर तुम अच्छा करोगे तो तुम्हें उसका बदला मिलेगा और अगर तुम बुरा करोगे तो तुम्हे 
सजा दी जाएगी। (तफ्सीर इनेक्रसीर) 

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आयतें-54 सूरह-34. सबा रुकूअ-6 
(मक्का में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरवान, निहायत रहम वाला है। 
तारीफ खुदा के लिए है जिसका वह सब कुछ है जो आसमानों में है और जो जमीन 
में हे और उसी की तारीफ है आख़िरत में और वह हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला जानने 
वाला है। वह जानता है जो कुछ जमीन के अंदर दाखिल होता है और जो कुछ उससे 
निकलता है। और जो आसमान से उतरता है और जो उसमें चढ़ता है। और वह रहमत 
वाला बर्शने वाला है। (-2) 


कायनात अपने ख़लिक का तआरुफ है। उसकी हैबतनाक वुस्अत (व्यापक) ख़ालिक 
की अज्मत को बताती है। उसका हदे कमाल तक मौजूं (उपयुक्त) होना बताता है कि उसका 
पैदा करने वाला एक कामिल व मुकम्मल हस्ती है। इसके तमाम अज्जा का हददर्जा तवाफुक 
(सहजता) के साथ अमल करना साबित करता है कि उसका चलाने वाला इंतिहाई हद तक 
हकीम और अलीम है। कायनात का इंसान के लिए मुकम्मत तौर पर साजगार होना जाहिर 
करता है कि उसका ख़ालिक अपनी मख्नूकात के लिए बेहद रहीम व करीम है। 

जो शख्स कायनात पर गौर करेगा वह ख़ुदा के जलाल (प्रताप) व कमाल के एहसास से 
सरशार हो जाएगा। वह यकीन कर लेगा कि अजल (आदि) से अबद (अंत) तक तमाम 
अज्तें सिर्फ एक खुदा के लिए हैं। उसके सिवा किसी और के लिए नहीं। 


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और जिन्होंने इंकार किया वे कहते हैं कि हम पर कियामत नहीं आएगी। कहो कि 
क्यों नहीं, कसम है मेरे परवरदिगार आलिमुलगीब की, वह जरूर तुम पर आएगी। 
उससे जर्रा बराबर कोई चीज छुपी नहीं, न आसमानों में और न जमीन में। और न 
कोई चीज उससे छोटी और न बड़ी, मगर वह एक खुली किताब में है। ताकि वह 











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सूरह-34. सबा I47 पारा 22 
उन लोगों को बदला दे जो ईमान लाए और नेक काम किया। यही लोग हैं जिनके 
लिए माफी है और इजत की रोजी। और जिन लोगो ने हमारी आयती को आजिज 

(मात) करने की कोशिश की, उनके लिए सख्ती का दर्दनाक अजाब है। और जिन्हें 
इल्म दिया गया वे, उस चीज को जो तुम्हारे रब की तरफ से तुम्हारे पास भेजा गया 

है, जानते हैं कि वह हक है और वह खुदाए अजीज (प्रभत्वशाली) व हमीद (प्रशंस्य) 

का रास्ता दिखाता है। (3-6) 





कुरआन के मूड़ातबीन कियामत के मुंकिर न थे। वे सिर्फ इसके मुंकेर थे कि कियामत 
उनके लिए रुसवाई और अजाब बनकर आएगी। मौजूदा दुनिया में वे अपने को मादूदी 
(भौतिक) एतबार से महफूज हालत में पाते थे। इसलिए उनकी समझ में न आता था कि 
अगली दुनिया में पहुंच कर वे गैर महफूज क्योंकर हो जाएंगे। 

मगर यह कयास सरासर बातिल है। मौजूदा दुनिया का मुतालआ बताता है कि इसकी 
तख्नीक अख्लाकी उसूलों पर हुई है। और जब कायनात की तर्तीक अख़्लाकी बुनियाद पर 
हुई है तो उसका आखिरी फैसला भी लाजिमन अख्लाकी बुनियाद पर होना चाहिए न कि 
किसी और मजऊमा (कल्पित) बुनियाद पर। 

हयात और कायनात की यह हकीकत तमाम आसमानी किताबों में मौजूद है। कुरआन 
का मिशन यह है कि इस हकीकत को वह उसकी ख़ालिस और बेआमेज (विशुद्ध) सूरत में 
जाहिर कर दे। अब जो लोग इसके मुखालिफ बनकर खड़े हों वे जबरदस्त जसारत (दुस्साहस) 
कर रहे हैं। खुदा के यहां वे सख्नतरीन सजा के मुस्तहिक करार दिए जाएंगे। 


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और जिन्होंने इंकार किया वे कहते हैं, क्या हम तुम्हें एक ऐसा आदमी बताएं जो तुम्हे 
ख़बर देता है कि जब तुम बिल्कुल रेजा-रेजा हो जाओगे तो फिर तुम्हें नए सिरे से बनना 
है। क्या उसने अल्लाह पर झूठ बांधा है या उसे किसी तरह का जुनून है। बल्कि जो 


लोग आखिरत पर यकीन नहीं रखते वही अजाब में और दूर की गुमराही में मुन्तिला 
हैं। तो क्या उन्होंने आसमान और जमीन की तरफ नजर नहीं की जो उनके आगे है 





पारा 29 48 सूरह-34. सबा 
और उनके पीछे भी। अगर हम चाहें तो उन्हें जमीन में धंसा दें या उन पर आसमान 

से टुकड़ा गिरा दें। बेशक इसमें निशानी है हर उस बंदे के लिए जो मुतवज्जह होने वाला 
हो। (7-9) 





मक्का के लोग रसूल और असहाबे रसूल को हकीर (तुच्छ) समझते थे, इसलिए वे उनकी 
हर बात का मजाक उड़ाते रहे। इसकी असल वजह आखिरत के बारे में उनकी बेयकीनी थी। 
आखिरत की पकड़ का अंदेशा उनके दिलों में न था। इसलिए वे आख़िरत की बातों के 
मुतअल्लिक ज्यादा संजीदा भी न हो सके। 

इस दुनिया में सबसे बड़ा अजाब यह है कि आदमी सेहते फिक्र (सही सोच) से महरूम 
हो जाए। ऐसा आदमी किसी चीज को उसके सही रूप में नहीं देख पाता। खुली हुई 
हकीकतों से भी उसे नसीहत हासिल नहीं होती। मसलन ऊपरी फजा से मुसलसल बेशुमार 
पत्थर निहायत तेज रफ्तारी के साथ जमीन की तरफ आते रहते हैं। अगर ये पत्थर इंसानी 
बस्तियों पर बरसने लगें तो इंसानी नस्ल का खात्मा हो जाए। इसी तरह जमीन के नीचे 
का ज्यादा हिस्सा गर्म पिघला हुआ लावा है। अगर वह गैर महदूद तौर पर फट पड़े तो 
सतह जमीन की हर चीज जल कर ख़त्म हो जाए। मगर खुदा अपने खुसूसी इंतिजाम के 
तहत ऐसा होने नहीं देता। आसमान और जमीन में इस किस्म की वाजेह निशानियां हैं 
जो इंसान के इज्ज (निर्बलता) को बता रही हैं। मगर आदमी जब सेहते फिक्र से महरूम 
हो जाए तो कोई निशानी उसे हिदायत देने वाली नहीं बनती। 


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और हमने दाऊद को अपनी तरफ से बड़ी नेमत दी। ऐ पहाड़ो तुम भी उसके साथ 
तस्बीह में शिरकत करो। और इसी तरह परिंदों को हुक्म दिया। और हमने लोहे 
को उसके लिए नर्म कर दिया कि तुम कुशादा जिरहें (कवच) बनाओ और कड़ियों 
को अंदाजे से जोड़ो। और नेक अमल करो, जो कुछ तुम करते हो उसे में देख रहा 


हूं। (0-॥) 





एक मोमिन जब ख़ुदा की याद से सरशार होकर उसकी तस्बीह करता है तो उस वक्‍त 
वह सारी कायनात का हमनवा होता है। जमीन व आसमान की तमाम चीजें तस्बीहे खुदावंदी 
में उसकी शरीके आवाज हो जाती हैं। ताहम कायनात की यह हमनवाई ख़ामोश जबान में 
होती है। मगर हजरत दाऊद अलैहिस्सलाम को अल्लाह तआला ने यह ख़ुसूसियत दी कि जब 





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सूरह-34. सबा I49 पारा 22 
वह तस्बीह करते तो पहाड़ और चिड़ियां महसूस तौर पर आपके साथ तस्बीह ख्वानी में शरीक 
हो जातीं । 

इसी तरह हजरत दाऊद को अल्लाह तआला ने लोहे की सनअत (शिल्पकला) सिखाई। 
उन्हेंनि लोहे के पिघलाने और ढालने के फन को इतनी तरक्की दी कि वह निहायत बारीक लड़ियों 
की जिरहें बनाने लगे जिन्हें आदमी कपड़े की तरह पहन सके। उस वक्त दुनिया में यह फन 
मौजूद न था। अल्लाह तआला ने बराहेरास्त तौर पर फरिश्तों के जरिए यह फन आपको 
सिखाया। 

मोमिन उद्योग और साइंस में बड़ी-बड़ी तरविकियां कर सकता है। मगर उसके लिए 
लाजिम है कि वह इंसानी तरवकी को सिर्फ इस्लाह (सुधार) के दायरे में इस्तेमाल करे। वह 
जो कुछ करे इस एहसास के तहत करे कि आखिरकार उसे जवाबदेही के लिए ख़ुदा के सामने 
हाजिर होना है। 


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और सुलैमान के लिए हमने हवा को मुसरुख़र (अधीन) कर दिया, उसकी सुबह की 
मंजिल एक महीने की होती और उसकी शाम की मंजिल एक महीने की। और हमने 

उसके लिए तांबे का चशमा बहा दिया। और जिन्नात में से ऐसे थे जो उसके रब के 
हुक्म से उसके आगे काम करते थे। और उनमें से जो कोई हमारे हुक्म से फिरे तो हम 
उसे आग का अजाब चखाएंगे। वे उसके लिए बनाते जो वह चाहता, इमारतें और तस्वीरें 
और हौज जैसे लगन (थाल) और जमी हुई देगें। ऐ आले दाऊद, शुक्रगुजारी के साथ 

अमल करो और मेरे बंदों में कम ही शुक्रगुजार हैं। (2-3) 








हजरत सुलेमान अलैहिस्सलाम ने समुद्री सफर और समुद्री तिजारत को बहुत तरवकी दी 
थी। उन्होंने आला दर्जे के बादबानी जहाज तैयार किए। उनके साथ अल्लाह तआला का 
मजीद फल यह हुआ कि उनके समु जहाजेको अक्सर मु्राफिक्र हवा मिलती थी। इसी 
तरह तांबा पिघला कर सामान बनाने का फन भी उनके जमाने में बहुत तरवकी कर गया। 
इन गैर मामूली कुता से हजरत सुलेमान मूरललिफ किस्म का तामीरी और इस्लाही काम 
लेते थे। इन्हीं में से उन चीजों की तैयारी भी थी जिनका जिक्र आयत में किया गया है। 


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पारा 22 II50 सूरह-34. सबा 

इंसान सरापा ख़ुदा का एहसान है। इसलिए उसके अंदर सबसे ज्यादा ख़ुदा के शुक्र और 
एहसानमंदी का जज्बा होना चाहिए । मगर यही वह चीज है जो इंसान के अंदर सबसे कम पाई 
जाती है। इसकी वजह यह है कि मौजूदा इम्तेहान की दुनिया में इंसान को जो कुछ मिलता है 
वह असबाब के पर्दे में मिलता है। इसलिए आदमी उसे असबाब का नतीजा समझ लेता है। 
मगर यही इंसान का असल इम्तेहान है। इंसान से यह मत्लूब (अपेक्षित) है कि वह असबाब 
के जरिए मिलती हुई चीज को खुदा से मिलता हुआ देखे। बजाहिर अपनी अक्ल और मेहनत 
से हासिल होने वाली चीज को बराहेरास्त ख़ुदा का अतिय्या (देन) समझे। 
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फिर जब हमने उस पर मोत का फैसला नाफिज किया तो किसी चीज ने उन्हे उसके 
मरने का पता नहीं दिया मगर जमीन के कीड़े ने, वह उसकी लाठी को खाता था। पस 


जब वह गिर पड़ा तब जिन्नों पर खुला कि अगर वे शैब (अप्रकट) को जानते तो इस 
जिल्लत की मुसीबत में न रहते। (।4) 








हजरत सुलैमान अलैहिस्सलाम की मौत का वक्त आया तो वह अपनी लाठी टेके हुए थे 
और जिन्नों से कोई तामीरी काम करा रहे थे। मौत के फरिश्ते ने आपकी रूह कब्ज कर ली। 
मगर आपका बेजान जिस्म लाठी के सहारे बदस्तूर कायम रहा। जिन्नात यह समझ कर अपने 
काम में लगे रहे कि आप उनके करीब मौजूद हैं और निगरानी कर रहे हैं। इसके बाद लाठी में 
दीमक लग गई। एक असँ के बाद दीमक ने लाठी को खोखला कर दिया तो आपका जिस्म 
जमीन पर गिर पड़ा। उस वक्त जिन्नों को मालूम हुआ कि आप वफात पा चुके हैं। 

यह वाकया इस सूरत में गालिबन इसलिए पेश आया ताकि लोगों के इस ग़लत अकीदे 
की अमली तरदीद (रद्द) हो जाए कि जिन्नात गैब का इलम रखते हैं। 


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सूरह-34. सबा 5I पारा 22 
सबा के लिए उनके अपने मस्कन (आवासीय क्षेत्र) में निशानी थी। दो बाग़ दाएं और 
बाएं, अपने रब के रिज्क से खाओ और उसका शुक्र करो। उम्दा शहर और बख्शने 

वाला रब। पस उन्होंने सरताबी (विमुखता) की तो हमने उन पर बांध का सैलाब भेज 
दिया और उनके बाग़ों को दो ऐसे बाग़ों से बदल दिया जिनमें बदमजा फल और झाव 

के दरख़्त और कुछ थोड़े से बेर। यह हमने उनकी नाशुक्री का बदला दिया और ऐसा 
बदला हम उसी को देते हैं जो नाशुक्र हो। (5-7) 





सबा कदीम जमाने मेएक निहायत तरकीयाप्ता कैम थी। उसकी आबादियां मैज़ूदा 
यमन में फैली हुई थीं। उसका मकजी शहर मारिब था। जमाना कब्ल मसीह (ईसा पूर्व) में 
उसने जबरदस्त तरकी की। और तकीबन एक हजर साल तक उरूज पर रही। एक तरफ 
वे लोग ख़ुश्की और समुद्र के जरिए अपनी तिजारतें फैलाए हुए थे। दूसरी तरफ उन्होंने बांध 
बनाए। मारिब के करीब उनका एक बड़ा बांध था जो ।4 मीटर ऊंचा और तकरीबन 600 
मीटर लम्बा था। उसके जरिए पहाड़ी नालों का पानी रोक कर नहरें निकाली गई थीं। और 
उनसे जमीनों को सैराब किया जाता था। इस तरह इलाके में इतनी सरसब्जी आई कि आदमी 
जहां खड़ा हो तो दाएं और बाएं उसे बाग़ ही बाग़ दिखाई दें। 

ये तमाम तरविकयां खुदाई इंतिजामात की वजह से मुमकिन हुई। इसलिए सबा के लोगों 
को ख़ुदा का शुक्रगुजार बनना चाहिए था। मगर वे गफलत और सरकी में पड़ गए जैसा कि 
आम तौर पर खुशहाल कौमों में होता है। इसके बाद मारिब बांध (४०४४० Dn) मंशिगाफ 
पड़ना शुरू हुआ। यह गोया इब्तिदाई तंबीह थी। मगर वे होश में न आए। एंसाइक्लोपीडिया 
ब्रिटानिका के बयान के मुताबिक, सातवीं सदी ईस्वी में एक जलजले ने बांध को नाकाबिले 
मरम्मत हद तक तोड़ दिया। इसके नतीजे में ऐसा सैलाब आया जिससे पूरा इलाका तबाह हो 
गया। मजीद यह कि जरखेज (उपजाऊ) मिट्टी ख़त्म हो जाने की वजह से यह इलाका बाद 
को सिर्फ जंगली झाड़ियों के लिए मौज़ूं रह गया। 


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और हमने उनके और उनकी बस्तियों के दर्मियान, जहां हमने बरकत रखी थी, ऐसी 
बस्तियां आबाद कीं जो नजर आती थीं। ओर हमने उनके दर्मियान सफर की मंजिले 
ठहरा दीं। उनमें रात दिन अम्न के साथ चलो। फिर उन्होंने कहा कि ऐ हमारे रब, हमारे 


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पारा 22 52 सूरह-34. सबा 


सफरों के दर्मियान दूरी डाल दे। और उन्होने अपनी जानां पर जुल्म किया तो हमने उन्हें 
अफसाना बना दिया और हमने उन्हें बिल्कुल तितर-बितर कर दिया। बेशक इसमें 
निशानी है हर सब्र करने वाले, शुक्र करने वाले के लिए। (8-79) 





बरकत वाली बस्तियों से मुराद शाम का सरसब्ज व शादाब इलाका है। इस सरसब्ज 
इलाके में यमन से शाम तक ख़ूबसूरत आबादियों की कतारें चली गई थीं। उनके दर्मियान 
सफर एक किस्म की खुशगवार सैर बन गया था। यह माहौल अपनी हकीकत के एतबार से 
रब्बानी जज्बात पैदा करने वाला था। गोया कि ख़ुदा ने यहां एक खामोश कतबा (बोर्ड) लगा 
दिया हो कि बेख़ोफ व ख़तर चलो और अपने रब का शुक्र करो। 

मगर सबा के गाफिल लोग उस खुदाई कतबे को न पढ़ सके। उन्होंने अपने रवैये से उन 
खुदाई नेमतों का इस्तहकाक खो दिया। चुनांचे वे इस तरह मिटे कि वे माजी की दास्तान बन 
गए। इलाके की तबाही के बाद सबा के मुख्तलिफ कबाइल अपने वतन से निकल कर दूर-दूर 
के इलाकों में मुंतशिर हो गए। 

ये वाकेयात तारीख़ के मालूम वाकेयात हैं। मगर इन्हें जानने वाला हकीकतन वह है जो 
उनसे यह सबक ले कि उसे खुशहाली मिले तो वह नाज में मुब्तिला न हो। उसे जो कुछ मिले 
उसे खुदा का अतिय्या (देन) समझ कर वह खुदा का शुक्रगुजार बन जाए। 


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और इब्लीस (शैतान) ने उनके ऊपर अपना गुमान सच कर दिखाया। पस उन्होंने 
उसकी पैरवी की मगर ईमान वालों का एक गिरोह। और इब्लीस को उनके ऊपर कोई 
इख्तियार न था, मगर यह कि हम मालूम कर लें उन लोगों को जो आख़िरत पर ईमान 


रखते हैं उन लोगों से (अलग करके जो उसकी तरफ से शक में हैं) और तुम्हारा रब 
हर चीज पर निगरां (निगरानी करने वाला) है। (20-2) 








इब्लीस या उसके नुमाइंदे हमेशा इंसान के खिलाफ अपना मंसूबा बनाते हैं। ऐसे मौके 
पर इंसान का काम यह है कि वह उनके मंसूबे का शिकार न हो। और इस तरह वह उन्हें 
नाकाम बना दे। मगर सबा के लोग दूसरे लोगों की तरह इस दानाई (समझदारी) का सुबूत 
न दे सके। वे शैतानी तर्गीबात के जेरेअसर आकर तबाही के रास्ते पर चल पड़े। सिर्फ थोड़े 
से हकपरस्त थे जो इस इम्तेहान में कामयाब हुए। 





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सूरह-34. सबा II53 पारा 22 

शैतान को या उसके नुमाइंदे को ख़ुदा ने किसी के ऊपर अमली इख्तियार नहीं दिया है। 
उसे सिर्फ बहकाने का इख्तियार है। यह इसलिए है ताकि इंसान की आजमाइश हो। इस 
आजमाइश में पूरा उतरने वाला शख्स वह है जो शैतानी तर्गीबात (बहकावों) से गैर मुतअस्सिर 
रहकर हकव सदाकत पर कयम रहे। 


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कहो कि उन्हें पुकारो जिन्हें तुमने खुदा के सिवा माबूद (पूज्य) समझ रखा है, वे न आसमानों 
में जर्रा बराबर इख्तियार रखते और न जमीन में और न इन दोनों में उनकी कोई शिरकत 

है। और न इनमें से कोई उसका मददगार है। और उसके सामने कोई शफाअत 
(सिफारिश) काम नहीं आती मगर उसके लिए जिसके लिए वह इजाजत दे। यहां तक कि 

जब उनके दिलों से घबराहट दूर होगी तो वे पूछेंगे कि तुम्हारे रब ने क्या फरमाया। वे कहेंगे 
कि हक बात का हुक्म फरमाया। और वह सबसे ऊपर है, सबसे बड़ा है। (2१-१३) 





अगरचे हर दौर में बेशतर लोग आखिरत को मानते रहे हैं। मगर हर दौर में शैतान ने 
ऐसे खुदसाख्ता (स्वनिर्मित) अकीदे लोगों के दर्मियान राइज कर दिए जिन्होंने उन्हें आख़िरत 
की पकड़ से बेख़ैफ कर दिया। उन्हीं में से एक यह फर्जी अकीदा भी है कि कुछ हस्तियों 
को ख़ुदा के यहां इतना मकाम हासिल है कि वे अपनी सिफारिश से जिसे चाहें बरवा सकते 
हैं। 

मगर इस किस्म का हर अकीदा खुदा की खुदाई का कमतर अंदाजा है। यह वाकया भी 
कैसा अजीब है कि जिन हस्तियों का अपना यह हाल है कि ख़ुदा की अज्मत के एहसास ने 
उन्हें सरासीमा (शिथिल) कर रखा है, उनके बारे में उनके परस्तारों ने यह समझ रखा है कि 
वे ख़ुदा के यहां उनकी नजात के लिए काफी हो जाएंगे। 


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पारा 22 II54 सूरह-34. सबा 


कहो कि कीन तुम्हें आसमानों और जमीन से रिज्कि देता है। कहो कि अल्लाह। और 

हम में से और तुम में से कोई एक हिदायत पर है या खुली हुई गुमराही में। कहो कि जो 
कुसूर हमने किया उसकी कोई पूछ तुमसे न होगी। और जो कुछ तुम कर रहे हो उसकी 
बाबत हमसे नहीं पूछा जाएगा। कहो कि हमारा रब हमें जमा करेगा, फिर हमारे दर्मियान 
हक के मुताबिक फैसला फामाएगा। ओर वह फैसला फसमाने वाला है इत्म वाला है। 

कहो, मुझे उन्हें दिखाओ जिन्हें तुमने शरीक बनाकर ख़ुदा के साथ मिला रखा है। 
हरगिज नहीं, बल्कि वह अल्लाह जबरदस्त है, हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। (24-27) 





कायनात नाकाबिले कयास हद तक अजीम है। इसी के साथ उसके अंदर कमाल दर्ज 
की हिक्मत और मअनवियत पाई जाती है। ऐसी कायनात खुदाए अजीज व हकीम ही का 
कारनामा हो सकती है। कोई भी शख्स संजीदा तौर पर यह गुमान नहीं कर सकता कि वे 
दूसरी हस्तियां उसकी ख़ालिक व मालिक हैं जिन्हें जदीद (आधुनिक) या कदीम (प्राचीन) 
इंसान ने ख़ुदा के सिवा फर्ज कर रखा है। फिर खुदा के सिवा कौन हो सकता है जिसे इस 
कायनात में बड़ाई का मकाम हासिल हो। 

हकीकत यह है कि कायनात का मुतालआ (अवलोकन) तमाम मुश्रिकाना नजरियात को 
बातिल (झूठा) ठहराता है। इस कायनात में वे तमाम अकीदे बेजोड़ साबित होते हैं जिनमें एक 
ख़ुदा के सिवा किसी और के लिए किसी किस्म की बड़ाई तस्लीम की गई हो। ऐसी हालत में 
वही नजरिया सही हो सकता है जो एक खुदा की बुनियाद पर बने। जिस नजरिये में एक खुदा 
के सिवा किसी और हस्ती की कारफरमाई मानी जाए वह अपनी तरदीद (रद्द) आप है। 


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और हमने तुम्हें तमाम इंसानों के लिए खुशखबरी देने वाला और डराने वाला बनाकर 
भेजा है मगर अक्सर लोग नहीं जानते। और वे कहते हैं कि यह वादा कब होगा अगर 
तुम सच्चे हो। कहो कि तुम्हारे लिए एक खास दिन का वादा है कि उससे न एक 
साअत (क्षण) पीछे हट सकते हो और न आगे बढ़ सकते हो। (28-30) 








हर नबी ने बराहेरास्त तौर पर सिर्फ अपनी कौम के ऊपर दावती काम किया। और यही 
अमलन मुमकिन था। इसी तरह पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम भी बराहेरास्त 
तौर पर अपनी ही कौम के लिए मुंजिर और मुबश्शिर बने (अल-अनआम 92)। मगर चूंकि 
आप पर नुबुव्वत ख़त्म हो गई इसलिए अब तमाम कीमों के लिए हुक्मन आप ही मुंजिर और 





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सूरह-34. सबा ]55 पारा 22 
मुबश्शिर (डराने वाले और ख़ुशख़बरी देने वाले) हैं। अपने जमाने में अपने मुख़ातबीने अव्वल 

पर जिस तरह आपने इंजार व तबशीर (डराने और ख़ुशख़बरी देने) का काम किया उसी तरह 
बाद के जमाने में दूसरे तमाम मुखातबीन पर आपकी उम्मत को आपके नायब के तौर पर 
इंजार व तबशीर का काम करना है। यह सारा काम आपकी नुबुव्वत के तलससुल में शुमार 
होगा। आपकी जिंदगी में किया जाने वाला दावती काम बराहेरास्त तौर पर आपके दायराए 
नुबुव्वत में दाखिल है। और आपकी दुनियावी जिंदगी के बाद किया जाने वाला काम 
बिलवास्ता (परोक्ष) तौर पर। 

पैगम्बर का काम हमेशा सिर्फ पहुंचाना होता है। इसके बाद कीमों के अमली अंजाम का 

फैसला करना ख़ुदा का काम है, मौजूदा दुनिया में भी और आइंदा आने वाली दुनिया में भी। 


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और जिन लोगों ने इंकार किया वे कहते हैं कि हम हरगिज न इस कुरआन को मानेंगे 

और न उसे जो इसके आगे है। और अगर तुम उस वक्‍त को देखो जबकि ये जालिम 

अपने रब के सामने खड़े किए जाएंगे। एक दूसरे पर बात डालता होगा। जो लोग 
कमजोर समझे जाते थे वे बड़ा बनने वालों से कहेंगे कि अगर तुम न होते तो हम जरूर 

ईमान वाले होते। बड़ा बनने वाले कमजोर लोगों को जवाब देंगे, क्या हमने तुम्हें 
हिदायत से रोका था। जबकि वह तुम्हें पहुंच चुकी थी, बल्कि तुम ख़ुद मुजरिम हो। 
और कमजोर लोग बड़े लोगों से कहेंगे, नहीं बल्कि तुम्हारी रात दिन की तदबीरों से, 
जबकि तुम हमसे कहते थे कि हम अल्लाह के साथ कुफ्र करें और उसके शरीक ठहराएं। 
और वे अपनी पशेमानी (पछतावे) को छुपाएंगे जबकि वे अजाब देखेंगे। और हम मुंकिरों 
की गर्दन में तौक डालेंगे। वे वही बदला पाएंगे जो वे करते थे। (३।-33) 


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पारा 22 I56 सूरह-34. सबा 


हकीकत का इंकार सबसे बड़ा जुर्म है। दुनिया में इस जुर्म का अंजाम सामने नहीं आता। 
इसलिए दुनिया में आदमी बेख़फ होकर हकीकत का इंकार कर देता है। मगर आखिरत में 
जब इंकारे हक का बुरा अंजाम लोगों के ऊपर टूट पड़ेगा तो उस वक्त लोगों का अजीब हाल 
होगा। 

अवाम अपने जिन बड़ों पर दुनिया में फख़ करते थे वहां उन बड़ों को अपनी गुमराही 
का जिम्मेदार ठहरा कर वे उन पर लानत करेंगे। बड़े उन्हें जवाब देंगे कि अपने आपको 
शर्मिदगी से बचाने के लिए हमें मुल्जिम न ठहराओ यह हम न थे बल्कि तुम्हारी अपनी 
ख्वाहिश थीं जिन्होंने तुम्हें गुमराह किया। हमारा साथ तुमने सिर्फ इसलिए दिया कि हमारी 
बात तुम्हारी अपनी ख़्वाहिश के मुताबिक थी। तुम ऐसा दीन चाहते थे जिसमें अपने आपको 
बदले बगैर दीनदार बनने का क्रेडिट हासिल हो जाए और वह हमने तुम्हें फराहम कर दिया। 
तुमने हमारा फंदा ख़ुद अपनी गर्दन में डाला, वर्ना हमारे पास कोई ताकत न थी कि हम उसे 
तुम्हारी गर्दन में डाल देते। 


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और हमने जिस बस्ती में भी कोई डराने वाला भेजा तो उसके खुशहाल लोगों ने यही 
कहा कि हम तो उसके मुंकिर हैं जो देकर तुम भेजे गए हो। और उन्होंने कहा कि हम 
माल और औलाद में ज्यादा हैं और हम कभी सजा पाने वाले नहीं। कहो कि मेरा रब 
जिसे चाहता है ज्यादा रोजी देता है। और जिसे चाहता है कम कर देता है, लेकिन 
अक्सर लोग नहीं जानते। और तुम्हारे माल और तुम्हारी औलाद वह चीज नहीं जो दर्जे 
में तुम्हें हमारा मुकररब (निकटवर्ती) बना दे, अलबत्ता जो ईमान लाया और उसने नेक 


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सूरह-34. सबा II57 पारा 22 


अमल किया, ऐसे लोगों के लिए उनके अमल का दुगना बदला है। और वे बालाख़ानों 
(उच्च भवनों) में इत्मीनान से रहेंगे। और जो लोग हमारी आयतों को नीचा दिखाने के 
लिए सरगर्म हैं वे अजाब में दाखिल किए जाएंगे। कहो कि मेरा रब अपने बदों में से 
जिसे चाहता है कुशादा रोजी देता है और जिसे चाहता है तंग कर देता है। और जो 
चीज भी तुम खर्च करोगे तो वह उसका बदला देगा। और वह बेहतर र्ज्कि देने वाला 

है। (३4-39) 


जिन लोगों के पास कुव्वत और माल आ जाए उन्हें मौजूदा दुनिया में बड़ाई का मकाम 
हासिल हो जाता है। यह चीज उनके अंदर झूठा एतमाद पैदा कर देती है। ऐसे लोगों को जब 
आखिरत से डराया जाता है तो वे उसे अहमियत नहीं दे पाते। उन्हें यकीन नहीं आता कि 
दुनिया में जब खुदा ने उन्हें इज्जत दी है तो आहिरत में वह उन्हें कैसे बेइज्जत कर देगा। 

यही झूठा एतमाद हर दौर के बड़ों के लिए हक की दावत को न मानने का सबसे बड़ा 
सबब रहा है। और वक्‍त के बड़े लोग जब एक चीज को हकीर (तुच्छ) कर दें तो छोटे लोग 
भी उसे हकीर समझ लेते हैं। इस तरह ख़वास और अवाम दोनों हक को कुबूल करने से 
महरूम रह जाते हैं। 

दुनिया का माल व असबाब इम्तेहान है न कि इनाम। दुनिया के माल व असबाब की 
ज्यादती न किसी आदमी के मुरकरब होने की अलामत है और न इसकी कमी उसके गैर 
मुकर्रब होने की। अल्लाह के यहां कुरबत (निकटता) का मकाम उसी शख्स के लिए है जो 
इस बात का सुबूत दे कि जो कुछ उसे दिया गया था उसमें वह ख़ुदा की यादों के साथ जिया 
और ख़ुदा की मुकर्रर की हुई हदों का अपने आपको पाबंद रखा। यही लोग हैं जो आखिरत 
में खुदा के अबदी इनामात के मुस्तहिक करार दिए जाएंगे। 


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और जिस दिन वह उन सबको जमा करेगा फिर वह फरिश्तों से पूछेगा, क्या ये लोग 
तुम्हारी इबादत करते थे। वे कहेंगे पाक है तेरी जात, हमारा तअल्लुक तुझसे है न कि 

इन लोगों से। बल्कि ये जिन्नों की इबादत करते थे। उनमें से अक्सर लोग उन्हीं के 
मोमिन थे। पस आज तुम में से कोई एक दूसरे को न फायदा पहुंचा सकता है और 

न नुक्सान। और हम जालिमों से कहो कि आग का अजाब चखो जिसे तुम झुटलाते 

थे। (40-42) 





पारा 22 I58 सूरह-34. सबा 


फरिश्ते इंसान को नजर नहीं आते। ये दरअस्ल पैगम्बर हैं जिन्होंने इंसान को फरिश्तों 
के वुजूद की ख़बर दी। यह ख़बर उन्हें इसलिए दी गई थी कि वे ख़ुदा के अज्मत व जलाल 
को महसूस करें और पूरी तरह उसकी इबादत में लग जाएं। मगर शैतान ने अजीब व गरीब 
तौर पर लोगों को सिखाया कि बराहेरास्त खुदा का तकरुब (समीपता) हासिल करना मुश्किल 
है। इसलिए उन्हें चाहिए कि वे फरिश्तों की इबादत करें और उनके जरिये से खुदा का तकरुब 
हासिल करें। चुनांचे सारी दुनिया में फरिश्तों के बुत बनाकर उनकी इबादत शुरू कर दी गई। 
देवी देवताओं का अकीदा भी दरअस्ल फरिश्ता ही की बिगड़ी हुई शक्ल है। जो फरिश्ता 
बारिश पर मुक्रर था उसे बारिश का देवता समझ लिया । जो फरिश्ता हवा पर मुरकर था उसे 
हवा का देवता समझ लिया। वगैरह। 

फरिश्ते आख़िरत में ऐसे इबादत गुजारों से बरा-त (विरक्ति) जाहिर कर । आख़िरत में 
उन्हें न ख़ुदा की मदद हासिल होगी और न फरिश्तों की। वे हमेशा के लिए बेयारो मददगार 
होकर रह जाएंगे। eg 

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और जब उन्हें हमारी खुली-खुली आयतें सुनाई जाती हैं तो वे कहते हैं कि यह तो बस 
एक शख्स है जो चाहता है कि तुम्हें उनसे रोक दे जिनकी तुम्हारे बाप दादा इबादत 
करते थे। और उन्होंने कहा, यह तो महज एक झूठ है गढ़ा हुआ। और उन मुंकिरों के 
सामने जब हक आया तो उन्होंने कहा कि यह तो बस खुला हुआ जादू है। और हमने 
उन्हें किताबें नहीं दी थीं जिन्हें वे पढ़ते हों। और हमने तुमसे पहले उनके पास कोई 
डराने वाला नहीं भेजा। और उनसे पहले वालों ने भी झुठलाया। और ये उसके दसवें 


हिस्से को भी नहीं पहुंचे जो हमने उन्हें दिया था। पस उन्होंने मेरे रसूलों को झुठलाया, 
तो कैसा था उन पर मेरा अजाब। (43-45) 





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कुरआन अपने मुख़ातबीन (संबोधित लोगों) के सामने खुले-खुले दलाइल दे रहा था। 
मुख़ातबीन दलील से उसका तोड़ नहीं कर सकते थे। इसके बावजूद वे अवाम को उससे रोकने 
में कामयाब हो गए। उनकी इस कामयाबी का वाहिद राज यह था कि उन्होंने लोगों को यह 


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सूरह-34. सबा I59 पारा 22 
कहकर उसकी तरफ से मुशतबह (संदिग्ध) कर दिया कि यह हमारे असलाफ (पूर्वजो) के तरीके 
के खिलाफ है। कुरआन में जो मोजिजाना अदब (दिव्य साहित्य) था उसका इंकार नामुमकिन 
था। उसके बारे में लोगों को यह कहकर मुतमइन कर दिया गया कि यह महज जादू बयानी का 
करिश्मा है, खुदाई 'वही' होने से इसका कोई तअल्लुक नहीं। यह महज कलम का जेर है न कि 
इल्मे हकीकत का जोर। तारीख का यह तजर्बा निहायत अजीब है कि हर दौर के लोगों के लिए 
दलील के मुकाबले में तअस्सुब (विद्वेष) ज्यादा ताकतवर साबित हुआ है। 

कुरआन के मुख़ातबीन के पास कुरआन का इंकार करने के लिए या तो अक्ली दलाइल 
होते जिनके जरिए वे उसे रद्द कर सकते या उनके पास कोई दूसरी आसमानी किताब होती 
जिससे कुरआन की तरदीद निकाली जा सकती । मुखातबीन कुरआन के पास इन दोनों में से 
कोई चीज मौजूद न थी। मजीद यह कि दुनियावी तर्न में भी वे दूसरी कीमों से बहुत 
ज्यादा पीछे थे। जिन लोगों का यह हाल हो वे अगर हक की दावत (आह्वान) का इंकार करते 


हैं तो इसकी वजह हठधर्मी है न कि माकूलियत (तार्किकता) । 
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कहो मैं तुम्हें एक बात की नसीहत करता हूं। यह कि तुम ख़ुदा के वास्ते खड़े हो जाओ, 

दो-दो और एक-एक, फिर सोचो कि तुम्हारे साथी को जुनून नहीं है। वह तो बस एक 

सख्त अजाब से पहले तुम्हें राने वाला है। कहो कि मैंने तुमसे कुछ मुआवजा मांगा 

हो तो वह तुम्हारा ही है। मेरा मुआवजा तो बस अल्लाह के ऊपर है। और वह हर चीज 

पर गवाह है। (46-47) 





पैग़म्बर के मुआसिरीन (समकालीन) ने पैग़म्बर की दावत का इंकार कर दिया। मगर 
इनके पीछे जिद और तअस्सुब के सिवा और कुछ न था। हकीकत यह है कि अगर वे जिद 
और तअस्सुब से ख़ाली होकर सोचते, चाहे अकेले अकेले सोचते, या चन्द आदमी मिलकर 
इज्तिमाई (सामूहिक) तौर पर गौर करते, तो वे पाते कि उनका पैग़म्बर कोई दीवाना आदमी 
नहीं है। आपकी साबिका (पहले की) जिंदगी आपकी संजीदगी की गवाही देती। आपका 
दर्दमंदाना अंदाज बताता कि आप जो कुछ कह रहे हैं वही आपके दिल की आवाज है। आपके 
कलाम का हकीमाना उस्लूब उसकी सेहत की दाख़िली शहादत (भीतरी साक्ष्य) नजर आता। 
आपका किसी मुआवजे का तालिब न होना जाहिर करता है कि आपने इस काम को महज 
अल्लाह की ख़ातिर शुरू किया है न कि जाती तिजारत की ख़ातिर। गैर जानिबदाराना 





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पारा 22 I60 सूरह-34. सबा 
गऔरोफिक्र (निष्पक्ष चिंतन) में वे जान लेते कि आपकी बेकरारी जुनून की बेकरारी नहीं है बल्कि 

इसका सबब यह है कि आप जिस ख़तरे से डराने के लिए उठे हैं उसे अपनी आंखों से आता 
हुआ देख रहे हैं। मगर वे हक की दावत के बारे में संजीदा न थे इसलिए ये खुले हुए हकाइक 

उन्हें नजर भी न आ सके। 


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कहो कि मेरा रब हक को (बातिल पर) मारेगा, वह छुपी चीजों को जानने वाला है। 
कहो कि हक (सत्य) आ गया और बातिल (असत्य) न आगाज करता है और न इआदा 
(पुनरावृत्ति)। कहो कि अगर मैं गुमराही पर हूं तो मेरी गुमराही का वबाल मुझ पर है 
और अगर में हिदायत पर हूं तो यह उस “वही” (ईश्वरीय वाणी) की बदौलत है जो मेरा 
रब मेरी तरफ भेज रहा है। बेशक वह सुनने वाला है, करीब है। (48-50) 





निया की तरीक हक (सत्य) हुई है। यहां सारा जेर हक की तरफ है। यहां तमाम 
दलाइल हक की ताईद करते हैं। हकीकते वाकया के एतबार से यहां बातिल (असत्य) को कोई 
जोर और कोई दलील हासिल नहीं। ऐसी हालत में यह होना चाहिए कि हक यहां हमेशा 
सरबुलन्द रहे और बातिल यहां सरासर बेवजन होकर रह जाए। मगर अमलन ऐसा नहीं 
होता। इस दुनिया में हक इतना ताकतवर नहीं कि वह ख़ुद अपने जोर पर बातिल का खात्मा 
कर दे और बातिल इतना बेवकअत नहीं कि उसकी बुनियाद पर किसी शख्स के लिए इज्जत 
और सरबुलन्दी हासिल करना मुमकिन न हो। 

इसकी वजह यह है कि यह दुनिया इम्तेहान की जगह है। यहां आजमाइश का कानून 
जारी है। इसलिए यहां बातिल को भी उभरने का मौका मिल जाता है। मगर यह सूरतेहाल 
आरजी तौर पर सिर्फ इम्तेहान की मुदुदत तक है। कियामत आते ही यह गैर वाकई सूरतेहाल 
यकसर खुम हो जाएगी। उस वक्त तमाम नजी और अमली जेर सिर्फहक की तरफ होगा 
और बातिल सरासर बेकीमत होकर रह जाएगा। 

यह वाकया अपनी कामिल सूरत में कियामत में जाहिर होगा। मगर जब अल्लाह चाहता 
है उसे जुजई (आंशिक) तौर पर मौजूदा दुनिया में भी जाहिर कर देता है ताकि लोगों के लिए 
सबक हो। दौरे अव्वल में इस्लाम का ग़लबा इसी किस्म का एक जुजई इप्हार (आंशिक 
प्रदर्शन) था। चुनांचे जब मक्का फतह हुआ और तौहीद को शिर्क के ऊपर बालातरी हासिल 
हो गई तो अल्लाह के रसूल सल्लललाहु अलैहि व सल्लम की जबान पर यह आयत थी : 
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सूरह-34. सबा ]6] पारा 22 
मिट गया, बेशक बातिल मिटने ही वाला था। बनी इस्राईलए 8]) 





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और अगर तुम देखो, जब ये घबराए हुए होंगे। पस वे भाग न सकेंगे और करीब ही 

से पकड़ लिए जाएंगे। और वे कहेंगे कि हम उस पर ईमान लाए। और इतनी दूर से 
उनके लिए उसका पाना कहां। और इससे पहले उन्होंने उसका इंकार किया। और 
बिना देखे दूर जगह से बातें फेंकते रहे। और उनकी और उनकी आरजू में आइ कर 

दी जाएगी जैसा कि इससे पहले उनके सहमार्गी लोगों के साथ किया गया। वे बड़े धोखे 
वाले शक में पड़े रहे। (5।-54) 


मौजूदा दुनिया में आदमी हक का इंकार करता है तो फौरन उसका अंजाम सामने नहीं 
आता। यह सूरतेहाल उसे इंकारे हक के मामले में ढीठ बना देती है। वह हक की दावत को 
संजीदा तवज्जेह के काबिल नहीं समझता । वह हिकरतआमेज (तिरस्कारपूर्णी अल्फजमेंउसका 
जिक्र करता है। वह बेपरवाही के साथ उसे रद्द कर देता है। वह उस पर इस तरह गैर 
जिम्मेदाराना अंदाज में तबसिरा करता है जैसे कि वह किसी लिहाज का मुस्तहिक ही नहीं। 
मगर जब दुनिया का मौजूदा निजाम ख़त्म होगा तो अचानक सारा मामला बिल्कुल बदल 
जाएगा। अब आदमी को नजर आएगा कि वही चीज सबसे ज्यादा अहम थी जिसे वह सबसे 
ज्यादा नजरअंदाज किए हुए था। यह देखकर उसकी सारी अकड़ ख़त्म हो जाएगी। वह उस 
हक का वालिहाना (आतुरतापूर्ण) एतराफ करने लगेगा जिसे वह दुनिया में किसी तवज्जोह के 
लायक नहीं समझता था। मगर अब वक्त निकल चुका होगा। उससे कहा जाएगा कि एतराफ 
की कीमत आलमे गेब (अदुश्य-स्थिति) में थी, आलमे शुहूद (प्रकट स्थिति) में एतराफ की 
कोई कीमत नहीं। 
“शक मुरीब' का मतलब यह है तरद्दुद (दुविधा) में डालने वाला शक । यह मुंकिरीन की 
नफ्सियाती हालत की तस्वीर है। दुनिया में जो हक उनके सामने पेश किया जा रहा था वह 
जबान व बयान के एतबार से इतना ताकतवर था कि वह अपने आपको इससे बेबस पाते थे 
कि दलील के जरिए उसे रदूद कर सकें। मगर यह हक चूँके उनके जेहनी सांचे के खिलाफ 
था इसलिए वे उसे कुबूल करने पर भी आमादा न हो सके। इस दोतरफा सूरतेहाल ने उन्हे 
एक किस्म के अंदरूनी ख़लजान (असमंजस) में मुब्तिला रखा। यहां तक कि मौत के फरिश्ते 
ने आकर वह पर्दा उनकी आंख से हटा दिया जिसे उन्हें खुद अपने हाथ से हटाना था। मगर 








पारा 22 62 सूरह3. फतिर 


वे उसे हटाने में कामयाब न हो सके। 

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(मक्का में नाजिल हुई) 

शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरवान, निहायत रहम वाला है। 
तारीफ अल्लाह के लिए है, आसमानों और जमीन का पैदा करने वाला, फरिश्ता को 
पैग़ामरसां (संदेशवाहक) बनाने वाला जिनके पर हैं दो-दो और तीन-तीन और 
चार-चार । वह पेदाइश में जो चाहे ज्यादा कर देता है। बेशक अल्लाह हर चीज पर 
कादिर है। अल्लाह जो रहमत लोगों के लिए खोले तो कोई उसका रोकने वाला नहीं। 
और जिसे वह रोक ले तो कोई उसे खोलने वाला नहीं। और वह जबरदस्त है हिक्मत 
(तत्वदर्शिता) वाला है। (-2) 





फरिश्तों को अल्लाह तआला ने पेगाम रसानी के लिए और अपने पेगाम की तंफीज 
(लागू करने) के लिए पैदा किया है। मगर शैतान ने लोगों को सिखाया कि फरिश्ते मुस्किल 
बिज्जात (स्वयं में) हैसियत रखते हैं। वे दुनिया में बरकत और आख़िरत में नजात का जरिया 
बन सकते हैं। चुनांचे कुछ कीमें लात और मनात जैसे नामों से उनकी फर्जी तस्वीरें बनाकर 
उनकी इबादत करने लगीं। कुछ कौमों ने उन्हें देवी देवता करार देकर उन्हें पूजना शुरू कर 
दिया । मौजूदा जमाने मेंकनूने फितरत (Law of Nature) की ताजीम भी इसी गुमराही का 
जदीद (आधुनिक) एडीशन है। मगर हकीकत यह है कि फरिशते हों या कानूने फितरत, सब 
एक ख़ुदा के महकूम हैं। सब एक ख़ुदा के कारगुजार हैं, चाहे वे दो बाजुओं वाले हों या 600 
बाजुओं वाले या 600 करोड़ बाजुओं वाले। 


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सूरह35. फतिर I63 पारा 22 


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ऐ लोगो अपने ऊपर अल्लाह के एहसान को याद करो। क्या अल्लाह के सिवा कोई 
और ख़ालिक है जो तुम्हं आसमान और जमीन से र््कि देता हो। उसके सिवा कोई 
माबूद (पूज्य) नहीं। तो तुम कहां से धोखा खा रहे हो। और अगर ये लोग तुम्हें झुठलाएं 
तो तुमसे पहले भी बहुत से पैग़म्बर झुठलाए जा चुके हैं। और सारे मामले अल्लाह ही 
की तरफ रुजूअ (प्रकृतत) होने वाले हैं। (3-4) 





इंसान अपनी जिंदगी के लिए बेशुमार चीजों का मोहताज है। मसलन रोशनी, पानी, 
हवा, खुराक, मादनियात (खनिज, धातु) वगैरह | इनमें से हर चीज ऐसी है कि उसे वजूद में 
लाने के लिए कायनाती ताकतों का मुत्तहिदा अमल (संयुक्त-प्रक्रिया) दरकार है। एक ख़ुदा के 
सिवा कौन है जो इतने बड़े वाकथे को जुहूर में लाने की ताकत रखता हो। मुश्रिक और 
मुल्हिद (नास्तिक) लोग भी यह दावा नहीं कर सके कि इन असबाबे हयात की फराहमी एक 
ख़ुदा के सिवा कोई और कर सकता है। फिर जब इन तमाम चीजों का ख़ालिक और मुंतजिम 
एक ख़ुदा है तो उसके सिवा दूसरों को माबूद बनाना क्योंकर दुरुस्त हो सकता है। 

तारीख़ का यह अजीब तजर्बा है कि जो लोग खुदा के सिवा दूसरों को बड़ाई का मकाम 
दिए हुए हों वे उन्हें छोड़कर ख़ुदा को अपना बड़ा बनाने पर राजी नहीं होते, चाहे उसकी 
दावत पैग़म्बराना सतह पर क्यों न दी जा रही हो। इसको वजह यह है कि लोग हमेशा माने 
हुए को मानते हैं। जबकि पेगम्बर पर यकीन करने का मतलब उस वक्त यह होता है कि 
आदमी न माने हुए को माने | इस किस्म के ईमान को हासिल करने की शर्त यह है कि आदमी 
खुद अपनी फिक्री (वैचारिक) कुलवतां को बेदार करे, वह अपनी जाती बसीरत (सूझबूझ) से 
सच्चाई को दरयाफ्त करे। और बिलाशुबह यह किसी इंसान के लिए हमेशा सबसे ज्यादा 
मुश्किल काम रहा है। 


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ऐ लोगो, बेशक अल्लाह का वादा बरहक है। तो दुनिया की जिंदगी तुम्हें धोखे में न 
डाले। और न वह बड़ा धोखेबाज तुम्हें अल्लाह के बारे में धोखा देने पाए। बेशक शैतान 
तुम्हारा दुश्मन है तो तुम उसे दुश्मन ही समझो वह तो अपने गिरोह को इसीलिए 


बुलाता है कि वे दोजख़ वालों में से हो जाएं। जिन लोगों ने इंकार किया उनके लिए 
सख्त अजाब है। और जो ईमान लाए और नेक अमल किया उनके लिए माफी है और 





पारा 22 II64 सूरह35. फतिर 
बड़ा अज्र (प्रतिफल) है। (5-7) 


खुदा ने अपने पैग़म्बरों के जरिए जिंदगी की नौइयत के बारे में जो ख़बर दी है वह 
बजाहिर एक ख्याली बात मालूम होती है। क्योंकि आदमी फौरन उनसे दो चार नहीं होता। 
इसके बरअक्स दुनिया की चीजें हकीकी नजर आती हैं। क्योकि आदमी आज ही उनसे दो 
चार हो रहा है। मौत और जलजला और हादसात आदमी को चौकन्ना करते हैं। यह गोया 
कियामत से पहले कियामत की इत्तिला हैं। मगर शैतान फौरन ही लोगों के जेहन को यह 
कहकर फेर देता है कि ये सब असबाब के तहत पेश आने वाले वाकेयात हैं न कि ख़ुदाई 
मुदाखलत के तहत। मगर इस किस्म का हर ख्याल शैतान का फरेब है। वह दिन आना 


लाजिमी है जबकि झूठ और सच में तफीक (विभेद) हो। जबकि अच्छे लोगों को उनकी 
अच्छाई का इनाम मिले और बुरे लोगों को उनकी बुराई की सजा दी जाए 
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क्या ऐसा शख्स जिसे उसका बुरा अमल अच्छा करके दिखाया गया, फिर वह उसे अच्छा 
समझने लगे, पस अल्लाह जिसे चाहता है भटका देता है और जिसे चाहता है हिदायत 
देता है। पस उन पर अफसोस करके तुम अपने को हल्कान (व्यथित) न करो। अल्लाह 
को मालूम है जो कुछ वे करते हैं। (8) 





अल्लाह तआला ने हर आदमी को यह सलाहियत दी है कि वह सोचे और हक और 
नाहक के दर्मियान तमीज कर सके। जो आदमी अपनी इस फितरी सलाहियत को इस्तेमाल 
करता है वह हिदायत पाता है। और जो शख्स इस फितरी सलाहियत को इस्तेमाल नहीं करता 
वह हिदायत नहीं पाता। 

आदमी के सामने जब हक आए तो फैरन उसके जेहन को झटका लगता है। उस वक्‍त 
उसके लिए दो रास्ते होते हैं। अगर वह हक का एतराफ कर ले तो उसका जेहन सही सम्त 
मे चल पड़ता है। वह हक का मुसाफिर बन जाता है। इसके बरअक्स अगर ऐसा हो कि कोई 
मस्लेहत या कोई नफ्सियाती पेचीदगी उसके सामने आए और वह उससे मुतअस्सिर होकर 
हक का एतराफ करने से रुक जाए तो उसका जेहन अपने अदम एतराफ (अस्वीकार) को 
जाइज साबित करने के लिए बातें गढ़ना शुरू करता है। वह अपने बुरे अमल को अच्छा 
साबित करने की कोशिश करता है। यह एक जेहनी बीमारी है। और जो लोग इस किस्म 
की जेहनी बीमारी में मुन्तिला हो जाएं वे कभी हक का एतराफ नहीं कर पाते। यहां तक कि 
इसी हाल में मर कर वे ख़ुदा के यहां पहुंच जाते हैं। ताकि अपने किए का अंजाम पाएं। 


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सूरह35. फतिर II65 पारा 22 


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और अल्लाह ही है जो हवाओं को भेजता है। फिर वे बादल को उठाती हैं। फिर हम 
उसे एक मुर्दा देस की तरफ ले जाते हैं। पस हमने उससे उस जमीन को उसके मुर्दा 
होने के बाद फिर जिंदा कर दिया। इसी तरह होगा दुबारा जी उठना। जो शख्स इज्जत 
चाहता हो तो इज्जत तमामतर अल्लाह के लिए है। उसकी तरफ पाकीजा (पावन) 
कलाम चढ़ता है और अमले सालेह (सत्कर्म) उसे ऊपर उठाता है। और जो लोग बुरी 


तदबीरें कर रहे हैं उनके लिए सख्त अजाब है। और उनकी तदवीरें नाबूद (विनष्ट) होकर 
रहेंगी । (9-0) 





मौजूदा दुनिया आखितर की तमसील है। बारिश एक मालूम वाकये की सूरत में नामालूम 
वाकये को मुमसिल कर रही है। बारिश क्या है। बारिश पूरी कायनात के एक मुत्तहिदा अमल 
का नतीजा है। सूरज और हवा और समुद्र और कशिश और दूसरे बहुत से आलमी असबाब 
कामिल हमआहंगी (सामंजस्य) के साथ अमल करते हैं। इस तरह वह बारिश जुहूर में आती 
है जो खुश्क जमीन पर जिंदगी पैदा कर दे। 

बारिश का यह अमल साबित करता है कि कायनात का नाजिम पूरी कायनात पर 
कामिल इख्तियार रखता है। वह एक वाकये को अपने मंसूबे के तहत जुहूर में लाता है। और 
फिर उसके मिटने के बाद उसे दुबारा जाहिर कर देता है, चाहे उसे दुबारा जाहिर करने के लिए 
पूरी कायनात को मुतहर्रिक (सक्रिय) करना पड़े। 

मुर्दा जमीन को दुबारा सरसब्ज करना, और मुर्दा इंसान को दुबारा जिंदा करना, दोनों 
यकसां (समान) दर्जे के वाकेयात हैं। फिर जब पहला वाकया मुमकिन साबित हो जाए तो 
इसके बाद उसी के मुमासिल (समरूप) दूसरे वाकये का मुमकिन होना अपने आप साबित हो 
जाता है। 

मौजूदा दुनिया इम्तेहान की जगह है, इसलिए यहां इज्जत वक्ती तौर पर एक गैर 
मुस्तहिक को भी मिल जाती है। मगर आखिरत में सारी इज्जत उन लोगों का हिस्सा होगी 
जो वाकई इसका इस्तहकाक (अधिकार) रखते हों। इस इस्तहकाक का मेयार कलमा तय्यिबा 
और अमले सालेह (नेक काम) है। यानी अल्लाह को इस तरह पाना कि वही आदमी की याद 
बन जाए जिसमें वह जिए। वही उसका अमल बन जाए जिसमें वह अपनी कुबवतें सर्फ करे। 
जो लोग इस तरह अपनी जिंदगी की तामीर करें खुदा उनका मददगार बन जाता है और जिन 





पारा 22 II66 सूरह35. फतिर 
लोगों का ख़ुदा मददगार बन जाए उन्हें जेर करने वाला कोई नहीं। 


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और अल्लाह ने तुम्हें मिट्टी से पैदा किया। फिर पानी की बूंद से, फिर तुम्हें जोड़े-जोड़े 
बनाया । और कोई औरत न हामिला (गर्भवती) होती है और न जन्म देती है मगर उसके 
इल्म से। और न कोई उम्र वाला बड़ी उम्र पाता है और न किसी की उम्र घटती है मगर 
वह एक किताब में दर्ज है। बेशक यह अल्लाह पर आसान है। (]) 


पहला इंसान जमीनी अज्जा (तत्वों) से बनाया गया। फिर खुदा ने इंसान को एक बूंद 
में बशक्ल बीज रख दिया। फिर इंसानों को औरत और मर्द में तक्सीम करके उनके जोड़े से 
इंसानी नस्ल चलाई। यह वाकया खुदा की बेपनाह कुदरत को बताता है। 

फिर एक बच्चा जब पेट में परवरिश पाना शुरू होता है तो वह पाता है कि पेट के अंदर 
वे तमाम मुवाफिक असबाब बगैर तलब के मौजूद हैं जो उसे नागुजीर (अपरिहार्य) तौर पर 
मत्लूब थे। यह वाकया मजीद साबित करता है कि बच्चे को पैदा करने वाला बच्चे की जरूरतों 
को पहले से जानता था वर्ना वह पेशगी तौर पर इसका इतना मुकम्मल इंतिजाम किस तरह 
करता। 

यही मामला उम्र का है। कोई शख्स इस पर कादिर नहीं कि वह अपनी मर्जी के 
मुताबिक अपनी उम्र का तअय्युन कर सके। ऐसा मालूम होता है कि उम्र का मामला तमामतर 
किसी ख़ारजी (वाह्य) हस्ती के हाथ में है। वह जिसे चाहता है कम उम्र में उठा लेता है और 
जिसे चाहता है लम्बी उम्र दे देता है। इन सारे वाकेयात में एक ख़ुदा के सिवा किसी का कोई 
दख़ल नहीं। फिर कैसे दुरुस्त हो सकता है कि आदमी एक ख़ुदा के सिवा किसी और से 
अदेशा रखे, वह किसी और से उम्मीदें कायम करे। 


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और दोनों दरिया यकसां (समान) नहीं। यह मीठा है प्यास बुझाने वाला, पीने के लिए 
ख़ुशगवार। और यह खारी कडवा है। और तुम दोनों से ताजा गोश्त खाते हो और जीनत 

की चीज निकालते हो जिसे पहनते हो। और तुम देखते हो जहाजों को कि वे उसमें 

फाइते हुए चलते हैं। ताकि तुम उसका फज्ल तलाश करो और ताकि तुम शुक्र अदा 

करो। वह दाखिल करता है रात को दिन में और वह दाखिल करता है दिन को रात में। 
और उसने सूरज और चांद को मुसरुख़र (सक्रिय) कर दिया है। हर एक चलता है एक 
मुर्करर वक्‍त के लिए। यह अल्लाह ही तुम्हारा रब है, उसी के लिए बादशाही है। और 

उसके सिवा तुम जिन्हें पुकारते हो वे खजूर की गुठली के एक छिलके के भी मालिक 
नहीं। अगर तुम उन्हें पुकारो तो वे तुम्हारी पुकार नहीं सुनेंगे। और अगर वे सुनें तो वे 
तुम्हारी फरयादरसी नहीं कर सकते। और वे कियामत के दिन तुम्हारे शिर्क का इंकार 
करेंगे। और एक बाखबर की तरह कोई तुम्हें नहीं बता सकता। (2-4) 





जमीन पर पानी का अजीमुश्शान जखीरा है, वसीअ (विस्तृत) समुद्रं में खारी पानी की 
सूरत में, और दरियाओं और झीलों और चशमों में मीठे पानी की सूरत में। यह पानी आदमी 
के लिए बेशुमार फायदों का जरिया है। वह पीने के लिए और आबपाशी (सिंचाई) के लिए 
इस्तेमाल होता है। इससे आबी जानवर हासिल होते हैं जो इंसान के लिए कीमती ख़ुराक हैं। 
धरती के तीन चौथाई हिस्से में फैले हुए समुद्र गोया वसीअ आबी (जलीय) सड़कें हैं जिन्होंने 
सफर और बारबरदारी (यातायात) को बेहद आसान कर दिया है। समुद्रो से मोती और दूसरी 
कीमती चीजे हासिल होती हैं वह । 

फिर वसीअ खला में ख़ुदा ने सूरज और चांद को सक्रिय कर रखा है जिनमें बेशुमार 
फायदे हैं। उसने जमीन को सूरज के गिर्द अपने महवर (धुरी) पर कामिल हिसाब के साथ 
घुमा रखा है जिससे रात और दिन पैदा होते हैं। इस तरह के बेशुमार कायनाती इंतिजामात 
हैं जो सिर्फ खुदा के कायम करदा हैं। फिर ख़ुदा के सिवा कौन है जो इंसान के जज्बए शुक्र 
का मुस्तहिक हो। अथाह ताकतें रखने वाला ख़ुदा इंसान की हाजतें पूरी कर सकता है या वे 
मफरूजा (काल्पनिक) माबूद जो किसी किस्म का कोई इखस््ियार नहीं रखते। 


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ऐ लोगो, तुम अल्लाह के मोहताज हो और अल्लाह तो बेनियाज (निस्पृह) है तारीफ 

वाला है। अगर वह चाहे तो तुम्हें ले जाए और एक नई मझ्लूक ले आए। और यह 
अल्लाह के लिए कुछ मुश्किल नहीं। और कोई उठाने वाला दूसरे का बोझ नहीं 
उठाएगा। और अगर कोई भारी बोझ वाला अपना बोझ उठाने के लिए पुकारे तो उसमें 
से जरा भी न उठाया जाएगा, अगरचे वह करीबी संबंधी क्यों न हो। तुम तो सिर्फ उन्हीं 

लोगों को डरा सकते हो जो बेदेखे अपने रब से डरते हैं और नमाज कायम करते हैं। 

और जो शख्स पाक होता है वह अपने लिए पाक होता है और अल्लाह ही की तरफ 
लौट कर जाना है। (5-8) 


मौजूदा दुनिया में इंसान इंतिहाई हद तक गैर महफूज (Vulnerable) है। इंसान का 
सारा मामला फितरत के ख़स तवाज (संतुलन) पर मुंहसिर है। यह तवाजुन बाकी न रहे तो 
एक लम्हे में इंसानी जिंदगी का ख़ात्मा हो जाए। 

सूरज अगर अपने मौजूदा फासले को खत्म करके जमीन के करीब आ जाए तो अचानक 
तमाम इंसान जल भुनकर ख़ाक हो जाएं। जमीन के अंदर इसका बड़ा हिस्सा बेहद गर्म मादूदे 
की सूरत में है। इस गर्म माद्दे की हरकत ऊपर की तरफ हो जाए तो सतह जमीन पर ऐसा 
जलजला पेदा हो कि तमाम आबादियां खंडहर बनकर रह जाएं। ऊपरी फज से हर वक्‍त 
शहाबी पत्थर (९९०५) बरसते रहते हैं। अगर मौजूदा इंतिजाम बिगड़ जाए तो ये शहाबी 
पत्थर एक ऐसी संगबारी की सूरत इख्तियार कर लें जिससे किसी हाल में भी बचाव मुमकिन 
न हो। इस तरह के बेशुमार हलाकतख़ेज इम्कानात हर वक्‍त इंसान को घेरे में लिए हुए हैं। 
हकीकत यह है कि इंसान एक ऐसी मख्नूक है जो मुकम्मल तौर पर मोहताज है। इंसान को 
खुदा की जरूरत है न कि खुदा को इंसान की जरूरत । 

कियामत का बोझ ख़ुद अपने गुनाहों का बोझ होगा न कि ईंट पत्थर का बोझ। ईट 
पत्थर के बोझ में एक शख्स किसी दूसरे शख्स का हिस्सेदार बन सकता है मगर ख़ुद अपने 
बुरे अमल से जो रुसवाई और तकलीफ किसी शख्स को लाहिक हो वह इंतिहाई जाती नौइयत 
का अजाब होता है। इसमें किसी दूसरे के लिए हिस्सेदार बनने का सवाल नहीं। 

हकीकत निहायत वाज्ह है मगर हकीकत को वही शर समझता है जो उसे समझना 
चाहे। जो शख्स इस बारे में संजीदा ही न हो कि हकीकत क्या है और बेहकीकत क्या, उसे 
कोई बात समझाई नहीं जा सकती। 








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और अंधा और आंखों वाला बराबर नहीं। और न अंधेरा और न उजाला। और न साया 
और न धूप। और जिंदा और मुर्दा बराबर नहीं हो सकते। बेशक अल्लाह सुनाता है 
जिसे वह चाहता है। और तुम उन्हें सुनाने वाले नहीं बन सकते जो कब्रों में हैं। तुम 
तो बस एक ख़बरदार करने वाले हो। हमने तुम्हें हक (सत्य) के साथ भेजा है, ख़ुशख़बरी 
देने वाला और डराने वाला बनाकर। और कोई उम्मत ऐसी नहीं जिसमें कोई डराने 
वाला न आया हो। और अगर ये लोग तुम्हें झुटलाते हैं तो इनसे पहले जो लोग हुए 
हैं। उन्होंने भी झुठलाया। उनके पास उनके पेग़म्बर खुले दलाइल और सहीफे (ग्रंथ) 
और रोशन किताब लेकर आए। फिर जिन लोगों ने न माना उन्हें मैंने पकड़ लिया, तो 
देखो कि कैसा हुआ उनके ऊपर मेरा अजाब। (9-26) 


यह एक हकीकत है कि जो उम्मीद रोशनी से की जा सकती है वह तारीकी से नहीं की 
जा सकती। इसी तरह साये से जो चीज मिलेगी वह धूप से मिलने वाली नहीं। यही मामला 
इंसान का है। इंसानों में कुछ आंख वाले होते हैं और कुछ अंधे होते हैं। आंख वाला फौरन 
अपने रास्ते को देखकर उसे पहचान लेता है। मगर जो अंधा हो वह सिर्फ भटकता फिरेगा। 
उसे कभी अपने रास्ते की पहचान नहीं हो सकती। 

इसी तरह अंदरूनी मअरफत के एतबार से भी दो किस्म के लोग होते हैं। एक जानदार 
और दूसरे बेजान। जानदार इंसान वह है जो बातों को उसकी गहराई के साथ देखता है। जो 
लफ्जी फेब का पर्दा फाड़कर मआनी का इदराक करता है। जो सतही पहलुओं से गुजर कर 
हकीकते वाकये को जानने की कोशिश करता है। जो चीजों को उनके जौहर के एतबार से 
परखता है न कि महज उनके जाहिर के एतबार से। जिसकी निगाह हमेशा असल हकीकत पर 
रहती है न कि गैर मुतअल्लिक मूशिगाफियों (कुतर्को) पर। जो इसे सहन नहीं कर सकता कि 
सच्चाई को जान लेने के बाद वह अपने आपको उससे वाबस्ता न करे। यही जानदार लोग 
हैं। और यही वे लोग हैं जिन्हें मौजूदा दुनिया में हक को कुब्रूल करने की तौफीक मिलती है। 
और जो लोग इसके बरअक्स सिफात रखते हों वे मुर्दा इंसान हैं। वे इम्तेहान की इस दुनिया 
में कभी कृकरे हक की तौफीक नहीं पाते। वे हक की दावत के मु्मबले में अवै बने रहते 
हैं। यहां तक कि मर कर ख़ुदा के यहां चले जाते हैं ताकि अपने अंधेपन का अंजाम भुगतें। 





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पारा 22 II70 सूरह35. फतिर 

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क्या तुम नहीं देखते कि अल्लाह ने आसमान से पानी उतारा। फिर हमने उससे 
मुख्तलिफ रंगों के फल पेदा कर दिए। और पहाड़े में भी सफेद और सूर्ख मुख्तलिफ 

रंगों के टुकड़े हैं और गहरे स्याह भी। और इसी तरह इंसानों और जानवरों और चौपायों 
में भी मुख्तलिफ रंग के हैं। अल्लाह से उसके बंदों में से सिर्फ वही डरते हैं जो इलम 

वाले हैं। बेशक अल्लाह जबरदस्त है, बख़्शने वाला है। (27-28) 





बादल से एक ही पानी बरसता है मगर उससे मुख़्तलिफ किस्म की चीजें उगती हैं। अच्छे 
दरख़्त भी और झाड़ झंकाड़ भी इसी तरह एक ही मादूदा है जो पहाड़ों की सूरत में जमा हुआ 
होता है मगर उनमें कुछ सुर्खु व सफेद हैं और कुछ बिल्कुल काले । इसी तरह जानदार भी एक 
गिजा खाते हैं। मगर उनमें से कोई इंसान के लिए कारआमद है और कोई बेकार। 

इससे मालूम हुआ कि फैज (प्रदत्तता) चाहे आम हो मगर उससे फायदा हर एक को 
उसकी अपनी इस्तेदाद (सामर्थ्य) के मुताबिक पहुंचता है। यही मामला इंसान का भी है। हक 
की दावत की सूरत में खुदा की जो रहमत बिखेरी जाती है वह अगरचे बजाते खुद एक होती 
है मगर मूरन्ललिफ इंसान अपने अंदरूनी मिजाज के मुताबिक उससे मुज्ञलिफ किस्म का 
तास्सुर कुबूल करते हैं। कोई शख्स हक की दावत में अपनी रूह की गिजा पा लेता है। वह 
फौरन उसे कुबूल करके अपने आपको उससे वाबस्ता कर देता है और किसी की नप्सियात 
उसके लिए हक को मानने में रुकावट बन जाती है। वह उससे बिदकता है, यहां तक कि 
उसका मुखालिफ बनकर खड़ा हो जाता है। 

हक की दावत जिस शख्स के लिए उसके दिल की आवाज साबित हो वही इलम वाला 
इंसान है। उसके अंदर फितरत की खुदाई रोशनी जिंदा थी। इसलिए उसने हक के जाहिर 
होते ही उसे पहचान लिया। इसके मुकाबले में वे लोग जाहिल हैं जो अपनी फितरत की 
रोशनी पर पर्दा डाले हुए हों और जब हक उनके सामने बेनकाब हो तो उसे पहचानने में 
नाकाम रहें। 


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जो लोग अल्लाह की किताब पढ़ते हैं और नमाज कायम करते हैं और जो कुछ हमने 
उन्हें अता किया है उसमें से छुपे और खुले ख़र्च करते हैं, वे ऐसी तिजारत के उम्मीदवार 
हैं जो कभी मांद न होगी ताकि अल्लाह उन्हें उनका पूरा अज्र दे। और उनके लिए अपने 
फज्ल से और ज्यादा कर दे। बेशक वह बश्शने वाला है, कट्रदां है। और हमने तुम्हारी 
तरफ जो किताब “वही” (प्रकाशना) की है वह हक है, उसकी तस्दीक करने वाली है 
जो इसके पहले से मौजूद है। बेशक अल्लाह अपने बंदों की ख़बर रखने वाला है, देखने 
वाला है। (29-3) 





इल्म वाला वह है जो मअरफत (अन्तर्ज्ञान) वाला हो। और जिस शख्स को मअरफत 
हासिल हो जाए वह ख़ुदा की किताब को अपना फिक्री रहबर बना लेता है। वह अल्लाह का 
इबादतगुजार बंदा बन जाता है। इंसानों के हक में वह इतना महरबान हो जाता है कि अपनी 
महनत की कमाई में से उनके लिए भी हिस्सा लगाता है। उसके अंदर यह हौसला पैदा हो 
जाता है कि हमह-तन (पूर्णतः) अपने आपको ख़ुदा के काम में लगा दे और इस पर कानेअ 
(संतुष्ट) रहे कि उसका इनाम उसे आख़िरत में दिया जाएगा। 

कुरआन की सदाकत का एक सुबूत यह भी है कि वह ऐन उन पेशीनगोइयों के मुताबिक 
है जो पिछली किताबों में इससे पहले आ चुकी थीं। अगर कोई शख्स संजीदा हो तो यही 
वाकया उसके लिए कुरआन पर ईमान लाने के लिए काफी हो जाए। 


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फिर हमने किताब का वारिस बनाया उन लोगों को जिन्हें हमने अपने बंदों में से चुन 
लिया। पस उनमें से कुछ अपनी जानों पर जुल्म करने वाले हैं और उनमें से कुछ बीच 
की चाल पर हैं। और उनमें से कुछ अल्लाह की तोफीक से भलाइयों में सबकत 





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पारा 22 72 सूरह-35. फातिर 
(अग्रसरता) करने वाले हैं। यही सबसे बड़ा फज्ल है। हमेशा रहने वाले बागा हैं जिनमें 

ये लोग दाखिल होंगे, वहां उन्हें सोने के कंगन और मोती पहनाए जाएंगे, और वहां 
उनका लिबास रेशम होगा। और वे कहेंगे, शुक्र है अल्लाह का जिसने हमसे ग़म को 
दूर किया। बेशक हमारा रब माफ करने वाला, कद्र करने वाला है। जिसने हमें अपने 

फज्ल से आबाद रहने के घर में उतारा, इसमें हमें न कोई मशवकत पुहुंवेगी और न 

कभी थकान लाहिक होगी। (32-55) 


हजरत यावूत्र हजरत इख्रहीम के पेति थे। हजरत यावृब्र अतैहिस्सलाम से लेकर 
हजरत मसीह अलैहिस्सलाम तक तमाम पेग़म्बर बनी इस्राईल की नस्ल में पैदा होते रहे। 
इस तरह तकरीबन दो हजार साल तक पैगम्बरी का सिलसिला यहूद की नस्ल में जारी रहा। 
मगर बाद के दौर में यहूद इस काबिल न रहे कि वे किताबे इलाही के हामिल (धारक) 
बन सकें। चुनांचे दूसरी जिंदा कौम (बनू इस्माईल) को किताबे इलाही का हामिल बनने 
के लिए मुंतख़ब किया गया। बनू इस्माईल में पैग़म्बरे इस्लाम हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु 
अलैहि व सल्लम की पैदाइश इसी इलाही फैसले की तामील थी। इस आयत में 'मुंतख़ब 
बंदों' से मुराद यही बनू इस्माईल हैं। 

अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने जब बनू इस्माईल के 
सामने कुरआन पेश किया तो उनमें तीन किस्म के लोग निकले। एक वे जो उसके खिलाफ 
मुखालिफ बनकर खड़े हो गए। दूसरे वे जिन्होंने दर्मियानी राह इख्तियार की। तीसरा गिरोह 
आगे बढ़ने वालों का था। यही वे लोग हैं जिन्होंने पैग़म्बर हजरत मुहम्मद (सल्ल०) का साथ 
देकर इस्लाम की अजीम तारीख़ बनाई। 

कुरआन का साथ देने के लिए उन्हें हर किस्म की राहत से महरूम हो जाना पड़ा। इसके 
नतीजे में उनकी जिंदगी अमलन सब्र और मशक्कत की जिंदगी बन गई। इस कुर्बानी की 
कीमत उन्हें आख़िरत में इस तरह मिलेगी कि ख़ुदा उन्हें ऐसे बाग़ों में दाखिल करेगा जहां वे 
हमेशा के लिए गम और तकलीफ से महफूज हो जाणी। 

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और जिन्होंने इंकार किया उनके लिए जहन्नम की आग है, न उनकी कजा! आएगी 


कि वे मर जाएं और न दोजख़ का अजाब ही उनसे हल्का किया जाएगा। हम हर मुंकिर 
को ऐसी ही सजा देते हैं। और वे लोग उसमें चिल्लाएंगे। ऐ हमारे रब हमें निकाल ले। 


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सूरह-35. फतिर II73 पारा 22 
हम नेक अमल करेंगे, उससे मुख्तलिफ जो हम किया करते थे। क्या हमने तुम्हें इतनी 
उम्र न दी कि जिसे समझना होता वह समझ सकता। और तुम्हारे पास डराने वाला 
आया। अब चखो कि जालिमाँ का कोई मददगार नहीं। (३6-37) 





दुनिया में हक का इंकार करने वाले आख़िरत में हक का मुकम्मल एतराफ करेंगे। मगर 
यह एतराफ उनके कुछ काम न आएगा। क्योंकि आख़िरत का एतराफ मजबूर इंसान का 
एतराफ है। और अल्लाह तआला को जो एतराफ मत्लूब है वह इख्तियारी एतराफ है न कि 
जबरी एतराफ। 


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अल्लाह आसमानों और जमीन के गेब (अप्रकट) को जानने वाला है। बेशक वह दिल 
की बातों से भी बाख़बर है। वही है जिसने तुम्हें जमीन में आबाद किया। तो जो शख्स 
इंकार करेगा उसका इंकार उसी पर पड़ेगा। और मुंकिरों के लिए उनका इंकार, उनके 


रब के नजदीक, नाराजी ही बढ़ने का सबब होता है। और मुंकिरों के लिए उनका इंकार 
ख़सारे (घाटे) ही में इजाफा करेगा। (38-39) 


इस आयत में खलीफा से मुराद पिछली कौमों का ख़लीफा बनना है। तुम्हें जमीन में 
ख़लीफा बनाया' का मतलब है पिछली कौमों के गुजरने के बाद तुम्हें उसकी जगह जमीन में 
आबाद किया। अल्लाह तआला का यह तरीका है कि वह एक कौम को जमीन में बसने और 
अमल करने का मौका देता है। फिर जब वह कौम अपनी नाअहली साबित कर देती है तो 
उसे हटाकर दूसरी कौम को उसकी जगह ले आता है। इस तरह जमीन पर एक के बाद एक 
कौम की आबादकारी का सिलसिला जारी रहेगा। यहां तक कि कियामत आ जाए। 

मौजूदा जमाने में फितरत के जो कवानीन (सिद्धांत) दरयाफ्त हुए हैं वे बताते हैं कि यहां 
इसका इम्कान है कि अंधेरे में किसी चीज का फोटो लिया जाए। बजाहिर न सुनाई देने वाली 
आवाज को मशीन की मदद से काबिले समाअत (सुनने योग्य) बनाया जा सके। तख्लीक में 
इस तरह के इम्कानात ख़ालिक की कुदरत का तआरुफ हैं। इससे मालूम होता है कि इस 
कायनात का ख़ालिक एक ऐसी हस्ती है जो गैब को जाने और दिल के अंदर छुपी हुई बात 
को सुन सके । गोया इंसान का मामला एक ऐसे अलीम और कदीर खुदा से है जिससे न किसी 
जुर्म को छुपाया जा सकता और न यही मुमकिन है कि उसके फैसले को बदलवाया जा सके। 


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कहो, जरा तुम देखो अपने उन शरीकों को जिन्हें तुम खुदा के सिवा पुकारते हो। मुझे 
दिखाओ कि उन्हाने जमीन में से क्या बनाया है। या उनकी आसमानों में कोई 
हिस्सेदारी है। या हमने उन्हें कोई किताब दी है तो वे उसकी किसी दलील पर हैं। 
बल्कि ये जालिम एक दूसरे से सिर्फ धोखे की बातों का वादा कर रहे हैं। बेशक अल्लाह 
ही आसमानों और जमीनों को थामे हुए है कि वे टल न जाएं। और अगर वे टल जाएं 
तो उसके सिवा कोई और उन्हें थाम नहीं सकता। बेशक वह तहम्मुल (उदारता) वाला 
है, बख़्शने वाला है। (40-47) 


कायनात की तख़्तीक और अथाह खला में बेशुमार अजरामे समावी (आकाशीय रचनाओं)थ्का 
निजाम हैबतनाक हद तक अजीम है। यह बिल्कुल नाकबिले कयास हैकि इस अजीम कारनामे 
कोर्जु (आंशिक) या कुल्ली तौर पर उन हस्तियों में से किसी की तरफ मंसूब किया जा सके 
जिन्हें लोग बतौर ख़ुद माबूद बनाकर पूजते हैं। इसी तरह इसका भी कोई सुबूत नहीं कि ख़ुदा ने 
ख़ुद यह ख़बर दी हो कि कोई और है जो उसके साथ ख़ुदाई में शरीक है। 

हकीकत यह है कि गैर अल्लाह की परस्तिश का सारा मामला सिर्फफेख पर कायम है। 
इस किस्म का फेब उसी वक्‍त तक चलेगा जब तक कियामत न आए। क्यामत के आते 
ही उनका इस तरह ख़ात्मा हो जाएगा जैसे कि उनका कोई वजूद ही न था। 


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सूरह-35. फतिर II75 पारा 22 
और उन्होंने अल्लाह की ताकीदी कसमें खाई थीं कि अगर उनके पास कोई डराने वाला 
आया तो वे हर एक उम्मत से ज्यादा हिदायत कुबूल करने वाले होंगे। फिर जब उनके 

पास एक डराने वाला आया तो सिर्फ उनकी बेजरी (अरुचि) ही को तरक्की हुई, जमीन 

में अपने को बड़ा समझने की वजह से, और उनकी बुरी तदबीरों को। और बुरी तदबीरों 
का वबाल तो बुरी तदबीर करने वालों ही पर पड़ता है। तो क्या ये उसी दस्तूर के मुंतजिर 

हैं जो अगले लोगों के बारे में जाहिर हुआ। पस तुम ख़ुदा के दस्तूर में न कोई तब्दीली 
पाओगे और न ख़ुदा की दस्तूर को टलता हुआ पाओगे। क्या ये लोग जमीन में चले 
फिरे नहीं कि वे देखते कि कैसा हुआ अंजाम उन लोगों का जो इनसे पहले गुजरे हैं, 
और वे कुब्बत (शक्ति) में इनसे बढ़े हुए थे। और खुदा ऐसा नहीं कि कोई चीज उसे 
आजिज निर्बल) कर दे, न आसमानों में और न जमीन में। बेशक वह इलम वाला है, 

कुदरत वाला है। (42-44) 





अरब के लोग जब सुनते कि यहूद ने और दूसरी कौमों ने अपने नबियों की नाफरमानी 
की तो वे पुरजोश तौर पर कहते कि अगर ऐसा हो कि हमारे दर्मियान कोई नबी आए तो हम 
उसे पूरी तरह मानें और उसकी इताअत करें। मगर जब उनके दर्मियान एक पैग़म्बर आया 
तो वे उसके मुखालिफ बन गए। 

यह नफ्सियात किसी न किसी शक्ल में तमाम लोगों में पाई जाती है। इस दुनिया में हर 
आदमी का यह हाल है कि वह अपने को हकपसंद के रूप में जाहिर करता है। वह कहता 
है कि जब भी कोई सही बात उसके सामने आएगी तो वह जरूर उसे मान लेगा। मगर जब 
हक खुले-खुले दलाइल के साथ आता है तो वह उसे नजरअंदाज कर देता है। यहां तक कि 
उसका मुख़ालिफ बन जाता है। 

इसकी वजह यह है कि इंकारे हक किसी ख़ास कौम की खुसूसियत नहीं। वह इंसानी 
नप्सियात की आम खुसूसियत है। हक को मानना अक्सर हालात में अपनी बड़ाई को ख़त्म 
करने के हममअना होता है। आदमी अपनी बड़ाई को खोना नहीं चाहता । इसलिए वह हक 
को मानने के लिए भी तैयार नहीं होता। वह भूल जाता है कि हक का इंकार जरूर उसके बस 
में है, मगर हक के इंकार के अंजाम से अपने आपको बचाना हरगिज उसके बस में नहीं। 


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और अगर अल्लाह लोगों के आमाल पर उन्हें पकइ़ता तो जमीन पर वह एक जानदार 
को भी न छोड़ता। लेकिन वह उन्हें एक मुकर मुदूदत तक मोहलत देता है। फिर जब 
उनकी मुदूदत पूरी हो जाएगी तो अल्लाह अपने बंदों को ख़ुद देखने वाला है। (45) 





इंसान को दुनिया में अमल की आजादी दी गई थी। मगर उसने उसका ग़लत इस्तेमाल 


पारा 22 I76 सूरह-36. या० सीन० 
किया । यह गलतियां इतनी ज्यादा हैं कि अगर इंसान को उसकी गलतकारियों पर फौरन पकड़ा 

जाने लगे तो जमीन में इंसानी नस्ल का खात्मा हो जाए। मगर इंसान की आजादी बराए इम्तेहान 

है। और इस इम्तेहान की एक मुद्दत मुकर्रर है। एक फर्द (व्यक्ति) की मुद्दत मौत तक है 

और मज्मूई तौर पर पूरी इंसानियत की मुदूदत कियामत तक। इसी बिना पर इंसान की नस्ल 
जमीन पर बाकी है। ताहम जिस तरह यह एक हकीकत हैकि अल्लाह तआला मोहलत की मु 

मुद्दत से पहले किसी को नहीं पकड़ता। इसी तरह यह भी एक संगीन हकीकत है कि मोहलत 

की मुकर्रर मुदूदत गुजर जाने के बाद वह जरूर इंसान को पकड़ेगा। कोई शख्स उसकी पकड़ 

से बचने वाला नहीं। 


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आयतें-83 सूरह-36. या० सीन० रुकूअ-5 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
या० सीन०। कसम है बाहिक्मत (तत्वज्ञानपूर्ण) कुरआन की। बेशक तुम रसूलों में से 
हो। निहायत सीधे रास्ते पर। यह खुदाए अजीज (प्रभुत्वशाली) व रहीम (दयावान) की 
तरफ से उतारा गया है। ताकि तुम उन लोगों को डरा दो जिनके अगलों को नहीं डराया 
गया। पस वे बेखबर हैं। (-6) 








हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के खुदा के पैगम्बर होने का सुबूत ख़ुद वह 
कुरआन हकीम है जिसे आपने यह कहकर पेश किया कि यह मेरे ऊपर खुदा की तरफ से 
उतरा है। कुरआन के हकीम होने का मतलब यह है कि वह सिराते मुस्तकीम का दाओ है। 
यानी वह उस रास्ते की तरफ रहनुमाई कर रहा है जो बिल्कुल सीधा और सच्चा है। इसकी 
कोई बात अक्ल व फितरत से टकराने वाली नहीं। कुरआन के नुजूल (अवतरण) को अब ढेड़ 
हजर साल हो रहे हैं। मगर आज तक इसमें किसी ख़िलाफे अक्ल या ख़िलाफे फितरत बात 
की निशानदेही न की जा सकी। कुरआन की यही इम्तियाजी सिफत (विशिष्टता)१9उसके 
किताबे इलाही होने की सबसे बड़ी दलील है। 
“ताकि तुम कौम को डरा दो' में कौम से मुराद बनू इस्माईल हैं। हर नबी अव्वलन अपनी 


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सूरह-36. या० सीन० II77 पारा 22 
कौम के लिए आता है। इसी तरह पेग़म्बरे इस्लाम की अव्वलीन मुखातब भी उनकी अपनी कौम 

थी। मगर चूंकि आपके बाद नुबुव्वत ख़त्म हो गई इसलिए अब कियामत तक के लिए आपकी 
नुबुव्वत का तसलसुल जारी है। फर्क यह है कि बनू इस्माईल पर आपने बराहेरास्त हुज्जत तमाम 
(आह्वान की पूर्ति) की और अपके बाद मुख्तलिफ कौमों पर दावत और इतमामेहुज्जत का काम 
आप की नियाबत (प्रतिनिधित्व) में आप की उम्मत को अंजाम देना है। 


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उनमें से अक्सर लोगों पर बात साबित हो चुकी है तो वे ईमान नहीं लाएंगे। हमने 
उनकी गर्दनों में तोक डाल दिए हैं सो वे ठोडियों तक हैं, पस उनके सिर ऊंचे हो रहे 
हैं। और हमने एक आड़ उनके सामने कर दी है और एक आड़ उनके पीछे कर दी। 
फिर हमने उन्हें ढांक दिया तो उन्हें दिखाई नहीं देता। और उनके लिए यकसां (समान) 
है, तुम उन्हें डाओ या न डराओ, वे ईमान नहीं लाएंगे। तुम तो सिर्फ उस शख्स को 
डरा सकते हो जो नसीहत पर चले और खुदा से डरे, बिना देखे। तो ऐसे शख्स को माफी 
की और बाइज्जत सवाब की बशारत (शुभ सुचना) दे दो। (7-) 


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आदमी की गर्दन में तौक भरा हुआ हो तो उसका सिर उठा रह जाएगा और वह नीचे 
की चीज को न देख सकेगा । यह उन मग्रूर (अभिमानी) लोगों की तस्वीर है जो अपनी बड़ाई 
में इतना गुम हों कि अपने से बाहर की कोई हकीकत उन्हें दिखाई ही न दे। ऐसे लोगों को 
कमी हक के एतराफ की तैमीक हासिल नहीं हेती। 

हिदायत पाने के लिए सबसे ज्यादा अहमियत इस बात की है कि आदमी के अंदर 
एतराफ का मादूदा हो, उसे खुदा के सामने हाजिरी का खटका लगा हुआ हो। वह कुल्ली 
सदाकत से कम किसी चीज पर राजी न हो सके। यही वे लोग हैं जो हक के जाहिर हेते ही 
उसकी तरफ दौड़ पड़ते हैं और इसके नतीजे में अल्लाह का सबसे बड़ा इनाम पाते हैं। 
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यकीनन हम मुर्दोँ को जिंदा करेंगे। और हम लिख रहे हैं जो उन्होंने आगे भेजा और 
जो उन्होंने पीछे छोड़ा। और हर चीज हमने दर्ज कर ली है एक खुली किताब में और 
उन्हें बस्ती वालों की मिसाल सुनाओ, जबकि उसमें रसूल आए। (2-3) 





जदीद तहकीकात ने बताया कि इंसान अपने मुंह से जो आवाज निकालता है वह 
नकूश की सूरत में फज में महफूज हो जाती है। इसी तरह इंसान जो अमल करता है 
उसका अक्स (बिंब) भी हरारती (ताप) लहरों की शक्ल में मुस्तकिल तौर पर दुनिया में 
मौजूद हो जाता है। गोया इस दुनिया में हर आदमी की वीडियो रिकॉर्डिंग हो रही है। यह 
तजर्बा बताता है कि इस दुनिया में यह मुमकिन है कि इंसान के इलम के बगैर और उसके 
इरादे से आजाद उसका कौल और अमल मुकम्मल तौर पर महफूज किया जा रहा हो और 
किसी भी लम्हा उसे दोहराया जा सके। 


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जबकि हमने उनके पास दो रसूल भेजे तो उन्होंने दोनों को झुठलाया, फिर हमने तीसरे 
से उनकी ताईद की, उन्होंने कहा कि हम तुम्हारे पास भेजे गए हैं। लोगों ने कहा कि 
तुम तो हमारे ही जैसे बशर (इंसान) हो और रहमान ने कोई चीज नहीं उतारी है, तुम 
महज झूठ बोलते हो। उन्होंने कहा कि हमारा रब जानता है कि हम बेशक तुम्हारे पास 
भेजे गए हैं। और हमारे जिम्मे तो सिर्फ वाजेह तौर पर पहुंचा देना है। लोगों ने कहा 
कि हम तो तुम्हें मनहूस समझते हैं, अगर तुम लोग बाज न आए तो हम तुम्हें संगसार 
करेंगे और तुम्हें हमारी तरफ से सख्त तकलीफ पहुंचेगी। उन्होंने कहा कि तुम्हारी 
नहूसत तुम्हारे साथ है, क्या इतनी बात पर कि तुम्हें नसीहत की गई। बल्कि तुम हद 
से निकल जाने वाले लोग हो। (।4-9) 


बस्ती से मुराद ग़ालिबन मिस्न की बस्ती है। यहां बयकवक्त दो पैगम्बर (हजरत मूसा 


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सूरह-36. या० सीन० II79 पारा 23 
और हजरत हारून) लोगों को ख़बरदार करने के लिए भेजे गए। मगर उन्होंने इंकार किया । फिर 
उनकी अपनी कौम से तीसरा शख्स उठा और उसने दोनों रसूलों की ताईद की । उस तीसरे शख्स 
से मुराद गालिबन वही मर्दे मोमिन है जिसका जिक्र कुरआन में सूरह मोमिन में तफसील से आया 
है। (मोमिन : 28) 

हर जमाने में आदमी के लिए सबसे ज्यादा तल्ख़ चीज यह रही है कि उसे ऐसी नसीहत 
की जाए जो उसके मिजाज के ख़लाफ हो। ऐसी बात सुनकर आदमी फौरन बिगड़ जाता है। 
नतीजा यह होता है कि वह मोअतदिल (सहज) जेहन के साथ उस पर गौर नहीं कर पाता। 
वह उसे दलील के एतबार से नहीं जांचता बल्कि जिद और नफरत के तहत उसके खिलाफ 
गैर मुतअल्लिक बातें कहता रहता है। किसी बात को दलील से जांचना हद के अंदर रहना 
है और बेदलील मुखालिफत करना हद से बाहर निकल जाना। 


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और शहर के दूर मकाम से एक शख्स दौड़ता हुआ आया। उसने कहा, ऐ मेरी कौम 


रसूलों की पैरवी करो। उन लोगों की पैरवी करो जो तुमसे कोई बदला नहीं मांगते। 
और वे ठीक रास्ते पर हैं। (20-27) 








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दोनों रसूल उस वक्‍त बजाहिर बिल्कुल बेजोर थे। मगर तीसरे शख्स ने अपने आपको 
उन्हीं के साथ वाबस्ता किया । हक और नाहक के मुकाबले में आदमी को हक का साथ देना 
पड़ता है, चाहे वह ताकतवर के मुकाबले में कमजोर का साथ देने के हममअना क्यों न हो। 

तीसरे शख्स ने कौम के लोगों से कहा कि ये रसूल तुमसे अज्र नहीं मांगते, और वे 
हिदायतयाब भी हैं। इससे मालूम हुआ कि सिर्फ बेगरजी आदमी के हिदायतयाब होने की काफी 
दलील नहीं है। बेगरज और नेक नीयत होने के बावजूद आदमी की बात दलील के मेयार पर 
परखी जाएगी और वह उसी वक्‍त सही समझी जाएगी जबकि वह दलील के मेयार पर पूरी उतरे। 


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और में कयां न इबादत करूं उस जात की जिसने मुझे पैदा किया और उसी की तरफ 


तुम लौटाए जाओगे। क्या मैं उसके सिवा दूसरों को माबूद (पूज्य) बनाऊ। अगर रहमान 
मुझे कोई तकलीफ पहुंचाना चाहे तो उनकी सिफारिश मेरे कुछ काम न आएगी और 


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पारा 23 I80 सूरह-36. या० सीन० 
न वे मुझे छुड़ा सकेंगे। बेशक उस वक्‍त में एक खुली हुई गुमराही में हूंगा। मैं तुम्हारे 
रब पर ईमान लाया तो तुम भी मेरी बात सुन लो। इर्शाद हुआ कि जन्नत में दाखिल 
हो जाओ। उसने कहा काश मेरी कौम जानती कि मेरे रब ने मुझे बख्श दिया और मुझे 
इज्जतदारों मे शामिल कर दिया। (22-27) 





मर्दे हक ने अपनी जिंदगी ख़तरे में डाल कर पेग़म्बरों की दावत की ताईद की थी। 
उसका यह अमल इतना कीमती था कि इसके बाद उसे जन्नत में दाखिल कर दिया गया। 
जन्नत में दाखिल होने के बाद वह अपनी जालिम कौम को बुरा नहीं कहता। बल्कि यह 
तमन्ना करता कि काश वे लोग मेरा अंजाम जानते तो वे हक के मुखालिफ न बनते। यह 
सच्चे मोमिन की तस्वीर है। मोमिन हर हाल में लोगों का खैरख्याह (हितैषी) होता है, चाहे 
लोग उसके साथ कैसा ही जालिमाना सुलूक करें। 


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और इसके बाद उसकी कौम पर हमने आसमान से कोई फौज नहीं उतारी, और हम 
फौज नहीं उतारा करते। बस एक धमाका हुआ तो यकायक वे सब बुझकर रह गए। 
अफसोस है बंदों के ऊपर, जो रसूल भी उनके पास आया वे उसका मजाक ही उझते 

रहे। क्या उन्होंने नहीं देखा कि हमने उनसे पहले कितनी ही कीमें हलाक कर दीं। अब 
वे उनकी तरफ वापस आने वाली नहीं। और उनमें कोई ऐसा नहीं जो इकट्ठा होकर 
हमारे पास हाजिर न किया जाए। (28-32) 





अल्लाह तआला की तरफ से जब किसी कौम की हलाकत का फैसला किया जाता है तो 
इतना ही काफी होता है कि जमीनी असबाब को उसके खिलाफ कर दिया जाए। सारी 
आसमानी ताकतों को उसके खिलाफ इस्तेमाल करने की जरूरत पेश नहीं आती। 
पेगम्बरां का मज़ाक क्यों उदया गया, इसका जवाब खुद लफ्ज 'इस्तहजा' (मज़ाक 
उड़ाना) में मौजूद है। इस्तहजा करने वाले हमेशा उस इंसान का इस्तहजा करते हैं जो उन्हें 
क्के (तुच्छ) दिखाई देता हो। पैग़म्बरों के साथ यही मामला पेश आया। पैग़म्बर की 
शख्सियत को उनके हमजमाना (समकालीन) लोगों ने इससे कम समझा कि उनकी जबान से 
खुदाई सदाकत का एलान हो। इसलिए उन्होंने पैगम्बरों को मानने से इंकार कर दिया। 


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और एक निशानी उनके लिए मुर्दा जमीन है। उसे हमने जिंदा किया और उससे हमने 
गल्ला निकाला। पस वे उसमें से खाते हैं। और उसमें हमने खजूर के और अंगूर के बाग़ 
बनाए। और उसमें हमने चशमे (स्रोत) जारी किए। ताकि लोग उसके फल खाएं। और 
उसे उनके हाथों ने नहीं बनाया। तो क्या वे शुक्र नहीं करते। पाक है वह जात जिसने 
सब चीज के जोड़े बनाए, उनमें से भी जिन्हें जमीन उगाती है और खुद उनके अंदर से 
भी। और उनमें से भी जिन्हें वे नहीं जानते। (33-36) 





जमीन की सतह पर जरख़ेज (उपजाऊ) मिट्टी का जमा होना, उसके लिए पानी और धूप 
और हवा का इंतिजाम, फिर बीज के अंदर नशो व नुमा (विकास) की सलाहियत, इस तरह 
के बेशुमार मालूम और गैर मालूम असबाब हैं जो बिलआखिर गल्ला और फल और सब्जी की 
शक्ल इख्तियार करके इंसान की खुराक बनते हैं। यह पूरा निजाम इंसान के बनाए बगैर बना 
है। इसे वजूद में लाना और इसे कायम रखना सरासर ख़ुदा की रहमत से होता है। अगर इंसान 
इस पर सोचे तो वह शुक्र के जज्बे से भर जाए। 

फिर इसी निजाम में एक अजीमतर हकीकत की निशानी भी मौजूद है। मुतालआ बताता 
है कि दुनिया की तमाम चीजों में जोड़े का उसूल कारफरमा है। फिर जब कायनात का निजाम 
इस उसूल पर कायम है कि यहां तमाम चीजें अपने जोड़े के साथ मिलकर अपनी तक्मील 
(पूर्णता) करें तो मौजूदा दुनिया का भी एक जोड़ा होना चाहिए जिसके मिलने से उसकी तक्मील 
होती हो। इस तरह मौजूदा दुनिया में जोड़े का निजाम आखिरत के इम्कान को साबित कर देता 


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और एक निशानी उनके लिए रात है, हम उससे दिन को खींच लेते हैं तो वे अंधेरे में 








पारा 23 82 सूरह-36. या० सीन० 
रह जाते हैं। और सूरज, वह अपनी ठहरी हुई राह पर चलता रहता है। यह अजीज 
(प्रभुत्वशाली) व अलीम (ज्ञानवान) का बांधा हुआ अंदाजा है। और चांद के लिए हमने 
मंजिलें मुकर कर दीं, यहां तक कि वह ऐसा रह जाता है जैसे खजूर की पुरानी शाख़। 

न सूरज के वश में है कि वह चांद को पकड़ ले और न रात दिन से पहले आ सकती 
है। और सब एक-एक दायरे में तैर रहे हैं। (37-40) 





जमीन और चांद और सूरज सब का एक मदार (कक्ष) मुक्रर है। सब अपने-अपने मदार 
पर हददर्जा सेहत के साथ घूम रहे हैं। इस गर्दिश से मुख्तलिफ मजाहिर वजूद में आते हैं। 
मसलन जमीन पर रात और दिन का पैदा होना, चांद का कम व बेश होकर फल्कियाती 
(आकाशीय) केलेंडर का काम करना, वगैरह । यह निजाम करोड़ों साल से कायम है और फिर 
भी इसमें किसी किस्म का कोई ख़लल वाकेअ नहीं हुआ। 

यह मुशाहिदा खुदा की अथाह कुदरत का एक तआरुफ है। अगर आदमी इससे सबक 
ले जो एक खुदा की अज्मत उसके जेहन पर इस तरह छाए कि दूसरी तमाम अज्मतें अपने आप 
उसकेजेन सेहज्फ़ब्वेजाएं। 

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और एक निशानी उनके लिए यह है कि हमने उनकी नस्ल को भरी हुई कश्ती में सवार 
किया। और हमने उनके लिए उसी के मानिंद और चीजें पेदा कीं जिन पर वे सवार होते 
हैं। और अगर हम चाहें तो उन्हें गर्क कर दें, फिर न कोई उनकी फरयाद सुनने वाला 


हो और न वे बचाए जा सकें। मगर यह हमारी रहमत है और उन्हें एक निर्धारित वक्‍त 
तक फायदा देना है। (4।-44) 





हमारी दुनिया में खुश्की भी है और समुद्र भी। और हमारे ऊपर वसीअ फजा भी। खुदा 
ने इस दुनिया में ऐसे इम्कानात रख दिए हैं कि आदमी तीनों में से किसी हिस्से में भी सफर 
से आजिज न हो। वह खुश्‍्की में और पानी और फजा में यकसां तौर पर सफर कर सके। 
ये तमाम सफर सरासर खुदा के इंतिजाम के तहत मुमकिन होते हैं। यह इंसान के लिए 
इतनी बड़ी रहमत हैं कि इंसान अगर इन पर गौर करे तो वह बिल्कुल अपने आपको ख़ुदा के 
आगे डाल दे। और कभी सरकशी का तरीका इख्तियार न करे। 


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और जब उनसे कहा जाता है कि उससे डरो जो तुम्हारे आगे है और जो तुम्हारे पीछे 
है ताकि तुम पर रहम किया जाए। और उनके रब की निशानियों में से कोई निशानी 
भी उनके पास ऐसी नहीं आती जिसकी वे उपेक्षा न करते हों। और जब उनसे कहा 
जाता है कि अल्लाह ने जो कुछ तुम्हें दिया है उसमें से खर्च करो तो जिन लोगों ने इंकार 
किया वे ईमान लाने वालों से कहते हैं कि क्या हम ऐसे लोगों को खिलाएं जिन्हें अल्लाह 
चाहता तो वह उन्हें खिला देता। तुम लोग तो खुली गुमराही में हो। (45-47) 


83 पारा 23 





आदमी के पीछे उसके आमाल हैं, और उसके आगे हिसाब-किताब का दिन है। जिंदगी 
गोया अमल की दुनिया से अंजाम की दुनिया की तरफ सफर है। यह बेहद नाजुक सूरतेहाल 
है। आदमी को इसका वाकई एहसास हो तो वह कांप उठे। मगर आदमी न गौर करता और 
न कोई निशानी उसकी आंख खोलने वाली साबित होती। वह झूठी तावीलों के जरिए अपने 
आमाल को सही साबित करता रहता है। यहां तक कि मर जाता है। 





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और वे कहते हैं कि यह वादा कब होगा अगर तुम सच्चे हो। ये लोग बस एक चिंघाड़ 
की राह देख रहे हैं जो उन्हें आ पकड़ेगी और वे झगड़ते ही रह जाएंगे। फिर वे न कोई 
वसीयत कर पाएंगे और न अपने लोगों की तरफ लौट सकेंगे। और सूर फूंका जाएगा 
तो यकायक वे कब्रों से अपने रब की तरफ चल पड़ो। वे कहेंगे, हाय हमारी बदबख्ती, 

हमारी कब्र से किसने हमें उठाया यह वही है जिसका रहमान ने वादा किया था और 
पेग़रम्बरों ने सच कहा था। बस वह एक चिंघाइ होगी, फिर यकायक सब जमा होकर 
हमारे पास हाजिर कर दिए जाएंगे। (48-53) 


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पारा 23 I84 सूरह-36. या० सीन० 





जो लोग आखिरत पर यकीन नहीं रखते वे आख़िरत की तरफ से इस तरह बेफिक्र रहते 
हैं गोया कि आखिरत कोई बहुत दूर की चीज है। उनमें से जो लोग ज्यादा गैर संजीदा हैं वे 
बअज औकात आहिरत का मजाक भी उड़ने लगते हैं। इस तरह के लोग अपनी इसी गफलत 
में पड़े रहेंगे यहां तक कि कियामत आ जाए। कियामत उन्हें इस तरह यकायक पकड़ लेगी 
कि वे उसके ख़िलाफ कुछ भी न कर सकेंगे। 

हदीस में है कि इस्राफील सूर अपने मुंह में लिए हुए अर्श की तरफ देख रहे हैं और इस 
बात के मुंतजिर हैं कि कब हुक्म हो और वह उसमें फूंक मार दें। सूर का फूंका जाना ऐसा 
ही है जैसे इम्तेहान का वक्त ख़त्म हो जाने का घंटा बजना। इसके फौरन बाद दुनिया का 
निजाम बदल जाएगा। इसके बाद अंजाम का मरहला शुरू होगा, जबकि आज हम अमल के 
मरहले से गुजर रहे हैं। 


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पस आज के दिन किसी शख्स पर कोई जुल्म न होगा। और तुम्हें वही बदला मिलेगा 
जो तुम करते थे। बेशक जन्नत के लोग आज अपने मशगलों में खुश होंगे। और उनकी 
बीवियां, सायों में मसहरियों पर तकिया लगाए हुए बैठे होंगे। उनके लिए वहां मेवे होंगे 
और उनके लिए वह सब कुछ होगा जो वे मांगेंगे। उन्हें सलाम कहलाया जाएगा 
महरबान रब की तरफ से। (54-58) 


मौजूदा दुनिया में आदमी के अमल के मअनवी नताइज सामने नहीं आते। आखिरत वह 
जगह है जहां हर आदमी अपने अमल के मअनवी नताइज को पाएगा। जो शख्स यहां सिफ 
वक्ती मफादात के लिए सरगर्म रहा वह आख़िरत की अबदी दुनिया में इस तरह उठेगा कि 
वहां वह बिल्कुल ख़ाली हाथ होगा। इसके बरअक्स जो लोग आला मकसद के लिए जिए वे 
वहां शानदार अंजाम में खुश हो रहे होंगे। अल्लाह तआला की ख़ुसूसी इनायात इसके अलावा 


होंगी । 

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सूरह-36. या० सीन० II85 पारा 23 


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और ऐ मुजरिमो, आज तुम अलग हो जाओ। ऐ औलादे आदम, क्या मैंने तुम्हें ताकीद 
नहीं कर दी थी कि तुम शैतान की इबादत न करना। बेशक वह तुम्हारा खुला हुआ 
दुश्मन है। और यह कि तुम मेरी ही इबादत करना, यही सीधा रास्ता है। और उसने 
तुम में से बहुत से गिरोहों को गुमराह कर दिया। तो क्या तुम समझते नहीं थे। यह 
है जहन्नम जिसका तुमसे वादा किया जाता था। अब अपने कुफ्र के बदले में इसमें 
दाखिल हो जाओ। आज हम उनके मुंह पर मुहर लगा देंगे और उनके हाथ हमसे बोलेंगे 
और उनके पांव गवाही देंगे जो कुछ ये लोग करते थे। (59-65) 





मौजूदा जिंदगी में अच्छे लोग और बुरे लोग एक ही दुनिया में रहते हैं। अगली जिंदगी 
में दोनों की दुनियाएं अलग-अलग कर दी जाएंगी । शैतान के बंदे शैतान के साथ और रहमान 
के बंदे रहमान के साथ। 

कोई आदमी शैतान के नाम पर शैतान की परस्तिश नहीं करता। मगर बिलवास्ता 
(परोक्ष) तौर पर गैर अल्लाह का हर परस्तार (पूजक) दरअस्ल शैतान का परस्तार है। क्योंकि 
वह शैतान ही के बहकावे में ऐसा कर रहा है। मसलन फरिश्ता और कीमी बुजुर्गों की परस्तिश 
इस तरह शुरू हुई कि शैतान ने उनके बारे में झूठे अकीदे लोगों के जेहन में डाले और लोग 
इन शैतानी तर्गीबात (बहकावों) से मुतअस्सिर होकर उनकी परस्तिश करने लगे। 

जदीद तहकीकात (नवीन खोजों) से यह साबित हुआ है कि इंसान की खाल एक किस्म 
का रिकॉर्डर है जिस पर आदमी की बोली हुई आवाजें मुरतसिम (प्रतिबिंबित) हो जाती हैं और 
उन्हें दोहराया जा सकता है। यह एक निशानी है जो इस बात को काबिलेफहम बना रही है 
कि किस तरह आखिरत में आदमी के हाथ और पांव आदमी के अहवाल सुनाने लगेंगे। 


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और अगर हम चाहते तो उनकी आंखों को मिटा देते। फिर वे रास्ते की तरफ दौड़ते 
तो उन्हें कहां नजर आता। और अगर हम चाहते तो उनकी जगह ही पर उनकी सूरतें 
बदल देते तो वे न आगे बढ़ सकते और न पीछे लौट सकते। और हम जिसकी उम्र 
ज्यादा कर देते हैं तो उसे उसकी पेदाइश में पीछे लोटा देते हैं, तो क्या वे समझते नहीं। 
(66-68) 


पारा 23 I86 सूरह-36. या० सीन० 





इंसान को आंख और हाथ पांव और दूसरी जो सलाहियतें हासिल हैं उन्हें पाकर वह 
सरकश बन जाता है। हालांकि अगर वह सोचे तो यही वाकया उसकी नसीहत के लिए काफी 
हो जाए कि ये सलाहियतें उसकी अपनी बनाई हुई नहीं हैं बल्कि ख़ालिक के देने से उसे मिली 
हैं। और जब देने वाला कोई और हो तो उसने जिस तरह दिया है उसी तरह वह उन्हें वापस 
ले सकता है। 

मजीद यह कि बुढ़ापे की सूरत में इस इम्कान की एक झलक अमलन भी लोगों को 
दिखाई जा रही है। आदमी जब ज्याद बूढ़ा होता है तो उसकी तमाम ताकतें भी छिन जाती हैं। 
यहां तक कि वह दुबारा वैसा ही कमजोर और मोहताज हो जाता है जैसा कि वह उस वक्त 
था जबकि वह एक छोटा बच्चा था। मगर इंसान इतना नादान है कि इसके बावजूद वह कोई 
सबक नहीं लेता। 


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और हमने उसे शेअर (काव्य) नहीं सिखाया और न यह उसके लायक है। यह तो सिर्फ 


एक नसीहत है और वाजेह (सुस्पष्ट) कुरआन है ताकि वह उस शख्स को ख़बरदार कर 
दे जो जिंदा हो और इंकार करने वालों पर हुज्जत कायम हो जाए। (69-70) 








कुरआन का मोजिजाना उस्लूब सुनने वाला को अपनी तरफ खींचता है। चुनांचे मुझलिफीन 
ने लोगों के तअस्सुर को घटाने के लिए यह कहना शुरू किया कि यह एक शायराना कलाम 
है न कि कोई ख़ुदाई कलाम । 
मगर यह सरासर बेअस्ल बात है। कुरआन में अथाह हद तक जो संजीदा फजा है। उसमें 
हकडइकेगैब का जो बेमिसाल इंकेशाफ (प्रकटन) है, उसमें मअरफते हक की जो आलातरीन 
तालीमात हैं । उसमें शुरू से आखिर तक जो नादिर इत्तेहादे ख्याल (अद्वितीय वैचारिक एकरूपता) 
है। उसमें खुदा की खुदाई की जो नाकाबिले बयान झलकियां हैं। ये सब यकीनी तौर पर इशारा 
कर रही हैं कि कुरआन इससे बरतर कलाम है कि उसे इंसानी शायरी कहा जा सके। 
मगर हकीकत को हमेशा जिग लोग मानते हैं। इसी तरह कुआन की सदाकत भी सिर्फ 
जिंदा इंसानों को नजर आएगी, मुर्दा इंसान उसे देखने वाले नहीं बन सकते। 


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सूरह-36. या० सीन० II87 पारा 23 


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क्या उन्होंने नहीं देखा कि हमने अपने हाथ की बनाई हुई चीजों में से उनके लिए 
मवेशी पेदा किए, तो वे उनके मालिक हैं। और हमने उन्हें उनका ताबेअ (अधीन) 
बना दिया, तो उनमें से कोई उनकी सवारी है और किसी को वे खाते हैं। और उनके 
लिए उनमें फायदे हैं और पीने की चीजें भी, तो क्या वे शुक्र नहीं करते। और उन्होंने 
अल्लाह के सिवा दूसरे माबूद (पूज्य) बनाए कि शायद उनकी मदद की जाए। वे 
उनकी मदद न कर सकेंगे, और वे उनकी फौज होकर हाजिर किए जाएंगे। तो उनकी 
बात तुम्हें गमगीन न करे। हम जानते हैं जो कुछ वे छुपाते हैं और जो कुछ वे जाहिर 
करते हैं। (7-76) 





मवेशी जानवर एक किस्म की जिंदा अलामत हैं जो बताते हैं कि मादूदी दुनिया को उसके 
बनाने वाले ने इस तरह बनाया है कि इंसान उसे मुसख्खर (अधीन) करके उसे इस्तेमाल कर 
सके। मादूदी दुनिया की इसी सलाहियत के ऊपर इंसानी तहजीब की पूरी इमारत कायम है। 
अगर घोड़े और बैल में भी वही वहशियाना मिजाज हो जो रीछ और भेड़िये में होता है। या 
लोहा और पेट्रोल इसी तरह इंसान के काबू से बाहर हों जिस तरह जमीन के अंदर का 
आतिशफशानी (प्रज्चलनशील) मावुदा इंसान के काबू से बाहर है तो तहजीबे इंसानी का 
इरतिका (विकास) नामुमकिन हो जाए। 

जिस ख़ालिक ने ये अजीम एहसानात किए हैं, इंसान को चाहिए था कि वह उसी का शुक्र 
करे और उसी का इबादतगुजार बने। मगर वह दूसरों को अपना माबूद बनाता है, और जब 
उसे नसीहत की जाए तो वह उस पर ध्यान नहीं देता। यह बिलाशुबह सबसे बड़ी सरकशी है 
जिसके अंजाम से बचना किसी के लिए मुमकिन नहीं। 


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पारा 23 I88 सूरह-36. या० सीन० 


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क्या इंसान ने नहीं देखा कि हमने उसे एक बूंद से पैदा किया, फिर वह सरीह झगड़ालू बन 
गया। और वह हम पर मिसाल चसपां करता है और वह अपनी पैदाइश को भूल गया। वह 
कहता है कि हड्ड्डियों को कौन जिंदा करेगा जबकि वे बोसीदा हो गई हों। कहो, उन्हें वही 
जिंदा करेगा जिसने उन्हें पहली मर्तबा पेदा किया। और वह सब तरह पैदा करना जानता 
है। वही है जिसने तुम्हारे लिए हरे भरे दरख़्त से आग पैदा कर दी। फिर तुम उससे आग 
जलाते हो। क्या जिसने आसमानां और जमीन को पैदा किया वह इस पर कादिर नहीं कि 
उन जैसों को पैदा कर दे। हां वह कादिर है। और वही है अस्ल पैदा करने वाला, जानने 
वाला। उसका मामला तो बस यह है कि जब वह किसी चीज का इरादा करता है तो कहता 
है कि हो जा तो वह हो जाती है। पस पाक है वह जात जिसके हाथ में हर चीज का इख्तियार 
है और उसी की तरफ तुम लोटाए जाओगे। (77-83) 





इंसान अपना ख़ालिक (सजक) आप नहीं। वह बिलाशुबह ख़ालिक की मख़्तूक है। इस 
वाक्मेका तकज थ कि इंसान के अंदर इज्जकी सिफत पाईजाए । मगर वह हवीकतपसंदी 
को खोकर ऐसी बहसें करता है जो उसकी हैसियते इज्ज से मुताबिकत नहीं रखतीं। 

इंसान की और कायनात की तछ्नीक अव्वल ही इस बात का काफी सुबूत है कि यह 
तख़्तीक दूसरी बार भी मुमकिन है। मगर इसे नजरअंदाज करके इंसान यह बहस निकालता 
है कि मुर्दा इंसान दुबारा जिंदा इंसान कैसे बन जाएगा । इंसान का मुर्दा होकर फिर जिंदा हालत 
में तब्दील होने का वाकया बिलाशुबह कियामत में होगा। मगर दूसरी चीजों में यह इम्कान 
आज ही नजर आ रहा है। मसलन दरख्न को देखो । दरख़्त बजाहिर हरा भरा होता है। मगर 
जब वह काट कर लकड़ी की सूरत में जलाया जाता है तो वह बिल्कुल एक मुख्तलिफ सूरत 
इख्तियार कर लेता है जिसे आग कहते हैं। 

एक चीज का बदल कर बिल्कुल दूसरी चीज बन जाना एक साबितशुदा वाकया है। 
बकिया चीजों में खुदा आज ही इसे मुमकिन बना रहा है। इंसानों के लिए वह कियामत में इसे 
मुमकिन बनाएगा। मगर यह मनवाने के लिए नहीं होगा बल्कि इसलिए होगा कि इंसान को 
उसकी सरकशी का बदला दिया जाए। 


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सूरह-37. अस-सापफात 89 पारा 23 
आयतें-82 सूरह-37. अस-साफफात रुकूअ-5 
(मक्का में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
कसम है कतार दर कतार सफ बांधने वाले फरिश्ती की। फिर डने वालो की झिड़क 
कर। फिर उनकी जो नसीहत सुनाने वाले हैं। कि तुम्हारा माबूद (पूज्य) एक ही है। 
आसमानों और जमीन का रब और जो कुछ उनके दर्मियान है और सारे मश्रिकों (पूर्वी 
दिशाओं) का रब। (-5) 


पैगम्बर के जरिए जिन गेबी हकीकतों की ख़बर दी गई है उनमें से एक फरिश्ते का वजूद 
है। यहां फरिश्तों के तीन ख़ास काम बताए गए हैं। एक यह कि वे मुकम्मल तौर पर ख़ुदा 
के ताबेअ हैं वे अदना सरताबी (अवज्ञा) के बगैर सफ-ब-सफ उसकी तामील के लिए हाजिर 
रहते हैं। फिर फरिश्ता का एक गिरोह वह है जो इंसानों पर खुदाई सजा का निफाज करता 
है, चाहे वह आफात और हादसात की सूरत में हो या किसी और सूरत में | फरिश्तों का तीसरा 
अमल यह बताया गया कि वे ख़ुदा के बंदों पर ख़ुदा की नसीहत उतारते हैं, आम इंसानों पर 
इल्हाम (दिव्य निर्देश) या इल्का (संप्रेषण) की शक्ल में और पैग़म्बरों पर 'वही' (ईश्वरीय 
वाणी) की शक्ल में। 

खुदा ही उन फरिश्तों का मालिक है जिन्हें आम इंसान नहीं देखता। और ख़ुदा ही 
आसमान व जमीन का मालिक भी है जिन्हें हर आदमी अपनी आंखों से देख रहा है। ऐसी 
हालत में ख़ुदा के सिवा जिसे भी माबूद बनाया जाएगा वह ऐसा माबूद होगा जिसे माबूद बनने 


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हमने आसमाने दुनिया को सितारों की जीनत (शोभा) से सजाया है। और हर शैतान 
सरकश से उसे महफूज किया है। वे मलए आला (आकाश लोक) की तरफ कान नहीं 

लगा सकते और वे हर तरफ से मारे जाते हैं, भगाने के लिए। और उनके लिए एक 
दाइमी (स्थाई) अजाब है। मगर जो शैतान कोई बात उचक ले तो एक दहकता हुआ 
शोला उसका पीछा करता है। (6-0) 








आसमाने दुनिया से मुराद गालिबन वसीअ ख़ला (अंतरिक्ष) का वह हिस्सा है जो इंसान 
के करीब वाकेअ है और जिसे आदमी किसी आला (उपकरण) की मदद के बगैर ख़ाली आंख 
से देख सकता है। 


पारा 23 II90 सूरह-37. अस-सापफात 

जिस तरह इंसान एक बाइख्तियार मख्लूक है उसी तरह जिन्नात भी बाइख्तियार मख़्तूक 
हैं। चुनांचे वे ख़ला में परवाज करते हैं और कोशिश करते हैं कि ऊपर उठकर मलए आला 
(आलमे बाला) तक पहुंचें और वहां से मुस्तकबिल की ख़बरें ले आएं। मगर आसमाने दुनिया 
में अल्लाह तआला ने ऐसे मोहकम इंतिजामात फरमाए हैं कि वे यहीं से मार कर लौटा दिए 
जाते हैं और उससे ऊपर जाने का मौका नहीं पाते। 


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पस उनसे पूछो कि उनकी पैदाइश ज्यादा मुश्किल है या उन चीजों की जो हमने पेदा 

की हैं। हमने उन्हें चिपकती मिट्टी से पैदा किया है। बल्कि तुम ताज्जुब करते हो और 
वे मजाक उड़ा रहे हैं। और जब उन्हें समझाया जाता है तो वे समझते नहीं। और जब 

वे कोई निशानी देखते हैं तो वे उसे हंसी में टाल देते हैं। और कहते हैं कि यह तो 
बस खुला हुआ जादू है। क्या जब हम मर जाएंगे और मिट्टी और हड़िडियां बन जाएंगे 
तो फिर हम उठाए जाएंगे। और क्या हमारे अगले बाप दादा भी। कहो कि हां, और 
तुम जलील भी होगे। (-8) 





जमीन व आसमान की सूरत में जो कायनात हमारे मुशाहिदे में आती है वह इतनी पेचीदा 
और इतनी अजीम है कि इसके बाद इंसानों को दूसरी दुनिया में पैदा करना मुकाबिलतन एक 
छोटा काम नजर आने लगता है। जिस ख़लिक की कु्ते तरीक का अजीमतर नमूना हमारे 
सामने मौजूद है उसी ख़ालिक से इससे छोटी तख़्तीक नामुमकिन या मुश्किल क्यों। 

इंसानी जिस्म का तज्जिया (विश्लेषण) करने से मालूम होता है कि वह तमामतर जमीनी 
अज्जा का एक मज्मूआ है। जमीन में पाए जाने वाले मादूदे (पानी, कैल्शियम, लोहा, सोडियम, 
टंगस्टन, वगैरह) की तर्कीब से इंसान बना है। ये तमाम अज्जा हमारी दुनिया में बहुत इफरात 
(अधिकता) के साथ पाए जाते हैं। फिर जिन अज्जा की तर्कीब से ख़ालिक ने एक बार इंसान 
को बनाकर खड़ा कर दिया उन्हीं अज्जा की तर्कीब से वह दुबारा क्यों ऐसा नहीं कर सकता। 


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सूरह-37. अस-सापफात II9I पारा 2३ 


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पस वह तो एक झिइ़की होगी, फिर उसी वक्त वे देखने लगेंगे और वे कहेंगे कि हाय 
हमारी कमबख्ती यह तो जजा (बदले) का दिन है। यह वही फैसले का दिन है जिसे 
तुम झुठलाते थे। जमा करो उन्हें जिन्होंने जुल्म किया और उनके साथियों को और उन 
माबूदों को जिनकी वे अल्लाह के सिवा इबादत करते थे, फिर उन सबको दोजख़ का 
रास्ता दिखाओ और उन्हें ठहराओ, इनसे कुछ पूछना है। तुम्हें क्या हुआ कि तुम एक 
दूसरे की मदद नहीं करते। बल्कि आज तो वे फरमांबरदार हैं। (9-26) 


मौजूदा दुनिया में अगली जिंदगी का मामला एक ख़बर के तौर पर बताया जा रहा है। 
आदमी इस ख़बर को कोई अहमियत नहीं देता। मगर आखिरत में अगली जिंदगी का मामला 
एक संगीन हकीकत बनकर लोगों के ऊपर टूट पड़ेगा । उस वक्‍त आदमी अपनी सरकशी भूल 
कर अपने आपको खुदा के सामने डाल देगा। यह नाकाबिले बयान हद तक हौलनाक मंजर 
होगा। उस वक्त मैदाने हशर में लोगों का जो हाल होगा उसका एक नवशा इन आयतों में दिया 


गया है। 
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और वे एक दूसरे की तरफ मुतवज्जह होकर सवाल व जवाब करेंगे। कहेंगे तुम हमारे 
पास दाई तरफ से आते थे। वे जवाब देंगे, बल्कि तुम खुद ईमान लाने वाले नहीं थे। 
और हमारा तुम्हारे ऊपर कोई जोर न था, बल्कि तुम खुद ही सरकश लोग थे। पस 
हम सब पर हमारे रब की बात पूरी होकर रही, हमें उसका मजा चखना ही है। हमनें 
तुम्हें गुमराह किया, हम खुद भी गुमराह थे। पस वे सब उस दिन अजाब में मुशतरक 
(सह भागी) होंगे। (27-33) 


यह अवाम और लीडरों की गुप्तगू है। कियामत में अवाम अपनी बर्बादी की जिम्मेदारी 
अपने गुमराह लीडरों पर डालेंगे और कहेंगे कि आप लोगों ने हमें तरह-तरह से बहकाया। 


पारा 23 I92 सूरह37. अस-साफ्फात 


लीडर कहेंगे कि तुम्हारा यह इल्जाम गलत है। कोई बहकाने वाला किसी को नहीं बहकाता । तुम 
लोगेंके अंदर खुद सरकशी का मिजाज था। हमारी बात तुम्हें अपने मिजाज के मुवाफिक नजर 
आई इसलिए तुमने उसे मान लिया तुमने हकीकतन अपनी ख्ाहिशात का साथ दिया न कि 
हमारा। दोनों का जुर्म एक है। 

हकीकत यह है कि कियामत में लीडर और पेरोकार दोनों एक ही मुशतरक अंजाम से दो 
चार हॉंगे। न लीडर की अज्मत उसे अजाब से बचा सकेगी और न अवाम का यह उज् उन्हें 
बचाने वाला बनेगा कि हम तो बेइल्म थे, हमें हमारे लीडरों ने गुमराह किया। 


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हम मुजरिमों के साथ ऐसा ही करते हैं। ये वे लोग थे कि जब उनसे कहा जाता कि 
अल्लाह के सिवा कोई माबूद (पूज्य) नहीं तो वे तकब्बुर (घमंड) करते थे। और वे कहते 
थे कि क्या हम एक शायर दीवाने के कहने से अपने माबूदों को छोड़ दें। बल्कि वह 
हक लेकर आया है। और वह रसूलों की पेशीनगोइयाँ (भविष्यवाणियां) का मिस्दाक 
(पुष्टि-रूप) है। बेशक तुम्हें दर्दनाक अजाब चखना होगा। और तुम उसी का बदला 
दिए जा रहे हो जो तुम करते थे। (34-39) 











“जब उनसे कहा जाता कि अल्लाह के सिवा कोई इलाह (पूज्य) नहीं तो वे घमंड करते थे! 
इसका मतलब यह नहीं कि वे खुदा के मुकाबले में घमंड करते थे। ऐसा कोई भी नहीं करता। 
खुदा की अज्मत इससे ज्यादा है कि कोई उसके मुकाबले में बड़ा बनने की जुर॒अत करे। उनका 
घमंड दरअस्ल ख़ुदा के पैगम्बर के मुकाबले में था न कि खुद खुदा के मुकाबले में। 

पेगम्बर के पेगामे तोहीद की जद उन अकाबिर (बड़ों) पर पड़ती थी जिनके नाम पर वे 
अपने मुश्रिकाना आमाल में मुब्तिला थे। अब एक तरफ पैगम्बर होता और दूसरी तरफ उनके 
मफरूजा (मान्य) अकाबिर। चूंकि पैगम्बर बजाहिर उन्हें अपने अकाबिर से कम दिखाई देता 
था, इसलिए वे पैगम्बर को छोटा समझ कर नजरअंदाज कर देते। वे अपने मफरूजा अकाबिर 
के साथ वाबस्ता रहकर समझते कि वे बड़ों के साथ वाबस्ता हैं। दलील का जोर बिलाशुबह 
पैगम्बर की तरफ होता था। मगर जाहिरी अज्मत उन्हें अपने बड़े में दिखाई देती थी। और 
तारी बताती है कि जाहिरी अज्मत के मुकाबले में दलील की ताकत हमेशा बेअसर साबित 
हुई है। 





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सूरह-37. अस-साफ्फात I93 पारा 2३ 

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मगर जो अल्लाह के चुने हुए बदे हैं। उनके लिए मालूम रिज्क होगा। मेवे, और वे 
निहायत इज्जत से होंगे, आराम के बागों में। तख्ता पर आमने सामने बैठे होंगे। उनके 
पास ऐसा प्याला लाया जाएगा जो बहती हुई शराब से भरा जाएगा। साफ शप्फाफ 
पीने वालों के लिए लज्जत। न उसमें कोई जरर (हानिकारकता) होगा और न उससे 
अक्ल खराब होगी। और उनके पास नीची निगाह वाली, बड़ी आंखों वाली औरतें 
होंगी। गोया कि वे अडे हैं जो छुपे हुए रखे हों। (40-49) 





मौजूदा दुनिया आजमाइश की दुनिया है। यहां लोगों को आजादाना अमल का मौका 
देकर उनका इंतिख़ाब किया जा रहा है। जो लोग अपने कौल व अमल से इसका सुबूत देंगे 
कि वे जन्नत की लतीफ (आनंदमय) और नफीस (उत्तम) दुनिया में बसाए जाने के काबिल 
हैं, उन्हें उनका ख़ुदा अपनी जन्नत में बसाने के लिए चुन लेगा। वहां उन्हें हर किस्म की आला 
नेमतें फराहम की जाएंगी । और फिर उनसे कहा जाएगा कि राहतों और लज्जतों के बागात 
में अबदी (चिरस्थाई) तौर पर आबाद रहो। 


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फिर वे एक दूसरे की तरफ मुतवज्जह होकर बात करेंगे। उनमें से एक कहने वाला 
कहेगा कि मेरा एक मुलाकाती था। वह कहा करता था कि क्या तुम भी तस्दीक (पुष्टि) 
करने वालों में से हो। क्या जब हम मर जाएंगे और मिट्टी और हड़िडियां हो जाएंगे तो 








पारा 23 II94 सूरह-37. अस-सापफात 
क्या हमें जजा मिलेगी। कहेगा, क्या तुम झांक कर देखोगे। तो वह झांकेगा और उसे 
जहन्नम के बीच में देखेगा। कहेगा कि खुदा की कसम तुम तो मुझे तबाह कर देने वाले 
थे। और अगर मेरे रब का फज्ल न होता तो में भी उन्हीं लोगों में होता जो पकड़े हुए 

आए हैं। कया अब हमें मरना नहीं है, मगर पहली बार जो हम मर चुके और अब हमें 
अजाब न होगा। बेशक यही बड़ी कामयाबी है। ऐसी ही कामयाबी के लिए अमल 
करने वालों को अमल करना चाहिए। (50-62) 





जन्नत लतीफतरीन सरगर्मियां की दुनिया है। वहां दिलचस्प मुलाकातें होंगी। वहां 
पुरलुत्फ मुशाहिदात होंगे। वहां एक दूसरे के दर्मियान आफाकी सतह पर गुफ्तगुएं होंगी । हर 
किस्म की महदूदियत (सीमितता) और हर किस्म की नाखुशगवारी का वहां ख़ात्मा हो चुका 
होगा। 

आख़िरत को मानने से मुराद सादा तौर पर सिर्फ उसे मान लेना नहीं है। बल्कि आख़िरत 
के मामले को इतना हकीकी और इतना अहम समझना है कि वह आदमी की पूरी जिंदगी पर 
छा जाए। आदमी अपना सब कुछ आखिरत के लिए लगा दे। जो लोग ऐसे आख़िरतपसंदों को 
दीवाना समझते थे वे आख़िरत में उनकी कामयाबियां देखकर दमबख़ुद (स्तब्ध) रह जाएंगे। 
दूसरी तरफ आखिरतपसंदों का हाल यह होगा कि वे अपने शानदार अंजाम को इस तरह हैरत 
के साथ देखेंगे जैसे कि उन्हें यकीन न आ रहा हो कि उनके छोटे से अमल का खुदा ने उन्हें 
इतना बड़ा बदला दे दिया है। कैसा अजीब होगा वह इंसान जो ऐसी जन्नत का हरीस न हो, 
जो ऐसी जन्नत के लिए अमल न करे! 


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यह जिघाफ्त (सत्तार) अच्छी है या जम्मूप्त का दरत्। हमने उसे जलिमो के लिए 

फितना बनाया है। वह एक दरख़्त है जो दोजख़ की तह से निकलता है। उसका ख़ोशा 

ऐसा है जैसे शैतान का सर। तो वे लोग उससे खाएंगे। फिर उसी से पेट भरेंगे। फिर 
उन्हें खोलता हुआ पानी मिलाकर दिया जाएगा। फिर उनकी वापसी दोजख़ ही की तरफ 





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सूरह-37. अस-साफ्फात II95 पारा 23 
होगी। उन्होंने अपने बाप दादा को गुमराही में पाया। फिर वे भी उन्हीं के कदम बकदम 

दौड़ते रहे, और उनसे पहले भी अगले लोगों में अक्सर गुमराह हुए। और हमने उनमें 
भी डराने वाले भेजे। तो देखो, उन लोगों का अंजाम क्या हुआ जिन्हें डराया गया था। 
मगर वे जो अल्लाह के चुने हुए बंदे थे। (62-74) 





कुआन मेंबताया गया है कि दोज में जक्यूम का दरू होगा और दोज्् लोग जब 
भूख से बेकरार होंगे तो उसे खाएंगे। (अल-वाकया 52) 
कुरआन में यह ख़बर दी गई तो कदीम अरब के लोगों ने उसका मजाक उना शुरू 
किया। एक सरदार ने कहा कि दोजख़ की आग के दर्मियान दरख्त कैसे उगेगा। जबकि आग 
दरख़्त को जला देती है। एक और सरदार ने कहा : मुहम्मद हमें जक्कूम से डराते हैं। हालांकि 
जवकूम आम जबान में खजूर और मक्छन को कहते हैं। अबू जहल कुछ लोगों को अपने घर 
ले गया और अपनी ख़ादिमा से कहा कि खजूर और मक्खन ले आओ। वह लाई तो अबू जहल 
ने अपने साथियों से कहा कि लो इसे खाओ। यही वह जक्कूम है जिसकी मुहम्मद तुम्हें धमकी 
दे रहे हैं। 
इस किस्म के कुर॒आनी बयानात मुखालिफीन के लिए बेहतरीन हथियार थे जिनके जरिए 
वे अवाम की नजर में कुरआन को गैर मोतबर साबित कर सकें। अल्लाह के लिए यह मुमकिन 
था कि वह कुरआन में ऐसा लफ्ज इस्तेमाल न करे जिसमें मुखालिफीन के लिए शोशा निकालने 
का मौका हो। मगर अल्लाह ने ऐसा नहीं किया । इसकी वजह यह है कि यही वह मकाम है 
जहां आदमी का इम्तेहान हो रहा है। आदमी को नजातयाफ्ता (मुक्ति-प्राप्त) बनने के लिए यह 
सुबूत देना है कि उसने शोशे की बातों से बचकर असल हकीकत पर ध्यान दिया। उसने 
ग़लतफहमियों को उबूर (पार) करके कलाम के हकीकी उद्देश्य को पाया। उसने जेहनी 
इंहिराफ (भटकाव) के अवसर होते हुए अपने जेहन को इंहिराफ से बचाया। 
अल्लाह के चुने हुए बंदे वे हैं जो रवाजी दीन से ऊपर उठकर सच्चाई को दरयाफ्त करें। 
जो जवाहिर (प्रकट) से बुलन्द होकर मआनी (निहितार्थ) का इदराक (भान) करें। जो ख़ुदा के 
बशरी नुमाइंदे (मानव-प्रतिनिधि) को पहचान कर उसके साथी बन जाएं। 
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और हमें नूह ने पुकारा तो हम क्या ख़ूब पुकार सुनने वाले हैं। और हमने उसे और 





पारा 23 I96 सूरह37. अस-सापफात 
उसके लोगों को बहुत बड़े गम से बचा लिया। और हमने उसकी नस्ल को बाकी रहने 
वाला बनाया। और हमने उसके तरीके पर पिछलों में एक गिरोह को छोड़ा। सलाम 
है नूह पर तमाम दुनिया वालों में। हम नेकी करने वालों को ऐसा ही बदला देते हैं। 
बेशक वह हमारे मोमिन बदों में से था। फिर हमने दूसरों को गर्क कर दिया। (75-82) 





हजरत नूह अलैहिस्सलाम की कौम उनकी दुश्मन हो गई। उन्हेनि कैम के मुकाबले में 
मदद के लिए अल्लाह को पुकारा तो अल्लाह ने बेहतरीन तौर पर आपकी मदद की। ये 
अल्फाज बताते हैं कि जब अल्लाह का एक बंदा अल्लाह को पुकारता है तो अल्लाह की तरफ 
से वह उसका बेहतरीन जवाब पाता है। मगर इस मामले को समझने के लिए जरूरी है कि 
इसमें एक और बात को शामिल किया जाए। वह यह कि हजरत नूह साढ़े नौ सौ साल तक 
काम करते रहे। उन्होंने सब्र और हिक्मत और खैरख्याही के तमाम आदाब को मल्हूज रखते 
हुए कौम को दावत दी। इस तरह लम्बी मुद्दत के बाद वह वक्‍त आया कि वह कौम के 
ख़िलाफ अल्लाह को पुकारें। और अल्लाह अपनी तमाम ताकतों के साथ उनकी मदद पर आ 
जाए। 

हजरत नूह के मुखालिफीन एक हौलनाक तूफान में इस तरह हलाक हुए कि उनकी पूरी 
नस्ल ख़त्म हो गई। इसके बाद दुबारा जो नस्ल चली वह उन्हीं चन्द अफराद के जरिए चली 
जो हजरत नूह के साथ कश्ती में बचा लिए गए थे। 


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और उसी के तरीके वालों में से इब्राहीम भी था। जबकि वह आया अपने रब के पास 

कल्बे सलीम (पाक दिल) के साथ। जब उसने अपने बाप से और अपनी कोम से कहा 


कि तुम किस चीज की इबादत करते हो। क्या तुम अल्लाह के सिवा मनगढ़त माबूदों 
को चाहते हो तो ख़रुदावंद आलम के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है। (83-87) 





हजरत इब्राहीम भी उसी दीन पर थे जिस दीन पर हजरत नूह थे। तमाम नबियों की 
दावत हमेशा एक रही है। वह यह कि आदमी कल्बे सलीम के साथ खुदा के यहां पहुंचे । 
कल्बे सलीम के मअना हैंपाक दिल । यानी फितनों से महफूज दिल । यही असल चीज 
है जो अल्लाह तआला को इंसान से मल्लूब है। अल्लाह ने इंसान को फितरते सही पर पैदा 
करके दुनिया में भेजा। अब उसका इम्तेहान यह है कि वह दुनिया के फितनों से अपने आपको 
बचाए। वह हर किस्म की नफ्सी और शैतानी आलूदगी से पाक रहकर ख़ुदा के यहां पहुंचे । 
यही पाक और महफूज इंसान हैं जिन्हें खुदा अपनी जन्नतों में बसाएगा। 


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सूरह-37. अस-सापफात II97 पारा 23 
शिक ख़ुदा की तसग़ीर (छोटा मानना) है। आदमी ख़ुदा को सबसे बड़े की हैसियत से नहीं 
पाता इसलिए वह दूसरी बड़ाइयों में गुम होकर उनकी परस्तिश करने लगता है। 


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फिर इब्राहीम ने सितारों पर एक नजर डाली। पस कहा कि मैं बीमार हूं। फिर वे लोग 
उसे छोड़कर चले गए। तो वह उनके बुतों में घुस गया, कहा कि क्या तुम खाते नहीं 
हो। तुम्हें क्या हुआ कि तुम कुछ बोलते नहीं। फिर उन्हें मारा पूरी कुब्बत के साथ। 
फिर लोग उसके पास दौड़े हुए आए। इब्राहीम ने कहा, क्या तुम लोग उन चीजों को 
पूजते हो जिन्हें खुद तराशते हो। और अल्लाह ही ने पैदा किया है तुम्हें भी और उन 
चीजों को भी जिन्हें तुम बनाते हो। उन्होंने कहा, इसके लिए एक मकान बनाओ फिर 
इसे दहकती आग में डाल दो। पस उन्होंने उसके खिलाफ एक कार्रवाई करनी चाही 
तो हमने उन्हीं को नीचा कर दिया। और उसने कहा कि में अपने रब की तरफ जा 
रहा हूं, वह मेरी रहनुमाई फरमाएगा। ऐ मेरे रब, मुझे नेक औलाद अता फरमा। तो 

हमने उसे एक बुर्दबार (संयमी) लड़के की बशारत (शुभ सूचना) दी। (88-707) 





हजरत इब्राहीम की कौम के लोग गालिबन किसी त्यौहार में शिर्कत के लिए शहर से 
बाहर जा रहे थे। आपके घर वालों ने आपसे भी चलने के लिए कहा। आपने अपने एक छुपे 
अंदाज में उनसे मअजरत कर ली। जब तमाम लोग चले गए तो रात के वक्‍त आप बुतख़ाने 
में दाखिल हुए और उनके बुतों को तोड़ डाला। यह आपने उस वक्त किया जबकि मुसलसल 
दावत (आह्वान) के जरिए आप उन पर इतमामेहुज्जत (आह्वान की अति) कर चुके थे। जब 
उन्होंने दलाइल से बुतों का बेहकीकत होना तस्लीम नहीं किया तो बुतों को तोड़कर आपने 
अमल की जबान में बताया कि इन बुतें की कोई हकीकत नहीं। अगर हकीकत होती तो वे 
अपने आपको तोड़े जाने से बचा लेते। 

आपकी इस आखिरी कार्रवाई के बाद कौम ने भी अपनी आखिरी कार्रवाई की । उन्होंने 
आपको आग में डाल दिया मगर अल्लाह ने आपको आग से बचा लिया। इसके बाद आप 


पारा 23 98 सूरह-37. अस-सापफात 
अपने वतन (इराक) को छोड़कर चले गए। उस वक्त आपने दुआ की कि खुदाया तू मेरे यहां 
सालेह (नेक) औलाद कर ताकि मैं उसे तालीम व तर्बियत के जरिए मोमिन व मुस्लिम बनाऊं 
और वह मेरे बाद दावते तौहीद का तसलसुल जारी रखे। 


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पस जब वह उसके साथ चलने फिरने की उम्र को पहुंचा, उसने कहा कि ऐ मेरे बेटे, 
मैं ख़ाब में देखता हूं कि तुम्हें जबह कर रहा हूं पस तुम सोच लो कि तुम्हारी क्या 
राय है। उसने कहा कि ऐ मेरे बाप, आपको जो हुक्म दिया जा रहा है उसे कर 
डालिए, इंशाअल्लाह आप मुझे सब्र करने वालों में से पाएंगे। पस जब दोनों मुतीअ 
(आज्ञाकारी) हो गए और इब्राहीम ने उसे माथे के बल डाल दिया। और हमने उसे 
आवाज दी कि ऐ इब्राहीम, तुमने ख़ाब को सच कर दिखाया। बेशक हम नेकी करने 
वालों को ऐसा ही बदला देते हैं। यकीनन यह एक खुली हुई आजमाइश थी और 

हमने एक बड़ी कुर्बानी के एवज उसे छुझ़ लिया। और हमने उस पर पिछलों में एक 

गिरोह को छोड़ा। सलामती हो इब्राहीम पर। हम नेकी करने वालों को इसी तरह 
बदला देते हैं। बेशक वह हमारे मोमिन बंदों में से था। और हमने उसे इस्हाक की 
खुशखबरी दी, एक नबी सालेहीन (नेको) में से। और हमने उसे और इसहाक को 
बरकत दी। और इन दोनों की नस्ल में अच्छे भी हैं और ऐसे भी जो अपने नफ्स 
पर सरीह जुल्म करने वाले हैं। (02-3) 





हजरत इब्राहीम के जमाने में शिक का इस तरह उमूमी ग़लबा हुआ कि तारीख़ में उसका 
तसलसुल कायम हो गया। अब जो बच्चा पैदा होता वह माहौल के असर से शिक में इतना 


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सूरह-37. अस-सापफात 99 पारा 23 
पुख्ता हो जाता कि कोई भी दावती कोशिश उसके जेहन को शिक से हटाने में कामयाब नहीं 
होती थी। हजरत इब्राहीम जब तवील (दीर्ष) दावती जद्दोजहद के बाद इराक से निकले तो उनके 
साथ सिफ दो मोमिन थे। एक आपकी बीवी सारा, दूसरे आपके भतीजे लूत। 

लोग दावत (आस्वान) के जरिए तौहीद के रास्ते पर नहीं आ रहे थे। इसलिए अल्लाह 
तआला का यह मंसूबा हुआ कि एक ऐसी नस्ल तैयार की जाए जो शिर्क की फजा से अलग 
होकर परवरिश पाए। इसके लिए हिजाज (अरब) के इलाके का इंतिख़ाब हुआ जो बेआब व 
गयाह (निर्जन) होने की वजह से बिल्कुल गैर आबाद पड़ा हुआ था। मंसूबा यह था कि इस 
गैर आबाद इलाके में एक शख्स को आबाद किया जाए और उससे तवालुद व तनासुल 
(वंशक्रम) के जरिए एक महफूज नस्ल तैयार की जाए । मगर उस वक्त हिजाज मुकम्मल तौर 
पर एक ख़ुश्क सहरा (रेगिस्तान) था और उस ख़ुश्क सहरा में किसी शख्स को आबाद करना 
उसे जीते जी जबह कर देने के हममअना था। हजरत इब्राहीम को अल्लाह तआला ने अपने 
बेटे के हक में इसी जबीहा का हुक्म दिया और उन्होंने पूरी तरह मुतीअ (आज्ञाकारी) होकर 
अपने बेटे को इस जबीहा के लिए हाजिर कर दिया। 

हजरत इब्राहीम के दूसरे बेटे हजरत इसहाक थे। उनकी नस्ल में मुसलसल नुबुव्वत जारी 
रही यहां तक कि बनू इस्माईल में आखिरी नबी पैदा हो गए। उन्होंने मज्कूरा 'महफूज नस्ल” 
को इस्तेमाल करके वह इंकिलाब बरपा किया जिसने हमेशा के लिए शिर्क को गालिब फिक्र 
(वर्चस्व प्राप्त विचारधारा) की हैसियत से ख़त्म कर दिया। 


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और हमने मूसा और हारून पर एहसान किया। और उन्हें और उनकी कौम को एक 
बड़ी मुसीबत से नजात दी। और हमने उनकी मदद की तो वही ग़ालिब आने वाले बने। 
और हमने उन दोनों को वाजेह किताब दी। और हमने उन दोनों को सीधा रास्ता 
दिखाया । और हमने उनके तरीके पर पीछे वालों के एक गिरोह को छोड़ा। सलामती 


हो मूसा और हारून पर। हम नेकी करने वालों को ऐसा ही बदला देते हैं। बेशक वे 
दोनों हमारे मोमिन बंदों में से थे। (।4-22) 








अल्लाह तआला ने हजरत मूसा और उनकी कौम की मदद की और उन्हें फिरऔन के 
जुल्म से नजात दी। यहां सवाल यह है कि यह कैसे हुआ। यह दावत इलल्लाह के जरिए हुआ। 
हजरत मूसा ने फिरऔन पर हक की तब्लीग की। लम्बी जद्दोजहद के जरिए आपने उसे 


पारा 23 I200 सूरह37. अस-सापफात 
इतमामेहुञ्जत तक पहुंचाया । इसके बाद वह वक्त आया कि फिरऔन को मुजरिम करार देकर 
उसे हलाक किया जाए। और हजरत मूसा और उनकी कौम को गलबा हासिल हो। 

इस सियाक (प्रसंग) में सिराते मुस्तकीम (सीधा रास्ता) दिखाने का एक मतलब यह है कि 
फिरऔन के मसले का सही हल उन पर खोला गया। बनी इस्राईल के लिए अगरचे यह एक 
कौमी मसला था मगर इसका हल उन्हें दावत (आह्वान) की शक्ल में बताया गया। चुनांचे उन्हें 
जो गलबा मिला वह उन्हें दावती जद्दोजहद के नतीजे में मिला न कि फिरऔन के खिलाफ 
मअरूफ किस्म की कैमी जद्दोजहद के नतीजे में। 


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और इलयास भी पेगम्बरों में से था। जबकि उसने अपनी कौम से कहा, क्या तुम डरते 
नहीं। क्या तुम बअल (एक बुत का नाम) को पुकारते हो और बेहतरीन ख़ालिक को 
छोड़ देते हो, अल्लाह को जो तुम्हारा भी रब है और तुम्हारे अगले बाप दादा का भी। 
पस उन्होंने उसे झुठलाया तो वे पकड़े जाने वालों में से होंगे। मगर जो अल्लाह के ख़ास 
बंदे थे। और हमने उसके तरीके पर पिछलों में एक गिरोह को छोड़ा। सलामती हो 


इलयास पर। हम नेकी करने वालों को ऐसा ही बदला देते हैं। बेशक वह हमारे मोमिन 
बंदों में से था। (23-32) 





हजरत इलयास अलैहिस्सलाम गालिबन हजरत हारून अलैहिस्सलाम की नस्ल से थे। 
उनका जमाना नवीं सदी कब्ल मसीह (ईसा पूर्व] है। उस जमाने में इम्नाईल (फिलिस्तीन) का 
यहूदी बादशाह अख़ीअब (^॥20) आहलुबनान मेफीवी कैम (Phoenicians) की हुकूमत 
थी जो मुश्रिक थी और बअल नामी बुत की पूजा करती थी। अख़ीअब ने मुश्रिक बादशाह 
की लड़की से शादी कर ली। उस मुश्रिक शहजादी के असर से यहूदियों के दर्मियान बअल 
की परस्तिश शुरू हो गई। उस वक्त हजरत इलयास ने यहूदियों को डराया और उन्हें खुदाए 
वाहिद की परस्तिश की तरफ बुलाया जो उनका अस्ल आबाई दीन था। हजरत इलयास के 
हालात तफ्सील से बाइबल में मौजूद हैं। 

हजरत इलयास के जमाने में सिर्फ थोड़े से यहूदियों ने आपका साथ दिया । बेशतर तादाद 
ने अपकी मुखालिफत की। यहां तक कि वे आपके कल्ल के दरपे हो गए। इसकी वजह से 


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सूरह-37. अस-साफ्फात 20I पारा 23 
अल्लाह तआला ने उन पर सजाएं भेजीं। मगर बाद को यहूदियों के यहां हजरत इलयास (लिया) 

को बहुत ऊंचा मकाम मिला । अब वह यहूदियों की तारीख़ (इतिहास) में बहुत बड़े नबी शुमार 
किए जाते हैं। 


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और बेशक लूत भी पेग़म्बरों में से था। जबकि हमने उसे और उसके लोगों को नजात 
दी। मगर एक बुट़िया जो पीछे रह जाने वालों में से थी। फिर हमने दूसरों को हलाक 
कर दिया। और तुम उनकी बस्तियों पर गुजरते हो सुबह को भी और रात को भी, तो 
क्या तुम नहीं समझते। (33-38) 


हजरत लूत अलैहि० हजरत इब्राहीम अलैहि० के भतीजे थे। वह बहरे मुर्दार (Dead 
9९) के इलाके में सदूम और अमूरा की हिदायत के लिए भेजे गए जिनके बाशिंदे गैर अल्लाह 
को परस्तिश में मुब्तिला थे। मगर उन्होंने हिदायत कुबूल नहीं की। आखिरकार उन पर ख़ुदा 
की आफत आई और हजतर लूत और उनके चन्द साथियों को छोड़कर सबके सब हलाक कर 
दिए गए। 

कौमे लूत की बस्तियों के खंडहर बहरे मुर्दार के किनारे मौजूद थे और कुरैश के लोग जब 
तिजारत के लिए शाम और फिलिस्तीन जाते तो वे रास्ते में इन बर्बादशुदा बस्तियों को देखते। 
मगर इंसान का हाल यह है कि वह सिर्फ उसी हादसे को जानता है जो खुद उसके अपने ऊपर 
पड़े। दूसरों के अंजाम से वह कभी सबक नहीं लेता। 


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और बेशक यूनुस भी रसूलों में से था। जबकि वह भाग कर भरी हुई कश्ती पर पहुंचा। 
फिर कुरआ (कई में से एक का चयन) डाला तो वही ख़तावार निकला। फिर उसे मछली 
ने निगल लिया। और वह अपने को मलामत कर रहा था। पस अगर वह तस्बीह करने 





पारा 2३ 202 सूरह-37. अस-सापफात 
वालों में से न होता तो लोगों के उठाए जाने के दिन तक उसके पेट ही में रहता। फिर 
हमने उसे एक मैदान में डाल दिया और वह निठाल था। और हमने उस पर एक बेलदार 
दरख़्त उगा दिया। और हमने उसे एक लाख या इससे ज्यादा लोगों की तरफ भेजा। 

फिर वे लोग ईमान लाए तो हमने उन्हें फायदा उठाने दिया एक मुद्दत तक। 
(39-48) 


हजरत यूनुस अलैहिस्सलाम का जमाना आठवीं सदी कब्ल मसीह (ईसा पूर्व] है। वह 
इराक के करीम शहर नैनवा (Nineveh) में रसूल बनाकर भेजे गए । एक मुदूदत तक तब्लीग़ 
के बाद आपने अंदाजा किया कि कौम ईमान लाने वाली नहीं है। आपने शहर छोड़ दिया। 
आगे जाने के लिए आप ग़ालिबन दजला के किनारे एक कश्ती में सवार हो गए। कश्ती ज्यादा 
भरी हुई थी। दर्मियान में पहुंच कर डूबने का अंदेशा हुआ। चुनांचे कश्ती को हल्का करने के 
लिए कुरआ डाला गया कि जिसका नाम निकले उसे दरिया में फेंक दिया जाए । कुरआ हजरत 
यूनुस के नाम निकला और कश्ती वालों ने आपको दरिया में डाल दिया। उस वक्त ख़ुदा के 
हुक्म से एक बड़ी मछली ने आपको निगल लिया और आपको ले जाकर दरिया के किनारे 
खुश्की में डाल दिया। हजरत यूनुस ने अपनी कौम को वक्त से पहले छोड़ दिया था। चुनांचे 
अल्लाह का हुक्म हुआ कि आप दुबारा अपनी कौम की तरफ वापस जाएं। आपने दुबारा 
आकर तब्लीग़ की तो शहर के तमाम सवा लाख बाशिंदे मोमिन बन गए। 

इस वाकये से अंदाजा होता है कि दाजी के लिए सब्र इंतिहाई हद तक जरूरी है। यहां 
तक कि उस वक्‍त भी जबकि लोगों का रवैया बजाहिर मायूसी पैदा करने वाला बन जाए 


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पस उनसे पूछो क्या तुम्हारे रब के लिए बेटियां हैं और उनके लिए बेटे। कया हमने 
फरिश्तों को औरत बनाया है और वे देख रहे थे। सुन लो, ये लोग सिर्फ मनगढ़त के 
तौर पर ऐसा कहते हैं कि अल्लाह औलाद रखता है और यकीनन वे झूठे हैं। क्या 
अल्लाह ने बेटों के मुकाबले में बेटियां पसंद की हैं। तुम्हें क्या हो गया है, तुम केसा 
हुक्म लगा रहे हो। फिर क्या तुम सोच से काम नहीं लेते। क्या तुम्हारे पास कोई वाजेह 
दलील है। तो अपनी किताब लाओ अगर तुम सच्चे हो। (49-57) 


शैतान की तर्गीब या इंसानों की गलत ताबीर से अक्सर गैबी हकीकतों के बारे में बहुत 





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सूरह-37. अस-सापफात 203 पारा 23 
बड़ी-बड़ी गुमराहियां पैदा हो जाती हैं। उन्हीं में से एक फरिश्तों के मुतअल्लिक कुछ लोगों का 

यह अकीदा है कि वे खुदा की बेटियां हैं। यह इंतिहाई हद तक बेबुनियाद और गैर माकूल बात 

है। इसकी गलती इस सादा सी बात से साबित होती है कि ख़ुदा को अगर अपनी मदद के 
लिए औलाद दरकार थी तो वह अपने लिए बेटे बनाता। वह अपने लिए बेटियां क्यों बनाता 
जो खुद मुश्रिकीन के नजदीक कमजोरी की अलामत हैं। 


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और उन्होंने खुदा और जिन्नात में भी रिश्तेदारी करार दी है। और जिन्‍्नों को मालूम 

है कि यकीनन वे पकड़े हुए आएंगे। अल्लाह पाक है उन बातों से जो ये बयान करते 
हैं। मगर वे जो अल्लाह के चुने हुए बंदे हैं। पस तुम और जिनकी तुम इबादत करते 
हो, खुदा से किसी को फेर नहीं सकते। मगर उसे जो जहन्नम में पड़ने वाला है। और 
हम में से हर एक का एक मुअव्यन (निश्चित) मकाम है। और हम ख़ुदा के हुजूर बस 
सफबस्ता (पंक्तिबद्ध) रहने वाले हैं। और हम उसकी तस्वीह करने वाले हैं। (58-66) 








गुमराह कौमें जिन्नात के बारे में इस तरह का अकीदा रखती हैं गोया कि जिन्नात ख़ुदा 
के हरीफ (प्रतिपक्षी) और मद्देमुकाबिल हैं। उनका ख्याल है कि जिन्नों के हाथ में बदी की 
ताकतें हैं और फरिश्तों के हाथ में नेकी की ताकतें। ये दोनों जिसे चाहें मुसीबत में डाल दें और 
जिसे चाहें कामयाब बना दें। जैसा कि मजूस (पारसी) खुदाई में दो के कायल हैं। उनके 
नजदीक यजदां नेकी का खुदा है और अहरमन बुराई का खुदा । 

इंसान अपने झूठे मफरूजात (मान्यताओं) की बिना पर दुनिया में फरिश्तों की इबादत 
करता है। और ख़ुद फरिश्तों का हाल यह है कि वे अल्लाह के हुजूर ताबेदार ख़ादिम की तरह 
सफबस्ता (पंक्तबद्ध) खड़े रहते हैं और हर वक्त सिर्फ एक अल्लाह की बड़ाई का एलान 
करते हैं। 


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पारा 23 204 सूरह-37. अस-सापफात 
और ये लोग कहा करते थे कि अगर हमारे पास पहलों की कोई तालीम होती तो 
हम अल्लाह के ख़ास बंदे होते। फिर उन्होंने उसका इंकार कर दिया तो अनकरीब 

वे जान लेंगे। और अपने भेजे हुए बंदों के लिए हमारा यह फैसला पहले ही हो चुका 
है। कि बेशक वही ग़ालिब किए जाएंगे। और हमारा लश्कर ही ग़ालिब रहने वाला 
है। तो कुछ मुद्दत तक उनसे रुख़ फेर लो और देखते रहो, अनकरीब वे भी देख 
लेंगे। (67-75) 





कदीम जमाने में अरबों का हाल यह था कि जब वे सुनते कि यहूद ने और दूसरी कीमों 
ने अपने रसूलों का इंकार किया तो वे पुरफख़ तौर पर कहते कि ये लोग बहुत बदबख्त थे। 
अगर हमारे पास रसूल आता तो हम उसकी कद्रदानी करते और उसका साथ देते। मगर जब 
उनके अंदर अल्लाह ने एक रसूल भेजा तो वे उसके मुंकिर हो गए। जिस तरह दूसरे लोग 
अपने रसूलों के मुंकिर हुए थे। ऐसा हक आदमी को ख़ूब दिखाई देता है जिसकी जद दूसरों 
पर पड़ती हो। मगर जिस हक की जद खुद आदमी की अपनी जात पर पड़े उससे वह इस तरह 
बेखबर हो जाता है जैसे उसे देखने के लिए उसके पास आंख ही नहीं। 

हक के दाजियों की बात को लोग नजरअंदाज करते हैं। वे भूल जाते हैं कि हक के दाजी 
इस दुनिया में ख़ुदा के लश्कर हैं। हक के दाजियों की बात हर हाल में बुलन्द व बाला होकर 
रहती है, चाहे मूखालिफत करने वाले उसकी कितनी ही ज्यादा मुखालिफत करें। 


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कया वे हमारे अजाब के लिए जल्दी कर रहे हैं। पस जब वह उनके सेहन में उतरेगा 

तो बड़ी ही बुरी होगी उन लोगों की सुबह जिन्हें उससे डराया जा चुका है। तो कुछ 

मुद्दत के लिए उनसे रुख़ फेर लो। और देखते रहो, अनकरीब वे ख़ुद देख लेंगे। 

पाक है तेरा रब, इज्जत का मालिक, उन बातों से जो ये लोग बयान करते हैं। और 


सलाम है पेग़म्बरां पर। और सारी तारीफ अल्लाह के लिए है जो रब है सारे जहान 
का। (76-82) 








पैग़म्बर लोगों से कहते थे कि अगर तुमने मेरी बात न मानी तो तुम्हारे ऊपर ख़ुदा का 
अजाब आ जाएगा । मगर लोग इस बात को बेहकीकत समझते रहे और उसका मजाक उडते 
रहे। इसकी वजह यह थी कि उनका पैगम्बर उन्हें इससे बहुत कम नजर आता था कि उसकी 
बात न मानने से उन पर ख़ुदा का अजाब टूट पड़े। 


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सूरह-38. साद 205 पारा 23 
ताहम उनके मज़ाक उड़ाने के बावजूद ऐसा नहीं हुआ कि फौरन उनके ऊपर अजाब आ 

जाए क्योंकि अजाबे इलाही के उतरने के लिए हुज्जत की तक्मील (आह्वान की पूर्णता) जरूरी 

है। इसलिए पैग़म्बरों को हुक्म होता है कि वे सब्र और एराज करते रहें, यहां तक कि इल्मे 

इलाही के मुताबिक मुर्कररह मुदूदत पूरी हो जाए 


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(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
साद०। कसम है नसीहत वाले कुरआन की। बल्कि जिन लोगों ने इंकार किया, वे घमंड 
और जिद में हैं। उनसे पहले हमने कितनी ही कीमें हलाक कर दीं, तो वे पुकारने लगे 
और वह वक्‍त बचने का न था। (-3) 





“जिक्र! के असल मअना याददिहानी के हैं। याददिहानी किसी ऐसी चीज की कराई जाती 
है जो बतौर वाकया पहले से मौजूद हो। कुरआन के 'जिजजिक्र' होने का मतलब यह है कि 
कुरआन उन हकीकतों को मानने की दावत देता है जो इंसानी फितरत में पहले से मौजूद हैं। 
कुरआन की कोई बात अब तक छिलाफे वाक्या या छिलाफे फितरत नहीं निकली । यही इस 
बात का काफी सुबूत है कि कुरआन सरासर हक है। इसके बावजूद जो लोग कुरआन को न 
मानें उनके न मानने का सबब यकीनी तौर पर नपिसयाती है न कि अवली। उनका न मानना 
किसी दलील की बिना पर नहीं है बल्कि इसलिए है कि उसे मान कर उनकी बड़ाई ख़त्म हो 
जाएगी । 
कुरआन उस दावते तौहीद (एकेश्वरवाद के आह्वान) का तसलसुल है जो पिछले 
हर दौर में मुख़्तलिफ नबियों के जरिए जारी रही है। पिछले जमानों में जिन लोगों ने 
इस दावत का इंकार किया वे हलाक कर दिए गए। हाल के मुंकिरीन को माजी (अतीत) 
के मुंकिरीन के इस अंजाम से सबक लेना चाहिए 
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और उन लोगों ने ताज्जुब किया कि उनके पास उनमें से एक डराने वाला आया। और 
इंकार करने वालों ने कहा कि यह जादूगर है, झूठा है। कया उसने इतने माबूदों (पूज्यो) 
की जगह एक माबूद कर दिया, यह तो बड़ी अजीब बात है। और उनके सरदार उठ खड़े 
हुए कि चलो और अपने माबूदों पर जमे रहो, यह कोई मतलब की बात है। हमने यह 
बात पिछले मजहब में नहीं सुनी, यह सिर्फ एक बनाई बात है। क्या हम सब में से इसी 

शख्स पर कलामे इलाही नाजिल किया गया। बल्कि ये लोग मेरी याददिहानी की तरफ 

से शक में हैं। बल्कि उन्होंने अब तक मेरे अजाब का मजा नहीं चखा। (4-8) 


पैग़म्बरे इस्लाम" का नाम आज एक अजीम (महान) नाम है। क्योंकि बाद की पुरअज्मत 
तारीख़ ने इसे अजीम बना दिया है। मगर इब्तिदा में जब आपने मक्का में नुबुव्वत का दावा 
किया तो लोगों को आप सिर्फ एक मामूली आदमी दिखाई देते थे। लोगों के लिए यह यकीन 
करना मुश्किल हो गया कि यही मामूली आदमी वह शख्स है जिसे ख़ुदा ने अपने कलाम का 
महबत (उतरने की जगह) बनने के लिए चुना है। जब तारीख़ (इतिहास) बन चुकी हो तो एक 
अंधा आदमी भी पैगम्बर का पहचान लेता है। मगर तारीख़ बनने से पहले पैगम्बर को 
पहचानने के लिए जौहरशनासी (यथार्थ की पहचान) की सलाहियत दरकार है, और यह 
सलाहियत वह है जो हर दौर में सबसे ज्यादा कम पाई जाती है। 

कुरआन का गैर मामूली तौर पर मुअस्सिर (प्रभावशाली) कलाम कुरआन के मुख़ालिफीन 
को हैरत में डाल देता था। मगर साहिबे कुरआन की मामूली तस्वीर दुबारा उन्हें शुबह में डाल 
देती थी। इसलिए वे उसे रदूद करने के लिए तरह-तरह की बातें करते थे। कभी उसे जादूगर 
कहते। कभी झूठा बताते। कभी कहते कि इसके पीछे कोई मादूदी गरज शामिल है। कभी 
कहते कि ऐसा क्योंकर हो सकता है कि हमारे बड़े-बड़े बुजुर्गों की बात सही न हो और इस 
मामूली आदमी की बात सही हो। 

“अपने माबूदों पर जमे रहो' का लफ्ज बताता है कि दलील के मैदान में वे अपने आपको 
आजिज पा रहे थे, इसलिए उन्होंने तअस्सुब (विद्वेष) के नारे पर अपने लोगों को कुर॒आनी 
सैलाब से बचाने की कोशिश की। 


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सूरह-38. साद 207 पारा 23 
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क्या तेरे रब की रहमत के सजाने उनके पास हैं जो जबरदस्त है, फऱ्याज (दाता) है। 

क्या आसमानों और जमीन और इनके दर्मियान की चीजों की बादशाही उनके इख्तियार 

में है। फिर वे सीढ़ियां लगाकर चढ़ जाएं। एक लश्कर यह भी यहां तबाह होगा सब 

लश्करों में से। इनसे पहले कीमे नूह और आद और मेख़ों (कीलों) वाला फिऔन। 

और समूद और कीमे लूत और ऐका वालों ने झुठलाया। ये लोग बड़ी-बड़ी जमाअतें थे। 

उन सब ने रसूलों को झुठलाया तो मेरा अजाब नाजिल होकर रहा। और ये लोग सिर्फ 

एक चिंघाड़ के मुंतजिर हैं, जिसके बाद कोई टील नहीं। और उन्होंने कहा कि ऐ हमारे 

रब, हमारा हिस्सा हमें हिसाब के दिन से पहले दे दे। (9-6) 


ख़ुदा की रहमते हिदायत इस तरह तक्‍्सीम नहीं होती कि जिस शख्स को दुनियावी 
अज्मत मिली हुई हो उसी को खुदा को हिदायत भी दे दी जाए। अगर दुनियावी अज्मत लोगों 
को ख़ुदा के यहां अजीम बनाने वाली होती तो ऐसे लोगों के लिए मुमकिन होता कि वे जिस 
शख्स को चाहें खुदा की रहमत पहुचाएं और जिससे चाहें उसे रोक दें। मगर हकीकत यह है 
कि ख़ुदा अपनी रहमत की तक्सीम ख़ुद अपने मेयार पर करता है न कि जाहिरपरस्त इंसानों 
के बनाए हुए मेयार पर। 

पैगम्बर का इंकार करने वाले कहते कि जिस खुदाई अजाब से तुम हमें डरा रहे हो उस 
खुदाई अजाब को ले आओ। यह जुरअत उनके अंदर इसलिए पैदा होती थी कि वे समझते 
थे कि उन पर ख़ुदा का अजाब आने वाला ही नहीं। उन्हें बताया गया कि जिन बुतों के बल 
पर तुम अपने आपको महफूज समझ रहे हो, उसी किस्म के बुतों के बल पर पिछली कौमों ने 
भी अपने को महफूज समझा और अपने रसूलों के साथ सरकशी की मगर वे सब की सब 
हलाक कर दी गई। फिर तुम आखिर किस तरह बच जाओगे। 


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जो कुछ वे कहते हैं उस पर सब्र करो, और हमारे बंदे दाऊद को याद करो जो कुब्वत वाला, 
रुजूअ करने वाला था। हमने पहाड़ों को उसके साथ मुसख्खर (वशी भूत) कर दिया कि वे 
उसके साथ सुबह व शाम तस्बीह करते थे, और परिंदों को भी जमा होकर। सब अल्लाह की 























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पारा 23 208 सूरह-38. साद 
तरफ रुजूअ करने वाले थे। और हमने उसकी सल्तनत मजबूत की, और उसे हिक्मत अता 
की। और मामलात का फैसला करने की सलाहियत दी। (7-20) 





दीन में सब्र की बेहद अहमियत है। मगर इंसान की अजिय्यतों (यातनाओं) पर सब्र वही 
शख्स कर सकता है जो इंसान के मामले को ख़ुदा के ख़ाने में डाल सके। जो शख्स ख़ुदा की 
हम्द व तस्बीह में डूबा हुआ हो उसी के लिए यह मुमकिन है कि वह इंसान की तरफ से कही 
जाने वाली नाखुशगवार बातों को नजरअंदाज कर दे। 

हजरत दाऊद इस सिफत का आला नमूना थे। उन्हें अल्लाह तआला ने गैर मामूली कुत्वत 
और सल्तनत दी थी। मगर उनका हाल यह था कि वह हर मामले में अल्लाह की तरफ रुजूअ 
करते थे । वह कायनात में बुलन्द होने वाली खुदाई तस्बीहात में गुम रहते थे। वह पहाड़ के दामन 
मे बैठकर इतने वज्द के साथ हम्दे खुदावंदी का नग़मा छेड़ते कि पूरा माहौल उनका हम आवाज 
हो जाता था। दरख्त और पहाड़ भी उनके साथ तस्बीहख़्वानी में शामिल हो जाते थे। 

अल्लाह तआला ने हजरत दाऊद को जो हुकूमत दी थी वह निहायत मुस्तहकम (मजबूत) 
हुकूमत थी। इस इस्तहकाम का राज था हिक्मत और फस्ल खिताब । हिक्मत से मुराद यह है कि 
वह मामलात में हमेशा हकीमाना और दानिशमंदाना अंदाज इख्तियार करते थे। और फसल 
खिताब का मतलब यह है कि वह बरवक्त सही फैसला लेने की सलाहियत रखते थे। यही दोनों 
चीजें हैं जो किसी हुक्मरां को सालेह हुक्मरां बनाती हैं। उसके अंदर हिक्मत होना इस बात का 
जामिन हैकि वह कोई ऐसा इवदाम नहीं करेगा जो फायदे से ज्यादा नुक्सान का सबब बन जाए । 
और फसल ख़िताब इसका जामिन है कि उसका फैसला हमेशा मुंसिफाना फैसला होगा। 


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और क्या तुम्हें ख़बर पहुंची है मुकदमा वालों की जबकि वे दीवार फांदकर इबादतख़ाने 
में दाखिल हो गए। जब वे दाऊद के पास पहुंचे तो वह उनसे घबरा गया, उन्होंने कहा 
कि आप ड नहीं, हम दो फरीके मामला (विवाद के पक्ष) हैं, एक ने दूसरे पर ज्यादती 


की है तो आप हमारे दर्मियान हक के साथ फैसला कीजिए, बेइंसाफी न कीजिए और 
हमें राहेरास्त सन्मार्ग बताइए। (2-29) 








कहा जाता है कि हजरत दाऊद ने तीन दिन की बारी मुकर्रर कर रखी थी। एक दिन 
दरबार और मुकदमात के फैसलों के लिए। दूसरे दिन अपने अहल व अयाल (परिवारजनों) के 
साथ रहने के लिए। तीसरे दिन अलग रहकर ख़ालिस ख़ुदा की इबादत के लिए। एक रोज 
जबकि उनका इबादती दिन था वह अपने महल के मख्सूस हिस्से में अकेले इबादत में मशगूल 


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सूरह-38. साद I209 पारा 23 
थे कि दो आदमी दीवार फांदकर अंदर दाखिल हो गए और उनके इबादत के कमरे में आकर 
खड़े हो गए। यह एक गैर मामूली बात थी इसलिए आप कुछ घबरा उठे। उन दोनों आदमियों 
ने इत्मीनान दिलाया और कहा कि हम दो फरीक (पक्ष) हैं। आप से एक झगड़े का फैसला लेने 

के लिए यहां हाजिर हुए हैं। 


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यह मेरा भाई है, इसके पास निन्नानवे दुंबियां हैं और मेरे पास सिर्फ एक दुंबी 
है। तो वह कहता है कि वह भी मेरे हवाले कर दे। और उसने गुफ्तुगू में मुझे 
दबा लिया। दाऊद ने कहा, उसने तुम्हारी दुंबी को अपनी दुंबियों में मिलाने का 
मुतालबा करके वाकई तुम पर जुल्म किया है। और अक्सर शुरका (साझीदार) एक 
दूसरे पर ज्यादती किया करते हैं। मगर वे जो ईमान रखते हैं और नेक अमल करते 
हैं, और ऐसे लोग बहुत कम हैं। और दाऊद को ख्याल आया कि हमने उसका 
इम्तेहान किया है, तो उसने अपने रब से माफी मांगी और सज्दे में गिर गया। 
और रुजूअ हुआ। फिर हमने उसे वह माफ कर दिया। और बेशक हमारे यहां उसके 
लिए तकर्रुब (सान्निध्य) है और अच्छा अंजाम। (2३-25) 





आने वाले दोनों आदमियों ने जो मुकदमा पेश किया वह कोई हकीकी मुकदमा न था 
बल्कि तमसील की जबान में खुद हजरत दाऊद अलैहिस्सलाम की किसी बात पर उन्हें 
मुतनब्बह (सचेत) करना था। चुनांचे मुकदमे का फैसला देते-देते आपको अपना वह मामला 
याद आ गया जो मज्कूरा मिसाल से मिलता जुलता था। आपने फौरन उससे रुजूअ कर लिया 
और अल्लाह के आगे सज्दे में गिर पड़े। 

हजरत दाऊद को उस वक्‍त जबरदस्त इव्तेदार (सत्ता) हासिल था। मगर उन्हेनि 
आने वालों को न तो कोई सजा दी और न उन्हें बुरा भला कहा। यही अल्लाह के सच्चे 
बंदों का तरीका है। उनके अंदर किसी मामले में जिद नहीं होती। उन्हें जब उनकी किसी 
ख़ामी की तरफ तवज्जोह दिलाई जाए तो वे फौरन उसे मान कर अपनी इस्लाह कर 
लेते हैं, चाहे वे बाइक्तेदार हैसियत के मालिक हों और चाहे मुतवज्जह करने वाले ने 
उन्हें बेढंगे तरीके से मुतवज्जह किया हो। 


पारा 23 I20 सूरह-38. साद 


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ऐ दाऊद हमने तुम्हें जमीन में खलीफा (हाकिम) बनाया है तो लोगों के दर्मियान इंसाफ 

के साथ फैसला करो और ख़्याहिश की पैरवी न करो वह तुझे अल्लाह की राह से भटका 
देगी। जो लोग अल्लाह की राह से भटकते हैं उनके लिए सख्त अजाब है इस वजह 
से कि वे रोजे हिसाब को भूले रहे। (26) 





एक हाकिम हमेशा दो चीजों के दर्मियान होता है। या तो वह मामलात का फैसला 
अपनी चाहत के मुताबिक करेगा या उसूले हक के मुताबिक। जो हाकिम मामलात का 
फैसला अपनी चाहत और ख्वाहिश के मुताबिक करे वह राह से भटक गया। खुदा के 
यहां उसकी सख्त पकड़ होगी। इसके बरअक्स (विपरीत), जो हाकिम मामलात का फैसला 
हक व इंसाफ के उसूल का पाबंद रहकर करे वही राहेरास्त पर है। खुदा के यहां उसे 
बेहिसाब इनामात दिए जाएंगे। 

यह हिदायत जिस तरह एक हाकिम के लिए है उसी तरह वह आम इंसानों के लिए भी 
है। हर आदमी को अपने दायरए इख़्तियार में वही करना है जो इस आयत में बाइक्तेदार 
(सत्ताधारी) हाकिम के लिए बताया गया है। 


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और हमने जमीन और आसमान और जो इनके दर्मियान है अबस (व्यर्थ) नहीं पेदा 
किया, यह उन लोगों का गुमान है जिन्होंने इंकार किया, तो जिन लोगों ने इंकार किया 
उनके लिए बर्बादी है आग से। क्या हम उन लोगों को जो ईमान लाए और अच्छे काम 
किए उनकी मानिंद कर देंगे जो जमीन में फसाद करने वाले हैं। या हम परहेजगारों को 

बदकारों जैसा कर देंगे। यह एक बाबरकत किताब है जो हमने तुम्हारी तरफ उतारी 

है ताकि लोग इसकी आयतां पर गौर करें और ताकि अक्ल वाले इससे नसीहत हासिल 
करें। (27-29) 





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सूरह-38. साद 


दुनिया की चीजों पर गर कीजिए तो मालूम होता है कि इसका पूरा निजाम निहायत 
हकीमाना बुनियादों पर कायम है हालांकि यह भी मुमकिन था कि वह एक अललटप निजाम 
हो और उसमें कोई बात यकीनी न हो। दो इम्कान में से एक मुनासिबतर इम्कान का पाया 
जाना इस बात का करीना (संकेत) है कि इस दुनिया को पैदा करने वाले ने इसे एक बामक्सद 
मंसूबे के तहत बनाया है। फिर जो दुनिया अपनी इब्तिदा में बामक्सद हो वह अपनी इंतिहा 
में बेमक्सद क्याँकर हो जाएगी। 

इसी तरह इस दुनिया में हर आदमी आजाद और ख़ुदमुख़्तार है। मुशाहिदा दुबारा बताता 
है कि लोगों में कोई शख्स वह है जो हकीकत का एतराफ करता है और अपने इस्क्षियार से 
अपने आपको सच्चाई और इंसाफ का पाबंद बनाता है। इसके मुकाबले में दूसरा शख्स वह 
है जो हकीकत का एतराफ नहीं करता। वह बेकैद होकर जो चाहे बोलता है और जिस तरह 
चाहे अमल करता है। अक्ल इसे तस्लीम नहीं करती कि जब यहां दो किस्म के इंसान हैं तो 
उनका अंजाम यकसां होकर रह जाए। 

दुनिया की इस सूरतेहाल को सामने रखा जाए तो जिंदगी के मुतअल्लिक कुरआन का 
बयान ही ज्यादा मुताबिके हाल नजर आएगा न कि उन लोगों का बयान जो जिंदगी की तशरीह 

विवेचना) उसके बरअक्स अंदाज में करने की कोशिश करते हैं। 


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और हमने दाऊद को सुलैमान अता किया, बेहतरीन बंदा, अपने रब की तरफ बहुत 
रुजूअ करने वाला। जब शाम के वक्‍त उसके सामने तेज रफ्तार, उम्दा घोड़े पेश किए 

गए। तो उसने कहा, मैंने दोस्त रखा माल की मुहब्बत को अपने रब की याद से, यहां 
तक कि छुप गया ओट में। उन्हें मेरे पास वापस लाओ। फिर वह झाड़ने लगा पिंडलियां 
और गर्दनें। (३0-33) 


2II पारा 23 








हजरत सुलेमान बिन दाऊद अलैहिस्सलाम एक अजीम सल्तनत के हुक्‍्मरां थे। एक दिन 
उनकी फौज के चुस्त और तर्बियतयाफ्ता घोड़े उनके सामने लाए गए। फिर उनकी दौड़ हुई । 
यहां तक कि घोड़े दौड़ते हुए दूर के मंजर में गुम हो गए। और फिर वे दुबारा वापस आए। 
इस किस्म का मंजर हमेशा निहायत शानदार होता है। उन्हें देखकर आम इंसान फख़ 
और घमंड में मुब्तिला हो जाता है। मगर हजरत सुलैमान का हाल यह हुआ कि वह इस 
पुरफख़ मंजर को देखकर ख़ुदा की याद करने लगे। उन्होंने कहा कि मैंने यह घोड़े अपनी शान 
दिखाने के लिए पसंद नहीं किए हैं बल्कि सिर्फ ख़ुदा के लिए पसंद किए हैं। घोड़े की शक्ल 





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पारा 23 22 सूरह-38. साद 
में उन्हें खुदा की अजीम कारीगरी नजर आई। और वह खुदा की अज्मत के एतराफ के तौर 
पर घोड़ों की गर्दनों और पिंडलियों पर हाथ फेरने लगे। मोमिन हर चीज में खुदा की शान देखता 


है और गैर मोमिन हर चीज में अपनी शान। 
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और हमने सुलैमान को आजमाया। और हमने उसके तख्त पर एक धड़ डाल दिया, फिर 
उसने रुजूअ किया। उसने कहा कि ऐ मेरे रब, मुझे माफ कर दे और मुझे ऐसी सल्तनत 
दे जो मेरे बाद किसी के लिए सजावार (उपलब्ध) न हो। बेशक तू बड़ा देने वाला है। 
तो हमने हवा को उसके ताबेअ (अधीन) कर दिया। वह उसके हुक्म से नर्मी के साथ 
चलती थी जिधर वह चाहता। और जिन्नात को भी उसका ताबेअ कर दिया। हर तरह 
के कामगर और ग़ोताख़ोर। और दूसरे जो जजीरों में जकड़े हुए रहते। यह हमारा अतिया 
दिन) है तो चाहे उसे दो या रोको, बेहिसाव। और उसके लिए हमारे यहां कुर्व 
(समीपता) है और बेहतर अंजाम। (34-40) 





हर इंसान से कोताही होती है। मगर ख़ुदा के नेक बंदों के लिए कोताही एक अजीम 
भलाई बन जाती है क्योंकि वे कोताही के बाद और ज्यादा ख़ुशूअ (विनय) के साथ अपने रब 
की तरफ पलटते हैं और फिर और ज्यादा इनाम के मुस्तहिक करार पाते हैं। 

हजरत सुलैमान अलैहिस्सलाम से भी एक मौके पर भूलवश कोई कोताही हो गई। जब 
आप पर हकीकत वाजेह हुई तो आप शदीद इनाबत (समर्पण-भाव) के साथ अल्लाह की तरफ 
मुतवज्जह हो गए। अल्लाह तआला ने आप से दरगुजर फरमाया और मजीद यह इनाम किया 
कि आपको अजीम सल्तनत अता फरमाई और आपको ऐसे गैर मामूली इख्तियारात दिए जो 
किसी और इंसान को हासिल नहीं हुए 


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सूरह-38. साद 23 पारा 2३ 
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और हमारे बंदे अय्यूब को याद करो। जब उसने अपने रब को पुकारा कि शैतान ने 
मुझे तकलीफ और अजाब में डाल दिया है। अपना पांव मारो। यह टंडा पानी है, नहाने 
के लिए और पीने के लिए। और हमने उसे उसका कुंबा अता किया और उनके साथ 
उनके बराबर और भी, अपनी तरफ से रहमत के तौर पर और अक्ल वालों के लिए 
नसीहत के तौर पर। और अपने हाथ में सींकों का एक मुट्ूठा लो और उससे मारो और 
कसम न तोड़ो। बेशक हमने उसे साबिर (थैर्यवान) पाया, बेहतरीन बंदा, अपने रब की 
तरफ बहुत रुजूअ करने वाला। (47-44) 





हजरत अय्यूब अलैहिस्सलाम बनी इस्राईल के पैगम्बरों में से थे। उनका जमाना ग़ालिबन 
नवीं सदी कब्ल मसीह (ईसा पूर्व) है। उन्हें काफी माल व दौलत हासिल थी। मगर माल व 
दौलत में गुम होने के बजाए वह खुदा की इबादत करते और लोगों को ख़ुदा की तरफ बुलाते 
थे। 

कुछ गलत किस्म के लोगों ने यह कहना शुरू किया कि अय्यूब को जब इतना ज्यादा 
माल व दौलत हासिल है तो वह दीनदार न बनेंगे तो और क्या करेंगे । अल्लाह तआला ने लोगों 
पर हुज्जत कायम करने के लिए हजरत अय्यूब को मुफ्लिस बना दिया। मगर वह बदस्तूर 
अल्लाह के इबादतगुजार बंदे बने रहे। उन्होंने कहा कि 'ख़ुदावंद ने दिया और ख़ुदावंद ने ले 
लिया । ख़ुदावंद का नाम मुबारक हो ।' 

शरीर लोग अब भी चुप न हुए। उन्होंने कहा कि अस्ल इम्तेहान तो यह है कि वह 
जिस्मानी तकलीफ में मुक्तिला हों और फिर भी सब्र व शुक्र पर कायम रहें। अल्लाह तआला 
ने लोगों को यह नमूना भी दिखाया। हजरत अय्यूब को सख्त जिल्दी (खाल की) बीमारी 
लाहिक हुई और उनके तमाम जिस्म पर फोड़े हो गए। मगर वह बदस्तूर सब्र व शुक्र की 
तस्वीर बने रहे। जब लोगों पर हुज्जत तमाम हो चुकी तो अल्लाह तआला ने हजरत अय्यूब 
के लिए एक चशमा (स्रोत) जारी किया जिसमें नहाने से उनका जिस्म बिल्कुल तंदुरुस्त हो 
गया। और माल व औलाद भी दुबारा मजीद इजाफे के साथ अता फरमाए। 

हजरत अय्यूब ने बीमारी की हालत में किसी बात पर कसम खा ली थी कि अच्छे हो गए 
तो अपनी बीवी को सौ लकड़ियां मारेंगे। अल्लाह तआला ने इस कसम को पूरा करने की यह 
तदबीर उन्हें बताई कि एक झाडू लो जिसमें एक सौ सींकें हों और उससे हल्के तौर पर एक 
बार अपनी बीवी को मार दो। इससे मालूम हुआ कि मख्सूस हालात में हीला (प्रतीकात्मक 
अमल) करना जाइज है, बशर्ते कि वह किसी शरई हुक्म को बातिल न करता हो। 

ख़ुदा जब अपने दीन के लिए किसी को इस्तेमाल करे और वह शख्स किसी संकोच के 
बगैर अपने आपको ख़ुदा के हवाले कर दे तो ख़ुदा उसे दुबारा उससे ज्यादा दे देता है जितना 
उससे मज्कूरा अमल के दौरान छिना था। 





पारा 23 ]2।4 सूरह-58 साद 

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और हमारे बंदो, इब्राहीम और इसहाक और याकूब को याद करो, वे हाथों वाले और 

आंखों वाले थे। हमने उन्हें एक ख़ास बात के साथ मख्सूस किया था कि वह आखिरत 
(परलोक) की याददिहानी है। और वे हमारे यहां चुने हुए नेक लोगों में से हैं। और 
इस्माईल और अल यसअ और जुलकिफ्ल को याद करो, सब नेक लोगों में से थे। 
(45-48) 


यहां चन्द पैग़म्बरों का जिक्र करके इर्शाद हुआ कि वे हाथ वाले और आंख वाले थे। 
यानी उन्हें जिस्मानी कुव्वत और जेहनी बसीरत (सूझबूझ) दोनों आला दर्ज में हासिल थीं। एक 
तरफ वे अमली सलाहियत के मालिक थे। दूसरी तरफ उन्होंने उस मअरफत (अन्तर्ज्ञान) का 
सुबूत दिया कि वे चीजों को सही नजर से देखने और मामलात में सही राय कायम करने की 
सलाहियत रखते हैं। चुनांचे खुदा ने उन्हें अपने पैग़ाम की पैग्राम्बरी के लिए चुन लिया। 
ख़ुदा का ख़ास काम क्या है जिसके लिए वह इंसानों में से अपने पैगम्बर चुनता है। वह 
है आखिरत के घर की याददिहानी । पैग़म्बरों का ख़ास मिशन हमेशा यह रहा है कि वे इंसान 
को उस हकीकत से बाखबर करें कि इंसान की असल मंजिल आख़िरत है। और इंसान को उसी 
की तैयारी करना चाहिए। इंसान का सबसे बड़ा मसला यही है और इस दुनिया में सबसे बड़ा 
काम यह है कि उसे इस संगीन मसले से आगाह किया जाए 


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यह नसीहत है, और बेशक अल्लाह से डरने वालों के लिए अच्छा ठिकाना है, हमेशा 
के बाग़ जिनके दरवाजे उनके लिए खुले होंगे। वे उनमें तकिया लगाए बैठे होंगे। और 
बहुत से मेवे और मशरूबात (पेय पदार्थ) तलब करते होंगे। और उनके पास शर्मीली 
हमसिन (समान अवस्था वाली) बीवियां होंगी। यह है वह चीज जिसका तुमसे रोजे 
हिसाब आने पर वादा किया जाता है। यह हमारा रिज्क है जो कभी ख़त्म होने वाला 

नहीं। (49-54) 




















जन्नत के दरवाजे उन लोगों के लिए खोले जाते हैं जो अपने दिल के दरवाजे नसीहत के 
लिए खोलें। जो ख़ुदा के जुहूर से पहले खुदा से डरने वाले बन जाएं। यही वे ख़ुशनसीब लोग 


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सूरह-38. साद 25 पारा 23 
हैं जो आख़िरत की अबदी नेमतों के हिस्सेदार होंगे। 
कुरआन में आख़िरत की जिन नेमतों का जिक्र है वे सब वही हैं जो दुनिया में भी इंसान 
को हासिल होती हैं। मगर दोनों में जबरदस्त फर्क है। वह यह कि दुनिया में ये नेमतें वक्ती 
और इब्तिदाई शक्ल में दी गई हैं और आख़िरत में ये नेमतें अबदी और इंतिहाई शक्ल में दी 
जाएंगी । मजीद यह कि इन आला नेमतें के साथ हर किस्म के ख़ैफ और अदेशे को हजफ 
कर दिया जाएगा जिनका हजफ होना मौजूदा दुनिया में किसी तरह मुमकिन नहीं। 
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यह बात हो चुकी, और सरकशों के लिए बुरा ठिकाना है। जहन्नम, उसमें वे दाखिल 
होंगे। पस क्या ही बुरी जगह है। यह खोलता हुआ पानी और पीप है, तो ये लोग उन्हें 
चखें। और इस किस्म की दूसरी और भी चीजें होंगी। यह एक फौज तुम्हारे पास मुसी 
चली आ रही है, उनके लिए कोई खुशआमदीद (स्वागत) नहीं। वे आग में पड़ने वाले 
हैं। वे कहेंगे बल्कि तुम, तुम्हारे लिए कोई खुशआमदीद नहीं । तुम्हीं तो यह हमारे आगे 
लाए हो, पस कैसा बुरा है यह ठिकाना। वे कहेंगे कि ऐ हमारे रब, जो शख्स इसे हमारे 
आगे लाया उसे तू दुगना अजाब दे, जहन्नम में। और वे कहेंगे, क्या बात है कि हम 
उन लोगों को यहां नहीं देख रहे हैं जिन्हें हम बुरे लोगों में शुमार करते थे। क्या हमने 
उन्हें मजाक बना लिया था या उनसे निगाहें चूक रही हैं। बेशक यह बात सच्ची है, 
अहले दोजख़ का आपस में झगड़ना। (55-64) 





जहन्नम उन तकलीफों की अबदी और इंतिहाई शक्ल है जिनका मौजूदा दुनिया में कोई 
शख्स तसब्बुर कर सकता है। दुनिया में सरकशी करने वाले सच्चाई को झुठलाने वाले लोग 
जब जहन्नम में इकट्ठा होंगे तो उनके लीडर और पैरोकार आपस में तकरार करेंगे । वे पैरोकार 
जो अपने लीडरों की अज्मत पर फख़ करते थे वे वहां अपना अंजाम देखकर उन पर लानत 
भेजेंगे। इसका एक नक्शा इन आयात में दिखाया गया है। 

सच्चाई का इंकार करने वाले जब आख़िरत में अपना बुरा अंजाम देखेंगे तो वहां वे उन 
लोगों को याद करेंगे जिन्होंने सच्चाई का साथ दिया था और इस बिना पर वे अपने माहौल 





पारा 23 I26 सूरह-38. साद 
में हकीर बन गए थे। उनके मुतअल्लिक मुंकिरीन कहते थे कि ये अकाबिर की तोहीन करने 
वाले हैं। ये आबाई (पैतृक) दीन से भटक गए हैं। इन्होंने मिल्लत से अलग अपना रास्ता 
बनाया है। 
ये मुंकिरीन अपने आपको हक पर समझते थे और उन्हें नाहक पर। मगर आखिरत 
में मामला बिल्कुल बरअक्स हो जाएगा। उस वक्‍त उन पर खुलेगा कि जिन्हें हकीर (तुच्छ) 
समझ कर वे उनका मजाक उडते थे, वही आहिरत की सरफराजी में सबसे आगे दर्जा 
पाए हुए हैं। 


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कहो कि मैं तो सिर्फ एक डराने वाला हूं। और कोई माबूद (पूज्य) नहीं मगर अल्लाह, 
यकता (एक) और ग़ालिब (वर्चस्वशील)। वह रब है आसमानों और जमीन का और 
उन चीजों को जो इनके दर्मियान हैं, वह जबरदस्त है, बख़्शने वाला है। कहो कि यह 

एक बड़ी ख़बर है, जिससे तुम बेपरवाह हो रहे हो। मुझे आलमे बाला (आकाश लोक) 
की कुछ ख़बर नहीं थी जबकि वे आपस में तकरार कर रहे थे। मेरे पास तो “वही! 
(ईश्वरीय वाणी) बस इसलिए आती है कि में एक खुला डराने वाला हूं। (65-70) 


यहां जिस इख्तिसाम (तकरार) का जिक्र है वह वही है जो अगली आयत में मंकूल है। 
यानी आदमी की तरीक (रचना) के वकत इब्लीस का बहस व तकरार करना। 

कुरआन में बताया गया है कि शैतान पहले रोज से आदम का दुश्मन बन गया है। वह 
पुरफरेब बातों के जरिए औलादे आदम को सीधे रास्ते से भटकाता है। इसलिए इंसान को 
चाहिए कि वह होशियार रहे और उससे पूरी तरह बचने की कोशिश करे। इस सिलसिले में 
आदम की पेदाइश के वक्‍त जो इख्तिसाम (तकरार) हुआ और उसे कुरआन में बयान किया 
गया वह सरासर वही” (ईश्वरीय वाणी) था। क्योंकि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व 
सल्लम उस वकत मलए आला में मौजूद न थे कि जाती वाकफियत की बुनियाद पर उसे बयान 
कर सकते। 

सबसे अहम ख़बर इंसान के लिए यह है कि उसे जिंदगी की इस नौइयत से आगाह किया 
जाए कि शैतान हर लम्हा उसके पीछे लगा हुआ है, वह उसकी सोच और उसके जज्बात में 
दाखिल होकर उसे गुमराह कर रहा है। इंसान को चाहिए कि वह इस ख़तरे से अपने आपको 
बचाए । पैग़म्बर एक एतबार से इसीलिए आए कि इंसान को इस नाजुक ख़तरे से आगाह कर 
दें। 








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सूरह-38. साद 27 पारा 2३ 
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जब तुम्हारे रब ने फरिश्तों से कहा कि मैं मिट्टी से एक बशर (इंसान) बनाने वाला 
हूं। फिर जब मैं उसे दुरुस्त कर लूं और उसमें अपनी रूह फूंक दूं तो तुम उसके आगे 
सज्दे मे गिर पड़ना। पस तमाम फरिश्तों ने सज्दा किया मगर इब्लीस (शैतान), कि 
उसने घमंड किया और वह इंकार करने वालों में से हो गया। फरमाया कि ऐ इब्लीस, 
किस चीज ने तुझे रोक दिया कि तू उसे सज्दा करे जिसे मैंने अपने दोनों हाथों से 
बनाया। यह तूने तकब्बुर (घमंड) किया या तू बड़े दर्जे वालों में से है। उसने कहा 
कि मैं आदम से बेहतर हूं। तूने मुझे आग से पैदा किया है और उसे मिट्टी से। 
फरमाया कि तू यहां से निकल जा, क्योंकि तू मर्दूद (धुत्कारा हुआ) है। और तुझ 
पर मेरी लानत है जजा के दिन तक। (7-78) 





अल्लाह तआला ने इंसान को एक इंतिहाई आला मख्लूक की हैसियत से बनाया । और 
इसकी अलामत के तौर पर फरिश्तों और जिन्नों को हुक्म दिया कि वे उसे सज्दा करें। इसके 
बाद जब ऐसा हुआ कि इब्लीस ने आदम को सज्दा नहीं किया तो वह हमेशा के लिए मलऊन 
करार पा गया। मगर इस संगीन वाकये की अहमियत सिर्फ इब्लीस के एतबार से न थी बल्कि 
ख़ुद आदम के लिए भी इसकी बेहद अहमियत थी। 

आदम के आगे झुकने से इंकार करके इब्लीस अबदी तौर पर नस्ले आदम का हरीफ 
(प्रतिपक्षी) बन गया । इस तरह इंसानी तारीख अव्वल रोज से एक नए रुख़ पर चल पड़ी। इस 
वाकये ने तै कर दिया कि इंसान के लिए जिंदगी का सफर कोई सादा सफर नहीं होगा बल्कि 
शदीद मुजाहेमत (प्रतिरोध) का सफर होगा। उसे इब्लीस के बहकावों और उसकी पुरफरेब 
तदबीरों का मुकाबला करते हुए अपने आपको सही रास्ते पर कायम रखना होगा ताकि वह 
सलामती के साथ अपनी मंजिल तक पहुंच सके। 

इंसान और जन्नत के दर्मियान शैतान की फरेबकारियां हायल हैं। जो शख्स शैतान की 
फरेबकारियों से अपने आपको बचाए वही जन्नत के अबदी बागों में दाखिल होगा। और जो 
लोग शैतान की फरेबकारियों का पर्दा फाड़ने में नाकाम रहें वही वे लोग हैं जो जन्नत से महरूम 
रह गए। 





पारा 23 I2I8 सूरह-38. साद 

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इब्लीस ने कहा कि ऐ मेरे रब, मुझे मोहलत दे उस दिन तक के लिए जब लोग दुबारा 
उठाए जाएंगे। फरमाया कि तुझे मोहलत दी गई, मुअय्यन (निश्चित) वक्‍त तक के 
लिए। उसने कहा कि तेरी इज्जत की कसम, मैं उन सबको गुमराह करके रहूंगा, सिवाए 
तेरे उन बंदों के जिन्हे तूने खालिस कर लिया है। फरमाया, तो हक यह है और में हक 
ही कहता हूं कि में जहन्नम को तुझसे और उन तमाम लोगों से भर दूंगा जो उनमें से 
तेरी पेरवी करेंगे। (79-85) 





मौजूदा इम्तेहान की दुनिया में शैतान को पूरा मौका दिया गया है कि वह इंसान को 
बहकाए । मगर शैतान उसी वक्‍त तक बहका सकता है जब तक हकीकत गैब में छुपी हुई हो। 
कियामत जब गैब का पर्दा फाड़ेगी तो सब कुछ सामने आ जाएगा। इसके बाद न कोई बहकाने 
वाला बाकी रहेगा और न कोई बहकने वाला। 

मुख्लिस का मतलब है खोट से ख़ाली होना। मुख्लिस बंदा वह है जो नफ्सियाती 
बीमारियों से पाक हो। शैतान का मामला यह है कि उसे कोई अमली जोर हासिल नहीं। वह 
हमेशा तजईन के जरिए इंसानों को बहकाता है। यानी बातिल को हक के रूप में दिखाना। 
बेअस्ल बातों को खूबसूरत अल्फाज में पेश करना । सीधी बात में शोशा निकाल कर लोगों को 
उसकी तरफ से मुशतबह (संदिग्ध) कर देना । ताहम शैतान की इस तजईन से वही लोग फरेब 
खाते हैं जो अपने अंदर नफ्सियाती खोट लिए हुए हों। और जो लोग अपनी नफ्सियात को 
उसकी फितरी हालत पर बाकी रखें और अपनी अक्ल को खुले तौर पर इस्तेमाल करें वे फौरन 
शैतानी फरेब को पहचान लेते हैं। वे कभी उसकी तजईन से गुमराह नहीं होते। 


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कहो कि मैं इस पर तुमसे कोई अज्र (मेहनताना) नहीं मांगता और न में तकल्लुफ 
(बनावट) करने वालों में से हूं। यह तो बस एक नसीहत है दुनिया वालों के लिए। 


और तुम जल्द उसकी दी हुई ख़बर को जान लोगे। (86-88) 





दाऔ की एक लाजिमी सिफ्त यह है कि वह मदऊ (संबोधित पक्ष) से अज्र का तालिब नहीं 
होता । वह अपने और मदऊ के दर्मियान कोई मादूदी झगड़ा नहीं खड़ा करता । कुरआन की दावत 


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सूरह-39. अज॒-जुमर I29 पारा १३ 
आखिरत की दावत है। इसलिए जो शख्स ऐसा करे कि वह एक तरफ कुरआन की दावते 
आखिरत का अलमबरदार (ध्वजावाहक) हो, और इसी के साथ मदऊ कौम से मादूदी (भौतिक, 
आर्थिक) मुतालबात की मुहिम भी चलाए वह मदऊ की नजर में एक गैर संजीदा आदमी है। और 
जो आदमी ख़ुद अपनी गैर संजीदगी साबित कर दे उसकी बात पर कौन ध्यान देगा। 

इसी तरह दाऔ अपनी तरफ से बनाकर कोई बात नहीं कहता । वह बस वही कहता है 
जो ख़ुदा की तरफ से उसे मिला है। मसरूक ताबई कहते हैं कि हम अब्ुल्लाह बिन मसऊद 
रजियल्लाहु अन्हु के पास आए। उन्होंने कहा कि ऐ लोगो, जो शख्स कुछ जानता हो तो उसे 
चाहिए कि बोले। और जो शख्स न जानता हो तो उसे यह कहना चाहिए कि अल्लाह ही ज्यादा 
जानता है। यह इलम की बात है कि आदमी जिस चीज को न जाने उसके बारे में कह दे कि 
अल्लाह ज्यादा जानता है। क्योंकि अल्लाह ने अपने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से 
फरमाया है कि कहो कि मैं इस पर तुमसे अज़ नहीं मांगता और मैं तकल्लुफ करने वालों में 
से नहीं हूं। (तफ़्सीर इव्नेकसीर) 

इसी तरह दाऔ की यह सिफत है कि वह दावत को नसीहत के रूप में पेश करे। उसका 
कलाम खैरख्याहाना (परोपकारी) कलाम हो न कि मुनाजिराना (वाद-विवाद का) कलाम | 


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आयतें-75 सूरह39. अज़ञजुमर रुकूअ-8 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

यह किताब अल्लाह की तरफ से उतारी गई है जो जबरदस्त है हिक्मत (तत्वदर्शिता) 
वाला है। बेशक हमने यह किताब तुम्हारी तरफ हक के साथ उतारी है, पस तुम 
अल्लाह ही की इबादत करो उसी के लिए दीन को ख़ालिस करते हुए। आगाह, दीन 
खालिस सिर्फ अल्लाह के लिए है। और जिन लोगों ने उसके सिवा दूसरे हिमायती बना 
रखे हैं, कि हम तो उनकी इबादत सिर्फ इसलिए करते हैं कि वे हमें खुदा से करीब 
कर दें। बेशक अल्लाह उनके दर्मियान उस बात का फैसला कर देगा जिसमें वे 
इल्ललाफ (मतभेद) कर रहे हैं। अल्लाह ऐसे शख्स को हिदायत नहीं देता जो झूठा, हक 
को न मानने वाला हो। (-3) 


पारा 23 220 सूरह-39. अज॒-जुमर 





कुरआन हकीकते वाकया का खुदाई बयान है। इसका हकीमाना उस्लूब और इसके गैर 
मामूली तौर पर पुख्ता मजामीन इस बात का दाख़िली सुबूत हैं कि यह वाकयातन खुदा ही की 
तरफ से है। कोई इंसान इस किस्म का गैर मामूली कलाम पेश करने पर कादिर नहीं। 

दीन को अल्लाह के लिए ख़ालिस करने का मतलब है इबादत को अल्लाह के लिए 
खालिस करना । यानी यह कि तुम सिफ एक अल्लाह की इबादत करो, अपनी इबादत को उसी 
के लिए ख़ालिस करते हुए। 

हर इंसान के अंदर पुरअसरार (रहस्यमयी) तौर पर इबादत का जज्वा मौजूद है। यानी 
किसी को बड़ा तसव्वुर करके उसके लिए अजीब और बड़ा समझने (७७८) का एहसास पैदा 
होना। जिस हस्ती के बारे में आदमी के अंदर यह एहसास पैदा हो जाए उसे वह सबसे ज्यादा 
मुकद्दस समझता है। उसके आगे उसकी पूरी हस्ती झुक जाती है। उसकी जनाब में वह गैर 
मामूली किस्म के एहतराम व आदाब का इज्हार करता है। उससे वह सबसे ज्यादा डरता है 
और उसी से सबसे ज्यादा मुहब्बत करता है। उसकी याद से उसकी रूह को लज्जत मिलती 
है। वही उसकी जिंदगी का सबसे बड़ा सहारा बन जाता है। 

इसी का नाम इबादत (या परस्तिश) है। और यह इबादत सिर्फ एक खुदा का हक है। 
मगर इंसान ऐसा करता है कि वह ख़ुदा को मानते हुए इबादत में गैर खुदा को शरीक करता 
है। वह गैर ख़ुदा के लिए इबादती अफआल अंजाम देता है। यही इंसान की अस्ल गुमराही 
है। हकीकत यह है कि जिस तरह खुदाई नाकाबिले तवसीम है उसी तरह इबादत की भी 
तक्सीम नहीं की जा सकती। 

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अगर अल्लाह चाहता कि वह बेटा बनाए तो अपनी मखझ्लूक में से जिसे चाहता चुन 
लेता, वह पाक है। वह अल्लाह है, अकेला, सब पर ग्रालिब। उसने आसमानों और 
जमीन को हक के साथ पेदा किया। वह रात को दिन पर लपेटता है और दिन को 
रात पर लपेटता है। और उसने सूरज और चांद को मुसख्खर (वशीभूत) कर रखा है। 


हर एक एक ठहरी हुई मुदूदत पर चलता है। सुन लो कि वह जबरदस्त है, बख्शने 
वाला है। (4-5) 





आदमी के अंदर फितरी तौर पर यह जज्बा है कि वह ख़ुदा की तरफ लपके, वह खुदा 
की परस्तिश करे। शैतान की कोशिश हमेशा यह होती है कि वह इस जज्वे को खुदा की तरफ 
से हटाकर दूसरी तरफ मोड़ दे। इसलिए वह लोगों के जेहन में डालता है कि ख़ुदा की बारगाह 


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सूरह-39. अज-जुमर I22I पारा 23 
ऊंची है, तुम बराहेरास्त खुदा तक नहीं पहुंच सकते। इसलिए तुम्हें बुजुर्गों के वसीले से ख़ुदा 
तक पहुंचने की कोशिश करना चाहिए। इसी तरह लोगों के जेहन में यह अकीदा बिठाता है 
कि जिस तरह इंसानों की औलाद होती है उसी तरह ख़ुदा की भी औलाद है। और ख़ुदा को 
खुश रखने का आसान तरीका यह है कि तुम ख़ुदा की औलाद को खुश रखो। जदीद 
माद्दापरस्ती (आधुनिक भौतिकवादिता) भी इसी की एक बिगड़ी हुई सूरत है जिसने आदमी 
के जज्बए परस्तिश को ख़लिक से हटाकर मर्क की तरफ कर दिया है। 

इस किस्म की तमाम बातें खुदा की तसगीर (छोटा बनाना) हैं। जो खुदा शमसी निजाम 
को चला रहा है और जिसने अजीम कायनात को संभाल रखा है वह यकीनन इससे बुलन्द है 
कि उसके यहां किसी की सिफारिश चले या उसके बेटे-बेटियां हों। 


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अल्लाह ने तुम्हें एक जान से पेदा किया, फिर उसने उसी से उसका जोड़ा बनाया। और 
उसी ने तुम्हारे लिए नर व मादा चौपाया की आठ किसमें उतारीं। वह तुम्हें तुम्हारी मांओं 
के पेट में बनाता है, एक खिलकत (सुजन रूप) के बाद दूसरी खिलकत, तीन तारीकियों 


के अंदर। यही अल्लाह तुम्हारा रब है। बादशाही उसी की है। उसके सिवा कोई माबूद 
नहीं। फिर तुम कहां से फेरे जाते हो। (6) 





अव्वलन एक इंसान वजूद में आया । फिर ऐन उसके मुताबिक उसका एक जोड़ा निकाला 
गया। इस तरह इब्तिदाई मर्द व औरत के जरिए इंसानी नस्ल चली। फिर इंसान की जरूरत 
के लिए उससे बाहर अल्लाह तआला ने बेशुमार चीजें बनाई । भेड़, बकरी, ऊंट और गाय (नर 
व मादा को मिलाकर आठ किसमें) तहजीब के इन्तिदाई दौर में हजारों साल तक इंसान की 
मईशत (अर्थव्यवस्था) का जरिया बनी रहीं। फिर जब तहजीब अगले मरहले में पहुंची तो 
दूसरी बेशुमार चीजों को इंसान ने इस्तेमाल करना शुरू किया जिन्हें खुदा ने अव्वल रोज से ऐसा 
बना रखा था कि इंसान उन्हें अपने काम में ला सके। जिस तरह पालतू जानवर तबीई 
(भौतिक) तौर पर इंसान के अधिकार में हैं। इसी तरह गैसें और मादनियात (धातु, खनिज) 
भी प्रदान की हुई हैं, वर्ना इंसान उन्हें इस्तेमाल न कर सके। मज्कूरा आठ किस्मों की मिसाल 
बतौर अलामत है न कि बतौर हस्र (सीमांकन) । 

इंसान की पैदाइश के सिलसिले में यहां जिन तीन तारीकियों का जिक्र है उससे मुराद तीन 
पर्दे हैं। अव्वल पेट की दीवार, फिर रहमे मादर (गर्भाशय) का पर्दा, और फिर जनीन (भ्रूण) 
की बाहरी झिल्ली । 





पारा 23 222 सूरह-39. अज॒-जुमर 
The mother's abdominal wall, the wall of the 
uterus, and the amniochorionic membrance. 
यह सारा निजाम इतना हैरतनाक हद तक पेचीदा और अजीम है कि ख़ालिके कायनात 
के सिवा कोई और इन्हें जुहूर में नहीं ला सकता । फिर उसके सिवा कौन इस काबिल है कि 


उसे माबूद का दर्जा दिया जाए 
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अगर तुम इंकार करो तो अल्लाह तुमसे बेनियाज (निस्पृह) है। और वह अपने बंदों के 
लिए इंकार को पसंद नहीं करता। और अगर तुम शुक्र करो तो वह उसे तुम्हारे लिए 
पसंद करता है। और कोई बोझ उठाने वाला किसी दूसरे का बोझ न उठाएगा। फिर 
तुम्हारे रब ही की तरफ तुम्हारी वापसी है। तो वह तुम्हें बता देगा जो तुम करते थे। 
बेशक वह दिलों की बात को जानने वाला है। (7) 





खुदा को मानना और उसका शुक्रगुजार बनना खुद इंसानी अक्ल का तकाजा है क्योंकि 
यह हयीक्ते वाक्या (यथ का एतरफ है औ हवीकते वाका का एतराफ बिलाझह 
सबसेबुइ अकी तकज है 

आखिरत अदूले कामिल का जुहूर (पूर्ण न्याय का प्रकटन) है और यह नामुमकिन है कि 
अदूले कामिल की दुनिया में वह नाकिस (त्रुटिपूर्ण) सूरतेहाल जारी रहे जो मौजूदा दुनिया में 
नजर आती है। अदूल का तकज है कि हर आदमी ऐन वही साबित हो जो कि फिलवाकअ 
वह है, और ऐन वही पाए जिसका वह हकीकतन मुस्तहिक था। मौजूदा दुनिया में ऐसा नहीं 
होता । आखिरत इसलिए आएगी कि वह दुनिया की इस कमी को दूर करे, वह नाकिस दुनिया 
को आखिरी हद तक कामिल दुनिया बना दे। 


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सूरह-39. अज-जुमर 223 पारा 2३ 
और जब इंसान को कोई तकलीफ पहुंचती है तो वह अपने रब को पुकारता है, उसकी 
तरफ रुजूअ (प्रवृत्त) होकर। फिर जब वह उसे अपने पास से नेमत दे देता है तो वह 
उस चीज को भूल जाता है जिसके लिए वह पहले पुकार रहा था और वह दूसरों को 
अल्लाह का बराबर ठहराने लगता है ताकि उसकी राह से गुमराह कर दे। कहो कि अपने 
कुफ्र से थोड़े दिन फायदा उठा ले, बेशक तू आग वालों में से है। भला जो शख्स रात 
की घड़ियों में सज्दा और कियाम की हालत में आजिजी (विनय) कर रहा हो, आख़िरत 

से डरता हो और अपने रब की रहमत का उम्मीदवार हो, कहो, क्या जानने वाले और 
न जानने वाले दोनों बराबर हो सकते हैं। नसीहत तो वही लोग पकड़ते हैं जो अक्ल 
वाले हैं। (8-9) 


हर आदमी पर ऐसे लम्हात आते हैं जबकि वह अपने आपको बेबस महसूस करने लगता 
है। वह जिन चीजों को अपना सहारा समझ रहा था वे भी इस नाजुक लम्हे में उसके मददगार 
नहीं बनते। उस वक्‍त आदमी सब कुछ भूलकर ख़ुदा को पुकारने लगता है। इस तरह मुसीबत 
की घड़ियों में हर आदमी जान लेता है कि एक ख़ुदा के सिवा कोई माबूद नहीं। मगर मुसीबत 
दूर होते ही वह दुबारा पहले की तरह बन जाता है। 

इंसान की मजीद सरकशी यह है कि वह अपनी नजात को खुदा के सिवा दूसरी चीजों 
की तरफ मंसूब करने लगता है। कुछ लोग उसे असबाब का करिश्मा बताते हैं और कुछ लोग 
फर्जी माबूदों का करिश्मा । आदमी अगर गलती करके ख़ामोश रहे तो यह सिर्फ एक शख्स का 
गुमराह होना है। मगर जब वह अपनी गलती को सही साबित करने के लिए उसकी झूठी 
तौजीह करने लगे तो वह गुमराह होने के साथ गुमराह करने वाला भी बना। 

एक इंसान वह है जिसे सिर्फ मादूदी गम बेकरार करे। दूसरा इंसान वह है जिसे खुदा की 
याद बेकरार कर देती हो। यही दूसरा इंसान दरअस्ल खुदा वाला इंसान है। उसका इकरारे खुदा 
हालात की पैदावार नहीं होता, वह उसकी शऊरी दरयाफ्त (चेतनापूर्ण खोज) होता है। वह 
ख़ुदा को एक ऐसी बरतर हस्ती की हैसियत से पाता है कि उसकी उम्मीदें और उसके अंदेशे 
सब एक खुदा की जात के साथ वाबस्ता हो जाते हैं। उसकी बेकरारियां रात के लम्हात में भी 
उसे बिस्तर से जुदा कर देती हैं। उसकी तंहाई गफलत की तंहाई नहीं होती बल्कि खुदा की 
याद की तंहाई बन जाती है। 

इल्म वाला वह है जिसकी नफ्सियात में ख़ुदा की याद से हलचल पैदा होती हो। और 
बेइल्म वाला वह है जिसकी नपिसयात को सिर्फ मादूदी हालात बेदार करें। वह मादूदी झटकों 
से जागे और इसके बाद दुबारा गफलत की नींद सो जाए 


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पारा 2३ 224 सूरह-39. अज-जुमर 
कहो कि ऐ मेरे बंदो जो ईमान लाए हो, अपने रब से डरो। जो लोग इस दुनिया में 
नेकी करेंगे उनके लिए नेक सिला (प्रतिफल) है। और अल्लाह की जमीन वसीअ 

(विस्तृत) है। बेशक सब्र करने वालों को उनका अज्र बेहिसाब दिया जाएगा। (0) 





आदमी को जब अल्लाह की गहरी मअरफत (अन्तर्ज्ञान) हासिल होती है तो इसका 
लाजिमी नतीजा यह होता है कि वह अल्लाह से डरने वाला बन जाता है। अल्लाह की अज्मतों 
का इदराक उसे अल्लाह के आगे पस्त कर देता है। उसकी अमली जिंदगी अल्लाह के अहकाम 
की पाबंदी में गुजरने लगती है। वह इस मामले में इस हद तक संजीदा हो जाता है कि सब 
कुछ छोड़ दे मगर अल्लाह को न छोड़े। 

ईमान के ऊपर जिंदगी की तामीर करना आदमी के लिए जबरदस्त इम्तेहान है। इस 
इम्तेहान में वही लोग पूरे उतरते हैं जिनके लिए ईमान इतनी कीमती दौलत हो कि उसकी 
ख़ातिर वे हर दूसरी चीज पर सब्र करने के लिए राजी हो जाएं। ईमानी जिंदगी अमल के 
एतबार से सब्र वाली जिंदगी का दूसरा नाम है। जो लोग सब्र की कीमत पर मोमिन बनने के 
लिए तैयार हों वही वे लोग हैं जो ख़ुदा के आला इनामात में हिस्सेदार बनाए जाएंगे । 


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कहो, मुझे हुक्म दिया गया है कि में अल्लाह ही की इबादत करू, उसी के लिए दीन 
को ख़ालिस करते हुए। और मुझे हुक्म दिया गया है कि मैं सबसे पहले खुद मुस्लिम 
(आज्ञाकारी) बनूं। कहो कि अगर में अपने रब की नाफरमानी (अवज्ञा) करूं तो मैं एक 
हौलनाक दिन के अजाब से डरता हूं। कहो कि मैं अल्लाह की इबादत करता हूं उसी 

के लिए दीन को ख़ालिस करते हुए। पस तुम उसके सिवा जिसकी चाहे इबादत करो। 
कहो कि असली घाटे वाले तो वे हैं जिन्होंने अपने आपको और अपने घर वालों को 
कियामत के दिन घाटे में डाला। सुन लो यही खुला हुआ घाटा है। उनके लिए उनके 
ऊपर से भी आग के सायबान होंगे और उनके नीचे से भी। यह चीज है जिससे अल्लाह 
अपने बंदों को डराता है। ऐ मेरे बंदो, पस मुझसे डरो। (7-6) 








पैगम्बर की अस्ल दावत यह होती है कि लोग सिर्फ एक खुदा के परस्तार बनें। उसके £ सवा 


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सूरह-39. अज-जुमर 225 पारा 23 
दूसरी तमाम चीजों की परस्तारी छोड़ दें। पैगम्बर के लिए यह मारूफ (प्रचलित) मअनेंमेंसिर्फ 
की (नेतृत्वपरक) मसला नहीं होता बल्कि वह उसका जाती मसला होता है। इसलिए वह सबसे 
पहले खुद उस पर कायम होता है। पैगम्बर को यकीन होता है कि आदमी के नफा व नुक्सान का 
अस्ल फैसला आख़िरत में होने वाला है। इसलिए वह खुद अपनी जिंदगी को आखिरत की राह में 
लगाता है और दूसरों को उसकी तरफ लगने की दावत देता है। 

पैगम्बर के काम की यह नौइयत दाओ के काम की नौइयत को बता रही है। हक का दाऔ 
वही शख्स है जिसके लिए हक उसका जाती मसला बन जाए । जिसकी दावत उसकी अंदरूनी 
हालत का एक बेताबाना इज्हार हो न कि लाउडस्पीकर की तरह सिर्फ एक ख़ारजी पुकार। 


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और जो लोग शैतान से बचे कि वे उसकी इबादत करें और वे अल्लाह की तरफ रुजूअ 
हुए, उनके लिए ख़ुशख़बरी है, तो मेरे बंदों को ख़ुशख़बरी दे दो जो बात को गीर से 
सुनते हैं। फिर उसके बेहतर की पैरवी करते हैं। यही वे लोग हैं जिन्हें अल्लाह ने 
हिदायत बख्शी है और यही हैं जो अक्ल वाले हैं। (7-8) 




















मौजूदा दुनिया फितने की दुनिया है। यहां हकीकतें अपनी आखिरी बेनकाब शक्ल में 
जाहिर नहीं हुई हैं। यही वजह है कि यहां हर बात को ग़लत मअना पहनाया जा सकता है। 
शैतान इसी इम्कान को इस्तेमाल करके लोगों को राहेरास्त से भटकाता है। 

जब भी कोई हक सामने आता है तो शैतान उसे गलत मअना पहनाकर लोगों के जेहन को 
फेरने की कोशिश करता है। वह कौल के अहसन (अच्छे) पहलू से हटाकर कौल के गैर अहसन 
पहलू को लोगों के सामने लाता है। यही वह मकाम है जहां आदमी का असल इम्तेहान है। 
आदमी को उस अक्ल का सुबूत देना है कि वह सही और गलत के दर्मियान तमीज करे। वह 
शैतानी फरेब का पर्दा फाड़कर हकीकत को देख सके। जो लोग इस बसीरत का सुबूत दें वही 
वे खुशकिसमत लोग हैं जो खुदाई सच्चाई को पाएंगे और जो लोग इस बसीरत (सूझबूझ) का 
सुबूत देने में नाकाम रहें, उनके लिए इस दुनिया में इसके सिवा कोई और अंजाम मुकदूदर नहीं 
कि वे कौल के गैर अहसन (बुरे) पहलुओं में उलझे रहें और ख़ुदा के यहां शैतान के परस्तार की 
हैसियत से उठाए जाएं 


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पारा 23 226 


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क्या जिस पर अजाब की बात साबित हो चुकी, पस क्या तुम ऐसे शख़्स को बचा सकते 
हो जो कि आग में है। लेकिन जो लोग अपने रब से डरे, उनके लिए बालाख़ाने (उच्च 
भवन) हैं जिनके ऊपर और बालाख़ाने हैं, बने हुए। उनके नीचे नहरें बहती हैं। यह 
अल्लाह का वादा है। अल्लाह अपने वादे के खिलाफ नहीं करता। (9-20) 


सूरह-39. अज॒-जुमर 





हर आदमी अपने आमाल के अंजाम के दर्मियान घिरा हुआ है। जन्नत वाले को जन्नती 
फिज पेर हुए है और जहन्नम वाले को जहन्नमी फज पैर हुए है। गैर महसूस हकीकतें को 
देखने वाली निगाह हो तो लोग जन्नत वाले इंसान को इसी दुनिया में जन्नत में देखें और 
जहन्नम वाले इंसान को इसी दुनिया में जहन्नम में घिरा हुआ पाएं। 

जन्नत आरजुओं की उस दुनिया की आखिरी मेयारी सूरत है जिसे आदमी दुनिया में 
हासिल करना चाहता है मगर वह उसे हासिल नहीं कर पाता। इस जन्नत की कीमत अल्लाह 
का तकवा है। जो लोग दुनिया में ख़ौफे खुदा का सुबूत ठी वही जन्नत की बेख़फ जिंदगी 
के मालिक बनेंगे । 


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क्या तुमने नहीं देखा कि अल्लाह ने आसमान से पानी उतारा। फिर उसे जमीन के 
चशमों (स्रोतों) में जारी कर दिया। फिर वह उससे मुख़्तलिफ किस्म की खेतियां 
निकालता है, फिर वह ख़ुश्क हो जाती है, तो तुम उसे जर्द देखते हो। फिर वह उसे 
रेजारेजा कर देता है। बेशक इसमें नसीहत है अक्ल वालों के लिए। क्या वह शख्स 

जिसका सीना अल्लाह ने इस्लाम के लिए खोल दिया, पस वह अपने रब की तरफ 

से एक रोशनी पर है। तो ख़राबी है उनके लिए जिनके दिल अल्लाह की नसीहत के 
मामले में सख्त हो गए। ये लोग खुली हुई गुमराही में हैं। (2-22) 








जमीन पर बारिश का हैरतअज निजाम, फिर उससे सब्जा का उगना, फिर फसल की 
तैयारी, इन मादूदी वाकेयात में बेशुमार मअनवी नसीहतें हैं। मगर इन नसीहतों को वही लोग 
पाते हैं जो बातों की गहराई में उतरने का मिजाज रखते हों। 

एक तरफ अल्लाह ने ख़ारजी (वाह्य) दुनिया को इस ढंग पर बनाया कि उसकी हर चीज 


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सूरह-39. अज-जुमर 227 पारा 2३ 
हकीकते आला की निशानी बन गई। दूसरी तरफ इंसान के अंदर ऐसी सलाहियतें रख दीं कि 
वह इन निशानियों को पढ़े और उन्हें समझ सके। अब जो लोग अपनी फितरी सलाहियतों को 
जिंदा रखें और उनसे काम लेकर दुनिया की चीजों पर गौर करें, उनके सीने में मअरफत 
(अन्तर्ज्ञान) के दरवाजे खुल जाएंगे। और जो लोग अपनी फितरी सलाहियतों को जिंदा न रख 
सकें वे नसीहतों के हुजूम में भी नसीहत लेने से महरूम रहेंगे। वे देखकर भी कुछ न देखेंगे 
और सुन कर भी कुछ न सुनेंगे। 
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अल्लाह ने बेहतरीन कलाम उतारा है। एक ऐसी किताब आपस में मिलती-जुलती, 
बार-बार दोहराई हुई, इससे उन लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं जो अपने रब से डरने वाले 
हैं। फिर उनके बदन और उनके दिल नर्म होकर अल्लाह की याद की तरफ मुतवज्जह हो 
जाते हैं। यह अल्लाह की हिदायत है, इससे वह हिदायत देता है जिसे वह चाहता है। और 
जिसे अल्लाह गुमराह कर दे तो उसे कोई हिदायत देने वाला नहीं। (28) 





कुरआन की सूरत में अल्लाह तआला ने एक बेहतरीन किताब इंसान को अता की है। 
इसकी दो ख़ास सिफतें हैं। एक यह कि वह मुतशाबेह (मिलती-जुलती) है। यानी वह एक 
बेतजाद (अन्तर्विरोध से मुक्त) किताब है। इसके एक जुज और उसके दूसरे जुज में कोई 
टकराव नहीं। कुरआन की यह सिफत बताती है कि यह किताब बयाने हकीकत पर मबनी है। 
अगर इसके बयानात ऐन हकीकत न हेते तो जरूर इसके मुख़लिफ अज्जा के दर्मियान 
इख्तेलाफ (मतभेद) और बहुरूपता (consistency) पैदा हो जाती। 

कुरआन की दूसरी सिफत यह है कि वह मसानी (दोहराई हुई) किताब है। यानी इसके 
मजामीन बार-बार मुछ्नलिफ पैरायों से दोहराए गए हैं। कुरआन की यह सिफत उसके किताबे 
नसीहत होने को बताती है। नसीहत करने वाला हमेशा यह चाहता है कि उसकी बात सुनने 
वाले के जेहन में बैठ जाए। इस मवसद के लिए वह अपनी बात को मुरन्ललिफ अंदाज से 
बयान करता है। यही हिक्मत आलातरीन अंदाज में कुरआन में भी है। 

इंसान के अंदर यह खुसूसियत है कि जब वह कोई दहशतनाक ख़बर सुनता है तो उसके 
जिस्म के रोंगटे खड़े हो जाते हैं और उसके वजूद में एक किस्म की आजिजाना नर्मी पैदा हो 
जाती है। यही हाल संजीदा इंसान का कुरआन को पढ़कर होता है। कुरआन में जिंदगी की 
संगीन हकीकतों को इंतिहाई मुअस्सिर (प्रभावी) अंदाज में बयान किया गया है। इसलिए इंसान 
जैसी मख्नूक अगर वाकेयतन उसे समझ कर पढ़े तो उसके जिस्म के ऊपर वही कैफियत तारी 
होगी जो किसी संगीन ख़बर को सुनकर फितरी तौर पर उसके ऊपर तारी होना चाहिए। 


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क्या वह शख्स जो कियामत के दिन अपने चेहरे को बुरे अजाब की सिपर (ढाल) 
बनाएगा, और जालिमों से कहा जाएगा कि चखो मजा उस कमाई का जो तुम करते 
थे। उनसे पहले वालों ने भी झुठलाया तो उन पर अजाब वहां से आ गया जिधर उनका 
ख्याल भी न था। तो अल्लाह ने उन्हें दुनिया की जिंदगी में रुसवाई का मजा चखाया 
और आख़िरत का अजाब और भी बड़ा है, काश ये लोग जानते। (24-26) 





आदमी की कोशिश हमेशा यह होती है कि वह अपने चेहरे को चोट से बचाए। मगर 
कियामत का अजाब आदमी को इस तरह घेरे हुए होगा कि वहां यह मुमकिन न होगा कि 
आदमी अपने जिस्म के किसी हिस्से को उसकी जद में आने से रोक सके। वह नाकाबिले 
दिफाअ अजाब के सामने इस तरह खड़ा हुआ होगा गोया वह खुद अपने चेहरे को उसके 
मुकाबले में सिपर (ढाल) बनाए हुए है। 

अल्लाह की नजर में सबसे बड़ा जुर्म यह है कि आदमी के सामने हक आए और वह 
उसका एतराफ न करे। ऐसे लोग किसी हाल में ख़ुदा की पकड़ से बच नहीं सकते। 


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और हमने इस कुरआन में हर किस्म की मिसालें बयान की हैं ताकि वे नसीहत हासिल 
करें। यह अरबी कुरआन है, इसमें कोई टेढ़ नहीं, ताकि लोग डरें। अल्लाह मिसाल 
बयान करता है एक शख्स की जिसकी मिल्कियत में कई जिद्दी आका (स्वामी) शरीक 
हैं। और दूसरा शख्स पूरा का पूरा एक ही आका का गुलाम है। क्या इन दोनों का 
हाल यकसां (समान) होगा। सब तारीफ अल्लाह के लिए है लेकिन अक्सर लोग नहीं 


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सूरह-39. अज-जुमर I229 पारा 24 
जानते। तुम्हें भी मरना है और वे भी मरने वाले हैं। फिर तुम लोग कियामत के दिन 
अपने रब के सामने अपना मुकदमा पेश करोगे। (27-3) 





कुरआन के बयानात इंसान की मालूम जबान और इंसान के मालूम दायरे के अंदर होते 
हैं ताकि किसी के लिए उसका समझना मुश्किल न हो। 

यहां तमसील की जबान में बताया गया है कि शिक (बहुदेववाद) के मुकाबले में तौहीद 
(एकेश्वरवाद) का उसूल ज्यादा मावूल और ज्यादा मुताबिके फितरत है। एक तरफ ख़रजी 
कायनात बताती है कि यहां एक ही इरादे की कारफरमाई है। अगर यहां कई इरादों की 
कारफरमाई होती तो कायनात का निजाम इस कद्र हमआहंगी (सामंजस्य) के साथ नहीं चल 
सकता था। दूसरी तरफ इंसान की साख भी ऐसी है जो वफादारी में वहदत (एकत्व) को पसंद 
करती है। यह बात इंसानी साख्ञ के सरासर खिलाफ है कि एक इंसान पर बयकवक्त कई 
मुख्ललिफ किस्म की वफादारियों की जिम्मेदारी हो और नतीजतन वह एक को भी निभा न सके। 

तमाम दलाइल व कराइन यही बताते हैं कि सिर्फ एक खुदा है जो इंसान का ख़ालिक और 
उसका माबूद है। मौजूदा दुनिया में यह हकीकत अपने जैसे इंसान की जबान से सुनाई जाती 
है। कयामत मेखु्र ़लिके कायनात इस हकीकत का एलान फरमाएगा। उस वक्त किसी 
शख्स के लिए यह मुमकिन न होगा कि वह इस बात का इंकार कर सके। 

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उस शख्स से ज्यादा जालिम कोन होगा जिसने अल्लाह पर झूठ बांधा। और सच्चाई 
को झुठला दिया जबकि वह उसके पास आई। क्या ऐसे मुंकिरों का ठिकाना जहन्नम 
में न होगा। और जो शख्स सच्चाई लेकर आया और जिसने उसकी तस्दीक (पुष्टि) की, 
यही लोग अल्लाह से डरने वाले हैं। उनके लिए उनके रब के पास वह सब है जो वे 


चाहेंगे, यह बदला है नेकी करने वालों का ताकि अल्लाह उनसे उनके बुरे अमलों को 
दूर कर दे और उनके नेक कामां के एवज उन्हें उनका सवाब दे। (३2-35) 


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हर वह नजरिया जो मुताबिके हकीकत न हो वह अल्लाह पर झूठ बांधना है। हर दौर में 
लोग इसी किस्म के झूठ पर जी रहे होते हैं। अल्लाह का दाऔ इसलिए उठता है कि वह ऐसे 





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पारा 24 230 सूरह-39. अज-जुमर 
झूठ का झूठ होना साबित करे। इसके बाद भी जो लोग झूठ पर कायम रहें वे ढिठाई करने वाले 
लोग हैं। वे जहन्नम की आग में डाले जाएंगे। और जो लोग रुजूअ करके हक के साथी बन 
जाएं वही वे लोग हैं जो अल्लाह से डरने वाले साबित हुए। अल्लाह तआला ऐसे लोगों की 
बुराइयों को उनके आमाल से हटा देगा और उनके नेक आमाल की बिना पर उनकी कद्रदानी 
फमाएग। 
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कया अल्लाह अपने बंदे के लिए काफी नहीं। और ये लोग उसके सिवा दूसरों से तुम्हें 
डराते हैं, और अल्लाह जिसे गुमराह कर दे उसे कोई रास्ता दिखाने वाला नहीं। और 


अल्लाह जिसे हिदायत दे उसे कोई गुमराह करने वाला नहीं। क्या अल्लाह जबरदस्त, 
इंतिकाम (प्रतिशोध) लेने वाला नहीं। (36-37) 














अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम तौहीद के दाऔ थे। मगर आपका तरीका 
यह न था कि “ख़ुदा एक है” के मुस्बत (सकारात्मक) एलान पर रुक जाएं | इसी के साथ आप उन 
गैर खुदाई हस्तियों की तरदीद (रद्द) भी फरमाते थे जिन्हें लोगों ने बतौर ख़ुद माबूद का दर्जा दे 
रखा था। आपकी दावत का यही दूसरा जुज लोगों के लिए नाकाबिले बर्दश्ति बन गया। 

ये गैर खुदाई हस्तियां दरअसल उनके कौमी अकाबिर (महापुरुष) थे। सदियों से वे उनकी 
करामत की मुबालग़ाआमेज (अतिरंजनापूर्ण) दास्तानें सुनते आ रहे थे। उनके जेहन पर उन 
हस्तियों की अज्मत इस तरह छा गई थी कि जब अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम 
ने उनके तकदूदुस (पवित्रता) की तरदीद फरमाई तो उनकी समझ में किसी तरह न आया कि 
वे गैर मुकद्दस कैसे हो सकते हैं। उन्होंने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से 
कहा कि तुम हमारे माबूदों को बुरा कहना छोड़ दो वर्ना तुम तबाह हो जाओगे या तुम्हें जुनून 
हो जाएगा। 

मगर हक के दाओ को हुक्म है कि वह इस किस्म की बातों की परवाह न करे। वह 
अल्लाह के भरोसे पर इस्बाते तौहीद (एक ख़ुदा की पुष्टि) और शिक के रदूद का दुगना काम 
जारी रखे। क्योकि इसके बगैर अम्रे हक पूरी तरह वाजेह नहीं हो सकता। 


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सूरह-39. अज-जुमर I23] पारा 24 

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और अगर तुम उनसे पूछो कि आसमानों को और जमीन को किसने पैदा किया तो 

वे कहेंगे कि अल्लाह ने। कहो, तुम्हारा क्या ख्याल है, अल्लाह के सिवा तुम जिन्हें 
पुकारते हो, अगर अल्लाह मुझे कोई तकलीफ पहुंचाना चाहे तो क्या ये उसकी दी 
हुई तकलीफ को दूर कर सकते हैं, या अल्लाह मुझ पर कोई महरबानी करना चाहे 
तो क्या ये उसकी महरबानी को रोकने वाले बन सकते हैं। कहो कि अल्लाह मेरे 
लिए काफी है, भरोसा करने वाले उसी पर भरोसा करते हैं। कहो कि ऐ मेरी कौम, 

तुम अपनी जगह अमल करो, में भी अमल कर रहा हूं, तो तुम जल्द जान लोगे कि 
किस पर रुसवा करने वाला अजाब आता है और किस पर वह अजाब आता है जो 

कभी टलने वाला नहीं। हमने लोगों की हिदायत के लिए यह किताब तुम पर हक 
के साथ उतारी है। पस जो शख्स हिदायत हासिल करेगा वह अपने ही लिए करेगा। 
और जो शख्स बेराह होगा तो उसका बेराह होना उसी पर पड़ेगा। और तुम उनके 
ऊपर जिम्मेदार नहीं हो। (38-4) 








इंसान हर दौर में गैर अल्लाह की इबादत करता रहा है। मगर कोई शख्स यह कहने की 
हिम्मत नहीं करता कि उसकी इन्हीं पसंदीदा हस्तियों ने जमीन आसमान को बनाया है। या 
तकलीफ और आराम के वावेयात के हकीकी असबाब उनके इरिन्नयार में हैं। इस बेयकीनी 
के बावजूद लोगों का यकीन बड़ा अजीब है कि वे अपने झूठे माबूदों को छोड़ने पर राजी नहीं 
होते। 

जब दाऔ की दलीलें मदऊ पर बेअसर साबित हों तो उस वकत उसके पास कहने की 
जो बात होती है वह यह कि तुम जो चाहे करो, जब आखिरी फैसले का दिन आएगा तो 
वह बता देगा कि कौन हक पर था और कौन नाहक पर । यह दलील के बाद यकीन का इजहार 
है, और दाऔ का आखिरी कलिमा हमेशा यही होता है। 


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पारा 24 232 


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अल्लाह ही वफात देता है जानों को उनकी मौत के वक्‍त, और जिनकी मौत नहीं आई 
उन्हें सोने के वक्‍त। फिर वह उन्हें रोक लेता है जिनकी मौत का फैसला कर चुका है 
और दूसरों को एक वक्‍त मुरकर तक के लिए रिहा कर देता है। बेशक इसमें निशानियां 
हैं उन लोगों के लिए जो गौर करते हैं। (42) 


सूरह-39. अज॒-जुमर 


नींद के वक्‍त आदमी पर बेख़बरी की हालत तारी हो जाती है। इस एतबार से नींद गोया 
मौत की तरह है। फिर जब आदमी सोकर उठता है तो दुबारा वह होश की हालत में आ जाता 
है। यह गोया मौत के बाद दुबारा जी उठने की तस्वीर है। 

इस कानूने फितरत के तहत हर आदमी को आज ही इब्तिदाई सतह पर दिखाया जा रहा 
है कि वह किस तरह मरेगा और किस तरह वह दुबारा उठ खड़ा होगा। आदमी अगर संजीदगी 
के साथ गौर करे तो वह इसी दुनियावी वाकये में अपने लिए आख़िरत का सबक पा लेगा। 


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क्या उन्होंने अल्लाह को छोड़कर दूसरों को सिफारिशी बना रखा है। कहो, अगरचे वे 

न कुछ इख्तियार रखते हों और न कुछ समझते हों। कहो, सिफारिश सारी की सारी 
अल्लाह के इख्तियार में है। आसमानों और जमीन की बादशाही उसी की है। फिर तुम 
उसी की तरफ लोटाए जाओगे। और जब अकेले अल्लाह का जिक्र किया जाता है तो 

उन लोगों के दिल कुढ़ते हैं जो आख़िरत पर ईमान नहीं रखते। और जब उसके सिवा 


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सूरह-39. अज-जुमर 233 पारा 24 
दूसरों का जिक्र होता है तो उस वक्‍त वे खुश हो जाते हैं। कहो कि ऐ अल्लाह, 
आसमानों और जमीन के पेदा करने वाले, गायब और हाजिर के जानने वाले, तू अपने 

बंदों के दर्मियान उस चीज का फैसला करेगा जिसमें वे इस़्तेलाफ (मतभेद) कर रहे हैं। 

और अगर जुल्म करने वालों के पास वह सब कुछ हो जो जमीन में है और उसी के बराबर 

और भी, तो वे कियामत के दिन सखन अजाब से बचने के लिए उसे फिदये (बदल) 

में दे दें। और अल्लाह की तरफ से उन्हें वह मामला पेश आएगा जिसका उन्हें गुमान 
भी न था। और उनके सामने आ जाएंगे उनके बुरे आमाल और वह चीज उन्हें घेर लेगी 
जिसका वे मजाक उडते थे। (43-48) 


अरब के मुश्रिकीन जिन के मुतअल्लिक यह अकीदा रखते थे कि ख़ुदा के यहां वे उनकी 
क्त (सिफ) करने वाले बन जाएंगे वे हकीकतन पत्थर के बुत न थे। ये वे बुजुर्ग 
हस्तियां थीं जिनकी अलामत के तौर पर उन्होंने पत्थर के बुत बना रखे थे। उनके शुफआ 
(शफाअत करने वाले) दरअसल उनके कौमी अकाबिर (महापुरुष) थे जिनके मुतअल्लिक 
उनका अकीदा था कि उनका दामन पकड़े रहो, वे ख़ुदा के यहां तुम्हारे लिए काफी हो जाएंगे । 

जो लोग गैर अल्लाह के बारे में इस किस्म का अकीदा बनाएं, धीरे-धीरे उनका हाल यह 
हो जाता है कि उनकी सारी अकीदतें और शेफ्तगियां (आस्था एवं मुहब्बतें) उन्हीं गैर खुदाई 
शख्सियतों के साथ वाबस्ता हो जाती हैं। उन शख््सियतों की बड़ाई का चर्चा किया जाए तो 
उसे सुनकर वे ख़ूब खुश होते हैं। लेकिन अगर एक ख़ुदा की बड़ाई बयान की जाए तो उनकी 
रूह को उससे कोई गिजा नहीं मिलती। 

ऐसे लोगों के सामने ख़्वाह कितने ही ताकतवर दलाइल के साथ तौहीद ख़ालिस को 
बयान किया जाए वे उसे मानने वाले नहीं बनते। उनकी आंख सिर्फ उस वक्त खुलती है 
जबकि कियामत का पर्दा फाइकर खुदा का जलाल बेनकाब हो जाए। आज आदमी का हाल 
यह है कि वह एतराफ के अल्फाज देने के लिए भी तैयार नहीं होता। मगर जब वह वक्‍त 
आएगा तो वह चाहेगा कि जो कुछ उसके पास है सब उससे बचने के लिए फिदये (बदल) 
में दे डाले। मगर वहां आदमी के अपने आमाल के सिवा कोई चीज न होगी जो उसके काम 
आ सके। 


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पारा 24 234 सूरह-39. अज॒-जुमर 


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पस जब इंसान को कोई तकलीफ पहुंचती है तो वह हमें पुकारता है, फिर जब हम 

अपनी तरफ से उसे नेमत दे देते हैं तो वह कहता है कि यह तो मुझे इल्म की बिना 

पर दिया गया है। बल्कि यह आजमाइश है मगर उनमें से अक्सर लोग नहीं जानते। 

उनसे पहले वालों ने भी यह बात कही तो जो कुछ वे कमाते थे वह उनके काम न 

आया। पस उन पर वे बुराइयां आ पड़ीं जो उन्होंने कमाई थीं। और उन लोगों में से 

जो जालिम हैं उनके सामने भी उनकी कमाई के बुरे नताइज जल्द आएंगे। वे हमें 

आजिज (निर्बल) कर देने वाले नहीं हैं। क्या उन्हें मालूम नहीं कि अल्लाह जिसे चाहता 

है रिज्क कुशादा कर देता है। और वही तंग कर देता है। बेशक इसके अंदर निशानियां 

हैं उन लोगों के लिए जो ईमान लाने वाले हैं। (49-52) 





दुनिया में आदमी को जब कोई चीज मिलती है तो वह उसे अपनी लियाकत (योग्यता) 
का नतीजा समझ कर खुश होता है। हालांकि दुनिया की चीजें आजमाइश का सामान हैं न कि 
लियाकत का इनाम। इसी हकीकत को जानना सबसे बड़ इल्म है। दुनिया की चीजें को 
आदमी अगर अपनी लियाकत का नतीजा समझ ले तो इससे उसके अंदर फख़ और घमंड की 
नफ्सियात उभरेगी। इसके बरअक्स, जब आदमी उन्हें आजमाइश का सामान समझता है तो 
उसके अंदर शुक्र और तवाजोअ (विनम्रता) के जज्बात पैदा होते हैं। 

रिप्के दुनिया की कमी या ज्यादती तमामतर इंसानी इख़ितयार से बाहर की चीज है। ऐसा 
मालूम होता है कि इंसान के बाहर कोई कुव्वत है जो यह फैसला करती है कि किस को ज्यादा 
मिले और किस को कम दिया जाए। यह वाकया बताता है कि रिक का फैसला शरी 
लियाकत की बुनियाद पर नहीं होता। इसका फैसला किसी और बुनियाद पर होता है। वह 
बुनियाद यही है कि मौजूदा दुनिया इम्तेहान की जगह है न कि इनाम की जगह | इसलिए यहां 
किसी को जो कुछ मिलता है वह उसके इम्तेहान का पर्चा होता है। इम्तेहान लेने वाला अपने 
फैसले के तहत किसी को कोई पर्चा देता है और किसी को कोई पर्चा। किसी को एक किस्म 
के हालात में आजमाता है और किसी को दूसरे किस्म के हालात में। 


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सूरह-39. अज-जुमर 235 पारा 24 
कहो कि ऐ मेरे बंदो जिन्होंने अपनी जानां पर ज्यादती की है, अल्लाह की रहमत 

से मायूस न हो। बेशक अल्लाह तमाम गुनाहों को माफ कर देता है, वह बड़ा बख्शने 
वाला महरबान है। और तुम अपने रब की तरफ रुजूअ करो और उसके फरमांबरदार 

बन जाओ। इससे पहले कि तुम पर अजाब आ जाए, फिर तुम्हारी कोई मदद न 
की जाए। (53-54) 








जिन लोगों के सीने में हस्सास (संवेदनशील) दिल है उन्हें जब खुदा की मअरफत 
(अन्तज्ञान) हासिल होती है तो उन्हें यह ख़्याल सताने लगता है कि अब तक उनसे जो गुनाह 
हुए हैं उनका मामला क्या होगा। इसी तरह ख़ुदापरस्ताना जिंदगी इख्तियार करने के बाद भी 
आदमी से बार-बार कोताहियां होती हैं और उसकी हस्सासियत दुबारा उसे सताने लगती है। 
यहां तक कि यह एहसास कुछ लोगों को मायूसी की हद तक पहुंचा देता है। 

ऐसे लोगों के लिए अल्लाह ने अपनी किताब में यह एलान फरमाया कि उन्हें यकीन करना 
चाहिए कि उनका मामला एक ऐसे खुदा से है जो गफूर व रहीम है। वह आदमी के माजी 
(अतीत) को नहीं बल्कि उसके हाल (वर्तमान) को देखता है। वह आदमी के जाहिर को नहीं 
बल्कि उसके बातिन (भीतर) को देखता है। वह आदमी से वुस्अत (सहदयता) का मामला 
फरमाता है न कि खुरदागीरी (निष्ठुरता) का। यही वजह है कि आदमी जब उसकी तरफ रुजूअ 
करता है तो वह नए सिरे से उसे अपनी रहमत के साये में ले लेता है, चाहे उससे कितना ही 


बड़ा कुसूर क्यों न हो गया हो ॥ 
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और तुम पैरवी करो अपने रब की भेजी हुई किताब के बेहतर पहलू की, इससे पहले 
कि तुम पर अचानक अजाब आ जाए और तुम्हें ख़बर भी न हो। कहीं कोई शख्स यह 





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पारा 24 236 सूरह-39. अज-जुमर 
कहे कि अफसोस मेरी कोताही पर जो मैंने खुदा की जनाब में की, और में तो मजाक 

उड़ाने वालों में शामिल रहा। या कोई यह कहे कि अगर अल्लाह मुझे हिदायत देता 
तो में भी डरने वालों में से होता। या अजाब को देखकर कोई शख्स यह कहे कि काश 
मुझे दुनिया में फिर जाना हो तो मैं नेक बदों में से हो जाऊ। हां तुम्हारे पास मेरी आयतें 
आई फिर तूने उन्हें झुठलाया और तकब्बुर (घमंड) किया और तू मुंकिरों में शामिल रहा। 
और तुम कियामत के दिन उन लोगों के चेहरे स्याह देखोगे जिन्होंने अल्लाह पर झूठ 
बोला था। क्या घमंड करने वालों का ठिकाना जहन्नम में न होगा। और जो लोग डरते 
रहे। अल्लाह उन लोगों को कामयाबी के साथ नजात (मुक्ति) देगा, और उन्हें कोई 
तकलीफ न पहुंचेगी और न वे ग़मगीन होंगे। (55-6) 





खुदा के कलाम में बेहतर और गैर बेहतर की तक्सीम नहीं। न कुरआन में ऐसा है कि 
उसकी कुछ आयतें बेहतर हैं और कुछ आयतें गैर बेहतर। और न कुरआन और दूसरी 
आसमानी किताबों में यह फर्क है कि उनमें से कोई किताब ब-एतबार हकीकत बेहतर है और 
कोई किताब गैर बेहतर। 

अस्ल यह है कि मौजूदा इम्तेहान की दुनिया में आदमी को अमल की आजादी है। यहां 
उसके लिए यह मौका है कि एक कलाम को चाहे सीधे रुख़ से ले या उल्टे रुख़ से | वह चाहे 
कलाम के अस्ल मुद्दे पर ध्यान दे या उसमें बेजा शोशे निकाले और उसे गलत मअना 
पहनाए। कलामे इलाही का मजाक उड़ाना इसी की एक मिसाल है। आदमी एक आयत को 
लेकर उसमें उल्टा मफहूम निकालता है और फिर उस खुदसाख़ा (स्वयंनिर्मित) मफहूम की 
बिना पर उसका मजाक उड़ने लगता है। 

दुनिया में आदमी अपने आपको छुपाए हुए है। वह महज तकब्बुर (घमंड) की बुनियाद 
पर हक को नहीं मानता और ऐसे अल्फाज बोलता है गोया कि वह उसूल की बुनियाद पर 
उसका इंकार कर रहा है। मगर कियामत के दिन आदमी का चेहरा उसकी अंदरूनी हालत का 
मजहर (प्रकट रूप) बन जाएगा। उस वक्‍त आदमी का अपना चेहरा बताएगा कि वह जिस 
हक में गैर बेहतर' पहलू निकाल कर उसका मुंकेर बना रहा वे सिर्फ उसके झूठे अल्फाज थे। 
वर्ना हक बजकर बिल्कुल साफ और वाज्ह था। उस वक्‍त वह अफसोस केशा मगर उस 


वक्त का अफसोस करना उसके कुछ काम न आएगा। 
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सूरह-39. अज-जुमर 237 पारा 24 
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अल्लाह हर चीज का ख़ालिक है और वही हर चीज पर निगहबान है। आसमानां और 
जमीन की कुंजियां उसी के पास हैं। और जिन लोगों ने अल्लाह की आयतों का इंकार 
किया वही घाटे में रहने वाले हैं। कहो कि ऐ नादानो, क्या तुम मुझे गैर अल्लाह की 
इबादत करने के लिए कहते हो। और तुमसे पहले वालों की तरफ भी “वही” (ईश्वरीय 
वाणी) भेजी जा चुकी है कि अगर तुमने शिर्क किया तो तुम्हारा अमल जाया हो 
जाएगा। और तुम ख़सारे (घाटे) में रहोगे। बल्कि सिर्फ अल्लाह की इबादत करो और 
शुक्र करने वालों में से बनो। (62-66) 


कायनात की मौजूदगी उसके ख़ालिक की मौजूदगी का सुबूत है। इसी तरह कायनात 
जितने बामअना और जिस क्र मुनज्जम तौर पर चल रही है वह इसका सुबूत है कि हर आन 
एक निगरानी करने वाला उसकी निगरानी कर रहा है। आदमी अगर संजीदगी के साथ गौर 
करे तो वह कायनात में उसके ख़ालिक की निशानी पा लेगा और इसी तरह उसके नाजिम 
और मुदब्बिर (व्यवस्थापक) की निशानी भी। 

ऐसी हालत में जो लोग एक ख़ुदा के सिवा दूसरी हस्तियों के इबादतगुजार बनते हैं वे 
एक ऐसा अमल कर रहे हैं जिसकी मौजूदा कायनात में कोई कीमत नहीं। क्योंकि ख़ालिक 
और वकील (कार्य-साधक) जब सिर्फ एक है तो उसी की इबादत आदमी को नफा दे सकती 
है। उसके सिवा किसी और की इबादत करना गोया ऐसे माबूद को पुकारना है जिसका सिरे 
से कोई वजूद ही नहीं। 


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और लोगों ने अल्लाह की कदर न की जैसा कि उसकी कद्र करने का हक है। और जमीन 
सारी उसकी मुट्ठी में होगी कियामत के दिन और तमाम आसमान लिपटे होंगे उसके 


दाहिने हाथ में। वह पाक और बरतर है उस शिर्क से जो ये लोग करते हैं। और सूर 
फूंका जाएगा तो आसमानां और जमीन में जो भी हैं सब बेहोश होकर गिर पड़ेंगे, मगर 


पारा 24 238 सूरह-39. अज-जुमर 
जिसे अल्लाह चाहे। फिर दुबारा उसमें फूंका जाएगा तो यकायक सब के सब उठकर 
देखने लगेंगे और जमीन अपने रब के नूर (आलोक) से चमक उठेगी। और किताब रख 

दी जाएगी और पेग़म्बर और गवाह हाजिर किए जाएंगे। और लोगों के दर्मियान 
ठीक-ठीक फैसला कर दिया जाएगा और उन पर कोई जुल्म न होगा। और हर शख्स 

को उसके आमाल का पूरा बदला दिया जाएगा। और वह ख़ूब जानता है जो कुछ वे 
करते हैं। (67-70) 





अक्सर गुमराहियों की जड़ खुदा का कमतर अंदाजा है। आदमी दूसरी अज्मतों में 
इसलिए गुम होता है कि उसे खुदा की अथाह अज्मत का पता नहीं। वह अपने अकाबिर 
(महापुरुषों) से वाबस्तगी को नजात का जरिया समझता है तो इसीलिए समझता है कि उसे 
मालूम नहीं कि खुदा इससे ज्यादा बड़ा है कि वहां कोई शख़्स अपनी जबान खोलने की जुर्रत 
कर सके। कियामत जब लोगों को आंख का पर्दा हटाएगी तो उन्हें मालूम होगा कि ख़ुदा तो 
इतना अजीम था जैसे कि जमीन एक छोटे सिक्के की तरह उसकी मुट्ठी में हो और आसमान 
एक मामूली कागज की तरह उसके हाथ में लिपटा हुआ हो। 

जिस तरह इम्तेहान हॉल में इम्तेहान के ख़त्म होने पर अलार्म बजता है उसी तरह मौजूदा 
दुनिया की मुद्दत ख़त्म होने पर सूर फूंका जाएगा। इसके बाद सारा निजाम बदल जाएगा। 
इसके बाद एक नई दुनिया बनेगी । हमारी मौजूदा दुनिया सूरज की रोशनी से रोशन होती है 
जो सिफ महसूस माद्दी अशया (भौतिक पदार्थो) को हमें दिखा पाती है। आख़िरत की दुनिया 
बराहेरास्त ख़ुदा के नूर से रोशन होगी। इसलिए वहां यह मुमकिन होगा कि मअनवी 
(अर्थपूर्ण हकीकतों को भी खुली आंख से देखा जा सके। उस वक्त तमाम लोग खुदा की 
अदालत में हाजिर किए जाएंगे। दुनिया में लोगों ने पैग़म्बरों को और उनकी पैरवी में उठने 
वाले दाञियाँ को नजरअंदाज किया था। मगर आख़िरत में लोग यह देखकर हैरान रह जाएंगे 
कि लोगों के मुस्तकबिल का फैसला वहां इसी बुनियाद पर किया जा रहा है कि किसने उनका 
साथ दिया और किसने उनका इंकार कर दिया। 


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और जिन लोगों ने इंकार किया वे गिरोह-गिरोह बनाकर जहन्नम की तरफ हांके जाएंगे। 


यहां तक कि जब वे उसके पास पहुंचेंगे उसके दरवाजे खोल दिए जाएंगे और उसके 
मुहाफिज (प्रहरी) उनसे कहेंगे, क्या तुम्हारे पास तुम्हीं लोगों में से पेग़म्बर नहीं आए 








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सूरह-39. अज-जुमर 239 पारा 24 
जो तुम्हें तुम्हारे रब की आयतें सुनाते थे और तुम्हें तुम्हारे इस दिन की मुलाकात से 
डराते थे। वे कहेंगे कि हां, लेकिन अजाब का वादा मुंकिरों पर पूरा होकर रहा। कहा 
जाएगा कि जहन्नम के दरवाजों में दाखिल हो जाओ, उसमें हमेशा रहने के लिए। पस 
कैसा बुरा ठिकाना है तकब्बुर (घमंड) करने वालों का। (7।-72) 





हक से एराज (उपेक्षा) व इंकार करने के दर्जे हैं। इसी लिहाज से जहन्नम वालों के भी 
दर्ज हैं। आख़िरत में उन्हें उनके दर्जात के लिहाज से मुर्ललिफ गिरोहों में तक्सीम किया 
जाएगा और फिर हर गिरोह को जहन्नम के उस तबके में डाल दिया जाएगा जिसका वह 
मुस्तहिक है। इस मौके पर जहन्नम की निगरानी करने वाले फरिशतों की गुप्तुगू से उस मंजर 
की तस्वीरकशी हो रही है जो लोगों के जहन्नम में दाख़िल होने के वक्‍त पेश आएगा। 

जो लोग मौजूदा दुनिया में हक को नहीं मानते उनके न मानने की अस्ल वजह हमेशा 
तकब्बुर (घमंड) होता है। ताहम उनका तकब्बुर हकीकतन हक के मुकाबले में नहीं होता 
बल्कि वह हक को पेश करने वाले शख्स के मुकाबले में होता है। हक को पेश करने वाला 
बजाहिर एक आदमी को अपने से छोटा दिखाई देता है इसलिए वह आदमी हक को भी छोटा 
समझ लेता है और उसे हकारत (तिरस्कार) के साथ नजरअंदाज कर देता है। 


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और जो लोग अपने रब से डरे वे गिरोह दर गिरोह जन्नत की तरफ ले जाए जाएंगे। 
यहां तक कि जब वे वहां पहुंचेंगे और उसके दरवाजे खोल दिए जाएंगे और उसके 
मुहाफिज (प्रहरी) उनसे कहेंगे कि सलाम हो तुम पर, खुशहाल रहो, पस इसमें दाखिल 

हो जाओ हमेशा के लिए। और वे कहेंगे कि शुक्र है उस अल्लाह का जिसने हमारे साथ 
अपना वादा सच कर दिखाया और हमें इस जमीन का वारिस बना दिया। हम जन्नत 

में जहां चाहें रहें। पस क्या ख़ूब बदला है अमल करने वालों का। और तुम फरिश्तों 
को देखोगे कि अर्श के गिर्द हलका बनाए हुए अपने रब की हम्द व तस्बीह करते होंगे। 
और लोगों के दर्मियान ठीक-ठीक फैसला कर दिया जाएगा और कहा जाएगा कि सारी 
हम्द अल्लाह के लिए है, आलम का ख़ुदावंद। (73-75) 


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पारा 24 I240 सूरह-40. अल-मोमिन 


जन्नत में जाने वाले वे लोग हैं जिनमें तकवा की सिफत पाई जाए। जब आदमी ख़ुदा 
की बड़ाई को इस तरह पाए कि उसके अंदर से अपनी बड़ाई का एहसास ख़त्म हो जाए तो 
इसका कुदरती नतीजा यह होता है कि वह खुदा से डरने लगता है। अपने इज्ज (निर्बलता) 
और ख़ुदा की कुदरत का एहसास उसे अंदेशानाक बना देता है। वह ख़ुदा के मामले में हददर्जा 
मोहतात हो जाता है। उसे हर वक्‍त यह खटका लगा रहता है कि आखिरत में उसका ख़ुदा 
उसके साथ क्या मामला फरमाएगा। जिन लोगों ने दुनिया में इसी तरह ख़ौफ किया वही 
आहिरत की बेख़ैफ जिगी के वारिस करार दिए जाएी। 

अहले जन्नत के साथ आखिरत में वह मामला किया जाएगा जो दुनिया में शाही मेहमानों 
के साथ किया जाता है। उन्हें कमाले एजाज व इकराम के साथ उनकी कियामगाहोँ की तरफ 
ले जाया जाएगा। जब वे जन्नत को अपनी आंख से देखेंगे तो बेइर्तियार उनकी जबान पर 
हम्द और शुक्र के कलिमात जारी हो जाएंगे। जन्नत में उनके लिए न सिर्फ आला कियामगाहें 
होंगी बल्कि वहां सैर और मुलाकात के लिए आने जाने पर कोई रोक न होगी। सफर और 
मुवासिलात (संचार) की आलातरीन सहूलतें वाफिर मिक्दार में हासिल होंगी । 

हम्द की मुस्तहिक सिर्फ एक अल्लाह की जात है। मगर मौजूदा इम्तेहान की दुनिया में 
इसका जहूर नहीं होता। आख़िरत हम्दे इलाही के कामिल जुहू का दिन होगा। उस वक्‍त 
तमाम जबानें और सारा माहौल हम्दे खुदावंदी के नग़मे से मअमूर हो जाएगा। तमाम झूठी 
बड़ाइयां ख़त्म हो जाएंगी । वहां सिर्फ एक हस्ती होगी जिसका आदमी नाम ले। वहां सिर्फ एक 
बड़ाई होगी जिसकी बड़ाई से सरशार (अभिभूत) होकर वह उसकी हम्द करे। 


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आयतें-85 सूरह-40. अल-मोमिन रुकूअ-9 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
हा० मीम०। यह किताब उतारी गई है अल्लाह की तरफ से जो जबरदस्त है, जानने वाला 
है। माफ करने वाला और तौबा कुबल करने वाला है, सख्त सजा देने वाला, बच्चै कुदरत 
वाला है। उसके सिवा कोई माबूद (पूज्य) नहीं। उसी की तरफ लोटना है। (-3) 











‘अजीज व अलीम' के अल्फज यहां कुआन के हक मेंबतैर दलील इस्तेमाल हुए हैं 
कुरआन के उतरने के वक्त यह एक पेशीनगोई (भविष्यवाणी) थी, आज यह एक साबितशुदा 
वकग्रहि। 


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सूरह-40. अल-मोमिन I24] पारा 24 
कुरआन दौरे साइंस से पहले इंतिहाई नामुवाफिक (विषम) हालात में उतरा। मगर ऐन 
अपने दावे के मुताबिक उसने अपने मुख़ालिफों के ऊपर गलबा हासिल किया। अरब के 
मुश्रिकीन और यहूद और अजीम रूमी और ईरानी सल्तनतें सबकी सब उसकी दुश्मन थीं 
मगर इसने बहुत थोड़े असे में सबको मग़लूब कर लिया। यह एक ऐसा वाकया है जिसकी 
कोई दूसरी मिसाल इंसानी तारीख़ में नहीं मिलती। यह इस बात का सुबूत है कि कुरआन 
खुद्राए अजीज व गलिब की तरफ से भेजा गया है। 
कुरआन की दूसरी सिफत यह है कि वह कामिल तौर पर एक सही किताब है। डेढ़ हजार 
वर्ष बाद भी कुआन की कोई बात हकीक्ते वाक्या के खिलाफ नहीं निकली । यह इस बात का 
सुबूत है कि इसका नाजिल करने वाला अलीम व ख़बीर है उससे जमीन व आसमान की कोई 
बात म्री (छुपी) नहीं। वह माजी, हाल और मुस्तकबिल से यकसां तौर पर बाखबर है। 
यही खुदा इंसान का हवीकी माबूद है। उसकी कुदरत और उसके इल्म का यह तकज 
है कि वह तमाम इंसानों को जमा करके उनका हिसाब ले। फिर पूरे अदूल (न्याय) के साथ 
हर एक का फैसला करे। जो लोग खुदा की तरफ रुजूअ हुए उन्हें माफ कर दे और जिन्होंने 
सरकशी की उन्हें उनके बुरे आमाल की सजा दे। 
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अल्लाह की आयतों में वही लोग झगड़े निकालते हैं जो मुंकिर हैं। तो उन लोगों का 
शहरों में चलना फिरना तुम्हें धोखे में न डाले। उनसे पहले नूह की कौम ने झुठलाया। 
और उनके बाद के गिरोह ने भी। और हर उम्मत ने इरादा किया कि अपने रसूल को 
पकड़ लें और उन्होंने नाहक के झगड़े निकाले ताकि उससे हक को पसपा (परास्त) कर 

दें तो मैंने उन्हें पकड़ लिया। फिर कैसी थी मेरी सजा। और इसी तरह तेरे रब की बात 
उन लोगों पर पूरी हो चुकी है जिन्होंने इंकार किया कि वे आग वाले हैं। (4-6) 


यहां अल्लाह की आयतों से मुराद वे दलाइल हैं जो हक की दावत को साबित करने के 
लिए पेश किए गए हों। जो लोग ख़ुदा के मामले में संजीदा न हों वे इन दलाइल में 
गैरमुतअल्लिक बहसें पैदा करके लोगों को इस शुबह में डालते हैं कि यह दावत हक की दावत 
नहीं है। बल्कि महज एक शख्स (दाऔ) की जेहनी उपज है। 


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पारा 24 249 सूरह-40. अल-मोमिन 
इस किस्म का झूठा मुजादिला (निरर्थक बीस) बहुत बड़ा जुर्म है। ताहम मौजूदा इम्तेहान 

की दुनिया में ऐसे लोगों को एक मुकर्रर मुदूदत तक मोहलत हासिल रहती है। इसके बाद उनके 

लिए वही बुरा अंजाम मुकदूदर है जो कीमे नूह, कौमे आद, कौमे समूद वगैरह का हुआ जिन 

लोगों ने अपने को बड़ा समझा था वे छोटे कर दिए गए। और जिन लोगों को छोटा समझ लिया 


गया था वे अल्लाह के नजदीक बड़े करार पाए 

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जो अर्श को उठाए हुए हैं और जो उसके इर्द-गिर्द हैं वे अपने रब की तस्बीह करते 
हैं, उसकी हम्द के साथ। और वे उस पर ईमान रखते हैं। और वे ईमान वालों के 
लिए मग्फिरत (क्षमा) की दुआ करते हैं। ऐ हमारे रब तेरी रहमत और तेरा इल्म हर 
चीज का इहाता किए हुए है। पस तू माफ कर दे उन लोगों को जो तौबा करें और 

तेरे रास्ते की पेरवी करें और तू उन्हें जहन्नम के अजाब से बचा। ऐ हमारे रब, और 

तू उन्हें हमेशा रहने वाले बागों में दाखिल कर जिनका तूने उनसे वादा किया है। 
और उन्हें भी जो सालेह हों उनके वालिदैन और उनकी बीवियों और उनकी औलाद 
में से। बेशक तू जबरदस्त है, हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। और उन्हें बुराइयों से 
बचा ले। और जिसे तूने उस दिन बुराइयों से बचाया तो उन पर तूने रहम किया। 
और यही बड़ी कामयाबी है। (7-9) 


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जो अल्लाह के बंदे बेआमेज (विशुद्ध) हक की दावत लेकर उठते हैं उन्हें हमेशा सताया 
जाता है। उन्हें माहौल में हकीर बना दिया जाता है। मगर ऐन उस वक्‍त जबकि जाहिरपरस्त 
इंसानों के दर्मियान उनका यह हाल होता है, ऐन उसी वकत जमीन व आसमान उनके बरसरे 
हक होने की तस्दीक कर रहे होते हैं। कायनात का इंतिजाम करने वाले फरिश्ते उनके हुस्ने 
अंजाम सुखद परिणाम के मुंतजिर होते हैं। वकती दुनिया में नाकाबिले तज्किरा समझे जाने 
वाले लोग अबदी दुनिया में उस मकामे इज्जत पर हेते हैं कि अल्लाह के मुर्करबतरीन 
(निकटतम) फरिश्ते भी उनके हक में दुआएं कर रहे हों। 


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सूरह-40. अल-मोमिन I243 पारा 24 


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जिन लोगों ने इंकार किया, उन्हें पुकार कर कहा जाएगा, ख़ुदा की बेजारी (खिन्नता) 
तुमसे इससे ज्यादा है जितनी बेजारी तुम्हें अपने आप पर है। जब तुम्हें ईमान की तरफ 
बुलाया जाता था तो तुम इंकार करते थे। वे कहेंगे कि ऐ हमारे रब, तूने हमें दो बार 
मौत दी और दो बार हमें जिंदगी दी, पस हमने अपने गुनाहों का इकरार किया, तो 
क्या निकलने की कोई सूरत है। यह तुम पर इसलिए है कि जब अकेले अल्लाह की 
तरफ बुलाया जाता था तो तुम इंकार करते थे। और जब उसके साथ शरीक किया जाता 


तो तुम मान लेते। पस फैसला अल्लाह के इख्तियार में है जो अजीम है, बड़े मर्तबे वाला 
है। (0-2) 


मौजूदा दुनिया में अल्लाह तआला ने हिदायत की शक्ल में अपनी रहमत भेजी। मगर 
लोगों ने उसे कुबूल नहीं किया । इसका अंजाम आखिरत में यह सामने आएगा कि इस किस्म 
के लोग अल्लाह की रहमत से बिल्कुल महरूम कर दिए जाएंगे। दुनिया में उन्होंने खुदा की 
रहमत को नजरअंदाज किया था, आख़िर में खुदा की रहमत उन्हें नजरअंदाज कर देगी। 

उस वक्त इंकार करने वाले लोग कहेंगे कि ख़ुदाया, तूने हमें मिट्टी से पैदा किया । गोया 
कि हम मुर्दा थे फिर तूने हमारे अंदर जान डाली । इसके बाद अपनी उम्र पूरी करके दूसरी बार 
हम पर मौत आई। और अब हम दुबारा आखिरत की दुनिया में उठाए गए हैं। इस तरह तू 
हमें दो बार मौत और दो बार जिंदगी दे चुका है। अब अगर तू हमें तीसरा मौका दे और फिर 
हमें दुनिया में भेज दे कि हम वहां रहें और फिर मर कर आलमे आखिरत में हाजिर हों तो 
हम वहां तेरी सच्चाई का एतराफ करी और नेक अमली की जिंदगी गुजारेंगे। 

मगर उनकी यह दरख्वास्त सुनी नहीं जाएगी। क्योंकि उन्होंने अपने बारे में यह सुबूत 
दिया कि वे सच्चाई का इदराक उस वक्त नहीं कर सकते जबकि सच्चाई अभी गैब में छुपी 
हुई हो। वे सिर्फ जाहिरी खुदाओं को पहचान सकते हैं, वे गैबी खुदा को पहचानने की 
सलाहियत नहीं रखते। और खुदा के यहां ऐसे जाहिरपरस्तों की कोई कीमत नहीं। 


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वही है जो तुम्हें अपनी निशानियां दिखाता है और आसमान से तुम्हारे लिए रिज्क 
उतारता है। और नसीहत सिर्फ वही शख्स कुब्रूल करता है जो अल्लाह की तरफ रुजूअ 
करने वाला हो। पस अल्लाह ही को पुकारो, दीन को उसी के लिए ख़ालिस करके, 
चाहे मुंकिरों को नागवार क्यों न हो। वह बुलन्द दर्जों वाला, अर्श का मालिक है। वह 
अपने बंदों में से जिस पर चाहता है “वही” (ईश्वरीय वाणी) भेजता है ताकि वह 
मुलाकात के दिन से डराए। जिस दिन कि वे जाहिर होंगे। अल्लाह से उनकी कोई चीज 
छुपी हुई न होगी। आज बादशाही किस की है, अल्लाह वाहिद कहहार (वर्चस्वशाली) 
को। आज हर शख्स को उसके किए का बदला मिलेगा, आज कोई जुल्म न होगा। 
बेशक अल्लाह जल्द हिसाब लेने वाला है। (3-77) 





कायनात में बेशुमार निशानियां हैं जो तमसील (मिसालों) की जबान में हकीकत का दर्स 
दे रही हैं। उन्हीं में से एक निशानी बारिश का निजाम है। यह मादुदी वाकया वही” के 
मअनवी मामले को मुमस्सल (प्रतिरूपता) कर रहा है। जिस तरह बारिश जरख़ेज जमीन के 
लिए मुफीद है और बंजर जमीन के लिए गैर मुफीद, इसी तरह 'वही' भी खुदा की मअनवी 
बारिश है। जिन लोगों ने अपने सीने खुले रखे हों उनके अंदर यह बारिश दाखिल होकर उनके 
वजूद को सरसब्ज व शादाब कर देती है। इसके बरअक्स जिन लोगों के दिल गैर खुदाई 
बड़ाइयों से भरे हुए हों वे गोया बंजर जमीन हैं। वे 'वही' के फायदों से महरूम रहेंगे। 

अल्लाह अपने बंदों से पूरी तरह वाकिफ है। वह जिस बंदे को अहल पाता है उसे अपने 
पैगाम की पैग़ामरसानी (संदेश-वाहन) के लिए चुन लेता है। इस पैग़ाम का ख़ास निशाना यह 
होता है कि लोगों को उस आने वाले दिन से आगाह किया जाए जबकि वे बादशाहे कायनात 
के सामने खड़े किए जाएंगे जिससे किसी की कोई बात छुपी हुई नहीं। और न कोई है जो 
उसके फैसले पर असरअंदाज हो सके। 


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सूरह-40. अल-मोमिन I245 पारा 24 
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और उन्हें करीब आने वाली मुसीबत के दिन से डराओ जबकि दिल हलक तक आ 
पहुंचेंगे, वे ग़म से भरे हुए होंगे। जालिमों का न कोई दोस्त होगा और न कोई 
सिफारिशी जिसकी बात मानी जाए। वह निगाहों की चोरी को जानता है और उन बातों 
को भी जिन्हें सीने छुपाए हुए हैं। और अल्लाह हक के साथ फैसला करेगा। और जिन्हें 
वे अल्लाह के सिवा पुकारते हैं वे किसी चीज का फैसला नहीं करते। बेशक अल्लाह 
सुनने वाला है, देखने वाला है। (8-20) 


मौजूदा दुनिया में इंसान को हर तरह के मौके हासिल हैं। वह आजाद है कि जो चाहे 
करे। इससे आदमी गलतफहमी में पड़ जाता है। वह अपनी मौजूदा आरजी हालत को 
मुस्तकिल हालत समझ लेता है। हालांकि ये मौके जो इंसान को मिले हैं वे बतौर इम्तेहान हैं 
न कि बतौर इस्तहकाक (अधिकार) । इम्तेहान की मुदृदत ख़त्म होते ही मौजूदा तमाम मौके 
उससे छिन जाएंगे। उस वक्त इंसान को मालूम होगा कि उसके पास इज्ज (निर्बलता) के सिवा 
और कुछ नहीं जिसके सहारे वह खड़ा हो सके। 

आदमी चाहता है कि बेकैद जिंदगी गुजारे। इसी मिजाज की वजह से आदमी गैर खुदा 
को बतौर ख़ुद खुदाई में शरीक बनाता है ताकि उनके नाम पर वह अपनी बेराहरवी को जाइज 
साबित कर सके। मगर कियामत में जब हकीकत बेपर्दा होकर सामने आएगी तो आदमी जान 
लेगा कि यहां ख़ुदा के सिवा कोई न था जिसे किसी किस्म का इख्तियार हासिल हो। 


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क्या वे जमीन में चले फिरे नहीं कि वे देखते कि क्‍या अंजाम हुआ उन लोगों का जो 
इनसे पहले गुजर चुके हैं। वे इनसे बहुत ज्यादा थे कुब्बत में और उन आसार के एतवार 
से भी जो उन्होंने जमीन में छोड़े। फिर अल्लाह ने उनके गुनाहों पर उन्हें पकड़ लिया 
और कोई उन्हें अल्लाह से बचाने वाला न था। यह इसलिए हुआ कि उनके पास उनके 


रसूल खुली निशानियां लेकर आए तो उन्होंने इंकार किया। तो अल्लाह ने उन्हें पकड़ 
लिया। यकीनन वह ताकतवर है सखन सजा देने वाला है। (2-22) 





दुनिया की तारीख़ में कसरत से ऐसे वाकेयात हैं कि एक कौम उभरी और फिर मिट 


पारा 24 I246 सूरह-40. अल-मोमिन 
गई। एक कौम जिसने जमीन पर शानदार तमद्दुन (सभ्यता) खड़ा किया, आज उसका तमदूदुन 
खंडहर की सूरत में जमीन के नीचे दबा हुआ पड़ा है। एक कैम जिसे किसी ववत एक जिंदा 
वाकये की हैसियत हासिल थी, आज वह सिर्फ एक तारीखे वाक्ये के तौर पर काबिले जिक्र 
समझी जाती है। 

इस किस्म के वाकेयात लोगों के लिए मालूम वाकेयात हैं मगर लोगों ने इन वाकेयात को 
अरजी हवादिस (भू-घटनाओं) या सियासी इंकिलाबात के ख़ाने में डाल रखा है। लेकिन अस्ल 
हकीकत यह है कि ये सब खुदाई फैसले थे जो सच्चाई के इंकार के नतीजे में उन कीमों पर 
नाजिल हुए। अगर हमें वह निगाह हासिल हो जिससे हम मअनवी हकीकतों को देख सकें तो 
हमें नजर आएगा कि हर वाकया खुदा के फरिशतों के जरिए अंजाम पा रहा था, अगरचे 
बजाहिर देखने वालों को वह दुनियावी असबाब के तहत होता हुआ दिखाई दिया। 


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और हमने मूसा को अपनी निशानियों के साथ और खुली दलील के साथ, फिरऔन 
और हामान और कारून के पास भेजा, तो उन्होंने कहा कि यह एक जादूगर है, झूठा 
है। फिर जब वह हमारी तरफ से हक लेकर उनके पास पहुंचा, उन्होंने कहा कि इन 


लोगों के बेटों को कत्ल कर डालो जो इसके साथ ईमान लाएं और उनकी औरतों को 
जिंदा रखो। और उन मुंकिरों की तदबीर महज बेअसर रही। (23-25) 








पैग़म्बरों को आम दलाइल के साथ मजीद ऐसी मोजिजाती ताईद हासिल रहती है जो 
उनके फरसतादाए खुदा (ईश-दूत) होने का इंतिहाई वाजेह सुबूत होती है। मगर हक को 
मानना हमेशा अपनी नफी (नकार) की कीमत पर होता है जो बिलाशुबह किसी इंसान के 
लिए मुश्किलतरीन कुर्बानी है। यही वजह है कि इंतिहाई खुले-खुले दलाइल के बावजूद 
फिरऔन और उसके दरबारियों ने हजरत मूसा की नुबुव्वत का इकरार नहीं किया। 

इसके बजाए उन्होंने एक तरफ अवाम को यह तअस्सुर (प्रभाव) देना शुरू किया कि 
मूसा का पेगबरी का दावा केहकीकत है और उनके मेजिजे (चमत्कार) महज जादू का 
करिश्मा हैं। दूसरी तरफ उन्होंने यह फैसला किया कि बनी इस्राईल की तादाद को घटाने के 
लिए अपनी साबिका पॉलिसी को मजीद शिदूदत के साथ जारी कर दिया जाए। ताकि मूसा 
अपनी कौम (बनी इस्राईल) के अंदर अपने लिए मजबूत बुनियाद न पा सकें। मगर उन्हें यह 
मालूम न था कि वे अपनी ये तदबीरें मूसा के मुकाबले में नहीं बल्कि खुदा के मुकाबले में कर 
रहे हैं और ख़ुदा के मुकाबले में किसी की कोई तदबीर कभी कारगर नहीं होती। 


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सूरह-40. अल-मोमिन I247 पारा 24 
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और फिरऔन ने कहा, मुझे छोड़ो, में मूसा को कत्ल कर डालूं और वह अपने रब को 
पुकारे, मुझे अंदेशा है कि कहीं वह तुम्हारा दीन (धर्म) बदल डाले या मुल्क में फसाद 
फैला दे। और मूसा ने कहा कि मैंने अपने और तुम्हारे रब की पनाह ली हर उस 
मुतकब्बिर (घमंडी) से जो हिसाब के दिन पर ईमान नहीं रखता। (26-27) 





“तुम्हारा दीन बदल डाले' का मतलब है तुम्हारा मजहब बदल डाले। यानी तुम जिस 
मजहबी तरीके पर हो और जो तुम्हारे अकाबिर (पूर्वजों) से चला आ रहा है, वह ख़त्म हो जाए 
और लोगों के दर्मियान नया मजहब राइज हो जाए। यह ऐसा ही है जैसे हिन्दुस्तान में कुछ 
इंतिहापसंद हिन्दू कहते हैं कि मजहब की तब्लीग़ को कानूनी तौर पर बन्द करो, वर्ना दूसरे 
मजहब वाले अपनी तब्लीग से देश के धर्म को बदल डालेंगे। 

फसाद से मुराद बदअमनी (अशांति) है। यानी मूसा को अपने हमकीमों में साथ देने वाले 
मिल जाएंगे। और उन्हें लेकर वह मुल्क में इंतिशार पैदा करने की कोशिश करेंगे। इसलिए 
हमें चाहिए कि हम शुरू ही में उन्हें कत्ल कर दें। 

हक को मानने में सबसे बड़ी रुकावट आदमी की मुतकब्बिराना नफ्सियात (घमंड-भाव) 
होती है। वह अपने को ऊंचा रखने की खातिर हक को नीचा कर देना चाहता है। मगर हक 
का मददगार अल्लाह रब्बुल आलमीन है। इब्तिदा में चाहे उसके मुखालिफीन बजाहिर उसे 
दबा लें मगर अल्लाह की मदद इस बात की जमानत है कि आखिरी कामयाबी बहरहाल हक 
को हासिल होगी। 


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पारा 24 I248 सूरह-40. अल-मोमिन 


और आले फिरऔन में से एक मोमिन शख्स, जो अपने ईमान को छुपाए हुए था, बोला, 
क्या तुम लोग एक शख्स को सिर्फ इस बात पर कत्ल कर दोगे कि वह कहता है कि 

मेरा रब अल्लाह है, हालांकि वह तुम्हारे रब की तरफ से खुली दलीलें भी लेकर आया 
है। और अगर वह झूठा है तो उसका झूठ उसी पर पड़ेगा। और अगर वह सच्चा है तो 
उसका कोई हिस्सा तुम्हें पहुंच कर रहेगा। जिसका वादा वह तुमसे करता है। बेशक 
अल्लाह ऐसे शख्स को हिदायत नहीं देता जो हद से गुजरने वाला हो, झूठा हो। ऐ मेरी 
कौम, आज तुम्हारी सल्तनत है कि तुम जमीन में ग़ालिब हो। फिर अल्लाह के अजाब 

के मुकाबिल हमारी कौन मदद करेगा, अगर वह हम पर आ गया। फिरऔन ने कहा, 

मैं तुम्हें वही राय देता हूं जिसे में समझ रहा हूं, और में तुम्हारी रहनुमाई ठीक भलाई 
के रास्ते की तरफ कर रहा हूं। (28-29) 





यहां जिस मर्दे मोमिन का जिक्र है वह फिरऔन के शाही ख़ानदान का एक फर्द था और 
ग़ालिबन वह दरबार के आला ओहदेदारों में से था। यह बुजुर्ग हजरत मूसा अलैहिस्सलाम की 
तौहीद की दावत से मुतअस्सिर (प्रभावी) हुए, ताहम वह अपना ईमान छुपाए हुए थे। मगर 
जब उन्होंने देखा कि फिरऔन हजरत मूसा को कल्ल करने का इरादा कर रहा है तो वह खुल 
कर हजरत मूसा की हिमायत पर आ गए। उन्होंने निहायत मुअस्सिर (प्रभावी) और निहायत 
हकीमाना अंदाज में हजरत मूसा की मुदाफअत (प्रतिरक्षा) फरमाई। 

इस वाकये में एक नसीहत यह है कि तब्लीग एक ऐसी ताकत है कि ख़ुद दुश्मन की 
सफों में अपने हमदर्द और साथी पैदा कर लेती है, चाहे वह दुश्मने ख़ानदाने फिरऔन जैसा 
जालिम और मुतकब्बिर क्यों न हो। 


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और जो शख्स ईमान लाया था उसने कहा कि ऐ मेरी कौम, में डरता हूं कि तुम पर 
और गिरोहों जैसा दिन आ जाए, जैसा दिन कौमे नूह और आद और समूद और उनके 
बाद वालों पर आया। और अल्लाह अपने बंदों पर कोई जुल्म करना नहीं चाहता। और 

ऐ मेरी कौम, मैं डरता हूं कि तुम पर चीख़ पुकार का दिन आ जाए, जिस दिन तुम पीठ 
फेरकर भागोगे। और तुम्हें खुदा से बचाने वाला कोई न होगा। और जिसे ख़ुदा गुमराह 
कर दे उसे कोई हिदायत देने वाला नहीं। (30-33) 


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सूरह-40. अल-मोमिन I249 पारा 24 


फिरऔन ने हजरत मूसा को दुनिया की सजा से डराया था, इसके जवाब में मर्दै मोमिन 
ने फिरऔन को आहिरत की सजा से डराया। हक के दाजी का तरीका हमेशा यही होता है। 
लोग दुनिया की फिक्र करते हैं, दाओ आख़िरत के लिए फिक्रमंद होता है। लोग दुनिया की 
इस्तेलाहों (शब्दावलियों) में बोलते हैं, दाऔ आख़िरत की इस्तेलाहों में कलाम करता है। लोग 
दुनिया के मसाइल को सबसे ज्यादा कबिले जिक्र समझते हैं दाजी के नजदीक सबसे ज्यादा 
काबिले जिक्र मसला वह होता है जिसका तअल्लुक आरिरत से हो। 


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और इससे पहले यूसुफ तुम्हारे पास खुले दलाइल के साथ आए तो तुम उनकी लाई 

हुई बातों की तरफ से शक ही में पड़े रहे। यहां तक कि जब उनकी वफात हो गई 

तो तुमने कहा कि अल्लाह इनके बाद हरगिज कोई रसूल न भेजेगा। इसी तरह अल्लाह 

उन लोगों को गुमराह कर देता है जो हद से गुजरने वाले और शक करने वाले होते हैं। 

जो अल्लाह की आयतों में झगड़ा करते हैं बगर किसी दलील के जो उनके पास आई 


हो। अल्लाह और ईमान वालों के नजदीक यह सखन मबगूज अप्रिय है। इसी तरह 
अल्लाह मुहर कर देता है हर मग्रूर (अभिमानी), सरकश के दिल पर। (34-35) 








हजरत यूसुफ अलैहिस्सलाम की जिंदगी में मित्र के लोगों की अक्सरियत आपकी नुबु्त 
की कायल नहीं हुई। मगर आपकी वफात के बाद जब मुलकी सल्तनत का निजाम बिगड़ने लगा 
तो मिम्नियों को आपकी अज्मत का एहसास हुआ। अब वे कहने लगे कि यूसुफ का वुजूद मिश्र 
के लिए बहुत बाबरकत था, ऐसा रसूल अब कहां आएगा । हजरत यूसुफ अगरचे खुदा के पैगम्बर 
थे मगर इसी के साथ वह एक इंसान भी थे। इस बिना पर लोगों के लिए यह कहने की गुंजाइश 
थी कि 'क्या जरूरी है कि यूसुफ के कमालात पेगम्बरी की बिना पर हों, यह भी हो सकता 
है कि वह एक जहीन इंसान हों और इस बिना पर उन्होंने कमालात जाहिर किए हों। इसी तरह 
की बातें थीं जिन्हें लेकर मिस्र के लोग आपके बारे में शक में मुब्तिला हो गए। 
हक चाहे कितना ही वाजेह हो, मौजूदा इम्तेहान की दुनिया में हमेशा इसका इम्कान बाकी 
रहता है कि आदमी कोई शुबह का पहलू निकाल कर उसका मुंकिर बन जाए। अब जो लोग 


पारा 24 I250 सूरह-40. अल-मोमिन 
अपने अंदर सरकशी और घमंड का मिजाज लिए हुए हों, जो यह समझते हों कि हक को मान 
कर वे अपनी बड़ाई खो देंगे। वे ऐन अपने मिजाज के तहत इन्हीं शुबहात में अटक कर रह जाते 
हैं। वे इन शुबहात को इतना बढ़ाते हैं कि वही उनके दिल व दिमाग़ पर छा जाता है। नतीजा 
यह होता है कि वे हक के मामले में सीधे अंदाज से सोच नहीं पाते। वे हमेशा उसके मुंकिर बने 
रहते हैं, यहां तक कि इसी हाल में मर जाते हैं। 
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और फिरऔन ने कहा कि ऐ हामान, मेरे लिए एक ऊंची इमारत बना ताकि में रास्तों 
पर पहुंचूं, आसमानों के रास्तों तक, पस मूसा के माबूद (पूज्य) को झांक कर देखूं, और 
मैं तो उसे झूठा ख्याल करता हूं। और इस तरह फिरऔन के लिए उसकी बदअमली 
खुशनुमा बना दी गई और वह सीधे रास्ते से रोक दिया गया। और फिरऔन की तदबीर 
ग़ारत होकर रही। (३6-37) 


फिरऔन ने अपने वजीर हामान से जो बात कही वह कोई संजीदा बात नहीं थी बल्कि 
महज एक वक्ती तदबीर के तौर पर थी। उसने देखा कि मर्द मोमिन की माकूल और मुदल्लल 
तकरीर से दरबार के लोग मुतअस्सिर हो रहे हैं, इसलिए उसने चाहा कि एक शोशे की बात 
निकाले ताकि हजरत मूसा की दावत संजीदा बहस का मौजूअ (विषय) न बने बल्कि मजाक 
का मौजूअ बनकर रह जाए। 

'बदअमली का खुशनुमा बनना” यह है कि आदमी कुछ खुशनुमा अल्फाज बोलकर हक 
बात को रद्द कर दे। यही आदमी की गुमराही की अस्ल जड़ है। यानी हकीकी दलाइल के 
मुकाबले में शोशे की बात को अहमियत देना, खुली बेराहरवी को झूठी तौजीहात (तर्को) में 
छुपाने की कोशिश करना वगैरह। ऐसे लोग भूल जाते हैं कि जो हक मोहकम (ठोस) दलील 
के ऊपर खड़ा हुआ हो उसे बेबुनियाद शोशे निकाल कर मग़लूब (परास्त) नहीं किया जा 
सकता। 








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सूरह-40. अल-मोमिन I25] पारा 24 


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और जो शख्स ईमान लाया था उसने कहा कि ऐ मेरी कौम, तुम मेरी पेरवी करो, मैं 
तुम्ह सही रास्ता बता रहा हूं। ऐ मेरी कैम, यह दुनिया की जिंदगी महज चन्द रोजा 
है और असल ठहरने का मकाम आखिरत (परलोक) है। जो शख्स बुराई करेगा तो वह 
उसके बराबर बदला पाएगा। और जो शख्स नेक काम करेगा, चाहे वह मर्द हो या 
औरत, बशर्ते कि वह मोमिन हो तो यही लोग जन्नत में दाखिल होंगे, वहां वे बेहिसाब 
स्ज्कि पाएंगे। और ऐ मेरी कौम, क्या बात है कि में तो तुम्हें नजात (मुक्ति) की तरफ 
बुलाता हूं और तुम मुझे आग की तरफ बुला रहे हो। तुम मुझे बुला रहे हो कि मैं खुदा 
के साथ कुफ़ करू और ऐसी चीज को उसका शरीक बनाऊं जिसका मुझे कोई इल्म 
नहीं। और में तुम्हें जबरदस्त मग्फिरत (क्षमा) करने वाले खुदा की तरफ बुला रहा हू। 
यकीनी बात है कि तुम जिस चीज की तरफ मुझे कुलाते हो उसकी कोई आवाज न 
दुनिया में है और न आखिरत में। और बेशक हम सबकी वापसी अल्लाह ही की तरफ 
है और हद से गुजरने वाले ही आग में जाने वाले हैं। पस तुम आगे चलकर मेरी बात 
को याद करोगे। और में अपना मामला अल्लाह के सुपुर्द करता हूं। बेशक अल्लाह 
तमाम बंदों का निगरां (निगाह रखने वाला) है। (38-44) 





दरबारे फिरऔन के मोमिन की यह तकरीर निहायत वाजेह है। साथ ही, वह एक नमूने 
की तकरीर है जो यह बताती है कि हक के दाऔ का अंदाजे ख़िताब क्या होना चाहिए और 
यह कि हक की दावत का असल नुक्ता क्या है। 

में तुम्हें खुदावंद आलम की तरफ बुलाता हूं। और तुम जिसकी तरफ मुझे बुला रहे हो 
उसे पुकारने का कोई फायदा न दुनिया में है और न आख़िरत में' यह फिकरा (वाक्य) मर्दे 
मोमिन की पूरी तकरीर का खुलासा है। इससे अंदाजा होता है कि फिरऔन के दरबार में जो 
चीज जेरे बहस थी वह क्या थी। वह यह थी कि ख़ुदा को पुकारा जाए या इंसान के बनाए 
हुए बुतों को पुकारा जाए । मर्दै मोमिन ने कहा कि खुदा तो एक जिंदा और गालिब हकीकत 
है, उसे पुकारना एक हकीकी माबूद को पुकारना है। मगर तुम्हारे असनाम (बुत) सिर्फ तुम्हारे 
वहम की ईजाद हैं। वे न दुनिया में तुम्हें कोई फायदा दे सकते और न आख़िरत में। जब 
उनका कोई हकीकी वजूद ही नहीं तो उनसे कोई हकीकी फायदा कैसे मिल सकता है। 


पारा 24 I252 सूरह-40. अल-मोमिन 
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फिर अल्लाह ने उसे उनकी बुरी तदबीरों से बचा लिया। और फिरऔन वालों को बुरे 
अजाब ने घेर लिया। आग, जिस पर वे सुबह व शाम पेश किए जाते हैं। और जिस दिन 
कियामत कायम होगी, फिरऔन वालो को सर्ततरीन अजाब में दाखिल करो। (45-46) 





फिरऔन के दरबार का मर्दै मोमिन पैगम्बर नहीं था। मगर तंहा होने के बावजूद अल्लाह 
ने उसे फिरऔन के जालिमाना मंसूबे से बचा लिया। इससे मालूम हुआ कि गैर अंबिया को भी 
हक की हिमायत की वह नुसरत मिलती है जिसका वादा अंबिया (नबियों) से किया गया है। 
इंसानों के उख़रवी (परलोक के) अंजाम का बाकायदा फैसला अगरचे कियामत मे होगा, 
मगर मौत के बाद जब आदमी अगली दुनिया में दाखिल होता है तो फौरन ही उस पर खुल 
जाता है कि वह पिछली दुनिया में क्या करके यहां आया है और अब उसके लिए कौन सा 
अंजाम मुकदूदर है। इस तरह शुऊर की सतह पर वह मौत के बाद ही अपने अंजाम से दो 
चार हो जाता है और जिस्मानी सतह पर वह कियामत में ख़ुदा की अदालत कायम होने के 
बाद उससे दो चार होगा। 


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और जब वे दोजख़ में एक दूसरे से झगड़ेंगे तो कमजोर लोग बड़ा बनने वालों से कहेंगे 
कि हम तुम्हारे ताबेअ (अधीन) थे, तो क्या तुम हमसे आग का कोई हिस्सा हटा सकते 
हो। बड़े लोग कहेंगे कि हम सब ही इसमें हैं। अल्लाह ने बंदों के दर्मियान फैसला कर 
दिया। और जो लोग आग में होंगे वे जहन्नम के निगहबानों से कहेंगे कि तुम अपने 
रब से दरखास्त करो कि हमारे अजाब में से एक दिन की तरुफ्रीफ (कमी) कर दे। वे 


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सूरह-40. अल-मोमिन I253 पारा 24 
कहेंगे, क्या तुम्हारे पास तुम्हारे रसूल वाजेह दलीलें लेकर नहीं आए। वे कहेंगे कि हां। 
निगहबान कहेंगे फिर तुम ही दरख़्वास्त करो। और मुंकिरों की पुकार अकारत ही जाने 
वाली है। (47-50) 


इन आयतों में जहन्नम का एक मंजर दिखाया गया है। दुनिया में जो लोग बड़े बने हुए 
थे वे वहां अपनी सारी बड़ाई भूल जाएंगे। वे अवाम जो यहां अपने बड़ों पर फख़ करते थे 
वे वहां अपने बड़ों से बेजारी का इज्हार करेंगे। दुनिया में जो लोग हक के आगे झुकने के लिए 
तैयार नहीं होते थे वे वहां आजिजाना तौर पर हक के आगे झुक जाएंगे। मगर आखिरत का 
झुकना किसी के कुछ काम आने वाला नहीं। 


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बेशक हम मदद करते हैं अपने रसूलों की और ईमान वालों की दुनिया की जिंदगी में, 
और उस दिन भी जबकि गवाह खड़े होंगे, जिस दिन जालिमों को उनकी मअजरत 
(सफाई पेश करना) कुछ फायदा न देगी और उनके लिए लानत होगी और उनके लिए 
बुरा ठिकाना होगा। और हमने मूसा को हिदायत अता की और बनी इस्राईल को 
किताब का वारिस बनाया, रहनुमाई और नसीहत अक्ल वालों के लिए। पस तुम सब्र 


करो, बेशक अल्लाह का वादा बरहक है और अपने वुसूर की माफी चाहो। और सुबह 
व शाम अपने रब की तस्बीह करो उसकी हम्द (प्रशंसा) के साथ। (5.-55) 





पैगम्बर और पैगम्बर के पैरोकारों के लिए खुदा की मदद का यकीनी वादा है। मगर इस 
मदद का इस्तहकाक (अधिकार) हमेशा सब्र के बाद पैदा होता है। सब्र की यह अहमियत 
इसलिए है ताकि अहले हक मुकम्मल तौर पर अहले हक ठहरें और जालिम मुकम्मल तौर पर 
जालिम साबित हो जाएं। इस तफरीकी (विभेद के) मरहले को लाने के लिए अहले हक को 
यकतरफा तौर पर सब्र करना पड़ता है। 

अहले हक का यह सब्र उन्हें दुनिया में ख़ुदा की मदद का मुस्तहिक बनाता है। और इसी 
सब्र के जरिए वे इस काबिल साबित होते हैं कि वे कियामत के दिन जालिमों के मुकाबले में 
ख़ुदा के गवाह बनकर खड़े हों । 

खुदा की तरफ से जो किताब आती है वह इंसानों की हिदायत और नसीहत ही के लिए 


पारा 24 I254 सूरह-40. अल-मोमिन 
आती है। मगर यह नसीहत सिर्फ उन लोगों को फायदा देती है जो अक्ल वाले हों। यानी वे 

लोग जो मस्लेहतों में बंधे हुए न हों। जो नफ्सियाती पेचीदगियों (पूर्वाग्रहों) से आजाद होकर 

उस पर गौर कर सकें। जो बातों को दलील के एतबार से जांचते हों न कि किसी और एतबार 
से। यही खुदा की हिदायत के साथ अक्ल वाला मामला करना है। जो लोग ख़ुदा की हिदायत 

के साथ बेअक्ली का मामला करें वे जालिम हैं और जो लोग खुदा की हिदायत के साथ अक्ल 

वाला मामला करें वही वे लोग हैं जो कामयाब हुए। 


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जो लोग किसी सनद के बगेर जो उनके पास आई हो, अल्लाह की आयतों में झगड़े 
निकालते हैं, उनके दिलों में सिर्फ बड़ाई है कि वे उस तक कभी पहुंचने वाले नहीं। 
पस तुम अल्लाह की पनाह मांगो, बेशक वह सुनने वाला है, देखने वाला है। (56) 





हक इतना वाजेह और इतना मुदल्लल (तर्कपूर्ण) है कि उसे समझना किसी के लिए भी 
मुश्किल नहीं। मगर जब भी हक जाहिर होता है तो वह किसी 'इंसान' के जरिए जाहिर होता 
है। इसलिए हक का एतराफ अमलन हामिले हक (सत्य के धारक) के एतराफ के हममअना 
बन जाता है। यही वजह है कि वे लोग हक को मानने पर राजी नहीं होते जो अपने अंदर 
बड़ाई की नपिसयात लिए हुए हों। 

ऐसे लोगों को डर होता है कि हक का एतराफ करते ही वे हामिले हक के मुकाबले में 
अपनी बरतरी खो देंगे। अपनी इसी नफ्सियात की वजह से वे उसके मुखालिफ बन जाते हैं। 
मगर खुदा ने अपनी दुनिया के लिए मुकदूदर कर दिया है कि ऐसे लोग कभी कामयाब न हों। 


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यकीनन आसमानों और जमीन का पैदा करना इंसानों को पेदा करने की निस्बत ज्यादा 
बड़ा काम है, लेकिन अक्सर लोग नहीं जानते। और अंधा और आंखों वाला यकसां 
(समान) नहीं हो सकता, और न ईमानदार और नेकोकार (सत्कर्मी) और वे जो बुराई 


करने वाले हैं। तुम लोग बहुत कम सोचते हो। बेशक कियामत आकर रहेगी। इसमें 
कोई शक नहीं, मगर अक्सर लोग नहीं मानते। (57-59) 


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सूरह-40. अल-मोमिन I255 पारा 24 





कायनात की अमत अपने खलिक की अमत का तआरुफ (परिचयो है। यह अमत 
इतनी बेपनाह है कि इसके मुकाबले में इंसान को दुबारा पैदा करना निस्बतन (अपेक्षाकृत) 
एक बहुत ज्यादा आसान काम है। इस तरह कायनात की मौजूदा तरीक इंसान के तख़्तीक 
सानी (पूनःसृजन) के इम्कान को साबित कर रही है। 

इसके बाद इंसानी समाज को देखा जाए तो आख़िरत की दुनिया का आना एक 
अख्लाकी जरूरत मालूम होने लगता है। समाज में ऐसे लोग भी हैं जो हकीकत को देखने 
वाली बसीरत का सुबूत देते हैं और ऐसे लोग भी हैं जो हकीकत के मुकाबले में बिल्कुल अंध 
भ बने हों। इसी तरह समाज में ऐसे लोग भी हैं जो हर हाल में इंसाफ पर कायम रहते हैं। 
और ऐसे लोग भी जो इंसाफ से हट जाते हैं और मामलात में जालिमाना रवैया इख्तियार करते 
हैं। इंसान का अख्नाकी एहसास कहता है कि इन दोनों किस्म के इंसानों का अंजाम यकसां 
(एक जैसा) नहीं होना चाहिए। 

इन बातों पर गौर किया जाए तो मालूम होगा कि आख़िरत का जुहूर अक्ली तौर पर 
मुमकिन भी है और अख्लाकी तौर पर जरूरी भी। 


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और तुम्हारे रब ने फरमा दिया है कि मुझे पुकारो, में तुम्हारी दरख्यास्त कुबूल करूंगा। 
जो लोग मेरी इबादत से सरताबी विमुखता करते हैं वे अनकरीब जलील होकर जहन्नम 
में दाखिल होंगे। अल्लाह ही है जिसने तुम्हारे लिए रात बनाई ताकि तुम उसमें आराम 
करो, और दिन को रोशन किया। बेशक अल्लाह लोगों पर बड़ा फज्ल करने वाला है 
मगर अक्सर लोग शुक्र नहीं करते। यही अल्लाह तुम्हारा रब है, हर चीज़ का पैदा करने 
वाला, उसके सिवा कोई माबूद (पूज्य) नहीं। फिर तुम कहां से बहकाए जाते हो। इसी 
तरह वे लोग बहकाए जाते रहे हैं जो अल्लाह की आयतों का इंकार करते थे। (60-63) 





जमीन पर रात और दिन का बाकायदा निजाम और इस तरह के दूसरे हयातबख्श 
(जीवनदायी) वाकेयात इससे ज्यादा बड़े हैं कि कोई इंसान या तमाम मख्नूकात मिलकर भी 
इन्हें जुहूर में ला सकें। यह एक खुला हुआ करीना (संकेत) है जो बताता है कि जो ख़ालिक 
है वही इस लायक है कि उसे माबूद बनाया जाए। आदमी को चाहिए कि उसी के आगे झुके 


पारा 24 I256 सूरह-40. अल-मोमिन 
और उसी से उम्मीदें कायम करे। 

मगर आदमी ख़लिके कायनात से इबादत और दुआ का हकीकी तअल्लुक कायम नहीं 
कर पाता | इसकी वजह यह है कि वह किसी गैर ख़ालिक में अटका हुआ होता है। कुछ लोग 
जिंदा या मुर्दा बुतों में अटके हुए होते हैं जिसे शिर्क कहा जाता है। और कुछ लोग खुद अपनी 
जात में अटके हुए होते हैं जिसका दूसरा नाम किब्र (अहं) है। खुदा बार-बार ऐसे दलाइल 
जाहिर करता है जो इस फरेब की तरदीद (खंडन) करने वाले हों। मगर इंसान कोई न कोई 
झूठी तौजीह करके उन्हें नजरअंदाज कर देता है। 

इस किस्म का हर रवैया ख़लिके कायनात की नाकी है। और जो लोग ख़लिके 
कायनात की नाकद्री करें वे जहन्नम के सिवा कहीं और जगह नहीं पा सकते। 


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अल्लाह ही है जिसने तुम्हारे लिए जमीन को ठहरने की जगह बनाया और आसमान 
को छत बनाया और तुम्हारा नक्शा बनाया पस उम्दा नवशा बनाया। और उसने तुम्हें 

उम्दा चीजों का सकि दिया। यह अल्लाह है तुम्हारा रब, पस बड़ा ही बाबरकत है 

अल्लाह जो रब है सारे जहान का। वही जिंदा है उसके सिवा कोई माबूद (पूज्य) नहीं। 
पस तुम उसी को पुकारो। दीन (धर्म) को उसी के लिए ख़ालिस करते हुए। सारी तारीफ 
अल्लाह के लिए है जो रब है सारे जहान का। (64-65) 








जमीन पर अनगिनत असबाब जमा किए गए हैं। इसके बाद ही यह मुमकिन हुआ है कि 
इंसान जैसी मख्नूक इसके ऊपर तमद्दुन (सभ्यता) की तामीर कर सके। इसी तरह जमीन के 
ऊपर जोफन है उसमेंमे कूप्तार मुवाफिक इतिजमात हैजिनमें अगर मामूली फर्की फेदा 
हो जाए तो इंसानी जिंदगी का निजाम दरहम बरहम हो जाए। फिर इंसान की बनावट इतने 
आला अंदाज में हुई है कि वह जेहनी और जिस्मानी एतबार से इस दुनिया की सबसे बरतर 
मख्नूक बन गया है। जिस ख़ालिक ने यह सब किया है उसके सिवा कौन इस काबिल हो 
सकता है कि इंसान उसका परस्तार बने। 

ख़ुदा के लिए दीन को ख़ालिस करके उसे पुकारना यह है कि दीनी व मजहबी नौइयत 
का तअल्लुक सिर्फ एक अल्लाह से हो। अल्लाह के सिवा किसी से दीनी व मजहबी किस्म 
का लगाव बाकी न रहे। 


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सूरह-40. अल-मोमिन 

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कहो, मुझे इससे मना कर दिया गया है कि में उनकी इबादत करूं जिन्हें तुम अल्लाह 
के सिवा पुकारते हो, जबकि मेरे पास खुली दलीलें आ चुकीं। और मुझे हुक्म दिया गया 
है कि मैं अपने आपको रब्बुल आलमीन (सृष्टि के प्रभु) के हवाले कर दूं। वही है जिसने 
तुम्हें मिट्टी से पैदा किया, फिर नुत्फा (वीर्य) से, फिर ख़ून के लौथड़े से, फिर वह तुम्हें 
बच्चे की शक्ल में निकालता है, फिर वह तुम्हें बढ़ाता है ताकि तुम अपनी पूरी ताकत 
को पहुंचो, फिर ताकि तुम बूढ़े हो जाओ। और तुम में से कोई पहले ही मर जाता है। 
और ताकि तुम मुरकर वक्‍त तक पहुंच जाओ और ताकि तुम सोचो। वही है जो जिलाता 

है और मारता है। पस जब वह किसी अम्र (काम) का फैसला कर लेता है तो बस उसे 
कहता है कि हो जा पस वह हो जाता है। (66-68) 





इन आयात में फितरत के कुछ वाकेयात का जिक्र है। इसके बाद इर्शाद हुआ है यह 
इसलिए है ताकि तुम गौर करो” गोया फितरत के ये मादूदी (भौतिक) वाकेयात अपने अंदर 
कुछ मअनवी (अर्थपूर्ण सबक लिए हुए हैं। और इंसान से यह मत्लूब है कि वह गौर करके 
उस छुपे हुए सबक तक पहुंचे। 

फितरत के जिन वाकेयात का यहां जिक्र किया गया है वे हैं बेजान मादुदा (पदार्थ का 
तब्दील होकर जानदार चीज बन जाना। इंसान का तदरीजी (चरणबद्ध) अंदाज में विकसित 
होना। जवानी तक पहुंच कर फिर आदमी पर बुढ़ापा तारी होना, जिंदा इंसान का दुबारा मर 
जाना, कभी कम उम्र में और कभी ज्यादा उम्र मे। ये वाकेपात खलिक की मुख्ञलिफ सिफत 
का तआरुफ हैं। इससे मालूम होता है कि इस कायनात को वजूद में लाने वाला एक ऐसा ख़ुदा 
है जो कादिर और हकीम (तत्वदर्शी) है, वह सब पर गालिब और बालादस्त (शीर्षस्थ) है। 

अगर आदमी इन वाकेपात से हकीकी सबक ले तो उसका जेहन पुकार उठा कि एक 
ख़ुदा ही इसका हकदार है कि उसकी इबादत की जाए और उसे अपना आखिरी मत्लूब समझा 
जाए। आलम का यह नक्शा बजबाने हाल उन तमाम माबूदों की तरदीद कर रहा है जो एक 
ख़ुदा को छोड़कर बनाए गए हों। 


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क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जो अल्लाह की आयतों में झगड़े निकालते हैं। वे 
कहां से फेरे जाते हैं। जिन्होंने किताब को झुठलाया और उस चीज को भी जिसके साथ 
हमने अपने रसूलों को भेजा। तो अनकरीब वे जानेंगे, जबकि उनकी गर्दनों में तोक 
होंगे। और जंजीरें, वे घसीटे जाएंगे जलते हुए पानी में। फिर वे आग में झोंक दिए 
जाएंगे। फिर उनसे कहा जाएगा, कहां हैं वे जिन्हें तुम शरीक करते थे अल्लाह के सिवा। 
वे कहेंगे, वे हमसे खोए गए बल्कि हम इससे पहले किसी चीज को पुकारते न थे। इस 
तरह अल्लाह गुमराह करता है मुंकिरों को। यह इस सबब से कि तुम जमीन में नाहक 
खुश होते थे और इस सबब से कि तुम घमंड करते थे। जहन्नम के दरवाजों में दाखिल 


हो जाओ, उसमें हमेशा रहने के लिए। पस कैसा बुरा ठिकाना है घमंड करने वालों का। 
(69-76) 


सूरह-40. अल-मोमिन 


नाहक पर खुश होने वाले और घमंड करने वाले कौन थे, ये वक्त के बड़े लोग 
थे। उन्हें कुछ दुनिया का सामान और दुनिया की बड़ाई मिल गई। इसकी वजह से 
वे नाज और घमंड में मुब्तिला हो गए। उनकी माद्दी कामयाबी ने उनके अंदर गलत 
तौर पर यह एहसास पैदा कर दिया कि वे पाए हुए लोग हैं। हालांकि हकीकत के एतबार 
से वे सिर्फ महरूम लोग थे। 

वक्त के ये बड़े अव्वलन हक के मुंकेर बनते हैं। फिर उनकी पैरवी में अवाम भी हक 
का इंकार करने लगते हैं। इन आयात में अगली दुनिया का वह मंजर दिखाया गया है जबकि 
ये लोग अपनी मुतकब्बिराना रविश की सजा पाने के लिए जहन्नम में डाल दिए जाएंगे। 
उनकी झूठी बड़ाई आखिरकार उन्हें जहां पहुंचाएगी वह सिर्फ अबदी जिल्लत है जिससे 
निकलने की कोई सूरत उनके लिए न होगी। 





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सूरह-40. अल-मोमिन I259 पारा 24 
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पस सब्र करो बेशक अल्लाह का वादा बरहक है। फिर जिसका हम उनसे वादा कर 


रहे हैं उसका कुछ हिस्सा हम तुम्हें दिखा देंगे। या तुम्हें वफात देंगे, पस उनकी वापसी 
हमारी ही तरफ है। (77) 


यह अल्लाह का वादा है कि वह हक के दाजियों की मदद करेगा और हक के मुख़ालिफीन 
को मगलूब (परास्त) करेगा। मगर इस वादे का तहव्युक्र सब्र के बाद होता है। दाजी को 
यकतरफा तौर पर फरीके सानी (प्रतिपक्षी) की ईजाओं (यातनाओं) को बर्दाश्त करना पड़ता है 
यहां तक कि खुदा की सुन्नत के मुताबिक उसके वादे के जुहूर का वक्‍त आ जाए। 
मुखालिफीने हक की अस्ल सजा वह है जो उन्हें आख़िरत में मिलेगी। ताहम मौजूदा 
दुनिया में भी उन्हें उसका इब्तिदाई तजर्बा कराया जाता है, अगरचे हमेशा ऐसा किया जाना 
जूने नहीं। 


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और हमने तुमसे पहले बहुत से रसूल भेजे, उनमें से कुछ के हालात हमने तुम्हें सुनाए 
हैं और उनमें कुछ ऐसे भी हैं जिनके हालात हमने तुम्हें नहीं सुनाए। और किसी रसूल 
को यह मकदूर (सामर्थ्य) न था कि वह अल्लाह की मर्जी के बौर कोई निशानी ले 
आए। फिर जब अल्लाह का हुक्म आ गया तो हक के मुताबिक फैसला कर दिया 
गया। और ग़लतकार लोग उस वक्‍त ख़सारे (घाटे) में रह गए। (78) 





कुरआन में रसूलों के अहवाल (वृत्तांत) बतौर तारीख़ नहीं बयान हुए हैं बल्कि बतौर 
नसीहत बयान हुए हैं। इसलिए कुरआन में रसूलों के अहवाल महदूद तौर पर सिर्फ इतना ही 
बताए गए हैं जितना अल्लाह तआला के नजदीक नसीहत के लिए जरूरी थे। 

रसूल का अस्ल काम सिर्फ यह होता है कि वह खुदा का पैगाम उसके तमाम जरूरी 
आदाब और तकाजों के साथ लोगों तक पहुंचा दे। इसके बाद जहां तक मोजिजे का तअल्लुक 
है वह तमामतर अल्लाह के इख्तियार में है, वह अपनी मस्लेहत के तहत कभी उन्हें जाहिर 
करता है और कभी जाहिर नहीं करता। 

मोजिज ज्यादा उन कामों को दिखाए गए हैं जिनकी सरकशी की बिना पर खुदा का 





पारा 24 I260 सूरह-40. अल-मोमिन 
फैसला था कि उन्हें हलाक कर दिया जाए। इसलिए आखिरी तौर पर इतमामेहुज्जत (आह्वान 
की अति) के लिए उन्हें मोजिजा भी दिखा दिया गया। मगर पैगम्बर हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु 
अलैहि व सल्लम की कौम का मामला यह था कि उसका बड़ा हिस्सा बिलआखिर मोमिन 
बनने वाला था। ये वे लोग थे जो इम्कानी तौर पर यह सलाहियत रखते थे कि वे तारीख़ के 
पहले गिरोह बनें जिसने महज दलील की बुनियाद पर हक का एतराफ किया और अपने 

आजाद इरादे से अपने आपको उसके हवाले कर दिया। इसलिए उन लोगों के मुतालबे को 
नादानी पर महमूल करते हुए उन्हें ख़ारिके आदत मोजिजे (दिव्य चमत्कार) नहीं दिखाए गए 


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अल्लाह ही है जिसने तुम्हारे लिए मवेशी बनाए ताकि तुम कुछ से सवारी का काम लो 
और उनमें से कुछ को तुम खाते हो। और तुम्हारे लिए उनमें और भी फायदे हैं। और 
ताकि तुम उनके जरिए से अपनी जरूरत तक पहुंचो जो तुम्हारे दिलों में हो और उन 

पर और कश्ती पर तुम सवार किए जाते हो और वह तुम्हें और भी निशानियां दिखाता 
है तो तुम अल्लाह की किन-किन निशानियों का इंकार करोगे। (79-8) 





इंसान को अपनी जिंदगी और सभ्यता के लिए बहुत सी चीजों की जरूरत है। मसलन 
गिजा, सवारी, मुख्तलिफ किस्म की सनअतें (उद्योग), सामान को एक जगह से दूसरे जगह ले 
जाना। ये सब चीजें मौजूदा दुनिया में बड़ी मिक्दार में मौजूद हैं। खुदा ने दुनिया की चीजों 
को इस तरह बनाया है कि वे हमेशा इंसान के ताबेअ रहें और इंसान उन्हें अपनी जरूरतों के 
लिए जिस तरह चाहे इस्तेमाल कर सके। 

ये तमाम चीजें गोया खुदा की निशानियां हैं। वे गैबी हकीकतों का मादूदी जबान में 
एलान कर रही हैं। यह एलान अगरचे बिलवास्ता (परोक्ष) जबान में है मगर इंसान का भला 
इसी में है कि वह बिलवास्ता जबान में कही हुई बात को समझे । क्योंकि ख़ुदा जब बराहेरास्त 
(प्रत्यक्ष) जबान में कलाम करे तो वह मोहलते अमल के ख़त्म होने का एलान होता है न कि 
अमल शुरू करने का। 





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सूरह-40. अल-मोमिन I26] पारा 24 


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क्या वे जमीन में चले फिरे नहीं कि वे देखते कि कया अंजाम हुआ उन लोगों का जो 
इनसे पहले गुजरे हैं। वे इनसे ज्यादा थे, और कुब्बत (शक्ति) में और निशानियों में जो 

कि वे जमीन पर छोड़ गए, बढ़े हुए थे। पस उनकी कमाई उनके कुछ काम न आई। 
पस जब उनके पेग़म्बर उनके पास खुली दलीलें लेकर आए तो वे अपने उस इलम पर 
नाजा रहे जो उनके पास था, और उन पर वह अजाब आ पञ जिसका वे मजाक उद्जते 

थे। फिर जब उन्होंने हमारा अजाब देखा, कहने लगे कि हम अल्लाह वाहिद (एकेश्वर) 
पर ईमान लाए और हम इंकार करते हैं जिन्हें हम उसके साथ शरीक करते थे। पस 
उनका ईमान उनके काम न आया जबकि उन्होंने हमारा अजाब देख लिया। यही 
अल्लाह की सुन्नत (तरीका) है जो उसके बंदों में जारी रही है, और उस वक्‍त इंकार 

करने वाले ख़सारे (घाटे) में रह गए। (82-85) 





इल्म की दो किसमें हैं। एक वह इलम जिससे दुनिया की तरविकयां हासिल होती हैं। 
दूसरा इल्म वह है जो आख़िरत की कामयाबी का रास्ता बताता है। जिन लोगों के पास दुनिया 
का इल्म हों उनके इलम का शानदार नतीजा फौरी तौर पर दुनिया की तरक्कियों की सूरत में 
सामने आ जाता है। इसके बरअक्स जिस शख्स के पास आख़िरत का इलम हो उसके इल्म 
के नताइज फौरी तौर पर महसूस शक्ल में सामने नहीं आते। 

यह फर्क उन लोगों के अंदर बरतरी की नपिसयात पैदा कर देता है जो दुनिया का इल्म 
रखते हो। चुनांचे ऐसी कौमों के पास जब उनके पेग़म्बर आए तो उन्होंने अपने को ज्यादा 
समझा और पैगम्बर को कम ख़्याल किया। यहां तक कि वे उनका मजाक उड़ाने लगे। मगर 
अल्लाह ने उन कौमों को उनकी तमाम कुत्तों और शानदार तरविकयों के बावजूद हलाक 
कर दिया। अब उनके तारीखी आसार (अवशेष) या तो खंडहर की शक्ल में हैं या जमीन के 
नीचे दबे हुए हैं। इस तरह अल्लाह तआला ने तमाम इंसानों के लिए एक तारीखी मिसाल 
कायम कर दी कि मुस्तकिल कामयाबी का राज इल्मे आहरत में है न कि इल्मे दुनिया में। 

इन कीमों ने इब्तिदा में अपने पैगम्बरों का इंकार किया। पैग़म्बरों के पास दलील की 
कुब्यत थी। मगर ये कीमें दलील की कुत्वत के आगे झुकने के लिए तैयार न हुई। आखिरकार 
खुदा ने अजाब की जबान में उन्हें अप्र वाकई (यथार्थ) से आगाह किया। उस वक्‍त वे लोग 
झुक कर इकरार करने लगे। मगर यह इकरार उनके काम न आया । क्योंकि इकरार वह मत्लूब 





पारा 24 262 सूरह-4]. हा० मीम० अस-सज्दह 
(अपेक्षित) है जो दलील की बुनियाद पर हो। उस इकरार की कोई कीमत नहीं जो अजाब को 
देखकर किया जाए 


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सूरह-4।. हा० मीम० अस-सज्दह 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
हा० मीम०। यह बड़े महरबान, निहायत रहम वाले की तरफ से उतारा हुआ कलाम 
है। यह एक किताब है जिसकी आयतें खोल-खोल कर बयान की गई हैं, अरबी जबान 
का कुरआन, उन लोगों के लिए जो इलम रखते हैं। खुशखबरी देने वाला और डराने 
वाला। पस उन लोगों में से अक्सर ने इससे मुंह मोड़ा। पस वे नहीं सुन रहे हैं। और 
उन्होंने कहा हमारे दिल उससे पर्दे में हैं जिसकी तरफ तुम हमें बुलाते हो और हमारे 
कानों में डाट है। और हमारे और तुम्हारे दर्मियान में एक हिजाब (ओट) है। पस तुम 
अपना काम करो, हम भी अपना काम कर रहे हैं। (-5) 


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आयतें-54 रुकूअ-6 





पैग़म्बर की दावत बेआमेज (विशुद्ध) दीन की दावत होती है। इसके बरअक्स लोगों का 
हाल यह है कि अक्सर वे अपने अकाबिर (बड़ों) के दीन पर होते हैं। उनके ऊपर उनकी 
कौमी रिवायात और जमानी अफ्कार (तात्कालिक विचारों) का गलबा होता है। इस बिना पर 
पैगम्बर का बेआमेज दीन उनके फिक्री ढांचे में नहीं बैठता। वह उन्हें अजनबी दिखाई देता 
है। यह फक पैगम्बर और लोगों के दर्मियान एक जमानी दीवार की तरह हायल हो जाता है। 
लोग पेगम्बर की दावत को उसके असल रूप में देख नहीं पाते, इसलिए वे उसे मानने पर भी 
तैयार नहीं होते। 

पैग़म्बर की दावत बजाए ख़ुद इंतिहाई मुदल्लल होती है। वह अपनी जात में इस बात 
का सुबूत होती है कि वह ख़ुदा की तरफ से आई हुई बात है। मगर मज्कूरा जेहनी दीवार 
इतनी ताकतवर साबित होती है कि इंसान उससे निकल कर पेग़म्बर की दावत को देख नहीं 
पाता। ख़ुदा इंसान के लिए अपनी रहमत के दरवाजे खोलता है मगर इंसान उसके अंदर 
दाखिल नहीं होता। 





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सूरह-47. हा० मीम० अस-सज्दह ।263 पारा 24 


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कहो, मैं तो एक बशर (इंसान) हूं तुम जैसा। मेरे पास यह “वही” (ईश्वरीय वाणी) आती 
है कि तुम्हारा माबूद (पूज्य) बस एक ही माबूद है, पस तुम सीधे रहो उसी की तरफ 
और उससे माफी चाहो। और ख़राबी है मुश्रिकों के लिए, जो जकात नहीं देते और 

वे आख़िरत के मुंकिर हैं। बेशक जो लोग ईमान लाए और उन्होंने नेक अमल किया 
उनके लिए ऐसा अज्र (प्रतिफल) है जो मोकूफ (बाधित) होने वाला नहीं। (6-8) 





हक की दावत जब भी उठती है 'बशर' (इंसान) की सतह पर उठती है। लोगों की समझ 
में नहीं आता कि यह कैसे मुमकिन है कि एक बशर खुदा की जबान में कलाम करे। इसलिए 
वे उसके मुंकिर बन जाते हैं मगर ख़ुदा की सुन्नत (तरीका) यही है कि वह बशर की जबान 
से अपनी बात का एलान कराए। जो शख्स दाऔ की बशरियत से गुजर कर उसके इलाही 
कलाम को न पहचान सके वह मौजूदा इम्तेहान की दुनिया में हिदायत से महरूम रहेगा। 
आहिरत का मानना वही मोतबर है जिसके साथ कामिल तीहीद और इंफाक फी 
सबीलिल्लाह (अल्लाह की राह में खर्च करना) पाया जाए। जो शख्स अल्लाह को हकीकी तौर 
पर पा ले वह किसी और अज्मत में अटका हुआ नहीं रह सकता। इसी तरह जो शख्स 
अल्लाह को हकीकी तौर पर पा ले वह अपने माल को खुदा से बचाकर नहीं रख सकता। 
फस्तकीमू इलैहि का मतलब है अख्लिसू लहुल इबादह यानी तुम्हारी सारी तवज्जोह सिर्फ 
अल्लाह की तरफ हो तुम्हारी दुआ और इबादत का केन्द्र सिर्फ एक अल्लाह हो। तुम्हारी सोच 
तमामतर ख़ुदा रुखी सोच बन जाए । यही वे लोग हैं जिन्हें खुदा के अबदी इनामात दिए जाएंगे। 


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पारा 24 264 सूरह-4]. हा० मीम० अस-सज्दह 


कहो क्या तुम लोग उस हस्ती का इंकार करते हो जिसने जमीन को दो दिन में बनाया, 
और तुम उसके हमसर (समकक्ष) ठहराते हो। वह रब है तमाम जहान वालों का। और 
उसने जमीन में उसके ऊपर पहाड़ बनाए। और उसमे फायदे की चीज रख दी। और 

उसमें उसकी गिजाएं ठहरा दीं चार दिन में, पूरा हुआ पूछने वालों के लिए। फिर वह 
आसमान की तरफ मुतवज्जह हुआ, और वह धुवां था। फिर उसने आसमान और जमीन 

से कहा कि तुम दोनों आओ ख़ुशी से या नाखुशी से। दोनों ने कहा कि हम ख़ुशी से 
हाजिर हैं। फिर उसने दो दिन में उसके सात आसमान बनाए और हर आसमान में 
उसका हुक्म भेज दिया। और हमने आसमाने दुनिया को चराग़ों से जीनत (साज-सज्जा) 

दी, और उसे महफूज कर दिया। यह अजीज (प्रमुत्वशाली) व अलीम (सर्वज्ञ) की मंसूबाबंदी 

है। (9-2) 





कायनात का मुतालआ बताता है कि उसकी तख़्तलीक कई दौरों में तदरीजी (चरणबद्ध) 
तौर पर हुई है। तदरीजी तख़्नीक दूसरे लफ्जों में मंसूबाबंद तीक है। और जब कायनात 
की तख्नीक मंसूबाबंद अंदाज में हुई है तो यकीनी है कि इसका एक मंसूबासाज हो जिसने 
अपने मुकर्ररह मंसूबे के तहत इसे इरादतन बनाया हो। 

इसी तरह यहां जमीन के ऊपर जगह-जगह पहाड़ हैं जो जमीन के तवाजुन (संतुलन) को 
बरकरार रखते हैं। इस दुनिया में करोड़ों किस्म के जीहयात (जीव) हैं। हर एक को 
अलग-अलग रिक दरकार है। मगर हर एक का रिज्क इस तरह कामिल मुताबिकत के साथ 
मौजूद है कि जिसे जो रोजी दरकार है वह अपने करीब ही उसे पा लेता है। इसी तरह 
कायनात का मुतालआ बताता है कि तमाम चीजें इब्तिदा में मुंतशिर (बिखरे हुए) एटम की 
सूरत में थीं। फिर वे आपस में मिलकर अलग-अलग चीजों की सूरत में विकसित हुई। इसी 
तरह कायनात के मुतालओ से मालूम होता है कि वसीअ कायनात की तमाम चीजें एक ही 
कानूने फितरत में निहायत मोहकम (सुटूट़) तौर पर जकड़ी हुई हैं। 

ये मुशाहिदात वाजेह तौर पर साबित करते हैं कि कायनात का ख़ालिक अलीम और ख़बीर 
है। वह कुव्वत और गलबे वाला है। फिर दूसरा कौन है जिसे इंसान अपना माबूद करार दे। 


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पस अगर वे एराज (उपेक्षा) करते हैं तो कहो कि मैं तुम्हें उसी तरह के अजाब से डराता 
हूं जैसा अजाब आद व समूद पर नाजिल हुआ। जबकि उनके पास रसूल आए, उनके 
आगे से और उनके पीछे से कि अल्लाह के सिवा तुम किसी की इबादत न करो। उन्होंने 


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सूरह-47. हा० मीम० अस-सज्दह ।265 पारा 24 


कहा कि अगर हमारा रब चाहता तो वह फरिश्ते उतारता, पस हम उस चीज के मुंकिर 
हैं जिसे देकर तुम भेजे गए हो। (3-4) 


हक की दावत का इंकार ख़ुदा के नजदीक सबसे बड़ा जुर्म है। यह इंकार अगर पैगम्बर 
की दावत के मुकाबले में हो तो उसकी सजा इसी मौजूदा दुनिया से शुरू हो जाती है, जैसा 
कि आद व समूद वगैरह कौमों के साथ पेश आया। और अगर आम दाजियों का मामला हो 
तो उनके इंकार का अंजाम आखिरत में सामने आएगा। 

हक की दावत का असल नुक्ता यह रहा है कि इंसान खुदा का इबादतगुजार बने। वह 
शेर अल्लाह को छोड़कर सिर्फ एक अल्लाह से अपने ख़ौफ व मुहब्बत के जज्बात वाबस्ता 
करे। मगर हर दौर में ऐसा हुआ कि पैग़म्बर की शख्सियत उनके मुआसिरीन (समकालीन) 
को इससे कम नजर आई कि खुदा उन्हें अपने पैगाम की पैग़ामरसानी के लिए चुने। इसलिए 
उन्होंने पैग़म्बरों को मानने से इंकार कर दिया। 


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आद का यह हाल था कि उन्होंने जमीन में बौर किसी हक के घमंड किया, और 
उन्होंने कहा, कौन है जो कुवत (शक्ति) में हमसे ज्यादा है। क्या उन्होंने नहीं देखा 
कि जिस खुदा ने उन्हें पैदा किया है वह कुत में उनसे ज्यादा है और वे हमारी 
निशानियाँ का इंकार करते रहे। तो हमने चन्द मनहूस दिनों में उन पर सख्त तूफानी 
हवा भेज दी ताकि उन्हें दुनिया की जिंदगी में रुसवाई का अजाब चखाएं, और 
आख़िरत का अजाब इससे भी ज्यादा रुसवाकुन है और उन्हें कोई मदद न पहुंचेगी। 
और वे जो समूद थे, तो हमने उन्हें हिदायत का रास्ता दिखाया मगर उन्होंने हिदायत 
के मुकाबले में अंधेपन को पसंद किया, तो उन्हें अजाबे जिल्लत के कड़के ने पकड़ 


लिया उनकी बदकिरदारियों की वजह से। और हमने उन लोगों को नजात दी जो 
ईमान लाए और डरने वाले थे। (5-8) 


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आदमी एक ऐसी दुनिया में है जहां जमीन व आसमान की अज्मतें उसकी बड़ाई की नफी 


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पारा 24 266 सूरह-4]. हा० मीम० अस-सज्दह 
कर रही हैं। जहां मौत का वाकया हर रोज इंसान को हकीर और बेजोर साबित कर रहा है। इसके 
बावजूद आदमी बड़ा बनता है। फिर भी वह इस गुमान में रहता है कि वह जोर वाला है। 

खुदा बार-बार हकीकत का एलान कराता है। वह बार-बार इंसान की बड़ाई के दावे को 
बातिल साबित कर रहा है। मगर कोई उस वक्‍त तक नसीहत नहीं लेता जब तक उसे मिटा 
न दिया जाए। आद व समूद और दूसरी कीमों के खंडहर इसी के मिसाल हैं। उन्होंने जिन 
दिनों को अपने लिए मुबारक समझ रखा था वही दिन ख़ुदा के हुक्म से उनके लिए मनहूस 
दिन बनकर रह गए 








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और जिस दिन अल्लाह के दुश्मन आग की तरफ जमा किए जाएंगे, फिर वे जुदा-जुदा 
किए जाएंगे, यहां तक कि जब वे उसके पास आ जाएंगे, उनके कान और उनकी आंखें 
और उनकी खालें उन पर उनके आमाल की गवाही देंगी। और वे अपनी खालों से 
कहेंगे, तुमने हमारे खिलाफ क्‍यों गवाही दी। वे कहेंगी कि हमें उसी अल्लाह ने गोयाई 
(बोलने की ताकत) दी है जिसने हर चीज को गोया कर दिया है। और उसी ने तुम्हें 

पहली मर्तबा पैदा किया और उसी के पास तुम लाए गए हो। और तुम अपने को इससे 
छुपा न सकते थे कि तुम्हारे कान और तुम्हारी आंखें और तुम्हारी खालें तुम्हारे खिलाफ 
गवाही दें, लेकिन तुम इस गुमान में रहे कि अल्लाह तुम्हारे बहुत से उन आमाल को 
नहीं जानता जो तुम करते हो। और तुम्हारे उसी गुमान ने जो कि तुमने अपने रब के 
साथ किया था तुम्हें बर्बाद किया, पस तुम ख़सारा (घाटा) उठाने वालों में से हो गए। 
पस अगर वे सब्र करें तो आग ही उनका ठिकाना है, और अगर वे माफी मागें तो उन्हें 
माफी नहीं मिलेगी। (9-24) 


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सूरह-47. हा० मीम० अस-सज्दह ।267 पारा 24 





कुरआन में बताया गया है कि कियामत में इंसान की खाल और उसके आजा (शरीरांग) 
उसके आमाल की गवाही देगे। मौजूदा जमाने में न्ते जिल्दी (Skin speech) केनजरियेनेइसे 
अमली तौर पर साबित कर दिया है। अब यह मालूम किया गया है कि इंसान का हर बोल उसके 
जिस्म की खाल पर मुरतसिम (प्रतिबिंबित) होता रहता है। और उसे दुबारा उसी तरह सुना जा 
सकता है जिस तरह मशीनी तौर पर रिकॉर्ड की हुई आवाज को दुबारा सुना जाता है। 

खुदा चूँकि बजाहिर दिखाई नहीं देता इसलिए इंसान समझता है कि खुदा उसे देखता 
नहीं है। यही गलतफहमी आदमी के अंदर सरकशी पैदा करती है। अगर आदमी जान ले कि 
ख़ुदा हर लम्हा उसे देख रहा है तो उसका सारा रवैया बिल्कुल बदल जाए। 

आखिरत में ख़ुदा के सामने आने के बाद आदमी इताअत (आज्ञापालन) का इज्हार 
करेगा। मगर वह उसके लिए बेफायदा होगा। क्योंकि इताअत हालते गैब में काबिले एतबार 


है न कि हालते शुहूद (प्रकट स्थिति) में। 
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और हमने उन पर कुछ साथी मुसल्लत कर दिए तो उन्होंने उनके आगे और पीछे की 
हर चीज उन्हें खुशनुमा बनाकर दिखाई। और उन पर वही बात पूरी होकर रही जो जिन्नों 
और इंसानों के उन गिरोहों पर पूरी हुई जो इनसे पहले गुजर चुके थे। बेशक वे ख़सारे 
(घाटे) में रह जाने वाले थे। (25) 





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मौजूदा दुनिया में एक तरफ ख़ुदा के दाजी हैं जो इंसान को हक की नसीहत करते हैं। 
दूसरी तरफ इस्तहसालपसंद (शोषक) लीडर हैं जो खुशनुमा बातें करके इंसान को अपनी तरफ 
मायल करना चाहते हैं। जो लोग ख़ुदा की नसीहत पर तवज्जोह न दें वे उन लीडरों की बातों 
में आकर गैर हकीकी रास्तों में दौड़ पड़ते हैं। 

ये इस्तहसालपसंद लीडर लोगों को उनके माजी का हसीन ख्वाब दिखाते हैं। वे उनके 
सामने उनके मुस्तकबिल का ख़ूबसूरत नक्शा पेश करते हैं। जो लोग ऐसे लीडरों के झूठे 
अल्फाज से धोखा खाकर उनके पीछे दौड़ पड़ते हैं उनका अंजाम इसके सिवा और कुछ नहीं 
होता कि वे हमेशा के लिए तबाह होकर रह जाएं 


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और कुफ्र करने वालों ने कहा कि इस कुरआन को न सुनो और इसमें ख़लल डालो, 

ताकि तुम ग़ालिब रहो। पस हम इंकार करने वालों को सख्त अजाब चखाएंगे और उन्हें 
उनके अमल का बदतरीन बदला देंगे। यह अल्लाह के दुश्मनों का बदला है, यानी 
आग। उनके लिए उसमें हमेशगी का ठिकाना होगा, इस बात के बदले में कि वे हमारी 
आयतों का इंकार करते थे। (26-28) 


268 


वल गौ फीह० की तशरीह हजरत अब्ुल्लाह बिन अब्बास रजि० ने अय्यबूह के लपज 
से की है (तफ्सीर इब्ने कसीर)। यानी कुरआन और साहिबे कुरआन में ऐब लगाओ और इस 
तरह लोगों को उससे दूर कर दो। 

किसी बात या किसी शख्स के बारे में इज्हारे राय के दो तरीके हैं। एक तंकीद, दूसरा 
तअयीब | तं्रीद का मतलब है हकइक की बुनियाद पर जैबहस अप्र का तज्जिया (विश्लेषण) 
करना। इसके बरअक्स तअयीब यह है कि आदमी जेरेबहस मसले पर दलाइल पेश न करे। वह 
सिर्फ उसमें ऐब निकाले वह उस पर इल्जाम लगाकर उसे मतऊन (लांछिल) करे। 

तमद का तरक सरासर जाइज तरीक है। मगर तअयीब का तरीक अहले कुफ़् 
का तरीका है। मजीद यह कि तअयीब का तरीका खुदा की निशानियों का इंकार है। 
क्योंकि हर सच्ची दलील ख़ुदा की एक निशानी है। जो लोग दलील के आगे न झुकें 
और ऐबजोई और इल्जामतराशी का तरीका इस़्तियार करके उसे दबाना चाहें वे गोया 
खुदा की निशानी का इंकार कर रहे हैं। ऐसे लोग आख़िरत में निहायत सख्त सजा 


के मुस्तहिक करार दिए जाणी। 

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सूरह-47. हा० मीम० अस-सज्दह ।269 पारा 24 


और कुफ्र करने वाले कहेंगे कि ऐ हमारे रब, हमें उन लोगों को दिखा जिन्होंने जिन्नों 
और इंसानों में से हमें गुमराह किया, हम उन्हें अपने पांवों के नीचे डालेंगे ताकि वे 
जलील हों। जिन लोगों ने कहा कि अल्लाह हमारा रब है, फिर वे साबितकदम रहे, 
यकीनन उन पर फरिश्ते उतरते हैं और उनसे कहते हैं कि तुम न अंदेशा करो और न 

रंज करो और उस जन्नत की बशारत (शुभ सूचना) से खुश हो जाओ जिसका तुमसे 
वादा किया गया है। हम दुनिया की जिंदगी में तुम्हारे साथी हैं और आख़िरत में भी। 
और तुम्हारे लिए वहां हर चीज है जिसे तुम्हारा दिल चाहे और तुम्हारे लिए उसमें हर 
वह चीज है जो तुम तलब करोगे, गफूर (क्षमाशील) व रहीम (दयावान) की तरफ से 

मेहमानी के तौर पर। (29-32) 





इंसानों में दो किस्म के इंसान हैं। एक वे जो शैतानों और झूठे लीडरों को अपना रहनुमा 
बनाते हैं। ये लोग दुनिया में खूब एक दूसरे से दोस्ती रखते हैं। मगर आख़िरत में सूरतेहाल 
बिल्कुल बरअक्स होगी। वहां पैरवी करने वाले लोग जब देखेंगे कि उनके झूठे रहनुमाओं ने 
उन्हें सिर्फ जहन्नम में पहुंचाया है तो वे उनसे सरन मुतनपिफर (नफरतजदा) हो जाणी। और 
चाहेंगे कि उन्हें हकीर व जलील करके अपने दिल की तस्कीन हासिल करें। 

दूसरे इंसान वे हैं जो ख़ुदा के फरिश्तों को अपना साथी बनाएं। ऐसे लोग दुनिया से 
लेकर आखिरत तक फरिश्तों को अपना हमनशीं (साथी) पाते हैं। फरिश्ते उनके दिल पर 
रब्बानी एहसासात उतारते हैं। वे मुश्किल हालात में उन्हें कल्बी सुकून अता करते हैं। वे 
लतीफ तजर्बात के जरिए उन्हें खुदा की बिशारतें सुनाते हैं। फिर यही फरिश्ते आख़िरत में 
उनका इस्तकबाल करके उन्हें जन्नत के बाग़ात में दाखिल करेंगे। 


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और उससे बेहतर किसकी बात होगी जिसने अल्लाह की तरफ बुलाया और नेक अमल 

किया और कहा कि में फरमांबरदारों में से हूं। और भलाई और बुराई दोनों बराबर नहीं, 
तुम जवाब में वह कहो जो उससे बेहतर हो फिर तुम देखोगे कि तुम में और जिसमें 

दुश्मनी थी, वह ऐसा हो गया जैसे कोई दोस्त कराबत (घनिष्टता) वाला। और यह बात 


उसी को मिलती है जो सब्र करने वाले हैं, और यह बात उसी को मिलती है जो बड़ा 
नसीबे वाला है। और अगर शैतान तुम्हारे दिल में कुछ वसवसा डाले तो अल्लाह की 





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पारा 24 270 सूरह-4]. हा० मीम० अस-सज्दह 
पनाह मांगो। बेशक वह सुनने वाला, जानने वाला है। (33-36) 





कुरआन की दावत अल्लाह की तरफ बुलाने की दावत है। इंसान को उसके रब से 
जोड़ना, इंसान को ख़ुदा की याद में जीने वाला बनाना, इंसान के अंदर यह शुऊर उभारना 
कि वह एक ख़ुदा को अपना मकजे तवज्जोह बना ले, यही कुरआनी दावत का असल निशाना 
है। और बिलाशुबह इस पुकार से बेहतर कोई पुकार नहीं । 
मगर खुदा का दाऔ सिर्फ वह शख्स बनता है जो अपनी दावत में इस हद तक 
संजीदा हो कि जो कुछ वह दूसरों से मनवाना चाहता है उसे वह ख़ुद सबसे पहले मान 
चुका हो, वह दूसरों से जो कुछ करने के लिए कह रहा है, ख़ुद सबसे पहले उसका करने 
वाला बन जाए। 
दा का सबसे बड़ा हथियार यह है कि वह लोगों के साथ यकतरफा हुस्ने सुलूक करे। 
दूसरे लोग बुराई करें तब भी वह दूसरों के साथ भलाई करे। वह इशतिआल (उत्तेजना) के 
मुकाबले मेएराज और अजिध्यतरसानी (उत्पीड़न) के मुकाबले में सब्र का तरीका इस्ियार 
करे। यकतरफा हुस्ने सुलूक में अल्लाह तआला ने जबरदस्त तस्खीरी (अपना बनाने की) 
ताकत रखी है। ख़ुदा का दाऔ ख़ुदा की बनाई हुई इस फितरत को जानता है और उसे 
आखिरी हद तक इस्तेमाल करता है, चाहे इसके लिए उसे अपने जज्बात को कुचलना पड़े, 
चाहे इसकी खातिर अपने अंदर पैदा होने वाले रद्देअमल को जबह करने की नौबत आ जाए। 
जब भी दाओ के अंदर इस किस्म का ख्याल आए कि फलां बात का जवाब देना जरूरी 
है, फलां जुल्म के खिलाफ जरूर कार्वाई की जानी चाहिए वर्ना दुश्मन दिलेर होकर और 
ज्यादा ज्यादतियां करेगा तो समझ लेना चाहिए कि यह एक शैतानी वसवसा है। मोमिन और 
दाऔ का फर्ज है कि वह ऐसे ख्याल से खुदा की पनाह मांगे, न कि वह उसके पीछे दौड़ना 
शुरू कर दे। 
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और उसकी निशानियों में से है रात और दिन और सूरज और चांद। तुम सूरज और 
चांद को सज्दह न करो बल्कि उस अल्लाह को सज्दह करो जिसने इन सबको पैदा किया 
है, अगर तुम उसी की इबादत करने वाले हो। पस अगर वे तकब्बुर (घमंड) करें तो 
जो लोग तेरे रब के पास हैं वे शब व रोज उसी की तस्बीह करते हैं और वे कभी नहीं 
थकते । (37-38) 


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सूरह-47. हा० मीम० अस-सज्दह 4शाा पारा 24 





इंसान की सबसे बड़ी गुमराही उसकी जाहिरपरस्ती है। कदीम जमाने के इंसान को सूरज 
और चांद और सितारे सबसे ज्यादा नुमायां नजर आए। इसलिए उसने इन मजाहिर (जाहिरी 
रूपों) को ख़ुदा समझ लिया और उन्हें पूजना शुरू कर दिया। मौजूदा जमाने में मादूदी 
(भौतिक) तहजीब की जगमगाहट लोगों को नुमायां दिखाई दे रही है इसलिए अब मादूदी 
तहजीब को वह मकाम दे दिया गया है जो कदीम जमाने में सूरज और चांद को हासिल था। 
हालांकि चाहे सूरज और चांद हों या दूसरे मजाहिर सबके सब ख़ुदा की मख्लूक हैं। इंसान को 
चाहिए कि वह ख़ालिक का परस्तार बने न कि उसकी मख्लूकात का। 

तकब्बुर (घमंड) करने वालों का तकब्बुर (आह्वान) दावत के मुकाबले में नहीं होता, 
बल्कि हमेशा दाओ के मुकाबले में होता है। वक्‍त के बड़ों को बजाहिर दा अपने से छोटा 
नजर आता है इसलिए वह उसे छोटा समझ लेते हैं और इसी के साथ उसकी तरफ से पेश 
किए जाने वाले पैग़ाम को भी। 

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और उसकी निशानियोँ में से यह है कि तुम जमीन को फरसूदा (मृत) हालत में देखते 

हो फिर जब हम उस पर पानी बरसाते हैं तो वह उभरती है और फूल जाती है। बेशक 
जिसने उसे जिंदा कर दिया वह मुर्दों को भी जिंदा कर देने वाला है। बेशक वह हर चीज 

पर कादिर है। जो लोग हमारी आयतां को उल्टे मअना पहनाते हैं वे हमसे छुपे हुए नहीं 
हैं। क्या जो आग में डाला जाएगा वह अच्छा है या वह शख्स जो कियामत के दिन 
अम्न के साथ आएगा। जो कुछ चाहे कर लो, बेशक वह देखता है जो तुम कर रहे हो। 
(39-40) 








सूखी जमीन में बारिश का बरसना और उससे सब्जा का उगना एक ऐसा मजहर 
(जहि रूप है जो हर आदमी के सामने बार-बार आता है। यह एक मअनवी हकीकत की 
माद्दी तमसील है। इस तरह इंसान को बताया जाता है कि ख़ुदा ने यहां उसके खुश्क वजूद 
को सरसब्ज व शादाब करने का वसीअ इंतिजाम कर रखा है। जमीन की मिट्टी पानी को 
अपने अंदर दाखिल होने देती है उसी वक्‍त यह मुमकिन होता है कि बारिश उसे सरसब्ज व 
शादाब करने का जरिया बने। इसी तरह इंसान अगर ख़ुदा की हिदायत को अपने अंदर उतरने 
दे तो उसका वजूद भी हिदायत पाकर लहलहा उठेगा। 


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पारा 24 272 सूरह-4]. हा० मीम० अस-सज्दह 
खुदा की हिदायत से फैजयाब न होने की सबसे बड़ी वजह यह होती है कि इंसान खुदा 
की बातों में इल्हाद (उलट-फेर) करता है। ख़ुदा की रहनुमाई उसके सामने आती है तो वह 
उसे सीधे मफहूम में नहीं लेता। बल्कि उसमें टेढ़ निकाल कर उसे उलट देता है। इस तरह 
खुदा की रहनुमाई उसके जेहन का जुज (अंग) नहीं बनती। वह उसकी रूह को गिजा देने 
वाली साबित नहीं होती। 
ख़ुदा की रहनुमाई को सीधी तरह कुबूल करने वालों के लिए जन्नत का इनाम है और 
खुदा की रहनुमाई में टेढ़ा मफहूम (भाषार्थ) निकालने वालों के लिए जहन्नम का अजाब। 


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जिन लोगों ने अल्लाह की नसीहत का इंकार किया जबकि वह उनके पास आ गई, और 
बेशक यह एक जबरदस्त किताब है। इसमें बातिल (असत्य) न इसके आगे से आ सकता 
है और न उसके पीछे से, यह हकीम (तत्वदर्शी) व हमीद (प्रशंस्य) की तरफ से उतारी गई 


है। तुम्हें वही बातें कही जा रही हैं जो तुमसे पहले रसूलों को कही गई हैं। बेशक तुम्हारा 
रब मग्फिरत (क्षमाशील) वाला है और दर्दनाक सजा देने वाला भी। (4।-43) 








कुरआन एक जबरदस्त किताब है। और इसके जबरदस्त होने का सुबूत यह है कि 
बातिल न आगे से इसमें आ सकता है और न पीछे से। यानी इसमें किसी तरफ से 
दख़लअंदाजी का कोई इम्कान नहीं, न बराहेरास्त प्रत्यक्षतः) इसमें कोई बिगाड़ पैदा किया जा 
सकता है और न बिलवास्ता (परोक्ष रूप में)। 

यह एक इंतिहाई गैर मामूली पेशीनगोई (भविष्यवाणी) है। इस आलमे असबाब में इस 
पेशीनगोई के पूरा होने के लिए जरूरी है कि कुरआन की हामिल (धारक) एकतबन्वरकी 
मुस्तकिल तौर पर मौजूद रहे। पिछले नबियों की तालीमात से इसकी अदम मुताबिकत 
(प्रतिकूलता) जाहिर न हो सकी। कोई शख्स कभी कुरआन का जवाब लिखने पर कादिर न 
हो। उलूम का इरतिका (विकास) इसकी किसी बात को कभी ग़लत साबित न करे। तारीख़ 
का उतार चढ़ाव कभी इस पर असरअंदाज न होने पाए। कुरआन की जबान (अरबी) हमेशा 
एक जि जान के तैह पर बावी रहे। 

कुरआन के नुजूल के बाद की लम्बी तारीख़ बताती है कि ये तमाम असबाब हैरतअंगेज तौर 
पर इसके हक में जमा रहे हैं। इन तमाम वाकेयात का जमा होना इस कद्र गैर मामूली है कि 


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सूरह-4।. हा० मीम० अस-सज्दह 273 

कुरआन के सिवा कोई भी दूसरी किताब नहीं जिसके हक में वे डेढ़ हजार वर्ष की मुद्दत तक 

मुसलसल जमा रहे हों। यही इस बात की काफी दलील है कि कुरआन ख़ुदा की किताब है। 
कुरआन की अज्मत को दलील की सतह पर पाना मत्लूब है न कि ताकत की सतह पर। 

ताकत की सतह पर उसकी अमत कियामत मेंजहिर हेगी मगर यह जूहू सिर्फ इसलिए 

होता कि जिन लोगों ने दलील की सतह पर ख़ुदा की सच्चाई को नहीं माना था उन्हें जलील 

करके ख़ुदा को सच्चाई को मानने पर मजबूर किया जाए 


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और अगर हम इसे अजमी (शैर-अरबी) कुरआन बनाते तो वे कहते कि इसकी आयतें 
साफ-साफ क्यों नहीं बयान की गईं। क्या अजमी किताब और अरबी लोग। कहो कि 
वह ईमान लाने वालों के लिए तो हिदायत और शिफा (निदान) है, और लोग जो ईमान 
नहीं लाते उनके कानों में डाट है और वह उनके हक में अंधापन है। ये लोग गोया कि 
दूर की जगह से पुकारे जा रहे हैं। (44) 


कुरआन अरबी जबान में उतरा तो मुख़ालिफीन ने कहा कि यह तो मुहम्मद सल्ल० की 
अपनी मादरी जबान (मातृ-भाषा) है, अरबी में कोई किताब बनाकर पेश कर देना उनके लिए 
क्या मुश्किल है। अगर वह वाकई पैग़म्बर होते तो ख़ुदा की मदद से वह अचानक किसी 
अजनबी जबान में कलाम करने लगते। 

इस तरह की बात हमेशा गैर संजीदा लोग करते हैं। और जो लोग गैर संजीदा हों उनकी 
जबान कभी बंद नहीं की जा सकती । मसलन अगर ऐसा हो कि पैगम्बर आकर अरब के लोगों 
से यूनानी या सुरयानी या फारसी जबान में कलाम करने लगे तो उस वक्‍त लोगों को कहने 
के लिए ये अल्फाज मिल जाएंगे। कैसा अजीब है यह पैग़म्बर । इसका कहना है कि वह लोगों 
की हिदायत के लिए आया है। मगर वह ऐसी जबान में बोलता है जिसे उसके मुखातबीन 
समझ ही न सकते हों। 

हकीकत यह है कि हक को सिर्फवे लोग वब्रून कर पते हैंजो हक के मामले में संजीदा 
(गंभीर) हों। जो लोग हक के मामले में संजीदा न हों वे वाजेहतरीन (सबसे स्पष्ट) बात को 
भी समझ नहीं सकते। उनकी मिसाल ऐसी है जैसे किसी को बहुत दूर से पुकारा जाए। ऐसा 
शख्स कुछ आवाज तो सुनेगा मगर वह असल बात को समझने से महरूम रहेगा। 


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और हमने मूसा को किताब दी थी तो उसमें इख़्तेलाफ (मत-भिन्नता) पैदा किया गया। 
और अगर तेरे रब की तरफ से एक बात पहले तै न हो चुकी होती तो उनके दर्मियान 
फैसला कर दिया जाता। और ये लोग उसकी तरफ से ऐसे शक में हैं जिसने उन्हे 
तरदूदुद (असमंजस) में डाल रखा है। जो शख्स नेक अमल करेगा तो अपने ही लिए 
करेगा और जो शख्स बुराई करेगा तो उसका वबाल उसी पर आएगा। और तेरा रब 
बंदों पर जुल्म करने वाला नहीं। (45-46) 





पिछले पैगम्बरों के जरिए जब खुदाई सच्चाई मुंकशिफ (उद्घटित) की गई तो कुछ लोगों 
ने उसे माना और कुछ लोगों ने नहीं माना। यही मामला उस वक्‍त भी पेश आया जबकि 
पैगम्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की बेअसत (आगमन) हुई । 

खुदाई सच्चाई के साथ यह इख्तिलाफी मामला इंसान क्यों करता है। इसकी वजह 
मौजूदा इम्तेहानी हालत है। मौजूदा इम्तेहान की दुनिया में सच्चाई जब भी जाहिर होती है तो 
उसके साथ एक पर्दा भी लगा रहता है। लोग उसी पर्दे में अटक कर रह जाते हैं जिस पर्दे 
को उन्हें फाइना था। उसे वे अपने लिए शक व शुबह का सबब बना लेते हैं। 

मगर यह शक कियामत में किसी के लिए उज़ (विवशता) नहीं बन सकता। क्योंकि यह 
सिर्फ इस बात का सुबूत है कि इंसान हक के मामले में संजीदा नहीं था। इंसान अपने दुनिया 
के मफाद के मामले में पूरी तरह संजीदा होता है इसलिए वह तमाम पर्दो को फाड़कर उसकी 
हकीकत तक पहुंच जाता है। इसी तरह अगर वह अपने आख़िरत के मफाद के बारे में संजीदा 
हो जाए तो वह शक के तमाम पर्दो को फाइकर हकीकत को उसकी बेनकाब सूरत में देख ले। 


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कियामत का इल्म अल्लाह ही से मुतअल्लिक है। और कोई फल अपने ख़ोल से नहीं 
निकलता और न कोई औरत हामिला (गर्भवती) होती और न जनती है मगर यह सब 
उसकी इत्तला से होता है। और जिस दिन अल्लाह उन्हें पुकारेगा कि मेरे शरीक कहां 
हैं, वे कहेंगे कि हम आपसे यही अर्ज करते हैं कि हम में कोई इसका दावेदार नहीं। 
और जिन्हें वे पहले पुकारते थे वे सब उनसे गुम हो जाएंगे, और वे समझ लेंगे कि उनके 
लिए कोई बचाव की सूरत नहीं। (47-48) 


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सूरह-47. हा० मीम० अस-सज्दह ।275 पारा 25 





दरख्त से एक फल का निकलना या मां के पेट से एक जिंदा वजूद का पैदा होना अपनी 
नौइयत के एतबार से वैसा ही वाकया है जैसा मौजूदा दुनिया के अंदर से आख़िरत की दुनिया 
का बरामद होना। 

फल क्या है, वह बेफल का फल में तब्दील होना है। इंसान क्या है, वह बेइंसान का 
इंसान की सूरत इख्तियार करना है। यही आखिरत का मामला भी है। आख़िरत भी दरअस्ल 
गैर आखिरत का आख़िरत में तब्दील होने का दूसरा नाम है। पहली किस्म की तब्दीली हर 
रोज हमारे सामने वाकया बन रही है। फिर इसी नीइयत के एक और वाकया (मौजूदा दुनिया 
का आखिरत में तब्दील होना) नाकाबिले कयास (असंभाव्य) क्यों हो। 

आख़िरत का दिन हकीकतों के आखिरी जुहूर का दिन होगा। जब वह दिन आएगा तो 
तमाम झूठी बुनियादें ढह पड़ेंगी जिन पर लोगों ने मौजूदा दुनिया में अपनी जिंदगियों को खड़ा 
कर रखा था। 


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और इंसान भलाई मांगने से नहीं थकता, और अगर उसे कोई तकलीफ पहुंच जाए तो 
मायूस व दिल शिकस्ता हो जाता है। और अगर हम उसे तकलीफ के बाद जो कि उसे 
पहुंची थी, अपनी महरबानी का मजा चखा देते हैं तो वह कहता है यह तो मेरा हक 
ही है, और में नहीं समझता कि कियामत कभी आएगी। और अगर में अपने रब की 
तरफ लौटाया गया तो उसके पास भी मेरे लिए बेहतरी ही है। पस हम उन मुंकिरों 
को उनके आमाल से जरूर आगाह करेंगे। और उन्हें सस्त अजाब का मजा चखाएंगे। 

(49-50) 








मुसीबत का लम्हा इंसान के लिए अपनी दरयाफ्त का लम्हा होता है। चुनांचे जब 
मुसीबत पड़ती है तो वह ख़ुदसरी (उद्दंडता) को भूलकर ख़ुदा को याद करने लगता है। उस 
वक्त वह जान लेता है कि वह अब्द (बंदा, गुलाम) है और ख़ुदा उसका माबूद। 

मगर जब ख़ुदा उसकी मुसीबत को उससे दूर कर देता है और उसे आसाइश (सुख-सम्पन्नता) 
का सामान अता करता है तो इसके बाद वह फौरन अपनी साबिका (पूर्ववर्ती) हालत को भूल 
जाता है। वह मिली हुई नेमत को असबाब के साथ जोड़ देता है और उसे अपनी तदबीर और 
लियाकत का नतीजा समझने लगता है। उसकी नफ्सियात ऐसी हो जाती है गोया कि जिंदगी 
बस इसी दुनिया की जिंदगी है। इसके बाद न दुबारा उठना है और न ख़ुदा की अदालत में 


पारा 25 276 सूरह-4]. हा० मीम० अस-सज्दह 
खड़ा होना है। मजीद यह कि उसकी आसूदाहाली (सम्पन्नता) उसे इस गलतफहमी में डाल 
देती है कि यहां जब मेरा हाल अच्छा है तो अगली दुनिया में भी जरूर मेरा हाल अच्छा होगा। 


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और जब हम इंसान पर फज्ल करते हैं तो वह एराज (उपेक्षा) करता है और अपनी करवट 

फेर लेता है। और जब उसे तकलीफ पहुंचती है तो वह लम्बी-लम्बी दुआएं करने वाला 

बन जाता है। कहो कि बताओ, अगर यह कुरआन अल्लाह की तरफ से आया हो, 


फिर तुमने इसका इंकार किया तो उस शख्स से ज्यादा गुमराह और कौन होगा जो 
मुखालिफत (विरोध) में बहुत दूर चला जाए। (5.-52) 









































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इंसान को नेमत इसलिए दी जाती है कि वह उसे ख़ुदा का अतिय्या (देन) करार देकर 
उसका शुक्र अदा करे। मगर इंसान का हाल यह है कि वह नेमत पाकर सरकश बन जाता 
है। अलबत्ता जब इंसान पर कोई तकलीफ पड़ती है तो उस वक्‍त वह ख़ुदा को पुकारने लगता 
है। मगर मजबूराना पुकार की खुदा के यहां कोई कीमत नहीं। इंसान की खूबी यह है कि वह 
नेमत के वक्‍त भी खा के आगे झुके और तकलीफ के वक्‍त भी। 

इंसान की यही नपिसयात है जो उसे हक के इंकार पर आमादा करती है। हक किसी 
को मजबूर नहीं करता, वह इख्तियाराना झुकाव का तालिब होता है। चुनांचे जिन लोगों के 
अंदर इह््ियाराना झुकाव का मादुदा नहीं होता वे ऐसे हक को नजरअंदाज कर देते हैं जिसके 
नजरअंदाज कर देने से बजाहिर उनके ऊपर कोई आफत टूट पड़ने वाली न हो। 


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हम उन्हें अपनी निशानियां दिखाएंगे आफाक (वाहय क्षेत्रो) में भी और खुद उनके अंदर 
भी। यहां तक कि उन पर जाहिर हो जाएगा कि यह कुरआन हक है। और क्या यह 
बात काफी नहीं कि तेरा रब हर चीज का गवाह है। सुन लो, ये लोग अपने रब की 


मुलाकात में शक रखते हैं, सुन लो, वह हर चीज का इहाता (आच्छादन) किए हुए है। 
(53-54) 


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सूरह-42. अश-शूरा I277 पारा 25 


दुनिया में जितने लोग भी उठे हैं सबकी कहानी हाल (वर्तमान) की कहानी है, किसी की 
कहानी मुस्तकबिल (भविष्य) की कहानी नहीं। क्योंकि किसी का मुस्तकबिल भी उसके हाल 
की तस्दीक करने वाला न बन सका। ऐसी दुनिया में डेढ़ हजार साल पहले यह पेशीनगोई की 
गईकि कुआन के बाद जहिर हेने वाले वावेग्रात व हकाइक कुआन की तस्दीक करते चले 
जाएंगे। कुरआन आइंदा आने वाले तमाम जमानों में अपनी सदाकत (सच्चाई) को न सिर्फ 
बाकी रखेगा बल्कि मजीद वाजेह और मुदल्लल करता चला जाएगा । कुआन हमेशा वक्त की 
किताब रहेगा। 
यह बात हैरतअंगेज तौर पर सद फी सद दुरुस्त साबित हुई है। इलमी तहकीकात, 
तारीखे वाकेयात, जमानी ईँकेलाबात सब कुआन के हक मेंजमा हेते चले गए । यहां तक 
कि आज गैर मुस्लिम मुहविकिकीन (शोधकर्ता) भी गवाही दे रहे हैं कि कुरआन अपनी नादिर 
ख़ुसूसियात (अद्वितीय विशिष्टताओं) की बिना पर ख़ुद इस बात का सुबूत है कि वह ख़ुदा 
की किताब है। किसी इंसानी तस्नीफ (कृति) में ऐसी अबदी (शाश्वत) ख़ुसूसियात पाई नहीं 
जा सकतीं । 
इस खुली हुई हकीकत के बावजूद जो लोग कुरआन की सदाकत के आगे न झुकें वे 
सिर्फ यह साबित कर रहे हैं कि उनकी बेख़फी की नफ्सियात ने उन्हें गैर संजीदा बना दिया 
है। क्योंकि गैर संजीदा इंसान ही से इस किस्म की गैर माकूल रविश जाहिर हो सकती है कि 
वह खुले-खुले शवाहिद (प्रमाणो) को देखे और इसके बावजूद उसका इकरार न करे। 


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आयतें-53 सूरह-42. अश-शूरा रुकूअ-5 
(मक्का में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
हा० मीम०। अइन० सीन० काफ०। इसी तरह अल्लाह ग़ालिब (प्रभुत्वशाली) व हकीम 
(तत्वदशी) “वही” (प्रकाशना) करता है तुम्हारी तरफ और उनकी तरफ जो तुमसे पहले 
गुजरे हैं। उसी का है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ जमीन में है, वह सबसे ऊपर 


पारा 25 278 सूरह-42. अश-शूरा 
है, सबसे बड़ा। करीब है कि आसमान अपने ऊपर से फट पड़े ओर फरिश्ते अपने रब 

की तस्बीह करते हैं उसी की हम्द (प्रशंसा) के साथ और जमीन वालों के लिए माफी 

मांगते हैं। सुन लो कि अल्लाह ही माफ करने वाला, रहमत करने वाला है। और जिन 
लोगों ने उसके सिवा दूसरे कारसाज (कार्य-साधक) बनाए हैं, अल्लाह उनके ऊपर 
निगहबान है और तुम उनके ऊपर जिम्मेदार नहीं। (-6) 





अगर आदमी को लामहदूद (असीम) निगाह हासिल हो जाए तो वह देखेगा कि यहां एक 
खुदा है जो सारे जमीन व आसमान का मालिक है। उसकी ताकत इतनी जबरदस्त है कि 
कायनात उसकी हैबत से गोया फटी जा रही है। फरिश्ते जो बराहेरास्त (प्रत्यक्षतः) खुदा की 
खुदाई से बाख़बर हैं वे हर आन ख़शिय्यत (खौफ) में डूबे हुए उसकी हम्द व तस्बीह कर रहे 
हैं। फिर वह देखेगा कि ख़ुदा अपनी कुदरते ख़ास से इंसानों में से कुछ अफराद को चुनता 
है और उन्हें बिलवास्ता (परोक्ष) अंदाज में अपना कलाम पहुंचाता है ताकि वे तमाम इंसानों 
को हवीक्ते वाका से बाख़र कर दी 

इंसान अगरचे इन हकीकतों को बराहेरास्त तौर पर नहीं देखता मगर वह अक्ल के जरिए 
बिलवास्ता तौर पर इनका इदराक (भान) कर सकता है। यही आदमी का असल इम्तेहान है। 
इंसान की यह जिम्मेदारी है कि वह बसारत (आंख) से दिखाई न देने वाली चीजों को बसीरत 
(सूझबूझ) की नजर से देखे। वह पैग़म्बरों के कलाम में खुदा की आवाज सुने और उसके आगे 
अपने आपको झुका दे। वह देखे बगैर इस तरह मान ले गोया कि वह अपनी आंखों से सब 
कुछ देख रहा है। 

कियामत के दिन किसी के लिए यह बात उज़ (विवशता) न बन सकेगी कि उसने 
हकीकत को बराहेरास्त न देखा था। क्योंकि मौजूदा इम्तेहान की दुनिया में हकीकत को 
बराहेरास्त दिखाना मत्लूब ही नहीं। अगर अस्ल पैगाम किसी शख्स तक पूरी तरह पहुंच जाए 
तो इसके बाद खुदा के नजदीक उस पर हुज्जत कायम हो जाती है। हकीकत का दलील की 
जवान मेंजहिर हो जाना ही काफी है कि उसे इंकरे हक का मुजरिम करार देकर वह सज 
दी जाए जो मुकिरीने हक के लिए मुकदूदर है। 


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और हमने इसी तरह तुम्हारी तरफ अरबी कुरआन उतारा है ताकि तुम मक्का वालों को 
और उसके आस-पास वालों को डरा दो और उन्हें जमा होने के दिन से डरा दो जिसके आने 
में कोई शक नहीं। एक गिरोह जन्नत में होगा और एक गिरोह आग में। (7) 





पैगम्बर की दावत (आह्वान) का असल निशाना यह होता है कि लोगों को इस हकीकत 


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सूरह-42. अश-शूरा I279 पारा 25 
से आगाह कर दिया जाए कि आखिरकार वे खुदा के सामने हाजिर किए जाने वाले हैं। इसके 
बाद लोगों के अमल के मुताबिक किसी के लिए अबदी (चिरस्थाई) जन्नत का फैसला होगा 
और किसी के लिए अबदी जहन्नम का। 
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम इसी हकीकत से आगाह करने के लिए 
आए। आपकी बेअसत (प्रस्थापन) के दो दौर हैं एक बराहेरास्त (प्रत्यक्ष), दूसरा बिलवास्ता 
(परोक्ष) । आपकी बराहेरास्त बेअसत मक्का और इतराफे मक्का के लिए थी। इसकी तक्मील 
आपने ख़ुद अपनी जिंदगी में फरमा दी। आपकी बिलवास्ता बेअसत बवास्तए उम्मत तमाम 
आलम के लिए है। आपकी यह दूसरी बेअसत जारी है और कियामत तक जारी रहेगी। 
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अहले अरब के सामने अरबी जबान में 
अपना पैगाम पहुंचाया । आपके बाद आपकी उम्मत को भी आपकी नियाबत (प्रतिनिधित्व) 
में इसी उसूल पर अपना दावती फरीजा अंजाम देना है। उसे हर कौम के सामने उसकी अपनी 
जबान मेंहक का पेगम पहुंचाना है। जब तक किसी कैम को उसकी अपनी जबान मेंपेगाम 
न पहुंचाया जाए उस पर पैग़ामरसानी का हक अदा न होगा। 


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और अगर अल्लाह चाहता तो उन सबको एक ही उम्मत बना देता। लेकिन वह जिसे 
चाहता है अपनी रहमत में दाखिल करता है और जालिमों का कोई हामी व मददगार 
नहीं। क्या उन्होंने उसके सिवा दूसरे कारसाज (कार्य-साधक) बना रखे हैं, पस अल्लाह 
ही कारसाज है और वही मुद्दों को जिंदा करता है और वह हर चीज पर कादिर है। और 
जिस किसी बात में तुम इख़्तेलाफ (मतभेद) करते हो उसका फैसला अल्लाह ही के सुपुर्द 
है। वही अल्लाह मेरा रब है, उसी पर मैंने भरोसा किया और उसी की तरफ मैं रुजूअ 
करता हूं। (8-0) 


इंसान के लिए अल्लाह तआला ने एक गैर मामूली रहमत का दरवाजा खोला है जो किसी 
और के लिए नहीं खोला। वह है ख़ुद अपने इरादे से अल्लाह की हिदायत को इख्तियार 
करना । और इसके नतीजे में अल्लाह के गैर मामूली इनाम का मुस्तहिक बनना । लोगों का 
मुर्नलिफ रास्ते इस्तियार करना इसी आजादी की कीमत है। यह इरेलाफ यकीनन एक 
नापसंदीदा चीज है मगर उस कीमती इंसान को चुनने की इसके सिवा कोई दूसरी सूरत नहीं। 

खुदा ने अगरचे इंसान को आजाद पैदा किया है। मगर उसकी हिदायत के लिए इंसान 


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पारा 25 280 सूरह-42. अश-शूरा 
के अंदर और उसके बाहर इतना ज्यादा सामान रखा गया है कि अगर आदमी वाकई संजीदा 
हो तो वह कभी ग़लत रास्ता इख्तियार न करे। इसी हालत में जो लोग ग़लत रास्ता इख्तियार 
करें वे बहुत बड़े जालिम हैं। वे खुदा के यहां हरगिज माफी के काबिल न ठहशे। 

अहले हक और अहले बातिल के दर्मियान दुनिया में जो इख़्तेलाफ पैदा होता है उसका 
आखिरी फैसला दुनिया में नहीं हो सकता। दुनिया का हाल यह है कि यहां हर आदमी अपने 
मुवाफिक अल्फाज पा लेता है। यहां यह मुमकिन है कि झूठ को भी सच के रूप में जाहिर 
किया जा सके। मगर यह सिर्फ मौजूदा जिंदगी के मरहले तक है। जहां इंसान का मुकाबला 
इंसान से है। अगली जिंदगी में इंसान का मुकाबला ख़ुदा से होगा। वहां किसी के लिए यह 
नामुमकिन हो जाएगा कि अपने आपको पुरफरेब अल्फाज के पर्द में छुपा सके। 


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वह आसमानों का और जमीन का पैदा करने वाला है। उसने तुम्हारी जिन्स से तुम्हारे 
जोड़े पैदा किए और जानवरों के भी जोड़े बनाए। उसके जरिए वह तुम्हारी नस्ल चलाता 
है। कोई चीज उसके मिस्ल (सदुश) नहीं और वह सुनने वाला, देखने वाला है। उसी 
के इख्तियार में आसमानों और जमीन की कुजियां हैं। वह जिसके लिए चाहता है ज्यादा 


रोजी कर देता है और जिसे चाहता है कम कर देता है। बेशक वह हर चीज का इलम 
रखने वाला है। (-2) 











जमीन और आसमान की सूरत में जो वाकया हमारे सामने है वह इतना अजीम वाकया 
है कि यह नाकाबिले कयास है कि उन माबूदों में से किसी माबूद ने उसे वुजूद अता किया 
हो जिनकी लोग खुदा के सिवा ताजीम व तकदीस (मान-सम्मान) करते हैं। इसी तरह इंसानों 
और जानवरों के अंदरूनी निजाम में उनकी नस्ल की बका का इंतजाम इतना पेचीदा है कि 
उसे हकीकी तौर पर न किसी इंसान की तरफ मंसूब किया जा सकता है और न खुदा के 
सिवा माबूदों में से किसी माबूद की तरफ। ये सब काम इतने गैर मामूली हैं कि बेमिस्ल ख़ुदा 
ही की तरफ उन्हें जाइज तौर पर मंसूब किया जा सकता है। 
ख़ालिक की जो सिफात उसकी मख्लूकात के मुशाहिदे के जरिए हमारे इल्म में आती हैं 
वही यह साबित करने के लिए काफी हैं कि यह खलिक किस कद्र अजीम है। वह समीअ 
और बसीर (सुनने, देखने वाला) है। वह हर किस्म के आला इख्तियारात का मालिक है। 


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सूरह-42. अश-शूरा I28] पारा 25 
किसी को जो कुछ मिलता है उसी के दिए से मिलता है और किसी से जो कुछ छिनता है उसी 
के छीनने से छिनता है। वह अपनी मिसाल आप है, उसके जैसा कोई और नहीं। 


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अल्लाह ने तुम्हारे लिए वही दीन (धर्म) मुक्रर किया है जिसका उसने नूह को हुक्म 
दिया था और जिसकी “वही” (प्रकाशना) हमने तुम्हारी तरफ की है और जिसका हुक्म 
हमने इब्राहीम को और मूसा को और ईसा को दिया था कि दीन को कायम रखो और 
उसमें इख्तेलाफ (मत भिन्नता, बिखराव) न डालो। मुश्रिकीन पर वह बात बहुत गिरां 
(भार) है जिसकी तरफ तुम उन्हें बुला रहे हो। अल्लाह जिसे चाहता है अपनी तरफ चुन 
लेता है। और वह अपनी तरफ उनकी रहनुमाई करता है जो उसकी तरफ मुतवज्जह 
होते हैं। (3) 


तमाम पैग़म्बर एक ही दीन लेकर आए। और वह दीने तौहीद है। मगर इन पैग़म्बरों के 
मानने वाले बाद को अलग-अलग दीनी फिरकें में तक्सीम हो गए। इसकी वजह मर्कज 
तवज्जोह में तब्दीली थी। पैग़म्बरों के असल दीन में मर्कजे तवज्जोह तमामतर ख़ुदा था। हर 
एक को तालीम यह थी कि सिफ एक ख़ुदा के परस्तार बनो। मगर उनकी उम्मतों ने बाद को 
अपना मर्कजे तवज्जोह तब्दील कर दिया। वे ख़ुदा के बजाए गैर खुदा के परस्तार बन गए। 
कदीम अरब के लोग इब्तिदा में हजरत इब्राहीम की उम्मत थे। मगर बाद को अपने कुछ 
बुजुर्गों की अज्मत उनके जेहनों पर इस तरह छाई कि उन्हीं को उन्होंने अपना मर्कजे तवज्जोह 
बना लिया। यहां तक कि उनके बुत बनाकर वे उन्हें पूजने लगे। यहूद हजरत मूसा की उम्मत 
थे। मगर उन्होंने अपनी नस्ल को मख्सूस नस्ल समझ लिया। उनकी तवज्जोहात अपनी नस्ल 
की तरफ इतनी ज्यादा मायल हुई कि बिलआखिर खुदाई दीन उनके यहां नस्ली दीन बनकर 
रह गया। वे पैग़म्बर हजरत मुहम्मद (सल्ल०) के सिफ इसलिए मुंकिर हो गए कि वह उनकी 
अपनी नस्ल में पैदा नहीं हुए थे। इसी तरह ईसाई हजरत ईसा की उम्मत थे। उन्होंने हजरत 
ईसा को ख़ुदा का पैगम्बर मानने के बजाए उन्हें खुदा का बेटा फर्ज कर लिया। इस तरह बाद 
को उन्होंने जो दीन बनाया उसमें मसीह को खुदा का बेटा मानने ने सबसे ज्यादा अहमियत 
हासिल कर ली। 
ख़ुदा को अपने बंदों से जो दीन मत्लूब है वह यह है कि वह ख़ालिस तौहीद 
(एकेश्वरवाद) पर कायम हों। सिर्फ एक खुदा उनकी तमाम तवज्जोहात का मर्कज बन जाए। 
यही इकामते दीन (दीन की स्थापना) है। इस मकजे तवज्जोह में तब्दीली का दूसरा नाम शिक 











पारा 25 282 सूरह-42. अश-शूरा 
है। और जब लोगों में शिर्क आता है तो फौरन तफरीक (विभेद) और इख्तेलाफ शुरू हो जाता 
है। क्योंकि तौहीद की सूरत में मर्कजे तवज्जोह एक रहता है, जबकि शिक की सूरत में मकजे 
तवज्जोह कई बन जाते हैं। 

पैगम्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का दीन अगरचे अपने 
मल (मूल रूप) के एतबार से महफूज दीन है। मगर आपकी उम्मत महफूज उम्मत नहीं। 
उम्मत के लोगों के लिए बदस्तूर यह इम्कान खुला हुआ है कि वे नई-नई चीजों को अपना 
मर्कजे तवज्जोह बनाएं। वे खुदसार्‌ता (स्वनिर्मित) तशरीह व ताबीर के जरिए अस्ल दीन में 
तब्दीलियां करें और फिर एक दीन को अमलन कई दीन बनाकर रख दें। 


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और जो लोग मुतफर्कि (विभाजित) हुए वे इल्म आने के बाद हुए, सिर्फ आपस की 

जिद की वजह से। और अगर तुम्हारे रब की तरफ से एक वक्‍त मुअय्यन (निर्धारित) 

तक की बात ते न हो चुकी होती तो उनके दर्मियान फैसला कर दिया जाता। और 


जिन लोगों को उनके बाद किताब दी गई वे उसकी तरफ से शक में पड़े हुए हैं जिसने 
उन्हें तरदूदुद (असमंजस) में डाल दिया है। (।4) 





इल्म आने के बाद मुतफर्रिक होने का मतलब यह है कि दीने हक की दावत बुलन्द हो 
और फिर भी आदमी उससे अलग रहे। या उसका मुखालिफ बनकर खड़ा हो जाए। अल्लाह 
के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जरिए अल्लाह तआला ने दीन को उसके ख़ालिस 
अंदाज में खोला। अब चाहिए था कि तमाम वे लोग जो ख़ुदा के तालिब हैं वे आपके साथ 
जुड़ जाएं । मगर वे आपके साथ जुड़ने के लिए तैयार नहीं हुए | पिछले नबियों के साथ अपने 
आपको मंसूब करके वे लोगों के दर्मियान दीनदारी का मकाम हासिल किए हुए थे। उन्होंने 
समझा कि यही उनके लिए काफी है हालांकि जब दीने सही की दावत बुलन्द हो तो तमाम 
लोगों के लिए लाजिम हो जाता है कि वे अपने घरौंदों को ढा दें और दीने सही के साथ अपने 
आपको वाबस्ता करें। जो लोग ऐसा न करें वे खुदा के नजदीक मुजरिम हैं, चाहे वे गैर-दीनदार 
हों या बजाहिर दीनदार । 

दीने हक की दावत जब उठती है तो कुछ लोग 'बग़ी' की बुनियाद पर उसके मुंकिर बन 
जाते हैं। और कुछ लोग शक की बुनियाद पर उससे दूर रहते हैं। बगी से मुराद हसद और 
तकब्बुर (घमंड) है। यह उन लोगों का मामला है जो माहौल में बड़ाई का मकाम हासिल किए 
हुए हों। हक को मानने में उन्हें बड़ाई के मकाम से नीचे उतरना पड़ता है। चूंकि वे अपने 
आपको छोटा करने पर राजी नहीं होते इसलिए वे हक की दावत को छोटा करने में सरगर्म 








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सूरह-42. अश-शूरा 283 पारा 25 
हो जाते हैं। ताकि अपने मोकिफ को जाइज साबित कर सकें। 

शक और तरद्दुद (असमंजस) का मामला अक्सर अवामुन्नास (जन साधारण) के साथ 
पेश आता है। दाऔ की बात उन्हें दलील की सतह पर वजनी मालूम होती है। मगर उन 
अकाबिर (बड़ों) को छोड़ना भी उनके लिए मुश्किल होता है जिनकी अज्मत उनके जेहन पर 
पहले से कायम हो चुकी हो। ये दोतरफा तकज उनके लिए आहिरी फैसले तक पहुंचने में 
रुकावट बन जाते हैं। पहले गिरोह ने अगर तकब्बुर की नफ्सियात के तहत हक को 
नजरअंदाज किया था तो दूसरा गिरोह शक की नपिसियात के तहत उसे इसख़्तियार नहीं कर 
पाता। हक को कुबूल करने से यह भी महरूम रहता है और वह भी। 


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पस तुम उसी की तरफ बुलाओ और उस पर जमे रहो जिस तरह तुम्हें हुक्म हुआ है 
और उनकी ख़्वाहिशों की पेरवी न करो। और कहो कि अल्लाह ने जो किताब उतारी 
है में उस पर ईमान लाता हूं। और मुझे यह हुक्म हुआ है कि मैं तुम्हारे दर्मियान इंसाफ 
करूं। अल्लाह हमारा रब है और तुम्हारा रब भी। हमारा अमल हमारे लिए और तुम्हारा 
अमल तुम्हारे लिए। हम में और तुम में कुछ झगड़ा नहीं। अल्लाह हम सबको जमा 
करेगा और उसी के पास जाना है। और जो लोग अल्लाह के बारे में हुज्जत कर रहे हैं, 
बाद इसके कि वह मान लिया गया, उनकी हुज्जत उनके रब के नजदीक बातिल (झूठ) 

है और उन पर गजब है और उनके लिए सख्त अजाब है। (5-6) 





यहां “किताब” से मुराद वह अस्ल दीन है जो पेग़म्बरों के ज़रिए भेजा गया। 'अहवा' से 
मुराद वे खुदसारना स्वनिर्मित इजाफे हैं जो इंसानों ने खुद अपनी तरफ से दीने हक में किए । 
पैग़म्बर को हुक्म दिया गया कि तुम बस असल दीन पर जमे रहो। यहां तक कि दावती 
मस्लेहत की बिना पर भी तुम्हें ऐसा नहीं करना है कि लोगों के ख़ुदसाख़्ता दीन के साथ 
रिआयत करने लगो। तुम्हारा काम अदल (इंसाफ) करना है। यानी मजहबी इख़्तेलाफात का 
फैसला करके यह बताना कि हक कया है और बातिल क्या। कौन सा हिस्सा वह है जो ख़ुदा 
की तरफ से है और कौन-सा हिस्सा इंसानी आमेजिश (मिलावट) के तहत दीन में शामिल कर 
लिया गया है। 





पारा 25 284 सूरह-42. अश-शूरा 
“हमारे और तुम्हारे दर्मियान कोई झगड़ा नहीं? का मतलब यह है कि तुम्हारे झगड़ने के 
बावजूद हम ऐसा नहीं करेंगे कि हम भी तुमसे झगड़ने लगें। तुम मंफी (नकारात्मक) रवैया 
इख्तियार करो तब भी हम यकतरफा तौर पर अपने मुस्बत (सकारात्मक) रवैये पर कायम 
रहे।। दाजी की जिम्मेदारी सिर्फ हक का पेगाम पहुंचाने की है। इसके अलावा जो चीजे हैं 
उन्हें वह ख़ुदा के हवाले कर देता है। 
जो लोग हक को कुबूल कर लें उन्हें तंग करना और उन्हें बेकार बहसों में उलझाना 
निहायत जालिमाना काम है। ऐसा करने वाले अपने आपको उस ख़तरे में मुब्तिला कर रहे 
हैं कि आख़िरत में उन पर ख़ुदा का गजब हो और उन्हें सखन अजाब में डाल दिया जाए 


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अल्लाह ही है जिसने हक के साथ किताब उतारी और तराजू भी। और तुम्हें क्या ख़बर 
शायद वह घड़ी करीब हो। जो लोग उसका यकीन नहीं रखते वे उसकी जल्दी कर रहे 
हैं। और जो लोग यकीन रखने वाले हैं वे उससे डरते हैं और वे जानते हैं कि वह बरहक 


है। याद रखो कि जो लोग उस घड़ी के बारे में झगड़ते हैं वे गुमराही में बहुत दूर निकल 
गए हैं। (7-8) 





जिस तरह मादूदी चीजों को तोलने के लिए तराजू होती है इसी तरह मअनवी हकीकतों 
को तोलने के लिए ख़ुदा ने अपनी किताब उतारी है। खुदा की किताब हक और बातिल को 
एक दूसरे से अलग करने की कसौटी है। हर दूसरी चीज को ख़ुदा की किताब पर जांचा 
जाएगा, न यह कि खुदा की किताब को दूसरी चीजों पर जांचा जाने लगे। 

पैगम्बर के जमाने में जो लोग आपकी मुखालिफत कर रहे थे उनकी गलती यह थी कि 
उनकी कौमी रिवायात और उनके अकाबिर के अकवाल (कथन) व आमाल से उनके यहां जो 
दीन बना था उसे मेयार मान कर उसी की रोशनी में वे खुदा की किताब को देखते थे। हालांकि 
उनके लिए सही बात यह थी कि वे कैमी खियात और बुजा के अकवाल व अफआल 
(कथनी-करनी) को खुदा की किताब की रोशनी में देखें। जो चीज खुदा की किताब के मेयार पर 
पूरी उतरे उसे लें और जो चीज खुदा की किताब के मेयार पर पूरी न उतरे उसे छोड़ दें। 

जांचने का यह काम मौजूदा दुनिया में आदमी को ख़ुद करना है। आख़िरत में यह काम 
खुदा की तरफ से अंजाम दिया जाएगा। अक्लमंद वह है जो कियामत में तौले जाने से पहले 
अपने आपको तौल ले। क्योकि कियामत की तौल आखिरी फैसले के लिए होगी न कि अमल 
की मोहलत देने के लिए। 


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सूरह-42. अश-शूरा I285 पारा 25 
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अल्लाह अपने बंदों पर महरबान है। वह जिसे चाहता है रोजी देता है। और वह कुब्बत 
वाला, जबरदस्त है। जो शख्स आखिरत की खेती चाहे हम उसे उसकी खेती में तरक्की 


देंगे। और जो शख्स दुनिया की खेती चाहे हम उसे उसमें से कुछ दे देते हैं और आख़िरत 
में उसका कोई हिस्सा नहीं। (9-20) 





दुनिया की जिंदगी इम्तेहान के लिए है। यहां हर आदमी को बकद्र इम्तेहान जरूरी 
असबाब दिए जाते हैं। अब जो शख्स आख़िरतपसंद हो वह मौजूदा दुनिया के असबाब को 
आखिरत की तामीर के लिए इस्तेमाल करेगा और इसके नतीजे में आख़िरत में मजीद इजाफे 
के साथ अपना इनाम पाएगा। 

इसके बरअक्स जो शख्स दुनियापसंद हो वह सिर्फ मौजूदा दुनिया के पेशेनजर अमल 
करेगा। ऐसा शख्स यकीनन मौजूदा दुनिया में अपना फल पा सकता है। मगर आख़िरत में 
वह सरासर महरूम रहेगा। जब उसने आख़िरत के लिए कुछ किया ही न था तो कैसे मुमकिन 
है कि आख़िरत में उसे कुछ दिया जाए 


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क्या उनके कुछ शरीक हैं जिन्होंने उनके लिए ऐसा दीन मुकर्रर किया है जिसकी अल्लाह 
ने इजाजत नहीं दी। और अगर फैसले की बात ते न पा चुकी होती तो उनका फैसला 


कर दिया जाता। और बेशक जालिमों के लिए दर्दनाक अजाब है। तुम जालिमों को देखोगे 
कि वे डर रहे होंगे उससे जो उन्होंने कमाया । और वह उन पर जरूर पड़ने वाला है। और 


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पारा 25 286 सूरह-42. अश-शूरा 
जो लोग ईमान लाए और जिन्होंने अच्छे काम किए वे जन्नत के बागों में होंगे। उनके लिए 
उनके रब के पास वह सब होगा जो वे चाहेंगे, यही बड़ा इनाम है। यह चीज है जिसकी 
खुशखबरी अल्लाह अपने उन बंदों को देता है जो ईमान लाए और जिन्होंने नेक अमल 
किया। कहो कि मैं इस पर तुमसे कोई बदला नहीं चाहता मगर कराबतदारी की मुहब्बत । 
और जो शख्स कोई नेकी करेगा हम उसके लिए इसमें भलाई बढ़ा देंगे। बेशक अल्लाह 
माफ करने वाला, कदरदां है। (2।-23) 





जब एक बात ख़ुदा की किताब से साबित न हो, इसके बावजूद आदमी उसके हक होने 
पर इसरार करे तो इसका मतलब यह है कि वह दूसरों को ख़ुदा के बराबर ठहरा रहा है। वह 
खुदा के सिवा दूसरों को यह हक दे रहा है कि वह इंसान के लिए उसका दीन वजअ करें। 

यह एक बेहद संगीन बात है। हकीकत यह है कि 'दीन' की नौहयत की कोई चीज मुरकर 
करने का हक सिर्फ एक खुदा को है। खुदा के सिवा किसी और को यह हक देना खुला हुआ 
शिर्क है। और शिक एक ऐसा जुर्म है जो ख़ुदा के यहां किसी तरफ माफ होने वाला नहीं। 

मैं तुमसे कोई बदला नहीं चाहता मगर यह कि कराबतदारी की मुहब्बत” यह बात पैगम्बर 
की जबान से उस ववत कहलाई गई जबकि आपके कवीला कुश के लोग आपकी दावत की 
राह में सख्ततरीन रुकावटें डाल रहे थे। इन हालात में इसका मतलब यह था कि अगर तुम मेरा 
दीन कुबूल नहीं करते तो न करो मगर कम से कम कराबतदारी (नातेदारी) का लिहाज करते 
हुए अजिव्यतरसानी (उत्पीड़न) से तो बाज रहो। बअल्फाज दीगर, अगर तुम्ह मुझसे मजहबी 
इख्तेलाफ है तो अपने इख़्तेलाफ में तुम अख़्ताक और शराफत की सतह से न गिर जाओ। इस 
तरह गोया बिलवास्ता (परोक्ष) अंदाज में यह बताता गया कि आपकी दावत के मुखालिफीन 
सिर्फ मूखालिफीन नहीं हैं बल्कि वे अख्लाकी मुजरिम भी हैं। वे अपने आपको अख़्लाक की 
सतह पर ग़लत साबित कर रहे हैं जिसकी अहमियत खुद उनके नजदीक भी मुसल्लम 
(सुस्थापित) है। 


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कया वे कहते हैं कि इसने अल्लाह पर झूठ बांधा है। पस अगर अल्लाह चाहे तो वह 
तुम्हारे दिल पर मुहर लगा दे। और अल्लाह बातिल (असत्य) को मिटाता है और हक 
(सत्य) को साबित करता है अपनी बातों से। बेशक वह दिलों की बातें जानता है। और 
वही है जो अपने बदों की तौबा कुबूल करता है और बुराइयों को माफ करता है और वह 





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सूरह-42. अश-शूरा 287 पारा 25 
जानता है जो कुछ तुम करते हो। और वह उन लोगों की दुआएं कुबूल करता है जो 
ईमान लाए और जिन्होंने नेक अमल किया। और वह उन्हें अपने फज्ल से ज्यादा दे देता 

है। और जो इंकार करने वाले हैं उनके लिए सख्त अजाब है। (24-26) 


इस दुनिया के लिए खुदा का कानून यह है कि यहां हक, हक के रूप में सामने आता है 
और बातिल, बातिल के रूप में नुमायां होता है। अगर एक झूठी रूह है तो उससे कभी सच्चा 
कलाम जाहिर नहीं हो सकता। यही वजह है कि यहां किसी गैर पैगम्बर के लिए मुमकिन नहीं 
कि वह पैगम्बर की जबान में कलाम कर सके। एक शख्स पैग़म्बर न हो और झूठ बोलकर अपने 
को पैगम्बर बताए तो उसके कलाम में लाजिमन झूठे पैगम्बर का अंदाज पैदा हो जाएगा। कोई 
शख्स मस्नूई (बनावटी) तौर पर कभी सच्चे पैगम्बर के अंदाज में नहीं बोल सकता। 

“अगर अल्लाह चाहे तो वह तुम्हारे दिल पर मुहर लगा दे”! इसका मतलब बदले हुए 
अल्फाज में यह है कि अगर तुम अल्लाह पर झूठ बांधते तो उस वक्त मशीयते खुदावंदी के 
तहत तुम्हारे दिल पर मुहर लग जाती। ऐसी हालत में खुद कानूने कुदरत के तहत यह होता 
कि तुम्हारी जबान उस पाकीजा रब्यानी कलाम के इज्हार से आजिज हो जाती जिसका खुला 
हुआ नमूना तुम्हारे कलाम में नजर आता है। हकीकत यह है कि पैगम्बर का आला कलाम 
ख़ुद उसके पैग़म्बरे खुदा होने का सुबूत है। अगर वह वाकई ख़ुदा का पैगम्बर न होता तो 
उसकी जबान से कभी ऐसा आला कलाम जाहिर नहीं हो सकता था। 

जो लोग हक की मुखालिफत करते हैं वे अपने दिल की आवाज के तहत ऐसा नहीं 
करते। बल्कि महज जिद और इनाद (देष) के तहत उसके मुखालिफ बनकर खड़े हो जाते हैं। 
ऐसे लोग गोया खुद अपने जमीर की अदालत के सामने मुजरिम बन रहे हैं। उनके ऊपर ख़ुदा 
की हुज्जत तमाम हो चुकी है, इल्ला यह कि आदमी तौबा करे और अल्लाह से माफी का 


ख्वास्तगार हो। 
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और अगर अल्लाह अपने बंदों के लिए रोजी को खोल देता तो वे जमीन में फसाद 
करते। लेकिन वह अंदाजे के साथ उतारता है जितना चाहता है। बेशक वह अपने बंदों 
को जानने वाला है, देखने वाला है। और वही है जो लोगों के मायूस हो जाने के बाद 
बारिश बरसाता है और अपनी रहमत फैला देता है और वह काम बनाने वाला है, 
काबिले तारीफ है। और उसी की निशानियों में से है आसमानों और जमीन का पेदा 


पारा 25 288 सूरह-42. अश-शूरा 
करना । और वे जानदार जो उसने इनके दर्मियान फैलाए हैं। और वह उन्हें जमा करने 
पर कादिर है जब वह उन्हें जमा करना चाहे। (27-29) 





जमीन पर इंसानी जिंदगी का इंहिसार पानी पर है। मगर पानी तमामतर ख़ुदा के 
इख्तियार में है। ख़ुदा अगर पानी फराहम न करे तो इंसान खुद से पानी हासिल नहीं कर 
सकता। इसी तरह रिक की तक्सीम भी खुदा की तरफ से होती है। इस तक्सीम में खुदा 
आदमी के जर्फ को देखता है। और हर एक को उसके जर्फ के बकद्र अता करता है। अगर 
लोगों को उनके जर्फ से ज्यादा दिया जाने लगे तो लोग सरकश बन जाएं और जमीन में हर 
तरफजुम व फ्सद पैल जाए। 

हम देखते हैं कि एक किसान जब दाने को बिखेरता है तो वह उसे समेटने पर भी कादिर 
होता है। यह इंसानी मुशाहिदा इस बात का करीना है कि ख़ुदा भी इसी तरह अपनी बिखरी 
हुई मख्लूकात को समेट कर अपनी अदालत में ला सकता है। जहां यकजाई तौर पर लोगों 
के मुस्तकबिल का फैसला किया जाए। जिस ख़ालिक के लिए पैदा करके बिखेरना मुमकिन 
था उसके लिए मौत के बाद दुबारा समेटना क्यों न मुमकिन हो जाएगा। 


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और जो मुसीबत तुम्हें पहुंचती है तो वह तुम्हारे हाथों के किए हुए कामों ही से, और 
बहुत से कुसूरां को वह माफ कर देता है। और तुम जमीन में खुदा के काबू से निकल 


नहीं सकते। और अल्लाह के सिवा न तुम्हारा कोई काम बनाने वाला है और न कोई 
मददगार । (30-3]) 





मौजूदा दुनिया को असबाब के कानून के तहत बनाया गया है। यहां आदमी पर जब कोई 
मुसीबत आती है तो वह वाजेह तौर पर उसकी अपनी ही कोताही का नतीजा होती है। और 
कभी ऐसा होता है कि एक शख्स कोताही करता है मगर वह उसके बुरे अंजाम से बच जाता है। 
दुनिया के ये वाकेयात इसलिए हैं कि आदमी उनसे सबक ले। जब वह देखे कि लोग 
जो कुछ पा रहे हैं वे अपने अमल के बकद्र पा रहे हैं तो उससे वह यह नसीहत ले कि 
आख़िरत में भी इसी तरह हर शख्स अपने अमल के मुताबिक अपना अंजाम पाएगा। इसी 
तरह जब वह देखे कि आदमी ने एक कोताही की मगर वह उसके अंजाम से बच गया तो वह 
उससे यह सबक हासिल करे कि खुदा निहायत महरबान है। अगर आदमी उसकी तरफ रुजूअ 
हो तो वह अपनी रहमते ख़ास से उसे उसकी कोताहियों के अंजाम से बचा सकता है। ईमान 
जब गहरा हो तो आदमी का यही हाल हो जाता है। वह दुनिया के वाकेयात में आखिरत की 
तस्वीर देखने लगता है। 


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सूरह-42. अश-शूरा I289 पारा 25 
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और उसकी निशानियों में से यह है कि जहाज समुद्र में चलते हैं जैसे पहाइ। अगर वह 
चाहे तो वह हवा को रोक दे फिर वे समुद्र की सतह पर ठहरे रह जाएं। बेशक इसके 
अंदर निशानियां हैं हर उस शख्स के लिए जो सब्र करने वाला, शुक्र करने वाला है। 
या वह उन्हें तबाह कर दे उनके आमाल के सबब से और माफ कर दे बहुत से लोगों 
को। और ताकि जान लें वे लोग जो हमारी निशानियों में झगड़ते हैं कि उनके लिए 
भागने की कोई जगह नहीं। (३१-३5) 


७, 





इंसान समुद्र में अपनी कश्ती दौड़ता है और फजा में अपने जहाज उड़ता है। यह सिर्फ 
इसलिए मुमकिन होता है कि ख़ुदा ने फितरत के कानून को हमारे लिए साजगार बना रखा 
है। फितरत के कवानीन अगर हमसे साजगारी न करें तो न हमारी कश्तियां समुद्रो में दौड़े 
और न हमारे जहाज हवाओं में उड़ें। 

जिंदगी के हर वाकये में नसीहत है मगर वाकेयात से नसीहत की खुराक लेने के लिए 
सब्र व शुक्र का मिजाज जरूरी है। जिंदगी में कभी तकलीफ पेश आती है और कभी आराम। 
तकलीफ के वक्‍त आदमी को जाहिरी हालात से ऊपर उठना पड़ता है ताकि वह वाक्ये को 
दूसरे रुख़ से देख सके और यह चीज सब्र के बगैर मुमकिन नहीं। इसी तरह आराम के वक्त 
इसकी जरूरत होती है कि बजाहिर अपनी कोशिशें से मिलने वाली चीज को खुदा की तरफ 
से मिलने वाली चीज समझा जाए। और यह वही शख्स कर सकता है जिसके अंदर वह आला 
शुऊर पैदा हो चुका हो जिसे शुक्र कहा जाता है। 

निशानियों में झगड़ना यह है कि जब किसी वाकये में खुदाई नसीहत के पहलू की 
निशानदही की जाए तो आदमी उसे न माने और वाकये को दूसरे-दूसरे मअना पहनाने की 
कोशिश करे। ऐसे लोग ख़ुदा की नजर में सरकश हैं और किसी की सरकशी सिर्फ मौजूदा 
दुनिया में चल सकती है, वह आखिरत में हरगिज चलने वाली नहीं। 


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पारा 25 290 सूरह-42. अश-शूरा 
कुछ अल्लाह के पास है वह ज्यादा बेहतर है और बाकी रहने वाला है उन लोगों के 
लिए जो ईमान लाए और वे अल्लाह पर भरोसा रखते हैं। (36) 





आखिरत का चाहने वाला वही बन सकता है जो अल्लाह पर भरोसा करने वाला हो। 
जब भी आदमी आखिरत की तरफ बढ़ता है तो दुनिया के फायदे उसे ख़तरे में नजर आने 
लगते हैं। दुनिया की मस्लेहतें उसे छूटती हुई दिखाई देती हैं। ऐसी हालत में जो चीज आदमी 
को आखिरत के रास्ते पर साबितकदम रखती है वह सिर्फ यह कि उसे ख़ुदा के वादों पर 
भरोसा हो। उसे यकीन हो कि ख़ुदा की ख़ातिर वह दुनिया में जितना खोएगा उससे बहुत 
ज्यादा वह आख़िरत में खुदा की तरफ से पा लेगा। 

दुनिया की हर नेमत वक्ती है और आखिरत की नेमतें अबदी हैं जो कभी ख़त्म होने 
वाली नहीं। और अबदी नेमत के मुकाबले में वक्ती नेमत की कोई हकीकत नहीं। 

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और वे लोग जो बड़े गुनाहों से और बेहयाई से बचते हैं और जब उन्हें गुस्सा आता है 
तो वे माफ कर देते हैं और वे जिन्होंने अपने रब की दावत (आह्वान) को कुबूल किया 

और नमाज कायम की और वे अपना काम आपस के मश्विरे से करते हैं। और हमने 

जो कुछ उन्हें दिया है उसमें से ख़र्च करते हैं। और वे लोग कि जब उन पर चढ़ाई होती 
है तो वे बदला लेते हैं। और बुराई का बदला है वैसी ही बुराई। फिर जिसने माफ कर 
दिया और इस्लाह की तो उसका अज्र अल्लाह के जिम्मे है। बेशक वह जालिमों को 

पसंद नहीं करता। और जो शख्स अपने मजलूम होने के बाद बदला ले तो ऐसे लोगों 

के ऊपर कुछ इल्जाम नहीं। इत्जाम सिर्फ उन पर है जो लोगों के ऊपर जुम करते हैं 

और जमीन में नाहक सरकशी करते हैं। यही लोग हैं जिनके लिए दर्दनाक अजाब है। 








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सूरह-42. अश-शूरा 29I पारा 25 
और जिस शख्स ने सब्र किया और माफ कर दिया तो बेशक ये हिम्मत के काम हैं। 
(37-43) 





ईमान जब हकीकी मअनों में किसी को हासिल होता है तो वह उसके अंदर इंकिलाब 
पैदा कर देता है। उसके अंदर एक नई शख्सियत उभरती है। यहां एक बंदाए ख़ुदा की जिन 
ख़ुसूसियात का जिक्र है वे सब वही हैं जो इस ईमानी शख्सियत के नतीजे में किसी के अंदर 
जाहिर होती हैं 

ऐसे शर्म के अंदर हकीकते वाक्या के एतराफ का मिजाज पेदा होता है। वह खुदा के 
ख़ुदा होने और अपने बंदा होने की हैसियत का एतराफ करते हुए उसके आगे झुक जाता है। 
ख़ुदा की एक पुकार बुलन्द हो तो उसके लिए नामुमकिन हो जाता है कि वह उस पर लब्बैक 
न कहे। ईमानी शुऊर उसे सही और ग़लत के बारे में हस्सास (संवेदनशील) बना देता है। वह 
वही करता है जो करना चाहिए और वह नहीं करता जो नहीं करना चाहिए । 

अपनी हैसियते वाकई का एतराफ उसके अंदर तवाजोअ (विनम्रता) पैदा करता है जो 
उससे गुस्सा, जुल्म और सरकशी का मिजाज छीन लेता है। यही तवाजोअ उसे मजबूर करता 
है कि इज्तिमाई (सामूहिक) मामलात में वह दूसरों के मश्विरि से फायदा उठाए वह महज 
अपनी जाती राय की बुनियाद पर इकदाम से परहेज करे। दूसरों के साथ उसका रिश्ता 
खैरख्याही का होता है न कि जिद और इस्तहसाल (शोषण) का। 

ऐसा आदमी दूसरों के खिलाफ कभी जारिहियत नहीं करता । दूसरों के खिलाफ वह जब 
भी इक्दाम करता है तो दिफाअ (प्रतिरक्षा) के तौर पर करता है और उतना ही करता है 
जितना उनके जुल्म को रोकने के लिए जरूरी हो। वह ऐन इश्तिआलअंगेज (उत्तेजक) हालात 
में भी इसके लिए तैयार रहता है कि लोगों को माफ कर दे और उन्होंने उसके साथ जो बुराई 
की है उसे भूल जाए। 

बंदाए मोमिन ये सारे काम अपने जज्बए ईमान के तहत करता है ताहम अल्लाह उसकी 
कद्रदानी इस तरह फरमाता है कि उसे अहले हिम्मत और उलुलअज्म (उत्साही) के ख़िताब 
से नवाजता है। और उसे अबदी नेमतों के बाग़ में दाखिल कर देता है। 


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पारा 25 292 


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और जिस शख्स को अल्लाह भटका दे तो इसके बाद उसका कोई कारसाज (संरक्षक) 
नहीं। और तुम जालिमों को देखोगे कि जब वे अजाब को देखेंगे तो वे कहेंगे कि क्या 
वापस जाने की कोई सूरत है। और तुम उन्हें देखोगे कि वे दोजख़ के सामने लाए 
जाएंगे, वे जिल्लत से झुके हुए होंगे। छुपी निगाह से देखते होंगे। और ईमान वाले 
कहेंगे कि ख़सारे (घाटे) वाले वही लोग हैं जिन्होंने कियामत के दिन अपने आपको 
और अपने मुतअल्लिकीन (संबंधियों) को ख़सारे में डाल दिया। सुन लो, जालिम 
लोग दाइमी (स्थाई) अजाब में रहेंगे। और उनके लिए कोई मददगार न होंगे जो 
अल्लाह के मुकाबले में उनकी मदद करें। और ख़ुदा जिसे भटका दे तो उसके लिए 
कोई रास्ता नहीं। (44-46) 


सूरह-42. अश-शूरा 


इस दुनिया में हिदायत को दलील के जरिए खोला जाता है। यही इस दुनिया के लिए 
ख़ुदा का कानून है। इसका मतलब यह है कि इस दुनिया में सिर्फ वह शख्स हिदायत पाता 
है जो इस सलाहियत का सुबूत दे कि वह दलील की जबान में बात को समझ सकता है। 
दलील के जरिए किसी बात का साबित हो जाना इसके लिए काफी है कि वह उसके आगे 
झुक जाए। जो लोग दलील से न मानें उन्हें इस दुनिया में कभी हिदायत नहीं मिल सकती। 
जो शख्स मौजूदा दुनिया में दलील के आगे नहीं झुकता वह अपने आपको उस ख़तरे 
में डालता है कि कियामत में उसे खुदाई ताकत के आगे झुकाया जाए। मगर कियामत का 
झुकना किसी के कुछ काम न आएगा। क्योंकि वह आदमी को जलील करने के लिए होगा 
कि उसे इनाम का मुस्तहिक बनाने के लिए 


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तुम अपने रब की दावत (आह्वान) कुबूल करो इससे पहले कि ऐसा दिन आ जाए 
जिसके लिए खुदा की तरफ से हटना न होगा। उस दिन तुम्हारे लिए कोई पनाह न 
होगी और न तुम किसी चीज को रदद कर सकोगे। पस अगर वे एराज (उपेक्षा) करें 

तो हमने तुम्हें उनके ऊपर निगरां बनाकर नहीं भेजा है। तुम्हारा जिम्मा सिर्फ पहुंचा 

देना है। और इंसान को जब हम अपनी रहमत से नवाजते हैं तो वह उस पर खुश हो 
जाता है। और अगर उनके आमाल के बदले में उन पर कोई मुसीबत आ पड़ती है तो 
आदमी नाशुक्री करने लगता है। (47-48) 


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सूरह-42. अश-शूरा I293 पारा 25 


मौजूदा दुनिया में आदमी का अस्ल इम्तेहान यह है कि जो सूरतेहाल भी उसके सामने 
आए, वह उसमें सही रद्देअमल (प्रतिक्रिया) पेश करे। मगर इंसान ऐसा नहीं करता । उसे जब 
कोई कामयाबी मिलती है तो वह फख़ व नाज की नफ्सियात में मुन्तिला हो जाता है। और 
जब वह किसी मुसीबत में पड़ता है तो वह मंफी जज्बात का इज्हार करने लगता है। 
यही वे लोग हैं जो हक की दावत के मुकाबले में सही रद्देअमल पेश नहीं कर पाते। उनका 
भ हवीकतपसंदाना मिजज यहां भी उन्‍्हेंग हवीकतपसंद बना देता है। हक की दावत का 
सही रद्देअमल यह है कि आदमी फैरन उसकी हव्क्नियत (सत्यता) का एतराफ कर ले। मगर 
आदमी यह करता है कि वह उसे अपनी साख का मसला बना लेता है। वह समझता है कि दावत 
को मान कर मैं उसे पेश करने वाले के सामने छोटा हो जाऊंगा। यह एहसास उसके लिए हक 
को कुबूल करने की राह में रुकावट बन जाता है। वह उसकी सदाकत पर यकीन करने के 
बावजूद अपनी जाती मस्लेहतों की बिना पर उसे नजरअंदाज कर देता है। 
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आसमानां और जमीन की बादशाही अल्लाह के लिए है, वह जो चाहता है पैदा करता 
है। वह जिसे चाहता है बेटियां अता करता है और जिसे चाहता है बेटे अता करता है 


या उन्हें जमा कर देता है बेटे भी और बेटियां भी। और जिसे चाहता है बेओलाद रखता 
है। बेशक वह जानने वाला है, कुदरत वाला है। (49-50) 





दीन की असास (बुनियाद) इस तसव्वुर पर कायम है कि इस कायनात में हर किस्म का 
इख्तियार सिफ एक ख़ुदा को हासिल है। उसके सिवा किसी के पास कोई इख्तियार नहीं, चाहे 
वह जमीन व आसमान के निजाम को चलाना हो या एक इंसान को औलाद अता करना। 
आदमी जो कुछ पाता है ख़ुदा के दिए से पाता है और वही जब चाहता है उसे उससे छीन 
लेता है। 

खुदा के बारे में यह अकीदा ही आदमी के अंदर वह सही एहसास पैदा करता है जिसे 
'अब्दियत’ (बंदा होने का एहसास) कहा जाता है। और ख़ुदा के बारे में यह अकीदा ही 
आदमी को मजबूर करता है कि वह अपनी जिंदगी में उस रविश को अपनाए जिसका इलाही 
शरीअत में हुक्म दिया गया है। 


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पारा 25 294 सूरह-42. अश-शूरा 
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और किसी आदमी की यह ताकत नहीं कि अल्लाह उससे कलाम करे, मगर “वही” 
(प्रकाशना) के जरिए से या पर्दे के पीछे से या वह किसी फरिश्ते को भेजे कि वह “वही” 
कर दे उसके इज्न (आज्ञा) से जो वह चाहे। बेशक वह सबसे ऊपर है, हिक्मत 
(तत्वदर्शिता) वाला है। और इसी तरह हमने तुम्हारी तरफ भी “वही” की है, एक रूह 
अपने हुक्म से। तुम न जानते थे कि किताब कया है और न यह जानते थे कि ईमान 
कया है। लेकिन हमने उसे एक नूर बनाया, उससे हम हिदायत देते हैं अपने बंदों में 
से जिसे चाहते हैं। और बेशक तुम एक सीधे रास्ते की तरफ रहनुमाई कर रहे हो। उस 
अल्लाह के रास्ते की तरफ जिसका वह सब कुछ है जो आसमानों और जमीन में है। 
सुन लो, सारे मामलात अल्लाह ही की तरफ लौटने वाले हैं। (5-53) 





मौजूदा दुनिया में कोई इंसान बराहेरास्त ख़ुदा से हमकलाम नहीं हो सकता । इंसान का 
इज्ज (निर्बलता) इस किस्म के कलाम में मानेअ (रुकावट) है। चुनांचे पैग़म्बरों पर खुदा का 
जो कलाम उतरा वह बिलवास्ता (परोक्ष) अंदाज में उतरा। बिलवास्ता ख़िताब के कई तरीके 
हैं उनकी मिसालें मुख़्तलिफ पेगम्बरों की जिंदगी में पाई जाती हैं। 

एक आलिम जब कोई किताब लिखता है या एक मुफक्किर (विचारक) जब कोई कलाम 
पेश करता है तो उसके माजी (अतीत) में ऐसे असबाब मौजूद होते हैं जो उसके इलमी और 
फिक्री कारनामे की तौजीह कर सकें। मगर पेग़म्बर का मामला इससे बिल्कुल मुख़्तलिफ है। 
पैगम्बर की नुबुव्वत के बाद की जिंदगी उसकी नुबुव्वत से पहले की जिंदगी से सरासर 
मुख्तलिफ होती है। गैर पैगम्बर का हाल का कलाम उसकी माजी की जिंदगी का तसलसुल 
नजर आता है। मगर पेग़म्बर की जबान से नुबुव्वत के बाद जो कलाम जारी होता है वह 
उसके नुबुव्वत से पहले के कलाम से इतना ज्यादा मुमताज होता है कि पैगम्बर के माजी से 
उसकी तौजीह नहीं की जा सकती। यह एक वाजेह करीना है जो यह साबित करता है कि 
पैगम्बर का कलाम खुदाई कलाम है न कि आम इंसानी कलाम । 

पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को यह ख़ुसूसियत हासिल 
है कि आपका दिया हुआ कुरआन और आपकी अपनी जबान से निकला हुआ कलाम, दोनों 
आज भी अपनी अस्ल हालत में मौजूद हैं। कोई शख्स जो अरबी जबान जानता हो और वह 
इन दोनों को तकाबुली (तुलनात्मक) तौर पर देखे तो वह दोनों के दर्मियान खुला हुआ फर्क 











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सूरह43. अज़्ज़्लरुफ 295 पारा 25 
पाएगा। हदीस की जबान वाजेह तौर पर मुहम्मद बिल अब्दुल्लाह की जबान है और कुरआन 
की जान वाज्ह तैर पर रद्रा की जबान। 


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(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
हा० मीम०। कसम है इस वाजेह किताब की। हमने इसे अरबी जवान का कुरआन 


बनाया है ताकि तुम समझो। और बेशक यह अस्ल किताब में हमारे पास है, बुलन्द 
और पुरहिक्मत (तत्वदर्शितापूर्ण) । (-4) 





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उम्मुल किताब से मुराद लैहे महफूज (मूल ग्रंथ) है जो अल्लाह के पास है। लौहे महफूज 
में अल्लाह तआला ने उस अस्ल दीन को सब्त (संरक्षित) कर रखा है जो उसे इंसानों से मत्लूब 
है। यही अस्ल दीन मुख़्तलिफ जबानों में मुख़्तलिफ पैगम्बरों पर उतरा। और वह पैगम्बर 
हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) पर अरबी जबान में उतारा गया। अब अरबी कुरआन ही मौजूदा 
दुनिया में अस्ल दीने खुदावंदी का नुमाइंदा है। हामिलीने कुरआन की यह जिम्मेदारी है कि 
वे इसे हर जबान में मुंतकिल करके इसे तमाम कीमों तक पहुंचाएं। ताकि इस दीन को जिस 
तरह अरबों ने समझा उसी तरह दूसरे लोग भी इसे समझ सकें। 

कुरआन का बुलन्द और पुरहिक्मत होना इसके किताबे इलाही होने का सुबूत है। 
कुरआन की जबान और इसके मजामीन खुदाई अज्मत के हमसतह हैं और यही इस बात का 
सुबूत है कि वह खुदा की किताब है। कुरआन अगर इंसानी कलाम होता तो इसमें वह गैर 
मामूली अज्मत न पाई जाती जो अब इसमें पाई जा रही है। 


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पारा 25 296 सूरह-43. अज़डूखरुफ 


क्या हम तुम्हारी नसीहत से इसलिए नजर फेर लेंगे कि तुम हद से गुजरने वाले हो और 

हमने अगले लोगों में कितने ही नबी भेजे। और उन लोगों के पास कोई नबी नहीं आया 
जिसका उन्होंने मजाक न उद्या हो। फिर जो लोग उनसे ज्यादा ताकतवर थे उन्हे हमने 

हलाक कर दिया। और अगले लोगों की मिसालें गुजर चुकीं। (5-8) 





आज दुनिया में बेशुमार ऐसे लोग पाए जाते हैं जो पिछले पैग़म्बरों का नाम इज्जत के 
साथ लेते हैं। ऐसी हालत में यह बात बड़ी अजीब मालूम होती है कि इन पैग़म्बरों का 
िगम्बरे इस्लाम सहित) उनके हमजमाना लोगों ने मजाक क्यों उडया । 

इसकी वजह यह नहीं है कि पिछले लोग वहशी थे और आज के लोग मुहज्जब हैं। यह 
सिर्फ जमाने का फर्क है। आज लम्बी मुदूदत गुजरने के बाद हर पेगम्बर के साथ तारीख 
अज्मत का जोर शामिल हो चुका । इसलिए आज हर जाहिरबीं पैगम्बर को पहचान लेता है। 
मगर पेगम्बर अपने जमाने के लोगों को सिर्फ एक आम इंसान नजर आता था। उस ववत 
पैगम्बर की पेगम्बराना हैसियत को पहचानने के लिए हकीकतबीं (यथार्थदर्शी) निगाह दरकार 
थी। और बिलाशुबह हकीकतबीं निगाह दुनिया में हमेशा सबसे कम पाई गई है। 

हक की दावत के मुख़ातबीन चाहे कितना ही ज्यादा गलत रवैया इख़्तियार करें, दाऔ 
यकतरफा तौर पर सब्र करते हुए अपने दावती अमल को जारी रखता है। यहां तक कि वह 
वक्त आ जाए जबकि खा अपनी तरफ से कोई फैसला फरमा दे। 


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और अगर तुम उनसे पूछो कि आसमानों और जमीन को किसने पैदा किया तो वे जरूर 
कहेंगे कि उन्हें जबरदस्त, जानने वाले ने पैदा किया। जिसने तुम्हारे लिए जमीन को 


फर्श बनाया। और उसमें तुम्हारे लिए रास्ते बनाए ताकि तुम राह पाओ। और जिसने 
आसमान से पानी उतारा एक अंदाजे के साथ। फिर हमने उससे मुर्दा जमीन को जिंदा 


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सूरह43. अज़्ज़ूलरुफ I297 पारा 25 
कर दिया, इसी तरह तुम निकाले जाओगे। और जिसने तमाम किसमें बनाई और तुम्हारे 
लिए वे कश्तियां और चौपाए बनाए जिन पर तुम सवार होते हो। ताकि तुम उनकी 
पीठ पर जमकर बैठो। फिर तुम अपने रब की नेमत को याद करो जबकि तुम उन पर 
बैठो। और कहो कि पाक है वह जिसने इन चीजों को हमारे वश में कर दिया, और 
हम ऐसे न थे कि उन्हें काबू में करते। और बेशक हम अपने रब की तरफ लौटने वाले 

हैं। (9-4) 


हर जमाने में वेशतर इंसान यह मानते रहे हैं कि कायनात का ख़ालिक व मालिक ख़ुदा 
है और वही है जिसने हमें जिंदगी के तमाम सामान दिए हैं। कायनात को वजूद में लाना और 
जमीन पर सामाने हयात की फराहमी इतना बड़ा काम है कि किसी शख्स के लिए नामुमकिन 
है कि वह इसे एक ख़ुदा के सिवा किसी और की तरफ मंसूब कर सके। 
इस इकार का तकाजा है कि इंसान सबसे ज्यादा ररा की तरफ मुतवज्जह हो। उसकी 
जिंदगी खुदा रुख़ी जिंदगी हो जाए। मगर इंसान दूसरी चीजें को अपना मकसूद बनाता है, 
वह गैर खुदा को अपनी तवज्जोहात का मर्कज ठहरा लेता है। 
अल्लाह तआला ने हकीकत को अपने पेगम्बरों के जरिए खोला है। इसी के साथ उसने 
दुनिया की तख्लीक इस तरह की है कि वह हकाइके मअनवी की अमली तम्सील बन गई है। 
मसलन यह एक हकीकत है कि इंसान को मरकर दुबारा जिंदा होना है। इस हकीकत को 
नबातात (पेड़-पौधों) की सतह पर बार-बार दिखाया जा रहा है। इंसान हर साल यह देखता 
है कि जमीन खुश्क हो गई। इसके बाद बारिश होती है और जमीन दुबारा सरसब्ज हो जाती 
है। यह एक इशारा है कि इसी तरह इंसान भी मरने के बाद दुबारा जिंदा किया जाएगा। 
मौजूदा दुनिया की दूसरी ख़ुसूसियत यह है कि वह हैरतअंगेज तौर पर इंसान के 
मुवाफिक है। यहां की तमाम चीजें इस अंदाज पर बनाई गई हैं कि इंसान उन्हें जिस तरह चाहे 
अपने मकसद के लिए इस्तेमाल करे। इसका तकाजा है कि आदमी के अंदर शुक्र का जज्बा 
पैदा हो। वह जब ख़ुदा की दुनिया की किसी चीज को अपने लिए इस्तेमाल करे तो उसका 
दिल खुदा के आगे झुक जाए, उसकी जबान से एतराफ व दुआ के कलिमात उबलने लगें। 


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पारा 25 298 सूरह43. अज़ञज्ुषरुफ 
और उन लोगों ने ख़ुदा के बंदों में से खुदा का जुज (अंश) ठहराया, बेशक इंसान खुला 
नाशुक्रा है। क्या खुदा ने अपनी मख्लूकात में से बेटियां पसंद कीं और तुम्हें बेटों से 
नवाजा। और जब उनमें से किसी को उस चीज की ख़बर दी जाती है जिसे वह रहमान की 
तरफ मंसूब करता है तो उसका चेहरा स्याह पड़ जाता है और वह ग़म से भर जाता है। क्या 
वह जो आराइश (आभूषणों) में परवरिश पाए और झगड़े में बात न कह सके। और फरिश्ते 
जो रहमान के बदे हैं उन्हें उन्होंने औरत करार दे रखा है। क्या वे उनकी पेदाइश के वक्‍त 
मौजूद थे। उनका यह दावा लिख लिया जाएगा और उनसे पूछ होगी। (5-9) 





ख़ुदा के साथ गैर ख़ुदा को शरीक करने की एक सूरत यह है कि आदमी किसी को ख़ुदा 
का शरीके जात ठहराए। मसलन फरिश्तों को खुदा की बेटी मानना, हजरत मसीह को खुदा 
का बेटा बताना, या वहदतुल वजूद का नजरिया (अद्वैत मत) जो तमाम चीजों को ख़ुदा के 
अज्ज (अंशच) करार देकर कायनात की तशरीह करता है। इस किस्म के तमाम अकीदे महज 
बेबुनियाद मफरूजे (कत्पनाएं) हैं। इनके हक में कोई भी हकीकी दलील मौजूद नहीं। 
यहां औरत की सिंफी (लैगिक) खुसूसियात को दो जामअ लफ्ज में बयान कर दिया गया 
है। एक यह कि वह तबअन आराइशपसंद होती है। दूसरे यह कि वह मुकाबले के वक्‍त 
पुरजेर अंदाज मेंकलाम नहीकर पाती | औरत का यह सिंर मिजज एक हकीकत है और 
इसी बिना पर इस्लाम में यह तक्सीम की गई है कि मर्द बेरूनी (बाहर) काम का जिम्मेदार 
है और औरत अंदरूनी काम की जिम्मेदार । 


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और वे कहते हैं कि अगर रहमान चाहता तो हम उनकी इबादत न करते। उन्हें इसका 
कोई इल्म नहीं। वे महज बेतहकीक बात कह रहे हैं। क्या हमने उन्हें इससे पहले कोई 
किताब दी है तो उन्होंने उसे मजबूत पकड़ रखा है। बल्कि वे कहते हैं कि हमने अपने 


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सूरह43. अज़्ज़ूरुफ 299 पारा 25 
बाप दादा को एक तरीके पर पाया है और हम उनके पीछे चल रहे हैं। और इसी तरह 
हमने तुमसे पहले जिस बस्ती में भी कोई नजीर (डराने वाला) भेजा तो उसके खुशहाल 
लोगों ने कहा कि हमने अपने बाप दादा को एक तरीके पर पाया है और हम उनके 
पीछे चले जा रहे हैं। नजीर ने कहा, अगरचे में उससे ज्यादा सही रास्ता तुम्हें बताऊ 

जिस पर तुमने अपने बाप दादा को पाया है। उन्होंने कहा कि हम उसके मुंकिर हैं जो 
देकर तुम भेजे गए हो। तो हमने उनसे इंतिकाम (प्रतिशोध) लिया, पस देखो कि कैसा 
अंजाम हुआ झुठलाने वालों का। (20-25) 





मौजूदा दुनिया में इंसान जो भी काम करना चाहता है वह उसके मौके पा लेता है। इससे 
अक्सर लोग इस गलतफहमी में पड़ जाते हैं कि वे जो कुछ कर रहे हैं सही कर रहे हैं। अगर 
वे गलती पर होते तो वे अपने तरीके को चलाने में कामयाब न होते। इस किस्म की बातें 
अक्सर वे लोग करते हैं जिन्हें खुशहाल तबका कहा जाता है। 

मगर यह जबरदस्त गलतफहमी है। मौजूदा दुनिया में हर तरीके का चल पड़ना इसलिए 
है कि यहां इम्तेहान की आजादी है। आख़िरत की दुनिया में इम्तेहान की मुद्दत ख़त्म हो 
जाएगी। इसलिए वहां किसी के लिए यह मौका भी बाकी न रहेगा। 

हर दौर में पैगम्बरों के दीन का मुकाबला सबसे ज्यादा आबाई (पितृक) दीन से पेश आया 
है। "पूर्वज कीमों की नजर में अकाबिर का दर्जा हासिल कर चुके होते हैं। इसके मुकाबले में 
वक्त का पेगम्बर उन्हें असागिर (छोटं) में से नजर आता है। इस बिना पर उनके लिए 
नामुमकिन हो जाता है कि वे बड़ों के दीन को छोड़कर छोटे के दीन को इख्तियार कर लें। 
मगर इन्हीं 'छोटोँ की तकजीब (अवहेलना, इंकार) पर उन कौमों पर वह अजाब आया 
जिसके मुतअल्लिक उनका गुमान था कि वह सिर्फ 'बड़ की तकजीब पर आ सकता है। 


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और जब इब्राहीम ने अपने बाप से और अपनी कौम से कहा कि में उन चीजों से बरी 

हूं जिसकी तुम इबादत करते हो। मगर वह जिसने मुझे पैदा किया, पस बेशक वह मेरी 
रहनुमाई करेगा और इब्राहीम यही कलिमा अपने पीछे अपनी औलाद में छोड़ गया ताकि 
वे उसकी तरफ रुजूअ करें। बल्कि मैंने उन्हें और उनके बाप दादा को दुनिया का सामान 
दिया यहां तक कि उनके पास हक (सत्य) आया और रसूल खोल कर सुना देने वाला। 


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पारा 25 300 सूरह-43. अज़्ज़ूघरुफ 
और जब उनके पास हक आ गया उन्होंने कहा कि यह जादू है और हम इसके मुंकिर 
हैं। (26-30) 








यहां हजरत इब्राहीम अलैहि० के जिस कलिमए तौहीद का जिक्र है वह उनकी दावती 
जिंदगी के आख़िरी दौर में निकला था। यह कलमा महज चन्द अल्फाज का मज्मूआ न था। 
वह एक अजीम तारीख़ का खुलासा था। हजरत इब्राहीम जब सिने शुऊर (प्रौढ़ता) को पहुंचे 
तो उन्हें यह दरयाफ्त हुई कि इंसान का माबूद सिर्फ एक है। उसके सिवा तमाम माबूद बातिल 
और बेहकीकत हैं। उन्हेनि अपनी जिंदगी की तामीर इसी अकीदे पर की । ख़नदान और कैम 
के अंदर इसी की तब्लीग की। वह किसी मस्लेहत का लिहाज किए बगैर लम्बी मुदूदत तक 
इसी पर कायम रहे। यहां तक कि उनका मोहिद (एकेश्वरवादी) होना ही उनकी हैसियते 
उरफी (पहचान) बन गया। इस तरह की एक लम्बी जिंदगी गुजारने के बाद जब वह मज्कूरा 
कलिमा कहकर अपने वतन से रवाना हुए तो उनका कलिमा कुदरती तौर पर कलिमए 
बाकिया (स्थापित कलिमा) बन गया। वह एक ऐसा वाकया था कि हजरत इब्राहीम का जिक्र 
आते ही वह लोगों को याद आ जाता था। 

हजरत इब्राहीम की इस ताकतवर रिवायत को उनकी बाद की नस्ल में निशानेराह का 
काम देना चाहिए था। मगर दुनिया की दिलचस्मियों ने बाद के लोगों को इससे गाफिल कर 
दिया। यहां तक कि वे इस मामले में इतने बेशुऊर हो गए कि बाद के जमाने में जब ख़ुदा 
का एक बंदा उन्हें उनका माजी (अतीत) का सबक याद दिलाने के लिए उठा तो उन्होंने 
उसका इंकार कर दिया। 


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और उन्होंने कहा कि यह कुरआन दोनों बस्तियों में से किसी बड़े आदमी पर क्यों नहीं 


उतारा गया। क्या ये लोग तेरे रब की रहमत को तक्सीम करते हैं। दुनिया की जिंदगी 
मं उनकी रोजी को तो हमने तक्सीम किया है और हमने एक को दूसरे पर फैकियत 


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सूरह43. अञ्गञ्ुषरुफ 30l पारा 25 
(उच्चता) दी है ताकि वे एक दूसरे से काम लें। और तेरे रब की रहमत इससे बेहतर 
है जो ये जमा कर रहे हैं। और अगर यह बात न होती कि सब लोग एक ही तरीके 

के हो जाएंगे तो जो लोग रहमान का इंकार करते हैं उनके लिए हम उनके घरों की 
छतें चांदी की बना देते और जीने भी जिन पर वे चढ़ते हैं। और उनके घरों के किवाइ 
भी और तख्त भी जिन पर वे तकिया लगाकर बैठते हैं। और सोने के भी, और ये चीजें 
तो सिर्फ दुनिया की जिंदगी का सामान हैं और आखिरत तेरे रब के पास मुत्तकियों 
(ईश-परायण लोगों) के लिए है। (3-35) 





पैगम्बरे इस्लाम जब मक्का में जाहिर हुए तो उस वक्त वे लोगों को एक मामूली इंसान 
नजर आते थे। लोगों ने कहा कि ख़ुदा को अगर अपना कोई नुमाइंदा हमारी हिदायत के लिए 
भेजना था तो उसने अरब की मर्कजी बस्तियां (मक्का और तायफ) की किसी अजीम 
शख्सियत को इसके लिए क्‍यों नहीं चुना । मगर यह उनकी नजर की कोताही थी । इंसान सिर्फ 
हाल (वर्तमान) को देख पाता है जबकि पेग़म्बरे इस्लाम की अज्मत को समझने के लिए 
मुस्तकबिल (भविष्य) को देखने वाली नजर दरकार थी। चूंकि लोगों को इस किस्म की दूरबीं 
नजर हासिल न थी, वे पेगम्बरे इस्लाम की अज्मत को समझने में नाकाम रहे। 

पैगम्बरे इस्लाम को कम समझने की वजह यह थी कि आपकी जिंदगी में मादूदी चीजों 
की रौनक लोगों को दिखाई न देती थी मगर इन मादूदी चीजों की ख़ुदा की नजर में कोई 
अहमियत नहीं | हकीकत यह है कि ये चीजेखुदा की नजर में इतनी गैर अहम हैं कि वह चाहे 
तो लोगों को सोने चांदी का ढेर दे दे। मगर ख़ुदा ने ऐसा इसलिए नहीं किया कि लोग इन्हीं 
चीजों में अटक कर रह जाएंगे। वे इससे आगे बढ़कर हकीकत को न पा सकेगे। 


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और जो शख्स रहमान की नसीहत से एराज (उपेक्ष) करता है तो हम उस पर एक 
शैतान मुसल्लत कर देते हैं, पस वह उसका साथी बन जाता है और वे उन्हें राहे हक 
(सन्मार्ग) से रोकते रहते हैं। और ये लोग समझते हैं कि वे हिदायत पर हैं। यहां तक 
कि जब वह हमारे पास आएगा तो वह कहेगा कि काश मेरे और तेरे दर्मियान मश्रिक 
और मर्रिब की दूरी होती। पस क्या ही बुरा साथी था। और जबकि तुम जुल्म कर चुके 
तो आज यह बात तुम्हें कुछ भी फायदा नहीं देगी कि तुम अजाब में एक दूसरे के शरीक 

हो। (३6-39) 


पारा 25 302 सूरह-43. अज़्ज़्घरुफ 


नसीहत से एराज करना यह है कि आदमी हकीकत का एतराफ न करे। खाई हकीकत 
उसके सामने ऐसे दलाइल के साथ आए जिसका वह इंकार न कर सकता हो मगर वह अपनी 
मस्लेहतो (स्वा के तहप्फुन की ख़तिर उसे नजरअंदाज कर दे। 
ऐसा शख्स अपने मौकिफ को दुरुस्त साबित करने के लिए उसके खिलाफ झूठी बातें 
करता है। यही वह वकत है जबकि शैतान को यह मौका मिल जाता है कि वह उसके ऊपर 
मुसल्लत हो जाए, वह उसकी अक्ल को गलत रुख़ पर दौड़ने लगे। फर्जी तौजीहात में 
मशशूल करके शैतान उसे यकीन दिलाता रहता है कि तुम हक पर हो। यह फ सिर्फ उस 
वक्त टूटता है जबकि आदमी की मौत आती है और वह ख़ुदा के सामने आखिरी हिसाब के 
लिए खड़ा कर दिया जाता है। 
दुनिया में आदमी का हाल यह है कि वह उसे अपना दोस्त और साथी बना लेता है जो 
उसके झूठ की ताईद करे। मगर आखिरत में वह ऐसे साथियों पर लानत करेगा। वह चाहेगा 
कि वे उससे इतना दूर हो जाएं कि वह न उनकी शक्ल देखे और न उनकी आवाज सुने। 
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पस क्या तुम बहरों को सुनाओगे या तुम अंधों को राह दिखाओगे और उन्हें जो खुली 
हुई गुमराही में हैं। पस अगर हम तुम्हें उठा लें तो हम उनसे बदला लेने वाले हैं। या 
तुम्हें दिखा देंगे वह चीज जिसका हमने उनसे वादा किया है। पस हम उन पर पूरी तरह 
कादिर हैं। पस तुम उसे मजबूती से थामे रहो जो तुम्हारे ऊपर “वही” (प्रकाशना) की 
गई है। बेशक तुम एक सीधे रास्ते पर हो। और यह तुम्हारे लिए और तुम्हारी कौम 
के लिए नसीहत है। और अनकरीब तुमसे पूछ होगी। और जिन्हें हमने तुमसे पहले भेजा 


है उनसे पूछ लो कि क्या हमने रहमान से सिवा दूसरे माबूद (पूज्य) ठहराए थे कि उनकी 
इबादत की जाए। (40-45) 





आंख वाला अपनी आंख को बंद कर ले तो उसे कुछ दिखाई नहीं देगा। कान वाला 
अपने कान को बंद कर ले तो उसे कुछ सुनाई नहीं देगा। इसी तरह जो शख्स अपनी अक्ल 
को इस्तेमाल न करे, वह अक्ल को मुअत्तल करके अपनी ख़्वाहिश के रुख़ पर चलने लगे तो 
ऐसे शख्स को समझाना बुझाना बिल्कुल बेकार होता है। समझने का काम अक्ल के जरिए 





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सूरह43. अज़्ज़ूरुफ 303 पारा 25 
होता है और अपनी अक्ल के ऊपर उसने अपनी ख्ाहिशात का पर्दा डाल रखा है। ताहम मदऊ 
(संबोधित पक्ष) का रवैया चाहे कुछ भी हो, दा (आस्वानकर्ता) को अपना दावती काम हर 
हाल में जारी रखना है, यहां तक कि वह इतमामेहुज्जत (आह्वान की अति) के मरहले तक पहुंच 
जाए। 

हक का दाऔ अगरचे एक इंसान होता है मगर हक का मामला ख़ुदा का मामला है। 
आदमी हक के दाऔ का इंकार करके समझता है कि वह हक की जद से बच गया। हालांकि 
ऐन उसी ववत वह खुदा की जद में आ जाता है। आदमी अगर इस राज को जाने तो वह 
हक के दाऔ को नजरअंदाज करते हुए कांप उठेगा। क्याँकि वह जानेगा कि हक के दाजी 
कोनजअंग्रज करना[रु हक को नजरअंदाज करना है। और हक को नजअंग्रज करना 
खा को नजरअंदाज करना। 


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और हमने मूसा को अपनी निशानियों के साथ फिरऔन और उसके सरदारों के पास 
भेजा तो उसने कहा कि मैं खुदावंद आलम का रसूल हूं। पस जब वह उनके पास हमारी 
निशानियों के साथ आया तो वे उस पर हंसने लगे। और हम उन्हें जो निशानियां 
दिखाते थे वह पहली से बढ़कर होती थीं। और हमने उन्हें अजाब में पकड़ा ताकि वे 
रुजूअ करें। और उन्होंने कहा कि ऐ जादूगर, हमारे लिए अपने रब से दुआ करो, उस 
अहद (वचन) की बिना पर जो उसने तुमसे किया है, हम जरूर राह पर आ जाएंगे। फिर 
जब हमने वह अजाब उनसे हटा दिया तो उन्होंने अपना अहद तोड़ दिया। (46-50) 





हजरत मूसा ने फिरऔन के सामने तोहीद की दावत पेश की और असा और यदेबेजा 
(हाथ का चमकना) का मोजिजा दिखाया। उसे देखकर फिरऔन और उसके दरबारी हंसने 
लगे। इसकी वजह यह थी कि उन्होंने हजरत मूसा को उनकी दावत में नहीं देखा बल्कि उनकी 
शख्सियत में देखा । उन्हें नजर आया कि मूसा की शख्सियत बजाहिर उनकी अपनी शख्सियत 
से कम है। इसी तरह मोजिजे के मुतअल्लिक उन्होंने ख्याल किया कि यह महज जादू है, और 
ऐसा जादू मुल्क के दूसरे जादूगर भी दिखा सकते हैं। 

हक की दावत के सिलसिले में हमेशा यही होता है। लोग दाऔ की शख्सियत को 
देखकर दावत को रदूद कर देते हैं। वे निशानियों को आम वाकेयात पर कयास करके उसे 
नजअंद्गज कर कै है 


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पारा 25 304 सूरह43. अज़्ज़ूलरुफ 
फिरऔन और उसके साथियों ने जब हजरत मूसा का इंकार किया तो अल्लाह तआला 
ने उन पर बहुत से तंबीही अजाब भेजे ताकि वे दुबारा रुजूअ करें। इन तंबीही अजाबों का 
जिक्र सूरह आराफ (38-735) में मौजूद है। ये तमाम अजाब हजरत मूसा की दुआ पर आए 
और हजरत मूसा की दुआ पर ख़त्म हुए। यह एक मजीद सबब था कि उनके अंदर रुजूअ 
की कैफियत पैदा हो। मगर वे रुजूअ न हुए । हकीकत यह है कि जो लोग दलील से न मानें 
वे तंबीह से भी नहीं मानते, इल्ला यह कि आखिरत का न लौटने वाला अजाब उन्हें आखिरी 
तौर पर अपने घेरे में ले ले। 
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और फिरऔन ने अपनी कौम के दर्मियान पुकार कर कहा कि ऐ मेरी कौम क्या मिस्र 
की बादशाही मेरी नहीं है, और ये नहरें जो मेरे नीचे बह रही हैं। क्या तुम लोग देखते 
नहीं। बल्कि में बेहतर हूं उस शख्स से जो कि हकीर (तुच्छ) है। और साफ बोल नहीं 
सकता। फिर क्यों न उस पर सोने के कंगन आ पड़े या फरिश्ते उसके साथ परा बांध 
कर (पार्शववती होकर) आते। पस उसने अपनी कौम को बेअक्ल कर दिया। फिर 
उन्होंने उसकी बात मान ली। ये नाफरमान किस्म के लोग थे। फिर जब उन्होंने हमें 
गुस्सा दिलाया तो हमने उनसे बदला लिया। और हमने उन सबको गर्क कर दिया। 


फिर हमनें उन्हें माजी की दास्तान बना दिया और दूसरों के लिए एक नमूनए इबरत 
(सीख) । (5-56) 





हक का इंकार करने वालों ने हमेशा हक के दाऔ की मामूली हैसियत को देखकर हक 
का इंकार किया है। मिस्र में फिरऔन की हैसियत यह थी कि वह मुल्क का हुक्मरां था। 
दरियाए नील से निकली हुई नहरें उसके हुक्म से जारी थीं। इज्जत के तमाम सरोसामान उसके 
गिर्द जमा थे। इसके मुकाबले में हजरत मूसा बजाहिर एक मामूली इंसान दिखाई देते थे। इसी 
फर्क को पेश करके फिरऔन ने अपनी कैम को बहकाया। हजरत मूसा का इंकार करने में 
कौम उसके साथ हो गई। 

बजहिर इसी किस्म के दलाइल की बुनियाद पर फिरऔन की कैम ने फिरऔन का साथ 
दिया। मगर हकीकत यह है कि इसकी वजह कैम की अपनी कमजेरी थी न कि फिरऔन 
के दलाइल की मजबूती। उस ववत हजरत मूसा का साथ देना अपनी जिंदगी के बने बनाए 


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सूरह43. अञ्गञ्ुषरुफ 305 पारा 25 
नक्शे को तोड़ना था। और बहुत कम आदमी ऐसे होते हैं जो अपने बने हुए नक्शे को तोड़कर 
हक का साथ देने की जुरअत करें। चुनांचे फिरऔन पर जब इंकारे हक के नतीजे में खुदा का 
अजाब आया तो उसकी कैम भी उसके साथ अजाबे इलाही की जद में आ गई। 
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और जब इब्ने मरयम की मिसाल दी गई तो तुम्हारी कौम के लोग उस पर चिल्ला उठे। 
और उन्होंने कहा कि हमारे माबूद (पूज्य) अच्छे हैं या वह। यह मिसाल वे तुमसे सिर्फ 
झगड़ने के लिए बयान करते हैं। बल्कि ये लोग झगड़ालू हैं। ईसा तो बस हमारा एक 
बंदा था जिस पर हमने फज्ल फरमाया ओर उसे बनी इस्राईल के लिए एक मिसाल बना 
दिया। और अगर हम चाहे तो तुम्हारे अंदर से फरिश्ते बना दें जो जमीन में तुम्हारे 
जानशीन (उत्तराधिकारी) हों। और बेशक ईसा कियामत का एक निशान हैं, तो तुम 


इसमें शक न करो और मेरी पैरवी करो। यही सीधा रास्ता है। और शैतान तुम्हें इससे 
रोकने न पाए। बेशक वह तुम्हारा खुला दुश्मन है। (57-62) 





मौजूदा दुनिया में यह मुमकिन है कि आदमी हर बात का उल्टा मफहूम (भावार्थ) निकाल 
सके। मसलन अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एक बार फरमाया : “अल्लाह 
के सिवा जिसकी परस्तिश की जाए उसमें कोई खैर नहीं! इसे सुनकर मुखालिफीन ने कहा कि 
ईसाई लोग मसीह को पूजते हैं फिर क्या मसीह में भी कोई खैर नहीं। जाहिर है कि यह महज 
एक शोशा था। क्योंकि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने जो बात फरमाई थी 
वह आबिद (पूजक) की निस्बत से थी न कि माबूद (पूज्य) की निस्बत से। और अगर उसे 
माबूद की निस्बत से माना जाए तब भी वाजेह तौर पर इससे मुराद वे गैर माबूद थे जो अपने 
माबूद बनाए जाने पर राजी हों। आदमी अगर बात को उसके सही रुख़ से न ले तो हर बात 
को वह उल्टे मअना पहना सकता है, चाहे वह कितनी ही दुरुस्त बात क्यों न हो। 

हजरत ईसा अलैहिस्सलाम की शख्सियत एक एतबार से फरिश्तों की मुशाबह थी। इस 
पर आंजनाब को बहुत से लोगों ने माबूद बना लिया। मगर हजरत मसीह की मलकूती 
तख्नीक (फरिश्तों जैसी उत्पत्ति) खुदा की कुदरत की मिसाल थी न कि खुद हजरत मसीह की 
जती कुदरत की मिसाल । हकीकत यह है कि अल्लाह के लिए इस किस्म की तरीक कुछ 








पारा 25 306 सूरह43. अज़्ज़्लरुफ 
भी मुश्किल नहीं। वह चाहे तो जमीन की तमाम आबादी को फरिश्तों की आबादी बना दे। फिर 
भी ये फरिश्ते, फरिश्ते ही रहेंगे, वे माबूद नहीं हो जाएंगे। 

हजरत मसीह को यह मोजिजा दिया गया कि वह मुर्दो को जिंदा कर देते थे। मिट्टी के 
पुतले में फूंक मार कर उसे जानदार बना देते थे। यह दरअसल एक ख़ुदाई निशानी थी जो 
जिंदगी बाद मौत के इम्कान को बताने के लिए जाहिर की गई थी। मगर लोगों ने इससे असल 
सबक तो नहीं लिया । अलबत्ता हजरत मसीह को फीकुल बशर (अलौकिक व्यक्ति) समझ कर 
उन्हें पूजने लगे। इसी तरह खुदाई निशानियां हमेशा मुख्तलिफ शक्लों में जाहिर होती हैं। उन्हें 
अगर निशानी समझा जाए तो उनसे जबरदस्त नसीहत मिलती है। और अगर उन्हें निशानी 
के बजाए कुछ और समझ लिया जाए तो वह आदमी को सिर्फ गुमराही में डालने का सबब 
बन जाएंगी। 

शैतान की हमेशा यह कोशिश रहती है कि वह खुदाई निशानियों से आदमी को सबक 
न लेने दे। यही वह मकाम है जहां यह फैसला होने वाला है कि शैतान को आदमी के ऊपर 
कामयाबी हासिल हुई या आदमी को शैतान के ऊपर। 


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और जब ईसा खुली निशानियों के साथ आया, उसने कहा कि मैं तुम्हारे पास हिक्मत 
(तत्वदर्शिता) लेकर आया हूं और ताकि मैं तुम पर वाजेह कर दूं कुछ बातें जिनमें तुम 
इख्तेलाफ (मतभेद) कर रहे हो। पस तुम अल्लाह से डरो और मेरी इताअत (आज्ञापालन) 
करो। बेशक अल्लाह ही मेरा रब है और तुम्हारा रब भी। तो तुम उसी की इबादत 
करो। यही सीधा रास्ता है। फिर गिरोहाँ ने आपस में इख़्तेलाफ किया। पस तबाही 
है उन लोगों के लिए जिन्होंने जुल्म किया, एक दर्दनाक दिन के अजाब से। (63-65) 





यहां हिक्मत से मुराद दीन की रूह (मूल भावना) है और सिराते मुस्तकीम से मुराद वही 
चीज है जिसे आयत में खुदा का ख़ौफ, उसकी इबादत और रसूल की इताअत कहा गया है। 
यही अस्ल दीन है। यहूद ने बाद को यह किया कि उन्होंने रूहे दीन खो दी और दीन के 
बुनियादी अहकाम में मूशिगाफियों (कुतर्को) के जरिए बेशुमार नए-नए मसाइल पैदा किए । ये 
मसाइल आज भी यहूद की किताबों में मौजूद हैं। 

इन्हीं खुदसाख््ञा इजाफें की वजह से उनके अंदर इेलाफी फिरके बने। किसी ने एक 
इख्तेलाफी मसले पर जोर दिया, किसी ने दूसरे इख्तेलाफी मसले पर। इस तरह उनके यहां 


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सूरह43. अज़्ज़्रुफ I307 पारा 25 
एक दीन कई दीन बन गया । हजरत मसीह इसलिए आए कि वे यहूद को बताएं कि दीन में 
अस्ल अहमियत रूह (मूल भावना) की है न कि जवाहिर (जाहिरी चीजों) की। और यह कि 
आदमी को नजात जिस चीज पर मिलेगी वह उस दीन की पैरवी पर मिलेगी जो ख़ुदा ने भेजा 
है न कि उस दीन पर जो तुम लोगों ने बतौर खुद वजअ कर रखा है। 

हजरत मसीह ने बताया कि असल दीन यह है कि तुम अल्लाह से डरो। सिर्फ एक 
अल्लाह के इबादतगुजार बनो। जिंदगी के मामलात में रसूल के नमूने की पैरवी करो। उसके 
सिवा तुमने अपनी बहसों और मूशिगाफियों से जो बेशुमार मसाइल बना रखे हैं वे तुम्हारे 
अपने इजफेहैं। इन इजफेंको छेइ्कर असल दीन पर कयम हो जाओ। हजरत मसीह की 
ये बातें आज भी इंजीलों में मौजूद हैं। 


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ये लोग बस कियामत का इंतिजार कर रहे हैं कि वह उन पर अचानक आ पड़े और 

उन्हें ख़बर भी न हो। तमाम दोस्त उस दिन एक दूसरे के दुश्मन होंगे, सिवाए डरने 
वालों के। ऐ मेरे बंदो आज तुम पर न कोई ख़ौफ है और न तुम ग़मगीन होगे। जो 
लोग ईमान लाए और फरमांबरदार रहे। जन्नत में दाखिल हो जाओ तुम और तुम्हारी 
बीवियां, तुम शाद (हर्षित) किए जाओगे। उनके सामने सोने की रिकाबियां और प्याले 
पेश किए जाएंगे। और वहां वे चीजे होंगी जिन्हें जी चाहेगा और जिनसे आंखों को लज्जत 

होगी। और तुम यहां हमेशा रहोगे। और यह वह जन्नत है जिसके तुम मालिक बना 
दिए गए उसकी वजह से जो तुम करते थे। तुम्हारे लिए इसमें बहुत से मेवे हैं जिनमें 
से तुम खाओगे। (66-73) 





इंसान आजाद नहीं है। उसे बहरहाल हकीकत के आगे झुकना है। अगर वह दाजी की 
दलील के आगे नहीं झुकता तो उसे खुदाई ताकत के आगे झुकना पड़ेगा । मगर खुदाई ताकत 
फैसले के लिए जाहिर होती है। इसलिए उस वक्त का झुकना किसी के कुछ काम आने वाला 
नहीं । 


पारा 25 308 सूरह43. अङ्गज्ूरुफ 
दुनिया में आदमी जब हक के खिलाफ रवैया इख्तियार करता है तो उसे बहुत से दोस्त 
मिल जाते हैं जो उसका साथ देते हैं। आदमी इन दोस्तों के बल पर ढीठ बनता चला जाता 
है। मगर ये सारे दोस्त कियामत में उसका साथ छोड़ देगे। कियामत में सिर्फ वह दोस्ती बाकी 
रहेगी जो अल्लाह के ख़ौफ की बुनियाद पर कायम हुई हो। 
दुनिया में हकपरस्ती की जिंदगी ख़तरात में घिरी हुई होती है। मगर आखिरत में उसका 
बदला इस शानदार सूरत में मिलेगा कि आदमी वहां हर किस्म के अंदेशे और तकलीफ से 
हमेशा के लिए नजात हासिल कर लेगा। इस ख़ुदाई वादे पर जो लोग यकीन करें वही मौजूदा 
दुनिया में हक पर कायम रह सके। खुदा आझिरत में उन्हें वह सब कुछ मजीद इजाफे के 
साथ दे देगा जो उन्होंने दुनिया में ख़ुदा की ख़ातिर खोया था। 


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बेशक मुजरिम लोग हमेशा दोजख़ के अजाब में रहेंगे। वह उनसे हल्का न किया 
जाएगा और वे उसमें मायूस पड़े रहेंगे। और हमने उन पर जुल्म नहीं किया बल्कि वे 
ख़ुद ही जालिम थे। और वे पुकारेंगे कि ऐ मालिक, तुम्हारा रब हमारा ख़ात्मा ही कर 
दे। फरिश्ता कहेगा तुम्हें इसी तरह पड़े रहना है। हम तुम्हारे पास हक (सत्य) लेकर 

आए मगर तुम में से अक्सर हक से बेजार रहे। क्या उन्होंने कोई बात ठहरा ली है तो 

हम भी एक बात ठहरा लेंगे। क्या उनका गुमान है कि हम उनके राजां को और 
उनके मश्विरों को नहीं सुन रहे हैं। हां, और हमारे भेजे हुए उनके पास लिखते रहते 
हैं। (74-80) 


उम्मीद हमेशा तकलीफ के एहसास को कम कर देती है। आदमी किसी तकलीफ में 
मुब्तिला हो और इसी के साथ उसे यह उम्मीद हो कि यह तकलीफ एक रोज ख़त्म हो जाएगी 
तो आदमी के अंदर उसे सहने की ताकत पैदा हो जाती है। मगर जहन्नम की तकलीफ वह 
तकलीफ है जिससे निकलने की कोई उम्मीद इंसान के लिए न होगी। जहन्नम में फरिश्तों को 
मदद के लिए पुकारना जहन्नम वालों की बेबसी का बेताबाना इज्हार होगा। वर्ना पुकारने 
वाला ख़ुद जानता होगा कि खुदा का फैसला आखिरी तौर पर हो चुका है। अब वह किसी 
तरह टलने वाला नहीं। 


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सूरह43. अज़्ज़ूरुफ 309 पारा 25 
जहन्नम में किसी का दाखिल होना सरासर अपनी कोताही का नतीजा होगा। इंसान को 

अल्लाह तआला ने आला दर्जे की समझ दी। उसके सामने हक की राहें खोलीं। मगर इंसान 

ने जानते बूझते हक को नजरअंदाज किया। उसकी सरकशी यहां तक पहुंची कि वह हक के 

दाऔ को मिटाने और बर्बाद करने के दरपे हो गया। ऐसी हालत में उसका अंजाम इसके सिवा 

और क्या हो सकता था कि उसे दाइमी तौर पर अजाब में डाल दिया जाए। 


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कहो कि अगर रहमान के कोई औलाद हो तो में सबसे पहले उसकी इबादत करने वाला 
हूं। आसमानां और जमीन का खुदावंद, अर्श का मालिक। वह उन बातों से पाक है 
जिसे लोग बयान करते हैं। पस उन्हें छोड़ दो कि वे बहस करें और खेलें यहां तक कि 
वे उस दिन से दो चार हों जिसका उनसे वादा किया जा रहा है। (8-83) 





“अगर ख़ुदा के औलाद हो तो मैं सबसे पहले उसकी इबादत करूँ यह जुमला बताता है 
कि पैगम्बर जिस अकीदे का एलान कर रहा है वह उसी को ऐन हकीकत समझता है। वह 
कैमी तक्लीद और गिरोही तअस्सुब की जमीन पर नहीं खड़ा हुआ है बल्कि दलील की जबान 
पर खग़ हुआ है। वह इस अकीदे का दाजी इसलिए है कि तमाम हकाइक इसकी सदाकत 
(सच्चाई) की ताईद करते हैं। इससे अंदाजा होता है कि दाऔ का मामला शुऊरे हकीकत का 
मामला होता है न कि कमी तवलीद (अनुसरण) का मामला। 
ख़ुदा का तख्तीकी कारख़ाना जो जमीन व आसमान की सूरत में फैला हुआ है वह 
बताता है कि उसका खुदा सिर्फ एक खुदा है। कायनात अपने वसीअ (विस्तृत) निजाम के 
साथ इससे इंकार करती है कि उसका ख़ुदा एक से ज्यादा हो सकता है। 


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और वही है जो आसमान में खुदावंद है और वही जमीन में खुदावंद है और वह हिक्मत 
(तत्वदर्शिता) वाला, इलम वाला है। और बड़ी बाबरकत है वह जात जिसकी बादशाही 
आसमानों और जमीन में है और जो कुछ उनके दर्मियान है। और उसी के पास कियामत 
की ख़बर है। और उसी की तरफ तुम लोटाए जाओगे। (84-85) 


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पारा 25 3I0 सूरह-43. अज़्ज़्घरुफ 





जमीन व आसमान निहायत हमआहंगी (सामंजस्य) के साथ मुसलसल अमल कर रहे हैं। 
उनके अंदर कामिल तौर पर वाहिद (एकीय) हिक्मत और वाहिद इलम पाया जाता है। यह इस 
बात का सुबूत है कि यहां एक ही ख़ुदा है जो जमीन व आसमान दोनों का निजाम तंहा चला 
रहा है। 

कायनात बयकवकत खुदा की बेपनाह कुदरत का भी तआरुफ कराती है और इसी के 
साथ खुदा की बेपनाह रहमत का भी | इसका तकाजा है कि आदमी सबसे ज्यादा खुदा से डरे, 
वह सबसे ज्यादा उसी से उम्मीद रखे। जो लोग दुनिया में इस शुऊर और इस किरदार का 
सुबूत दें वही वे लोग हैं कि जब वे ख़ुदा के यहां पहुंचेंगे तो ख़ुदा उन्हें अपनी बेपायां रहमतों 
से नवाजा। 


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और अल्लाह के सिवा जिन्हें ये लोग पुकारते हैं वे सिफारिश का इख्तियार नहीं रखते, 
मगर वे जो हक की गवाही देंगे और वे जानते होंगे। और अगर तुम उनसे पूछो कि उन्हें 
किसने पैदा किया है तो वे यही कहेंगे कि अल्लाह ने। फिर वे कहां भटक जाते हैं। 
और उसे रसूल के इस कहने की ख़बर है कि ऐ मेरे रब, ये ऐसे लोग हैं कि ईमान नहीं 
लाते। पस उनसे दरगुजर करो (रुख़ फेर लो) और कहो कि सलाम है तुम्हें, अनकरीब 
उन्हें मालूम हो जाएगा। (86-89) 





क्यामत मॅपेगबर और दाजियाने हक जो शफाअत करी वह हकीकतन शफअत नहीं 
है बल्कि शहादत है। यानी ऐसी बात की गवाही देना जिसे आदमी जाती तौर पर जानता हो। 
आख़िरत में जब लोगों का मुकदमा पेश होगा तो सारे इलम के बावजूद अल्लाह मजीद ताईद 
के तौर पर उन लोगों को खड़ा करेगा जो कौमों के हमअस्र (समकालीन) थे। उन्होंने उनके 
सामने हक का पैगाम पेश किया। फिर किसी ने माना और किसी ने नहीं माना। किसी ने 
हक का साथ दिया और कोई हक का मुखालिफ बनकर खड़ा हो गया। यही तजर्बा जो इन 
सालिहीन (नेक लोगों) पर बराहेरास्त गुजरा उसे वे ख़ुदा के सामने पेश करेंगे। यह ऐसा ही 
होगा जैसे कि कोई गवाह अदालत में अपने मुशाहिदे की बुनियाद पर एक सच्चा बयान दे। 
उसके सिवा किसी को कियामत में यह इख्तियार हासिल न होगा कि वह किसी मुजरिम का 
शाफेअ (सिफारिशी) बनकर खड़ा हो और उसके बारे में उस खुदाई पैसले को बदल दे जो 
अजरुए वाकया उसके बारे में होने वाला था। खुदा इससे बहुत बुलन्द है कि उसके हुजूर कोई 
शख्स ऐसा करने की कोशिश करें। 

हक की दावत का काम सरासर नसीहत का काम है। आखिरी मरहले में जबकि दाऔ 





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सूरह-44. अद-दुख्ान 3II पारा 25 
पर यह वाजेह हो जाए कि लोग किसी तरह मानने वाले नहीं हैं उस वक्‍त भी दाओ लोगों के 

लिए ख़ुदा से दुआ करता है। लोगों की ईजारसानी (उत्पीड़न) पर सब्र करते हुए वह लोगों का 
खैरख्वाह बना रहता है। 


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आयतें-59 सूरह-44. अद-दुखान रुकूअ-3 


(मक्का में नाजिल हुई) 

शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
हा० मीम०। कसम है इस वाजेह (सुस्पष्ट) किताब की। हमने इसे एक बरकत वाली 
रात में उतारा है, बेशक हम आगाह करने वाले थे। इस रात में हर हिक्मत (दत्वदर्शिता) 
वाला मामला ते किया जाता है, हमारे हुक्म से। बेशक हम थे भेजने वाले। तेरे रब 
की रहमत से, वही सुनने वाला है, जानने वाला है। आसमानों और जमीन का रब और 
जो कुछ उनके दर्मियान है, अगर तुम यकीन करने वाले हो। उसके सिवा कोई माबूद 
(पूज्य) नहीं। वही जिंदा करता है और मारता है, तुम्हारा भी रब और तुम्हारे अगले बाप 
दादा का भी रब। (-8) 





कुरआन का किताबे मुबीन (सुस्पष्ट ग्रंथ) होना खुद इस बात की दलील है कि वह ख़ुदा 
की किताब है। और जब वह खुदा की किताब है तो उसकी ख़बरें और पेशीनगोइयां भी कतई 
हैं, उनके बारे में शक की कोई गुंजाइश नहीं। 
कुरआन के नुजूल का आगाज एक ख़ास रात को हुआ। यह रात अहम खुदाई फैसलों 
के लिए मुरकर है। कुरआन का नुजूल कोई सादा वाकया न था। यह एक नई तारीख़ 
(इतिहास) के जुहूर का फैसला था। यही वजह है कि इसे फैसले की रात में नाजिल किया 
गया। कुरआन अव्यलन हक का एलान था। वह शिक को बातिल और तौहीद को बरहक 
बताने के लिए आया। फिर वह इसी बुनियाद पर कौमों के दर्मियान फर्क करने वाला था। 
चुनांचे यह फर्क अमलन किया गया। यहां तक कि तारीख़ (इतिहास) में पहली बार शिक का 
दौर ख़त्म होकर तौहीद का दौर शुरू हो गया। 


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बल्कि वे शक में पड़े हुए खेल रहे हैं। पस इंतिजार करो उस दिन का जब आसमान 
एक खुले हुए धुवें के साथ जाहिर होगा। वह लोगों को घेर लेगा। यह एक दर्दनाक 
अजाब है। ऐ हमारे रब, हम पर से अजाब टाल दे, हम ईमान लाते हैं। उनके लिए 
नसीहत कहां, और उनके पास रसूल आ चुका था खोल कर सुनाने वाला। फिर उन्होंने 
उससे पीठ फेरी और कहा कि यह तो एक सिखाया हुआ दीवाना है। हम कुछ वक्‍त 

के लिए अजाब को हटा दें, तुम फिर अपनी उसी हालत पर आ जाओगे। जिस दिन 
हम पकड़ेंगे बड़ी पकड़ उस दिन हम पूरा बदला लेंगे। (9-6) 





कुरआन के ये मुखातबीन जिस मामले में शक में पड़े हुए थे वह ख़ुदा के वुजूद का 
मामला न था। बल्कि ख़ुदा की तौहीद का मामला था। वह रिवायती तौर पर ख़ुदा को मानते 
हुए अमलन अपने अकाबिर (महापुरुषों) के दीन पर कायम थे। 

कुरआन ने इन अकाबिर को बेबुनियाद साबित किया। मगर वे उसे मानने के लिए तैयार 
न हुए। एक तरफ वे अपने आपको बेदलील पा रहे थे। दूसरी तरफ अपने अकाबिर की 
अज्मत को अपने जेहन से निकालना भी उन्हें नामुमकिन नजर आता था। इस दोतरफा 
तकाजों ने उन्हें शक में मुन्तिला कर दिया। खुदा का दाऔ उन्हें इससे कम नजर आया कि 
उसके कहने से वे अपने मफरूजा (मान्य) अकाबिर को छोड़ दें। 

जो लोग नसीहत के जरिए हक को न मानें वे अपने आपको इस खतरे में डाल रहे हैं 
कि उन्हें अजब के जरिए से उसे मानना पड़े। उस वक्त वे एतराफ कशि। मगर उस वक्‍त 
का एतराफ करना उनके कुछ काम न आएगा। 


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औए उनसे पहले हमने फिन की कैम को आज्माया। और उनके पास एक मुभनज 
(सम्मानीय) रसूल आया कि अल्लाह के बंदों को मेरे हवाले करो। मैं तुम्हारे लिए एक 


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सूरह-44. अद-दुखान 3I3 पारा 25 


मोतबर (विश्वसनीय) रसूल हूं। और यह कि अल्लाह के मुकाबले में सरकशी न करो। 

मैं तुम्हारे सामने एक वाजेह दलील पेश करता हूं। और में अपने और तुम्हारे रब की 
पनाह ले चुका हूं इस बात से कि तुम मुझे संगसार (पत्थरों से मार डालना) करो। और 
अगर तुम मुझ पर ईमान नहीं लाते तो तुम मुझसे अलग रहो। (8-27) 





हक की दावत (आह्वान) का उठना गोया खुदा की ताकत का दलील के रूप में जाहिर 
होना है। इस तरह ख़ुदा गैब (अप्रकट) में रहकर इंसान की सतह पर अपना एलान कराता 
है। इस बिना पर हक की दावत उसके मुखातबीन के लिए आजमाइश बन जाती है। हकीकत 
शनास लोग उसे पहचान कर उसके आगे झुक जाते हैं। और जो जाहिरबीं हैं वे उसे गैर अहम 
समझ कर उसे नजरअंदाज कर देते हैं 

मगर हक की दावत को ठुकराने के बाद आदमी उसके अंजाम से बच नहीं सकता। 
पैगम्बर के जमाने में इस बुरे अंजाम का आगाज मौजूदा जिंदगी ही में हो जाता है, जैसा कि 
फिरऔने मिस्र का हुआ। और पैग़म्बर के बाद ऐसे लोगों का अंजाम मौत के बाद सामने 
आएगा । मजीद यह कि पैग़म्बर को ख़ुदा की ख़ुसूसी नुसरत (मदद) हासिल होती है। किसी 
के लिए मुमकिन नहीं होता कि वह उसे हलाक कर सके। 


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पस मूसा ने अपने रब को पुकारा कि ये लोग मुजरिम हैं। तो अब तुम मेरे बंदों को रात 
ही रात में लेकर चले जाओ, तुम्हारा पीछा किया जाएगा। और तुम दरिया को थमा हुआ 
छोड़ दो, उनका लश्कर डूबने वाला है। उन्होंने कितने ही बाग़ और चशमे (स्रोत) और 
खेतियां और उम्दा मकानात और आराम के सामान जिनमें वे खुश रहते थे सब छोड़ 
दिए। इसी तरह हुआ और हमने दूसरी कौम को उनका मालिक बना दिया। पस न उन 
पर आसमान रोया और न जमीन, और न उन्हें मोहलत दी गई। (22-29) 





लम्बी मुद्दत तक हजरत मूसा की तब्लीगी कोशिशों के बाद कमे फिरऔन पर 
इतमामेहुज्जत (आह्वान की अति) हो गया। अब यह साबित हो गया कि वे मुजरिम हैं। उस 
वक्त हजरत मूसा को हुक्म हुआ कि वह अपनी कौम (बनी इस्राईल) के साथ मिम्न से निकल 
कर बाहर चले जाएं। हजरत मूसा रवाना हुए यहां तक वे दरिया के किनारे पहुंच गए। उस 
वक्त दरिया का पानी हट गया और आपके लिए पार होने का रास्ता निकल आया। 


पारा 25 3]4 सूरह-44. अद-दुख्ान 
फिरऔन अपने लश्कर के साथ हजरत मूसा और बनी इस्राईल का पीछा करता हुआ आ 
रहा था। उसने जब दरिया में रास्ता बनते हुए देखा तो उसने समझा कि जिस तरह मूसा पार 
हो गए हैं वह भी उसी तरह पार हो सकता है। मगर दरिया का रास्ता सादा मअनों में सिफ 
रास्ता न था बल्कि वह ख़ुदा का हुक्म था और ख़ुदा का हुक्म उस वक्‍त मूसा के लिए नजात 
का था और फिरऔन के लिए हलाकत का। चुनांचे जब फिरऔन और उसका लश्कर दरिया 
में दाखिल हुए तो दोनों तरफ का पानी बराबर हो गया। फिरऔन अपने लश्कर के साथ उसमें 
गर्हे गया। 
दुनिया की नेमतें जिसे मिलती हैं अक्सर वह उन्हें अपनी जाती चीज समझ लेता है 
हालांकि किसी के लिए भी वे जाती नहीं हैं। खुदा जब चाहे किसी को दे और जब चाहे उससे 
छीन कर उसे दूसरे के हवाले कर दे। 
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और हमने बनी इस्राईल को जिल्‍्लत वाले अजाब से नजात दी। यानी फिरऔन से, 
बेशक वह सरकश और हद से निकल जाने वालों में से था। और हमने उन्हें अपने इल्म 
से दुनिया वालों पर तरजीह (वरीयता) दी। और हमने उन्हें ऐसी निशानियां दीं जिनमें 
खुला हुआ इनाम था। (३0-33) 





दुनिया में एक कैम का गिरना और दूसरी कैम का उभरना इत्तिफाकी तौर पर नहीं 
होता। और न इसका मतलब यह है कि एक जालिम कौम अपनी जालिमाना कार्वाइयों से 
दूसरी कौम पर ग़ालिब आ गई। यह तमामतर खुदा के फैसले के मुताबिक होता है। यह खुदा 
है जो अपने फैसले के तहत एक के लिए मग़लूबियत (पराभाव) का और दूसरे के लिए ग़लबे 
(वर्चस्व) का फैसला करता है। और वह जो कुछ फैसला करता है अपने इलम की बिना पर 
करता है न कि अललटप तौर पर। 

इल्मे इलाही के मुताबिक फैसला होने का मतलब दूसरे लफ्जें मेयह है कि जो कुछ होता 
है इस्तहकाक (पात्रता) की बुनियाद पर होता है। खुदा अपने कुल्ली इलम के तहत कीमों को 
देखता है। फिर वह जिसे बाइस्तहकाक पाता है उसके हक में गलबे का फैसला करता है और 
जिसे बेइस्तहकाक देखता है उसे मगलूब (परास्त) व मअजूल (निलंबित) कर देता है। 

अकवाम (कीमें) की जिंदगी में ऐसी निशानियां जाहिर होती हैं जो ये बताती हैं कि 
उनके साथ जो फैसला हुआ है वह खुदा की तरफ से हुआ है। अगर आदमी की बसीरत 
(सूझबूझ) जिंदा हो तो वह उन निशानियों में उन असबाब की झलक पा लेगा जिसके तहत 
खरा ने कैमें के हक में अपना फैसला सादिर फरमाया है। 





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सूरह-44. अद-दुखान I3I5 पारा 25 


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ये लोग कहते हैं, बस यही हमारा पहला मरना है और हम फिर उठाए नहीं जाएंगे। 
अगर तुम सच्चे हो तो ले आओ हमारे बाप दादा को। क्या ये बेहतर हैं या तुब्बअ की 
कोम और जो उनसे पहले थे। हमने उन्हें हलाक कर दिया, बेशक वे नाफरमान थे। 

(48) 


हर दौर में इंसान की गुमराही की जड़ यह रही है कि उसने मौत के बाद जिंदगी में अपना 
यकीन खो दिया। कुछ लोगों की बेयकीनी का इप्हार उनकी जबान से भी हो जाता है, और 
कुछ लोग जबान से नहीं कहते । मगर उनका दिल इस यकीन से ख़ाली होता है कि उन्हें मर 
कर दुबारा उठना है और अल्लाह के सामने अपने आमाल का हिसाब देना है। 

इस गलतफहमी का नपिसयाती सबब अक्सर यह होता है कि दुनिया में अपनी मजबूत 
हैसियत को देखकर आदमी गुमान कर लेता है कि वह कभी बेंहैसियत होने वाला नहीं। 
हालांकि पिछली कैमों के वाकेयात इस फेब की तरदीद करने के लिए काफी हैं। 

तुब्बअकदीम यमन केह्मैर कबीलेके बादशाहों का लकब था । 5 कब्ल मसीह ईसा पूर्व 
से 300 कब्ल मसीह तक उन्हें उरूज हासिल रहा। कदीम अरब में उनकी अज्मत का बड़ा चर्चा 
था। कुरआन के इब्तिदाई मुातबीन (कैश) के लिए कौम तुब्बअ का उभरना और गिरना एक 
मालूम और मशहूर बात थी। यह उनके लिए इस बात का सुबूत था कि इस दुनिया में मुजाजात 
(उत्थान-पतन) का कानून जारी है। इसी तरह तमाम लोगों के लिए कोई न कोई 'कीम तुब्बअ' 
है जो अपने अंजाम से उन्हें सबक दे रही है। मगर इंसान हमेशा यह करता है कि इस तरह के 
वाकेयात को आदत के मुताबिक होने वाला वाकया समझ लेता है। इसका नतीजा यह होता है 
कि वह उनसे वह सबक नहीं ले पाता जो उनके अंदर ख़ुदा ने छुपा रखा था। 


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और हमने आसमानों और जमीन को और जो कुछ उनके दर्मियान है खेल के तौर पर 
नहीं बनाया। इन्हें हमने हक के साथ बनाया है लेकिन उनके अक्सर लोग नहीं जानते। 
बेशक फैसले का दिन उन सबका तैशुदा वक्‍त है। जिस दिन कोई रिश्तेदार किसी 


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पारा 25 36 सूरह-44. अद-दुखान 
रिश्तेदार के काम नहीं आएगा और न उनकी कुछ हिमायत की जाएगी। हां मगर वह 
जिस पर अल्लाह रहम फरमाए। बेशक वह जबरदस्त है, रहमत वाला है। (38-42) 





जमीन व आसमान के निजाम पर गौर किया जाए तो मालूम होता है कि उसकी तख़्तीक 
निहायत बामअना अंदाज में हुई है। पूरी कायनात एक मकसद के तहत अमल करती है। 
अगर ऐसा न हो तो इस दुनिया में इंसान के लिए शानदार तमद्दुन (सभ्यता) की तामीर 
नामुमकिन हो जाए। 

आखिरत का अकीदा इसी कायनाती मअनवियत की तौसीअ (विस्तार) है। जो कायनात 
इतने बामअना (सार्थक) अंदाज में बनाई गई हो। नामुमकिन है कि वह सरासर बेमअना 
(निरर्थक) तौर पर ख़त्म हो जाए। कायनात की मौजूदा मअनवियत इस बात का करीना है 
कि वह एक बामअना और बामक्सद अंजाम पर ख़त्म होने वाली है। आख़िरत इसी बामअना 
और बामक्सद अंजाम का दूसरा नाम है। 

दुनिया का मौजूदा मरहला आजमाइश का मरहला है, इसलिए आज दुनिया की 
मअनवियत (सार्थकता) में हर आदमी अपना हिस्सा पा रहा है। मगर जब आख़िरत आएगी 
तो उस वक्त दुनिया की मअनवियत में सिर्फ उन लोगों को हिस्सा मिलेगा जो खुदा के 
नजीक पिलववञ उसकेमूतहिकिकार पाएं। 


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जक्कूम का दरझख़्त गुनाहगार का खाना होगा, तेल की तलछट जैसा, वह पेट में 

खौलेगा जिस तरह गर्म पानी खोलता है। उसे पकड़ो और उसे घसीटते हुए जहन्नम 
के बीच तक ले जाओ। फिर उसके सर पर खौलते हुए पानी का अजाब उडेल दो। 
चख इसे, तू बड़ मुअज्जज, मुकर्रम है। यह वही चीज है जिसमें तुम शक करते थे। 

(43-50) 


यहां और दूसरे मकामात पर जहन्नम की जो तस्वीर कुरआन में पेश की गई है वह हर 
जिंदा शख्स को तड़पा देने के लिए काफी है। जो शख्स भी अपने मुस्तकबिल के बारे में 
संजीदा हो उसे ये अल्फाज हिलाकर रख देंगे। वह जहन्नमी रास्ते को छोड़कर जन्नती रास्ते 
की तरफ दौड़ पड़ा । 

मगर जो लोग हकीकतों के बारे में संजीदा न हाँ, जो सिर्फ अपनी रव्राहिशात को जानते 
हों और उनकी अपनी ख़्वाहिशात के बाहर हकाइक (यथार्थ) की जो दुनिया है उसके बारे में 


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सूरह-44. अद-दुखान 37 पारा 25 
वे गौर करने की जरूरत महसूस न करते हों, वे इस ख़बर को सुनेंगे और इसे नजरअंदाज कर 

देंगे। ऐसे लोगों के लिए ये अल्फाज ऐसे ही हैं जैसे पत्थर पर पानी डाला जाए और वह उसके 
अंदरून को तर किए बगैर बह जाए। 

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बेशक ख़ुदा से डरने वाले अम्न की जगह में होंगे, बाग़ों और चशमों (स्रोतों) में । बारीक 
रेशम और दबीज रेशम के लिबास पहने हुए आमने सामने बैठे होंगे। यह बात इसी 
तरह है, और हम उनसे ब्याह देंगे हूरें बड़ी-बड़ी आंखों वाली। वे उसमें तलब करेंगे हर 
किस्म के मेवे निहायत इत्मीनान से। वे वहां मौत को न चखेंगे मगर वह मौत जो पहले 
आ चुकी है और अल्लाह ने उन्हें जहन्नम के अजाब से बचा लिया। यह तेरे रब के फज्ल 
से होगा, यही है बड़ी कामयाबी। (5।-57) 


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इन अल्फाज में इंसान की पसंद की उस दुनिया की तस्वीर है जो उसके ख़ाबों में बसी 
हुई है। हर आदमी पसंद की इस दुनिया को पाना चाहता है। मगर मौजूदा दुनिया में वह उसे 
हासिल नहीं कर पाता। यह ख़ाबों की दुनिया मजीद इजाफे के साथ उसे जन्नत में हासिल 
हो जाएगी। 

हर किस्म के डर से ख़ाली यह दुनिया उन लोगों को मिलेगी जो दुनिया में अल्लाह से 
डरे थे। अबदी नेमतों से भरी हुई यह जिंदगी उनका हिस्सा होगी जिन्होंने इसकी ख़ातिर 
दुनिया की वक्ती नेमतों को कुर्बान किया था। आख़िरत की इस अजीम कामयाबी में वे लोग 
दाखिल होंगे जिन्होंने उसे पाने के लिए अपनी दुनिया की कामयाबी को ख़तरे में डालने का 


हौसला किया था। 
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पस हमने इस किताब को तुम्हारी जवान में आसान बना दिया है ताकि लोग नसीहत 
हासिल करें। पस तुम भी इंतिजार करो, वे भी इंतिजार कर रहे हैं। (58-59) 








कुरआन बिलाशुबह एक अजीम किताब है। इसी के साथ यह भी एक हकीकत है कि 
वह निहायत आसान किताब है। मगर इसका आसान होना नसीहत के एतबार से है। यानी 
जो शख्स इससे हक को जानना चाहे वह इसे अपने लिए निहायत आसान पाएगा। मगर जो 


पारा 25 I3I8 सूरह-45. अल-जासियह 
शख्स तलाशे हक के मामले में संजीदा न हो उसके लिए कुरआन में कोई आसानी नहीं। 

मौजूदा दुनिया में आदमी के संजीदा होने की एक शर्त यह है कि वह 'इंतिजार' की 
नपिसियात न रखता हो। यानी हकीकत का दलील की सतह पर जाहिर होना ही उसके लिए 
काफी हो जाए कि वह उसे मान ले। जो शख्स दलील की सतह पर साबितशुदा हो जाने के 
बाद उसे न माने वह गोया कि इस बात का इंतिजार कर रहा है कि हकीकत खुले रूप में 
उसके सामने आ जाए। मगर जब हकीकत खुले रूप में सामने आती है तो वह मनवाने के 
लिए नहीं आती बल्कि इसलिए आती है कि एतराफ करने वालों की कद्रदानी करे और 
जिन्होंने इससे पहले एतराफ नहीं किया था उन्हें हमेशा के लिए अंधेपन के गार में डाल दे। 


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(मक्का में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरवान, निहायत रहम वाला है। 
हा० मीम०। यह नाजिल की हुई किताब है। अल्लाह ग़ालिब (प्रभुत्वशाली), हिक्मत 
(तत्वदर्शिता) वाले की तरफ से। बेशक आसमानां और जमीन में निशानियां हैं ईमान 
वालों के लिए। और तुम्हारे बनाने में और उन हैवानात में जो उसने जमीन में फैला 
रखे हैं, निशानियां हैं उन लोगों के लिए जो यकीन रखते हैं और रात और दिन के आने 
जाने में और उस रिक में जिसे अल्लाह ने आसमान से उतारा, फिर उससे जमीन को 
जिंदा कर दिया उसके मर जाने के बाद, और हवाओं की गर्दिश में भी निशानियां हैं 
उन लोगों के लिए जो अक्ल रखते हैं। ये अल्लाह की आयते हैं जिन्हें हम हक के साथ 
तुम्हें सुना रहे हैं। फिर अल्लाह और उसकी आयतों के बाद कौन सी बात है जिस पर 
वे ईमान लाएंगे। (-6) 





यह कहना कि कुरआन अजीज व हकीम खुदा की तरफ से उतरा है, गोया खुद अपनी 
तरफ से एक ऐसा कतई मेयार देना है जिस पर उसकी सदाकत को जांचा जा सके। खुदाए 
अजीज की तरफ से उसके उतरने का मतलब यह है कि कोई इस किताब को जेर (अवनत) 


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सूरह-45. अल-जासियह I3I9 पारा 25 
न कर सकेगा। कुरआन हर हाल में अपने मुखालिफीन पर गालिब आकर रहेगा। 

यह बात मक्की दौर में कही गई थी। उस वक्‍त हालात सरासर कुरआन के खिलाफ थे। 
मगर बाद की तारीख़ (इतिहास) ने हैरतअंगेज तौर पर इसकी तस्दीक की | कुरआन की दावत 
को तारीख़ की सबसे बड़ी कामयाबी हासिल हुई । 

इसी तरह खुदाए हकीम की तरफ से उतरने का तकाजा यह है कि उसके मजामीन 
(विषय) सबके सब अक्ल व दानिश पर मबनी हों। यह बात भी डेढ़ हजार साल से मुसलसल 
दुरुस्त साबित होती जा रही है। कुरआन दौरे साइंस से पहले उतरा। मगर दौरे साइंस में भी 
कुरआन की कोई बात अक्ल के डिलाफ साबित न हो सकी। 

इसके अलावा जो कायनात इंसान के चारों तरफ फैली हुई है, उसकी तमाम चीजें 
कुरआन केपैगम की तस्दीक (पुष्ट) बन गई हैं। ताहम यह तस्दीक सिर्फ उन लोगों के लिए 
तस्दीक बनेगी जिनके अंदर यकीन करने का जेहन हो जो निशानियों की जबान में जाहिर की 
जाने वाली बात को पाने की इस्तेदाद (सामर्थ्य) रखते हों। 


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खराबी है हर शख्स के लिए जो झूठा हो। जो खुदा की आयतों को सुनता है जबकि वे 
उसके सामने पढ़ी जाती हैं फिर वह तकब्बुर (घमंड) के साथ अड़ा रहता है, गोया उसने 
उन्हें सुना ही नहीं। पस तुम उसे एक दर्दनाक अजाब की ख़ुशख़बरी दे दो। और जब वह 
हमारी आयतों में से किसी चीज की ख़बर पाता है तो वह उसे मजाक बना लेता है। ऐसे 
लोगों के लिए जिल्लत का अजाब है। उनके आगे जहन्नम है। और जो कुछ उन्होंने कमाया 
वह उनके कुछ काम अपने वाला नहीं। और न वे जिन्हें उन्होंने अल्लाह के सिवा कारसाज 
बनाया। और उनके लिए बड़ा अजाब है। यह हिदायत है, और जिन्होंने अपने रब की 
आयतों का इंकार किया उनके लिए सख्ती का दर्दनाक अजाब है। (7-॥) 


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हक का एतराफ अक्सर हालात में अपनी बड़ाई को खोने के हममअना होता है। आदमी 
अपनी बड़ाई को खोना नहीं चाहता इसलिए वह हक का एतराफ भी नहीं करता। मगर हक 
के आगे न झुकना ख़ुदा के आगे न झुकना है। ऐसे लोगों के लिए ख़ुदा के यहां सख्ततरीन 
अजब ही 

आदमी अगरचे तकब्बुर (घमंड) की बिना पर हक से एराज करता है ताहम अपने 


पारा 25 320 सूरह-45. अल-जासियह 
रवैये के जवाज (औचित्य) के लिए वह नजरियाती दलील पेश करता है। मगर इस दलील 

की हकीकत झूठे अत्फज से ज्यादा नहीं हेती । ऐसा आदमी किसी चीज कोत मफ्हूम 

देकर उसे शोशा बनाता है। और इस शोशे की बुनियाद पर हक का और उसके दाऔ का 
मजाक उड़ाने लगता है। ऐसे लोग सख्ततरीन सजा के मुस्तहिक हैं। क्योकि वे बदअमली 

पर सरकशी का इजाफा कर रहे हैं। इस सरकशी पर उन्हें जो चीज आमादा करती है वह 

उनकी दुनियावी हैसियत है। मगर किसी की दुनियावी हैसियत आख़िरत में उसके कुछ 
काम आने वाली नहीं। 


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अल्लाह ही है जिसने तुम्हारे लिए समुद्र को मुसख्खर (वशीभूत) कर दिया ताकि उसके 
हुक्म से उसमें कश्तियां चलें और ताकि तुम उसका फज्ल तलाश करो और ताकि तुम 
शुक्र करो। और उसने आसमानां और जमीन की तमाम चीजों को तुम्हारे लिए मुसख्र 


कर दिया, सबको अपनी तरफ से। बेशक इसमें निशानियां हैं उन लोगों के लिए जो 
गौर करते हैं। (2-3) 





पानी बजाहिर डुबाने वाली चीज है। मगर अल्लाह तआला ने उसे ऐसे कवानीन (नियमों) 
का पाबंद बनाया है कि अथाह समुद्रों के ऊपर बड़ेबड़े जहाज एक तरफ से दूसरी तरफ चलते 
हैं और बहिफाजत अपनी मंजिल पर पहुंच जाते हैं। यही मामला पूरी कायनात का है। 
कायनात इस तरह बनाई गई है कि वह पूरी तरह इंसान के ताबेअ (अधीन) है। इंसान जिस 
तरह चाहे उसे अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर सकता है। मौजूदा दुनिया की यही 
ख़ुसूसियत है जिसकी बिना पर यह मुमकिन हुआ है कि यहां इंसान अपने लिए शानदार 
तमदूदुन (सभ्यता) की तामीर कर सके। 

कायनात का मौजूदा ढांचा ही उसका आखिरी और वाहिद ढांचा नहीं है। वह दूसरे 
बेशुमार तरीकों से भी बन सकती थी। मगर मुख्तलिफ इम्कानात में से वही एक इम्कान 
वाकया बना जो हमारे लिए मुफीद था। यह एक निशानी है जिसमें गौर करने वाले गौर करें 
तो वे उसमें अपने लिए अजीमुश्शान (अनुपम महान) सबक पा सकते हैं। 


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सूरह-45. अल-जासियह 32] पारा 25 
ईमान वालों से कहो कि उन लोगों से दरगुजर करें जो ख़ुदा के दिनों की उम्मीद नहीं 
रखते, ताकि अल्लाह एक कौम को उसकी कमाई का बदला दे। जो शख्स नेक अमल 
करेगा तो उसका फायदा उसी के लिए है। और जिस शख्स ने बुरा किया तो उसका 
वबाल उसी पर पड़ेगा। फिर तुम अपने रब की तरफ लोटाए जाओगे। (4-5) 


जिन लोगों को यह यकीन न हो कि उनके ऊपर खुदाई फैसले का दिन आने वाला है। 
वे जुल्म करने में जरी होते हैं। वे हक के दाऔ को हर मुमकिन तरीके से सताते हैं। उस वक्‍त 
दाओ के दिल में इंतिकाम का जज्बा पैदा होता है। मगर दाऔ को चाहिए कि वह आख़िर 
वक्त तक मदऊ से दरगुजर करे। वह अपनी तवज्जोह तमामतर दावत (आह्वान) पर लगाए 
रहे और लोगों की बदआमालियों पर गिरफ्त के मामले को ख़ुदा के हवाले कर दे। 
दाऔ की कोशिश की कद्र व कीमत इस एतबार से मुतअय्यन नहीं होती कि उसने 
कितने लोगों को हक की तरफ मोझ़। उसकी कोशिश की कद्र व कीमत ख़ुदा के यहां इस 
एतबार से मुतअय्यन होती है कि वह खुद कितना ज्यादा हक पर कायम रहा। हक का दाजी 
होने के तकाजें को खुद उसने कितना ज्यादा पूरा किया। 


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और हमने बनी इस्राईल को किताब और हुम और नुबु्यत दी और उन्हें पाकीजा रिज्क 

अता किया और हमने उन्हें दुनिया वालों पर फजीलत (श्रेष्ठता) बख़्शी। और हमने उन्हें 
दीन के बारे में खुली-खुली दलीलें दीं। फिर उन्होंने इख़्तेलाफ (मतभेद) नहीं किया मगर 
इसके बाद कि उनके पास इल्म आ चुका था, आपस की जिद की वजह से। बेशक 
तेरा रब कियामत के दिन उनके दर्मियान फैसला कर देगा उन चीजों के बारे में जिनमें 

वे आपस में इसख़्तेलाफ (मतभेद) करते थे। फिर हमने तुम्हें दीन के एक वाजेह (स्पष्ट) 
तरीके पर कायम किया। पस तुम उसी पर चलो और उन लोगों की ख़ाहिशों की पेरवी 


पारा 25 322 सूरह-45. अल-जासियह 
न करो जो इलम नहीं रखते। ये लोग अल्लाह के मुकाबले में तुम्हारे कुछ काम नहीं आ 
सकते। और जालिम लोग एक दूसर के साथी हैं, और डरने वालों का साथी अल्लाह 
है। ये लोगों को लिए बसीरत (सूझबूझ) की बातें हैं और हिदायत और रहमत उन लोगों 
के लिए जो यकीन करें। (6-20) 





“बनी इस्राईल को हमने दुनिया वालों पर फजीलत दी' यह वही बात है जो उम्मते मुहम्मदी 
के जेल में इन अल्फाज में कही गई है कि 'तुम खैरे उम्मत हो।' किसी गिरोह को खुदा की किताब 
का हामिल (धारक) बनाना उसे दूसरी कौमों पर हिदायत का जिम्मेदार बनाना है। यही उसका 
अफजलुल उमम (श्रेष्ठ समुदाय) या खैरुल उमम (कल्याणकारी समुदाय) होना है। 

उसूली तौर पर बनी इस्राईल की हैसियत भी इसी तरह आलमी थी जिस तरह उम्मते 
मुस्लिमा की हैसियत आलमी है। मगर बनी इस्राईल ने अपनी किताब में तहरीफात (परिवर्तन) 
करके हमेशा के लिए अपना यह इस्तहकाक (अधिकार) खो दिया। 

दीन की अस्ल तालीमात में हमेशा वहदत (एकत्व) होती है। मगर उलमा के इजाफे उसमें 
इख्तेलाफ और तअद्दुद (मत-भिन्नता) पेदा कर देते हैं। हर आलिम अपने जैक के लिहाज 
से अलग-अलग इजाफे करता है। इसके बाद हर आलिम और उसके मुत्तबिईन (अनुयायी) 
अपने इजाफों को सही और दूसरे के इजाफें को गलत साबित करने में मसरूफ हो जाते हैं। 
इस तरह दीनी फिरके बनना शुरू होते हैं और आखिरकार यहां तक नौबत पहुंचती है कि 
एक दीन कई दीनों में तक्सीम हो जाता है। 

बनी इस्राईल ने जब नाजिल हुए दीन को बदले हुए दीन की हैसियत दे दी उस वक्‍त 
हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जरिए अल्लाह ने कुरआन उतारा। चूंकि 
आपके बाद कोई पैगम्बर आने वाला न था। इसलिए अल्लाह ने खुसूसी एहतिमाम के साथ 
कुरआन को महफूज (सुरक्षित) कर दिया । ताकि दुबारा यह सूरत पैदा न हो कि अल्लाह का 
दीन इंसानी इजाफों में गुम होकर रह जाए 


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कया वे लोग जिन्होंने बेरे कार्य किए हैं यह ख्याल करते हैं कि हम उन्हें उन लोगों की 
मानिंद कर देंगे जो ईमान लाए और नेक अमल किया, उन सबका जीना और मरना 
यकसां (समान) हो जाए। बहुत बुरा फैसला है जो वे कर रहे हैं। और अल्लाह ने 


आसमानों और जमीन को हिक्मत (तत्वदर्शिता) के साथ पैदा किया और ताकि हर 
शख्स को उसके किए का बदला दिया जाए और उन पर कोई जुल्म न होगा। (2।-2१) 


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सूरह-45. अल-जासियह 323 पारा 25 


जो शख्स यह ख्याल करे कि आदमी अच्छा बनकर रहे या बुरा बनकर, सब बराबर है। 
आखिरकार दोनों ही को मरकर मिट जाना है, वह निहायत गलत ख्याल अपने दिमाग़ में 
कायम करता है। ऐसा समझना उस शुऊरे अदल (न्याय-भाव) के खिलाफ है जो हर आदमी 
की फितरत में पैदाइशी तौर पर मौजूद है। साथ ही, यह कायनात की उस मअनवियत का 
इंकार करना है जो उसके निजाम में कमाल दर्ज में पाई जाती है। हकीकत यह है कि इंसान 
की अंदरूनी फितरत और उसके बाहर की वसीअ कायनात दोनों इसे सरासर बातिल (असत्य) 
साबित करते हैं कि जिंदगी को एक ऐसी बेमक्सद चीज समझ लिया जाए जिसका कोई 
अंजाम सामने आने वाला नहीं। 

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क्या तुमने उस शख्स को देखा जिसने अपनी ख़्वाहिश (इच्छा) को अपना माबूद (पूज्य) 
बना रखा है और अल्लाह ने उसके इलम के बावजूद उसे गुमराही में डाल दिया और 
उसके कान और उसके दिल पर मुहर लगा दी और उसकी आंख पर पर्दा डाल दिया। 


पस ऐसे शख्स को कौन हिदायत दे सकता है, इसके बाद कि अल्लाह ने उसे गुमराह 
कर दिया हो, क्या तुम ध्यान नहीं करते। (2३) 





ख्वाहिश को अपना माबूद बनाने का मतलब ख्वाहिश को अपनी जिंदगी में सबसे बरतर 
मकाम देना है। जो शख्स अपनी ख़्वाहिश के तहत सोचे और अपनी ख्वाहिश के तहत अमल 
करे वह गोया अपनी ख़्वाहिश ही को अपना माबूद बनाए हुए है। 

आदमी की अक्ल सही और गलत को पहचानने की कामिल सलाहियत रखती है। मगर 
जो शख्स अपनी अक्ल को अपनी ख़्वाहिश का ताबेअ (अधीन) बना ले उसका हाल यह हो 
जाता है कि उसके सामने हक के दलाइल आते हैं मगर वह उनके वजन को महसूस नहीं कर 
पाता। वह हर बात के जवाब में एक झूठी तौजीह पेश करके उसे रद्द कर देता है। आदमी 
की यह रविश आखिरकार उसकी अवली कुब्तों को मर कर देती है। उसके कान अल्फाज 
सुनते हैं मगर उनके मअना तक उनकी पहुंच नहीं होती। उसकी आंख हकीकत को देखती 
है मगर वह उससे सबक नहीं ले पाती। उसके दिल तक एक बात पहुंचती है मगर वह उसके 
दिल को तड़पाने वाली नहीं बनती। 

अक्ली कुतो को खुदा ने हिदायत के दाखले का दरवाजा बनाया है। मगर जो शख्स 
अपनी ख़ाहिशपरस्ती में इन दरवाजों को बंद कर ले उसके अंदर हिदायत दाखिल होगी तो 
किस रास्ते से दाखिल होगी। 


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सूरह-45. अल-जासियह 

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और वे कहते हैं कि हमारी इस दुनिया की जिंदगी के सिवा कोई और जिंदगी नहीं। 

हम मरते हैं और जीते हैं और हमें सिर्फ जमाने की गर्दिश (कालचक्र) हलाक करती 

है। और उन्हें इस बारे में कोई इल्म नहीं। वे महज गुमान की बिना पर ऐसा कहते 
हैं। और जब उन्हें हमारी खुली-खुली आयतें सुनाई जाती हैं तो उनके पास कोई 
हुज्जत इसके सिवा नहीं होती कि हमारे बाप दादा को जिंदा करके लाओ अगर तुम 
सच्चे हो। कहो कि अल्लाह ही तुम्हें जिंदा करता है फिर वह तुम्हें मारता है फिर 
वह कियामत के दिन तुम्हें जमा करेगा, इसमें कोई शक नहीं, लेकिर अक्सर लोग 
नहीं जानते। (24-26) 


पारा 25 324 





हमें जमाने की गर्दिश हलाक करती है” यह आम लोगों का कौल नहीं। इस तरह की बातें 
हमेशा मख़्मूस अफराद करते हैं। ये वे अफराद हैं जो अपनी जहानत की वजह से अक्सर समाज 
के फिक्री (वैचारिक) नुमाईदे की हैसियत हासिल कर लेते हैं। ताहम ये बातें वे महज कयास 
(अनुमान) की बुनियाद पर कहते हैं। वे किसी हकीकी इलम की बुनियाद पर ऐसा नहीं कहते। 
इसके मुकाबले में पैगम्बर जो बात कहता है उसकी बुनियाद ठोस हकीकत पर कायम है। 

हम रोजाना देखते हैं कि एक शख्स नहीं था। फिर वह पैदा होकर मौजूद हो गया । इसके 
बाद वह दुबारा मर जाता है। गोया यहां हर आदमी को मौत के बाद जिंदगी मिलती है और 
जिंदगी के बाद वह दुबारा मर जाता है। यह इस बात का करीना (संकेत) है कि जिस तरह 
पहली बार मौत के बाद जिंदगी हुई, इसी तरह दूसरी बार भी मौत के बाद जिंदगी होगी। 

इससे वाजेह तौर पर जिंदगी बाद मौत का मुमकिन होना साबित होता है। इसके बाद 
यह मुतालबा करना ग़लत है कि जो लोग कल दुबारा पैदा होने वाले हैं उन्हें आज पैदा करके 
दिखाओ। क्योंकि मौजूदा दुनिया इम्तेहान के लिए है। और अगर मौजूदा दुनिया में अगली 
दुनिया का हाल दिखा दिया जाए तो इम्तेहान की मस्लेहत बाकी नहीं रह सकती। 


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और अल्लाह ही की बादशाही है आसमानों में और जमीन में और जिस दिन कियामत 








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सूरह-45. अल-जासियह I325 पारा 25 
कायम होगी उस दिन अहले बातिल (असत्यवादी) ख़सारे (घाटे) में पड़ जाएंगे। और 
तुम देखोगे कि हर गिरोह घुटनों के बल गिर पड़ेगा। हर गिरोह अपने नामए आमाल 
(कर्म-फल) की तरफ बुलाया जाएगा। आज तुम्हें उस अमल का बदला दिया जाएगा 
जो तुम कर रहे थे। यह हमारा दफ्तर है जो तुम्हारे ऊपर ठीक-ठीक गवाही दे रहा है। 
हम लिखवाते जा रहे थे जो कुछ तुम करते थे। (27-29) 


जो लोग अल्लाह की बुनियाद पर दुनिया में खड़े हों वे हक की बुनियाद पर खड़े होते 
हैं। और जो लोग इसके सिवा किसी और बुनियाद पर खड़े हों वे बातिल की बुनियाद पर खड़े 
हुए हैं। ऐसे तमाम लोग आखिरत में बेजमीन होकर रह जाएंगे। क्योंकि उन्होंने जिस चीज 
को बुनियाद समझ रखा था वह कोई बुनियाद ही न थी। वह महज धोखा था जो हकीकते 
हाल के खुलते ही ख़त्म हो गया। 

आमाल को लिखवाने से मुराद मअरूफ (प्रचलित) मअनों में कलम से लिखवाना नही है। 
बल्कि आमाल को रिकॉर्ड कराना है। इंसान की नियत, उसका कौल और उसका अमल सब 
निहायत सेहत के साथ खुदाई इंतिजाम के तहत रिकॉर्ड हो रहा है। आख़िरत में इंसान के साथ 
जो मामला किया जाएगा वह ऐन उस रिकॉर्ड के मुताबिक होगा। यह रिकॉर्ड इतना ज्यादा 
हकीकी होगा कि किसी के लिए मुमकिन न होगा कि उससे इंकार कर सके। 


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पस जो लोग ईमान लाए और उन्होंने अच्छे काम किए तो उनका रब उन्हें अपनी रहमत 
में दाखिल करेगा। यही खुली कामयाबी है। और जिन्होंने इंकार किया, क्या तुम्हें मेरी 
आयतें पढ़कर सुनाई नहीं जाती थीं। पस तुमने तकब्बुर (घमंड) किया और तुम मुजरिम 
लोग थे। और जब कहा जाता था कि अल्लाह का वादा हक है और कियामत में कोई 

शक नहीं तो तुम कहते थे कि हम नहीं जानते कि कियामत क्या है, हम तो बस एक 
गुमान सा रखते हैं, और हम इस पर यकीन करने वाले नहीं। (30-32) 








तकब्बुर (घमंड) से मुराद ख़ुदा के मुकाबले में तकब्बुर नहीं है बल्कि ख़ुदा के दाऔ के 
मुकाबले में तकब्बुर है। खुदा की बात को मानना मौजूदा दुनिया में अमलन ख़ुदा के दाऔ की 
बात को मानने के हममअना होता है। अब जो लोग तकब्बुर में मुब्तिला हों वे उसे अपने मर्तबे 
से कमतर समझते हैं कि वे अपने जैसे एक इंसान की बात मान लें। चुनांचे वे उसे नजरअंदाज 


पारा 25 326 सूरह-45. अल-जासियह 

कर देते हैं। इसके बरअक्स जो लोग तकब्बुर की नफ्सियात से ख़ाली हों वे फौरन उसके आगे 

झुक जाते हैं। पहले गिरोह के लिए खुदा का गजब है और दूसरे गिरोह के लिए ख़ुदा की रहमत। 
एक इंसान जब हक का इंकार करता है तो अपने इंकार को जाइज साबित करने के लिए 

वह तरह-तरह की बातें करता है। वह कभी दाऔ को नाकाबिले एतमाद साबित करता है। 

कभी दाओ के पैग़ाम में शक व शुबह का पहलू निकालता है। मगर कियामत के दिन खुल 

जाएगा कि ये सब मुजरिमाना जेहन से निकली हुई बातें थीं। न कि हकपरस्ताना जेहन से 

निकली हुई बातें । 


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और उन पर उनके आमाल की बुराइयां खुल जाएंगी और वह चीज उन्हें घेर लेगी जिसका 

वे मजाक उडते थे। और कहा जाएगा कि आज हम तुम्हें भुला देंगे जिस तरह तुमने 

अपने इस दिन के आने को भुलाए रखा। और तुम्हारा ठिकाना आग है और कोई 
तुम्हारा मददगार नहीं। यह इस वजह से कि तुमने अल्लाह की आयतां का मजाक 
उड़ाया। और दुनिया की जिंदगी ने तुम्हें धोखे में रखा। पस आज न वे उससे निकाले 
जाएंगे और न उनका उज़ कुबूल किया जाएगा। (33-35) 








मौजूदा दुनिया में आदमी जब बुराई करता है तो उसके बुरे नताइज फौरन उसके सामने 
नहीं आते। यह चीज उसे दिलेर बना देती है। उसे जब उसकी बदअमली से डराया जाता है 
तो वह संजीदगी के साथ उसे सुनने के लिए तैयार नहीं होता। मगर आखिरत में उसकी 
बुराइयों के नताइज उसकी आंखों के सामने आ जाएंगे। वह अपनी बदआमालियों में पूरी तरह 
घिर चुका होगा। उस वक्‍त वह उस हक का इकरार कर लेगा जिसे दुनिया में उसने इतना 
बेीमत समझा था कि वह उसका मजाक उड़ता रहा। 

आख़िरत में इंसान उस हक का इकरार करेगा जिसे वह दुनिया में झुठलाता रहा। मगर 
वहां उसे कुबूल नहीं किया जाएगा। क्योंकि हक का इकरार गेब (अप्रकट) की सतह पर 
कीमत रखता है न कि शुहूद (प्रकट) की सतह पर। 


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सूह46. अलअहम्रफ 327 पारा 26 


पस सारी तारीफ अल्लाह के लिए है जो रब है आसमानों का और रब है जमीन का, 
रब है तमाम आलम का। और उसी के लिए बड़ाई है आसमानां और जमीन में। और 
वह जबरदस्त है, हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। (36-37) 


कायनात बेपनाह हद तक अजीम (महान) है, इसलिए उसका ख़ालिक व मालिक भी वही 
हो सकता है जो बेपनाह हद तक अजीम हो। और यह अजीम हस्ती एक खुदा के सिवा कोई 
और नहीं हो सकती। कोई आदमी संजीदगी के साथ यह जुरअत नहीं कर सकता कि वह एक 
ख़ुदा के सिवा किसी और को कायनात का ख़ालिक व मालिक करार दे। फिर जब कायनात का 
रग्रलिक व मालिक सिर्फ एक हस्ती है तो लाजिम है कि सारी तारीफ भी उसी की हो। इंसान 
अपनी सारी तवज्जोह उसी की तरफ लगाए, वह उसी को अपना सब कुछ बना ले। 
मौजूदा दुनिया में इंसान का वही रवैया सही रवैया है जो कायनात की अज्मत व हिक्मत 
के मुताबिक हो। जिस रवैये में कायनात की अज्मत व हिक्मत से मुताबिकत न पाई जाए वह 
बातिल है। ऐसा रवैया इंसान को कामयाबी तक पहुंचाने वाला नहीं। 


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(मक्का में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
हा० मीम०। यह किताब अल्लाह जबरदस्त हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाले की तरफ से 
उतारी गई है। हमने आसमानां और जमीन को और उनके दर्मियान की चीजों को नहीं 
पैदा किया मगर हक के साथ और मुअय्यन (निश्चित) मुद्दत के लिए। और जो लोग 
मुंकिर हैं वे उससे बेरुख्री करते हैं जिससे उन्हें डराया गया है। (-3) 


कायनात का मुतालआ बताता है कि इसमें हर तरफ हिक्मत और मअनवियत है। फिर 
एक ऐसा कारखाना जो अपने आगाज में बामअना हो वह अपने इख़्तिताम (अंत) में बेमअना 
कैसे हो जाएगा। 

हक अपनी जात मेंनिहायत मोहकम (दू चीज है। वह कायनात की सबसे बड़े ताकत 


पारा 26 328 सूह46. अल-अहञ्रफ 
है। इसके बावजूद क्यों ऐसा है कि जब लोगों के सामने हक पेश किया जाता है तो वे उसका 
इंकार कर देते हैं। इसकी वजह यह है कि मौजूदा दुनिया में लोगों को हक की सिफ ख़बर 
दी जा रही है। आख़िरत में यह होगा कि हक वाकया बनकर लोगों के ऊपर टूट पड़ेगा। उस 
वक्त वही लोग हक के सामने ढह पड़ी जो इससे पहले हक को गैर अहम समझ कर उसे 
नजऊंएज कर रहेवे। 
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कहो कि तुमने ग़ौर भी किया उन चीजों पर जिन्हें तुम अल्लाह के सिवा पुकारते हो, 
मुझे दिखाओ कि उन्होंने जमीन में क्या बनाया है। या उनका आसमान में कुछ साझा 
है। मेरे पास इससे पहले की कोई किताब ले आओ या कोई इलम जो चला आता हो, 
अगर तुम सच्चे हो। और उस शख्स से ज्यादा गुमराह कौन होगा जो अल्लाह को छोड़कर 
उन्हें पुकारे जो कियामत तक उसका जवाब नहीं दे सकते, और उन्हें उनके पुकारने की 
भी ख़बर नहीं। और जब लोग इकटूठा किए जाएंगे तो वे उनके दुश्मन होंगे और उनकी 
इबादत के मुंकिर बन जाएंगे। (4-6) 





मुफस्सिर इब्ने कसीर ने यहां 'किताब” से मुराद उद्धृत दलील (आसमानी किताब की 
दलील) और 'असारतिम मिन इलम” से मुराद अक्ली (बौद्धिक) दलील ली है। 

इलम हवीकतन सिर्फ दो हैं। एक इत्हामी इल्म (Revealed knowledge) यानी वह 
इल्म जो पैग़म्बरों के जरिए से इंसानों तक पहुंचा। दूसरा साबितशुदा इलम (हstablished 
kn०w।९९९) यानी वह इलम जिसका इलम होना इंसानी तहकीकात और तजर्बात से साबित 
हो गया हो। इन दोनों में से कोई भी इल्म यह नहीं बताता कि इस कायनात में एक ख़ुदा 
के सिवा कोई और हस्ती है जो खुदाई के लायक है। और जब इल्म के दो जरियों में से कोई 
जरिया शिक की गवाही न दे तो मुश्रिकाना अकीदा इंसान के लिए क्योंकर दुरुस्त हो सकता 
है। जो शख्स खुदा को छोड़कर किसी और चीज और अपना सहारा बनाए वह सहारा 
आखिरत के दिन उससे बरा-त (विरक्ति) करेगा न कि वह उसका मददगार बने। 


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सूह46. अलअहञ्रफ 329 पारा 26 


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और जब हमारी खुली-खुली आयतें उन्हें पढ़कर सुनाई जाती हैं तो मुंकिर लोग इस हक 
की बाबत, जबकि वह उनके पास पहुंचता है, कहते हैं कि यह खुला हुआ जादू है। 
कया ये लोग कहते हैं कि उसने इसे अपनी तरफ से बना लिया है, कहो कि अगर मैंने 
इसे अपनी तरफ से बनाया है तो तुम लोग मुझे जरा भी अल्लाह से बचा नहीं सकते। 

जो बातें तुम बनाते हो अल्लाह उन्हें ख़ूब जानता है। वह मेरे और तुम्हारे दर्मियान 
गवाही के लिए काफी है। और वह बख्शने वाला, रहमत वाला है। (7-8) 


कदीम अरब में कुरआन के मुखातबीन कुरआन के पैगाम को यह कहकर रदूद कर देते 
थे कि यह हमारे अकाबिर (महापुरुषों) के दीन के खिलाफ है। और चूंकि लोगों के ऊपर 
अकाबिर की अज्मत बैठी हुई थी वे उसे मान कर कुरआन के पैगाम से मुतवहिहश (भयभीत) 
हो जाते थे। मगर कुरआन का एक और पहलू था और वह उसका अदबी एजाज़ (साहित्यिक 
विलक्षणता) था। हर अरबीदां महसूस कर रहा था कि यह एक गैर मामूली कलाम है। इस 
दूसरे पहलू से कुरआन की अहमियत को घटाने के लिए उन्होंने कह दिया कि यह 'सहर' है 
यानी यह जादू बयानी का करिश्मा है न कि हकीकत बयानी का कमाल। 

यह सही है कि कुछ इंसानों के कलाम में गैर मामूली अदबियत (साहित्यिकता) होती है 
मगर इंसानी कलाम की अदबियत की एक हद है। कुरआन का अदबी एजाज इस हद से बहुत 
आगे है। कुरआन की अदबी अज्मत इससे ज्यादा है कि उसे इंसानी दिमाग का करिश्मा कहा 
जा सके। 

जब फरीक सानी (सामने वाला पक्ष) जिद पर उतर आए तो उस वक्‍त एक संजीदा 
इंसान यह करता है कि वह यह कहकर चुप हो जाता है कि मेरा और तुम्हारा मामला अल्लाह 
के हवाले है। ताहम यह पसपाई नहीं बल्कि एक इक्दामी तदबीर है। आदमी जब एक जिद्दी 
के सामने चुप हो जाए तो वह अपने आपको उसके सामने से हटाकर ख़ुद उसे उसके जमीर 
(अन्तरात्मा) के सामने खड़ा कर देता है ताकि उसके अंदर एहसास का कोई दर्जा हो तो वह 


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पारा 26 330 सूह46. अल-अहञ्रफ 

कहो कि मैं कोई अनोखा रसूल नहीं हूं। और मैं नहीं जानता कि मेरे साथ क्या किया 
जाएगा और तुम्हारे साथ क्या। में तो सिर्फ उसी का इत्तिबाअ करता हूं जो मेरी तरफ 

“वही? (प्रकाशना) के जरिए आता है और में तो सिर्फ एक खुला हुआ आगाह करने 

वाला हूं। कहो, क्या तुमने कभी सोचा कि अगर यह कुरआन अल्लाह की जानिब से 
हो और तुमने इसे नहीं माना, और बनी इस्राईल में से एक गवाह ने इस जैसी किताब 
पर गवाही दी है। पस वह ईमान लाया और तुमने तकब्बुर (घमंड) किया। बेशक 
अल्लाह जालिमों को हिदायत नहीं देता। (9-0) 





मुश्रिकीने मक्का की नजर में यहूद उलूमे दीन के हामिल (धारक) थे। उन्हें वे पैग़म्बरों 
वाली कौम समझते थे। तिजारती सफरों में मुश्रिकीन और यहूद की बाहमी मुलाकातें भी होती 
रहती थीं। 

अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम जब मक्का में एक निजाई (विवादित) 
शख्सियत बने हुए थे तो मक्का के कुछ मुश्रिकीन ने कुछ यहूदियों से आपके बारे में पूछा। 
उस दौरान किसी यहूदी आलिम ने उन्हें बताया कि हमारी किताबों के मुताबिक एक पैग़म्बर 
इस इलाके में आने वाले हैं। हो सकता है कि यह वही पैग़म्बर हों। उस यहूदी शख्स ने 
बिलवास्ता (परोक्ष) अंदाज में आपकी नुबु्धत का इकरार किया। 

अब सूरतेहाल यह थी कि तारीख़ से साबित हो रहा था कि खुदा के पैगम्बर खुदा की 
किताब लेकर आते हैं। कदीम आसमानी किताबों में यह लिखा हुआ था कि बनू इस्माईल में 
एक ऐसा पैगम्बर आने वाला है। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के कलाम 
और आपकी जिंदगी में वे तमाम अलामतें वाजेह तौर पर पाई जा रही थीं जो पेगम्बरों में होती 
हैं। इन अलामात और कराइन की मौजूदगी में जो लोग अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि 
व सललम की पैग़म्बरी का इंकार कर रहे थे वह किसी माकूलियत की वजह से नहीं कर रहे 
थे बल्कि महज इसलिए कर रहे थे कि एक शख्स जिसे अब तक वे एक मामूली आदमी 
समझते थे उसे ख़ुदा का पैगम्बर मानने में उनकी बड़ाई टूट जाएगी। 

जिन लोगों का हाल यह हो कि उनके सामने हक आए तो वे मुतकब्बिराना नफ्सियात 
(घमंड-भाव) का शिकार हो जाएं। ऐसे लोगों का जेहन हमेशा उन्हें गलत रुख़ पर ले जाता 
है। वह सही सम्त में उनकी रहनुमाई नहीं करता। 


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और इंकार करने वाले ईमान लाने वालों के बारे में कहते हैं कि अगर यह कोई अच्छी 
चीज होती तो वे इस पर हमसे पहले न दौड़ते। और चूंकि उन्होंने इससे हिदायत नहीं 
पाई तो अब वे कहेंगे कि यह तो पुराना झूठ है। (7) 


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सूह46. अलअहकफ 33] पारा 26 








इब्तिदा में जो लोग अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथी बने उनमें 
कई ऐसे लोग थे जो जईफ (बूंढे और गुलाम तबके से तअल्लुक रखते थे। मसलन बिलाल, 
अम्मार, सुहैब, ख़ब्बाब वगैरह। इसी के साथ आप पर ईमान लाने वालों में वे लोग भी थे जो 
अख के मुअज्जज ख़नदाने से तअल्लुक़ रखते थे। मसलन अबुबक्र बिन अबी क्हाफ, 
उस्मान बिन अपफान, अली इने अबी तालिब वौरह। मगर आपके मुखालिफीन सिर्फ पहली 
किस्म के लोगों का जिक्र करते थे, वे दूसरी किस्म के लोगों का जिक्र नहीं करते थे। इसकी 
वजह यह है कि आदमी को जब किसी से जिद हो जाती है तो वह उसके बारे में यकरुख़ा 
हो जाता है। वह उसके अच्छे पहलुओं को नजरअंदाज कर देता है और सिर्फ उन्हीं पहलुओं 
का जिक्र करता है जिसके जरिए उसे उसकी तहकीर (तुच्छ समझने) का मौका मिलता हो। 

इसी तरह यह एक वाकया था कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की 
दावत वही थी जो पिछले तमाम पैग़म्बरों की दावत थी। आप एक अबदी सदाकत (सच्चाई) 
को लेकर आए थे। इस वाकये को आपके मख़ालिफीन इन लफ्नों में भी बयान कर सकते 
थे कि 'यह एक बहुत पुराना सच है” मगर उन्होंने यह कह दिया कि “यह एक बहुत पुराना 
झूठ हैं नाइंसाफी की यह किस्म कदीम जमाने के इंसानों में भी पाई जाती थी और आज भी 
वह पूरी तरह लोगों के अंदर पाई जा रही है। 


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और इससे पहले मूसा की किताब थी रहनुमा और रहमत। और यह एक किताब है 
जो उसे सच्चा करती है, अरबी जबान में, ताकि उन लोगों को डराए जिन्होंने जुल्म 
किया। और वह खुशखबरी है नेक लोगों को लिए। बेशक जिन लोगों ने कहा कि 
हमारा रब अल्लाह है, फिर वे उस पर जमे रहे तो उन लोगों पर कोई ख़ोफ नहीं और 

न वे ग़मगीन होंगे। यही लोग जन्नत वाले हैं जो उसमें हमेशा रहेंगे, उन आमाल के 
बदले जो वे दुनिया में करते थे। (2-4) 





कुरआन की सदाकत की एक दलील यह है कि पिछली आसमानी किताबें इसकी 
पेशीनगोई (भविष्यवाणी) करती हैं। यह पेशीनगोइयां आज भी इंजील और तौरात में मौजूद 
हैं। इस तरह कुरआन अपनी साबिक (पूर्ववर्ती आसमानी पेशीनगोइयों का मिस्दाक (पुष्टि 
रूप) बनकर आया है। वह उनकी पेशगी इत्तिलाअ (पूर्व सूचना) को सच कर दिखाता है। यह 


पारा 26 332 सूह46. अलअह्याफ 


एक वाजेह करीना है जो साबित करता है कि कुरआन वाकेयतन एक खुदाई किताब है। वर्ना 
सैंकड़ों और हजारों साल पहले उसकी पेशगी ख़बर देना कैसा मुमकिन होता। 

कालू रब्बुनल्लाहु सुम्मस तकामू' के सिलसिले में हजरत अब्दुल्लाह बिन अब्बास ने कहा 
है कि इससे मुराद उसके फराइज की अदायगी पर कायम रहना है। 

ईमान एक मुकदूदस अहद है। जिंदगी में बार-बार ऐसे मौके आते हैं कि एक रविश 
आदमी के अहदे ईमान के मुताबिक होती है और एक रविश उसके अहदे ईमान के गैर 
मुताबिक । ऐसे मौके पर जिस शख्स ने अपने अहदे ईमान के मुताबिक अमल किया उसने 
इस्तिकामत (दृढ़ता) दिखाई और जो शख्स अपने अहदे ईमान के मुताबिक अमल न कर सका 
वह इस्तिकामत दिखाने में नाकाम रहा। 

इस्तिकामत का सुबूत न देने वाले लोग जालिम लोग हैं। उनका दावए ईमान उन्हें कुछ 
फायदा न देगा और जिन लोगों ने इस्तिकामत का सुबूत दिया वही वे लोग हैं जो जन्नत के 
अबदी बाग़ों में बसाए जाएंगे। 


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और हमने इंसान को हुक्म दिया कि वह अपने मां-बाप के साथ भलाई करे। उसकी 
मां ने तकलीफ के साथ उसे पेट में रखा। और तकलीफ के साथ उसे जना। और उसका 
दूध छुड़ाना तीस महीने में हुआ। यहां तक कि जब वह अपनी पुख्तगी को पहुंचा और 
चालीस वर्ष को पहुंच गया तो वह कहने लगा कि ऐ मेरे रब, मुझे तौफीक दे कि मैं 
तेरे एहसान का शुक्र करूं जो तूने मुझ पर किया और मेरे मां-बाप पर किया और यह 
कि मैं वह नेक अमल करूं जिससे तू राजी हो। और मेरी औलाद में भी मुझे नेक औलाद 
दे। मैंने तेरी तरफ रुजूअ किया और में फरमांबरदारों में से हूं। ये लोग हैं जिनके अच्छे 


आमाल को हम कुबूल करेंगे और उनकी बुराइयों से दरगुजर करेंगे, वे अहले जन्नत में 
से होंगे, सच्चा वादा जो उनसे किया जाता था। (5-6) 


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सूह46. अलअह्याफ 333 पारा 26 





इंसानी नस्ल का तरीका यह है कि आदमी एक मां और एक बाप के जरिए वुजूद में 
आता है जो उसकी परवरिश करके उसे बड़ा बनाते हैं। यह गोया इंसान की तर्बियत का 
फितिरी निजम है। यह इसलिए हैकि इसके जरिए से इंसान के अंदर ह्ूक़् व फाइज का 
शुऊर पैदा हो। उसके अंदर यह जज्बा पैदा हो कि उसे अपने मोहसिन का एहसान मानना 
है और उसका हक अदा करना है। यह जज्बा बयकवक्त इंसान को दूसरे इंसानों के हुकूक 
अदा करने की तालीम देता है। और इसी के साथ ख़ालिक व मालिक खुदा के अजीमतर 
हुवूक्क को अदा करने की तालीम भी। 
जो लोग फितरत के मुअल्लिम (शिक्षक) से सबक लें। जो लोग अपने शुऊर को इस 
तरह बेदार करें कि वे अपने वालिदैन से लेकर अपने खुदा तक हर एक के हुकूक को पहचानें 
और उन्हें ठीक-ठीक अदा करें, वही वे लोग हैं जो आखिरत में ख़ुदा की अबदी रहमतों के 
मुस्तहिक कार दिए जाछी। 


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और जिसने अपने मां-बाप से कहा कि मैं बेजार हूं तुमसे। क्या तुम मुझे यह ख़ोफ 
दिलाते हो कि मैं कब्र से निकाला जाऊंगा, हालांकि मुझ से पहले बहुत सी कोमें गुजर 

चुकी हैं और वे दोनों अल्लाह से फरयाद करते हैं कि अफसोस है तुझ पर, तू ईमान ला, 

बेशक अल्लाह का वादा सच्चा है। पस वह कहता है कि यह सब अगलों की कहानियां 
हैं। ये वे लोग हैं जिन पर अल्लाह का कौल पूरा हुआ उन गिरोहों के साथ जो उनसे पहले 
गुजरे जिन्नों और इंसानों में से। बेशक वे ख़सारे (घाटे) में रहे। (7-8) 





जो औलाद अपने वालिदैन की फरमांबरदार हो वह खुदा की भी फरमांबरदार होती है। 
इसके बरअक्स नाफरमान औलाद का हाल यह होता है कि वह बड़ी उम्र को पहुंचते ही भूल 
जाते हैं कि उनके वालिंदैन ने बेशुमार मुसीबतें उठाकर उन्हें इस मकाम तक पहुंचाया है। 

किसी शख्स के सबसे ज्यादा खैरख्ाह उसके वालिंदैन होते हैं। वालिंदैन अपनी औलाद 
को जो मश्विरा देते हैं वह सरासर बेगर्जाना खैरख्याही पर मबनी होता है। इसलिए इंसान को 
चाहिए कि वह अपने सालेह वालिंदैन के मश्विरों का सबसे ज्यादा लिहाज करे। जो शख्स 
अपने सालेह वालिदैन के मश्विरों पर उन्हें झिड़क दे वह अपनी इस रविश से जाहिर करता 
है कि वह निहायत संगदिल इंसान है। यही वे लोग हैं जो सबसे ज्यादा ख़सारे में पड़ने वाले 
हैं। 





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पारा 26 I334 सूह५6. अल-अहम्रक 
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और हर एक के लिए उनके आमाल के एतबार से दर्जे होंगे। और ताकि अल्लाह सबको 
उनके आमाल पूरे कर दे और उन पर जुल्म न होगा। और जिस दिन इंकार करने वाले 
आग के सामने लाए जाएंगे, तुम अपनी अच्छी चीजें दुनिया की जिंदगी में ले चुके और 

उन्हें बरत चुके तो आज तुम्ह जिल्लत की सजा दी जाएगी, इस वजह से कि तुम दुनिया 

में नाहक तकब्बुर (घमंड) करते थे और इस वजह से कि तुम नाफरमानी करते थे। 
(I9-20) 





एक शख्स के सामने हक आता है और वह दुनियावी मस्लेहत और मादूदी मफाद के 
खातिर उसे इख्तियार नहीं करता। इसका मतलब यह है कि उसने आख़िरत के मुकाबले में 
दुनिया को अहमियत दी। उसने तय्यिबाते आख़िरत (परलोक की अच्छी चीजों) के मुकाबले 
में तय्यिबाते दुनिया को अपने लिए पसंद कर लिया। 

इसी तरह अपनी बड़ाई का एहसास आदमी के लिए बेहद लजीज चीज है। जब ऐसा 
हो कि अपनी बड़ाई का घरौंदा तोड़कर हक को कुबूल करना हो और आदमी अपनी बड़ाई 
को बचाने के लिए हक को कुबूल न करे, उस वक्‍त भी गोया उसने तय्यिबाते दुनिया को 
तरजीह दी और तय्यिबाते आख़िरत को नाकाबिले लिहाज समझ कर छोड़ दिया। 

ऐसे तमाम लोग जिन्होंने दुनिया की तव्यिबात की ख़ातिर आख़िरत को तय्यिबात को 
नजरअंदाज किया वे आहिरत में जिल्लत के अजाब से दो चार हेंगे। जिसका अमल जिस 
दर्जे का होगा उसी के बकद्र वह अपने अमल का अंजाम आखिरत में पाएगा। 


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सूह46. अलअहञ्रफ 335 पारा 26 
और आद के भाई (हूद) को याद करो। जबकि उसने अपनी कौम को अहकाफ में 

डरायाऔर डराने वाले उससे पहले भी गुजर चुके थे और उसके बाद भी आएकि 

अल्लाह के सिवा किसी की इबादत न करो। में तुम पर एक हौलनाक दिन के अजाब 

से डरता हूं। उन्होंने कहा कि क्या तुम हमारे पास इसलिए आए हो कि हमें हमारे 
माबूदों (पूज्यां) से फेर दो। पस अगर तुम सच्चे हो तो वह चीज हम पर लाओ जिसका 
तुम हमसे वादा करते हो। उसने कहा कि इसका इलम तो अल्लाह को है, और में तो 
तुम्हें वह पेग़ाम पहुंचा रहा हूं जिसके साथ मुझे भेजा गया है। लेकिन मैं तुम्हें देखता 
हूं कि तुम लोग नादानी की बातें करते हो। (2।-23) 





कमे आद जुनूबी (दक्षिणी) अरब के उस इलाके में आबाद थी जिसे अब 'अररुबउ 
खली' कहा जाता है। इस कैम नेकापी तर्री की । मगर उसकी तरकिय्येंनि उसेगफ़्लत 
और सरकशी में मुब्तिला कर दिया। फिर अल्लाह तआला ने उसके एक फर्द हजरत हूद 
अलैहिस्सलाम को पैगम्बर बनाकर उसकी तरफ भेजा। 

हजरत हूद ने कौम को डराया। मगर वह इस्लाह कुबूल करने के लिए तैयार न हुई। 
उसने अपने पैगम्बर का इस्तकबाल जहालत से किया। आखिरकार वह खुदा की पकड़ में आ 
गई। उस पर ऐसा सरन्न अजाब आया कि उसका सरसब्ज और शानदार इलाका महज एक 
ख़ुश्क सहरा बन कर रह गया। 


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पस जब उन्होंने उसे बादल की शक्ल में अपनी वादियों की तरफ आते हुए देखा तो 
उन्होंने कहा कि यह तो बादल है जो हम पर बरसेगा। नहीं बल्कि यह वह चीज है 
जिसकी तुम जल्दी कर रहे थे। एक आंधी है जिसमें दर्दनाक अजाब है। वह हर चीज 


को अपने रब के हुक्म से उखाड़ फेंकेगी। पस वे ऐसे हो गए कि उनके घरों के सिवा 
वहां कुछ नजर न आता था। मुजरिमों को हम इसी तरह सजा देते हैं। (24-25) 





अजाब के बादल को आद के लोग बारिश का बादल समझे। वे उसकी हकीकत को 
सिर्फ उस वक्त समझ सके जबकि अजाब की आंधी ने उनकी बस्तियों में दाखिल होकर उन्हें 
बिल्कुल खंडहर बना दिया। इंसान इतना जालिम है कि वह एक लम्हे पहले तक भी हक का 
एतराफ नहीं करता। वह सिर्फउस वक्‍त एतराफ करता है जबकि एतराफ करने का मैक्ष 
उससे छिन गया हो। 


पारा 26 I336 सूह46. अलअहरफ 
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और हमने उन लोगों को उन बातों में कुदरत दी थी कि तुम्हें उन बातों में कुदरत नहीं 

दी और हमने उन्हें कान और आंख और दिल दिए। मगर वे कान उनके कुछ काम न 
आए और न आंखें और न दिल। क्योंकि वे अल्लाह की आयतों का इंकार करते थे 
और उन्हें उस चीज ने घेर लिया जिसका वे मजाक उड़ते थे। और हमने तुम्हरे आस 

पास की बस्तियां भी तबाह कर दीं। और हमने बार-बार अपनी निशानियां बताई 
ताकि वे बाज आएं। पस क्‍यों न उनकी मदद की उन्होंने जिनको उन्होंने ख़ुदा के 
तकरुब (समीपता) के लिए माबूद (पूज्य) बना रखा था। बल्कि वे सब उनसे खोए गए 
और यह उनका झूठ था और उनकी गढ़ी हुई बात थी। (26-28) 





क्रैश के सरदारों को जो दुनियावी मर्तबा हासिल था उसने उन्हें सरकश बना रखा था। 
उन्हें याद दिलाया गया कि अपने पड़ोस की कौम आद को देखो। उसे तमद्दुनी एतबार से 
तुमसे भी ज्यादा बड़ा दर्जा हासिल था। इसके बावजूद जब खुदा का फैसला आया तो उसकी 
सारी बड़ाई गारत होकर रह गई। उन चीजों में से कोई चीज उसका सहारा न बन सकी जिन्हें 
उन्होने अपना सहारा समझ रखा था। 

इंसान आखिरकार खुदा की बड़ाई के मुकाबले में छोटा होने वाला है। मगर दुनिया का 
निजाम कुछ इस तरह बनाया गया है कि इसी दुनिया में आदमी को बार-बार दूसरों के 
मुकाबले में छोटा होना पड़ता है। इस तरह के वाकेयात खुदा की निशानियां हैं। आदमी अगर 
इन निशानियों से सबक ले तो आखिरत के दिन छोटा किए जाने से पहले वह ख़ुद अपने 
आपको छोटा कर ले। वह आखिरत से पहले इसी दुनिया में हकीकतपसंद बन जाए। 

इंसान के सामने मु्ललिफ किस्म के वाकेयात खुदाई निशानी बनकर जाहिर हेते हैं। 
मगर वह अंधा बहरा बना रहता है। वह उनसे सबक लेने के लिए तैयार नहीं होता। 





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सूह46. अलअह्काफ 337 पारा 26 


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और जब हम जिन्नात के एक गिरोह को तुम्हारी तरफ ले आए, वे कुरआन सुनने लगे। 
पस जब वे उसके पास आए तो कहने लगे कि चुप रहो। फिर जब कुरआन पढ़ा जा 
चुका तो वे लोग डराने वाले बनकर अपनी कौम की तरफ वापस गए। उन्होंने कहा 
कि ऐ हमारी कौम, हमने एक किताब सुनी है जो मूसा के बाद उतारी गई है, उन 
पेशीनगोइयाँ (भविष्यवाणियां) की तस्दीक (पुष्टि) करती हुई जो उसके पहले से मौजूद 
हैं। वह हक की तरफ और एक सीधे रास्ते की तरफ रहनुमाई करती है। ऐ हमारी कैम, 
अल्लाह की तरफ बुलाने वाले की दावत (आह्वान) कुबूल करो और उस पर ईमान ले 
आओ, अल्लाह तुम्हारे गुनाहों को माफ कर देगा और तुम्हें दर्दनाक अजाब से 
बचाएगा। और जो शख्स अल्लाह के दाऔ (आस्वानकर्ता) की दावत पर लब्बैक नहीं 


कहेगा तो वह जमीन में हरा नहीं सकता और अल्लाह के सिवा उसका कोई मददगार 
न होगा। ऐसे लोग खुली हुई गुमराही में हैं। (29-32) 











नुबुव्वत के दसवें साल मक्का में अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के हालात 
बेहद सर्न हो चुके थे। उस वक्‍त आपने मक्का से तायफ की तरफ सफर फरमाया कि शायद 
आपको कुछ साथ देने वाले मिल सकें। मगर वहां के लोगों ने आपका बहुत बुरा इस्तकबाल 
किया। वापसी में आप रात गुजारने के लिए नख़ला के मकाम पर ठहरे। यहां आप नमाज 
में कुरआन की तिलावत फरमा रहे थे कि जिन्नात के एक गिरोह ने कुरआन को सुना। और 
वे उसी वकत उसके मोमिन बन गए। एक गिरोह कुरआन को रद्द कर रहा था। मगर ऐन 
उसी वक्त दूसरा गिरोह कुरआन को कुबूल कर रहा था। और इतनी शिदूदत के साथ कुबूल 
कर रहा था कि उसी वक्‍त वह उसका मुबल्लिग (प्रचारक) बन गया। 

अल्लाह के दाऔ की बात को रदूद करना गोया ख़ुदा के मंसूबे को रद्द करना है। मगर 
इंसान के लिए यह मुमकिन नहीं कि वह ख़ुदा के मंसूबे को रदूद कर सके। इसलिए ऐसी 
कोशिश करने वाले का अंजाम सिर्फ यह होता है कि वह ख़ुद रदूद होकर रह जाता है। 











पारा 26 I338 सूह46. अलअह्याफ 
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कया उन लोगों ने नहीं देखा कि जिस ख़ुदा ने आसमानों और जमीन को पैदा किया 
और वह उनके पैदा करने से नहीं थका, इस पर कुदरत रखता है कि वह मुर्दों को 
जिंदा कर दे, हां वह हर चीज पर कादिर है। और जिस दिन ये इंकार करने वाले आग 
के सामने लाए जाएंगे, क्या यह हकीकत नहीं है। वे कहेंगे कि हां, हमारे रब की 


कसम। इर्शाद होगा फिर चखो अजाब उस इंकार के बदले जो तुम कर रहे थे। 
(33-34) 





जमीन व आसमान जैसी अजीम कायनात का वुजूद में आना, और फिर अरबों साल से 
उसका निहायत सेहत और हमआहंगी के साथ चलते रहना यह साबित करता है कि इस 
कायनात का पैदा करने वाला अजीमतरीन ताकतों का मालिक है। नीज यह कि इस कायनात 
को वुजूद में लाना उसके लिए इज्ज (निर्बलता) का सबब नहीं बना | तख़लीक का अमल अगर 
उसे थका देता तो तख्तीक के बाद वह इतनी सेहत के साथ चलती हुई नजर न आती। 

खुदा की अजीम ताकत व कुदरत का मुजाहिरा जो कायनात की सतह पर हो रहा है वह 
यह यकीन करने के लिए काफी है कि इंसानी नस्ल को दुबारा जिंदा करना और उससे उसके 
आमाल का हिसाब लेना उसके लिए कुछ मुश्किल नहीं। 

मौजूदा दुनिया में आदमी के सामने हकीकत आती है मगर वह उसे नहीं मानता । इसकी 
वजह यह है कि मौजूदा दुनिया में हकीकत के इंकार का अंजाम फौरन सामने नहीं आता। 
आख़िरत में इंकार का हौलनाक अंजाम हर आदमी के सामने होगा। उस वक्त वह इंतिहाई 
हद तक संजीदा हो जाएगा और उस हकीकत का फौरन इकरार कर लेगा जिसे मौजूदा दुनिया 
में वह मानने के लिए तैयार न होता था। 


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पस तुम सब्र करो जिस तरह हिम्मत वाले पैग़म्बरों ने सब्र किया। और उनके लिए जल्दी 


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सूरह-47. मुहम्मद 339 पारा 26 
न करो। जिस दिन ये लोग उस चीज को देखेंगे जिसका उनसे वादा किया जा रहा है 
तो गोया कि वे दिन की एक घड़ी से ज्यादा नहीं रहे। यह पहुंचा देना है। पस वही 
लोग बर्बाद होंगे जो नाफरमानी करने वाले हैं। (35) 


हक की दावत देने वाले को हमेशा सब्र की जमीन पर खड़ा होना पड़ता है। सब्र दरअस्ल 
इसका नाम है कि मदऊ (संबोधित पक्ष) की ईजारसानियों (उत्पीडन) को दाऔ यकतरफा तौर 
पर नजरअंदाज करे। वह मदऊ के जिद और इंकार के बावजूद मुसलसल उसे दावत पहुंचाता 
रहे। दाऔ अपने मदऊ का हर हाल में ख़ैरख़ाह बना रहे। चाहे मदऊ की तरफ से उसे 
कितनी ही ज्यादा नाखुशगवारियों का तजर्वा क्यों न हो रहा हो। यह यकतरफा सब्र इसलिए 
जरूरी है कि इसके बगैर मदऊ के ऊपर खुदा की हुज्जत तमाम नहीं होती । 

खुदा के तमाम पैगम्बरों ने हर जमाने में इसी तरह सब्र व इस्तिकामत के साथ हक की 
दावत का काम किया है। आइंदा भी पैग़म्बरों की नियाबत (प्रतिनिधित्व) में जो लोग हक की 
दावत का काम करें उन्हें इसी नमूने पर दावत का काम करना है। ख़ुदा के यहां दाऔ का 
मकाम सिर्फ उन्हीं लोगों के लिए मुकदूदर है जो यकतरफा बर्दाश्त का हौसला दिखा सकें। 


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आयतें-38 सूरह-47. मुहम्मद रुकूअ-4 
(मदीना में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
जिन लोगों ने इंकार किया और अल्लाह के रास्ते से रोका, अल्लाह ने उनके आमाल को 
रायगां (अकारत) कर दिया। और जो लोग ईमान लाए और उन्होंने नेक अमल किए 
और उस चीज को माना जो मुहम्मद पर उतारा गया है, और वह हक है उनके रब की 
तरफ से, अल्लाह ने उनकी बुराइयां उनसे दूर कर दीं और उनका हाल दुरुस्त कर दिया। 
यह इसलिए कि जिन लोगों ने इंकार किया उन्होंने बातिल (असत्य) की पैरवी की। और 


जो लोग ईमान लाए उन्होंने हक (सत्य) की पैरवी की जो उनके रब की तरफ से है। इस 
तरह अल्लाह लोगों के लिए उनकी मिसालें बयान करता है। (-3) 








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पारा 26 I340 सूरह-47. मुहम्मद 








कदीम अरब में जिन लोगों ने हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का इंकार 
किया और आपकी मुखालिफत की उनके आमाल जाया हो गए। इसका मतलब दूसरे लफ्जों 
में यह है कि उन्होंने चूँकि शुऊरी सतह पर दीनदारी का सुबूत नहीं दिया इसलिए उनके वे 
आमाल भी बेकीमत करार पाए जो वे रिवायती दीनदारी की सतह पर अंजाम दे रहे थे। 

कदीम अरब के लोग अपने आपको इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) और इस्माईल (अलैहिस्सलाम) 
की उम्मत समझते थे। उन्हें ख़ाना काबा का मुंतजिम (प्रबंधक) होने का एजाज हासिल था। 
उनके यहां किसी न किसी शक्ल में नमाज, रोजा, हज का रवाज भी मौजूद था। हाजियों की 
खिदमत, रिश्तेदारों के साथ हुस्ने सुलूक, मेहमानों की तवाजोअ का भी उनके यहां रवाज था। 
ये सब काम अगरचे वे बजाहिर कर रहे थे मगर वे उनको शुऊरी दीनदारी का हिस्सा न थे। 
वे महज रिवायती तौर पर उनकी जिंदगी का जुज बने हुए थे। इन आमाल को वे इसलिए कर 
रहे थे कि वे सदियों से उनके दर्मियान राइज चले आ रहे थे। 

मगर वक्त के पैगम्बर को पहचानने के लिए जरूरी था कि वे अपने शुऊर को मुतहर्रिक 
करें। वे जाती मअरफत (अन्तर्ज्ञान) की सतह पर उसे पाएं। हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि 
व सल्लम के साथ उस वकत कदीम रिवायात का जोर शामिल न था इसलिए आपको वही 
शख्स पहचान सकता था जो जाती शुऊर की सतह पर हकीकत को पहचानने की सलाहियत 
रखता हो। जब उन्होंने वक्‍त के पैगम्बर का इंकार किया तो यह साबित हो गया कि उनकी 
दीनदारी महज रिवायत के तहत है न कि शुऊर के तहत। और अल्लाह को शुऊरी दीनदारी 
मत्लूब है न कि महज रिवायती दीनदारी। 

इसके बरअक्स जो लोग वक्त के पैगम्बर पर ईमान लाए उन्होंने यह सुबूत दिया कि वे 
शुऊर की सतह पर दीनदार बनने की सलाहियत रखते हैं। चुनांचे वे ख़ुदा के यहां काबिले 
कुबूल और काबिले इनाम करार पाए । तारीख़ का तजर्बा बताता है कि माजी (अतीत) के जेर 
पर मानने वाले लोग हाल की मअरफत के इम्तेहान में फेल हो जाते हैं। दूसरों की नजर से 
देखने वाले अपनी नजर से देखने में हमेशा नाकाम रहते हैं। 

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पस जब मुंकिरों से तुम्हारा मुकाबला हो तो उनकी गर्दनें मारो। यहां तक कि जब ख़ूब 


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सूरह-47. मुहम्मद 34] पारा 26 
कत्ल कर चुको तो उन्हें मजबूत बांध लो। फिर इसके बाद या तो एहसान करके छोड़ना 

है या मुआवजा लेकर, यहां तक कि जंग अपने हथियार रख दे। यह है काम। और अगर 
अल्लाह चाहता तो वह उनसे बदला ले लेता, मगर ताकि वह तुम लोगों को एक दूसरे से 
आजमाए । और जो लोग अल्लाह की राह में मारे जाएंगे, अल्लाह उनके आमाल को हरगिज 

जाए (नष्ट) नहीं करेगा। वह उनकी रहनुमाई फरमाएगा और उनका हाल दुरुस्त कर देगा। 

और उन्हें जन्नत में दाखिल करेगा जिसकी उन्हें पहचान करा दी है। (4-6) 





यहां इंकार करने वालों से मुराद वे लोग हैं जो इतमामेहुज्जत (आह्वान की अति) के 
बावजूद ईमान नहीं लाए और मजीद यह कि उन्होंने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व 
सल्लम के खिलाफ नाहक जंग छेड़ दी और इस तरह अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व 
सल्लम को दिफाई (रक्षात्मक) कदम उठाने पर मजबूर कर दिया। ऐसे लोगों के बारे में हुक्म 
दिया गया कि जब उनसे तुम्हारी मुठभेड़ हो तो उनसे लड़कर उनका जोर तोड़ दो, ताकि वे 
आइंदा हक की दावत (आह्वान) की राह में रुकावट न बन सकें। 
अल्लाह तआला का यह कानून रहा है कि जिन कौमों ने अपने पैग़म्बरों का इंकार किया 
वे इतमामेहुज्जत के बाद हलाक कर दी गई। मगर पेग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) के 
सिलसिले में अल्लाह तआला को यह मत्लूब था कि आप और आपके साथियों के जरिए शिक 
का दौर ख़त्म किया जाए और तौहीद की बुनियाद पर एक नई तारीख़ वुजूद में लाई जाए। 
ऐसे तारीख़साज इंसानों का इंतख़ाब सख्ततरीन हालात ही में हो सकता था। चुनांचे 
मुखालिफीन की तरफ से छेड़ी हुई जंग में अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के 
साथियों को दाखिल करके यही फायदा हासिल किया गया। 
जन्नत मोमिन की एक इंतिहाई मालूम चीज है। वह न सिर्फ पेग़म्बर से उसकी ख़बर 
सुनता है बल्कि अपनी बढ़ी हुई मअरफत (अन्तरज्ञन) के जरिए वह उसका तसब्बुराती इदराक 
(परिकल्पना-भान) भी कर लेता है। गैब में छुपी हुई जन्नत का यही गहरा इदराक है जो 
आदमी को यह हौसला देता है कि वह कुर्बानी की कीमत पर उसका तालिब बन सके। अगर 
ऐसा न हो तो कोई शख्स आज की दुनिया को कुर्बान करके कल की जन्नत का उम्मीदवार 
न बने। 
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पारा 26 342 सूरह-47. मुहम्मद 


ऐ ईमान वालो, अगर तुम अल्लाह की मदद करोगे तो वह तुम्हारी मदद करेगा और 
तुम्हारे कदमों को जमा देगा। और जिन लोगों ने इंकार किया उनके लिए तबाही है 
और अल्लाह उनके आमाल को जाया कर देगा। यह इस सबब से कि उन्होंने उस चीज 

को नापसंद किया जो अल्लाह ने उतारी है। पस अल्लाह ने उनके आमाल को अकारत 
कर दिया। क्या ये लोग मुल्क मे चले फिरे नहीं कि वे उन लोगों का अंजाम देखते जो 
उनसे पहले गुजर चुके हैं, अल्लाह ने उन्हें उखाड़ फेंका और मुंकिरों के सामने उन्हीं की 
मिसालें आनी हैं। यह इस सबब से कि अल्लाह ईमान वालों का कारसाज (संरक्षक) 

है और मुंकिरों का कोई कारसाज नहीं। (7-॥) 





वाकेय़ात को जुहूर में लाने वाला खुदा है। मगर वह वाकेयात को असबाब के परदे में जुहू 
में लाता है। यही मामला दीन का भी है। अल्लाह तआला को यह मल्लूब है कि बातिल का जोर 
टूटे और हक को दुनिया में गलबा और इस्तहकाम हासिल हो। मगर इस वाकथे को जुहूर में लाने 
के लिए अल्लाह तआला को कुछ ऐसे अफराद दरकार हैं जो इस खुदाई अमल का इंसानी पर्दा 
बनें। यही वह मामला है जिसे यहां खुदा की नुसरत (मदद) करना कहा गया है। 

जब एक गिरोह ख़ुदा की नुसरत के लिए उठता है तो वह इसी के साथ दूसरा काम यह 
करता है कि वह मुंकिरीन का मुंकिरीन होना साबित करता है। ख़ुदा की नुसरत करने वाले 
अफराद इंतिहाई संजीदगी और खैरख्याही के साथ लोगों को ख़ुदा की तरफ बुलाते हैं। वे हर 
खिलाफे हक रवैये से बचते हुए दीन की गवाही देते हैं। वे हक के हक होने को आखिरी हद 
तक साबितशुदा बना देते हैं। इस तरह मुंकिरीन के ऊपर वह इतमामेहुज्जत (आह्वान की 
अति) हो जाता है जो आखिरत के फैसले के लिए अल्लाह तआला को मत्लूब है। 

बातिलपरस्त लाजिमन जेर हेते हैं और हकपरस्त लाजिमन उनके ऊपर गालिब आते हैं 
बशर्ते कि हकपरस्त गिरोह उस अमल को अंजाम दे जो ख़ुदा की सुन्नत (तरीके) के मुताबिक 
ख़ुदा की हिमायत को हासिल करने के लिए अंजाम देना चाहिए 


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बेशक अल्लाह उन लोगों को जो ईमान लाए और जिन्होंने नेक अमल किया ऐसे बाग़ों 
में दाखिल करेगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी। और जिन लोगों ने इंकार किया वे 
बरत रहे हैं और खा रहे हैं जैसे कि चोपाए खाएं, और आग उन लोगों का ठिकाना है। 








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सूरह-47. मुहम्मद 343 पारा 26 
और कितनी ही बस्तियां हैं जो कुब्बत (शक्ति) में तुम्हारी उस बस्ती से ज्यादा थीं जिसने 

तुम्हें निकाला है। हमने उन्हें हलाक कर दिया। पस कोई उनका मददगार न हुआ। 
(I2-3) 





अरब में जिन लोगों ने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का इंकार किया 
उन्हें आपने यह पेशगी ख़बर दी कि तुम जो कुछ खा पी रहे हो तो यह मत समझो कि तुम 
आजाद हो। तुम पूरी तरह खुदा की गिरफ्त में हो। और इसका सुबूत यह है कि अगर तुम 
अपने इंकार पर कायम रहे तो ख़ुदा के कानून के मुताबिक तुम तबाह कर दिए जाओगे। 

यह वाकया ऐन पेशीनगोई के मुताबिक जुहू में आया। तौहीद के अलमबरदार ग़ालिब 
आए और जो लोग शिक के अलमबरदार बने हुए थे वे हमेशा के लिए नाबूद (विनष्ट) हो गए 


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क्या वह जो अपने रब की तरफ से एक वाजेह (स्पष्ट) दलील पर है। वह उसकी तरह 

हो जाएगा जिसकी बदअमली उसके लिए खुशनुमा बना दी गई है और वे अपनी 
ख्वाहिशात (इच्छाओं) पर चल रहे हैं। जन्नत की मिसाल जिसका वादा डरने वालों से 
किया गया है उसकी केफियत यह है कि उसमें नहरें हैं ऐसे पानी की जिसमें तब्दीली 

न होगी और नहरं होंगी दूध की जिसका मजा नहीं बदला होगा और नहरें होंगी शराब 
की जो पीने वालों के लिए लजीज होंगी और नहर होंगी शहद की जो बिल्कुल साफ 

होगा। और उनके लिए वहां हर किस्म के फल होंगे। और उनके रब की तरफ से 
बख्शिश (क्षमा) होगी। क्या ये लोग उन जैसे हो सकते हैं जो हमेशा आग में रहेंगे और 
उन्हें खौलता हुआ पानी पीने के लिए दिया जाएगा, पस वह उनकी आंतों को 
टुकड़े-टुकड़े कर देगा। (4-5) 


बय्यिनह (दलील) पर खड़ा होना अपनी जिंदगी की तामीर हकीकते वाकया की बुनियाद 
पर करना है। इसके बरअक्स जो शख्स अहवा (अपनी ख़्वाहिशात) पर खड़ा होता है वह 
हकीकते वाकया से ईहिराफ करता है वह खा की दुनिया में. की मज के खिलाफ 
अपनी दुनिया बनाना चाहता है। 


पारा 26 344 सूरह-47. मुहम्मद 
मौजूदा इम्तेहान की दुनिया में दोनों गिरोह बजाहिर यकसां (समान) मौके पा रहे हैं। मगर 

आख़िरत की हकीकी दुनिया में सिर्फ पहला गिरोह खुदा की अबदी नेमतों में हिस्सा पाएगा और 

दूसरा गिरोह हमेशा के लिए जलील और नाकाम होकर रह जाएगा। 


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और उनमें कुछ लोग ऐसे हैं जो तुम्हारी तरफ कान लगाते हैं। यहां तक कि जब वे 
तुम्हारे पास से बाहर जाते हैं तो इल्म वालों से पूछते हैं कि उन्होंने अभी क्या कहा। यही 
लोग हैं जिनके दिलों पर अल्लाह ने मुहर लगा दी। और वे अपनी ख़्वाहिशों पर चलते 
हैं। और जिन लोगों ने हिदायत की राह इख्तियार की तो अल्लाह उन्हें और ज्यादा 
हिदायत देता है और उन्हें उनकी परहेजगारी (ईश-परायणता) अता करता है। (6-7) 


मुनाफिक आदमी की एक पहचान यह है कि वह संजीदा मज्लिस में बैठता है तो बजाहिर 
बहुत बाअदब नजर आता है मगर उसका जेहन दूसरी-दूसरी चीजों में लगा रहता है। वह 
मज्लिस में बैठकर भी मज्लिस की बात नहीं सुन पाता। चुनांचे जब वह मज्लिस से बाहर 
आता है तो दूसरे असहाबे इल्म से पूछता है कि 'हजरत ने क्या फरमाया !' 

यह वह कीमत है जो अपनी ख़्वाहिशपरस्ती की बिना पर उन्हें अदा करनी पड़ती है। 
वे अपने ऊपर अपनी ख़्वाहिश को ग़ालिब कर लेते हैं। वे दलील की पैरवी करने के बजाए 
अपनी ख्वाहिश की पैरवी करते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि धीरे-धीरे उनके एहसासात 
कुंद हो जाते हैं। उनकी अक्ल इस काबिल नहीं रहती कि वह बुलन्द हकीकतों का इदराक 
कर सके। 

इसके बरअक्स जो लोग हकीकतों को अहमियत दें, जो सच्ची दलील के आगे झुक जाएं, 
वे इस अमल से अपनी फिक्री सलाहियत (वैचारिक क्षमता) को जिंदा करते हैं। ऐसे लोगों की 
मअरफत में दिन-ब-दिन इजाफा होता रहता है। उन्हें अबदी तौर पर जुमूद नाआशना 
(क्रियाशील) ईमान हासिल हो जाता है। 


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सूरह-47. मुहम्मद 345 पारा 26 
ये लोग तो बस इसके मुंतजिर हैं कि कियामत उन पर अचानक आ जाए तो उसकी 
अलामतें जाहिर हो चुकी हैं। पस जब वह आ जाएगी तो उनके लिए नसीहत हासिल 
करने का मौका कहां रहेगा। पस जान लो कि अल्लाह के सिवा कोई माबूद (पूज्य) नहीं 
और माफी मांगों अपने कुसूर के लिए और मोमिन मर्दों और मोमिन औरतों के लिए। 

और अल्लाह जानता है तुम्हारे चलने फिरने को और तुम्हारे ठिकानों को। (8-9) 


जलजले के आने की पेशगी इत्तिलाअ से जो शख चौकन्ना न हो वह गोया जलजले के 
आने का मुंतजिर है। क्योंकि हर अगला लम्हा जलजले को उसके करीब ला रहा है। इसी तरह 
कियामत की चेतावनी से आदमी मुतनब्बह (सतक) नहीं होता मगर जब कियामत उसके सिर 
पर टूट पड़ेगी तो वह एतराफ करने लगेगा। मगर उस ववत का एतराफ उसे फायदा न देगा। 
क्योंकि एतराफ वह है तो पर्दा उठने से पहले किया जाए। पर्दा उठने के बाद एतराफ की कोई 
कीमत नहीं। 

इस्तिम्फार (माफी) दरअस्ल एहसासे इज्ज (निर्बलता-भाव) का एक इज्हार है। कियामत 
की हौलनाकी का यकीन और अल्लाह की कुदरत और उसके हर चीज से बाख़बर होने का 
एहसास आदमी के अंदर जो नपिसियाती हैजान पैदा करता है वह हर लम्हा लतीफ कलिमात 
में ढलता रहता है। उन्हीं कलिमात को जिक्र और दुआ और इस्तिगफार कहा जाता है। 


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और जो लोग ईमान लाए हैं वे कहते हैं कि कोई सूरह क्यों नहीं उतारी जाती। पस 
जब एक वाजेह सूरह उतार दी गई और उसमें जंग का भी जिक्र था तो तुमने देखा कि 
जिनके दिलों में बीमारी है वे तुम्हारी तरफ इस तरह देख रहे हैं जैसे किसी पर मौत 
छा गई हो। पस ख़राबी है उनकी। हुक्म मानना है और भली बात कहना है। पस 
जब मामले का कतई फैसला हो जाए तो अगर वे अल्लाह से सच्चे रहते तो उनके लिए 
बहुत बेहतर होता। पस अगर तुम फिर गए तो इसके सिवा तुमसे कुछ उम्मीद नहीं 
कि तुम जमीन में फसाद करो और आपस के रिश्तों को तोड़ दो। यही लोग हैं जिन्हे 


अल्लाह ने अपनी रहमत से दूर किया, पस उन्हें बहरा कर दिया और उनकी आंखों को 
अंधा कर दिया। (20-23) 


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पारा 26 I346 सूरह-47. मुहम्मद 


मुनाफिक (पाखंडी) की पहचान यह है कि वह अल्फाज में सबसे आगे और अमल में 
सबसे पीछे हो। जिहाद से पहले वह जिहाद की बातें करे और जब जिहाद वाकेयतन पेश आ 
जाए तो वह उससे भाग खड़ा हो। 

सच्चे अहले ईमान का तरीका यह है कि वह हर वक्त सुनने और मानने के लिए तैयार 
रहे और जब किसी सख्त इक्दाम का फैसला हो जाए तो अपने अमल से साबित कर दे कि 
उसने ख़ुदा को गवाह बनाकर जो अहद किया था उस अहद में वह पूरा उतरा। 

मुनाफिक लोग जिहाद से बचने के लिए बजाहिर अम्नपसंदी की बातें करते हैं। मगर 
अमलन सूरतेहाल यह है कि जहां उन्हें मौका मिलता है वे फौरन शर फैलाना शुरू कर देते 
हैं। यहां तक कि जिन मुसलमानों से उनकी कराबतें (रिश्ते-नाते) हैं उनकी मुतलक परवाह न 
करते हुए उनके दुश्मनों के मददगार बन जाते हैं। ऐसे लोग ख़ुदा की नजर में मलऊन हैं। 
मलऊन होने का मतलब यह है कि आदमी के सोचने समझने की सलाहियत उससे छिन जाए। 
वह आंख रखते हुए भी न देखे और कान रखते हुए भी कुछ न सुने। 


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क्या ये लोग कुरआन में शौर नहीं करते या दिलों पर उनके ताले लगे हुए हैं। जो लोग 
पीठ फेरकर हट गए, बाद इससे कि हिदायत उन पर वाजेह हो गई, शेतान ने उन्हें फरेब 
दिया और अल्लाह ने उन्हें ढील दे दी। यह इस सबब से हुआ कि उन्होंने उन लोगों 
से जो कि ख़ुदा की उतारी हुई चीज को नापसंद करते हैं, कहा कि कुछ बातों में हम 
तुम्हारा कहना मान लेंगे। और अल्लाह उनकी राजदारी को जानता है। पस उस वक्‍त 
क्या होगा जबकि फरिश्ते उनकी रूहे कब्ज करते होंगे, उनके मुंह और उनकी पीठं पर 
मारते हुए यह इस सबब से कि उन्होंने उस चीज की पेरवी की जो अल्लाह को गुस्सा 
दिलाने वाली थी और उन्होंने उसकी रिजा को नापसंद किया। पस अल्लाह ने उनके 
आमाल अकारत कर दिए। (24-28) 








कुरआन नसीहत की किताब है मगर किसी चीज से नसीहत लेने के लिए जरूरी है कि 
आदमी नसीहत के बारे में संजीदा हो। अगर कोई गलत जज्बा आदमी के अंदर दाखिल होकर 


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सूरह-47. मुहम्मद 347 पारा 26 
उसे नसीहत के बारे में गैर संजीदा बना दे तो वह कभी नसीहत से फायदा नहीं उठा सकता, 
चाहे नसीहत को कितना ही अच्छे अंदाज में बयान किया गया हो। 

दीन का कोई ऐसा हुक्म सामने आए जिसमें आदमी को अपनी ख़्वाहिशात और 
मफादात की कुर्बानी देनी हो तो शैतान फौरन आदमी को कोई झूठा उज़ समझा देता है। और 
मौजूदा दुनिया में मोहलते इम्तेहान की वजह से आदमी को मौका मिल जाता है कि वह इस 
झूठे उज़ को अमलन भी इख्तियार कर ले। मगर यह सब कुछ सिर्फ चन्द दिनों तक के लिए 
है। मौत का वक्‍त आते ही सारी सूरतेहाल बिल्कुल मुख्तलिफ हो जाएगी। 

यहां निफाक के लिए इरतिदाद (धर्म त्याग) का लफ्ज इस्तेमाल किया गया है। मगर 
मालूम है कि मदीना के उन मुनाफिकों को इरतिदाद की मुकर्रह सजा नहीं दी गई। इससे 
मालूम हुआ कि इरतिदाद की शरई सजा सिर्फ उन लोगों के लिए है जो एलान के साथ 
मुरतद (दीन को छोड़ने वाले) हो जाएं। हम ऐसा नहीं कर सकते कि किसी शख्स को 
बतौर खुद कल्बी मुरतद करार दें और फिर उसे वह सजा देने लगें जो शरीअत में मुरतदीन 
के लिए मुकर है। 


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जिन लोगों के दिलों में बीमारी है क्या वे ख्याल करते हैं कि अल्लाह उनके कीने (देषां) 
को कभी जाहिर न करेगा। और अगर हम चाहते तो हम उनको तुम्हें दिखा देते, पस 


तुम उनकी अलामतों से उन्हें पहचान लेते। और तुम उनके अंदाजे कलाम से जरूर उन्हे 
पहचान लोगे। और अल्लाह तुम्हारे आमाल को जानता है। (29-30) 





मुनाफिकीन की बीमारी यह थी कि उनके सीनों में हसद था। मुनाफिक मुसलमानों 
को अपने मुख्लिस बिरादराने दीन से यह हसद क्यों था। इसकी वजह यह थी कि इस्लाम 
की हर तरक्की उन्हें मुख्तिस मुसलमानों के हिस्से में जाती हुई नजर आती थी। यह चीज 
मुनाफिकीन के लिए बेहद शाक (असहनीय) थी। वे सोचते थे कि हम ऐसी मुहिम में अपना 
जान व माल क्यों खपाएं जिसमें दूसरों की हैसियत बढ़े, जिसमें दूसरों को बड़ाई हासिल 
होती हो। 

मुनाफिकीन अपने जाहिरी रवैये में अपनी इस अंदरूनी हालत को छुपाते थे मगर 
समझदार लोगों के लिए वह छुपा हुआ न था। मुनाफिकीन का मस्नूई (बनावटी) लहजा, 
उनकी दर्द से ख़ाली आवाज बता देती थी कि इस्लाम से उनका तअल्लुक महज दिखावे का 
तअल्लुक्रहिन कि हवीकी मअनेमकबी तअत्लु। 





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और हम जरूर तुम्हें आजमाएंगे ताकि हम उन लोगों को जान लें जो तुम में जिहाद करने 
वाले हैं और साबितकदम रहने वाले हैं और हम तुम्हारे हालात की जांच कर लें। बेशक 
जिन लोगों ने इंकार किया और अल्लाह के रास्ते से रोका और रसूल की मुखालिफत 


की जबकि हिदायत उन पर वाजेह हो चुकी थी, वे अल्लाह को कुछ नुक्सान न पहुंचा 
सकेंगे। और अल्लाह उनके आमाल को ठा देगा। (३।-32) 





आदमी जब ईमान को लेकर खड़ा होता है तो उस पर मुख्तलिफ हालात पेश आते हैं। 
ये हालात उसके ईमान का इम्तेहान होते हैं। वे तकाजा करते हैं कि वह कुर्बानी की कीमत 
पर अपने मोमिन होने का सुबूत दे। वह अपने नफ्स को कुचले। वह अपने मादूदी मफादात 
(हितों) को नजरअंदाज करे। वह लोगों की ईजारसानी (उत्पीड़न) को बर्दाश्त करे। यहां तक 
कि जान व माल को खपाकर अपने ईमान पर कायम रहे। 

मोमिन को इस किस्म के हालात में डालने के लिए जरूरी है कि गैर मोमिनीन को खुली 
आजादी हासिल हो ताकि वे अहले ईमान के खिलाफ हर किस्म की कार्वाइयां कर सकें। इन 
कार्वाइयों के जरिए एक तरफ मूरलिफीन का जुर्म साबितशुदा बनता है। दूसरी तरफ उन 
शदीद हालात में अहले ईमान साबितकदम रहकर दिखा देते हैं कि वे वाकई मोमिन हैं और 
इस काबिल हैं कि ख़ुदा की मेयारी दुनिया में बसाने के लिए उनका इंतिख़ाब किया जाए। 


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ऐ ईमान वालो, अल्लाह की इताअत (आज्ञापालन) करो और रसूल की इताअत करो 

और अपने आमाल को बर्बाद न करो। बेशक जिन लोगों ने इंकार किया और अल्लाह 

के रास्ते से रोका। फिर वे मुंकिर ही मर गए, अल्लाह उन्हें कभी न बख्शेगा। पस तुम 


हिम्मत न हारो और सुलह की दरख्यास्त न करो। और तुम ही ग़ालिब रहोगे। और 
अल्लाह तुम्हारे साथ है। और वह हरगिज तुम्हारे आमाल में कमी न करेगा। (33-85) 








एक रिवायत में आता है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जमाने में 


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सूरह-47. मुहम्मद 349 पारा 26 
कुछ मुसलमानों ने यह ख्याल जाहिर किया कि अगर वे ला इला-ह इल्लल्लाहु का इकरार कर 
लें तो कोई गुनाह उन्हें नुक्सान न पहुंचाएगा। इस पर यह आयत (38) उतरी । इसकी रोशनी 
में आयत का मतलब यह है कि आदमी को चाहिए कि वह ईमान के साथ इताअत को जमा 
करे। वह न सिर्फ बेजरर (सरल) अहकाम की पैरवी करे बल्कि वह उन अहकाम का भी 
पैरोकार बने जिनके लिए अपने नफ्स को कुचलना और अपने मफाद को ख़तरे में डालना 
पड़ता है। अगर उसने ऐसा नहीं किया तो उसके साबिका आमाल उसे कुछ फायदा नहीं देंगे। 
कमजोर मुसलमानों का हाल यह होता है कि वे हक का साथ इस शर्त पर देते हैं कि 
वक्त के बच्चे की नाराजगी मोल न लेनी पड़े। जब वे देखते हैं कि हक का साथ देना वक्त 
के बड़ों को नाराज करने का सबब बन रहा है तो वे उनकी तरफ झुक जाते हैं, चाहे ये बड़े 
हक के मुंकिर हों और चाहे वे हक को रोकने वाले बने हुए हों। 
जो लोग हक का इंकार करें और उसके मुखालिफ बनकर खड़े हो जाएं वे कभी अल्लाह 
की रहमत नहीं पा सकते। फिर जो लोग ऐसे मुंकिरीन का साथ दें, उनका अंजाम उनसे 
मुख्ललिफ क्यों होगा। 
इस्लाम में जंग भी है और सुलह भी। मगर वह जंग इस्लामी जंग नहीं जो इश्तिआल 
(उत्तेजना) की बिना पर लड़ी जाए। इसी तरह वह सुलह भी इस्लामी सुलह नहीं जिसका 
मुहर्रिक (प्रेरक) बुजदिली और कमहिम्मती हो। कामयाबी हासिल करने के लिए जरूरी है कि 
दोनों चीजे सोचे समझे फैसले के तहत की जाएं न कि महज जज्बाती रददेअमल के तहत। 


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दुनिया की जिंदगी तो महज एक खेल तमाशा है और अगर तुम ईमान लाओ और तकवा 
(ईशपरायणता) इख्तियार करो तो अल्लाह तुम्हें तुम्हारे अज्र अता करेगा और वह तुम्हारे 
माल तुमसे न मांगेगा। अगर वह तुमसे तुम्हारे माल तलब करे फिर आख़िर तक तलब 
करता रहे तो तुम बुख्न (कंजूसी) करने लगो और अल्लाह तुम्हारे कीने को जाहिर कर दे। 

हां, तुम वे लोग हो कि तुम्हें अल्लाह की राह में ख़र्च करने के लिए बुलाया जाता है, पस 
तुम में से कुछ लोग हैं जो बुख्ल (कजूसी) करते हैं। और जो शख्स बुख्ल करता। तो वह 
अपने ही से बुख्ल करता है। और अल्लाह बेनियाज (निस्पृह) है, तुम मोहताज हो। और 
अगर तुम फिर जाओ तो अल्लाह तुम्हारी जगह दूसरी कौम ले आएगा, फिर वे तुम जैसे 

न होंगे। (36-38) 








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पारा 26 I350 सूरह५8. अल-फ्तह 


ईमान और तकवे की जिंदगी इस़्तियार करने में जो चीज रुकावट बनती है वह दुनिया 
के फायदे और दुनिया की रौनकें हैं। आदमी जानता है कि वह कौन सा रवैया है जो आख़िरत 
में उसे कामयाब बनाने वाला है। मगर वक्ती मस्लेहतों का ख्याल उसके ऊपर गालिब आता 
है और वह बेराहरवी की तरफ चला जाता है। हालांकि वाकया यह है कि अल्लाह अपने बंदों 
के हक में बेहद महरवान है। वह कभी इंसान से इतना बड़ा मुतालबा नहीं करता जो उसके 
लिए नाकाबिले बर्दाश्त हो। जिसके नतीजे में यह हो कि उसका भरम खुल जाए और उसकी 
छुपी हुई बशरी (इंसानी) कमजोरियां लोगों के सामने आ जाएं। 

इस्लाम खुदा का दीन है। मगर इसकी इशाअत (प्रचार-प्रसार) और हिफाजत का काम 
इस आलमे असबाब में इंसानी गिरोह के जरिये अंजाम पाना है। मुसलमान यही इंसानी गिरोह 
हैं। मुसलमान अगर अपने फरीजे को अंजाम दें तो वे खुदा की नजर में बाकीमत ठहरे। 
लेकिर अगर वे इस फरीजे को अंजाम देने में नाकाम रहें तो अल्लाह दूसरी कौमों को ईमान 
की तैफीक देगा और उनके जरिए अपने दीन का तसलसुल बाकी रखेगा। 


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(मदीना में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
बेशक हमने तुम्हें खुली फतह दे दी। ताकि अल्लाह तुम्हारी अगली और पिछली ख़ताएं 
माफ कर दे। और तुम्हारे ऊपर अपनी नेमत की तक्मील कर दे। और तुम्हें सीधा रास्ता 
दिखाए। और तुम्हें जबरदस्त मदद अता करे। (7-3) 











सनू 6 हि० में अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अपने असहाब के साथ 
मदीना से मक्का के लिए रवाना हुए ताकि वहां उमरा अदा कर सकें। आप हुदैबिया के मकाम 
पर पहुंचे थे कि मक्का के मुश्रिकीन ने आगे बढ़कर आपको रोक दिया और कहा कि हम 
आपको मक्का में दाखिल नहीं होने देंगे। इसके बाद बातचीत शुरू हुई जिसके नतीजे में 
फरीवै (पक्षो) के दर्मियान एक मुआहिदा सुलह करार पाया। 

यह मुआहिदा बजाहिर यकतरफा तौर पर मुश्रिकीन की शराइत पर हुआ था। असहाबे 
रसूल उससे सख्त कुबीदाख़ातिर (हताश) थे। वे इसे जिल्लत की सुलह समझते थे। मगर आप 
हुंदैबिया से वापस होकर अभी रास्ते ही में थे कि यह आयत उतरी 'हमने तुम्हें खुली फतह 


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सूरह48. अल-फतह 35] पारा 26 
दे दी”! इसकी वजह यह थी कि इस मुआहिदे के तहत यह करार पाया था कि दस साल तक 
मुसलमानों और मुश्रिकीन के दर्मियान लड़ाई नहीं होगी। लड़ाई का बंद होना दरअस्ल दावत 
का दरवाजा खुलने के हममअना था। हिजरत के बाद मुसलसल जंगी हालत के नतीजे में 
दावत का काम रुक गया था। अब जंगबंदी ने दोनों फरीकों के दर्मियान खुले तबादले ख्याल 
की फा पेय कर दी। 

इस तरह इस मुआहिदे ने मैदान मुकाबले को बदल दिया। पहले दोनों फरीकों का 
मुकाबला जंग के मैदान में होता था जिसमें फरीके सानी (प्रतिपक्षी) बरतर हैसियत रखता था। 
अब मुकाबला नजरिये के मैदान में आ गया। और नजरिये के मैदान में शिर्क के मुकाबले में 
तौहीद को वाजेह तौर पर बरतर हैसियत हासिल थी। यही इस मामले में 'सीधा रास्ता' था 
यानी वह रास्ता जिसमें तौहीद के अलमबरदारों के लिए फतह को यकीनी बनाया। 


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वही है जिसने मोमिनों के दिल में इत्मीनान उतारा ताकि उनके ईमान के साथ उनका 
ईमान और बढ़ जाए। और आसमानों और जमीन की फोरे अल्लाह ही की हैं। और 
अल्लाह जानने वाला, हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। ताकि अल्लाह मोमिन मर्दों और 
मोमिन औरतों को ऐसे बागों में दाखिल करे जिनके नीचे नहरें जारी होंगी, वे उनमें 
हमेशा रहेंगे। और ताकि उनकी बुराइयां उनसे दूर कर दे। और यह अल्लाह के नजदीक 
बञ्चै कामयाबी है। और ताकि अल्लाह मुनाफिक (पाखंडी) मदौ और मुनाफिक औरतों 

को और मुश्रिक मर्दों और मुश्रिक औरतों को अजाब दे जो अल्लाह के साथ बुरे गुमान 
रखते थे। बुराई की गर्दिश उन्हीं पर है। और उन पर अल्लाह का गजब हुआ और उन 
पर उसने लानत की। और उनके लिए उसने जहन्नम तैयार कर रखी है और वह बहुत 
बुरा ठिकाना है। और आसमानां और जमीन की फीजें अल्लाह ही की हैं। और अल्लाह 
जबरदस्त है, हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। (4-7) 


पारा 26 352 सूरह५8. अल-फतह 


यहां 'सकीनत' से मुराद इश्तिआल (उत्तेजना) के बावजूद मुशतइल (उत्तेजित) न होना 
है। हुदैबिया के सफर में मुखालिफीने इस्लाम ने तरह-तरह से मुसलमानों को इश्तिआल दिलाने 
की कोशिश की ताकि वे मुशतइल होकर कोई ऐसी कार्रवाई करें जिसके बाद उनके ख़िलाफ 
जारिहियत का जवाज मिल जाए। मगर मुसलमान हर इश्तिआल को यकतरफा तौर पर 
बर्दाश्त करते रहे। वे आखिरी हद तक एराज की पॉलिसी पर कायम रहे। 

खुदा चाहे तो अपनी बराहेरास्त कुघत से बातिल को जेर कर दे। और हक को गलबा अता 
फरमाए। फिर खुदा क्यों ऐसा करता है कि वह 'सुलह हुदैबिया' जैसे हालात में डाल कर अहले 
ईमान को उनका सफर कराता है। इसका मवसद ईमान वालों के ईमान में इजाफा है। आदमी 
जब अपने अंदर इंतकाम की नपिसयात को दबाए और एक सरकश कौम से इसलिए सुलह कर 
ले कि हक की दावत का तकाजा यही है तो वह अपने शुऊरी फैसले के तहत वह काम करता 
है जिसे करने के लिए उसका दिल राजी न था। इस तरह वह अपने शुऊरी ईमान को बढ़ाता 
है। वह अपने आपको ऐसी रब्बानी कैफियत का महबित (उतरने की जगह) बनाता है जिसे 
किसी और तदबीर से हासिल नहीं किया जा सकता। फिर इस अमल का यह फायदा भी है कि 
इसके जरिए से जन्नत वाले लोग अलग हो जाते हैं और जहन्नम वाले लोग अलग। 


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बेशक हमने तुम्हें गवाही देने वाला और बशारत (शुभ-सूचना) देने वाला और डराने 
वाला बनाकर भेजा है। ताकि तुम लोग अल्लाह पर और उसके रसूल पर ईमान 
लाओ और उसकी मदद करो और उसकी ताजीम (सम्मान) करो। और तुम अल्लाह 
की तस्बीह करो सुबह व शाम। जो लोग तुमसे बैअत (प्रतिज्ञ) करते हैं वे 
दरहकीकत अल्लाह से बैअत करते हैं। अल्लाह का हाथ उनके हाथों के ऊपर है। 

फिर जो शख्स उसे तोड़ेगा उसके तोड़ने का वबाल उसी पर पड़ेगा। और जो शख्स 
उस अहद (वचन) को पूरा करेगा जो उसने अल्लाह से किया है तो अल्लाह उसे बड़ा 
अज्र अता फरमाएगा। (8-0) 





शाह वलीउल्लाह साहब ने शाहिद का तजुमा इज्होरे हक कुनिंदा (हक का इप्हार करने 
वाला) किया है। यही इस लफ्ज का सहीतरीन मफहूम है। पैगम्बर का असल काम यह होता 
है कि वह हकीकत का एलान व इजहार कर दे। वह वाजेह तौर पर बता दे कि मौत के बाद 
की अबदी जिंदगी में किन लोगों के लिए ख़ुदा का इनाम है और किन लोगों के लिए ख़ुदा 
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सूरह48. अल-फतह 353 पारा 26 
ऐसे एक शाहिदे हक का खड़ा होना उसके मुखातबीन के लिए सबसे ज्यादा सख्त इम्तेहान 
होता है। उन्हें एक बशर की आवाज में खुदा की आवाज को सुनना पड़ता है। एक बजाहिर 
इंसान को ख़ुदा के नुमाइंदे के रूप में देखना पड़ता है। एक इंसान के हाथ में अपना हाथ देते 
हुए यह समझना पड़ता है कि वे अपना हाथ ख़ुदा के हाथ में दे रहे हैं। जो लोग इस आला 
मअरफत का सुबूत दें उनके लिए ख़ुदा के यहां बहुत बड़ा अज्र है और जो लोग इस इम्तेहान 
में नाकाम रहें उनके लिए सख़्ततरीन सजा। र 
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जो देहाती पीछे रह गए वे अब तुमसे कहेंगे कि हमें हमारे अमवाल (धन-सम्पत्ति) और 
हमारे बाल बच्चों ने मशशूल रखा, पस आप हमारे लिए माफी की दुआ फरमाएं। यह 
अपनी जबानों से वह बात कहते हैं जो उनके दिलों में नहीं है। तुम कहो कि कौन है 
जो अल्लाह के सामने तुम्हारे लिए कुछ इख्तियार रखता हो। अगर वह तुम्हें कोई 
नुक्सान या नफा पहुंचाना चाहे। बल्कि अल्लाह उससे बाख़बर है जो तुम कर रहे हो। 
बल्कि तुमने यह गुमान किया कि रसूल और मोमिनीन कभी अपने घर वालों की तरफ 
लौटकर न आएंगे। और यह ख्याल तुम्हारे दिलों को बहुत भला नजर आया और तुमने 
बहुत बुरे गुमान किए। और तुम बर्बाद होने वाले लोग हो गए। और जो ईमान न लाया 
अल्लाह पर और उसके रसूल पर तो हमने ऐसे मुंकिरों के लिए दहकती आग तैयार कर 
रखी है। और आसमानां और जमीन की बादशाही अल्लाह ही की है। वह जिसे चाहे 


बर्शे और जिसे चाहे अजाब दे। और अल्लाह बख्शने वाला, रहम करने वाला है। 
(I-4) 








अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मदीना में ख़राब देखा था कि आप 
मक्का का सफर बराए उमरा कर रहे हैं। उसके मुताबिक आप असहाब (साथियों) के साथ 
मक्का के लिए रवाना हुए। मगर उस वक्त हालात बेहद ख़राब थे। शदीद अंदेशा था कि 


पारा 26 354 सूरह 48. अल-फतह 
वुश्षसे टकराव हो और मुसलमान बुरी तरह मारे जाएं। चुनांचे मक्का के करीब पहुंच कर 
क्रैश ने मुसलमानों की जमाअत पर पत्थर फेंके और तरह-तरह से छेड़ा ताकि वे मुशतइल 
(उत्तेजित) होकर लड़ने लगें। और कुशश को उनके खिलाफ जारिहियत का मौका मिले। मगर 
मुसलमानों के यकतरफा सब्र व एराज ने इसका मौका आने नहीं दिया। 
अतराफ मदीना के बहुत से कमजोर मुसलमान इसी अदिशे की बिना पर सफर में शरीक 
नहीं हुए थे। जब आप बहिफाजत वापस आ गए तो ये लोग आपके पास अपनी वफादारी 
जाहिर करने के लिए आए। और आपसे माफी मांगने लगे। मगर उन्हें माफी नहीं दी गई। 
इसकी वजह यह थी कि उनका उज्र झूठा उज्ज था न कि सच्चा उञ्च। अल्लाह के यहां हमेशा 
सच्चा उज़ काबिले कुबूल होता है और झूठा उज़ हमेशा नाकाबिले कुबल । 
उन लोगों का खुदा के रसूल के साथ सफर में शरीक न होना बेयकीनी की वजह से था 
न कि किसी वाकई उज् की बिना पर। वे समझते थे कि ऐसे पुरख़तर सफर से दूर रहकर वे 
अपने मफदात को महफूज कर रहे हैं। उन्हे मालूम न था कि नफा और नुक्सान का मालिक 
ख़ुदा है। अगर खुदा न बचाए तो किसी की हिफाजती तदबीरें उसे बचाने वाली नहीं बन 
सकतीं । ऐसे लोगों के लिए दुनिया में भी बर्बादी है और आखिरत में भी बर्बादी । 
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जब तुम गनीमतें लेने के लिए चलोगे तो पीछे रह जाने वाले लोग कहेंगे कि हमें भी 
अपने साथ चलने दो। वे चाहते हैं कि अल्लाह की बात को बदल दें। कहो कि तुम 
हरगिज हमारे साथ नहीं चल सकते। अल्लाह पहले ही यह फरमा चुका है। तो वे कहेंगे 
बल्कि तुम लोग हमसे हसद करते हो। बल्कि यही लोग बहुत कम समझते हैं। (5) 








सुलह हुंदैबिया से पहले यहूद मुसलमानों की दुश्मनी में बहुत जरी थे। क्योंकि इससे 
पहले उन्हें इस मामले में कुंरेश का पूरा तआवुन हासिल था। हुंदैबिया में कुरैश से ना जंग 
मुआहिदा ने यहूद को कुरैश से काट दिया। इसके बाद वे अकेले रह गए। इससे खैबर, तेमा, 
फिदक वगैरह के यहूदियों के हौसले टूट गए। चुनांचे सुलह के तीन महीने बाद अल्लाह के 
रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने खैबर पर चढ़ाई की तो वहां के यहूद ने लड़े भिड़े बगैर 
हथियार डाल दिए और उनके कसीर अमवाल (विपुल धन) मुसलमानों को गनीमत में मिले। 

कमजोर ईमान के लोग जो हुंदैबिया के सफर को पुरखतर समझ कर अल्लाह के रसूल 
सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ नहीं गए थे, अब उन्होंने चाहा कि वे यहूदियों के खिलाफ 
कार्रवाई में शरीक हों और माले ग़नीमत में अपना हिस्सा हासिल करें। मगर उन्हें साथ जाने 
से रोक दिया गया। ख़ुदा का कानून यह है कि जो ख़तरा मोल ले वह नफा हासिल करे। 








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सूरह48. अल-फतह 355 पारा 26 
आदमी जब ख़तरा मोल लिए बगैर हासिल करना चाहे तो गोया वह कानूने इलाही को बदल 
देना चाहता है। मगर इस दुनिया में खुदा के कानून को बदलना किसी के लिए मुमकिन नहीं। 


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पीछे रहने वाले देहातियाँ से कहो कि अनकरीब तुम ऐसे लोगों की तरफ बुलाए जाओगे 
जो बड़े जोरआवर हैं, तुम उनसे लड़ोगे या वे इस्लाम लाएंगे। पस अगर तुम हुक्म मानोगे 
तो अल्लाह तुम्हें अच्छा अज्र देगा और अगर तुम रूगर्दानी (अवहेलना) करोगे जैसा कि 
तुम इससे पहले रुगर्दानी कर चुके हो तो वह तुम्हें दर्दनाक अजाब देगा। न अंधे पर 
कोई गुनाह है और न लंगड़े पर कोई गुनाह है और न बीमार पर कोई गुनाह है। और 
जो शख्स अल्लाह और उसके रसूल की इताअत (आज्ञापालन) करेगा उसे अल्लाह ऐसे 


बाग्रों में दाखिल करेगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी। और जो शख्स रूगर्दानी करेगा 
उसे वह दर्दनाक अजाब देगा। (6-7) 





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जिन लोगों ने हुंदैबिया (6 हि०) के मौके पर कमजोरी दिखाई थी वे उसके नतीजे में 
मिलने वाले इनाम से तो महरूम रहे। मगर उनके लिए दरवाजा अब भी बंद न था। क्योंकि 
तौहीद की मुहिम को अभी दूसरे बड़े-बड़े मअरके पेश आने बाकी थे। फरमाया गया कि अगर 
तुमने आइंदा पेश आने वाले इन मौकों पर कुर्बानी का सुबूत दिया तो दुबारा तुम ख़ुदा की 
रहमतों के मुस्तहिक हो जाओगे। 

इस किस्म का इम्तेहान आदमी के मोमिन या मुनाफिक होने का फैसला करता है। इससे 
मुस्तसना (अपवाद) सिर्फ वे लोग हैं जिन्हें कोई वाकई उज्ज लाहिक हो। मजबूराना कोताही 
को अल्लाह माफ फरमा देता है। मगर जो कोताही मजबूरी के बगैर की जाए वह अल्लाह के 
यहां बिले माफी नहीं। 


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अल्लाह ईमान वालों से राजी हो गया जबकि वे तुमसे दरख्त के नीचे बैअत (प्रतिज्ञा) 
कर रहे थे, अल्लाह ने जान लिया जो कुछ उनके दिलों में था। पस उसने उन पर सकीनत 
(शाति) नाजिल फरमाई और उन्हें इनाम में एक करीबी फतह दे दी। और बहुत सी 
ग़नीमतें भी जिन्हें वे हासिल करेंगे। और अल्लाह जबरदस्त है, हिक्मत (तत्वदर्शिता) 
वाला है। और अल्लाह ने तुमसे बहुत सी ग़नीमतों का वादा किया है जिन्हें तुम लोगे, 
पस यह उसने तुम्हें फौरी तौर पर दे दिया। और लोगों के हाथ तुमसे रोक दिए और 
ताकि अहले ईमान के लिए यह एक निशानी बन जाए। और ताकि वह तुम्हें सीधे 
रास्ते पर चलाए। और एक फतह और भी है जिस पर तुम अभी कादिर नहीं हुए। 
अल्लाह ने उसका इहाता (आच्छादन) कर रखा है। और अल्लाह हर चीज पर कादिर 
है। (8-2) 


हुँदैबिया के सफर में एक मौकेपर यह ख़बर फैली कि कश ने हजरत उस्मान को कत्ल 
कर दिया जो उनके यहां रसूलुल्लाह के सफीर (संदेशवाहक) के तौर पर गए थे। यह एक 
जारिहियत का मामला था। चुनांचे अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कीकर के 
एक दरख़त के नीचे बैठकर अपने चौदह सौ असहाब से यह बैअत ली कि वे मर जाएंगे मगर 
दुश्मन को पीठ नहीं दिखाएंगे । इस्लाम की तारीख़ में इस बैअत का नाम वैअते रिजवान है। 
यह बैअत जिस मकाम पर ली गई वह मदीना से ढाई सौ मील और मक्का से सिर्फ बारह 
मील के फसले पर था। गोया मुसलमान अपने मकज से बहुत दूर थे और कैश अपने मर्कज 
से बहुत करीब। मुसलमान उमरे की नियत से निकले थे। इसलिए उनके पास महज सफरी 
सामान था, जबकि कूरश हर किस्म के जंगी सामान से मुसल्लह थे। ऐसे नाजुक मौके पर यह 
सिर्फ लोगों का जज्बए इख़्तास (निष्ठा-भाव) था जिसने उन्हें आमादा किया कि वे अल्लाह 
के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का साथ दें। क्योंकि कोई जाहिरी दबाव वहां सिरे से 
मौजूद ही न था। 
“अल्लाह ने उनके दिलों का हाल जाना और सकीनत नाजिल फरमाई' इससे मुराद वह 
रंज व इजतिराब (बेचैनी) है जो हुंदैबिया की बजाहिर यकतरफा सुलह से सहाबा के दिलों में 
पैदा हुआ था। ताहम उन्होंने खुदा के इस हुक्म को सब्र व सुकून के साथ कुबूल कर लिया। 
इसके नतीजे में चन्द माह बाद ही उसके फायदे जाहिर होना शुरू हो गए। इस मुआहिदे ने 
क्रैश को यहूद के महाज से अलग कर दिया और इस तरह यहूद को मुसख़वर करना आसान 
हो गया। जंगी हालात ख़त्म होने की वजह से इस्लाम की इशाअत बहुत तेजी से बढ़ी, यहां 











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सूरह 48. अल-फतह 357 पारा 26 
तक कि ख़ुद कुरैश को दावत की राह से मुसख़्र (विजित) कर लिया गया जिन्हें जंग की राह 
से मुसख्ख़र करना मुश्किल बना हुआ था। 


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और अगर ये मुंकिर लोग तुमसे लड़ते तो जरूर पीठ फेरकर भागते, फिर वे न कोई 
हिमायती पाते और न मददगार। यह अल्लाह की सुन्नत (तरीका) है जो पहले से चली 
आ रही है। और तुम अल्लाह की सुन्नत में कोई तब्दीली न पाओगे। और वही है 
जिसने मक्का की वादी में उनके हाथ तुमसे और तुम्हारे हाथ उनसे रोक दिए। बाद 


इसके कि तुम्हें उन पर काबू दे दिया था। और अल्लाह तुम्हारे कामों को देख रहा है। 
(22-24) 








पैगम्बर के मुखातबीने अव्वल के लिए ख़ुदा का कानून यह है कि उनके इंकार के बाद 
वह उन्हें हलाक कर देता है। हुंदैबिया के मौके पर कुंरेश का इंकार आख़िरी तौर पर सामने 
आ गया था। ऐसी हालत में अगर जंग की नौबत आती तो मुसलमानों की तक्वियत 
(सशक्तता) के लिए ख़ुदा के फरिश्ते उतरते और वे मुसलमानों का साथ देकर उनके दुश्मनों 
का खात्मा कर देते। 

मगर मुश्रिकीन के सिलसिले में अल्लाह की मस्लेहत यह थी कि उन्हें हलाक न किया जाए। 
बल्कि उनकी गैर मामूली इंसानी सलाहियतों को इस्लाम के मकसद के लिए इस्तेमाल किया जाए। 
इसलिए अल्लाह तआला ने अपने पैगम्बर को नाजंग मुआहिदे की तरफ रहनुमाई फरमाई। 


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वही लोग हैं जिन्होंने कुफ्र किया और तुम्हें मस्जिदे हराम से रोका और कुर्बानी के 

जानवरों को भी रोके रखा कि वे अपनी जगह पर न पहुंचें। और अगर (मक्का में) बहुत 


से मुसलमान मर्द और मुसलमान औरतें न होतीं जिन्हें तुम लाइल्मी में पीस डालते, फिर 
उनके कारण तुम पर बेख़बरी में इल्जाम आता, ताकि अल्लाह जिसे चाहे अपनी रहमत 








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पारा 26 I358 सूरह-48. अल-फतह 
में दाखिल करे। और अगर वे लोग अलग हो गए होते तो उनमें जो मुंकिर थे उन्हें हम 
दर्दनाक सजा देते। (25) 


कुंरेश के सरदारों ने पैगम्बर के खिलाफ अपनी दुश्मनाना हरकतों से अपने आपको 
अजाब का मुस्तहिक बना लिया था और इस काबिल बना लिया था कि उनसे जंग की जाए। 
मगर एक अजीमतर मस्लेहत की ख़ातिर उनसे जंग के बजाए सुलह कर ली गई। वह मस्लेहत 
यह थी कि इस वक्त क्रैश की जमाअत में बहुत से दूसरे लोग भी थे जो या तो अपने दिल 
में शिक से तौबा करके तौहीद पर ईमान ला चुके थे या ऐसे लोग थे जिनकी सालिहियत 
(सज्जनता) की बिना पर यकीनी था कि हालात के मोअतदिल (नॉर्मल) होते ही वे इस्लाम 
कुबूल कर लेंगे। इसलिए अल्लाह तआला ने दोनों फरीकों के दर्मियान जंग न होने दी। ताकि 
वे लोग मोमिन बनकर दुनिया में अपना इस्लामी हिस्सा अदा करें और आख़िरत में ख़ुदा का 
इनाम हासिल करें। अल्लाह की नजर में हर दूसरी मस्लेहत के मुकाबले में दावत की मस्लेहत 
ज्यादा अहमियत रखती है। 


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जब इंकार करने वालों ने अपने दिलों में हमिय्यत (हट) पैदा की, जाहिलियत की 
हमिय्यत, फिर अल्लाह ने अपनी तरफ से सकीनत (शांति) नाजिल फरमाई अपने रसूल 
पर और ईमान वालों पर, और अल्लाह ने उन्हें तकवा (ईशपरायणता) की बात पर 


जमाए रखा और वे उसके ज्यादा हकदार और उसके अहल थे। ओर अल्लाह हर चीज 
का जानने वाला है। (26) 








जिस आदमी के अंदर अल्लाह का डर पैदा हो जाए उसके दिल से एक अल्लाह के सिवा 
हर दूसरी चीज की अहमियत निकल जाती है। वह सिफ एक अल्लाह को सारी अहमियत देने 
लगता है। हुंदैबिया का मौका सहाबा के लिए इसी किस्म का एक शदीद इम्तेहान था जिसमें 
वे पूरे उतरे। इस मौके पर फरीके सानी (प्रतिपक्ष) ने जाहिलाना जिद और कैमी अस्वियत 
का जबरदस्त मुजाहिरा किया। मगर सहाबा हर चीज को खुदा के ख़ाने में डालते चले गए। 
उनके मुत्तकियाना मिजाज ने उन्हें इस सख्त इम्तेहान में जवाबी जिद और जवाबी अस्बियत 
से बचाया। वे मुसलसल इश्तिआलअंगेजी के बावजूद आख़िर वक्त तक मुशतइल नहीं हुए 


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सूरह48. अलऱ्फतह I359 पारा 26 


बेशक अल्लाह ने अपने रसूल को सच्चा ख़्वाब दिखाया जो वाकया के अनुसार है। 
बेशक अल्लाह ने चाहा तो तुम मस्जिदे हराम में जरूर दाखिल होगे, अम्न के साथ, बाल 
मूंडते हुए अपने सरों पर और कतरते हुए, तुम्हें कोई अंदेशा न होगा। पस अल्लाह ने 
वह बात जानी जो तुमने नहीं जानी, पस इससे पहले उसने एक फतह (विजय) दे दी। 
(27) 


हुंदैबिया का सफर अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के एक ख्याब पर हुआ 
था । आपने मदीना में ख़ाब देखा कि आप मक्का पहुंच कर उमरा अदा फरमा रहे हैं। इस ख़्वाब 
को लोगों ने खुदा की बिशारत समझा और मदीना से मक्का के लिए रवाना हुए । मगर हुदैबिया 
में कुंरेश ने रोका और बिलआखिर उमरा अदा किए बगैर लोगों को वापस आना पड़ा। इससे कुछ 
लोगों को ख्याल हुआ कि क्या पैगम्बर का ख़्वाब सच्चा न था। मगर यह महज शुबह था। 
क्योंकि ख़्वाब में यह सराहत न थी कि उमरा इसी साल होगा। चुनांचे खुद मुआहिदे की शराइत 
के मुताबिक अगले साल जीकअदह सन्‌ 7 हि० में यह उमरा पूरे अम्न व अमान के साथ अदा 
किया गया। इस उमरे को इस्लामी तारीख़ में उमरतुल कजा कहा जाता है। 

इस साल उमरा का इल्तिवा (स्थगन) एक अजीम मस्लेहत की कीमत पर हुआ था। यह 
मस्लेहत कि इसके जरिए कुंरेश से दस साल का नाजंग मुआहिदा तै पाया और नतीजतन 
दावत के काम के लिए मुवाफिक फज पैदा हुई। यह खुद एक फतह थी। क्येंकि इसके 
जरिए से अलमबरदारे शिर्क (बहुदेववाद के ध्वजावाहकों) के ऊपर आखिरी और कुल्ली फतह 
का दरवाजा खुला। 


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और अल्लाह ही है जिसने अपने रसूल को हिदायत और दीने हक के साथ भेजा ताकि 
वह इसे तमाम दीनों पर ग़ालिब कर दे। और अल्लाह काफी गवाह है। (28) 








अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की दो हैसियतें थीं। एक यह कि आप 
पैगम्बर थे। दूसरे यह कि आप पेग़म्बर आखिरुज्जमां (अंतिम पैगम्बर) थे। आपके बाद कोई 
और पेग़म्बर आने वाला नहीं। पहली हैसियत के एतबार से आपको भी वही काम करना था 
जो तमाम पैग़म्बरों ने किया, यानी तौहीद का एलान और आख़िरत का इंजार व तबशीर 
(डरावा और खुशखबरी) 

दूसरी हैसियत का मामला मुख़्तलिफ था। दूसरी हैसियत के एतबार से आपके जरिए वे 
तारीख़ी हालात पैदा करना मत्लूब था जो किताबे इलाही और सुन्नते नबवी की हिफाजत की 
जमानत बन जाएं। ताकि दुबारा वह ख़ला (रिक्तता) पैदा न हो जिसके नतीजे में पैगम्बर 
भेजना जरूरी हो जाता है। इस दूसरे पहलू का तकाजा था कि आपकी दावत सिर्फ 'एलान' 


पारा 26 360 सूरह 48. अल-फतह 

पर ख़त्म न हो बल्कि वह 'इंकिलाब' तक पहुंचे। इंकिलाब से मुराद आलमी तारीख़ में वह 
तब्दीली पैदा करना है जिसके बाद वे हालात हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएं जिनकी वजह से 
बार-बार ख़ुदा की हिदायत मादूम (विलुप्त) या तब्दील हो गई और इसकी जरूरत पेश आई 
कि नया पैग़म्बर आकर दुबारा हिदायत को असली सूरत में जिंदा करे 


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मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं और जो लोग उनके साथ हैं वे मुंकिरों पर सख्त हैं और 
आपस में महरबान हैं तुम उन्हें रुकूअ में और सज्दे में देखोगे, वे अल्लाह का फज्ल और 
उसकी रिजामंदी की तलब में लगे रहते हैं। उनकी निशानी उनके चेहरों पर है सज्दे 
के असर से, उनकी यह मिसाल तौरात में है। और इंजील में उनकी मिसाल यह है कि 
जैसे खेती, उसने अपना अंकुर निकाला, फिर उसे मजबूत किया, फिर वह और मोटा 
हुआ, फिर अपने तने पर खड़ा हो गया, वह किसानों को भला लगता है ताकि उनसे 


मुंकिरों को जलाए। उनमें से जो लोग ईमान लाए और नेक अमल किया अल्लाह ने 
उनसे माफी का और बड़े सवाब का वादा किया है। (29) 


पैगम्बरे इस्लाम को एक अजीम तारीख़ी किरदार अदा करना था जिसे कुरआन में इज्हारे 
दीन कहा गया है। इस तारीख़ी किरदार के लिए आपको आला इंसानों की एक जमाअत 
दरकार थी। यह जमाअत हजरत इस्माईल को अरब के सहरा में आबाद करके ढाई हजार 
साल के अंदर तैयार की गई। यह एक हकीकत है कि बनू इस्माईल का यह गिरोह तारीख़ 
का जानदारतरीन गिरोह था। उनकी यह बिलकु्वह (?०९॥४।०!) सलाहियत जब कुरआन से 
फैजयाब हुई तो प्रोफेसर मारगोलेथ के अल्फाज में अरब की यह कैम हीरोज़ (नायको) की 
एक वै (A nation of heroes) में तब्दील हो गई । इस गिरोह की अहमियत ख़ुदा की 
नजर में इतनी ज्यादा थी कि उनके बारे में उसने पेशगी तौर पर अपने पैग़म्बरों को बाखबर 
कर दिया था। चुनांचे तौरात में उनकी इंफिरादी (व्यक्तिगत) ख़ुसूसियत दर्ज कर दी गई थी 
और इंजील में उनकी इज्तिमाई (सामूहिक) ख़ुसूसियत। 

इस गिरोह के फर्द-फर्द की यह ख़ुसूसियत बताई कि वे मुंकिरों के लिए सख्त और 
मोमिनों के लिए नर्म हैं। यानी उनका रवैया उसूल के तहत मुतअस्यन होता है न कि महज 


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सूरह-49. अल-हुजुरात 36] पारा 26 


ख्याहिशात और जज्वात के तहत। शाह अब्दुल कादिर साहब इसकी तशरीह में लिखते हैं 'जो 
तुंदी और नर्मी अपनी खू (स्वभाव) हो वह सब जगह बराबर चले और जो ईमान से संवर कर 
आए वह तुंदी अपनी जगह और नर्मी अपनी जगह” इसी तरह उनके अफराद का मिजाज यह 
है कि वे ख़ुदा के आगे झुकने वाले और उसकी इबादत और जिक्र में लगे रहने वाले हैं। खुदा 
की तरफ उनकी तवज्जोह इतनी बढ़ी हुई है कि उसका निशान उनके चेहरों पर नुमायां हो 
रहा है। असहाबे रसूल की ये सिफात इस तफ्सील के साथ मौजूदा मुहर्रफ (परिवर्तित) तौरात 
में नहीं मिलतीं। ताहम किताब इस्तसना (बाब 33) में कुदसियों ($275) कलम्उबि 
तक मौजूद है। 

अलबत्ता इंजील की पेशीनगोई आज भी मरकिस (बाब 4) और मत्ता (बाब ]3) में मौजूद 
है। यह तमसील की जबान में इस बात का एलान है कि इस्लाम की दावत एक पौधे की तरह 
मक्का से शुरू होगी। फिर वह बढ़ते-बढ़ते एक ताकतवर दरख़्त बन जाएगी। यहां तक कि 
उसका इस्तहकाम इस दर्जे को पहुंच जाएगा कि अहले हक उसे देखकर खुश होंगे और अहले 
बातिल गेज व हसद में मुब्तिला होंगे कि वे चाहने के बावजूद उसका कुछ बिगाड़ नहीं सके। 


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(मदीना में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
ऐ ईमान वालो, तुम अल्लाह और उसके रसूल से आगे न बढ़ो, और अल्लाह से डरो, 
बेशक अल्लाह सुनने वाला, जानने वाला है। (॥) 











रसूल की राय से अपनी राय को ऊपर करना हराम है। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु 
अलैहि व सल्लम की जिंदगी में इसकी सूरत यह थी कि मज्लिस में गुफ्तगू करते हुए कोई 
बढ़-बढ़कर बातें करे, वह आपकी बात पर अपनी बात को मुकदृदम करना चाहे। बाद के 
जमाने में इसका मतलब यह है कि आदमी ख़ुदा व रसूल की दी हुई हिदायत से आजाद होकर 
अपनी राय कायम करने लगे। 

इस किस्म की गफलत हमेशा इसलिए होती है कि आदमी यह भूल जाता है कि अल्लाह 
उसके ऊपर निगरां है। अगर वह जाने कि उसके मुंह से निकली हुई आवाज इंसानों तक 
पहुंचने से पहले अल्लाह तक पहुंच रही है तो आदमी की जबान रुक जाए, वह बोलने से 


पारा 26 362 सूरह-49. अल-हुजुरात 


ज्यादा चुप रहने को अपने लिए पसंद करने लगे। 

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ऐ ईमान वालो, तुम अपनी आवाजें पेग़म्बर की आवाज से ऊपर मत करो और न उसे 

इस तरह आवाज देकर पुकारो जिस तरह तुम आपस में एक दूसरे को पुकारते हो। कहीं 
ऐसा न हो कि तुम्हारे आमाल बर्बाद हो जाएं और तुम्हें ख़बर भी न हो। जो लोग 
अल्लाह के रसूल के आगे अपनी आवाजें पस्त रखते हैं वही वे लोग हैं जिनके दिलों 
को अल्लाह ने तकवे (ईशपरायणता) के लिए जांच लिया है। उनके लिए माफी है और 

बड़ा सवाब है। जो लोग तुम्हें हुजरों कमरों के बाहर से पुकारते हैं उनमें से अक्सर समझ 
नहीं रखते। और अगर वे सब्र करते यहां तक कि तुम खुद उनके पास निकल कर आ 
जाओ तो यह उनके लिए बेहतर होता। और अल्लाह बर्शने वाला, महरबान है। (2-5) 


अतराफे मदीना के देहाती कबीले शुऊरी एतबार से ज्यादा पुख्ता न थे। उनके सरदारों 
का हाल यह था कि वे अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की मज्लिस में आते तो 
आपको मुख़ातब करते हुए या रसूलल्लाह कहने के बजाए या मुहम्मद कहते। उनकी गुफ्तगू 
मुतवाजआना (विनम्र शालीन) न होती बल्कि मुतकब्बिराना (घमंडपूर्ण) होती । इससे उन्हें मना 
किया गया। रसूल दुनिया में खुदा का नुमाइंदा होता है। उसके सामने इस तरह की 
नाशाइस्तगी (अभद्रता) खुदा के सामने नाशाइस्तगी है जो कि आदमी को बिल्कुल बेकीमत 
बना देने वाली है। 

अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की वफात के बाद आपकी लाई हुई 
हिदायत दुनिया में आपकी कायम मकाम (स्थानापन्न) है। अब इस हिदायत के साथ वही 
ताबेदारी मत्लूब है जो ताबेदारी रसूल की जिंदगी में रसूल की जात के साथ मत्लूब होती थी। 

अल्लाह का डर आदमी को संजीदा बनाता है। किसी के दिल में अगर वाकेयतन अल्लाह 
का डर पैदा हो जाए तो वह ख़ुद अपने मिजाज के तहत वे बातें जान लेगा जिसे दूसरे लोग 
बताने के बाद भी नहीं जानते। 








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सूरह-49. अल-हुजुरात 363 पारा 26 
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ऐ ईमान वालो, अगर कोई फासिक (अवज्ञाकारी) तुम्हारे पास ख़बर लाए तो तुम अच्छी 
तरह तहकीक कर लिया करो, कहीं ऐसा न हो कि तुम किसी गिरोह को नादानी से 
कोई नुक्सान पहुंचा दो, फिर तुम्हें अपने किए पर पछताना पड़े। और जान लो कि 
तुम्हारे दर्मियान अल्लाह का रसूल है। अगर वह बहुत से मामलात में तुम्हारी बात मान 
ले तो तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओ। लेकिन अल्लाह ने तुम्हें ईमान की मुहब्बत दी 
और उसे तुम्हारे दिलों में मसू (प्रिय) बना दिया, और कुफ्र और फिस्क (अवज्ञा) और 
नाफरमानी से तुषं मुतनपिफर (खिन्न) कर दिया। ऐसे ही लोग अल्लाह के फल और 


इनाम से राहेरास्त (सन्मार्ग) पर हैं। और अल्लाह जानने वाला, हिक्मत (तत्वदर्शिता) 
वाला है। (6-8) 








कोई आदमी दूसरे शख्स के बारे में अगर ऐसी ख़बर दे जिसमें उस शख्स पर कोई 
इल्जाम आता हो तो ऐसी ख़बर को महज सुनकर मान लेना ईमानी एहतियात के सरासर 
खिलाफ है। सुनने वाले पर लाजिम है कि वह इसकी जरूरी तहकीक करे, और जो राय कयम 
करे गैर जानिबदाराना (निष्पक्ष) तहकीक के बाद करे न कि तहकीक से पहले। 

अक्सर ऐसा होता है कि जब इस किस्म की ख़बर एक शख्स को मिलती है तो उसके 
साथी फौरन उसके खिलाफ इक्दाम की बातें करने लगते हैं। यह सख्त गैर जिम्मेदारी की बात 
है। न किसी आदमी को ऐसी ख़बर पर तहकीक से पहले कोई राय कायम करना चाहिए और 
न उसके साथियों को तहकीक से पहले इक्दाम का मश्विरा देना चाहिए। 

जो लोग वाकई हिदायत के रास्ते पर आ जाएं उनके अंदर बिल्कुल मुख्ञलिफ मिजाज 
पैदा होता है। दूसरों पर इल्जाम तराशी से उन्हें नफरत हो जाती है। गैर तहकीकी बात पर 
बोलने से ज्यादा वे उस पर चुप रहना पसंद करते हैं। उनका यह मिजाज इस बात की 
अलामत होता है कि उन्हें खुदा की रहमतों में से हिस्सा मिला है। वह ईमान फिलवाकअ 
उनकी जिंदगियों में उतरा है जिसका वे अपनी जबान से इकरार कर रहे हैं। 


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पारा 26 364 सूरह-49. अल-हुजुरात 
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और अगर मुसलमानों के दो गिरोह आपस में लड़ जाएं तो उनके दर्मियान सुलह 
कराओ। फिर अगर उनमें का एक गिरोह दूसरे गिरोह पर ज्यादती करे तो उस गिरोह 

से लड़ो जो ज्यादती करता है। यहां तक कि वह अल्लाह के हुक्म की तरफ लौट आए। 

फिर अगर वह लौट आए तो उनके दर्मियान अदूल (न्याय) के साथ सुलह कराओ और 
इंसाफ करो, बेशक अल्लाह इंसाफ करने वालों को पसंद करता है। मुसलमान सब भाई 

हैं, पस अपने भाइयों के दर्मियान मिलाप कराओ और अल्लाह से डरो, ताकि तुम पर 
रहम किया जाए। (9-0) 


मुसलमान आपस में किस तरह रहें, इसका जवाब एक लफ्ज में यह है कि वे इस तरह 
रहें जिस तरह भाई-भाई आपस में रहते हैं। दीनी रिश्ता खूनी रिश्ते से किसी तरह कम नहीं। 
अगर दो मुसलमान आपस में लड़ जाएं तो बकिया मुसलमानों को हरगिज ऐसा नहीं करना 
चाहिए कि वे उनके दर्मियान मजीद आग भड़काएं। बल्कि उन्हें भाइयों वाले जज्बे के तहत 
दोनों के दर्मियान मुसालिहत के लिए उठ जाना चाहिए। 

दो मुसलमान जब आपस में लड़ें तो एक सूरत यह है कि बकिया मुसलमान गैर 
जानिबदार (निष्पक्ष) बन जाएं। या अगर वे दख़ल दें तो इस तरह कि ख़ानदानी और गिरोही 
अस्बियत के तहत 'अपनों' से मिलकर गीरों' से लड़ने लगें। ये तमाम तरीके इस्लाम के 
खिलाफ हैं। सही इस्लामी तरीका यह है कि असल मामले की तहकीक की जाए और जो शख्स 
हक पर हो उसका साथ दिया जाए और जो शख्स नाहक पर हो उसे मजबूर किया जाए कि 
वह मामले के मुसिफना फैसले पर राजी हो। 

अल्लाह से डरने वाला आदमी कभी ऐसा नहीं हो सकता कि वह दूसरों को लड़ते हुए 
देखकर उससे लज्जत ले। वह ऐसे मंजर देखकर तड़पेगा । उसका मिजाज उसे मजबूर करेगा कि 
वह दोनों के दर्मियान तअल्लुकात को दुरुस्त कराने की कोशिश करे । यही वे लोग हैं जिनके लिए 
अल्लाह पर ईमान अल्लाह की रहमतों का दरवाजा खोलने का सबब बन जाता है। 


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सूरह-49. अल-हुजुरात 365 पारा 26 


ऐ ईमान वालो, न मर्द दूसरे मर्दों का मजाक उड़ाएं, हो सकता है कि वे उनसे बेहतर 
हों। और न औरतें दूसरी औरतों का मजाक उड़ाए, हो सकता है कि वे उनसे बेहतर 
हों। और न एक दूसरे को ताना दो और न एक दूसरे को बुरे लकब से पुकारो। ईमान 
लाने के बाद गुनाह का नाम लगना बुरा है। और जो बाज न आएं तो वही लोग जालिम 
हैं। (।]) 





हर आदमी के अंदर पैदाइशी तौर पर बड़ा बनने का जज्बा छुपा हुआ है। यही वजह है 
कि एक शख्स को दूसरे शख्स की कोई बात मिल जाए तो वह उसे ख़ूब नुमायां करता है 
ताकि इस तरह अपने को बड़ा और दूसरे को छोटा साबित करे। वह दूसरे का मजाक उड़ाता 
है, वह दूसरे पर ऐब लगाता है, वह दूसरे को बुरे नाम से याद करता है ताकि उसके जरिए 
से अपने बड़ाई के जज्बे की तस्कीन हासिल करे। 

मगर अच्छा और बुरा होने का मेयार वह नहीं है जो आदमी बतौर ख़ुद मुक्रर करे। 
अच्छा दरअस्ल वह है जो ख़ुदा की नजर में अच्छा हो और बुरा वह है जो ख़ुदा की नजर में 
बुरा ठहरे। अगर आदमी के अंदर फिलवाकअ इसका एहसास पैदा हो जाए तो उससे बड़ाई 
का जज्बा छिन जाएगा। दूसरे का मजाक उड़ाना, दूसरे को ताना देना, दूसरे पर ऐब लगाना, 
दूसरे को बुरे लकब से याद करना, सब उसे बेमअना मालूम होने लगेंगे। क्योंकि वह जानेगा 
कि लोगों के दर्जे व मर्तबे का असल फैसला ख़ुदा के यहां होने वाला है। फिर अगर आज मैं 
किसी को हवीर (तुच्छ) समझूं और आखिरित की हवीकी दुनिया मेवह बाइज्जत कार पाए 
तो मेरा उसे हकीर समझना किस कद्र बेमअना होगा। 


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ऐ ईमान वालो, बहुत से गुमानों से बचो, क्योंकि कुछ गुमान गुनाह होते हैं। और टोह 
में न लगो। और तुम में से कोई किसी की ग़ीबत (पीठ पीछे बुराई) न करे। क्या तुम 
में से कोई इस बात को पसंद करेगा कि वह अपने मरे हुए भाई का गोश्त खाए, इसे 
तुम खुद नागवार समझते हो। और अल्लाह से डरो। बेशक अल्लाह माफ करने वाला, 
रहम करने वाला है। (।2) 





एक आदमी किसी शख्स के बारे में बदगुमान हो जाए तो उसको हर बात उसे ग़लत 
मालूम होने लगती है। उसके बारे में उसका जेहन मंफी रुख़ पर चल पड़ता है। उसकी खूबियों 
से ज्यादा वह उसके ऐब तलाश करने लगता है। उसकी बुराइयों को बयान करके उसे बेइज्जत 


पारा 26 366 
करना उसका महबूब मशग़ला बन जाता है। 
अक्सर समाजी ख़राबियों की जड़ बदगुमानी है। इसलिए जरूरी है कि आदमी इस 
सिलसिले में चौकन्ना रहे। वह बदगुमानी को अपने जेहन में दाखिल न होने दे। 
आपको किसी से बदगुमानी हो जाए तो आप उससे मिलकर गुफ्तगू कर सकते हैं। मगर 
यह सख्त गैर अख़्ताकी फेअल है कि किसी की गैर मौजूदगी में उसे बुरा कहा जाए जबकि 
वह अपनी सफाई के लिए वहां मौजूद न हो। वक्ती तौर पर कभी आदमी से इस किस्म की 
गलतियां हो सकती हैं। लेकिन अगर वह अल्लाह से डरने वाला है तो वह अपनी गलती पर 
ढीठ नहीं होगा। उसका ख़ौफे खुदा उसे फौरन अपनी गलती पर मुतनब्बह (सचेत) कर देगा, 
वह अपनी रविश को छोड़कर अल्लाह से माफी का तालिब बन जाएगा। 


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ऐ लोगो, हमने तुम्हें एक मर्द और एक औरत से पैदा किया। और तुम्हें कौमों और 
ख़ानदानों में तक्सीम कर दिया ताकि तुम एक दूसरे को पहचानो। बेशक अल्लाह के 
नजदीक तुम मे सबसे यादा इन्त वाला वह है जो सबसे यादा परहेजगार है। केशक 

अल्लाह जानने वाला, ख़बर रखने वाला है। (।3) 


सूरह-49. अल-हुजुरात 





इंसानों के दर्मियान मुरन्नलिफ किस्म के फर्क हेते हैं। कोई सफेद है और कोई काला। 
कोई एक नस्ल से है और कोई दूसरी नस्ल से। कोई एक जुगराफिया (भौगोलिक क्षेत्र) से 
तअनल्लुक रखता है और कोई दूसरे जुगराफिया से। ये तमाम फर्क सिर्फ तआरुफ (परिचय) 
के लिए हैं न कि इम्तियाज (विशिष्टता) के लिए। अक्सर ख़राबियों का सबब यह होता है 
कि लोग इस किस्म के फर्क की बिना पर एक दूसरे के दर्मियान फर्क करने लगते हैं। इससे 
वह तफरीक व तअस्सुब (विभेद एवं विद्वेष) वजूद में आता है जो कभी ख़त्म नहीं होता। 
इंसान अपने आगाज के एतबार से सबके सब एक हैं। उनमें इम्तियाज की अगर कोई 
बुनियाद है तो वह सिर्फ यह है कि कौन अल्लाह से डरने वाला है और कौन अल्लाह से डरने 
वाला नहीं। और इसका भी सही इल्म सिर्फ ख़ुदा को है न कि किसी इंसान को। 


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सूरह-49. अल-हुजुरात I367 पारा 26 


देहाती कहते हैं कि हम ईमान लाए, कहो कि तुम ईमान नहीं लाए, बल्कि यूं कहो 
कि हमने इस्लाम कुबूल किया, और अभी तक ईमान तुम्हारे दिलों में दाखिल नहीं 
हुआ। और अगर तुम अल्लाह और उसके रसूल की इताअत (आज्ञापालन) करो तो 
अल्लाह तुम्हारे आमाल में से कुछ कमी नहीं करेगा। बेशक अल्लाह बख़्शने वाला, रहम 
करने वाला है। मोमिन तो बस वे हैं जो अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाए फिर 
उन्होंने शक नहीं किया और अपने माल और अपनी जान से अल्लाह के रास्ते में जिहाद 
(जदूदोजहद) किया, यही सच्चे लोग हैं। (4-5) 


मदीना के अतराफ में कई छोटे-छोटे कबीले थे। ये लोग हिजरत के बाद इस्लाम में 
दाखिल हो गए मगर उनका इस्लाम किसी गहरे जेहनी इंकिलाब का नतीजा न था। अल्लाह 
की नजर में इस्लाम पर ईमान लाने वाला वह है जो इस्लाम को एक ऐसी हकीकत के तौर 
पर पाए जो उसके दिल की गहराइयों में उतर जाए। जो लोग इस तरह ख़ुदा के दीन को 
कुबूल करेंवे एक लाजवाल यकीन को पा लेते है। वे कुर्बानी की हद तक उस पर कायम रहने 
के लिए तैयार रहते हैं। 

आदमी कोई अच्छा काम करे तो वह उसका इज्हार करना जरूरी समझता है। हालांकि 
इस किस्म का इप्हार उसके अमल को बातिल कर देने वाला है। अच्छा अमल हकीकतन वह 
है जो अल्लाह के लिए किया जाए। फिर अल्लाह जब ख़ुद हर बात को जानता है तो उसके 
एलान व इसार की क्या जरूरत। 

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कहो, क्या तुम अल्लाह को अपने दीन से आगाह कर रहे हो। हालांकि अल्लाह 
जानता है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ जमीन में है। और अल्लाह हर चीज 
से बाख़बर है। ये लोग तुम पर एहसान रखते हैं कि उन्होंने इस्लाम कुबूल किया 
है। कहो कि अपने इस्लाम का एहसान मुझ पर न रखो, बल्कि अल्लाह का तुम पर 
एहसान है कि उसने तुम्हें ईमान की हिदायत दी। अगर तुम सच्चे हो। बेशक 


अल्लाह आसमानों और जमीन की छुपी बातों को जानता है। और अल्लाह देखता 
है जो कुछ तुम करते हो। (6-8) 











कोई शख्स इस्लाम में दाखिल हो या उसके हाथ से कोई इस्लामी काम अंजाम पाए तो 


पारा 26 368 र) का 
उसे समझना चाहिए कि यह अल्लाह की मदद से हुआ है। ईमान और अमल सबका इंहिसार 
अल्लाह की तौफीक पर है। इसलिए जब भी किसी को किसी खैर की तौफीक मिले तो वह 
अल्लाह का शुक्र अदा करे। 

इसके बजाए अगर वह अपने हममजहबों पर इसका एहसान जताने लगे तो गोया वह 
जबानेहाल से कह रहा है कि यह काम मैंने अल्लाह को दिखाने के लिए नहीं किया था बल्कि 
इंसानों को दिखाने के लिए किया था। खुदा हर चीज से बराहेरास्त वाकफियत रखता है, जो 
शख्स ख़ुदा के लिए अमल करे उसे यकीन रखना चाहिए कि उसका ख़ुदा उसके अमल को 
बताए बगैर देख रहा है। 


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(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
काफ>। क्सम है बाअमत कुआन की। बल्कि उन्हें तअज्जुब हुआ कि उनके पास 
उन्हीं में से एक डराने वाला आया, पस मुंकिरों ने कहा कि यह तअज्जुब की चीज है। 
क्या जब हम मर जाएंगे और मिट्टी हो जाएंगे, यह दुबारा जिंदा होना बहुत बईद (दूर 
की बात) है। हमें मालूम है जितना जमीन उनके अंदर से घटाती है और हमारे पास 


किताब है जिसमें सब कुछ महफूज है। बल्कि उन्होंने हक को झुठलाया है जबकि वह 
उनके पास आ चुका है, पस वे उलझन में पड़े हुए हैं। (-5) 








पेगम्बरों की तारीख़ बताती है कि उनके हमजमाना (समकालीन) लोग उन्हें मानने के 
लिए तैयार नहीं होते। अलबत्ता जब बाद का जमाना आता है तो लोग आसानी के साथ 
उनकी पेग़म्बराना हैसियत को तस्लीम कर लेते हैं। 

इसकी वजह यह है कि पैगम्बर अपने हमजमाना लोगों को 'अपने बराबर का एक शख्स” 
नजर आता है। यह बात उनके लिए तअज्जुबख़ेज बन जाती है कि जिस शख्स को वे अपने 
बराबर का समझे हुए थे वह अचानक बड़ा बनकर उन्हें नसीहत करने लगे। मगर बाद के 


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र) का 369 पारा 26 
जमाने में पैगम्बर के साथ अज्मतों की तारीख़ वाबस्ता हो चुकी होती है। इसलिए बाद के लोगों 
को वह “अपने से बरतर शख्स' दिखाई देने लगता है। यही वजह है कि बाद के जमाने में पैगम्बर 
की पेगम्बराना हैसियत को मानना लोगों के लिए मुश्किल नहीं होता। बअल्फाज दीगर, इन्तिदाई 
दौर के लोगों के सामने पैग़म्बर एक निजाई (विवादित) शख्सियत के रूप में होता है। और बाद 
के लोगों के सामने साबितशुदा शख्सियत के रूप में। दौरे अव्वल के लोगों को अपने और पैगम्बर 
के दर्मियान ख़ला (रिक्तता) को पुर करने के लिए शुऊरी सफर तै करना पड़ता है जबकि बाद 
के जमाने में यह ख़ला तारीख़ पुर कर चुकी होती है। 
जो लोग पैगम्बर की पैग़म्बरी पर शुबह कर रहे हों उनकी नजर में पैगम्बर की हर बात 
मुशतबह हो जाती है यहां तक कि वह बात भी जिसका अकीदा रिवायती तौर पर उनके यहां 
मौजूद होता है। ताहम ये बातें लोगों के लिए उज़ नहीं बन सकतीं। पैगम्बर को न मानने वाले 
अगर उसकी किताब की नाकाबिले तक्लीद (अद्वितीय) अदबी अज्मत पर गैर करें तो वे 
उसके लाने वाले को ख़ुदा का पैगम्बर मानने पर मजबूर हो जाएंगे। 
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क्या उन लोगों ने अपने ऊपर आसमान को नहीं देखा, हमने कैसा उसे बनाया और 
उसे रौनक दी और उसमें कोई दरार नहीं। और जमीन को हमने फैलाया और उसमें 
पहाड़ डाल दिए ओर उसमे हर किस्म की रौनक की चीज उगाई, समझाने को ओर याद 
दिलाने को हर उस बंदे के लिए जो रुजूअ करे। और हमने आसमान से बरकत वाला 
पानी उतारा, फिर उससे हमने बाग़ उगाए और काटी जाने वाली फसलें। और खजूरों 
के लम्बे दरख़्त जिनमें तह-ब-तह ख़ोशे लगते हैं, बंदों की रोजी के लिए। और हमने 


उसके जरिए से मुर्दा जमीन को जिंदा किया। इसी तरह जमीन से निकलना होगा। 
(6-I]) 








कायनात की मअनवियत, उसकी तख़्लीकी हिक्मत, उसका हर किस्म की कमी से ख़ाली 
होना, उसका इंसानी जरूरतों के ऐन मुताबिक होना, ये वाकेयात हर साहिबे अक्ल को 
गौरोफिक्र पर मजबूर करते हैं। और जो शख्स संजीदगी के साथ कायनात के निजाम पर गौर 
करे वह मख्नूकात के अंदर उसके ख़ालिक को पा लेगा। वह दुनिया के अंदर आख़िरत की 


3 


पारा 26 370 ससक 
झलक देख लेगा, क्योंकि आख़िरत की दुनिया दरअस्ल मौजूदा दुनिया ही का दूसरा लाजिमी रूप 
है। 


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उनसे पहले नूह की कौम और अर-रस वाले और समूद। और आद और फिरऔन 
और लूत के भाई और ऐका वाले और तुब्बअ की कौम ने भी झुठलाया। सबने 
पैग़म्बरों को झुठलाया, पस मेरा डराना उन पर वाकेअ होकर रहा। क्या हम पहली 


बार पेदा करने से आजिज रहे। बल्कि ये लोग नए सिरे से पेदा करने की तरफ से 
शुबह में हैं। (2-5) 





कुरआन ने तारीख़ का जो तसब्वुर पेश किया है, उसके मुताबिक यहां बार-बार ऐसा 
हुआ है कि पैग़म्बरों के इंकार के नतीजे में उनकी मुखातब कौमें हलाक कर दी गई। यहां 
उन्हीं हलाकशुदा कीमों में से कुछ कीमों का जिक्र बतौर मिसाल फरमाया गया है। कौमा की 
यह हिलाकत दरअस्ल आख़िरत का एक हिस्सा है। मुंकिरीने हक के लिए जो अजाब 
आख़िरत में मुकदूदर है उसका एक जुज इसी आज की दुनिया में दिखा दिया जाता है। 
दुनिया की पहली तख़्तीक (सृजन) उसकी दूसरी तख़्तीक के इम्कान को साबित कर रही 
है। अगर आदमी संजीदा हो तो आख़िरत को मानने के लिए इसके बाद उसे किसी और 
दलील की जरूरत नहीं। हर F Fe 
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और हमने इंसान को पेदा किया और हम जानते हैं उन बातों को जो उसके दिल में 
आती हैं। और हम रगे गर्दन से भी ज्यादा उससे करीब हैं। जब दो लेने वाले लेते रहते 


हैं जो कि दाई और बाई तरफ बैठे हैं। कोई लफ्ज वह नहीं बोलता मगर उसके पास 
एक मुस्तइद (चुस्त) निगरां (सतक निरीक्षक) मौजूद है। (6-8) 





दुनिया का मुतालआ बताता है कि यहां 'रिकॉडिंग' का नाकाबिले ख़ता (अचूक) निजाम 
मौजूद है। इंसान की सोच उसके जेहनी पर्दे पर हमेशा के लिए नवश हो रही है। इंसान का हर 
बोल हवाई लहरों की सूरत में मुस्तकिल तौर पर बाकी रहता है। इंसान का अमल हरारती लहरों 


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ससक I37] पारा 26 
के जरिए ख़ारजी वाह्य दुनिया में इस तरह महफूज हो जाता है कि उसे किसी भी वक्त दोहराया 

जा सके। येसब आज की मालूम हकीकतेंहैं। और ये मालूम हकीकतेंकुआन की इस ख़बर को 

काबिलेफहम बना रही हैंकि इंसान की नियत, उसका कौल और उसका अमल सब कुछ ख़लिक 

के इल्म में है। इंसान की हर चीज फरिश्तों के रजिस्टर में दर्ज की जा रही है। 


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और मौत की बेहोशी हक के साथ आ पहुंची। यह वही चीज है जिससे तू भागता था। 

और सूर फूंका जाएगा, यह डराने का दिन होगा। हर शख्स इस तरह आ गया कि उसके 
साथ एक हांकने वाला है और एक गवाही देने वाला। तुम उससे गफलत में रहे, पस 
हमने तुम्हारे ऊपर से पर्दा हटा दिया, पस आज तुम्हारी निगाह तेज है। और उसके 
साथ का फरिश्ता कहेगा, यह जो मेरे पास था हाजिर है। जहन्नम में डाल दो नाशुक्र, 
मुखालिफ को। नेकी से रोकने वाला, हद से बढ़ने वाला, शुबह डालने वाला। जिसने 
अल्लाह के साथ दूसरे माबूद (पूज्य) बनाए, पस उसे डाल दो सख्त अजाब में। उसका 
साथी शैतान कहेगा कि ऐ हमारे रब मैंने इसे सरकश नहीं बनाया बल्कि वह ख़ुद राह 
भूला हुआ, दूर पड़ा था। इर्शाद होगा, मेरे सामने झगड़ा न करो और मैंने पहले ही तुम्हें 
अजाब से डरा दिया था। मेरे यहां बात बदली नहीं जाती और मैं बंदों पर जुल्म करने 

वाला नहीं हूं। (9-29) 





इन आयात में मौत और उसके बाद कियामत का मंजर खींचा गया है। बताया गया है 
कि वहां उन लोगों पर क्या बीतेगी जो मौजूदा इम्तेहान की दुनिया में अपने को आजाद पाकर 
सरकश बने हुए थे। हकीकत यह है कि यह मंजरकशी इतनी भयानक है कि जिंदा आदमी 
को तड़पा देने के लिए काफी है। 


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जिस दिन हम जहन्नम से कहेंगे, क्या तू भर गई। और वह कहेगी कि कुछ और भी 
है। और जन्नत डरने वालों के करीब लाई जाएगी, कुछ दूर न रहेगी। यह है वह चीज 
जिसका तुमसे वादा किया जाता था, हर रुजूअ करने वाले और याद रखने वाले के 
लिए। जो शख्स रहमान से डरा बिना देखे और रुजूअ होने वाला दिल लेकर आया, 


दाखिल हो जाओ उसमें सलामती के साथ, यह दिन हमेशा रहेगा। वहां उनके लिए 
वह सब होगा जो वे चाहें, और हमारे पास मजीद (और भी) है। (30-35) 








ख़ुदा की अबदी जन्नत के मुस्तहिक कौन लोग हैं। ये वे लोग हैं जो दुनिया में अल्लाह 
के अजाब से डरते रहे। जो लोग बिना देखे डरे वही वे लोग हैं जो उस दिन डर और ग़म से 
महफूज रहेंगे जब डर लोगों की आंखों के सामने आ जाएगा। अल्लाह का ख़ैफ आदमी के 
अंदर जन्नत वाले औसाफ (गुण) पैदा करता है और अल्लाह से बेख़ौफी जहन्नम वाले 
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और हम उनसे पहले कितनी ही कौमा को हलाक कर चुके हैं, वे कुत (शक्ति) में 

उनसे ज्यादा थीं, पस उन्होंने मुल्कों को छान मारा कि है कोई पनाह की जगह। इसमें 
याददिहानी है उस शख्स के लिए जिसके पास दिल हो या वह कान लगाए मुतवज्जह 
होकर। (36-37) 





कौमें उभरती हैं और उरूज को पहुंच जाती हैं मगर जब वे अपनी बदआमाली के नतीजे 
में खुदा की जद में आती हैं तो उनका हाल यह होता है कि जमीन में कहीं कोई जगह नहीं 
होती जहां वे भाग कर पनाह ले सकें। तारीख़ के इन वाकेयात में जबरदस्त नसीहत है। मगर 
नसीहत वह शख्स लेगा जिसके अंदर या तो सोचने की सलाहियत जिंदा हो कि वह ख़ुद 
वाकेयात के ख़ामोश पेगाम को अख़ज (ग्रहण) कर सके। या उसके अंदर सुनने की सलाहियत 
जिंदा हो कि जब उसे बताया जाए तो वह उसके अंदरून तक बिला रोकटोक पहुंचे । 





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373 पारा 26 


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और हमने आसमानों और जमीन को और जो कुछ उनके दर्मियान है छः दिन में बनाया 
और हमें कुछ थकान नहीं हुई। पस जो कुछ वे कहते हैं उस पर सब्र करो और अपने 
रब की तस्बीह करो हम्द (प्रशंसा) के साथ, सूरज निकलने से पहले और उसके डूबने 
से पहले। और रात में उसकी तस्बीह करो और सज्दों के पीछे। (38-40) 


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जमीन व आसमान को छः दिनों, बअल्फाज दीगर छः दौरों में पैदा करना बताता है कि 
खुदा का तरीका तदरीजी (क्रमबद्ध) अमल का तरीका है। और जब खुदा सारी ताकतों का 
मालिक होने के बावजूद वाकेयात को तदरीज के साथ लम्बी मुदूदत में जुहूर में लाता है तो 
इंसान को भी चाहिए कि वह जल्दबाजी से बचे, वह साबिराना (धैर्यपूर्ण अमल के जरिए 
नतीजे तक पहुंचने की कोशिश करे। 

दावत (आह्वान) का अमल शरू से आखिरत तक सब्र का अमल है। इसमें इंसान की तरफ 
से पेश आने वाली तल्खियों को सहना पड़ता है। इसमें नतीजा सामने दिखाई न देने के बावजूद 
अपने अमल को जारी रखना पड़ता है। इस सब्रआजमा (धिर्यपरक) अमल पर वही शख्स कायम 
रह सकता है जिसके सुबह व शाम जिक्र व इबादत में गुजरते हों, जो इंसानों से न पाकर ख़ुदा 
से पा रहा हो, जो सब कुछ खोकर भी एहसासे महरूमी का शिकार न हो सके। 

हमें थकान नहीं हुई एक जिमनी (पूरक) फिकरा है। मौजूदा मुहरफ (परिवर्तित) 
बाइबल में है कि ख़ुदा ने छः दिनों में आसमान और जमीन को पैदा किया और सातवें दिन 
आराम किया । यह फिकरा इसी की तस्हीह व तरदीद है। आराम वह करता है जो थके। खुदा 
को थकान नहीं होती इसलिए उसे आराम करने की जरूरत भी नहीं। 


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और कान लगाए रखो कि जिस दिन पुकारने वाला बहुत करीब से पुकारेगा। जिस दिन 
लोग यकीन के साथ चिंघाड़ को सुनेंगे वह निकलने का दिन होगा। बेशक हम ही जिलाते 
हैं और हम ही मारते हैं और हमारी ही तरफ लोटना है। जिस दिन जमीन उन पर से खुल 


जाएगी, वे सब दौड़ते होंगे, यह इकट्ठा करना हमारे लिए आसान है। (4।-44) 


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पारा 26 374 सूछका 


कियामत की कोई तारीख़ मुरकर नहीं। किसी भी वक्‍त अल्लाह तआला का हुक्म होगा 
और इस्राफील सूर में फूंक मारकर उसकी अचानक आमद की इत्तला दे देंगे। 

जो लोग खुदा से गाफिल हैं वे कियामत को दूर की चीज समझते हैं। मगर जो सच्चा 
मोमिन है वह हर आन इस अंदेशे में रहता है कि कब सूर फूंक दिया जाए और कब कियामत 
आ जाए। सूर फूके जाने के बाद जमीन व आसमान का नक्शा बदल चुका होगा और तमाम 
लोग एक नई दुनिया में जमा किए जाएंगे ताकि अपने-अपने अमल के मुताबिक अपना अबदी 
(चिरस्थाई) अंजाम पा सकें। 


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हम जानते हैं जो कुछ ये लोग कह रहे हैं। और तुम उन पर जब्र करने वाले नहीं हो। 
पस तुम कुरआन के जरिए उस शख्स को नसीहत करो जो मेरे डराने से डरे। (45) 








कुरआन में बार-बार अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के बारे में इर्शाद हुआ 
है कि तुम्हारा काम सिर्फ पहुंचा देना है तुम्हारा काम लोगों को बदलना नहीं है। दूसरी तरफ 
कुरआन में एक से ज्यादा मकाम पर यह भी इर्शाद हुआ है कि खुदा तुम्हारे जरिए से दीने 
हक को तमाम दीनों पर गालिब करेगा। 

यह दो बात दरअस्ल पैग़म्बरे इस्लाम की दो मुख़्तलिफ हैसियतों के एतबार से है। आप 
एक एतबार से “अल्लाह के रसूल” थे। दूसरे एतबार से आप 'ख़ातमुन नबिय्यीन' (अंतिम 
नबी) थे। अल्लाह का रसूल होने की हैसियत से आपका काम वही था जो तमाम पैग़म्बरों का 
था। यानी अम्रे हक को लोगों तक पूरी तरह पहुंचा देना। मगर ख़ातमुन नबिय्यीन होने की 
हैसियत से अल्लाह तआला को यह भी मत्लूब था कि आपके जरिए से वे असबाब पैदा किए 
जाएं जो हिदायते इलाही को मुस्तकिल तौर पर महफूज कर दें। ताकि दुबारा पैगम्बर भेजने 
की जरूरत पेश न आए । आपकी इस दूसरी हैसियत का तकाजा था कि आपके जरिए से वह 
इंकिलाब लाया जाए जो शिक के गलबे (वर्चस्व) को ख़त्म कर दे और इस्लाम को एक ऐसी 
ग़ालिब कुब्बत की हैसियत से कायम कर दे जो हमेशा के लिए हिदायते इलाही की हिफाजत 
की जमानत बन जाए। 











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सूरह-5. अज॒-जारियात 

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सूरहऊ।. अज़्जारियात 
(मक्का में नाजिल हुई) 

शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
कसम है उन हवाओं की जो गर्द उड़ाने वाली हैं फिर वे उठा लेती हैं बोझ। फिर वे चलने 
लगती हैं आहिस्ता। फिर अलग-अलग करती हैं मामला। बेशक तुमसे जो वादा किया 
जा रहा है वह सच है। और बेशक इंसाफ होना जरूर है। कसम है जालदार आसमान 


की। बेशक तुम एक इख्तेलाफ (बिखराव, मत-भिन्नता) में पड़े हुए हो। उससे वही 
फिरता है जो फेरा गया। (-9) 


375 पारा 26 


आयतें-60 रुकूअ-3 


यहां बारिश के अमल की तस्वीरकशी की गई है। पहले तेज हवाएं उठती हैं। फिर 
मुख़्तलिफ मराहिल से गुजर कर वे बादलों को चलाती हैं। और फिर वे किसी गिरोह पर बाराने 
रहमत (सुखद वर्षा) बरसाती हैं और किसी गिरोह पर सैलाब की सूरत में तबाहकारियां लाती हैं। 
यह वाकया बताता है कि खुदा की इस दुनिया में 'तक्सीमे अग्र' का कानून है। यहां 
किसी को कम मिलता है और किसी को ज्यादा । किसी को दिया जाता है और किसी से छीन 
लिया जाता है। यह एक इशारा है जो बताता है कि मौत के बाद आने वाली दुनिया में इंसान 
के साथ क्या मामला पेश आने वाला है। वहां तक्सीमे अम्र का यह उसूल अपनी कामिल सूरत 
में नाफिज होगा। हर एक को हददर्जा इंसाफ के साथ वही मिलेगा जो उसे मिलना चाहिए 
और वह नहीं मिलेगा जिसे पाने का वह मुस्तहिक न था। 
आसमान में बेशुमार सितारे हैं। ये सबके सब अपने अपने मदार (कक्ष) में घूम रहे हैं। 
अगर उनकी मज्मूई तस्वीर बनाई जाए तो वह किसी ख़ानेदार जाल की मानिंद होगी। इस 
किस्म का हैरतनाक निजाम अपने अंदर गहरी मअनवियत का इशारा करता है। जो लोग 
अपनी अक्ल को इस्तेमाल करें वे उसमें सबक पाएंगे। और जो लोग अपनी अक्ल को 
इस्तेमाल न करें उनके लिए वह एक बेमअना रक्स (नृत्य) है जिसके अंदर कोई सबक नहीं। 


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मारे गए अटकल से बातें करने वाले। जो गफलत में भूले हुए हैं। वे पूछते हैं कि कब है 
बदले का दिन। जिस दिन वे आग पर रखे जाएंगे। चखो मजा अपनी शरारत का, यह है 
वह चीज जिसकी तुम जल्दी कर रहे थे। बेशक डरने वाले लोग बाग़ों में और चशमों 


(स्रोतों) में होंगे। ले रहे होंगे जो कुछ उनके रब ने उन्हें दिया, वे इससे पहले नेकी करने 


वाले थे। वे रातों को कम सोते थे। और सुबह के वक्‍्तों में वे माफी मांगते थे। और 


उनके माल में साइल (मांगने वाले) और महरूम (असहाय) का हिस्सा था। (0-9) 


किसी बात को समझने के लिए सबसे जरूरी शर्त संजीदगी है। जो लोग एक बात के 
मामले में संजीदा न हों वे उसके कराइन व दलाइल पर ध्यान नहीं देते, इसलिए वे उसे समझ 


भी नहीं सकते। वे उसका मजाक उड़कर यह जाहिर करते हैं कि वह इस काबिल ही नहीं 
कि उसे संजीदा ग़ौरोफिक्र का मौजूअ समझा जाए। ऐसे लोगों को मनवाना किसी तरह 
मुमकिन नहीं। वे सिर्फ उस वक्‍त एतराफ करे जबकि उनकी गलत रविश एक ऐसा अजाब 


बनकर उनके ऊपर टूट पड़े जिससे छुटकारा पाना किसी तरह उनके लिए मुमकिन न हो। 


संजीदा लोगों का मामला इससे बिल्कुल मुख्तलिफ होता है। उनकी संजीदगी उन्हें 
मोहतात (सजग) बना देती है। उनसे सरकशी का मिजाज रुख्सत हो जाता है। उनका बढ़ा 
हुआ एहसास उन्हें रातों को भी बेदार रहने पर मजबूर कर देता है। उनके औकात (समय) 


ख़ुदा की याद में बसर होने लगते हैं। वे अपने माल को अपनी मेहनत का नतीजा नहीं समझते 


बल्कि उसे खुदा का अतिय्या (देन) समझते हैं। यही वजह है कि वे उसमें दूसरों का भी हक 
समझने लगते हैं जिस तरह वे उसमें अपना हक समझते हैं। 


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और जमीन में निशानियां हैं यकीन करने वालों के लिए। और ख़ुद तुम्हारे अंदर भी, 
क्या तुम देखते नहीं। और आसमान में तुम्हारी रोजी हे और वह चीज भी जिसका तुमसे 
वादा किया जा रहा है। पस आसमान और जमीन के रब की कसम, वह यकीनी है 
जैसा कि तुम बोलते हो। (20-23) 


सूरह-5।. अज-ज़ारियात 








अल्लाह तआला ने दुनिया को इस तरह बनाया है कि मौजूदा मालूम दुनिया बाद को 


आने वाली नामालूम दुनिया की निशानी बन गई है। जमीन में फैले हुए मादूदी वाकेयात और 
इंसान के अंदर छुपे हुए एहसासात दोनों बिलवास्ता अंदाज में उस वाकथे की पेशगी ख़बर दे 


रहे हैं जो मौत के बाद बराहेरास्त अंदाज में इंसान के सामने आने वाला है। इन्हीं निशानियों 


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सूरह-5. अजु-जारियात I377 पारा 26 
में से एक निशानी नुत्क (बोलना) है। 

हदीस में इर्शाद हुआ है कि आख़िरत में जो कुछ मिलेगा वे खुद आदमी के अपने आमाल 
होंगे जो उसकी तरफ लौटा दिए जाएंगे। गोया आख़िरत की दुनिया मौजूदा दुनिया ही का 
मुसन्ना (०७७९) है। आदमी का नुक (बोलना) इसी इम्कान का एक जुई मुजाहिरा है। 
आदमी की आवाज टेप पर रिकॉर्ड कर दी जाए और फिर टेप को बजाया जाए तो ऐन वही 
आवाज उससे निकलती है जो इंसान की आवाज थी। टेप की आवाज इंसान की असल 
आवाज का मुसन्ना (०७७।९) है। इस तरह आवाज जुजई सतह पर उस वाकये का तजर्बा 
करा रही है जो कुल्ली सतह पर आख़िरत में जाहिर होने वाला है। 

वह यकीनी है तुम्हारे नुत्क की तरह” यानी जब तुम्हारे नुत्क (बोलने) की तकरार 
(पुनरावृत्ति) मुमकिन है तो तुम्हारे वजूद की तकरार क्यों मुमकिन नहीं। इंसानी हस्ती के एक 
जुज (अंश) की कामिल तकरार का मुशाहिदा इसी दुनिया में हो रहा है, इसी से कयास किया 
जा सकता है कि इंसानी हस्ती के कामिल मज्मूअह (कुल) की तकरार भी हो सकती है। 


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क्या तुम्हें इब्राहीम के मुअप्जज (आदरणीय) मेहमानों की बात पुहुंची। जब वे उसके 

पास आए। फिर उन्हें सलाम किया। उसने कहा तुम लोगों को भी सलाम है। कुछ 
अजनबी लोग हैं। फिर वह अपने घर की तरफ चला और एक बछड़ा भुना हुआ ले 
आया। फिर उसे उनके पास रखा, उसने कहा, आप लोग खाते क्यों नहीं। फिर वह 
दिल में उनसे डरा। उन्होंने कहा कि डरो मत। और उन्हें जीइल्म (ज्ञानवान) लड़के की 
बशारत (शुभ सूचना) दी। फिर उसकी बीवी बोलती हुई आई, फिर माथे पर हाथ मारा 
और कहने लगी कि बूढ़ी, बांझ। उन्होंने कहा कि ऐसा ही फरमाया है तेरे रब ने। बेशक 
वह हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला, जानने वाला है। (24-30) 


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इन आयतों में उस मंजर का बयान है जबकि हजरत इब्राहीम के पास खुदा के फरिश्ते 
आए ताकि उन्हें बुढ़ापे में औलाद की बशारत दें। हजरत इब्राहीम कदीम इराक में पैदा हए। 
वह लम्बी मुद्दत तक अपनी कौम को तौहीद और आखिरत का पैगाम देते रहे। मगर आपकी 
बीवी और आपके एक भतीजे के सिवा कोई भी शख़्स आपकी बात मानने के लिए तैयार न 


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पारा 27 378 सूरह-5।. अज-ज़ारियात 


हुआ। यहां तक कि आप बुढ़ापे की उम्र को पहुंच गए। 

अब आपके मिशन का तसलसुल (निरंतरता) बाकी रखने के लिए दूसरी मुमकिन सूरत 
सिर्फ यह थी कि आपके यहां औलाद पैदा हो और आप उसे तर्बियत देकर तैयार करें। बाप 
और बेटे के दर्मियान छूनी तअल्लुक होता है। यह खूनी तअल्लुक एक इजफी ताकत बन 
जाता है जो बेटे को अपने बाप के साथ हर हाल में जोड़े रखे और उसे उसका हमख्याल 
बनाए । 

अल्लाह तआला ने हजरत इब्राहीम को आखिर उम्र में दो लड़के अता किए। एक 
हजरत इस्हाक जिनके जरिए से बनी इस्राईल में दावते तौहीद का तसलसुल जारी रहा। दूसरे 
हजरत इस्माईल जिनके जरिए अरब के सहरा में एक ऐसी नस्ल तैयार करने का काम लिया 
गया जो पैगम्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) का साथ देकर आपके तारीखी मिशन की तक्मील 
कर स॒के। 


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इब्राहीम ने कहा कि ऐ फरिश्तो, तुम्हें क्या मुहिम दरपेश है। उन्होंने कहा कि हम एक 
मुजरिम कोम (कीमे लूत) की तरफ भेजे गए हैं। ताकि उस पर पकी हुई मिट्टी के पत्थर 

बरसाएं। जो निशान लगाए हुए हैं तुम्हारे रब के पास उन लोगों के लिए जो हद से 
गुजरने वाले हैं। फिर वहां जितने ईमान वाले थे उन्हें हमने निकाल लिया। पस वहां 
हमने एक घर के सिवा कोई मुस्लिम (आज्ञाकारी) घर न पाया और हमने उसमें एक 
निशानी छोड़ी उन लोगों के लिए जो दर्दनाक अजाब से डरते हैं। (3-37) 


हजरत इब्राहीम उस वक्‍त फिलिस्तीन में थे। करीब ही बह मुर्दार के पास सदूम व 
अमूरा की बस्तियां थीं जहां कौमे लूत के लोग आबाद थे। हजरत लूत की तवील तब्लीग के 
बावजूद वे लोग खुदाफरामोशी की जिंदगी से निकलने के लिए तैयार नहीं हुए । चुनांचे हजरत 
लूत और उनके साथी अल्लाह के हुक्म से बाहर आ गए। मज्कूरा फरिशतों ने जलजला और 
आंधी और कंकरों की बारिश से पूरी कौम को हलाक कर दिया। 

कौमे लूत दो हजार साल पहले ख़त्म हो गई। मगर उसका तबाहशुदा आवास-द्षेत्र (बहरे 
मुर्दार का जुनूबी इलाका) आज भी उन लोगों को सबक दे रहा है जो वाकेसात से सबक लेने 
का मिजाज रखते हों। 


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सूरह-5. अजु-जारियात 379 पारा 27 


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और मूसा में भी निशानी है जबकि हमने उसे फिरऔन के पास एक खुली दलील के साथ भेजा 
तो वह अपनी कुत के साथ फिर गया। और कहा कि यह जादूगर है या मजनून है। पस हमने 
उसे और उसकी फौज को पकड़ा, फिर उन्हें समुद्र में फेक दिया और वह सजावारे मलामत 
(निन्दनीय) था। और आद में भी निशानी है जबकि हमने उन पर एक बेनफा हवा भेज दी। 
वह जिस चीज पर से भी गुजरी उसे रेजारेजा करके छोड़ दिया। और समूद में भी निशानी है 
जबकि उनसे कहा गया कि थोड़ी मुदृदत तक के लिए फायदा उठा लो। पस उन्होंने अपने रब 
के हुक्म से सरकशी की, पस उन्हें कड़क ने पकड़ लिया। और वे देख रहे थे। फिर वे न उठ 
सके। और न अपना बचाव कर सके। और नूह की कौम को भी इससे पहले, बेशक वे नाफरमान 
लोग थे। (38-46) 





फिरने मिम्न ने हजरत मूसा के मेजिजे (चमत्कारो) को जादू करार दिया । आपका वह 
यकीन जो आपके बरसरे हक होने को जाहिर कर रहा था उसे उसने जुनून से ताबीर किया था। 
इसी का नाम तल्बीस (ग़लत नाम देना) है और यही तल्बीस हमेशा उन लोगों का तरीका रहा 
है जो दलील के बावजूद हक को मानने के लिए तैयार नहीं होते। 
हक के मुकाबले में इस किस्म की सरकशी करने वाले लोग कभी खुदा की पकड़ से नहीं 
बचते। फिरऔन इसी बिना पर हलाक किया गया। और कौमे आद और कौमे समूद और 
कौमे नूह भी इसी बिना पर तबाह व बर्बाद कर दी गई। ऐसे लोगों के लिए खुदा की दुनिया 
में कोई और फायदा उस थोड़े से फायदे के सिवा मुकदूदर नहीं जो इम्तेहान की मस्लेहत के 
तहत उन्हें महदूद मुदूदत के लिए हासिल हुआ था। 


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पारा 27 380 सूरह-5।. अज-ज़ारियात 
और हमने आसमान को अपनी कुदरत से बनाया और हम कुशादा (व्यापक) करने वाले हैं। और 
जमीन को हमने बिछाया, पस क्या ही ख़ूब बिछाने वाले हैं। और हमने हर चीज को जोड़ा जोड़ा 

बनाया है ताकि तुम ध्यान करो। पस दौड़ो अल्लाह की तरफ, मैं उसकी तरफ से एक खुला डराने 

वाला हूं। और अल्लाह के साथ कोई और माबूद (पूज्य) न बनाओ, में उसकी तरफ से तुम्हारे लिए 
खुला डराने वाला हूं। (47-52) 


हम आसमान को कुशादा करने वाले हैं! इस फिकरे में गालिबन कायनात की उस 
नौइयत की तरफ इशारा है जो सिर्फ हाल में दरयापत हुई है। यानी कायनात का मुसलसल 
अपने चारों तरफ फैलना । कायनात का इस तरह फैलना इस बात का सुबूत है कि उसे किसी 
पैदा करने वाले ने पैदा किया है। क्योंकि इस फैलाव का मतलब यह है कि अपनी इब्तिदा 
(प्रारंभ) में वह सुकड़ी हुई थी। मालूम मादूदी कानून के मुताबिक, कायनात के इस इब्तिदाई 
गोले के तमाम अज्जा अंदर की तरफ खिंचे हुए थे। ऐसी हालत में उनका बाहर की तरफ 
सफर करना किसी ख़ारजी मुदाख़लत (वाह्य हस्तक्षेप) के बगैर नहीं हो सकता । और ख़ारजी 
मुदाखलत को मानने के बाद ख़ुदा का मानना लाजिम हो जाता है। 

हमारी दुनिया का निजाम इंतिहाई बामअना निजाम है। इससे साबित होता है कि मौजूदा 
दुनिया की तख़्तीक किसी आला मकसद के तहत हुई है। मगर हम देखते हैं कि इंसान ने 
जमीन को फसाद से भर रखा है। बामअना कायनात में यह बेमअना वाकया बिल्कुल बेजोड़ 
है। यह सूरतेहाल तकाजा करती है कि एक ऐसी दुनिया बने जो हर किस्म की बुराइयों से 
पाक हो। 

यहां दुबारा मौजूदा दुनिया के अंदर एक ऐसा वाकया मौजूद है जो इस सवाल का जवाब 
देता है। और वह है यहां की तमाम चीजों का जोड़े-जोड़े होना माददा (।९०॥४) में मुसबत 
(Positi€) और मंम (४८९०४४९) जरे, नबातात (वनस्पति) में नर और मादा, इंसान में 
औरत और मर्द। इससे कायनात का यह मिजाज मालूम होता है कि यहां अशया (चीजों) की 
कमी को उसके जोड़े के जरिए मुकम्मल करने का कानून राइज है। यह एक करीना है जो 
आखिरत के इम्कान को साबित करता है। आख़िरत की दुनिया गोया मौजूदा दुनिया का दूसरा 
जोड़ा है जिससे मिलकर हमारी दुनिया अपने आपको मुकम्मल करती है। 


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इसी तरह उनके अगलों के पास कोई पैग़म्बर ऐसा नहीं आया जिसे उन्होंने साहिर (जादूगर) या 
मजनून न कहा हो । क्या ये एक दूसरे को इसकी वसीयत करने चले आ रहे हैं, बल्कि ये सब सरकश 
लोग हैं। पस तुम उनसे एराज (विमुखता) करो, तुम पर कुछ इल्जाम नहीं। और समझाते रहो क्योंकि 



































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सूरह-5. अज॒-जारियात 38] पारा 27 


समझाना ईमान वालों को नफा देता है। (52-55) 





एक संजीदा आदमी अगर किसी बात की दलील मांगे तो दलील सामने आने के बाद वह 
उसे मान लेता है। मगर जो लोग सरकशी का मिजाज रखते हों उन्हें किसी भी दलील से चुप 
नहीं किया जा सकता। वे हर दलील को न मानने के लिए दुबारा कुछ नए अल्फाज पा लेंगे। 
यहां तक कि अगर उनके सामने ऐसी दलील पेश कर दी जाए जिसका तोड़ मुमकिन न हो 
तो वे यह कहकर उसे नजरअंदाज कर देंगे कि यह तो जादू है। 

यह उन लोगों का हाल है जिन्हें कौम के अंदर बड़ाई का दर्जा मिल गया हो। ऐसे लोगों 
के लिए उनकी बड़ाई का एहसास इसमें रुकावट बन जाता है कि वे किसी दूसरे शख्स की 
जबान से जारी होने वाली सच्चाई को मान लें। ऐसे लोग अगर हक की दावत को न मानें 
तो दाऔ को मायूस न होना चाहिए। वह उन दूसरे लोगों में अपने हामी पा लेगा जो झूठी 
बड़ाई के एहसास में मुब्तिला होने से बचे हुए हों। 


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और मैंने जिन्न और इंसान को सिर्फ इसीलिए पैदा किया है कि वे मेरी इबादत करें। मैं उनसे 
रिजक नहीं चाहता और न यह चाहता हूं कि वे मुझे खिलाएं। बेशक अल्लाह ही रोजी देने 

वाला है, जोरआवर (सशक्त), जबरदस्त है। पस जिन लोगों ने जुल्म किया उनका डोल भर 

चुका है जैसे उनके साथियों के डोल भर चुके थे, पस वे जल्दी न करें। पस मुंकिरों के लिए 
खराबी है उनके उस दिन से जिसका उनसे वादा किया जा रहा है। (56-60) 





खुदा हर किस्म का जाती इस्क्षियार रखता है। ताहम फरिश्ता को उसने अपनी वसीअ 
सल्तनत का इंतिजाम करने के लिए पैदा किया है। मगर इंसानों का मामला इससे मुख़्तलिफ 
है। इंसान इसलिए पैदा नहीं किए गए कि वे खुदा की किसी शख्सी या इंतिजामी जरूरत को 
पूरा करें। उनकी पैदाइश का वाहिद मकसद ख़ुदा की इबादत है। इबादत का मतलब अपने 
आपको ख़ुदा के आगे झुकाना है, अपने आपको पूरी तरह ख़ुदा का परस्तार बना देना है। 
इस इबादत का खुलासा मअरफत है। चुनांचे इन्ने जुरैह ने इल्ला लियअबुदून की तशरीह 
इल्लालि यअरिफून से की है (तफ्सीर इब्ने कसीर)। यानी इंसान से यह मत्लूब है कि वह ख़ुदा 
को बतौर दरयाफ्त के पाए। वह बिना देखे खुदा को पहचाने। इसी का नाम मअरफत है। इस 








पारा 27 382 सूरह-52. अत-तूर 
मअरफत के नतीजे में आदमी की जो जिंदगी बनती है उसी को इबादत व बंदगी कहा जाता 
है। 

पानी का डोल भरने के बाद डूब जाता है इसी तरह आदमी की मोहलते अमल पूरी होने 
के बाद फौरन उसकी मौत आ जाती है। जो शख्स डोल भरने से पहले अपनी इस्लाह (सुध 
गर) कर ले उसने अपने आपको बचाया। और जो शख्स आख़िर वक्‍त तक गाफिल रहा वह 
हलाक हो गया। 

जालिम लोग अगर पकड़े न जा रहे हों तो उन्हें यह न समझना चाहिए कि वे छोड़ दिए 
गए हैं। वे इसलिए आजाद हैं कि खुदा का तरीका जल्दी पकड़ने का तरीका नहीं, न इसलिए 
कि ख़ुदा उन्हें पकड़ने वाला नहीं। 


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आयतें-49 सूरह-52. अत-तूर रुकूअ-2 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

कसम है तूर की। और लिखी हुई किताब की, कुशादा वरक में। और आबाद घर की। और 

ऊंची छत की। और उबलते हुए समुद्र की । बेशक तुम्हारे रब का अजाब वाकेअ होकर रहेगा। 

उसे कोई टालने वाला नहीं । जिस दिन आसमान डगमगाएगा और पहाड़ चलने लगेंगे। पस खराबी 
है उस दिन झुठलाने वालों के लिए जो बातें बनाते हैं खेलते हुए जिस दिन वे जहन्नम की आग 
की तरफ धकेले जाएंगे। यह है वह आग जिसे तुम झुठलाते थे। क्या यह जादू है या तुम्हें नजर 

नहीं आता। इसमें दाखिल हो जाओ। फिर तुम सब्र करो या सब्र न करो। तुम्हारे लिए यकसां 
(समान) है। तुम वही बदला पा रहे हो जो तुम करते थे। (-6) 


तूर सहराए सीना का वह पहाड़ है जहां हजरत मूसा को पैगम्बरी दी गई। किताबे मस्तूर 


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सूरह-52. अत-तूर 383 
से मुराद तैरात है। बैत मअमूर से मुराद जमीन और सकफ मरफू से मुराद आसमान है। 
बहर मस्जूर से मुराद मौजें मारता हुआ समुद्र है। ये चीजें शाहिद (साक्ष्य) हैं कि ख़ुदा की 
पकड़ का दिन यकीनन आने वाला है। अल्लाह तआला यही ख़बर पेगाम्बरों के जरिए देता 
रहा है। कदीम आसमानी किताबों में यही बात दर्ज है। जमीन व आसमान अपनी ख़ामोश 
जबान में इसका एलान कर रहे हैं। समुद्र की मौजें हर सुनने वाले को उसकी कहानी सुना 
रही हैं। 

इंसान को अपने अमल का नतीजा भुगतना होगा, यह बात आज पेशगी इत्तिलाअ को 
सूरत में बताई जा रही है। जो लोग पेशगी इत्तिलाअ से होश में न आएं उन पर उनकी गफलत 
और सरकशी कल के दिन एक दर्दनाक अजाब की सूरत में आ पकड़ेगी और फिर वे उससे 
भागना चाहेंगे मगर वे उससे भाग कर कहीं न जा सकेंगे। 

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पारा 27 














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बेशक मुत्तकी (ईश-परायण) लोग बागों और नेमतों में होंगे। वे खुशदिल होंगे उन चीजों से जो 
उनके रब ने उन्हें दी होंगी, और उनके रब ने उन्हें दोजख़ के अजाब से बचा लिया। खाओ 


और पियो मजे के साथ अपने आमाल के बदले में। तकिया लगाए हुए सफ-ब-सफ तख्तों के 
ऊपर। और हम बड़ी-बड़ी आंखों वाली हूरें उनसे ब्याह देंगे। (7-20) 





इंसान का सबसे बड़ा जुर्म हक को झुठलाना है। इसी से बकिया तमाम जराइम पैदा होते 
हैं। इसी तरह इंसान की सबसे बड़ी नेकी हक का एतराफ है, तमाम दूसरी नेकियां इसी से 
बतौर नतीजा जाहिर होती हैं। 

हक को मानने से आदमी की बड़ाई टूटती है। यह किसी इंसान के लिए सबसे ज्यादा 
मुश्किल काम है। इस पर वही लोग पूरे उतरते हैं जिन्हें अल्लाह के डर ने आखिरी हद तक 
संजीदा बना दिया हो। जो लोग इस सबसे बड़ी नेकी का सुबूत दें वे इसी के मुस्तहिक हैं कि 
उनके लिए जन्नत की अबदी नेमतों के दरवाजे खोल दिए जाएं 

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और जो लोग ईमान लाए और उनकी औलाद भी उनकी राह पर ईमान के साथ चली, उनके 
साथ हम उनकी औलाद को भी जमा कर देंगे, और उनके अमल में से कोई चीज कम नहीं करेंगे। 

हर आदमी अपनी कमाई में फंसा हुआ है। और हम उनकी पसंद के मेवे और गोश्त उन्हें बराबर 
देते रहेंगे। उनके दर्मियान शराब के प्यालों के तबादले हो रहे होंगे जो लग़वियत (बेहूदगी) और 
गुनाह से पाक होगी। और उनकी ख़िदमत में लड़के दौड़ते फिर रहे होंगे। गोया कि वे हिफाजत 

से रखे हुए मोती हैं। वे एक दूसरे की तरफ मुतवज्जह होकर बात करेंगे। वे कहेंगे कि हम इससे 
पहले अपने घर वालों में डरते रहते थे। पस अल्लाह ने हम पर फज्ल फरमाया और हमें लू के 

अजाब से बचा लिया। हम इससे पहले उसी को पुकारते थे, बेशक वह नेक सुलूक वाला, 
महरबान है। (2-28) 


सूरह-52. अत-तूर 


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आखिरत में ऐसा नहीं होगा कि एक शख्स का गुनाह दूसरे शख्स के ऊपर डाल दिया 
जाए। और न कोई शख्स ईमान व अमल के बगैर जन्नत में दाखिला पा सकेगा। अलबत्ता 
अहले जन्नत के साथ एक ख़ास फज्ल का मामला यह होगा कि वालिंदैन अगर जन्नत के 
बुलन्द दर्जे में हों और उनकी औलाद किसी और दर्जे में तो औलाद को भी उनके वालिदैन 
के साथ मिला दिया जाएगा ताकि उन्हें मजीद ख़ुशी हासिल हो सके। 

जन्नत की लतीफ दुनिया में दाखले का मुस्तहिक सिर्फ वह शख्स होगा जिसका हाल यह 
था कि अपने बीवी बच्चों के दर्मियान रहते हुए भी उसे अल्लाह का ख़ौफ तड़पाए हुए था, 
और जिसने अपनी उम्मीदों और अपने अंदेशों को सिफ एक अल्लाह के साथ वाबस्ता कर 
रखा था। 


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पस तुम नसीहत करते रहो, अपने रब के फज्ल से तुम न काहिन (भविष्यवक्ता) हो और न 
मजनून। क्या वे कहते हैं कि यह एक शायर है, हम इस पर गर्दिशे जमाना (काल-चक्र) के 


मुंतजिर हैं। कहो कि इंतिजार करो, में भी तुम्हारे साथ इंतिजार करने वालों में हूं। क्या उनकी 
अकलें उन्हें यही सिखाती हैं या ये सरकश लोग हैं। क्या वे कहते हैं कि यह कुरआन को खुद 


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सूरह-52. अत-तूर I385 पारा 27 
बना लाया है। बल्कि वे ईमान नहीं लाना चाहते। पस वे इसके मानिंद कोई कलाम ले आएं, 
अगर वे सच्चे हैं। (29-34) 





जब आदमी एक दावत के मुकाबले में अपने आपको बेदलील पाए, इसके बावजूद वह 
उसे मानना न चाहे तो वह यह करता है कि दाओ की जात में ऐब लगाना शुरू कर देता है। 
वह कलाम के बजाए मुतकल्लिम (कहने वाला) को अपना निशाना बनाता है। यही वह 
नफ्सियात थी जिसके तहत पैगम्बर के मुख़ातबीन ने आपको शायर और मजनून कहना शुरू 
किया। वे आपकी दावत को दलील से रदूद नहीं कर सकते थे, इसलिए वे आपके बारे में ऐसी 
बातें कहने लगे जिनसे आपकी शख्सियत मुशतबह (संदिग्ध) हो जाए। 

मगर पैगम्बर ख़ुदा से लेकर बोलता है। और जो इंसान ख़ुदा से लेकर बोले उसका 
कलाम इतना मुमताज तौर पर दूसरों के कलाम से मुख्तलिफ होता है कि उसके मिस्ल कलाम 
पेश करना किसी के लिए मुमकिन नहीं होता । और यह वाकया इस बात का सबसे बड़ा सुबूत 
होता है कि उसका कलाम ख़ुदाई कलाम है, वह आम मजनों में महज इंसानी कलाम नहीं। 
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क्या वे किसी ख़ालिक (सृष्टा) के कौर पैदा हो गए या वे खुद ही ख़ालिक हैं। क्या जमीन व 

आसमान को उन्होंने पैदा किया है, बल्कि वे यकीन नहीं रखते। क्या उनके पास तुम्हारे रब 

के खजाने हैं या वे दारोग़ा (संरक्षक) हैं। क्या उनके पास कोई सीढ़ी है जिस पर वे बातें सुन 
लिया करते हैं, तो उनका सुनने वाला कोई खुली दलील ले आए। क्या अल्लाह के लिए बेटियां 
हैं और तुम्हारे लिए बेटे। (35-39) 








खुदा की तरफ से जिन सदाकतों का एलान हुआ है वे सब पूरी तरह माकूल (तकपूर्णी 
हैं। आदमी अगर ध्यान दे तो वह बाआसानी उन्हें समझ सकता है। फिर भी लोग क्यों उनका 
इंकार करते हैं। इसकी वजह आख़िरत के बारे में लोगों की बेयकीनी है। लोगों को जिंदा 
यकीन नहीं कि आख़िरत में उनसे हिसाब लिया जाएगा। इसलिए वे इन उमूर (मामलों) में 
संजीदा नहीं, और इसीलिए वे उन्हें समझ भी नहीं सकते। अगर जजाए आमाल का यकीन 
हो तो आदमी फौरन उन बातों को समझ जाए जिन्हें समझना उसके लिए निहायत मुश्किल 
हो रहा है। 


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पारा 27 386 सूरह-52. अत-तूर 
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क्या तुम उनसे मुआवजा मांगते हो कि वे तावान (अधिभार) के बोझ से दबे जा रहे हैं। क्या 
उनके पास गैब है कि वे लिख लेते हैं। क्या वे कोई तदबीर करना चाहते हैं, पस इंकार करने 


वाले खुद ही उस तदबीर में गिरफ्तार होंगे। क्या अल्लाह के सिवा उनका और कोई मावूद (पूज्य) 
है। अल्लाह पाक है उनके शरीक बनाने से। (40-43) 





मदऊ गिरोह हमेशा मादूदापरस्ती की सतह पर होता है। ऐसी हालत में मदऊ को अगर 
यह एहसास हो कि दाऔ उससे उसकी कोई मादूदी चीज लेना चाहता है तो वह फौरन उसकी 
तरफ से मुतवहिहश (भयभीत) हो जाएगा। यही वजह है कि पैग़म्बर अपने और मुखातबीन 
के दर्मियान किसी किस्म के मादूदी मुतालबे की बात कभी नहीं आने देता। वह अपने और 
मूरग्रतवीन के दर्मियान आखिर वक्त तक बेगर्जी की फज बाकी रखता है। चाहे इसके लिए 
उसे यकतरफा तौर पर मादूदी नुक्सान बर्दाश्त करना पड़े। 

दाऔ जब अपनी दावत के हक में इस हद तक संजीदगी का सुबूत दे दे तो इसके बाद 
वह ख़ुदा की उस नुसरत का मुस्तहिक हो जाता है कि मुंकिरीन की हर तदबीर उनके ऊपर 
उल्टी पड़े। वे किसी भी तरह दाऔ को मग़लूब (परास्त) करने में कामयाब न हों। 


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और अगर वे आसमान से कोई टुकड़ा गिरता हुआ देखें तो वे कहेंगे कि यह तह-ब-तह 
बादल है। पस उन्हें छोड़ो, यहां तक कि वे अपने उस दिन से दो चार हों जिसमें उनके 
होश जाते रहेंगे। जिस दिन उनकी तदबीरें उनके कुछ काम न आएंगी और न उन्हें कोई 
मदद मिलेगी। और उन जालिमां के लिए इसके सिवा भी अजाब है, लेकिन उनमें से 
अक्सर नहीं जानते। (44-47) 





कदीम मक्का के लोगों का यह हाल क्यों था कि अगर वे आसमान से कोई अजाब का 
टुकड़ा गिरते हुए देखें तो कह दें कि यह बादल है। इसकी वजह यह न थी कि वे ख़ुदा को 
या खुदाई ताकतों को मानते न थे। इसकी असल वजह यह थी कि उन्हें पैगम्बर के पैगम्बर 
होने में शक था। उन्हें यकीन न था कि उनके सामने बजाहिर उन्हीं जैसा जो एक शख्स है, 
उसका इंकार करना ऐसा जुर्म है कि इसकी वजह से हलाकत का पहाड़ गिर पड़ेगा। 





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सूरह-52. अत-तूर 387 पारा 27 
पेगम्बरे इस्लाम की शख्सियत अपने जमाने में लोगों के लिए एक निजाई (विवादित) 

शख्सियत थी। वह इस तरह एक साबितशुदा शख्सियत न थी जिस तरह आज वह लोगों को 

नजर आती है। मगर इस दुनिया में आदमी का इम्तेहान यही है कि वह शुबहात के पर्दे को 

फाइकर हकीकत को देखे। वह बजाहिर एक निजाई शख्सियत को साबितशुदा शख्मियत के रूप 

मंदरयाफ्त करे। 


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और तुम सब्र के साथ अपने रब के फैसले का इंतिजार करो। बेशक तुम हमारी निगाह में हो। 
और अपने रब की तस्वीह करो उसकी हम्द (प्रशंसा) के साथ, जिस वक्‍त तुम उठते हो। और 
रात को भी उसकी तस्बीह करो, और सितारों के पीछे हटने के वक्‍त भी। (48-49) 





ख़ुदा का फैसला आने तक सब्र करो' का मतलब यह है कि मुखातब की तरफ से हर 
किस्म की नागवार बातों के पेश आने के बावजूद दावत (आह्वान) का काम उस वक्त तक 
जारी रखो जब तक ख़ुद खुदा के नजदीक उसकी हद न आ जाए। जब यह हद आती है तो 
उस वम्न.खा का पैला जहिर हेर हक और नाहक के फ्कोअमली तै पर जहिर 
कर देता है जिसे इससे पहले सिर्फ नजरी (वैचारिक) तौर पर जाहिर करने की कोशिश की जा 
रही थी। इस पूरी मुद्दत में दाऔ मुकम्मल तौर पर ख़ुदा की हिफाजत में होता है। दाऔ का 
काम यह है कि वह अल्लाह की तरफ मुतवज्जह रहे। और यह यकीन रखे कि अल्लाह उसे 
हर आन अपनी हिफाजत मेलिए हुए है। 


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पारा 27 388 सूरह-53. अन-नज्म 
आयतें-62 सूरह-53. अन-नज्म रुकूअ-3 
(मक्का में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
कसम है सितारे की जबकि वह गुरूब (अस्त) हो। तुम्हारा साथी न भटका है और न गुमराह 
हुआ है। और वह अपने जी से नहीं बोलता । यह एक “वही” (ईश्वरीयवाणी) है जो उस पर भेजी 
जाती है। उसे जबरदस्त कुवत वाले ने तालीम दी है, आकिल (प्रबुद्ध) व दाना (विवेकशील) ने। 
फिर वह नमूदार हुआ और वह आसमान के ऊंचे किनारे पर था। फिर वह नजदीक हुआ, पस 
वह उतर आया। फिर दो कमानों के बराबर या इससे भी कम फासला रह गया। फिर अल्लाह 
ने “वही” की अपने बंदों की तरफ जो “वही” (प्रकाशना) की। झूठ नहीं कहा रसूल के दिल ने 
जो उसने देखा। अब क्या तुम उस चीज पर उससे झगड़ते हो जो उसने देखा है। और उसने 
एक बार और भी उसे सिदरतुल मुंतहा के पास उतरते देखा है। उसके पास ही बहिश्त है आराम 
से रहने की, जबकि सिदरह पर छा रहा था जो कुछ कि छा रहा था। निगाह बहकी नहीं और 
न हद से बढ़ी। उसने अपने रब की बड़ी-बड़ी निशानियां देखीं। (-8) 


सितारों का गुरूब (अस्त) एक अलामती लप्ज है जिसके जरिए सितारों की गर्दिश के 
मोहकम निजाम की तरफ इशारा किया गया है। मादूदी दुनिया में सितारों का निजाम एक बेख़ता 
(अचूक) निजाम है, यह इस बात का करीना है कि वही” व नुबुव्यत की सूरत में खुदा ने जो 
रूहानी निजाम कायम किया है वह भी एक बेख़ता निजाम हो। 
फरिश्ता और 'वही' की सूरत में रसूल का तजर्बा हकीकी तजर्बा है, इसके सुबूत के लिए 
कुरआन का बयान काफी है। कुरआन का मोजिजना कलाम कुआन को खुरा की किताब 
साबित करता है। और जिस किताब का ख़ुदा की किताब होना साबित हो जाए उसका हर बयान 
ख़ुद कुरआन के जोर पर मुस्तनद (प्रमाणिक) तस्लीम किया जाएगा। 


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भला तुमने लात और उज्जा पर गोर किया है। और तीसरे एक और मनात पर। क्या तुम्हारे 
लिए बेटे हैं और ख़ुदा के लिए बेटियां। यह तो बहुत बेढंगी तक्सीम हुई। ये महज नाम हैं जो 


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सूरह-53. अन-नज्म 389 पारा 27 
तुमने और तुम्हारे बाप दादा ने रख लिए हैं अल्लाह ने इनके हक में कोई दलील नहीं उतारी। 

वे महज गुमान की पैरवी कर रहे हैं। और नफ्स की ख़ाहिश की | हालांकि उनके पास उनके 

रब की जानिब से हिदायत आ चुकी है। क्या इंसान वह सब पा लेता है जो वह चाहे। पस 
अल्लाह के इख्तियार में है आख़िरत और दुनिया। (9-25) 


लात और उज्ज और मनात कदीम अरब के कु थे। लात ताइफ मेथा। उज्ज मक्का 
के करीब नुला में और मनात मदीना के करीब कुद में। ये तीनों उनके अकीदे के मुताबिक 
खुदा की बेटियां थीं और वे उन्हें पूजते थे। इस किस्म का अकीदा बिलाशुबह एक बेबुनियाद 
मफरूजा (कल्पना) है। मगर इसी के साथ वह ख़ुद अपनी तरदीद (खंडन) आप है। उन 
मुश्रिकीन का हाल यह था कि वे बेटियों को अपने लिए जिल्लत की चीज समझते थे। फरमाया 
कि गौर करो, ख़ुदा जो बेटा और बेटी दोनों का ख़ालिक है, वह अपने लिए औलाद बनाता तो 
बेटियां बनाता। 

क्या इंसान वह सब पा लेता है जो वह चाहे' इसकी तशरीह करते हुए शाह अब्दुल कादिर 
देहलवी लिखते हैं “यानी बुत पूजे से क्या मिलता है। मिले वह जो अल्लाह दे। 


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और आसमानों में कितने फरिश्ते हैं जिनकी सिफारिश कुछ भी काम नहीं आ सकती । मगर 

बाद इसके कि अल्लाह इजाजत दे जिसे वह चाहे और पसंद करे। बेशक जो लोग आख़िरत पर 
ईमान नहीं रखते, वे फरिश्तों को औरतों के नाम से पुकारते हैं। हालांकि उनके पास इस पर 
कोई दलील नहीं। वे महज गुमान पर चल रहे हैं। और गुमान हक बात में जरा भी मुफीद 

नहीं। पस तुम ऐसे शख्स से एराज (उपेक्षा) करो जो हमारी नसीहत से मुंह मोड़े। और वह 
दुनिया की जिंदगी के सिवा और कुछ न चाहे। उनकी समझ बस यहीं तक पहुंची है। तुम्हारा 
रब ख़ूब जानता है कि कौन उसके रास्ते से भटका हुआ है। और वह उसे भी ख़ूब जानता है 
जो राहेरास्त (सन्मार्ग) पर है। (26-30) 


पारा 27 I390 सूरह-53. अन-नज्म 





पत्थर के बुत बनाकर उन्हें पूजना, फरिश्तों को खुदा की बेटी बताना, सिफारिशों की 
बुनियाद पर जन्नत की उम्मीद रखना ये सब गैर संजीदा अकीदे हैं। और गैर संजीदा अकीदे 
हमेशा उस जेहन में पैदा होते हैं जो पकड़ का ख़फ न रखता हो। ख़फ लायअनी (निरर्थक) 
कलाम का कातिल है। और जो शख्स बेख़ीफ हो उसका दिमाग लायअनी कलाम का कारख़ाना 
बन जाएगा । 

जो लोग बेख़ौफी की नफ्सियात में मुब्तिला हों उनसे बहस करने का कोई फायदा नहीं। 
ऐसे लोग दलील और माकूलियत पर ध्यान नहीं देते, इसलिए वे अम्रे हक को मानने के लिए 
भी तैयार नहीं होते। उनसे मुकाबला करने की एक ही मुमकिन तदबीर है। वह यह कि उनसे 
एराज किया जाए। ताहम अल्लाह तआला हर शख्स की अंदरूनी हालत को जानता है और 
वह उसके मुताबिक हर शख्स से मामला फरमाएगा। 


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और अल्लाह ही का है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ जमीन में है, ताकि वह बदला 

दे बुरा काम करने वालों को उनके किए का और बदला दे भलाई वालों को भलाई से। जो कि 
बड़े गुनाहों से और बेहयाई से बचते हैं मगर कुछ आलूदगी (छोटी बुराई)। बेशक तुम्हारे रब 
की बस्शिश की बड़ी समाई है। वह तुम्हें खूब जानता है जबकि उसने तुम्हें जमीन से पैदा किया। 
और जब तुम अपनी मांओं के पेट में जनीन (भ्रूण) की शक्ल में थे। तो तुम अपने को मुकद्दस 
(पवित्र) न समझो। वह तकवा (ईश-भय) वालों को ख़ूब जानता है। (3।-32) 


कायनात अपने हददर्जा मोहकम (सुटू) निजाम के साथ बता रही है कि उसका ख़ालिक 
व मालिक बेहद ताकतवर है। यही वाकया यह समझने के लिए काफी है कि वह इंसान को 
पकड़ेगा और जब वह इंसान को पकड़ेगा तो किसी भी शख्स के लिए उसकी पकड़ से बचना 
मुमकिन न होगा। 

इंसान को बशरी (इंसानी) कमजोरियों के साथ पेदा किया गया है। इसलिए इंसान से 
फरिश्तों जैसी पाकीजगी का मुतालबा नहीं किया गया। अल्लाह तआला ने इंसान को पूरी 
तरह बता दिया है कि उसे कया करना है और क्या नहीं करना है। ताहम इंसान के लिए 
'लमम' की माफी है। यानी वक्ती जज्बे के तहत किसी बुराई में पड़ जाना, बशर्ते कि आदमी 
फौरन बाद ही उसे महसूस करे और शर्मिंदा होकर अपने रब से माफी मांगे। 


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सूरह-53. अन-नज्म I39] पारा 27 


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भला तुमने उस शख्स को देखा जिसने एराज (उपेक्षा) किया। थोड़ा सा दिया और रुक गया। 
क्या उसके पास ग़ैब का इलम है। पस वह देख रहा है। कया उसे ख़बर नहीं पहुंची उस बात 
की जो मूसा के सहीफों (ग्रंथों) में है, और इब्राहीम के, जिसने अपना कौल पूरा कर दिया। 

कि कोई उठाने वाला किसी दूसरे का बोझ नहीं उठाएगा। और यह कि इंसान के लिए वही है 
जो उसने कमाया। और यह कि उसकी कमाई अनकरीब देखी जाएगी। फिर उसे पूरा बदला 
दिया जाएगा। और यह कि सबको तुम्हारे रब तक पहुंचना है। (33-42) 














बहुत से लोग हैं जो थोड़ सा हक की तरफ रागिब होते हैं। फिर उनके मफादात (स्वार्थ) 
उन पर ग़ालिब आते हैं और वे दुबारा अपनी पिछली हालत की तरफ लौट जाते हैं। ऐसे लोग 
अपनी ग़लत रविश की तावील (औचित्य) के लिए तरह-तरह के ख़ूबसूरत अकीदे बना लेते हैं। 
मगर यह सिर्फ उनके जुर्म को बढ़ाता है, क्योंकि यह गलती पर सरकशी के इजाफे के हममअना 
है। 

पैगम्बरों के जरिए अल्लाह तआला ने जो हकीकत खोली है उसका खुलासा यह है कि हर 
आदमी को लाजिमन अपने अमल का बदला पाना है। न कोई शख्स अपने अमल के अंजाम 
से बच सकता और न कोई दूसरा शख्स किसी को बचाने वाला बन सकता। जो लोग इस 
पैग़म्बराना चेतावनी से मुतनब्बह (सतक) न हों उनसे बड़ा नादान ख़ुदा की इस दुनिया में कोई 


नहीं। 
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और बेशक वही हंसाता है और रुलाता है। और वही मारता है और जिलाता है। और उसी ने 
दोनों किस्म, नर और मादा को पेदा किया, एक बूंद से जबकि वह टपकाई जाए। और उसी 


के जिम्मे है दूसरी बार उठाना। और उसी ने दौलत दी और सरमायादार बनाया। और वही शिअरा 
(नाम के तारे) का रब है। (43-49) 


पारा 27 392 सूरह-53. अन-नज्म 


दुनिया के हर वाकये का तअल्लुक ऐसे मावराई असबाब (आलौकिक कारकों) से होता 
है कि ख़ुदा के सिवा कोई और उसके जुहूर पर कादिर नहीं हो सकता। खुशी और गम, मौत 
व हयात, तख्लीकी निजाम, अमीरी और गरीबी, सब एक बुलन्द व बरतर ताकत का करिश्मा 
हैं। कदीम इंसान सितारों को सबबे हयात (जीवन का कारक) समझता था, मौजूदा जमाने में 
कानूने फितरत (प्रकृति के नियम) को सबबे हयात समझ लिया गया है। मगर हकीकत यह है 
कि इन असबाब के ऊपर भी एक सबब है और वह ख़ुदाए रब्बुल आलमीन है। फिर उसके 
सिवा किसी और को मकजे तवज्जोह बनाना इंसान के लिए किस तरह जाइज हो सकता है। 


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और अल्लाह ही ने हलाक किया आदे अव्वल को और समूद को। फिर किसी को बाकी न छोड़ा। 
और कौमे नूह को उससे पहले, बेशक वे निहायत जालिम और सरकश थे। और उलटी हुई 


बस्तियां को भी फेंक दिया। पस उन्हें ठांक लिया जिस चीज ने ढांक लिया। पस तुम अपने 
रब के किन-किन करिश्मों को झुठलाओगे। (50-55) 





एक कैम तरकर करती है। वह दूसरी कैमेंसि ऊपर उठ जाती है। बजाहिर नामुमकिन 
नजर आने लगता है कि कोई उसे मग़लूब (परास्त) कर सके। इसके बाद ऐसे असबाब होते हैं 
कि वह कौम हलाक हो जाती है या तनज्जुल (पतन) का शिकार होकर तारीखे गुजिशता (बीते 
इतिहास) का मौजूअ बन जाती है। यह वाकया जाहिर करता है कि इंसानों के ऊपर भी कोई 
ताकत हैजो कैमोंके मुस्तकबिल का फैसला करती है। तारी के ये वाज्ह वाकेपात भी अगर 
इंसान को सबक न दें तो वह कौन सा वाकया होगा जिससे इंसान अपने लिए सबक ले। 
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यह एक डराने वाला है पहले डराने वालों की तरह। करीब आने वाली करीब आ गई। अल्लाह 
के सिवा कोई उसे हटाने वाला नहीं। क्या तुम्हें इस बात से तअज्जुब होता है। और तुम हंसते 


हो और तुम रोते नहीं। और तुम तकब्बुर करते हो। पस अल्लाह के लिए सज्दा करो और उसी 
की इबादत करो। (56-62) 


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सूरह-54. अल-कमर I393 पारा 27 





पैगम्बरों की तारीख़ जो कुरआन में बताई गई है, उससे जाहिर होता है कि हक का इंकार 
और उसका बुरा अंजाम दोनों हाथ की दो उंगलियों की तरह एक दूसरे से करीब हैं। आदमी 
के अंदर अगर एहसास हो तो वह इंकार और सरकशी का रवैया इख्तियार करते ही ख़ुदा की 
पकड़ को अपनी तरफ आता हुआ देखने लगे, और सरकशी का तरीका छोड़कर इताअत का 
तरीका इख्तियार कर ले। मगर इंसान इतना ज्यादा मदहोश है कि अपने सामने की चीज भी 
उसे नजर नहीं आती। 


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(मक्का में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
कियामत करीब आ गई और चांद फट गया । और वे कोई भी निशानी देखें तो वे एराज (उपेक्षा) 
ही करेंगे। और कहेंगे कि यह तो जादू है जो पहले से चला आ रहा है। और उन्होंने झुठला 
दिया और अपनी ख़्वाहिशों की पैरवी की और हर काम का वक्‍त मुकर है। और उन्हे वे ख़बरें 
पहुंच चुकी हैं जिसमें काफी इबरत (सीख) है। निहायत दर्जे की हिक्मत (तत्वदर्शिता) मगर 
तंबीहात (चेतावनियां) उन्हें फायदा नहीं देतीं। पस उनसे एराज करो, जिस दिन पुकारने वाला 
एक नागवार चीज की तरफ पुकारेगा। आंखें झुकाए हुए कब्रों से निकल पड़ी। गोया कि वे 
बिखरी हुई टिड्डयां हैं, भागते हुए पुकारने वाले की तरफ, मुंकिर कहेंगे कि यह दिन बड़ा सख्त 
है। (-8) 





ख़ुदा मौजूदा दुनिया में ऐसे वाकेयात बरपा करता है जो कियामत को पेशगी तौर पर 
काबिलेफहम बनाने वाले हों। इसी किस्म का एक वाकया अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि 
व सल्लम के जमाने में हिजरत से चन्द साल पहले पेश आया। जबकि लोगों ने देखा कि चांद 
फटकर दो टुकड़े हो गया। उस वक्त अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने लोगों 


पारा 27 394 सूरह54. अल-कमर 
से कहा कि देखो, जिस तरह चांद टूटा है इसी तरह पूरी दुनिया टूटेगी और फिर नई दुनिया 
बनाई जाएगी। 

इस तरह के वाकेप्रात मेबिलाशुबह सबक है। मगर इन वाकेप्रात से सबक लेना उसी वक्‍त 
मुमकिन है जबकि आदमी अपनी अक्ल से उसके बारे में सोचे। जिन लोगों के ऊपर उनकी 
ख्याहिशात गालिब आ गई हों वे उन्हें देखकर कह देंगे कि “यह जादू है।' वे वाकेयात की तौजीह 
अपनी ख्वाहिश के मुताबिक करके उन्हें अपने लिए गैर मुअस्सिर (अप्रभावी) बना लेंगे। ऐसे 
लोगों के लिए बड़ी से बड़ी दलील भी बेमअना है। वे उसी वक्त होश में आएंगे जबकि कियामत 
की चिंयाड़ जाहिर हो और उनसे होश में आने का मौका छीन ले। 


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उनसे पहले नूह की कौम ने झुठलाया, उन्होंने हमारे बंदे की तक्जीब की (झुठलाया) और कहा 

कि दीवाना है और झिड़क दिया। पस उसने अपने रब को पुकारा कि मैं मग़लूब (दवाव-ग्रस्त) 
हूं, तू बदला ले। पस हमने आसमान के दरवाजे मूसलाधार बारिश से खोल दिए। और जमीन 

से चशमे (स्रोत) बहा दिए। पस सब पानी एक काम पर मिल गया जो मुकदूदर हो चुका था। 
और हमने उसे एक तझ्तों और कीलों वाली पर उठा लिया, वह हमारी आंखों के सामने चलती 
रही। उस शख्स का बदला लेने के लिए जिसकी नाक्री की गई थी। और उसे हमने निशानी 

के लिए छोड़ दिया। फिर कोई है सोचने वाला। फिर कैसा था मेरा अजाब और मेरा डराना। 
और हमने कुरआन को नसीहत के लिए आसान कर दिया है तो क्या कोई है नसीहत हासिल 
करने वाला । (9-7) 








हजरत नूह की कौम के अकाबिर (बड़े) अपनी झूठी अज्मतों में गुम थे। वे हजरत नूह 
का एतराफ करने के लिए तैयार न हो सके। इसका नतीजा यह हुआ कि वे अजाबे इलाही 
की जद में आ गए। उन पर यह अजाब हौलनाक सैलाब की सूरत में आया। सारी कौम 
अपनी आबादियों सहित उसमें गर्क हो गई। अलबत्ता हजरत नूह और उनके साथी ख़ुदा के 
हुक्म से एक कश्ती में सवार हो गए। यह कश्ती चलती हुई अरारात पहाड़ पर ठहर गई। 


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395 पारा 27 


सूरह54. अल-कमर 
अरारात टर्की में वाकेअ है। वह वहां का सबसे ऊंचा पहाड़ है। उसकी चोटी 6853 
फिट ऊंची है। कुछ हवाबाजों का कहना है कि उन्होंने अरारात की बरफानी चोटी के 
ऊपर से उड़ते हुए वहां कश्ती जैसी एक चीज बफ में धंसी हुई देखी है। अगर यह सही 
हो तो इसका मतलब यह है कि फिरऔने मूसा की लाश जिस तरह अहराम के अंदर 
दफन थी और उन्नीसवीं सदी के आख़िर में बरामद होकर ख़ुदा की निशानी (यूनुस 92) 
बन गई, इसी तरह शायद किसी वक्त कश्ती नूह भी दरयाफ्त हो और वह लोगों के लिए 
ख़ुदा की निशानी बन जाए 





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आद ने झुठलाया तो कैसा था मेरा अजाब और मेरा डराना। हमने उन पर एक सख्त हवा 
भेजी मुसलसल नहूसत के दिन में। वह लोगों को उखाड़ फंकती थी जैसे कि वे उखड़े 
हुए खजूरों के तने हों। फिर केसा था मेरा अजाब और मेरा उराना। और हमने कुरआन 

को नसीहत के लिए आसान कर दिया, तो क्या कोई है नसीहत हासिल करने वाला। 
(8-22) 





कैमे आद जब खुदा के अजाब की मुस्तहिक हो गई तो खुदा ने उन पर ऐसी तेज आंधी 
भेजी जिसमें लोगों का जमीन पर ठहरना मुश्किल हो गया । आंधी उन्हें इस तरह उठा-उठाकर 
फेंक रही थी कि कोई दीवार से जाकर टकराता था और कोई दरख़त से किसी की छत उसके 
सर पर गिर पड़ी। यह इस बात का मुजाहिरा था कि इंसान बिल्कुल बेबस है, ख़ुदा के मुकाबले 
में उसे किसी किस्म का इख्तियार हासिल नहीं। 
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पारा 27 396 सूरह54. अल-कमर 
समूद ने डर सुनाने को झुठलाया। पस उन्होंने कहा क्या हम अपने ही अंदर के एक आदमी 
के कहे पर चलेंगे, इस सूरत में तो हम ग़लती और जुनून में पड़ जाएंगे। क्या हम सब में से 
उसी पर नसीहत उतरी है, बल्कि वह झूठा है, बड़ा बनने वाला। अब वे कल के दिन जान लेंगे 
कि कौन झूठा है और बड़ा बनने वाला। हम ऊंटनी को भेजने वाले हैं उनके लिए आजमाइश 
बनाकर, पस तुम उनका इंतिजार करो। और सब्र करो। और उन्हें आगाह कर दो कि पानी 
उन में बांट दिया गया है, हर एक बारी पर हाजिर हो। फिर उन्होंने अपने आदमी को पुकारा, 
पस उसने वार किया और ऊंटनी को काट डाला। फिर कैसा था मेरा अजाब और मेरा उराना। 
हमने उन पर एक चिंघाड़ भेजी, तो वे बाढ़ वाले की रौंदी हुई बाढ़ की तरह होकर रह गए। 
और हमने कुरआन को नसीहत के लिए आसान कर दिया, तो क्या कोई है नसीहत हासिल करने 
वाला। (23-32) 


पैगम्बर हमेशा आम इंसान के रूप में आता है, इसलिए इंसान उसे पहचान नहीं पाता। 
इसी तरह ख़ुदा की ऊंटनी भी बजाहिर आम ऊंटनी की तरह थी। इसलिए समूद के लोग उसे 
पहचान न सके। और उसे मार डाला। मौजूदा दुनिया इसी बात का इम्तेहान है। यहां लोगों 
को बजाहिर एक आम आदमी में खुदा के नुमाइंदे को देखना है। बजाहिर एक आम ऊंटनी 
में ख़ुदा की ऊ॑टनी को पहचान लेना है। जो लोग इस इम्तेहान में नाकाम रहें वे कभी हिदायत 
के रास्ते को नहीं पा सकते। 

कुरआन अगरचे गहरे मआनी की किताब है। मगर उसके अंदर बयान में हददर्जा वुजूह 
(CI77(5) है। इस वुजूह (सुस्पष्टता) की बिना पर कुरआन का समझना हर आदमी के लिए 
आसान हो गया है, चाहे वह एक आम आदमी हो या एक आला तालीमयाफ्ता आदमी । 


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लूत की कौम ने डर सुनाने वालों को झुठलाया। हमने उन पर पत्थर बरसाने वाली हवा भेजी, 
सिर्फ लूत के घर वाले उससे बचे, उन्हें हमने बचा लिया सहर (भोर) के वक्त । अपनी जानिब 

से फज्ल करके। हम इसी तरह बदला देते हैं उसे जो शुक्र करे। और लूत ने उन्हें हमारी 

पकड़ से डराया, फिर उन्होंने उस डराने में झगड़े पेदा किए। और वे उसके मेहमानों को उससे 
लेने लगे। पस हमने उनकी आंखें मिटा दीं। अब चखो मेरा अजाब और मेरा डराना। और 


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सूरह54. अल-कमर 397 पारा 27 
सुबह सवेरे उन पर अज़ाब आ पड़ा जो ठहर चुका था। अब चखो मेरा अज़ाब और मेरा 
डराना। और हमने कुरआन को नसीहत के लिए आसान कर दिया है तो क्या कोई है नसीहत 
हासिल करने वाला। (33-40) 


हजरत लूत अलैहि० की दावत उठी तो कुछ लोगों ने उसका एतराफ कर लिया, वे हक 
को बड़ा मान कर अपने आपको उसके मुकाबले में छोटा करने पर राजी हो गए। मगर अक्सर 
अफराद ने ऐसा नहीं किया। वे दलाइल का एतराफ करने के बजाए उसे रदूद करने के लिए 
झूठी बहसें निकालते रहे। हक की दावत के मुकाबले में इस किस्म की रविश बहुत बड़ा जुर्म 
है, चुनांचे एतराफ करने वालों को छोड़कर इंकार करने वाले पकड़ लिए गए। यह एक मिसाल 
है कि इस दुनिया में हक का इंकार करने वालों के लिए हलाकत है और हक का एतराफ करने 
वालों के लिए नजात। 


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और फिरऔन वालों के पास पहुंचे डराने वाले। उन्होंने हमारी तमाम निशानियों को झुठलाया 


तो हमने उन्हें एक ग़ालिब (प्रभावशाली) और कुव्वत वाले के पकड़ने की तरह पकड़ा। 
(4I-42) 


फिरऔन अपने वकत का इंतिहाई ताकतवर बादशाह था। मगर हक का इंकार करने के 
बाद वह अल्लाह की नजर में बेकीमत हो गया। इसके बाद वह एक आजिज इंसान की तरह 
हलाक कर दिया गया। इस दुनिया में हक के साथ खड़ा होने वाला आदमी जोरआवर है और 
हक के ड्िलाफ खब़ होने वाला आदमी बेजेर। 


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क्या तुम्हारे मुंकिर उन लोगों से बेहतर हैं या तुम्हारे लिए आसमानी किताबों में माफी लिख दी 
गई है। क्या वे कहते हैं कि हम ऐसी जमाअत हैं जो ग़ालिब रहेंगे। अनकरीब यह जमाअत 
शिकस्त खाएगी और पीठ फेरकर भागेगी । बल्कि कियामत उनके वादे का वक्‍त है और कियामत 
बड़ी सख्त और बड़ी कड़वी चीज है। बेशक मुजरिम लोग गुमराही में और बेअक्ली में हैं। जिस 
दिन वे मुंह के बल आग में घसीटे जाएंगे। चखो मजा आग का। (43-48) 


पारा 27 398 सूरह54. अल-कमर 
पिछले पैग़म्बरों का इंकार करने वालों के साथ जो वाकेयात पेश आए उनमें पैगम्बर हजरत 

मुहम्मद (सल्ल०) का इंकार करने वालों के लिए नसीहत थी। मगर उन्होंने इससे नसीहत न ली। 

यही तमाम कीमों का हाल है। खुली निशानियों के बावजूद हर कैम अपने आपको महफूज और 

मुस्तसना (अपवाद) कौम समझ लेती है। हर कौम दुबारा वही सरकशी करती है जो पिछली कीमों 

ने की और उसके नतीजे में वह खुदाई अजाब की मुस्तहिक हो गई। 

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हमने हर चीज को पैदा किया है अंदाजे से। और हमारा हुक्म बस यकबारगी आ जाएगा जैसे 

आंख का झपकना । और हम हलाक कर चुके हैं तुम्हारे साथ वालों को, फिर क्या कोई है सोचने 
वाला। और जो कुछ उन्होंने किया सब किताबों में दर्ज है। और हर छोटी और बड़ी बात लिखी 
हुई है। बेशक डरने वाले बागों में और नहरों में हांगे। बैठे सच्ची बैठक में, कुदरत वाले बादशाह 

के पास। (49-55) 





दुनिया की हर चीज का एक मुर्करर जाब्ता (नियम) है। यही उसूल इंसान के मामले में 
भी है। इंसान को एक मुकर्रर जाव्ते के तहत मौजूदा दुनिया में अमल का मौका दिया गया 
है। और मुरकर जान्ते ही के तहत उसे अमल के मकाम से हटाकर अंजाम के मकाम में पहुंचा 
दिया जाता है। ख़ालिक की कुदरत जो मौजूदा कायनात में जाहिर हुई है वह यह यकीन 
दिलाने के लिए काफी है कि यह मामला ऐन अपने वक्त पर बिलाताख़ीर (अविलंब) पेश 
आएगा। इसी तरह मौजूदा दुनिया में रिकॉर्डिंग का निजाम इस हकीकत का पेशगी एलान है 
कि हर एक के साथ ऐन वही मामला किया जाएगा जो उसके अमल के मुताबिक हो। ताहम 
ये बातें उसी शख्स की समझ में आएंगी जो अपने अंदर यह मिजाज रखता हो कि वह 
वाकेयात पर गैर करे। और जाहिर से गुजर कर बातिन मेछुपी हुई हकीकतों को देख सके। 

मौजूदा दुनिया इम्तेहान की दुनिया है। यहां हर एक को पूरी आजादी हासिल है। 
इसलिए मौजूदा दुनिया में यह मुमकिन है कि आदमी “झूठी नशिस्त (बैठक) पर भी बैठकर 
नुमायां हो सके। वह झूठ की जमीन पर इज्जत और मर्तबे का मकाम हासिल कर ले। मगर 
आखिरत में किसी के लिए ऐसा मुमकिन न होगा। आखिरत में इज्जत और कामयाबी सिर्फ 
उन लोगों को मिलेगी जो सच्ची नशिस्त पर बैठने वाले हों। जिन्होंने फिलवाकअ अपने 
आपको सच की जमीन पर खड़ा किया हो। आखिरत में खुदा की कुदरते कामिल का जुहूर 


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सूरह-55. अर-रहमान I399 पारा 27 
इस बात की जमानत बन जाएगा कि वहां सच्ची नश्स्ति के सिवा किसी और नशिस्त पर बैठना 
किसी के कुछ काम न आ सके। 


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(मदीना में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
रहमान ने, कुरआन की तालीम दी। उसने इंसान को पैदा किया । उसे बोलना सिखाया । सूरज और 
चांद के लिए एक हिसाब है। और सितारे और दरख़्त सज्दा करते हैं। और उसने आसमान को ऊंचा 


किया और उसने तराजू रख दी। कि तुम तोलने में ज्यादती न करो। और इंसाफ के साथ सीधी 
तराजू तोलो और तोल में न घटाओ। (-9) 


आयतें-78 


अल्लाह तआला ने इंसान को बनाया । उसे नुत्क (बोलने) की अनोखी सलाहियत दी जो 
सारी मालूम कायनात में किसी को हासिल नहीं। फिर इंसान से जो आदिलाना (न्यायपूर्ण) 
रविश मत्लूब थी उसका अमली नमूना उसने कायनात में कायम कर दिया। इंसान के गिर्द व 
पेश की पूरी दुनिया ऐन उसी उसूले अदूल पर कायम है जो इंसान से अल्लाह तआला को 
मत्लूब है और कुरआन में इसी अदूल (न्याय) को लफ्जी तौर पर बयान कर दिया गया है। 
कुरआन खुदाई अदल का लफ्गी इज्हार है और कायनात खुदाई अदल का अमली इरहार। 
बंदों के लिए जरूरी है कि वह अपने कौल व अमल को इसी तराजू से नापते रहें। वे न लेने 
में बेइंसाफी करें और न देने में। 


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पारा 27 I400 सूरह-55. अर-रहमान 


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और जमीन को उसने ख़ल्क (प्राणियों) के लिए रख दिया। उसमें मेवे हैं और खजूर हैं 
जिनके ऊपर ग्रिलाफ होता है। और भुस वाले अनाज भी हैं और खुशबूदार फूल भी। फिर 
तुम अपने रब की किन-किन नेमतों को झुठलाओगे। उसने पैदा किया इंसान को ठीकरे 
की तरह खंखनाती मिट्टी से और उसने जिन्नात को आग की लपट से पैदा किया। फिर 
तुम अपने रब की किन-किन नेमतों को झुठलाओगे। वह मालिक है दोनों मश्रिक (पूर्व) 
का और दोनों मग्रिब का (पश्चिम)। फिर तुम अपने रब की किन-किन नेमतों को 
झुठलाओगे। उसने चलाए दो दरिया, मिलकर चलने वाले। दोनों के दर्मियान एक पर्दा है 
जिससे वे आगे नहीं बढ़ते। फिर तुम अपने रब की किन-किन नेमतों को झुठलाओगे। उन 
दोनों से मोती और मूंगा निकलता है। फिर तुम अपने रब की किन-किन नेमतों को 
झुठलाओगे। और उसी के हैं जहाज समुद्र में ऊंचे खड़े हुए जैसे पहाड़, फिर तुम अपने 
रब की किन-किन नेमतों को झुठलाओगे। (0-25) 





इस दुनिया का बेशतर हिस्सा सितारों पर मुशतमिल है जो सरापा आग हैं। जिन्नात उसी 
आग के मादूदा से बनाए गए हैं। मगर इंसान के साथ अल्लाह तआला का यह खुसूसी मामला 
है कि उसे 'मिट्टी” से बनाया गया है जो वसीअ कायनात में इंतिहाई नादिर चीज है। 

जमीन सारी कायनात में एक अनोखा इस्तिसना (अपवाद) है। यहां वे तमाम असबाब 
हददर्जा तवाजुन (संतुलन) और तनासुब (अनुपात) के साथ मुहय्या किए गए हैं जिनके जरिए 
इंसान जैसी मख्लूक के लिए रहना और तमदूदुन (सभ्यता) की तामीर करना मुमकिन हो सके। 
इन्हीं इंतिजामात में से एक इंतिजाम जमीन में मश्रिकैन और मशिन का होना है। जाड़े के 
मौसम में सूरज के तुलूअ व गुरूब के मकामात दूसरे होते हैं। और गर्मी के मौसम में दूसरे। इस 
लिहाज सेउसके मशक व मश्वि कई हो जाते है। यह मैप्तमी फ्कफन मेजीन के महवरी 
झुकाव (^।१] ४।) की वजह से पैदा होता है। यह झुकाव कायनात का एक इंतिहाई अनोखा 
वाकया है। और इससे बेशुमार तमद्दुनी फायदे इंसान को हासिल होते हैं। 

नाकाबिले कयास हद तक वसीअ कायनात में इंसान और जमीन का यह इस्तिसना खुदा 
की नेमत व कुदरत का ऐसा अजीम मामला है कि इंसान किसी भी तरह उसका शुक्र अदा 
करने पर कादिर नहीं। 


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सूरह-55. अर-रहमान I40I 


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जो भी जमीन पर है वह फना होने वाला है। और तेरे रब की जात बाकी रहेगी, अप्मत वाली 
और इज्जत वाली । फिर तुम अपने रब की किन-किन नेमतों को झुठलाओगे। उसी से मांगते 


हैं जो आसमानों और जमीन में हैं। हर रोज उसका एक काम है। फिर तुम अपने रब की 
किन-किन नेमतों को झुठलाओगे। (26-30) 


पारा 27 


दुनिया का मुतालआ बताता है कि हर चीज फनापजीर (पतनशील) है। अशया (चीजें) 
का फनापजीरी के बावजूद मौजूद होना यह साबित करता है कि उनका ख़लिक और मुजिम 
गैर फानी है। अगर वह गैर फानी न होता तो अशया का वजूद ही न होता। या अगर होता 
तो अब तक उनका वजूद मिट चुका होता। 

दुनिया का मुतालआ यह भी बताता है कि दुनिया की किसी चीज के अंदर तख्लीक 
(सृजन) की ताकत नहीं। इसका मतलब यह है कि अशया अपनी बका (अस्तित्व) के लिए 
जिन चीजों की मोहताज हैं वे उनकी अपनी पैदाकरदा नहीं हैं। यह वाकया दुबारा ख़ालिक 
के बेपायां कुदरत को बताता है। ये हकीकतें इतनी वाजेह हैं कि किसी संजीदा आदमी की 
लिए इनका इंकार मुमकिन नहीं। 

ख़ुदा की निशानियां इस दुनिया में इतनी ज्यादा हैं कि एक संजीदा इंसान के लिए उन्हें 
नजरअंदाज करना किसी तरह मुमकिन नहीं। मगर इंसान इतना जालिम है कि वह निशानियों 
के हुजूम में भी निशानियों का इंकार करता है। 

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हम जल्द ही फारि होने वाले हैं तुम्हारी तरफ से, दो भारी काफिलो। फिर तुम अपने रब की 
किन-किन नेमतों को झुठलाओगे । ऐ जिन्नों और इंसानों के गिरोह, अगर तुमसे हो सके कि तुम 
आसमानाँ और जमीन की हदों से निकल जाओ तो निकल जाओ, तुम नहीं निकल सकते कौर 
सनद के। फिर तुम अपने रब की किन-किन नेमतों को झुठलाओगे। तुम पर छोड़े जाएंगे आग के 
शोले और धुवां तो तुम बचाव न कर सकोगे। फिर तुम अपने रब की किन-किन नेमतों को 
झुठलाओगे । (32-36) 


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पारा 27 I402 सूरह-55. अर-रहमान 





मौजूदा दुनिया इम्तेहान की दुनिया है। जब तक इम्तेहान की दुनिया ख़त्म नहीं होती हर 
शख्स सरकशी करने के लिए आजाद है। मगर कामिल आजादी के बावजूद कोई जिन्न व इंस 
इस पर कादिर नहीं कि वह कायनात की हुदूद से बाहर चला जाए। यही वाकया यह साबित 
करने के लिए काफी है कि इंसान पूरी तरह ख़ुदा की गिरफ्त में है। इम्तेहान की मुदृदत ख़त्म 
होने पर जब वह लोगों को पकड़ेगा तो किसी के लिए मुमकिन न होगा कि उससे अपने 
आपको बचा सके । 


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फिर जब आसमान फटकर खाल की मानिंद सुर्ख़ हो जाएगा । फिर तुम अपने रब की किन-किन 
नेमतों को झुठलाओगे। पस उस दिन किसी इंसान या जिन्न से उसके गुनाह की बाबत पूछ न 
होगी। फिर तुम अपने रब की किन-किन नमतों को झुठलाओगे। मुजरिम पहचान लिए जाएंगे 
अपनी अलामतों से, फिर पकड़ा जाएगा पेशानी के बाल से और पांव से। फिर तुम अपने रब 
की किन-किन नेमतों को झुठलाओगे। यह जहन्नम है जिसे मुजरिम लोग झूठ बताते थे। वे फिरेंगे 


उसके दर्मियान और खौलते पानी के दर्मियान। फिर तुम अपने रब की किन-किन नेमतों को 
झुठलाओगे । (37-45) 





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इंकार और सरकशी की वजह हमेशा बेख़ौफी होती है। कियामत का हौलनाक लम्हा जब 
सामने आएगा तो मुजरिम अपनी सरकशी भूल जाएंगे। मौजूदा दुनिया में जिस हक को वे 
ताकतवर दलाइल के बावजूद मानने के लिए तैयार न होते थे, कियामत में उसे बिला बहस 
मान लेंगे। मगर उस वक्‍त का मानना किसी के कुछ काम न आएगा। अल्लाह की कुदरतों 
को गैब में मानना मोतबर है न कि उसके जाहिर हो जाने के बाद। 


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सूरह-55. अर-रहमान I403 पारा 27 


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और जो शख्स अपने रब के सामने खड़ा होने से डरे उसके लिए दो बाग़ हैं। फिर तुम 
अपने रब की किन-किन नेमतों को झुठलाओगे। दोनों बहुत शाख़ों वाले। फिर तुम अपने 
रब की किन-किन नेमतों को झुठलाओगे। उनके अंदर दो चशमे (स्रोत) जारी होंगे। फिर 
तुम अपने रब की किन-किन नेमतां को झुठलाओगे। दोनों बाग़ों में हर फल की दो किस्में। 
फिर तुम अपने रब की किन-किन नेमतों को झुठलाओगे। वे तकिया लगाए ऐसे बिछौनों 
पर बैठे होंगे जिनके अस्तर दबीज (गाढे) रेशम के होंगे। और फल उन बागों का झुक 
रहा होगा। फिर तुम अपने रब की किन-किन नेमतों को झुठलाओगे। उनमें नीची निगाह 
वाली औरतें होंगी। जिन्हें उन लोगों से पहले न किसी इंसान ने छुवा होगा न किसी जिन्न 
ने। फिर तुम अपने रब की किन-किन नेमतों को झुठलाओगे। वे ऐसी होंगी जैसे कि याकूत 
(लालमणि) और मरजान (मूंगा) । फिर तुम अपने रब की किन-किन नेमतों को झुठलाओगे। 
नेकी का बदला नेकी के सिवा और क्या है। फिर तुम अपने रब की किन-किन नेमतों 
को झुठलाओगे। (46-62) 





वसीअ तक्सीम के एतबार से जन्नत के दो बड़े दर्जे हैं। इन आयात में दो बागों वाली 
जिस जन्नत का जिक्र है वह पहले दर्जे वाली जन्नत है। उस जन्नत में शाहाना दर्जे की नेमतें 
मुहय्या होंगी । ये आला नेमतें उन लोगों को मिलेंगी जिन पर अल्लाह का फिक्र इतना गालिब 
हुआ कि मौजूदा दुनिया में ही उन्होंने अपने आपको अल्लाह के सामने खड़ा कर लिया। 
उन्होंने एहसान (उच्चतम) के दर्ज में अल्लाह से तअल्लुक का सुबूत दिया। 


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और उनके सिवा दो बाग़ और हैं। फिर तुम अपने रब की किन-किन नेमतों को झुठलाओगे । दोनों 
गहरे सब्ज स्याही मायल । फिर तुम अपने रब की किन-किन नेमतों को झुठलाओगे । उनमें दो चशमे 
(स्रोत) होंगे उबलते हुए । फिर तुम अपने रब की किन-किन नेमतों को झुठलाओगे। उनमें फल और 
खजूर और अनार होंगे। फिर तुम अपने रब की किन-किन नेमतों को झुठलाओगे । उनमें खूबसीरत 
(सुशील), खूबसूरत औरतें होंगी । फिर तुम अपने रब की किन-किन नेमतों को झुठलाओगे। हूरे 
ख़ेमों में रहने वालियां। फिर तुम अपने रब की किन-किन नेमतों को झुठलाओगे । उनसे पहले उन्हे 
न किसी इंसान ने हाथ लगाया होगा और न किसी जिन्न ने। फिर तुम अपने रब की किन-किन 
नेमतोंको झुठलाओगे। तकिया लगाए सब्ज मस्नदों (हरित आसनो) पर और कीमती नफीस बिछौने 

पर। फिर तुम अपने रब की किन-किन नेमतों को झुठलाओगे। बड़ा बाबरकत है तेरे रब का नाम 
बड़ाई वाला और अज्मत वाला । (62-78) 


इन आयात में दूसरी जन्नत का जिक्र है। वह भी पहली जन्नत की तरह दो बागों वाली 
होगी। यह जन्नत आम अहले तकवा के लिए होगी। मौजूदा दुनिया की नेमतों के एतबार से 
इस जन्नत की नेमतें भी अगरचे नाकाबिले कयास हद तक ज्यादा होंगी मगर पहली जन्नत 
के मुकाबले में वह दूसरे दर्ज की जन्नत है। ये जन्नतें उस ख़ालिक व मालिक के शायाने शान 
होंगी जिसकी अज्मतों और कुदरतों के नमूने मौजूदा दुनिया में जाहिर हुए हैं और जिन्हें देखने 
वाले आज ही देख रहे हैं। 


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(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
जब वाकेअ (घटित) होने वाली वाकेअ हो जाएगी। उसके वाकेअ होने में कुछ झूठ नहीं। वह 








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सूरह-56. अल-वाकिअह I405 पारा 27 
पस्त करने वाली, बुलन्द करने वाली होगी। जबकि जमीन हिला डाली जाएगी। और पहाड़ टूट 
कर रेजाररेजा हो जाएंगे। फिर वे परागंदा गुबार (मलिन धुंध) बन जाएंगे। और तुम लोग तीन 

किस्म के हो जाओगे। (।-7) 


मौजूदा दुनिया में आदमी देखता है कि उसे आजादी हासिल है कि जो चाहे करे। इसलिए 
आखिरत की पकड़ की बात उसके जेहन में नहीं बैठती । मगर अगली दुनिया का बनना इतना 
ही मुमकिन है जितना मौजूदा दुनिया का बनना | जब वह वक्त आएगा तो सारा निजाम पलट 
हो जाएगा। ऊपर के लोग नीचे हो जाएंगे। और नीचे के लोग ऊपर दिखाई देंगे। उस वकत 
इंसान अपने-अपने अमल के एतबार से तीन गिरोहाँ में तक्सीम हो जाएंगे। अससाबिकून 
(आगे वाले), असहाबुलयमीन (दाई तरफ वाले) और असहाबुश्शिमाल (बाई तरफ वाले)। 


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फिर दाएं वाले, पस क्या ख़ूब हैं दाएं वाले। और बाएं वाले कैसे बुरे लोग हैं बाएं वाले। 
और आगे वाले तो आगे ही वाले हैं। वे मुकर्रब लोग हैं। नेमत के बागों में। उनकी बड़ी 
तादाद अगलों में से होगी। और थोड़े पिछलों में से होंगे। जड़ाऊ तए्तों पर। तकिया लगाए 
आमने सामने बैठे होंगे। फिर रहे होंगे उनके पास लड़के हमेशा रहने वाले। आबख़ोरे और 
कूजे लिए हुए और प्याला साफ शराब का। उससे न सर दर्द होगा और न अक्ल में फुतूर 

आएगा। और मेवे कि जो चाहें चुन लें। और परिंदों का गोश्त जो उन्हें मरशूब (पसंद) हो। 
और बड़ी आंखों वाली हूरें। जैसे मोती के दाने अपने ग़िलाफ के अंदर। बदला उन कामों 
का जो वे करते थे। उसमें वे कोई लग्व (घटिया, निरर्थक) और गुनाह की बात नहीं सुनेंगे। 
मगर सिर्फ सलाम-सलाम का बोल । (8-26) 





पारा 27 I406 


सूरह-56. अल-वाकिअह 


अससाबिकून (आगे वाले) वे लोग हैं जो हक के सामने आते ही फौरन उसे कुबूल कर 
लें। वे बिला ताख़ीर (अविलंब) अपने आपको हक के हवाले कर दें। हजरत आइशा कहती हैं 
कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : क्या तुम जानते हो कि कियामत 
के दिन कौन लोग अल्लाह के साये में सबसे पहले जगह पाएंगे। लोगों ने कहा कि अल्लाह 
और उसका रसूल ज्यादा बेहतर जानते हैं। आपने फरमाया कि वे लोग कि जब उनके सामने 
हक आया तो उन्होंने उसे कुबूल कर लिया। और जब उनसे हक मांगा गया तो उन्होंने उसे 
दिया । और दूसरों के मामले में उन्होंने वही फैसला किया जो फैसला उनका ख़ुद अपने बारे में 
था। (तप्सीर इने कसीर) 
दावत के दौरे अव्वल में जो अफराद आगे बढ़कर इस्लाम कुबूल करते हैं उनके लिए 
इस्लाम एक दरयाफ्त होता है। इसके बाद उनकी जो नस्लें हैं वे इस्लाम को विरासत के तौर 
पर पाती हैं। दरयाफ्त और विरासत का यही फर्क है जो पहले गिरोह का मर्तबा दूसरे गिरोह 
से बुलन्द कर देता है। कुदरती तौर पर दूसरा गिरोह तादाद में ज्यादा होता है और पहला 
गिरोह कम। आख़िरत में दूसरे गिरोह के लिए अगर आम इनामात हैं तो पहले गिरोह के लिए 
शाहाना इनामात। 


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और दाहिने वाले, क्या ख़ूब हैं दाहिने वाले। बेरी के दरस्तों में जिनमें कांटा नहीं। और 
केले तह-ब-तह। और फैले हुए साये। और बहता हुआ पानी। और कसरत (बहुलता) से 
मेवे। जो न ख़त्म होंगे और न कोई रोकटोक होगी। और ऊंचे बिछौने। हमने उन औरतों 
को ख़ास तौर पर बनाया है। फिर उन्हें कुंवारी रखा है। दिलरुबा और हमउम्र। दाहिने 


वालों के लिए। अगलों में से एक बड़ा गिरोह होगा और पिछलों में से भी एक बड़ा गिरोह । 
(27-40) 





असहाबुलयमीन (दाई तरफ वाले) से मुराद आम अहले जन्नत हैं। इसमें वे तमाम लोग 
शामिल हैं जो अपने अकीदे और किरदार के एतबार से सालेह थे। उन्हें ईमानी एतबार से 
अगरचे आला शुऊरी दर्जा हासिल न था ताहम वे ख़ुदा व रसूल के लिए मुख्लिस थे और 
अपनी जिंदगी में इंसाफ और खुदातरसी के रास्ते पर कायम रहे। इस गिरोह में दौरे अव्वल 
के भी काफी लोग होंगे और दौरे सानी के भी काफी लोग। 


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सूरह-56. अल-वाकिअह I407 पारा 27 
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और बाएं वाले, कैसे बुरे हैं बाएं वाले। आग में और खौलते हुए पानी में। और स्याह धुवें के 
साये में। न ठंडा और न इज्जत का। ये लोग इससे पहले खुशहाल थे। और भारी गुनाह पर 

इसरार करते रहे। और वे कहते थे, क्या जब हम मर जाएंगे। और हम मिट्टी और हड़िडयां 
हो जाएंगे तो क्या हम फिर उठाए जाएंगे। और क्या हमारे अगले बाप दादा भी। कहो कि अगले 
और पिछले सब, जमा किए जाएंगे। एक मुरकर दिन के वक्‍त पर। फिर तुम लोग, ऐ बहके 

हुए और झुठलाने वाले। जक्कूम के दरख्न में से खाओगे। फिर उससे अपना पेट भरोगे। फिर 

उस पर खौलता हुआ पानी पियोगे। फिर प्यासे ऊंटों की तरह पियोगे। यह उनकी मेहमानी होगी 
इंसाफ के दिन। (4-56) 





असहाबुश्शिमाल (बाई तरफ वाले) से मुराद वे लोग हैं जिनके लिए अजाब का फैसला 
किया जाएगा। दुनिया में उन्हें जो चीजें मिली थीं उन्होंने उन्हें धोखे में डाल दिया। वे अल्लाह 
के सिवा दूसरी चीजों को अपना मकजे तवज्जोह बनाए रहे। जो इस दुनिया में किसी इंसान 
का सबसे बड़ा जुर्म है। वे आख़िरत को इस तरह भूले रहे गोया कि वह आने वाली ही नहीं । 
ऐसे लोग फैसले के दिन सर्न अजब के मुस्तहिक करार दिए जाणी। 


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हमने तुम्हें पैदा किया है। फिर तुम तस्दीक (पुष्टि) क्यों नहीं करते। क्या तुमने गौर किया 
उस चीज पर जो तुम टपकाते हो। क्या तुम उसे बनाते हो या हम हैं बनाने वाले। हमने 
तुम्हारे दर्मियान मौत मुकदृदर की है और हम इससे आजिज नहीं कि तुम्हारी जगह तुम्हारे 
जैसे पैदा कर दें और तुम्हें ऐसी सूरत में बना दें जिन्हें तुम जानते नहीं। और तुम पहली 
पेदाइश को जानते हो फिर क्‍यों सबक नहीं लेते। क्या तुमने गीर किया उस चीज पर जो 
तुम बोते हो। क्या तुम उसे उगाते हो या हम हैं उगाने वाले। अगर हम चाहें तो उसे रेजा-रेजा 
कर दें, फिर तुम बातें बनाते रह जाओ। हम तो तावान (दंढ) में पड़ गए। बल्कि हम बिल्कुल 
महरूम हो गए। क्या तुमने गौर किया उस पानी पर जो तुम पीते हो। क्या तुमने उसे बादल 
से उतारा है। या हम हैं उतारने वाले। अगर हम चाहें तो उसे सख्त खारी बना दें। फिर 
तुम शुक्र क्यों नहीं करते। क्या तुमने गौर किया उस आग पर जिसे तुम जलाते हो। क्या 
तुमने पैदा किया है उसके दरख़्त को या हम हैं उसके पैदा करने वाले। हमने उसे याददिहानी 


बनाया है। और मुसाफिरों के लिए फायदे की चीज। पस तुम अपने अजीम (महान) रब के 
नाम की तस्बीह करो। (57-74) 











मां के पेट से इंसान का पैदा होना, जमीन से खेती का उगना, बारिश से पानी का 
बरसना, ईधन से आग का हासिल होना, ये सब चीजें बराहेरास्त खुदा की तरफ से हैं। आदमी 
को उनके मिलने पर खुदा का शुक्रगुजार होना चाहिए । उन्हें खुदा का अतिया समझना चाहिए 
न कि अपने अमल का नतीजा। 

इन वाकेयात में गौर करने वाले के लिए बेशुमार नसीहतें हैं। इनमें मौजूदा जिंदगी के 
बाद दूसरी जिंदगी का सुबूत है। इसी तरह इनमें यह निशानी है कि जिसने उन्हें दिया है 
वह उन्हें छीन भी सकता है। फिर इसी का एक नमूना पानी का मामला है। पानी का 
जहीरा समुद्रं की शवल में है जो कि ज्यादातर खारी हैं। पानी का तकरीबन 98 फीसद 


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सूरह-56. अल-वाकिअह I409 पारा 27 
हिस्सा समुद्र में है। और समुद्र के पानी का /0 हिस्सा नमक होता है। यह ख़ुदा के कानून 
का करिश्मा है कि समुद्र से जब पानी के बुखारात (वाष्प) उठते हैं तो ख़ालिस पानी ऊपर 
उड़ जाता है और नमक नीचे रह जाता है। हकीकत यह है कि बारिश का अमल इजालए 

नमक (Desalination) कए अ आफै (नैसर्गिक) अमल है। अगर यह कुदरती 
एहतिमाम न हो तो सारा का सारा पानी वैसा ही खारी हो जाए जैसा समुद्र का पानी होता 
है। पहाड़ों पर जमी हुई बर्फ और दरियाओं में बहने वाला पानी सबके सब सख्त खारी हों, 
जमीन पर पानी के अथाह जख़ीरे के बावजूद मीठे पानी का हुसूल इंसानियत के लिए सख्त 
नाकाबिले हल मसला बन जाए। आदमी अगर इसे सोचे तो उसका सीना हम्दे खुदावंदी 
(ईश-प्रशंसा) के जज्बे से भर जाएगा। 


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पस नहीं, मैं कसम खाता हूं सितारों के मवाकेअ (स्थितियों) की । और अगर तुम ग़ौर करो तो 

यह बुहुत ब॒ब कसम है। बेशक यह एक इनत वाला कुआन है। एक महफून किताब मै 

इसे वही छूते हैं जो पाक बनाए गए हैं। उतारा हुआ है परवरदिगारे आलम की तरफ से। फिर 
कया तुम इस कलाम के साथ बेएतनाई (बेपरवाही) बरतते हो। और तुम अपना हिस्सा यही लेते 
हो कि तुम उसे झुठलाते हो। (75-82) 





मवाकेअ का लफ्न मौका का बहुबचन है। इसके मअना है गिरने की जगह। चुनांचे 
बारिश होने की जगह को मवाकिउलकतर कहा जाता है। यहां सितारों के मवाकेअ से मुराद 
ग़ालिबन सितारों के मदार (07/5) हैं। कायनात में बेशुमार निहायत बड़े-बड़े सितारे हैं। वे 
हददर्जा सेहत के साथ अपने अपने मदार (कक्ष) पर घूम रहे हैं। 
यह वाकया दहशतनाक हद तक अजीम है। जो शख्स इस ख़लाई निजाम पर गौर करेगा 
वह यह मानने पर मजबूर होगा कि इस कायनात का ख़ालिक नाकाबिले कयास हद तक 
अजीम है। फिर ऐसे खलिक की तरफ से जो किताब आए वह भी यकीनन अजीम होगी। 
और कुरआन बिलाशुबह ऐसी ही एक अजीम किताब है। 
कुरआन जिस तरह लैहि महफूज में था, ठीक उसी तरह वह फरिश्तों के जरिए पेगम्बर 
तक पहुंचा। और आज तक वह उसी तरह महफूज है। कदीम जमाने में कोई भी दूसरी 
किताब नहीं जो इस तरह कामिल तौर पर महफूज हो। यह वाकया खुद इस किताब की 
अक (महानता) का सुबूत है। ऐसी एक किताब से जो शख्स हिदायत हासिल न करे उसकी 
महरूमी का कोई ठिकाना नहीं। 


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पारा 27 I40 


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फिर क्यों नहीं, जबकि जान हलक में पहुंचती है। और तुम उस वक्‍त देख रहे होते हो। और 
हम तुमसे ज्यादा उस शख्स से करीब होते हैं मगर तुम नहीं देखते। फिर क्यों नहीं, अगर तुम 
महकूम (अधीन) नहीं हो तो तुम उस जान को क्यों नहीं लौटा लाते, अगर तुम सच्चे हो। पस 
अगर वह मुकर्रबीन (निकटवर्तियों में से हो तो राहत है और उम्दा रोजी है और नेमत का बाग़ 
है। और अगर वह असहाबुलयमीन (दाई तरफ वाले) में से हो तो तुम्हारे लिए सलामती, तू 
असहाबुलयमीन में से है। और अगर वह झुठलाने वाले गुमराह लोगों में से हो। तो गर्म पानी 


की जियाफत (सत्कार) है, जहन्नम में दाखिल होना । वेशक यह कतई हक है। पस तुम अपने 
अजीम रब के नाम की तस्वीह करो। (83-96) 


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मौत का वाकया इस बात का आखिरी सुबूत है कि इंसान खुदाई ताकतों के आगे 
बिल्कुल बेबस है। हर आदमी लाजिमन एक मुर्कररह वक्‍त पर मर जाएगा, और कोई नहीँ 
जो उसे मौत के फरिश्ते से बचा सके। ऐसी हालत में आदमी को सबसे ज्यादा मौत के 
बाद के मसले के बारे में फिक्रमंद हो जाना चाहिए। मौत से पहले की जिंदगी में जिन 
लोगों ने जन्नत वाले आमाल किए हैं उन्हें मौत के बाद की जिंदगी में जन्नत मिलेगी। 
इसके बरअक्स, जो लोग दुनिया में ख़ुदा से दूर थे वे आखिरत में भी ख़ुदा की रहमतों 
से दूर रखे जाएंगे। उनकी जियाफत (सत्कार) की लिए वहां गर्म पानी है और उनके रहने 
के लिए वहां आग की दुनिया। 








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आयतें-29 सूरह-57. अल-हदीद रुकूअ-4 
(मदीना में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
अल्लाह की तस्बीह करती है हर चीज जो आसमानां ओर जमीन में है और वह जबरदस्त 
है हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। आसमानां और जमीन की सल्तनत उसी की है। वह 
जिलाता है और मारता है और वह हर चीज पर कादिर है। वही अव्वल भी है और आख़िर 
भी और जहिर (व्यक्त) भी है और बातिन (अव्यक्त) भी। और वह हर चीज का जानने 
वाला है। वही है जिसने आसमानां और जमीन को पैदा किया छः दिनों में, फिर वह अर्श 
पर मुतमक्किन (आसीन) हुआ। वह जानता है जो कुछ जमीन के अंदर जाता है और जो 
उससे निकलता है और जो कुछ आसमान से उतरता है और जो कुछ उसमें चढ़ता है, 
और वह तुम्हारे साथ है जहां भी तुम हो, और अल्लाह देखता है जो कुछ तुम करते हो। 
आसमानाँ और जमीन की सल्तनत उसी की है, और अल्लाह ही की तरफ लोटते हैं सारे 
मामले। वह रात को दिन में दाखिल करता हे और दिन को रात में दाखिल करता है, 
और वह दिल की बातों को जानता है। (-6) 





कायनात जबाने हाल (वस्तुस्थिति) से अपने लिक की जिन सिफत (गुणों) की ख़बर 
दे रही है, कुआन में उन्हीं सिफात को अल्फज की सूरत दे दी गई है। यहां जब एक चीज 
जाहिर होती है तो वह अमल की जबान में कह रही होती है कि कोई उसका जाहिर करने 
वाला है। और जब वह चीज ख़त्म होती है तो वह इस बात का अमली एलान कर रही होती 
है कि कोई उसका ख़त्म करने वाला है। इसी तरह दूसरी तमाम सिफतें। हकीकत यह है कि 
कायनात अगर खुदा की अमली तस्बीह है तो कुरआन खुदा की लफ्जी तस्बीह। 
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ईमान लाओ अल्लाह और उसके रसूल पर और खर्च करो उसमें से जिसमें उसने तुम्हें अमीन 
(साधिकार) बनाया है। पस जो लोग तुम में से ईमान लाएं और खर्च करें उनके लिए बड़ा अज्र 
है। और तुम्हें क्या हुआ कि तुम अल्लाह पर ईमान नहीं लाते, हालांकि रसूल तुम्हें बुला रहा 
है कि तुम अपने रब पर ईमान लाओ और वह तुमसे अहद (वचन) ले चुका है, अगर तुम मोमिन 
हो। वही है जो अपने बंदे पर वाजेह आयतें उतारता है ताकि तुम्हें तारीकियों से रोशनी की तरफ 
ले आए और अल्लाह तुम्हारे ऊपर नर्मी करने वाला है, महरबान है। और तुम्हें क्या हुआ कि 
तुम अल्लाह के रास्ते में खर्च नहीं करते हालांकि सब आसमान और जमीन आख़िर में अल्लाह 
ही का रह जाएगा। तुम में से जो लोग फतह के बाद ख़र्च करें और लड़ वे उन लोगों के बराबर 
नहीं हो सकते जिन्होंने फतह से पहले ख़र्च किया और लड़े, और अल्लाह ने सबसे भलाई का 
वादा किया है, अल्लाह जानता है जो कुछ तुम करते हो। (7-0) 


इस्लाम की दावत जब उठती है तो वह अपने इब्तिदाई मरहले में “आयात बय्यिनात' 
(सुस्पष्ट तर्को) के ऊपर खड़ी होती है। दूसरा दौर वह है जबकि उसे माहौल में 'फतह” हासिल 
हो जाए। पहले दौर में सिर्फ वे लोग इस्लाम के लिए कुर्बानी देने का हौसला करते हैं जो दलादल 
की सतह पर किसी चीज की अज्मत को देखने की सलाहियत रखते हों। मगर जब इस्लाम को 
फतह व गलबा हासिल हो जाए तो हर आदमी उसकी अज्मत को देख लेता है। और हर आदमी 
आगे बढ़कर उसके लिए जान व माल पेश करने में फख़ महसूस करता है। 

इब्तिदाई दौर में इस्लाम के लिए खर्च करने वाले को यकतरफा तौर पर खर्च करना पड़ता 
है। जबकि दूसरे दौर में यह हाल हो जाता है कि आदमी जितना खर्च करता है उससे ज्यादा 
वह मुख्तलिफ शक्लों में उसका इनाम इसी दुनिया में पा लेता है। यही वजह है कि दोनों का 
दर्जा अल्लाह के यहां यकसां (एक जैसा) नहीं। 





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कौन है जो अल्लाह को कर्ज दे, अच्छा कमु कि वह उसे उसके लिए बद़ए, और उसके 
लिए बाइज्जत अज्र है। जिस दिन तुम मोमिन मर्दों और मोमिन औरतों को देखोगे कि 
उनकी रोशनी उनके आगे और उनके दाएं चल रही होगी। आज के दिन तुम्हें खुशखबरी 
है बागों की जिनके नीचे नहरें जारी होंगी, यह बड़ी कामयाबी है। जिस दिन मुनाफिक 
(पाखंडी) मर्द और मुनाफिक औरतें ईमान वालों से कहेंगे कि हमें मौका दो कि हम भी 
तुम्हारी रोशनी से कुछ फायदा उठा लें। कहा जाएगा कि तुम अपने पीछे लौट जाओ। 
फिर रोशनी तलाश करो। फिर उनके दर्मियान एक दीवार खड़ी कर दी जाएगी जिसमें एक 
दरवाजा होगा। उसके अंदर की तरफ रहमत होगी। और उसके बाहर की तरफ अजाब 
होगा। वे उन्हें पुकारेंगे कि क्या हम तुम्हारे साथ न थे। वे कहेंगे कि हां, मगर तुमने अपने 
आपको फितने में डाला और राह देखते रहे और शक में पड़े रहे और झूठी उम्मीदों ने 
तुम्हें धोखे में रखा, यहां तक कि अल्लाह का फैसला आ गया और धोखेबाज ने तुम्हें 
अल्लाह के मामले में धोखा दिया। पस आज न तुमसे कोई फिदया (मुक्ति-मुआवजा) कुबूल 


किया जाएगा और न उन लोगों से जिन्होंने कुफ्र किया। तुम्हारा ठिकाना आग है। वही 
तुम्हारी रफीक (साथी) है। और वह बुरा ठिकाना है। (-5) 





सच्चा इस्लाम जब माहौल में अजनबी हो, उस वक्त सच्चे इस्लाम की तरफ बढ़ना अपने 
आपको आजमाइश में डालने के हममअना होता है। उस वकत इस्लाम की हकीकत पर 
शुबहात के पर्दे पड़े होते हैं। उस वक्‍त इस्लाम की राह में ख़र्च करना ऐसा होता है गोया 
उम्मीदे मौहूम (अनिश्चितता) पर किसी को कर्ज देना। शक और तरद्दुद (असमंजस) की 
फिजा हर तरफ लोगों को घेरे हुए होती है। खुदा के वादों के मुकाबले में लोगों को अपने 
सामने के फायदे ज्यादा यकीनी मालूम हेते हैं। ऐसे ववत में अपनी जान व माल को इस्लाम 
के हवाले करना जबरदस्त कुब्बते फैसला चाहता है। ऐसे वक्त में वही शख्स आगे बढ़ने की 
हिम्मत करता है जो अक्ल व बसीरत (सूझबूझ) की ताकत से चीजों को पहचानने की 
सलाहियत रखता हो। 





पारा 27 I4I4 सूरह-57. अल-हदीद 
जो लोग दुनिया में इस बसीरत का सुबूत दें उनको बसीरत कियामत के दिन उनके लिए 
रोशनी बन जाएगी जिसमें वे वहां के मुश्किल मराहिल में अपना सफर तै कर सकें। जो बसीरत 
दुनिया में उनकी रहनुमा बनी थी वही बसीरत आख़िरत में भी अल्लाह की मदद से उनके लिए 
रहनुमा का काम अंजाम देगी। 
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क्या ईमान वालों के लिए वह वक्‍त नहीं आया कि उनके दिल अल्लाह की नसीहत के 
आगे झुक जाएं। और उस हक के आगे जो नाजिल हो चुका है। और वे उन लोगों की 
तरह न हो जाएं जिन्हें पहले किताब दी गई थी, फिर उन पर लम्बी मुदृदत गुजर गई 
तो उनके दिल सख्त हो गए। और उनमें से अक्सर नाफरमान हैं। जान लो कि अल्लाह 


जमीन को जिंदगी देता है उसकी मौत के बाद, हमने तुम्हारे लिए निशानियां बयान कर 
दी हैं, ताकि तुम समझो। (6-7) 





ये आयतें जिस वक्‍त नाजिल हुई उस वक्‍त इस्लाम अगरचे मादूदी कुलत (भौतिक 
शक्ति) नहीं बना था। मगर दलाइल और तंबीहात का जोर उस वक्‍त भी पूरी तरह उसकी 
पुश्त पर मौजूद था। ऐसी हालत में जो शख्स दलाइल का जोर महसूस न करे और खुदाई 
तंबीहात जिसे हिलाने वाली न बन सकें वह अपने इस अमल से सिर्फ यह सुबूत दे रहा है कि 
वह बेहिसी के मरज में मुब्तिला है। मिट्टी में पानी मिलने के बाद तरोताजगी पैदा हो जाती 
है। फिर इंसान अगर खुले-खुले दलाइल सुनकर भी न जागे तो यह कैसी अजीब बात होगी। 


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बेशक सदका देने वाले मर्द और सदका देने वाली औरतें। और वे लोग जिन्होंने अल्लाह को 


कर्म दिया, अच्छा कग वह उनके लिए बल्या जाएगा ओह उनके लिए बाइजत अज़ 
(प्रतिफल) है। और जो लोग ईमान लाए अल्लाह पर और उसके रसूलों पर। वही लोग अपने 


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सूरह-57. अल-हदीद I45 पारा 27 
रब के नजदीक सिद्दीक (सच्चे) और शहीद (सत्य के साक्षी) हैं, उनके लिए उनका अज्र और 

उनकी रोशनी है, और जिन लोगों ने इंकार किया और हमारी आयतो को झुठलाया वे दोजख़ 

के लोग हैं। (8-9) 


अल्लाह की रिजा के लिए दूसरों को माल देना और दीन की जरूरतों पर खर्च करना 
बहुत बड़ा अमल है। जो मर्द और औरत इस तरह ख़र्च करें वही वे लोग हैं जिन्होंने अपने 
ईमान का सुबूत दिया । उन्होंने हक के खिलाफ शुबहात के माहौल में हक को देखा । इसलिए 
उनका यह अमल आख़िरत में उनके लिए रोशनी बन जाएगा। वे ख़ुदा की निशानियों को 
मानने वाले करार पाएंगे। उन्हें अल्लाह के गवाह का दर्जा दिया जाएगा, यानी आख़िरत की 
अदालत में लोगों के अहवाल बताने वाला। 


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जान लो कि दुनिया की जिंदगी इसके सिवा कुछ नहीं कि खेल और तमाशा है और जीनत 
(साज-सज्जा) और बाहमी (आपसी) फख़ और माल और औलाद में एक दूसरे से बढ़ने की 
कोशिश करना है। जैसे कि बारिश की उसकी पैदावार किसानों को अच्छी मालूम होती है। 
फिर वह खुश्क हो जाती है। फिर तू उसे जर्द देखता है, फिर वह रेजाररेजा हो जाती है। 

और आइखिरत मे सर्न अजाब है और अल्लाह की तरफ से माफी और रिजामंदी भी। और 

दुनिया की जिंदगी धोखे की पूंजी के सिवा और कुछ नहीं। दौड़ो अपने रब की माफी की 

तरफ और ऐसी जन्नत की तरफ जिसकी वुस्अत (व्यापकता) आसमान और जमीन की वुस्अत 

के बराबर है। वह उन लोगों के लिए तैयार की गई है जो अल्लाह और उसके रसूल पर 
ईमान लाएं, यह अल्लाह का फज्ल (अनुग्रह) है। वह उसे देता है जिसे वह चाहता है और 
अल्लाह बज़ फन्ल वाला है। (20-श) 





दुनिया में अल्लाह ने आख़िरत (परलोक) की मिसालें कायम कर दी हैं। उनमें से एक 
मिसाल खेती की है। खेती जब पानी पाकर तैयार होती है तो थोड़े दिनों के लिए उसकी सरसब्जी 
निहायत पुरकशिश मालूम होती है। मगर बहुत जल्द गर्म हवाएं चलती हैं। सारी सरसब्जी 





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सूरह-57. अल-हदीद 
अचानक ख़त्म हो जाती है। और फिर उसे काट कर उसे चूरा-चूरा कर दिया जाता है। 

इसी तरह मौजूदा दुनिया की रौनक भी चन्द रोजा है। आदमी उसे पाकर धोखे में मुब्तिला 
हो जाता है। वह उसी को सब कुछ समझ लेता है। मगर इसके बाद जब वह ख़ुदा की तरफ 
लौटाया जाएगा तो उस पर खुलेगा कि दुनिया की रौनकों की कोई हकीकत न थी। 


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कोई मुसीबत न जमीन में आती है और न तुम्हारी जानों में मगर वह एक किताब में लिखी हुई 

है इससे पहले कि हम उन्हें पैदा करें, बेशक यह अल्लाह के लिए आसान है ताकि तुम ग़म न 
करो उस पर जो तुमसे खोया गया। और न उस चीज पर फख़ करो जो उसने तुम्हें दिया, और 
अल्लाह इतराने वाले फख़ करने वाले को पसंद नहीं करता जो कि बुख़्ल (कंजूसी) करते हैं और 
दूसरों को भी बुख्त की तालीम देते हैं। और जो शख्स एराज (उपेक्षा) करेगा तो अल्लाह बेनियाज 
(निस्पृह) है खूबियों वाला है। (22-24) 


पारा 27 I46 








दुनिया में किसी चीज का मिलना या किसी चीज का छिनना दोनों इम्तेहान के लिए हैं। 
अल्लाह तआला ने पेशगी तौर पर मुकर्रर फरमा दिया है कि किस शख्स को उसके इम्तेहान 
का पर्चा किन-किन सूरतों में दिया जाएगा। आदमी को अस्लन जिस चीज पर तवज्जोह देना 
चाहिए वह यह नहीं कि उसे क्या मिला और उससे क्या छीना गया बल्कि यह कि उसने किस 
मौके पर किस किस्म का रदूदेअमल (प्रतिक्रिया) पेश किया । सही और मत्लूब रद्देअमल यह 
है कि आदमी से खोया जाए तो वह दिलबरदाश्ता (हताश) न हो और जब उसे मिले तो वह 
उसकी बिना पर फख़ व गुरूर में मुब्तिला न हो जाए 


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हमने अपने रसूलों को निशानियों के साथ भेजा और उनके साथ उतारा किताब और तराजू, ताकि 

लोग इंसाफ पर कायम हों। और हमने लोहा उतारा जिसमें बल्ली कुब्बत है और लोगों के लिए फायदे 


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सूरह-57. अल-हदीद I47 पारा 27 
हैं और ताकि अल्लाह जान ले कि कौन उसकी और उसके रसूलों की मदद करता है बिना देखे, 
बेशक अल्लाह ताकत वाला, जबरदस्त है। (25) 





दीन में दो चीजें मल्लूब हैं। एक दीन की पैरवी, और दूसरी दीन की हिमायत । तराजू गोया 
दीन की पैरवी की अलामती तमसील है। जिस तरह तराजू पर किसी चीज का कम व बेश होना 
मालूम होता है। उसी तरह ख़ुदा की किताब भी हक की तराजू है। लोगों को चाहिए कि अपने 
आमाल ख़ुदा की किताब पर जांच कर देखते रहें कि वे किसी हद तक दुरुस्त हैं और किस 
हद तक दुरुस्त नहीं। 

इसी तरह लोहा गोया हिमायते दीन की अलामती मिसाल है। जब भी दीन का कोई 
मामला पड़े तो वहां आदमी को लोहे की तरह मजबूत साबित होना चाहिए। उसे फौलादी 
कुब्बत के साथ दीन का दिफाअ करना चाहिए 


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और हमने नूह को और इब्राहीम को भेजा। और उनकी औलाद में हमने पेग़म्बरी और किताब 
रख दी। फिर उनमें से कोई राह पर है और उनमें से बहुत से नाफरमान हैं। फिर उन्हीं 
के नवशेक्रदम पर हमने अपने रसूल भेजे और उन्हीं के नक्शेकदम पर ईसा बिन मरयम को 
भेजा और हमने उसे इंजील दी। और जिन लोगों ने उसकी पैरवी की हमने उनके दिलों में 
शफकत (करुणा) और रहमत (दया) रख दी। और रहबानियत (सन्यास) को उन्होंने खुद 
ईजाद किया है। हमने उसे उन पर नहीं लिखा था। मगर उन्होंने अल्लाह की रिजामंदी के 
लिए उसे इख्तियार कर लिया, फिर उन्होंने उसकी पूरी रिआयत (निर्वाह) न की, पस उनमें 
से जो लोग ईमान लाए उन्हें हमने उनका अज्र (प्रतिफल) दिया, और उनमें से अक्सर 
नाफरमान हैं। (१6-27) 



































अल्लाह की तरफ से जितने पैगम्बर आए सब एक ही दीन लेकर आए। मगर बाद के 
जमाने में लोगों ने पैगम्बर के नाम पर बिदअतें ईजाद कर लीं। इसकी एक मिसाल हजरत मसीह 
अलैहिस्सलाम के पेरोकार हैं। हजरत मसीह के जिम्मे सिर्फ दावत का काम था। आपकी 
पेगम्बराना जिम्मेदारी में किताल (जंग) शामिल न था। चुनांचे आपने सबसे ज्यादा दाञियाना 


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पारा 27 I4I8 सूरह-57. अल-हदीद 
अख्लाक पर जोर दिया । और दाजियाना अख़्ताक सरासर राफ्त व रहमत पर मबनी होता है। आपने 

अपने पैरोकारों से कहा कि वे लोगों के मुकाबले में यकतरफा तौर पर राफ्त व रहमत का तरीका 

इख़्तियार करें। मगर हजरत मसीह के बाद आपके पेरोकार इस मस्लेहत को समझ न सके। उनका 
यह मिजाज उन्हें रहबानियत (सन्यास) की तरफ बहा ले गया। दुनिया से एराज़ (उपेक्षा) की जो 

तालीम उन्हें दावत के मकसद से दी गई थी उसे उन्होंने मजीद मुबालगे (अतिरंजना) के साथ तके 

दुनिया (संसार त्याग) के लिए इख्तियार करना शुरू कर दिया। 


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से दो हिस्से अता करेगा। और तुम्हें रोशनी अता करेगा जिसे लेकर तुम चलोगे। और तुम्हे 
बख्श देगा। और अल्लाह बख्शने वाला महरबान है। ताकि अहले किताब जान लें कि वे 
अल्लाह के फल (अनुग्रह) मे से किसी चीज पर इख्तियार नहीं रखते और यह कि फन 


अल्लाह के हाथ में है। वह जिसे चाहता है अता फरमाता है। ओर अल्लाह बड़े फज्ल वाला 
है। (28-29) 





'ऐ ईमान लाने वालो' से मुराद हजरत मसीह पर ईमान लाने वाले हैं। जो लोग पिछले 
पैगम्बर को मानते हों, और अब वे पैगम्बर हजरत मुहम्मद (सल्ल०) की सदाकत को 
दरयाफ्त करके उन पर ईमान लाएं तो उनके लिए दोहरा अज्र है। इसी तरह जो लोग नस्ली 
तौर पर मुसलमान हैं वे दुबारा इस्लाम का मुतालआ करें और अपने अंदर इस्लामी शुऊर पैदा 
करके नए सिरे से मोमिन व मुस्लिम बनें तो वे भी अल्लाह के यहां दोहरे अज्र के मुस्तहिक 


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सूरह-58. अल-मुजादलह I4I9 पारा 28 
आयतें-१2 सूरह-58. अल-मुजादलह रुकूअ-3 
(मदीना में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
अल्लाह ने सुन ली उस औरत की बात जो अपने शोहर के मामले में तुमसे झगड़ती 
थी और अल्लाह से शिकायत कर रही थी, और अल्लाह तुम दोनों की गुफ्तगू सुन रहा 
था, बेशक अल्लाह सुनने वाला, जानने वाला है। (॥) 





इस्लाम से पहले अरब में रवाज था कि कोई मर्द अगर अपनी बीवी से कह देता कि 
'तू मुझ पर ऐसी है जैसे मेरी मां की पीठ” तो वह औरत हमेशा के लिए उस मर्द पर हराम 
हो जाती। इसे जिहार कहा जाता था। मदीना के एक मुसलमान औस बिन सामित अंसारी 
ने अपनी बीवी ख़ौला बिन्त सालबा को एक बार यही लफज कह दिया। वह अल्लाह के रसूल 
सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आई और वाकया बताया। आपने कदीम रवाज के 
एतबार से फरमा दिया कि मैं ख्याल करता हूं कि तुम उस पर हराम हो गई हो। ख़ौला को 
परेशानी हुई कि मेरे घर और मेरे बच्चे बर्बाद हो जाएंगे। वह फरयाद व जारी (विलाप) करने 
लगीं। इस पर ये आयतें उतरीं और बताया गया कि जिहार के बारे में इस्लामी हुक्म क्या है। 

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तुम में से जो लोग अपनी बीवियों से जिहार (तलाक देने की एक सूरत जिसमें शोहर 
अपनी बीवी से कहता है कि तुम मेरी माँ की पीठ की तरह हो) करते हैं वे उनकी माएं 
नहीं हैं। उनकी माएं तो वही हैं जिन्होंने उन्हें जना। और ये लोग बेशक एक नामाकूल 
और झूठ बात कहते हैं, और अल्लाह माफ करने वाला बर्शने वाला है। और जो लोग 
अपनी बीवियाँ से जिहार करें फिर उससे रुजूअ करें जो उन्होंने कहा था तो एक गर्दन 
को आजाद करना (गुलाम आजाद करना) है, इससे पहले कि वे आपस में हाथ लगाएं। 
इससे तुम्हें नसीहत की जाती है, और अल्लाह जानता है जो कुछ तुम करते हो। फिर 





पारा 28 420 सूरह-58. अल-मुजादलह 
जो शख्स न पाए तो रोजे हैं दो महीने के लगातार, इससे पहले कि आपस में हाथ 
लगाएं। फिर जो शख्स न कर सके तो साठ मिस्कीनों को खाना खिलाना है। यह 
इसलिए कि तुम अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाओ। और ये अल्लाह की हदें 
हैं और मुंकिरों के लिए दर्दनाक अजाब है। (2-4) 





इस्लाम में सूरत और हकीकत के दर्मियान फर्क किया गया है। यही वजह है कि इस्लाम 
ने इस कदीम रवाज को तस्लीम नहीं किया कि जो औरत हकीकी मां न हो वह महज मां का 
लफ्ज बोल देने से किसी की मां बन जाए। इस किस्म का पेअल एक लग (निरर्थक) बात 
तो जरूर है मगर इसकी वजह से फितरत के कवानीन (नियम) बदल नहीं सकते। 
कुरआन में बताया गया कि महज जिहार से किसी आदमी की बीवी पर तलाक नहीं 
पड़ेगी । अलबत्ता उस आदमी पर लाजिम किया गया कि वह पहले कपफारा (प्रायश्चित) अदा 
करे। इसके बाद वह दुबारा अपनी बीवी के पास जाए। किसी गलती के बाद जब आदमी इस 
तरह कपफारा अदा करता है तो वह दुबारा अपने यकीन को जिंदा करता है। वह इस उसूल 
में अपने अकीदे को नए सिरे से मुस्तहकम (सुटु) बनाता है जिसे वह गफलत या नादानी 
से छोड़ बैठा था। 


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जो लोग अल्लाह और उसके रसूल की मुख़ालिफत करते हैं वे जलील होंगे जिस तरह 

वे लोग जलील हुए जो इनसे पहले थे और हमने वाजेह (स्पष्ट) आयतें उतार दी हैं, और 

मुंकिरों के लिए जिल्लत का अजाब है। जिस दिन अल्लाह उन सबको उठाएगा और 

उनके किए हुए काम उन्हें बताएगा। अल्लाह ने उसे गिन रखा है। और वे लोग उसे 
भूल गए, और अल्लाह के सामने है हर चीज। (5-6) 


हक की मुखालिफत करना खुदा की मुखालिफत करना है। और खुदा की मुखालिफत 
करना उस हस्ती की मुखालिफत करना है जिससे मुखालिफत करके आदमी ख़ुद अपना 
नुक्सान करता है। खुदा से आदमी न अपनी किसी चीज को छुपा सकता और न किसी के 
लिए यह मुमकिन है कि वह ख़ुदा की पकड़ से अपने आपको बचा सके। 


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सूरह-58. अल-मुजादलह 42I पारा 28 
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तुमने नहीं देखा कि अल्लाह जानता है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ जमीन 

में है। कोई सरगोशी (गुप्त वार्ता) तीन आदमियों की नहीं होती जिसमें चौथा अल्लाह 
न हो। और न पांच की होती है जिसमें छठा वह न हो। और न इससे कम की या 
ज्यादा की। मगर वह उनके साथ होता है जहां भी वे हों, फिर वह उन्हें उनके किए 

से आगाह करेगा कियामत के दिन। बेशक अल्लाह हर बात का इलम रखने वाला है। 
क्या तुमने नहीं देखा जिन्हें सरगोशियों से रोका गया था, फिर भी वे वही कर हहे हैं 
जिससे वे रोके गए थे। और वे गुनाह और ज्यादती और रसूल की नाफरमानी की 
सरगोशियां करते हैं, और जब वे तुम्हारे पास आते हैं तो तुम्हें ऐसे तरीके से सलाम 
करते हैं जिससे अल्लाह ने तुम्हें सलाम नहीं किया। और अपने दिलों में कहते हैं कि 
हमारी इन बातों पर अल्लाह हमें अजाब क्यों नहीं देता। उनके लिए जहन्नम ही काफी 

है, वे उसमें पड़ेंगे, पस वह बुरा ठिकाना है। (7-8) 





कायनात अपने इंतिहाई पेचीदा निजाम के साथ यह गवाही दे रही है कि वह हर आन 
किसी बालातर (उच्चतर) ताकत की निगरानी में है। कायनात में निगरानी की शहादत यह 
साबित करती है कि इंसान भी मुसलसल तौर पर अपने ख़ालिक की निगरानी में है। ऐसी 
हालत में हक के डिलाफ खुफिया सरार्मियां दिखाना सिर्फ ऐसे अंधे लोगों का काम हो 
सकता है जो खुदा की सिफतों को न बराहेरास्त (प्रत्यक्ष) तौर पर मल्फूज (शाब्दिक) कुरआन 
में पढ़ सकें और न बिलवास्ता (परोक्ष) तौर पर गैर मल्फूज कायनात में। 

कुछ यहूद और मुनाफिकीन अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सोहबत 
में आते तो वे अस्सलामु अलैकुम (आप पर सलामती हो) कहने के बजाए अस्सामु अलैकुम 
(आप पर मौत आए) कहते। यह हमेशा से सतही (निम्न स्तरीय) इंसानों का तरीका रहा है। 





पारा 28 422 सूरह-58. अल-मुजादलह 
सतही लोग एक सच्चे इंसान को बेकद्र करके अपने जेहन में खुश होते हैं। वे भूल जाते हैं कि 

सारी फैली हुई खुदाई ऐन उस वक्त भी उस सच्चे इंसान का एतराफ कर रही होती है जबकि 

अपने महदूद जेहन के मुताबिक वे उसकी तहकीर (अनादर) व तरदीद के लिए अपना आझिरी 

लफ्न इस्तेमाल कर के हें। 


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ऐ ईमान वालो जब तुम सरगोशी (गुप्त वार्ता) करो तो गुनाह और ज्यादती और रसूल 
की नाफरमानी की सरगोशी न करो। और तुम नेकी और परहेजगारी की सरगोशी 

करो। और अल्लाह से डरो जिसके पास तुम जमा किए जाओगे। यह सरगोशी शैतान 
की तरफ से है ताकि वह ईमान वालों को रंज पहुंचाए, और वह उन्हें कुछ भी रंज नहीं 
पहुंचा सकता मगर अल्लाह के हुक्म से। और ईमान वालों को अल्लाह ही पर भरोसा 
रखना चाहिए। (9-0) 





खुफिया सरगोशियां करना आम हालात में एक नापसंदीदा फेअल (कृत्य) है। ताहम 
कभी कारेखैर के लिए भी खुफिया सरगोशी की जरूरत होती है। इस सिलसिले में अस्ल 
फैसलाकुन चीज नियत है। खुफिया सरगोशी अगर अच्छी नियत से की जाए तो जाइज है 
और अगर वह बुरी नियत से की जाए तो नाजाइज। 


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ऐ ईमान वालो जब तुम्हें कहा जाए कि मज्लिसों में खुलकर बैठो तो तुम खुलकर बैठो, 
अल्लाह तुम्हें कुशादगी (खुलापन) देगा। और जब कहा जाए कि उठ जाओ तो तुम उठ 


जाओ। तुम में से जो लोग ईमान वाले हैं और जिन्हें इलम दिया गया है, अल्लाह उनके 
दर्जे बुलन्द करेगा। और जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उससे बाख़बर है। (7) 











मज्लिस के आदाब के तहत कभी ऐसा होता है कि एक शख्स को पीछे करके दूसरे शख्स 
को आगे बिठाया जाता है। इसी तरह कभी ऐसा होता है कि लोगों को उम्मीद के खिलाफ 


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सूरह-58. अल-मुजादलह I423 पारा 28 
कह दिया जाता है कि अब आप लोग तशरीफ ले जाएं। ऐसी बातों को इज्जत का सवाल बनाना 

शुऊरी पस्ती का सुबूत है। और जो शख्स इन बातों को इज्जत का सवाल न बनाए उसने यह 

सुबूत दिया कि शुऊरी एतबार से वह बुलन्द दर्जे को पहुंचा हुआ है। 


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ऐ ईमान वालो, जब तुम रसूल से राजदाराना बात करो तो अपनी राजदाराना बात से 
पहले कुछ सदका दो। यह तुम्हारे लिए बेहतर है और ज्यादा पाकीजा है। फिर अगर 
तुम न पाओ तो अल्लाह बस्शने वाला, महरबान है। क्या तुम डर गए इस बात से कि 
तुम अपनी राजदाराना गुफ्तगू से पहले सदका दो। पस अगर तुम ऐसा न करो, और 
अल्लाह ने तुम्हे माफ कर दिया, तो तुम नमाज कायम करो और जकात अदा करो और 


अल्लाह और उसके रसूल की इताअत (आज्ञापालन) करो। और जो कुछ तुम करते हो 
अल्लाह उससे बाखबर है। (2-3) 





अल्लाह तआला को यह मत्लूब था कि रसूल से सिर्फ वही लोग मिलें जो फिलवाकअ 
संजीदा मकसद के तहत आपसे मिलना चाहते हैं। गैर जरूरी किस्म के लोग छांट दिए जाएं 
जो अपनी बेफायदा बातों से सिर्फ वक्‍त जाया करने का सबब बनते हैं। इसलिए यह उसूल 
मुक्रर किया गया कि जब रसूल से मिलने का इरादा करो तो पहले अल्लाह के नाम पर कुछ 
सदका करो। और अगर इसकी कुदरत न हो तो कोई दूसरी नेकी करो। 

यह हुक्म अगरचे अस्लन रसूल के लिए मत्लूब था। मगर रसूल के बाद भी उम्मत के 
रहनुमाओं के हक में वह हालात के एतबार से दर्जा-ब-दर्जा मत्लूब होगा। 


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पारा 28 ]424 सूरह-58. अल-मुजादलह 


क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जो ऐसे लोगों से दोस्ती करते हैं जिन पर अल्लाह 
का गजब हुआ। वे न तुम में से हैं और न उनमें से हैं और वे झूठी बात पर कसम 

खाते हैं हालांकि वे जानते हैं। अल्लाह ने उन लोगों के लिए सख्त अजाब तैयार कर 
रखा है, बेशक वे बुरे काम हैं जो वे करते हैं। उन्होंने अपनी कसमों को ढाल बना 
रखा है, फिर वे रोकते हैं अल्लाह की राह से, पस उनके लिए जिल्लत का अजाब 

है। (4-6) 


मदीना के मुनाफिकीन इस्लाम की जमाअत में शामिल थे। इसी के साथ वे यहूद से भी 
मिले हुए थे। यही हमेशा उन लोगों का हाल होता है जो हक को पूरी यकसूई (एकाग्रता) के 
साथ इख्नियार न कर सकें। ऐसे लोग बजाहिर सबसे मिले हुए हेते हैं मगर हकीकतन वे सिर्फ 
अपने मफाद (स्वार्थ) के वफादार हेते हैं। चाहे वे कसमें खाकर अपने हकपरस्त होने का 
यकीन दिला रहे हों। FY 
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उनके माल और उनकी औलाद उन्हें जरा भी अल्लाह से बचा न सकेंगे। ये लोग दोजख़ 
वाले हैं। वे उसमें हमेशा रहेंगे। जिस दिन अल्लाह उन सबको उठाएगा तो वे उससे 
भी इसी तरह कसम खाएंगे जिस तरह तुमसे कसम खाते हैं। और वे समझते हैं कि 
वे किसी चीज पर हैं, सुन लो कि यही लोग झूठे हैं। शैतान ने उन पर काबू हासिल 
कर लिया है। फिर उसने उन्हें खुदा की याद भुला दी है। ये लोग शैतान का गिरोह 
हैं। सुन लो कि शैतान का गिरोह जरूर बर्बाद होने वाला है। जो लोग अल्लाह और 
उसके रसूल की मुखालिफत (विरोध) करते हैं वही जलील लोगों में हैं। अल्लाह ने लिख 
दिया है कि में और मेरे रसूल ही ग़ालिब रहेंगे। बेशक अल्लाह कुब्वत वाला, जबरदस्त 
है। (।7-2]) 


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सूरह-58. अल-मुजादलह I425 पारा 28 





मफादपरस्त आदमी जब हक की दावत की मुखालिफत करता है तो वह समझता है कि 
इस तरह वह अपने आपको महफूज कर रहा है। मगर उस ववत वह दहशतजदा होकर रह 
जाएगा जब आख़िरत में वह देखेगा कि जिन चीजों पर उसने भरोसा कर रखा था वे फैसले 
के उस वक्‍त में उसके कुछ काम आने वाली नहीं। 

मुनाफिक (पाखंडी) आदमी अपने मैकिफ को सही साबित करने के लिए बढ़ बढ़कर 
बातें करता है। यहां तक कि वह कसमें खाकर अपने इख़्लास (निष्ठा) का यकीन दिलाता है। 
ये सब करके वह समझता है कि 'वह किसी चीज पर है।' उसने अपने हक में कोई वाकई 
बुनियाद फराहम कर ली है। मगर कियामत का धमाका जब हकीकतों को खेलेगा उस वक्‍त 
वह जान लेगा कि यह महज शैतान के सिखाए हुए झूठे अल्फाज थे जिन्हें वह अपने बेकुसूर 
होने का यकीनी सुबूत समझता रहा। 


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तुम ऐसी कौम नहीं पा सकते जो अल्लाह पर और आख़िरत के दिन पर ईमान रखती 
हो और वह ऐसे लोगों से दोस्ती रखे जो अल्लाह और उसके रसूल के मुख़ालिफ हैं। 
अगरचे वे उनके बाप या उनके बेटे या उनके भाई या उनके ख़ानदान वाले क्यों न हों। 
यही लोग हैं जिनके दिलों में अल्लाह ने ईमान लिख दिया है और उन्हें अपने फेज से 
कुव्वत दी है। और वह उन्हें ऐसे बागों में दाखिल करेगा जिनके नीचे नहरें जारी होंगी, 
उनमें वे हमेशा रहेंगे। अल्लाह उनके राजी हुआ और वे अल्लाह से राजी हुए। यही लोग 


अल्लाह का गिरोह हैं और अल्लाह का गिरोह ही फलाह (कल्याण, सफलता) पाने वाला 
है। (2१) 





इस दुनिया में कामयाबी हिज्बुल्लाह के लिए है। हिज्बुल्लाह (अल्लाह की जमाअत) कौन 
लोग हैं। ये वे लोग हैं जिनके दिलों में ईमान सबसे बड़ी हकीकत के तौर पर रासिख़ (घनीभूत) 
हो गया हो। जिन्हें अल्लाह से इतनी गहरी निस्बत हासिल हो कि उन्हें अल्लाह की तरफ से 
रूहानी फो पहने लगे। फिर यह कि खाई हवीकतों से उनकी वाबस्तगी इतनी गहरी हो कि 
उसी की बुनियाद पर उनकी दोस्तियां और दुश्मनियां कायम हों। वे सबसे ज्यादा उन लोगों से 
कब हैजोाई सदाकत (सच्चाई) को अपनाए हुए हैं। और जो लोग खुदाई सदाकत से दूर 








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पारा 28 I426 सूरह-59. अल-हश्र 
हैं वे भी उनसे दूर हो जाएं, चाहे वे उनके अपने अजीज और रिश्तेदार क्यों न हों। 


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आयतें-24 सूरह-59. अल-हश्र रुकूअ-3 
(मदीना में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

अल्लाह की पाकी बयान करती हैं सब चीजें जो आसमानां और जमीन में हैं, और वह 
जबरदस्त है, हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। वही है जिसने अहले किताब मुंकिरों को 
उनके घरों से पहली ही बार इकट्ठा करके निकाल दिया। तुम्हारा गुमान न था कि 
वे निकलेंगे और वे ख्याल करते थे कि उनके किले उन्हें अल्लाह से बचा लेंगे, फिर 
अल्लाह उन पर वहां से पहुंचा जहां से उन्हें ख्याल भी न था। और उनके दिलों में रोब 
डाल दिया, वे अपने घरों को ख़ुद अपने हाथों से उजाइ रहे थे और मुसलमानों के हाथों 
से भी। पस ऐ आंख वालो, इबरत (सीख) हासिल करो। (:-2) 


मदीना के मश्रिक में यहूदी कबीला बनू नजीर की आबादी थी। उनके और अल्लाह के 
रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के दर्मियान सुलह का मुआहिदा था। मगर उन्होंने बार-बार 
अहदशिकनी की। आखिरकार 4 हि० में अल्लाह तआला ने ऐसे हालात पैदा किए कि 
मुसलमानों ने उन्हें मदीना से निकलने पर मजबूर कर दिया। इसके बाद वे ख़ैबर और 
अजरिआत में जाकर आबाद हो गए। मगर उनकी साजिशी सरगर्मियां जारी रहीं। यहां तक 
कि हजरत उमर फरूककी खिलाफत की जमानेमेवे और कूरे यहूदी कबाइल जजैरा अरब 
से निकलने पर मजबूर कर दिए गए। इसके बाद वे लोग शाम में जाकर आबाद हो गए। 
“अल्लाह उन पर वहां से पहुंचा जहां उन्हें गुमान भी न था! की तशरीह अगले फिकरे 
में मौजूद है। यानी अल्लाह ने उनके दिलों में रौब डाल दिया। उन्होंने बेरूनी (वाह्य) तौर पर 
हर किस्म की तैयारियां कीं। मगर जब मुसलमानों की फौज ने उनकी आबादी को घेर लिया 














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सूरह-59. अल-हश्र I427 पारा 28 
तो सारी ताकत के बावजूद उन पर ऐसी दहशत तारी हुई कि उन्होंने लड़ने का हौसला खो 
दिया। और बिला मुकाबले हथियार डाल दिया। 


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और अगर अल्लाह ने उन पर जलावतनी (देश-निकाला) न लिख दी होती तो वह दुनिया 
ही में उन्हें अजाब देता, और आख़िरत में उनके लिए आग का अजाब है। यह इसलिए 

कि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल की मुखालिफत की। और जो शरस अल्लाह की 
मुखालिफत करता है तो अल्लाह सख्त अजाब वाला है। खजूरों के जो दरख़्त तुमने काट 

डाले या उन्हें उनकी जड़ों पर खड़ा रहने दिया तो यह अल्लाह के हुक्म से, और ताकि 
वह नाफरमानां को रुसवा करे। (3-5) 





यहूद को जो सजा दी गई, वह अल्लाह के कानून के तहत थी। यह सजा उन लोगों के 
लिए मुकदूदर है जो पैगम्बर के मुखालिफ बनकर खड़े हों। बनू नजीर के मुहासिरे (घेराव) के 
वक्त उनके बाग़ात के कुछ दरख्ञ जंगी मस्लेहत के तहत काटे गए थे। यह भी बराहेरास्त 
ख़ुदा के हुक्म से हुआ। ताहम यह कोई आम उसूल नहीं। यह एक इस्तिसनाई (अपवाद 
स्वरूप) मामला है जो पैगम्बर के बराहेरास्त मुखातबीन के साथ एक या दूसरी शक्ल में 


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पारा 28 I428 सूरह-59. अल-हश्र 


और अल्लाह ने उनसे जो कुछ अपने रसूल की तरफ लौटाया तो तुमने उस पर न घोड़े दौड़ाए 
और न ऊंट और लेकिन अल्लाह अपने रसूलों को जिस पर चाहता है तसल्लुत (प्रभुत्व) 
दे देता है। और अल्लाह हर चीज पर कादिर है। जो कुछ अल्लाह अपने रसूल को बस्तियों 

वालों की तरफ से लोटाए तो वह अल्लाह के लिए है और रसूल के लिए है और रिश्तेदारों 
और यतीमों (अनाथां) और मिस्कीनों (असहाय जनों) और मुसाफिरों के लिए है। ताकि 
वह तुम्हारे मालदारों ही के दर्मियान गर्दिश न करता रहे। और रसूल तुम्हें जो कुछ दे वह 
ले लो और वह जिस चीज से तुम्हें रोके उससे रुक जाओ और अल्लाह से डरो, अल्लाह 
सख्त सजा देने वाला है। उन मुफ्लिस मुहाजिरों के लिए जो अपने घरों और अपने मालों 

से निकाले गए हैं। वे अल्लाह का फज्ल और रिजामंदी चाहते हैं। और वे अल्लाह और 

उसके रसूल की मदद करते हैं, यही लोग सच्चे हैं। (6-8) 





दुश्मन का जो माल लड़ाई के बाद मिले वह गनीमत है और जो माल लड़ाई के बगैर हाथ 
लगे वह फई है। गनीमत में पांचवां हिस्सा निकालने के बाद बकिया सब लश्कर का है। और 
फई सबका सब इस्लामी हुकूमत की मिल्कियत है जो मसालेहे आम्मा (जन-हित) के लिए खर्च 
किया जाएगा। 

इस्लाम चाहता है कि माल किसी एक तबके में महदूद होकर न रह जाए। बल्कि वह हर 
तबके के दर्मियान पहुंचे। इस्लाम में मआशी (आर्थिक) जब्र नहीं है। ताहम उसके मआशी 
कवानीन इस तरह बनाए गए हैं कि दौलत मुरतकिज (केन्द्रित) न होने पाए। वह हर तबके 
के लोगों में गर्दिश करती रहे। 

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और जो लोग पहले से दार (मदीना) में करार पकड़े हुए हैं और ईमान अस्तवार किए 
हुए हैं, जो उनके पास हिजरत करके आता है उससे वे मुहब्बत करते हैं और वे अपने 
दिलों में उससे तंगी नहीं पाते जो मुहाजिरीन को दिया जाता है। और वे उन्हें अपने 
ऊपर मुकदूदम रखते हैं। अगरचे उनके ऊपर फाका हो। और जो शख्स अपने जी के 





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सूरह-59. अल-हश्र I429 पारा 28 
लालच से बचा लिया गया तो वही लोग फलाह पाने वाले हैं। और जो उनके बाद आए 

वे कहते हैं कि ऐ हमारे रब, हमें बसश दे और हमारे उन भाइयों को जो हमसे पहले 
ईमान ला चुके हैं। और हमारे दिलों में ईमान वालों के लिए कीना (देष) न रख, ऐ 
हमारे रब, तू बझ शफीक (कणामय) और महरबान है। (9-0) 





हिजरत के बाद जो मुसलमान अपना वतन छोड़कर मदीना पहुंचे, उनका मदीना आना 
मदीने के बाशिंदों (अंसार) पर एक बोझ था। मगर उन्होंने निहायत ख़ुशदिली के साथ उनका 
इस्तकबाल किया। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास जब अमवाल 
(धन-सम्पत्ति) आए तो आपने उनका हिस्सा मुहाजिरीन के दर्मियान तक्सीम किया। इस पर 
भी अंसारे मदीना के अंदर उनके लिए कोई रंजिश पैदा न हुई। इसके बाद भी वे उनके इतने 
कद्रदान रहे कि उनके हक में उनके दिल से बेहतरीन दुआएं निकलती रहीं। यही वह आली 
हौसलगी है जो किसी गिरोह को तारीखसाज (इतिहास-निर्माता) गिरोह बनाती है। 


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क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जो निफाक (पाखंड) में मुब्तिला हैं। वे अपने भाइयों 
से कहते हैं जिन्होंने अहले किताब में से कुफ़ किया है, अगर तुम निकाले गए तो हम 
भी तुम्हारे साथ निकल जाएंगे। और तुम्हारे मामले में हम किसी की बात न मानेंगे। 
और अगर तुमसे लड़ाई हुई तो हम तुम्हारी मदद करेंगे। और अल्लाह गवाही देता है 
कि वे झूठे हैं। अगर वे निकाले गए तो ये उनके साथ नहीं निकलेंगे। और अगर उनसे 
लड़ाई हुई तो ये उनकी मदद नहीं करेंगे। और अगर उनकी मदद करेंगे तो जरूर वे पीठ 
फेरकर भागेंगे, फिर वे कहीं मदद न पाएंगे। (-2) 














अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने बनू नजीर की जलावतनी (देश निकाला) 
का एलान किया तो मुनाफिकीन उनकी हिमायत पर आ गए। उन्होंने बनू नजीर से कहा कि 
तुम अपनी जगह जमे रहो, हम हर तरह तुम्हारी मदद करै । मगर मुनाफिकीन की ये बातें महज 
उन्हें मुसलमानों के ख़िलाफ उकसाने के लिए थीं। वे इस पेशकश में हरगिज मुख्लिस न थे। 
चुनांचे जब मुसलमानों ने बनू नजीर को घेर लिया तो मुनाफिकीन में से कोई भी उनकी मदद 
पर न आया। मफादपरस्त (स्वार्थी) गिरोह का हर जमाने में यही किरदार रहा है। 


पारा 28 I430 सूरह-59. अल-हश्र 
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बेशक तुम लोगों का डर उनके दिलों में अल्लाह से ज्यादा है, यह इसलिए कि वे लोग 
समझ नहीँ रखते। ये लोग सब मिलकर तुमसे कभी नहीं लड़गे। मगर हिफाजत वाली 
बस्तियों में या दीवारों की आड़ में। उनकी लड़ाई आपस में सस्त है। तुम उन्हें मुत्तहिद 
(एकजुट) ख्याल करते हो और उनके दिल जुदा-जुदा हो रहे हैं, यह इसलिए कि वे लोग 
अक्ल नहीं रखते। (3-4) 





खुदा की ताकत बजाहिर दिखाई नहीं देती । मगर इंसानों की ताकत खुली आंख से नजर 
आती है। इस बिना पर जाहिरपरस्त लोगों का हाल यह होता है कि वे अल्लाह से तो बेख़ोफ 
रहते हैं मगर इंसानों में अगर कोई जोरआवर दिखाई दे तो वे फौरन उससे डरने की जरूरत 
महसूस करने लगते हैं। ख़ुदा के बारे में उनकी बेशुऊरी उन्हें उनकी दुनिया के बारे में भी 
बेशुऊर बना देती है। 

ऐसे लोग जिन्हें सिर्फ मंफी (नकारात्मक) मकसद ने मुत्तहिद किया हो वे ज्यादा देर तक 
अपना इत्तिहाद बाकी नहीं रख पाते। क्योंकि देरपा इत्तहाद के लिए मुस्बत (सकारात्मक) 
बुनियाद दरकार है और वह उनके पास मौजूद ही नहीं। 


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ये उन लोगों की मानिंद हैं जो उनके कुछ ही पहले अपने किए का मजा चख चुके हैं, 
और उनके लिए दर्दनाक अजाब है। जैसे शैतान जो इंसान से कहता है कि मुंकिर हो 
जा, फिर जब वह मुंकिर हो जाता है तो वह कहता है कि में तुमसे बरी हूं। में अल्लाह 


से डरता हूं जो सारे जहान का रब है। फिर अंजाम दोनों का यह हुआ कि दोनों दोजख़ 
में गए जहां वे हमेशा रहेंगे, और जालिमों की सजा यही है। (5-7) 








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सूरह-59. अल-हश्र I43] पारा 28 


मदीना के मुनाफिकीन बनू नजीर को मुसलमानों के खिलाफ उभार रहे थे। उन्होंने उस 
वाक्येसेसबक नहीलिया कि जल्द ही पहले कुश और कवीला बनूवैनु्अ उनके झ़ताफ 
उठे। मगर उन्हें जबरदस्त शिकस्त हुई। जो लोग शैतान को अपना मुशीर (सलाहकार) बनाएं 
उनका हाल हमेशा यही होता है। वे वाकेयात से नसीहत नहीं लेते। पहले वे जोश व ख़रोश 
के साथ लोगों को मुजरिमाना अफआल पर उभारते हैं। फिर जब उसका भयानक अंजाम 
सामने आता है तो वे तरह-तरह के अल्फाज बोलकर यह चाहते हैं कि उसकी जिम्मेदारी से 
अपने आपको बरी कर लें। मगर इस किस्म की कोशिशें ऐसे लोगों को अल्लाह की पकड़ से 
बचाने वाली साबित नहीं हो सकतीं । 


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ऐ ईमान वालो अल्लाह से डरो, और हर शख्स देखे कि उसने कल के लिए क्या भेजा 

है। और अल्लाह से डरो, बेशक अल्लाह बाख़बर है जो तुम करते हो। और तुम उन 

लोगों की तरह न बन जाओ जो अल्लाह को भूल गए तो अल्लाह ने उन्हें खुद उनकी 


जानों से ग्राफिल कर दिया, यही लोग नाफरमान हैं। दोजख़ वाले ओर जन्नत वाले 
बराबर नहीं हो सकते। जन्नत वाले ही असल में कामयाब हैं। (8-20) 








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इंसानी जिंदगी को “आज” और 'कल' के दर्मियान तक्सीम किया गया है। मौजूदा दुनिया 

इंसान का आज है और आखिरत की दुनिया उसका कल है। इंसान मौजूदा दुनिया में जो कुछ 

करेगा उसका लाजिमी अंजाम उसे आने वाली तवीलतर (दीर्घतर) जिंदगी में भुगतना पड़ेगा। 
यही असल हकीकत है और इसी हकीकत का दूसरा नाम इस्लाम है। इंसान की 

कामयाबी इसमें हैं कि वह इस हवीक्ते वाकई को जेन में रखे। जो शख इस हकीकत 

वाकई से गाफिल हो जाए उसकी पूरी जिंदगी गलत होकर रह जाएगी। इस मामले में 

मुसलमान और गैर मुसलमान का कोई फर्क नहीं। मुसलमानों को इसका फायदा उसी ववत 

मिलेगा जबकि वाकेयतन वे उस पर कायम हों। मुसलमान अगर गफलत में पड़ जाएं तो 

उनका अंजाम भी वही होगा जो इससे पहले गफलत में पड़ने वाले यहूद का हुआ। 





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अगर हम इस कुरआन को पहाड़ पर उतारते तो तुम देखते कि वह खुदा के ख़ोफ से दब 

जाता और फट जाता, और ये मिसालें हम लोगों के लिए बयान करते हैं ताकि वे सोचें। 
वही अल्लाह है जिसके सिवा कोई माबूद (पूज्य) नहीं, पोशीदा और जाहिर को जानने 
वाला, वह बड़ा महरबान है। निहायत रहम वाला है। वही अल्लाह है जिसके सिवा कोई 
माबूद नहीं। बादशाह, सब ऐबों से पाक, सरासर सलामती, अम्न देने वाला, निगहबान, 
ग़ालिब, जोरआवर, अज्मत वाला, अल्लाह उस शिर्क से पाक है जो लोग कर रहे हैं। वही 
अल्लाह है पैदा करने वाला, वुजूद में लाने वाला, सूरतगरी (संरचना) करने वाला, उसी के 
लिए हैं सारे अच्छे नाम। हर चीज जो आसमानों और जमीन में है उसकी तस्बीह कर रही 

है, और वह जबरदस्त है, हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। (2।-24) 


कुआन इस अजीम हकीकत का एलान है कि इंसान आजाद नहीं है बल्कि उसे अपने 
तमाम आमाल की जवाबदेही अल्लाह के सामने करनी है जो इंतिहाई ताकतवर है। और हर 
एक के आमाल को बजातेखुद पूरी तरह देख रहा है। यह ख़बर इतनी संगीन है कि पहाड़ तक 
को लरजा देने के लिए काफी है। मगर इंसान इतना गाफिल और बेहिस है कि वह इस 
हौलनाक ख़बर को सुनकर भी नहीं तड़पता। 

अल्लाह के नाम जो यहां बयान किए गए हैं वे एक तरफ अल्लाह की जात का तआरुफ 
(परिचय) हैं। दूसरी तरफ वे बताते हैं कि वह हस्ती कैसी अजीम हस्ती है जो इंसानों की 
ख़ालिक है और उनके ऊपर उनकी निगरानी कर रही है। अगर आदमी को वाकयेतन इसका 
एहसास हो जाए तो वह अल्लाह की हम्द व तस्बीह में सरापा गक हो जाएगा। 

कायनात अपनी तख़्तीकी मअनवियत की सूरत में खुदा की सिफात का आइना है। वह 
ख़ुद हम्द व तस्बीह में मसरूफ होकर इंसान को भी हम्द व तस्बीह का सबक देती है। 


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सूरह-60. अल-मुमतहिनह I433 पारा 28 
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(मक्का में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
ऐ ईमान वालो, तुम मेरे दुश्मनों और अपने दुश्मनों को दोस्त न बनाओ, तुम उनसे 
दोस्ती का इज्हार करते हो हालांकि उन्होंने उस हक (सत्य) का इंकार किया जो तुम्हारे 
पास आया, वे रसूल को और तुम्हें इस वजह से जलावतन (निर्वासित) करते हैं कि तुम 
अपने रब, अल्लाह पर ईमान लाए। अगर तुम मेरी राह में जिहाद और मेरी रिजामंदी 
की तलब के लिए निकले हो, तुम छुपाकर उन्हें दोस्ती का पैग़ाम भेजते हो। और में 
जानता हूं जो कुछ तुम छुपाते हो। और जो कुछ तुम जाहिर करते हो। और जो शख्स 
तुम में से ऐसा करेगा वह राहेरास्त से भटक गया। अगर वे तुम पर काबू पा जाएं तो 
वे तुम्हारे दुश्मन बन जाएंगे। और अपने हाथ और अपनी जबान से तुम्हें आजार (पीड़ा) 
पहुंचाएंगे। और चाहेंगे कि तुम भी किसी तरह मुंकिर हो जाओ। तुम्हारे रिश्तेदार और 
तुम्हारी औलाद कियामत के दिन तुम्हारे काम न आएंगे, वह तुम्हारे दर्मियान फैसला 
करेगा, और अल्लाह देखने वाला है जो कुछ तुम करते हो। (-3) 


अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने जब मक्का की तरफ इक्दाम करने 


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पारा 28 I434 सूरह-60. अल-मुमतहिनह 
का फैसला किया तो आपने उसका पूरा मंसूबा निहायत ख़ामोशी के साथ बनाया ताकि मक्का 
वाले मुकाबले की तैयारी न कर सकें। उस वकत एक बद्री सहाबी हातिब बिन अबी बलतआ 
ने इस मंसूबे को एक ख़त में लिखा और उसे खुफिया तौर पर मक्का वालों के नाम रवाना 
कर दिया। ताकि मक्का वाले उनसे खुश हो जाएं और उनके अहल व अयाल (परिवारजनों) 
को न सताएं जो मक्का में मुकीम हैं। मगर “वही” (ईश्वरीय वाणी) के जरिए इसकी इत्तिला 
हो गई और कासिद को रास्ते ही में पकड़ लिया गया। इस किस्म का हर फेअल इमानी 
तफ्रेफरेश्िफंहा 

जब यह सूरतेहाल हो कि इस्लाम और गैर इस्लाम के अलग-अलग महाज बन जाएं तो 
उस वक्त अहले इस्लाम की जिम्मेदारी होती है कि वे गैर इस्लामी महाज से दिलचस्पी का 
तअल्लुक तोड़ लें। चाहे गैर इस्लामी महाज में उनके अजीज और रिश्तेदार ही क्यों न हों। 
हक को मानना और हक का इंकार करने वालों से कल्बी तअल्लुक रखना दो मुतजाद (परस्पर 
विरोधी) चीजें हैं जो एक साथ जमा नहीं हो सकतीं। 


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तुम्हारे लिए इब्राहीम और उसके साथियों में अच्छा नमूना है, जबकि उन्होंने अपनी कौम 

से कहा कि हम अलग हैं तुमसे और उन चीजों से जिनकी तुम अल्लाह के सिवा इबादत 
करते हो, हम तुम्हारे मुंकिर हैं और हमारे और तुम्हारे दर्मियान हमेशा के लिए अदावत 
(बिर) और बेजारी (दुराव) जाहिर हो गई यहां तक कि तुम अल्लाह वाहिद पर ईमान 
लाओ। मगर इब्राहीम का अपने बाप से यह कहना कि में आपके लिए माफी मांगूंगा, 
और मैं आपके लिए अल्लाह के आगे किसी बात का इख्तियार नहीं रखता। ऐ हमारे 





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सूरह-60. अल-मुमतहिनह I435 पारा 28 
रब, हमने तेरे ऊपर भरोसा किया और हम तेरी तरफ रुजूअ हुए और तेरी ही तरफ 
लौटना है। ऐ हमारे रब, हमें मुंकिरों के लिए फितना न बना, और ऐ हमारे रब, हमें 
बख्श दे, बेशक तू जबरदस्त है, हिक्मत वाला है। बेशक तुम्हारे लिए उनके अंदर अच्छा 
नमूना है, उस शख्स के लिए जो अल्लाह का और आख़िरत के दिन का उम्मीदवार हो। 
और जो शख्स रूगर्दानी (अवहेलना) करेगा तो अल्लाह बेनियाज (निस्पृह) है, तारीफों 

वाला है। उम्मीद है कि अल्लाह तुम्हारे और उन लोगों के दर्मियान दोस्ती पैदा कर दे 
जिनसे तुमने दुश्मनी की। और अल्लाह सब कुछ कर सकता है, और अल्लाह बर्शने 
वाला, महरबान है। (4-7) 


हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने इब्तिदा में ख़ैरख़ाहाना अंदाज में अपने ख़ानदान को 
तौहीद का पैग़ाम दिया। जब इतमामेहुज्जत (आह्वान की अति) के बावजूद वे लोग मुंकिर बने 
रहे तो आप उनसे बिल्कुल जुदा हो गए । मगर यह बड़ा सख्त मरहला था। क्योंकि एलाने बरा-त 
(विरक्ति) का मतलब मुंकिरीने हक को यह दावत देना था कि वे हर मुमकिन तरीके से अहले 
ईमान को सताएं। दलील के मैदान में शिकस्त खाने के बाद ताकत के मैदान में अहले ईमान 
को जलील करें। यही वजह है कि इसके बाद हजरत इब्राहीम ने जो दुआ कि उसमें ख़ास तौर 
से फरमाया कि ऐ हमारे रब हमें इन जालिमों के जुम का तख़्तए मश्क (निशाना) न बना। 

अजीजों और रिश्तेदारों से एलाने बरा-त आम मअनों में एलाने अदावत नहीं है। यह 
दाऔ की तरफ से अपने यकीन का आखिरी इज्हार है। इस एतबार से उसमें भी एक दावती 
कई (४०५९) शामिल हो जाती है। चुनांचे कभी ऐसा होता है कि जो शख्स 'पैग़ाम” की 
जबान से मुतअस्सिर नहीं हुआ था 'यकीन' की जबान उसे जीतने में कामयाब हो जाती है। 


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अल्लाह तुम्हें उन लोगों से नहीं रोकता जिन्होंने दीन के मामले में तुमसे जंग नहीं की। 
और तुम्हें तुम्हारे घरों से नहीं निकाला कि तुम उनसे भलाई करो और तुम उनके साथ 
इंसाफ करो। बेशक अल्लाह इंसाफ करने वालों को पसंद करता है। अल्लाह बस उन 


लोगों से तुम्हें मना करता है जो दीन के मामले में तुमसे लड़े और तुम्हें तुम्हारे घरों से 
निकाला। और तुम्हारे निकालने में मदद की कि तुम उनसे दोस्ती करो, और जो उनसे 





पारा 28 I436 
दोस्ती करे तो वही लोग जालिम हैं। (8-9) 


सूरह-60. अल-मुमतहिनह 





जहां तक अदूल व इंसाफ का तअल्लुक है वह हर एक से किया जाएगा, चाहे फरीक सानी 
(प्रतिपक्षी) दुश्मन हो या गैर दुश्मन | मगर दोस्ती का तअल्लुक हर एक से दुरुस्त नहीं। दोस्ती 
सिर्फ उसी के साथ जाइज है जो अल्लाह का दोस्त हो या कम से कम यह कि वह अल्लाह 
का दुश्मन न हो। 


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ऐ ईमान वालो, जब तुम्हारे पास मुसलमान औरतें हिजरत (स्थान-परिवर्तन) करके आएं 
तो तुम उन्हें जांच लो, अल्लाह उनके ईमान को खूब जानता है। पस अगर तुम जान 
लो कि वे मोमिन हैं तो उन्हें मुंकिरों की तरफ न लोटाओ। न वे औरतें उनके लिए 
हलाल हैं और न वे उन औरतों के लिए हलाल हैं। और मुंकिर शोहरों ने जो कुछ खर्च 
किया वह उन्हें अदा कर दो। और तुम पर कोई गुनाह नहीं अगर तुम उनसे निकाह 
कर लो जबकि तुम उनके महर उन्हें अदा कर दो। और तुम मुंकिर औरतों को अपने 
निकाह में न रोके रहो। और जो कुछ तुमने ख़र्च किया है उसे मांग लो। और जो कुछ 
मुंकिरों ने ख़र्च किया वे भी तुमसे मांग लें। यह अल्लाह का हुक्म है, वह तुम्हारे दर्मियान 
फैसला करता है, और अल्लाह जानने वाला, हिक्मत वाला है। और अगर तुम्हारी 
बीवियों के महर में से कुछ मुंकिरों की तरफ रह जाए, फिर तुम्हारी नौबत आए तो 
जिनकी बीवियां गई हैं उन्हें अदा कर दो जो कुछ उन्होंने खर्च किया। और अल्लाह से 
डरो जिस पर तुम ईमान लाए हो। (0-]) 


यहां सुलह हुंदैबिया के बाद पैदाशुदा हालात की रोशनी में इस्लाम के कुछ उन कानूनों 


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सूरह-60. अल-मुमतहिनह I437 पारा 28 पारा 28 I438 सूरह-6।. अस-सफ्फ 
को बताया गया है जिनका तअल्लुक दारुल हरब और दारुल इस्लाम के दर्मियान पेश अपने ५ T»%43 ४2४४ ~ FE ~~ 5 gw i ~ | 4४2; 
वाले आइली (पारिवारिक) मसाइल से है। 6 


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ऐ नबी जब तुम्हारे पास मोमिन औरतें इस बात पर बैअत (प्रतिज्ञा) के लिए आएं कि 
वे अल्लाह के साथ किसी चीज को शरीक न करेंगी। और वे चोरी न करेंगी। और वे आयतें-4 सूह6।. अससफ् रुकूअ-2 
बदकारी न करेंगी। और वे अपनी औलाद को कत्ल न करेंगी। और वे अपने हाथ और (मदीना में नाजिल हुई) 
पांव के आगे कोई बोहतान गढ़कर न लाएंगी। और वे किसी मारूफ (सत्कर्म) में शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
तुम्हारी नाफरमानी न करेंगी तो उनसे वैअत ले लो और उनके लिए अल्लाह से बख्शिश अल्लाह की तस्बीह करती है हर चीज जो आसमानों और जमीन में है। और वह ग़ालिब 
की दुआ करो, बेशक अल्लाह बख़्शने वाला महरबान है। (2) (प्भुत्वशाली) है हकीम (तत्वदर्शी) है। ऐ ईमान वालो, तुम ऐसी बात क्यों कहते हो जो 
तुम करते नहीं। अल्लाह के नजदीक यह बात बहुत नाराजी की है कि तुम ऐसी बात कहो 
इस आयत में वे शर्ते बताई गई हैं जिनका इकरार लेकर किसी औरत को इस्लाम में जो तुम करो नहीं। अल्लाह तो उन लोगों को पसंद करता है जो उसके रास्ते में इस तरह 
दाखिल किया जाता है। इन शर्तों में दो शर्त की हैसियत बुनियादी है। यानी शिक न करना मिलकर लड़ते हैं गोया वे एक सीसा पिलाई हुई दीवार हैं। (-4) 
और रसूल की नाफरमानी न करना । बाकी तमाम मजकूर (उल्लिखित) औशमकू त्रे 
अपने आप इन दो शर्तों में शामिल हो जाते हैं। इंसान के सिवा जो कायनात है उसमें कहीं तजाद (अन्तर्विरोध) नहीं। इस दुनिया में 
Fn FR a TR लकड़ी हमेशा लकड़ी रहती है। और जो चीज अपने आपको लोहा और पत्थर के रूप में 
Er (६32 5 AS 23 st 3) (० 5 oy |e 2९ जाहिर करे वह हकीकी तजर्बे में भी लोहा और पत्थर ही साबित होती है। इंसान को भी ऐसा 
| £ i ४६६ ही बनना चाहिए। इंसान के कहने और करने में मुताबिकत होनी चाहिए । यहां तक कि उस 
¢, | ४2 & FOWL FeL वक्त भी जबकि आदमी को अपने कहने की यह कीमत देनी पड़े कि हर किस्म की दुश्वारियों 
ऐ ईमान वालो तुम उन लोगों को दोस्त न बनाओ जिनके ऊपर अल्लाह का गजब हुआ, के बावजूद वह सब्र का पहाड़ बन जाए , 
नाउम्मीद गए हें त्री में हुए मुंकिर नाउम्मीद हें 9 ० / 9-१5 २5) अर 2 
वे आख़िरत से नाउम्मीद हो गए हैं जिस तरह कब्रों में पड़े हुए मुंकिर नाउम्मीद हैं। (3) RT Gl 237 | ७2788: 92555%9 »& Aoi) (४०३७ d ® 
आसमानी किताब को मानने वाले यहूद और उसे न मानने वाले मुंकिर आख़िरत के Gs 9... १९. a PRES Cc ८६७४८ 5 
एतबार से एक सतह पर हैं। खुले हुए मुंकिरों को उम्मीद नहीं होती कि कोई शख्स दुबारा oC) 258 5५०४४ 40) ० 40) की 5 ६४ 5 
अपनी कब्र से उठेगा। यही हाल उन लोगों का भी होता है जो यहूद की तरह ईमान लाने के और जब मूसा ने अपनी कौम से कहा कि ऐ मेरी कौम, तुम लोग क्यों मुझे सताते हो, 
बाद गफलत और बेहिसी में मुला हो गए हों। आखिरत का लफ्जी इकरार करने के हालांकि तुम्हें मालूम है कि मैं तुम्हारी तरफ अल्लाह का भेजा हुआ रसूल हूं। पस जब 
बावजूद उनकी अमली जिंदगी वैसी ही हो जाती है जैसी खुले हुए मुंकिरीन की जिंदगी । वे फिर गए तो अल्लाह ने उनके दिलों को फेर दिया। और अल्लाह नाफरमान लोगों 


को हिदायत नहीं देता। (5) 


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सूरह6।. अस-सफ्फ I439 पारा 28 


हजरत मूसा अलैहिस्सलाम बनी इस्राईल के दर्मियान आए। बनी इस्राईल उस वक्‍त एक 
जवालयापता कौम थे। उनके अंदर यह हौसला बाकी नहीं रहा था कि जो कहें वही करें। और 
करें वही कहें। चुनांचे उनका हाल यह था कि वे हजरत मूसा के हाथ पर ईमान का इकरार 
भी करते थे और इसी के साथ हर किस्म की बदअहदी और नाफरमानी में भी मुन्तिला रहते 
थे। यहां तक कि हजरत मूसा के साथ अपने बुरे सुलूक को जाइज साबित करने के लिए वे 
खुद हजरत मूसा पर झूठेझूठे इल्जाम लगाते थे। बाइबल में खुरूज और गिनती के अबवाब 
(अध्यायो) में इसकी तफ्सील देखी जा सकती है। 

अहद करने के बाद अहद की ख़िलाफवर्ज आदमी को पहले से भी ज्यादा हक से दूर 
कर देती है। 

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और जब ईसा बिन मरयम ने कहा कि ऐ बनी इस्राईल मैं तुम्हारी तरफ अल्लाह का 
भेजा हुआ रसूल हूं, तस्दीक (पुष्टि) करने वाला हूं उस तौरात की जो मुझसे पहले से 
मौजूद है, और खुशखबरी देने वाला हूं एक रसूल की जो मेरे बाद आएगा, उसका नाम 
अहमद होगा। फिर जब वह उनके पास खुली निशानियां लेकर आया तो उन्होंने कहा, 
यह तो खुला हुआ जादू है। और उससे बढ़कर जालिम कौन होगा जो अल्लाह पर झूठ 
बांधे हालांकि वह इस्लाम की तरफ बुलाया जा रहा हो, और अल्लाह जालिम लोगों को 
हिदायत नहीं देता। वे चाहते हैं कि अल्लाह की रोशनी को अपने मुंह से बुझा दें, 
हालांकि अल्लाह अपनी रोशनी को पूरा करके रहेगा, चाहे मुंकिरों को यह कितना ही 
नागवार हो। वही है जिसने भेजा अपने रसूल को हिदायत और दीने हक के साथ ताकि 
उसे सब दीनों पर ग़ालिब कर दे चाहे मुश्रिकों (बहुदेववादियों) को यह कितना ही 
नागवार हो। (6-9) 


हजरत मसीह अलैहिस्सलाम के मोजिजात इस बात का सुबूत थे कि आप खुदा के पैगम्बर 


पारा 28 440 सूरह6. अस-सफ्फ 
हैं। मगर यहूद ने उन मोजिजात को जादू का करिश्मा कहकर उन्हें नजरअंदाज कर दिया । इसी 
तरह कदीम आसमानी किताबों में वाजेह तौर पर पैगम्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की पेशगी 
खबर मौजूद थी। मगर जब आप आए तो यहूद और नसारा दोनों ने आपका इंकार कर दिया। 
इंसान इतना जालिम है कि वह खुली-खुली हकीकतों का एतराफ करने के लिए भी तैयार नहीं 
होता। 

इस आयत में ग़लबे से मुराद फिक्री ग़लबा (वैचारिक वर्चस्व) है। यानी खुदा और 
मजहब के बारे में जितने गैर मुवहिहदाना (गैर-एकेश्वरवादी) अकाइद दुनिया में हैं उन्हें जेर 
करके तैहीद (एकेश्वरवाद) के अकीदे को गालिब फिक्र की हैसियत दे दी जाए। बकिया 
तमाम अकाइद हमेशा के लिए फिक्री तौर पर मगलूब होकर रह जाएं। कुरआन में यह 
पेशीनगोई इंतिहाई नामुवाफिक हालात में सनू 3 हि० में नाजिल हुई थी। मगर बाद को वह 


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ऐ ईमान वालो, क्या में तुम्हें एक ऐसी तिजारत बताऊ जो तुम्हें एक दर्दनाक अजाब से 
बचा ले। तुम अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाओ और अल्लाह की राह में अपने 
माल और अपने जान से जिहाद (जद्दोजहद) करो, यह तुम्हारे लिए बेहतर है अगर तुम 
जानो। अल्लाह तुम्हारे गुनाह माफ कर देगा और तुम्हें ऐसे बागों में दाखिल करेगा जिनके 
नीचे नहरें जारी होंगी, और उम्दा मकानों में जो हमेशा रहने के बागों में होंगे, यह है बड़ी 
कामयाबी और एक और चीज भी जिसकी तुम तमन्ना रखते हो, अल्लाह की मदद और 
फतह जल्दी, और मोमिनों को बशारत (शुभ सूचना) दे दो। (0-3) 








तिजारत में आदमी पहले देता है, इसके बाद उसे वापस मिलता है। दीन की जद्दोजहद 
में भी आदमी को अपनी कुव्वत और अपना माल देना पड़ता है। इस एतबार से यह भी एक 
किस्म की तिजारत है। अलबत्ता दुनियावी तिजारत का नफा सिर्फ दुनिया में मिलता है और 
दीन की तिजारत का नफा मजीद इजाफे के साथ दुनिया में भी मिलता है और आखिर में 
भी। फिर इसी 'तिजारत' से ग़लबा की राह भी खुलती है जो मौजूदा दुनिया में किसी गिरोह 
को बाइज्जत जिगी हासिल करने का सबसे बद जरिया है। 


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सूरह6।. अस-सप्फ I44] पारा 28 
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ऐ ईमान वालो, तुम अल्लाह के मददगार बनो, जैसा कि ईसा बिन मरयम ने हवारियों 
(साथियों) से कहा, कौन अल्लाह के वास्ते मेरा मददगार बनता है। हवारियों ने कहा 
हम हैं अल्लाह के मददगार, पस बनी इस्राईल में से कुछ लोग ईमान लाए और कुछ 
लोगों ने इंकार किया। फिर हमने ईमान लाने वालों की उनके दुश्मनों के मुकाबले में 
मदद की, पस वे ग़ालिब हो गए। (4) 


यहूद की अक्सरियत ने अगरचे हजरत मसीह अलैहिस्सलाम को रदूद कर दिया मगर 
उनमें से कुछ लोग (हवारिय्यीन) ऐसे थे जिन्होंने पूरे इख्लास और वफादारी के साथ आपका 
साथ दिया। और आपके पैग़म्बराना मिशन को आगे बढ़ाया। यही चन्द लोग अल्लाह की 
नजर में मोमिन करार पाए और बकिया तमाम यहूद पिछले पेगम्बरों को मानने के बावजूद 
मुंकिर करार पा गए। 

यहां जिस गलबे का जिक्र है वह फिल जुमला (वस्तुतः) मोमिनीने मसीह का फिल जुमला 
मुंकिरीने मसीह पर गलबा है। हजरत मसीह के बाद रूमी शहंशाह कुस्तुंतीन दोम (272-387 
ई०) ने नसरानियत (ईसाइयत) कुबूल कर ली जिसकी सल्तनत शाम और फिलिस्तीन तक 
फैली हुई थी। इसके बाद रूमी रिआया बहुत बड़ी तादाद में ईसाई हो गई । चुनांचे यहूद उनके 
महकूम (शासनाधीन) हो गए। मौजूदा जमाने में भी यहूदियों की हुकूमते इस्राईल हर एतबार 


से ईसाइयों के मातहत है। 
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आयतें-। सूरह-62. अल-जुमुअह रुकूअ-2 


(मदीना में नाजिल हुई) 

शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरवान, निहायत रहम वाला है। 
अल्लाह की तस्बीह कर रही है हर वह चीज जो आसमानों में है और जो जमीन में है। जो 
बादशाह है, पाक है, जबरदस्त है, हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। वही है जिसने उम्मियों 
के अंदर एक रसूल उन्हीं में से उठाया, वह उन्हें उसकी आयतें पढ़कर सुनाता है। और उन्हें 
पाक करता है और उन्हें किताब और हिक्मत (तत्वदर्शिता) की तालीम देता है, और वे 
इससे पहले खुली गुमराही में थे और दूसरों के लिए भी उनमें से जो अभी उनमें शामिल 
नहीं हुए, और वह जबरदस्त है, हिक्मत वाला है। यह अल्लाह का फज्ल है, वह देता है 
जिसे चाहता है, और अल्लाह बड़े फज्ल (अनुग्रह) वाला है। (-4) 





इंसान की हिदायत के लिए रसूल भेजना खुदा की उन्हीं सिफात (गुणों) का इंसानी सतह 
पर जुहूर है जिन सिफात का जुहूर मादूदी एतबार से कायनात की सतह पर हुआ है। अल्लाह 
के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम, और इसी तरह दूसरे पैगम्बरों का काम ख़ास तौर पर 
दो रहा है। एक, ख़ुदा की 'वही' को लोगों तक पहुंचाना। दूसरे, लोगों के शुऊर को बेदार 
करना ताकि वे खुदाई बातों को समझें और अपनी हकीकी जिंदगी के साथ उन्हें मरबूत कर 
सकें। यही दो काम आइंदा भी दावत व इस्लाह की जद्दोजहद में मत्लूब रहेंगे। यानी तालीमे 
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जिन लोगों को तौरात का हामिल (धारक) बनाया गया फिर उन्होंने उसे न उठाया, 
उनकी मिसाल उस गधे की सी है जो किताबों का बोझ उठाए हुए हो। क्या ही बुरी 


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सूरह-62. अल-जुमुअह 443 पारा 28 
मिसाल है उन लोगों की जिन्होंने अल्लाह की आयतों को झुठलाया, और अल्लाह 
जालिम लोगों को हिदायत नहीं देता। कहो कि ऐ यहूदियो, अगर तुम्हारा गुमान है 
कि तुम दूसरों के मुकाबले में अल्लाह के महबूब हो तो तुम मौत की तमन्ना करो, अगर 
तुम सच्चे हो। और वे कभी इसकी तमन्ना न करेंगे उन कामों की वजह से जिन्हें उनके 
हाथ आगे भेज चुके हैं। और अल्लाह जालिमों को ख़ूब जानता है। कहो कि जिस मौत 
से तुम भागते हो वह तुम्हें आकर रहेगी, फिर तुम पोशीदा और जाहिर के जानने वाले 
के पास ले जाए जाओगे, फिर वह तुम्हें बता देगा जो तुम करते रहे हो। (5-8) 





ख़ुदा की किताब जब किसी कौम को दी जाती है तो इसलिए दी जाती है कि वह उसे 
अपने अंदर उतारे और उसे अपनी जिंदगी में अपनाए। मगर जो कौम इस मअना में किताबे 
आसमानी की हामिल (धारक) न बन सके उसकी मिसाल उस गधे की सी होगी जिसके ऊपर 
इलमी किताबें लदी हुई हों और उसे कुछ ख़बर न हो कि उसके ऊपर क्या है। 

यहूद ने अगरचे अमली तौर पर ख़ुदा के दीन को छोड़ रखा था, इसके बावजूद उसे अपने 
कैमी फख़ का निशान बनाए हुए थे। मगर इस किस्म का फख़ किसी के कुछ काम आने 
वाला नहीं। ऐसा फख़ हमेशा झूठा फख़ होता है। और इसका एक सुबूत यह है कि आदमी 
जिस दीन को अपने फख़ का सामान बनाए हुए होता है उसके लिए वह कुर्बानी देने को तैयार 
नहीं होता। ताहम जब मौत आएगी तो ऐसे लोग जान लेंगे कि दुनिया में वे जिस फख़ पर 
जी रहे थे वह आख़िरत में उन्हें जिल्लत के सिवा और कुछ देने वाला नहीं। 


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ऐ ईमान वालो, जब जुमा के दिन की नमाज के लिए पुकारा जाए तो अल्लाह की याद 
की तरफ चल पड़ो और ख़रीद व फरोख्त छोड़ दो, यह तुम्हारे लिए बेहतर है अगर तुम 
जानो। फिर जब नमाज पूरी हो जाए तो जमीन में फेल जाओ और अल्लाह का फन्ल तलाश 


करो, और अल्लाह को कसरत (अधिकता) से याद करो, ताकि तुम फलाह पाओ। और 
जब वे कोई तिजारत या खेल तमाशा देखते हैं तो उसकी तरफ दौड़ पड़ते हैं। और तुम्हें 


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पारा 28 I444 सूरह63. अल-मुनाफिकून 
खड़ा हुआ छोड़ देते हैं, कहो कि जो अल्लाह के पास है वह खेल तमाशे और तिजारत से 
बेहतर है, और अल्लाह बेहतरीन रिजक देने वाला है। (9-) 





दुनिया में आदमी बयकववत दो तकाजों के दर्मियान होता है। एक मआश (जीविका) का 
तकज, और कूरेर दीन का तकज । इनमेंसे हर तकज जरुरी है। अलबत्ता उनके दर्मियान 
इस तरह तक्सीम होनी चाहिए कि मआशी सरगर्मियां दीनी तकाजे के मातहत हों। आदमी 
को इजाजत है कि वह जाइज हुटूद में मआश के लिए दौड़ धूप करे। मगर यह जरूरी है कि 
उसे जो मआशी कामयाबी हासिल हो उसे वह सरासर अल्लाह का फज्ल समझे । नीज मआशी 
सरगर्मी के दौरान बराबर अल्लाह को याद करता रहे। इसी के साथ उसे हमेशा तैयार रहना 
चाहिए कि जब भी दीन के किसी तकाजे के लिए पुकारा जाए तो उस वक्त वह हर दूसरे काम 
को छोड़कर दीन के काम की तरफ दौड़ पड़े। 

मदीना में एक बार ऐन जुमा के खुत्बे के वक्‍त कुछ लोग उठकर बाजार चले गए। इस 
पर मज्कूरा आयतें उतरीं। इस हुक्म का तअल्लुक अगरचे बराहेरास्त तौर पर जुमा से है मगर 
बिलवास्ता तौर पर हर दीनी काम से है। जब भी किसी ख़ास दीनी मकसद के लिए लोगों को 
जमा किया जाए तो अमीर की इजाजत के बगैर उठकर चले जाना सख्त महरूमी की बात है। 


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आयतें-2 सूषह63. अल-मुनाफ्म रुकूअ-2 
(मदीना में नाजिल हुई) 

शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
जब मुनाफिक (पाखंडी) तुम्हारे पास आते हैं तो कहते हैं कि हम गवाही देते हैं कि आप 
बेशक अल्लाह के रसूल हैं, और अल्लाह जानता है कि बेशक तुम उसके रसूल हो, और 
अल्लाह गवाही देता है कि ये मुनाफिकीन (पाखंडी) झूठे हैं। उन्होंने अपनी कसमों को 
ढाल बना रखा है, फिर वे रोकते हैं अल्लाह की राह से, बेशक निहायत बुरा है जो वे 


कर रहे हैं। यह इस सबब से है कि वे ईमान लाए फिर उन्होंने कुफ़ किया, फिर उनके 
दिलों पर मुहर कर दी गई, पस वे नहीं समझते। (-3) 





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सूरह-63. अल-मुनाफिकून I445 पारा 28 








यह किसी आदमी के निफाक (पाखंड) की अलामत है कि वह बड़ी-बड़ी बातें करे। और 
कसम खाकर अपनी बात का यकीन दिलाए। मुख्तिस (निष्ठावान) आदमी अल्लाह के खौफ 
से दबा हुआ होता है। वह जबान से ज्यादा दिल से बोलता है। मुनाफिक आदमी सिर्फ इंसान 
को अपनी आवाज सुनाने का मुशताक होता है। और मुख्लिस आदमी खुदा को सुनाने का। 

जब एक शख्स ईमान लाता है तो वह एक संजीदा अहद (प्रण) करता है। इसके बाद 
जिंदगी के अमली मवाकेअ आते हैं जहां जरूरत होती है कि वह उस अहद के मुताबिक 
अमल करे। अब जो शख्स ऐसे मोकों पर अपने दिल की आवाज को सुनकर अहद के तकाजे 
पूरे करेगा। उसने अपने अहदे ईमान को पुख्ता किया। इसके बरअक्स जिसका यह हाल हो 
कि उसके दिल ने आवाज दी मगर उसने दिल की आवाज को नजरअंदाज करके अहद के 
खिलाफ अमल किया तो इसका नतीजा यह होगा कि वह धीरे-धीरे अपने अहदे ईमान के 
मामले में बेहिस हो जाएगा। यही मतलब है दिल पर मुहर करने का। 

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और जब तुम उन्हें देखो तो उनके जिस्म तुम्हें अच्छे लगते हैं, और अगर वे बात करते 
हैं तो तुम उनकी बात सुनते हो, गोया कि वे लकड़ियां हैं टेक लगाई हुई। वे हर जोर 
की आवाज को अपने खिलाफ समझते हैं। यही लोग दुश्मन हैं, पस उनसे बचो। 
अल्लाह उन्हें हलाक करे, वे कहां फिरे जाते हैं। और जब उनसे कहा जाता है कि आओ, 
अल्लाह का रसूल तुम्हारे लिए इस्तिगफार (माफी की दुआ) करे तो वे अपना सर फेर 
लेते हैं। और तुम उन्हें देखोगे कि वे तकब्बुर (घमंड) करते हुए बेरुखी करते हैं। उनके 
लिए यकसां (समान) है, तुम उनके लिए मग्फिरत (माफी) की दुआ करो या मम्फिरत 
की दुआ न करो, अल्लाह हरगिज उन्हें माफ न करेगा। अल्लाह नाफरमान लोगों को 
हिदायत नहीं देता। (4-6) 





मुनाफिक आदमी मस्लेहतपरस्ती के जरिए अपने मफदात (हिते को महफू रखता है। 
वह हक नाहक की बहस में नहीं पड़ता, इसलिए हर एक से उसका बनाव रहता है। उसकी 
जिंदगी ग़म से खाली होती है। ये चीजें उसके जिस्म को फरबा (मोटा) बना देती हैं। वे लोगों 


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पारा 28 I446 सूरह63. अल-मुनाफिकून 
के मिजाज की रिआयत करके बोलता है। इसलिए उसकी बातों में हर एक अपने लिए 
दिलचस्पी का सामान पा लेता है। मगर ये बजाहिर हरे भरे दर्‌ हकीकतन सिर्फ सूखी 

लकड़ियां होते हैं जिनमें कोई जिंदगी न हो। वे अंदर से बुजदिल होते हैं। उनके नजदीक 

उनका दुनियावी मफाद हर दीनी मफाद से ज्यादा अहम होता है। ऐसे लोग ईमान के 
बुलन्दबांग मुद्दई (ऊंचे दावेदार) होने के बावजूद ख़ुदा की हिदायत से यकसर महरूम हैं। 


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यही हैं जो कहते हैं कि जो लोग अल्लाह के रसूल के पास हैं उन पर ख़र्च मत करो यहां 
तक कि वे मुंतशिर (तितर-बितर) हो जाएं। और आसमानों और जमीन के ख़जाने 
अल्लाह ही के हैं लेकिन मुनाफिकीन (पाखंडी) नहीं समझते। वे कहते हैं कि अगर हम 
मदीना लेटे तो इज्जत वाला वहां से जिल्लत वाले को निकाल देगा। हालांकि इज्जत 


अल्लाह के लिए और उसके रसूल के लिए और मोमिनीन के लिए है, मगर मुनाफिकीन 
(पाखंडी) नहीं जानते। (7-8) 





कदीम मदीना में दो किस्म के मुसलमान थे। एक मुहाजिर दूसरे अंसार । मुहाजिरीन 
मक्का से बेवतन होकर आए थे। उनका सबसे बड़ा जाहिरी सहारा मकामी मुसलमान (अंसार) 
थे। इस बिना पर दुनियापरस्त लोगों को मुहाजिर बेइज्जत दिखाई देते थे और अंसार उनकी 
नजर में बाइज्जत लोग थे। यहां तक कि एक मौके पर अब्दुल्लाह बिन उबइ ने साफ तैर पर 
कह दिया कि इन मुहाजिरीन की हकीकत क्या है। अगर हम इन्हें अपनी बस्ती से निकाल 
दें तो दुनिया में कहीं इन्हें ठिकाना न मिले। 
इस किम के अत्फज उसी श की जबान से निकल सकते हैजो इस हकीकत से 
बेख़बर हो कि इस दुनिया में जो कुछ है सब अल्लाह का है। वही जिसे चाहे दे और वही 
जिससे चाहे छीन ले। 


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सूरह-64. अत-तगाबुन 447 पारा 28 
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ऐ ईमान वालो, तुम्हारे माल और तुम्हारी औलाद तुम्हें अल्लाह की याद से गाफिल 

न करने पाएं, और जो ऐसा करेगा तो वही घाटे में पड़ने वाले लोग हैं। और हमने जो 
कुछ तुम्हें दिया है उसमें से ख़र्च करो इससे पहले कि तुम में से किसी की मौत आ 
जाए, फिर वह कहे कि ऐ मेरे रब, तूने मुझे कुछ और मोहलत क्यों न दी कि मैं सदका 
(दान) करता और नेक लोगों में शामिल हो जाता। और अल्लाह हरगिज किसी जान 
को मोहलत नहीं देता जबकि उसकी मीआद (नियत समय) आ जाए, और अल्लाह 
जानता है जो कुछ तुम करते हो। (9-7) 


हर आदमी के लिए सबसे बड़ा मसला आख़िरत का मसला है। मगर माल और औलाद 
इंसान को इस सबसे बड़े मसले से गाफिल कर देते हैं। इंसान को जानना चाहिए कि माल 
और औलाद मकसद नहीं बल्कि जरिया हैं। वे इसलिए किसी को दिए जाते हैं कि वह उन्हें 
अल्लाह के काम में लगाए। वह उन्हें अपनी आखिरत बनाने में इस्तेमाल करे। मगर नादान 
आदमी उन्हें बजाते खुद मकसूद (लक्ष्य) समझ लेता है। ऐसे लोग जब अपने आखिरी अंजाम 
को पहुंचेंगे तो वहां उनके लिए हसरत व अफसोस के सिवा और कुछ न होगा। 


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आयतें-8 सूरह-64. अत-तग़्राबुन रुकूअ-2 
(मदीना में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
अल्लाह की तस्बीह कर रही है हर चीज जो आसमानों में है और हर चीज जो जमीन 


पारा 28 I448 सूरह-64. अत-तगाबुन 
में है। उसी की बादशाही है और उसी के लिए तारीफ है और वह हर चीज पर कादिर 

है। वही है जिसने तुम्हें पैदा किया, फिर तुम में से कोई मुंकिर है और कोई मोमिन, 
और अल्लाह देख रहा है जो कुछ तुम करते हो। उसने आसमानों और जमीन को ठीक 
तौर पर पैदा किया और उसने तुम्हारी सूरत बनाई तो निहायत अच्छी सूरत बनाई, और 
उसी की तरफ है लोटना। वह जानता है जो कुछ आसमानां और जमीन में है। और 

वह जानता है जो कुछ तुम छुपाते हो और जो तुम जाहिर करते हो। और अल्लाह दिलों 
तक की बातों का जानने वाला है। (-4) 








'कायनात अल्लाह की तस्बीह कर रही है” का मतलब यह है कि अल्लाह ने जिस 
हकीकत को कुरआन में खोला है, कायनात सरापा उसकी तस्दीक (पुष्टि) बनी हुई है, वह 
जबानेहाल से हम्द व सताइश (प्रशस्ति) की हद तक इसकी ताईद कर रही है। इस दोतरफा 
एलान के बावजूद जो लोग मोमिन न बनें उन्हें इसके बाद तीसरे एलान का इंतिजार करना 
चाहिए जबकि तमाम लोग ख़ुदा के यहां जमा किए जाएंगे ताकि ख़ुद मालिके कायनात की 
जबान से अपने बारे में आखिरी फैसले को सुनें। 


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क्या तुम्हें उन लोगों की ख़बर नहीं पहुंची जिन्होंने इससे पहले इंकार किया, फिर 
उन्होंने अपने किए का वबाल चखा और उनके लिए एक दर्दनाक अजाब है। यह 
इसलिए कि उनके पास उनके रसूल खुली दलीलों के साथ आए, तो उन्होंने कहा 
कि क्या इंसान हमारी रहनुमाई करेंगे। पस उन्होंने इंकार किया और मुंह फेर लिया, 


और अल्लाह उनसे बेपरवाह हो गया, और अल्लाह बेनियाज (निस्पृह) है, तारीफ 
वाला है। (5-6) 





कदीम जमाने में रसूलों के जरिए जो तारीख़ बनी वह इंसानों के लिए मुस्तकिल इबरत 
(सीख) का नमूना है। मसलन आद और समूद और अहले मदयन और कौमे लूत वगैरह के 
दर्मियान पैगम्बर आए। इन पेग़म्बरों के पास अपनी सदाकत बताने के लिए कोई गैर बशरी 
(इंसानी) कमाल न था, बल्कि सिर्फ दलील थी। दलील की सतह पर इंकार ने उन कौमों को 
अजाब का मुस्तहिक बना दिया । इससे मालूम हुआ कि इस दुनिया में आदमी का इम्तेहान 
यह है कि वह दलील की सतह पर हक को पहचाने। जो शख्स दलील की सतह पर हक को 
पहचानने में नाकाम रहे वह हमेशा के लिए हक से महरूम होकर रह जाएगा। 


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सूरह-64. अत-तगाबुन I449 पारा 28 
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इंकार करने वालों ने दावा किया कि वे हरगिज दुबारा उठाए न जाएंगे, कहो कि हां, 
मेरे रब की कसम तुम जरूर उठाए जाओगे, फिर तुम्हें बताया जाएगा जो कुछ तुमने 
किया है, और यह अल्लाह के लिए बहुत आसान है। पस अल्लाह पर ईमान लाओ 
और उसके रसूल पर और उस नूर (प्रकाश) पर जो हमने उतारा है। और अल्लाह जानता 
है जो कुछ तुम करते हो। जिस दिन वह तुम सबको एक जमा होने के दिन जमा करेगा, 
यही दिन हार जीत का दिन होगा। और जो शख्स अल्लाह पर ईमान लाया होगा और 
उसने नेक अमल किया होगा, अल्लाह उसके गुनाह उससे दूर कर देगा और उसे बागों 
में दाखिल करेगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी वे हमेशा उनमें रहेंगे। यही है बड़ी 
कामयाबी । और जिन लोगों ने इंकार किया और हमारी आयतों को झुठलाया वही आग 
वाले हैं, उसमें हमेशा रहेंगे, और वह बुरा ठिकाना है। (7-0) 


लोग दुनिया को हार जीत (तग़ाबुन) की जगह समझते हैं। किसी शख्स को यहां 
कामयाबी मिल जाए तो वह खुश होता है। और जो शख्स यहां नाकामी से दो चार हो वह 
लोगों की नजर में हकीर (तुच्छ) बनकर रह जाता है। मगर हकीकत यह है कि इस दुनिया 
की हार भी बेकीमत है और यहां की जीत भी बेकीमत। 

हार जीत का असल मकाम आखिरत (परलोक) है। हारने वाला वह है जो आख़िरत में 
हारे और जीतने वाला वह है जो आखिरत में जीते। और वहां की हार जीत का मेयार बिल्कुल 
मुख्तलिफ है। दुनिया में हार जीत जाहिरी माद्दियात (पदार्थो) की बुनियाद पर होती है। और 
आखिरत की हार जीत खुदाई अख्नाकियात की बुनियाद पर होगी। उस वक्त देखने वाले यह 
देखकर हैरान रह जाएंगे कि यहां सारा मामला बिल्कुल बदल गया है। जिस पाने को लोग 
पाना समझ रहे थे वह दरअस्ल खोना था, और जिस खोने को लोगों ने खोना समझ रखा था 
वही दरअस्ल वह चीज थी जिसे पाना कहा जाए। उसी दिन की हार, हार है और उसी दिन 
की जीत, जीत। 








पारा 28 450 सूरह-64. अत-तगाबुन 
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जो मुसीबत भी आती है अल्लाह के इज्न (अनुज्ञा) से आती है। और जो शख्स अल्लाह 
पर ईमान रखता है अल्लाह उसके दिल को राह दिखाता है, और अल्लाह हर चीज को 
जानने वाला है। और तुम अल्लाह की इताअत (आज्ञापालन) करो और रसूल की 
इताअत करो। फिर अगर तुम एराज (उपेक्षा) करोगे तो हमारे रसूल पर बस साफ-साफ 

पहुंचा देना है। अल्लाह, उसके सिवा कोई इलाह (पूज्य-प्रभु) नहीं, और ईमान लाने 
वालों को अल्लाह ही पर भरोसा रखना चाहिए। (।-3) 





कोई मुसीबत अपने आप नहीं आती, हर मुसीबत ख़ुदा की तरफ से आती है। और इसलिए 
आती है कि उसके जरिए से इंसान को हिदायत अता की जाए। मुसीबत आदमी के दिल को 
नर्म करती है। और उसकी सोई हुई नफ्सियात में हलचल पैदा करती है। मुसीबत के झटके 
आदमी के जेहन को जगाने का काम करते हैं। अगर आदमी अपने आपको मंफी रद्देअमल 
(नकारात्मक प्रतिक्रिया) से बचाए तो मुसीबत उसके लिए बेहतरीन रब्बानी मुअल्लिम (शिक्षक) 
बन जाएगी। 


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ऐ ईमान वालो, तुम्हारी कुछ बीवियां और कुछ औलाद तुम्हारे दुश्मन हैं, पस तुम उनसे 
होशियार रहो, और अगर तुम माफ कर दो और दरगुजर करो और बख्श दो तो अल्लाह 
बख्शने वाला, रहम करने वाला है। तुम्हारे माल और तुम्हारी औलाद आजमाइश की चीज 
हैं, और अल्लाह के पास बहुत बड़ा अज्र है। पस तुम अल्लाह से डरो जहां तक हो सके। 


और सुनो और मानो और खर्च करो, यह तुम्हारे लिए बेहतर है, और जो शख्स दिल की 
तंगी से महफूज रहा तो ऐसे ही लोग फलाह (कल्याण, सफलता) पाने वाले हैं। अगर तुम 








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सूरह65. अत-्तलाक I45] पारा 28 
अल्लाह को अच्छा कर्ज दोगे तो वह उसे तुम्हारे लिए कई गुना बढ़ा देगा और तुम्हें बख्श 

देगा, और अल्लाह कद्रदां है, बुर्दबार (उदार) है। गायब और हाजिर को जानने वाला है, 
जबरदस्त है, हकीम (तत्वदर्शी) है। (4-8) 





इंसान को सबसे ज्यादा तअल्लुक अपनी औलाद से होता है। आदमी हर दूसरे मामले 
में उसूल की बातें करता है मगर जब अपनी औलाद का मामला आता है तो वह बेउसूल बन 
जाता है। इसीलिए हदीस में इर्शाद हुआ है कि औलाद किसी आदमी को बुजदिली और बुख् 
(कंजूसी) पर मजबूर करने वाले हैं। इसी तरह एक और हदीस में इर्शाद हुआ है कि कियामत 
के दिन एक शख्स को लाया जाएगा, फिर कहा जाएगा कि इसके बीवी बच्चे इसकी नेकियां 
खा गए। 

इंसान अपने बच्चों की खातिर अल्लाह की राह में खर्च नहीं करता हालांकि अगर वह 
अल्लाह की राह में ख़र्च करे तो मुख्तलिफ शक्लों में अल्लाह उसकी तरफ उससे बहुत ज्यादा 
लौटाएगा जितना उसने अल्लाह की राह में दिया था। 


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आयतें-2 सूरह-65. अत-तलाक रुकूअ-2 
(मदीना में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
ऐ पेग़म्बर, जब तुम लोग औरतों को तलाक दो तो उनकी इददत पर तलाक दो और 
इद्दत को गिनते रहो, और अल्लाह से डरो जो तुम्हारा रब है। उन औरतों को उनके 


पारा 28 452 सूरह65. अत-तलाक 
घरों से न निकालो और न वे ख़ुद निकलें, इल्ला यह कि वे कोई खुली बेहयाई करें, 
और ये अल्लाह की हदें हैं, और जो शख्स अल्लाह की हदों से तजावुज करेगा तो उसने 
अपने ऊपर जुल्म किया, तुम नहीं जानते शायद अल्लाह इस तलाक के बाद कोई नई 

सूरत पैदा कर दे। फिर जब वे अपनी मुद्दत को पहुंच जाएं तो उन्हें या तो मारूफ (भली 
रीति) के मुताबिक रख लो या मारूफ के मुताबिक उन्हें छोड़ दो और अपने में से दो 

मोतबर गवाह कर लो और ठीक-ठीक अल्लाह के लिए गवाही दो। यह उस शख्स को 
नसीहत की जाती है जो अल्लाह पर और आखिरत के दिन पर ईमान रखता हो। और 
जो शख्स अल्लाह से डरेगा, अल्लाह उसके लिए राह निकालेगा, और उसे वहां से रिज्क 

देगा जहां उसका गुमान भी न गया हो, और जो शख्स अल्लाह पर भरोसा करेगा तो 
अल्लाह उसके लिए काफी है, बेशक अल्लाह अपना काम पूरा करके रहता है, अल्लाह 

ने हर चीज के लिए एक अंदाजा टहरा रखा है। (-3) 





इस्लाम में अपरिहार्य हालात के तौर पर तलाक की इजाजत दी गई है। ताहम इसका 
एक तरीकेकार मुरकर किया गया है जो ख़ास वके के दर्मियान पूरा होता है। इस तरह 
तलाक के अमल को कुछ हदों का पाबंद कर दिया गया है। इन हदों का मकसद यह है कि 
दोनों पक्षों के दर्मियान आखिर वक्‍त तक वापसी का मौका बाकी रहे। और तलाक का वाकया 
किसी किस्म के ख़नदानी या समाजी फसाद का जरिया न बने। वही तलाक इस्लामी तलाक 
है जिसके पूरे अमल के दौरान ख़ुदा के ख़ौफ की रूह जारी व सारी रहे। 


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और तुम्हारी औरतों में से जो हैज (मासिक धर्म) से मायूस हो चुकी हैं, अगर तुम्हें शुबह 
हो तो उनकी इद्दत तीन महीने है। और इसी तरह उनकी भी जिन्हें हेज नहीं आया, 
और हामिला (गर्भवती) औरतों की इद्दत उस हमल का पैदा हो जाना है, और जो शख्स 
अल्लाह से डरेगा, अल्लाह उसके लिए उसके काम में आसानी कर देगा। यह अल्लाह 


का हुक्म है जो उसने तुम्हारी तरफ उतारा है, और जो शख्स अल्लाह से डरेगा अल्लाह 
उसके गुनाह उससे दूर कर देगा और उसे बड़ा अज्र देगा। (4-5) 





























शरीअत ने तलाक और दूसरे मामलात में इंसान को कुछ जवाबित (नियमों) का पाबंद 
किया है। ये जवाबित बजाहिर इंसान की आजादाना तबीअत के लिए रुकावट हैं। मगर 


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सूरह65. अतःतलाक I453 
हकीकत के एतबार से ये नेमत हैं। इन जवाबित का यह फायदा है कि आदमी बहुत से गैर 
जरूरी नुसानात से बच जाता है। मजीद यह कि इस दुनिया का निजाम इस तरह बना है 
कि यहां हर नुक्सान की तलाफी (क्षतिपूर्ति) किसी न किसी तरह की जाती है। ताहम यह 
तलाफी सिर्फ उस शख्स के हिस्से में आती है जो फितरत के दायरे से बाहर न जाए 


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तुम उन औरतों को अपनी वुस्अत (हैसियत) के मुताबिक रहने का मकान दो जहां तुम 
रहते हो और उन्हें तंग करने के लिए उन्हें तकलीफ न पहुंचाओ, और अगर वे हमल 
(गर्भ) वालियां हों तो उन पर ख़र्च करो यहां तक कि उनका हमल पैदा हो जाए। फिर 
अगर वे तुम्हारे लिए दूध पिलाएं तो उनकी उजरत (पारिश्रमिक) उन्हें दो। और तुम 
आपस में एक दूसरे को नेकी सिखाओ। और अगर तुम आपस में जिद करो तो कोई 
और औरत दूध पिलाएगी। चाहिए कि वुस्अत वाला अपनी वुस्अत के मुताबिक खर्च 
करे और जिसकी आमदनी कम हो उसे चाहिए कि अल्लाह ने जितना उसे दिया है उसमें 
से ख़र्च करे। अल्लाह किसी पर बोझ नहीं डालता मगर उतना ही जितना उसे दिया 
है, अल्लाह सख्ती के बाद जल्द ही आसानी पेदा कर देता है। (6-7) 


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इस्लाम में यह मत्लूब है कि आदमी मामलात में फरीके सानी (दूसरे पक्ष) के साथ 
फराख़दिली का तरीका इख््ियार करे। वह सब्र के साथ ख़िलाफे मिजाज बातों को सहे। 
नागवारियों के बावजूद दूसरे का हक अदा करे। जब आदमी ऐसा करता है तो वह सिर्फ 
फरीके सानी के लिए अच्छा नहीं करता बल्कि वह ख़ुद अपने लिए भी अच्छा करता है। इस 
तरह वह अपने अंदर हवीक्तपसंदी का मिजाज पेदा करता है और हवीक्तपसंदी का मिजज 
बिलाशुबह इस दुनिया में कामयाबी का सबसे बड़ा जीना है। 


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और बहुत सी बस्तियां हैं जिन्होंने अपने रब और उसके रसूलों के हुक्म से सरताबी 
(विमुखता) की, पस हमने उनका सख्त हिसाब किया और हमने उन्हें हीलनाक सजा 
दी। पस उन्होंने अपने किए का वबाल चखा और उनका अंजामकार ख़सारा (घाटा) 
हुआ। अल्लाह ने उनके लिए एक सख्त अजाब तैयार कर रखा है। पस अल्लाह से डरो, 

ऐ अक्ल वालो जो कि ईमान लाए हो। अल्लाह ने तुम्हारी तरफ एक नसीहत उतारी 

है, एक रसूल जो तुम्हें अल्लाह की खुली-खुली आयतें पढ़कर सुनाता है। ताकि उन 
लोगों को तारीकियों से रोशनी की तरफ निकाले जो ईमान लाए और उन्होंने नेक अमल 
किया। और जो शख्स अल्लाह पर ईमान लाया और नेक अमल किया उसे वह ऐसे 
बाग्रों में दाखिल करेगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी, वे उनमें हमेशा रहेंगे, अल्लाह 
ने उसे बहुत अच्छी रोजी दी। (8-7]) 





ताकि अहले ईमान को तारीकी से निकाल कर रोशनी में ले आए। इस मौके पर यह बात 
आइली (पारिवारिक) कानून के बारे में है। कदीम जमाने में सारी दुनिया में तवहहुमात 
(अंधविश्वास) का ग़लबा था। तरह-तरह के तवहहुमाती अकाइद ने मर्द और औरत के 
तअल्लुकात को गैर फितरी बुनियादों पर कायम कर रखा था। कुरआन ने इन तवहहुमातों को 
ख़त्म किया और दुबारा मर्द और औरत के तअल्लुकात को फितरत की बुनियाद पर कायम 
किया । इस इंतिजाम के बाद भी जो लोग इस्लाही रास्ते को इख्तियार न करें उनके लिए ख़ुदा 
की दुनिया में घाटे के सिवा और कुछ नहीं। 

'अक्ल वालो अल्लाह से डरो' का फिकरा बताता है कि तकवे का सरचश्मा (मूल स्रोत) 
अक्ल है। आदमी अपने अक्ल व शुऊर को काम में लाकर ही उस दर्जे को हासिल करता है 
जिसे शरीअत में तकवा (परहेजगारी, ख़ेफे खुदा) कहा गया है। 

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सूरह-66. अत-तहरीम I455 पारा 28 
अल्लाह ही है जिसने बनाए सात आसमान और उन्हीं की तरह जमीन भी। उनके अंदर 
उसका हुक्म उतरता है, ताकि तुम जान लो कि अल्लाह हर चीज पर कादिर है। और 
अल्लाह ने अपने इलम से हर चीज का इहाता (आच्छादन) कर रखा है। (।2) 


'व मिनल अरजि मिस-ल हुन्न०' से मुराद अगर सात जमीने हैं तो इल्मुल अफलाक 
(आकाशीय विज्ञान) अभी तक इस तादाद को दरयाफ्त नहीं कर सका है। इंसानी मालूमात 
के मुताबिक, इस तहरीर (लेखन) के वक़्त तक मौजूदा जमीन सारी कायनात में एक इस्तिसना 
(अपवाद) है। इसलिए यह अल्लाह को मालूम है कि इस आयत का वाकई मतलब क्या है। 

'ताकि तुम जानो कि अल्लाह हर चीज पर कादिर है। इससे मालूम होता है अल्लाह को 
इंसान से अस्लन जो चीज मत्लूब है वह 'इल्म' है, यानी जाते ख़ुदावंदी का शुऊर। कायनात 
का अजीम कारखाना इसलिए बनाया गया है कि इंसान उसके जरिए ख़ालिक को पहचाने, वह 
उसके जरिए खुदा की बेपायां (असीम) कुरत की मअसन्न (अन्तज्ञान) हासिल करे। 


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आयतें-2 सूरह-66. अत-तहरीम रुकूअ-2 
(मदीना में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
ऐ नबी तुम क्यों उस चीज को हराम करते हो जो अल्लाह ने तुम्हारे लिए हलाल की 
है, अपनी बीवियों की रिजामंदी चाहने के लिए, और अल्लाह बख़्शने वाला महरबान 
है। अल्लाह ने तुम लोगों के लिए तुम्हारी कसमाँ का खोलना मुक्रर कर दिया है, और 
अल्लाह तुम्हारा कारसाज है, और वह जानने वाला, हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। 


(I-2) 


बीवियों के पैदा करदा कुछ अंदरूनी मसाइल की वजह से अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु 
अलैहि व सल्लम ने अपने घर में यह कसम खा ली कि मैं शहद नहीं खाऊंगा। मगर पैगम्बर 
का अमल उसकी उम्मत के लिए नमूना बन जाता है, इसलिए अल्लाह तआला ने हुक्म दिया 
कि आप शरई तरीकेके मुताबिक कफ्फरा (प्रायश्चित) अदा करके अपनी कसम को तोड़ दें। 
और शहद न खाने के अहद से अपने आपको आजाद कर लें। ताकि ऐसा न हो कि आइंदा 
आपके उम्मती इसे तकवे का मेयार समझ कर शहद खाने से परहेज करने लगें। 





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और जब नबी ने अपनी किसी बीवी से एक बात छुपा कर कही, तो जब उसने उसे 
बता दिया और अल्लाह ने नबी को उससे आगाह कर दिया तो नबी ने कुछ बात बताई 
और कुछ टाल दी, फिर जब नबी ने उसे यह बात बताई तो उसने कहा कि आपको 
किसने इसकी ख़बर दी। नबी ने कहा कि मुझे बताया जानने वाले ने, बाख़बर ने। 
अगर तुम दोनों अल्लाह की तरफ रुजूअ करो तो तुम्हारे दिल झुक पड़े हैं, और अगर 
तुम दोनों नबी के मुकाबले में कााइयां करोगी तो उसका रफीक (साथी) अल्लाह है 
और जिब्रील और सालेह (नेक) अहले ईमान और इनके अलावा फरिश्ते उसके मददगार 
हैं। अगर नबी तुम सबको तलाक दे दे तो उसका रब तुम्हारे बदले में तुमसे बेहतर 


बीवियां उसे दे दे, मुस्लिमा, बाईमान, फरमांबरदार, तोबा करने वाली, इबादत करने 
वाली, रोजेदार, विधवा और कुंवारी। (3-5) 


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मज्कूरा मामले में अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की कुछ अजवाज 
(पत्नियों) ने आपके घर में जो पेचीदगी पैदा की थी, उस पर मुतनब्बह करने के लिए आपकी 
अजवाज से अल्टीमेटम के अंदाज में कलाम किया गया। इससे जिंदगी के मामलात में औरतों 
की अहमियत मालूम होती है। हकीकत यह है कि औरतें अगर सही मञनों में अपने शोहरों 
कीफिन्न (सहयोग) करें तो वे उनका “आधा बेहतर” बन जाती हैं। और अगर वे सच्ची 
रफीक साबित न हों तो वे एक बामक्सद इंसान के पूरे मंसूबे को ख़ाक में मिला सकती हैं। 


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सूरह-66. अत-तहरीम I457 पारा 28 


ऐ ईमान वालो अपने आपको और अपने घर वालों को उस आग से बचाओ जिसका 
ईधन आदमी और पत्थर होंगे, उस पर तुंदख़ (कठोर) और जबरदस्त फरिश्ते मुकर हैं, 

अल्लाह उन्हें जो हुक्म दे उसमें वे उसकी नाफरमानी नहीं करते, और वे वही करते हैं 
जिसका उन्हें हुक्म मिलता है। ऐ लोगो जिन्होंने इंकार किया, आज उज्ज न पेश करो, 
तुम वही बदले में पा रहे हो जो तुम करते थे। (6-7) 





मौजूदा दुनिया में अक्सर ऐसा होता है कि आदमी एक चीज को हक समझता है। मगर 
बीवी बच्चों से बढ़ा हुआ तअल्लुक उसे मजबूर करता है कि वह हक के तरीके को छोड़ दे 
और वही करे जो उसके बीवी-बच्चे चाहते हैं। मगर यह जबरदस्त भूल है। इंसान को याद 
रखना चाहिए कि आज जिन बच्चों की रिआयत करने में वह इस हद तक जाता है कि हक 
की रिआयत करना भूल जाता है, वे बच्चे अपनी इस रविश के नतीजे में कल ऐसे जहन्नमी 
कारिंदों के हवाले किए जाएंगे जो मशीनी इंसान (२०४०६) की तरह बेरहम होंगे और उनके 
साथ किसी किस्म की कोई रिआयत नहीं करेंगे। 


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ऐ ईमान वालो, अल्लाह के आगे सच्ची तोबा करो। उम्मीद है कि तुम्हारा रब तुम्हारे 
गुनाह माफ कर दे और तुम्हें ऐसे बागों में दाखिल करे जिनके नीचे नहरें बहती होंगी, 
जिस दिन अल्लाह नबी को और उसके साथ ईमान लाने वालों को रुसवा नहीं करेगा। 
उनकी रोशनी उनके आगे और उनके दाई तरफ दौड़ रही होगी, वे कह रहे होंगे कि 
ऐ हमारे रब हमारे लिए हमारी रोशनी को कामिल कर दे और हमारी मग्फिरत फरमा, 

बेशक तू हर चीज पर कादिर है। (8) 





मौजूदा दुनिया में इंसान को आजमाइशी हालात में रखा गया है। इसलिए इंसान से 
गलतियां भी होती हैं। उसकी तलाफी के लिए तौबा है। यानी अल्लाह की तरफ रुजूअ 
करना। तौबा की अस्ल हकीकत शर्मिदगी है। आदमी को अगर वाकेयतन अपनी गलती का 
एहसास हो तो वह सख्त शर्मिंदा होगा और उसकी शर्मिंदगी उसे मजबूर करेगी कि वह आइंदा 
ऐसा फेअल न करे। चुनांचे हदीस में आया है कि शर्मिदगी ही तौबा है। एक सहाबी ने कहा 
है कि सच्ची तौबा यह है कि आदमी रुजूअ करे और फिर उस फेअल को न दोहराए। 

तौबा वह है जो सच्ची तौबा (तोबतुन नसूह) हो। महज अल्फाज दोहरा देने का नाम 





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पारा 28 I458 सूरह-66. अत-तहरीम 
तोबा नहीं। हजरत अली ने एक शख्स को देखा कि वह अपनी किसी गलती के बाद जबान 

से तौबा तौबा कह रहा है। आपने फरमाया कि यह झूठे लोगों की तौबा है। सच्ची तौबा 
आखिरत की रोशनी है और झूठी तौबा आख़िरत का अंधेरा। 


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ऐ नबी मुंकिरों और मुनाफिकों (पाखंडियों) से जिहाद करो और उन पर सख्ती करो, 

और उनका ठिकाना जहन्नम है और वह बुरा ठिकाना है। अल्लाह मुंकिरों के लिए 
मिसाल बयान करता है नूह की बीवी की और लूत की बीवी की, दोनों हमारे बदों 
में से दो नेक बंदों के निकाह में थीं, फिर उन्होंने उनके साथ ख़ियानत की तो वे दोनों 
अल्लाह के मुकाबले में उनके कुछ काम न आ सके, और दोनों को कह दिया गया कि 
आग में दाखिल हो जाओ दाखिल होने वालों के साथ। (9-0) 


'मुनाफिकीन के साथ जिहाद करों! का मतलब यह है कि मुनाफिकीन का सरन 
अहतसाब करो। यह एक दाइमी हुक्म है। मुआशिरे के बड़ों और जिम्मेदारों को चाहिए कि 
वे मुआशिरे के अफराद पर मुस्तकिल नजर रखें। और जब भी कोई मुसलमान गलत रविश 
इख्तियार करे तो उसे रोकने की वे हर मुमकिन कोशिश करें जो उनके इम्कान में है। 
ख़ुदा के यहां आदमी का सिफ अपना अमल काम आएगा यहां तक कि बुजुर्गों से 
निस्बत या सालिहीन से रिश्तेदारी भी वहां किसी के कुछ काम आने वाली नहीं। हजरत नूह 
और हजरत लूत खुदा के पैगम्बर थे। मगर उनकी बीवियां दुश्मनाने हक से भी कल्बी 
तअल्लुक का रिश्ता कायम किए हुए थीं। इसका नतीजा यह हुआ कि पैगम्बर की बीवी होने 
के बावजूद वे दोजूइ की मुस्तहिक करार पाईं। 


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और अल्लाह ईमान वालों के लिए मिसाल बयान करता है फिरऔन की बीवी की, 








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सूरह-67. अल-मुल्क I459 पारा 29 
जबकि उसने कहा कि ऐ मेरे रब, मेरे लिए अपने पास जन्नत में एक घर बना दे और 
मुझे फिरऔन और उसके अमल से बचा ले और मुझे जालिम कम से नजात दे। और 

इमरान की बेटी मरयम, जिसने अपनी अस्मत (सतीत्व) की हिफाजत की, फिर हमने 

उसमें अपनी रूह फूंक दी और उसने अपने रब के कलिमात की और उसकी किताबों 
की तस्दीक की, और वह फरमांबरदारों में से थी। (-2) 


फिरऔन एक मुंकिर और जालिम शख्स था। मगर उसकी बीवी आसिया बिन्त मुजाहिम 
ईमानदार और बाअमल खातून थी। बीवी ने जब अपने आपको सही रविश पर कायम रखा 
तो शोहर की ग़लत रविश उसे कुछ नुक्सान न पहुंचा सकी। शोहर जहन्नम में दाखिल किया 
गया और बीवी को जन्नत के बाग़ों में जगह मिली। 

अहसनत फरजहा दरअस्ल किनाया (संकेत) है। इसका मतलब यह है कि उन्होंने अपनी 
अस्मत (सतीत्व) को महफूज रखा। बचपन से जवानी तक वह पूरी तरह बेदाग़ रहीं। चुनांचे 
अल्लाह ने उन्हें मोजिजाती पैगम्बर की पैदाइश के लिए चुना। कुछ रिवायात के मुताबिक, 
जिब्रील फरिश्ते ने उनके गिरेबान में फूंक मारी, जिससे इस्तकरारे हमल (गर्भ का ठहरना) हुआ 
और फिर हजरत मसीह अलैहिस्सलाम पैदा हुए 


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आयतें-30 सूरह-67. अल-मुल्क रुकूअ-2 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
बड़ा बाबरकत है वह जिसके हाथ में बादशाही है और वह हर चीज पर कादिर है। जिसने 


मौत और जिंदगी को पेदा किया ताकि तुम्हें जांचे कि तुम में से कौन अच्छा काम करता 
है, और वह जबरदस्त है, बख़्शने वाला है। जिसने बनाए सात आसमान ऊपर तले, 





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पारा 29 460 सूरह-67. अल-मुल्क 
तुम रहमान के बनाने में कोई खलल (असंगति) नहीं देखोगे, फिर निगाह डाल कर देख 
लो, कहीं तुम्हें कोई खलल नजर आता है। फिर बार-बार निगाह डाल कर देखो, निगाह 
नाकाम थक कर तुम्हारी तरफ वापस आ जाएगी। (-4) 





जब एक शख्स मौजूदा दुनिया का मुतालआ करता है तो उसे यहां एक तजाद (असंगति) 
नजर आता है। इंसान के सिवा जो बकिया कायनात है वह इंतिहाई हद तक मुनज्जम और 
कामिल है। उसमें कहीं कोई नवस नजर नहीं आता। इसके बरअक्स इंसानी जिंदगी में जुम व 
फसाद नजर आता है। इसकी वजह इंसान की अलाहदा (पृथक) नौइयत है। इंसान इस दुनिया 
में हालते इम्तेहान में है। इम्तेहान लाजिमी तौर पर अमल की आजादी चाहता है। इसी अमल 
की आजादी ने इंसान को यह मौका दिया है कि वह दुनिया में जुम व फसाद कर सके। 
इंसानी दुनिया का जुल्म इंसानी आजादी की कीमत है। अगर ये हालात न हों तो उन 
कीमती इंसानों का इंतख़ाब कैसे किया जाएगा जिन्होंने जुल्म के मौके पाते हुए जुल्म नहीं 
किया। जिन्होंने सरकशी की ताकत रखने के बावुजूद अपने आपको सरकशी से बचाया। 


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और हमने करीब के आसमान को चराग़ों से सजाया है। और हमने उन्हें शैतानों के 
मारने का जरिया बनाया है। और हमने उनके लिए दोजख़ का अजाब तैयार कर रखा 

है। और जिन लोगों ने अपने रब का इंकार किया, उनके लिए जहन्नम का अजाब है। 
और वह बुरा ठिकाना है। जब वे उसमें डाले जाएंगे, वे उसका दहाड़ना सुनेंगे और वह 
जोश मारती होगी, मालूम होगा कि वह गुस्से में फट पड़ेगी। जब उसमें कोई गिरोह 
डाला जाएगा, उसके दारोग़ा उससे पूछेंगे, क्या तुम्हारे पास कोई डराने वाला नहीं 
आया। वे कहेंगे कि हां, हमारे पास डराने वाला आया। फिर हमने उसे झुठला दिया 
और हमने कहा कि अल्लाह ने कोई चीज नहीं उतारी, तुम लोग बड़ी गुमराही में पड़े 
हुए हो। और वे कहेंगे कि अगर हम सुनते या समझते तो हम दोजख़ वालों में से न 
होते। पस वे अपने गुनाह का इकरार करेंगे, पस लानत हो दोजख़ वालों पर। (5-]) 





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सूरह-58. अल-मुजादलह I4I9 पारा 28 
आयतें-१2 सूरह-58. अल-मुजादलह रुकूअ-3 
(मदीना में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
अल्लाह ने सुन ली उस औरत की बात जो अपने शोहर के मामले में तुमसे झगड़ती 
थी और अल्लाह से शिकायत कर रही थी, और अल्लाह तुम दोनों की गुफ्तगू सुन रहा 
था, बेशक अल्लाह सुनने वाला, जानने वाला है। (॥) 





इस्लाम से पहले अरब में रवाज था कि कोई मर्द अगर अपनी बीवी से कह देता कि 
'तू मुझ पर ऐसी है जैसे मेरी मां की पीठ” तो वह औरत हमेशा के लिए उस मर्द पर हराम 
हो जाती। इसे जिहार कहा जाता था। मदीना के एक मुसलमान औस बिन सामित अंसारी 
ने अपनी बीवी ख़ौला बिन्त सालबा को एक बार यही लफज कह दिया। वह अल्लाह के रसूल 
सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आई और वाकया बताया। आपने कदीम रवाज के 
एतबार से फरमा दिया कि मैं ख्याल करता हूं कि तुम उस पर हराम हो गई हो। ख़ौला को 
परेशानी हुई कि मेरे घर और मेरे बच्चे बर्बाद हो जाएंगे। वह फरयाद व जारी (विलाप) करने 
लगीं। इस पर ये आयतें उतरीं और बताया गया कि जिहार के बारे में इस्लामी हुक्म क्या है। 

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तुम में से जो लोग अपनी बीवियों से जिहार (तलाक देने की एक सूरत जिसमें शोहर 
अपनी बीवी से कहता है कि तुम मेरी माँ की पीठ की तरह हो) करते हैं वे उनकी माएं 
नहीं हैं। उनकी माएं तो वही हैं जिन्होंने उन्हें जना। और ये लोग बेशक एक नामाकूल 
और झूठ बात कहते हैं, और अल्लाह माफ करने वाला बर्शने वाला है। और जो लोग 
अपनी बीवियाँ से जिहार करें फिर उससे रुजूअ करें जो उन्होंने कहा था तो एक गर्दन 
को आजाद करना (गुलाम आजाद करना) है, इससे पहले कि वे आपस में हाथ लगाएं। 
इससे तुम्हें नसीहत की जाती है, और अल्लाह जानता है जो कुछ तुम करते हो। फिर 





पारा 28 420 सूरह-58. अल-मुजादलह 
जो शख्स न पाए तो रोजे हैं दो महीने के लगातार, इससे पहले कि आपस में हाथ 
लगाएं। फिर जो शख्स न कर सके तो साठ मिस्कीनों को खाना खिलाना है। यह 
इसलिए कि तुम अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाओ। और ये अल्लाह की हदें 
हैं और मुंकिरों के लिए दर्दनाक अजाब है। (2-4) 





इस्लाम में सूरत और हकीकत के दर्मियान फर्क किया गया है। यही वजह है कि इस्लाम 
ने इस कदीम रवाज को तस्लीम नहीं किया कि जो औरत हकीकी मां न हो वह महज मां का 
लफ्ज बोल देने से किसी की मां बन जाए। इस किस्म का पेअल एक लग (निरर्थक) बात 
तो जरूर है मगर इसकी वजह से फितरत के कवानीन (नियम) बदल नहीं सकते। 
कुरआन में बताया गया कि महज जिहार से किसी आदमी की बीवी पर तलाक नहीं 
पड़ेगी । अलबत्ता उस आदमी पर लाजिम किया गया कि वह पहले कपफारा (प्रायश्चित) अदा 
करे। इसके बाद वह दुबारा अपनी बीवी के पास जाए। किसी गलती के बाद जब आदमी इस 
तरह कपफारा अदा करता है तो वह दुबारा अपने यकीन को जिंदा करता है। वह इस उसूल 
में अपने अकीदे को नए सिरे से मुस्तहकम (सुटु) बनाता है जिसे वह गफलत या नादानी 
से छोड़ बैठा था। 


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जो लोग अल्लाह और उसके रसूल की मुख़ालिफत करते हैं वे जलील होंगे जिस तरह 

वे लोग जलील हुए जो इनसे पहले थे और हमने वाजेह (स्पष्ट) आयतें उतार दी हैं, और 

मुंकिरों के लिए जिल्लत का अजाब है। जिस दिन अल्लाह उन सबको उठाएगा और 

उनके किए हुए काम उन्हें बताएगा। अल्लाह ने उसे गिन रखा है। और वे लोग उसे 
भूल गए, और अल्लाह के सामने है हर चीज। (5-6) 


हक की मुखालिफत करना खुदा की मुखालिफत करना है। और खुदा की मुखालिफत 
करना उस हस्ती की मुखालिफत करना है जिससे मुखालिफत करके आदमी ख़ुद अपना 
नुक्सान करता है। खुदा से आदमी न अपनी किसी चीज को छुपा सकता और न किसी के 
लिए यह मुमकिन है कि वह ख़ुदा की पकड़ से अपने आपको बचा सके। 


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सूरह-58. अल-मुजादलह 42I पारा 28 
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तुमने नहीं देखा कि अल्लाह जानता है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ जमीन 

में है। कोई सरगोशी (गुप्त वार्ता) तीन आदमियों की नहीं होती जिसमें चौथा अल्लाह 
न हो। और न पांच की होती है जिसमें छठा वह न हो। और न इससे कम की या 
ज्यादा की। मगर वह उनके साथ होता है जहां भी वे हों, फिर वह उन्हें उनके किए 

से आगाह करेगा कियामत के दिन। बेशक अल्लाह हर बात का इलम रखने वाला है। 
क्या तुमने नहीं देखा जिन्हें सरगोशियों से रोका गया था, फिर भी वे वही कर हहे हैं 
जिससे वे रोके गए थे। और वे गुनाह और ज्यादती और रसूल की नाफरमानी की 
सरगोशियां करते हैं, और जब वे तुम्हारे पास आते हैं तो तुम्हें ऐसे तरीके से सलाम 
करते हैं जिससे अल्लाह ने तुम्हें सलाम नहीं किया। और अपने दिलों में कहते हैं कि 
हमारी इन बातों पर अल्लाह हमें अजाब क्यों नहीं देता। उनके लिए जहन्नम ही काफी 

है, वे उसमें पड़ेंगे, पस वह बुरा ठिकाना है। (7-8) 





कायनात अपने इंतिहाई पेचीदा निजाम के साथ यह गवाही दे रही है कि वह हर आन 
किसी बालातर (उच्चतर) ताकत की निगरानी में है। कायनात में निगरानी की शहादत यह 
साबित करती है कि इंसान भी मुसलसल तौर पर अपने ख़ालिक की निगरानी में है। ऐसी 
हालत में हक के डिलाफ खुफिया सरार्मियां दिखाना सिर्फ ऐसे अंधे लोगों का काम हो 
सकता है जो खुदा की सिफतों को न बराहेरास्त (प्रत्यक्ष) तौर पर मल्फूज (शाब्दिक) कुरआन 
में पढ़ सकें और न बिलवास्ता (परोक्ष) तौर पर गैर मल्फूज कायनात में। 

कुछ यहूद और मुनाफिकीन अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सोहबत 
में आते तो वे अस्सलामु अलैकुम (आप पर सलामती हो) कहने के बजाए अस्सामु अलैकुम 
(आप पर मौत आए) कहते। यह हमेशा से सतही (निम्न स्तरीय) इंसानों का तरीका रहा है। 





पारा 28 422 सूरह-58. अल-मुजादलह 
सतही लोग एक सच्चे इंसान को बेकद्र करके अपने जेहन में खुश होते हैं। वे भूल जाते हैं कि 

सारी फैली हुई खुदाई ऐन उस वक्त भी उस सच्चे इंसान का एतराफ कर रही होती है जबकि 

अपने महदूद जेहन के मुताबिक वे उसकी तहकीर (अनादर) व तरदीद के लिए अपना आझिरी 

लफ्न इस्तेमाल कर के हें। 


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ऐ ईमान वालो जब तुम सरगोशी (गुप्त वार्ता) करो तो गुनाह और ज्यादती और रसूल 
की नाफरमानी की सरगोशी न करो। और तुम नेकी और परहेजगारी की सरगोशी 

करो। और अल्लाह से डरो जिसके पास तुम जमा किए जाओगे। यह सरगोशी शैतान 
की तरफ से है ताकि वह ईमान वालों को रंज पहुंचाए, और वह उन्हें कुछ भी रंज नहीं 
पहुंचा सकता मगर अल्लाह के हुक्म से। और ईमान वालों को अल्लाह ही पर भरोसा 
रखना चाहिए। (9-0) 





खुफिया सरगोशियां करना आम हालात में एक नापसंदीदा फेअल (कृत्य) है। ताहम 
कभी कारेखैर के लिए भी खुफिया सरगोशी की जरूरत होती है। इस सिलसिले में अस्ल 
फैसलाकुन चीज नियत है। खुफिया सरगोशी अगर अच्छी नियत से की जाए तो जाइज है 
और अगर वह बुरी नियत से की जाए तो नाजाइज। 


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ऐ ईमान वालो जब तुम्हें कहा जाए कि मज्लिसों में खुलकर बैठो तो तुम खुलकर बैठो, 
अल्लाह तुम्हें कुशादगी (खुलापन) देगा। और जब कहा जाए कि उठ जाओ तो तुम उठ 


जाओ। तुम में से जो लोग ईमान वाले हैं और जिन्हें इलम दिया गया है, अल्लाह उनके 
दर्जे बुलन्द करेगा। और जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उससे बाख़बर है। (7) 











मज्लिस के आदाब के तहत कभी ऐसा होता है कि एक शख्स को पीछे करके दूसरे शख्स 
को आगे बिठाया जाता है। इसी तरह कभी ऐसा होता है कि लोगों को उम्मीद के खिलाफ 


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सूरह-58. अल-मुजादलह I423 पारा 28 
कह दिया जाता है कि अब आप लोग तशरीफ ले जाएं। ऐसी बातों को इज्जत का सवाल बनाना 

शुऊरी पस्ती का सुबूत है। और जो शख्स इन बातों को इज्जत का सवाल न बनाए उसने यह 

सुबूत दिया कि शुऊरी एतबार से वह बुलन्द दर्जे को पहुंचा हुआ है। 


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ऐ ईमान वालो, जब तुम रसूल से राजदाराना बात करो तो अपनी राजदाराना बात से 
पहले कुछ सदका दो। यह तुम्हारे लिए बेहतर है और ज्यादा पाकीजा है। फिर अगर 
तुम न पाओ तो अल्लाह बस्शने वाला, महरबान है। क्या तुम डर गए इस बात से कि 
तुम अपनी राजदाराना गुफ्तगू से पहले सदका दो। पस अगर तुम ऐसा न करो, और 
अल्लाह ने तुम्हे माफ कर दिया, तो तुम नमाज कायम करो और जकात अदा करो और 


अल्लाह और उसके रसूल की इताअत (आज्ञापालन) करो। और जो कुछ तुम करते हो 
अल्लाह उससे बाखबर है। (2-3) 





अल्लाह तआला को यह मत्लूब था कि रसूल से सिर्फ वही लोग मिलें जो फिलवाकअ 
संजीदा मकसद के तहत आपसे मिलना चाहते हैं। गैर जरूरी किस्म के लोग छांट दिए जाएं 
जो अपनी बेफायदा बातों से सिर्फ वक्‍त जाया करने का सबब बनते हैं। इसलिए यह उसूल 
मुक्रर किया गया कि जब रसूल से मिलने का इरादा करो तो पहले अल्लाह के नाम पर कुछ 
सदका करो। और अगर इसकी कुदरत न हो तो कोई दूसरी नेकी करो। 

यह हुक्म अगरचे अस्लन रसूल के लिए मत्लूब था। मगर रसूल के बाद भी उम्मत के 
रहनुमाओं के हक में वह हालात के एतबार से दर्जा-ब-दर्जा मत्लूब होगा। 


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पारा 28 ]424 सूरह-58. अल-मुजादलह 


क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जो ऐसे लोगों से दोस्ती करते हैं जिन पर अल्लाह 
का गजब हुआ। वे न तुम में से हैं और न उनमें से हैं और वे झूठी बात पर कसम 

खाते हैं हालांकि वे जानते हैं। अल्लाह ने उन लोगों के लिए सख्त अजाब तैयार कर 
रखा है, बेशक वे बुरे काम हैं जो वे करते हैं। उन्होंने अपनी कसमों को ढाल बना 
रखा है, फिर वे रोकते हैं अल्लाह की राह से, पस उनके लिए जिल्लत का अजाब 

है। (4-6) 


मदीना के मुनाफिकीन इस्लाम की जमाअत में शामिल थे। इसी के साथ वे यहूद से भी 
मिले हुए थे। यही हमेशा उन लोगों का हाल होता है जो हक को पूरी यकसूई (एकाग्रता) के 
साथ इख्नियार न कर सकें। ऐसे लोग बजाहिर सबसे मिले हुए हेते हैं मगर हकीकतन वे सिर्फ 
अपने मफाद (स्वार्थ) के वफादार हेते हैं। चाहे वे कसमें खाकर अपने हकपरस्त होने का 
यकीन दिला रहे हों। FY 
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उनके माल और उनकी औलाद उन्हें जरा भी अल्लाह से बचा न सकेंगे। ये लोग दोजख़ 
वाले हैं। वे उसमें हमेशा रहेंगे। जिस दिन अल्लाह उन सबको उठाएगा तो वे उससे 
भी इसी तरह कसम खाएंगे जिस तरह तुमसे कसम खाते हैं। और वे समझते हैं कि 
वे किसी चीज पर हैं, सुन लो कि यही लोग झूठे हैं। शैतान ने उन पर काबू हासिल 
कर लिया है। फिर उसने उन्हें खुदा की याद भुला दी है। ये लोग शैतान का गिरोह 
हैं। सुन लो कि शैतान का गिरोह जरूर बर्बाद होने वाला है। जो लोग अल्लाह और 
उसके रसूल की मुखालिफत (विरोध) करते हैं वही जलील लोगों में हैं। अल्लाह ने लिख 
दिया है कि में और मेरे रसूल ही ग़ालिब रहेंगे। बेशक अल्लाह कुब्वत वाला, जबरदस्त 
है। (।7-2]) 


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सूरह-58. अल-मुजादलह I425 पारा 28 





मफादपरस्त आदमी जब हक की दावत की मुखालिफत करता है तो वह समझता है कि 
इस तरह वह अपने आपको महफूज कर रहा है। मगर उस ववत वह दहशतजदा होकर रह 
जाएगा जब आख़िरत में वह देखेगा कि जिन चीजों पर उसने भरोसा कर रखा था वे फैसले 
के उस वक्‍त में उसके कुछ काम आने वाली नहीं। 

मुनाफिक (पाखंडी) आदमी अपने मैकिफ को सही साबित करने के लिए बढ़ बढ़कर 
बातें करता है। यहां तक कि वह कसमें खाकर अपने इख़्लास (निष्ठा) का यकीन दिलाता है। 
ये सब करके वह समझता है कि 'वह किसी चीज पर है।' उसने अपने हक में कोई वाकई 
बुनियाद फराहम कर ली है। मगर कियामत का धमाका जब हकीकतों को खेलेगा उस वक्‍त 
वह जान लेगा कि यह महज शैतान के सिखाए हुए झूठे अल्फाज थे जिन्हें वह अपने बेकुसूर 
होने का यकीनी सुबूत समझता रहा। 


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तुम ऐसी कौम नहीं पा सकते जो अल्लाह पर और आख़िरत के दिन पर ईमान रखती 
हो और वह ऐसे लोगों से दोस्ती रखे जो अल्लाह और उसके रसूल के मुख़ालिफ हैं। 
अगरचे वे उनके बाप या उनके बेटे या उनके भाई या उनके ख़ानदान वाले क्यों न हों। 
यही लोग हैं जिनके दिलों में अल्लाह ने ईमान लिख दिया है और उन्हें अपने फेज से 
कुव्वत दी है। और वह उन्हें ऐसे बागों में दाखिल करेगा जिनके नीचे नहरें जारी होंगी, 
उनमें वे हमेशा रहेंगे। अल्लाह उनके राजी हुआ और वे अल्लाह से राजी हुए। यही लोग 


अल्लाह का गिरोह हैं और अल्लाह का गिरोह ही फलाह (कल्याण, सफलता) पाने वाला 
है। (2१) 





इस दुनिया में कामयाबी हिज्बुल्लाह के लिए है। हिज्बुल्लाह (अल्लाह की जमाअत) कौन 
लोग हैं। ये वे लोग हैं जिनके दिलों में ईमान सबसे बड़ी हकीकत के तौर पर रासिख़ (घनीभूत) 
हो गया हो। जिन्हें अल्लाह से इतनी गहरी निस्बत हासिल हो कि उन्हें अल्लाह की तरफ से 
रूहानी फो पहने लगे। फिर यह कि खाई हवीकतों से उनकी वाबस्तगी इतनी गहरी हो कि 
उसी की बुनियाद पर उनकी दोस्तियां और दुश्मनियां कायम हों। वे सबसे ज्यादा उन लोगों से 
कब हैजोाई सदाकत (सच्चाई) को अपनाए हुए हैं। और जो लोग खुदाई सदाकत से दूर 








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पारा 28 I426 सूरह-59. अल-हश्र 
हैं वे भी उनसे दूर हो जाएं, चाहे वे उनके अपने अजीज और रिश्तेदार क्यों न हों। 


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आयतें-24 सूरह-59. अल-हश्र रुकूअ-3 
(मदीना में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

अल्लाह की पाकी बयान करती हैं सब चीजें जो आसमानां और जमीन में हैं, और वह 
जबरदस्त है, हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। वही है जिसने अहले किताब मुंकिरों को 
उनके घरों से पहली ही बार इकट्ठा करके निकाल दिया। तुम्हारा गुमान न था कि 
वे निकलेंगे और वे ख्याल करते थे कि उनके किले उन्हें अल्लाह से बचा लेंगे, फिर 
अल्लाह उन पर वहां से पहुंचा जहां से उन्हें ख्याल भी न था। और उनके दिलों में रोब 
डाल दिया, वे अपने घरों को ख़ुद अपने हाथों से उजाइ रहे थे और मुसलमानों के हाथों 
से भी। पस ऐ आंख वालो, इबरत (सीख) हासिल करो। (:-2) 


मदीना के मश्रिक में यहूदी कबीला बनू नजीर की आबादी थी। उनके और अल्लाह के 
रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के दर्मियान सुलह का मुआहिदा था। मगर उन्होंने बार-बार 
अहदशिकनी की। आखिरकार 4 हि० में अल्लाह तआला ने ऐसे हालात पैदा किए कि 
मुसलमानों ने उन्हें मदीना से निकलने पर मजबूर कर दिया। इसके बाद वे ख़ैबर और 
अजरिआत में जाकर आबाद हो गए। मगर उनकी साजिशी सरगर्मियां जारी रहीं। यहां तक 
कि हजरत उमर फरूककी खिलाफत की जमानेमेवे और कूरे यहूदी कबाइल जजैरा अरब 
से निकलने पर मजबूर कर दिए गए। इसके बाद वे लोग शाम में जाकर आबाद हो गए। 
“अल्लाह उन पर वहां से पहुंचा जहां उन्हें गुमान भी न था! की तशरीह अगले फिकरे 
में मौजूद है। यानी अल्लाह ने उनके दिलों में रौब डाल दिया। उन्होंने बेरूनी (वाह्य) तौर पर 
हर किस्म की तैयारियां कीं। मगर जब मुसलमानों की फौज ने उनकी आबादी को घेर लिया 














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सूरह-59. अल-हश्र I427 पारा 28 
तो सारी ताकत के बावजूद उन पर ऐसी दहशत तारी हुई कि उन्होंने लड़ने का हौसला खो 
दिया। और बिला मुकाबले हथियार डाल दिया। 


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और अगर अल्लाह ने उन पर जलावतनी (देश-निकाला) न लिख दी होती तो वह दुनिया 
ही में उन्हें अजाब देता, और आख़िरत में उनके लिए आग का अजाब है। यह इसलिए 

कि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल की मुखालिफत की। और जो शरस अल्लाह की 
मुखालिफत करता है तो अल्लाह सख्त अजाब वाला है। खजूरों के जो दरख़्त तुमने काट 

डाले या उन्हें उनकी जड़ों पर खड़ा रहने दिया तो यह अल्लाह के हुक्म से, और ताकि 
वह नाफरमानां को रुसवा करे। (3-5) 





यहूद को जो सजा दी गई, वह अल्लाह के कानून के तहत थी। यह सजा उन लोगों के 
लिए मुकदूदर है जो पैगम्बर के मुखालिफ बनकर खड़े हों। बनू नजीर के मुहासिरे (घेराव) के 
वक्त उनके बाग़ात के कुछ दरख्ञ जंगी मस्लेहत के तहत काटे गए थे। यह भी बराहेरास्त 
ख़ुदा के हुक्म से हुआ। ताहम यह कोई आम उसूल नहीं। यह एक इस्तिसनाई (अपवाद 
स्वरूप) मामला है जो पैगम्बर के बराहेरास्त मुखातबीन के साथ एक या दूसरी शक्ल में 


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पारा 28 I428 सूरह-59. अल-हश्र 


और अल्लाह ने उनसे जो कुछ अपने रसूल की तरफ लौटाया तो तुमने उस पर न घोड़े दौड़ाए 
और न ऊंट और लेकिन अल्लाह अपने रसूलों को जिस पर चाहता है तसल्लुत (प्रभुत्व) 
दे देता है। और अल्लाह हर चीज पर कादिर है। जो कुछ अल्लाह अपने रसूल को बस्तियों 

वालों की तरफ से लोटाए तो वह अल्लाह के लिए है और रसूल के लिए है और रिश्तेदारों 
और यतीमों (अनाथां) और मिस्कीनों (असहाय जनों) और मुसाफिरों के लिए है। ताकि 
वह तुम्हारे मालदारों ही के दर्मियान गर्दिश न करता रहे। और रसूल तुम्हें जो कुछ दे वह 
ले लो और वह जिस चीज से तुम्हें रोके उससे रुक जाओ और अल्लाह से डरो, अल्लाह 
सख्त सजा देने वाला है। उन मुफ्लिस मुहाजिरों के लिए जो अपने घरों और अपने मालों 

से निकाले गए हैं। वे अल्लाह का फज्ल और रिजामंदी चाहते हैं। और वे अल्लाह और 

उसके रसूल की मदद करते हैं, यही लोग सच्चे हैं। (6-8) 





दुश्मन का जो माल लड़ाई के बाद मिले वह गनीमत है और जो माल लड़ाई के बगैर हाथ 
लगे वह फई है। गनीमत में पांचवां हिस्सा निकालने के बाद बकिया सब लश्कर का है। और 
फई सबका सब इस्लामी हुकूमत की मिल्कियत है जो मसालेहे आम्मा (जन-हित) के लिए खर्च 
किया जाएगा। 

इस्लाम चाहता है कि माल किसी एक तबके में महदूद होकर न रह जाए। बल्कि वह हर 
तबके के दर्मियान पहुंचे। इस्लाम में मआशी (आर्थिक) जब्र नहीं है। ताहम उसके मआशी 
कवानीन इस तरह बनाए गए हैं कि दौलत मुरतकिज (केन्द्रित) न होने पाए। वह हर तबके 
के लोगों में गर्दिश करती रहे। 

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और जो लोग पहले से दार (मदीना) में करार पकड़े हुए हैं और ईमान अस्तवार किए 
हुए हैं, जो उनके पास हिजरत करके आता है उससे वे मुहब्बत करते हैं और वे अपने 
दिलों में उससे तंगी नहीं पाते जो मुहाजिरीन को दिया जाता है। और वे उन्हें अपने 
ऊपर मुकदूदम रखते हैं। अगरचे उनके ऊपर फाका हो। और जो शख्स अपने जी के 





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सूरह-59. अल-हश्र I429 पारा 28 
लालच से बचा लिया गया तो वही लोग फलाह पाने वाले हैं। और जो उनके बाद आए 

वे कहते हैं कि ऐ हमारे रब, हमें बसश दे और हमारे उन भाइयों को जो हमसे पहले 
ईमान ला चुके हैं। और हमारे दिलों में ईमान वालों के लिए कीना (देष) न रख, ऐ 
हमारे रब, तू बझ शफीक (कणामय) और महरबान है। (9-0) 





हिजरत के बाद जो मुसलमान अपना वतन छोड़कर मदीना पहुंचे, उनका मदीना आना 
मदीने के बाशिंदों (अंसार) पर एक बोझ था। मगर उन्होंने निहायत ख़ुशदिली के साथ उनका 
इस्तकबाल किया। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास जब अमवाल 
(धन-सम्पत्ति) आए तो आपने उनका हिस्सा मुहाजिरीन के दर्मियान तक्सीम किया। इस पर 
भी अंसारे मदीना के अंदर उनके लिए कोई रंजिश पैदा न हुई। इसके बाद भी वे उनके इतने 
कद्रदान रहे कि उनके हक में उनके दिल से बेहतरीन दुआएं निकलती रहीं। यही वह आली 
हौसलगी है जो किसी गिरोह को तारीखसाज (इतिहास-निर्माता) गिरोह बनाती है। 


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क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जो निफाक (पाखंड) में मुब्तिला हैं। वे अपने भाइयों 
से कहते हैं जिन्होंने अहले किताब में से कुफ़ किया है, अगर तुम निकाले गए तो हम 
भी तुम्हारे साथ निकल जाएंगे। और तुम्हारे मामले में हम किसी की बात न मानेंगे। 
और अगर तुमसे लड़ाई हुई तो हम तुम्हारी मदद करेंगे। और अल्लाह गवाही देता है 
कि वे झूठे हैं। अगर वे निकाले गए तो ये उनके साथ नहीं निकलेंगे। और अगर उनसे 
लड़ाई हुई तो ये उनकी मदद नहीं करेंगे। और अगर उनकी मदद करेंगे तो जरूर वे पीठ 
फेरकर भागेंगे, फिर वे कहीं मदद न पाएंगे। (-2) 














अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने बनू नजीर की जलावतनी (देश निकाला) 
का एलान किया तो मुनाफिकीन उनकी हिमायत पर आ गए। उन्होंने बनू नजीर से कहा कि 
तुम अपनी जगह जमे रहो, हम हर तरह तुम्हारी मदद करै । मगर मुनाफिकीन की ये बातें महज 
उन्हें मुसलमानों के ख़िलाफ उकसाने के लिए थीं। वे इस पेशकश में हरगिज मुख्लिस न थे। 
चुनांचे जब मुसलमानों ने बनू नजीर को घेर लिया तो मुनाफिकीन में से कोई भी उनकी मदद 
पर न आया। मफादपरस्त (स्वार्थी) गिरोह का हर जमाने में यही किरदार रहा है। 


पारा 28 I430 सूरह-59. अल-हश्र 
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बेशक तुम लोगों का डर उनके दिलों में अल्लाह से ज्यादा है, यह इसलिए कि वे लोग 
समझ नहीँ रखते। ये लोग सब मिलकर तुमसे कभी नहीं लड़गे। मगर हिफाजत वाली 
बस्तियों में या दीवारों की आड़ में। उनकी लड़ाई आपस में सस्त है। तुम उन्हें मुत्तहिद 
(एकजुट) ख्याल करते हो और उनके दिल जुदा-जुदा हो रहे हैं, यह इसलिए कि वे लोग 
अक्ल नहीं रखते। (3-4) 





खुदा की ताकत बजाहिर दिखाई नहीं देती । मगर इंसानों की ताकत खुली आंख से नजर 
आती है। इस बिना पर जाहिरपरस्त लोगों का हाल यह होता है कि वे अल्लाह से तो बेख़ोफ 
रहते हैं मगर इंसानों में अगर कोई जोरआवर दिखाई दे तो वे फौरन उससे डरने की जरूरत 
महसूस करने लगते हैं। ख़ुदा के बारे में उनकी बेशुऊरी उन्हें उनकी दुनिया के बारे में भी 
बेशुऊर बना देती है। 

ऐसे लोग जिन्हें सिर्फ मंफी (नकारात्मक) मकसद ने मुत्तहिद किया हो वे ज्यादा देर तक 
अपना इत्तिहाद बाकी नहीं रख पाते। क्योंकि देरपा इत्तहाद के लिए मुस्बत (सकारात्मक) 
बुनियाद दरकार है और वह उनके पास मौजूद ही नहीं। 


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ये उन लोगों की मानिंद हैं जो उनके कुछ ही पहले अपने किए का मजा चख चुके हैं, 
और उनके लिए दर्दनाक अजाब है। जैसे शैतान जो इंसान से कहता है कि मुंकिर हो 
जा, फिर जब वह मुंकिर हो जाता है तो वह कहता है कि में तुमसे बरी हूं। में अल्लाह 


से डरता हूं जो सारे जहान का रब है। फिर अंजाम दोनों का यह हुआ कि दोनों दोजख़ 
में गए जहां वे हमेशा रहेंगे, और जालिमों की सजा यही है। (5-7) 








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सूरह-59. अल-हश्र I43] पारा 28 


मदीना के मुनाफिकीन बनू नजीर को मुसलमानों के खिलाफ उभार रहे थे। उन्होंने उस 
वाक्येसेसबक नहीलिया कि जल्द ही पहले कुश और कवीला बनूवैनु्अ उनके झ़ताफ 
उठे। मगर उन्हें जबरदस्त शिकस्त हुई। जो लोग शैतान को अपना मुशीर (सलाहकार) बनाएं 
उनका हाल हमेशा यही होता है। वे वाकेयात से नसीहत नहीं लेते। पहले वे जोश व ख़रोश 
के साथ लोगों को मुजरिमाना अफआल पर उभारते हैं। फिर जब उसका भयानक अंजाम 
सामने आता है तो वे तरह-तरह के अल्फाज बोलकर यह चाहते हैं कि उसकी जिम्मेदारी से 
अपने आपको बरी कर लें। मगर इस किस्म की कोशिशें ऐसे लोगों को अल्लाह की पकड़ से 
बचाने वाली साबित नहीं हो सकतीं । 


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ऐ ईमान वालो अल्लाह से डरो, और हर शख्स देखे कि उसने कल के लिए क्या भेजा 

है। और अल्लाह से डरो, बेशक अल्लाह बाख़बर है जो तुम करते हो। और तुम उन 

लोगों की तरह न बन जाओ जो अल्लाह को भूल गए तो अल्लाह ने उन्हें खुद उनकी 


जानों से ग्राफिल कर दिया, यही लोग नाफरमान हैं। दोजख़ वाले ओर जन्नत वाले 
बराबर नहीं हो सकते। जन्नत वाले ही असल में कामयाब हैं। (8-20) 








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इंसानी जिंदगी को “आज” और 'कल' के दर्मियान तक्सीम किया गया है। मौजूदा दुनिया 

इंसान का आज है और आखिरत की दुनिया उसका कल है। इंसान मौजूदा दुनिया में जो कुछ 

करेगा उसका लाजिमी अंजाम उसे आने वाली तवीलतर (दीर्घतर) जिंदगी में भुगतना पड़ेगा। 
यही असल हकीकत है और इसी हकीकत का दूसरा नाम इस्लाम है। इंसान की 

कामयाबी इसमें हैं कि वह इस हवीक्ते वाकई को जेन में रखे। जो शख इस हकीकत 

वाकई से गाफिल हो जाए उसकी पूरी जिंदगी गलत होकर रह जाएगी। इस मामले में 

मुसलमान और गैर मुसलमान का कोई फर्क नहीं। मुसलमानों को इसका फायदा उसी ववत 

मिलेगा जबकि वाकेयतन वे उस पर कायम हों। मुसलमान अगर गफलत में पड़ जाएं तो 

उनका अंजाम भी वही होगा जो इससे पहले गफलत में पड़ने वाले यहूद का हुआ। 





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पारा 28 432 सूरह-59. अल-हश्र 


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अगर हम इस कुरआन को पहाड़ पर उतारते तो तुम देखते कि वह खुदा के ख़ोफ से दब 

जाता और फट जाता, और ये मिसालें हम लोगों के लिए बयान करते हैं ताकि वे सोचें। 
वही अल्लाह है जिसके सिवा कोई माबूद (पूज्य) नहीं, पोशीदा और जाहिर को जानने 
वाला, वह बड़ा महरबान है। निहायत रहम वाला है। वही अल्लाह है जिसके सिवा कोई 
माबूद नहीं। बादशाह, सब ऐबों से पाक, सरासर सलामती, अम्न देने वाला, निगहबान, 
ग़ालिब, जोरआवर, अज्मत वाला, अल्लाह उस शिर्क से पाक है जो लोग कर रहे हैं। वही 
अल्लाह है पैदा करने वाला, वुजूद में लाने वाला, सूरतगरी (संरचना) करने वाला, उसी के 
लिए हैं सारे अच्छे नाम। हर चीज जो आसमानों और जमीन में है उसकी तस्बीह कर रही 

है, और वह जबरदस्त है, हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। (2।-24) 


कुआन इस अजीम हकीकत का एलान है कि इंसान आजाद नहीं है बल्कि उसे अपने 
तमाम आमाल की जवाबदेही अल्लाह के सामने करनी है जो इंतिहाई ताकतवर है। और हर 
एक के आमाल को बजातेखुद पूरी तरह देख रहा है। यह ख़बर इतनी संगीन है कि पहाड़ तक 
को लरजा देने के लिए काफी है। मगर इंसान इतना गाफिल और बेहिस है कि वह इस 
हौलनाक ख़बर को सुनकर भी नहीं तड़पता। 

अल्लाह के नाम जो यहां बयान किए गए हैं वे एक तरफ अल्लाह की जात का तआरुफ 
(परिचय) हैं। दूसरी तरफ वे बताते हैं कि वह हस्ती कैसी अजीम हस्ती है जो इंसानों की 
ख़ालिक है और उनके ऊपर उनकी निगरानी कर रही है। अगर आदमी को वाकयेतन इसका 
एहसास हो जाए तो वह अल्लाह की हम्द व तस्बीह में सरापा गक हो जाएगा। 

कायनात अपनी तख़्तीकी मअनवियत की सूरत में खुदा की सिफात का आइना है। वह 
ख़ुद हम्द व तस्बीह में मसरूफ होकर इंसान को भी हम्द व तस्बीह का सबक देती है। 


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सूरह-60. अल-मुमतहिनह I433 पारा 28 
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(मक्का में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
ऐ ईमान वालो, तुम मेरे दुश्मनों और अपने दुश्मनों को दोस्त न बनाओ, तुम उनसे 
दोस्ती का इज्हार करते हो हालांकि उन्होंने उस हक (सत्य) का इंकार किया जो तुम्हारे 
पास आया, वे रसूल को और तुम्हें इस वजह से जलावतन (निर्वासित) करते हैं कि तुम 
अपने रब, अल्लाह पर ईमान लाए। अगर तुम मेरी राह में जिहाद और मेरी रिजामंदी 
की तलब के लिए निकले हो, तुम छुपाकर उन्हें दोस्ती का पैग़ाम भेजते हो। और में 
जानता हूं जो कुछ तुम छुपाते हो। और जो कुछ तुम जाहिर करते हो। और जो शख्स 
तुम में से ऐसा करेगा वह राहेरास्त से भटक गया। अगर वे तुम पर काबू पा जाएं तो 
वे तुम्हारे दुश्मन बन जाएंगे। और अपने हाथ और अपनी जबान से तुम्हें आजार (पीड़ा) 
पहुंचाएंगे। और चाहेंगे कि तुम भी किसी तरह मुंकिर हो जाओ। तुम्हारे रिश्तेदार और 
तुम्हारी औलाद कियामत के दिन तुम्हारे काम न आएंगे, वह तुम्हारे दर्मियान फैसला 
करेगा, और अल्लाह देखने वाला है जो कुछ तुम करते हो। (-3) 


अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने जब मक्का की तरफ इक्दाम करने 


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पारा 28 I434 सूरह-60. अल-मुमतहिनह 
का फैसला किया तो आपने उसका पूरा मंसूबा निहायत ख़ामोशी के साथ बनाया ताकि मक्का 
वाले मुकाबले की तैयारी न कर सकें। उस वकत एक बद्री सहाबी हातिब बिन अबी बलतआ 
ने इस मंसूबे को एक ख़त में लिखा और उसे खुफिया तौर पर मक्का वालों के नाम रवाना 
कर दिया। ताकि मक्का वाले उनसे खुश हो जाएं और उनके अहल व अयाल (परिवारजनों) 
को न सताएं जो मक्का में मुकीम हैं। मगर “वही” (ईश्वरीय वाणी) के जरिए इसकी इत्तिला 
हो गई और कासिद को रास्ते ही में पकड़ लिया गया। इस किस्म का हर फेअल इमानी 
तफ्रेफरेश्िफंहा 

जब यह सूरतेहाल हो कि इस्लाम और गैर इस्लाम के अलग-अलग महाज बन जाएं तो 
उस वक्त अहले इस्लाम की जिम्मेदारी होती है कि वे गैर इस्लामी महाज से दिलचस्पी का 
तअल्लुक तोड़ लें। चाहे गैर इस्लामी महाज में उनके अजीज और रिश्तेदार ही क्यों न हों। 
हक को मानना और हक का इंकार करने वालों से कल्बी तअल्लुक रखना दो मुतजाद (परस्पर 
विरोधी) चीजें हैं जो एक साथ जमा नहीं हो सकतीं। 


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तुम्हारे लिए इब्राहीम और उसके साथियों में अच्छा नमूना है, जबकि उन्होंने अपनी कौम 

से कहा कि हम अलग हैं तुमसे और उन चीजों से जिनकी तुम अल्लाह के सिवा इबादत 
करते हो, हम तुम्हारे मुंकिर हैं और हमारे और तुम्हारे दर्मियान हमेशा के लिए अदावत 
(बिर) और बेजारी (दुराव) जाहिर हो गई यहां तक कि तुम अल्लाह वाहिद पर ईमान 
लाओ। मगर इब्राहीम का अपने बाप से यह कहना कि में आपके लिए माफी मांगूंगा, 
और मैं आपके लिए अल्लाह के आगे किसी बात का इख्तियार नहीं रखता। ऐ हमारे 





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सूरह-60. अल-मुमतहिनह I435 पारा 28 
रब, हमने तेरे ऊपर भरोसा किया और हम तेरी तरफ रुजूअ हुए और तेरी ही तरफ 
लौटना है। ऐ हमारे रब, हमें मुंकिरों के लिए फितना न बना, और ऐ हमारे रब, हमें 
बख्श दे, बेशक तू जबरदस्त है, हिक्मत वाला है। बेशक तुम्हारे लिए उनके अंदर अच्छा 
नमूना है, उस शख्स के लिए जो अल्लाह का और आख़िरत के दिन का उम्मीदवार हो। 
और जो शख्स रूगर्दानी (अवहेलना) करेगा तो अल्लाह बेनियाज (निस्पृह) है, तारीफों 

वाला है। उम्मीद है कि अल्लाह तुम्हारे और उन लोगों के दर्मियान दोस्ती पैदा कर दे 
जिनसे तुमने दुश्मनी की। और अल्लाह सब कुछ कर सकता है, और अल्लाह बर्शने 
वाला, महरबान है। (4-7) 


हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने इब्तिदा में ख़ैरख़ाहाना अंदाज में अपने ख़ानदान को 
तौहीद का पैग़ाम दिया। जब इतमामेहुज्जत (आह्वान की अति) के बावजूद वे लोग मुंकिर बने 
रहे तो आप उनसे बिल्कुल जुदा हो गए । मगर यह बड़ा सख्त मरहला था। क्योंकि एलाने बरा-त 
(विरक्ति) का मतलब मुंकिरीने हक को यह दावत देना था कि वे हर मुमकिन तरीके से अहले 
ईमान को सताएं। दलील के मैदान में शिकस्त खाने के बाद ताकत के मैदान में अहले ईमान 
को जलील करें। यही वजह है कि इसके बाद हजरत इब्राहीम ने जो दुआ कि उसमें ख़ास तौर 
से फरमाया कि ऐ हमारे रब हमें इन जालिमों के जुम का तख़्तए मश्क (निशाना) न बना। 

अजीजों और रिश्तेदारों से एलाने बरा-त आम मअनों में एलाने अदावत नहीं है। यह 
दाऔ की तरफ से अपने यकीन का आखिरी इज्हार है। इस एतबार से उसमें भी एक दावती 
कई (४०५९) शामिल हो जाती है। चुनांचे कभी ऐसा होता है कि जो शख्स 'पैग़ाम” की 
जबान से मुतअस्सिर नहीं हुआ था 'यकीन' की जबान उसे जीतने में कामयाब हो जाती है। 


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अल्लाह तुम्हें उन लोगों से नहीं रोकता जिन्होंने दीन के मामले में तुमसे जंग नहीं की। 
और तुम्हें तुम्हारे घरों से नहीं निकाला कि तुम उनसे भलाई करो और तुम उनके साथ 
इंसाफ करो। बेशक अल्लाह इंसाफ करने वालों को पसंद करता है। अल्लाह बस उन 


लोगों से तुम्हें मना करता है जो दीन के मामले में तुमसे लड़े और तुम्हें तुम्हारे घरों से 
निकाला। और तुम्हारे निकालने में मदद की कि तुम उनसे दोस्ती करो, और जो उनसे 





पारा 28 I436 
दोस्ती करे तो वही लोग जालिम हैं। (8-9) 


सूरह-60. अल-मुमतहिनह 





जहां तक अदूल व इंसाफ का तअल्लुक है वह हर एक से किया जाएगा, चाहे फरीक सानी 
(प्रतिपक्षी) दुश्मन हो या गैर दुश्मन | मगर दोस्ती का तअल्लुक हर एक से दुरुस्त नहीं। दोस्ती 
सिर्फ उसी के साथ जाइज है जो अल्लाह का दोस्त हो या कम से कम यह कि वह अल्लाह 
का दुश्मन न हो। 


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ऐ ईमान वालो, जब तुम्हारे पास मुसलमान औरतें हिजरत (स्थान-परिवर्तन) करके आएं 
तो तुम उन्हें जांच लो, अल्लाह उनके ईमान को खूब जानता है। पस अगर तुम जान 
लो कि वे मोमिन हैं तो उन्हें मुंकिरों की तरफ न लोटाओ। न वे औरतें उनके लिए 
हलाल हैं और न वे उन औरतों के लिए हलाल हैं। और मुंकिर शोहरों ने जो कुछ खर्च 
किया वह उन्हें अदा कर दो। और तुम पर कोई गुनाह नहीं अगर तुम उनसे निकाह 
कर लो जबकि तुम उनके महर उन्हें अदा कर दो। और तुम मुंकिर औरतों को अपने 
निकाह में न रोके रहो। और जो कुछ तुमने ख़र्च किया है उसे मांग लो। और जो कुछ 
मुंकिरों ने ख़र्च किया वे भी तुमसे मांग लें। यह अल्लाह का हुक्म है, वह तुम्हारे दर्मियान 
फैसला करता है, और अल्लाह जानने वाला, हिक्मत वाला है। और अगर तुम्हारी 
बीवियों के महर में से कुछ मुंकिरों की तरफ रह जाए, फिर तुम्हारी नौबत आए तो 
जिनकी बीवियां गई हैं उन्हें अदा कर दो जो कुछ उन्होंने खर्च किया। और अल्लाह से 
डरो जिस पर तुम ईमान लाए हो। (0-]) 


यहां सुलह हुंदैबिया के बाद पैदाशुदा हालात की रोशनी में इस्लाम के कुछ उन कानूनों 


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सूरह-60. अल-मुमतहिनह I437 पारा 28 पारा 28 I438 सूरह-6।. अस-सफ्फ 
को बताया गया है जिनका तअल्लुक दारुल हरब और दारुल इस्लाम के दर्मियान पेश अपने ५ T»%43 ४2४४ ~ FE ~~ 5 gw i ~ | 4४2; 
वाले आइली (पारिवारिक) मसाइल से है। 6 


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ऐ नबी जब तुम्हारे पास मोमिन औरतें इस बात पर बैअत (प्रतिज्ञा) के लिए आएं कि 
वे अल्लाह के साथ किसी चीज को शरीक न करेंगी। और वे चोरी न करेंगी। और वे आयतें-4 सूह6।. अससफ् रुकूअ-2 
बदकारी न करेंगी। और वे अपनी औलाद को कत्ल न करेंगी। और वे अपने हाथ और (मदीना में नाजिल हुई) 
पांव के आगे कोई बोहतान गढ़कर न लाएंगी। और वे किसी मारूफ (सत्कर्म) में शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
तुम्हारी नाफरमानी न करेंगी तो उनसे वैअत ले लो और उनके लिए अल्लाह से बख्शिश अल्लाह की तस्बीह करती है हर चीज जो आसमानों और जमीन में है। और वह ग़ालिब 
की दुआ करो, बेशक अल्लाह बख़्शने वाला महरबान है। (2) (प्भुत्वशाली) है हकीम (तत्वदर्शी) है। ऐ ईमान वालो, तुम ऐसी बात क्यों कहते हो जो 
तुम करते नहीं। अल्लाह के नजदीक यह बात बहुत नाराजी की है कि तुम ऐसी बात कहो 
इस आयत में वे शर्ते बताई गई हैं जिनका इकरार लेकर किसी औरत को इस्लाम में जो तुम करो नहीं। अल्लाह तो उन लोगों को पसंद करता है जो उसके रास्ते में इस तरह 
दाखिल किया जाता है। इन शर्तों में दो शर्त की हैसियत बुनियादी है। यानी शिक न करना मिलकर लड़ते हैं गोया वे एक सीसा पिलाई हुई दीवार हैं। (-4) 
और रसूल की नाफरमानी न करना । बाकी तमाम मजकूर (उल्लिखित) औशमकू त्रे 
अपने आप इन दो शर्तों में शामिल हो जाते हैं। इंसान के सिवा जो कायनात है उसमें कहीं तजाद (अन्तर्विरोध) नहीं। इस दुनिया में 
Fn FR a TR लकड़ी हमेशा लकड़ी रहती है। और जो चीज अपने आपको लोहा और पत्थर के रूप में 
Er (६32 5 AS 23 st 3) (० 5 oy |e 2९ जाहिर करे वह हकीकी तजर्बे में भी लोहा और पत्थर ही साबित होती है। इंसान को भी ऐसा 
| £ i ४६६ ही बनना चाहिए। इंसान के कहने और करने में मुताबिकत होनी चाहिए । यहां तक कि उस 
¢, | ४2 & FOWL FeL वक्त भी जबकि आदमी को अपने कहने की यह कीमत देनी पड़े कि हर किस्म की दुश्वारियों 
ऐ ईमान वालो तुम उन लोगों को दोस्त न बनाओ जिनके ऊपर अल्लाह का गजब हुआ, के बावजूद वह सब्र का पहाड़ बन जाए , 
नाउम्मीद गए हें त्री में हुए मुंकिर नाउम्मीद हें 9 ० / 9-१5 २5) अर 2 
वे आख़िरत से नाउम्मीद हो गए हैं जिस तरह कब्रों में पड़े हुए मुंकिर नाउम्मीद हैं। (3) RT Gl 237 | ७2788: 92555%9 »& Aoi) (४०३७ d ® 
आसमानी किताब को मानने वाले यहूद और उसे न मानने वाले मुंकिर आख़िरत के Gs 9... १९. a PRES Cc ८६७४८ 5 
एतबार से एक सतह पर हैं। खुले हुए मुंकिरों को उम्मीद नहीं होती कि कोई शख्स दुबारा oC) 258 5५०४४ 40) ० 40) की 5 ६४ 5 
अपनी कब्र से उठेगा। यही हाल उन लोगों का भी होता है जो यहूद की तरह ईमान लाने के और जब मूसा ने अपनी कौम से कहा कि ऐ मेरी कौम, तुम लोग क्यों मुझे सताते हो, 
बाद गफलत और बेहिसी में मुला हो गए हों। आखिरत का लफ्जी इकरार करने के हालांकि तुम्हें मालूम है कि मैं तुम्हारी तरफ अल्लाह का भेजा हुआ रसूल हूं। पस जब 
बावजूद उनकी अमली जिंदगी वैसी ही हो जाती है जैसी खुले हुए मुंकिरीन की जिंदगी । वे फिर गए तो अल्लाह ने उनके दिलों को फेर दिया। और अल्लाह नाफरमान लोगों 


को हिदायत नहीं देता। (5) 


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सूरह6।. अस-सफ्फ I439 पारा 28 


हजरत मूसा अलैहिस्सलाम बनी इस्राईल के दर्मियान आए। बनी इस्राईल उस वक्‍त एक 
जवालयापता कौम थे। उनके अंदर यह हौसला बाकी नहीं रहा था कि जो कहें वही करें। और 
करें वही कहें। चुनांचे उनका हाल यह था कि वे हजरत मूसा के हाथ पर ईमान का इकरार 
भी करते थे और इसी के साथ हर किस्म की बदअहदी और नाफरमानी में भी मुन्तिला रहते 
थे। यहां तक कि हजरत मूसा के साथ अपने बुरे सुलूक को जाइज साबित करने के लिए वे 
खुद हजरत मूसा पर झूठेझूठे इल्जाम लगाते थे। बाइबल में खुरूज और गिनती के अबवाब 
(अध्यायो) में इसकी तफ्सील देखी जा सकती है। 

अहद करने के बाद अहद की ख़िलाफवर्ज आदमी को पहले से भी ज्यादा हक से दूर 
कर देती है। 

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और जब ईसा बिन मरयम ने कहा कि ऐ बनी इस्राईल मैं तुम्हारी तरफ अल्लाह का 
भेजा हुआ रसूल हूं, तस्दीक (पुष्टि) करने वाला हूं उस तौरात की जो मुझसे पहले से 
मौजूद है, और खुशखबरी देने वाला हूं एक रसूल की जो मेरे बाद आएगा, उसका नाम 
अहमद होगा। फिर जब वह उनके पास खुली निशानियां लेकर आया तो उन्होंने कहा, 
यह तो खुला हुआ जादू है। और उससे बढ़कर जालिम कौन होगा जो अल्लाह पर झूठ 
बांधे हालांकि वह इस्लाम की तरफ बुलाया जा रहा हो, और अल्लाह जालिम लोगों को 
हिदायत नहीं देता। वे चाहते हैं कि अल्लाह की रोशनी को अपने मुंह से बुझा दें, 
हालांकि अल्लाह अपनी रोशनी को पूरा करके रहेगा, चाहे मुंकिरों को यह कितना ही 
नागवार हो। वही है जिसने भेजा अपने रसूल को हिदायत और दीने हक के साथ ताकि 
उसे सब दीनों पर ग़ालिब कर दे चाहे मुश्रिकों (बहुदेववादियों) को यह कितना ही 
नागवार हो। (6-9) 


हजरत मसीह अलैहिस्सलाम के मोजिजात इस बात का सुबूत थे कि आप खुदा के पैगम्बर 


पारा 28 440 सूरह6. अस-सफ्फ 
हैं। मगर यहूद ने उन मोजिजात को जादू का करिश्मा कहकर उन्हें नजरअंदाज कर दिया । इसी 
तरह कदीम आसमानी किताबों में वाजेह तौर पर पैगम्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की पेशगी 
खबर मौजूद थी। मगर जब आप आए तो यहूद और नसारा दोनों ने आपका इंकार कर दिया। 
इंसान इतना जालिम है कि वह खुली-खुली हकीकतों का एतराफ करने के लिए भी तैयार नहीं 
होता। 

इस आयत में ग़लबे से मुराद फिक्री ग़लबा (वैचारिक वर्चस्व) है। यानी खुदा और 
मजहब के बारे में जितने गैर मुवहिहदाना (गैर-एकेश्वरवादी) अकाइद दुनिया में हैं उन्हें जेर 
करके तैहीद (एकेश्वरवाद) के अकीदे को गालिब फिक्र की हैसियत दे दी जाए। बकिया 
तमाम अकाइद हमेशा के लिए फिक्री तौर पर मगलूब होकर रह जाएं। कुरआन में यह 
पेशीनगोई इंतिहाई नामुवाफिक हालात में सनू 3 हि० में नाजिल हुई थी। मगर बाद को वह 


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ऐ ईमान वालो, क्या में तुम्हें एक ऐसी तिजारत बताऊ जो तुम्हें एक दर्दनाक अजाब से 
बचा ले। तुम अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाओ और अल्लाह की राह में अपने 
माल और अपने जान से जिहाद (जद्दोजहद) करो, यह तुम्हारे लिए बेहतर है अगर तुम 
जानो। अल्लाह तुम्हारे गुनाह माफ कर देगा और तुम्हें ऐसे बागों में दाखिल करेगा जिनके 
नीचे नहरें जारी होंगी, और उम्दा मकानों में जो हमेशा रहने के बागों में होंगे, यह है बड़ी 
कामयाबी और एक और चीज भी जिसकी तुम तमन्ना रखते हो, अल्लाह की मदद और 
फतह जल्दी, और मोमिनों को बशारत (शुभ सूचना) दे दो। (0-3) 








तिजारत में आदमी पहले देता है, इसके बाद उसे वापस मिलता है। दीन की जद्दोजहद 
में भी आदमी को अपनी कुव्वत और अपना माल देना पड़ता है। इस एतबार से यह भी एक 
किस्म की तिजारत है। अलबत्ता दुनियावी तिजारत का नफा सिर्फ दुनिया में मिलता है और 
दीन की तिजारत का नफा मजीद इजाफे के साथ दुनिया में भी मिलता है और आखिर में 
भी। फिर इसी 'तिजारत' से ग़लबा की राह भी खुलती है जो मौजूदा दुनिया में किसी गिरोह 
को बाइज्जत जिगी हासिल करने का सबसे बद जरिया है। 


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सूरह6।. अस-सप्फ I44] पारा 28 
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ऐ ईमान वालो, तुम अल्लाह के मददगार बनो, जैसा कि ईसा बिन मरयम ने हवारियों 
(साथियों) से कहा, कौन अल्लाह के वास्ते मेरा मददगार बनता है। हवारियों ने कहा 
हम हैं अल्लाह के मददगार, पस बनी इस्राईल में से कुछ लोग ईमान लाए और कुछ 
लोगों ने इंकार किया। फिर हमने ईमान लाने वालों की उनके दुश्मनों के मुकाबले में 
मदद की, पस वे ग़ालिब हो गए। (4) 


यहूद की अक्सरियत ने अगरचे हजरत मसीह अलैहिस्सलाम को रदूद कर दिया मगर 
उनमें से कुछ लोग (हवारिय्यीन) ऐसे थे जिन्होंने पूरे इख्लास और वफादारी के साथ आपका 
साथ दिया। और आपके पैग़म्बराना मिशन को आगे बढ़ाया। यही चन्द लोग अल्लाह की 
नजर में मोमिन करार पाए और बकिया तमाम यहूद पिछले पेगम्बरों को मानने के बावजूद 
मुंकिर करार पा गए। 

यहां जिस गलबे का जिक्र है वह फिल जुमला (वस्तुतः) मोमिनीने मसीह का फिल जुमला 
मुंकिरीने मसीह पर गलबा है। हजरत मसीह के बाद रूमी शहंशाह कुस्तुंतीन दोम (272-387 
ई०) ने नसरानियत (ईसाइयत) कुबूल कर ली जिसकी सल्तनत शाम और फिलिस्तीन तक 
फैली हुई थी। इसके बाद रूमी रिआया बहुत बड़ी तादाद में ईसाई हो गई । चुनांचे यहूद उनके 
महकूम (शासनाधीन) हो गए। मौजूदा जमाने में भी यहूदियों की हुकूमते इस्राईल हर एतबार 


से ईसाइयों के मातहत है। 
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आयतें-। सूरह-62. अल-जुमुअह रुकूअ-2 


(मदीना में नाजिल हुई) 

शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरवान, निहायत रहम वाला है। 
अल्लाह की तस्बीह कर रही है हर वह चीज जो आसमानों में है और जो जमीन में है। जो 
बादशाह है, पाक है, जबरदस्त है, हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। वही है जिसने उम्मियों 
के अंदर एक रसूल उन्हीं में से उठाया, वह उन्हें उसकी आयतें पढ़कर सुनाता है। और उन्हें 
पाक करता है और उन्हें किताब और हिक्मत (तत्वदर्शिता) की तालीम देता है, और वे 
इससे पहले खुली गुमराही में थे और दूसरों के लिए भी उनमें से जो अभी उनमें शामिल 
नहीं हुए, और वह जबरदस्त है, हिक्मत वाला है। यह अल्लाह का फज्ल है, वह देता है 
जिसे चाहता है, और अल्लाह बड़े फज्ल (अनुग्रह) वाला है। (-4) 





इंसान की हिदायत के लिए रसूल भेजना खुदा की उन्हीं सिफात (गुणों) का इंसानी सतह 
पर जुहूर है जिन सिफात का जुहूर मादूदी एतबार से कायनात की सतह पर हुआ है। अल्लाह 
के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम, और इसी तरह दूसरे पैगम्बरों का काम ख़ास तौर पर 
दो रहा है। एक, ख़ुदा की 'वही' को लोगों तक पहुंचाना। दूसरे, लोगों के शुऊर को बेदार 
करना ताकि वे खुदाई बातों को समझें और अपनी हकीकी जिंदगी के साथ उन्हें मरबूत कर 
सकें। यही दो काम आइंदा भी दावत व इस्लाह की जद्दोजहद में मत्लूब रहेंगे। यानी तालीमे 
कुआन और ज्हनी तर्वियत। RN 
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जिन लोगों को तौरात का हामिल (धारक) बनाया गया फिर उन्होंने उसे न उठाया, 
उनकी मिसाल उस गधे की सी है जो किताबों का बोझ उठाए हुए हो। क्या ही बुरी 


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सूरह-62. अल-जुमुअह 443 पारा 28 
मिसाल है उन लोगों की जिन्होंने अल्लाह की आयतों को झुठलाया, और अल्लाह 
जालिम लोगों को हिदायत नहीं देता। कहो कि ऐ यहूदियो, अगर तुम्हारा गुमान है 
कि तुम दूसरों के मुकाबले में अल्लाह के महबूब हो तो तुम मौत की तमन्ना करो, अगर 
तुम सच्चे हो। और वे कभी इसकी तमन्ना न करेंगे उन कामों की वजह से जिन्हें उनके 
हाथ आगे भेज चुके हैं। और अल्लाह जालिमों को ख़ूब जानता है। कहो कि जिस मौत 
से तुम भागते हो वह तुम्हें आकर रहेगी, फिर तुम पोशीदा और जाहिर के जानने वाले 
के पास ले जाए जाओगे, फिर वह तुम्हें बता देगा जो तुम करते रहे हो। (5-8) 





ख़ुदा की किताब जब किसी कौम को दी जाती है तो इसलिए दी जाती है कि वह उसे 
अपने अंदर उतारे और उसे अपनी जिंदगी में अपनाए। मगर जो कौम इस मअना में किताबे 
आसमानी की हामिल (धारक) न बन सके उसकी मिसाल उस गधे की सी होगी जिसके ऊपर 
इलमी किताबें लदी हुई हों और उसे कुछ ख़बर न हो कि उसके ऊपर क्या है। 

यहूद ने अगरचे अमली तौर पर ख़ुदा के दीन को छोड़ रखा था, इसके बावजूद उसे अपने 
कैमी फख़ का निशान बनाए हुए थे। मगर इस किस्म का फख़ किसी के कुछ काम आने 
वाला नहीं। ऐसा फख़ हमेशा झूठा फख़ होता है। और इसका एक सुबूत यह है कि आदमी 
जिस दीन को अपने फख़ का सामान बनाए हुए होता है उसके लिए वह कुर्बानी देने को तैयार 
नहीं होता। ताहम जब मौत आएगी तो ऐसे लोग जान लेंगे कि दुनिया में वे जिस फख़ पर 
जी रहे थे वह आख़िरत में उन्हें जिल्लत के सिवा और कुछ देने वाला नहीं। 


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ऐ ईमान वालो, जब जुमा के दिन की नमाज के लिए पुकारा जाए तो अल्लाह की याद 
की तरफ चल पड़ो और ख़रीद व फरोख्त छोड़ दो, यह तुम्हारे लिए बेहतर है अगर तुम 
जानो। फिर जब नमाज पूरी हो जाए तो जमीन में फेल जाओ और अल्लाह का फन्ल तलाश 


करो, और अल्लाह को कसरत (अधिकता) से याद करो, ताकि तुम फलाह पाओ। और 
जब वे कोई तिजारत या खेल तमाशा देखते हैं तो उसकी तरफ दौड़ पड़ते हैं। और तुम्हें 


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पारा 28 I444 सूरह63. अल-मुनाफिकून 
खड़ा हुआ छोड़ देते हैं, कहो कि जो अल्लाह के पास है वह खेल तमाशे और तिजारत से 
बेहतर है, और अल्लाह बेहतरीन रिजक देने वाला है। (9-) 





दुनिया में आदमी बयकववत दो तकाजों के दर्मियान होता है। एक मआश (जीविका) का 
तकज, और कूरेर दीन का तकज । इनमेंसे हर तकज जरुरी है। अलबत्ता उनके दर्मियान 
इस तरह तक्सीम होनी चाहिए कि मआशी सरगर्मियां दीनी तकाजे के मातहत हों। आदमी 
को इजाजत है कि वह जाइज हुटूद में मआश के लिए दौड़ धूप करे। मगर यह जरूरी है कि 
उसे जो मआशी कामयाबी हासिल हो उसे वह सरासर अल्लाह का फज्ल समझे । नीज मआशी 
सरगर्मी के दौरान बराबर अल्लाह को याद करता रहे। इसी के साथ उसे हमेशा तैयार रहना 
चाहिए कि जब भी दीन के किसी तकाजे के लिए पुकारा जाए तो उस वक्त वह हर दूसरे काम 
को छोड़कर दीन के काम की तरफ दौड़ पड़े। 

मदीना में एक बार ऐन जुमा के खुत्बे के वक्‍त कुछ लोग उठकर बाजार चले गए। इस 
पर मज्कूरा आयतें उतरीं। इस हुक्म का तअल्लुक अगरचे बराहेरास्त तौर पर जुमा से है मगर 
बिलवास्ता तौर पर हर दीनी काम से है। जब भी किसी ख़ास दीनी मकसद के लिए लोगों को 
जमा किया जाए तो अमीर की इजाजत के बगैर उठकर चले जाना सख्त महरूमी की बात है। 


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आयतें-2 सूषह63. अल-मुनाफ्म रुकूअ-2 
(मदीना में नाजिल हुई) 

शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
जब मुनाफिक (पाखंडी) तुम्हारे पास आते हैं तो कहते हैं कि हम गवाही देते हैं कि आप 
बेशक अल्लाह के रसूल हैं, और अल्लाह जानता है कि बेशक तुम उसके रसूल हो, और 
अल्लाह गवाही देता है कि ये मुनाफिकीन (पाखंडी) झूठे हैं। उन्होंने अपनी कसमों को 
ढाल बना रखा है, फिर वे रोकते हैं अल्लाह की राह से, बेशक निहायत बुरा है जो वे 


कर रहे हैं। यह इस सबब से है कि वे ईमान लाए फिर उन्होंने कुफ़ किया, फिर उनके 
दिलों पर मुहर कर दी गई, पस वे नहीं समझते। (-3) 





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सूरह-63. अल-मुनाफिकून I445 पारा 28 








यह किसी आदमी के निफाक (पाखंड) की अलामत है कि वह बड़ी-बड़ी बातें करे। और 
कसम खाकर अपनी बात का यकीन दिलाए। मुख्तिस (निष्ठावान) आदमी अल्लाह के खौफ 
से दबा हुआ होता है। वह जबान से ज्यादा दिल से बोलता है। मुनाफिक आदमी सिर्फ इंसान 
को अपनी आवाज सुनाने का मुशताक होता है। और मुख्लिस आदमी खुदा को सुनाने का। 

जब एक शख्स ईमान लाता है तो वह एक संजीदा अहद (प्रण) करता है। इसके बाद 
जिंदगी के अमली मवाकेअ आते हैं जहां जरूरत होती है कि वह उस अहद के मुताबिक 
अमल करे। अब जो शख्स ऐसे मोकों पर अपने दिल की आवाज को सुनकर अहद के तकाजे 
पूरे करेगा। उसने अपने अहदे ईमान को पुख्ता किया। इसके बरअक्स जिसका यह हाल हो 
कि उसके दिल ने आवाज दी मगर उसने दिल की आवाज को नजरअंदाज करके अहद के 
खिलाफ अमल किया तो इसका नतीजा यह होगा कि वह धीरे-धीरे अपने अहदे ईमान के 
मामले में बेहिस हो जाएगा। यही मतलब है दिल पर मुहर करने का। 

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और जब तुम उन्हें देखो तो उनके जिस्म तुम्हें अच्छे लगते हैं, और अगर वे बात करते 
हैं तो तुम उनकी बात सुनते हो, गोया कि वे लकड़ियां हैं टेक लगाई हुई। वे हर जोर 
की आवाज को अपने खिलाफ समझते हैं। यही लोग दुश्मन हैं, पस उनसे बचो। 
अल्लाह उन्हें हलाक करे, वे कहां फिरे जाते हैं। और जब उनसे कहा जाता है कि आओ, 
अल्लाह का रसूल तुम्हारे लिए इस्तिगफार (माफी की दुआ) करे तो वे अपना सर फेर 
लेते हैं। और तुम उन्हें देखोगे कि वे तकब्बुर (घमंड) करते हुए बेरुखी करते हैं। उनके 
लिए यकसां (समान) है, तुम उनके लिए मग्फिरत (माफी) की दुआ करो या मम्फिरत 
की दुआ न करो, अल्लाह हरगिज उन्हें माफ न करेगा। अल्लाह नाफरमान लोगों को 
हिदायत नहीं देता। (4-6) 





मुनाफिक आदमी मस्लेहतपरस्ती के जरिए अपने मफदात (हिते को महफू रखता है। 
वह हक नाहक की बहस में नहीं पड़ता, इसलिए हर एक से उसका बनाव रहता है। उसकी 
जिंदगी ग़म से खाली होती है। ये चीजें उसके जिस्म को फरबा (मोटा) बना देती हैं। वे लोगों 


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पारा 28 I446 सूरह63. अल-मुनाफिकून 
के मिजाज की रिआयत करके बोलता है। इसलिए उसकी बातों में हर एक अपने लिए 
दिलचस्पी का सामान पा लेता है। मगर ये बजाहिर हरे भरे दर्‌ हकीकतन सिर्फ सूखी 

लकड़ियां होते हैं जिनमें कोई जिंदगी न हो। वे अंदर से बुजदिल होते हैं। उनके नजदीक 

उनका दुनियावी मफाद हर दीनी मफाद से ज्यादा अहम होता है। ऐसे लोग ईमान के 
बुलन्दबांग मुद्दई (ऊंचे दावेदार) होने के बावजूद ख़ुदा की हिदायत से यकसर महरूम हैं। 


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यही हैं जो कहते हैं कि जो लोग अल्लाह के रसूल के पास हैं उन पर ख़र्च मत करो यहां 
तक कि वे मुंतशिर (तितर-बितर) हो जाएं। और आसमानों और जमीन के ख़जाने 
अल्लाह ही के हैं लेकिन मुनाफिकीन (पाखंडी) नहीं समझते। वे कहते हैं कि अगर हम 
मदीना लेटे तो इज्जत वाला वहां से जिल्लत वाले को निकाल देगा। हालांकि इज्जत 


अल्लाह के लिए और उसके रसूल के लिए और मोमिनीन के लिए है, मगर मुनाफिकीन 
(पाखंडी) नहीं जानते। (7-8) 





कदीम मदीना में दो किस्म के मुसलमान थे। एक मुहाजिर दूसरे अंसार । मुहाजिरीन 
मक्का से बेवतन होकर आए थे। उनका सबसे बड़ा जाहिरी सहारा मकामी मुसलमान (अंसार) 
थे। इस बिना पर दुनियापरस्त लोगों को मुहाजिर बेइज्जत दिखाई देते थे और अंसार उनकी 
नजर में बाइज्जत लोग थे। यहां तक कि एक मौके पर अब्दुल्लाह बिन उबइ ने साफ तैर पर 
कह दिया कि इन मुहाजिरीन की हकीकत क्या है। अगर हम इन्हें अपनी बस्ती से निकाल 
दें तो दुनिया में कहीं इन्हें ठिकाना न मिले। 
इस किम के अत्फज उसी श की जबान से निकल सकते हैजो इस हकीकत से 
बेख़बर हो कि इस दुनिया में जो कुछ है सब अल्लाह का है। वही जिसे चाहे दे और वही 
जिससे चाहे छीन ले। 


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सूरह-64. अत-तगाबुन 447 पारा 28 
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ऐ ईमान वालो, तुम्हारे माल और तुम्हारी औलाद तुम्हें अल्लाह की याद से गाफिल 

न करने पाएं, और जो ऐसा करेगा तो वही घाटे में पड़ने वाले लोग हैं। और हमने जो 
कुछ तुम्हें दिया है उसमें से ख़र्च करो इससे पहले कि तुम में से किसी की मौत आ 
जाए, फिर वह कहे कि ऐ मेरे रब, तूने मुझे कुछ और मोहलत क्यों न दी कि मैं सदका 
(दान) करता और नेक लोगों में शामिल हो जाता। और अल्लाह हरगिज किसी जान 
को मोहलत नहीं देता जबकि उसकी मीआद (नियत समय) आ जाए, और अल्लाह 
जानता है जो कुछ तुम करते हो। (9-7) 


हर आदमी के लिए सबसे बड़ा मसला आख़िरत का मसला है। मगर माल और औलाद 
इंसान को इस सबसे बड़े मसले से गाफिल कर देते हैं। इंसान को जानना चाहिए कि माल 
और औलाद मकसद नहीं बल्कि जरिया हैं। वे इसलिए किसी को दिए जाते हैं कि वह उन्हें 
अल्लाह के काम में लगाए। वह उन्हें अपनी आखिरत बनाने में इस्तेमाल करे। मगर नादान 
आदमी उन्हें बजाते खुद मकसूद (लक्ष्य) समझ लेता है। ऐसे लोग जब अपने आखिरी अंजाम 
को पहुंचेंगे तो वहां उनके लिए हसरत व अफसोस के सिवा और कुछ न होगा। 


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(मदीना में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
अल्लाह की तस्बीह कर रही है हर चीज जो आसमानों में है और हर चीज जो जमीन 


पारा 28 I448 सूरह-64. अत-तगाबुन 
में है। उसी की बादशाही है और उसी के लिए तारीफ है और वह हर चीज पर कादिर 

है। वही है जिसने तुम्हें पैदा किया, फिर तुम में से कोई मुंकिर है और कोई मोमिन, 
और अल्लाह देख रहा है जो कुछ तुम करते हो। उसने आसमानों और जमीन को ठीक 
तौर पर पैदा किया और उसने तुम्हारी सूरत बनाई तो निहायत अच्छी सूरत बनाई, और 
उसी की तरफ है लोटना। वह जानता है जो कुछ आसमानां और जमीन में है। और 

वह जानता है जो कुछ तुम छुपाते हो और जो तुम जाहिर करते हो। और अल्लाह दिलों 
तक की बातों का जानने वाला है। (-4) 








'कायनात अल्लाह की तस्बीह कर रही है” का मतलब यह है कि अल्लाह ने जिस 
हकीकत को कुरआन में खोला है, कायनात सरापा उसकी तस्दीक (पुष्टि) बनी हुई है, वह 
जबानेहाल से हम्द व सताइश (प्रशस्ति) की हद तक इसकी ताईद कर रही है। इस दोतरफा 
एलान के बावजूद जो लोग मोमिन न बनें उन्हें इसके बाद तीसरे एलान का इंतिजार करना 
चाहिए जबकि तमाम लोग ख़ुदा के यहां जमा किए जाएंगे ताकि ख़ुद मालिके कायनात की 
जबान से अपने बारे में आखिरी फैसले को सुनें। 


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क्या तुम्हें उन लोगों की ख़बर नहीं पहुंची जिन्होंने इससे पहले इंकार किया, फिर 
उन्होंने अपने किए का वबाल चखा और उनके लिए एक दर्दनाक अजाब है। यह 
इसलिए कि उनके पास उनके रसूल खुली दलीलों के साथ आए, तो उन्होंने कहा 
कि क्या इंसान हमारी रहनुमाई करेंगे। पस उन्होंने इंकार किया और मुंह फेर लिया, 


और अल्लाह उनसे बेपरवाह हो गया, और अल्लाह बेनियाज (निस्पृह) है, तारीफ 
वाला है। (5-6) 





कदीम जमाने में रसूलों के जरिए जो तारीख़ बनी वह इंसानों के लिए मुस्तकिल इबरत 
(सीख) का नमूना है। मसलन आद और समूद और अहले मदयन और कौमे लूत वगैरह के 
दर्मियान पैगम्बर आए। इन पेग़म्बरों के पास अपनी सदाकत बताने के लिए कोई गैर बशरी 
(इंसानी) कमाल न था, बल्कि सिर्फ दलील थी। दलील की सतह पर इंकार ने उन कौमों को 
अजाब का मुस्तहिक बना दिया । इससे मालूम हुआ कि इस दुनिया में आदमी का इम्तेहान 
यह है कि वह दलील की सतह पर हक को पहचाने। जो शख्स दलील की सतह पर हक को 
पहचानने में नाकाम रहे वह हमेशा के लिए हक से महरूम होकर रह जाएगा। 


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सूरह-64. अत-तगाबुन I449 पारा 28 
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इंकार करने वालों ने दावा किया कि वे हरगिज दुबारा उठाए न जाएंगे, कहो कि हां, 
मेरे रब की कसम तुम जरूर उठाए जाओगे, फिर तुम्हें बताया जाएगा जो कुछ तुमने 
किया है, और यह अल्लाह के लिए बहुत आसान है। पस अल्लाह पर ईमान लाओ 
और उसके रसूल पर और उस नूर (प्रकाश) पर जो हमने उतारा है। और अल्लाह जानता 
है जो कुछ तुम करते हो। जिस दिन वह तुम सबको एक जमा होने के दिन जमा करेगा, 
यही दिन हार जीत का दिन होगा। और जो शख्स अल्लाह पर ईमान लाया होगा और 
उसने नेक अमल किया होगा, अल्लाह उसके गुनाह उससे दूर कर देगा और उसे बागों 
में दाखिल करेगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी वे हमेशा उनमें रहेंगे। यही है बड़ी 
कामयाबी । और जिन लोगों ने इंकार किया और हमारी आयतों को झुठलाया वही आग 
वाले हैं, उसमें हमेशा रहेंगे, और वह बुरा ठिकाना है। (7-0) 


लोग दुनिया को हार जीत (तग़ाबुन) की जगह समझते हैं। किसी शख्स को यहां 
कामयाबी मिल जाए तो वह खुश होता है। और जो शख्स यहां नाकामी से दो चार हो वह 
लोगों की नजर में हकीर (तुच्छ) बनकर रह जाता है। मगर हकीकत यह है कि इस दुनिया 
की हार भी बेकीमत है और यहां की जीत भी बेकीमत। 

हार जीत का असल मकाम आखिरत (परलोक) है। हारने वाला वह है जो आख़िरत में 
हारे और जीतने वाला वह है जो आखिरत में जीते। और वहां की हार जीत का मेयार बिल्कुल 
मुख्तलिफ है। दुनिया में हार जीत जाहिरी माद्दियात (पदार्थो) की बुनियाद पर होती है। और 
आखिरत की हार जीत खुदाई अख्नाकियात की बुनियाद पर होगी। उस वक्त देखने वाले यह 
देखकर हैरान रह जाएंगे कि यहां सारा मामला बिल्कुल बदल गया है। जिस पाने को लोग 
पाना समझ रहे थे वह दरअस्ल खोना था, और जिस खोने को लोगों ने खोना समझ रखा था 
वही दरअस्ल वह चीज थी जिसे पाना कहा जाए। उसी दिन की हार, हार है और उसी दिन 
की जीत, जीत। 








पारा 28 450 सूरह-64. अत-तगाबुन 
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जो मुसीबत भी आती है अल्लाह के इज्न (अनुज्ञा) से आती है। और जो शख्स अल्लाह 
पर ईमान रखता है अल्लाह उसके दिल को राह दिखाता है, और अल्लाह हर चीज को 
जानने वाला है। और तुम अल्लाह की इताअत (आज्ञापालन) करो और रसूल की 
इताअत करो। फिर अगर तुम एराज (उपेक्षा) करोगे तो हमारे रसूल पर बस साफ-साफ 

पहुंचा देना है। अल्लाह, उसके सिवा कोई इलाह (पूज्य-प्रभु) नहीं, और ईमान लाने 
वालों को अल्लाह ही पर भरोसा रखना चाहिए। (।-3) 





कोई मुसीबत अपने आप नहीं आती, हर मुसीबत ख़ुदा की तरफ से आती है। और इसलिए 
आती है कि उसके जरिए से इंसान को हिदायत अता की जाए। मुसीबत आदमी के दिल को 
नर्म करती है। और उसकी सोई हुई नफ्सियात में हलचल पैदा करती है। मुसीबत के झटके 
आदमी के जेहन को जगाने का काम करते हैं। अगर आदमी अपने आपको मंफी रद्देअमल 
(नकारात्मक प्रतिक्रिया) से बचाए तो मुसीबत उसके लिए बेहतरीन रब्बानी मुअल्लिम (शिक्षक) 
बन जाएगी। 


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ऐ ईमान वालो, तुम्हारी कुछ बीवियां और कुछ औलाद तुम्हारे दुश्मन हैं, पस तुम उनसे 
होशियार रहो, और अगर तुम माफ कर दो और दरगुजर करो और बख्श दो तो अल्लाह 
बख्शने वाला, रहम करने वाला है। तुम्हारे माल और तुम्हारी औलाद आजमाइश की चीज 
हैं, और अल्लाह के पास बहुत बड़ा अज्र है। पस तुम अल्लाह से डरो जहां तक हो सके। 


और सुनो और मानो और खर्च करो, यह तुम्हारे लिए बेहतर है, और जो शख्स दिल की 
तंगी से महफूज रहा तो ऐसे ही लोग फलाह (कल्याण, सफलता) पाने वाले हैं। अगर तुम 








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सूरह65. अत-्तलाक I45] पारा 28 
अल्लाह को अच्छा कर्ज दोगे तो वह उसे तुम्हारे लिए कई गुना बढ़ा देगा और तुम्हें बख्श 

देगा, और अल्लाह कद्रदां है, बुर्दबार (उदार) है। गायब और हाजिर को जानने वाला है, 
जबरदस्त है, हकीम (तत्वदर्शी) है। (4-8) 





इंसान को सबसे ज्यादा तअल्लुक अपनी औलाद से होता है। आदमी हर दूसरे मामले 
में उसूल की बातें करता है मगर जब अपनी औलाद का मामला आता है तो वह बेउसूल बन 
जाता है। इसीलिए हदीस में इर्शाद हुआ है कि औलाद किसी आदमी को बुजदिली और बुख् 
(कंजूसी) पर मजबूर करने वाले हैं। इसी तरह एक और हदीस में इर्शाद हुआ है कि कियामत 
के दिन एक शख्स को लाया जाएगा, फिर कहा जाएगा कि इसके बीवी बच्चे इसकी नेकियां 
खा गए। 

इंसान अपने बच्चों की खातिर अल्लाह की राह में खर्च नहीं करता हालांकि अगर वह 
अल्लाह की राह में ख़र्च करे तो मुख्तलिफ शक्लों में अल्लाह उसकी तरफ उससे बहुत ज्यादा 
लौटाएगा जितना उसने अल्लाह की राह में दिया था। 


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(मदीना में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
ऐ पेग़म्बर, जब तुम लोग औरतों को तलाक दो तो उनकी इददत पर तलाक दो और 
इद्दत को गिनते रहो, और अल्लाह से डरो जो तुम्हारा रब है। उन औरतों को उनके 


पारा 28 452 सूरह65. अत-तलाक 
घरों से न निकालो और न वे ख़ुद निकलें, इल्ला यह कि वे कोई खुली बेहयाई करें, 
और ये अल्लाह की हदें हैं, और जो शख्स अल्लाह की हदों से तजावुज करेगा तो उसने 
अपने ऊपर जुल्म किया, तुम नहीं जानते शायद अल्लाह इस तलाक के बाद कोई नई 

सूरत पैदा कर दे। फिर जब वे अपनी मुद्दत को पहुंच जाएं तो उन्हें या तो मारूफ (भली 
रीति) के मुताबिक रख लो या मारूफ के मुताबिक उन्हें छोड़ दो और अपने में से दो 

मोतबर गवाह कर लो और ठीक-ठीक अल्लाह के लिए गवाही दो। यह उस शख्स को 
नसीहत की जाती है जो अल्लाह पर और आखिरत के दिन पर ईमान रखता हो। और 
जो शख्स अल्लाह से डरेगा, अल्लाह उसके लिए राह निकालेगा, और उसे वहां से रिज्क 

देगा जहां उसका गुमान भी न गया हो, और जो शख्स अल्लाह पर भरोसा करेगा तो 
अल्लाह उसके लिए काफी है, बेशक अल्लाह अपना काम पूरा करके रहता है, अल्लाह 

ने हर चीज के लिए एक अंदाजा टहरा रखा है। (-3) 





इस्लाम में अपरिहार्य हालात के तौर पर तलाक की इजाजत दी गई है। ताहम इसका 
एक तरीकेकार मुरकर किया गया है जो ख़ास वके के दर्मियान पूरा होता है। इस तरह 
तलाक के अमल को कुछ हदों का पाबंद कर दिया गया है। इन हदों का मकसद यह है कि 
दोनों पक्षों के दर्मियान आखिर वक्‍त तक वापसी का मौका बाकी रहे। और तलाक का वाकया 
किसी किस्म के ख़नदानी या समाजी फसाद का जरिया न बने। वही तलाक इस्लामी तलाक 
है जिसके पूरे अमल के दौरान ख़ुदा के ख़ौफ की रूह जारी व सारी रहे। 


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और तुम्हारी औरतों में से जो हैज (मासिक धर्म) से मायूस हो चुकी हैं, अगर तुम्हें शुबह 
हो तो उनकी इद्दत तीन महीने है। और इसी तरह उनकी भी जिन्हें हेज नहीं आया, 
और हामिला (गर्भवती) औरतों की इद्दत उस हमल का पैदा हो जाना है, और जो शख्स 
अल्लाह से डरेगा, अल्लाह उसके लिए उसके काम में आसानी कर देगा। यह अल्लाह 


का हुक्म है जो उसने तुम्हारी तरफ उतारा है, और जो शख्स अल्लाह से डरेगा अल्लाह 
उसके गुनाह उससे दूर कर देगा और उसे बड़ा अज्र देगा। (4-5) 





























शरीअत ने तलाक और दूसरे मामलात में इंसान को कुछ जवाबित (नियमों) का पाबंद 
किया है। ये जवाबित बजाहिर इंसान की आजादाना तबीअत के लिए रुकावट हैं। मगर 


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सूरह65. अतःतलाक I453 
हकीकत के एतबार से ये नेमत हैं। इन जवाबित का यह फायदा है कि आदमी बहुत से गैर 
जरूरी नुसानात से बच जाता है। मजीद यह कि इस दुनिया का निजाम इस तरह बना है 
कि यहां हर नुक्सान की तलाफी (क्षतिपूर्ति) किसी न किसी तरह की जाती है। ताहम यह 
तलाफी सिर्फ उस शख्स के हिस्से में आती है जो फितरत के दायरे से बाहर न जाए 


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तुम उन औरतों को अपनी वुस्अत (हैसियत) के मुताबिक रहने का मकान दो जहां तुम 
रहते हो और उन्हें तंग करने के लिए उन्हें तकलीफ न पहुंचाओ, और अगर वे हमल 
(गर्भ) वालियां हों तो उन पर ख़र्च करो यहां तक कि उनका हमल पैदा हो जाए। फिर 
अगर वे तुम्हारे लिए दूध पिलाएं तो उनकी उजरत (पारिश्रमिक) उन्हें दो। और तुम 
आपस में एक दूसरे को नेकी सिखाओ। और अगर तुम आपस में जिद करो तो कोई 
और औरत दूध पिलाएगी। चाहिए कि वुस्अत वाला अपनी वुस्अत के मुताबिक खर्च 
करे और जिसकी आमदनी कम हो उसे चाहिए कि अल्लाह ने जितना उसे दिया है उसमें 
से ख़र्च करे। अल्लाह किसी पर बोझ नहीं डालता मगर उतना ही जितना उसे दिया 
है, अल्लाह सख्ती के बाद जल्द ही आसानी पेदा कर देता है। (6-7) 


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इस्लाम में यह मत्लूब है कि आदमी मामलात में फरीके सानी (दूसरे पक्ष) के साथ 
फराख़दिली का तरीका इख््ियार करे। वह सब्र के साथ ख़िलाफे मिजाज बातों को सहे। 
नागवारियों के बावजूद दूसरे का हक अदा करे। जब आदमी ऐसा करता है तो वह सिर्फ 
फरीके सानी के लिए अच्छा नहीं करता बल्कि वह ख़ुद अपने लिए भी अच्छा करता है। इस 
तरह वह अपने अंदर हवीक्तपसंदी का मिजाज पेदा करता है और हवीक्तपसंदी का मिजज 
बिलाशुबह इस दुनिया में कामयाबी का सबसे बड़ा जीना है। 


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और बहुत सी बस्तियां हैं जिन्होंने अपने रब और उसके रसूलों के हुक्म से सरताबी 
(विमुखता) की, पस हमने उनका सख्त हिसाब किया और हमने उन्हें हीलनाक सजा 
दी। पस उन्होंने अपने किए का वबाल चखा और उनका अंजामकार ख़सारा (घाटा) 
हुआ। अल्लाह ने उनके लिए एक सख्त अजाब तैयार कर रखा है। पस अल्लाह से डरो, 

ऐ अक्ल वालो जो कि ईमान लाए हो। अल्लाह ने तुम्हारी तरफ एक नसीहत उतारी 

है, एक रसूल जो तुम्हें अल्लाह की खुली-खुली आयतें पढ़कर सुनाता है। ताकि उन 
लोगों को तारीकियों से रोशनी की तरफ निकाले जो ईमान लाए और उन्होंने नेक अमल 
किया। और जो शख्स अल्लाह पर ईमान लाया और नेक अमल किया उसे वह ऐसे 
बाग्रों में दाखिल करेगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी, वे उनमें हमेशा रहेंगे, अल्लाह 
ने उसे बहुत अच्छी रोजी दी। (8-7]) 





ताकि अहले ईमान को तारीकी से निकाल कर रोशनी में ले आए। इस मौके पर यह बात 
आइली (पारिवारिक) कानून के बारे में है। कदीम जमाने में सारी दुनिया में तवहहुमात 
(अंधविश्वास) का ग़लबा था। तरह-तरह के तवहहुमाती अकाइद ने मर्द और औरत के 
तअल्लुकात को गैर फितरी बुनियादों पर कायम कर रखा था। कुरआन ने इन तवहहुमातों को 
ख़त्म किया और दुबारा मर्द और औरत के तअल्लुकात को फितरत की बुनियाद पर कायम 
किया । इस इंतिजाम के बाद भी जो लोग इस्लाही रास्ते को इख्तियार न करें उनके लिए ख़ुदा 
की दुनिया में घाटे के सिवा और कुछ नहीं। 

'अक्ल वालो अल्लाह से डरो' का फिकरा बताता है कि तकवे का सरचश्मा (मूल स्रोत) 
अक्ल है। आदमी अपने अक्ल व शुऊर को काम में लाकर ही उस दर्जे को हासिल करता है 
जिसे शरीअत में तकवा (परहेजगारी, ख़ेफे खुदा) कहा गया है। 

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सूरह-66. अत-तहरीम I455 पारा 28 
अल्लाह ही है जिसने बनाए सात आसमान और उन्हीं की तरह जमीन भी। उनके अंदर 
उसका हुक्म उतरता है, ताकि तुम जान लो कि अल्लाह हर चीज पर कादिर है। और 
अल्लाह ने अपने इलम से हर चीज का इहाता (आच्छादन) कर रखा है। (।2) 


'व मिनल अरजि मिस-ल हुन्न०' से मुराद अगर सात जमीने हैं तो इल्मुल अफलाक 
(आकाशीय विज्ञान) अभी तक इस तादाद को दरयाफ्त नहीं कर सका है। इंसानी मालूमात 
के मुताबिक, इस तहरीर (लेखन) के वक़्त तक मौजूदा जमीन सारी कायनात में एक इस्तिसना 
(अपवाद) है। इसलिए यह अल्लाह को मालूम है कि इस आयत का वाकई मतलब क्या है। 

'ताकि तुम जानो कि अल्लाह हर चीज पर कादिर है। इससे मालूम होता है अल्लाह को 
इंसान से अस्लन जो चीज मत्लूब है वह 'इल्म' है, यानी जाते ख़ुदावंदी का शुऊर। कायनात 
का अजीम कारखाना इसलिए बनाया गया है कि इंसान उसके जरिए ख़ालिक को पहचाने, वह 
उसके जरिए खुदा की बेपायां (असीम) कुरत की मअसन्न (अन्तज्ञान) हासिल करे। 


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आयतें-2 सूरह-66. अत-तहरीम रुकूअ-2 
(मदीना में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
ऐ नबी तुम क्यों उस चीज को हराम करते हो जो अल्लाह ने तुम्हारे लिए हलाल की 
है, अपनी बीवियों की रिजामंदी चाहने के लिए, और अल्लाह बख़्शने वाला महरबान 
है। अल्लाह ने तुम लोगों के लिए तुम्हारी कसमाँ का खोलना मुक्रर कर दिया है, और 
अल्लाह तुम्हारा कारसाज है, और वह जानने वाला, हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। 


(I-2) 


बीवियों के पैदा करदा कुछ अंदरूनी मसाइल की वजह से अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु 
अलैहि व सल्लम ने अपने घर में यह कसम खा ली कि मैं शहद नहीं खाऊंगा। मगर पैगम्बर 
का अमल उसकी उम्मत के लिए नमूना बन जाता है, इसलिए अल्लाह तआला ने हुक्म दिया 
कि आप शरई तरीकेके मुताबिक कफ्फरा (प्रायश्चित) अदा करके अपनी कसम को तोड़ दें। 
और शहद न खाने के अहद से अपने आपको आजाद कर लें। ताकि ऐसा न हो कि आइंदा 
आपके उम्मती इसे तकवे का मेयार समझ कर शहद खाने से परहेज करने लगें। 





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और जब नबी ने अपनी किसी बीवी से एक बात छुपा कर कही, तो जब उसने उसे 
बता दिया और अल्लाह ने नबी को उससे आगाह कर दिया तो नबी ने कुछ बात बताई 
और कुछ टाल दी, फिर जब नबी ने उसे यह बात बताई तो उसने कहा कि आपको 
किसने इसकी ख़बर दी। नबी ने कहा कि मुझे बताया जानने वाले ने, बाख़बर ने। 
अगर तुम दोनों अल्लाह की तरफ रुजूअ करो तो तुम्हारे दिल झुक पड़े हैं, और अगर 
तुम दोनों नबी के मुकाबले में कााइयां करोगी तो उसका रफीक (साथी) अल्लाह है 
और जिब्रील और सालेह (नेक) अहले ईमान और इनके अलावा फरिश्ते उसके मददगार 
हैं। अगर नबी तुम सबको तलाक दे दे तो उसका रब तुम्हारे बदले में तुमसे बेहतर 


बीवियां उसे दे दे, मुस्लिमा, बाईमान, फरमांबरदार, तोबा करने वाली, इबादत करने 
वाली, रोजेदार, विधवा और कुंवारी। (3-5) 


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मज्कूरा मामले में अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की कुछ अजवाज 
(पत्नियों) ने आपके घर में जो पेचीदगी पैदा की थी, उस पर मुतनब्बह करने के लिए आपकी 
अजवाज से अल्टीमेटम के अंदाज में कलाम किया गया। इससे जिंदगी के मामलात में औरतों 
की अहमियत मालूम होती है। हकीकत यह है कि औरतें अगर सही मञनों में अपने शोहरों 
कीफिन्न (सहयोग) करें तो वे उनका “आधा बेहतर” बन जाती हैं। और अगर वे सच्ची 
रफीक साबित न हों तो वे एक बामक्सद इंसान के पूरे मंसूबे को ख़ाक में मिला सकती हैं। 


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सूरह-66. अत-तहरीम I457 पारा 28 


ऐ ईमान वालो अपने आपको और अपने घर वालों को उस आग से बचाओ जिसका 
ईधन आदमी और पत्थर होंगे, उस पर तुंदख़ (कठोर) और जबरदस्त फरिश्ते मुकर हैं, 

अल्लाह उन्हें जो हुक्म दे उसमें वे उसकी नाफरमानी नहीं करते, और वे वही करते हैं 
जिसका उन्हें हुक्म मिलता है। ऐ लोगो जिन्होंने इंकार किया, आज उज्ज न पेश करो, 
तुम वही बदले में पा रहे हो जो तुम करते थे। (6-7) 





मौजूदा दुनिया में अक्सर ऐसा होता है कि आदमी एक चीज को हक समझता है। मगर 
बीवी बच्चों से बढ़ा हुआ तअल्लुक उसे मजबूर करता है कि वह हक के तरीके को छोड़ दे 
और वही करे जो उसके बीवी-बच्चे चाहते हैं। मगर यह जबरदस्त भूल है। इंसान को याद 
रखना चाहिए कि आज जिन बच्चों की रिआयत करने में वह इस हद तक जाता है कि हक 
की रिआयत करना भूल जाता है, वे बच्चे अपनी इस रविश के नतीजे में कल ऐसे जहन्नमी 
कारिंदों के हवाले किए जाएंगे जो मशीनी इंसान (२०४०६) की तरह बेरहम होंगे और उनके 
साथ किसी किस्म की कोई रिआयत नहीं करेंगे। 


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ऐ ईमान वालो, अल्लाह के आगे सच्ची तोबा करो। उम्मीद है कि तुम्हारा रब तुम्हारे 
गुनाह माफ कर दे और तुम्हें ऐसे बागों में दाखिल करे जिनके नीचे नहरें बहती होंगी, 
जिस दिन अल्लाह नबी को और उसके साथ ईमान लाने वालों को रुसवा नहीं करेगा। 
उनकी रोशनी उनके आगे और उनके दाई तरफ दौड़ रही होगी, वे कह रहे होंगे कि 
ऐ हमारे रब हमारे लिए हमारी रोशनी को कामिल कर दे और हमारी मग्फिरत फरमा, 

बेशक तू हर चीज पर कादिर है। (8) 





मौजूदा दुनिया में इंसान को आजमाइशी हालात में रखा गया है। इसलिए इंसान से 
गलतियां भी होती हैं। उसकी तलाफी के लिए तौबा है। यानी अल्लाह की तरफ रुजूअ 
करना। तौबा की अस्ल हकीकत शर्मिदगी है। आदमी को अगर वाकेयतन अपनी गलती का 
एहसास हो तो वह सख्त शर्मिंदा होगा और उसकी शर्मिंदगी उसे मजबूर करेगी कि वह आइंदा 
ऐसा फेअल न करे। चुनांचे हदीस में आया है कि शर्मिदगी ही तौबा है। एक सहाबी ने कहा 
है कि सच्ची तौबा यह है कि आदमी रुजूअ करे और फिर उस फेअल को न दोहराए। 

तौबा वह है जो सच्ची तौबा (तोबतुन नसूह) हो। महज अल्फाज दोहरा देने का नाम 





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पारा 28 I458 सूरह-66. अत-तहरीम 
तोबा नहीं। हजरत अली ने एक शख्स को देखा कि वह अपनी किसी गलती के बाद जबान 

से तौबा तौबा कह रहा है। आपने फरमाया कि यह झूठे लोगों की तौबा है। सच्ची तौबा 
आखिरत की रोशनी है और झूठी तौबा आख़िरत का अंधेरा। 


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ऐ नबी मुंकिरों और मुनाफिकों (पाखंडियों) से जिहाद करो और उन पर सख्ती करो, 

और उनका ठिकाना जहन्नम है और वह बुरा ठिकाना है। अल्लाह मुंकिरों के लिए 
मिसाल बयान करता है नूह की बीवी की और लूत की बीवी की, दोनों हमारे बदों 
में से दो नेक बंदों के निकाह में थीं, फिर उन्होंने उनके साथ ख़ियानत की तो वे दोनों 
अल्लाह के मुकाबले में उनके कुछ काम न आ सके, और दोनों को कह दिया गया कि 
आग में दाखिल हो जाओ दाखिल होने वालों के साथ। (9-0) 


'मुनाफिकीन के साथ जिहाद करों! का मतलब यह है कि मुनाफिकीन का सरन 
अहतसाब करो। यह एक दाइमी हुक्म है। मुआशिरे के बड़ों और जिम्मेदारों को चाहिए कि 
वे मुआशिरे के अफराद पर मुस्तकिल नजर रखें। और जब भी कोई मुसलमान गलत रविश 
इख्तियार करे तो उसे रोकने की वे हर मुमकिन कोशिश करें जो उनके इम्कान में है। 
ख़ुदा के यहां आदमी का सिफ अपना अमल काम आएगा यहां तक कि बुजुर्गों से 
निस्बत या सालिहीन से रिश्तेदारी भी वहां किसी के कुछ काम आने वाली नहीं। हजरत नूह 
और हजरत लूत खुदा के पैगम्बर थे। मगर उनकी बीवियां दुश्मनाने हक से भी कल्बी 
तअल्लुक का रिश्ता कायम किए हुए थीं। इसका नतीजा यह हुआ कि पैगम्बर की बीवी होने 
के बावजूद वे दोजूइ की मुस्तहिक करार पाईं। 


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और अल्लाह ईमान वालों के लिए मिसाल बयान करता है फिरऔन की बीवी की, 








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सूरह-67. अल-मुल्क I459 पारा 29 
जबकि उसने कहा कि ऐ मेरे रब, मेरे लिए अपने पास जन्नत में एक घर बना दे और 
मुझे फिरऔन और उसके अमल से बचा ले और मुझे जालिम कम से नजात दे। और 

इमरान की बेटी मरयम, जिसने अपनी अस्मत (सतीत्व) की हिफाजत की, फिर हमने 

उसमें अपनी रूह फूंक दी और उसने अपने रब के कलिमात की और उसकी किताबों 
की तस्दीक की, और वह फरमांबरदारों में से थी। (-2) 


फिरऔन एक मुंकिर और जालिम शख्स था। मगर उसकी बीवी आसिया बिन्त मुजाहिम 
ईमानदार और बाअमल खातून थी। बीवी ने जब अपने आपको सही रविश पर कायम रखा 
तो शोहर की ग़लत रविश उसे कुछ नुक्सान न पहुंचा सकी। शोहर जहन्नम में दाखिल किया 
गया और बीवी को जन्नत के बाग़ों में जगह मिली। 

अहसनत फरजहा दरअस्ल किनाया (संकेत) है। इसका मतलब यह है कि उन्होंने अपनी 
अस्मत (सतीत्व) को महफूज रखा। बचपन से जवानी तक वह पूरी तरह बेदाग़ रहीं। चुनांचे 
अल्लाह ने उन्हें मोजिजाती पैगम्बर की पैदाइश के लिए चुना। कुछ रिवायात के मुताबिक, 
जिब्रील फरिश्ते ने उनके गिरेबान में फूंक मारी, जिससे इस्तकरारे हमल (गर्भ का ठहरना) हुआ 
और फिर हजरत मसीह अलैहिस्सलाम पैदा हुए 


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आयतें-30 सूरह-67. अल-मुल्क रुकूअ-2 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
बड़ा बाबरकत है वह जिसके हाथ में बादशाही है और वह हर चीज पर कादिर है। जिसने 


मौत और जिंदगी को पेदा किया ताकि तुम्हें जांचे कि तुम में से कौन अच्छा काम करता 
है, और वह जबरदस्त है, बख़्शने वाला है। जिसने बनाए सात आसमान ऊपर तले, 





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पारा 29 460 सूरह-67. अल-मुल्क 
तुम रहमान के बनाने में कोई खलल (असंगति) नहीं देखोगे, फिर निगाह डाल कर देख 
लो, कहीं तुम्हें कोई खलल नजर आता है। फिर बार-बार निगाह डाल कर देखो, निगाह 
नाकाम थक कर तुम्हारी तरफ वापस आ जाएगी। (-4) 





जब एक शख्स मौजूदा दुनिया का मुतालआ करता है तो उसे यहां एक तजाद (असंगति) 
नजर आता है। इंसान के सिवा जो बकिया कायनात है वह इंतिहाई हद तक मुनज्जम और 
कामिल है। उसमें कहीं कोई नवस नजर नहीं आता। इसके बरअक्स इंसानी जिंदगी में जुम व 
फसाद नजर आता है। इसकी वजह इंसान की अलाहदा (पृथक) नौइयत है। इंसान इस दुनिया 
में हालते इम्तेहान में है। इम्तेहान लाजिमी तौर पर अमल की आजादी चाहता है। इसी अमल 
की आजादी ने इंसान को यह मौका दिया है कि वह दुनिया में जुम व फसाद कर सके। 
इंसानी दुनिया का जुल्म इंसानी आजादी की कीमत है। अगर ये हालात न हों तो उन 
कीमती इंसानों का इंतख़ाब कैसे किया जाएगा जिन्होंने जुल्म के मौके पाते हुए जुल्म नहीं 
किया। जिन्होंने सरकशी की ताकत रखने के बावुजूद अपने आपको सरकशी से बचाया। 


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और हमने करीब के आसमान को चराग़ों से सजाया है। और हमने उन्हें शैतानों के 
मारने का जरिया बनाया है। और हमने उनके लिए दोजख़ का अजाब तैयार कर रखा 

है। और जिन लोगों ने अपने रब का इंकार किया, उनके लिए जहन्नम का अजाब है। 
और वह बुरा ठिकाना है। जब वे उसमें डाले जाएंगे, वे उसका दहाड़ना सुनेंगे और वह 
जोश मारती होगी, मालूम होगा कि वह गुस्से में फट पड़ेगी। जब उसमें कोई गिरोह 
डाला जाएगा, उसके दारोग़ा उससे पूछेंगे, क्या तुम्हारे पास कोई डराने वाला नहीं 
आया। वे कहेंगे कि हां, हमारे पास डराने वाला आया। फिर हमने उसे झुठला दिया 
और हमने कहा कि अल्लाह ने कोई चीज नहीं उतारी, तुम लोग बड़ी गुमराही में पड़े 
हुए हो। और वे कहेंगे कि अगर हम सुनते या समझते तो हम दोजख़ वालों में से न 
होते। पस वे अपने गुनाह का इकरार करेंगे, पस लानत हो दोजख़ वालों पर। (5-]) 





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सूरह-67. अल-मुल्क I46] पारा 29 


कुरआन में जगह-जगह जहन्नम का नक्शा खींचा गया है। यह जहन्नम अगरचे आज 
इंसान के लिए नाकाबिले मुशाहिदा (अ-अवलोकनीय) है। मगर वह कायनात की मअनवियत 
में बिलवास्ता (परोक्ष) तौर पर नजर आती है। हकीकत यह है कि अगर आखिरत में बुरे लोगों 
की पकड़ न होने वाली हो तो मौजूदा कायनात की सारी मअनवियत नाकाबिले तौजीह 
औचित्यहीन) होकर रह जाएगी। 


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जो लोग अपने रब से बिन देखे डरते हैं, उनके लिए मग्फिरत (क्षमा) और बड़ा अज्र 
(प्रतिफल) है। और तुम अपनी बात छुपाकर कहो या पुकार कर कहो, वह दिलों तक 


की बातों को जानता है। क्या वह न जानेगा जिसने पैदा किया है, और वह बारीकबीं 
(सूक्ष्मदर्शी) है, ख़बर रखने वाला है। (2-4) 





आखिरत के अजाब का मौजूदा दुनिया में नाकाबिले मुशाहिदा (अ-अवलोकनीय) होना 
ऐन ख़ुदाई मंसूबे के मुताबिक है। खुदा को उन इंसानों का इंतख़ाब करना है जो बिना देखे 
उसकी अज्मत को मानें, जो बिना देखे उसके फरमांबरदार बन जाएं। और ऐसे लोगों का 
अंदाजा इसके बगैर नहीं हो सकता कि लोगों के उख़रवी (परलोक के) अंजाम को उनकी 
निगाहों से ओझल रखा जाए, ताकि आदमी जो कुछ करे अपने आजाद इरादे के तहत करे 
न कि मजबूराना हुक्म के तहत। 


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वही है जिसने जमीन को तुम्हारे लिए पस्त वशीभूत कर दिया तो तुम उसके रास्तों में 
चलो और उसके रकि में से खाओ और उसी की तरफ है उठना। क्या तुम उससे वेखेफ 

हो गए जो आसमान में है कि वह तुम्हें जमीन में थंसा दे, फिर वह लरजने लगे। क्या 

तुम उससे जो आसमान में है बेख़ोफ हो गए कि वह तुम पर पथराव करने वाली हवा 
भेज दे, फिर तुम जान लो कि कैसा है मेरा डराना। और उन्होंने झुठलाया जो उनसे पहले 
थे। तो कैसा हुआ मेरा इंकार। (5-8) 


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पारा 29 462 सूरह-67. अल-मुल्क 


जमीन पर हर चीज निहायत तवाजुन (संतुलन) की हालत मेंहै। इसी तवाु ने जमीन 
को इंसान के लिए काबिले रिहाइश बना रखा है। इस तवाजुन में अगर मामूली सा भी फर्क 
पड़ जाए तो इंसान की जिंदगी बर्बाद होकर रह जाए। जो मुतवाजुन (संतुलित) दुनिया हमें 
हासिल है उस पर अल्लाह का शुक्र अदा करना, और तवाजुन टूटने की सूरत में जो तबाहकुन 
हालात पेदा हो सकते हैं उसके लिए अल्लाह से पनाह मांगना, यही वह चीज है जो इंसान से 
अल्लाह तआला को मत्लूब है। 


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क्या वे परिंदों को अपने ऊपर नहीं देखते पर फैलाए हुए और वे उन्हें समेट भी लेते 
हैं। रहमान के सिवा कोई नहीं जो उन्हें थामे हुए हो, बेशक वह हर चीज को देख रहा 
है। आख़िर कौन है कि वह तुम्हारा लश्कर बनकर रहमान के मुकाबले में तुम्हारी मदद 
कर सके, इंकार करने वाले धोखे में पड़े हुए हैं। आख़िर कौन है जो तुम्हें रोजी दे अगर 
अल्लाह अपनी रोजी रोक ले, बल्कि वे सरशकी पर और बिदकने पर अड़ गए हैं। 
(I9-2]) 


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पर्तिंका फज मेंउड्ना, सकि का जमीन से निकलना और इस तरह के दूसरे वाकेग्रात 
इंतिहाई हैरतअंगेज हैं। आदमी इन वाकेयात पर गौर करे तो वह खुदाई एहसास में गुम हो 
जाए। मगर इंसान इतना गाफिल है कि वह एक ऐसी दुनिया में खुदा से सरकशी करता है 
जहां उसके चारों तरफ फैली हुई चीजें उसे सिर्फ खुदा की इताअत का सबक दे रही हैं। 
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क्या जो शख्स औंधे मुंह चल रहा है वह ज्यादा सही राह पाने वाला है या वह शख्स 
जो सीधा एक सीधी राह पर चल रहा है। कहो कि वही है जिसने तुम्हें पैदा किया और 
तुम्हारे लिए कान और आंख और दिल बनाए। तुम लोग बहुत कम शुक्र अदा करते 
हो। कहो कि वही है जिसने तुम्हें जमीन में फेलाया और तुम उसी की तरफ इकट्ठा 


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सूरह-67. अल-मुल्क 463 पारा 29 
किए जाओगे। (2१-24) 





इंसान को सुनने और देखने और सोचने की सलाहियतें दी गई हैं। अब कोई इंसान वह 
है कि जो कुछ सुना उसी पर चल पड़ा, जो देखा उसे बस उसके जाहिर के एतबार से मान 
लिया। जो बात एक बार जेहन में आ गई उसी पर जम गया। यह इंसान वह है जो जानवर 
की तरह सर झुकाए हुए बस एक डगर पर चला जा रहा है। 

दूसरा इंसान वह है जो सुनी हुई बात की तहकीक करे। जो देखी हुई बात को मजीद ज्यादा 
सेहत के साथ जानने की कोशिश करे। जो अपने जाती खोल से बाहर निकल कर सच्चाई को 
दरयाफ्त करे। यह दूसरा इंसान वह है जो सीधा होकर एक हमवार रास्ते पर चला जा रहा है। 
समअ व बसर व फुवाद (सुनना, देखना, सोचना) की सलाहियत आदमी को इसलिए दी गई है 
कि वह हक को पहचाने, न यह कि वह अंधे बहरे की तरह उससे बेख़बर रहे। 


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और वे कहते हैं कि यह वादा कब होगा अगर तुम सच्चे हो। कहो कि यह इल्म अल्लाह 
के पास है और में सिर्फ खुला हुआ डराने वाला हूं। पस जब वे उसे करीब आता हुआ 
देखेंगे तो उनके चेहरे बिगड़ जाएंगे जिन्होंने इंकार किया, और कहा जाएगा कि यही 
है वह चीज जिसे तुम मांगा करते थे। कहो कि अगर अल्लाह मुझे हलाक कर दे और 
उन लोगों को जो मेरे साथ हैं, या हम पर रहम फरमाए तो मुंकिरों को दर्दनाक अजाब 
से कौन बचाएगा। कहो, वह रहमान है, हम उस पर ईमान लाए और उसी पर हमने 
भरोसा किया। पस अनकरीब तुम जान लोगे कि खुली हुई गुमराही में कौन है। कहो 


कि बताओ, अगर तुम्हारा पानी नीचे उतर जाए तो कौन है जो तुम्हारे लिए साफ पानी 
ले आए। (25-30) 





मुखातब जब दलील से न माने तो दाजी यकीन का कलिमा बोलकर उसके अंदरून को 
झिंझोड़ता है। ये आयतें गोया इसी किस्म के यकीन के कलिमात हैं। आदमी के अंदर अगर 


पारा 29 464 सूरह68. अल-कलम 
कुछ भी एहसास जिंदा हो तो यह आखिरी कलिमात उसे तड़पा देते हैं। मगर जिस शख्स का 
एहसास बिल्कुल बुझ चुका हो वह किसी तदबीर से भी नहीं जागता। वह “पानी' की कीमत 
को सिर्फ उस वक्त तस्लीम करता है जबकि उसे पानी से महरूम करके सहरा (रेगिस्तान) में 
डाल दिया गया हो। 


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आयतें-52 सूरह68. अल-कलम रुकूअ-2 

(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

जून०। कसम है कलम की और जो कुछ लोग लिखते हैं। तुम अपने रब के फज्ल से 
दीवाने नहीं हो। और बेशक तुम्हारे लिए अज्र (प्रतिफल) है कभी ख़त्म न होने वाला। 
और बेशक तुम एक आला अख्ल्ाक (उच्च चरित्र-आचरण) पर हो। पस अनकरीब तुम 
देखोगे और वे भी देखेंगे, कि तुम में से किसे जुनून था। तुम्हारा रब ही ख़ूब जानता 


है, जो उसकी राह से भटका हुआ है, और वह राह पर चलने वालों को भी खूब जानता 
है। (-7) 


आला अख्लाक से मुराद वह अख्लाक है जबकि आदमी दूसरों के रवैये से बुलन्द होकर 
अमल करे। उसका तरीका यह न हो कि बुराई करने वालों के साथ बुराई और भलाई करने 
वालों के साथ भलाई, बल्कि वह हर एक के साथ भलाई करे, चाहे दूसरे उसके साथ बुराई 
ही क्यों न कर रहे हों। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का अख्लाक यही दूसरा 
अख़्ताक था। इस किस्म का अख़्ताक साबित करता है कि आप एक बाउसूल इंसान थे। 
आपकी शख्सियत हालात की पैदावार न थी। बल्कि ख़ुद अपने आला उसूलों की पैदावार थी। 
आपका यह आला अख्नाक आपके इस दावे के ऐन मुताबिक है कि मैं खुदा का रसूल हूं। 

वल कल-मि वमा यसतुरून० से मुराद तारीख़ी रिकॉर्ड है। तारीख की शक्ल में इंसानी 
याददाश्त का जो रिकॉर्ड जमा हुआ है उसमें कुरआन एक इस्तसनाई (अद्वितीय) किताब है। 
और साहिबे कुरआन एक इस्तसनाई शख्सियत । इस इस्तसना की इसके सिवा और कोई 
तौजीह नहीं की जा सकती कि कुरआन को खुदा की किताब माना जाए। और मुहम्मद 
सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को ख़ुदा का पैग़म्बर। 











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सूरह68. अल-कलम I465 पारा 29 

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पस तुम इन झुटलाने वालों का कहना न मानो। वे चाहते हैं कि तुम नर्म पड़ जाओ 
तो वे भी नर्म पड़ जाएं। और तुम ऐसे शख्स का कहना न मानो जो बहुत कसमें खाने 
वाला हो, बेवक्अत (हीन) हो, ताना देने वाला हो, चुगली लगाता फिरता हो, नेक काम 

से रोकने वाला हो, हद से गुजर जाने वाला हो, हक मारने वाला हो, संगदिल हो, साथ 

ही बेनस्ब (अधम) हो। इस सबब से कि वह माल व औलाद वाला है। जब उसे हमारी 
आयतें पढ़कर सुनाई जाती हैं तो कहता है कि ये अगलों की बेसनद बातें हैं। अनकरीब 
हम उसकी नाक पर दाग़ लगाएंगे। (8-6) 





'झुठलाने वालों का कहना न मानो” का मतलब यह है कि झुठलाने वाले इस काबिल नहीं 
कि उनका कहना माना जाए। एक तरफ हक का अलमबरदार (ध्वजावाहक) है जो दलील पर 
खड़ा हुआ है, जिसके कौल व फेअल में कोई तजाद (अन्तर्विरोध) नहीं। दूसरी तरफ उसके 
मुखालिफीन हैं जिनके पास झूठी बातों और पस्त किरदार के सिवा और कोई सरमाया नहीं। 
दाऔए हक का एतमाद सदाकत पर है और उसके मुखालिफीन का एतमाद अपनी मादूदी 
हैसियत पर | हक का दाऔ उसूल का पाबंद है। इसके बरअक्स उसके मुख़ालिफीन के सामने 
कोई उसूल नहीं। वे कभी एक बात कहते हैं और कभी दूसरी बात। अगर किसी शख्स के 
अंदर अक्ल होतो यही फर्क यह बताने के लिए काफी है कि कौन शख हक पर है और कौन 


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पारा 29 I466 सूरह68. अल-कलम 


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हमने उन्हें आजमाइश (परीक्षा) में डाला है जिस तरह हमने बाग़ वालों को आजमाइश 

में डाला था। जबकि उन्होंने कसम खाई कि वे सुबह सवेरे जरूर उसका फल तोड़ लेंगे। 

और उन्होंने इंशाअल्लाह नहीं कहा। पस उस बाग़ पर तेरे रब की तरफ से एक फिरने 
वाला फिर गया और वे सो रहे थे। फिर सुबह को वह ऐसा रह गया जैसे कटी हुई 
फस्ल। पस सुबह को उन्होंने एक दूसरे को पुकारा कि अपने खेत पर सवेरे चलो अगर 
तुम्हें फल तोड़ना है। फिर वे चल पड़े और वे आपस में चुपके-चुपके कह रहे थे। कि 
आज कोई मोहताज तुम्हारे बाग़ में न आने पाए। और वे अपने को न देने पर कादिर 
समझ कर चले। फिर जब बाग़ को देखा तो कहा कि हम रास्ता भूल गए। बल्कि हम 
महरूम (वंचित) हो गए। उनमें जो बेहतर आदमी था उसने कहा, मैंने तुमसे नहीं कहा 
था कि तुम लोग तस्बीह क्यों नहीं करते। उन्होंने कहा कि हमारा रब पाक है। बेशक 
हम जालिम थे। फिर वे आपस में एक दूसरे को इल्जाम देने लगे। उन्होंने कहा, 
अफसोस है हम पर, बेशक हम हद से निकलने वाले लोग थे। शायद हमारा रब हमें 
इससे अच्छा बाग़ इसके बदले में दे दे, हम उसी की तरफ रुजूअ होते हैं। इसी तरह 
आता है अजाब, और आख़िरत का अजाब इससे भी बड़ा है, काश ये लोग जानते। 
(I7-33) 





इस दुनिया में आदमी जो कुछ कमाता है वह बजाहिर खेत से या और किसी चीज से 
मिलता हुआ नजर आता है। मगर हकीकतन वह खुदा का दिया हुआ होता है। जो शख्स उसे 
ख़ुदा का अतिया समझे और उसमें दूसरे बंदगाने खुदा का हिस्सा निकाले उसकी कमाई में 
अल्लाह तआला बरकत अता फरमाएगा। और जो शख्स अपनी कमाई को अपनी लियाकत 
का नतीजा समझे और दूसरों का हक उन्हें देने पर राजी न हो, उसकी कमाई उसे फायदा न 
दे सकेगी । यह खुदा का अटल कानून है। कभी वह किसी के लिए दुनिया में भी जाहिर हो 
जाता है और आहिरत में तो लाजिमन वह हर एक के हक में जाहिर होगा । 


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सूरह-68. अल-कलम I467 पारा 29 
बेशक डरने वालों के लिए उनके रब के पास नेमत के बाग़ हैं। क्या हम फरमांबरदारों 
(आज्ञाकारियों) को नाफरमानों के बराबर कर देंगे। तुम्हें क्‍या हुआ, तुम कैसा फैसला 

करते हो। क्या तुम्हारे पास कोई किताब है जिसमें तुम पढ़ते हो। उसमें तुम्हारे लिए 
वह है जिसे तुम पसंद करते हो। क्या तुम्हारे लिए हमारे ऊपर कसमें हैं कियामत तक 

बाकी रहने वाली कि तुम्हारे लिए वही कुछ है जो तुम फैसला करो। उनसे पूछो कि 

उनमें से कौन इसका जिम्मेदार है। क्या उनके कुछ शरीक हैं, तो वे अपने शरीकों को 
लाएं अगर वे सच्चे हैं। (34-4॥) 


ख़ुदा से न डरने वाला आदमी सिर्फ सामने की चीजों को अहमियत देता है। इसके 
मुकाबले में खुदा से डरने वाला वह है जो गैबी हकीकत (अप्रकट यथार्थ) के बारे में संजीदा 
हो जाए। ये दो बिल्कुल अलग-अलग किरदार हैं और दोनों का अंजाम यकीनी तौर पर यकसां 
नहीं हो सकता। 
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जिस दिन हकीकत से पर्दा उठाया जाएगा और लोग सज्दे के लिए बुलाए जाएंगे तो 
वे न कर सकेंगे। उनकी निगाहें झुकी हुई होंगी, उन पर जिल्लत छाई होगी, और वे 
सज्दे के लिए बुलाए जाते थे और सही सालिम थे। पस छोड़ो मुझे और उन्हें जो इस 


कलाम को झुठलाते हैं, हम उन्हें आहिस्ता-आहिस्ता ला रहे हैं जहां से वे नहीं जानते। 
और मैं उन्हें मोहलत दे रहा हूं, बेशक मेरी तदबीर मजबूत है। (42-45) 


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कियामत में जब ख़ुदा अयानन (प्रत्यक्षतः) सामने आ जाएगा तो तमाम ईमान वाले लोग 
अपने रब के सामने सज्दे में गिर जाएंगे जिस तरह वे पिछली जिंदगी में उसके आगे सज्दे में 
गिरे हुए थे। मगर जुहूर खुदावंदी के वक्त सज्दे की यह तैफीक सिर्फ सच्चे मोमिनीन को 
हासिल होगी। जो लोग दुनिया में झूठा सज्दा करते थे उनकी कमर उस वकत अकड़ जाएगी 
जिस तरह बाएतबार हकीकत वह दुनिया में अकड़ी हुई थी। ऐसे लोग सज्दा करना चाहेंगे 
मगर वे सज्दा न कर सकेंगे। यह मुख्लिस अहले ईमान की सबसे बड़ी कद्रदानी होगी कि ख़ुदा 
खुद जाहिर होकर उनका सज्दा कुबूल करे। इसके मुकाबले में ईमान का झूठा दावा करने 
वालों के लिए यह सबसे ज्यादा रुसवाई का लम्हा होगा कि उनका ख़ालिक व मालिक उनके 
सामने है और वे उसके सामने अपनी बंदगी का इकरार करने पर कादिर नहीं। 





पारा 29 I468 सूरह68. अल-कलम 


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क्या तुम उनसे मुआवजा मांगते हो कि वे उसके तावान से दबे जा रहे हैं। या उनके 
पास ग़ैब है पस वे लिख रहे हैं। पस अपने रब के फैसले तक सब्र करो और मछली 
वाले की तरह न बन जाओ, जब उसने पुकारा और वह ग़म से भरा हुआ था। अगर 
उसके रब की महरबानी उसके शामिलेहाल न होती तो वह मज्मूम (निंदित) होकर 
चटयल मैदान में फेंक दिया जाता। फिर उसके रब ने उसे नवाजा, पस उसे नेकों में 
शामिल कर दिया। और ये मुंकिर लोग जब नसीहत को सुनते हैं तो इस तरह तुम्हें 


देखते हैं गोया अपनी निगाहों से तुम्हें फिसला देंगे। और कहते हैं कि यह जरूर दीवाना 
है। और वह आलम वालों के लिए सिर्फ एक नसीहत है। (46-52) 


दाओ (आह्वानकर्त) और मदऊ का रिश्ता बेहद नाजुक रिश्ता है। दाजी को यकतरफा 
तौर पर अपने आपको हुस्ने अख्लाक का पाबंद बनाना पड़ता है। मदऊ बेदलील बातें करे, 
वह दाऔ को हकीर (तुच्छ) समझे, वह दाऔ पर झूठा इल्जाम लगाए । वह चाहे कुछ भी करे। 
दाओ को हर हाल में अपने आपको रद्देअमल (प्रतिक्रिया) की नफ्सियात से बचाना है। दाऔ 
की कामयाबी का राज दो चीजों में छुपा हुआ है मदऊ की ज्यादतियों पर सब्र और मदऊ 
से कोई मादूदी गर्ज न रखना। 


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सूरह-69. अल-ह्रकह I469 पारा 29 
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आयतें-52 सूरह-69. अल-हा्रकह रुकूअ-2 


(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

वह होने वाली। क्‍या है वह होनी वाली। और तुम क्या जानो कि क्या है वह होने 
वाली। समूद और आद ने उस खड़खड़ाने वाली चीज को झुठलाया। पस समूद, तो वे 
एक सख्त हादसे से हलाक कर दिए गए। और आद, तो वे एक तेज व तुंद हवा से 
हलाक किए गए। उसे अल्लाह ने सात रात और आठ दिन उन पर मुसल्लत रखा, पस 
तुम देखते हो कि वहां वे इस तरह गिरे हुए पड़े हैं गोया कि वे खजूरों के खोखले तने 
हों। तो क्या तुम्हें उनमें से कोई बचा हुआ नजर आता है। और फिरऔन और उससे 
पहले वालों और उल्टी हुई बस्तियों ने जुर्म किया। उन्होंने अपने रब के रसूल की 
नाफरमानी की तो अल्लाह ने उन्हें बहुत सख्त पकड़ा। और जब पानी हद से गुजर गया 
तो हमने तुम्हें कश्ती में सवार कराया। ताकि हम उसे तुम्हारे लिए यादगार बना दें, 
और याद रखने वाले कान उसे याद रखें। (-2) 





कुछ लोग खुले तौर पर आख़िरत का इंकार करते हैं। कुछ लोग वे हैं जो जबान से आख़िरत 
का इंकार नहीं करते मगर उनके दिल में सारी अहमियत बस इसी दुनिया की होती है। चुनांचे 
उनकी जिंदगी में और खुले हुए मुँकिरीन की जिंदगी में कोई फर्क नहीं होता ये दोनों गिरोह 
ब-एतबारे हकीकत एक हैं। और दोनों ही अल्लाह के नजदीक आखिरत को झुठलाने वाले हैं। 
एक गिरोह अगर जबानी तौर पर उसे झुठला रहा है तो दूसरा गिरोह अमली तौर पर। 

ऐसे तमाम लोग ख़ुदा के कानून के मुताबिक हलाकत में पड़ने वाले हैं। पैग़म्बरों के 
जमाने में यह हलाकत मौजूदा दुनिया में सामने आ गई और बाद के लोगों के लिए वह 
आखिरत में सामने आएगी। 


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पारा 29 I470 सूरह-69. अल-्हा्रकह 


पस जब सूर में यकबारगी फूंक मारी जाएगी। और जमीन और पहाड़ों को उठाकर एक 

ही बार में रेजारेजा कर दिया जाएगा। तो उस दिन वाकेअ (घटित) होने वाली वाकेअ 

हो जाएगी। और आसमान फट जाएगा तो वह उस रोज बिल्कुल बोदा होगा। और 
फरिश्ते उसके किनारा पर होंगे, और तेरे रब के अर्श को उस दिन आठ फरिश्ते अपने 

ऊपर उठाए होंगे। उस दिन तुम पेश किए जाओगे, तुम्हारी कोई बात पोशीदा (छुपी) 
न होगी। (3-8) 


मौजूदा दुनिया इम्तेहान की मस्लेहत के मुताबिक बनाई गई है। जब इम्तेहान की मुद्दत 
ख़त्म होगी तो यह दुनिया तोड़कर नई दुनिया नए तकाजों के मुताबिक बनाई जाएगी । खुदा 
का जलाल आज बिलवास्ता (परोक्ष) तौर पर जाहिर हो रहा है, उस वक्‍त खुदा का जलाल 
बराहेरास्त (प्रत्यक्ष) तौर पर जाहिर हो जाएगा। 


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पस जिस शख्स को उसका आमालनामा (कर्म-पत्र) उसके दाएं हाथ में दिया जाएगा 
तो वह कहेगा कि लो मेरा आमालनामा पढ़ लो। मैंने गुमान रखा था कि मुझे मेरा 
हिसाब पेश आने वाला है। पस वह एक पसंदीदा ऐश में होगा। ऊंचे बाग़ में उसके 
फल झुके पड़ रहे होंगे। खाओ और पियो मजे के साथ, उन आमाल के बदले में जो 
तुमने गुजरे दिनों में किए हैं। और जिस शख्स का आमालनामा उसके बाएं हाथ में दिया 
जाएगा, तो वह कहेगा काश मेरा आमालनामा मुझे न दिया जाता। और में न जानता 





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सूरह69. अल-हङ्रकह I47I पारा 29 
कि मेरा हिसाब क्या है। काश वही मौत फैसलाकुन होती। मेरा माल मेरे काम न 
आया। मेरा इक्तेदार (सत्ता-अधिकार) ख़त्म हो गया। इस शख्स को पकड़ो, फिर इसे 
तोक पहनाओ। फिर इसे जहन्नम में दाखिल कर दो। फिर एक जंजीर में जिसकी 
पेमाइश सत्तर हाथ है इसे जकड़ दो। यह शख्स खुदाए अजीम पर ईमान न रखता था। 
और वह गरीबों को खाना खिलाने पर नहीं उभारता था। पस आज यहां इसका कोई 
हमदर्द नहीं। और जस्मों के धोवन के सिवा उसके लिए कोई खाना नहीं। उसे 
गुनाहगारों के सिवा कोई और न खाएगा। (9-37) 





आखिरत की दुनिया में कामयाबी उस शख्स के लिए है जो मौजूदा दुनिया में ख़ुदा से 
डरकर जिंदगी गुजारे। और जो शख्स मौजूदा दुनिया में निडर होकर रहे और बंदों के मुकाबले 
में सरकशी करे वह आखिरत में सख्ततरीन अजाब में फंसकर रह जाएगा। 


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पस नहीं, में कसम खाता हूं उन चीजों की जिन्हें तुम देखते हो, और जिन्हें तुम नहीं 

देखते हो। बेशक यह एक बाइज्जत रसूल का कलाम है। और वह किसी शायर का 
कलाम नहीं। तुम बहुत कम ईमान लाते हो। और यह किसी काहिन (भविष्य वक्ता) 
का कलाम नहीं, तुम बहुम कम गर करते हो। ख़ुदावंद आलम की तरफ से उतारा हुआ 
है। और अगर वह कोई बात गढ़कर हमारे ऊपर लगाता तो हम उसका दायां हाथ 
पकड़ते। फिर हम उसकी रगे दिल काट देते। फिर तुम में से कोई इससे हमें रोकने 
वाला न होता। और बिलाशुबह यह याददिहानी है डरने वालों के लिए। और हम जानते 
हैं कि तुम में इसके झुठलाने वाले हैं और वह मुंकिरों के लिए पछतावा है। और यह 
यकीनी हक है। पस तुम अपने अजीम रब के नाम की तस्बीह करो। (38-52) 


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जो कुछ तुम देखते हो और जो कुछ तुम नहीं देखते सब इस कलाम की सदाकत पर 
गवाह है। इसका मतलब यह है कि नुजूले कुरआन के वक्‍त जो मालूमात इंसान की दस्तरस 


पारा 29 I472 सूरह-70. अल-मआरिज 
में आ चुकी थीं और जो बाद के जमाने में उसकी दस्तरस में आने वाली थीं, दोनों इस कलाम 
की हक्कानियत साबित करने वाली हैं। इस कलाम के बरहक होने की तरदीद (खंडन) न हाल 

का इल्म कर रहा है और न मुस्तकबिल का इल्म इसकी तरदीद कर सकेगा। इसके बावजूद 
जो लोग इसे न मानें वे अपने बारे में सिर्फ यह साबित कर रहे हैं कि वे हक और नाहक के 

मामले में संजीदा नहीं। 


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आयतें-44 सूरह-70. अल-मआरिज रुकूअ-2 
(मक्का में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
मांगने वाले ने अजाब मांगा वाकेअ (घटित) होने वाला, मुंकिरों के लिए कोई उसे हटाने 
वाला नहीं। अल्लाह की तरफ से जो सीढ़ियों का मालिक है। उसकी तरफ फरिश्ते और 
जिब्रील चढ़कर जाते हैं, एक ऐसे दिन में जिसकी मिक्दार पचास हजार साल है। पस तुम 
सब्र करो, भली तरह का सब्र। वे उसे दूर देखते हैं, और हम उसे करीब देख रहे हैं। जिस 
दिन आसमान तेल की तलछट की तरह हो जाएगा। और पहाड़ धुने हुए ऊन की तरह। 
और कोई दोस्त किसी दोस्त को न पूछेगा। वे उन्हें दिखाए जाएंगे। मुजरिम चाहेगा कि 
काश उस दिन के अजाब से बचने के लिए अपने बेटों और अपनी बीवी और अपने भाई 
और अपने कुबे को जो उसे पनाह देने वाला था और तमाम अहले जमीन को फिदये (मुक्ति 
मुआवजे में देकर अपने को बचा ले। (-4) 


कियामत के मनाजिर को मौजूदा दुनिया में हकीकी तौर पर खोला नहीं जा सकता। 





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सूरह-70. अल-मआरिज I473 पारा 29 
ताहम कुरआन में जगह-जगह उन्हें इशारा या तमसील में बताया गया है ताकि आदमी उनका 
मुजमल (संक्षिप्त) एहसास कर सके। कियामत जब आएगी तो वह इतनी हौलनाक होगी कि 
आदमी अपने उन रिश्तों और मफादात (हितों) को भूल जाएगा जिन्हें आज वह इतना अहम 
समझे हुए है कि उनकी ख़ातिर वह हक को नजरअंदाज कर देता है। 

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हरगिज नहीं। वह तो भइ़कती हुई आग की लपट होगी जो खाल उतार देगी। वह हर उस 
शख्स को बुलाएगी जिसने पीठ फेरी और एराज (उपेक्षा) किया। जमा किया और सेंत कर 
रखा। बेशक इंसान कमहिम्मत पैदा हुआ है। जब उसे तकलीफ पहुंचती है तो वह घबरा 
उठता है। और जब उसे फारिगुलबाली (सम्पन्नता) होती है तो वह बुख़्ल (कंजूसी) करने 
लगता है। मगर वे नमाजी जो अपनी नमाज की पाबंदी करते हैं। और जिनके मालों में 
साइल (मांगने वाले) और महरूम (वंचित) का मुअय्यन हक है। और जो इंसाफ के दिन 
पर यकीन रखते हैं। और जो अपने रब के अजाब से डरते हैं। बेशक उनके रब के अजाब 
से किसी को निडर न होना चाहिए । और जो अपनी शर्मगाहों की हिफाजत करते हैं मगर 
अपनी बीवियों से या अपनी ममलूका (अधीन) औरतों से, पस इन पर उन्हें कोई मलामत 
नहीं, फिर जो शख्स इसके अलावा कुछ और चाहे तो वही लोग हद से तजावुज (उल्लंघन) 
करने वाले हैं। और जो अपनी अमानतों और अपने अहदों की निभाते हैं। और जो अपनी 
गवाहियों पर कायम रहते हैं। और जो अपनी नमाज की हिफाजत करते हैं। यही लोग 


पारा 29 I474 
जन्नतों मे इज्जत के साथ हेग। (5-25) 


सूरह-70. अल-मआरिज 


इन आयात में मुख़्तसर तौर पर दोनों किस्म के इंसानों की सिफात बयान कर दी गई 
हैं। उन लोगों की भी जो जन्नत में दाखिल किए जाने के मुस्तहिक करार पाएंगे और उन 
लोगों की भी जिनके आमाल उन्हें कियामत के दिन जहन्नम में गिराने का सबब बनेंगे। 


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फिर इन मुंकिरों को क्या हो गया है कि वे तुम्हारी तरफ दौड़े चले आ रहे हैं, दाएं से 
और बाएं से गिरोह दर गिरोह। क्या उनमें से हर शख्स यह लालच रखता है कि वह 


नेमत के बाग़ में दाखिल कर लिया जाएगा। हरगिज नहीं, हमने उन्हें पैदा किया है उस 
चीज से जिसे वे जानते हैं। (36-39) 





जो लोग नाहक पर खड़े हुए हों वे उस वक्त अपनी हैसियत को ख़त्म होता हुआ महसूस 
करते हैं जबकि उनके सामने हक की खुली-खुली दावत पेश कर दी जाए। वे ऐसी दावत को 
जेर करने के लिए उस पर टूट पड़ते हैं। उनकी नामाकूल रविश उन्हें जहन्नम की तरफ ले 
जा रही होती है। मगर अपनी झूठी ख़ुशफहमी के तहत वे यही समझते रहते हैं कि वे जन्नत 
की तरफ अपना तेज रफ्तार सफ ते कर रहे ही 


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पर कादिर हैं कि बदल कर उनसे बेहतर ले आएं, और हम आजिज नहीं हैं। पस उन्हे 

छोड़ दो कि वे बातें बनाएं और खेल करें। यहां तक कि अपने उस दिन से दो चार 
हों जिसका उनसे वादा किया जा रहा है। जिस दिन कब्रों से निकल पड़ेंगे दौड़ते हुए। 
जैसे वे किसी निशाने की तरफ भाग रहे हों। उनकी निगाहें झुकी होंगी। उन पर 


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सूरह-72. नूह I475 पारा 29 
जिल्लत छाई होगी, यह है वह दिन जिसका उनसे वादा था। (40-44) 





जमीन पर बास्वार मशक (पूर्व) और मग्रिब (पश्चिम) का बदलना जमीन की उस 
अनोखी खुसूसियत की बिना पर होता है जिसे महवरी झुकाव (/।] 0) कहते हैं। और 
जिसकी वजह से जमीन पर मुख़्तलिफ किस्म के मौसम पैदा होते हैं। सूरज की निस्बत से 
अगर जमीन में यह झुकाव न होता तो जमीन इंसान के लिए बहुत कम मुफीद होती। इस 
झुकाव ने जमीन को इंसान के लिए बहुत ज्यादा मुफीद बना दिया। 

जिस दुनिया में कम बेहतर को ज्यादा बेहतर बनाने की ऐसी मिसाल मौजूद हो उस 
दुनिया में इसी नौइयत के दूसरे वाकेयात का जुहूर में आना कुछ भी बईद (असंभव) नहीं । 
इन खुली-खुली निशानियों के बावजूद जो लोग नसीहत न पकड़ें वे बिलाशुबह गैर संजीदा 
लोग हैं। और गैर संजीदा लोग सिफ उस वक्त नसीहत पकड़ते हैं जबकि वे उसके लिए 
मजबूर कर दिए गए हों। 


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आयतें-28 सूरह-7।. नूह रुकूअ-2 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
हमने नूह को उसकी कौम की तरफ रसूल बनाकर भेजा कि अपनी कौम के लोगों को 
खबरदार कर दो इससे पहले कि उन पर एक दर्दनाक अजाब आ जाए। उसने कहा 
कि ऐ मेरी कौम के लोगो, मैं तुम्हारे लिए एक खुला हुआ डराने वाला हूं कि तुम अल्लाह 
की इबादत करो और उससे डरो और मेरी इताअत (आज्ञापालन) करो। अल्लाह तुम्हारे 
गुनाहों से दरगुजर करेगा और तुम्हें एक मुअव्यन वक्‍त तक बाकी रखेगा। बेशक जब 


अल्लाह का मुर्करर किया हुआ वक्त आ जाता है तो फिर वह टाला नहीं जाता। काश 
कि तुम उसे जानते। (:-4) 





हजरत नूह गालिबन हजरत आदम के बाद सबसे पहले पेगम्बर हैं। उस वक्त के बिगड़े 
हुए इंसानों को उन्होंने जो पैगाम दिया उसे यहां तीन लफ्ज में बयान किया गया है इबादत, 


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पारा 29 I476 सूरह-7]. नूह 
तकवा, इताअते रसूल। यानी गैर-अल्लाह की परस्तिश छोड़कर एक अल्लाह की परस्तिश 
करना, दुनिया में अल्लाह से डरकर जिंदगी गुजारना, और हर मामले में अल्लाह के रसूल को 
अपनेलिए कबिले तक्लीद (अनुकरणीय) नमूना समझना। यही हर जमाने में तमाम पैग़म्बरों 
की अस्ल दावत रही है। और यही ख़ुद कुरआन की अस्ल दावत है। 


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नूह ने कहा कि ऐ मेरे रब, मैंने अपनी कौम को शब व रोज पुकारा। मगर मेरी पुकार 

ने उनकी दूरी ही में इजाफा किया। और मैंने जब भी उन्हें बुलाया कि तू उन्हें माफ 

कर दे तो उन्होंने अपने कानों में उंगलियां डाल लीं और अपने ऊपर अपने कपड़े लपेट 
लिए और जिद पर अड़ गए और बड़ा घमंड किया। फिर मैंने उन्हें बरमला (खुलकर) 
पुकारा। फिर मैंने उन्हें खुली तब्लीग़ की और उन्हें चुपके से समझाया। मैंने कहा कि 
अपने रब से माफी मांगो, बेशक वह बड़ा माफ करने वाला है। वह तुम पर आसमान 

से ख़ूब बारिश बरसाएगा और तुम्हारे माल और औलाद में तरक्की देगा। और तुम्हारे 

लिए बाग़ पैदा करेगा। और तुम्हारे लिए नहरें जारी करेगा। तुम्हें क्या हो गया है कि 
तुम अल्लाह के लिए अमत (महानता) की उम्मीद नहीं रखते। हालांकि उसने तुम्हें 
तरह-तरह से बनाया। क्या तुमने देखा नहीं कि अल्लाह ने किस तरह सात आसमान 
तह-ब-तह बनाए। और उनमें चांद को नूर और सूरज को चराग बनाया। और अल्लाह 


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सूरह-7. नूह I477 पारा 29 
ने तुम्हें जमीन से ख़ास एहतिमाम से उगाया। फिर वह तुम्हें जमीन में वापस ले जाएगा। 

और फिर उससे तुम्हें बाहर ले जाएगा। और अल्लाह ने तुम्हारे लिए जमीन को हमवार 
(समतल) बनाया ताकि तुम उसके खुले रास्तों में चलो। (5-20) 


हजरत नूह की इस तकरीर से वाजेह होता है कि उनका अंदाजे दावत भी ऐन वही था 
जो कुरआन में लोगों को दावत देने के लिए इख्ियार किया गया है। हजरत नूह ने कायनाती 
वाकेयात से इस्तदलाल करते हुए अपनी दावत पेश की। उन्होंने इज्तिमाई (सामूहिक) खिताब 
भी किया और इंफिरादी (व्यक्तिगत) गुफ्तगुएं भी कीं। लोगों को इस्लाह (सुधार) पर लाने के 
लिए उन्होंने अपनी सारी कोशिश सर्फ कर डाली। मगर कौम आपकी बात मानने पर राजी 
न हुई। 

'मालकुम ला तरजू-न लिल्ला-हि वकारा०' की तफ्सीर अब्दुल्लाह बिन अब्बास ने इन 
अल्फाज में की है : 'तुम अल्लाह की अप्मत उस तरह नहीं मानते जिस तरह उसकी अज्मत 
मानना चाहिए' इससे मालूम हुआ कि हजरत नूह की कौम अल्लाह का इकरार करती थी मगर 
उस पर अल्लाह की अज्मत का एहसास उस तरह छाया हुआ न था जिस तरह किसी इंसान 
पर छाया हुआ होना चाहिए। हकीकत यह है कि यही खुदापरस्ती का अस्ल मेयार है। जो 
शख्स ख़ुदा की अज्मत में जी रहा हो वह ख़ुदापरस्त है। और जिसका दिल ख़ुदा की अज्मत 
के एहसास में डूबा हुआ न हो वह ख़ुदापरस्त नहीं। 


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नूह ने कहा कि ऐ मेरे रब, उन्होंने मेरा कहा न माना और ऐसे आदमियों की पैरवी 
की जिनके माल और औलाद ने उनके घाटे ही में इजाफा किया। और उन्होंने बड़ी 
तदबीरें कीं। और उन्होंने कहा कि तुम अपने माबूदों (पूज्यो) की हरगिज न छोड़ना। 
और तुम हरगिज न छोड़ना वद को और सुवाअ को और यशूस को और यऊक और 

नस्र को। और उन्होंने बहुत लोगों को बहका दिया। और अब तू उन गुमराहों की 
गुमराही में ही इजाफा कर। अपने गुनाहाँ के सबब से वे शर्क किए गए। फिर वे 

आग में दाखिल कर दिए गए। पस उन्होंने अपने लिए अल्लाह से बचाने वाला कोई 
मददगार न पाया। (2।-25) 


















































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पारा 29 I478 सूरह-7।. नूह 


हजरत नूह की दावत का लोगों ने क्यों इंकार किया, इसकी वजह यह थी कि लोगों को 
हजरत नूह के मु्बले में उन लोगों की बातेंज्यादा कबिले लिहाज नजर आई जो दुनियावी 
लिहाज से बड़ाई का दर्जा हासिल किए हुए थे। वक्त के बड़ों ने अपनी बड़ाई के घमंड में हक 
की दावत का इंकार किया। और जो छोटे थे उन्होंने इसलिए इंकार किया कि उनके बड़े उसके 
मुंकिर बने हुए थे। 
हजरत नूह के मूलिफीन ने हजरत नूह के खिलाफ बड्ै-बझ्ै तदबीरें कीं। उनमें से 
एक ख़ास तदबीर यह थी कि उन्होंने कहा कि नूह हमारे अकाबिर (वद और सुवाअ और 
यगूस और यऊक और नम्र) के खिलाफ हैं। ये पांचा कदीम जमाने के सालेह (नेक) अफराद 
थे। बाद को वे धीरे-धीरे लोगों की नजर में मुकद्दस बन गए। यहां तक कि लोगों ने उन्हें 
पूजना शुरू कर दिया। उनके नाम पर लोगों को हजरत नूह के खिलाफ भड़काना आसान था, 
चुनांचे उन्होंने यह कहकर आपको लोगों की नजर में मुशतबह (संदिग्ध) कर दिया कि आप 
बुजुर्गो के रास्ते को छोड़कर नए रास्ते पर चल रहे हैं। 
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और नूह ने कहा कि ऐ मेरे रब, तू इन मुंकिरों में से कोई जमीन पर बसने वाला न 
छोड़। अगर तूने इन्हें छोड़ दिया तो ये तेरे बंदों को गुमराह करेंगे और उनकी नस्ल से 
जो भी पैदा होगा बदकार और सस्त मुंकिर ही होगा। ऐ मेरे रब, मेरी मग्फित (गि 
फरमा। और मेरे मां बाप की मग्फिरत फरमा। और जो मेरे घर में मोमिन होकर दाखिल 
हो तू उसकी मग्फिरत फरमा। और सब मोमिन मर्दों और मोमिन औरतों को माफ 


फरमा दे ओर जालिमो के लिए हलाकत (नाश) के सिवा किसी चीज मेइजफ़ न कर। 
(26-28) 














हजरत नूह की दुआ से मालूम होता है कि उनके जमाने में बिगाड़ अपनी आखिरी हद 
तक पहुंच चुका था। पूरे मआशरे में गुमराह अकाइद (कुआस्थाए) व ख्यालात इस तरह छा 
गए थे कि जो बच्चा उस मआशरे में पैदा होकर उठता वह गुमराही के ख़्यालात लेकर उठता। 
जब मआशरा (समाज) इस दर्जे को पहुंच जाए तो इसके बाद उसके लिए इसके सिवा कुछ 
और मुकदूदर नहीं होता कि तूफाने नूह के जरिए उसका ख़ात्मा कर दिया जाए। 


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सूरह-72. अल-जिन्न I479 पारा 29 


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आयतें-28 सूरह-72. अल-जिन्न रुकूअ-2 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

कहो कि मुझे “वही” (प्रकाशना) की गई है कि जिन्नात की एक जमाअत ने कुरआन 
सुना तो उन्होंने कहा कि हमने एक अजीब कुरआन सुना है जो हिदायत की राह बताता 

है तो हम उस पर ईमान लाए और हम अपने रब के साथ किसी को शरीक न बनाएंगे। 
और यह कि हमारे रब की शान बहुत बुलन्द है। उसने न कोई बीवी बनाई है और 
न औलाद। और यह कि हमारा नादान अल्लाह के बारे में बहुत ख़िलाफे हक बाते 
कहता था। और हमने गुमान किया था कि इंसान और जिन्न ख़ुदा की शान में कभी 
झूठ बात न कहेंगे। और यह कि इंसानों में कुछ ऐसे थे जो जिन्नात में से कुछ की पनाह 
लेते थे, तो उन्होंने जिन्नों का गुरूर (अभिमान) और बढ़ा दिया। और यह कि उन्होंने 
भी गुमान किया जैसा तुम्हारा गुमान था कि अल्लाह किसी को न उठाएगा। (-7) 


यहां इंसान के सिवा एक और मख्लूक आबाद है जिसे जिन्न कहते हैं। इंसान उसे नहीं 
देखता । कुरआन में एक से ज्यादा मकाम पर उनका जिक्र किया गया है। सूरह जिन्न की इन 
आयात से मालूम होता है कि जिन्नों में भी गुमराह और हिदायतयाब दोनों किस्म के होते हैं। 
इंसानों में जिस तरह नादान रहनुमा अवाम को बहकाते हैं। इसी तरह जिन्नों में भी नादान 
रहनुमा हैं। और वे पुरफरेब (भटकाने वाले) अल्फाज बोलकर उन्हें रास्ते से भटकाते रहते हैं। 


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और हमने आसमान का जायजा लिया तो हमने पाया कि वह सख्त पहरेदारों और शोलों 
से भरा हुआ है। और हम उसके कुछ ठिकानों में सुनने के लिए बैठा करते थे सो अब 
जो कोई सुनना चाहता है तो वह अपने लिए एक तैयार शोला पाता है। और हम नहीं 
जानते कि यह जमीन वालों के लिए कोई बुराई चाही गई है या उनके रब ने उनके 
साथ भलाई का इरादा किया है। और यह कि हम में कुछ नेक हैं और कुछ और तरह 
के। हम मुख्तलिफ तरीकों पर हैं। और यह कि हमने समझ लिया कि हम जमीन में 
अल्लाह को हरा नहीं सकते। और न भाग कर उसे हरा सकते हैं। और यह कि हमने 
जब हिदायत की बात सुनी तो हम उस पर ईमान लाए, पस जो शख्स अपने रब पर 
ईमान लाएगा तो उसे न किसी कमी का अंदेशा होगा और न ज्यादती का। और यह 
कि हम में कुछ फरमांबदार (आज्ञाकारी) हैं और हम में कुछ बेराह हैं, पस जिसने 
फरमांबरदारी की तो उन्होंने भलाई का रास्ता ढूंढ लिया। और जो लोग बेराह हैं तो 
वे दोजख़ के ईंधन हेंगे। (8-5) 


कुरआन सुनने वाले जिननों ने कुरआन को सुनकर न सिर्फ फौरन उसे मान लिया बल्कि 
इसी के साथ वे उसके मुबल्लिग (प्रचारक) बन गए। इससे मालूम हुआ कि सच्चा कलाम जब 
जिंदा लोगों के कानों तक पहुंचता है तो वह बयकवक्त दो किस्म के असरात पैदा करता है 
उसकी सच्चाई का खुले दिल से एतराफ, और उसकी तब्लीगे आम (प्रचार-प्रसार, 


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सूरह-72. अल-जिन्न I48] पारा 29 
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और मुझे “वही” (प्रकाशना) की गई है कि ये लोग अगर रास्ते पर कायम हो जाते तो 
हम उन्हें खूब सैराब (तृप्त) करते। ताकि इसमें उन्हें आजमाएं, और जो शख्स अपने 
रब की याद से एाज (उपेक्षा) करेगा तो वह उसे सख्त अजाब में मुब्तिला करेगा। और 
यह कि मस्जिदें अल्लाह के लिए हैं पस तुम अल्लाह के साथ किसी और को न पुकारो। 
और यह कि जब अल्लाह का बंदा उसे पुकारने के लिए खड़ा हुआ तो लोग उस पर 
टूट पड़ने के लिए तैयार हो गए। कहो कि मैं सिर्फ अपने रब को पुकारता हूं और उसके 
साथ किसी को शरीक नहीं करता। कहो कि मैं तुम लोगों के लिए न किसी नुक्सान 
का इख्तियार रखता हूं और न किसी भलाई का। कहो कि मुझे अल्लाह से कोई बचा 
नहीं सकता। और न मैं उसके सिवा कोई पनाह पा सकता हूं। पस अल्लाह ही की 
तरफ से पहुंचा देना और उसके पेग़ामों की अदायगी है और जो शख्स अल्लाह और 
उसके रसूल की नाफरमानी (अवज्ञा) करेगा तो उसके लिए जहन्नम की आग है जिसमें 
वे हमेशा रहेंगे। (6-23) 





मौजूदा दुनिया का निजाम इम्तेहान की मस्लेहत के तहत बनाया गया है। इसीलिए 
सच्चाई यहां सिर्फ पैगामरसानी (संदेश पहुंचाने) की हद तक सामने लाई जाती है। अगर 
इम्तेहान की मस्लेहत न हो और गैब का पर्दा हटा दिया जाए तो लोग देखेंगे कि फरिश्तों से 
लेकर जिन्नात के सालिहीन (सज्जन) तक सब ख़ुदा की खुदाई का एतराफ कर रहे हैं और 
सारी कायनात सरापा इसकी तस्दीक बनी हुई है। 


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यहां तक कि जब वे देखेंगे उस चीज को जिसका उनसे वादा किया जा रहा है तो वे 
जान लेंगे कि किसके मददगार कमजोर हैं और कौन तादाद में कम है। कहो कि में 


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पारा 29 I482 सूरह-73. अल-मुज्जम्मिल 
नहीं जानता कि जिस चीज का तुमसे वादा किया जा रहा है वह करीब है या मेरे रब 

ने उसके लिए लम्बी मुद्दत मुक्रर कर रखी है। गैब का जानने वाला वही है। वह अपने 
शैब पर किसी को मुतलअ (प्रकट) नहीं करता। सिवा उस रसूल के जिसे उसने पसंद 
किया हो, तो वह उसके आगे और पीछे मुहाफिज लगा देता है। ताकि अल्लाह जान 

ले कि उन्होंने अपने रब के पैग़ामात पहुंचा दिए हैं और वह उनके माहौल का इहाता 
(आच्छादन) किए हुए है और उसने हर चीज को गिन रखा है। (24-28) 





हकका दाजी (आह्वानकर्ता) बजाहिर एक आम इंसान होता है। इसलिए वे लोग उस 
पर टूट पड़ते हैं जिनके ऊपर उसकी दावत (आह्वान) की जद पड़ रही हो। वे भूल जाते हैं 
कि हक के दाओ के खिलाफ कार्रवाई खुद खुदा के खिलाफ कार्रवाई है, और कौन है जो ख़ुदा 
के खिलाफ कार्रवाई करके कामयाब हो। 


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आयतें-20 सूह. अलममुम्मिल रुकूअ-2 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
ऐ कपड़े में लिपटने वाले, रात में कियाम (नमाज के लिए खड़ा होनी) कर मगर थोड़ा 
हिस्सा। आधी रात या उससे कुछ कम कर दो। या उससे कुछ बढ़ा दो, और कुरआन 
को ठहर-ठहर कर पढ़ो। हम तुम पर एक भारी बात डालने वाले हैं। (।-5) 








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'ठहर-ठहर कर पढ़े" का मतलब यह है कि मफहूम (भावार्थ) पर ध्यान देते हुए पढ़ो। जब 
आदमी ऐसा करे तो कारी (पढ़ने वाला) और कुर॒आन के दर्मियान एक दोतरफा अमल शुरू हो 
जाता है। कुरआन उसके लिए एक इलाही ख़िताब (सुधारक संबोधन) होता है और उसका दिल 
हर आयत पर इस ख़िताब का जवाब देता चला जाता है। जब कुरआन में अल्लाह की बड़ाई 
का जिक्र आता है तो कारी का पूरा वजूद उसकी बड़ाई के एहसास से दब जाता है। जब कुरआन 
में खुदा के एहसानात बताए जाते हैं तो उसे सोचकर कारी का दिल ख़ुदा के शुक्र से भर जाता 
है। जब कुरआन में खुदा की पकड़ का बयान होता है तो कारी उसे पढ़कर कांप उठता है। जब 
कुरआन में कोई हुक्म बताया जाता है तो कारी के अंदर यह जज्बा मुस्तहकम होता है कि वह 
उस हुक्म को इख्तियार करके अपने रब का फरमांबरदार बने। 

“भारी कौल” से मुराद इंजार (आगाह करने) का वह हुक्म है जो अगली सूरह में आ रहा 


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सूरह-73. अल-मुज्जम्मिल I483 पारा 29 
है। (कुम फअंजिर, अल-मुद्दस्सिर-2) यानी आखिरत के मसले से लोगों को आगाह कर दे। 

यह काम बिलाशुबह इस दुनिया का मुश्किलतरीन काम है। इसके लिए दाऔ को बेआमेज 
(विशुद्ध) हक पर खड़ा होना पड़ता है, चाहे वह तमाम लोगों के दर्मियान अजनबी बन जाए। 
उसे लोगों की ईजाओं (उत्पीड़न) को बर्दाश्त करना पड़ता है ताकि उसके और मुखातबीन के 
दर्मियान दाओ और मदऊ का रिश्ता आखिर वक्‍त तक बाकी रहे। उसे यकतरफा तौर पर 

अपने आपको सब्र और एराज (संयम) का पाबंद करना पड़ता है। ताकि किसी भी हाल में 
उसकी दाञियाना हैसियत मजरूह न होने पाए 


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बेशक रात का उठना सस्त रोंदता है और बात ठीक निकलती है। बेशक तुम्हें दिन 
में बहुत काम रहता है। और अपने रब का नाम याद करो और उसकी तरफ मुतवज्जह 

हो जाओ सबसे अलग होकर। वह मश्रकि (पूर्व और मग्रिब (पश्चिम) का मालिक है, 
उसके सिवा कोई इलाह (पूज्य-प्रभु) नहीं, पस तुम उसे अपना कारसाज बना लो। और 
लोग जो कुछ कहते हैं उस पर सब्र करो। और भली तरह उनसे अलग हो जाओ और 
झुठलाने वाले खुशहाल लोगों का मामला मुझ पर छोड़ दो और उन्हें थोड़ी ठील दे दो। 
हमारे पास बेड़ियां हैं और दोजख़ है। और गले में फंस जाने वाला खाना है और दर्दनाक 
अजाब है। जिस दिन जमीन और पहाड़ हिलने लगेंगे और पहाड़ रेत के फिसलते हुए 

तोदे (ढेर) हो जाएंगे। (6-4) 





बा (विशुद्ध) हक की दावत लेकर उठना मुश्किलतरीन मुहिम के लिए उठना है। 
ऐसा शख्स पूरे माहौल में एक गैर मत्लूब (अवांछित) शख्स बन जाता है। ऐसी हालत में हक 
का दाऔ जिस वाहिद हस्ती को अपना मूनिस (हमदर्द साथी) और कारसाज (कार्य साधक) 
पाता है वह उसका खुदा है। वह न सिफ दिल में अपने खुदा को याद करता रहता है बल्कि 
वह रात के वक्‍्तों में भी उसके सामने खड़ा होता है। रात का वक्त फराग़त का वक्त है। रात 
के सन्नाटे में इसका ज्यादा मौका होता है कि आदमी पूरी यकसूई के साथ खुदा की तरफ 


पारा 29 I484 सूरह-73. अल-मुज्जम्मिल 
मुतवज्जह हो सके। हक की दावत के कठिन रास्ते में दाओ का अस्ल हथियार यही है। 

सच्चे दा का यह तरीका है कि उसे मदऊ की तरफ से तकलीफ पहुंचती है तो वह 
मदऊ से नहीं उलझता बल्कि वह ख़ुदा की तरफ दौड़ता है। वह आख़िरी हद तक अपने 
आपको रदूदेअमल (प्रतिक्रिया) की नप्सियात से बचाता है। और रद्देअमल की नफ्सियात 
से बुलन्द होकर काम करना ही वह वाहिद (एक मात्र) लाजिमी शर्त है जो किसी शख्स को 
हकीकी मअनें में हक का दाऔ बनाती है। 


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हमने तुम्हारी तरफ एक रसूल भेजा है, तुम पर गवाह बनाकर, जिस तरह हमने फिरऔन 
की तरफ एक रसूल भेजा। फिर फिरऔन ने रसूल का कहा न माना तो हमने उसे पकड़ा 
सख्त पकड़ना। पस अगर तुमने इंकार किया तो तुम उस दिन के अजाब से कैसे बचोगे 
जो बच्चों को बूढ़ा कर देगा जिसमें आसमान फट जाएगा, बेशक उसका वादा पूरा होकर 


रहेगा। यह एक नसीहत है, पस जो चाहे अपने रब की तरफ राह इख्तियार कर ले। 
(I5-9) 











पेगम्बर का आना हक (सत्य) और बातिल (असत्य) के दर्मियान फैसला करने के लिए 
होता है। यही फैसला पहले मूसा अलैहि० और फिरऔन के दर्मियान हुआ था। फिर यही 
फैसला पैग़म्बरे इस्लाम और क्रैश के दर्मियान हुआ। जो लोग दुनिया में खुदा के दाऔ के 
आगे न झुकें वे अपने लिए यह ख़तरा मोल ले रहे हैं कि आख़िरत में उन्हें खुदा के अजाब 
के आगे झुकना पड़े। 


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सूरह-74. अल-मुद्दस्सिर I485 पारा 29 


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बेशक तुम्हारा रब जानता है कि तुम दो तिहाई रात के करीब या आधी रात या एक 
तिहाई रात क्याम (नमाज के लिए खड़ा होनी) करते हो, और एक गिरोह तुम्हारे 
साथियों में से भी। और अल्लाह ही रात और दिन का अंदाजा ठहराता है, उसने जाना 
कि तुम उसे पूरा न कर सकोगे पस उसने तुम पर महरबानी फरमाई, अब कुरआन से 

पढ़ो जितना तुम्हें आसान हो, उसने जाना कि तुम में बीमार होंगे और कितने लोग 
अल्लाह के फज्ल की तलाश में जमीन में सफर करे। और दूसरे ऐसे लोग भी हेग 

जो अल्लाह की राह में जिहाद करेंगे, पस उसमें से पढ़ो जितना तुम्हें आसान हो, और 
नमाज कयम करे औ जात अदा करो औ अल्लाह को कादो अच्छा की और 

जो भलाई तुम अपने लिए आगे भेजोगे उसे अल्लाह के यहां मौजूद पाओगे, वह बेहतर 
है और सवाब में ज्यादा, और अल्लाह से माफी मांगो, बेशक अल्लाह बख्शने वाला, 
महरबान है। (20) 


दीन में जो फर्ज (अनिवार्य) आमाल हैं वे आम इंसान की इस्तताअत (सामर्थ्य को 
मत्हूज रखते हुए मु किए गए हैं। मगर ये फराइज सिर्फलाजिमी हूद को बताते हैं। इस 
लाजिमी हद के आगे भी मत्लूब आमाल हैं मगर वे नवाफिल (ऐच्छिक) हैं। मसलन पंजवक्ता 
नमाजेंके बाद तहज्जुद, जकात के बाद मजीद इंफाक (अल्लाह की राह में खुच) कौर । यह 
आदमी के अपने हौसले का इम्तेहान है कि वह कितना ज्यादा अमल करता है और आखिरत 


में कितना ज्यादा इनाम का मुस्तहिक बनता है। 
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सूरह-74. अल-मुद्दस्सिर रुकूअ-2 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
ऐ कपड़े में लिपटने वाले, उठ और लोगों को डरा। और अपने रब की बड़ाई बयान कर। 
और अपने कपड़े को पाक रख। और गंदगी को छोड़ दे। और ऐसा न करो कि एहसान 


आयतें-56 


पारा 29 I486 सूरह-74. अल-मुद्दस्सिर 
करो और बहुत बदला चाहो और अपने रब के लिए सब्र करो। (-7) 





इस दुनिया में अस्ल पैग़म्बराना काम इंजार है। यानी आख़िरत में पेश आने वाले संगीन 
मसले से लोगों को आगाह करना । यह काम वही शख्स कर सकता है जिसका दिल अल्लाह 
की बडाई से लबरेज हो। जो अच्छे अख्लाक का मालिक हो। जो हर किस्म की बुराई से दूर 
हो। जो बदले की उम्मीद के बगैर नेकी करे। जो दूसरों की तरफ से पेश आने वाली तकलीफों 
पर यकतरफा सब्र कर सके। 


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फिर जब सूर फूंका जाएगा तो वह बड़ा सख्त दिन होगा। मुंकिरों पर आसान न होगा। 
छोड़ दो मुझे और उस शख्स को जिसे मैंने पैदा किया अकेला। और उसे बहुत सा माल 
दिया और पास रहने वाले बेटे। और सब तरह का सामान उसके लिए मुहय्या कर 
दिया। फिर वह तमअ (लालच) रखता है कि में उसे और ज्यादा दूं। हरगिज नहीं, वह 
हमारी आयतां का मुखालिफ (विरोधी) है। अनकरीब में उसे एक सख्त चढ़ाई 
चढ़ाऊंगा। (8-7) 





जो आदमी अपने आपको इस हाल में पाता है कि उसके पास माल भी है और साथियों 
की फौज भी, उसके अंदर झूठा एतमाद पैदा हो जाता है। वह समझने लगता है कि मौजूदा 
दुनिया में जिस तरह मेरे अहवाल दुरुस्त हैं इसी तरह वे आखिरत में भी दुरुस्त रहेंगे। मगर 
कियामत के आते ही सारी सूरतेहाल बदल जाएगी। वह शख्स जो दुनिया में हर तरफ 
आसानियां देख रहा था, वह कियामत के दिन अपने आपको असहनीय दुश्वारियों के दर्मियान 


घिरा हुआ पाएगा। 
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उसने सोचा और बात बनाई। पस वह हलाक हो उसने कैसी बात बनाई। फिर वह 
हलाक हो उसने कैसी बात बनाई, फिर उसने देखा। फिर उसने त्योरी चढ़ाई और मुंह 





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सूरह-74. अल-मुद्दस्सिर I487 पारा 29 
बनाया। फिर पीठ फेरी और तकब्बुर (घमंड) किया। फिर बोला यह तो महज एक जादू 
है जो पहले से चला आ रहा है। यह तो बस आदमी का कलाम है। (8-25) 








हक को मानने में सबसे बड़ी रुकावट तकब्बुर (घमंड) है। जो लोग माहौल में बड़ाई का 
दर्जा हासिल कर लें वे हक का एतराफ इसलिए नहीं करते कि उसका एतराफ करने से उनकी 
बड़ाई ख़त्म हो जाएगी। अपने इस एतराफ न करने को छुपाने के लिए वे मजीद यह करते 
हैं कि दाऔ (आह्वानकर्ता) के कलाम में ऐब निकालते हैं। वे दाऔ पर इल्जाम लगाकर 
उसकी हैसियत को घटाने की कोशिश करते हैं। 


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मैं उसे अनकरीब दोजख़ में दाखिल करूंगा । और तुम क्या जानो कि क्या है दोजख़। न 

बाकी रहने देगी और न छोड़ेगी। खाल झुलसा देने वाली। उस पर ।9 फरिश्ते हैं। और 

हमने दोजख़ के कारकुन सिर्फ फरिश्ते बनाए हैं। और हमने उनकी जो गिनती रखी है 

वह सिर्फ मुंकिरों को जांचने के लिए ताकि यकीन हासिल करें वे लोग जिन्हें किताब अता 

हुई। और ईमान वाले अपने ईमान को बढ़ाएं और अहले किताब (पूर्ववर्ती ग्रंथों के धारक) 
और मोमिनीन शक न करें, और ताकि जिन लोगों के दिलों में मर्ज है और मुंकिर लोग 
कहें कि इससे अल्लाह की क्या मुराद है। इस तरह अल्लाह गुमराह करता है जिसे चाहता 
है और हिदायत देता है जिसे चाहता है, और तेरे रब के लश्कर को सिर्फ वही जानता है, 
और यह तो सिर्फ समझाना है लोगों के वास्ते। (26-3.) 








जहन्नम के अहवाल जो कुरआन में बताए गए हैं वे सब अंदेखी दुनिया से तअल्लुक 
रखते हैं। जहन्नम में ।9 फरिश्तों का होना भी इसी नौइयत की चीज है। आदमी अगर 
मुश्गीषी (कुतक) करे तो ये चीजे उसके शुबहात में इजाफा करगी। लेकिर अगर सार्थक 
ईमान का तरीका इख्ियार किया जाए तो इस किस्म की बातों से आदमी के ख़ौफे आखिरत 


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पारा 29 I488 सूरह-74. अल-मुद्दस्सिर 
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हरगिज नहीं, कसम है चांद की। और रात की जबकि वह जाने लगे। और सुबह की 

जब वह रोशन हो जाए, वह दोजख़ बड़ी चीजों में से है, इंसान के लिए डरावा, उनके 

लिए जो तुम में से आगे की तरफ बढ़े या पीछे की तरफ हटे। हर शख्स अपने आमाल 

के बदले में रहन (गिरवी) है, दाएं वालों के सिवा, वे बागों में होंगे, पूछते होंगे, मुजरिमों 

से, तुम्हें क्या चीज दोजख़ में ले गई। वे कहेंगे, हम नमाज पढ़ने वालों में से न थे। 

और हम गरीबों को खाना नहीं खिलाते थे। और हम बहस करने वालों के साथ बहस 

करते थे। और हम इंसाफ के दिन को झुठलाते थे। यहां तक कि वह यकीनी बात हम 


पर आ गई तो उन्हें शकाअत (सिफ़रशि करने वालो की शफाअत कुछ फायदा न 
देगी। (32-48) 











इस दुनिया में गर्दिश (गति) का निजाम है। इसी की वजह से चांद की तारीखे बदलती 
हैं और जमीन पर बारी-बारी रात और दिन आते हैं। यह गर्दिश और तब्दीली का निजाम 
गोया एक इशारा है कि इसी तरह मौजूदा दौर बदल कर आखिरत का दौर आएगा । जो लोग 
इस निजाम पर गौर करें वे चाहेंगे कि 'रात” के आने से पहले अपने दिन” को इस्तेमाल कर 
लें। वे जहन्नम वाले आमाल से भागेंगे और जन्नत वाले आमाल को इख्तियार करेंगे। 


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सूरह-75. अल-क्यामह I489 पारा 29 


फिर उन्हें क्या हो गया है कि वे नसीहत से रूगर्दानी (अवहेलना) करते हैं। गोया कि 
वे वहशी गधे हैं जो शेर से भागे जा रहे हैं। बल्कि उनमें से हर शख्स यह चाहता है 
कि उसे खुली हुई किताबें दी जाएं। हरगिज नहीं, बल्कि ये लोग आखिरत (परलोक) 

से नहीं डरते। हरगिज नहीं, यह तो एक नसीहत है। पस जिसका जी चाहे, इससे 
नसीहत हासिल करे। और वे इससे नसीहत हासिल नहीं करेंगे मगर यह कि अल्लाह 
चाहे, वही है जिससे डरना चाहिए और वही है बख़्शने के लायक। (49-56) 








नसीहत चाहे कितनी ही मुदल्लल (ताकिक) हो, सुनने वाले के लिए वह उसी वक्त 
मुअस्सिर (प्रभावी) बनती है जबकि वह उसके बारे में संजीदा हो। अगर सुनने वाला संजीदा 
न हो तो नसीहत उसके दिल में नहीं उतरेगी। जो दलील एक संजीदा इंसान को तड़पा देती 
है वह सिर्फ उसकी लायानी (निरर्थक) बहसों में इजाफा करने का सबब बनेगी । 
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(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
नहीं, में कसम खाता हूं कियामत के दिन की। और नहीं, में कसम खाता हूं मलामत 
करने वाले नफ्स की। क्या इंसान ख्याल करता है कि हम उसकी हड्डियों को जमा 
न करेंगे। क्यों नहीं, हम इस पर कादिर हैं कि उसकी उंगलियों की पोर-पोर तक 
दुरुस्त कर दें। बल्कि इंसान चाहता है कि ढिठाई करे उसके सामने। वह पूछता है 
कि कियामत का दिन कब आएगा। पस जब आंखें ख़ीरह (चौंधिया जाना) हो 
जाएंगी। और चांद बेनूर हो जाएगा। और सूरज और चांद इकटूठा कर दिए जाएंगे। 


उस दिन इंसान कहेगा कि कहां भागूं। हरगिज नहीं, कहीं पनाह नहीं। उस दिन 
तेरे रब ही के पास ठिकाना है। उस दिन इंसान को बताया जाएगा कि उसने क्या 








पारा 29 I490 सूएह-75. अल-कियामह 
आगे भेजा और क्या पीछे छोड़ा। बल्कि इंसान ख़ुद अपने आपको जानता है, चाहे 
वह कितने ही बहाने पेश करे। (-5) 





इंसान के अंदर पैदाइशी तौर पर यह शुऊर मौजूद है कि वह बुराई और भलाई में तमीज 
करता है। वह ऐन अपनी फितरत के तहत यह चाहता है कि बुराई करने वाले को सजा मिले 
और भलाई करने वाले को इनाम दिया जाए। यही वह शुऊर है जिसे कुरआन में नफ्से 
लव्यामा कहा गया है। यह नफ्से लामा आलमे आहिरत के हकीकी होने की एक 
नप्सियाती शहादत (गवाही) है। इस दाखिली (अंदुरूनी) शहादत के बाद जो शख्स उसके 
तकाजे पूरे न करे वह गोया अपनी ही मानी हुई बात का इंकार कर रहा है। 


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तुम उसके पढ़ने पर अपनी जबान न चलाओ ताकि तुम उसे जल्दी सीख लो। हमारे 
ऊपर है उसे जमा करना और उसे सुनाना। पस जब हम उसे सुनाएं तो तुम उस सुनाने 
की पैरवी करो। फिर हमारे ऊपर है उसे बयान कर देना। (6-9) 











अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर “वही! (ईश्वरीय वाणी) उतरती तो 
आप उमे लेने में जल्दी फरमाते। इससे आपको मना कर दिया गया। इस सिलसिले में मजीद 
फरमाया कि कुरआन का जो हिस्सा उतर चुका है और जो तुम्हें मुखातब बना रहा है, उस 
पर सारी तवज्जोह सर्फ करो न कि कुरआन के उस बकिया हिस्से पर जो अभी उतरा नहीं 
और जिसने अभी तुम्हें मुखातब नहीं बनाया। इससे यह मालूम हुआ कि जिस वक्‍त जिस 
कुरआन के हिस्से का एक शख्स मुकल्लफ है उसी पर उसे सबसे ज्यादा तवज्जोह देना 
चाहिए । जिस कुरआन के हिस्से का एक शख्स मुकल्लफ न हो उसके पीछे दौड़ना 'उजलत” 
(जल्दी) है जो कुरआनी हिक्मत के सरासर खिलाफ है। 


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हरगिज नहीं, बल्कि तुम चाहते हो जो जल्द आए। और तुम छोड़ते हो जो देर में आए। 
कुछ चेहरे उस दिन बारौनक होंगे। अपने रब की तरफ देख रहे होंगे। और कुछ चेहरे 


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सूरह-75. अल-क्यामह I49I पारा 29 
उस दिन उदास होंगे। गुमान कर रहे होंगे कि उनके साथ कमर तोड़ देने वाला मामला 
किया जाएगा। हरगिज नहीं, जब जान हलक तक पहुंच जाएगी। और कहा जाएगा कि 

कौन है झाड़ फूंक करने वाला। और वह गुमान करेगा कि यह जुदाई का वक्‍त है। और 
पिंडली से पिंडली लिपट जाएगी। वह दिन होगा तेरे रब की तरफ जाने का। (20-30) 





आखिरत की तरफ से गफलत की वजह हमेशा सिर्फ एक होता है, और वह हुब्बे 
आजिला है। यानी अपने अमल का फौरी नतीजा चाहना। आख़िरत के लिए अमल का 
नतीजा देर में मिलता है। इसलिए आदमी उसे नजरअंदाज कर देता है। और दुनिया के लिए 
अमल का नतीजा फौरन मिलता हुआ नजर आता है। इसलिए आदमी उसकी तरफ दौड़ 
पड़ता है। लोग देखते हैं कि हर आदमी पर आखिरकार मौत तारी होती है और वह उसकी 
तमाम कामयाबियों को बातिल कर देती है। मगर कोई शख्स उससे सबक नहीं लेता। यहां 
तक कि ख़ुद उसकी मौत का लम्हा आ जाए और वह उससे सबक लेने की मोहलत छीन ले। 
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तो उसने न सच माना और न नमाज पढ़ी। बल्कि झुठलाया और मुंह मोड़ा। फिर 
अकडता हुआ अपने लोगों की तरफ चला गया। अफसोस है तुझ पर अफसोस है। फिर 
अफसोस है तुझ पर अफसोस है। क्या इंसान ख्याल करता है कि वह बस यूं ही छोड़ 
दिया जाएगा। क्या वह टपकाई हुई मनी (वीर्य) की एक बूंद न था। फिर वह अलका 
(जाक की तरह) हो गया, फिर अल्लाह ने बनाया, फिर आजा (शरीरांग) दुरुस्त किए। 


फिर उसकी दो किसमें कर दीं, मर्द और औरत। क्या वह इस पर कादिर नहीं कि मुर्दो 
को जिंदा कर दे। (37-40) 


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इंसान इब्तिदाअन अपनी मां के पेट में एक बूंद की मानिंद (तरह) दाख़िल होता है। फिर 
वह बढ़कर अलका (जोंक) की मानिंद हो जाता है। फिर मजीद तरक्की होती है और उसके 
आजा (शरीरांग) और नुकूश बनते हैं। फिर वह मर्द या औरत बनकर बाहर आता है। ये 
तमाम हैरतनाक तसर्रुफात (प्रक्रियाएं) इंसान की कोशिश के बगैर होते हैं। फिर कुदरत का 


पारा 29 492 सूरह-76. अद-दहूर 
जो निजाम रोज़ाना ये अजाइब (आश्चर्यजनक प्रक्रियाएं) जुहूर में ला रहा है, उसके लिए मौजूदा 
दुनिया के बाद एक और दुनिया बना देना क्या मुश्किल है। हकीकत यह है कि सच्चाई को 

मानने में जो चीज़ रुकावट बनती है वह लोगों की अनानियत (अहंकार) है न कि दलाइल व 


क्ल (संकेतों) की कमी। 
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सूरह-76. अद-दहूर 

(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

कभी इंसान पर जमाने मे एक वकत गुणश है कि वह कोई कबिले जिक्र चीज न था। 

हमने इंसान को एक मझ्लूत (मिश्रित) बूंद से पैदा किया, हम उसे पलटते रहे। फिर 

हमने उसे सुनने वाला, देखने वाला बना दिया। हमने उसे राह समझाई, चाहे वह शुक्र 

करने वाला बने या इंकार करने वाला। (-3) 








आयतें-37 रुकूअ-2 





कुरआन सातवीं सदी ईसवी में उतरा। उस वक्‍त सारी दुनिया में किसी को यह मालूम 
न था कि रहमे मादर (गर्भाशय) में इंसान का आगाज एक मख्नूत नुत्फे से होता है। यह सिर्फ 
बीसवीं सदी की बात है कि इंसान ने यह जाना कि इंसान और (हैवान) का इब्तिदाई नुत्फा 
दोअज्ज (अवययों) से मिलकर बनता है एक औरत का बैजा (0४७०) और दूसरे मर्द का 
ख (९M) | ये दोनों खुर्दबीनी (अत्यंत सूक्ष्म) अज्जा जब आपस में मिल जाते हैं उस 
वक्त रहमे मादर में वह चीज बनना शुरू होती है जो बिलआखिर इंसान की सूरत इख्तियार 
करती है। ढेड हजर साल पहले कुआन मेंनुफए अमशाज (मरन्नूत नु) का लफ़ आना 
इस बात का सुबूत है कि कुरआन खुदा की किताब है। 

कुरआन में इस तरह की बहुत सी मिसालें हैं। ये इस्तसनाई (विलक्षण) मिसालेवाज्ह 
तौर पर कुरआन को ख़ुदा की किताब साबित करती हैं। और जब यह बात साबित हो जाए 
कि कुरआन खुदा की किताब है तो इसके बाद कुरआन का हर बयान सिर्फ कुरआन का 
बयान होने की बुनियाद पर दुरुस्त मानना पड़ेगा। 

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सूरह-76. अद-दहूर 493 पारा 29 

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हमने मुंकिरों के लिए जंजीरें और तोक और भड़कती आग तैयार कर रखी है। नेक लोग 
ऐसे प्याले से पियेंगे जिसमें काफूर की आमेजिश होगी। उस चशमे (स्रोत) से अल्लाह 
के बंदे पियेंगे। वे उसकी शाख़ें निकालेंगे। वे लोग वाजिबात (दायित्वों) को पूरा करते 
हैं और ऐसे दिन से डरते हैं जिसकी सख्ती आम होगी। और उसकी मुहब्बत पर खाना 
खिलाते हैं मोहताज को और यतीम को और कैदी को। हम जो तुम्हें खिलाते हैं तो 
अल्लाह की खुशी चाहने के लिए। हम न तुमसे बदला चाहते और न शुक्रगुजारी। हम 
अपने रब की तरफ से एक सख्त और तल्ख़ (कटु) दिन का अंदेशा रखते हैं। पस 
अल्लाह ने उन्हें उस दिन की सख्ती से बचा लिया। और उन्हें ताजगी और खुशी अता 
फरमाई और उनके सब्र के बदले में उन्हें जन्नत और रेशमी लिबास अता किया। टेक 
लगाए होंगे उसमें तख्तों पर, उसमें न वे गर्मी से दो चार होंगे और न सर्दी से। जन्नत 
के साये उन पर झुके हुए होंगे और उनके फल उनके बस में होंगे। और उनके आगे 
चांदी के बर्तन और शीशे के प्याले गर्दिश में होंगे। शीशे चांदी के होंगे, जिन्हें भरने 
वालों ने मुनासिब अंदाज़ से भरा होगा। (4-6) 


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दुनिया में इंसान को आजाद पैदा किया गया, और फिर उसे राह दिखा दी गई । नाशुक्री 
की राह और शुक्रगुजार जिंदगी की राह। अब यह इंसान के अपने ऊपर है कि वह दोनों में 
से कौन सी राह इख्तियार करता है। जो शख्स नाशुक्री का तरीका इख्तियार करे उसके लिए 
आखिरत में दोज़ख का अज़ाब है। और जो शख्स शुक्रगुजारी का तरीका इख्तियार करे उसके 
लिए जन्नत की नेमतें। 


पारा 29 494 सूरह-76. अद-दहर 


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और वहां उन्हें एक और जाम पियाला जाएगा जिसमें सौँठ की आमेजिश होगी। यह 
उसमें एक चश्मा (स्रोत) है जिसे सलसबील कहा जाता है। और उनके पास फिर रहे 
होंगे ऐसे लड़के जो हमेशा लड़के ही रहेंगे, तुम उन्हें देखो तो समझो कि मोती हैं जो 
बिखेर दिए गए हैं। और तुम जहां देखोगे वहीं अजीम नेमत और अजीम बादशाही 
देखोगे। उनके ऊपर बारीक रेशम के सब्ज कपड़े होंगे और दबीज़ (गाढ़) रेशम के सब्ज 
कपड़े भी, और उन्हें चांदी के कंगन पहनाए जाएंगे। और उनका रब उन्हें पाकीज़ा 
मशरूब (पेय) पिलाएगा। बेशक यह तुम्हारा सिला (प्रतिफल) है और तुम्हारी कोशिश 
मकबूल (माननीय) हुई। (7-22) 


यह बरतर जन्नत का बयान है जहां ज्यादा बरतर ईमान का सुबूत देने वाले लोग बसाए 
जाएंगे। उस जन्नत के बाशिंदों को शाहाना नेमतें हासिल होंगी। 


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हमने तुम पर कुरआन थोड़ा-थोड़ा करके उतारा है। पस तुम अपने रब के हुक्म पर सत्र 
करो और उनमें से किसी गुनाहगार या नाशुक्र की बात न मानो। और अपने रब का 
नाम सुबह व शाम याद करो। और रात को भी उसे सज्दा करो। और उसकी तस्बीह 








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सूरह-77. अल-मुरसलात I495 पारा 29 
करो रात के लंबे हिस्से में। ये लोग जल्दी मिलने वाली चीज को चाहते हैं और उन्होंने 
छोड़ रखा है अपने पीछे एक भारी दिन को। हम ही ने उन्हें पेदा किया और हमने उनके 
जोड़बंद मजबूत किए, और जब हम चाहेंगे उन्हीं जैसे लोग उनकी जगह बदल लाएंगे। 
यह एक नसीहत है, पस जो शख्स चाहे अपने रब की तरफ रास्ता इख्तियार कर ले। 
और तुम नहीं चाह सकते मगर यह कि अल्लाह चाहे। बेशक अल्लाह जानने वाला 
हिक्मत (तत्वदर्शिता) वाला है। वह जिसे चाहता है अपनी रहमत में दाखिल करता है, 
और जालिमों के लिए उसने दर्दनाक अजाब तैयार कर रखा है। (23-3]) 





हक की दावत को न मानने के दो ख़ास सबब होते हैं। या तो आदमी के सामने दुनिया 
का मफद हेता है औ मफद (हित) से महरूमी का अंदेशा उसे हक की तरफ बढ़ने नहीं देता। 
दूसरा सबब यह है कि आदमी तकब्बुर (घमंड) की नफ्सियात में मुन्तिला हो और उसका तकब्बुर 
इसमें रुकावट बन जाए कि वह अपने से बाहर किसी की बड़ाई को तस्लीम करे। ये दोनों किस्म 
के लोग हक की दावत की राह में तरह-तरह की रुकावटें डालते हैं। मगर हक के दाऔ को हुक्म 
है कि वह उनका लिहाज किए बगेर अपना काम सब्र के साथ जारी रखे। 


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आयतें-50 सूरह-77. अल-मुरसलात रुकूअ-2 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
कसम है हवाओं की जो छोड़ दी जाती हैं। फिर वे तूफानी रफ्तार से चलती हैं। और 
बादलों को उठाकर फैलाती हैं। फिर मामले को जुदा करती हैं। फिर याददिहानी डालती 


हैं। उज्ज के तौर पर या डरावे के तौर पर। जो वादा तुमसे किया जा रहा है वह जरूर 
वेभ (घटित) होने वाला है। (-7) 


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समुद्र से भाप उठकर फजा में जाती हैं और बादल बन जाती हैं। इन बादलों को हवाएं 
उड़कर एक तरफ से दूसरी तरफ ले जाती हैं। वे एक इलाके मे बारिश बरसाकर सरसब्जी 
का सामान करती हैं और दूसरे इलाके को ख़ुश्क छोड़ देती हैं। इससे मालूम हुआ कि इस 
दुनिया का निजाम एक और दूसरे के दर्मियान फर्क करने के उसूल पर कायम है। मौजूदा 
दुनिया में इस उसूल का इउ्हार जुजई (आंशिक) सूरत में हो रहा है और आखिरत में इस 
उसूल का इज्हार अपनी कामिल (पूर्ण) सूरत में होगा। 


पारा 29 I496 सूरह-77. अल-मुरसलात 
हवाओं की यह नौइयत आदमी के लिए याददिहानी है। उनका किसी के लिए रहमत और 

किसी के लिए जहमत बनना इस हकीकत की याददिहानी है कि मौजूदा दुनिया में जब दो 

मुक्नलिफ किस्म के इंसान हैं तो उनके लिए खुदा का फैसला दो अलग-अलग सूरतों में जाहिर 

होगा। फिर हवाओं की यह नौइयत खुदा की तरफ से इतमामेहुज्जन (आह्वान की अति) भी है। 

इस मुजाहिरे के बाद किसी के लिए मअजरत (विवशता जताने) की कोई गुंजाइश नहीँ। 


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पस जब सितारे बेनूर हो जाएंगे। और जब आसमान फट जाएगा। और जब पहाड़ रेजाररेजा 

कर दिए जाएंगे। और जब पैग़म्बर मुअय्यन (निश्चित) वक़्त पर जमा किए जाएंगे। किस 
दिन के लिए वे टाले गए हैं। फैसले के दिन के लिए। और तुम्हें क्या ख़बर कि फैसले 

का दिन क्या है। तबाही है उस दिन झुठलाने वालों के लिए। क्या हमने अगलों को हलाक 
नहीं किया। फिर हम उनके पीछे भेजते हैं पिछलों को। हम मुजरिमों के साथ ऐसा ही करते 
हैं। खराबी है उस दिन झुटलाने वालों के लिए। (8-9) 


जब कियामत आएगी तो दुनिया का मौजूदा निजाम दरहम बरहम हो जाएगा । जो लोग 
मौजूदा दुनिया में अपने आपको जोरआवर समझते हैं और इस बिना पर हक की दावत (सत्य 
के आस्वान) को नजरअंदाज करते हैं, वे उस दिन अपने आपको इस हाल में पाएंगे कि उनसे 
ज्यादा बेजेर और कोई नहीं। 


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क्या हमने तुम्हें एक हकीर (तुच्छ) पानी से पैदा नहीं किया। फिर उसे एक महफूज 


जगह रखा, एक मुर्करर मुद्दत तक। फिर हमने एक अंदाजा ठहराया, हम केसा 
अच्छा अंदाजा ठहराने वाले हैं। ख़राबी है उस दिन झुठलाने वालों की। कया हमने 


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सूरह-77. अल-मुरसलात I497 पारा 29 
जमीन को समेटने वाला नहीं बनाया, जिंदों के लिए और मुर्दों के लिए। और हमने 

उसमें ऊंचे पहाड़ बनाए और तुम्हें मीठा पानी पिलाया। उस रोज ख़राबी है झुठलाने 
वालों के लिए। (20-28) 


मौजूदा दुनिया का निजाम इस तरह बनाया गया है कि उस पर गौर करने वाला उसके 
आइने में आख़िरत को देख लेता है। इसके बावजूद जो लोग हक (सत्य) को झुठलाते है उनसे 
बड़ा मुजरिम और कोई नहीं। 


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चलो उस चीज की तरफ जिसे तुम झुठलाते थे। चलो तीन शाखां वाले साये की तरफ। 
जिसमें न साया है और न वह गर्मी से बचाता है। वह अंगारे बरसाएगा जैसे कि ऊचा 
महल, जर्द ऊटों की मानिंद, उस दिन ख़राबी है झुटलाने वालों के लिए। यह वह दिन 
है जिसमें लोग बोल न सकेंगे। और न उन्हें इजाजत होगी कि वे उद्र पेश करें। खराबी 
है उस दिन झुटलाने वालों के लिए। यह फैसले का दिन है। हमने तुम्हें और अगले 
लोगों को जमा कर लिया। पस अगर कोई तदबीर हो तो मुझ पर तदबीर चलाओ। 
खराबी है उस दिन झुटलाने वालों के लिए। (29-40) 





आखिरत की हौलनाकियां जब सामने आएंगी तो इंसान उनके मुकाबले में अपने आपको 
बिल्कुल बेबस पाएगा। उस वक्‍त उन लोगों का बोलना बंद हो जाएगा जो दुनिया में इस तरह 
बोलते थे जैसे कि उनके अल्फाज का जख़ीरा कभी ख़त्म होने वाला नहीं। 


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बेशक डरने वाले साये में और चशमों (स्रोतों) में होंगे, ओर फलों में जो वे चाहे। मजे 

के साथ खाओ और पियो। उस अमल के बदले में जो तुम करते थे। हम नेक लोगों 
को ऐसा ही बदला देते हैं। ख़राबी है उस दिन झुठलाने वालों के लिए। खाओ ओर 
बरत लो थोड़े दिन, बेशक तुम गुनाहगार हो। ख़राबी है उस दिन झुटलाने वालों के 
लिए। और जब उनसे कहा जाता है कि झुको तो वे नहीं झुकते। खराबी है उस दिन 
झुठलाने वालों के लिए। अब इसके बाद वे किस बात पर ईमान लाएंगे। (4-50) 


मौजूदा दुनिया में खुदा की नेमतें वकती तौर पर इम्तेहान की गरज से रखी गई हैं। 
आखिरत में ख़ुदा की नेमतें अबदी (चिरस्थाई) तौर पर ज्यादा कामिल सूरत में ज़ाहिर होंगी। 
आज इन नेमतों में हर एक हिस्सा पा रहा है। मगर आख़िरत की आला नेमतें सिर्फ उन लोगों 
का हिस्सा होंगी जिन्होंने आजादी के हालात में इताअत की। जो उस वक़्त झुके जबकि वे 
झुकने के लिए मजबूर न थे। जो लोग कौल (कथन) पर झुकें उनके लिए जन्नत है और जो 
लोग वैल (दुख) को देखकर झुकें उनके लिए जहन्नम। 


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सूरह-78. अन-नबा 499 पारा 30 
आयतें-40 सूरह-78. अन-नबा रुकूअ-2 
(मक्का में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
लोग किस चीज के बारे में पूछ रहे हैं। उस बड़ी ख़बर के बारे में, जिसमें वे लोग 
मुख्ललिफ हैं। हरगिज़ नहीं, अनकरीब वे जान लेंगे। हरगिज़ नहीं, अनकरीब वे जान 
लेंगे। क्या हमने ज़मीन को फर्श नहीं बनाया, और पहाड़ों को मेख्नें। और तुम्हें हमने 
बनाया जोड़े जोड़े, और नींद को बनाया तुम्हारी थकान दूर करने के लिए। और हमने 
रात को पर्दा बनाया, और हमने दिन को मआश (जीविका) का वक्‍त बनाया। और 
हमने तुम्हारे ऊपर सात मज़बूत आसमान बनाए। और हमने उसमें एक चकमता हुआ 
चिराग रख दिया। और हमने पानी भरे बादलों से मूसलाधार पानी बरसाया, ताकि हम 
उसके ज़रिए से उगाएं गल्ला और सब्जी और घने बाग़। बेशक फैसले का दिन एक 
मुर कत्त है। 0-7) 





अरब के लोग आख़िरत के मुंकिर न थे अलबत्ता वे आखिरत की उस नौइयत के मुंकिर 
थे जिसकी उन्हें कुरआन में ख़बर दी जा रही थी। यानी उन्हें इस बाब में शुबह था कि 
'मुहम्मद' को न मानने से वे आखिरत के आलम में ज़लील व ख़्वार हो जाएंगे। 

मौजूदा दुनिया में जो तबीई (भौतिक) वाकेयात हैं वे आहिरत के दिन की तरफ इशारा 
करने वाले हैं। हमारी दुनिया का हाल तकाज़ा करता है कि उसी के मुताबिक उसका एक 
मुस्तकबिल हो। इस पहलू से गौर किया जाए तो यह मानना पड़ता है कि इस अजीम आगाज 
का एक अजीम अंजाम आने वाला है। यह दुनिया यूं ही बेअंजाम ख़त्म हो जाने वाली नहीं। 


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जिस दिन सूर फूका जाएगा, फिर तुम फौज दर फौज आओगे। और आसमान खोल दिया 
जाएगा, फिर उसमें दरवाजे ही दरवाज़े हो जाएंगे। और पहाड़ चला दिए जाएंगे तो वे रेत 
की तरह हो जाएंगे। बेशक जहन्नम घात में है, सरकशों का ठिकाना, उसमें वे मुद्दतों 
पड़े रहेंगे। उसमें वे न किसी ठंडक को चखेंगे और न पीने की चीज़, मगर गर्म पानी और 


# 9५ को 


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पारा 30 I500 सूरह-78. अन-नबा 
पीप, बदला उनके अमल के मुवाफिक। वे हिसाब का अंदेशा नहीं रखते थे। और उन्होंने 

हमारी आयतों को बिल्कुल झुठला दिया। और हमने हर चीज़ को लिखकर शुमार कर रखा 
है। पस चखो कि हम तुम्हारी सजा ही बढ़ाते जाएंगे। (8-30) 


दुनिया में सरकशी इंसान को बहुत लजीज़ मालूम होती है क्योंकि वह उसकी अना 
(अहंकार) को तस्कीन देती है। मगर इंसान की सरकशी जब आख़िरत में अपनी अस्ल 
हकीकत के एतबार से जाहिर होगी तो सूरतेहाल बिल्कुल मुर्ललिफ हो जाएगी। जिस चीज़ 
से आदमी दुनिया में लज्जत लिया करता था, अब वह उसके लिए एक भयानक अज़ाब बन 


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बेशक डरने वालों के लिए कामयाबी है। बाग़ और अंगूर। और नौख्रेज़ हमसिन 
लड़कियां। और भरे हुए जाम। वहां वे लग्व (घटिया, निरर्थक) और झूठी बात न सुनेंगे। 
बदला तेरे रब की तरफ से होगा, उनके अमल के हिसाब से रहमान की तरफ से जो 
आसमानों और ज़मीन और उनके दर्मियान की चीजों का रब है, कोई कुदरत नहीं रखता 
कि उससे बात करे। जिस दिन रूह और फरिश्ते सफबस्ता (पंक्तिबद्ध) खड़े होंगे, कोई 
न बोलेगा मगर जिसे रहमान इजाज़त दे, और वह ठीक बात कहेगा। यह दिन बरहक 
है, पस जो चाहे अपने रब की तरफ ठिकाना बना ले। हमने तुम्हें करीब आ जाने वाले 


अज़ाब से डरा दिया है, जिस दिन आदमी उसको देख लेगा जो उसके हाथों ने आगे 
भेजा है, और मुंकिर कहेगा, काश मैं मिट्टी होता। (3।-40) 


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जन्नत का माहौल लग्व और झूठी बातों से पाक होगा। इसलिए जन्नत की लतीफ व 
नफीस दुनिया में बसाने के लिए सिर्फ वही लोग चुने जाएंगे जिन्होंने मौजूदा दुनिया में इस 
अहलियत का सुबूत दिया हो कि वे लग्व और झूठ से दूर रहकर ज़िंदगी गुजारने का जौक 
रखते हैं। 


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सूरह-79. अन-नाज़िआत I50l पारा 30 


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आयतें-46 सूरह-79. अन-नाजिआत रुकूअ-2 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

कसम है जड़ से उखाइने वाली हवाओं की। और कसम है आहिस्ता चलने वाली हवाओं 

की। और कसम है तैरने वाले बादलों की। फिर सबकत (अग्रसरता) करके बढ़ने वालों 

की। फिर मामले की तदबीर करने वालों की। जिस दिन हिला देने वाली हिला 
डालेगी। उसके पीछे एक और आने वाली चीज़ आएगी। कितने दिल उस दिन धड़कते 
होंगे। उनकी आंखें झुक रही होंगी। वे कहते हैं क्या हम पहली हालत में फिर वापस 
होंगे। क्या जब हम बोसीदा हड़िडियां हो जाएंगे। उन्होंने कहा कि यह वापसी तो बड़े 
घाटे की होगी। वह तो बस एक डांट होगी, फिर यकायक वे मैदान में मौजूद होंगे। 
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हर साल दुनिया में यह मंजर दिखाई देता है कि बजाहिर हर तरफ सुकून होता है। इसके 
बाद तेज़ हवाएं चलती हैं। वे बादलों को उड़ाना शुरू करती हैं। फिर वे बारिश बरसाती हैं। 
जल्द ही बाद लोग देखते हैं कि जहां ख़ाली ज़मीन थी वहां एक नई दुनिया निकल कर खड़ी 
हो गई। फितरत का यह वाकया आख़िरत के इम्कान को बताता है। यह तमसील की ज़बान 
में बता रहा है कि मौजूदा दुनिया के अंदर से आखिरत की दुनिया का बरामद होना इतना ही 
मुमकिन है जितना ख़ाली जमीन से सरसब्ज जमीन का जुहूर में आना। 


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पारा 30 502 सूरह-79. अन-नाजिआत 
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क्या तुम्हें मूसा की बात पहुंची है। जबकि उसके रब ने उसे तुवा की मुकद्दस (पवित्र) 
वादी में पुकारा। फिरऔन के पास जाओ, वह सरकश हो गया है। फिर उससे कहो 
क्या तुझे इस बात की ख्वाहिश है कि तू दुरुस्त हो जाए। और मैं तुझे तेरे रब की राह 
दिखाऊ फिर तू डरे। पस मूसा ने उसे बड़ी निशानी दिखाई। फिर उसने झुठलाया और 
न माना। फिर वह पलटा कोशिश करते हुए। फिर उसने जमा किया, फिर उसने 
पुकारा। पस उसने कहा कि मैं तुम्हारा सबसे बड़ा रब हूं। पस अल्लाह ने उसे आख़िरत 
और दुनिया के अज़ाब में पकड़ा। बेशक इसमें नसीहत है हर उस शरस के लिए जो 
डरे। (5-26) 


फिरऔन और इस तरह के दूसरे मुंकिरीन की ज़िंदगी इस बात का सुबूत है कि जो शख्स 
हकीकते वाकया का इंकार करे वह लाजिमन उसकी सज़ा पाकर रहता है। ये तारीख़ी मिसालें 
आदमी की इबरत (सीख) के लिए काफी हैं। मगर कोई इबरत की बात सिर्फ उस शख्स के 
लिए इबरत का जरिया बनती हैं जो अंदेशा की नफ्सियात रखता हो। जो किसी अमल को 
उसके अंजाम के एतबार से देखे न कि सिफ उसके आगाज के एतबार से। 


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क्या तुम्हारा बनाना ज्यादा मुश्किल है या आसमान का, अल्लाह ने उसे बनाया। 
उसकी छत को बुलन्द किया फिर उसे दुरुस्त बनाया। और उसकी रात को तारीक 
(अंधकारमय) बनाया और उसके दिन को जाहिर किया। और ज़मीन को इसके बाद 
फैलाया। उससे उसका पानी और चारा निकाला। और पहाड़ों को कायम कर दिया, 
सामाने हयात (जीवन-सामग्री) के तौर पर तुम्हारे लिए और तुम्हारे मवेशियों के 
लिए। (27-33) 


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कायनात की सूरत में जो वाकया हमारे सामने मौजूद है वह इतना ज्यादा बड़ा है कि इसके 
बाद हर दूसरा वाकया इससे छोटा हो जाता है। फिर जिस दुनिया में बड़े वाकये का जुहूर मुमकिन 
हो वहां छोटे वाकये का जुहूर क्यों मुमकिन न होगा । ऐसी हालत में कुरआन की यह ख़बर कि 
इंसान को दुबारा पैदा होना है एक ऐसी ख़बर है जिसे काबिलेफहम बनाने के लिए पहले ही 
से बहुत बड़े पैमाने पर मालूम असबाब मौजूद हैं। 


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पारा 30 


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फिर जब वह बड़ा हंगामा आएगा। जिस दिन इंसान अपने किए को याद करेगा। और 
देखने वालों के सामने दोजूख़ जाहिर कर दी जाएगी। पस जिसने सरकशी की और 
दुनिया की ज़िंदगी को तरजीह दी, तो दोजुख़ उसका ठिकाना होगा और जो शख्स अपने 
रब के सामने खड़ा होने से डरा और नफ्स को ख्याहिश से रोका, तो जन्नत उसका 
ठिकाना होगा। वे कियामत के बारे में पूछते हैं कि वह कब खड़ी होगी। तुम्हें क्या काम 
उसके जिक्र से। यह मामला तेरे रब के हवाले है। तुम तो बस डराने वाले हो उस शख्स 
को जो डरे। जिस रोज़ ये उसे देखेंगे तो गोया वे दुनिया में नहीं ठहरे मगर एक शाम 
या उसकी सुबह। (34-46) 





आदमी दो चीजों के दर्मियान है। एक मौजूदा दुनिया जो सामने है। और दूसरे आख़िरत 
की दुनिया जो गैब (अप्रकट) में है। आदमी का अस्ल इम्तेहान यह है कि वह मौजूदा दुनिया 
के मुकाबले में आख़िरत को तरजीह दे। मगर यह काम सिर्फ वही लोग कर सकते हैं जो अपने 
नफ्स की ख़्वाहिशों पर कंट्रोल करने का हौसला रखते हों। 


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पारा 30 I504 सूरह-80. अबस 
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आयतें-42 सूरह-80. अबस रुकूअना 
(मक्का में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

उसने त्यौरी चढ़ाई हुआ और बेरुख़ी बरती इस बात पर कि अंधा उसके पास आया। 
और तुम्हें क्या ख़बर कि वह सुधर जाए या नसीहत को सुने तो नसीहत उसके काम 
आए। जो शख्स बेपरवाही बरतता है, तुम उसकी फिक्र में पड़ते हो। हालांकि तुम पर 
कोई जिम्मेदारी नहीं अगर वह न सुधरे। और जो शख्स तुम्हारे पास दौड़ता हुआ आता 
है और वह डरता है, तो तुम उससे बेपरवाही बरतते हो। हरगिज़ नहीं, यह तो एक 
नसीहत है, पस जो चाहे याददिहानी हासिल करे। वह ऐसे सहीफों (ग्रंथो) में है जो 
मुकर्रम हैं, बुलन्द मर्तबा हैं, पाकीजा हैं, मुअज़्ज्ज, नेक कातिबों के हाथों में। (-6) 





अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम एक बार मक्का में कुरेश के सरदारों से 
दावती गुफ्तगू कर रहे थे। इतने में एक नाबीना मुसलमान अब्दुल्लाह बिन उम्मे मकतूम वहां 
आ गए। उन्होंने कहा : 'ऐ अल्लाह के रसूल, अल्लाह ने जो कुछ आपको सिखाया है उसमें 
से मुझे सिखाइए ।' अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को ऐसे मौके पर एक अंधे 
शख्स का आना नागवार गुजरा, इस पर ये आयतें उतरीं। इन आयात में बज़ाहिर ख़िताब 
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से है मगर हकीकत में इस वाकये के हवाले से 
बताया गया है कि अल्लाह की नज़र में उन बड़ों की कोई कीमत नहीं जो दीन से फिरे हुए 
हों। अल्लाह के नज़दीक कीमती इंसान सिर्फ वह है जिसके अंदर ख़शिय्यत (फ) वाली रूह 
हो, चाहे बज़ाहिर वह एक अंधा आदमी दिखाई देता हो। 


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बुरा हो आदमी का, वह केसा नाशुक्र है। उसे किस चीज से पैदा किया है, एक बूंद 
से। उसे पैदा किया। फिर उसके लिए अंदाज़ा ठहराया। फिर उसके लिए राह आसान 
कर दी। फिर उसे मौत दी, फिर उसे कब्र में ले गया। फिर जब वह चाहेगा उसे दुबारा 








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सूरह-80. अबस 505 पारा 30 
ज़िंदा कर देगा। हरगिज नहीं, उसने पूरा नहीं किया जिसका अल्लाह ने उसे हुक्म दिया 
था। पस इंसान को चाहिए कि वह अपने खाने को देखे। हमने पानी बरसाया अच्छी 
तरह, फिर हमने ज़मीन को अच्छी तरह फाड़ा। फिर उगाए उसमें ग॒ल्ले और अंगूर और 
तरकारियां और जैतून और खजूर और घने बाग और फल और सब्जा, तुम्हारे लिए और 
तुम्हारे मवेशियों के लिए सामाने हयात (जीवन-सामग्री। के तौर पर (7-32) 


इंसान से जो खुदापरस्ती मत्लूब है उसका मुहर्रिक (प्रेरक) अस्लन शुक्र है। इंसान अपनी 
तख्नीक को सोचे और अपने गिर्द व पेश के कुदरती इंतिजामात पर गौर करे तो लाजिमन 
उसके अंदर अपने रब के बारे में शुक्र का जज़्बा पैदा होगा। इस शुक्र और एहसानमंदी के 
जज्वे के तहत जिस अमल का जुहूर होता है उसी का नाम खुदारपरस्ती है। 


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पस जब वह कानों को बहरा कर देने वाला शोर बरपा होगा। जिस दिन आदमी भागेगा 
अपने भाई से, और अपनी मां से ओर अपने बाप से, और अपनी बीवी से और अपने 
बेटों से। उनमें से हर शख्स को उस दिन ऐसा फिक्र लगा होगा जो उसे किसी और 
तरफ मुतवज्जह न होने देगा। कुछ चेहरे उस दिन रोशन होंगे, हंसते हुए, खुशी करते 
हुए। और कुछ चेहरों पर उस दिन खाक उड़ रही होगी, उन पर स्याही छाई हुई होगी। 
यही लोग मुंकिर हैं, ढीठ हैं। (३३-42) 





सच्चाई को न मानना और उसके मुकाबले में सरकशी दिखाना सबसे बड़ा जुर्म है, ऐसे 
लोग आख़िरत में बिल्कुल बेकीमत होकर रह जाएंगे। और जो लोग सच्चाई का एतराफ करें 
और उसके आगे अपने आपको झुका दें वही आखिरत में बाकीमत इंसान ठहरेंगे। आखिरत 
की इज्ज़तें और कामयाबियां सिर्फ ऐसे ही लोगों का हिस्सा होंगी । 


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सूरह-8. अत-तकवीर 


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सूरह-8।. अत-तकवीर 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

जब सूरज लपेट दिया जाएगा। और जब सितारे बेनूर हो जाएंगे। और जब पहाड़ 
चलाए जाएंगे। और जब दस महीने की गाभन ऊटनियां आवारा फिरेंगी। और जब 
वहशी जानवर इकट्ठा हो जाएंगे। और जब समुद्र भड़का दिए जाएंगे। और जब 
एक-एक किस्म के लोग इकट्ठा किए जाएंगे। और जब जिंदा गाड़ी हुई लड़की से पूछा 
जाएगा कि वह किस कुसूर में मारी गई। और जब आमालनामे (कर्म-पत्र) खोले जाएंगे। 
और जब आसमान खुल जाएगा। और दोजूख़ भड़काई जाएगी। और जब जन्नत करीब 
लाई जाएगी। हर शख्स जान लेगा कि वह क्या लेकर आया है। (-4) 


आयतें-29 रुकूअना 





कुरआन में जगह-जगह कियामत की मंज़रकशी की गई है। कियामत जब आएगी तो 
दुनिया का मौजूदा तवाजुन (संतुलन) टूट जाएगा। उस वक्‍त इंसान अपने आपको बिल्कुल 
बेबस महसूस करेगा। उस दिन नेकी के सिवा दूसरी तमाम चीज़ें अपना वजन खो देंगी। 
मज्लूम को हक होगा कि वह ज़ालिम से अपने जुल्म का जो बदला लेना चाहे ले सके। 


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पस नहीं, में कसम खाता हूं पीछे हटने वाले, चलने वाले और छुप जाने वाले सितारों की। 
और रात की जब वह जाने लगे। और सुबह की जब वह आने लगे कि यह एक बाइज्जृत 
रसूल का लाया हुआ कलाम है। कुब्वत वाला, अर्श वाले के नजदीक बुलन्द मर्तबा है। 
उसकी बात मानी जाती है, वह अमानतदार है। और तुम्हारा साथी दीवाना नहीं। और 
उसने उसे खुले उफुक (क्षितिज) में देखा है। और वह गेब की बातों का हरीस (हिर्स रखने 


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सूरह-82. अल-इनफितार I507 पारा 30 
वाला) नहीं। और वह शैतान मरदूद का कौल नहीं। फिर तुम किधर जा रहे हो। यह तो 

बस आलम (संसार) वालों के लिए एक नसीहत है, उसके लिए जो तुम में से सीधा चलना 
चाहे। और तुम नहीं चाह सकते मगर यह है कि अल्लाह रब्बुल आलमीन चाहे। (5-29) 





ज़मीन पर रात दिन का आना और इंसान के मुशाहिदे (अवलोकन) में सितारों के 
मकामात का बदलना जमीन की महवरी (धुरीय) गर्दिश की बिना पर होता है। इस एतबार 
से इन अल्फाज़ का मतलब यह होगा कि ज़मीन की महवरी गर्दिश का निज़ाम इस बात पर 
गवाह है कि मुहम्मद सल्ल० अल्लाह के रसूल हैं और कुरआन खुदा का कलाम है जो फरिश्ते 
के जरिए उन पर उतरा है। 

ज़मीन की महवरी गर्दिश इस कायनात का इंतिहाई नादिर और इंतिहाई अजीम वाकया 
है। यह वाकया गोया एक मॉडल है जो “वही” (ईश्वरीय वाणी) के मामले को हमारे लिए 
काबिलेफहम बनाता है। अगर यह तसवुर कीजिए कि ज़मीन अपने महवर (धुरी) पर गर्दिश 
करती हुई वसीअ ख़ला (अंतरिक्ष) में सूरज के गिर्द घूम रही है तो ऐसा महसूस होगा गोया 
रिमोट कंट्रोल का कोई ताकतवर निजाम है जो इसे इंतिहाई सेहत के साथ कंट्रोल कर रहा 
है। फरिश्ते के जरिए एक इंसान और खुदा के दर्मियान रब्त (संपर्क) कायम होना भी इसी 
किस्म का एक वाकया है। पहला वाकया तमसील के रूप में दूसरे वाकथे को समझने में मदद 


देता है। 
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सूरह-82. अल-इनफितार 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 


आयतें-9 रुकूअ-ा 


पारा 30 I508 सूरह-82. अल-इनफितार 
जब आसमान फट जाएगा। और जब सितारे बिखर जाएंगे। और जब समुद्र बह पड़ेंगे। 
और जब कञ्रें खोल दी जाएंगी। हर शख्स जान लेगा कि उसने क्या आगे भेजा और 
क्या पीछे छोड़ा। ऐ इंसान तुझे किस चीज़ ने अपने रब्बे करीम की तरफ से धोखे में 
डाल रखा है। जिसने तुझे पैदा किया। फिर तेरे आजा (शरीरांग) को दुरुस्त किया, फिर 
तुझे मुतनासिब (संतुलित) बनाया। जिस सूरत में चाहा तुम्हें तर्तीब दे दिया। हरगिज़ 
नहीं, बल्कि तुम इंसाफ के दिन को झुठलाते हो। हालांकि तुम पर निगहबान मुकर 

हैं। मुअज्जज़ लिखने वाले। वे जानते हैं जो कुछ तुम करते हो। बेशक नेक लोग ऐश 
में होंगे। और बेशक गुनाहगार दोजख़ में। इंसाफ के दिन वे उसमें डाले जाएंगे। वे उससे 
जुदा होने वाले नहीं। और तुम्हें क्या ख़बर कि इंसाफ का दिन क्या है। फिर तुम्हें क्या 
ख़बर इंसाफ का दिन क्या है। उस दिन कोई जान किसी दूसरी जान के लिए कुछ न 
कर सकेगी। और मामला उस दिन अल्लाह ही के इख्तियार में होगा। (-9) 





कुरआन में यह ख़बर दी गई है कि बिलआखिर इंसाफ का एक दिन आने वाला है 
जबकि तमाम इंसानों को जमा करके उनके अमल के मुताबिक उन्हें सजा या इनाम दिया 
जाएगा। यह ख़बर दुनिया की मौजूदा सूरतेहाल के ऐन मुताबिक है। इंसान की बामअना 
(अर्थपूर्ण) तख्लीक इस ख़बर में अपनी तौजीह (तक) पा लेती है। इसी तरह इंसान के कौल 
व अमल की रिकॉर्डिंग का निज़ाम जो मौजूदा दुनिया में पाया जाता है वह इस ख़बर के बाद 
पूरी तरह काबिलेफहम बन जाता है। (कैल व अमल की रिकॉर्डिंग की तफ्सील इन पंक्तियों 
के लेखक की किताब 'मज़हब और जदीद चैलेन्ज' (500 47५९5) में मुलहिज़ा फरमाएं ) 


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सूह-83. अल-मुतप्मिम्रीन I509 पारा 30 
आयतें-36 सूछ& अल्माम्किन रुकूअना 
(मक्का में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

खराबी है नाप तोल में कमी करने वालों की। जो लोगों से नाप कर लें तो पूरा लें। 
और जब उन्हें नाप कर या तौल कर दें तो घटा कर दें। क्या ये लोग नहीं समझते कि 
वे उठाए जाने वाले हैं, एक बड़े दिन के लिए जिस दिन तमाम लोग खुदावंदे आलम 
के सामने खड़े होंगे। हरगिज नहीं, बेशक गुनाहगारों का आमालनामा (कर्म-पत्र) 
सिज्जीन में होगा। और तुम क्या जानो कि सिज्जीन क्या है। वह एक लिखा हुआ दफ्तर 
है। ख़राबी है उस दिन झुठलाने वालों की। जो इंसाफ के दिन को झुठलाते हैं। और 
उसे वही शख्स झुटलाता है जो हद से गुजरने वाला हो, गुनाहगार हो। जब उसे हमारी 
आयतें सुनाई जाती हैं तो वह कहता है कि ये अगलों की कहानियां है। हरगिज़ नहीं, 
बल्कि उनके दिलों पर उनके आमाल का जंग चढ़ गया है। हरगिज़ नहीं, बल्कि उस 
दिन वे अपने रब से ओट में रखे जाएंगे। फिर वे दोज़ख में दाखिल होंगे। फिर कहा 
जाएगा कि यही वह चीज है जिसे तुम झुठलाते थे। (-7) 





हर आदमी यह चाहता है कि वह दूसरों में अपना पूरा हक वुसूल करे। मगर आला 
इंसानी किरदार यह है कि आदमी दूसरों को भी उनका पूरा-पूरा हक अदा करे। वह दूसरों के 
लिए वही कुछ पसंद करे जो वह अपने लिए पसंद कर रहा है। जो लोग खुद पूरा लें और 
दूसरों को कम दें वे आखिरत में इस हाल में पहुंचेंगे कि वहां वे बर्बाद होकर रह जाएंगे। 
जो अपने लिए पूरा वुसूल कर रहा है वह गोया इस बात को जानता है कि आदमी को 
उसका पूरा हक मिलना चाहिए । ऐसी हालत में जब वह दूसरों को देने के वक्‍त उन्हें कम देता 
है तो वह दूसरों के हुकूक के बारे में अपनी हस्सासियत (संवेदनशीलता) को घटाता है। जो 
शख्स बार-बार इस तरह का अमल करे उस पर बिलआखिर वह वकत आएगा जबकि दूसरों 
के हुकूक के बारे में उसकी हस्सासियत बिल्कुल ख़त्म हो जाए। उसके दिल के ऊपर पूरी तरह 
उसके अमल का जंग लग जाए। 


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हरगिज़ नहीं, बेशक नेक लोगों का आमालनामा इल्लिय्यीन में होगा। और तुम क्या 
जानो इल्लिय्यीन क्या है। लिखा हुआ दफ्तर है, मुर्कब फरिश्ता की निगरानी में। 

बेशक नेक लोग आराम में होंगे। तख्तों पा बैठे देखते होंगे। उनके चेहरों में तुम आराम 
की ताज़गी महसूस करोगे। उन्हें शराबे ख़ालिस मुहर लगी हुई पिलाई जाएगी, जिस 
पर मुश्क की मुहर होगी। और यह चीज़ है जिसकी हिर्स करने वालों को हिर्स करना 
चाहिए। और उस शराब मे तस्नीम की आमेज़िश होगी। एक ऐसा चशमा (स्रोत) 
जिससे मुकर्रब लोग पियेंगे। बेशक जो लोग मुजरिम थे वे ईमान वालों पर हंसते थे। 
और जब वे उनके सामने से गुजरते तो वे आपस में आंखों में इशारे करते थे। और जब 
वे अपने लोगों में लौटते तो दिल्‍्लगी करते हुए लौटते। और जब वे उन्हें देखते तो कहते 
कि ये बहके हुए लोग हैं। हालांकि वे उन पर निगरां बनाकर नहीं भेजे गए। पस आज 
ईमान वाले मुंकिरों पर हंसते होंगे, तस्तों पर बैठे देख रहे होंगे। वाकई मुंकिरों को उनके 

किए का ख़ूब बदला मिला। (8-36) 


मौजूदा दुनिया में अक्सर लोग इस बात के हरीस नहीं होते कि वे दूसरों को उनका पूरा 
हक अदा करें। उनकी सारी दिलचस्पी इसमें होती है कि वे दूसरों से अपना हक भरपूर वुसूल 
कर सकें। ऐसे लोग आख़िरत में महरूम होकर रह जाएंगे। अक्लमंद लोग वे हैं जो सबसे 
ज्यादा इस बात के हरीस बनें कि वे दूसरों को भरपूर तौर पर उनका हक अदा करें। क्योंकि 
यही वे लोग हैं जो आख़िरत में भरपूर तौर पर खुदा की नेमतों के मुस्तहिक करार पाएंगे। 

जो शख्स आख़िरत की ख़ातिर अपनी दुनियावी मस्लेहतों को नजरअंदाज कर दे वह 
दुनियापरस्तों की नज़र में हकीर (तुच्छ) बन जाता है। मगर जब आख़िरत आएगी तो मालूम 
होगा कि वही लोग होशियार थे जिनको दुनिया में नादान समझ लिया गया था। 


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सूह84. अलइनश्किक ॥5] पारा 30 
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आयतें-25 सूह&4. अलइनश्किक रुकूअना 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

जब आसमान फट जाएगा। और वह अपने रब का हुक्म सुन लेगा और वह इसी लायक 
है। और जब ज़मीन फैला दी जाएगी। और वह अपने अंदर की चीज़ों को उगल देगी 
और ख़ाली हो जाएगी। और वह अपने रब का हुक्म सुन लेगी और वह इसी लायक 
है। ऐ इंसान तू कशां-कशां (सश्रम) अपने रब की तरफ जा रहा है। फिर उससे मिलने 
वाला है। तो जिसे उसका आमालनामा उसके दाहिने हाथ में दिया जाएगा। उससे 
आसान हिसाब लिया जाएगा। और वह अपने लोगों के पास खुश-खुश आएगा। और 
जिसका आमालनामा उसकी पीठ के पीछे से दिया जाएगा, वह मौत को पुकारेगा, और 
जहन्नम में दाखिल होगा। वह अपने लोगों में बेगम रहता था। उसने ख्याल किया था 
कि उसे लोटना नहीं है। क्‍यों नहीं। उसका रब उसे देख रहा था। पस नहीं, में कसम 
खाता हूं शफक (सांध्य-लालिमा) की। और रात की और उन चीज़ों की जिन्हें वह समेट 
लेती है। और चांद की जब वह पूरा हो जाए। कि तुम्हें जरूर एक हालत के बाद दूसरी 
हालत पर पहुंचना है। तो उन्हें क्या हो गया है कि वे ईमान नहीं लाते। और जब उनके 
सामने कुरआन पढ़ा जाता है तो वे खुदा की तरफ नहीं झुकते। बल्कि मुंकिरीन झुठला 
रहें हैं। और अल्लाह जानता है जो कुछ वे जमा कर रहे हैं। पस उन्हें एक दर्दनाक अज़ाब 
की खुशखबरी दे दो। लेकिन जो लोग ईमान लाए और उन्होंने अच्छे अमल किए उनके 
लिए कभी न ख़त्म होने वाला अज्र है। (-25) 


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यहां कियामत के मुताल्लिक जो बात कही गई है वह बज़ाहिर नामालूम दुनिया के बारे में 
एक ख़बर की हैसियत रखती है। ताहम ऐसे शवाहिद (प्रमाण) मौजूद हैं जो उसकी सदाकत (सच्चाई) 


पारा 30 5]2 सूरह-85. अल-बुरूज 
का करीना (संकेत) पैदा करते हैं। इसकी एक मिसाल मौजूदा दुनिया है। एक दुनिया की मौजूदगी 
खुद इस बात का सुबूत है कि दूसरी ऐसी ही या इससे मुख्तलिफ दुनिया वुजूद में आ सकती है। 
दूसरे, कुरआन में ऐसे गैर मामूली पहलुओं का मौजूद होना जो यह साबित करते हैं कि वह खुदा 
की किताब है। (तफ्सील के लिए मुलाहिजा हो, अज्मते कुरआन) 

इन वाजेह कराइन (संकेतों) के बाद जो लोग आखिरत पर यकीन न करें और आख़िरत 
फरामोशी में जिंदगी गुजारें वे यकीनन ऐसा जुर्म कर रहे हैं जिसकी सज़ा वही हो सकती है 
जिसका ऊपर जिक्र हुआ। 


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आयतें-22 सूरह-85. अल-बुरूज रुकूअना 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
कसम है बुजों वाले आसमान की। और वादा किए हुए दिन की। और देखने वाले 
की और देखी हुई की। हलाक हुए खन्दक वाले, जिसमें भड़कते हुए ईंधन की आग 
थी। जबकि वे उस पर बैठे हुए थे। और जो कुछ वे ईमान वालों के साथ कर रहे 


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सूरह-85. अल-बुरूज 53 पारा 30 
थे उसे देख रहे थे। और उनसे उनकी दुश्मनी इसके सिवा किसी वजह से न थी कि 
वे ईमान लाए अल्लाह पर जो जबरदस्त है, तारीफ वाला है। उसी की बादशाही 
आसमानों और जमीन में है, और अल्लाह हर चीज़ को देख रहा है। जिन लोगों ने 
मोमिन मर्दों और मोमिन औरतों को सताया, फिर तोबा न की तो उनके लिए 
जहन्नम का अज़ाब है। और उनके लिए जलने का अज़ाब है। बेशक जो लोग ईमान 
लाए और उन्होंने नेक अमल किया उनके लिए बाग हैं जिनके नीचे नहरें जारी होंगी, 
यह बड़ी कामयाबी है। बेशक तेरे रब की पकड़ बड़ी सख्त है। वही आगाज करता 
है और वही लौटाएगा। और वह बख्शने वाला है, मुहब्बत करने वाला है, अर्शबरीं 
का मालिक, कर डालने वाला जो चाहे। क्या तुम्हें लश्करों की ख़बर पहुंची है, 
फिरऔन और समूद की। बल्कि ये मुंकिर झुठलाने पर लगे हुए हैं। और अल्लाह उन्हें 
हर तरह से घेरे हुए है। बल्कि वह एक बाअज़्मत (गोरवशाली) कुरआन है, लौहे 
महफूज़ (सुरक्षित पट्टिका) में लिखा हुआ। (।-2१) 





कायनात का निजाम तकाज़ा करता है कि आखिरी फैसले का एक दिन आए। उसी दिन 
की ख़बर तमाम पैगम्बर और उनके सच्चे नायब देते रहे हैं। इसके बावजूद जो लोग हक का 
एतराफ न करें बल्कि हक के दाजियों के दुश्मन बन जाएं वे ऐसी सरकशी करते हैं जिसके 
हौलनाक अंजाम से वे किसी तरह बच नहीं सकते। ताहम जो लोग हर किस्म की मुश्किलात 
के बावजूद सदाकत की आवाज़ पर लब्बैक कहें वे खुदाए महरबान की तरफ से ऐसा इनाम 
पाएंगे जिससे बड़ा इनाम और कोई नहीं। 

आसमानी किताबों में कुरआन इस्तसनाई (अद्वितीय) तौर पर एक महफूज़ किताब है। 
यह इस बात की अलामत है कि कुरआन को खुदा की खुसूसी मदद हासिल है, इसे जेर करना 
किसी के लिए मुमकिन नहीं यहां तक कि कियामत आ जाए 


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पारा 30 I5I4 सूरह-86. अत-्तास्कि 
आयतें-7 सूरह-86. अत-तार्कि रुकूअना 
(मक्का में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

कसम है आसमान की और रात को नुमूदार (प्रकट) होने वाले की। और तुम क्या जानो 
कि वह रात को नुमूदार होने वाला क्या है, चमकता हुआ तारा। कोई जान ऐसी नहीं 
है जिसके ऊपर निगहबान न हो। तो इंसान को देखना चाहिए कि वह किस चीज़ से 
पैदा किया गया है। वह एक उछलते पानी से पैदा किया गया है। जो निकलता है पीठ 
और सीने के दर्मियान से। बेशक वह उसे दुबारा पेदा करने पर कादिर है। जिस दिन 
छुपी बातें परखी जाएंगी। उस वक्‍त इंसान के पास कोई ज़ोर न होगा और न कोई 
मददगार । कसम है आसमान चक्कर मारने वाले की। और फूट निकलने वाली ज़मीन 
की। बेशक यह दोटूक बात है और वह हंसी की बात नहीं। वे तदबीर (युक्ति) करने 
में लगे हुए हैं। और मैं भी तदबीर करने में लगा हुआ हूं। पस मुंकिरों को ढील दे, 
उन्हें ढील दे थोड़े दिनों। (-7) 





इंसान के ऊपर तारे का चमकना तमसील (उपमा) की जबान में इस वाकये की 
याददिहानी है कि कोई देखने वाला उसे देख रहा है। यह देखने वाला इंसान के आमाल को 
रिकॉर्ड कर रहा है। वह मौत के बाद दुबारा इंसान को पैदा करेगा। और उससे उसके तमाम 
आमाल का हिसाब लेगा। यह सिर्फ इम्तेहान की मोहलत है जो इंसान के दर्मियान और उस 
वक्त के दर्मियान हदे फासिल (सीमा-रेखा) बनी हुई है। इम्तेहान की मुदूदत ख़त्म होते ही 
उसका बह अंजाम सामने आएगा जिससे आज वह बजाहिर बहुत दूर नजर आता है। 


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सूरह-87 ° अल-आला 55 पारा 30 
आयतें-9 सूरह-87. अल-आला रुकूअ-ा 
(मक्का में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

अपने रब के नाम की पाकी बयान कर जो सबसे ऊपर है। जिसने बनाया फिर ठीक 
किया। और जिसने ठहराया, फिर राह बताई। और जिसने चारा निकाला। फिर उसे 
स्याह कूड़ा बना दिया। हम तुम्हें पढ़ाएंगे फिर तुम नहीं भूलोगे। मगर जो अल्लाह चाहे, 
वह जानता है खुले को भी और उसे भी जो छुपा हुआ है। और हम तुम्हें ले चलेंगे 
आसान राह। पस नसीहत करो अगर नसीहत फायदा पहुंचाए। वह शख्स नसीहत 
कुबूल करेगा जो डरता है। और उससे गुरेज़ (विमुखता) करेगा वह जो बदबख्त होगा। 
वह पड़ेगा बड़ी आग में। फिर न उसमें मरेगा और न जिएगा। कामयाब हुआ जिसने 
अपने को पाक किया। और अपने रब का नाम लिया। फिर नमाज़ पढ़ी। बल्कि तुम 
दुनियावी जिंदगी को मुकदूदम रखते हो। और आख़िरत बेहतर है और पाएदार है। यही 
अगले सहीफों (ग्रंथों) में भी है, मूसा और इब्राहीम के सहीफों में। (-9) 


इंसान की और दुनिया की तख़्लीक में वाज़ेह तौर पर एक मंसूबाबंदी है। यह मंसूबाबंदी 
तकाज़ा करती है कि इस तरीक का कोई मकसद हो। यही वह मकसद है जो 'वही' (ईश्वरीय 
वाणी) के जरिए इंसान के ऊपर खोला गया है। ताहम “वही” से वही शख्स नसीहत कुबूल 
करेगा जिसके अंदर सोचने और असर लेने का मिजाज हो। ऐसे लोग खुदा के अबदी 
(चिरस्थाई) इनामात में दाखिल किए जाएंगे। और जिन लोगों की सरकशी उनके लिए नसीहत 
कुबूल करने में रुकावट बन जाए, उनका अंजाम सिर्फ यह है कि वे हमेशा के लिए आग में 
जलते रहें। 


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पारा 30 I5I6 सूरह-88. अल-गाशियह 
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सूरह-88. अल-गाशियह रुकूअना 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

क्या तुम्हें उस छा जाने वाली की ख़बर पहुंची है। कुछ चेहरे उस दिन जलील होंगे, 
मेहनत करने वाले थके हुए। वे दहकती आग में पड़ेंगे। खौलते हुए चशमे (स्रोत) से 
पानी पिलाए जाएंगे। उनके लिए कांटों वाले झाइ़ के सिवा और कोई खाना न होगा, 
जो न मोटा करे और न भूख मिटाए। कुछ चेहरे उस दिन वारौनक होंगे। अपनी कमाई 
पर खुश होंगे। ऊचे बाग में। उसमें कोई लग्व (घटिया, निरर्थक) बात नहीं सुनेंगे। 
उसमें बहते हुए चशमे होंगे। उसमें तख्त होंगे ऊचे बिछे हुए। और आबबख़ोरे सामने 
चुने हुए। और बराबर बिछे हुए गद्दे। और कालीन हर तरफ पड़े हुए। तो क्या वे 
ऊंट को नहीं देखते कि वह कैसे पैदा किया गया। और आसमान को कि वह किस 
तरह बुलन्द किया गया। और पहाड़ों को कि वह किस तरह खड़ा किया गया। और 
जमीन को कि वह किस तरह बिछाई गई। पस तुम याददिहानी कर दो, तुम बस 
याददिहानी करने वाले हो। तुम उन पर दारोगा नहीं। मगर जिसने रूगर्दानी 
(अवहेलना) की और इंकार किया, तो अल्लाह उसे बड़ा अज़ाब देगा। हमारी ही तरफ 
उनकी वापसी है। फिर हमारे जिम्मे है उनसे हिसाब लेना। (-26) 


आयतें-26 





आदमी देखता है कि ऊंट जैसा अजीबुल ख़िलकत (विचित्र) जानवर उसका मुतीअ 
(आज्ञापालक) है। आसमान अपनी सारी अज्मतों के बावजूद उसके लिए मुसख्खर है। जमीन 
हमारी किसी कोशिश के बगैर हमारे लिए हद-दर्जा मुवाफिक बनी हुई है। ये वाकेयात सोचने 
वाले को खुदा और आखिरत की याददिहानी कराते हैं। जो लोग दुनिया के इस निजाम से 
याददिहानी की गिजा लें उन्होंने अपने लिए खुदा की अबदी (चिरस्थाई) नेमतों का इस्तहकाक 
(अधिकार) साबित किया। और जो लोग गफलत में पड़ें रहें उन्होंने यह साबित किया कि वे 
सिर्फ इस काबिल हैं कि उन्हें हर किस्म की नेमतों से हमेशा के लिए महरूम कर दिया जाए। 


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सूएह89. अल-फ्ज़ [57 पारा 30 


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आयतें-30 सूरह 89. अलम्फ्ज रुकूअ-ा 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

क्महफा (उषाकाल) की। और दस रातों की। और जुफ्त (सम) और ताक 
(विषम) की। और रात की जब वह चलने लगे। क्यों, इसमें अक्लमंद के लिए काफी 

कसम है। तुमने नहीं देखा, तुम्हारे रब ने आद के साथ क्या मामला किया, सुतूनों 
(स्तंभो) वाले इरम के साथ। जिनके बराबर कोई कौम मुल्कों में पेदा नहीं की गई। 
और समूद के साथ जिन्होंने वादी में चट्टानें तराशीं। और मेखरों वाले फिरऔन के 
साथ, जिन्होंने मुल्कों में सरकशी की। फिर उनमें बहुत फसाद फैलाया। तो तुम्हारे 
रब ने उन पर अजाब का कोड़ा बरसाया। बेशक तुम्हारा रब घात में है। पस इंसान 
का हाल यह है कि जब उसका रब उसे आज़माता है और उसे इज्जत और नेमत 
देता है तो वह कहता है कि मेरे रब ने मुझे इज्जत दी। और जब वह उसे आजमाता 
है और उसका रिजक उस पर तंग कर देता है तो वह कहता है कि मेरे रब ने मुझे 
जलील कर दिया। हरगिज़ नहीं, बल्कि तुम यतीम की इज्जत नहीं करते। और तुम 
मिस्कीन को खाना खिलाने पर एक दूसरे को नहीं उभारते। और तुम विरासत को 
समेटकर खा जाते हो। और तुम माल से बहुत ज्यादा मुहब्बत रखते हो। हरगिज 


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पारा 30 I5I8 सूरह-89. अल-फ्ज 
नहीं, जब जमीन को तोड़कर रेजा-रेज़ा कर दिया जाएगा। और तुम्हारा रब आएगा 
और फर्ति आणो कतार (पंक्ति) दर कतार। और उस दिन जहन्नम लाई जाएगी, 


उस दिन इंसान को समझ आएगी, और अब समझ आने का मौका कहां। वह 
कहेगा, काश मैं अपनी जिंदगी में कुछ आगे भेजता। पस उस दिन न तो खुदा के 
बराबर कोई अज़ाब देगा, और न उसके बांधने के बराबर कोई बांधेगा। ऐ नफ्से 
मुतमइन (संतुष्ट आत्मा) चल अपने रब की तरफ। तू उससे राजी, वह तुझसे राज़ी। 
फिर शामिल हो मेरे बंदों में और दाखिल हो मेरी जन्नत में। (-30) 


दुनिया में आदमी को दो किस्म के अहवाल पेश आते हैं। कभी पाना और कभी महरूम 
हो जाना। ये दोनों हालते इम्तेहान के लिए हैं। वे इस जांच के लिए हैं कि आदमी किस हाल 
में कौन सा रद्देअमल पेश करता है। जिस शख्स का मामला यह हो कि जब उसे कुछ मिले 
तो वह फख़ करने लगे और जब उससे छीना जाए तो वह मंफी (नकारात्मक) नफियात में 
मुब्तिला हो जाए, ऐसा शख्स इम्तेहान में नाकाम हो गया। 

दूसरा इंसान वह है कि जब उसे मिला तो उसने ख़ुदा के सामने झुक कर उसका शुक्र 
अदा किया, और जब उससे छीना गया तो दुबारा उसने खुदा के आगे झुक कर अपने इज्ज 
(निर्बलता) का इकरार किया। यही दूसरा इंसान है जिसे यहां नफ्से मुतमइन कहा गया है, 
यानी मुतमइन रूह (संतुष्ट आत्मा) । 

नफ्से मुतमइन का मकाम उस शख्स को मिलता है जो कायनात में खुदा की निशानियों 
पर गौर करे। जो तारीख़ के वाकेयात से इबरत (सीख) व नसीहत की गिजा ले सके। जो इस 
बात का सुबूत दे कि जब उसकी जात में और हक में टकराव होगा तो वह अपनी जात को 
नजरअंदाज़ कर देगा और हक को कुबूल कर लेगा। जो एक बार हक को मान लेने के बाद 
फिर उसे कभी न छोड़े, चाहे उसकी खातिर उसे अपने आपको कुचलना पड़े, और चाहे उसके 
नतीजे में उसकी जिंदगी वीरान हो जाए। 


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आयतें-20 सूरह-90. अल-बलद रुकूअ-ा 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

नहीं, में कसम खाता हूं इस शहर (मक्का) की। और तुम इसमें मुकीम (रह रहे) हो। 
और कसम है बाप की और उसकी औलाद की। हमने इंसान को मशक्कत (सश्रम 
स्थिति) में पैदा किया है। क्या वह ख्याल करता है कि उस पर किसी का ज़ोर नहीं। 
कहता है कि मैंने बहुत सा माल ख़र्च कर दिया। क्या वह समझता है कि किसी ने 
उसे नहीं देखा। क्या हमने उसे दो आंखें नहीं दीं। और एक ज़बान और दो होंट। और 
हमने उसे दोनों रास्ते बता दिए। फिर वह घाटी पर नहीं चढ़ा। और तुम क्या जानो 
कि क्या है वह घाटी। गर्दन को छुड़ाना। या भूख के ज़माने में खिलाना, कराबतदार 
यतीम को, या ख़ाकनशीं (धूल-धूसरित) मोहताज को। फिर वह उन लोगों में से हो 
जो ईमान लाए और एक दूसरे को सब्र की और हमदर्दी की नसीहत की। यही लोग 
नसीब वाले हैं। और जो हमारी आयतों के मुंकिर हुए वे बदबख्ती (दुर्भाग्य) वाले हैं। 
उन पर आग छाई हुई होगी। (-20) 





इंसान किसी हाल में अपने आपको मशक्कतों से आजाद नहीं कर पाता। इससे मालूम 
हुआ कि इंसान किसी बालातर कुत (उच्चतर शक्ति) के मातहत है। इसी तरह इंसान की 
आंखें बताती हैं कि कोई बरतर आंख भी है जो उसे देख रही है। इंसान की कुब्वते नुत्क 
(वाक शक्ति) इशारा करती है कि उसके ऊपर भी एक साहिवे नुत्क है जिसने उसे नुत्क 
(बोलने) की सलाहियत दी। और उसे हिदायत का रास्ता दिखाया। आदमी अगर हकीकी 
मञनों में अपने आपको पहचान ले तो यकीनन वह खुदा को भी पहचान लेगा। 

खुदा ने इंसान को दो किस्म की बुलन्दियों पर चढ़ने का हुक्म दिया है। एक इंसान के 
साथ मुंसिफाना सुलूक और इंसान की जरूरतों में उसके काम आना। दूसरी चीज़ अल्लाह पर 
ईमान और यकीन है। यह ईमान और यकीन जब आदमी के अंदर गहराई के साथ उतरता 
है तो वह आदमी की अपनी जात तक महदूद नहीं रहता बल्कि मुतअदूदी (प्रसारक) बन जाता 
है। ऐसा इंसान दूसरों को भी उसी हक पर लाने की कोशिश करने लगता है जिसे वह खुद 
इख्तियार किए हुए है। 


पारा 30 520 सूरह-9।. अश-शम्स 


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आयतें-5 सूरह-9।. अश-शम्स रुकूअन 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

कसम है सूरज की और उसकी धूप चढ़ने की। और चांद की जबकि वह सूरज के पीछे 

आए। और दिन की जबकि वह उसे रोशन कर दे। और रात की जब वह उसे छुपा 
ले। और आसमान की और जैसा कि उसे बनाया। और ज़मीन की और जैसा कि उसे 
फेलाया। और जान की जैसा कि उसे ठीक किया। फिर उसे समझ दी, उसकी बदी 
की और उसकी नेकी की। कामयाब हुआ जिसने उसे पाक शुद्ध किया और नामुराद 
हुआ जिसने उसे आलूदा (अशुद्ध) किया। समूद ने अपनी सरकशी की बिना पर 
झुठलाया। जबकि उठ खड़ा हुआ उनका सबसे बड़ा बदबख़्त। तो अल्लाह के रसूल ने 
उनसे कहा कि अल्लाह की ऊंटनी और उसके पानी पीने से ख़बरदार। तो उन्होंने उसे 
झुठलाया। फिर ऊटनी को मार डाला। फिर उनके रब ने उन पर हलाकत नाजिल की। 
फिर सबको बराबर कर दिया। वह नहीं डरता कि उसके पीछे क्या होगा। (-5) 








इंसान की हिदायत के लिए अल्लाह तआला ने सहगाना (बहुमुखी) इंतिजाम किया है। 
एक तरफ कायनात इस तरह बनाई गई है कि वह ख़ुदा की मर्जी का अमली इज्हार बन गई 
है। दूसरी तरफ इंसान के अंदर नेकी और बदी का वजदानी शुऊर (आन्तरिक चेतना) रख 
दिया गया है। इसके बाद मजीद एहतिमाम यह फरमाया कि पेगम्बरों के जरिए हक व बातिल 
और ज़म व इंसाफ कोलेगाकी कबिलेफहम (सहज) जबान में खोलकर बता दिया गया। 
इसके बाद भी जो लोग राहेरास्त पर न आएं वे बिलाशुबह जालिम हैं। 


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सूरह-92. अल-लइल 52I पारा 30 
हजरत सालेह अलैहिस्सलाम की ऊंटनी एक एतबार से इस बात की अलामत थी कि 

हकदार का एहतराम करो और उसका हक अदा करो, चाहे वह बेबस और कमजोर क्‍यों न 

हो। एक वजूद जो बजाहिर महज 'ऊंटनी” नज़र आ रहा है, ऐन मुमकिन है कि वह खुदा का 

निशान हो जो लोगों की जांच के लिए मुकर्रर किया गया हो। 


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आयतें-श सूरह-92. अल-लइल रुकूअ-ा 
(मक्का में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

कसम है रात की जबकि वह छा जाए। और दिन की जबकि वह रोशन हो और 

उसकी जो उसने पैदा किए नर और मादा। कि तुम्हारी कोशिशें अलग-अलग हैं। 
पस जिसने दिया और वह डरा और उसने भलाई को सच माना। तो उसे हम आसान 
रास्ते के लिए सुहूलत देंगे। और जिसने बुख्ल (कजूसी) किया और बेपरवाह रहा, और 
भलाई को झुठलाया, तो हम उसे सस्त रास्ते के लिए सुहूलत देंगे। और उसका माल 
उसके काम न आएगा जब वह गढ़े में गिरेगा। बेशक हमारे जिम्मे है राह बताना। 
और बेशक हमारे इख्तियार में है आखिरत और दुनिया। पस मैंने तुम्हें डरा दिया 
भड़कती हुई आग से। उसमें वही पड़ेगा जो बड़ा बदबख्त है। जिसने झुठलाया और 
रूगर्दानी (अवहेलना) की। और हम उससे बचा देंगे ज्यादा डरने वाले को। जो अपना 
माल देता है पाकी हासिल करने के लिए और उस पर किसी का एहसान नहीं 
जिसका बदला उसे देना हो। मगर सिर्फ अपने खुदाए बरतर की खुशनूदी के लिए। 


पारा 30 522 
और अनकरीब वह खुश हो जाएगा। (-2) 


सूरह-9३. अजु-जुहा 





दुनिया में तमाम चीजें जोड़े-जोड़े हैं। नर और मादा, रात और दिन, मुस्वत (धनात्मक) 
जर्रह और मंफी (ऋणात्मक) जरह, मेटर (४९९) और एंटी मेटर। इस दुनिया की हर चीज़ 
अपने जोड़े के साथ मिलकर अपने मकसद को पूरा करती है। यह वाजेह तौर पर इस बात 
का सबूत है कि इस कायनात में मक्सदियत (उद्देश्यपरकता) है। ऐसी बामक्सद कायनात में 
यह नामुमकिन है कि यहां अच्छा अमल और बुरा अमल दोनों बिल्कुल यकसां (समान) अंजाम 
पर ख़त्म हो। कायनात अपने ख़ालिक का जो तआरुफ करा रही है उससे यह बात मुताबिकत 
नहीं रखती। 

अल्लाह का ताल्लुक अपने बंदों से सिर्फ हाकिम का नहीं, बल्कि मददगार का भी है। 
वह अपने उन बंदों का रास्ता हमवार करता है जो उसकी तरफ चलना चाहें। इसके बरअक्स 
जो लोग सरकशी का रास्ता इख़्तियार करें वह उन्हें सरकशी के रास्ते पर दौड़ने के लिए छोड़ 
देता है। 


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आयतें- सूरह-93. अजृ-जुहा रुकूअना 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

कसम है रोजे रोशन (चढ़ते दिन) की। और रात की जब वह छा जाए। तुम्हारे रब ने 
तुम्हें नहीं छोड़ा। और न वह तुमसे बेजार (अप्रसन्न) हुआ। और यकीनन आखिरत 
तुम्हारे लिए दुनिया से बेहतर है। और अनकरीब अल्लाह तुझे देगा। फिर तू राजी हो 
जाएगा। क्या अल्लाह ने तुम्हें यतीम (अनाथ) नहीं पाया फिर ठिकाना दिया। और तुम्हे 
मुतलाशी पाया तो राह दिखाई। और तुम्हें नादार (निर्धन) पाया तो तुम्हें गनी (समृद्ध) 
कर दिया। पस तुम यतीम पर सख्ती न करो। और तुम साइल (मांगने वाले) को न 
झिइ़को। और तुम अपने रब की नेमत बयान करो। (-77) 


इस दुनिया का निज़ाम इस तरह बना है कि यहां दिन भी आता है और रात भी। दोनों 
के मिलने से यहां का निज़ाम मुकम्मल होता है। इसी तरह इंसान के इरतका (उत्थान) के लिए 


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सूरह-94. अल-इनशिराह 523 पारा 30 
भी सख्ती और नर्मी दोनों का पेश आना जरूरी है। इस दुनिया में एक बंदए खुदा के साथ सख्ती 
के हालात इसलिए पेश आते हैं कि उसकी छुपी हुई सलाहियतें बेदार हों। उसकी राह में रुकावटें 
इसलिए डाली जाती हैं ताकि उसका मुस्तकबिल (भविष्य) उसके हाल (वर्तमान) के ज्यादा बेहतर 
हो सके। 
अल्लाह के रसूल मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम यतीम पैदा हुए, फिर अल्लाह ने 

आपको बेहतरीन सरपरस्त अता फरमाया। आप तलाशे हक में सरगरदां (प्रयत्नशील) थे, फिर 
अल्लाह ने आपके लिए हक का दरवाज़ा खोल दिया। आप बजाहिर बेमाल थे, फिर अल्लाह ने 
आपको आपकी पत्नी (हजरत ख़दीज़ा रजि०) के ज़रिए साहिबे माल बना दिया। यह एक 
तारीख़ी मिसाल है जो बताती है कि अल्लाह तआला किस तरह अपने बंदों की मदद फरमाता है। 

इंसान को चाहिए कि वह कमजोरों की मदद करे ताकि वह अल्लाह की मदद का 
मुस्तहिक बने। उसका कलाम नेमते खुदावंदी के इज्हार का कलाम हो ताकि अल्लाह उस पर 
अपनी नेमता का इतमाम फरमाए। 


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आयतें-8 सूरह-94. अल-इनशिराह रुकूअ- 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
कया हमने तुम्हारा सीना तुम्हारे लिए खोल नहीं दिया। और तुम्हारा वह बोझ उतार 
दिया जिसने तुम्हारी पीठ झुका दी थी। और हमने तुम्हारा जिक्र बुलन्द किया। पस 
मुश्किल के साथ आसानी है। बेशक मुश्किल के साथ आसानी है। फिर जब तुम 
फारिग़ हो जाओ तो मेहनत करो। और अपने रब की तरफ तवज्जोह रखो। (-8) 


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अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हकीकत जानने के लिए तड़प रहे थे। 
अल्लाह तआला ने आपको हकीकत का इल्म देकर आपकी तलाश को मअरफत (अन्तर्ज्ञान) 
मंतब्योल कर दिया। हकाइक (यथार्थ, सत्य) की मअरफत के लिए आपका सीना खुल गया। 
फिर आपने मक्का में तौहीद (एकेश्वरवाद) की दावत शुरू की तो बज़ाहिर सख्त मुखालिफतों 
का सामना पेश आया। मगर इन्हीं मुखालिफतों के ज़रिए यह हुआ कि आपका चर्चा सारे 
मुल्क में फैल गया। 


पारा 30 524 सूरह-95. अत-तीन 
यही मौजूदा दुनिया के लिए अल्लाह का कानून है। यहां इब्तिदा में इंसान के साथ उस्र 
(मुश्किल) के हालात पेश आते है लेकिन अगर वह सब्र के साथ उन पर जमा रहे यह उस्र 
उसके लिए नए युस्र (आसानी) तक पहुंचाने का जीना बन जाता है। इसलिए इंसान को 
चाहिए कि वह हमेशा अल्लाह की तरफ देखे, वह अपनी इस्तताअत के बकद्र (यथासामर्थ्य) 
अपनी जद्दोजहद को बराबर जारी रखे। 
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आयतें-8 सूरह-95. अत-तीन रुकूअना 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

कसम है तीन की और जैतून की। और तूरे सीना की। और इस अम्न वाले शहर की। 
हमने इंसान को बेहतरीन साख्त (संरचना) पर पैदा किया। फिर उसे सबसे नीचे फेंक 
दिया। लेकिन जो लोग ईमान लाए और अच्छे काम किए तो उनके लिए कभी ख़त्म 
न होने वाला अज्र (प्रतिफल) है। तो अब क्या है जिससे तुम बदला मिलने को झुठलाते 
हो। क्या अल्लाह सब हाकिमों से बड़ा हाकिम नहीं। (-8) 





(तीन! और 'जैतून' दो पहाड़ों के नाम हैं जिसके करीब बैतुल मविदस वाकेअ है, यानी 
हजरत मसीह का मकामे अमल। 'तूरिसीनीन' से मुराद वह पहाड़ है जहां हज़रत मूसा पर 
खुदा ने “वही” (प्रकाशना) फरमाई। 'बलद अमीन” से मुराद मक्का है जहां पैगम्बरे इस्लाम 
मबऊस (प्रस्थापित) हुए। 

अल्लाह तआला ने इंसान को बेहतरीन सलाहियतों (क्षमताओं) के साथ पैदा किया है। 
ये सलाहियतें इसलिए हैं कि इंसान पेगम्बरों के ज़रिए ज़ाहिर किए जाने वाले हक को पहचाने 
और अपनी ज़िंदगी को उसके मुताबिक बनाए। जो लोग ऐसा करें वे इज्जत और बुलन्दी 
का अबदी मकाम पाएंगे। इसके बरअक्स जो लोग अपनी खुदादाद सलाहियतों को खुदा की 
मर्जी के ताबेअ न करें, उनसे मौजूदा नेमतें भी छीन ली जाएंगी और कामिल महरूमी के सिवा 
कोई जगह न होगी जहां उन्हें ठिकाना मिल सके। पैग॒म्बरों की बेअसत (प्रस्थापना) और 
पेग॒म्बरों के जरिए जाहिर होने वाले नताइज इसकी सदाकत की गवाही देते हैं। 


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सूरह-96. अल-अलक I525 पारा 30 


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आयतें-9 सूरह-96. अल-अलक रुकूअ-ा 
(मक्का में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

पढ़ अपने रब के नाम से जिसने पैदा किया । पैदा किया इंसान को अलक (ख़ून के लोथड़े) 
से। पढ़ और तेरा रब बड़ा करीम है जिसने इल्म सिखाया कलम से। इंसान को वह कुछ 
सिखाया जो वह जानता न था। हरगिज़ नहीं, इंसान सरकशी करता है। इस बिना पर 
कि वह अपने को आत्मनिर्भर देखता है। बेशक तेरे रब ही की तरफ लोटना है। क्या तुमने 
देखा उस शख्स को जो मना करता है, एक बंदे को जब वह नमाज़ अदा करता हो तुम्हारा 
क्या ख्याल है, अगर वह हिदायत पर हो। या डर की बात सिखाता हो। तुम्हारा क्या ख्याल 
है, अगर उसने झुठलाया और रूगर्दानी (अवहेलना) की। क्या उसने नहीं जाना कि अल्लाह 
देख रहा है। हरगिज नहीं, अगर वह बाज़ न आया तो हम पेशानी के बाल पकड़कर उसे 
खींचेंगे। उस पेशानी को जो झूठी गुनाहगार है। अब वह बुला ले अपने हामियों को। हम 
भी दोजख़ के फरिश्तों को बुलाएंगे। हरगिज़ नहीं, उसकी बात न मान और सज्दा कर 
और करीब हो जा। (-9) 





इस सूरह की इब्तिदाई पांच आयते वे हैं जो पैग़म्बरे इस्लाम हजरत मुहम्मद (सल्ल०) पर 
सबसे पहले नाजिल हुई। इंसान को अल्लाह तआला ने मामूली मादूदी अज्जा (भौतिक तत्वों) 
से पैदा किया। फिर उसे यह नादिर (विलक्षण) सलाहियत दी कि वह पढ़े और अल्फाज़ के 








पारा 30 526 सूएह-97. अल-कद 
जरिए मआनी का इदराक कर सके। फिर इंसान को यह मजीद सलाहियत दी गई है कि वह 
कलम को इस्तेमाल करे और इस तरह अपने इलम को मुदव्वन (संग्रहित) और महफूज़ कर 
सके।किल (पाठ) की सलाहियत अगर आदमी को खुद पढ़ने के काबिल बनाती है तो कलम 
उसे इस काबिल बनाता है कि वह अपने इलम को वसीअ पैमाने पर दूसरों तक पहुंचा सके। 

जो लोग हक के मुकाबले में सरकशी करें और हक का रास्ता इखस़्तियार करने वालों की 
राह में रुकावटें डालें उनका अंजाम बहुत बुरा है। ऐसे हालात में हक के दाओ (आह्वानकर्ता) 
का असल सहारा यह है कि वह अल्लाह की इबादत करे। वह लोगों से महरूम होकर खुदा 
से पाए, वह लोगों से दूर होकर (लोगों के) खुदा से करीब हो जाए। 


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र (मक्का में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
हमने इसे उतारा है शबे कद्र (गौरवपूर्ण रात) में। और तुम क्या जानो कि शबे कद्र 
कया है। शबे कद्र हज़ार महीनां से बेहतर है। फरिश्ते और रूह उसमें अपने रब की 
इजाज़त से उतरते हैं। हर हुक्म लेकर। वह रात सरासर सलामती है, सुबह निकलने 
तक। (-5) 





साल की एक ख़ास रात (गालिबन माहे रमजान के आखिरी अशरे की कोई रात) 
अल्लाह तआला के यहां फैसले की रात है। दुनिया के इंतिज़ाम के मुतअल्लिक जो काम उस 
साल में मुकदूदर हैं उनके निफाज़ (लागू करने) के तअय्युन के लिए उस रात को फरिश्ते 
उतरते हैं। इसी किस्म की एक ख़ास रात में कुरआन का नुज़ूल (अवतरण) शुरू हुआ। 

बजाहिर ऐसा मालूम होता है कि इस रात को जमीन पर फरिश्तों की कसरत होती है। 
इससे ज़मीन पर ख़ास तरह का रूहानी माहौल पैदा होता है। अब जो लोग अपने अंदर 
रूहानियत बेदार किए हुए हों वे उससे मुतअस्सिर (प्रभावित) होते हैं और इसके नतीजे में 
उनके अंदर गैर मामूली रूहानी तासीर पैदा हो जाती है जो उनके दीनी अमल की कद्र व 
कीमत आम हालात से बहुत ज़्यादा बढ़ा देती है। 





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सूरह-98. अल-बय्यिनह I527 पारा 30 


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(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

अहले किताब (पूर्ववर्ती-ग्रंथ धारक) और मुश्रिकीन (बहुदेववादी) में से जिन लोगों ने 
इंकार किया वे बाज़ आने वाले नहीं जब तक उनके पास वाज़ेह दलील न आ जाए। 
अल्लाह की तरफ से एक रसूल जो पाक सहीफे (ग्रंथ) पढ़कर सुनाए। जिनमें दुरुस्त 
मज़ामीन लिखे हों। और जो लोग अहले किताब थे वे वाज़ेह दलील आ जाने के बाद 
ही मुख्तलिफ हो गए। हालांकि उन्हें यही हुक्म दिया गया था कि वे अल्लाह की 
इबादत करें। उसके लिए दीन को ख़ालिस कर दें, यकसू (एकाग्रचित्त) होकर और 
नमाज़ कायम करें और जकात दें, और यही दुरुस्त दीन है। बेशक अहले किताब 
और मुश्रिकीन में से जिन लोगों ने कुफ्र किया वे जहन्नम की आग में पड़ेंगे, हमेशा 
उसमें रहेंगे, ये लोग बदतरीन ख़लाइक (निकृष्ट प्राणी) है। जो लोग ईमान लाए और 
उन्होंने अच्छे काम किए, वे लोग बेहतरीन ख़लाइक (सर्वोत्तम प्राणी) हैं। उनका 
बदला उनके रब के पास हमेशा रहने वाले बाग हैं जिनके नीचे नहरें जारी होंगी, उनमें 
वे हमेशा-हमेशा रहेंगे। अल्लाह उनसे राजी और वे उससे राजी, यह उस शख्स के 
लिए है जो अपने रब से डरे। (-8) 


पारा 30 528 सूरह-99. अज-जिलजाल 





अरब के मुश्रकीन और अहले किताब अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से 
कहते थे कि आप कोई मोजिजा (दिव्य चमत्कार) दिखाएं। या फरिश्ता आसमान से आकर 
हमसे कलाम करे तब हम आपको रिसालत (ईशदूतत्व) मानेंगे। मगर इस किस्म का मुताबला 
करने वाले हमेशा गैर संजीदा होते हैं। चुनांचे पिछले लोगों ने इस तरह के मुतालबे किए, मगर 
मुतालबा पूरा होने के बावजूद वे मोमिन न बन सके। खुदा का दीने कय्यिम (सहज सही धर्म) 
यह है कि आदमी एक अल्लाह की इबादत करे। वह दिल से उसका चाहने वाला बन जाए। 
वह नमाज़ कायम करे और ज़कात अदा करे। यही खुदा की तरफ से आने वाला असल दीन 
है। सबसे अच्छे लोग वे हैं जो इस दीने कय्यिम को इख्तियार करें। और सबसे बुरे लोग वे 
हैं जो इस दीने कय्यिम को इख्तियार न करें या इसके सिवा कोई और दीन वज॒अ (गठित) 
करें और उस ख़ुदसाख्ता (स्वनिर्मित) दीन को दीने कय्यिम का नाम दे दें। 


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सूरह-99. अज-जिलजाल 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
जब जमीन शिदूदत से हिला दी जाएगी। और ज़मीन अपना बोझ निकाल कर बाहर 
डाल देगी। और इंसान कहेगा कि इसे क्या हुआ। उस दिन वह अपने हालात बयान 
करेगी। क्योंकि तुम्हारे रब का उसे यही हुक्म होगा। उस दिन लोग अलग-अलग 
निकलेंगे ताकि उनके आमाल उन्हें दिखाए जाएं। पस जिस शख्स ने जुर्रा बराबर नेकी 


की होगी वह उसे देख लेगा और जिस शस्स ने जूर्रा बराबर बदी की होगी वह उसे देख 
लेगा। (-8) 


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आयतें-8 रुकूअ-ा 


कियामत का जलजला मुद्दते इम्तेहान के ख़त्म होने का एलान होगा। इसका मतलब 
यह होगा कि अब लोगों से वह आजादी छिन गई जो इम्तेहान की मस्लेहत की बिना पर उन्हें 
हासिल थी। अब वह वकत आ गया जब लोगों को उनके अमल का बदला दिया जाए। आज 
खुदा की दुनिया बज़ाहिर खामोश है मगर जब हालात बदलेंगे तो यहां की हर चीज़ बोलने 








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सूरह-।00. अल-आदियात I529 पारा 30 
लगेगी । मौजूदा जमाने की ईजादात (आविष्कारों) ने साबित किया है कि बेजान चीजें भी 'बोलने' 
की सलाहियत रखती हैं। स्टूडियो में किए हुए अमल को फिल्म और रिकॉर्ड पूरी तरह दोहरा 
देते हैं। इसी तरह मौजूदा दुनिया गोया बहुत बड़ा खुदाई स्टूडियो है। इसके अन्दर इंसान जो 
कुछ करता है या जो कुछ बोलता है वह सब हर लम्हा महफूज़ हो रहा है। और जब वक्‍त आएगा 

तो हर एक की कहानी को यह दुनिया इस तरह दोहरा देगी कि उसकी कोई भी बात उससे 
बची हुई न होगी, चाहे वह छोटी हो या बड़ी। 


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आयतें-7 सूरह-00. अल-आदियात रुकूअना 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
कसम है उन घोड़ों की जो हांपते हुए दौड़ते हैं। फिर टाप मारकर चिंगारी निकालने 
वाले। फिर सुबह के वक्‍त छापा मारने वाले। फिर उसमें गुबार उड़ने वाले। फिर उस 
वक्त फीज में घुस जाने वाले। बेशक इंसान अपने रब का नाशुक्र है। और वह खुद 
इस पर गवाह है। और वह माल की मुहब्बत में बहुत शदीद है। क्या वह उस वक्‍त 
को नहीं जानता जब वह कब्रों से निकाला जाएगा। और निकाला जाएगा जो कुछ दिलों 
में है। बेशक उस दिन उनका रब उनसे खूब बाखबर होगा। (।-]]) 








घोड़ा एक निहायत वफादार जानवर है। वह अपने मालिक के लिए अपने आपको 
आखिरी हद तक कुर्वान कर देता है, यहां तक कि जंग के मैदान में भी वह अपने मालिक 
का साथ नहीं छोड़ता। यह गोया एक अलामती (सांकेतिक) मिसाल है जो इंसान को बताती 
है कि उसे कैसा बनना चाहिए। इंसान को भी अपने रब का उसी तरह वफादार बनना चाहिए 
जैसा कि घोड़ा इंसान का वफादार होता है। मगर अमलन ऐसा नहीं। 

इस दुनिया में जानवर अपने मालिक का शुक्रगुज़ार है मगर इंसान अपने रब का 
शुक्रगुजार नहीं । यहां जानवर अपने मालिक का हक पहचानता है मगर इंसान अपने रब का 
हक नहीं पहचानता। यहां जानवर अपने मालिक की इताअत (आज्ञापालन) में सरगर्म है मगर 


पारा 30 I530 सूरह-0. अल-कारिअह 
इंसान अपने रब की इताअत में सरगर्म नहीं। 

इंसान उसी जानवर की कद्र करता है जो उसका वफादार हो। फिर कैसे मुमकिन है कि 
वह इस राज़ को न जाने कि खुदा के यहां वही इंसान काबिले कद्र ठहरेगा जो खुदा की नज़र 
में उसका वफादार साबित हो। मगर माल की मुहब्बत उसे अंधा बना देती है। वह एक ऐसी 
हकीकत को जानने से महरूम रहता है जिसका वह खुद अपने करीबी हालात में तजर्बा कर 
चुका है। 


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आयतें-7 सूरह-02. अल-वछिह रुकूअन 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

खड़खड़ाने वाली। क्या है खड़खड़ाने वाली। और तुम क्या जानो कि क्या है वह 
खड़खड़ाने वाली। जिस दिन लोग पतंगों की तरह बिखरे हुए होंगे। और पहाड़ धुनके 
हुए रंगीन ऊन की तरह हो जाएंगे। फिर जिस शख्स का पल्ला भारी होगा वह दिलपसंद 
आराम में होगा। और जिस शरस का पल्ला हल्का होगा तो उसका ठिकाना गढ़ा है। 
और तुम क्या जानो कि वह क्या है, भड़कती हुई आग। (॥-॥) 





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कियामत का भूचाल हर चीज़ को तोड़ फोड़ कर रख देगा । लोगों के तमाम इस्तहकामात 
(दृढ़ चीजे) दरहम बरहम हो जाएंगे। इसके बाद एक नया आलम बनेगा जहां सारा वज़न सिर्फ 
हक में होगा, बकिया तमाम चीज़ें अपना वज़न खो देंगी । मौजूदा दुनिया में इंसानों की पसंद 
का रवाज है। यहां इंसानों की निस्बत से चीजों का वज़न कायम होता है। आखिरत की 
दुनिया खुदा की दुनिया है। वहां खुदा की पसंद के एतबार से एक चीज़ वजनदार होगी और 
दूसरी चीज़ बिल्कुल बेवजन होकर रह जाएगी। 

दुनिया में आमाल का वज़न जाहिर के एतबार से होता है, आख़िरत में आमाल का वज़न 
उनकी अंदरूनी हकीकत के एतबार से होगा। जिस आदमी के अमल में जितना ज्यादा 
इख्लास (निष्ठा) होगा उतना ही ज्यादा वह वजनी करार पाएगा । जो अमल इख़्लास से खाली 











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सूरह-02. अत-तकासुर 53] पारा 30 
हो वह आखिरत में बिल्कुल बेवजन होकर रह जाएगा, चाहे मौजूदा दुनिया में जाहिरबीनों को 
वह कितना ही ज़्यादा बावजन दिखाई देता रहा हो। 

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आयतें-8 सूरह-02. अत-तकासुर रुकूअ-ा 
(मक्का में नाजिल हुई) 

शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
बोहतात (विपुलता) की हिर्स ने तुम्हें गफलत में रखा। यहां तक कि तुम क्रो में जा 
पहुंचे । हरगिज नहीं, तुम बहुत जल्द जान लोगे। फिर हरगिज नहीं, तुम बहुत जल्द जान 
लोगे। हरगिज़ नहीं, अगर तुम यकीन के साथ जानते, कि तुम जरूर दोजुख़ को देखोगे। 
फिर तुम उसे यकीन की आंख से देखोगे। फिर उस दिन तुमसे नेमतों के बारे में पूछा 
जाएगा। (-8) 


आदमी चाहता है कि वह ज्यादा से ज्यादा कमाए, वह ज्यादा से ज़्यादा साजोसामान 
अपने पास जमा करे। वह इसी धुन में लगा रहता है। यहां तक कि उसकी मौत आ जाती 
है। उस वक्त उसे मालूम होता है कि जमा करने की चीज तो दूसरी थी और मैं किसी और 
चीज़ को जमा करने में मसरूफ रहा। 

दुनिया की चीजों का इजाफा सिर्फ आदमी की मस्ऊलियत (जवाबदेही) को बढ़ाता है। और 
आदमी अपनी नादानी से यह समझता है कि वह अपनी कामयाबी में इजाफा कर रहा है। 


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आयतें-3 सूरह-।03. अल-अस्र रुकूअ-ा 
(मक्का में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
कसम है ज़माने की। बेशक इंसान घाटे में है। मगर जो लोग कि ईमान लाए और नेक 


पारा 30 532 सूरह-04. अल-हु-म-जह 
अमल किया और एक दूसरे को हक की नसीहत की और एक दूसरे को सब्र की 
नसीहत की। (।-3) 





आदमी हर लम्हा अपनी मौत की तरफ जा रहा है। इसका मतलब यह है कि आदमी अगर 
अपनी मोहलते उम्र को इस्तेमाल न करे तो आखिरकार उसके हिस्से में जो चीज़ आएगी वह 
सिर्फ हलाकत है। कामयाब होने के लिए आदमी को खुद अमल करना है। जबकि नाकामी के 
लिए किसी अमल की ज़रूरत नहीं। वह अपने आप उसकी तरफ भागी चली आ रही है। 

एक बुजुर्ग ने कहा कि सूरह अस्र का मतलब मैंने एक बफ बेचने वाले से समझा जो 

बाज़ार में आवाज़ लगा रहा था कि लोगो, उस शख्स पर रहम करो जिसका असासा 
(धन-सम्पत्ति) घुल रहा है, लोगो, उस शख्स पर रहम करो जिसका असासा घुल रहा है। इस 
पुकार को सुनकर मैंने अपने दिल में कहा कि जिस तरह बर्फ पिघलकर कम होती रहती है 
इसी तरह इंसान को मिली हुई उम्र भी तेजी से गुज़र रही है। उम्र का मौका अगर बेअमली 
में या बुरे कामों में खो दिया जाए तो यही इंसान का घाटा है। (तफ्सीर कबीर, इमाम राज़ी) 

अपने वक्त को सही इस्तेमाल करने वाला वह है जो मौजूदा दुनिया में तीन बातों का 
सुबूत दे। एक ईमान, यानी हकीकत का शुऊर और उसका एतराफ। दूसरे अमले सालेह, 
यानी वही करना जो करना चाहिए और वह न करना जो नहीं करना चाहिए। तीसरे हक व 
सब्र की तल्कीन, यानी हकीकत का इतना गहरा इदराक (भान) कि आदमी उसका दाऔ 
(आस्वानकर्ता) और मुबल्लिग (प्रचारक) बन जाए 


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आयतें-9 सूरह-।04. अल-हु-म-जुह रुकूअना 

(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 


तबाही है हर ताना देने वाले, ऐब निकालने वाले की। जिसने माल को समेटा और 
गिन-गिन कर रखा। वह ख़्याल करता है कि उसका माल हमेशा उसके साथ रहेगा। 





5. 


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सूरह-05. अल-पील I533 पारा 30 
हरगिज़ नहीं, वह फेंका जाएगा रोंदने वाली जगह में। और तुम क्या जानो कि वह रौंदने 
वाली जगह क्या है। अल्लाह की भड़काई हुई आग जो दिलों तक पहुंचेगी। वह उन 
पर बंद कर दी जाएगी, ऊचे-ऊचे सुतूनों (स्तंभो) में। (-9) 





किसी से इख़्तेलाफ हो तो आदमी उसे दलील से रद्द कर सकता है। मगर यह दुरुस्त 
नहीं कि आदमी उस पर ऐब लगाए। उसे बदनाम करे। उसे इल्जामतराशी (दोषारोपण) का 
निशाना बनाए। पहली बात जाइज है मगर दूसरी बात सरासर नाजाइज़। 

जो लोग ऐसा करते हैं वे इसलिए ऐसा करते हैं कि वे देखते हैं कि उनकी दुनियावी 
हैसियत महफूज़ व मुस्तहकम है। वे समझते हैं कि दूसरे शख्स पर बेबुनियाद इल्जाम लगाने 
से उनका अपना कुछ बिगड़ने वाला नहीं। मगर यह सिर्फ नादानी है। हकीकत यह है कि ऐसा 
करना आग के गढ़े में छलांग लगाना है। ऐसा आग का गढ़ा जिससे निकलने की कोई सबील 
उनके लिए न होगी। 


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सूरह-05. अल-फील 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
क्या तुमने नहीं देखा कि तुम्हारे रब ने हाथी वालों के साथ कया किया। क्या उसने 
उसकी तदबीर को अकारत नहीं कर दिया। और उन पर चिड़ियां भेजीं झुंड की झुंड। 


जो उन पर कंकर की पथरियां फेकती थीं। फिर अल्लाह ने उन्हें खाए हुए भुस की तरह 
कर दिया। (-5) 





आयतें-5 रुकूअन 





अबरहा छटी सदी ईसवी में जुनूबी अरब का एक मसीही हब्शी हुक्मरां था। उसने 
मजहबी जुनून के तहत 570 ई० में मक्का पर हमला किया ताकि काबा को ढाकर ख़त्म कर 
दे। उसके साथ साठ हज़ार आदमियों का लश्कर था जिसमें तकरीबन एक दर्जन हाथी भी 
शामिल थे। इसी बिना पर वे लोग असहाबे फील (हाथी वाले) कहे गए। जब ये लोग मक्का 
के करीब पहुंचे तो हाथियों ने आगे बढ़ने से इंकार कर दिया। इसी के साथ परिंदों के झुंड 
आए जिनकी चौंचों और पंजों में कंकरियां थीं। उन्होंने ये कंकरियां अबरहा के लश्कर पर 
गिराई तो सारा लश्कर अजीबोगरीब किस्म की बीमारी में मुब्तिला हो गया और घबराकर 








पारा 30 534 सूरह-06. कुुइश 
वापस भागा। मगर अबरहा सहित उसके बेशतर अफराद रास्ते ही में हलाक हो गए। 

यह वाकया ऐन उस साल पेश आया जिस साल अल्लाह के रसूल मुहम्मद सल्लल्लाहु 
अलैहि व सल्लम की पैदाइश हुई। यह अल्लाह की तरफ से एक मुज़ाहिरा था कि पैगम्बरे 
इस्लाम को गृलबे की निस्बत दी गई है। आपके साथ या आपके दीन के साथ जो भी 
टकराएगा वह लाजिमन मग॒लूब (परास्त) होकर रहेगा। 

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आयतें-4 सूरह-06. कुइश 

(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 

इस वास्ते कि कुरैश मानूस (अभ्यस्त) हुए, जाड़े और गर्मी के सफर से मानूस। तो उन्हे 

चाहिए कि इस घर के रब की इबादत करें जिसने उन्हें भूख में खाना दिया और ख़ोफ 


से उन्हें अम्न दिया। (-4) 


रुकूअना 





कैश एक तिजारती कीम थे। गर्मी के ज़माने में उनके तिज़ारती काफिले शाम और 
फिलस्तीन की तरफ जाते थे। और सर्दियों के ज़माने में वे यमन की तरफ तिजारती सफर 
करते थे। इन्हीं तिजारतों पर उनकी मआशियात (जीविका) का इंहिसार था। कदीम ज़माने 
में जबकि ताजिरों को लूटना आम था, कुंरैश के काफिले रास्ते में लूटे नहीं जाते थे। इसकी 
वजह काबा से उनका ताल्लुक था। कुंरेश काबा के ख़ादिम और मुतवल्ली (संरक्षक) थे और 
लोगों के ज़ेहनों पर चूंकि काबा का बहुत ज़्यादा एहतराम था। वे काबा के ख़ादिमों और 
मुतवल्लियों का भी एहतराम करते थे और इस बिना पर वे उन्हें नहीं लूटते थे। 
यहां हिक्मते दावत के तहत कुरेश को यह वाकया याद दिलाते हुए इस्लाम की तरफ 
बुलाया गया है। और कहा गया है कि यह बड़ी नाशुक्र की बात होगी कि तुम बैतुल्लाह के 
दुनियावी फायदे तो हासिल करो, और उससे वाबस्ता होने की जो जिम्मेदारियां हैं उन्हें पूरा 
न करो। जो ख़ुदा इंसान को माद्दी (भौतिक) फायदा पहुंचाता है उसी ख़ुदा की उसे इबादत 
भी करना चाहिए । 


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सूरह-07. अल-माऊन 535 पारा 30 
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आयतें-7 सूरह-07. अल-माऊन रुकूअ-ा 
(मक्का में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
क्या तुमने देखा उस शख्स को जो इंसाफ के दिन को झुठलाता है। वही है जो यतीम 
(अनाथ) को धक्के देता है। और मिस्कीन का खाना देने पर नहीं उभरता। पस तबाही 
है उन नमाज़ पढ़ने वालों के लिए जो अपनी नमाज़ से गाफिल हैं। वे जो दिखलावा 
करते हैं। और मामूली जरुरत की चीजें भी नहीं देते। (-7) 


आखिरत की पकड़ का यकीन आदमी को नेक अमल बनाता है। जिस आदमी के अंदर 
आखिरत की पकड़ का यकीन न रहे वह नेकी की हर बात से ख़ाली रहेगा। वह अल्लाह की 
इबातगुजारी से गाफिल हो जाएगा। वह बेजोर आदमी को धक्का देने में भी नहीं शरमाएगा। 
वह गरीबों के हुकूक अदा करने की ज़रूरत नहीं समझेगा। यहां तक कि वह लोगों को ऐसी 
चीज देने का भी रवादार न होगा जिसके देने में उसका कोई हकीकी नुक्सान नहीं, चाहे वह 
दियासलाई की एक डिबिया हो या किसी के हक में खैरख्वाही का एक बोल । 


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सूरह-08. अल-कौसर रुकूअ-ा 
(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
हमने तुम्हें कौसर दे दिया। पस अपने रब के लिए नमाज़ पढ़ो और कुर्बानी करो। बेशक 
तुम्हारा दुश्मन ही बेनाम व निशान है। (-3) 


आयतें-3 


अल्लाह के रसूल मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम बेआमेज़ (विशुद्ध) हक की दावत 
लेकर उठे थे। इस किस्म का काम मौजूदा दुनिया का सबसे ज्यादा मुश्किल काम है। चुनांचे 
आपको इस दावत की राह में अपनी हर चीज़ खो देनी पड़ी। आप अपनी कौम से कट गए। 
आपकी मआशी (आर्थिक) जिंदगी बर्बाद हो गई। आपकी औलाद का मुस्तकबिल तारीक हो 


पारा 30 I536 सूरह-09. अल-काफिरुन 
गया। थोड़े लोगों के सिवा किसी ने आपका साथ नहीं दिया। मगर इन्हीं हौसलाशिकन हालात 
में अल्लाह की तरफ से यह ख़बर उतरी कि तुम्हें हमने कौसर (खैरे कसीर) दे दिया। यानी 
हर किस्म की आलातरीन कामयाबी। कुरआन की यह पेशीनगोई बाद के सालों में कामिल 
तौर पर पूरी हुई। 

यही वादा दर्जा-ब-दर्जा पैगम्बरे इस्लाम के उम्मतियों से भी है। उनके लिए भी “खैरे 
कसीर? (परम सफलता) है बशर्ते कि वे उस ख़ालिस दीन को लेकर उठें जिस पैग॒म्बरे इस्लाम 
और आपके असहाब (साथी) लेकर उठे थे। इस खैरे कसीर का तअल्लुक दुनिया से लेकर 
आखिरत तक है, वह कभी ख़त्म होने वाला नहीं। 


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सूरह-09. अल-काफिरून 

(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
कहो कि ऐ मुंकिरो, में उनकी इबादत नहीं करूंगा जिनकी इबादत तुम करते हो। और 
न तुम उसकी इबादत करने वाले हो जिसकी इबादत में करता हूं। और में उनकी 
इबादत करने वाला नहीं जिनकी इबादत तुमने की है। और न तुम उसकी इबादत करने 
वाले हो जिसकी इबादत में करता हूं। तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन (धर्म) और मेरे लिए 
मेरा दीन। (-6) 





आयतें-6 रुकूअ-ा 





यह सूरह मक्का के आख़िरी ज़माने में उतरी। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व 
सल्लम इब्तिदा में एक अर्से तक 'ऐ मेरी कौम” के लफ्ज़ से लोगों को पुकारते रहे। मगर जब 
इतमामेहुज्जत (आह्वान की अति) के बावजूद उन्होंने न माना तो आपने 'अय्युहल काफिरून” 

(ऐ इंकार करने वालो) के लफ्ल़ से खिताब फरमाया। इस मरहले में यह फिकरा (वाक्य) 
दरअस्ल कलिमा-ए बरा-त (विरक्ति, असंबद्धता) है न कि कलिमा-ए-दावत (आह्वान)। 

मेरे लिए मेरा दीन, तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन यह दूसरों के दीन की तस्दीक नहीं। यह 
एक तरफ अपने हक पर जमे रहने का आखिरी इज्हार है। और दूसरी तरफ वह मुखातब की 
उस हालत का एलान है कि तुम अब जिद की उस आखिरी हद पर आ गए हो जहां से कोई 
शख्स कभी नहीं पलटता। 








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सूरह-।0. अन-नस्र I537 पारा 30 
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आयतें-3 सूरह-।0. अन-नस्र रुकूअ-ा 


(मदीना में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
जब अल्लाह की मदद आ जाए और फतह। और तुम देखो कि लोग खुदा के दीन में 
दाखिल हो रहे हैं फौज दर फौज। तो अपने रब की तस्वीह (गुणगान) करो उसकी हम्द 
(प्रशंसा) के साथ और उससे बड्शिश (क्षमा) मांगो, बेशक वह माफ करने वाला है। 


(I-3) 





अल्लाह की वह मदद जिसका नाम फतह है, वह हमेशा दावत (आह्वान) की राह से 
आती है। लोगों का गिरोह दर गिरोह दीने ख़ुदा के दायरे में दाखिल किया जाना, यही अल्लाह 
की सबसे बड़ी मदद है। और इसी राह से अहले दीन फतह व ग़लबे की मंजिल तक पहुंचते 
हैं। चुनांचे अल्लाह के रसूल मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के आखिरी जमाने (9-0 
हि०) में वे हालात पैदा हुए जबकि लोग बहुत बड़ी तादाद में खुदा के दीन में दाखिल हो गए। 
और इसके जरिए से फतूहात (विजये) का दरवाजा खुल गया। 

मेमिन की फतह उसके एहसासे इन (विनय) मेंइजफ करती है। वह अपने बजहिर 
सही काम पर भी खुदा से माफी मांगता है। वह बजाहिर अपनी कोशिशों से मिलने वाली 
कामयाबी को भी ख़ुदा के ख़ाने में डाल देता है। 


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पारा 30 538 सूरह-. अल-लहब 
आयतें-5 सूरह-।।. अल-लहब रुकूअना 
(मक्का में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
अबू लहब के हाथ टूट जाएं और वह बर्बाद हो जाए। न उसका माल उसके काम आया 
और न वह जो उसने कमाया। वह अनकरीब भड़कती आग में पड़ेगा। और उसकी बीवी 
भी जो ईंधन लिए फिरती हैसिर पर। उसकी गर्दन में रस्सी है बटी हुई। (-5) 


“अबू लहब' एक एतबार से एक शख्स का नाम है। और दूसरे एतबार से वह एक 
किरदार है। अबू लहब हक की दावत के उस मुख़ालिफ की तारीख़ी अलामत है जो कमीनापन 
की हद तक उसका दुश्मन बन जाए। इस किरदार से जिस तरह अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु 
अलैहि व सल्लम को साबिका पेश आया, इसी तरह आपकी उम्मत के दूसरे दाञियों को भी 
इससे साबिका पेश आ सकता है। ताहम अगर दाजी हकीकी मञनों में अल्लाह के लिए उठा 
है तो अल्लाह की मदद उसका साथ देगी। अबू लहब जैसे लोगों की मुआनिदाना (प्रतिरोधी) 
कोशिशें अल्लाह की मदद से बेअसर हो जाएंगी । अपने तमाम जराए और वसाइल के बावजूद 
वह बर्बाद होकर रहेगा। वह अपने इनाद (द्वेष) में ख़ुद जलेगा, वह ख़ुदा के दाऔ को जिस 
बुरे अंजाम तक पहुंचाना चाहता था वहीं वह ख़ुद अबदी तौर पर पहुंचा दिया जाएगा। 


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आयतें-4 सूरह-।।2. अल-इख्लास रुकूअ-झा 

(मक्का में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 


कहो वह अल्लाह एक है। अल्लाह बेनियाज (निस्पृह) है। न उसकी कोई औलाद है 
और न वह किसी की औलाद। और कोई उसके बराबर का नहीं। (-4) 








यह सूरह तौहीद (एकेश्वरवाद) की सूरह है। इसमें ख़ुदा के तसव्युर को उन तमाम 


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i a 9 4 CMAN 42708 ts x | | 4 आमेज््लिं (मिलावटों) से अलग करके पेश किया गया है जिसमें हर जमाने का इंसान मुब्तिला 


। हा 4 रे रहा है ख़ुदा कई नहीं, ख़ुदा सिर्फ एक है। सब उसके मोहताज हैं, वह किसी का मोहताज 
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& 5 DBO OS (3५ | £६] re Sie । $९५.९) (<| की, वह बजाते खुद हर चीज पर कादिर है। वह इससे बुलन्द है कि इंसानों की तरह वह 
i GAP किसी की औलाद हो या उसकी कोई औलाद हो। वह ऐसी यकता (0९ ४१० ०0।9) ल्न 


है जिसका किसी भी एतबार से कोई मिस्ल (सदृश) और बराबर नहीं। 


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-5 सूछ।।3. अलफ्लक्र रुकूअ-ा है 


(मदीना में नाजिल हुई) 
शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
कहो, में पनाह मांगता हूं सुबह के रब की। हर चीज के शर (बुराई) से जो उसने पेदा 
की। और तारीकी (अंधकार) के शर से जबकि वह छा जाए। और गिरहों (गांठों) में फूंक 
मारने वालों के शर से और हासिद (ईरष्यालु) के शर से जबकि वह हसद करे। (-5) 


अल्लाह वह है जो रात की तारीकी को फाड़कर उसके अंदर से सुबह की रोशनी 
निकालता है। यही खुदा ऐसा कर सकता है कि वह आफतों के स्याह बादल को इंसान से 
हटाए और उसे आफियत के उजाले में ले आए। 

मौजूदा दुनिया इम्तेहान की मस्लेहत के तहत बनाई गई है। इसलिए यहां खैर के साथ 
शर भी शामिल है। इस शर से बचने की तदबीर सिर्फ यह है कि आदमी उसके मुकाबले में 
अल्लाह की पनाह हासिल करे। ये शर बहुत किस्म के हैं। मसलन वह शर जो बदबातिन 
(दुष्ट) लोग रात की तारीकी में करते हैं। जादू करने वाले जो अक्सर गिरहों (गांठों) में फुंक 
मारकर जादू का अमल करते हैं। इसी तरह वे लोग जो किसी को अच्छे हाल में देखकर जलन 
में मुब्तिला हो जाएं और उसे अपनी हासिदाना कार्रवाइयों का शिकार बनाएं। मोमिन को ऐसे 
तमाम लोगों से अल्लाह की पनाह मांगनी चाहिए। और बिलाशुबह अल्लाह ही यह ताकत 
रखता है कि शर की तमाम किस्मों से इंसान को पनाह दे सके। 


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पारा 30 540 सूरह-।।4. अन-नास 
आयतें-6 सूरह-।।4. अन-नास रुकूअना 
(मदीना में नाजिल हुई) 


शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान, निहायत रहम वाला है। 
कहो, मैं पनाह मांगता हूं लोगों के रब की, लोगों के बादशाह की, लोगों के माबूद 
(पूज्य) की। उसके शर (बुराई) से जो वसवसा डाले और छुप जाए। जो लोगों के दिलों 
में वसवसा डालता है, जिन्न में से और इंसान में से। (-6) 





इंसान एक आजिज निर्बल) मख़्तूक है। उसे लाजिमी तौर पर पनाह की जरूरत है। यह 
पनाह उसे एक ख़ुदा के सिवा कोई और नहीं दे सकता। ख़ुदा ही तमाम इंसानों का रब है, 
वही लोगों का बादशाह है, वही लोगों का माबूद है। फिर उसके सिवा कौन है जो शर और 
फितने के मुकाबले में लोगों का सहारा बने। 

सबसे ज्यादा ख़तरनाक फितना जिससे इंसान को ख़ुदा की पनाह मांगनी चाहिए वह 
शैतान है। वह सबसे ज्यादा ख़तरनाक इसलिए है कि वह हमेशा अपनी अस्ल हैसियत को 
छुपाता है। और पुरफरेब तदबीरों से इंसान को बहकाता है। इसलिए शैतान के फितनों से वही 
शख्स बच सकता है जो बहुत ज्यादा बाहोश हो, जिसे अल्लाह ने वह समझ दी हो जिसके 
जरिए वह हक और नाहक मंतमीज कर सके वह समझ सके कि कौन सी बात हवीवी बात 
है और कौन सी बात वह है जो हकीकी बात नहीं। यह वसवसाअंदाजी करने वाले सिर्फ 
मअरूफ शयातीन ही नहीं हैं। इंसानों में भी ऐसे शैताननुमा लोग हैं जो मस्नूई (बनावटी) रूप 
में सामने आते हैं और पुरफेख अल्फाज के जरिए आदमी के जेहन को फेरकर उसे गुमराही 
के रास्ते पर डाल देते हैं। 

हजरत अबूजर रजि० कहते हैं कि मैं अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के 
पास आया। आप उस वक्त मस्जिद में थे। में बैठ गया। आपने फरमाया, ऐ अबूजर क्या 
तुमने नमाज पढ़ी । मैंने कहा कि नहीं। आपने फरमाया कि उठो और नमाज पढ़ो। वह कहते 
हैं कि मैं उठा और नमाज पढ़ी और फिर में आकर बैठ गया। आपने फरमाया कि ऐ अबूजर, 
जिन्न व इंसानों के शैतानों के शर से अल्लाह की पनाह मांगों । मैंने कहा कि ऐ ख़ुदा के रसूल, 
क्या इंसानों में भी शैतान होते हैं। आपने फरमाया हां। (तफ्सीर इब्ने कसीर) 

फितनों से खुदा की पनाह मांगना दोतरफा अमल है। एक तरफ वह खुदा की इनायत 
को अपने साथ शामिल करना है। और दूसरी तरफ इसका मकसद यह है कि फितनों के 
मुकाबले में अपने शुऊर को बेदार किया जाए ताकि आदमी ज्यादा बाहोश तौर पर उसका 
मुकाबला करने के काबिल हो सके। 





(दिल्ली, 9 जुलाई ।986)